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मनुस्मृति को सूक्तिया
दो सौ सत्तासी ४१. संसार के समस्त शौचो (शुद्धियो) मे अर्थशौच (न्याय से उपाजित धन)
हो श्रेष्ठ शौच (उत्कृष्ट शुद्धि) है । जो अर्थशौच से युक्त है, वही वस्तुत: शुद्ध हैं । मिट्टी और पानी की शुद्धि वस्तुत. कोई शुद्धि
नहीं है। ४२. विद्वान् क्षमा से ही पवित्र-शुद्ध होते हैं ।
४३. जल से शरीर शुद्ध होता है, सत्य मे मन, विद्या और तप से आत्मा तथा
शान से बुद्धि शुद्ध होती है।
४४. गृहवधू को सदा प्रसन्न एवं गृहकार्य में दक्ष रहना चाहिए।
४५. दृष्टि से शोषन कर (छानकर) मूमि पर पैर रखना चाहिए, वस्त्र से
शोधन कर जल पीना चाहिए, सत्य से शोधन कर वाणी बोलनी चाहिए तपा प्रत्येक कार्य को पहले मनन-चिन्तन से शोधन कर पश्चात् आचरण में लेना चाहिए।
४६. किसी का भी अपमान नही करना चाहिए ।
४७. बलाम (इच्छित वस्तु न मिलने पर) में शोकाकुल नही होना चाहिए
और लाभ में अधिक फूल उठना नहीं चाहिए ।
४६.
इन्द्रियो के निग्रह से, रागदोष को विजय करने से और प्राणिमात्र के प्रति अहिंसक रहने से साधक अमृतत्व के योग्य होता है अर्थात् अमरता प्राप्त करता है।
४६ विभिन्न प्रकार की साप्रदायिक वेश-भूषा धर्म का हेतु नही है।
५०. सम्यग्दर्शन (आत्मसाक्षात्कार) से सम्पन्न साधक कर्म से बद्ध नही
होता।