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मारण्यक साहित्य को सूक्तियां
एक सौ नवासी ८२, जो लोभी मनुष्य प्रार्थी लोगो को सदैव 'ना ना' करता है, तो जनसमाज
मे उस की अपकीर्ति (निन्दा) होती है और वह अपकीर्ति उस को घर मे ही मार देती है, अर्थात् जीता हुआ भी वह कृपण निन्दित मृतक के
समान हो जाता है। ८३. योग्य समय पर ही दान देना चाहिए, अन्य किसी अयोग्य समय
पर नही। ८४. जहां (जिस साधक मे) सत्य का भी सत्य अर्थात् पर ब्रह्म प्रतिष्ठापित
हो जाता है, वहां सब देवता एक हो जाते हैं ।
५५. देह एवं इन्द्रिय आदि का साक्षीस्वरूप यह प्रज्ञान (शुद्ध ज्ञान) ही
ब्रह्म है।
८६. मेरी वाणी मन मे प्रतिष्ठित है और मेरा मन वाणी मे प्रतिष्ठित है।
८७. प्रिय वाणी से ही स्नेही मित्र एकत्र होते हैं ।
८८. वाणी ही सब कुछ है, अर्थात् वाणी से ही लौकिक एव पारलौकिक सभी
प्रकार का फल उपलब्ध होता है । ८६. यह शरीर निश्चित ही देवी वीणा है ।
यदा तु शास्त्रप्रतिपाद्यत्वाकारो विवक्षितः तदानी ब्रह्म त्यभिधीयते । अतो व्यवहारभेदमात्र, न तु तत्त्वतो भेदोऽस्ति । ७. सर्वमैहिकमामुष्मिकं च फलजातम् । ८. इयं दृश्यमाना शरीररूपा ।