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________________ सूक्ति कण तीन सौ तीन ४१. ब्रह्म अपने स्वस्वरूप का ही स्वयं उपभोग करता है, उसका भोज्य उससे पृथक कुछ नही है । ४२. जिस पक्ष मे धर्म होता है, उसी पक्ष की विजय होती है । ४३. कोमल उपाय से कुछ भी असाध्य नही है, अत कोमल ही सब से अधिक तोक्ष्ण माना गया है । ४४. बुद्धिमान की भुजाएँ बहुत वडी (लम्बी) होती हैं, (अतः वह दूर के कार्यों का भी सरलता से सम्पादन कर सकता है) । ४५. मृत्यु सारे जगत को सब मोर मार रही है, बुढापे ने इसे घेर रखा है । ४६. उपभोग के साधनो से वचित होने पर भी मनुष्य अपने आप को होन न समझे । चाण्डाल की योनि मे भी यदि मनुष्य जन्म प्राप्त हो, तो भी वह मानवेतर प्राणियो की अपेक्षा सर्वथा उत्तम है । ४७. वेदो के अध्ययन का सार है सत्यभाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसयम और इन्द्रिय-सयम का सार (फल ) है मोक्ष । यही सम्पूर्ण धर्मो, ऋषियो, एवं शास्त्रोका उपदेश है । ४८. जो वाणी का वेग, मन और क्रोष का वेग, तृष्णा का वेग तथा उदर श्रौर जननेन्द्रिय का वेग-इन सब प्रचण्ड वेगो को सह लेता है, उसी को मैं ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) और मुनि (तत्त्वद्रष्टा ) मानता हूँ । ४६. तुम लोगो को मैं एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो, मनुष्य से बढ कर और कुछ भी श्र ेष्ठ नही है । ५०. हे देवोत्तमो ! जिस पुरुष के उपस्थ (जननेन्द्रिय), उदर, दोनो हाथ मौर वाणी-ये चारो द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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