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आचाराग की मूक्तियाँ
तेरह ४७. निःस्पृह उपदेशक जिन प्रकार पुण्यवान (मंपन्न व्यक्ति) को उपदेश देता
है, उसी प्रकार तुच्छ (दीन दरिद्र व्यक्ति) को भी उपदेश देता है । ____और जिस प्रकार तुच्छ को उपदेन देना है, उसी प्रकार पुण्यवान
को उपदेश देता है अर्थात् दोनो के प्रति एक जैमा भाव रखता है । ४८ कुगल पुस्प न बद्ध है आर न मुक्त ।
[नानी के लिए बन्ध या मोक्ष-जैसा कुछ नहीं है ] ४६ अनानी मदा सोये रहते है, और जानी मदा जागते रहते है ।
५० यह भमन लीजिए कि ममार में अज्ञान तथा मोह ही अहित और दुख
करने वाला है। ५१ मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है, जन्ममरण
करता है। ५२ मृत्यु नं सदा सतर्क रहने वाला सावक ही उससे छुटकारा पा
सकता है। ५३ जो अपने प्रनान से ममार के स्वरूप को ठीक तरह जानता है, वही
मुनि कहलाता है। ५४ यह सब दुख भारम्भज है, हिमा मे से उत्पन्न होता है।
५५. जो कर्म मे से अकर्म की स्थिति में पहुंच गया है, वह तत्वदर्शी लोक
व्यवहार की सीमा से परे हो गया है । ५६. कर्म से ही समग्र उपाधिया = विकृतियाँ पैदा होती हैं।
५७ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिसा है।
५८ सम्यग् दर्गी साधक पापकर्म नही करता ।