Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५-१६
१. एकान्त -प्रतिपक्षी की अपेक्षा रहित बस्तु (द्रव्य) को सर्वथा एकरूप कहना व मानना एकान्तमिथ्यात्व है। जैसे—जीव सर्वथा अस्तिरूप ही है या सर्वथा नास्तिरूप ही है, सर्वथा नित्य ही है या सर्वथा क्षणिक ही है। मर्वथा नियतिरूप मानना अथवा अनिर्यात रूप ही मानना, इत्यादि । 'परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सस्वहा वयणा' अर्थात् परमतों का वचन 'सर्वथा' कहा जाने से मिथ्या है । (श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका प्रवचनसार)
२. विपरीत-जेमा वस्तुस्वरूप है उससे विपरीत मानना। जैसे- केवलज्ञान के अविभागप्रतिजलेदों में हानि-वृद्धि केवली के कवलाहार, हव्यात्री-मुक्ति, इत्यादि मान्यताएँ विपरीत-मिथ्यात्व
३. बनयिक-मात्र विनय से ही मुक्ति मानना । जैसे-मन-वचन-काय से सुर-नपति-यनिज्ञानी-वृद्ध-बाल-माता-पिता इनकी विनय करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी ।
४. संशय- ऐसा है या नहीं इनमें से किमी एक का निश्चय न करना, दोनों में ही डोलायमान रहना । जैसे- स्वर्ग-नरक ग्रादि हैं या नहीं हैं, यह सीप है या चांदी है, मनुष्य प्रादि जीवद्रव्य हैं या पुद्गल आदि अजीवद्रव्य हैं. इत्यादि संशयमिथ्यात्व है।
५. अज्ञान-'यथार्थ कोई नहीं जानता । जैसे - . 'जीब है' ऐसा कौन जानता है ? अर्थात् बोई महीं जानता, इत्यादि अज्ञानमिथ्यात्व है। अथवा मिथ्यात्व के ३६३ भेद भी हैं
असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं च तह चुलसीदो । सतसट्ठी अण्णाणी बेरणइयाणं च बत्तीसा ॥८७६॥ [गो. सा. कर्मकाण्ड]
–क्रियावादियों के १८०, प्रक्रियावादियों के ८४, अचानवादियों के ६७ और विनयवादियों के ३२ इसप्रकार मर्व मिलकर (१८०+८४+६७ + ३२) ३६३ भेद मिथ्यावादियों के होते हैं ।
मिथ्या, वितथ, व्यलोक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। 'दृष्टि' शब्द का अर्थ 'दर्शन' या श्रद्धान' है । मिथ्यात्वकर्मोदय से जिन जीवों की विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यादृष्टि होती है, वे मिथ्यादृष्टि जीव हैं।
जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति पय वावा ।
जावविया णय वादा तावदिया चेव परसमया ॥'
—जितने भी बचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (मिथ्यामत) होते हैं । (ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर बस्तु का निश्चय कराबैं तो मिथ्यादृष्टि हैं।)
'मिथ्यात्व के पाँच ही भेद हैं' ऐसा कोई नियम नहीं है, किन्तु 'मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है'
१. प्रवचनसार टीका, धवल ११८१, गो. क. ८६४, स. त. ३/४७ ।