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एक सौ इकहत्तर
आचायं कुन्दकुन्द की सूक्तिया ६५. धर्म का मूल दर्शन--(सम्यक् श्रद्धा) है ।
६६. जो दर्शन से होन-(सम्यक् श्रद्धा से रहित, या पतित) है, वह वन्दनीय
नहीं है। ६७. धर्मात्मा पुरुष के प्रति मिथ्या दोष का आरोप करने वाला, स्वय भी ।
ध्रप्ट-पतित होता है और दूसरो को भी भ्रष्ट-- पतित करता है ! ६८. सम्यक्त्व रूप मूल के नष्ट हो जाने पर मोक्षरूप फल की प्राप्ति नहीं
होती। ६६. निश्चय दृष्टि से आत्मा ही सम्यक्त्व है ।
७०. सम्यग् दर्शन (सम्यक् श्रद्धा) मोक्ष की पहली सीढी है ।
७१. ज्ञान मनुष्यजीवन का सार है ।
७२. जो हेय और उपादेय को जानता है, वही वास्तव मे सम्यग् दृष्टि है ।
७३. ग्राह्य वस्तु मे से भी अल्प (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए ।
जैसे समुद्र के अथाह जल मे से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प
ही जल ग्रहण किया जाता है । ७४. आचार्य वह है-जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध
शिक्षा देता है।
७५ जिसमे दया की पवित्रता है, वही धर्म है।
७६ तृण और कनक (सोना) मे जव समान बुद्धि रहती है, तभी उसे प्रव्रज्या
(दीक्षा) कहा जाता है।