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आचाराग की सूक्तियां
तेईस
६५ अपने अन्तर (के विकारो) से ही युद्ध कर ।
वाहर के युद्ध से तुझे क्या मिलेगा ? ६६ विकारो से युद्ध करने के लिए फिर यह अवसर मिलना दुर्लभ है ।
९७ कुछ लोग मामूली कहा-सुनी होते ही क्षुब्ध हो जाते है ।
१८ गकागील व्यक्ति को कभी ममाघि नहीं मिलती।
६६. जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है।
जिसे तू शामित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
[स्वस्प दृष्टि से सव चैतन्य एक समान है। यह अहत भावना ही अहिमा का मूलाधार है ]
१०० जो आत्मा है, वह विनाता है।
जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है ।
जानने की इस गक्ति मे ही आत्मा की प्रतीति होती है । २०१ आत्मा के वर्णन मे सब के सब गब्द निवृत्त हो जाते हैं
ममाप्त हो जाते है। वहां तक की गति भी नही है ।
और न बुद्धि ही उमे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है । १०२ न अपनी अवहेलना करो, और न दूसरो की।
१०३ धर्म गांव मे भी हो सकता है, और अरण्य (=जगल) मे भी। क्योकि
वस्तुत. धर्म न गाँव मे कही होता है और न अरण्य मे, वह तो अन्तरात्मा मे होता है।