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चवेद की सूक्तिया
एक सौ इक्कोस
५६. केवल इच्छा करने भर से हो में पुनः ऐश्वयंशाली नही हो
सकता हूँ ।
५७. ब्राह्मण (सदाचारी विद्वान् ) अग्निस्वरूप है, प्रिय शरीर को पीडा नही दी जाती है, वैसे देनी चाहिए ।
ज्योतिर्मय है । जैसे अपने विद्वान् को भी पीडा नही
५८. जिस राष्ट्र में ब्राह्मण ( विद्वान् ) मताये जाते हैं वह राष्ट्र विपत्तिगम्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे टूटी हुई नौका जल मे डूबकर नष्ट हो जाती है ।
५६. उन्नति और प्रगति प्रत्येक जीयात्मा का अयन है -- लक्ष्य है ।
६० जिस प्रकार मरते हुए व्यक्ति का मन मरा हुआ-सा हो जाता है, उसी प्रकार ईर्ष्या करने वाले का मन भी मरा हुआ-सा रहता है ।
६१. परस्पर एक दूसरे से झगडने वाले मृत्यु को प्राप्त होते है ।
६२. वृक्ष खडे खडे सोते हैं ।
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६३. हे पापी विचार ! दूर हट मुझे तू कैसी बुरी-बुरी बातें कहता है जा, दूर चला जा, मैं तुझे नही चाहता ।
६४. लोह - जैसे मजबूत बन्धनो के पाश को भी तोड़ डालो ।
६५. तुम्हारे शरीर मिले रहे, तुम्हारे मन मिले रहे, तुम्हारे कर्म भी परस्पर मिलजुलकर होते रहे।
६६. हृदय की वेदी पर से हजारो ज्वालाओ से प्रदीप्त अग्नि ( उत्साह एव तेज) का उदय हो ।
६७. तेरे आगे और पीछे फूलो से लदी दूर्वा (प्रगति की आशा एवं आत्मश्रद्धा) खिली रहे ।