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भावबोधिनी टीका. द्वादशाजविराधनाऽऽराधनाजनितफलनिरूपणम् ८८१ णानि-अनंत कारण, (अणंता अकारणा) अनन्तानि अकारणानि-अनंत अका. रण, (अणंता जीवा) अनन्ताः जीवाः-अनंत जीव, (अणंता अजीवा)अनन्ताः अजीवा-अनंत अजीव, (अणंता-भवसिद्धिया) अनन्ता भवसिद्धिकाःअनंत भवसिद्धिक, (अणंना अभवसिद्धिया) अनन्ता अभवसिद्धिका-अनंत अभवसिद्धिक, (अणता सिद्धा) अनन्ताः सिद्धाः-अनन्त सिद्ध (अणता असिद्धा) अनन्ता असिद्धाश्च-अनंत असिद्ध (आघविजति) आख्यायन्तेसामान्य से प्रतिपादित किये गये हैं (पण्णविज्जति) प्रज्ञाप्यन्ते-विशेष रूप से प्रज्ञापित किये गये है (परूविज्जति) प्ररूप्यन्ते-प्ररूपित किये गये हैं (दसिज्जंति) दय॑न्ते-उपमान उपमेय भाव आदि से उनका कथन किया गया है। (निदंसिज्जति) निदश्यन्ते-दूसरे जीवों की दया से अथवा भव्यजनों के कल्याण की अपेक्षा से पुनः पुनः इन्हें दिखलाया गया है (उवदंसिसंति) उपनय और निगमन इन दोनों को अथवा समस्तनयों के
अभिप्राय को लेकर इन्हें इस प्रकार से शिष्यजन की बुद्धि में व्यवस्थापित कर दिया है कि जिससे उन्हें इनके विषय में किसी भी प्रकार का संदेह न हो सके। (एवं दुवालसंग गणि पिडगं) एवं द्वादशाङ्गं गणिपिटकइस प्रकार के स्वरूपवाला यह गणिपिटकरूप द्वादशांग है ॥सू० १८५।। अनन्तानि कारणानि-मन त ४१२६ ,(अणंता अकारणा) अनन्तानि अकारणानिमनात मा४२। (अणंता जीवा, अणंता अजीवा)अनन्ताः जीवाः, अनन्ताः अजीवा:-मन वो, मन त मा , (अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया) अनन्ता भवसिद्धिकाः, अनन्ता अभवसिद्धिका:-मनात लप. सिद्धिी, मनात लपसिद्धिी, (अणंता सिद्धा, अणंता असिद्धा) अनन्ताः सिद्धाः, अनन्ता असिद्धाश्च-मनत सिद्धो भने मन मसिद्धीनु (आघविज्जति) आख्यायन्ते-सामान्य शत प्रतिपादन यु छे. (पण्णविजंति) प्रज्ञाप्यन्ते-विशेष३थे प्रज्ञापन ४२।यु छ, (परूविजंति) प्ररूप्यन्ते-५३५५) थ छे, (दंसिर्जति) दश्यन्ते-५मान अ५भेय ना थी ४थन थथु छ, (निदसिज्जति) नियन्ते-मन्य योनी प्याथी अथवा मयाना त्यानी सापनाथा ॥ शने तेभने। Gोम थये। छ, (उवदंसिज्जंति) उपदय॑न्तेઉપનય અને નિગમન, એ બને નયે અથવા સમસ્ત નયના અભિપ્રાય અનુસાર તેમને શિષ્યની બુદ્ધિમાં એવી રીતે ઉતારવામાં આવ્યા છે કે જેથી તેમના મનમાં
। ५५ तना संशय अ५४।२१ १ २ न. (एवं दुवालसंग गणिपिडगं) एवं द्वादशाङ्गं गणिपिटक-- पि४४३५ ६ind मा ४२२१३५ छ.१५१८५।
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર