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सूक्ति कण
तीन सौ तेतीस
१८. मुझे सब कुछ ब्रह्मरूप हो भासता है, अतः संसार में मेरा कौन मित्र है मोर कोन शत्रु / कोई नही ।
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१६६. आत्मज्ञानी योगी को किसी प्रकार का अज्ञानजन्य सुख दुःख नही होता, मात्र प्रारब्ध कर्म-जन्य ही सुख दुःख होता है ।
२००. जो भो अच्छा काम करना है, वह आज हो कर लो, यह बहुमूल्य समय व्यर्थ न जाने दो ।
२०१. सत्य बोलना अच्छा है, मोर सत्य से भी अच्छा है - हितकारी बात बोलना |
२०२. धारण करने के कारण हो धर्म 'धर्म' कहलाता है, घमं प्रजा को धारण करता है ।
२०३. जो व्यवहार अपने साथ किए जाने पर प्रतिकूल मालूम देता हो, वह दूसरो के साथ भी नही करना चाहिए ।
२०४.
शत्रु के भी गुण ग्रहण करने चाहिए और गुरु के भी दोष बताने में संकोच नही करना चाहिए ।
२०५ जुआरी श्वघ्नी होता है, क्योकि वह अपने हो 'स्व' अर्थात् ऐश्वर्यं का नाश करता है ।
२०६. भूत सिद्ध है, और भविष्य साध्य है । भविष्य के लिए भूत का उपदेश किया जाता है, भूत के लिए भविष्य का नही ।
२०७. जो स्वयं अप्रतिष्ठित है, वह दूसरो को प्रतिष्ठित नही कर सकता ।
२०८. संस्कारो को उद्दीप्त करने के लिए हित और पथ्य का बार-बार उपदेश देने मे कोई दोष नही है ।
२०६ वीर पुरुष का कम ही वीयं है ।