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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ ग्यारह
५. पराजय, अपकीति, कुटिल आचरण और द्वष हमारे पास कभी न आएँ ।
६. क्रोधरूप अग्नि जीवनरस को जला देती है ।
७. मेरी जिह्वा के अग्रभाग मे मधुरता रहे, मूल मे भी मधुरता रहे । हे
मधुरता । तू मेरे कर्म और चित्त में भी सदा बनी रह ।
८. मेरा निकट और दूर-दोनो ही तरह का गमन मधुमय हो, अपने को
और दूसरो को प्रसन्नता देने वाला हो। अपनी वाणी से जो कुछ बोलू', वह मधुरता से भरा हो। इस प्रकार सभी प्रवृत्तियाँ मधुमय होने के फलस्वरूप मैं सभी देखने वाले लोगो का मधु (प्रिय) होऊ ।
६. मैं मधु (शहद) से भी अधिक मधुर हूँ, मैं विश्व के मधुर से मधुर
पदार्थों से भी अधिक मधुर हूँ। १०. अपने दिव्य तेज से अच्छी तरह स्वय प्रकाशमान बनो और अपने इधर
उधर समग्र चारो दिशामओ को भी प्रकाशमान करो।
११. किसी भी प्रकार का प्रमाद (मूल) न करते हुए अपने घर मे सदा जागते
रहो, सावधान रहो। १२. हे अग्रणी । मित्र के साथ सदा मित्र के समान उदारता का व्यवहार
कर। १३ कलह, हिंसा, पाप बुद्धि और द्वष वृत्ति से अपने आपको सदा दूर
रखिए।
६. मदुधात् मधुदुधात् . .मधुशब्दे धुलोपश्छान्दस. । मधुस्राविण पदार्थविशेषात् । ७ संदीदिहि-सम्यग् दीव्य दीप्यस्व वा। ८. प्रकाशय । ६. स्वे आस्मीये गये, गृहनामैतद् गृहे । १० अप्रमाद्यन् ।