Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
૬૮૪
समवायाङ्गसूत्रे विशेष रूप से कहे गये हैं। (पण्णविनंति) प्रज्ञाप्यन्ते-प्रज्ञप्त हुए हैं, (परूविज्जंति) प्ररूप्यन्ते-प्ररूपित हुए हैं, (दंसिज्जंति) दयन्ते-दर्शित हुए हैं, (निदंसिज्जंति] निदयन्ते-निदर्शित हुए हैं (उवदंसिज्जंति) उपदयन्तेउपदर्शित हुए हैं। इन सब पदों का अर्थ आचारांग के स्वरूप निरूपण में लिखा जा चुका है। (से एवं आया, एवं णाया एवंविण्णाया) स एवमात्मा' एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता-इस सूत्रकृतांग का अध्ययन करने वाला इसमें कहे हुए आचारों का यथावत् पालन करने से आत्मस्वरूप हो जाता है, वह ज्ञाता हो जाता है और विज्ञाता हो जाता है। (एवंचरणकरणपरूवणा आपविज्जइ. पण्णविजइ परूविज्जइ, दंसिज्जइ निदसिज्जइ वउदंसिज्जइ से तं सूयगडे) एवं चरणकरणप्ररूपणा आख्यायते, प्रज्ञाप्यते,प्ररूप्यते, दयते, निदश्यते, उपदश्यते-तदेतत् मूकृतम्-इसप्रकार इस अंग में चरणप्ररूपणा और करण प्ररूपणा आख्यात हुए हैं, प्ररूपित हुए हैं, दर्शित-हुए हैं, निदर्शित हुए हैं। इन क्रियापदों का विशिष्ट अर्थ आचारांग की व्याख्या में लिखा जा चुका है। इस प्रकार से सूत्रकृतांग का यह स्वरूप जानना चाहिये ॥सू० १७५॥ लाप सामान्य तथा विशेष३ ४ामा मावेस छे, (पण्णविज्जति) प्रज्ञाप्यन्तेप्रज्ञा या छ, (परूविज्जति)प्ररूप्यन्ते-३पित थया छे, (दसिज्जति)दर्यन्तेविमा मा०या छ, (निदंसिज्जंति निदयन्ते-
निश ४२राये। छ,(उवदसिज्जंति) उपदयन्ते-पहशित या छ. ५२।४ सपा पाने! मायागना २१. ३५ नि३५शुभा मा गये। 2. (से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया) स एवमात्मा, एवंज्ञाता एवं विज्ञाता-या सूत्रतinनु मययन ५२ना२ तभ કહેલ અચાનું ચગ્ય રીતે પાલન કરીને આત્મસ્વરૂપ બની જાય છે, તે જ્ઞાતા मन विज्ञात 25 ofय छे. (एवं चरणकरणप्रख्वणा आघविज्जइ, पण्णविजइ, परूविज्जइ, दंसिज्जइ, निदसिजइ, उवदंसिजइ से तं सूयगडे) एवं चरण करणप्ररूपणा आस्यायते, प्रज्ञाप्यते. प्ररूप्थते, दर्यते, निदर्यते, उपदश्यते तदेतत् सूत्रकृतम्-॥ प्रमाणे 20 मा २२५५३५९॥ भने ४२४५३५०।। આખ્યાત થયેલ છે. પ્રજ્ઞપ્ત થયેલ છે, પ્રરૂપિત થયેલ છે, દર્શિત થયેલ છે, અને નિર્દેશિત થયેલ છે. આ ક્રિયાપદને વિશિષ્ટ અર્થ આચારાંગની વ્યાખ્યામાં લખવામાં આવી ગયું છે. સૂત્રકૃતાંગનું આ પ્રમાણનું સ્વરૂપ સમજવાનું છે. સૂ. ૧૭૫
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર