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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ पचहत्तर
८८ आत्मा जव कर्म-मल से मुक्त हो जाता है, तो वह परमात्मा बन जाता
८६ आत्मा बडी कठिनता से जाना जाता है।
६० बात्मा के तीन प्रकार है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा ।
(इनमे वहिरात्मा से अन्तरात्मा, और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर
वढें)। ६१. इन्द्रियो मे आमक्ति वहिरात्मा है, और अन्तरग मे आत्मानुभव रूप
आत्मसंकल्प अन्तरात्मा है । ६२ जो व्यवहार (-ससार) के कार्यों मे सोता (उदासीन) है, वह योगी
स्वकार्य में जागता (सावधान) है । और जो व्यवहार के कार्यों मे
जागता है वह आत्मकार्यों मे सोता है । ६३ आत्मा हो मेरा शरण है ।।
१४. शील (सदाचार) मोक्ष का सोपान है ।
६५. चारित्र से विशुद्ध हुआ ज्ञान, यदि अल्प भी है, तब भी वह महान फल
देने वाला है। ६६ शीलगुण से रहित व्यक्ति का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है।
६७ इन्द्रियो के विषयो से विरक्त रहना, शील है।
६८. शील (आचार) के विना इन्द्रियो के विपय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं।
६६. जीवदया, दम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, और
तप-यह सब शील का परिवार है । अर्थात् शील के अग हैं।