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यजुर्वेद को सूक्तिया
उनासी ३५ ब्राह्मणो (ज्ञानयोगी) और क्षत्रियो (कर्मयोगी) मे मेरी भुजाएं ऊँची
हैं । मेरा ब्रह्मतेज और ब्रह्म-बल विश्व के सभी तेज और बलो को पार कर गया है । मैं अपने ब्रह्मवल से विरोधियो को पराजित करता हूँ
और अपने साथियो को उन्नति की ओर ले जाता हूँ। ३६. हमारे मनुष्यो और पशुप्रो--सभी को अन्न प्रदान करो।
३७. शुक्ल कर्म की ज्योति विविध रूपो मे प्रदीप्त करो।
३८. हे विज्ञ पुरुष । अपनी ज्योति से प्रदीप्त होता हुमा तू सब का कल्याण
करनेवाला शिव वन ।
३६. सू अपने शरीर से किसी को भी पीड़ित न कर ।
४०. तुम विश्व की रिक्तता को पूर्ण करदो, और छिद्रो को भर दो।
४१. मैं तुम्हारे मनो (विचारो) को सुसगत अर्थात् सुसस्कृत एव एक करता
हूँ, मैं तुम्हारे व्रतो (कर्मों) और मनोगत संस्कारो को सुसगत करता हूँ
अर्थात् एक करता हूँ। ४२. दिव्य कम करने वाले देवयानी आत्मा ही इस मोह-वासनारूप अन्धकार
के पार होते हैं और परमात्म-रूप ज्योति को प्राप्त होते हैं । ४३. तू दीर्घायु होकर सहस्र अंकुरो के रूप मे उत्पन्न हो,-प्रवर्धमान हो ।
४४. पृथ्वी पर के जितने भी लोक (मानव-प्राणी) हैं, मैं उन सभी को
नमस्कार करता हूँ।
५. परमात्मलक्षणम् ---उन्बट । ६ वल्श शब्दोऽकुरवचनः-उन्वट । ७. सर्पशब्देन लोका उच्यन्ते-महीधर ।