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इकतालीस
मूत्रकृतांग की मूक्तिया ६८. सुनती साधक कम खाये, कम पीये, और कम बोले ।
६६ ध्यानयोग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना
चाहिए। ७० तितिक्षा को परम धर्म समझकर आचरण करो।
७१ जो परिग्रह (मंग्रह वृत्ति) मे व्यस्त हैं, वे ससार में अपने प्रति वैर ही
बढाते है। ७२ ययावसर नचित धन को तो दूसरे उडा लेते हैं, और सग्रही को अपने
पापकमों का दुप्फल भोगना पडता है । ७३ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले ।
७४ किसी की कोई गोपनीय जैसी वात हो, तो नही कहना चाहिए ।
७५ 'तू-तू'-जमे अभद्र गन्द कभी नहीं बोलने चाहिए।
७६ मर्यादा से अधिक नही हंनना चाहिए ।
७७ साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध
न करे। ७८ माधक जो भी कप्ट हो, प्रसन्न मन मे सह्न करे, कोलाहल न करे ।
७६ प्राप्त होने पर भी कामभोगो की अभ्यर्थना (स्वागत) न करे ।
८० समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता
है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी अपने पराये की भेदबुद्धि से परे होता है।