Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया १५-१८
१८ / गो. सा. जीवकाण्ड
उत्पन्न हुआ भाव भी क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार की शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करनी चाहिए। उपचार से पूर्व करसंयत के क्षाधिकभाव मानना चाहिए ।
शङ्का - इसप्रकार सर्वत्र उपचार का आश्रय करने पर अतिप्रसंग दोष क्यों नहीं प्राप्त होगा ? समाधान - - अतिप्रसंग दोष नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंग से प्रतिप्रसंग बीष का प्रतिपेध हो जाता है ।'
गुणस्थान- प्ररूपणाधिकार
||१५ ॥
मिध्यात्व गुणस्थान का लक्षण और उसके भेद मिच्छोदरण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तन्त्रयत्थाणं । एयंतं faati विणयं संसदमा एयंत बुद्धवरिसी विवरीश्रो बह्म तावसो विरश्र । इंदोविय संसइयो सकडियो चे अभ्यारणी ।। १६ ।। रमिच्छतं वेदतो जीवो दिवरीयदसरगो होदि ।
र य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥ मिच्छाट्टी जीवो उबट्ट पवयणं सद्दहदि । सहदि प्रसन्भाव उवइट्ठ या प्रणुवइट्ठ ॥ १८ ॥
अथवा
गुस्थानातीत सिद्धों में चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा क्षायिकभाव होता है, क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न हुए क्षायिकचारित्र का सद्भाव होने से सिद्धों में भी क्षायिकभाव कहा गया है ।
इस प्रकार चतुर्दशगुगास्थानों तथा सिद्धों में भावप्ररूपणा का कथन पूर्ण हुआ ।
गाथार्थ - - मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाला तस्वार्थ का अश्रद्धान मिध्यात्व है। उसके एकान्त, विपरोल, विनय, संशयित और प्रज्ञान ये पाँच भेद हैं ||१५|| बौद्ध एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं, ब्रह्ममत वाले विपरीत मिध्यादृष्टि हैं, तापस विनय - मिथ्यान्टि हैं, इन्द्रमत वाले संशय - मिथ्यादृष्टि हैं और मस्करी प्रज्ञान - मिध्यादृष्टि हैं ||१६|| मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला होता है । जैसे पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुररस भी रुचिकर नहीं होता वैसे ही मिथ्यादृष्टि
१. घ. पु. ५ पृ. २०५-२०६ । २. ध. पु. १ पृ. १६२. प्रा. पं. सं. १०६, ल. सा. गाथा १०८ । ३. ज. व. पु. १२ पृ. ३२२, प्रा. पं. सं. १४८, ल. सा. गाथा १०६ ।