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एक सौ पैतालीस
सूक्ति कण ५३ सभी प्राणी वर से रहित हो, कोई वैर न रखे ।
सभी प्राणी सुखी हो, कोई दु.ख न पाए ।
५४ आलस्य को भय के रूप में और उद्योग को क्षेम के रूप में देखकर
मनुष्य को मदैव उद्योगशील पुरुषार्थी होना चाहिए-~-यह बुद्धो का अनुशासन है। विवाद को भय के रूप मे और अविवाद को क्षेम के रूप में देखकर मनुष्य को सदैव समग्न ( अखण्डित-सघटित ) एवं प्रसन्नचित्त रहना
चाहिए-यह बुद्धो का अनुशासन है। ५६ जिस से प्रेम रखना हो, उससे याचना नहीं करनी चाहिए । बार-बार
याचना करने से प्रेम के स्थान पर विद्वप उभर आता है।
मुझे सिर्फ अर्थ (भाव) से ही मतलब है । बहुत अधिक शब्दो से क्या
करना है ? ५८. मनुष्य को कभी अकर्म (दुष्कर्म) नही करना चाहिए ।
५६. जो काम भोगो मे लिप्त नहीं होता, जिसकी आत्मा प्रशान्त (विद्व परहित)
है, और जो सब उपाधियों से मुक्त है, ऐमा विरक्त ब्राह्मण (साधक)
मदा सुखपूर्वक सोता है । ६०. दो व्यक्ति अज्ञानी होते हैं - एक वह जो भविष्य की चिन्ता का भार
ढोता है, और दूसग वह जो वर्तमान के प्राप्त कर्तव्य की उपेक्षा करता है। दो व्यक्ति विद्वान होते है-~14. वह जो भविष्य की चिन्ता नही करता,
और दूसरा वह जो वर्तमान मे प्राप्त कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करता। ६१. दो व्यक्ति मूर्ख होते हैं-एक वह जो अधर्म मे धर्म बुद्धि रखता है,
दूसरा वह जो धर्म मे अधर्म बुद्धि रखता है ।
६२.
मेधावी साधक अपनी आत्मा के गल (दोप) को उसी प्रकार थोडाथोडा क्षण-क्षण मे साफ करता रहे, जिम प्रकार कि सुनार रजत (चादी) के मैल को साफ करता है।