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सुत्तपिटक :
मज्झिमनिकाय की सूक्तियां
१ भिक्षुओ । शील-सपन्न होकर विचरो।
२. काले (बुरे) कर्म करने वाला मूढ चाहे तीर्थो मे कितनी ही डुबकियाँ
लगाए, किन्तु वह शुद्ध नही हो सकता। ३. शुद्ध मनुप्य के लिए सदा ही फल्गु (गया के निकट पवित्र नदी) है, सदा
ही उपोसथ (व्रत का दिन) है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही
सम्पन्न (पूर्ण) होते रहते है। ४. जो स्वय गिरा हुआ है, वह दूसरे गिरे हुए को उठाएगा, यह सम्भव
नहीं है। जो स्वयं गिरा हुआ नही है, वही दूसरे गिरे हुए को उठाएगा, यह संभव है।
५. आयुष्मन् । पाप (अकुशल) का मूल क्या है ?
लोभ पाप का मूल है, द्वाप पाप का मूल है । और मोह पाप का मूल है।