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आचार्यं भद्रबाहु की सूक्तियां
ह संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कपाय है ।
१०. प्राणिमात्र को अभय करने के कारण संयम गीतगृह ( वातानुकूलित गृह ) के समान शीत अर्थात् शान्तिप्रद है ।
अज्ञानतप से कभी मुक्ति नही मिलती ।
११
एक सौ पैंतीस
१२. प्रथा कितना ही वहादुर हो, शत्रुसेना को पराजित नही कर सकता । इसी प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारो को जीत नही सकता |
१३. एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोग विलास का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कप्टो को सहन करता है, किंतु यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो अपनी साधना मे मिद्धि प्राप्त नही कर सकता ।
१४ सम्यग् दृष्टि के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते है ।
१५ जो दभी है, वह श्रमण नही हो सकता ।
१६ जिस प्रकार पुराने मूखे, खोखले काठ को अग्नि शीघ्र ही जला डालती है, वैसे ही निष्ठा के साथ आचार का सम्यक् पालन करने वाला साधक कर्मो को नष्ट कर डालता है ।
१७. विश्व -- सृष्टि का सार धर्म है, वर्म का सार ज्ञान (सम्यग् - बोध) है, ज्ञान का सार सयम है, और सयम का सार निर्वाण - ( शाश्वत आनद की प्राप्ति ) है ।
१८. साधक कर्मवघन से देशमुक्त ( श्रंशत मुक्त ) होता है और मिद्ध सर्वथा मुक्त ।