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ऋग्वेद की सूक्तिया
इक्यावन
२२८. गृहपति कर्तव्य के बन्धनो मे बंधा हुआ है।
२२६. हे गृहस्वामिनी | तुम मलिनवस्त्रो का त्याग करो, और ब्राह्मणो
(विद्वानो) को दान दो। २३० योग्य पत्नी, पति मे मिल जाती है--अर्थात् पति के मन, वचन, कर्म
के साथ एकाकार हो जाती है । २३१. सुगम मार्गों से दुर्गम प्रदेश को पार कर जाइए ।
२३२ यह गृहवधू सुमगली है, शोभन कल्याणवाली है। माशीर्वाद देने
वाले सब लोग आएं और इसे देखें। २३३ वर और वधू । तुम दोनो यहाँ प्रेम से रहो, कभी परस्पर पृथक् मत
होना । तुम पूर्ण आयु तक पुत्र पोत्रो सहित अपने घर मे आनन्दपूर्वक
क्रीडा करते रहो। २३४. हे गृहस्वामिनी, तुम सामाजिक मगलमय आचार विचारो को दूषित न
करती हुई पतिगृह मे निवास करना, तथा हमारे द्विपद और चतुष्पद
अर्थात् मनुष्य और पशु सब के लिए कल्याणकारिणी रहना । २३१. हे वधू । तुम्हारे नेत्र सदा स्नेहशील निर्दोप हो । तुम पति के लिए मंगल
मयी, एवं पशुओ के लिए भी कल्याणकारिणी बनो। तुम्हारा मन सदा
सुन्दर रहे, और तुम्हारा सौंदर्य अथवा तेजस्विता भी सदा शुभ रहे। २३६. हे वधू | तुम सास, श्वसुर, ननद और देवरो की सम्राज्ञी (महारानी)
बनो, अर्थात् सब परिवार के ऊपर सेवा एव प्रेम के माध्यम से
प्रभुत्व प्राप्त करो। २३७. सभी देवता हम दोनो (पति पत्नी) के हृदयो को परस्पर मिला दें।
अथवा लौकिक एव लोकोत्तर आदि सभी विषयो मे हम दोनो के हृदयो को प्रकाशयुक्त (विचारशील) करें।
ततोऽन्या अदुर्मङ्गली, तादृशी सती। ६. क्रोधाद् अभयकरचक्षुरेधि-गव । १० लौकिकवैदिकविषयेषु प्रकाशयुक्तानि कुर्वन्तु इत्यर्थ ।