________________
भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ निन्यानवे
१०५ हम साधक के केवल अनशन आदि से कृश (दुर्बल) हुए शरीर के प्रशासक नही हैं, वस्तुत. तो इन्द्रिय (वासना), कपाय और अहकार को ही कृश (क्षीण) करना चाहिए ।
१०६. कार्य के दो रूप है-साध्य और असाव्य । बुद्धिमान साध्य को साधने मे ही प्रयत्न करें। चूकि असाध्य को साधने मे व्यर्थ का क्लेश ही होता है, और कार्य भी मिद्ध नही हो पाता ।
१०७. ज्ञान आदि मोक्ष के साधन है, और ज्ञान आदि का साधन देह है, देह का सावन आहार है, अत. साधक को समयानुकूल आहार की आज्ञा दी गई है ।
१०८ जो ज्ञान के अनुसार आचरण नही करता है, वह ज्ञानी भी वस्तुत अज्ञानी है ।
१०९ देश, काल एव कार्य को बिना समझे समुचित प्रयत्न एवं उपाय से हीन किया जाने वाला कार्य, सुख-साध्य होने पर भी सिद्ध नही होता है ।
११०
प्रासाद की दीवार मे फूटनेवाला नया वृक्षाकुर प्रारंभ मे नख से भी उखाडा जा सकता है, किन्तु वही वढते वढते एक दिन कुल्हाडी से भी दुच्छेद्य हो जाता है, और अन्तत प्रासाद को ध्वस्त कर डालता है ।
१११ कार्य करने वाले को लेकर ही कार्य की सिद्धि या असिद्धि फलित होती है । समय पर ठीक तरह से करने पर कार्य सिद्ध होता है और समय वीत जाने पर या विपरीत साधन से कार्य नष्ट हो जाता है ।
११२. राग की जैसी मद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मद, मध्यम और तीव्र कर्मवध होता है ।