Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समवायानसूत्रे
इति वत्, सचाति पूर्ति गन्धि पूयरुधिरप्रवाह परिपूरितां तप्तताम्रादिकलकलायित्तां क्षारोष्णजलभृतां भयानकां विकृतदर्शनां नदीं विकृत्य नारकान् क्लिश्नाति ॥ १३ ॥ खरस्वरः सचीत्कारमुच्चैराक्रोशतो नारकास्तीक्ष्णवज्रकण्टकाकीर्णेषु शाल्मस्यादि प्रांशुवृक्षेषु समारोप्याकर्षति, शिरस्सु क्रकचं निधाय विदारयति, परशुभिर्वा खण्डयति ||१५|| महाघोषः अयं परमपीडोत्पत्तिभीतान् मृगानिवेतस्ततः पलायमानान् नारकान् घोरगर्जनां कुर्वन् वाटकं (वज्र ) पशुनिव नरकावासमरुद्ध ||१५|| एते पञ्चदश परमाधार्मिका आख्याताः । नमिः खलु अन्
नामक परमाधार्मिक असुर अत्यंत दुर्गंधित पीप, रुधिर, के प्रवाह से भरी हुई वैतरणी नामकी नदी को अपनी विक्रिया से विकुर्वित करके नारकियों को दुःखित करता रहता है । यह बडी भयंकर होती है। इस में जो जल भरा होता है वह खारा होता है तथा पिघल कर चुरते हुए त्रपु ताम्र के जैसा उष्ण होता है। देखने में यह बडो घृणित्त मालूम देती है १३ | चौदहवां खरस्वर नामका जो परमाधार्मिक देव है वह चीत्कार पूर्वक जोर २ से रोते हुए नारकियों को तीक्ष्ण वज्र कंटको से आकीर्ण शाल्मली आदि ऊँचे २ वृक्षों पर आरोपितकर खेचता है। फिर उनके मस्तक पर करोत रखकर उन्हें चीरता है । अथवा कुल्हाडों द्वारा उन्हें काटता है १४ | महाघोष नामका परमाधार्मिक असुर अतिशय पीडा की उत्पत्ति से भयभीत बने हुए नारकियों कि जो मृगों की तरह इधर उधर भागते फिरते हैं घोर गर्जना करता हुआ पशुओं की तरह नरकावास में रोक देता
(१२) तेरभे । “वैतरिणी” नामनो परमाधार्मिक असुर अत्यंत दुर्गंधयुक्त परु तथा લેાહીથી ભરેલી વૈતરણી નામની નદી પેાતાની વિક્રિયાથી રચીને નારકીઓને દુઃખી કરે છે તે નદી ઘણી ભયંકર હાય છે, તેમાં જે પાણી હોય છે તે ખારૂ હોય છે, તથા એમાબેલા તામ્રરસ જેવુ ગરમ હોય છે. તેના દેખાવ ધૃણાજનક હોય છે. [૧૩] ચૌદમા "खरस्वर" नामनो ने परमाधार्मिक असुर छे. ते थीसो पाडीने भेोटेथी रडतां नारीઆને તીક્ષ્ણ વજ્ર કટકાથી છવાયેલ શલ્મિલી આદિ ઊંચાં ઊંચા વૃક્ષેા પર લટકાવીને ખેંચે છે, અને તેમનાં મસ્તક પર કરવત મૂકીને તેમને ચીરે છે, અથવા કુહાડીએ वडे तेमने आये छे (१४) परमेा " महाघोष" नामनो परमाधार्मिक असुर, અતિશય પીડા થવાથી ભયભીત બનીને હરણાઓની જેમ આમ તેમ ભાગતા નારકીઓને, ઘાર ગના કરીને પુથુએની જેમ નરકાવાસમાં રોકી રાખે છે. (૧૫).
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર