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सुत्तपिटक : सुत्तनिपात की सूक्तियां
१ जो चढे क्रोध को वैसे ही शात कर देता है जैसे कि देह मे फैलते हुए
सर्पविष को औपधि, वह भिक्षु इस पार तथा उस पार को अर्थात् लोकपर लोक को छोड़ देता है, सांप जैसे अपनी पुरानी केचुली को।
२ जो वेग से बहने वाली तृष्णारूपी सरिता को सुन्वाकर नष्ट कर देता है,
वह भिक्षु इस पार उस पार को अर्थात् लोक परलोक को छोड़ देता है, साप जैसे अपनी पुरानी कैचुली को।
३ विषय भोग की उपधि ही मनुष्य की चिंता का कारण है, जो निरूपधि
हैं, विषय भोग से मुक्त हैं, वे कभी चिताकुल नहीं होते ।
४. श्रेष्ठ और समान मित्रो की सगति करनी चाहिए ।