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________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां एक सौ इक्यानवे ६५ स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नही है, तो लोकोत्तर जीवन (साधक जीवन) मे कैसे हितकर हो सकती है ? ६६. गाडी का कुछ भाग टूट जाने पर तो उसे फिर सुधार कर काम मे लिया जा सकता है, किंतु जो ठीक करने पर भी टूटती जाए और वेकार बनी रहे, उसको कौन सँवारे ? अर्थात् उसे सवारते रहने से क्या लाम है? ६७ जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञानादि हेतु से अपवाद (निपिद्ध) का आचरण करता है, वह भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है। ६८. बालसी, वैर विरोध रखने वाले, और स्वच्छदाचारी का साथ छोड़ देना चाहिए । ६६ इन्द्रियो के विषय समान होते हुए भी एक उनमे आसक्त होता है और दूसरा विरक्त । जिनेश्वरदेव ने बताया है कि इस सम्बन्ध मे व्यक्ति का अन्तर् हृदय ही प्रमाणभूत है, इन्द्रियो के विषय नही । ७०. कर्मों की निर्जरा के लिये (आत्मशुद्धि के लिए) ही आचार्य को संघ का नेतृत्व सभालना चाहिए। ७१. सूत्र (मूल शब्द पाठ), अर्थ (व्याख्या) से ही व्यक्त होता है, अत अर्थ सूत्र से भी वलवान (महत्व पूर्ण) है । ७२. जो राजा सेना, वाहन, अर्थ (सपत्ति) एव बुद्धि से हीन है वह राज्य की रक्षा नही कर सकता। ७३ साधना मे मन.प्रसाद (मानसिक निर्मलता) ही कर्मनिर्जरा का मुख्य कारण है। ७४. साधुजनो का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता है । ७५. यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है, तो उसकी दीक्षा निरर्थक
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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