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आचाराग की मूक्तियाँ
ग्यारह
३६. कामनालो का पार पाना बहुत कठिन है ।
३७ नष्ट होने जीवन का कोई प्रतिव्यूह अर्थात् प्रतिकार नही है ।
३८ वही वीर प्रगमित होता है जो अपने को तथा दूसरो को दामता के
वन्धन से मुक्त कराता है।
२६ यह गरीर जैमा अन्दर में (असार) है, वैमा ही बाहर मे (अमार) है ।
जना बाहर मे (अमार) है, वैमा ही अन्दर मे (अमार) है ।
४०. विवेकी माधक लार - थूक चाटने वाला न बने, अर्थात् परित्यक्त भोगो
को पुन कामना न करे। ४१ विषयातुर मनग्य, अपने भोगो के लिए ममार में वैर बढाता रहता है ।
कोपन
४२ वाल जीव (अमानी ) का मग नही करना चाहिए ।
४३ पापकर्म (असत्कम) न स्वय करे, न दूमरो से करवाए ।
४४ मनुष्य अपनी ही मूलो से मसार को विचित्र स्थितियो मे फंस जाता है ।
४५ जो ममत्वबुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुत ममत्व=परिग्रह का त्याग कर सकता है।
वही मुनि वास्तव में पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है जो किसी भी
प्रकार का ममत्व भाव नहीं रखता है । ४६ जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता है, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी
नहीं है । और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नही है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नही रखता है।