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________________ इतिवृत्तक को सूक्तियां मन ७. अमयमी और दुराचारी होकर राष्ट्र-पिण्ड (देश का अन्न) खाने की अपेक्षा तो अग्निशिखा के ममान तप्त लोहे का गोला सा लेना श्रेष्ठ है। ८ अपने ही मन मे उत्पन्न होने वाले लोग, द्वाप और मोह, पाप चित्त वाले व्यक्ति को वैसे ही नष्ट कर देते है, जैम कि केले के वृक्ष को उमका फल । ६. प्रज्ञा (बुद्धि) की आंख ही मर्वश्रेष्ठ आँख है । १०. जो जैसा मित्र बनाता है, और जो जैसे सम्पक में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है, क्योकि उसका सहवास ही वैसा है। ११ असत्पुरुष (दुर्जन) नरक मे ले जाते हैं और सत्पुरुप (सज्जन) स्वर्ग मे पहुँचा देते हैं। १२. जिस प्रकार थोडी लकडियो के दाद्र वेडे पर बैठ कर समुद्रयात्रा करने वाला व्यक्ति ममुद्र मे डूब जाता है, उसी प्रकार आलसी के साथ अच्छा आदमी भी वरवाद हो जाता है । १३. बुद्धिमान एव निरतर उद्योगगील व्यक्ति के साथ रहना चाहिए। १४. हे भिक्षु, मनुष्य जन्म पा लेना ही देवताओ के लिए सुगति (अच्छी गति) प्राप्त करना है। १५ चलते, खडे होते, वैठते या सोते हुए जो अपने चिक्ष को शान्त रखता है, वह अवश्य ही शान्ति प्राप्त कर लेता है । १६ लोभ अनर्थ का जनक है, लोभ चित्त को विकृत करने वाला है आश्चर्य है लोभ के रूप मे अपने अन्दर ही पैदा हुए खतरे को लोग नही जान पा १७. लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। वह लो धब को ही सब कुछ समझता है। उसके अन्तरतम मे गहन अधिकार छाया रहता है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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