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समवायाङ्गसूत्रे भ्राम्य वामभागमानीय शिरसा संयोज्य 'हो' इति वदेत्. इत्थं प्रथमावर्तनं समाप्य 'का' 'य' इत्युक्त्वा द्वितीयम्, 'काय' इत्युत्तवा तृतीयं चावर्तनं पूर्ववत्कृत्वा 'सं. फासं' इति वदन् शिरो नमयित्वा गुरुचरणौ स्पृशेत्, प्रविशन्नेव 'खमणिज्जो भे फिलामो अप्पकिलंताणं-बहुमुमेणं भे दिवसो बइकतो?' इति वाक्येनापराधक्षमापणपूर्वकं दैसिकं मुखशातादिकं पृष्ट्वा । 'जत्ताभे' इत्युच्चार्य चतुर्थम्, 'जबणिज' इत्युच्चार्य पंचमम् 'च भे' इत्युच्चार्य षष्ठमावर्तनम् । अनयैव रीत्या द्वितीयक्षमाश्रमणदानेऽपि षडावर्तनानि, इति उभयं मिलित्वा द्वादश आवर्तनानि जब शिष्य अपने गुरु देव के चरणों को स्पर्श करता है तब इसमें तीन आवर्त हो जाते हैं, जैसे-"अहो" में से वह पहिले "अ" को बोलते समय अपने अंजलिपुट को दक्षिणभाग से घुमाकर वाम भाग में लाता है, और फिर उसे शिर से संयुक्त कर "हो" शब्द का उच्चारण करता है। इसमें प्रथम आवर्त होकर समाप्त हो जाता है १। बाद में "कायं" पद को “का” “यं" इस प्रकार भिन्नरूप से बोलकर द्वितीय आवर्त को,
और "काय" पद को समग्ररूप में बोलकर तृतीय आवर्त को पूर्ववत् करके “संफास” बोलता हुआ वह शिर को झुकाकर गुरु के चरणों को स्पर्श करता है ३। बाद में प्रवेश होते ही 'खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेणं भे दिवसो वइकंतो' इस वाक्य से अपराध क्षमापनपूर्वक दैवसिक सुखशातादिक पूछकर "जत्ता मे" ऐसा उच्चारण करके चतुर्थ आवत्त ४, "जवणिजं” बोलने में पंचम आवर्त५, “च भे” बोलने में छठवां आवर्त हो जाता है। इसी रीति से द्वितीय क्षमापणदान में भी छह आवर्त्त આ પાઠ બોલીને શિષ્ય પિતાના ગુરુદેવનાં ચરણોનો સ્પર્શ કરે છે ત્યારે તેમાં ત્રણ आपत्त थाय छे, म "अहो" भांथी पडai "अ" ने मेवाती मते पातना અંજ લિપુટને જમણી તરફથી લઈને ડાબી તરફ લઈ જાય છે, અને પછી તેને શિર સાથે સંયુકત કરીને “રો' શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરે છે. આમાં પહેલું આવર્ત સમાપ્ત થાય છે त्या२ मा "काय" पहने "का" "यं' सेभ लिन्न ३ मामाने द्वितीय मावत ने भने 'काय' ५हने सभइथे मातीने पडसानीभ शने "काय" संफासं" मोसता તે ત્રીજા આવને સમાપ્ત કરે છે. અને શિર નમાવીને ગુરૂના ચરણેને સ્પર્શ કરે छ. त्या२ ५७ी खमणिजो भे फिलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेणं भे दिवसो वरकतो" मा पायथी पराध क्षमापन पूर्व हिवस समधी सुम शाता पूछीन “जत्तामे" से या२९५ ४शन या भावत', "जवणिज" मालीन પાંચમું આવ7, “ એ બેલીને છઠું આવર્ત થાય છે. એ રીતે બીજા ક્ષમાપણ દાનમાં
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર