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सूक्ति त्रिवेणी
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सूक्ति त्रिवेणी
( जैन, बौद्ध एवं वैदिक वाडमय की चुनी हुई सूक्तियां)
उपाध्याय अमरमुनि
सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा-२
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सन्मति साहित्य रत्नमाला का ६६ वा ग्रन्थ रत्न
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पुस्तक । मूक्ति त्रिवेणी
सम्पादक उपाध्याय अमरमुनि
विपय
जैन, बौद्ध, वैदिक वाइ मय की सूक्तिया
पुस्तक पृष्ठ तीन खण्ड के कुल पृष्ठ ७८६
प्रकाशक सन्मति जान पीठ, लोहामटी आगरा-२
प्रथम प्रकाशन अक्टूबर १९६८
मूल्य साधारण संस्करण १२) पुस्तकालय सस्करण १६)
मुद्रक
श्री विष्णु प्रिन्टिङ्ग प्रेस, आगरा-२
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सूक्ति त्रिवेणी । _ विद्वानों का अभिमत
राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली-४
दिनाक :-२६ अगस्त, १९६८ इन्सान फितरतन आज़ाद मनिश होता है। किसी किस्म की पाबन्दी या रोक-टोक उसकी इस आजादी मे रुकावट समझी जाती है। लेकिन समाजहित और अनुशासन के लिये यह जरूरी है कि कुछ ऐसे नियम निर्धारित हो, जो समाज को जगल के कानून का शिकार न होने दें। यही वह नियम है, जो दुनियाँ के भिन्न-भिन्न धर्मों की आधार शिला है, स्वाह वह हिन्दुआ का धर्म हो या किसी और का । हकीकत तो यह है कि दुनियां का हर मजहब एखलाकी कदरो का एक मखजन है । उपाध्याय अमर मुनि की यह रचना इन्ही नियमो और उपदेशो का सग्रह है, जिसमे जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म के चुने हुए उपदेशो का संग्रह एक पुस्तक के रूप मे जन-साधारण की भलाई के लिये प्रका. शित किया गया है। मुझे विश्वास है कि अगर लोग इस किताब को पढे गे
और इसमे दिये हुए इन उसूलो पर अमल करेंगे तो वह केवल अपने मजहब के लोगो के जीवन ही को नही, बल्कि अपने आस-पास के लोगो के जीवन को भी सुखमय और शान्तिपूर्ण बना सकेंगे । मैं आशा करता हूँ कि मुनि जी की रचना का लोग ध्यान से अध्ययन करेंगे और इच्छित लाभ उठा सकेगे।
-जाकिर हुसैन (राष्ट्रपति-भारत गणराज्य)
VICE PRESIDENT
INDIA NEW DELHI August 26, 1968
I am glad, the publication in Hindi entitled 'Sooktı Triveni' written by Shri.Upadhyay Amarmuni represents an anthology of lofty thoughts and sublime ideals enshrined in the sacred
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scriptures of our ancient religious faiths-Buddhism, Hinduism and Jainism Our sacred soil is renowned for the confluence of cultures and ennobling stream of precepts and teachings conceived, enunciated and propagated by our illustrious savantsaints and seers, right from Lord Krishna to Vyasa, Manu, Lord Buddha-the Enlighted One-10 Mahavir, and Mahatma Gandhu By delving deep into this realm of spiritual knowledge and learning and culling the pearls of wisdom, Upadhyay Amarmuni has made a commendable effurt for weaving them into a *nechlace of resplendent thoughts' If the gems of thoughts embodied in the 'Sooktı Triveni' can serve as beacon-light to the readers and 10 equipping them to visualise the spiritual enlightenment, unsullied devotion and unity of mankind which all the three religious faiths rightly lay accent on, the author will have rendered a signal service to the country
V. V. Giri (Vice-President)
'सूक्ति त्रिवेणी' श्री उपाध्याय अमर मुनि की कृति है, अमर मुनि जी अपनी विद्वत्ता के लिये प्रसिद्ध हैं।
पुस्तक मे जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य के सर्व मान्य ग्रन्थो से सुन्दर सग्रह किया गया है।
__ भारतवर्ष का यह काल निर्माण का समय है, परन्तु यह खेद की बात है कि यह निर्माण एकागो हो रहा है। हमारी दृष्टि केवल भौतिकता की ओर है । हमारे निर्माण मे जब तक आध्यात्मिकता नही आयेगी, तब तक यह निर्माण सागोपाग और पूर्ण नहीं हो सकता । यह अथ इस दिशा में अच्छी प्रेरणा देता है।
-(सेठ) गोविन्ददास
ससद सदस्य (अध्यक्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन)
'सनिधि' राजघाट,
नई दिल्ली-१ सिन दिनो में भारत में सब जगह जाकर लोगो को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि भारतीय सस्कृति को हमे प्राणवान बनाकर विश्व की सेवा के
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योग्य बनाना हो तो हमे अव समन्वय-नीति को स्वीकार करना ही होगा । समन्वय नोति ही आज का युगधर्म है ।
भारत मे तीन दर्शनो की प्रधानता है । सनातनी संस्कृति के तीन दर्शनो का प्रभुत्व है (१) वैदिक अथवा श्रति स्मृति पुराणोक्त-दर्शन ( २ ) जैन दर्शन (३) और बौद्ध दर्शन । अिन तीनो दर्शनो ने भक्तियोग को कुछ न कुछ स्वीकार किया है । ये सब मिलकर भारतीय जीवन-दर्शन होता है ।
जिसी युगानुकूल नीति का स्वीकार जैन मुनि उपाध्याय अमर मुनि ने पूरे हृदय से किया है | और अभी-अभी उन्होने अिन तीनो दर्शनो मे से महत्व के और सुन्दर सुभाषित चुनकर 'सूक्ति त्रिवेणी तैयार की है। अमर मुनि जी ने आज तक बहुत महत्व का साहित्य दिया है, उस मे यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्व की वृद्धि कर रहा है । तुलनात्मक अध्ययन से दृष्टि विशाल होती है और तत्व-निष्ठा दृढ होती है । 'सूक्ति त्रिवेणी' ग्रथ यह काम पूरी योग्यता से सम्पन्न करेगा ।
मैं संस्कृति उपासको को पूरे आग्रह से प्रार्थना करूंगा कि समय-समय पर जिस त्रिवेणी मे डुबकी लगाकर सास्कृतिक पुण्य का अर्जन करे ।
श्री अमर मुनिजी से भी मैं प्रार्थना करूंगा कि अिस ग्रथ के रूप मे हिन्दी विभाग को उस की भाषा सामान्यजनसुलभ बनाकर अलग ग्रंथ के रूप मे प्रकाशित करें। ताकि भारत की विशाल जनता भी जिससे पूरा लाभ उठावे । ऐसे सुलभ हिन्दी सस्करणो से पाठको को मूल सूक्ति त्रिवेणी की ओर जाने की स्वाभाविक प्रेरणा होगी। मैं फिर से अिस युगानुकूल प्रवृत्ति का और उसके प्रवर्तको का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ ।
• काका कालेलकर
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सूक्ति त्रिवेणी के प्रकाशन पर मुझे प्रसन्नता है, यह एक सुन्दर पुस्तक है, इससे समाज को लाभ पहुँचेगा और राष्ट्र को सास्कृतिक एकता
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को वढावा मिलेगा, इस दिशा मे आपका कार्य सराहनीय है, आप मेरी ओर से बधाई स्वीकार कीजिए ।
- दौलतसिंह कोठारी अध्यक्ष -- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली
वह
कवि श्री जी महाराज ने सतत परिश्रम एव विशाल अध्ययन के आधार पर 'सूक्ति त्रिवेणी' का जो सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण सकलन प्रस्तुत किया है, वर्तमान समय का अद्वितीय ग्रन्थ कहा जा सकता है ।
इससे लेखक, प्रवक्ता, सगोधक, जिज्ञासु स्वाध्याय प्रेमी आदि सभी को लाभ प्राप्त होगा । इस ग्रन्थरत्न का हार्दिक अभिनन्दन !
- श्राचार्य श्री आनद ऋषि जी महाराज
उपाध्याय कवि अमर मुनि के वहिरंग से ही नहीं, अन्तरंग से भी मैं परिचित हूँ । उनकी दृष्टि उदार है और वे समन्वय के समर्थक हैं । 'सूक्ति त्रिवेणी' उनके उदार और समन्वयात्मक दृष्टिकोण का मूर्तरूप है | इसमे भारतीय धर्मदर्शन की त्रिवेणी का तटस्थ प्रवाह है । यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई कि इसमे हर युग को चिंतन धारा का अविरल समावेश है । यह सत्प्रयत्न मूरि-भूरि अनुमोदनीय है ।
तेरापथी भवन,
- प्राचार्य तुलसी
मद्रास
सत्य असीम है । जो असीम होता है, वह किसी भी सीमा मे आवद्ध नही होता । सत्य न तो भाषा की सीमा मे आवद्ध है और न सम्प्रदाय की सीमा मे । वह देश, काल की सीमा मे भी आवद्ध नही है । इस अनावद्धता को अभि यक्ति देना अनुमन्धित्सु का काम है ।
उपाध्याय कवि अमर मुनि सत्य के अनुसन्धित्सु हैं । उन्होने भाषा और मम्प्रदाय की सीमा से परे भी सत्य को देखा है । उनकी दिक्षा इस 'सूक्ति त्रिवेणी' में प्रतिविम्वित हुई है ।
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कवि श्री ने सूक्ष्म के प्रति समदृष्टि का वरण कर अनाग्रहभाव से भारत के तीनो प्रमुख धर्म-दर्शनो (जैन, वौद्ध और वैदिक) के हृदय का एकीकरण किया है । कवि श्री जैसे मेघावी लेखक हैं, वैसे ही मेधावी चयनकार भी है । सत्य - जिज्ञासा को सम्पूर्ति, समन्वय और भारतीय आत्मा का सवोध इन तीनो दृष्टियों से प्रस्तुत ग्रंथ पठनीय वना है । आचार्य श्री ने भी उक्त दृष्टियो से इसे बहुत पसन्द किया है । मैं आशा करता हूँ कि कवि श्री को प्रबुद्ध लेखनी से और भी अनेक विन्यास प्रस्तुत होते रहेंगे ।
- मुनि नथमल
तेरापंथी भवन,
मद्रास
'सूक्ति त्रिवेणी' देखकर प्रसन्नता हुई । हमारे देश मे प्राचीन भाषाओ का अध्ययन धर्म के साथ लगा हुआ है, इससे उसके अध्ययन के विभाग अलग-अलग रखे गये हैं और विद्यार्थियो को तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश मिलता नही । आपने मागधी, अर्धमागधी, पालि और संस्कृत सबको साथ करके यह संग्रह किया है, वह वहुत अच्छा हुआ । तुलनात्मक अध्ययन के लिये सुविधा होगी ।
इससे
- प्रबोध बेचरदास पंडित ( दिल्ली विश्वविद्यालय)
हमारे देश मे प्राचीन काल से ही सर्व धर्म समभाव की परम्परा रही है । अपने अपने धर्म में आस्था और विश्वास रखते हुए भी दूसरे धर्मों के प्रति पूज्य भाव रखने को ही आज धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है । पूज्य उपाध्याय अमर मुनि ने जैन, बौद्ध और वैदिक धाराओ के सुभाषितो को एक प्रथ मे सग्रहीत करके उस महान परम्परा को आगे बढाया है । सूक्ति त्रिवेणी ग्रथ के प्रकाशन का मै स्वागत करता हूँ और आशा करता हूँ कि बुद्धिजीवियो और अध्यात्म जिज्ञासुओ को यह प्रेरणा प्रदान करेगा ।
- अक्षयकुमार जैन सपादक • नवभारत टाइम्स, दिल्ली - बम्बई
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प्रकाशकीय
चिर अभिलषित, चिर प्रतीक्षित सूक्तित्रिवेणी का सुन्दर एव महत्वपूर्ण सकलन अपने प्रिय पाठको के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हम अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
जैन जगत् के बहुश्रु त मनीषी उपाध्याय श्री अमर मुनि जी महाराज की चिन्तन एव गवेपणापूर्ण दृष्टि से वर्तमान का जैन समाज ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति और दर्शन का प्राय प्रत्येक प्रबुद्ध जिज्ञासु प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष रूप से सुपरिचित है।
निरन्तर बढती जाती वृद्धावस्था, साथ ही अस्वस्थता के कारण उनका शरीरवल क्षीण हो रहा है, किन्तु जव प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन मे वे आठ-आठ दस-दस घण्टा सतत सलग्न रहे है, पुस्तको के ढेर के बीच खोए रहे हैं, तब लगा कि उपाध्याय श्री जी अभी युवा हैं, उनकी साहित्य-श्रु त-साधना अभी भी वैसी ही तीव्र है, जैसी कि निशीथभाष्य-चूणि के सम्पादनकाल मे देखी गई थी।
'मूक्ति त्रिवेणी' सूक्ति और सभापितो के क्षेत्र में अपने साथ एक नवीन युग का शुभारम्भ लेकर आ रही है । प्राचीनतम सम्पूर्ण भारतीय वाड मय मे मे इस प्रकार के तुलनात्मक एव अनुशीलनपूर्ण मौलिक सूक्तिसग्रह का अब तक के भारतीय साहित्य मे प्राय अभाव-सा ही था। प्रस्तुत पुस्तक के द्वारा उम अभाव की पूर्ति के साथ ही सूक्तिसाहित्य में एक नई दृष्टि और नई शैली का प्रारम्भ भी हो रहा है।
इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन एक ऐसे शुभ अवसर के उपलक्ष्य में हो रहा है, जो समग्र भारतीय जनसमाज के लिए गौरवपूर्ण अवसर है। श्रमण भगवान महावीर की पच्चीम-सी वी निर्वाण तिथि मनाने के सामूहिक प्रयत्न वामान में बड़ी तीव्रता के माय चल रहे है। विविध प्रकार के साहित्यप्रनाशन की योजनाएं भी बन रही हैं । सन्मति जान पीठ अपनी विशुद्ध
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परम्परा के अनुरूप इस प्रकार के सास्कृतिक प्रकाशनो की दिशा मे प्रारम्भ से ही सचेप्ट रहा है, तथा वर्तमान के इस पुनीत अवसर पर वह और भी अधिक तीव्रता के साथ सक्रिय है। सूक्ति त्रिवेणी का यह महत्त्वपूर्ण प्रकाशन इस अवसर पर हमारा पहला श्रद्धास्निग्ध उपहार है।
सूक्तित्रिवेणी की तीनो धाराएं सयुक्त जिल्द मे काफी बड़ी हो गई है। मत पाठको की विभिन्न रुचि एव सुविधा को ध्यान में रखते हुए सयुक्त रूप मे, तथा इसे अलग-अलग खण्डो मे भी प्रकाशित किया गया है।
तीनो धारामा की विषयानुक्रमणिका भी परिशिष्ट मे दे दी गई है, जिससे पाठको को विपयवार सूक्तियां देखने में सरलता व सुविधा रहेगी।
हमे प्रसन्नता है कि 'सूक्ति त्रिवेणी' की जितनी उपयोगिता अनुभव की जा रही थी, उससे भी कही अधिक आशाप्रद और उत्साहजनक मत-सम्मत हमे स्वत ही सव ओर से प्राप्त हो रहे हैं ।
-मंत्री सन्मति ज्ञान पीठ
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प्राक्कथन
भारतीय संस्कृति का स्वरूपदर्शन करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारतवर्ष में प्रचलित और प्रतिष्ठित विभिन्न सस्कृतियो का समन्वयात्मक दृष्टि से अध्ययन हो । भारतवर्ष की प्रत्येक सस्कृति की अपनी एक विशिष्ट धारा है। वह उसी सस्कृति के विशिष्ट रूप का प्रकाशक है । यह बात सत्य है, परन्तु यह बात भी सत्य है कि उन सस्कृतियो का एक समन्वयात्मक रूप भी है। जिसको उन सब विशिष्ट स-कृतियो का समन्वित रूप माना जा सकता है, वही यथार्थ भारतीय संस्कृति है। प्रत्येक क्षेत्र मे जो समन्वयात्मक रूप है, उसका अनुशीलन ही भारतीय संस्कृति का अनुशीलन है । गगा-जमुना तथा सरस्वती इन तीन नदियो को पृथक् सत्ता और माहात्म्य रहने पर भी इनके परस्पर सयोग से जो त्रिवेणीसगम की अभिव्यक्ति होती है, उसका माहात्म्य और भी अधिक है।
वर्तमान ग्रथ के सकलनकर्ता परमश्रद्धेय उपाध्याय अमर मुनि जी श्वेताम्बर जैन परम्परा के सुविख्यात महात्मा हैं । वे जैन होने पर भी विभिन्न सास्कृतिक धाराओ के प्रति समरूपेण श्रद्धासम्पन्न है। वैदिक, जैन तथा वौद्ध वाड मय के प्राय पचास ग्रथो से उन्होने चार हजार सूक्तियो का चयन किया है और साथ ही साथ उन सूक्तियो का हिन्दी अनुवाद भी सन्निविष्ट किया है।
तोन धाराओ के सम्मेलन से उद्भूत यह सूक्ति-त्रिवेणी सचमुच भारतीय सस्कृति के प्रेमियो के लिए एक महनीय तथा पावन तीर्थ बनेगी।
किमो देश की यथार्थ सस्कृति उसके बहिरग के ऊपर निर्भर नहीं करती है । अपितु न्यक्ति की मस्कृति नैतिक उच्च आदर्श, चित्तशुद्धि, सयम, जीवसेवा, परोपकार तथा सर्वभूतहित-साधन की इच्छा, सतोप, दया, चरित्रवल, स्वधर्म में निष्ठा, परवर्म-सहिप्णता, मैत्री, करुणा. प्रेम, सद्विचार प्रभृति मद्गुणो का विकास और काम, क्रोधादि रिपुओ के नियन्त्रण के ऊपर निर्भर करती है । व्यक्तिगत धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जीवसेवा, विश्व
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कल्याण प्रभृति गुण आदर्श संस्कृति के अग है । नैतिक, आध्यात्मिक तथा दिव्य जीवन का आदर्श ही संस्कृति का प्राण है ।
"ज्ञाने मोनं, क्षमा शक्ती, त्यागे श्लाघाविपर्यय इत्यादि आदर्श उच्च संस्कृति के द्योतक है । जिस प्रकार व्यष्टि मे है, उसी प्रकार समष्टि मे भी समझना चाहिए |
"
संकलनकर्ता ने वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, प्रभृति ग्रन्थो से सकलन किया है । जैन धारा मे आचाराग सूत्र, सूत्रकृतागसूत्र, स्थानागसूत्र, भगवतीसूत्र, दशवेकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र और आचार्य भद्रबाहु के तथा आचार्य कुन्दकुन्द के वचनो से तथा भाप्य साहित्य, चूणि साहित्य से सूक्तियो का सचयन किया है । वौद्ध धारा मे सुत्तपिटक, दीर्घनिकाय, मज्झिमनिकाय, सयुक्तनिकाय, गुत्तरनिकाय, धम्मपद, उदान, इतिवृत्तक, सुत्तनिपात, थेरगाथा, जातक, विशुद्धिमग्गो प्रभृति ग्रन्यो से सग्रह किया है ।
देश को वर्तमान परिस्थिति मे इस प्रकार की समन्वयात्मक दृष्टि का व्यापक प्रसार जनता के भीतर होना आवश्यक है । इससे चित्त का सकोच दूर हो जाता है । मैं आशा करता हूँ कि श्रद्धेय ग्रन्थकार का महान् उद्देश्य पूर्ण होगा और देशव्यापी क्लेगप्रद भेदभाव के भीतर अभेददृष्टिस्वरूप अमृत का संचार होगा । इस प्रकार के ग्रंथो का जितना अधिक प्रचार हो, उतना ही देश का कल्याण होगा ।
- गोपीनाथ कविराज पद्मविभूषण, महामहोपाध्याय ( वाराणसी )
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सम्पादकीय
अर्थगौरवमडित एक सुभापित वचन कभी-कभी हजार ग्रन्यो से भी अधिक मूल्यवान सिद्ध होता है । हृदय की तीव्र अनुभूतियाँ, चिन्तन के वेग से उत्प्रेरित होकर, जब वाणी द्वारा व्यक्त होती हैं तो उनमे एक विचित्र तेज, तीक्ष्ण प्रभावशीलता एव किसी अटल सत्य की चमत्कारपूर्ण व्यजना छिपी रहती है । इसीलिए सुभाषित वचन को कभी-कभी मधु से आपूरित मधुमक्षिका के तीक्ष्ण दश से उपमित किया जाता है।
भारतीय तत्वचिन्तन एव जीवनदर्शन की अनन्त ज्ञानराशि छोटे-छोटे सुभापितो मे इस प्रकार सन्निहित है, जिस प्रकार कि छोटे-छोटे सुमनो मे उद्यान का सौरभमय वैभव छिपा रहता है। सौरभग्निग्ध-सुमन की भाति ज्ञानानुभूति-मडित सुभापित सपूर्ण वाड मय का प्रतिनिधिरुप होता है, इसलिए वह मन को मधुर, मोहक एव प्रिय लगता है । ___साहित्य एव काव्य की सहज सुरुचि रखने के कारण भारतीय वाह मय के अध्ययन-अध्यापन काल में जब कभी कोई सुभापितवचन, सूक्त आता है, तो वह अनायास ही मेरी स्मृतियो मे छा जाता है, वाणी पर स्थिर हो जाता है। प्रारम्भ मे मेरे समक्ष सूक्तिसकलन की कोई निश्चित परिकल्पना न होने पर भी हजारो सूक्त मेरे स्मृति-कोष मे समाविष्ट होते रहे और उनमे से वहुत से तो स्मृतिमच से उतरकर छोटी-छोटी पचियो व कापियो मे आज भी सुरक्षित रखे हुए हैं।
लगभग दो दशक पूर्व पं० वेचरदास जी दोशी के साथ 'महावीर वाणी' के सकलन एव सपादन मे सहकार्य किया था। तभी मेरे समक्ष एक व्यापक परिकल्पना थी कि भारतीय धर्मों की त्रिवेणी~जैन, बौद्ध एवं वैदिक धारा, जो वस्तुत एक अखण्ड अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित है, उसके मौलिक दर्शन एव जीवनस्पर्शी चिन्तन के सारभूत उदात्त वचनो को एक साथ सुनियोजित करना चाहिए।
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मेरा यह दृढ विश्वास है कि समस्त भारतीय चिन्तन का उत्स एक है और वह है अव्यात्म | जीवन की परम नि श्रेयस् साधना ही भारतीय दर्शन का साधना पक्ष है। विभिन्न धाराओ मे उसके रूप विभिन्न हो सकते हैं, हुए भी है, किन्तु फिर भी मेरे जैसा अभेदप्रिय व्यक्ति उन भेदो मे कभी गुमराह नहीं हो सका। अनेकत्व मे एकत्व का दर्शन, भेद मे अभेद का अनुसधानयही तो वह मूल कारण है, जो सूक्ति त्रिवेणी के इस विशाल सकलन के लिए मुझे कुछ वर्षों से प्रेरित करता रहा और अस्वस्थ होते हुए भी मैं इस आकर्पण को गौण नहीं कर सका और इम भगीरथ कार्य मे सलग्न हो गया।
७ जनधारा
भारतीय वाड मय की तीनो धाराओ का एकत्र सार-सग्रह करने की दृष्टि से मैंने प्रथमतर जैन धारा का सकलन प्रारम्भ किया । आप जानते हैं, मैं एक जैन मुनि हूँ, अतः सहज ही जन धारा का सीधा दायित्व मुझ पर आगया। __इस सकलन के समय मेरे समक्ष दो दृष्टियां रही हैं । पहली-मैं यह देख रहा हूँ कि अनेक विद्वान, लेखक एव प्रवक्ताओ की यह शिकायत है कि जैन साहित्य इतना समृद्ध होते हुए भी उसके सुभाषित वचनो का ऐसा कोई सकलन आज तक नही हुआ, जो धार्मिक एव नैतिक विचार दर्शन की स्पष्ट सामग्री से परिपूर्ण हो। कुछ सकलन हुए हैं, पर उनकी सीमा आगमो से आगे नही वढी । मेरे मन मे, मून आगम साहित्य के साथ-साथ प्रकीर्णक, नियुक्ति, चूणि, भाप्य, आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र आदि प्राकृत भाषा के मूर्धन्य रचनाकारो के सुभाषित सग्रह की भी एक भावना थी । इसी भावना • के अनुसार जब मैं जैन धारा के विशाल साहित्य का परिशीलन करने लगा, तो अन्य की आकारवृद्धि का भय सामने खडा हो गया। आज के पाठक की समस्या यही है कि वह सुन्दर भी चाहता है, साथ ही सक्षेप भी । सक्षिप्तीकरण की इस वृत्ति से और कुछ बीच-बीच मे स्वास्थ्य अधिक गडवडा जाने के कारण भाप्य-साहित्य की सूक्तियो के वाद तो बहुत ही सक्षिप्त शैली से चलना पडा । समयाभाव तथा अस्वस्थता के कारण दिगम्बर परम्परा की कुछ महत्त्वपूर्ण प्रथराशि एव समदर्शी आचार्य - हरिभद्र की अनेक मौलिक दिव्य' र 'नाएं' किनारे छोड देनी पड़ी। भविष्य ने चाहा तो उसकी पूर्ति दूसरे संस्करण मे हो सकेगी।
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के अश तक ही आकर रुक गए, कुछ उपनिषद् के तत्वज्ञान तक हो सीमित रह गए और कुछ महाभारत और गीता की सूक्तियो मे ही आकण्ठ निमग्न हो गए । स्थिति यह है कि वेदो के चिन्तन मनन को पुनीत धारा, जो ब्राह्मण, आरण्यक एव उपनिषद् के रमणीय परिपार्श्वो को छूती हुई महाभारत एव गोता मे प्रकट हुई है, उसके समग्र दर्शन तथा मौलिक चिन्तन पर प्रकाश विकीर्ण करने वाला कोई एक उपयुक्त सग्रह मेरी दृष्टि मे नही आया । इसीनिए तृप्ति चाहने वाला मन और अधिक अतृप्त हो उठा, बस, यही अतृप्ति इस सूक्ति संकलन मे मुख्य प्रेरक रही है । मैंने प्रयत्न यही किया है कि मूल ग्रन्थ लोर उसके टीका, भाष्य आदि का अनुशीलन करके मौलिक सुक्तियाँ नगृहोत की जाए और भावस्पर्शी अनुवाद भी । अपनी इस अनुशीलन धारा के आधार पर मैं विश्वासपूर्वक यह कह देना चाहता हूँ कि कोई भी सहृदय पाठक सूक्तियों की मौलिकता एव अनुवाद की तटस्थता पर नि सन्देह आश्वस्त हो सकता है । स्वय मुझे आत्मतोष है कि इस बहाने मुझे वेद, आरण्यक, उपनिषद् आदि तथा उनके अधिकृत भाष्य आदि के स्वाध्याय का व्यापक लाभ प्राप्त हुआ, जिनके आधार पर वैदिक वाडमय को मूल जीवन दृष्टि को स्पष्ट
कर सका ।
तुलनात्मक प्रसङ्ग
यह निर्णय देना तो उचित नही होगा कि कालदृष्टि से तीनो धाराओ को प्रभवता एक ही है, या भिन्न-भिन्न । किन्तु यह आस्थापूर्वक कहा जा सकता हे कि चैदिक जैन एवं बौद्ध वाडमय की जीवन दृष्टि मूलत एक ही है ।
जीवन की अध्यात्मप्रधान निर्वेद (वैराग्य) दृष्टि में जैनचिन्तन अग्रणी हुआ है, तो उसके नैतिक एवं लौकिक अभ्युदय के उच्च आदर्शों को प्रेरित करने मी दृष्टि वैदिक एव वौद्ध वाडमय ने अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत की है । यद्यपि जीवन या नैतिक तथा लौकिक पक्ष जैन साहित्य मे भी स्पष्ट हुआ है और अध्यात्मिक निर्वेद को उत्कर्पता वैदिक तथा वौद्ध वाडमय मे भी स्पष्टत प्रस्फुटित
है । अत चिन्तन का विभाजन एकान्त नही है, और इसी आधार पर हम तीनों पागल। मे एक अखण्ड जीवन दृष्टि, व्यापक चिन्तन की एकरूपता के पनि प्राप्त कर नवते हैं । मैंने प्रस्तुत सकलन में इसी दृष्टि को समक्ष रखा है। के माय तीनो धाराओ मे पावदात्मक एकता के भी भूतषु नरना चाहे तो अनेक स्थल ऐसे है, जो अक्षरश समान एवं सन्निकट हैं ।
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अधिक विस्तार न हो, इसलिए यहां सिर्फ सकेत कर रहा हूँ। शेप पाठक स्वय तुलना कर सकते है, और साथ ही यथा प्रसग अन्यान्य स्थलो का अनुसधान भी । तुलना की दृष्टि से कुछ स्थल दिए जा रहे हैअप्पा मित्तममित्त च।
(जैन धारा १११११४) अत्ता हि अत्तनो नाथो।
(बौद्ध धारा ५४।३२) आत्मैव ह्यात्मनः वन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।
(वैदिक धारा २७२।४३) जो सहस्सं सहस्स्सारण सगामे दुज्जए जिए ।
(जैन धारा २०८।६०) यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने ।
(बौद्ध धारा ५१।२१) जरा जाव न पीडेइ""""ताव धम्म समाचरे ।
(जैन धारा ६०५३) यावदेव भवेत् कल्पस्तावच्छेयः समाचरेत् ।
(वैदिक धारा २५०।४६) सुव्वए कम्मइ दिवं।
(जैन धारा १०४।४३) रोहान् रुरुहुर्मेध्यास.।
(वैदिक धारा ११८।४४) अन्नाणी किं काही?
(जैन धारा ८४११२) कथा विधात्यप्रचेता ।
(वैदिक धारा १०३७) यद्यपि मैं इस विचार का आग्रह नही करता कि सूक्तित्रिवेणी का यह सक नन अपने आप मे पूर्ण है। बहुत से ऐसे सुभापित, जो मेरी दृष्टि मे अभी
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दूसरी बात यह थी कि दो हजार वर्ष पुरानी भाषा का वर्तमान के साथ सोधा अर्थवोध आज प्राय विच्छिन्न-सा हो चुका है। तयुगीन कुछ विशेष शब्दो और उपमानो से वर्तमान पाठक लगभग अपरिचित-सा है। ऐसी स्थिति मे प्राकृत-सूक्तियो को केवल शब्दानुवाद के साथ प्रस्तुत कर देना, पाठक की अर्थचेतना के साथ न्याय नहीं होता। अत अनुवाद को प्राय. भावानुलक्षी रखने का प्रयत्न मैंने किया है, ताकि पाठक मूक्तियो के मूल अभिप्राय को सरलता से ग्रहण कर सके। साथ ही मूल के विशिष्ट सास्कृतिक एव पारिभाषिक शब्दो से सम्पर्कधारा बनाये रखने की दृष्टि से उन्हे यथास्थान सूचित भी कर दिया गया है। ____ जैन वाड मय प्राकृतेतर सस्कृत आदि का साहित्य, प्राकृत साहित्य से भी अधिक विशाल एव सुभाषित वचनो से परिपूर्ण है, किन्त संकलन के साथ एक निश्चित दृष्टि एव सीमा होती है, और वह सीमा हम प्राकृत भाषा के साहित्य तक ही लेकर चले, इसलिए सस्कृत आदि भाषाओ के साहित्य का क्षेत्र एक ओर छोडकर ही चलना पडा ।
मुझे विश्वास है कि जैन तत्वचिन्तन के साथ-साथ उसका नैतिक एव चारित्रिक जीवनदर्शन भी इन सूक्तियो मे पूर्ण रूप से आता हुआ मिलेगा और यह जैनेतर विद्वानो के लिए भी उतना ही उपयोगी होगा जितना कि जैन दर्शन के परम्परागत अभ्यासी के लिए।
• बौद्धधारा
श्रमणसस्कृति का एक प्रवाह जैनधारा है तो दूसरा प्रवाह बौद्धधारा है । जैनधारा के समान ही यह पवित्र धारा पच्चीस सौ वर्ष से भारतीय दिगतो को स्पर्श करती हुई अविरल गति से वह रही है । भारत ही नही, किन्तु चीन, जापान, लका, वर्मा, कम्बोडिया, थाई देश आदि अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज को भी इसने प्रभावित किया है।
तथागत बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यो के अध्यात्मिक एव नैतिक उपदेश, त्रिपिटक साहित्य मे आज भी सुरक्षित है। त्रिपिटक साहित्य भी भारतीय वाड मय का महत्त्वपूर्ण अग है, उसमे यत्र-तत्र- अत्यन्त सुन्दर एवं मार्मिक उपदेश, वचन, नीतिवोध तथा कर्तव्य की प्रेरणा देने वाली गाथाएँ सगृहीत की गई हैं। त्रिपिटक साहित्य मूल पालि मे है, किन्तु उसके अनेक अनुवाद, विवेचन एव टीकाग्रथ वर्मी, सिंहली, अग्रेजी आदि भाषाओ मे भी प्रकाशित
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हुए हैं। प्राचीन काल में ही तथागत के उपदेगप्रधान वचनो का मारसग्रह धम्मपद में किया गया है, जिसके भारतीय तथा भारतीयेतर भापाओ मे अनेक बनवाद हो चुके हैं।
भगवान बुद्ध के उपदेशप्रद वचनो का नग्रह करते समय अनेक संग्रह मैंने देवे। कुछ नग्रह मिर्फ अनुवाद मोत्र थे, कुछ मूल पानि मे । वह भी कुछ धम्मपद, मुननिपान आदि दो चार गधों तक ही मीमित थे, अत उनमे गेरी कल्पना पन्तृिप्त नहीं ह, नो सम्पूर्ण बौद्ध वाइ मय का आनोटन कर गया,
और जो मोनिका बहुमूल्य विचारमणिया प्राप्त हुई वे बाद धारा के रूप मे पाठको के समक्ष प्र तुन की हैं।
पानि बोर बाट मय मे विमुनिमग्गो का भी महन्वपूर्ण स्थान है । लाचायं वुदघोष नी यह गति आध्यात्मिक चिनार सितन के दोत्र मे बहुत वही देन है । त्रिपिटक नाहित्य मे परिगणित नहीं होने पर भी, उमवा महत्त्व कुछ कम नहीं है। नी देन पग्लन मकान मे विमुन्द्धि मग्गो के सुवचनो को मगृहीत करने का लोन भी मैं गवरण नहीं कर गका । कुल मिलाकर बौद्धमाहित्य के मुन्य मृन्य ग्रन्यो का सम्पर्ग करती हुई यह धारा अपने आप मे प्राय. परिपूर्ण-सी है। • वैदिक धारा
यह तो प्राय म्पष्ट है कि उपलब्ध भारतीय वाडमय मे वैदिक वाट मय मर्वाधिक प्राचीन एव विशाल ही नहीं, अपित भारतीय जीवनदर्शन एव चिन्तन की ममग्रता का भी प्रतीक है। ___ ऋग्वेद से लेकर स्मृतिकाल तक का दर्शन, चिन्तन, जीवन के विविध परिपावों को नव स्फूर्ति एव नव चैतन्य से प्रबुद्ध करता हुआ जोवन मे उल्लास, उत्साह, सन्सकल्प एव कर्मयोग को स्फुरणा जागृत करता है, तो वैराग्य एवं अध्यात्म की दिव्य ज्योति भी प्रज्ज्वलित करता है।
वैदिक वाइ मय के विशाल मूक्तिकोप के प्रति मेरे मन मे बहुत समय से एक आकर्पण था । वैदिक सूक्तियो मे अध्यात्म, वैराग्य, लोकनीति एव अनुभव का जो मधुर सम्मिश्रण हुआ है, उससे सूक्तियो मे एक विलक्षण चमक एव अद्भुत हृदयग्राहिता पैदा हो गई है। वैदिक साहित्य की सूक्तियो के अनेक सस्करण अब तक निकल चुके है, उनको भी बहुत कुछ मैंने देखा है । कुछ वेदो
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के अमुक अश तक ही आकर रुक गए, कुछ उपनिषद् के तत्वज्ञान तक हो सीमित रह गए और कुछ महाभारत और गीता की सूक्तियो मे ही आकण्ठ निमग्न हो गए । स्थिति यह है कि वेदो के चिन्तन मनन को पुनीत धारा, जो ब्राह्मण, आरण्यक एव उपनिषद् के रमणीय परिपाश्चों को छूनी हुई महाभारत एव गीता में प्रकट हुई है, उसके समग्र दर्शन तथा मौलिक चिन्तन पर प्रकाश विकीर्ण करने वाला कोई एक उपयुक्त सग्रह मेरी दृष्टि मे नही आया। इसीलिए तृप्ति चाहने वाला मन और अधिक अतृप्त हो उठा, बस, यही अतृप्ति इस सूक्ति संकलन मे मुख्य प्रेरक रही है। मैंने प्रयत्न यही किया है कि मूल ग्रन्य और उसके टीका, भाष्य आदि का अनुशीलन करके मौलिक सूक्तियाँ सगृहीत की जाए और भावस्पर्शी अनुवाद भी। अपनी इस अनुशीलन धारा के आधार पर मैं विश्वासपूर्वक यह कह देना चाहता हूँ कि कोई भी सहृदय पाठक सुक्तियो की मौलिकता एव अनुवाद को तटस्थता पर नि सन्देह आश्वस्त हो सकता है । स्वय मुझे आत्मतोष है कि इस बहाने मुझे वेद, आरण्यक, उपनिषद् आदि तथा उनके अधिकृत भाष्य आदि के स्वाध्याय का व्यापक लाभ प्राप्त हुया, जिनके आधार पर वैदिक वाड मय की मूल जीवन दृष्टि को स्पष्ट कर मका। तुलनात्मक प्रसङ्ग __यह निर्णय देना तो उचित नही होगा कि कालदृष्टि से तीनो धाराओ को प्रभवता एक ही है, या भिन्न-भिन्न । किन्तु यह आस्थापूर्वक कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन एवं वौद्ध वाड मय की जीवन दृष्टि मूलत एक ही है । ___ जीवन की अध्यात्मप्रधान निर्वेद (वैराग्य) दृष्टि में जनचिन्तन अग्रणी हुआ है, तो उसके नैतिक एवं लौकिक अभ्युदय के उच्च आदर्शों को प्रेरित करने की दृष्टि वैदिक एव बौद्ध वाडमय ने अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत की है । यद्यपि जीवन का नैतिक तथा लौकिक पक्ष जैन साहित्य मे भी स्पष्ट हुआ है और अध्यात्मिक निर्वेद को उत्कर्पता वैदिक तथा बौद्ध वाड मय मे भी स्पष्टत प्रस्फुटित हुई है । अत चिन्तन का विभाजन एकान्त नहीं है, और इसी आधार पर हम तीनो धाराओं में एक अखण्ड जीवन दृष्टि, व्यापक चिन्तन की एकरूपता के चन प्राप्त कर सकते हैं। मैंने प्रस्तुत सकलन मे इसी दृष्टि को समक्ष रखा है।
भावनात्मक एकता के साथ तीनो धारामो में शब्दात्मक एकता के भी मन पग्ना चाहे तो अनेक स्थल ऐसे हैं, जो अक्षरग समान एवं सन्निकट हैं।
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G
१
-
अविक विस्तार न हो, इसलिए यहाँ सिर्फ सकेत कर रहा हूँ । शेप पाठक स्वय तुलना कर सकते हैं, और साथ ही यथा प्रसग अन्यान्य स्थलो का अनुसवान भी । तुलना की दृष्टि से कुछ स्थल दिए जा रहे हैं
अप्पा मित्तममित्त च ।
अत्ता हि अत्तनो नाथो ।
ग्रात्मैव ह्यात्मनः वन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।
( जैन धारा ११३ | ११४)
जो सहस्स सहस्स्सारण सगामे दुज्जए जिए ।
( वौद्ध धारा ५४ | ३२ )
सुव्वए कम्मइ दिवं ।
यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने ।
रोहान् रुरुहुर्मेध्यास. ।
( वैदिक धारा २७२१४३)
श्रन्नारणी कि काही ?
जरा जाव न पीडेइताव धम्म समाचरे ।
कथा विधात्यप्रचेता |
( जैन धारा २०८१६० )
यावदेव भवेत् कल्पस्तावच्छ्रे यः समाचरेत् ।
(बौद्ध धारा ५१।२१)
( जैन धारा ६०1५३ )
( वैदिक धारा २५०१४६ )
( जैन धारा १०४ | ४३ )
( वैदिक धारा ११८१४४)
( जैन धारा ८४|१२)
( वैदिक धारा १०1३७ )
यद्यपि में इस विचार का आग्रह नही करता कि सूक्तित्रिवेणी का यह सक नन अपने आप मे पूर्ण है । बहुत से ऐसे सुभापित, जो मेरी दृष्टि मे अभी
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२०
आ रहे है, उस समय ओझल रहे या हो गए। बहुत से जान-बूझकर भी सक्षेप की दृष्टि से छोड़ दिए गए। अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रथो के सुभाषित इसलिए भी नही लिए जा सके कि उनका मूल शुद्ध सस्करण प्राप्त नही हुआ, और जिस घिसे-पिटे अशुद्ध रूप मे वे उट्ट कित हो रहे हैं, वह मुझे स्वीकार्य नही था । समयाभाव एव अस्वस्थता के कारण भी अनेक ग्रथों के सुभाषित इसमे नही आ सके । सम्भव हुआ तो इन सब कमियो को अगले संस्करण के समय दूर करने का प्रयत्न किया जाएगा । इन सब कमियो के वावजूद भी मेरा विश्वास है कि यह सकलन पूर्ण भले न हो, परन्तु अब तक के सूक्तिसाहित्य मे, पूर्णता की ओर एक चरण अवश्य आगे बढा है । गति के लिए अनन्त अवकाश है, और गतिशीलता मे मेरी निष्ठा भी है । आशा करता हूँ, इस दिशा में मैं भी गतिशील रहूँगा तथा इससे प्रेरित होकर मेरे अन्य पाठक और जिज्ञासु भी ।
-
एक बात और । सूक्तित्रिवेणी का प्रथम एव द्वितीय खण्ड प्रकाशित हुए लगभग एक वर्प हो चुका है, तृतीय खण्ड भी अभी छप चुका है और यह सम्पूर्ण खण्ड अब एकाकृति मे पाठको के समक्ष आ रहा है । इतने बडे सकलन मे उसकी विषयानुक्रमिका आदि के लिए समय तो अपेक्षित था ही, साथ ही अनेक ग्रथो व सहयोगियो का सहयोग भी । सवको अनुकू नता के बल पर यह सस्करण पाठको के हाथो मे सौपते हुए मुझे आज अपने श्रम के प्रति आत्मतृष्टि अनुभव हो रही है ।
१-१०-६८ विजयादशमी
जैन भवन, आगरा |
- उपाध्याय अमर सुनि
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सूक्ति त्रिवेणी निर्देशिका
• जैन धारा
सूक्ति संख्या
ग्रन्य १. आचाराग को सूक्तिया २ सूत्रकृताग को सूक्तिया ३ स्थानाग की सूक्तिया ४. भगवती सूत्र की सूक्तिया ५. प्रश्नव्याकरण की सूक्तियां ६. दशवकालिक को सूक्तियां ७ उत्तराध्ययन की सूक्तियां ८ आचार्य भद्रवाहु की सूक्तिया ६ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया १० भाष्य साहित्य की सूक्तिया ११ चूणि साहित्य की सूक्तिया १२. सूक्तिकण
१
११२
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सूक्ति त्रिवेणी निर्देशिका
• बौद्ध धारा
ग्रथ
सूक्ति मख्या
१ दीघनिकाय की सूक्तिया २ मज्झिमनिकाय की सूक्तिया ३ सयुत्तनिकाय की सूक्तिया ४ अगुत्तरनिकाय की सूक्तिया ५ धम्मपद को सूक्तिया ६. उदान की सूक्तिया ७ इतिवृत्तक की सूक्तिया ८ सुत्तनिपात की सूक्तिया ६ येरगाथा की सूक्तिया १० जातक को सूक्तिया ११ विमुद्धिमग्गो को सूक्तिया १२ सूक्तिकण
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सूक्ति त्रिवेणी निर्देशिका
• वैदिक धारा
ग्रंथ
सूक्ति सख्या
३०७ १३० २३
१७३
9 mU9
१६०
२२६
१ ऋग्वेद की मूक्तिया २. यजुर्वेद की मूक्तिया ३ सामवेद की मूक्तिया ४. अथर्ववेद को सूक्तिया ५ ब्राह्मण माहित्य की सूक्तिया ६ आरण्यक माहित्य की सूक्यिा ७ उपनिपद साहित्य की सूक्तियां ८ वाल्मीकि रामायण की मूक्तिया ६ महाभारत की सूक्तिया १० भगवद्गीता की मूकिाया ११ मनुस्मृति की सूक्तिया १२ सूक्तिकण
परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका · जैन धारा विषयानुक्रमणिका वौद्ध धारा विपयानुक्रमणिका : वैदिक धारा ग्रन्थ सूची
२४०
२६२
9
२७८ २६४
२६८
२६५
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सूक्ति त्रिवेणी
•जैन-धारा
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सूक्ति
त्रिवेणी
-
-
-
.जैन-धारा
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आचारांग को सूक्तियाँ
१. अत्थि मे आया उववाइए . से पायावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी।
-~१२१ २. एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गरए ।
-शश२ ३ जाए सद्धाए निक्खते तमेव अणुपालेज्जा, विजहित्ता विसोत्तिय।
-१२११३ ४. जे लोग अभाइक्खति, से अत्ताणं अब्भाइक्खति । जे अत्तारणं अब्भाइक्खति, से लोगं अब्भाइक्खति ।
-२११३
५. वीरेहिं एय अभिभूय दिट्ठ, सजतेहि सया अप्पमत्तेहिं ।
-१।१२४ ६ जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दडे त्ति पवुच्चति ।
~११११४
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आचारांग की सूक्तियाँ
१ यह मेरी आत्मा श्रीपपातिक है, कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है .
आत्मा के पुनर्जन्मसम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला ही
वस्तुत आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एव क्रियावादी है । २ यह आरम्भ (हिंमा) ही वस्तुत ग्रन्थ=बन्धन है, यही मोह है, यही
मार=मृत्यु है, और यही नरक है ।
३ जिस श्रद्वा के माय निष्क्रमण किया है, साधनापथ अपनाया है, उसी
श्रद्धा के साथ विस्रोतसिका (मन की शका या कुण्ठा) से दूर रहकर
उसका अनुपालन करना चाहिए । ४ जो लोक (अन्य जीवसमूह) का अपलाप करता है, वह स्वय अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है ।
जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है, वह लोक (अन्य जीवममूह) का भी अपलाप करता है। ५ सतत अप्रमत्त जाग्रत रहने वाले जितेन्द्रिय वीर पुरुपो ने मन के समग्र
द्वन्द्वो को अभिमूत कर, सत्य का साक्षात्कार किया है । ६ जो प्रमत्त है, विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवो को दण्ड (पीडा) देने
वाला होता है।
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चार
७
तपरिणाय मेहावी,
इया रिंग गो, जमह पुव्वमकासी पमाए ।
ち
जे ग्रज्झत्थ जारणइ, से बहिया जागइ । जे बहिया जारण से ग्रज्झत्थं जागइ | एय तुलमन्नसि ।
8 जे गुणे से श्रावट्टे, जे आवट्टे से गुरणे ।
१० श्रातुरा परितावेति ।
११ अप्पेगे हिसिसु मे त्ति वा वहति, अप्पे हिंसति मे त्ति वा वहति, अप्पे हिंसिस्सति मे त्ति वा वहति ।
१२ से ग हासाए, रण कीड्डाए, ग रतीए, ग विभूसाए ।
१३. ग्रतर च खलु इम सपेहाए, धीरे मुहुत्तमवि गो पमायए ।
१४ वो ग्रच्चेति जोव्वरण च ।
सूक्ति त्रिवेणी
०५. प्रणभिक्कत च वय सपेहाए, खरण जारणाहि पडिए ।
१६ र ग्राउट्टे से मेहावी खरसि मुक्के |
- ११११४
- १/१1४
- १।११५
- १1१1६
- १1१/६
- ११२११
- ११२११
- १/२/१
- ११२/१
--११२/२
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आचाराग को सूक्तियां
पांच ७ मेघावी साधक को आत्मपरिज्ञान के द्वारा यह निश्चय करना चाहिए कि
-~~"मैंने पूर्वजीवन मे प्रमादवग जो कुछ भूल की है, वे अब कभी नही
करूंगा।" ८ जो अपने अन्दर (अपने मुग दुस की अनुभूति) को जानता है, वह वाहर (दूमरी के सुग दुख की अनुभूति) को भी जानता है ।
जो वाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है ।
इस प्रकार दोनो को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिए । है जो काम-गुण है, इन्द्रियो का शब्दादि विषय है, वह आवर्त =मसार
चक्र है।
___ और जो आवर्त है, वह कामगुण है । १० विपयातुर मनुष्य ही दूसरे प्राणियो गो परिताप देने हैं ।
११ 'इसने मुझे मारा'-कुछ लोग इस विचार मे हिमा करते है ।
'यह मुझे मारता है'-कुछ लोग इस विचार में हिंसा करते है । 'यह मुझे मारेगा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते है।
१२ वृद्ध हो जाने पर मनुप्य न हाम-परिहाम के योग्य रहता है, न क्रीडा के,
न रति के और न शृगार के योग्य ही ।
१३ अनन्त जीवन-प्रवाह मे, मानव जीवन को वीच का एक सुअवसर जान
कर, धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे ।
१४ आयु और यौवन प्रतिक्षण बीता जा रहा है ।
१५ हे आत्मविद् साधक | जो बीत गया मो बीत गया । शेप रहे जीवन को
ही लक्ष्य मे रखते हुए प्राप्त अवसर को परख । समय का मूत्य समझ । १६. अरति (सयम के प्रति अरुचि) से मुक्त रहने वाला मेधावी माधक क्षण
भर मे ही बन्धनमुक्त हो सकता है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
१७ अणाणाय पुट्ठा वि एगे नियति,
मदा मोहेण पाउडा।
-१२२२२
१८. इत्थ मोहे पुरणो पुणो सन्ना,
नो हन्वाए नो पाराए।
-~-१।२।२
१६ विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो ।
-१२।२
२० लोभमलोभेण दुगु छमाणे, लद्ध कामे नाभिगाहइ।
-१।२।२ २१ विणा वि लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति ।
-~~-१।२।२
२२. से असई उच्चागोए, असइ नीआगोए ।
नो हीणे, नो अहरिते।
-११२।३
२३. तम्हा पडिए नो हरिसे, नो कुप्पे ।
-१२।३
२४ अगोहतरा एए नो य ओह तरित्तए।
अतीरगमा एए नो य तीर गमित्तए । अपार गमा एए नो य पार गमित्तए।
-१२।३
२५ वितह पप्प ऽ खेयन्ने,
तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ।
--१२२२३
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भाचारांग को सूक्तियां
सात
१७. मोहाच्छन्न अनानी साधक सकट आने पर धर्मगासन की अवजा कर
फिर संसार की ओर लौट पड़ते हैं ।
१८. बार-बार मोहग्रस्त होने वाला साधक न इस पार रहता है, न उम
पार, अर्थात् न इस लोक का रहता है और न पर लोक का।
१६. जो माधक कामनाओ को पार कर गए हैं, वस्तुत वे ही मुक्त पुरुप है।
२०. जो लोभ के प्रति अलोभवृत्ति के द्वारा विरक्ति रखता है, वह और
तो क्या, प्राप्त काम भोगो का भी सेवन नही करता है।
२१. जिम माधक ने विना किमी लोक-परलोक की कामना के निप्क्रमण किया
है, प्रव्रज्या ग्रहण की है, वह अकर्म (बन्धनमुक्त ) होकर सब कुछ
का ज्ञाता, द्रप्टा हो जाता है । २२. यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोय मे जन्म ले चुका है, और अनेक वार नीच गोत्र मे।
इस प्रकार विभिन्न गोत्रो मे जन्म लेने से न कोई हीन होता है और न कोई महान् । २३. आत्मज्ञानी साधक को ऊंची या नीचो किसी भी स्थिति मे न हर्षित
होना चाहिए, और न कुपित । २४. जो वासना के प्रवाह को नही तर पाए है, वे ससार के प्रवाह को नही
तर मकते। जो इन्द्रियजन्य कामभोगो को पार कर तट पर नही पहुचे हैं, वे मसार मागर के तट पर नही पहुच सकते । जो राग द्वप को पार नहीं कर पाए है, वे समार सागर से पार
नही हो सकते । २५ अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारो को सुन लेता है, तो वह उन्ही
मे उलझ कर रह जाता है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
आठ
२६ उद्देसो पासगस्स नत्यि ।
-१२।३
२७. नत्थि कालस्स गागमो ।
-१२।३
२८ सव्वे पाणा पियाउया,
सुहसाया दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा पियजीविरगो, जीविउ कामा मवेसि जीविय पिय नाइवाएज्ज कचरण।
-~१२२३
२६ जारिणत्त दुकावं पत्तय साय ।
-~११२४
३० ग्रास च छंद च विगिच धीरे ।
तुमं चेव सल्लमाहट्ट ।
-~१२।४
३१ जेण सिया, तेरण णो सिया ।
-१२।४
३२. अलं कुसलस्स पमाएण ।
---२२।४
३३ एस वीरे पससिए,
जे गा णिविज्जति प्रादारणाए ।
-१।२४
३४ लाभुत्ति न मज्जिज्जा,
अलाभुत्ति न सोडज्जा।
-~१२१५
३५ बहु पि लवु न निहे.
परिग्गहायो अप्पारणं अवमक्किज्जा ।
-~-~२२१५
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आचारांग को सूक्तियां २६ तत्वद्रप्टा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नही है ।
२७. मृत्यु के लिए अकाल वक्त वेवक्त जैसा कुछ नहीं है ।
१८
मव प्राणियो को अपनी जि दगी प्यारी है। मुन्ब मब को बन्छा लगता है और दु व बुग।
वध मव को अप्रिय है, और जीवन प्रिय । मव प्रागी जीना चाहते है, कुछ भी हो, सब को जीवन प्रिय है। बत. किमी भी प्राणी की हिमा न कगे।
२६ प्रत्येक व्यक्ति का मुग्व दु ख अपना अपना है ।
३० हे वीर पुस्प । आगा-तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर ।
तू स्वय ही इन काटो को मन मे रखकर दुखी हो रहा है ।
३१. तुम जिन (भोगो या वस्तुओ) मे मुख की आगा रखते हो, वस्तुत वे
मुख के हेतु नही हैं। ३२ बुद्धिमान साधक को अपनी साधना मे प्रमाद नही करना चाहिए ।
३३ जो अपनी साधना मे उद्विग्न नही होता है, वही वीर माधक प्रशसित
होता है।
३४ मिलने पर गर्व न करे ।
न मिलने पर शोक न करे ।
३५ अधिक मिलने पर भी सग्रह न करे ।
परिग्रह-वृत्ति मे अपने को दूर रखे ।
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सूक्ति त्रिवेणी
३६. कामा दुरतिक्कम्मा।
-११२१५
३७ जीविय दुष्पडिवूहगं ।
-~११२१५
३८. एस वीरे पसंसिए,
जे बद्ध पडिमोयए।
-१२१५
३६ जहा ग्रंतो तहा वाहि,
जहा वाहिं तहा अतो।
-~-११२१५
८०, मे मम परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी।
-१२२।५
४१ वेर बढेड अप्पणो।
~११२१५
४२. अलं वालस्स सगेणं।
-१२१५
४३ पाव कम्म नेव कज्जा, न कारवेज्जा।
-१२२२६
४८. सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुवह ।
~~११२१६
४५ जे ममाइयमइ जहाड, से जहाइ ममाइय।
मेह दिठ्ठपहे मुगी, जस्स नन्थि समाइय।
-
-१२।६
८६ जे अगादमी से अणणारामे,
जे अगाणगारामे, से अगाण्यादसी ।
~१॥२॥६
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आचाराग की मूक्तियाँ
ग्यारह
३६. कामनालो का पार पाना बहुत कठिन है ।
३७ नष्ट होने जीवन का कोई प्रतिव्यूह अर्थात् प्रतिकार नही है ।
३८ वही वीर प्रगमित होता है जो अपने को तथा दूसरो को दामता के
वन्धन से मुक्त कराता है।
२६ यह गरीर जैमा अन्दर में (असार) है, वैमा ही बाहर मे (अमार) है ।
जना बाहर मे (अमार) है, वैमा ही अन्दर मे (अमार) है ।
४०. विवेकी माधक लार - थूक चाटने वाला न बने, अर्थात् परित्यक्त भोगो
को पुन कामना न करे। ४१ विषयातुर मनग्य, अपने भोगो के लिए ममार में वैर बढाता रहता है ।
कोपन
४२ वाल जीव (अमानी ) का मग नही करना चाहिए ।
४३ पापकर्म (असत्कम) न स्वय करे, न दूमरो से करवाए ।
४४ मनुष्य अपनी ही मूलो से मसार को विचित्र स्थितियो मे फंस जाता है ।
४५ जो ममत्वबुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुत ममत्व=परिग्रह का त्याग कर सकता है।
वही मुनि वास्तव में पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है जो किसी भी
प्रकार का ममत्व भाव नहीं रखता है । ४६ जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता है, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी
नहीं है । और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नही है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नही रखता है।
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वारह
सूक्ति त्रिवेणी
४७ जहा पुण्ण कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ ।
जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्स्स कत्थइ ।
--शरा
__ ४८ कुसले पुण नो बद्ध', न मुत्ते।
-१।२।६
४६ सुत्ता अमुणी,
मुरिणणो सया जागरन्ति ।
-~११३१
५० लोयसि जाण अहियाय दुक्व ।
-१।३।१
५१ माई पमाई पुण एइ गभं ।
--११३०१
५२ माराभिसकी मरणा पमुच्चइ ।
-~~~-११३०१
५३ पन्नाणेहिं परियारणह लोय मुणीत्ति वुच्चे।
५४. प्रारंभज दुक्खमिणं।
-~~- ११
५५ अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
-१३।१
५६. कम्मुणा उवाही जायइ ।
-११३।१
५७ कम्ममूल च ज छण ।
-११३११
५८ सम्मत्तदमी न करेइ पाव ।
-~-१३।२
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आचाराग की मूक्तियाँ
तेरह ४७. निःस्पृह उपदेशक जिन प्रकार पुण्यवान (मंपन्न व्यक्ति) को उपदेश देता
है, उसी प्रकार तुच्छ (दीन दरिद्र व्यक्ति) को भी उपदेश देता है । ____और जिस प्रकार तुच्छ को उपदेन देना है, उसी प्रकार पुण्यवान
को उपदेश देता है अर्थात् दोनो के प्रति एक जैमा भाव रखता है । ४८ कुगल पुस्प न बद्ध है आर न मुक्त ।
[नानी के लिए बन्ध या मोक्ष-जैसा कुछ नहीं है ] ४६ अनानी मदा सोये रहते है, और जानी मदा जागते रहते है ।
५० यह भमन लीजिए कि ममार में अज्ञान तथा मोह ही अहित और दुख
करने वाला है। ५१ मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है, जन्ममरण
करता है। ५२ मृत्यु नं सदा सतर्क रहने वाला सावक ही उससे छुटकारा पा
सकता है। ५३ जो अपने प्रनान से ममार के स्वरूप को ठीक तरह जानता है, वही
मुनि कहलाता है। ५४ यह सब दुख भारम्भज है, हिमा मे से उत्पन्न होता है।
५५. जो कर्म मे से अकर्म की स्थिति में पहुंच गया है, वह तत्वदर्शी लोक
व्यवहार की सीमा से परे हो गया है । ५६. कर्म से ही समग्र उपाधिया = विकृतियाँ पैदा होती हैं।
५७ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिसा है।
५८ सम्यग् दर्गी साधक पापकर्म नही करता ।
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चौदह
मूक्ति त्रिवेणी
५६ कामेसु गिद्धा निचय करेति ।
-११३१२
६० आयकदंसी न करेइ पाव ।
-११३२
६१ सच्चमि घिड कुव्वह ।
-१२२
६२ अरणेगचित्त खलु अय पुरिसे ।
से केयण अरिहए पूरइत्तए।
-१२
६३ अगोमदंसी निसणे पावेहि कम्मेहि ।
६४ पायो वहिया पास।
-१३।३
६५ विराग रूवेहिं गच्छिज्जा,
महया खुड्डएहि य ।
~~१३३
६६ का अरई के प्राणदे?
-११३३
६७ पुरिसा । तुममेव तुम मित्त ,
किं वह्यिा मित्तमिच्छसि ?
-१९३३३
६८ पुरिसा । अत्तारणमेव अभिरिणगिज्झ,
एव दुक्खा पमुच्चसि ।
-~-१३३
६६ पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि ।
-~१३३
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आचाराग की सूक्तियां
पन्द्रह
५६ कामभोगो मे गृद्ध-आसक्त रहने वाले व्यक्ति कर्मों का बन्धन करते है।
६० जो समार के दु.वो का ठीक तरह दर्शन कर लेता है, वह कभी पापकर्म
नही करता है। ६१ सत्य मे धृति कर, मत्य में स्थिर हो ।
६२ यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओ के कारण मनुष्य का मन विखग हुभा रहता है ।
वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह छलनी को जल से भरना चाहता है । ६३ (साधक अपनी दृष्टि ऊँची रवे, क्षुद्र भोगो की ओर निम्न दृष्टि न
रखे ) उच्च दृष्टिवाला माधक ही पाप कर्मों से दूर रहता है । ६४ अपने समान ही वाहर में दूसरो को भी देख ।
६५ महान हो या क्षुद्र हो, अच्छे हो या बुरे हो, सभी विषयो से साधक को
विरक्त रहना चाहिए।
६६ ज्ञानी के लिए क्या दुग्य, क्या मुख ? कुछ भी नही ।
६७. मानव ! तू स्वय ही अपना मित्र है। तू बाहर मे क्यो किसी मित्र
(सहायक) की खोज कर रहा है ?
६८. मानव | अपने आपको ही निग्रह कर । स्वय के निग्रह से ही तू दुख से
मुक्त हो सकता है।
६६ हे मानव, एक मात्र सत्य को ही अच्छी तरह जान ले, परखले ।
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सोलह
सूक्ति त्रिवेणी
७० सच्चस्स प्राणाए उवट्ठिए मेहावी मार तरइ।
-~११३३
७१ सहिरो दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झझाए ।
~११३१३
७२ जे एग जागइ, से सव्व जागइ ।
जे सव्व जागइ, से एग जागइ ।।
-१३१४
७३ सव्वो पमत्तस्स भय,
सव्वो अपमत्तस्स नत्थि भय ।
-११३१४
७४
जे एग नामे, से बहु नामे ।
-२३४
७५ एग विगिचमाणे पुढो विगिचइ।
-~~११३१४
७६ अत्थि सत्य परेण पर,
नत्यि असत्य परेण पर।
-१३१४
७७. किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ ?
नत्यि ।
~~११३४
७८ न लोगस्सेसणं चरे।
जस्स नत्यि इमा जाई, अण्णा तम्म कयो सिया?
~११४०१
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आचाराग की मूक्तियाँ
संग्रह
७०. जो मेधावी माधक सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है, वह मार=
मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है ।
७१ मत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर दुग्यो मे घिरा रहकर भी
घवगता नहीं है, विचलित नहीं होता है।
७२ जो एक को जानता है वह मव को जानता है । और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है ।
[जिस प्रकार ममत्र विश्व अनन्त है, उसी प्रकार एक छोटे-से-छोटा पदार्थ भी अनन्त है, अनन्त गुण-पर्याय वाला है,-अत. अनत ज्ञानी ही
एक और सबका पूर्ण ज्ञान कर सकता है ] ७६ प्रमत्त को सब ओर भय रहता है।
अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नही है ।
७४ जो एक अपने को नमा लेता है-जीत लेता है, वह समग्र संसार को
नमा लेता है।
७५ जो मोह को क्षय करता है, वह अन्य अनेक कर्म-विकल्पो को क्षय
करता है।
७६ गस्त्र (=हिला) एक-से-एक बढकर है । परन्तु अशस्त्र (=हिसा) एक
मे-एक वटकर नहीं है, अर्थात् अहिमा की साधना से वटकर श्रेष्ठ दूसरी कोई नाधना नहीं है।
७७ वीतराग सत्यद्रप्टा को कोई उपाधि होती है या नहीं ?
नही होती है।
७८ लोकपमा से मुक्त रहना चाहिए । जिसको यह लोकपणा नहीं है, उसको
अन्य पाप-प्रवृत्तिया कैसे हो सकती है ?
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अठारह
७६ जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते ग्रासवा । जे अरणासवा ते परिस्तवा, जे अपरिस्सवा ते अरणासवा ।
८० नारगागमो मच्चुमुहस्स प्रत्थि ।
८१. वय पुरण एवमाइक्खामो, एव भासामो, एव परूवेमो, एव पण्णवेमो,
सव्वे पारणा, सव्वे भूया,
सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता,
न हतव्वा, न ग्रज्जावेयव्वा न परिघेतव्वा, न परियावेयव्वा
न उद्दवेयव्वा ।
इत्थ विजारह नत्थित्य दोसो | आरियवयणमेय |
८२ पुव्व निकाय समय पत्त ेय पत्ते य पुच्छिस्सामि - "ह भो पवाइया ! कि भे साय दुक्ख असाय समिया पडिवणे या वि एव बूया - " सव्वेसि पारणारण, सव्वेसि भूयारण, सव्वेसि जीवारण, सव्र्व्वेसि सत्तारण, साय परिनिव्वाण महभय दुक्ख ।"
८३ उवेह एरण बहिया य लोग, से सव्वलोगम्सि जे केइ विष्णु ।
ܙܕ
सूक्ति त्रिवेणी
- १,४१२
-- ११४१२
- १\४/२
-- ११४१२
- ११४१३
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आचाराग की सूक्तियां
उन्नीस ७६ जो वन्धन के हेतु है, वे ही कभी मोक्ष के हेतु भी हो सकते हैं, और जो मोक्ष के हेतु है, वे ही कभी वन्धन के हेतु भी हो सकते हैं।
जो व्रत उपवास आदि सवर के हेतु है, वे कभी कभी सवर के हेतु नहीं भी हो सकते है । और जो आत्रव के हेतु है, वे कभी-कभी आत्रव के हेतु नहीं भी हो सकते है।
[ात्रव और मवर आदि सब मूलत. माधक के अन्तरंग भावो पर आधारित है।
८० मृत्यु के मुख मे पडे हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो
सकता । ८१ हम ऐसा कहते हैं, ऐमा बोलते हैं, ऐनी प्रत्पणा करते है, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं कि
किसी भी प्राणी, किसी भी मूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिए, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिए, न उन को गुलामो की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हे परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए।
उक्त हिमा धर्म मे किमी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान मे रखिए।
हिसा वस्तुत आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है । ८२ सर्वप्रथम विभिन्न मत-मतान्तरो के प्रतिपाद्य सिद्धान्त को जानना चाहिए,
और फिर हिंसाप्रतिपादक मतवादियों से पूछना चाहिए कि
"हे प्रवादियो । तुम्हे सुख प्रिय लगता है या दु ख ?'
"हमे दु ख अप्रिय है, सुख नहीं" यह सम्यक स्वीकार कर लेने पर उन्हे स्पष्ट कहना चाहिए कि "तुम्हारी ही तरह विश्व के समस्त प्राणी, जीव, मूत और सत्वो को भी दुख बशान्ति (व्याकुलता) देने वाला है,
महाभय का कारण है और दु खरूप है ।" ८३ अपने धर्म से विपरीत रहने वाले लोगो के प्रति भी उपेक्षाभाव (= मध्यस्थता का भाव) रखो।
जो कोई विरोधियो के प्रति उपेक्षा- तटस्थता रखता है, उद्विग्न नही होता है, वह समग्र विश्व के विद्वानो मे अग्रणी विद्वान है।
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वीस
मूक्ति त्रिवेणी
८४ एगमप्पारण सपेहाए धुणे सरीरग।
-११४३
८५ कसेहि अप्पारण, जरेहि अप्पाण।
~११४।३
८६. जहा जून्नाइ कट्ठाइ हव्ववाहो पमत्थइ,
एव अत्तसमाहिए अरिगहे ।
-~-~१।४३
८७ जस्स नत्थि पुरा पच्छा,
मज्झे तस्स यो सिया ?
--१४४
८८ से हु पन्नागमते बुद्ध पारभोवरए ।
-~-११४४
८६ जे छेए से सागारिया न सेवेइ ।
-११५१
६० गुरू से कामा, तयो से मारस्स अतो,
जयो से मारस्स अतो, तयो से दूरे। नेव से अतो नेव दूरे।
-~~~११५११
९१ उठ्ठिए नो पमायए।
-~-११५२
३२ पुढो छंदा इह माणवा।
-~-१५२
६३ वन्धप्पमोक्खो अज्झत्येव ।
-११५२
१४ नो निन्हवेज्ज वीरिय।
--११५।३
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आचाराग की मूक्तियां
इक्कीम ८४. आत्मा को गरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त गरीर को धुन डालो ।
८५ अपने को कम करो, तन-मन को हल्का करो।
अपने को जोर्ग करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो। ८६ जिस तरह अन्नि पुगने मूबे काठ को गोघ्र ही भस्म कर डालती है,
उनी तरह सतत अप्रमत्त रहनेवाला आत्मसमाहित नि स्पृह माचक
कर्मों को कुछ ही क्षणो मे श्रीण कर देता है । ८७ जिसको न कुछ पहले है सोर न कुछ पीछे है, उसको वीच मे कहा से होगा?
[जिम मायक को न पूर्वभुक्त भोगो का स्मरण होता है, और न भविप्य के भोगो की ही कोई कामना होती है, उसको वर्तमान मे
भोगामक्ति कैसे हो सकती है ? ] ८८ जो आरंभ (=हिला) मे उपग्त है, वही प्रज्ञानवान् बुद्ध है ।
८६ जो कुगल हैं, वे काम भोगो का सेवन नहीं करते।
१० जिसकी कामनाएं तीव्र होती है, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है, और जो
मृत्यु से ग्रस्त होता है वह गाश्वत मुग्त्र से दूर रहता है।
परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है, और न गाश्वन मुम्ब से दूर । ९१ जो कर्तव्यपथ पर उठ खडा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नही करना
चाहिए।
६२. मसार मे मानव भिन्न-भिन्न विचार वाले है ।
६३ वस्नुन बन्धन और मोक्ष अन्दर मे ही है ।
६४ अपनी योग्य शक्ति को कभी छुपाना नहीं चाहिए ।
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बाईस
६५ इमेण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झो ।
१६ जुद्धारिहं खलु दुल्लभ ।
६७ वयसा वि एगे बुइया कुप्पति मारणवा ।
६८ वितिगिच्छासमावन्नेर अप्पारण नो लहई समाहिं ।
६६ तुमसि नाम तं चेव ज हतव्व ति मन्नसि । तुमसि नाम तं चैव ज श्रज्जावेयव्व ति मन्नसि । तुमसि नाम त चेव ज परियावेयव्व ति मन्नसि ।
१०० जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया । जेण वियाग से आया । त पडुच्च पडिसखाए ।
१०१ सव्वे सरा नियट्टति,
तक्का जत्थ न विज्जइ । मई तत्थ न गाहिया ।
१०२ नो प्रत्तारण ग्रासाएज्जा, नो परं आसाएज्जा ।
१०३ गामे वा अदुवा रणे ।
सूक्ति त्रिवेणी
नेव गामे नेव रण्णे, धम्ममायाह ।
- १/५/३
- ११५१३
- ११५१४
- ११५१५
-१५१५
-११५२५
- ११५६
- ११६१५
- ११८११
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आचाराग की सूक्तियां
तेईस
६५ अपने अन्तर (के विकारो) से ही युद्ध कर ।
वाहर के युद्ध से तुझे क्या मिलेगा ? ६६ विकारो से युद्ध करने के लिए फिर यह अवसर मिलना दुर्लभ है ।
९७ कुछ लोग मामूली कहा-सुनी होते ही क्षुब्ध हो जाते है ।
१८ गकागील व्यक्ति को कभी ममाघि नहीं मिलती।
६६. जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है।
जिसे तू शामित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
[स्वस्प दृष्टि से सव चैतन्य एक समान है। यह अहत भावना ही अहिमा का मूलाधार है ]
१०० जो आत्मा है, वह विनाता है।
जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है ।
जानने की इस गक्ति मे ही आत्मा की प्रतीति होती है । २०१ आत्मा के वर्णन मे सब के सब गब्द निवृत्त हो जाते हैं
ममाप्त हो जाते है। वहां तक की गति भी नही है ।
और न बुद्धि ही उमे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है । १०२ न अपनी अवहेलना करो, और न दूसरो की।
१०३ धर्म गांव मे भी हो सकता है, और अरण्य (=जगल) मे भी। क्योकि
वस्तुत. धर्म न गाँव मे कही होता है और न अरण्य मे, वह तो अन्तरात्मा मे होता है।
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सूक्ति त्रिवेणी
चौबीस १०४. जेवऽन्ने एएहि काएहि दंड समारभति,
तेसि पि वय लज्जामो।
-~११
१०५ समियाए धम्मे पारिएहि पवेइए।
-१८३
१०६ एगे अहमसि, न मे अत्थि कोइ,
न याऽहमवि कस्स वि।
-~-१८६
१०७ जीविय नाभिक खिज्जा,
__मरणं नो वि पत्थए। दुहयो वि न सज्जेज्जा,
जीविए मरणे तहा ॥
~१८८४
१०८ गथेहि विवित्तहि, आउकालस्स पारए।
-१८८।११
१०६, इ दिएहि गिलागतो, समिय आहरे मुगी।
तहा वि से अगरहे, अचले जे समाहिए ।
-~~१८।८।१४
११० वोसिरे सव्वसो काय, न मे देहे परीसहा ।
-१८८१२१
१११. नो वयण फरुसं वइज्जा।
११२ नो उच्चावय मण नियछिज्जा।
-२३।१
११३. राइरिणयस्स भासमारणस्स वा वियागरेमारणस्स वा
नो अंतरा भासं भासिज्जा।
-~~~२१३१३
११४. मरण परिजाणड से निगथे।
-~~२।३।१५।१
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जात्राराग की सूक्तियां
पच्चीस
१०४ यदि कोई अन्य व्यक्ति भी धर्म के नाम पर जीवो की हिसा करते हैं, तो हम इनमे भी लज्जानुभूति करते हैं ।
१०५ आर्य महापुरुषों ने समभाव मे धर्म कहा है ।
में एक है - अकेला है ।
न कोई मेरा है, और न में किसी का ह 1
१०९
१०७. साधक न जीने की आकाक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनो में ही किसी तरह की आमक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे ।
मात्रक को अन्दर और बाहर की सभी ग्रन्थियो (बन्धन रूप गांठो) मे मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूर्ण करनी चाहिए ।
१०६ शरीर और इन्द्रियो के क्लान्त होने पर भी मुनि अन्तर्मन मे समभाव ( = स्थिरता ) रखे | इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी सायक निद्य नहीं है, यदि वह अन्तरग में अविचल एव समाहित है तो मव प्रकार से शरीर का मोह छोड दीजिए, फलत परीपहो के आने पर विचार कीजिए कि मेरे शरीर मे परीपह है ही नही । १११ कठोर = कटु वचन न बोले ।
१०८
११०
११२
मकट मे मन को ऊँचा नीचा अर्थात् डाँवाडोल नही होने देना चाहिए ।
११३ अपने मे वडे गुरुजन जब वोलते हो, विचार चर्चा करते हो, तो उनके बीच मे न वोले ।
११४ जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है वही सच्चा निग्रन्थसाधक है ।
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छब्बीस
मुक्ति त्रिवेणी ११५. अणुवीड भासी से निग्गथे।
-२।३।१५।२ ११६. अणणुवीइ भासी से निग्गये समावइज्जा मोसं वयगाए ।
-२।३।१५।२ ११७. लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए।
-२।३।१५।२ ११८. अगणुन्नविय पाणभोयगभोर्ड से निग्गथे अदिन्न भुजिज्जा।
-~-२१३ १५३३ ___ ११६ नाइमत्तपाणभोयरणभोई से निगथे।
-२१३३१५१४ १२० न सक्का न सोउ सद्दा, सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।
-२६३।१५।१३१ १२१ नो सक्का रूवमद्द, चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।
-२।३।१५।१३२ १२२ न सक्का गधमग्धाउ, नासाविसयमागय । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।
-२।३।१५।१३३ १२३. न सक्का रसमस्याउ जीहाविसयमागय । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥
-२।३।१५।१३४ १२४ न सक्का फासमवेएउ , फासविसयमागय । गगदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥
-२।३।१५।१२५ १२५ समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पन्ना य जस्मो य वड्ढड।
-~-२१४११६१४० ao
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सत्ताईस
आचाराग की मूक्तिया ११५ जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निग्रन्थ है ।
११६. जो विचारपूर्वक नही बोलता है, उसका वचन कभी-न-कभी असत्य से
दूपित हो सकता है। ११७ लोभ का प्रमग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है।
११८. जो गुरुजनो की अनुमति लिए विना भोजन करता है वह अदत्तभोजी
है, अर्थात् एक प्रकार मे चोरी का अन्न खाता है। ११६ जो वावग्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है वही ब्रह्मचर्य का
माधक मच्चा निन्य है। १२० यह गक्य नही है कि कानो मे पड़ने वाले अच्छे या बुरे गब्द सुने न
जाएं, अत. शब्दो का नही, शब्दो के प्रति जगने वाले राग द्वप का
त्याग करना चाहिए। १२१ यह शक्य नहीं है कि आँखो के मामने आने वाला अच्छा या बुरा
स्प देखा न जाए, अत. स्प का नही, किंतु स्प के प्रति जागृत होने
वाले राग द्वाप का त्याग करना चाहिए । १२२ यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आया हुआ सुगन्ध या दुर्गन्व
मघने मे न आए, अत गध का नही, किंतु गध के प्रति जगने वाली
राग द्वप की वृत्ति का त्याग करना चाहिए । १२३ यह गक्य नही है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने
मे न आये, अत रस का नही, कितु रम के प्रति जगने वाले रागद्वीप
का त्याग करना चाहिए। १२४ यह शक्य नही है कि गरीर मे स्पृष्ट होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श
की अनुमति न हो, अत स्पर्म का नही, किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले
रागद्वप का त्याग करना चाहिए । १२५ अग्नि-शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक
के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढते रहते हैं ।
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सूत्रकृतांग को सूक्तियाँ
? बुझिज्जत्ति तिउट्टिज्जा, वधणं परिजारिगया ।
~१।१।१।१
२ ममाइ लुप्पई वाले।
--११११११४
३ तमानो ते तम जति, मदा आरभनिस्सिया।
-११११११४
४ नो य उप्पज्जए अस ।
---११११६
५ जे ते उ वाइगो एव, न ते ससारपारगा।
-१शश२१
६. असकियाइ संकति, सकियाइ असंकियो।
--११।२।१०
७ अप्पगो य पर नाल, कुतो अन्नाणसासिउ।
-~१।०२।१७
८ अघो अंध पहं रिंगतो, दूरमाणुगच्छइ ।
-श११२।१६
६ एव नक्काड साहिता, धम्माधम्मे अकोविया ।
दुक्न ते नाइतुट्टति, सउगी पंजर जहा ॥
-शश।२२
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सूत्रकृतांग को सूक्तियां
१ सर्वप्रथम बन्धन को नमनो, आर समझ पर फिर उसे नोडो ।
२ 'यह मेरा है-वह मेग है'-इस ममत्व बुद्धि के कारण ही वाल जीव
विलुप्त होते है। : परपीडा में लगे हुए अनजानी जीव अन्धकार मे अन्धकार की ओर जा
रहे है। ४ असत् कभी सत् नहीं होता ।
५ जो अमत्य की प्रस्पणा करते हैं, वे ससार-सागर को पार नही कर
सकते। मोहमूढ मनुप्य जहा वस्तुत भय की भाशका है, वहाँ तो भय की आगका करते नही है । और जहाँ भय की आशका जैसा कुछ नही है, वहाँ भय
की आशका करते हैं। ७. जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरो पर अनुशासन कैसे
कर सकता है ? ८. अन्या अन्वे का पथप्रदर्शक वनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक
जाता है। है. जो धर्म और अधर्म से सर्वथा अनजान व्यक्ति केवल कल्पित तर्कों के
आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म बन्धन को तोड नही सकते, जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है ।
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तीस
सूक्ति त्रिवेणी
१० सय सय पससता, गरहता पर वय । जे उ तत्थ विउस्सन्ति, ससार ते विउस्सिया।
--१११।२।२३ ११ जहा अस्साविणि णाव, जाइअधो दुरूहिया । इच्छड पारमागतु, अतरा य विसीयई ।।
-१।१।२।३१ __ १२ समुप्पायमजाणता, कह नायति सवर ?
-~११३।१० १३ अणुक्कसे अप्पलीणे, मझेरण मुणि जावए ।
-~-११।४।२ १४. एग खु नाणिणो सार, ज न हिंसइ किंचण । अहिंसा समय चेव, एतावन्तं वियाणिया ॥
-११।४।१० १५ सवुज्झह, किं न बुज्झह ?
___सबोही खलु पेच्च दुल्लहा। रगो हूवरणमति राइयो, नो सुलभ पुणरावि जीविय ॥
-१२।१६१ १६. सेणे जहा वट्य हरे, एव आउखयम्मि तुई।
११।११२ १७ नो सुलहा मुगई य पेच्चयो ।
-~-१२।१।३ १८. सयमेव कडेहिं गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठय ।
----१२।१४ १६. ताले जह वंधणच्चुए, एव पाउखयमि तुट्टती।
-१.२०१६ २०. जइ वि य णिगणे किसे चरे, जइ वि य भुजे मासमतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, अागता गव्भायऽगतसो ॥
~~१२।१६
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सूत्रकृताग की मूक्तिया
इक्कतीस १०. जो अपने मत की प्रगमा, और दूसरो के मत की निन्दा करने मे ही
अपना पाण्डित्य दिखाने है, वे एकान्तवादी समार चक्र में भटकने ही रहते हैं। अनानी नाधक उग जन्माष व्यक्ति के समान है, जा सछिद्र नाका पर चढ कर नदी किनारे पहुचना तो चाहता है, किन्तु किनारा आने मे
पहने ही बीच प्रवाह में डूब जाता है। १२ जो दु खोत्पत्ति का कारण ही नहीं जानते, वह उसके निरोध का कारण
कमे जान पायेंगे ? १३ महकार रहित एव अनासक्त भाव से मुनि को रागढ प के प्रमगो मे
ठीक बीच मे तटस्थ यात्रा करनी चाहिए । १४. जानी होने का भार यही है कि किनी भी प्राणी की हिमा न करे ।
'अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है, बम, इतनी बात सदैव ध्यान
में रखनी चाहिए। १५ अभी इनी जीवन मे समझो, क्यो नही समझ रहे हो ? मरने के बाद
परलोक मे मवोधि का मिलना कठिन है । जमे बीती हुई राते फिर लौटकर नहीं आती, उसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाय नही आता ।
१६ एक ही झपाटे मे बाज जैसे वटेर को मार डालता है, वैसे ही आयु
क्षीण होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेता है । १७. मरने के बाद सद्गति सुलभ नही है । (अत जो कुछ सत्कर्म करना है,
यही करो)। १८. आत्मा अपने स्वय के कमों से ही वन्धन मे पडता है। कृत कर्मों को
भोगे विना मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार ताल का फल वृन्त से टूट कर नीचे गिर पडता है, उसी
प्रकार आयु क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है । २०. भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे, और शरीर को कृश एव
क्षीण कर डाले, किन्तु जो अन्दर मे दम रखता है, वह जन्म मरण के अनंत चक्र मे भटकता ही रहता है ।
१६.
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बत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
२१. पलियत मणुयाण जीविय ।
-~-१२।१११०
२२. सउणी जह पसुगु डिया,
विहुरिणय धसयई सिय रय। एव दवियोवहारणव,
कम्म खवइ तवस्सिमाहरण ।
-१२।११५
२३. मोह जति नरा असवुडा ।
-१।२।१।२०
२४. अहऽसेयकरी अन्नेसि इ खिरणी।
-१५१२।१
२५. तयस व जहाइ से रय ।
-१२।२।२
२६. जो परिभवई पर जग, ससारे परिवत्तई महं ।
-१।२।२।१
२७. महय पलिगोव जाणिया,
जा वि य वदणपूयणा इह ।।
-~११२।२।११
२८. मुहुमे सल्ले दुरुद्धरे।
-१२२१११
२६. सामाइयमाहु तस्स जं,
जो अप्पाण भए ण दसए ।
-१२।२।१७
३०. अठे परिहायती वहु , अगिरग न करेज्ज पडिए ।
~११२।२।१६ ३१. बाले पाहिं मिज्जती।
-----१२।२।२१
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मूत्रकृताग की मूक्तिया
तेतीस
२१ मनुष्यो का जीवन एक बहुत ही अल्प एव मान्त जीवन है ।
२२ मुमुक्षु तपस्वी अपने कृत कर्मों का वहुत गीघ्र ही अपनयन कर देता है,
जैसे कि पक्षी अपने परो को फडफडाकर उन पर लगी धूल को झाड देता है।
२३ इन्द्रियो के दाम अनवृत मनुप्य हिताहित निर्णय के क्षणो मे मोह
मुग्ध हो जाते हैं। २४ दूसरो की निन्दा हितकर नहीं है ।
२५ जिम प्रकार सर्प अपनी कचुनी को छोड़ देता है, उसी प्रकार सावक
अपने कमों के आवरण को उतार फेंकता है। २६ जो दूसरो का परिभव अर्थात् तिरस्कार करता है, वह ससार वन मे
दीर्घ काल तक भटकता रहता है। २७ साधक के लिए वदन और पूजन एक बहुत बडी दलदल है ।
२८ मन मे रहे हुए विकारो के दम शल्य को निकालना कभी-कभी बहुत
कठिन हो जाता है। २६ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त
रखता है।
३० बुद्धिमान को कभी किसी से कलह-झगडा नही करना चाहिए । कलह ने
बहुत बडी हानि होती है। ३१. अज्ञानी आत्मा पाप करके भी उस पर अहकार करता है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
चौतीस ३२. अत्तहिय खु दुहेण लब्भई ।
-१२।२।३०
३३. मरण हेच्च वयति पडिया।
-११२।३।१
३४. अदक्खु कामाइ रोगव ।
-~~१२।३।२
३५ नाइवहइ अबले विसीयति ।
-११।३३५
३६. कामी कामे न कामए, लद्ध वावि अलद्ध कण्हुई ।
-१२।३।६
३७. मा पच्छ असाधुता भवे,
अच्चेही अणुसास अप्पग।
-१२।३७
३८ न य सखयमाह जीविय ।
-११२।३।१०
३६ एगस्स गती य आगती।
-११२।३।१७
४० सव्वे सयकम्मकप्पिया।
--१२।३।१८
४१. इणमेव खण वियारिणया।
-११।३३१६
४२ सूरं मण्णइ अप्पाण, जाव जेयं न पस्सती ।
-११३।११
४३ नातीण सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिरणी।
---१।३।१।१६
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पंतीस
मूत्रकृताग को सूक्तिया ३२ आत्महित का अवसर मुश्किल से मिलता है ।
३३. प्रवुद्ध नाधक ही मृत्यु की सीमा को पार कर अजर अमर होते है।
३४ सच्चे माधक की दृष्टि में काम-भोग रोग के ममान हैं।
३५ निर्बल व्यक्ति भार वहन करने में असमर्थ होकर मार्ग मे ही कही खिन्न
होकर बैठ जाता है। ३६ साधक मुखाभिलापी होकर काम-भोगो की कामना न करे, प्राप्त भोगो
को भी मप्राप्त जैसा कर दे, अर्थात् उपलब्ध भोगो के प्रति भी नि.स्पृह रहे ।
३७ भविष्य मे तुम्हे कष्ट भोगना न पड़े, इसलिए अभी ने अपने को विषय
वासना से दूर रखकर अनुशामित करो।
३८
जीवन-मूत्र टूट जाने के बाद फिर नहीं जुड़ पाता है।
३६ आत्मा (परिवार आदि को छोड कर) परलोक मे अकेला ही गमनागमन
करता है। ४० मभी प्राणी अपने कृत कर्मों के कारण नाना योनियो में भ्रमण करते है।
४१ जो क्षग वर्तमान मे अस्थित है, वही महत्व पूर्ण है, अत उमे सफल
बनाना चाहिए। ४२ अपनी बडाई मारने वाला क्षुद्रजन तभी तक अपने को शूरवीर मानता
है, जब तक कि सामने अपने से बली विजेता को नहीं देखता है । ४३ दुर्वल एव अज्ञानी साधक कष्ट आ पडने पर अपने स्वजनो को वैसे ही
याद करता है, जैसे कि लड-झगड कर घर से भागी हुई स्त्री गुडो या चोरो मे प्रताडित होने पर अपने घर वालो को याद करती है ।
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छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
४४. तत्थ मंदा विसीयति, उज्जाणसि जरग्गवा ।
-~११३।२।२१
४५ नातिकडूइयं सेय, अरुयस्सावरज्झति ।
-~११३।३।१३
१६ कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए।
---१।३।३। ०
४७ मा एय अवमन्नता, अप्पेण लुम्पहा बहु।
--१३।४।७
४८ जेहिं काले परक्कत, न पच्छा परितप्पए।
-१३।४।१५
४६ सीह जहा व कुणिमेण, निब्भयमेग चरति पासेण ।
-११४।१।८
५०. तम्हा उ वज्जए इत्थी,
विसलित्त व कण्टग नच्चा।
-११४१११११
५१. जहा कड कम्म, तहासि भारे ।
-~~१५२११२६
५२. एगो सय पच्चणुहोइ दुक्ख ।
~११५।२।२२
५३. जं जारिस पुत्वमकासि कम्म,
तमेव आगच्छति सपराए ।
-११।२।२३
५४. दारणारण सेठें अभयप्पयाण
-१।६।२३
५५ तवेसु वा उत्तम बंभचेर ।
----१६।२३
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सूत्रकृताग की सूक्तिया
सेंतीस
४४. अज्ञानी सावक सकट काल मे उसी प्रकार खेदखिन्न हो जाते हैं, जिस
प्रकार बूढे वल चढाई के मार्ग मे । ४५. घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं, क्योकि खुजलाने से घाव अधिक
फैलता है।
४६. भिक्षु प्रसन्न व गान्त भाव से अपने रुग्ण साथी की परिचर्या करे ।
४७. सन्मार्ग का तिरस्कार करके तुम अल्प वैपयिक सुखो के लिए अनन्त
मोमसुख का विनाश मत करो।
४८. जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे वाद मे पछताते नहीं ।
४६ निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मास के लोभ से जाल में फस
जाता है (वैसे ही आसक्तिवग मनुप्य भी)। ५०. ब्रह्मचारी स्त्रीसंसर्ग को विपलिप्त कटक के समान समझकर उससे
वचता रहे।
५१. जैसा किया हुआ कम, वैसा ही उसका भोग ।
५२. आत्मा अकेला ही अपने किए दु ख को भोगता है ।
५३. अतीत मे जमा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में
उपस्थित होता है।
५४ अभय दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है।
५५. तपो मे सर्वोत्तम तप है-ब्रह्मचर्य ।
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अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी
५६ सच्चेसु वा अरणवज्जं वयति ।
-१६।२३
५७ सकम्मुणा विप्परियासुवेइ ।
-१७।११
५८ उदगस्स फासेरण सिया य सिद्धी,
सिज्झिसु पाणा बहवे दगसि ।
-~११७१४
५६ नो पूयण तवसा आवहेज्जा।
-~११७१२७
६०. दुक्खेण पुढे धुयमायएज्जा।
-~~~१७१२६
६१. पमाण कम्ममाहसु, अप्पमाय तहावरं ।
-१२८३
६२. आरो परो वा वि, दुहा वि य असजया।
-~११८६
६३. पावोगहा हि प्रारभा, दुक्खफासा य अतसो ।
-~११८७
६४. वेराइ कुव्वई वेरी, तो वेरेहिं रज्जती।
-~-श८७
६५ जहा कुम्मे सअगाई, सए देहे समाहरे ।
एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ।।
-~~शा१६
६६. सातागारव गिहुए, उवसतेऽरिणहे चरे ।
-~-शा१८
६७ सादिय न मुस बूया।
-११८१६
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सूत्रकृतांग को सूक्तिया
उनतालीस
५६ सत्य वचनो मे भी अनवद्य सत्य ( हिंसा-रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ है ।
५७. प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है ।
५८ यदि जलस्पगं ( जलस्नान ) से ही सिद्धि प्राप्त होती हो, तो पानी मे रहने वाले अनेक जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते ?
५६
६०
तप के द्वारा पूजा प्रतिष्ठा की अभिलापा नही करनी चाहिए ।
दुःख आ जाने पर भी मन पर मयम रखना चाहिए ।
६१ प्रमाद को कर्म -- आश्रव और अप्रमाद को अकर्म-सवर कहा है ।
६२. कुछ लोग लोक और परलोक दोनो ही दृष्टियों से असयत होते है ।
६३ पापानुष्ठान अन्तत दुःख ही देते है ।
६४ वैरवृत्ति वाला व्यक्ति जब देखो तव वैर ही करता रहता है । वह एक के बाद एक किए जाने वाले वैर से वैर को बढाते रहने मे ही रस लेता है ।
६५
कछुआ जिस प्रकार अपने श्रगो को अन्दर मे समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अव्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियो से सुरक्षित रखे ।
દઃ साधक सुख-सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर, उपशात एव दम्भरहित होकर विचरे ।
६७. मन मे कपट रख कर झूठ न बोलो ।
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चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
६८ अप्पपिण्डासि पाणासि, अप्प भासेज्ज सुव्वए।
-११८२५
६६ झारणजोगं समाहट्ट, कायं विउसेज्ज सव्वसो।
-~१८।२६
७०. तितिक्ख परम नच्चा ।
-~-~११८।२६
__ ७१ परिग्गहनिविट्ठाण, वेर तेसिं पवड्ढई ।
-- १६।३
__ ७२. अन्न हरति तं वित्त , कम्मी कम्मेहि किच्चती।
-१६४
७३. अणुचितिय वियागरे।
-
२५
७४ जे छन्नं तं न वत्तव्यं ।।
-१९२६
७५ तुम तुमति अमणुन्न, सव्वसो त न वत्तए।
-शहा२७
७६. रणातिवेलं हसे मुणी।
-१।६।२६
७७ वुच्चमाणो न सजले।
-~१६।३१
७८ सुमणे अहियासेज्जा, न य कोलाहल करे ।
-१६।३१
७६ लद्धे कामे न पत्येज्जा।
--१९३२
८० सव्वं जग तू समयागुपेही,
पियमप्पिय कस्स वि नो करेज्जा।
-~-१११०१६
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इकतालीस
मूत्रकृतांग की मूक्तिया ६८. सुनती साधक कम खाये, कम पीये, और कम बोले ।
६६ ध्यानयोग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना
चाहिए। ७० तितिक्षा को परम धर्म समझकर आचरण करो।
७१ जो परिग्रह (मंग्रह वृत्ति) मे व्यस्त हैं, वे ससार में अपने प्रति वैर ही
बढाते है। ७२ ययावसर नचित धन को तो दूसरे उडा लेते हैं, और सग्रही को अपने
पापकमों का दुप्फल भोगना पडता है । ७३ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले ।
७४ किसी की कोई गोपनीय जैसी वात हो, तो नही कहना चाहिए ।
७५ 'तू-तू'-जमे अभद्र गन्द कभी नहीं बोलने चाहिए।
७६ मर्यादा से अधिक नही हंनना चाहिए ।
७७ साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध
न करे। ७८ माधक जो भी कप्ट हो, प्रसन्न मन मे सह्न करे, कोलाहल न करे ।
७६ प्राप्त होने पर भी कामभोगो की अभ्यर्थना (स्वागत) न करे ।
८० समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता
है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी अपने पराये की भेदबुद्धि से परे होता है।
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वियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
८१ सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता,
दूरे चरती परिसंकमाणा। एवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा।
-१।१०।२०
८२ बालजणो पगभई।
-१।११।२
८३ न विरुज्झेज्ज केण वि ।
-~-१।१११२
८४ गाइच्चो उएइ ण अत्थमेति,
ण चंदिमा वड्ढति हायती वा ।
-१६१२७
८५ जहा हि अंधे सह जोतिणावि,
रूवादि रगो पस्सति हीगणेत्त ।
-११२।८
८६. आसु विज्जाचरण पमोक्खं ।
-१।१२।११
८७. न कम्मुणा कम्म खवेत्ति बाला,
अकम्मुणा कम्म खवेति धीरा।
-~-१।१२।१५
८८. संतोसिणो नो पकरेति पाव ।
---१११२।१५
८६. ते आत्तो पासइ सव्वलोए ।
-१।१२।१८
६० अलमप्परणो होति अल परेसि ।
-१।१२।१६
६१ अन्न जण पम्सति विवभूय ।
-१११३८
६२. अन्न जणं खिसइ बालपन्न ।
--१।१३।१४
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सूत्रकृताग की सूक्तिया
तेतालीस
जिस प्रकार मृगशावक सिंह से डर कर दूर-दूर रहते है, उसी प्रकार बुद्धिमान धर्म को जानकर पाप से दूर रहे |
८१
८२
८ ३
८४ वस्तुत. सूर्य न उदय होता है, न अस्त होता है । और चन्द्र भी न वढता है, न घटता है । यह सव दृष्टि भ्रम है ।
८५
अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है ।
जिस प्रकार अन्य पुरुष प्रकाश होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण रूपादि कुछ भी नही देख पाता है, इसी प्रकार प्रज्ञाहीन मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सत्य के दर्शन नही कर पाता । ८६. ज्ञान और कर्म ( विद्या एव चरण) मे ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
किसी के भी साथ वैर विरोध न करो ।
८८
८७. अज्ञानी मनुष्य कर्म (पापानुष्ठान) से कर्म का नाश नही कर पाते । किन्तु ज्ञानी धीर पुरुष अकर्म (पापानुष्ठान का निरोध) से कर्म का क्षय कर देते हैं ।
सन्तोपी साधक कभी कोई पाप नही करते ।
६०
८६ तत्वदर्शी समग्र प्राणिजगत् को अपनी आत्मा के समान देखता है ।
ज्ञानी आत्मा हो 'स्व' और 'पर' के कल्याण में समर्थ होता है ।
१. अभिमानी अपने अहकार मे चूर होकर दूसरो को सदा विम्बभूत ( परछाई के समान तुच्छ) मानता है ।
६२ जो अपनी प्रज्ञा के अहकार मे दूसरो की अवज्ञा करता है, वह मूर्ख - बुद्धि ( वाप्र ) है |
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सूक्ति त्रिवेणी
चौवालीस ६३ जे छेय से विप्पमायं न कुज्जा।
-१।१४।१
१४. कह कहं वा वितिगिच्छतिण्णे।
-१।१४।६
६५. सूरोदए पासति चक्खुरणेव ।
-१३१४।१३
६६ न यावि पन्ने परिहास कुज्जा ।
~११४।१९
६७ नो छायए नो वि य लूसएज्जा।
-~-१।१४।१६
६८, नो तुच्छए नो य विकत्थइज्जा।
-~१११४।२१
९६ विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।
-११४२२
१००. निरुद्धग वावि न दीहइज्जा ।
-~~-१।१४ २३
१०१. नाइवेल वएज्जा।
-~-१३१४।२५
१०२ से दिट्ठिम दिछि न लूसएज्जा।
-~११४२५
१०३ भूएहिं न विरुज्झेज्जा।
-~१।१५।४
१०४ भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
-~-१९५५
१०५ तुट्टति पावकम्मारिण, नवं कम्ममकुन्वयो।
-११५१६
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पंतालीस
सूत्रकृताग को सूक्तिया ६३ चतुर वही है जो कभी प्रमाद न करे ।
१४. मुमुक्षु को कमे-न-कैसे मन की विचिकित्सा मे पार हो जाना चाहिए ।
६५ सूर्योदय होने पर (प्रकाग हाने पर) भी आँख के विना नहीं देखा जाता है,
वैने ही स्वय में कोई कितना ही चतुर क्यो न हो, निर्देशक गुरु के अभाव
मे तत्वदर्शन नहीं कर पाता। १६ बुद्धिमान किमी का उपहास नहीं करता।
६७ उपदेगक सत्य को कभी छिपाए नही, और न ही उसे तोड मरोड कर
उपस्थित करे। ६८. माधक न किमी को तुच्छ-हल्का बताए और न किसी की झूठी प्रशसा
करे। ६६. विचारशील पुरुप सदा विभज्यवाद अर्थात् म्याद्वाद से युक्त वचन का
प्रयोग करे। १०० थोडे से मे कही जानी वाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करे ।
१०१ साधक आवश्यकता से अधिक न बोले ।
१०२ सम्यग्दृष्टि साधक को सत्य दृष्टि का अपलाप नही करना चाहिए ।
१०३ किसी भी प्राणी के साथ वर विरोध न वढाएँ ।
१०४ जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है,
वह जल मे नौका के समान है, अर्थात् वह ससार सागर को तैर जाता
है, उसमे डूबता नही है। १०५. जो नये कर्मों का वन्धन नही करता है, उसके पूर्ववद्ध पापकर्म भी
नष्ट हो जाते हैं।
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छियालीस
१०६. अकुव्व एव रात्थि ।
१०७ अगुसासरणं पुढो पाणी ।
१०८ से हु चक्खू मणुस्सारण, जे कखाए य अन्तए ।
१०६ इस्रो विद्ध समारणस्स पुरणो सबोही दुल्लभा ।
११० अन्नो जीवो, अन्न' सरीर ।
१११ अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो ग्रहमंसि ।
११२. अन्नस्स दुक्ख अन्नो न परियाइयति ।
११३. पत्तय जायति पत्तये मरइ ।
११४ गो अन्नस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा, गो पारणस्स हेउ धम्म माइक्खेजा ।
११५ अगिला धम्ममा इक्खेज्जा, कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेजा ।
११६. सारदसलिल व सुद्ध हियया, .. विहग इव विप्पमुक्का, वसुधरा इव सव्व फासविसहा ।
११७ धम्मेरगं चैव वित्ति कप्पेमारणा विहरंति ।
११८. दक्खु, व दक्खुवाहियं सद्दहसु ।
सूक्ति त्रिवेणी
- १११५७
-१११५।११
- १।१५।१४
- १११५१.८
- २२११६
- २/१/१३
- २।१।१३
-२।१।१३
- २११११५
-२।१।१५
२१३८
-२२१३६
- २१३।११.
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सुवकृतांग की मूक्तिया
तालीस
१०६ जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भाव कर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का वध नही होता ।
एक ही धर्मतत्त्व को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक-पृथक रूप से ग्रहण करता है ।
१०७
१०८ जिसने काक्षा - आसक्ति का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यो के लिए पथप्रदर्शक चक्षु है ।
१०६. जो अज्ञान के कारण अव पथभ्रष्ट हो गया है, उसे फिर भविष्य मे सवोधि मिलना कठिन है ।
११०. आत्मा और है, शरीर और है ।
१११ शब्द रूप आदि काम भोग (जडपदार्थ) और हैं, मैं (आत्मा) और हूँ ।
११२ कोई किसी दूसरे के दुख को वटा नही सकता ।
११३ हर प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है ।
११४ खाने पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नही करना चाहिए ।
११५. साधक विना किसी भौतिक इच्छा के प्रशातभाव से एक मात्र कर्मनिर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे ।
११६ मुनि जनो का हृदय शरदकालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनो से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दु खो को समभाव से सहन करने वाले होते हैं ।
११७. सद्गृहस्थ धर्मानुकूल हो आजीविका करते हैं ।
११८. नही देखने वालो । तुम देखने वालो की बात पर विश्वास करके चलो ।
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स्थानांग को सूक्तियां
१ एगे मरणे अतिमसारीरियाण।
-१११३६
२ एगा अहम्मपडिबा, ज से आया परिकिलेसति ।
-११११३८
३ एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए।
~११११४०
४. जदत्थि रण लोगे, त सव्व दुपयोभार ।
-२।१
५. दुविहे धम्मे-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव ।
-२१
६. दुविहे बंधे-पेज्जबंधे चेव दोसबधे चेव ।
-~-२।४
७ किंभया पाणा ? .
दुक्खभया पारगा। दुक्खे केण कडे? जीवेणं कडे पमाएणं।
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स्थानांग को सूक्तियां
१. मुक्त होने वाली आत्माओ का वर्तमान अन्तिम देह का मरण ही एक
मरण होता है, और नही । २. एक अधर्म ही ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाता है ।
३ एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है।
४ विश्व मे जो कुछ भी है, वह इन दो गन्दो मे समाया हुआ है-चेतन
और जड । ५. धर्म के दो रूप हैं-श्रु त धर्म तत्त्वज्ञान, और चारित्र धर्म-नैतिक
याचार ।
६ वन्वन के दो प्रकार हैं-प्रेम का वन्वन, और टेप का बन्धन ।
प्राणी किससे भय पाते है ? दुख से । दु.ख किसने किया है ? स्वय आत्मा ने, अपनी ही भूल से ।
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पचास
5. तो ठारगाई देवे पीहेज्जा
माणुस भवं, आरिए सेत्ते जम्मं, सुकुलपच्चायाति ।
2 तम्रो दुस्सन्नप्पा - दुट्ठे, मूढे, वुग्गाहिते ।
१०. चत्तारि सुता - अतिजाते, श्रणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले ।
११. चत्तारि फला
ग्रामे गाम एगे श्राममहुरे । ग्रामे गाम एगे पक्कमहुरे । पक्के णाम एगे ग्राममहुरे । पक्के णाम एगे पक्कमहुरे ।
१२. श्रावायभद्दए गामं एगे गो सवासभद्दए । सवासभद्दए गामं एगे गो आवायभए । एगे वायभए वि संवासभद्दए वि । एगे गो श्रावाय भए, गो सवासभद्दए ।
१३. अप्पणी गामं एगे वज्जं पासइ, गो परस्स । परस्स गाम एगे वज्ज पासइ, गो प्रो । एगे अप्परणो वज्जं पासइ, परस्स वि । एगे गो अप्परगो वज्जं पासइ, गो परस्स ।
१४. दीखे गामं एगे गो दीरणमणे । दोणे गाम एगे णो दीरणसंकप्पे ।
सूक्ति त्रिवेणी
- ३।३
-३१४
--४१
- ४११
-४११
- ४११
-४/२
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स्थानाग की सूक्तिया
इक्यावन
८ देवता भी तीन वातो की इच्छा करते रहते है
___ मनुप्य जीवन, भार्यक्षेत्र में जन्म, और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति ।
६ दुष्ट को, मूर्ख को, और वहके हुए को प्रतिबोध देना-समझा पाना
बहुत कठिन है। १०. कुछ पुत्र गुणो की दृष्टि से अपने पिता से बढकर होते हैं। कुछ पिता
के नमान होते है और कुछ पिता से हीन । कुछ पुत्र कुल का सर्वनाश करने वाले-कुलागार होते हैं ।
कुछ फल कच्चे होकर भी थोडे मधुर होते है । कुछ फल कच्चे होने पर भी पके की तरह अति मधुर होते हैं। कुछ फल पके होकर भी थोडे मधुर होते हैं।
और कुछ फल पके होने पर मति मधुर होते हैं। फल की तरह मनुष्य के भी चार प्रकार होते हैलघुवय मे साधारण समझदार । लघुवय मे बड़ी उम्रवालो की तरह समझदार । वडी उम्र मे भी कम समझदार । बडी उम्र मे पूर्ण समझदार । कुछ व्यक्तियो को मुलाकत अच्छी होती है, किन्तु सहवास अच्छा नही होता। कुछ का सहवास अच्छा रहता है, मुलाकात नहीं । कुछ एक की मुलाकात भी अच्छी होती है बौर सहवास भी । कुछ एक का न सहवास ही अच्छा होता है और न मुलाकात हो । कुछ व्यक्ति अपना दोप देखते हैं, दूसरो का नही । कुछ दूसरो का दोप देखते हैं, अपना नहीं । कुछ अपना दोष भी देखते हैं, दूसरो का भी । कुछ न अपना दोष देखते हैं, न दूसरो का।
१४. कुछ व्यक्ति शरीर व धन आदि से दीन होते हैं। किन्तु उनका मन
और मंकल्प वडा उदार होता है ।
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वावन
सूक्ति त्रिवेणी
१५. चउबिहे संजमे
मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसजमे ।
-४।२
१६ पव्ययराइममाण कोह अणुपविढे जीवे
काल करेड गोरइएसु उववज्जति ।
-~-४२
१७ सेलथभसमाण माण अणपविढे जीवे
कालं करेड णेरडएमु उववज्जति ।
~61२
१८. वसीमूलकेतणासमाण मायं अणुपविट्ठ जीवे
काल करेड गेरइएमु उवज्जति ।
--४२
१६. किमिरागरत्तवत्थसमाण लोभं अणुपविठे जीवे काल करेड नेरइएसु उववज्जति ।
-~-४२ २० इह लोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे मुहफलविवागसंजुत्ता भवति । __इह लोगे मुचिन्ना कम्मा परलोगे मुहफलविवागसंजूत्ता भवंति ।
-४।२। २१. चत्तारि पुप्फा
स्वसपन्ने रणामं एगे गो गंधसपन्ने । गधमपन्ने णाम एगे नो स्वसपन्ने । एगे स्वमपन्ने वि गंधसपन्ने वि । एगे गो स्वसपन्ने गो गवसपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया।
२२. अट्टकरे गामं एगे गो मागकरे ।
मागकरे गामं एगे गो अट्टकरे । एगे अट्ठ करे वि मागाकरे वि । एगे गो अठ्ठ करे, पो मारणकरे ।
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स्थानांग को सूक्तिया
तिरेपन
१५ संयम के चार रूप हैं - मन का संयम, वचन का संयम, शरीर का संयम और उपधि - सामग्री का सयम |
१६. पर्वत की दरार के समान जीवन मे कभी नही मिटने वाला उग्र क्रोव आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।
१७
१८
२०
पत्थर के खंभे के समान जीवन मे कभी नही झुकने वाला श्रहकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।
१६ कृमिराग अर्थात् मजीठ के रंग के समान जीवन मे कभी नही छूटने वाला लोभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।
२१
वास की जड़ के समान अतिनिविड - गाठदार दभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।
इस जीवन मे किए हुए सत् कर्म इस जीवन मे भी सुखदायी होते है । इस जीवन मे किए हुए सत्कर्म अगले जीवन मे भी सुखदायी होते है ।
फूल चार तरह के होते हैंसुन्दर, किन्तु गघहीन । गधयुक्त, किंतु सौन्दर्यहीन |
सुन्दर भी, सुगधित भी
न सुन्दर, न गधयुक्त ।
फूल के समान मनुष्य भी चार तरह के होते हैं ।
[ भौतिक संपत्ति सोन्दर्य है तो आध्यात्मिक सम्पत्ति सुगन्ध है । ]
२२. कुछ व्यक्ति सेवा आदि महत्वपूर्ण कार्य करते है, किंतु उसका अभिमान
नही करते ।
कुछ अभिमान करते हैं, किंतु कार्य नही करते । कुछ कार्य भी करते हैं, अभिमान भी करते हैं । कुछ न कार्य करते हैं, न अभिमान ही करते हैं ।
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चउपन
सूक्ति त्रिवेणी
२३ चत्तारि अवायणिज्जा
अविरणीए, विगइपडिबद्ध, अविप्रोसितपाहुडे, माई।
-४।३
२४ सीहत्ताते णाम एगे रिणक्खंते सीहत्ताते विहरइ।
सीहत्ताते णाम एगे रिणक्खते सियालत्ताए विहरइ । सीयालत्ताए णाम एगे रिणक्खते सीहत्ताए विहरइ। सियालत्ताए गानं एगे शिक्खते सियालत्ताए विहरइ ।
-४।३
२५ सएग लाभेण तुस्सइ
परस्स लाभं णो आसाएइ.. दोच्चा सुहसेज्जा।
-४॥३
२६ चत्तारि समरणोवासगा
अदागसमारणे, पडागसमारणे। खाणसमारणे, खरकटसमाणे ।
-४।३
२७. अप्पणो णाम एगे पत्तिय करेइ, णो परस्स ।
परस्स णामं एगे पत्तिय करेइ, गो अप्पणो। एगे अप्पणो पत्तिय करेइ, परस्सवि । एगे गो अप्पणो पत्तिय करेइ, णो परस्स।
-४॥३
२८ तमे णाम एगे जोई
जोई णाम एगे तमे।
२६ गज्जित्ता णाम एगे णो वासित्ता ।
वासित्ता रणाम एगे गो गज्जित्ता ।
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पचपन
स्थानाग को सूक्तियां २३. चार व्यक्ति शास्त्राध्ययन के योग्य नहीं हैं
अविनीत, चटौरा, झगडालू और धूर्त ।
२४. कुछ साधक निह वृत्ति से साधना पय पर आते हैं, और सिंहवृत्ति से ही
रहते हैं। कुछ सिंह वृत्ति से आने हैं किंतु बाद मे शृगाल वृत्ति अपना लेते है। कुछ शृगाल वृत्ति से आते है, किंतु बाद मे मिह वृत्ति अपना लेते है ।
कुछ शृगाल वृति लिए आते है और शृगाल वृनि से ही चलते रहते है । २५ जो अपने प्राप्त हुए लाभ मे मतुष्ट रहता है, और दूसरो के लाभ की
इच्छा नही रखता, वह सुखपूर्वक सोता है (यह सुख-शय्या का दूसरा पहलू है)
२६. श्रमणोपासक की चार कोटियां हैं
दर्पण के समान-स्वच्छ हृदय । पताका के समान-अस्थिर हृदय । स्थाणु के समान-मिथ्याग्रही ।
तीक्ष्ण कटक के समान-कटुभापी । २७. कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपना ही भला चाहते है, दूमरो का
नहीं । कुछ उदार व्यक्ति अपना भला चाहे विना भी दूसरो का भला करते हैं। कुछ अपना भला भी करते है और दूसरो का भी। और कुछ न अपना भला करते हैं और न दूसरो का । कभी-कभी अन्धकार (अज्ञानी मनुप्य मे) मे से भी ज्योति (मदाचार का प्रकाश) जल उठती है।
और कभी कभी ज्योति पर (ज्ञानी हृदय पर) भी अन्धकार (दुराचार) हावी हो जाता है। मेघ की तरह दानी भी चार प्रकार के होते हैकुछ बोलते है, देते नही । कुछ देते हैं, किंतु कभी वोलते नही ।
२६. मघका
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छप्पन
सूक्ति त्रिवेणी
एगे गज्जित्ता वि वासित्ता वि । एगे णो गज्जित्ता, रगो वासित्ता।
-४।४
___३० चउहि ठाणेहिं सते गुणे नासेज्जा
कोहेण, पडिनिवेसेणं, अकयण्णयाए, मिच्छत्ताभिगिवेसेणं ।
-४।४
३१. चत्तारि धम्मदारा
खती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
-४।४
३२ देवे रणाममेगे देवीए सद्धि सवासं गच्छति ।
देवे गाममेगे रक्खसीए सद्धि संवास गच्छति । रक्खसे गाममेगे देवीए सद्धि सवासं गच्छति । रक्खसे गाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ।
-४४
३३ चहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्म पगरेति
माइल्लयाए, नियडिल्लयाए। अलियवयणेणं, कूडतुला कूडमाणेण ।
-४४ ३४ चउहि ठाणेहिं जीवा माणुसत्ताए कम्म पगरेति
पगइ भद्दयाए, पगइ विरणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए।
-४|४
३५ मधुकु भे नाम एगे मधपिहाणे, ।
मधुकु भे नाम एगे विसपिहाणे । विसकुभे नाम एगे मधुपिहाणे। विसकु भे नाम एगे विसपिहाणे।
--४४
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स्यानांग की सूक्तिया
सत्तावन
कुछ बोलते भी हैं, और देते भी हैं। और कुछ न वोलते हैं, न देते है।
३० क्रोध, ईा-डाह, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह-इन चार दुगुणो के
कारण मनुष्य के विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते है ।
३१. क्षमा, संतोप, मरलता और नम्रता-ये चार धर्म के द्वार हैं।
३२. चार प्रकार के महवाम है
देव का देवी के साथ-गिप्ट भद्र पुरुष, सुशीना भद्र नारी । देव का राक्षसी के साथ-गिप्ट पुरप, ककंशा नारी, राक्षस का देवी के साय-दुष्ट पुरुष, मुशीला नारी,
राक्षस का राक्षसी के साथ - दुष्ट पुरुप, कर्कशा नारी। ३३ कपट, धूर्तता, असत्य वचन और कूट तुलामान (खोटे तोल माप करना)
-ये चार प्रकार के व्यवहार पशुकर्म हैं, इनमे आत्मा पशुयोनि (तिर्य चगति) मे जाता है
३४ सहज सरलता,सहज विनम्रता,दयालुता और अमत्सरता-ये चार प्रकार
के व्यवहार मानवीय कर्म हैं, इनसे आत्मा मानव जन्म प्राप्त करता है ।
३५ चार तरह के घडे होते हैं
मधु का घड़ा, मधु का ढक्कन । मधु का घड़ा, विप का ढक्कन । विष का घडा, मधु का ढक्कन । विष का घड़ा, विष का ढक्कन ।
[ मानव पक्ष मे हृदय घट है और वचन ढक्कन]
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अट्ठावन
सूक्ति त्रिवेणी ___ ३६ हिययमपावमकलुसं, जीहा वि य मधुरभासिणी रिगच्च । जंमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुभे मधुपिहाणे ॥
-४।४ ३७. हिययमपावमकलुसं, जीहाऽवि य कङयभासिणी णिच्चं । ___ जमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुभे विसपिहाणे ॥
--४/४
३८ जं हियय कलुसमय, जीहावि य मधुरभासिरणी रिगच्चं ।
जमि पुरिसमि विज्जति, से विसकुभे महुपिहाणे॥
–४।४
___ ३६ ज हिययं कलुसमय, जीहाऽवि य कडुयभासिरणी णिच्चं ।
जमि पुरिसमि विज्जति, से विसकु भे विसपिहाणे ।।
-४।४
४०. समुतरामीतेगे समुद्द तरइ ।
समुद्द तरामीतेगे गोप्पय तरइ । गोप्पयं तरामीतेगे समुद्द तरइ । गोप्पय तरामीतेगे गोप्पय तरइ ।
-४४
४१ सव्वत्थ भगवया अनियारणया पसत्था ।
४२. इमाई छ अवयणाई वदित्तए
अलियवयणे, हीलियवयणे, खिसित वयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए ।
४३ मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमथू ।
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न्यानांग को सूक्तिया
उनसठ
३६. जिसका अन्तर, हृदय निप्पाप और निर्मल है, साथ ही वाणी भी मधुर
है, वह मनुष्य मधु के घडे पर मधु के ढक्कन के समान है ।
३७. जिसका हृदय तो निष्पाप और निर्मल है, कितु वाणी से कटु एव कठोर
भापी है, वह मनुप्य मधु के घड़े पर विप के ढक्कन के समान है ।
२८. जिसका हृदय कलुपित और दभ युक्त है, कितु वाणी से मीठा बोलता है,
वह मनुष्य विप के घडे पर मधु के ढक्कन के समान है।
३६ जिसका हृदय भी कलुपित है और वाणी ने भी सदा कटु बोलता है, वह
पुरुप विप के घडे पर विप के ढक्कन के समान है।
४०
कुछ व्यक्ति ममुद्र तरने जैसा महान् सकल्प करते है, और समुद्र तैरने जैसा ही महान् कार्य भी करते है। कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने जैसा महान् संकल्प करते हैं, किंतु गोप्पद (गाय के खुर जितना पानी) तैरने जैसा क्षुद्र कार्य ही कर पाते हैं । कुछ गोप्पद तैरने जैसा क्षुद्र सकल्प करके समुद्र तैरने जैसा महान् कार्य कर जाते हैं । कुछ गोप्पद तेरने जैमा क्षुद्र सकल्प करके गोष्पद तैरने जैसा
ही क्षुद्र कार्य कर पाते है। . ४१. भगवान ने सर्वत्र निष्कामता (अनिदानता) को श्रेष्ठ बताया है।
४२. छह तरह के वचन नही बोलने चाहिए
असत्य वचन, तिरस्कारयुक्त वचन, झिडकते हुए वचन, कठोर वचन, साधारण मनुष्यो की तरह अविचारपूर्ण वचन और शान्त हुए कलह को फिर से भडकाने वाले वचन ।
४३. वाचालता सत्य वचन का विघात करती है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
साठ
४४. इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू ।
४५. सत्तहिं ठाणेहि प्रोगाढ सुसमं जारज्जा
अकाले न वरिसइ, काले वरिसइ, असाधू ण पुज्जति, साधू पुज्जति, गुरुहिं जपो सम्म पडिवन्नो, मरणो सुहता, वइ सुहता।
४६ एगमवि मायी मायं कटु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेजा
अत्थि तस्स पाराहणा।
१७ असुयारणं धम्मारणं सम्मं सुगरणयाए
अन्भुट्ट्यव्य भवति ।
-
४८ सुयाणं धम्माण ओगिण्हणयाए उवधारणयाए
अन्मुट्ठयब भवति।
४६ असगिहीयपरिजणस्स सगिण्हणयाए
अन्भुट्ट्यब्व भवति ।
५०. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरण्याए
अब्भुट्टेयव्वं भवति ।
-
८
५१. रणो पारणभोयणस्स अतिमत्त आहारए सया भवई ।
५२. नो सिलोगाणवाई,
नो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवइ।
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स्थानाग की सूक्तिया
४४. लोभ मुक्तिमार्ग का वाघक है ।
४५
इन सात वातो से समय की श्रेष्ठता (सुकाल ) प्रकट होती हैअसमय पर न वरसना, समय पर वरसना,
असाधुजनो का महत्व न वढना, साधुजनो का महत्व वढना, माता पिता यादि गुरुजनो के प्रति सद्व्यवहार होना, मन की शुभता, और वचन की शुभता ।
४६.
जो प्रमादवश हुए कपटाचरण के प्रति पश्चात्ताप (आलोचना ) करके मरलहृदय हो जाता है, वह धर्म का आराधक है ।
४८.
इकसठ
४७. अभी तक नही सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए ।
सुने हुए धर्म को ग्रहण करने — उस पर आचरण करने को तत्पर रहना चाहिए ।
४६. जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा माश्रय देने मे सदा तत्पर रहना चाहिए ।
५०. रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
५१. ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा मे भोजन नही करना चाहिए ।
५२. साधक कमी भी यश, प्रशसा और दैहिक सुखो के पीछे पागल न बने ।
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बासठ
सूक्ति त्रिवेणी
५३ नवहिं ठाणेहि रोगुप्पत्ती सिया
अच्चासणाए, अहियासणाए, अइनिदाए, अइजागरिएण, उच्चारनिरोहेण, पासवणनिरोहेण, अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलयाए, इ दियत्थ-विकोवरण्याए ।
५४. रण एव भूत वा भव्व वा भविस्सति वा
जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्सति ।
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स्थानाग को सूक्तिया
तिरेसठ ५३. रोग होने के नौ कारण है
अति भोजन, अहित भोजन, अतिनिद्रा, अति जागरण, मल के वेग को रोकना, मूत्र के वेग को रोकना, अधिक भ्रमण करना, प्रकृति के विरुद्ध भोजन करना, अति विपय सेवन करना, न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा ही कि जो चेतन हैं, वे कभी अचेतन-जड हो जाए, और जो जड-अचेतन हैं, वे चेतन हो जाए।
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भगवती सूत्र की सूक्तियां
१ जे ते अप्पमत्तसजया ते ग
नो श्रायारंभा, नो परारभा, जाव - श्ररणारभा ।
२. इह भविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभवि वि नाणे ।
३. प्रत्थित्त प्रत्थित्ते परिणमइ, नत्यित्त नत्थिते परिणमइ ।
४. ग्रप्पणा चेव उदीरेइ, अप्परगा चेव गरहइ, श्रवणा चैव संवरइ ।
५ श्रजीवा जीवपइट्ठिया, जीवा कम्मपइट्ठिया ।
६. स वीरिए परायिरगति, श्रवीरिए परायिज्जति ।
- १1१
- १1१
- १1३
-११३
- ११६
-815
1
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भगवतो सूत्र को सूक्तियां
१ आत्मसाधना मे अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी हिसा करते हैं, न
दूसरो की, वे सर्वथा अनारभ-अहिसक रहते हैं।
२. ज्ञान का प्रकाश इस जन्म में रहता है, पर जन्म मे रहता है, और कभी
दोनो जन्मो मे भी रहता है ।
३ अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत
होता है, अर्थात् सत् सदा मत् ही रहता है और असत् सदा असत् ।
४ आत्मा स्वय अपने द्वारा ही कर्मों की उदीरणा करता है, स्वय अपने
द्वारा ही उनकी गह-आलोचना करता है, और अपने द्वारा ही कर्मों
का सवर-आश्रव का निरोध करता है । ५ अजीव-जड पदार्थ जीव के आधार पर रहे हुए है, और जीव (ससारी
प्राणी) कर्म के आधार पर रहे हुए है।
६ शक्तिशाली (वीर्यवान्) जीतता है और शक्तिहीन (निर्वीर्य) पगजित हो
जाता है।
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छियासट
सूक्ति त्रिवेणी
७. पाया रणे अज्जो ! सामाइए,
पाया रणे अज्जो ! मामाइयस्स अट्ठे ।
-१६
८, गरहा सजमे, नो अगरहा सजमे ।
-शह
६ अथिरे पलोट्टड, नो थिरे पलोट्टइ।
अथिरे भज्जह, नो थिरे भज्जइ ।
-~
१० करगाग्रो सा दुक्खा, नो खलु सा अकरणनो दुक्खा।
--११०
११. सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे य सजमे । __ अगाहये तवे चव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।।
-~~-२१५
१२. जीवा गगो वड्ढति, गो हायति, अवठ्ठिया ।
१३ नेरइयाण गणो उज्जोए, अंधयारे ।
-५
१४ जीवे ताव नियमा जीवे,
जीवे वि नियमा जीवे।
१५. समाहिकारए ण तमेव समाहिं पडिलन्मइ ।
-~~७११
१६. दुक्ग्वी दुक्खेणं फुडे,
नो अदुक्खी दुक्सेण फुटे।
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भगवती सूत्र की सूक्तियां
सड़सठ
७ हे आयं आत्मा ही मामायिक (समत्वभाव) है, और आत्मा ही सामा
यिक का अर्थ (विशुद्धि) है ।
(इन प्रकार गुण गुणी मे भेद नही, अभेद है ।) ८ गर्दा (आत्मालोचन) सयम है अगर्दा सयम नहीं है ।
६ अस्थिर वदलता है, स्थिर नही बदलता ।
अस्थिर टूट जाता है, स्थिर नहीं टूटता ।
• १० कोई भी क्रिया किए जाने पर ही मुख दुख का हेतु होती है, न किए जाने
पर नहीं । ११ मत्लग ने धर्मश्रवण, धर्मश्रवण से तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञान से विज्ञान =
विशिष्ट तत्ववोध, विज्ञान से प्रत्याख्यान - सासारिक पदार्थो से विरक्ति, प्रत्याख्यान मे सयम, सयम से अनाथव-नवीन कर्म का अभाव, अनाश्रव से तप, तप से पूर्ववद्ध कर्मों का नाश, पूर्ववद्ध कर्मनाश से निष्कर्मता - नर्वथा कर्मरहित स्थिति और निप्कर्मता से सिद्धि-अर्थात् मुक्तस्थिति प्राप्त होती है।
१२ जीव न बढ़ते हैं, न घटते है, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं ।
१३. नारक जीवो को प्रकाश नही, अधकार ही रहता है ।
१४
जो जीव है वह निश्चित रूप से चैतन्य है, और जो चैतन्य है वह निश्चित रूप से जीव है।
१५ समाधि (सुख) देने वाला समाधि पाता है ।
१६ जो दुखित = कर्मवद्ध है, वही दुख-बन्धन को पाता है,
जो दुखित बद्ध नहीं है, वह दुख बन्धन को नही पाता।
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अडमठ
मूक्ति त्रिवेणी १७ ग्रहासुत्त रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जड । उस्सुत्त रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।
---७१
१८ जीवा सिय सासया, सिय असासया ।
दबट्ट्याए सासया, भावट्ठयाए असासया ।
~~७२
१९ भोगी भोगे परिच्चयमारणे महाणिज्जरे
महापज्जवसागो भव।
-७१७
२० हत्यिस्स य कुथस्स य समे चेव जीवे ।
-७८
२१. जीवियास-मरण-भयविप्पमुक्का।
-८७
२२ एग अन्नयरं तस पाणं हणमारणे
अणेगे जीवे हाइ।
-६/३४
२३ एग इसि हणमाणे अणते जीवे हणइ ।
--|३४
२४. प्रत्येगइयाण जीवाणं सुत्तात्तं साहू,
अत्थेगइयाण जीवाण जागरियत्त साहू।
---१२।२
२५. अत्यंगइयाणं जीवाण बलियत्त साहू,
अत्थेगइयाण जीवाण दुबलियत्त साहू ।
---१२।२
२६ नन्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे,
जत्थ ण अय जीवे न जाए वा, न मए वा वि ।
-१२७
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भगवती सूत्र की सूक्तिर्या
उनहत्तर १७. सिद्धान्तानुकूल प्रवृत्ति करने वाला साधक ऐपिथिक (अल्पकालिक)
क्रिया का वध करता है । सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाला साप
रायिक (चिरकालिक) क्रिया का वध करता है । १८. जीव गाग्वत भी हैं अगाग्वत भी ।
द्रव्यदृष्टि (मूल स्वस्प) मे शाश्वत हैं, तथा भावदृष्टि (मनुप्यादि पर्याय) से अगाश्वत ।
भोग-समयं होते हुए भी जो भोगो का परित्याग करता है वह कर्मों की महान् निर्जरा करता है, उसे मुक्तिरूप महाफन प्राप्त होता है ।
__ २० आत्मा की दृष्टि से हाथी और कु युआ-दोनो मे आत्मा एक समान है ।
२१ मच्चे मावक जीवन को आगा और मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त
होते हैं।
२२ एक त्रम जीव की हिंसा करता हुआ आत्मा तत्सवधित अनेक जीवो की
हिंसा करता है।
__ २३ एक हिसक ऋपि का हत्या करने वाला एक प्रकार से अनत जीवो की
हिमा करने वाला होता है । ___ २४ अधार्मिक आत्माओ का मोते रहना अच्छा है और धर्मनिष्ठ आत्माओ
का जागते रहना।
२५ वर्मनिष्ठ आत्माओ का वलवान होना अच्छा है और धर्महीन आत्माओ
का दुर्वल रहना।
___ २६ इस विराट् विश्व मे परमाणु जितना भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ
यह जीव न जन्मा हो, न मरा हो ।
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सत्तर
मूक्ति त्रिवेणी
२७. मायी विउव्वइ, नो अमायी विउन्वइ ।
-१३।६
२८ जीवाण चेयकडा कम्मा कज्जति,
नो अचेयकडा कम्मा कज्जति ।
-१६।२
२६ नेरइया सुत्ता, नो जागरा।
-१६६
३० अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे ।
---१७१५
३१. ज मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-झारणा
ऽवस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा, से त्त जत्ता।
--१८:१०
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भगवती सूत्र को सूक्तियां
इकहत्तर २७ जिसके अन्तर मे माया का अग है, वहीं विकुर्वणा (नाना रूपो का
प्रदर्शन) करता है । अमायी-(सरल आत्मा वाला) नही करता । २८. आत्माओ के कर्म चेतनाकृत होते हैं, अचेतना कृत नही ।
२६
आत्मजागरण की दृष्टि मे नारक जीव सुप्त रहते हैं, जागते नही ।
३० आत्मा का दुख स्वकृत है, अपना किया हुआ है, परकृत अर्थात् किसी
अन्य का किया हुआ नहीं है। ३१ तप, नियम, सयम, स्वाध्याय, व्यान, आवश्यक आदि योगो में जो यतना
विवेक युक्त प्रवृत्ति है, वही मेरी वास्तविक यात्रा है।
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प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियां
१. अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणन्ति ।
-~-११
२ कुद्धा हणति, लुद्धा हरणति, मुद्धा हणति ।
-११
३. न य अवेदयित्ता अत्थि हु मोक्खो।
-~१११
४ पागवहो चडो, रुद्दो, खुद्दो, अरणारियो,
निग्घिरणो, निससो, महत्भयो.... ।
५ अलियवयण....
अयसकरं, वेरकरग,...मणसकिलेसवियरण ।
---१२
६ सरीर सादिय सनिधण ।
-~-११२
७ असतगुणुदीरका य सतगुगनासका य ।
-११२
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प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियां
१ कुछ लोग प्रयोजन मे हिंसा करते है, और कुछ लोग विना प्रयोजन भी
हिंसा करते हैं। २ कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं,
और कुछ लोग अनान से हिंसा करते हैं । ३. हिंसा के कटुफल को भोगे विना छुटकारा नही है ।
४. प्राणवघ (हिसा) चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है,
कर है, और महाभयकर है।
५ असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है, परस्पर वैर बढता है, और
मन मे सक्लेश की वृद्धि होती है ।
६. शरीर का आदि भी है, और अन्त भी है।
७ असत्यभाषी लोग गुणहीन के लिए गुणो का बखान करते है, और
गुणी के वास्तविक गुणो का अपलाप करते है।
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चौहत्तर
८
सूक्ति त्रिवेणी
अदत्तादाण प्रकित्तिकरण, अरणज्ज. सया साहुगरहरिणज्जं ।
-१1३
६ उवरण मंति मरणधम्म प्रवित्तत्ता कामाण ।
१०. इहलोए ताव नट्ठा, परलोए वि य नट्ठा ।
११ लोभ - कलि- कसाय - महाखंधो, चितासयनिचियविपुल सालो ।
१० देवा वि स देगा न तित्ति न तुट्ठि उवलभंति ।
१३ नत्थि एरिसो पासो पबिधो थि सव्वजीवाणं सव्वलोए ।
१४ अहिंसा तस थावर - सव्वभूय खेमंकरी ।
१५ सव्वपारणा न हीलियव्वा, न निंदियव्वा ।
१६. न कया वि मणेरण पावएण पावग किंचिवि भायव्वं । वईए पावियाए पावगं न किंचिवि भासियव्व ।
१७ भगवती अहिंसा भीयाण विव सरणं ।
१८. सच्च.. पभासकं भवति सव्वभावाण ।
१६ तं सच्चं भगवं ।
-११४
- १1४
- ११५
-११५
- ११५
-२1१
- २1१
-२1१
-२1१
-२१२
-२१२
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प्रश्नव्याकरण सूत्र की मूक्तिया
पिचहत्तर ८. अदत्तादान (चोरी) अपयश करने वाला अनार्य कर्म है । यह सभी भले
आदमियो द्वारा सदैव निंदनीय है । ६. अच्छे से अच्छे सुखोपभोग करने वाले देवता और चक्रवर्ती आदि भी
अन्त मे काम भोगो से अतृप्त ही मृत्यु को प्राप्त होते है । १० विषयासक्त इस लोक मे भी नष्ट होते हैं और पर लोक मे भी।
११. परिग्रह स्प वृक्ष के स्कन्ध अर्थात् तने है-लोभ, बनेग और कपाय ।
चिता स्पी सैकडो ही मघन और विस्तीर्ण उमकी शाखाएं है।
१२. देवता और इन्द्र भी न (भोगो से) कभी तृप्त होते है और न सन्तुष्ट ।
१३. समूचे संसार मे परिग्रह के समान प्राणियो के लिए दूसरा कोई जाल
एवं वन्वन नही है।
१४ अहिंसा, अस और स्थावर ( चर-अचर ) सब प्राणियो का कुशल क्षेम
करने वाली है। १५. विश्व के किसी भी प्राणो की न अवहेलना करनी चाहिए, और न
निन्दा । १६. मन से कभी भी बुरा नही सोचना चाहिए ।
वचन से कभी भी बुरा नही बोलना चाहिए ।
१७. जैसे भयाक्रान्त के लिए शरण की प्राप्ति हितकर है, प्राणियो के लिए
वैसे ही, अपितु इस मे भी विशिष्तर भगवती अहिंसा हितकर है। १८ सत्य-समस्त भावो-विषयो का प्रकाश करने वाला है।
१६ सत्य ही भगवान् है ।
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छिहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
२० सच्चं....लोगम्मि सारभूय,
....गंभीरतरं महासमुद्दाप्रो ।
-२२
२१ सच्चं...सोमतरं चंदमडलायो,
दित्ततर सूरमडलायो।
-२२
२२ सच्चं च हियं च मिय च गाहण च ।
-२१२
२३ सच्च पि य संजमस्स उवरोहकारक किंचि वि न वत्तव्व ।
-२१२
२४ अप्पणो थवरणा, परेसु निंदा ।
-~-२२
२५ कुद्धो सच्चं सीलं विणय हणेज्ज ।
---२२
२६ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ।
-२२
२७ ण भाइयव्वं, भीत खु भया अइति लहुय ।
-२२
२८ भीतो अबितिज्जो मणुस्सो।
-२२२
२६ भीतो भूतेहिं धिप्पइ।
-२१२
३०. भीतो अन्न पि हु भेसेज्जा।
-२१२
३१. भीतो तवसजमं पि हु मुएज्जा ।
भीतो य भरं न नित्थरेज्जा।
--२१२
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प्रश्नव्याकरण मूत्र को सूक्तिया
सतत्तर
२०. समार मे 'मत्य' ही सारभूत है।
सत्य महासमुद्र से भी अधिक गभीर है।
२१ सत्य, चद्र मडल से भी अधिक मौम्य है ।
सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है ।
२२. ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए जो हित, मित और ग्राह्य हो ।
२३ सत्य भी यदि मयम का घातक हो तो, नहीं बोलना चाहिए ।
२४. अपनी प्रगना और दूसरो की निन्दा भी असत्य के ही समकक्ष है ।
२५. क्रोध में अधा हुआ व्यक्ति सत्य, शील और विनय का नाश कर
डालता है। २६. मनुप्य लोभग्रस्त होकर झूठ बोलता है ।
२७. भय से डरना नही चाहिए । भयभीत मनुष्य के पास भय शीघ्र आते है।
२८. भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नही हो सकता।
२६. भयाकुल व्यक्ति ही भूतो का शिकार होता है ।
३०. स्वय डरा हुआ व्यक्ति दूसरो को भी डरा देता है।
३१. भयभीत व्यक्ति तप और सयम की साधना छोड़ बैठता है।
भयभीत किसी भी गुरुतर दायित्व को नहीं निभा सकता है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
अठत्तर
३२ न भाइयन्त्र भयरस वा, वाहिस्स वा,
रोगस्स वा, जराएवा, मच्चुस्स वा।
~~~२।२
___३३ असविभागी, असगहरुई ...अप्पमारणभोई ...
से तारिसए नाराहए वयमिण ।
-२३
३४ सविभागसीले संगहोवग्गहकुसले,
से तारिसए पाराहए वयमिण ।
-~~-२१३
३५. अणुन्नविय गेण्हियव्वं ।
--२१३
३६. अपरिग्गहसबुडेण लोगमि विहरियव्व ।
-१३
३७. एगे चरेज्ज धम्म ।
-~-२१३
३८. विणयो वि तवो, तवो पि धम्मो ।
३९. वभचेर उत्तमतव-नियम-गाण-दसण
चरित्त-सम्मत्त-विरणयमूल ।
-~-२।४
४०. जमि य भग्गमि होइ सहसा सव्वं भग्ग ,
जमि य पाराहियमि पाराहिय वयमिण सव्व....।
-
४
४१ अणेगा गुणा अहीणा भवति एक्कमि बभचेरे।
-~~२१४
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प्रश्नव्याकरण सूत्र की मूक्तिया
उन्यासी
३२ आकस्मिक भय से, व्याधि ( मन्दघातक कुष्ठादि रोग) से, रोग (शीघ्रघातक हैजा आदि ) ने, वुढापे में. और तो क्या, मृत्यु से भी कभी डरना नही चाहिए ।
३३. जो अतविभागी है - प्राप्त नामगी का ठीक तरह वितरण नही करता हे, अनग्रहचि है— साथियों के लिए समय पर उचित सामग्री का संग्रह कर रखने में रुचि नहीं रसता है, प्रमाण भोजी है— मर्यादा से अधिक भोजन करने वाला पेटू है, वह अस्तेयव्रत की सम्यक् आराधना नही
कर सकता 1
३४. जो नविभागशील है-प्राज मामनी का ठीक तरह वितरण करता है, नग्रह और उपग्रह मे कुशल है- नाथियो के लिए यथावसर भोजनादि सामग्री जुटाने में दक्ष है, यही अस्तेयव्रत की मम्यक् आराधना कर सकता है ।
३५ दूसरे की कोई भी चीज हो, बाजा लेकर ग्रहण करनी चाहिए ।
३६. अपने को अपरिग्रह भावना मे सवृत कर लोक में विचरण करना चाहिए । ३७ भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सधर्म का आचरण करना चाहिए ।
३८. विनय स्वय एक तप है, और वह आभ्यतर तप होने से श्र ेष्ठ धर्म है । ३६. ब्रह्मचर्य -- उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है ।
४०. एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सव गुण नष्ट हो जाते हैं । एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर अन्य सव शील, तप, विनय आदि व्रत आराधित हो जाते है ।
४१. एक ब्रह्मचर्यं की साधना करने से अनेक गुण स्वय प्राप्त ( अधीन ) हो जाते है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
अस्सी ४२ दाणाणं चेव अभयदाण ।
---२४
४३. स एव भिक्खू, जो सुद्ध चरति वभचेर ।
-२१४
८४ तहा भोत्तव्ब जहा से जाया माता य भवति,
न य भवति विभमो, न भसरणा य धम्मस्स ।
-२।४
४५ समे य जे सव्वपाणभूतेसु, से हु समणे ।
-२१५
४६. पोक्खरपत्त व निरुवलेवे....
आगास चेव निरवलवे . ।
-२१५
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इक्यासी
प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तिया ४२ सब दानो मे 'अभयदान' श्रेष्ठ है ।
___ ४३. जो शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य पालन करता है, वस्तुत. वही भिक्षु है ।
__४४ ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवनयात्रा एव सयमयात्रा
के लिये उपयोगी हो सके, और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो, और न धर्म की भ्रमना।
४५. जो समस्त प्राणियो के प्रति समभाव रखता है, वस्तुत. वही श्रमण है।
४६. साधक को कमलपत्र के समान निर्लेप और आकाश के समान निरवलम्ब
होना चाहिये ।
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वैकालिक की सूक्तियां
१ धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा सजमो तवो । देवावित नमसंति, जस्स धम्मे सया मरणो ॥
२. विहगमा व पुप्फेसु दारणभत्तेस रया ।
३. वय च वित्ति लव्भामो, न य कोइ उवहम्मइ ।
४. महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अरिस्सिया ।
५ कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए ।
६. अच्छंदा जे न भुंजति, न से चाइत्ति वुच्चइ |
७ जे य कंते पिए भोए, लद्ध े वि पिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ॥
+
- १1१
- ११३
- १/४
- ११५
- २1१
-२१२
- २/३
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दशवकालिक की सूक्तियां
१. धर्म श्रेष्ठ मगल है। अहिंसा, सयम और तप-धर्म के तीन स्प है।
जिसका मन-(विश्वास) धर्म मे स्थिर है, उसे देवता भी नमस्कार
करते है। २. श्रमण-भिक्षु गृहस्थ से उसी प्रकार दानस्वरूप भिक्षा आदि ले, जिस
प्रकार कि भ्रमर पुप्पो से रस लेता है। ३ हम जीवनोपयोगी आवश्यकताओ की इस प्रकार पूर्ति करें कि किसी को
कुछ कष्ट न हो। ४ आत्मद्रप्टा साधक मधुकर के समान होते हैं, वे कही किसी एक व्यक्ति
या वस्तु पर प्रतिवद्ध नहीं होते। जहाँ रस (गुण) मिलता है, वही से ग्रहण कर लेते हैं। वह साधना कैसे कर पाएगा, जो कि अपनी कामनाओ-इच्छाओ को
रोक नही पाता? ६. जो परावीनता के कारण विषयो का उपभोग नही कर पाते, उन्हे त्यागी
नही कहा जा सकता। ७. जो मनोहर और प्रिय भोगो के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक ___ उन्हे पीठ दिखा देता है—त्याग देता है, वस्तुत वही त्यागी है।
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चौरासी
८ कामे कमाही कमियं खु दुक्ख ।
६. वतं इच्छसि प्रवेउ, सेयं ते मरणं भवे ।
1
१०. जय चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जय सए । जय भुजं तो भासतो, पावकम्मं न वन्धइ ॥
११
पढमं नाण तो दया ।
१२ अन्नाणी कि काही, किं वा नाही सेयपावगं ?
१३ ज सेयं तं समायरे ।
१४ जीवाजीवे प्रयाणतो, कहं सो नाही सवर ?
१५. दवदवस्स न गच्छेज्जा ।
१६. हसतो नाभिगच्छेज्जा ।
१७ सकिलेसकरं ठाणं, दूरम्रो परिवज्जए ।
१५. असंसत्तं पलोइज्जा ।
१६ उप्फुल्लं न विणिज्झाए ।
सूक्ति त्रिवेणी
- २१५
-२/७
Bang
-४1८
- ४/१०
- ४११०
– ४।११
-४।१२
- ५।१।१४
-५।१।१४
- ५।१।१६
-५।१।२३
-५१११२३
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पिच्यासी
दशवकालिक को सूक्तिया ८. कामनाओ को दूर करना ही दुःखो को दूर करना है ।
६. वमन किए हुए (त्यक्त विषयो) को फिर से पीना (पाना) चाहते हो ?
इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है।
१०
चलना, खडा होना, बैठना, सोना, भोजन करना और बोलना आदि प्रवृनियों यतनापूर्वक करते हुए साधक को पाप कर्म का वन्ध नही
होता। ११. पहले ज्ञान होना चाहिए और फिर तदनुसार दया-अर्थात् आचरण ।
१२ अनानी मात्मा क्या करेगा? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा?
१३. जो श्रेय (हितकर) हो, उसी का आचरण करना चाहिए ।
१४. जो न जीव (चैतन्य) को जानता है, और न अजीव (जड) को, वह सयम
को कैसे जान पाएगा?
१५ मार्ग मे जल्दी जल्दी-तावड तोवड़ नही चलना चाहिए ।
१६ मार्ग मे हंसते हुए नही चलना चाहिए ।
१७. जहां भी कही क्लेश की सभावना हो, उस स्थान से दूर रहना चाहिए ।
___ १८ किसी भी वस्तु को ललचाई आंखो से (आसक्ति पूर्वक) न देखे ।
१६, आँखें फाड़ते हुए, (घूरते हुए) नही देखना चाहिए ।
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छियासी
सूक्ति त्रिवेणी
२०. नियट्टिज्ज अयपिरो।
-५।१२३
२१. अकप्पिय न गिव्हिज्जा ।
-५॥१॥२७
२२. छद से पडिलेहए।
--५२११३७
२३ महुवयं व भु जिज्ज सजए।
-५२११६७
२४ उप्पण्णं नाइहीलिज्जा ।
--५१६६
२५ मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छन्ति सुग्गई।
-५३१११००
२६. काले काल समायरे ।
-५।२।४
२७ अलाभोत्ति न सोइज्जा, तवोत्ति अहियासए ।
-५२१६
२८ अदीगो वित्तिमेसेज्जा, न विसीएज्ज पंडिए ।
--५२.२८
२६ पूयरगट्ठा जसोकामी, मागसमागकामए ।
या पनवई पावं, मायामल्ल च कुव्वड ।
-५।३७
३० अगमाय पि मेहावी, मायामोम वि वज्जए।
-५२।५१
३१. अग्निा निगा विट्ठा, मव्व एमु नगमो।
---६६
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दशवकालिक की सूक्तियां
सत्तासी २०. किसी के यहां अपना अभीप्ट काम न बन पाए तो विना कुछ बोले
(झगडा किए) गात भाव से लौट आना चाहिए। २१. अयोग्य वस्तु, कैसी भी क्यो न हो, स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
२२ व्यक्ति के अन्तर्मन को परखना चाहिए ।
२३. मरस या नीरम-जमा भी आहार मिले, साधक उसे 'मधु-घृत' की तरह
प्रसन्नतापूर्वक खाए। २४ समय पर प्राप्त उचित वस्तु की अवहेलना न कोजिए ।
२५ मुघादायी-निप्कामभाव से दान देने वाला, और मुधाजीवी-निस्पृह
होकर साधनामय जीवन जीने वाला~दोनो ही सद्गति प्राप्त
करते हैं। २६ जिस काल (समय) मे जो कार्य करने का हो, उस काल में वही कार्य
करना चाहिए। २७. भिक्षु को यदि कभी मर्यादानुकूल शुद्ध भिक्षा न मिले, तो खेद न करे,
अपितु यह मानकर अलाभ परीपह को सहन करे कि अच्छा हुआ, आज
सहज ही तप का अवसर मिल गया । २८ आत्मविद् साधक अदीन भाव से जीवन यात्रा करता रहे। किसी भी
स्थिति मे मन मे खिन्नता न आने दे । २६ जो साधक पूजा प्रतिष्ठा के फेर में पड़ा है, यश का भूखा है, मान
सम्मान के पीछे दौडता है-वह उनके लिए अनेक प्रकार के दभ रचता
हुआ अत्यधिक पार कर्म करता है। ३० आत्मविद् साधक अणुमात्र भी माया मृपा (दभ और असत्य) का सेवन
न करे। ३१. सब प्राणियो के प्रति स्वय को सयत रखना-यही अहिंसा का पूर्ण
दर्शन है।
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अट्ठासी
सूक्ति त्रिवेणी
३२. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिजिजउ ।
--६।११
३३. मुसावायो उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहियो।
-६।१३
३४. जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से।
-६६१६
३५. मुच्छा परिग्गहो वृत्तो।
-६२१
३६. अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइय ।
~६२२
३७. कुसीलवड्ढण ठाण, दूरग्रो परिवज्जए ।
-६५६
३८. जमलैंतु न जाणेज्जा, एवमेति नो वए ।
-७८
३६ जत्थ सका भवे त तु. एवमेयति नो वए ।
-७४
४० सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जो पावस्स आगमो।
-७.११
४१ न लवे असाहु साहु त्ति, साहु साहु त्ति पालवे ।
-७/४८
४२ न हासमाणो वि गिर वएज्जा।
-~~७१५४
४३. मिय अदुट्ठ अरण वीइ भासए,
सयारण मज्झे लहई पससरण ।
-७१५५
४४, वइज्ज बुद्ध हियमाणुलोमिय।
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दशवेकालिक की सूक्तिया
नवासी
३२. समरत प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं । मरना कोई नही चाहता ।
३३ विश्व के सभी सत्पुरुषो ने मृपावाद (असत्य) की निंदा की है ।
૩૪
जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नही, ( साधुवेप मे ) गृहस्थ ही है ।
३५. मूर्च्छा को हो वस्तुत परिग्रह कहा है ।
३६ अकिंचन मुनि, और तो क्या, अपने देह पर भी ममत्त्व नही रखते ।
३७. कुशील (अनाचार ) बढाने वाले प्रसगो से साधक को हमेशा दूर रहना चाहिए ।
३८. जिस बात को स्वयं न जानता हो, उसके सम्वन्ध मे "यह ऐसा ही है"इस प्रकार निश्चित भाषा न वोले ।
३६. जिस विषय मे अपने को कुछ भी शंका जैसा लगता हो, उसके सम्बन्ध मे " यह ऐसा ही है" - इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले ।
४०
वह सत्य भी नही वोलना चाहिए, जिससे किसी प्रकार का पापागम ( अनिष्ट) होता हो ।
४१. किसी प्रकार के दवाव या खुशामद से असाधु (अयोग्य) को साघु (योग्य) नही कहना चाहिए | साघु को ही साघु कहना चाहिए ।
४२ हँसते हुए नही बोलना चाहिए ।
४३. जो विचारपूर्वक सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है, वह सज्जनो मे प्रशंसा पाता है ।
-
४४. बुद्धिमान ऐसी भाषा वोले- जो हितकारी हो एवं अनुलोम -- सभी को प्रिय हो ।
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नवे
सूक्ति त्रिवेणी
४५. अप्पमत्तो जये निच्चं ।
-८१६
४६ वहुसुणेहिं कन्ने हिं, वहु अच्छीहिं पिच्छइ ।
न य दिळं सुयौं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ।।
-८/२०
४७ कन्नसोक्खेहि सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए ।
-८२६
४८ देहदुक्ख महाफलं ।
-८२७
___४६ थोवं लधुन खिसए ।
--८।२६
५० न वाहिर परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे ।
--८३०
__५१. वीय त न समायरे ।
-८३१
५२. वल थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो ।
खेत्त काल च विन्नाय, तहप्पाणं निजुजए ।
-फा३५
__ ५३ जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ ।
जाविदिया न हायति, ताव धम्म समायरे ॥
५४ कोह मारण च माय च, लोभ च पाववड्ढण।
वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छतो हियमप्पणो ।।
--८३७
५५ कोहो पीड पणासेड, मारणो विणयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो
-८।३८
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दशवकालिक की सूक्तिया
इक्यानवे
४५ सदा अप्रमत्त भाव से साधना मे यत्नगील रहना चाहिए ।
४६ भिक्षु (मुनि, कानो मे बहुत सी बातें सुनता है, आंखो से बहुत सी बातें
देखता है, कितु देखी सुनी मभी वातें (लोगो मे) कहना उचित नही है ।
४७. केवल कर्णप्रिय तथ्यहीन गब्दो मे अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिए।
४८. शारीरिक कष्टो को समभावपूर्वक सहने मे महाफल की प्राप्ति होती है ।
४६. मनचाहा लाभ न होने पर झु झलाएं नहीं ।
५०. बुद्धिमान् दूसरो का तिरस्कार न करे और अपनी बडाई न करे।
५१. एक बार मूल होनेपर दुवारा उसकी आवृत्ति न करे ।
५२. अपना मनोवल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य,क्षेत्र और काल को ठोक
तरह मे परखकर ही अपने को किसी भी मत्कार्य के सम्पादन मे नियो
जित करना चाहिए। __ जब तक बुढापा आता नहीं है, जब तक व्याधियो का जोर बढता नहीं है,
जब तक इन्द्रिया (कर्मशक्ति) क्षीण नही होती है, तभी तक बुद्धिमान को,
जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए । ५४ क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारो पाप की वृद्धि करने वाले है,
यत. आत्मा का हित चाहने वाला साधक इन दोषो का परित्याग
कर दे। ५५ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मैत्री का और
लोभ सभी सद्गुणो का विनाश कर डालता है।
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बानवे
५६. उवसमेण हणे कोहं, मारणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसो जिणे ॥
५७ रायगिएसु विरणयं पउ जे ।
५८. सप्पहासं विवज्जए ।
५६ प्रपुच्छिम्रो न भासेज्जा, भासमारगस्स अन्तरा ।
६० पिट्ठिमस न खाइज्जा ।
६१. दिट्ठ मियं प्रसद्धि, पडिपुन्नं विनंजियं । अयपिरमरणुव्विग्ग, भासं निसिर अत्तवं ॥
६२. कुज्जा साहूहि संथव ।
६३. न या वि मोक्खो गुरुहीलगाए ।
६४. जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे, तस्संतिए वेरणइय पउ जे ।
६५. एवं धम्मस्स विरो, मूलं परमो यसे मोक्खो ।
६६. जे य चडे मिए थद्ध, दुब्वाई नियडी सढे । वुज्झइ से प्रविणीयप्पा, कट्ठ सोयगय जहा ||
सूक्ति त्रिवेणी
-८१३६
-८१४१
--८१४२
-८१४७
-८१४७
-८१४१
- ८।५३
- १1१1७
- ह|१|१२
-- हारार
-६१२१३
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दशवकालिक की सूक्तिया
तिरानवे
५६. नोव को शान्ति से, मान को मृदुता नम्रता स, माया को ऋजुता
सरलता से और लोभ को सतोप से जीतना चाहिए ।
५७. बड़ो (रत्नाधिक) के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करो।
५८. बट्टहान नही करना चाहिए ।
५६. विना पूछे व्यर्थ ही किमी के बीच मे नहीं बोलना चाहिए।
६१.
६०. किसी की चुगली खाना-पीठ का मास नोचने के समान है, मत किसी
की पीठ पीछे चुगली नहीं खाना चाहिए । आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटी-टटी वात नही) मोर स्पट्ट वाणी का प्रयोग करे। किंतु, यह ध्यान मे रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरो को उद्विग्न
करने वाली न हो। ६२ हमेशा साधुजनो के साथ ही सस्तव-सपर्क रखना चाहिए ।
६३. गुरुजनो की अवहेलना करने वाला कभी बंधनमुक्त नही हो सकता ।
६४. जिन के पास धर्मपद-धर्म की शिक्षा ले, उनके प्रति सदा विनयभाव
रखना चाहिए।
६५. धर्म का मूल विनय है, और मोक्ष उसका अन्तिम फल है।
६६. जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है,
वह ससारके प्रवाहमे वैसे ही वह जाता है, जैसे जल के प्रवाह मे काष्ठ ।
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छियानवे
सूक्ति त्रिवेणी
७८ उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ।
-१०१०
७६ पुढविसमो मुणी हवेज्जा ।
-१०११३
८० सभिन्नवत्तस्स य हिट्ठिमा गई।
--चू० १६१३
५१. बोही य से नो सुलहा पुणो पुणो।
--चू० १।१४
८२ चइज्ज देहं, न हु धम्मसासणं ।
-चू० १११७
८३. अणसोयो ससारो, पडिसोयो तस्स उत्तारो।
-चू० २।३
८४ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले,
संपेहए अप्पगमप्पएण । किं मे कडं किंच मे किच्चसेसं,
कि सक्करिणज्जं न समायरामि ॥
-~~-चू० २०१२
८५. अप्पा हु खलु सययं रक्खिावो ।
--चू० २०१६
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दशवेकालिक की सूक्तिया
सत्तानवे
७८. जो शान्त है, और अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक ( अनुपेक्षी ) है, वही
श्र ेष्ठ भिक्षु हैं ।
७६ मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए ।
ב.
व्रत मे भ्रष्ट होने वाले की अधोगति होती है ।
८१ सद्बोध प्राप्त करने का अवसर वार-वार मिलना सुलभ नही है ।
८२. देह को (आवश्यक होने पर) भले छोड़ दो, किन्तु अपने धर्म-शासन को मत छोडो ।
८३ अनुस्रोत - अर्थात् विषयासक्त रहना, ससार है । प्रतिस्रोत- अर्थात् विषयो से विरक्त रहना, संसार सागर से पार होना है ।
८४. जागृत साधक प्रतिदिन रात्रि के प्रारम्भ मे और अन्त मे सम्यक् प्रकार से आत्मनिरीक्षण करता है कि मैंने क्या (सत्कर्म) किया है, क्या नही किया है ? और वह कौन सा कार्य वाकी है, जिसे मैं कर सकने पर भी नही कर रहा हूँ ?
८५. अपनी आत्मा को सततं पापो से बचाये रखना चाहिए ।
+
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चौरानवे
सूक्ति त्रिवेणी
६७. जे आयरिय-उवज्झायाण, सुस्सूसा वयण करे ।
तेसि सिक्खा पवड्ढ ति, जलसित्ता इव पायवा।
-६।२।१२
६८. विवत्ती अविणीयस्स, सपत्ती विणीयस्स य ।
-~~हारा२२
६९ असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।
~~६२।२३
___७०. जो छदमाराहयई स पुज्जो।
-
३०१
__७१. अलङ्घय नो परिदेवइज्जा,
लद्ध न विकत्थयई स पुज्जो।
---६३१४
७२ वाया दुरुत्तारिण दुरुद्धराणि,
वेराणुबंधीणि महब्भयारिण ।
-९।३७
____७३. गुणेहिं साहू, अगुणेहिंऽसाहू,
गिण्हाहि साहू गुण मुञ्चऽसाहू ।
-६।३।११
७४. वियाणिया अप्पगमप्पएण,
जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो।
-६।३।११
७५. वतं नो पडिप्रायइ जे स भिक्खू ।
--१०१,
७६. सम्मद्दिट्ठी सया अमूढे ।
-१०१७,
__७७. न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा। , ,
-१०११०
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दशवकालिक को सूक्तिया
पिच्चानवे
६७ जो अपने आचार्य एव उपाध्यायो की शुभ्रूपा-सेवा तथा उनकी आज्ञाओ
का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही वढती हैं जैसे
कि जल से सीचे जाने पर वृक्ष । ६८. अविनीत विपत्ति (द ख) का भागी होता है और विनीत सपत्ति
(मुख) का। ६९. जो मविभागी नहीं है, अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियो मे बाटता नहीं
है, उसकी मुक्ति नहीं होती। ७०. जो गुरुजनो की भावनाओ का आदर करता है, वहीं जिप्य पूज्य
होता है। ७१. जो लाभ न होने पर सिन्न नहीं होता है, और लाभ होने पर अपनी
वडाई नहीं हाकता है, वही पूज्य है ।
७२. वाणी मे बोले हुए दुप्ट मीर कठोर वचन जन्म जन्मान्तर के वैर और
भय के कारण बन जाते हैं।
७३. सद्गुण से साधु कहलाता है, दुगुण से असाधु । अतएव दुगुणो का
त्याग करके सद्गुणो को ग्रहण करो।
७४. जो अपने को अपने से जानकर रागद्वीप के प्रसगो मे सम रहता है, वही
साधक पूज्य है।
७५. जो वान्त-त्याग की हुई वस्तु को पुन सेवन नहीं करता, वही सच्चा
भिक्षु है। ७६. जिसकी दृष्टि सम्यग् है, वह कभी कर्तव्य-विमूढ नही होता ।
७७. विग्रह वढाने वाली बात नही करनी चाहिए ।
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छियानवे
सूक्ति त्रिवेणी
७८ उवसते अविहेडए जे स भिक्खू ।
-१०।१०
७६. पुढविसमो मुणी हवेज्जा ।
-~१०११३
८० सभिन्नवत्तस्स य हिट्ठिमा गई।
--चू० १४१३
८१. बोही य से नो सुलहा पुणो पुणो ।
-चू० १।१४
८२ चइज्ज देह, न हु धम्मसासणं ।
-चू० १११७
८३. अगसोमो ससारो, पडिसोयो तस्स उत्तारो।
-चू० २।३
८४ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले,
____संपेहए अप्पगमप्पएण। कि मे कड किंच मे किच्चसेसं,
कि सक्करिणज्जं न समायरामि ।।
-चू० २११२
८५. अप्पा हु खलु सययं रक्खिअव्वो।
-चू० २।१६
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सत्तानवे
दशवकालिक को सूक्तियां ७८. जो शान्त है, और अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक (अनुपेक्षी) है, वही
श्रेष्ठ भिक्षु हैं। ७६ मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए ।
८०. व्रत से भ्रष्ट होने वाले की अधोगति होती है ।
८१ सद्बोध प्राप्त करने का अवसर बार-बार मिलना सुलभ नही है ।
८२ देह को (आवश्यक हाने पर) भले छोड़ दो, किन्तु अपने धर्म-शासन को
मत छोड़ो। ८३ अनुस्रोत- अर्थात् विपयासक्त रहना, संसार है। प्रतिस्रोत-अर्थात्
विषयो से विरक्त रहना, संसार सागर से पार होना है। ८४. जागृत साधक प्रतिदिन रात्रि के प्रारम्भ मे और अन्त मे सम्यक् प्रकार
से आत्मनिरीक्षण करता है कि मैंने क्या (सत्कर्म) किया है, क्या नही किया है ? और वह कौन सा कार्य वाकी है, जिसे मैं कर सकने पर भी नही कर रहा हूँ?
___ ८५ अपनी मात्मा को सतत पापो से बचाये रखना चाहिए ।
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
१. प्राणानिद्दे सकरे, गुरूरणमुववायकारए ।
इंगियागारसपन्ने , से विणीए त्ति वुच्चई ।।
-१२
२. जहा सुरणी पूइकन्नी, निक्कसिज्जई सव्वसो।
एव दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई।
-११४
३. कणकुडगं चइत्ताण, विट्ठे भुजइ सूयरे।
एवं सील चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए॥ .
-११५
४. विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छतो यिमप्पणो ।
५. अजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरारिण उ वज्जए।
६. अणुसासियो न कुप्पिज्जा।
-१९
७. खुड्डेहिं सह ससग्गिं, हासं कीडं च वज्जए।
--
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
१. जो गुरुजनो की आज्ञाओ का यथोचित पालन करता है, उनके निकट सपर्क मे रहता है, एव उनके हर सकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता है -- उसे विनीत कहा जाता है ।
जिस प्रकार सडे हुए कानो वाली कुतिया जहाँ भी जाती है, निकाल दी जाती है, उसी प्रकार दु गील, उद्द ड और मुखर - वाचाल मनुष्य भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है |
३
जिस प्रकार चावलो का स्वादिष्ट भोजन छोडकर शूकर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार पशुवत् जीवन विताने वाला अज्ञानी, शील - सदाचार को छोडकर टु शील- दुराचार को पसन्द करता है ।
४ आत्मा का हित चाहने वाला मावक स्वयं को विनय = सदाचार मे स्थिर करे ।
५ अर्थयुक्त ( सारभूत) वातें हो ग्रहण कीजिये, निरर्थक वातें छोड दीजिये |
६. गुरुजनो के अनुशासन से कुपित = क्षुब्ध नहीं होना चाहिए ।
७. क्षुद्र लोगो के साथ संपर्क, हंसी मजाक, क्रीडा आदि नहीं करना चाहिए ।
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सूक्ति त्रिवेणी
८. बहुयं मा य आलवे।
-१११०
६ पाहच्च चंडालियं कट्ट, न निण्हविज्ज कयाइवि ।
१० कडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं नो कडे त्ति य ।
-१।११
११. मा गलियस्सेव कस, वयणमिच्छे पुणो पुरणो।
-२१२
१२. नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए ।
-~-१।१४
१३. अप्पा चेव दमेयव्बो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥
-~१२१५
१४. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माहं परेहि दम्मंतो, वंधणेहिं वहेहि य ।।
-१२१६
१५ हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो।
-११२८
१६. काले कालं समायरे।
-१३१
१७. रमए पडिए सासं, हयं भद्द व वाहए।
-११३७
१८. वाल सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए ।
-११३७
१६ अप्पाण पि न कोवए ।
-१४०
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एक सौ एक
उत्तराध्ययन को सूक्तियां ___८. बहुत नही वोलना चाहिए ।
___६. यदि साधक कभी कोई चाण्डालिक दुष्कर्म करले, तो फिर उसे छिपाने
की चेष्टा न करे। १०. बिना किसी दिपाव या दुराव के किये हुए कर्म को किया हुमा कहिए,
तथा नही किये हुए कर्म को न किया हुआ कहिए । ११ बार-बार चाबुक को मार खाने वाले गलिताश्व (अडियल या दुर्बल
घोडे) की तरह कर्तव्य पालन के लिये वार बार गुरुओ के निर्देश की
अपेक्षा मत रखो। १२. विना बुलाए बीच मे कुछ नहीं बोलना चाहिए, बुलाने पर भी असत्य
जैसा कुछ न कहे । १३. अपने आप पर नियत्रण रखना चाहिए। अपने आप पर नियत्रण
रखना वस्तुत. कठिन है । अपने पर नियत्रण रखने वाला ही इस लोक
तथा परलोक मे सुखी होता है। १४. दूसरे वध और बंधन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वय
ही सयम और तप के द्वारा अपना ( इच्छाओ का ) दमन कर लू ।
१५. प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनो की जिन शिक्षाओ को हितकर मानता है,
दुर्बुद्धि दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएं बुरी लगती है । १६. समय पर, समय का उपयोग (समयोचित कर्तव्य) करना चाहिए ।
१७. विनीत बुद्धिमान शिष्यो को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न
होता है, जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ
घुड़सवार। १८. बाल अर्थात् जडमूढ शिप्यो को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार खिन्न
होता है, जैसे अड़ियल या मरियल घोडे पर चढा हुआ सवार । १६. अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो।
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एक सो दो
२०. न सिया तोत्तगवेसए ।
२१. नच्चा नमइ मेहावी ।
२२. माइन्ने अमरणपारणस्स ।
२३. प्रदीरणमरणसो चरे ।
२४. न य वित्तासए पर ।
२५. सकाभीग्रो न गच्छेज्जा ।
२६. सरिसो होइ बालागं ।
२७. नत्यि जीवस्स नासोत्ति ।
२८. प्रज्जेवाहं न लव्भामो, अवि लाभो सुए सिया । जो एव पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए ।
२६ चत्तारि परमंगारिण, दुल्लहाणीह जतुरगो । माणुसत्त सुई मद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥
३०. जीवा सोहिमगुप्पत्ता, श्राययति मरणस्यं ।
३१. सम्रा परमदुल्लहा I
सूक्ति त्रिवेणी
- १।४०
—११>५
-२१३
-२/३
-२/२०
- २१२१
- २१२४
-२१२७
-२/३१
-३।१
-३/७
-३1ε
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ तीन
२०. दूसरो के छलछिद्र नही देखना चाहिए ।
२१. बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त कर के नम्र हो जाता है ।
२२. साधक को खाने पीने की मात्रा मर्यादा का ज्ञाता होना चाहिए ।
२३ संसार मे अदीनभाव से रहना चाहिए।
२४. किसी भी जीव को त्रास = कप्ट नहीं देना चाहिए।
२५ जीवन मे शकाओ से ग्रस्त-भीत होकर मत चलो।
२६. बुरे के साथ बुरा होना, वचकानापन है ।
२७. आत्मा का कभी नाश नही होता ।
२८ "आज नही मिला है तो क्या है, कल मिल जायगा"-जो यह विचार
कर लेता है, वह कभी अलाम के कारण पीडित नही होता ।
२६. इस ससार मे प्राणियो को चार परम अग (उत्तम संयोग) अत्यन्त
दुर्लभ हैं-(१) मनुष्य जन्म (२) धर्म का सुनना (३) सम्यक् श्रद्धा
(४) और संयम मे पुरुषार्थ । ३० संसार में आत्माएं क्रमश शुद्ध होते-होते मनुष्यभव को प्राप्त
करती हैं।
३१. धर्म मे श्रद्धा होना परम दुर्लभ है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ चार ३२ सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।
-३।१२
३३. असंखयं जीविय मा पमायए,
-४१
३४. वेराणुवद्धा नरयं उवेति ।
-४२
३५. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।
३६. सकम्मुणा किच्चइ पावकारी।
-४/३
३७. वित्तेण ताणं न लभे पमत्त,
इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।
-४१५
३८. घोरा महत्ता अबलं सरीर,
भारडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते।
-४६
३६. सुत्त सु या वि पडिबुद्धजीवी ।
-४॥६
४० छद निरोहेण उवेइ मोक्ख ।
-४1८
४१. कखे गुणे जाव सरीरभेऊ ।
-४११३
४२ चीराजिणं नगिरिगणं, जडी सघाडि मुडिण ।
एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परियागयं ।
-५२१
४३. भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्बए कम्मई दिनं ।
-५२२
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उत्तराध्ययन की सूक्तिया
एक सौ पाच ३२. ऋजु अर्थात् सरल आत्मा की विशुद्धि होती है । और विशुद्ध आत्मा मे ही
धर्म ठहरता है। ३३ जीवन का धागा टूटजाने पर पुन जुड नही सकता, वह असंस्कृत है,
इसलिए प्रमाद मत करो। ३४. जो वैर की परम्परा को लम्बा किए रहते हैं, वे नरक को प्राप्त होते
३५ कृत कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नही है ।
३६. पापात्मा अपने ही कर्मों से पीडित होता है ।
३७. प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नही कर सकता, न इस लोक मे
और न परलोक मे !
३८ समय बड़ा भयकर है, और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर
है। अत साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारडपक्षो (सतत सतर्क
रहने वाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए । ३६. प्रबुद्ध साधक सोये हुओ (प्रमत्त मनुष्यो) के यीच भी सदा जागृत
अप्रमत्त रहे।
४० इच्छामो को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
४१. जब तक जीवन है (शरीर-भेद न हो), सद्गुणो की आराधना करते
रहना चाहिए। चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाए , कन्था और शिरोमुडन—यह सभी उपक्रम आचारहीन साधक की (दुर्गति से) रक्षा नही कर सकते ।
४३. भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती (सदाचारी) है, वह दिव्यगति को
प्राप्त होता है।
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एक सौ छह
४४. गिहिवासे वि सुब्वए ।
४५. न संतसति मरणंते,, सीलवंता बहुस्सुया ।
४६. जावतविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पति बहुसो मूढा, ससारम्मि प्रगत ॥
४७
अप्परगा सच्चमेसेज्जा ।
४८. मेत्ति भूएसु कप्पए ।
४६ न हरणे पाणिरणो पाणे, भयवेराम्रो उवरए ।
५०. भरगता प्रकरेन्ता य, बघमोक्खपइरिगो । वायावीरियमेत्तण, समासासेन्ति अप्पय ॥
५१. न चित्ता तायए भासा, कुत्र विज्जागुसासरण ।
५२ पुग्वकम्मखयट्ठाए, इम देहं समुद्धरे ।
५३. ग्रासुरीयं दिस बाला, गच्छति श्रवसा तमं ।
५४ माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएरण जीवारण, नरगतिरिक्ख त्तरण धुव ॥
1
1
सूक्ति त्रिवेणी
-५।२४
-५|२६
-६११
-
—६/२
-६/२
- ६/७
- ६।१०
-६।११
- ६/१४
-७/१०
-७/१६
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ सात
४४. धर्मशिक्षासंपन्न गृहस्थ गृहवास मे भी सुव्रती है ।
४५. ज्ञानी और सदाचारी आत्माएं मरणकाल मे भी त्रस्त अर्थात् भयानात
नहीं होते। ४६. जितने भी अज्ञानी-तत्त्व-बोध-हीन पुरुप हैं, वे सब दु ख के पात्र है।
इस अनन्त ससार मे वे मूढ़ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते
४७. अपनी स्वयं की आत्मा के द्वारा मत्य का अनुसधान करो।
४८. समस्त प्राणियो पर मित्रता का भाव रखो।
४६. जो भय और वर से उपरत-मुक्त है, वे किसी प्राणी की हिंसा नही
करते। ५०. जो केवल बोलते हैं, करते कुछ नही, वे वन्ध मोक्ष की बातें करने वाले
दार्शनिक केवल वाणी के बल पर ही अपने आप को आश्वस्त किए रहते हैं।
५१. विविध भाषाओ का पाण्डित्य मनुष्य को दुर्गति से नही बचा सकता,
फिर भला विद्यामो का अनुशासन-अध्ययन किसी को कैसे बचा
सकेगा? ५२. पहले के किए हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस देह की सार-सभाल
रखनी चाहिये।
५३ अज्ञानी जीव विवश हुए अधकाराच्छन्न आसुरीगति को प्राप्त होते हैं।
५४. मनुप्य-जीवन मूल-धन है । देवगति उस मे लाभ रूप है । मूल-धन के
नाश होने पर नरक, तियंच-गति रूप हानि होती है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ आठ ५५. कम्मसच्चा हु पाणियो।
-७/२०
५६. बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ।
-८१५
५७ कसिणं पि जो इम लोयं, पडिपुण्ण दलेज्ज इक्कस्स।
तेरणावि से ण सतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ।
-८१६
५८ जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ -
-८।१७
५६. संसयं खलु सो कुरगइ, जो मग्गे कुरगइ घरं ।
--२६
६०. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। ___ एगं जिणेज्ज अप्पारणं, एस से परमो जो ॥
-६।३४
६१. सव्वं अप्पे जिए जियं।
६२. इच्छा हुँ आगाससमा अणंतिया ।
-६४८
६३. कामे पत्थेमारणा अकामा जंति दुग्गई।
-९५३
६४. अहे वयइ कोहेण, माणेणं प्रहमा गई ।
माया गइपडिग्घाओ, लोभामो दुहनो भय ॥
-~६१५४
६५. दुमपत्तए पडुयए जहा,
निवडइ राइगरणारण अच्चए। एव मणुयारण जीविय,
समय गोयम ! मा पमायए ।
-१०१
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उत्तराध्ययन को सूक्तिया
एक सौ नौ
५५. प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं ।
५६. जो आत्माएं बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना
अति दुर्लभ है। ५७. धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक व्यक्ति को
दे दिया जाय, तव भी वह उससे संतुष्ट नहीं हो सकता- इस प्रकार
आत्मा की यह तृष्णा वड़ी दुप्पूर (पूर्ण होना कठिन) है । ५८. ज्यो-ज्यो लाभ होता है, त्यो त्यो लोभ होता है । इस प्रकार लाभ से
लोभ निरंतर वढता ही जाता है । दो माशा सोने से संतुष्ट होने वाला
करोडो (स्वर्णमुद्राओ) से भी सतुष्ट नहीं हो पाया। ५६. साधना मे सशय वही करता है, जो कि मार्ग मे ही घर करना (रुक
जाना) चाहता है। ६० भयकर युद्ध मे हजारो-हजार दुर्दान्त शत्रुओ को जीतने की अपेक्षा
अपने आप को जीत लेना ही सबसे बडी विजय है।
६१. एक अपने (विकारो) को जीत लेने पर सब को जीत लिया जाता है ।
६२. इच्छाए आकाश के समान अनन्त है।
६३. काम भोग की लालसा-ही-लालसा मे प्राणी, एक दिन, उन्हे विना भोगे
हो दुर्गति में चला जाता है । ६४. क्रोध से आत्मा नीचे गिरता है। मान से अधम गति प्राप्त करता है।
माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । लोभ से इस लोक और परलोक-दोनों मे ही भय कष्ट होता है। जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते समय आने पर पीले पड़ जाते हैं, एव मूमि पर झड़ पडते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी आयु के समाप्त होने पर क्षीण हो जाता है । अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ दस ६६. कुसग्गे जह अोसविन्दुए,
थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए । एव मणुयाण जीविय,
समयं गोयम | मा पमायए ।
-१०२
६७. विहुणाहि रयं पुरे कड।
-१०१३
६८. दुल्लहे खलु माणुसे भवे ।
-१०१४
६६. परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवन्ति ते ।
से सव्ववले य हायई, समय गोयम । मा पमायए ।।
-१०॥२६
७०. तिण्णोहु सि अण्णव मह, किं पुण चिट्ठसि तीरमागमो? __ अभितुर पार गमित्तए, समय गोयम ! मा पमायए ।।
-१०॥३४ ७१. अह पंचहि ठाणेहि, जेहि सिक्खा न लभई ।
थंभा कोहा पमाएण, रोगेगालस्सएग वा ॥
७२. न य पावपरिक्खेवी, न य मित्त मु कुप्पई ।
अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लारण भासई।
-११११२
७३. पियकरे पियंवाई, से सिक्ख लधु मरिहई। "
-११।१४
७४. महप्पसाया इमिणो हवति ,
न हु मुणी कोवपरा हवति ।
-१२।३१
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उत्तराध्ययन को सूक्तिया
एक सौ ग्यारह ६६. जैसे कुशा (घास) की नोक पर हिलती हुई ओस की बू द बहुत थोडे समय
के लिए टिक पाती है, ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभगुर है । अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद न कर ।
६७. पूर्वसचित कर्म-रूपी रज को साफ कर ।
६८ मनुप्य जन्म निश्चय ही बडा दुर्लभ है ।
६६. तेरा गरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो चले हैं।
शरीर का मव वल क्षीण होता जा रहा है, अतएव हे गौतम क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर ।
७०. तू महासमुद्र को तैर चुका है, अब किनारे आकर क्यो वैठ गया ? उस
पार पहुंचने के लिये गीघ्रता कर। हे गौतम । क्षण भर के लिए भी प्रमाद उचित नही है।
७१. अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य- इन पाच
कारणो से व्यक्ति शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त नहीं कर सकता।
७२. सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोपारोपण करता है और न कभी
परिचितो पर कुपित ही होता है । और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष मे उसकी भलाई की ही बात करता है।
७३. प्रिय (अच्छा) कार्य करने वाला और प्रिय वचन बोलने वाला
अपनी अभीष्ट शिक्षा प्राप्त करने मे अवश्य सफल होता है।
____७४, ऋषि-मुनि पदा प्रसन्नचित रहते हैं, कभी किसी पर ब्रोध नहीं करते।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ बारह ७५. सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो,
न दीसई जाइविसेस कोई।
-१२॥३७
७६. तवो जोई जीवो जोइठाणं,
जोगा सुया सरीर कारिसगं । कम्मेहा सजमजोगसन्ती।
होम हुणामि इसिणं पसत्यं ।।
--१२।४४
७७. धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे,
अगाविले अत्तपसन्नलेसे । जहिं सिरणानो विमलो विसुद्धो,
सुसीइभूयो पजहामि दोसं ॥
~१२१४६
७८. सव्वं सुचिण्णां सफल नराण ।
-~~१३३१०
७६. सव्वे कामा दुहावहा ।
-१३।१६
८०. कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।
-१३।२३
८१. वण्णं जरा हरइ नरस्स राय !
-१३।२६
८२. उविच्च भोगा पुरिस चयन्ति,
दुमं जहा खीरगफलं व पक्खी ।
-~-१३१६३
८३. वेया अहीया न हवंति तारणं ।
-~-१४।१२,
८४. खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा ।
-१४।१३
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उत्तराध्ययन को सूक्तियां
एक सौ तेरह ७५ तप (चरित्र) की विशेषता तो प्रत्यक्ष मे दिखलाई देती है, किन्तु जाति
की तो कोई विशेषता नजर नही आती।
७६. तप-ज्योति अर्थात् अग्नि है, जीव ज्योतिस्थान है; मन, वचन, काया के
योग न वा-आहुति देने को कड़छी है,गरीर कारीपाग=अग्नि प्रज्वलित करने का साधन है, कर्म जलाए जाने वाला इधन है, सयम योग गान्तिपाठ है । मैं इस प्रकार का यज्ञ-होम करता हूँ, जिसे ऋपियो ने श्रेष्ठ
वताया है। ७७. धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य गातितीर्थ है। आत्मा की प्रसन्नलेश्या
मेरा निर्मल घाट है, जहां पर मात्मा स्नान कर कर्ममल से मुक्त हो जाता है।
७८. मनुष्य के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं ।
७६. सभी काम भोग अन्तत दुखावह (दु खद) ही होते है ।
८०. कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं ।
८१. हे राजन् ! जरा मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है ।
५२. जैसे वृक्षके फल क्षीण हो जाने पर पक्षी उसे छोडकर चले जाते हैं, वैसे
ही पुरुप का पुण्य क्षीण होने पर भोगसाधन उसे छोड़ देते है, उसके हाथ से निकल जाते हैं ।
८३. अध्ययन कर लेने मात्र से वेद (शास्त्र) रक्षा नही कर सकते ।
८४. संसार के विषय भोग क्षण भर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले मे चिर
काल तक दुःखदायी होते हैं।
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एक सौ चौदह
८५. धणेण किं धम्मधुराहिगारे ?
८६. नो इन्दियग्गेज्भ प्रमुत्तभावा, प्रमुत्तभावाविय होइ निच्चं ।
ग्रज्झत्थ हेउ' निययस्स वधो ।
८८. मच्चुरणाऽभाहो लोगो, जराए परिवारियो ।
८९. जाजा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्मच कुरणमारणस्स, सफला जन्ति राइम्रो ॥
८७
६०. जस्सत्थि मच्चुरणा सक्खं, जस्स वडत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कखे सुए सिया ॥
६१. सद्धा खम णे विणइत्त राग ।
६२. साहाहि रुक्खो लहई समाहि, छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणु ं ।
६३. जुण्णा व हंसो पडिसोत्तगामो ।
६४. सव्वं जग जइ तुब्भ, सव्वं वा वि धरणं भवे । सव्वं पिते पज्जत्त, नेव तारणाय त तव ॥
६५. एक्को हु धम्मो नरदेव । ताणं, न विज्जई ग्रन्नमिहेह किंचि ।
सूक्ति त्रिवेणी
- १४।१७
- १४११६
- १४/१६
-१४।२३
-१४।२५
- १४/२७
-१४२८
- १४/२६
- १४१३३
- १४/३६
- १४/४०
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ पन्द्रह
८५. वर्म को घुरा को खीचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है ? ( वहा तो सदाचार की जरूरत है )
८६. आत्मा आदि अमृतं तत्त्व इद्रियग्राह्य नही होते । और जो अमूर्त होते हैं वे अविनाशी - नित्य भी होते हैं ।
८७
८८
अदर के विकार ही वस्तुत. बंधन के हेतु है ।
जरा से घिरा हुआ यह ससार मृत्यु से पीडित हो रहा है ।
८६. जो रात्रियां वीत जाती हैं, वे पुन. लौट कर नही आती । किन्तु जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रिया सफल हो जाती है ।
६०. जिसकी मृत्यु के
साथ मित्रता हो, जो उससे कही भाग कर वच सकता हो, अथवा जो यह जानता हो कि में कभी मरुगा ही नही, वही कल पर भरोसा कर सकता है ।
६१. धर्मं श्रद्धा हमे राग (आसक्ति) से मुक्त कर सकती है ।
ε२. वृक्ष की सुन्दरता गाखाओ से है । शाखाए कट जाने पर वही वृक्ष -ठूंठ (स्था) कहलाता है ।
૨
बूढा हस प्रतिस्रोत (जलप्रवाह के सम्मुख ) मे तैरने से डूब जाता है । ( असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता ) ।
६४. यदि यह जगत् और जगत का समस्त घन भी तुम्हे दे दिया जाय, तव भी वह (जरा मृत्यु आदि से ) तुम्हारी रक्षा करने मे अपर्याप्त - असमर्थ हे
1
१५. राजन् । एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, उसके सिवा विश्व मे कोई भी मनुष्य का त्राता नही है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ सोलह ६६. उरगो सुवण्णपासे व्व, संकमाणो तणुचरे।
--१४|४७
६७. देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस्स-किन्नरा ।
वभयारि नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ।।
-१६३१६
१८. भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, पावसमणे त्ति वुच्चई ।
-१७१३
६६ अस विभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वच्चई ।
-१७।११
१००. अणिच्चे जीवलोगम्मि, कि हिंसाए पसज्जसि ?
-१८।११
१०१ जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसपायचचलं ।
-~-१८।१३
१०२. दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा ।
जीवन्तमणुजीवंति, मय नाणुव्वयंति य ।।
-१८।१४
१०३. किरियं च रोयए धीरो।
-१८०३३
१०४. जम्म दुक्ख जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कोसन्ति जंतुणो ।।
-१६।१६
१०५. भासियब हिय सच्च ।
-१९२७
१०६ दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं ।
-१६२८
१०७. वाहाहिं सागरो चेव, तरियन्वो गुणोदही।
-१५३७
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उत्तराध्ययन को सूक्तियां
एक सौ सग्रह ६६. सर्प, गरुड के निकट डरता हुआ बहुत सभल के चलता है ।
६७. देवता, दानव, गधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक
को नमस्कार करते हैं, क्यो कि वह एक बहुत दुप्कर कार्य करता है ।
१८. जो श्रमण खा पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता,
वह पापश्रमण' कहलाता है।
६६. जो श्रमण असविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियो मे बांटता नही है,
और परस्पर प्रेमभाव नही रखता है), वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। १००. जीवन अनित्य है, क्षणभगुर है, फिर क्यो हिंसा मे आसक्त होते हो?
१०१. जीवन और रूप, विजली की चमक की तरह चंचल हैं ।
१०२. स्त्री, पुत्र, मित्र और वन्युजन सभी जीते जी के साथी हैं, मरने के
वाद कोई किसी के पीछे नही जाता ।
१०३ धीर पुरुष सदा क्रिया (कर्तव्य) मे ही रुचि रखते हैं ।
१०४. संसार मे जन्म का दुख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुख है, चारो
ओर दुःख ही दु.ख है। अतएव वहा प्राणी निरतर कष्ट ही पाते
रहते हैं। १०५. सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए ।
१०६ अस्तेयव्रत का साधक विना किसी की अनुमति के, और तो क्या,
दात साफ करने के लिए एक तिनका भी नहीं लेता। १०७. सद्गुणो की साधना का कार्य भुजालो से सागर तैरने जैसा है।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ अठारह १०८, असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउ तवो।
-१९३८
१०६. इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं।
-१९४५
११०. ममत्त छिन्दए ताए, महानागोव्व कचुय ।
-१९८७
१११. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निंदा पसंसासु, समो माणावमाणो॥
-१९६१
११२. अप्पणा अनाहो सतो, कहं नाहो भविस्ससि ?
--२०१२
११३. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दरण वणं ॥
-~-२०३६
११४. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठियो॥
-२०१३७
११५. राढामणी वेरुलियप्पगासे,
अमहग्घए होइ हु जाणएसु ।
-२०१४२
११६. न तं अरी कंठछित्ता करेई,
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
-२०१४८
११७. कालेण काल विहरेज्ज रठे,
बलावल जाणिय अप्परयो य ।
-२०१४
११८. सीहो व सद्दरण न संतसेज्जा ।
-२१:१४
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उत्तराध्ययन को सूक्तियां
एक सौ उन्नीस १०८. तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है ।
१०६. जो व्यक्ति ससार की पिपासा-तृप्णा से रहित है, उसके लिए कुछ
भी कठिन नहीं है। ११०. आत्मसाधक ममत्व के वचन को तोड़ फेके, जैसे कि सर्प शरीर पर
आई हुई केंचुलो को उतार फेकता है। १११. जो लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशसा, और मान
अपमान मे समभाव रखता है, वही वस्तुत मुनि है ।
११२. तू स्वयं अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?
११३. मेरी (पाप मे प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष
के समान (कप्टदायी) है। और मेरी आत्मा ही (सत्कर्म मे प्रवृत्त)
कामधेनु और नदन वन के समान सुखदायी भी है । ११४. आत्मा ही सुख दुःख का कर्ता और भोक्ता है । सदाचार मे प्रवृत्त
आत्मा मित्र के तुल्य है, और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है।
११५. वैडूर्य रत्न के समान चमकने वाले काच के टुकडे का, जानकार (जोहरी)
के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं रहता।
११६ गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि
दुराचार मे प्रवृत्त अपना ही स्वय का आत्मा कर सकता है ।
११७. अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्तव्य
का पालन करते हुए राष्ट्र (विश्व) मे विचरण करिए ।
११८, सिंह के समान निर्भीक रहिए, केवल शन्दो (आवाजो) से न डरिए ।
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एक सो वीस
११६. पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा ।
१२०. न सव्व सव्वत्यभि रोयएज्जा ।
१२१. अगछन्दा इह माणवेहि !
१२२. प्रणुन्न नावरणए महेसी, न यावि पूयं, गरिह च संजए ।
१२३ नारणेरणं दसरणेरणं च चरित्रण तवेण य । खतीए मुत्तीए य, वड्ढमाणो भवाहि य ॥
१२४. पन्ना समिक्खए धम्मं ।
१२५. विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहरणमिच्छिउ ं ।
१२६. पच्चयत्थं च लोगस्स, नारणाविहविगप्पणं ।
१२७. एगप्पा जिए सत्त ।
ू
१२८. भवतण्हा लया वृत्ता, भीमा भीमफलोदया ।
१२६. कसाया श्रग्गिणो वुत्ता, सुय सील तवो जलं ।
१३०. मरणो साहस्सियो भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई । तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कन्थग ॥
सूक्ति त्रिवेणी
-२१।१५
-२१।१५
-२१।१६
-२१।२०
-२२/२६
-२३/२५
—२३।३१
- २३।३२
- २३/३८
- २३१४८
-२३/५३
-२३५३
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ इक्कीम ११६ प्रिय हो या अप्रिय, सब को समभाव से सहन करना चाहिए ।
१२०. हर कही, हर किसी वस्तु मे मन को मत लगा वैठिए ।
१२१. इस संसार मे मनुष्यो के विचार (छन्द = रुचियां) भिन्न भिन्न प्रकार
के होते हैं। १२२. जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहकार नहीं करता, और निन्दा सुन
कर स्वयं को हीन (अवनत) नही मानता, वही वस्तुत महपि है ।
१२३. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की दिशा मे निरन्तर
वर्द्धमान बढ़ते रहिए ।
१२४. साधक को स्वय की प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है।
१२५. विज्ञान (विवेक ज्ञान) से ही धर्म के साधनो का निर्णय होता है ।
१२६. धर्मों के वेप आदि के नाना विकल्प जनसाधारण मे प्रत्यय (परिचय
पहिचान) के लिए हैं। १२७. स्वय को अविजित असयत आत्मा ही स्वय का एक शत्रु है ।
१२८. संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-वेल है।
१२६. कषाय-(क्रोध, मान माया और लोभ) को अग्नि कहा है । उसको
बुझाने के लिए श्रुत (ज्ञान) शील, सदाचार और तप जल है । १३०. यह मन बड़ा ही साहसिक, भयंकर, दुप्ट घोडा है, जो बडी तेजी के
साथ दौड़ता रहता है । मैं धर्मशिक्षारूप लगाम से उस घोड़े को अच्छी तरह वश मे किए रहता हूँ।
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एक सौ बाईस
सूक्ति त्रिवेणी
१३१ जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पारिगणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।।
-२३०६८
१३२. जाउ अस्साविरणी नावा, न सा पारस्स गामिणी ।
जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिरगी ।
-२३१७१
१३३. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविनो।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसियो ।
-२३१७३
१३४. जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं वूम माहणं ॥
--२४२७
१३५. न वि मु डिएण समणो, न ओंकारेण बंभयो।
न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो।
-२५/३१
१३६. समयाए समणो होइ, वंभचेरेण बंभयो।
नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो॥
-२५५३२
१३७. कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो ।
वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुरणा ॥
-२५॥३३
१३८, उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥
--२५०४१
१३६ विरत्ता हु न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए।
-२५४३
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उत्तराध्ययन की सूक्तिया
एक सौ तेईस
१३१. जरा और मरण के महाप्रवाह मे डूबते प्राणिओ के लिए धर्म ही
द्वीप है, प्रतिष्ठा=आधार है, गति है, और उत्तम शरण है।
१३२. छिद्रो वाली नौका पार नही पहुंच सकती, किंतु जिस नौका मे छिद्र
नही है, वही पार पहुंच सकती है।
१३३. यह शरीर नौका है, जीव-आत्मा उसका नाविक (मल्लाह) है, और
संसार समुद्र है । महर्षि इस देहरूप नौका के द्वारा ससार-सागर को
तैर जाते हैं। १३४. ब्राह्मण वही है जो ससार मे रह कर भी काम भोगो से निर्लिप्त
रहता है, जैसे कि कमल जल मे रहकर भी उससे लिप्त नही होता।
१३५. सिर मुडा लेने से कोई श्रमण नही होता, ओकार का जप करने से
कोई ब्राह्मण नही होता, जंगल मे रहने से कोई मुनि नही होता और
कुगचीवर-वल्कल धारण करने से कोई तापस नही होता । १३६. समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, जान से मुनि और तपस्या से
तापस कहलाता है।
१३७. कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय । कर्म से ही वैश्य होता
है और कर्म से ही शूद्र ।
१३८. जो भोगी (भोगासक्त), है, वह कर्मों से लिप्त होता है। और जो
अभोगी है, भोगासक्त नही है, वह कर्मों से लिप्त नही होता । भोगासक्त ससार मे परिभ्रमण करता है । भोगो मे अनासक्त ही ससार से मुक्त होता है।
१३९. मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कही भी चिपकता नही है,
अर्थात् आसक्त नहीं होता।
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एक सौ चौवीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४०. सज्झाएवा निउत्तेण, सव्वदुक्ख विमोक्खणे।
-२६१०
१४१. सज्झायं च तयो कुज्जा, सव्वभावविभावणं ।
-२६६३७
१४२. नाण च दसणं चेव, चरित्त च तवो तहा।
एस मग्गे त्ति पन्नत्तो, जिणे हि वरद सिहि ।।
-२८२
१४३. नत्थि चरित्त सम्मत्तविहूणं ।
--२८२६ ___१४४ नाद सरिणस्स नाण, नाणण विणा न हुति चरणगुणा । अगुरिणस्स रात्थि मोक्खो, रणत्थि अमोक्खस्स रिणव्वाणं ॥
-२८.३० १४५, नाणेण जाणई भावे, दसणेण य सरहे। चरित्तेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई ।।
--२८१३५ १४६. सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयई।
-२६८ १४७. खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ।
-२६१७ १४८. सज्झाएण नाणावरणिज्जं कम्मं खवेई।
-२६१८ १४६. वेयावच्चेणं तित्थयरं नामगोत्त कम्मं निवन्धई।
-२६।४३ १५०. वीयरागयाए णं नेहाणुवधणाणि, तण्हाणुवधरणाणि य वोच्छिदई ।
--२६४५
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
१४०. स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखो से मुक्ति मिलती है ।
१४१. स्वाध्याय सव भावो (विषयों) का प्रकाश करने वाला है ।
एक सौ पच्चीस
१४२. वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले जिन भगवान ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है ।
१४३. सम्यकृत्व (सत्यदृष्टि ) के अभाव मे चारित्र नही हो सकता ।
१४४. सम्यग् दर्शन के अभाव मे ज्ञान प्राप्त नही होता, ज्ञान के अभाव मे चारित्र के गुण नही होते, गुणो के अभाव मे मोक्ष नही होता और मोक्ष के अभाव मे निर्वाण ( शाश्वत आत्मानन्द) प्राप्त नही होता ।
१४५. ज्ञान से भावो ( पदार्थों) का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है | चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा निर्मल होता है ।
१४६. सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियो का निरोध हो जाता है ।
१४७. क्षमापना से आत्मा मे प्रसन्नता की अनुभूति होती है ।
YE
स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादन करने वाले) कर्म का क्षय होता है ।
१४९. वैयावृत्य (सेवा) से आत्मा तीर्थंकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करता है ।
१५०. वीतराग भाव की साधना से स्नेह (राग) के बंधन और तृष्णा के बंधन कट जाते है ।
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एक सौ छब्बीस
सूक्ति त्रिवेणी
१५१. अविसंवायणसपन्नयाए ण जीवे,
धम्मस्स आराहए भवइ ।
-२६४८
करण सच्चे वट्माणे जीवे, जहावाई तहाकारी यावि भवइ ।
-२९५१
१५३ वयगुत्तयाए ण णिविकारत्त जणयई।
-२६५४
१५४. जहा सूई ससुत्ता, पडियावि न विरणस्सइ ।
तहा जीवे ससुत्त', संसारे न विरणस्सइ ।
-~२६५६
१५५. कोहविजए ण खंति जणयई।
~२६।६७
१५६. माणविजए णं महवं जणयई।
--२९६८
१५७. मायाविजएणं अज्जवं जणयइ ।
-२६६६६
१५८ लोभ विजएणं सतोसं जणयई।
-२६७०
१५९. भवकोडी-संचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ।
--३०६
१६०. असंजमे नियत्ति च, संजमे य पवत्तण।
--३११२
१६१. नाणस्स सबस्स पगासणाए,
अन्नारगमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोमस्स य संखएण,
एगंतसोक्ख समुवेइ मोक्ख ।
-३२१२
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उत्तराध्ययन की सूक्तिया
एक सौ सत्ताईस
१५१. दम्भरहित, अविसवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है ।
१५२. करणमत्य - व्यवहार मे स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा 'जैसी कथनी वंमी करनी' का आदर्श प्राप्त करता है ।
१९३. वचन गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है ।
१५४. धागे में पिरोई हुई सूई गिर जाने पर भी गुम नही होती, उसी प्रकार ज्ञानरूप धागे से युक्त आत्मा संसार मे भटकता नही, विनाश को प्राप्त नही होता ।
१५५ क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है ।
१५६. अभिमान को जीत लेने से मृदुता (नम्रता ) जागृत होती है ।
१५७. माया को जीत लेने से ऋजुता ( सरल भाव ) प्राप्त होती है ।
१५८. लोभ को जीत लेने से सतोष की प्राप्ति होती है ।
१५६. सावक करोड़ो भवो के सचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर देता है ।
१६०. असंयम से निवृत्ति और सयम मे प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
१६१. - ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राग एवं द्व ेष के क्षय से, आत्मा एकान्तसुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है ।
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एक सौ अट्ठाईस
१६२. जहा य अडप्पभवा बलागा,
ग्रंड बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयति ।
१६३ रागो य दोसो वि य कम्मबीय,
कम्म च मोहप्पभव वयंति । कम्म च जाईमरणस्स मूलं,
दुक्ख च जाईमरण वयति ।
१६४. दुक्खं हय जस्स न होइ मोहो,
मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तण्हा या जस्स न होइ लोहो,
लोहो हो जस्स न किंचणाइ ॥
१६५. रसा पगाम न निसेवियव्वा,
पाय रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवति,
दुमं जहा साउफल व पक्खी ॥
सदेवगस्स,
कामाणुगिद्धिप्नभवं खु दुक्खं ।
१६६. सव्त्रस्स लोगस्स
१६७. लोभाविले प्राययई प्रदत्त ।
१६८. रागस्स हेउ समणुन्नमाहु, दोसस्स हेड अमरणुन्नमाहु |
सूक्ति त्रिवेणी
—३२/६
-३२१७
-३२२८
-३२।१०
-३२|१६
-३२१२६
-३२/३६
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ उनतीस १६२. जिस प्रकार वलाका (वगुली) अडे से उत्पन्न होती है और अजा
वलाका से ; इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से ।
१६३. राग और द्वेप, ये दो कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है ।
कर्म ही जन्म मरण का मूल है और जन्म मरण ही वस्तुत दु.ख है।
१६४ जिसको मोह नही होता उसका दु ख नष्ट हो जाता है । जिस को तृष्णा
नही होती, उसका मोह नष्ट हो जाता है । जिसको लोभ नही होता, उसकी तष्णा नष्ट हो जाती है । और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है।
१६५ ब्रह्मचारी को घी दूध आदि रमो का अधिक सेवन नही करना चाहिए,
क्योकि रम प्राय. उद्दीपक होते हैं । उद्दीप्त पुरुप के निकट कामभावनाएं वैसे ही चली आती हैं, जैसे स्वादिष्ठ फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं।
१६६ देवताओ सहित समग्र ससार मे जो भी दु ख हैं, वे सब कामासक्ति के
कारण ही हैं।
१६७. जब आत्मा लोभ से कलुपित होता है तो चोरी करने को प्रवृत्त होता
१६८. मनोज्ञ शब्द आदि राग के हेतु होते हैं और अमनोज्ञ द्वप के हेतु ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ तीस १६९. सद्द अतित्त' य परिग्गहम्मि,
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि।
-~३२६४२
१७०. पदुचित्तो य चिणाइ कम्म,
जं से पुणो होइ दुहं विवागे।
-३२१४६
१७१. न लिप्पई भवमझे वि सतो,
जलेण वा पोक्खरिणीपलास ।
-३२१४७
१७२. समो य जो तेसु स वीयरागो।
-३२१६१
१७३. एविदियत्था य मणस्स अत्था,
दुक्खस्स हेउमणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्ख,
न वीयरागस्त करेति किंचि ।।
--~३२११००
१७४. न कामभोगा समयं उवेति,
न यावि भोगा विगड उवेंति । जे तप्पनोसी य परिग्गही य,
सो तेस मोहा विगई उवेइ ॥
--३२११०१
१७५. न रसाए भुजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी।
-३५।१७
१७६ अउलं सुहसपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ ।
-३६.६६
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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ इकत्तीस
१६६ शब्द आदि विषयो मे अतृप्त और परिग्रह मे आसक्त रहने वाला
आत्मा कभी मतोप को प्राप्त नहीं होता।
१७०. आत्मा प्रदुष्टचित्त (रागद्वप में कलुपित) होकर कर्मों का सचय
करता है। वे कर्म विपाक (परिणाम) मे बहुत दुखदायी होते है ।
१७१. जो आत्मा विपयो के प्रति अनासक्त है, वह ससार मे रहता हुआ भी
उसमे लिप्त नही होता । जैसे कि पुष्करिणी के जल मे रहा हुआ पलाश
-कमल । १७२. जो मनोज्ञ और अमनोज शब्दादि विपयो मे सम रहता है, वह वीतराग
१७३ मन एव इन्द्रियो के विपय, रागात्मा को ही दुख के हेतु होते हैं।
वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दुखी नही कर सकते ।
१७४ कामभोग-गब्दादि विपय न तो स्वय मे समता के कारण होते हैं
और न विकृति के हो । कितु जो उनमे द्वष या राग करता है वह उनमे मोह से राग द्वाप रूप विकार को उत्पन्न करता है ।
१७५. साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, किंतु जीवनयात्रा के निर्वाह के
लिए करे। १७६ मोक्ष मे आत्मा अनत सुखमय रहता है। उस सुख की कोई उपमा
नही है और न कोई गणना ही है ।
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श्राचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
१. अगाणं किं सारो ? श्रायारो ।
२. सारो परूवरणाए चरण, तस्स वि य होइ निव्वाण |
३. एक्का मगुस्सजाई ।
- श्राचारांग निर्युषित, गाथा १६
४. हेट्ठा नेरइयारण अहोदिसा उवरिमा उ देवारणं ।
५. साय गवेसमारणा, परस्स दुक्खं उदीरति ।
६. भावे श्र असजमो सत्य ।
७. काम नियत्तमई खलु, ससारा मुच्चई खिप्पं ।
८ कामा चरित्तमोहो ।
- श्राचा० नि० १७
- श्राचा० नि० १६
-आचा० नि० ५८
-प्राचा० नि० ६४
- श्राचा० नि० ६६
- प्राचा० नि० १७७
- साचा० नि० १८६
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१. जिनवाणी (ग्रग - साहित्य) का सार क्या है ? 'आचार' सार है ।
२
३. समग्र मानवजाति एक है ।
श्राचार्य भद्रबाहु की सूक्तियां
प्ररूपणा का सार है --आचरण ।
आचरण का सार (अन्तिमफल ) है - निर्वाण |
४ नारको की दिशा, अधोदिशा है और देवताओ की दिशा ऊर्ध्व दिशा । ( यदि अध्यात्मदृष्टि से कहा जाए तो अधोमुखी विचार नारक के प्रतीक है और ऊर्ध्वमुखी विचार देवत्व के ) ।
५. कुछ लोग अपने सुख की खोज मे दूसरो को दुख पहुँचा देते है ।
و
६ भाव-दृष्टि से ससार मे असंयम हो सबसे बड़ा शस्त्र है |
=
जिसकी मति, काम (वासना) से मुक्त है, वह शीघ्र ही ससार से मुक्त हो जाता है ।
वस्तृतः काम की वृत्ति ही चारित्रमोह (चरित्र - मूढ़ता ) हैं ।
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एक मो चौतीस
सूक्ति त्रिवेणी ६. मंसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि हुति य कसाया।
-प्राचा०नि० १८९
१०. अभयकरो जीवाणं, सीयवरो मंजमो भवड सीयो।
~~याचा०नि० २०६
११. न हु बालतवेग मुक्ग्बु त्ति ।
-~~-प्राचा० नि० २६४
१२. न जिगाइ अंधो परागीय ।
-प्राचा०नि० २१९
१३. कुगामागोऽवि निवित्ति,
परिच्चयतोऽवि सयगा-धरा-भोए। दिनोऽवि दुहरस उरं,
मिच्छट्टिी न सिझई उ ।
-प्राचा०नि० २२०
१४. दसणवत्रो हि सफलागि, हुति तवनागचरणाई।
~प्राचा०नि० २२१ १५. नहु कातवे समगो।
-~-याचा० नि० २२४
१६ जह खलु भमिरं कटं, सुचिरं सुबकं लहुटहह अगी। नह खन्नु खवंति कम्मं, सम्मच्चर ठिया साहू ।।
-याचा०नि०२३४
१७. लोगस्स मार बम्मो, धम्म पि य नाणसारिय विति । नाणं राजमसारं सजमसारं च निधारा ।।
-प्राचा०नि० २४४ १८ देसविगुक्का माहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा।
-चापा०नि० २५८
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आचार्यं भद्रबाहु की सूक्तियां
ह संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कपाय है ।
१०. प्राणिमात्र को अभय करने के कारण संयम गीतगृह ( वातानुकूलित गृह ) के समान शीत अर्थात् शान्तिप्रद है ।
अज्ञानतप से कभी मुक्ति नही मिलती ।
११
एक सौ पैंतीस
१२. प्रथा कितना ही वहादुर हो, शत्रुसेना को पराजित नही कर सकता । इसी प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारो को जीत नही सकता |
१३. एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोग विलास का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कप्टो को सहन करता है, किंतु यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो अपनी साधना मे मिद्धि प्राप्त नही कर सकता ।
१४ सम्यग् दृष्टि के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते है ।
१५ जो दभी है, वह श्रमण नही हो सकता ।
१६ जिस प्रकार पुराने मूखे, खोखले काठ को अग्नि शीघ्र ही जला डालती है, वैसे ही निष्ठा के साथ आचार का सम्यक् पालन करने वाला साधक कर्मो को नष्ट कर डालता है ।
१७. विश्व -- सृष्टि का सार धर्म है, वर्म का सार ज्ञान (सम्यग् - बोध) है, ज्ञान का सार सयम है, और सयम का सार निर्वाण - ( शाश्वत आनद की प्राप्ति ) है ।
१८. साधक कर्मवघन से देशमुक्त ( श्रंशत मुक्त ) होता है और मिद्ध सर्वथा मुक्त ।
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एक मी छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी १६. जह खलु मइलं वत्यं, सुज्झड उदगाइएहि दव्वेहिं । एव भावुवहाणेण, सुज्झए कम्ममट्ठविहं ॥
-प्राचा०नि० २८२ २०. जह वा विसगडूस, कोई घेत्त ण नाम तुहिक्को। अण्णेण अदीसतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा!
-सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ५२ २१ धम्ममि जो दढमई, सो सूरो सत्तियो य वीरो य । ण हु धम्मणिरुस्साहो, पुरिसो सूरो सुवलियोऽवि ।।
-सूत्र०नि० ६० २२. अबावि नागदसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पबरा होति मुगी, ते पवरा पुंडरीया उ॥
-सूत्र० नि० १५६ २३. अत्रि य हु भारियकम्मा, नियमा उक्कस्सनिरयठितिगामी। तेऽवि हु जिगोवदेसेण, तेणेव भवेण सिज्झति ॥
-सूत्र०नि० १६० २४ धम्मो उ भावमगलमेत्तो सिद्धि त्ति काऊण ।
-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा ४४ २५. हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा।
-दशव०नि० ४५ २६ सुदुक्खसंपयोगो, न विज्जई निच्चवायपक्खमि । एगंतुच्छेअमि य, सुहदुक्खविगप्पणमजुत्त।
-दशव० नि० ६० २७ उक्कामयति जीवं, धम्मायो तेण ते कामा।
-वशवे० नि० १६४ २८. मिच्छत वेपत्तो, जं अवारणी कहं परिकहेइ ।
लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए । तवयंजमगुग्गधागे, जं चरणत्या कहिनि सम्भावं । गरजगज्जीवहियं, या उ कहा देसिया समए ॥
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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ सैंतीस
१६. जिस प्रकार जल आदि शोत्रक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अपृविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है ।
२०. जिस प्रकार कोई चुपचाप लुकछिपकर विप पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? अवश्य मरेगा । उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नही होगा ? अवश्य होगा ।
२१. जो व्यक्ति धर्म मे दृढ निष्ठा रखता है वस्तुत वही वलवान है, वही शूर वीर है । जो धर्म मे उत्माहहीन है, वह वीर एव वलवान होते हुए भी न वीर है, न वलवान है ।
२२ जो साधक अध्यात्मभावरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय मे श्रेष्ठ हैं, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुडरीक कमल है ।
२३. कोई कितना ही पापात्मा हो और निश्चय ही उत्कृप्ट नरकस्थिति को प्राप्त करने वाला हो, किन्तु वह भी वीतराग के उपदेश द्वारा उसी भव मे मुक्तिलाभ कर सकता है ।
२४. धर्म भावमंगल है, इसी से आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है ।
२५. हिंसा का प्रतिपक्ष-अहिंसा है ।
२६. एकांत नित्यवाद के अनुसार सुख दुख का सयोग सगत नही बैठता ओर एकात उच्छेदवाद - अनित्यवाद के अनुमार भी सुख दुख की बात उपयुक्त नही होती । अत. नित्यानित्यवाद ही इसका सही समाधान कर सकता है ।
२७. शब्द आदि विषय आत्मा को धर्म ते उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते है, अत. इन्हे 'काम' कहा है ।
२८. मिथ्याप्टि अज्ञानी - चाहे वह साघु के वेप मे हो या गृहस्थ के वेष मे, उसका कथन 'अकथा' कहा जाता है ।
तप मयम आदि गुणों से युक्त मुनि सद्भावमूलक सर्वं जग-जीवो के हित के लिये जो कथन करते हैं, उसे 'कथा' कहा गया है ।
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एक सौ अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी जो संजो पमत्तो, रागद्दोसवसगो परिकहेइ। सा उ विकहा पवयणे, पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।।
-दशवै० नि० २०९-१०-११ २६. जीवाहारो भण्णइ आयारो।
-दशवै० नि० २१५ ३०. धम्मो अत्थो कामो, भिन्न ते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयण उत्तिन्ना, असवत्ता होति नायव्वा ।।
-दशव० नि० २६२ ३१. जिणवयणमि परिणए, अवत्थविहिाणुठाणो धम्मो। सच्छासयप्पयोगा अत्थो, वीसभयो कामो॥
-दशव०नि० २६४ ३२ वयणविभत्तिप्रकुसलो, वयोगयं बहुविहं अयाणंतो।
जइ वि न भासइ किंची, न चेव वयगुत्तय पत्तो॥ वयविभत्ती दुसलो, वोगयं बहुविहं वियागंतो। दिवस पि भासमायो, तहावि वयगुत्तयं पत्तो।।
-दशव०नि० २६०-२६१ ३३. सद्देसु अरूवेसु अ, गधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्परिणही॥
-दशवै० नि० २६५ ३४. जस्स खलु दुप्परिणहिआणि इ दियाइ तवं चरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहिं सारही व तु गेहिं ।।
-दशव० नि० २६८
. स्वच्छाशयप्रयोगाद् विशिष्ट लोकत , पुण्यवनाचार्य । २. वियम्भत उचितकलत्राङ्गीकरणतापेक्षो विथम्भेण काम ॥
-इति हारिभद्रीया वृत्तिः।
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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ उनतालीस
जो संयमी होते हुये भी प्रमत्त है, वह रागद्वप के वशवर्ती होकर जो कथा करता है, उसे 'विकथा' कहा गया है ।
२६. तप-सयमस्प आचार का मूल आधार आत्मा (आत्मा मे श्रद्धा) ही है ।
३०. धर्म, अर्थ, और काम को भले ही अन्य कोई परम्पर विरोधी मानते हो,
किंतु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान मे अवतरित होने के
कारण परस्पर असपत्न=अविरोधी है। ३१. अपनी अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान स्प धर्म, स्वच्छ आशय
से प्रयुक्त अर्थ, विन्त्र भयुक्त (मर्यादानुकूल वैवाहिक नियत्रण से स्वीकृत)
काम-जिन वाणी के अनुसार ये परस्पर विरोधी है । ३२. जो वचन-कला मे अकुगल है, और वचन की मर्यादाओ से अनभिज्ञ है, वह कुछ भी न बोले, तव भी 'वचनगुप्त' नहीं हो सकता ।
जो वचन-कला मे कुगल है और वचन वी मर्यादा का जानकार है, वह दिनभर भाषण करता हुआ भी 'वचनगुप्त' कहलाता है ।
३३. शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श मे जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है
और न प करता है, उसी का इन्द्रियनिग्रह प्रशस्त होता है ।
३४. जिस साधक की इन्द्रिया, कुमार्गगामिनी हो गई है, वह दुष्ट घोडो के ।
वश मे पडे सारथि की तरह उत्पथ मे भटक जाता है।
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एक सौ चालीस
सूक्ति त्रिवेणी ___३५. जस्स वि अ दुप्परिणहिया होंति कसाया तवं चरंतस्स । __ सो बालतवस्सीवि व गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ॥
-दशवै० नि० ३०० ___३६. सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामन्नं ।।
-दशवै० नि० ३०१ ३७. खतो अ मद्दवऽज्जव विमुत्तया तह अदीय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी अ होति भिक्खुस्स लिंगाइ॥
-दशव० नि० ३४६ ३८. जो भिक्खू गुणरहिरो भिक्खं गिण्हड न होइ सो भिक्खू । वण्णण जुत्तिसुवण्णग व असइ गुणनिहिम्मि ॥
-दशव०नि० ३५६ ३६. जह दीवा दीवसयं, पईप्पए सो य दीप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, अप्पं च परं च दीवति ॥
-उत्तराध्ययन नियुक्ति, ८ __४०. जावइया प्रोदइया सव्वो सो बाहिरो जोगो।
उत्त० नि० ५२ ४१ पायरियस्स वि सीसो सरिसो सवे हि वि गुणेहिं।।
-उत्त० नि० ५८ ४२. सुहिरो हु जणो न बुज्झई ।
--उत्त० नि० १३५ ४३. राइसरिसवमिताणि, परछिद्राणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्तारिण, पासंतो वि न पाससि !
-उत्त० नि० १४० ४४. मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । इस पचविहो ऐसो होई पमानो य अप्पमाओ ॥
-उत्त० नि० १८०
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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ इकतालीस
३५. जिस तपस्वी ने कपायो को निगृहीत नहीं किया, वह वाल तपस्वी है ।
उसके तपरूप मे किये गए सव कायकष्ट गजस्तान की तरह व्यर्थ हैं ।
३६. श्रमण धर्म का अनुचरण करते हुए भी जिसके क्रोध आदि कपाय उत्कट
हैं, तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है जैसा कि ईख का फूल ।
३७. क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक
कियाओ की परिशुद्धि-ये सव भिक्षु के वास्तविक चिन्ह हैं ।
३८. जो भिक्षु गुणहीन है, वह भिक्षावृत्ति करने पर भी भिक्षु नही कहला
सकता । सोने का झोल चढ़ादेने भर से पीतल मादि सोना तो नही हो
मकता ।
३६. जिस प्रकार दीपक स्वय प्रकाशमान होता हुआ अपने स्पर्श से अन्य
सेंकड़ो दीपक जला देता है, उसी प्रकार सद्गुरु-आचार्य स्वय ज्ञान ज्योति से प्रकाशित होते हैं एवं दूसरो को भी प्रकाशमान करते हैं ।
४०. कर्मोदय से प्राप्त होने वाली जितनी भी अवस्थाए हैं वे सव वाह्य भाव
४१. यदि शिष्य गुणसपन्न है, तो वह अपने आचार्य के समकक्ष माना जाता
४२. सुखी मनुष्य प्राय. जल्दी नही जग पाता।
४३. दुर्जन दूसरो के राई और सरसो जितने दोष भी देखता रहता है, किंतु
अपने विल्व (वेल) जितने बडे दोपो को देखता हुआ भी अनदेखा
कर देता है। ४४. मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा (अर्थहीन रागद्वेषवर्द्धक वार्ता)
यह पाच प्रकार का प्रमाद है । इन से विरक्त होना ही अप्रमाद है।
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एक सौ विणलीस
सूक्ति त्रिवेणी ४५. भावंमि उ पव्वज्जा प्रारंभपरिग्गहच्चायो।
--उत्त० नि० २६३ ४६ अहियत्य निवारितो, न दोसं वत्त मरिहसि ।
-उत्त० नि० २७६ ४७. भद्दएणेव होअव्वं पावइ भद्दारिण भयो। सविससे हम्मए सप्पो, भेरुडो तत्थ मुच्चइ ।
-उत्त० नि० ३२६ ४८. जो भिदेड खुह खलु, सो भिक्खू भावनो होड ।
-उत्त० नि० ३७५ ८६. नाणी सजमसहिनो नायब्बो भावनो समणो ।
उत्त० नि० ३२९ ५० प्रत्यं भासइ अरहा, मुत्त गंथति गरगहरा निउणं ।
-प्रावश्यक नियुक्ति, ६२ ५१. वाएग विणा पोस्रो, न चएइ महण्णवं तरि।
-~-पाव०नि० ६५ ५२. निउणो वि जीवपोयो, तवमंजममारुयविहणो।
-श्राव० नि०६६ ५३. चरणगुणविप्पहीणो, वुड्डइ सुबहु पि जारणंतो।
-श्राव नि०६७ ५४ सुबहुपि मुयमहीय, किं काही चरणविप्पहीणस्स ? अंघस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्मकोडी वि ॥
-श्राव०नि०६८ ५५. अप्पं पि मुयमहीय, पयासयं होड चरणजुत्तस्स । इक्को विजह पईवो, सचमवुअस्सा पयासेड ।।
श्राव०नि०६६
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माचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ तेतालीस
४५. हिंसा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुत भाव प्रव्रज्या हैं ।
४६. बुराई को दूर करने की दृष्टि से यदि आलोचना की जाये तो कोई दोप
नहीं है।
४७. मनुष्य को भद्र (सरल) होना चाहिए, भद्र को ही कल्याण की प्राप्ति
होती है । विपवर माप ही मारा जाता है, निर्विप को कोई नही मारता।
४८. जो मन की मूख (तृष्णा) का भेदन करता है,वही भाव रूप मे भिक्षु है ।
४६. जो भानपूर्वक सयम की साधना में रत है, वही भाव (सच्चा) श्रमण
५० तीर्थकर की वाणी अर्थ (भाव) स्प होती है, और निपुण गणधर उसे
सूत्र-बद्ध करते हैं।
५१. अच्छे से अच्छा जलयान भी हवा के विना महासागर को पार नही कर
सकता।
५२. शास्त्रज्ञान मे कुगल साधक भी तप, सयम रूप पवन के विना ससार
सागर को तैर नही सकता।
५३. जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ लेने पर भी
ससार समुद्र में डूब जाता है।
५४. शास्त्रो का वहत सा अध्ययन भी चरिब-हीन के लिए किस काम का?
क्या करोडो दीपक जला देने पर भी अधे को कोई प्रकाश मिल
सकता है ? ५५. शास्त्र का थोड़ा-सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देने
वाला होता है । जिस की आँखें खुली हैं उस को एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है।
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एक सौ चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी
५६ जहा खरो चंदणभारवाही,
भारस्स भागी नहु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए॥
-आव० नि० १०० ५७. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नारगो किया। पासतो पंगुलो दड्ढो, धावमारणो अ अंधश्रो ।।
-प्राव० नि० १०१ ५८. संजोगसिद्धीइ फल वयति,
न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पग य वणे समिच्चा, ते सपउत्ता नगरं पविट्ठा ।
-श्राव० नि० १०२ ५६. गाणं पयासगं, सोहयो तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाजोगे, मोक्खो जिरणसासणे भरिगयो ।
-आव०नि० १०३ ६० केवलियनागलंभो, नन्नत्थ खए कसायारणं ।
- श्राव० नि० १०४ ६१. अणथोवं वरणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोव च । रण हु भे वीससियव्वं, थोव पि हु ते बहु होइ ।।
-आव०नि० १२० ६२. तित्थपणाम काउ', कहेइ साहारणेण सद्देणं ।
-प्राव० नि० ५६७ ६३. भासंतो होइ जेठो, नो परियाएण तो वन्दे ।
श्राव०नि० ७०४
६४. सामाइयंमि उ कए, समरणो इव सावो हवइ जम्हा ।
-आव०नि०८०२
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आचार्यं भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ पैंताली
५६. चदन का भार उठाने वाला गवा सिर्फ भार ढोने वाला है, उसे चदन की मुगध का कोई पता नही चलता । इसी प्रकार चरित्र - हीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है, उसे सद्गति प्राप्त नही होती ।
५७
आचार-हीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान-हीन आचार | जैसे वन मे अग्नि लगने पर पगु उसे देखता हुआ और श्रवा दोडता हुआ भी आग से वचन ही पाता, जलकर नष्ट हो जाता है ।
५८. संयोगसिद्धि (ज्ञान क्रिया का सयोग ) हो फलदायी (मोक्ष रूप फल देने वाला) होता है । एक पहिए से कभी रथ नही चलता । जैसे अध और पगु मिलकर वन के दावानल भे पार होकर नगर मे सुरक्षित पहुंच गए, इसी प्रकार साधक भी ज्ञान और शिव के समन्वय से ही मुक्तिलाभ करता है ।
५६. ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप विशुद्धि एव सयम पापो का निरोध करता है । तीनो के ममयोग से ही मोक्ष होता है - यही जिनशासन का कथन है |
६०. क्रोवादि कषायो को क्षय किए बिना केवल ज्ञान (पूर्णजान ) की प्राप्ति नही होती ।
६१ ऋण, व्रण ( धाव), अग्नि और कपाय - यदि इनका थोडा सा ग भी है तो, उसकी उपेक्षा नही करनी चाहिए। ये अल्प भी समय पर बहुत (विस्तृत) हो जाते हैं ।
६२ तीर्थंकर देव प्रथम तीर्थं ( उपस्थित सघ) को प्रणाम करके फिर जनकल्याण के लिए लोकभाषा मे उपदेश करते हैं ।
६३ शास्त्र का प्रवचन (व्याख्यान) करने वाला बडा है, दीक्षा पर्याय से कोई बड़ा नही होता । अत पर्यायज्येष्ठ भी अपने कनिष्ठ शास्त्र के व्याख्याता को नमस्कार करें ।
६४ सामायिक की साधना करता हुआ श्रावक भी श्रमण के तुल्य हो जाता है ।
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एक सौ चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी ५६ जहा खरो चंदणभारवाही,
भारस्स भागी नहु चंदणस्स । एव खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ।
-आव०नि० १०० ५७. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नारगयो किया । पासतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अ अंधश्रो ।
-~-श्राव०नि० १०१ ५८. सजोगसिद्धीइ फल वयंति,
न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पगू य वणे समिच्चा, ते सपउत्ता नगरं पविट्ठा।
-श्राव० नि० १०२ ____ ५९. गाण पयासगं, सोहयो तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाजोगे, मोक्खो जिरणसासणे भरिणयो॥
-श्राव०नि० १०३ ६० केवलियनाणलंभो, नन्नत्थ खए कसायाणं ।
- श्राव० नि० १०४ ६१. अणथोवं वरणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोव च । ग हु भे वीससियवं, थोव पि हु ते बहु होइ ।।
-पाव०नि० १२० ६२. तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं ।।
-आव० नि० ५६७ ६३. भासंतो होइ जेट्ठो, नो परियाएण तो वन्दे ।
आव०नि० ७०४
६४. सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावनो हवइ जम्हा।
-माव०नि०८०२
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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ संतालीस
६५ जो न राग करता है, न हप करता है, वही वस्तुत. मध्यस्थ है, वाकी
सब नमध्यस्थ हैं।
६६ जैन दर्शन में दो नय (विचार-प्टियां) हैं-निश्चयनय और व्यवहार
नय । ६७. जो इस जन्म मे परलोक की हितमाधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय
पछताना पडता है। ६८. जो बडी मुश्किल से मिलता है, विजली की चमक की तरह चचल है, ऐसे
मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म साधना में प्रमत्त रहता है, वह
कापुरुष (अधम पुरुप) ही है, सत्पुरुष नही। ___६६. सूर्य आदि का द्रव्य प्रकाग परिमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किंतु
जान का प्रकाश तो समस्त लोकालोक को प्रकाशित करता है।
७० क्रोध का निग्रह करने में मानसिक दाह (जलन) गात होती है, लोभ का
निग्रह करने मे तृष्णा गात हो जाती है इसलिये धर्म ही सच्चा
तीर्य है। ७१. क्रोध, मान, माया और लोभ को विजय कर लेने के कारण 'जिन'
कहलाते है। कर्मरूपी शत्रुओ का तथा कर्म रुप रज का हनन नाग
करने के कारण अरिहत कहे जाते है। ७२ मिथ्यात्व-मोह, ज्ञानावरण और चारित्र-मोह-ये तीन प्रकार के तम
(अधकार) है । जो इन तमो-अधकारो से उन्मुक्त है, उसे उत्तम कहा
जाता है। ७३ तीर्थंकगे ने जो कुछ देने योग्य था, वह दे दिया है, वह समग्र दान यही
है- दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपदेश ।
७४.
जिस प्रकार मधुर जल, समुद्र के खारे जल के माथ मिलने पर खारा हो जाता है, उसी प्रकार मदाचारी पुरुप दुराचारियो के मसर्ग मे रहने के कारण दुराचार मे दुपित हो जाता है ।
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एक सौ छियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
६५. जो ण वि वट्टइ रागे, रग वि दोसे दोण्हमज्भयारमि । __ सो होइ उ मज्झत्थो, सेसा सव्वे अमज्झत्था ।
-श्रावक नि०८०४ ६६. दिट्ठीय दो गया खलु, ववहारो निच्छयो चेव ।
-प्राव० नि० ८१५ ६७ रण कुरणइ पारत्तहिय, सो सोयइ सकमणकाले ।
-आव०नि० ८३७ ६८ त तह दुल्लहलभ, विज्जुलया चचलं माणुसत्त। लद्ध ग जो पमायड, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो।।
पाव०नि० ८४१ ६६ दव्वुज्जोउज्जोओ, पगासई परिमियम्मि खित्तमि । भावुज्जोउज्जोयो, लोगालोग पगासेइ ॥
-प्राव०नि० १०६६ ७०. कोहमि उ निग्गहिए, दाहस्सोवसमण हवइ तित्थं । लोहमि उ निग्गहिए, तण्हावुच्छेअरण होइ ॥
-श्राव०नि० १०७४ ___ ७१. जियकोहमारणमाया, जियलोहा तेण ते जिणा हु ति । अरिणो हता, रयं हता, अरिहता तेण वुच्चंति ॥
-श्राव०नि० १०८३ ७२. मिच्छत्तमोहरिणज्जा, नाणावरणा चरित्तमोहायो। तिविहतमा उम्मुक्का, तम्हा ते उत्तमा हुति ।।
--प्राव नि० ११०० ७३. जं तेहिं दायव्व, त दिन्न जिणवरेहिं सव्वेहिं । दसण-नारण-चरित्तस्स, एस तिविहस्स उवएसो ।
-प्राव०नि० ११०३ ७४. जह नाम महुरसलिल, सायरसलिल कमेण संपत्त ।
पावेइ लोणभावं, मेलणदोसाणुभावेण ।। एवं खु सीलवतो, असीलवतेहिं मीलियो सतो। हंदि समुहमइगय, उदय लवणत्तणमुवेइ ।।
-आव०नि० ११२७-२८
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आचार्य भद्रवाहु की सूक्तियां
एक सो उडनचास
७५. जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती ।
७६. तैरना जानते हुए भी यदि कोई जलप्रवाह मे कूद कर कायचेष्टा न
करे, हाथ पाव हिलाए नहीं, तो वह प्रवाह मे डूब जाता है। धर्म को जानते हुए भी यदि कोई उस पर आचरण न करे तो वह ससारसागर को कैसे तर सकेगा?
जल ज्यो-ज्यो स्वच्छ होता है त्यो त्यो द्रष्टा उसमे प्रतिविम्बित रूपो को स्पष्टतया देखने लगता है। इसी प्रकार अन्तर् मे ज्यो ज्यो तत्त्व रुचि जाग्रत होती है, त्यो त्यो आत्मा तत्त्वज्ञान प्राप्त करता जाता है ।
७८. किसी आलवन के सहारे दुर्गम गर्त आदि मे नीचे उतरता हुआ व्यक्ति
अपने को सुरक्षित रख सकता है। इसी प्रकार ज्ञानादिवर्धक किसी विशिष्ट हेतु का पालवन लेकर अपवाद मार्ग मे उतरता हुआ सरलात्मा
साधक भी अपने को दोप से बचाए रख सकता है। ७६. दूत जिस प्रकार राजा आदि के समक्ष निवेदन करने से पहले भी और
पीछे भी नमस्कार करता है, वैसे है शिष्य को भी गुरुजनो के समक्ष जाते और आते समय नमस्कार करना चाहिए।
८०. अतिस्निग्ध आहार करने से विषयकामना उद्दीप्त हो उठती है।
८१. जो साधक थोडा खाता है, थोडा वोलता है, थोड़ी नीद लेता है और
थोडी ही धर्मोपकरण की सामग्री रखता है. उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
__ ८२. किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर-एकाग्र करना ध्यान है।
८३. 'यह गरीर अन्य है, आत्मा अन्य है।' साधक इस तत्त्वबुद्धि के द्वारा
दु.ख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे ।
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एक सौ अड़तालीस
७५. न नारणमित्तं ण कज्जनिष्पत्ती ।
७६. जाणतोऽवि य तरिउ, काइयजोग न जुजइ नईए । सो वुज्झइ सोएगं, एवं नाणी चरणहीरणो ॥
७७
७८. सालंबरणो पडतो, अप्पारण दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबरणसेवा, धारेइ जइ असढभावं ॥
-श्राव० नि० ११५१
जह जह सुज्झइ सलिलं, तह तह ख्वाइ पासई दिट्ठी । इय जह जह तत्तरुई, तह तह तत्तागमो होइ ॥ -श्राव० नि० ११६३
८०. श्रइनिद्ध रेग विसया उइज्जति ।
- आव० नि० ११५४
७६. जह दूश्रो रायाण, रामिउ कज्ज निवेइउ पच्छा । वीसज्जिवि वंदिय, गच्छ साहूवि
८२. चित्तस्सेगग्गया हवइ भारणं ।
सूक्ति त्रिवेणी
-श्राव० नि० ११८०
एमेव ॥
- श्राव० नि० १२३४
- प्राव० नि० १२६३
८१. थोवाहारो थोत्रभरियो य, जो होइ थोवनिद्दो य । थोवो हि उवगररणो तस्स हु देवा वि परणमति ॥
- श्राव० नि० १२६५
Geggings
-आव० नि० १४५६
८३. अन्न इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति एव कयवुद्धी । दुक्ख परिकि लेसकरं, छिद ममत्त सरीराम्रो ॥
- आव० नि० १५४७
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एक सौ अट्ठावन
सूक्ति त्रिवेणी
७. णिच्छयणयस्स एव आदा अप्पारणमेव हि करोदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताण ॥
-समय० ५३
८. अण्णाणमनो जीवो कम्माणं कारगो होदि ।
~ समय० ६२
कम्मममुह कम्म बानि मुसीला दि॥
कुसीलं, मुहकम्मं चानि जाणह सुसीलं । कह त होदि सुसीलं, जं संसार पवेसेदि ॥
-समय० १४५ १०. रत्तो बंधदि कम्म, मुचदि जीवो विरागसपत्तो।
-समय० १५० ११. वदरिणयमाणि धरता, सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठवाहिरा जे, णिव्वाणं ते रण विदति ।।
--समय. १५३ १२. जह कणयमग्गितविय पि,
करण्यभाव ग त परिच्चयइ। तह कम्मोदयतविदो, रण जहदि गाणी दु गारिणत
-समय० १८४ १३. पक्के फलम्हि पडिए, जह ण फल बज्झए पुणो विंटे। जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुरणोदयमुवेइ ।।.
-समय० १६८ १४. सुद्ध तु वियाणंतो, सुद्ध चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणतो दु असुद्ध, असुद्धमेवप्पय लहइ ॥
-समय १८६ १५. जं कुणदि सम्मदिट्ठी, त सव्वं णिज्जरणिमित्त।।
-समय० १६३
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां
१. व्यवहार (नय) के विना परमार्थ (शुद्ध आत्मतत्त्व) का उपदेश करना
अशक्य है। २. जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ-शुद्ध दृष्टि का अवलम्बन करता है, वही
सम्यग् दृष्टि है। ३. व्यवहार नय से जीव (आत्मा) और देह एक प्रतीत होते हैं, किंतु
निश्चय दृष्टि से दोनो भिन्न हैं, कदापि एक नही हैं।
४. जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नही होता, उसी
प्रकार शरीर के गुणो का वर्णन करने से शुद्धात्मस्वरूप केवल ज्ञानी के गुणो का वर्णन नही हो सकता ।
५ मैं (आत्मा) एक मात्र उपयोगमय =ज्ञानमय हूँ।
६. आत्म द्रष्टा विचार करता है कि-"मैं तो शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप, सदा
काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।"
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एक सौ अट्ठावन
७. पिच्छयरणयस्स एवं प्रादा अप्पारणमेव हि करोदि । वेदयदि पुणो तं चैव जाण अत्ता दु प्रत्ताणं ॥
८. अण्णारणमग्री जीवो कम्माणं कारगो होदि ।
६. कम्ममसुं
कह
कुसीलं,
मुहम्मं चावि जाणह सुसीलं । सुसीलं,
तं होदि
जं
ससारं
पवेसेदि ॥
१०. रत्तो वंघदि कम्मं, मुचदि जीवो विरागसंपत्तो ।
११. वदरिणयमारिण घरंता, सीलारिण तहा तवं च परमट्ठवाहिरा जे, णिव्वाणं ते रण
१२ जह करण्यमग्गितवियपि,
तह
करणयभाव रण तं परिच्चयइ । कम्मोदयतविदो, ग जहदि गारगी दुगारिणत
2
१४. सुद्ध ं तु वियागंतो सुद्ध चेवप्पयं लहइ जीवो । जाणतो दु ग्रसुद्ध ग्रसुद्धमेवप्पयं लहइ ॥
,
सूक्ति त्रिवेणी
- समय ० ८३
-
- समय० ६२
१५. जं कुरणदि सम्मदिट्ठी, त सव्वं रिगज्जररिणमित्तं ।
- समय० १४५
कुव्वंता । विदंति ||
- समय० १५०
१३. पक्के फलम्हि पडिए, जह ग फलं वज्झए पुणो विटे । जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुरणोदयमुवेइ ॥ .
- समय० १५३
- समय० १८४
- समय० १६८
- समय० १८६
- समय० १६३
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ उनसठ ७. निश्चय दृष्टि से तो आत्मा अपने को ही करता है, और अपने को ही
भोगता है।
८. अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्ता होता है ।
६. अशुभ कर्म बुरा (कुशील) और शुभ कर्म अच्छा (सुशील) है, यह सावा
रण जन मानते हैं । किंतु वस्तुतः जो कर्म प्राणी को ससार मे परिम्रमण कराता है, वह अच्छा कैसे हो सकता है ? अर्थात् शुभ या अशुभ सभी कर्म अन्तत हेय ही हैं।
१०. जीव, रागयुक्त होकर कर्म वाचता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त
होता है। भले ही व्रत नियम को वारण करे, तप और शील का आचरण करे, किंतु जो परमार्थरूप आत्मवोच से शून्य है, वह कभी निर्वाण प्राप्त नही कर सकता। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को नही छोड़ते ।
१३. जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुन वृन्त से नही लग
सकता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से वियुक्त होने के बाद पुनः आत्मा
(वीतराग) को नही लग सकते । १४ जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है वह शुद्ध भाव को प्राप्त
करता है, और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है वह अशुद्ध भाव को
प्राप्त होता है। १५. सम्यग् दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों को निर्जरा
के लिए ही होता है।
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एक सौ साठ
सूक्ति त्रिवेणी १६ जह विसमुवभुजतो, वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पुगलकम्मस्सुदय, तह भुजदि रणेव वज्झए गाणी ।।
-~-समय० १६५ १७ सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई।
-समय० १६७
१८. अपरिग्गहो अरिणच्छो भरिणदो।
-समय० २१२
१६. रणाणो रागप्पजहो, सव्वदन्वेसु कम्ममझगदो।
यो लिप्पइ रजएरण दु, कद्दममझे जहा कणयं ।। अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा लोह ॥
-समय० २१८-२१९
२०. जो अप्पणा दु मण्णदि, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तति । सो मूढो अण्णाणी, गाणी एत्तो दु विवरीदो।
-समय० २५३ २१ ण य वत्थुदो दु वधो, अझवसाणेण बधोत्थि ।
-~-समय० २६५
२२ श्रादा खु माझ णाण, प्रादा मे दसण चरित्त च ।
-समय० २७७ २३. कह सो घिप्पइ अप्पा ? पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा।
-समय० २९६ २४. जो ण कुणइ अवराहे, सो णिस्संको दु जणवए भमदि
-समय० ३०२
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आचार्य कुन्दकुन्द को सूक्तियां
एक सौ इकसठ १६ जिस प्रकार वैद्य (औपध रूप मे) विप खाता हुआ भी विप से मरता
नहीं, उसी प्रकार सम्यग् दृष्टि आत्मा कर्मोदय के कारण सुख दुख का
अनुभव करते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होता। १७ ज्ञानी आत्मा (अतर मे रागादि का अभाव होने के कारण) विषयो का
सेवन करता हुआ भी, सेवन नही करता। अज्ञानी आत्मा (अन्तर् मे रागादि का भाव होने के कारण) विपयो का सेवन नही करता हुआ भी,
मेवन करता है। १८. वास्तव मे अनिच्छा (इच्छामुक्ति) को ही अपरिग्रह कहा है।
१६ जिस प्रकार कीचड मे पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसे
जग नहीं लगता है, उसी प्रकार ज्ञानी समार के पदार्थसमूह मे विरक्त होने के कारण कर्म करता हुया भी कर्म से लिप्त नही होता।
किंतु जिस प्रकार लोहा कीचड मे पडकर विकृत हो जाता है, उसे जग लग जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी पदार्थो मे राग भाव रखने के
कारण कर्म करते हुए विकृत हो जाता है, कर्म से लिप्त हो जाता है । २० जो ऐसा मानता है कि "मैं दूसरो को दुःखी या सुखी करता हूँ"-वह
वस्तुत अज्ञानी है। जानी ऐमा कभी नहीं मानते ।
२१. कर्मवच वस्तु से नहीं, राग और दृप के अध्यवसाय-मकल्प से होता
२२ मेरा अपना प्रात्मा ही ज्ञान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र है।
२३. यह प्रात्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ?
आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान रूप बुद्धि मे ही जाना जा सकता है ।
२४.
जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता, वह निर्भय होकर जनपद मे भ्रमण कर सकता है । इसी प्रकार निरपराध-निर्दोप आ मा (पाप नही करने वाला) भी सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है।
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एक सौ वासठ
२५. ण मुयइ पर्याडमभव्वो, सुठु वि श्रज्भाइऊण सत्थाणि । पि पिबता, ण पण्णया णिव्विसा हुति ॥
गुडदुद्ध'
२६. सत्य णाण ण हवइ, जम्हा सत्यं ण याणए किंचि । तम्हा अण्ण णाण, ग्रण्णं सत्थ जिरणा विति ||
जदा,
सुरण असुरण वा सुहो सुहो । तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ।
२७. चारित खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्तिरिद्दिको । मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणी हु समो ॥
२८. प्रादा धम्मो मुदव्वो ।
२६ जीवो परिणमदि
सुद्ध
सूक्ति त्रिवेणी
- प्रवचनसार १।७
- समय० ३१७
- समय० ३६०
-
- प्रवचन० १1८
-
३१. समणो समसुहदुक्खो, भरिणदो सुद्धोवप्रोगोति ।
-
३०. रात्थि विणा परिणाम, ग्रत्थो अत्थ विणेह परिणामो ।
- प्रवचन० ११६
३२ आदा गाणपमाण, गाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठ । गेय लोयालोयं, तम्हा णाण तु सव्वगय ॥
३४ सपरं वाधासहिय, विच्छिण्ण वंधकारण विसम । जं इन्दियेह लद्ध ं, तं सोक्ख दुक्खमेव तहा ॥
- प्रवचन० १।१०
- प्रवचन० १।१४
- प्रवचन० १।२३
३३. तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जरणस्स दीवेरण रात्थि कायव्वं । तह सोक्ख सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ?
- प्रववन० १।६७
-प्रवचन० ११७६
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ तिरेसठ २५. अभव्य जीव चाहे कितने ही शास्त्री का अध्ययन कर ले, किंतु फिर भी
वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) नही छोडता । साप चाहे कितना ही गुड-दूध
पी ले, किंतु अपना विपैला स्वभाव नहीं छोडता । २६. शास्त्र, ज्ञान नहीं है, क्योकि शास्त्र स्वय में कुछ नही जानता है।
इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है ।
२७ चारित्र ही वास्तव मे धर्म है, और जो धर्म है, वह समत्त्व है । मोह और
क्षोभ से रहित प्रात्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्त्व है ।
२८ अात्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मस्वरूप होता है।
२६
आत्मा परिणमन स्वभाव वाला है, इसलिए जब वह शुभ या अशुभ भाव मे परिणत होता है, तव वह शुभ या अशुभ हो जाता है । और जव शुद्ध भाव मे परिणत होता है, तब वह शुद्ध होता है।
३० कोई भी पदार्थ विना परिणमन के नहीं रहता है, और परिणमन भी विना
पदार्थ के नहीं होता है। ३१. जो सुख दुख मे समान भाव रखता है, वही वीतराग श्रमण शुद्धोपयोगी
कहा गया है। ३२ आत्मा ज्ञानप्रमाण (ज्ञान जितना) है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण (ज्ञेय जितना) है,
और ज्ञेय लोकालोकप्रमाण है, इस दृष्टि से ज्ञान सर्वव्यापी हो
जाता है। ३३ जिसकी दृपि ही स्वय अधकार का नाश करने वाली है, उसे दीपक क्या
प्रकाश देगा ? इसी प्रकार जव आत्मा स्वय सुख-रूप है तो, उसे विपय
क्या सुख देंगे ? ३४ जो सुख इन्द्रियो से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न,
वध का कारण तथा विषम होने से वस्तुत सुख नहीं, दु ख ही है।
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एक सो चौंसठ
३५. किरिया हि रात्थि अफला, धम्मो जदि रिगष्फलो परमो ।
- प्रवचन० २।२४
३६. सुहो मोह-पदोसो, सुहो व सुहो हवदि रागो ।
३७. कीरदि प्रभवसाण, अहं ममेदं ति मोहादो
३८. मरदु व जियदु व जीवो,
अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
समिस्स ||
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तण
४०. ण हि णिरवेक्खो चागो,
हवदि भिक्खुस्स प्रासयविसुद्धी । विसुद्ध हि चित्त े,
कह णु कम्मक्खओ होदि ॥
३६. चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो ।
४१. इहलोगणिरावेक्खो,
पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहार-विहारो,
रहिदकसा हवे समणो ॥
सूक्ति त्रिवेणी
- प्रवचन० २६८
८३. आगमहीणो समरणो, वप्पारण पर वियाणादि ।
-प्रवचन० २।६१
- प्रवचन० ३।१७
-प्रवचन० ३।१८
-प्रवचन० ३।२०
-प्रवचन० ३।२६
४२. जस्स सरणमप्पा त पि तवो तप्पच्छिगा समरगा । अण्णं भिक्खमणेसरणमध ते समरणा अरणाहारा ॥
-प्रवचन ३१२७
- प्रवचन० ३१३२
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ पैसठ ३५. ससार की कोई भी मोहात्मक क्रिया निष्फल (वंधनरहित) नही है, एक
मान धर्म ही निष्फल है, अर्थात् स्व-स्वभाव रूप होने से बन्धन का
हेतु नहीं है। ३६ मोह और द्वीप अशुभ ही होते है, राग शुभ और अशुभ दोनो होता है ।
३७. मोह के कारण ही मैं और मेरे का विकल्प होता है।
३८ वाहर मे प्राणी मरे या जीये, अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर मे हिंसा
निश्चित है । परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवाला है, उसको बाहर मे प्राणी की हिसा होने मात्र से कर्मवन्ध नही है, अर्थात् वह हिंसा नही है ।
३९. यदि साधक प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल मे कमल की
भाति निर्लेप रहता है। ४०. जव तक निरपेक्ष त्याग नही होता है, तव तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं
होती है। और जव तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नही होती है, तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ?
४१. जो कपायरहित है, इस लोक से निरपेक्ष है, परलोक मे भी अप्रतिवद्ध
-अनासक्त है, और विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है।
४२ परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्त
विक तप है । अस्तु, जो श्रमण भिक्षा मे दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी) ही है।
४३. शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है, न पर को।
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एक सौ छियासठ
४४. श्रागमचक्खू साहू,
इ दियचक्र सव्वभूदाणि ।
४५. जं अण्णारणी कम्मं, खवेदि भवसयसहस्स - कोडीहिं । त गाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्ते ॥ '
४६. कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो ।
- प्रवचन० ३।३४
५०. आलबणं च मे आदा ।
५१. एगो मे सासदो अप्पा, गाणदसरणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खरणा ॥ २
५२. सम्म मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्भ न केगइ |
५३. कम्ममहीरुह मूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो ।
-प्रवचन० ३१३८
४७. जारिसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होति ।
४९. भारगिलीणो साहू, परिचागं कुरणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दुभारणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥
४६. केवलसत्तिसहावो, सोह इदि चितए गाणी ।
१. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, १०१ २ आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक, २६
सूक्ति त्रिवेणी
- नियमसार १८
-
- नियम० ४७
- नियम० ६३
- नियम० ६६
- नियम० &&
- नियम० १०२
- नियम ० १०४
- नियम० ११०
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ सडसठ
४४. अन्य सव प्राणी इन्द्रियो की आख वाले है, किन्तु साधक आगम की
आँख वाला है।
४५ अज्ञानी साधक वाल तप के द्वाग लाखो-करोडो जन्मो मे जितने कर्म
खपाता है, उतने कर्म मन, वचन काया को सयत रखने वाला ज्ञानी साधक एक श्वास मात्र में खपा देता है।
४६ आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहार दृष्टि
४७. जैसी शुद्ध आत्मा सिद्धो (मुक्त आत्माओ) की है, मूल स्वरूप से वैसी ही
शुद्ध आत्मा ससारस्थ प्राणियो की है। ४८. ध्यान मे लीन हुआ साधक सब दोपो का निवारण कर सकता है।
इसलिए ध्यान ही समग्र अतिचारो (दोपो) का प्रतिक्रमण है ।
४६ "मैं केवल शक्तिस्वरूप हैं"-ज्ञानी ऐसा चिंतन करे ।
५०. मेरा अपना आत्मा ही मेरा अपना एकमात्र आलवन है।
५१. ज्ञान-दर्शन स्वरूप मेरा आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है, इससे भिन्न जितने
भी ( राग द्वेप, कर्म, शरीर आदि ) भाव है, वे सव संयोगजन्य बाह्य
भाव है, अत वे मेरे नही है । ५२. सव प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं
५३. कर्मवृक्ष के मूल को काटने वाला आत्मा का अपना ही निजभाव
(समत्त्व) है।
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एक सौ अडसठ
. .. सूक्ति त्रिवेणी ५४. जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स।
-नियम० १२३ ५५. अन्तर-बाहिरजप्पे, जो वट्इ सो हवेइ बहिरप्पा। जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अंतरगप्पा ॥
--नियम० १५० ५६ अप्पारण विगु गाणं, गाण विणु अप्पगो न सदेहो।।
-नियम० १७१ ५७. दव्व सल्लक्खरणय, उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्त ।
--पचास्तिकाय १०
५८. दवेण विणा न गुणा, गुणेहि दव्वं विरणा न सभवदि ।
-पचास्ति० १३ ५६. भावस्स णत्थि णासो, रणत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
-पंचास्ति० १५ ६०. चारित्त समभावो।
-पंचास्ति० १०७ ६१. सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव ति हवदि जीवस्स ।
-पचास्ति० १३२ ६२. रागो जस्स पसत्थो, अणुकपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि रास्थि कलुस, पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥
-पंचास्ति० १३५ ६३. चरिया पमादबहुला, कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । परपरितावपवादो, पावस्स य आसव कुरणदि ॥
-पंचास्ति० १३६ ६४. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु । णासववि सुह असुह, समसुदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥
-पचास्ति० १४२
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आचार्य कुन्दकुन्द को सूक्तिया
एक सौ उनहत्तर ५४ जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परम समावि की प्राप्ति होती
५५. जो अन्दर एव वाहिर के जल्प (वचनविकल्प) मे रहता है वह
बहिरात्मा है । और जो किसी भी जल्प मे नहीं रहता, वह अन्तरात्मा
कहलाता है। ५६. यह निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा के विना ज्ञान नही, और ज्ञान के
विना आत्मा नहीं। ५७, द्रव्य का लक्षण सत् है, और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं ध्र वत्व भाव से
युक्त होता है। ५८. द्रव्य के विना गुण नही होते है और गुण के विना द्रव्य नहीं होते ।
५६. भाव (सत्) का कभी नाश नही होता और अभाव (असत्) का कभी
उत्पाद (जन्म) नहीं होता। ६०. समभाव ही चारित्र है।
६१. आत्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है ।
६२ जिस का राग प्रशस्त है, अन्तर् में अनुकपा की वृत्ति है और मन में
कलुप भाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आश्रव होता है ।
६३. प्रमादवहुल चर्या, मन की कलुषता, विषयो के प्रति लोलुपता, पर
परिताप (परपीडा) और परनिंदा-इन से पाप का आश्रव (आगमन)
होता है। ६४. जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वष और मोह नही है,
जो सुख दुख मे समभाव रखता है, उसे.न पुण्य का आश्रव होता है और ..न पाप का।
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एक सो सत्तर
६५ दंसरणमूलो धम्मो ।
६६. दसरणहीणो ण वदिव्वो ।
६७ तस्स य दोस कहता, भग्गा भग्गत्तरा दिति ।
६८ मूलविरगट्ठा ग सिज्झति ।
६६ अप्पारणं हवइ सम्मत्त ।
७०. सोवारा पदम मोक्खस्स ।
७१. गाण परस्स सारो ।
७२. हेयाहेय च तहा, जो जारणइ सो हु सद्दिट्ठी ।
७३ गाहे अपगाहा, समुद्दस लिले सचेल - प्रत्येण ।
७८. जं देइ दिक्ख सिक्खा, कम्मक्खयकारणे सुद्धा ।
३५. घम्मी दयाविसुद्धो ।
सूक्ति त्रिवेणी
- दर्शन पाहुड, २
७६. तएकरए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भरिया ।
- दर्शन० २
- दर्शन० ६
- दर्शन० १०
- दर्शन ०
० २०
- दर्शन० २१
- दर्शन० ३१
- सूत्रपाहुड ५
सूत्र० २७
-बोध पाहुड १६
- वोध० २५
- बोध० ४७
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एक सौ इकहत्तर
आचायं कुन्दकुन्द की सूक्तिया ६५. धर्म का मूल दर्शन--(सम्यक् श्रद्धा) है ।
६६. जो दर्शन से होन-(सम्यक् श्रद्धा से रहित, या पतित) है, वह वन्दनीय
नहीं है। ६७. धर्मात्मा पुरुष के प्रति मिथ्या दोष का आरोप करने वाला, स्वय भी ।
ध्रप्ट-पतित होता है और दूसरो को भी भ्रष्ट-- पतित करता है ! ६८. सम्यक्त्व रूप मूल के नष्ट हो जाने पर मोक्षरूप फल की प्राप्ति नहीं
होती। ६६. निश्चय दृष्टि से आत्मा ही सम्यक्त्व है ।
७०. सम्यग् दर्शन (सम्यक् श्रद्धा) मोक्ष की पहली सीढी है ।
७१. ज्ञान मनुष्यजीवन का सार है ।
७२. जो हेय और उपादेय को जानता है, वही वास्तव मे सम्यग् दृष्टि है ।
७३. ग्राह्य वस्तु मे से भी अल्प (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए ।
जैसे समुद्र के अथाह जल मे से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प
ही जल ग्रहण किया जाता है । ७४. आचार्य वह है-जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध
शिक्षा देता है।
७५ जिसमे दया की पवित्रता है, वही धर्म है।
७६ तृण और कनक (सोना) मे जव समान बुद्धि रहती है, तभी उसे प्रव्रज्या
(दीक्षा) कहा जाता है।
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एक सो बहत्तर
.., सूक्ति त्रिवेणी
७७. जह णवि लहदि हु लक्ख,
रहिरो कंडस्स वेज्झयविहीणो। तह णवि लक्खदि लक्ख, अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ।।
-बोध० २१ ७८. भावो कारणभूदो, गुणदोसाण जिणा विति ।
___-भाव पाहुड २ ७६. भाव रहिरो न सिज्झइ ।
भाव०४
८० वाहिरचानो विहलो, अब्भतरगथजुत्तस्स ।
--भाव० १३ ८१. अप्पा अप्पम्मि रो, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
. भाव० ३१ ५२ दुज्जगवयगचडक्क, गिठ्ठर कडुय सहति सप्पुरिसा।
--भाव० १०७ ८३. परिणामादो बधो, मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।
-भाव० ११६ ८४. छिदति भावसमरणा, झारणकुठारेहिं भवरुक्ख ।
~भाव० १२२ ८५. तह रायानिलरहियो, झाणपईवो वि पज्जलई।
-भाव० १२३
५६. उत्थरइ जा ण जरो, रोयग्गी जा ण डहइ देहउडि । ___इन्दियवल नं वियलइ, ताव तुम कुणहि अप्पहियं ॥ .
-भाव० १३२ ५७. जीवविमुक्को सवयो, दसामुक्की य होइचलसवयो। सवयो लोयअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसवयो॥
-भाव० १४३ -
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आचार्य कुन्दकुन्द की सुक्तिया
एक सौ तिहत्तर '
जिस प्रकार धनुर्धर वाण के दिना लक्ष्यवेध नही कर सकता है, उसी' प्रकार साधक भी बिना ज्ञानके मोक्ष के लक्ष्यको नही प्राप्त कर सकता ।
७७
७८. गुण और दोष के उत्पन्न होने का कारण भाव ही है ।
भाव ( भावना ) मे शून्य मनुष्य कभी सिद्धि प्राप्त नही कर सकता ।
८०. जिस के आभ्यन्तर मे ग्रन्थि (परिग्रह ) है, उसका वाह्य त्याग व्ययं है ।
198
८१. जो आत्मा, आत्मा मे लीन है, वही वस्तुत सम्यग् दृष्टि है ।
८२ सज्जन पुरप, दुर्जनो के निष्ठुर और कठोर वचन रूप चपेटो को भी समभाव पूर्वक सहन करते हैं ।
८३ - परिणाम (भाव) में ही ववन और परिणाम से ही मोक्ष होता है, ऐसा जिनशासन का कथन है ।
९४. जो भाव से श्रमण है, वे व्यानरूप कुठार से भव-वृक्ष को काट डालते है ।
८५ हवा से रहित स्थान मे जैसे दीपक निर्विघ्न जलता रहता है, वैसे ही
?
राग की वायु से मुक्त रहकर ( आत्ममदिर मे ) ध्यान का दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है T
८६ जव तक वुढापा 'आक्रमण नही करता है, रोगरूपी अग्नि देह रूपी झोंपड़ी को जलाती नही है, इन्द्रियो की शक्ति विगलित-क्षीण नही होती है, तब तक तुम आत्म-हित के लिए प्रयत्न कर लो ।
2
जीव से रहित शरीर शव (मुर्दा- लाश ) है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता 'शव' है । शव लोक मे अनादरणीय ' ( त्याज्य) होता है, और वह चलशव लोकोत्तर अर्थात् धर्म-साधना के क्षेत्र मे अनादरणीय और त्याज्य रहता है ।
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2
८७
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एक सौ चौहत्तर
८८. ग्रप्पो वि य परमप्पो, कम्मविमुक्को य होइ फुडं ।
८६. दुक्खे गज्जइ ग्रप्पा |
९०. तिपयारो सो ग्रप्पा, परमंतर बाहिरो दु हे करणं ।
६१ ग्रक्खाणि वहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो ।
९२ जो सुत्तो ववहारे, सो जोई जग्गए सकज्जम्मि | जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्परणो कज्जे ॥
६३. यादा हु मे सरग |
६४. सीले विरणा विसया, गारण विरणासंति ।
६५ रणारण चरित्तमुद्ध... थोत्रो पि महाफलो होई |
६६ सीलगुरणवज्जिदारण, गिरत्थय माणुस जम्म ।
६७. जीवदया दम सच्चं, ग्रचोरिय वंभचेर सतोसे । सम्मद सरण-रणारणे, तो य सीलस्स परिवारो ॥
६८. सील मोक्खस्स सोवाणं ।
C. सील विसय विरागो ।
ॐ
सूक्ति त्रिवेणी
- भाव० १५१
- मोक्ष पाहुड ६५
- मोक्ष० ४
-
- मोक्ष० ५
- मोक्ष० ३१
-
- मोक्ष० १०५
- शील पाहुड २
- शील० ६
- शील० १५
- शील० १६
- शील० २०
--
- शील० ० ४०
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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ पचहत्तर
८८ आत्मा जव कर्म-मल से मुक्त हो जाता है, तो वह परमात्मा बन जाता
८६ आत्मा बडी कठिनता से जाना जाता है।
६० बात्मा के तीन प्रकार है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा ।
(इनमे वहिरात्मा से अन्तरात्मा, और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर
वढें)। ६१. इन्द्रियो मे आमक्ति वहिरात्मा है, और अन्तरग मे आत्मानुभव रूप
आत्मसंकल्प अन्तरात्मा है । ६२ जो व्यवहार (-ससार) के कार्यों मे सोता (उदासीन) है, वह योगी
स्वकार्य में जागता (सावधान) है । और जो व्यवहार के कार्यों मे
जागता है वह आत्मकार्यों मे सोता है । ६३ आत्मा हो मेरा शरण है ।।
१४. शील (सदाचार) मोक्ष का सोपान है ।
६५. चारित्र से विशुद्ध हुआ ज्ञान, यदि अल्प भी है, तब भी वह महान फल
देने वाला है। ६६ शीलगुण से रहित व्यक्ति का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है।
६७ इन्द्रियो के विषयो से विरक्त रहना, शील है।
६८. शील (आचार) के विना इन्द्रियो के विपय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं।
६६. जीवदया, दम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, और
तप-यह सब शील का परिवार है । अर्थात् शील के अग हैं।
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
१ गुणसुठ्ठियस्स वयण, घयपरिसित्त व्व पावो भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो ॥
बृहत्कल्पभाष्य २४५ २. को कल्लाणं निच्छइ ।
-बृह० भा० २४७ ३ जो उत्तमेहिं पहनो, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं ।
-बृह० भा० २४६ ४. जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुति अववाया। जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ।।
-
- -बृह० भा० ३२२' । ५. अबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मोत्त ण जलं, पापियइ पय तह सुसीसो॥
-बृह० भा० ३४७ ६ मसगो व्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भइ कुसीसो वि।
बृह० भा० ३५० ७ अदागसमो साहू।
-वृह० भा० ८१२
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिचित अग्नि की तरह तेजस्वी होता है, जव कि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेह-रहित (तलशून्य) दीपक की तरह
तेज और प्रकाश से शून्य होता है । २ ससार में कौन ऐसा है, जो अपना कल्याण न चाहता हो ?
३ जो मार्ग महापुरुपो द्वारा चलकर प्रहत सरल बना दिया गया है, वह
अन्य सामान्य जनो के लिए दुर्गम नहीं रहता। ४ जितने उत्सर्ग (निपेववचन) है, उतने ही उनके अपवाद (विधिवचन)
भी हैं । और जितने अपवाद हैं उतने ही उत्सर्ग भी हैं।
५. हस जिस प्रकार अपनी जिह्वा की अम्लता-शक्ति के द्वारा जलमिश्रित
दूध मे से जल को छोड़कर दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार
सुशिष्य दुगुणो को छोडकर सद्गुणो को ग्रहण करता है। ६. जो कुशिष्य गुरु को, जाति आदि की निन्दा द्वारा, मच्छर की तरह हर
समय तग करता रहता है, वह मच्छर की तरह ही भगा दिया जाता है। ७ साधु को दर्पण के समान निर्मल होना चाहिए ।
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एक सौ अठहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी ८. पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं ।
-वृह० भा० ८१४ ६. रज्जं विलुत्तसार, जह तह गच्छो वि निस्सारो।
-वृह० भा० ६३७
१०. जह हाउत्तिण्ण गो, बहुअतर रेणुयं छुभइ अगे। सुठ्ठ वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिरणइ ।
-बृह० भा० ११४७ ११ न वि अत्थि न वि अहोही, सज्झाय समं तवोकम्म।
-वृह० भा. ११६६ १२. जो वि पगासो बहुसो, गुरिणग्रो पच्चक्खनो न उवलद्धो। जच्चधस्स व चदो, फुडो वि संतो तहा स खलु ॥
-वृह० भा० १२२४
१३. कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ? कत्थ वरलक्खरगधरा, न पायडा होति सप्पुरिसा ॥
-वृह० भा० १२४५ १४. सुक्किधणम्मि दिप्पइ, अग्गी मेहरहियो ससी भाइ। तबिहजणे य निउणे, विज्जा पुरिसा वि भायति ॥
-बृह. भा० १२४७ १५. को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए। दुठे वि उ जो आसे, दमेइ त आसियं विति ॥
-बृह० भा० १२७५ १६. माई अवनवाई, किविसियं भावणं कुबइ ।
-वृह० भा० १३०२ १७. काउच नाणुतप्पइ, एरिसो निक्किवो होइ।
-वृह० भा० १३१६
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
८. पाप कर्म न करना हो वस्तुत परम मगल है ।
एक सो उनआसी
६ राजा के द्वारा ठीक तरह से देख भाल किए विना जैसे कि राज्य ऐश्वर्यहीन हो जाता है, वैसे ही आचार्य के द्वारा ठीक तरह से सभाल किए विना सघ भी श्रीहीन हो जाता है ।
१०. जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत सी धूल अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्ममल संचय करता जाता है ।
११ स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत मे कभी हुआ न वर्तमान मे कही है, और न भविष्य मे कभी होगा ।
१२. शास्त्र का वार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उसके अर्थ की साक्षात् स्पष्ट अनुभूति न हुई हो, तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है, जैसा कि जन्माध के समक्ष चंद्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है |
१३. अग्नि कहाँ नही जलती है ? चन्द्रमा कहाँ नहीं प्रकाश करता है ? ओर श्रेष्ठ लक्षणो (गुणो ) से युक्त सत्पुरुष कहाँ नही प्रतिष्ठा पाते हैं ? अर्थात् सर्वत्र पाते हैं ।
१४ सूखे ईधन मे अग्नि प्रज्वलित होती है, बादलो से रहित स्वच्छ आकाश में चन्द्र प्रकाशित होता है, इसी प्रकार चतुर लोगो मे विद्वान् शोभा(यश) पाते हैं ।
१५ उस आश्विक ( घुड सवार ) का क्या महत्त्व है, जो सीधे-सादे घोडो को कावू मे करता है ? वास्तव मे घुडसवार तो उसे कहा जाता है, जो दुष्ट ( अडियल) घोडो को भी काबू मे किए चलता है ।
१६. जो मायावी है, और सत्पुरुषो की निंदा करता है, वह अपने लिए किल्विषिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता है ।
१७. अपने द्वारा किसी प्राणी को कष्ट पहुचने पर भी, जिसके मन मे पश्चाताप नही होता, उसे निष्कृप - निर्दय कहा जाता है ।
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एक सौ अस्सी
सूक्ति त्रिवेणी १८. जो उ परं कंपतं, दठ्ठण न कपए कढिरणभावो। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं ॥
-बृह° भा० १३२० १९. अप्पाहारस्स न इंदियाई, विसएस संपत्त ति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि॥
-बृह० भा० १३३१ २०. त तु न विज्जइ सज्झं, ज धिइमतो न साहेइ ।
-बृह० भा० १३५७ २१. धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्ध अधेणूतो।
-वृह भा० १९४४ २२. सीह पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्ढीया । तस्स पुण जोव्वणम्मि, पयोषण किं गिरिगुहाए?
-वृह० भा० २११४ २३ न य सो भावो विज्जइ, अदोसव जो अनिययस्स ।
-बृह° भा० २१३८ २४. वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो?
-बृह० भा० २१६०
२५. उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवित न उज्जलइ । अइइद्धो वि न सक्कइ विनिव्ववेउ कुडजलेणं ॥
-बृह० भा० २१६१
२६. चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायपि वज्जेई ।
-बृह० भा० २१६६ २७ छाएउ च पभाय, न वि सक्का पडसएणावि।
-बृह० भा० २२६६
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ इक्यासी
१८. जो कठोरहृदय दूसरे को पीडा से प्रकपमान देखकर भी प्रकम्पित नही होता, वह निरनुकप (अनुकपारहित ) कहलाता है। चूँकि अनुकंपा का अयं ही है - कांपते हुए को देखकर कपित होना ।
१६. जो अल्पाहारी होता है उसकी इद्रिया विपयभोग की ओर नही दौडती, तप का प्रसंग आने पर भी वह क्लात नही होता और न ही सरस भोजन मे आसक्त होता है ।
२०. वह कौन सा कठिन कार्य है, जिसे धैर्यवान् व्यक्ति सपन्न नही कर सकता ?
२१ दूध पाने की कोई कितनी ही तीव्र आकाक्षा क्यो न रखे, पर वाझ गाय से कभी दूध नही मिल सकता |
२२. गुफा बचपन मे सिह-शिशु की रक्षा करती है, अत तभी तक उसकी उपयोगिता है । जव सिंह तरुण हो गया तो फिर उसके लिए गुफा का क्या प्रयोजन है ?
२३. पुरुषार्थहीन व्यक्ति के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जो कि निर्दोष हो, अर्थात् वह प्रत्येक कार्य मे कुछ न कुछ दोप निकालता ही रहता है |
२४ हाथ मे नागदमनी औषधि के होते हुए भी क्या सर्प पकडने वाला गारुडी दुष्ट सर्प से नही छला जाता है, काट लिया नही जाता है ? ( साधक को भी तप आदि पर विश्वस्त होकर नही बैठ जाना चाहिए । हर क्षण विकारो से सतर्क रहने की आवश्यकता है | )
२५. गृहस्वामी के हाथ मे जल से भरा घडा होते हुए भी क्या आग लगने पर घर नही जल जाता है ? अवश्य जल जाता है । क्योकि सब ओर अत्यन्त प्रदीप्त हुआ दावानल एक घडे के जल से वुझ नही सकता है ? ( जितना महान् साथ्य हो, उनना ही महान् साधन होना चाहिए ।)
२६
आम खाने से जिये व्याधि होती हो, वह आम की छाया से भी बच कर चलता है ।
२७
वस्त्र के सैकड़ो आवरण (प्रावरणी) के द्वारा भी प्रभात के स्वर्णिम आलोक को ढका नही जा सकता ।
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एक सौ बियासी
२८. अवच्छलत्त े य दसरणे हारणी ।
२६. कसायं खु चरित, कसायसहिम्रो न संजग्रो होइ ।
३१. कुलं विरणासेइ सय पयाता, नदीव कूल कुलडा उ नारी ।
३२. अंधो कहि कत्थइ देसियत्त ?
३०. जो पुरण जतणारहियो, गुणो वि दोसायते तस्स ।
३६. जहा जहा अप्पतरो से जोगो,
- बृह० भा० २७११
निरुद्धजोगिस्स व से रग होति, अछिद्दपोतस्स व
३७. ग्राहच्च हिंसा समितस्स जा तू,
- बृह० भा० २७१२
३३. वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा ।
३४ ग सुत्तमत्थ अतिरिच्च जाती ।
३५. जस्सेव पभावुम्मिल्लिताइ' त चेव हयकतग्धाइ । अप्पसंभावियाइ चंद उवहसति ॥
कुमुदाइ
सा दव्वतो होति भावतो उ । भावेरण हिंसा तु श्रसंजतस्सा,
जे वा विसत्ते ण सदा वधेति ॥
- बृह० भा० ३१८१
सूक्ति त्रिवेणी
- बृह० भा० ३२५१
-बह०
तहा तहा अप्पतरो से बंधो।
० भा० ३२५३
- बृह० भा० ३२५४
- बृह० भा० ३६२७
अंधे ॥
- बृह० ० भा० ३६४२
- बृह० भा० ३६२६
- वृह० भा० ३९३३
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भाष्यसाहित्य को सूक्तियो
एक सौ तिरासी
२०, धार्मिक जनो मे परस्पर वात्सल्य भाव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन
की हानि होती है। २६ अकपाय (वीतरागता) ही चारित्र है। अत कपायभाव रखने वाला
सयमी नही होता । ३० जो यतनारहित है, उसके लिए गुण भी दोष बन जाते हैं।
३१. स्वच्छद आचरण करने वाली नारी अपने दोनो कुलो (पितृकुल व श्वसुर
कुल) को वैसे ही नष्ट कर देती है, जैसे कि स्वच्छद वहती हुई नदी
अपने दोनो कूलो (तटो) को। ३२. कहाँ अधा और कहां पथप्रदर्शक ?
(अधा और मार्गदर्शक, यह कैसा मेल ?) ३३. यह वसु धरा वीरभोग्या है ।
३४. सूत्र, अर्थ (व्याख्या) को छोड़कर नहीं चलता है ।
३५. जिस चन्द्र की ज्योत्स्ना द्वारा कुमुद विकसित होते हैं, हन्त । वे ही
कृतघ्न होकर अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करते हुए उसी चन्द्रमा का
उपहास करने लग जाते हैं । ३६. जैसे-जैसे मन, वचन, काया के योग (सघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे
वैसे वध भी अल्पतर होता जाता है । योगचक्र का पूर्णत निरोध होने पर आत्मा मे वध का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे कि समुद्र मे रहे हए अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव होता है।
३७. सयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाय तो वह द्रव्य हिसा होती
है, भाव हिंसा नही । कितु जो असयमी है, वह जीवन मे कभी किसी का वध न करने पर भी, भावरूप से सतत हिंसा करता रहता है।
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एक सौ चौरासी
सूक्ति त्रिवेणी
३८. जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य । तत्थ वि बंधविसेसो, महंतर देसितो समए ।।
-बृह० भा० ३६३८
३९. विरतो पुरण जो जाण, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा। तत्थ वि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो ।
-बृह० भा० ३६३६ ४०. देहबलं खलु विरिय, बलसरिसो चेव होति परिणामो।
-बृह० भा० ३६४८ ४१ सजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ । जह आरोग्गणिमित्त, गडच्छेदो व विज्जस्स ।।
--बृह. भा० ३९५१ ४२. रण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इत्थिए।
-बृह० भा० ४११८ ४३. गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी ।
बृह° भा० ४११८ ४४. बाला य बुड्ढा य अजगमा य, लोगे वि एते अणुकपरिणज्जा।
-बह० भा० ४३४२ ४५. न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई।
-बृह० भा० ४३६३ ४६. जहा तवस्सी धुणते तवेण, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमता।
-वह० भा० ४४०१
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भाप्यसाहित्य को सूक्तिया
एक सौ पिच्यासी ३८. एक अविरत (असयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजान मे।
शास्त्र में इन दोनो के हिंसाजन्य कर्मवध मे महान अन्तर बताया है। अर्थात् तीन भावो के कारण जानने वाले को अपेक्षाकृत कर्मवध तीन
होता है। ३६. अप्रमत्त संयमी (जागृत साधक) चाहे जान मे (अपवाद स्थिति मे) हिंसा
करे या अनजान में, उसे अन्तरग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, वन्ध नहीं ।
४०. देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार हो आत्मा मे शुभाशुभ
भावो का तीव्र या मद परिणमन होता है। ४१. सयम के हेतु की जाने वाली प्रवृत्तियाँ निर्दोप होती है, जैसे कि वैद्य
के द्वारा किया जाने वाला व्रणच्छेद (फोडे का ऑपरेशन) आरोग्य के लिए होने से निर्दोष होता है ।
४२. नारी का आभूपण शील और लज्जा है। वाह्य आभूपण उसकी शोभा
नहीं बढा सकते।
४३ सस्कृत, प्राकृत आदि के रूप मे सुसस्कृत भापा भी यदि असभ्यतापूर्वक
बोली जाती है तो वह भी जुगुप्सित हो जाती है ।
४४ वालक, वृद्ध और अपग व्यक्ति, विशेप अनुकपा (दया) के योग्य होते है।
४५. जिस घडे को पेदी मे छेद हो गया हो, उसमे जल आदि कैसे टिक सकते
४६. जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को धुन डालता है, वैसे ही तप
का अनुमोदन करने वाला भी।
१. यो जानन् जीवहिंसा करोति स तीब्रानुभावं बहुतरं पाप कर्मोपचिनोति, इतरस्तु मन्दतरविपाकमल्पतर...।
-इति भाष्यवृत्तिकार. क्षेमकीर्तिः ।
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एक सौ छियासी
सूक्ति त्रिवेणी ४७. जोइ ति पक्कं न उ पक्कलेण,
ठावेति त सूरहगस्स पासे । एक्कमि खभम्मि न मत्तहत्थी, वझंति वग्घा न य पंजरे दो॥
- बृह० भा० ४४१० ४८. धम्मस्स मूल विणयं वदति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए ।
~ बृह० भा० ४४४१ ४६. मणो य वाया कानो अ, तिविहो जोगसंगहो। ते अजुत्तस्स दोसा य, जुत्तस्स उ गुणावहा ।।
-बृह० भा० ४४४६ ५०. जहिं पत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्यो ।
-वृह० भा० ४४६४ ५१. ज इच्छसि अप्पणतो,
जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग जिणसासणयं ॥
-वह० भा० ४५८४ ५२. सव्वारंभ-परिगहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाण्या य, अह एत्तिनो मोक्खो॥
-वृह० भा० ४५८५ ५३. जं कल्लं कायव्व, रणरेण अज्जेव त वर काउ । मच्चू अकलुगहिनो, न हु दीसइ प्रावयतो वि ॥
-बृह० भा० ४६७४ ५४. तूरह धम्म काउ , मा हु पमायं खरण पि कुन्वित्था । बहुविग्धो हु मुहतो, मा अवरहं पडिच्छाहि ।।
-बृह० भा० ४६७५
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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
एक सौ सत्तासी ४७. पक्व (झगड़ालू) को पक्व के साथ नियुक्त नही करना चाहिए, किंतु
शात के साथ रखना चाहिए, जैसे कि एक खभे से दो मस्त हाथियो को नही वाँधा जाता और न एक पिंजरे मे दो सिह रखे जाते है।
४८. धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है ।
४६ मन, वचन और काया के तीनो योग अयुक्त (अविवेकी) के लिए दोप
के हेतु है और युक्त (विवेकी) के लिए गुण के हेतु ।
५०. जिस सघ मे न सारणा है, न वारणा है और न प्रतिचोदना है, वह
सघ संघ नहीं है, अत सयम आकाक्षी को उसे छोड देना चाहिए।
५१. जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरो के लिए भी चाहना चाहिए, जो
अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरो के लिए भी नहीं चाहना चाहिए ~वस इतना मात्र जिन शासन है, तीर्थकरो का उपदेश है।
५२. सब प्रकार के प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियो के प्रति
समता, और चित्त की एकाग्रतारूप समाधि-वस इतना मात्र मोक्ष है।
५३, जो कर्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना अच्छा है । मृत्यु
अत्यंत निर्दय है, यह कव आजाए, मालूम नही ।
५४. धर्माचरण करने के लिए शीघ्रता करो, एक क्षणभर भी प्रमाद मत करो।
जीवन का एक एक क्षण विघ्नो से भरा है, इसमे सध्या की भी प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिए।
१. कर्तव्य की सूचना । २. अकर्तव्य का निपंध। ३ मूल होने पर कर्तव्य के लिए कठोरता के साथ शिक्षा देना।
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पर लोहनी
सूक्ति त्रिवेणी ५. नुल्लमा अवरो, परिणामबसेगा होनि रणागत्त।
वह भा० ४६७४ ५६ कागं परमरितावो, यमागहेतु गिहि पत्तो। प्रान-परहिन को पृग, इच्छिन्नर दुगले स खतु ।।
~ बृह० भा० ५१०८ विगवाहीया विजजा, देनि फलं दह परे य लोगम्मि । न फलति वियहीणा, मस्सारिण व तोयहीगाइ ॥
- वृह० भा० ५२०३ ५८ माहितो न जारगति, हिनहिं हित पि भातो।
-वृह भा० ५२२८
__
५६. निधिप्पसह गुह ।
-यह० मा० ५७१७ ६०. पगामिम हि चिनार, विचित्ताईखणे खरगे। उपानि नियनेय, वसेव सज्जगो जगे।
-यह भा० ५७१६ ११. जाति प्रावो, विगावलि विदिनो मतो। या नजइ पानी, एवं मो लिममाणो उ ।।
-यह भा० ६०६२ ६.. frif . दिवं अनुतो नयो उ मागे।
___ -स्यवहारमाय पोटिका ८७ ६
. 1, याममुदाहरे ।
-~~य
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-~~-44s
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ नवामी ५५. बाहर मे समान अपराध होने पर भी अन्तर् मे परिणामो की तीव्रता, व
मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोप की न्यूनाधिकता होती है ।
५६. यह ठीक है कि जिनेश्वरदेव ने परपरिताप को दुख का हेतु वताया
है। किंतु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जाने वाला परिताप
इस कोटि मे नही है, चू कि वह तो स्व-पर का हितकारी होता है । ५७ विनयपूर्वक पढी गई विद्या, लोक परलोक मे सर्वत्र फलवती होती है ।
विनयहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल के विना
धान्य की खेती। ५८ हित पियो के द्वारा हित की बात कहे जाने पर भी धूतों के द्वारा बह
काया हुआ व्यक्ति (व्युद्ग्राहित) उसे ठीक नहीं समझता-अर्थात् उसे
उल्टी समझता है। ५६ वस्तुत रागद्वप के विकल्प से मुक्त निर्विकल्प सुख ही सुख है ।
६०. एकाकी रहने वाले साधक के मन मे प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल
उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं । अत सज्जनो की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है ।
६१. जिस प्रकार जहरीले काटो वाली लता से वेपित होने पर अमृत वृक्ष का
भी कोई आश्रय नही लेता, उसी प्रकार दूसरो को तिरस्कार करने और दुर्वचन कहने वाले विद्वान को भी कोई नही पूछता।
६२ सभी नय (विचारदृष्टिया) अपने अपने स्थान (विचार केन्द्र) पर शुद्ध हैं
कोई भी नय अपने स्थान पर अशुद्ध (अनुपयुक्त) नही है । ६३ पहले बुद्धि से परख कर फिर पोलना चाहिये । अधा व्यक्ति जिस प्रकार
पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
६४. मन को अकुशल = अशुभ विचारो से रोकना चाहिये और कुशल = शुभ
विचारों के लिए प्रेरित करना चाहिए ।
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एक सौ नव्वे
६५. न उ सच्छदता सेया, लोए किमुत उत्तरे ।
६६. जा एगदेसे प्रदढा उ भंडी,
सीलप्पए सा उ करेइ कज्ज । जा दुव्वला संठविया वि संती न तं तु सीलंति विसण्णदारु
६७ सालवसेवी समुवेइ मोक्खं ।
७०
६८. अलस अणुवद्धवेरं, सच्छंदमती पयहीयव्वो ।
- व्यव० भा० पी० ८६
६६. तुल्ले विइ दियत्ये, एगो सज्जइ विरज्जई एगो । ग्रज्झत्य तु पमारणं, न इदियत्या जिरणा विति ॥
॥
- व्यव० भा० पी० १८१
- व्यव० भा० पी० १८४
७५. जइ नत्थि नाणचरण,
कम्मारण निज्जरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो ।
दिखा
ह
७१. प्रत्येण य वजिज्जइ, सुत्तं तम्हाउ सो वलवं ।
- व्यव० भा० १/६६
- व्यव० भा० २।५४
---
सूक्ति त्रिवेणी
७२. वलवाणत्थाहीरणो, बुद्धीहीणो न रक्खए रज्जं ।
- व्यव० भा० ३।४५
- व्यव० भा० ४।१०१
७३. जो सो मरणप्पसादो, जायइ सो निज्जरं कुरणति ।
७८. नवणीयतुल्लहियया साहू |
- व्यव० भा० ५।१०७
- व्यव० भा० ६ १६०
--
Apts
-व्यव० भा ७।१६५
निरत्थिगा तस्स ।
व्यव० भा० ७।२१५
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ इक्यानवे ६५ स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नही है, तो लोकोत्तर जीवन
(साधक जीवन) मे कैसे हितकर हो सकती है ?
६६. गाडी का कुछ भाग टूट जाने पर तो उसे फिर सुधार कर काम मे
लिया जा सकता है, किंतु जो ठीक करने पर भी टूटती जाए और वेकार बनी रहे, उसको कौन सँवारे ? अर्थात् उसे सवारते रहने से क्या लाम है?
६७ जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञानादि हेतु से अपवाद (निपिद्ध) का आचरण
करता है, वह भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है।
६८. बालसी, वैर विरोध रखने वाले, और स्वच्छदाचारी का साथ छोड़ देना
चाहिए । ६६ इन्द्रियो के विषय समान होते हुए भी एक उनमे आसक्त होता है और
दूसरा विरक्त । जिनेश्वरदेव ने बताया है कि इस सम्बन्ध मे व्यक्ति
का अन्तर् हृदय ही प्रमाणभूत है, इन्द्रियो के विषय नही । ७०. कर्मों की निर्जरा के लिये (आत्मशुद्धि के लिए) ही आचार्य को संघ का
नेतृत्व सभालना चाहिए। ७१. सूत्र (मूल शब्द पाठ), अर्थ (व्याख्या) से ही व्यक्त होता है, अत अर्थ सूत्र
से भी वलवान (महत्व पूर्ण) है । ७२. जो राजा सेना, वाहन, अर्थ (सपत्ति) एव बुद्धि से हीन है वह राज्य की
रक्षा नही कर सकता। ७३ साधना मे मन.प्रसाद (मानसिक निर्मलता) ही कर्मनिर्जरा का मुख्य
कारण है।
७४. साधुजनो का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता है ।
७५. यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है, तो उसकी दीक्षा निरर्थक
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एक सौ वानवे
सूक्ति त्रिवेणी ७६. सव्वजगुज्जोयकरं नाण, नाणेण नज्जए चरणं।
-व्यव० भा० ७२१६ ७७. नाणमि असंतंमि, चरित्त वि न विज्जए।
-व्यव० भा० ७।२१७ ७८. न हि सूरस्स पगास, दीवपगासो विसेसेइ।
__-व्यव० भा० १०१५४ ७६. अहवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स वि उ कागणीमोल्लं । वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होति सयसहस्सं ॥
-व्यव० भा० १०।२१६ ८० जो जत्य होइ कुसलो, सो उ न हावेइ तं सइ बलम्मि ।
-व्यव० भा० १०.५०८ ८१. उवकरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो न साहए कज्जं ।
-व्यव० भा० १०॥५४० ८२. अत्थधरो तु पमाणं , तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा ।
___-निशीय भाष्य, २२ ८३. कामं सभावसिद्ध तु, पवयणं दिप्पते सयं चेव ।
__ -नि० भा० ३१ ८४. कुसलवइ उदीरतो, जं वइगुत्तो वि समियो वि ।
-नि० भा० ३७
-बृह० भा० ४४५१ ५५. ण हु वीरियपरिहीणो, पवत्तते णाणमादीसु।।
-नि० भा० ४८ ८६. गाणी ण विणा णाणं ।
-नि० भा० ७५
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भाष्यसाहित्य को सूक्तियां
एक सौ तिरानवे ७६. ज्ञान विश्व के समग्र रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है । ज्ञान से ही
चारित्र (कर्तव्य) का बोध होता है । __ ७७. ज्ञान नहीं है, तो चारित्र भी नही है ।
५८ सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक के प्रकाश का क्या महत्व है ?
७६ काच के बडे मनके का भी केवल एक काकिनी' का मूल्य होता है, और
हीरे की छोटी-सी कणी भी लाखो का मूल्य पाती है।
___८०. जो जिस कार्य मे कुशल है, उसे शक्ति रहते हुए वह कार्य करना ही
चाहिए। ८१. साधनहीन व्यक्ति अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर पाता है।
८२ सूत्रधर (शब्द-पाठी) की अपेक्षा अर्थवर (सूबरहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण
मानना चाहिए, क्योकि अर्थ साक्षात् तीथंकरो की वाणी से नि सृत है। ८३. जिनप्रवचन सहज सिद्ध है, अतः वह स्वयं प्रकाशमान है ।
कुशल वचन (निरवद्य वचन) बोलने वाला वचनसमिति का भी पालन करता है, और वचन गुप्ति का भी।
८५ निर्वीर्य (शक्तिहीन) व्यक्ति ज्ञान आदि को भी सम्यक् साधना नही कर
सकता। ८६ ज्ञान के विना कोई ज्ञानी नही हो सकता।
१. काकिणी नाम रूवगस्स असीतितमो भागः ।
रुपये का अस्सीवाँ भाग काकिणी होती है।
--उत्त० चू०७
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एक सौ चौरानवे
सूक्ति त्रिवेणी
८७ धिती तु मोहस्स उवसमे होति ।
-नि० भा० ८५
८८. सुहपडिवोहा णिद्दा, दुहपडिवोहा य गिद्दरिणद्दा य ।
-नि० भा० १३३
____८६ रणा गज्जोया माहू ।
-नि० भा० २२५
-बृह० भा० ३४५३ ६० जा चिट्ठा सा सव्वा सजमहेउ ति होति समणाण।
-नि० भा० २६४ ६१. राग-दोसाणुगता, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। __ अराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं॥
१ राग-दोसाणुगता,
रातो होति दयन भा० ३६३
-वृह० भा० ४६४३ ६२. ससारगड्डपडितो णाणादवलवितु समारहति । मोक्खतड जध पुरिसो, वल्लिवितागण विसमाप्रो ।
-नि० भा० ४६५
६३. रण हु होति सोयितव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होड सोयियव्वो, जो संजम-दुव्वलो विहरे ॥
-नि० भा० १७१७
-बृह० भा० ३७३६ ९४ हरहितं तु फरुस।
-नि० भा० २६०८ ६५ अल विवाएण णे कतमुहेहिं ।
-नि० भा० २६१३ ६६ प्रासललिग्रं वरायो, चाएति न गद्दभो काउ ।
-नि० भा० २६२८
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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
एक सौ पिच्चानवे
८७ मोह का उपशम होने पर ही धृति होती है।
८८. समय पर सहजतया जाग आ जाना 'निद्रा' है, कठिनाई से जो जाग आए
वह 'निद्रा-निद्रा है।
८९. साधक ज्ञान का प्रकाश लिए जीवन यात्रा करता है।
६० श्रमणो को सभी चेष्टा अर्थात् क्रियाएसयम के हेतु होती हैं।
६१. रागढ प पूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना (निपिढ आचरण) दर्पिका है
और राग द्वेप से रहित प्रतिसेवना (अपवाद काल मे परिस्थितिवश किया जाने वाला निपिद्ध आचरण) कल्पिका है। कल्पिका मे संयम की आराघना है और दपिका मे विराधना ।
६२. जिस प्रकार विपम गर्त मे पडा हुआ व्यक्ति लता आदि को पकड़ कर
ऊपर आता है, उसी प्रकार ससारगतं मे पड़ा हुआ व्यक्ति ज्ञान आदि का अवलवन लेकर मोक्ष रूपी किनारे पर आ जाता है।
६३ वह शोचनीय नहीं है, जो अपनी साधना मे दृढ रहता हुआ मृत्यु को
प्राप्त कर गया है । शोचनीय तो वह है, जो सयम से भ्रष्ट होकर जीवित घूमता फिरता है।
६४ स्नेह से रहित वचन 'परुप कठोर वचन' कहलाता है ।
६५ कृतमुख (विद्वान) के साथ विवाद नही करना चाहिए ।
६६. शिक्षित अश्व को क्रीडाएं विचारा गर्दभ कैसे कर सकता है ?
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एक सौ छियानवे
सूक्ति त्रिवेणी
६७. जह कोहाइ विवढ्ढी, तह हारणी होइ चरणे वि।
-नि० भा० २७६०
-बृह० भा० २७११ ६८. जं अज्जियं चरित्त, देसूणाए वि पुवकोडीए । । त पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहत्तण ॥
-नि० भा० २७६३
बृह० भा० २७१५ ६६. राग-दोस-विमुक्को सीयघरसमो य आयरिओ।
-नि० भा० २७६४ १००. तमतिमिरपडलभूत्रो, पावं चितेइ दीहसंसारी।
-नि० भा० २५४७ १०१. सोकरण वा गिलाण, पथे गामे य भिक्खवेलाए। जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए' सवित्थारं ।।
-नि० भा० २६७०
-बृह० भा० ३७६६ १०२. जह भमर-महुयर-गणा णिवतति कुसुमितम्मि वरणसडे । तह होति णिवतियन्व, गेलण्णे कतितवजढेरणं ।
-नि० भा० २६७१ १०३ पुवतव-सजमा होति, रागिणो पच्छिमा अरागस्स ।।
-नि० भा० ३३३२ १०४ अप्पो वधो जयाण, बहुणिज्जर तेरण मोक्खो तु ।
-नि० भा० ३३३५
१ चउम्मासे-इति बृहत्कल्पे ।
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भाष्यसाहित्य को सूक्तिया
एक सौ सत्तानवे ६७. ज्यो-ज्यो क्रोवादि कपाय की वृद्धि होती है, त्यो त्यो चारित्र की हानि
होती है।
१८ देशोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह
अन्तमुहूर्त भर के प्रज्वलित कपाय से नप्ट हो जाता है ।
६६ राग द्वेप से रहित आचार्य शीतगृह (सव ऋतुओ मे एक समान सुख
प्रद) भवन के समान है।
१००. पुजीभूत अधकार के समान मालन चित्तवाला दीर्घससारी जीव जव
देखो तव पाप का ही विचार करता रहता है । १०१ विहार करते हुए, गांव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते हुए यदि सुन
पाए कि कोई साधु साध्वी बीमार है, तो शीघ्र ही वहाँ पहुँचना चाहिए। जो साधु शीघ्र नहीं पहुँचता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१०२ जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देख कर भौरे उस पर मडराने लग
जाते हैं, उसी प्रकार किसी साथी को दुखी देखकर उसकी सेवा के
लिए अन्य साथियो को सहज भाव से उमड पड़ना चाहिए । १०३. रागात्मा के तप-सयम निम्न कोटि के होते हैं, वीतराग के तप-सयम
उत्कृष्टतम होते हैं।
१०४ यतनाशील साधक का कर्मवध अल्प, अल्पतर होता जाता है, और
निर्जरा तीव्र, तीव्रतर । अत वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
१. वड्ढकोरयण-णिम्मिय चक्किणो सीयघर भवति । वासासु णिवाय-पवात, सीयकाले सोम्हं, गिम्हे सीयल · सव्वरिउक्खमं भवति ।
--निशीयचूणि ।
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एक सौ अट्ठानवे
सूक्ति त्रिवेणी १०५ ईदियारिग कसाये य, गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पससामो, किसं साहु सरीरग ।।
-नि० भा० ३७५८ १०६ भण्रगति सज्झमसज्झ, कज्ज सज्झ तु साहए मइम । अविसज्झ साहेतो, किलिस्सति न तं च साहेई ॥
-नि० भा० ४१५७
–बुह° भा० ५२७६ १०७ मोक्खपसाहणहेतू, णाणादि तप्पसाहणो देहो। देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्गातो॥
-नि० भा० ४१५६
-वृह० भा० ५२८१ १०८. गाणे गाणुवदेसे, अवट्टमारणो उ अन्नाणी ।
-नि० भा० ४७६१
-बृह० भा० ६३१ १०६ सुहसाहग पि कज्ज, करणविहूणमणुवायसजुत्त। ___ अन्नायऽदेसकाले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥
-नि० भा० ४८०३
-बृह० भा० ६४४ ११०. नक्खेणाधि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्ठितो रुक्खो। दुच्छेज्जो वड्ढंतो, सो च्चिय वत्थुस्स भेदाय ।।
-नि० भा० ४८०४
-बृह० भा० ६४५ १११. सपत्ती व विवत्ती व, होज्ज कज्जेसु कारग पप्प । अणुपायनो विवत्ती, सपत्ती कालुवाएहि ॥
-नि० भा० ४८०५
-बह० भा० १४९ ११२. जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे।
-नि० भा० ५१६४ -वृह० भा० २५१५
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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ निन्यानवे
१०५ हम साधक के केवल अनशन आदि से कृश (दुर्बल) हुए शरीर के प्रशासक नही हैं, वस्तुत. तो इन्द्रिय (वासना), कपाय और अहकार को ही कृश (क्षीण) करना चाहिए ।
१०६. कार्य के दो रूप है-साध्य और असाव्य । बुद्धिमान साध्य को साधने मे ही प्रयत्न करें। चूकि असाध्य को साधने मे व्यर्थ का क्लेश ही होता है, और कार्य भी मिद्ध नही हो पाता ।
१०७. ज्ञान आदि मोक्ष के साधन है, और ज्ञान आदि का साधन देह है, देह का सावन आहार है, अत. साधक को समयानुकूल आहार की आज्ञा दी गई है ।
१०८ जो ज्ञान के अनुसार आचरण नही करता है, वह ज्ञानी भी वस्तुत अज्ञानी है ।
१०९ देश, काल एव कार्य को बिना समझे समुचित प्रयत्न एवं उपाय से हीन किया जाने वाला कार्य, सुख-साध्य होने पर भी सिद्ध नही होता है ।
११०
प्रासाद की दीवार मे फूटनेवाला नया वृक्षाकुर प्रारंभ मे नख से भी उखाडा जा सकता है, किन्तु वही वढते वढते एक दिन कुल्हाडी से भी दुच्छेद्य हो जाता है, और अन्तत प्रासाद को ध्वस्त कर डालता है ।
१११ कार्य करने वाले को लेकर ही कार्य की सिद्धि या असिद्धि फलित होती है । समय पर ठीक तरह से करने पर कार्य सिद्ध होता है और समय वीत जाने पर या विपरीत साधन से कार्य नष्ट हो जाता है ।
११२. राग की जैसी मद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मद, मध्यम और तीव्र कर्मवध होता है ।
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दो सौ
सूक्ति त्रिवेणी
११३. उस्सग्गेण रिणसिद्धाणि, जाणि दव्वारिण संथरे मुरिगणो। कारणजाए जाते, सव्वाणि वि तारिण कप्पंति ॥
-नि० भा० ५२४५
-बृह० भा० ३३२७ ११४. रणवि किंचि अणुण्णाय, पडिसिद्ध वावि जिणवरिंदेहि । एसा तेसिं आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ॥
-नि० भा० ५२४८
-बृह० भा० ३३३० ११५. कज्ज णाणादीयं, उस्सग्गववायो भवे सच्च ।
-नि० भा० ५२४६ ११६. दोसा जेण निरुभंति, जेण खिज्जति पुवकम्माई। सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समण व ॥
-नि० भा० ५२५०
-बृह० भा० ३३३१ ११७ णिउणो खलु सुत्तत्थो, न हु सक्को अपडिबोहितो नाउ।
-नि० भा० ५२५२
-बृह० भा० ३३३३ ११८. निक्कारणम्मि दोसा, पडिबंधे कारणम्मि गिद्दोसा।
-नि० भा० ५२८४ ११९. जो जस्स उ पाओग्गो, सो तस्स तहिं तु दायब्वो।
-नि० भा० ५२६१
-~-बह० भा० ३३७० १२०. जागरह ! गरा गिच्च, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति न सो सुहितो, जो जग्गति सो सया सुहितो।।
--नि० भा० ५३०३
----वृह० भा० ३२८३ १२१. सुवति सुवतस्स सुयं, सकिय खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमागस्स सुय, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स ।।
-नि० भा० ५३०४ -बृह० भा० ३३८४
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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ एक ११३ उत्सर्ग मार्ग मे समर्थ मुनि को जिन बातो का निषेध किया गया है,
विशिष्ट कारण होने पर अपवाद मार्ग मे वे सव कर्तव्यरूप से विहित
११४
जिनेश्वरदेव ने न किसी कार्य को एकात अनुज्ञा दी है और न एकात निषेध ही किया है। उनकी प्राज्ञा यही है कि साधक जो भी करे वह सच्चाई-प्रामाणिकता के साथ करे।
११५ ज्ञान आदि की साधना देश काल के अनुसार उत्सर्ग एव अपवाद मर्ग
के द्वारा ही सत्य (सफल) होती है । ११६ जिस किसी भी अनुष्ठान से रागादि दोपो का निरोध होता हो तथा
पूर्वसचित कर्म क्षीण होते हो, वह सव अनुष्ठान मोक्ष का साधक है । जैसे कि रोग को शमन करने वाला प्रत्येक अनुष्ठान चिकित्सा के रूप
मे आरोग्यप्रद है। ११७. सूत्र का अर्थ अर्थात् शास्त्र का मूलभाव बहुत ही सूक्ष्म होता है, वह
आचार्य के द्वारा प्रतिवोधित हुए विना नही जाना जाता।
११८. विना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोपरूप है, किंतु विशिष्ट प्रयोजन
की सिद्धि के लिए वही निर्दोष है । ११६. जो जिसके योग्य हो, उसे वही देना चाहिए।
१२०. मनुप्यो । सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वर्धमान रहती
है । जो सोता है वह सुखी नही होता, जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी रहता है।
१२१. सोते हुए का श्रुतज्ञान सुप्त रहता है, प्रमत्त रहने वाले का ज्ञान
शकित एव स्खलित हो जाता है । जो अप्रमत्त भाव से जाग्रत रहता है, उसका ज्ञान सदा स्थिर एव परिचित रहता है।
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दो सौ दो
सूक्ति त्रिवेणी
१२२. सुवइ य अजगरभूतो, सुय पि से णासती अमयभूय। होहिति गोणभूयो, गट्ठमि सुये अमयभूये ॥
-नि० भा० ५३०५
-वृह० भा० ३३८७ १२३ जागरिया धम्मीण, ग्राहम्मीण च सुतया सेया।
-~-नि० भा० ५३०६
-वृह० भा० ३३५६ १२४ रणालस्सेण सम सोक्ख, ण विज्जा सह गिद्दया । ण वेरगं ममत्तण, रणारंभेरण दयालुया॥
-नि० भा० ५३०७
-वृह० भा० ३३८५ १२५ दुक्ख खु रिणरणुकपा।
-नि० भा० ५६३३ १२६. जो तु गुणो दोसकरो, ण सो गुणो दोस एव सो होती। अगुणो वि य होति गुणो, जो सुदरणिच्छो होति ।।
-नि० भा० ५८७७
-वह० भा० ४०५२ १२७. पीतीसुण्णो पिसुणो।
नि० भा० ६२१२ १२८. पुरिसम्मि दुबिणीए, विणयविहाण न किंचि प्राइवे । न वि दिज्जति पाभरण, पलियत्तियकण्ण-हत्यस्स ॥
-नि० भा० ६२२१
-बृह० भा० ७८२ १२६. मद्दवकरण गाणं, तेरणेव य जे मदं समुवहति । ऊरणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेसि ।।
-नि० भा० ६२२२
-बृह० भा० ७८३ १३०. खेत्त कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झं ।
-नि० भा० ६२२७ -वृह० भा० ७६०
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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
दो सो तीन
१२२. जो अजगर के समान सोया रहता है, उसका अमृत-स्वरूप श्रुत (ज्ञान) नष्ट हो जाता है, और अमृत स्वरूप श्रुत के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति एक तरह से निरा बैल हो जाता है ।
१२३. धार्मिक व्यक्तियों का जागते रहना अच्छा है और अधार्मिक जनो का सोते रहना ।
१२४. आलस्य के साथ सुख का, निद्रा के साथ विद्या का, ममत्व के साथ वैराग्य का और आरभ = हिंसा के साथ दयालुता का कोई मेल नही है ।
१२५. किसी के प्रति निर्दयता का भाव रखना वस्तुत दुखदायी है ।
१२६. जो गुण, दोष का कारण है, वह वस्तुत. गुण होते हुए भी दोप हो है । और वह दोप भी गुण है, जिसका कि परिणाम सुदर है, अर्थात् जो गुणका कारण है |
१२७. जो प्रीति से शून्य है - वह 'पिशुन' है ।
१२८. जो व्यक्ति दुर्विनीत है, उसे सदाचार की शिक्षा नही देना चाहिए । भला जिसके हाथ पैर कटे हुए है, उसे कंकण और कुडल आदि अलकार क्या दिए जायँ ?
१२६. ज्ञान मनुष्य को मृदु वनाता है, किंतु कुछ मनुष्य उससे भी मदोद्धत होकर अधजलगगरी की भाँति छलकने लग जाते हैं, उन्हें अमृत स्वरूप औषधि भी विप वन जाती है ।
१३०. देश, काल और व्यक्ति को समझ कर ही गुप्त रहस्य प्रकट करना चाहिए ।
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दो सौ चार
सूक्ति त्रिवेणी
१३१ अप्पत्त च ण वातेज्ना, पत्त च ण विमाणए।
-नि० भा० ६२३०
१३२ प्रामे घडे निहित्त, जहा जलं तं घडं विरणासेति । इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहार विणासेइ ।।
-नि० भा० ६२४३ १३३ गाणं भावो ततो णऽण्णो।
-नि० भा० ६२६१
१३४ दुग्ग-विसमे वि न खलति, जो पंथे सो समे कहण्णु खले ।
-नि० भा० ६६६८ १३५ सव्वे अ चक्कजोही, सव्वे अ हया सचक्केहिं ।
-आवश्यक नियुक्ति भाष्य ४३ १३६ ववहारोऽपि हु बलव, ज छउमत्थपि वदई अरहा। जा होइ अगाभिण्णो, जाणंतो धम्मयं एय॥
-आव०नि० भा० १२३ १३७. उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइय होइ ।
-श्राव० नि० भा० १४६ १३८. सत्तभयविप्पमुक्के, तहा भवंते भयते ।
-प्राव० नि० भा० १८५ १३९. चित्त तिकालविसयं ।
-दशवकालिक नियुक्ति भा० १९ १४०. अरिंणदियगणं जीव, दुन्नेयं मसचक्खुणा ।
-दशव० नि० भा० ३४ १४१. णिच्चो अविणासि सासयो जीवो।
--दशवै० नि० भा० ४२ १४२. हेउप्पमवो वन्धो।
--दशवै० नि० भा० ४६
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दो सौ
भाप्यसाहित्य को सूक्तियां १३१. अपात्र (अयोग्य) को शास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए, और
पात्र (योग्य) को उससे वंचित नहीं रखना चाहिए । १३२. मिट्टी के कच्चे घडे मे रखा हुमा जल जिस प्रकार उस घडे को ही
नप्ट कर डालता है, वैसे ही मन्दबुद्धि को दिया हुआ गम्भीर शास्त्र
ज्ञान, उसके विनाश के लिए ही होता है। १३३ ज्ञान आत्मा का ही एक भाव है, इसलिए वह आत्मा से भिन्न नही है ।
१३४. जो दुर्गम एव विपम मार्ग मे भी स्खलित नहीं होता है, वह सम अर्थात्
सोधे, सरल मार्ग मे कैसे स्खलित हो सकता है ? १३५. जितने भी चक्रयोधी (अश्वग्रीव, रावण आदि प्रति वासुदेव) हुए हैं, वे ।
अपने ही चक्र से मारे गए हैं । १३६. सघव्यवस्था मे व्यवहार बड़ी चीज है। केवली (सर्वज्ञ) भी अथने
छद्मस्थ गुरु को स्वकर्तव्य ममझकर तब तक वंदना करते रहते हैं,
जब तक कि गुरु उसको सर्वज्ञता से अनभिज्ञ रहते हैं । १३७. यतनापूर्वक साधना मे यत्नशील रहने वाला आत्मा ही सामायिक है।
१३८ सात प्रकार के भय से सर्वथा मुक्त होने वाले भदत 'भवान्त या
'भयान्त' कहलाते हैं।
१३६. आत्मा की चेतना शक्ति त्रिकाल है ।
१४०. ग्रात्मा के गुण अनिन्द्रिय-अमूर्त हैं, अत वह चमं चक्षुओ से देख पाना
कठिन है । १४१ आत्मा नित्य है, अविनाशी है, एव शाश्वत है ।
१४२, आत्मा को कम वंध मिथ्यात्व आदि हेतुओ से होता है।
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दो सौ छह
सूक्ति त्रिवेणी
१४३ दविए दंसणसुद्धी, सणसुद्धस्स चरण तु ।
-ओघ नियुक्ति भाष्य ७ १४४. चरणपडिवत्तिहेउ धम्मकहा।
---श्रोघ नि० भा० ७ १४५ नत्थि छुहाए सरिसया वेयणा।
-प्रोघ नि० भा० २६० १४६ नाण-किरियाहिं मोक्खो।
--विशेषावश्यक भाष्य मा० ३ १४७. सव्वं च पिज्जरस्थं सत्यमोऽमगलमजुत्त ।
-विशेषा० भा० १६ १४८ दव्वसुय जो अणुवउत्तो।
-विशेषा० भा० १२६ १४६ जग्गन्तो वि न जाणइ, छउमत्थो हिययगोयर सव्वं । जंतझवसाणाई', जमसंखेज्जाई दिवसेण ॥
-विशेषा० भा० १६६ १५०. धम्मोऽवि जो सव्वो, न साहणं किंतु जो जोग्गो।
-विशेषा० भा० ३३१ १५१. जह दुव्वयणमवयण, कुच्छियसीलं असीलमसईए। भण्णइ तह नाणपि हु, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णाणं ।।
-विशेषा० भा० ५२० १५२. नाणफलाभावाप्रो, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णाणं।
-विशेषा० भा० ५२१ १५३. सव्व चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासए य निच्चं च ।
-विशेषा० भा० ५४४ १५४ उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावप्रो सुत्त। साहइ तह किरियायो, सव्वानो निज्जरफलायो॥
-विशेषा० भा० १६०
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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ सात
१४३. द्रव्यानुयोग (तत्वज्ञान) से दर्शन (दृष्टि) शुद्ध होता है, और दर्शन शुद्धि
होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है । १४४. आचार रूप सद्गुणो की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती है।
१४५. ससार मे मूख के समान कोई वेदना नही है ।
१४६. ज्ञान एवं क्रिया (माचार) से ही मुक्ति होती है ।
१४७ समग्र शास्त्र निर्जरा के लिये है, अत उसमे अमगल जैसा कुछ नही है।
१४८. जो श्रुत उपयोगशून्य है, वह सब द्रव्य श्रुत है।
१४६ जाग्रत दशा मे भी छद्मस्थ अपने मन के सभी विचारो को नही जान
पाता, क्योकि एक ही दिन मे मन के अध्यवसाय (विकल्प) असख्य रूप
ग्रहण कर लेते हैं। १५०. सभी धर्म मुक्ति के साधन नही होते हैं, किंतु जो योग्य है, वही साधन
होता है।
१५१. जिस प्रकार लोक मे कुत्सित वचन, 'भवचन' एवं कृत्सित शील, अशील'
(शील का अभाव) कहलाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का ज्ञान
कुत्सित होने के कारण अज्ञान कहलाता है। १५२ ज्ञान के फल (सदाचार) का अभाव होने से मिथ्या दृष्टि का ज्ञान
अज्ञान है। १५३. विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है
और साथ ही नित्य भी रहता है। १५४. उपयोगयुक्त शुद्ध व्यक्ति के ज्ञान मे कुछ स्खलनाएं होने पर भी वह
शुद्ध ही है । उसी प्रकार धर्म क्रियामो मे कुछ स्खलनाएं होने पर भी उस शुद्धोपयोगी की सभी क्रियाएँ कर्मनिर्जरा की हेतु होती हैं ।
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दो सौ आठ
सूक्ति त्रिवेणी
१५५. चि पणू अणुकूलो, सीसो सम्मं सुयं लहइ ।
-विशेषा० भा० ६३७ १५६. मिच्छत्तमयसमूह सम्मत्त।
-विशेषा० भा० ९५४ १५७. अन्न पुट्ठो अन्तं जो साहइ, सो गुरू न बहिरोव्व । न य सीसो जो अन्नं सुणेइ, परिभासए अन्नं ।।
-विशेषा० भा० १४४३ १५८ वयण विण्णाणफलं, जइ तं भणिएऽवि नत्थि किं तेण ?
-विशेषा० १५१३ १५६. सामाइअोवउत्तो जीवो सामाइयं सय चेव।
-विशेषा० भा० १५२६ १६०. असुभो जो परिणामो सा हिंसा।
--विशेषा० भा० १७६६ १६१. गंथोऽगंथो व मनो मुच्छा मुच्छाहि निच्छयो।
-विशेषा० २५७३ १६२. इदो जीवो सम्वोवलद्धि भोगपरमेसरत्तणयो।
-विशेषा० २६६३ १६३. धम्मा-धम्मा न परप्पसाय-कोपाणुवत्तियो जम्हा ।
-विशेषा० भा० ३२५४ १६४ विणो सासणे मूलं, विणीग्रो संजो भवे । विणयानो विप्पमुक्कस्स, कयो धम्मो को तवो?
-विशेषा० भा० ३४६८
वणीमो को तवो भा०
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भाप्यसाहित्य को सूक्तिया
दो सौ नौ
१५५. गुरुदेव के अभिप्राय को समझ कर उसके अनुकूल चलने वाला शिष्य
सम्यग् प्रकार से ज्ञान प्राप्त करता है । १५६ (अनेकान्त दृष्टि से युक्त होने पर) मिथ्यात्वमतो का समूह भी
मम्यक्त्व बन जाता है। १५७ बहरे के समान-शिष्य पूछे कुछ और, वताए कुछ और-वह गुरु, गुरु
नहीं है । और वह शिप्य भी शिष्य नहीं है, जो सुने कुछ और, कहे
कुछ और। १५८. वचन की फलश्रुति है-अर्थज्ञान | जिस वचन के बोलने से अर्थ का
ज्ञान नही हो तो उस 'वचन' से भी क्या लाभ ? १५६ सामायिक से उपयोग रखने वाला आत्मा स्वयं ही सामायिक हो जाता
१६०. निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा का अशुभ परिणाम ही हिंसा है।
१६१. निश्चय दृष्टि में विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह
भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है, मूर्छा नहीं है तो परिग्रह
नही है। १६२ सव उपलब्धि एव भोग के उत्कृप्ट ऐश्वयं के कारण प्रत्येक जीव
इन्द्र है। १६३ धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है । दूसरो
की प्रसन्नता और नाराजगी पर उसकी व्यवस्था नही है। १६४, विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयमी हो सकता है । जो
विनय से हीन है, उसका क्या धर्म, और क्या तप ?
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चूणिसाहित्य की सूक्तियां
१. जो अहकारो, भरिणतं अप्पलक्खणं ।
-आचारांग चूणि १।१।१ २. जह मे इट्ठारिण॰ सुहासुहे तह सव्वजीवाण।
-आचा० चू० १११६ ३. असंतुट्ठाणं इह परत्थ य भय भवति ।
-आचा० चू० १२।२ ४. ण केवलं वयबालो.. कज्ज अयारणो बालो चेव ।
-प्राचा० चू० १।२।३ ५. विसयासत्तो कज्ज अकज्ज वा ण याणति ।
-प्राचा० चू० ११२।४ ६. काले चरतस्स उज्जमो सफलो भवति ।
-आवा० चू० ११२।५ ७ ण दीणो ण गवितो।
-आचा० चू० ११२१५ ८. धम्मे अणुज्जुत्तो सीयलो, उज्जुत्तो उहो।
-प्राचा० चू० १।३।१
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चूरिंगसाहित्य को सूक्तियां
१. यह जो अन्दर मे 'अह' की-'म' की-चेतना है, यह आस्मा का
लक्षण है। २ जैसे इष्ट-अनिप्ट, सुख-दु.ख मुझे होते हैं, वैसे ही सब जीवो को होते हैं ।
३. असंतुष्ट व्यक्ति को यहा, वहां सर्वत्र भय रहता है।
४. केवल अवस्था से ही कोई वाल ( बालक ) नहीं होता, किन्तु जिसे अपने
कर्तव्य का ज्ञान नहीं है वह भी 'वाल' ही है। ५ विपयासक्त को कर्तव्य-अकर्तव्य का वोव नहीं रहता।
३. उचित समय पर काम करने वाले का ही श्रम सपल होता है ।
७. साधक को न कभी दीन होना चाहिए और न अभिमानी ।
८. धर्म मे उद्यमी क्रियाशील व्यक्ति, उष्ण-गर्म है, उद्यमहीन शीतल
ठंडा है।
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दो सौ बारह
सूक्ति त्रिवेणी ९ ण याणंति अप्पणो वि, किन्नु अण्णेसि ।
-प्राचा० चू० १।३।३ __१०. अप्पमत्तस्स रणत्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुजमाणस्स वा। .
-प्राचा० चू० ११३१४ ११. ण चिय अगिधौँ अग्गी दिप्पति ।
-~-प्राचा० चू० ११३।४ १२ जत्तियाइ असजमट्ठाणाइ, तत्तियाइ संजमठाणाई।
-प्राचा० चू० १।४।२ १३. कोयि केवलमेव गथमेहावी भवति, य तु जहातहं पडितो।
-प्राचा० चू० ११५॥३ १४ रागदोसकरो वादो।
-प्राचा० चू० १७१ १५. विवेगो मोक्खो।
- प्राचा० चू० १७.१ १६ जइ वणवासमित्तण नाणी जाव तवस्सी भवति, तेण सीहवग्घादयो वि।
-याचा, चू० १७१ १७ छुहा जाव सरीर, ताव अस्थि ।
-प्राचा० चू० १७३ १८ न वृद्धो भूत्वा पुनरुत्तानशायी क्षीराहारो बालको भवति ।
-सूत्र कृतांग चूणि १।२।२ १६ प्रारंभपूर्वको परिग्रहः ।
-सूत्र० चू० १।२।२ २०. समभाव सामाइयं ।
-सूत्र० चू० १।२।२ २१. चित्त न दूपयितव्यं ।
--सूत्र० चू०११२२२
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चूर्णिसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ तेरह
है
जो अपने को ही नही जानता, वह दूसरो को क्या जानेगा?
१०. अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खडे होते, खाते, कही भी कोई
भय नहीं है। ११. विना ई धन के अग्नि नही जलती।
१२ विश्व मे जितने असयम के स्थान (कारण) है, उतने ही सयम के स्थान
(कारण) हैं। १३ कुछ लोग केवल ग्रथ के पडित (शब्द-पडित) होते हैं, 'यथार्थ पडित'
(भावपडित) नहीं होते। १४. प्रत्येक 'वाद' रागद्वप की वृद्धि करने वाला है ।
१५ वस्तुत विवेक ही मोक्ष है।
१६ यदि कोई वन मे रहने मात्र से ही ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है, तो ,
फिर सिंह, वाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते है ।
१७. जव तक शरीर है तव तक भूख है।
१८ बूढा होकर कोई फिर उत्तानशायी दूधमु हा वाला नहीं हो सकता ।
१६. परिग्रह (धनसंग्रह) बिना हिंसा के नहीं होता।
२०. समभाव ही सामायिक है ।
२१ कर्म करो, किंतु मन को दूपित न होने दो।
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दो सौ चौदह
सूक्ति त्रिवेणी
२२. समाधिर्नाम रागद्वेषपरित्यागः ।
-सूत्र० चू० ११२।२ २३. न हि सुखेन सुख लभ्यते।
-सूत्र० चू० १३।४ २४. न निदानमेव रोगचिकित्सा ।
-सूत्र० चू० १११२ २५. कर्मभीता. कर्माण्येव वर्द्धयन्ति ।
--सूत्र० चू० १३१२ २६. ज्ञानधनाना हि साधूना किमन्यद् वित्त स्यात् ?
सूत्र० चू० १।१४ २७. सयणे सुवतो साधू, साधुरेव भवति ।
-सूत्र० चू० १:१४ २८. शरीरधारणार्थ स्वपिति, निद्रा हि परमं विश्रामण।
-सूत्र० चू० १।१४ २६. गेहंमि अग्गिजालाउलमि, जह णाम डज्झमारणंमि । जो बोहेइ सुयतं, सो तस्स जणो परमवंधू ।
-सूत्र० चू० १।१४ ३० मणसंजमो णाम अकुसलमणनिरोहो, कुसलमणउदीरणं वा ।
दशवकालिक चुणि, अध्ययन १ ३१. साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयव्व ।
-~-दशव० चू० १ ३२. मइलो पडो रगिनो न गुदरं भवइ ।
-~-दशव० ० ४ ३३. अरत्त-दुस्स परिभुजतस्स ण परिग्गहो भवति ।।
__-दशव• चू०६ ३४. कोवाकुलचित्तो ज संतमवि भासति, तं मोसमेव भवति ।
-दशव० चू० ७
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चूर्णिसाहित्य की सूक्तिया
२२. रागद्वेष का त्याग ही समावि है ।
२३ सुख से ( आसानी से ) सुख नही मिलता ।
२४. केवल निदान ( रोगपरीक्षा) हो रोग को चिकित्सा नही है ।
२५ कर्मों से डरते रहने वाले प्राय कर्म ही बढाते रहते हैं ।
२६ जिन के पास ज्ञान का ऐश्वर्य है, उन साधु पुरुषो को, और क्या ऐश्वर्य चाहिए ?
दो सौ पन्द्रह
२७. वाहर मे शय्या पर सोता हुआ भी साधु, ( अन्दर मे जागृत रहने से ) साधु ही है, असाधु नही ।
२८
साधक स्वास्थ्य रक्षा के लिए ही सोता है, क्यो कि निद्रा भी बहुत बड़ी विश्रान्ति है ।
२६ अग्नि की ज्वालाओ से जलते हुए घर में सोए व्यक्ति को, यदि कोई जगा देता है, तो वह उसका सर्वश्रेष्ठ बंधु है ।
३०. अकुशल मन का निरोध और कुशलमन का प्रवर्तन --- मन का सयम है ।
३१. साधु को सागर के समान गभीर होना चाहिए ।
३२ मलिन वस्त्र रगने पर भी सु दर नही होता ।
३३
राग द्व ेष से रहित साधक वस्तु का परिभोग ( उपयोग ) करता हुआ भी परिग्रही नही होता ।
३४ क्रोध से क्षुब्ध हुए व्यक्ति का सत्य भाषण भी असत्य ही है ।
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दो सौ सोलह
सूक्ति त्रिवेणी
३५. जं भासं भासतस्स सच्चं मोस वा चरित्त विसुज्झइ,
सव्वा वि सा सच्चा भवति । ज पुण भासमारणस्स चरित्त न सुज्झति, सा मोसा भवति ।
-दशवै० चू० ७ ३६. न धर्मकथामन्तरेण दर्शनप्राप्तिरस्ति ।
-उत्तराध्ययन चूर्णि, अध्ययन १ ३७. सन्वरणाणुत्तर सुयणाण ।
-उत्त० चू० १ ३८ न विनयशून्ये गुणावस्थानम् ।
--उत्त० चू० १ ३९. यदा निरुद्धयोगास्रवो भवति, तदा जीवकर्मणो. पृथक्त्वं भवति ।
-उत्त० चू० १ ४०. पापादडीन-पडितः ।
-उत्त० चू० १ ४१. पुरुपस्य हि भुजावेव पक्षौ ।
-~-उत्त० चू० १ ४२. पासयति पातयति वा पाप।
-उत्त० चू० २ ४३. समो सव्वत्थ मरणो जस्स भवति स समणो।
-उत्त० चू० २ ४४. मनसि शेते-मनुष्यः ।
--उत्त० चू० ३ ४५ मरणमपि तेषा जीवितवद् भवति ।
-उत्त० चू०५ ४६. सर्वो हि अात्मगृहे राजा।
-उत्त० चू० ७
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पूर्णिसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ सत्रह
३५. जिस भापा को बोलने पर-चाहे वह सत्य हो या असत्य-चारित्र की
शुद्धि होती है तो वह सत्य ही है। और जिस भाषा के वोलने पर चारित्र की शुद्धि नहीं होती-चाहे वह सत्य ही क्यो न हो-असत्य ही है । अर्थात् साधक के लिए शब्द का महत्व नही, भावना का महत्व है।
३६. धर्म कथा के विना दर्शन (सम्यक्त्व) की उपलब्धि नहीं होती।
३७. साधना की दृष्टि से अत ज्ञान सव ज्ञानो में श्रेष्ठ है ।
३८. विनयहीन व्यक्ति में सद्गुण नहीं ठहरते ।
३६. जव आत्मा मन, वचन, काया को चचलतारूप योगास्रव का पूर्ण
निरोध कर देता है, तभी सदा के लिए आत्मा और कर्म पृथक हो जाते
४०. जो पाप से दूर रहता है, वह पडित है ।
४१. मनुष्य की अपनी दो भुजाए ही उसकी दो पाखे हैं ।
४२. जो आत्मा को वाधता है, अथवा गिराता है, वह पाप है।
४३. जिस का मन सर्वत्र सम रहता है, वह समण (श्रमण) है।
४४. जो मन मे सोता है-अर्थात् चिंतन मनन मे लीन रहता है, वह मनुष्य
४५. उच्च आदर्श से लिए श्रेष्ठ पुरुपो का मरण भी, जीवन के समान है।
४६. अपने घर मे हर कोई राजा होता है ।
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दो सौ अठारह
४७
परिणिव्वुतो गाम रागद्दोसवि मुक्के ।
४८ यस्तु ग्रात्मन परेपा च शान्तये, तद् भावतीर्थं भवति ।
।
सूक्ति त्रिवेणी
- उत्त० चू० १०
४६ शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि श्रात्मलेश्या शुद्धा भवन्ति ।
५७. चितिज्जइ जेण त चित्त ।
-
५८. विसुद्धभावत्तणतोय सुगंध ।
५६ विविहकुलुप्पण्णा साहवो कप्परुक्खा |
- उत्त० चू० १२
५०. द्रव्यब्रह्म अज्ञानिना वस्तिनिग्रह, मोक्षाधिकारशून्यत्वात् ।
-
- उत्त० चू० १६
- उत्त० च० १२
५१ देशकालानुरूप धर्मं कथयन्ति तीर्थंकरा ।
- उत्त० चू० २३
५२ परमार्थतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षकारण, न लिंगादीनि ।
-उत्त० चू० २३
५३. स्थिरीकरणात् स्थविर ।
५४. प्रमुक्तस्य च निवृतिर्नास्ति ।
- उत्त० चू० २८
५५ जो अप्पणी परस्स वा श्रावतीए वि न परिच्चयति, सो बंधू । — नंदी सूत्र, चूर्णि १ ५६ सव्वसत्तारण अहिंसादिलक्खरगो धम्मो पिता, रक्खणत्तातो । - नंदी० १० चू० १
- उत्त० चू० २७
-- नदी० चू० २।१३
- नदी० चु० २।१३
- नदी० चू० २।१६
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दो सौ उन्नीस
चूर्णिसाहित्य की सूक्तिया ४७. राग और द्वप से मुक्त होना ही परिनिर्वाण है ।
४८. जो अपने को और दूसरो को शान्ति प्रदान करता है, वह ज्ञान
दर्शन-चारित्र रूप भावतीर्य है। ५९. वाहर मे शरीर की लेश्या (वर्ण आदि) अशुद्ध होने पर भी अन्दर मे
आत्मा को लेश्या (विचार) शुद्ध हो सकती है। ५०. अज्ञानी साधको का चित्तशुद्धि के अभाव में किया जाने वाला केवल
जननेन्द्रिय-निग्रह द्रव्य ब्रह्मचर्य है, क्योकि वह मोक्षाधिकार से शून्य है। ५१. तीर्थङ्कर देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते है।
५२. परमार्थ दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, वेप
आदि नही।
५३, जो अपने को और दूसरो को साधना मे स्थिर करता है-वह स्थविर है।
५४. मुक्त हुए विना शान्ति प्राप्त नहीं होती।
५५. जो अपने या दूसरे के सकट काल में भी अपने स्नेही का साथ नही
छोडता है, वह वधु है । अहिंसा, सत्य आदि धर्म सव प्राणियो का पिता है, क्यो कि वही सव का रक्षक है।
५७. जिस से चिंतन किया जाता है, वह चित्त है ।
५८. विशुद्ध भाव अर्थात् पवित्र विचार ही जीवन की सुगंध है ।
५९. विविध कुल एव जातियो मे उत्पन्न हुए साधु पुरुप पृथ्वी पर के कल्प
वृक्ष हैं।
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दो सौ वीस
सूक्ति त्रिवेणी
६० भूनहित ति अहिंसा।
-नदी० चू० ५।३८
६१ स्व-परप्रत्यायक पुतनाग ।
-नदी० चू० ४४ ६२ खडसजुत खीरं पित्तजरोदयतो रण सम्मं भवइ ।
-नदी० चू० ७१ ६३ अणेगधा जाणमाणो विण्णाता भवति ।
-नदी० चू० ८५ ४२ सघयणा भावा उच्छाहो न भवति ।
-दशाथ तस्कन्ध चूणि, प० ३ ६५ सिसस्स वा विणयादिजुतस्स दितो निरिणो भवति ।
-दशा० चू०, पृ० २३ ६६. मोक्खत्थ पाहार-विहाराइसु अहिगारो कीरति ।
-निशीथ चूणि, भाष्य गाथा, ११ ६७ गाणं पि काले अहिज्जमाण णिज्जराहे भवति । अकाले पुरण उवघाय कर कम्मवधाय भवति ।
-नि० चू० ११ ६८. विणयोववेयस्स इह परलोगे वि विज्जाम्रो फलं पयच्छति ।
-नि० चू० १३ ६९. मोहो विण्णाण विवच्चासो।
-नि० चू० २६ ७०, अण्णाणोवचियस्स कम्मचयस्स रित्तोकरणं चारित्त।
-नि० चू० ४६ ७१. तप्पते अणेण पाव कम्ममिति तपो।
-नि० चू० ४६ ७२. भावे गाणावरणातीरिण पंको।
-नि० चू० ७०
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दो सौ इक्कोस
चूणिसाहित्य को सूक्तिया ६०. प्राणियों का हित अहिंसा है।
६१. स्व और पर को वोध कराने वाला ज्ञान-श्रुत ज्ञान है ।
६२. खाड मिला हुआ मधुर दूध भी पित्तज्वर मे ठीक नहीं रहता।
६३. वस्तु स्वल्प को अनेक दृष्टियो से जानने वाला ही विज्ञाता है ।
६४ सहनन (शारीरिक शक्ति) क्षीण होने पर धर्म करने का उत्साह नही
होता। ६५ गुरु, शिष्य को ज्ञानदान कर देने पर अपने गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता
६६. साधक के आहार-विहार आदि का विधान मुक्ति के हेतु किया गया
६७. विवेकज्ञान का विपर्यास ही मोह है ।
६८ शास्त्र का अध्ययन उचित समय पर किया हुआ ही निर्जरा का हेतु होता
है, अन्यथा वह हानि कर तथा कर्मवध का कारण बन जाता है ।
६६ विनयशील साधक की विद्याए यहा वहा (लोक परलोक मे) सर्वत्र
सफल होती है। ७०. अज्ञान से सचित कर्मों के उपचय को रिक्त करना-चारित्र है।
७१. जिस साधना से पाप कर्म तप्त होता है, वह तप है।
७२ भाव दृष्टि से ज्ञानावरण (अज्ञान) आदि दोष आभ्यतर पक हैं।
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दो सौ बाईस
सूक्ति त्रिवेणी ७३. तवस्स मूलं धिती।
-नि० चू० ८४ ७४. पमाया दप्पो भवति अप्पमाया कप्पो।
-नि० चू०६१ ७५. सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति, एवं असति पाणातिवाए पमत्तताए वहगो भवति।
-नि० चू० ६२ ७६. गाणातिकारणावेक्ख अकप्पसेवणा कप्पो।
-नि० चू० ६२ ७७ माया-लोभेहितो रागो भवति । कोह-माणेहिं तो दोसो भवति ॥
-नि० चू० १३२ ७८. गेलण्णे य बहुतरा संजमविराहणा।
-नि० चू० १७५ ७६. निभएण र्गतव्वं ।
-नि० चू० २७३ ८०. गिठ्ठर पिण्हेहवयण खिसा । मउय सिणेवय उवालंभो
-नि० चू० २६३७ ८१. समभावोसामायियं, तं सकसायस्स णो विसुज्झज्जा।।
-नि० चू० २८४६ ८२. गुणकारित्तणातो प्रोमं भोत्तव्वं ।
-नि० चु० २६५१ ८३. पुन्नं मोक्खगमणविग्धाय हवति ।
-नि० चु० ३३२६ ८४. यत्रात्मा तत्रोपयोग , यत्रोपयोग स्तत्रात्मा।
-नि० चू० ३३३२
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दो सौ तेईस
चूणिसाहित्य की सूक्तिया ७३. तप का मूल घृति अर्थात् धर्य है ।
७४. प्रमाद भाव से किया जाने वाला अपवादसेवन दर्प होता है और वही
अप्रमाद माव से किया जाने पर कल्प-आचार हो जाता है। __ ७५ प्राणातिपात, होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात
न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है ।
__७६. ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जाने वाला अकल्पसेवन भी कल्प है।
७७. माया और लोभ से राग होता है।
क्रोध और मान से द्वप होता है ।
७८. रोग हो जाने पर बहुत अधिक सयम की विराधना होती है।
७६. जीवन पथ पर निर्भय होकर विचरण करना चाहिए।
८०. स्नेहरहित निष्ठुर वचन खिसा (फटकार) है, स्नेहसिक्त मधुर वचन
उपालभ (उलाहना) है।
८१. समभाव सामायिक है, अत कपाययुक्त व्यक्ति का सामायिक विशुद्ध
नहीं होता। ८२ कम खाना गुणकारी है ।
८३. परमायं दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति मे विघातक-बाधक है ।
८४ जहा आत्मा है, वहा उपयोग (चेतना) है, जहा उपयोग है वहां आत्मा है ।
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दो सौ चौवीस
सूक्ति त्रिवेणी
८५ यत्र तपः, तत्र नियमात्सयमः । यत्र संयमः, तत्रापि नियमात् तप. ।
-वि० चू० ३३३२ ८६ अन्न भासइ अन्नं करेइ त्ति मुसाबानो।
-नि० चू० ३९८८ ८७. आवत्तीए जहा अप्प रक्खंति, तहा अण्णोवि यावत्तीए रक्खियव्वो।
-नि० चू० ५६४२८८. गाणदसणविराहणाहिं रिणयमा चरणविराहणा।
-नि० चू० ६१७८ ८६. दवेण भावेण वा, ज अप्पणो परस्स वा उवकारकरण, तं सव्व वेयावच्चं ॥
-नि० चू० ६६०५ ९०. पमायमूलो वंधो भवति ।
-नि० चू० ६६८९
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चूर्णिसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ पच्चीस ८५. जहा तप है वहां नियम से सयम है, और जहा संयम है वहाँ नियम से
तप है।
८६ 'कहना कुछ और करना कुछ'-~-यही मृपावाद (असत्य भापण) है ।
८७ आपत्तिकाल मे जैसे अपनी रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरो की भी
रक्षा करनी चाहिए।
८८ ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर चारित्र को विराधना निश्चित
८९ भोजन, वस्त्र आदि द्रव्य रूप से, और उपदेश एव सत्प्रेरणा नादि भाव
रूप से, जो भी अपने को तया अन्य को उपकृत किया जाता है, वह सव
वय्यावृत्य है। १० कर्मवंध का मूल प्रमाद है।
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सूक्तिकरण
१. एगे आया ।
२. विणयमूले धम्मे पन्नत्त ।
३. रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेण चैव पक्खालिज्जमाणस्स रात्यि सोही ।।
४. अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि ।
५. भोगेहि य निरवयक्खा, तरंति संसारकतारं ।
६. सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरुवत्ताए परिणमति ।
- समवायाग १।१
-ज्ञाता धर्मकथा ११५
-ज्ञाता० ११५
७. चक्खि दियदुद्द तत्तणस्स, ग्रह एत्तियो हवइ दोसो | ज जलगंमि जलते, पडइ पयंगो अबुद्धीनो ॥
-ज्ञाता० १/५
-ज्ञाता० ११६
-ज्ञाता० १।१२
-ज्ञाता० १।१७१४
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सूक्तिकरण
१. स्वरूपदृष्टि से सब आत्माए एक ( समान ) हैं।
२. धर्म का मूल विनय = प्राचार है ।
३. रक्त से सना वस्त्र रक्त से धोने से शुद्ध नहीं होता।
४. मैं (आत्मा) अव्यय अविनाशी हूँ, अवस्थित एकरस हूँ।
५. जो विषय भोगो से निरपेक्ष रहते हैं, वे संसार वन को पार कर जाते हैं।
६. सुरूप पुद्गल (सुदर वस्तुए) कुरूपता मे परिणत होते रहते हैं और
कुरूप पुद्गल सुरूपता मे।
७ चक्षुष् इन्द्रिय की आसक्ति का इतना बुरा परिणाम होता है कि मूर्ख
पतगा जलती हुई आग मे गिर कर मरजाता है।
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दो सौ अट्ठाईस
सूक्ति त्रिवेणी
८ सयस्स वि य णं कुडुबस्स मेढीपमारणं,
आहारे, आलंवणं, चक्खू ।
--उपासक दशा १५
६. कालं अणवकंखमाणे विहरइ ।
-उपा० ११७३
१०. सजमेणं तवसा अप्पाणे भावे माणे विहरइ ।
--उपा० श७६
११. भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया,
धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया ।
--उपा० ७।२२७
१२ जलवुब्बुयसमाण कुसग्गजलविदुचचलं जीवियं ।
-प्रोपपातिक सूत्र २३ १३. निरुवलेवा गगणमिव, निरालबणा अणिलो इव ।
-प्रोप० २७
१४. अजिय जिणाहि, जिय च पालेहि ।
-औप० ५३
१५. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्याफला भवति ।
दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति ।।
-औप० ५६
१६. धम्म णं प्राइक्खमाणा तुन्भे उवसमं प्राइक्खह,
उवसमं प्राइक्खमाणा विवेग आइक्खह।
-श्रीप० ५८
१७ रण वि अस्थि माणुसाण, तं सोक्ख ण वि य सव्व देवाण । ज सिद्धाण सोक्ख, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥
-~-~ोप० १८०
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सूक्ति कण
दो सौ उनतीस ८. गृहस्थ को अपने परिवार मे मेढीभूत (स्तभ के समान उत्तरदायित्व
वहन करने वाला), आवार, आलवन और चक्षु अर्थात् पय-प्रदर्शक वनना चाहिए।
६ साधक कष्टो से जूझता हुआ काल मृत्यु से अनपेक्ष होकर रहे ।
१० साधक सयम और तप से आत्मा को सतत भावित करता रहे ।
११ पली-वर्म मे सहायता करने वाली, धर्म की साथी, धर्म मे अनुरक्त
तथा सुख दुख मे समान साथ देने वाली होती है।
१२ जीवन पानी के बुलबुले के समान और कुशा की नोक पर स्थित जल
विन्दु के समान चचल है।
१३. सत जन आकाश के समान निरवलेप और पवन के समान निरालव होते
१४. राजनीति का सूत्र है-'नही जीते हुए शत्रुओ को जीतो, और जीते
हुओ का पालन करो।'
१५ अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है।
बुरे कर्म का बुरा फल होता है।
१६ प्रभो ! मापने धर्म का उपदेश देते हुए उपशम का उपदेश दिया और
उपशम का उपदेश देते हुए विवेक का उपदेश दिया।
१७ ससार के सव मनुष्यो और सब देवताओ को भी वह सुख प्राप्त नही है,
जो सुख अव्यावाघ स्थिति को प्राप्त हुए मुक्त आत्माओ को है ।
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दो सौ तीस
सूक्ति त्रिवेणी १८. जे से पुरिसे देति वि, सण्णवेइ वि से णं ववहारी। जे से पुरिसे नो देति, नो सण्णवेइ से णं अववहारी।
-राजप्रश्नीय ४७० १६. जत्येव धम्मायरियं पासेज्जा, तत्येव वंदिज्जा नमंसिज्जा।
-राजप्र० ४।७६ २०. मा ण तुमं पदेसी! पुन्व रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमरिणज्जे भवेज्जासि ।
-राजप्र० ४१८२ २१. सम्मद्दिट्ठिस्स सुयं सुयणाण, मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाण।
-नवी सूत्र ४४ २२. सव्वजीवाण पि य ण अक्खरस्स अण्णतभागो रिगच्चुग्घाडियो।
-नवी० ७५ २३. सुट्ठ वि मेहसमुदए होति पभा चद-सूराण ।
-नदी० ७५ २४, अणुवनोगो दव्व।
-अनुयोग द्वार सू० १३ २५. सित्थेण दोणपाग, कविं च एक्काए गाहाए ।
-अनु० ११६ २६. जस्स सामाणिो अप्पा, सजमे रिणअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिनं ॥'
-मनु० १२७ २७. जो समो सवभूएसु, तसेसु थावरेसु । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासि ॥२
-अनु० १२८ २८. जह मम ण पियं दुक्खं, जारिणय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ, सममणइ तेण सो समणो॥
-अनु० १२६ १-नियमसार १२७ । २-नियमसार १२६ ।
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दो सौ इकत्तीस
सूक्ति कण
१८
जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीतिवचन से मतुष्ट भी करता है, वह व्यवहारी है । जो न देता है और न प्रीतिवचन से सतुष्ट ही करता है वह अव्यवहारी है ।
१६. जहा कही भी अपने धर्माचार्य को देखें, वही पर उन्हें वन्दना नमस्कार करना चाहिए ।
२०. हे राजन् | तुम जीवन के पूर्वकाल मे रमणीय होकर उत्तर काल मे अरमणीय मत वन जाना ।
२१ सम्यक् दृष्टि का श्रुत, श्रुत ज्ञान है ।
मिथ्या दृष्टि का श्रुत, श्रुत अज्ञान है ।
२२ सभी ससारी जीवो का कम से कम अक्षर ज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो सदा उद्घाटित हो रहता है ।
२३. घने मेघावरणो के भीतर भी चद्र सूर्य की प्रभा कुछ न कुछ प्रकाशमान रहती ही है ।
२४. उपयोगशून्य साधना द्रव्य है, भाव नही ।
२५. एक कण से द्रोण' भर पाक की, और एक गाथा से कवि की परीक्षा हो जाती है ।
२६. जिस की आत्मा संयम मे, नियम मे एव तप मे सन्निहित = तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।
२७ जो त्रस (कीट, पतगादि) और स्थावर ( पृथ्वी, जल आदि) सब जीवो के प्रति सम है अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।
२८ जिस प्रकार मुझ को दुःख प्रिय नही है, उसी प्रकार सभी जीवो को दुखप्रिय नही है, जो ऐसा जानकर न स्वय हिंसा करता है, न किसी से हिंसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा 'समण' है ।
१-१६ या ३२ सेर का एक तौल विशेष ।
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- संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ।
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दो सो बत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी २६. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ रण होइ पावमणो। सयणे अ जणे अ समो, समो अ मारणावमाणेसु ॥
-अनु० १३२ ३० उवसमसार खु सामण्णं ।
-बृहत्कल्प सूत्र १।३५ ३१. जो उवसमइ तस्स अस्थि राहणा, जो न उवसमइ तस्स रणत्थि आराहणा।
-बृह० ११३५ ३२. आगमबलिया समणा निग्गंथा।
- व्यवहार सूत्र १० ३३ गिलाण वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे, महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ।
-व्यवहार० १० ३४. चत्तारि पुरिसजाया
रूवेणाम एगे जहइ णो धम्म । धम्मेणाम एगे जहइ रणो रूवं । एगे रूवे वि जहइ धम्म पि, एगे गो रूव जहइ णो धम्म ।
-व्यवहार० १० ३५. अोयं चित्त समादाय झारणं समुप्पज्जा। धम्मे ठिो अविमणे, निव्वाणमभिगच्छइ ॥
-दशा श्रुतस्कघ ५१ ३६. रोम चित्त समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ।
-दशा० ५।२ ३७. अप्पाहारस्स दतस्स, देवा दसेति ताइयो।
-दशा० ५४ ३८. सुक्कमले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । एव कम्मा न रोहंति, मोहरिणज्जे खयं गते ।।
-दशा० ५।१४
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सूक्ति कण
दो सौ तेंतीस २६. जो मन से सु-मन (निर्मल मन वाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख
नहीं होता, स्वजन तथा परजन मे, मान एवं अपमान मे सदा सम रहता
है, वह 'समण' होता है। ३०. अमणत्व का सार है-उपशम ।
३१. जो कपाय को शान्त करता है, वही आराधक है । जो कपाय को शात
नहीं करता, उसकी आराधना नहीं होती।
३२. श्रमण निन्यो का बल 'आगम' (शास्त्र) ही है ।
३३. रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महान् निर्जरा और महान् पर्य
वसान (परिनिर्वाण) करता है ।
३४. चार तरह के पुरुप हैं
कुछ व्यक्ति वेप छोड देते हैं, किंतु धर्म नही छोड़ते । कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किंतु वेप नहीं छोडते । कुछ वेष भी छोड देते है और धर्म भी । और कुछ ऐसे होते हैं जो न वेप छोडते हैं, और न धर्म ।
३५. चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की सही स्थिति प्राप्त होती है।
जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित है, वह
निर्वाण को प्राप्त करता है। ३६ निर्मल चित्त वाला साधक संसार मे पुन जन्म नहीं लेता।
३७. जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियो का विजेता है, सभी प्राणियो के प्रति
रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते है। ३८. जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सीचिए, वह हरा भरा
नहीं होता । मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे भरे नहीं होते।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ चौतीस ___३६ जहा दड्ढारण बीयाण, ण जायति पुणंकुरा ।
कम्मबीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवकुरा ।।
-दशा० ५१५
४०. धंसेइ जो अभूएण, अकम्मं अत्त-कम्मुणा।
अदुवा तुम कासित्ति, महामोह पकुव्वइ ।
-दशा० ६८
४१. जाणमारणो परिसाए, सच्चामोसाणि भासइ ।
अक्खीण-झझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ ॥
-दशा० ६९
४२. ज निस्सिए उव्वहइ, जससाहिगमेण वा।
तस्स लुभइ वित्त पि, महामोहं पकुव्वइ ।
-क्शा०६।१५
४३. बहुजणस्स ऐयारं, दीव-ताण च पारिगणं।
एयारिसं नरं हता, महामोह पकुव्वइ ।।
-दशा० ६।१७
४४. नाणी नव न बन्धइ।
-दशवकालिक नियुक्ति ३१६ ४५ हिअ-मिन-अफरुसवाई, अणुवीइभासि वाइयोविणयो।
-दशवै० नि० ३२२ ४६ तण-कठेहि व अग्गी, लवजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउ कामभोगे।
-अातुर प्रत्याख्यान ५० ४७. गहिरो सुग्गइमग्गो, नाहं मरणस्स बीहेमि ।
-प्रातुर० ६३ ४८. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं । दुण्ह पि हु मरियव्वे, वरं खु धीरत्तणे मरिउ।
-मातुर० ६४
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सूक्ति कण
दो सौ पेंतीस
३६. वीज जब जल जाता है तो उससे नवीन अंकुर प्रस्फुटित नही हो सकता।
ऐसे ही कम वीज के जल जाने पर उससे जन्ममरणरूप अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता। जो अपने किए हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डाल कर उसे लालित करता है कि यह “पाप तूने किया है", वह महामोह कर्म का वंध करता है।
४०.
४१. जो सही स्थिति को जानता हुमा भी सभा के बीच मे अस्पप्ट एव मिश्र
भापा (कुछ सच कुछ झूठ) का प्रयोग करता है, तथा कलह-द्वप से युक्त है, वह महामोह रूप पाप कर्म का वध करता है ।
४२. जिसके आश्रय, परिचय तथा सहयोग से जीवनयात्रा चलती हो उसी
की सपत्ति का अपहरण करने वाला दुष्ट जन महामोह कर्म का वध
करता है। ४३. दु खसागर मे डूवे हुए दुखी मनुष्यो का जो द्वीप के समान सहारा होता
है, जो बहुजन समाज का नेता है, ऐसे परोपकारी व्यक्ति की हत्या करने
वाला महामोह कर्म का बंध करता है। ४४. ज्ञानी नवीन कर्मों का वन्ध नहीं करता।
४५. हित, मित, मृदु और विचार पूर्वक बोलना वाणी का विनय है ।
४६. जिस प्रकार तृण, काष्ट से अग्नि,तथा हजारो नदियो से समुद्र सप्त नही
होता है, उसी प्रकार रागासक्त आत्मा काम-भोगो से तृप्त नही हो पाता।
४७. मैंने सद्गति का मार्ग (धर्म) अपना लिया है, अब मैं मृत्यु से नही
उरता। ४८. धीर पुरुष को भी एक दिन अवश्य मरना है, और कायर को भी, जव
दोनो को ही मरना है तो अच्छा है कि धीरता (शान्त भाव) से ही मरा जाय।
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दो सौ छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
४६. दसणभट्ठो भट्ठो, दंसरणभट्ठस्स नत्थि निव्वाण।
-भक्तपरिज्ञा ६६ ५०. जह मक्कडयो खणमवि, मज्झत्थो अच्छिउन सक्केइ । तह खरगमवि मज्झत्थो, विसएहिं विणा न होइ मरणो।
-भक्त० ८४ ५१. धम्ममहिंसासम नत्थि ।
-भक्त०६१ ५२. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।
-भक्त० ६३ ५३. अगीप्रत्यस्स वयणेणं, अमयंपि न घुटए ।
-~गच्छाचार ४६ ५४. जेण विरागो जायइ, त तं सव्वायरेण कायव्व ।
-महाप्रत्याख्यान १०६ ५५ सो नाम अगसगतवो, जेण मरणो मगुलं न चितेइ । जेण न इ दियहाणी, जेण य जोगा न हायति ॥
-मरणसमाधि १३४ ५६ कि इत्तो लठ्ठयर अच्छेरयय व सुदरतरं वा ? चंदमिव सबलोगा, बहुस्सुयमुह पलोयति ।
मरण० १४४ ५७. नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खय होइ ।
-मरण० १४७ ५८. अत्यो मूल अगत्थारण ।
--मरण० ६०३ ५६. न हु पाव हवइ हिय, विस जहा जोवियत्थिस्स ।
-मरण० ६१३ ६०. हुति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धरिणयं नियमियाइ । नियगाणि इ दियाई, जइणो तुरगा इव सुदंता ॥
-मरण० ६२२
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सूक्ति कण
दो सौ सेंतीस
४६. जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वस्तुत वही भ्रष्ट है, पतित है। क्योकि
दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्त नहीं होता । ५० जैसे वदर क्षण भर भी शात होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी
सकल्प विकल्प से क्षण भर के लिए भी शात नहीं होता ।
५१ अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है ।
५२. किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत अपनी ही हत्या है, और अन्य
जीव की दया अपनी ही दया है । ५३. अगीतार्थ=अज्ञानी के कहने से अमृत भी नहीं पीना चाहिए।
५४ जिस किसी भी क्रिया से वैराग्य की जागृति होती हो, उसका पूर्ण श्रद्धा
के साथ आचरण करना चाहिए । ५५. वही अनशन तप श्रेष्ठ है जिस से कि मन अमगल न सोचे, इन्द्रियो
की हानि न हो और नित्यप्रति की योग-धर्म क्रियाओ मे विघ्न न आए।
५६. इससे बढकर मनोहर, सु दर और आश्चर्यकारक क्या होगा कि लोग
बहुश्रु त के मुख को चन्द्र-दर्शन की तरह देखते रहते है ।
५७ ज्ञान और चारित्र-इन दोनो की साधना से ही दु ख का क्षय होता है।
५८. अर्थ अनर्थों का मूल है ।
५६ जैसे कि जीवितार्थी के लिए विष हित कर नहीं होता, वैसे ही कल्याणा
र्थी के लिए पाप हितकर नही है । ६०. ज्ञान की लगाम से नियत्रित होने पर अपनी इन्द्रिया भी उसी प्रकार
लाभकारी हो जाती हैं, जिस प्रकार लगाम से नियत्रित तेज दौड़ने वाला घोड़ा।
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दो सौ अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी
६१. माणुसजाई बहुविचित्ता।
-मरण० ६४०
६२. सम्वत्थेसु सम चरे।
-इसिभासियाई १२८
६३ मूलसित्त' फलुप्पत्ती, मूलघाते हत फलं ।
-इसि० २।६
६४. मोहमूलारिण दुक्खाणि ।
--इसि० २७ ६५ खीरे दूसि जघा पप्प, विरणासमुवगच्छति । एवं रागो व दोसो य, बंभचेरविणासणो।
-इसि० ३७ ६६. सक्का वण्ही रिणवारेतु, वारिणा जलितो बहिं । सव्वोदही जलेणावि, मोहग्गी दुण्णिवारो।।
---इसि० ३।१० ६७ मणुस्सहिदय पुरिणरणं, गहणं दुन्वियारणक ।
-इसि० ४६ ६८. संसारसंतईमूलं, पुण्ण पाव पुरेकडं ।
-~-इसि० ६२ ६६ पत्थरेणाहतो कीवो, खिप्प डसइ पत्थरं । मिगरिऊ सरं पप्प, सरुप्पत्ति विमग्गति ।।
-इसि० १५२२०
७०. अण्णाण परम दुक्ख, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो ससारो, विविहो सव्वदेहिणं ।।
-इसि० २११ ७१. सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साहुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ।।
-इसि० २२१३
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सूक्ति कण
दो सौ उनतालीस
६१. मानवजाति बहुत विचित्र है।
६२. साधक को सर्वत्र सम रहना चाहिए।
६३. मूल को सीचने पर ही फन लगते हैं । मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट
हो जाता है। ६४. दु.खो का मूल मोह है।
६५. जरा सी खटाई भी जिस प्रकार दूध को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार
राग-द्वीप का संकल्प संयम को नष्ट कर देता है।
बाहर मे जलती हुई अग्नि को थोडे से जल से शात किया जा सकता है। किंतु मोह अर्थात् तृष्णा रूप अग्नि को समस्त समुद्रो के जल से भी शात नही किया जा सकता।
६७ मनुप्य का मन वडा गहरा है, इसे समझ पाना कठिन है ।
६८. पूर्व कृत पुण्य और पाप ही संसार परम्परा का मूल है।
६९. पत्थर से आहत होने पर कुत्ता आदि क्षुद्र प्राणी पत्थर को ही काटने
दौडता है (न कि पत्थर मारने वाले को), किंतु सिंह वाण से आहत होने पर वाण मारने वाले की ओर ही झपटता है।
[अज्ञानी सिर्फ प्राप्त सुख दुःख को देखता है, ज्ञानी उसके हेतु को।] ७०. अज्ञान सवसे वडा दुख है । अज्ञान से भय उत्पन्न होता है, सव प्राणियो
के ससार भ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है।
७१ आत्मधर्म की साधना मे ध्यान का प्रमुख स्थान है जैसे कि शरीर मे
मस्तक का, तथा वृक्ष के लिए उसकी जड का ।
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दो सौ चालीस
सूक्ति त्रिवेणी ७२ सुभासियाए भासाए, सुकडेण य कम्मुरणा। पज्जणे कालवासी वा, जसं तु अभिगच्छति ॥
-इसि० ३३१४ ७३. हेमं वा आयसं वावि, वंधण दुक्खकारणा। महग्घस्सावि दंडस्त, रिणवाए दुक्खसपदा ॥
-इसि० ४५॥५ ७४. उप्पज्जति वियति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स । दव्वठ्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविण8 ।।
-सन्मतिप्रकरण ११११ ७५. दव्वं पज्जवविउयं, दवविउत्ता य पज्जवा पत्थि । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एय॥
-सन्मति० ११२ ७६ तम्हा सव्वे वि गया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णपिस्सिया उ ण, हवति सम्मत्तसम्भावा ।
-सन्मति० ११२१ ७७. ण वि अस्थि अण्णवादो, ण वि तव्वामो जिणोवएसम्मि ।
-सन्मति० ३।२६ ७८. जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ॥
-सन्मति० ३१४७ ७६. दव खित्त काल, भावं पज्जाय देस संजोगे। भेदं पडुच्च समा, भावाणं पण्णवणपज्जा ॥
-सन्मति० ३।६० ८०. ण हु सासणभत्ती मेत्तएण सिद्धतजाणो होइ। ण वि जाणो वि णियमा, पण्णवणाणिच्छिोणाम ॥
-सन्मति० ३१६३
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सूक्ति कण
दो सौ इकतालीस
७२ जो वाणी से सदा सुन्दर बोलता है, और कर्म से सदा सदाचरण करता है, वह व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशसनीय और जनप्रिय होता है ।
७३. वघन चाहे सोने का हो या लोहे का, वघन तो आखिर दुखकारक ही है | बहुत मूल्यवान दंड (डडे ) का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है !
७४. पर्यायदृष्टि से सभी पदार्थ नियमेन उत्पन्न भी होते हैं,
ओर नष्ट भी । परन्तु द्रव्यदृष्टि से सभी पदार्थ उत्पत्ति और विनाश से रहित सदाकाल ध्रुव हैं ।
७५. द्रव्य कभी पर्याय के विना नही होता है, और पर्याय कभी द्रव्य के विना नही होता है । अत द्रव्य का लक्षण उत्पाद, नाश और ध्रुव (स्थिति) रूप है |
७६. अपने-अपने पक्ष मे ही प्रतिवद्ध परस्पर निरपेक्ष सभी नय ( मत) मिथ्या हैं, असम्यक् हैं । परन्तु ये ही नय जव परस्पर सापेक्ष होते हैं, तव सत्य एव सम्यक् वन जाते हैं ।
७७. जैन दर्शन मे न एकान्त भेदवाद मान्य है और न एकान्त अभेदवाद । (अत. जैन दर्शन भेदाभेदवादी दर्शन है ।)
७८ जितने वचनविकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने भी नयवाद हैं, ससार मे उतने ही पर समय हैं, अर्थात् मत मतान्तर है ।
७९. वस्तुतत्त्व की प्ररूपणा द्रव्य', क्षेत्र े, काल, भाव, पर्याय", देश, संयोग' और भेद' के आधार पर ही सम्यक् होती है ।
८०
मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त का ज्ञाता नही हो सकता । और हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नही हो सकता ।
१. पदार्थ की मूल जाति, २ स्थिति क्षेत्र, ३ योग्य समय, ४ पदार्थ की मूल शक्ति, ५ शक्तियो के विभिन्न परिणमन अर्थात् कार्य, ६ व्यावहारिक स्थान, ७ आस-पास की परिस्थिति, ८ प्रकार ।
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दो सौ वियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
८१. सुत्त अत्थनिमेण, न सुत्तमेत्तण अत्थपडिवत्ती। अत्थगई पुण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥
-सन्मति० ३।६४ ८२. णाण किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगता।
-सन्मति० ३।६८ ८३. भदं मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवो सविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥
-सन्मति० ३१६६ ८४. जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सन्बहा ण रिणघडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स ।।
-सन्मति० ३१७० ८५. अक्खेहि गरो रहिरो, ण मुणइ सेसिंदएहिं वेएइ। जूयंधो ण य केण वि, जाणइ संपूण्णकरणो वि ।।
-वसुनन्दि श्रावकाचार ६६ ८६. पासम्मि बहिणिमाय, सिसु पि हणेइ कोहंधो ।
-वसु० श्रा० ६७ ८७. जम्मं मरणेण समं, सपज्जइ जुन्वण जरासहियं । लच्छी विणाससहिया, इय सव्वं भंगुर मुणह ।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ५ ८८. सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं । सव्वेसि गुणगहण, मंदकसायाण दिट्ठता ।।
-कातिके० ६१ ८६. सकप्पमत्रो जीयो, सुखदुक्खमयं हवेइ सकप्पो।
__-कातिके० १८४ ६०. अंतरतच्चं जीवो, वाहिरतच्च हवंति सेसाणि।
-कार्तिके० २०५ ६१. हिदमिदवयणं भासदि, सतोसकरं तु सव्वजीवाण ।
-कार्तिके० ३३४
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मुक्ति कण
दो सौ तेतालीस
८१ सूत्र (शब्द पाठ) अर्थ का स्थान अवश्य है । परन्तु मात्र सूत्र से अथं की
प्रतिपत्ति नहीं हो सकती । अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधा
रित होने के कारण वडी कठिनता से हो पाता है । ___ ८२. क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनो ही एकान्त हैं, (फलत जैन
दर्शनसम्मत नहीं है।) ___८३ विभिन्न मिथ्यादर्शनो का समूह, अमृतसार=अमृत के समान क्लेश
का नाशक, और मुमुक्षु आत्माओ के लिए सहज सुवोध भगवान जिन
प्रवचन का मंगल हो। ८४. जिसके विना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यग् रूप से घटित नही
होता है, अतएव जो त्रिभुवन का एक मात्र गुरु (सत्यार्थ का उपदेशक)
है, उस अनेकान्त वाद को मेरा नमस्कार है। ८५ आंखो से अधा मनुष्य, आँख के सिवाय वाकी सब इ द्रियो से जानता है,
किन्तु जूए मे अघा हुआ मनुष्य सव इन्द्रियां होने पर भी किसी इन्द्रिय
से कुछ नही जान पाता। ८६. क्रोध मे अघा हुआ मनुष्य पास मे खडी मां, बहिन और बच्चे को भी
मारने लग जाता है। ८७ जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढापा, लक्ष्मी के साथ विनाश निर
तर लगा हुआ है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को नश्वर समझना चाहिए ।
८८. सब जगह प्रिय वचन बोलना, दुर्जन के दुर्वचन बोलने पर भी उसे क्षमा
करना, और सब के गुण ग्रहण करते रहना-यह मदकपायी (शान्त
स्वभावी) आत्मा के लक्षण हैं। ८९. जीव सकल्पमय है, और सकल्प सुखदुःखात्मक हैं।
६०. जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्व हैं।
६१. साधक दूसरो को सतोप देने वाला हितकारी और मित-सक्षिप्त वचन
वोलता है।
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दो सौ चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी ६२. जो बहुमुल्लं वत्थु , अप्पमुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि न गिण्हदि, लाभे थूये हि तूसे दि ॥
-कातिके० ३३५ ६३. धम्मो वत्थुसहावो।
-कार्तिके० ४७८ ६४. निग्गहिए मरणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ ।
-पाराधनासार २० ६५. मणणरवइए मरणे, मरति सेणाई इन्दियमयाइ ।
-~-आराधना० ६० ६६. सुण्णीकयम्मि चित्त', गुणं अप्पा पयासेइ।
-आराधना० ७४ ६७. सुजणो वि होइ लहुरो, दुज्जणसमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया, होदि लहू मडयसंसिट्ठा ॥
-भगवती आराधना ३४५ ६८. अकहितस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो।
-भग० प्रा० ३६१ ६६. वायाए अकहता सुजणे, चरिदेहि कहियगा होति ।
-भग० प्रा० ३६६ १००. किच्चा परस्स णिदं, जो अप्पारण ठवेदुमिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं, परम्मि कडुअोसहे पीए॥
-भग० प्रा० ३७१ १०१. दळूण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जियो सयं होइ।
-भग० प्रा० ३७२ १०२. सम्मद सणलंभो वर खु तेलोक्कलंभादो।।
-भग० प्रा० ७४२ १०३. गाणं अकुसभूदं मत्तस्स हू चित्तहत्थिस्स ।
-भग० प्रा० ७६०
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सूक्ति कण
दो सौ पैंतालीस
६२. वही सद् गृहस्थ श्रावक कहलाने का अधिकारी है, जो किसी की वहुमूल्य
वस्तु को अल्पमूल्य देकर नही ले, किसी की मूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं
करे, और थोड़ा लाभ (मुनाफा) प्राप्त करके ही सतुष्ट रहे । ६३. वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका धर्म है ।
६४. मन के विकल्पो को रोक देने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है ।
६५ मन रूप राजा के मर जाने पर इन्द्रियां रूप सेना तो स्वय हो मर जाती
है। (अत. मन को मारने-वश में करने का प्रयल करना चाहिए। ) ६६. चित्त को (विपयो से) शून्य कर देने पर उसमे आत्मा का प्रकाश झलक
उठता है। ___६७ दुर्जन की सगति करने से सज्जन का भी महत्त्व गिर जाता है, जैसे कि
मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है।
६८. अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वतः जगविश्रत
६६. श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणो को वाणी से नही, किंतु सच्चरित्र से ही प्रकट
करते हैं।
१००, जो दूसरो की निंदा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता
है, वह व्यक्ति दूसरो को कड़वी औषध पिला कर स्वय रोगरहित
होने की इच्छा करता है। १०१. सत्पुरुप दूसरे के दोप देख कर स्वयं मे लज्जा का अनुभव करता है।
(वह कभी उन्हे अपने मुह से नहीं कह पाता)। १०२. सम्यक दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है।
१०३. मन रूपी उन्मत्त हाथी को वश मे करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान
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दो सौ छियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
१०४ सव्वेसिमासमाण हिदय गम्भो व सव्वसत्थाण ।
-भग० प्रा० ७६०
१०५ जीवो वभा जीवम्मि चेव चरिया, हविज्ज जा जदिणो। त जाण वभचेर, विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ॥
-भग० प्रा० ८७८ १०६ होदि कसाउम्मत्तो उम्मतो, तध ण पित्त उम्मत्तो।
-भग० प्रा० १३३१ १०७ कोवेण रक्खसो वा, णराण भीमो णरो हवदि ।
-भग० प्रा० १३६१ १०८. रोसेण रुद्दहिदनो, णारगसीलो णरो होदि ।
-भग० प्रा० १३६६ १०६ सयणस्स जणस्स पियो, गरो अमारणी सदा हवदि लोए । गाण जसं च अत्थ, लभदि सकज्ज च साहेदि ।।
-भग० प्रा० १३७६ ११०. सच्चाण सहस्सारण वि, माया एक्कावि णासेदि ।
-भग० प्रा० १३८४ १११. मग्गो मग्गफल ति य, दुविह जिणसासणे समक्खादं ।
-मूलाचार २०२ ११२. मणसलिले थिरभूए, दीसइ अप्पा तहाविमले।।
-तत्वसार ४१
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सूक्ति कण
दो सौ सेंतालीस
१०४. अहिंसा सब आश्रमो का हृदय है, सव शास्त्रो का गर्भ-उत्पत्तिस्थान
१०५. ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा, आत्मा मे चर्या-रमण करना-ब्रह्मचर्य है ।
ब्रह्मचारी की पर देह मे प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती।
१०६. वात, पित्त आदि विकारो से मनुष्य वैसा उन्मत्त नही होता, जैसा कि
कपायो से उन्मत्त होता है । कपायोन्मत्त ही वस्तुत उन्मत्त है । १०७. क्रुद्ध मनुष्य राक्षस की तरह भयकर बन जाता है ।
१०८ क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुप्य होने पर भी
नारक (नरक के जीव) जैसा आचरण करने लग जाता है । १०६ निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन-सभी को सदा प्रिय लगता है।
वह ज्ञान, यश और सपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है ।
१११ एक माया ( कपट )-हजारो सत्यो का नाश कर डालती है।
१११. जिन शासन (आगम) मे सिर्फ दो ही बात बताई गई हैं-मार्ग और
मार्ग का फल । ११२ मन रूपी जल, जब निर्मल एव स्थिर हो जाता है, तब उसमे आत्मा
का दिव्य रूप झलकने लग जाता है ।
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सूक्ति
त्रिवेणी
बौद्ध-धारा
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सुत्तपिटक : दीघनिकाय को सूक्तियां
१. सीलपरिधोता पञ्चा, पापरिधोतं सीलं ।
यत्थ सीलं तत्थ पञ्चा, यत्थ पञआ तत्थ सीलं।
-११४।४
२. रागरत्ता न दक्खति, तमोखधेन आवुटा।
-२०१६
३. देवतानुकम्पितो पोसो, सदा भद्रानि पस्सती।
-२।३।६
४. अप्पमत्ता सतीमन्तो, सुसीला होथ भिक्खवो !
-२।३।१७
५. वयधम्मा सखारा, अप्पमादेन सम्पादेथा।
-२।३।२३
६. अनिच्चा वत संखारा, उप्पादवयधम्मिनो।
उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेस वपसमो सुखो।
-~२।३।२३
१--भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित, नव नालन्दामहाविहार सस्करण ।
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सुत्तपिटक . दीघनिकाय की सूक्तियां
१. शोल से प्रज्ञा (=ज्ञान) प्रक्षालित होती है, प्रज्ञा से शील (आचार) प्रक्षालित होता है।
जहां शील है, वहाँ प्रज्ञा है । जहाँ प्रज्ञा है वहाँ शील है। २. गहन अन्धकार से आच्छन्न रागासक्त मनुष्य सत्य का दर्शन नही कर
सकते। जिस पर देवताओ (दिव्यपुरुपों) की कृपा हो जाती है, वह व्यक्ति सदा
मगल ही देखता है, अर्थात् कल्याण ही प्राप्त करता है । ४. भिक्षुओ ! सदैव अप्रमत्त, स्मृतिमान् (सावधान) और सुशील (सदाचारी)
होकर रहो। ५. जो भी संस्कार (कृत वस्तु) हैं,सब व्ययधर्मा (नाशवान्) हैं । अतः अप्रमाद
के साथ (आलस्य रहित होकर) जीवन के लक्ष्य का सम्पादन करो।' ६. सभी संस्कार (उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ) अनित्य हैं, उत्पत्ति और क्षय
स्वभाव वाले है । अस्तु जो उत्पन्न होकर नष्ट हो जाने वाले है, उनका शान्त हो जाना ही सुख है।
१-बुद्ध की अन्तिम वाणी। २-बुद्ध के निर्वाण पर देवेन्द्र शक्र की उक्ति ।
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चार
सूक्ति त्रिवेणी
७. दुक्खा सापेक्खस्स कालं किरिया, गरहिता च सापेक्खस्स कालं किरिया।
-२१४।१३ ८. सारथीव नेत्तानि गहेत्वा, इन्द्रियाणि रक्खन्ति पण्डिता।
-२।७।१
६. पियाप्पिये सति इस्सामच्छरियं होति,
पियाप्पिये असति इस्सामच्छरिय न होति ।
--२८३
१०. छन्दे सति पियाप्पिय होति,
छन्दे असति पियाप्पियं न होति ।
-२०१३
११. सक्कच्च दानं देथ, सहत्था दानं देथ, चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्ध दान देथ ।
-२।१०५ १२. याव अत्तानं न पस्सति, कोत्थु ताव व्यग्घो त्ति मञ्चति ।
-३१६ १३ लाभ-सक्कार-सिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति, अयं पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
--३।२।४ १४ तपस्सी अक्कोधनो होति, अनुपनाही।
-३।२।५
१५ तपस्सी अनिस्सुकी होति, अमच्छरी।
-~-३।२।५ १६ अत्तदीपा भिक्खवे विहरथ, अत्तसरणा, अननसरणा।
-३।३।१
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दीघनिकाय को सूक्तियां
पाच
७ कामनायुक्त मृत्यु दु खरूप होती है, कामनायुक्त मृत्यु निन्दनीय होती है।
८. जिस प्रकार सारथि लगाम पकड़ कर रथ के घोड़ो को अपने वश मे किए
रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक ज्ञान के द्वारा अपनी इन्द्रियो को
वश मे रखते है। ६. प्रिय-अप्रिय होने से ही इा एव मात्सर्य होते है ।
प्रिय-अप्रिय के न होने से ईर्ष्या एवं मात्सर्य नहीं होते।
१०. छन्द (कामना-चाह) के होने से ही प्रिय-अप्रिय होते है । छन्द के न
होने से प्रिय-अप्रिय नहीं होते ।
११. सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो, ठोक
तरह से दोपरहित दान दो।
१२. जब तक अपने आपको नही पहचानता, तब तक सियार अपने को व्याघ्र
समझता है। १३. जो लाभ, सत्कार और प्रशसा होने पर अपने को बड़ा समझने लगता है
और दूसरो को छोटा, हे निग्रोध | यह तपस्वी का उपक्लेश है ।
१४. सच्चा तपस्वी क्रोध और वैर से रहित होता है।
१५. सच्चा तपस्वी ईर्ष्या नही करता, मात्सर्य नही करता।
१६. भिक्षुओ! आत्मदीप ( स्वयं प्रकाश, आप ही अपना प्रकाश ) और
आत्मशरण (स्वावलम्वी) होकर विहार करो, किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।
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छह
१७ 'यं प्रकुसल त अभिनिवज्जेय्यासि, कुसलं तं समादाय वत्तोय्यासि, इदं खो, तात, तरियं चक्कवत्तिवत |
१८. धनानं धने अननुप्पदीयमाने दालिदिय वेपुल्ल मग मासि, दालिदिये वेल्लं गते श्रदिन्नादान वेपुल्लमगमासि ।
२०. पाणातिपातो दिन्नादान, मुसावादो च वुच्चति । परदारगमनं चेव, नप्पससन्ति पण्डिता ॥
२१. छन्दागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, दोसागत गच्छन्तो पापकम्मं करोति, मोहात गच्छन्तो पापकम्म करोति, भयागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति ।
सूक्ति त्रिवेणी
१६ धम्मो व सेट्टो जनेत स्मि, दिट्ठे चेव घम्मे अभिसम्पराय च ।
- ३१४१२
२२. छन्दा दोसा भया मोहा, यो धम्म नातिवत्तति । पूरति यसो तस्स, सुक्कपवखे व चन्दिमा ||
-३।३।१
२३. जूतप्पमादट्ठानानुयोगो भोगान श्रपायमुखं, पापमित्तानुयोगो भोगान अपायमुखं, आलस्यानुयोगो भोगानं अपायमुखं ।
- ३१३१४
-३२६/१
-३/८/२
- ३१८/२
-३शदार
२४. सन्दिदिका घनजानि, कलहप्पवड्ढनो, रोगानं श्रायतनं, अकित्तिसञ्जननी, कोपीननिदसनी पञ्ञाय दुब्बलिकरणी ।
-३१६१२
२५ यो च ग्रत्सु जातेसु, सहायो होति सो सखा ।
- ३दार
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दीघनिकाय की सूक्तिया
सात
१७. 'जो बुराई है उसका त्याग करो और जो भलाई है उसको स्वीकार कर
पालन करो'- तात, यही आर्य (श्रेष्ठ) चक्रवर्ती व्रत है ।
१८. निर्धनो को धन न दिये जाने से दरिद्रता बहुत बढ गई और दरिद्रता के
बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ गई।
___१६. धर्म ही मनुष्यो मे श्रेष्ठ है, इस जन्म मे भी, परजन्म मे भी ।
२० जीवहिंसा, चोरी, झूठ और परस्त्रीगमन-ये कलुषित कर्म हैं। इन
कर्मों की पडितजन प्रशसा नहीं करते ।
२१.
मनुष्य राग के वश होकर पापकर्म करता है, द्वीप के वश होकर पापकर्म करता है, मोह के वश होकर पापकर्म करता है, भय के वश होकर पापकर्म करता है।
२२. जो छन्द ( राग ), द्वेष, भय और मोह से धर्म का अतिक्रमण नही
करता, उसका यश शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाति निरन्तर बढता जाता है। जूआ आदि प्रमाद स्थानो का सेवन ऐश्वर्य के विनाश का कारण है। बुरे मित्रो का सग ऐश्वर्य के विनाश का कारण है । आलस्य मे पडे रहना ऐश्वर्य के विनाश का कारण है।
२३.
२४ शराव तत्काल धन की हानि करती है, कलह को बढाती है, रोगो का
घर है, अपयश पैदा करने वाली है, लज्जा का नाश करने वाली है
और बुद्धि को दुर्वल बनाती है । २५. जो काम पड़ने पर समय पर सहायक होता है, वही सच्चा मित्र है ।
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आठ
सूक्ति त्रिवेणी
२६. उस्सूरसेय्या परदारसेवा,
वेरप्पसवो च अनत्थता च । पापा च मित्ता सुकदरियता च,
एते छ ठाना पुरिसं धंसयन्ति ।
-३८२
२७. निहीनसेवी न च बुद्धसेवी,
निहीयते कालपक्खे व चन्दो।
-३८.२
२८, न दिवा सोप्पसीलेन, रत्तिमुहानदेस्सिना ।
निच्च मत्तन सोण्डेन, सक्का आवसितु घरं ।
-३८२
२९. अतिसीतं अतिउण्ह, अतिसायमिद अहु । __ इति विस्सट्ठकम्मन्ते, अत्था अच्चेन्ति मारणवे ॥
-- ३२
३०. योध सीतं च उण्हं च, तिरणा भिय्यो न मञ्चति ।
करं पुरिसकिच्चानि, सो सुखं न विहायति ॥
-नार
३१. सम्मुखास्स वण भासति ।
परम्मुखास्स अवण्णं भासति ।
-३८३
३२. उपकारको मित्तो सुहदो वेदितव्बो,
समानसुखदुक्खो सुहदो वेदितव्वो।
-३८।४
३३. पण्डितो सीलसंपन्नो, जलं अग्गी व भासति ।
-३१८।४
३४. भोगे संहरमानस्स, भमरस्स इरीयतो।
भोगा संनिचयं यन्ति, वम्मिकोवुपचीयति ।
--३1८16
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दीघनिकाय को सूक्तियां
नौ
२६. अतिनिद्रा, परस्त्रीगमन, लड़ना-झगडना, अनर्थ करना, बुरे लोगो की
मित्रता और अति कृपणता-ये छह दोप मनुष्य को वर्वाद करने वाले
२७. जो नीच पुरुषो के सग रहते हैं, ज्ञानी जनो का सत्सग नहीं करते, वे
कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा के समान निरन्तर हीन (क्षीण) होते जाते है।
२८. जो दिन मे सोता रहता है, रात मे उठने से घबराता है, और हमेशा
नशे मे धुत रहता है, वह घरगृहस्थी नहीं चला सकता।
२६. आज बहुत सर्दी है, आज वहुत गर्मी है, अब तो वहुत सन्ध्या ( देर ) हो
गई,-इस प्रकार कर्तव्य से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन दरिद्र हो जाता है ।
३०. जो व्यक्ति काम करते समय सर्दी-गर्मी को तिनके से अधिक महत्व नही
देता, वह कभी सुख से वचित नहीं होता।
३१, दुष्ट मित्र सामने प्रशंसा करता है, पीठ पीछे निन्दा करता है।
३२. उपकार करने वाला मित्र सुहृद् होता है, सुख दुःख मे समान भाव से
साथ रहने वाला मित्र सुहृद् होता है ।
३३. सदाचारी पडित प्रज्वलित अग्नि की भाँति प्रकाशमान होता है ।
३४, जैसे कि मधु जुटाने वाली मधुमक्खी का छत्ता बढता है, जैसे कि वल्मीक
बढ़ता है, वैसे ही धर्मानुसार कमाने वाले का ऐश्वयं बढता है।
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दस
३५ एकेन भोगे भुजेय्य, द्वीहि कम्मं पयोजयो । चतुत्थं च निधापेय्य आपदा
भविस्सति ॥
२६. माता-पिता दिसा पुव्वा, प्राचरिया दक्खिरणा दिसा । पुत्त दारा दिया पच्छा, मित्तमच्चा च उत्तरा ॥ दास-कम्मकरा हेट्ठा, उद्ध समरण-ब्राह्मणा । एता दिसा नमस्सेय्य, श्रलमत्तो कुले गिहा ॥
३८. पण्डितो सील-संपन्नो, सण्हो च पटिभानवा । निवातवृत्ति प्रत्थद्धो, तादिसो लभते यस ॥
३९. उट, ठानको अनलसो, ग्रापदासु न वेधति । अच्छिदवृत्ति मेधावी, तादिसो लभते यस ||
४०. यथा दिवा तथा रति, यथा रति तथा दिवा ।
सूक्ति त्रिवेणी
ஓ
- ३१८१४
—३|८|५
131518
-३३८।५
—३|१०|३
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दोघनिकाय को सूक्तियां
ग्यारह
३५. सद्गृहस्य प्राप्त धन के एक भाग का स्वयं उपयोग करे, दो भागो को
व्यापार आदि कार्य क्षेत्र मे लगाए और चौथे भाग को आपत्तिकाल मे काम आने के लिए सुरक्षित रख छोडे ।
३६. माता-पिता पूर्व दिशा है, आचार्य (शिक्षक) दक्षिण दिशा है, स्त्री-पुत्र
पश्चिम दिशा है, मित्र-अमात्य उत्तर दिशा हैदास और कर्मकर-नौकर अघोदिशा (नीचे की दिशा) है, श्रमण-ब्राह्मण ऊर्ध्व-दिशा-ऊपर की दिशा है। गृहस्य को अपने कुल मे इन छहो दिशाओ को अच्छी तरह नमस्कार करना चाहिए, अर्थात् इनकी यथा
योग्य सेवा करनी चाहिए।' ३७. पण्डित, सदाचारपरायण, स्नेही, प्रतिभावान, एकान्तसेवी-आत्मसयमी,
विनम्र पुरुष ही यश को पाता है ।
३८. उद्योगी, निरालस, आपत्ति मे न डिगनेवाला, निरन्तर काम करनेवाला,
मेधावी पुरुष यश को पाता है ।
३६ साधक के लिए जैसा दिन वैसी रात, जैसी रात वैसा दिन ।
१-राजगृहनिवासी श्रेष्ठी पुत्र शृगाल, पिता के अन्तिम कथनानुसार
छहो दिशाओ को नमस्कार करता था, किन्तु वह 'छह दिशा' के वास्तविक मर्म को नहीं जान पा रहा था। तथागत बुद्ध ने 'छह दिशा' की यह वास्तविक व्याख्या उसे बताई।
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सुत्तपिटक मज्झिमनिकाय को सूक्तियां
१. सम्पन्नसीला, भिक्खवे, विहरथ ।
-१२६१
२. निच्चं पि बालो पक्खंतो, कण्हकम्मो न सुज्झति ।
-१७६
३. सुद्धस्स वे सदा फग्गु, सुद्धस्सुपोसथो सदा।
सुद्धस्स सुचिकम्मस्स सदा सम्पज्जते वत ।।
-~-१६
४. 'अत्तना पलिपपलिपन्नो परं पलिपपलिपन्न,
उद्धरिस्सती' ति नेत ठानं विज्जति । 'अत्तना अपलिपपलिपन्नो पर पलिपपलिपन्न । उद्धरिस्सती' ति ठानमेतं विज्जति ।।
-~११६ ५. कतमं चावुसो, अकुसलमूलं ? लोभो अकुसलमूल, दोसो अकुसलमूल. मोहो अकुसलमूलं ।
~दार भिक्षु जगदीश काश्यप संपादित, नवनालन्दामहाविहार सस्करण ।
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सुत्तपिटक :
मज्झिमनिकाय की सूक्तियां
१ भिक्षुओ । शील-सपन्न होकर विचरो।
२. काले (बुरे) कर्म करने वाला मूढ चाहे तीर्थो मे कितनी ही डुबकियाँ
लगाए, किन्तु वह शुद्ध नही हो सकता। ३. शुद्ध मनुप्य के लिए सदा ही फल्गु (गया के निकट पवित्र नदी) है, सदा
ही उपोसथ (व्रत का दिन) है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही
सम्पन्न (पूर्ण) होते रहते है। ४. जो स्वय गिरा हुआ है, वह दूसरे गिरे हुए को उठाएगा, यह सम्भव
नहीं है। जो स्वयं गिरा हुआ नही है, वही दूसरे गिरे हुए को उठाएगा, यह संभव है।
५. आयुष्मन् । पाप (अकुशल) का मूल क्या है ?
लोभ पाप का मूल है, द्वाप पाप का मूल है । और मोह पाप का मूल है।
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चौदह
सूक्ति त्रिवेणी
६. भिक्खवे, कुल्लूपमो, मया धम्मो देसितो नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाय ॥
--१।२२।४ ७ राग-दोस परेतहि, नाय धम्मो सुसम्वुधो।
-१२६॥३ ८. भिक्खवे, नयिदं ब्रह्मचरियं लाभ-सक्कार-सिलोकानिसंस।
-१।२६५ ६. न ताव, भिक्खवे, भिक्खुनो इधे कच्चे प्रादीनवा संविज्जन्ति, याव न अत्तज्झापन्नो होति यसप्पत्तो।
-११४७११ १०. विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे ।
-२१३३५ ११. यं करोति तेन उपपज्जति ।
-२७।२ १२ यस्स कस्सचि सम्पनिमुसावादे नत्थि लज्जा, नाह तस्स किञ्चि पाप अकरणीय ति वदामि ।
-२११।१ १३. पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायेन कम्मं कातव्वं ।
पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वाचाय कम्म कातव्वं । पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनसा कम्म कातव्व ।
-२।११।२ १४. न मीयमान धनमन्वेति किञ्चि, पुत्ता च दारा च धनं च रठं ।
-२१३२।४ १५. न दीघमायु लभते धनेन, न चा पि वित्तेन जरं विहन्ति ।
-२।३२।४ १६. तस्मा हि पञ्जा व धनेन सेय्यो, याय वोसानमिधाधिगच्छति ।
-२॥३२४
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मज्झिमनिकाय की सूक्तिया
पन्द्रह ६. भिक्षुओ ! मैंने वेडे की भांति निस्तरण (पार जाने) के लिए तुम्हे धर्म
का उपदेश किया है, पकड रखने के लिए नही।
७. जो व्यक्ति राग और द्वेष से प्रलिप्त है, उस को धर्म का जान लेना
सुकर नही है। ८. भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य (साम) लाभ, सत्कार एव यश पाने के लिए नही
६ भिक्षुओ | जब तक भिक्षु को ख्याति एव यश प्राप्त नही होता है, तब
तक उसको कोई भी दोष नही होता ।
१०. जो विद्या और चरण से सम्पन्न है, वह सब देवताओ और मनुष्यो मे
श्रेष्ठ है। ११. प्राणी जो कर्म करता है, वह अगले जन्म मे उसके साथ रहता है।
१२ जिसे जान-बूझ कर झूठ बोलने मे लज्जा नही है उसके लिए कोई भी
पाप कम अकरणीय नही है, ऐसा मैं मानता हूँ।
१३. अच्छी तरह देख-परख कर काया से कर्म करना चाहिए ।
अच्छी तरह देख-परख कर वचन से कर्म करना चाहिए । अच्छी तरह देख-परख कर मन से कर्म करना चाहिए।
१४. मरने वाले के पीछे पुत्र, स्त्री, धन और राज्य कुछ भी नही जाता है।
१५. धन से कोई लम्बी आयु नहीं पा सकता है, और न धन से जरा का ही
नाश किया जा सकता है ।
१६. धन से प्रज्ञा ही श्रेष्ठ है, जिससे कि तत्त्व का निश्चय होता है ।
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सोलह
१७. चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो, सकम्मुना हञ्ञति पापधम्मो । एवं पजा पेच्च परम्हि लोके, सकम्मुना हञ्ञति पापधम्मो ।
१८ यो पुव्वेव पमज्जित्वा, पच्छा सो नप्पमज्जति । सोमं लोकं पभासेति, अब्भा मुत्तो व चन्दिमा ॥
२२. भिक्खवे, यानि कानिचि भयानि उप्पज्जन्ति सव्वानि तानि बालतो उप्पज्जन्ति न पण्डिततो । ये केचि उपद्दवा उप्पज्जन्ति,
सब्बे ते बालतो उप्पज्जन्ति, नो पण्डिततो ।
२३ कतमा च, भिक्खवे, मिच्छा वाचा ?
सूक्ति त्रिवेणी
१६. दारु नमयन्ति तच्छका, अत्तानं दमयन्ति पण्डिता ।
२० अप्पमत्तो हि भायन्तो, पप्पोति विपुलं सुखं ।
- २/३६१४ २१. यो खो, महाराज, कायसमाचारो अत्तव्याबाधाय पि संवत्तति, परव्याबाधाय पि सवत्तति, उभयव्याबाधायपि संवत्तति, तस्स अकुसला धम्मा अभिवड् ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति ।
-- २१३८।१
२४. सम्मासमाधिस्स सम्माञ्त्राणं होति, सम्माञ्ञारणस्स सम्माविमुत्ति पहोति ।
२५. पुथुसद्द समजनो, न बालो कोचि मञ्ञथ ।
- २१३२१४
-२३६१४
मुसावादो, पिसुरणा वाचा, फरुसा वाचा, सम्फप्पलापो ।
—२।३६१४
-३।१५।१
-३।१७११
- ३११७/१
-३१२८।१
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मज्झिमनिकाय को सूक्तिया
सत्रह १७ सेंघ के द्वार पर पकडा गया पापी चोर जैसे अपने ही कर्म से मारा
जाता है, इसी प्रकार पापी जन मरकर परलोक मे अपने ही कर्म से पीडित होते हैं।
१८ जो पहले के अजित पाप को वाद मे मार्जित (साफ) कर देता है, वह
मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।
१९. जैसे वढई लकड़ी को सीधा करते हैं, वैसे ही पण्डित अपने को अर्थात्
आत्मा को सावते हैं। २०. अप्रमत्त भाव से ध्यान करने वाला साधक विपुल सुख को पाता है ।
२१
महाराज | जो कायिक आचरण अपनी पीडा के लिए होता है, पर की पोडा के लिए होता है, दोनो की पीड़ा के लिए होता है, उससे अकुशल धर्म (पाप) वढते हैं, कुशल धर्म नष्ट हो जाते हैं ।
२२. भिक्षुओ । जो भी भय उत्पन्न होते हैं, वे सभी मूर्ख से उत्पन्न होते हैं,
पण्डित से नही। जो भी उपद्रव उत्पन्न होते हैं वे सभी मूर्ख से उत्पन्न होते है, पण्डित से नही।
२३ भिक्षुओ ! मिथ्या वचन क्या है ?
मृयावाद (झूठ), चुगली, कटु वचन और वकवास मिथ्या वचन है ।
२४. सम्यगसमाधि से ही सम्यग्ज्ञान होता है,
सम्यग्ज्ञान से ही सम्यग् विमुक्ति होती है ।
२५ बड़ी-बडी बाते बनाने वाले एक जैसे लोगो मे, कोई भी अपने को वाल
(अज्ञ) नही मानता।
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अठारह
सूक्ति त्रिवेणी
२६. एकस्स चरितं सेय्यो, नत्थि बाले सहायता।
-३२८१
२७ अतीतं नान्वागमेय्य, नप्पटिकंखे अनागतं ।
यदतीतं पहीनं तं, अप्पत्त च अनागतं ॥
-३।३१।१
२८ अज्जेव किच्चमातप्प, को जचा मरणं सुवे।
-३३१११
२६. अतरमानो व भासेय्य, नो तरमानो।
-३१३६१
३०, तरमानस्स भासतो कायो पि किलमति,
चित्त पि उपहचति, सरो पि उपहचति, कण्ठो पि आतुरीयति, अविसह्र पि होति, अविनेय्य तरमानस्स भासितं ।
--३१३६।२
३१ एसो हि, भिक्खु, परमो अरियो उपशमो,
यदिदं राग-दोस-मोहानं उपशमो।
-३१४०।२
३२. मुनि खो पन, भिक्खु, सन्तो न जायति, . न जीयति, न मीयति ।
-३।४०१२
३३. कम्मं विज्जा च धम्मो च, सील जीवितमुत्तमं ।
एतेन मच्चा सुज्झन्ति, न गोत्तेन धनेन वा ॥
-३।४३३
३४. यं किञ्चि समुदयधम्म सव्व तं निरोधधम्म ।
--३१४७११
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मज्झिमनिकाय को सूक्तिया
उन्नीस
२६. अकेला विचरना अच्छा है, परन्तु मूर्ख साथी अच्छा नही ।
२७. न अतीत के पीछे दौड़ो और न भविष्य की चिन्ता मे पडो। क्योकि जो
अतीत है, वह तो नष्ट हो गया, और भविष्य अभी आ नही पाया है।
२८. आज ही अपने कर्तव्य कर्म मे जुट जाना चाहिए । कौन जानता है, कल
मृत्यु हो आ जाए ? २६. धीरे से बोलना चाहिए, जल्दी नही ।
३० जल्दी बोलने वाले के शरीर को भी कष्ट होता है, चित्त भी पीडित
होता है, स्वर भी विकृत होता है, कण्ठ भी आतुर होता है, और जल्दी वोलने वाले की वात श्रोता के लिए अस्पष्ट एवं अविज्ञेय (समझ मे न याने बसी) होती है।
३१. राग, द्वेप एव मोह का उपशम (शमन) होना ही परम आयं उपशम है।
३२ भिक्षु, शात मुनि न जन्मता है, न बुढियाता है और न मरता है।
३३. कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन-इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं
गोत्र बोर धन से नहीं।
३४ जो कुछ उत्पन्न होता है, वह सव नष्ट भी होता है ।
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सुत्तपिटक : 'संयुत्तनिकाय की सूक्तियां
१. उपनीयति जीवितमप्पमायु,
___ जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। _एतं भय मरणे पेक्खमानो,
पुनानि कयिराथ सुखावहानि ॥
-१११३
२. अच्वेन्ति काला तरयन्ति रत्तियो,
वयोगुणा अनुपुवं जहन्ति । एतं भयं मरणे पेक्खमानो,
पुनानि कयिराथ सुखावहानि ॥
-१।१४
३. येसं धम्मा असम्मुट्ठा, परवादेसु न नीयरे ।
ते सम्बुद्धा सम्मदचा, चरन्ति विसमे सम ॥
-११८
४. अतीतं नानुसोचन्ति, नप्पजप्पन्ति नागतं ।
पच्चुप्पन्नेन यापेन्ति, तेन वण्णो पसीदति ॥
-११।१०
१. भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित नवनालन्दा संस्करण ।
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सुत्तपिटक : संयुत्तनिकाय की सूक्तियां
१. जीवन वीत रहा है, आयु बहुत थोड़ी है, बुढापे से बचने का कोई
उपाय नहीं है । मृत्यु के इस भय को देखते हुए सुख देने वाले पुण्य कर्म कर लेने चाहिए।
२. समय गुजर रहा है, रातें बीत रही है, जिन्दगी के जमाने एक पर एक
निकल रहे हैं, मृत्यु के इस भय को देखते हुए सुख देने वाले पुण्य कर्म कर लेने चाहिए।
३. जिन्होने धर्मों को ठीक तरह जान लिया है, जो हर किसी मत पक्ष मे
वहकते नहीं हैं, वे सम्बुद्ध है, सब कुछ जानते है, विपम स्थिति मे भी उनका आचरण सम रहता है ।
४ बीते हुए का शोक नही करते, आने वाले भविष्य के मनसूवे नही बांधते,
जो मौजूद है, उसी से गुजारा करते है, इसी से साधको का चेहरा खिला रहता है।
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बाईस
सूक्ति त्रिवेणी
५. अनागतप्पजप्पाय, अतीतस्सानुसोचना। एतेन बाला सुस्सन्ति, नलो व हरितो लुतो॥
-२०१० ६. नत्थि पुत्तसमं पेमं, नत्थि गोसमित धनं ।
नत्थि सुरियसमा आभा, समुद्दपरमा सरा ।। नत्थि अत्तसमं पेमं, नथि धअसमं धन। नत्थि पचा समा अाभा, वुटि वे परमा सरा॥
-१११।१३ ७. सुस्सूसा सेट्ठा भरियानं, यो च पुत्तानमस्सवो।
-१११।१४ ८. कति चरेय्य सामञ, चित्त चे न निवारये। पदे पदे विसीदेय्य, सङ्कप्पानं वसानुगो ।
-११।१७ ६. न ख्वाहं, पावुसो, सन्दिट्टिकं हित्वा कालिकं अनुधावामि ।
-२११२० १० सन्दिट्ठिको अयं धम्मो अकालिको, एहिपस्सिको। अोपनयिको, पच्चत्त - वेदितव्वो विज्ञहि ॥
-११०२०
११. छन्नो कालो न दिस्सति ।
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१२०
१२. नाफुसन्त फुसति, फुसन्तं च ततो फुसं ।
-१।१।२२
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संयुत्तनिकाय की सूक्तियां
तेईस ५. जो आने वाले भविष्य के मनसूवे वांधते रहते हैं, वीते हुए का शोक
करते रहते हैं, वे अज्ञानी लोग वैसे ही सूखते जाते हैं, जैसे कि हरा
नरकट कट जाने के वाद । ६. पुत्र-जैसा कोई प्रिय नहीं है, गोधन-जैसा कोई धन नही है, सूर्य-जैसा
कोई प्रकाश नहीं है, समुद्र सबसे महान् सर (जलराशि) है ।' अपने आप-जैसा कोई प्रिय नहीं है, धान्य-जैसा कोई धन नहीं है, प्रज्ञाजैसा कोई प्रकाश नहीं है, वृष्टि सबसे महान जलराशि है ।
७. भार्याओ मे सेवा करने वाली भार्या श्रेष्ठ है, और पुत्रो मे वह जो
आज्ञाकारी है। कितने दिनो तक श्रामण्य (स.धुत्व) को पालेगा, यदि अपने चित्त को वश मे नही कर सका है । इच्छाओ के अधीन रहने वाला साधक पदपद पर फिसलता रहेगा।
८.
8. आवस । मैं प्रत्यक्ष वर्तमान को छोडकर दूर भविष्य के पीछे नही दौड़ता
१० यह धर्म देखते-ही-देखते तत्काल जीते जी फल देने वाला है, विना किसी
देरी के । जिस के बारे में कहा जा सकता है कि आओ और स्वय देख लो । जो ऊपर उठाने वाला है और जिसे प्रत्येक बुद्धिमान आदमी स्वय
प्रत्यक्ष कर सकता है। ११. काल छन्न है, का हुआ है, अत वह दीखता नही है।
१२ नही छूने वाले को नहीं छूता है, छूने वाले को ही छूता है। अर्थात्
जिसकी कर्म के प्रति प्रासक्ति नही है, उसको उस कर्म का विपाक (फल) नही लगता है, आसक्तिपूर्वक कर्म करने वाले को ही कमविपाक (फल) का स्पर्श होता है।
१-श्रावस्ती मे एक देवता की उक्ति । २-~प्रतिवचन मे तथागत बुद्ध की उक्ति ।
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चौवीस
सूक्ति त्रिवेणी
१३. यो अप्पदुट्ठस्स नरस्स दुस्सति,
सुद्धस्स पोसस्स अनङ्गणस्स । तमेव वालं पच्चेति पाप,
सुखमं रजो पटिवात व खित्तो ॥
-११।२२
१४. यतो यतो मनो निवारये,
न दुक्खमेति न ततो ततो। स सब्बतो मनो निवारये,
स सव्वतो दुक्खा पमुच्चति ।।
-११।२४
१५. न सव्वतो मनो निवारये,
न मनो संयतत्तमागतं । यतो यतो च पापक,
ततो ततो मनो निवारये ॥
-१११।२४
१६. पहीनमानस्स न सन्ति गन्था।
-१११२५
१७. सभिरेव समासेथ, सभि कुब्वेथ सन्थवं ।
सत सद्धम्ममचाय, पा लव्भति नाचतो ॥
-१११।३१
१८ मच्छेरा च पमादा च, एवं दानं न दीयति ।
-११११३२
१६. ते मतेसु न मीयन्ति, पन्थान व सहब्बज ।
अप्पस्मि ये पवेच्छन्ति, एस धम्मो सनन्तनो ॥
-११११३२
२० अप्पस्मा दक्खिणा दिन्ना, सहस्सेन सम मिता।
-१।१।३२
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सयुत्तनिकाय को सूक्तिया
पच्चीस १३. जो शुद्ध, निप्पाप, निर्दोष व्यक्ति पर दोप लगाता है, उसी अज्ञानी जीव
पर वह सब पाप पलटकर वैसे ही आ जाता है, जैसे कि सामने की हवा में फेंकी गयी सूक्ष्म धूल ।
देवता ने कहाजो व्यक्ति जहाँ जहाँ से मन को हटा लेता है, वहाँ वहाँ से फिर उसको दु ख नही होता । जो सभी जगह से मन को हटा लेता है, वह सभी जगह दु ख से टूट जाता है।
१५ तथागत बुद्ध ने उत्तर दिया
सभी जगह से मन को हटाना आवश्यक नही है, यदि मन अपने नियत्रण मे आ गया है तो । जहाँ जहाँ भी पाप है, बस वहाँ वहाँ से ही मन को हटाना है।
१६. जिनका अभिमान प्रहीण हो गया है, उन्हे कोई गाँठ नही रहती ।
१७. सत्पुरुपो के ही साथ बैठे, सत्पुरुषो के ही साथ मिले-जुले; सत्पुरुषो के
अच्छे धर्मों (कर्तव्यो) को जानने से ही प्रज्ञा (सम्यग् ज्ञान) प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं।
१८. मात्सर्य और प्रमाद से दान नहीं देना चाहिए ।
१९. वे मरने पर भी नहीं मरते है, जो एक पथ से चलते हुए सहयात्रियो की
तरह थोड़ी से थोडी चीज को भी आपस मे वॉट कर खाते हैं। यह पारस्परिक सहयोग ही सनातन धर्म है । थोडे मे से भी जो दान दिया जाता है, वह हजारो-लाखो के दान की वरावरी करता है।
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छब्बीस
सूक्ति त्रिवेणी
२१. सद्धा हि दानं बहुधा पसत्थं,
दाना च खो धम्मपद व सेय्यो।
-१२११३३
२२. छन्दजं अघं, छन्दजं दुक्ख,
छन्दविनया अघविनयो, अघविनया दुक्खविनयो।
-१।१।३४
२३. न ते कामा यानि चित्रानि लोके,
सङ्कप्परागो पुरिसस्स कामो।
-१११३४
२४. अच्चय देसयन्तीन, यो चे न पटिगण्हति ।
कोयतरो दोसगरु, स वेरं पटिमुञ्चति ।।
-१११३५
२५. हीनत्थरूपा न पारगमा ते ।
-१।११३८
२६. अन्नदो बलदो होति, वत्थदो होति वण्णदो।
-११११४२
२७. सो च सम्बददो होति, यो ददाति उपस्सय ।
अमतंददो च सो होति, यो धम्ममनुसासनि ॥
-१२११४२
२८. अथ को नाम सो यक्खो, यं अन्नं नाभिनन्दति ।
-१२११४३
२६. पुनानि परलोकास्म, पतिट्ठा होन्ति पाणिनं ।
-~-११११४३
३०. किमु याव जरा साधु, किंसु साधु पतितिं ?
किसु नरानं रतन, किसु चोरेहि दूहर ? सीलं याव जरा साधु, सद्धा साध पतिट्ठिता। पचा नरान रतनं, पुजं चोरेहि दूहर ।।
-१६११५१
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सत्ताईस
संयुत्तनिकाय की सूक्तिया २१ श्रद्धा से दिये जाने वाले दान की बडी महिमा है ।
दान से भी बढकर धर्म के स्वरूप को जानना है ।
२२ इच्छा वढने से पाप होते हैं, इच्छा वढने से दुख होते हैं ।
इच्छा को दूर करने से पाप दूर हो जाता है, पाप दूर होने से दुख दूर
हो जाते हैं। २३ ससार के सुन्दर पदार्थ काम नहीं है, मन मे राग का हो जाना हो
वस्तुतः काम है।
२४ अपना अपराध स्वीकार करने वालो को जो क्षमा नही करता है, वह
भीतर ही भीतर क्रोध रखने वाला महा द्वषो, वैर को और अधिक बाँध
लेता है। २५. हीन (क्षुद्र) लक्ष्य वाले पार नही जा सकते ।
२६. अन्न देने वाला बल देता है, वस्त्र देने वाला वर्ण (रूप) देता है।
२७. वह सब कुछ देने वाला होता है, जो उपाश्रय (स्थान, गृह) देता है और
जो धर्म का उपदेश करता है, वह अमृत देने वाला होता है।
२८. भला ऐसा कौन सा प्राणी है, जिसे अन्न प्यारा न लगता हो ?
२६ परलोक मे केवल पुण्य ही प्राणियो का आधार (सहारा) होता है।
देवता३०. कौन सी चीज ऐसी है जो बुढापे तक ठीक है ? स्थिरता पाने
के लिए क्या ठीक है ? मनुष्यो का रत्न क्या है ? चोरो से क्या नही चुराया जा सकता?
शील (सदाचार) बुढापे तक ठीक है, स्थिरता के लिए श्रद्धा ठीक है, प्रज्ञा मनुष्यो का रत्न है, पुण्य चोरो से नही चुराया जा सकता।
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सयुत्तनिकाय को सूक्तियाँ
उनतीस ३१. हथियार राहगीर का मित्र है, माता अपने घर का मित्र है....अपने किए
पुण्य कम ही परलोक के मित्र हैं।
३२. पुत्र मनुष्यो का आधार है ; भार्या (पत्नी) सब से बड़ा मित्र है।
३३. तृष्णा मनुष्य को पैदा करती है।
३४. तप और ब्रह्मचर्य विना पानी का स्नान है।
३५. श्रद्धा पुरुप का साथी है, प्रज्ञा उस पर नियत्रण करती है ।
३६. चित्त से ही विश्व नियमित होता है ।
३७. तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सव वन्धन स्वय ही कट जाते है।
३८. संसार मृत्यु से पीडित है, जरा से घिरा हुआ है।
३६. राजा राष्ट्र का प्रज्ञान (पहचान-चिन्ह) है, पत्नी पति का प्रज्ञान है।
४० ऊपर उठने वालो मे विद्या सबसे श्रेष्ठ है, गिरने वालो मे अविद्या सबसे
वडी है।
४१. लोभ धर्मकार्य का वाधक है।
४२. आलस्य, प्रमाद उत्साहहीनता, असंयम, निद्रा और तन्द्रा-ये छह ।
जीवन के छिद्र है, इन्हे सर्वथा छोड़ देना चाहिए ।
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तीस
सूक्ति त्रिवेणी
४३. अत्तान न ददे पोसो, अत्तानं न परिच्चजे।
.
-१९७८
४४. वुट्ठि अलस अनलसंच, माता पुत्त व पोसति ।
-१३११८०
४५. कतकिच्चो हि ब्राह्मणो।
-१९२१५
४६. अरियानं समो मग्गो, अरिया हि विसमे समा ।
-१२।६
४७ कयिरा वे कयिराथेन, दल्हमेन परक्कमे।
सिथिलो हि परिवाजो, भिय्यो पाकिरते रजं ।।
- १।२८
४८. अकत तुक्कट सेय्यो, पच्छा तपति दुक्कट ।
कत च सुकत सेय्यो, य करवा नानुतप्पति ।।
-१२।८
४६ कुसो यथा दुग्गहितो, हत्थमेवानुकतति ।
-१२।८
५० सत च धम्मो न जरं उपेति ।
--१३१३
५१. अत्तान चे पिय जञ्चा , न न पापेन सयुजे ।
५२. उभो पुचच पाप' च, य मच्चो कुरुते इध।
त हि तस्स सक होति, त व पादाय गच्छति ।।
-११३१४
५३ हन्ता लभति हन्तार, जेतार लभते जय।
-१३।१५
५४ इत्थी पि हि एकच्चिया, सेय्या पोस जनाधिप !
-१३।१६
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संयुत्तनिकाय की सूक्तियां
इकत्तीस
४३. साधक अपने को न दे डाले, अपने को न छोड़ दे।
४४. वृष्टि आलसी और उद्योगी-दोनो का ही पोपण करती है. माता जैसे
पुत्र का। ४५. कृतकृत्य (जो अपने कर्तव्य को पूरा कर चुका हो) ही ब्राह्मण होता है।
४६. आर्यों के लिए सभी मार्ग सम हैं, आयं विषम स्थिति मे भी सम रहते हैं।
४८.
४७. यदि कोई कार्य करने जैसा है तो उसे दृढता के साथ कर लेना चाहिए ।
जो साधक अपने उद्देश्य मे शिथिल है वह अपने ऊपर और भी अधिक मंल चढा लेता है। बुरी तरह करने से न करना अच्छा है, बुरी तरह करने से पछताना पड़ता है । जो करने जैसा हो उसे अच्छी तरह करना ही अच्छा है,
अच्छी तरह करने पर पीछे पछतावा नही होता। ४६. अच्छी तरह न पकडा हुआ कुश हाथ को ही काट डालता है।
५०. सत्पुरुषो का धर्म कभी पुराना नही होता ।
५१. जिस को अपनी आत्मा प्रिय है, वह अपने को पाप मे न लगाए ।
५२. मनुष्य यहां जो भी पाप और पुण्य करता है, वही उसका वपना होता
है । उसे ही लेकर परलोक मे जाता है।
५३. मारने वाले को मारने वाला मिलता है, जीतने वाले को जीतने वासा ।
५४. हे राजन् ! कुछ स्त्रियाँ पुरुषो से भी बढ़कर होती हैं ।
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बत्तीस
५५ चित्तस्मि वसीभूतम्हि, इद्विपादा सुभाविता ।
५६. फल वे कर्दाल हन्ति, फलं वेलु, फल नलं । सक्का कापुरिसं हन्ति, गन्भो अस्सतरि यथा ।
५६. नेसा सभा यत्थ न सन्ति सन्तो,
संतो न ते ये न वदन्ति धम्मं । रागं च दोस च पहाय मोह,
धम्मं वदन्ता च भवन्ति सन्तो ।
५७. जयं चेवस्स तं होति, या तितिक्खा विजानतो ।
५८. मा जाति पुच्छ, चरणं च पुच्छ । कट्ठाहवे जायति जातवेदो ।
-१1७14
६०. धम्मं भरणे, नाधम्मं,
पियं भरणे, नापियं
सच्चं भरणे, नालिकं ।
६१. भिय्यो बाला पभिज्जेय्यु, नो चस्स पटिसेधको ।
६२ यो हवे बलवा सन्तो, दुब्बलस्स तितिक्खति । तमाहु परमं खन्ति, निच्च खमति दुब्बलो ॥
सूक्ति त्रिवेणी
६३ अवल त बल आहु, यस्स बालबलं बल ।
६४. यादिस वपते बीजं, तादिसं हरते फल ।
-११५१५
- ११६।१२
- १/७/३
-
१७/२२
- ११८१६
-
—१|११|४
- १|१११४
- १।१११४
-१|११|१०
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संयुत्तनिकाय को सूक्तिया
तेतीस ५५. चित्त के वशीभूत हो जाने परे ऋद्धिया स्वय ही प्राप्त हो जाती हैं ।
५६. जिस प्रकार केले का फल केले को, नाम का फल वास को और नरकट
का फल नरकट को, खच्चरी का अपना ही गर्भ खच्चरी को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार सम्मान कापुरुप (क्षुद्र व्यक्ति) को नष्ट कर देता है।
५७. आखिर विजय उसीकी होती है, जो चुपचाप सहन करना जानता है ।
५८. जाति मत पूछो, कमं पूछो । लकडी से भी आग पैदा हो जाती है ।
५६. वह सभा सभा नही, जहां सत नही, और वे सत सत नही, जो धर्म की
बात नहीं कहते । राग, द्वेष और मोह को छोडकर धर्म का उपदेश करने वाले ही सत होते हैं।
६०. धर्म कहना चाहिए, अधर्म नही ।
प्रिय कहना चाहिए, अप्रिय नहीं । सत्य कहना चाहिए, असत्य नही ।
६१. मुखं अधिकाधिक भूलो की ओर बढते ही जाते हैं, यदि उन्हें कोई रोकने
वाला नही होता है तो। ६२. जो स्वय बलवान् होकर भी दुर्वल की वातें सहता है, उसी को सर्वश्रेष्ठ
क्षमा कहते हैं।
६३. वह वली निवल कहा जाता है, जिसका बल मूरों का वल है ।
६४. जैसा वीज बोता है, वैसा ही फल पाता है।
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चौंतीस
सूक्ति त्रिवेणी
६५ द्वमे, भिक्खवे, बाला । यो च अच्चयं अच्चयतो न पस्सति, यो च अच्चयं देसेतस्स यथाधम्म नप्पटिग्गण्हाति ।
-१।११।२४ ६६. का च, भिक्खवे, सुखस्स उपनिसा ? पस्सद्धी। का च, भिक्खवे, पस्सद्धिया उपनिसा ? पीती।
---२११२।२३
६७. ये तण्ह वड्ढेति ते उपधि वड्ढेति ।
ये उपधि वड्ढेति ते दुक्खं वड्ढेति ॥
-२।१२।६६
६८, संसग्गा वनथो जातो, अससग्गेन छिज्जति ।
-२।१४।१६
६९ अस्सद्धा अस्सद्ध हि सद्धि ससन्दन्ति, समेन्ति,
अहिरिका अहिरिकेहि सद्धि संसन्दन्ति समेन्ति । अप्पस्सुता अप्पस्सुतेहि सद्धि, ससन्दन्ति समेन्ति, कुसीता कुसीतेहिं सद्धि, ससन्दन्ति समेन्ति ॥
-२।१४।१७
७०. यदनिच्च त दुक्ख, यं दुक्ख तदनत्ता।
यदनत्ता तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता॥
-४१३५१
७१. फस्सेन फुट्ठो न सुखेन मज्जे,
दुक्खेन फुट्ठो पि न सम्पवेधे ।
-४३५६४
७२. मनोमय गेहसितं च सन्त्र ।
-४॥३५६४
७३ दिठे दिमत्त भविस्सति, सुते सुतमत्त भविस्सति... विआते विज्ञातमत्त भविस्सति ।
-४॥३५॥९५
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पेंतीस
संयुत्तनिकाय की सूक्तिया ६५ भिक्षुओ ! दो प्रकार के मूर्ख होते हैं-एक वह जो अपने अपराध को
अपराध के तौर पर नही देखता है, और दूसरा वह जो दूसरे के अप
राध स्वीकार कर लेने पर भी क्षमा नही करता है । ६६. भिक्षुओ ! सुख का हेतु क्या है ? शान्ति (प्रत्रब्धि) है,
भिक्षुओ | शान्ति का हेतु क्या है ? प्रीति है ।
६७. जो तृष्णा को बढ़ाते हैं, वे उपाधि को बढाते हैं । जो उपाधि को बढाते
वे दुःख को बढाते हैं।
६८ संसर्ग से पैदा हुमा राग का जगल अससर्ग से काट दिया जाता है ।
६६. श्रद्धाहीन श्रद्धाहीनो के साथ, निर्लज्ज निर्लज्जो के साथ, मूर्ख मूखों के
साथ और निकम्मे आलमी निकम्मे आलसियो के साथ उठते-बैठते हैं, मेल जोल रखते हैं।
___७० जो अनित्य है वह दु ख है, जो दुख है वह अनात्मा है, और जो अनात्मा
है-वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है ।
७१. सुख-स्पर्श से मतवाला न वने, और दु.ख-स्पर्श से कांपने न लगे।
७२. यह सारा गृह बन्धन अर्थात् ससार मन पर ही खड़ा है।
७३. ज्ञानी साधक को देखने मे देखना भर होगा, सुनने मे सुनना भर
होगा,....जानने मे जानना भर होगा, अर्थात् वह रूपादि का ज्ञाता द्रष्टा होगा, उनमे रागासक्त नही ।
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सूक्ति त्रिवेणी
छत्तीस ७४. न सो रज्जति रूपसु, रूपं दिस्वा पटिस्सतो।
विरत्तचित्तो वेदेति, तं च नाझोस तिति ॥ यथास्स पस्सतो रूपं, सेवतो चापि वेदनं । खीयति नोपचीयति, एवं सो चरती सतो॥
-४३५६५
७५. पमुदितस्स पीति जायति,
पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति;
पस्सद्धकायो सुखं विहरति ।
---४१३५६७
७६. सुखिनो चित्त समाधीयति,
समाहिते चित्त धम्मा पातुभवन्ति ।
-४॥३५॥९७
७७. यं भिक्खवे, न तुम्हाकं तं पजहथ ।
तं वो पहीन हिताय सुखाय भविस्सति ।।
-४।३।१०१
७८, न चक्खु रूपानं संयोजन, न रूपा चक्खुस्स संयोजनं । यं च तत्थ तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्दरागो तं तत्य सयोजन।
-४॥३५॥२३२ ७६. सद्धाय खो, गहपति, आणं येव परणीततरं।
४|४१८ ८०. यो खो, भिक्खु, रागक्खयो, दोसक्खयो, मोहक्खयो-इन्द वुच्चति अमतं ।
५।४५७ ८१. जराधम्मो योवने, व्याधिधम्मो ग्रारोग्ये, मरण धम्मो जीविते ।
५.४८।४१
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सेंतीस
संयुत्तनिकाय की सूक्तिया ७४. अप्रमत्त साधक रूपो मे राग नहीं करता, रूपो को देखकर स्मृतिमान्
रहता है, विरक्त चित्त से वेदन करता है, उनमे अलग्नअनासक्त रहता है। अतः रूप को देखने और जानने पर भी उसका राग एव बन्धन घटता हो
है, बढता नहीं, क्योकि वह स्मृतिमान् होकर विचरता है । ७५. प्रमोद होने से प्रीति होती है, प्रीति होने से शरीर स्वस्थ रहता है और
शरीर स्वस्थ होने से सुखपूर्वक विहार होता है ।
७६ सुखी मनुष्य का चित्त समाधिलाभ करता है, और समाहित चित्त मे
धर्म प्रादुर्भूत होते हैं।
७७. भिक्षुओ । जो तुम्हारा नही है, उसे छोड़ो। उसको छोड़ने से ही तुम्हारा
हित होगा,, सुख होगा।
[जो रागादि परभाव हैं, वे आत्मा के अपने नही हैं ।] ७८. न तो चक्षु रूपो का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन हैं।
किन्तु जो वहाँ दोनो के प्रत्यय (निमित्त) से छन्दराग उत्पन्न होता है,
वन्तुत वही वन्धन है। ७६. गृहपति । श्रद्धा से ज्ञान ही बड़ा है।
८०. हे भिक्षु ! राग, द्वाप और मोह का क्षय होना ही अमृत है ।
८१. यौवन मे वार्धक्य (बुढापा) छिपा है, आरोग्य मे रोग छिपा है और
जीवन मे मृत्यु छिपी है।
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सुत्तपिटक : 'अंगुत्तरनिकाय की सूक्तियां
१ चित्त, भिक्खवे, रक्खितं महतो अत्थाय सवत्तति ।
~११४।६ २. कोसज्ज, भिक्खवे, महतो अनत्थाय सवत्तति ।
-१।१०।३ ३. विरियारम्भो, भिक्खवे, महतो अत्थाय संवत्तति ।
-११०४ ४. मिच्छादिठ्ठिकस्स, भिक्खवे, द्विन्नं गतीनं अतरा पाटिकख-निरयो वा तिरच्छानयोनि वा ।
-२।३७ ५. सम्मादिठ्ठिकस्स, भिक्खवे,
द्विन्न गतीन अनतरा गति पाटिकखादेवा वा मनुस्सा वा।
-२०३८ ६. द्वैमानि, भिक्खवे, सुखानि ।
कतमानि द्व? कायिकं च सुख, चेतसिकं च सुखं ।. . एतदग्गं, भिक्खवे, इमेसं द्विन्न सुखान यदिद चेतसिकं सुखं ।
-२७७
भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित नवनालन्दा सस्करण ।
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सुत्तपिटक अंगुत्तरनिकाय की सूक्तियां
१. भिक्षुत्रो ! सुरक्षित चित्त महान् अयं लाभ के लिए होता है ।
____२. भिक्षुरो | आलस्य बडे भारी अनर्थ (हानि) के लिए होता है ।
३ भिक्षुत्रो ! वीर्यारम्भ (उद्योगशीलता) महान् अर्थ की सिद्धि के लिए
होता है। ४ भिक्षुओ । मिथ्यादृष्टि की इन दो गतियो मे से कोई भी एक गति होतो
है-नरक अयवा तिथंच ।
५ भिओ । सम्यग् दृष्टि आत्मा की इन दो गतियो मे से कोई भी एक
गति होती है- देव अथवा मनुष्य ।
६ भिक्षुओ | दो सुख हैं।
कौन से दो ? कायिक सुख और मानसिक सुख । भिक्षुओ । इन दो सुखो मे मानसिक सुख अग्र है, मुख्य है ।
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चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
७. द्वमा, भिक्खवे, पासा दुप्पजहा ।
कतमा द्व? लाभासा च जीवितासा च ।
-२०११११
८. द्वमे, भिक्खवे, पुग्गला दुल्लभा लोकस्मि ।
कतमे द्वे ? यो च पुबकारी, यो च कतञ्च कतवेदी।
-२।११।२
६. द्वमे, भिक्खवे, पुग्गला दुल्लभा लोकस्मि ।
कतमे द्वे ? तित्तो च तप्पेता च।
-२०१११३
१०. द्वैमानि, भिक्खवे, दानानि ।
कतमानि द्व? आमिसदान च धम्मदान च। ....एतदग्ग, भिक्खवे, इमेसं द्विन्न दानान यदिदं धम्मदान ।
-२६१३३१ ११. तीहि भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो बालो वेदितब्बो।
कतमेहि तीहि ? कायदुच्चरितेन, वचीदुच्चरितेन, मनोदुच्चरितेन ।
-३३१०२ १२. निहीयति पुरिसो निहीनसेवी,
न च हायथ कदाचि तुल्यसेवी। सेट्ठमुपनम उदेति खिप्प, तस्मा अत्तनो उत्तरि भजेथा ॥
-३१३१६ १३. नत्थि लोके रहो नाम, पापकम्मं पकुब्बतो। अत्ता ते पुरिस जानाति, सच्चं वा यदि वा मुसा ॥
३.४।१०
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अंगुत्तरनिकाय की सूक्तियां
इकतालीस ७. भिक्षुत्रो ! दो आशाएं (इच्छाए) बड़ी कठिनता से टूटती हैं।
कौन ती दो? लाभ की आशा, और जीवन की आशा ।
८ भिक्षुओ ! सतार मे दो व्यक्ति दुलं न है ।
कौन मे दो? एक वह जो पहले उपगार कारला है, दाग वह कृतज्ञ जो किए
हुए उपकार को मानता है। ६. भिक्षुयो । मनार मे दो व्या तर
कौन से दो एक वह जो स्वय तृप्त है सन्तुष्ट है, और दूसरा वह जो दूसरो को तृप्त-सन्तुष्ट करता है। भिक्षुओ | दो दान है। कौन से दो? भोगो का दान और धर्म का दान । ""भिक्षुओ । उक्त दोनो दानो मे धर्म का दान (धर्मोपदेश) ही श्रेष्ठ है।
११. भिक्षुओ ! तीन धर्मों (कमों) से व्यक्ति को वाल (अज्ञानी) समझना
चाहिए। कौन से तीन ? काय के बुरे आचरण से, वचन के बुरे प्राचरण से और मन के बुरे
आचरण से। १२, अपने से शील और प्रज्ञा से हीन व्यक्ति के सग से मनुष्य हीन हो जाता
है, वरावर वाले के संग से होन नहीं होता है, ज्यो का त्यो रहता है । अपने से श्रेष्ठ के सग से शीघ्र ही मनुष्य का उदय-विकास होता है, अतः सदा श्रेष्ठ पुरुषो का ही सग करना चाहिए ।
१३ हे पुरुष | तेरी आत्मा तो जानती है कि क्या सत्य है और क्या असत्य
है ? अत. पापकर्म करने वाले के लिए एकान्त गुप्त (छुपाव) जैसी कोई स्थिति नहीं है।
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वियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४ दिन्न होति सुनीहतं ।
-३६२ १५. यो खो, वच्छ, परं दानं ददन्त वारेति
सो तिण्ण अन्तरायकरो होति, तिण्णं पारिपन्थिको। कतमेस तिण्णं? दायकस्स पुजन्तरायकरो होति, पटिग्गाहकानं लाभन्तरायकरो होति, पुबेव खो पनस्स अत्ता खतो च होति उपहतो च ।
-३३६७ १६. धीरो हि अरतिस्सहो।
-४।३१८ १७. गमनेन न पत्तव्बो, लोकस्सन्तो कुदाचन। न च अप्पत्वा लोकन्तं, दुक्खा अत्थि पमोचन।
-४॥५॥६ १८ उभौ च होन्ति दुस्सीला, कदरिया परिभासका। ते होन्ति जानिपतयो छवा सवासमागता ॥
-४॥६॥३ १६. सव्वा ता जिम्ह गच्छन्ति, नेत जिम्ह गते सति ।
-४७१० २०. सब्बं रहें दुक्खं सेति, राजा चे होति अधम्मिको। सव्व रठं सुख सेति, राजा चे होति धम्मिको ।।
-४७११० २१. एकच्चो पुग्गलो दुस्सीलो होति पापधम्मो,
परिसा पिस्स होति दुस्सीला पापधम्मा । एव खो, भिक्खवे, पुग्गलो असुरो होति असुरपरिवारो।
-४।१०१ २२. एकच्चो पुग्गलो सीलवा होति कल्याणधम्मो,
परिसा पिस्स होति सीलवती कल्याणधम्मा। एवं खो, भिक्खवे, पुग्गलो देवो होति, देवपरिवारो।
-४।१०।१
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अगुत्तरनिकाय की सूक्तिया
१४. दिया हुआ ही सुरक्षित रहता है ।
तेतालीस
१५. वत्स ! दान देते हुए दूसरे को जो रोकता है, वह तीन का अन्तराय करता है, तीन का परिपन्थी - विरोधी धनु होता है ।
कोन ते तीन का ?
दाता को पुण्य का अन्तराय करता है, गृहीता को लाभ का अन्तराय करता है, और सबसे पहले अपनी आत्मा को क्षत एव उपह्न करता है ।
१६. धीर पुरुष ही अरति को सहन कर सकते है ।
१७ गमन के द्वारा कभी भी लोक का ग्रन्त नहीं मिलता है, और जब तक लोक का अन्त नही मिलता है, तब तक दुख से छुटकारा नहीं होता । [ तृष्णा का अन्त ही लोक का अन्त है । ]
१८. यदि पति और पत्नी दोनो ही दुराचारी, कृपण एव कटुभापी हैं, तो यह एक प्रकार से दो शवो (मुर्दों) का समागम है ।
१६. नेता के कुटिल चलने पर सब के सव अनुयायी भी कुटिल ही चलने लगते हैं |
२०
राजा यदि अधार्मिक होता है तो सारा का सारा राष्ट्र दुखित हो जाता है । और यदि राजा धार्मिक होता है, तो सारा का सारा राष्ट्र सुखी हो नाता है ।
२१. एक व्यक्ति स्वय दुःशील है, पापी है, और उसके सगी साथी भी दुशोल एव पापी हैं, तो भिक्षुओ, वह व्यक्ति असुर है और असुरपरिवार वाला है |
२२. एक व्यक्ति स्वय सदाचारी है, धर्मात्मा है, और उसके सगी-साथी भी सदाचारी एव धर्मात्मा है, तो वह व्यक्ति देव है और देवपरिवार वाला है ।
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छियालीस
मूक्ति त्रिवेणी
३३. अयमेव महत्तरो कलि, यो सुगतेसु मनं पदूसये ।
-१०818
३४. मिच्छादिठ्ठि खो, ब्राह्मण, योरिम तीर,
सम्मादिठ्ठि पारिमं तीर। मिच्छासकप्पो मोरिमं तीरं, सम्मासंकप्पो पारिम तीर। मिच्छावाचा ओरिम तीरं, सम्मावाचा पारिम तीरं। मिच्छाकम्मन्तो अोरिम तीर, सम्माकम्मन्तो पारिम तीरं।
---१०१२।५ ३५. मिच्छात्राण, भिक्खवे, अधम्मो, सम्मानाणं धम्मो।
-१०।१२।४ ३६ चित्तन्तरो अयं, भिक्खवे, मच्चो ।
-१०॥२१॥
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सेंतालीम
अंगुत्तरनिकाय की मूक्तिया ३३. श्रेष्ठ पुरुषो के प्रति द्वाप रखना सबसे बड़ा पाप है।
३४. हे ब्राह्मण, मिय्यादृष्टि इधर का किनारा है, सम्यग् दृष्टि उघर का
किनारा है। मिथ्या सकल्प इधर का किनारा है, सम्यक संकल्प उघर का किनारा है । मिथ्यावाणी इघर का किनारा है, सम्यक् वाणी उघर का किनारा है। मिथ्या कर्म इघर का किनारा है, सम्यक् कर्म उघर का किनारा है।
३५ भिक्षुओ ! मिथ्याज्ञान अधर्म है, सम्यग ज्ञान धर्म है ।
३६. निशुओ । मनुष्य मन मे रहता है ।
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चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२३ चत्तारिमानि, भिक्खवे, बलानि ।
कतमानि चत्तारि ? पञ्चाबलं, विरियबलं, अनवज्जवलं, सगहवलं।
----४।१६।३
२४ मनापदायी लभते मनापं ।
-~-५५।४
२५. दरिदो इणमादाय, भुञ्जमानो विहमति ।
-६॥५३
२६. दोसस्स पहानाय मेत्ता भावितब्वा ।
मोहस्स पहानाय पञा भावितव्वा ।।
-६।११।१
२७. सद्धाधनं, सीलधन, हिरी अोत्तप्पिय धनं ।
सुतधन च चागो च, पचा वे सत्तमं धनं ॥ यस्स एते धना अत्थि, इत्यिया पुरिसस्स वा । अदलिदोति त पाहु, अमोघ तस्स जीवित ॥
-७/११५
२८ अदण्डेन असत्येन, विजेय्य पथवि इम।
-७४६
२९. ब्रातिमित्ता सुहज्जा च, परिवज्जन्ति कोधनं ।
-७।६।११
३०. कोधनो दुबण्णो होति।
-७।६।११
३१. समिद्धि कि सारा ?
विमुत्तिसारा!
-६।२।४
३२. अनभिरति खो, पावुसो, इमस्मि धम्मविनये दुक्खा, अभिरति सुखा।
~१०७६
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अगुत्तरनिकाय को सूक्तियां
पेतालीम
२३. भिक्षुओ! चार वल हैं ?
कोन से चार? प्रज्ञा का वल, वीर्य शक्ति का बल, अन्वद्य = सदाचार का बल और
संग्रह का वल। २४ मनोनुकूल सुन्दर वस्तु दान में देने वाला वैसी ही मनोज्ञ सामग्री प्राप्त
करता है।
२५. दरिद्र व्यक्ति यदि मण लेकर भोगो-पभोग में पड़ जाता है, तो वह नष्ट
हो जाता है। २६. द्वेष को दूर करने के लिए मंत्री भावना करनी चाहिए । मोह को दूर
करने के लिए प्रज्ञा भावना (अध्यात्म चिन्तन) करनी चाहिए ।
२७. श्रद्धा, शील, लज्जा, संकोच, श्रुत, त्याग और प्रज्ञा-ये सात धन हैं।
जिस स्त्री या पुल्प के पास ये धन हैं, वही वास्तव मे अदरिद्र (धनी) है, उसोका जीवन सफल है।
२८. विना किसी दण्ड और शस्त्र के पृथ्वी को जीतना चाहिए ।
२६. क्रोधी को ज्ञाति जन, मित्र और सुहृद् मभी छोड़ देते हैं ।
३०. क्रोधी कुरूप हो जाता है ।
३१. समृद्धि का सार क्या है ?
विमुक्ति (अनासक्ति) ही सार है ।
३२. मावुस ! धर्माचरण मे अरति का होना दुख है, और अभिरति का होना
सुख है।
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छियालीस
३३. प्रयमेव महत्तरो कलि, यो सुगतेसु मनं पदूसये ।
३४ मिच्छादिट्ठि खो, ब्राह्मण, प्रोरिमं तीर, सम्मादिठि पारिमं तीर ।
३५. मिच्छात्राण, भिक्खवे, श्रधम्मो, सम्मात्राणं धम्मो ।
मिच्छासकप्पो ओरिमं तीरं, सम्मासंकप्पो पारिम तीर । मिच्छावाचा प्ररिमं तीरं, सम्मावाचा पारिम तीरं । मिच्छा कम्मन्तो ओरिम तीरं सम्माकम्मन्तो पारिम तीरं । - १०/१२१५
३६. चित्तन्तरो अयं भिक्खवे, मच्चो ।
1
मूक्ति त्रिवेणी
ا
- १०
-१०।१२।४
- १०१२११६
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अंगुत्तरनिकाय की सूक्तिया
सेतालीम
३३. श्रेष्ठ पुरुषो के प्रति उप रखना सबसे बड़ा पाप है।
३४. हे ब्राह्मण, मिथ्याइष्टि इवर का किनारा है, सम्यग् दृष्टि उघर का
किनारा है। मिय्या सकल्प इधर का किनारा है, सम्यक नंकल्प उघर का किनारा है। मिथ्यावाणी इधर का किनारा है, सम्गक वाणी उघर का किनारा है। मिथ्या कम इधर का किनारा है, सम्यक् कर्म उघर का किनारा है।
३५ भिक्षुओ | मिथ्याज्ञान अधर्म है, सम्यग ज्ञान धर्म है ।
३६. भिलुभो । मनुष्य मन मे रहता है ।
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सुत्तपिटक : धम्मपद को सूक्तियां
१. मनोपुन्वंगमा वम्मा, मनो सेट्ठा मनोमया । ___ मनसा चे पदुठेन, भासति वा करोति वा।
ततो न दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पद ॥
२. मनोपुव्वंगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पसन्तेन, भासति वा करोति वा। ततो नसुखमन्वेति, छाया व अनपायिनि ॥
-१२
३. नहि वरेण वेराणि, सम्मन्तीष कुदाचन।
अवेरेण च सम्मन्ती, एस धम्मो सनन्तनो।
--१५
४. यथागार सुच्छन्न, वुट्ठी न समतिविज्झति ।
एवं मुभावित चित्त, रागो न समतिविज्झति ॥
-१११४
५. पापकारी उभयत्य सोचति ।
-१११५
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सुत्तपिटक : धम्मपद की सूक्तियां
१ सभी धर्म (वृत्तियां) पहले मन मे पैदा होते है, मन ही मुख्य है,
सब कुछ मनोमय है। यदि कोई व्यक्ति दूपित मन से कुछ बोलता है, करता है, तो दुख उसका अनुमरण उमी प्रकार करता है जिस प्रकार
कि पहिया (चक्र) गाडी खीचने वाले बैलो के पैरो का। २ सभी धर्म (वृत्तियां) पहले मन मे पैदा होते हैं, मन ही मुख्य है, सब कुछ
मनोमय है । यदि कोई निमल मनसे कुछ बोलता है या करता है तो सुख उसका अनुसरण उमी प्रकार करता है जिस प्रकार कि कभी साथ नही
छोड़ने वाली छाया मनुप्य का अनुसरण करती है। ३ वैर से वैर कभी शात नहीं होते। अवर (प्रेम) से ही वैर शात होते हैं
यही शाबत नियम है।
४. अच्छी तरह छाए हुए मकान मे वर्षा का पानी आसानी से प्रवेश नहीं कर
पाता, ठीक वैसे ही सुभावित (साधे हुए) चित्त मे राग का प्रवेश नही हो सकता।
५. पाप करने वाला लोक-परलोक दोनो जगह शोक करता है ।
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पचास
मूक्ति त्रिवेणी
६. कतपुचो उभयत्थ मोदति ।
-१११६
७. बहु पि चे सहितं भासमानो,
न तक्करो होति नरो पमत्तो। गोपो व गाव गणय परेस,
न भागवा सामञ्जस्स होति ॥
-१४१६
८. अप्पमादो अमतपदं, पमादो मच्चुनो पदं ।
-२१
६. अप्पमादेन मघवा, देवान सेट्ठत गतो।
-२।१०
१०. चित्तस्स दमथो साधु, चित्त दन्तं सुखावह ।
-३।३
११. न परेस विलोमानि, न परेसं कताकतं ।
अत्तनो व अवक्खेय्य, कतानि अकतानि च ॥
-४७
१२ सीलगन्धो अनुत्तगे।
--४।१२
१३ दीघा जागरतो रत्ति, दीघ सन्तस्स योजन ।
दीघो बालान संसारो, सद्धम्म अविजानतं ।।
-५१
१४ यावजोवम्पि चे बालो, पण्डित पयिरुपासति ।
न सो धम्म विजानाति, दब्बी सूप रस यथा ॥
-५५
१५. मुहुत्तमपि चे विन , पण्डित पयिरुपासति ।
खिप्प धम्म विजानाति, जिव्हा सूपरस यथा ॥
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धम्मपद की सूक्तियां
इक्यावन
६. जिसने सत्कर्म (पुण्य) कर लिया है, वह दोनो लोक मे मुखी होता है ।
७. वहुत सी धर्म-महिताओ का पाठ करने वाला भी यदि उनके अनुसार आचरण नहीं करता है तो वह प्रमादी मनुष्य उनके लाभ को प्राप्त नही कर सकता, वह श्रमण नही कहला सकता, जैसे कि दूसरो की गायो को गिनने वाला ग्वाला गायों का मालिक नही हो सकता ।
८.
अप्रमाद अमरता का मार्ग है, प्रमाद मृत्यु का ।
६. अप्रमाद के कारण ही इन्द्र देवताओ मे श्रेष्ठ माना गया है ।
१०
चचल चित्त का दमन करना अच्छा है, दमन किया हुआ चित्त सुखकर होता है ।
११ दूसरे की त्रुटिया नही देखनी चाहिए, उसके कृत्य अकृत्य के फेर मे नही पडना चाहिए | अपनी ही त्रुटियों का, तथा कृत्य-अकृत्य का विचार करना चाहिए ।
१२. शील (सदाचार) की सुगन्ध सवमे श्रेष्ठ है ।
१३ जागते हुए को रात लवो होती है, थके हुए को एक योजन भी बहुत लम्बा होता है, वैसे ही सद्धर्मं को नही जानने वाले अज्ञानी का ससार बहुत दीनं होता है ।
१४ मूर्ख व्यक्ति जीवनभर पडित के साथ रहकर भी धर्मं को नही जान पाला, जैसे कि कलछी सूप (दाल) के रस को ।
१५ विज्ञ पुरुष एक मुहूर्तभर भी पंडित की सेवा मे रहे तो वह शीघ्र ही धर्म के तत्त्व को जान लेता है, जैसे कि जीभ सूप के रस (स्वाद) को ।
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बावन
सूक्ति त्रिवेणी
१६ न त कम्म कतं साधु, य कत्वा अनुतप्पति ।
-५८
१७. न हि पाप कतं कम्मं, सज्जु खीर व मुच्चति ।
डहन्तं बालमन्वेति, भस्माच्छन्नो व पावको ।
-५३१२
१८. अप्पका ते मनुस्सेसु, ये जना पारगामिनो।
अथायं इतरा पजा, तीरमेवानुधावति ।।
६११०
१६ गामे वा आदि वा र , निन्ने वा यदि वा थले ।
यत्थावऽरहन्तो विहरन्ति, त भूमि रामणेय्यक ॥
-७४
२० सहस्समपि चे वाचा, अनत्थपदसहिता ।
एक अत्थपद सेय्यो, य सुत्त्वा उपसम्मति ॥
--८१
२१. यो सहस्स सहस्सेन, संगामे मानुसे जिने ।
एक च जेय्यमत्तान, स वे संगामजुत्तमो॥
-८४
२२ अभिवादनसीलस्स, निच्च बुढ्ढापचायिनो।
चत्तारो धम्मा वडढन्ति, आयु वण्णो सुख वलं ।।
-८1०
२३. यो च वस्ससत जीवे, कुसीतो हीनवीरियो।
एकाह जीवित सेय्यो, बीरियमारभतो दल्हं ।।
-८.१३
२४. उदविन्द निपातेन, उदकुम्भोपि पूरति ।
धीरो पूरति पुञस्स, थोक थोक मप प्राचिन ॥
-६७
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तिरेपन
धम्मपद की सूक्तिया १६ वह काम करना ठीक नहीं, जिसे करके पीछे पछताना पडे ।
१७. पाप कम ताजा दूध की तरह तुरत ही विकार नही लाता, वह तो राख,
से ढकी अग्नि की तरह धीरे धीरे जलते हुए मूढ मनुष्य का पीछा करता रहता है।
१८. मनुष्यो मे पार जाने वाले थोडे ही होते हैं, अधिकतर लोग किनारे-ही
-किनारे दौड़ते रहते हैं।
१९. गांव मे या जगल मे, ऊंचाई पर या निचाई पर जहा कही पर भी
अर्हत् विहार करते है वही भूमि रमणीय है।
२० व्यर्थ के पदो से युक्त हजारो वचनो से सार्थक एक पद ही श्रेष्ठ है, जिसे
सुनकर शान्ति प्राप्त होती है ।
२१. जो सग्राम मे हजारो मनुप्यो को जीत लेता है, उस से भी उत्तम सग्राम
विजयी वह है, जो एक अपने (आत्मा) को विजय कर लेता है ।
२२. वृद्धो की सेवा करने वाले विनयशील व्यक्ति के ये चार गुण सदा
वढते रहते है-आयु, वर्ग- यग, नुव और वल !
२३. आलसी और अनुद्योगी रहकर सौ वर्प जीने की अपेक्षा दृढ उद्योगी का
एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है ।
२४. जैसे कि पानी की एक-एक दूंद से धडा भर जाता है, वैसे ही धीर पुरुष
योडा-थोडा करके भी पुण्य का काफी सचय कर लेता है।
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चउपन
सूक्ति त्रिवेणी
२५ पाणिम्हि चे वणो नास्स, हरेय्य पाणिना विस ।
नाबरण विसमन्वेति, नत्थि पाप अकुव्वतो।।
-
२६ सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति ।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो न लभते सुख ।।
-१०१३
२७ मा वोच फरुस किंचि, वुत्ता परिवदेय्यु तं ।
-~१०१५
२८. अन्धकारेन प्रोनद्धा, पदीप न गवेस्सथ ।
-११२
२६. मरणत हि जीवित।
११०३
३० अप्पसुता य पुरिसो, बलिवद्दो व जीरति ।
मसानि तस्स वड्दति, पञ्जा तस्स न वड्ढति ।।
-११७
३१. अत्तान चे तथा कयिरा, यथानमनुसासति ।
-१२१३
३२. अत्ताहि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परे सिया ?
--१२।४
३३. सुद्धीग्रसुद्धि पच्चत्त , नाचो अनं विसोधये ।
-१२।
३४ उत्तिठे न पमज्जेय्य, धम्म सुचरित चरे ।
धम्मचारी सुखं सेति, अस्मि लोके परम्हि च ॥
-१३२
३५. अन्धभूतो अयं लोको, तनुकेऽथ विपस्सति ।
-१३८
३६. न वे कदरिया देवलोक वजन्ति ।
-१३।११
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धम्मपद की सूक्तिया
पचपन
२५. यदि हाय में घाव न हो तो उस हाय में विप लेने पर भी शरीर में विप
का प्रभाव नहीं होता है । इसी प्रकार मन में पाप न रखने वाले को
वाहर से कर्म का पाप नहीं लगता। २६. सभी प्राणी सुन चाहते हैं, जो अपने सुख की इच्छा से दूसरे प्राणियो की
हिंसा करता है, उसे न यहा सुन्व मिलता है, न परलोक मे।
२५. कठोर वचन मत बोलो, ताकि दूसरे भी तुम्हे वैसा न बोले ।
२८. अन्धकार से घिरे हुए लोग दीपक की तलाश क्यो नही करते ?
२६ जीवन की सीमा मृत्यु तक है।
३०. अल्पश्रु त मूढ व्यक्ति बैल की तरह बढता है, उसका मास तो बढ़ता है
कितु प्रज्ञा नहीं बढती है ।
३१ जैसा अनुशासन तुम दूसरो पर करना चाहते हो, वैसा ही अपने ऊपर भी
करो।
३२ आपका अपना आत्मा ही अपना नाय (स्वामी) है, दूसरा कौन उसका
नाथ हो सकता है ? ३३ शुद्धि और अशुद्धि अपने से ही होती है, दूसरा कोई किसी अन्य को शद्ध
नही कर सकता। ३४ उठो ! प्रमाद मत करो, सद् धर्म का आचरण करो। धर्माचारी पुरुष
लोक परलोक दोनो जगह सुखी रहता है।
३५ यह ससार अंघो के समान हो रहा है, यहां देखने वाले बहुत थोडे हैं ।
३६ कृपण मनुष्य कभी स्वर्ग मे नही जाते ।
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छप्पन
सूक्ति त्रिवेणी
३७ किच्छो मणुस्सपटिलाभो, किच्छं मच्चान जीवितं ।
किच्छं सद्धम्मस्सवन, किच्छो बुद्धानुप्पादो।
-~१४।४
३८. सव्वपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्तपरियोदपनं, एत वुद्धान सासनं ।।
-~१४१५
३६. खन्ति परमं तपो तितिक्खा ।
--१४॥६
४०. न कहापणवस्सेन, तित्ति कामेसु विज्जति ।
-१४॥
४१ जय वेरं पसवति, दुक्ख सेति पराजितो।
उपसन्तो सुख सेति, हित्वा जयपराजय ॥
-१५५
४२ नत्थि रागसमो अग्गि, नत्थि दोससमो कलि ।
-१६
४३. नत्थि सन्ति पर सुखं ।
-१५॥६
४४. जिधच्छा परमा रोगा।
-१७
४५. आरोग्ग परमा लाभा, सन्तुठ्ठि परमं धन ।
विस्सास परमा आती, निव्वानं परम सुखं ।
-१५८
४६. तण्हाय जायती सोको, तण्हाय जायती भय ।
तण्हाय विप्पमुत्तस्स, नत्थि सोको कुतो भय ?
४७ यो वे उप्पतित कोध, रथ भन्त व धारये।
तमह सारथिं व मि, रस्मिग्गाहो इतरो जनो।
--१७१२
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धम्मपद की सूक्तिया
सत्तावन ३७. मनुष्य का जन्म पाना कठिन है, मनुप्य का जीवित रहना कठिन है ।
सद्धर्म का अवण करना कठिन है, और बुद्धो (ज्ञानियो) का उत्पन्न
होना कठिन है। ३८ पापाचार का मवंथा नहीं करना, पुण्य का सचय करना, स्व-चित्त को
विशुद्ध करना-यही बुद्धो की शिक्षा है ।
३६. क्षमा (सहिष्णुता) परम तप है।
४०. स्वर्णमुद्राओ की वर्षा होने पर भी अतृप्न मनुप्य को विपयो से तृप्ति
नहीं होती।
४१ विजय मे वैर की परंपरा बढती है, पराजित व्यक्ति मन मे कुढता रहता
है । जो जय और पराजय को छोड देता है वही सुखी होता है ।
४२. राग से बढकर और कोई अग्नि नही है, द्वाप से बढकर और कोई पाप
नहीं है। ४३. शाति से बढकर सुख नही है ।
४४. भूख सबसे बडा रोग है।
४५ आरोग्य परम लाभ है, सतोप परम वन है। विश्वास परम वन्धु है और
निर्वाण परम सुख है।
४६ तृष्णा से शोक और भय होता है । जो तृष्णा से मुक्त हो गया उसे न
शोक होता है, न भय ।
४७ जो उत्पन्न क्रोध को, चलते रथ की तरह रोक लेता है, उमी को मैं
सारथि कहता हूँ। वाकी लोग तो सिर्फ लगाम पकडने वाले हैं।
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अट्ठावन
सूक्ति त्रिवेणी
४८ अक्कोधेन जिने कोध, असाधु साधुना जिने ।
जिने कदरिय दानेन, सच्चेन अलीकवादिनं ।।
१७।३
४६. मल वण्णास्म कोसज्जं, पमादो रक्खतो मलं ।
-१८७
५०. अविज्जा परमं मलं ।
-१८।६
५१. नत्थि मोहसमो जालं, नत्थि तण्हासमा नदी ।
-१८।१७
५२. सुदस्स वज्जमओस, अत्तनो पन दुद्दसो।
-१८१८
५३. आकासे च पद नत्थि, समणो नत्थि बाहिरे ।
-१८।२१
५४ न तेन पण्डितो होती, यावता बहु भासति ।
खेमी अवेरी अभयो, पण्डितो ति पवुच्चति ।।
-१६।३
५५. न तेन थेरो होति, येनस्स पलितं सिरो।
परिपक्को वयो तस्स, मोघजिण्णो ति बुच्चति । यम्हि सच्चं च धम्मो च, अहिंसा सञ्जमो दमो। स वे वन्तमलो धीगे, थेरो ति पवुच्चति ।।
-१९२६
५६ न मुण्डकेन समणो, अवतो अलिकं भण।
-१६६
५०, न तेन परियो होति, येन पाणानि हिंसति ।
अहिंसा सबपारणान , अरियो ति पवुच्चति ।।
-१६१५
५८. मत्ता सुखपरिच्चागा, पस्से चे विपुलं सुखं ।
चजे मत्ता मुग्वं धीरो, सम्पस्स विपुलं सुख ॥
-२१११
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धम्मपद की सूक्तिया
४८. अक्रोव (क्षमा) से क्रोध को जीते, भलाई से बुराई को जीते, दान से कृपण को जीते और सत्य से असत्यवादी को जीते ।
आलस्य सुन्दरता का मैल है, अमावघानी रक्षक ( पहरेदार) का मैल है ।
४१
उनसठ
५० अविद्या सबसे बड़ा मैल है ।
५१ मोह के समान दूसरा कोई जाल नहीं । तृष्णा के समान और कोई नदी नहीं ।
५२. दूसरो के दोष देखना आसान है । अपने दोप देख पाना कठिन है ।
५३ आकाश मे कोई किसी का पदचिन्ह नही है, वाहर मे कोई श्रमण नही है ।
५४. बहुत बोलने से कोई पडित नहीं होता। जो क्षमाशील, वैररहित और निर्भय होता है वही पंडित कहा जाता है ।
५५ शिर के बाल सफेद हो जाने से ही कोई स्थविर नही हो जाता, आयु के परिपक्व होने पर मनुष्य केवल मोघजीर्णं (व्यर्थं का) वृद्ध होता है । जिस मे तत्य, धर्म, अहिंसा, सयम और दम है, वस्तुत वही विगतमल वीर व्यक्ति स्थविर कहा जाता है ।
५६. जो अव्रती है, मिथ्या भापी है, वह सिर मुडा लेने भर से श्रमण नही हो
जाता ।
५७ जो प्राणियो को हिंसा करता है वह आर्य नही होता, सभी प्राणियो के प्रति अहिता भाव रखने वाला ही ग्रायं कहा जाता है ।
५८. यदि थोड़ा सुख छोड देने से विपुल सुख मिलता हो तो बुद्धिमान् पुरुष विपुल सुख का विचार करके थोडे सुख का मोह छोड़ दें ।
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साठ
५६. एकस्स चरित सेय्यो, नत्थि वाले सहायता ।
६०. सव्वदानं धम्मदानं जिनाति, सव्व रस धम्मरसो जिनाति ।
६१. हनन्ति भोगा दुम्मेधं ।
६२. तिणदोसानि खेत्तानि, रागदोसा श्रयं पजा ।
६३ सलाभं नातिमञ्ञेय्य, नाञेस पिय चरे । स पिहयं भिक्खु, समाधि नाधिगच्छति ॥
६४ समचरिया समरणो ति वुच्चति ।
६५ यतो यतो हिंसमनो निव्वत्तति, ततो ततो सम्मतिमेव दुक्खं ।
६६. कि ते जटाहि दुम्मेध ! कि ते अजिनसाटिया । ग्रन्भन्तरं ते गहन, बाहिर परिमज्जसि ॥
C
सूक्ति त्रिबेणी
-२३|११
-२४/२१
-२४२२
-२४१२३
- २५/६
~२६,६
-२६।०
--२६।१२
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इकराट
धम्मपद की मूक्तिया ५६ अकेला चलना अच्छा है, किंतु मूखं का सग करना ठीक नही है ।
६०. धर्म का दान, सव दानो से बढकर है।
धर्म का रस, सब रसो से श्रेष्ठ है।
६१. दुर्बुद्धि अज्ञानी को भोग नष्ट कर देते है ।
६२. खेतो का दोप तृग (पान फूस) है, मनुष्यो का दोप राग है।
६३ अपने लाभ को अवहेलना न करे, दूसरो के लाभ की स्पृहा न करे ।
दूसरो के लाभ की स्पृहा करने वाला भिक्षु समापि नही प्राप्त कर सकता।
६४ जो ममता का आचरण करता है, वह समण (श्रमण) कहलाता है।
६५. मन ज्यो ज्यो हिंसा से दूर हटता है, त्यो त्यो दु ख शात होता जाता है।
६६. मूर्ख । जटाओ से तेरा क्या बनेगा, और मृग छाला से भी तेरा क्या
होगा? तेरे अन्दर मे तो राग द्वेप आदि का मल भरा पड़ा है, वाहर क्या घोता है ?
१. भिक्षु धर्मरक्षित द्वारा सपादित 'धम्मपद'
मास्टर खिलाड़ी लाल एन्ड सन्स, वाराणसी संस्करण
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सुत्तपिटक : उदान' की सूक्तियां
१ न उदकेन सुची होती, वह्वत्थ न्हायती जनो।
यम्हि सच्च च धम्मो च, सो सुची सो च ब्राह्मणो ।
-~
२ अब्यापज्जं सुखं लोके, पाणभूतेसु सयमो।
-२१
३. सुखा विरागता लोके ।
-२१
४. य च कामसुखं लोके, यंचिदं दिविय सुखं ।
तण्हक्खयसुखस्सेते, कलं नाग्यन्ति सोलसिं ॥
-२२२
५ सुखकामानि भूतानि।
-१३
६. फुसन्ति फस्सा उपघि पटिच्च,
निरूपधि केन फुसेय्य फस्सा।
-२१४
७. जनो जनस्मि पटिबन्धरूपो।
--२१५
१ भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित, नवनालंदा सस्करण ।
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सुत्तपिटक : उदान की सूक्तियां
१. स्नान तो प्राय सभी लोग करते हैं, किन्तु पानी से कोई शुद्ध नहीं होता।
जिसमे सत्य है और धर्म है, वहीं शुद्ध है, वही ब्राह्मण है।
२. छोटे-बड़े सभी प्राणियो के प्रति संयम और मित्रभाव का होना ही
वास्तविक सुख है। ३. ससार मे वीतरागता ही सुख है।
४. जो इस लोक मे कामसुख हैं, और जो परलोक मे स्वर्ग के सुख हैं-वे
सव तृष्णा के क्षय से होने वाले आध्यात्मिक सुख की सोलहवी कला के
वरावर मी नही हैं। ५. सभी प्राणी सुख चाहते हैं ।
६. उपाधि के कारण ही स्पर्श (सुख दु खादि) होते है, उपाधि के मिट जाने
पर स्पर्श कैसे होंगे ?
७. एक व्यक्ति दूसरे के लिए बन्धन है ।
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चौंसठ
८. सुखिनो वत वे अकिञ्चना ।
६. असतं सातरूपेन, पियरूपेन अप्पियं । दुक्ख सुखस्त रूपेन,
पमत्तमतिवत्तति ॥
१० सव्वं परवसं दुक्खं, सव्वं इस्सरियं सुखं ।
११. यस्स नित्तिणो पंको, मद्दितो कामकण्टको । मोहक्य पत्तो, सुखद क्खेसु न वेधती स भिक्खू ।
१२. यथा पि पव्वतो सेलो, चलो सुप्पतिट्ठितो । एवं मोहक्खया भिक्खु, पव्वतो व न वेधती ॥
१३ यम्ही न माया वसती न मानो,
यो वीतलोभो श्रममो निरासो । पनुष्णकोघो ग्रभिनिव्वुतत्तो,
सो ब्राह्मणो सो समरणो स भिक्खू ||
१४. प्रसुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय ।
सूक्ति त्रिवेणी
मेत्ता भावेतब्बा व्यापादस्स पहानाय । आनापानस्सति भावेतव्वा वितक्कुपच्छेदाय ।
१५. खुद्दा वितक्का सुखुमा वितक्का, ग्रनुग्गता मनसो उप्पिलावा ।
- २६
-२१८
- राह
-३१२
-३१४
-३/६
अनिच्चसञ्ञा भावेतब्बा श्रस्मिमानसमुग्माताय ॥
—–४११
-४११
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उदान की सूक्तिया
८ जो अकिञ्चन हैं, वे ही सुखी हैं।
६ बुरे को अच्छे रूप में, अप्रिय को प्रियरूप में, दुख को सुखरूप में, प्रमत्त लोग ही समझा करते हैं ।
१०. जो पराधीन है, वह सब दुःख है, और जो स्वाधीन है, वह सब सुख है ।
ਸਨ
११ जो पाप पंक को पार कर चुका है, जिस ने कामवासना के कांटो को कुचल दिया है, जो मोह को क्षय कर चुका है, और जो सुख दुख से विद्ध नही होता है, वही सच्चा भिक्षु है ।
१२ जैसे ठोस चट्टानो वाला पर्वत अचल होकर खड़ा रहता है, वैसे ही मोह के क्षय होने पर भिक्षु भी ज्ञान और स्थिर रहता है ।
१३. जिस मे न माया (दभ) है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वायं है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशान्त है, वहा ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है ।
१४
राग के प्रहाण के लिए अशुभ भावना का अभ्यास करना चाहिए | द्वेष के प्रहाण के लिए मंत्री भावना का अभ्यास करना चाहिए । बुरे वितर्कों का उच्छेद करने के लिए आनापान स्मृति का अभ्यास करना चाहिए ।
अह भाव का नाश करने के लिए अनित्य भावना का अभ्यास करना चाहिए ।
१५ अन्तर मे उठने वाले अनेक क्षुद्र और सूक्ष्म वितर्क ही मन को उत्पीडित करते हैं ।
१ अशुचि भावना 1
२
श्वास प्रश्वास पर चित्त स्थिर करना ।
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छियासठ
सूक्ति त्रिवेणी
१६. अरखितेन कायेन, मिच्छादिहितेन च ।
थीनमिद्धाभिभूतेन, वस मारस्स गच्छति ॥
-~-४२
१७. तुदन्ति वाचाय जना असता ,
सरेहि संगामगतं व कुजरं ।
१८ भद्दक मे जीवितं, भद्दकं मरण ।
-४६
१६. यं जीवित न तपति, मरणन्ते न सोचति ।
स वे दिठ्ठपदो धीरो, सोकमज्झे न सोचति ।।
-~४९
२०. नत्थो कोचि अत्तना पियतरो।
-५१
२१. सुद्ध वत्थ अपगतकालक सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य ।
-५३
२२ पण्डितो जीवलोकस्मि, पापानि परिवज्जये।
-५३
२३. सचे भायथ दुक्खस्स, सचे वो दुक्खमप्पियं ।
माकत्थ पापक कम्म, आवि वा यदि वा रहो।
--५४
२४. सचे च पापक कम्म, करिस्सथ करोथ वा।
न वो दुक्खा पमुत्यत्थि, उपेच्च पि पलायत ॥
-५४
२५. छन्नमतिवस्सति, विवटं नातिवस्सति।
तस्मा छन विवरेथ, एवं तं नातिवस्सति ।।
-५॥५
२६. अरियो न रमती पापे, पापे न रमती सुची।
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उदान की सूक्तिया
१६ शरीर से सयमहीन प्रवृत्ति करने वाला, मिथ्या सिद्धान्त को मानने वाला और निरुद्यमी आलसी व्यक्ति मार की पकड मे आ जाता है ।
१७
असयत मनुष्य दुर्वचनो से उसी प्रकार भडक उठते है, जिम प्रकार युद्ध मे वाणो से ग्राहत होने पर हाथी ।
१८ मेरा जीवन भी भद्र (मंगल) है और मरण भी भद्र है ।
सडमठ
१९ जिसको न जीवन की तृष्णा है और न मृत्यु का शोक है, वह ज्ञानी धीर पुरुष शोक के प्रसगो मे भी कभी शोक नही करता है ।
२०. अपने से बढकर अन्य कोई प्रिय नही है ।
13
२१ कालिमा मे रहित शुद्ध श्वेत वस्त्र रंग को ठीक से पकड़ लेता है । ( इसी प्रकार शुद्ध हृदय व्यक्ति भी धर्मोपदेश को सम्यक् प्रकार से ग्रहण कर लेता है ।)
२२. पण्डित वह है जो जीते जी पापो को छोड़ देता है ।
२३ यदि सचमुच ही तुम दुःख से डरते हो और तुम्हे दुख अप्रिय है, तो फिर प्रकट या गुप्त किसी भी रूप मे पाप कर्म मत करो ।
२४. यदि तुम पाप कर्म करते हो या करना चाहते हो तो दुःख से छुटकारा नही हो सकेगा, चाहे भाग कर कही भी चले जाओ ।
२५. छिपा हुआ (पाप) लगा रहता है, खुलने पर नही लगा रहता । इसलिए छिपे पाप को खोल दो, आत्मालोचन के रूप मे प्रकट कर दो, फिर वह नही लगा रहेगा ।
२६. आर्य जन पाप मे नही रमते, शुद्ध जन पाप में नही रमते ।
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अडसठ
मूक्ति त्रिवेणी
२७. सुकरं साधुना साधु, साधु पापेन दुक्करं ।
पापं पापेन सुकरं, पापमरियेहि दुक्करं ॥
२८. परिमुट्ठा पंडिताभासा, वाचागोचरभाणिनो।
याविच्छन्ति मुखायाम, येन नीता न त विदू॥
-शक्ष
२६. सवासेन खो, महाराज, सीलं वेदितव,
त च खो दीधेन अधुना, न इत्तरं । मनसि करोता नो अमनसि करोता, पञ्जवता नो दुपञ्जेन ।
३०. सवोहारेण खो, महाराज, सोचेइय वेदितव्वं ।
-६२
३१. आपदासु खो, महाराज, थामो वेदितव्वो....
-६।२
३२. साकच्छाय खो, महाराज, पञा वेदितव्वा.... ।
-६५२
३३. न वायमेय्य सव्वत्थ, नाञस्स पुरिसो सिया।
नानं निस्साय जीवेय्य, धम्मेन न वरिंग चरे ।।
-६०२
३४. विग्गय्ह नं विवदन्ति, जना एकङ्गदस्सिनो।
-६४
३५. अहङ्कारपसूतायं पजा परकारूपसहिता।
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उदान की सूक्तिया
उनहत्तर
२७. साधु पुरुषों को साधु कर्म ( नत्कर्म) करना सुकर है, पापियो को साबु
कर्म करना दुष्कर है |
पापियों को पाप कर्म करना सुकर है, आयंजनो को पाप कर्म करना दुष्कर है ।
२८ अपने को पण्डित समझने वाले पण्डिनाभाम मूर्ख खूब मुँह फाड़-फाडे कर व्यर्थ की लबी चौडी वातं करते है, परन्तु वे क्या कर रहे हैं, यह स्वयं नहीं जान पाते ।
२६ महाराज |" किसी के साथ रहने से ही उसके शील का पता लगाया जा सकता है, वह भी कुछ दिन नही, वहुत दिनो तक,
वह भी विना ध्यान से नही, किन्तु ध्यान से,
बिना बुद्धिमानी से नही, किन्तु बुद्धिमानी से ।
३० हे महाराज, व्यवहार करने पर ही मनुष्य की प्रामाणिकता का पता लगता है ।
३१. हे महाराज, आपत्ति काल मे ही मनुष्य के धैर्य का पता लगता है ।
३२ हे महाराज, बातचीत करने पर ही किसी की प्रज्ञा (बुद्धिमानी ) का पता चल सकता है |
३३ हर कोई काम करने को तैयार नही हो जाना चाहिए, दूसरे का गुलाम होकर नही रहना चाहिए, किसी दूसरे के भरोसे पर जीना उचित नही, धर्म के नाम पर धधा शुरु नही कर देना चाहिए।
३४ धर्म के केवल एक ही अंग को देखने वाले आपस मे झगडते हैं, विवाद करते हैं ।
३५. ससार के अज्ञजीव अहंकार और परंकार के ( मेरे तेरे के ) चक्कर में ही पडे रहते हैं ।
१. श्रावस्ती नरेश प्रसेनजित के प्रति तथागत का उपदेश २९ से ३२ ।
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सत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
३६. अहं करोमी ति न तस्स होति,
परो करोती ति न तस्स होति ।
-६६
३७. दिट्ठीसु सारंम्भकथा, ससारं नातिवत्तति ।
३८. पतन्ति पज्जोतमिवाधिपातका,
दिठे सुते इतिहेके निविट्ठा।
-६९
३९. प्रोभासति ताव सो किमि,
याव न उन्नमते पभङ्करो। स वेरोचनम्हि उग्गते,
हतप्पभो होति नचा पि भासति ॥
-६।१०
४०. विसुक्खा सरिता न सन्दति,
छिन्न वट्ट न वत्तति ।
-७२
४१ किं कयिरा उदपानेन, पापा चे सब्वदासियु ।
--७४
४२. पस्सतो नत्थि किञ्चनं ।
~~७१०
४३. निस्सितस्स चलित, अनिस्सितस्स चलितं नत्थि ।
४४. नतिया असति प्रागतिगति न भवति ।
-८४
४५. ददतो पुनं पवड्ढति ।
सयमतो वेरं न चीयति ।
-८५
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उदान को सूक्तिया
इकहत्तर
३६ तत्वदर्शी साधक को यह द्वैत नही होता कि यह मैं करता हूँ या कोई
दूसरा करता है ।
३७. विभिन्न मत पक्षो को लेकर झगड़ने वाले ससारबन्धन से कभी नही हो सकते ।
मुक्त
३८. जैसे पतंगे उड-उडकर जलते प्रदीप पर आ गिरते हैं, वैसे ही अज्ञजन हप्ट और श्रुतवस्तु के व्यामोह में फँस जाते हैं ।
३९ तभी तक खद्योत (जुगनू ) टिम टिमाते हैं, जब तक सूरज नही उगता । सूरज के उदय होते ही उनका टिम टिमाना वन्द हो जाता है, वे हतप्रभ हो जाते हैं ।
४०.
सूखी हुई नदी की धारा नही वहती, लता कट जाने पर और नही फैलती ।
४१. यदि पानी सदा सर्वदा सर्वत्र मिलता रहे, तो फिर कुए से क्या करना
?
४२. तत्वद्रष्टा ज्ञानी के लिए रागादि कुछ नही हैं ।
४३. आसक्त का चित्त चंचल रहता है । अनासक्त का चित्त चचल नही होता
है |
राग नही होने से आवागमन नही होता है ।
४४
४५. दान देने से पुण्य बढता है, सयम करने से वैर नही वढ पाता है ।
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बहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
४६ दुस्सीलो सीलविपन्नो सम्मूढो कालं करोति ।
४७. कुल्ल हि जनो पबन्धति,
तिण्णा मेधाविनो जना।
-~८६
४८ सद्धि चरमेकतो वसं
मिस्सो अञजनेन वेदग। विद्वा पजहाति पापक
कोञ्चो खीरपको व निन्नग ।
-८/७
४६. येस नत्यि पियं, नत्थि तेसं दुक्ख ।
-८1८
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उदान को सूक्तियां
तिहत्तर ४६. शीलरहित दु शील व्यक्ति मृत्यु के क्षणों में विमूढ हो जाता है, घवडा
जाता है। ४७. अज्ञजन वेड़ा वांधते ही रह गये, और ज्ञानी जन ससारसागर को पार
भी कर गये।
४८ पण्डित जन अज्ञजनों के साथ हिल मिलकर रहते हैं, साथ-साय चलते हैं,
फिर भी उनके दुर्विचार को वैसे ही छोडे रहते हैं, जैसे क्रौंच पक्षी दूध पोकर पानी को छोड़ देता है ।
४६. जिनका कही भी किसी से भी राग नहीं है, उनको कोई भी दुग्व नही
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सुत्तपिटक : इतिवृत्तक' को सूक्तियां
१. मोह भिक्खवे, एकधम्म पजहथ,
अहं वो पाटिभोगो अनागामिताया।
-~११३
२. सुखा संघस्स सामग्गी, समग्गानं चनुग्गहो।
समग्गरतो धम्मट्ठो, योग-क्खेमा न धंसति ॥
-१।१६
३ अप्पमाद पसंसन्ति, पुनकिरियासु पण्डिता।
~११२३
४. भोजनम्हि च मत्तञ्च , इन्द्रयेसु च सवुतो।
कायसुखं चेतोसुखं, सुखं सो अधिगच्छति ।।
--२१२
५. द्वमे, भिक्खवे, सुक्का धम्मा लोकं पालेन्ति ।
कतमे द्व?
हिरी च, प्रोत्तप्प च। ६. सुत्ता जागरितं सेय्यो, नत्थि जागरतो भय ।
-२०१५
-२१२०
१ भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित, नवनालंदासस्करण ।
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सुत्तपिटक : इतिवृत्तक' की सूक्तियां
१. मोह भिक्खवे, एकधम्म पजहथ,
अहं वो पाटिभोगो अनागामिताया।
-११३
२. सुखा सघस्स सामग्गी, समग्गानं चनुग्गहो ।
समग्गरतो धम्मट्ठो, योग-क्लेमा न धंसति ॥
-१११९
३. अप्पमाद पससन्ति, पुञ्जकिरियासु पण्डिता।
-१२३
४. भोजनम्हि च मत्तञ्च , इन्द्रयेसु च संवुतो।
कायसुखं चेतोसुखं, सुखं सो अधिगच्छति ।।
-२१२
५. द्वेमे, भिक्खवे, सुक्का धम्मा लोकं पालेन्ति ।
कतमे द्व?
हिरी च, प्रोत्तप्प च। ६. सुत्ता जागरितं सेय्यो, नत्थि जागरतो भयं ।
-२०१५
-२०२०
१ भिक्षु जगदीश काश्यप संपादित, नवनालदासस्करण ।
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सुत्तपिटक इतिवृत्तक की सूक्तियां
१. भिक्षओ, एक मोह को छोड़ दो, मैं तुम्हारे अनागामी (निर्वाण) का
जामिन होता है।
२. संघ का मिलकर रहना सुखदायक है । सघ मे परस्पर मेल बढाने वाला,
मेल करने में लीन धार्मिक व्यक्ति कभी योग-क्षेम से वचित नहीं होता।
३. बुद्धिमान् लोग पुण्य कर्म (सत्कम) करने मे प्रमाद न करने की प्रशसा
करते हैं। ४. जो भोजन की माया को जानता है और इन्द्रियो मे सयमी है, वह बडे
आनन्द से शारीरिक तथा मानसिक सभी सुखो को प्राप्त करता है ।
५ भिक्षुओ | दो परिशुद्ध बातें लोक का संरक्षण करती हैं ?
कोन सी दो ?
लज्जा और सकोच । ६. सोने से जागना श्रेष्ठ है, जागने वाले को कही कोई भय नही है ।
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छियत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
७ सेयो अयोगुलो भुत्तो, तत्तो अग्गिमिखूपमो ।
य चे भुजेय्य दुस्सीलो, रेपिण्डमसञतो ।।
-२२२१
८ लोभो दोसो च मोहो च, पुरिस पापचेतस ।
हिंसन्ति अत्तसभूता तचसार व सम्फल ।।
६. पाचवखु अनुत्तर ।
--३११२
१०. यादिस कुरुते मित्त, यादिसं चूपसेवति ।
स वे तादिसको होति, सहवासो हि तादिसो ॥
---३:२७
११. असन्तो निरयं नेन्ति, सन्तो पापेन्ति सुग्गति ।
-३।२७
१२. परित्त दारुमारुय्ह, यथा सीदे महण्णवे ।
एव कुसीतमागम्म, साधुजीवी पि सीदति ।।
-३।२६
१३ निच्च पारद्धविरियेहि, पण्डितेहि सहावसे ।
-~-३।२६
१४ मनुस्सत्त खो, भिक्खु, देवानं सुगतिगमनसखातं ।
-३१३४
१५.
चर वा यदि वा तिट्ठ, निसिन्नो उद वा सय । अज्झत्थ समयं चित्त, सन्तिमेवाधिगच्छति ।।
-३१३७
१६ अनत्थजननो लोभो, लोभो चित्तप्पकोपनो।
भयमन्तरतो जातं, त जनो नावबुज्झति ।।
१७ लुद्धो अत्थ न जानाति, लुद्धो धम्म न पस्सति ।
अन्वतम तदा होति, य लोभो सहते नरं ॥
--३।३६
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इतिवृत्तक को सूक्तियां
मन ७. अमयमी और दुराचारी होकर राष्ट्र-पिण्ड (देश का अन्न) खाने की
अपेक्षा तो अग्निशिखा के ममान तप्त लोहे का गोला सा लेना श्रेष्ठ है।
८ अपने ही मन मे उत्पन्न होने वाले लोग, द्वाप और मोह, पाप चित्त वाले
व्यक्ति को वैसे ही नष्ट कर देते है, जैम कि केले के वृक्ष को उमका फल ।
६. प्रज्ञा (बुद्धि) की आंख ही मर्वश्रेष्ठ आँख है ।
१०. जो जैसा मित्र बनाता है, और जो जैसे सम्पक में रहता है, वह वैसा ही
बन जाता है, क्योकि उसका सहवास ही वैसा है।
११ असत्पुरुष (दुर्जन) नरक मे ले जाते हैं और सत्पुरुप (सज्जन) स्वर्ग मे
पहुँचा देते हैं। १२. जिस प्रकार थोडी लकडियो के दाद्र वेडे पर बैठ कर समुद्रयात्रा करने
वाला व्यक्ति ममुद्र मे डूब जाता है, उसी प्रकार आलसी के साथ अच्छा
आदमी भी वरवाद हो जाता है । १३. बुद्धिमान एव निरतर उद्योगगील व्यक्ति के साथ रहना चाहिए।
१४. हे भिक्षु, मनुष्य जन्म पा लेना ही देवताओ के लिए सुगति (अच्छी गति)
प्राप्त करना है। १५ चलते, खडे होते, वैठते या सोते हुए जो अपने चिक्ष को शान्त रखता है,
वह अवश्य ही शान्ति प्राप्त कर लेता है ।
१६ लोभ अनर्थ का जनक है, लोभ चित्त को विकृत करने वाला है आश्चर्य
है लोभ के रूप मे अपने अन्दर ही पैदा हुए खतरे को लोग नही जान पा
१७. लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। वह लो धब को
ही सब कुछ समझता है। उसके अन्तरतम मे गहन अधिकार छाया रहता है।
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अठहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
१८ अदुस्स हि यो दुम्भे, पापकम्म अकुव्वतो।
तमेव पाप फुसति, दुट्ठचित्त अनादर ।।
-३४०
१६ समुद्द विसकुम्भेन, यो मओय्य पदसितु।
न सो तेन पर्सेय्य, भेस्मा हि उदधि मह ।।
-३१४०
२०. तयोमे, भिक्खवे अग्गी ।
कतमे तयो ? रागग्गी, दोसग्गी, मोहग्गी।
-३२४४
२१. सागारा अनगारा च, उभो अझोननिस्सिता ।
अाराधन्ति सद्धम्म, योगक्खेम अनुत्तर ।।
-४८
२२. कुहा थद्धा लपा सिङ्गी, उन्नला असमाहिता।
न ते धम्मे विरूहन्ति, सम्मासम्बुद्धदेसिते ॥
-४६
२३. यतं चरे यत तिठे, यत अच्छे यत सये।
-४।१२
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इतिवृत्तक को सूक्तिया
उनागी १८ जो पाप कर्म न करने वाले निर्दोष व्यक्ति पर दोष लगाता है तो वह
पाप पलटकर उसी दुष्ट चित्त वाले घृणित व्यक्ति को ही पकड लेता है ।
१६. विष के एक घडे से समुद्र को दूपित नही किया जा सकता, क्योकि समुद्र
अतीव महान् है, विशाल है । वैसे ही महापुरुप को किसी की निन्दा
दूपित नही कर सकती। २०. भिक्षुओ । तीन अग्नियां हैं।
कौन मी तीन अग्नियो? राग की अग्नि, द्वीप की अग्नि और मोह की अग्नि ।
२१. गृहस्थ और प्रव्रजित (माधु)-दोनो ही एक दूसरे के सहयोग से कल्याण
कारी सर्वोत्तम सद्घमं का पालन करते हैं।
२२ जो धूर्त हैं, क्रोधी है, वातूनी हैं, चालाक है, धमडी है, और एकाग्रता से
रहित हैं, वे सम्यक् सम्बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म मे उन्नति नही कर सकते
२३ साधक यतना से चले, यतना से खडा हो, यतना से बैठे और यतना से
ही सोये ।
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सुत्तपिटक सुत्तनिपात' की सूक्तियां
१ यो उप्पतितं विनेति कोध,
विसठं सप्पविसंऽव ओसधेहि । सो भिक्खु जहाति ओरपार,
उरगो जिण्णमिव तचं पुराणं ॥
-१११११
२. यो तहमुदऽच्छिदा असेस,
सरितं सीघसर विसोसयित्वा । सो भिक्खु जहाति ओरपारं,
उरगो जिण्णमिव तचं पुराणं ॥
-१११३
३. उपधी हि नरस्स सोचना,
न हि सोचति यो निरूपधी।
-१२।१७
४. सेट्ठा समा सेवितव्वा सहाया।
-११।१३
१ भिक्षु धर्मरत्न द्वारा संपादित, महाबोधिसभा सारनाथ सस्करण ।
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सुत्तपिटक : सुत्तनिपात की सूक्तियां
१ जो चढे क्रोध को वैसे ही शात कर देता है जैसे कि देह मे फैलते हुए
सर्पविष को औपधि, वह भिक्षु इस पार तथा उस पार को अर्थात् लोकपर लोक को छोड़ देता है, सांप जैसे अपनी पुरानी केचुली को।
२ जो वेग से बहने वाली तृष्णारूपी सरिता को सुन्वाकर नष्ट कर देता है,
वह भिक्षु इस पार उस पार को अर्थात् लोक परलोक को छोड़ देता है, साप जैसे अपनी पुरानी कैचुली को।
३ विषय भोग की उपधि ही मनुष्य की चिंता का कारण है, जो निरूपधि
हैं, विषय भोग से मुक्त हैं, वे कभी चिताकुल नहीं होते ।
४. श्रेष्ठ और समान मित्रो की सगति करनी चाहिए ।
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बियासी
सूक्ति त्रिवेणी
५ सीहोऽव सद्दे सु असन्तसन्तो,
वातोऽव जालम्हि असज्जमायो । पदुमंऽव तोयेन अलिप्पमाणो,
एको चरे खग्गविसारणकप्पो॥
~१।३१३७
६ निक्कारणा दुल्लभा अज्ज मित्ता।
-११३४१
७. सद्धा बीज, तपो वुट्ठि ।
-११४२
८. गाथाभिगीत मे अभोजनेय्य ।
~~११४६
६ धम्मकामो भवं होति, धम्मदेस्सी पराभवो ।
-~-१६।२
१०. निहामीली सभासीली. अनुहाता च यो नरो।
अलसो कोधपआणो, त पराभवतो मुख ।
--१२६६
११. एको भुञ्जति सानि, त पराभवतो मुख ।
----१६।१२
१२. जातिथद्धो धनथद्धो, गोत्तथद्धो च यो नरो।
संज्ञाति अतिम ति, त पराभवतो मुखं ।
-~१२६१४
१३. यस्स पाणे दया नत्थि, त जआ वसलो इति ।
--१७।२
१४. यो अत्थ पुच्छितो संतो, अनत्थमनुसासति ।
पटिच्छन्नेन मन्तेति, त जञा वसलो इति ।।
-१७।११
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सुत्तनिपात को सूक्तियां
तिरासी ५ शब्द से त्रस्त न होने वाले सिंह, जाल मे न फंसने वाले वायु, एवं जल
से लिप्त न होने वाले कमल के समान अनासक्त भाव मे अकेला विचरे, खड्गविपाण (गेंडे के सीग) की तरह ।
६. आजकल निस्वार्य मित्र दुर्लभ हैं ।
७ श्रद्धा मेरा वीज है, तप मेरी वर्षा है ।
८ धर्मोपदेश करने से प्राप्त भोजन मेरे (धर्मोपदेप्टा के) योग्य नहीं है ।
६. धर्मप्रेमी उन्नति को प्राप्त होता है और धर्मदपी अवनति को।
१०. जो मनुष्य निद्रालु है, सभी-भीडभाड एव धूमघाम पसन्द करता है,
अनुद्योगी है, आलसी है और क्रोधी है, वह अवश्य ही अवनति को प्राप्त
होता है। ११. जो व्यक्ति अकेला ही स्वादिष्ट भोजन करता है, वह उसकी अवनति का
कारण है।
१२. जो मनुष्य अपने जाति, धन और गोत्र का गर्व करता है, अपने ज्ञाति
जनो का,-बन्धु वाधवो का अपमान करता है, वह उसकी अवनति का
कारण है। १३ जिसे प्राणियो के प्रति दया नही है, उसी को वृषल (शूद्र) समझना
चाहिए।
१४. जो अर्थ (लाम) की वात पूछने पर अनर्थ (हानि) की बात बताता है,
और वास्तविकता को छुपाने के लिए घुमा-फिराकर बात करता है, उसे ही वृपल (शूद्र) समझना चाहिए ।
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चौरासी
सूक्ति त्रिवेणी
१५ यो चत्तानं समुक्कसे, परं च मवजानति ।
निहीनो सेन मानेन, त जञा वसलो इति ॥
निहा
--१७/१७
१६. न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।
कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो ।।
-११७४२७
१७. न च खुद्द समाचरे किञ्चि, येन वि परे उपवदेय्यु।
--१२।३ १८ सव्वे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता।
-१८।३ १६. न परो पर निकुव्वेथ, नातिमञ्ब्रेथ कत्थचिनं कञ्चि ।
-१८६ २०. मेत्त च सव्वलोकस्मि, मानस भावये अपरिमाणं।
-१८ २१ सच्चं हवे सादुतरं रसान।
-११०१२ २२ धम्मो सुचिण्णो सुखमावहाति ।
-१।१०।२ २३. पञआजीवि जीवितमाहु सेठें।
-१।१०।२ २४. विरियेन दुक्खं अच्चेति, पचाय परिसुज्झति ।
-१1१०१४ २५. सद्धाय तरती अोध ।
-१।१०।४ २६ पतिरूपकारी धुरवा, उट्ठाता विन्दते धनं ।
-११०१७
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मुत्तनिपात की सूक्तिया
पिच्चासी १५. जो अपनी बडाई मारता है, दूसरे का अपमान करता है, किंतु वडाई के
योग्य सत्कर्म से रहित है, उसे वृपल (शूद्र) समझना चाहिए ।
१६ जाति से न कोई वृषन (पूद्र) होता है और न कोई ब्राह्मण । कर्म से ही
वृपल होता है और कर्म से ही ब्राह्मण ।
१७ ऐसा कोई क्षुद्र (बोछा) आचरण नही करना चाहिए, जिससे विद्वान्
लोग बुरा वताएं।
१८. विश्व के सब प्राणी सुखी हो ।
१६. किसी को घोखा नहीं देना चाहिए और न किसी का अपमान करना
चाहिए। २० विश्व के समस्त प्राणियो के माथ असोम मंत्री की भावना बढाएँ ।
२१. सब रसो मे सत्य का रस ही स्वादतर (श्रेष्ठ) है ।
२२ सम्यक् प्रकार से आचरित धर्म सुख देता है ।
२३ प्रज्ञामय (बुद्धियुक्त) जीवन को ही श्रेष्ठ जीवन कहा है ।
२४. मनुष्य पराक्रम के द्वारा दु खो से पार होता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध
होता है। २५. मनुप्य श्रद्धा से ससार-प्रवाह को पार कर जाता है ।
२६. कार्य के अनुरूप प्रयत्न करने वाला धीर व्यक्ति खूब लक्ष्मी प्राप्त करता
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सूक्ति त्रिवेणी
छियासी २७ सच्चेन कित्ति पप्पोति, ददं मित्तानि गन्थति ।
-११०७
२८. यस्सेते चतुरो धम्मा, सद्धस्स घरमेसिनो।
सच्च धम्मो धिती चागो, स वे पेच्च न सोचति ।।
-१1१०1८
२६ अरोसनेय्यो सो न रोसेति कंचि,
तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ति ॥
~१११२।१०
३०. अनन्वय पिय वाच, यो मित्त सु पकुवति ।
अकरोन्त भासमान, परिजानन्ति पण्डिता ।।
-२।१५।२
३१. स वे मित्तो यो परेहि अभेज्जो।
-२।१५।३ ३२ निदरो होति निप्पापो, धम्मपीतिरसं पिवं ।
-२॥१५॥५ ३३ यथा माता पिता भाता, अछे वापि च जातका । गावो नो परमा मित्ता, यासु जायन्ति प्रोसधा ।।
-~२।१९।१३ ___ ३४. तयो रोगा पुरे पासु , इच्छा अनसनं जरा। पसूनं च समारम्भा, अट्ठानवुतिमागमु ॥
-२।१६।२८ ३५ यथा नरो आपगं श्रोतरित्त्वा,
महोदिक सलिल सीघसोत । सो बुरहमानो अनुसोतगामी, किं सो परे सक्खति तारयेतु॥
--२।२०१४ ___३६ विज्ञातसारानि सुभासितानि ।
-२।२१।६
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सुत्तनिपात की सूक्तिया
सत्तासी
१७. सत्य ने कीर्ति प्राप्त होती है, और सहयोग (दान) ने मित्र अपनाए जाते
हैं ।
२८. जिन श्रद्धाशील गृहस्थ में सत्य, धर्म, घृति और त्याग ये चार धर्म हैं, उसे परलोक मे पछताना नहीं पड़ता ।
२६. जो न स्वय चिटता है और न दूसरो को चिढाता है, उसे ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं ।
३०. जो अपने मित्रो से बेकार की मीठी-मीठी बातें करता है, किन्तु अपने कहे हुए वचनो को पूरा नही करता है, ज्ञानी पुरुष उस मित्र की निदा करते हैं ।
३९. वही सच्चा मित्र है, जो दूसरो के बहकावे मे आकर फूट का शिकार न बने ।
३२ धर्मप्रीति का रस पान कर मनुष्य निर्भय और निष्पाप हो जाता है ।
३३ माता, पिता, भाई एवं दूसरे ज्ञातिबन्धुओ की तरह गाये भी हमारी परम मित्र है, जिनसे कि औपधियाँ उत्पन्न होती हैं ।
३४. पहले केवल तीन रोग थे- इच्छा, भूख और जरा । पशुवध प्रारम्भ होने पर अट्ठानवें रोग हो गए ।
३५ जो मनुष्य तेज वहने वाली विशाल नदी मे धारा के साथ वह रहा है, वह दूसरो को किस प्रकार पार उतार सकता है ? ( इसी प्रकार जो स्वय शकाग्रस्त है, वह धर्म के सम्बन्ध मे दूसरो को क्या सिखापाएगा २)
३६
ज्ञान सदुपदेशो का सार है ।
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अट्ठासी
सूक्ति त्रिवेणी
३७ न तस्स पचा च सुतं च वड्ढति,
यो सालसो होति नरो पमत्तो।
-२१२२६६
३८, उट्ठहथ निसीदथ, को प्रत्थो सुपिनेन वो ?
-~२।२२।१
३६ खणातीता हि सोचन्ति ।
-~~२।२२।३
४० अप्पमादेन विज्जा य, अबहे सल्लमत्तनोति ।
-२।२२।४
४१. कच्चि अभिण्हसवासा, नावजानासि पण्डितं ।
-२।२३।१
४२. यथावादी तथाकारी, अहू बुद्धस्स सावको।
-२।२४।१५
४३. कोधं कदरिय्यं जहेय्य भिक्खु ।
-२।२५।४ ४४. अब्रह्मचरियं परिवज्जयेय्य, अगारकासु जलितं व विछ् ।
-२।२६।२१ ४५. कामा ते पठमा सेना, दुतिया अरति वुच्चति । ततिया खुप्पिपासा ते, चतुत्थी तण्हा पवुच्चति ।।
-३।२८।१२ ४६. सुभासितं उत्तममाहु सन्तो।
-३।२६१ ४७. सच्च वे अमता वाचा, एस धम्मो सनन्तनो।
-३।२६।४ ४८. पुण्डरीक यथा वग्गु, तोये न उपलिप्पति । एवं पुञ्चे च पापे च, उभये त्व न लिप्पसि ।।
-३१३२।३८
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सुत्तनिपात की सूक्तिया
नवासी
३७. जो मनुष्य आलती ओर प्रमत्त है, न उसकी प्रज्ञा वढती है और न उस का श्रुत ( शास्त्र ज्ञान ) ही बढ पाता है ।
३८. जागो, बैठे हो जाओ, सोने से तुम्हे क्या लाभ है ? कुछ नही ।
३६. समय चुकने पर पछताना पडता है ।
४०. अप्रमाद और विद्या मे हो अन्तर का शल्य (काटा ) निकाला जा सकता है |
४१. क्या तुम अति परिचय के कारण कभी ज्ञानी पुरुष का अपमान तो नही करते ?
४२. बुद्ध के शिष्य यथावादी तथाकारी हैं ।
४३. भिक्षु क्रोध और कृपणता को छोड़ दे |
४४. जलते वोयले के कुण्ड के समान जान कर, साधक को, अब्रह्मचर्य का त्याग कर देना चाहिए ।
४५. हे मार । कामवासना तेरी पहली सेना है, अरति दूसरी, भूख प्यास तीसरी ओर तृष्णा तेरी चौथी सेना है ।
४६. संतो ने अच्छे वचन को ही उत्तम कहा है ।
४७ सत्य ही अमृत वाणी है, यह शाश्वत धर्म है ।
४८
जिस प्रकार सुन्दर पुण्डरीक कमल पानी मे लिप्त नही होता, उसी प्रकार पुण्य पाप- -दोनो मे आप भी लिप्त नही होते ।
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नब्बे
सूक्ति त्रिवेणी
४६ नहि सो उपक्कमो अस्थि, येन जाता न मिय्यरे ।
--३१३४२
५० नहि रुण्णेन सोकेन, सन्ति पप्पोति चेतसो ।
--३।३४१११
५१. वारिपोक्खरपत्नव, पारग्गेरिव नासपो।
यो न लिप्पति कामेसु, तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ।।
-.३५/३२
५२. समचा हेसा लोकस्मि, नामगोत्त पकप्पितं ।
--३२३५१५५
५३. कम्मना वत्तती लोको, कम्मना वत्तती पजा।
-३॥३५॥६१
५४. पुरिसस्स हि जानस्स, कुठारी जायते मुखे ।
याय छिन्दति अत्तानं, बालो दुभासितं भणं ।।
-३३६१
५५. यो निन्दिय पसमति,
त वा निन्दति यो पससियो। विचिनाति मुखेन सो कलिं, कलिना तेन मुखं न विन्दति ।।
-३१३६।२
५६. अभूतवादी निरय उपेति,
यो वा पि कत्वा न करोमीति चाह ।
-३:३६१५
५७. नहि नस्सति कस्सचि कम्म, एतिह नं लभतेव सुवामि ।
-३१३६।१० ५८. यथा अह तथा एते, यथा एते तथा अहं । अत्तान उपम कत्त्वा, न हनेय्य न घातये ।।
-~-३१३७१.७
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सुत्तनिपात की सूक्तिया
इक्यानबे ४६. विश्व में ऐसा कोई उपक्रम नहीं हैं, जिससे कि प्रागी जन्म लेकर न
मरें। ५०. रोने मे या शोक करने से चित्त को यान्ति प्राप्त नहीं होती।
५१. जल मे निप्त नहीं होने वाले कमल की तरह, तथा आरे की नोक पर
न टिकने वाले सरसो के दाने की तरह जो विपयो मे लिप्त नहीं होता,
उसे में ब्राह्मण कहता हूँ। ५२. संसार में नाम गोत्र कल्पित है, केवल व्यवहारमात्र हैं।
५३. मसार कर्म मे चलता है, प्रजा पानं में गलती है ।
५४. जन्म के साथ ही मनुष्य के मुंह मे कुल्हाडी (जीभ) पैदा होती है ।
मज्ञानी दुर्वचन बोलकर उससे अपने आप को ही काट डालता है ।
५५ जो निन्दनीय की प्रशसा करता है और प्रशसनीय की निन्दा करता है,
वह मुख से पाप एकत्रित करता है जिम के कारण उसे कभी सुख प्राप्त नहीं होता।
५६. असत्यवादी नरक में जाता है, और जो करके 'नही किया'-ऐसा कहता
है वह भी नरक में जाता है ।
५७ किसी का कृत कर्म नष्ट नहीं होता, समय पर कर्ता को वह प्राप्त होता
ही है।
५८ जैसा मै हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी हैं वैसा ही
मैं हूँ- इस प्रकार अपने समान सब प्राणियो को समझकर न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरो से कराए ।
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बानवे
सूक्ति त्रिवेणी
५६. सगन्ता यन्ति कुसोभा, तुण्ही याति महोदधि ।
-३॥३७॥ ४२
६० यदूनक तं सणति, य पूरं सतमेव त ।
अड्ढकुम्भूपमो बालो, रहदो पूरो व पंडितो।।
-३1३७१४३
६१ य किंचि दुक्ख सभोति, सव्व तण्हा पच्चयाति ।
-३।३८।१७
६२ यं परे सुखतो पाहु, तदरिया आहु दुक्खतो। यं परे दुक्खतो आहु, तदरिया सुखतो विदु ॥
-३1३८३६ ६३ निवृतानं तमो होति, अन्धकारो अपस्सतं ।
-३।३८.४० ६४. ममायिते पस्सथ फदमाने, मच्छेव अप्पोदके खीरासोते।
---४४०१६ ६५. यो अत्तनो सीलवतानि जन्तु,
अनानुपुट्ठो च परेस पावा । अनरियधम्म कुसला तमाहु, यो प्रातुमानं सयमेव पावा ॥
-४।४११३ ६६ त वापि गन्थं कुसला वदन्ति, य निस्सितो पस्सति हीनमधे ।
--४।४३1३ ६७ उदविंदु यथापि पोक्खरे, पदुमे वारि यथा न लिप्पति ।
एव मुनि नोपलिप्पति, यदिद दिसुत मुतेसु वा ।
-४॥४४
६८ ते वादकामा परिस विगह,
बाल दहन्ति मिथु अचमन ।
--४१४६६२
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सुत्तनिपात को सूक्तिया
तिरानवे ५६. छोटी नदिया शोर करतो वहती है और बडी नदिया शान्त चुपचाप
वहती हैं। ६०. जो अपूर्ण है वह आवाज करता है, नीर जो पूर्ण है वह शात मौन
रहता है। मूर्ख अधभरे जलघट के समान है और पडित लबालब भरे जलाशय के समान ।
६१. जो कुछ भी दुख होता है, वह सब तृष्णा के कारण होता है ।
६२. दूसरो ने जिसे सुम्ब कहा है, पार्यो ने उसे दुख कहा है । आर्यों ने जिसे
दु.ख कहा है, दूगरो ने उसे सुख कहा है ।
६३. मोहग्रस्तो के लिए सब ओर अज्ञान का तम ही तम है, अन्वो के लिए
सब ओर अन्धकार ही अन्धकार है।
६४. अल्प जल वाले मूखने जलाशय की मछलियो की तरह अज्ञानी तृष्णा के
वशीभूत होकर छटपटाते है ।
६५ जो मनुष्य विना पूछे अपने शील व्रतो की चर्चा करता है, भात्म प्रशसा
करता है, उसे ज्ञानियो ने अनायं धर्म (निम्न आचरण) कहा है ।
६६. जो अपनी दृष्टि (विचारो) के फेर मे पडकर दूसरो को हीन समझता
है, इसे कुशलो (विद्वानो) ने मन की गाँठ कहा है ।
६७. जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पानी नहीं टिकता, उसी प्रकार मुनि
दृष्टि, श्रुति, एव धारणा मे आसक्त नहीं होता।
६८. वाद करने वाले वादी प्रतिवादी सभा में जाकर एक दूसरे को मूर्ख बताते
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चौरानवे
६६ निन्दाय सो कुप्पति रत्वमेसी ।
७०. सञ्ञाविरत्तस्म न संति गन्या ।
७७. निद्द न बहुली करेय्य, जागरियं भजेय्य श्रातापी ।
७१. यस्स लोके सकं नत्थि, असता च न सोचति । घम्मेसु च न गच्छति, स वे सन्तोति तुच्चति ।
७२. एक हि सच्चं न दुतियमत्थि ।
७३ परस्स चे प्रभयितेन होनो, न कोचि धम्मे विसेति ग्रस्स ।
७४. न ब्राह्मणस्स परनेय्यमत्थि ।
७५. निविस्सवादी नहि सुद्धि नायो ।
७६ भायी न पादलोलस्स, विरमे कुक्कुच्चा नप्पमज्जेय्य ।
७८
प्रत्तदण्डा भय जात ।
७६ पुराण नाभिनन्देय्य, नवे खन्ति न कुव्वये ।
गेवं ब्रूमि महोधोति ।
८०
सूक्ति त्रिवेणी
-४१४६१३
-४|४७।१३
- ४१४८/१४
-४१५०१७
- ४१५११११
-४१५१११३
---४/५१११६
- ४१५२।११
-४|५२११२
- ४१५३।१
- ४१५३११०
-४|५३।११
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सुत्तनिपात की सूक्तियां
पिच्यानवे ६६ दूसरो के छिद्र (दोष) देखने वाला निन्दक व्यक्ति अपनी निंदा सुनकर
कुपित होता है। ७०. विषयो से विरक्त मनुष्य के लिए कोई ग्रन्यि (बन्धन) नही है।
७१. जिसका रासार मे कुछ भी अपना नहीं है, जो बीती हुई बात के लिए
पछतावा नहीं करता है और जो धर्मों के फेर मे नही पडता है वह उप
शात कहलाता है। ७२. सत्य एक ही है, दूसरा नहीं ।
७३. यदि दूसरो को योर से की जाने वाली अवज्ञा से कोई धर्महीन हो जाए
तो, फिर तो धर्मों में कोई भी श्रेष्ठ नही रहेगा।
७४. ब्राह्मण (तत्वदर्शी) सत्य के लिए दूसरो पर निर्भर नही रहते ।
७५. जो किमी वाद में आसक्त (फैमा) है, उसकी चित्तशुद्धि नही हो
सकती। ७६. ध्यानयोगी धुमक्कड न बने, व्याकुलता से विरत रहे, प्रमाद न करे ।
७७ साधक निद्रा को बढाए नही, प्रयत्न शील होकर जागरण का अभ्यास
करे।
७८. अपने स्वय के दोष से ही भय उत्पन्न होता है ।
७६ पुराने का अभिनन्दन न करे और नये की अपेक्षा न करे ।
८० मैं कहता हू-लोभ (गृद्धि) एक महासमुद्र है ।
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छियानवे
सूक्ति त्रिवेणी
८१ कामपंको दरच्चयो।
-४/५३।११
८२. चुदितो वचीहि सति माभिनदे ।
-४/५४१६
८३. जनवादधम्माय न चेतयेय्य ।
-४॥५४॥१६
४ अविज्जायं निवुतो लोको।
-५२५६०२
८५. अत्थ गतस्स न पमाणमत्थि ।
-१६शक
८६ कथंकथा च यो तिण्णो, विमोक्खो तस्स कीदिसो ?
-५।६४।१
८७ निवारण इति नं ब्रूमि, जरमच्चुपरिक्खयं ।
--५६०३
८८. तण्हाय विप्पहाणेण, रिणवाण इति वुच्चति ।
-५।६८।४
८६ नंदीसंयोजनो लोको।
--५।६८५
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सत्तानवे
सुत्तनिपात को सूक्तियां ८१. कामभोग का पक दुस्तर है।
८२. आचार्य आदि के द्वारा गल्ती बताने पर बुद्धिमान पुरुप उमका अभिनदन
(स्वागत) करे। ८३. साधक, लोगो मे झगडा कराने की बात न सोचे ।
_____८४ यह संसार अज्ञान से ढका है ।
८५. जो जीते-जी अस्त हो गया है, उसका कोई प्रमाण नही रहता ।
५६ जो शंका और आकाक्षा से मुक्त हो गया है, उसकी दूसरी मुक्ति कैसी ?
____८७ मैं कहता हूँ-जरा और मृत्यु का अन्त ही निर्वाण है ।
८८. सृष्णा का सर्वथा नाश होना ही निर्वाण कहा गया है ।
८६. नदी (आसक्ति) ही ससार का बघन है ।
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सुत्तपिटक . थेरगाथा' की सूक्तियां
१ उपसन्तो उपरतो, मन्तभारणी अनुद्धतो।
धुनाति पापके धम्मे, दुमपत्त व मालुतो ॥
-११२
२ सम्भिरेव समासेथ पण्डितेहत्यदस्मिभि ।
-११४
३. समुन्नमयमत्तानं, उसुकारो व तेजन ।
-१२६
४ सीलमेव इध अग्ग, पञवा पन उत्तमो। मनुस्सेसु च देवेसु, सीलपाणतो जयं ॥
-~१७० ५. साधु सुविहितान दस्सनं, कंखा छिज्जति, बुद्धि वड्ढति।
--१७५ ६. यो कामे कामयति, दुक्ख सो कामयति ।
-१९३ ७ लाभालाभेन मथिता, समाधि नाधिगच्छन्ति ।
-१११०२
१ भिक्षु जगदीश काश्यप सपादित, नवनालदा सस्करण ।
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२
सुत्तपिटक : थेरगाथा की सूक्तियां
जो उपशात है, पापो से उपरत है, विचारपूर्वक बोलता है, अभिमानरहित है, वह उसी प्रकार पापधर्मों को उड़ा देता है जिस प्रकार हवा वृक्ष के सूखे पत्तो को ।
तत्वद्रष्टा एव ज्ञानी सत्पुरुषो की संगति करनी चाहिए ।
३ अपने आप को उसी प्रकार ठीक करो, जिस प्रकार वाण बनाने वाला वाण को ठीक करता है ।
४ ससार मे शील ही श्रेष्ठ है, प्रज्ञा ही उत्तम है । मनुष्यो और देवो मे शील एव प्रज्ञा से ही वास्तविक विजय होती है ।
५. सत्पुरुषो का दर्शन कल्याणकारी है । सत्पुरुषो के दर्शन से सशय का उच्छेद होता है और बुद्धि की वृद्धि होती है ।
६ जो काम भोगो की कामना करता है, वह दुःखो की कामना करता है ।
७. जो लाभ या अलाभ से विचलित हो जाते है, वे समाधि को प्राप्त नही कर सकते ।
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सूक्ति त्रिवेणी ८ एकङ्गदस्सी दुम्मेधो, सतदस्सी च पण्डितो।
--१।१०६ ६. पको ति हि न पवेदय्यु, याय वन्दनपूजना कुलेसु । सुखुमं सल्लं दुरुब्बह, सक्कारो कापुरिसेन दुज्जहो ॥
-२।१२४ १०. पुव्वे हनति अत्तानं, पच्छा हनति सो परे ।
-२।१३६
११. न ब्राह्मणो बहिवण्णो, अन्तो वणोहि ब्राह्मणो।
-२१४०
१२. सुस्सुसा सुतवद्धनी, सुत पाय वद्धन ।
पाय अत्थं जानाति, मातो अत्थो सुखावहो ।
-२।१४१
१३. आयु खीयति मच्चानं, कुन्नदीन व प्रोदक ।
-२३१४५
१४. संगामे मे मतं सेय्यो, यञ्चे जीवे पराजितो।
-२६१६४
१५. यो पुब्बे करणीयानि, पच्छा सो कातुमिच्छति ।
सुखा सो धंसते ठाना, पच्छा च मनुतप्पति ।।
-३।२२५
१६. यहि कयिरा त हि वदे, यं न कयिरा न तं वदे ।
अकरोन्त भाममागं, परिजानन्ति पण्डिता ॥
-३२२६
१७. यथा ब्रह्मा तथा एको, यथा देवो तथा दुवे । यथा गामो तथा तयो, कोलाहलं ततुत्तरि ।।
, १८. रज्जन्ति पि विरज्जन्ति, तत्थ किं जिय्यते मुनि ।
-३।२४५
--३१२४७
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थेरगाथा को सूक्तिया
एक सी एक ८. मूखं सत्य का एक ही पहलू देखता है, और पडित सत्य के सौ पहलुओ
को देखता है। ६. साधक की समाज मे जो वदना और पूजा होती है, ज्ञानियो ने उसे पंक
(कीचड) कहा है । सत्काररूपी सूक्ष्म शल्य को साधारण व्यक्तियो द्वारा
निकाल पाना मुश्किल है। १०. पापात्मा पहले अपना नाश करता है, बाद मे दूसरो का ।
११. बाहर के वर्ण (दिखावे) से कोई ब्राह्मण (श्रीष्ठ) नहीं होता, अन्तर के
वर्ण (शुद्धि) से ही ब्राह्मण होता है। १२. जिज्ञासा से ज्ञान (श्रुत) बढता है, ज्ञान से प्रज्ञा बढती है, प्रज्ञा से सद्
अर्थ का सम्यग् बोध होता है, जाना हुआ सद् अर्थ सुखकारी होता है ।
१३. मनुष्यो की आयु वैसे ही क्षीण हो जाती है, जैसे छोटी नदियो का जल ।
१४. पराजित होकर जीने की अपेक्षा, युद्ध मे प्राप्त वीर मृत्यु ही अधिक श्रेष्ठ
१५. जो पहले करने योग्य कामो को पीछे करना चाहता है, वह सुख से वचित
हो जाता है, और बाद मे पछताता रहता है ।
१६ जो कर सके वही कहना चाहिए, जो न कर सके वह नही कहना
चाहिए । जो कहता है पर करता नही है , उसकी विद्वान जन निन्दा करते हैं।
अकेला साधक ब्रह्मा के समान है, दो देवता के समान है, तीन गांव के समान है, इससे अधिक तो केवल कोलाहल -भीड है।
१८ लोग प्रसन्न होते है या अप्रसन्न, क्या भिक्षु इसके लिए ही जीता है ?
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एक सौ दो
सूक्ति त्रिवेणी
१६. न दुग्गति गच्छति धम्मचारी।
-४।३०३
२०. यस्स सब्रह्मचारीसु, गारवो नूपलव्भति ।
परिहायति सद्धम्मा, मच्छो अप्पोदके यथा ॥
-६।३८७
२१. पमादानुपतितो रजो।
---६।४८४
२२. अमोघ दिवस कयिरा, अप्पेन बहुकेन वा ।
-६।४५१
२३. न परे वचना चोरो, न परे वचना मुनि ।
-७१४९७
२४. जीवतेवापि सप्पो , अपि वित्तपरिक्खयो।
पाय च अलाभेन, वित्तवापि न जीवति ।
-८४88
२५ सब मुरगाति सोतेन, सब्ब पस्सति चक्खुना। न च दिट्ठ सुत धीरो, सव्व उज्झितुमरहति ।।
--८1५०० २६. चक्खुमास्स यथा अन्धो, सोतवा वधिरो यथा ।
८५०१ २७ पास हितो नरो इध, अपि दुक्खेसु सुखानि विन्दति ।
-१०१५५१ २८. रसेसु अनुगिद्धस्स, झाने न रमती मनो।
--१०१५८० २६. सीलवा हि वह मित्ते, सञ्जमेनाधिगच्छति । दुस्सीलो पन मित्त हि, धंसते पापमाचरं ॥
-१२।६१० ३०. सील बलं अप्पटिम, सीलं आवुधमुत्तमं । सीलमाभरण सेठं, सील कवचमभुतं ।
----१२।६१४
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थेरगाथा की सूक्तियां
एक सौ तीन
१६. धर्मात्मा व्यक्ति दुर्गति मे नही जाता ।
२० जिसका गौरव साथियो को प्राप्त नहीं होता, वह सद्धर्म (कर्तव्य) से
वैसे ही पतित हो जाता है, जैसे कि थोडे पानी मे मछलिया ।
२१. प्रमाद से ही वासना की धूल इकट्ठी होती है ।
२२. थोडा या ज्यादा कुछ न कुछ सत्कर्म करके दिन को सफल बनाओ।
२३. दूसरे के कहने से न कोई चोर होता है और न कोई साधु ।
२४. धनहीन होने पर भी बुद्धिमान यथार्थत जीता है और धनवान होने पर
भी अज्ञानी यथार्थत. नहीं जीता है ।
२५ मनुष्य कान से सब कुछ सुनता है, आँख से सब कुछ देखता है, किंतु धीर
पुरुप देखो और सुनी सभी बातो को हर कही कहता न फिरे ।
२६. साधक चक्षुष्मान होने पर भी अन्धे की भाति रहे, श्रोग्रवान होने पर भी
बधिर की भाति आचरण करे । २७ प्रज्ञावान मनुष्य दु ख मे भी सुख का अनुभव करता है ।
२८ जो सुस्वादु रसो मे आसक्त है उसका चित्त ध्यान मे नही रमता ।
२६. शीलवान अपने सयम से अनेक नये मित्रो को प्राप्त कर लेता है, और
दु शील पापाचार के कारण पुराने मित्रो से भी वचित हो जाता है ।
३०. शील अनुपम बल है, शील सर्वोत्तम शस्त्र है, शील श्रेष्ठ आभूपण है
और रक्षा करने वाला अद्भुत कवच है।
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एक सौ चार
३१. ग्रलाभो धम्मिको सेथ्यो, यञ्चे लाभो ग्रधम्मिको ।
३२. यसो सेय्यो विज्ञेनं न यसो ग्रप्पबुद्धिन ।
३३. गरहा व सेय्यो विब्रूहि य चे बालप्पससना ।
३४. मरणं धम्मिक सेय्यो, य चे जीवे धम्मिकं ।
३५. चरन्ति लोके प्रसिता, नत्थि तेसं पियापियं ।
३६ रजमुहतं च वातेन यथा मेघोपसम्मये । एव सम्मत्ति सकप्पा, यदा पञ्ञाय पस्सति ॥
३७ रत्तो रागाधिकरण, विविधं विन्दते दुखं ।
सूक्ति त्रिवेणी
३६ बहुस्सुतो अप्पस्सुतं यो सुतेनातिमञ्ञति । अन्धो पदीपधारो व तथेव पटिभाति म ॥
४०. श्रपिच्छता सप्पुरिसेहि वण्णिता ।
४१. तमेव वाच भासेय्य, या यत्तान न तापये । परे च न विहिंसेय्य, सा वे वाचा सुभाषिता ॥
-१४/६६६
—१४/६६७
- १४,६६८
Dir
-१४।६७०
- १४/६७१
३८ पिसुनेन च कोधनेन च, मच्छरिता च विभूतिनन्दिना । सखित न करेय्य पण्डितो, पापो कापुरिसेन संगमो ॥
- १५।६७५
- १६१७३४
- १७११०१७
- १७११०२६
- १६/११२७
--२१।१२३६
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थेरगाथा की सूक्तियां
एक सौ पाच
३१. अधर्म से होने वाले लाभ की अपेक्षा धर्म से होने वाला अलाभ श्रेयस्कर
३२. अल्पवुद्धि मूों के द्वारा प्राप्त यश की अपेक्षा विद्वानो द्वारा किया गया
अपयश भी श्रेष्ठ है। ३३. मूों के द्वारा की जाने वाली प्रशंसा की अपेक्षा विद्वानो के द्वारा की
जाने वाली निंदा भी श्रेष्ठ है । ३४. अधर्म मे जीने की अपेक्षा धर्म से मरना ही श्रेष्ठ है ।
३५. जो ससार मे अनासक्त होकर विचरण करते हैं, उनके लिए न कोई प्रिय
है न कोई अप्रिय । ३६ जिस प्रकार हवा से उठी हुई धूल मेघवृष्टि से शात हो जाती है, उसी
प्रकार प्रज्ञा से स्वरूप का दर्शन होने पर मन के विकार शात हो जाते है ।
३७. आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुख पाता है ।
३८ चुगलखोर, क्रोधी, मत्सरी (डाह रखने वाला) और कजूस-इनको
सगति नही करनी चाहिए, क्योकि नीच पुरुषो की सगति करना पाप है।
३९. जो बहुश्रुत (विद्वान) होकर, अपने विशिष्ट श्रुतज्ञान के कारण अल्पश्रुत
की अवज्ञा करता है, वह मुझे अधे प्रदीपधर (अधा मसालची) की तरह
प्रतीत होता है। ४०. सत्पुरुषो ने अल्पेच्छता (कम इच्छा) की प्रशंसा की है।
४१. वही वात बोलनी चाहिए जिससे न स्वय को कष्ट हो और न दूसरो को __ हो । वस्तुत सुभापित वाणी ही श्रेष्ठ वाणी है ।
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सुत्तपिटक :
जातक' की सूक्तियां
१ न त जित साधु जित, य जितं अबजीयति । तं खो जितं साधु जित, य जित नावजीयति ॥
-१७०७० २. अकतझुस्स पोसस्स, निच्चं विवरदस्सिनो। सव्वं चे पठविं दज्जा, नेव न अभिराधय्ये ।।
-११७२।७२ ३. मित्तो हवे सत्तपदेन होति, सहायो पन द्वादसकेन होति । मासढमासेन च त्राति होति, ततुत्तरि अत्तसमो पि होति ।।
-११८३१८३ ४. यस लद्धान दुम्मेधो, अनत्थ चरति अत्तनो।
-११२२।१२२ ५. तदेवेकस्स कल्याण, तदेवेकस्स पापक । तस्मा सब्बं न कल्याणं, सब्बं वा पि न पापक ।।
-१११२६११२६ ६. पदुट्ठचित्तस्स न फाति होति, न चापि त देवता पूजयन्ति ।
-३।२८८५११४
१ भिक्ष जगदीश काश्यप सपादित, नवनालदा संस्करण ।
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सुत्तपिटक: जातक की सूक्तियां
___१. वह विजय अच्छी विजय नही है, जो बाद में पराजय मे बदल जाए ।
वह विजय श्रेष्ठ विजय है, जो कभी पराजय मे नही बदलती।
२. जो व्यक्ति अकृतज्ञ है, निरतर दोष देखता रहता है, उसे यदि सम्पूर्ण
भूमण्डल का साम्राज्य दे दिया जाय तव भी उसे प्रसन्न नही किया जा सकता। सात कदम साथ चलने से मित्र हो जाता है, बारह कदम से सहायक हो जाता है। महीना-पन्द्रह दिन साघ रहने से जाति वन्धु बन जाता है, इसमे
अधिक साथ रहने से तो आत्मसमान (अपने समान) ही हो जाता है । ___४. दुर्बुद्धि या पाकर अनर्थ ही करता है । अर्थात् उसे प्रगसा पच नही
पाती। ५. जो एक के लिए अच्छा है, वह दूसरे के लिए बुरा भी है, अत ससार
मे एकान्त रूप से न कोई अच्छा है और न कोई बुरा ही है ।
६. दुष्ट चित्त वाले व्यक्ति का विकास नही होता, और न उसका देवता
सन्मान करते हैं।
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एक सौ आठ
सूक्ति त्रिवेणी
७ कुलपुत्तो व जानाति, कुलपुत्त पसंसितु ।
-३।२६५।१३४ ८ यस्स गामे सखा नत्थि, यथा रञ तथेव तं ।
-४।३१५६६० है नहि सत्थ सुनिसित, विस हालाहलामिव । एव निकट्टे पातेति, वाचा दुभासिता यथा ।।
-४।३३१।१२२ १०. अलसो गिही कामभोगी न साधु,
असतो पव्वजितो न साधु । राजा न साधु अनिसम्मकारी, यो पण्डितो कोधनो तं न साधु ।।
-४।३३२।१२७ ११ निसम्मकारिनो राज, यसो कित्ति च वड्ढति ।
--४।३३२।१२८ १२ नो चे अस्स सका बुद्धि, विनयो वान सुसिक्खितो। वने अन्धमहिसो व, चरेय्य वहुको जनो ।।
-४|४०६८१ १३ वल हि वालस्म वधाय होति ।
-५।३५७।४२ १४ सीलेन अनुपेतस्स, सुतेनत्थो न विज्जति ।
-५।३६२।६६ १५ सव्व सुतमधीयेथ, हीनमुक्कट्ठमज्झिम ।
-५॥३७३।१२७ १६ धम्मो रहदो अकद्दमो, पापं सेदमल ति वुच्चति । सील च नव विलेपन, तस्स गन्धो न कदाचि छिज्जति ॥
--६३८८६२ १७. विवादेन किसा होन्ति ।
-~-७।४००।३७
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जातक की सूक्तिया
एक सोनो
७. कुलपुत्र ( खानदानी व्यक्ति) हो कुलपुत्र की प्रशंसा करना जानता है ।
८. जिसका गाँव मे कोई मित्र नही है, उसके लिए जैसा जगल, वैसा गाँव !
६. अत्यंत तीक्ष्ण शस्त्र और हलाहल विष भी उतनी हानि नही करता, जितना कि अविवेक से बोला हुआ दुर्वचन करता है ।
१०. सुख समृद्धि चाहने वाले गृहस्थ का आलसी होना अच्छा नही, प्रव्रजित का संयमी रहना अच्छा नही, राजा का अनिशम्यकारी (विना सुने समझे निर्णय करने वाला) होना अच्छा नही, ओर पडित का क्रोधी होना अच्छा नही ।
११. राजन् । सोच समझकर कार्य करने वालो का ही यश तथा कीर्ति बढती है |
१२. जिनका अपना ज्ञान नही है, और जो सदाचारी भी नही हैं, ऐसे लोग भूतल पर वन मे अंधे भेसे की तरह फिरते हैं ।
१३. मूर्ख का बल, उसी के वध के लिए हो जाता है ।
१४. शीलरहित व्यक्ति का मात्र श्रुत (ज्ञान) से कोई अर्थ सिद्ध नही हो पाता ।
१५. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, सभी प्रकार का श्रुत (ज्ञान) सीखना चाहिए ।
१६ धर्म कीचड से रहित निर्मल सरोवर है, पाप मन का स्वेद- मल ( पसीना ) है । शील वह अद्भुत गध-विलेपन है, जिसकी गन्ध कभी क्षीण नही होती ।
१७. विवाद से सभी जन क्षीण हो जाते हैं ।
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एक सौ दस
सूक्ति त्रिवेणी
१८ यो च दत्त्वा नानुतप्पे, तं दुक्करतरं ततो।
-७४०११४४
१६. साधु जागरत सुत्तो।
.-७।४१४।१४१
२०. धम्मो हवे हतो हन्ति ।
-८१४२२१४५
२१. जिह्वा तस्स द्विधा होति, उरगस्सेव दिसम्पति ।
यो जानं पुच्छितो पहं, अञथा नवियाकरे ॥
-८४२२।५०
२२. हीनेन ब्रह्मचरियेन, खत्तिो उपपज्जति ।
मज्झिमेन च देवत्त, उत्तमेन विसुज्झति ॥
-८४२४/७५
२३ अग्गी व तिणकट्ठस्मि, कोधो यस्स पवड्ढति । निहीयति तस्स यसो, कालपक्खे व चन्दिमा ॥
-१०।४४३१६० २४. नत्थि कामा पर दुखं ।
-११४५९९६
२५ पञ्चाय तित्तपुरिस, तण्हा न कुरुते वसं।
-१२।४६७१४३ २६ एरण्डा पुचिमन्दा वा, अथवा पालिभद्दका ।
मधु मधुत्थिको विन्दे, सो हि तस्स दुमुत्तमो । खत्तिया ब्राह्मणा वेस्सा, सुद्दा चण्डाल पुक्कुसा । यम्हा धम्म विजानेय्य, सो हि तस्स नरूत्तमो॥
।४७४।७-८
२७ हीनजच्चो पि चे होति, उट्ठाता धितिमा नरो । आचारसीलसम्पन्नो, निसे अग्गीव भासति ॥
-१५५०२।१५७
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जातक को सूक्तिया
एक सौ ग्यारह १८. जो दान देकर पछताता नहीं है, यह अपने मे बड़ा ही दुष्कर कार्य है ।
१६. साधु सोता हुआ भी जागता है ।
२०. धर्म नष्ट होने पर व्यक्ति नष्ट हो जाता है।
२१. जो जानता हुआ भी पूछने पर अन्यथा (झूठ) वोलता है, उसको जीम
साप की तरह दो टुकडे हो जाती है ।
२२. साधारण कोटि के ब्रह्मचर्य (सयम) से कमप्रधान क्षत्रिय जाति मे जन्म
होता है, मध्यम से देवयोनि मे और उत्तम ब्रह्मचर्य से आत्मा विशुद्ध होता है।
२३. घास व काठ मे पड़ी हुई अग्नि को तरह जिसका क्रोध सहसा भडक
उठता है, उसका यश वैसे ही क्षीण होता जाता है जैसे कि कृष्ण पक्ष मे
चन्द्रमा। २४. काम (इच्छा) से बढकर कोई दु ख नहीं है ।
२५. प्रज्ञा से तृप्त पुरुष को तृष्णा अपने वश मे नही कर सकती।
__ २६ चाहे एरण्ड हो, नीम हो या पारिभद्र (करपवृक्ष) हो, मधु चाहने वाले
को जहा से भी मधु मिल जाए उसके लिए वही वृक्ष उत्तम है । इमी प्रकार क्षत्रिय ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, चण्डाल,पुक्कुस आदि कोई भी हो, जिससे भी धर्म का स्वरूप जाना जा सके, जिज्ञासु के लिए वही मनुष्य उत्तम है।
२७ होन जाति वाला मनुष्य भी यदि उद्योगी है, धृतिमान है, आचार और - शील से सम्पन्न है तो वह रात्रि में अग्नि के समान प्रकाशमान होता है ।
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एक सौ बारह
सूक्ति त्रिवेणी
२८. उट्ठाहतो अप्पमज्जतो, अनुतिट्ठन्ति देवता।
-१७१५२११११ २६. नालसो विन्दते सुखं ।
-१७१५२१११२ ३०. द्वे व तात ! पदकानि, यत्थ सव्व पतिट्ठितं । उवलद्धस्स च यो लाभो, लद्धस्स चानुरक्खणा ॥
-१७१५२१११५ ३१. मा च वेगेन किच्चानि, करोसि कारयेसि वा। वेगसा हि कत कम्मं, मन्दो पच्छानुतप्पति ।।
-१७१५२११२१ ३२. पसन्नमेव सेवेय्य, अप्पसन्न विवज्जये। पसन्न पयिरुपासेय्य, रहदं वुदकत्थिको ।
-१८१५२८।१३१ ३३ यो भजन्त न भजति, सेवमानं न सेवति । स वे मनुस्सपापिट्ठो, मिगो साखस्सितो यथा ॥
-१८१५२८।१३३ ३४. अच्चाभिक्खणससग्गा, असमोसरणेन च । एतेन मित्ता जीरन्ति, अकाले याचनाय च ॥
--१८१५२८.१३४ ३५. अतिचिरं निवासेन, पियो भवति अप्पियो।
-१८।५२८४१३६ ३६ यस्स रुक्खस्स छायाय, निसीदेय्य सयेय्य वा। न तस्स साख भञ्जय, मित्तदुब्भो हि पापको ॥
-१८५२८।१५३ ३७ महारुक्खस्स फलिनो, आम छिन्दति यो फलं ।
रसञ्चस्स न जानाति, बीजञ्चस्स विनस्सति ।। महारुक्खूपम रठं, अधम्मेन पसासति ॥ रसञ्चस्स न जानाति, रट्ठञ्चस्स विनस्सति ।।
--१८१५२८१७२-१७३
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जातक को सूक्तिया
एक सौ तेरह
२८ उद्योगी और अप्रमादी व्यक्ति के अनुष्ठान मे देवता भी सहयोगी होते
२६ मालमी को सुस नही मिलता।
___३० हे तात, दो बातो मे ही सब कुछ सार समाया हुमा है-अप्राप्त को
प्राप्ति और प्राप्त का संरक्षण !
१ जल्दबाजी में कोई कार्य न तो पारना चाहिए और न करवाना चाहिए ।
जल्दबाजी में किये गये काम पर मूर्ख वाद मे पछताता है ।
__३२. प्रमन्नचित्त वाले के साथ ही रहना चाहिए, अपसन्नचिन वाले को छोड
देना चाहिए । प्रसन्न व्यक्ति का साथ वैसा ही सुखद है, जैसे जलार्थी के
लिए स्वच्छ सरोवर। ३३ जो अपने परिचित मित्रो के माथ उचित सपकं एव सद्व्यवहार नही
रखता है, वह पापिष्ठ मनुप्य गाकृति से मनुप्य होते हुए भी वृक्ष की
शाखा पर रहने वाले बन्दर के समान है। ___३४ वार-वार के अधिक समर्ग से, ससर्ग के सर्वथा छूट जाने से और असमय
को माग से मित्रता जीर्ण हो जाती है, टूट जाती है।
____३५. बहुत लम्बे समय के सवास (पाथ रहने ) से प्रिय मित्र भी अपिय
हो जाता है। ___३६ जिस वृक्ष की छाया मे वैठे या सोये, उसकी शाखा को तोडना नही
चाहिए। क्योकि मित्रद्रोही पापी होता है ।
फल वाले महान् वृक्ष के कच्चे फल को जो तोडता है, उसको फल का रम भी नहीं मिल पाता और भविष्य मे फलने वाला बीज भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार महान वृक्ष के समान राष्ट्र का जो राजा अधर्म से प्रशासन करता है, उसे राज्य का आनन्द भी नहीं मिलता है और राज्य भी नष्ट हो जाता है।
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एक सौ चौदह
३० महारुक्खस्स फलिनो, पक्कं छिन्दति यो फलं । रसञ्चस्स विजानाति, बीजञ्चस्स न नस्सति ॥ महारुक्खूपमं रट्ठ, घम्मेन यो पसासति । रसञ्चस्स विजानाति, रट्ठञ्चस्स न नस्सति ॥
३९ कालपक्वे यथा चन्दो, हायते व सुवे सुवे । कालपक्खूपमो राज, ग्रसतं होति समागमो ॥
४०. सुक्क पक्खे यथा चन्दो, वड्ढते व सुवे सुवे । सुक्कपक्खूपमो राज, सतं होति समागमो ॥
- १८१५२८११७४-१७५
४१
1
न सो सखा यो सखार जिनाति ।
४२ न ते पुत्ता ये न भरन्ति जिगं ।
४३ पूजको लभते पूज, वन्दको पटिवन्दनं ।
४४ अज्जेव किच्च प्रातप्प, को जञ्ञा मरण सुवे ?
४५. कर पुरिस किच्चानि, न च पच्छानुतप्पति ।
४६ सव्वे वण्णा अधम्मट्ठा, पतन्ति निरयं प्रघो । सव्वे वण्णा विसुज्झन्ति चरित्वा धम्ममुत्तम ॥
४७ बालूपसेवी यो होति, बालो व समपज्जथ ।
सूक्ति त्रिवेणी
४८ नहि राजकुलं पत्तो, अञ्ञातो लभते यस ।
-२११५३७१४८४
-२१।५३७।४८६ -
- २११५३० १४६१
—२१।५३७१४ε१
- २२१५३८।१७
-२२/५३८।१२१
-२२।५३६।१२६
-२२।५४११४३९
- २२।५४५।१२३६
-२२।५४६।१४७३
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सातक को सूक्तियो
एक सौ पन्द्रह ३८, फल वाले महान वृक्ष के पके हुए फन को नो तोडता है, उसको फल का
रस भी मिलता है और भविष्य मे फलने वाला बोज भी नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार जो राजा महान वृक्ष के समान राष्ट्र का धर्म से प्रशासन करता है वह राज्य का रस ( अानन्द ) भी लेता है और उसका राज्य
भी सुरक्षित रहता है। ३६ हे राजन् । कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह असत्पुरुपो की मैत्री पतिदिन
क्षीण होती जाती है।
४०
हे राजन् । शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह सत्पुरुपो की मैत्री निरंतर वढती जाती है।
४१ वह मित्र अच्छा मित्र नहीं है, जो अपने मित्र को ही पराजित करता है।
४२ वह पुत्र अच्छा पुत्र नही है, जो अपने वृद्ध गुरुजनो का भरण पोपण नही
करता। ४३, पूजा (सत्कार) के बदले मे पूजा मिलती है, और वन्दन के बदले मे
प्रतिवन्दन । ४४. आज का काम आज ही कर लेना चाहिए, कौन जाने कल मृत्यु ही आ
जाए? ४५. जो व्यक्ति समय पर अपना काम कर लेता है, वह पीछे पछताता नही ।
४६. सभी वर्ग के लोग अधर्म का आचरण करके नरक मे जाते है, और उत्तम
धर्म का पाचरण करके विशुद्ध होते हैं ।
४७ मूरों की संगति करने वाला मूर्ख ही हो जाता है।
४८. वडे लोगो के यहा अपरिचित व्यक्ति को प्रतिष्ठा नहीं मिलती।
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विसुद्धिमग्ग को सूक्तियां
१ सीले पतिट्ठा य नरो सपञो, चित्तं पञञ्च भावय । आतापी निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं।'
२. अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा।
-११ -११
३. विसुद्धी ति सब्बमलविरहितं अच्चतपरिसुद्ध
निब्बान वेदितब्ब ।
--११५
४. सब्वदा सील सम्पन्नो, पञ्चवा सुसमाहितो। __पारद्धविरियो पहितत्तो, श्रोघं तरति दुत्तरं ॥
-१६
* आचार्य धर्मानन्द कौशाम्बी द्वारा सपादित, भारतीय विद्याभवन (बम्बई)
सस्करण । १-सयुत्त नि० १।३।३ । २-सयुत्त नि० ११३१३ । ३-सयुत्त नि० २१२१५
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विसुद्धिमग्ग को सूक्तियां
१. जो मनुष्य प्रज्ञावान् है, वीर्यवान् है और पण्डित है, भिक्षु है, वह शील
पर प्रतिष्ठित होकर सदाचार का पालन करता हुआ, चित्त (समाधि) और प्रज्ञा की भावना करता हुमा इस जटा (तृष्णा) को काट सकता
२. भीतर जटा (तृष्णा) है, बाहर जटा है, चारो ओर से यह सब प्रजा
जटा से जकडी हुई है। ३ सब प्रकार के मलो से रहित अत्यत परिशुद्ध निर्वाण ही विशुद्धि है ।
४. शीलसम्पन्न, बुद्धिमान, चित्त को समाधिस्थ रखने वाला, उत्साही और
सयमी व्यक्ति कामनाओ के प्रवाह को (ओघ) तैर जाता है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
__ एक सौ अठारह ५. विरिय हि किलेसानं आतापानपरितापनछैन
आतापो ति बुच्चति ।
-१७
६ ससारे भय इक्खतीति-भिक्खु ।
-१७
७ सीलं सासनस्स आदि।
-१११०
८. सेलो यथा एकघनो, वातेन न समीरति ।
एव निंदापससासु न समिञ्जति पण्डिता ॥४
-१११०
६. सीलेन च दुच्चरितसंकिलेसविसोधनं पकासित होति,
समाधिना तण्हासकिलेसविसोधनं, पआय दिट्टिसकिलेसविसोधन ।
-१११३
१०. सिरट्ठो सीलट्ठो, सीतलट्ठो सीलट्ठो।
-~-११६
११. हिरोत्तप्पे हि सति सील उप्पज्जति चेव तिट्ठति च,
असति नेव उप्पज्जति, न तिट्ठति ।
-१।२२
१२. सीलगन्धसमो गन्धो कुतो नाम भविस्सति ।
यो समं अनुवाते च पटिवाते च वायति ।
-१।२४
१३. सग्गारोहणसोपान अझं सीलसमं कुतो?
द्वार वा पन निब्बान-नगरस्स पवेसने ।।
-१।२४
-
४-धम्मपद ६१६
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विसुद्धिमग्ग को सूक्तियां
एक सौ उन्नीस ५ वीर्य (शक्ति) ही क्लेशो को तपाने एव झुलसाने के कारण आताप कहा
जाता है।
६. जो समार मे भय देखता है-वह भिक्षु है ।
७. शील धर्म का आरभ है, आदि है ।
८ जैसे ठोस चट्टानो वाला पहाड वायु से प्रकम्पित नही होता है, वैसे ही
पडित निन्दा और प्रशसा से विचलित नही होते ।
६ शील से दुराचार के संक्लेश (बुराई) का विशोधन होता है ।
समाधि से तृष्णा के सक्लेश का विशोधन होता है। प्रज्ञा से दृष्टि के सक्लेश का विगोधन होता है ।
१० शिरार्थ' (शिर के समान उत्तम होना) शील का अर्थ है । शीतलार्थ
(शीतल-शात होना) शील का अर्थ है ।
११. लज्जा और सकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है ।
लज्जा और मकोच के न होने पर शील न उत्पन्न होता है, और न
ठहरता है। १२. शील की गन्ध के समान दूसरी गध कहाँ होगी ? जो पवन की अनुकूल
और प्रतिकूल दिशाओ मे एक समान बहती है।
१३. स्वर्गारोहण के लिए शील के समान दूसरा सोपान (सीढी) कहां है ?
निर्वाणरूपी नगर मे प्रवेश करने के लिए भी शील के समान दूसरा द्वार कहां है ?
१-शिर के कट जाने पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती है--वैसे ही शील के
टूट जाने पर मनुष्य का गुणरूप शरीर नष्ट हो जाता है। इसलिए शील शिराथं है।
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एक सौ बीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४. सोभन्तेवं न राजानो मुत्तामणिविभूसिता ।
यथा सोभति यतिनो, सीलभूसनभूसिता ।।
-११२४
१५ सद्धाविरियसाधन चारित्त।
-११२६
१६. विनयो सवरत्थाय, सवरो अविप्पटिसारत्थाय,
अविप्पटिसारो पामुज्जत्थाय ।"
-११३२
१७ नाभिजानामि इत्थी वा पुरिसो वा इतो गतो।
अपि च असिघाटो, गच्छतेस महापथे ।।
-११५५
१८. किकीव अण्डं चमरी व वालधि,
पिय व पुत्त नयन व एककं । तथेव सील अनुरक्खमानका, सुपेसला होथ सदा सगारवा ।।
--१९८
१६ रूपेसु सद्देसु अथो रसेसु,
गन्धेसु फस्सेसु च रक्ख इन्द्रियं । एतेहि द्वारा विवटा अरक्खिता, हनन्ति गाम व परस्सहारिनो।
-१११०१
५-विनयपिटक, परिवार पालि । ६४
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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियाँ
एक सौ इक्कीस १४. वहुमूल्य मुक्ता और मणियो से विभूपित राजा ऐमा सुशोभित नही
होता है, जैसा कि शील के प्राभूपणो से विभूषित माधक सुशोभित होता
१५. श्रद्धा और वीर्य (शक्ति) का साधन (स्रोत) चारित्र है ।
१६ विनय संवर (मदाचार) के लिए है, सवर पछतावा न करने के लिए है,
पछतावा न करना पमोद के लिए है ।
१७ मैं नहीं जानता कि स्त्री या पुरुप इधर से गया है । हाँ, इस महामार्ग मे
एक हड्डियो का समूह अवश्य जा रहा है ।
१८. जैसे टिटहरी अपने अण्डे की, चमरी अपनी पूछ की, माता अपने
इकलौते प्रिय पुत्र की, काना अपनी अकेली आँतो की सावधानी के साथ रक्षा करता है, वैसे ही अपने शील की अविच्छिन्न रूप से रक्षा करते हुए उसके प्रति सदा गौरव की भावना रखनी चाहिए ।
१६ रूप, शब्द, रस, गन्य और स्पर्शो से इन्द्रियो की रक्षा करो । इन द्वारो
के खुले और अरक्षित होने पर साधक दस्युओ द्वारा लुटे हुए गाँव की तरह नष्ट हो जाता है।
२ श्री लका के अनुराधपुर मे स्थविर महातिष्य भिक्षाटन के लिए घूम रहे
थे । उसी रास्ते एक कुलवधू अपने पति से झगडा करके सजीधजी अपने मायके जा रही थी। स्थविर को देख कर वह कामासक्त तरुणी खूब जोरो से हंसी । स्थविर ने उसके दात की हड्डियो को देखा, और उन पर विचार करते-करते ही वे महत्व स्थिति को प्राप्त हो गए। पीछे से उसका पति पत्नी की खोज करता हुआ आया और स्थविर मे पूछा--इधर से कोई स्त्री नित ली ? महातिष्य स्थविर ने तब उपयुक्त गाथा कही ।
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एक सौ बाईस
सूक्ति त्रिवेणी
२० मक्कटो व अरम्हि वने भंतमिगो विय ।
वालो विय च उत्रस्तो न भवे लोललोचनो ॥
-१११०८
२१. धनं चजे अगवरस्स हेतु,
अगं चजे जीवितं रक्खमानो । अंग धन जीवितञ्चापि सव्व, चजे नरो धम्ममनुस्सरन्तो ।।
-११३३
२२ सुखं कुतो भिन्नसीलस्स ?
-११५८
२३. मधुरोपि पिण्डपातो हलाहलविसूपमो असीलस्स ।
-११५८
२४ अत्तानुवादादिभय सुद्धसीलस्स भिक्खुनो।
अंधकारं विय रवि हृदय नावगाहति ॥
-१।१५६
२५. य लद्ध तेन सतुट्ठो यथासन्थतिको यति ।
निम्विकप्पो सुख सेति तिणसन्थरणेसु पि ।।
-२०७२
२६ कुसलचित्त कम्गता समाधि ।
-३२
२७. सुखिनो चित्त समाधीयति ।
-३।४
२८. पियो गरू भावनीयो, वत्ता च वचनक्खमो।
गभीरं च कथं कत्ता, नो चट्टाने नियोजये ।।
-३६१
२६. यथा रागो अहितं न परिच्चजति,
एवं सद्धा हित न परिच्चजति ।
-३७५
६-दीघ निकाय ११२।
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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियां
एक सौ तेईस २० जगल मे रहने वाले बन्दर की तरह, वन मे दौडने वाले चचलमृग की
तरह और मूर्ख मनुष्य की तरह, साधक को त्रस्त एवं चचल नेत्रो वाला
नही होना चाहिए। २१ आवश्यक अग को बचाने के लिए धन का त्याग करे, जिन्दगी की रक्षा
के लिए अग का भी त्याग कर दे । और धर्म का अनुसरण करते हुए (आवश्यकता पड़ने पर) धन, अग और जीवन का भी त्याग करदे ।
२२ जिसका शील (सदाचार) भग्न हो गया है उसे ससार मे सुख कहाँ ?
२३ अशीलवान (यसदाचारी भिक्षु) के लिए मीठा भिक्षान भी हलाहल
विष के समान है। २४. शुद्ध शील से सपन्न भिक्षु के हृदय मे अपनी निन्दा आदि का भय नही
रहता जैसे कि सूर्य को अधकार का भय नहीं रहता।
२५ जो प्राप्त हो उसी मे सतुष्ट रहने वाला यथासस्तरिक भिक्षु तृणो के
विछोने पर भी निर्विकल्प भाव से सुखपूर्वक सोता है ।
२६ कुशल (पवित्र) चित्त की एकाग्रता ही समाधि है ।
२७. सुखी का चित्त एकाग्र होता है ।
२८ प्रिय, गौरवशाली, आदरणीय, प्रवक्ता, दूसरो की बात सहने वाला,
गंभीर बातो को बतलाने वाला और अनुचित कामो मे नही लगाने
वाला-कल्याण मित्र है। २६. जैसे राग अहित (बुराई) करना नहीं छोड़ता, ऐसे ही श्रद्धा हित
(भलाई) करना नहीं छोडती।
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एक सौ चौबीस
सूक्ति त्रिवेणी ३०. निमित्त रक्खतो लद्ध-परिहानि न विज्जति । आरक्खम्हि असतम्हि लद्ध लद्ध विनस्सति ॥
-४।३४ ३१ समाहित वा चित्त थिरतरं होति ।
-४।३६ ३२ कायदल्ही बहुलो पन तिरच्छान कथिको असप्पायो। सो हि त, कद्दमोदकमिव अच्छ उदक, मलिनमेव करोति ।
-४।३६
३३ बलवसद्धो हि मन्दपञ्नो मुद्धप्पसन्नो होति,
अवत्थुस्मि प्रसीदति ।
-४|४७
३४ बलवपञो मन्दसद्धो केराटिकपक्ख भजति,
भेसज्जसमुट्ठितो विय रोगो अतेकिच्छो होति ।
-४/४७
३५ हित्वा हि सम्मा वायाम, विसेस नाम मानवो।
अधिगच्छे परित्तम्पि, ठानमेत्त न विज्जति ॥
-४।६६
३६ अच्चारद्ध निसेधेत्वा, सममेव पवत्तये ।
--४०६६
३७ खुदिद्का पीति सरीरे लोमहसमेव कातु सक्कोति ।
खरिणका पीति खणे खरणे विज्जुप्पादसदिसा होति ॥
~~ ४।६४
३८ यत्थ पीति, तत्थ सुखं ।
यत्थ सुख, तत्थ न नियमतो पीति ।
-४११००
३६ मतसरीरं उट्ठहित्वा अनुबन्धनक नाम नत्थि ।
-६५७
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विसुद्धिमग्ग की मूक्तिया
एक सौ पच्चीस ३० प्राप्त निमित्त को अप्रमत्त भाव से सुरक्षित रखने वाले की परिहानि
नही होती, किन्तु अरक्षित होने पर प्राप्त निमित्त कैसा ही क्यो न
अच्छा हो, नष्ट हो जाता है । __ ३१. ममाहित (एकाग्र हुआ) चित्त ही पूर्ण स्थिरता को प्राप्त होता है ।
३२ निरन्तर अपने शरीर को पोसने मे ही सलग्न व्यर्थ की बाते बनाने
वाला व्यक्ति सम्पर्क के अयोग्य है । जैसे कीचड वाला पानी स्वच्छ पानी को गन्ला करता है, ऐसे ही वह अयोग्य व्यक्ति भी साधक के स्वच्छ
जीवन को मलिन बनाता है। ३३. बलवान श्रद्धावाला, किन्तु मन्द प्रज्ञावाला व्यक्ति बिना सोचेसमझे
हर कही विश्वास कर लेता है, अवस्तु (अयोग्य वस्तु एव व्यक्ति) मे
भी सहसा प्रसन्न (अनुरक्त) हो जाता है। ३४ बलवान् प्रज्ञावाला, किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कपटी हो जाता है ।
वह औपधि मे ही उत्पन्न होने वाले रोग के समान असाध्य (लाइलाज)
होता है। ३५ यथोचित सम्यक् प्रयत्न के बिना मनुष्य थोडी-सी भी उन्नति (प्रगति)
कर ले, यह कथमपि सभव नही है ।
३६. साधना के क्षेत्र मे एकदम वीर्य (क्ति) के अत्यधिक प्रयोग को
रोक कर साधक को देश, काल, एव परिस्थिति के अनुकूल सम प्रवृत्ति
ही करनी चाहिए। ३७. क्षुद्रिका प्रीति शरीर मे केवल हलका-सा लोमहर्पण (रोमाच) ही कर
सकती है। क्षणिका प्रीति क्षण क्षण पर विद्युत्पात (बिजली चमकने) के समान
होती है। ३८. जहां प्रीति है, वहाँ सुख है । जहाँ सुख है, वहाँ नियमत प्रीति नही भी
होती है।
३६. मृत शरीर उठकर कभी पीछा नहीं करता।
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एक सौ अट्ठाईस
४६ कोधन्धा श्रहितं मग्ग, रुल्हा यदि वेरिनो । कस्मा तुवम्पि कुज्भन्तो, तेसं येवानुसिक्खसि ॥
५० यानि रक्खसि सीलानि, तेसं मूलनिकन्तनं । कोध नामुपलाले सि को तया सदिसो जलो ||
1
५१ आसिसेथेव पुरिसो, न निब्बिन्देय्य पण्डितो । परसामि वोहमत्तानं यथा इच्छि तथा अहं ॥
५२. अत्तनो सन्तक परस्स दातब्ब, परस्स सन्तक प्रत्तना गहेतब्बं ।
५३ अदन्तदमन दान, दान
सब्बत्यसाधक ।
दानेन पियवाचाय, उण्णमन्ति नमन्ति वा ॥
सूक्ति त्रिवेणी
५४ उरे श्रामुत्तमुत्ताहारो विय, सीसे पिलन्धमाला विय च मनुस्सान पियो होति मनापो ।
५५ मेत्ताविहारिनो खिप्पमेव चित्त समाधीयति ।
५६. पठम वेरिपुग्गलो करुणायितब्बो ।
५७. परदुक्खे सति साधून हृदयकम्पन करोती ति करुणा । किरणाति वा परदुक्खं, हिसति विनासेती ति करुणा ।
५८ अन्नं पानं खादनीयं, भोजनञ्च महारह | एकद्वारेन पविसित्वा, नवहि द्वारेहि सन्दति ॥
- हा२२
- ह २२
- ६/२७
-६1३६
- ६।३६
- ६/६३
-६१७३
- हा८२
- हा६२
—११/२३
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विशुद्धिमग्ग को सूक्तियां
एक सौ उनतीस
४६. क्रोध से अन्धे हुए व्यक्ति यदि बुराई की राह पर चल रहे हैं, तो तू भी क्रोध कर के क्यों उन्ही का अनुसरण कर रहा है
?
५०. तू जिन शीलो (सदाचारप्रधान व्रतो ) का पालन कर रहा है, उन्हीं की जड को काटने वाले क्रोध को दुलराता है, तेरे जैसा दूसरा जड कौन है ?
५१. बुद्धिमान् पुरुष को सदैव आशावान् प्रसन्न रहना चाहिए, उदास नही । मैं अपने को ही देखता हूँ कि मैंने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ ।
५२
५३
समय पर अपनी वस्तु दूसरे को देनी चाहिए, और दूसरे की वस्तु स्वय लेनी चाहिए ।
दान
दान अदान्त ( दमन नही किये गए व्यक्ति) का दमन करने वाला है, सर्वार्थ का साधक है, दान और प्रिय वचन से दायक ऊँचे होते हैं, नोर प्रतिग्राहक झुकते हैं ।
५४ मैत्री भावना वाला व्यक्ति वक्ष पर बिखरे हुए मुक्ताहार के समान और शिर पर ग्रंथी हुई माला के समान मनुष्यो का प्रिय एव मनोहारी होता है ।
५५ मंत्री के साथ विहरने वाले का चित्त शीघ्र हो समाधिस्थ होता है ।
५८
५६ सर्वप्रथम अपने विरोधी शत्रु पर ही करुणा करनी चाहिए ।
५७ दूसरे को दुःख होने पर सज्जनो के हृदय को कँपा देती है, इसलिए करुणा, करुणा कही जाती है ।
दूसरे के दुःख को खरीद लेती है, अथवा नष्ट कर देती है, इसलिए भी करुणा करुणा है ।
अन्न, पान (पेय), खादनीय और भी बहुत सा सुन्दर शरीर मे एक द्वार से प्रवेश करता है और नव जाता है ।
भोजन मनुष्य के
द्वारो से निकल
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एक सौ छत्रीस
४० स चे इमस्स कायस्स, ग्रन्तो बाहिरको सिया । दण्डं नूनं गहेत्वान, काके सोणे निवारये ॥
किलेसारीन सो मुनि । पच्चयादीन चारहो ।
न रहो करोति पापानि, ग्ररह तेन पवुच्चति ॥
४१. आरकत्ता हतत्ता च, हतससारचक्कारो,
४२ भग्गरागो भग्गदोसो, भग्गमोहो अनासवो । भग्गास्स पापका धम्मा, भगवा तेन वुच्चति ॥
४३ सव्वं योब्बन जरापरियोसान, सब जीवितं मरणपरियोसान ।
४४ खंत्या भिय्यो न विज्जति । "
सूक्ति त्रिवेणी
४५. खन्ती परम तपो तितिक्खा ।"
४६ वेरिमनुस्सरतो कोधो उप्पज्जति ।
४७. कुद्ध अप्पटिकुज्झतो सङ्ग्राम जेति दुज्जय ।
४८. उभिन्नमत्य चरति, अत्तनो च परस्स च । परं संकुपितं त्वा, यो सतो उपसम्मति ॥
९
- ६१९३
-७/२५
७५६
- ८११५
-६१२
-६२
-हापू
- ६११५
-६।१५
७ - संयुत्तनिकाय ११२२२ । ८ - धम्मपद १४/६ । ६-सयुत्तनिकाय ११४ ।
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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियां
एक मो सत्ताईस
४०. यदि इस शरीर के अन्दर का भाग बाहर मे हो जाए तो अवश्य ही डडा लेकर कौवो और कुत्तो को रोकना पडे ।
४१ जो सब क्लेगो से भार (दूर) हो गया है, जिसने क्लेशरूपी वैरियो को हनन (नप्ट) कर डाला है, जिसने ससारचक्र के आरो को हत ( नष्ट कर दिया है, जो प्रत्यय (पूजा) आदि के अहं (योग्य) है, जां
अ + रह ( छिपे हुए) पाप नही करता है, इसलिए वह बरह (अर्हत ) कहा जाता है ।
४२. जिसका राग भग्न है, द्व ेष भग्न है, मोह भग्न है, किं बहुना, जिसके सभी पापधर्म भग्न होगए हैं, इसलिए वह भगवान् कहा जाता है ।
४३ सारी जवानी बुढापे के आने तक है । सारा जीवन मृत्यु के आने तक है ।
४४. क्षमा से बढ़कर अन्य कुछ नही है ।
४५. क्षमा, तितिक्षा ( सहनशीलता) परम तप है |
४६. वंरी (शत्रु) का अनुस्मरण करने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
४७. क्रोधी के प्रति क्रोध नही करने वाला दुर्जय सग्राम को भी जीत लेता है ।
४८. दूसरे को कुपित जानकर भी जो स्मृतिमान् शान्त रहता है, वह अपना और दूसरे का - दोनो का भला करता है ।
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एक सौ अट्ठाईस
सूक्ति त्रिवेणी ४६ कोधन्धा अहितं मग्ग, पारुल्हा यदि वेरिनो। कस्मा तुवम्पि कुज्झन्तो, तेसं येवानुसिक्खसि ॥
-६२२ ५० यानि रक्खसि सीलानि, तेसं मूलनिकन्तनं । कोध नामुपलालेसि, को तया सदिसो जलो ।।
-६२२ ___५१ आसिसेथेव पूरिसो, न निबिन्देय्य पण्डितो। पस्सामि वोहमत्तानं, यथा इच्छि तथा अह।
-९२७
५२. अत्तनो सन्तकं परस्स दातब्ब,
परस्स सन्तक अत्तना गहेतब्वं ।
-~~६।३६
५३ अदन्तदमन दान, दान सम्बत्थसाधक ।
दानेन पियवाचाय, उण्णमन्ति नमन्ति वा ॥
-६३६
५४ उरे प्रामुत्तमुत्ताहारो विय, सीसे पिलन्धमाला विय च मनुस्सान पियो होति मनापो।
-९६३ ५५ मेत्ताविहारिनो खिप्पमेव चित्त समाधीयति ।
-६७३ ५६. पठम वेरिपुग्गलो करुणायितब्बो।
-९८२ ५७. परदुक्खे सति साधून हृदयकम्पनं करोती ति करुणा। किणाति वा परदुक्ख, हिंसति विनासेती ति करुणा।
-६६२ ५८ अन्नं पान खादनीय, भोजनञ्च महारहं । एकद्वारेन पविसित्वा, नवहि द्वारेहि सन्दति ।।
-११।२३
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विसुद्धिमग्ग की मूक्तिया
एक सो उनतीस ४६. क्रोध से अन्धे हुए व्यक्ति यदि बुराई की राह पर चल रहे हैं, तो तू भी
क्रोध कर के क्यो उन्ही का अनुसरण कर रहा है ? ५० तू जिन शीलो (सदाचारप्रधान व्रतो) का पालन कर रहा है, उन्हीं की जड
को काटने वाले क्रोध को दुलराता है, तेरे जैसा दूसरा जड कौन है ?
५१. बुद्धिमान् पुरुष को सदैव आशावान् प्रमन्न रहना चाहिए, उदास नही । मैं
अपने को ही देखता हूँ कि मैंने जैसा चाहा, वैसा ही हुमा ।
___५२ समय पर अपनी वस्तु दूसरे को देनी चाहिए, और दूसरे को वस्तु स्वय
लेनी चाहिए।
५३ दान अदान्त (दमन नही किये गए व्यक्ति) का दमन करने वाला है, दान
सर्वार्थ का साधक है, दान और प्रिय वचन से दायक ऊँचे होते हैं, और प्रतिग्राहक झुकते हैं। मंत्री भावना वाला व्यक्ति वक्ष पर बिखरे हुए मुक्ताहार के समान और शिर पर गूथी हुई माला के समान गनुष्यो का प्रिय एव मनोहारी होता
___५५ मंत्री के साथ विहरने वाले का चित्त शीघ्र ही समाधिस्थ होता है ।
५६ सर्वप्रथम अपने विरोधी शत्रु पर ही करुणा करनी चाहिए।
५७ दूसरे को दु ख होने पर सज्जनो के हृदय को कँपा देती है, इसलिए
करुणा, करुणा कही जाती है । दूसरे के दु.ख को खरीद लेती है, अथवा नष्ट कर देती है, इसलिए भी
करुणा करुणा है। ५८ अन्न, पान (पेय), खादनीय और भी बहुत सा सुन्दर भोजन मनुष्य के
शरीर मे एक द्वार से प्रवेश करता है और नव द्वारो से निकल जाता है।
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एक सौ तीस
सूक्ति त्रिवेणी ५६. अन्नं पानं खादनीय,। भोजनञ्च महारहं । भुञ्जति अभिनन्दन्तो, निक्खामेन्तो जिगुच्छति ।।
-११।२३ ६०. अन्नं पानं खादनीयं, भोजनञ्च महारहं । एकरत्ति परिवासा, सव्व भवति पूतकं ॥
-१११२३ ६१. रागो रजो न च पन रेणु बुच्चति,
रागस्सेतं अधिवचन रजो ति । दोसो रजो न च पन रेणु बुच्चति, दोसस्सेन अधिवचन रजो ति ।।
-१२१६३
६२. वीरभावो विरिय । त उस्साहनलक्खणं ।
--१४।१३७ ६३ सम्मा पारद्धं सब्बासंपत्तीन मूलं होति ।
-१४।१३७ ६४. अत्तान हि गरुं कत्वा हिरिया पाप जहाति कुलवधू विय ।
--१४।१४२ ६५. सद्धम्मतेजविहतं विलयं खगेन, वेनेय्यसत्तहदयेसु तमो पयाति ।
-१५॥३३ ६६. अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्ख,
पियेहि विप्पयोगो दुक्ख ।"
६७. यथा पि मूले अनुपदवे दल्हे,
छिन्नो पि रुक्खो पुनरेव रूहति । एवम्पि तहानुसये अनूहते, निबत्तति दुक्ख मिदं पुनप्युन ।।११
-१६।६२
१०-सयुक्त निकाय ५४।२।१ ११-धम्मपद २४१५
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विसुद्धिमा की सूक्तिया
एक सौ इकत्तीस ५६ अन्न, पान, खादनीय और भी व त से सुन्दर भोजन को मनुष्य अभिनन्द
करता हुआ अर्थात् सराहता हुआ खाता है, किन्तु निकालते हुए घृणा करता है। अन्न, पान, खादनीय और भी बहुत सा सुन्दर भोजन एकरात्रि के परिवाम मे (वामी होते) हो सब सड जाता है ।
६०
६१. राग ही रज (धूल) है, रेणु (धूल) रज नही है । 'रज' यह राग का ही
नाम है। द्वप ही रज है, रेणु रज नहीं है । 'रज' यह कैप का ही नाम है ।
६२ वीरभाव ही वीर्य है । उसका लक्षण है-उत्साहित होना ।
६३ सम्यक् प्रकार (अच्छी तरह) से आरभ किया गया कर्म ही सब
सम्पत्तियो का मूल है । ६४. माधक अपने आप को गौरवान्वित करके कुलवध के समान लज्जा से
पाप को छोड़ देता है। ६५ सदाचारी सत्व के हृदय का अन्धकार सद्धर्म के तेज मे क्षण भर मे ही
विलय को प्राप्त हो जाता है ।
६६ अप्रिय से सयोग होना दुःख है । प्रिय मे वियोग होना दुख है ।
६७ जैसे सुदृढ म्ल (जड) के विल्कुल नष्ट हुए विना कटा हुआ वृक्ष फिर भी
उग आता है, वैसे ही तृष्णा एव अनुशय (मल) के समूल नष्ट हुए बिना यह दुःख भी बार-बार उत्पन्न होता रहता है ।
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एक सौ बत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
६८ सीहसमानवुत्तिनो हि तथागता, ते दुक्ख निरोधेन्ता
दुक्ख निरोधञ्च देसेन्ता हेतुम्हि पटिपज्जन्ति, न फले। सुवानवृत्तिनो पन तित्थिया, ते दुक्खं निरोधेन्ता दुक्खनिरोधञ्च देसेन्ता, अत्तकिलमथानुयोगदेसनादीहि फले पटिपज्जन्ति, न हेतुम्हि ।
६६. विरागा विमुच्चति ।१२
-१६०६४
७०. यथापि नाम जच्चधो नरो अपरिनायको।
एकदा याति मग्गेन कुमग्गेनापि एकदा ॥ ससारे ससरं बालो, तथा अपरिनायको । करोति एकदा पुन अपुञमपि एकदा ॥
-११११६
७१ दुक्खी सुखं पत्थयति, सुखी भिय्योपि इच्छति ।
उपेक्खा पन सन्तत्ता, सुखमिच्चेव भासिता ।।
-१७१२३८
७२ उभो निस्साय गच्छन्ति, मनुस्सा नावा च अण्णवे। एव नामञ्च रूपञ्च, उभो अञोञनिस्सिता ॥
-१८१३६
१२-मज्झिमनिकाय ३२२० ।
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विसुद्धिमग्ग की सूक्तिया
एक सौ तेतीस
६८ तथागत ( प्रवुद्ध जानी) सिंह के समान स्वभाव वाले होते हैं । वे स्वयं दु.ख का निरोध करते हुए तथा दूसरो को दु.खनिरोध का उपदेश देते हुए हेतु मे केन्द्रित रहते हैं, फल मे नही । परंतु अन्य साधारण मताग्रही जन कुत्ते के समान स्वभाव वाले होते है, वे स्वय दुख का निरोध करते हुए तथा दूसरो को दु.खनिरोध का उपदेश देते हुए अत्तकिल मचानुयोग (नाना प्रकार के देहदड रूप वाह्यतप के उपदेश आदि) से फल में ही केन्द्रित रहते हैं, हेतु मे नही ।
६६. विराग से ही मुक्ति मिलती है ।
७०
जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति हाथ पकडकर ले चलने वाले साथी के अभाव मे कभी मार्ग से जाता है तो कभी कुमार्ग से भी चल पडता है । उसी प्रकार ससार मे परिभ्रमण करता हुआ बाल (अज्ञानी) पथप्रदर्शक सद्गुरु के अभाव मे कभी पुण्य का काम करता है तो कभी पाप का काम भी कर लेता है ।
७१. दुखी सुख की इच्छा करता है, सुखी और अधिक सुख चाहता रहता
है | कितु दुख सुख मे उपेक्षा ( तटस्य ) भाव रखना ही वस्तुत सुख है ।
A
७२. जिस प्रकार मनुष्य और नौका--दोनो एक दूसरे के सहारे समुद्र मे गति करते हैं, उसी प्रकार सप्तार मे नाम और रूप दोनो अन्योन्याश्रित हैं ।
३ - सिंह किसी दण्ड आदि वस्तु से चोट खाने पर उस वस्तु का नही, किन्तु मारने वाले का पीछा करता है, जब कि कुत्ता वस्तु की ओर दौडता है, मारने वाले की ओर नही ।
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सूक्ति करण
१. एकं नाम कि ? सब्बे सत्ता प्रहारट्ठतिका ।
२. द्वो नाम कि ? नाम च रूप च ।
३ असेवना बालान, पडितानं च सेवना । पूजा च पूजनीयान, एतं मगलमुत्तम ॥
४ वाहुसच्च च सिप्पं च विनयो च सुसिक्खितो । सुभासिता च या वाचा, एतं मंगलमुत्तम ॥
५. दान च धम्मचरिया च त्रातकानां च सगहो । अनवज्जानि कम्मानि एतं मगलमुत्तमं ॥
- खुद्दक पाठ,
४
-५२
---५१४
-५/६
६ सव्वे व भूता सुमना भवन्तु ।
- ६/१
* मूक्तिकण मे उद्धृत सभी ग्रन्थ भिक्षु जगदीश काश्यप संपादित नवनालंदा संस्करण के है |
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सूक्ति
करण
१. एक वात क्या है ? सभी प्राणी आहार पर स्थित हैं।
२. दो बात क्या हैं ? नाम और रूप ।
३. मूखों से दूर रहना, पडितो का सत्संग करना, पूज्यजनो का सत्कार
करना-यह उत्तम मगल है ।
४. बहुश्रुत होना, शिल्प सीखना, विनयी-शिष्ट होना, सुशिक्षित होना और
सुभापित वाणी बोलना-यह उत्तम मगल है ।
५. दान देना, धर्माचरण करना, बन्धु-बान्धवो का आदर सत्कार करना
और निर्दोष कर्म करना-यह उत्तम मगल है।
६. विश्व के सभी प्राणी सुमन हो, प्रसन्न हो ।
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एक सौ छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी ___७ चेतोपरिणधिहेतु हि, सत्ता गच्छन्ति सुग्गति ।
-विमानवत्यु १।४७।८०६ ८ नत्थि चित्त पसन्नम्हि, अप्पका नाम दक्खिणा।
-१४८/८०४ ६ यहि यहिं गच्छति पुनकम्मो, तहि तहिं मोदति कामकामी।
-२॥३४॥४०० १० सञ्जानमानो न मुसा भरणेय्य, पल्पघाताय न चेतयेय्य ।
--२।३४१४११ ११ सुखो हवे सप्पुरिसेन संगमो।
-२॥३४॥४१५ १२. उन्नमे उदक वुट्ठ, यथा निन्न पवत्तति, एवमेव इतो दिन्न, पेतान उपकप्पति ।
-पेतवत्यु १३२२० १३. न हि अन्नेन पानेन, मतो गोणो समुठ्ठहे ।
---११८।४७ १४. अदानसीला न च सद्दहन्ति, दानफल होति परम्हि लोके ।
-१।२०१२४८ १५ मित्तदुभोहि पापको।
-~-~११२२२५६ १६. यस्स रुक्खस्स छायाय, निसीदेय्य सयेय्य वा। ममूल पि त अन्बुहे, अत्यो चे तादिसो सिया ।।
-१२११२६२ १३ कतुत्रुता मप्पुग्मेिहि वणिता।
-११२११२६३
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सूक्ति कण
७.
८.
एक सौ सैंतीस
मन की एकागता एवं समाधि मे ही प्राणी सद्गति प्राप्त करते है ।
प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्पदान भी, अल्प नही होता है ।
६ पुण्यशाली आत्मा जहां कहीं भी जाता है, सर्वत्र सफलता एव सुख प्राप्त करता है ।
१०. जान-बूझ कर झूठ नही वोलना चाहिए और दूसरो की बुराई (विनाश ) का विचार नही करना चाहिए ।
११. सज्जन की संगति सुग्वकर होती है ।
१२. ऊँचाई पर वर्षा हुआ जल जिस प्रकार वहकर अपने आप निचाई की ओर आ जाता है, उसी प्रकार इस जन्म में दिया हुआ दान अगले जन्म में फलदायी होता है ।
१३. ढेर सारे अन्न और जल से भी, मरा हुआ वैल खड़ा नही हो सकता ।
१४. जो अदानशील ( दान देने से कतराते) हैं, वे - 'परलोक मे दान का फल मिलता है' - इस बात पर विश्वास नही करते ।
१५. मित्रद्रोह करना, पाप ( बुरा ) है ।
-
१६. राजधर्म कहता है कि जिस वृक्ष की छाया मे बैठे या सोए, यदि कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध होता हो, तो उसको भी जड़ से उखाड देना चाहिए |
१७. सत्पुरुषो ने कृतज्ञता की महिमा गाई है ।
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एक सौ अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी
१८ सुखं अकतपुञान, इध नात्थ परत्थ च।
सुखं च कतपुञान, इध चेव परत्थ च ॥
-१।२७।४०६
१६ यथा गेहतो निक्खम्म, अनं गेह पविसति ।
एवमेव च सो जीवो, अन बोन्दि पविसति ॥
---११३८१६८८
२० सत्तिसूलूपमा कामा।
-थेरीगाथा ६।३।१४१
___ २१. निब्बानसुखा पर नत्थि।
-१६।१.४७८
२२ अतित्ता व मरन्ति नरा।
-१६।१।४८६ २३. अघमूल भयं वधो।
-१६१।४६३ २४ दीघो बालान संसारो, पुनप्पुन च रोदत ।
--१६।११४६७ २५. अद्दस काम ते मूल, संकप्पा काम जायसि । न तं सकप्पयिस्सामि, एव काम न होहिसि ॥
-महानिद्देसपालि-११ २६. अत्तना व कतं पाप, अत्तना संकिलिस्सति । __ अत्तना अकत पाप, अत्तना व विसुज्झति ॥'
-श२१८ २७. द्वे ममत्ता-तण्हाममत्तं च दिट्टिममत्त च ।
-१।२।१२ २८. यदत्तगरही तदकत्वमानो,
न लिम्पती दिट्ठसुतेसु धीरो।
--१२।१३
१-धम्मपद १२६ ।
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सूक्ति कण
एक सो उनचालीस १८. पुण्य नहीं करने वालो के लिए न यहाँ (इम लोक मे) सुख है, न वहां
(परलोक मे) । पुण्य करने वालो के लिए यहां वहाँ दोनो जगह सुख है ।
१६. जिस प्रकार व्यक्ति एक घर को छोडकर दूसरे घर में प्रवेश करता है,
उसी प्रकार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर मे प्रवेश करता
२०. ससार के काम भोग शक्ति (घातक वाण) और शूल (भाला) के समान
२१. निर्वाण के मानन्द से बढकर कोई अन्य आनन्द नहीं है ।
२२. अधिकतर मनुप्प अतृप्त अवस्था में ही काल के गाल मे पहुँच जाते हैं ।
२३. भय और वध (हिसा) पाप का मूल है ।
२४. अज्ञानियो का मसार लम्बा होता है, उन्हें बार-बार रोना पडता है ।
२५. हे काम | मैंने तेरा मूल देख लिया है, तू सकल्प से पैदा होता है । मैं
तेरा संकल्प ही नही करूंगा, फिर तू कैसे उत्पन्न होगा?
२६. अपने द्वारा किया गया पाप अपने को ही मलिन करता है । अपने द्वारा न
किया गया पाप अपने को विशुद्ध रखता है ।
२७. दो ममत्त्व है-तृष्णा का ममत्त्व और दृष्टि का ममत्त्व ।
२८. जो अपनी भूलो पर पश्चात्ताप करके उन्हे फिर दुबारा नहीं करता है,
वह धीर पुरुप दृष्ट तथा श्रुत किसी भी विषयभोग मे लिप्त नही होता।
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एक सौ चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२६ यो मुनाति उभे लोके, मुनि तेन पवुच्चति ।
-११।१४
३० मोन वुच्चति जाण।
--१।२।१४
३१. भग्गरागो ति भगवा, भग्गदोसो ति भगवा।
-१1१०1८३
३२. अक्कोधनो असन्तासी, अविकत्थी अकुक्कुचो।
मन्तभारणी अनुद्धतो, स वे वाचायतो मुनि ।।
-१।१०।८५
३३. इच्छानिदानानि परिग्गहानि ।
-१११११०७
३४. सव्वेव वाला सुनिहीनपचा।
-१।१२।११५
३५ सकं सक दिट्ठिमकंम मच्च,
तस्माहि वालो ति पर दहन्ति ।
-१।१२।११७
३६. न हेव सच्चानि वहूनि नाना।
-१।१२।१२१
३७. न ब्राह्मणस्स परनेय्यमस्थि ।
-१११३११४२
३८. काम वहु पस्सतु अप्पक वा,
न हि तेन सुद्धि कुसला वदन्ति ।
-१।१३।१४४
३६. अविज्जाय निवुतो लोको।
-चुल्लनिस पालि २११।२
४०. कोधो वुच्चति धूमो ।
-२।३।१७
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नूक्ति कण
एक सौ इनातानीम
२६ जो लोक परलोक-दोनो लोको के स्वरूप को जानता है, वही मुनि
कहलाता है। ३० वस्तुत ज्ञान ही मौन है।
३१. जिसका राग द्वाप भग्न (नप्ट) हो गया है, वह भगवान है।
३२. जो लोधी नहीं है, किसी को पास नहीं देता है, अपनी बडाई नही
होकता है, चंचलतारहित है, विचारपूर्वक बोलता है, उद्धत नही है,वहीं वाचायत (वाकमयमी) मुनि है ।
३३. परिग्रह का मूल इच्छा है ।
३४ सभी बाल जीव प्रज्ञाहीन होते हैं ।
३५ सभी मतवादी अपनी अपनी दृष्टि को सत्य मानते है, इसलिए वे अपने
सिवाय दूसरो को अज्ञानी के रूप में देखते है ।
३६. न सत्य अनेक हैं, न नाना (एक दूसरे से पृथक्) हैं ।
३७. ब्राह्मण (ज्ञानी) परनेय नही होते--अर्थात् वे दूसरो के द्वारा नही चलाए
जाते, वे स्वय अपना पथ निश्चित करते हैं।
३८. संसार के नाम रूपो को भले ही कोई थोडा जाने या अधिक, ज्ञानियो ने
आत्मशुद्धि के लिए इसका कोई महत्व नही माना है ।
- ३६. संसार अविद्या से पैदा होता है ।
४० कोष मन का धुआं है ।
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यूक्ति त्रिवेणी
एक मी बैतालीम ४१ उपधिनिदाना पभवनि दुक्खा ।
-२।४।१४
४२. यो वे अविद्या उपधि करोति ।
-~२।४।२०
४३ नत्थचो कोचि मोचेता।
-~२।५।३३
४८. यस्मि कामा न वसन्ति, तण्हा यस्स न विज्जति । कथकया च यो तिण्णो, विमोक्खो तस्स नापरो॥
--२६।५८ ४५ अकिञ्चन अनादानं, एतं दीपं अनापरं ।
-२।१०।६३ ४६. अमतं निव्वान।
-~२।१०।६३ ४७. संमगजातस्य भवन्ति स्नेहा, स्नेहन्वयं दुक्खमिदं पहोति ।
-३१२ ४८. एको धम्मो पहातब्बो-अस्मिमानो।
~पटिसम्भिदामग्गो ११११११६६ ४६ धम्मा पहात्तबा-अविज्जा च भवतण्हा च।
-११११११६६ ५० एको ममाधि-चित्तस्स एकरगता।
-~-११।३।१०६ ५१. सहावलं धम्मो. . पत्रावल धम्मो।
-~११२५-२८।२०७ ५२ प्रतीनानुधावनं चित्त विक्येपानुपतितं समाधिस्स परिपन्थो। अनागतपटिकखन चित्त विकम्पित समाधिस्स परिपन्थो ।।
~११३८
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एक मी तालीम
सूक्ति कण ४१ दुःखो का मूल उपाधि है ।
४२. जो मूर्ख है वही उपाधि करता है ।
४३. दूसरा कोई किसी को मुक्त नही कर सकता।
__४४. जिसमे न कोई काम है और न कोई तृष्णा है, और जो कथकथा
(विचिकित्सा) मे पार हो गया है, उसके लिए दूसरा और कोई मोक्ष
नही है, अर्थात् वह मुक्त है। ४५. रागादि की आमक्ति और तृष्णा मे रहित स्थिति मे बढकर और कोई
शरणदाता द्वीप नही है। ४६. निर्वाण अमृत है।
४७. ससर्ग से स्नेह (राग) होता है, और स्नेह से दुख होता है ।
४८. एक धर्म (वात) छोडना चाहिए-अहकार ।
४६. दो धर्म (वात) छोड देने चाहिए -अविद्या और भवतृष्णा ।
५०. एक समाधि है-चित्त की एकाग्रता ।
५१. श्रद्धा का बल धर्म है।
प्रज्ञा का बल धर्म है।
५२. अतीत की ओर दौडने वाला विक्षिप्त चित्त, समाधि का शत्रु है ।
भविष्य की आकाक्षा से प्रकपित चित्त, समाधि का शत्रु है।
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एक सो चौतालीम
सूक्ति त्रिवेणी
५३ सव्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु, मा वेरिनो। सुखिनो होन्तु, मा दुक्खिनो ॥
-~२।४।२।६ ५४. कोसेज्ज भयतो दिस्वा, विरियारंभं च खेमतो। आरद्धविरिया होथ, एसा बुद्धानुसासनी ।।
-चरियापिटक ७।३।१२ ५५ विवाद भयतो दिस्वा, अविवादं च खेमतो। समग्गा सखिला होथ, ऐसा बुद्धानुसासनी ॥
-७।३।१३ ५६ न त याचे यस्स पियं जिगिसे, विद्दोसो होति अतियाचनाय ।
-विनयपिटक, पाराजिक २।६।१११ ५७. अत्थेनेव मे अत्थो, कि काहसि व्यञ्जन बह।
-विनयपिटक, महावग्ग १।१७।६० ५८ अकम्म न च करणीय ।
-६४।१० ५६ सम्बदा वे सुखं सेति, ब्राह्मणो परिनिबुतो। यो न लिम्पति कामेसु, सीतीभूतो निरूपधि ॥
-विनयपिटक, चुल्लवग्ग ६।२।१२ ६० पुग्गला बाला~यो च अनागतं भार वहति,
यो च आगतं भार न वहति । द्व पुग्गला पंडिता-यो च अनागत भार न वहति, यो च आगतं भारं वहति ।
-विनयपिटक, परिवारवग्ग ७।२।५ ६१ पुग्गला बाला-यो च अधम्मे धम्मसञी, यो च धम्मे अधम्मसी ।
-७।२।६ ६२ अनुपुब्बेन मेधावी, थोक थोकं खणे खणे। कम्मारो रजतस्सेव, निद्धने मलमत्तनो।
-अभिधम्मपिटक (कथावत्थु पालि) १।४।२७८
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एक सौ पैतालीस
सूक्ति कण ५३ सभी प्राणी वर से रहित हो, कोई वैर न रखे ।
सभी प्राणी सुखी हो, कोई दु.ख न पाए ।
५४ आलस्य को भय के रूप में और उद्योग को क्षेम के रूप में देखकर
मनुष्य को मदैव उद्योगशील पुरुषार्थी होना चाहिए-~-यह बुद्धो का अनुशासन है। विवाद को भय के रूप मे और अविवाद को क्षेम के रूप में देखकर मनुष्य को सदैव समग्न ( अखण्डित-सघटित ) एवं प्रसन्नचित्त रहना
चाहिए-यह बुद्धो का अनुशासन है। ५६ जिस से प्रेम रखना हो, उससे याचना नहीं करनी चाहिए । बार-बार
याचना करने से प्रेम के स्थान पर विद्वप उभर आता है।
मुझे सिर्फ अर्थ (भाव) से ही मतलब है । बहुत अधिक शब्दो से क्या
करना है ? ५८. मनुष्य को कभी अकर्म (दुष्कर्म) नही करना चाहिए ।
५६. जो काम भोगो मे लिप्त नहीं होता, जिसकी आत्मा प्रशान्त (विद्व परहित)
है, और जो सब उपाधियों से मुक्त है, ऐमा विरक्त ब्राह्मण (साधक)
मदा सुखपूर्वक सोता है । ६०. दो व्यक्ति अज्ञानी होते हैं - एक वह जो भविष्य की चिन्ता का भार
ढोता है, और दूसग वह जो वर्तमान के प्राप्त कर्तव्य की उपेक्षा करता है। दो व्यक्ति विद्वान होते है-~14. वह जो भविष्य की चिन्ता नही करता,
और दूसरा वह जो वर्तमान मे प्राप्त कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करता। ६१. दो व्यक्ति मूर्ख होते हैं-एक वह जो अधर्म मे धर्म बुद्धि रखता है,
दूसरा वह जो धर्म मे अधर्म बुद्धि रखता है ।
६२.
मेधावी साधक अपनी आत्मा के गल (दोप) को उसी प्रकार थोडाथोडा क्षण-क्षण मे साफ करता रहे, जिम प्रकार कि सुनार रजत (चादी) के मैल को साफ करता है।
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सूक्ति त्रिवेणी
•वैदिक-धारा
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__ ऋग्वेद की सूक्तियां
१. 'अग्निमीले पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।।
होतारं रत्नधातमम् ।
-०११४
२. अग्निः पूर्वेभिऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
-१२
३. अग्निना रयिमश्नवत् पोपमेव दिवे दिवे ।
-११११३
४. देवो देवेभिरागमत् ।
-११३५
४ अङ्क क्रमशः मंडल, सूक्त और मंत्र के सूचक हैं ।
१ अग्निः कस्माद् अग्रणीभवति । २. ऋतौ यजतीति विग्रहे सति ऋत्विम् । ३. देवानामाहातारम् । ४. दधाति चातुरत्र दानार्थवाचीति । ५ रयि-धनमश्नवत् -प्राप्नोति। नोट-प्राग्वेदान्तर्गत ममस्त टिप्पण सायणाचार्यकृत भाष्य के हैं।
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ऋग्वेद* की सूक्तियां
१
मैं अग्नि (अग्रणी तेजस्वी महापुरुष) की स्तुति करता हूँ, जो पुरोहित हैआगे बढकर सव का हित सम्पादन करता है, यज्ञ ( सत्कर्म) का देवता है, ऋत्विज है - यथावसर योग्य कर्म का अनुष्ठान करता है, होता है— सहयोगी साथियो का आह्वान करता है, प्रजा को रत्नो (श्र ेष्ठ वैभव ) का दान करता है ।
२ अग्नितत्त्व ( तेजस्तत्त्व ) की पुराने और नये सभी तत्वद्रष्टा ऋषियो ने प्रशसा की है ।
३ तेज से ही मनुष्य को ऐश्वयं मिलता है, और वह दिन-प्रतिदिन बढता जाता है, कभी क्षीण नही होता ।
४. देव देवो के साथ ही आता है । अर्थात् एक दिव्य सद्गुण अन्य अनेक सद्गुणो को साथ मे लाता है ।
* भट्टाचार्य श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा सपादित औध से प्रकाशित ( वि० स० १९९६) सस्करण |
- ऋग्सहिता सायणभाष्यसहित, महामहोपाध्याय राजाराम शास्त्री द्वारा संपादित, गणपत कृष्णाजी प्रेस बम्बई से प्रकाशित (शक स० १८१० ) ।
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________________
चार
सूक्ति त्रिवेणी
५. पावका नः सरस्वती।
--१३।१०
६. चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।
-०३।११
७ अग्निनाग्नि. समिध्यते ।
-१।१२।६
८. मा नः शसो अररुषो धूर्ति' प्रण्ड मर्त्यस्य ।
-१११८।३
६. स घा वीरो न रिष्यति ।
-११८४
१०. अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम् ।
-१२३३१६३
११. परा हि मे विमन्यव. पतन्ति वस्य इष्टये" ।
वयो न वमतीरुप।
--११२५॥४
१२. उदुत्तम मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यम चूत ।
अवाधमानि जीवसे।
-१।२५२१
१३. मिथः सन्तु प्रशस्तय ।
-१२२६६
१४. नमो महदुभ्यो नमो अर्भकेभ्यो',
नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः ।
-११२७१३
१. उपद्रव कमस्मत्समीप प्राप्तस्य शत्रुरूपस्य धूर्ति.-हिंसक शस.शसनमधिक्षेपनम् । २ विनश्यति । ३. यजुर्वेद ६६, । ४ क्रोधरहिता बुद्धयः । ५. वसुमतो जीवनस्य प्राप्तये । ६ विचूत-वियुज्य नाशय ।
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पाच
ऋग्वेद को सूक्तिया ५. सरस्वती (ज्ञान-शक्ति) हम सब को पवित्र करने वाली है ।
६ सरस्वती (ज्ञानशक्ति) सत्य को प्रेरित एव उद्घाटित करती है, और
सद्बुद्धि वाले पुरुषो को यथावसर योग्य कर्मो की चेतना देती है। ७. अग्नि (मनुष्य की तेज शक्ति) अग्नि (संघर्ष) से ही प्रज्ज्वलित होती
८. ऊधम मचाने वाले दुर्जनो की डाहभरी निन्दा हमे कभी न छू सके ।
६. वीर पुरुष कभी नष्ट नहीं होता।
१०. जल के भीतर अमृत है, औषधि है।
११.
जिस तरह चिडियाँ अपने घोसले की ओर दौडती हैं, उसी तरह हमारी क्रोधरहित प्रशान्त बुद्धियां समृद्ध जीवन की प्राप्ति के लिए दौड रही हैं।
१२ हमारे ऊपर का, बीच का और नीचे का पाश खोल दो, नष्ट कर दो,
ताकि हम ससार मे सुख से जीवित रह सकें।
१३ (कर्मानुष्ठान के पश्चात्) हम सब साथी परस्पर एक दूसरे के प्रश
सक हो। १४. हम बडे (गुणो से महान्), छोटे (गुणो से न्यून), युवा, और वृद्ध
सभी गुणीजनो को नमस्कार करते है।
७. महान्तो-गुणरधिका । ८ अर्भका-गुणन्यूना । ६. माशिना-वयसा व्याप्ता वृद्धा।
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सूक्ति त्रिवेणी
१५ मा ज्यायसः शसमा वृक्षि' देवा. ।
---११२७।१३
१६. ससन्तु' त्या परातयो, बोधन्तु शूर रातयः ।
-~-१२६४
१७ सर्व परिक्रोश जहि।
~१२६५
१८. विभूतिरस्तु सूनृता ।
-११३०१५
१६. ऊो" वाजस्य सनिता ।
-२३६१३
२०. कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे ।
-११३६।१४
२१ असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददि.।
-११०१२
२२. असि दभ्रस्यचिद् वृधः ।
-~१११२
२३. आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः ।
-१८६१
२४ भद्र कर्णेभि शृणुयाम देवा,
भद्र पश्येमाक्षिभिर्यजत्रा ।
-१८६८९
२५. देवाना भद्रा सुमति.।
-११८६२
१ अह विच्छिन्न माकापम् । २. ससन्तु-निद्रा कुर्वन्तु । ३ अदानशीला पाव । ४ सूनृता-प्रियसत्यरूपा । ५. ऊर्ध्व-उन्नत मन् । ६. वाजस्य-अन्नस्य
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सात
सूक्ति कण १५. हे देवगण | मैं अपने से बड़े महान् पुरुषो का कभी आदर करना न
छोड़े। हमारे अदानशील विरोधी शत्रु सोए रहे और दानशील मित्र जागते रहे,
अर्थात् सहयोग देने मे सदा तत्पर रहे। १७ सब प्रकार के मात्सर्य का त्यागकर ।
१८. विभूति (लक्ष्मी) प्रिय एवं सत्यरूप अर्थात् समीचीन होनी चाहिए।
१६. ऊँचे उठकर अर्थात् समृद्ध होकर अपने आश्रितो के अन्नदाता बनो ।
२१
२०. हमे उन्नत करो, ताकि हम ससार मे सम्मान के साथ विचरण कर सकें,
जीवित रह सकें। हे वीर | तू एकाको होने पर भी समूची सेना के बराबर है, शत्रुओ को पराजित करने के लिए उनके विपुल ऐश्वयं पर अधिकार करने
वाला है। २२. तू क्षुद्र को महान् बनाने वाला है, अल्प को बहुत वढाने वाला है।
२३. हमे कल्याणकारी कर्म सब ओर से प्राप्त होते रहे ।
२४. दानादि सत्कर्म करने वाले देवताओ । हम कानो से सदा कल्याणकारी
मंगल वचन सुनते रहे, हम आँखो से सदा कल्याणकारी शोभन दृश्य ही
देखते रहे। २५. हमे दिव्य आत्माओ जैसी कल्याणकारी सद्बुद्धि प्राप्त हो ।
सनिता-दाता । ७ लोके चरणाय । ८ त्वमेकोऽपि सेनासहशो भवसि । ६. यजुर्वेद २०२१ सामवेद २१.१।९।२ ।
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आठ
सूक्ति त्रिवेणी
२६. देवाना सख्यमुपसेदिमा' ।
-१६२
२७. अदितिधौरदितिरन्तरिक्षम्,
अदितिर्माता स पिता स पुत्र. । विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना,
अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥
-१८९।१६
२८. अप्रमूरा महोभि. व्रता रक्षन्ते विश्वाहा ।
--११६०२
२६ मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः ।
माध्वी न सन्त्वौषधी।
-~१९०६६
३० मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिव रजः, · मधु द्यौरस्तु न. पिता।
-११६०७०
३१. मधुमान् नो वनस्पतिर्मधुमा अस्तु सूर्यः ।
माध्वीवो भवन्तु नः ।
-११६००
३२ त्व हि विश्वतोमुख विश्वत. परिभूरसि ।
अप नः शोशुचवघम् ।
-१९७६
३३. क्षुध्यद्भ्यो वय प्रासुति दा.।
-११०४७
३४. अर्थमिद्वा° उ अथिनः ।
-२२१०५२
-
१. उपसे दिम-प्राप्नुवाम....सहिताया दीर्घत्वम् । २. अप्रमूच्छिता. अमूढा. । ३ मात्मीयस्तेजोभि. । ४. व्रतानि जगनिर्वाहरूपाणि स्वकीयानि कर्माणि । ५ सर्वाणि महानि । ६ यजुर्वेद १३।२७ । ७. यजुर्वेद १३।२८ ।
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ऋग्वेद को सूनितयाँ २६. हम देवतामो की मित्रता (दोस्तो) प्राप्त करें।
२७. कभी भी दीन-हीन न होने वाली मदिति पृथिवी ही प्रकाशमान स्वर्ग
है, अन्तरिक्ष है, जगत को जननी माता है, पिता है और दुःख से त्राण दिलाने वाला पुत्र भी यही है।
कि वहुना, सभी देव, सभी जातियां, तथा जो उत्पन्न हुआ है और होगा, वह सभी अदिति अति पृथिवीस्वरूप है। २८ मोह से मूच्छित न होने वाले ज्ञानी पुरुप अपने आत्मीय तेज से सदैव
स्वीकृत व्रतो मे दृढ रहते हैं, अर्थात् प्राणपण से अपने नियमो की रक्षा
करते हैं । २६. कर्मशील व्यक्ति के लिए समग्न हवाएं और नदियां मधु वर्षण करती
हैं । औपधियां (अन्न आदि) भी मधुमय हो जाती है ।
३०. हमारी रायि और उपा मधुर हो । भूलोक अथवा पार्थिवमनुष्य
माधयंविशिष्ट हो, और वृष्टि आदि के द्वारा सब का पिता (रक्षक)
कहा जाने वाला आकाश भी मधुयुक्त हो । ३१. हमारे लिए समस्त वनस्पतियां मधुर हो । सूर्य मधुर हो, और सभी
गौएँ भी मधुर हो ।+
३२. हे अग्नि (अग्रणी नेता), तुम्हारा मुख (दृष्टि) सब ओर है, अतः तुम
सब ओर से हमारी रक्षा करने वाले हो, तुम्हारे नेतृत्व मे हमारे सब
पाप विकार नष्ट हो। ३३. भूख और प्यास से पीडित लोगो को यथेष्ट भोजन-पान (अन्न तथा दुग्ध,
जल आदि) अर्पण करो। ३४. ऐश्वयं प्राप्ति का दृढ सकल्प रखने वाले निश्चय ही अपेक्षित ऐश्वयं
पाते हैं।
--
८. यजुर्वेद १३।२६ । ६ वयोऽन्न, आसुति-पेय क्षीरादिकम् । १०. इदै अपेक्षितम् ।
+'गो' पशु मात्र का उपलक्षण है, अतः सभी पशु मधुर हो, सुखप्रद हो ।
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दस
३५ प्रचर्षणिभ्य. पृतनाहवेषु प्रपृथिव्या रिरिचाथे दिवश्च ।
३६ समानो अध्वा स्वस्रो ।
३७ कथा' विधात्यप्रचेताः ।
३८. अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवतः ’, उभा ता बस्त्रि3 नश्यतः ।
३६. उदीरतां सूनृता उत्पुरन्धी" रुदग्नय शुशुचानासो' प्रस्थ. ।
सूक्ति त्रिवेणी
४०. अपान्यदेत्यभ्यन्यदेति विषुरूपे ग्रहनी
४१. सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्व. ।
४२. प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति ।
४३. नाकस्य पृष्ठे ग्रधितिष्ठति श्रितो, यः पूरणाति स ह देवेषु गच्छति ।
—१|१०|६
- १।११३।३
- १११२०११
- १।१२०1१२
सञ्चरेते ।
परिक्षितस्तमो अन्या गुहाकर द्यौदुषाः शोशुचता रथेन ॥
- १।१२३॥६
—१।१२३॥७
——१।१२३|८
- १।१२५११
- १११२५१५
१. केन प्रकारेण । २ धनवतश्च पुरुषस्य । ३ क्षिप्रम् । ४. पुरं शरीरं यासु धीयते याभिर्वा ता. पुरन्धय प्रज्ञा प्रयोगविषया । ५. अत्यन्त दीप्यमाना ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
ग्यारह
३५. कर्तव्य के लिए पुकार होने पर तुम सबके अग्रगामी बनो, पृथिवी मौर आकाश से भी अधिक विराट् बनो ।
३६. दोनो वहनी (रात्रि और उपा) का मार्ग - ( आकाश ) एक है । (आध्यात्म पक्ष मे पाप और पुण्य की वृत्तियो का पथ मानवमन एक है ।)
३७. अज्ञानी व्यक्ति कैसे साधना कर सकता है ?
३८.
३६
४०.
४१.
४२.
प्रात. काल का स्वप्न और अपनी सम्पत्ति का जनकल्याण के लिए उचित उपयोग न करने वाला धनिक, दोनो ही से मैं सिन्न हूँ । क्योकि ये दोनो शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।
हमारे मुख से प्रिय एव सत्य वाणी मुखरित हो, हमारी प्रज्ञा उन्मुखप्रबुद्ध हो, सत्कर्म के लिए हमारा अत्यन्त दीप्यमान तेजस्तत्व (सकल्प बल) पूर्ण रूपेण प्रज्वलित हो ।
रात पीछे लौट रही है, दिन सामने प्रारहा है । एक के हटने पर दूसरा नाता है । विभिन्न एव विलक्षण रूप वाले दोनो दिन और रात व्यवधानरहित होकर चलते हैं । इनमे एक (रात्रि ) सब पदार्थों को छिपाता है और दूसरा (उषा) अपने अतीव दीप्तिमान रथ के द्वारा उन्हे प्रकट करता है ।
उषा जैसी (निर्मल) आज है, वैसी ही कल थी, गोर कल होगी ।
दानशील व्यक्ति प्रात काल होते ही एक से एक उत्तम वस्तुओ ( रत्नो) का दान करता है |
४३. जनता को परितृप्त करने वाला दानी स्वर्ग के देवताओ मे प्रमुख स्थान प्राप्त करता है ।
६. उ शब्दोऽपिशब्दार्थ, इच्छन्द एवार्थः ।
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वारह
सूक्ति त्रिवेणी ४४. इयं दक्षिणा पिन्वते' सदा।
-१३१२५१५ ४५ दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा, दक्षिणावता दिवि सूर्यासः । दक्षिणावन्तो अमृत भजन्ते, दक्षिणावन्त प्रतिरन्त आयु ।।
-१११२५॥६ ४६ मा पृणन्तो दुरितमेन पारन् ।
-१११२५७ ४७. मा जारिषु. सूरय सुव्रतास.।
--११२५७ ४८. अपृणन्त मभिसयन्तु शोका ।
-१३१२५७
४६. पश्यदक्षण्वान्न विचेतदन्ध ।
-१।१६४।१६
५०. ये 'अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्,
ये पराञ्चस्ताँ उ अर्वाच आह ।
-१११६४।१६
__५१ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते। तयोरन्य पिप्पल' स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति १२ ।
-~-१११६४।२०
१. पिन्वते-सेचयति तोषयतीत्यर्थ । २ दुरितं-दुष्ट यथाभवति तथा प्राप्त दुख, एन. तत्साधन पाप च । ३ मा मारन्-मा प्राप्नुवन् । ४. जरया न जीर्णा भवेयु । ५. अदातारम् । ६ ज्ञानदृष्ट्युपेत. कश्चित् महान् । ७. अन्धः
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तेरह
ऋग्वेद की सूक्तियां ४४. यह दक्षिणा (दान) सदैव सवको तृप्त करती रहती है ।
४५. दानियो के पास अनेक प्रकार का ऐश्वर्य होता है, दानी के लिए ही
आकाश मे सूर्य प्रकारामान है । दानी अपने दान से अमृतत्व पाता है,
नह अति दीर्घ आयु प्राप्त करता है । ४६. दानी कभी दुख नही पाता, उसे कभी पाप नही घेरता ।
४७. अपने व्रत नियमो मे दृढ ज्ञानी साधक कभी जीर्ण (क्षीण एव हीन)
नहीं होते। ४८. दानहीन कृपण को ही सब शोक व्याप्त होते हैं ।
४६. आंखो वाले (ज्ञानी) ही सत्य को देख सकते है, अन्ध (स्थूल दृष्टि
अज्ञानी) नही । ५०. विद्वान लोग जिन्हे अधोमुख कहते हैं, उन्ही को ऊर्ध्वमुख भी कहते हैं,
और जिन्हे ऊध्वंमुख कहते हैं, उन्ही को अघोमुख भी कहते हैं । (भौतिक पक्ष मे सूर्य और चन्द्र की किरणें ऊध्वंमुख और अघोमुख दोनो होती हैं । अध्यात्म पक्ष मे ज्ञानी पुरुष महान् भी होते हैं, और विनम्र भी।)
५१. दो समान योगवाले परस्पर मित्र सुन्दर पक्षी एक वृक्ष (ससार या शरीर)
पर रहते हैं, उनमे से एक पके हुए स्वादिष्ट फल खाता है और दूसरा कुछ नही खाता, केवल देखता है । अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा दो पक्षी है, एक सासारिक भोगो मे लिप्त है और दूसरा निर्लिप्त है, केवल द्रष्टा है।
अतथास्प: स्यूलदृष्टि. न विचेतत् न विवेचयति न जानाति । ८. अर्वागचना अधोमुखा । ६ पराच पुराड मुखाचनान् ऊन् । १० अत्र लौकिकपक्षिद्वय दृष्टान्तेन जीवपरमात्मानौ स्तूयेते । ११. पक्व फलम् । १२. अभिपश्यति ।
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सूक्ति त्रिवेणी
चौदह ५२. मे माता पृथिवी महीयम् ।
--१११६४।३३
५३. इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या,
अय यज्ञो भुवनस्य नाभिः ।
-१११६४।३५
५४. ब्रह्माऽयं वाच. परमं व्योम ।
-१११६४।३५
५५. न वि जानामि यदिवेदमस्मि,
निण्य सनद्धो मनसा चरामि । यदा मागन् प्रथमजा ऋतस्याद्,
इद् वाचो अश्नुवे भागमस्याः ।
-११६४।३७
५६ अपाड् प्राडे ति स्वधया" गृभीतो,
ऽमयों म]ना सयोनिः। ता शश्वन्ता विशूचीना वियन्ता,
नन्यं चिक्यु न निचिक्युरन्यम् ॥
-१११६४।३८
५७. यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ?
य इत् तद् विदुस्त इमे समासते।
-१२१६४।३६
५८. वयं भगवन्तः स्याम ।
-१११६४४०
५९. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।
-११६४।४६
१. यजुर्वेद २३।६२ । २ चित्तस्य वहिमुखता परित्यज्य अन्तर्मुखतैव दु.संपादा, सा यदा स्यात् तदानीमेव स्वरूपं द्रष्टुं सुशक भवति । ३. अपाति
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ऋग्वेद की सूक्तिया
५२ यह महान् ( विराट् ) पृथ्वी मेरी माता है ।
५३. यह वेदि (कर्म करने का स्थान ) ही पृथ्वी का अन्तिम छोर है, यह यज्ञ ( कर्तव्य सत्कर्म) ही संसार की नाभि (मूलकेन्द्र ) है |
पन्द्रह
५४. ब्रह्मा (विद्वान् प्रवक्ता ) ही वाणी का परम रक्षक है, अधिष्ठाता है ।
५५ में नही जानता कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ ? क्योकि मैं मूढ और विक्षिप्त चित्त हूँ, अर्थात् वहिमुख हैं, जब मुझे सत्य ज्ञान का प्रथम उन्मेष होता है अर्थात् में अन्तर्मुख होता हूँ, तभी में तत्व वचनो के स्वरूप दर्शन का ममं समझ पाता हूँ |
५६
अमर ( आत्मा ) मरणधर्मा (शरीर ) के साथ रहता है । वह कभी अन्नमय शरीर पाकर पुण्य से ऊपर जाता है, कभी पाप से नीचे जाता है । ये दोनो विरुद्ध गति वाले संसार मे सर्वत्र एक साथ विचरते हैं । पामर संमारी प्राणी उनमे एक (मत्यं देह) को पहचानता है, दूसरे ( अमत्यंआत्मा) को नही । [ जीव अमर है, शरीर मरणशील । अज्ञानी शरीर को तो जानता है, पर जीव के विषय मे भ्रम मे पडा है । ]
५७. जो ऋचाओं मे रहे हुए (आत्मा के ) दिव्य सत्य को नही जानता, वह ऋचाओ से क्या करेगा, क्या लाभ उठाएगा ? जो इस दिव्य सत्य को जानता है, वही स्वस्वरूप मे स्थित होता है |
१८. हम सब भगवान् (ऐश्वर्यशाली ) हो ।
५६. सत्य एक ही है, विद्वान् उसका अनेक तरह से वर्णन करते हैं ।
अशुक्ल कर्म कृत्वा अघोगच्छति । ४. प्राङेति कध्वं स्वर्गादि लोक प्राप्नुवति । ५. स्वधा शब्देन अन्नमय शरीर लक्ष्यते, तेन गृहीत' सन् । ६. न जानन्ति ।
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सूक्ति त्रिवेणी
सोलह ६०. यज्ञन यज्ञमयजन्त देवा. ।
-११६४/५०
६१. समानमेतदुदकमुच्चैत्यवचाहभिः ।
-११६४।११
६२. एकस्य चिन्मे विश्वस्त्वोजो,
या नु दधृष्वान् कृरणवै मनीषा।
~१११६५।१०
६३. अन्यस्य चित्तमभि सचरेण्यमुताधीतं वि नश्यति ।
-१२१७०।१
६४. ऊर्ध्वान् न कर्त जीवसे ।
~~१२१७२।३
६५. मिनाति श्रिय जरिमा तनूनाम् ।
~१२१७६१
६६. सम्यञ्चा मिथुनावभ्यजाव ।
-११७६।३
६७ पुलुकामो हि मर्त्यः।
-१११७६५
६८. ऋतेन ऋत नियतम् ।
~~२३९
६६. सखेव सख्ये पितरेव साधुः ।
-~-३।१८।१
७०. पुरुद्र हो हि क्षितयो जनानाम् ।
-~-३॥१८॥
१. अभिः कश्चिदहोभि ग्रीष्मकालीनरुच्चति वं गच्छति, तथा अहमि. वर्षाकालीनरहोमि तदुदक अवचैति अवाड्मुख गच्छति ।
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ऋग्वेद की सूक्तियां
सत्रह ६० देवता (ज्ञानी) यज्ञ से ही यज्ञ करते हैं, अर्थात् कर्तव्य से ही कर्तव्य की
पूर्ति करते हैं। ६१. जल एक ही रूप है, यह कभी (ग्रीष्म काल मे) ऊपर जाता है, तो कभी
(वर्षा काल मे) नीचे आता है । ६२. मैं भले ही अकेला हूं, परन्तु मेरा ही बल सर्वत्र व्याप्त है। मैं मन से
जो भी चाहूँ, वही कर सकता हूँ।
६३. जिन मनुष्यो का चित्त चचल है, वे अच्छी तरह चिन्तन (अघीत) किए
हुए को भी भूल जाते हैं। ६४ हे प्रभो । हमे ऊंचा उठाओ, ताकि हम पूर्णायु तक जीवित (सुरक्षित)
रह सके। ६५. जरा-शरीर के सौन्दयं को नष्ट कर डालती है ।
६६. हम स्त्री-पुरुष दोनो परस्पर सम्यक् सहयोग करते हुए गृहस्थ-धर्म का
पालन करें। ६७ साधारण मानव विभिन्न कामनाओ से घिरा रहता है ।
६८ ऋत (सत्य) से ऋत का होना नियत है ।
६६. जैसे हितोपदेश आदि के द्वारा मित्र मित्र के प्रति और माता पिता पुत्र
के प्रति हितपी होते हैं, वैसे ही तुम सब के हितैषी बनो । ७० मनुष्यो के द्रोही (शत्रु) मनुष्य ही हैं ।
२ कर्त-कुरुत, जीवसे-चिरजीवनाय ।
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अठारह
७१. अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा, घृतं मे चक्षुरमृतं म ग्रासन् ।
७२. ज्योतिर्वृणीत तमसो विजानन्' ।
७३. प्रारे स्याम दुरितादभीके ।
७४. जायेदस्तं मघवन् !
७५. नावाजिनं वाजिना हासयन्ति, न गर्दभ पुरो ग्रश्वान् नयन्ति ।
७६ महदु देवानामसुरत्वमेकम् ।
७७. न पर्वता निनमे तस्थिवास. ।
७८. कृष्णा सती रुशता धासिनैषा,
जामर्येण
पयसा
पीपाय |
1
७६. स्वरभवज्जाते श्रग्नौ ।
८०. सूरयो विश्वा श्राशास्तरीषरिण ।
सूक्ति त्रिवेणी
-३।२६१७
-३१३६१७
- ३/३६/७
- ३।५३१४
-३।५३।२३
-३।५५।१
-३।५६।१
-४१३१६
-४३१११
-५1१०1६
१. विशेपेण जानन् - प्रादुर्भवन् । २. अस्यन्ते क्षिप्यन्ते पदार्था अत्र इत्यस्तं गृहम् । जायेत्-जायैव गृह भवति, न गृहं गृहमित्याहुगृहिणी गृहमुच्यते इति स्मृते । ३ नावाजिनं चाचाम् इनो वाजिनः सर्वज्ञः तद्विलक्षणं मूर्ख जनम् ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
उन्नीस ७१ मैं परमतत्वस्वरूप अग्नि हूँ, ज्योतिर्मय हूँ, मैं परनिरपेक्ष रहकर जन्म से
ही अपने दिव्य-रूप को स्वय ही प्रकट करता हूँ। प्रकाश (ज्ञान) मेरा
नेत्र है । मेरे मुख मे (प्रिय एव सत्य वचन का) अमृत है। ७२. अन्धकार मे से उत्पन्न होकर भी दिव्य यात्मा ज्योति का वरण
करते हैं। ७३. हम पापाचार से दूर रहकर पूर्ण निर्भय भाव मे विचरण करें।
७४. हे मधवन्, वस्तुत गृहिणी (धर्मपत्नी) ही गृह है ।
७५. ज्ञानी पुरुष अनानी के साथ स्पर्धा करके अपना उपहास नही कराते है,
अश्व के सम्मुख तुलना के लिए गर्दभ नही लाया जाता है ।
७६. सब देवो (दिव्य मात्मामो) का महान् पराक्रम एक समान है ।
७७ पृथ्वी पर अविचल भाव से खडे पर्वतो को कोई झुका नही सकता है ।
७८ काली गौ भी पुष्टिकारक एव प्राणदाता अमृतस्वरूप श्वेत दुग्ध के द्वारा
मनुष्यो का पोषण करती है ।
७६. अग्नि (उत्साह एव दृढ सकल्प का तेज) के प्रदीप्त होते ही भूतल पर
स्वर्ग (अथवा सूर्य) उतर आता है । ८०. विद्वान् सब आशामओ (दिशाओ अथवा कामनामओ) को पार करने मे
समर्थ हैं।
४ वाजिना वागीशाः । ५. अस्यति क्षिपति सर्वानित्यसुर. प्रबलः, तस्य भावोऽसुरत्व प्राबल्य महदेश्वयंम् । ६ रुशता-श्वेतेन धासिना-प्राणिना धारकेण जामर्येण-जायन्ते इति जा प्रजास्ता जा मर्येण अमरणनिमित्त न पयसा ।
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बीस
सूनित त्रिवेणी
८१. मातेव यद् भरसे पप्रथानो जन जनम् ।
-५॥१५॥४
८२. क्षत्रं धारयतं बृहद् दिवि सूर्यमिवाजरम् ।
-~-५।२७१६
८३. विदद्वस उभयाहस्त्याभर ।
-~-५॥३६१
८४. यन्मन्यसे वरेण्यमिन्द्र धुक्ष तदा भर ।
-५॥३६॥२
८५. पदे पदे मे जरिमा निधायि ।
---५२४१४१५
८६ देवोदेव. सुहवो भूतु मह्यम् ।
-~-५१४२११६
८७. गोदा ये वस्त्रदाः सुभगास्तेषु राय. ।
-५४२।८
८८. पिता माता मधुवचा सुहस्ता ।
~५४३१२
८६. यो जागार तमृच कामयन्ते ।
--५४४।१४
१०. यो जागार तमु सामानि यन्ति ।
-५/४४।१४
____६१. विश्वे ये मानुषा युगा" पान्ति मत्यं रिषः ।
-५५२/४
६२. ऋतेन विश्व भुवनं विराजथ. ।
---५६३१७
१. जरिमा-स्तुति.। २. निधीयते--क्कियते । ३, सर्वशास्त्रात्मिका ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
इक्कीस
८१. तू सर्वत्र फैलकर अर्थात् विराट् होकर माता के समान जन-जन (सव
लोगो) का भरणपोपण करने वाला है । ८२. तुम, आकाश मे प्रकाशमान सूर्य की तरह सदा अक्षीण रहने वाले
महान् क्षत्र (विराट् ऐश्वर्य) को धारण करो। ८३. हे धनिक दोनो हाथो से दान कर ।
८४. हे इन्द्र ! जिसे तुम श्रेष्ठ समझते हो, वह अन्न (भोगोपभोग) हमे
प्रदान करो।
५५. पद-पद पर मेरी (सत्कर्म करने वाले की) स्तुति की जाती है ।
८६ सभी देव मेरे लिए स्वाह्वान (एकवार पुकारते ही आने वाले) हो ।
८७. जो गोदान और वस्त्रदान करने वाले हैं, उन्ही श्रेष्ठ धनिको को धन
प्राप्त हो। ८८ माता-पिता मधुर भापण करने वाले, तथा हाथो से अभीष्ट दान देने
वाले होते हैं। ८६. जो सदा जागरूक रहता है, उसी को ऋचाएं (सभी शास्त्र) चाहती हैं।
६०. जो जागरूक रहता है, उसी को साम (स्तुति प्रशसा एव यश) प्राप्त
होते हैं। ६१. सभी श्रेष्ठ जन सदैव दुष्टो से मनुष्यो की रक्षा करते हैं ।
६२. ऋत (सत्य या लोकहितकारी कर्म) से समग्र विश्व को प्रकाशित करो।
४. प्राप्नुवन्ति । ५. युगा-सर्वेषु कालेपु । ६. रिष-हिंसकात् सकाशात् ।
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बाईस
सूक्ति त्रिवेणी
१३. मित्रस्य याया पथा।
-श६४।३
६४. अद्र हा देवी वर्धेते।
--५६८४
६५. वयं ते रुद्रा' स्याम।
-५७०१२
६६. न संस्कृत प्रमिमीत.।
-~५७६।२
९७ युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्राः ।
-~-५॥८१११
६८. मदेम शतहिमा सुवीरा.।
--६।४।८
६६. वय जयेम शतिनं सहनिरणम् ।
-६८।६
१००. पश्यतेममिदं ज्योतिरमृत मर्येषु ।
-६९।४
१०१. अश्रायि यज्ञ. सूर्ये न चक्षुः ।
---६.१११५
१०२. व्रतै. सीक्षन्तो अनतम् ।
-६।१४।३
१०३. न य जरन्ति शरदो न मासा ।
न द्याव इन्द्रमवकर्शयन्ति ।
-६।२४७
१०४. गावो भगो, गाव इन्द्रो मे अच्छान् ।
-६१२८/५
१. द्रा-दु खाद् द्रावयितागै। २ लभेमहि ।
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ऋग्वेद को सूक्तियां
तेईस ६३ मुझे मित्र के पथ (जिस व्यवहार से अधिक से अधिक मित्र प्राप्त हो)
से चलना चाहिए। ६४. द्रोह न करने वाले देव (अच्छे साथी) ही ससार मे अभ्युदय प्राप्त
करते हैं।
६५. हे दुःख से मुक्त करने वाले रुद्रो । हम भी तुम्हारे जैसे ही जनता को
दुख से मुक्त करने वाले रुद्र हो जाएं। ___६६ अच्छे संस्कारो को नष्ट न करो।
६७. बुद्धिमान अपने मन और बुद्धि को सभी प्राप्त कर्मों मे ठीक तरह
नियोजित करते हैं। ६८. हम पुत्र पोत्रादि अच्छे स्वजनो एव परिजनो के साथ सौ वर्ष तक
प्रसन्न रहे। ६६ हम सैकड़ो हजारो लोगो को तृप्त करने वाला अन्न प्राप्त करें ।
१००. मरणशील नश्वर शरीरो मे अविनाशी अमृत-चैतन्यज्योति का
दर्शन करो। १०१. जिस प्रकार सूर्य मे प्रकाशमान तेज समाहित है उसी प्रकार मानव मे
कर्म समाहित है। १०२. व्रत-विरोधी को व्रतो से ही अभिभूत (प्रभावित) करना चाहिए ।
१०३. इन्द्र को न वर्प क्षीण ( जर्जर ) कर सकते हैं, और न महीने तथा
दिन हो।
१०४. गाय ही मेरा धन है, इन्द्र मुझे गाय प्रदान करें।
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चौबीस
सूक्ति त्रिवेणी
१०५ इमा या गाव. स जनास इन्द्र,
इच्छामीद्धृदा मनसा चिदिन्द्रम् ।
-६।२८५
१०६. यूय गावो मेदयथा कृशं चिद्
___ अश्रीर चित् कृणुथा सुप्रतीकम् । भद्र गृह कृणुथ भद्रवाचो,
बृहद् वो वय उच्यते सभासु ॥
-६।२८१६
१०७ इन्द्र स नो युवा सखा ।
-६।४५१
१०८. सुवीर्यस्य पतय. स्याम ।
-६४७१२
१०६. रूपरूप प्रतिरूपो बभूव ।
-६।४७।१८
११०. इन्द्रो मायाभि पुरुरूप ईयते ।
-६।४७११८
१११. प्रणीतिरस्तु सूनृता ।
-६१४८।२०
११२ परों नान्तरस्तुतुर्यात् ।
---६१६३१२
११३. अपो न नावा दुरिता तरेम ।
-६।६८
११४. अरमे भद्रा सोश्रवसानि सन्तु ।
-६७४।२
१.सोमनामम् । २ वयोऽनम् । ३ दीयते । ८ रूप्यते-इति स्पं मेगादि-प्रतियोम् । ५ भवति इत्ययं । ६ गन्ठति । ७. विप्रकृप्ट. ।
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ऋग्वेद को सूक्तिया
पच्चीस १०५. हे मनुष्यो | यह गाय ही इन्द्र है। मैं श्रद्धा भरे मन से इस इन्द्र की
पूजा करना चाहता हूँ।
१०६. हे गायो ! तुम हमे आप्यायित करो। कृश एव श्रीहीन हम लोगो को
सुन्दर बनायो । हे मंगल ध्वनिवाली गायो । हमारे घरो को मगलमय बनामो । तुम्हारा दुग्ध आदि मधुरस जनसभाओ मे सबको वितरित किया जाता है।
१०७. युवा इन्द्र हमारा स है।
१०८. हम कल्याणकारी अच्छे बलवीर्य के स्वामी हो ।
१०६ आत्मा प्रत्येक रूप (शरीर) के अनुरूप अपना रूप बना लेता है।
११०. इन्द्र (आत्मा) माया के कारण विभिन्न रूपो को धारण करता हुआ
विचरण करता है। १११. सत्य एव प्रिय वाणी ही ऐश्वयं देने वाली है।
११२. न दूर रहने वाला पीड़ित करे और न पास रहने वाला।
११३. जिस प्रकार नौका जल को तैर जाती है, उसी प्रकार हम दुःखो एवं
पापो को तैर जाएँ। ११४. हमारा अन्न अथवा यश मंगलमय हो ।
८. अन्तर.-सन्निकृष्टोपि न हिंस्यात् । ६. श्रवोऽन्न यशश्च ।
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छब्बीस
सूक्ति त्रिवेणी
११५ विश्वाहा' वयं सुमनस्यमाना ।
-६७५८
११६ पुमान् पुमासं परिपातु विश्वत ।
-~~६/७५।१४
११७ मा शूने अग्ने निषदाम नृणाम् ।
-७१११
११८ ऊर्ध्व नो अध्वर कृतम् ।
--७।२७
११६ परिषद्य शरणस्य रेवण. ।
-७/४/७
१२० अचेतानस्य मा पथो वि दुक्षः ।
-७।४७
१२१. त्व दस्यू रोकसो अग्न ग्राज ।
उरु ज्योतिर्जनयन्नार्याय ।।
-७३।६
१२२. न ते भोजस्य सख्यं मृषन्ते ।
-७।१८।२१
१२३ मा शिश्नदेवा' अपि गुऋत न ।
-७।२११५
१२४ शी न पुरधी. शमु सन्तु राय.।
-७।३५२
१२५. उतेदानी भगवन्त स्यामोत प्रपित्व१४ उत मध्ये अह्नाम् ।
-७१४१३४
१. सर्वदा । २ सुखमनमः । ३ शून्ये । ४. कुरुतम् । ५. पर्याप्तम् । ६ धनम् । ७ कर्महीनान् । ८ अधिकम् । ६. कर्मवते । १०. विस्मरन्ति ।
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ऋग्वेद को सूक्तिया
सत्ताईस
११५ हम सदा सुखी एवं शान्त मन से रहे ।
११६. मनुष्य, मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करे ।
११७. हे अग्नि देव । हम परिवार से रहित सूने घर मे न रहे, और न ।
दूसरो के घर मे रहे। ११८ हमारे यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) को ऊर्ध्वमुखी बनाइए ।
११६. ऋण रहित व्यक्ति के पास पर्याप्त धन रहता है ।
१२०. मूर्ख के मार्ग का अनुसरण नही करना चाहिए ।
१२१. हे देव । आर्य (कर्मनिष्ठ) जन को अधिकाधिक ज्योति प्रदान करो ।
और दस्युओ (निष्कर्मण्यो) को दूर खदेड़ दो।
१२२. श्रेष्ठ जन अपने पालन करने वाले के उपकार को नहीं भूलते हैं ।
१२३. शिश्न देव (व्यभिचारी) सत्कर्म एव सत्य को नही पा सकते ।
१२४. हमारी बुद्धि और धन शान्ति के लिए हो ।
१२५. हम अव वर्तमान मे भगवान (महान्) हो, दिन के प्रारम्भ मे और
मध्य मे भी भगवान् हो ।
११. अब्रह्मचर्या. । १२. शान्त्य । १३. बहुधी.। १४ प्रपित्वे अह्ना प्राप्ते पूर्वाह्न।
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अट्ठाईस
सूक्ति त्रिवेणी
१२६ द्रहः सचन्ते' अनृता जनानाम् ।
-७१६११५
१२७ सुगा नो विश्वा सुपथानि सन्तु ।
-७१६२।६
१२८ विश्वा अविष्टं वाज आ पुरधी.।
-७१६७१५
१२६ अस्ति ज्यायान् कनीयस उपारे ।
-७१८६६
१३०. स्वप्नश्च नेदनृतस्य प्रयोता।
-७८६६
१३१. शं न. क्षेमे शमु योगे नो अस्तु ।
-७१८६८
१३२. ध्र वासो अस्य कीरयो" जनास.।
-७।१००१४
१३३. आप इव काशिना सगृभीता।
असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता॥
-७।१०४।८
१३४. सुविज्ञान चिकितुपे जनाय,
सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते । तयोर्यत्सत्यं यतरहजीयस्',
तदित् सोमोऽवति हन्त्यासत् ।।
-७।१०४।१२
१३५. इन्द्रो यातूनाम भवत् पराशरः ।
-७११०४।२१
१ सेवन्ते । २ स एव तं पापे प्रवर्तयति । ३ स्वप्ने कृतरपि कर्मभिबहूनि पापानि जायन्ते, किमु वक्तव्यं जाग्रतिकृतं कर्मभिः। ४. अप्राप्तस्य
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ऋग्वेद की सूक्तिया
उनतीस १२६ द्रोही व्यक्ति लोगो को झूठी प्रशसा ही पाते है, सच्ची नही ।
१२७. हमारे लिए सभी गन्तव्य स्थान सुगम एव सुपथ हो ।
१२८. हे देव | समाम (सघर्पकाल) मे भी हमारी बुद्धि को व्यवस्थित रखिए।
१२६. छोटे अनुयायी के पापाचार मे नेता के पद पर रहने वाला वठा
व्यक्ति कारण होता है। १३०. स्वप्न भी पाप का कारण होता है, अर्थात् स्वप्न मे किए जाने वाले
दुष्कर्म से भी पाप लगता है। १३१. हमारे योग (लाभ) मे उपद्रव न हो, हमारे क्षेम (प्राप्त लाभ का रक्षण)
मे उपद्रव न हो, अर्थात् हमारे योग, क्षेम वाधारहित मगलमय हो । १३२. परम तत्त्व के स्तोता जन ही ध्र व-अर्थात निश्चल होते हैं ।
१३३. हे इन्द्र | मुट्ठी मे ग्रहण किए हुए जल के समान असत्यभाषी दुष्ट
जन भी असत् हो जाता है, अर्थात् विशीणं एव नष्ट हो जाता है।
१३४. विद्वान् के लिए यह जानना सहज है कि सत्य और असत्य वचन
परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनमे जो सत्य एव सरलतम है, सोम उसी की रक्षा करते हैं और असत्य को नष्ट कर देते हैं ।
१३५. इन्द्र हिंसको के ही हिंसक हैं, अथात् अकारण किसी को दण्डित नहीं
करते।
प्रापण योगः, प्राप्तस्य रक्षण क्षेम । ५ स्तोतार। ६. विदुषे । ७. मिथ स्पर्धते । ८ ऋजुतम अकुटिलम् । ६.हिंसकानाम् । १०. पराशातयिता हिंसिता।
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तीस
१३६. न वा उ सोमो वृजिन हिनोति, न क्षत्रिय मिथुया धारयन्तम् ।
१३७. विग्रीवासो मूरदेवा" ऋदन्तु, मा ते दृशन् त्सूर्यमुच्चरन्तम् ।
१३८. युयुत या अरातय. ।
१३६. क्रीलन्त्यस्य सूनृता आपो न प्रवता यती. ।
१४०. श नस्तपतु सूर्य, श वातो वात्वरपा. २ ।
१४१ यो न कश्चिद् रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्य. । स्वं ४ ष एवं रिरिषीष्ट युर्जनः ॥
१४२ भद्रं मनः कृणुष्व ।
१४३ यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्यामह मित्रमहो अमर्त्यः ।
१४४. नकी रेवन्तं सख्याय विन्दसे |
१४५. अमृक्ता रातिः ।
सूक्ति त्रिवेणी
-७/१०४।१३
-७११०४१२४
-८ हा १
-८११३३८
-८१८६
-८|१८|१३
-८११६१२०
-८१६१२५
-८।२१११४
-८१२४१६
१. मारणक्रीडा. राक्षसा । २. अपाप सन् । ३. जिहिंसिषति | ४, आत्मीयैरेव चेष्टितं. रिरिषीष्ट हिसितो भूयात् । ५. ये यथा यथोपासते ते
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ऋग्वेद की सूक्तिया
इकत्तीस
१३६. कोई कैसा ही क्यो न वलवान हो, यदि वह असत्यवादी एव पापी है तो उसे सोम देवता किसी महान् कार्य के लिए नियुक्त नही करते हैं ।
१३७. हमेशा मारधाड मे प्रसन्न रहने वाले सिरफिरे दुष्टजन शीघ्र ही नष्ट हो जाते है | उन्हे उगते हुए सूर्य के दर्शन नहीं होते ।
१३८. जो लोग दानी नही है, उन्हें सदा दूर रखिए ।
१३६ प्रवाह मे वहते हुए जल के समान प्रिय एव सत्य वाचा क्रीडा करती हुई वहती है ।
१४०. सूर्य हम सबके लिए सुग्वद होकर तपे, वायु पापताप से रहित शुद्ध होकर बहे ।
१४१. जो व्यक्ति किसी को राक्षस भाव (दुर्भाव ) से
नष्ट करना चाहता है, वह स्वयं अपने ही पापकर्मों से नष्ट हो जाता है, अपदस्थ हो जाता है ।
१४२. अपने मन को भद्र ( कल्याणकारी, उदार) बनाओ ।
१४३ हे मित्र के समान तेजस्वी ज्योतिमंयदेव, में मरणधर्मा मनुष्य तेरी उपासना से तू ही ( त्वद्स्प) हो जाता हूँ, मरण से मुक्त अमत्यं ( अमर ) हो जाता हूँ ।
१४४. हे इन्द्र । तुम दानादि गुणो से रहित कोरे धनी व्यक्ति को अपना मित्र नही बनाते हो ।
१४५० ( सदभाव से दिया गया) दान कभी नष्ट कही होता ।
तदेव भवन्तीति श्रुते, तहि अह अमत्यों मरणधर्मरहितो देव एव भवेयम् ।
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बत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४६. घृतात् स्वादीयो मधुनश्च वोचत ।
-८२४॥२०
१४७. यो वाम् यज्ञ भिरावृतोऽधिवस्त्रा वधूरिव ।
सपर्यन्ता' शुभे चक्राते अश्विना ।।
-~८।२६।१३
१४८. ऋते स विन्दते युधः ।
-दा२७११७
१४६. एषा चिदस्मादशनिः,
परो नु साधन्ती वि नश्यतु ।
-चा२७४१८
१५०. यथा वशन्ति देवास्तथेदसत्,
तदेषा न किरा मिनत् ।
--८/२८/४
१५१. नहि वो अस्त्यर्भको देवासो न कुमारकः ।
विश्व सतोमहान्त इत् ।
-८३०११
१५२ सुमति न जुगुक्षत ।
-८३१७
१५३. सुगा ऋतस्य पन्था ।
-~८।३१११३
१५४. जरितृभ्य. पुरूवसु.।
-८/३२।११
१५५. स्त्रिया अशास्य मनः ।
-~-८।३३३१७
१. सपर्यन्ता अभीष्टप्रदानेन तं परिचरन्ती। २. अस्र धन्ती काश्चिदप्यहिंसती । ३. यथा कामयन्ते । ४. तथैव असत् तद् भवति । ५. न कश्चिदपि
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तेतीस
ऋग्वेव की सूक्तिया १४६. घृत और मधु से भी अत्यन्त स्वादु वचन बोलिए।
१४७. जसे नव वधू वस्त्र से ढकी रहती है, वैसे ही जो यज्ञ (सत्कर्म) से ढका
रहता है, उसकी परिचर्या (देखरेख) करते हुए अश्विनी देव उसका
मगल करते हैं। १४८. महान् आत्मा युद्ध के विना भी ऐश्वयं प्राप्त कर लेते हैं।
१४६. यह अशनि (मायुध, वन) विना किसी की हिंसा किये शीघ्र स्वय ही
विनष्ट हो जाए !
१५०. दिव्य मात्मा जो चाहते है वही होता है। उनके सकल्प को कोई
ध्वस्त नही कर सकता।
१५१. हे देवताओ | तुम्हारे मे न कोई शिशु है, न कोई कुमार है । तुम सब
के सब पृथ्वी पर सदा महान् (नित्य तरुण रहते) हो ।
१५२. अपनी बुद्धि को प्रावृत (आच्छादित) न करो।
१५३ सत्य का मार्ग सुगम है ।
१५४ अपने स्तोताओ (साथियो) के लिए ही घनसग्रह करना चाहिए,
वैयक्तिक स्वार्थ के लिए नही ।
१५५. स्त्री का मन अशास्य है, अर्थात उस पर शासन करना सहज नही है।
मिनत्-हिनस्ति । ६. सर्वे यूय सवयसो नित्यतरुणा. भवथ । ७. संवारणमाच्छादनम्न छादयत इत्यर्थ ।
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धोतीस
सूक्ति त्रिवेणी
१५६. अध. पश्यस्व मोपरि।
---८।३३।१६
१५७. सतरा पादको हर !
-८।३३।१६
१५८. सुऊतयो व ऊतयः ।
-८।४७११
१५६. पक्षा वयो यथोपरि व्यस्म शर्म यच्छत ।
-८४७/२
१६० परि णो वृणजन्नघा दुर्गाणि रथ्यो यथा ।
-८/४७१५
१६१. मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पि ।
-८४८।१४
१६२. अपाम सोमममृता अभूम ।
-८१४८३
१६३. भद्रा इन्द्रस्य रातयः ।
-८।६२।१
१६४. सत्यमिद्वा उ त वयमिन्द्र स्तवाम नानृतम् ।
-८।६२।१२
१६५. अस्ति देवा अहोरुर्वस्ति रत्नमनागसः।
-८/६७७
१६६. जज्ञानो नु शतक्रतु ।
-८७७११
-
१. एष स्त्रीणा धर्म. । २ रक्षणानि । ३. अहो हन्तु. । ४ रत्न रमणीय सुकृतं श्रेयोऽस्ति ।
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पेतीस
ऋग्वेद को सूक्तिया १५६ नीचे की ओर देखिए, ऊपर की मोर नहीं ।
१५७ अपने पैगे को मिलाये रखो ।
१५६
१६०.
१५८. तुम्हारी ओर से किया जाने वाला जनता का रक्षण अपने मे एक
अच्छा (निष्पाप) रक्षण हो । जमे पक्षी (चिडियाएं) अपने बच्चो को सुख देने के लिए उन पर पख फैना देते हैं, वैसे ही तुम सब को सस्नेह सुख प्रदान करो। जिस प्रकार रथ को वहन करने वाले अश्व दुर्गम (ऊँचे नीचे गड्ढे वाले) प्रदेश को छोड कर चलते हैं, उसी प्रकार जीवन मे पापाचार
को छोडकर चलना चाहिए। १६१ हम पर न तो निद्रा हावी हो, और न व्यर्थ की बकवास करने वाला
निन्दक । १६२ हम सोमरस (शान्ति तथा समता रूप अमृतरस) का पान करें, ताकि
अमर हो जाए। १६३. इन्द्र (श्रप्ठ जन) का दान कल्याणकर है ।
१६४. हम सच्ची स्तुति ही करते है, झूठी नही।
१६५. देवो | पापशील हिंसक को महापाप होता है, और अहिंसक धर्मात्मा
को अतीव दिव्य श्रेय (सुकृत) की प्राप्ति होती है । १६६. इन्द्र जन्म से ही शतक्रतु है, अर्थात् बहुत अधिक कर्म करने वाला है ।
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छत्तीस
मूक्ति त्रिवेणी
१६७ विश्व शृणोति पश्यति ।
-८७८१५
१६८. आ नो भर दक्षिणेनाभिसव्येन प्रमृश' !
-८1८१६
१६९, अजातशत्रुरस्तृतः ।
-८/६३३१५
१७०. त्वमस्माकं तव स्मसि ।
-८/६२।३२
१७१. मनश्चिन्मनसस्पति.।
~~६।११९
१७२. व्रतेषु जागृहि ।
~६६१।२४
१७३. स्वदन्ति गाव. पयोभि ।
-६।६२१५
१७४. मज्जन्त्यविचेतसः ।
-~६।६४।२१
१७५ सुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत ।
-९३४
१७६. त्व समुद्रो असि विश्ववित् कवे !
-~६८६२६
१७७ क्रतुं रिहन्ति मधुनाभ्यञ्जतो।
-~६।८६१४३
१७८ पथः कृणुहि प्राच ।
-
९१३५
१. प्रयच्छ । २. विपरीतमतयः। ३ निहन्ति-आस्वादयन्ति ।
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ऋगवेद की सूक्तिया
१६७ ज्ञानी आत्मा सब सुनता है, सब देखता है ।
१६८. दाएं और बाएं - दोनो हाथो से दान करो ।
१६६ अजातशत्रु (निर्वैर) कभी किसी से हिंसित ( विनष्ट) नही होता |
१७० तुम हमारे हो, हम तुम्हारे हैं ।
१७१
मन का ज्ञाता मन का स्वामी होता है ।
१७२. अपने व्रतो ( कर्तव्यो ) के प्रति सदा जागृत रहो ।
१७३. गायें अपने दूध से भोजन को मधुर बनाती हैं ।
१७४ विपरीत बुद्धि वाले अज्ञानीजन डूब जाते हैं, नष्ट हो जाते है ।
१७७
१७५ पुण्य कर्म वाले व्यक्ति ही जीवन मे मधुरस (सुख) का आस्वादन करते हैं ।
१७६. हे विद्वन् (कवि ) ! तुम विश्वरहस्यो के ज्ञाता हो, ज्ञान के समुद्र हो ।
कर्म करने वाले - क्रतु को ही सब लोग चाहते हैं ।
सॅतीस
१७८. मार्गों को पुराने करो, तुम्हारे लिए कोई भी
अर्थात् अभ्यस्त एव सुपरिचित होने के कारण मार्ग ( जीवनपथ ) नया न रहे ।
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सूक्ति त्रिवेणी
अडतीस १७६ ग्रन्थि न वि प्य ग्रथित पुनान,
ऋजु च गातुं वृजिनं च सोम ।
-६६७११८
१८०, सखेव सख्ये गातुवित्तमो भव ।
-६।१०४।५
१८१ नानान वा उ वियो वि व्रतानि जनानाम् ।
-६।११२।१
१८२. कारुरह ततो भिपगुपलप्रक्षिणी नना ।
-६।११।३
१८३ बल दधान आत्मनि ।
-६।११३१
१८४ लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र मामृतं कृधि ।
-
११३१६
१८५ अप्यु मे सोमो अब्रवीदतविश्वानि भेपजा।
अग्नि च विश्वशभुवम् ।
-१०६६
१८६. इद नम ऋपिभ्य पूर्वजेभ्य. पूर्वेभ्य. पथिकृभ्यः ।
-१०।१४।१५ १८७ मधुमन्मे परायण', मधुमत् पुनरायनम् ।
-१०॥२४॥६
१८८. भद्र नो अपि वातय, मनो दक्ष"सुत क्रतम् ।
-१०१२५१
१. गृहात्सरागमनम् । २ प्रीतियुक्त भवतु । ३ गृह प्रत्यागमनम् ।
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ऋग्वेद की सूक्तियां
उनतालीस १७६ हे देव । जैसे गाठ को सुलझा (खोल) कर अलग किया जाता है,
वैसे ही मुझे पापो से मुक्त करो। और तुम मुझे जीवन-यात्रा का
सरल मार्ग और उस पर चलने की उचित शक्ति दो। १८०. जमे मित्र मित्र को सच्चा मागं बताता है, वैसे ही तुम यथायं मार्ग के
वताने वाले (उपदेष्टा) वनो। १८१ मनुष्यो के विचार नोर आचार (कम) अनेक प्रकार के हैं ।
१८२. में कारु (क नाकार) हूँ, पिता वैद्य है, और कन्या जो पीसने का काम
करती है। १८३ अपने मे वल का माधान करो।
१८४. जहां के निवासी ज्योति पुंज के समान तेजस्वी हैं, उसी लोक मे
हे सोम | मुझे भी अमृतत्व प्रदान करो, अर्थात् स्थायी निवास दो ।
१८५ सोम का कथन है कि-इन्ही जलो मे विश्व हितकर अग्नि का निवास
है, और मीपधियां भी इन्ही मे आश्रित हैं।
१८६. हम अपने से पूर्व उत्पन्न हुए कर्तव्यपथ के निर्माता आदिकालीन
ऋषियो को नमस्कार करते हैं । १८७ मेरा घर से बाहर जाना मधुमय (प्रीतियुक्त) हो, और मेरा वापिस
आना भी वैसा ही मधुमय हो, अर्थात् मैं जब भी, जहां भी जाऊँ,
सर्वत्र प्रीति एवं आनन्द प्राप्त करू। १८८. हे देव । हमारे मन को शुभसवल्प वाला बनाओ, हमारे अन्तरात्मा को
शुभ कर्म करने वाला बनाओ, और हमारी बुद्धि को शुभ विचार करने वाली बनायो।
४ गमय । ५. अन्तरात्मानं शुभकारिण कुरु । ६ प्रज्ञान शुभाध्यवसायिन कुरु ।
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चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
१८६ जिनामि वेत् क्षेम' आ सन्तमाभु।
प्र तं क्षिणा पर्वते पादगृह्य ॥
-१०१२७१४
१६०. न वा उ मा वृजने वारयन्ते,
न पर्वतासो यदहं मनस्ये ।
---१०।२७।५
___ १६१ भद्रा वधूभवति यत् सुपेशा ६,
स्वय सा मित्र वनुते जने चित् ।।
-१०।२७।१२
१९२ लोपाश सिंह प्रत्यञ्च मत्सा',
क्रोष्टा वराहं निरतक्त' कक्षात् ।
-१०।२८।४
१६३ अद्रि लोगेन१२ १३व्यभेदमारात्१४ ।
-~१०।२८९
१६४. बृहन्त चिहते रन्धयानि,
वयद्" वत्सो वृषभ शूशुवान १६ ।
-१०॥२८॥
१९५. प्रक्षेत्रवित् १० क्षेत्रविदं ह्यप्राट् ।
स प्रति क्षेत्रविदानुशिष्ट. ।।
-~१०॥३२७
१६६. निबाधते अमति ।
-१०१३३१२
१ जगत्पालने निमित्त । २. महान्तम् । ३ प्रक्षिपामि । ४. सग्रामे । ५. कल्याणी । ६. शोभनस्पा । ७ लुप्यमान तृणमश्नातीति लोपाशो मृग । ८. प्रात्मान प्रति गच्छन्तम् । ६ आभिमुख्येन गच्छति । १०. शृगाल. ।
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ऋग्वेद की सूक्तियां
इकतालीस १८६ में प्रजा के कल्याण के लिए ही सर्वत्र प्रभुत्व प्राप्त किए बलवान् शत्रु को
पराजित करता हूँ, पवि पकड़कर उसे शिलापर पछाड़ता हूँ।
१६०. जीवनसग्राम मे मुझे कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता, यदि मैं चाहूँ, तो
विशाल पवंत भी मेरी प्रगति मे वाधक नही हो सकते ।
१६१ जो स्त्री सुशील सुन्दर एव श्रेष्ठ है, वह जनसमूह मे से इच्छानुकूल
पुरुष को अपने मित्र (पति) रूप मे वरण कर लेती है ।
१६२. मेरी इच्छा शक्ति से ही तृणभक्षी हिरण अपने सामने आते सिंह को
ललकार सकता है और शृगाल वराह को वनसे भगा सकता है ।
१६३. एक टेला फैककर मैं दूरस्थ पर्वत को भी तोड सकता हूँ।
१६४. कभी-कभी महान भी क्षुद्र के वश में आ जाता है, प्रवद्धमान बछडा
भी वृषभ (साड) का सामना करने लगता है ।
१६५. मार्ग से अनभिज्ञ व्यक्ति मार्ग के जानने वाले से पूछ सकता है, और
उसके बताये पथ से अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच सकता है ।
१६६. मनुष्य को उसकी अपनी दुवुद्धि ही पीडा देती है ।
११. निर्गमयति । १२. लोष्टेन । १३. भिनदि । १४. दूरस्थितमपि । १५. युद्धाय गच्छति । १६ वीर्येण वर्तमान । १७. क्षेत्र पथाः, पन्थानमजानन् पुरुष ।
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सूक्ति त्रिवेणी
बियालीस १६७ द्वष्टि श्वश्र रप जाया रुणद्धि,
न नाथितो विन्दते मडितारम् । अश्वस्येव जरतो२ वस्न्यस्य,
नाह विन्दामि कितवस्य भोगम् ॥
--१०३४॥३
१६८. अन्ये जाया परिमृशन्त्यस्य,
___ यस्यागृधदने वाज्यक्षः। पिता माता भ्रातर एनमाहुर,
न जानीमो नयता बद्धमेतम् ।।
-१०॥३४।४
१६६. अक्षर्मा दीव्य. कृषिमित् कृषस्व,
वित्त रमस्व बहु मन्यमान । तत्र गावः कितव तत्र जाया,
तन्मे वि चप्टे सवितायमर्य. ।।
-~-१०।३४।१३
२००. सा मा सत्यो.क्त परिपातु विश्वतो,
द्यावा च यत्र ततनन्नहानि च । विश्वमन्यन्नि विशते यदेजति,
विश्वाहापो विश्वाहोदेति सूर्यः ।।
--१०१३७२
२०१. शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे ।
-१०३७।११
२०२. विशं विग मघवा पर्यशायत ।
-१०४३६
२०३. अहमिन्द्रो न पराजिग्य इद्धन,
न मृत्यवेऽवतस्थे कदाचन ।
--१०।४८५
१ धनदानेन मुवयितारम् । २ वृद्धस्य । ३ वस्न-मूल्य तदर्हस्य ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
तेतालीस
१९७. जुधा तैलने वाले पुरुष की सास उसे कोमती है और उसकी पत्नी भी उसे त्याग देती है | मागने पर जुआरी को फोई कुछ भी नही देता । जैसे वूढे घोडे का कोई मूल्य नही देना चाहता, वैसे ही जुआरी को भी कोई आदर नही देता ।
१६८ हारे हुए जुमारी की पत्नी को जीते हुए नुमारी केश पकड़ कर खीचते हैं, उसके धन पर दूसरे बलवान जुआरियो को गृध्र दृष्टि रहती है । माता पिता और भाई कहते हैं कि- 'हम इसको नही जानते, इसे बांधकर ले जामो ।'
१६६. हे जुआरी ! जुआ खेलना बन्द कर, खेती कर उसमे कम भी लाभ हो, फिर भी उसे बहुत समझ कर प्रसन्न रह । खेती से ही तो तुझे गोए मिली है, पत्नी मिली है, ऐसा हमे भगवान सूर्य ने कहा है ।
२००. सत्य के ग्राधार पर ही आकाश टिका है, समग्र संसार भर प्राणीगण सत्य के ही आश्रित हैं । सत्य से ही दिन प्रकाशित होते है, सूर्य उदय होता है और जल भी निरतर प्रवाहित रहता है । यह सत्य की वाणी सब प्रकार से मेरी रक्षा करे ।
२०१ मनुष्य और पशु सब को सुख अर्पण करो ।
२०२. प्रत्येक मनुष्य में इन्द्र ( ऐश्वर्य शक्ति) का निवास है ।
२०३. मैं इन्द्र ( आत्मा ) हूँ । मेरे ऐश्वयं का कोई पराभव नही कर सकता । मैं मृत्यु के समक्ष कभी अवस्थित नही होता, अर्थात् मृत्यु की पकड मे नही आता ।
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चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२०४. अश्मन्वती रीयते' संरभध्वमुत्तिष्ठत प्रतरता सखायः।
--१०५३॥८
२०५. मा प्र गाम पथो वयम् ।
-~१०१५७।१
२०६ जीवसे ज्योक् च सूर्य दृशे ।
-~-१०॥५७।४
२०७ यत् ते चतस्रः प्रदिशो मनो जगाम दूरकम् ।
तत् त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
-१०१५८।४
२०८ यत् ते भूतं च भव्यं च मनो जगाम दूरकम् ।
तत् त ा वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
-१०१५८।१२
२०६. पश्येम नु सूर्यमुच्चरन्तम् ।
--१०१५९४
२१०. धुभिहितो जरिमा सू नो अस्तु ।
-१०१५६।४
२११. अय मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तर. ।
अय मे विश्वभेषजोऽय शिवाभिमर्शनः ।।
-१०॥६०।१२
२१२. इमे मे देवा, अयमस्मि सर्वः।
-१०१६११६
२१३. सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ।
-१०॥६२।६
१. गच्छति । २ उल्लघयत । ३. मा परागच्छाम । ४. समी
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ऋग्वेद की सूक्तिया
पेंतालीस
२०४. हे मित्रो । अश्मन्वती (पत्यरो से भरी नदी) बह रही है, दृढता से
तनकर खडे हो जाओ, ठीक प्रयत्न करो और इसे लाघ जाओ। २०५. हम सुपथ से कुपथ की अोर न जाए।
२०६. जीवन मे चिरकाल तक सूर्य (प्रकाश) के दर्शन करते रहो ।
२०७. हे वन्धु । तुम्हारा मन, जो चारो मोर अत्यन्त दूरस्थ प्रदेश मे भटक
गया है, उसे हम लौटा लाते हैं। इसलिए कि तुम जगत मे निवास
करने के लिए चिरकाल तक जीवित रहो । २०८. हे वन्धु | तुम्हारा जो मन, भूत वा भविष्यत् के किसी दूर स्थान पर
चला गया है, उसे हम लोटा लाते हैं । इसलिए कि तुम जगत मे
निवास करने के लिए चिरकाल तक जीवित रहो । २०६. हम नित्यप्रति उदय होते हुए सूर्य को देखें, अर्थात् चिरकाल तक
जीवित रहें। २१०. हमारी वृद्धावस्था दिन प्रतिदिन सुखमय हो ।
२११ यह मेरा हाथ भगवान् (भाग्यशाली) है, भगवान ही क्या, अपितु
भगवत्तर है, विशेष भाग्यशाली है। यह मेरा हाथ विश्व के लिए भेषज है, इसके स्पर्शमात्र से सब का कल्याण होता है ।
२१२. विश्व के ये देव (दिव्य शक्तिया) मेरे हैं, मैं सब कुछ हूँ।
२१३. सावणि मनु का दान, नदी के समान दूर दूर तक विस्तृत (प्रवाहित) है।
चीनान्मार्गात् । ५. चिरकालम् । ६ आवतंयामः। ७. इह लोके निवासाय । ८, चिरकालजीवनाय । ६. भाग्यवान् ।
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छियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२१४. न तमश्नोति कश्चन ।
-१०॥६२।६
२१५. य ईशिरे' भुवनस्य प्रचेतसो'
विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः ।
--१०॥६३१८
२१६ सक्तुमिव तितउना पुनन्तो,
यत्र धीरा मनमा" वाचमक्रत । अत्रा सखाय. सख्यानि जानते', भषा लक्ष्मीनिहिताधि वाचि ॥
--१०७११२
२१७. उत त्व९ पश्यम् न ददर्श वाच
मुत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्व विसरे, जायेव पत्य उशती सुवासाः ।।
-१०७१।४
२१८ अधेन्वा चरति१ माययैष,
वाच शुथ वा अफलामपुष्पाम् ।
-१०७११५
२१९. यस्तित्याज सचिविदं सखायं ४,
न तस्य वाच्यपि भागो१५ अस्ति।
१. ईश्वरा भवन्ति । २. प्रकृष्ट ज्ञाना । ३ सर्वस्य वेदितारः । ४. शूर्पण । ५. प्रज्ञायुक्तेन । ६ कुर्वन्ति । ७ गास्त्रादि विपयज्ञाना.। ८. अभ्युदयान् लभन्ते । ६ त्वशब्द एकवाची एक । १०. आत्मान विवृणुते-प्रकाशयति । ११. यथा वघ्या पीना गी कि द्रोणमात्रं क्षीर दोग्धीति माया उत्पादयन्ती चरति, यथा वंध्यो वृक्षोऽकाले पल्लवादियुक्त. सन पुष्पति फलतीति भ्रान्ति
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ऋग्वेद को सूक्तिया
सेंतालीस
११४ दानशील मनु (मानव) को कोई पराजित नहीं कर सकता।
२१५. विश्व के ज्ञाता द्रष्टा श्रेष्ठ ज्ञानी देव (महान् आत्मा) स्थावर और
जंगम समग्र लोक के ईश्वर है ।
२१६. जैसे सत्त को शूप से परिष्कृत (शुद्ध) करते हैं, वैसे ही मेघावीजन
अपने बुद्धि बल से परिप्कृत की गई भापा को प्रस्तुत करते है । विद्वान लोग वाणी से होने वाले अभ्युदय को प्राप्त करते है, इनकी वाणी मे मगलमयी लक्ष्मी निवास करती है ।
२१७ कुछ मूढ लोग वाणी को देखकर भी देख नही पाते, सुन कर भी सुन
नही पाते । किन्तु विद्वानो के समक्ष तो वाणी अपने को स्वय ही प्रकाशित कर देती है, जैसे कि सुन्दर वस्त्रो से आवृत पत्नी पति के समक्ष अपने को अनावृत कर देती है।
२१८. जो अध्येता पुष्प एव फल से हीन शास्त्रवाणी सुनते हैं, अर्थात् अर्थबोध
किए विना शास्त्रो को केवल शब्दपाठ के रूप मे ही पढते रहते हैं, वे वध्या गाय के समान आचरण करते हैं। अर्थात् जैसे मोटी ताजी वध्या गाय अपरिचित लोगो को खूब दूध देने की भ्रान्ति पैदा कर देती है, वैसे ही शब्दपाठी अध्येता भी साधारण जनता में अपने पाहित्य
की भ्रान्ति पैदा करता है। २१६. दूसरो को णास्त्रवोध न देने वाले विद्वान की वाणी फलहीन (निष्प्रयो
मुत्पादयस्तिष्ठति, तथा पाठ प्रव्र वाणश्चरति । १२ केवलं पाठमात्रेणवश्रु तवान् । १३. अर्थ पुष्पफल, अर्थवर्जिताम् । १४. स्वार्थबोधनेन उपकारित्वात् सखिभूत वेद य. पुमान् तित्याज तत्याज परार्थविनियोगेन त्यजति । १५ भागो भजनीय.-कश्चिदर्थो नास्ति ।
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अड़तालीस
सूक्ति त्रिवेणी
यदी शृणोत्यलक' शृणोति, नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम् ॥
--१०१७११६ २२०. अक्षण्वतः कर्णवन्तः सखायो',
3मनोजवेष्वसमा बभूवुः । प्रादध्नास उपकक्षास उ त्वे, । ह्रदा इव स्नात्वा उ त्वे दद्दश्रे।
-१०७१७ २२१. असत सदजायत ।
--१०७२।२ २२२ अश्वादियायेति यद् वदन्त्योजसो जातमुतमन्य एनम् ।।
-२०७३।१० २२३ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो, विश्वतोवाहुरुत विश्वतस्पात् ।
-१०८१३ २२४ सत्येनोत्तभिता भूमिः ।
-१०८५१ २२५ ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति ।
-१०८५२ २२६. नवो नवो भवति जायमानो, ऽह्नाकेतुरूषसामेत्यनम् ।
-१०।८।१६ २२७. गृहानगच्छ गृहपत्नी यथासों', वशिनीत्व विदथमा१ वदासि ।
-१०८५।२६
१. अलीक व्यर्थमेव । २. बाह्य विन्द्रियेषु समानज्ञाना इत्यर्थः । ३. मनसा गम्यन्ते इति मनोजवा. प्रज्ञाद्या तेपु । ४. असमाः अतुल्याः। ५. सत्नामरूपविशिष्टम् । ६. अश्वाद्-आदित्याद् इयाय उदितवानिति । ७. वलाज्जातम् । ८. उपरि स्तंभिता यथा अघो न पतेत् । यद्वा सत्येन अनृतप्रति
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ऋग्वेद की सूक्तियां
उडनचास जन) होती है । वह जो सुनता है (अध्ययन करता है), सब व्यर्थ सुनता है, क्यो कि वह सुकृत के मार्ग को नही जानता है ।
२२०. आंख-कान आदि बाह्य इन्द्रियो का एक जैसा ज्ञान रखनेवाले भी
मानसिक प्रतिभा मे एक जैसे नहीं होते हैं, कुछ लोग मुख तक गहरे जल वाले तथा कुछ लोग कमर तक गहरे जलवाले जलाशय के समान होते हैं । और कुछ लोग स्नान करने के सर्वथा उपयुक्त गभीर ह्रद के
समान होते हैं। २२१ असत् (अव्यक्त) से सत् (व्यक्त) उत्पन्न हुआ है।
२२२. कुछ लोगो का कथन है कि इन्द्र आदित्य से उत्पन्न हुए हैं, परन्तु मैं
जानता हूँ कि वे ओजस् (बल) से उत्पन्न हुए हैं। २२३. विश्वकर्मा दिव्य आत्मा के आँख, मुख, बाहु और चरण सभी ओर
होते हैं । अर्थात् उनकी ओर से होने वाला निर्माण सर्वाङ्गीण होता है,
एकागी नही। २२४. सत्य से ही पृथ्वी अघर मे ठहरी हुई है। अथवा सत्य से ही पृथ्वी
धान्य एव सस्य आदि से फलती है। २२५. ऋत (सत्य अथवा कर्म) से ही आदित्य (सूर्य आदि देव) अपना
अस्तित्त्व बनाये हुए हैं। २२६. दिन का सूचक सूर्य प्रतिदिन प्रातःकाल नया-नया होकर जन्म लेता
है, उदय होता है।
२२७. हे कन्ये, पतिगृह मे जाओ और गृहपत्नी (गृहस्वामिनी) बनो। पति
की आज्ञा मे रहते हुए पतिगृह पर यथोचित शासन करो।
योगेन धर्मेण भूमिरुत्तभिता उद्धृता फलिता भवतीत्यर्थः, असति सत्ये भूम्या सस्यादयो न फलन्ति । ६. गृहस्वामिनी भवसि । १०. पत्युर्वशे वर्तमाना । ११ पतिगृहम् ।
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पचास
सूक्ति त्रिवेणी
२२८. पतिर्वन्धेपु बध्यते ।
---१०१८५२८
२२६. परा देहि शामुल्य ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु ।
.-१०.८५।२६
२३० जाया विशते पतिम् ।
-१०१८५।२६
२३१. सुगेभिर्दुर्गमतीताम् ।
-१०1८५३२
२३२. सुमङ्गलीरियं वधूरिमा समेत पश्यत ।
-~१०८५.३३
२३३ इहैव स्तं मा वि यौष्ट विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीलन्तौ पुत्रप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे ।।
-१०।०५४२
२३४. अदुमङ्गली. पतिलोकमा विश,
गं नो भव द्विपढे शं चतुष्पदे ।
-१०८५।४३
२३५. अघोरचक्षुरपतिध्न्येधि शिवा पशुभ्य. सुमना सुवर्चाः ।
-१०1८५१४४
२३६ सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्र वा भव । ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राजी प्राधिदेवृषु ॥
-१०८५।४६ २३७. समजन्तु विश्वे देवा. समापो हृदयानि नौ ।
--१०.८५४७
१ परात्यज। २ शमल-शारीरमलं, शरीरावच्छिन्नस्य मलस्य । ३. प्रयच्छ । ४. सुगर्मार्ग । ५. शोभनमगला । ६ सर्व प्राशी. कर्तार. समेतसगच्छत । ७. मा पृथग् भूतम् । ८. या मगलाचारान् दूषयति सा दुर्मगली,
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ऋग्वेद की सूक्तिया
इक्यावन
२२८. गृहपति कर्तव्य के बन्धनो मे बंधा हुआ है।
२२६. हे गृहस्वामिनी | तुम मलिनवस्त्रो का त्याग करो, और ब्राह्मणो
(विद्वानो) को दान दो। २३० योग्य पत्नी, पति मे मिल जाती है--अर्थात् पति के मन, वचन, कर्म
के साथ एकाकार हो जाती है । २३१. सुगम मार्गों से दुर्गम प्रदेश को पार कर जाइए ।
२३२ यह गृहवधू सुमगली है, शोभन कल्याणवाली है। माशीर्वाद देने
वाले सब लोग आएं और इसे देखें। २३३ वर और वधू । तुम दोनो यहाँ प्रेम से रहो, कभी परस्पर पृथक् मत
होना । तुम पूर्ण आयु तक पुत्र पोत्रो सहित अपने घर मे आनन्दपूर्वक
क्रीडा करते रहो। २३४. हे गृहस्वामिनी, तुम सामाजिक मगलमय आचार विचारो को दूषित न
करती हुई पतिगृह मे निवास करना, तथा हमारे द्विपद और चतुष्पद
अर्थात् मनुष्य और पशु सब के लिए कल्याणकारिणी रहना । २३१. हे वधू । तुम्हारे नेत्र सदा स्नेहशील निर्दोप हो । तुम पति के लिए मंगल
मयी, एवं पशुओ के लिए भी कल्याणकारिणी बनो। तुम्हारा मन सदा
सुन्दर रहे, और तुम्हारा सौंदर्य अथवा तेजस्विता भी सदा शुभ रहे। २३६. हे वधू | तुम सास, श्वसुर, ननद और देवरो की सम्राज्ञी (महारानी)
बनो, अर्थात् सब परिवार के ऊपर सेवा एव प्रेम के माध्यम से
प्रभुत्व प्राप्त करो। २३७. सभी देवता हम दोनो (पति पत्नी) के हृदयो को परस्पर मिला दें।
अथवा लौकिक एव लोकोत्तर आदि सभी विषयो मे हम दोनो के हृदयो को प्रकाशयुक्त (विचारशील) करें।
ततोऽन्या अदुर्मङ्गली, तादृशी सती। ६. क्रोधाद् अभयकरचक्षुरेधि-गव । १० लौकिकवैदिकविषयेषु प्रकाशयुक्तानि कुर्वन्तु इत्यर्थ ।
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वावन
२४१ त्व विश्वस्य जगतश्चक्षुरिन्द्रासि चक्षुषः ।
२४२. उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थ॒ः ।
२३८. न मत् स्त्री मुभसत्तरा.... विश्वस्मादिन्द्र उत्तर. ३ ।
२३६. परा शृणीहि तपसा यातुधानान् ।
२४० गीर्ण भुवनं तमसापगूल्हमाविः स्वरभवज्जाते ग्रग्नौ ।
२४४. दक्षिणा वर्म कृणुते विजानन् ।
२४५. दक्षिणान्नं वनुते ।
२४६ न भोजा मनुर्न न्यर्थमीयुर्,
सूक्ति त्रिवेणी
न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजाः । इदं यद् विश्वं भुवन स्वश्चैतत्, सर्व
दक्षिणैभ्यो
ददाति ॥
- १०1८६/६
२४७ भोजं देवासोऽवता भरेषु" ।
-१०१८७११४
-१०1१०७१२
२४३. दक्षिणावान् प्रथमो हूत एति, दक्षिणावान् ग्रामरणीरग्रमेति । तमेव मन्ये नृपति जनानां यः प्रथमो दक्षिरणामाविवाय ।।
- १०११०७१५
-१०८८१२
- १०1१०२।१२
-१०1१०७१७
- १०1१०७१७
- १०११०७८
- १०1१०७/११
१ अतिशयेन सुभगा । २. मम पतिरिन्द्र । ३ उत्कृष्ट । ४. चक्षुष्मतः । ५. भरा. संग्रामा तेपु ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
तिरेपन
२३८. मुझसे बढकर अन्य कोई स्त्री सुभग ( भाग्यशालिनी) नही है... मेरा भाग्यशाली पति सबसे श्र ेष्ठ है ।
२३६. अपने तपस्तेज से दुर्जनो ( राक्षसो) को पराभूत कर दो ।
२४० ( ज्ञानरूप ) अन्धकार विश्व को ग्रस लेता है, उसमे सब कुछ छुप जाता है । परन्तु ( ज्ञानरूप ) अग्नि के प्रकट होते ही सब कुछ प्रकाशमान हो जाता है ।
२४१. हे इन्द्र । तुम समग्र विश्व के नेत्र हो, नेत्र वालो के भी नेत्र हो ।
२४२ जो लोग दक्षिणा (दान) देते हैं, वे स्वर्ग मे उच्च स्थान पाते हैं ।
२४३. दानशील व्यक्ति प्रत्येक शुभ कार्य मे सर्वप्रथम आमंत्रित किया जाता है, वह समाज मे ग्रामणी अर्थात् प्रमुख होता है, सब लोगो मे अग्रस्थान पाता है । जो लोग सबसे पहले दक्षिणा (दान) देते हैं, मैं उन्हे जनसमाज का नृपति (स्वामी एवं रक्षक) मानता
1
२४४. विद्वान् व्यक्ति दक्षिणा को देहरक्षक कवच के समान पापो से रक्षा करने वाली मानते हैं ।
२४५. दक्षिणा (दान) ही मानवजाति को अन्न प्रदान करती है ।
२४६. दाताओ की कभी मृत्यु नही होती, वे अमर हैं । उन्हे न कभी निकृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, न वे कभी पराजित होते हैं, और न कभी किसी तरह का कष्ट ही पाते हैं । इस पृथ्वी या स्वगं मे जो कुछ महत्वपूर्णं है, वह सब दाता को दक्षिणा से मिल जाता है |
२४७. संकटकाल में देवता लोग दाता की रक्षा करते है ।
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चउपन
मूक्ति त्रिवेणी
२४८. भोज. शत्रन्त्समनीकेषु' जेता ।
--१०११०७।११
२४६. दुर्घा दधाति परसे व्योमन् ।
-१०।१०६।४
२५०. सुपर्ण विप्रा कवयो वचोभि
रेक सन्त बहुधा कल्पयन्ति ।
-१०१११४१५
२५१. स्वस्तिदा मनसा मादयस्व,
अर्वाचीनो२ रेवते सौभगाय ।
-१०।११६२
२५२. न वा उ देवा क्षुधमिद् वध ददु.
४रुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यवः । उतो रयि. पृरणतो नोप दस्य"त्युतापृणन् मडितारं न विन्दते ॥
--१०।११७११
२५३. य प्राध्राय चकमानाय पित्वो
ऽन्नवान्त्सन् रफितायोपजग्मुषे । स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो,
चित् स मडितारं न विन्दते ॥
-१०१११७।२
२५४. स इद् भोजो' यो गृहवेददाति,
अन्नकामाय चरते१४ कृशाय ।
१. संग्रामेपु । २. अभिमुखाचनो भव । ३ क्षुध न ददु. न प्राच्छन्, किन्तु वमित् वधमेव दत्तवन्त । ४. य. अदत्वा भुक्ते त आशित भु जान पुरपमपि । ५. पृणत प्रयच्छत पुरुपस्य रयि. घन नोपदस्यति-न उपक्षीयते, दसु उपक्षये देवादिक , पृण दाने तीदादिक.। ६. आत्मन सुखयितार न विन्दते,
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ऋग्वेद को सूक्तिया
२४८, दाता ही युद्ध मे आक्रमणकारी शत्रुओ पर विजय प्राप्त करता है ।
२४६ तप एव सदाचार के प्रभाव से निम्नस्तर के व्यक्ति भी उच्च स्थान प्राप्त कर लेते हैं ।
२५०. क्रातदर्शी मेधावी विद्वान् एक दिव्य (सत्य) तत्त्व का ही नाना वचनो से अनेकविध वर्णन करते है ।
२५१
पचपन
२५२
से सदा
विश्व के प्राणियो को स्वस्ति दो, आनन्द दो, और अन्तर्मन प्रसन्न रहो | तथा सर्वसाधारण जनता को ऐश्वर्य एव सौभाग्य प्रदान करने के लिए सदा अग्रसर रहो ।
देवो ने सब प्राणियो को यह क्षुधा नही दी है, अपितु क्षुधा के रूप मे उन्हे मृत्यु दी है । अत. जो मृत्युरूपी क्षुधा को अन्नदान से शान्त करता है, वही वस्तुत दाता है। जो विना दिये खाता है, वह भी एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता ही है । दाता का घन कभी कम नही होता और अदानशील व्यक्ति को कही भी कोई सुखी करने वाला नही मिलता ।
२५३ जो कठोरहृदय पुरुष धन एवं अन्न से संपन्न होते हुए भी, घर पर आए अन्न को याचना करने वाले क्षुधातं दरिद्र व्यक्ति को भोजन नही देता है, अपितु उसके समक्ष स्वयं भोजन कर लेता है, उसे सुखी करने मे कोई भी समर्थ नही है !
२५४. घर पर आये अन्न की याचना करने वाले व्यक्ति को जो सद्भाव से अन्न देता है, वस्तुत. वही सच्चा दानी है । उसे यज्ञ का सपूर्ण फल
कुत्रापि न लभते । ७. आघ्रो दुर्बल. तस्मै ८. पित्व - पितृनन्नानि चक मानाय याचमानाय । ६ रफतिर्हिसार्थ, दारिद्रयेण हिसिताय । १० गृह प्रत्यागताय । ११ भोजा - दाता । १२ प्रतिग्रहीत्रे । १३ अन्न याचमानाय । १४.
चरते – गृहमागतवते ।
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छप्पन
सूक्ति प्रिवेणी
अरमस्मै भवति याम्हता,
उतापरीषु कृणुते सखायम् ।।।
-१०१११७१३
२५५. न स सखा यो न ददाति सख्ये,
सचाभुवे सचमानाय" पित्व.६ । अपास्मात् प्रेयान्न तदोको अस्ति,
पृणन्तमन्यमरण चिदिच्छेत् ।।
-१०१११७४
२५६. पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्,
द्राधीयासमनु पश्येत पन्थाम् । ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रा, अन्यमन्यमुपतिष्ठन्त राय " ।।
-१०।११७१५
२५७ मोघमन्न विन्दते अप्रचेता.१२,
सत्य ब्रवीमि वध इत् स तस्य । नार्यमणं पुष्यति नो सखाय,
केवलाघो भवति केवलादी ।।
-१०।११७१६
२५८. वदन् ब्रह्माऽवदतो वनीयान्४,
पृणन्नापिरपृणन्तमभि ज्यात् ।
-१०।११७१७
२५६. कृषन्नित् फाल अाशितं कृणोति,
यन्नध्वानमप वृक्ते चरित्र ।
-१०।११७१७
१ अरमल पर्याप्तम् । २. यामहुति. यज्ञ. । ३ अपरीषु अन्यासु शात्रवीपु सेनासु सखायं कृणुते तद्वदाचरतीत्यर्थः । तस्य सर्वे सखाय एव, न शत्रव इत्यर्थः । ४. सर्वदा सहभवनशीलाय । ५. सेवमानाय । ६ पितून्-अन्नानि । ७ नाधमानाय-याचमानाय । ८. तव्यान्-तवीयान् धनरतिशयेन प्रवृद्ध.
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ऋग्वेद की सूक्तिया
सत्तावन प्राप्त होता है और उसके शत्र भी मित्र होते जाते हैं। अर्थात् उसके सभी मित्र होते हैं, शत्रु कोई नही ।
२५५. जो सहायता के लिए आये साथी मित्र को समय पर अन्न आदि की
सहायता नही करता है, वह मित्र कहलाने के योग्य नही है। ऐसे लोभी मित्र के घर को छोडकर जब मित्र गण चले जाते हैं और किसी अन्य उदारहृदय दाता की तलाश करते है तो बन्धुशून्य होने के कारण
वह घर घर ही नही रहता । २५६. सपन्न व्यक्ति को याचक के लिए अवश्य कुछ-न-कुछ देना ही चाहिए ,
दाता को सुकृत का लवे से लवा दीर्घपथ देखना चाहिए । जैसे रथ का पहिया इधर उधर नीचे ऊपर घूमता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियो के पास आता जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर
नही रहता । (अत. प्राप्त धन मे से कुछ दान करना ही चाहिए ।) २५७ दान के विचार से रहित अनुदार मन वाला व्यक्ति व्यर्थ ही अन्न (खाद्य
सामग्री) पाता है । मैं सच कहता हूँ-एक प्रकार से वह अन्न उसके वध (हत्या) जैसा है, जो गुरुजनो एव मित्रो को नही दिया जाता है । दूसरो को न देकर जो स्वय अकेला ही भोजन करता है, वह केवल पाप का
ही भागी होता है। २५८. जैसे प्रवक्ता विद्वान अप्रवक्ता से अधिक प्रिय होता है, वैसे ही दान
शील धनी व्यक्ति दानहीन धनी से अधिक जनप्रिय होता है।
२५६. कृषिकर्म करने गला हल कृषक को अन्न का भोक्ता बनाता है। मार्ग
मे चलता हुमा यात्री अपने चरित्र से ऐश्वर्य लाभ करता है ।
पुरुप. । ६. सुकृतमार्गम् । १०. मो हि आ उ आवर्तन्ते खलु, एकत्र न तिष्ठन्तीत्यर्थ.। ११. धनानि । १२. दाने मनो यस्य न भवति । १३. केवलपापवान् भवति, अधमेव केवल तस्य शिष्यते, नैहिक नामुष्मिकमिति । १४. संभक्तृतम. प्रियकरो भवति ।
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सूक्ति त्रिवेणी
अट्ठावन २६०. एकपाद् भूयो द्विपदो वि चक्रमे,
द्विपात् त्रिपादमभ्येति पश्चात् ।
--१०१११७८
२६१ समी चिद्धस्तौ न सम विविष्ट ,
समातरा चिन्न सम दुहाते । यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि, ज्ञाती चित् सन्तौ न सम पृणीत.।।
-१०१११७१६
२६२ हन्ताह पृथिवीमिमा नि दधानीह वेह वा।
कुवित् सोमस्यापामिति ॥
-१०।११६९
२६३. दिवि मे अन्य. पक्षोऽधो अन्यमचीकृषम् ।
कुवित् सोमस्यापामिति ।
-१०१११६।११
२६४. अहमस्मि महामहोऽभिनभ्यमुदीषितः ।
-१०१११६।१२
२६५. स्वादो. स्वादीय. स्वादुना सृजा सम् ।
अद. सु मधु मधुनाभि योधीः ॥
-१०।१२०१३
२६६. वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।
-१०।१२१।१०
१. बहुवारम् । २ सोमम् अपा पीतवानस्मि । ३. अधस्तात् - पृथिव्याम् । ४. महामहोऽस्मि-महतामपि महानस्मि। ५. नभौ मध्यस्थाने
भवं नभ्यं अन्तरिक्षम् । अन्तरिक्षमभि उदीषित उद्गत सूर्य आत्माऽहम् ।
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ऋगवेद की सूक्तिया
२६०. जिस के पास
उनसठ
सपत्ति का एक भाग है, वह दो भाग वाले के पथ पर चलता है, दो भाग वाला तीन भाग वाले का अनुकरण करता है, अर्थात् कामना की दौड निरन्तर आगे बढती रहती है ।
२६१. मनुष्य के दोनो हाथ एक से हैं, परन्तु उनकी कार्यशक्ति एक-सी नही होती । एकही माँ की सतान दो गायें एक जैसी होने पर भी एक जैसा दूध नही देती । एक साथ उत्पन्न हुए दो भाई भी समान बल वाले नही होते । एक वंश की सतान होने पर भी दो व्यक्ति एक जैसे दाता नही होते ।
२६२. प्रतिज्ञा करता हूँ कि में इस पृथ्वी को अपनी शक्ति से इधर उधर जहाँ चाहूँ, उठाकर रख सकता हूँ, क्योंकि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूँ | ( अर्थात् मैंने वह तत्वज्ञान पाया है, जिसके बल पर में विश्व मे एक बहुत बडी क्रान्ति ला सकता हूँ ।)
२६३ मेरा एक पक्ष (पाव) स्वर्ग में स्थापित है, तो दूसरा पृथ्वी पर । क्यो कि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूँ ।
(मैंने जीवनदर्शन का वह तत्वज्ञान पाया है कि मैं धरती और स्वर्ग, अर्थात् लोक परलोक दोनो के कर्तव्य की बहुत अच्छी तरह पूर्ति कर रहा हूँ ।)
2
२६४. में अन्तरिक्ष मे उदय होने वाला सूर्य हूँ, मैं महान् से भी महान् हूँ ।
२६५. तुम स्वादु (गृह और धनादि प्रिय) से भी अधिक स्वादुतर ( प्रियतर ) सन्तान को स्वादु (प्रिय) रूप माता पिता के साथ संयोजित करो । मधु को मधु के साथ सब ओर से अच्छी तरह मिश्रित करो ।
२६६. हम सब घन ( ऐश्वर्यं) के स्वामी हो, दास नही ।
६ स्वादो: -- प्रियाद् गृहधनादेरपि स्वादीय - स्वादुतर प्रियतरं अपत्यम्, स्वादुना - स्वादुमूतेन मिथुनेन मातापित्रात्मकेन ससृज - सयोजय ।
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साठ
सूक्ति त्रिवेणी
२६७ अह राष्ट्री' संगमनी वसूना,
चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
-१०।१२५॥३
२६८. अमन्तवो मा त उपक्षियन्ति ।
-१०११२५४
२६९ मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति ।
-१०।१२५।४
२७०. यं कामये तं तमुग्र कृणोमि ।
-१०।१२५१५
२७१. अहं जनाय समदं कृणोमि,
अहं द्यावापृथिवी या विवेश ।
-१०।१२५।६
२७२ परो दिवा पर एना पृथिव्य
तावती महिना सं बभूव ।
-१०।१२५८
२७३. नेतार ऊ षु णस्तिरः ।
-१०।१२६६
२७४. मह्यं नमन्ता प्रदिशश्चतस्र.।
-१०११२८१
२७५. ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु,
मह्यं वातः पवतां कामे अस्मिन् ।
-१०।१२८२
१ राष्ट्री ईश्वरनामैतत्, सर्वस्य जगत ईश्वरी । २ सगमयित्री-उपासकाना प्रापयित्री। ३ चिकितुपी-यत्साक्षात्कर्तव्य पर ब्रह्म तद्ज्ञानवती । ४. अजानन्त । ५ संसारेण हीना भवन्ति । ६. समान माद्यन्ति अस्मिन् इति
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ऋग्वेद को सूक्तिया
इकसठ २६७. मैं वाग्देवी समग्र विश्व की अधीश्वरी हूँ, और अपने उपासको को
ऐश्वयं देने वाली हूँ। मैं ज्ञान से सपन्न हूँ और यज्ञीय (लोकहित कर्मों
के) साधनो मे सर्वश्रेष्ठ हूँ। २६८. जो मुझ वाग्देवी को नही जानते, वे संसार मे क्षीण अर्थात् दीन
हीन हो जाते हैं। २६६. जो भी व्यक्ति अन्न खाता है वह मेरे (वाग्देवी) द्वारा ही खाता है
और जो भी प्रकाश पाता है वह मेरे द्वारा ही पाता है । ५७०. मैं (वाग्देवी) जिसक हती हूँ, उमे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ।
२७१. मैं वाग्देवी मनुष्य के (उत्थान के लिए निरतर युद्ध (सघर्प) करती
रहती हूँ। मैं पृथिवी और आकाश मे सर्वत्र व्याप्त हूँ।
२७२. मुझ वाग् देवी की इतनी बडी महिमा है कि मैं आकाश तथा पृथ्वी की
सीमाओ को भी लांघ चुकी हूँ।
२७३ नेता हमारी विकृतियो को दूर करें।
२७४. मेरे समक्ष चारो दिशाएं (चारो दिशाओ के निवासी जन) स्वय ही
नत (विनम्र) हो जाएं। २७५. मेरे लिए आकाश अन्धकाराच्छन्न न रह कर सब ओर पूर्ण प्रकाशमान
हो जाए । पवन भी अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूलगति से प्रवहमान हो !
समदः सग्रामः । ७. एना पृथिव्या. द्वितीया टोस्वेन इति इदम एनादेशः, अस्या पृथिव्या. पर.-परस्तात् । ८. स्वत. एव प्रह्वीभवन्तु । ६. तद्वासिनो जना इत्यर्थः ।
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वासठ
सूक्ति त्रिवेणी
२७६ न हि स्यय तुथा यातमस्ति ।
-१०११३११३ २७७. बाधतां द्वषो, अभयं कृणोतु ।
---१०।१३१६ २७८. आ वात वाहि भेषजं, वि वात वाहि यद्रप.। त्वं हि विश्वभेषजो देवाना दूत ईयसे ।।
-१०११३७१३ २७६ आपः सर्वस्य भेषजीः।
--१०११३७१६ २८०. जिह्वा वाचः पुरोगवी ।
--१०११३७७ २८१. उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः ।
-~-१०।१४५।३ २८२ कथा ग्राम न पृच्छसि, न त्वा भीरिद विन्दती।
-१०।१४६।१ २८३. न वा अरण्यानिहन्त्यन्यश्चेन्नाभिगच्छति ।। स्वादो. फलस्य जग्ध्वाय यथाकाम नि पद्यते ॥
-१०११४६१५ २८४. आजनगन्धि सुरभि बह्वनामकृषीवलाम् । प्राह मृगारणां मातरमरण्यानिमशसिषम् ॥
-१०।१४६६६
२८५. श्रद्धयाग्नि. समिध्यते, श्रद्धया हूयते हविः ।
-१०।१५१।१
१ एकेन घुर्येण युक्त अन. स्थूरीत्युच्यते, ऋतुथा-ऋतौ यद्यस्मिन् काले प्राप्तव्य तद्योग्यकाले । २. भेषजं-सुखं आवाहि-आगमय । ३. विवाहि-विगमय । ४. मस्मदीय पापम् । ५. यत्र यत्र शब्द. तत्र सर्वत्र तस्य शब्द:
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ऋग्वेद को सूक्तिया
तिरेसठ २७६. जिस शकट मे एक ही चक्र हो, वह कभी अपने गन्तव्य स्थान पर नही
पहुँच सकता। २७७. द्वाप से दूर रहिए, सब को अभय बनाइए ।
२७८. हे पवन ! तू हम सब को सुख शान्ति प्रदान कर, हमारे विकारो को दूर
कर। तेरे मे सभी भेपज (ओपध) समाये हुए हैं, तू देवो का दूत है,
जो सतत चलता रहता है। २७६ जल सब रोगो की एक मात्र दवा है । अथवा सब प्राणियो के लिए
औषध स्वरूप है। २८०. जिह्वा वाणी (शब्द) के आगे-आगे चलती है ।
२८१. मैं (गृहपत्नी) उत्तम हूँ, और भविष्य मे उत्तमो से भी और अधिक उत्तम
होऊ गी। २८२ तुम क्यो नही गांव मे जाने का मार्ग पूछते ? क्या तुम्हे यहां (वन मे)
अकेले रहने मे डर नहीं लगता ? २८३. अरण्यानी (वन) अपने यहां रहे किसी की हिंसा नहीं करती । यदि
व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी न हो तो फिर कोई डर नही है । अरण्यानी
मे मनुष्य सुस्वादु फल खाकर अच्छी तरह जीवन गुजार सकता है । २८४. कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्य के समान अरण्यानी का सोरम है, वहाँ
कृषि के विना भी कन्द, मूल, फल आदि पर्याप्त भोजन मिल जाता है । अरण्यानी मृगो की माता है, मैं अरण्यानी का मुक्त मन से अभिनन्दन
करता हूँ। • २८५, श्रद्धा से ब्रह्म तेज प्रज्ज्वलित होता है, और श्रद्धा से ही हवि (दानादि)
अर्पण किया जाता है।
स्योच्चारणाय पुरतो व्याप्रियते इत्यर्थ । ६. द्वितीयार्थे षष्ठी । ७. यथेच्छम् । ८, निगच्छति वर्तते ।
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चौसठ
सूक्ति त्रिवेणी
प्रियं श्रद्ध ददतः, प्रिय' श्रद्ध दिदासत ।
-१०।१५ ।
२८७ श्रद्धां हृदय्य याकूत्या, श्रद्धया विन्दते वसु ।
-१०।१५१४
२८८ श्रद्धा प्रातहवामहे श्रद्धां मध्यंदिन परि।
श्रद्धा सूर्यस्य निमुचि श्रद्ध श्रद्धापयेह नः ॥
-१०।१५११५
२८६. तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः।
-१०१५४।२
२६० उदसौ सूर्यो अगादुदय मामको भगः।
१०।१५६।१
२९१. अह केतुरह मूर्धा ऽहमुना विवाचनी।
-~१०।१५६२
२६२. मम पुत्रा. शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट्
उताहमस्मि सजया, पत्यो मे श्लोक उत्तमः ।
-१०।१५६।३
२६३. ब्रह्म द्विषो हन्त्यनानुदिष्ट ।
--१०।१६०४
२६४. शत जीव शरदो वर्धमानः
शतं हेमन्ता ञ्छतमु वसन्तान् ।
-१०।१६११४
२६५. अजष्माघासनाम चा ऽभूमानागसो वयम् ।
-१०॥१६४।५
१. प्रियं अभीष्टफल कुरु । २. दिदासतः दातुमिच्छतः । ३. सम्यग जेत्री ।।
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ऋग्वेद की सूक्तियां
पेंसठ २८६ हे श्रद्धा ! दान देने वाले का प्रिय कर, दान देने की इच्छा रखने वाले
का भी प्रिय कर, अर्थात् उन्हे अभीष्ट फल प्रदान कर ! २८७ सब लोग हृदय के दृढ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्यो कि
श्रद्धा से ही ऐश्वयं प्राप्त होता है। २८८. हम प्रातः काल मे, मध्यान्ह मे, और सूर्यास्त वेला मे अर्थात् सायकाल
मे श्रद्धा की उपासना करते हैं। हे श्रद्धा । हमे इस विश्व मे अथवा
कर्म मे श्रद्धावान कर । २८६. तप से मनुष्य पापो से तिरस्कृत नही होते, तप से ही मनुष्यो ने स्वर्ग
प्राप्त किए हैं। २६० सूर्य का उदय होना, एक प्रकार से मेरे भाग्य का ही उदय होना है ।
२६१ मैं (गृहपत्नी) अपने घर को, परिवार की केतु (ध्वजा) हूँ, मस्तक हूँ।
जैसे मस्तक शरीर के सब अवयवो का सचालक है, प्रमुख है, वैसे ही मैं सबकी सचालिका हूँ, प्रमुख हूँ। मैं प्रभावशाली हूँ, मुझे सब ओर से मधुर एव प्रिय वाणी ही मिलती है ।
२६२. मेरे पुत्र शत्रुओ को जीतनेवाले वीर है, मेरी पुत्री भी अत्यत शोभामयी
है । मैं सबको प्रेम से जीत लेती हूँ, पति पर भी मेरे यशकी श्रेष्ठ छाप
२६३ जो पुरुष श्रेष्ठ जनो से द्वष करते हैं, उन्हे इन्द्र विना कुछ कहे चुपचाप
नष्ट कर डालते हैं। २६४. हम दिन प्रतिदिन वर्धमान (प्रगतिशील) रहते हुए सौ शरद्, सौ हेमन्त
और सो वसन्त तक जीते रहे ।
२६५ आज हम विजयी हुए हैं, पाने योग्य ऐश्वयं हमने प्राप्त कर लिया है ।
आज हम सब दोषो से मुक्त हो चुके हैं।
४. श्लोक.-उपश्लोकनीय यश. ।
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छियासठ
२६६ अभिभूरहमागमं विश्वकर्मेण धाम्ना ।
२७. उषा अप स्वसुस्तमः संवर्तयति' ।
२६८. आ त्वा' हार्षमन्तरेधि
३००. राष्ट्र धारयतां ध्रुवम् ।
३०१ प सेधत दुर्मतिम् ।
विशस्त्वा सर्वा वाच्छन्तु मा त्वदुराष्ट्रमधि भ्रशत् ।
३०२. अपश्यं
3
ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि ३ ।
२६६ ध्रुवा द्यौर् ध्रुवा पृथिवी ध्रुवास पर्वता इमे । ध्र ुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामयम् ।
गोपामनिपद्यमानम् आा च परा च पथिभिञ्चरन्तम् ।
सूक्ति त्रिवेणी
३०३. ऋत च सत्य चाभीद्वात् तपसोऽध्यजायत ।
-१०११६६।४
३०४. संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने "विश्वान्यर्य आ ।
-१०११७२१४
१. अपसवर्तयति - आत्मीयेन तेजसा अपगमयति । अस्मद्राष्ट्रस्य
- १०११७३।१
-१०११७३१४
-१०११७३।५
- १०११७५/२
-१०११७७१३
-१०/१६०११
-१०११६१1१
२. महार्थम् -
स्वामित्वेनानपम् । ३. अतिशयेन चलनरहित एवं सन् ।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
सड़सठ २६६ मैं अपने तेज से सवको अभिभूत करने वाला हूँ। मैं विश्वकर्मा (सव
कर्म करने मे समर्थ) दिव्य तेज के साथ कर्मक्षेत्र में अवतरित हुमा हूँ। ___ २६७. उषा अपने तेज से अपनी बहन रात्रिका अधकार दूर करती है ।
२६८. हे राजन् | तुम राष्ट्र के अधिपति बनाये गये हो, तुम इस राष्ट्र के
सच्चे स्वामी बनो, तुम अविचल एव स्थिर होकर रहो । प्रजा तुम्हारे प्रति अनुरक्त रहे, तुम्हे चाहती रहे । तुम से कभी राष्ट्र का अधः पतन न हो, अमगल न हो।
२६६. यह आकाश स्थिर है, यह पृथिवी स्थिर है, पर्वत स्थिर हैं, और क्या,
यह समग्न विश्व स्थिर है। इसी प्रकार यह प्रजा की पालना करने
वाला राजा भी सदा स्थिर रहे । ३०० राष्ट्र को स्थिरता से धारण करो।
३०१. दुबुद्धि को दूर हटायो ।
३०२. मैंने देखा---गोप (भौतिक पक्ष मे सूर्य, अध्यात्मपक्ष में इन्द्रियो का
अधिष्ठाता आत्मा) का पतन नही होता। वह कभी समीप तो कभी दूर, नाना मार्गों में भ्रमण करता रहता है ।
३०३ तेजोमय तप के द्वारा ही मन, वाणी एव कर्म के ऋत अर्थात् सत्य की
उत्पत्ति होती है।
३०४ हे बलवान् अग्रणी नेता, आप हो सब को ठीक तरह से सघटित करते हो ।
४, सयुवसे-मिश्रयसि । ५. विश्वानि-सर्वाणि भूतजातानि ।
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अडसठ
सूक्ति त्रिवेणी
३०५. स गच्छध्व स वदध्वं, सं वो मनासि जानताम् ।
देवा भाग यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
-१०।१६११२
३०६. समानो मन्त्रः समिति समानी,
समान मन सह चित्तमेषाम् ।
-१०३१६११३
३०७. समानी व आकूति' समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा व. सुसहासति ॥
-१०।१६११४
१, संकल्पोऽध्यवसायः।
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ऋग्वेद की सूक्तिया
उनहत्तर ३०५. मिलकर चलो, मिलकर बोलो, मिलकर सब एक दूसरे के विचारो को
जानो। जैसे कि प्राचीन काल के देव (दिव्य व्यक्ति-ज्ञानीजन) अपने प्राप्त कर्तव्य कम मिलकर करते थे, वैसे ही तुम भी मिलकर
अपने प्राप्त कर्तव्य करते रहो। ३०६ आप सब का विचार समान (एकसा) हो, आप सब की सभा सब के
लिए समान हो । आप सबका मन समान हो और इन सबका चित्त भी
आप सब के साथ समान (समभावसहित) हो। ३०७. आप सब का संकल्प एक हो, आप सब के अन्तःकरण एक हो । आप
सब का मन (चिन्तन) समान हो, ताकि आप सब अच्छी तरह मिलजुल कर एक साथ कार्य करें।
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यजुर्वेद की सूक्तियां
१. इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ।
-१५
२. धान्यमसि घिनुहि देवान् ।
---१०२०
३. तेजोऽसि, शुक्रमसि, अमृतमसि ।
-११३१
४. सत्या न. सन्त्वाशिषः ।
-२०१०
५. स्वयम्भूरसि श्रेष्ठो रश्मिर्व!दा असि वर्गों मे देहि।
-२।२६
१. अङ्क क्रमश. अध्याय एवं कण्डिका (मन्त्र) के सूचक है। २. घिनोतेः प्रीणनास्य धान्यमिति भवति-उव्वट ।
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यजुर्वेद की सूक्तियां
१ मैं असत्य से हटकर सत्य का आश्रय लेता हूँ।
२. तुम तृप्तिकर्ता धान्य हो, अत. देवतामओ (सदाचारी लोगो) को तृप्त करो।
३ तू तेजस्वी है, दीप्तिमान है, और अविनाशी एव निर्दोप होने के कारण
अमृत भी है। ४. हमारे आशीर्वचन सत्य हो ।
५. हे प्रभो ! तुम स्वयमू हो,-स्वयं सिद्ध हो, श्रेष्ठ एव ज्योतिर्मय हो।
तुम ब्रह्म तेज के देने वाले हो, मत मुझे भी ब्रह्म तेज प्रदान करो।
* वाजसनेयि-माध्यंदिन-शुक्ल-यजुर्वेद सहिता, भट्टारक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा सपादित (वि० स० १९८४) सस्करण ।
-शुक्ल यजु. संहिता, आचार्य उध्वट तथा महीधर कृत भाष्य सहित,
चौखम्बा, (वाराणसी) संस्करण । नोट-यजुर्वेदान्तर्गत टिप्पण आचार्य उध्वट तथा महीधरकृत भाष्य के है।
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वहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
६. तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
--३३५
७. यद् ग्रामे यदरण्ये" यत्सभाया यदिन्द्रिये । __ यदेनश्चक्रमा वयमिद तदवयजामहे ॥
--३४५
८. उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योमुक्षीय माऽमृतात् ।
६ दीक्षातपसोस्तनूरसि !
-४२
१०. इयं ते यज्ञिया तनू ।
-४।१३
११. समुद्रोऽसि विश्वव्यचाः ।
-५३३
१२ मित्रस्य मा चक्षुपेक्षध्वम् ।
--५/३४
१३. अग्ने । नय सुपथा रायेऽस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । १४. सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम ।
-५३६
--५४३
१. भगंगदो वीर्यवचन....अथवा भर्गस्तेजोवचन.-उन्वट । २. दानादिगुणयुक्त य-उच्वट । ३. घोगब्दो बुद्धिवचनः कर्मवचनो वाग्वचनश्च-उवट । ४. ग्रामोपद्रवम्पम् । ५ मृगोपद्रवरूपम् । ६. महाजनतिरस्कारादिकम् ।
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यजुर्वेद को सूक्तिया
तिहत्तर ६. हम दानादि दिव्य गुणो से समृद्ध सवितादेव के महान् वीर्य एव तेज
का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को सत्कर्मों के निमित्त प्रेरित करे ।
७. गाँव मे रहते हुए हमने जो जनता के उत्पीडन का पाप किया है, वन मे
रहते हुए पशुपीडन का जो पाप किया है, सभा मे असत्य भाषण तथा महान्पुरुषो का तिरस्काररूप जो पाप किया है, इन्द्रियो द्वारा मिथ्याचरण रूप जो पाप हम से बन गया है, उस सब पाप को हम सदाचरण के द्वारा नष्ट करते हैं ।
८. जिस प्रकार पका हुआ उर्वारुक (एक प्रकार की ककडी या खीरा) स्वय
वृन्त से टूट कर गिर पडता है, उसी प्रकार हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त
हो, अविनाशी अमृततत्व से नही । ६. तू दीक्षा और तप का साक्षात् शरीर है ।
१०. यह तेरा शरीर यज्ञ (सत्कम) के लिए है।
११. तू सत्य ज्ञान का अगाध समुद्र है। तू कृताकृत के प्रत्यवेक्षण द्वारा सभी
सत्कर्मों की उपलब्धि कर सकता है। १२. मुझे मित्र की आंखो से देखिए ।
१३. सभी सन्मार्गों के जानने वाले हे अग्रणी नेता | तू हमे ऐश्वर्य के लिए
श्रेष्ठ मार्ग से ले चल । १४. हम अपने सत्कर्म के बल से समृद्धि की हजारो-हजार शाखाओ के रूप मे
अकुरित हो ।
७. कलजभक्षणपरस्त्रीगमनादिकम्-महीघर । ८ अवपूर्वो यजिशिने वर्तते । एतत् पाप नाशयामः-उव्वट ।
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चौहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
१५. मनस्त पाप्यायताम्, वाक्त पाप्यायताम्,
प्रारणस्त पाप्यायताम्, चक्षुस्त नाप्यायताम्, श्रोत्रं त पाप्यायताम् ।
---६।१५
१६. यत्ते करं यदास्थित तत्त प्राप्यायताम् ।
-६।१५
१७. दिवं ते धूमो गच्छतु, स्वर्णोति ।
६।२१
१८. मा भेर्मा सविक्था.' ऊर्ज धत्स्व ।
-६६३५
१९ देवो देवेभ्यः पवस्व ।
२०. स्वाकृतोऽसि ।
-७१३
२१ सुवीरो वीरान् प्रजनयन् परीहि ।
-७।१३
२२. सा प्रथमा सस्कृतिविश्ववारा।
-७।१४
२३. कामो दाता काम. प्रतिग्रहीता।
-७/४८
२४. कदाचन स्तरीरसि नेन्द्र !
--5)२
२५. अह परस्तादहमवस्ताद् ।
-~साह
-
१. ओविजी भयचलनयो. । सपूर्व. कम्पनमगिधत्ते, मा च त्व कम्पन कृथाःउन्वट । २. प्रवृत्ति कुरु-उव्वट । ३. स्वयकृतोऽसीति प्राप्ते छन्दसि यकारलोप. ।
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यजुर्वेद की सूक्तियां
पिचहतर १५. तेरे मन, वाणी, प्राण, चक्षु एवं श्रोत्र सब शान्त तथा निर्दोष हो ।
१६. जो भी तेरा क्रूर कर्म है, अशान्त भाव है, वह सब शान्त हो जाए ।
१७. तेरा धूम (कर्म की ख्याति) स्वर्ग लोक तक पहुँच जाए और ज्योति
तेज अन्तरिक्ष तक। १८. तुम भयभीत तथा चचल न बनो । अपने अन्तर मे ऊर्जा (स्फूर्ति एव
शक्ति) धारण करो। १६. तू स्वय देव होकर देवो के लिए प्रवृत्ति कर ।
२०. तू स्वयं कृत है, अर्थात् स्वयं उत्पन्न होने वाला स्वयमू है ।
२१. हे वीर | तू विश्व मे वीरो का निर्माण करता चल ।
२२. यह विश्व को वरण करने वाली श्रेष्ठ संस्कृति है।
२३. कामना ही देने वाली है, कामना ही ग्रहण करने वाली है ।
२४. हे इन्द्र ! तू कभी भी कर (हिंसक) नही होता है अर्थात् सदा सौम्य
रहता है। २५. मैं विश्व के ऊपर भी हूँ, नीचे भी हूँ। अर्थात् मैं पुण्य कर्म से ऊँचा होता
हूँ, तो पाप कर्म से नीचा हो जाता हूँ।
स्वयमुत्पन्नोऽसि-उन्वट । ४. स्तरीहिंसको नासि-महीधर ।
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सूक्ति त्रिवेणी
छियहत्तर २६. नमो मात्रे पृथिव्य,
नमो मात्रे पृथिव्यै'।
-६।२२
२७. वय राष्ट्र जागृयाम ।
-हा२३
२८. पृथिवि मातर्मा मा हिंसीर्मोऽग्रह त्वाम् ।
-१०।२३
२६. युक्तेन मनसा वय देवस्य सवितुः सवे ।
स्वग्र्याय शक्त्या।
-११।२
३०. शृण्वन्तु विश्वेऽमृतस्य पुत्राः ।
-११।५
३१. दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केत. न. पुनातु,
वाचस्पतिर्वाचं न. स्वदतु ।
-११७
३२. अरक्षसा मनसा तज्जुषेत।
-११।२४
३३. सहस्रम्भरः शुचिजिह्वो ऽग्निः ।
-११।३६
३४. सशितं मे ब्रह्म सशितं वीर्य वलम्,
संगितं क्षत्रं जिप्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः।
-१११८१
१ अभ्यासे मूयासमर्थ मन्यन्त इति द्विवचनम्-उध्वट 1.२. सवे.प्रसवेआनाया वर्तमाना -महीघर । ३ गा वाचं धारयतीति गधवं.-महीधर । ४ चित्तवति ज्ञानम्-महीधर । ५ तद् हविजुपस्व भक्षयस्व-उव्वट ।
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यजुर्वेद की सूक्तिया
सतहत्तर २६ मैं माता पृथिवी को नमस्कार करता हूँ, मै माता पृथिवी को नमस्कार
करता हूँ।
२७ हम राष्ट्र के लिए सदा जाग्रत (अप्रमत्त) रहे ।
२८ हे पृथिवी माता, न तू मेरी हिंसा कर और न मैं तेरी हिंसा करूं।
२६ विश्व के स्रष्टा दिव्य आत्माओ की प्राज्ञा मे रहने वाले हम, एकाग्र मन
से पूरी शक्ति के साथ, स्वर्ग (अभ्युदय) के साधक सत्कर्म करने के लिए
प्रयत्नशील रहे। ३०. अमृत (अविनाशी ईश्वर) के पुत्र सभी लोग सत्य का सन्देश श्रवण करें।
३१. ज्ञान के शोधक श्रेष्ठ विद्वान हमारे ज्ञान को पवित्र एव स्वच्छ बनाएं,
वाणी के अधिपति विद्वान् हमारी वाणी को मधुर एवं रोचक बनाएँ।
३२. क्षोमरहित प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए ।
३३. समाज के अग्रणी नेता को पवित्र जिह्वा वाला और हजारो का पालन
पोषण करने वाला होना चाहिए। ३४ मेरा ब्रह्म (ज्ञान) तीक्ष्ण है, मेरा वीर्य (इन्द्रिय शक्ति) और बल (शरीर
शक्ति) भी तीक्ष्ण है अर्थात् अपना-अपना कार्य करने में सक्षम हैं । मैं
जिस का पुरोहित (नेता) होता हूँ उसका क्षत्र (कर्म शक्ति) भी विजय, शील हो जाता है।
६. सम्यक् तीक्ष्णीकृतम् । ७. वीयंमिन्द्रियशक्तिः, बल शरीरशक्तिः, तदुभय स्वकार्यक्षमं कृतम्-महीधर ।
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अठत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
३५. उदेषां बाहूप्रतिरमुद्व!ऽप्रथो बलम् ।
क्षिणोमि ब्रह्मणा मित्रानुन्नयामि स्वाँऽअहम् ॥
-~१११८२
३६. ऊर्ज नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ।
-११६३
३७. 'शुक्र-ज्योतिर्विभाहि ।
-१२।१५
३८. त्वं हरसातपञ्जातवेदः शिवो भव !
-~-१२।१६
३९ मा हिंसीस्तन्वा प्रजा ।
-१२।३२
४०. लोकं पृण छिद्र पृण !
-१२।५४
४१. सं वा मनांसि स व्रता समु चित्तान्याकरम् ।
-१२।५८
४२. देवयानाऽअगन्म तमसस्पारमस्य, "ज्योतिरापाम ।
-१२।७३
४३. त्वं दीर्घायुभूत्वा शतवल्शा विरोहतात् ।
१२।१००
४४. नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु ।
-१३६
१. शुक्लकर्मसाधनम्-~-उन्वट । २. हरसा-ज्योतिषा-उव्वट । ३. व्रतमिति कर्मनाम । ४. चित्तशब्देन संस्कारा मनोगता उच्यन्ते-उज्वट ।
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यजुर्वेद को सूक्तिया
उनासी ३५ ब्राह्मणो (ज्ञानयोगी) और क्षत्रियो (कर्मयोगी) मे मेरी भुजाएं ऊँची
हैं । मेरा ब्रह्मतेज और ब्रह्म-बल विश्व के सभी तेज और बलो को पार कर गया है । मैं अपने ब्रह्मवल से विरोधियो को पराजित करता हूँ
और अपने साथियो को उन्नति की ओर ले जाता हूँ। ३६. हमारे मनुष्यो और पशुप्रो--सभी को अन्न प्रदान करो।
३७. शुक्ल कर्म की ज्योति विविध रूपो मे प्रदीप्त करो।
३८. हे विज्ञ पुरुष । अपनी ज्योति से प्रदीप्त होता हुमा तू सब का कल्याण
करनेवाला शिव वन ।
३६. सू अपने शरीर से किसी को भी पीड़ित न कर ।
४०. तुम विश्व की रिक्तता को पूर्ण करदो, और छिद्रो को भर दो।
४१. मैं तुम्हारे मनो (विचारो) को सुसगत अर्थात् सुसस्कृत एव एक करता
हूँ, मैं तुम्हारे व्रतो (कर्मों) और मनोगत संस्कारो को सुसगत करता हूँ
अर्थात् एक करता हूँ। ४२. दिव्य कम करने वाले देवयानी आत्मा ही इस मोह-वासनारूप अन्धकार
के पार होते हैं और परमात्म-रूप ज्योति को प्राप्त होते हैं । ४३. तू दीर्घायु होकर सहस्र अंकुरो के रूप मे उत्पन्न हो,-प्रवर्धमान हो ।
४४. पृथ्वी पर के जितने भी लोक (मानव-प्राणी) हैं, मैं उन सभी को
नमस्कार करता हूँ।
५. परमात्मलक्षणम् ---उन्बट । ६ वल्श शब्दोऽकुरवचनः-उन्वट । ७. सर्पशब्देन लोका उच्यन्ते-महीधर ।
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अस्सी
सुक्ति त्रिवेणी
४५. ऊो
भव !
-१३।१३
४६. काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि ।
एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण गतेन च ॥
-१३३२०
४७. गां मा हिंसीरदिति विराजम् ।
-१३१४३
४८. वसन्तः प्राणायनः ।
-~१३३५४
४६. मनो वैश्वकर्मणम् ।
-१३१५५
५०. इदमुत्तरात् स्व.।
-१३१५७
५१. इयमुपरि मतिः'।
-१३१५८
५२. विश्वकर्म ऽऋपिः ।
-१३१५८
५३. सत्याय सत्यं जिन्व....धर्मणा धर्मं जिन्व ।
-१५२६
५४. श्र ताय श्रतं जिन्व ।
-१५७
५५. मा हिंसीः पुरुपं जगत् ।
-१६३
१. वाग् वै मतिः-उन्वट । २. वाग व विश्वकर्म ऋपिः । वाचाहीदं सर्व
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यजुर्वेद को सूक्तियां
इक्यासी
४५. ऊँचे उठो । अर्थात् कर्तव्य के लिए खडे हो जाओ।
४६ हे दूर्वा । तुम प्रत्येक काण्ड और प्रत्येक पर्व से अंकुरित होती हो, इसी
प्रकार हम भी सैकड़ो हजारो अकुरो के समान सब और विस्तृत हो ।
४७ दुग्ध-दान मादि के द्वारा शोभायमान अदिति-(जो कभी भी मारने योग्य
नही है) गौ को मत मारो । ४८. वसन्त प्राणशक्ति का पुत्र है।
४६. मन विश्व कर्मा का पुत्र है (अत. वह सब कुछ करने में समर्थ है)।
५०. उत्तरदिशा मे अर्थात् उत्तम विचार दृष्टि मे स्वर्ग है ।
५१. यह बुद्धि अथवा वाणी ही सर्वोपरि है।
५२. यह वाणी ही विश्वकर्मा (सब कुछ करने वाला) ऋषि है ।
५३. सत्य के लिए ही सत्य को परिपुष्ट करो....धर्म के लिए ही धर्म को
परिपुष्ट करो । ५४. श्रुत (ज्ञान) के लिए ही श्रुत को परिपुष्ट करो।
५५. मनुष्य और जगम (गाय, भैस आदि) पशुओ की हिंसा न करो।
कतम्-महीधर । ३ धर्मणा धर्ममिति विभक्तिव्यत्यय । ४ जिन्वतिः तर्पणार्थ. -उव्वट ।
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बियासी
मूक्ति त्रिवेणी
५६. नम. सभाभ्यः सभापतिभ्यश्च वो नमः ।
-१६।२४
५७. नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमः ।
-१६।२६
५८ नमो महदुभ्योऽअर्भकेभ्यश्च वो नमः ।
-१६।२६
५६. नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नम.,
नमः कुलालेभ्य. कर्मारेभ्यश्च वो नमः ।।
-१६।२७
६०, नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च
नम पूर्वजाय चापरजाय च, नमो मध्यमाय च ।
-१६।३२
६१ प्रेता' जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु ।
उग्रा वः सन्तु बाहवो ऽनाधृष्यारे यथासथ ।।
"--१७१४६x
६२ स्वर्यन्तो नापेक्षन्तऽा द्या रोहन्ति रोदसी ।
यज्ञं ये विश्वतो घार सुविद्वासो' वितेनिरे ।।
-१७१६८
६३. एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्रात्
शतवजा रिपुणा नावचक्षे ।
१. प्रकर्पण गच्छत । २. केनाऽपि अतिरस्कार्या भवत-महीधर । x ऋगवेद १०११०३।१३। ३. रुणद्धि जरामृत्युशोकादीन् सा रोदसी-- महीधर । ४ सुविद्वास. ज्ञानकर्मसमुच्चयकारिण -उव्वट । ५ एता वाच.
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यजुर्वेद की सूक्तियां
तिरासी
५६ सभी सभाग्रो ( लोकहितकारी सगठन) और सभापतियो को हमारा
नमस्कार है ।
५७. राष्ट्ररक्षक सेनाओ और सेनापतियों को नमस्कार है ।
५८ छोटे बड़े सभी को नमस्कार है ।
५६. शिल्पविद्या के विशेषज्ञ, रथकार ( याननिर्माता), कुलाल (कुम्हार) एवं कर्मार ( लुहार ) - सभी को नमस्कार है ।
६०. वडो को नमस्कार है, छोटो को नमस्कार है, तथा भूत, भविष्य एव वर्तमान के सभी श्रेष्ठ जनो को नमस्कार है ।
६१. हे वीरपुरुषो । दृढ़ता के साथ आगे बढो, विजय प्राप्त करो । इन्द्र ( तुम्हारा आत्मचैतन्य ) तुम्हारा कल्याण करे, तुम्हारी भुजाएँ अत्यत प्रचण्ड पराक्रम शाली हो, ताकि कोई भी प्रतिद्वन्द्वी शत्रु तुम्हें तिरस्कृत न करने पाए ।
६२ जो ज्ञान एव कर्म के समन्वयकारी विद्वान् विश्व के धारण करने वाले सत्कर्मरूप यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे स्वर्ग लोक मे गमन करते हुए शोकरहित दिव्य स्थिति को प्राप्त होते हैं, उन्हे फिर किसी की अपेक्षा नही रहती है ।
६३
श्रद्धा के जल से आप्लुत चिन्तनशील हृदयरूपी समुद्र से सैकडो ही अर्थरूप गतियो से युक्त वाणियाँ निकलती हैं, जो घृत-धारा के समान अवि
उद्गच्छन्ति....श्रद्धोदक प्लुतादेव... याथात्म्य चिन्तनसन्तान गर्भात्
शक्या.
अन्ति ६ बहुगतयो बह्वर्था । ७ कुताकि रूपशत्रु संघातेन नापवदितु
उव्वट ।
-
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चौरासी
सूक्ति त्रिवेणी
घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि'
हिरण्ययो वेतसो मध्यऽयासाम् ।
-१७।६३
६४. सम्यक स्रवन्ति सरितो न धेना
ऽअन्तर्हदा मनसा पूयमाना." ।
-१७१६४
६५. सत्यं च मे श्रद्धा च मे
जगच्च मे धन च मे विश्वं च मे। महश्च मे क्रीडा च मे मोदश्च मे जात च मे जनिष्यमाण च मे सूक्तं च मे सुकृत च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।।
---१८.५ ६६ ज्योति यज्ञ न कल्पता, स्वर्यज्ञन कल्पताम् ।
-१८।२६ ६७. विश्वाऽप्राशा वाजपतिर जयेयम् ।
-१८१३३ ६८ पयस्वती. प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।
-१८।३६ ६६. प्रजापतिविश्वकर्मा मनो गन्धर्व ।
--१८९४३ ७०. रुच नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि । रुचं विश्येषु शूद्रषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥
-१८१४८
-
१. पश्यामि । २. हिरण्ययो हिरण्मयो दीप्यमानो वेतसोऽग्नि' !.... अग्निहि वाचामधिष्ठात्री देवता-महीधर । ३. नद्य इवानवच्छिन्नोदकसन्तानप्रवृद्धा. । ४ धना वाचः । ५. विविच्यमाना.-उन्वट । ६. ज्योति. स्वयं
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यजुर्वेद की सूक्तियां
पिच्यासी च्छिन्न रूप से बहती हुई, कुतार्किकरूप शत्रुओ द्वारा अवरुद्ध एव खण्डित नही की जा सकती। मैं इन वाणियो के मध्य मे ज्योतिर्मान
अग्नि (तेज) को सब ओर देखता हूँ। ६४. अन्तहृदय मे चिन्तन से पवित्र हुई वाणियां ही नदियो के समान अवि
च्छिन्न धारा से भली भांति प्रवाहित होती हैं ।
६५. सत्य, श्रद्धा, यह स्थावर जगमरूप विश्व एवं ऐश्वर्य, दीप्ति, क्रीड़ा एवं
हपं, भूत एव भविष्य के सुख, सुभाषित एवं सुकृत-सब कुछ मुझे यज्ञ (सत्कम) से प्राप्त हो।
६६. यज्ञ (लोकहितकारी श्रेष्ठकर्म) के प्रभाव से हमे परमज्योतिरूप
ईश्वर की प्राप्ति हो, स्वर्गीय सुखो की प्राप्ति हो।
६७ मैं अन्न से समृद्ध होकर सब दिशाओ को विजय कर सकता हूँ।
६८ मेरे लिए सभी दिशा एवं प्रदिशाएं रस देन वाली हो ।
६६. यह मनरूपी गन्धवं प्रजापति और विश्वकर्मा है-अर्थात् प्रजा का पालन
करने वाला एवं विश्व के सब कार्य करने में समर्थ है। ७०. हे देव । हमारे ब्राह्मणो (ज्ञानयोगियो) को तेजस्वी करो | हमारे
क्षत्रियो (कर्मयोगियो) को तेजस्वी करो। हमारे वैश्यो (एक दूसरे के सहयोगी व्यवसायी जनो) को तेजस्वी करो और हमारे शूद्रो (सेवाव्रती लोगो) को भी तेजस्वी करो और मुझ मे भी विश्व के सब तेजो से बढकर सदा अविच्छिन्न रहने वाले दिव्य तेज का प्राधान करो।
प्रकाश. परमात्मा-महीधर । ७. वाजपतिः समृद्धान्न. सन्-महीघर । ८ पयस्वत्यो रसयुता --महीधर । ६. अनुत्सन्नधर्माणो यथावय दीप्त्या भवेम तथा कुर्वित्याशय.-उव्वट ।
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छियासी
सूक्ति त्रिवेणी
७१ तेजोऽसि तेजो मयि धेहि, वीर्यमसि वीयं मयि धेहि ।
बलमसि बल मयि धेहि, प्रोजोऽसि प्रोजो मयि धेहि । मन्युरसि मन्यु मयि घेहि, सहोऽसि सहो मयि धेहि ।
-१६६
७२. वाचा सरस्वती भिषग् ।
-१६।१२
७३ पशुभि पशूनाप्नोति ।
-१६।२०
७४. इडाभिर्भक्षानाप्नोति सूक्तवाकेनाशिषः ।
--१६॥२६
७५. व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् ।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते ।
-१६।३०
७६. आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ।
-१९३८
७७. पुनन्तु मा देवजना.,
पुनन्तु मनसा धियः, पुनन्तु विश्वा भूतानि ।
--१६।३६
७८. रत्नमभजन्त धीरा ।
--
.
.-१६।५२
१ भक्षभक्षान्--उज्वट । २ श्रदिति (निघ० ३, १०, २) सत्यनाम, श्रत्
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सत्तासी
यजुर्वेद की सूक्तिया ७१ हे देव, तुम तेज.स्वरूप हो, अतः मुझे तेज प्रदान करो । तुम वीर्य
(वीरकर्म, वीरता) स्वरूप हो, प्रत' मुझे वीर्य प्रदान करो। तुम बल (शक्ति) स्वरूप हो, अत मुझे बल प्रदान करो। तुम ओजः स्वरूप (कान्तिस्वरूप) हो, अत. मुझे ओजस् प्रदान करो। तुम मन्यु (मानसिक उत्साह) स्वरूप हो, मत मुझे मन्यु प्रदान करो।
तुम सह (शाति, सहिष्णुता) स्वरूप हो, अत मुझे सह प्रदान करो। ७२ वाणी ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से सरस्वती है, और उपदेश के द्वारा
समाज के विकृत आचार-विचाररुप रोगो को दूर करने के लिए
वैद्य है। ७३. पशुता के विचारो से पशुत्व प्राप्त होता है।
७४. भोजन से भोजन मिलता है और आशीर्वाद से आशीर्वाद । अर्थात् जो
दूसरो को भोजन एव आशीर्वाद देता हैं, बदले में उसको भी भोजन एव
आशीर्वाद प्राप्त होता है । ७५ व्रत (सत्कर्म के अनुष्ठान) से दीक्षा (योग्यता) प्राप्त होती है, दीक्षा से
दक्षिणा (पूजा प्रतिष्ठा ऐश्वर्य) प्राप्त होती है । दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त
होती है और श्रद्धा से सत्य (ज्ञान, अनन्त ब्रह्म) की प्राप्ति होती है। ७६ दुर्जनरूपी दुष्ट कुत्तो को दूर से भगा दो।
७७ देव जन (दिव्यपुरुष) मुझे पवित्र करें, मन (चिन्तन) से सुसगत धी
(बुद्धि अथवा कम) मुझे पवित्र करे । विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें अर्थात् मेरे सत्कर्म मे सहयोगी बनें ।
७८ धीर पुरुष ही रत्न (कर्म का सुन्दर फल) पाते हैं।
सत्य धीयते यस्या सा श्रद्धा आस्तिक्यबुद्धि -महीधर । ३ शुना चात्र दुर्जनप्रभृतयो लक्ष्यन्ते-उव्वद ।
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अट्ठासी
सूक्ति त्रिवेणी
७६. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः ।
अश्रद्धामनृतेऽदधात् श्रद्धां सत्ये प्रजापतिः।
-१९७७
८०. शिरो मे श्रीर्यशो मुखं त्विषिः केशाश्च श्मश्र रिण ।
राजा मे प्राणोऽअमृतं सम्राट' चक्षुविराट श्रोत्रम् ।
-२०१५
८१. जिह्वा मे भद्र वाड् महो, मनो मन्युः स्वराड् भाम ।
-~२०१६
८२. बाहू मे बलमिन्द्रिय हस्ती मे कर्मवीर्यम् ।
आत्मा क्षत्र"मुरो मम ।
-२०१७
___ ८३ जड्याभ्यां पद्भ्यां धर्मोऽस्मि
विशि राजा प्रतिष्ठित ।
-२०६
८४. यदि जाग्रद् यदि स्वप्न एनासि चकृमा वयम् ।
सूर्यो मा तस्मादेनसो विश्वान्मुञ्चत्वंहसः।
-२०११६
८५. वैश्वानरज्योतिभूयासम् ।
-२०१२३
८६. यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत. सह ।
तल्लोकं पुण्य प्रज्ञष यत्र देवा सहाग्निना ।
-२०/२५
१. सम्यक् राजते सम्राट्-महीधर । २. विविध राजमानमस्तुमहीधर । ३. इन्द्रिय च वल स्वकार्यक्षमम्-महीधर । ४ सत्कर्मकुशलो सामर्थ्यवन्तौ च स्तामित्यर्थ.-महीधर । ५ क्षतात् प्राणकरमस्तु-महीधर ।
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यजुर्वेद को सूक्तियां
नवासी ७६ प्रजापति ने सत्यासत्य को देखकर उन्हे विचारपूर्वक पृथक-पृथक्
स्थापित किया ! असत्य मे अश्रद्धा को और सत्य मे श्रद्धा को स्थापित
किया। ८०. मेरा शिर श्रीसंपन्न हो, मेरा मुख यशस्वी हो, मेरे केश और श्मश्रु
कान्तिमान हो ! मेरे दीप्यमान प्राण अमृत के समान हो, मेरे नेत्र
ज्योतिर्मय हो, मेरे श्रोत्र विविध रूप से सुशोभित हो । ८१. मेरी जिह्वा कल्याणमयी हो, मेरी वाणी महिमामयी हो, मेरा मन
प्रदीप्त साहसी हो, और मेरा साहस स्वराट् हो, स्वय शोभायमान हो,
उसे कोई खण्डित न कर सके । ८२. मेरे दोनो बाहु और इन्द्रियां बलसहित हो, कार्यक्षम हों । मेरे दोनो हाथ
भी कुशल हो, मजबूत हो । मेरी आत्मा और हृदय सदैव जनता को
दुःखो से मुक्त करने में लगे रहे। ८३. मैं अपनी जघाओ और पैरो से अर्थात् शरीर के सब अगो से धर्मरूप
हूँ । अत. मैं अपनी प्रजा मे धर्म से प्रतिष्ठित राजा हूँ।
८४. मैंने जागृत अवस्था मे अथवा सोते हुए जो पाप किए हैं, उन सब पापो
से सूर्य (ज्योतिर्मय महापुरुष) मुझे भली प्रकार मुक्त करें।
५५. मैं विश्वकल्याणकारी ईश्वरीय ज्योति हो ।
५६. जहाँ ब्राह्मण और क्षत्रिय समान मन वाले होकर अवियुक्त भाव से एक
साथ चलते हैं, कम करते हैं। और जहाँ देवगण अग्नि (आध्यात्मिक तेज) के साथ निवास करते हैं, मैं उस पवित्र एवं प्रज्ञानरूप दिव्य लोक (जीवन) को प्राप्त करूं।
६ विश्वेभ्यो नरेभ्यो हितो वैश्वानर. परमात्मा, तद्रूप ज्योति ब्रह्मव भूयासम्-महीधर।
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सूक्ति त्रिवेणी
नच्चे ८७ भद्रवाच्याय प्रेषितो'
मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता हि ।
-२११६१
८८. धिया भगं मनामहे ।
-२२।१४
८६. क स्विदेकाकी चरति, कऽउ स्विज्जायते पुन. ?
किं स्विद्धिमस्य भेषजं, किम्वावपन महत् ? सूर्य एकाकी चरति, चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निहिमस्य भेषजं, "भूमिरावपनं महत् ।।
-२३१६-१०
___९० का स्विदासीत्पूर्वचित्तिः, कि स्विदासीद् बृहद्वयः ।
का स्विदासीपिलिप्पिला, का स्विदासीत् पिशङ्गिला? चौरासीत्पूर्वचित्ति रश्वऽासीद् बृहद्वयः । 'अविरासीत् पिलिप्पिला, रात्रिरासीत् पिशजिला ॥
-२३॥११-१२
६१. किं स्वित्सूर्यसम ज्योति. किं समुद्रसमं सर ?
कि स्वित्पृथिव्यै वर्षीय कस्य मात्रा न विद्यते ? ब्रह्म सूर्यसम ज्योतिधों. १°समुद्रसम सर.। इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् गोस्तु मात्रा न विद्यते ।
-२३१४७-४८
१. भद्र बहीति प्रेषितोऽसीत्यर्थ.-महीधर । २. सूक्तवचनाय महीधर । ३. भग-भजनीय धनम्-उन्बट । ४ उप्यते निक्षिप्यतेऽस्मिन्निति आवपनम् -उन्वट । ५ अयं वै लोक आवपनं महद्, अस्मिन्नेव लोके प्रतितिष्ठतीतिश्रु ते. -महीधर । ६. ध ग्रहणेनात्र वृष्टिलक्ष्यते । सा हि पूर्व सर्वे. प्राणिभिश्चिन्त्यते । ७. पूर्वस्मरणविषया-महीधर । ८. अवि. पृथिव्यभिधीयते-उन्वट ।
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यजुर्वेद को सूक्तिया
इक्यानवे ८७. मनुष्य कल्याणकारी सुभापित वचनो के लिए ही प्रेषित एव प्रेरित है,
अत तुम कथनयोग्य सूक्तो (सुभाषित वचनो) का ही कथन करो।
८८. हम विचार एव विवेक के साथ ऐश्वयं चाहते हैं ।
८६. कौन अकेला विचरण करता है ? कौन क्षीण होकर पुन प्रकाशमान हो
जाता है ? हिम (शीत) की औपधि क्या है । ? वोज बोने का महान् क्षेत्र क्या है ? सूर्य अकेला विचरण करता हैं, चन्द्रमा क्षीण होकर भी पुनः प्रकाशमान हो जाता है । हिम की औषधि अग्नि है, बीज बोने का महान् क्षेत्र यह पृथिवी है, अर्थात् सत्कर्म के बीज बोने का खेत यह वर्तमान लोकजीवन
९० जनता द्वारा सर्वप्रथम चिंतन का विपय कौन है ? सब से बड़ा पक्षी
कौन है ? चिकनी वस्तु कौन सी है ? रूप को निगलने वाला कौन है ? जनता द्वारा सबसे पहले चिंतन का विषय वृष्टि है। अश्व ही गमन करने वाला सब से बडा पक्षी है । रक्षिका पृथिवी ही वृष्टि द्वारा चिकनी (पिलिप्पिला) होती है, रात्रि ही सब रूपो (दृश्यो) को निगलने
वाली है। ६१. सूर्य के समान ज्योति कोन सी है ? समुद्र के समान सरोवर क्या है, ?
पृथिवी से महान् क्या है ? किस का परिमाण (सीमा) नही है । सूर्य के समान ज्योति ब्रह्म है । समुद्र के समान सरोवर अन्तरिक्ष है। इन्द्र (चैतन्य तत्व) पृथिवी (भौतिक तत्व) से अधिक महान् है, वाणी का परिमाण नही है।x .
६. पिशमिति रूपनाम, रात्रिहिं सर्वाणि रूपाणि गिलति अदृश्यानि करोतिउन्वट । १०. द्यो अन्तरिक्ष यतो वृष्टिभवति-महीधर ।
x महीधर 'गो' से 'गाय' अथं लेते हैं-"गो घेनो मात्रा न विद्यते ।" उन्वट पृथिवी अर्थ भी लेते हैं--पृथिवी वा गौः।
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बानवे
सूक्ति त्रिवेणी
६२. यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः,
कस्मै देवाय हविषा विधेम ।
-२५॥१३x
६३. यथेमां वाचं कल्यारणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ।
-२६।२ ६४. बृहस्पतेऽअति यदर्यो अदि द्य मद् विभाति ऋतुमज्जनेषु । यद्दीदयच्छवस'ऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् ।
-२६३
६५. उपह्वरे गिरीणा सगमे च नदीनाम् ।
धिया विप्रोऽअजायत ।
-२६।१५
६६. त्वं हि रत्नधाऽप्रसि ।
-२६।२१
____६७. देवों देवेसु देवः।
-२७११२
६८. अश्मा' भवतु नस्तनूः।
--२६।४६
६६. ब्रह्मणे ब्राह्मणं....तपसे शूद्रम् ।
-३०१५
Xऋग्वेद १०।१२११२, अथर्ववेद ४।२।२ । १. यस्य छाया आश्रयः परिज्ञानपूर्वकमुपासनं अमृतं अमृतत्वप्राप्तिहेतुभूतं, यस्य च अपरिज्ञान मृत्युः मृत्युप्राप्तिहेतमूतम्-उव्वट । यस्य अज्ञानमिति शेषः, मृत्यु ससारहेतुः-महीधर । २ अर्यों वैश्य.- उब्वट । ३. अरणाय च अरण. अपगतोदक. पर इत्यर्थः । ४. ईश्वरयोग्यं धनं देहि-महीधर । ५, द्यौ. कान्तिरस्याऽस्ति ध मत्
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यजुर्वेद को सूक्तियां
तिरानवे
६२. जिस की शान्त छाया (माश्रय-उपासना) मे रहना ही अमरत्व प्राप्त
करना है, और छाया से दूर रहना ही मृत्यु प्राप्त करना है, उस यनि
र्वचनीय परम चैतन्य देव की हम उपासना करें। ६३. मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य,-अपने और पराये सभी जनो के लिए
कल्याण करने वाली वाणी बोलता हूँ ।
६४. अविनाशी सत्य से जन्म लेने वाले वृहस्पति । तुम हम लोगो को वह
चित्र (नाना प्रकार का) वैभव अर्पण करो, जो श्रेष्ठ गुणीजनो का सत्कार करने वाला और कातिमान् हो, जो यज्ञ (सत्कर्म) के योग्य और जनता मे प्रतिष्ठा पाने वाला हो । । और जो अपने प्रभाव से अन्य ऐश्वर्य को
लाने में समर्थ हो। ६५ पर्वतो की उपत्यकाओ मे और गगा आदि नदियो के सगम पर ही अपनी
श्रेष्ठ बुद्धि के द्वारा ब्राह्मणत्व (ज्ञान शक्ति) की प्राप्ति होती है ।
६६. मानव ! तू रत्नधा (अनेक सद्गुणरूप रत्नो को धारण करने वाला) है।
६७. देवो में दानादि गुणो से युक्त ही देव (दीप्तिमान) होता है ।
६८. हमारे शरीर पत्थर के समान सुदृढ हो ।
६९. ब्रह्म (ज्ञान) के लिए ब्राह्मण को और तप के लिए शूद्र को नियुक्त करना
चाहिए।
महीधर । ६. यद् धन जनेषु लोकेषु विभाति विविघं शोभते-महीधर । ७. यज्ञाः क्रियन्ते तादृशं धनं देहि-महीधर । ८. यद् धनं शवसा-बलेन दीदयत दापयति प्रापयति वा धनान्तर तद्घन देहीत्यर्थः । ६. देवो दानादिगुणयुक्तःउन्वट । १० पाषाणतुल्यदृढा-महीधर ।
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चौरानवे
१००. धर्माय सभाचरम् ।
१०१. स्वप्नाय अन्धमधर्माय बधिरम् ।
१०२ मर्यादायै प्रश्नविवाकम् |
१०३ वैरहत्याय पिशुनम् ।
१०४. स्वर्गाय लोकाय भागदुघम् "
१०५ भूत्यै जागरणम्, प्रभूत्यै स्वपनम् ।
१०६. सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमि सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् |
1
१०८. श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ते पत्न्यौ ।
7
सूक्ति त्रिवेणी
-३०१६
- ३०११०
- ३०११०
-३०११३
१०७. वेदाहमेत पुरुष महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
—३०|१३
-३०।१७
- ३१1१
--३१११८
-- ३११२२
C
- १. भागं दुग्ध - भागदुघस्त विभागप्रदम् — महीधर । २. जागरूकम् - महीवर । ३. शयालुम् - महीधर । ४. दश च तानि अंगुलानि दशागुलानीन्द्रियाणि - उब्वट । ५ स्वप्रकाशम् — उव्वट । ६ तमोरहितम् इत्यर्थः । तम
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पिच्यानवे
यजुर्वेद की सूक्तियाँ १००. सभासद् धर्म के लिए चुना जाता है ।
१०१. अन्धा (विवेकहीन) केवल स्वप्न देखने के लिए है, और बहरा (हित
शिक्षा न सुनने वाला) केवल अधर्म के लिए है। १०२. प्रश्नो का विवेचन करने वाला विचारक मर्यादा के लिए नियुक्त
होना चाहिए। १०३ पिशुन वैर तथा हत्या के लिए है ।
१०६.
१०४. प्राप्त संपत्ति का उचित भाग साथियो को देने वाला स्वर्ग का अधि
कारी होता है। १०५. सदा जाग्रत रहने वाले को मूति (ऐश्वर्य प्राप्त होती है और सदा सोते
रहने वाले को अभूति (दरिद्रता) प्राप्त होती है । विराट् पुरुष के हजारो शिर है, हजारो नेत्र हैं, हजारो चरण हैं, अर्थात वह प्राणिमात्र के साथ तदाकार होकर रहता है । वह विश्वात्मा समग्न विश्व को अर्थात प्राणिमात्र को स्पर्श करता हुआ दस अगुल
(पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियां) को अतिक्रमण किए हुए है । १०७. मै उस सर्वतोमहान्, अन्धकार से रहित, स्वप्रकाशस्वरूप पुरुष
(शुद्ध चैतन्य आत्मा) को जानता हूँ। उसको जान लेने पर ही मृत्यु को जोता जाता है । मृत्यु से पार होने के लिए इस (आत्मदर्शन) के सिवा
अन्य कोई मार्ग नही है। १०८. हे आदित्यस्वरूप पुरुष | श्री और लक्ष्मी तेरी पत्नी है ।
शब्देनाविद्योच्यते---महीधर । ७. यया सवंजनाश्रयणीयो भवति सा श्री, श्रियतेऽनया श्री. सम्पदित्यर्थ । यया लक्ष्यते दृश्यते जन सा लक्ष्मी सौन्दर्यमित्यर्थ.-- महीघर. ८ पालयित्र्यौ-उबट ।
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छियानवे
१०६ न तस्य प्रतिमा 'अस्ति ।
११०. वेनस्तत्पश्यन्निहित गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ।
१११. तदपश्यत् तदभवत् तदासीत् ।
११२. इद मे ब्रह्म च क्षत्र चोभे श्रियमश्नुताम् ।
११३. प्रियासः सन्तु सूरयः ।
११४. शेवधिपाऽअरि ।
११५. ज्योतिषा बाधते तम. ।
११६. अपादिय पूर्वागात् " पद्वतीभ्यः ।
६
देवं,
तथैवेति ।
तदु सुप्तस्य दूरगम ज्योतिषा ज्योतिरेक, तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥
सूक्ति त्रिवेणी
११७. यज्जाग्रतो दूरमुदेति
- ३२/३
-३२२८
- ३२।१२
-३२।१६
-३३|१४
-३३१८२
-३३|ε२
-३३१९३
-३४।१
१. प्रतिमानभूतम् -- उव्वट । २. वेनः पण्डितः उव्वट । ३. तत् तथाभूतमात्मान अपश्यत् पश्यति, तदभवत् तथाभूत ब्रह्म भवति, तदासीत् - सदेवास्ति - उव्वट । ४ इयमुषा - महीधर । ५. अगात् - भागच्छति -
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सत्तानवे
यजुर्वेद की सूक्तियां १०६. परमचैतन्य परमेश्वर की कोई उपमा नही है ।
११०. सृष्टि के रहस्य को जानने वाला ज्ञानी हृदय की गुप्त गुहा मे स्थित
उस सत्य अर्थात् नित्य ब्रह्म को देखता है, जिसमे यह विश्व एक मुद्र
नीड (घोसला) जैसा है। १११. जो आत्मा ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वह अज्ञान से छूटते ही ब्रह्म
रूप हो जाता है । वस्तुतः वह ब्रह्म ही है।
११२ ये ब्राह्मण और क्षत्रिय अर्थात् ज्ञान और कर्म की उपासना करने वाले
दोनो मेरी श्री (ऐश्वर्य) का उपभोग करें। ११३. ज्ञानी जन हम सब के प्रीति पात्र हो ।
११४. धन से चिपटा रहने वाला अदानशील व्यक्ति समाज का शत्रु है ।
११५. ज्योति से ही अन्धकार नष्ट होता है ।
११६ यह विना पर की उषा पैरो वालो से पहले आ जाती है । अथवा
विश्व मे यह बिना पदो की गद्य वाणी पद्य वाणी से पहले प्रकट हुई है।
११७. जो विज्ञानात्मा का ग्रहण करने वाला होने से देव है, जो जाग्रत
अवस्था मे इन्द्रियो की अपेक्षा दूर जाता है, उसी प्रकार स्वप्न में भी जो अतीत, अनागत प्रादि मे दूर तक जाने वाला है, और जो श्रोत्र आदि ज्योतिर्मती इन्द्रियो मे एक अद्वितीय ज्योति है, वह मेरा मन पवित्र सकल्पो से युक्त हो ।
महीधर । ६. यद्वा वाक्पक्षेऽर्थ.....अपाद् पादरहिता गद्यात्मिका त्रयीलक्षणेय वाक्-महीधर ।
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अट्ठानवे
सूक्ति त्रिवेणी
११८. यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च,
___यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु । यस्मान्नऽऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मन शिवसकल्पमस्तु ।
-३४।३ ११९. यस्मिँश्चित्त ' सर्वमोतं प्रजाना, तन्मे मन शिवसकल्पमस्तु ।
-३४१५ १२०. सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्
नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।। हृप्रतिष्ठं यदजिरं" जविष्ठ, तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
-३४१६ १२१. भग एव भगवान् ।
-३४।३८ १२२ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवास. स मिन्धते ।
-३४/४४९ १२३. सप्त ऋषय १ प्रतिहिता शरीरे । सप्त रक्षन्ति 'सदमप्रमादम् ।
-३४.५५ १२४. द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी
शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतय. शान्तिविश्वे देवा. शान्तिब्रह्म शान्ति. सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि ।
--३६।१७ १. सज्ञानम्-- उव्वट । २. ओत प्रोत निक्षिप्त, तन्तुसन्ततिः पट इव सर्व ज्ञान मनसि निहितम् -- महीधर । ३ रश्मिभिनियच्छति-महीधर । ४. उपमाद्वयम् प्रथमाया नयनम् द्वितीयाया नियमनम्, तथा मन प्रवर्तयति नियच्छति च नरानित्यर्थ - महीधर । ५. अजिर जरारहितम् वाल्ययौवनस्थविरेषु मनमस्तदवस्थत्वात्- महीधर । ६ विगत. पन्यु संसारव्यवहारो येभ्य.
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यजुर्वेद को सूक्तियां
निन्यानवे ११८. जो विशेष रूप से ज्ञान का जनक है, चेतना का केन्द्र है, धैर्य रूप है,
प्रजा के अन्दर को एक ज्योति है, मात्मरूप होने से अमृत है, किंबहुना, जिस के बिना कोई भी कार्य किया जाना सभव ही नहीं है, वह मेरा मन पवित्र सकल्पो से युक्त हो ।
११६ जिस मन मे प्रजाओ का सब ज्ञान ओत-प्रोत है, निहित है, वह मेरा
मन पवित्र सकल्पो से युक्त हो।
१२०. कुशल सारथी जैसे वेगवान् घोडो को चाबुक मार कर दौडाता है, और
समय पर लगाम खोचकर उन्हें निययित भी करता है, वैसे ही जो मन मनुष्यादि सब प्राणियो को कमं मे प्रवृत्त भी करता है और नियत्रित भी, और जो मन जरा से रहित है, अत्यत वेग वाला है, हृदय
में स्थित है, मेरा वह मन कल्याणकारी विचारो से युक्त हो । १२१ भग (ज्ञान वैराग्य आदि आत्मगुण) हो भगवान् है ।
१२२. निष्काम, जागरण शील-अप्रमत्त, मेधावी साधक ही आत्मा के शुद्ध
स्वरूप को प्रदीप्त करते हैं। १२३. शरीर मे स्थित सप्तर्षि (पांच इन्द्रियां, मन और बुद्धि) सदा अप्रमत्त
भाव से हमारी रक्षा करते हैं। १२४. स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथिवी शान्तिरूप हो । जल, औषधि, वनस्पति,
विश्वेदेव (समस्त देवगण), पर ब्रह्म और सब ससार शान्तिरूप हो । जो स्वय साक्षात् स्वरूपत शान्ति है, वह भी मेरे लिए शान्ति करने वाली हो।
निष्कामा--महीधर। ७. अप्रमत्ता ज्ञानकर्मसु समुच्चयकारिण -महीधर । ८ सम्यग्दीपयन्ति....निर्मलीकुर्वन्ति-महीधर । ६ ऋग्वेद १।२२।२१, सामवेद १८२।५।५ । १० सप्तऋषय -प्राणा त्वक्वक्षु श्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिलक्षणा - महीधर । '१ द सदाकालम्-उन्वट ।
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__ सौ
सूक्ति त्रिवेणी १२५. 'हते इंह मा,
मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्, मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । २मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।
--३६१८ १२६. पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतम् ।
शृणुयाम शरदः शत, प्रब्रवाम शरदः शतम् । अदीनाः स्याम शरदः शतम् ।
-३६/२४४ १२७. अचिरसि शोचिरसि तपोऽसि ।
-~-३७४११ १२८. हृदे त्वा मनसे त्वा ।
-३७११६ १२६. अरिष्टाऽऽहं सह पत्या भूयासम् ।
-३७।२० १३० मनस. काममाकूति वाचः सत्यमशीय।
पशूना रूपमन्नस्य रसो यश श्री. श्रयतां मयि स्वाहा ।
--३६४
१. विदीर्णे शुभकर्मणि दृढीकुरु माम्-उव्वट । २. शातं हि मित्रस्य चक्षुः । न व मित्र. कचन हिनस्ति । न मित्रं कश्चन हिनस्ति-उव्वट । ३. जीवेमअपराधीनजीवनो भवेम-महीधर । ४. ऋग्वेद ७।६६।१६ । ५. हृदयस्वास्थ्याय । ६. मन शुद्ध्यर्थम्- महीधर । ७. अनुपहिसिता । ८. काममभिलापम्, आकुञ्चनमाकूति प्रयत्न.- महीधर । ८ अशीय प्राप्नुयाम-महीधर । ६ स्प पशुसम्बन्धिनी गोभा-महोघर ।
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यजुर्वेद को सूक्तिया
एक सौ एक
१२५. हे देव । मुझे शुभ कर्म मे दृढता प्रदान करो । सभी प्राणी मुझे मित्र
की दृष्टि से देखें । मैं भी सब प्राणियो को मित्र को दृष्टि से देखू। हम सब एक दूसरे को परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें।
१२६. हम सौ वर्ष तक अच्छी तरह देखें, सौ वर्ष तक अच्छी तरह स्वतंत्र
होकर जीते रहें, सौ वर्ष तक अच्छी तरह सुनें, सौ वर्ष तक अच्छी तरह बोलें और सौ वर्ष तक सर्वथा अदीन होकर रहें।
१२७ हे महावीर ! तुम चद्र की ज्योत्स्नारूप हो, अग्नि के तेजस्रूप हो
और सूर्य के प्रतापरूप हो। १२८. हे देव । हृदय की स्वस्थता के लिए, मन की स्वच्छता के लिए हम
तुम्हारी उपासना करते हैं । १२६. मैं अपने पति के साथ सस्नेह अविच्छिन्न भाव से रहूँ।
१३० मेरे मन के संकल्प और प्रयत्न पूर्ण हो, मेरी वाणी सत्य व्यवहार
फरने में सक्षम हो, पशुमओ से मेरे गृह की शोभा हो, अन्न से श्रेष्ठ स्वाद मिले, ऐश्वर्य और सुयश सब मेरे आश्रित हो ।
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सामवेद की सूक्तियां
१. प्रतु ब्रह्मणस्पति प्र देव्येतु सूनृता ।
-पूर्वाचिक १।६।२*
२ यज्ञ इन्द्रमवर्धयत् ।
-२०१७
३. अव ब्रह्मद्विषो जहि ।
-२६१
४. अतीहि मन्युषाविरणम् ।
-२।१२।१
५. न क्येवं यथा त्वम् ।
-२६१०
*अडू, क्रमश. अध्याय, खण्ड और मन्त्र के सूचक हैं।
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सामवेद की सूक्तियां*
१ हमे ब्रह्मत्वभाव प्राप्त हो, हमे प्रिय एवं सत्यवाणी प्राप्त हो ।
२ कर्म से ही इन्द्र का गौरव बढा है ।
३ सदाचारी विद्वानो से होष करने वालो को त्याग दो।
४ जो साधक अहकारपूर्वक अभिषव (अनुष्ठान) करता है, उसे त्याग दो ।
५ हे भगवन् । जैसा तू है, ऐसा अन्य कोई नहीं है।
* सामवेद सहिता, भट्टारक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा संपादित
औंध से (वि० सं० १९६६) प्रकाशित । -सामवेद संहिता, सायणाचार्यकृतभाष्य, रामचंद्र शर्मा द्वारा
(ई० सं० १९२५) सनातनधर्म प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित । नोट--सामवेद के अन्तर्गत समस्त टिप्पण सायणाचार्य कृत भाष्य के हैं।
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एक सौ चार
सूक्ति त्रिवेणी
६. यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभय कृधि ।
-३२ ७. इन्द्रो मुनीनां सखा ।
-३३३ ८. अप ध्वान्तमूणुहि पूद्धि चक्षुः ।'
-३९७ ६. देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ।
-३।१०३
१०. यदुदीरत आजयो धृष्णवे धीयते धनम् ।
-४।७।६
११. स्वर्गा' अर्वन्तो जयत ।
-४९
१२. अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य,
पूर्व देवेभ्यो अमृतस्य नाम ! यो मा ददाति स इदेवमावद्,
अहमन्नमन्न मदन्तममि ॥
-६६१९
१३. मा वो वनांसि परिचक्ष्याणि वोचम् ।
-६३६ १४. यशो मा प्रतिमुच्यताम्, यशसा३स्या." संसदोऽहं प्रवदिता" स्याम् ।
---६।३।१०
१. चक्षुः-तेजश्च । २ सामर्थ्यम् । ३. समान-सम्यग जीवति, पुनर्जन्मान्तरे प्रादुर्भवतीत्यर्थ । ४ सग्रामाः। ५. जयतो धन भवतीत्यर्थः । ६. अतिथ्यादिभ्यो ददाति । ७ अवति सर्वान् प्राणिनो रक्षति । ८, परिवजनी
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सामवेद की सूक्तियां
एक सौ पांच ६. हे इन्द्र ! हम जिससे भयभीत हो, तुम उससे हमे अभय करो ।
७. इन्द्र मुनियो (तत्त्वज्ञानियो) का सखा है ।
८. अन्धकार को दूर करो, तेज (प्रकाश) का प्रसार करो।
६. आत्मदेवता (अथवा महाकाल) के महान् सामथ्यं को देखिए कि जो
आज जराजोर्ण होकर मरता है, वह कल ही फिर नये रूप में जीवित
हो जाता है, नया जन्म धारण कर लेता है । १०. संघर्षों के उपस्थित होने पर जो जीतता है, वही ऐश्वयं पाता है।
११. स्वर्ग पर विजय प्राप्त करो।
१२. मैं अन्न देवता अन्य देवताओ तथा सत्यस्वरूप अमृत ब्रह्म से भी पूर्व
जन्मा हूँ। जो मुझ अन्न को अतिथि आदि को देता है, वही सब प्राणियो की रक्षा करता है। जो लोभी दूसरो को नही खिलाता है, मैं अन्न देवता उस कृपण को स्वय खा जाता हूँ, नष्ट कर देता हूँ।
१३. मैं त्याज्य अर्थात् निन्द्य वचन नही बोलता ।
१४. मैं कभी यश से हीन न होऊ । इस मेरी सभा (समाज) का यश कभी
नष्ट न हो । मैं सदा सर्वत्र स्पष्ट बोलने वाला बनू ।
यानि । ६. ब्रवीमि । १०. अस्या मम संसदः समूहस्य यशो न प्रमुच्यताम् । ११. सर्वत्र प्रवक्ता।
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एक सौ छह
सूक्ति त्रिवेणी
१५. अपत्ये तायवो' यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय: विश्वचक्षुपे।
-६५७
१६. ऋतस्य जिह्वा पवते मधु प्रियम् ।
-~उत्तराचिक ११२१९४२* १०. न हि त्वा शूर देवा न मासो दित्सन्तम् । भीमं न गां” वारयन्ते ।
–રારાદાર १८. मा की ब्रह्मद्विपं वनः ।
-२।२।७।२
१६. तरणिरित् सिपासति वाजं पुरन्ध्या युजा"।
-४।४।१३।१
२०. न दुष्टुतिर् द्रविणोदेपु शस्यते,
न धन्तं रयिर्नशत् ।
-४।४।१३।२
२१ पवस्व विश्वचर्षण १५ ा मही रोदसी१६ पूण,
उषाः सूर्यो न रश्मिभिः।
-५॥१३५
२२. विप्रो यज्ञस्य साधन. ।
-१३।५।१५।२ २३. अग्निोतियॊतिरग्निरिन्द्रो ज्योतिर्योतिरिन्द्रः । सूर्यो ज्योतिज्योतिः सूर्यः।
-२०१६८१
१. तायुरिति म्तेननाम (न० ३,२४,७)। २. अक्तुभिः रात्रिभिः सह अपयन्ति अपगच्छन्ति....अक्तुरितिरायिनाम । ३. सूर्यस्य आगमनं दृष्ट्वेति शेषः । ४. पवते क्षरति । ५. मासः मनुष्याः । ६. मयजनक हप्तं । ७. वृषभम् । ८. कर्मणि त्वरित एव । ६. सम्भजते । १०. महत्या धिया ।
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सामवेद की सूक्तिया
एक सौ सात
१५. विश्व के चक्षु . स्वरूप सर्वप्रकाशक सूर्य का आगमन देखकर तारागण रात्रि के साथ वैसे ही छुप जाते है, जैसे सूर्योदय होने पर चोर ।
१६ सत्य (-भाषी) की जिह्वा से अतिमोहक मधुरस भरता है ।
१७. हे वीर । तुम्हे देवता या मनुष्य कोई भी दान देने से रोकने वाला नही है, जैसे कि हप्त वृषभ को घास खाने से कोई भी नही रोक सकता ।
१८. सदाचारी विद्वानो से द्व ेष करने वालो का संग न करो ।
१६ शीघ्रकर्मा बुद्धिमान् पुरुष अपनी तीक्ष्ण बुद्धि ( अथवा कर्मशक्ति) की सहायता से ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।
२०. धनदातामो की निन्दा करना ठीक नही है । दानदाता की प्रशंसा न करने वाले को धन नही मिलता है ।
२१. हे विश्वद्रष्टा । अपने रस के प्रवाह से आकाश और पृथ्वी दोनो को भर दो, जैसे कि सूर्य अपनी प्रकाशमान रश्मियो (किरणो ) से दिन को भर देता है ।
२२. मेधावी विद्वान् ही कर्म का साधक होता है ।
२३. अग्नि ज्योति है और ज्योति अग्नि है । इन्द्र ज्योति है, और ज्योति इन्द्र है । सूर्य ज्योति है, और ज्योति सूर्य है । अर्थात् शक्ति और शक्तिमान में अभेद है ।
११. सहायभूतया । १२. घनदासृषु । १३. हिंसन्त धनदातृविषयकस्तुत्यादिकर्माणि कुर्वन्तम् । १४. रयिधंन न नशत्, न व्याप्नोति । १५. विश्वस्य द्रष्टः ! १६. द्यावापृथिव्योः । १७. अहानि उपलक्ष्यन्ते ।
* उत्तराचिक के अंक क्रमशः अध्याय, खण्ड, सूक्त और मंत्र के सूचक हैं |
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अथर्ववेद की सूक्तियां
१. संथ तेन गमेमहि' मा श्र तेन वि राधिषि ।
-११॥४* २. यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिन बहु ।
-१।१०।३ ३. सं सं सवन्तु सिन्धवः, स वाताः सं पतत्रिणः। इमं यज्ञं प्रदिवो मे, जुषन्ता सं स्त्राव्येण हविषा जुहोमि ।।
-१२१५१
४. ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ।
-१२१६४
*अट्स क्रमशः काण्ड, सूक्त और मंत्र के सूचक हैं।
१. संगच्छेमहि । २. विराधो वियुक्तो मा भूवम् ।
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अथर्ववेद की सूक्तियां
१. हम सव श्रुत (ज्ञान) से युक्त हो, श्र त (ज्ञान) के साथ कभी हमारा
वियोग न हो।
२. जिह्वा से असत्य वचन बोलना बहुत बड़ा पाप है ।
३. नदिया मिल कर बहती हैं, वायु मिलकर बहते हैं, पक्षी भी मिलकर
उड़ते हैं, इसी प्रकार श्रेष्ठ जन भी कर्मक्षेत्र मे मिल जुल कर काम करते हैं। मैं संगठन की दृष्टि से ही यह स्नेहद्रवित अनुष्ठान कर
४. मेरा अन्दर का कवच ब्रह्म (-ज्ञान) है।
* अथर्ववेद संहिता, भट्टारक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा संपादित, औष से (वि० स० १६६६ मे) प्रकाशित । -अथर्ववेद संहिता सायणभाष्यसहित, पं० रामचन्द्र शर्मा द्वारा
सनातनधर्म यन्त्रालय मुरादाबाद से (वि० स० १९८६) मुद्रित । नोट-अथर्ववेदान्तर्गत समस्त टिप्पण सायणचार्यकृत भाष्य के हैं ।
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एक सौद
५ मा नो विददभिभा मो प्रशस्तिर् मानोविद् वृजिना द्वेष्या या ।
६ यदग्निरापो अदहत् ।
७. जिह्वाया अग्रे मधु मे, जिह्वामूले मधूलकम् । ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥
,
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम् । वाचा वदामि मधुमद् भूयास मधु संदृश. " ।।
५
६. मधोरस्मि मधुतरो 'मदुघान् मधुमत्तर. |
१०. सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन
विश्वा श्रा भाहि' प्रदिशश्चतस्रः ।
११. स्वे गये जागृह्यप्रयुच्छन् " ।
१२. मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व ।
१३. प्रतिनिहो प्रति सृधोऽत्य चित्तीरतिद्विषः ।
सूक्ति त्रिवेणी
- १।२०११
- ११२५११
- ११३४१२
- ११३४१३
- १|३४|४
-२२६११
-२२६३
-२१६१४
-२२६।५
१. मधुररसबहुलम् | २ क्रतौ कर्मणि शारीरे व्यापारे अस. भव । ३. निकटगमनम् सनिहितार्थेषु प्रवर्तन मधुमत् मधुयुक्तं स्वस्य परेषा व प्रीतिकर भवतु । ४ परागमनं दूरगमनम् । ५. सद्रष्टु सर्वस्य पुरुषस्य ।
"
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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ ग्यारह
५. पराजय, अपकीति, कुटिल आचरण और द्वष हमारे पास कभी न आएँ ।
६. क्रोधरूप अग्नि जीवनरस को जला देती है ।
७. मेरी जिह्वा के अग्रभाग मे मधुरता रहे, मूल मे भी मधुरता रहे । हे
मधुरता । तू मेरे कर्म और चित्त में भी सदा बनी रह ।
८. मेरा निकट और दूर-दोनो ही तरह का गमन मधुमय हो, अपने को
और दूसरो को प्रसन्नता देने वाला हो। अपनी वाणी से जो कुछ बोलू', वह मधुरता से भरा हो। इस प्रकार सभी प्रवृत्तियाँ मधुमय होने के फलस्वरूप मैं सभी देखने वाले लोगो का मधु (प्रिय) होऊ ।
६. मैं मधु (शहद) से भी अधिक मधुर हूँ, मैं विश्व के मधुर से मधुर
पदार्थों से भी अधिक मधुर हूँ। १०. अपने दिव्य तेज से अच्छी तरह स्वय प्रकाशमान बनो और अपने इधर
उधर समग्र चारो दिशामओ को भी प्रकाशमान करो।
११. किसी भी प्रकार का प्रमाद (मूल) न करते हुए अपने घर मे सदा जागते
रहो, सावधान रहो। १२. हे अग्रणी । मित्र के साथ सदा मित्र के समान उदारता का व्यवहार
कर। १३ कलह, हिंसा, पाप बुद्धि और द्वष वृत्ति से अपने आपको सदा दूर
रखिए।
६. मदुधात् मधुदुधात् . .मधुशब्दे धुलोपश्छान्दस. । मधुस्राविण पदार्थविशेषात् । ७ संदीदिहि-सम्यग् दीव्य दीप्यस्व वा। ८. प्रकाशय । ६. स्वे आस्मीये गये, गृहनामैतद् गृहे । १० अप्रमाद्यन् ।
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एक सौ बारह
सूक्ति त्रिवेणी
१४. शप्तारमेतु शपथः ।
-२७१५
१५. यश्चकार स निष्करत् ।
--२६५
१६. श ते अग्निः सहाभिरस्तु।
-२।१०१२
१७. आप्नुहि श्रेयांसमति समं काम ।
--२१११
१८. त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने ।
-२।१२१
१६. यथा धौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यत.'।
एवा मे प्रारणा मा बिभे ॥
-२।१५।१
२०. सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना स च वक्षथः।
सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समु व्रता ॥
--२१३०१२
२१. यदन्तरं तद् वाद्यं, यद् बाह्यं तदन्तरम् ।
--२६३०४
२२. विश्वरूपा विरूपाः सन्तो बहुधैकरूपाः ।
-२॥३४।४
२३. भगस्य नावमारोह पूर्णामनुपदस्वतीम् ।
तयोपप्रतारय यो वरः प्रतिकाम्य.॥
-२०३६५
१. विनश्यतः । २. कर्मनामतत् । ३. क्षयरहिताम् ।
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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ तेरह
१४ शाप (माकोश-गाली), शाप देने वाले के पास ही वापस लौट जाता है।
१५ जो सदा कार्य करता रहता है, वही अभ्यासी उस कार्य की निष्कृति
(पूर्णता-सम्पन्नता) करने की योग्यता प्राप्त करता है । १६ तेरे लिए जल (शान्ति एव क्षमा) के साथ अग्नि (तेजस्विता) कल्याण
कारी हो।
१७ अपने वरावर वालो से आगे बढ, और परम कल्याण प्राप्त कर ।
१८. मेरे सन्तप्त होने पर मेरे अन्य साथी भी सतप्त हो, अर्थात् हम सब
परस्पर महानुभूति रखने वाले हो । १६ जिस प्रकार आकाश और पृथ्वी कभी नही डरते, इसीलिए कभी नष्ट
भी नही होते । इसी प्रकार हे मेरे प्राण | तू भी कभी किसी से
मत डर । २० हे परस्पर प्रेम करनेवाले स्त्री पुरुषो। तुम दोनो मिलकर चलो,
मिलकर आगे बढो, मिलकर ऐश्वयं प्राप्त करो। तुम दोनो के चित्त परस्पर मिले रहे, और तुम्हारे सभी कर्म परस्पर मिलजुलकर
होते रहे। २१. जो तुम्हारे अन्दर मे हो वही बाहर मे हो, और जो बाहर मे हो वही
तुम्हारे अन्दर मे हो अर्थात् तुम सदा निश्छल एवं निष्कपट होकर रहो । २२ विश्व के विभिन्न रूप--प्राकृति, जाति एव माचार व्यवहार-वाले प्राणी
बाहर मे अनेक रूप होते हुए भी मूल मे एक रूप हैं ।
२३. यह गृहस्थाश्रम सब प्रकार से परिपूर्ण और कभी ध्वस्त न होने वाली
ऐश्वर्य को नौका है । हे गृहपत्नी । तू उसपर चढ़ और अपने प्रिय पति को जीवनसघर्षों के समुद्र से पार कर ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ चौदह २४. दूषयिष्यामि' काववम् ।
-~-३६५
२५. एकशत विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु ।
-३१६६
२६. "पयस्वन्मामक वचः ।
-३२२४१
२७ शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सकिर !
कुतस्य कार्यस्य चेह स्फाति समावह ।
~३१२४१५
२८. कामः समुद्रमाविवेश ।
-३१२६७
२६. सहृदयं सामनस्यमविद्वेष कृणोमि वः ।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्स जातमिवान्या ॥
३।३०।१
३०. अनुव्रतः पितु. पुत्रो मात्रा भवतु समनाः ।
जाया पत्ये मधुमती वाच वदतु गन्तिवाम् ॥
-३१३०१२
३१ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् २, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्पञ्चः सव्रता४ भूत्वा, वाच वदत भद्रया ।।
-३१३०१३ ३२. येन देवा न वियन्ति१५ नो च विद्विषते मिथः । तत् कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ।।
-३१३०१४
१. नाशयिष्यामि । २. विघ्नविशेपम् । ३ विघ्नाः । ४. विविधम् अवस्थितानि । ५ पयस्वत्-सारयुक्तं सर्वैरुपादेयं भवतु । ६ समुद्रवन्निरवधिक स्पम् आ विवेश प्राप्तवान् । ७. आभिमुख्येन कामयध्वम् । ८. अध्न्याः गोनामतत्, अहन्तव्या गाव. । ६. अनुकूलकर्मा भवतु । १० समानमनस्का ।
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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ पन्द्रह २४ मैं अपने जीवनपथ की बड़ी से बड़ी विघ्नबाधामो को परास्त
कर दूंगा। २५. पृथ्वी पर चारो ओर सैकडो विघ्न खडे हैं ।
२६. मेरा वचन दूध जैसा मधुर, मारयुक्त एवं सबके लिए उपादेय हो ।
२७ हे मनुष्य | तू सौ हाथो से कमा और हजार हाथो से उसे समाज में
फैलादे अर्थात् दान करदे । इस प्रकार तू अपने किये हुए तथा किये जाने वाले कार्य की अभिवृद्धि कर ।
२८.
मग
काम समुद्र में प्रविष्ट होता है-अर्थात् कामनाएं समुद्र के समान नि सीम हैं, उनका कही अन्त नही है।
२६. आप सव परस्पर एक दूसरे के प्रति हृदय में शुभ सङ्कल्प रखें, द्वष न
करें। आप सब एक दूसरे को ऐसे प्रेम से चाहे जैसे कि गौ अपने
नवजात (नये जन्मे हुए) बछडे पर प्रेम करती है । ३०. पुत्र अपने पिता के अनुकूल आचरण करे । माता पुत्र-पुत्रियो के साथ
एक-से मन वाली हो। पत्नी पति के साथ मधुर और सुखदायिनी वाणी बोले ।
३१. भाई-भाई आपस में द्वष न करें, बहिन-बहिन आपस मे द्वष न करें।
सब लोग समान गति और समान फर्मवाले होकर मिलजुलकर कार्य
करें, और परस्पर कल्याणकारी शिष्ट भाषण करे । ३२ जिससे श्रेष्ठजन भिन्न मतिवाले नही होते हैं, और परस्पर द्वष भी
नही करते हैं, उम ऐकमत्योत्पादक सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान का उपदेश हम आप सब पुरुषो को करते हैं ।
११. शन्तिवाम्-सुखयुक्ता वाचम् ।....'कशभ्याम्' इति शम्शब्दात् ति प्रत्यय , ततो मत्वर्थीयः । १२. द्विष्यात् । १३ सम्पञ्च. समञ्चना. समानगतय. । १४. समानकर्माण.। १५ वियन्ति विमति न प्राप्नुवन्ति ।
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एक सौ सोलह
सूक्ति त्रिवेणो
३३. अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत ।
-~-३१३०१५
३४. समानी प्रपा सह वोऽन्नभाग
समाने योक्त्रे' सह वो युनज्मि । सम्यञ्चोऽग्नि सपर्यतारा नाभिमिवाभित.।।
---३१३०१६
३५. साय प्रातः सौमनसो वो अस्तु ।
-३१३०७
३६. व्याया॑ पवमानो वि गक्रः पापकृत्यया ।
---३।३११२
३७. ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार ।
-४११३
३८. बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट् ।
---४।११५
३६. कविर्देवो न दभायत् स्वधावान् ।
-४११७
४०. मूर्णा मृगस्य दन्ताः ।
-४।३।६
४१. यत् संयमो न वि यमो वि यमो यन्न संयमः ।
-४।३७
४२. अनड्वान् दाधार पृथिवीम् ।
---४१११११
१. एकस्मिन् बम्बने स्नेहपाशे। २. न हिनम्ति, सर्वम् अनुगृल्लानीत्यर्थः ।
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अथर्ववेद की सूक्तिया
एक सौ सग्रह ३३. एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक मधुर मंभाषण करते हुए आगे बढे चलो ।
३४ मार सब को प्रपा (जलपान करने का स्थान) एक हो, आप सब एक
साथ बैठकर भोजन करें। मैं याप सबको एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए नियुक्त करता हूँ। आप सब अग्नि (अपने अन लक्ष्य) की उपासना के लिए सब ओर से ऐसे ही एकजूट हो, जैसे कि चक्र के आरे चक्र की नाभि मे चारो ओर से जुड़े होने हैं ।
३५ सुबह और शाम अर्थात् सदाकाल आप सब प्रसन्नचित्त रहे ।
३६. स्वच्छता का ध्यान रखनेवाला मनुष्य रोग आदि की पीडामओ से दूर
रहता है । और मनोबल से समर्थ साधक पापो से दूर रहता है । ३७ ब्रह्म से ही ब्रह्म का प्रकाश होता है अर्थात् ज्ञान से ही ज्ञान का विस्तार
होता है।
३८. ज्ञान का स्वामी दिव्य आत्मा ही विश्व का सम्राट् है ।
३६. क्रान्तदर्शी श्रेष्ठ ज्ञानी ऐश्वयं से समृद्ध होकर भी किसी को पीडा नही
देते हैं, सबपर अनुग्रह ही करते हैं । ४०. हिंस्र व्याघ्र आदि के दांत मूढ हो जाएं', भक्षण करने में असमर्थ हो
जाएं । अर्थात् अत्याचारी लोगो की सहारक शक्ति कुण्ठित हो जाए। जो स्वयं सयमित है, नियत्रित है, उसको व्यर्थ ही और अधिक नियत्रित नही करना चाहिए । परंतु जो अभी अनियत्रित है, उसी को नियत्रित
करना चाहिए। ४२ वृषभ ही हल जोतना, भार ढोना आदि के रूप मे भूमि (जनता) को
धारण करता है, पोषण करता है।
३, अन्नवान् । ४. कर्षण-भारवहनादिना....धारयति पोषयति ।
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एक गो बाटाह
गति प्रियेगी
४३. उत देवा अवहित देवा उत्तयथा पुनः ।
४४. रोहान राहुमध्यामः।
-४१४१
४५ वणी वगं नयागा एकाज त्वम् ।
-४।३१३
४६. मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवः ।
-~-४१३२२२
४७. प्रास्ते यम उपयाति देवान् ।
-४३४१३
४८. ब्रह्मौदनं विश्वजितं पचामि ।
-४६३५ ७
४६. रणे रणे अनुमदन्ति विप्राः ।
-५२४
५०. मा त्वा वभन दुरेवास कशोकाः।
- ५।२४
५१. नि तद् दधिपेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे।
-श।६
५२. तुरश्चिद् विश्वम् रणवत् तपस्वान् ।
-५२८
५३. ममाग्ने वर्ची विहवेष्वस्तु ।
-५।३।१
५४. ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु ।
-५।३३
५५. अराते चित्त वीन्त्यिाकूति पुरुषस्य च ।
-५७८
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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ उन्नीस
४३ हे दिव्य आत्माओ | तुम अवनतो को दुबारा उन्नत करो। अर्थात् गिरे
हुओ को फिर ऊँचा उठाओ। ४४ पवित्र आचारवाले आत्मा ही उच्च स्थानो को प्राप्त होते हैं ।
४५ सर्वप्रथम तू अपने आपको वश मे कर- अर्थात् सयमित कर, तभी तू
दूसरो को वश मे कर सकेगा। ४६ उत्साह (अथवा तेज) ही इन्द्र है, उत्साह ही देव है।
४७ जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिगहरूप यमो मे रहता
है, वह देवत्व को प्राप्त होता है। ४८. मैं विश्व को जीतने वाले ब्रह्मोदन (ज्ञानरूपी अन्न) को पकाता हूँ अर्थात्
उसे परिपक्व करता हूँ। ४६ ज्ञानी प्रत्येक युद्ध मे अर्थात् हर सघर्प मे प्रसन्न रहते हैं।
५०. मनुष्य, तेरे मन को दुष्टता एव शोक के विचार न दबाएं।
५१ जिस घर मे छोटे और बडे सब मिलकर रहते है, वह घर अपने बलपर
सदा सुरक्षित रहता है। ५२. शीघ्रता से कार्य करने वाला तपस्वी अर्थात् परिश्रमी एवं स्फूर्तिमान
व्यक्ति विश्व को हिला देता है । ५३ हे देव, मेरा तेज संघर्षों मे सदा प्रकाशमान रहे ।
५४. मेरा अन्तरिक्ष अर्थात् कार्यक्षेत्र विस्तृत परिवेशवाला हो ।
५५. कृपणता मनुष्य के मन और संकल्प को मलिन कर देती है ।
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मूचित त्रिवेणी
एका सो अठारह ४३. उत देवा अवहित देवा उन्नयथा पुनः ।
---४।१३११
४४. रोहान् रुरुहुर्मेध्यास.।
-~४।१४।१
४५. वशी वशं नयासा एकज त्वम् ।
-~~४।३१।३
४६. मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देव. ।
-~-४१३२२
४७. प्रास्ते यम उपयाति देवान् ।
-~-४१३४३
४८. ब्रह्मौदनं विश्वजितं पचामि ।
-~-४३५७
४६. रणे रणे अनुमदन्ति विप्राः ।
-५२।४
५०. मा त्वा वभन् दुरेवास कशोकाः।
-~-५२४ ५१. नि तद् दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे ।
-५२।६ ५२. तुरश्चिद् विश्वम् रणवत् तपस्वान् ।
-५२८ ५३. ममाग्ने वर्ची विहवेप्वस्तु ।
-५॥३१ ५४. ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु ।
-५।३।३ ५५. अराते चित्त वीन्त्यिाकूति पुरुषस्य च ।
-५२९
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अथर्ववेद की मूस्तियां
एक सो उन्नीग ४३ है दिव्य बात्मालो । तुम अवनतो को दुबारा उन्नत करो। अर्थात् गिरे
हुयो को फिर ऊँचा उठानो। ४४ पवित्र माचारवाने आत्मा ही उच्च स्थानो को प्राप्त होते हैं ।
४५ मर्वप्रथम तू अपने नापको वश मे कर-- टार्थात् सयमित कर, तभी तू
दूसरो को वश में कर सकेगा। ४६. उल्लाह (अथवा तेज) हो इन्द्र है, उत्साह हो देव है ।
४७ जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं मोर अपरिगहस्प यमो मे रहता
है, वह देवत्व को प्राप्त होता है। ४८. मैं विश्व को जीतने वाले ब्रह्मौदन (ज्ञानरूपी अन्न) को पकाता हूँ अर्थात्
उसे परिपक्व करता है। ४६. नानी प्रत्येक युद्ध मे अर्थात् हर संघर्ष मे प्रसन्न रहते हैं ।
५०. मनुष्य, तेरे मन को दुष्टता एवं शोक के विचार न दवाएं।
५१ जिस घर मे छोटे और बड़े सब मिलकर रहते हैं, वह घर अपने बलपर
सदा सुरक्षित रहता है। शीघ्रता से कार्य करने वाला तपस्वी अर्थात् परिश्रमी एवं स्फूर्तिमान्
व्यक्ति विश्व को हिला देता है । ५३ हे देव, मेरा तेज संघर्षों मे सदा प्रकाशमान रहे ।
५४ मेरा अन्तरिक्ष अर्थात् कार्यक्षेत्र विस्तृत परिवेशवाला हो ।
५५. कृपणता मनुष्य के मन और संकल्प को मलिन कर देती है ।
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एक सौ बीस
सूक्ति त्रिवेणी
५६ न कामेन पुनर्मघो भवामि ।
-५॥११॥२
५७ न ब्राह्मणो हिसितव्योऽग्निः प्रियतनोरिव ।
-५॥१८॥६
५८ तद् वै राष्ट्रमा स्रवति नाव भिन्नामिवोदकम् ।
ब्रह्माण यत्र हिंसन्ति तद् राष्ट्र हन्ति दुच्छुना ।।
-५॥१९॥
५६. आरोहणमाक्रमण जीवतो जीवतोऽयनम् ।
~५।३०७
६०. यथोत मनुषो मन एवेर्योमृति मन. ।
-६।१८।२
६१. मिथो विध्नाना उपयन्तु मृत्युम् ।
-६६३२।३
६२ अस्थैर्वृक्षा ऊर्चस्वप्ना.।
-६.४४१
६३. परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि ।
परेहि, न त्वा कामये ।
-६४५१
६४. अयस्मयान् वि चूता बन्धपाशान ।
-६०६३।२
६५. संव. पृच्यन्ता तन्वः समनासि समुव्रता।
-६७४।१
६६ सं प्रेद्धो अग्निजिह्वाभिरुदेतु हृदयादधि ।
-६७६१
६७ प्रायने ते परायणे दूर्वा रोहतु पुष्पिणीः ।
-६।१०६।१
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चवेद की सूक्तिया
एक सौ इक्कोस
५६. केवल इच्छा करने भर से हो में पुनः ऐश्वयंशाली नही हो
सकता हूँ ।
५७. ब्राह्मण (सदाचारी विद्वान् ) अग्निस्वरूप है, प्रिय शरीर को पीडा नही दी जाती है, वैसे देनी चाहिए ।
ज्योतिर्मय है । जैसे अपने विद्वान् को भी पीडा नही
५८. जिस राष्ट्र में ब्राह्मण ( विद्वान् ) मताये जाते हैं वह राष्ट्र विपत्तिगम्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे टूटी हुई नौका जल मे डूबकर नष्ट हो जाती है ।
५६. उन्नति और प्रगति प्रत्येक जीयात्मा का अयन है -- लक्ष्य है ।
६० जिस प्रकार मरते हुए व्यक्ति का मन मरा हुआ-सा हो जाता है, उसी प्रकार ईर्ष्या करने वाले का मन भी मरा हुआ-सा रहता है ।
६१. परस्पर एक दूसरे से झगडने वाले मृत्यु को प्राप्त होते है ।
६२. वृक्ष खडे खडे सोते हैं ।
?
६३. हे पापी विचार ! दूर हट मुझे तू कैसी बुरी-बुरी बातें कहता है जा, दूर चला जा, मैं तुझे नही चाहता ।
६४. लोह - जैसे मजबूत बन्धनो के पाश को भी तोड़ डालो ।
६५. तुम्हारे शरीर मिले रहे, तुम्हारे मन मिले रहे, तुम्हारे कर्म भी परस्पर मिलजुलकर होते रहे।
६६. हृदय की वेदी पर से हजारो ज्वालाओ से प्रदीप्त अग्नि ( उत्साह एव तेज) का उदय हो ।
६७. तेरे आगे और पीछे फूलो से लदी दूर्वा (प्रगति की आशा एवं आत्मश्रद्धा) खिली रहे ।
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एक गी बाईम
मृक्ति वित्रणी
६८. द.पदादिव' मुमुचानः, रिवन्नः स्नात्वा मलादिव ।
पूत पविग्रेगोवाज्यं, विग्चे शुम्भन्तु मैनसः ॥
-६६१२५/३
६६. अनृणा अस्मिन्ननृगाः परस्मिन् ।
-~-६११७१३
७०. देवाः पितरः पितरो देवाः।
-~-६६१२३३३
७१. यो अस्मि सो अस्मि ।
-~६१२३३
७२, चार वदानि पितरः गंगतषु ।
-७।१२।१
७३. विभ त गर्भ नाम नरिटा' नाम वा असि ।
ये ते के च सभासदग्ते मे सन्तु, सवाचसः ।।
-७११२१२
७४. यद् वोमनः परागत" यद् बद्धमिह वह वा।
तद् व या वर्नयाममि मयि वो रमतां मनः ।।
-७११२।४
७५. दमे दमे मप्त रत्त्ना दधानी ।
-७२६०१
७६. यो देवकामो न धनं नादि,
समित् तं रायः ग्नजति स्वधाभिः ।
-७१५०१६
७७. कृतं मे दक्षिणे हम्त जयो मे मव्य माहितः।
-७१५०1८
२. गान्टमयाद्, पादयन्यनादिय । २, गुद्ध फुर्वन्तु। ३. अहिमिता परेरनभिमाध्या । ४. अनुपालवाफ्याः। ५. अम्मदनमिमुगम । ६. यस्माद
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अपवंवेद को सूक्तियों
एक सौ तेईस
६८. जिस प्रकार मनुष्य काठ के पादबन्धन से मुक्त होता है, स्नान के द्वारा
मल से मुक्त होता है, और जैसे कि छनने से घी पवित्र होता है, उसी प्रकार सभी दिव्य पुरुष मुझे भी पाप से शुद्ध करें, मुक्त करें।
६६. हम इस लोक मे भी ऋणरहित हो और परलोक मे भी ऋण
रहित हो। ७०. जो पालन करते हैं वे देव हैं, और जो देव है वे पालन करते हैं ।
७१ मैं जो हूँ वही है अर्थात् मैं जैसा अन्दर मे हैं, वैसा ही बाहर मे हूँ।
मुझ मे बनावट जैसा कुछ नही है । ७२ हे गुरुजनो । मुझे आशीर्वाद दो कि मैं सभामो मे सुन्दर एवं
हितकर बोलू। ७३. हे सभा । हम तेरा नाम जानते है, निश्चय ही तेरा नाम नरिष्टा है,
तू किमी से भी हिसित अर्थात् अभिभूत नहीं होती । जो भी तेरे सदस्य
हो, वे हमारे लिए अनुकूल वचन बोलने वाले हो। ७४. हे सभासदो! आपका मन मुझसे विमुख होकर कही अन्यत्र चला गया है,
अथवा कही किसी अन्य विषय मे बद्ध होगया है। मैं (अध्यक्ष) आपके उस मन को अपनी ओर लौटाना चाहता हूँ, आपका मन मुझ में ही
रमता रहे अर्थात् मेरे अनुकूल ही विचार करे। ७५. जीवात्मा के प्रत्येक घर (शरीर) मे पाच ज्ञानेन्द्रिया मन तथा बुद्धि
ये सात रत्न हैं। ७६. जो मनुष्य अच्छे कार्य के लिए अपना धन समपंण करता है, दान के
सुप्रसगो मे अपने पास रोक नही रखता है, उसी को अनेक धाराओ से
विशेष धन प्राप्त होता है। ७७. कम अर्थात् पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ मे हैं और विजय (सफलता) मेरे
बाएं हाथ मे।
व्यतिरिक्तसर्वविषययेषु ससक्तम् । ७. मदनुकूलार्थचिन्तापरं भवतु ।
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एक सौ चोबीस
सूक्ति त्रिवेणी
७८. सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा मा युष्महि मनसा दैव्येन ।
-७१५२१२
७६ पूर्वापरं चरतो माययेतो
शिशू क्रीडन्तौ परियातोऽर्णवम् ।
८०. अपि वृश्च पुराणवद् व्रततेरिव गुष्पितम् । जो' दास्यस्य दम्भय ।
८१. स्वा योनिं गच्छ !
४
८२. गातु वित्त्वा" गातुमित ।
८३. यत् स्वप्ने प्रन्नमश्नामि न प्रातरधिगम्यते ।
८४. घृतेन कलिं शिक्षामि ।
८५. प्रपतेतः पापि लक्ष्मि ! ' नश्येतः ।
-७/८१1१
-७/६०1१
-७/६७१५
- ७१६७/७
-
- ७११०१११
-७११०६११
-७।११५।१
८६. एकशत लक्ष्म्यो मत्यंस्य साकं तन्वा जनुषोऽधि जाताः ।
८७. रमन्ता पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ता अनीनशन् ।
८८. उत्क्रामातः 'पुरुष मान पत्था' ।
-७१११५१३
-७१११५१४
-८१११४
१. वलम् । २. नाशय । ३. योनिः कारणम् सर्वजगत्कारणभूता पारमेश्वरी शक्ति, ता प्राप्नुहि । ४ मार्गम् । ५ विदित्वा ज्ञात्वा
६ नश्य-अदृष्टा
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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ पच्चीस
७८. हम मनन चिन्तन के द्वारा उत्तम ज्ञान प्राप्त करें, ज्ञान प्राप्त कर एक
मन से रहे । सदेव दिव्य मन से युक्त रहे, वियुक्त न हो। ७६ ये दोनो वालक अर्थात् सूर्य और चन्द्र अपनी दिव्य शक्ति से खेलते हुए
आगे-पीछे पलते है और भ्रमण करते हुए समुद्र तक पहुंचते हैं ।
८०. लताओ को पुरानी मूखी लकडी के समान दुष्ट हिंसको के बल को काटो
और दवा दो।
८१ अपने मूल ईश्वरीय स्वस्प को प्राप्त कर ।
५२. पहले मार्ग को जानिए, फिर उस पर चलिए ।
८३. मैं स्वप्न मे जो भोगोपभोग करता है, जो दृश्य देखता हूँ, वह सब
असत् है, क्योकि सवेरा होने पर वह कुछ भी तो दिखाई नहीं देता। ८४. मै आपस के कलह को स्नेह से गान्त करता हूँ।
८५. हे लक्ष्मी ! यदि तुमसे पाप होता हो तो तू मेरे यहाँ से दूर चली जा,
नष्ट हो जा। ८६. मनुष्य के शरीर के साथ जन्मकाल से ही एक सौ एक लक्ष्मी (शक्तियां)
उत्पन्न होती हैं। ८७. जो लक्ष्मी अर्थात् शक्ति पवित्र हैं, पुण्यकारिणी है, वे मेरे यहाँ आनन्द से
रहे, और जो पापी हैं, पापकारिणी है, वे सब नष्ट हो जाएँ। ८८. हे मनुष्य । तू ऊपर चढ, नीचे न गिर ।
नष्टा भव । ७. नश्यन्तु इत्यर्थः । ८. उत्क्रमणं कुरु । ६. अवपतन माकार्षीः ।
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एक सौ छब्बीस
सूक्ति त्रिवेणी
८६ उद्यानं ते पुरुष नावयानम् ।
-८१६
६०. मा ते मनस्तत्र गान् मा तिरोभूत् ।
-८११७
६१. मा जीवेभ्य प्रमद ।
-८.१७
६२. मानु गा. पितृन् ।
-८।११७
९३. मा गतानामा दीधीथा ये नयन्ति परावतम् ।
--८१८
६४. या रोह तमसो ज्योतिः ।
-८१८
६५. तम एतत् पुरुष मा प्रपत्था,
भय परस्तादभयं ते अर्वाक् ।
-८।१।१०
६६. वोधश्च त्वा प्रतीवोधश्च रक्षताम् ।
अस्वप्नश्चत्वाऽनवद्राणश्च रक्षताम् ॥
-८।१।१३
६७. व्यवात्ते
ज्योतिरभूदप त्वत् तमो अक्रमीत् । ..
-८।१।२१
६८. रजस्तमो मोप गा मा प्रमेष्ठा.१२ ।
--८/२।१
१. उद्गमनमेव । २. अवागगमनम् । ३. मा गात् गतं मा मूत् । ४. अन्तर्हितं विलीनमपि मा भूत् । ५ दूरदेशम् । ६. ज्योतिः प्रकाश., प्रकाश ज्ञानम् पारोह अधिष्ठित । ७ तमः अन्धकारम् अज्ञानम् । ८. बोध. सर्वदा
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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ सत्ताईस ८६. हे पुरुष | तेरी उन्नति की ओर गति हो, अवनति की अोर नही ।
६०. हे पुरुष ! तेरा मन कुमार्ग मे न जाये और यदि कभी चला भी जाये तो
वहां लीन न हो, अधिक काल तक स्थिर न रहे । ६१. अन्य प्राणियो के प्रति प्रमाद न कर, अर्थात् उनके प्रति जो तेरा कर्तव्य
है, उस मोर लापरवाह मत बन । ६२. तू अपने मृत पितरो के मार्ग का अनुसरण मत कर अर्थात् पुरानो मृत
परम्पराको को छोडकर नवीन उपयोगी परम्पराओ का निर्माण कर। ६३. गुजरे हुओ का गोक न कर, क्योकि ये शोक मनुष्य को बहुत दूर पतन
की ओर ले जाते हैं। ६४. अन्धकार (अज्ञान) से प्रकाग (ज्ञान) की ओर प्रारोहण कर ।
६५. हे पुरुष । तू इस अज्ञान के अन्धकार मे न जा। वहा तेरे लिए भय ही
भय है, और यहा ज्ञान के प्रकाश मे अभय है ।
६६. हे मनुष्य, बोध (ज्ञान) और प्रतीवोध (विज्ञान) तेरी रक्षा करे । अस्वप्न
(स्फूर्ति, जागरण) और अनवद्राण-(कर्तव्य से न भागना, कर्तव्य
परायणता, अप्रमत्तता) तेरी रक्षा करे । ६. तेरे पास से अन्धकार चला गया है, बहुत दूर चला गया है । अब तेरा
प्रकाश सब और फैल रहा है। ६८. तू रजोगुण (भोगासक्ति) तथा तमोगुण (अज्ञान एव जड़ता) के निकट मत
जा । तू इस प्रकार भोगासक्त होकर विनाश को मत प्राप्त हो ।
प्रतिवुध्यमानः । ६. प्रतीवोध प्रतिवस्तु प्रतिक्षणं वा बुध्यमानः । १०. निद्रारहितः । ११ व्यवात् व्यौच्छत् तमोविवासनमभूत् । १२ हिंसा च मा प्राप्नुहि ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ अट्ठाईस ६६. न मरिष्यसि न मरिष्यसि, मा बिभे ।
-८।२।२४
१०० न वै तत्र म्रियन्ते नो यन्त्यधम तम ।
-~८/२१२४
१०१ दुष्कृते मा सुग' भूद् ।
-८/४/७
१०२ प्रसन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता ।
-८/४/८
१०३. उलूकयातु शुशुलुकयातु ,
जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् । सुपर्णयातुमुत गृध्रयातु,
दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र !
-८।४।२२
१०४. ब्रीहिर्यवश्च भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्यौ ।
-८/७/२०
१०५. कामो जज्ञ प्रथम ।
-६।२।१६
१०६ युक्ता मातासीद् धुरि दक्षिणायाः ।
-RIBE
१०७. कविर्य पुत्र. स ईमा चिकेत,
यस्ता विजानात् स पितुष्पितासत् ।
-६६।१५
१०८. ऋत पिपति अनृत निपाति ।
-६।१०।२३
१. सुगमन जीवद्गमन सुख वा मा भूत् । २. शून्यो भवतु ।
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अथर्ववेद की सूक्तिया
एक सौ उनतीस ६६ हे प्रात्मन् ! तू कभी मरेगा नही, मरेगा नही, मत मृत्यु से मत डर ।
१००. जो अपम-तमोगुण को नही अपनाते, वे कभी नष्ट नही होते ।
१०१. दुराचारी लोग इधर-उधर सुख से नहीं घूम सकते ।
१०२ हे इन्द्र | असत्य भाषण करने वाला असत्य (लुप्त) ही हो जाता है।
१०३. उल्लू के समान अज्ञानी मूढ, भेड़िये के समान क्रोधी, कुत्ते के समान
झगड़ालू चक्रवाक के समान कामी, गोध के समान लोभी और गरुड़ के समान घमडी लोगो का सग छोडो । ये राक्षसवृत्ति के लोग वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे पत्थरो की मार से पक्षी !
१०४. चावल और जी स्वर्ग के पुत्र हैं, अमर होने के मीपध हैं ।
१०५. मनुष्य के मन मे सबसे पहसे संकल्प ही प्रकट होता है ।
१०६ माता को (घर मे) दान दक्षिणा (वितरण) की धुरा मे नियुक्त किया
गया है। १०७ जो क्रान्तदर्शी पुत्र है, वही यह देश-काल का ज्ञान अथवा आत्मा का
ज्ञान प्राप्त करता है । और जो इस ज्ञान को यथावत् जान लेता है, वह पिता का भी पिता हो जाता है। अर्थात् उसकी योग्यता बहुत
बडी हो जाती है। १०८. ज्ञानयोगी साधक सत्य की पूर्णता करता है, और असत्य को नीचे
गिराता है।
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एक सौ तीस
सूक्ति त्रिवेणी
१०६. न द्विषन्नश्नीयात्,
न द्विषतोऽन्नमश्नीयात् ।
-६॥६७।२४
११०. सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ।
-६६।२५
१११ कीर्ति च वा एष यशश्च गृहाणामश्नाति
य पूर्वोऽतिथेरश्नाति ।
-६६८।३५
११२ अशितावत्यतिथावश्नीयात् ।
-६६८।३८
११३. ब्रह्म संवत्सरं ममे ।
~१०।२।२१
११४. न व तं चक्षुर्जहाति न प्राणो जरस. पुरा ।
पुर यो ब्रह्मणो वेद यस्या. पुरुष उच्यते ॥
-१०१२।३०
११५. अष्टचक्रा नवद्वारा, देवानां पूरयोध्या ।
तस्या हिरण्यय कोश , स्वर्गो ज्योतिषावृतः ॥
१०१२।३१
११६. ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदु. परमेष्ठिनम् ।
--१०१७।१७
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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ इकत्तीस
१०६. जिससे स्वयं द्वप करता हो, अथवा जो स्वय से द्वष करता हो, उसके
यहा भोजन नहीं करना चाहिए ।
११०. अतिथि जिसका अन्न खाता है, उसके सब पाप जल जाते हैं ।
१११. वह व्यक्ति घर के कीति और यश को खा जाता है, जो अतिथि से
पहले भोजन खाता है।
११२. अतिथि के भोजन कर लेने के पश्चात् हो गृहस्थ को स्वय भोजन
करना चाहिए, पहले नही । ११३ ब्रह्म (ज्ञान) ही काल को मापता है।
११४. जिस ब्रह्मपुरी मे शयन के कारण (पुरि शेते पुरुप ) पुरुप कहलाता है,
जो व्यक्ति उस ब्रह्मपुरी को, अर्थात् मानवशरीर को, उसके महत्त्व को जानता है, उसको समय से पहले प्राण (जीवन शक्ति) और चक्षु
(दर्शन शक्ति) नही छोडते हैं । ११५. आठ चक्र और नौ द्वारो वाला यह मानवशरीर देवो की अयोध्या
नगरी है । इसमें स्वर्ण का दिव्यकोष है, और प्रकाश से परिपूर्ण स्वर्ग है। . [दो आख, दो कान, दो नाक, एक मुख, एक मूत्रद्वार और एक गुदद्वार
-ये नौ द्वार हैं । माठ चक्र इस प्रकार हैं१ मूलाधार चक्र-गुदा के पास पृष्ठवश-मेरुदण्ड की समाप्ति के स्थान मे । २ स्वाधिष्ठान चक्र- इससे कुछ ऊपर | ३ मणिपूरक चक्र -नाभिस्थान मे। ४ अनाहत चक्र-हृदयस्थान मे । ५ विशुद्धि चक-कठस्थान मे । ६ ललना चक्र -जिह्वामूल मे। ७ आज्ञाचक्र -दोनो भौहो के बीच मे । ८ सहस्रारचक्क-मस्तिष्क मे ।।
११६. जो मनुष्य मे ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, वे ही वस्तुतः परमेष्ठी
(ब्रह्म) को जानते है।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ बत्तीस ११७. पश्यन्ति सर्वे चक्षुषा न सर्वे मनसा विदुः ।
--१०।८।१४
११८. सत्येनोर्ध्वस्तपति, ब्रह्मणाऽडि वि पश्यति ।
--१०८।१६
११६. सनातनमेनमाहुरुताऽद्य स्यात् पुनर्णवः ।
-१०1८।२३
१२०. बालादेकमणीयस्कमुतैक नेव दृश्यते ।
-१०१८।२५
१२१. पूर्णात् पूर्णमुदचति पूर्ण पूर्णेन सिच्यते ।
-१०।८।२६
१२२ देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ।
--१०८।३२
१२३ सूत्र सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्याद् ब्राह्मणं महत् ।
-१०।८।३७
१२४. तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्यो.
आत्मान धीरमजर युवानम् ।
-१०1८।४४
१२५. य शतौदना पचति कामप्रेण स कल्पते ।
-१०६४
१२६. न ते दूर, न परिष्ठाऽस्ति ते ।
-११२।२५
१२७. ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार, ननु तिर्यङ् निपद्यते ।
-११।४।२५
१. परिष्ठा-परिहत्य स्थापिता । २ तदक्षणार्थ निद्रारहितो वर्तस्व ।
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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ तेतीस
११७ सर्वसाधारण लोग आंख से देखते है, मन (मनन-चिन्तन) से नही
देखते ।
१२१
११८. सत्य से मनुष्य सब के ऊपर तपता है, ज्ञान से मनुष्य नीचे देखता है,
अर्थात् नम्र होकर चलता है । ११६. इस आत्मा को सनातन कहा है । यह मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म लेकर
फिर नवीन हो जाता है। १२०. यह प्रात्मा वाल से भी अधिक सूक्ष्म है. इसीलिए यह विश्व मे एक
अर्थात् प्रमुग्व होते हुए भी नही-सा दिखता है । पूर्ण से ही पूर्ण उदञ्चित होता है, पूर्ण ही पूर्ण से सिञ्चित होता है । अर्थात् पूर्ण-योग्य व्यक्ति के द्वारा ही कर्म की पूर्णता सम्पादित
होती है । १२२ आत्मदेव के दिव्य कर्तृत्व-कृतित्व को देखो, जो न कभी मरता है
और न कभी जीर्ण होता है । १२३ जो सूत्र के भी सूय को जानता है, अर्थात् वाह्य प्रपच के मूल सूत्रस्वरूप
आत्म तत्व को पहचानता है, वही महद् ब्रह्म को जान सकता है । १२४. जो धीर, अजर अमर, सदाकाल तरुण रहने वाले प्रात्मा को जानता
है, वह कभी मृत्यु से नहीं डरता।
१२५ जो सैकडो लोगो को अन्न-भोजन देने वाली (शतौदना) गौ का पालन
पोषण करता है, वह अपने सकल्पो को पूर्ण करता है । १२६ मानव | तेरे से कुछ भी दूर नहीं है, विश्व मे तेरे से अलग छुपाकर
रखने जैसी कोई भी दुष्प्राप्य चीज नही है । १२७. तू उठ कर खडा हो और सोने वालो के बीच उनकी रक्षा के लिए
सतत जागता रह, क्योकि सोने वाला प्राणी तिरछा होकर लुढक जाता है।
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एक सौ चौतीस
सूक्ति त्रिवेणी १२८ आचार्य उपनयमानो' ब्रह्मचारिण कृणुते गर्भमन्त।
-१११५३ १२९. श्रमेण लोकास्तपसा पिपति ।
-१११५४
___ १३०. देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ।
~१११५५
१३१. ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रवि रक्षति ।
आचार्यों ब्रह्मचर्येरण" ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।
-११५।१७
१३२. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत ।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्य. स्वराभरत् ।।
- १११५३१६
१३३. नाभिमिव सर्वतश्चक्रमुच्छिण्टे देवता श्रिता ।
-११७४
१३४. ऋतं सत्य तपो राष्ट्र श्रमो धर्मश्च कर्म च ।
भूत भविष्यदुच्छिप्टे वीर्य लक्ष्मीवल'१ बले ॥
१. स्वसमीपम् उपगमयन् । २. अन्त विद्याशरीरस्य मध्ये गर्भ कृणुते करोति । ३. इन्द्रियनिग्रहोमूतखेदेन । ४ ब्रह्म वेद तदध्ययनार्थम् आचर्यम्आचरणीयम् समिदाधान भैक्ष्यचर्योर्ध्वरेतस्कत्वादिक ब्रह्मचारिभिरनुष्ठीयमानं कम ब्रह्मचर्यम् ।. या राजो जनपदे ब्रह्मचर्येण युक्ता पुरुषास्तपश्चरन्ति, तदीय र मभिवर्धत इत्यर्थ । ५. नियमेन....ब्रह्मचर्यनियमस्थमेव प्राचार्य
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अथर्ववेद को सूक्तिया
एक सौ पेतीस १२८ आचार्य ब्रह्मचारी बालक को उपनयन अर्थात् अपने समीप लाकर
अपने विद्याशरीर के मध्य गर्भरूप में स्थापित करता है । १२६. ब्रह्मचारी अपने श्रम एव तप से लोगो को अथवा विश्व की रक्षा
करता है। १३० सब के सब देव अमृत के साथ उत्सन्न होते हैं । (देव का अयं दिव्य
आत्मा है, और अमृत का अर्थ अमर आदर्श है, अर्थात कभी क्षीण
न होने वाले दिव्य आचार विचार ।) १३१. ब्रह्मचर्य (कर्तव्य) और तप (कर्तव्य पूर्ति के लिए किया जाने वाला
श्रम) के द्वारा ही राजा अपने राष्ट्र का अच्छी तरह पालन करता है । आचार्य भी अपने ब्रह्मनर्य (नियमो) के द्वारा ही जिज्ञासु ब्रह्मचारी
को अपना शिष्य बनाना चाहता है । १३२. ब्रह्मचर्यरूप तप के प्रभाव से ही देवो ने मृत्यु को अपहत किया है,
वे अमर हुए है । इन्द्र ने भी ब्रह्मचर्य की साधना से ही देवताओ के लिए स्वर्ग का सम्पादन किया है ।
१३३ जमे रथचक्र अपनी मध्यस्थ नाभि को सब ओर से आवेष्टित किये
रहता है, वैसे ही सब देवता उच्छिष्ट (यज्ञ से अवशिष्ट अन्न अथवा
परब्रह्म) मे आश्रित है, अर्थात् उसे घेरे रहते हैं। १३४. ऋत (मन का यथार्थ संकल्प), सत्य (वाणी से यथार्थ भाषण), तप,
राष्ट्र, श्रम (शान्ति, वैराग्य), धर्म, कर्म (दानादि), मूत, भविष्य, वीर्य (सामथ्यं), लक्ष्मी (सर्ववस्तु को सम्पत्ति), और बल (सब कार्य सम्पादन करने में समर्थ शरीरगत शक्ति)-ये सब शक्तिशाली उच्छिष्ट मे रहते हैं।
शिष्या उपगच्छन्तीत्यर्थः । ६. ब्रह्मचर्यरूपेण तपसा । ७. अपहतवन्तः । ८ स्वर्गम् आभरत-आहरत् । ६ मनसा यथार्थसकल्पनम् । १०. शान्ति. शब्दादिविषयोपभोगस्य उपरति । ११. सर्वकम्मनिवर्तनक्षम शरीरगत सामथ्र्यम् ।
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एक सौ छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
१३५ इन्द्रादिन्द्र'।
-११मा
१३६. देवा पुरुषमाविशन् ।
-११।८।१३ १३७ अद एकेन गच्छति, अद एकेन गच्छति, इहैकेन नि षेवते ।
-१११८१३३
१३८. उत्तिष्ठत स नह्यध्वमुदारा केतुभि सह ।
•
-११।१०।१
१३६. माता भूमि पुत्रो अह पृथिव्या ।
-१२।१।१२
१४० भूम्या मनुष्या जीवन्ति स्वधयाऽन्नेन मा.।
-१२।१।२२
१४१. मा नो द्विक्षत कश्चन ।
-१२१११२३
१४२. यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्र तदपि रोहतु।
-१२।१।३५
१४३. जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् ।
-१२।११४५ १४४. क्षत्रेणात्मान परि घापयाथ ।
-१२।३३५१ १४५. हिस्ते अदत्ता पुरुप याचिता च न दित्सति ।
-१२।४।१३
१. इन्द्रात् इन्द्रत्वप्रापकात् कर्मण. इन्द्रो जज्ञे । इन्द्रशब्द स्वकारणमूते कमणि उपचयंते । २ अदः विप्रकृष्ट स्वर्गास्य स्थान एकेन पुण्य कर्मणा गच्दति प्राप्नोति । ३ अद. विप्रकृप्टं नरकास्य स्थानं एकेन पापकर्मणा।
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अथर्ववेद को सूक्तिया
एक सौ सेंतीस
१३५ इन्द्र (इन्द्रत्व प्राप्ति कराने वाले कर्म) से ही इन्द्र उत्पन्न होता है ।
१३६. सभी देव (दिव्य शक्तियाँ) पुरुप मे निवास करते हैं ।
१३७. एक से-पुण्य कर्म से स्वर्ग मे जाता है, एक से-पाप कर्म से नरक में
जाता है । और एक मे-पुण्य पाप के मिश्रित कर्म से मूलोक मे सुख
दुःख भोगता है। १३८. हे उदार वीर पुरुपो ! तन कर खड़े होओ और अपनी ध्वजामो
(मादों) के साथ जीवनसघर्षों के लिए संनद्ध हो जाओ। १३६. भूमि मेरी माता है और मैं उस का पुत्र हूँ।
१४०. भूमि पर के मरणधर्मा मानव अपने पुरुपार्थ से प्राप्त अन्न से ही जीवित
रहते हैं। १४१. संसार में मुझ से कोई भी द्वाप न करे ।
१४२. हे मूमि । मैं तेरे जिस भाग को खो दूं, वह शीघ्र ही भर जाए।
अर्थात् मानवजीवन के अभावग्रस्त रिक्तस्थान तत्काल पूरित होते
रहे । १४३. अनेक प्रकार के धर्म वाले और अनेक प्रकार की भाषावाले मनुष्यो को
एक घर की तरह समान भाव से पृथिवी अपने मे धारण करती है। १४४. हे दम्पती ! तुम क्षत्रशक्ति से-तेजस्वी कर्मयोग से अपने को
आच्छादित करो! १४५. जो पुरुष मांगने पर भी जिस वस्तु को नहीं देना चाहता, वह
(न दी हुई वस्तु) अन्ततः उस पुरुष का सहार कर देती है।
४. इह अस्मिन् भूलोके एकेन पुण्यपापात्मकेन मिश्रितेन कर्मणा निषेवते नितरा सुखदुःखात्मकान् भोगान् सेवते ।
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एक सौ अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४६. सत्येनावृता. श्रिया प्रावृता, यशसा परीवृता।
-१२।५।२
१४७. अमोहमस्मि सा त्वम् ।
-१४।२।७१
१४८. निर्दुरर्मण्य ऊर्जा मधुमती वाक् ।
-१६।२।१
१४६ असंतापं मे हृदयम् ।
-१६।३।६
१५० नाभिरहं रयीणा, नाभि समानानां भूयासम् ।
-१६।४।१
१५१. योऽस्मान् द्वेष्टि तमात्मा तुष्टु ।
-१६७३५ -१६८१
१५२. जितमस्माकम् । १५३ ऋतमस्माकं, तेजोऽस्माकं, ब्रह्मास्माक,
स्वरस्माकं यज्ञोऽस्माकम्
-१६८१
१५४. प्रिय. प्रजाना भूयासम् ।
-१७:१३
१५५. प्रियः समानानां भूयासम् ।
-१७११५
१५६. उदिह्यदिहि सूर्य' वर्चसा माभ्युदिहि ।
याश्च पश्यामि याश्च न तेषु मा सुमति कृषि ॥
-१७११७
१. सरति गच्छति संततम् इति वा, सुवति प्रेरयति स्वोदयेन सर्व प्राणिजातं स्वस्वव्यापारे इति वा सूर्य । २. तादृशी बुद्धिः स्वात्मशत्रुमित्रेषु
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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सो उनचालीस
१४६. ब्राह्मण (विद्वान) की गी (वाणी) मत्य से मावृत रहती है, ऐश्वयं से पूर्ण रहती है और यश से सम्पन्न रहती है ।
१४७. मैं (पति) विष्णु हूँ और तू (पत्नी) लक्ष्मी है ।
१४८. सुन्दर, रमणीय ( रोचक ), शक्तिशाली और मधुर वाणी बोलो ।
१४६. मेरा हृदय सदैव मन्तापरहित रहे ।
१५०. में धन एवं ऐश्वयं का नाभि ( केन्द्र ) होऊ, में अपने बराबर के साथी जनो का भी नाभि होऊ अर्थात् जैसे कि रथचक्र की नाभि से चक्र के सब आरे जुडे रहते हैं, वैसे ही सब प्रकार के ऐश्वयं मीर वरावर के साथी मुझ से सम्बन्धित रहे, मैं सब का केन्द्र वनकर रहूँ ।
१५१. जो हम से द्व ेष करता है, वह अपनी आत्मा से ही द्व ेष करता है ।
१५२. ससार मे अपना जीता हुमा-भर्जित किया हुआ ही हमारा है ।
१५३० सत्य हमारा है, तेज हमारा है, ब्रह्म हमारा है, स्वर्ग हमारा है और यज्ञ (सुकृत कर्म) भी हमारा है ।
१५४. मैं जनता का प्रिय होऊ ।
१५५. मैं अपने बराबर के साथियो का प्रिय होऊ ।
१५६. हे सब के प्रेरक सूर्यं । उदय होइए, उदय होइए, प्रखर तेज के साथ मेरे लिए उदय होइए ।
जिन प्राणियो को में प्रत्यक्ष मे देख पाता हूँ, और परोक्ष होने से जिन्हें नहीं भी देखपाता हूँ, उन सब के प्रति मुझे सुमति अर्थात् द्रोहरहित बुद्धि प्रदान करो ।
समदर्शिन एव जायते । तथाविधा दृष्टि. परमेश्वरप्रीतये भवति ।
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एक सी चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
१५७ असति सत् प्रतिष्ठिनम् ।
---१७१।१६
१५८. परंतु मृत्युरमृतं न ऐतु ।
-१८३६२
१५६ 'तीर्थस्तरन्ति प्रवतो महीः ।
---१९।४७
१६०. यतो भयमभयं तन्नो अस्तु ।
-१९३४
१६१. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्, बाहू राजन्योऽभवत् ।
मध्य तदस्य यद् वैश्य., पझ्या शूद्रो अजायत ।
-१६६६
१६२. इदमुच्छ, योऽवसानमागाम् ।।
-१६१४।१
१६३. अभय मित्राद् अभयममित्राद्
अभय ज्ञाताद् अभय परो"य. । अभय नक्तमभयं दिवा न.
सर्वा पागा मम मित्रं भवन्तु ।।
-१९१५६
१६४. कालेन सर्वा नन्दन्त्यागतेन प्रजा इमाः ।
-१९।५३७
१ तीर्थे.तरन्ति दुप्कृतानि एभिरिति करणे क्थन् प्रत्यय. तरणसाधनयंज्ञादिमि । २. प्रवत. प्रकृप्टा महीः महतो. आपदस्तरन्ति अतिकामन्ति । ३. अवस्यति परिसमाप्त भवति प्रयाण अत्र स्थाने
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अथर्ववेद को सूक्तिया
एक सौ इकतालीस १५७. असत् मे अर्थात् नामरूपादि विशेषताओ से रहित अव्यक्त मे सत् अर्थात्
नाम रूपादि विशेषताओ से सहित व्यक्त प्रतिष्ठित है । अर्थात् कारण
मे कार्य अन्तनिहित है। १५८. मृत्यु हम से दूर भाग जाए, नमरता हमारे निकट आए ।
१५६. तीर्थों के द्वारा, अर्थात् सत्कर्मों के द्वारा ही मानव अतिभयकर माप
त्तियो से पार हो जाते हैं । १६०. जिससे हमे भय प्राप्त होने को आशका हो, उससे भी हमे अभय
प्राप्त हो । १६१. ब्राह्मण जनहितरूप यज्ञ कर्म का अथवा समाज का मुख है, तो क्षत्रिय
उस की बाहु है । वैश्य इस का मध्य प्रग है, तो शूद्र उसका पैर है ।
१६२. जहां चलना पूर्ण होता है, मै उस परम नि.श्रेयस् स्वरूप गन्तव्य स्थान
पर पहुच गया हूँ। १६३. हमे शत्रु एव मित्र किसी से भी भय न हो । न परिचितो से भय हो,
न अपरचितो से । न हमे रात्रि मे भय हो, और न दिन मे । किंबहुना, सब दिशाएं मेरी मित्र हो, मित्र के समान सदैव हितकारिणी हो ।
१६४. वसन्त आदि के रूप मे आये हुए काल से ही ये सब प्रजाएं अपने
अपने कार्य की सिद्धि होने से सन्तुष्ट होती हैं।
इति अवसानम् ।....आगाम् प्राप्तवानस्मि । ५. परः ज्ञाताद् अत्य अपरिज्ञातः । ६. मित्रवन्मित्रं सर्वदा हितकारिण्यो भवन्तु । ७. वसन्तादिरूपेण आगतेन । ८. नन्दन्ति-सन्तुष्यन्ति स्व-स्वकार्यसिद्ध ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ बियालीम १६५ कालो ह सर्वस्येश्वर ।
-१६५३८
१६६ कालेनोदेति सूर्य काले निविशते पुनः ।
-१६।५४।१
१६७. काले लोकाः प्रतिष्ठिता.।
--१६५४।४
१६८. प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु ।
प्रिय सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।।
-१९१६२।१
१६६ बुध्येम शरदः शतम् ।
रोहेम शरद शतम् ।।
-१६।६७।३-४
१७०. संजीवा स्थ सं जीव्यास, सर्वमायुर्जीव्यासम् ।
-१९४६९३
१७१. इन्द्र कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ वि चरा जनम् ।
-~-२०११२७।११
१७२ शयो हत इव ।
-२०११३१६
१७३. व्याप पूरुषः।
-~~-२०११३१३१७
१ लोकान्दो जनवाची, भुवनवाची च । २. उत्तरोत्तर प्रस्ढा.-प्रवृद्धा भयेम । ३ संजीव्या. समोचीनजीवनवन्त., जीवनकाले एक क्षणोपि वैयर्सेन न नीयते, किं तु परोपकारित्वेनेति आयुष. सम्यक्त्वम् ।
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एक सौ तेतालीस
अथर्ववेद की सूक्तिया १६५. काल ही समग्र विश्व का ईश्वर है ।
१६६. काल से ही समय पर सूर्य उदित होता है, और काल से ही अस्त हो
जाता है। १६७. काल मे ही समग्र लोक (प्राणी अथवा विश्व) प्रतिष्ठित है।
१६८ हे देव । मुझ को देवो मे प्रिय बनाइए और राजाओ मे प्रिय
बनाइए । मुझे जो भी देखें, मैं उन सब का प्रिय रहूँ, शूद्रो और आर्यों
मे भी मैं प्रिय रहूँ। १६६ हम मौ वर्ष तक सभी कार्यों का यथोचित रूप से ज्ञान करते रहे,
समस्याओ का समाधान पाते रहें, हम मो वर्ष तक उत्तरोत्तर अभिवृद्धि
को प्राप्त होते रहे। १७०. पूर्ण आयु तक माप और हम सब परोपकार करते हुए सुन्दर जीवन
यापन करें। १७१. इन्द्र ने अपने स्तोताओ को, अनुयायी कार्यकर्ताओ को उद्बोधन किया
कि तुम खड़े हो जाओ और जनसमाज मे सत्कर्म करते हुए
विचरण करो। १७२. सोने वाला मरे हुए के समान है।
१७३. पुरुष वह है, जो जनजीवन मे व्याप्त हो जाता है।
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ब्राह्मण साहित्य की सूक्तियां
१ अमेध्यो वै पुरुषो यदनृत वदति, तेन पूतिरन्तरत ।
शतपथ ब्राह्मण-११११११* . २ सत्यमेव देवा।
--११११४ ३. संग्रामो वैक रम् । संग्रामे हि ऋरं क्रियते ।
---११२।५।१६ ४. सर्व वा इदमेति, प्रेति च ।
-११४।१।३
५. मत्स्य एव मत्स्य गिलति ।
--१११३
६. ब्रह्मव वसन्त । क्षत्रं ग्रीष्मो । विडेव वर्षा।
--२।१३।५
-
"अरामपा. फाण्ट, अध्याय, ब्राह्मण तथा कण्डिका के सूचक हैं ।
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ब्राह्मण साहित्य की सूक्तियां
१. वह पुरुष अपवित्र है-जो झूठ बोलता है, झूठ बोलने से मन भीतर में
गन्दा रहता है। २. देव (महान् आत्माएं) मूर्तिमान सत्य हैं ।
३. युस कर होता है । युद्ध मे क र काम किए जाते है ।
४. जो माता है, वह सब जाता भी है ।
५. बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती है ।
६. ब्राह्मण वसन्त है, क्षत्रिय ग्रीष्म है और वैश्य वर्षा (ऋतु) है।
* श्री शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण, अल्वर्ट वेबर द्वारा सपादित और बलिन
मे (ई० स० १८४६) मुद्रित ।
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एक सौ छियालीस
७ न श्वः श्वमुपासीत । को हि मनुष्यस्य श्वो वेद ।
८. सत्यमेव ब्रह्म ।
१०. श्रद्धा हि तद् यदद्य । श्रनद्धा हि तद् यच्छ्वः ।
f
११. नैव देवा अतिक्रामन्ति ।
६ श्रद्धा हि तद् यद् भूतम्, श्रद्धा हि तद् यद् भविष्यत् ।
१२ यो दीक्षते स देवतानामेको भवति ।
-
१३ स्वया हि त्वचा समृद्धो भवति ।
१८. न वै देवा. स्वपन्ति ।
१५. नान्योऽन्य हिस्याताम् ।
१६ तपो वाऽग्निस्तपो दीक्षा ।
१७. तपमा वै लोकं जयन्ति ।
१८. इर्माल्लोकाञ्छान्तो न हिनस्ति ।
१६. द्वितीयवान् हि वीर्यवान् ।
सूक्ति त्रिवेणी
--श० ना० २११/३/६
-
-२१११४।१०
-२।३।११२५
-२३|११२८
-- २|४|१|६
-३।१।१८
--३।१।२।१६
"¿
-३/२/१/२२
- ३|४|११२४
--३|४३|३
- ३०४|४|१७
- ३|६|४|१३
2
-३१७/३१८
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां
एक सौ संतालीस ७. 'कल कल' की उपासना मत करो, अर्थात् कल के भरोसे मत वैठे रहो ।
मनुष्य का कल कौन जानता है ? ८. सत्य ही ब्रह्म है।
६ जो हो चुका है, वह निश्चित है । जो होगा, वह अनिश्चित है।
१०. 'बाज' निश्चित है । जो 'कल' है, वह अनिश्चित है।
११. दिव्य आत्मा मर्यादा का अतिक्रमण नही करते हैं ।
१२. जो किमी व्रत में दीक्षित होता है, वह देवतामो की गणना में आ जाता
१३ हर व्यक्ति अपनी ही त्वचा (परिफर एव ऐश्वर्य) से समृद्ध होता है ।
१४. देव सोते नहीं हैं अर्थात् दिव्य आत्मा कभी प्रमत्त नहीं होते ।
१५ परस्पर एक दूसरे को हिसित अर्थात् पीडित नही करना चाहिए ।
१६. तप एक अग्नि है, तप एक दीक्षा है ।
१७. तप के द्वारा ही सच्ची विश्वविजय प्राप्त होती है ।
१८. शान्त पुरुष किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देते हैं ।
१६. जिसके सहयोगी हैं, साथी हैं, वस्तुत. वही शक्तिशाली है।
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एक सौ अडतालीस
सूक्ति त्रिवेणी २०. विद्वासो हि देवाः।
-२० प्रा० ३७।३।१० २१. पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः ।
-५११११ २२ सत्य वै श्रीज्योतिः ।
--५२११५२८ २३ यावज्जाया न विन्दते....असो हि तावद् भवति ।
-५।२।१।१० २४ न हि माता पुत्रं हिनस्ति, न पुत्रो मातरम् ।
-५२।१।१८ २५ ये स्थवीयासोऽपरिभिन्नास्ते मंत्रा, न वै मित्र. कचन हिनस्ति, न मित्र कश्चन हिनस्ति ।
-५॥३२७ २६ न ह्ययुक्तेन मनसा किंचन सम्प्रति शक्नोति कतुम् ।।
-६।३।१।१४ २७. पुण्यकृतः स्वर्गलोकं यन्ति ।
-६५।४।८ २८ क्रतुमयोऽयं पुरुषः।
-१०।६।३।१ २६. स्वर्गो वै लोकोऽभयम् ।
-१२।८।११५ ३०. समानी बन्धुता।
-१२।८।२।१६ ३१. पाप्मा वै तमः।
-१४।३।१०२८ ३२. *असतो मा सद् गमय ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृत गमय ।
-१४।४।१।३०
*देखें ३२ से ३५ तक तुलना के लिए बृहदारण्यक उपनिषद्, म० १ बा० ३-४ ।
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एक सौ उनपचास
ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां २०. विद्वान ही वस्तुत. देव हैं ।
२१. मतिमभिमान पतन का द्वार (मुख) है ।
२२ सत्य ही श्री (शोभा व लक्ष्मी) है, सत्य ही ज्योति (प्रकाश) है ।
२३. गृहस्थ पुरुप जब तक पत्नी से युक्त नहीं हो पाता, तब तक अपूर्ण
रहता है।
२४ माता पुत्र को कष्ट न दे, और पुत्र माता को कष्ट न दे ।
२५ जो महान् और अभिन्न होते हैं वे ही मित्र होते है और जो मित्र होता है
वह किसी की हिंमा नहीं करता है । तथा मित्र की भी कोई हिंसा नही
करता है। २६. अयुक्त (अस्थिर) मन से कुछ भी करना सभव नहीं है ।
२७. पुण्य कर्म (अच्छे कर्म) करने वाले स्वर्ग लोक को जाते हैं।
२८ यह पुरुष क्रतुमय--अर्थात् कर्मरूप है ।
२६. अभय ही स्वर्ग लोक है।
३० समानता ही बन्धुता है।
३१. पाप ही अन्धकार है । ३२. हे प्रभु ! मुझे असत् से मत् की ओर ले चल |
मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल | मुझे मुत्यु से अमरत्व की ओर ले चल !
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एक सौ पचास
सूक्ति त्रिवेणी
___३३. मृत्युर्वा असत्, सदमृतम् ।
-श० ब्रा०१४।४।११३१
३४. मृत्युर्वं तमो ज्योतिरमृतम् ।
-१४|४|११३२
३५. द्वितीयाद् वै भयं भवति ।
-१४।४।२।३
३६. ब्रह्म संधत्तम् .क्षत्त्रं सधत्तम् ।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण १।११
३७. मन. सधत्तम्....वाचः संधत्तम् ।
-~१११
३८. चक्षुर्वे सत्यम् ।
.-१३१२४
३९. नास्य ब्राह्मणोऽनाश्वान् गृहे वसेत् ।
-१।१४
४०. भद्रो भूत्वा सुवर्ग लोकमेति ।
-११४
४१. तूष्णीमेव होतव्यम् ।
-२१०६
४२. विश्वा आशा दोद्यानो विभाहि ।
-११७
४३. न मासमश्नीयात्, न स्त्रियमुपेयात् ।
यन्मासमश्नीयात्, यत् स्त्रियमुपेयात्, निर्वीर्यस्यात्, नैनमग्निरुपेयात् ।
-१११९
* कृष्णयजुर्वेदीय नैत्तिरीय ब्राह्मण । आनन्दाश्रम मुद्रणालय पूना द्वारा प्रकाशित (ई० स० १८६८) सस्करण ।
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एक सी इक्यावन
ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया ३३. असत्य मृत्यु है, और मत्य अमृत है ।
३४. अन्धकार मृत्यु है और प्रकाश अमृत है ।
३५. दूसरे से ही भय होता है ।
३६ अपने मे ब्राह्मण (ज्ञानज्योति) का सन्धान (सम्पादन, अभिवर्धन) करो,
अपने मे क्षत्रियत्व (कर्मज्योति) का सन्धान करो। ३७. अपने में मन (मनन शक्ति) का सन्धान करो, अपने मे वाचा (वक्तृत्व
शक्ति) का सन्धान कगे। ३८ आंख ही सत्य है, अर्थात् सुनी सुनाई बातो की अपेक्षा स्वय का साक्षा.
त्कृत अनुभव हो सत्य होता है। ३६. गृहस्थ के घर में कोई भी विद्वान् अतिथि विना भोजन किए (भूखा) न
रहने पाए। ४०. भद्र साधक ही स्वर्ग लोक का अधिकारी होता है।
४१ - मौन भाव से चुपचाप होम करना चाहिए, साधना करनी चाहिए।
४२. तू स्वय प्रकाशमान होकर समग्र दिशाओ को अच्छी तरह प्रकाशमान
कर। ४३., ब्रह्म भाव की उपासना करने वाले को न मांस खाना चाहिए, न स्त्री
ससगं ही करना चाहिए ।
जो मास खाता है, स्त्रीससगं करता है, वह निर्वीर्य हो जाता है, उसको - ब्रह्म तेज प्राप्त नही होता ।
-कृ० त० ब्रा० के समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचित भाप्य के है। -अक क्रमश. काण्ड, प्रपाठक तथा अनुवाक के सूचक हैं ।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ बावन ४४. धृतर्बोधयताऽतिथिम् ।
-० प्रा० ११२११
४५. अनृतात् सत्यमुपैमि, मानुषाद् दैव्यमुपैमि ।
-१२।१
४६. उभयोर्लोकयोर् ऋद्ध्वा अतिमृत्युतराम्यहम् ।
--११२१
४७ संसृष्टं मनो अस्तु व ।
-२२।१
४८. सं या व प्रियास्तनुव , सं प्रिया हृदयानि वः ।
प्रात्मा वो अस्तु सं प्रिय.।
-१२।१
४६. अजीजनन्नमृतं मास ।
-१२।१
५०. अहं त्वदस्मि मदसि त्वम् ।
-१२१
५१ श्रीरमृता सताम् ।
-११२।१
५२. न मेद्यतो ऽ नुमेधति, न कृश्यतो ऽ नुकृश्यति ।
-१२।६
५३. देवा वै' ब्रह्मणश्चान्नस्य च शमलमपाऽनन् ।
-११३०२
५४. वाग् वै सरस्वती।
-११३२५
१. परस्पर अनुरक्तानि....कार्येप्वकमत्यम् । २. ससृज्यन्ताम् एकस्मिन्नेव
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया
एक सौ तिरेपन ४४. अतिथि को घृत से अर्थात् स्नेह-सिक्त मधुरवाणी से सम्बोधित
करना चाहिए। ४५. मैं असत्य से सत्य को प्राप्त करता हूँ, मैं मनुष्य से देवत्व को प्राप्त
करता हूं। ४६. मैं लोक और पर लोक-दोनो मे समृद्ध होकर मृत्यु (विनाश) से पूर्णः
रूपेण पार हो रहा हूँ। ४७. तुम्हारे हृदय परस्पर एक दूसरे से अनुरक्त हो, अर्थात् प्राप्त कर्तव्यो मे
एकमत हो। तुम्हारे प्रिय शरीर एक कार्य (लक्ष्य) मे प्रवृत्त हो । तुम्हारे हृदय एक कार्य मे प्रवृत्त हो । तुम्हारी आत्मा एक कार्य मे प्रवृत्त हो ।
४६. मयों (मरणधर्मा मनुष्यो) ने ही अमृत का आविष्कार किया है।
५०. मैं तुझसे हूँ, तू मुझसे है ।
५१. सन्मार्गवर्ती सत्पुरुषो की श्री अमृत (अजर अमर) रहती है।
५२. शरीर से सम्बन्धित होते हुए भी चैतन्य आत्मा न शरीर के स्थूल होने
पर स्थूल होता है, और न कृश होने पर कृश । ५३. देव (दिव्य आत्मा) ही ब्रह्म (वेद, शास्त्र) और अन्न (भोगोफ्भोग) के
मलिन अश को दूर करते हैं। ५४. वाणी ही सरस्वती है ।
कार्ये प्रवर्तन्ताम् । ३. ब्रह्मणो वेदस्य । ४. शमल मलिनभागम् ।
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एक सौ चउपन
सूक्ति त्रिवेणी
५५ नमस्कारोहि पितृ णाम् ।
-त० प्रा० १।३।१०
५६. मनसो वाचं सतनु ।
- ११७
५७ सबलो अनपच्युतः ।
-११५६
५८. नाराजकस्य युद्धमस्ति ।
-~११५९
५६. अशनया-पिपासे ह वा उग्रं वच'।
-११५९
६०. बहुरूपा हि पशव समृद्ध्यै ।
-१२६३
६१. बहु वै राजन्यो ऽ नृतं करोति ।
-७२
६२. अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृह णाति ।
-१७।२ ६३. ब्राह्मणो वै प्रजानामुपद्रष्टा ।
-२।२।१ ६४. समुद्र इव हि कामः, नैव हि कामस्यान्तो ऽ स्ति, न समुद्रस्य ।
-२।२।५
६५. प्रजया हि मनुष्यः पूर्णः ।
-३।३।१०
१. अत्यन्त प्रिय इति शेषः । २. सयोजयेत्यर्थः । ३. कदाचिदप्यपलायित ।
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ब्राह्मण साहित्य की सूक्तिया
५५ पिता आदि गुरुजनो को नमस्कार बहुत अधिक प्रिय है ।
५६. वाणी को मन के साथ जोड़ो ।
एक सौ पचपन
५७. सच्चा वलवान ( शक्तिशाली ) वह है, जो कभी किसी से डर कर भागता नही है ।
५. ८. राजा (नायक) के बिना सेना युद्ध नहीं कर सकती, भाग जाती है ।
५६. मूखे और प्यासे लोगो की आर्त वाचा ही अधिक उग्र होती है, बत. दयालुजन उसे सुन नही सकते हैं, प्रर्थात् उसकी उपेक्षा नही कर सकते हैं ।
६०. अनेक प्रकार के पशु हो गृहस्थ की समृद्धि के हेतु होते हैं ।
६१. राजा ( राजनीतिक व्यक्ति) वहुत अधिक असत्य का आचरण करता है ।
६२. झूठ बोलने पर वरुण पकड लेते हैं ।
६३. ब्राह्मण ( सदाचारी विद्वान ) ही प्रजा ( जनता ) का पथप्रदर्शक उपदेष्टा है ।
६४. काम (इच्छा, तृष्णा) समुद्र के समान है ।
जैसे कि समुद्र का अन्त नही है, वैसे ही काम का भी कोई अन्त (सीमा) नही है ।
६५. गृहस्थ मनुष्य प्रजा ( सतान) से ही पूर्ण होता है ।
४. युयुत्सव' सर्वेऽपि राजानमन्तरेण पलायिष्यन्ते । ५. कृपालवः श्रोतु ं न सहन्ते । ६. हिताहितस्य प्रजानामुपदेष्टा ।
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एक सौ छप्पन
सूक्ति त्रिवेणी
६६ सत्यं म आत्मा।
-ते० प्रा० ३१७७
६७. श्रद्धा मे ऽ क्षितिः।
~३७७
६८. तपो मे प्रतिष्ठा।
~३७७
६६ वृजिनमनृतं दुश्चरितम् । ऋजु कर्म सत्यं सुचरितम् ।
-३७।१० ७०. अनन्ता वै वेदाः।
-३।१०।११ ७१ श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते, श्रद्धा प्रतिष्ठा लोकस्य देवी।
-३।१२।३ ७२. श्रद्धा देवी प्रथमजा ऋतस्य ।
-३।१२।३ ७३. मनसो वशे सर्वमिदं बभूव ।
-३११२।३ ७४. नावगतो ऽपरुध्यते, नापरुद्धो ऽ वगच्छति ।
~*ताण्ड्य महाब्राह्मण २।१।४ ७५. न श्रेयांस पापीयान अभ्यारोहति ।
-२।१।४ ७६. नरो वै देवानां ग्रामः ।
-~-६६२
१. स्वर्भाव. । २. अक्षयाऽस्तु । ३ स्थैर्यहेतुरस्तु । ४. कर्तरि निष्ठाया अवगन्ता ज्ञाता । ५. ग्राम- इति निवासाश्रयः । --सामवेदीय ताण्ड्यमहाब्राह्मण, चौखम्बा सस्कृत सीरिज, वाराणसी
से (वि० स० १९६३) मुद्रित ।
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एक सौ सत्तावन
ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां ६६ सत्य मेरा आत्मा (सहज स्वभाव) है ।
६७ मेरी श्रद्धा अक्षय हो ।
६८ तप मेरी प्रतिष्ठा है, मेरी स्थिरता का हेतु है ।
६६ असत्य कुटिलता से किया जाने वाला दुश्चरित पाप है । और सत्य
सरलता से किया जाने वाला सुचरित पुण्य है । ७० वेव (ज्ञान) अनन्त है ।
७१ श्रद्धा से ही देव देवत्व प्राप्त करते है, श्रद्धा देवी ही विश्व की प्रतिष्ठा
है-आधारशिला है। ७२ श्रद्धा देवी ही सत्यस्वरूप ब्रह्म से सर्वप्रथम उत्पन्न हुई है।
७३. समय विश्व मन के वश मे है ।
७४. ज्ञानी पुरुष अज्ञान से आक्रान्त नही होता, और जो अज्ञान से आक्रान्त.
है वह सत्य को नही जान पाता । ७५. पापात्मा श्रेष्ठजनो को अतिक्रान्त नही कर सकता।
७६. मनुष्य देवो का ग्राम है अर्थात् निवासस्थान है।
-ताण्ड्यमहामाह्मण के समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचित भाष्य
* अक क्रमश अध्याय, खण्ड एवं कण्डिका के सूचक हैं।
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सूक्ति त्रिवेणी
__ एक सौ अट्ठावन
७७ यदि पुत्रो ऽ शान्तं चरति पिता तच्छमयति ।
~ता० वा० ७।६।४
७८. एतद् वाचश्छिद्र यदनृतम् ।
--८।६।१३
७६. ब्रह्म हि पूर्व क्षत्रात् ।
-११।१।२
८०. हीना वा एते हीयन्ते ये व्रात्या प्रवसन्ति ।
-१७११२
८१. वाग् वै शबली'।
-२१॥३।१ ८२. नानावीण्यहानि करोति ।
-२११७ २३. मनु यत्किञ्चावदत् तद् भेषजम् ।
-२३।१६।७ ८४. परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति, प्रत्यक्षद्विषः।
-*गोपथ ब्राह्मण१।११
२५. यद् वा अहं किञ्चन मनसा धास्यामि तथैव तद् भविष्यति
-१३१६ ८६. श्रेष्ठो ह वेदस्तपसोऽधिजातः ।
-~-शश ८७. यजमाना रजसाऽपध्वस्यति, श्रुतिश्चापध्वस्ता तिष्ठति ।
-१२१३२८
१. शबली-कामधेनु. । . २. रागद्वेषादिशोकापनोदकस्य मनोः परानुग्रहार्थम् । ३ भेषजं-हितम् । * अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण,
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया
एक सौ उनसठ ७७. यदि पुत्र गलत राह पर चलता हो तो पिता का कर्तव्य है कि उसे सही
राह पर लाए। ७८, असत्य, वाणी का छिद्र है ।
___७६. ब्रह्म क्षय ने पहले है, अर्थात् कर्म से पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक है ।
८०. जो निपिद्ध कर्म का आचरण करते हैं, वे हीन से और अधिक हीन होते
जाते हैं। ८१. वाणी कामधेनु है ।
८२. सत्पुरुष अपने जीवन के प्रत्येक दिन को विविध सत्कमों से सफल बनाते
रहते हैं। ८३ वीतराग मनु ने जो कुछ कहा है, वह एक हितकारी औषध के तुल्य है ।
८४. देवता (विद्वान लोग) परोक्ष से प्रेम करते हैं और प्रत्यक्ष से द्वेष रखते
हैं। अर्थात् क्षणभंगुर वर्तमान को छोडकर भविष्य की उन्नति के लिए
प्रयत्नशील रहते हैं। ८५. मैं अपने मन से जैसा भी विचारूंगा, वैसा ही होगा।
___९६. श्रेष्ठ ज्ञान तप के द्वारा ही प्रकट होता है ।
८७. यजमान (साधक) राग से पतित हो जाते हैं और उनकी श्रृति (शास्त्र
ज्ञान) भी नष्ट हो जाती है ।
५० क्षेमकरणदास त्रिवेदी द्वारा प्रयाग (ई० १६२४) मे मुद्रित । " -अक क्रमशः भाग, प्रपाठक तथा कण्डिका के सूचक हैं।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ साठ ८८. धर्मो हैन गुप्तो गोपाय ।
-गो० प्रा० १।२।४
८९. किं पुण्यमिति ? ब्रह्मचर्यमिति ।
कि लोक्यमिति ? ब्रह्मचर्यमेवेति !
-१।२१५
६०. अवि सप्ताय महद् भय ससृजे ।
-१।२१८
६१. प्रात्मन्येव जुह्वति, न परस्मिन् ।
--१।३।१६
६२. छिद्रो हि यज्ञो भिन्न इवोदधिविस्रवति ।
-~-२२।५
६३. यजमानेऽध. शिरसि पतिते स देशोऽधःशिरा पतति ।
-२।२।१५
६४. योऽविद्वान् संचरति प्रतिमाछति ।
-२।२।१७
६५. न हि नमस्कारमलिदेवाः।
ते ह नमसिताः कर्तारमतिसृजन्ति ।
-२।२।१८
६६. सत्य ब्रह्मणि, ब्रह्म तपसि ।
-२।३।२
६७. अमृत वै प्रणवः, अमृतेनैव तत् मृत्यु तरति ।
-२।३।११
६८. वाग् हि शस्त्रम्।
-२।४।१०
६६. मनो वै ब्रह्मा।
-२।५।४
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ब्राह्मण साहित्य की सूक्तियां
एक सौ इकसठ
८८. जो धर्म की रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है ।
८६. पवित्र क्या है ? ब्रह्मचर्य है।
दर्शनीय क्या है ? ब्रह्मचर्य है ।
६० अडियल नहकारी को बहुत भय (खतरो) का सामना करना पड़ता है।
६१. विद्वान् अपने मे ही होम करते हैं, दूसरे (अग्नि आदि) में नही ।
६२. छिद्रसहित अर्थात् दूपित यज्ञ (कर्म) फूटे हुए जलाशय के समान वह
जाता है। ६३. यजमान (नेता) के ओधेमुंह गिरने पर देश भी ओमुह गिर
जाता है। ६४. अनभिज्ञ व्यक्ति यदि किसी कम मे प्रवृत्त होता है तो वह केवल क्लेश
ही प्राप्त करता है। ६५. देवता (सज्जन पुरुप) नमस्कार का तिरस्कार नही करते, वे नमस्कार
अर्थात् अपनी उपासना करनेवाले को अवश्य ही सब प्रकार से संपन्न
करते हैं। ६६. सत्य ब्रह्म में प्रतिष्ठित है और ब्रह्म तप मे ।
६७. अमृत (अविनाशी चित् शक्ति) ही स्तुति या उपासना के योग्य है । अमृत
से ही मृत्यु को पार किया जाता है । ६८ वाणी शस्त्र भी है।
६६. मन ही ब्रह्मा है, अर्थात् कर्मसृष्टि का निर्माता है ।
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एक सो वामठ
१००. तमः पाप्मा ।
१०५. अन्नं वं विराट् ।
दीक्षा,
१०६. ऋत' वाव दीक्षा, सत्यं तस्माद् दीक्षितेन सत्यमेव वदितव्यम् ।
१०७. सत्यसंहिता वै देवा ।
१०८. चक्षु वै विचक्षरणम्, वि ह्येनेन पश्यति ।
१०६ विचक्षणवतीमेव
गो०
१०१ या वाक् सोऽग्निः ।
१०२. अभयमिव ह्यन्विच्छ ।
- २१६१४
१०३ श्रात्मसंस्कृति वै शिल्पानि श्रात्मानमेवास्य तत्संस्कुर्वन्ति ।
--२१६०७
१०४ यो ऽसो तपति स वै शंसति ।
वाच
वदेत्,
सत्योत्तरा हैवास्य वागुदिता भवति ।
सूक्ति त्रिवेणी
० ब्रा०-२१५१३
-२१४१११
- २।६।१४
-* ऐतरेय ब्राह्मण १।६
- ११६
- ११६
- ११६
- १/६
ऐतरेय ब्राह्मण मानन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना द्वारा प्रकाशित ( ई० स० १९३०) संस्करण |
- ऐ० प्रा० के समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचित भाष्य के हैं । - अंक क्रमश अध्याय तथा खण्ड के सूचक हैं ।
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एक सौ तिरेसठ
ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां १०० अन्धकार (अज्ञान) पाप है ।
१०१. वाणी भी एक प्रकार की अग्नि है ।
१०२. तू अभय को खोज कर ।
१०३. शिल्प (कला) प्रात्मा के सस्कार हैं, अतः शिल्प मनुष्य की मात्मा को
मस्कारित करते हैं। १०४. जो तपता है, अपने योग्य कर्म मे जी जान से जुटा रहता है, वही
संसार मे प्रशसित होता है। १०५. विश्व मे अन्न ही विराट् तत्त्व है।
१०६, ऋत (मानसिक सत्यसंकल्प) ही दीक्षा है, सत्य (वाचिक सत्य भाषण)
ही दीक्षा है, अत: दीक्षित (साधक) को सत्य ही बोलना चाहिए ।
१०७. दिव्य आत्माएं सत्यसहित होती हैं, अर्थात् उनके प्रत्येक वचन का
तात्पर्य सत्य से सम्बन्धित होता है । १०८. चक्षु ही विचक्षण है, क्योकि चक्षु के द्वारा ही वस्तुतत्व का यथार्थ
दर्शन एवं कथन होता है । १०६. विचक्षण अर्थात् आँखो देखा (अनुभूत) वचन ही बोलना चाहिए, क्योकि
ऐसा वचन ही सत्य होता है ।
१. मनसा यथावस्तु चिन्तनमृतशब्दाभिधेयम् । २. वाचा यथावस्तु कथन सत्यशब्दाभिधेयम् । ३. चक्षिड् दर्शने, इत्यस्माद् धातोरयं शब्दो निष्पन्नः । तथा ससि विशेषेण वस्तुतत्त्वमेनेनाऽऽचष्टे पश्यतीति विचक्षण नेत्रम् ।
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एक सौ बासठ
सूक्ति त्रिवेणी १००. तमः पाप्मा।
गो० प्रा०-२॥५॥३ १०१ या वाक् सोऽग्निः ।
-२।४।११ १०२. अभयमिव ह्यन्विच्छ ।
-२०६४ १०३ आत्मसस्कृति , शिल्पानि, आत्मानमेवास्य तत्सस्कुर्वन्ति ।
-२०६७ १०४ यो ऽसौ तपति स वै शंसति ।
-२।६।१४ १०५ अन्नं वै विराट् ।
---*ऐतरेय ब्राह्मण ११६ १०६, ऋत' वाव दीक्षा, सत्यं दीक्षा,
तस्माद् दीक्षितेन सत्यमेव वदितव्यम् ।
१०७. सत्यसंहिता वै देवा ।
१०८. चक्षु वै विचक्षणम्, वि ह्येनेन पश्यति ।
१०६ विचक्षणवतीमेव वाच वदेत्,
सत्योत्तरा हैवास्य वागुदिता भवति ।
* ऐतरेय ब्राह्मण आनन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना द्वारा प्रकाशित (ई० स० १६३०) सस्करण । -ऐ० प्रा० के समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचित भाष्य के है।
-अंक क्रमश अध्याय तथा खण्ड के सूचक हैं ।
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां
एक सौ तिरेसठ
१०० अन्धकार (अज्ञान) पाप है ।
१०१. वाणी भी एक प्रकार की अग्नि है ।
१०२. तू अभय को खोज कर ।
१०३. शिल्प (कला) प्रात्मा के सस्कार हैं, अतः शिल्प मनुष्य की आत्मा को
सस्कारित करते हैं। १०४. जो तपता है, अपने योग्य कर्म मे जी जान से जुटा रहता है, वही
संसार मे प्रशसित होता है। १०५. विश्व मे अन्न ही विराट् तत्त्व है ।
१०६. ऋत (मानसिक सत्यसंकल्प) ही दीक्षा है, सत्य (वाचिक सत्य भाषण)
ही दीक्षा है, अत. दीक्षित (साधक) को सत्य ही वोलना चाहिए।
१०७. दिष्य आत्माएं सत्यसहित होती हैं, अर्थात् उनके प्रत्येक वचन का
तात्पर्य सत्य से सम्बन्धित होता है । १०८. चक्षु हो विचक्षण है, क्योकि चक्षु के द्वारा ही वस्तुतत्व का यथार्थ
दर्शन एवं कथन होता है । १०६. विचक्षण अर्थात् आँखो देखा (अनुभूत) वचन ही वोलना चाहिए, क्योकि
ऐसा वचन हो सत्य होता है ।
१. मनसा यथावस्तु चिन्तनमृतशब्दाभिधेयम् । २. वाचा यथावस्तु कथन सस्यशब्दाभिधेयम् । ३. चक्षिड् दर्शने, इत्यस्माद् धातोरय शब्दो निष्पन्नः । तथा ससि विशेषेण वस्तुतत्त्वमेनेनाऽऽचष्टे पश्यतीति विचक्षणं नेत्रम् ।
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एक सौ चौमठ
सूक्ति त्रिवेणी
११०. यः श्रेष्ठतामश्नुते, स किल्विप' भवति ।
ऐ० ब्रा०-३२
१११. देवया विप्र उदीर्यति वाचम् ।
-६२
११२. अशनाया वै पाप्मा ऽमति.।
-६२
११३. या वै हप्तो" वदति, यामुन्मत्त सा वै राक्षसी वाक् ।
-६७
११४. मनो वै दीदाय, मनसो हि न किचन पूर्वमस्ति ।
-१०१८
११५. मनसा वै यज्ञस्तायते ।
--११।११
११६. परिमितं वै भूतम्, अपरिमितं भव्यम् ।
---१६।६
११७. वाग वै समुद्रः, न वाक् क्षीयते, न समुद्रः क्षीयते ।
-२३११
११८. श्रद्धया सत्येन मिथुनेन स्वर्गाल्लोकान् जयति ।
-३२१०
११६. अन्नं हि प्राणः ।
--३३६१
१२०. पशवो विवाहाः।
-३३१
१. प्रयोगपाटवाभिमानमश्नुते प्राप्नोति । २. पण्डितमन्यत्वेन । ३. उद्गमयति, उच्चारयतीत्यर्थः । ४. अमतिशब्देन चुघा वा पाप वाऽभिधीयते, तयोर्बुद्धिन सहेतुत्वात् । ५ बनविद्यादिना हप्तो दपं प्राप्त परतिरस्कारहेतुम् ।
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया
एक सौ पैंसठ ११०. जो सत्कर्म मे श्रेष्ठ होने का अहकार करता है, वह भी पाप का भागी
होता है। १११. सदाचारी विद्वान् देवी वाणी बोलते हैं ।
११२. भूख और पापाचार से बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।
११३. जो ऐश्वयं एव विद्या के घमड मे दूसरो का तिरस्कार करने वाली
वाणी बोलता है, जो पूर्वापर सम्बन्ध से रहित विवेकशून्य वाणी
बोलता है, वह राक्षमो वाणी है। ११४ सर्वार्थ का प्रकाशक होने से मन ही दीप्तिमान् है, मन से पहले कुछ
भी नही है-अर्थात् मन के विना किसी भी इन्द्रिय का व्यापार नही
होता है। ११५. मन से हो कर्म का विस्तार होता है ।
११६ जो भूत है, हो चुका है, वह सीमित है, और जो भव्य है, होने वाला
है, वह असीम है-अर्थात् भविष्य की सभावनाएँ सीमातीत हैं। ११७ वाणी समुद्र है । न समुद्र क्षीण होता है, न वाणी ही क्षीण
होती है। ११८. श्रद्धा एव सत्य के युगल (जोडे) से ही स्वर्ग लोक को जीता जा
सकता है। ११६ अन्न ही प्राण है।
१२०. गाय, भैस आदि पशु गृहस्थ जीवन के निर्वाहक है।
६ बुद्धिराहित्यात् पूर्वापरसम्बन्धरहिताम् । ७ मन सर्वार्थप्रकाशरत्वाद् दोदाय दीप्तियुक्त भवति । ८, किंचिदपीन्द्रिय व्यापारवन्नास्ति ।
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एक सो छियासठ
१२१. सखा ह जाया ।
१२२. ज्योतिर्हि पुत्रः ।
१२३. नानाश्रान्ताय श्रीरस्ति ।
१२४. पापो नृपवरो जन. ।
१२५. इन्द्र इच्चरतः सखा ।
१२६. पुष्पिण्यो चरतो जङ्घे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः' । शेरे ऽस्य सर्वे पाप्मानः, श्रमेण प्रपये हता. ॥ चरैवेति.... चरैवेति....
2
ऐ० ना०-३३।१
सूक्ति त्रिवेणी
१२७. श्रास्ते भग श्रासीनस्य, ऊर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः । शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः ॥ चरैवेति.... चरैवेति....
-३३|१
-३३१३
--३३/३
-३३/३
--३३१३
-३३/३
१. आरोग्यरूपफलयुक्तो भवति । २ शेरे शेरते गयाना इव भवन्ति । ३, सोभाग्यम् । ४. मूमी दायानस्य ।
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एक सौ सडसठ
ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां १२१. पली सखा (मित्र) है।
१२२. पुत्र घर को ज्योति है ।
१२३. श्रम नहीं करने वाले को समाज में श्री (शोभा) नहीं होती। अथवा
श्रमहीन मालती को श्री (लक्ष्मी) प्राप्त नहीं होती। १२४ निठल्ला बैठा रहकर खानेवाला श्रेष्ठ जन भी पापी है ।
१२५. इन्द्र (ईश्वर) भी चलने वाले का गर्थात् श्रम करने वाले का ही मित्र
(सहायक) होता है।
१२६.
चलते रहनेवाले पर्यटक की जघाएं पुष्पिणी हो जाती हैं, सुगधित पुष्प के समान सर्वत्र निर्माण का सौरभ फैलाती हैं, आदर पाती हैं । चलते रहने वाले का जीवन वर्धिष्णु (निरन्तर विकाशशील) एव फलनहि (आरोग्य आदि फल से युक्त) होता है। चलने वाले के सब पापदोष मार्ग मे ही श्रम से विनष्ट होकर गिर जाते है।
चले चलो.... चले चलो....!
१२७. बैठे हुए का भाग्य बैठा रहता है, उठता या बढता नही । उठ कर
खडे होनेवाले का भाग्य उन्नति के लिए उठखडा होता है । जो आलसी भूमि पर सोया पड़ा रहता है, उसका भाग्य भी सोता रहता है, जागता नही है। जो देश देशान्तर में अर्जन के लिए चल पडता है, उसका भाग्य भी चल पडता है, दिन-दिन बढता जाता है।
चले चलो.... चले चलो...!
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एक सौ अडसठ
सूक्ति त्रिवेणी १२८. कलि शयानो भवति, सजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठस्त्रेता भवति, कृतं सपद्यते चरन् ।
चरैवेति....चरैवेति....
ऐ० ब्रा०-३३३३
१२६. चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्वरम् । सूर्यस्य पश्य श्रेमाण, यो न तन्द्रयते चरन् ।।
चरैवेति....चरैवेति...
-३१३
१३०. ब्रह्मणः क्षत्वं वशमेति तद् राष्ट्र समृद्ध भवति ।
-३७१५
१३१. यद् ददामीत्याह यदेव वाचो जिताम् ।
-३७१५
१३२. अप्रतीतो जयति सं धनानि ।
-४०३
१३३. राष्ट्राणि वै धनानि ।
-४०१३
१३४. विद्वान् ब्राह्मणो राष्ट्रगोपः।
-४०१४
१. चतस्रः पुरुपस्यावस्था.-निद्रा, तत्परित्याग , उत्थानं, सचरण चेति । ताश्चोत्तरोत्तरश्रेष्ठत्वात् कलि-द्वापर-त्रेता-कृतयुगं समाना. । २ एतदुभयमुपलक्षणम् । तत्र तत्र विद्यमान भोगविशेष लभते । ३. श्रेष्ठत्वम् ।
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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियो
एक सौ उनहत्तर १२८. सोया पहा रहने वाला (बालसी, निस्क्रिय) कलियुग है, निद्रा त्याग
कर जग जाने वाला (बालस्य त्यागकर कर्तव्य का सकल्प करने वाला) द्वापर है, उठ कर सटा होने वाला (कतंत्र्य के लिए तैयार हो जाने वाला) प्रेता है, और कर्तव्य के संघपंपथ पर चल पड़ने वाला कृत युग है।
चले चलो....चले चलो ! १२६. चलने वाला ही मधु और सुम्वादु उदुम्बर अर्थात् सर्वोत्तम ऐश्वर्य
प्राप्त करता है । सूर्य की महिमा को देसिए कि वह चलता हुमा कभी थकता नही है।
चले चलो....चले चलो। १३०. जहां क्षत्रिय ब्राह्मण के नेतृत्व में रहता है, अर्थात् कर्म ज्ञान के प्रकाश
मे चलता है, वह राष्ट्र समृद्धि की ओर बढता रहता है । १३१. जो 'देता हूँ'-यह कहता है, वह एक प्रकार से वाणी की विजय है ।
१३२. जो राजा विरोधी शत्रुमओ से रहित है, वही समृद्धि प्राप्त कर
सकता है। १३३. राजा के लिए राष्ट्र ही वास्तविक धन है ।
१३४. सदाचारी विद्वान् ब्राह्मण ही राष्ट्र का संरक्षक होता है ।
४. कदाचिदपि अलसो न भवति । ५ एतदेव वाक्सम्बन्धि जित जयः ।.... पूजार्थो जितामिति दीर्घ ।
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श्रारण्यक साहित्य की सूक्तियां
१. अग्निर्वे महान् ।
२. य एव विद्वासमपवदति स एव पापीयान् भवति ।
३. यस्त्वमसि सोऽहमस्मि ।
४. केन सुखदुःखे इति ? शरीरेण इति ।
५ देवता श्रयाचमानाय बलि हरन्ति ।
६. मा भेत्था, मा व्यथिष्ठाः ।
७. सत्यं हि इन्द्रः ।
* शाड ख्यायन श्रारण्यक - ११५
*
- ११८
-३१६
-३।७
-४१२
-४|११
-५1१
ऋग्वेदीय शाङ्ख्यायनारण्यक ( कौपीतिकी आरण्यक ) मानन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना द्वारा (ई० सं० १९२२) में प्रकाशित ।
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प्रारण्यक साहित्य की सूक्तियां
१. संसार में अग्नितत्व (तेजस्) ही महान् है ।
२. जो विद्वानो को निन्दा करता है, वह पापी होता है ।
३. हे भगवन् । जो तू है, वही मैं हूँ।
४. सुख दुःख किस से होते है ? शरीर से होते है।
५. श्रेष्ठ जन विना मांगे सहयोग देते हैं।
६. मत उरो, मत व्यथित हो ।
७. सत्य ही इन्द्र है।
*अङ्क क्रमशः अध्याय, तथा कण्डिका के सूचक हैं।
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एक सौ बहत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
८ प्रजापेतं गरीर न सुख न दुःख किंचन प्रज्ञपयेत् ।।
~शां० श्रा० ५७ ६. एप प्रज्ञात्मा 5 नन्तोऽ जरो ऽ मृतो न साधना कर्मणा भूयात् भवति, नो एव असाधना कनीयान् ।
-५1८ १०. मनसा वा अग्ने कीर्तयति तद् वाचा वदति, तस्मान् मन एव पूर्वरूप बागुत्तररूपम् ।
-७२ ११. यथा 5 सी दिव्यादित्य एवमिदं शिरसि चक्षुर्यथा 5 सावन्तरिक्ष विद्य द् एवमिदमात्मनि हृदयम् ।
-७४ १२. माता पूर्वरूप पितोत्तररूप, प्रजा सहिता ।
-७११६ १३. प्रज्ञा पूर्वरूप श्रद्धोत्तररूप कर्म सहिता ।
-७११८ १४. सर्वा वाग् ब्रह्म ।
-७१२३ १५. प्रापस्तृप्ता नदीस्तर्पयति, नद्यस्तृप्ता समुद्र तर्पयन्ति ।
-१०७
१६. वाचि मेऽग्निः प्रतिप्ठितो, वाग, हृदये, हृदयमात्मनि ।
-११०६
१७, गान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः
श्रद्धा वित्तो भूत्वा ऽऽ त्मन्येवा ऽऽ त्मानं पश्येत् ।
-१३।१
१८. स्थाणुरयं भारहारः किलाभूद्,
अधीत्य वेदं न विजानाति योऽ थम् ।
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आरण्यक साहित्य की सूक्तियां
एक सौ तिहत्तर
प्रज्ञा (चेतना) से रहित शरीर सुख दुःस बादि किसी भी प्रकार की अनुभूति नही कर सकता
.
६ यह चैतन्य प्रज्ञात्मा अनन्त है, अजर है, अमृत है । न यह सत्कर्मों से बड़ा होता है, बोर न असत्कमों से छोटा ।
१० मनुष्य सर्वप्रथम मन मे सोचता है, फिर उसी को वाणी से बोलता है, मत मन पूर्व रूप है और वाणी उत्तर रूप है ।
११, जिस प्रकार वाकाश में सूर्य है उसी प्रकार मस्तक मे चक्षु (नेत्र) है | और जिस प्रकार अन्तरिक्ष में विद्युत, है उसी प्रकार आत्मा मे हृदय है ।
१२. माता पूर्वरूप है और पिता उत्तर रूप, और प्रजा (सतान) दोनो के बीच की सहिता है ।
१३. प्रज्ञा (बुद्धि) पूर्वरूप है और श्रद्धा उत्तर रूप, और कर्म दोनो के बीच की सहिता है ।
१४. समग्र वाणी ब्रह्मस्वरूप है ।
१५. जल सृप्त होते हैं तो नदियो को तृप्त करते हैं, और नदिया तृप्त होती है तो समुद्र को तृप्त करती हैं । ( इसी प्रकार व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र एव विश्व तृप्त होते जाते हैं ।)
१६. मेरी वाणी में अग्नि (तेज) प्रतिष्ठित है, वाणी हृदय मे प्रतिष्ठित है और हृदय आत्मा मे प्रतिष्ठित है ।
१७. साधक को शान्त, दान्त, उपरत ( विषयो से विरक्त), तितिक्षु ( सहन शील) एवं श्रद्धावान् होकर आत्मा मे ही आत्मा का दर्शन करना चाहिए ।
१८ जो वेदो ( शास्त्रो) को पढकर भी उनका अर्थ (ममं, रहस्य ) नही जानता है, वह केवल भार ढोने वाला मजदूर है, और है फूल एव
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एक सौ चौहत्तर
S
यो ऽर्थज्ञ नाकमेति
इत्सकलं
भद्रमश्नुते, ज्ञानविधूतपाप्मा ||
१६. सुमृडीका' सरस्वति । मा ते व्योम संदृशि ।
f
२०. स्वस्तिर्मानुषेभ्यः ।
२१. सहस्रवृदिय भूमि ।
२२. जाया भूमि, पतिर्व्योम |
२३. नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात्,
न निष्ठीवेत्, नवि निवसनः स्नायात् ।
२४. उत्तिष्ठत, मा स्वप्त ।
२५. मा स्म प्रमाद्यन्तमाध्यापयेत् ।
२६. तपस्वी पुण्यो भवति ।
२७. ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ।
२८. जुगुप्सेतानृतात् ।
*
सूक्ति त्रिवेणी
शां० प्रा०-१४/२
* तैत्तिरीय श्रारण्यक - १११
- ११६
- १११०
-१1१०
- ११२६
-१/२७
- ११३१
-११६२
—२२
-२/८
कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक, आनन्दाश्रममुद्रणालय पुना द्वारा प्रकाशित ( ई० स० १८१८ ) संस्करण | १. सुष्ठु सुखहेतुर्भव । २ व्योम छिद्रम् ।
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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सो पिचहत्तर फलो से होन केवल सूखा हूँ। अधं का ज्ञाता हो समग्न कल्याण का भागी होता है । और यन्ततः ज्ञान के द्वारा सब पापो को नष्ट कर नाफ
(दुःखो से रहित स्वर्ग या मोक्ष) प्राप्त करता है । १६ हे सरस्वती (मानशक्ति) । तू मुझे सुख देने वाली हो, तुझमें कोई छिद्र न
दिखाई दे। २०. मानव जाति का कल्याण हो ।
२१. यह भूमि उपकारी होने से हजारो-लाखो लोगो के द्वारा अभिनन्दनीय है।
२२. यह भूमि प्राणियो को जन्म देने वाली है, मत जाया है और आकाश
वृष्टि आदि के द्वारा पालन करता है, अति पति है । २३. जल मे मल मूत्र नही करना चाहिए, थूकना नही चाहिए और न नंगा
होकर स्नान हो करना चाहिए ।
२४. उठो, मत सोये पठे रहो।
२४. प्रमादी दुराचारी व्यक्ति को अध्ययन नही कराना चाहिए ।
२६. तपस्वी पवित्र होता है।
२७. ब्रह्म होता हुआ पुरुष अवश्य ही ब्रह्म को प्राप्त करता है।
२८. असत्य से जुगुप्सा (घृणा) रखनी चाहिए ।
-कृ० त० आ० के समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचित भाष्य
-अंक क्रमश. प्रपाठक तथा अनुवाक के सूचक है।
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एक सौ छियत्तर
२६. पयो ब्राह्मणस्य व्रतम् ।'
ર
३०. तपो हि स्वाध्याय २ ।
३२. प्रात्मा हि वर ।
३१. यावती वै देवतास्ताः सर्वा वेदविदि ब्राह्मणे वसन्ति ।
३३. हृदा पश्यन्ति मनसा मनीषिण. ।
३४ शर्म विश्वमिदं जगत् ।
सूक्ति त्रिवेणी
३६. सह नौ यशः, सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।
तै० श्र०-२८
३७. सत्य च स्वाध्यायप्रवचने च । तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
--२।१४
-२/१५
—२।१६
-४/१
३५. मधु मनिष्ये", मधु जनिष्येष, मधु वक्ष्यामि, मधु वदिष्यामि ।
-४११
--३।११
—७/३
-७/६
१. व्रतं भोजनमित्यर्थ. । २ सत्स्वपि मेघादिनिमित्तेषु स्वाध्यायमधीते तदा तपस्तप्त भवति । ३ हृत्पुण्डरीकगतेन नियमितेन अन्त करणेन । ४ ध्यात्वा साक्षात्कुर्वन्ति । ५. मनसि सकल्पयिष्ये । ६ सकल्पा दूध्वं .... मधु तन्मधुर कर्म
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आरण्यक साहित्य को सुक्तिया
एक सौ सतत्तर
२६. ब्राह्मण का भोजन दूध है ।
३०. स्वाध्याय स्वयं एक तप है
३१. जितने भी देवता हैं, वे सब वेदवेत्ता ब्राह्मण (विद्वान्) मे निवास
करते है।
३२. आत्मा ही श्रेष्ठ है।
३३. हृदय कमल मे नियमित (एकान) हुए मन के द्वारा ही मनीषी (ज्ञानी)
सत्य का साक्षात्कार करते हैं।
३४ यह समग्र विश्व मेरे को सुखरूप हो, अर्थात् मेरे अनुप्ठेय कर्मो मे
विघ्नो का परिहार कर मनुग्रह कये। मैं मन मे मधुर मनन (संकल्प) करूंगा, सकल्प के अनन्तर मधुर कर्मों का प्रारंभ करूंगा, प्रारभ करने के अनन्तर समाप्तिपर्यन्त कर्मों का निर्वाह करूंगा, और इस बीच में सदैव साथियो के साथ मधुर भाषण
करता रहूंगा। ३६. हम (गुरु-शिष्य) दोनो का यश एक साथ वढे, हम दोनो का ब्रह्म
तेज एक साथ बढे ।
३७ सत्य का आचरण करना चाहिए, साथ ही स्वाध्याय और प्रवचन
भी । तप का अनुष्ठान करना चाहिए, साथ ही स्वाध्याय और प्रवचन भी ।
जनिष्ये प्रादुर्भावयिष्ये अनुष्ठातु प्रारप्स्ये । ७. प्रारभादूवं. .समाप्तिपर्यन्त निर्वहिष्यामि । ८. स्वाध्यायो नित्यमध्ययनम्, प्रवचनमध्यापन ब्रह्मयज्ञो वा ।
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एक सौ अठहतर
सूक्ति त्रिवेणी
३८ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु,
सह वीर्य करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै।
-तै० मा० ८२ ३६. अन्न हि भूताना ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वोषधमुच्यते । अन्नाद् भूतानि जायन्ते । जातान्यन्नेन वर्धन्ते ।
-८२ ४० स तपो ऽ तप्यत, स तपस्तप्त्वा इदं सर्वम् असृजत ।
४१. अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ।
-६२ ४२. तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व ।
-२ ४३. तपो ब्रह्मेति ।
-६२ ४४. ज्योतिरहमस्मि ।
ज्योतिर्वलति ब्रह्माहमस्मि । यो ऽहमस्मि, ब्रह्मास्मि ।.... अहमेवाह, मां जुहोमि ।
-१०११ ४५ ऋत तप , सत्य तप., श्रत तप , शान्त तपो, दानं तपः ।
(-ते० प्रा०नारायणोपनिषद) १०१८
.....
१ मवस्य ससारव्याघेरीपघम्-निवर्तकम् । २ तज्ज्योतिबाव । ३. योऽह पुरा जीवोऽस्मि स एवेदानीमह ब्रह्मास्मि ।....मनाने विवेकेनापनीते
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मारण्यक साहित्य की सूक्तियाँ
एक सौ उनआसी
३८. हम दोनो (गुरु-शिष्य) का साथ-साथ रक्षण हो, हम दोनो साथ-साथ
भोजन करें, हम दोनो साथ-साथ समाज के उत्थान के लिए पुरुषार्थ करें। हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम परस्पर द्वप न करें।
३६. प्राणिजगत् मे अन्न ही मुख्य है। अन्नको समग्न रोगो की मोषध कहा . है। (क्योकि सब औषधियो का सार अन्न में है ।) अन्न से ही प्राणी
पैदा होते हैं और अन्न से ही बढ़ते है ।
४०. उसने तप किया और तप करके इस सब की रचना की।
४१. यह अच्छी तरह से जान लीजिए कि अन्न ही ब्रह्म है।
४२. तप के द्वारा ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को जानिए ।
४३. तप ही ब्रह्म है।
४४. मै ज्योति हूँ। यह जो अन्दर मे ज्योति प्रज्ज्वलित है, वह ब्रह्म मैं हूँ ।
जो मैं पहले जीव हूँ, वही शुद्ध होने पर ब्रह्म हो जाता हूँ। इसलिए मैं हो मैं हूँ। उपासनाकाल मे भी मैं अपनी ही उपासना करता हूँ।
४५. ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है । सत्य (वाणी से यथार्थ भाषण)
तप है। श्रुत (शास्त्रश्रवण) तप है । शान्ति (ऐन्द्रियिक विपयो से विरक्ति) तप है । दान तप है।।
सति वस्तुत पूर्वसिद्धमेव ब्रह्मस्वरूपमिदानीमनुभविताऽस्मि, न नूतन किंचिद् ब्रह्मत्वमागतम् । ४. धनेषु स्वत्वनिवृति , परस्वत्वापादनपर्यन्ता ।
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एक सौ अस्सी
सूक्ति त्रिवेणी ४६ यथा वृक्षस्य संपुष्पितस्य दूराद् गन्धो वाति, एव पुण्यस्य कर्मणो दूराद् गन्धो वाति ।
-ते० प्रा० ना० १०१६ ४७. विश्वमसि....सर्वमसि ।
-१०।२६ ४८. ब्रह्ममेतु माम्, मधुमेतु माम् ।
-१०४८ ४६. ज्योतिरह विरजा विपाप्मा भूयासम् ।
-१०॥५१ ५० सत्यं परं, परं सत्य, सत्येन न सुवर्गाल्लोकाच्च्यवन्ते कदाचन ।
-१०॥६२ ५१ तपो नानशनात् परम् । यद्धि परं तपस्तद् दुर्धर्षम् तद् दुराधर्षम् ।
-१०॥६२ ____५२ दानमिति सर्वाणि भूतानि प्रशंसन्ति,
दानान्नातिदुष्करम् ।
-१०६२ ५३. धर्मेण सर्वमिदं परिगृहीत, धर्मान्नातिदुश्चरम् ।
-१०॥६२ ५४. मानसमिति विद्वासः, तस्माद् विद्वास एव मानसे रमन्ते ।'
-१०१६२ ५५. सत्य वाच प्रतिष्ठा, सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् ।
-१०॥६३ ५६. दानेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति, ___ दाने सर्व प्रतिष्ठितम् ।
-१०॥६३
१ मानस एवोपासने ।
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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सौ इक्यासी
४६. जिस प्रकार सुपुष्पित वृक्ष को सुगन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है, उसी
प्रकार पुण्य कर्म को सुगन्ध भी दूर-दूर तक फैल जाती है।
४७. तू विश्वरूप है, सर्वरूप है, अर्थात् तू कोई क्षुद्र इकाई नही है ।
४८. मुझे ब्रह्मत्व प्राप्त हो, मुझे परमानन्दस्वरूप माधुर्य प्राप्त हो।
४६ में ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म हूँ, अतः मुझे पाप एव रजोगुण से रहित
होना है। ५०. सत्य श्रेष्ठ है, एवं श्रेष्ठ सत्य है । सत्य का आचरण करने वाले कभी
स्वर्ग लोक से च्युत नही होते । ५१ अनशन से बढकर कोई तप नहीं है, साधारण साधक के लिए यह परम
तप दुर्घपं है, दुराधपं है अर्थात् सहन करना बडा ही कठिन है । ५२. सभी प्राणी दान की प्रशसा करते हैं, दान से बढकर अन्य कुछ दुर्लभ
नहीं है।
५३. धर्म से ही समग्र विश्व परिगृहीत-आवेष्टित है । धर्म से बढकर अन्य
कुछ दुश्चर नही है।
५४. विद्वान् मानस-उपासना (साधना) को ही श्रेष्ठ मानते हैं, इसलिए विद्वान्
मानस उपासना में ही रमण करते हैं । ५५. सत्य वाणी की प्रतिष्ठा है, सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ।
५६. दान से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, दान में सब कुछ प्रतिष्ठित है।
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___ एक सौ बियासी
सूक्ति त्रिवेणी
५७. धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा,
लोके धर्मिष्ठ प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति, धर्मे सर्व प्रतिष्ठितम्, तस्माद् धर्म परमं वदन्ति ।
-१०।६३
५८. सर्व चेदं क्षयिष्णु ।
-*मैत्रायणी प्रारण्यक ११४
५६ नाऽतपस्कस्याऽत्मज्ञानेऽधिगम कर्मशुद्धिर्वा ।
६०. तपसा प्राप्यते सत्त्व, सत्त्वात् सप्राप्यते मनः ।
मनसा प्राप्यते त्वात्मा, ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ॥
६१. विद्यया तपसा चिन्तया चोपलभते ब्रह्म ।
-४।४
६२. भोक्ता पुरुषो भोज्या प्रकृति ।
-६६१०
६३. यथा पर्वतमादीप्त नाश्रयन्ति मृगा द्विजा.।
तद्वद् ब्रह्मविदो दोषा, नाश्रयन्ति कदाचन ।।
-६१८
६४. द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मरिण निष्णातः, पर ब्रह्माधिगच्छति ।।
--६।२२
६५. मानसे च विलीने तु, यत् सुख चात्मसाक्षिकम् ।
तद् ब्रह्म चामृत शुक्र, सा गतिर्लोक एव सः ।।
-६।२४
यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक, भट्टारक प० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा यजुर्वेदीय मैत्रायणी सहिता के साथ प्रकाशित (वि०स० १९६८) संस्करण।
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मारण्यक साहित्य की सूक्तिया
एक सो तिरासी धर्म समग्र विश्व की अर्थात् विश्व के सब प्राणियो की प्रतिष्ठा (आश्रय, आधार) है | संमार मे धर्मिष्ठ व्यक्ति के पास ही जनता धर्माधर्म के निर्णय के लिए जाती है । धर्म से ही पाप का नाश होता है, धर्म मे ही सब कुछ प्रतिष्ठित है । इसलिए विद्वानो ने धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है । ५८. यह समग्र दृश्य जगत् नश्वर है ।
५७
५६. जो तपस्वी नही है, उसका ध्यान आत्मा मे नही जमता और इसलिए उसकी कर्मशुद्धि भी नही होती ।
६०. तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्राप्त मन वन मे श्राने से आत्मा की हो जाने पर ससार से छुटकारा मिल जाता है ।
होता है, सत्त्व से मन वश मे आता है, प्राप्ति होती है, और आत्मा की प्राप्ति
६१ श्रध्यात्मविद्या से तप से ओर आत्मचिन्तन से ब्रह्म की उपलब्धि
,
होती है ।
६२ पुरुष ( चैतन्य आत्मा ) भोक्ता है, और प्रकृति भोज्य है ।
६३ जिस प्रकार पशु पक्षी जलते हुए पवंत का आश्रय ग्रहण नही करते, उसी प्रकार दोष (पाप) ब्रह्मवेत्ता (आत्मद्रष्टा ) के निकट नही जाते ।
६४ दो ब्रह्म जानने जैसे हैं--शब्द ब्रह्म और पर ब्रह्म । जो साधक शब्द ब्रह्म मे निष्णात होता है वही पर ब्रह्म को प्राप्त करता है ।
६५. मन के विलीन होने पर आत्मसाक्षी (आत्म दर्शन) से जो सुख प्राप्त होता है, वही ब्रह्म है, अमृत है, शुक्र है, वही गति है और वही प्रकाश है |
- यह मंत्रायणी उपनिषद् के नाम से भी प्रसिद्ध है । अक क्रमश. प्रपाठक एवं कण्डिका के सूचक हैं ।
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एक मी चौरासी
सूक्ति त्रिवेणी
६६. एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च ।
सवंभावपरित्यागो योग इत्यभिधीयते ॥
-मे० प्रा०६२५
६७. यथा निरिन्वनो वह्निः, स्वयोनावुपशाम्यते । ___ तथा वृत्तिक्षयाच्चित्त , स्वयोनावुपणाम्यते ।
-६।३४-१
६८. चित्तमेव हि संसारस्तत् प्रयत्नेन गोधयेत् ।
यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेत सनातनम् ।।
–६।३४-३
६९. चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाऽशुभम् ।
प्रसन्नाss त्मा ऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते ।।
-६६३४-४
७०. समासक्तं यदा चित्त, जन्तोविपयगोचरे ।
यद्येव ब्रह्मरिंग स्यात् तत् को न मुच्येत बन्धनात् ।।
-६३४-५
७१. मनो हि द्विविध प्रोक्त शुद्ध चाऽशुद्धमेव च ।
अशुद्ध कामसंपर्काच्छुद्ध कामविजितम् ।
-६।३४-६
७२. समाधिनितमलस्य चेतसो,
निवेगितस्यात्मनि यत् सुखं भवेत् । न शक्यते वर्णयितु गिरा तदा, स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ।।
-~-६:३४-६
७३. मनएव मनुप्यागां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
वन्याय विषयासक्तं, मुक्त्त्य निविपय स्मृतम् ।।
-६६४-११
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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सौ पिचासी
६६. प्राण, मन एव इन्द्रियो का एकत्व तथा समग्र बाह्य भावो का परित्याग योग कहलाता है ।
६७. जिस प्रकार इन्धन के समाप्त हो जाने पर अग्नि स्वय ही अपने स्थान मे बुझ जाती है, उसी प्रकार वृत्तियों का नाश होने पर चित्त स्वयमेव हो अपने उत्पत्ति स्थान मे शान्त हो जाता है ।
६८. चित्त ही संसार है, इसलिए प्रयत्न करके चित्त को ही शुद्ध बनाना चाहिए। जैसा चित्त होता है वैसा ही मनुष्य वन जाता है, यह सनातन रहस्य है ।
६६. चित्त के प्रसन्न (निर्मल) एवं शान्त हो जाने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं । और प्रसन्न एव शान्तचित्त मनुष्य ही जव आत्मा मे लीन होता है तब वह अविनाशी आनन्द प्राप्त करता है ।
७०. मनुष्य का चित्त जितना विषयो मे लीन होता है, उतना ही यदि वह ब्रह्म मे लीन हो जाए तो फिर कौन है जो बन्धन से मुक्त न हो ?
७१. मन दो प्रकार का है, शुद्ध और अशुद्ध । कामनाओ से सहित मन अशुद्ध है, और कामनाओं से रहित मन शुद्ध ।
७२ समाधि के द्वारा जिसका मल दूर हो गया है और जो आत्मा में लीन हो चुका है, ऐसे चित्त को जिस आनन्द की उपलब्धि होती है उसका वर्णन वाणी द्वारा नही किया जा सकता, वह तो केवल आन्तरिक अनुभूति के द्वारा ही जाना जा सकता है ।
७३. मनुष्यो के वन्धन और मोक्ष का कारण एक मात्र मन ही है । विषयो में आसक्त रहने वाला मन बन्धन का कारण है और विषयो से मुक्त रहने वाला मन मोक्ष का कारण ।
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एक सौ छियासी
सूक्ति त्रिवेणी ७४. यन्महानभवत्, तन्महाव्रतमभवत् ।
___ "ऐतरेय प्रारण्यक-११॥ ७५. यः श्रेष्ठतामश्नुते, स वा अतिथिर्भवति ।
-१९६१ ___ ७६ न वा असन्तमातिथ्यायाऽऽद्रियन्ते।
-११ ७७. मनमि व सर्वे कामाः श्रिताः, मनसा हि सर्वान् कामान् ध्यायति ।
-२३२ ७८. वाग् वै सर्वान् कामान् दुहे', वाचा हि सर्वान् कामान् वदति ।
-१३२
७६. सर्व हीद प्रारणेनाऽऽवृतम् ।
-२१०६
८०. तदेतत् पुष्पं फलं वाचो यत्सत्यम् ।
-२०३६
८१ यथा वृक्ष प्राविमूल. शुष्यति स उद्वर्तते,
एवमेवानृतं वदनाविमूलमात्मानं करोति स शुष्यति, स उद्वर्तते, तस्मादनृतं न वदेत् ।
-२॥३॥६
"ऐतरेय आरण्यक आनन्दाश्रम मुद्रणालय; पूना द्वारा (ई० स० १८६८) मे प्रकाशित । -समस्त टिप्पण सायणाचार्यविरचितभाष्य के हैं। -अक क्रमशः आरण्यक, अध्याय एवं खण्ड के सूचक है ।
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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सौ सत्तासी ७४. जो महान् होता है, उसका व्रत (कर्म) भी महान् होता है ।
७५. जो सन्मार्ग में श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, वही अतिथि होता है ।
७६. सन्मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति, भले कितना हो दरिद्र हो, अतिथि के रूप मे
समादृत नही होता है। ७७. सव काम (इच्छाए) मन मे ही उपस्थित होते हैं, यही कारण है कि
सब लोग अभीष्ट पदार्थों का सर्वप्रथम मन से ही ध्यान (सकल्प)
करते हैं। ७८. वाणी ही सब अभीप्ट कामनाओ का दोहन (सम्पादन) करती है, क्योकि
मनुष्य वाणी से ही इच्छायो को बाहर मे व्यक्त करता है ।
७६. देव, मनुष्य, पशु-पक्षो मादि प्राणीमान के सब शारीर प्राणवायु से आवृत
हैं, व्याप्त हैं। ८०. सस्य वाणीरूप वृक्ष का पुष्प है, फल है ।
८१. जिस प्रकार वृक्ष मूल (जड) के उखड जाने से सूख जाता है और अन्ततः
नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार असत्य बोलनेवाला व्यक्ति भी अपने आप को उखाड़ देता है, जनसमाज मे प्रतिष्ठाहीन हो जाता है, निन्दित होने से सूख जाता है-श्री हीन हो जाता है, और अन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जाता है ।
१. सन्मार्गरहितं व्रात्याभिशस्तादिक पुरुषमत्यन्तदरिद्रमपि आतिथ्यसत्काराय नाद्रियन्ते । २. अभिलषितान् पदार्थान् सपादयति । ३. भूमेरुत्वातः सन् आविमूतमूलो भूत्वा प्रथम शुष्यति पश्चाद् उद्वर्तते-विनश्यति च । ४. सर्वेस्तिरस्कायंत्वमेव अस्य शोष. । ५ विनश्यति नरक प्राप्नोतीत्यर्थः ।
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एक सो अठासी
८२. यत्सर्वं नेति ब्रूयात् पापिका ऽस्य कीर्तिर्जायेत', सैनं तत्रैव' हन्यात्' ।
८३. काल एव दद्यात् काले न दद्यात् ।
८४. सत्यस्य सत्यमनु यत्र युज्यते, तत्र देवाः सर्वं एकं भवन्ति ।
८५ प्रज्ञान ब्रह्म ।
८७ वाचा मित्राणि सदधति ।
८६ वा मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
८८. वागेवेदं सर्वम् ।
सूक्ति त्रिवेणी
८६. अथ खल्वियं देवी वीणा भवति ।
- ऐ० प्रा० २/३/६
-२१३१६
- २३१८
-२२६११
- २७/१
-३|१|६
—३|१|६
-३।२२५
१. अत्यन्तलुब्धोऽय दुरात्मा घिगेनमित्येव सर्वे निन्दन्ति । २. गृहे । ३. जोवन्नप्यसौ मृत एव । ४. परब्रह्मस्वरूपमनुयुज्यते । ५. एक भवन्ति एकत्वं प्रतिपद्यन्ते । ६. अहंप्रत्ययगम्यत्वाकारेण यदा विवक्ष्यते तदा जीव इत्युच्यते,
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मारण्यक साहित्य को सूक्तियां
एक सौ नवासी ८२, जो लोभी मनुष्य प्रार्थी लोगो को सदैव 'ना ना' करता है, तो जनसमाज
मे उस की अपकीर्ति (निन्दा) होती है और वह अपकीर्ति उस को घर मे ही मार देती है, अर्थात् जीता हुआ भी वह कृपण निन्दित मृतक के
समान हो जाता है। ८३. योग्य समय पर ही दान देना चाहिए, अन्य किसी अयोग्य समय
पर नही। ८४. जहां (जिस साधक मे) सत्य का भी सत्य अर्थात् पर ब्रह्म प्रतिष्ठापित
हो जाता है, वहां सब देवता एक हो जाते हैं ।
५५. देह एवं इन्द्रिय आदि का साक्षीस्वरूप यह प्रज्ञान (शुद्ध ज्ञान) ही
ब्रह्म है।
८६. मेरी वाणी मन मे प्रतिष्ठित है और मेरा मन वाणी मे प्रतिष्ठित है।
८७. प्रिय वाणी से ही स्नेही मित्र एकत्र होते हैं ।
८८. वाणी ही सब कुछ है, अर्थात् वाणी से ही लौकिक एव पारलौकिक सभी
प्रकार का फल उपलब्ध होता है । ८६. यह शरीर निश्चित ही देवी वीणा है ।
यदा तु शास्त्रप्रतिपाद्यत्वाकारो विवक्षितः तदानी ब्रह्म त्यभिधीयते । अतो व्यवहारभेदमात्र, न तु तत्त्वतो भेदोऽस्ति । ७. सर्वमैहिकमामुष्मिकं च फलजातम् । ८. इयं दृश्यमाना शरीररूपा ।
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एक सौ बानवे
४. यस्तु सर्वाणि भूतानि,
आत्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते ॥
५. यस्मिन् सर्वाणि भूतानि, आत्मैवाभूद् विजानतः ।
तत्र को मोहः क. शोक, एकत्वमनु
६. अन्धं तमः प्रविशन्ति,
पश्यत ॥
ये ऽ विद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो,
७. विद्यां
य उ विद्याया रताः ॥
चाविद्यां च, यस्तद्वेदोभयं सह । श्रविद्यया मृत्यु तीर्त्वा, विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥
८. अन्धं तमः प्रविशन्ति,
ये s संभूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो,
य उ संभूत्या रताः ॥
६. संभूति च विनाशं च,
यस्तद्वेदोभयं सह ।
विनाशेन मृत्यु तीर्त्वा,
संभूत्या ऽ मृतमश्नुते ||
सूक्ति त्रिवेणी
पॅ
-७
-६
-११
-१२
-१४
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
एक सो.तिरानवे ४. जो अन्तनिरीक्षण के द्वारा सब भूतो (प्राणियो) को अपनी आत्मा मे ही
देखता है, और अपनी आत्मा को सब भूतो मे, वह फिर किसी से घृणा नहीं करता है।
५. जिस ज्ञानी के ज्ञान मे सब भूत आत्मवत् होगए हैं, उस सर्वत्र एकत्व के
दर्शन करने वाले समदर्शी को फिर मोह कसा, और शोक कसा?
६. जो अविद्या अर्थात् केवल भौतिकवाद की उपासना करते हैं, वे गहन
अन्धकार मे जा पहुँचते हैं । और जो केवल विद्या अर्थात् अध्यात्मवाद में ही रत रहने लगते हैं, सामाजिक दायित्वो की अवहेलना कर बैठते हैं, वे उससे भी गहरे अन्धकार मे जा पहुंचते हैं।
७. विद्या-ज्ञान तथा अविद्या-कर्म इन दोनो को जो एक साथ जानते हैं, वे
अविद्या से मृत्यु को-अर्थात जीवन के वर्तमान सकटो को पार कर जाते है, और विद्या से 'अमृत' को-अर्थात् अविनाशी आत्मस्वरूप को प्राप्त करते हैं।
८. जो असभूति (अ+स+भूति) अर्थात् व्यक्तिवाद की उपासना करते हैं,
वे गहन अन्धकार मे प्रवेश करते है । और जो समूति अर्थात् समष्टिवाद मे ही रत रहते हैं, वे उससे भी गहन अन्धकार मे प्रवेश करते है ।
है जो संभूति (समष्टिवाद) तथा असंभूति (व्यक्तिवाद)-इन दोनो को एक
साथ जानते हैं, वे असमूति से (अपना भला देखने की दृष्टि से) मृत्यु को, वैयक्तिक संकट को पार कर जाते हैं । और सभूति से (सबको भला देखने की दृष्टि से) अमृतत्व को-अर्थात् अविनाशी आनन्द को चखते हैं।
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'उपनिषद् साहित्य की सूक्तियां
१. ईशावास्यमिदं सर्व
यत्किच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा,
मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।
ईशावास्योनिषद्-१*
.
२. कुर्वन्तेवेह कर्माणि,
जिजीविषेच्छत समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति।
न कर्म लिप्यते नरे॥
३. असुर्या नाम ते लोका, .
अन्धेन तमसावतो. । तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति,
ये केचात्महनो जनाः ॥
१. 'अष्टोत्तरशतोपनिषद्' वासुदेव शर्मा द्वारा सपादित निर्णयसागर प्रेस,
बम्बई मे (ई० स० १६३२) मुद्रित ।
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तियां
१. इस गतिमान ससार मे जो कुछ भी है, वह सव परब्रह्म से अथवा
स्वामित्व भाव से परिवेष्टित है। इसलिए अपने स्वामित्व भाव का • परित्याग कर प्राप्त साधनो का उपभोग करो, और जो स्वत्व किसी
दूसरे का है, उसके प्रति मत ललचाओ।
२. निष्काम कर्म करते हुए ही इस संसार में सौ वर्ष जीवित रहने की
कामना रखनी चाहिए। इस प्रकार निष्कामकर्मा मनुष्य को कर्म का लेप नही होता । इससे भिन्न अन्य कोई कर्म का माग नहीं है।
३. जो मनुष्य आत्मा का हनन करते हैं, त्यागपूर्वक भोग नही करते हैं, वे
गहरे अन्धकार से प्रावृत असुर्य-लोक मे जाते हैं।
* अङ्क केवल मंत्रसंख्या के सूचक हैं ।
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एक सौ बानबे
४. यस्तु सर्वाणि भूतानि, श्रात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते ॥
५. यस्मिन् सर्वाणि भूतानि, श्रात्मैवाभूद् विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक, एकत्वमनु
६. अन्धं तमः प्रविशन्ति, ये 5 विद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो, यउ विद्याया रताः ॥
पश्यतः ॥
७. विद्यां चाविद्या च,
यस्तद्वेदोभयं सह । श्रविद्यया मृत्यु तीर्त्वा, विद्ययाऽमृतमश्नुते ||
८. अन्धं तमः प्रविशन्ति,
ये s संभूतिमुपासते । ततो भूय इव ते तमो,
य उ सभूत्यां रताः ॥
६. संभूतिं च विनाशं च,
यस्तद्वेदोभयं सह ।
विनाशेन मृत्यु तीर्त्वा,
संभूत्या ऽमृतमश्नुते ॥
सूक्ति त्रिवेणी
प
७
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77
- ११
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
एक सौ तिरानवे ४ जो अन्तनिरीक्षण के द्वारा सब भूतो (प्राणियो) को अपनी आत्मा मे ही
देखता है, और अपनी आत्मा को सब भूतो मे, वह फिर किसी से घृणा नहीं करता है।
५. जिस ज्ञानी के ज्ञान मे सब भूत आत्मवत् होगए हैं, उस सर्वत्र एकत्व के
दर्शन करने वाले समदर्शी को फिर मोह कैसा, और शोक कैसा ?
६. जो अविद्या अर्थात् केवल भौतिकवाद की उपासना करते हैं, वे गहन
अन्धकार मे जा पहुँचते हैं । और जो केवल विद्या अर्थात् अध्यात्मवाद में ही रत रहने लगते हैं, सामाजिक दायित्वो की अवहेलना कर बैठते हैं, वे उससे भी गहरे अन्धकार मे जा पहुँचते हैं ।
७. विद्या-ज्ञान तथा अविद्या-कर्म इन दोनो को जो एक साथ जानते है, वे
अविद्या से मृत्यु को–अर्थात जीवन के वर्तमान सकटो को पार कर जाते हैं, और विद्या से 'अमृत' को अर्थात् अविनाशी आत्मस्वरूप को प्राप्त करते हैं।
८. जो असभूति (अ+स+भूति) अर्थात व्यक्तिवाद की उपासना करते है,
वे गहन अन्धकार मे प्रवेश करते है । और जो समूति अर्थात् समष्टिवाद मे ही रत रहते हैं, वे उससे भी गहन अन्धकार मे प्रवेश करते है।
६. जो सभूति (समष्टिवाद) तथा असंभूति (व्यक्तिवाद)-इन दोनो को एक
साथ जानते हैं, वे असमूति से (अपना भला देखने की दृष्टि से) मृत्यु को, वैयक्तिक संकट को पार कर जाते हैं । और सभूति से (सबको भला देखने की दृष्टि से) अमृतत्व को-अर्थात् अविनाशी आनन्द को चखते हैं।
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ चौरानवे १०. हिरण्मयेन पात्रेण,
सत्यस्यापिहित मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु,
सत्यधर्माय दृष्टये ॥
ईशा० उ०-१५
११. यो ऽ सावसौ पुरुष. सो ऽ हमस्मि ।
१२. वायुरनिलममृतमथेद,
भस्मान्त शरीरम् । प्रोम् क्रतो स्मर, कृतं स्मर, क्रतो स्मर, कृत स्मर ॥
-१७ १३. न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग् गच्छति, नो मनः ।
केन उपनिषद् -*११३ १४. यन्मनसा न मनुते,
येनार्मनो मतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,
नेद यदिदमुपासते ॥
१५. यच्चक्षुषा न पश्यति,
येन चक्षु षि पश्यति । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,
नेद यदिदमुपासते ।।
-१६
१६. इह चेदवीदथ सत्यमस्ति,
न चेदिहावेदीन् महती विनष्टिः ।
-२।३
*अक क्रमशः खण्ड एवं कण्डिका के मूचक हैं ।
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तियां
- एक सौ पिचानवे
१० सोने के आवरण (ढक्कन) से बाहरी चमक दमक से सत्य का मुख ढका
हुआ है । हे पूषन् । (अपना कल्याण चाहने वाले उपासक !) यदि तू सत्य धर्म के दर्शन करना चाहता है, तो उस आवरण को हटादे, पर्दे को उठा दे।
११ वह जो ज्योतिर्मय पुरुष (ईश्वर) है, मैं भी वही हूँ । अर्थात् मुझ मे और
उस ईश्वर मे कोई अन्तर नही है। १२ अन्तकाल मे शरीर में रहने वाला प्राणवायु विश्व की वायु मे लीन
हो जाता है । आखिर इस शरीर का अन्त भस्म के रूप में ही होता है। अतः हे कर्म करने वाले जीव तू क्रतु को, जो कम तुझे आगे करना है उसे स्मरण कर, और कृत-जो तू अव तक कम कर चुका है, उसे
भी स्मरण कर । १३. वहाँ (आत्मा के स्वरूप केन्द्र पर) न आख पहुँचती है, न वाणी पहुँचती
है और न मन ही पहुँचता है । जिस का मन से मनन (चिन्तन) नही किया जा सकता, अपितु मन ही जिसके द्वारा मनन-चिन्तन करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिस भौतिक जगत की लोग ब्रह्म के रूप मे उपासना करते है, वह ब्रह्म नहीं है।
१५. जो चक्षु से नही देखता, अपितु चक्षु ही जिसके द्वारा देखती है, उसी को
तू ब्रह्म जान ! जिस भौतिक जगत की लोग ब्रह्म रूप मे उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नही है।
१६. यदि तू ने यहां-इस जन्म में ही अपने प्रात्मब्रह्म को जान लिया, तब
तो ठीक है। यदि यहाँ नही जाना, तो फिर विनाश-ही-विनाश हैमहानाश है।
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एक सौ छियानवे
१७. प्रतिबोधविदितं मतम्,
अमृतत्व हि विन्दते । आत्मना विन्दते वीर्यं,
विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥
१५. तस्मै तपो दम. कर्मेति प्रतिष्ठा ।
१९. बहूनामेमि प्रथमो, बहूनामेमि मध्यम. ।
तथाऽपरे ।
२०. अनुपश्य यथापूर्वे प्रतिपश्य सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥
२१. श्वोभावा मत्यस्य यदन्तक !
२२. न वित्त ेन तर्पणीयो मनुष्य ।
२३. श्रन्यच्छ्रेयो ऽन्यदुतैव प्रेयस्,
एतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज़. ।
ते उभे नानार्थे पुरुषं सिनोतः । तयोः श्रेयः श्राददानस्य साधु भवति,
हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥
२४. श्रेयश्च
प्रेयश्च मनुष्यमेतस्, तो संपरीत्य विविनक्ति धीरः । श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते,
प्रेयो मन्दो योग-क्षेमाद् वृणीते ॥
-कठ उपनिषद् - * ११५
* श्रंक क्रमशः वल्ली और श्लोक के सूचक हैं |
सूक्ति त्रिवेणी
- केन० उ० २१४
-४/५
- ११६|
—१२६
- ११२७
-२११
--२/२
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
W
१७ आत्म-बोध से हो मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त होता है अनन्त आध्यात्मिक वीर्य (शक्ति) मिलता है । विद्या से से ही अमृतत्व प्राप्त होता है ।
१८. आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा अर्थात् बुनियाद तीन बातो पर होती है - तप,
दम (इन्द्रियनिग्रह ) तथा कर्म - सत्कर्म ।
एक सौ सत्तानवे
। आत्मा से हो
वास्तविक ज्ञान
१६. मैं बहुतो मे प्रथम हूँ और बहुतो मे मध्यम हूँ । अर्थात् बिल्कुल निकृष्ट (निकम्मा) नही हूँ ।
२०. जो तुझ से पहले हो चुके हैं उन्हे यह मत्यं (मरणधर्मा मनुष्य) एक पकता है, नष्ट होता है और फिर जाता है ।
देख, जो तेरे पीछे होगे उन्हे देख | अन्न की तरह पैदा होता है,
दिन
जन्म के
रूप मे उत्पन्न हो
नये
२१. ये संसार के सुखभोग मनुष्य के श्वोभाव हैं, अर्थात् आज हैं कल नही । ये इन्द्रियो के तेज को क्षीण कर देते हैं ।
२२. मनुष्य की कभी धन से तृप्ति नही हो सकती ।
२३
श्रेय मार्ग अन्य है और प्रेय मागं अन्य है । ये दोनो भिन्न-भिन्न उद्द ेश्यो से पुरुष को बांधते हैं । इनमे से श्रेय को ग्रहण करने वाला साधु (श्रेष्ठ) होता है और जो प्रेय का वरण करता है वह लक्ष्य से भटक जाता है ।
२४. श्र ेय और प्रेय की भावनाएँ जब मनुष्य के समक्ष आती हैं तो धीर पुरुष इन दोनो की परीक्षा करता है, छानबीन करता है। धीर पुरुष ( ज्ञानी ) प्रेय की अपेक्षा श्र ेय का ही वरण करता है और मन्दबुद्धि व्यक्ति योग-क्षेम (सासारिक सुख भोग) के लिए प्रेय का वरण करता है ।
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एक सो अट्टानवे
२५ नैतां सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो', यस्या मज्जन्ति बहवो मनुष्या ॥
२६. अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वय धीराः पण्डितंमन्यमानाः । दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा,
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥
२७. न साम्परायः प्रतिभाति बाल, प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।
२८. श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य
शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्यु. । प्राश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा
ssश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट. ॥
२६. नैषा तर्केण मतिरापनेया ।
३०. जानाम्यह शेवधिरित्यनित्यं,
न ध्रुवं प्राप्यते हि ध्रुव तत् ।
३१. अध्यात्मयोगाधिगमेन देव,
मत्वा घोरो हर्ष - शोको जहाति ।
३२ अणोरणीयान् महतो महीयान् ।
१ नचिकेता के प्रति यम की उक्ति ।
सूक्ति त्रिवेणी
- कठ० उ० २१३
-२५
- २/६
- २७
-राह
- २1१०
- २०१२
-२१२०
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तियां
एक सौ निन्यानवे २५ सांसारिक सुखो को सोने की साकल मे तू नही बंधा, जिसमे दूसरे बहुत
से लोग तो जकडे ही जाते है ।
__ २६ ससारी जीव अविद्या मे फंसे हुए भी अपने को धीर और पडित माने
फिरते हैं । टेढे-मेढे रास्तो से इधर-उधर भटकते हुए ये मूढ ऐसे जा रहे हैं जैसे अन्धा अन्धे को लिए चल रहा हो ।
२७ वैभव के मोह मे पडे हुए प्रमादी व्यक्ति को परलोक की बात नहीं
सूझती, उसे तो वर्तमान प्रत्यक्ष लोक हो सत्य प्रतीत होता है।
२८. यह आत्मज्ञान अत्यन्त गूढ है । वहुतो को तो यह सुनने को भी नही
मिलता, बहुत से लोग सुन तो लेते हैं किन्तु कुछ जान नहीं पाते । ऐसे गूढ तत्व का प्रवक्ता कोई माश्चर्यमय विरला ही होता है, उसको पाने वाला तो कोई कुशल ही होता है । और कुशल गुरु के उपदेश से कोई
विरला ही उसे जान पाता है । २६. यह प्रात्म-ज्ञान कोरे तक वितर्कों से झुठलाने-जैसा नहीं है।
३०. मैं जानता हूँ--यह धन सपत्ति अनित्य है। जो वस्तुएँ स्वय अध्र व
(अस्थिर) हैं, उनसे ध्र व (आत्मा) नहीं प्राप्त किया जा सकता।
३१. जो अध्यात्मयोग के द्वारा दिव्य प्रात्म-तत्त्व को जान लेता है, वह धीर
(ज्ञानी) हो जाता है, फरत' वह हर्ष तथा शोक-दोनो द्वन्द्वो से मुक्त
हो जाता है। ३२. मात्म तत्त्व अणु (सूक्ष्म) से भी अणु है, और महान् से भी महान् है ।
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दो मो
३३. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेवया न बहुना श्र ुतेन । यमेवैप वृणुते तेन लभ्यस्,
तप श्रात्मा विवृणुते तनुं रवाम् ॥
३४. नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नाममाहितः । नाशान्तमानगो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥
३५. यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचिः । स तु तत्यदमाप्नाति यस्माद् भूयो न जायते ॥
३६. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
३७. पराञ्चियाति व्यतृणत् स्वयंभूम्
1
तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्वीर प्रत्यगात्मानमैक्षद्, ग्रावृत्तचक्षु मृतत्त्वमिच्छन् ॥
३८. मृत्योः स मृत्युमाप्नोति, य इह नानेव पश्यत ।
३८. नेह नानास्ति किंचन ।
४० यथोदकं शुद्ध शुद्धमासिक्त ताद्गेव भवति । एव सुनेविजानत श्रात्मा भवति गौतम ! ॥
क्षुख्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
-३११४
४१. योनिमन्ये प्रपद्यन्ते, शरीरत्वाय देहिनः । स्यानुमन्येऽनुमयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥
3
सुमित त्रिवेणी
-कट० २१०३
-२।२४
-३१८
-४/१
४|१०
-४|११
- ४११५
- ५/७
Browsing
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सौ एक ३३. आत्मा लम्बे चौडे प्रवचनो से नहीं मिलता, तर्क-वितकं की बुद्धि से भी
नही मिलता और बहुत अधिक पढने सुनने से भी नहीं मिलता । जिसको यह मात्मा वरण कर लेता है वही इसे प्राप्त कर सकता है। उसके समक्ष मात्मा अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है ।
३४ जो व्यक्ति दुराचार से विरत नहीं है, अशान्त है, तर्क-वितर्क मे उलझा
हुआ है, चचलचित्त है, उसे प्रात्मस्वरूप की उपलब्धि नही हो सकती ।
आत्मा को तो प्रज्ञान के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ३५. विवेकबुद्धि एव सयत मन वाला पवित्रहृदय पुरुष उस परमात्म
स्वरूप परमपद को पा लेता है, जहां से लौटकर फिर जन्म धारण नही
करना होता। ३६ उठो, जागो, श्रेष्ठ पुरुपो के सम्पर्क मे रहकर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो।
क्योकि बुद्धिमान पुरुष इस (आत्मज्ञानसम्बन्धी) मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण
धार के समान दुर्गम कहते है। - ३७. स्वयमू ने सब इन्द्रियो के द्वार बाहर को गोर निर्मित किए है, इसलिए
इन्द्रियो से वाह्य वस्तुएं ही देखी जा सकती है, अन्तरात्मा नही ! अमृतत्व को चाहने वाला कोई विरला ही घोर पुरुष ऐसा होता है, जो वाह्य विषयो से आंखें मूद लेता है और अन्तमुख हो कर अन्तरात्मा
के दर्शन करता है। ३८. जो व्यक्ति नानात्वका अर्थात् जीवन मे अनेकता का ही दर्शन करता है,
एकत्वका नही, वह निरन्तर मृत्यु से मृत्यु की ओर बढता रहता है। ३९. यहां (विश्व में एव जनजीवन मे) नानात्व अर्थात् अनेकता-जैसा कुछ
नहीं है। ४०. हे गौतम ! जैसे वृष्टि का शुद्ध जल अन्य शुद्ध जल मे मिलकर उस-जैसा
ही हो जाता है, वैसे ही परमात्मतत्व को जानने वाले ज्ञानीजनो का
आत्मा भी परमात्मा मे मिलकर तद्रूप अर्थात् परमात्मरूप हो जाता है। ४१. जिसका जैसा कम होता है और जिसका जैसा ज्ञान होता है उसी के
अनुसार प्राणी, जगम एव स्थावररूप विभिन्न योनियो मे जाकर, शरीर धारण कर लेता है।
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दो सौ दो
४२ तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधाररणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो ॥
४३. यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥
४४. तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्य, येषु सत्यं
प्रतिष्ठितम् ॥
४५. तेषामसौ
ब्रह्मलोको,
विरजो न येषु जिह्यमनृत न माया चेति ।।
४६ समूलो वा एष परिशुष्यति यो ऽ नृतमभिवदति ।
४७ तपसा चीयते ब्रह्म ।
४८. तमेवैक जानथ श्रात्मानमन्या वाचो विमुचय, अमृतस्यैष सेतु ।
४६. भिद्यते
हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्मारिण, तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥
५०. विद्वान् भवते नातिवादी ।
- प्रश्न उपनिषद् * १११५
सूक्ति त्रिवेणी
-कठ० ६।११
* अक क्रमशः प्रश्न एव कण्डिका के सूचक हैं ।
१. अंक क्रमशः मुण्डक, खण्ड एवं श्लोक के सूचक है ।
-६।१४
-मुण्डक उपनिषद् १११११८
- १११६
- ६११
-२२२१५
- 15
-३१११४
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सो तीन
४२. इन्द्रियो को स्थिरता को ही योग माना गया है । जिसको इन्द्रिया स्थिर हो
जाती हैं, वह अप्रमत्त हो जाता है । योग का अभिप्राय है ~प्रभव तथा
मप्यय अर्थात् शुद्ध संस्कारो की उत्पत्ति एवं अशुद्ध संस्कारो का नाश । ४३. जब मनुष्य के हृदय की समस्त कामनाएं छूट जाती हैं, तब मरणधर्मा
मनुप्य यमृत (अमर) हो जाता है और यही-इस जन्म मे ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता।
४४. ब्रह्मलोक उनका है, जो तप, ब्रह्मचर्य तथा सत्य में निष्ठा रखते हैं ।
४५. शुद्ध, निर्मल ब्रह्मलोक उन्ही को प्राप्त होता है, जिन मे कुटिलता नही,
अनृत (असत्य) नही, माया नही ।
४६ जो व्यक्ति असत्य बोलता है, वह समूल अर्थात् सर्वतोभावेन जडसहित
सूख जाता है, नष्ट हो जाता है।
४७. तप के द्वारा ही ब्रह्म (परमात्मभाव) प्रवृद्ध होता है, विराट् होता है।
४८. एकमात्र आत्मा को-अपने आप को पहचानो, अन्य सब बातें करना
छोड दो । ससार-सागर से पार होकर अमृतत्व तक पहुंचने का यही एक
सेतु (पुल) है। ४६. हृदय की सब गाठे स्वय खुल जाती हैं, मन के सब सशय कट जाते हैं,
और साथ ही शुभ अशुभ कर्म भी क्षीण हो जाते हैं, जब उस परम
चैतन्य का पर और अवर (मोर छोर, पूर्णस्वरूप) देख लिया जाता है । ५०. विद्वान् (तत्त्वज्ञ) अतिवादी नही होता, अर्थात् वह सक्षेप मे मुद्दे की
बात करता है, बहुत अधिक नही बोलता।
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दो सौ चार
सूक्ति त्रिवेणी
५१. आत्मक्रीड आत्मरति. क्रियावान,
एष ब्रह्मविदा वरिष्ठ ।
---मु० उ० ३१४
_५२. सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष प्रात्मा,
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ॥ अन्त. शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो, य पश्यति यतयः क्षीणदोषाः।
-३१११५
__ ५३ सत्यमेव जयते नाऽनृत,
सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
-३३१४६
५४. दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च,
पश्यत्स्विहैव निहित गुहायाम् ।
.-३३१७
५५ नाऽयमात्मा बलहीनेन लभ्य ,
न च प्रमादात् तपसो वा ऽ प्यलिङ्गात् ।
-३।२।४
५६. यथा नद्य स्यन्दमानाः समुद्र,
ऽस्त' गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः,
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
-३।२।
५७ ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधया पिहितः।
-तैत्तिरीय उपनिषद् *१।४।१ ५८. अन्नेन वाव सर्वे प्राणा महीयन्ते ।
-११३
*सक क्रमश. वल्ली, अनुवाक एव कण्डिका के सूचक हैं ।
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दो सौ पाच
उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
५१ जो साधक श्रात्मा मे ही क्रीड़ा करता है, आत्मा मे ही रति ( रमण ) करता है, फिर भी सामाजिक जीवन मे क्रियाशील रहता है, वही ब्रह्मवेत्ताओ मे वरिष्ठ (श्र ेष्ठ) माना जाता है ।
५२. यह मात्मा नित्य एव निरन्तर के सत्य से, तप से, सम्यग्ज्ञान से तथा ब्रह्मचयं से ही प्राप्त किया जा सकता है । शरीर के भीतर ही वह आत्मतत्व शुभ्र ज्योतिर्मय रूप मे विद्यमान है । यति ( साधक ) लोग रागद्व ेषादि दोषो का क्षय करके ही उसको देख पाते है ।
५३. सत्य की ही विजय होती है, अनृत की नही । 'देवयान पन्था' —— देवत्व की तरफ जाने वाला मार्ग सत्य से ही वना है ।
५४ वह परम चैतन्यतत्त्व दूर से दूर है, परन्तु देखने वालो के लिए निकट से निकट इसी अन्तर की गुफा में विद्यमान है ।
५५. आत्मा को साधना के बल से हीन तथा प्रमादग्रस्त व्यक्ति प्राप्त नही कर सकते हैं, श्रौर न 'अलिङ्ग - तप' - अर्थात् प्रयोजनहीन तप करने वाला ही इसे प्राप्त कर सकता है ।
५६. प्रवहमान नदियाँ जैसे अपने पृथक्-पृथक् नाम और रूपो को छोड़कर समुद्र मे लीन हो जाती हैं- समुद्रस्वरूप हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानीजन अपने पृथक् नाम-रूप से छूटकर परात्पर दिव्य पुरुष (ब्रह्म) में लीन हो जाते हैं ।
५७. तू ज्ञान का कोश है—- खजाना है, चारो ओर मेघा ( बुद्धि ) से घिरा हुआ है।
५८. अन्न से ही सब प्राणो की महिमा बनी रहती है ।
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दो सौ छः
सूक्ति त्रिवेणी
५६. सत्यं वद, धर्म चर, स्वाध्यायान्मा प्रमद ।'
-तै० उ० १११११
६० सत्यान्न प्रमदितव्यम्, धर्मान्न प्रमदितव्यम्,
कुशलान्न प्रमदितव्यम्, भूत्यै न प्रमदितव्यम्, स्वाध्याय-प्रवचनाभ्या न प्रमदितव्यम् ।
-१११११
६१. मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, प्राचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव ।
-१।११।२ ६२ यान्यनवद्यानि कर्मारिण, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि ।
-११११०२
६३. श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया देयम्, श्रिया देयम्,
ह्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम् ।
-१।११।३
६४. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।
--*२।२
६५. यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह ।
श्रानन्दं ब्रह्मणो विद्वान्, न विभेति कदाचन ॥
--२२
६६. रसो वै स । रस ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति ।
-२२७
* अक क्रमशः वल्ली एव अनुवाक के सूचक है। १. ५९ से ६३ तक का उपदेश, प्राचीनकाल में आचार्य के द्वारा,
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सौ सात ५६ सदैव सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना, कभी भी स्वाध्याय मे
प्रमाद (मालस्य) मत करना । ६०. सत्य को न छोडना, धर्म से न हटना, श्रेष्ठ कर्मों से न डिगना, राष्ट्र एव
समाज की विभूति (साधन, सपत्ति) बढाने में आलस्य न करना, स्वाध्याय (स्वय अध्ययन) और प्रवचन (अधीत का दूसरो को उपदेश) मे प्रमाद मत करना।
६१. माता को देवता समझना, पिता को देवता समझना, भाचार्य को देवता
समझना, और द्वार पर आए अतिथि को भी देवता समझना। अर्थात्
माता-पिता आदि के साथ देवताओ जैसा आदर-भाव रखना । ६२. जो अनवद्य, अर्थात् मच्छे कर्म हैं, उन्ही का आचरण करना, दूसरो का
नही । हमारे भी जो सुचरित (सत्कम) हैं, उन्ही की तुम उपासना करना,
दूसरो की नही। ६३. श्रद्धा से दान देना, अश्रद्धा से भी देना, अपनी बढ़ती हुई (धनसम्पत्ति)
मे से देना, श्री-वृद्धि न हो तो भी लोकलाज से देना, भय (समाज तथा
अयपश के डर) से देना, और सविद् (प्रेम अथवा विवेक बुद्धि) से देना । ६४. ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनन्त है।
६५. वाणी जहाँ से लौट आती है, मन जिसे प्राप्त नही कर सकता, उस
आनन्दरूप ब्रह्म को जो जान लेता है, वह कभी किसी से भयभीत
नही होता। ६६. वह परब्रह्म रसरूप है। तभी तो यह बात है कि मनुष्य जहाँ कही भी
रस पाता है, तो सहज मानन्दमग्न हो जाता है ।
विद्याध्ययन करने के अनन्तर घर लौटनेवाले शिष्य को, दीक्षान्त भाषण के रूप में दिया जाता था।
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दो सौ माठ
सूक्ति त्रिवेणी
६७. यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते, अथ तस्य भयं भवति ।
-तै० उ० २।७ ६८. आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । आनन्दाद्ध्येव खलु
इमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्द प्रयन्ति, अभिसविशन्तीति ।
६६. अन्नं न निन्द्यात् ।
३७ ७०. अन्न बहु कुर्वीत, तद् व्रतम् ।
-३९ ७१. न कचन वसतौ प्रत्याचक्षीत, तद् व्रतम् ।
तस्माद्, यया कया च विधया बह्वन्न प्राप्नुयात्, अराध्यस्मा अन्नमित्याचक्षते ।
-३३१० ७२. पुरुषो वाव सुकृतम् ।
---ऐतरेय उपनिषद् *१।२।३ ७३ यद्ध न्नद् वाचाऽग्रहैष्यद्, अभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ।
-०३।३
७४. यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा, तदेव वीर्यवत्तर भवति ।
-छान्दोग्य उपनिषद् १११।१० ७५. क्रतुमयः पुरुषो, यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुपो भवति तथेत प्रेत्य भवति ।
-३११४।१
* अड़ क्रमशः अध्याय, खण्ड एवं कण्डिका के सूचक हैं। १. अंक क्रमशः प्रपाठक, खण्ड एव कण्डिका के सूचक है।
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तियां
दो सौ नौ
६७
जब यह जीव अपने मे तथा ब्रह्म मे जरा भी अन्तर ( भेदबुद्धि) रखता है, बस, तभी उसके लिए भय मा खडा होता है ।
६८. उसने जाना कि आनन्द ब्रह्म है | आनन्द से ही सब भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने के बाद आनन्द से ही जीवित रहते हैं, और अन्ततः आनन्द में ही विलीन होते हैं ।
६६. अन्न की निन्दा मत करो ।
७०
७१
७२
अन्न अधिकाधिक उपजाना - बढाना चाहिए, यह एक व्रत ( राष्ट्रीय प्रण ) है |
घर पर आए अतिथि को कभी निराश नही करना चाहिए - यह एक व्रत है । उसके लिए जैसे भी हो, यथेष्ट विपुल अन्न जुटाना ही चाहिए । जो भोजन तैयार किया जाता है, वह अतिथि के लिए ही किया जाता है - ऐसा प्राचीन महर्षियो ने कहा है ।
नि सन्देह मनुष्य ही विधाता की सुन्दर कृति है ।
७३
( अन्न के लिए पुरुषार्थं करना होता है, अन्न कोरी बातो से नही प्राप्त किया जा सकता ।) यदि अन्न केवल वाणी से पकड मे आने वाला होता तो वाणी द्वारा 'अन्न' कह देने मात्र से सब लोग तृप्त हो जाते, सब की भूख शान्त हो जाती ।
७४. जो काम विद्या से श्रद्धा से और उपनिषद् (तात्विक अनुमूर्ति ) से किया जाता है, वह वीर्यशाली अर्थात् सुदृढ होता है ।
७५ पुरुष क्रतुमय है, वर्ममय है । यहा इस लोक मे जैसा भी कर्म किया जाता है, वैसा ही कर्म यहाँ से चलकर आगे परलोक मे होता है । अर्थात् मनुष्य जैसा अच्छा या बुरा कर्म यहां करता है, वैसा ही उसका वहाँ परलोक बनता है ।
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दो मी दस
सूक्ति त्रिवेणी
७६. स यदशिशिपति यत्पिपासति यन्न रमते, ता श्रस्य दीक्षा |
-छां० उ० ३।१७।१ ७७. यत् तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता ग्रस्य दक्षिणा. ।
- ३११७१४
७८ श्राचार्या व विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापयति ।
-४/६/३
७६ एष उ एव वामनी, एप हि सर्वाणि वामानि श्रभिसयन्ति ।
-४११५८३
८०. एप उ एव भामनी, एष हि सर्वेषु लोकेषु भाति ।
—४।१५।४
८१. एपा ब्रह्माणमनुगाथा - यतो यत श्रावर्तत तत् तद् गच्छति ।
- ४११७१६
८२. यो ह वै ज्येष्ठ च श्रेष्ठ च वेद, ज्येष्ठश्च ह वै श्र ेष्ठश्च भवति ।
-५११११
८३ श्रोत्र वाव सम्पत् ।
-५१११४
८४ य इह रमणीयचरणा अभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् । य इह कपूयचरणा अभ्यास ह यत्ते कपूया योनिमापद्येरन् ।
-५११०१७
८५. जीवापेतं वाव किलेद म्रियते, न जीवो म्रियते ।
८६ तरति शोकमात्मविदू ।
८७. यद् वै वाड् नाऽ भविष्यन्न धर्मो नाघर्मो व्यज्ञापयिष्यन्, न सत्य नानृत, न साधु नासाधु ।
- ६।११।३
- ७११1३
- ७२1१
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सौ ग्यारह
७६ जो व्यक्ति खाता है, पीता है, परन्तु इनमे रम नही जाता, उसका जीवन
'दीक्षा' का जीवन है । ७७. जो व्यक्ति तप, दान, ऋजुता, अहिंसा और सत्यवचन में जीवन व्यतीत
करता है, उसका जीवन 'दक्षिणा' का जीवन है। ७८. आचार्य से सीखी हुई विद्या ही सबसे उत्तम एवं फलप्रद होती है।
___७६ यह आत्मा 'वामनो' है, क्योकि सृष्टि के सभी सौन्दर्यों का यह आत्मा
नेता है, अग्रणी है। ____८०. यह आत्मा 'भामनी' है, क्योकि यह आत्मा हो समग्र लोको मे अपनी
आभा से प्रकाशमान होरहा है । ८१. ब्रह्मा (नेता) के लिए यह गाथा प्रसिद्ध है कि जहां से भी हताश-निराश
होकर कोई व्यक्ति वापस लौटने लगता है, अर्थात् लक्ष्यभ्रष्ट होता है,
वहां वह अवश्य ही सहायता के लिए पहुँच जाता है । ८२. जो ज्येष्ठ (महान्) तथा श्रेष्ठ (उत्तम) की उपासना करता है, वह स्वय
भी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हो जाता है । ८३ श्रोत्र सबसे बडी सम्पत्ति है, क्योकि संसार मे सुनने वाला ही समय
पर कुछ कर सकता है । ८४ अच्छे आचरण वाले अच्छी योनि मे जाते हैं । और बुरे आचरण वाले
दुरी योनि में जाते हैं।
८५ जीव से रहित शरीर ही मरता है, जीव नही मरता ।
८६. जो आत्मा को-अपने आप को जान जाता है, वह दु खसागर को तैर
जाता है। ८७ यदि वाणी न होती तो न धर्म-अधर्म का ज्ञान होता, न सत्य-असत्य का
ज्ञान होता, और न भले-बुरे की ही कुछ पहचान होती।
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सूक्ति त्रिवेणी
-छां० उ० ७१४२
दो सौ बारह ८८ कर्मणां सक्लुप्त्यै लोक संकल्पते,
लोकस्य संक्लप्त्य सर्व संकल्पते। ८६ बल वाव विज्ञानाद् भूयो ऽपि ह शत
विज्ञानवतामेको बलवानाकम्पयते। स यदा बली भवति अथोत्थाता भवति ।
-७.८१
६० बलेन लोकस्तिष्ठति, बलमुपास्व ।
-७८।१
६१ स्मरो वाव आकाशाद् भूयः ।
-७।१३।१
६२ ना ऽविजानन् सत्य वदति,
विजानन व सत्य वदति ।
-७।१७।१
६३ ना ऽमत्वा विजानाति, मत्वैव विजानाति ।
-७।१८।१
६४. नाश्रद्दधन्मनुते ।
-७११६३१
६५ यदा वै करोति अथ निस्तिष्ठति,
ना ऽकृत्वा निस्तिष्ठति ।
-७२१११
९६ यो वै भूमा तत्सुख, ना ऽल्पे सुखमस्ति ।
-७।२३।१
६७ यो वै भूमा तदमृतम्, अथ यदल्प तन्मय॑म् ।
-७।२४।१
६८ न पश्यो मृत्यु पश्यति, न रोगं, नोत दुखताम् ।
-७१२६२
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तियां
दो सौ तेरह ८८ कम के सकल्प से लोक, और लोक के सकल्प से सब कुछ चल रहा है।
८६ बल विज्ञान से बडा है । एक बलवान् सो विज्ञानवानो अर्थात् विद्वानो
को कपा देता है । विज्ञानवान् जब बलवान होता है, तभी कुछ करने को उठता है, तैयार होता है।
६० बल से ही समग्र लोक की स्थिति है, अत बल की उपासना करो
६१. स्मृति आकाश से वडो है । (यही कारण है कि आकाश में तो शब्द
आता है और चला जाता है, किन्तु स्मृति मे तो शब्द स्थिर होकर बैठ
जाता है।) ६२. जिसे ज्ञान नहीं होता, वह सत्य नहीं बोल सकता । जिसे ज्ञान होता है,
वही सत्य बोलता है।
६३ जो मनन नहीं करता, वह कुछ भी समझ नहीं पाता । मनन करने से गूढ
से गूढ रहस्य भी समझ मे आ जाता है। ६४. विना श्रद्धा के मनन नही होता।
६५ निष्ठा उसो को प्राप्त होती है, जो कर्मण्य होता है । विना कर्मण्यता के
निष्ठा नहीं होती।
६६. जो 'भूमा' -असीम है, महान् है, वही सुख है । और जो 'अल्प'-ससीम
है, क्षुद्र है, उममे सुख नही है । ६७ जो भूमा है, वह अमृत है, अविनाशी है । और जो अल्प है, वह मत्यं है,
अर्थात् मरणधर्मा है. विनाशी है । जो आत्मा के भूमा-विराट रूप को देख लेता है, वह फिर कभी मृत्यु को नही देखता, रोग को नही देवता, और न अन्य किसी दु ख को देखता है, - अर्थात् आत्भद्रष्टा मृत्यु, रोग एव दुःख से मुक्त हो जाता है ।
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दो सौ चौदह
६६. सर्व ह पश्यः पश्यति, सर्वमाप्नोति सर्वशः ।
,
१००. आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्ध ध्रुवा स्मृति., सर्वग्रन्थीना
स्मृतिलम्भे
विप्रमोक्षः ।
- छा० उ० ७/२६ २
१०१. ब्रह्मपुरे सर्व समाहितम् ।
१०२. नास्य जरया एतज्जीर्यति, न वधेनास्य हन्यते ।
१०३ श्रथ यदि सखिलोककामो भवति, सकल्पादेवास्य सखाय समुत्तिष्ठन्ति ।
१०४. सत्या कामा श्रनृतापिधाना ।
१०५ ब्रह्मलोक न विन्दन्त्यनृतेन हि प्रत्यूढा. 1
१०६ यन्मोनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तद् ।
१०७ श्रात्मानमेवेह महयन्नात्मान परिचरन्न भो लोकाववाप्नोतीम चामु च ।
सूक्ति त्रिवेणी
१०= प्रददानमश्रद्दधानमयजमानमाहुरासुरो वत ।
-७।२६।२
८|११४
-८११५
-८१२१५
-८|३|१
-दा३श२
-८५१२
-5|5|४
-51518
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दो सौ पन्द्रह
उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
६६. आत्मा के भूमा स्वरूप का साक्षात्कार करने वाला सब कुछ देख लेता है, सब तरह से सब कुछ पा लेता है । अर्थात् आत्म-द्रष्टा के लिए कुछ भी प्राप्त करने जैसा शेष नही रहता ।
१०० महार शुद्ध होने पर सत्त्व (अन्तःकरण ) शुद्ध हो जाता है, सत्त्व शुद्ध होने पर ध्रुव स्मृति हो जाती है - अपने ध्रुव एव नित्य आत्म-स्वरूप का स्मरण हो थाता है, अपने ध्रुव स्वरूप का स्मरण हो आने पर अन्दर की सब गाँठें खुल जाती है - अर्थात् आत्मा बन्धनमुक्त हो जाता है ।
१०१. शरीररूपी ब्रह्मपुरी मे सब कुछ समाया हुआ है ।
१०२. शरीर के जराजीर्ण होने पर वह (चैतन्य) जीणं नही होता, शरीर के नाश होने पर उसका नाश नही होता ।
१०३
जब भी मानव आत्मा को सच्चे मन से मित्रलोक की कामना होती है, तो सकल्पमात्र से उसे सर्वत्र मित्र ही मित्र दिखाई देते हैं ।
१०४. मानव हृदय मे सत्य-कामनाएं मौजूद रहती हैं, परन्तु विषयो के प्रति होनेवाली मिथ्या तृष्णा का उन पर आवरण चढ़ा रहता है ।
१०५. तृष्णा के अनृत आवरण से आच्छादित रहने के कारण ही साधारण जन ब्रह्म रूप अपने बात्म स्वरूप को नही पहिचान पाते ।
१०६. जिसे महर्षि मौन कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है - अर्थात् मौन वाणी का ब्रह्मचर्यं है ।
१०७
श्रात्मा की पूजा एव परिचर्या (सेवा) करने वाला मनुष्य दोनो लोको को सुन्दर बनाता है - इस लोक को भी और उस लोक को भी ।
१०८. जो दान नही देता, श्रेष्ठ आदर्शो के प्रति श्रद्धा नही रखता, यज्ञ ( लोकहितकारी सत्कर्म) नही करता, उसे असुर कहते हैं ।
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दो सौ सोलह
सूक्ति त्रिवेणी १०६ न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः ।
-छां० उ० ८।१२।१ ११० मनोऽस्य दैवं चक्षुः ।
-~-८१२१५ १११. अशनाया हि मृत्युः ।।
-वृहदारण्यक उपनिषद् *१।२।१ ११२ श्रान्तस्य तप्तस्य यशो वीर्यमुदक्रामत् ।
-~-१२।६
११३ स नैव रेमे, तस्माद् एकाकी न रमते, स द्वितीयमैच्छत् ।
-११४३
११४ स्त्री-पुमासी संपरिष्वक्ती, स इममेवात्मान द्वधा ऽपातयत्, ततः पतिश्च पत्नीचाभवताम् ।
-११४॥३ ११५. य आत्मानमेव प्रियमुपास्ते, न हाऽस्य प्रिय प्रमायुक भवति ।
-१४॥ ११६. य एवं वेदा ‘ह ब्रह्मास्मीति स इद सर्वं भवति, तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते ।
-१४।१० ११७. योऽन्या देवतामुपास्ते ऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद, __ यथा पशुरेव स देवानाम् ।
-१।४।१०
* अक कम से अध्याय, ब्राह्मण एव कण्डिका की सख्या के सूचक है।
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उपनिषद् साहित्य की मूक्तियो
दो सौ सत्रह
१०६ जब तक साधक को शरीर के साथ एकत्ववुद्धि बनी रहेगी, सुख दु.ख
से नही छूट सकेगा। अपने शरीररूप मे, देहातीत आत्मभाव मे
आने पर साधक को सुख दुःख छू भी नहीं सकते । ११०. मन आत्मा का देव चक्षु है, दिव्य नेत्र है । (मन के द्वारा ही आत्मा
आगे-पीछे, मूत-भविष्यत् सब देखता है ।) १११. वस्तुतः अशनाया (मूख) ही मृत्यु है।
११२. यथोचित श्रम तथा तप करने पर हो यश एव बल का उदय होता
११३ सृपि के प्रारम्भ मे वह (ईश्वर, ब्रह्म) अकेला था, इसलिए उसका जी
नही लगा, अत. उसने दूसरे की इच्छा को । अर्थात् व्यक्ति समाज
की रचना के लिए प्रस्तुत हुआ। ११४. स्त्री और पुरुष दोनो मूल मे सपृक्त हैं, एकमेक हैं। ईश्वर ने अपने
आपको दो खण्डो (टुकडो) मे विभाजित किया। वे ही दो खण्ड परस्पर
पति और पत्नी होगए। ११५ जो अपने आत्मा की ही प्रिय रूप मे उपासना करता है, उसके लिए
कोई भी नश्वर वस्तु प्रिय नहीं होती।
११६ जो यह जानता है कि 'मैं ब्रह्म हूँ'--'मैं क्षुद्र नही, महान् हूँ-वह सब
कुछ हो जाता है, देवता भी उसके ऐश्वर्य को रोक नही पाते ।
११७. जो अपने से अन्य भिन्न देवता की उपासना करता है, अर्थात्-वह अन्य
है, मै अन्य हूँ, इस प्रकार क्षुद्र भेद दृष्टि रखता है, वह नासमझ है, वह मानो देवो के सामने पशुसदृश है।
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दो सी अठारह
११८ क्षत्त्रार नास्ति, तस्माद् ब्राह्मण क्षत्त्रियमधस्ताद्. उपास्ते राजसूये, क्षत्त्र एव तद्यशो दधाति ।
११६ यो वै स धर्म, सत्यं वै तत् ।
सूक्ति त्रिवेणी
- बृ० उ० १|४|११
१२० य श्रात्मानमेव लोकमुपास्ते न हा ऽस्य कर्म क्षीयते ।
3
,
१२४. आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवरणेन, मत्या, विज्ञानेन इद सर्वं विदितम् ।
१२५. सर्वेषा वेदानां वागेकायनम् ।
१२६. इयं पृथिवो सर्वेषा भूतानां मधु ।
१२७. यो ऽयमात्मा इदममृतम्, इद ब्रह्म, इद सर्वम् ।
१२८. श्रयं धर्मः सर्वेषा भूतानां मधु ।
- १|४|१४
- ११४/१५
१२१ न ह वै देवान् पापं गच्छति ।
१२२. अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्त ेन ।
-२२४१३
१२३. आत्मा वा श्ररे द्रष्टव्य, श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।
- २१४१५
-
- ११५१२०
-२२४१५
--२|४|११
-२१५।१
-२२५६
- २५१११
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तियाँ
दो सौ उन्नीस
११८. क्षात्र धर्मं से बढ कर कुछ नही है, इसीलिए राजसूय यज्ञ मे ब्राह्मण क्षत्रिय से नीचे बैठता है, अपने यश को क्षात्र धर्म के प्रति समर्पित कर देता है ।
११६. जो धर्म है, वह सत्य ही तो है ।
१२०. जो आत्मलोक की उपासना करता है—अपने 'ब्रह्म' अर्थात् महान् रूप को समझ लेता है, उसके सत्कर्म (अच्छे काम करते रहने को शक्ति) कभी क्षीण नही होते ।
देवो को -दिव्य आत्माओ को पाप का स्पर्श नही होता ।
१२१
१२२
१२३
१२४
धन से अमरता की आशा न करो ।
आत्मा का ही दर्शन करना चाहिए, श्रात्मा के सम्बन्ध मे ही सुनना चाहिए, मनन- चिन्तन करना चाहिए, और आत्मा का ही निदिध्यासनध्यान करना चाहिए ।
१२७
एक मात्र आत्मा के ही दर्शन से, श्रवण से, मनन- चिन्तन से और विज्ञान से— सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया जाता है ।
१२५. सब वेदो (शास्त्री) का वाणी ही एक मात्र मार्ग है ।
१२६. यह पृथिवी सब प्राणियों का मधु है - अर्थात् मधु के समान प्रिय है ।
आत्मा ही अमृत है, आत्मा ही ब्रह्म है, आत्मा ही यह सब कुछ है ।
१२८, यह धर्म सब प्राणियो को मधु के समान प्रिय है ।
}
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दो सौ बीस
सूक्ति त्रिवेणी
१२६ इद मानुषं सर्वेषां भूतानां मधु ।
-० उ० २१५१३
१३०. पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पाप पापेन ।
--३।२।१३
१३१ ब्राह्मण. पाण्डित्य निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् ।
-३२५१
१३२. अदृष्टो द्रष्टा।
-३७।२३
१३३. श्रद्धायां ह्येव दक्षिणा प्रतिष्ठिता।
---३
२१
१३४. कस्मिन्न, दीक्षा प्रतिष्ठिता? सत्ये । कस्मिन्न, सत्य प्रतिष्ठितम् ? हृदये
~३।६।२३ आत्मा ऽगृह्यो, न हि गृह्यते; अशीर्यो न हि शीर्यते, असगो, न हि सज्यते, असितो न हि व्यथते, न रिष्यते।
--३९।२६
१३६. यघाकारी यथाचारो तथा भवति, साधुकारी साधर्भवति, पापकारी पापो भवति ।
-४॥४॥५ १३७ काममय एवाय पुरुष इति, स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति, यत्ततुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिसपद्यते ।
__-४।४।५ १३८. विरज. पर आकाशादज प्रात्मा महान् ध्र व ।
-४।४।२० १३६. तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायाद् बहून्छन्दान् वाचो विग्लापनं हि तद् ।।
-४।४।२१
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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
दो सौ इक्कीस १२६. यह मानुप भाव-मानवता अर्थात् इन्सानियत-सब प्राणियो को मधु
के समान प्रिय है। १३० पुण्य कर्म से जीव पुण्यात्मा (पवित्र) होता है, और पाप कर्म से पापात्मा
(पतित-मलिन) होता है। १३१. ब्रह्मज्ञानी पाण्डित्य को-विद्वत्ता के दपं को छोड़ कर बालक-जैसा
सरल बन जाता है। १३२ आत्मा स्वयं अदृष्ट रह कर भी द्रष्टा है, देखने वाला है ।
१३३ श्रद्धा में ही दान-दक्षिणा की प्रतिष्ठा है, शोभा है।
१३४. दीक्षा किस में प्रतिष्ठित है ? सत्य मे ।
सत्य किस मे प्रतिष्ठिन है ? हृदय मे ।
१३५. आत्मा अग्राह्य है, अत वह पकड़ मे नही आता; मात्मा अशीयं है,
अत. वह क्षीण नहीं होता , आत्मा असंग है, अतः वह किसी से लिप्त नही होता; मात्मा असित है-वन्धनरहित है, अत: वह व्यथित नहीं
होता, नष्ट नहीं होता। १३६ जो जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है, वह वैसा ही हो
जाता है-साघु कर्म करनेवाला साधु होता है, और पापकर्म करने
वाला पापी। १३७. यह पुरुष काममय है, सकल्परूप है । जैसा सकल्प होता है, वैसा ही ऋतु
अर्थात् प्रयत्न होता है, जैसा ऋतु होता है वैसा ही कम होता है,
और जैसा कर्म होता है वैसा ही उसका फल होता है। १३८ यह अजन्मा प्रात्मा महान् ध्रुव है, मलरहित आकाश से भी बढ कर
महान् निमल है। १३६. धीर ब्राह्मण को उचित है कि वह आत्मतत्व का बोध करके अपने को
प्रज्ञायुक्त करे, लम्बे-चौडे शब्द जाल मे न उलझे, क्योकि आत्म बोध के अतिरिक्त सब कुछ वाणी का थकाना मात्र है, और कुछ नही ।
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दो सौ बाईस
सूक्ति त्रिवेणी
१४० अभयं वै ब्रह्म ।
-वृ० उ० ४।४।२५ १४१. तदेतद् एवैषा देवी वाग् अनुवदति स्तनयित्नुर्
'द द द' इति, दाम्यत दत्त दयध्वमिति, ' तदेतत् त्रयं शिक्षेद् दम दानं दयामिति ।' -
-- - -५२॥३
१४२. एतद् वै परमं तपो यद् व्याहितस्तप्यते, परमं हैव लोक जयति य एव वेद ।
-५३११११, १४३. सत्यं बले प्रतिष्ठितम् ।
-५१४॥४ १४४. प्रातरादित्यमुपतिष्ठते-दिशामेकपुण्डरीकमसि, अह मनुष्याणामेकपुण्डरीक भूयासम् ।
-६।३१६ १४५. श्रीह वा एषा स्त्रीणां यन्मलोद्वासाः।
-६।४६ १४६ त वा एतमाहुः-अतिपिता बताभूः, अतिपितामहो बताभः ।
-६।४।२८
.
१४७. दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं,
विद्वान् मनो धारयेता ऽप्रमत्तः।
-श्वेताश्वतर उपनिषद् *२१६
* अक क्रमश अध्याय तथा श्लोक की संख्या के सूचक हैं । १. प्रजापति ने शिक्षा के लिए आए देव, मनुष्य और असुरो को क्रमशः
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सो तेईस १४०. अभय ही ब्रह्म है-~-अर्थात् अभय हो जाना ही ब्रह्मपद पाना है ।
१४१. प्रजापति के उपदेश को ही मेघ के गर्जन मे 'द द द का उच्चारण
कर के मानो देवी वाणी आज भी दुहराती है कि 'दाम्यत'-इन्द्रियो का दमन करो, 'दत्त'-ससार की वस्तुओ का सग्रह न करते हुए दान दो, 'दयध्वम्'-प्राणि मात्र पर दया करो । संसार की सम्पूर्ण शिक्षा इन तीन मे समा जाती है, इसलिए तीन की ही शिक्षा दो-दम, दान और दया।
१४२.
व्याधिग्रस्त होने पर घबराने के स्थान मे यह समझना चाहिए कि यह व्याधि भी एक तप हैं-परम तप है । जो इस रहस्य को समझता है वह परम लोक को जीत लेता है।
१४३. सत्य बल मे प्रतिष्ठित है-अर्थात् सत्य मे ही बल होता है, असत्य मे
बल नही होता । १४४. प्रातःकाल उठ कर आदित्य को सम्बोधन करते हुए अपने सम्बन्ध में
भावना करो कि-हे सूर्य ! तू दिशाओ मे अकेला कमल के समान खिल
रहा है, मैं भी मनुष्यो मे एक कमल की भांति खिल जाऊँ । १४५. स्त्री की श्री-अर्थात् शोभा इसी में है कि वह धुले हुए वस्त्र के समान
निमल एव पवित्र हो । १४६. पुत्र ऐसा होना चाहिए, जिस के सम्बन्ध मे लोग कहें कि यह तो अपने
पिता से भी आगे निकल गया, अपने पितामह से भी आगे निकल
गया।
१४७. दुष्ट घोड़ो वाले रथ के घोड़ो को जैसे वश में किया जाता है, वैसे ही
जागत साधक अप्रमत्त भाव से मन रूपी घोडे को वश में करे ।
'द दद' का उपदेश दिया, जिसका यथाक्रम अर्थ है-दम, दान और दया।
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दो सौ चौबीस
सूक्ति त्रिवेणी
१४८ लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्व,
. वर्णप्रसाद स्वरसोष्ठव च । गन्धः शुभो मूत्र-पुरीषमल्पं,
योगप्रवृत्ति प्रथमां वदन्ति ।।
-श्वे० उ० २०१३
१४६ नवद्वारे पुरे देही, हसो लेलायते बहिः ।
-३११८
१५० अपाणिपादो जवनो ग्रहीता,
पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
-३।१६
१५१ क्षरं त्वविद्या ह्यमृत तु विद्या ।
-५२१
१५२. वालाग्रशतभागस्य, शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीव स विज्ञेयः, स चानन्त्याय कल्पते ॥
-18
१५३. नैव स्त्री न पुमानेष, न चैवायं नपुंसक।
यद्यच्छरीमादत्त, तेन तेन स रक्ष्यते॥
-५१०
१५४. यदा चर्मवदाकाश वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ।।
-~६।२०
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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सो पच्चीस १४८. योग मे प्रवृत्ति करने का पहला फल यही होता है कि योगी का शरीर
हलका हो जाता है, नीरोग हो जाता है, विपयो को लालसा मिट जाती है, कान्ति बढ जाती है, स्वर मधुर हो जाता है. शरीर से सुगन्ध निकलने लगता है, और मल मूत्र अल्प हो जाता है ।
१४६. देहो- अर्थात् जिसने देह को ही सब कुछ मान रखा है, वह तो इस नो
द्वारो वाली नगरी (शरीर) में रहता है । और जो हस है, अर्थात् नीर क्षीरविवेकी हस की तरह जड चैतन्य का विवेक (भेदविज्ञान) पा गया
है, वह देह के बन्धन से बाहर प्रकाशमान होता है । १५० वह परम चैतन्य विना पांवो के भी बड़ी शीघ्रता से चलता है, बिना
हाथो के झट से पकड़ लेता है, विना आंखो के देखता है, और बिना
कानो के सुनता है। १५१. अविद्या क्षर है, खर जाने वाली है, और विद्या अमृत है- अक्षर है,
न खरने वाली है। १५२. यदि बाल (केश) के अगले हिस्से के सौ भाग (खण्ड) किये जाएं, उन
मो मे से भी फिर एक भाग के सौ भाग किये जाएं, तो उतना सूक्ष्म जीव को समझना चाहिए , परन्तु इतना सूक्ष्म होते हुए भी वह अनन्त
है, मनन्तशक्तिसपन्न है। १५३. जीवात्मा न स्त्री है, न पुरुष है, न न पु सक है । ये सब लिंग शरीर
के हैं, मत जिस जिस गरीर को यह आत्मा ग्रहण करता है, तदनुसार
उसी लिंग से युक्त हो जाता है । १५४. मनुष्य जब भी कभी चमं से प्राकाण को लपेट सकेंगे, तभी परमचैतन्य
आत्मदेव को जाने बिना भी दुख का अन्त हो सकेगा , अर्थात् चमडे से अनन्त आकाश का लपेटा जाना जैसे असम्भव है, वैसे ही आत्मा को जाने-पहचाने विना दुख से छुटकारा होना भी असंभव है।
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'वाल्मीकि रामायण की सूक्तियां
१. अलंकारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुषस्य वा ।
-बाल काण्ड *३३१७ २. क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमायां विष्ठितं जगत् ।
-३३१६ ३. ब्रह्मन् । ब्रह्मवल दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम् ।
--५४।१४ ४. सत्यं दान तपस्त्यागो, मित्रता गीचमार्जवम् । विद्या च गुरुशुश्र पा, ध्र वाण्येतानि राघवे ।।
-अयोध्या काण्ठ १२।३० ५. यदा यदा हि कौशल्या दासीव च सखीव च । भाविद् भगिनीवच्च, मातृवच्चोपतिप्ठति ।।
-१२०६६
१. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा संपादित, भारतमुद्रणालय औंघ (६० स० १६४१) मे मुद्रित ।
*क क्रमशः सर्ग और श्लोक के सूचक हैं ।
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वाल्मीकि रामायण को सूक्तियां
१. क्षमा ही स्त्रियो तथा पुरुषो का मूषण है ।
२. क्षमा ही यश है, क्षमा ही धर्म है, क्षमा से ही चराचर जगत् स्थित है।
३. हे ब्रह्मन् । क्षात्रवल से ब्रह्मवल अधिक दिव्य एव बलवान होता है।
४ (दशरथ कैकेयी से कहते हैं)-सत्य, दान, शीलता, तप, त्याग, मित्रता
पवित्रता, सरलता, नम्रता, विद्या और गुरुजनो की सेवा-ये सब गुण
राम में ध्र व रूप से विद्यमान हैं । ५. (रानी कौशल्या के सम्बन्ध में दशरथ की उक्ति) जब भी काम पडता है,
कौशल्पा दासी के समान, मित्र के समान, भार्या और बहन के समान, तथा माता के समान हर प्रकार की सेवा शुश्रूषा करने के लिए सदा उपस्थित रहती है।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ अट्ठाईस ६ सत्यमेकपद ब्रह्म, सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः ।
-१४/७
७. नह्यतो धर्मचरण, किञ्चिदस्ति महत्तरम् ।
यथा पितरि शुश्र षा, तस्य वा वचनक्रिया ।
-१६।२२
८. विक्लवो वीर्यहीनो य , स देवमनुवर्तते ।
वीरा. सभावितात्मानो, न देव पर्युपासते ।।
-२३११७
६ देवं पुरुषकारेण, य समर्थ प्रवाधितुम् ।
न देवेन विपन्नार्थः, पुरुष सो ऽवसीदति ॥
-२३३१८
१० भतुः शुभ षया नारी लभते स्वर्गमुत्तमम् ।
-२४।२७
११ न हि निम्बात् स्रवेत् क्षौद्रम् ।
-३५।१७
१२. राम दशरथं विद्धि, मां विद्धि जनकात्मजाम् ।
अयोध्यामटवी विद्धि गच्छ तात यथासुखम् ॥
-४018
१३ अविज्ञाय फल यो हि, कर्मत्वेवानुधावति ।
स शोचेत्फलवेलाया, यथा किंशुकसेवकः ।
-६३१६
१४ चित्तनाशाद् विपद्यन्ते, सर्वाण्येवेन्द्रियाणि हि ।
क्षीणस्नेहस्य दीपस्य, सरक्ता रश्मयो यथा ।।
-६४।७३
१५ नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित् ।
मत्स्या इव जना नित्यं, भक्षयन्ति परस्परम् ॥
-~-~६७।३१
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वाल्मीकि रामायण की मूक्तिया
दो सौ उनतीस
६ सत्य हो एकमात्र ब्रह्म है, सत्य हो मे घम प्रतिष्ठित है ।
७. (राम का कैकेयी से कथन)"पिता की सेवा और उनके वचनो का पालन
करना, इस से बढ कर पुत्र के लिए और कोई धर्माचरण नहीं है ।"
८. (लक्ष्मण का राम से कथन) जो कातर और निर्बल हैं, वे ही देव (भाग्य)
का आश्रय लेते हैं । वीर और आत्मनिष्ठ पुरुष देव की ओर कभी नही
देखते । है जो अपने पुरुषार्थ से देव को प्रवाधित (मजवूर) कर देने में समर्थ हैं, वे
मनुष्य दैवी विपत्तियो से कभी अवसन्न (खिन्न, दुखित) नहीं होते हैं ।
१०. पतिव्रता स्त्री एकमात्र पति को सेवा-शुश्रूपा से ही श्रेष्ठ स्वर्ग को प्राप्त
कर लेती है। ११. नोम से कभी मघु (शहद) नही टपक सकता है।
१२ (राम के साथ वन मे जाते समय लक्ष्मण को सुमित्रा की शिक्षा)
हे पुत्र । राम को दशरथ के तुल्य, सीता को मेरे (माता सुमित्रा) समान
और वन को अयोध्या की तरह समझ कर आनन्दपूर्वक वन मे जाओ । ___ जो व्यक्ति फल (परिणाम) का विचार किए बिना कर्म करने लग जाता
है, वह फल के समय मे ऐसे ही पछताता है जैसे कि सुन्दर लाल-लाल फूलो को देख कर सुन्दर फलो की आकाक्षा से ढाक की सेवा करने वाला मूढ मनुष्य । चित्त के विमूढ हो जाने पर इन्द्रियाँ भी अपने कार्यों मे भ्रान्त हो जाती हैं, अर्थात् चित्त के नष्ट होने पर इन्द्रियां भी वैसे ही नष्ट हो जाती हैं
जैसे कि स्नेह (तेल) के क्षीण होने पर दीपक की प्रकाशकिरणें । १५. राजा के अर्थात् योग्य शासक के न होने पर राष्ट्र मे कोई किसी का
अपना नही होता । सब लोग हमेशा एक दूसरे को खाने में लगे रहते हैं, जैसे कि मछलिया परस्पर एक दूसरे को निगलती रहती हैं।
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दो सौ तीस
सूक्ति त्रिवेणी
१६ सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छया.।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्त हि जीवितम् ।।
-१०६.१६
१७. अत्येति रजनी या तु, सा न प्रतिनिवर्तते ।
--१०६१६
१८. सहैव मृत्यु जति, सह मृत्युनिषीदति ।
-१०६।२२
१६. एको हि जायते जन्तुरेक एव विनश्यति ।
-१०६।३
२०. मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः ।
-११०१३
२१. कुलीनमकुलीनं वा, वीर पुरुषमानिनम् ।
चारित्रमेव व्याख्याति, शुचिं वा यदि वाऽशुचिम् ।।
-११०१४
२२. सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्म सदाश्रितः ।
सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नास्ति परं पदम् ।।
-११०११३
२३. कर्मभूमिमिमा प्राप्य, कर्तव्यं कर्म यच्छुभम् ।
-११०।२८
२४ धर्मादर्थ. प्रभवति, धर्मात् प्रभवते सुखम् । धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिद जगत् ॥
-अरण्य काण्ड ६।३० २५. उद्वजनीयो भूताना, नशसः पापकर्मकृत् । त्रयाणामपि लोकांनामीश्वरोऽपि न तिष्ठति ॥
-२६३
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वाल्मीकि रामायण की सूक्तिया
दो सौ इकत्तीस
१६. हा
जितने भी मचय (संग्रह) हैं, वे सब एक दिन क्षय हो जाते है, उत्णन पतन में बदल जाते हैं । इसी प्रकार संयोग का अन्त वियोग मे और जीवन का अन्त मरण में होता है ।
१७. जो रात गुजर जाती है, वह फिर कभी लौट कर नहीं आती।
१८. मृत्यु मनुष्य के साथ ही चलतो है, साय ही बैठती है, अर्थात् वह हर
क्षण साथ लगी रहती है, पता नहीं, कब दबोच ले ।
१६. प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, और अन्त मे अकेला ही मर जाता है,
अर्थात् कोई किसी का साथी नही है ।
२० जो पुरुष मर्यादा एव चरित्र मे हीन होते हैं, वे सज्जनो के समाज मे
आदर नही पाते ।
२१.
कुलीन तथा अकुलीन, वीर तथा डरपोक, पवित्र तथा अपवित्र पुरुष अपने आचरण ही से जाना जाता है ।
२२ ससार मे सत्य ही ईश्वर है, सत्य मे ही सदा धर्म रहता है, सत्य ही सव
अच्छाइयो की जड है, सत्य से बढकर और कुछ नहीं है ।
२३ मानवजीवनरूप इस कर्मभूमि को प्राप्त कर मनुष्य को शुभ कर्म ही
करना चाहिए।
२४. धर्म से ही अर्थ (ऐश्वर्य) मिलता है, धर्म से ही सुख मिलता है, और
धर्म से ही अन्य जो कुछ भी अच्छा है वह सब मिलता है । धर्म ही विश्व का एक मात्र सार है ।
२५ लोगो को कष्ट देने वाला, क्रूरकर्मा पापाचारी शासक, चाहे त्रिभुवन का
एकछत्र सम्राट ही क्यो न हो, वह अधिक काल तक टिक नही सकता।
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दो सो बत्तीस
२६. न चिरं पापकर्माण, क्रूरा लोकजुगुप्सिताः । ऐश्वर्यं प्राप्य तिष्ठन्ति, शीर्णमूला इव द्र मा. ॥
२७ यदा विनाशो भूतानां दृश्यते कालचोदितः । तदा कार्ये प्रमाद्यन्ति नराः कालवशं गताः ॥
२८. इदं शरीर निःसज्ञ बन्ध वा घातयस्व वा । नेदं शरीरं रक्ष्य मे जीवितं वा ऽपि राक्षस '
२६ उत्साहो बलवानार्य, नास्त्युत्साहात्पर बलम् । सोत्साहस्य हि लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम् ॥
-
३० उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु ।
३१ नाबुद्धिगतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि ।
३२. नाऽहं जानामि केयूरे, ना ऽहं जानामि कुण्डले । नूपुरेत्वभिजानामि, नित्य पादाभिवन्दनात् ॥
३३ ये शोकमनुवर्तन्ते, न तेषा विद्यते सुखम् ।
सूक्ति त्रिवेणी
३४. व्यसने वार्थकृच्छे, वा भये वा जीवितान्तगे । विमृशश्च स्वया बुद्ध्या धृतिमान्नावसीदति ॥
- २६१७
-५६/१६
- किष्किन्धा काण्ड १।१२२
- ५६।२१
—१।१२३
-२1१८
- ६।२२
- ७/१२
-८१६
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वाल्मीकि रामायण की सूक्तिया
दो सौ तेतीस
के
२६. क्रूर, लोगो मे निन्दित, पापी मनुष्य ऐश्वयं पाकर भी जड से कटे वृक्ष समान अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकते ।
२७
जव लोगो का दुर्देव से प्रेरित विनाश होना होता है, तो वे काल के वश मे होकर विपरीत कर्म करने लगते हैं ।
२८. ( सीता की रावण के प्रति उक्ति ) - हे राक्षस । यह शरीर जड़ है, इसे चाहे वाधकर रख अथवा मार डाल | मुझे इस शरीर एव जीवन की रक्षा का मोह नही है, मुझे तो एकमात्र प्रपने धर्म की हो रक्षा करनी है ।
२६. ( सोता के अपहरण होने पर शोकाकुल हुए राम से लक्ष्मण ने कहा ) - हे मायं । उत्साह ही वलवान है, उत्साह से बढकर दूसरा कोई वल नही है । उत्माही मनुष्य को इस लोक मे कुछ भी दुर्लभ नही है ।
३०. उत्साही पुरुष बडे से बडे जटिल कार्यों मे भी अवसन्न- दुःखित नही होते ।
३१. बुद्धिहीन राजा प्रजा पर ठीक तरह शासन नही कर सकता ।
३२. ( राम ने सीता हरण के बाद सुग्रीव के द्वारा दिखाए गए सीता के आभूषणो को लक्ष्मण से पहचानने को कहा तो लक्ष्मण ने उत्तर दिया ।) मैं माता सीता के न केयूरो ( वाजूबन्दो) को पहचान सकता हूँ और न कुण्डलो को । प्रतिदिन चरण छूने के कारण में केवल नूपुरो को पहचानता हूँ कि ये वही हैं ।
३३ जो व्यक्ति निरन्तर शोक करते रहते हैं, उन को कभी सुख नही होता ।
३४. सकट आने पर धन का नाश होने पर, और प्राणान्तक भय आने पर जो व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपनी बुद्धि से सोचकर कार्य करता है वही विनाश से बच सकता है |
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दो मी चीतीस
मूक्ति त्रिवेणी
३५ ज्येष्ठो भ्राता पिता वा ऽपि, यश्च विद्या प्रयच्छति ।
त्रयस्ते पितरो ज्ञया, धर्मे च पथि वर्तिनः ।।
--१८।१३
३६. उपकारफल मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ।
-८२१
३७ भये सर्वे हि विभ्यति ।
-८।३५
३८. दुःखितः मुखितो वा ऽपि, सख्युनित्यं सखा गति.।
-८४०
३६. न नृपा. कामवृत्तयः ।
-१७३२
४०. प्रायश्चित्त च कुर्वन्ति तेन तच्छाम्यते रज.।
-१८।३५
४१ शोच्य गोचसि क शोच्यम् ?
४२. न कालस्यास्नि बन्धुत्वम् ।
-२५७ ४३. कोपमार्येण यो हन्ति स वीर. पुरुषोत्तमः ।
-३१६ ४४. मिथ्या प्रतिज्ञा कुरुते, को नृगसतरस्ततः ?
-३४८ ४५. गोध्ने चैव सुरापे च, चौरे भग्नवते तथा । निष्कृतिविहिता सद्धि कृतघ्ने नैव निष्कृति !!
-३४।१२ ४६ पानादर्थश्च कामश्च धर्मश्च परिहीयते ।
-३३६४६ ४७. न देशकालो हि यथार्थधमी, अवेक्षते कामरतिर्मनुष्यः ।
-३३१५५
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वाल्मीकि रामायण की सूक्तियां
दो सौ पैंतीस
३५. बडा भाई, जन्म देने वाला जनक और विद्या देने वाला गुरु-धर्म मार्ग
पर चलनेवाले इन तीनो को पिता ही समझना चाहिए ।
३६. उपकार करना मित्र का लक्षण है, और अपकार करना शत्रु का
लक्षण है। ३७. भय से प्रायः सभी डरते हैं ।
३८. दुखी हो या सुखी, मित्र की मित्र ही गति है ।
३६. राजा को स्वेच्छाचारी नही होना चाहिए ।
४०. जो अपने पाप का प्रायश्चित्त कर लेते हैं, उनके पाप शान्त (नष्ट) हो
जाते हैं। ४१ जो स्वयं शोचनीय स्थिति मे है, वह दूसरो का क्या सोच (चिन्ता) करेगा?
४२ काल (मृत्यु) किसी का बन्धु नही है ।
४३ जो आयं धर्म (विवेक) से क्रोध का नाश कर देता है, वही वीर है, वही
वीरो मे श्रेष्ठ है। ४४. जो मनुष्य अपने मित्रो से मिथ्या प्रतिज्ञा (झूठा वादा) करता है, उससे
अधिक कर और कौन है ? ४५. गोघातक, मदिरा पीनेवाले, चोर और व्रतभग करनेवाले की शुद्धि के
लिए तो सत्पुरुषो ने प्रायश्चित बताये हैं, परन्तु कृतघ्न का कोई
प्रायश्चित्त नही है। ४६. मद्यपान से धन, काम (गृहस्थ जीवन) एवं धर्म की हानि होती है।
४७. कामान्ध मनुष्य अपने देशकालोचित यथार्थ कर्तव्यो को नही देख
पाता है।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ छत्तीस ४८. न विषादे मन कार्य विषादो दोषवत्तरः ।
विषादो हन्ति पुरुपं बालं क्र.द्ध इवोरगः ।।
--६४/६
४६. नेदृशाना मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम् ।
-८४११६
५० क्र द्ध पाप न कुर्यात् क क्र द्धो हन्याद् गुरूनपि ।
-सुन्दर काण्ड ५५०४ ५१ नाकार्यमस्ति क्र द्धस्य नावाच्य विद्यते क्वचित् ।
-५५५
५२ सुलभाः पुरुषा राजन् । सतत प्रियवादिन. । अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ ॥
-युद्ध काण्ड १६१२१ ५३ न कथनात् सत्पुरुषा भवन्ति ।
-७११५९ ५४ कर्मणा सूचयात्मान न विकस्थितुमर्हसि । पीरुपेण तु यो युक्तः स तु शूर इति स्मृतः।।
-७११६० ५५. अनर्थेभ्यो न शक्नोति त्रातु धर्मो निरर्थकः ।
-८३३१४ ५६. दुर्वलो हतमर्यादो न सेव्य इति मे मतिः ।
-८३।२६ ५७. अधर्मसश्रितो धर्मो विनाशयति राघव ।
-८३।३० ५८ अर्थेन हि विमुक्तस्य पुरुषस्याल्पचेतसः । विच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा।।
-८३१३३
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वाल्मीकि रामायण को सूक्तिया
दो सौ संतीस ४८. मन को विषादग्रस्त न होने दो, इससे अनेक दोष पैदा होते हैं । विषाद
ग्रस्त मन पुरुष को वैसे ही नष्ट कर डालता है, जैसे कद्ध हुमा सर्प
अबोध बालक को। ४६ विशुद्ध हृदय वाले सज्जनो की बुद्धि कभी मन्द (कर्तव्यविमूढ) नहीं होती।
५० क्रोध से उन्मत्त हुआ मनुष्य कौन-सा पाप नही कर डालता, वह अपने
गुरुजनो की भी हत्या कर देता है। ५१. क्रोधी के सामने अकार्य (नही करने योग्य) और अवाच्य (नही बोलने
योग्य) जैसा कुछ नहीं रहता । र्यात वह कुछ भी कर सकता है और
बोल सकता है। ५२ (विभीषण का रावण के प्रति कथन) राजन् । ससार मे प्रिय वचन
बोलने वाले तो बहुत मिलते है, किन्तु हितकारी (पथ्य) अप्रिय वचन
कहने वाले और सुननेवाले दोनो ही मिलने दुर्लभ हैं । ५३. केवल ब त बनाने से कोई बडा आदमी नही बन सकता ।
५४. कर्म कर के अपना परिचय दो, न कि मु ह से वडाई हाक कर । जिसमे
पौरुष है, वही वस्तुत. वीर कहा जाता है।
५५ जो धर्म मनुष्य को अनर्थों (कष्टो या विकारो) से रक्षा नही कर सकता,
वह धर्म निरर्थक है। ५६. (लक्ष्मण का राम के प्रति कथन) दुर्वल एव मर्यादाहीन व्यक्ति का सग
नहीं करना चाहिए। ५७. (लक्ष्मण ने राम से कहा) हे राघव | जो धर्म, अधर्म पर आधारित है
वह मनुष्य को नष्ट कर देता है। धनहीन होने से मनुष्य की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है और उसकी सब शुभ प्रवृत्तियां वैसे ही क्षीण होती जाती हैं जैसे ग्रीष्म काल मे छोटी नदियाँ।
५८
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दो सौ अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी ___५६. निर्गुणः स्वजन. श्रयान्, यः परः पर एव सः।
-८७.१५ ६० परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम् । सुहृदामतिशंका च त्रयो दोषाः क्षयावहाः ।।
-८७/२४ ६१. कार्याणा कर्मणा पारं यो गच्छति सु बुद्धिमान् ।
-८८।१४ ६२. न हि प्रतिज्ञां कुर्वन्ति वितथा सत्यवादिन. ।
१०११५१ ६३ मरणान्तानि वैराणि ।
-११०।२६ ६४ शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापमश्नुते ।
-११११२६ ६५. संतश्चारित्रभूपणाः।
-११३१४२ ६६. सप्राप्तमवमान यस्तेजसा न प्रमार्जति । कस्तस्य पौरुषेणार्थो महताप्यल्पचेतसा ।।
-११५६ ६७. भगवन । प्राणिना नित्यं नान्यत्र मरणाद् भयम् । ___नास्ति मृत्युसमः शत्रुरमरत्वमह वृणे ॥
-उत्तरकाण्ड १०११६ ६८. नहि धर्माभिरक्ताना लोके किंचन दुर्लभम् ।
--१०१३३ ६६. यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते।
-४३३१६ ७०. दण्डेन च प्रजा रक्ष मा च दण्डमकारणे।
-७६12
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वाल्मीकि रामायण को सूक्तियां
दो सौ उनचालीस ५६. स्वजन (अपना सार्थ) यदि निगुण है तब भो वह अच्छा है, क्योकि वह
अपना है । पर (पराया) तो आखिर पर ही होता है। ६०. दूसरो का धन चुराना, परस्त्रियो की ओर ताकना और मित्रो के प्रति
मविश्वास करना-ये तीनो दोष मानव को नष्ट करने वाले हैं।
६१ जो अपने कर्तव्यो को अन्त तक पार (पूरा) कर देता है, वही वास्तव मे
बुद्धिमान् है । ६२. सत्यवादी लोग अपनी प्रतिज्ञा को कभी मिथ्या नहीं होने देते ।
६३ वर-विरोध जीते-जी तक रहते है ।
६४ शुभ (सत्कम) करने वाला शुभ (शुभ फल) पाता है, और पाप करने
वाला पाप (अशुमफल) पाता है । ६५ सच्चरित्र ही सन्तो का भूपण है ।
६६ जो प्राप्त अपमान का अपने तेज द्वारा परिमार्जन नहीं करता, उसके
चेतनाहीन महान् पौरुप का भी क्या अर्थ है ?
६७ (रावण को ब्रह्मा से याचना)-भगवन् ! प्राणियो को मृत्यु के समान
दूसरा भय नहीं है, न ही ऐसा कोई दूसरा शत्रु है । अत मैं आपसे
अमरत्व की याचना करता हूँ।" ६८ धर्म मे निष्ठा रखने वालो के लिए ससार मे कुछ भी दुलंभ नही है ।
६६ राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा उसी का अनुसरण करती है ।
७० (मनु ने अपने पुत्र ईक्ष्वाकु से कहा)-तू दण्ड द्वारा प्रजा की रक्षा कर,
किंतु बिना कारण किसी को भी दण्ड मत दे।
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'महाभारत की सूक्तियां
१. बिभेत्यल्प ताद् वेदो, मामयं प्रहरिष्यति ।
२ तपो न कल्कोऽध्ययन न कल्क, स्वाभाविको वेदविधिनं कल्क. । प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्, तान्येव भावोपहतानि कल्कः ॥
३ नवनीतं हृदय ब्राह्मणस्य,
वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः । तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य,
वाङ् नवनीतं हृदय तीक्ष्णधारम् ॥
४ अहिंसा परमो धर्म सर्वप्राणभृता वर. ।
१. गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित सस्करण । * अक क्रम से सर्ग और श्लोक के सूचक हैं |
- श्रादिपर्व * १।२६८
- १।२७५
-३।१२३
- ११1१३
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महाभारत की सूक्तियां
१. अल्पश्रुत व्यक्ति से वेद अर्थात् शास्त्र डरते रहते हैं कि कही यह मूर्ख
हम पर प्रहार न कर दे । २. तप निर्मल है, शास्त्रो का अध्ययन भी निर्मल है, स्वाभाविक वेदोक्त
विधि भी निर्मल है, और श्रमपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है। परन्तु ये ही सब यदि किसी का अनिष्ट करने के दुर्भाव से किए जाए, तो मलिन (पापमय) हो जाते हैं ।
३ ब्राह्मण (सन्तजन) का हृदय मक्खन के समान कोमल और शीघ्र ही
द्रवित-पिघलने वाला होता है । केवल उसकी वाणी ही पैनी धार वाले छुरे- जैसी होती है । किन्तु क्षत्रिय (राजनीतिज्ञ) के लिए ये दोनों ही बातें विपरीत हैं । उसकी वाणी तो मक्खन के समान कोमल होती
है, परन्तु हृदय पैनी धार वाले छुरे के समान तीक्ष्ण होता है । ४ समस्त प्राणियो के लिए अहिंसा सब से उत्तम धर्म है ।
पूर्व पृष्ठ की टिप्पणी मे 'सर्ग' के स्थान में अध्याय समझे।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ वियालीस ५. भिन्नानामतुलो नाश. क्षिप्रमेव प्रवर्तते ।
-आदि० १९२०
६. अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत् ।
-३७।२०
७ नोद्विग्नश्चरते धर्म, नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ।
-४११२८
८. क्षमावतामय लोक परश्च व क्षमावताम् ।
-४२।६
६. योऽवमन्यात्मना ऽऽत्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
न तस्य देवाः श्रेयासो यस्यात्मा ऽपि न कारणम् ।।
--७४।३३
१०. अर्ध भार्या मनुष्यस्य, भार्या श्रेष्ठतम. सखा ।
-७४।४१
११ मूर्यो हि जल्पता पुंसा, श्रुत्वा वाचः शुभाशुभा.।
अशुभ वाक्यमादत्त, पुरीषमिव शकरः ।।
-७४।६०
१२ प्राज्ञस्तु जल्पता पुसा थ त्वा वाच. शुभाशुभा.।
गुणवद् वाक्यमादत्त हस. क्षीरमिवाम्भस ॥
-७४/६१
१३ नास्ति सत्यसमो धर्मो, न सत्याद् विद्यते परम् । ___ न हि तीव्रतर किंचिदनृतादिह विद्यते ॥
---७४।१०५
१४ न जातु काम. कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥
-७५।५०
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महाभारत को सूक्तिया
दो सौ तेतालीस
५. जो लोग विभक्त होकर आपस मे फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र
ही ऐमा विनाश होता है, जिसकी कही तुलना नहीं होती। ६. संकट से बचने के लिए उत्तरोत्तर अधर्म करते जाने की प्रवृत्ति सम्पूर्ण
जगत् का नाश कर डालती है।
७ उद्विग्न पुरुप न धर्म का आचरण कर सकता है, और न किसी लौकिक
कर्म का ही ठीक तरह सम्पादन कर सकता है।
८. जिनमे क्षमा है, उन्ही के लिए यह लोक और परलोक-दोनो कल्याण
कारक हैं।
६. जो स्वय अपनी मात्मा का तिरस्कार करके कुछ का कुछ समझता है
और करता है, स्वयं का अपना आत्मा ही जिसका हित साधन नही __ कर सकता है, उसका देवता भी भला नही कर सकते ।
१०. भार्या (धर्मपत्नी) पुरुष का प्राधा अंग है । भार्या सबसे श्रेष्ठ मित्र है ।
११. मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करने वाले दूसरे लोगो को भली-बुरी बातें
सुनकर उनसे दुरी बातो को ही ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही, जैसे मूअर अन्य अच्छी खाद्य वस्तुमओ के होते हुए भी विष्ठा को ही अपना भोजन बनाता है।
१२. विद्वान् पुरुप दूसरे वक्तामो के शुभाशुभ वचनो को सुनकर उनमे से
अच्छी बातो को ही अपनाता है, ठीक वैसे ही, जैसे हम मिले हुए दुग्ध
जल मे से पानी को छोडकर दूध ग्रहण कर लेता है । १३ सत्य के समान कोई धर्म नहीं है, मत्य मे उत्तम कुछ भी नही है । और
झूठ से बढ कर तीव्रतर पाप इस जगत मे दूसरा कोई नही है ।
१४. विषयभोग की इच्छा विषयो का उपभोग करके कभी शान्त नही हो
सकती। घी की आहुति डालने पर अधिकाधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भांति वह भी अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है ।
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दो सौ चौवालीस
सूक्ति त्रिवेणी
१५. यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु कहिचित् । कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।
-आदि० ७५१५२ १६. यदाचाय न विभेति, यदा चास्मान्न बिभ्यति । यदा नेच्छति न द्वष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।
-७५५३
१७ पुमासो ये हि निन्दन्ति वृत्त नाभिजनेन च ।
न तेषु निवसेत् प्रान श्रेयोऽर्थी पापबुद्धिपु ।।
-७६।१०
१८ न हीदृश संवनन, त्रिषु लोकेपु विद्यते ।
दया मैत्री च भूतेपू, दान च मधुरा च वाक् ।।
-८७।१२
१६. सन्तः प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानाम् ।
-- ८.१२
२० दुखैर्न तप्येन्न सुखै. प्रहृष्येत्,
समेन वर्तेत सदैव धीर. ।
-८६
२१ तपश्च दान च शमो दमश्च,
हीरार्जव सर्वभूतानुकम्पा । स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो,
द्वाराणि सप्तव महान्ति पु साम् ।।
----६०२२
२२. दैवे पुरुषकारे च लोकोऽय सम्प्रतिष्ठित.।
तत्र देव तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते ।।
-१२२१२१
२३ न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्य चित् ।
कालो ह्येन विहरति क्रोधो वैन हरत्युत ।।
-१३०७
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महाभारत को सूक्तियां
दो सौ पैंतालीस
१५. जब मनुष्य मन, वाणी और कर्म द्वारा कभी किसी प्राणी के प्रति बुरा
भाव नहीं करता, तब वह ब्रह्मत्वस्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।
१६ सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होने पर जब साधक न किसी से डरता है
और न उससे ही दूसरे प्राणी डरते है, तथा जब वह न तो किसी से कुछ इच्छा करता है और न किसी से दुप ही रखता है, तब वह
ब्रह्मत्व भाव को प्राप्त हो जाता है । १७ जो पुरुष दूसरो के आचार व्यवहार और कुल को निन्दा करते हैं,
उन पापपूर्ण विचार वाले मनुष्यो के सम्पर्क मे कल्याण की इच्छा रखने
वाले विद्वान् पुरुष को नही रहना चाहिए । १८. सभी प्राणियो के प्रति दया और मंत्री का व्यवहार, दान और सब के
प्रति मधुर वाणी का प्रयोग-तीनो लोको मे इनके समान अन्य कोई
वशीकरण नही है। १६ सुख से वंचित निराश्रित लोगो के लिए सन्त ही एक मात्र श्रेष्ठ आश्रय
स्थान हैं। २०. दुःखो से सतप्त न हो और सुखो से हर्षित न हो । धीर पुरुष को सदा
समभाव से ही रहना चाहिए ।
२१ तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियी के प्रति दया
-सन्तो ने स्वर्गलोग के ये सात महान् द्वार बतलाए हैं।
२२. यह संसार देव और पुरुषार्थ पर प्रतिष्ठित-आधारित है । इनमे देव तभी
सफल होता है, जब समय पर उद्योग किया जाए ।
२३ ससार मे किमी भी मनुष्य के हृदय मे मैत्री (स्नेहभावना) अमिट होकर
नही रहती । एक तो समय और दूसरा क्रोध, मैत्री को नष्ट कर डालते
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दो सौ छियालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२८ ययोरेव सम वित्त ययोरेव समं श्रुतम् ।
तयोविवाह. सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयो ।
-श्रादि० १३०।१०
२५ प्राज्ञ शूरो बहूना हि भवत्येको न संगय ।
-१३१३
२६. शूराणा च नदीना च दुर्विदा. प्रभवा किल ।
-~१३६।११
२७. छिन्नमूले ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हता.।
कथ नु शाखा स्तिप्ठेरंश्छिन्नमूले वनस्पती ।।
-१३६।१७
२८. न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति ।
-१३६१७३
२६. नाच्छित्वा परमर्माणि नाकृत्वा कम दारुणम् ।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महती श्रियम् ।।
-~१३९७७
३०. भीतवत् सविधातव्य यावद् भयमनागतम् ।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत् ।।
--१३६८२
३१. एतावान् पुरुषस्तात ! कृतं यस्मिन् न नश्यति ।
यावच्च कुर्यादन्यो ऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः॥
-१५६।१४
३२. अर्थेप्सुता परं दुखमर्थप्राप्ती ततोऽधिकम् ।
जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम् ॥
-१५६।२४
३३. धिग् बल क्षत्रियबल ब्रह्म तेजोवलं वलम् ।
-१७४|४५
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महाभारत की सूक्तिया
दो सौ सेंतालीस
२४ जिन का वन (ऐश्वयं) समान है, जिनको विद्या एक-सी है, उन्ही मे
विवाह और मैत्री का सम्बन्ध ठीक हो सकता है । एक दूसरे से ऊँचे
नीचे लोगो मे स्नेहसम्बन्ध कभी सफल नहीं हो सकते है । २५ बहुतो मे कोई एक ही बुद्धिमान और शूरवीर होता है, इसमे सशय
नही है। २६ शूरवीरो और नदियो की उत्पत्ति के वास्तविक कारण को जान लेना
बहुत कठिन है । २७. यदि मूल आधार नष्ट हो जाए, तो उसके आश्रित रहने वाले सभी लोग
स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाए, तो फिर उसकी शाखाएं कैसे रह
सकती हैं। २८. कष्ट सहे विना-अर्थात् अपने को खतरे मे डाले बिना मनुष्य कल्याण
का दर्शन नहीं कर सकता । २६ दूसरो को मर्मघाती चोट पहुँचाए बिना, अत्यन्त कर कम किए बिना
तथा मछलीमारो की भांति बहुतो के प्राण लिए विना, कोई भी बड़ी
भारी सम्पत्ति अर्जित नहीं कर सकता। ___ ३० जव तक अपने ऊपर भय (खतरा) न आए, तभी तक डरते हुए उसको
टालने का प्रयत्न करना चाहिए । परन्तु जब खतरा सामने आ ही जाए,
तो फिर निडर होकर उसका यथोचित प्रतिकार करना चाहिए । ३१. जो अपने प्रति किये हुए उपकार को प्रत्युपकार किये विना नष्ट नही
होने देता है, वही वास्तविक असली पुरुप है। और यही सबसे बड़ी मानवता है कि दूसरा मनुष्य उसके प्रति जितना
उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्य का प्रत्युपकार करदे । ३२ घन की इच्छा सबसे बडा दु.ख है, किन्तु धन प्राप्त करने मे तो और
भी अधिक दुःख है । और जिसकी प्राप्त धन मे आसक्ति होगई है, धन
का वियोग होने पर उसके दुःख की तो कोई सीमा ही नहीं होती। ३३. क्षत्रिय बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेज
जनित वल हो वास्तविक बल है ।
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दो सौ अडतालीस
सूक्ति त्रिवेणी
३४ यदा तु प्रतिषेद्धार पापो न लभते क्वचित् । तिष्ठन्ति वहवो लोकास्तदा पापेषु कर्मसु ।।
-आदि० १७९।१० ३५ जानन्नपि च य. पापं शक्तिमान् न नियच्छति । ईश. सन् सोऽपि तेनैव कर्मणा सम्प्रयुज्यते ।।
-१७६११ ३६. को हि तत्रैव भुक्त्वान्न भाजनं भेत्त मर्हति । मन्यमान कुले जातमात्मान पुरुषं क्वचित् ॥
-२१६४२७ ३७. ज्येष्ठश्चेन्न प्रजानाति कनीयान् किं करिष्यति ?
-२३१।४ ३८. कच्चिदर्थाश्च कल्पन्ते धर्मे च रमते मनः । सुखानि चानुभूयन्ते मनश्च न विहन्यते ।।
-सभापर्व ५।१७
३६. दत्तभुक्तफल धनम् ।
-५११३
४०. शीलवृत्तफल श्र तम् ।
-५।११३
४१. मनश्चक्षुविहीनस्य कीदृशं जीवितं भवेत् ?
-१६।२
४२. सर्वैरपि गुणयुक्तो निर्वीर्य. किं करिष्यति ?
गुणीभूता गुणा. सर्वे तिष्ठन्ति हि पराक्रमे ।। ४३. ज्ञानवृद्धो द्विजातीना, क्षत्रियाणा बलाधिक ।
-१६।११
- ३८.१७
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महाभारत को सूक्तियां
दो सौ उनपचास ३४. जब अत्याचारी पापी मनुष्य को कही कोई रोकने वाला नहीं मिलता,
तब बहुत बड़ी सस्या मे मनुष्य पाप करने लग जाते हैं ।
३५. जो मनुष्य शक्तिमान् एव समर्थ होते हुए भी जान बूझ कर पापाचार
को नहीं रोकता, वह भी उमी पापकर्म से लिप्त हो जाता है।
३६ अपने आप को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है, जो जिस वर्तन
में खाए, उसी मे छेद करे--अर्थात् अपने उपकारी का ही अपकार करे ।
३७. यदि बडा ही आने वाले भय और उसमे बचने का उपाय न जाने, तो
फिर छोटा करेगा ही क्या ? ३८ (नारद ने युधिष्ठर जी से कहा कि) राजन् । क्या तुम्हारा धन तुम्हारे
परिवार, समाज और राष्ट्र के कार्यों के निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता है ? क्या धर्म मे तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है ? क्या तुम्हे और तुम्हारे राष्ट्र को इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्त होते है ? क्या सत्कर्म मे लगे हुए तुम्हारे मन को कोई आघात या विक्षेप तो नहीं
पहुंचता है ? ३६ धन का फल दान और भोग है।
.
४० शास्त्र ज्ञान का फल है-शील और सदाचार ।
४१ मन और आँखो के खो देने पर मनुष्य का जीवन कैसा शून्य हो जाता
४२. जो निर्बल है, वह सर्वगुणसम्पन्न होकर भी क्या करेगा? क्योकि सभी
गुण पराक्रम के अगभूत वन कर ही रहते हैं। ४३ ब्राह्मणो मे वही पूजनीय समझा जाता है, जो ज्ञान मे बडा होता है।
और क्षत्रियो मे वही पूजा के योग्य माना जाता है, जो बल मे सबसे अधिक होता है।
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दो सौ पचास
सूक्ति त्रिवेणी
४४. यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवल तु बहुश्रु तः।
न स जानाति शास्त्रार्थ दर्वी सूपरसानिव ॥
-सभा० ५५१
४५ असन्तोष श्रियो मूलम् ।
-५५।११
४६. न व्याधयो नापि यम. प्राप्तु श्रेय प्रतीक्षते । यावदेव भवेत् कल्पस्तावच्छे य. समाचरेत् ॥
-५६।१० ४७. तपस्विनं वा परिपूर्णविद्य, भषन्ति हैवं श्वनरा. सदैव ।
-६६६६ ४८. लोभो धर्मस्य नाशाय ।
-७११३४ ४६ शोकस्थानसहस्राणि-भयस्थानशतानि च । दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ।।
-वनपर्व २०१६ ५०. मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते । अय पिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ।।
-~२।२५ ५१ स्नेहमूलानि दुःखानि ।
-२०२८ ५२. नाऽपाध्यं मृदुना किंचित् ।
-२८॥३१ ५३. नादेशकाले किंचित् स्याद् देशकालौ प्रतीक्षताम् ।
-२८।३२
५४ क्षमा तेजस्विना तेज. क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम् ।
-२६४०
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महाभारत को सूक्तिया
दो सौ इक्यावन जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, केवल रटन्त विद्या से बहुश्रुत होगया है, वह शास्त्र के मूल तात्पर्य को नहीं समझ सकता, ठीक उसी तरह, जैसे कलछी दाल के रस को नही जानतो ।
४४
___४५. असन्तोष ही लक्ष्मीप्राप्ति का मूल है ।
४६. रोग और यम (मृत्यु) इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि इसने श्रेय
प्राप्त कर लिया है या नही । मतः जब तक अपने मे सामर्थ्य हो, बम,
तभी तक अपने हित का साधन कर लेना चाहिए । ४७. तपस्वी साधक तथा विद्वानो को कुत्ते के समान स्वभाववाले मनुष्य ही
सदा भूका करते हैं। ४८. लोम धर्म का नाशक होता है ।
४६ भय योर शोक के ससार मे सेंकहो-हजारो ही स्थान (कारण) है । परन्तु
ये मूढ मनुष्यो को ही दिन-प्रति-दिन प्रभावित करते हैं, ज्ञानी पुरुषो को
नही । . ५०. मन में दुख होने पर शरीर भी सन्तप्त होने लगता है, ठीक वैसे ही,
जैसे कि तपाया हुआ लोहे का गोला डाल देने पर घडे मे रखा हुआ
शीतल जल भी गर्म हो जाता है । ५१.. आसक्ति हो दुःख का मूल कारण है ।
५२. मृदुता (कोमलता, नम्रता) से कुछ भी असाध्य नहीं है।
५३ अयोग्य देश तथा अनुपयुक्त काल मे कुछ भी प्रयोजन (कार्य) सिद्ध नही
हो सकता, अत. कार्यसिद्धि के लिए उपयुक्त देश-काल की प्रतीक्षा करनी
चाहिए। ५४. क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है, क्षमा तपस्वियो का ब्रह्म है ।
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दो सौ बावन
सूक्ति त्रिवेणी
५५. सर्वे हि स्वं समुत्थानमुपजीवन्ति जन्तवः ।
~वन० ३२१७
५६. सत्य दानं क्षमा शीलमानृशंस्यं तपो घृणा।
दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र । स ब्राह्मण इति स्मृतः॥
-१८११२१
५७. सत्य दमः तपो दानहिंसा धर्मनित्यता । साधकानि सदा पुंसां न जातिर्न कुल नृप ।।
-१८१४२ ५८. प्रक्षीयते धनोद्रको जनानामविजानताम् ।
-१६२।२८ ५६ यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः । समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ।।
-उद्योगपर्व ३३.१६ ६०. क्षिप्र विजानाति चिरं शृणोति,
विज्ञाय चार्थ सजते न कामात् । नासम्पृष्टो व्युपयुक्ते परार्थे, तत् प्रज्ञान प्रथमं पण्डितस्य ।।
-३३१२२ ६१. एकः सम्पन्नमस्नाति वस्ते वासश्च शोभनम् । योऽसविभज्य भृत्येभ्य. को नृशंसतरस्तत.॥
-३३१४१ ६२. सत्य स्वर्गस्य सोपानम् ।
-३३१४७ ६३. क्षमा गुणो ह्यशक्ताना, शक्ताना भूषण क्षमा।
-३३१४६ ६४. शान्तिखङ्गः करे यस्य, किं करिष्यति दुर्जन ?
-३३१५०
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महाभारत को सूक्तियो
दो सौ तिरेपन ५५. सभी प्राणी अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न के द्वारा ही जीवन धारण करते
हैं, जीवनयात्रा चलाते हैं। ५६. (नागराज के द्वारा ब्राह्मण को परिभाषा पूछने पर युधिष्ठर ने कहा-)
हे नागराज | जिसमे सत्य, दान, क्षमा, शील, क रता का अभाव, तप
और दया-ये सद्गुण दिखाई देते हो, वही ब्राह्मण कहा गया है । ५७. (युधिष्ठर को सद्गुणो की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में नागराज ने कहा)
राजन् ! सत्य, इन्द्रियसयम, तप, दान, महिंसा और धर्मपरायणता-ये
सद्गुण ही सदा मनुष्यो को सिद्धि के हेतु हैं, जाति और कुल नहीं । ५८ विवेकहीन अजानी मनुष्यो का ऐश्वर्य नष्ट हो जाता है।
५६. सर्दी और गरमी, भय और अनुराग, सम्पत्ति और दरिद्रता जिस के
प्रारब्ध कार्य मे विघ्न नहीं डालते, वही व्यक्ति पण्डित कहलाता है ।
६०. विद्वान् पुरुष किसी चालू विषय को देर तक सुनता है, किन्तु शीघ्र ही
समझ लेता है । समझकर कर्तव्यबुद्धि से पुरुषार्थ मे प्रवृत्त होता है, किसी छिछली कामना से नहीं । विना पूछे दूसरे के विषय मे व्यर्थ कोई बात नही करता है । यह सब पण्डित की मुख्य पहिचान है ।
६१. जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियो को उचित वितरण किए
बिना अकेला ही उत्तम भोजन करता है और अच्छे वस्त्र पहनता है,
उससे बढ कर और कौन क र होगा ? ६२. सत्य स्वर्ग का सोपान (सीढी) है ।
६३. क्षमा असमर्थ मनुष्यो का गुण है, तथा समर्थों का भूषण है।
६४. जिसके हाथ मे शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या करेंगे ?
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दो सौ चउपन
सूक्ति त्रिवेणी
*६५. द्वाविमौ पुरुषी राजन् । स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥
-उद्योग० ३३१५८
६६. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयौं क्रोध आलस्य दीर्घसूत्रता ।।
-३३१७८
६७. अर्थागमो नित्यमरोगिता च,
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वश्यश्च पुत्रो ऽर्थकरी च विद्या, षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।।
-३३१८२
६८. अष्टौ गुणाः पुरुष दीपयन्ति,
प्रज्ञा च कौल्य च दम. श्र त च । पराक्रमश्चाबहुभाषिता च,
दान यथाशक्ति कृतज्ञता च ।
-३३६६
६६. यस्तु पक्वमुपादत्त काले परिणतं फलम् ।
फलाद् रसं स लभते बीजाच्चैव फल पुनः ॥
-३४।१६
७०. यथा मधु समादत्त रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः ।
तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया ।।
-३४।१७
७१ सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूप कुल वृत्तन रक्ष्यते ।
-३४१३६
*६५ से ७४ तक विदुरजी का धृतराष्ट्र को नीति उपदेश है ।
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महाभारत को सूक्तिया
दो सौ पचपन
६५ (विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा-) राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग
के भी ऊपर स्थान पाते हैं-एक शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने
वाला और दूसरा निर्धन होने पर भी दान देने वाला । ६६. ऐश्वर्य एव उन्नति चाहने वाले पुरुषो को निद्रा, तन्द्रा (ॐ धना), भय,
क्रोध, मालस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले काम में भी अधिक देर लगाने की मादत)-इन छह दुगुणो को त्याग देना चाहिए। राजन् | धन की प्राप्ति, नित्य नीरोग रहना, स्त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अन्दर रहना, तथा अर्थकरी (अभीष्ट प्रयोजन को सिद्ध करने वाली)विद्या-ये छह बातें इस मानवलोक में सुखदायिनी होती हैं ।
६७. राजन् । धन
काका आज्ञा के अन्दर
बातें इस मानव
६८. दुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना,
शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता-ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढाते ।
६६. जो समय पर स्वय पके हुए फलो को ग्रहण करता है, समय से पहले
कच्चे फलो को नही, वह फलो से मधुर रस पाता है और भविष्य मे बीजो को वोकर पुनः फल प्राप्त करता है ।
७०. जैसे भौंरा फूलो की रक्षा करता हुआ ही उनका मधु ग्रहण करता है,
उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनो को कष्ट दिए बिना ही कर के रूप मे उनसे धन ग्रहण करे।
७१. सत्य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित रहती है, सफाई
से सुन्दर रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ छप्पन ७२ विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः ।
मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः ॥
-उधोग० ३४.४४
७३. सर्व शीलवता जितम् ।
३४।४७
७४ रोहते सायकैर्विद्ध वन परशुना हतम् । __वाचा दुरुक्त बीभत्स न सरोहति वाक्क्षतम् ॥
-३४॥७८
७५. श्रीमङ्गलात्प्रभवति प्रागल्भ्यात्सम्प्रवर्धते ।
दाक्ष्यात कुरुते मूलं संयमात्प्रतितिष्ठति ॥
-३१५१
७६ न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम् । नासो धर्मो यत्र न सत्यमस्ति,
न तत्सत्य यच्छलेनाभ्युपेतम् ।।
७७ नष्टप्रज्ञ पापमेव नित्यमारभते पुनः ।
--३५२६२
७८ सुवर्णपुष्पां पृथिवी चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः ।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ।।
-~३५७४
७६. बुद्धिश्रष्ठानि कर्माणि
-३५।७५
८०. ज्ञातयस्तारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च ।
सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वृत्ता मज्जयन्ति च ।।
--३६२५
८१. अकीर्ति विनयो हन्ति, हन्त्यनथं पराक्रमः ।
हन्ति नित्य क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥
~३९।४२
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महाभारत को सूक्तिया
दो सौ सत्तावन ७२. संसार मे तीन मद हैं-विद्या का मद, धन का मद और तोमरा ऊँचे
कुल का मद । ये अहकारी पुरुषो के लिए तो मद हैं, परन्तु ये (विद्या,
धन और कुलीनता) ही सज्जन पुरुषो के लिए दम के साधन हैं । ७३. शीलस्वभाव वाला व्यक्ति सब पर विजय पा लेता है ।
७४. वाणो से विधा हुमा तथा फरमे से कटा हुआ वन (वृक्ष) तो फिर अकुरित
हो सकता है, किन्तु कटु वचनो के द्वारा वाणी से किया गया भयानक
घाव कभी नहीं भरता। ७५ शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती है, प्रगल्मता से वह बढती है,
चतुरता से जड जमा लेती है, और सयम से सुरक्षित रहती है ।
७६. जिस सभा मे बडे-बूढे नही, वह सभा नही, जो धर्म की बात न कहे,
वे बडे-बूढे नही, जिसमे सत्य नही, वह धर्म नही, और जो कपट से युक्त हो, वह सत्य नही है।
७७ जिसको बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता है ।
७८ शूर-वीर, विद्वान् और सेवाधर्म के ज्ञाता-ये तीन मनुष्य पृथ्वीरूप लता
से ऐश्वर्यरूपी सुवर्ण पुष्पो का चयन करते हैं ।
७६ बुद्धि से विचार कर किये हुए कर्म ही श्रेष्ठ होते हैं।
८०. ससार में व्यक्ति को जातिभाई ही तराते हैं और जाति-भाई ही डुबोते
भी हैं । जो सदाचारी हैं, वे तो तराते हैं, और दुराचारी डुबो देते हैं ।
५१. विनयभाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है,
क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ अट्ठावन ८२ क्लीबस्य हि कुनो राज्य दीर्घसूत्रस्य वा पुनः ।
-शान्तिपर्व ८५
२३. धनात्कुलं प्रभवनि धनाद् धर्मः प्रवर्धते ।
--८२२
८४. शारीर मानस दुःखं योऽतीतमनुशोचति ।
दुःखेन लभते दुःख द्वावनों च विन्दति ॥
-१७।१०
५५. तोषो वै स्वर्गतम सन्तोष. परमं सुखम् !
-२१२
१६. सुखं वा यदि वा दुःख प्रियं वा यदि वाऽप्रियम् ।
प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजित.॥
-२५।२६
८७. ये च मूढतमा लोके ये च वुद्ध. परं गताः।
त एव सुखमेधन्ते मध्यम. क्लिश्यते जन. ।।
-२५२८
-३५४४५
१६. जानता तु कृत पापं गुरु सर्वं भवत्युत । ८६ अल्प हि सारभूयिष्ठ कर्मोदारमेव तत् ।
कृतमेवाकृताच्छे यो न पापीयोऽस्त्यकर्मणः ॥
-७५।२६
६०. धर्ममूलाः पुनः प्रजा. ।
-~-१३०/३५
६१. वैर पचसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः ।
स्त्रीकृतं वास्तुज वाग्ज ससापत्नापराधजम् ॥
-१३६४२
६२. बुद्धिसजननो धर्म प्राचारश्च सतां सदा।
-१४२।५
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महाभारत को सूक्तियां
दो सौ उनसठ ८२. कायर और आलसी व्यक्ति को राज्य (ऐश्वर्य) कैमे प्राप्त हो सकता है ?
२३. धन से कुल की प्रतिष्ठा बढती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती
८४. जो मनुष्य अतीत के बीते हुए शारीरिक अथवा मानसिक दु खो के लिए
बार-बार शोक करता है, वह एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त होता
है । उसे दो-दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं। ८५. मन मे सन्तोप का होना स्वर्ग को प्राप्ति से भी बढ कर है । सन्तोष ही
सबसे बड़ा सुख है। ८६. सुख हो या दु.ख, प्रिय हो या अप्रिय, जव भी जो कुछ भी प्राप्त हो, उसे
सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए, अपने हृदय को उक्त द्वन्द्वो के समक्ष कमी पराजित न होने दें।
८७. ससार में जो अत्यन्त मूत्र हैं, अथवा जो बुद्धि से परे पहुँच गये हैं ,
अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हो गए हैं, वे ही सुखी होते हैं, वीच के लोग तो कष्ट
ही उठाते हैं। ८८. जान-बूझ कर किया हुमा पाप बहुत भारी होता है । ८६. ऊपर से कोई काम देखने मे छोटा होने पर भी यदि उस में सार अधिक
हो तो वह महान् ही है । न करने की अपेक्षा कुछ करना अच्छा है,
क्योकि कर्तव्य कर्म न करने वाले से बढ कर दूसरा कोई पापी नही है। ६०. धर्म प्रजा की जड (मूल) है ।
___६१. वैर पांच कारणो से हुआ करता है, इस बात को विद्वान् पुरुप अच्छी
तरह जानते हैं-१ स्त्री के लिए, २ घर और जमीन के लिए, ३. कठोर वाणी के कारण, ४. जातिगत द्वेष के कारण, और ५ अपराध
के कारण । ___६२. धर्म और सत्पुरुषो का आचार-व्यवहार-ये बुद्धि से ही प्रकट होते हैं,
जाने जाते हैं।
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दो सौ साठ
मूक्ति त्रिवेणी
६३ उत्थानवीरः पुरुषो वाग्वीरान घितिष्ठति ।
-१५८।१५
६४. अहिंसको ज्ञानतृप्त' स ब्रह्मासनमर्हति ।
-१८६६
६५. अहिंसा सत्यवचनमानशस्यं दमो घृणा ।
एतत् तपो विदु/रा न गरीरस्य शोषणम् ॥
-१८६।१९
६६ सर्व जिह्म मृत्युपदमार्जव ब्रह्मण. पदम् । एतावान ज्ञानविषय. किं प्रलाप करिष्यति ?
–१८६२१ ९७ उपभोगास्तु दानेन, ब्रह्मचर्येण जीवितम् ।।
-अनुशासन पर्व५७।१० ६८. म्रियते याचमानो वै न जातु म्रियते ददत् ।
--६०१५ ९६ अन्नेन सदृशं दान न भूतं न भविष्यति ।
-६३१६ १००. अन्नं प्राणा नराणा हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ।
----६३१२५ १०१. अमृतं वै गवा क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः ।
--६६१४६ १०२ मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च। स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नान तत्त्वदर्शिन. ।
-१०८।१३
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महाभारत को सूक्तियां
दो सौ इकसठ ६३. जो पुरुष उद्योगवीर है, वह कोरे वाग्वीर पुरुषो पर अपना अधिकार
जमा लेता है। ____६४ जो अहिंसक है और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, वही ब्रह्मा के आसन पर
बैठने का अधिकारी होता है । ___६५ किसी भी प्राणी को हिंसा न करना, सत्य बोलना, क रता को त्याग
देना, मन और इन्द्रियो को सयम मे रखना तथा सब के प्रति दया भाव रखना-इन्ही को घीर (ज्ञानी) पुरुपो ने तप माना है। केवल शरीर
को सुखाना ही तप नहीं है। ६६. सभी प्रकार की कुटिलता मृत्यु का स्थान है और सरलता परब्रह्म की
प्राप्ति का स्थान है । मात्र इतना ही ज्ञान का विषय है। और सब तो प्रलापमात्र है, वह क्या काम आएगा
६७. दान से उपभोग और ब्रह्मचर्य से दीर्घायु प्राप्त होता है ।
___१८ याचक मर जाता है, किन्तु दाता कभी नहीं मरता ।
६६
अन्न के समान न कोई दान हुमा है और न होगा।
१००. अन्न ही मनुष्यो के प्राण है, अन्न में ही सब प्रतिष्ठित है।
१०१. देवराज इन्द्र ने कहा है कि गौमओ का दूध अमृत है।
१०२ जो प्रसन्न एवं शुद्ध मन से ब्रह्मज्ञान रूपी जल के द्वारा मानसतीर्थ मे
स्नान करता है, उसका वह स्नान ही तत्वदर्शी ज्ञानी का स्नान माना गया है।
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भगवद्गीता की सूक्तियां
१. देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवन जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्, धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
-*२११३
२. मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा.।
प्रागमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥
-२०१४
३. भासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
-२०१६
४. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
___ नवानि गृह रणाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीरा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
-२१२२
५ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैन दहति पावकः ।
न चनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।
-२२२३
*प्रक क्रमश. अध्याय और श्लोक के सूचक हैं ।
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भगवद्गीता को सूक्तियां
१. जिस प्रकार देहधारी को इस देह मे वचपन के वाद जवानी और जवानी
के बाद बुढापा आता है उसी प्रकार मृत्यु होनेपर देही (मात्मा) को एक देह के बाद दूसरा देह प्राप्त होता रहता है । अतः धीर (ज्ञानी)
इस विषय मे मोह नही करते । २ हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुख के देने वाले ये इन्द्रिय और
विषयो के संयोग उत्पत्ति-विनाश शील हैं, अनित्य हैं, इसलिए हे भारत !
तू इन सव को समभाव से सहन कर । ३. जो असत् है, उस का कभी भाव (अस्तित्व) नही होता, और जो सत् है
उसका कमी अभाव (अनस्तित्व) नही होता। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो को छोड कर नये वस्त्रो को ग्रहण करता है, वैसे ही देही (जीवात्मा) पुराने शरीरो को छोड़ कर नये शरीरो को ग्रहण करता रहता है।
४.
५. इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी
गला सकता है, और न हवा सुखा सकती है।
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दो सौ चौसठ
सूक्ति त्रिवेणी
६ जातस्य हि ध्र वो मृत्युर् ध्र व जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्व शोचितुमर्हसि ॥
-२।२७
७. वैगुण्यविषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवार्जुन !
-२१४५
८. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुभूर, मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
-२०४७
____६. समत्वं योग उच्यते ।
-२।४८
१०. बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद् योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।।
-२५०
११. प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
प्रात्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
--२१५५
१२ दुखेष्वनुद्विग्नमना. सुखेप विगतस्पृहः ।
वीतराग-भय-क्रोध. स्थितघीमुनिरुच्यते ।।
-२२५६
१३. यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
-२२५८
१४. विपया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवज रसोऽप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्तते ।
-२१५६
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भगवद्गीता की सूक्तियां
दो सौ पैंसठ
,
६ जिसने जन्म ग्रहण किया है, उसका मरण निश्चित है तथा जिसका मरण है उसका जन्म निश्चित है । अत जो अवश्यम्भावी है, अनिवार्य है, उस विषय मे सोच-फिक्र करना योग्य नही है ।
७ हे अर्जुन । वेदो का तो मत्त्व, रजस्, तमस् - प्रकृति के इन तीन गुणो का ही विषय है, इसलिए तू तोनो गुणो की सीमा को लांघ कर त्रिगुणातीत ( शुद्ध ब्रह्म) होजा ।
८. तेरा अधिकार मात्र कर्म करने मे ही है, कर्मफल मे कभी नही । मतः तू कर्म-फल के हेतु से कर्म करने वाला न हो । साथ ही तेरी अकर्म मे - कर्म न करने मे भी आसक्ति न हो ।
६. समत्व ही योग कहलाता है । अर्थात् हानि लाभ, सुख दुःख आदि मे समभाव रखना, विचलित न होना ही वास्तविक योग है ।
1
समत्वबुद्धि से युक्त होने पर मनुष्य दोनो ही प्रकार के शुभाशुभ ( पुण्य और पापरूप) कर्मों के बन्धन से छूट जाता है । इसलिए हे अर्जुन तू समत्वरूप ज्ञानयोग मे लग जा, समभाव के साथ कुशल कर्मों मे कुशल होने का नाम ही योग है । ११. हे अर्जुन ! जव साधक मन
में
१०
त्याग देता है, और मात्मा से अपने आप मे मगन रहता है, है ।
उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओ को आत्मा मे ही सन्तुष्ट रहता है- अर्थात् तो वह स्थितप्रज्ञ (स्थिरचित्त ) कहलाता
१२. जो कभी दुख से उद्विग्न नही होता, सुख को कभी स्पृहा नही करता, श्रीर जो राग, भय एवं क्रोध से मुक्त है, वही ज्ञानी स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।
१३. कछुआ सब ओर से अपने श्रगो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब साधक सासारिक विपयो से अपनी इन्द्रियो को सब प्रकार से समेट लेता है - हटा लेता है, तो उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित हो जाती है ।
१४. निराहार रहने पर इन्द्रिय- दौर्वल्य के कारण साधक को विषयो के प्रति तात्कालिक पराङ्मुखता -- उदासीनता तो प्राप्त हो जाती है, परन्तु उन विषयो का रस ( राग, मासक्ति) नही छूटता है, वह अन्दर मे बना ही रहता है । वह रस तो रागद्व ेप से विमुक्त परम चैतन्य के दर्शन से छूटता है ।
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दो सौ छियासठ
सूक्ति त्रिवेणी
१५. इन्द्रियारिण प्रमाथीनि हन्ति प्रसभं मनः ।
-२०६०
१६. ध्यायतो विषयान्पुस' सगस्तेषुपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात् क्रोधः प्रजायते ॥
--२१६२
१७. क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।।
-२।६३
१८. प्रसादे सर्वदुःखाना हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि. पर्यवतिष्ठते ।
-२०६५
१६. नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।
-२१६६
२०. या निशा सर्वभूताना तस्यां जागति सयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
-२०६६
२१. विहाय कामान् य. सर्वान् पुमाश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहकारः स शान्तिमधिगच्छति ।।
-२७१
२२. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
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भगवद्गीता को सूक्तियो
दो सौ सडसठ
१५. प्रमथन-स्वभाव वाली बलवान् इन्द्रियां कभी-कभी प्रयत्नशील साधक के
मन को भी बलात् विषयो को ओर खीच ले जाती हैं।
विषयो का चिन्तन करने वाले पुरुष का उन विषयो में संग (मासक्ति, राग) हो जाता है, संग से ही उन विषयो को पाने की कामना होती है, और कामना होने से हो (समय पर अभीष्ट विषयो की प्राप्ति न होने पर) क्रोध (क्षोम) पैदा होता है ।
१७ क्रोध से अत्यन्त मूढता पैदा होती है, मूढता से स्मृतिविभ्रम हो जाता
है, स्मृतिविभ्रम से बुद्धि का नाश होता है । और बुद्धि का नाश होने
पर यह मनुष्य नष्ट हो जाता है, अपनी उच्च स्थिति से गिर जाता है। १८. चित्त प्रसन्न होने पर ही सव दु.खो का नाश होता है । चित्त प्रसन्न होने
से ही बुद्धि प्रतिष्ठित अर्थात स्थिर होती है ।
१६. जो युक्त (योगाभ्यासी, विजितेन्द्रिय) नही है, उसे बुद्धि (ज्ञान) की प्राप्ति
नही होती । अयुक्त (योग की साधना से रहित) व्यक्ति मैत्री, प्रमोद करुणा और माध्यस्थ्य भावनाओ से भी रहित होता है । जो भावनाओं से रहित होता है, उसे शान्ति नही मिलती । और जो अशान्त है ; उसे
सुख कैसे मिल सकता है ? २०. सर्वसाधारण प्राणी जिसे रात समझते हैं और सोते रहते हैं, उस समय
सयमी मनुष्य जागता रहता है । और जिस समय सामान्य मनुष्य जागते हैं, वह तत्त्वज्ञ साधक के लिए रात है । अर्थात् ज्ञानी जिस सासारिक सुख को दु.ख कहते हैं, उसे ही अज्ञानी ससारी जीव सुख कहते हैं । और जिसे अज्ञानी जीव सुख कहते हैं, उसी
सासारिक सुख को ज्ञानी दुःख कहते हैं । २१. जो पुरुष सभी कामनाओ का परित्याग कर स्पृहारहित, ममतारहित
तथा अहंकाररहित होकर जीवन व्यतीत करता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है।
२२. निश्चय से कोई भी व्यक्ति क्षणमात्र भी विना कम किये नही रहसकता।
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दो सौ अडसठ
२३ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य प्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार. स उच्यते ॥
२४ नियत कुरु कर्म त्व कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥
२५. परस्पर भावयन्तः श्रेय. परमवाप्स्यथ ।
२६. यज्ञशिष्टाशिन. सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै । भुञ्जते ते त्वघ पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥
२७ असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।
२८. यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
२६. कर्मण्यकर्म य. पश्येदकर्मणि च कर्म य. । स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
३०
यस्य सर्वे समारम्भा. कामसकल्पवर्जिता । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु. पण्डितं बुधा ॥
द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
सम. सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निबध्यते ॥
३१ यदृच्छालाभसन्तुष्टो
३२ श्र ेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाद् ज्ञानयज्ञ. परंतप ।
सूक्ति त्रिवेणी
- ३।६
—३१८
-३।११
- ३।१३
--३|१६
-३।२१
-४|१८
- ४११६
- ४।२२
-४१३३
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भगवदगीता को सूक्तिया
दो सो उनहत्तर २३. जो कर्मेन्द्रियो को तो कर्म करने से रोक लेता है, किन्तु उनके विषयो
का मन से स्मरण करता रहता है, उसका वह 'आचार' मिथ्याचार
कहलाता है। २४. तू शास्त्रविहित कर्तव्य कम अवश्य कर, क्योकि कम न करने से कर्म
करना ही श्रेष्ठ है । विना कर्म किए तो तेरी शरीर यात्रा भी नहीं चल सकती।
२५ निःस्वार्थ भाव से परस्पर एक दूसरे को उन्नति चाहने वाले, आदर
सत्कार करने वाले ही परम कल्याण को प्राप्त होगे । २६. जो यज्ञ से अर्थात् अपने न्याय प्राप्त भोजन मे से दूसरो को यथोचित दान
करने से अवशिष्ट (वचा हुआ) खाते है, वे श्रेष्ठपुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है । और जो केवल अपने लिए ही पकाते है,साथियो को दिए विना
अकेले ही खाते हैं, वे पापी लोग तो इस प्रकार कोरा पाप ही खाते हैं । २७. अनासक्त रह कर कर्म करने वाला पुरुष परम पद को प्राप्त होता है।
२८. श्रेष्ठजन जो भी-जैसा भी माचरण करते है, इतर जन भी वैसा ही
आचरण करते हैं । वे जिस बात को प्रामाणिक एवं उचित मानते हैं,
दूसरे लोग उन्ही का अनुकरण करते हैं। २९. जो मनुष्य कम मे अकर्म को और अकर्म मे कम को देखता है, वही मनुष्यो
मे बुद्धिमान है, योगी है, और सब कुशल कर्मों का वास्तविक कर्ता है।
[निष्काम कर्म वस्तुतः अकर्म ही है, सकाम अकर्म मूलत कर्म ही है ।] __ ३० जिसके सभी विहित कर्तव्य कर्म काम-सकल्पो से रहित होते हैं, जिसके
सभी सकाम कर्म ज्ञानाग्नि मे जल गए हैं, उस महान् आत्मा को ज्ञानी
जन भी पण्डित कहते हैं। ३१. जो यथालाभ-सत्तोषी है, जो शीतोष्ण आदि द्वन्द्वो से विचलित नही होता,
जो मत्सररहित है, हर्ष-शोक से रहित होने के कारण जिसके लिए सफला-विफलता दोनो बराबर हैं, वह कर्मयोगी कर्म करता हुमा भी
उनसे नही बंधता । ३२. हे अर्जुन | द्रव्यमय यज्ञो से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ।
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दो सौ सत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
३३. यथैधासि समिद्धोऽग्निर् भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥
-४,३७
३४ न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
-४।३८
३५ श्रद्धावाल्लभते ज्ञान तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परा शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
-४।३६
३६. संशयात्मा विनश्यति ।
-४४०
३७. न सुख संशयात्मनः ।
-४४०
३८. ज्ञेय. स नित्यसन्यासी यो न दुष्टि न कांक्षति ।
निन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते ।।
-५३
३६. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।
-११४
४०. अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।
-५१५
४१. विद्या-विनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिनः ॥
-५१८
४२. इहैव तैजित. सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
-१६
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भगवद्गीता को सूक्तियाँ
दो सौ इकहत्तर ३३. हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि समिधामो (लकड़ियो) को भस्म कर
देती है, वैसे ही ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है।
३४ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नही है ।
३५. ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धावान् होना आवश्यक है और उसके साथ
इन्द्रियसंयमी भी। ज्ञान प्राप्त होने पर शीघ्र ही शान्ति की प्राप्ति होती है।
३६. सशयात्मा (सम्देहशील) व्यक्ति नष्ट हो जाता है, अपने परमार्थ लक्ष्य
से भ्रष्ट हो जाता है। ३७. संशयालु को कभी सुख नही मिलता ।
३८. हे महाबाहो अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष रखता है, और न किसी
तरह की आकाक्षा रखता है, उसे नित्य सन्यासी ही समझना चाहिए । क्योकि रागद्वेषादि द्वन्द्वो से रहित पुरुष ही सुखपूर्वक संसार-बन्धन से
छूट सकता है। ३६. ईश्वर न तो ससार के कर्तव्य का रचयिता है, न कर्मों का रचयिता है,
और न वह कर्मफल के सयोग की ही रचना करता है । यह सब तो प्रकृति का अपना स्वभाव ही वत रहा है।
४०. अज्ञान से ज्ञान ढका रहता है, इसी से सब अज्ञानी प्राणी मोह को
प्राप्त होते हैं।
४१. जो तत्त्वज्ञानी हैं, वे विद्या एव विनय से युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते
तथा चाण्डाल मे सर्वत्र समदर्शी ही होते हैं, भेदबुद्धि नही रखते ।
४२. जिनका मन समभाव में स्थित है, उन्होने यहां जीते-जी ही संसार को
जीत लिया है।
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सूक्ति त्रिवेणी
दो सौ बहत्तर ४३ उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
- ६१५
४४ बन्धुरात्मा ऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
-६६
४५ नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत ।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चाजुन ॥
-६१६
४६. युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु खहा।
-६१७
४७ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन ।।
-६२६
४८. आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो ऽर्जुन ।
सुख वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः ॥
-६।३२
४६. असंशयं महाबाहो ! मनो दुनिर्ग्रह चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।
-६३५
५० न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गति तात गच्छति ।
-६।४०
५१. अध्यात्मविद्या विद्यानाम् ।
--१०३२
५२. निर्वैरः सर्वभूतेषु य. स मामेति पाण्डव ।
-१११५५
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भगवद्गीता को सूक्तियों
दो सौ तिहत्तर ४३. अपने आप ही अपना उदार करो, अपने आप को नीचे न गिरामओ,
क्योकि यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।
४४. जिसने अपने आप से अपने आपको जीत लिया है, उसका अपना आत्मा
ही अपना बन्धु है।
४५. हे अर्जुन । जो बहुत अधिक खाता है या विल्कुल नहीं खाता, जो बहुत
सोता है या बिल्कुल नही सोता-सदा जागता रहता है, उसकी योग
साधना सिद्ध नहीं हो सकती। ४६. जिस का आहार-विहार ठोक (अति से रहित, यथोचित) है, जिसकी
चेष्टाए -क्रियाएं ठीक हैं, जिसका सोना-जागना ठीक है, उसी को यह
दुःखनाशक योग सिद्ध होता है । ४७ अनन्त चैतन्य को व्यापक चेतना से युक्त योगी अपने आप को सब में
तथा सब को अपने आप में देखता है, वह सर्वत्र समदर्शी होता है।
४८. हे अर्जुन | अपने-जैसा ही सुख तथा दुःख को जो सब प्राणियो मे समान
भाव से देखता है अर्थात् अपने समान ही दूसरो के सुख दुख की अनुभूति करता है, वही परमयोगी माना जाता है। हे महाबाहो ! इस मे सन्देह नही कि मन बडा चचल है, इसका निग्रह कर सकना कठिन है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र | अभ्यास (एकाग्रता की सतत साधना) और वैराग्य (विषयो के प्रति विरक्ति) से यह वश मे आ
जाता है। ५०. हे तात | शुभ कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नही होता ।
४६
५१. विद्याओ मे अध्यात्म पद्या ही सर्वश्रेष्ठ है ।
५२. हे पाण्डव ! ओ सभी प्राणियो के प्रति निर्वैर विर से रहित) है, वही
मुझे प्राप्त कर सकता है।
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मूक्ति त्रिवेणी
दो सौ चौहत्तर ५३ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। .
हामर्षभयो गैर मुक्तो यः स च मे प्रियः।।
-१२।१५
५४. निर्मानमोहा जितसगदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्व विमुक्ताः सुखदुःखसज्ञैर्
गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।
-
-१५१५
५५. न तद् भासयते सूर्यो न शशाधो न पावकः ।
यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परम मम ।।
-१५॥६
५६. विविध नरकस्येदं द्वार नाशनमात्मनः ।
काम. क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।।
-१६२१
५७. सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत !
श्रद्धामयो ऽयं पुरुषो यो यच्छ,द्धः स एव सः ।।
-१७१३
५८. अनुगकरं वाक्य सत्यं प्रियहित च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसन चैव वाङ्मयं तप उच्यते ।।
-~-१७४१५
५६. मन प्रसादः सौम्यत्त्वं मीनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंगुद्धिरित्येनत् तपो मानममुच्यते ॥
--१७११६
६० सत्कार-मान-पूजार्थ तपो दभेन चैव तत् ।
क्रियते नदिह प्रोक्त राजसं चलमध्र वम् ॥
-१७११८
६१ मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्मादनार्थ वा तत् तामसमुदाहृतम् ।।
---१७११६
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भगवद्गीता को सूक्तिया
दो सौ पिचहत्तर
५३ जो न किसी दूसरे प्राणी को उद्विग्न करता है और न स्वय ही किसी अन्य से उद्विग्न होता है, जो हर्ष-शोक से तथा भय और उद्व ेग से मुक्त है, वह भक्त मुझ को प्रिय है ।
५४. जिनका अहकार तथा मोह नष्ट हो गया है, जिन्होने आसक्ति को जीत लिया है, जो अध्यात्मभाव मे नित्य निरत हैं, जिन्होने काम भोगो को पूर्ण रूप से त्याग दिया है, जो सुख दुःख आदि के सभी द्वन्द्वो से मुक्त है, वे मभ्रान्त ज्ञानीजन अवश्य ही अव्यय - अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ।
५५. वहां न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रमा का और न अग्नि का, जहाँ जाने के बाद फिर लोटना नही होता है, वही मेरा परम धाम है ।
५६. काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीनो नरक के द्वार हैं तथा श्रात्मा का विनाश करने वाले हैं, इसलिए इन तीनो को छोड देना चाहिए ।
५७. हे अजुन । जैसा व्यक्ति होता है, वैसी हो उसकी श्रद्धा होती है । पुरुष वस्तुत. श्रद्धामय है, जो जैसी श्रद्धा करता है, वह वही (वैसा ही ) हो जाता है ।
५८. उद्व ेग ( अशान्ति) न करने वाला, प्रिय, हितकारी यथार्थ सत्य भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास - ये सब वाणी के तप कहे जाते हैं ।
५६. मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना--- ये सब 'मानस' तप कहे जाते हैं ।
६०. जो तप सत्कार, मान, और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखण्ड भाव से किया जाता है, वह अनिश्चित तथा अस्थिर तप होता है, उसे 'राजस' तप कहते हैं ।
६१. जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से तथा मन, वचन और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह 'तामस ' तप कहा जाता है ।
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दो सौ छियत्तर
सूक्ति त्रिवेणी
६२. दातव्यमिति यद् दान दीयतेऽनुपकारिणे ।। देशे काले च पात्रे च तद् दान सात्विक स्मृतम् ।। -
-
-१७२०
६३. यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमद्दिस्य वा पुन ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद् दान राजस स्मृतम् ॥
-१७१२१
६४. प्रदेशकाले यद् दानपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञात तत् तामसमुदाहृतम् ।।
-१७।२२
६५. अश्रद्धया हुतं दत्त तपस्तप्त कृत च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ ! न च तत्प्रेत्य नो इह ।।
-१७१२८
६६ स्वे स्वे कर्मण्यभिरत ससिद्धि लभते नरः ।
-१८।४५
६७. सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृता.।
-१५१४८
६८. ब्रह्मभत प्रसन्नात्मा न शोचति न काक्षति ।
-१८१५४
६६. ईश्वरः सर्वभूताना हृद्-देशे ऽर्जुन तिष्ठति ।
---१८॥६१
.
6
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भगवद्गीता को सूक्तियां
दो सौ सततर
६२ जो दान कर्तव्य समझ कर एकमात्र 'दान के लिए दान' के भाव से ही
दिया जाता है, तथा योग्य देश, काल तथा पात्र का विचार कर अनुपकारी (जिसने अपना कभी कोई उपकार न किया हो तथा भविष्य मे जिन से कभी उपकार की अपेक्षा न हो) को दिया जाता है, वह दान 'सात्विक दान' कहा जाता है ।
६३ जो दान क्लेशपूर्वक, बदले की माशा से, फल को दृष्टि मे रख कर
दिया जाता है, वह दान 'राजस' दान कहलाता है।
६४. जो दान विना सत्कार-सम्मान के अवज्ञापूर्वक, तथा विना देश काल का
विचार किए कुपात्रों को दिया जाता है, वह दान 'तामस' दान कहलाता
६५. हे अर्जुन । विना श्रद्धा के किया हुअा हवन, दिया हुमा दान, एव तपा
हुमा तप, और जो कुछ भी किया हुमा शुभ कर्म है, वह सब 'असत्' कहलाता है । वह न तो इस लोक मे लाभदायक होता है, न मरने के
नाद परलोक मे। ६६.. अपने-अपने उचित कम मे लगे रहने से ही मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती
६७. सभी-कर्मों में कुछ-न-कुछ दोष उसी प्रकार लगा रहता है, जैसे अग्नि के
साथ घु। . ६८. जो साधक ब्रह्मभूत-ब्रह्मस्वरूप हो जाता है, वह सदा प्रसन्न रहता है।
वह न कभी किसी तरह का सोच करता है, न आकाक्षा । ६६. हे अर्जुन | ईश्वर सभी प्राणियो के हृदय में विराजता है ।
ODOD Don
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मनुस्मृति की सूक्तियां
१. सप. परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर् दानमेक कलौ युगे ।।
२. बुद्धिमत्सु नरा. श्रेष्ठाः ।
-
. .
.--१९६
३. प्राचारः परमो धर्मः।
।
४. विद्वद्भिः सेवित. सर्भिनित्यमपरागिभिः ।
हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तन्निबोधत ॥
५. संकल्पमूल. कामो वै।
-२२३
६. एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्नजन्मनः ।
स्वं स्व चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।
--२०२०
*अंक क्रमश. अध्याय एव इलोक के सूचक है।
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मनुस्मृति की सूक्तियां
१ कृत युग में 'तप' मुख्य धर्म था, त्रेता में 'ज्ञान', द्वापर में यज्ञ और
कलियुग में एकमात्र दान ही श्रेष्ठ धर्म है।
२ बुद्धिमानों में मनुष्य सब से श्रेष्ठ है।
.
.
३. आधार हो प्रथम एवं श्रेष्ठ -धर्म है।
. .
. . .
४. रागद्वेष से रहित झानी सत्पुरुषो द्वारा जो आचरित है, तथा अपने .नि सदिग्ध अन्तःकरण द्वारा अनुप्रेरित है, उसी को वास्तविक धर्म
जानिए । ५. निश्चय ही काम का मूल सकल्प है।
६ इस आर्यदेश भारत में जन्म लेने वाले ,अग्रजन्मा, ब्राह्मण, (सदाचारी ., विद्वान) के पास मूमण्डल के सभी मानव अपने-अपने योग्य चरित्र को
शिक्षा ग्रहण करे।
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दो सौ अस्सी
सूक्ति त्रिवेणी
७. नापुष्टः कस्यचिद् ब्रूयात् ।
-२॥११०
८. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि संप्रवर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥
-२६१२१
६. वित्त बन्धर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम् ॥
-२।१३६
१० उपाध्यायान् दशाचार्य प्राचार्याणां शत पिता।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥
-२११४५
११. पज्ञो भवति वै बालः ।
-२११५३
१२. न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलित शिरः। यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा. स्थविरं विदुः॥ - -
-२६१५१ १३. अहिंसयव भूताना कार्य श्रेयोऽनुशासनम् । . .
-२१५६ १४ वाक् चैव मधुरा श्लक्षणा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ।
-२०१५६ १५. नारुन्तुदः स्यादातॊ ऽपि, न परद्रोहकर्मधीः ।
-२११५१
१६. सम्मानाद्-ग्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव ।
-२१६२
१७. प्रवमन्ता विनश्यति ।
-२।१६३
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मनुस्मृति को सूक्तियो
७. विना पूछे किसी के बीच मे व्यर्थ नही बोलना चाहिए ।
दो सौ इक्यासी
८. जो सदा वृद्धो ( ज्ञानवृद्ध श्रादि गुरुजनो) का अभिवादन करता है तथा उनकी निकटता से सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बलये चारो निरन्तर बढते रहते हैं ।
६. घन, बन्धु, आयु, कर्म एवं विद्या - ये पाँचो सम्मान के स्थान है। किंतु इनमें क्रमश. एक से दूसरा स्थान उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माना गया है ।
१०. दश उपाध्यायो से एक माचार्य महान है, सो आचार्यों से एक पिता और हजार पिताओ से एक माता का गौरव अधिक है ।
११ बस्तुत. अज्ञ ( मूखं ) हो बाल है, प्रल्पवयस्क नही ।
१२. शिर के बाल पक जाने से ही कोई वृद्ध नही माना जाता है। जो युवावस्था में भी विद्वान है उसे देवताओ ने स्थविर माना है ।
१३. महिंसा की भावना से अनुप्राणित रहकर ही प्राणियों पर अनुशासन, करना चाहिए ।
१४. धर्म को इच्छा करने वाले को चाहिए कि वह माधुयं ओर स्नेह से - युक्त वाणी का प्रयोग करें ।
१५. साधक को कोई कितना ही क्यो न कष्ट दे, किन्तु वह विरोधी की हृदयवेषक किसी गुप्त ममं को प्रकट न करे, और न दूसरो के द्रोह का ही कभी विचार करे ।
१६. विद्वान् सम्मान को विष की तरह समझ कर सदा उससे डरता रहे ।
१७. अपमान करने वाला अपने पाप से स्वय नष्ट हो जाता है ।
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दो सौ वियासी
सूक्ति निवेषो १८. परीवादात् खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः। ,
-२।२०१ १९. बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वासमपि कर्षति ।
-२।२१५ २०. आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः । माता पृथिव्या मूर्तिस्तु म्राता स्वो मूर्तिरात्मनः ।।
-२१२२६ २१. अन्त्यादपि पर धर्म स्त्रीरल दुष्कुलादपि ।
--२१२३८ २२. विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् । अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम् ।।
-२०२३६ २३. अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ।
२४. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
---३५६
२५. शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
-३१५७
२६. .घन्य यशस्यमायुष्य स्वयं वा ऽतिथिपूजनात् ।
-३३१०६
२७. सुखार्थी सयतो भवेत् ।
-४१२
२८. यथा यथा हि पुरुष शास्त्रं समधिगच्छति ।
तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते ।।
-४२०
२६. नाऽधार्मिके वसेद् प्रामे।
.,
-४६०
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मनुस्मृति को सूक्तियां
दो रो तिरासी १८. गुरुजनो का परिवाद करने वाला मर कर गधा होता है और निन्दा
करने वाला कुत्ता। १६. इन्द्रियसमूह बड़ा बलवान होता है, अतः वह कभी-कभी विद्वान सापक
को भी अपनी और खोच लेता है। २०. आचार्य ब्रह्मा को प्रतिकृति है, पिता प्रजापति की, माता पृथिवी की
तथा भ्राता तो साक्षात् अपनी ही प्रतिकृति है ।
२१
चाडाल से भी प्ठ धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए और योग्य स्त्री को नोच कुल से भी प्राप्त कर लेना चाहिए । विष से भी अमृत, वालक से भी सुभाषित, शत्रु से भी श्रेष्ठचरित्र एव अपवित्र स्थल से भी स्वर्ण ग्रहण कर लेना चाहिए ।
२२
२३. अपने शरीर के स्वास्थ्य को क्षति न पहुँचाते हुए धन का अर्जन करना
चाहिए। २४. जहाँ नारी की पूजा (सम्मान) होती है, वहां देवता (दिव्य ऋद्धि-सिठियां)
निवास करते हैं । २५. जिस कुल में अपमान आदि के कारण कुलबधुएं शोकाकुल रहती है,
वह कुल गोघ्र ही नष्ट हो जाता है । २६. प्रतिथिसत्कार से धन, यश, आयुष्य एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।
२७. सुख की इच्छा रखने वाले को संयम से रहना चाहिए ।
२८. जैसे जैसे पुरुष शास्त्रो का गहरा अभ्यास करता जाता है, वैसे वैसे वह - उनके रहस्यो को जानता जाता है और उसका ज्ञान उज्ज्वल एव प्रकाश
मान होता जाता है। २६. अधार्मिक ग्राम मे निवास नही करना चाहिए ।
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दो सौ चौरासी
३०. न कर्म निष्फलं कुर्यान्नायत्यामसुखोदयम् ।
३१ ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थों चानुचिन्तयेत् ।
३२. सत्य ब्रूयात् प्रिय ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रिय च नानृतं द्रयादेष धर्मः सनातनः ॥
३३. शुष्कवैर विवाद च न कुर्यात्केनचित् सह ।
३४. सर्वं परवश दुःखं सर्वमात्मवश सुखम् । एतद् विद्यात् समासेन लक्षरण सुखदुखयोः ॥
३५. सर्वेषामेव दानाना ब्रह्मदानं विशिष्यते ।
३६. योऽचित प्रतिगृह, गाति ददात्यचितमेव च । तावुभौ गच्छतः स्वर्गं नरकं तु विपर्यये ॥
३७. तप क्षरति विस्मयात्.... दानं च परिकीर्तनात् ।
३८. एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रयोऽधिगच्छति ।
३६. यावन्ति पशुरोमाणि तावत् कृत्वेह मारणम् । वृथा पशुनः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥
४०. मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मासमिहाद्म्यहम् | एतन्मासस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिण ॥
सूक्ति त्रिवेणी
-४/७०
४/६२
-४११३८
—४|१३ε
- ४१६०
—४।२३३
--४।२३५
-४१२३६
-४/२५८
-५।३८
५५५
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मनुस्मृति की सूक्तियां
दो सौ पिचासी
३०. जो कर्म यूही तिनके तोडने आदि के रूप मे निष्फल अर्थात् उद्देश्यहीन
हो, व्यर्थ हो, और जो भविष्य मे दुख'प्रद हो, वह कर्म कभी नही करना
पाहिए। ३१. प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त मे जाग कर धर्म और अर्थ का चिन्तन करना
चाहिए। ३२. मत्य और प्रिय बोले, अप्रिय सत्य न बोले, प्रिय भी यदि असत्य हो तो
न बोले-यह सनातन (शाश्वत) धर्म है ।
३३. शुष्क (निष्प्रयोजन) वैर और विवाद किसी के भी साथ नही करना
चाहिए। ३४. "जो कर्म एव वात पराधीन है, पराये वशमे है, वह सब दुख है, और जो
अपने अधीन है, अपने वश मे है, वह सब सुख है ।" यह सुख दु ख का
सक्षिप्त लक्षण है। ३५ सब दानो में ज्ञान का दान ही श्रेष्ठ दान है ।
३६. जो सत्कार-सम्मान के साथ दान देता है और जो सत्कार-सम्मान के
साथ ही दान लेता है, दोनो ही स्वर्ग के अधिकारी हैं । इसके विपरीत
जो अपमान के साथ दान देते और लेते हैं, वे मर कर नरक मे जाते हैं। ३७. अहकार से तप क्षीण (नष्ट) हो जाता है, और इधर उधर कहने से दान
क्षीण अर्थात् फलहीन हो जाता है । ३८, जो साधक निर्जन एकान्त प्रदेश मे एकाको आत्मस्वरूप का चिन्तन करता
है, वह परमश्रेय ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है । ३६. जो व्यक्ति निरर्थक (निरपराध) ही पशु की हत्या करता है, वह पशु के
शरीर पर जितने रोम हैं, उतनी ही वार जन्म-जन्म में प्रतिघात (मारण)
को प्राप्त होता रहेगा, अर्थात् दूसरो के द्वारा मारा जाएगा। ४०. "मैं यहां पर जिसका मास खाता हूँ, मुझको भी वह ( मा-सः ) पर
लोक मे खायेगा।"-मनीषी विद्वान् मास की यह मौलिक परिभाषा (मांसत्व ) बतलाते हैं।
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दो सौ छियासी
सूक्ति त्रिवेणी
४१. सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम् ।
यो ऽर्थे शुचिहि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥
-५॥१०६
__४२ क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वास ।
-५१०७
४३. अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्या भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।
-॥१०६
४४. सदा प्रहृष्टया भाव्य गृहकार्येषु दक्षया।
-१५०
४५ दृष्टिपूतं न्यसेत्पाद वस्त्रपूत जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदेद् वाचं मन पूतं समाचरेत् ।।
-६१४६
४६. नावमन्येत कञ्चन ।
-६१४७
४८, अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् ।
-६१५७
४८ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च ।
अहिंसया च भूतानाममृतत्त्वाय कल्पते ।।
-६६०
४६. न लिङ्ग धर्मकारणम् ।
-६६६६
५०. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
-६७४
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मनुस्मृति को सूक्तिया
दो सौ सत्तासी ४१. संसार के समस्त शौचो (शुद्धियो) मे अर्थशौच (न्याय से उपाजित धन)
हो श्रेष्ठ शौच (उत्कृष्ट शुद्धि) है । जो अर्थशौच से युक्त है, वही वस्तुत: शुद्ध हैं । मिट्टी और पानी की शुद्धि वस्तुत. कोई शुद्धि
नहीं है। ४२. विद्वान् क्षमा से ही पवित्र-शुद्ध होते हैं ।
४३. जल से शरीर शुद्ध होता है, सत्य मे मन, विद्या और तप से आत्मा तथा
शान से बुद्धि शुद्ध होती है।
४४. गृहवधू को सदा प्रसन्न एवं गृहकार्य में दक्ष रहना चाहिए।
४५. दृष्टि से शोषन कर (छानकर) मूमि पर पैर रखना चाहिए, वस्त्र से
शोधन कर जल पीना चाहिए, सत्य से शोधन कर वाणी बोलनी चाहिए तपा प्रत्येक कार्य को पहले मनन-चिन्तन से शोधन कर पश्चात् आचरण में लेना चाहिए।
४६. किसी का भी अपमान नही करना चाहिए ।
४७. बलाम (इच्छित वस्तु न मिलने पर) में शोकाकुल नही होना चाहिए
और लाभ में अधिक फूल उठना नहीं चाहिए ।
४६.
इन्द्रियो के निग्रह से, रागदोष को विजय करने से और प्राणिमात्र के प्रति अहिंसक रहने से साधक अमृतत्व के योग्य होता है अर्थात् अमरता प्राप्त करता है।
४६ विभिन्न प्रकार की साप्रदायिक वेश-भूषा धर्म का हेतु नही है।
५०. सम्यग्दर्शन (आत्मसाक्षात्कार) से सम्पन्न साधक कर्म से बद्ध नही
होता।
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दो सौ नवे
सूक्ति त्रिवेणी
६३. एक एव सुहृधर्मो निधनेप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं नाग सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।
-८१७
६४. श्राकारैरिङ्गितर्गत्या चेष्टया भापितेन च ।
नेय-वक्त्र-विकारणव गृह्यते ऽन्तर्गतं मनः ।।
-८।२६
६५. सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते ।
-८८३
६६. प्रात्मैव ह्यात्मन. साधी गतिरात्मा तथात्मनः ।
-८1८४
६७. न वृथा गपथ कुर्यात् ।
-८१११
६८. यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
-६।१३०
६६. राजा हि युगमुच्यते ।
--३०१
७०. अहिंसा सत्यमस्तेयं गोचमिन्द्रियनिग्रहः ।
एत सामासिकं धर्म चातुर्वर्थेऽब्रवीन्मनुः ।।
-१०।६३
७१. शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।
-१०१६५
७२. स्ववीय बलवत्तरम् ।
-~१११३२
७३. कृत्वा पापं हि सतप्य तस्मात्पापात् प्रमुच्यते ।
-११।२३०
७४. तपोमूलमिदं सर्व देवमानुपक सुखम् ।
-११।२३५
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मनुस्मृति को सूक्तियां
दो सौ इकानवे ६३. धर्म ही मनुष्य का एकमात्र वह सखा है, जो मृत्यु के बाद भी उसके
साथ जाता है । अन्य सब कुछ तो शरीर के साथ यहां पर ही नष्ट हो
जाता है। ६४ आकार (रोमाञ्चआदि) से, इंगित (इधर उधर देखने) से, गति, चेष्टा,
वाणी एव नेत्र और मुख के बदलते हुए भावो से, मन मे रहे हुए
विचारो का पता लग सकता है । ६५ सत्य से ही साक्षी (गवाह) पवित्र होता है । सत्य से ही धर्म की अभि
वृद्धि होती है। , कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय के लिए आत्मा ही आत्मा का साक्षी है,
आत्मा ही आत्मा को गति है । ६७. हर किसी बात पर व्यर्थ ही शपथ नही खानी चाहिए।
६८. पिता के लिए पुत्र आत्म-तुल्य (अपने बरावर) होता है और पुत्री पुत्र
तुल्य (पुत्र के समान)। ६९. वस्तुतः राजा ही युग का निर्माता होता है ।
.
७०. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह-संक्षेप मे धर्म
का यह स्वरूप चारो ही वर्गों के लिए मनु ने कथन किया है ।
७१. अच्छे पाचरण से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और बुरे आचरण से ब्राह्मण
शूद्र !
७२. अपना वीर्य (सामथ्र्ष) ही सब से श्रेष्ठ बल है ।
७३. कृत पाप के लिए सच्चे मन से पश्चात्ताप कर लेने से प्राणी पाप से छूट
जाता है। ७४. मनुष्यो और देवताओ के सभी सुखो का मूल तर है ।
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दो सौ अठामी
सूक्ति त्रिवेणी
५१ धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीविद्या सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम् ।।
-६६२
५२. दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
-
-७।२२
५३. दण्डः शास्ति प्रजा. सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति ।
-७१८
५४. जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितु प्रजाः।
-७४४
५५. व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते ।
-~७५३
५६. अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत्प्रयत्नतः।
रक्षितं वद्धयेच्चैव वृद्ध पात्रेप निक्षिपेत् ।।
-७188
५७. बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
- -७१०५
५८ तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति समत. ।
-७१४०
५६. क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम् ।
-७११४४
६०. आपदर्थ धन रक्षेद दारान् रक्षेद् धनैरपि ।
-७२१२
६१. प्रात्मानं सततं रक्षेत् ।
-२१२
६२. धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
-८/१५
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मनुस्मृति को सूक्तियां
दो सौ नवासी
५१. धैर्य, क्षमा, दम (मन.संयम तथा तितिक्षा), अस्तेय, शौच (पवित्रता),
इन्द्रिय-निग्रह, घो (तत्वज्ञान), विद्या (मात्मनान), सत्य और मक्रोध
(क्रोध के हेतु होने पर भी क्रोध न करना)-ये दस धर्म के लक्षण हैं। ५२ मूलतः स्वभाव से विशुद्ध मनुष्य का मिलना कठिन है ।
५३ दण्ड ही समग्र प्रजा का शासन एव संरक्षण करता है ।
५४ जितेन्द्रिय शासक ही प्रजा को अपने वश में कर सकता है ।
५५. दुष्यंसन एव मृत्यु-इन दोनो मे दुर्व्यसन ही अधिक कष्टप्रद है ।
५६ प्रप्राप्त ऐश्वर्य को प्राप्त करने का सकल्प करें, प्राप्त ऐश्वयं की प्रयत्न
पूर्वक रक्षा करे । सुरक्षित ऐश्वयं को बढाते रहे तथा बढे हुए ऐश्वर्य
को धर्म एवं राष्ट्र के लिए उचित रूप से अर्पित करें। ५७. वगुले के समान एकाग्रता से अपने प्राप्तव्य लक्ष्य का चिन्तन करना
चाहिए तथा सिंह के समान साहस के साथ पराक्रम करना चाहिए ।
५८. जो शासक आवश्यकतानुसार समय पर कठोर भी होता है एव मृदु भी,
वही मव को मान्य होता है । ५६. प्रजा का पालन करना ही क्षत्रिय का सब से बडा धर्म है ।
६० आपत्ति निवारण के लिए धन संगृहीत करके रखना चाहिए। धर्मपत्नी
की रक्षा के लिए समय पर धन का मोह भी त्याग देना चाहिए ।
६१. मनुष्य को अपने आत्म-गौरव एव व्यक्तित्व की निरन्तर रक्षा करनी
चाहिए। ६२. जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसे नष्ट कर देता है, और जो धर्म की
रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
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दो सौ नवे
सूक्ति त्रिवेणी
६३. एक एव सुहृद्धर्मो निधनेप्यनुयाति यः ।
शरीरेण सम नाश सर्वमन्यद्धि गच्छति ॥
-८॥१७
६४. प्राकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च ।
नेत्र-वक्त्र-विकारशव गृह्यते ऽन्तर्गतं मनः ।।
-८.२६
६५ सत्येन पूयते साक्षी धर्म. सत्येन वर्धते ।
-८८३
६६. आत्मैव ह्यात्मन साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः ।
-८1८४
६७. न वृथा शपथ कुर्यात् ।
-८१११
६८ यथैवात्मा तथा पुत्र पुत्रेण दुहिता समा।
---६।१३०
६९. राजा हि युगमुच्यते ।
-६।३०१
७०. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
एत सामासिक धर्म चातुर्वण्र्येऽब्रवीन्मनुः ।।
---१०६३
७१. शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चति शूद्रताम् ।
-१०॥६५
७२. स्ववीयं बलवत्तरम् ।
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७३. कृत्वा पापं हि सतप्य तस्मात्पापात् प्रमुच्यते ।
-११।२३०
७४. तपोमूलमिदं सर्व देवमानुषक सुखम् ।
-१११२३५
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मनुस्मृति को सूक्तिया
दो सौ इकानवे ६३. धर्म ही मनुष्य का एकमात्र वह सखा है, जो मृत्यु के बाद भी उसके
साथ जाता है । अन्य सब कुछ तो शरीर के साथ यहां पर ही नष्ट हो
जाता है। ६४ आकार (रोमाञ्चमादि) से, इंगित (इधर उधर देखने) से, गति, चेष्टा,
वाणी एव नेत्र और मुख के बदलते हुए भावो से, मन मे रहे हुए
विचारो का पता लग सकता है । ६५. सत्य से ही साक्षी (गवाह) पवित्र होता है । सत्य से ही धर्म को अभि
वृद्धि होती है। कतंव्याकर्तव्य के निर्णय के लिए आत्मा ही आत्मा का साक्षी है,
आत्मा हो मात्मा की गति है । ६७. हर किसी बात पर व्यर्थ ही शपथ नही खानी चाहिए।
६८ पिता के लिए पुत्र आत्म-तुल्य (अपने बराबर) होता है और पुत्री पुत्र
तुल्य (पुत्र के समान)। ६६. वस्तुत. राजा हो युग का निर्माता होता है।
।
७०. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, गौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह-संक्षेप मे धर्म
का यह स्वरूप चारो ही वर्गों के लिए मनु ने कथन किया है ।
७१. अच्छे आचरण से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और बुरे आचरण से ब्राह्मण
शूद्र !
७२. अपना वीर्य (सामथ्र्ष) ही सब से श्रेष्ठ बल है ।
७३. कृत पाप के लिए सच्चे मन से पश्चात्ताप कर लेने से प्राणी पाप से छूट
जाता है। ७४. मनुष्यो और देवताओ के सभी सुखो का मूल तर है ।
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दो सौ दानवे
७५ ब्राह्मणस्य तपो ज्ञान तप. क्षत्त्रस्य रक्षणम् ।
७६ यद् दुस्तर यद् दुरापं यद् दुर्गं यच्च दुष्करम् । सर्वं तत् तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥
७७ सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञान रागद्वेषौ रज. स्मृत. }
७८ अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन श्र ेष्ठा ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः । धारिभ्यो ज्ञानिनः श्र ेष्ठा ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः ॥
७६. आत्मैव देवता. सर्वा सर्वमात्मन्यवस्थितम् ।
सूक्ति त्रिवे
---१११२३
-११।२३
- १२/२
- १२।१०
- १२।११
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मनुस्मृति को सूक्तियो
दो सौ तिरानवे
७५ ब्राह्मग का तप ज्ञान है, ओर क्षत्रिय का तप दुर्वल की रक्षा करना है।
७६ जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है (कठिनता से प्राप्त होने जैसा है), दुर्गम है, और
दुष्कर है, वह सब तप मे साधा जा सकता है । साधना क्षेत्र मे तप एक दुर्लघन शक्ति है, अर्थात् तप से सभी कठिनतामो पर विजय प्राप्त की
जा सकती है। ७७. ज्ञान सत्त्व गुण है, रागद्वप रजोगुण है और अज्ञान तमोगुण है ।
०८. मनानी मूर्ख मे शास्त्र पढने वाला श्रेष्ठ है, पढ़ने वाले से शास्त्र को
स्मृति मे धारण करने वाला, धारण करने वाले से शास्त्र के मर्म को समझने वाला ज्ञानी, और ज्ञानी से भी उस पर आचरण करनेवाला
श्रेष्ठ है। ७६. आत्मा सर्वदेव स्वरूप है अर्थात् सभी दिव्य-शक्तियो का केन्द्र है। आत्मा
में ही सब कुछ अवस्थित है ।
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सूक्ति
करण
१. न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ।
-ऋग्वेद ११४१६
२. सत्यं ततान सूर्यः ।
-१११०५।१२
३. उदीध्वं जीवो असुन आगादप,
प्रागात् तम या ज्योतिरेति ।
-११११३१६
४. ऋतस्य धीतिर्वजिनानि हन्ति ।
-४।३३८
५. निन्दितारो निन्द्यासो भवन्तु ।
--२२।६
६. इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं, न स्वप्नाय स्पृहयन्ति,
यन्ति प्रमादमतन्द्रा. ।
-८।२।१८
७. यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिंल्लोके स्वहितम् ।
तस्मिन् मा घेहि पवमानामृते लोके अक्षिते ।।
-६१३७
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सूक्ति
करण
१. कभी किसी को निन्दा नही करनी चाहिए ।
२. सूर्य (तेजस्वी आत्मा) ही सत्य का प्रसार कर सकता है।
३. मनुष्यो, उठो । जीवनशक्ति का स्रोत प्राण सक्रिय हो गया है। अन्धकार
चला गया है, आलोक आ गया है ।
४. सत्य की बुद्धि पापो को नष्ट कर डालती है ।
५ निन्दक लोग आखिर स्वयं ही निन्दित हो जाते हैं ।
६ देवता सोम छानने वाले पुरुषार्थी को चाहते हैं, सोते रहने वाले आलसी
को नही । आलस्य से मुक्त कर्मठ व्यक्ति ही जीवन का वास्तविक प्रमोद
आनन्द प्राप्त करते हैं। ७ जहां ज्योति निरन्तर रहती है, और जिस लोक मे सुख निरन्तर स्थित
है, उस पवित्र, अमृत, अक्षुण्ण लोक में मुझे स्थापित कीजिए।
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दो सौ छियानवे
सूक्ति त्रिवेणी
८. अपानक्षासो बधिरा अहासत ।
ऋतस्य पन्था न तरन्ति दुष्कृतः॥
-६७३।६
६. मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत ।
-१०।१८।२
१०. प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय ।
--१०।१८।३
११. आकूति. सत्या मनसो मे अस्तु ।
~१०।१२८।४
१२. उत देवा अवहित देवा उन्नयथा पुनः ।
-~१०११३७।१
१३. भद्र वैवस्वते चक्षुः ।
-१०।१६४।२
१४. मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ।
अथर्ववेद १।१२
१५. विद्वानुदयनं पथः।
-५३०७
१६. अयं लोकः प्रियतमो देवानामपराजितः ।
-५३७११७
१७. अहमस्मि यशस्तमः।
१८. प्रारभस्वेमाममृतस्य श्नुष्टिम् ।
--8२।१
१९. मधु जनिपीय मधु वशिपीय ।
--६।१।१४
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सूक्ति कण
दो सौ सत्तानवे ८. अन्धे और वहरे अर्थात् सत्य के दर्शन एवं श्रवण से रहित व्यक्ति ज्योति
पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं । दुष्कर्मी व्यक्ति सत्य के मार्ग को पार (तय) नहीं कर सकते ।
६. आओ, मौत के निशान को मिटाते हुए मामो ।
१०. आओ, आगे बढें, नाचें और हंसें ।
११. मेरे मन की भावना पूर्ण हो ।
१२. हे दिव्य आत्माओ | क्या हुआ यदि यह नीचे गिर गया है, तुम इसे फिर
ऊँचा उठायो, उन्नत करो। १५. भलाई, मानो, सूर्य को आँख है ।
१४ मेरा शास्त्राध्यन मुझ में खूब गहराई से प्रतिष्ठित होता रहे ।
१५. अभ्युदय के मार्ग को पहचानने वाले बनो।
१६. यह लोक देवताओ को भी प्रिय है । यहाँ पराजय का क्या काम ?
१७. मैं (आत्मा) सब से बढ़ कर महिमा वाला हूँ।
१८. यह (जीवन) अमृत को लदी है । इसे अच्छी तरह मजबूती से पकडे
रखो। १६. मैं मधु (मिठास) को पैदा करूं', मैं मधु को आगे बढाऊँ ।
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सूक्ति त्रिवेणी
वो सौ अठानवे २०. यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि ।
-१२।११५८
२१. सर्वमेव शमस्तु नः।
-१९६२
२२. अयुतो ऽहं सर्वः।
-१९५१
२३. श्येन एव भूत्वा सुवर्ग लोक पतति ।
-तैत्तिरीय सहिता ५।४।११
२४. सर्वस्य वा अहं मित्रमस्मि ।
-६।४।८।१
२५. अहंकारग्रहान्मुक्तः स्वरूपमुपपद्यते ।
-अध्यात्मोपनिषद् ११ २६. वासनाप्रक्षयो मोक्षः ।
-१२ २७. फलोदयः क्रियापूर्वो निष्क्रियो न हि कुत्रचित् ।
-४६ २८. भारो विवेकिन शास्त्र, भारो ज्ञानं च रागिणः । प्रशान्तस्य मनो भारं, भारो ऽनात्मविदो वपु.॥
-महोपनिषद् ३१५
२६. पदं करोत्यलध्ये ऽपि तृप्ता ऽपि फलमीहते । चिरं तिष्ठति नैकत्र तृष्णा चपलमर्कटी ॥
-३।२३ ३०. देहो ऽहमिति संकल्पो महत्संसार उच्यते ।
-जोबिन्दुपनिषद् ५६
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दो सौ निम्मान
सूक्ति कण २०. मैं जो भी कुछ कहूँ, मधुर कहूँ ।
२१] हम सब के लिए सभी कुछ शान्तिकारी हो ।
२२. मैं पूर्ण रूप से अहीन हूँ।
२३. श्येन बन कर ही अर्थात् श्येन के समान अपने लक्ष्य के प्रति शीघ्र झपट्टा
मार उड़ान करने वाला साधक ही स्वर्ग पर मारोहण कर सकता
२४. मैं सब प्राणिजगत् का मिष हूँ।
२५. अहंकार को पकड़ से मुक्त मनुष्य ही आत्म स्वरूप को प्राप्त करता
२६ वासना का नाश ही मोक्ष है।
२७. प्रत्येक फल का उदय क्रियापूर्वक ही होता है, विना क्रिया के कही भी
कोई भी फल नहीं होता।
विवेकी-ज्ञानी के लिए शास्त्र भार (बोझ) है, रागद्वष से युक्त पुरुष के लिए ज्ञान (शास्त्रों का पाण्डित्य) भार है, अशान्त व्यक्ति के लिए मन भार है और आत्मज्ञान से हीन मनुष्य के लिए यह देह भी भारस्वरूप है।
२६.
यह तृष्णारूपी चंचल बंदरिया दुरुह स्थान में भी अपना पांव टिकाने को उद्यत है, तृप्त हो चुकने पर भी विभिन्न फलो की कामना करती है, और अधिक देर तक किसी एक स्थान पर ठहरती भी नही है।
३०. 'मैं देह हूँ यह संकल्प ही सब से बड़ा ससार है।
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तीन सौ
सूक्ति त्रिवेणी
३१. मन एव जगत्सर्वम् ।
-५९८
३२. देहस्य पच दोषा भवन्ति, काम-क्रोध-निःश्वास-भय-निद्राः।
तन्निरासस्तु निःसंकल्प-क्षमा-लघ्वाहारा प्रमादतातत्त्वसेवनम् ।
~मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् ११२
३३. येनासन विजितं जगत्त्रयं तेन विजितम् ।
-शाण्डिल्योपनिषद् ३३१२
३४ प्रतिष्ठा सूकरीविष्ठा ।
नारदपरिवाजकोपनिषद् ५।३०
३५. पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च ।
-पङ्गल उपनिषद् ४।२५ ३६. गवामनेकवर्णाना क्षीरस्याप्येकवर्णता । क्षीरवत् पश्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा ॥
-~-ब्रह्मविन्दूपनिषद् १६ ३७. घृतमिव पयसि निगूढ,
__भूते भूते च वसति विज्ञानम् । सततं मत्थयितव्य,
मनसा मन्थानभूतेन ॥
३८. अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथ न ते ?
~याज्ञवल्क्योपनिषद् २६ ३६. न क्षीणा वासना यावच्चित्तं तावन्न शाम्यति ।
----अन्नपूर्णोपनिषद ४।७६ ४०. अन्त. सर्वपरित्यागी बहि. कुरु यथा ऽगतम् ।
-५६११६
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सूक्ति कण
तीन सौ एक
३१ मन हो समग्र जगत् है ।
३२. काम, क्रोध, श्वास, भय और निद्रा-ये शरीर के पांच दोष हैं।
संकल्परहितता, क्षमा, अल्पाहार, अप्रमत्तता और तत्वचिन्तन-ये उक्त दोषो को दूर करने के उपाय हैं।
३३ जिसने आसन जीत लिया, उसने तीनो लोक जीत लिए ।
३४ साधक के लिए प्रतिष्ठा सूकर के मल के समान है।
३५. बन्ध और मोक्ष के कारण दो ही पद हैं-'मम'--'मेरापन' बन्ध का
कारण है, और 'निर्मम'-'मेरा कुछ नहीं'-यह मोक्ष का कारण है।
३६ जिस प्रकार अलग-अलग रग-रूप वाली गायो का दूध एक ही रंग का
सफेद होता है, उसी प्रकार विभिन्न वेश एव क्रिया काण्ड वाले सप्रदायो का तत्वज्ञान दूध के समान एक जैसा ही कल्याणकारी होता है।
३७. जिस तरह दूध में घृत (घी) निहित होता है, उसी तरह हर एक प्राणी
के अन्दर चिन्मय ब्रह्म स्थित है । जिस तरह दूध को मथने से घो प्राप्त किया जाता है, वैसे ही मनन-चिन्तन रूप मथानी से मन्थन कर चिन्मय (ज्ञान स्वरूप) ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है ।
३८. यदि तू अपकार करने वाले पर क्रोध करता है, तो क्रोध पर ही क्रोध
क्यो नहीं करता, जो सब से अधि अपकार करने वाला है।
३६. जब तक वासना क्षीण नही होती, तब तक चित्त शान्त नहीं हो
सकता ।
४० मन्दर में सव का परित्याग करके बाहर मे जैसा उचित समझे, वैसा
कर।
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तीन सौ दो
सूक्ति त्रिवेणी
४१ स्वस्वरूप स्वय भुक्ते, नास्ति भोज्यं पृथक् स्वतः।
-पाशुपत उपनिषद् ४३ ४२. यतो धर्मस्ततो जय.।
-~-महाभारत शल्यपर्व ६३३६२ __४३ ना साध्य मृदुना किंचित् तस्मात् तीक्षणतरो मृदुः।
-म० भा० शान्तिपर्व १४०।६७ ४४. दी! बुद्धिमतो बाहू।
-१४०१६८ ४५. मृत्युना ऽभ्याहतो लोको जरया परिवारितः ।
-२७७६ ४६. उपभोगैरपि त्यक्त नात्मान सादयेन्नर. । चण्डालत्वेऽपि मानुष्यं सर्वथा तात शोभनम् ॥
--२६७।३१ ४७. वेदस्योपनिषत् सत्य, सत्यस्योपनिषद् दमः । दमस्योपनिषन्मोक्ष एतत् सर्वानुशासनम् ॥
--२६६।१३
४८. वाचो वेग मनस क्रोधवेग,
विधित्सावेगमुदरोपस्थवेगम् । एतान् वेगान् यो विषहेदुदीर्णा स्
तं मन्ये ऽहं ब्राह्मणं वै मुनि च ।।
-२६६१४
४६. गुह्य ब्रह्म तदिद वो ब्रवीमि,
न मानुषाच्छे,ष्ठतरं हि किंचित् ।
-२६९२०
५०. चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमा ।
उपस्थमुदर हस्ती वाक् चतुर्थी स धर्मवित् ।।
-२६६२८
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सूक्ति कण
तीन सौ तीन
४१. ब्रह्म अपने स्वस्वरूप का ही स्वयं उपभोग करता है, उसका भोज्य उससे पृथक कुछ नही है ।
४२. जिस पक्ष मे धर्म होता है, उसी पक्ष की विजय होती है ।
४३. कोमल उपाय से कुछ भी असाध्य नही है, अत कोमल ही सब से अधिक तोक्ष्ण माना गया है ।
४४. बुद्धिमान की भुजाएँ बहुत वडी (लम्बी) होती हैं, (अतः वह दूर के कार्यों का भी सरलता से सम्पादन कर सकता है) ।
४५. मृत्यु सारे जगत को सब मोर मार रही है, बुढापे ने इसे घेर रखा है ।
४६. उपभोग के साधनो से वचित होने पर भी मनुष्य अपने आप को होन न समझे । चाण्डाल की योनि मे भी यदि मनुष्य जन्म प्राप्त हो, तो भी वह मानवेतर प्राणियो की अपेक्षा सर्वथा उत्तम है ।
४७. वेदो के अध्ययन का सार है सत्यभाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसयम और इन्द्रिय-सयम का सार (फल ) है मोक्ष । यही सम्पूर्ण धर्मो, ऋषियो, एवं शास्त्रोका उपदेश है ।
४८. जो वाणी का वेग, मन और क्रोष का वेग, तृष्णा का वेग तथा उदर श्रौर जननेन्द्रिय का वेग-इन सब प्रचण्ड वेगो को सह लेता है, उसी को मैं ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) और मुनि (तत्त्वद्रष्टा ) मानता हूँ ।
४६. तुम लोगो को मैं एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो, मनुष्य से बढ कर और कुछ भी श्र ेष्ठ नही है ।
५०. हे देवोत्तमो ! जिस पुरुष के उपस्थ (जननेन्द्रिय), उदर, दोनो हाथ मौर वाणी-ये चारो द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है ।
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तीन सौ चार
सूक्ति त्रिवेणी
५१. यादृशै. संनिवसति, यादृशांश्चोपसेवते ।
यादगिच्छेच्च भवितु तादृग् भवति पूरुषः।
-२६९३२
५२. प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोपमास्ते ।
प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि ।।
-२६६।४२
५३. अभिगम्योत्तम दानमाहूतं च मध्यमम् । अधर्म याच्यमान स्यात् सेवादान च निष्फलम् ।।
~पराशरस्मृति ११२८ ५४. कृत्वा पापं न ग हेत, गुह्यमान विवर्धते ।
~८६
५५. युगरूपा हि ब्राह्मणाः।
-११।४८ ५६. अहिंसा सत्यमस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रह. । दानं दया दम. क्षान्ति. सर्वेषा धर्मसाधनम् ।।
~~याज्ञवल्क्य स्मृति ११२२ ५७. न विद्यया केवलया तपसा वा ऽपि पात्रता । यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम् ।।
-११२०० ५८. न यम यममित्याहरात्मा व यम उच्यते । आत्मा सयमितो येन तं यमः किं करिष्यति ?
-प्रापस्तम्वस्मृति १०३ ५६. सम्मानात् तपस. क्षय ।
-१०१६ ६०. मातृवत् परदाराश्च परद्रव्याणि लोष्टवत् । आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ।
-१०।११
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सूक्ति कण
तीन सौ पाच ५१. मनुष्य जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे मनुष्यो की उपासना करता है,
और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होजाता है ।
५२ ज्ञानी बहुतो के साथ रह कर भी मौन रहता है, ज्ञानी अकेला दुर्वल
होने पर भी बलवान है।
५३. जरूरतमन्द को स्वय पास जाकर देना उत्तम दान है. वुला कर देना
मध्यम है, मांगने पर देना अधम है, और सेवा करा कर देना तो
सर्वथा निष्फल एवं व्यर्थ है। ५४. पाप कर्म हो जाने पर उसे छुपाना नही चाहिए, अपितु ज्ञानी के समक्ष
आलोचना कर के प्रायश्चित्त लेना चाहिए, क्योकि छुपा हुआ पाप अधि
काधिक बढता ही जाता है, घटता नही है । ५५. ब्राह्मण (विद्वान्) युग के अनुरूप होते है, अर्थात् युगानुकूल आचरण
करते हैं। ५६. अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौयं), शौच (मानसिक पवित्रता), इन्द्रिय
निग्रह, दान, दया, दम (सयम) और क्षमा-ये जाति एवं वर्ण के
भेद भाव के विना सभी के लिए धर्म के साधन हैं । ५७. न केवल विद्या से और न केवल तप से पवित्रता प्राप्त होती है। जिसमे
विद्या और तप दोनो ही हो, वही पात्र कहलाता है।
५८. यम यम नही है, आत्मा ही वस्तुत- यम है। जिसने अपनी आत्मा को
संयमित कर लिया है, उस का यम (यमराज) क्या करेगा?
५६. सम्मान से तप का क्षय हो जाता है ।
६०. जो परस्त्रियो को माता के समान, परधन को लोष्ट (ढेले) के समान,
और सब प्राणियो को अपनी आत्मा के समान देखता है, वस्तुत. वही द्रष्टा है, देखने वाला है।
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तीन सौ छह
सूक्ति त्रिवेणी
६१ आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ।
-वशिष्ठ स्मृति ६।३ ६२. योगस्तपो दमो दानं सत्य शोचं दया श्रतम् । विद्या विज्ञानमास्तिक्यमेतद् ब्राह्मणलक्षणम् ।।
-६।२०
६३ दीर्घवरमसूया च असत्य ब्रह्मदूषणम् । पैशुन्य निर्दयत्व च जानीयाच्छूद्रलक्षणम् ॥
-६२३ ६४. नास्ति मातृसमं देवं, नास्ति पितृसमो गुरु. ।
-ौशनस स्मृति ११३६ ६५. पतिरेको गुरुः स्त्रीणा सर्वस्याभ्यागतो गुरु ।
--११४८ ६६ यद् ददाति यदश्नाति, तदेव धनिनो धनम् ।
___-व्यास स्मृति ४।१७
६७ हितप्रायोक्तिभिर्वक्ता, दाता सन्मानदानतः ।
-४६०
६८. अनभ्यासे विष शास्त्रं, अभ्यासे त्वमृत भवेत् ।
-विश्वामित्र स्मृति ३.१३ ६६. कर्मणा ज्ञानमिश्रेण स्थिरप्रज्ञो भवेत्पुमान् ।
-शाण्डिल्य स्मृति ४।२१२ ७०. प्राप्तोपदेश शब्द ।
-न्यायदर्शन १११७ ७१ इच्छा-दुष-प्रयत्न-सुख-दुख-जानान्यात्मनो लिङ्गम् ।
--११०१० ७२. चेष्टेन्द्रियार्थाश्रय. शरीरम् ।
-११११११
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सूक्ति कम
तीन सौ सात
११. पाचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नही कर सकते।
६२. योग, तप, दम, दान, सत्य, शौच, दया, श्रुत, विद्या, विज्ञान और
मास्तिक्य-ये माह्मण के लक्षण हैं।
६३. दीर्घ काल तक वैर भाव रखना, असत्य, व्यभिचार, पैशुन्य (चुगली),
निर्दयता-ये शूद्र के लक्षण हैं।
६४. माता के समान कोई देव नहीं है, पिता के समान कोई गुरु (शिक्षक)
मही है। ६५. पति ही स्त्री का एकमात्र गुरु है, और अतिथि सब का गुरु है ।
६६. जो दिया जाता है, और खा लिया जाता है, वही धन है।
६७. हितकारी प्रिय वचन बोलने वाला हो श्रेष्ठ वक्ता है, सम्मानपूर्वक
देने वाला ही श्रेष्ठ दाता है। विना अभ्यास (स्वाध्याय) के शास्त्र विष हो पाता है, और अभ्यास
फरने पर वही अमृत बन जाता है। ६६. ज्ञानयुक्त कर्म से ही मनुष्य स्थितप्रज्ञ होता है।
७०. बाप्त (यथार्थ माता द्रष्टा और यथायं प्रवक्ता) के उपदेश को शब्द
प्रमाण कहते हैं।
७१. इच्छा, ष, प्रयन्न, सुख, दुःख, शान-ये मात्मा के झापक लिंग
(लक्षण) है।
७२. चेष्टा (क्रिया), इन्द्रिय और अर्थ (सुख-दुःखादि) का आश्रय शरीर है।
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तीन सौ आठ
७३. युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ।
७४. तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः ।
७५. समानप्रसवात्मिका जातिः ।
७६. वीतरागजन्मादर्शनात् ।
७७. तेषां मोहः पापीयान् नामूढस्येतरोत्पत्त ेः ।
७८. दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहकारनिवृत्तिः ।
७६. दोषनिमित्त रूपादयो विषया. सङ्कल्पकृता ।
८० यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्म ।
८१. कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः ।
८२ दुष्टं हिंसायाम् ।
८३. सुखाद् रागः ।
८४. श्रसङ्गोऽयं पुरुष. 1
सूक्ति त्रिवेणी
-१|१|१६
- ११११२२
-२१२१७१
- ३|१|२४
-४|११६
-४१२११
- ४१२१२
वैशेषिक दर्शन १।१।२
- २१११२४
-६१११७
-६१२११०
- सांख्यदर्शन १।१५
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सूक्ति कण
तीन सौ नो
७३. श्रोत्र आदि इन्द्रियो के द्वारा शब्द आदि विषयो का ज्ञान युगपद् (एक
समय मे एक साथ) नही होता, इस पर से मन का इन्द्रियो से पृथक
अस्तित्व सिद्ध होता है । ७४. दुःख से सदा के लिए छुटकारा पा जाने को अपवर्ग (मोक्ष) कहते
७५. विभिन्न व्यक्तियो मे समान बुद्धि पैदा करने वाली जाति है।
७६. वीतराग के जन्म का प्रदर्शन है, अर्थात् रागद्वप से रहित वीतराग
आत्माओ का पुनर्जन्म नहीं होता।
७७. रागद्वेष की अपेक्षा मोह (मिथ्या ज्ञान, विचिकित्सा) अधिक अनर्थ का
मूल है, क्योकि अमूढ (मोहरहित) आत्मा को रागद्वेष नहीं होता। ७८. दोष के निमिस रूपादि विषयो के तत्त्वज्ञान (बन्धहेतुरूप वास्तविक
स्वरूप के दर्शन) से अहंकार निवृत्त हो जाता है। ७६. संकल्पकृत ही रूपादि विषय दोषो के निमित्त (कारण) होते हैं ।
८०. जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस् (आध्यात्मिक विकास,
मुक्ति) की प्राप्ति हो, वह धर्म है। ५१. कारण के गुणो के अनुसार ही कार्य के गुण देखे जाते हैं ।
८२ हिंसा के कारण अच्छा-से-अच्छा साधक भी दुष्ट (मलिन) हो जाता है ।
८३. सुखोपभोग से उत्तरोत्तर सुख एव सुख के साधनो के प्रति राग उत्पन्न
होता है। ८४. यह पुरुष (आत्मा) मूलत. असग है, निलिप्त है ।
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सूक्ति त्रिवेणी
तीन सौ दस ८५. सत्त्वरजस्तममां साम्यावस्था प्रकृतिः ।
८६. नाऽवस्तुनो वस्तुसिद्धि. ।
-१७८
८७. नाऽसदुत्पादो नृशृगवत् ।
-११११४
८८. नाशः कारणलयः।
-१११२१
८६. गरीरादिव्यतिरिक्तः पुमान् ।
-१११३६
६०. नाऽन्वाऽदृष्ट्या चक्षुष्मतामनुपलम्भः । ।
-१११५६
६१. उभयात्मकं मनः।
---२।२६
६२. ज्ञानान्मुक्तिः।
--३१२३
६३. बन्धो विपर्ययात् ।
~३।२४
६४. रागोपहतिया॑नम् ।
-३१३०
६५. ध्यान निविपयं मनः ।
-६२५
६६. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।
-योगदर्शन १२
६७ तदा द्रष्ट्र स्वरूपेऽवस्थानम् ।
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तीन सो ग्यारह
सूक्ति कण
८५. सत्त्व, रजस् मोर तमस् - इन तीनो गुणो की साम्य अवस्था ( समान स्थिति) का नाम प्रकृति है
।
८६. अवस्तु - अभाव से वस्तुसिद्धि (भाव की उत्पत्ति) नही हो सकती ।
८७. जो नरमृग (मनुष्य के सिरपर सोंग) की तरह नसत है, उस की उत्पत्ति नही होती ।
नाश का अर्थ है - कार्य का अपने उपादान कारण मे लय हो जाना |
८५.
८६. पुरुष ( चैतन्य, मात्मा ) शरीर मादि जड पदार्थों से सर्वतोभावेन पृथक है ।
६०. अन्धा मनुष्य देख नही पाता, इस तर्क पर से चक्षुष्मान् ( सुखा) के दर्शन का अपलाप नही किया जा सकता ।
१. मन उभयात्मक है, अर्थात् श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रिय और हस्तपादादि कर्मेन्द्रिय- दोनो इन्द्रियो का संचालक है ।
१२. ज्ञान से हो मुक्ति होती है ।
६३. विपर्यय ( अज्ञान, विपरीत ज्ञान) हो वन्धका कारण है ।
६४. विषयो के प्रति होने वाले राग भाव को दूर करने वाला एक मात्र ध्यान है ।
६५. मन का विषयशून्य हो जाना हो - ध्यान है ।
६६. चित्त की वृत्तियो का निरोध हो--योग है ।
७. चित्त वृत्तियो का निरोध होने पर द्रष्टा ( आत्मा ) अपने स्वरूप में प्रति
ष्ठित हो जाता है ।
"
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तीन सौ बारह
सूक्ति त्रिवेणी ६८ अभ्यास-वैराग्याभ्या तन्निरोधः ।
१।१२ ___६६ क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयरपरामृष्टः पुरुप-विशेप ईश्वरः ।
-१।२४
१००. मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणा
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।
सुख-दुख-पुण्यापुण्य विषयाणां
-११३३
१०१. तप स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।
-२१
____१०२. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्य-शुचि-सुखात्मख्यातिरविद्या ।
-२५ १०३. सुखानुशयी राग.।
-२७ १०४. दुःखानुशयी द्वाप.।
--२ १०५ हेयं दुःखमनागतम्। .
..-२०१६ १०६. अहिंसा-सत्याऽस्तेय-ब्रह्मचर्या ऽपरिग्रहा यमाः ।
-२०३० १०७. जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।
-२१३१
१. सभी धार्मिक व्यक्ति अहिसा आदि का कुछ न कुछ अगत. आचरण करते हैं, परन्तु योगी इनका पूर्ण रूप से आचरण करते हैं।
अमुक जाति के जीवो की हिसा करूँगा, अन्य की नही, यह जाति से अवच्छिन्न-सीमित अहिंसा है। इसी प्रकार तीर्थ मे हिंसा न करना, देशावच्छिन्न
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सूक्ति कण
तीन सो तेरह ६८. अभ्यास (निरन्तर को साधना) और वैराग्य (विषयो के प्रति विरक्ति)
के द्वारा चित्तवृत्तियो का निरोध होता है । ६६. अविद्या आदि क्लेश, शुभाशुभरूप कर्म, कर्मों का विपाक (फल) और
मापाय (विपाकानुरूप वासना)~इन सब के स्पर्श से रहित पुरुषविशेष
ही ईश्वर है। १०० सुखी, दुःखी, पुण्यवान् तथा अपुण्यवान् (पापात्मा) प्राणियो के प्रति
यथाक्रम मंत्री, करुणा, मुदिता एव उपेक्षा की भावना करने पर चित्त
प्रसन्न (निमल) होता है। १०१. सप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान (निष्काम भाव से ईश्वर की
भक्ति, तल्लीनता)--यह तीन प्रकार का क्रियायोग है-अर्थात्
कर्मप्रधान योगसाधना है । १०२. अनित्य, अशुचि, दु ख तथा अनात्म (जड) विषयो मे नित्य, शुचि, सुख
तथा आत्मस्वरूपता को ख्याति (प्रतीति) ही अविद्या (अज्ञान) है। १०३. सुखानुशयी क्लेशवृत्ति राग है-अर्थात् सुख तथा सुख के साधनो मे
प्रासक्ति, कृष्णा या लोभ का होना राग है । १०४. दुःखानुशयो क्लेशवृत्ति द्वेष है-अर्थात् दुःख तथा दुःख के साधनो के
प्रति क्षोम एव क्रोध का होना 'ष है । १०५. वस्तुत. अनागत (मविष्य में होने वाला) दुःख ही हेय होता है। '
१०६. अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच
यम हैं। १०७. जाति, देश, काल और समय से अनवच्छिन्न अर्थात् जाति आदि की
सीमा से रहित साधभौम (सदा और सर्वत्र) होने पर ये ही महिंसा प्रादि महाप्रप्त हो जाते हैं।
अहिंसा है। चतुर्दशी आदि पर्व तिथि में हिंसा न करना, कालावच्छिन्न अहिंसा है । युद्ध मे ही हिंसा करना, अन्यत्र नही; यह क्षत्रियो की समयावच्छिन्न अर्थात् स्वोचित कर्तव्य को दृष्टि से सीमित अहिंसा है ।
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तीन सौ चौदह
सूक्ति त्रिवेणी १०८ शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
-~~-२१३२ १०६. अहिंसाप्रतिष्ठाया तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।
-२॥३५ ११०. सत्यप्रतिष्ठाया क्रियाफलाश्रयत्वम् ।
-२२३६
१११. ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठाया वीर्यलाभ. ।
--२।३८
११२. सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः ।
--२४३
११३. आत्मनि चैवं विचित्राश्च हि ।
--वेवान्तवशंन २।१।२८
११४. नासतो ऽदृष्टत्वात् । ,
-रारा२६
११५. अनाविष्कुर्वन्नन्वयात् ।
-३।४।५०
११६. न प्रतीके न हि सः ।
--४।१४
११७. यत्र काग्रता तत्राविशेषात् ।
-४|११११
११८. भोगेनत्वितरे क्षपयित्वा सपद्यते ।
-४।१।१६
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तीन सौ पन्द्रह
सूक्ति कण
१०८. शौच ( देहशुद्धि एव चित्तशुद्धि), सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम हैं ।
१०६. अहिंसा को प्रतिष्ठा (पूर्ण स्थिति) होने पर उस के सान्निध्य मे सव प्राणी निर्वैर हो जाते हैं ।
११०. सत्य की प्रतिष्ठा होने पर सत्यवादी का वचन क्रियाफलाश्रयत्वगुण से युक्त हो जाता है— अर्थात् सत्यप्रतिष्ठ व्यक्ति के वचन अमोघ होते हैं ।
१११. ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर वीर्यं (शक्ति, बल) का लाभ होता है ।
११२. सन्तोष से अनुत्तम (सर्वोत्तम ) सुख का लाभ होता है ।
११३. आत्मा मे एक-से-एक विचित्र सृष्टियां है ।
११४. असत् से कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती, क्यो कि ऐसा कभी कही देखा नही गया है ।
११५ साधक अपने गुणो का बखान न करता हुआ वालक की भांति दंभ एवं - अभिमान से मुक्त रहे, क्योकि निर्दम्भता एवं सरलभावना का ही ब्रह्मविद्या से सम्बन्ध है ।
११६. किसी बाह्य प्रतीक विशेष मे आत्म-भाव नही करना चाहिए, क्योकि वह प्रतीक वस्तुत अपना अन्तरात्मा नही है ।
११७ जहाँ भी चित्त की एकाग्रता सुगमता से हो सके, वही बैठ कर ध्यान का अभ्यास करना ठीक है, साधना के लिए किसी विशेष स्थान या दिशा आदि की कोई प्रतिबद्धता नही है |
११८. ( सचित कर्म ज्ञान से भस्म हो जाते हैं, निष्काम भाव से कर्म करने के कारण क्रियमाण कर्मों का बन्ध नही होता) शेष शुभाशुभरूप प्रारब्ध कर्मों को उपभोग के द्वारा क्षय करके ज्ञानी साधक परमपद (ब्रह्मत्व भाव) को प्राप्त हो जाता है ।
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तीन सौ सोलह
११६ चितितन्मात्र ेण तदात्मकत्वादित्योडुलोमिः ।
पक्षिरणा गतिः ।
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परम पदम् ॥
१२० उभाभ्यामेव पक्षाभ्या यथा खे
१२१. कार्यमण्वपि काले तु कृतमेत्युपकारताम् । महानप्युपकारो ऽपि रिक्ततामेत्यकालतः ॥
१२२. श्वभ्रद्रमा श्रद्यतना नराश्च ।
योगवाशिष्ठ, वैराग्यप्रकरण १।७
१२३. द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थी परस्परम् । य एव बलवास्तत्र स एव जयति क्षरणात् ॥
१२४. प्राक्तन पौरुषं तद् वै देवशब्देन कथ्यते ।
१२५. शुभाशुभाभ्या मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित् । पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि ॥
सूक्ति त्रिवेणी
१२६. प्रापतन्ति प्रतिपद यथाकालं दहन्ति च । दुःखचिन्ता नरं मूढं तृणमग्निशिखा इव ||
-४|४|६
योग० मुमुक्षुप्रकरण ६।१०
१२७. मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः । शमो विचारः सन्तोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः ॥
-७/२६
- २७१३८
- ६/३५
- ६१३०
१११४०
—११५६
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तीन सौ सत्रह
सूक्ति कण
-
११६. मुक्तात्मा केवल अपने चैतन्यमात्र स्वरूप में स्थित रहता है, क्योंकि उसका वास्तविक स्वरूप वैसा ही है ऐसा मचायं मोडुलोमि कहते हैं ।
१२०. जैसे आकाश मे दोनो ही परो से पक्षी उडते हैं, एक से नही, वैसे ही साधक को ज्ञान और कर्म दोनो से परम पद की प्राप्ति होती है ।
१२१. समय पर थोड़ा भी कार्य किया जाए तो वह बहुत अधिक उपकारक होता है । असमय मे बडा से बडा उपकार भी निष्फल चला जाता है ।
१२२. आजकल के मनुष्य गड्ढे के वृक्षो के समान हैं । ( जिस प्रकार गहरे अन्धगतं के वृक्ष की छाया, पत्र, पुष्प, फल आदि किसी के भी उपभोग मे न आने से व्यर्थ हैं, उसी प्रकार पामर मनुष्यो के विद्या, धन सम्पत्ति आदि भी किसी का उपकार न करने के कारण व्यर्थ हैं 1 )
१२३. पूर्वजन्म के भौर इस जन्म के कर्म (पुरुषार्थ) दो मेढ़ो की भाँति परस्पर लड़ते हैं, उनमे जो बलवान् होता है, वही दूसरे को क्षण भर में पछाड़ देता है ।
१२४. पूर्वजन्म का पौरुष हो यहाँ इस जन्म मे व्यक्ति का देव कहलाता है ।
१२५. शुभ और अशुभ मागं से वह रहो वासनारूपी नदी को अपने पुरुषार्थ के द्वारा अशुभ मार्ग से हटाकर शुभ मार्ग में लगाना चाहिए ।
१२६ अग्नि की ज्वालाएँ जैसे तृण (घास-फूस ) को जला डालती हैं, वैसे हो मूठ पुरुष को पद पद पर दुःख चिन्ताएं प्राप्त होती हैं, और उसे जला डालती है ।
१२७. मोक्षद्वार के चार द्वारपाल बतलाए हैं--शम, विचार, सन्तोष और चौथा सज्जनसंगम ।
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तीन सौ अठारह
सूक्ति त्रिवेणी
१२८ विवेकान्धो हि जात्यन्ध ।
-१४:४१
१२६. वरं कर्दमभेकत्वं, मलकीटकता वरम् ।
वरमन्धगुहाऽहित्वं, न नरस्या ऽविचारिता ।।
-१४।४६
१३०. आपत्संपदिवाऽऽभाति विद्वज्जनसमागमे ।
-१६॥३ १३१. चित्तमेव नरो नाऽन्यद् ।
---योग० उपशमप्रकरण ४।२० १३२. कृष्यन्ते पशवो रज्ज्वा मनसा मूढचेतसः। .
-१४।३६ १३३ कर्ता बहिरकर्ता ऽन्तर्लोके विहर राघव !
-१८।२३ १३४. न मौादधिको लोके कश्चिदस्तीह दुःखदः ।
-२६५७ १३५. अहमों जगद्वीजम् ।
योग० निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्ध ४३६ १३६ यन्नास्ति तत्तु नास्त्येव ।
, -१६१६ १३७. अज्ञातारं वर मन्ये न पुननिबन्धुताम् ।
-२११ १३८, अपुनर्जन्मने य. स्याद् बोधः स ज्ञानशब्दभाक् । वसनाशनदा शेषा व्यवस्था शिल्पजीविका ॥
--२२६४
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सूक्ति कण
तीन सौ उनोस, १२८. पो पुरुष विवेकान्ध है, विवेकहपो नेत्रो से हीन है, वह जन्मान्ध है ।
१२६. कीचड़ मे मेढक बनना अच्छा है, विष्ठा फा कोड़ा बनना अच्छा है
और अंधेरी गुफा में सांप होना भी अच्छा है, पर, मनुष्य का अविचारी
होना अच्छा नही है। १३०. विद्वान् पुरुपो का समागम होने पर आपत्ति भी सपत्ति की तरह मालूम
होती है। १३१ चित्त ही नर है, चित्त से अतिरिक्त नर अथांत् मनुष्य कुछ नही है ।
१३२. पशु रस्सी से खीचे जाते हैं और मूढ मनुष्य मन से खीचे जाते हैं ।
१३३. (महर्षि वशिष्ठ ने रामचन्द्रजी से कहा-) हे राघव । बाहर मे कर्ता
और भीतर में अकर्ता रहकर आप लोक मे विचरण कीजिए । १३४. मूर्खता से वढकर अन्य कोई ससार मे दुःख देने वाला नहीं है।
१३५. अहकार ही इस ससार का बीज है।
१३६. जो नही है, वह सदा और सर्वथा नही ही है। अर्थात् असत् कभी सत्
नही हो सकता। १३७. (महर्षि वशिष्ठ ने रामचन्द्रजी से कहा है-) मैं अज्ञानी को अच्छा
समझता हूँ, परन्तु ज्ञानबन्धुता' को अच्छा नही समझता । १३८ जो बोध पुनर्जन्म से मुक्त होने के लिए है, वस्तुतः वही ज्ञान कहलाने
के योग्य है । इस के अतिरिक्त जो शब्दज्ञान का चातुर्य है, वह केवल अन्न वस्त्र प्रदान करनेवाली एक शिल्पजीविका (कारीगर एव मजदूर,
का घंधा) है, और कुछ नही। १. ज्ञान योग के बहाने सत्कर्मों को त्यागकर विषयभोग - में लिप्त रहने वाला व्यक्ति ज्ञानवन्ध कहलाता है ।
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तीन सौ बीस
सूक्ति विदेणी
१३६ प्रवाहपतिते कार्ये कामसंकल्पवर्जितः ।
तिष्ठत्याकाशहृदयो यः स पण्डित उच्यते ।।
-२२१५
१४०. विविधो भवति प्रष्टा तत्वज्ञो ऽज्ञोऽथवा ऽपि च ।
अज्ञस्याऽज्ञतया देयो ज्ञस्य तु ज्ञतयोत्तरः ।।
-२६।३२
१४१. नाकलङ्का च वागस्ति ।
-२६१३७
१४२. यन्मयो हि भवत्यङ्ग पुरुषो वक्ति तादृशम् ।
-२६।३०
१४३. हता नीरसनाथा स्त्री हता ऽसस्कारिणी च धीः ।
-६५५
१४४. सा स्त्री या ऽनुगता भी सा श्रीर्या ऽनुगता सता । ___ सा धीर्या मधुरोदारा साधुता समदृष्टिता ॥
-६श६
१४५. अन्यस्मै रोचते निम्बस्त्वन्यस्मै मधु रोचते ।
-६७१२९
१४६. विषाण्यमृततां यान्ति सन्तताभ्यासयोगतः ।
१४७. यो यमर्थ प्रार्थयते तदर्थ यतते तथा ।
सो ऽवश्यं तमवाप्नोति न चेच्छान्तो निवर्तते ॥
-१०३१२२
१४८. पाण्डित्य नाम तन्मौख्यं यत्र नास्ति वितृष्णता।
-१९४१३४
१४६. न तदस्तीह यत् त्याज्यं शस्योगकरं भवेत् ।
-१६६१३
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सूक्ति कण
तीन सौ इक्कीस
१३९. जो व्यक्ति प्रारब्ध के प्रवाह में आए हुए कार्यों के लिए काम-संकल्प
को छोडकर सदा तत्पर रहता है, एवं आकाश के समान जिस का
हृदय आवरणशून्य प्रकाशमान रहता है, वही पण्डित कहा जाता है । १४०. प्रश्नकर्ता दो तरह के होते हैं-एक तो तत्त्वज्ञ (ज्ञानी) और दूसरे
अज्ञानी । अज्ञानी प्रश्नकर्ता को अज्ञानी बनकर उत्तर देना होता है और शानी को ज्ञानी बनकर ।
१४१. कोई भी वाणी निष्कलंक नही होती।
१४२. वक्ता जिस तरह का होता है, वह उसी तरह का कपन करता है।
१४३. जिस का पति नीरस (स्नेहशून्य) हो, उस स्त्री को विनष्ट ही समझना
चाहिए । और जो बुद्धि संस्कारयुक्त न हो, वह भी नष्ट ही समझनी
चाहिए। १४४. वही स्त्री, स्त्री है जो पति से अनुगत हो, वही श्री, श्री है जो सज्जनों
से अनुगत हो, वही बुद्धि, बुद्धि है जो मधुर एवं उदार हो, तथा वही
साधुता साधुता है जो समदृष्टि से युक्त हो । १४५. किसी को नीम अच्छा लगता है तो किसी को मषु । (अपनी अपनी
रुचि है, अपना अपना अभ्यास है।) १४६. निरन्तर के (औषधिनिमित्तक) अभ्यास से विष भी अमृत बन जाता
जो जिस वस्तु को चाहता है, उसके लिए यत्न करता है। मोर यदि थक कर वीच में ही अपना विचार न बदल दे तो उसे अवश्य प्राप्त
भी कर लेता है। १४८, वह विद्वत्ता केवल मूर्खता ही है, जिसमे विषयमोगों के प्रति वितृष्णता
(विरक्ति) नही है। १४६. जो ज्ञानी को उद्विग्न करने वाली हो, ऐसी कोई हेय वस्तु संसार में
कही भी नहीं है।
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तीन सो बाईस
१५०. भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ।
१५१. तुलयाम लवेनाऽपि न स्वर्गं भगवत्सङ्गिङ्गस्य मर्त्यानां
१५२ तपो मे हृदयं ब्रह्मंस्तनुर्विद्या क्रिया ss कृतिः ।
१५३. न राति रोगिरगोऽ पथ्य वाञ्छतो हि भिषक्तमः ।
7
C
१५५. मृगोष्ट्रख रमखु - सरीसृप्रखगमक्षिका । आत्मनः पुत्रवत् पश्येत् तैरेषामन्तरं कियत् ?
१५६. त्रिवर्ग. नातिकृच्छ यथादेशं
यथाकाल
श्रीमद् भागवत ३|२९| २३
;
नाऽपुनर्भवम् । किमुताशिषः ॥
१५४. यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिक योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥
भजेत गृहमेध्यपि । यावेदैवोपपादितम् ॥
-
सूक्ति त्रिवेणी
१५७. स्वभावविहितो धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये ।
1
१५८, सदा सन्तुष्टमनसः सर्वा सुखमया दिशः । शर्करा - कण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ॥
=
-४१३०१३४
-६०४१४६
-६ हा५०
-७११४८
-७११४१६
७११४१०
-७११५११४
- ०११५११७
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सूक्ति कण
तीन सौ तेईस
१५०. जो अन्य प्राणियो के साप वैरभाव रखता है, उसके मन को कभी
शान्ति नहीं मिल सकती। १५१. भगवद् भक्तो के क्षणभर के संग के सामने हम स्वर्ग और मोक्ष को भी
कुछ नही समझते, फिर मानवीय भोगो को तो बात ही क्या?
१५२. (भगवान् विष्णु ने दक्ष प्रजापति से कहा-) ब्रह्मन् ! तप मेरा हृदय है,
विद्या शरीर है और कर्म आकृति है। १५३. रोगी के चाहने पर भी सदध उसे कुपथ्य नही देता।
१५४. (नारद जी ने युधिष्ठिर से कहा-) मनुष्यो का अधिकार केवल उतने
ही धन पर है, जितने से उदरपूर्ति की जासके, भूख मिट सके। जो इस से अधिक सम्पत्ति को अपनी मानता है, अपने अधिकार में रखता
है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिए। १५५. हरिन, केट, गधा, बन्दर, चूहा, सरीसृप (रेंग कर चलने वाले प्राणी
सपं आदि), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान हो समझना चाहिए । सही दृष्टि से देखा जाए तो उन में और पुत्रों में
अन्तर ही कितना है ? १५६. गृहस्थ को धर्म, अर्थ, काम-रूप त्रिवर्ग के लिए बहुत अधिक कष्ट नही
करना चाहिए, अपितु देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार, जितना सुष
सके, प्राप्त हो सके, उसी मे सन्तोष करना चाहिए । १५७ अपने-अपने स्वभाव एव योग्यता के अनुकूल किया जाने वाला धर्म,
भला किसे शान्ति नहीं देता?
१५८
जैसे पैरो में जूता पहन कर चलने वाले को कंकड़ पौर कांटो से कोई कष्ट नहीं होता, सुख ही होता है, वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उस को सर्वदा और सब कही सुख-ही-सुख है, दुःख कही है ही नहीं।
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तीन सौ चौबीस
सूक्ति त्रिवेणी
१५६. न ह्यसत्यात् परोऽधर्म, इति होवाच भूरियम् ।
सर्व सोढमल मन्ये, ऋतेऽलीकपरं नरम् ॥
-~
२०१४
१६०, साघवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
-६४०६८
१६१. न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्पराम,
अष्टद्धियुक्तामपुनर्भवं वा । आति प्रपद्येऽखिलदेहभाजाम्,
अन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ।।
---६।२१११२
१६२. श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ।
---१०॥४॥४१
१६३. हिंस्रः स्वपापेन विहिसितः खलः,
साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते ।
--१०।८।३१
१६४. न हि गोप्य हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ।
-१०॥२४॥४
१६५. कर्मव गुरुरीश्वरा।
-१०।२४।१७
१६६. अजसा येन वर्तत तदेवास्य हि देवतम् ।
-१०।२४।१८
१६७. रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।
प्रजास्तैरेव सिद्ध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ?
-१०॥२४॥२३
१६८. किं दुर्मपं तितिथूणां किमकार्यमसाधुभिः ।
किं न देयं वदान्यानां कः परः समदशिनाम् ।।
-१०७२।१६
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सूक्ति कण
वीन सौ पच्चीस १५६. पृष्पी ने कहा है कि असत्य से बढ़ कर कोई अधर्म नही है । मैं
सब कुछ सहने में समर्थ हूँ, परन्तु भूठे मनुप्य का भार मुझ से नही
सहा जाता। १६०. (भगवान् विष्णु ने दुर्वासा ऋषि से कहा-) साधुजन मेरे हस्य है घोर
उन प्रेमो साधुजनो का हृदय में स्वय है। १६१. (राजा रन्तिदेव ने पीरित एवं बुमुक्षित प्रजा के कल्याण की कामना
करते हुए कहा था-) में भगवान् से अष्ट सिद्धियो से युक्त स्वर्ग की श्रेष्ठ गति नही पाहता। और तो क्या, में मोक्ष की कामना भी नहीं करता । मैं तो केवल यही चाहता हूँ, कि में विश्व के समस्त प्राणियो के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा का सारा दु.ख में हो
सहन करलू, ताकि अन्य किसी भी प्राणी को दुख न हो। १६२. श्रद्धा, दया, तितिक्षा एव ऋतु-सत्कर्म भगवान् हरि के शरीर है साक्षात् ।
१६३. हिंसक दुष्ट व्यक्ति को उसके स्वयं के पाप हो नष्ट कर डालते हैं, साधु
पुरुष अपनी समता से ही सब खतरो से बच जाता है।
१६४. जो संत पुरुप सब को अपनी मारमा के समान मानता है, उसके पास
छिपाने जैसी कोई भी बात नहीं होती। . .. ... .. १६५. (श्री कृष्ण ने इन्द्र की पूजा करने के लिए तत्पर नन्द जी को कहा-)
मनुष्य के लिए उसका अपना कम ही गुरु है, और ईश्वर है। १६६. पिताजी ! जिस के द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती
है, वही उसका इष्ट देवता होता है। १६७. प्रकृति के रजोगुण से प्रेरित होकर मेघगण सव कही जल बरसाते हैं।
उसी से अन्न आदि उत्पन्न होते हैं और उन्ही अन्न आदि से सब जीवो
की जीविका चलती है । इस मे भला इन्द्र को क्या लेना-देना है ? १६८. सहनशील तितिक्षु पुरुष क्या नही सह सकते ? दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा
क्या नही कर सकते ? और समदर्शी के लिए पराया कौन है ?
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तीन सौ छब्बीस
सूक्ति त्रिवेणी
१६९. आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः ।
--१०८०४०
१७०. जितं सर्व जिते रसे ।
--११८।२१
१७१. यत्र यत्र मनो देही, घारयेत सकलं धिया । . स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वाऽपि, याति तत्तत्स्वरूपताम् ।।
-१शहा२२ १७२.. बन्ध इन्द्रियविक्षेपो मोक्ष एषा च संयमः ।
"-११।१८।२२
१७३. दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम् ।
स्वभावविजयः शौयं सत्यं च समदर्शनम् ॥
-१११६।३०
२७४. दक्षिणा ज्ञानसन्देशः।
-१११९३६ :
१७५. दुःखं कामसुखापेक्षा, पण्डितो बन्धमोक्षवित् ।
-११।१६।४:,
१७६. स्वर्गः सस्वगुणोदयः।
-१९११६४२
१७७. नरकस्तमउन्नाहा।
-११११६४३ १७८, दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपरणो यो ऽजितेन्द्रियः।
.- mein १७९. यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः।
-१६२११
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सूक्ति कण
तीन सौ सत्ताईस
१६६. सभी प्राणियो को अपना आप ( अपना जीवन एवं शरीर ) सब सें अधिक प्रिय होता है ।
१७०. एक रस के जीत लेने पर सब कुछ जीता जा सकता है । अर्थात् यदि एक रसनेन्द्रिय को वश मे कर लिया, तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश मे हो गयी ।
१७१. कोई भी व्यक्ति स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से अपने मन को पूर्ण बुद्धि के साथ जहाँ भी कही केन्द्रित कर लेता है, तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।
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१७२. इन्द्रियो का विषयों के लिए विक्षिप्त होना - चंचल होना बन्धन है ओर उनको संयम में रखना ही मोक्ष है ।
१७३. किसी से द्रोह न करना, सव को अभय देना दान है । कामनाओ का त्याग करना ही तप है । अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही
'
शूरता है । सर्वत्र समत्व का दर्शन हो सत्य है ।
१७४. ज्ञान का उपदेश देना ही दक्षिणा है ।
܀
-
१७७. तमोगुण की वृद्धि ही नरक है ।
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१७५: विषय भोगों की कामना हो दुःख है । जो बन्धन और मोक्ष का तत्त्व
जानता है, वही पण्डित है ।
3599
१७६. सत्वगुण की वृद्धि ही स्वर्ग है ।
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5 652
१७८. जिसके मन में असन्तोष है, अभाव का ही द्वन्द्व है, वही दरिद्र है । जो जितेन्द्रिय नही है, वही कृपण है ।
१७६. जिन-जिन दोषों से मनुष्य का चित्त उपरत होता है, उन सब के बन्धन से वह मुप्ता हो जाता है ।
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तीन सौ अट्ठाईस
सूक्ति त्रिवेणी १८०. गायन्ति देवाः किल गीतकानि,
धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
विष्णु पुराण २।३।२४ १८१. वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेागमाय च । कोपाय च यतस्तस्माद् वस्तु वस्त्वात्मक कुतः ॥
-२६४५ १५२. मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः ।
-२१६४७ १५३. समत्वमाराधनमच्युतस्य ।
-३७२० १८४. परदार-परद्रव्य-परहिंसासु यो रतिम् ।
न करोति पुमान् भूप ! तोष्यते तेन केशवः ।।
-
८१४
१८५. प्रतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते।
स तस्मै सुकृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति ॥
-॥१९॥६६
१८६. भसंस्कृताप्नभुङ् मूत्रं, बालादिप्रथमं शकृत् ।
-३११२७१ १८७. प्रदत्त्वा विषमश्नुते ।
-३।११।७२ १८५. योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः ?
-६।२।८ १८९. यत्कृते दशभिवस्त्रेतायां हायनेन यत् । द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत्कली।
-६।२।१५
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सूक्ति कण
तीन सौ उनतीस
१८०. स्वर्ग में देवगण भी निरन्तर यही गान करते रहते हैं कि जो
स्वर्ग, एवं अपवर्ग (मोक्ष) के मार्गस्वरूप भारतवर्ष मे देवभव से पुनः मानवभव में जन्म लेते हैं, वे धन्य हैं । (अथवा-जो भारत मे मानवजन्म लेते हैं, वे पुरुष हम देवताओ की अपेक्षा भी अधिक घन्य हैं,
बड़भागो है।) १८१. एक ही वस्तु सुख और दु.ख ती ई और कोप का कारण हो
जाती है, तो उसमें वस्तु फा अपना मूल वस्तुत्व (नियत स्वभाव)
ही कहाँ है ? १८२. सुख-दुःष वस्तुतः मन के हो विकार हैं ।
१८३. समत्व-भावना हो विष्णु भगवान को आराधना है, पूजा है।
१८४. हे राजन् । जो पुरुष दूसरो की स्त्री, धन और हिंसा मे रुचि नही
रखता है, उससे भगवान् विष्णु सदा ही सन्तुष्ट (प्रसन्न) रहते हैं।
१८५. जिसके घर से अतिथि निराश होकर लोट जाता है, उसे वह अपने
पाप देकर उसके शुभ कर्मों को ले जाता है।
१८६. संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्रपान करता है, तथा जो बालक-वृद्ध
बादि से पहले खाता है, वह विष्ठाहारी है । १८७. विना दान किये खाने वाला विपमोजो है।
१८८. (महर्षि व्यास ने कहा है-) स्त्रियां ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे
• अधिक धन्य मोर कौन है ? १८६. तप, ब्रह्मचर्य आदि की साधना के द्वारा जो फल सत्ययुग मे दस वर्ष में
मिलता है, वह प्रेता मे एक वर्ष, द्वापर मे एक मास और कलियुग में केवल एक दिन रात मे ही प्राप्त हो जाता है।
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तीन सौ तीस
सूक्ति त्रिवेषी
१६०. अनात्मन्यात्मवुद्धिर्या चाऽस्वे स्वमिति वा मतिः।
ससारतरुसम्भूतिबीजमेतद् द्विधा मतम् ।।
-~६७।११
१९१. स्थूल सूक्ष्म कारणात्यमुपाधित्रितयं चितेः। एतविशिष्टो जीवः स्याद वियुक्तः परमेश्वरः ।।
अध्यात्मरामायण, मयोध्या काग १२३ १६२. अनाज्ञप्तोऽपि कुरुते पितु. कार्य स उत्तमः।
उक्तः करोति यः पुत्रः स मध्यम उदाहृतः, उक्तोऽपि कुरुते नैव स पुत्रो मल उच्यते ॥
-३६
१६३. देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। नाऽहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिविधेति भण्यते ॥ .
__-४१३३ १६४. मविद्या संसतेर्हेतुर विद्या तस्या नितिका। . .
-
१६५ सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता,
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा। अहं करोमीति वृथाऽभिमानः,
स्पकमसूमग्रथितो हि लोका
;
१९६. न मे भोगागमे याच्या न मे भोगविवजने ।
मागच्छत्वथमागच्यत्वभोगवशगो भवेत् ॥
१६७. सुखमध्ये स्थितं दुखं दुःखमध्ये स्थितं सुखम् ।
द्वयमन्योऽन्यसंयुक्त प्रोच्यते जलपङ्कवत् ॥
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सूक्ति कम
तीन सौ इकतीस १६०. मंसार-वृक्ष को बोजमूता यह अविद्या (अज्ञान) दो प्रकार की है
बनात्मा (मात्मा से भिन्न शरीर आदि जड पदार्थ) मे आत्मबुद्धि और जो म-स्व है, शरीर आदि पर पदार्थ अपना नही है, उसे 'स्व' अर्थात
अपना मानना । २६१. सुद चेतन की स्थूल, सूक्ष्म और कारण-ये तीन उपाधियां हैं। इन.
उपाधियो से युक्त होने से वह जीव कहलाता है और इनसे रहित होने
से परमेश्वर कहा जाता है। १६२. ( राम ने कैकेयी से कहा ) जो पुथ पिता की माता के विना ही
उनका अभीप्ट कार्य करता है, वह उत्तम है। जो पिता के कहने पर. करता है, वह मध्यम होता है और जो कहने पर भी नही करता है, वह पुत्र तो विष्ठा के समान है ।
१६३. 'मैं देह हूँ'-इस बुद्धि का नाम ही अविद्या है। और 'मैं देह नही,
वेतन आस्मा है-इमी बुद्धि को विद्या कहते हैं।
१६४. अविद्या जन्म-मरणरूप संसार का कारण है, और विद्या उसको निवृत्त
वर्षात् दूर करने वाली है। (वनवास के लिए कैकेयी को दोषी ठहराने वाले निषादराज गुह को दिया गया लक्ष्मण जी का उपदेश) सुख और दुख का देने वाली कोई
और मही है । कोई अन्य सुख दुःख देता है-यह समझना बुद्धि है। 'मैं ही करता हूँ"यह मनुष्य का वृथा अभिमान है । क्योकि संसार के
सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों की डोरी में बंधे हुए हैं। १६५. हमें न तो भोगो की प्राप्ति की इच्छा है और न उन्हे त्यागने की।
भोग आएं या न पाएं, हम भोगो के अधीन नहीं हैं।
१९७. सुख के भीतर दुःख और दुःख के भीतर सुख सर्वदा वर्तमान रहता है,
ये दोनो ही जल और कीचड़ के समान परस्पर मिले हुए रहते हैं।
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तीन सौ तीस
सूक्ति त्रिवेगी १६०. अनात्मन्यात्मवुद्धिर्या चाऽस्वे स्वमिति वा मतिः। ससारतरुसम्भूतिबीजमेतद् द्विधा मतम् ॥
~६७।११
१६१. स्थूल सूक्ष्म कारणाख्यमुपाधित्रितयं चितेः।। एतैविशिष्टो जीवः स्याद् वियुक्तः परमेश्वरः।। '
अध्यात्मरामायण, अयोध्या काण्ड २२३
१६२. अनाज्ञप्तोऽपि कुरुते पितुः कार्य स उत्तमः।
उक्तः करोति यः पुत्रः स मध्यम उदाहृतः, उक्तोऽपि कुरुते नैव स पुत्रो मल उच्यते ।।
-३६१ ___ १९३. देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।
नाह देहश्चिदात्मेति वुद्धिविद्येति भण्यते ॥ . . .
__१६४. भविद्या ससृतेर्हेतुर् विद्या तस्या नितिका। ,
१६५ सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता,
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा। महं करोमीति वृथाऽभिमानः, __ स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥ ।
...
-६६,
____१९६ न मे भोगागमे वाच्छा न मे भोगविवजने ।
. मागच्छत्वथमागच्छत्वभोगवशगो भवेत् ।।
१९७. सुखमध्ये स्थितं दुख दुःखमध्ये स्थितं सुखम् ।
द्वयमन्योऽन्यसंयुक्त प्रोच्यते जलपङ्कवत् ।।
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सूति कम
तीन सौ इसकतीस १६०. मंसार-वृक्ष को बोजमूता यह अविद्या (अज्ञान) दो प्रकार की है
अनात्मा (मात्मा से भिन्न गरीर आदि जड पदार्थ) मे आत्मबुद्धि और जो अ-स्व है, शरीर आदि पर पदार्थ अपना नहीं है, उसे 'स्व' अर्थात्
अपना मानना । १६१. शुद्ध चेतन को स्थूल, सूक्ष्म और कारण-ये तीन उपाधियां हैं । इन -
उपाधियो से युक्त होने से वह जीव कहलाता है और इनसे रहित होने
से परमेश्वर कहा जाता है। १६२. ( राम ने कैकेयी से कहा ) जो पुत्र पिता की आज्ञा के विना ही
उनका अभीष्ट कार्य करता है, वह उत्तम है। जो पिता के कहने पर, करता है, वह मध्यम होता है और जो कहने पर भी नही करता है, वह पुत्र तो विष्ठा के समान है ।
____E:. 'मैं.देह हुँ-इस बुद्धि का नाम हो अविद्या है। और 'मैं देह नही,
चेतन आस्मा है-इमी बुद्धि को विद्या कहते हैं।
१६४. अविद्या जन्म-मरणरूप संसार का कारण है, और विद्या उसको निवृत्त
अर्थात् दूर करने वाली है।
(वनवास के लिए कैकेयी को दोषी ठहराने वाले निषादराज गुह को दिया गया लक्ष्मण जी का उपदेश) सुख और दु.ख का देने वाला कोई
और मही है। कोई अन्य सुख दुःख देता है-यह समझना फुखुद्धि है। 'मैं हो करता हूँ"यह मनुष्य का वृथा अभिमान है । क्योकि संसार के
सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों की डोरी में बंधे हुए हैं। १६६. हमें न तो भोगो की प्राप्ति की इच्छा है और न उन्हे त्यागने की।
मोग माएं या न पाएँ, हम भोगो के अधीन नहीं हैं।
१९७, सुख के भीतर दुःख और दुःख के भीतर सुख सर्वदा वर्तमान रहता है,
ये दोनो ही जल और कीचड के समान परस्पर मिले हुए रहते है।
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तीन सो बत्तीस
१६८. सर्व ब्रह्मैव मे भाति क्व मित्र क्व च मे रिपुः ।
१६६. योगिनो नहि दुख वा सुखं वाऽज्ञानसम्भवम् ।
प्र० रा० किष्किन्धा काण्ड ११८८
२००. अद्य व कुरु यच्छ यः मा त्वां कालोऽत्यगान् महान् ।
•
२०१. सत्यस्य वचनं श्र ेयः सत्यादपि हितं वेदत् ।
२०२. धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।
सूक्ति त्रिवेणी
२०३. न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः ।
,
महाभारत शान्ति पथं १५६/१
-
२०४. शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि ।
२०५. श्वघ्नी कितवो भवति ।
-६१४६
म० भा० कर्ण पर्व ६६ ५६
-३२६११३
म० भा० अनुशासन पर्व ११३८
-
- निसबत ५१४
२०६. भूतं सिद्ध ं भव्यं साध्यम्, भूतं भव्यायोपदिश्यते, न भव्यं
'
भूताय ।
म० भा० विराट पर्व ५१।१५
२०७. न हि स्वयमप्रतिष्ठितोऽन्यस्य प्रतिष्ठां कर्तुं समर्थः ।
यजुर्वेदीय उठवट भाष्य १११
- १११७
२०८. संस्कारोज्ज्वलनार्थं हितं च पथ्यं च पुनः पुनरुपदिश्यमान न दोषाय भवति ।
२०६. वीरस्य कर्म वीर्यम् ।
- ११२१
-२२८
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सूक्ति कण
तीन सौ तेतीस
१८. मुझे सब कुछ ब्रह्मरूप हो भासता है, अतः संसार में मेरा कौन मित्र है मोर कोन शत्रु / कोई नही ।
}
१६६. आत्मज्ञानी योगी को किसी प्रकार का अज्ञानजन्य सुख दुःख नही होता, मात्र प्रारब्ध कर्म-जन्य ही सुख दुःख होता है ।
२००. जो भो अच्छा काम करना है, वह आज हो कर लो, यह बहुमूल्य समय व्यर्थ न जाने दो ।
२०१. सत्य बोलना अच्छा है, मोर सत्य से भी अच्छा है - हितकारी बात बोलना |
२०२. धारण करने के कारण हो धर्म 'धर्म' कहलाता है, घमं प्रजा को धारण करता है ।
२०३. जो व्यवहार अपने साथ किए जाने पर प्रतिकूल मालूम देता हो, वह दूसरो के साथ भी नही करना चाहिए ।
२०४.
शत्रु के भी गुण ग्रहण करने चाहिए और गुरु के भी दोष बताने में संकोच नही करना चाहिए ।
२०५ जुआरी श्वघ्नी होता है, क्योकि वह अपने हो 'स्व' अर्थात् ऐश्वर्यं का नाश करता है ।
२०६. भूत सिद्ध है, और भविष्य साध्य है । भविष्य के लिए भूत का उपदेश किया जाता है, भूत के लिए भविष्य का नही ।
२०७. जो स्वयं अप्रतिष्ठित है, वह दूसरो को प्रतिष्ठित नही कर सकता ।
२०८. संस्कारो को उद्दीप्त करने के लिए हित और पथ्य का बार-बार उपदेश देने मे कोई दोष नही है ।
२०६ वीर पुरुष का कम ही वीयं है ।
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सूक्सि त्रिवेषी
तीन सौ चौतीस २१०. भार्यापुत्रपौत्रादयो गृहा उच्यन्ते ।
-~२६३२
२११ कालातिक्रमो हि प्रत्यग्र कार्यरसं पिबति ।
-३।२६
२५२ वाचाभिरतीतानागतवर्तमानविप्रकृष्टं ज्ञायते ।
--४॥२३
५२१३. अनपराधी हि न विभेति ।
--६६१७
२१४. न ह्यदेवो देवान् तर्पयितुमलम् ।
-७१
२१५. आत्मैषां रथो भवति, प्रात्माऽश्व., प्रात्माऽऽयुधम् ।
-८1५३
२१६ मनसा हि मुक्तः पन्था उपलभ्यते। ,
-
-१९३४
२१७. मनो वै सरस्वान् वाक् सरस्वती।
१३३३५ २१८. मनस्तावत् सर्वशास्त्रपरिज्ञानं कूप इवोत्स्यन्दति ।
-१३१३५ २१६. योहन्तान् पाति स मध्यं पात्येव । - : ।।
-१७६० २२०. अश्लीलभाषणेन हि दुर्गन्धीनि मुखानि भवन्ति, पाप ; हेतुत्वात् ।
-२३३३२ २२१. धूतादागतं कर्मण्य न भवति । ,
-३४॥२९
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तीन सौ पैंतीस
२१०. मार्या, पुत्र, पौत्र आदि ही गृह कहलाते हैं ।
२११. काल का अतिक्रमण अर्थात् विलम्ब कार्य के ताजा रस को पी जाता
हैनष्ट कर देता है।
२१२. वाणो के द्वारा हो अतीत, अनागत, और वर्तमान के दूरस्थ रहस्यो
का ज्ञान होता है।
२१३. जो अपराधी नहीं है, वह कभी डरता नही ।
२१४, जो स्वयं देव नहीं है, वह कभी देवो को तृप्त (प्रसन्न) नहीं कर
सकता।
२१५. अपने विकारो से युद्ध करने वाले साधको का आत्मा ही रय है, और
आरमा हो अश्व है, आत्मा ही आयुष-शस्त्रास्त्र है। ११६. मन से ही मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है।
२१७. मन ज्ञान का सागर है, वाणी ज्ञान की सरिता है।
२१८. मनन सन शास्त्रो के परिज्ञान को कूप के समान उत्स्यन्दित (ऊपर की
मोर प्रवाहित करता है।
२१६. जो अन्तिम की रक्षा करता है, वह अवश्य ही मध्य को भी रक्षा करता
२२०. पाप का हेतु होने के कारण अश्लील भाषण से प्रवक्ता का, मुख
दुर्गन्धित हो जाता है।
१२१. जुए से प्राप्त धन सत्कर्म के विनियोग में उपयुक्त नही होता।
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तीन सौ छत्तीस
सूक्ति त्रिवेणी
२२२. मित्रो हि सर्वस्यव मित्रम् ।
-३८१२२ २२३. निस्पृहस्य योगे अधिकारः।
-४०१ २२४. यथा स्वर्ग प्राप्ती नानाभूता प्रकाराः सन्ति, न तथा मुक्तो।
-४०२ २२५. प्रात्मान च ते घ्नन्ति, ये स्वर्गप्राप्तिहेतूनि कर्माणि कुर्वन्ति ।
-४०३ २२६. आत्मसस्कारकं तु कर्म ब्रह्मभावजनकं स्यात् ।
-४०1८
२२७. यो हि ज्ञाता स एव सः ।
केन उपनिषद्, शांकर भाष्य ११३ २२८. सत्यमिति प्रमायिता, अकौटिल्य वाङ्मनः कायानाम् ।
-४॥ २२६ न तु शास्त्र भृत्यान्निव बलात् निवर्तयति नियोजयति वा।
बृहदारण्यक उपनिषद्, शांकर भाष्य २१११२० २३०. बद्धस्य हि बन्धनाशायोपदेशः।
-२।१।२० २३१. एतदात्मविज्ञानं पाण्डित्यम् ।
-३३१ २३२. सर्व प्राणिषु प्रतिदेहं देवासुरसंग्रामो ऽनादिकालप्रवृत्तः।
छांदोग्य उपनिषद्, शांकर भाष्य १।२।१ २३३. तृष्णा च दुःखबीजम् ।
-७॥२३॥ २३४. क्र द्धो हि संमूढः सन् गुरुं आक्रोशति । .
-गीता, शांकर भाष्य २०६३
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सूक्ति कण
तीन सौ संतीस
२२२. मित्र (सूर्य) सवका मित्र है।
२२३. जिस प्रकार स्वर्ग प्राप्ति के नाना प्रकार होते हैं, उस प्रकार मुक्ति के
नही, अर्थात् मुक्ति का एक ही प्रकार है-जनामक्त प्रवृत्ति । २२४. निस्पृह साधक का ही योग में अधिकार है ।
२२५. जो केवल (परलोक में) स्वर्ग प्राप्ति के लिए कम करते हैं, वे अपनी
मात्मा की हत्या करते हैं। २२६ आत्मा को सस्कारित करनेवाला कर्म ही ब्रह्मभाव का जनक है।
२२७ जो उस (ब्रह्म) को जानने वाला है, वह स्वय वही है ।
२२८. मन, वाणी और कर्म को अमायिकता एवं अकुटिलता का नाम
ही सत्य है। २२६. शास्त्र अपने सेवको की तरह न तो किमी को जवर्दस्ती किसी काम से
रोकता है और न ही किसी को किसी काम के लिए प्रेरित करता है । २३०. बद्ध जीव के बन्धन का नाश करने के लिए ही उपदेश किया जाता है।
२३१ वस्तुतः आत्म-ज्ञान ही पाण्डित्य है।
२३२. प्रत्येक देहधारी प्राणी के भीतर देव-दानवो का सग्राम अनादिकाल से
चला आ रहा है। २३३. तृष्णा दु.ख का बीज है ।
२३४. मनुष्य क्रोध में मूढ (पागल) होफर गुरु (बडे) को भी गाली बकने
लग जाता है।
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तीन सी अडतीस
सूक्ति त्रिवेणी
२३५ तावदेव हि पुरुषो यावदन्त करणं तदीयं कार्याकार्यविषयविवेकयोग्यम् ।
२३६. इन्द्रियारणा विषयसेवातृष्णातो निवृत्तिः या तत् सुखम् ।
२३७. सम्यग्दर्शनात् क्षिप्रं मोक्षो भवति ।
२३८. दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम् । मनुष्यत्व मुमुक्षुत्वं महापुरुषसश्रयः ॥
२३६. चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये । वस्तुसिद्धिविचारेण न किञ्चित् कर्मकोटिभिः ॥
२४० ऋणमोचनकर्त्तारः पितुः सन्ति सुतादयः । बन्धमोचनकर्त्ता तू स्वस्मादन्यो न कश्चन ॥
२४१. शब्दजालं महारण्य चित्तभ्रमरणकारणम् ।
२४२. न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दतः । विना परोक्षानुभवं ब्रह्मशब्देन मुच्यते ॥
२४३. मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते, वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु ।
२४४. शब्दादिभि: पचभिरेव पंच
- २/६३
- विवेकचूडामणि (शंकराचार्य) ३
पचत्वमापु . स्वगुणेन बद्धा. । कुरंग-मातग-पतग-मीन
भृंगा नरः पचभिरंचितः किम् ?
--२/६६
—४|३६
- 11
-५३
-६२
—६४
-७१
-७८
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सूक्ति कम
तीन सौ उनचालोस
२३५ मनुष्य तभी तक मनुष्य है, जब तक उस का अन्त'करण कर्तव्य
अकर्तव्य का विवेक कर सकता है।
२३६. विषय-सेवन को तृष्णा (लालसा) से इन्द्रियो का निवृत्त हो जाना ही
वास्तविक सुख है। २३७. यपाषंज्ञान प्राप्त होने पर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है-अर्थात
सम्यग् ज्ञान हो जाने पर मोक्ष दूर नहीं है। २३८. मनुष्यत्व, मुमुसत्व (मुक्त होने को इच्छा), और महान् पुरुषो का सग
ये तीनों भगवत्कृपा से प्राप्त होने वाली बड़ी ही दुलंम वस्तु है।
२३६ कम चित्त की शुद्धि के लिए ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि) + लिए
नही, वस्तु-सिटि तो विचार से ही होती है, करोडो कर्मों से कुछ भी
नहीं हो सकता। २४०. पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्रादि भी हो सकते हैं, परन्तु भव
बन्धन से पाने वाला अपने से भिन्न और कोई नही है।
२४१ शास्त्रो का आन्द-जाल तो चित्त को भटकानेवाला एक महान् पन है।
२४२. औषध को विना पिये केवल औषध शब्द के उच्चारण मात्र से रोग
नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव (प्रत्यक्ष आत्मानुमूति) के विना
केवल 'मैं ब्रह्म हूँ यह कहने से कोई मुक्त नही हो सकता। २४१. ससार की अनित्य क्षणभंगुर वस्तुओ मे अत्यन्त वैराग्य का हो जाना
हो मोक्ष का प्रथम हेतु है।
२४४. अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पांच विषयो में से केवल
एक-एक से बंधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौंरे जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो फिर इन पाचो से जकडा हुआ मनुष्य कसे बब सकता है?
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तीन सौ चालीस
सूक्ति त्रिवेणी
२४५. जाति-नीति-कुल-गोत्रदूरगं,
नाम-रूप-गुण-दोषवजितम् ॥ देश-काल-विषयातिवति यद्,
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥
-२५५
२४६. लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनया ऽपि च ।
देहवासनया ज्ञान यथावन्न व जायते ॥
---२७२
२४७. वासनाप्रक्षयो मोक्ष सा जीवन्मुक्तिरिष्यते ।
-३१८
२४८. योगस्य प्रथम द्वारं वाड्निरोधो ऽगरिग्रहः ।
निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता ।।
२४६. स्वय ब्रह्मा स्वयं विष्णु. स्वयमिन्द्रः स्वयं शिवः ।
-३८६
२५०. अतीताननुसन्धान भविष्यदविचारणम् ।
औदासीन्यमपि प्राप्ते जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥
-५१२
२५१. प्रजातस्य कुतो नाशः ?
-~-४६२ २५२. सन्तु विकाराः प्रकृतेर्,
दशधा शतधा सहस्रधा वा ऽपि । कि मेऽसङ्गचितेस्तैर्,
न घनः क्वचिदम्बरं स्पृशति ॥ २५३. देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः । मविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः॥
-५५६ २५४. निर्द्वन्टो नि स्पृहो भूत्वा विचरस्व यथासुखम् ।
-तत्त्वोपदेश ( शंकराचार्य) ७६ २५५. विद्या विद्यां निहन्त्येव तेजस्तिमिरसंघवत् ।
--प्रात्मबोध (संशराणाय) ३
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मुक्ति कर
तोन सौ इकतालीस २४५ जो जाति, नीति, कुल बार गोत्र में परे है, नाम, रूप, गुण और दोष
से रहित है, तथा देश, मान और विषय ने भी पृषक है. तुम वही ब्रह्म हो-ऐसी अपनी अन्तः गारण में भावना करो।
२४६. लोकवासना. पाम्प्रयागना और देशयामना-इन तीनो के कारण
ही जीव को यथार्थ मात्मशान नहीं हो पाता।
२४७. वासना-क्षय का नाम हो मोटा है और गही जोवन्मुक्ति कहलाती है।
२४८. वाणी को रोकना, धन का संग्रह न करना, मापा और मामनायो का
त्याग करना और नित्य एकान्त में रहना-ये सब योग का पहला
द्वार है। ४६ यह मात्मा म्ययं ही ब्रह्मा है, स्वय हो यिपणु है, स्वयं ही इन्द्र है, और
शिव भी स्वय ही है। २५०. बीती हुई बात को याद न करना, भविष्य को चिन्ता न करना और
वर्तमान में प्राप्त होने वाले सुख दु.खादि मे उदासीनता-यह जीव. - मुक्त का लक्षण है। २५१ जिस का जन्म ही नहीं हुआ हो, उसका मारा भी कैसे हो सकता है?
२५२ प्रकृति के दसियो, संकडो और हजारो विकार क्यो न हो, उनसे मुझ
प्रसग चेतन मात्मा का क्या सम्बन्ध ? क्या कभी मेघ अाकाश को छूमकता है, गीला कर सकता है ? कभी नही ।
२५३. देह का मोक्ष (त्याग) मोक्ष नही है, और न दण्ड-कमण्डलु का मोक्ष
ही मोक्ष है । वस्तुतः हृदय को अविद्यारूप ग्रन्थि (गाठ) का मोक्ष
(नाश) हो मोक्ष है। २५४. निन्द्र और निस्पृह होकर मानन्द से विचरण करो।
२५५ विद्या अविद्या को वैसे ही नष्ट कर देती है, जैसा कि तेज (प्रकाश)
अन्धकार समूह को नष्ट कर देता है।
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सूक्ति त्रिवेणी
तीन सौ वियालीस २५६. शरीरं सुखदुःखानां भोगायतनमुच्यते । २५७. न दीपस्यान्यदीपेच्छा यथा स्वात्मप्रकाशने ।
-१२
२५८. विषयेभ्यः परावृत्तिः परमोपरतिहि सा। सहनं सर्वदुःखाना तितिक्षा सा शुभा मता ॥
-अपरोक्षानुभूति (शंकराचार्य) ७ २५६. बुद्धिमते कन्या प्रयच्छेत् । -आश्वलायनीय गृह्यसूत्र ११५।२ २६०. अश्मा भव, परशुर्भव ।
---११।३
२६१. मम हृदये हृदयं ते अस्तु, मम चित्त चित्तमस्तु ते ।
-बोषायन गृह्यसूत्र १।४।१ २६२. महत्संगस्तु दुर्लभो ऽमोधश्च ।
-नारद भक्ति सूत्र ३६
२६३. तरगायिता भपीमे सगात् समुद्रायन्ति ।
२६४, कस्तरति कस्तरति मायाम् ?
यः सगांस्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, यो निर्ममो भवति ।
२६५. अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम् । मूकास्वादनवत् ।
-५१-५२
२६६. तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि, सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि,
सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि । २६७. नास्ति तेषु जाति-विद्या-रूप-कुल-धन-क्रियादिभेदः ।
-६६
-७२
२६८. वादो नावलम्व्यः ।
-७४
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तीन सो तेतालीस
सूक्ति कम
२५६. शरीर सुख-दुःखो के भोग का स्थान है ।
२५७ जिस प्रकार दीपक अपने प्रकाश के लिए दूसरे दोपो को अपेक्षा नही करता है, उसी प्रकार आत्मा को अपने शान के लिए अन्य किसी की प्रपेक्षा नही होती है ।
२५८. ति का समस्त विषयो मे विगुस हो जाना हो परम उपरति (वंराग्य) है, मौर सभी जाने वाले दुःो वो समभाव मे सहन करना तितिक्षा है ।
२५६. वुद्धिमान् वर के साथ हो कन्या का विवाह करना चाहिए। २६०, पत्थर बनो, परशु (कुल्हाड़ा) बनो ! अर्थात् पर्वत को चट्टान की तरह दृढ़ और परशु की तरह अन्याय- पत्याचार को सप्ट-सण्ड करने वाले बनो ।
२६१. (वाचार्य ब्रह्मचारी गिप्य को सम्बोधित करता है) मेरे हृदय में तेरा हृदय हो, मेरे वित्त (चिन्तन) में तेरा चित्त हो ।
२६२. महापुरुषो का समागम प्राप्त होना दुर्लभ है, प्राप्त होने पर आत्मसात् होना कठिन है, यदि एक बार आत्मसात् हो जाता है, तो वह फिर व्यर्थ नही जाता, निष्फल नही होता ।
२६३. चित में काम, क्रोष आदि की तरंगे कितनी ही छोटो हो, दुःसंग से बढ़ते-बढ़ते एक दिन ये समुद्र बन जाते हैं ।
२६४. माया को कौन पार करता है ? कौन पार करता है ?
जो सभी प्रकार की आसक्तियों को त्यागता है, जो अपने महान् गुरुजनों को सेवा करता है, जो निर्मम (ममतारहित ) होता है । २६५. गूंगे के रसास्वादन की तरह प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है ।
२६६. सच्चे भगवद्भक्त तीर्थों को तीर्थत्व, कर्मों को सुकमंत्व एवं शास्त्रों को सच्छास्त्रत्व प्रदान करते हैं ।
२६०. सच्चे भगवद्भक्तो मे जाति, विद्या, रूप, कुल, धन एव क्रिया ( आचार व्यवहार) आदि के कारण कोई भेद (द्व ेत, ऊंचे नीचे का भाव) नही होता है ।
२६८. भगवद्भक्त को वाद (किसी से कलह, कहासुनी, अथवा धार्मिक एवं साम्प्रदायिक वाद-विवाद ) नही करना चाहिए ।
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परिशिष्ट (१)
सूक्ति त्रिवेणी
जैन धारा की विषयानुक्रमणिका
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--: जैनधारा के अन्तर्गत विषयों का अकारादि क्रम :-- प्रचौर्य
भाव अनासक्ति
मनोबल अपरिग्रह
माया अप्रमाद
मानव-जीवन अभय
मुक्ति अभिमान
मोह अहिसा
राग-द्वेष प्रज्ञान
लोभ प्रात्म-दर्शन
वाणी-विवेक श्रात्म विजय
विनय प्रात्म-स्वरूप
वीतराग उद्बोधन
वैराग्य उत्सर्ग-प्रपवाद
सत्य क्रान्तवाणी
सत्सग कर्म-प्रकर्म
सदुपदेश कपाय
सद्व्यवहार काम
मदाचार चतुर्भ गो
समभाव तत्वदर्शन
सरलता तप
सम्यग्दर्शन तितिक्षा
सयम धर्म
साधक जीवन पचामृत
साधना पथ प्रश्नोत्तर
सामाजिक चेतना पाप-पुण्य
श्रद्धा ब्रह्मचर्य
स्वाध्याय
श्रमण श्रमणोपासक
जान
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जैन धारा को विषयानुक्रमणिका
नवीय '७४/८ ११६/१०६ १२८/१६७
__ अनासक्ति (निस्पृहता) ८/30 20/८६-८७-६० ५८/८१ ८४/८-६ १८ ६०/४७ ११८/१०६ १.८/१६६ १३२/७.८ १६४/४० २३४/४६
अपरिग्रह ८/५. ४०/७१ ७४/११-१: ७८/३६ ८८/३४-३५ १५०/६०-६१ १६०/१८ १७०/७३ २०८/१६१ २१२/१६ २३६/५८
अप्रमाद २/५-६ ४/७-१३ ८/३२ १०/८४ १६/७३ २०/६१ ३८/६१ ४८/६३ ६८/१ ६०/४५ १०४/३८-३६ १४०/४४ २१२/१० ६२/७५ २२४/१०
अभय ३६/५४ ७६/२७-२८-२९-३०-३१ ७८/३२ ८०४२ १६०/२४
अभिमान ४२/८२-६१-६२ ५२/१७ १२६/१५६ २४६/१०६
अहिसा २/२४/८-११ ८/२८-२६ १२/५४ १४/६४ १६/७६ १८/८१-८२ २०/८८ २२/६६ २४/१०४ २८/३ ३०/१४ ३८/६४ ४२/८६ ४४/१०३ ४८/७ ६८/२२-२३ ७२/१-२-३-४ ७४/१४-१७ ८६/३१ ८८/२२ १०२/२८ १०४/३४ १०६/४०-४६ ११६/१०० १३२/५ १३६/२५ १५०/६२-६३ १५२/६४-६५-६६-६७ १६४/३८-३६ १७८/१७ १८०/१८ १८२/३७ १८४/३८ १८६/५१ २०२/१२५ २०४/१३५ २०८/१६० २१०/२ २२०/६० २३६/५१-५२ २४६/१०४
अज्ञान ६/१७-२५ १०/४२ १२/८६-५० २८/८-६ ३०/१०-११-१२. ३२/३१ ४६/१०६ ८४/१२-१४ १०६/-४६-५३ १३४/१२० १५८/८ १६०/२० १६२/२५ १६६/४५ १७८/१० १६६/१०० २०३/१५१ २१०/४ २२०/७२ २३६/५३ २३८/७० सर्वत्र प्रथम अक पृष्ठ का सूचक है, एव अगला अक सूक्ति-सख्या का ।
१
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श्रात्म-दर्शन
१० / ४६ १५८ / ११२१२/ε
आत्म-विजय
१४/६८ १६/७४ २२/६५-६६ २४/११४ २८/७ १००/१३-१४ १०८ /६० - ६१ १२० / १२७ १३८ / ३३ ३४ २४४/६४-६५-६६
आत्म-स्वरूप
सूक्ति त्रिवेणी
२/१-४१४/६७ २०/६३ २२/१००-१०१ ४६/११०-१११ ६४/४. ६८/२० १०२ /२७ ११४/८६ ११८ / ११३ ११४ १६० / २२-२३१६२/२ε १६६/४६-४७-४१-५०-५१ १६८ / ५४-५५-५६ १७४ / ८८-८६-६०-६३ २०४/१३६-१४०-१४१-२०८ / १६२ २१० / १२२२ / ८४ २२६/१-४ २४२ / ८६-६०
-
उद्बोधन
४/१४-१५ २८/१ ३०/१५-१६-१७ ३४/३२-३७-३८ ९६/८१-८२-८३ १०४ / ३३ १०८ /६५ ११०/६६-६९-७० ११४ / ८८-८९-९०११८ / ११२११७-११८ १८६/५३-५४ २००/१२०-१२१ २०२ / १२२-१२३-१२४ २२०/६४
उत्सर्ग-अपवाद
१४८/७८ १५०/८६ १७६/४ १८४/३६ १६०/६७ १६४/६१ २०० / ११३ - ११४-११५-११६-११८ २०२ / १२६ २२२ / ७४-४६ कान्त वाणी
३८ / ५८ १०२ / १३४-१३५-१३६-१३७
क्रोध
५२/१६ ७६/२५ ६२ / ६६ १००/१६ १२६ / १५५ २४२ / ८६ २४६/१०७-१०८
४६/१०६ ६६ / २६ १०४ / ३६ १५०/८७१८२/३६ १८८ / ५५
कर्म-कर्म
१२/५५-५६-५७ ३४/४० २६/५१-५२-५३ ३८/५७ ४४/१०५
१०८ / ५५-५६ ११२/८० १३०/१७० २१४ / २५
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जनधारा वियानुक्रमणिका
कपाय
६०१५४-५५ ६०/५६ १०८/८ १२०/१२६ १३४/९ १४०/३५-३६ १४४/६१ १८२/२६ १६६/६७-६८-६६ २४६/१०६
काम (इन्द्रिय-विपय) ४/६-१० १०/३६ १४/५६ ३०/-2 १०८/६३ ११२/७६ ११४/८७ १२२/१३८-१६ १२६/७ १६२/३४ १७४/६१ २१०/५ २२६/७
चतुर्भगी ५०/१०-११ १२-१३-१४ ५२/२१-२२ ५४/२३-२७-२६ ५६/३२.३३-३४-३५. ५८/३६-३७-३८-३६-४० २३२/३४
तत्वदर्शन १६/७२ १८/७६ २८/४ ४८/४ ६२/५४ ६४/३-५ ६६/६-१०-१२-१४ ६८/१७-१८-२६ ७०/२८-२६-३०. १३६/२६ १४०/४० १४६/६६ १५६/१-३-४-५-६ १५८/७ १६२/३० १६४/३६ १६८/५७-५८-५६ १८२/३४ १८४/४१ २०४/१४२ २०६/१५२-१५३ २०८/१५६ २४०/७४७५-७६-७७-७८-७९-८० २४२/८१-८३-८४
तप ३८/५६ ११२/७५-७६ ११८/१०८ १२६/१५६ १३४/११ १३६/१६ १४२/५२ १६४/४२ १८४/४६ २२०/७१ २२२/७३ २२४/८५ २३६/५५
तितिक्षा ८/३३ २४/११० ३८/६० ४०/७०-७७-७८ १०२/२८
धर्म २२/१०३ २४/१०५ ४६/१०७ ४८/२-३-५ ५६/३१ ६०/४७-४८ ७८/३७-३८ ८२/१ ११२/७७ ११४/८५-६५ १२०/१२४-१२५-१२६ १२०/१३१ १३४/१७ १३६/२१-२४ १३८/३०-३१ १४६/६७-६८ १६२/२८ १६४/३५ १७०/७५ १८६/४८ २०८/१६३ २१०/८ २१८/४८-४६-५१-५६ २३४/४७-४८ २४४/६३ २४६/१११
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पंचामृत
२०/६२ २२/६७ ३२/२५ ३४ / ३५-४३ ३६/४५-४८ ३८ /६२
१४०/४१-४२-४३
४२/८४ ४४/६५ ५०/६ ६०/४५ ६२/५३ ६४/६. ६६/१३ ६८/२४२५७०/६ ८०/४४ ११०/७१-७३-७४ ११२ / ८३ ११४ / ६२-६३ ११६/६६ ११८ / ११५ १२० / १२१ १३२ / ३-४ १४२/४६-५०-५१ १४४/६२-६३ १४६ / ७२ १४८/८२१५० / ८८ १६६/४६ १७०/६७-७४ १७६/१-२ १८०/२१-२२-२३-२५-२६-२७ १८२/३२-३३-३५ १८४/४२-४४-४५ १८८/५६-५८ १८८ /६२ १९०/७२ १९२ / ७९-८०-८१-८५ १६४ / ८८-६६ १६८ / १०७-१०६-११०-१११ २००/११६ २०२/१२७ २०४/१४५ २०८ / १५७२१०/६ २१२/११-१२१४-१७-१८ २१४/२३-२०-३२. २१६/४१-४५-४६ २१८ / ५५-५७-५८ २२०/६२ २२२ / ७८-७९-८२ २२६ / ३ २२८ / १४ २३० / २५ २३६/५०
२३८/६१-६७ २४४ / ६८
प्रश्नोत्तर
१७८/१३-१४-१५-१६
पाप-पुण्य
३८ /६३ ५२ / २० ११२/७८ १३६/२०१५८ / १७८/८ २१६/४२ २२२ / ८३
२२८ / १५२३६ / ५६
ब्रह्मचर्य
२६/११ १२८ / १६५ १८० / १६२१८/५० २४६ / १०५
भाव
१७२/७८-७९-८३-८४
सूक्ति त्रिवेणी
१६८ /६१-६२-६३-६४ २३८ /६८ २४० / ७३.
३६/५०५५ ६०/५१ ७८ / ३९-४०-४१ ८०/४३ ११६/६७
मनोबल
२४/११२ १०२/२३-२५ १८०/२० १८४ /४०
माया
१२ / ५१ ३० / २० ३२ / २८५२ / १८७० / २७ १२६/५७ २४६ / ११०
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जनघाग विपणानुक्रम शिया
मानव जोवन ५०/८ १००/-E-२० १०६/५४ ११०/६८ २१६/८४
मुगित (स्वरुप) ४/१६ १२/५३ :०/१८ ४२/८६ ४८/१ १०४/३५-४०. १३०/१७६
१५.८/१३ १८८/५६ २१६/२६ २१८/८७ २०८/१७ (मार्ग) १२४/१४०-१४५-१४६ १२६/१६१ १८४/५६-६० १५०/८४-८५ १८६/५२ २०६/१४६-१५० २१०/१५ २१८/५२-५४ २३२/३५-३६
मोह ६/१८ १८/६२ १६/७५ २८/ १२८/१६२-१६४ १३०/१७४ १६४/३७ १६८/८७ २२०/६७-६६ २३२/३८ २३८/६३-६८
राग-द्वीप ४८/६ १२६/१६३-१६८ १५८/१० १६०/२१ १९६/१०३ १९८/११२ २१४/३२ २२२/७७ २३८/६५
लोभ २६/११७ २८/२ ३६/४६ ४०/७२ ५२/१६ ६०/४४ ७६/२६ १०८/५७-५८-६२ १२०/१२८ १२६/१५८ २३८/६६ २४२/८५
वाणी-विवेक २४/१११-११३ २६/११५-११६ ४०/७३-७४-७५ ४४/६६-१००-१०१
५८/४२-४३ ८८/३८-३६-४१-४२-४३-४८ ६२/६१-६३-६४-६५ ६४/७२-७७ १००/८-१२ १०६/१५३ १३८/३२ १८४/४३ १८८/६३ १६२/६४ १६४/६४ २०८/१५८ २१६/३५-३६ २२२/८० २४२/६१
विनय २६/११८ ६०/५७ ६४/६७-६८-७० ६८/१-६ १००/१५-१७-१८ १०२/२१ १४८/७६ १७६/५-६ १८६/४८ १८८/५७ २०२/१२८ २०४/१३१-१३२ २०८/१५५-१६४ २१६/३८ २२०/६८. २२६/२ २३०/१६ २३४/४५
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मूवित त्रिवेणी
वीतराग ६/१६-२०-२४ १०/३८ १४/६३ १६/७७-७८ २६/१२०-१२१-१२२. १२३-१२४-१२५ ३०/१३ ३४/३६ ४०/७६ ४६/१०८ १२४/१५० १३०/१७१-१७२-१७३ १४६/६५ १६०/१६ १७२/८५ २२६/५
वैराग्य ४/१२ /२२ ८/२७-३१ १०/३७-३६-४०-४१ १४/६५ १८/८० २०/८६ २४/१०६ ३०/१६ ३२/२१ ३४/३४-३६ ३६/४७ ४६/११२११३ ७४/६-१०-१२ १०४/३७ ११२/८१-८२-८४ ११६/१०१-१०२-१०४ १४८/८३ २२६/६ २०८/१२ २४२/८७
सत्य १४/६१-६६ १६/७०-७१ २८/५ ३८/५६-६७ ४४/१०२ ७२/५-७ ७४/१८-१६ ७६/२०-२१-२२-२३-२४ ८६/३० ८८/३३-४० १०६/४७ ११६/१०५ २२४/८६
सत्सग ६६/११ ६२/६२ १४६/४७ १८८/६०-६१ १६०/६८. २४४/६७
सदुपदेश १०/४३ २०/६४ २२/१०२ ३२/२४-२६-३० ३४/४१ ४२/८१ ४४/६७-६८ ४६/११४-११५ ५६/३० ७४/१६ ८४/१३ ८८/३७ ६०/५२-५३ ६४/७३ ६६/८५ ६८/५ १००/११ १०४/४१ १०६/५२ ११०/६७-७२ ११४/६४ ११६/१०३ १२०/१२० १३६/२३ १४६/७३ १७२/८६ १८२/३१ १८६/४७ १८८/६४ १६०/६५-६६ १९८/१०६ २१२/२१ २०४८७
सद्व्यवहार ४०/७६ ४४/६६ ७४/१५ ८४/१५-१६-१७-१८-१६ ८६/२०-२१-२२२४-२६ ६०/५०-५१ ६२/५८-५९-६० ६८/७ १०२/२०-२६ १८६/४७ १६४/६५
सदाचार ९८/२-३-४. १०४/४:-४३ १०६/४४-४५-५०-५१ ११८/११६
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जैनधारा विषयानुक्रमणिका
१३०/१-२ १०२/५३-५/-५५ २४४ / ५६-५७-५८ १४८ /७५-७६ १५०/- ६ १५२ / ३८-६९ १७४ / ६४-६५-६६-६७-६८-६६ १९८ / १०८ २०६/१४८- १५१ २२०/२० = ३६/४४२४० / ७२ २४२ / ८२-८८ २८८/e=-६६-१००-१०१
नमभान
८/३४ १०/८७ १= / == ०८/१०७ १०८ १०२३२/२६४०/८०६६/७ ९०/८८-४६ २८/७१-७८ ११८/१११ १२० / ११६ १६२ / २७-३१ १६६/५२-५३ २६८ /६० २७०/७६ १७२/८००१२/२० -२०/८१ २२८/२६ ०३०/०६-०७ २३८ /६०
सरलता
६०/८६ १००/६-१० १०४ / ३२ १२६ / १५१-१५० १४२/४७ सन्तोष
४०/८ = २३० / १६६ २१० / ३
सम्यग-दर्शन
७
१२/५८ १०४ / १४३-१४४ २३४ / १३-१४ १३६ / २८१५६ / २.१५८ / १४१५ १६०/१६-१७ १७४/६५ ६६ ६८ ६९ ७० ७२ १७२ / ८१-८७ १८२/२८ २०९/१४३ २३०/२१ २३६/८६ २४४/१०२
सयम
२०/८४-८५ ३८ /६५ ५२/१५६६ / ६६८ / १६८२ / ६-७ १२० / १३० १२२/१३२-१३३ १३२/९ १३४/१० १४०/४५ १६४/६३ २१४/३० २२०/७०
साधक-जीवन
१०/४५ ३२/२५-२७ ३४/४३ ३६/४४ ३८/६६ ४०/६८ ४४/१०४ ४६/११६ ५४/२४-२५ ६०/५२ ६८ / २१८०/४६ ८२/५ ८४/१० ८६/२३-२५-२७-२८-२६ ६०/ ४६ ६४/७५-७६ १६ / ७८-७९-८०-८४१०२ / २२ ११८ / ११० १२०/१२२-१२३ १३० / १७४१३४/१६-१८ १३६ / २२ १४०/३७-३८-३९ १४८/८०-८१ १५४/१०० - १०१ १७४/६२ १७६/७ १८० / २४ १६६ / ६९-१०४ १२६८/२०५२०४ / १३८ २१० / ७ २१८/५९ २२८ / १-१०-१३
२१६/४०
२२०/६६
१६० /७४ १६४ / ८६
२१४ / २८-२६-३१-३३ २३२ / ३७
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सूक्ति त्रिवेणी
साधना पथ ४०/६६ ६८/१६ ७०/३१. ११६/१०७ १२४/१४७ १२६/१६० १४६/७०-७१ १७६/३ १८२/३० १६०/६६-७३-७५ १६४/६२ २०४/१३४-१३७ २०६/१५४ २०८/१५६ २१४/२२ २१८/५३ २२४/८८ २३०/२४ २३८/७१ २४६/११२
सामाजिक चेतना ३६/४६ ४२/८३ ६०/४६-५.० ६६/१५ ७८/३३-३४-३५ ६४/६६ १००/१६ ११६/६६ १२४/१४६ १७८/९ १८६/५० १६०/७० १९६/१०१-१०२ २०४/१३६ २२४/८६ २२८/८-११ २३०/१८ २३२/३३ २३४/४०-४१-४२-४३-४४
श्रद्धा
२/३ २२/९८ ४४/९४ ४६/११८ १०२/३१ १०८/५६. ११४/६१ १३८/२६
स्वाध्याय १२४/१४०-१४१-१४८ १७८/११-१२
श्रमण ८०/४५ ८२/२-३-४ ८८/३६ ११६/६८ १३४/१५ १४२/४८-४६ १६४/४१-४३ १६६/४४ १६४/६० २१८/४३ २३०/२८ २३२/२६-३०-३१-३२
श्रमणोपासक ४६/११७ ५४/२६ १४४/६४
ज्ञान ६/२३ ८/२६ १२/४८-५३ १४/६०-६६ ३२/२२ ३४/३३ ४२/८५८७-६० ५४/२८ ६४/२ ८४/११ १२६/१५४ १४६/६६ १४८/७७ १५८/१२ १६२/२६-३२-३३ १७०/७१ १७२/७७ १८६/४६ १६०/७१ १६२/७६-७७-७८-८२-८३-८६ २००/११७ २०२/१२६-१३० २०४/१३३ २०६/१४७-१४८-१४६ २१२/१३-१६ २१४/२६-२७ २१६/३७ २२०/६१६३ २३८/६६२४४/१०३
-
-
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परिशिष्ट (२)
सू क्ति त्रिवेणी
बौद्ध धारा की विषयानुक्रमणिका
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-~: बौद्ध धारा के अन्तर्गत विषयों का अकरादि क्रम :
अहिंसा
ब्रह्मचर्य
अकुशल बम
ब्राह्मण कौन
अप्रमाद
मित्र
आत्म विजय
रागडेप
उत्तम मगल
वाणी-विवेक
उद्बोधन
विद्या अविद्या
कामना
विमुक्ति
गृहस्थ के कर्तव्य
पत्मगति
चयनिका
सत्य-असत्य
चित्त
सम्वुद्व माधक
दान
सुख-दुःख
धर्म
श्रद्धा और प्रज्ञा
नीति और उपदेश
श्रमण
प्रश्नोत्तर
शान्ति-समता
पडित और मूर्ख
गील-सदाचार
पुण्य-पाप
शूद्र कौन ?
पुरुपार्थ
क्षमा
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बौद्ध धारा की विषयानुक्रमणिका
अहिसा ३०/५? ४४/२८ ५४/२६ ५८/५७ ६०/sy ६२/५ ८२/१३ ८४/१८-२० ८६/८ ६०/५८ १२८/५७ १:४/८ १३८/२३ १४४/५३
अकुगल धर्म ६/२०२३-२४ ८/०६-२८ १०/२-५ १६/२१ २४/१३ ६०/६१ ७६/७ ७८/२२ ८२/१०-१२ ६२/६५-६६ ६४/६६ १००/१० १०६/२ १०८/१४
अनित्यता २६ १४१४ १८/३४ ३८/७० ३/८१ ६०/४६ १००/१३
अप्रमाद २४८-५ १६/० ५०/८-६ ७४/३-६ ८८/२७ १०२/२१ १२४/३०
पात्म विजय १६/१६ ५२/२१ ५४/३१-३२-३३ ५६/८१ १०६/१
उत्तम मगल १३४/३-४-५
उद्बोधन ४/१६ ८/२६-३० १८/२७-२८ २०/१-२ ५४/३४ ८८/३८-३६ ११४/४५
कामना (तृपणा, आसक्ति) ४/७-६-१० २२/८-१२ २६/२२-२३ २८/३३-४१ ३४/६७ ५६/४०४६ ५८/५१ ६८/३५ ७०/३८-४३ ७६/१६-१७ ८०/२-३ ८८/४५ ६२/६१-६३-६४ ६४/८० ६८/८१-८६ ६८/६. १०२/२८ १०४/३७८० ११६/२ १३०/६७ १३८/२७ १४०/३३ १४२/४१-४२
गृहस्थ के कर्तव्य १०/३५-३६ २२/७ २४/१६ ५२/२२ ८६/२८ १०८/१० ११४/४२
चयनिका २/३ ४/१२ ६/२१ १४/१५-१६ १६/२५ २२/६-६-११ २६/२५-२८. २८/३८-३६ २८/४२ ३०/४४-४८-४६ ३०/५४ ३२/५८-५६ ३२/६१ ३४/६६ ४४/२५ ४६/३४ ५२/१८- १६ ५४/२८-२६-३५. ५६/४४ ५८/४६ ६२/६-७ ६६/२० ७०/३७-३६-४०-४१ ७४/२
१ सर्वत्र प्रथम अक पृष्ठ का सूचक है, एव अगला अक सूक्ति सख्या का ।
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मूक्ति त्रिवेणी
७६/१४ ७८/२१ ८२/८ ६०/५२ ६२/६८ ६४/८४-८५ १००/१८ ११८/५-६ १३०/६२-६३ १३२/७२ १३६/१३ १३८/१६ १४४/६०-६१
चित्त २४/१४-१५ २८/३६ ३२/५५ ३४/७२ ३६/७५ ३८/१ ४८/१-२-४ ५०/१० ५४/२५ ६४/१५ ७६/१५ ६४/७५ १०६/६ १२२/२६-२७ १२४/३१ १३६/७ १४२/५०-५२
दान
४/११ ८/१८ २४/१८-२० २६/२१-२६-२७ ४२/१४-१५ ४४/२४ ५४/३६ ७०/४५ ८२/११ ८६/२७ १०२/२० ११०/१८ १२८/५३ १३६/८-१२-१४
धर्म
६/१६ १४/६-७-१३ २२/१० ३०/५० ६०/६० ६८/३४ ८२/8 ८४/२२ ८६/३२ ६४/७३ १०२/१६ १०४/३१-३४ ११०/२० ११४/४६
नीति और उपदेश ६/१७ ३२/६० ४२/१८-१६-२० ५०/११ ५२/१६ ५६/३७-३८ ५८/५२-५८ ६०/६३ ६४/१४ ६६/१६ ६८/२६-३०-३१-३२-३३ ७८/१८ ८४/१७-१६ ८८/४१ ६४/७६-७७-७८-७६ ६६/८२-८३ ६८/३ १००/१५-१७ १०२/२३ १०६/५ १०८/७-११-१७. ११२/३०३१-३७ ११४/३८-४३-४४-४५-४८ १२४/३५ १२६/४०-४३ १२८/५२५८ १३०/५६-६० १२६/१६-१७ १३८/२०-२२ १४२/४८ १४४/५५५७-५८
प्रश्नोत्तर २६/३० ३४/६६ ३८/६ ४०/७-८-६-१०-११ ४४/२३ ७४/५ १३४/१०२
पडित और मूर्ख १६/२२ १८/२६ २२/५ ३२/५६ ३४/६५ ५०/१४-१५ ५४/३० ५.८/५४ ६०/५६ ६८/२२ ६८/२८ ७०/४२ ७२/४६-४७-४८ ६२/५६६० १००/८ १०२/२४-२५-२६-२७ १०४/३२-३३-३९ १०६/४ १०८/१२१३-१५ ११०/२६ १३२/७० १३८/२४ १४०/३४-३५ १४२/४२
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बोयाग · विषयानुमग शिका
१३
पुण्य-पाप १४/११ १६/१७-१८ २६/२६ ३०/५१-५२ ३२/६४ ४८/५ ५०/६. ५२११७ ६६/२३-२४-२५-२६ ६८/२७ ६०/५३-५७ १३६/६ १३८/१८-२६
पुरुषार्थ 3८/२-३ ५२/२३ ८४/२४-२६ ८८/३७ ६०/५० ६६/८५ १००/१४ १०२/२२ ११२/२८-२६ १२४/३५-३६ १४४/५४
ब्रह्मचर्य १८/८ २८/३४ ८८/४४-४५ ११०/२२
ब्राह्मण कौन ३०/४५ ६२/१ ६०/५१ १००/११ १४०/३७ १४४/५६
मिन ६/२५ ८/३१-३२ २८/३१-३२ ४४/२६ ८०/४ ८२/६ ८६/३०-३१३३ १०६/३ १०८/८ ११२/३ ३-३४-३५-३६ ११४/३६-४०-४१ १२२/२८ १२४/३७-३८ १२८/५४-५५ १३६/१५ १४४/५६
राग-द्वेप २/२ ३४/६८ ३६/७८ ४६/३३ ५६/४२ ६०/६२-६६ ७०/४४ ७२/४६. ७४/१ ७६/८ ७८/२० १३०/६१ १४२/४७
वाणी-विवेक १८/२६-३० ५२/२० ५४/२७ ८८/४६ ६०/५४-५५ १००/१६. १०४/४१ १०८/६
विद्या-अविद्या २८/४० ४६/३५ ५०/१३ ५६/३६ ८८/४० १००/१२ १४०/३०३८-३६ १४२/४६
विमुक्ति (वीतरागता, मोक्ष) १६/२४ २८/३७ ३६/८० ४२/१७ ४४/३१ ५६/४५ ६४/८ ६४/७०-७१ ६६/८६-८७-८८ ११६/३-४ १३२/६६ १३८/२१-२५ १४२/४३-४४-४५-४६
सत्सगति ८/२७ २४/१७ ४०/१२ ७६/१०-११-१२-१३ ६८/२-५ १०४/३८ ११२/३२ ११४/४७ १३६/२१
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मूवित त्रिवेणी
सत्य-असत्य १४/१२ १६/२३ ४०/१३ ८४/२१ ८८/४७ ६०/५६ ६४/७२ ११०/२१ १३६/१० १४०/३६
सम्वुद्ध साधक ४/८-१३-१४-१५ ८/२२ १०/३६ १४/६ १८/३२ २०/३-४ २४/१६ ३०/४३-४६-४७ ३४/७३ ३६/७४ ३८/४-५ ४२/१६ ५२/२४ ५.८/५५ ६६/१८-१९-२१ ७०/३६ ७८/१६-२३ ८२/५ ८८/४२ ६२/६७ ६४/७४ ६८/१-७ १००/१०४/३५ ११०/१६ ११८/८ १२२/२५ १२४/३६ १२६/४१-४२ १३२/६४-६५-६८ १३८/२८ १४०-३१ १४४/६२
सुख-दुख ६२/२-३-४-६ ६८/८-६-१० ७४/४ ६२/६२ १३०/६६ १३२/७१
श्रद्धा और प्रजा २८/३५ ३६/७६ ७६/६ ८२/७ ८४/२३-२५ ८६/३५ १०४/३६ ११०/२५ १२२/२६ १२४/३४ १४२/५१
श्रमण ५०/७ ५८/५३-५६ ६०/६४ ६४/११-१२-१३ ८८/४३ १४०/२९-३२
गान्ति-समता १८/३१ ३४/७१ ३६/७६ ५६/४३
शील-सदाचार २/१ ८/३३-३४ १०/३७-३८ १२/१-३-४ १४/१० १८/३३ ४२/२१-२२ ४४/२७-३२ ५०/१२ ९८/४ १०२/२६-३० १०८/१६ ११०/२७ ११६/१ ११८/७-६-१०-११-१२-१३ १२०/१४-१५-१७-१८-१६ १२२/२०-२२-२३-२४
___ गूद्र कौन ? ८२/१३-१४ ८४/१५-१६
क्षमा
२६/२४ ३२/५७-६२-६३ ४४/२९-३० ४८/३ ५६/३६-४७ ५८/४८ ६६/१७ ८०/१ ११०/२३ १२६/४४-४५-४६-४७-४८ १२८/४६-५० ५१-५६ १४०/४०
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परिशिष्ट (३)
सूक्ति त्रिवेणी
वैदिक धारा की विषयानुक्रमणिका
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-: वैदिक धारा के अन्तर्गत विषयों का अकारादि क्रम : -
मूर्ख
मैत्री
मोक्ष
ग्रप
ग्रतिथि सत्कार
ग्रन्नदान
ग्रन्न का महत्त्व अनासक्ति
अमृत
ग्रभय
ग्रसत्पुन्प
असत्य
ग्रहमा
ग्रज्ञान
ग्रात्म-स्वरूप
ग्रात्म-ज्ञान (ग्रात्म-विद्या)
ग्रात्मा, परमात्मा श्रात्मौपम्यना
ग्रालस्य
ग्राशोर्वचन
इन्द्र
उच्च सकल्प
उद्बोधन
उदात्त भावना
कर्त-य बोध
कर्म (श्रम)
कृपणता
कोय
गो
गुरुजन (गुरु, माता-पिता)
ग्रहस्थ वर्म
गृहिणी
क्षमा
तत्त्वदर्शन
तप
तितिक्षा
तैजस् (ग्रितत्त्व)
दान
दिव्य शक्तियाँ
दुर्वृत
दृढसंकल्प
धर्म
धर्माचरण
वैर्य, शौर्य
नीति
नेता
पञ्चामृत
प्रश्नोत्तर
पुरुषार्थ
पुण्य-पाप
यज्ञ
योग
ब्रह्म
ब्रह्मचर्य
ब्राह्मरण
मन
मनोवल
मानव जीवन
नातृभूमि
माधुर्य भाव
राजनीति
लोभ तृष्णा
वाणी
विद्वान्
विनय
विराट्ता
वैराग्य
शरीरधर्म
शिव सकल्प
श्रद्धा
प्रज्ञा
प्रार्थना
सदाचार
पारिवारिक सद्भाव सद्गुण
मन्तोप
सत्सग
सुख-दुख
सत्य
मदुपदेश
सभाधर्म
सयम
सरलता
सामाजिक चेतना
सुभाषित
ज्ञान
ज्ञानी
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वैदिक धारा की विषयानुक्रमणिका
श्रद्ध ेप
१४/२६= १२०/६०-६१ १३६ / १०१ १३८ / १४१-१५६ २७२/०२ २=४/३२-४० ३२२ / २५५
अतिथि सत्कार
१३०/११०-१११-११२ १५० / ३६ १५२/४८ १८६ / ७५-७६२०८/७१
२=२/२६ ३२८ / २=५
१०४/१२ २६०/२e.
अन्नदान
अन्न का महत्व
१६२ / १०५ १६८ / ११६ १७८/३९-४१ २०४ /५८ २०८/६९-३०-३३ २६०/१००
ग्रनामक्ति
१०/१-२०१० / ७६-७७ २६४ / ८ २६८ / २७ २७० / ४२३००/४० ३१८ / १३३ ३२०/१४८ ३२८ / १८६३३६/२२३-२२४-२२५ ३४०/२५४ ३४२/२६४
श्रमृत
१५२/४६ १६०/६७ १६२/६-७-८-६ २३८/६७
१७
ग्रभय
२/ ७३२४ / ११२३६ / १६० ६२ / २७७ १०४/६ ११२/१६ ११६ / ३५ १२८/६९ १४०/१६०-१६३ १४८/२६ १५०/३५ १५४/५७ १६२ / १०२ १७० /६ २०८/६७
श्रसत्पुरुष
२४८/३६ २५०/४७ २५२/६१ ३०६ / ६३
ग्रसत्य
१२८ / १०२ १४४ / १ १५४/६२ १५८ /७८ २०२ / ४६ ३२४/१५६
ग्रहिसा
३० / १४१७८ / ३६ ८० / ५५ ११६ / ३६-४० १४४/३ १४६ / १५
१ सर्वत्र प्रथम ग्रक पृष्ठ संख्या का एव द्वितीय अक सूक्ति संख्या का सूचक है ।
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________________
१८
सूक्ति त्रिवेणी
१९०/३ २४०/४ २६०/६४ २७४ / ५३ २८० /१३ २८६/४८३०८/८२
३१४ / १०६ ३२६ / १७६
प्रज्ञान
१६८ / २६ २७ २२८ / १४ २४० / १२४२ / ११
१६०/६४ १६२/१०० २७०/४० २८० /११ ३१२ / १०२ ३४० / २५३
ग्रात्म-स्वरूप
१८ /७१-७२ २०/८१२२/१००४२ / २०२-२०३ ४४ / २११-२१२. ७० / ३ ७२/०७४/२० ६२ / ६६ ६६ / ११० २०० / १२७११२/२२ १२२/७५ १२४ / ८११५२ / ५२ १७० / ३ १७४ / २७ १७८ / ४४१८० / ४७४६ १६४/११ १६६/१९ २०४ /५७ २१६/११५-११६-११७ २१८ / १२० २६४/४ २८४ / ३८ २६६ / १७ २६८ / २५ ३३० / १९३ ३४०/२४६ ३४०/२५० - २५१-२५२ ३४२/२५७ ११६/२१६ प्रात्मज्ञान (ग्रात्मविद्या )
१९६/१७-१८ १६८ / २८ २९ ३१ २०० / ३३-३४-३५-३७ -३८-३९ २०२/४६ २९०/८६ २१८ / १२३ - १२४ २२० / १३६ २२४/१५४ २७२ / ५१ ३३०/१६० ३३०/१९४ ३३२/१९६ ३३६ / २३१ ३३८ / २४२ ३४० / २४६
ग्रात्मा, परमात्मा
१०/५११४/५६-५७२४/१०६ ११० ६२ / ६२ २४/१०६-१०७ ६/१०९-१११ १०२ / ५-६ १३० / ११६ १३२/१११-१२० १३२/१२२-१२३-१२४ १४०/१५७ १५२/५० १७२/९-११
१७६ / ३२ १८२ / ६२ १६८/३२ २००/४० २०२/४८ २०४ / ५१-५२ -५४-५५ २०८ / ७९-८० २२०/८५ २१२ / ६८ २१४/६६ - १०० १०२-१०७ २१८ / १२७ २२० / १३२-१३५- १३८
२२४/१५०-१५२-१५३ २४२ / ६ २६२ / ५ २७२ / ४३-४८ २७६ / ६९ ०६०/६६ २१२/७६ ३०६ / ७१ ३०९/७७ २०८/८४ ३१२ / ९६ ३१४/११३ ३१६/११६३२६ / १६६३३० / १६१३३४ / २१५ ३३८ / २४०
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वैदिक बारा विषयानुप्रमणिका
यात्मौपम्यता १९२४-५ २८८ १६-१७. २७०४१ २७०/४७-४८ ३०४/६० ३२२/१५५, ३३२,२०३
पालस्य १८२११७२ १६६ १२४
प्रागीर्वचन ७०.४ ७८ ?८-४०-४३ ११२/१७ १२०.६७ १५२/४८
इन्द्र २० १०३ २४१०७ २८ १३५ ३८/१६३-१६६ ४८/२२२ ५२, २४० ७४२४ १०४'७ १३६,१३५ १४०/१७१ ३२४/१६६-१६७
उच्च सकल्प २४/१०८-११४ २६,११८-१२५ ३४/१६१ ५८/२६६ ६०/२७३-२४४-२७५ ८०/५० ८४/६७-६८ ६०/८८ १००/१२६१२८-१३० ११८/५०-५३-५४ १२०/६३ १७४/२० २६६/६-१०-११-१२ ०६८/२२
उद्बोधन १२८/८८-८६ १२६/६०-६२-६३-६४-६५ १८६/७-६
१० १५०/३६-३७-४२ १७४/२४ १६४/१२ २००/३६ २३०/१७ २६४/३-६ ३३२/२०० ३३६/२३०
उदात्त भावना ४/८-११ ६/१८-१६-२४-२५ ८/३१ १०/३६ १४/५८ २०/८२-८६ २२/६६ २४/११३ २६/१२४ २८/१३१ ३०/१४० ३८/१७६ ६४/२६४-२६५ ८८/८५-८६ १३८/१४६ १४०/१५८ १५२/४६ १७६/३४-३६ १७८/३८ १८०/४८ २६४/७ २६८/२१ ३१२/१०० ३२४/१६१ ३४२/२६१
कर्तव्य बोध १०/३५ २२/९७ ३६/१७२ ८०/४५ १२६/६१-६६ २२८/१२ २३८/६१ २७६/६६
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________________
सूक्ति त्रिवेणी
कर्म (श्रम) ८/२६ १४/५३ २२/१०१ ३६/१७७-१७८ ६४/२८६ ६६/०६६ ६६/३०३ १०२/२ ११२/१५ ११४/२७ ११८/५२ १२०/५६ १४८/२८ १६२/१०४ १६६/१२३-१२५ १७२/१३ २१२/८८ २४६/२८ २६८/२४-२५ २६ २८४/३० ३०६/६८-६६ ३२२/१५२ ३२४/१६५ ३३८/२३६
कृपगाता ११८/५५ १३६/१४५
क्रोध
११०/६ ११२/१४ २३६/५०-५१ ३००/३८ ३३६/२३४
८/३१ १८/७८ २२/१०४ २४/१०५-१०६ ३६/१७३ ८०/४७ ११६/४२ १३२/१२५ २६०/१०१
गुरुजन (गुरु-शिष्य-माता-पिता) २०/८८ १३४/१२८ २२८/७ २८०/१०
गृहस्थधर्म १६/६६ ४०/१६१ ५०/२२८-२२६ ११२/२०-२३ . ११४/२६३०-३१ १२२/६६-७० १४८/२३-६० १५४/६५ १६४/१२० ३३४/२१० ३४२/२५६
गृहिणी १८/७४ ५०/२३० ५२/२३८ ६२/२८१ ६४/२६१-६२ १००/१२६ २२६/५ २२८/१० २४०/१० २८६/४४
क्षमा ११२/१६ १२४/८४ २२६/१-२ २३४/४३ २४२/८ २५०/५४ २५२/६३-६४ २५४/६५ २८६/४२
तत्वदर्शन २७०/३६ ३००/३६ ३०८/७८ ३१०/८६-८७-८८-८६-६० ३१२/१०३ १०४-१०५ ३१४/११४
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________________
वैदिका विषयानुक्रमणिका
तप
१४६ १६-१७ १४६.६८ १५८८६ १७६/३० १७८/४०-४२१८० ११ १८२/५६-६०-६१
८३-८५
२६०/६५ ०७४/५८-५१-६०-६१ २२०/७४ २९२ / ७५-७६ ३०४ / ५७-५६.
तितिक्षा
२६२२३०४ १६६ ३४२/२५८
(मनु)
तेजस (अग्नितत्त्व)
२२-३४/७ १८७६७०५८४/७०८६/७१ ६४/२०८११०/१० १२०/६६ १७०/१
( देवता - सोम वरुण सूर्य प्रादि)
वान
६/१६ = / ३३ १० / ३८-४२-४३ १२ / ०/-४५-४६-४८ २०/८३-८७ ३०/२३८-१४४-१४५ ३६/१६८ ५०/-४२१४३-२४४-२४५-२४६-२४७-२४८ ५४/२५२-२५३-२५४ ५६/२५६-२५७ २५६२/६७ ६४/१०४ २६/११४ १०६ / १७ -२० १२२ / ७६ १६८, १३१ १७२ / १५ १८० / ५२-५६ १८८/८२-८३ २१४ / १०८ ०६०/६७-६८ ०७६ / ६२-६३-६४ २७८ / १ २८४ / ३६-३७ २८८ / ५६ ३०४ / ५३ ३०६ / ६६-६७ ३२८ / १८७ दिव्य शक्तिया
३०/१५०-१५१ ३८ / १८५४८ / २२३ १३४ / १३० १३६ / १३६ १४६/११-१४ १५२/५३ १६०/६५ १६२ / १०७ २१८ / १०१ ३३६/२२२
२१
४४/२१३ ४६/०१४- २१५ १५८ / ८३
दुर्वृत्त
२६/१२३ २८/१३३ ३०/१३७ १२८ / १०३ १७४ /२५ २३०/२० २३२/२७ २३४/४५-४६-४७ २६८/२३ २८८ / ५५ २६६/८ ३१८ / १३७
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________________
२२
मूक्ति त्रिवेणी
(धूत)
४२/१९७-१९८-१६६ ३३४/२२१ (निन्दा)
१७०/२ २८२/१८ २६४/१-५ (अहकार) १८८/२१ १६०/६० १६४/११० ३१८/१३५
दृढ संकल्प ८/३४ ७८/३५ ६२/६८ ११८/२४ १२०/६४ १३६/१३८ १५८/८५ ३८२/२६०
धर्म १६०/८८ १८०/५३-५४ १८२/५७ १८४/६६ २१८/१२८ २३०/२४ २३६/५५ २३८/६८ २५८/६०-६२ २७८/४ २८६/४६-५० २८८/५१-६२ २६०/६३-७० ३०२/४२ ३०४/५६ ३०८/८० ३१२/१०६-१०७ ३१४/१०८ ३२२/१५७ ३३२/२०२
धर्माचरण ११८/४७ १२४/८५-८७ १५०/४३ १५८/८४ २०६/५६ २१६/११५-११७ २१८/१२० २३०/२८ २५०/४६ ३३२/२०२
धैर्य, गौर्य ४/६ ६/२२-२३ १८/७७ ३८/१८३ ४४/२०४ ५२/२३६ ७४/२१ ७६/३४ १०४/१०-११ १३६/१४४
नीति १३०/१०६ १५४/५८-५६ १५६/७५ १५८/८० १७४/२३ २२८/१३१५ २३०/२५ २३२/२६-३४ २३४/३५-३६-३६४०-४१-४४ २३६/४८-५६-५७-५८ २३८/५६ -६६-७० २४२/५-६-७ २४६/२४-२६-२७-२६-३० २४६/३३ २४८/३४-३५-४३ २५०/४५ २५२/५३ २५४/६६-७० २५८/८३
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________________
चदिकधारा विषयानुक्रमणिका
२४-६१ २८०/७-६-१६-१७ २८२/२३-२४-२५
६ २८६/४६ २८८/५७-६०-६१ २६०/६७-६८-७२ ३०४/५५ ३०८/८१ ३१६/१२१ ३२०/१८६ ३३२/२०४-२०५२०७-२०८ ३३४/०११-२१२
नेता ६६/२६८-२६६-३००-३०४ ७२/१३ ७६/३३ ८८/८३ १६०/६३ २१०/८१ २८/५४ २६०/६६
पञ्चामृत ४/१० १०/३६-४०-४१ १२/५० १४/५२ १६/६१-६७७० २८/१२७-१२८-१३० ३२/१४८-१४६-१५५ ३६/१७४ ३८/१८१ ४८/२० ४८/२२६ ६२/२७६ ६२/२८२-२८३-२८४ ६४/२६२-२६३-२६४-२६५ ६६/२६७ ७८/२२ ८०/४८ ६४/१०१ १४/१०१ ६८/११६ १०६/१५-२३ १२०/६२ १२४/७६८६ १२६/६७ १२८/१०४ १३२/१२६ १३८/१५२-१५३ १४०/१६४ १४२/१६५-१६६-१६७-१७३ १४४/६ १४६/१३ १५८/६१ १६२/१०३ १६४/११२ ११६ १७०/४ १७२/८ १७४/२६ १७६/२६ २०८/७४ २१०/८३ २१२/८८-८६-६० २१८/११८ २२६/३४ २३२/३३ २३४/३७-४२ २३६/५३ २३८/६३ २४८/३७४१ २६०/३ २६६/२२ २७६/६७ २८६/४१ २८८/५२ २६०/७३ २९८/२७-२८ ३००/३३-३४ ३०६/७० ३०८/७५-७६-८३ ३१०/८५ ३१६/१२२ ३३४/२१४-२१६ ३४२/२६५-२६६-२६७ २६८ १६६/२३-२४
प्रश्नोत्तर
६०/८६-६०-६१ ६२/६६
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________________
सूक्ति त्रिवेणी
२४
प्रज्ञा १०६/१६ २१२/६१ २३२/३१ २५०/४४ २५६/७७-७६ ३०२/४४ ३२०/१४३-१४४
प्रार्थना २/१ ४/१२ ६/२ १६/६४ २०/८४ २२/६५ २६/१२१ ३०/१४३ ३४/१६४ ७२/६ ७८/३६-३७ ११८/४३ १२२/६८ १४८/३२ २२२/१४४
पारिवारिक सद्भाव २६/११७ ३४/१५६ ३८/१८२ ५८/२६५ १३८/१४७-१५०१५४-१५५ १४८/२४ १६६/१२१-१२२ १७२/१२ २२२/१४५
१४६ २४२/१० ३०६/६४-६५ ३३०/१६२ वर वधू को आशीर्वचन ४८/२२७ ५०/२३२-२३३-२३४-२३५-२३६-२३७
पुरुषार्थ १२२/७७ १३२/१२७ १३६/१४० १६६/१२६-१२७ १६८/१२८-१२६ २२८/८-६ २३८/६६ २४४/२२ २४८/४२ २५२/५५ २५८/८२ २६०/६३ २६८/२३ ३१६/१२४-१२५ ३२०/१४७
पुण्य-पाप २०८/७५ २१०/८४ २२०/१३०-१३६-१३७ २३८/६४ ३१६/१२३ ३३०/१६५
ब्रह्म १८८/८४-८५ १६४/१४-१५-१६ २०२/४७ २०४/५६ २०६/६४-६५-६६ २०८/६८ २१४/१०१ २२२/१४० २६४/७ ३००/३७ ३०२/४१ ३३२/१९८ ३३६/२२६-२२७ ३४०/२४५
- ब्रह्मचर्य १३४/१२६-१३१-१३२ १६०/८६ २०२/४४ २१४/१०६ ३१४/१११ ३२८/१८६
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________________
वैदिकधारा विषयानुक्रमणिका
ब्राह्मण २५२/५६-५७ ३०६/२
८०/४६ ८४/६६ ८६/७३ १४८/२६ १५६/७३ १६०/६६ १६४/११४११५ १७२/१० १८२/६५ १८४/६७-६८-६९-७०-७१-७२-७३ १८६/७७ २१६/११० २२२/१४७ २५०/५० २७२/४६ २६०/६४ ३००/३१ ३०८/७२ ३१०/६१ ३१८/१२१-१३२ ३३४/२१६-२१७-२१८ 2:६/२३२
मनोबल १६/६२. २६/१७१ ४०/१६०-१९२-१६३ ५८/२६२-२६३-२६४ ७४/१८ ११६/३६ ११८/४६ २३२/२६-३०
मानव-जीवन १३०/११४-११५ १५६/७६ २०८/७२ २२०/१२६ २७८/२ २६६/१६१८ ३०२/८६ ३३८/२३८
मातृभूमि ८/२७ १४/५२ ७६/२६-२८ १३६/१३६ १४२-१४३ १७४/२१ २२ २१८/१२६ २७८/६ ३२८/१८०
माधुर्य भाव ८/३० ३४/१६२ ३८/१८७ ७६/३२ १०६/२१ ११०/७-८-६ १७६/३५ २६६/१६ ३६८/२०
मूर्ख २४२/११ २५२/५८ ३१६/१२६ ३१८/१२६ ३१८/१३४
मैत्री ८/२६ २२/६३-६४ ३८/१८० ५६/२५६ ७२/१२ १००/१२५ । ११०/१२ १४२/१६८ १४८/२५ २१२/१०३ २३४/३८ २४४/२२ २९८/२४
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________________
३६
१४० / १६२
३०८ / ७४३०८ /७६ ३१४ / ११८
मोक्ष
१९४ / १३ २७४ / ५५ २६८ / २६ ३०० / ३५ ३०२ / ८७ ३४० / २४७
यज्ञ (लोकहितकारी कर्म )
१६ / ६०
३२ / १४७ ३६/१७५ ७२/१०-११ ७४ /१७ ७४ /२५
७६ / २६
८२ / ६२ ८४ / ६५-६६ १३४ / १३३ १३४ १४० / १५६ १४०/१६१ १६०/६२ २६८ / ३२
सूक्ति त्रिवेणी
योग
२८८/५३-५८-५६
१६/६३ २०२ / ४२२२४/४८ २६४/९-१०-११-१२-१३-१४ २६६/१५-१६-१७-१८ १९ २० २७२ / ४५-४६ ३१० / ९४-६५-६६-६७ ३१२ / ६८ ३१२/१०१ ३१४/११७ ३२६ / १७१ ३४० / २४८
राजनीति
लोभ-तृष्णा
५८/२६० ७४ /२३ ११४/२८ १५४/६४ १५८/८७ २१२/१०४-१०५ २४६/२२ २५०/४८ २५०/५१ २७४/५६ २७८/५ २६८/२६-३० ३००/३९ ३२२/१५४ ३२६/१७५ ३३६/२३३
वाणी
३२ / १४६ ४६ / २१६८० / ५१-५२८२ / ६३८४ / ६४ ८६ / ७२६२/६३ ८२/६३ ८४/६४-७२ ६२/६३ १०४ / १३-१४ ११४/२६ १३८ / १४६ - १४८ १५४ / ५६ १५८ / ८१ १६०/६८ १६२ / १०१ १६२/१०८ - १०६ १६४/११३-११७ १७२/१४-१६
१८६/७८ १८८ / ८६-८७-८८ २१०/८७ २१८ / १२५ २३६ / ५२ - २४४ /१८ २८० / १४ ३२० / १४१-१४२ ३३४ / २२० देवता
वाग्
६०/२६७-२६८-२६ε- २७०-२७१-२७२ ६२ / २८० १५२ / ५४
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________________
वैदिकधारा विषयानुनमगिका
फठोर वारणी
२५६/७४ २८० /१५ ६२३४/२२०
विद्वान्
१८ / ०.२८ / १३० २४८/२० १६८ / १३४
२६/१७६
१७६ / ३१
४/१४ ६/१५ १८/४
=२ / ५६ 350/5 203/82
२१२/१६-६०
४६ / २१७-२१८-२१६ १२० / ५७-५८
२०२ / ५०
२४२/१२
२५० /१२
विनय
१५/६ ३४/१५६-१५७ ३८ / १८६ ७८/४४
५८-६० १५४/५५ २१० /७८ २५०/५० २५६/८१
विराट्ता
वैराग्य
१२४/८३ १०६/२= १=२/५८ १९६/२०-२११६८/३० २१६/१०९ २३०/१६-१८-१२ २८२ / १४ ३०२ / ४५ ३३० / १९६ ३३८ / २४३२४४ २६६ / ६
सुख-दुख
२८४ / ३४ ३०८ / १८१-१५२३३० / १९७ ३३८ / २३६
सगठन
२७
४/१३ ६८/३०५-३०६-३०७ ७८/४१ १०८ / २ ११२/१८ ११६/३४ ११८ / ५१ १२०/६५
सत्कर्म
१८०/४६ २००/४१ २३०/२१-२३ २५६/७५ २७२/५० २६६/१३ ३२४ / १६२
सत्पुरुष
१८ /७५-७६ २०/६१ २६ / १२२१४६ / १८१५२ / ५१ १५८ / ८२
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________________
२८
सूक्ति त्रिवेणी
१७०/५ १८६/७४ २३६/५४ २४४/१६-२० २४६/३१ ३५६/७२-७३ ३२४/१६०-१६३-१६४
सत्य
१४/५६ १६/६८ २०/१२ २८/१३४ ३०/१३६-१३६ ३२/१५३ ४२/२०० ४८/२२१ ४८/२२४-२२५ ५४/२५० ७०/१ ७६/३० ८०/५३ ८८/७६ १०२/१ १०६/१६ १०८/२ १४४/२ १४६/८ १४८/२२ १५०/३३-३८ १५२/४५ १५६/६६ १५६/६६ १६०/६६ १६२/१०६ १७०/७ १७४/२८ १७६/३३ १८०/५० १८०/५५ १८६/८०-८१ १९४/१० २०२/४५ २०४/५३ २०६/६० २१८/१६ २२०/१३४ २२२/१४३ २२८/६ २३०/२२ २३८/६२ २४२/१३ २५२/६२ २५४/७१ २५६/७६ २८४/३२ २६०/६५ २६४/२-४ ३१४/११० ३३२/२०१ ३३६/२२८
सदाचार ६/१७ २०/८५ ३४/१६० ४४/२०५ ५४/२४६ ६६/३०२ ७०/२ ७२/७-१४ ७८.४२ ११८/४४ १३६/१३७ १४८/२७ २३६/४६ २३८/६५ २४८/४० २५६/८० २७८/३ २८६/४५ २६०/७१ ३०६/६१
सद्गुण २/४ २४४/२१ २५४/६७-६८ २८२/२१-२२ ३२६/१७६-१७७ ३२८/१८४
सन्तोप १९६/२२ २०२/४३ २५८/८५ ३१४/११२ ३२२/१५६-१५८ ३२६/१७८-१७६
सत्सग
१०२/३-४ १०६/१८ ३०४/५ ३१८/१३० ३२२/१५५ ३४२/२६२२६३
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________________
वैदिकधारा विषयानुक्रमणिका
मदुपदेश १६/६६ २२/६६-१०२ २६/१२० ३२/१५२ ३४/१५८ ४२/२०१ ५४/२५१ ६६/३०१ ७४/१६ ११०/५-११-१३ ११६/३३ १२८/१०० १४४/४ १७६/३७ २०६/६१-६२-६३ २१८/१२२ २२२/१४१-१४२ २३८/६० २४२/६ २५४/६६ २५८/८६८६ २८४/३१ २८६/४८ २१४/११५-११६ ३१६/१२७
सभाधर्म १२२/७२-७३-७४
सयम ११६/४१ ११८/४५ १४६/१२ २३२/३२ २८२/१६-२७ ३०२/५० ३०४/५८ ३२६/१७० ३२६/१७२
सरलता ११२/२१ १२२/७१ २६०/६६ ३०४/५५
सामाजिक चेतना ३२/१५४ ३६/१७० ४०/१८६ ७६/२७ ८२/५७-५६-६१ ८६/७६-७७ ६४/१८८ ६४/१००-१०२ १२४/८० १४६/१६ १६८/१३२१३३ २१६/११३-११४ २४८/३८-३६ २६८/२६-२८
पुभाषित २६/११६ २८/१२६ २८/१२६ ४०/१९४-१९५-१६६ ५८/२३१ ५६/२५६ ५८/२६१ ६२/२७६ ८६/७८ ६०/८७ ६४/१०५ ११४/२५ १२०/५६ १४४/५ १४८/३०-३१ २२८/११ २४०/२-३ २४६/२५ ३५६/७८ २५८/८७-८८ ३१८/१२८ ३२०/१४५-१४६ ३२२/१५३ ३३२/२०६ ३३२/२०६ ३३६/२२६ ३३८/२४१ २१६/१११
गरीर धर्म १६/६५ १८६/७६ १८८/८६ २२४/१४६ ३००/३२ ३०६/७२३४२/२५६
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________________
३०
सूक्ति त्रिवेणी
गिव सकल्प २६/११५-११६ ३०/१४२ ३८/१८८ ४४/२०६-२०७-२०८-२०६-२१० ६२/२७८ ७२/८ ७४/१५-१६ ७६/३१ ८०/४७ ८८/८०-८१-८२ ८०/८४ ६२/६४ ६६/११७ ६८/११८-११६-१२० १२४ १२८/१०५ १४२/१६६-१७०
श्रद्धा ६२/२८५ ६४/२८६-२८७ ६४/२८८ ८६/७५ १५६/६७ १५६/७१७२ १६४/११८ २१२/६४-६५ २२८/१३३ २७०/३५-३६-३७ २७४/५७ २७६/६५
ज्ञान ४/५-६ १०/३७ १२/४६ १४/५४-५५ २०/८९-६० ३६/१६७ ५२/२४१ ८०/५४ ६२/६५ ६६/११२-११३ ६६/११५ १८/१२१ १०४/८ १०८/१ १०८/४ ११४/३२ ११६/३७-३८ १२४/७८ १२४/८२ १३०/११३ १३२/११७-११८ १५०/३४ १५६/७० १५८/७६ १६८/१३० १७४/१६ १८२/६४ २१२/६२ २१२/८३ २२४/१५१ २६०/१०२ २६२/१ २६०/३३-३४ २८२/२८ २८४/३५ २८६/४३ २६२/७७-७८ २६६/१४-१५ ३१०/६२-६३ ३१६/१२० ३१८/१३८ ३२६/१७४ ३३८/२३५ ३३८/२३७ ३४०/२५५
ज्ञानी (साधक) ८/२८ १२-४७ ६८/१२२-१२३ १०६/२२ ११८/४८-४६ १२८/१०८ १५०/४०-४१ १५४/६३ १५६/७४ १६०/६१ १६४/१११ १७२/१७-१८ १८२/६३ २२०/१३१ २५०/४६ २५२/५६-६० २६८/३०-३१ २७०/३८ २७४/५४ २७६/६८ २६२/७८ ३०२/४८ ३०४/५२ ३२०/१३६-१४० ३२०/१४६
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________________
सूक्ति त्रिवेणी मे प्रयुक्त ग्रन्थो की सूची जनधागनांत प्राय सूची
साश्रुतस्कघ सून प्रयोग हारन
नियममार प्राचारागति
निशीथभाप्य याचारागन
निशीथचूणि वाचानम-नियुक्ति
नदी सूत्र चूगि याप्रत्याग्यान प्रकाणंक
नदी सूत्र याराधनानार
प्रग्नव्याकरण मूत्र यावश्यक नियुक्ति
प्रवचनमार आवश्यक नियुक्ति भाप्य
पचास्तिकाय लिभानिया
बोव पाहुड उनगध्ययन गि
बृहत्कल्प भाप्य उत्तराध्ययन नियुक्ति
वृहत्कल्प मूत्र उत्तराध्ययन सूत्र
भगवती सूत्र उपासक दशा मूत्र
भाव पाहुड ओघनियुक्ति भाप्य
भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक श्रोधनियुक्ति
भगवती आराधना श्रीपपातिक सूत्र
मोक्ष पाहुड कार्तिकेयानुप्रेक्षा
महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक गच्छाचार प्रकीर्णक
मरण समाधि प्रकीर्णक तत्त्वसार
मूलाचार दशवकालिक सूत्र
राजप्रश्नीय सूत्र दशवकालिक नियुक्ति
व्यवहार भाष्य दर्शन पाहुड
विशेषावश्यक भाग्य दशवकालिक नियुक्ति, भाप्य
व्यवहार सूत्र दशाश्रुतस्कधचूणि
वसुनन्दि श्रावकाचार दशवकालिक चूरिण
स्थानाग सूत्र
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________________
३२
शील पाहुड समवायाग सूत्र
सन्मतितर्क प्रकरण
सूत्रकृताग सूत्र
सूत्र कृताग निर्युक्ति
समयसार
सूत्र पाहुड सूत्रकृतागचूरिंग
ज्ञाताधर्मकथा सूत्र
बौद्ध धारान्तर्गत ग्रन्थ सूची
ग्रभिधम्मपिटक
अगुत्तर निकाय
इतिवृत्तक
उदान
खुद्दक पाठ
चुल्ल निद्देस पालि
चरियापिटक
जातक
थेरीगाथा
थेरगाथा
दीघनिकाय
धम्मपद
पटिमम्भिदामग्गो
पेत्तवत्यु
मज्झिमनिकाय
महानिदेश पालि विनय पिटक
विसुद्धिमग्गो
विमानवत्थु
सयुत्तनिकाय
सुत्तनिपात
वैदिक धारान्तर्गत ग्रन्थ सूची
अन्नपूर्णोपनिषद्
अध्यात्मोपनिपद्
सूक्ति त्रिवेणी
अथर्ववेद
अध्यात्म रामायण
ग्रपरोक्षानुभूति
ग्रापस्तम्वस्मृति
श्रात्मबोध
ग्राश्वलायनीय गृह्यसूत्र
ईशावास्योपनिपद्
ऋग्वेद
ऐतरेय ब्राह्मण
ऐतरेय आरण्यक
ऐतरेय उपनिषद
प्रशन स्मृति
केन उपनिषद्
कठ उपनिपद्
केन उपनिषद्, शाकरभाष्य
गोपथ ब्राह्मण
गीता, शाकरभाष्य
छान्दोग्य उपनिषद्
छादोग्य उपनिषद्,
तैत्तिराय ग्रारण्यक
शाकरभाष्य
Page #813
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________________ यन्य सूची महाभारत योग दर्शन याज्ञवल्क्योपनिपद् याज्ञवल्क्यस्मृति योगवाशिष्ठ वाल्मीकि रामायण विवेकचूडामणि तत्तिरीय ब्राहाण तेजोविन्दूपनिषद् तैत्तिरीय सहिता तत्तिरीय उपनिपद ताण्डयत्राह्मण तत्त्वोपदेग नारद परिवाजकापनिपद न्यायदगन नारद भक्ति मूत्र पंगत उपनिषद् प्रश्न उपनिपद पाराशरस्मृति पाशुपत उपनिषद् ब्रह्मविन्दूपनिषद् वृहदारण्यक उपनिपद् वृहदारण्यक उपनिपद्(शाकर भाप्य) बोधायन गृह्य सूत्र भगवद् गीता मण्डलबाह्मणोपनिपद महोपनिषद् मनुस्मृति मुण्डक उपनिषद् मैत्रायणी पारण्यक वशिष्ठस्मृति विष्णु पुराण यजुर्वेदीय उन्वटभाष्य वेदान्त दर्शन वैशे पिक दर्शन विश्वामित्रस्मृति व्यासस्मृति श्रीमद् भागवत निरुक्त श्वेताश्वतर उपनिपद् शतपथब्राह्मण शाण्डिल्योपनिपद् शाड ख्यायन आरण्यक शाण्डिल्यस्मृति सामवेद साख्य दर्शन यजुर्वेद