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________________ सुत्तनिपात की सूक्तियां पिच्यानवे ६६ दूसरो के छिद्र (दोष) देखने वाला निन्दक व्यक्ति अपनी निंदा सुनकर कुपित होता है। ७०. विषयो से विरक्त मनुष्य के लिए कोई ग्रन्यि (बन्धन) नही है। ७१. जिसका रासार मे कुछ भी अपना नहीं है, जो बीती हुई बात के लिए पछतावा नहीं करता है और जो धर्मों के फेर मे नही पडता है वह उप शात कहलाता है। ७२. सत्य एक ही है, दूसरा नहीं । ७३. यदि दूसरो को योर से की जाने वाली अवज्ञा से कोई धर्महीन हो जाए तो, फिर तो धर्मों में कोई भी श्रेष्ठ नही रहेगा। ७४. ब्राह्मण (तत्वदर्शी) सत्य के लिए दूसरो पर निर्भर नही रहते । ७५. जो किमी वाद में आसक्त (फैमा) है, उसकी चित्तशुद्धि नही हो सकती। ७६. ध्यानयोगी धुमक्कड न बने, व्याकुलता से विरत रहे, प्रमाद न करे । ७७ साधक निद्रा को बढाए नही, प्रयत्न शील होकर जागरण का अभ्यास करे। ७८. अपने स्वय के दोष से ही भय उत्पन्न होता है । ७६ पुराने का अभिनन्दन न करे और नये की अपेक्षा न करे । ८० मैं कहता हू-लोभ (गृद्धि) एक महासमुद्र है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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