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दशवकालिक की सूक्तिया
इक्यानवे
४५ सदा अप्रमत्त भाव से साधना मे यत्नगील रहना चाहिए ।
४६ भिक्षु (मुनि, कानो मे बहुत सी बातें सुनता है, आंखो से बहुत सी बातें
देखता है, कितु देखी सुनी मभी वातें (लोगो मे) कहना उचित नही है ।
४७. केवल कर्णप्रिय तथ्यहीन गब्दो मे अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिए।
४८. शारीरिक कष्टो को समभावपूर्वक सहने मे महाफल की प्राप्ति होती है ।
४६. मनचाहा लाभ न होने पर झु झलाएं नहीं ।
५०. बुद्धिमान् दूसरो का तिरस्कार न करे और अपनी बडाई न करे।
५१. एक बार मूल होनेपर दुवारा उसकी आवृत्ति न करे ।
५२. अपना मनोवल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य,क्षेत्र और काल को ठोक
तरह मे परखकर ही अपने को किसी भी मत्कार्य के सम्पादन मे नियो
जित करना चाहिए। __ जब तक बुढापा आता नहीं है, जब तक व्याधियो का जोर बढता नहीं है,
जब तक इन्द्रिया (कर्मशक्ति) क्षीण नही होती है, तभी तक बुद्धिमान को,
जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए । ५४ क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारो पाप की वृद्धि करने वाले है,
यत. आत्मा का हित चाहने वाला साधक इन दोषो का परित्याग
कर दे। ५५ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मैत्री का और
लोभ सभी सद्गुणो का विनाश कर डालता है।