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________________ ऋग्वेद की सूक्तियां पेंसठ २८६ हे श्रद्धा ! दान देने वाले का प्रिय कर, दान देने की इच्छा रखने वाले का भी प्रिय कर, अर्थात् उन्हे अभीष्ट फल प्रदान कर ! २८७ सब लोग हृदय के दृढ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्यो कि श्रद्धा से ही ऐश्वयं प्राप्त होता है। २८८. हम प्रातः काल मे, मध्यान्ह मे, और सूर्यास्त वेला मे अर्थात् सायकाल मे श्रद्धा की उपासना करते हैं। हे श्रद्धा । हमे इस विश्व मे अथवा कर्म मे श्रद्धावान कर । २८६. तप से मनुष्य पापो से तिरस्कृत नही होते, तप से ही मनुष्यो ने स्वर्ग प्राप्त किए हैं। २६० सूर्य का उदय होना, एक प्रकार से मेरे भाग्य का ही उदय होना है । २६१ मैं (गृहपत्नी) अपने घर को, परिवार की केतु (ध्वजा) हूँ, मस्तक हूँ। जैसे मस्तक शरीर के सब अवयवो का सचालक है, प्रमुख है, वैसे ही मैं सबकी सचालिका हूँ, प्रमुख हूँ। मैं प्रभावशाली हूँ, मुझे सब ओर से मधुर एव प्रिय वाणी ही मिलती है । २६२. मेरे पुत्र शत्रुओ को जीतनेवाले वीर है, मेरी पुत्री भी अत्यत शोभामयी है । मैं सबको प्रेम से जीत लेती हूँ, पति पर भी मेरे यशकी श्रेष्ठ छाप २६३ जो पुरुष श्रेष्ठ जनो से द्वष करते हैं, उन्हे इन्द्र विना कुछ कहे चुपचाप नष्ट कर डालते हैं। २६४. हम दिन प्रतिदिन वर्धमान (प्रगतिशील) रहते हुए सौ शरद्, सौ हेमन्त और सो वसन्त तक जीते रहे । २६५ आज हम विजयी हुए हैं, पाने योग्य ऐश्वयं हमने प्राप्त कर लिया है । आज हम सब दोषो से मुक्त हो चुके हैं। ४. श्लोक.-उपश्लोकनीय यश. ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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