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________________ ऋगवेद की सूक्तिया २६०. जिस के पास उनसठ सपत्ति का एक भाग है, वह दो भाग वाले के पथ पर चलता है, दो भाग वाला तीन भाग वाले का अनुकरण करता है, अर्थात् कामना की दौड निरन्तर आगे बढती रहती है । २६१. मनुष्य के दोनो हाथ एक से हैं, परन्तु उनकी कार्यशक्ति एक-सी नही होती । एकही माँ की सतान दो गायें एक जैसी होने पर भी एक जैसा दूध नही देती । एक साथ उत्पन्न हुए दो भाई भी समान बल वाले नही होते । एक वंश की सतान होने पर भी दो व्यक्ति एक जैसे दाता नही होते । २६२. प्रतिज्ञा करता हूँ कि में इस पृथ्वी को अपनी शक्ति से इधर उधर जहाँ चाहूँ, उठाकर रख सकता हूँ, क्योंकि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूँ | ( अर्थात् मैंने वह तत्वज्ञान पाया है, जिसके बल पर में विश्व मे एक बहुत बडी क्रान्ति ला सकता हूँ ।) २६३ मेरा एक पक्ष (पाव) स्वर्ग में स्थापित है, तो दूसरा पृथ्वी पर । क्यो कि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूँ । (मैंने जीवनदर्शन का वह तत्वज्ञान पाया है कि मैं धरती और स्वर्ग, अर्थात् लोक परलोक दोनो के कर्तव्य की बहुत अच्छी तरह पूर्ति कर रहा हूँ ।) 2 २६४. में अन्तरिक्ष मे उदय होने वाला सूर्य हूँ, मैं महान् से भी महान् हूँ । २६५. तुम स्वादु (गृह और धनादि प्रिय) से भी अधिक स्वादुतर ( प्रियतर ) सन्तान को स्वादु (प्रिय) रूप माता पिता के साथ संयोजित करो । मधु को मधु के साथ सब ओर से अच्छी तरह मिश्रित करो । २६६. हम सब घन ( ऐश्वर्यं) के स्वामी हो, दास नही । ६ स्वादो: -- प्रियाद् गृहधनादेरपि स्वादीय - स्वादुतर प्रियतरं अपत्यम्, स्वादुना - स्वादुमूतेन मिथुनेन मातापित्रात्मकेन ससृज - सयोजय ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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