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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ संतालीस
६५ जो न राग करता है, न हप करता है, वही वस्तुत. मध्यस्थ है, वाकी
सब नमध्यस्थ हैं।
६६ जैन दर्शन में दो नय (विचार-प्टियां) हैं-निश्चयनय और व्यवहार
नय । ६७. जो इस जन्म मे परलोक की हितमाधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय
पछताना पडता है। ६८. जो बडी मुश्किल से मिलता है, विजली की चमक की तरह चचल है, ऐसे
मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म साधना में प्रमत्त रहता है, वह
कापुरुष (अधम पुरुप) ही है, सत्पुरुष नही। ___६६. सूर्य आदि का द्रव्य प्रकाग परिमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किंतु
जान का प्रकाश तो समस्त लोकालोक को प्रकाशित करता है।
७० क्रोध का निग्रह करने में मानसिक दाह (जलन) गात होती है, लोभ का
निग्रह करने मे तृष्णा गात हो जाती है इसलिये धर्म ही सच्चा
तीर्य है। ७१. क्रोध, मान, माया और लोभ को विजय कर लेने के कारण 'जिन'
कहलाते है। कर्मरूपी शत्रुओ का तथा कर्म रुप रज का हनन नाग
करने के कारण अरिहत कहे जाते है। ७२ मिथ्यात्व-मोह, ज्ञानावरण और चारित्र-मोह-ये तीन प्रकार के तम
(अधकार) है । जो इन तमो-अधकारो से उन्मुक्त है, उसे उत्तम कहा
जाता है। ७३ तीर्थंकगे ने जो कुछ देने योग्य था, वह दे दिया है, वह समग्र दान यही
है- दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपदेश ।
७४.
जिस प्रकार मधुर जल, समुद्र के खारे जल के माथ मिलने पर खारा हो जाता है, उसी प्रकार मदाचारी पुरुप दुराचारियो के मसर्ग मे रहने के कारण दुराचार मे दुपित हो जाता है ।