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________________ मज्झिमनिकाय की सूक्तिया पन्द्रह ६. भिक्षुओ ! मैंने वेडे की भांति निस्तरण (पार जाने) के लिए तुम्हे धर्म का उपदेश किया है, पकड रखने के लिए नही। ७. जो व्यक्ति राग और द्वेष से प्रलिप्त है, उस को धर्म का जान लेना सुकर नही है। ८. भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य (साम) लाभ, सत्कार एव यश पाने के लिए नही ६ भिक्षुओ | जब तक भिक्षु को ख्याति एव यश प्राप्त नही होता है, तब तक उसको कोई भी दोष नही होता । १०. जो विद्या और चरण से सम्पन्न है, वह सब देवताओ और मनुष्यो मे श्रेष्ठ है। ११. प्राणी जो कर्म करता है, वह अगले जन्म मे उसके साथ रहता है। १२ जिसे जान-बूझ कर झूठ बोलने मे लज्जा नही है उसके लिए कोई भी पाप कम अकरणीय नही है, ऐसा मैं मानता हूँ। १३. अच्छी तरह देख-परख कर काया से कर्म करना चाहिए । अच्छी तरह देख-परख कर वचन से कर्म करना चाहिए । अच्छी तरह देख-परख कर मन से कर्म करना चाहिए। १४. मरने वाले के पीछे पुत्र, स्त्री, धन और राज्य कुछ भी नही जाता है। १५. धन से कोई लम्बी आयु नहीं पा सकता है, और न धन से जरा का ही नाश किया जा सकता है । १६. धन से प्रज्ञा ही श्रेष्ठ है, जिससे कि तत्त्व का निश्चय होता है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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