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सूत्रकृताग की सूक्तिया
तेतालीस
जिस प्रकार मृगशावक सिंह से डर कर दूर-दूर रहते है, उसी प्रकार बुद्धिमान धर्म को जानकर पाप से दूर रहे |
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८४ वस्तुत. सूर्य न उदय होता है, न अस्त होता है । और चन्द्र भी न वढता है, न घटता है । यह सव दृष्टि भ्रम है ।
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अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है ।
जिस प्रकार अन्य पुरुष प्रकाश होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण रूपादि कुछ भी नही देख पाता है, इसी प्रकार प्रज्ञाहीन मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सत्य के दर्शन नही कर पाता । ८६. ज्ञान और कर्म ( विद्या एव चरण) मे ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
किसी के भी साथ वैर विरोध न करो ।
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८७. अज्ञानी मनुष्य कर्म (पापानुष्ठान) से कर्म का नाश नही कर पाते । किन्तु ज्ञानी धीर पुरुष अकर्म (पापानुष्ठान का निरोध) से कर्म का क्षय कर देते हैं ।
सन्तोपी साधक कभी कोई पाप नही करते ।
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८६ तत्वदर्शी समग्र प्राणिजगत् को अपनी आत्मा के समान देखता है ।
ज्ञानी आत्मा हो 'स्व' और 'पर' के कल्याण में समर्थ होता है ।
१. अभिमानी अपने अहकार मे चूर होकर दूसरो को सदा विम्बभूत ( परछाई के समान तुच्छ) मानता है ।
६२ जो अपनी प्रज्ञा के अहकार मे दूसरो की अवज्ञा करता है, वह मूर्ख - बुद्धि ( वाप्र ) है |