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उदान की सूक्तिया
८ जो अकिञ्चन हैं, वे ही सुखी हैं।
६ बुरे को अच्छे रूप में, अप्रिय को प्रियरूप में, दुख को सुखरूप में, प्रमत्त लोग ही समझा करते हैं ।
१०. जो पराधीन है, वह सब दुःख है, और जो स्वाधीन है, वह सब सुख है ।
ਸਨ
११ जो पाप पंक को पार कर चुका है, जिस ने कामवासना के कांटो को कुचल दिया है, जो मोह को क्षय कर चुका है, और जो सुख दुख से विद्ध नही होता है, वही सच्चा भिक्षु है ।
१२ जैसे ठोस चट्टानो वाला पर्वत अचल होकर खड़ा रहता है, वैसे ही मोह के क्षय होने पर भिक्षु भी ज्ञान और स्थिर रहता है ।
१३. जिस मे न माया (दभ) है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वायं है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशान्त है, वहा ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है ।
१४
राग के प्रहाण के लिए अशुभ भावना का अभ्यास करना चाहिए | द्वेष के प्रहाण के लिए मंत्री भावना का अभ्यास करना चाहिए । बुरे वितर्कों का उच्छेद करने के लिए आनापान स्मृति का अभ्यास करना चाहिए ।
अह भाव का नाश करने के लिए अनित्य भावना का अभ्यास करना चाहिए ।
१५ अन्तर मे उठने वाले अनेक क्षुद्र और सूक्ष्म वितर्क ही मन को उत्पीडित करते हैं ।
१ अशुचि भावना 1
२
श्वास प्रश्वास पर चित्त स्थिर करना ।