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________________ आचार्य कुन्दकुन्द को सूक्तिया एक सौ उनहत्तर ५४ जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परम समावि की प्राप्ति होती ५५. जो अन्दर एव वाहिर के जल्प (वचनविकल्प) मे रहता है वह बहिरात्मा है । और जो किसी भी जल्प मे नहीं रहता, वह अन्तरात्मा कहलाता है। ५६. यह निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा के विना ज्ञान नही, और ज्ञान के विना आत्मा नहीं। ५७, द्रव्य का लक्षण सत् है, और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं ध्र वत्व भाव से युक्त होता है। ५८. द्रव्य के विना गुण नही होते है और गुण के विना द्रव्य नहीं होते । ५६. भाव (सत्) का कभी नाश नही होता और अभाव (असत्) का कभी उत्पाद (जन्म) नहीं होता। ६०. समभाव ही चारित्र है। ६१. आत्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है । ६२ जिस का राग प्रशस्त है, अन्तर् में अनुकपा की वृत्ति है और मन में कलुप भाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आश्रव होता है । ६३. प्रमादवहुल चर्या, मन की कलुषता, विषयो के प्रति लोलुपता, पर परिताप (परपीडा) और परनिंदा-इन से पाप का आश्रव (आगमन) होता है। ६४. जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वष और मोह नही है, जो सुख दुख मे समभाव रखता है, उसे.न पुण्य का आश्रव होता है और ..न पाप का।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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