Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in Education International प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क : ५ आचार्यश्रीनेमिचन्द्रसूरिग्रथितः आख्यानकमणिकोशः श्रीमदाम्रदेवसूरिसन्दृब्धया वृत्त्या समलङ्कृतः I प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Text Society Series No. 5 ĀCĀRYA NEMICANDRA'S ĀKHYĀNAKAMAṆIKOŚA WITH ĀCĀRYA AMRADEVA'S COMMENTARY Edited By MUNI SHRI PUNYAVIJAYAJI General Editors V. S. AGRAWALA DALSUKH MALVANIA PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD For Private 2005 Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by RAMNIK SHAH Secretary PRAKRIT TEXT SOCIETY Shree Vijay-Nemi suriswarji Jain Swadhyay Mandir 12, Bhagatbaug Society, Sharada Mandir Road, Paldi, Ahmedabad-380007. Phone : 079 - 26622465 Reprint-January-2005 Price : Rs. 300/ Copy : 550 Available from: 1. MOTILAL RANARASIDAS, Nepali Khapra, Post Box 75, VARANSI 2. CHAUKHAMBA VIDYABHAVAN, Chawk, VARANASI. 3. SARASWATI PUSTAK BHANDAR, Ratanpole, Ahmedabad-1 4. PARSVA PUBLICATION, Relief Road, Ahmedabad-1 Printed By : MANIBHADRA PRINTERS 12, Shayona Estate, Dudheswar Road, Shahibaug, Ahmedabad-380 004. Phone : 079 - 25626996 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत ग्रंथ परिषद् ग्रन्थाङ्क : ५ आचार्यश्रीनेमिचन्द्रसूरिग्रथितः आख्यानकमणिकोशः श्रीमदानदेवसूरिसन्दृब्धया वृत्त्या समलङ्कतः । संशोधकः सम्पादकश्च मुनिपुण्यविजयः [जिनागमरहस्यवेदि-जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिवर (प्रसिद्धनाम श्रीआत्मारामजीमहाराज)शिष्यरत्नप्राचीनजैनभाण्डागारोद्धारकप्रवर्तकश्रीकान्तिविजयान्तेवासिनां श्रीजैनआत्मानन्दग्रन्थमालासम्पादकानां मुनिवरश्रीचतुरविजयानां विनेयः] प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद वीरसंवत् : २५३१ विक्रमसंवत् : २०६१ इस्वीसन् : २००५ Jain Education Interational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: रमणीक शाह सेक्रेटरी, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी जैन स्वाध्याय मंदिर १२, भगतबाग सोसायटी, शारदा मंदिर रोड, पालडी, अहमदाबाद-३८०००७. फोन : ०७९ - २६६२२४६५ पुनःमुद्रण-ओप्रिल-२००५ मूल्य रु.३००/ मुद्रक : माणिभद्र प्रिन्टर्स १२, शायोना एस्टेट, दूधेश्वर रोड, शाहीबाग, अहमदाबाद-३८० ००४ फोन : ०७९ - २५६२६९९६, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयोवृद्ध साध्वी श्री रत्नश्रीजी For Private Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्व. आगमप्रभाकर पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म.सा. द्वारा संपादित सवृत्तिक आख्यानकमणिकोश का पुन:मुद्रण प्रकाशित करते हुए हमें आनंद हो रहा है। मूल आख्यानकमणिकोश प्रसिद्ध उत्तराध्यन-सुखबोधा वृत्ति के रचयिता बृहद्गच्छीय श्री नेमिचन्द्रसूरि विरचित ५३ गाथाओं की रचना है, जो उन्होंने वि.सं. ११२९-११३९ (ई.स. १०७३-१०८३) के मध्य रची थी। बृहद्गच्छके ही जिनचन्द्रसूरि-शिष्य आम्रदेवसूरिने उस पर वि.सं. ११९० (ई.स. ११३४) में गुजरात के धवलक्कपुर (धोळका) में १४००० श्लोकप्रमाण विस्तृत पद्यबद्ध वृत्ति रची थी। वृत्ति भाषा, ईतिहास, शैली, कथारस एवं सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । प्रस्तुत प्रकाशन में मूल और वृत्ति दोनों समाविष्ट हैं। प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ने ई.स. १९६२ में इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया था। कई वर्षों से ग्रन्थ अप्राप्त हो चूका था। परम पूज्य आचार्यश्री मुनिचन्द्रसूरिजी म. सा. ने पुन:मुद्रण की प्रेरणा के साथ ग्रंथगत अशुद्ध स्थानों को शुद्ध करके अंतिम प्रेसकोपी बनवाकर हमें दी अतएव हम उनके अत्यंत आभारी हैं । परमपूज्य आचार्यश्री नरचन्द्रसूरिजी म.सा. तथा प.पू. मुनिश्री धर्मतिलकविजयजी म.सा. ने संस्था के प्रति जो स्नेह एवं सद्भाव प्रदर्शित किया है तथा प्रकाशन कार्य में सहाय करने के लिए विविध संस्थाओं को प्रेरित किया है उसके लिए हम उनके ऋणी रहेंगे। प्रस्तुत ग्रंथ के पुन:मुद्रण में आर्थिक सहाय दाता श्री झालावाड जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छसंघ-सुरेन्द्रनगर के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए हमें खुशी होती है। पुन:मुद्रण कार्य अच्छी तरह संपन्न करने के लिए माणिभद्र प्रिन्टींग प्रेस के श्री कनुभाई भावसार को धन्यवाद। अहमदाबाद - रमणीक शाह अक्षयतृतीया, सं. २०६१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंथसमप्पणं दुइओ जीए पुत्तो देहेणं चेव तह य धम्मेणं । नामेण पुण्णविजओ अहयं सगसद्विवारिसिओ ॥१॥ रयणत्तयइद्धाए समणीरयणेसु पत्तलेहाए । सिरिरयणसिरीवरणामिगाएँ समणीऍ जणणीए ॥२॥ तेसीईवरिसाए तीए करकमलकोसगन्मम्मि । किंची धम्मुवयारं सुमरंतो किंचि रागजुओ ॥३॥ किंची बालयभावं अणुहवमाणो य किंचि निरवेक्खो। सावेक्खो वि य किंची किंची किंची तहा बहुहा ॥४॥ अक्खाणयमणिकोसं अप्पेऊणं अणप्पमोयजुओ। अप्पाणंदणिमग्गो कयत्ययं किंचि मोमि ॥ ५॥ तं जयउ जए जणणीपयं पयासं पयामपयरिसओ । जस्स पहावं च इमे महपुरिसा पायडंति फुडं ॥६॥धम्मजणणि त्ति काउं महतरियं जाइणि न पम्हुट्टो । सिरिहरिभदो सूरी पर पए नामगाहेणं ॥७॥ देहजणणीऍ वच्छल्लयं कलेऊण गेहवासम्मि । जा जणणी ताव ठिओ सिरिवीरो चरमतित्थयरो॥८॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथसमर्पण मैं देह और धर्मसे जिनका पुत्र हूं, उन श्रमणीसंघमें चमकती हुई, त्रिरत्नोंसे समृद्ध ८३ वर्षीया श्रमणी रत्नश्री के करकमलोंमें, उनके द्वारा कृत धर्मोपकारका कुछ स्मरण, पुत्रसुलभ माताके प्रति कुछ राग, बालभावका कुछ अनुभव, एवं सापेक्ष-निरपेक्षभावमें दोलायमान होता हुआ, न जाने किसकिस भावका अनुभव करता हआ अत्यन्त हर्षाविष्ट व आत्मानंदमें निमग्न , हो कर ६७ वर्षीय पुण्यविजय इस आख्यानकमणिकोशको अर्पण करके कुछ कृतार्थताका अनुभव करता हूं। ___अपनी धर्मजननी होनेके कारण आचार्य हरिभद्र पद पद पर याकिनी महत्तराको याद करते थे। भगवान् महावीरने देहजननीके वात्सल्यकी यादमें जब तक जननी जीती रही गृहस्थभावको, नही छोडा । इस प्रकार इन महापुरुषोंने जिस जननीपदके प्रभावको प्रकाशित किया है वह जननीपद अत्यंत प्रकर्षके साथ प्रकाशित हो कर विजयी हो । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The current of Indian literature has flown into three main streams, viz., Sanskrit, Páli and Prakrit. Each of them witnessed an enormous range of creative activity. Sanskrit texts ranging in date from the Vedic to the classical period and belonging to almost all branches of literature have now been edited and published for more than a century beginning with the magnificent edition of the Rigveda by Prof. Max Muller. The Pali literature devoted almost exclusively to the teaching and religion of the Buddha was even more lucky in that the Pali Text Society of London planned and achieved comprehensive publication in a systematic manner. Those editions of the Pali Vinaya, Sutta and Abhidhamma Pitakas and their commentaries are well known all over the world. The Prakrit literature presents an amazing phenomenon in the field of Indian literary activity. Prakrit as a dialect may have had its early beginnings about the seventh century B. C. from the time of Mahāvira, the last Tirthankara who reorganised the Jaina religion and church in a most vital manner and infused new life into all its branches. We have certain evidence that he, like the Buddha, made use of the popular speech of his times as the medium of his religious activity. The original Jaina sacred literature or canon was in the Ardhamăgadhi form of Prakrit. It was compiled sometime later, but may be taken to have retained its pristine purity. The Prakrit language developed divergent local idioms of which some outstanding regional styles became in course of time the vehicle of varied literary activity. Amongst such Sauraseni, Mahārashțri and Paisāchi occupied a place of honour. Of these the Maharashtri Prakrit was accepted as the standard medium of literary activity from about the first century A. D. until almost to our own times. During this long period of twenty centuries a vast body of religious and secular literature came into existence in the Prakrit languages. This literature comprises an extensive stock of ancient commentaries on the Jaina religious canon or the Agamic literature on the one hand, and such creative works as poetry, drama, romance, stories as well as scientific treatises on Vyakarana, Kosha, Chhanda etc. on the other hand. This literature is of vast magnitude and the number of works of deserving merit may be about a thousand. Fortunately this literature is of intrinsic value as a perennial source of Indian literary and cultural history. As yet it has been but indifferently tapped and is awaiting proper publication. It may also be mentioned that the Prakrit literature is of abiding interest for tracing the origin and development of almost all the New-Indo-Aryan languages like Hindi, Gujarati, Marathi, Punjabi, Kāśmiri, Sindhi, Bangāli, Usiyā, Assamese, Nepāli. A national effort for the study of Prakrit languages in all aspects and in proper historical perspective is of vital importance for a full understanding to the inexhaustible linguistic heritage of modern India. About the eighth century the Prakrit languages developed a new style known as Apabhramsa which has furnished the missing links between the Modern and the MiddleIndo-Aryan speeches. Luckily several hundred Apabhramśa texts have been recovered in recent years. from the forgotten archives of the Jaina temples. With a view to undertake the publication of this rich literature some co-ordinated efforts were needed in India. After the attainment of freedom, circumstances so moulded themselves rapidly as to lead to the foundation of a society under the name of the Präkrit Text Society, which was duly registered in 1952 with the following aims snd objects : (1) To prepare and publish critical editions of Prakrit texts and commentaries and other works connected therewith. (2) To promote studies and research in Prakrit languages and literature. (3) To Promote studies and research of such languages as are associated with Prakrit. (4) (a) To set up institututions or centres for promoting studies and research in Indian History and Culture with special reference to ancient Präkrit texts. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (b) To set up Libraries and Museums for Präkrit manuscripts, paintings, coins, archaeological finds and other material of historical and cultural importance. (5) To preserve manuscripts discovered or available in various Bhandars throughout India, by modern scientific means inter alia photostat, microfilming, photography, lamination and other latest scientific methods. To manage or enter into any other working arrangements with other Societies having any of their objects similar or allied to any of the objects of the Society. (7) To undertake such activities as are incidental and conducive, directly or indirectly, to and in furtherance of any of the above objects. From its inception the Prakrit Text Society was fortunate to receive the active support of His Excellency Dr. Rajendra Prasad, President, Republic of India, who very kindly consented to become its Chief Patron and also one of the six Founder Members The Society has already published Angavijjā, Prakritapaingalam (Part I and II) and Cauppannamahapurisacariya. And now we have great pleasure in publishing the critical edition of Akhyānakamanikosa of Nemicandra with the Commentary of Amradeva. We are very much thankful to Rev. Muni Shri Punyavijayaji for his generosity to undertake the editing of this work and to Dr. U. P. Shah for writing the Introduction. The programme of work undertaken by the Society involves considerable expenditure, towards which liberal grants have been made by the following Governments : Government of India Rs. 10,000 Madras Rs. 25,000 Assain Rs. 12,500 Mysore Rs. 5,000 Andhra Rs. 10,000 Orissa Rs. 12,500 Bihar Rs. 10,000 Punjab Rs. 25,000 Delhi Rs. 5,000 Rajasthan Rs. 15,0.50 Hyderabad Rs. 3,000 Saurashtra Rs. 1,250 Kerala Rs. 5,000 Travancore-Cochin Rs. 2,500 Madhya Pradesh Rs. 22,500 Uttar Pradesh Rs. 25,000 Madhya Bharat Rs. 10,000 West Bengal Rs. 5,000 Maharashtra Rs. 5,000 To these have been added grants made by the following Trusts and individual philanthropists:Sir Dorabji Tata Trust Rs. 10,000 Shri Girdharlal Chhotalal Rs. 5,000 Seth Lalbhai Dalpatbhai Trust Rs. 20,000 Shri Tulsidas Kilachand Rs. 2,500 Seth Narottam Lalbhai Trust Rs. 10,000 Shri Labarchand Lalluchand Rs. 1,000 Seth Kasturbhai Lalbhai Trust Rs. 8,000 Shri Nahalchand Lalluchand Rs. 1,000 Shri Ram Mills, Bombay Rs. 5,000 Navjivan Mills Rs. 1,000 The Society records its expression of profound gratefulness to all these donors for their generous grants-in-aid to the Society. The Society's indebtedness to its Chief Patron Dr. Rajandra Prasad has been of the highest value as he has been a constant source of guidance and inspiration in its work. Varansi 26th Februari 1962. VASUDEVA S. AGRAWALA, DALSUKI MALVANIA, General Editors. Shri Muni Punyavijayji, Acharya Vijayendra Suri, V. S. Agrawala, Shri Jainendra *Other Founder Members are Kumar and Shri Fatechand Belaney. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः 1-30 १-३७० १-२ २-३ ३-१७ ४-७ प्रस्तावना (सम्पादकीय) Introduction : Dr. U. P. Shah मवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य विषयानुक्रमः मङ्गलमभिधेयादिप्ररूपणं च । दानादिधर्मोपदेशः । १. बुद्धिवर्णनाधिकारः। औत्पत्तिक्यादिबुद्धि-तद्विषयकदृष्टान्तानां च निर्देशः । १. औत्पत्तिकीवुद्धिविषये भरतदृष्टान्तः । सपत्नीमातृसमाचारकरण-शिप्रावालुकोजयिनीनिर्माण-एकस्तम्भप्रासादकरणा-ऽर्धमासान्तरैकमानमेषप्रेषग-तिलमानतैलप्रेषण-मृतहस्तिमरणानिवेदनाद्यनेकप्रसङ्गमयं भरताभिधाननटपुत्ररोहकस्याख्यानकम् । वैनयिकीबुद्धिविषये नैमित्तिकाख्यानकम् । हस्तिपदमात्रदर्शनेन काणाक्षिहस्तिन्यारूढपुत्रगर्भवतीसधवनारीनिरूपकं जलभृतघटभेदनिमित्तेन मातृ-पुत्रसमागमफलप्ररूपकं विनीतभावासादितशिक्षस्य नैमित्तिकशिष्यस्याख्यानकम् । ३. कर्मजबुद्धिविषये कर्पकाख्यानकम् । पद्माकारखातनिजखात्रकलाप्रशंसाश्रवणप्रमुदितस्य चौरस्य, तथा चौरनिर्देशानुसारेण व्रीहिक्षे पगविस्मापितचौरस्य कर्षकस्याख्यानकम् । अत्र चतुर्विशतिधान्यनामानि निर्दिष्टानि । ४. पारिणामिकीबुद्धिविषयेऽभयाख्यानकम् । राजगृहवर्णनं स्कन्धावारवर्णन च । प्रसेनजिद्राज्ञो राज्यार्हकुमारपरीक्षा । स्वापमानशङ्कितस्य श्रेणिकस्य गृहत्यागः । सुनन्दा-श्रेणिकयोविवाहः गर्भाधानं च । श्रेणिकस्य राज्याभिषेकः, अभयकुमारजन्म च । अभयकुमारबुद्धिरञ्जितश्रेगिककारितः सुनन्दायाः नगरप्रवेशः । वीरजिनसमवसरणं देशना च।। कृतराजगृहरोधस्याभयकुमारबुद्धिप्रपञ्चक्षुब्धस्य चण्डप्रद्योतस्य स्वनगरगमनम् । चण्डप्रयोतप्रेषितकृतकपटश्राविकारूपगणिकाकृतमभयकुमारापहरणम् । ९-१० १३-१४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २। सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य १५-१६ १७-४६ १७-२० १८ १९ २०-२४ अभयकुमारबुद्धिरञ्जितचण्डप्रद्योतकृतमुदयनापहरणम् । उदयनसकाशे चण्डप्रयोतपुत्र्या वासवदत्तायाः सङ्गीतशास्त्राभ्यासः । उदयनकृतं वासवदत्ताया अपहरणम् । चण्डप्रद्योतमुक्तगृहीतवणिग्वेषाभयकुमारकृतं चण्डप्रद्योतस्यापहरणम् । २. दानस्वरूपाधिकारः। दानोपदेशो दानविषयककथानकनामनिरूपणं च । ५. धनाख्यानकम् । . सार्थवर्णना वनवर्षावर्णना च । सार्थस्थितमुनिगणासारणाविषये धनसार्थवाहस्य परितापः, मुनिभ्यो घृतदानम् , बोधिप्राप्तिश्च । ६. कृतपुण्यकाख्यानकम् । मुनिदानप्रभावत उपार्जितपुण्यस्य गोपालस्यानन्तरभवे श्रेष्ठिगृहे कृतपुण्यनामत्वेन जन्म । कृतपुण्यस्य वसन्तसेनागणिकामन्दिरगमनं जननी-जनकयोमरणं सर्वद्रव्यक्षयानन्तरमक्काकृतं गृहनिष्कासनं च। कृतपुण्यस्यार्थोपार्जनाय प्रस्थानम् । महिमाभिधानश्रेष्ठिपल्या कारितः कृतपुण्यस्यापहारः, विधवस्नुषाचतुष्कस्वीकारार्थ महिमाभ्यर्थितेन तेन तत्र वसनं च । कृतपुण्यसमुत्पादितस्नुषापुत्रया महिमया कृतं कृतपुण्यस्य गृहनिष्कासनं स्वगृहगमनं च। महिमास्नुषामोदकान्तःस्थापितजलकान्तमणिप्रभावसेचनकगजमोचनप्रसङ्गतः श्रेणिकराजपुत्रि-कृतपुण्ययोर्विवाहः । अभयकुमारबुद्ध्या चतसृगामपि सपुत्राणां महिमास्नुषागां कृतपुण्यगृहागमनम्। द्रोणाख्यानकम् । मुनिदानप्रभावतो द्रोणकर्मकरस्यानन्तरभवे दुष्पसहराज्ञः पुत्रत्वेन जन्म, कुरुचन्द्रनामकरणं च । केसरा-वसन्तदेवयोः स्नेहसम्बन्धः । अन्यस्मै दत्तायाः केसराया लग्नोत्सवं ज्ञात्वाऽऽत्मघातोधतस्य वसन्तदेवस्य कामपालकृता रक्षा । केसरा-वसन्तदेवयोः कामदेवमन्दिरे पाणिग्रहणं पलायनं च। पलायितयोर्मदिरा-कामपालयोर्गजपुरगतकेसरा-वसन्तदेवाभ्यां सह मेलापकः । शान्तिजिनसमवसरणं कुरुचन्द्र-वसन्तदेव-कामपाल-केसरा-मदिराणां प्रव्रज्याग्रहणं च । शालिभद्राख्यानकम् । सङ्गमकगोपालस्य मुनिदानप्रभावतोऽनन्तरभवे राजगृहस्थगोभद्र श्रेष्ठिजायाभद्राकुक्षावुत्पन्नस्य शालिभद्रनामकरणं गोभद्रश्रेष्टिपञ्चत्वं च ।। गोभद्रदेवेन प्रत्यहं शालिभद्राय विविधभोगर्द्धिसमर्पणम् । भद्राकृतं कम्बलरत्नक्रयणं च । श्रेणिकस्य शालिभद्रप्रासादगमनं शालिभद्रस्य खेदश्च । धर्मधोषमुनिदेशना भदा-शालिभद्रयोरासक्ति-विरक्तिप्रतिपादकः संवादश्च । २३-२४ २४-३० २५ २६-२९ २९ २९-३० ३०-३५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । धन्यस्य वैराग्यः, वर्द्धमानजिनसमवसरणम् , वीरजिनस्तुतिः, धन्य-शालिभद्रयोः प्रव्रज्याग्रहणं च। । धन्य-शालिभद्रयोरनशनप्रतिपत्तिर्देवलोकगमनं भद्राविलापश्च । चक्रचराख्यानकम् । प्रतिगृहभिक्षाटनशीलस्य लब्धसुरभिघृत-गुडयुक्तसक्तुपिण्डयुगलस्य भोजनसमयागतमासोपवासिमुनिप्रतिलाभितै कसक्तुपिण्डस्य मुनिप्रतिलाभनानन्तरगृहान्तःपतितहिरण्यवृष्टिप्राप्तद्देश्चकचराख्य द्विजस्याख्यानकम् । १०. चन्दनार्याख्यानकम् । ३६-३८ कौशाम्यां धनावहश्रेष्ठिना वसुमत्या मूल्येन क्रयणम् , पुत्रित्वेन पालनम्, चन्दनानामकरणं च । चन्दनोपरिकुशङ्कितया धनावहभार्यया मूलया कृतश्चन्दनाया अपवरकक्षेपः, वर्द्धमानजिनपारणकंच। दिव्यवृष्टिः, चन्दनायाः प्रव्रज्या निर्वाणं च । ३८ मूलदेवाख्यानकम् । ३८-४३ नागरिककथनकुपितकुसुमशेखरनृपापमानितस्य मूलदेवस्य नगरत्यागः, वामनरूपकरणम् , उजयिनीगतस्य च देवदत्तागणिकापरिचयश्च । देवदत्ताकृतं अचल-मूलदेवयोः स्नेहपरीक्षणम् । अचलापमानितमूलदेवस्योजयिनीत्यागः, सुद्धड(निर्धगशर्म)ब्राह्मगद्वितीयस्य मूलदेवस्याटवीसमुल्लङ्घनं च । मूलदेवस्य मासोपवासिमुनिभक्तदानरञ्जितदेवतासकाशाद वरप्राप्तिः, दैवज्ञपुत्रीपरिणयनम् , चौर्यापराधादिष्टवधशिक्षस्यापि बेनातटनगरराज्यप्राप्तिश्च । देवदत्ताया बेनातटे आनयनम् । पर्यन्ते मूलदेवस्य देवलोकगमनं च । मुनिभ्योऽमनोज्ञाशनादिप्रतिलाभने दुःखप्रचुरसंसारभ्रमगविषयकनाग,याख्यानकसूचा । नागश्रीब्राह्मण्याख्यानकम् । ४३-४६ गृहागतमासोपवासिधर्मरुचिमुनये नागश्रिया कटुविषतुम्बिदानम् , विषतुम्बिपरिष्ठापनभाविजीववधविमर्षणजातकारुण्यस्य धर्मरुचिमुनेर्विषतुम्बिभक्षणं विषावेगपीडासम्यक्सनं देवलोकगमनं च । ऋषिघातिन्या नागश्रिया लोकनिन्दा षोडशरोगोत्पत्तिः, अनेकशो नरक-तिर्यग्गतिगमनानन्तरं चम्पानगरीवास्तव्यसागरदत्तश्रेष्ठिभार्याभद्राकुक्षिसम्भवः, जन्म, सुकुमालिकानामकरणं सागरकेग सह विवाहश्च । ४३-४४ सुकुमालिकास्पर्शजनितदाहसागरककृतः सुकुमालिकापरित्यागः । पुनःपरिणीतायाः सुकुमालिकायास्तथैव स्पर्शजनितदाहेन द्रमकेण परिहरणम् । ४५ सुकुमालिकायाःप्रवन्याग्रहणं तपश्चरणं सनिदानमरणं देवलोकगमनं च। ततो द्रौपदीभवविज्ञापनम् । ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारः। ४६-६७ शीलमाहात्म्य शीलविषयकाख्यानकनामनिरूपणं च । Jain Education Interational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] १३ दवदन्त्याख्यानकम् । दवदन्तीजन्म, स्वयंवर मण्डपवर्णनं च । दवदन्त्याः स्वयंवरणम्, युद्धवर्णनम्, युद्धोपशमनम्, नलकुमार दवदन्त्योर्विवाहश्च । दवदन्तीसहितस्य नलकुमारस्य कोशलानगरीप्रवेशः, प्रवेशोत्सववर्णनम् नलपितृप्रवज्या, लघुभ्रातूकुब्बरेण सह द्यूतरमणे नलस्य पराजयश्च । द्यूतपराजित राज्यस्य सपत्नीकस्य नलस्य कोशल परित्यागः । वनमध्ये प्रसुप्तां दवदन्तीं विहायैकाकिनो नलस्य प्रयाणं सुप्तविबुद्धाया दवदन्त्या नलादर्शने विलापश्च । समुत्तीर्णश्वापद- राक्षसादिभयाया दवदन्त्या ऋतुपर्णराजभवनेऽवस्थानम् । दवदन्त्याः पितृगृहगमनम् । पितृदेवप्रदत्तगुटिकाप्रभावतो नलस्य रूपपरावर्तः, हुण्डिकनामधारिणो नलस्य दधिपर्णराजभवने सूदत्वेनावस्थानम् ज्ञातवृत्तान्तेन भीमरथराज्ञाऽलोकस्वयंवर - मण्डपच्छद्मनामन्त्रितस्य सहुण्डिकसूदस्य निपधराज्ञः कुण्डिनपुरागमनं च । १४. सीताख्यानकम् । सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य नलस्य मूलरूपेण प्रकटीभवनं राज्यप्राप्तिश्व जिनसेनसूरि देशनाश्रुतपूर्व भवयोर्नल दवदन्त्योः प्रयाग्रहणं देवलोकगमनं च । रामचन्द्रादीनां वनवासः, सीतापहरणं च । • रावणपराजयः, रामचन्द्रादीनामयोध्याऽऽगमनं च । लोकापवादभीतरामचन्द्रपरित्यक्तायाः सीतायाः स्वकीय पितृस्वसृजवज्रजङ्घगृहावस्थानम्, पुत्रयुग लोत्पत्तिः, पुनरयोध्याssगमनं च । स्वशुद्धयर्थं सीताया अग्निप्रवेशः, प्रवज्या देवलोकगमनं च । १५. रोहिण्याख्यानकम् । रोहिणीनामकस्वपत्नीप्रेरितस्य घनावह श्रेष्टिनी धनार्जनाथ सिंहलद्वीपगमनम् । रोहिणीरूपमोहितनन्दराज्ञो कामपीडा | अनुरक्त-विरक्तनारी परीक्षा | रागान्धनन्दनृपस्य प्रच्छन्नं रोहिणीगृहगमनम् । रोहिणीकृतशीलोपदेशप्रतिबुद्धनन्दराज्ञः पश्चात्तापो रोहिणीपुरतः क्षमाप्रार्थना च । क्रमेण धनावह श्रेष्ठयागमनम् पुत्रोत्पत्तिः, रोहिण्या देवलोकगमनं च । १६. सुभद्राख्यानकम् । ४. तपोमाहात्म्य वर्णनाधिकारः । सुभद्रा-बुद्धदासयोर्विवाहः । सुभद्राया उपरि मिध्यादुश्चरितकलङ्कारोपः, देवकृतसान्निध्यात् शुद्धिर्वर्णवादश्च | तपोविषय कोपदेशः तपोविषय काख्यानकनामनिरूपणं च । For Private Personal Use Only ४६-५६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१-५२ ५२-५३ ५४ ५५-५६ ५७-६१ ५७ ५८ ५९ ६०-६१ ६१-६५ ६१-६२ 1990 ६३-६५ ६५-६७ ६५ ६६-६७ ६८-८० ६८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । ६८-६९ ६९-७१ ७१-८० १७. वीरचरितारख्यानकम् । वर्द्धमानजिनविविधतपश्चरणसूचामात्रम् । १८. विसल्लाख्यानकम् । पुण्यवसुनामकभृत्यापहृतायाः प्रज्ञप्तिदेव्यरण्यप्रक्षिप्तायाश्चानङ्गसराराजकुमार्या दुष्करतपोऽनुष्ठानम् , तपःप्रभावादेवलोकगमनम् , ततश्च्युताया विसल्लानामकराजकन्याभवनिदर्शनं च । शौर्याख्यानकम् । गर्भाधान-जन्मानन्तरमृतजनक-जननीकस्य दुर्गतकुरूपब्राह्मगपुत्रस्य मुन्युपदेशेनात्मघातोपरमः प्रवन्याग्रहणं च । प्रव्रज्यानन्तरं नन्दिषेणमुनिनामकस्य तस्यानेकविधतपश्चरणमङ्गादिश्रुताध्ययनं च। वैयावृत्त्यकरणनिश्चलस्य नन्दिपेणमुनेर्देवलोके सौधर्मन्द्रकृता प्रशंसा, तदश्रद्दधानकृतश्रमणरूपसुरद्वयकृतं वैयावृत्यकरणविषये नन्दिपेणमुनिपरीक्षणम् , इन्द्रप्रशंसायाथातथ्यानुभवत्प्रकटरूपदेवयुगलकृता नन्दिषेणमुनेः स्तवना च । अन्ते नन्दिपेणमुनेर्निदानकरणम् , देवलोकगमनम् , ततच्युतस्य शौर्यपुरेऽन्धकवृष्णि-सुभद्राराश्योर्वसुदेवनामकपुत्रत्वेनोत्पत्तिथ । गतजन्मकृतनिदानफललब्धातिशयरूपर्दिवसुदेवदर्शनमुग्धनगरनारीणां विह्वलता । स्वं समुद्र विजयबुद्धिनिवारितनिर्गमं ज्ञात्वा वसुदेवस्य गृहत्यागः । २०-२१. रुक्मिणी-मध्वाख्यानके। गृहागतमासोपवासिमुनिनिर्भर्सनाकरणानन्तरमहाव्याधिग्रस्तायाः स्वजनपरित्यक्ताया लक्ष्मीमत्या अग्निप्रवेशः, ततो गर्दभी-सूकरीभवानन्तरं भृगुकच्छे नाविकपुत्रित्वेनोत्पन्नायास्तस्या लक्ष्मीमतीभवनिर्भर्त्सतमुनिदर्शनम् , प्रतिबोधः, श्रावकगृहावस्थानम् , उग्रतपश्चरणम् , चैत्यादिपर्युपासना च । ततः सा देवलोकगमनानन्तरं वराडदेशाधिपभेसइराज-यशोमतीराश्यो रूक्मिणीनानी पुत्री जाता । सत्यभामाया नारदर्षि प्रत्यविनयः । नारदोत्तेजितकृष्णकृतं रुक्मिणीहरणम् । रुक्मि-जरासन्धाभ्यां बलदेवस्य युद्धं जयथ । कृष्ण-बलदेव-रुक्मिणीनां द्वारिकाऽऽगमनम् । रुक्मिणीकुक्षिजन्मानन्तरं पूर्वभववैरिदेवापहृतस्य प्रद्युम्नस्य कालसंवराभिधानविद्याधरराजगृहे पुत्रत्वेनावस्थानम् , पुत्रहरणदुःखिताया रुक्मिण्या विलापश्च । धूमकेतुवैरानुबन्धख्यापिका प्रद्युम्नपूर्वभवकथा (मधुकथा )। प्रद्युम्नं प्रति कामाभ्यर्थनाभङ्गानन्तरं कपटपूकीराज्ञीकथनकुपितकालसंवरविद्याधरेण सह प्रद्युनस्य युद्धं जयश्च । प्रद्युम्नस्य द्वारिकागमनं शाम्बजन्म च । भावनास्वरूपवर्णनाधिकारः। भावनोपदेशकाख्यानकनामनिरूपगम् । द्रमकाख्यानकम् । आनन्दकेलिमनोवानगतजनसम्मर्देऽलब्धभिक्षस्यात एव तं जनसमूहं हन्तुं वैभारपर्वतशिलाखननव्यागृतस्य तच्छिलाप्राप्तमृत्योर्द्रमकस्याशुभाध्यवसायतो नरकगतिनिवेदकमाख्यानकम् । ७६-७७ ७८ ७९-८० ८१-९५ २२. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] ७. ८. २३. २४. इलापुत्राख्यानकम् । भरताख्यानकम् ( अपभ्रंशभाषायाम् ) । अयोध्यावर्णनम्, ऋषभजिनकेवलज्ञानं च । अष्टनवतेर्भरतभ्रातृणां प्रत्रज्या । बाहुबलि प्रति भरतस्य दूतप्रेषणम् । भरत - बाहुबलियुद्धवर्णनम् । बाहुबलेर्निर्वेदः प्रव्रज्या केवलज्ञानम्, भरतस्य केवलज्ञानं च । इलापुत्रस्य जन्म, यौवनप्राप्तिव । शरद्वर्णनम् । इलापुत्रस्य नटपुत्र्यामनुरागः । सम्यक्त्ववर्णनाधिकारः । इलापुत्रस्य गृहत्यागः, नटकलाभ्यासश्र । वंशाग्रस्थितस्येला पुत्रस्य केवलज्ञानम्, पूर्वभवकथा च । सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य २५, सुलसाख्यानक्रम् | सम्यक्त्वफलकथनं तद्विपयककथानकनामनिरूपणं च । वीर जिनसमवसरणम् | अम्बडपरिव्राजककृता सुलसायाः सम्यक्त्वपरीक्षा | जिनबिम्बदर्शनफलाधिकारः । जिनबिम्बदर्शनफलविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । २६. शय्यम्भव भट्टाख्यानकम् । प्रभवसूरिकृतों जिनबिम्बदर्शनमूलकः शय्यम्भवप्रतिबोध: शय्यम्भवप्रव्रज्या, मनकप्रव्रज्या, दशवैकालिकसूत्ररचना च । २७. आर्द्रककुमाराख्यानकम् । आर्द्रकनृप-श्रेणिकनृपयोरभयकुमारा-ऽऽर्द्धककुमारयोश्च परस्परमुपहारप्रेषणम्, अभयकुमारप्रेषित जिन पूजाफलवर्णनाधिकारः । जिनबिम्बावलोकनेनार्द्रकुमारस्य जातिस्मरणं च । श्रीमत्या कृतं बालक्रीडायामार्द्रकमुनिवरणम् । भगवतस्यार्द्रकमुनेर्गृहवासः पुनः प्रत्रज्याग्रहणं च । आर्द्रकमुनिकृतपञ्चशतसामन्तप्रतिबोध - गोशालकजय- हस्तितापसप्रतिबोधाः । २८. दीपकशिखाख्यानक्रम् | जिनपूजाफलख्यापकाख्यानकनामनिरूपणम् । पूर्वभवदीपपूजोपार्जितपुण्यस्य दीपशिखस्य जन्म यौवनप्राप्तिश्च । वीणाविज्ञानेन गान्धर्वदत्तया, सर्पविषोत्तारकमन्त्रविद्यानैपुण्येन लीलावत्या, स्त्रीरत्नाकर्षणमन्त्राधककापालिकनिरासेन अवन्तिन्या, मन्त्रविद्याप्रयोगदर्शनेन कामलतया च सह दीपशिखस्य विवाहः, स्वनगरागमनम्, राज्यपालनम्, प्रव्रज्याग्रहणम्, देवलोकगमनं च । For Private Personal Use Only ८१-९० ८१-८२ ८३ ८४ ८४-९० ९० ९१-९५ ९१ ९१-९२ ९३ ९४-९५ ९५-९७ ९५ ९५-९७ ९६-९७ ९७-१०३ ९७ ९७-९९ ९९ - १०३ ९९-१०० १०१ १०२ १०३ १०४-१३ १०४ १०४-७ १०४ १०५-७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. नवपुष्पकाख्यानकम् । पुष्पपूजाकरणावाप्तपुण्यस्याशोकमालाकारस्यानन्तरभवे राजपुत्रत्वेन जातस्य पुण्योदय शुभफल प्ररूपकमाख्यानकम् | ३०. पद्मोत्तराख्यानकम् । विषयानुक्रमः । पुष्पपूजोपार्जितपुण्यबन्धख्यापकः पनोत्तरस्य पूर्वभवः । पद्मोत्तरस्य जन्म | पद्मोत्तरस्य परिणयनम्, देवगुप्तराज्ञा सह युद्धे जयः, ऐन्द्रजालिककृताश्रर्यकारीन्द्र जालप्रयोगप्रेक्षणम्, सम्यक्त्वावाप्तिश्र । ३१. दुर्गनार्याख्यानकम् । समवसरण गच्छन्नृपादिजनगगावलोकनोद्भूतजिनभक्त्या जिनपूजार्थगृहीतपुष्पायाः समवसरणं प्रति गच्छन्त्या जिनवन्दन- पूजाध्यवसायाया मार्गे मृतायास्ततो देवत्वं प्राप्ताया दुर्गनार्या आख्यानकम् । ९. जिनवन्दनफला धिकारः । जिनवन्दनफलसूचकाख्यानकनामसूचनम् । ३२. बकुलाख्यानकम् । सपत्नीकस्य बकुलाभिधानमालाकारस्य जिनमन्दिरकृतश्राद्धपूजाप्रकर्षावलोकनोदभूत जिनवन्दनपूजाभावस्य जिनवन्दनादिप्रभावतः पुण्यानुबन्धख्यापकमाख्यानकमिदं प्रसिद्ध रत्नचूडकथापूर्वभवरूपमाख्यानकम् । ३३. सेदुवकाख्यानकम् । बर्द्धमानजिनसमवसरणं श्रेणिककृता वर्द्धमानजिनस्तुतिश्च । कुष्ठरूपधारिदेवस्याविनयं प्रति श्रेणिकस्य रोषः, कुष्ठिपुरुषं देवं ज्ञात्वा भगवतोऽग्रे तद्विषया पृच्छा च । भगवत्कथित कुटिदेव पूर्वभवे - राजलब्धवरस्य सेदुवकस्य प्रत्यहं राज्ञा सह भोजनं दीनारप्राप्तिश्व, अजीर्यदाहारदोषो भूतकुष्ठरोगस्य तस्य स्वजनकृतोपेक्षा, स्वपरिवार सङ्क्रामितरोगस्य गृभ्यागः, अज्ञात वनस्पतिभावितजलपानेन नीरोगत्वं च, अत्याहारभक्षणेन सेदुवकस्य मरणम्, ततो दर्द - रभवः, जिनवन्दनभावोपार्जितपुण्यकर्मणस्तस्य दर्दुरस्य देवलोकगमनं च । देवविकुर्विते मत्स्यग्राहकमुनि-गुर्विणीसाध्वीप्रसङ्गे श्रेणिकस्य जिनशासनभक्तिः । कपिलाऽदानकालसौ करिकहिंसाऽनिवार्यत्वं च । ३४. नन्दाख्यानकम् । जिनवन्दनोपात्त पुण्यप्रभावदारिद्र्यनाशनकथावस्तुमयं नन्दाभिधानश्रेष्ठिन आख्यानकम् | १०. साधुवन्दनफलवर्णनाधिकारः । साधुवन्दनफलविषयकाख्यानकनामकथनम् । ३५. हर्याख्यानकम् । नेमिजिनस्य हरिमुद्दिश्य सुगुरुवन्दन- फलविषयको विस्तृत उपदेशः, सुगुरुवन्दनकरणेन हरिणः क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्तिव । For Private Personal Use Only [ ७ १०७-८ १०८-१३ १०८-९ १०९-१२ ११३ ११३-२० ११३ ११४ ११४-२० ११४-१५ ११५-१६ ११६-१८ ११९-२० १२० १२१-२३ १२१ १२१-२३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८1 सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य १२३-२५ १२३ १२३-२५ १२५-२९ - १२५ १२६-२७ ३८. १२७-२९ ११. सामायिकफलवर्णनाधिकारः। अव्यक्तसामायिकफलविषयकाख्यानकनामकथनम् । ३६. सम्पतिराजाग्व्यानकम् । अतिशयज्ञान्यार्यमुहस्तिदत्ताहारभोजनानन्तरं मृतस्याव्यक्तसामायिकवतो भिक्षोः कुणालपुत्र सम्प्रतित्वेन जन्म । सम्प्रते राज्यावाप्तिर्जातिस्मरणादि च । १२. जिनागमश्रवणफलाधिकारः। जिनागमश्रवगफलविषयकाठ्यानकनामनिरूपणम् । ३७. चिलातीपुत्राख्यानकम् । क्षुल्लकमुनिवादपराजितस्य यज्ञदिन्नस्य गृहीतप्रव्रज्यस्य जातिमददोषदूषितप्रव्रज्यासेवनम् , ततो मृतस्य देवलोकगमनम् , ततच्युतस्य चिलातीनामदासीपुत्रत्वेन जन्म च । श्रेष्ठिपुत्र्यपहरणहत्याकारिणश्चिलातीपुत्रस्य मुनिप्रतिबोधेन प्रव्रज्याग्रहणं देवलोकगमनं च । रौहिणेयकथानकम् । वर्द्धमानजिनोपदेशश्रवणविषये पितृनिषेधितस्य पिहितकर्णद्विकाङ्गलिप्रयोगगच्छतो रौहिणेयतस्करस्यैकपादलग्नकण्टकनिष्कासनाोंघटितैककर्णस्यानिच्छतोऽपि वर्द्धमानजिनदेशनागतदेवस्वरूपनिदर्शकवाक्यश्रवणम् । विद्युतिक्षामकरणसिद्धस्य रौहिणेयस्य राजगृहनगरमोषणम् । अभयकुमारबुद्धिप्रपञ्चनिग्रहणानन्तरसमारोपितदेवभावस्य रोहिणेयस्य वर्द्धमानजिनदेशना श्रुतैकवाक्योपयोगेन बन्धनमुक्तिः, प्रत्याग्रहणम् , देवलोकगमनं च । १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारः । नमस्कारप्रभावनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । ३९. गोकथानकम् (संस्कृतभाषायाम् ) । राम-लक्ष्मण-रावणानां धनदत्त-वसुदत्त-श्रीकान्तादिपूर्वभवनिदर्शकमाख्यानकम् । धनदत्तजीवपङ्कजास्यकुमारोक्तनमस्कारमन्त्रश्रवणानन्तरमृतवृषभस्य तन्नगरनृपसुतवृषभध्वजकुमारत्वेन जन्म । नमस्कारमाहात्म्यवर्णनम् । वृषभध्वजस्य जातिस्मरणम् । पङ्कजास्य-वृषभ-वजयोर्मेलापकः, देवलोकगमनं च । रामलक्ष्मण-सीता-सुग्रीव-रावणानां पूर्वभवनामज्ञापनम् । पड्डकाख्यानकम् । नारीयाचनाकर्तृपुत्रशिष्यस्य पितृस्थविरगच्छनिष्कासितस्य महिंषत्वेनोत्पत्तिः, देवत्वप्राप्तपितॄजीवदत्तनमस्कारस्मृतपूर्वभवस्य च तस्य देवलोकगमनं च । फण्याख्यानकम् । पार्श्वजिनश्रावितनमस्कारस्य कमठाग्रञ्चलदग्निदग्धसर्पस्य देवगतिगमननिदर्शकमाख्यानकम् । १२७ १२८-२९ १३०-३४ १३१-३२ १३३-३४ १३४-३५ १३५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । १३५-४० १३६ १३७-४० १४० १४०-४६ १४०-४१ १४२ १४३ १४५-४६ ४२. सोमप्रभाख्यानकम् (अपभ्रंशभापायाम)। वसन्तवर्णनम् । एकान्दोलकजातस्पर्द्धयोः कामरति-कामपताकाभिधानगगिकयो गरिककृतन्यायदत्तलक्षदीनारदातृस्वप्रेमिधनेश्वरावाप्तजयायाः कामरस्याः सकाशात् कामपताका-तत्प्रेमिसोमदत्तयोः पराभवः । द्रव्योपार्जनव्यग्रसोमदत्तकृतनिष्फलप्रयत्नानेकप्रसङ्गवर्णनम् । निर्दोषस्यापि शूल्यधिरोपितस्य विद्याधररक्षितस्य सोमदत्तस्य नमस्कारमन्त्रप्रभावतोऽनन्तरभवे देवत्वेमोत्पत्तिः । ४३. सुदर्शनाख्यानकम् । सुदर्शनस्य पूर्वभवः । वर्षावर्णनम् । सुदर्शनं प्रति कपिलाया निष्फला कामप्रार्थना । अभयाराश्याः कपिलापुरतः सुदर्शनशीलभङ्गकरणप्रतिज्ञा, कायोत्सर्गस्थितसुदर्शनस्याभयाप्रसादानयनं च। शीले निश्चलस्य सुदर्शनस्योपरि अभयाकृतो मिध्यारोपः, राज्ञा कृतः सुदर्शनवधदण्डादेशश्च । देवकृतः सुदर्शनवर्णवादः । सुदर्शनस्य प्रव्रज्या केवलज्ञानं मोक्षश्च । १४. स्वाध्यायाधिकारः। स्वाध्यायफलनिदर्शकाख्यानकनिरूपणम् । ४४. यवसाध्वाख्यानकम् । यवराजर्षिपठितयवक्षेत्रारघट्टिकोक्त-क्रीडत्कुमारोक्त-कुम्भकारोक्तगाथात्रयस्वाध्यायप्रभावख्यापक सुप्रसिद्धमाख्यानकम् । १५. नियमविधानफलाधिकारः। नियमफलनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । ४५. दामनकाख्यानकम् । हेमन्तवर्णनम् । दामनकस्य जीवदयानियमपालनतत्परधीवररूपपूर्वभववर्णनम् ।। मुनिकथनान्यथाकरणमतिसमुद्रदत्तश्रेष्ठिनः दामनकाभिधस्वदासमारणप्रयोगवैयर्थ्यम् । दामन कस्य समुद्रदत्तसर्वर्द्धिस्वामित्वं सुखपरम्परा च । ४६. ब्राह्मग्याख्यानकम् । वसुमतीनामब्राह्मण्या मांसभक्षण-रात्रिभोजननियमलाभनिदर्शकमाख्यानकम् । ४७. चण्डचूडाख्यानकम् (प्राकृतगद्यबद्धम् )। कुम्भकारखल्लिदर्शनानन्तरभोजनकरणविषयकनियमप्रभावप्राप्तद्धेः चण्डचूडनामकुलपुत्रस्याख्यानकम् । १४६-४७ १४६ १४६-४७ १४८-६० १४८ १४८-५१ १४८ १४८-४९ १४९-५१ १५१-५३ १५३-५४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य ४८. गिरिडुम्बाख्यानकम् । १५४-५५ गिरिनामनटस्य ग्रन्थिबन्धनच्छोटनमात्रनिगमपालनलाभप्ररूपकं शत्रुञ्जयाधिष्ठातृकपर्दियक्षपूर्वभव कथारूपमाख्यानकम् । ४९ राजहंसाख्यानकम् । १५५-६० मद्य-मांसत्यागनियमोपार्जितसुकृतयोः कर्मकर-तद्भार्ययोरनन्तरभवे राजहंसराजकुमार-देइणीराजकुमारीत्वेन जन्म । सकृनियमभङ्गकरण-कारापणबद्धदुष्कृतफलोदयेन द्वयोरपि रोगग्रस्तता, पुनः नियमपालनसुकृतोदयेन सुखपरम्परा च । स्वपुण्यप्राधान्यविषयकमपीदमाख्यानकम् । १६. मिथ्यादुष्कृतदानफलाधिकारः। १६१-६६ मिथ्यादुष्कृतदानफलनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १६१ क्षपकाख्यानकम् । मासोपवासिक्षपणकप्रमादमारितभेकीक्षामणार्थक्षुल्लकनिवेदनप्रकुपितस्य क्षुल्लकमारणोद्यतस्य मासोपवासिक्षपणकस्य स्तम्भास्फलनेन मृत्युराशीविषसर्पजातावुत्पत्तिश्च । १६१ अहिदंशमृतस्वकुमारमोहकुपितारिमर्दननृपसकाशप्रतिसर्पशिरोदीनारलाभप्रेरितगारुडिकमार्यमाणस्योत्पन्नजातिस्मरणस्य क्षपणकजीवसर्पस्य सम्यगाराधनामृतस्य अरिमर्दनराजपुत्रनागदत्ताभि धानत्वेन जन्म, प्रव्रज्याग्रहणम् , तपःकरणविषये स्वाशक्तिनिन्दया तपस्विभक्त्या केवलज्ञानं च। १६१-६३ ५१. चण्डरुद्राख्यानकम् ।। १६३-६४ अतिकोपनचण्डरुद्राचार्यपुरःप्रव्रज्याग्रहणालीकोपहासकुर्वद्वयस्यकेलिप्रियस्य नवपरिणीतश्रेष्ठिपुत्रस्यातिकोधिचण्डरुद्राचार्यकृतं प्रव्राजनम् । रात्रावेव स्थानान्तरगमनाथ सूरिमुत्पाट्य व्रजतो सम्यग्भावसोढगुरुताडनस्य नवदीक्षितमुनेः केवलज्ञानम् , मिथ्यादुष्कृतदानानन्तरं गुरोश्चापि । प्रसन्नचन्द्राख्यानकम् । १६४-६६ ग्रीष्मवर्णना । वल्कलचीरिसंक्षिप्तकथा । प्रसन्नचन्द्रस्य प्रव्रज्याग्रहणम् । १६४-६५ राजसेवकद्विकविवादप्रकुपितमनसः प्रसन्नचन्द्रराजर्षेर्युद्धसंरम्भाध्यवसायः, पुनर्मिथ्यादुःकृतभाववर्धितशुभ-शुभतरपरिणामस्य केवलज्ञानं च । १६५-६६ १७. विनयफलवर्णनाधिकारः। १६६-६८ विनयफलनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १६६ ५३. चित्रप्रिययक्षाख्यानकम् । प्रतिकचित्रकारमारकचित्रप्रिययक्षपार्श्वप्राप्तवरस्याङ्गुष्ठदर्शनमात्रेण मृगावतीचित्रनिर्मातुश्चित्रकर पुत्रस्याख्यानकम् । ५४. वनवासियक्षाख्यानकम् । १६८ राज-सधार्मिकजन-वनवासियक्षाणां प्रति विनयकरणादवाप्तसमृद्धवगिज आख्यानकम् । १६७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ विषयानुक्रमः । [ ११ १८. प्रवचनोन्नत्यधिकारः। १६८-७० प्रवचनोन्नतिकरणनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १६८ ५५. विष्णुकुमाराख्यानकम् । १६८-७० पोत्तर-विष्णुकुमारयोः प्रव्रज्या, नमुचिमन्त्रिणः श्रमणप्रद्वेषः, विष्णुकुमारमुनिपादचम्पितनमुचिमन्त्रिणो मृत्युश्च । १६९-७० ५६. वज्रस्वाम्याख्यानकम् । १७०-७१ बज्रस्वामिकृतप्रवचनोन्नतिप्रसङ्गनिदर्शकमाख्यानकम् । ५७. सिद्धसेनाख्यानकम् । १७१-७२ वृदवादिसूरिकृतो वादोपस्थितस्य सिद्धसेनस्य पराजयः, प्रवच्यानन्तरं संस्कृतभाषासिद्धान्तपरावर्तननिवेदनलब्धसङ्घदत्तप्रायश्चित्तनिर्वहणा च । १७१-७२ ५८. मल्लवाद्याख्यानकम् । १७२-७४ बुद्वानन्दवादविनिर्जितजिनानन्दसूरिशिष्यमल्लवादिकथानकमिदं नयचक्रग्रन्थोत्पत्तिप्रसङ्गसन्दर्शकं बुद्धानन्दपराभवप्रसङ्गान्वितं चास्ति । ५९. समिनाख्यानकम् । पादलेपप्रयोगनदीसन्तरण-चूर्णक्षेपप्रयोगनदीकूलद्वयमिलनपजलस्थलीकरणप्रयोग-ब्रह्मद्वीपिकश्रम णशाखोद्गमनिदर्शकमाख्यानकम् । ६०. आर्यग्वपुटाख्यानकम् । १७४-७५ अन्तरिक्षपात्र-शिलादिचालन-देवकुलिकाचालनादिचमत्कारिप्रयोगसन्दर्शकमाख्यानकम् । १९. जिनधर्माराधनोपदेशाधिकारः । १७५-७७ जिनधर्माराधनफलनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । ६१. जोत्कारमित्राख्यानकम् । १७६-७७ संसारिजीव-कृतान्त-देह-स्वजन-जिनधर्मवास्तविकस्वरूपनिदर्शकमाख्यानकमिदम् । २०. नरजन्मरक्षाधिकारः। १७७-७८ नरजन्मसाफल्या-ऽसाफल्यनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १७७ ६२. वणिक्पुत्रत्रयाख्यानकम् । १७७-७८ पितृलब्धलक्षलक्षद्रव्यस्य धनवृद्धि-रक्षा-व्ययकर्तुगिक्पुत्रत्रिकस्याख्यानकमिदं नरभवसाफल्या-5 साफल्योपनयरूपम् । २१. उत्तमजनसंसर्गिगुणवर्णनाधिकारः। १७८-८२ उत्तमजनसंसर्गगुणनिरूपकाख्यानकनामनिरूपणम् । १७८ ६३. प्रभाकराख्यानकम् । १७९-८१ कुसंसर्गजनितदुःश्व-सुसंसर्गजनितसुखप्रसङ्गान्वितं ब्राह्मणपुत्रप्रभाकराख्यानकम् । उत्तम Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य ६४. वरशुकाख्यानकम् । १८१-८२ मुन्याश्रम-भिल्लपल्लीस्थितकोदरजातशुकद्वयसौजन्य-दौर्जन्यनिवेदकमाख्यानकम् । ६५. कम्बल-सवलाख्यानकम् । १८२ धर्मिष्टश्रेष्टिसम्पप्तिधर्मसंस्कारयोः कम्बल-सबलाभिधानयोबेलीवर्दयोर्देवत्वप्राप्तिप्रख्यापकमा ख्यानकम् । २२. इन्द्रियवशवर्तिप्राणिदुःखवर्णनाधिकारः। १८३-८८ इन्द्रियदमनविश्वासोपकोशागृहगततपस्व्याख्यानकसूचनम् । १८३ ६६ उपकोशागृहगततपस्व्याख्यानकम् । १८३-८४ स्थूलभद्रमहर्षिस्पर्द्धाकारिणस्तपस्विनो मानसिकपतन-समुत्थानविषयकमाख्यानकम् । इन्द्रियपारवश्यदःखनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १८४ भद्राख्यानकम् । १८४ श्रोत्रेन्द्रियविषयमुग्धभद्राभिधानश्रेष्ठिनीमरणनिदर्शकमाख्यानकम् । ६८. नृपमुताख्यानकम् । यत्तद्वत्वाघ्राणप्रकृत्यवाप्तमरणस्य गन्धप्रियराजकुमारस्याख्यानकम् । नरादाख्यानम् । १८५-८६ नरमांसभक्षणव्यसनदोषपदभ्रष्टस्य वनस्थमुनिमारणोद्यतस्य मुनिप्रभावकुण्ठितशक्तेर्मुन्युपदेशश्रव णमांसभक्षणत्यागिनः सोदासनृपस्याख्यानकम् । ७०. सुकुमारिकाख्यानकम् । १८६-८७ सुकुमारिकाराज्ञीस्पर्शमौग्थ्यदोषराज्यप्रभ्रष्टस्य जितशत्रुराज्ञः पङ्गपुरुषासक्तसुकुमारिकाकृतगङ्गा प्रवाहक्षेप इत्येवमादिस्पर्शनेन्द्रियासक्तिजनितदुःखप्राप्तिप्रसङ्गनिरूपकमाख्यानकमिदम् । २३ व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारः। . १८८-२१८ नार्यविश्वासविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । १८८ ७१ नूपुरपण्डिताख्यानकम् ।। १८८-९१ नानाथ गत्ताया नू पुरपण्डिताया अन्यपुरुषासक्तिः । अन्यपुरुषसाद्ध सुप्तया श्वसुरदृष्टया नू पुरपण्डितया यक्षपुरः कपटयुक्तिसमासादितशुद्धशीलवादया श्वसुरोपहासा-ऽवर्णवादकारणम् । १८८-९० विगतनिद्रस्य नू पुरपण्डिताश्वसुरस्य राज्ञोऽन्तःपुररक्षकपदनियुक्तिः, मेण्ठासक्तराज्ञीदुश्चरितज्ञानानन्तरं चिरं स्वपनं च । प्राप्त दण्डयो राज्ञी-मेण्ठयो राज्यप्रदेशबहिनिर्गमः । राश्याश्चौरासक्तिः । राश्यारोपितचौर्यापराधस्य मेण्ठस्य शूल्यधिरोपणं श्राद्धदत्तनमस्कारप्रभावतो देवगतिगमनं च । चौरकृतं राज्ञीसर्वस्वहरणम् , मेण्ठजीवदेवकृतो राज्ञीप्रतिबोधश्च । १९०-९१ ७२. दत्तकदुहिताख्यानकम् । १९१-९३ विक्रमराजपृष्टविटासक्तनाराकथितं कृत्रिममरण-ज्वलनप्रत्यायितजनकादिलोकाया अनुरक्तनरसहिताया दत्तकश्रेष्ठिदुहिताया स्वपितृगृहावासख्यापकमाख्यानकम् । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । ७३. भावट्टिकाख्यानकम् । १९३-२१८ श्रेष्ठिपुत्रीदेहवर्णना। १९३-९४ राजसभायां नारीविषयकसंवादे मन्त्रिपुत्रसागरकृतो भानुश्रेष्टिपराभवः, सुरेन्द्रनामश्रेष्टिपुत्रासक्तयाऽपि स्वपितृजयार्थ भानुश्रेष्टिपुत्र्या भावटिकया सागरेण सह परिणयनम् । १९४ प्रदत्तप्रासादतलावासैकाकिनीभावष्टिकाकालनिर्गमनार्थप्रार्थितश्वसुरकृतः सखीद्वयसहवासस्वीकारः। सखीवेषधारिपूर्वानुरागिसुरेन्द्रदत्तेन सह भावट्टिकायाः प्रासादतले प्रच्छन्नो रतिविलासः । १९४-९५ भावट्टिकाया अन्यपुरुषलग्नारोपशुद्धयर्थ सुरप्रिययक्षमन्दिरे रात्रिनिर्गमनार्थमवस्थानम् । १९५ मारगोद्यतसुरप्रिययक्षपुरतो विक्रमवधनिमित्तसुवर्णपुरुषसिद्धिसाधकभैरवानन्दकापालिकवधावाप्तसुवर्णपुरुषसिद्धि-वसुधाऽनृणीकरणादिकथावस्तुमयं विक्रमराजकथानकं कथयित्वा भावट्टिकया कृतं रात्रीप्रथमप्रहरयापनम् । १९५-९७ पुनारणोद्यतसुरप्रिययक्षपुरतोऽन्तर्गतचातुर्यप्रयोगपरिगीत श्रेष्ठिपुत्रिजिनदत्तकथानकं अलीकमारीकलङ्कदूषितधारिणीराज्ञीस्वाभित्वप्राप्तवणिक्पुत्रकथानकं कथयित्वा भावट्टिकया कृतं रात्रीदितीयप्रहरयापनम् । १९७-२०० पुनरिणोद्यतसुरप्रिययक्षपुरतोऽन्तर्गतबुद्विरक्षितस्वकुटुम्बज्ञानगर्भनाममन्त्रिकथानक मृतकवाणीनिष्फलीकरणार्थ देशान्तरगमन-पाषाणपुत्तलिकामुग्धामरदत्तनामराजकुमाररक्षानिमित्तमित्राणन्दनाममन्त्रिपुत्रप्रयत्नरत्नमञ्जरीराजकुमार्यानयन-भवितव्यताऽप्रतीकारादिकथावस्तुप्ररूपकममरदत्तमित्राणन्दकथानकं कथयित्वा भावटिकया कृतं रात्रीतृतीयप्रहरयापनम् । २००-१० पुनरिणोद्यतसुरप्रिययक्षपुरतोऽपभ्रंशभाषानिबद्धं चारुदत्तकथानकं कथयित्वा भावष्टिकया कृतं रात्रीचतुर्थप्रहरयापनम् , आत्मरक्षा च । २१०-११ चारुदत्तकथानकप्रसङ्गास्त्वित्थम्-श्रेष्ठिपुत्रचारुदत्तस्यागमन्दिरपर्वतगमनम् । चारुदत्तकृतं वृक्षोकीलिताऽमितगतिनामविद्याधरस्य बन्धच्छोटनाषध्यादिना रक्षणम् । आसादितजीवितामितगतिविद्याधरकथितोऽन्यपुरुषासक्तस्वपत्नीजनितमरणान्तकष्टख्यापकः स्ववृत्तान्तः । २११-१२ मित्रवतीनामकमातुलपुत्र्या सह चारुदत्तस्य विवाहः । चारुदत्तस्य वसन्तसेनागणिकामन्दिरावस्थानम् । अपहृतसर्वस्वस्य वसन्तसेनाया अकया कृतं बहिनिष्काशनं स्वगृहागमनं च । अकिञ्चनस्य चारुदत्तस्य मातुलदत्तसाहाय्येन तूलव्यवसायकरणम्, अग्न्युपद्रवतूलनाशजनितधनहानिप्रसइश्च । पुनर्मातुलदत्तसाहाय्येन चारुदत्तस्य यवनद्वीपगमनम्, उपात्तबहुद्रव्यस्यागच्छतस्तस्य वायूत्पातेन समुद्रमध्ये प्रवहणभङ्गश्च । उत्तीर्णसमुद्रस्य परिव्राजककृतो रसकूपक्षेपः रसपानार्थागतगोधापुच्ठलग्नचारुदत्तस्य कूपवहिर्निर्गमश्च । २१३ मार्गमीलितमातुलमित्ररुद्रदत्तेन सह चारुदत्तस्य सुवर्णभूमि प्रति प्रस्थानम् । मार्गे रुद्रदत्तमारिताजस्य चारुदत्तकृतं धर्मश्रावगम् । सुवर्गभूमिगमनाय भारण्डपक्षिलग्नचारुदत्तस्यान्तरिक्षे भारण्डपक्षिणोर्भण्डनेन समुद्रपतनं समुद्रोत्तरणं च । २१४ २१२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ २१७-१८ २१८-२६ २१८ २१९ २१९-२० १४ ] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य पर्वतोपरिगतचारुदत्तकृतं चारणमुनिवन्दनम् । पूर्वपरिचितामितगतिविद्याधरत्वेन चारणमुनिना स्वपरिचयकथनम् , जयसेना-मनोरमापरिणयनराज्याभिषेक-पुत्रयुगल-पुत्रीसमुद्भव-समर्पितपुत्रराज्यामितगतिप्रवन्याग्रहणादिद्योतकस्ववृत्तान्तकथनं च । अमितगतिपुत्रयोस्तत्र वन्दनार्थमागमनम् । चारणमुनि-चारुदत्त विद्याधरपुरतो विमानोत्तरितदेवकृतं चारुदत्तस्य प्रथमं प्रगमनम् । मुनि विहाय चारुदत्तं प्रणमन्तं देवं प्रति विद्याधरयुगलनिर्दिष्टमविनयसूचनम् । अनन्तराजभवेऽन्तसमये धर्मदानोपकारकचारुदत्तवन्दनविषये देवकृतं समाधानम् । विद्याधरप्रदनवैभवस्य चारुदत्तस्य स्वगृहगमनं परिजनमेलापकः मुखोपभोगश्च । चारुदत्तकथानकं कथयित्र्यां भावट्टिकायां रात्रीचतुर्थप्रहरगमनाद् अकिञ्चित्करसुरप्रिययक्षस्य तिरोभावः, भावट्टिकायाः शीलविषये नगरजनकृतः साधुवादश्च । सापराधजनमारकसुरप्रियय क्षमूर्तेर्भावटिकाकथनाद् नागरिकजनैरुत्थापनम् । अन्ते भावट्टिकायाः प्रव्रज्याग्रहणम् । २४. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारः। रागाद्यनर्थपरम्पराप्ररूपकाल्यानकनामनिरूपणम् । ७४. वणिक्पल्याख्यानकम् । देवरानुरक्ताया पतिहन्त्र्या वणिक्पल्या आख्यानकम् । ७५. नन्दनाविकाख्यानकम् । . प्रतिभवोपद्रुतधर्मरुचिमुनितेजोलेण्यादग्धनन्दनाविक-गृहकोकिल-हंस-सीह-बटुकभवजीवस्य जात जातिस्मरणस्य वाराणसीनृपस्य धर्मप्राप्तिप्रख्यापकमाख्यानकम् । ७६. चण्डहडाख्यानकम् । क्षेत्रधान्यभक्षकवलीवर्दमारणावाप्तसर्वस्वापहारदण्डस्यातिक्रोधनस्य चण्डहडनाम्नः कर्षकस्या ख्यानकम् । ७७. चित्र-सम्भूताख्यानकम् । गोपालभवमुनिभावकृतजातिमदबद्धनीचगोत्रकर्मणोर्मातङ्गपुत्रयोश्चित्र-सम्भूतयोः प्रवन्याग्रहणा दिद्योतकमाख्यानकम् । ७८. मायादित्यकथानकम् । सरलस्वभावसुजनशिरोमणिथाणुनामनिज मित्रवञ्चकस्य शठस्वभावख्यातमायादित्यापरनाम्नो गङ्गा दित्यस्य मायाप्रपञ्च जनितदुःखपरम्परादिद्योतकमाख्यानकम् । ७९. लोभनन्द्याख्यानकम् । भूमिगतसुवर्णकुशक्रयणलुब्धस्य मृत्युदण्डमाप्नुवतो वणिज आख्यानकम् । ८०. नकुलवणिगाख्यानकम् । द्रव्ययुक्तनकुलग्रह गलोभात् कृतपरस्परवधसङ्कल्पाभ्यां पश्चाजातसद् बुद्धिभ्यां सहोदराभ्यां वणिक्पुत्राभ्यां कृतः सद्रव्यनकुलस्य जले प्रक्षेपः । आहारार्थक्रीततन्नकुलगिलकमत्स्यया सद्रव्यनकुललुब्धया तद्भगिन्या स्वमातुर्मारणाजातवैराग्ययोस्तयोर्वणिक्पुत्रयोः प्रव्रज्याग्रहणम् । २२०-२१ २२१-२२ २२२-२५ २२५ २२५-२६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. क्षान्तिगुणवर्णनाधिकारः । क्षान्तिलाभनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । ( एतदधिकारनिर्दिष्टानि त्रीण्यपि क्षुल्लकमुनि-नन्दिपेण-चण्डरुद्रशिष्याख्यानकानि प्राक्प्रतिपादितानि ) । २६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारः । ८३. ८१. श्राद्धसुताख्यानकम् | तस्करापहृतस्यावन्ती नृपसुदकारक्रीतस्य मारणान्तिकदण्डेऽप्यहिंसकस्य समासादितराजप्रसादस्य वणिक्पुत्रस्याख्यानकम् । ८२. गुणम (व) त्याख्यानकम् । जीवदयालाभनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । विषयानुक्रमः । धननामकस्वपतिमरणानन्तरं थावरनामकनिजकिङ्करासक्ताया थाचरमारकनिजपुत्रहन्त्र्या गुणमतीनामकस्व स्नुषा खड्गप्रहार मृतायाः सम्पदानामधनश्रेष्टिपन्या आख्यानकम् । मेघाख्यानकम् । मेघकुमारस्य जन्म | २७. धर्मप्रियत्वादिगुणवर्णनाधिकारः । मेघकुमारस्याष्टकन्याभिः सह विवाहः, वीरजिनसमवसरणं च । नरजन्मदौर्लभ्य-श्रम धर्म गृहस्थधर्मविषया वीरजिनदेशना । प्रवज्याग्रहणोद्यतमेघकुमार-तजननीधारिण्योः संवादः । मेघकुमारस्य प्रवव्याग्रहणम् । निर्गम-प्रवेशमार्गलब्धावकाशप्रसुप्तस्य मेघकुमारमुनर्गच्छदागच्छत् साधुपादस्पर्शनिमित्तो मानसिकः क्लेशः । ज्ञातमेघकुमारमनोभाव श्रीवर्द्धमानजिनकथितहरूत्यादिभववृत्तान्तश्रवणेनोपशान्तमनसो मेघकुमारमुनेर्जातिस्मरणं संयमाराधना देवलोकगमनं च । ८४. कामदेवाख्यानकम् | प्रियधर्मादिगुणस्फातिनिरूपकाख्यानकनाम निरूपणम् । सुरविहितानेकोपसर्गनिश्चलमनसः कामदेव श्रावकस्य व्रतनियमपालनविषयमाख्यानक्रम् । ८५. सागरचन्द्राख्यानकम् । सागरचन्द्रकृतनारदमुनिनिर्वर्णितकमलामेलाहरण-नभः सेन सागरचन्द्रयुद्र-नभः सेनकृतारिष्टनेमिदेशना - प्रतिबुद्धप्रतिमास्थित सागरदत्तमरणान्तोपसर्गकरण-सागरचन्द्रदेवगतिगमनादिप्ररूपकमाख्यानकम् । २८. धर्ममर्मज्ञजनप्रतिबोधन गुणवर्णनाधिकारः । निश्चितधर्मबुद्धिलाभनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । ८७. रत्नत्रिकोट्याख्यानकम् । - ८६. पादावलम्वाख्यानकम् । 'सकुंडलं वा वयणं न वत्ति' इत्येतत्समस्यापादपूर्तिकरणे धर्मपरीक्षाविषयकमाख्यानकम् । अभयकुमारकृतगृहीतप्रव्रज्यभिक्षा चरापमानकर्तृलोकप्रतिबोधरूपमाख्यानकम् । For Private Personal Use Only [ १५ २२६ २२७-३८ २२७ २२७-२८ २२८ २२८-३८ २३१ २३२ २३३ २३४-३५ २३६-३८ २३८-४१ २३८ २३८-४० २४०-४१ २४१-४३ २४१ २४१-४२ २४३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य २४३ २४३ २४४-६२ २४४ २४४-४५ २४५ २४५-६१ २४६-४७ ८८. मांसक्रयाख्यानकम् । अल्प-बहुमूल्यवस्तुविवादे मांसस्य महार्यत्वं वदतोऽभयकुमारस्य प्रतिवादः, कृत्रिमग्लानश्रेणि कोपचारार्थमनुष्यमांसस्यालाभे मांसमहार्घत्वप्रतिपादनाद्वारेणाभयकुमारकृतो जीवदयोपदेशश्च । २९. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारः। अनालोचितभावशल्यदोषप्ररूपकाख्यानकनामनिरूपणम् । ८९. मातृ-सुताख्यानकम् । 'तत्र शूलाव्यपरोपिता त्वम् ?, हस्तौ ते कर्तितौ ?' इति दुर्वाक्यं जल्पतोऽनुक्रमेण पुत्र-मात्रोरना लोचितशल्ययोर्द्वितीयभवे शूलाव्यपरोपण-हस्तकर्तनदुःखावेदकमाख्यानकम् । ९०. मरुकाख्यानकम् । मत्स्यभक्षणजातग्लान्यस्य वैद्यस्याग्रे आहारकथनलजयाज्यथाकथनप्रकुपितरोगस्य पुनः सद्भूतकथनोपशान्तव्याधेस्तपस्विन आख्यानकम् । ऋषिदत्ताकथानकम् । सुन्दरपाणिनामनृपपुत्रीरुक्मिणीपाणिग्रहणार्थ गच्छतो हेमरथनृपपुत्रकनकरथस्य मार्गेऽरिदमनराज्ञा सह युद्धं जयश्च । तपोवनस्थितेन ऋषिदत्तापित्रा कनकरथकुमारपुरतः स्ववृत्तान्तनिवेदनम्, ऋषिदत्ता-कनकरथयोविवाहश्च । परिणीतामृषिदत्तां प्रति तत्पितुर्हितशिक्षोपदेशः । रुक्मिणीप्रेषितप्रवाजिकाविकुर्वितमारीदोषकलङ्कप्राप्तवधदण्डाया दयालुपाणमुक्ताया ऋषिदत्ताया निर्जनीभूतजनकतपोवनागमनम् । रुक्मिणीपरिणयनाथ गच्छतः कनकरथस्य ऋषिकुमाररूपधारिण्या ,ऋषिदत्तया सह तपोवने मेलापकः । ऋषिकुमाररूपया ऋषिदत्तया सह कनकरथस्य प्रयाणम् , रुक्मिणी-कनकरथयोर्विवाहश्च । रुक्मिणीकथितप्रवाजिकाप्रेषण-ऋषिदत्तामारीकलङ्गादिवृत्तान्तश्रवणेन व्यथितस्य कनकरथस्याग्निप्रवेशहठः, ऋषिदत्ताप्रकटीभवनं च ।। ऋषिदत्ता-रुक्मिणीसहितस्य कनकरथस्य स्वनगरागमनम् । कनकरथस्य राज्याभिषेकः, हेमरथस्य प्रव्रज्याग्रहणम्, ऋषिदत्तापुत्रसिंहरथजन्म-वर्धापनकादि च । ऋषिदत्ता-कनकरथयोः परलोकचिन्ता, संसारभ्रमण-मोक्षस्वरूपविषयको भद्रयशोगणधरोपदेशः ऋषिदत्तापूर्वभवकथनम् , ऋषिदत्ता-कनकरथप्रवज्या च । ९२. मक्षिकामल्लाख्यानकम् । मल्लयुद्धानन्तरं स्वगुरुसकाशे शरीरपीडाकथना-कथनप्राप्तजय-पराजययोः फलहियमल्ल-मक्षिकामल्लयोराख्यानकम् । २४८-५० २५१ . २५२-५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९-६१ २६१-६२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७ २६२-६७ २६२ २६२-६३ २६३-६४ २६४-६५ विषयानुक्रमः । ३०. मोहातमृतकुगतिपातदर्शकाधिकारः। मोहार्तमृतकुगतिगमनप्ररूपकाख्यानकनामनिरूपणम् । तापसश्रेष्ठयाख्यानकम् । मोहवशार्तमृतस्य तापसश्रेष्ठिनः स्वगृहपाई जातसूकरभव-स्वगृहान्त तसर्पभवानन्तरं स्वस्नुषापुत्रत्वेन जन्म, जातिस्मरणज्ञानम् , मूकभावावलम्बनम् , मुनिप्रतिबोधितानां सर्वेषां सम्यक्त्व प्राप्तिश्च । ९४. सागरदत्ताख्यानकम् । सपुत्रसागरदत्तश्रेष्टिना धनरक्षार्थ सुवर्णमुद्राभृतकलशस्य स्मशानभूगर्भस्थापनम् । जीवन्मृतपरीक्षार्थ धनलिप्साछद्ममृतकार्पटिककर्ण-नाशाच्छेदः । भूनिहितद्रव्यसागरदत्तगमनानन्तरं कार्पटिकस्य तद्धनेन महर्दिकत्वं राजमानं च । कार्पटिककृतनगरभोजनावगतस्वद्रव्यनाशेन सागरदत्तेन राज्ञो निवेदनम् । निर्दोषकार्पटिककर्ण-नाशाच्छेदापराधाप्रत्यासादितनिजद्रव्यस्य सागरदत्तस्य धन मोहमृतस्य नरकगतिगमनम् । ९५. नन्दश्रेष्ठयाख्यानकम् । शिथिलीभूतसम्यक्त्व-नन्दानामकसुन्दरतमवापीकारकस्य नन्दश्रेष्टिनो मरणानन्तरं स्वनिर्मितवाप्यां दर्दुरत्वेनोत्पत्तिः, वाप्यागतजनप्रशंसाश्रवगोत्पन्नजातिस्मरणस्य तस्य चीरजिनवन्दनार्थ गमनम् , श्रेणिकाश्वपादप्रहारासन्नमरणस्य समाधिमरणेन प्राप्तदर्दुराङ्कदेवभवस्याख्यानकम् । ९६. ललिताङ्गजनन्याख्यानकम् । ललिताङ्गनामप्रवजितपुत्रस्नेहमोहातमृतायाः श्रेष्ठिन्याः कुगतिगमन-बहुभवभ्रमणनिवेदकमा ख्यानकम् । ३१. धर्मसुकरतावर्णनाधिकारः। प्रथमवयस्तपश्चरणविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । ढण्ढणकुमाराख्यानकम् । अलाभपरीपहजेतृढण्ढणकुमारप्रव्रज्या-केवलज्ञानोत्पत्तिनिवेदकमाख्यानकम् । ९८. जम्बाख्यानकम् । जम्बूस्वामिजीवनप्रसङ्गनिर्देशमात्रज्ञापकमाख्यानकम् । ३२. धर्मविषयकुलप्राधान्यनिवारकाधिकारः। कुलप्राधान्यनिषेधविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । ९९. हरिकेश्याख्यानकम् । नमुचिमन्त्रिजन्मनि साधुपरितापकरण-तद्विषयकपश्चात्तापप्रवन्या-मानसिक जातिमदादिवृत्तान्तगर्भः हरिकेशिमुनेः पूर्वभवः । पूर्वभवजातिमदकरणबद्धकर्मोदयाद् मातङ्गजातिसमुद्भूतस्यातिकद्रूपस्य हरिकेशबलस्य विरागः प्रत्रग्याग्रहणं च । २६५-६७ २६८-७० २६८ २६८-६९ २६९-७० २७०-७१ २७० २७०-७१ २७० २७१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१-७४ २७१ २७२ २७२ २७२-७४ २७४-७६ २७४-७५ ___ २७५ १८ ] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य ३३. एकाकिविहारदोषवर्णनाधिकारः। एकाकिविहारदोषप्ररूपकाख्यानकनामनिरूपणम् । १००. अरहनकाख्यानकम् । सर्वकार्यचिन्तकसाधुपितृमरणानन्तरं गोचरचर्यागतारहनकमुनेः काचित्प्रोपितभर्तृकाऽऽमन्त्रणाभ्यर्थनया तद्गृहावस्थानम् । अरहन्नकस्य साध्वीमातुः पुत्रादर्शने विकलचित्तता, नगरमध्ये भ्रमणं प्रलापश्च । स्वजननीदुरवस्थादर्शनविरक्तस्यारहन्नकस्य पुनर्चतग्रहणं देवलोकगमनं च । कूलवालाख्यानकम् । गुरुचोदनाप्रकुपितगण्डशैलमारकशिष्यस्य 'नारीनिमित्तपतन'रूपस्वगुरुशापशप्तस्यैकाकिनोऽरण्यवासः । एकाकिनस्तपस्विनस्तस्य तपःप्रभावाद् नदीदेवताकृतं नदीकूलपरावर्तनम् , कूलवालकमुनिनाम्ना लोकप्रसिद्धिश्च । वैशालीरोधकाशोकचन्द्रनृपप्रेषितया छमश्राविकया मागधिकाग णिकया कृतः कूलमालकमुनेतभङ्गः । ३४. साधुदर्शनमहागुणवर्णनाधिकारः । ___ साधुदर्शनमहागुणनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १०२. तस्कराख्यानकम् । कायोत्सर्गस्थितमुनिदर्शनप्रभाविता-प्रभाविततस्करयोर्मरणानन्तरं साधुदर्शनप्रभावतः श्रेष्ठिपुत्र त्वेनोत्पत्तिनिदर्शकमाख्यानकम् । १०३. भृगुपुरोहितपुत्रयुगलाख्यानकम् । चित्र सम्भूतपूर्वभवसहचरयोदेवभवानन्तरं श्रेष्ठिपुत्रवेन जातयोर्वयस्यचतुष्केण सह मैत्री । घण्णामपि उसुयारनगरजातानां मध्याद् द्वयोप-ज्ञीत्वेनोत्पत्तिः, द्वयोर्भगु-यशानामकपुरोहितदम्पतीत्वेनोत्पत्तिः, शेषद्वयोश्च पुरोहितपुत्रत्वेनोत्पत्तिः । साधुदर्शनप्रतिबुद्धस्य पुरोहितपुत्रयुगलस्य शेषचतुर्भिः सह प्रव्रज्याग्रहणम् । ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्त्यधिकारः। पूर्वार्जितकर्मानुरूपप्राप्तिविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । १०४. करकण्ड्वाख्यानकम् । राजकुलजातस्यापि करकण्डोराजन्माद् मातङ्गगृहावस्थानं काञ्चनपुराधिपत्वं च । स्वपित्रा साध युद्धकरणोचतस्य करकण्डोस्तजननीसाव्या पितृ-पुत्रसम्बन्धज्ञापने युद्धोपरमः, तपितृप्रवज्या च । सुपुष्टवृषभस्य कालान्तरे दौर्बल्यं दृष्ट्वा करकण्डोर्वैराग्यं प्रव्रज्याग्रहणं च । नमिराजाख्यानकम् । युगबाहुनामकस्वभ्रातृजायामदनरेखारूपमुग्धेन मणिरथराज्ञा कृतो युगबाहुवधः, आसन्नमरणं युगबाहुं प्रति मदनरेखया कृतो धर्मोपदेशः । शीलरक्षार्थ गुर्विण्या मदनरेखायाः प्रच्छन्नतया पलायनम् , अरण्ये पुत्रजन्म च । २७५-७६ २७६-८६ २७६ २७७-७८ २७८-८४ २७८-८. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । मणिप्रभविद्याधरकृतं मदनरेखाया अपहरणम्, मणिचूडमुन्युपदेशाद मणिप्रभस्य मदनरेखाक्षमाप्रार्थना पुरस्सरोऽकार्यो परम | मदनरेखायाः प्रव्रज्याग्रहणम् । नमि-चन्द्रयशसोर्युद्धनिवारणार्थं मदनरेखा साध्वीकृतं द्वयोः सहोदरत्यपरिज्ञापनम् । दाहज्वरपीडितन मिराज्ञः शुभाध्यवसायवृद्ध्यनन्तरं प्रव्रज्याग्रहणम् । ब्राह्मणरूपधारि सौधर्मेन्द्रनमिराज्ञो - राग विरागनिरूपकः संवादः । १०६. बन्धुदत्ताख्यानकम् । पितृसर्वद्रधिकारलोलुपेन सहोदरमारणसङ्कल्पमनसा कुटिलस्वभावेन वसुदत्तेन कृता स्वज्येष्ठभ्रातृबन्धुदत्तस्य पुरतो देशाटनार्थं सहगमनप्रेरणा, द्वयोर्भ्रात्रोः प्रयाणं च । मार्गे वसुदत्तकथितो भार्याद्विग्नकुलपुत्रकदृष्टान्तः । वसुदत्तप्रस्तुतचक्षुर्द्धयपणपूर्वकधर्माऽधर्मविषयक विचारे बन्धुदत्तस्य पराभवः, बन्धुदत्तचक्षुः पीलनं कृत्वा एकाकिनं बन्धुदत्तं विमुच्य वसुदत्तस्य स्वनगरप्रयागं च । रात्रौ चक्षूरोगपीडित सिंहलद्वीप राजकुमारीस्वरूपकथन-चक्षू रोग निर्णाशकौषधिविषयकं वृक्षोपरिस्थितपक्षिवार्तालापं श्रुत्वा तदवृक्षाःस्थस्य कृतोपचारस्य बन्धुदत्तस्य पुनश्चक्षुष्मत्वम् । भारुण्डपक्षिसाहाय्यप्राप्त सिंहलद्वीपेन बन्धुदत्तेन कृतो राजकुमार्याथरोगोपशमः, सिंहलद्वीपराजकुमारी-बन्धुदत्तयोर्विवाहः, कालान्तरागतवसुदत्तस्य बन्धुदत्तमारणार्थं पुनः कृतकपटप्रपञ्चस्य नाशः, राज्ञः सत्यवृत्तान्तज्ञानं च । ३६. सम्पद्विपदोः समतावर्णनाधिकारः । सम्पद्विपत्समभाव विषय कनरविक्रमाख्यानकनिर्देशः । १०७. नरविक्रमाख्यानकम् | नरसिंहराज्ञः पुत्रप्राप्यर्थं चिन्ता, मन्त्रिगणाभिप्रायाद घोरशिवनामककापालिकस्याग्रे पुत्रप्राप्ति - प्रार्थना च । उत्तरसाधकनरसिंहराज मारगोद्यतस्य घोरशिवस्य नरसिंहराजकृतो वधः । घोरशिव कापालिक धतुष्टया देवतया नरसिंहाय पुत्रप्राप्तिवरप्रदानम् । नरविक्रमस्य जन्म, यौवनप्राप्तिश्च । कालमेघनामकस्य जनकमल्ल जेतृवरणकृतप्रतिज्ञाया देवसेननृपदुहितुः शीलवत्यास्तत्प्रतिज्ञापूरकनरविक्रमेण सह विवाहः । पतिगृहं गच्छन्तीं शीलवतीं प्रति पितुर्हितशिक्षा, शीलवतीसहितस्य नरविक्रमस्य स्वनगर प्रवेशवर्णनं च । सभार्यस्य नरविक्रमस्य मित्रैः सह प्रहेलिकाविषयका विद्वोष्टी, पुत्रद्वयजन्म च । जीवद्गजेन्द्र वशीकरणादेशभङ्गाद् युवतीरक्षणार्थं गजेन्द्रघातिनः पित्रवमानितस्य सपरिवारस्य नरविक्रमस्य नगरत्यागः । स्यन्दनपुरे पाटलकनाममाला कारगृहस्थितयोः सपुत्रयोर्नरविक्रम- शीलवत्योर्माला कारव्यवसायकरणम् । For Private Personal Use Only [ १९ २८०-८१ २८२-८३ २८३-८४ २८५-८९ २८५ २८५-८६ २८६ २८७ २८८-८९ २८९ - ३०४ २८९ २८९-३०४ २८९-९२ २९२ २९२-९४ २९४-९५ २९६-९८ २९८ २९९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००-१ ३०१-४ ३०४-२१ ३०४ ३०४-५ ३०६-७ २०] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य देहिलनाम्ना पोतवणिजा कृतं शीलवत्या अपहरणम् , शीलवत्यन्वेषणार्थ गच्छतः स्थापितकुलद्वयैकैकपुत्रस्य नरविक्रमस्य नदीपूरेण वहनं च । अपुत्रस्य कीर्तिधर्मराज्ञो मरणे पश्चदिव्यप्रयोगे कृते नरविक्रमस्य जयवर्धननगराधिपतित्वम् । समन्तभद्रमुनिदेशना । नरविक्रमपुत्रयुगल-शीलवतीनां मेलापको राज्यसुखोपभोगश्च । अन्ते नरविक्रमस्य देवलोकगमनम् । ३७. देवनिवारणाऽशक्यताधिकारः । दैवाप्रतिकारित्वनिदर्शकाख्यानकनामनिरूपणम् । १०८. द्विजसुताख्यानकम् । वराहमिहिर-भदब्राह्वोर्जन्म, वराहस्य सावित्र्या सह विवाहः, भद्रबाहोः प्रव्रज्याग्रहणम् , वराहमिहिरकृतं निमित्तज्ञानविपर्यासतः तत्समयजातपुत्रराज्यान्तरसङ्क्रमणं च । जातद्वितीयपुत्रवर्धापनायामनागतं भद्रबाहुं प्रति वराहस्य द्वेषः, पुत्रमरणकथनावितथवादिनो भद्रबाहोर्वराहं प्रत्युपदेशः, भद्रबाहुं प्रति वराहस्यादरश्च । जन्मानन्तरं राज्यान्तरसङ्क्रामितस्य प्रभाकरनाम्नो वराहप्रथमपुत्रस्य पाटलिपुत्रागमनम् , आकाशमत्स्यपतननिमित्तकथने पुत्रपराभूतस्य वराहस्याग्निप्रवेशारम्भोपरमौ च । कुकुटाख्यानकम् । मारणोद्यतयमभीतस्य शक्रगरुत्मच्छरणगतस्य रक्षगोयतशकादेशाद् देवमेंरुगुहायां सुष्टुरक्षितस्यापि कुक्कुटस्य बिडालान्मरणख्यापकं लौकिकाख्यानकमिदम् । ११०. यादवाख्यानकम् । द्वारिकावर्णनम् , नेमिजिनसमवसरणम् , सपरिवारस्य कृष्णस्य धर्मोपदेशश्रवणं च । द्वारिकानाश-स्वमरणविषयकृतकृष्णप्रश्नोत्तरे 'द्वीपायनाद् द्वारिकानाशो जराकुमाराच्च तव' इति नेमिजिनकथनम् । भ्रातृवधपापरक्षार्थ जराकुमारस्य कौशाम्बवनवासः । द्वारिकारक्षार्थनगरबहिःक्षिप्तमदिरापानमत्तशाम्बादिकुमारकदर्थितीपायनकृतं द्वारिकानाशनिदानम् , कृष्ण-बलभद्रकृता विफला द्वीपायनक्षमापना, द्वीपायनस्याग्निकुमारदेवत्वेनोपपातश्च । पुनर्नेमिजिनस्य समवसरणं धर्मदेशना च । शाम्बादिकुमार-रुक्मिण्यादिदेवीनां प्रव्रज्याग्रहणम् , द्वीपायनजीवदेवकृतो द्वारिकादाहश्च । द्वारिकादाहोवृत्तयोर्हरि-हलिनोः पाण्डुमथुरां गच्छतोहस्तिनापुरपरिसरे बुभुक्षितं कृष्णं मुक्त्वाऽऽहारग्रहणार्थनगरप्रविष्टबलभद्रकृतो धार्तराष्ट्रसैनिकपराभवः । ततोऽग्रे कौशाम्बवने तृषितं कृष्णं मुक्त्वा बलभद्रस्य जलानयनाथ गमनम् , प्रसुप्तस्य कृष्णस्य वामपादे हरिणभ्रान्त्या जराकुमारकृतो बाणक्षेपश्च । स्ववाणविद्धं भ्रातरं कृष्णं ज्ञात्वा जराकुमारस्य परितापः, कृष्णादेशाद् जराकुमारस्य पाण्डुमथुरां प्रति क्षिप्रं प्रयाणम् , कृष्णमरणं च । ३०७ ३०८-११ ३११-२१ ३११-१४ ३१४ ३१४-१६ ३१६ ३१७ ३१८-१९ ३१९-२० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । . [२१ कृष्णं मृतं दृष्ट्वा बलभद्रस्य विलापोन्मादौ । सिद्धार्थसारथिदेवप्रतिबुद्धस्य बलभद्रस्य प्रव्रज्याग्रहण-देवलोकगमनसूचनम् । ३२०-२१ ३८. नष्टमृतरोदनादिनैरर्थक्याधिकारः । ३२१-२६ मृतरोदननैरर्थक्यविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । ३२१-२२ १११. भरताख्यानकम् ।। ३२२ ऋषभजिननिर्वाणशोकग्रस्तमहत्स्वररोदकभरत-सौधर्मेन्द्ररुदननरर्थक्यज्ञापकमाख्यानकम् । ११२. सगराख्यानकम् । ३२२-२५ पित्र िविलसत्पष्टिसहस्रसगरचक्रिपुत्रपृथ्वीभ्रमणा-ऽष्टापदपरिखाखनन-ज्वलनदेवकृतदहन-ब्राह्मणकृ तषष्टिसहस्रपुत्रमरणयुक्तिपूर्वकनिवेदनप्रसङ्गप्ररूपकं रोदननैरर्थक्यख्यापकमाख्यानकम् । ११३. पद्माख्यानकम् । ३२५-२६ राम-लक्ष्मणगाढभ्रातृस्नेह निवेदकशक्रवचनाश्रद्धानदेवमायाविकुर्वितासद्राममरणकथनश्रवणानन्तरमृतलक्ष्मणस्नेहवशरामकृतलदमणकलेवरोद्वहनरामसारथिजीवदेवकृतरामप्रतिबोध-रामप्रव्रज्या-नि र्वाणप्रसङ्गगर्भ रोदननैरर्थक्यप्ररूपकमाख्यानकम् । ३९. पन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारः । ३२६-४४ बन्धुजनशत्रुभवनविषयकाख्यानकनामनिरूपणम् । ३२६ ११४. रविकान्ताख्यानकम् । . ३२६-२९ चित्रनामामात्येन प्रतिबोधार्थ प्रदेशिराज्ञः केशिगणधरव्याख्यानपर्षदि नयनम् । ३२६-२७ जीवास्तित्व-परभवास्तित्व-सद्धर्मप्रतिपत्तिविषयका प्रदेशिराज-केशिगणधरयोः प्रश्नोत्तररूपा चर्चा. प्रतिबुद्धप्रदेशिराज्ञो गृहिधर्मस्वीकारश्च ।। ३२७-२८ भोगविलासकाङ्गिण्या रविकान्ताराश्या धर्मरतप्रदेशिराज्ञ उपवासपारणके विषमिश्राहारदानम् , समभावमृतप्रदेशिराज्ञो देवलोकगमनं च । ३२८-२९ ११५. चुलन्याख्यानकम् । ३२९-३१ ब्रह्मराजावसानानन्तरकुमार-राज्यरक्षकब्रह्मराजमित्रदीर्घराज्ञो ब्रह्मराजपल्यां चलन्यामासक्तिः, दीर्घराजस्नेहान्तरायभूतनिजपुत्रमारणव्यवसितचुलनीकपटकलनपटुना ब्रह्मराजमन्त्रिगा धनुर्माना कृता ब्रह्मदत्तरक्षा च । ३२९-३१ कोणिकाख्यानकम् । ३३१-३४ सेणगनामककुरूपमन्त्रिपुत्रपरिहासादिकर्तृसुमङ्गलनामकराजपुत्रराज्यावाप्ति-सेगगतापसदीक्षा - मासोपवासान्तरैकदिनमोजिसेगगतापसोपरिभक्तिमत्सुमङ्गलराजकृताऽऽहारग्रहणप्रार्थना-ऽऽहारग्रहणार्थागमनसमयातीवग्लानीभूतसुमङ्गलराजानुचरखिसितसेगगतापसकृतमुमङ्गलवधनिदानकरण-सुमङ्गलसे गगव्यन्तरदेवलोकोत्पत्तिख्यापिका कोगिक-श्रेणिकपूर्वभवकथा । ३३१-३२ सुमङ्गलराजजीवस्य श्रेणिकत्वेनोत्पत्तिः । श्रेणिकराज्ञीचेल्लणायाः सेणगतापसजीवगर्भमुद्वहन्त्याः श्रेणिकमांसभक्षणदोहदस्य धीधनाभयकुमारमन्त्रिकृता सान्त्वना । सेगगतापसजीवस्य श्रेणिक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य ३३२-३४ ३३४-४३ ३३५-३७ ३३७ चेल्लगापुत्रकोणिकत्वेन जन्म । श्रेगिकमांसभक्षणदोहदनिमित्तखिन्नया चेल्लणया कृतः कोणिकस्य जन्मानन्तरमशोकवाटिकायां परिक्षेपः । पुत्रवत्सल श्रेणिकस्य चेलगां प्रत्युपालम्भः कोणिकपरिपालनं च । चेल्लगासकाशादाजन्मानुभूतनिर्ममत्वं श्रेणिककृतं मन्वानेन कोगिकेन कृतः श्रेणिकस्य कारागृहक्षेपः । चेल्ल गाज्ञातसद्भावमुदभूतपितृभक्ति कोगिकं स्वप्रति धावन्तं दृष्टा 'मारणार्थमेष आगच्छति' इति शङ्कितमनसः श्रेगिकस्य विषभक्षणं मरणं च । श्रेणिककोगिकयोर्ननरकगमनम् । शङ्खाख्यानकम् । शङ्खराज्ञो दत्तकवणिक्पुत्रसकाशात कलावतीचित्रफलकदर्शनम् । दत्तवर्णितशङ्खराजगुणाकृष्टविजयभूपतिना स्वपुत्र्याः कलावत्याः शङ्खपुरे प्रेषणम् । शङ्खराज-कलावत्योविवाहः । गुर्विगीकलावतीनयनार्थागतविजयभूपतिपुरुषाणां शङ्खपुरागमनम् , दत्तगृहावस्थानम् , प्रथमदृष्टकलावत्यै जयसेनकुमारादिप्रदत्तप्राभृतसमर्पणं च । निजभ्रातृजयसेनप्रेषितकटकयुगलावलोकनजातहर्षाया भ्रातृस्नेहगर्भमनामग्राहं प्रलपन्त्याः कलावत्या उपरि कुशङ्कितेन शङ्खराज्ञा गुविण्याः कलावत्याः कृतमरण्यप्रेषणम् , असहायायाः कलावत्याः शङ्खराजप्रेषितचाण्डालनारीभिः कृतो बाहुच्छेदः, प्रसूतपुत्रायै कलावत्यै तच्छीलपरितुष्टसिन्धुदेव्या नूतनबाहुयुगलदानं च । सपुत्रायाः कलावत्यास्तापसाश्रमेऽवस्थानम् । ज्ञातसद्भावस्य शङ्खराज्ञः परितापो मरणप्रतिज्ञा च । अमिततेजआचार्यदेशना, अमिततेजआचार्यकथनावगतकलावतीमेलापकेन शङ्खराज्ञा कारितं कलावत्यन्वेषणं च । कलावत्याः पुनरागमनम् । क्रमेग पुत्राय राज्यं दत्त्वा द्वयोः प्रत्रज्याग्रहणं देवलोकगमनं च। ११८. कनककेत्वाख्यानकम् । "चिरराज्यसुखोपभोगनिमित्तं जातपुत्रमारककनककेतुनृपराज्ञीपद्मावतीविज्ञप्तस्य पोटिलानामकस्वपत्नीजातपुत्रीपरावर्तनकरणरक्षितकनकध्वजनामकराजकुमारस्य तेतलिसुतनामकमन्त्रिगो मरणानन्तरदेवत्वेनोत्पन्नेन पोट्टिलाजीवदेवेन कृतो देवमायाप्रभावात् कनकध्वजकृतापमानाऽनेकप्रकारा त्मघातरक्षणादिप्रसङ्गानन्तरधर्मप्रतिबोधः ।" इत्येतत्कथावस्तुमयमाख्यानकम् । ४०. धन-धान्यादिविषयकशोकापार्थकताधिकारः। शोकपरित्याग-धर्मकर्तव्यप्रतिपादनम् । शोककरणानिष्टफलप्ररूपकाख्यानकनामनिरूपणम् । ३३८-३९ ३४०-४३ ३४३-४४ ३४४-५० ३१४-४५ ३४५ ११९. सावित्र्याख्यानकम् । भृगुब्राह्मण-सावित्रीब्राह्मणीयुगलसम्भूतपुत्रसप्तकमध्यात् पञ्चदिनाभ्यन्तरं प्रतिदिनैकैकपुत्रमरणक्रमेण पञ्चपुत्रमरगात् पुत्रशोकविह्वलां निर्वस्त्रां प्रलपन्ती सावित्री प्रति श्रीवीरजिनकृतः प्रतिबोधः, भृगु-सावित्री-तत्सारथीनां प्रवन्याग्रहणम् , भगिनीतृतीयशेषपुत्रद्वयस्य गृहिधर्मप्रतिप्रत्तिश्च । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. १२१. विषयानुक्रमः । [ २३ मन्याख्यानकम् । ३४५-४७ अन्योन्यातीवस्निग्धभानुमन्त्रि-तत्पत्नीसरस्वतीयुगलस्नेहपरीक्षार्थचन्द्रसेनराजज्ञापितमन्त्रिकृत्रिममरणोदन्तश्रवणानन्तरमृतां सरस्वती ज्ञात्वा सदुःखचन्द्रसेननृपविहितक्षमापनापूर्वकप्रार्थितभानुमन्त्रिणो मरणव्यवसायोपरमः । भानुमन्त्रिणः सरस्वत्यस्मां प्रत्यहं पूजाकरणम् | अनेकवर्षव्यतिक्रमे सरस्वत्यस्थिविसर्जनाथ गङ्गातीरमुपागतं रुदन्तं भानुमन्त्रिणं दृष्ट्वा विहरणार्थ सखीभिः सार्धं तत्रागताया वाराणसीराजपुत्र्याः पृच्छा । ज्ञातभानुवृत्तान्ताया राजपुत्र्याः पूर्वभवसरस्वतीजीवाया जातिस्मरणम् । ततो भानुमन्त्रि-वाराणसीराजपुत्र्योर्विवाहः, राज्यसुखोपभोगः, अन्ते चारणश्रमणप्रतिबोधितयोः पुत्रनिहितराज्ययोर्द्वयोः प्रव्रज्याग्रहणं देवलोकगमनं च। ३४५-४७ कुलानन्दाख्यानकम् । ३४७-४८ "अतीवम्नेहमुग्धत्वात् सर्पदष्टत्रिभुवनतिलकानामराज्ञीमृतकवाकस्यारण्यवासिनः कुलानन्दाभिधानराज्ञो मृतपुरुषशबवाहिन्यास्तत्रैवारण्यस्थिताया नार्याः सकाशाद् विदग्धनरकारापितः प्रतिबोधः ।" इत्येतत्कथावस्तुमयमाख्यानकम् ।। जिनमतभावितानां संसारासारताविज्ञानां मानसिकशोकस्याप्यकरणताप्रतिपादनम् , तद्विषयकभव्यकुटुम्बाख्यानकनिर्देशश्च । ३४९ १२२. भव्यकुटुम्बाख्यानकम् । ३४९-५० सुन्दरनामककर्षक-मनोरमानामककर्षकपत्नी-मनोरथनामकपुत्र-सूमिकानामकस्नुषात्मकस्य स्वगृहादिकर्माऽप्रमादिनोऽपि निर्मोहत्वादनासक्तत्वाच्च ‘भव्यकुटुम्ब'इतिख्यातनाम्नः कर्षककुटुम्बस्या नासक्तिप्रसङ्गसन्दर्शकं रूपकरूपमाख्यानकमिदम् । ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकारः । ३५१-६८ सम्यग्दुःखसहनविषयकाख्यानकनामनिर्देशः । ३५१ १२३. पाख्यिानकम् । ३५१-५२ पार्श्वकुमारजन्मयुवावस्थाप्राप्ति-कढतापसारब्धपञ्चाग्नितपोग्वलसर्पनमस्कारश्रावग-पार्श्वकुमारप्रत्रज्या-ध्यानस्थपार्श्वजिनोपर्यग्निकुमारदेवत्वोत्पन्नकढतापसकृतोपसर्ग-नागराजलोत्पन्नसर्पजीवदेवकृतो पसर्गरक्षादिप्रसङ्गमयं संक्षिप्त पार्वजिनाख्यानकमिदम् । १२४. वीराख्यानकम् । ३५२ श्रीवीरवर्द्वमानस्वामिनो दीक्षानन्तरं जघन्य-मध्यमोत्कृष्टोपसर्गाधिसहनप्रसङ्गसूचामात्रमाख्यानकम् । १२५. गजसुकुमालाख्यानकम् । ३५२-५४ समरूपमुनिषट्कप्रतिलाभनानन्तरं नेमिजिनं प्रति देवक्या मुनिषट्कविषयिकी पृच्छा । नेमिजिनात् तं मुनिषट्कं स्वपुत्रषट्कमेव विज्ञाय देवक्याः परिदेवनम् । वासुदेवाराधितदेवदत्तवरप्रभावाद् गजसुकुमालस्य जन्म । गजसुकुमालस्य प्रव्रज्या-कायोत्सर्गावस्थान-निर्वागगमनानि. सोमशर्मणः शिरःस्फोटश्च । ३५३-५४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] १२६. मेतार्याख्यानकम् । दीपज्वलनपर्यन्त नियम कायोत्सर्गस्थितस्य दंश-मसकोपसर्गपीडितस्य चन्द्रावतंसकनृपस्य कायोत्सर्गपारणानन्तरं मृत्युः | राज्यश्रीमनिच्छतोऽपि मुनिचन्द्रस्य स्वजनाद्युपरोधेन राज्याभिषेकः । स्वपुत्रराज्याप्राप्य सन्तुष्टपद्मावती देवी कृत विषपरिभावितमोदकप्रसङ्गतो मुनिचन्द्रराज्ञः प्रत्रज्याग्रहणम् । मुनिचन्द्रसहितस्य गुरोरखे उज्जयिन्यागतसाधुकथित उज्जयिनीनृपकुमार - पुरोहितपुत्रकृतश्रमणविटम्बनावृत्तान्तः । निजभ्रातृपुत्रदुश्चेष्टितं विज्ञाय लब्धगुर्वाज्ञस्य मुनिचन्द्रमुनेरुज्जयिनीगमनम् । मुनिचन्द्रमुनिकृतो राजपुत्र- पुरोहितपुत्राङ्गभङ्गः । मुनिचन्द्रमुन्युपालम्भितस्य सागर - चन्द्रनृपस्य क्षमाप्रार्थना बाल्युगलाङ्ग समीकरणप्रार्थना च । 'शुभभावप्रव्रज्याग्रहणं विना बालयुगलाङ्गसमीकरणं न करिष्ये' इति मुनिचन्द्रमुनिनिश्चयाद् द्वयोर्बालयोः प्रव्रज्याग्रहणम्, नवरं जातिमदादिदोषकलुषितभावस्य पुरोहितपुत्रस्य प्रव्रज्यासेवनम्, अन्ते द्वयोर्देवलोकगमनम् । जातिमददोषकर्मोदयेन पुरोहितपुत्रजीवदेवस्य मातङ्गगृहे जन्म । मातङ्गिन्याः श्रेष्ठिन्या सह स्नेहसम्बन्धेन श्रेष्ठिन्याश्च निन्दुत्वात् श्रेष्ठिनीजातमृतपुत्री स्थाने मातङ्गिनीकृतं समकालजातनिजपुत्रपरावर्तनम् । मातङ्गपुत्रस्य श्रेष्ठपुत्रत्वेन प्रसिद्धिः, वर्धापनकादि, मेतार्यनामाभिधानकरणं च । स्वप्रतिबोधनार्थपूर्वप्रार्थितराजपुत्रजीवदेवकृतं तारुण्यभावजुषो मेतार्थस्यानेकधा स्वप्नेषु प्रतिबोधनम् । मेतार्यस्य धर्मानभिमुखतां विज्ञाय विवाहसमये मातङ्गसकाशाद् देवकृतोऽपत्यपरावर्तनप्रच्छन्नभेदः, मूलपित्रा चाण्डालेनापकर्षितस्य मेतार्यस्य मातङ्गगृहावस्थानं च । चाण्डालगृहस्थितस्य मेतार्यस्य प्रकटीभूतराजपुत्रजीवदेवकृतं स्वरूपदर्शनम् । मेतार्यस्य देवपुरतः स्वसंसारासक्तिकथनम्, द्वादशवर्षपश्चात् प्रतिबोधनार्थं विज्ञापनम्, चाण्डालपुत्ररूपनिजावर्णवादनिरासार्थं प्रार्थना च । सवृत्तिकस्य आख्यानकमणिकोशस्य १२७. सनत्कुमाराख्यानकम् । देवप्रदत्तरत्नोत्सृजन्मेष-वैभारगिरिरथमार्गनिर्माण-राजगृहसमीपसमुद्रानयनादि प्रयोगनिमित्तशुद्धीकृताय मेतार्याय श्रेणिककृतं कन्यादानम् । नव ( ९ ) पत्नीभिर्विलसतो मेतार्यस्य द्वादशवर्षातिक्रमे देवकृतः प्रतिबोधः, मेतार्यनवपत्नीप्रार्थितद्वितीयद्वादशवर्षसमयानन्तरं देवप्रतिबोधितस्य सपत्नीक - स्य मेतार्यस्य प्रवज्याग्रहणं च । क्रौञ्चपक्षिगिलितसुवर्णयवान्वेषक सुवर्णकारपृष्टस्य क्रौञ्च जीवोपरिदयालोरजल्पतो मेतार्यमुनेः सुवर्णकारकृतो मारणान्तिकोपसर्गः, मेतार्यमुनेः केवलज्ञानं सिद्धिगमनम्, ज्ञातसद्भावस्य श्रेणिकभीतस्य सकुटुम्बस्य सुवर्णकारस्य प्रवव्याग्रहणं च । सनत्कुमारस्य जन्म, मन्त्रिपुत्र महेन्द्रसिंहेन सह विद्याभ्यासः सख्यं च । प्राप्तयौवनस्य सनत्कुमारस्य दुःशिक्षिताश्वतोऽपहारः । सनत्कुमारान्वेषणार्थं निर्गतस्य सुबहुसमयं पर्यटतो महेन्द्रसिंहस्य सपत्नीकेन सनत्कुमारेण सह मेलापकः । महेन्द्रसिंहपुरतो बकुलमतोकथित सनत्कुमारवृत्तान्ते - दुः शिक्षिताश्वापहृतस्यारण्यमध्ये मूर्च्छितस्य For Private Personal Use Only ३५४-६२ ३५५ ३५६-५८ ३५९ ३६० ३६०-६२ ३६२ ३६२-६७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः । सनत्कुमारस्य सप्तच्छदवृक्षाधिष्ठातृयक्षेन मानससरोनीरसिञ्चनेन स्वस्थीकरणम्, सनत्कुमारविज्ञप्तयक्षसाहाय्यात् सनत्कुमारस्य मानससरोगमनं तत्र स्नानक च, तथा सनत्कुमारकृतोऽसिताक्षयक्षपराजयः, सनत्कुमारस्य विद्याधराधिपत्वं च । बकुलमतीपुरतो महेन्द्रसिंहकथितं सामुद्रिकशास्त्रगतं नरलक्षणशास्त्रम् । सनत्कुमारस्य स्वनगरागमनम् राज्याभिषेकः, चक्रवर्तित्वं च । इन्द्रकृतसनत्कुमाररूपप्रशंसाऽश्रदधदेवयुगलेन कृतत्राह्मणरूपेण कृता स्नानोद्यतस्य सनत्कुमारस्य रूपप्रशंसा । निजरूपप्रशं सागर्वितसनत्कुमारादिष्टत्राह्मणरूपदेवयुगलस्य वस्त्राद्यलङ्कृतसङ्क्रान् तरोगसनत्कुमारवैरूप्यदर्शने खेदः । सनत्कुमारस्यापि रोगग्रस्तस्वशरीरावलोकनेन संविग्नस्य प्रव्रज्याग्रहणम् । अतितपस्विनः सनत्कुमारराजर्षेः पारणकदिनलब्धतथाविधाहारदोषतोऽनेकव्याधिग्रस्तता, कतिपयव्याधीनां सामान्यलक्षणनिरूपणं च । चिकित्सा निरीहभावसम्यक्प्रकाररोगपीडा सहनेन सनत्कुमारराजर्षेरनेकलब्धिप्राप्तिः । इन्द्रकृतां सनत्कुमारचिकित्सा निरीहभावप्रशंसां श्रुत्वाऽश्रद्दधानस्य कृतशबरवैद्यरूपस्य पूर्वागतदेवयुगलस्य सनत्कुमारमुनिचिकित्साकरणे निष्फल आयासः । शबररूपदेवयुगलपुरतः सनत्कुमारराजर्षेर्द्रव्यभावव्याधिचिकित्साविषयिकी प्ररूपणा, द्रव्यव्याधिचैकित्स्ये स्वलब्धिनिदर्शनं च । प्रकटरूपदेवयुगलकृता सनत्कुमारराजर्षिस्तवना, अन्ते सनत्कुमारराजर्षे देवलोकगमनं च । आख्यानकमणिकोशपठनादिफलरूपः शास्त्रोपसंहार । टीकाकारप्रशस्तिः । प्रथमं परिशिष्टम्, (विशेषनाम्नामनुक्रमः) । द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पञ्चमं 27 " " 99 षष्ठं सप्तमं " अष्टमं शुद्धिपत्रकम् । " " (विशेषनाम्नां विभागशोऽनुक्रमः ) । ( प्रसिद्धाप्रसिद्धदेश्या-ऽप्रसिद्धप्राकृतशब्दानामनुक्रमः ) । ( प्राकृताख्यानकान्तर्गतापभ्रंशपद्य सङ्ग्रहः ) । ( वर्णकसङ्ग्रहः) । ( स्तुति-वन्दनाः) । ( सुभाषितगाथानुक्रमः ) 1 ( सूक्तिरूपपद्यांशानुक्रमः ) । For Private Personal Use Only [ २५ ३६३ ३६३-६५ ३६५ ३६७ ३६८ ३६९-७० ३७१-८४ ३८५-९२ ३९३-९७ ३९८-९९ ४०० ४०० ४०१-१२ ४१३-१५ ४१६-२२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रतिपरिचय आख्यानकमणिकोश सवृत्ति की केवल दो ही हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं-एक शान्तिनाथ जैन ज्ञान भण्डार, खंभात की ताडपत्र पर लिखी हुई, जिसे हमने प्रस्तुत सम्पादन में ‘खं० ' संज्ञा दी है और दूसरी प्रति जो कागज पर लिखी हुई है, यह विजापुर (गुजरात) में स्थित रंगविमलजी महागज के संग्रह की है जिसे हमने १०' संज्ञा दी है। 'खं' संजक प्रति श्री शान्तिनाथ जैन ज्ञान भण्डार, खंभात के मूचिपत्र में प्रस्तुत प्रति का क्रमाङ्क २३३ है। पत्र संख्या ४८३, स्थिति और लिपि सुन्दर और इस की लम्बाई ३०.२ और चौडाई २.२ इंच प्रमाण है। प्रति के अन्त में लिखानेवाले की प्रशस्ति है किन्तु इस में लेखन संवत् नहीं है। फिर भी तपागच्छ के आद्याचार्य जगच्चन्द्रसूरि के उपदेश से उन्हीं के कुटुम्ब के व्यक्ति द्वारा लिखाई गई होने के कारण इस का लेखनसमय विक्रम की तेरहवीं शती का अन्त भाग होना चाहिये। लिपि का मोड भी तेरहवीं शती के प्रांत भाग ही लगता है । ग्रन्थ लिखानेवाले की प्रशस्ति इस प्रकार है प्राग्वाटवंशतिलकोऽजनि पूर्णदेवस्तस्यात्मजात्रय इह प्रथिता बभूवुः । दुर्वारमारकरिकुम्भविभेदसिंहस्तत्रादिमः सलखणोऽभिधया बभूव ॥ १ ॥ द्वितीयकोऽभूद् वरदेवनामा, तृतीयकोऽभूज्जिनदेवसंज्ञः । सोऽन्येचुरादत्नजिनेन्द्रदीक्षा निर्वागसौख्याय मनीषिमुख्यः॥२॥ ___ अज्ञानध्वान्तमूर्यः सरभसविलसच्चङ्गसंवेगरङ्गक्षोणी क्रोधादियोधप्रतिहतिसुभटो ज्ञातनिःशेषशास्त्रः । निर्वेदाम्भोधिमग्नो भविककुवलयोद्बोधनाधानचन्द्रः कालनाऽऽचार्यवर्यः स समजनि जगचन्द्र इत्याख्यया हि ॥३॥ वरदेवस्य सञ्जज्ञे वाल्हेविरिति गहिनी । याऽभूत् सदा जिनेन्द्राहिकमलासवनेऽलिनी ॥ ४ ॥ पुत्रास्तयोः साढलनामधेया-ऽरिसिंहइत्याय-वज्रसिंहाः । विवेकपात्री सहज च पुत्री कुशीलसंसर्गतरोर्लवित्री ॥ ५ ॥ साढलस्य प्रिया जज्ञे राणूरिति महासती । पुत्रास्तु पश्च तत्रायो धीणाख्यः शुद्धधर्मधीः ॥ ६ ॥ द्वितीयः क्षमसिंहाख्यो, भीमसिंहस्तृतीयकः । देवसिंहाभिधस्तुयों, लघुर्महणसिंहकः ॥ ७ ॥ क्षेमसिंहाभिधो देवसिंहच भवभीरुकः । श्रीजगच्चन्द्रसूरीणां पार्श्वे व्रतमशिश्रियत् ॥ ८ ॥ धीणाकत्य कट्टर्नाम पत्नी मोढाभिधः सुतः । अन्येयुः मुगुरोर्वाक्यं धीणाकः श्रुतवानिति ॥ ९ ॥ __ भोगास्तुङ्गतरङ्गभङ्गभिदुराः सन्ध्याभरागभ्रमौपम्या श्रीनलिनीदलस्थितपयोलोलं खलु प्राणितम् । तारुण्यं तरुणीकटाक्षतरलं प्रेमा तडित्सन्निभो ज्ञात्वैवं क्षणिकं समं विदधतां धर्म जनाः ! मुस्थिरम् ॥ १० ॥ मज्ज्ञानयुक्तो नियतवृपोऽपि भवेन्महानन्दपदप्रदायी । तत्रापि च स्वा-ऽन्यविबोधकारीत्याहुः श्रुतज्ञानमिहोत्तमं हि ॥११॥ तच्च कालमतिमान्यदोषतः पुस्तकेषु भुवनैकवत्सलैः । पूर्वसूरिभिरथो निवेशितं तद् वरं भवति तस्य लेखनम् ॥ १२ ॥ एवं निशम्य तेन न्यायोपार्जितधनेन धन्येन । आख्यानकमणिकोशस्य पुस्तकोऽयं व्यधायि मुदा ॥ १३ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यावद्दारुणदुःखलक्षजलदप्रध्वंसचण्डानिलो रागद्वेषमदान्धसिन्धुरहरिः स्वर्गापवर्गप्रदः । अज्ञानदुमपावको विजयते श्रीजैनराजागमस्तावन्नन्दतु पुस्तकोऽयमनिशं वावच्यमानो बुधैः ॥ १४॥ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ छ । उपरोक्त प्रशस्ति का भावार्थ इस प्रकार है----- प्राग्वाट ( पोरवाड) वंश में तिलक के समान पूर्णदेव नामके श्रेष्ठी के सलखग, वरदेव और जिनदेव नामक तीन पुत्र थे। जिनमें से तीसरे पुत्र जिनदेव ने संसार को छोड़कर दीक्षा ग्रहण की और सर्व शास्त्रों में पारंगत होने के बाद वे क्रमशः आचार्य बने । इनका नाम जगच्चन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ। (यह बहद्गच्छीय आचार्य दीर्घ काल तक आचाम्ल तप करते रहे जिससे इनका उपनाम 'तपा' पडा और उनकी शिष्यपरम्परा तपागच्छीय नाम से प्रसिद्ध हुई ।) पूर्णदेव श्रेष्ठी के द्वितीय पुत्र वरदेव की वाल्हेवी (वल्लभदेवीवल्लहएवी-वाल्हेवी) नामक पत्नी से साढल, अरिसिंह और वज्रसिंह नामके तीन पुत्र तथा सहजू नामकी एक पुत्री, इस प्रकार चार सन्तानें हुई थीं। वरदेव के प्रथम पुत्र साढल को राणू नामकी पत्नी से धीणाक, क्षेमसिंह भीमसींह, देवसिंह और महणसिंह नामके पांच पुत्र हए थे । उनमें से क्षेमसिंह और देवसिंह ने जगच्चन्द्र सूरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी। साढल के प्रथमपुत्र धीणाक की कडू नामक पत्नी से मोढ नामका पुत्र हुआ था। एक दिन धीणाक ने “भोग, लक्ष्मी, आयुष्य, यौवन और प्रेम क्षणिक है, श्रुतज्ञान का प्राधान्य है और शास्त्रों को कंठस्थ रखना कठिन होने से पुस्तकलेखन आवश्यक धर्म है" ऐसा गुरु का उपदेश सुनकर अपने न्यायोपार्जित द्रव्य से यह आख्यानकमणिकोश नामक ग्रन्थ लिखवाया । जब तक दारुण दुःख, राग-द्वेष और अज्ञान का नाश करनेवाले तथा स्वर्गापवर्ग देनेवाले जैनागम विद्यमान हैं तब तक विद्वानों द्वारा पढ़ा जाता हुआ यह ग्रन्थ शोभा देता रहे। उपरोक्त प्रशस्ति से यह सिद्ध होता है कि इस 'खं०' संज्ञक प्रति का लेखन खर्च देने वाले जगच्चन्द्रसूरि के गृहस्थाश्रम के भाई वरदेवके पौत्र धीणाक हैं । आचार्य जगच्चन्द्र के गृहस्थावास का नाम, वंश, पिता का नाम आदि की जानकारी केवल इसी प्रशस्ति में मिलती है । अतः यह प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है । प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादन में इस 'खं०" प्रतिको प्राधान्य दिया गया है। “२०' संज्ञक प्रति यह प्रति विक्रम की सतरहवीं सदी में कागजपर लिखी गई है । वर्षों पहले इस प्रति को विजापुर से मंगवाकर इसका 'ख' संज्ञक प्रति के साथ मिलान कर इसे वापस भेज दिया था। उस समय इसका परिचय लिखना रह गया। अब इसका पूरा परिचय लिखने के लिए प्रति को पुनः विजापुर से तकाल लाना कठिन है । सामान्यतः जैनपरम्परा की १७ वीं सदी की जो हजारों प्रतियाँ उपलब्ध हैं, यह भी उसी प्रकार की है। प्रस्तुत संपादन में इस प्रति से सात स्थानों पर शुद्ध और उपयोगी पाठ मिले हैं। जिन्हें मूल में ही रखा है। इसके अतिरिक्त टिप्पणी में इसके पाठभेद भी दे दिये हैं। इन पाठभेदों की संख्या प्रमाण में अल्प है। 'खं०' संज्ञक प्रति के शुद्ध एवं प्राचीन होने पर भी '२०' संज्ञक प्रति के कारण ग्रन्थ के संशोधन में विशेष अनुकूलता इसलिये रही कि कहीं कहीं 'खं०' प्रति के पत्र जीर्ण होकर दोनों छोरसे कट गये हैं। ऐसे त्रटित स्थलों की पूर्ति इस प्रतिके आधार से की गई है । पृ. १२१ टि. १, पृ. २२३ टि. ३, पृ. २२९ टि. १ और १. पृ. ३५ टि. १, पृ. ३७ टि. १, पृ. १०. टि. १, पृ. २६९ टि १ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपरिचय और परिशिष्टपरिचय [ ३ संशोधन उपरोक्त दो प्रतियों के आधार से संपादन करते हुए जहाँ कहीं दोनों के पाठ अशुद्ध थे उन के स्थान पर हमने मूल में स्वकल्पित शुद्ध पाठ रख दिये हैं और उन पाठों पर टिप्पणी का अंक देकर नीचे टिप्पणी में दोनों प्रतियों के संकेत दिये हैं। अर्थात् जिस टिप्पणी में 'खं०' और '२०' दोनों संकेत मुद्रित हों वहाँ मूल में छपा हुआ पाठ को संपादक द्वारा कल्पित है ऐसा समझना । इस प्रकार के स्थल कुल ग्यारह हैं। जहाँ टिप्पणी में प्रतिसंकेत के स्थान में 'प्रतो' शब्द लिखा हो वहाँ भी मूल पाठ संपादक का ही समझना चाहिये और 'प्रतो' का अर्थ 'खं०' और '२०' समझना चाहिए । '२०' संज्ञक प्रति के मिलने के पहले हमारे सामने केवल खं०' संज्ञक ही प्रति थी अतः उसी के आधार से पाठसंशोधन करते समय 'प्रतौ' ऐसा लिखा गया था। बाद में '२०' संज्ञक प्रति के मिलने पर भी 'प्रतौ' संकेत कायम रक्खा गया है । ऐसे केवल चार स्थल हैं । ऊपर बताये गये ग्यारह स्थल और ये चार-इस प्रकार कुल १५ स्थलों में हमने स्वयं पाठ को शुद्ध कर के मूल में दिया है और दोनों प्रतियों के पाठ नीचे टिप्पणी में निर्दिष्ट किये हैं। इसके अलावा अपनी ओर से जोड़े गये मूल पाठों को [ इस प्रकार के कोष्ठक में रखा है । जहाँ कहीं अशुद्ध पाठ मिले हैं उन्हें उसी तरह रखकर हमने अपनी ओर से कल्पित शुद्ध पाठ को ( ) इस प्रकार के कोष्ठक में रखा है। परिशिष्टपरिचय प्रथम परिशिष्ट (पृ. ३७१ से ३८४ ) इस ग्रन्थ में आये हुए विशेषनामों का परिचय अकारादि कम से पृष्ठांकों के साथ दे दिया है । द्वितीय परिशिष्ट (पृ. ३८५ से ३९२) यहाँ प्रथम परिशिष्ट में आये हुए विशेष नामों को कुल अठासी विभागों में विभक्त कर के उन विभागों को अकारादि क्रम से दे कर प्रत्येक विभाग में समाविष्ट विशेष नामों की सूची अकारादि क्रम से दी गई है। तृतीय परिशिष्ट (पृ. ३९३ से ३९७) प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध जो कोई देश्य शब्द इस ग्रन्थ में मिले हैं वे सब (दे०) संकेत कर के दे दिये गये हैं । आ० श्री हेमचन्द्राचार्यकृत देशीनाममाला में जो शब्द नहीं आये हैं उन्हें * इस प्रकार के चिह्नों से चिह्नित किया है। उनके अर्थ और पृष्ठाङ्क भी दे दिये हैं । इसके अतिरिक्त 'पाइअसद्दमहण्णवो' में जो प्राकृत शब्द नहीं हैं उन शब्दों का संग्रह भी यहाँ किया गया है । उनका अर्थ और पृष्ठाङ्क भी दिया है । १. पृ.१७ टि. १, पृ०१.. टि. २, पृ.१०१ टि. २, पृ०१०६ टि. १, पृ०१०६ टि. २, पृ.१२२ टि. १, पृ.१२३ टि. १, पृ०१२३ टि. २, पृ.१६७ टि. १, पृ.१८१ टि. ३, और पृ०२२५ टि. १ ॥ २. पृ. ११३ टि. १, पृ. २२८ टि. १, पृ. २५५ टि. २, पृ. ३५३ टि. १ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चतुर्थ परिशिष्ट (पृ. ३९८ से ३९९) प्रस्तुत ग्रन्थ में आई हुई तीन अपभ्रंश कथाओं के सिवाय प्राकृत कथानकों में जो भा अपभ्रंश पद्य आये हैं उनका संग्रह इस परिशिष्ट में किया गया हैं। इस परिशिष्ट में निम्न अपभ्रंश पद्य छूट गये हैं.. पृ. ८१ पद्यांक १, पृ. १३७-३८ प.८, पृ.१३६ प. २-३ । पंचम परिशिष्ट (पृ. ४००) यहाँ ग्रन्थान्तर्गत ऋतुवर्णन, तथा नग, नगर, युद्ध, अनुरक्त-विरक्तनारी, युवती, नगरप्रवेश, सार्थ, स्कंधावार आदि वर्णनों का निर्देश पत्राङ्कों के साथ कर दिया है। पष्ट परिशिष्ट (पृ. ४००) तीर्थकरादि की स्तुतिओं का निर्देश इसमें किया गया है। सप्तम परिशिष्ट (पृ. ४०१ से ४१२) इस ग्रन्थ में से चुनकर कुल ३८३ सुभाषित पद्यों का उनके विषयों की सूचना के साथ स्थलनिर्देश करके इस परिशिष्ट में संग्रह किया गया है। अष्टम परिशिष्ट (पृ. ४१३ से ४१५) प्रस्तुत ग्रन्थ में से लोकोक्तियों, सिद्धवाक्य जेसी कहावतों के १२२ पद्यांशों का संग्रह प्रस्तुत परिशिष्ट में किया गया है। इनमें निम्न ५ जोड लेना चाहिए १- 'पोरिसविहवा जम्हा दइवं पि छलंति सप्पुरिसा ।' पृ. १५० गा. ६१ । २"विज्जाजुयाणमहवा जणाण सम्वत्थ कल्लाणं ।' पृ. १७९ गा. २।३- 'अम्मापिऊणमहवा हिययमवच्चे हियं चेव । पृ. १७९ गा. ५ । ४- 'एगुयरसंभवा वि हु न हुंति कइया वि समसीला ।' पृ. २६५ गा. ३ । ५- 'सीलरयणे विगटे न सुंदर उभयलोगे वि ।' पृ. २९४ गा. १७५ । अभ्यासी पाठकों को इन पद्यांशों में से लोगों द्वारा बोली जाती कुछ उक्तियों का परिचय मिलेगा। शुद्धिपत्रक (पृ. ४१६ से ४२२) दृष्टिदोष और प्रमाद से मुद्रण में रहे हुए कुछ अशुद्ध पाठों का शुद्धिपत्रक दे दिया गया है। शुद्धिपत्रक के छपे जाने के बाद भी जो अशुद्धियाँ हमारे देखने में आई उन्हें भी यहाँ टिप्पगी में दे दिया गया है। पत्राइ गाथाङ्क अशुद्ध शुद्ध १६ पंक्ति-३२ देसस्त देसस्स १.३ ३१ विजयवाई विजियवाई १३ जयाणदो जिणाणदो १ निसेस निस्सेस २७७ तुइ ३२६ कहिजई कहिज्जइ ४५३ गरूय २२३ ५५ संपई संपइ पत्रात गाथाङ्क अशुद्ध शुद्ध २१ कुमारी कुमरी २४४ पं. ७ ऋषिदत्ता ऋषिदत्ता , ८ 'मत्स्यमा मत्स्य (मक्षिका मल्ल' २४६ २२ पसत्तमणो पसन्नमणो सणिय- सणिय महामह महोमुह २५२ २४७ ललक ललक पत्राङ्क गाथाह अशुद्ध २६२ १२ कुणास कुणसु २६३ शीर्षके भावशल्शा- मोहातमृत नालोचन- कुगतिपात दोषाधि दर्शकाधि २७५ १५ ताण ताण अ १०५ निवेइवं निवेइयं ९३ १३. कमलमेहो कालमेहो ३२८५१ मरि मारि गरुय Jain Education Interational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टपरिचय और आख्यानकमणिकोश मूलग्रन्थ आख्यानकमणिकोश मूल मूल ग्रन्भ की रचना प्राकृत भाषा में केवल बावन गाथा में आर्या छंद में हुई है। इस में ४१ अधिकार हैं। प्रत्येक अधिकार के प्रतिपाद्य विषय के साधक आख्यानकों के कथानायक अथवा नायिका का नाममात्र का कथन उन उन अधिकार की मूल गाथा में किया है । इस से यह सूचित होता है कि ये कथाएं अन्य काग्रन्थों में और कोपर्ग पर्याप्तमात्रामें प्रसिद्ध थीं। कोप के रचयिताने केवल उन उन कथाओं को विविध विषयों के साथ संबद्ध करके उन कथाओं का विषयदृष्टिसे वर्गीकरणमात्र किया है । एक यह भी प्रयोजन है कि ग्रन्थ छोटा होनेसे स्मृति के ऊपर विशेष भार नहीं पड़ता और विषयकी दृष्टिसे ननत्कथाओं का वर्गीकरण श्रमगों को याद रखना सरल हो जाता है । टीकाकारने उन सूचित कथाओं का विवरण अपनी काव्यात्मक शैलीमें किया है। मूल ग्रन्थ के ४१ अधिकारों में कुल १४६आख्यानकों का निर्देश ग्रन्थकार ने किया है । उनमें से १९ आख्यानक ग्रन्थगत अन्यान्य आख्यानकों में आजाने से वृत्ति में केवल १२७ अख्यानको का ही क्रमाङ्क दिया हुआ है। शेष १९ आख्यानकों का नामोल्लेख करके वृत्तिकार ने उन्हें किन आख्यानको में से लिये जाँय इसका सूचन भर किया है। उन १९ सूचित आख्यानों का विवरण इस प्रकार है सूचित आख्यान कहां १ धन्यकाख्यानक (पृ. २०)। दवदन्न्याख्यानकों (आख्यानकक्रमा -१३)। २ मनोरमाख्यानक (पृ. ६५)। सुदर्शनाख्यानकर्म ( आ. क्र. ४३)। ३ वीरमत्याख्यानक (पृ.७१)। दवदन्त्याख्यानको (आ. क्र. १३)। ४ श्रेणिकाख्यानक (पृ. ९५)। सेडुवकाख्यानकों (आ. क्र. ३३)। ५ मिण्ठाख्यानक (पृ. १३५)। नूपुरपण्डिताख्यानकमें (आ. क्र. ७१)। ६ मृगावत्याख्यानक (पृ. १६४)। चित्रप्रियाख्यानकमें (आ. क्र. ५३)। . ७ माथुराख्यानक (पृ. १८५)। भावटिकाख्यानक (आ. क्र. ७३) अन्तर्गतजिनदत्ताख्यानकमें । ८ क्षुल्लकमुन्याख्यानक (पृ. २२६)। क्षपकाख्यानकों (आ. क्र. ५०)। ९ नन्दिपेणाख्यानक (पृ. २२६)। शौर्याख्यानकों (आ. क्र. १९)। १० चण्डरुद्रशिष्याख्यानक (पृ. २२६)। चण्डरुद्राख्यानकों (आ. क्र. ५२)। ११ दामनकाख्यानक (पृ. २३८)। दामनकाख्यानकों (आ. क्र. ४५)। १२ चन्द्रावतंसकाख्यानक (पृ. २४१)। मेतार्याख्यानकमें (आ. क्र. १२६)। १३ नन्दिपेणाख्यानक (पृ. २७१)। शौर्याख्यानकमें (आ.क्र. १९)। २२६ पं. २५ ॥३॥ १॥ २५३ २४९ मुसरय ससुरय" ३२९ ९ प्रयत्तेण पयत्तेण । २१. ८ कमलामेला कमलामे- २५५ ३२२ तवाणु भा तवाणुभा ३५१ शीर्षके पतनदुःख पनतदुःख स लास २६१ १० सुन्नत सुन्नत ३७० २५ रमणीया 'रमणोयाः १६ कमला कमला , १५ निन्वाहं निम्याहं १. यद्यपि मुद्रणमें अतिमगाथाका क्रमांक ५३ है किन्तु ३१ काकवाली (पृ. २२६] मूलगाथा मूलग्रन्थकी नहीं अपितु टीकाकाररचित है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] प्रस्तावना १४ चारुदत्ताख्यानक (पृ. २८५)। भावटिकाख्यानक (आ. क्र. ७३) अन्तर्गत चारुदत्ताख्यानकमें। १५ मित्राणन्दाख्यानक (पृ. ३२१)। भावटिकाख्यानक (आ. क्र. ७३) अन्तर्गत अमरदत्तमित्राणन्दा ख्यानकमें। १६ रामाख्यानक (पृ. ३२५)। यादवाख्यानकम (आ. क्र. ११०)। १७ भरताख्यानक (पृ. ३४३)। भरताख्यानको (आ. क्र. २३)। १८ श्रमण्याख्यानक (पृ. ३४७)। अर्हनकाख्यानकों (आ. क्र. १००)। १९ रामाख्यानक (पृ. ३४७)। यादवाग्न्यानकमें (आ. क्र. ११०)। ग्रन्थके ४१ अधिकारों के नाम तथा आख्यानकों के नाम और प्रत्येक आख्यानकों के कथाप्रसंगों का विस्तृत विषयानुक्रम दिया गया है। अतः जिज्ञासु पाठक विषयानुक्रम देख लें ऐसा अनुरोध है। आख्यानकमणिकोश मूल के कर्ता श्री नेमिचन्द्रसरि आचार्य नेमिचन्द्रसूरि जैन श्वेताम्बर परम्पराके सुविख्यात विशाल बृहद्गच्छ के आचार्य हैं । उनका समय विक्रम का बारहवां शतक सुनिश्चित है। उनकी छोटी बडी पांच रचनाओं में से प्रस्तुत आख्यानकमणिकोश और आत्मबोधकलक को छोड अन्य तीन रचनाओं में उनकी परिचायक प्रशस्ति मिलती है। उन में भी " रत्नचूडकथा" नामक कृति की प्रशस्ति में उनका परिचय शेष दो कृतियाँ उत्तराध्ययनवृत्ति और महावीरचरिय की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है। इस प्रशस्ति के आधार से एवं आख्यानकमणिकोशवृत्ति की प्रशस्ति के आधार से और आख्यानकमणिकोश के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरिकृत प्राकृतभाषानिबद्ध 'अनन्तनाथचरित्र' (अप्रकाशित) की प्रशस्ति के आधार से प्रस्तुत आचार्य नेमिचन्द्रसूरि के पूर्ववर्ती आचार्यों का क्रम इस प्रकार है-- बृहद्गच्छ में (प्रा. वडगच्छ, वडगच्छ ) हुए देवसूरि ( विहारुक) के पैट्टधर नेमिचन्द्रसूरि के पट्टधर उद्योतनसूरि के शिष्य आम्रदेवोपाध्याय के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि प्रस्तुत मूल ग्रन्थ के कर्ता है । इन नेमिचन्द्रसूरि के दीक्षागुरु आम्रदेवोपाध्याय थे। और उन्हें आनन्दसूरि के मुख्य पट्टधर के रूप में स्थापित किये गये थे । इस का स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___ उपरोक्त उद्योतनसूरि के समकालीन सगच्छीय पांच आचार्य थे । १ यशोदेवसूरि २ प्रद्युम्नसूरि ३ मानदेवसूरि ४ देवसूरि और ५ अजितदेवसूरि । इन पांच नामों में से प्रथम चार के नाम आख्यानकमणिकोषकारकृत "रत्नचूडकथा" नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में मिलते हैं। पाचवाँ नाम आख्यानकमणिकोशवृत्ति की प्रशस्ति में तथा वृत्तिकार आम्रदेवसूरि के शष्य नेमिचन्द्रसूरिकृत अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति में मिलता है। ये पांचों आचार्य उद्योतनसूरि के समकालमें विद्यमान थे १. यह प्रन्थ विजयकुमुदसूरि द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुका है। २. प्रवचनसारोद्धार (प्रकाशित) के कर्ता ये ही नेमिचन्द्रसूरि है। ३. देवसूरि सतत उद्यतविहारी होने से उनके पीछे विहारुक ऐसा विशेषण लगाया जाता था। इतना ही नहीं किन्तु उनकी शिष्यपरम्परा में भी कितनेक साधु को विहारुक कहा जाने लगा था । ४. यहां पट्टधर के रूप में बताये गये आचार्य अपने पूर्व आचार्य के द्वारा दीक्षित ये या नहीं यह जानने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशमूल के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि ऐसा हमारा निश्चय नहीं किन्तु अनुमान मात्र है। पांचवे आचार्य अजितदेवमूरि के पट्टधर आनन्दसूरि के तीन पट्टधर आचार्य हो गये हैं। एक नेमिचन्द्रसूरि (आम्रदेवोपाध्याय के शिष्य और इस ग्रन्थ के मूलकर्ता) दूसरे प्रद्योतनसूरि और तीसरे जिनचन्द्रमरि ( आख्यानकमणिकोश के वृत्तिकार आम्रदेवमूरि के गुरु )। मूलकार नेमिचन्द्रसूरि ने अपने किसी शिष्य का उल्लेख नहीं किया ऐसी अवस्था में इस विषय में विशेष कहना कठिन है । किन्तु उनके रत्नचूडकथानामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में प्रथम प्रति के लेखक रूपसे प्रद्युम्नसूरि के धर्मपौत्र यशोदेवगणि का नाम मिलता है। ये यशोदेवसूरि आ० म० को० वृत्तिकार आम्रदेवसूरि के तीसरे शिष्य हैं । और आम्रदेवमूरि ने अपने पट्टधर के रूप में स्थापित आचार्यों में इनका चौथा नाम 'है । यद्यपि उन्होंने उत्तराध्ययनवृत्ति की प्रतिलिपि करने में सहायक रूपसे सर्वदेवगणि का उल्लेख किया है तथापि सर्वदेवगणि उनके शिष्य थे ऐसा फलित करना कठिन है । ___ आ० म० कोषकार नेमिचन्द्रसूरि के बडे गुरुभ्राता का नाम मुनिचन्द्र सूरि था एसा उलेख स्वयं उन्होंने उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति में और महावीरचरियं की प्रशस्ति में किया है । प्रस्तुत मूल ग्रन्थ की रचना उन्होंने गीपदवी के मिलन के पूर्व की थी । अतएव अन्य गाथा में ग्रन्थकार का नाम 'देविंद' लिखा है । इस अन्त्य गाथा की वृत्ति में वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने यह स्पष्टीकरण किया है । नेमिचन्द्र सूरि की छोटी बडी पांच रचनाएँ हैं १. आख्यानकमणिकोश मूल गाथा ५२, २. आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेशकुलकै गाथा २२, ३. उत्तराध्ययनवृत्ति श्लोकसंख्या १२०००, ४. रत्नचूडकथा लोकसंख्या ३०८१ और ५. महावीरचरियं श्लोकसंख्या ३००० । उक्त पांच कृतियों के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उन्होंने नहीं की, उनकी रचनाओं को आ. म. कोश के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि अपनी प्रशस्ति में और आम्रदेवमूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि भी अपनी अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति में गिनाते हैं। किन्तु ये दोनों आचार्य 'आत्मबोधकुलक' का उल्लेख नहीं करते । संभवतः मात्र बाइस आर्याछंद में रची गई यह लघुतम कृति उनकी दृष्टि में साधारण सी रही हो अत एव दोनोंने उसे उल्लेख योग्य न समझा हो। आख्यानकमणिकोश की अन्त्यगाथा का उत्तरार्द्ध और आत्मबोधकुलक को अन्त्यगाथा का उत्तरार्द्ध को देखते हुए ऐसा फलित होता है कि दोनों के कर्ता एक ही होने चाहिये । इसीलिए हमने इस लघुकृति को भी उनकी कृतिओं में शामिल किया है । उपरोक्त पांच कृतियों में से पहली दो प्राकृत भाषा में आर्याछन्द में हैं। इनकी रचना उन्होंने सामान्य मुनिअवस्था में विक्रम संवत् ११२९ के पहले की है । इसी लिए उनकी अन्य गाथा में 'देविंद' पद मिलता है। तीसरी कृति उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति की रचना उन्होंने गणी पद प्राप्त करने बाद संवत ११२९ में को है इसलिए उन्होंने अपना नाम अन्त में 'देवेंद्रगणि' दिया है । इस उत्तराध्ययन सूत्र की ताडपत्रीय एवं कागज पर लिखी गई अनेक प्रतियों की प्रशस्ति में इनका १. यहाँ चर्चित तथ्यों के आधार के लिए उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति को देखना चाहिए । उस प्रशस्ति का उपयोगी अंश आम्रदेवसूरि के परिचय में दे दिया गया है ॥ २ संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार-पाटण में प्रस्तुत कुलक की दो हस्तप्रतें हैं। उनमें इस कृति के अलग अलग नाम मिलते हैं । देखो-पत्तनस्थ जैन ज्ञान भण्डार सूचि (ओरिएन्टल इन्स्टीटयूट वडोदरा द्वारा प्रकाशित) पृ० ६५ वा तथा ११४ वा ॥ ३. पाटण संघवी पाडे की ताडपत्रीय प्रति में ३५०० श्लोक प्रमाण है ॥ ४. भक्खाणयमणिकोसं एयं जो पढइ कुणइ जहजोगं। देविंदसाहुमहियं अइरा सो लहइ अपवग्गं ।। (आख्यानकमणिकोश) __ तामा कुणसु कसाए. इंदियवसगो व मा तुम होसु । देविंदसाहुमहियं सिवसोक्खं जेण पाविहिसि ।। (आत्मबोधकुलक) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] प्रस्तावना नाम देवेन्द्रमणि और नेमिचन्द्रसूरि भी मिलता है। संभव है कि आचार्यपदवी के बाद स्वायत्त प्रतिओं में और नई लिखी जानेवाली प्रतियों में उन्होंने स्वयं अपना नाम नेमिचन्द्रसूरि लिखवाया हो या उनके शिष्योंने भक्तिवश ऐसा किया हो । उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति आचार्यश्री विजयमंगसूरि द्वारा संपादित हो चुकी है । इस वृत्ति में मूल सूत्र की व्याख्या तो । संस्कृत में है किन्तु तदन्तर्गत कथाओं की रचना प्राकृत भाषा में है। रत्नचूडकथा' नामक गद्यपद्यात्मक प्राकृत भाषा का ग्रन्थ उन्होंने गणीपद की प्राप्ति के बाद ही दिया है। उत्तराध्ययनवृत्ति की तरह ही इस ग्रन्थ की भी देविंदगणी (देवेन्द्र गाणी) और नेमिचंद्रसूरि ( नेमिचन्द्रसूरि इन दो नामों का उल्लेख करनेवाली ताडपत्रीय प्रतियां मिलती हैं। देखो, विजयकुमुदसूरि सम्पादित' (श्री तपागच्छ जैन संघ खंभान द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत ग्रन्थ ( रमणचूडरायचरिथ) की प्रशस्ति के प्रत्यन्तर । इस संपादन में अनुपयुक्त खेतरवसी पाडा पाटज भण्डार की ताडपत्रीय प्रति में ग्रन्थकार का नाम नेमिचन्द्रसूरि लिखा हुआ है। महावीरचरित्र गद्यपद्यात्मक प्राकृत भाषा में रचना है। इसका रचनासंवत् १९४१ है । यह ग्रन्थ भी हमारे पूज्य गुरुवर्थ मुनिश्री चतुरविजयजी द्वारा सम्पादित हो कर आत्मानंद्रसभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित हो चुका है। उपर बताई गई पांच कृतियों में से दो कृतियाँ गमिपद के पूर्व और दो कृतियाँ गणिपद के बाद और एक कृति आचार्य पद के बाद की रचना है। इसके अतिरिक्त देवन्द्रसाधु- देवेन्द्रगणनेमिचन्द्रसूरि के विषय में विशेष जानकारी हमें उपलब्ध नहीं है। मूल ग्रन्थकार की पूर्वापर श्रमणपरम्परा में से कुछ अन्य जानकारी भी मिलने की संभावना है। परन्तु हम यहां इतने से संतुष्ट हो जाते हैं। आख्यानकमणिकोशनि प्रस्तुत वृत्ति का लोक प्रमाण, रचनास्थल, रचनासंवत् और उस समय के शासक राजा आदि का परिचय आगे वृत्तिकार के परिचय में दिये गये परिचयप्रशस्ति के सारांशसे जान लेना चाहिए । मूल गाथा की वृत्ति संस्कृत भाषा में है। अन्य गत १२७ आख्यानकों में से १४, १७, २३, ३९, ४२, ६४, १०९, १२१, १२२ और १२४ ये दस आख्यानकों को छोड़ शेष ११७ आख्यानकों (७३ वाँ भावनिकाख्यानक में अवान्तर कथा के रूप में आनेवाला चारुदत्तचरित्र को छोड़) की रचना प्राकृत भाषा में है। इस में से प्राकृतगथ में रचा हुआ ४७ वाँ चंडचूडाख्यान और प्राकृत भाषा में उपेन्द्रवज्रा छंद में रचा हुआ १२३ क्रमाङ्कवाला पार्श्वाख्यान के अतिरिक्त शेष ११५ आख्यानकों की रचना प्राकृत भाषा के आर्या छंद में है । कहीं कहीं अन्य छंदों के भी प्रयोग हैं परन्तु वह बहुत कम मात्रा में है । साथ ही प्रत्येक अधिकार के अंत में उन अधिकारों के विषयद्योतक एक एक वसन्ततिलका छंद भी १. देवेन्द्रगणिवेमामुद्धृतवान् वृत्तिकां तद्विनेयः । गुरुसोदर्यश्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेन ॥ 'कॅटलॉग ऑफ पामलीफ मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द शान्तिनाथ जैन भण्डार कंबे' ओरयेन्टल इन्स्टीट्यूट - वडोदरा द्वारा प्रकाशित पृ० ११३ ११४ | श्री नेमिचन्द्रसूरिरुद्धतवान् वृत्तिकां तद्विनेयः । - वही पृ० ११५ । संघवी पाडा भण्डार - पाटण के क्रमाङ्क ३६३ में तथा संघ भण्डार पाटण के क्रमाङ्क ५२ में नेमिचन्द्रसूरि नाम है जब कि संघवी पाडा भण्डार पाटण क्रमाङ्क ३८७ तथा तपागच्छ भण्डार पाटण क्रमाङ्क ११ में देवेन्द्रगणि नाम मिलता है ये सभी प्रतियां साडपत्र पर लिखी हुई है । २. प्रस्तावना के लेखक ने ग्रन्थकार नेमिचन्द्रसूरि को सवृत्तिक आख्यानकमणिकोश के कर्ता बताया है । यह ठीक नहीं कारण नेमिचन्द्रसूरिने तो केवल ५२ गाथावाला मूल ग्रन्थ ही रचा है । साथ ही इसी प्रस्तावना के लेखकने नेमिचन्द्रीय महावीरचरित्र का रचना संवत् १९४० बताया है। यह भी ठीक नहीं उसका रचनासंवत् ११४१ है । उनका यह कहना भी ठीक नहीं कि उन्हें उपलब्ध प्रतिओं के अतिरिक्त उस ग्रन्थ की अन्य कहीं भी प्रति नहीं मिलती। क्यों कि खेतरवसी पाडा जैन ज्ञान भण्डार-पाटण में मिलती है। देखो पसनस्थ जन भाण्डागारीय ग्रन्थसूची ओरियेन्टल इन्स्टीटयूट् इस की ताडपत्रीय प्रति . १२०९ में लिखी हुई वडोदरा द्वारा प्रकाशित पृ. २८९-९० ॥ 4 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशवृत्ति [ ९ संस्कृत भाषा में दिये हैं। इसके अतिरिक्त वृत्तिकार का मंगल और उनकी प्रशस्ति संस्कृत के विविध छंदो में है । इस प्रकार वृत्ति की भाषा संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश होते हुए भी ग्रन्थ का बड़ा हिस्सा प्राकृत में ही रचा हुआ है । उपरोक्त प्राकृतेतर भाषानिबद्ध दस आख्यानकों में से १४, १७ और १२४ वें आख्यानकों की रचना संस्कृत गद्य में है । शेष सात में से ३९, ६४, और १०९ क्रमांक वाले आख्यानक संस्कृत के अनुष्टुप् छंद में है । १२२ वाँ भव्यकुटुम्बाख्यानक 'प्रबोधिनी' नामक छंद में है प्रबोधिनी का परिचय आचार्य हेमचन्द्रीय छंदानुशासन में मिलता है । इस छंद को जयकीर्ति ने 'विबोधिता' कहा है । वृत्तरत्नाकर में इसके वियोगिनी, अपरवक्त्र, मुरली, ललिता और शिखामणी ऐसे पांच नाम मिलते हैं । और छन्द: कौस्तुभ में इसका 'सुन्दरी' नाम आया है । यह छंद मात्रावृत्त और वर्णवृत्त जाति का है । शेष तीन में से २३ और ४२ क्रमाङ्कवाले दा आख्यानक अपभ्रंश में हैं ( इस के उपरान्त ७३ वाँ भावनिकाख्यान में अवान्तरकथा के रूप में आया हुआ चारुदत्तचरिउ की रचना भी अपभ्रंश में है । इस प्रकार इस ग्रन्थ के तीन आख्यानक अपभ्रंश में है ) । १२१ क्रमाङ्क वाला कुलानन्दाख्यानक आर्या छंद में है । इसकी ५० गाथाएँ है । प्रत्येक गाथा का पूर्वार्द्ध संस्कृत में और उत्तरार्द्ध प्राकृत में है । अतः इस की भाषा संस्कृत-प्राकृत है । २० व रुक्मिण्याख्यानक और २१ व मध्वाख्यानक की एक ही कथा है । अतः आख्यानकों की संख्या १२७ होते हुए भी आख्यानक १२६ ही है । १० वें क्रमाङ्कवाला चन्दनार्याख्यानक तथा ६५ वां कंबलसंबलाख्यानक इन दो को वृत्तिकारने नेमिचन्द्रसूरिकृत महावीरचरित में से अक्षरशः गुरु के बहुमानार्थ लिया है। यह बात वृत्तिकारने आख्यानकों के अन्त में की है । ३२ वें क्रमाङ्कवाला बकुलाख्यानक की विशेष घटना जानने के लिए वृत्तिकारने नेमिचन्द्रसूरि कृत 'रत्नचूडकथा' को देखने का निर्देश दिया है। इसके अतिरिक्त १९ आख्यानकों के अन्त में उन आख्यानकों के अन्तर्गत की गई कथाओं के विषय में विशेष जानकारी के लिए ग्रंथान्तर को देखने का निर्देश दिया है इससे और इस ग्रन्थ की सुभाषित गाथाओं में से कुछ गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थों की या मौखिक परम्परा की होगी' - एसा भी अनुमान होता है अतः यह ग्रन्थ एतदविषयक पूर्व साहित्य के असर से अछूता नहीं है । वृत्तिकारने जिन १९ आख्यानकों के अंत में कथा के विशेष विवरण के लिये प्रन्थांतरों को देखने की सिफारिश की है - वह इस प्रकार है- आख्यानकक्रमांक १४ और ११३ वें के अंत में रामचरित देखने का निर्देश है। यहां संभवतः विमलसूरिकृत पउमचरिय अभिप्रेत है । १९, २०-२१ और ११० वें आख्यानक की कथा हरिवंश नामक ग्रन्थ में देखने का निर्देश है । यह हरिवंश ग्रन्थ भी विमलसूरि का होना चाहिये । आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है किन्तु इसका उल्लेख दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला के प्रारंभ में कविवर्जन में मिलता है । ५६ वां आख्यानक आवश्यक में, ६६ वां आवश्यक विवरण में, ११२ व उत्तराध्ययन में, ३६ व निशीथ में, १७ और १२४ वें आख्यानक को क्रमशः 'मूलावश्यकगत सप्ताविंशतिभवनिबद्ध वीरचरित' एवं 'वीरबृहच्चरित' में देखने का निर्देश किया है। संभव है, यह दोनों वीरचरित आवश्यकगत अभिप्रेत हो । ४६, ५३, ७१ और १०१ क्रमाङ्गवाले चार आख्यानकों को 'ग्रन्धान्तरों' में तथा ७७, ९८, ९९ और ११५ क्रमाक वाले चार आख्यानकों को क्रमशः समय, सिद्धान्त (गा. १७ में) और श्रुत में देखलेने का निर्देश है । १. २५ मुलसाख्यानक की ४० से ४९ गाथाएँ आचार्य हेमचन्द्रसूरि के गुरु देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणटीकागत सुलक्खाणु में प्रन्थान्तरावतारितपाठद्योतक भणियं च' इस प्रकार की उत्थानिका के साथ अवतरित की हैं। मूलशुद्धिटीका का रचनासमय वि सं ११४४ का है । जब कि प्रस्तुत वृत्ति की रचना ११९० की है । जिस प्रकार ये दश गाथाएँ देवचन्द्रसूरि से पूर्व की निश्चित होती है वैसे ही अन्य गाथाएँ भी पूर्व प्रवाह से चली आती हों तो यह असंभव नहीं ॥ For Private Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] प्रस्तावना उक्त १९. और क्रमांक ३२ वा इन २० आख्यानकों के अतिरिक्त शेष १०६ आख्यानकों में भी कुछ आख्यानक ऐसे हैं जिनमें प्रतिपाद्य विषय के प्रसंग को छोडकर शेष प्रसंगों का विवरण संक्षिप्त है। ग्रन्थगत १२७ आख्यानको में से कुछ आख्यानक प्रचलित जैन परम्परा के ढंग से, कुछ कुक्कुटाख्यानक (१०९) जैसे अजेन परम्परा के पौराणिक ढंग से और कुछ लौकिक दृष्टान्तो का अनुकरण करते हुए लिखे गये हैं। इन सभी आख्यानकों में सांप्रदायिक संस्कार का प्रभाव देखा जाता है । रोहिण्याख्यानक (१५) की कथावस्तु, नन्दोपाख्यान नामक लघुरचना के प्राचीन प्रवाह की द्योतक है । अन्य लेखको के जिन नन्दोपाख्यानों को हमने देखा है वे प्रस्तुत ग्रन्थ से अर्वाचीन ही मालूम होते हैं। फिर भी इस कथा का प्रवाह प्रस्तत ग्रन्थ से भी प्राचीन होगा ही। अभयाख्यानक (४) में चण्डप्रद्योत राजा अपनी पुत्री वासवदत्ता को संगीत सिखाने के लिये उदयन को कहता है (गा. २२९ से २३६), यह घटना आवश्यकचूर्णि में भी मिलती है। इसी तरह की कथा बिल्हा कवि के विषय में भी मिलती है, यह कथा बहुत समय बाद की है। इसमें नायक बिल्हण को अंधा और नायिका को कोढी बताया है जब कि यहाँ नायक को कोढी और नायिका को कानी बताई है। बाकी दोनों ही रचनाओं में राजा अपनी पत्री को विद्याभ्यास सिखाना चाहता है किन्तु गुरु और शिष्या के मुखदर्शन से ये एक दूसरों में आसक्त न हो जाय इसलिए प्रत्येक को अन्य के विकलांग होने की बात कहकर एक दूसरे का मुखदर्शन वर्पा बताकर दोनों के बीच पर्दा डाल दिया जाता है किन्तु बाद में भेद खुल जाता है । दानों परस्पर प्रेम करने लग जाते हैं और बाद में विवाह भी हो जाता है। इस तरह के अनेक पूर्वप्रवाह लेखक को मिले होंगे ! प्रत्येक आख्यानक को कथावस्तु को अन्यान्य साहित्य के साथ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो अनेक बातें जानने को मिल सकती हैं। समयाभाव से हम इस सामग्री से पाठको को वंचित रख रहे हैं, यह हमारी मजबूरी है । प्रस्तुत रचना का समय गुजरात के इतिहास का सुवर्ण युग था । इस युग में गौरवीरों, सजनीतिज्ञों, महाजनों और कलागरुओं ने अपने-अपने क्षेत्र में सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस बात के सैंकडों प्रमाण आज विद्यमान हैं। इसी प्रकार गुर्जरेश्वर जयसिंहदेव के विद्याप्रेम से विशेष प्रोत्साहित होकर जैन-अजैन विद्वानोंने सैकडों मौलिक रचनाएँ देकर जगत् को चिरऋणी कर दिया है । ऐसे अजोड सारस्वत युगमें जैन श्रमणोंने उद्युक्त हो कर तत्त्वज्ञान, योग, काव्यशास्त्र, व्याकरण आदि विविध विषयों के उच्चकोटि के ग्रन्थों का निर्माण किया है। इतना ही नहीं आम प्रजा के जीवनस्तर को धार्मिक, नैतिक और परोपकारी बनाने की दृष्टि से उपदेशात्मक एवं धर्मकथात्मक सैकड़ों ग्रन्थों का निर्माण किया है। संस्कृत के सिवाय प्राकृत, अपभ्रंश एवं गुजराती भाषा में ग्रन्थों का निर्माग होने से उस साहित्य का महत्त्व और भी बढ़ गया है। । प्रस्तुत ग्रन्थ का अधिकांश प्राकृत में ही है। इनमें तीन कथानकों की रचना अपभ्रंश में की है। प्राकृत कथानको में भी कहीं वर्णन के रूप में और कहीं सुभाषितों के रूप में अपभ्रंश का प्रयोग किया है (देखो परिशिष्ट ४ था)। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राकृत भाषा का कोश बनाने में उपयोगी अप्रसिद्ध देश्य शब्द और प्राकृत शब्द भी ठीक ठीक प्रमाण में मिले हैं (देखो परिशिष्ट ३)। इस दृष्टि से भाषाशास्त्र के अभ्यासियों के लिए यह ग्रन्थ कम महत्त्व का नहीं है । काव्यशास्त्र के अभ्यासियों के लिए भी इस ग्रन्थ में प्रयुक्त विरोधाभासालंकार, गृहीतमुक्तपदालंकार, इलेषालंकार आदि अलंकार, वर्णक (देखो परिशिष्ट ५ वा) संवाद और प्रहेलिका आदि ज्ञातव्य सामग्री अवश्य उपलब्ध होगी। १. नन्दोपाख्यान की जैन-अजैन कृतियां संस्कृत, प्राचीन गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में मिलती है। Jain Education Interational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशवृत्ति और वृत्तिकार आम्रदेवसूरि [११ अहिंसा, सत्य, दान, तपश्वरण आदि उपदेशात्मक और प्रेरणात्मक सामग्री भी इस में पर्याप्त मात्रा में है। साथ ही विविध विषयों की सुभाषित गाथाएँ और सूक्त, ग्रन्थ और ग्रन्थकार के गौरव में चार चाँद लगा देते हैं (देखो परिशिष्ट ७-और ८ वाँ ) । संस्कृत - प्राकृत और अपभ्रंश की गद्य-पद्य रचनाओं में वृत्तिकार की सिद्धहस्तता सिद्ध है ही तथापि १२१ वें कुलानन्दाख्यानक ( जिसका पूर्वार्द्ध संस्कृत में और उत्तरार्द्ध प्राकृत में है ) तो उनकी वैविध्यप्रियता और सिद्धकवित्व का परिचायक है । प्रस्तुत रचना में संस्कृतरूप वज्रस्वामि के स्थानपर वैरसामि ऐसा प्रयोग संस्कृत भाषा के बीच किया है । (देखो ‘वैरस्वाम्याख्यानकं ’ पृ. १७० - १७१ ) । तथा “मुञ्चत्यश्रूण्य जसं मणकमृतिविधौ पश्य सेज्जंभवोऽपि " (पृ. ३२१ पद्म ३३४ वाँ ) इस संस्कृत पद्य में मणक और सेज्जंभत्र इन दो प्राकृत के रूढ नामों का प्रयोग किया है । पृ. ४८ गाथा ५९ में आये हुए 'अब्भिट्ट' शब्द में विभक्ति का लोप हुआ है' । पृ. १४० गाथा ३, पृ. १४१ गा. २७ में आये हुए 'अरिहवासी' शब्द में द्विर्भाव हुआ है । प्रस्तुत वृत्तिगत कथानकों में कई स्थान पर गाथाओंका प्रथम चरण, चतुर्थ चरण और उत्तरार्द्ध ( तीसरा और चौथा चरण ) ध्रुवपदात्मक मिलता है । यह पद्धति महाभारत पुराण आदि संस्कृत प्रन्थों में, तथा उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राकृत आगमों में एवं चरित्र ग्रन्थों में आम तौर पर अपनाई गई है। किसी भी संप्रदायगत कथा साहित्य में उस की परम्परागत मान्यता का असर प्रत्यक्ष या परोक्ष में होना स्वाभाविक ही है यानी उस-उस संप्रदाय के देव, गुरु, धर्म विषयक शुद्ध मान्यता को समझाने वाला भाव कथावस्तु में आता ही है । फिर भी इस महान ग्रन्थ में से कथासाहित्य के विविध पहलुओं की दिग्दर्शक विविध सामग्री अभ्यासियों को अवश्य प्राप्त होगी, यह निर्विवाद है । आख्यानकमणिकोश के वृत्तिकार आम्र देवरि आम्रदेवसूरि ने ग्रन्थ प्रशस्ति के १ से १३ पद्यों में अपने गच्छ तथा पूर्ववर्ती आचार्य देवसूरि, अजितसूरि, आनन्दसूरि और इस ग्रन्थ के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि के संबन्ध में विशेष जानकारी न दे कर केवल उनके नामों का ही स्मरण किया है । इस से इन आचार्यों का पारस्परिक क्या सबन्ध था यह भी स्पष्ट नहीं होता । यहाँ केवल मूलकार की अन्य रचनाओं का उल्लेख मात्र है । खुद वृत्तिकार के संबन्ध में भी इतना ही जाना जासकता है कि वे मूलकार नेमिचन्द्रसूरि के गुरुभाई जिनचन्द्रसूरि के शिष्य तथा श्रीचन्द्रसूरि के बड़े गुरुभाई थे । वृत्तिकार के नेमिचन्द्र, गुणाकर और पार्श्वदेव नामक तीन शिष्य थे । जो प्रस्तुत रचना में लेखन आदि में सहायक थे ( प्रशस्ति पद्य ३०-३१) । इतना होने पर भी वृत्तिकार के शिष्य नेमिचन्द्ररचित प्राकृतभाषानिबद्ध अनन्तनाथचरित ( अप्रकाशित ) की प्रशस्ति में उपरिनिर्दिष्ट आचार्यों का क्रम इस प्रकार है १- २. यहाँ केवल उदाहरणस्वरूप ही स्थल बताया है । और अन्य उद्वृत्तस्वर संधी आदि प्रयोग भी प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलते हैं ॥ ३. देखो पृ २६९-२७० गा. १९ से २८ ॥ ४. देखो पृ ५० गा १०५ से १०८, पृ. ११५ गा. १९-२४, पृ. २३३ गा. १४४-४९, पृ. २६९-७० गा. १९-२८, पृ. २७२ गा. १८-२२ और पृ. २६७ गा. १५३-६० ॥ ५. देखो पृ. १९ गा. ४५-५२, पृ. ६५-६६ गा. २९-३२, पृ. ९६ गा. ३०-३२, पृ. १२५ गा. ५४-५७, पृ. १६३ गा. २३-२४, पृ. १९३ गा. ५०-५१, पृ. २०७ गा. ४७२-७७, पृ. २०८-९ गा. ५३६-३८, पृ. २२४-२५ गा. ९१-९७, और पृ. ३३१ गा. ६९-७१ ॥ ६. विक्रम संवत् १२१६ में वर्द्धमानपुर में रचे गये इस चरित्रप्रन्थ की सं. १४९४ में कागज पर लिखी गई एकमात्र प्रति हमें मिली है । For Private Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] - प्रस्तावना बृहद्गन्छीय देवसूरिके वंशमे अजितदेवसूरि आनन्दसूरि (पट्टधर) २ प्रद्योतनसूरि (पधर) ३ जिनचन्द्रसूरि (पट्टधर) १ नेमिचन्द्रसूरि (पट्टधर) (आ०म० को० मूलकार) २ श्रीचन्द्रसूरि (शिभ्य) १ आम्रदेवसूरि (शिष्य) (आ०म०को० वृत्तिकार) हरिभद्रमूरि (शिष्य) १ हरिभदसू. (मुख्यपट्टधर) २ विजयसेनसू. (शिष्य-पट्टधर) ३ नेमिचन्द्र. (शिष्य-पट्टधर) ४ यशोदेव. (शि०-५०) ५ गुणाकर (शिष्य) ६ पार्श्वदेव (शिष्य) समन्तभद्रसूरि उपर लिखित पट्टयंत्र जिस अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति से लिया गया है उस प्रशस्ति को उपयोगी आद्य १८ गाथाएं और ४८ वी गाथा वाचकों की अनुकूलता के लिए दे रहा हूं अस्थि समुन्नयसाहो सव्वुत्तमपत्तविरइयच्छाओ। सुकइजुओ बहुसउणो सिरिवडगच्छो वरतरु व्व ॥ १ ॥ सुमणसमुणिंदसंसेवियकमो नायनिहियमणवित्ती । तम्मि पहू उप्पन्नो गुरु ब्व सिरिदेवसरि ति ॥ २ ॥ तस्सऽनयम्मि जाओ निग्गंथसिरोमणो सुवित्तो वि । सिरिअजियदेवसूरी कयंतबुद्धी वि कारुणिओ ॥ ३ ॥ तो सजाया आणंदसारिणो जणियजणमणाणंदा । तत्तो य तिनि जाया मुणीसरा भुवणविक्खाया ॥ ५ ॥ सिरिनेमिचंदसरी पढमो तेसि न केवलाणं पि । अवराण वि समयसहस्सदेसयाणं मुणिंदाणं ॥ ५ ॥ जेण लहुवीरचरियं रइयं तह उत्तरज्झयणवित्ती । अक्वाणयमणिकोसो य रयणचूडो य ललियपओ ॥ ६ ॥ वीओ वीयसमुग्गयचंदकलानिक्कलंकतणुजट्ठी । सिरिपज्जोयणमूरी तिव्वतवञ्चरणकरणरओ ॥ ७ ॥ तइया य अमयरसवरिससरिससदेसणाजणाणंदा । जिणचंदररिपहुणो ससहरकरसरिसजसपसरा ॥ ८ ॥ सच्छत्त-गुरुत्त-गहीरयाहिं लीलाए जेहिं निजिणिया । फलिहमगि-गयणवित्थर-दुद्धोदहिणो गुरुतरा वि ॥ ९॥ . तो तेहिं दुन्नि विहिया निययपए सूरिणो भुवणग(म)हिया। सरला विलसिरचित्ता समुन्नया दंतिदंत ब्व ॥१०॥ १. इन अजितदेवसूरि के पूर्वाचार्यों की परम्परा का क्रम आगे मूलकार नेमिचन्द्ररि के परिचय में दे दिया है। २. ये हरिभद्रसूरि आम्रदेवसूरि के गुरुभाई श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य है। ३. अनन्तनाथचरित के कर्ता ॥ ४-५. इन दो आचार्योने आ० नेमिचन्द्रीय अनन्तनाथचरित का संशोधन किया । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशवृत्तिकार आम्रदेवसूरि [१३ सिरिभम्मएवसरी पढमो तेसिं समस्सिरीभवणं । गुरुरयणरोहणगिरी सरस्सईवासवरकमलं ॥ ११ ॥ जो अक्खाणयमणिकोसवित्तिवियरणकयत्थकयलोभो । सन्चोदारजणाणं चूडारयणत्तमुन्वहइ ।। १२ । तह बीओ सिरिसिरिचंदसूरिनामो मुणीसरी संतो । संतोसपरो स-परोवयारकरणेक्कमणवित्ती ॥ १३ ॥ सिरिअम्मएवमरीहिं नियपए सूरिणो कया चउरो । हरिभद्दरिनामो सिग्घकई पढमओ तेसिं ॥ १४ ॥ सिरिविजयसेणसरी बीओ ससितेयकित्तिभरभूरी । एगंतरोववासी तक्का-ऽलंकार-समयन्नू ॥ १५ ॥ उद्दामदेसणझुणिपडियोहियसव्वभव्वविसरस्स । तस्स कगिट्ठो सिरिनेमिचंदबरी वि मंदमई ॥ १६ ॥ ताण तुरीओ जसदेवसूरिनामो मुणीसरो मइमं । लक्खग-छंदा-ऽलंकार-तक-साहित्त-समयन्नू ॥१७॥ सिरिविजयसेणमुणिवइपयम्मि सिरिनेमिचंदखुरीहिं । ठविओ समंतभदाभिहाणसूरी गुणावासो ॥ १८ ॥ संसोहियं च ससमय-परसमयन्नूहिं विउसतिलएहिं । जसदेवसरिमुणिवइ-समंतभद्दाभिहाणेहिं ॥ १८ ॥ वृत्तिकार आम्रदेवसरिने अपने तीन शिष्यों का नामोल्लेख तो प्रस्तुत वृत्ति की प्रशस्ति में किया है। इनके अलावा जिन दो अपर शिष्यों का उल्लेख अनन्तनाथचरित की प्रशस्तिमें (गा. १५, १७) मिलता है वे हैं- यशोदेवसूरि और विजयसेनसरि । विजयसेनसूरि को उनके सब शिष्यों में प्रधान कहे गये है। वृत्तिकार ने पांच शिष्यों में से तीन शिष्यों को अपने पट्टधर के रूपमें स्थापित किये थे। किन्तु मुख्य पट्टधर के स्थान पर अपने गुरुभाई श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य आशुकवि हरिभद्रसूरि को स्थापित किये थे (देखो अनन्तच० प्र० गा. १४वीं)। इन आशुकवि हरिभद्रसूरि ने २४ तीर्थंकरों के चरित्र की रचना की थी जिनमें नेमिनाथचरित्रै अपभ्रंश में और मल्लिनाथचरियं तथा चंदप्पहचरियं प्राकृत में है । शेष अनुपलब्ध चरित्रों की भाषा का पता नहीं। आम्रदेवसूरि के द्वारा आख्यानकमणिकोशवृत्ति के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रन्थ के रचे जाने का उल्लेख कहीं पर भी नहीं मिलता । स्वयं आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने भी अपने अनन्तनाथचरित में आम्रदेवसूरि की केवल एक ही कृति आ० म० कोशवृत्ति का उल्लेख किया है (देखो अनन्तनाथच० प्रशस्ति गा. १२ वी )। वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने अपने नहीं किन्तु अपने गुरुभाई श्रीचन्द्रसूरि के प्रकाण्ड विद्वान् शिष्य हरिभद्रसूरि को अपने प्रधान पट्टधर के रूप में स्थापित किये इस बात का उल्लेख आम्रदेवमूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने अपने अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति गा.१४ में किया है। इससे पूरे समुदायगत शिष्यमंडली में से योग्यता देख कर तेजस्वी शिष्य को योग्य स्थान देने की आम्रदेवसूरि की विवेकवृत्ति साबित होती है तथा यह भी सिद्ध होता है कि उन्होंने अपने गच्छाधिपतित्व को सार्थक किया था। साथ ही नेमिचन्द्रसूरि में पाण्डित्य होते हुए भी वे गुरु के निर्णय का बहुमान करते थे, विनीत थे भौर प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न भी थे-यह भी सिद्ध होता है। . १. "चउवीसइजिणपुंगवसुचरियरयणाभिरामसिंगारो । एसो विणेयळेसो जाओ हरिभरि त्ति ॥" हरिभद्रसूरिकृत चंदप्पहचरियं (अप्रकाशित) की प्रशस्तिगत गाया। “ विरइयबहुप्पबंधो गुरुपयसरणोवलद्धसुहलेसो । एसो विणेयलेसो जाओ हरिभद्दसूरि ति ॥" -हरिभद्रसूरिकृत मल्लिनाहचरिय (अप्रकाशित) को प्रशस्तिगत इस गाथा से भी इनकी अनेक रचनाओं का प्रम २. नेमिनाहचरिउ की ताडपत्रीय प्रति जेसलमेर के जिनभद्रसूरिज्ञानभंडार में है । अपर दूसरी विक्रम की सोलहवी शती में लिखी गई कागज की प्रति श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीयसंस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद में है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] प्रस्तावना मुनिचन्द्रसूरि का उल्लेख आ. म. को. मूलकार नेमिचन्द्रसूरि ने अपने तीन ग्रन्थों में किया है किन्तु आ. म. को. के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने तथा आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमचन्द्रसूरि ने उनका उल्लेख नहीं किया । इस से यह अनुमान होता है कि बृहद्गच्छीय समुदाय में विद्यमान गुरु-शिष्य- पट्टधर आदि की संख्या बहुत बडी थी । अत एव तत्तत् प्रन्थकारों को अपनी परंपरा के उल्लेख में एक मर्यादा स्वीकृत करनी पडती थी । बृहद्गच्छीय रत्नप्रभसूरि अपने नेमिनाहचरियं ( प्राकृत, अप्रकाशित, रचनासं. १२३०) में एवं उपदेशमालावृत्ति ( रचना सं. १२३८) में मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य वादिदेवसूरि के शिष्य के रूप में अपनी परम्परा बताते हैं। उक्त दोनों प्रशस्ति में वादिदेवसूरि के शिष्य भद्रेश्वरसूरि का पट्टधर के रूप में उनका उल्लेख है और वादिदेवसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि का वादिदेवसूरि के गृहस्थावस्था के भाई के रूप में उल्लेख है । और इनके सिवाय बृहद्गच्छीय अन्य आचार्यों का कोई परिचय नहीं मिलता । प्रस्तुत प्रस्तावना में आये हुए आचार्यों के नाम जैसे ही नाम अन्य कई ग्रन्थों की प्रशस्तिओं में आते हैं, इनमें से कौन भिन्न और कौन अभिन्न है यह —–पट्टावलियों, प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थप्रशस्तियों, प्रबन्धों, रासों, एवं लेखसंग्रहों से खोज करने पर जाना जा सकता है। परंतु समयाभाव के कारण यह निर्णय करना अभी संभव नहीं । ग्रन्थकार आचार्यों के एवं उन के गच्छ, कुल और समुदाय का पूरे परिचय के लिए क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया जाय तो लेखकों, शोधकों की हमेशा की परेशानी दूर हो सकती है । इस सम्बन्ध में श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाईने अथक परिश्रम कर के ‘जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रन्थ वर्षों पहले तैयार किया था किन्तु श्री देसाई को मिली हुई सामग्री अपूर्ण थी, उनके बाद प्राप्त सामग्री का समग्र रूप से अध्ययन कर के इतिहास ग्रन्थ तैयार किया जाय तो एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा । श्री देसाई के बाद अल्पाधिक प्रमाण में एतद्विषयक प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं परंतु सन्तोषजनक सामग्री वाले ग्रन्थ की अपेक्षा बनी ही रही है । विक्रमसंवत् ११९० में गुर्जरेश्वरं जयसिंहदेव के सुराज्य में धवलक्कक (धोलका - गुजरात ) नंगर में ( प्रशस्तिपथ ३२) मूलकार मिद्रसूरि के आदेश से, शिष्य की और उद्योतन नामक श्रेष्ठी की भक्तियुक्त प्रार्थना से यशोनाग श्रेष्ठी की वसति में प्रारब्ध और अच्छुप्तनामक श्रेष्ठी की वसति में (प्र. प. ३३) समाप्त की गई आख्यानकमणिकोश की वृत्ति केवल सवा नौ मास की अवधि में आम्रदेवसूरि ने रची है । ग्रन्थ का श्लोक प्रमाण १४००० है ( प्र. प्र. ३४ ) । इतने कम समय में इस महान् ग्रन्थ की रचना उनकी असाधारण प्रतिभा एवं पांडित्य की द्योतक है । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के लिए प्रार्थना करने वाले उद्योतन श्रेष्ठी के पूर्वजों का वर्णन इस प्रकार है मेदपाट (मेवाड ) प्रदेश में मारावल्ली गांव के अल्लक नामक श्रेष्ठी किसी कारणवश अपना घर छोड़कर आबू की तलहटी के कासहूद नामक गांव में आकर रहे थे । अल्लक श्रेष्ठीने कासहूद में पौषधशाला बनवाई। उन्हें सिद्धनाग नामका पुत्र था । सिद्धनाग को कासहृद गांव अनुकूल न होने के कारण सो धवलक्कक ( धोलका) नामक नगर में आकर रहने लगा । धवलक्कक में मोढचैत्यगृह नामक जिनमंदिर में सिद्धनाग ने सीमंधरजिन की मनोहर प्रतिमा बनवाकर स्थापित की । सिद्धनाग को वृद्धावस्था में उद्योतन नामका पुत्र हुआ । उसने आम्रदेवसूरि को प्रस्तुत वृत्ति की रचना के लिए प्रार्थना की थी ( प्रशस्ति पद्य १४ से २१ ) । प्रशस्ति के १४ वे पद्य में “ यो मेदपाटाध्युषितोऽपि धीमान् " इस प्रकार का विशेषण अल्लक श्रेष्ठी को दिया है । यह मेवाड प्रदेश के अधिकांश लोगों में बुद्धि का तत्त्व कम होने को तत्कालीन लोकमान्यता का सूचक है । For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशवृत्तिकार आम्रदेवसूरि तथा वृत्तिप्रशस्तिसारांश [ १५ प्रस्तुत ग्रन्थ का मुद्रणकार्य वाराणसी में हुआ है । प्राथमिक प्रूफ वाचन श्री पं. कपिलदेव जीने एवं अन्तिम प्रूफ वाचन भारतीय दर्शनों के गंभीर अभ्यासी श्री पं. दलसुखभाई मालवणिया, ने कर के हमारा बोझ हलका किया है । अतः उन्हें धन्यवाद देता हूँ । इस प्रस्तावना का हिन्दी अनुवाद श्री रूपेन्द्र कुमारने किया है । वे भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं । 1 चैत्रकृष्णा १ ता. २१-३-६२ नसावाडा, मोटी पोल के सामने जैन उपाश्रय, अहमदाबाद For Private निवेदक मुनिश्री पुण्यविजयजी की आज्ञानुसार विद्वज्जनविनेय पं. अमृतलाल मोहनलाल, भोजक Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Introduction The Akhyanakamanikosa (the treasure-house of jewels of stories ) was composed by Sri Nemicandrasūri between c. 1129-1139 V. S. (i. e., c. 1073-1083 A. D.). He was the author of the Sukhabodhavytti on the Uttarădhyayanasūtra, the Prāksta Rainacaďakatha and the Prakrta Mahāviracariam. In V. S. 1190 (i. e., 1134 A. D.) Amradevasûri, pupil of Jinacandrasuri of Bhadgacchha completed his Vrtti on the above work, in the city Dhavalakka-pura, i. e., modern Dholkā in Gujarat. The present work contains both the original text and its commentary. The importance of these two works can never be underestimated. The original text was composed before the birth of Hemacandräcārya. The commentator was a contemporary of Hemacandra and the famous Caulukyan ruler Siddharăja Jayasimha. It may also he remembered that the Akhyānakamaņikosa was composed within only a decade of the composition of the Dharmopadeśamäla-vivarana which, again, is an important mine of such stories, full of cultural data. A critical and comparative study of both the above works is bound to give the reader very interesting linguistic and cultural data. The Akhyānakamaņikośa (henceforth referred to as AMK.) is mainly devoted to Dharma-kathas and is divided into 41 adhikāras or chapters. The first adhikara describes the four types of Buddhis, namely, autpătiki, vainayiki, karmajā and pāriņāmiki, and says by way of catch-words, (e. g., BharahaNimitliya-Karisaga-Abhayāi) that, Bharata, Naimittika, Karşaka and Abhaya and others are the examples respectively of each of these four classes of intellects'. These are elaborated in the Vrtti of Amradeva (henceforth refered to as AMKV.). Bharaha, Bharata here should be taken in the sense of a Nata, an actor and a dancer. The four intellects and their illustrations are referred to in the Avaśyaka Niryukti, gātbās 937 ff. and commented upon with elaborate stories by the author of the Cũrni', and by commentators like Haribhadrasüri' and Malayagiris. The Niryukti gives only catch-words as in the AMK., while the Cürni and the Vrtti on Av. Nir. give details of stories. A comparison of the account of AMKV. and the above commentaries on Āv. Nir, shows that not only is the AMKY. account more elaborate and descriptive but it also has its own literary charm. The intellects' are also discussed with reference to stories, but in a concise form, by Jinadāsa and Haribhadra, in their Cūrņi and Vftti respectively, on the Nandisutra. It may be noted that Malayagiri does not refer to the incident of supplying oil of equal weight of .tila '-seeds referred to in vv. 48-49, p. 5, AMKV. The story of Sreņika and Abhayakumāra is very popular in Jaina literature. Hemacandra also refers to it in his Trişaştisalākāpurusa-Caritra, parva 10. Big works like Abhayakumāracariyam by Upādhyāya Candratilaka are also composed. The Dharmopadeśamåla-vivarana (Dh. V.) of Jayasimhasüri, composed in V. S. 915 (859 A. D.), published in Singhi Jaina Granthamälä, no. 28, may be noted. If also refers to a number of stories of the type met with in our AMKV. A comparison of the two works will show that whereas the Dh. V. gives a summary prose account of the stories, the AMKV. is a literary composition of a higher 1. Avasyaka Corni (Ratlam ed.), Vol. I. PP. 544 ff. 2. Avasyakasutra, with Niryukti of Bhadrabahu and Vitti of Haribhadra (Agamodaya Samiti ed., Bombay, 1916), vol. II, pp. 414 ff. 3. Avaśyakasútra with Malayagiri's Vrtti (Agamodaya Samiti ed.), vol. III., pp. 516 ff. 4. Nandisutra with Malayagiri's Vitti (Agamodaya Samiti ed.), pp. 144 ff. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakathā literature order. Another importent story-work of this age is the Kathākoşaprakarana (KKP.) of Jineśvarasüri, published in the Singhi Jaina Granthamālă, no. 11. The KKP. was composed in V. S. 1108 (1052 A. D.) A third noteworthy work is the Kahārayaņakoso (KRK) of Sri Devabhadrasūri, edited by Muni Shri Punyavijayaji, the learned editor of this AMKV. The KRK, was composed in Vikrama Samvat 1158, i. e. 1102 A. D. A large number of texts of this Dharmakathā literature were composed in the Svetāmbara and Digambara traditions, especially, the available number of Svetämbara story-works is much bigger. As shown above, some of these stories have as their basis, shorter notices and accounts in Jaina canonical literature itself, including the Niryuktis, Bhäşyas, Cūrnis and Vịttis. A very good account of Digambara works is given by Dr. A. N. Upadhye in his Introduction to his edition of BỊhat-Kathākosa of Harişeņa, published in Singhi Jaina Granthamala. The number of Svetămbara Jaina texts is fairly large as can be seen from a reference to Jaina Granthāvali and the Jinaratnakośa (ed. by Prof. H. D. Velankar) or the Catalogue of Palm-leaf mss. in the Bhandaras at Pätan (G. O. Series ), or the different volumes of Peterson's reports, etc. A number of such notices will be available in the Jaina Sāhitya no Samkşipta Itihāsa written by the late Shri M. D. Desai. Some of the Jaina Kathas have their origin in the Jaina Anga texts. Incidents from the life of Mahavira are available in the Ācārānga, the Kalpasūtra, the Bhagavatisütra etc. Of the various Jaina canonical texts, especially noteworthy are the Uttaradhyayanasütra, the Näyädhammakahão. the Uvāsagadasão, the Antagada-Anuttarovavāiya-dasão, the Niryāvaliyao and the Vivågasuyam, for the wealth of Kathas they contain. Some of the accounts, of Jaina Jaymen and women (sråvakäs and Śtävikäs ), of Jaina monks and nuns and of some kings and queens, who are referred to as centmporaries of Mahavira, do contain much that is based on real facts; some of the persons are not merely legendary, for example, references to Cetaka, to Pradyota of Ujjayini, to king Sreņika of Rajagrha, to Satānika, to Udayana the famous lyrist and lover of Kauśämbi, to Uddāyana of Vitabhayapattana, are of great interest for a historian. The story of Kuņāla, the son of Asoka, and of Samprati, the grandson of Asoka, available in Bệhatkalpabhāsya throws some interesting light on Samprati and Kuņāla and may be regarded to have been based upon historical facts. There seems to be much truth in Samprati being a patron af Jainism and having helped the Jaina monks going to Dakişpåpatha (South India ). But it is indeed not an easy task to find out how much is historical and how much is legendary in any given Kathì. Sometimes when it refers to persons who were contemporary of Buddha and Mahävira we obtain references to them in both the Jaina and Buddhist literatures in which case a comparative study helps us a good deal in our judgements. But generally we come across a good number of legendary tales which are illustrative of the good or bad results accruing from the practice of virtues and vices. The characters in such stories are often shown to have attained happiness in this world, or in celestial regions and even obtained liberation by following the principles preached by Mahavira, Pārsvanātha, Neminatha or monks of their orders. Followers of beretical faiths are cleverly underrated and are shown to undergo suffering or to have been converted to the Jaina faith. A very persistent feature of these Dharmakathās of Jaina literature is the use of the motif of Jātismarana, i. e. remembrance of one's good or bad actions in the past life or lives whereby a person obtains solution of the happiness or misery experienced in this life and whereupon one follows the Jaina faith with reinforced faith. Too much use of this supernatural element sometimes mars the value of these often very beautiful literary compositions, our AMKV. being one of them, 1. Kabärayapakoso, ed. by Muni Punyavijaya, published in Sri Atmananda Jaina Granthamala, Bhavnagar (1944 A. D.) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Summary of AMKV. Apart from this, the importance of these Treasure-houses of Kathās can never be underestimated by a student of Cultural history of India. This is aptly demonstrated by K. K. Handiqui in his critical study of the Yaśastilakacampū, of Somadeva, composed in 959 A. D. The AMKV. is such a treasure-house of stories with cultural data. The first chapter deals with four-types of intellects, and gives stories of Bharata (i, e, of Roha, the son of a Bharata, dancer or Nața ), of a diviner or foreteller, of a farmer (karşaka ), of Abhayakumāra, the prince and minister of King Srenika of Rajagrha, The second chapter eulogises the virtue of charity with accounts of Dhana, a Sārthaväha, Dhanyaka who was later reborn as king Nala, Krta punyaka, Droņa, a servant, and Salibhadra, 'a very rich merchant. The story of Salibhadras is very popular in later Jaina literature and special Rāsas dealing with the life of Salibhadra were composed. In our account, the dialogue between the mother and her son Salibhadra (pp. 33-34 ) is noteworthy. It reminds one of the dialogue between Bharthari and Pingala still sung in the streets by beggars with a string-instrument. The mother of Sālibhadra tries to persuade her son from taking the life of a monk and the son harps on the transitoriness of worldly pleasures and life. The text further emphasises the desirability of giving gifts to the worthy by referring to accounts of a brahmin named Cakradhara, Candanāryā, the chief nun in the order of (and a contemporary of) Mahāvira, and of Mūladeva, a prince who was a thief. The bad results of giving undesirable food to monks are illustrated by the story of one Nāgasri. The third adhikāra illustrates the greatness of the virtue of Chastity with stories of Damayanti (Davadanti, queen of king Nala), Sītā (queen of Rāma ), Rohiņi, wife of a merchant of Pāšaliputra, Manorama, wife of Sudarśana and Subhdarā, wife of a trader. The fourth chp. illustrates the merits of Tapa or Penance, with examples of such practices of Mahāyira, Višalyā, Sauri (Vasudeva ), Viramati (Damayanti in a previous birth ), Rukmini the queen of Vāsudeva, and Madhu, (Pradyumna in a previous birth). The accounts of Vasudeva, Rukmini and Pradyumna may be compared with those in the Vasudevahindi of Samghadāsa. The fifth chapter illustrates Bhāvanā, the mental attitude behind one's actions, with stories of Dramaka, Bharata Cakravarti and Ilāputra. The sixth chapter illustrates the value of Right Faith (samyktva ), i. e. faith in the right principles of Jainism. Stories of Sreņika and Sulasă are referred to. Sulasā, wife of Ratbika Nāga in the reign of Sreņika at Rājagļha is a very devoted follower of Mabāvira. She is referred to in the Sthānāngasūtra and the Samavāyāngasūtra. The seventh ch. shows the merits of seeing and adoring the image of a Jina from the lives of Sayyambhava, the pupil of Arya Prabhava and the life of Ardrakumāra. The story of Ardrakakumāra and Abhaya, the son of Sreņika is known from Jaina canons. Sayyambhava is the famous author of Daśavaikālikasūtra. 1. Yasastilakacampū and Indian Culture, by K. K. Handiqui, published in Jivarāja Jaina Granthamāla, Sholapur (1949 A. D.). 2. Compare Krtapupya's account in Kathākośaprakaraņa (KKP.) of Jineśvarasüri, PP. 64 ff. 3. Salibhadra is referred to in Stbanāngasutra, 10. 3; also see KKP., pp. 55 ff. 4. Compare account of Müladeva in Dhúrtākhyāna of Haribhadra, ed. by Dr. A. N. Upadhye and in the Niśitha Cúrni, vol. I. p. 104, vol. 4, p. 343. Also see the account of Müladeva in the Tikā of Devabhadra on the Uttaradhyayana sutra, and in KKP., PP. 71 ff. 5. Sthânăngasūtra (Agamodaya Samiti ed., Bombay, 1918-20 ) 9. p. 455: Samavāyāngasūtra (Agamodaya Samiti, Bombay, 1918), p. 154. Sätrakrtāngasútra, 6th adhyayana, and Niryukti on it. 7. See also, Niśitha Cūrņi vol. II. p. 360, vol. III. p. 235. Sayyambhava is referred to in many Sthaviravalis including that of Nandisutra and of Hemacandra. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Summary of AMKV. The eighth adhikāra describes stories of one Dipakaśikha, a servant (karmakari), Navapuşpaka, a gardener (engaged in selling flowers and garlands-mālākāra ), Padmottara, a servant of a sea-faring merchant (nauvittakakarmakari ), and Durganāri, and old lady from Kayandi (Kakandi, modern Khukhundo in U. P.), all of whom obtained merits by worshipping the Jaina-image. The story of Gandharvadattā, in the legend of Karmakari, is known to Vasudevahindi, pp. 126-154. The ninth chp. praises the good results obtained by proper adoration of the Jina image after ceremonial worship. The chapter gives stories of Bakula, a mäläkära, Seduvaka, a brahmana' and Nanda, a rich merchant (śreşthi ). In the story of Bakula (p. 114, v. 24), it is said that further account of Ratnacüda and his beloveds Tilakasundari and others may be known from Rayanacüda (Ratnacūda) which seems to be a reference to an earlier work, Ratnacūda-katha. Next to Jina is the pious Jaina monk, the teacher, who should be duly adored. Fruit of obeisance to the Sadhu is illustrated in the tenth chp. in the account of Hari, i. e. Vasudeva Krşņa. The eleventh chp. deals with sāmāyika and its good effects even though practiced without knowing it in full details. This is illustrated from the story of Samprati, the Mauryan ruler, who was son of Kuņāla and grandson of Asoka. The story shows that Samprati, converted to Jaina faith by Arya Suhasti, arranged Jaina Rathayātrās, helped Jaina monks in going to Anārya lands,' and asked the merchants in his state to give alms to Jaina monks from their shops (things which the monks could eat without violating their rules of conduct). This shows that in this age, the monks probably could not get sufficient food to live on. The same account is available in the earlier Bphatkalpa-- Bhåşya and Curņi, edited by Muni Punyavijayaji. This account further shows that Kuņāla was made blind because his step-mother changed a letter in a written order of Asoka. Kuņāla was an expert in Gandharva-vidyā (science of music, singing ). These incidents about Kunala, Asoka and Samprati, noted in ancient Jaina texts, seem to be fairly reliable literary sources and deserve to be referred to in a history of the Mauryan rulers. What is especially interesting is the name of mother of Samprati given in the AMKV. (p. 124, vv. 27,42). She was known as Sarayasiri, i. e., Saradasri. The same is also available in the account of Kunälakumara given in Dharmakirti's Vrtti on Devendra sūri's Caityavandana-Bhăşya.. The AMKV. p. 125, v. 67, says that further information about future of Samprati may be read from "Nisihão", i. e. the Nišithasútra. Obviously this seems to be a reference to Nišithă-cūrņi which gives Samprati's account. The twelfth chp. deals with benefits of hearing the teaching of the Jaina Canons (agamas). Cilātiputra, the son of a maid-servant of a merchant named Dhana, and Rauhineyaka, a great thief near Rajagrba, are said to have profited from such teachings of the Jina. 1 The story of a leper comming in the assembly where Mahavira is preaching, and the inquiry of Sreņika about the leper, etc. are well-known to Jaina Avašyaka literature, and to the texts op Mahavira, Sreņika and Abhaya, See also Upadešamālā-tikā of Ratnaprabhācārya ( composed in 1182 A.D.), pp. 489 ff, 2. Cf. with this the following - 3fCWritetsfHeat #feat fofagauti raat gyar ife दमिले य घोरे ॥ ३२८९ ॥ The comm., based on earlier Cirni on his verse, states - स सम्प्रतिनामा पार्थिवः अन्ध्रान् द्रविडान् चशब्दाद् महाराष्ट्र-कुडकादीन् प्रत्यन्तदेशान् घोरान् प्रत्यपायबहुलान् समन्ततः साधुसुखप्रचारान् साधूनां सुखविहरणान् 3 dia art I - Brbatkalpasūtra with Niryukti & Bhāşya, vol. III. pp. 917-921. Also, Nišitha Cūrņi. vol. IV.pp. 128-131. 3. Sri Devavandana (Caityavandana) Bhäşya with Sri Samghācāra-Vrtti of Dharmakirtti (pupil of Devendrasuri ). pp. 347 ff. For a summary of the story of Kuņāla, see, J. C. Jaina, Life in Ancient India as depicted in Jaina Canons, p. 390; for Buddhist version of the story, Law, B. C.. Geographical Essays, pp. 44 f. See also, Sanghåcåravidhi (Comm. on Devendra's Devavandana-bhäşya, op. cit.). pp. 279 ff. Also sce, Avasyaka Vrtti of Haribhadra, I. pp. 371 ff; UTR., pp. 186 ff., Nayadhammakahão, 1.18. 5. Also in Trişastišalakäpuruşacharitra, of Hemacandra, parva 9. Vyavahārasūtra bhäşya and vștti, uddeśa, 2. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Summary of AMKV. In the thirteenth chp., a Bull, a Buffalo (paddaya-pãdo in Gujarati), a Snake, one Mintha (hastipaka, i.e., keeper of elephants ), the merchant Sudarśanal and the brāhmaṇa Somapaprabha are said to have profited by counting (remembering, muttering) the Navakāra (Namaskāra ) mantra. Repeated muttering of the above mantra, which contains obeisance to Jina, Siddha, Acārya, Upadhyāya and Sådhu, results in elimination of evil effects of bad deeds and results in aversion to worldly life. Yava-sadhu, who was the Yava-king of Yavapura before retirement is cited as an illustration in the fourteenth chp. The story of this Yava (Yavana originally in some earlier lost source?) is interesting. His son is called Garddabha, which reminds us of the story of Kālakácărya and Garddabhila. Anoliyā, the daughter of Yava was imprisoned in an underground cell (bhūmiharabhūmigrha ) for incest, by Dirghaprstha, the minister, according to our text (pp. 146 ff.) and by Garddabha, her brother, according to the Bșhatkalpa-bhāşya and Cūrņi, which give the story. The Bphatkalpabhāşya calls her Adolia (Bșhatkalpasūtra, op. cit., vol. II. pp. 359 ff. găthas 1155 ff.).' The fifteenth chp. emphasises the importance and benefits of observance of vows etc. Examples of Dāmannaka, a fisherman (dhivarapurisa), a Brahmin lady, Candacūda, a kulaputraka, Giri, a Domba by caste, Rājahamsa and Kunda, a wood-cutter, are cited. The sixteenth chp. refers to the benefits of begging pardon for one's misdeeds and confessions (mithyāduşksta ). The legends referred to are those of a Kşapaka monk, Candarudra, a monk easily irritated, Queen Mrgāvati of Kausāmbi who was a contemporary of Mahavira, and King Prasannacandra of Potanapura. Of those the stories of Mrgāvati and Prasannacandra are well-known to Jaina Canonical literature. The next adhikāra is devoted to stories about practice of Vinaya, i, e., discipline, courtsey and good behaviour. The stories given are of Citrapriya Yaksa (the same as the Surapriya Yakşa whose account is given in the Avaśyaka Curņi) and of Vanavāsi - Yakşas on the mountain Sammeta. The story of Surapriya Yaksa (of Saketa) includes an incident from the life of King Satānika and his queen Mrgāvati. The eighteenth chp. refers to encouragament and propagation of Jaina faith pravacanonnati-tirthaprabhāvanā) as was done by a prince Vişnukumāra, by the well-known monks Arya Vajra and Siddhasena Divakara. The Avaśyaka Niryukti and Cūrni refer to incidents from the life of Vajrasvāmi, while account of Siddhasena Divākara is known from Kathā-works. The unpublished Kahāvali of Bhadreśvara also refers to him. Besides the above two saints, Mallavādi, the famous author of DvādaśāraNayacakra, Arya Samita, the teacher of Arya Vajra and Arya Khapuța who is said to have defeated Buddhists at Broach (Bharukaccha) are given. Mallavādi's account is also available in the unpublished Kahāvali while Arya Khapuţa's account is known to Bșhatkalpa-bháşya and Cūrņi. The Niśitha also refers to Arya Khapuța, Arya Vajra, Arya Siddhasena and Arya Sayyambhaya. The next addhikāra emphasises the worthlessness of worldly life and the need for practicing the Jaina Dharma which leads to good results hereafter. A story of three friends is given. Human body is the principal means to the above end, some turn it to better use, others misuse it. A story of sons of merchant class (vaņika putra ) is given. To spend this life in a pious way being of great importance, it is necessary to see that one keeps good company. Good company leads to very 1. For references to story of Sudarsana, see, Abhidhāna-Rajendra, vol. VII. pp. 948 ff. 2. For the importance of this story having probable relation with accounts of Kalaka and Garddabhilla, see Suvarna bhūmi men Kalakācārya (Hindi) by U. P. Shah. 3. Also see, Dh. V., PP. 109 ff., Mahaviracarita of Nemichandra, and in Hemacandra's Trişaşti, parva 9; Sanghācāra Vitti on Devavandana Bhäşya, pp. 17 ff., Upadeśamala-tikā (henceforth UTR) of Ratnaprabha, pp. 113 ff.; Av. Ca., p. 87 f., etc. for accounts of Surapriya Yakşa and Mrgavati. 4. Accounts and references of these monks are available in many Jaina works-Sthaviravalis etc., and Katha-works, etc. Also see, Dh. V., pp. 151 ff. for a short account of Prabhava and Sayyambhava. 5. For story of three friends, see UTR., PP. 167 ff. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Summary of AMKV. good actions and merits. The illustrations, given in chp. 21, are - Prabhākara, a brāhmaṇa, two parrots, and Kambala-Sambala, the two young bulls of Mathura. 1 Story of Kambala-Sambala is well known to canonical literature and is referred to in Av. Nir. etc. A person easily led away by senses and wordly pleasures ultimately suffers. So one should always be alert and watchful about senses and sense-objects, since even big saints are likely to fall, as happened in the case of a monk who was a contemporary of Arya Sthulabhadra and the courtesan Kośā. It is said here (p. 183, vv. 1-2) that Sthūlabhadra became a pupil of Sambhütivijaya, when the ninth Nanda was ruling and when Sagadāla (Sakațāla) of Kappaya-vaṁsa (Karpaţa-vamsa) was the minister. The story of this monk Sihaguhāitta is narrated in the 22nd chapter. The AvaśyakaVivarana is referred to on p. 184, v. 24. In the same chp. it is said that a man who succumbs to such weakness of senses obtains much less pleasure when compared to the ultimate pain and misery resultant from such acts. This is further illustrated by the accounts of Bhadrā, wife of a śreşthi, a son of a merchant of Mathura, a prince named Gandhapriya, a king who used to eat human flesh and Sukumarikā,' a queen. The last story leads to another topic, that since females are generally fickle-minded and crooked, they need not be trusted. This is suggested in the 23rd cbp. with the examples of one Nūpurapandita, wife of a śreşthi, and Bhavabhațţikā, the daughter of a śreșthi named Bhānu, and another lady who was daughter of Dattaka. The story of Bhāvabhațţiká includes sub-stories (aväntarakatha) of Vaņikputra & Jinadatta, Amaradatta & Mitrānanda, the story of Chārudatta (in Apabhramśa ),' etc. The story of Chārudatta may be compared with the same in the Vasudevahiņdi. Chārudatta's story is well-known to the different adoptations or versions of Guņādhya's Bphatkathā. The AMKV. account refers to port (velāulu ) of Priyangu, to Jāvā (Javaņadiya), to one Usirāvattapuru (p. 213), to Suvarnabhumi, rivers Vegavai and Sindhuvai, the Aja-patha and the Tarkaņa-vişaya. Attachment, jealousy, anger etc. destroy the good effects of penance etc. and lead to miseries even in this life. In illustration, the 24th chp. gives stories of a wife of a merchant (vaņik, bania ), a boatman named Nanda, a warsior (bhata ) called Cança, Citra & Sambhūti, the two sons of Mātanga caste, one Māyāditya, Lobhanandi and a merchant with a purse (nakulakayanik; nakula = money-bag, purse ). Protection of life, pity on animals and beings is a virtue which is illustrated in the 25th chp. in the stories of the son of a Sräddha (= śrāyaka, a Jaina lay man), Gunamati, daughter of a freşthi, Meghakumara, son of King Srenika ( Bambhasära of Magadha ), and Dāmannaka, a fisherman. Followers of the Jina-Dharma sometimes attain liberation even though not retired as monks, and living a householder's life, as shown in the legends of two śrāvakās and a king called Chandrāvatamsaka (27th chapter ). Following the Dharma not only leads to self-advancement but also enlightens others. The 28th chp. illustrates this with stories from the life of Abhaya and Sreņika, and from a story in which composition of three different quarters of a verse, from a given fourth quarter (pāda ), leads to enlightenment. 1. The story of Kambala-Sambala in the AMKV. is taken from Pkt. Mahaviracarita of Nemichandra, the author of AMK. 2. For Sukumärika, sec, Dh. V. pp. 198 ff. The Sukumália of Jñātāsūtra, 1.16 is the Nāgaści of AMKV. pp. 44-45. 3. The story of boatman Nanda, in AMKV., PP. 219 ff., may be compared with Dh. V., pp. 211 ff. 4. See Sárthaväha, by. Dr. Moti Chandra, for a discussion and identification of places referred to in stories of Cärudatta. 5. Cf. the Chitta-Sambhūiya adhyayana in Uttaradhyayansútra, adhy. 13 in SBE, vol. XLV., PP. 56 ff. 6. Cf. UTR., 371 . for story of Meghakumāra; Nayadhammakahão, 1.1. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Summary of AMKV. A person not making confession of his misdeeds etc., obtains misery. Examples, given in the 29th chp. of the above, are the stories of a mother & son, a tåpasa knowing three Vedas, Rşidatta, a tåpasa-kanya and a royal wrestler (malla ) who was known as Matsyamalla. In the 30th chp, it is said that infatuation ( moha ) leads to hell and rebirth as animals, insects etc. Examples of a Tāpasa, a merchant Sagaradatta, Nanda, a jeweller (maņikāra ),' and mother of Lalitānga are cited. A few blessed souls, though young and rolling in riches, are able to practice severe penance to the extent of dying of voluntary starvation. The 31st chp. cites stories of Dhandhanakumara' and Jambu, son of a merchant (ibhya ), in illustration. This Jambu is the famous great Jaina monk Jambūsvåmi. Practice of Dharma is not a monopoly of the upper class. Even the low born can become great saints, as shown from the stories of Harikesin and Nandişeņa ( 33rd chp.). The next chp. suggests that as a general rule it is advisable for monks to live in a community of monks (gurukulavāsa ) rather than wander alone, since one moving alone would easily be seduced by women. Famous stories of Arhannaka' and Külavāla are cited. In chp. 34, it is shown that even mere sight (darśana ) of (Jaina ) monks who are self-controlled and peaceful, leads to merits. Stories of a thief, and the two sons of a priest (purohita) called Bhrgu are cited. One always obtains the fruits of his good actions performed earlier either in this life or in a previous existence; this is seen in the stories of Karakandu, the prince of king Dadbivăbana of Campă, prince Nami, 1. Cărudatta and Bandhudatta (chp. 35). Great souls like Naravikramakumāra, whose account is given in chp. 36, do not become proud in prosperity, nor do they loose patience and wisdom in adversity. What is destined to happen, will certaiuly take place, inspite of human effort to the contrary. This is shown from the lives of Varahamihira, the famous astrologer (who, according to Jaina traditions, was brother of Bhadrabahu ),11 (the fate of the Yadavas of Dvāraka, Mitrānanda, a son of a śreşthi, and the story of a cook (chp. 37). It is no use crying over what is lost or dead. This is demonstrated from the lives of Bharata Cakravarti, Sagara, the second Cakravarti, Baladeva, and Rāma, brother of Lakşmaņa (chp. 38). Stories of Sagara and his hundred sons turned to ashes, of Balarama, and Rāma-Lakşmaņa are according to Jaina versions of these epic stories known from various earlier sources like the Paumacariyam etc. 1. The story of Attapamalla is well-known. Wrestling competition at Sopără etc. are referred to in Av. Co. and Vștti of Haribhadra on Av. Nir. Also see Dh. V., pp. 213 ff. 2. The story of Nanda Maņikära is given in Näyādhammakabão, 1.13. See also UTR. PP. 188 ff. Jambu's accounts are available in canorical liferature, sthaviravalis, etc., also see UTR., 136 ff. Harikesin is referred to in Uttaradhyayana, Chp. 12, SBE, vol., XLV., pp. 50 ff. Nandişens was a contemporary of Mahavira, he is known in Upadeśamāla literature. See also Dh. V., 127 ff. Also see, Abhidhāna Rajendra, vol. IV. pp. 1757 ff. 7. Story of Arhannaka is given in Uttaradhyayana sū. Sukhbodha. Tika, 2.9; also see Abhidhāna Rajendra, vol. I. pp. 756 ff. Kalavala is known to Avasyaka Literature, and commentories on the Uttaradhyayana. See also, Abhi. Raj. vol. III. PP. 639 ff. Karakandu story is very popular in both the sects, separate works like Karakanducariu are known and published. Also see, UTR., PP. 395 ff; Dh. V., pp. 116 ff. Commentators on Uttaradhyayana, 9 adh. refer to him as one of the Pratyekabuddhas; also see, Abhi. Rajendra, vol. III. PP. 357 ff. Stories of Nami and the other three Pratyekabuddhas are given in ommentories on the Uttaradhyayana, op. cit., the Uttarădhyayana devotes a whole adhyayana to Nami-pravrajya. 11. For references to accounts of Varahamihira, see, Abhi. Raj. VI. 892, and vol. V. 1370 ff. 9. Jain Education Interational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Style etc. of AMKV. In this world, even one's own kith and kin turn into enemies, then why should there be any attachment ? Chp. 39 illustrates this with reference to Suryakantā, the queen of king Predesi of Kekaya country ruling from Svetavikā (Seyaviyā ), Culaņi, the wife of a brāhmaṇa from the city of Kampilla (Kämpilya) in the Panchäla-janapada, Koņika (King Ajätasatru ) who put his father Sreņika into prison, Sankha, husband of Kalāvati, Bharata the son of Rşabhadeva, and king Kanakaketu of Teyalipura, Chp. 40 deals with futility of attachment to wealth etc., when all these are evanescent. Crying over the dead etc., is a mere social display, a tradition only, which really is of no avail. Stories of Sāvitri, a brāhmana lady, a minister of some king, the mother of Arahannaka, Baladeya and a prince named Kulānanda are given. The wise do not mourn over the dead as is shown from the story of a farmer in whose family all the members showed this virtue on the death of the son. The last adhikära shows that those who are wise, patient, discriminating and strong in virtue, bear all miseries and remain unpurturbed as was done by the Jina Parsvanātha and Tirtharkara Mahävira wbo patiently bore all pasargas (calamities, disturbances, miseries) during their meditations and wanderings. Examples of saints Gajasukumāra* and Metārya, and Sanatkumāra Cakravarti are also given. In giving the above summary we have cited only a few references to sources of some of these stories from Jaina Canonical literature and to other versions of such stories. Works like KRK., KKP., Dh. V., Sanghacara-Vștti on Devendra's Devavandana-bhāşya, Kabāvali of Bhadreśvara give a number of stories which can be compared with the same Kathas in the AMKV. It would be interesting if a comparative study of some individual Kathas from Jaina literature is undertaken. Especially useful for all such studies is the whole of Bhäşya-Cūrņi literature from which the later writers have drawn extensively, Our text, the ākhyānakamaņikośa is of only 53 verses but the Vivarana of Amradeva on the same is a literary composition of a superior order and runs into about 14000 granthas. Though mainly in verse, it has a few short prose passages and though the major part of it is composed in Prakrit, it contains a few accounts in Sanskrit and some in Apabhramsa. Especially noteworthy is the story of Kulānanda (pp. 347–348 ) wherein each half verse is in Sanskrit while its latter half is in Prakrit. The AMKV. is written in a charming lucid style and a good many passages can pass as beautiful subhasitas as will be seen from such passages collected in Appendix 7, pp. 401 ff. Amradevasūri is a well-read scholar and a poet and has also quoted from earlier texts mostly without referring to the name of the work or its author. The learned editor, Muni Sri Punyavijayaji, has traced some of these passages and a reference to pp. 2-3 of the AMKV. will show that the author has quoted from Slokavārtika. Upadeśapada, Nandisutra etc. In certain accounts, Amradevasüri has suggested that more details may be obtained from Harivamśa' (see, pp. 71, 80, 321). It is not unlikely that he refers to a Svetāmbara Jaina text of this name rather than making a general reference to texts refering to great men and women born in the Hariyamsa. Besides Harivamsa, Viracarita, Uttaradhyayana and Bhagavatisütras and works like Nayacakra are referred to. Amradeva also refers to Niśitha, Avasyaka-vivarana and Ratnacūdā. The last may be the Ratnacūdacarita composed by Nemicandra, author of AMK. That Amradevasûri was an erudite scholar is further inferred from his selection of choice words, passages, and from 1. Cf. also the story in UTR., pp. 285 ff. 2. Cf. UTR., 351 ff; Av. Co., II. pp. 166 ff. Aupapātika sū., 6. Also see J. C. Jaina, Life in ancient India, pp. 390-391. 3. Cf. the story of Teyaliputta in the Nāyādhammakahão, 1.14, also see, UTR., pp. 329 ff. 4. Story of Gajasukumāra occurs in the Anuttaraupapātikadašā-sútra. Also see UTR., pp. 228 ff. The story of this saint is found in Avaśyaka literature. 5. For Metärya, see UTR., 267 ff: Supäsanähacarita, 409. He is known to Av. Nir., Ců., Tikäs etc. See also Abhi. Rāj. VI. PP. 378-379. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Geographical and Historical Data in AMKV. the fund of words used by him. His beautiful descriptions of cities, forests, seasons, damsels, kings and queens, camps and caravans, festivals etc. are noteworthy. Some poetic acrobatics are shown in on pp. 296 ff. in the account of Praśnottara-gosthi-Pandita-gosthi. But the importance of this work as a source for cultural data is still greater. The desi words occurring in the text and various expressions etc. are especially useful to students of old Gujarati literature and culture, for it must be remembered that the AMKV. was composed at Dhavalakkapur (Dholkā ) in the reign of Siddharāja Jayasimha in samyat 1191 = 1135 A. D. We must, therefore, make a brief survey of the cultural data available in the AMKV. We might begin this brief outline of the cultural data available in the AMKV. with the Geographical and Historical Data. It may be noted at the outset that in the following notes it is the AMKV. of Amradeva that is under consideration and not the short text of the AMK., unless otherwise specified. References to pages in brackets are references from this work. Page references of proper names are generally not given as they are already available in Appendix 2, pp. 371 ff. of this edition. The Jambūdvipa and Bharaha or Bhārata-Varsa are of course well-known. The text refers to Jauna-diva on p. 314, in the Yādava-ākhyānaka, and says that the sage Divāyaṇa (Dvaipāyaṇa ), son of Parasara was born there. According to Mahābhārata Adiparva, Krishna Dvaipayana, son of Parāśara was born in an island in the river Yamunā. The Jaina version of the destruction of Dvārakā is different from the Brahmanical version, and the Jauna-diva referred to here is difficult to identify, but since Hemacandra, in his account of burning of Dvārakā, given in Trişastišalákāpuruşacaritra, Parva 8, sarga 11, refers to Yamunā-Dvipa, it is safer to take our Jaunadiva as Jauņādiva (Yamunadvipa). The Javana-diva, in Cărudatta's caritra in chp. 23, should, of course, refer to Yavana-dvipa or Tävá. Carudatta reaches this island in a boat from the port called Piyangu (Priyangu) which is the Priyangupattana also mentioned in the Vasudevahindi p. 145, where also Cärudatta is said to have reached Javaņa-diva. There it is expressly stated that from Piyangupațțaņa, he goes to Cīņațhāņa and thence to Suvarnabhumi. Travelling in the "Pattaņas" of east and west he reaches Kamalapura (Kamboja ), Javaņa-diva and Simhala. Priyangu or Priyangupattana, a fairly big, ancient famous port (called velāula in AMKV.) must have been in west or north Bengal and is referred to in the Irdă plates. The Simhala-diva is of course modern Ceylon. Ratnadvipa (Rayaņadiva ) is also identified by Moti Chandra with Simhala-dvipa.' A Rayaņadiva is also referred to in Nāyadhammakahão, 1.9,* Nandisvaradvipa and Dhātaki-khanda. (Dhāyai-sanda) are probably mythical. They are referred to in Jaina cosmographical accounts, but it is difficult to identify them. Hamsadvipa (p. 58) from its context, should refer to Lanká (or an island nearby). In the story of Abhaya and Ardrakakumāra, in all Jaina versions, we find reference to Addaya or Ārdraka-deśa. Looking to the fact that Abhaya was living at Rājagrha in Bihar and that Ardraka was in the midst of ocean, it is advisable to try to locate it with some island in the Bay of Bengal, probably it was the Andaman island. Uttarāpatha (p. 291 ) is a general term, referring to Northern India. Ghoraśiva, a mabávratika, says that he came from Sriparvatas and was going to Jalandhara in Uttarapatha. Jalandhara included the state of Cambā on the north, Mandi and Sukhet on the east and Satadru on the south-east. Of the other countries referred to in our text, Avanti, Malaya, Angă 1. History of Bengal, vol. I. pp. 32, 133–34. 2. Sărthväha (Hindi), p. 148. 3. For Nandiśvara, see, Trişaşatisalākāpuruşacarita, vol. I (G. O. S. no. LI, Baroda ), pp. 395 ff. 397. 4. For Dhataki-khanda, see, ibid., pp. 390, 398. 5. Sriparvata is Srisaila well known for Jyotirlinga Mallikarjuna; the lofty rock overhangs the river Krşņa in the Kurnool district, also see, Law, B. C., Historical Geography of Ancient India, p. 189. 6. Yoginitantra, 1. 11, 2. 2., 2. 9., mentions it. See, Law, B. C., Historical Geography of Ancient India, p. 86. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 Geographical and Historical Data in AMKV. (Anga, with Campā as its capital), Kalinga, Videbā (Vedeha), Käsi, Kosala, Vaccha (Vatsa with Kaušāmbi as capital). Pancāla (Pāñcāla with Kampillapura as capital ), Gandhāra (Gāndhāra ), Kuru (with Gayapura-Gajapura as capital) are well-known countries, most of them ancient Janapadas, known to Jaina canonical literature. Kusattå is identified by J. C. Jaina with the country Kusåvatta (with Soriya pura, on the bank of the Yamunā, as its capital) which is the country around Suryapura in Agra district.' Keyai of Jaina canonical literature, is according to J. C. Jaina, the same as Kekaya and was situated at the base of Nepal, to the north-east of Srāvasti which again is different from Kekaya in the North.: The Capital of Keyai is Seyaviya in Jaina canons, as also in AMKV. This Seyaviya was visited by Mahāvira, who having crossed the Ganges proceeded to Surabhipura from here. Seyaviya is identified with Setavya of the Buddhists. Our text also refers to Kunkaņa (Konkaņa ), Nepāla, Medapåță ( Mevăd ), Surattha and Soraţtha ( Saurāştra, Kathiāvād ), Varādaga ( = Varāda, Berar ), Viyabbha ( Vidarbha, which is the same as Varādaga )' and Lāda which is not Ladha of Jaina canons, but Laţa in W. India, Gujarat, in which Bharuyaccha (Bharukaccha, Broach ) is situated. Madhyadeśa of course is the country extending from the Himalayas in the north, to the Vindhya in the south and from vinaśana (i. e. where Sarasvati disappears in the west to Prayaga in the east." AMKV. says that in this Madhyadeśa was situated the city called Rahamaddaņa (Rathamarddana ) 8 Tankaņa-deśa is referred to in the Sútrakstänga, 3.3. 18 and the Bhagavati, 3.2. It is said that Tarikaņa mlecchas lived in Uttarapatha and went to Dakşiņāpatha for trade, taking with them gold, ivory and other saleable commodities. The Av. Cūrni, p. 120, says that since they did not follow the language of other traders, they laid their goods in piles, placed their hands above them and lifted the hands only when they got a suitable price. Tarkaņa is mentioned in the Bșhatkathākośa and the Vasudevahindi account of Cărudatta. The Tarkaņa-people may be identified with the Tangaņas, a mountain tribe often mentioned in the Mababhārata. In one of his previous births, Nala is said to have been born, in Poyanapura in the Bahalidesa; as the son of Abhira Dhammilābha and Renuka. Now the Āv. Cũ. refers to Takşašila as capital of Bahali. It is said that this was a non-Aryan country and maidservants were brought from here.10 In the Āv. Nir., 11 Bahali is mentioned along with Adamba, Illa, Jonaga, Pallava, etc. Rşabhanātha is said to have visited these countries. Bahali may be identified with Vālhika-deśa, 1Balkh in modern Afghanistan. Padma-vişaya with its Nandanapura (p. 109), or Sri-kantha-deśa with Jayantinagari cannot be identified. In the country of Sirimangala (Srimangala ) was the city of Sarkhapura having big gopura. A Sankhapura is mentioned in Uttarādhyayana Tīkā, 4, p. 83a, where prince Agadadatta is said to have proceeded to Väräņasi from Sankhapura. Equally unidentifiable is Devanandi-deśa (p. 335 ). The AMKV, mentions several capital cities, towns, villages and small settlements (sanniveśa ). Of these, Aujjha ( Ayodhyā ), Ujjayani or Ujjeni, Paitthāņa (Pratişthānapura, modern Paithaņa ) Kanci 1. See, J. C. Jaina, India As Depicted in Jaina canonical Literature, pp. 250 ff. 2. Ibid., pp. 304, 337. Soriyapura is identified by Moti Chandra with Soron. 3. Ibid., p. 295. Law, B. C., op. cit., p. 126. 5. Note Saurastra-Surattha, Sorattha and Soratha. Probably the name Soratha had already become current in local dialect and this Sorattha was used to give it a Prākst appearance. The AMKV. gives Kundināpuri as capital of Viyabbhã on p. 46 and Kupdiņinayari as capital of Varadaga on p. 72. 7. According to Manusmști, 11. 21. 8. Not identifiable. It is referred to in Nayadh., 1. 16, and in Kathäkosa (Tawney's ed.), p. 98. 9. Av. Cū. p. 180. 10. Näyä., 1. 1. 11. Āv. Nir, v. 336. 12. Law, B. C., op. cit., p. 133. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Geographical and Historical Data in AMKV. (Kanci), Campā, the ancient capital of Anga near modern Bhagalpur, Takşasila (Taxilā ), Dvārakåvati or Bäravai (Dvärakā ), Bharukachcha (Broach ), Pandumahura (Madura ) and Mahură (Mathura). Rāyagiha (Rājagțha, Rajgir), Larkā (of Rāma story), Vesäli (Vaisali inodern Basärh), Savatthi (Srävasti, modern Sahet-Mahet), Gayapura (Gajpura ) which is the same as Hatthināura (Hastināpura, near Delhi), Padaliputta ( Pataliputra, Patnn), Kosambi (Kausambi, modern Kosam near Allahabad), Tāmalitti (Tamralipti, modern Tâmluk in Bengal), Kampillapura (Kampilyapura, modern Kampil in Farukhābād district, U. P.), Kancaņaura (Kancanpura, probably modern Bhuvanesvara in Orissa).' Dasaura (Dasapura, modern Mandsor), Kusumapura (same as Pataliputra ). Kosalapuri (possibly Säkeya ), Säkea or Säkeya (Säketa, once capital of northern Kośala ),s Sopāraya (Sürpāraka, modern Sopārā near Bombay), Hatthikappapura (also known as Hatthakapa in Jaina literature, generally identified with Hathab near Bhavnagar in Gujarat State ),Kāyandi (or Kägandi, Kākandi in Jain literature, identified with Kākan in Monghyr district ), and Girinayara (Girinagara, Jūnāgadh near Girnār ) are some of the places well known in older Jaina literature. Siriura is Sripura in the Raipur district, Madhya Pradesh, Valahi is Valabhi (modern Valã in Saurāştra, once capital of Maitrakas); Săliggāma or Saligrāma, known to Av. Cū., part 2, p. 94, was in Magadha, near Gobbara gāma, but cannot be identified now. Ksitipratistha is another place which is not inentified. As noted by Jaina, J. C., sometimes it is identified with Poyanapura. Poyanapura or Potanapura would seem to be in the North, being in the Bahalidesa according to AMKV., p. 50, or is it Rohida in Rajasthān? Rohedaya is interesting and may be Rohitaka ( modern Rohtak ) of Yaudheyas. Padmavati, one of the capital of the Nāgas is modern Pawaya in the Gwalior district; Mihilā (Mithila ) was capital of ancient Videha Janapada, and is identified with modern Janakapura in Nepal border. It is well known to ancient literature. Tumbavana is modern Tumain of the old Gwalior State, Vaddhamāņa may be modern Vaşhavāna since this is a work of 11th century, in older Jaina accounts of Mahāvira's itinerary, Varddhamana has to be identified with Burdwan. Mattiyāvayā or Mattiyāvai is ancient Mșttikävati, referred to in Jaina texts as capital of Dasaņņa (Daśārņa) country. According to Harivamsa Purāņa, I. 36.15, it was situated on the Narmada river.' Binnäyada or Bennāyada, according to Av. Cü., p. 547, was situated on the bank of the river Bennā.& According to a later Jaina writer it was a centre of trade and the merchants landed here with various merchandise while returning from Parasaküla. Obviously this writer possibly could not identify the place. In the Āv. Cūrni, p. 546, it is said that Seņiya had visited this city when he was a prince. The AMKV. also refers to the incident of Seniya marrying Sunanda in Bennāyada. B. C. Law, writing on Bennakața states: “this district comprised the territory round the modern village called Beņi, 25 miles to the east of Kosambă in the Gondia tahsil of the Bhander district."10 None of the references, of the AMKV., to this ancient big city suggest that it was a port where merchandise from Pārasaküla (or any other place) was brought by sea-route. Identification of the place awaits further exploration.11 1. See, Law, B. C., op. cit., pp. 124 ff. 2. Kancaņapura is referred in Ogha-Niryukti-Bhāsya, 30, p. 20a and discussed by J. C. Jaina, op. cit., p. 293. He identifies it with Bhuvaneswar in Kalinga. Our AMKV. is not explicit whether Kancanapura was in Kaliaga or not, and hence it may be any town of this name, real or mythical. 3. See, Law, B. C., op. cit., pp. 122-123. 4. Jaina, J. C., op. cit., p. 287; Law, B. C. op. cit., 284 under Hastavapra. 5. Also see, Jaina, J. C., op. cit., p. 297. 6. See also, Law, B. C, op. cit., p. 325. 7. See, J. C. Jaina, op. cit., p. 313. 8. Anuyogadvārasútra, p. 137. 9. Uttarādhyayana Țika, p. 64. 10. B. C. Law, op. cit., p. 310; Epigraphia Indica, vol. XXII. p. 170. For another identification, see, Ratilal Mehta, Pre-Buddhist India pp. 413-14. Bhennākata is also referred to in Buddhist literature. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Geographical and Historical Data in AMKV. A Bhaddilapura is also known to Antagadadasão, 3, and the Av. Nir. gātha 383 also refers to it. It is generally identified with Bhadia, a village near Kuluhā hill near Hunterganj in the Hazaribag district. Kundiņā or Kundiņipuri, also referred to in Nāyādhammakahão, Vasudevahindi,' etc., as capital of Vidarbha, is identified with modern Kaundinyapura on the banks of the Wardha in the Chandur Taluk of the Amaraoti district. Ayalapura, Acalapura, is generally identified with Ellichpur in Berar. J. C. Jaina giving references to Piņda-Niryukti, Āv. Tikā, etc. shows that Acalapur was in Abhira, that the rivers Kanhã and Beņņā flowed near the town, and between them was the island Bambhadiva, a habitat of 500 tăpasas ( also see AMKV. p. 174). Gudasattha, associated with an incident in the life of Ārya Khapuța, is also mentioned in the Āvašyaka Cūrņi. J. C. Jaina has suggested that it was situated not far from Broach. The AMKV, (p. 175 ) as well as the Āv. Cü, say that there was a Buddhist Stúpa near a Buddhist vihāra at Broach. Ksemapuri (p. 130 ) cannot be identified, but a Kşemapuri existed in Saurāştra, according to Vandāruvstti. Dhavalakkaka or Dhavalakapura, referred to in Praśasti of AMKV. is modern Dholkā in Gujarat State. Kāsahsda (p. 369 ) also referred to in the Prasasti, may be Käsindrà in Rajasthan.? Märävalli (p. 369 ) as the context shows, may be somewhere in the Medapāța region. Gangaura or Gangapura is not identified. A Gangapura is referred to in Vipäkasūtra.Similarly Animanjiya, Sivamandira, Huyavabajala, Sudamsaņa, Susima, Sangarapura, Chammāni, Jayavaddhaņa, Jayantiya, Jivaharana, Paccantapura, Bhūtalānanda, Karşaka, Kundavalaya, Ayāmuhi, Dharanitilaya, Devasāla, Paumuttara, Silāgāma, Lacchitilaya, Rayaņāvaha, Mahila, Mangalaura, Manjulāvai, Nandaņa, Vädipuri, Suhatthala etc. cannot be identified. Javaura or Yavapura of the story of Yayarāja is interesting. Probably the original name was Yayanapura. Yavapura, however, remains unidentified. Usuyāra was located in Kuru in Jaina canons, but cannot be identified. Usirāvatta may be Usiravati which occurs in Cârudatta's account in Vasudevahiņdi, p. 146. Ilāvaddhaņa also occurs in Vasudevahindi, pp. 218, where it is said to be an ornament on the bank of the Ganges and again on p. 357 it is said to be near Tamralipti. According to Av. Cü., p. 484, Ilavaddha was situated on the bank of the Bennå. Vadapura, 10 Sarkhapura and Vasantapura are also mentioned in the Vasudevahindi, but they cannot be satisfactorily identified. Teyali is mentioned in the Nāyādhammakahão also, but cannot be identified. About Dantavakkanayara (p. 277) it may be noted that it is said to have been ruled by a king named Dantavakka. In the Āv. Nir. gäthä 1275 and Sûyagadanga, 1 6. 22, we find a Dantapura with Dantavakka as its ruler. According to Pali literature Dantapura was the capital of Kalinga, it was placed near Chicacole by M. Sylvan Levi. 11 Tilayapura (p. 200) and Villurpura (p. 107) cannot be identified as also Elaura on p. 107. 1. J. C. Jaina, op. cit., p. 272. 2. Nayadhammakahão, 1. 16; Vasudevahindi, p. 80. 3. J. C. Jaina, op. cit., p. 263. 4. J. C. Jaina, op. cit., p. 286; Av. Co., I. p. 542. 5. In view of the fact that a Buddhist Stüpa and a vihara, both originally ereted in at least the Kshatrapa age, are now exı avated at Devni Mori near Samaláji, in Gujarat, Broach deserves to be explored for a Buddhist site, since Jaina traditions about Arya Khaputa persistantly refer to it. Vandāruvịtti, 86. Also see, Sandesara, B. J. 377 37178-tfergat yatta, p. 58. 7. U. P. Shah, Akota Bronzes, p. 41 and note 27. 8. See also, J. C. Jaina, op. cit., p. 284. 9. In Buddhist traditions, Sudassana is an old name for Vārānasi, see, Ratilal Mehta, Pre-Buddhist India, p. 442. But it is not our Suda risana since the AMKV. p. 278 places it in Avanti-Janapada. 10. The context in AMKV. p. 77 would suggest that this Vatapura has to be located not very very far from Mathura. 11. For different views, see, Ratilal Mehta, op. cit., pp. 401-402. For various references, also see, Law, B. C., op. cit., p. 194. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Geographical and Historical Data in AMKV. 13 Kattiyapura or Kärttikapura may be Kārttikeyanagara mentioned in Rājasekhara's Kávyamimāmsā (G. O. S. ed ), p. 47. Rayanapural (Ratnapura in AMKV.), Rithaura and Pundarigiņi are also found in Vasudevahindi, but they cannot be identified. Rahaneura of our text is the same as Rahaņeuracakravāla which according to Jaina traditions is located to the north of the mount Veyaddha;' this as well as Rahamaddana, also known to Jaina canons, cannot be located.' On p. 255 it is found that a lady comes to Rahamaddana from Käveripuri. In that case, it may be in the south, Kaveripuri may be Käveripumpattanam or Kaveripattanam, on the mouth of the Kaveri river, which was an ancient sea-port of the Colas. Most of the rivers and mountains mentioned in our text are well-known and are listed separately cn 0. 388. A few of these names like Astăpada are not identified and may be mythical as well. Our text also refers to the Dandakāraṇya, in the Sita-ākhyānakam. Of the various kings and princes mentioned in the text a complete list is appended by the editor on p. 389. Of these quite a large number may be legendary names. But Koniya, Koņika or Kūņia and his father Seņiya are Ajätaśatra and Bhimbhasāra or Bimbisāra. Abhayakumara, the son of Seniya, might have been historical, so also the Ardrakumāra of Ardraka island. We have no means to support this, but persistent and old Jaina literary traditions suggest that they may be historical. Candanarya was a direct disciple and leader of the order of nuns founded by Mahāvira and hence she as well as her father king Dadhivāhana and mother queen Dharini of Campå may be regarded as historical personages. Satānika and Mrgavati, Udayana of Kaušāmbi, Pradyota and his daughter Väsavadatta andi Udiyi are similarly historical. Jitaśatru being a very common name in Jaina stories, it is difficult to say anything about him. As already stated before we have, from ancient Jaina sources, names of Mauryan rulers, Candragupta, Asoka, and Samprati as well as Kuņāla the blind father of Samprati. Our text further adds the name of Samprati's mother Saradasri. Pradesi of Seyaviya is a figure which could have been historical. A beautiful description of Ujjain is given on page 4. Again it is described on p. 175, vv. 73-76. Ujjain was near the river Sipră, and had a moat parihā) around it. In the city were wise merchants of straight dealings. The sāku-jana ( sådhu-jana ) or the merchant-class was proficient in its tradedealings, like a minister in his department (karana); in their dealings in negama, sarigraha and vyavahāra, the merchants were straightforward. There were also the vesya-janas prostitutes ), expert in their craft and music. People at large were happy and could satisfy their daily wants. The Avantipuri of p. 172, v. 40, with its madha (matha, here monastery with a temple) of Kudargesaradeva, is probably the same as Ujjain since the incident mentioned in the life of Siddhasena Diväkara refers to the temple of Mahakāla at Ujjain, according to Jaina traditions. The Mahāküla-caccara of Ujjain is mentioned on p. 157, v. 54. Here the deseased or the poor could stay and pious people daily gave them pieces of bread (manda-khand ai to eat. On p. 195 it is said that there was no science or art, no wonderful thing etc. that was not in the city of Ujjain. The belief in yoginis and grahas at Ujjain mentioned in this context is especially noteworthy. These references are neither exaggerated nor merely poetic as will be obvious from the references to sārvabhauma-nagara (Ujjain ) in the Padatādilakam ( one of the four Bhānas) of the Caturbhāni edited by Moti Chandra in his Srii gärahata. From the Gupta age onwards for several centuries Ujjain remained the cultural capital of Northern India. 1. J. c. Jaina, op. cit., p. 327, identifies it with Runai or Roinai about 2 miles from Sohawal in Oudh district. 2. Uttaradhyayana Tika. pp. 241 ff. 3. See J. C. Jaina, op. cit., pp. 325-326. 4. See also, V. R. R. Dikshitar, Pre-Historic South India, p. 31. 5. For accounts of all these 'kings and qucens etc., with references from Jaina Canonical sources, see, J. C. Jaina, op. cit., pp. 376-400. 6. See, J. C. Jaina, op. cit., p. 394. Jain Education Interational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 Description of City etc. in AMKV. Another such beautiful description occurs on p. 9, this time of Rayagiha (RājagȚha ). Such descriptions remind one of Bāņa.. Rājagrha is said to have tall white präkära (rampart, fort) with a moat beside it. There was in Rājagsha, a row of white shrines ( devaula, deula, devakula ) with shining silver kalaśas on tops. In the city were vilāsinis (ganikās, prostitutes ) as also wise and pious citizens (nayarajano ). Ladies looked like damsels of nether regions from their reflections in the pure shining floors of crystals. King Prasenajit, father of Bhimbhasāra or Sreņika, ruled over it. Various såmantas bowed at his feet. His army-camp (khandhārāra) with its array of elephants having jingling golden bells (kanaya ghadiya ghanta ) is referred to. His queen Dbāriņi was the very pleasure-house (keligiham -keligrha, ratigyha ) of the God of Love. The king spent his time in kelivinoda, in different amusements, sports and pleasures. These kelis and vinodas of kings of ancient India are described in the different sections of the Mänasolläsa or Abhilasitārthacintämani of Someśvaradeva. Our text (p. 9) refers to kuñjara-keli, elephant-sports, which constitute the Gaja-Vinoda, and the sports of horses. Stables for horses and elephants are also mentioned in this text. The haya-vähyāli was the sport of riding on horses. Kings bad their white banners (dhvaja-patas ), banners of victory (jaya-patāka) and the drums of victory (jaya-dhakka). Pillars of Victory (jaya-khambham ) were erected by kings on battlefields (p. 111. v. 99 ). The chief royal elephant was called the jaya-vārana, or the pasta-hatthi (p. 282. v. 124). There were keepers of elephants ( mintha, p. 190.71; 130.17 ). A Prince is said to spend his time in pandita-gotthi ( 295 ff. vv. 209 ff.) or viusa-gotthi (viduşa-goşthi, p. 299. 315 ). discussing subject like chanda ( metres ), lakkhana (signs of men and women etc ), pamāna (logic etc. ). Here we are given several interesting examples of praśnottara-gosthi. This was conducted through the medium of Sanskrit. The Prince's wife, present in the gostbi, is requested to take part in it. She composed a verse in Prakrit. In defence of her excellent composition it is remarked-uttaviseso kavvam bhāsā jā hoi så hou (p. 297. v. 249 ). King Nanda, mounted on an elephant, goes out to move in the city. He happens to see a beautiful lady, Rohini, wife of a rich merchant, standing in a balcony of her mansion. In order to see her again and again, the king goads his elephant into what is known as mattakunjara-krida, in front of this mansion, so that at every turn of the elephant, he gets a chance to gaze at the beautiful lady. The various vinodas enjoyed by Prince Meghakumāra (p. 232. vv. 126-129 ) were-(1) debates or discussions of various subjects in sāstras in assembly of cheyanara (i. e. vidagdha-nara ), (2) nattavihi, dance-drama, (3) sarasapattacheyam, (4) Cittayammavihi, painting, (5) giyavihi, music, singing, (6) turayasikkham, horse-riding, (7) hatthi-sikkham, elephant-riding, (8) mutthi-juddham, fighting with fists (is it vajra-muşti-yuddham ?), (9) malla-juddham, wresling, and (10) vāravilayapekkhana, enjoying company of or play of prostitutes. Princes were trained in several sciences and arts, it is generally said that they were given training in 72 arts, a stock list of which is known to Jain texts. Prince Naravikrama-kumāra was given training in leha (lekha, writing ), dhanuvveya (archery), gandhavva-kalā (music), pattaccheya, possibly preparing ornamental designs from leaves, lakkhanavihanna ( divination from marks and signs ), gandhangajutti (gandhāngayukti, perfumery), cittayamma (painting ), loyauvavahāra (transactions ), mantapaoga (science of spells ), saddasattha (grammar), mallajuddha ( wrestling ) etc. (p. 293. vv. 126 ff.) The Royal Palace (with its compound etc.) was called rāya-duvära, rāja-bhavana, raja-kūla, raya-kula, rāula. The palace royal or prāsāda had a harem (anteura ), living-halls and bed-chambers (väsabhavanam ) and an althāna-mandava or rāya-atthāna (or simply atthana ) which latter was the - 1. See also, description of Bāraval, p. 311. 1 ff., 121. 1-3. 2. For the various arts in Jaina traditions, see Jaina, J. C., op. cit., pp. 172 ff. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Royal Palace in AMKV. 15 audience-hall where entrance was given only after the door-keeper (padihāra) took previous permission of the king. In the atthana also came the mantri (minister), the såmanta (tributory or feudatory princes), the mahājana (leaders of citizens and guilds ), suhada (subhatāḥ) or bhada (bhatåh ), i. e., warriors, soldiers, etc. p. 64.107). The ästhāna-maņdapa is called ancgabhadakodisankadatthāna (p. 38. v. 10 ) or suhadasankinnamatthānam (p. 104. v. 19). A pratihāra comes and states that a magician (indajālio ) requests that he may be permitted to perforin some show (pekkhanayan) before the king (p. 111. v. 103 ). Bards (māgahā, māgadhāh ) chant gātbås of praise, in the asthāna, before the king. It seems that kings came in the audience-hall both in the morning and in the evening (cf. saħjhārāyatthāņam visajjiya, p. 355. v. 20). There might have been different asthānamandapas for different periods of time." The ästbānamaņdapa, in the Royal Palace seems to be a hall or an open pavilion at one end of which the king took his seat. In the temple built by Tejapāla at Delvādā, Abu, are two panels in one of the ceilings of the Bhamati with scenes referring to the palace of Kamsa and Kļšņa's life in Gokula. In the panel showing palace of Kamsa, illustrated and described by Muni Jayantavijaya in his “Holy Abu," plate 38 ( only a part of this panel is also illustrated in Stella Kramrisch's Indian Sculpture, fig. 86 ), we find a king sitting on a raised 'seat, in front of whom are some attendants, warriors and others, some standing or sitting. This seems to have been representation of Kamsa in his asthāna-mandapa. The foreground or courtyard of the rāja-sabbā was adorned with pearls etc (rajasabhāe patto multāmanimandie caukkammi-p. 42. v. 148). Another reference shows that square designs of representations (caukka) of pearls etc. were made on the ground, which reminds one of the Gujarati expression, aid11 4791." Kings and queen had their special residential buildings (dhavalagrha ),' with apartments of queens ( anteura ). They had their halls for dressing etc. (śrngära-giha, singära-giha) and the ayarisa-giha (adarśa-grha, hall of mirrors, the sisamahala of Mogul age ). Sleeping chamber, whether royal or otherwise, was known as väsabhavanam or väsagiham (vāsagrham). A beautiful description of vasabhavana of a king occurs on p. 258. vv. 436-440. The walls of the bed-chamber were decorated with various paintings, the ceiling (ulloya) was decorated with costly cloth, and the chamber was constructed of precious wood. It was fragrant with incense burning in the insence-burner (dhava ghadia)" and was equipped with objects of pleasure such as betelleaves (tambala ), bunches of flowers etc. The chief queen was resting ( in this chamber) upon a bed (sayang or pallanka ), soft in touch, with soft bed (sukumälatali ), soft pillows (maulagandovahāna ), pillows or small cushions for holding in embrace (alingini) and round small pillows or cushions known as gallaniasarlya (in Guj. 423). The bed was sometimes made of silk (patjatali ) and as many as thirty-two soft beds are mentioned on a pallanka (battisatöliyak aliyapavarapallankam, p. 31. v. 38; also, p. 35. v. 168 ). Dhavalagrhas were also erected for the rich. In the city Seyaviya (Keyai country) was ibbhatunga1. The morning and evening Asthanamandapas are very likely different. We have in the Harsacarita of Bapa, a Shuklasthanamandapa, see, Agrawala, V. S., fta- etrafa s a , pp. 45, 126, 205. 2. Cl. also, when Naravikrama-kumara enters his city with newly wedded princess- Fit Triaaf PIERRE faar afwarcraferentesi TI AMKV., p. 295. v. 203. 3. For Dhavalagyha, see, Agrawala, V. S., afta-Tu tepla s , pp. 91, 211, 213. 266. 4. See Agrawala, V. S., op. cit., pp. 84, 92, 64, 208, 214. Also see AMKV, p. 347, vv. 8-11 for another notoworthy description of vasabhava na. 5. Also called dhavagaduccaya or dhavakad uccaya, p. 66. v. 61. An agart-ghadinuha is mentioned, p. 32. v. 63. tala of Mogul este si singara-gimas, apartments of Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Royal palace in AMKV. dhavalaharamāla (p. 326. 1-2). Mansion of the rich was also called isaragiha (isaragiha. p. 244.2; 123. 3-4; 42.137), bhavana or mandira ( 144.138). Sometimes the rich merchants had big palatial buildings like the saptabhumipräsäda of Salibhadra (31. v. 35). A beautiful description of this palace of Salibhadra is given (31. 35 ff). Shining like the celestial vimana, it had various mattavaranas of gems, around it in the compound (parisaradhara) was a forest-grove (vanasandam), a big step-well in which water was controlled by mechanical contrivance of dolls (jalajantavahayaputtaliyavilasiram pavaravivim 31.37). This step well used for jala-andolaya-kila (jala-Andola-krida) of Salibhadra and his wives. Kings also had similar kriḍāvapis in their gardens (254.293). 16 A big palace erected by Abhaya resembled a celestial vimāna, it had beautiful ceilings or canopies with strands of pearls hanging from them, mirrors, jingling bells, beautiful salahanjiyās (śalabhanjikās), and mattavaranas of gems, etc. Mattavarana in palaces and mansions is referred to on several occasions-cf. gihabhittimattavāraṇapavapena saceyano jão (100.43); dhanävahasetthidhavala päsäуabhittibhāyammi tabbhavanamattavaranapariṭṭhiya......dittha (62. 20-22). Rohini, the wife of Dhanavaha śresthi was seen, by king Nanda, (standing or) sitting in the mattavāraṇa of her dhavalaprāsāda. King Nanda got enamoured of her charms. Rohini alerted at this goes elsewhere (into her prāsāda) from this mattavärana (62.26). Madanasena, queen of Makaradhvaja of Tilakapura, sits in the mattavarana (of her palace) with her husband and dresses the hair of the king (200.244). Another queen goes stealthily at night into mattavarana under which her paramour, the king's keeper of elephants (mintha) is waiting with the elephant. The elephant is tied to a post below the mattavarana. The elephant, goaded by the mintha, raises its trunk and brings down the queen. After enjoyement, the queen is placed safely into her place (mattavarana) again through the trunk of the elephant. It is, therefore, quite clear that mattavarana is a balcony-like projection in front of a palace or a mansion, in which queens or ladies of high families sat (and was probably not far from ladies' apartments ). It was high enough from the ground, so that an elephant could stand underneath and could bring down a person from it with its raised trunk. The pillar below mattaväraṇa, mentioned in p. 190. v. 71, is noteworthy. Was this balcony supported by pillars on the ground? Not necessarily, for the pillar in above reference could have been any other pillar of the palace, under the overhanging mattavarana. Hitherto the exact sense of mattavarana in palaces was not clear, so far as we know. The AMKV. makes the sense more clear, and mattavarana may now he taken as a kind of balcony of a palace. The Deśināmamālā (Chp. 6. v. 123) gives and quotes a gatha which reminds one of the AMKV. account of the queen and the keeper of elephants. In his Abhidhāna- Cintamani, Hemacandra gives मत्तालम्ब= अपाश्रय = प्रग्रीव = मत्तवारण. 1. Cf. नीओ य वहुमाणं नियधवलहरे तओ सेट्ठी (p. 145, v. 159 ). 2. Cf. - जाव निहुयं निरिक्खड़ ता पेच्छइ मत्तवारणतलम्मि । खंभम्मि मत्तवारणमागलियं मिठपरिकलियं ॥ ७१ ॥ रयणीए अंधयारे हत्थी मिठेण चोइओ संतो । उड्ढ काऊण करं उत्तारइ रायवरपत्ती ॥ ७२ ॥ मेलाइ करिकराओ सहाणे ॥ ७५ ॥ AMKV, p. 190. 3. Roth & Bothlingk in Sanskrit Worterbuch refer to Vasavadattă for this word. Monier-Williams does the same, and takes and explains it as "a turret, pinnacle, pavilion." It is also explained as "a peg or bracket projecting from a wall." is also explained as "a fence or a hedge round the house of a rich man." MonierWilliams, Skt.-Eng. Dictionery, (Oxford, 1956 ed.), p. 777. CI. - कमलमरंदगोरि मत्ताने इमं ण ज रमसि । मम्मणियाउत्तर 4. महवरमिच्ता वरं भमितं ॥ 5. Abhidhana-Cintamani, 4 kända, v. 77. Hemacandra in his own gloss writes-:fèfèrizqyà qu अपाश्रीयतेऽपाश्रयः ॥ २॥ प्रसृता प्रीवाऽत्र प्रग्रीवः ॥३॥ मत्तान् वारयति मत्तवारणस्तत्र ||४|| This gloss would show that as an architectural part has nothing to do with an elephant in rut. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Royal palace in AMKV. Bāņa in his Harṣacarita refers to pragrivaka which V. S. Agrawala has shown as a part of mukhaśālā of dharalagṛha, which was used both by the king and the queen, and was especially the queen's gallery, which Agrawala has rightly compared with those of suhaga-mandira of Amer (Amber) palace." Palaces had tulayanas (windows), the harems had latticed windows (jālagavākha, jālagavākṣa, p. 331. v. 111). An oloyana (window, small window for looking out, avalokana) on the ground floor of a palace is mentioned, p. 270. v. 3. The royal palace was sometimes deep inside its compound, sometimes reached through as many as seven gates of fortifications (pāyārapaolithāṇagāni). One Mitrānanda, therefore, found it difficult to reach the apartment of a princess. He, therefore jumped over tops of these different prākāras and reached the vasabhavana of the princess. He climbed over the dantavalabhi (top most part, turret with pegs) through several gavākṣās of the vasabhavana (205.402). 17 A palace resting on one pillar (pāsāyamegathambham) is mentioned (5.35). A variously decorated (Cillaruva) palace of lac (jaupāsāyam pāhāṇakhambhajuyam) is mentioned (p. 331.58). It was connected by an underground passage (suranga) with an alms-house (sattägara). Underground cells or halls (bhumihara, p. 147.22; 129.80) in palaces and mansions were not unknown. Besides the keligrka, väsagrha, drugaragṛha, was the ayarasagiha or ayarisagiha (adarlagtha, darpanagṛha) or the hall of mirrors (72. 33-34; 90.16), which may be compared with sisa-mahal of Mogul period. Kings had picture-galleries (cillasabkā, p. 167) also. In gardens and compounds of palaces etc. were latāgiha (bowers of creepers), kayalihara (kadaligṛha) (bowers or mandapas of plaintain trees) etc. for pleasure-resort. There was also the bhoyanabhavana (dining hall, kitchen, 33. 95), also known as rasavaisālā (227. 2), or mahānasagiha (262. 4). Kings had chief ministers (amacca), ministers (manti), commander of forces. (daṇḍādhipa), feaudatories (sāmanta), record keeper (akkhapaḍalio), etc., specially appointed servants or officers (niuttapurisas), spies (cārapurisā), attendant servants like body-guards (angarakkhaga), watchmen for every three hours (paharia), gate-keepers (paḍihara), maid-servants (nivaceḍi), garden-keepers (ujjäna palaa), keepers of elephants. There were city-watchmen or policemen (ärakhiyapurisa) and a chief officer in charge of the city (talara, talavara) who protected the citizens and was like a Koṭawal. Thieves, robbers and others who committed crimes were kept in custody (gollie pakkhitto, 224. 63) or kept into prison (gotti, kārāgāra). The criminals were chained with iron-chains (nigada) or tied fast in a particular fashion known as may@rabandha. Leaders of citizens (mahājana) approached the King in the asthana when there were special grievences of citizens. The Puraseṭthi (177.2) was possibly like a Mayor, he was the chief leader of all citizens, trade-guilds etc. Statecraft mainly consisted of the traditional four elements-sandhi, vigraha, yana and asana (329.11). Kings maintained a fourfold army (caurangabalam) constituted of forces of elephants, horsemen, charioteers and the infantry (patti). A naval-force (nāvākaḍaga) was sometimes maintained (p. 36, vv. 1-2). Various descriptions of battles occur in the AMKV. While going to fight, princes and warriors put on armours (sannaddhabaddhakavayā). Aśoka used to send royal orders (leha) to his son Kuņāla at Ujjain. At Ujjain it was read out to the Prince by his akṣapatalika. Kings dictated letters addressed to other kings and the writers of such 1. Agrawala, V. S., op. cit., p. 92. 2. Agrawala, V. S., op. cit., p. 214. 3. AMKV., p. 204. v. 306 ff. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 Royal Palace in AMKV. documents were known as lehāriyā (lekhakärakas). The lehāriyas ( lekhahārakas ) also carried documents of kings. The lehäriya of Caņda Pradyota of Avanti was one Lohajangha. Customs officers (surkiyaloya) were appointed ( 43. 168). Merchants tried to keep under cover objects which had higher customs ( sumka ) charged on them ( 43, 167-168 ). The customs office was known as sunkathāna and the officer in charge was called sunkapaliya according to Supāsanāhacariyam. Kings went out for change of air, into the city etc. This was known as rāyavādi ( nihario rayavādie, 62. 19), which in Old Gujarati was know as rayavādi, and modern Guj. revādi. King Nanda going out on rayavādi, saw Rohini, wife of Dhanavaha śreşthi and became almost mad in love. Kings and queens went out in udyānas on certain festivals where citizens took part. Orders of kings were made known to the public by beating of drum (ghosāvio padaho, 23. 112). When somebody was given capital-punishment, it was similarly announced in the city. One Sudarśana sreşthi, ordered to be killed, was besmeared with red-sandal paste (raktacandana ), besides a garland sarāvamäla in his neck, and collirium mark (masipudayam ) on his face. He was carried through the city with dindima-näda ( beating of drum ) and udghosa (proclamation) along important places in the city like rathyamukha (entrances of roads ), trika (where three roads met) and catuṣkas (city-squares). During the mediaeval period, throughout Jaina literature, we find references to caccara coukka, caumuha, tiga (177.1 ), rathyāmuha or racchā, ete, as important places in cities or towns where people collected. The Mahākāla-Caccara at Ujjain is already noted above. At Pāțaņ in North Gujarat was a place called Hingalāja-Cācāra. Caccara is usually explained as catvara where many roads met?, but it is better to take it as a spot in front of temples etc, where cacaris were sung as in later ages in Gujarat 4915 (Bhåņa-like play ) was enacted on such spots, cf. 24147 i 17. Caukka (cf. Chandani Chowk ( area , at Delhi, Mānek-chowk at Amedabad) is the same as Catuşka, a junction of four roads," Caumuha ( Caumukha ) would be a spot facing four directions. It could have been an open public mandapa at cross-roads, like the Catuskambha (Caukhamba) at Banaras, but it is better to take it as merely a square at cross roads. The main-road or highway was the mahapaha or the royal road, the rāyamagga. A national high-way, which led into territories of other countries or kingdoms, seems to have been referred to as tāya-paha ( 246.37 ). It is said that travellers on the rāja-patha going to other territories should not be stopped (rāyapahenam gantum na labbhae keriso imo não ? -- 246. 36 ). In the account of Cărudatta we find reference to ajamaggu (214.13) or ajapatha. This and other ancient trade routes in Cārudatta's story from Vasudevahindi bave been discussed by Moti Chandra in his Sārthavāba. In the Ratnatrikoțyākhyānaka, we find Abhayakumara depositing jewels in Cauhattaya and proclaiming through padaha, that Abhayakumāra is giving gift of ratnas. This cauhattaya may be a junction of four markets. Big gopuras of cities are referred to along with prakāra and parikha. There purapaoliduväras, four city-gates, gates of gopuras of the city ( 66-54; 66.75), near one of the poli-duvära of a city was a shrine of Candi (118.114). Mansions of rich merchants had similar gates ( niyamandirapaolidārammi, 144-138). 1. Jaina, J. C., op. cit., p. 116. cf. aghrif I Abbidhāna-Cintamani, 4.54. cf. as igara faqafai Mfcchakatika 2. Bhayapi in bis glossary on Paumacariyam of Svayambhu, Pol. II (Singhi Series, No. 35) has explained it as TE-PTT which is noteworthy and probably correct, since it can explained as a public place where afts #iftas ) were sung. 2. Catuşka is a cross-way. A hall resting on four pillars is also known as catuska. Caukka may also be modern Guj. Camu Cakalu. 3. Caccara, Caukka, Caumuha etc. were places where people collected and where news or gossips soon spread. This can be inferred from-yafafara-25-TECTETI (AMKV. 50. 132 ). Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Social customs in AMKV. 19 Cremetion grounds were called peyavana (pretavana ) or masāņa (smaśāna ). On the fāja-magga, the city high-way or main-road were the rows of shops (hatta paniti). When Naravikrama - kumāra entered the city with his newly wedded princess, people crowded on both the sides of the råyamagga in shops, on turrets or towers etc. (atçalaya ) and on tops of temples (deulaya), houses (bhavana ), palaces (295.196 ). Vihi means both a road and market. In the account of Candanāryā we find that she (Vasumai, before becoming a nun ) was brought to a vihi (market) and sold to Dhanavaha ( 36.11; also see, 37.22 ). A beautiful description of the confusion of ladies who ran out into their windows etc. to sec Nala and Davadanti, newly married, returning to Nala's capital is noteworthy for acute observation of the society by the author of the AMKV (p. 49). Equally interesting is the description of wedding ceremony (pāniggahana ) of Nala and Davadanti. The pair is required to circumambulate four times the ritual fire (in veiya-vedika ). At the end of each such circumambulation (technically called mangalam ) the king gives gifts to the pair ( 48-67-69 ), these gifts included 1000 elephants, 10,0000 horses, one crore of suvanna (i. e. gold coins ), and in the fourth mangala one crore of pattaula (silk cloth ). During wedding rites the pair wears a kankana (a bracelet ) which Nala wore for all the ten days during his stay at Davadanti's father's palace. Another such social custom often described in the AMKV is the Vaddhāvanayam (Varddhāpanakam, -9917 in Guj.) which is celebration of the birth of a son to a king or a rich person. The whole city celebrated the birth of a prince. Torana-Vandanamālās or Candanamalas of fresh leaves of mangotrees were tied on gates, Punnakalasas (Pārņakalaśas)' or auspicious jars, with sandal-paste applied to them, were placed on certain places (usually near entrance-doors ), beggars, students and bards were singing and praising, old ladies with rice ( akşata) in hands were performing suta-raksā (protection of child) ( 293, 117-121). The suta-raksā was possibly performed by throwing a few grains of (unhusked or ) husked rice on the child with muttering of certain benedictions etc. Ladies put on navaranga (of nine colours of the rainbow ) garments, vāravilāsinis danced; there came the enchanting sound of tara (a kind of musical instrument) and in various places Caccara songs, pleasing to the ears, were heard. People raised up on their houses (bhavanas ) the jua (yapa) and musala (pestle) (258. 448-451 ). Ja is explained as a sort of a pillar. The practice of raising jūa-musala is referred to in other jaina texts. Now if jūa is a post and musala or pest le also looks like a small post from a distance, it is not convincing that jūa was a small post in the above custom. Even today, at least amongst the Maharashtra people there is a practice of raising a small post with a small head of a goddess on top. Sometimes we find a small kumbha (pot) placed with head down on such posts. Jūa possibly meant a small kalasa placed with face down on post or pestle raised on house-tops. This is further supported by another meaning of “a kalaśa" noted by the Păiasaddamahannavo. There are many more descriptions of this festival in the AMKV., cf p. 266.32, or the festival on the birth of Meghakumāra on p. 231. 89 ff. The naming of the child (nāmakarana ) was performed usually on the twelfth day but there is one reference (P. 20.20 ) which shows that it was done on the tenth day, all other references refer to the twelfth day. When the prince became eight years old he was placed in charge of a lehåriya or wvajhāya. 1. Pūrņakalasa as an auspicious object is popular in Brahmanical, Jaina and Buddhist art and literature. A detailed description of it is given in AMKV 337.96-97. 2. See Paisaddamahappavo, p. 450, quoting " CH JESHEFÐ Fac" from Jacobi's ed. of the Kalpasitra. The same dictionary also gives another meaning of 73, being one Hathra -31, based on Pravacanasároddhåra, 272, 3. cf, modern Guj, sprdame Ozbă of certain Brahmapa families. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 Social customs in AMKV. (lekhācārya, upadhyāya) who was also a kaláriya (kalācārya). We have already noted before the different sciences and arts in which these princes became proficient (232, 108-109; 54. 263; 193.10; 131. 57; 232. 126-129; 293. 126 ff., etc.). Incidentally it may be noted that in various other contexts, the AMKV refers to different sciences and arts such as nemitliya-sattha (science of divination ), singara-sattha (science of love or dress and make-up), gandhavra-kalā (music), kāma-sattha (kāma-s'astra, erotics), sabdaśāstrā or rāgarana (grammar), Chanda (science of metres ), alarikāra (poetics ), veya ( vedas and vedic studies ), națțavihi (dancing and dramatics ), Cittayamma (painting ), gandhanga-jutli (cosmetics and perfumery), dhaturvão ( metallurgy and alchemy), itthijanajoggão sarrão kalão (arts for women) jalameya or indrajala (magic). purisalakkhanam or naralakkhanam or lakkhanam divination or prognostication from marks and signs) etc. Kuņāla the prince of As'oka, in charge of the kumārabhutti of Ujjain, was an expert in gandhavvakalā and was very fond of music ( 124. 29-30). Sons of Brāhmaṇas usually were trained in the fourteen sciences (Cauddasavijjāthāņā ), four vedas along with their angas and nighanţu, etc. (306.43). Varāhamihira and his brother Bhadrabābu were sons of the royal Purohita ( priest) of Pataliputra. Both the brothers became expert in lakkhana, Sāhitta, ganiya, pamāna (pramāņa), four Vedas etc. Lakkhana and Joiya (Jyotişa) were very popular. A long section on nara-lakkhana, running over several verses (pp. 364-65. vv. 37-75) is noteworthy.1 It is said that Samuddam (Samudrika-Sastra ) is of one lac verses in its fullest extent, in abridged form it is of one thousand verses and so on (363.35 ). Jaina literature is full of belief in dreams and mothers of princes, tirthankaras and other great men are reported to have seen auspicious dreams on conception. These are interpreted by a class of people called Svapnapathakās. A peculiar custom is often noted. Usually after seeing such dreams ladies tied a knot possibly at one end of their garments ). which was called saunaganthi, possibly, to ensure the auspicions result of such dreams (e.g. 229. 35 ). The AMKV, is also full of such references. After training in various sciences and arts princes were married to one or more beautiful princesses. Sons of the rich often had more than one wives (cf. Salibhadra's account ). Princesses also were trained in several arts etc., a princess of Kāñcīpuri selected her husband by testing his proficiency in playing on the viņā (pp. 104-105 ). Another princess took part in parśnottara-gosthi of her husband and composed verses in Prakrit (pp. 296-297). Bhāvabhațţikā, the daughter of Bhānu (who was a purisetthi ), was clever in many arts of women and was known as Bālacandiya in the city. The whole account of this lady (pp. 193 ff) is full of incidents showing her cleverness, boldness etc.. Nowhere in these stories do we come across any taboos on education of females or on their freedom. Bhadra is another rich lady who could run her whole business while her son Salibhadra was allowed to spend his full time in luxuries and plasures. Ladies went out with males in festivals in udyānas outside the city. It seems that widow-remarriage was generally not practised in the upper classes of the society and the young widowed daughter of a merchant (who kept her well-guarded ) had to devise ways and means to enjoy worldly pleasures with a lover (pp. 192-193 ). Ladies worshipped images of Makaradhtaja or Kamadeva to obtain husbands of their choice or worshipped images of Kamadeva as well as Gauri to obtain conjugal happiness ( 45.56 ) besides practicing things like burning incense (dlapa ), besmearing of pastes etc. (vilepana ) apd some magic rites with use of seasemum (tila ), roots ( mula ), charms and incantations ( mantra ), magical diagrams (yantras ) etc. (pp. 45 f.). 1. This may be compared with a similar passage in the Kuvalayamálă of Udyotana (Simghi Series), pp. 129 ff. It will be seen that the AMKV. borrows from the Kuvalayamala. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Social customs and festival etc. in AMKV. 21 Belief in such practicies and superstitions was common. King Nanda, when he became love-sick, was treated by vijja (vaidyas ) joisiyā (Jyotişis) tantrikas and others. Worship of 64 yoginis in the yogini-pitha, of the Bhalanišana yantra, with areca-nuts, betel-leaves, lainps etc., burning of incense, worship of planets etc.; were done to cure the king. The account is full of humorous descriptions (p. 62. vy. 29 ff). When some storms and epidemics broke out, it was sometimes suspected that a particular person was responsible for the māri (epidemic ) or was māri in disguise. The person was either killed or if a woman, was banished from the State since nāri was regarded as avadkyā (excluded from capital punishment ). In cases of storms or supernatural events (p. 66 ) the king went out with an incenseburner (dhiyakaducchayahattho) in hand, covering himself with an ulla padaya (wet garment or borrowed garment ) and prayed ( in public ) to this effect : Whether you are a deva, or a dănava, or a gandharva, kinnara or a yakşa, whoever you may be, please forgive all my faults and be pacified and pleased (155.37-38; 66.61-64). Another such practice (recorded on p. 16. vv. 248 ff) was the offering of õaha gabali at night, at places like caccara, caukka, racchā, goura, attāla etc., to supernatural beings, made by queen Sivādevi, (who is described as avasaņā-undressed !) for removal of evil (asivova samana ). The baliksira was offered. Various festivals etc. are referred to. Of these the vaddhāvanayam, nāmakaraṇa, etc., are already noted above. Coronation of a king ( rajjamahusava ) was celebrated. Engagements (rāgdana, varanaya ) and vivāhakarma, (337.81 ) were also celebrated. Sometimes princesses selected their husbands in the Svayamvara-manda pa as was done by Davadanti. A beautiful description of this pandal, given on p. 47, is noteworthy. It was decorated with white flags and jingling bells, seats were arranged in an ascending order (mancāimancakalio ), canopies of white pattaula (silken cloth ) were there, and there were incenseburners on pillars or posts, and so on. The bride-groom's party goes to the bride's pandal. Sometimes the party goes from one town or village to another, which is jannalla ( in Guj. it is end, in Hindi, atia. We also find references to another type of yātrās, the devajattā or devayātra (p. 16 ). The Jaina festival of procession of car, the Ratha-yatrā was popularised by Samprati, the grandson of Asoka. We also hear of Indramaha festival in Campā (142.62-6+), the spring festival of Madana-trayodasi ( 26.45 ), the Komui-mahasava (Kaumudi-mahotsava, 143.89 ), and picnics in gardens ( ujjāniyā, modern Guj. Emell 263.17 ), the Jaina eight-day festival of astāhnika-mahotsava ( 258.430 ), the divisava ( dipotsava ) or festival of lights ( 104.3 ), etc. People also enjoyed several types of sports, games, amusements; of these, vāpi-kridā or jala-krida, singing of Cacari-giyas ( 221.20 ) rāsakas of gopis ( 308.2) and gopas (cowherd ladies and males ), kāgali-siyas (kūkali-gitas, 136.2; 78.227 etc. ), nādayakalās ( 93.78, dance, dramatics and music ) etc. are noteworthy. Kings came to see nada-pcccham in the rangabhaimi (theatre). An interesting account of the various karanas of dance etc., performed on a pole by Ilāputra, in presence of the king and people of the city of Binnāyada, is noteworthy ( 93.82-90 ). People enjoyed playing of tāla (rhythm ), rasaya (circular dance), nadaya, pekkhanaya (shows, 128.34), madhura-giya or sweet songs, etc. ( 81-6). Two friends Amaradatta and Mitrāņanda of Ujjain go to the Matta-Kokila-udyana and play the anoliya-kheddam (201.274-275). Anoliyā or Unnaiyă (147.14;209.540) (tip-cat ?) is probably a game played with two sticks one long and the other very short, known as gilli-dandā in Gujarāti. Gambling was not unknown, so also drinking. There were mahāsavas ( madhūtsavas 76.152) and apánakas ( winebooths, 271.17). There were also apanaka-gosthis (279.22). People also enjoyed wrestling competitions, cf. the malla-maha in Sopăraya-nayara ( 261.2 ) in the story of Attanamalla of Ujjain. The Malla-rangemahi is reported to have been broad and with ascending seats (mancaimancakaliã vitthiņņā-294.159 ). Jain Education Interational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Music, dancing and paintings in AMKV. In the description of the autumn (saraya ) we hear of travellers enchanted at the beautiful singing of gopikās and being led astray from the path of virtue (jattha ya pahiya suhasäli goviyā sarasa giyapadibaddha sammaggão bhassanli-91.26). The govis (gopika ) played in the gottharigana (gosthānārgana-92.35 ). The rāsajā were played with thythmic clappings or beatings ( 137.8). The Kākaligiya was associated with love ( 136.2 ). Giya or song was enchanting only when sung with proper knowledge of svara, grāma, mürcchanā (124.33 ) and laya (188.1). In the spring, citizens enjoyed music in various Caccaris. In one case the māyanga-caccari ( 221-22 ) and its caccarigiyam (221-25 ) was superior to the nāyaraya-caccari of the upper classes ( 221.21 ) and attracted all people to itself so that the nāyaraya-caccarījās became void of onlookers or hearers. People enjoyed sweet music of venu (flutes ), viņa (viņā, harps ), maddala (a kind of drum ) and the four types of aujjās (231.89 )'. The äujās seem to have been very popular as they are often referred to by the AMKV. In the king's palace, morning was heralded with the sound of bheribhānaya-hallari-lilalala ? mai which all seem to have been included amongst the tara class of musical instruments ( 290.32). In the battle or while going to the battle bheri ( samarabheri ) was sounded. Kāpālikas used the damaru. Blowing of conches was not unknown. Nattavihi without accompanying musical instruments was not favoured ( kaha kirai vāyaṇavir ahammi nattavihi ? 358.120 ). It was accompanied by the practice of various karanas and arigahāras (232.126 ). Simple dancing was semetimes done with rhythmic clapping of hands (naccävai tam daun halthatālão331.5). Music without tālamānakrijă or rhythmic beatings was not appreciated ( gandharvavidyeva tālamanakriyārahita--p. 59). Tie nine asas of poetry, dance etc. are referred to (p. 61). The ninth rasa is the Santa-tasa. Besides music and dancing, painting was very popular and practised by princes, princesses and citizens. Nārada gives to Krishna a Cittapadia ( Citrapatika) with an excellent painting of Rukmini ( 73.44-46). Two princesses from Hastinapura were shown padicchandas (replicas or models, either small portrait figures or portrait paintings ) but were not satisfied with them as they could not help them in understanding their nature. Then they decided to test the nature and skill of different princes by sending them Citta pattiyão ( Citra pattikāḥ ). For this they ordered their friends (attendant maids and friends) to bring vannasamuggayam (box of colours or paints ) and boards or canvass scrolls (cittapattiyão ) for painting. On these, lotuses, a pair of beautiful princes etc. were painted (lihiyāni), It was only one prince, Padmuttara, who added in the boards (cittaphalahisu), a bee humming over the lotus, and certain other things. These were returned to the two princesses. The friends ask as to what was the bhāva behind the paintings. The two princesses explain the bhäva (meaning, symbolism etc.) behind them ( 109-110. vv. 44-73). It will be seen that study of " bhāva" of a "citra" was held as an essential element both in painting and in its appreciation. There were professional painters ( cittayara ). A son of a painter from Kosambi goes to Säketa for learning the art of painting ( cittasikkhananimittam ). At Säketa was a Cittapiya-jakkha ( otherwise 1. ef.-आउजो लोकभाषायां खंधाउजपखाउजौ । मताः पट्टाउजश्चेति स्वस्वनामानुसारिणः ॥ -सङ्गीतोपनिषत्सारोद्धार (G. O. Series ), chp. 4. v. 92. 2. The meaning of this verse is not clear. It is difficult to take Bheri and Jhallari as túra-vädyds. Also filamäio is not clear. It is just likely that 3 is like the styf so popular in Mabărăştra at least from the Age of Peshwas. The whole complex includes pipes like BITUIS etc., jhallari or jbänja, drum (bheri) and so on. My friend Shri J. P. Thakar informs me that in North Gujarat a sort of long blow-pipe known as Bhera is sounded by tailors on certein festive occassions. It seems better to take this as a practice of tafeyi sounded in the morning, noon, evening and midnight on gates of palaces and temples during Maratha period. The practice was possibly much older. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sculpture, dress and ornaments etc. in AMKV. 23 known as Surapriya-yaksha, in the same story in Jaina Canonical literature) whose image was to be painted every year and at the end of which the yakṣa killed the painter. This Citrakaradaraka of Kausāmbi paints the yakṣa-statue with pure colours (pavittavannehim-167.9), and due courtsey which pleases the yaksa who grants the young man a boon which enables him to paint a portrait of a person even if he sees only a part of the body of that person. Kings had their own picture-galleries and this young man was later employed as one of the painters for the Citrasabha of king Satānika of Kauśambi. The ground for paintings (wall surfaces etc.) was divided into several sections which were then assigned to different painters who were asked to paint on the sections assigned to them. Caritam, i. e., incidents from the life of a person were sometimes painted on walls (133.101 ff.). Paintings on walls of a Jaina temple are referred to in 114.5-7. The art of sculpture was also popular. People taken aback or stunned are described looking like figures in paintings or figures of plaster or stone (cittalihiu vva leppayamau vva pähänaghaḍiu vva92.43). Figurines fashioned from stone (päkäṇaghadiyaputtalaya 76.176), plaster-figures of Madana, the God of Love, worshipped in the Kaumudi-Mahotsava (lippamayamayaṇapadima-143.98), figures of elephants etc. fashioned from wood (kilinjamayahatthi-190.84 ), terracotta figures of animals (119.117) and men etc. (ciñcapurisena va maṭṭiyamayanarena-222.18), figurines of cloth, rags etc. (putthayahatthi"297.251), etc. referred to in the AMKV. show the different materials used by artists for figure-work. We hear of jalajantavahaya puitaliya in the step-well of Salibhadra (31.37). Jantapadimas are also known to the Brhatkalpa-Bhasya, 4.4915. The jantamayahatthi of Pradyota for capturing Udayana of Kausambi is referred to in the Avasyaka Curņi, II. p. 161. The AMKV. 15.224 uses the word karimakarivaro in the same context. Especially noteworthy is the account of a pullaliya (talabhañjikā) of excellent workmanship in a shrine (devaharayam) at Pățaliputra showing three and a half curves of the body (addhuṭṭhabhangaghadiyā) which was so realistic and beautiful that Prince Amaradatta falls in love. His friend finds out that stone-figure was fashioned by a suttahāra (satradhāra, sculptor) of the great city of Soparaya situated in the Kuskanavisaya. The friend goes to Sopäraya, approaches the artist, first performs the courtsey of offering a betel-leaf (tamboladaṇapuvvam) and then asks him whether a certain puttaliya-salabhañji was fashioned after any model (padichandaena ghadiya). To this the artist replies in the affirmative and says that his model was princess Rayaṇamañjari of Ujjain (202-203. vv. 314-352). There are some interesting details about dress and ornaments, furniture, utensils, weapons etc. It is not possible to discuss them elaborately but a few of them may be noted briefly. A person finely attired is called ubbhaḍasingaradharo (272.23). Of the various types of cloth and garments especially noteworthy are the white pattaula (47.27) the white dugulla (duküla), the rayaṇa-hambala (rainakambala) from Nepala-visaya (193.10) the savaranga-nivasanu (garment of nine colours) worn by ladies, the jalavalla-suvaraniya (214.611), the cināmsuya (cināmsuka), the pattamsuya (pattāluka), jaddara.", devanga (devänga, cf. devanganivasanadhara, 257.394), devadusa 1. Also cf. अवरो जहा विलिज्जइ अग्गी इव मयणपुत्तलओ | AMKV., 144.113. 2. Also, in 358. 127. 3. The exact significance of this is not known to us. Does it mean a figure of the wood of fan-fafauft tree? or from paste of seeds of tamarind ? cf. पोत्थकम्मजक्खा विव निचिट्ठा quoted in Pāiasaddamahappavo p. 763. 4. 5. Jaddara is the same as jādara occurring in the Varnakasamuccaya, I, ed. by Dr. B. J. Sandesara. For notes on these textiles, ornaments etc. see, Sandesara and Mehta, Varpakasamuccaya, Vol. II and Prachina Bharatiya Veśabhusha of Moti Chandra. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 Ornaments, cosmetics etc in AMKV. (devadtīsya), the ullasādaya (ārdraśā aka ?), the amdhara-pada (black garment or cover, put on by kings while going out at night on nagarcarya, G3.60;105,53), also the pärarnapada (51.55, used by Nala in exile, which he spreads on ground before sleeping), or the cloth for covering the body, the nirangi (a sort of cover for head, Sirovastra TCL) used by ladics (64.106 ) which is sometimes made of kosambha-castra or cloth of saffron-colour, the kambiya (a small blanket ), the kantha (garment of patched rags or pieces of cloth, 148.17,19 ). Koseyapitavattha, yellow kaušeya (silken) garment worn by Krishna is referred to (319.263 ). Ornaments like keyara, valaya, sayadantavalaya, angada, kadaya (kalaka, Guj. 3), kasikana, kundala, maharihahāra (costly necklace or garland ), addhahāra (ardhahāra), tisaraya, pālamba, cūdāmani (crest-jewel) or cudāralna, mauda ( mukuța ), muttahala-sari (ad 32-Guj.), muttahalahāråvali, neura ( nūpura ), kajicidāma, rasană etc. are referred to. Amongst gems or jewels we find, in the AMKV., names like mani, manikya, vajra, indranila, marakata, muktāphala, padmarāga, vidruma etc. General references to angarāgas, sandal-pastes, bhogāngarāgas including tambola ( betel-leaves ), puspa (flowers ), kappura (camphor ) etc. are also available. Collyrium was applied to the eye with a stick ( anjanasalāyā). Foot-wear (upānaha ) was used ( 174.9). The mother of Salibhadra purchased costly ralnakambalas, each worth a lac of coins, and gave them over to his son's wives who used them as payalahaņā (Guj. 20140c, duster for cleaning soles of feet or foot-wear, placed near the entrance ). Sometimes beds were prepared of silk (pattatāli). The poor sometimes wore only a loin-cloth (kacchottanirasaņo-157,57; kacchüsangahiyaland-277.28, also, 45.59 ). When injured, bandages were tied on injured parts (cf. pindinn ca bandhac-287.99, also avaneum pattayam-287.101, and cf. Guj. ). Warriors wore an armour (sannāham ). Kings especially had chatra (umbrella ) held over them, the rich merchants and leaders of caravans also used them; in one context, the word sikkiri, used for chatra, is noteworthy. Princess Väsa vadattā took her lessons in Vīņa, sitting behind a javaniya (javanikā, curtain ). Ladies, when nicely dressed, applied to their limbs certain paste mixed with saffron (nissarirapavarakumkuma-dinnamuhälevaramaniyanam-27.75 ), they took care about beauty of their faces and used mirrors niyavayanam mandanti padibimbam pecchai dappanatale munino-72.5 ). Alaktaka was used for lips as lip-stick ( 49.76 ). Tilaka marks of sandal-pastes were made on foreheads (123.1 ). Tilaka marks of oil (tella-tilläni, 217.637) were given to persons in order to befool them. The word tillāni may be compared with Guj. Slui. Some interesting descriptions of persons may be noted, for example, the description of a Brāhmaṇa, p. 365. vv. 79-82, of a Vaidya of Sabara cast carrying his bag of medicines on his shoulders (khandhāvalambiputtalayadarvakotthalayarūvadharā-366.116 ), or the description of a Mahārratika (käpalika ) Ghorasivo (Ghoraśiva) by name, coming from Sriparvata in the south and on his way to Jalandhara in the north ( 291.52-53). With his body besmeared with white ash, he carried the damaru and the khatvānga in his hands and could overpower grahas, däkinis, kşetrapālas, yaksinis, etc. Tāpasas wellversed in three Vedas are described as performing pañcāgnitapana, tilahomakarana, etc. A Parivrăjaka carrying a tridaņda ( three staves tied together) and a rosary ( ganittiyā, ganetrika ) and covered by an umbrella (i. e. with an umbrella over-head enters the Samavasarana of Mahāvira (96.12 ). A Pari 1. Tisaraya is of three strands; palamba is a pendent, 2. According to Hemachandra, a Faent TGH IT TATTISET | Abhi. Chin. 3.323 and apher : f: Ibid., 3. 324. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Satthavaha. in AMKV. 25 vrajaka is similarly described in the Vasudevahindi, I. p. 40, where it is said that he carried a waterpot besides the tridanda and the ganitliya. There are many descriptions of beautiful ladies, compare for exainple, the description of Rukmini (p. 73), or of the wives of Meghakumära and so on. A deformed person is described on p. 69. The activities of Kāpālika Bhārabhūti (pp. 105-106 ) may be noted. Also note the account of Kåpalika Bhairavānanda on p. 195. vv. 82-83. A madman (gahilla, gahillaya, cf. Guj. Qe11) roams about singing dancing, muttering and embracing passers by (190.60). The mother of Arahannaka turns mad when her son is missing. Children in the streets harass her. Her wandering in the street is vividly described (272 158 f.). Also note the description of a beggar in rags, carrying a monkey with him ( 45. 59-61). Descriptions of caravans may be noted. Dhana, a salthavāha (Sarthatāha leader of a caravan ) of Ksitipratisthita nagara, collects various commodities for sale (sajji kāum kayānayasamaham) and with mules, bulls and camels starts for Vasantapura to earn money (atthovajjanakajje). Before starting he announces with beating of drum (ghosāvio padaho) that the poor and the beggars (kappadiya ) etc. (who wished to accompany but ) who had no means to afford provisions for the journey (sambalam, especially, food ) including food, kavalta (karapatra, drinking vessel ). clothing etc. will be supplied with the same by the leader. Some Jaina sādhus also decide to accompany. The sârthváha starts on an auspicious day and bour, wearing white dress and having performed the kouyamangala (kautukamangalam), as also after paying respects to his tutelary gods and goddesses. Then follows a vivid description of the caravan with carts ( loaded with goods) moving and making noise ( cakkacikkāram) and so on. When they rest in a forest grove canvass tents are raised up for him (āvāsio visāriyavisālapadamandata gihesu ), some of the people in the caravan satthiyajano) rest under the shades of big trees and the servants (kammayarā ), with big utensils like karavalla (karapalra ), diyada (cf. modern Guj. 221)", kāodi (Guj. 4195, a pole with two baskets or vessels hung at two ends ), kudaya ( kundikā, s's or 31 ) etc, in their hands, in order to fetch water. Going out to other lands with krayānaka (Also called bhandollam-22.59 ) was very common. A person carried a sambalathaia (a bag of eatables, provisions, for journey).' He was given Sinihakesaramodakas with precious jewels hidden in them (23.93 ff.). Dhaņāvaha seţthi loads his vahanam (boat ) with cargo of commodities (kayānaga ) and crossing the ocean reaches the Simhaladvipa. There are many references to traders going into the seas in boats (jāņavatti, 203.608; jānavattu, in Apabhramsa passage. 213.608, also cf. paratire bhinnam jantassa bohittham, 30.18; nävä, 72.20 ). The boatsman or pilot of a yāna patra was called a karnadhāra. Especially noteworthy is the reference to poyavania (polavanika) named Dehila coming from another island and persuading a lady to come into his jänavalta to sell flowers. He immediately lifts the anchors (samvariā nangaria samubbhio jhatti seyavado-300.338-344 ) and the boat swifty moves like an arrow discharged from a bow. The poyavania is therefore a trader who carries on trade through boats, i. e. who is a sea-merchant. He is a nauvittaka. In the story of Padmottara who, according to AMKV. (p. 104) was a nauvittaka-karmahara-jivah, we hear of a nāittaga of Vânārasi, named Samkha (108.1). In v. 12 on p. 108, in the same context we find the wood nāittai used in the same senseNauvittaka, Näittaga, Näittai, Näitta.. 1. Also see, Sandesara, B. J., Cultural Data in the Vasudeva-hindi, Journal of the oriental Institute, Vol. X. No. 1.p.16. 2. Diyada as a small water-vessel is still used in Rajasthan. For more information on Diyadi, a sort of leather-bag ( 108 ) for carrying water or a water vessel like it, see, Sandesara, B. J.'s note in Buddhiprakāśa (Guj. Jours., Ahmedabad), for August, 1960. p. 281. 3. Cf. " T74COTAUTIET" or "faat 8977454" From Kumärapāla-pratibodha, quoted by Paiasaddamahapnavo, p. 549, 45341 = Dell, $1900. 2. Cf. V. S. Agrawal's note on, "Naitta in Apabhramsa Literature", published in Journal of the Oriental Institute, Vol. V. Pp. 103-104. Our references further support the explanations offered by Dr. V. S. Agrawal. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Classes and professions in AMKV. Many classes of people and professions are referred to. Only a few such names are collected below to indicate the wealth of information available about such castes or professions-ibbha (ibhya) seṭṭhi sresthi ), diya or dvija, bhada (bhata), wjjhaya (upādhyāya), purokiya (purohita), kaasaka, halio (farmer), halahara, koḍumbio (farmer, and in other contexts head of a family), nado (nata), naḍayavilli nado of Dumba caste (154.2), nada of Sabara caste (92.41), lamkhiya or lamkhaga (ropedancers, 92.63), māyanga (mälanga) Candela, dhivarapurisa (fisherman, also cf, macchiyanam pādao, 148.31), bhilla (Bhils), serahirakkhaga (140.3-4, keeper of buffaloes and cows), sāli-rakkhiya ( a lady who is employed to drive out animals etc destroying rice-crops in the field), arahaṭṭiya-nara (who drives the water-wheels), kumbhayāra or kulala (potter, kumbhayārassa sālā, 147.17, also, kulalagiha, 147.27), udda (earth digger, Guj. t), mālāgāra (mālākāra), rathika (chariotteer ), navia or churamathi (a barber), gandhiya (dealer in perfumes, 81.2), kammayara (servant); govala or gova (gopa), khattikkamayanga (butcher of matanga caste), malla (wrestler), suttahāra (sculptor and architect), maniyara-vaniya' (a merchant of maņikāra caste, workers on precious stones, savanṇakāra, kalaya (goldsmith), isuyara (one who makes arrows), mahiyari (283.16-17 wives of gopa people, who sell mahiyai, i. e. curds etc., cf. Guj.), Lambolio (tambulika, dealer in betel-leaves), pannavaniya (greengrocer), kullariya or kulluriya (318, 248, dealer in sweets, kändavika, (..), puiya (23.102, same as kulluriya) also called kanduia or kanduiya (23.114, kändavika, ), süvagara or suyakāra (p. 227 a cook), rasoyaniya ( 262.4, female cook), kallaliya (318.249, wine-dealer sea), kuṭṭini, pananganā, vāravilāsiņi, gania (prostitutes, also note vesavāḍa = veśapāṭaka, 212.606), nemittiya, joisiya (diviner, astrologer); mantavai (one practicing use of charms) vijjavāi (one practicing magical vidyas or charms), garuḍia (one who attracts and catches serpents, who removes poisons of serpents with charms), vijjā (medical-practitioners), Sabaravejja (a vaidya of Sabara caste) etc. 26 The fair and unfair means of making money or earning one's livelihood are enumerated on pp. 222-223. Some numismatic evidence is also available: we find references to mudda or seal, diņāra (21.36; 116.73, golden coin so common in Kshatrapa and Gupta age, named after Denarius), suvanna or suvanna, and coins of smaller denomination like kagani (24.34, kākiņi-) and even varaḍaga (varātaka, which had coin value cf. varaḍagadasadugena egam gahaya varalaṭṭm, 40.79), damma (cf. Guj. , ; dramma, 149.48, common also in the age in which AMKV. was composed) suvanna-tanka (tankas of gold) and ruvaga ( 243.5) a silver coin. Money was often carried in a purse known as nakulaka, naula, naulaya (cf. dināranaulayam, 204.369) or naula (225.2) naulaga (225.3). There was a superstitious belief that money stored in the hide of a nakulaka remains inexhaustible. With this belief may be compared some of the representations of Kubera, the lord of riches, carrying a nakula (ichenumon) in one of his hands, and in some cases, coins are shown as issuing from this nakula figure. In such cases, the nakula possibly represented the money-bag of the whole hide of nakula, rather than a live nakula himself. Later on any purse came to be called a nakula or nakulaga. The long purses carried by Jaina worshippers in some Jaina temple sculptures, (e. g. figures of wives of Vastupala in Lūņavasahi at Delväḍā, Mt. Abu) are known 1. The reference to Matargas, Sabaras, Dumbas etc. associated with dancing and Caccaris etc. in several akhyānakas in old Indian literature is noteworthy. The contribution of these people to Indian dancing and music should be an interesting problem for research. 2. Note the story of Nanda Maniyāra (264. 2). Also see, Shah, U. P. Geographical and Ethnic Data in the Kasyapa Samhita, Journal of the Oriental Institute, Vol. VII. Fp. 276-299, especially, the note on Manicaraḥ, pp. 292–293. Maniharas are numerons in U. P. 3. For Dramma, Tanka, Rüvaga, see Journ. of Numismatic Society of India, XVII, pp. 64-82, Vol. XX. 15 ff., 38 ff. 4. Cf. Shah, U. P., Numismatic Data from Jaina Literature,, Journal of the M. S. University of Baroda, Vol. III No. 1 (1954) pp. 51 ff. for references to diņāra, rūvaga,, kākiņi. naulao etc, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Utensile, eatables etc. in AMKV. 27 as moli. Noli in old Jaina Gujarati liturature means a purse. This noli is derived from naulaga, naula, naulai, noli Amorgst utensils we find, thalam (a big dish, 361.215 ), thali (flat-dishes, cf. mahiyario miliyão... appanay4ssa sarisau matthae täna thālio, 283.16-17) kamsipattam (kāmsyapätra, bronze-vessel ), mahubhāyanani ( vessels for storing or drinking wine ), mattiyabhandam ( earthernware, pottery), calani ( sieve, strainer ), āmamiyakumbho (p. 154, pot with boles ), vārao ( bowl, 418FI, II, cup, cf. vārao ya majjassa, 154.4 ), mamsassa chavvayam ( 154.4, a basket of meat; also chabagam, 243.5 = Guj. 614.), kalasa (kalaśa, pot ), pāri (droni, 56.528. cf. Guj. 47, an earthern utensil known in Gujarat ), tambāluyam (a vessel of copper, Guj. iz. also cf. Guj. aici sl.) AMKV. 105.45 gives kancanatambāluyam, tambaluyam was originally a copper vessel of a certain shape, then the vessel itself got the name tambāluyam and a golden vessel of the shape came to be called kancanatambāluyam. Also note, kapparaya ( 81.3 a begging-bowl, w a, 4742), and ghada ( pot ). . Sikkaya ( 244,3) or Sikkaga ( 244.8, Guja, aly) was a basket-like object hung on a peg in which cooked food ( bhattam ) etc. was preserved. Broken Deck of an earthern foot is referred to as ghädikantho (cf. Guj. sid, sil). Balls of iron (Lohamaye gole, 327.44), lohamayā kumbhi (jar of iron), nicchiddaI. amai-manjusa (Guj. Ha, a casket or box of iron with no crevice or hole) are mentioned. A box was locked on all the four sides (talittu chau pasam, 202.296). Samuggaya was a small box or casket. Khellamallaga (161.14) was a vessel for spitting (spittoon ), mallaka in Sanskrit literature is used in the sense of a goblet,' the Jaina monks sometimes keep an earthern vessel with ash in it which they use as a spittoon, which is referred to as khellamallaga. Another interesting word is topparia ( 176.29), the context would suggest, that it is used in the sense of baskets (cf. Guj. 2146, Trual ), but the meaning of east, a bowl-like half of the hard coconunt skin, given by Muni Sri Punyavijayaji is still current amongst Jaina monks. In modern Guj. 1149 = 149 = ftes, coconut, and area is a small cuplike vessel of 214. Pabāņa-doņis were buckets of troughs of stone. Several eatables are referred to : moyagas (modakas, sweet balls ) prepared with molasses (guda), or khand a-sakkar (sugar), a special costly fragrant variety called sihakesaramoyaga. This variety of laddu (Guj. lādu ) was popoular in W. India (Gujarat and Rajasthan) as can be seen by the reference to it in Varnakasamuccaya, ed. by B. J. Sandesara. There are several other varieties of modakas mentioned in the above work. Paramannam was cooked food and is especially used for khiri etc. (cf. kulluriyāvanão mandaga pabhii paramannam, 318.248; 30.6). The upakaranam (ingredients) of khiri is said to be made up of milk, ghee, śāli (rice) and sarkară ( sugar, 30.9). mandaga, mandaya, mandaa, or mandam (= His. HET a cake) of Malva seems to have been very famous. People of Ujjain 1. Shah, U. P., 2100, in Buddhiprakasa (Guj. Journal, Ahmedabad ), for November, 1953, PP. 345-346, 2. Para or Pari is a namo generally popular in spoken language, all over Gujarat, especially amongst villagers who stored oil, ghee, curds, butter etc. in pari. Later on an earthern vessel, lacquer finished, used for preserving pickles etc. also came to be called para or părya. 3. See, Bhattacharya, S. P., The Word Mallaka in Sanskrit Literature Journal of the Oriental Instituto, Vol. VIII. (1959), pp. 378 ff. For mallaga, also sce, Paiasaddamahannavo, p. 837, and p. 351 For khela. 4. Ct. geit para 96490 Hitquinat widey ut gat facer para ater geruft il pull गयणंगणेण गच्छंति अणुदिणं नियउवासयगिहेसु । भोयणभरियाणि पुणो तह चेव य पडिनियत्तंति ॥ २८॥ agafat ut attafcu 99721ffagt i Hoafe FTV Trait ET TOE ISLAMKV., p. 175. 5. See, Varpakasamuccaya, Vol. pp. 9 ff. for the different varieties of food & drinks mentioned in the different Varnakas. Tho varamoyage (AMKV. 9.268 ) could have been the same as simhakesaramodakas generally used by princes and the rich, Cf. fast atat ET HY for AMKV. 94. 111. Also note yetsait p. 42. 131. For manda etc, see, Shah, U. P., Girvāṇapadamañjari & Girvåņavārmaðjarl, Intro., pp. 56-86. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 Gods and goddesses in AMKV. give pieces of mandaya to a diseased prince out of pity ( 157.64). Kanjiya (gruel), kara ( preparation of boiled rice) and cinayakūra ( 365.93 cheliyāt akkasamjuo laddho cinayakūro) gorasa, dudha, dahi, mahi and takka, navaniya (butter), and shaya (ghsta), pejjā (yavāgū, 79.267 ), sattuga pindam H. Guj. 21491., cf. varasurabhi ghayagudāvila-navasattuga pindiya, 36.3; 36.6 ) etc. are mentioned. Rasavai ( 152. 20-21 ) and Ravipagarasavai are preparations of meat ( 262.3). King Nala was believed to be the only person who knew how to prepare ravipagara savai (54.260 ff). Preparations were sometimes prepared with specific objective (157,45 ) of creating disease, possibly by adding some ingredients, and a person was thus made to suffer from mandukka-roga. He was cured of it by the use of butter-milk mixed with rāiya-cunna (159.125 ). Kūlavāluka muni was given sweet-balls which brought about alisara-roga. Kummāsa ( beans, afe) and several other grains are mentioned. A list of twenty-four food grains appears on p. 8, vv. 16-17. Drinking was not unknown. A special variety of wine, saraka, is mentioned ( 318.249 ). Several vehicles and furniture are mentioned : sagaļa (cart ), jugga ( especially famous in the golla country ), gilli (Hindi a thilli ( drawn by two horses or mules ), ratha, raha, gaddi (cart, small carriage ), sibiya ( Sibika, palanquin ), costly jam pāņam ( 142.64 ) and mahājānam ( 142.65 ) with jingling bells, pallanka (paryanka, HEV) etc. may be noted. A list of weapons may be given from various descriptions of battles- kuntā, karavāla, taravāri, asi patra, karavatta, bhalli, sella, musundhi, moggara, kodandam, tiri, nārāya, musaladanda, tomara, tisála, kivāniā, kuddälia bhala, bhaliya, süli etc. are amongst the more common weapons in these descriptions. Several gods and goddesses are referred to. Worship of yakşas and Nägas, more common in the Jaina Agamas and Cūrnis etc. gradually sink into background in these ākhyānakas except when some of the stories particularly concerned with the older yakşas (e. g. the story of Surapriya-yakşa or the Citrapriya yakşa) are described. Again, Brahmaśānti and Kaparddi yakśas who became more popular in Jainism in this age are referred to in our text. Worship of Jaina tirthańkaras as also five chief events (kallāna, kalyānaka) in the lives of thcse (359.153 ) when special festivals and worship were done in Jaina shrines are of course referred to. Several other details about Jaina practices of course appear. We find reference to Tinduya-jakkha in Tinduga-ujjāņa (271.28 ) and a yakşa of Saptacchada-tree (sattacchayanāyagena jakkhena-363.27 ) referred to in this text show that yakşas were often regarded as Tree-spirits. Jaina temples are generally referred to as a jinaharu jiņabhavana Caiyahara or Ceihara etc. Mathură is said to have been famous for the Stupa of Pārsvanātha. There were tutelarly goddesses worshipped by people. A merchant asks his newly wedded daughter and her husband to go to the temple of Candiya ( Candika ) and bow down to their tutelary goddess (150.87 ff.). Images of Câmundā and others are mentioned at Gudasatthapura (170.20). Goddesses Lakşmi and Sarasvati are referred to, also, Vişnu and in another place Vişnu with sarkha and cakra ( 295.198 ), is said to have gadā, Sankha, cakra, and the sárnga-bow (22.87 ). Iconography of Viriñci (Brahma ), Kanha (Vişnu ), Sirikantha (Siva ) is available on p. 96, vv. 18-23. Also note the reference to Vrsabhadhvaja or Maheśvara, accompained by Kumāra, Gauri and Vinayaka ( 132.77) People worshipped gods and goddesses for obtaining children etc. As merchant's wife, in the city of llāvarddhana, goes to the shrine of là-devi and prays to her and promises that she would arrange festival of yātră etc. in the shrine if she would be favoured with the gift of a male child. She also promised to name her son after the goddess. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sects and Customs in AMKV, 29 Images and shrines of Kamadeva or Madana, Śri or Laksmi, Gauri, Candika, Naga and yakṣas are referred to. In the story of Arya Khaputa, who can be assigned to c. second century A. D., we hear of a Buddhist Vihara, a Buddhist Stupa and a Buddha-Image (175.34-36) at Bharuyacchapura ( Broach), in Läḍadesa, are referred to. The reference is important. The same account is available in earlier accounts of Arya Khaputa in Bhasya and Curņi literature. In view of the early Buddhist finds near Junagadh and the recent find of Buddhist Stupa and Vihara at Devani Mori near Samalāji, the existence of Buddhist Stupa etc. at Broach in the early centuries of Christain era need not be regarded as unlikely. We have already noted references to several sects-Jainism, Brahmanism, Buddhism, Saiva sect of Kāpālikas, Parivrajakas and so on. We also obtain references to nahiyavai (242.18, nästikavādi and followers of Kapiladamsana (242.20). There are references to Brahmanas performing yajñas etc., The sacrifical ground-yajñavăța-is also referred to. Jaina monks are often called seyavadas (svetapata) while Buddhist monks are referred to as sasarakkhas in one story. A Buddhist monk is also referred to as rattambara A few more interesting customs and beliefs may be noted. It was generally believed that expiation of sins is possible if a man goes to and takes his bath in the Ganges (224.86). Also we get a reference to people carrying ashes of the dead and immersing them in the Ganges water. A curious story of change of sex by placing some roots in the thigh is recorded on p. 254, vv. 285-291. We get a glimpse into the system of education. An Ujjhaya or Upadhyaya had a number of resident students. An Ujjhaya of Campă could not feed all of them. He, therefore, advises a student (chatra) to go for meals to the house of merchant Dhana, in the city, who was feeding five hundred Buddhists every day (197-178. vv. 147-157). A library of books (potthayana bhandaro, 173.9) at Valabhi is also mentioned, We find here a reference to the custom of the freshly widowed woman, going behind the corpse of the husband being taken to the cremation, with other ladies, all wailing. The group of ladies follow the corpse only up to the end of the lane from which they start, upto the nearest square. The widowed wife puts on all ornaments etc. which a woman wears when the husband is alive. This is the last time she wears them. (122.48-49).1 The above survey, we hope, will be sufficient to demonstrate the importance of AMKV. for a cultural study. Muni Śri Punyavijayaji, the learned editor, has appended a list of Desya words. But some words in this text suggest a post-Apabhramsa stage. It appears that some words at least are taken from the spoken language. A collection of such words, from different works of the period, composed mainly in Gujarat and Rajasthan may be useful to students of old Gujarati. I have selected only a few words. They are (152.19, Guj. ), (cf. dua, discussed by Sandesara, op. cit.), (105.45, cf. Guj.), (30.7; 302.414; 353.28. Guj. 14, 15, 16), and ife (285.21), for (217.637 Gaj. Lei), (husband's sister, 65.38, Guj. 't), arged (ager, 52.176, Guj. a), firfeft (=w9?{ 18.21. see,, ed. by B. J. Sandesara, p. 288), 9 afra (garlands of leaves hung on doors, 32.64, 336.67). "back formation" are collected from various works of this age, (56.528, Guj. e), haftar (175.29), If such instances, especially those of it might help scholars to find out an 1. The custom is still prevalent in Gujarat. 2. See also, Bhayani, H. C., "", published in 1 (Ahmedabad), January. 1961, pp. 19-20. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 Proverbs in AMKV. early stage of old Gujarati or old Western Rajasthani or what Umashankara Joshi preferred to call •Maru-Gurjara' There are some interesiting sayings, possibly proverbs, which seem to have been very popular. Some of them remind us of the close observation by our author of AMKV., of everyday life of people. Iquote only a few instances लाक्षारसेन केनाऽऽपि कार्पासः किमु रज्यते ।। (7.19); मरणे वि महासत्ता न उणो माण परिहरति । ( 39.25); तं नत्थि कि पि विसमं जन सहावइ विही एसो । ( 253,268); अस्थवणम्मिवि रविणो किरणा उड्ढे चिय फुरति । (217.641); तं नत्थि एत्थ कल्लाणं तवाओ जं न जायए । (55.312 ); दीवयसिह व महिला लद्धप्पसरा भयं देइ । (194.29); सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् (363.36); रागंधनयणजुयला कज्जाऽऽकजाई न नियंति । ( 197.137); परदेसो वि सदेसो सत्ताहियपुनवंताणं । ( 306.45); अमयकिरणनिम्मलकुले मसीकुच्चओ मए दिनो ( 340.204); रुहिरेण धोइयं नहि सुज्झइ रुहिरारुणं वत्यं । (341.242); बोढुं गयपल्लार्ण कुमार कि रासहो तरइ ? । (356.57); मज्झ :पई नियगेहे जीवउ दीवालियं लक्खं । (289.141); दक्खारसो न महुरिज्जइ सकराए । ( 300.337); जे चितिउं न सका न यावि सहिउं न वा कहिउँ । ( 300.355); बका हु कीलिया बकवेहस्स । ( 285.24 ); पडउ घयं सूयमज्झम्मि । ( 246.33); वालविणिवायमेत्तं पि मित्त न भयं...। (175.24 ); मइसुइवियलो अन मणम्मि अचं कुणइ कजं ( 150.68); किं वा छालीए मुहे कुंभ माई (v. 1. मायई ) ? । (154 line 6); भमिरतुंबभरयाण अन्तरे अंगुली मज्झ । (143.91 ); अट्टमर्ट पि सिक्खिज्जा सिक्खियं न निरत्ययं । (147.44); हुयहु घरह म बारह । (137.5); नारी चलंतिया मारी । (142.55); हत्थत्थकंकणाणं कि कजं दप्पणेणऽहवा । (116.59); दुवियाय होइ परं न दुमाया एस पसिद्धी जणे पयडा । (118.111); न गामसामियाओ लन्भइ मंडलसामित्तं । (120.18); ता तीए मुहे छारो दायब्वो कि वियप्पेण । (121.26 ); खज्जन्ती परिवद्धइ कडू । (61.73; ज्यवसणम्मि गिद्धा कि दुक्खं जं न पावन्ति । ( 49.100); उवरिं तवेइ सूरो हेट्ठा धरणी । (51.146); नत्थि भयं जग्गमाणस्स । ( 51.153); ता मज्झ महे भवइ छारो। (37.26); ससएण व खोडेण अणेण वडवाडी रुद्धो। (40.71) पालबचुको मकडो ब्व वेलक्खमावनो । (134.22) खीरे खलु खंडपक्खेवो । ( 355.13 ) etc. Oriental Institute, BARODA. 10-3-1961. UMAKANT P. SHAR Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीनेमिचन्द्रसूरिग्रथितः आख्यानकमणिकोशः श्रीमदानदेवसूरिसन्दृब्धया वृत्त्या समलङ्कतः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जयन्तु वीतरागाः ।। श्रीनेमिचन्द्रसूरिविरचितः आख्यानकमणिकोशः श्रीआम्रदेवमूरिनिर्मितया वृत्त्या समेतः । [ १. चतुर्विधबुद्धिवर्णनाधिकारः।] ॥ नमः सर्वज्ञाय ॥ स्वर्नाथभीतघनभृधरसेव्यमूर्तिलावण्यधामबहुधीवरलब्धमध्यः । आख्यानकारख्यमणिकोशमहार्घरूपो जीयाद् युगादिजिननायकनीरनाथः ॥१॥ सिद्धार्थपार्थिववरान्वयलब्धजन्मा निर्मिथ्य' वीरवलयान्वितरम्यमूर्तिः । रागादिशत्रुगुरुविक्रमवर्ण्यवर्णो जीयाजगत्त्रयजयासमवेश्म वीरः ॥ २ ॥ राकाशशाङ्ककरनिर्मलकीर्तिभाजो ज्ञानादिरत्नचयरोहणशैलकल्पाः । शेषा अपि प्रणतकल्पितकल्पवृक्षा जीयासुरानतसुरप्रभवो जिनेन्द्राः ॥ ३ ॥ श्रीगौतममुनिमुख्याः श्रुतजलधिविचारपारगतवचसः । सुगृहीतनामधेया जयन्तु गणधारिणः सर्वे ॥ ४ ॥ यस्याः प्रसादमासाद्य सद्यः सञ्जायते पुमान् । पारगामी श्रुताम्भोधेः स्तौम्यहं तां सरस्वतीम् ॥ ५ ॥ अस्मादृशा अपि विशिष्टविवेकशून्या येषां प्रसादमधिगम्य मनीषिमान्याः । जाताः परोपकरणप्रकृतिप्रवीणास्तानप्यचिन्त्यमहसः स्वगुरून् प्रणोमि ॥ ६ ॥ इत्थं कृतनमस्कारो ध्वस्तविघ्नविनायकः । विधास्ये विधिनाऽऽरब्धं समीहितमहं सुखम् ॥ ७ ॥ इहानन्तजन्म-जरा-मरणप्रवाहपयःपूरपूरिते इष्टवियोगाऽनिष्टसम्प्रयोगव्यसनशतकल्लोलमालासमाकुले हर्ष-विषादाद्यनेकप्रकारप्राणिपरिणामपरम्परारङ्गत्तरङ्गे शारीर-मानसानेककटुकदुःखदुष्टश्वापदसमाकीर्णे भुवनत्रयसन्तापसम्पादनपटिष्ठप्रकृतिप्रज्वलन्मदनवडवानले अनन्तभवभ्रमणनिमित्तदुरन्तकषायमहापातालकलशालये अनुपलब्धपरपारसंसारपारावारे निमज्जता भव्यजन्तुना कर्णधारादिसमग्रसामग्रीकं यानपात्रमिव जलधिजलमध्यपतितरत्नमिवातिदुर्लभं लभ्वा श्रीसर्वज्ञप्रणीतधान्वितं मनुजजन्म परोपकारे यतितव्यम् । स चोपकारो यद्यपि द्रव्यादिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकारः, तथापि जिनवचनोपदेशेन भावोपकारेणोपकर्तव्यम्, तस्यैकान्तिकाऽऽत्यन्तिकरूपत्वाद इतरस्य चानैकान्तिकाऽनात्यन्तिकम्वरूपत्वात् । जिनवचनोपदेशोऽप्युपदेष्टव्यभेदाद अनेकप्रकारः । अतो धर्मकथारूपोपदेशनैव भव्यानामुपकर्तव्यम् , तेषामज्ञातधर्मस्वरूपाणां धर्मतत्त्वप्रकाशनेन तस्य महोपकारित्वाद् । अतो भव्यान् उपचिकीर्षुः श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरिधर्मकथास्वरूपमाख्यानकमणिकोशमेकचत्वारिंशदधिकारसमन्वितं विरचितवान् , तस्य विवरणं प्रस्तूयते । तस्य चाऽऽदावेव मङ्गलाऽभिधेय-प्रयोजनप्रतिपादिकेयं गाथा नमिऊण जिणं वीरं सुरमहियं केवलिं पवरवाणिं । अक्खाणयमणिकोसं भव्वजणवियोहयं वोच्छं ॥१॥ १. निर्मण्य वीर रं०।२. नौम्यहं २० । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अस्या व्याख्या - "नमिऊ " नत्वा 'जिनं' रागादिजेतृत्वाद् जिनः तम् 'वीरं' चरमतीर्थाधिपतिम्, 'सुरमहितं' सुरै:देवैर्महितः पूजितो यस्तम्, 'केवलिनं' केवलं केवलज्ञानं तद् विद्यते यस्यासौ केवली तम्, 'प्रवरवाणीक' प्रवरा - समस्तवचनगुणसमन्वितत्वेन निर्दोषा वाणी - भारतीयस्य स प्रचरवाणीकस्तम् । प्राकृतत्वात् सूत्रेऽन्यथा निर्देशः । 'आख्यानकमणिकोशम् आ-मर्यादया ख्यायन्ते - परहित निरतैर्भव्यावबोधाय कथ्यन्ते इत्याख्यानकानि - धर्मकथाः, तान्येव संसारदौर्गत्यापहारकत्वेन मणयः - रत्नानि आख्यानकमणयः तेषां कोषः- भाण्डागारस्तम् । 'भव्यजनविबोधकं' भव्याः - मुक्तिगमनयोग्या जन्तवस्तेषां जनः [ समूह ] स्तस्य विबोधकंविशिष्ट तत्त्वा[व]गमहेतुम् । “वोच्छं" ति वक्ष्ये इति गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थस्त्वयम् इह भगवतो वीरस्य जिनादिविशेषणचतुष्टयेन यथासङ्ख्यं अपायापगम-पूजा-ज्ञान- वचो [ रूपाः ] चत्वारोऽतिशयाः प्रतिपादिता द्रष्टव्याः । तथा " नमिऊण" मित्यनेन शिष्टसमयपरिपालनाय विघ्नविनायकोपशान्त्यर्थं चेष्टदेवतानमस्कृतिमाह । तथाहि शिष्टाः कचिदभीष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानास्सन्तोऽभीष्टदेवतानमस्कृतिपुरस्सरमेव प्रवर्तन्ते, अयमप्याचार्यो नहि न शिष्ट इत्यतः शिष्ट समयपरिपालनाय । तथा श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्तीति । उक्तं च "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ १ ॥ " इदं च प्रकरणं सम्यग्दर्शनहेतुत्वात् श्रेयोभूतं वर्तते, अतो विघ्नविनायकोपशान्तये । सिद्धा चेयमिष्टदेवतास्तुतिः विघ्नविनायकोपशान्तिहेतुत्वेन । यतः - २ पुंसस्तस्यां प्रवृत्तस्य श्रेयसो जन्मकर्मणः । तेन न्यत्कृतसामर्थ्याः क्षीयन्ते विनहेतवः ॥ १ ॥ क्षीणेषु विघ्नबीजेषु जायते निरुपद्रवा । श्रोतृव्याख्यानविषयव्यापारर्द्धिपरम्परा ॥ २ ॥ इति । तथाऽभिधेयशून्येऽपि न प्रवर्तन्ते प्रेक्षावन्तः । यतः - काकदन्त परीक्षादौ वाच्यवैकल्यतो यथा । प्रवर्तेत न मेधावी तद्वत् शास्त्रेऽपि भाव्यताम् ॥ १ ॥ ततश्च 'आख्यानकमणिकोशम्' इत्यनेनाभिधेयं प्रतिपादितम्, आख्यानकानामेवाभिधास्यमानत्वात् । 'भव्यजनविबोधकम्' इत्यनेन प्रयोजनमाचप्टे, यतस्तद्रहितेऽपि प्रेक्षावन्तो न प्रवर्तन्ते । तदुक्तम् - तथा “सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यताम् ? ॥ १ ॥" [ श्लोकवार्तिक १.१२ ] “सिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः || १ || " [ श्लोकवार्तिक १.१७ ] प्रयोजनं तु कर्तुः श्रोतुश्चानन्तर - परम्परभेदभिन्नम् । तत्रानन्तरं शास्त्रकर्तुः भणितं च “सम्यक् तत्त्वोपदेशेन यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति तत्त्वशून्यानां स प्राप्नोत्यचिराच्छ्विम् ॥ १ ॥” इति । श्रोतुरप्यनन्तरं तत्त्वावगमः, परम्परं तु तस्यापि मुक्तिरेव । अभाणि च - “सम्यक् तत्त्वपरिज्ञानाद् विरक्ता भवतो जनाः । क्रियाशक्त्या ह्यविघ्नेन गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥” इति । सम्बन्धस्तूपायोपेयादिलक्षणः सामर्थ्यलभ्यः । तथाहि इदं शास्त्रमुपायः, वस्तुतत्त्वावगमश्चोपेयमिति ॥ १ ॥ अधुना प्रतिज्ञातमनुत्रियते सत्त्वानुग्रहः, परम्परं तु मुक्तिपदप्राप्तिः । लक्षूण नरत्ताई सामग्गी मोक्खसाहणे धम्मे । दाणाइए पवित्ती कायव्वा बुद्धिमतेहिं ॥ २ ॥ अस्या व्याख्या–‘लब्ध्वा' अवाप्य 'नरत्वादि' मनुजजन्माऽऽर्यक्षेत्रादिलाभरूपां 'सामग्री' मुक्तिसाधकगुणकलापम् । 'मोक्षसाधने' मोक्षं मुक्तिं साधयति - करोतीति मोक्षसाधनस्तत्र, एतच्च धर्मस्य विशेषणम् । पुनरपि किंविशिष्टे ? 'दानादिके' दान For Private Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धिवर्णनाधिकारे भरताख्यानकम् शील-तपोभावनास्वरूपे [ धर्म ] 'प्रवृत्तिः' प्रवर्तनं 'कर्तव्या' विधेया 'बुद्धिमद्भिः' बुद्धिः-मतिर्विद्यते येषां ते बुद्धिमन्तम्तैः । अत्र च सामग्रयन्तर्गतत्वेन पुनर्बुद्धरुपादानं धर्मसाधनगुणकलापमध्ये बुद्धेः प्राधान्यग्यापनार्थम् । भणितं च___"श्रियः प्रसूते तनुते विवेकं यशांसि धत्ते विपदो निहन्ति । संस्कारयोगाच्च परं पुनीते शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनुः ॥१॥" तथा "हेयमुवाएयं वा न जाणई विमलबुद्धिपरिहीणो । न य धम्माइपरिक्खं बुद्धी ता सव्वगुणहेऊ ॥ १ ॥" किच्च "बुद्धिजुओ आलोवइ', धम्मट्ठाणं उवाहिपरिसुद्धं । जोगत्तमप्पणो वि य, अणुबंधं चेव जत्तेणं ॥१॥ आढवइ सम्ममेसो तहा जहा लाघवं न पावेइ । पावेइ य गुरुगत्तं इह-परलोए मुही होइ ।।२॥" [उपदेशपद गा० १६७, १७१ ] ॥छ।॥२॥ बुद्धिमेदानाह उप्पत्तिय वेणइया कम्मय परिणामिया चउह बुद्धी । भरह-निमित्तिय-करिसग-अभयाईनायओ नेया ॥३॥ व्याख्या-उत्पत्तिः-उत्पादः सैव प्रयोजनमस्याः सा तथा । उक्तं च"पुव्वमदिट्ठमसुयमवेइय तक्खणविसुद्धगहियत्था । अब्वाहयफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिया नाम ॥१॥ [नन्दी० गा०६०] इति । "वेणइय"त्ति विनयः-गुरुशुश्रूषादिः तेन निर्वृत्ता वैनयिकी । भणितं चभरनित्थरणसमत्था तिवम्गसुत्तत्थगहियपेयाला । उभओलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥१॥ [ नन्दी० गा० ६४] "कम्मय"त्ति कर्म-कृप्यादिकम् । कर्मणो जाता कर्मजा । कथितं च"उवओगदिट्टसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहक्कारफलवती कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥१॥" [नन्दी० गा० ६७] "परिणामिय"त्ति परिणामः-बुद्धिपूर्वकं सदसद्वस्तुविवेचनं वयोविपाको वा तेन निवृत्ता पारिणामिकी । अभिहितं च"अणुमाण-हेउ-दिटुंतसाहिया वयविवक्कपरिणामा। हिय-निम्सेसफलवई बुद्धी परिणामिया नाम ॥१॥ [नन्दी० गा० ६९] "चउह बुद्धि"त्ति 'चतुर्धा' चतुर्भिः प्रकारैश्चतुःसङ्ख्या 'बुद्धिः' मतिरिति ! आह च"उप्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया । बुद्धी चउब्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भइ ।। १ ॥" [नन्दी० गा० ५९] ति उत्तरार्धेनाऽऽसां यथासङ्ख्येन दृष्टान्तानाह-भरतश्च-भरतनटपुत्रो रोहकः फलहेतूपचारात् । नैमित्तिको च-निमित्तेन चरतस्तथाविधसिद्धपुत्री, कर्षकश्व-कृषति सस्यार्थ भूमिमिति कर्षकः-हलधरः, अभयश्च-श्रेणिकराजसुतः प्रतीत एव, भरत-नैमित्तिक १. श्रालोचयति । २. प्रारभते । ३. पराभवम् । ४. उपदेशपदे "रोहिणिवणिएण दिहतो" इत्युत्तराद्धोत्तरांशः। ५. पेयालं-प्रमाणं सारो वा । ६. लिङ्गाद् लिङ्गिज्ञानम् , स्वार्थानुमानमत्र ज्ञातव्यम् । अनुमानप्रतिपादकं वचः हेतुः, परार्थानुमानमित्यर्थः । दृष्टान्तः-उदाहरणम् । वयोविपाके परिणामः-पुष्टता यस्याः सा वयोविपाकपरिणामा ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे कर्षका भयाः । ते आदर्येषां तथाविधधूर्तव्यंसितचिभिटिकापणितग्रामीणविसंवादच्छेत्तृद्यूतकारादीनां ते तथोक्ताः । त एव ज्ञातानिदृष्टान्तास्तेभ्यो 'ज्ञेया' ज्ञातव्येति गाथासमासार्थः || ३ || व्यासार्थस्तु आख्यानकेभ्यो ज्ञेयः । तत्र तावद् भरतज्ञातं प्रथममाख्यायते । तद्यथा ४ मालवमंडलवसुहाविलासिणीचयण - नयणलच्छि व्व । कामियणकामपूरणसज्या उज्जेणि नयरिं त्ति ॥ १ ॥ बिलसिरपयसंचारा कलहंसयसद सोहिया जत्थ | अंतो विलयामाला रेहड़ बाहिं च सिप्पनई ॥ २ ॥ अच्छरसोहान्ना अणिमिसविरइयविलासरमणीया । अमराउरि व्व परिहाविरयाए बहुलहरिवासा ॥ ३॥ चिहिया णुव्वयचेट्टो जत्थ य गोवो व्व सावयसमूहो । पन्नवणिज्जो तंबोलिओ व्य हलिओ व्व सहलमई ॥ ४ ॥ सुत्तत्थगणपवणो पवयणमायारुई सुगीयत्थो । मुणिजणमुत्तिसमाणो वियरइ वेसाजणो जत्थ ॥ ५ ॥ मंति व् करणरुइरो गुरुचरणरुई सुसीसवग्गो व्व । सेसो व्व खमाहारो साहुजणो जत्थ संवसइ ॥ ६॥ नेगमसंगववहाररिउसुया सहसमभिरूढा य । एवंभूया वणिणो जम्मि पुरे जिणमयसमाणा || ७ || सामन्नद्रव्वसमवायसंजुओं गुणविसेसकुसलमई । सुहकम्मो जत्थ जणो निवसइ सिवसमयसारिच्छो ॥ ८ ॥ अह एको चिय दोसो नयरीए तीए गुणसमिद्धाए । जं पयईए कुडिला बाला सीसेण वुभंति ॥ ९ ॥ तत्थ नियरुवनिज्जियपुरंदरे दरियरायनिद्दलणा । समरंगणजियसत्तू जियसत्तू नाम नरनाहो ॥ १० ॥ निवसइ पयइपहाणो सम्मयकविलोयल द्धमाहप्पो । सप्पुरिसवन्नाबाई सक्खं संखागमसमाणो ॥ ११ ॥ आजलहिवेल पसरियपयंडमाहप्पकलियनियदंडो । दरियरिउसमरजयसिरिकरेणुआलाणभुयदंडी । । १२ ॥ पण मंतसयलमहिवालमउलिमाला मिलंतकमकमलो । कमकमलाजुवइ विलासविविहसंभोगदुल्ललिओ ।। १३ ।। अह तीए पुरवरीए पच्चासन्ने समत्थि वित्थिन्नो । नामेण सिलागामो गामो धण-धन्न परिकलिओ ॥ १४ ॥ तत्थऽत्थि नडो नाडयवियक्खणो भरहनामओ मइमं । नियबुद्धिद्धसोहो रोहो नामेण तस्स सुओ ।। १५ ।। तस्य सवक्किमाया न वहइ सम्मं ति भणइ तो एसो । तं नियपायाण मए पणामियव्वा न संदेहो ॥ १६ ॥ अह अन्नया य निम्मलनिसाए उट्टित्तु रोहओ भइ । नियछायं अवलोइय परपुरिसो एस जाइ त्ति । १७ ।। नियुणित्तु तयं भरहो निदं चइउं समुट्टि भणइ । रे कत्थ गओ पुरिसो ? आह इमो एस एस ति ॥ निउणं निरिक्खिओ विहु परपुरिसो नो कहिं पि भरहेण । दिट्टो ताहे जाओ मंदसिणेहो नियपियाए अह अन्नयाय तीए पयंपिओ रोहओ जहा बच्छ ! । अहह्यं तुह पयपणया नियपियरं पत्तियात्रेसु ॥ एवं होउत्ति पयंपिऊण रयणीए रोहरण तहा । जा विहियं ता भरहेण पुच्छिओ कत्थ परपुरिसो ? ॥ २१ ॥ दंसेइ निययछायं ताय ! इमो तयणु भणइ भरहो वि । वच्छ ! तइया वि एसो परपुरिसो ? आह सो एवं ॥ २२ ॥ चिंतेइ तओ भरहो वालाणं पेच्छ केरिमुल्लावा ? । इय मुणिय तहेव पुणो दइयाए उवरिमणुरत्तो ॥ २३ ॥ तद्दिवसाओ सा वि हु सविसेसं कुणइ तस्स पडिवत्ति । अह अन्नया य भरहो गओ सपुत्तो तमुज्जेणिं ॥ २४ ॥ । २० ॥ १. एतदुदाहरणं यथा— कश्चिद् ग्रामेयकः चिटिका आनयन् प्रतोलीद्वारे केनचिद् धूर्त्तनागरिकेण प्रोक्तः वद्येताः सर्वा पि निर्मटिका भक्षयामि ततः किं मे प्रयच्छसि १ ग्रामेयकः प्राह-योऽनेन प्रतोलीद्वारेण मोदको न निर्गच्छति तं प्रयच्छामि । बद्धं द्वाभ्यामपि ससाक्षिकं पणितम् । ततो नागरिकेण सर्वा अपि चिटिका मनाग् मनाग् भक्षयित्वा ग्रामेयकाय प्रोक्तम् — देहि मे यथाप्रतिज्ञातं मोदकम् । ग्रामेयकः • प्राह--न मे चिटिका भक्षिताः । नागरिकः प्राह-चेन्न प्रत्येपि तर्हि प्रत्ययार्थं विक्रयाय चिटिका विस्तारय चतुनथे । तेन तथाकृतम् । ततो लोकः चिर्भटिका निरीक्ष्य प्राह- भक्षितास्त्वदीयाः सर्वा अपि चिटिकाः तत् कथं गृहीमः १ । ततः क्षुब्धो ग्रमेयकः विनयनम्रीभूय नागरिकधूत्तय रूपकमेकं प्रयच्छति । नागरिको नेच्छति । ततो द्वे रूपके यावत् शतमपि रूपकाणां दातुं प्रवृत्तः तथापि नेच्छति । ततोऽपरेण कृपालुना नागरिकधूर्तेन तस्मै बुद्धिः दत्ता । ततस्तद्वलेन तेन मोदकमेकमादाय तं प्रतिद्वन्द्विनारारिकधूर्त्तमाकार्य सर्वसाक्षिसमक्षं स मोदक इन्द्रकीलकेऽस्थाप्यत । भणितश्च मोदकः – याहि मोदक । स न प्रयाति । ततस्तेन साक्षिणोऽधिकृत्य प्रोक्तम् - एष यथाप्रतिज्ञातो मोदकः यः प्रतोलीद्वारेण न निर्गच्छति तस्मादहं मुत्कलः । एतच्च साक्षिभिरन्यैश्व नागरिकैः प्रतिपन्नमिति जितः प्रतिद्वन्द्वी धूर्त्तः ॥ १८ ॥ १९ ॥ For Private Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धिवर्णनाधिकारे भरताख्यानकम् काऊण तत्थ कवियाइ नियगाममणुपयट्टो सो । जा सिप्पसरिसमीवे समागओ ताव भरहेण ॥ २५ ॥ भणियं रोहय : पुडिया वीसरिया मज्झ हट्टमन्झम्मि । चिट्ठ तुमं जाव अहं गिण्हित्ता पडिनियत्तेमि ॥ २६ ॥ इय भणिय गा भरहे बालत्तणओ य रोहाण तओ । सिप्पसरिचालुयाए विणिम्मिया तेण उजेणी ॥ २७ ॥ एत्थंतरम्मि गया बलरेणुभपण अग्गए होउं । तुरयारूढो जा एइ तत्थ रोहेण ता रुद्धो ॥ २८ ।। हे आसवार ! पुरओ उज्जैणीहट्टमग्गमांझण । जियसत्तरायराउलमुल्लंघिय किह णु वञ्चिहिसि ? ॥ २९ ॥ ता विम्हइओ राया तं पुच्छड भद्द ! कत्थ उज्जेणी ?। अह रोहओ वि वालयविणिम्मियं तम्स दसेइ ॥३०॥ तथाहि इह ताव हट्टमग्गो इह राउलमेत्थ हस्थिसालाओ । इह पासाया इह मंदुराओ तो तं निएऊण ॥ ३१ ॥ तम्स मइविहवरंजियहियओ हियए विचिंतए राया। एस मम मंतिमंडलसिरोमणित्तम्स 'जोगो त्ति ॥ ३२ ॥ . परिभाविऊण एवं पुच्छइ तं वच्छ ! कत्थ क्थव्वो ? ! कम्स। मुओ सो साहइ भरहलुओ हं सिलागामे ॥ ३३ ॥ तम्स वरवद्धिविहवं परिभावतो गओ निवो नयरिं । सो वि समागयपिउणा समन्निओ निययगामम्मि ।। ३४॥ अन्नदिणे नरनाहो वुद्धिपरिक्षणकए समाइसइ । पासायमेगर्थभं एगसिलाए कुणह मझं ॥ ३५ ॥ तो गामीणा सव्वे मिलिया परिसाए मंतिउंलग्गा । बुद्धिमपेच्छंताणं भोयणवेला अइक्वंता ॥ ३६॥ तो रोहपण भणिओ वच्चामो ताय ! भोयणनिमित्तं । आह पिया वि य तं वच्छ ! मुत्थिओ भणइ सो वि तओ ॥३७॥ तुम्हाणं किं दुक्खं ? भग्हो अक्वेइ खुद्दयाएसं । सो भणइ ताव भुंजह अयं पच्छा भलिम्सामि ॥ ३८ ॥ तो भोयणादसाण चउपासं रोहओ खणावेइ । एगसिलाए मज्झे थंभत्थूभं विहेऊण ॥ ३९ ।। इय एगथंभभवणं कारित्ता राइणो निवेइंति । आगंतुं नरनाहो हरिसियहियओ पलोएइ ।। ४०॥ अह विम्हिओ नरिंदो पुच्छइ नणु कम्स एरिसा वुद्धी ? । तो रोयम्स बुद्धिं ते वि हु साहेति गामीणा ।। ४१ ॥ अह अन्नया य राया मेंढं पेसिय भणावए एवं । जह एसो मासद्धं धरियव्यो एगमाणेण ॥ ४२ ॥ तो रोहएण मेंढो बाद जबसाइचारिओ संतो। जा जायइ अहियवलो ता इंसिज्जइ विरुयम्स ॥ ४३ ।। धरि जहुत्तदिवसे तं मिदं पढमदिवसवलकलियं । उवणिति य नरवइणो रोहयवुद्धि पयासंता ॥ १४ ॥ तव्यद्धिपगरिसेणं पमोयपरिपूरिओ पुहइपालो । अवरं खुद्दाएसेण पसिउं कुक्कुडं भणइ ॥ १५ ॥ जह जुझावह एयं असहायं रोहएण तो भणियं । दप्पणपडिबिंबेणं जुज्झावह तंबचूडं ति ॥ ४६॥ काऊण तयं रन्नो निवइए पुच्छियम्मि मइविहवे । साहति त विजह रोहयस्स तो रंजिओ राया ॥ १७॥ अवरं च पेसिऊणं तिलभरिए सगडए भणइ राया । तिलमाणेणं तेल्लं दायव्वं मझ तुन्भेहिं ॥४८॥ उत्ताणदप्पणेणं तिले गहेऊण रोहओ तेल्लं । तेणेव दप्पणेणं पेसइ रायम्स पासम्मि ॥ १९ ॥ आइसइ पुहइपालो पेसह वलिऊण वालुयावरहं । जुन्नवरहं समप्पह पडिछंदकर भणइ रोहो ॥ ५० ॥ अह संपेसइ राया मयपायं करिवरं भणावइ य । निच्चं पि गयपवित्ती कहियव्वा मरणपरिहीणा ।। ५१ ।। ते वि पइवासरं पि हु कहेंति रायम्स हथिवुत्तंतं । अह् अन्नया गइंदे मए भणावइ भरहपुत्तो ॥ ५२॥ देव ! गइंदो न चरइ न चलइ नो ससइ न वि य नीससइ । न पियइ न नियइ नवरं चिट्ठइ निच्चेट्ठसंठाणो ॥५३॥ तो पुहइवई पभणइ रे रे ! किं करिवरो मओ ? तयणु । जंपति ते वि सामी एवं वज्जरइ नो अम्हे ॥ ५४॥ भूओ भणियं पेसवह कूवयं महुरपाणियं निययं । तेहुत्तं मत्तो देव ! कृवओ पामरत्तणओ ॥ ५५ ॥ अम्हच्चओ तओ तं पेसमु नायरयकृवियं निययं । जेणाऽऽगच्छइ तम्मन्गलम्गओ सामिय ! सयण्हो ।। ५६ ॥ अवरमकंडे वणसंडमेत्थ पुवाए तं पि पच्छिमओ। कायव्वं तेण तयं पि गाममुच्चालिऊण कयं ॥ ५७ ॥ १. जोगु त्ति २० । २. भावितो २० । ३. उवणेति २० । ४. तिल्लुं रं० । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अनि, सूरं च विणा वि पायसं सिझवह पट्टविए । खुद्दाएसो उकुरुडियाए निप्फाइया खीरी ॥ ५८ ॥ सञ्चय वि कण कयं ? ति रोहओ उत्तरम्मि वत्तव्यं । रंजियहियओ वाहरइ अन्नया एउ मह पासे ॥ ५९ ॥ पञ्चधुन (?) दिणराई छाउण्हे छत्तनह पहुम्मग्गे । जाणचलणे तहा ण्हाणमइलगो अन्नहाऽऽगच्छे ।। ६० ॥ अमवासासंधीए सूरत्थमणम्मि सुद्धसंझाए । सिरउवरिधरियचालणयछत्तओ गंडधाराए ॥ ६१ ॥ ऊरणयारूढतणू करफंसविवजवारिकयण्हाणो । कोमारमट्टियकरो रायद्वारम्मि संपत्तो ॥ २ ॥ मणिकणयभित्तिपसरंतकिरण उज्जीयमाणदिसिवलए । असरिसपोरिसनिज्जियपडिभड मुहडेहिं संकिन्ने ॥ ६३ ॥ फलिहसिलायलनिम्मियनाणाविहरयणकंतिविच्छुरिए । सीहासणे निविट्टम्मि तम्मि जियसत्तुनरनाहे ॥ ६४ ।। नियमइविवविणिज्जियपुरगुरुमाहप्पवुद्धिविहवेसु । निस्सेसमंतिवग्गेसुभओपासे निविट्टेयु ॥ ६५ ॥ तरवारिभिन्नदरियारिगयघडालद्धनिम्मलजसेण । धवलियभुवणभंतरनिरंतरासेसठाणेसु ॥६६॥ केऊर-मउड-कुंडलमऊहकयअमररायचावेसु । घोलिरनिम्मलमुत्तियहारविरायंतकंटेसु ॥ ६७ ॥ सेवासमयवियक्खणलक्खणपडिपुन्नपवरदहेमु । पुरओ य पुहइपालेमु जहरिहं सन्निविट्टेमु ।। ६८ ॥ उदंडदंडकोदंडकलियकरसुहडकोडिसकिन्ने । निम्सेसरायउवणीयतुरय-सिंधुरसमाइन्ने ॥ ६९ ॥ करकलियदंडपहरणपयंडपडिहारसूइयपर्वसो । पविसइ रायत्थाणे थिमियपयारों निवाणाए ॥ ७० ॥ अह ऊसियकरदंसियकुमारमट्टियपहिट्टनरनाहो । आसणदाणावसरम्मि पढियआसीसथुइवाओ ॥ ७ ॥ गंधव्व-मुरवसद्दो मा मुव्वर तुह नरिंद ! भवणम्मि । चंकम्मतविलासिणिखलंतपयनेउररवेण ॥ ७२ ।। अवरंच परमगओ पउरहओ परमोइयतुरय-रहवरपयारो । विलसिरसयणविपत्ती रिउसरिसो जयसु तं देव ! ॥ ७३ ।। तत्तो संझासमए विसज्जियासेसराय-अत्थाणो । राया निउत्तपाहरियरोहओ सेजमारुहइ ॥ ७४ ।। मम्गपरिस्समभावाओ निभरं रोहओ सुयइ जाव । ताव अइक्कंते जामिणीए पढमम्मि पहरम्मि ॥ ७५ ।। जग्गसि रोहय ? जग्गामि सामि! ता किन देसि पडिवयणं? | पभणइ किं पि हु चिंतामि देव ! किं तं ? ति सो आह ॥७३॥ अइयाउयरे परिवठ्ठलाओ किल लिंडियाओ को कुणइ ? | रायाऽऽह भव्वमेयं ममावि चिंता इमा आसि ॥ ७७॥ पुच्छियमिमिणा रोहय ! जइ जाणसि ता कहेसु ता कत्तो ? । संवट्टगवायाविद्धजढरजलणाओ ता देव ! ॥ ७८ ।। बीए जामे जग्गाविओ वि जंपइ तमेव मणचिंतं । किं तं ? ति पुच्छिएऽसत्थपत्त-अग्गाण किं दीहं ? ॥ ७९ ॥ तुल्लाणि देव ! तइयम्मि पुच्छिओ चिंतयामि तं किं ? ति । खाडहिलारेहाणं सुकिल-कालाण का बहुया ? ॥ ८०॥ अन्ने सरीर-पुच्छाण किं गुरुं ? उत्तरं दुवे तुल्ला । रयणीए चरिमजामे सुत्तो नो देह पडिवयणं ॥८१ ॥ तो कंबियाए छित्तो भणियं सुत्तो न व ? त्ति तेणुत्तं । जम्गामि राय ! इयरह पाहरिओ केरिसो अहयं ? ॥ ८२ ॥ नवरं महई चिंता संजाया ता कहं पयंपेमि । सा केरिस ? ति रुसिऊण जंपियं तुझ पंच पिया ।। ८३ ॥ कयर ? त्ति राय-वेसमण-रयग-चंडाल-विच्चुया देव !। कहमिव ? नरवर ! भवओ लक्खणजोगाओ एएसिं॥८४॥ सिट्टाणमवणमसयाणसासणं पणइपोसणं जं ते । खत्तेण रक्खणमओ नज्जसि तं रायपुत्तो ति ॥ ८५ ॥ अलयाउरिसरिसपुरो नलकूबररूवसरिसकुमरपिया । अदरिदं कुणसि जणं पणयमओ वेसमणतगओ॥८६॥ अवहरसि धणमसेसं महावराहाण दंडकरणेणं । वत्थाण मलं व जओ तओ तुमं रयगजाओ सि ।। ८७॥ पयईए दद्धरिसो जं रिउवग्गस्स निग्गहं कुणसि । चंडालकोवसरिसो तं नित्र ! चंडालपुत्तोत्ति ॥२८॥ जं जगियं सुयंतं कंबीए पामरो व्व मममेवं । तोत्तेण तुयसि गलिमिव नायमओ विच्चुयस्स मुओ ॥ ८९॥ तम्मइविणिच्छयत्थं रहम्मि विणएण पुच्छिया जणणी । एएसिमुवरि तीए कहिओ सव्वेसिमहिलासो ।। ९० ॥ राया रहबीएणं धणओ तप्पडिमपृयफंसेणं । दोहलगभवखण विच्चुओ वि सेसाण दंसणओ ।। ९१ ॥ १. पव्वदुन २० । २. भडपसरेहिं रं० । ३. उदंडकंड २० । ४. नृपासया ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिवर्णनाधिकारे नैमित्तिकाख्यानकम् तप्पभिइ पक्रववाओ रन्नो तम्मि मह सनुप्पन्नो । संठाविओ य सम्वेसिमुवरि मंती मइगुणेण ॥ ९२ ।। रन्नो मइविरहणंजाणि अस झाणि रायकज्जाणि । सव्वाणि ताणि सिद्धाणि निउणवद्धी तम्मिलण ॥२३॥ जओभणियं "पूयप्फलेहिं न हु केवलेहिं नरनाह ! कीरण राओ । जा न मिलिया तह च्चिय निच्चं सच्चुन्नया पत्ता ॥९४॥" अवरं च पगं हणेज्ज नो वा हणेज्ज मुक्को धणुद्धरेणमिसू । बुद्धिमया पुण बुद्धी र8 पि हणेज निस्सिट्टा ॥ ९५ ॥ चिंतामणि व्व रयणाणमुवरि मंतीणमुत्तमगुणेहिं । जियसत्तुरायरज्जे विरायए रोहओ मंती ॥ ९६ ॥ अह सो राया मंतिम्मि तम्भि संजायगरुयविस्संभो । निक्खित्तरज्जभारो मुहाइमुव जइ विसंको ।। ९७ ॥ तं कि पि जए पुन्नेहिं माणुसं मिलइ गुणमणिमहम्धं । अइयाहिज्जइ जम्मो वि जम्स साहिजएण मुहं ।। ९८ ॥ एवं लोमसपणियाइएसु जूइयरमाइणो णेगे । पत्थुयबुद्धीए नरा विन्नेया समयकुसलेहिं ॥ ९९ ॥ ॥भरताख्यानक समाप्तम् ।। १ ॥ इदानी नैमित्तिकाख्यानकम् । तश्चेदम् कम्वि तहाविहरुयम्मि सन्निवेसम्मि सुत्थवासम्मि। कम्स वि य सिद्धनामस्स नंदणा दोन्नि जणयपिया ॥१॥ ते किं पि तेण मुत्ताइ पाढिया परमिमो विचितेइ । जह कि पि निमित्तमिमे जाणंति तओ भवे लटुं॥२॥ तो नेमित्तियसत्थन्नुयम्स कम्स वि समप्पिया पिउणा । सिक्खंति नवरमेगम्स सिक्खियं परिणमइ सम्मं ॥३॥ बीयस्स पुणो न तहा अविणयभावा अहऽन्नदिवसम्मि । कट्टाणमाणणत्थं पट्टविया ते अरन्नम्मि ॥ ४ ॥ जंतेहिं तेहिं मग्गे दिट्टाणि पयाणि हत्थिरूयम्स । एगेण भणियमेसो भायर ! हत्थी गओ पेच्छ ॥ ५ ॥ बीएण भणियमेसा हस्थिणिया काइयाए विन्नाया । अन्नं काणा एगम्मि चेव पासम्मि चरणाओ ॥ ६ ॥ अन्नं च उवरि इत्थी य अइहवा कह णु नज्जए एयं ? । रुक्खम्मि रत्तदसियाविलम्गणाओ य मुणियमिमं ॥ ७ ॥ अवरं च तीए गम्भो तत्थ वि से दारओ कहमिमं पि । नजइ ? सरीरचिंता दाहिणपयधरणिखुप्पणओ ॥ ८॥ ते जाव तयणुमग्गेण जंति तप्पच्चयत्थमभिउत्ता । ता सरतीरे सव्वं सच्चवियं तेहिं जह भणियं ॥९॥ एत्थंतरम्मि छायाए वीसमंताणमागया एगा। थेरी तेसि समीवे सिरसंठियनीरभरियघडा ॥१०॥ दळूण पुत्तसमवयसमन्निए मुयसिणेहसंभमओ। देसंतरत्थपुत्तप्पउत्तिपुच्छापबन्नाए ॥ ११ ॥ भग्गो घडओ नीरं मिलियं नीरम्स सा उ सवियक्का । जावऽच्छइ त] स्थमणा थेरी ता भणियमेगेणं ॥ १२ ॥ जइ तज्जाए तज्जायमिइ वओ सच्चयं निमित्तम्स । ता भद्दे ! तुज्झ मुओ मओ मुहा किं विसाएण ? ॥ १३ ॥ बीएण भणिय मिलिया न होइ एसा निमित्तगयवाणी । ता जीवइ तुज्झ सुओ भद्दे ! गंतुं गिहे पेच्छ ॥१४॥ दट्टण तयं खणमेगमागया वच्छरूयगसणाहा । परिहाविऊण आणंदिऊण तुट्टा गया सगिहं ।। १५॥ भणियं च भाउणा कह णु भाय ! विवरीयमेरिसं जायं ? । तज्जाए तज्जायं सच्च मिणं भणियमियरेण ॥१६॥ नीरं नीरे मिलियं मट्टीए मिम्मओ घडो मिलिओ । मायाए मिलइ पुत्तो एस जओ उज्जुओ मग्गो ॥ १७ ॥ मा कुणसु तं विसायं गुरुविसए मा पओसमुन्वहमु । गुरुणो वि जोग्गयाए कुणंति जीवे गुणाहाणं ॥१८॥ यत उक्तम् "अयोग्यस्य गुणाधानं विधातुं नैव पार्यते । लाक्षारसेन केनापि कर्पासः किमु रज्यते ॥ १९॥" तेण वि य विणयपुवं तहा समाराहिओ गुरू कह वि । जह नाणभायणं सो संजाओ गुरुपसायाओ।॥ २० ॥ एमेव अत्थसत्थाइएहिं जो कोइ नजद्द पयत्थो । सो सब्बो विहु मरिसर विणयसमुत्थाए बुद्धोए ।। २१॥ ॥ नैमित्तिकाख्यानकं समाप्तम् ॥ २॥ १. बाणः। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे इदानी कर्पकाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् अन्थि विसालविसप्पियसप्पायारं महंतरन्नं व । कुंडलवलयं नयरं सखाइयं चाइवंद्रं व ।।१।। साहसिओ कृरमणो लोहियपाणी पभूयलोहिल्लो । परदब्बहरणचित्तो एगो चोरो वसइ तत्थ ॥२॥ सिंगारपिओ सिंगारसासणो मुणियसरससिंगारो। सिंगारसत्यपाढी सिंगारं चेव सदहइ ॥ ३ ॥ तथाहि लवणरसो व्व रसाणं पवरी चिंतामगि व्य रयणाणं । कप्पतरु व्व तरूणं सव्वेसिं रसाण सिंगारो॥४॥ साहसियवओ सूरो रयणीए चोरिऊण पर व्यं । विलसइ देइ जहिच्छं परलोयावायनिरवक्खो ॥ ५ ॥ भणइ य "अप्पणिया माया चेव होइ साहसघणाण वीराण । पहइ व्व वीरभोज्जा लच्छी महिला य परकीया ॥६॥" अह अन्नया य तेणं ईसरपासायभित्तिभायम्मि । पउमागारं खत्तं खणिउं नीसारियं दव्वं ॥ ७॥ रायाई पउरजगो पभायसमए समागओ तत्थ । उत्ताणियनयणजुओ पेच्छइ खत्तं पयंपइ य॥ ८॥ सिंगारो च्चिय एगो सव्वेन सिरोमणीयइ रसेसु । जं गुणरोरो चोरो पउमागारं खणइ खत्तं ॥९॥ तथा च केनचिदहमकारि “रसः शृङ्गार एवैकम्तं च बढुं यदि क्षमः । अहं वा कालिदासो वा प्रोच्यन्तां यद्यमत्सरः ॥ १०॥" तहा चोरम्स साहसमहोऽहो! सिंगारप्पियत्तमप्पुवं । जं एरिसम्मि दुग्गे खत्तं दिण्णं सविन्नाणं ॥ ११ ॥ सो वि हु चोरो जणवायजाणणत्थं निगृहियायारो । हरिसिज्जतो हियए निमुणतो नियगुणपसंसं ॥ १२ ॥ पहाओ कयबलिकम्मो पयडभडविहियफारसिंगारो । विम्हइयजणसमूहे समुन्नओ नियइ नियखत्तं ॥ १३ ॥ इओ य चउवीसभेयभिन्नस्स सस्ससस्सस्स संभवणभूमी। भूमिवलयप्पसिद्धो धन्न उरगनामगो गोमो ॥१४॥ तत्थऽत्थि सत्थपयरोहिणीपिओ परमसम्सबहुवसहो । परिकलियहलो बलभद्दसरिसगो करिसगो एगो ॥ १५ ॥ चउवीसं पुण धन्नाणि एयाणि धन्नाईचउव्वीसं जब-गोहुम-वीहि-सालि-सट्टीया । कोदव-अणुया-कंगू रालग-तिल-मुग्ग-मासा य ।। १६ ।। अयसि-हिरमित्थ-तिउडग-निष्फाव-सिलिंद-रायमासा य । इच्छू मसूर तुवरी कुलत्थ तह धन्नग-कलाया ॥१७॥ पत्थावं नाऊणं सव्वाणेयाणि ववइ धन्नाणि । निदिणइ लुणइ गाहइ गिहम्मि पइसारए सम्मं ॥१८॥ केण वि पओयणेणं संपत्तो तम्मि चेव पत्थावे । गामाओ करिसगो सो सलहिज्जंतं सुणिय चोरं ॥१९॥ भणइ य भो भो : किं सिक्खियम्स किर दुक्करं ? जमेएण । आजम्मं चिय खणियं खत्तं चिय पावकम्मेण ॥ २०॥ सोऊणमत्तणो तं परिभवजणयं विरुद्धवयणं से । चिंतइ चोरो एसो विणासियब्बो मए पावो ॥ २१॥ अह सो कम्मि वि विजणम्मि हक्किओ कीस निदिओ हं ति । तुमए ? ता पुरिसो होसु संपयं मरसि तुममिहि ॥ २२ ॥ आयड्डिय असिधेणुं भेसावइ जाव तेण ता भणियं । मा पहरमु होसु थिरो भद्द ! तुम पेच्छ मह चेढें ॥ २३ ॥ पइयं पत्थरिऊणं मुट्टि भरिऊण वीहियाणं च । भणियमिमे किं समुहे परम्मुहे वंडगुलंतरओ ।। २४॥ अंगुलदुगमंतरए काऊण खियामि ? तह कए तुट्टो । तेणुत्तं भद्द : जणो सब्यो वि हु कुणइ अन्भत्थं ॥ २५ ॥ हेरन्नियाइया वि हु हिरन्नकाई मुणंति जंवत्थु । कम्मयबुद्धीए तयं विलसियमिसओ ववइसति ।। २६॥ ॥ कर्पकाख्यानकं समाप्तम् ॥३॥ १. सार्थपतिः । २. ऋषयः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिवर्णनाधिकारे अभयाख्यानकम् अधुना अभयाख्यानकमुच्यते । तच्चेदम् दाहिणभरहद्धरसारमणीवयणे विसेसयसमाणं । सिरिरायगिहं नयरं नयरंजियजणवयं आसि ॥१॥ नीहारधराधरसिहरसरिस उत्तुंगपवरपायारो । सहसकररहतुरंगमगमणखलणं जणइ जत्थ ॥ २॥ पायारतलपरिट्टियपरिहासंकंततारयुकेरो । जत्थ रयणीसु रेहइ निम्मलमुत्ताहलभरो व्व ॥ ३॥ गयभासियं पि विगयं रायविहूर्ण विसिट्टरायं पि । हयमइसामंतं पि हु पसिद्धसामंतमहरम्मं ॥ ४ ॥ देवउलधवलमाला निम्मलकलहोयकलसकयसोहा । सारयजलहरसिहरावलि व्व तडिसंजुया जत्थ ।। ५ ।। उन्नयपओहरभरो खणरुहरुइरो कलाविकयसोहो । जत्थ विलासिणिविसरो पाउससोहं समुव्वहइ ॥६॥ वरचित्तरयणजुत्तो सुजाणवत्तो मुहारसहिओ य । गुरुकमलासियहियओ नयरजणो जत्थ जलहि व्व ।। ७ ॥ फलिहसिलामलकुट्टिमतलेसु पडिमागयाओ रमणीओ । पायालपुरंधीओ व्व जम्मि दीसंति लोएण ॥ ८॥ तम्मि पुरे परकुंजरकुंभत्थलखोणिखणणसीरसमो । समरसयंवरजयसिरिरमणीगहणेक्कदुल्ललिओ ॥९॥ सुकुमालपाणि-पाओ सारयग्यणियरसरिसमुहछाओ । रइरमणरुइरकाओ नरराओ सिरिपसेणइओ ॥१०॥ जम्स रिउरमणिमाणसमझे पजलियपयाचदवजलगो । लक्खिज्जड़ दीहर-उण्हसासधूमप्पवाहेहिं ।। ११ ॥ जम्स जयलच्छिलालसमणस्स अवमाणमसहमाण व्व । धोयकलहोयकता कित्ती वच्चइ दिसिमुहेसु ।। १२ ।। जस्स तुरंगमखुरखणियखोणिउड्डीणरेणुपूरेण । अंधारितो दिसिमुहसमेयवंभंडखंडउडं ॥ १३ ॥ झलकंतकुंतविरइयविज्जुजोयप्पयासियदिसोहो । गंभीरसिंधुरघडागलगजियभरियभुवणयलो ॥ १४ ॥ चलचवलधवलधयवडवलायपंतिप्पहासियदियंतो । सामंतमउडमणिकिरणफुरणकोदंडडंबरिओ ।। १५ ॥ दोघट्टथट्टमुंडापज्जंतपमुक्कसिक्करासारो । गयकणयघड़ियघंटारणंतबप्पीहयकुडुबो ॥ १६ ॥ कारावितो आणं नीसेसनरेसराण विसएमु । खंधावारो वियरइ जलहरलील विडंबंतो ॥ १७ ॥ तस्सऽत्थि पुन्नलायन्नधारिणी धारिणि त्ति विक्खाया। भज्जाऽणवजसज्जियसरस्स कामम्स केलिगिहं ।। १८॥ निम्सेसकुमरसारो तस्सऽत्थि समग्गसत्तुसंहारो । रूवविणिज्जियमारो सेणियनामो वरकुमारो ॥ १९ ॥ रजपमुहं समप्पिय भारं मंतीण सुद्धबुद्धीणं । केलीविणोयवसिओ गमेइ कालं पुहइवालो ॥२०॥ तथा हि कइया वि कुणइ कुंजरकेलिं सामंत-मंतिसंजुत्तो । अप्फालंतो कामिणिपीणत्थणथूलकुंभयडं ॥ २१ ॥ काय वि तरलतुरंगमवग्गणवसतुट्टमोत्तियकलावो । पगलंतधम्मसलिलो व्व कुणइ हयवाहियालीओ॥ २२ ॥ अह अन्नया कयाई रयणीए पच्छिमम्मि जामम्मि । सुहसंबुद्धो चिंतिउमारद्धो नरवई एवं ॥ २३ ॥ मज्झ कुमराण मज्झे होही को धरधुराधरणधीरो । सेसो व महाभोगो चूडामणिरंजियसिरग्गो ॥ २४ ॥ इय चिंतिऊण सिंधुर-तुरंगमा-ऽऽउज्ज-रहवराइन्नं । पज्जालावइ सयलं चउद्दिसिं जिन्नसालगिहं ॥ २५ ॥ तं नियवि जलणजालाकरालियं भणइ भूवई कुमरे । रे रे ! जो जं गिण्हइ दिन्नं तं तस्स सव्वं पि ॥ २६ ॥ रायाएसं निसुणिउ तडयडफुटुंतवंससंदोहे । कट्ठति पलित्ते पविसिऊण कुमरा गईदाई ॥ २७ ॥ उल्लालियकरपेरंतमुक्कसिकरछडाकडप्पेहिं । जलणं विज्झावेतो व्व कडिओ केणवि करिंदो ॥२८॥ अवरेण पवरमाणिकचक्ककिरिणोहरंजियदियंतो । संगहिओ पयलंतो व्व रहवरो रायकुमरेण ॥ २९ ॥ जालाजडालजलणं पविलोइय तरलतारओ तुरियं । पज्जलियजलणभीओ व्व कड्डिओ केण वि तुरंगो ॥ ३०॥ सेणियकमरेण णोपविसिय पजलंतमंदिरस्संतो । गहिया भिभऽभिहाणा दक्खेण झड त्ति जयढक्का ॥३१॥ तं मच्छरेण करकलियभिभमवलोइउं इयरकुमरा । उवहासेण पयंपंति सेणियं भिभसारो ति ।। ३२ ॥ तं दट्टण नरिंदेण चिंतियं सेणिएण साहु कयं । पढममिणं रज्जंगं संगहिया जेण जयढक्का ॥ ३३ ॥ १. पवरकुमरा-२० । Jain Education Interational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अह अन्नया परकम-चायपरिक्षणकए कुमाराण | काराविय परमन्नं भोएड निवो नियकुमारे ॥ ३४॥ परमन्नं परिवेसिय निवेण लिल्लिक्किओ सुणयवग्गो । सम्मुहमागच्छंतं तं नियवि पलाइया इयरे ॥ ३५॥ सेणियकुमरो इयराणमुभयपासट्ठिए गहियथाले । मुणयाण खिवइ जेमेइ अप्पणा भयविमुक्कमणो ॥ ३६॥ तब्वइयरमवलोइय चिंतेइ पमोइओ पुहइपालो । एसो उदार-वीरो त्ति कायरा इयरकुमरा मे ॥ ३७॥ अवरसमयम्मि राया बुद्धिपरिक्षणकए कुमाराण । मुद्देइ गणियलड्डयकरंडए सलिलकलसे य ।। ३८ ।। हक्कारिउ तओ ते भणेइ वच्छा ! सवुद्धिविहवेण । मुदमभंजिय भुंजेह मोयगे पियह सलिलं पि ॥ ३९ ॥ एवं वुत्ता नियबुद्धिगचिया वि य उवायमलभंता । ते छुह-पिवाससोसियगत्ता दीणत्तमणुपत्ता ।। ४०॥ सेणियकुमरेण पुणो घेत्तु पगलंतकलसबिंदुजलं । धुणिकरंडप मोयगाण चूरीऍ भोयविया ॥४१॥ तयणंतरं कुमारे विविहविणोयप्पसंगवक्खित्ते । पासित्तु नरवरिंदो वाहरिपुच्छई एवं ।। ४२ ॥ मुद्दाभंग काऊण मोयगा भक्खिया कइ ? कहेह । एवं वुत्ता राएण ते पुणो विन्नवंति अओ ॥ ४३ ।। ताय ! नियगणिय-मुदियमोयगसंखं समुद्दकलसे य । परिभाविऊण कइ भक्खिय ? ति दोसं पयासेह ॥ ४४ ॥ इय भणिए भूवालो संभालइ जा तहेव तं सव्वं । पुच्छइ य पुणो कुमरे कहेह जहवत्त वुत्तंतं ॥ ४५ ॥ तो अक्खिओ समग्गो वि वइयरो तेहिं रायपायाणं । जह भिंभसारकुमरेण भोइया निययबुद्धीए ॥ ४६॥ इय निमुणिऊण सेणियमइविहवं विम्हिओ महाराओ। चिंतेइ जहा जुत्तो एसो रज्जाहिसेयम्स ।। ४७ ॥ नवरं जइ सपसायं एयं पेच्छामि ता न संदेहो। सव्वे वि य मिलिऊणं वावाइम्संति कुमरमिमं ॥४८॥ संपइ अलीढभावो एयरस पराभवं पयासेमि । रजसमयम्मि नियमा इमस्स काहामि अहिसेयं ॥ ४९ ।। तो तस्स रक्खणकए करेइ राया पसायमियराण । कुमराण तुरय-रहवर-वारण-आभरणनियरेण ।। ५० ।। नियअंगरक्खपुरिसे वाहरि ऊणं नरेसरो भणइ । रक्खेयव्वो कुमरो अलक्खिएहि अवायाण ।। ५१॥ इयराण गुरुपसायं निएवि चिंतेइ नियमणे कुमरो । पेच्छ अहं तारण वि जेट्टो वि जहा पराभूओ ॥ ५२ ॥ अवमाणमहादुहदुहियमाणसो माणगुणगरिठ्ठो वि । गुरुसोयजलणजालाकरालिओ गमइ तद्दियहं ।। ५३ ॥ मज्झ नियंतस्स कहं कुमरो अवमाणिओ ? त्ति रत्ततणू । पगलंतअंसुजालो मित्तो अदंसणीहूओ ॥ ५४ ।। जासुयणरायरत्ता सिणिद्धतारा कुमारअवमाणं । पेच्छिय सुरसरणिठिया सइ व्व विलयं गया संझा ॥ ५५॥ राएण केइमजुत्तं सेणियकुमरोऽवमाणिओ जमिह । अजसपसरो व्व भुवणे वित्थरिओ तिमिरपन्भारो ।। ५६ ॥ अवमाणजलणजालाकरालियं सेणियं नियकरहिं । निव्वविउं व विचितिय समुग्गओ सिसिरकिरिणो वि ॥ ५७ ॥ तम्मि समयम्मि कुमरो महंतअवमाणपूरियसरीरो। चिंतेइ पेच्छ ताएणन गणिओ तिणसमो वि अहं ॥ ५८ ॥ ता किं करेमि संपइ ? माणं चइ किमित्थ चिट्ठामि ? । अहवा उत्तमसत्ताण माणमुयणं महादोसो ॥ ५९ ॥ जम्हा गुणाण मूलं माणो पुरिसाण वीरचित्ताण । परदेसे वि न पावंति परिभवं जेण संजुत्ता ॥ ६०॥ अवमाणिया वि जे नियगिहं पि न चयंति हीणमाणधणा । अभिमाणगुणविहूणा साणसमाण व्व ते नियमा ॥६१॥ वियडुब्भडभिउडिभिडंतसुहडकोदंडडंबरे वि रणे । जइ अपरिमॅलियमाणा सुयणा ता किं न पचत्तं ? ।। ६२॥ अवि चलइ धरणिवीटं रइकेलिविसंटुलस्स फणिवइणो । अभिमाणं माणधणा मणयं पि मुयंति न तहा वि ॥ ६३ ।। अवि करवालकरालियरणंगणे कप्परिंति ससरीरं । न सहति सयणविरइयपराभवं पोरिसेक्करसा ॥ ६४ ॥ ता उद्दालेमि सिरिं करवालबलेण अक्कमिय तायं । हा हा ! न जुत्तमेयं उत्तमवंसप्पसूयाणं ॥ ६५ ॥ ता वच्चामि विएसं ति चिंतिउं माणसाहससणाहो । गमणेकबद्धबुद्धी समुट्ठिओ सेणियकुमारो ॥६६॥ रहंतरयणहारो विरइयवरवीरपुरिससिंगारो । करकलियरिउवियारणरुहिरारुणकरकरवालो ॥६७॥ वंचियनियपरिवारो दूरं परिहरियपुरिससंचारो। नीहरिओ नयराओ रयणीए तुरियपहरम्मि ॥ ६८ ॥ १. विक्खित्ते-२०। २. कृतायुक्तम्। ३. गलिय० २० । Jain Education Interational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिवर्णनाधिकारे अभयाख्यानकम् जाव न झिज्जइ अरुणोरुकिरणपन्भारपेरिया रयणी । अकंतनयरपरिसरधरवीढो ता कुमारो वि ।। ६९।। मा होउ मग्गदोसो तमभरपरिपूरियम्मि मग्गम्मि । कुमरम्स गमणविग्धं ति चिंतिउं अवगया रयणी ॥ ७० ॥ सुकुमारचरणजुयलं पयचारेणं महीए गच्छंतं । कुमरं दद्रुमसत्तो सुयणो व्व ससी अवक्रतो ।। ७१ ।। किह वच्चइ ? ति दटुं दिणेसरो उदयगिरिवरारूढो । जणयावमाणदुहभारपूरियं सेणियकुमारं ।। ७२ ॥ तो पुहइपालपेसियपच्छन्नपयट्टपुरिसनियरेहिं । वच्चइ अलक्खिएहिं अणुगम्मतोऽभिमाणधणो ।। ७३ ।। नयर-पुर-सरिय-गिरिवर-कंदर-वरपरिसरे पलोयंतो । गच्छंतो संपत्तो कमेण बिन्नायडं नयरं ।। ७४ ॥ तम्मि मणाहरगोउर-चच्चर-रत्थामुहे निरिक्खंतो । भद्दाभिहाणसेट्टिम्स आवणे गंतुमुवइट्टो ॥ ७५ ।। तो तस्स पुज्यपुन्नाणुभावओ सिट्टिणा बहु विढत्तं । अहवा उत्तमसन्नेज्झभावओ किन्न कल्लाणं ? ॥ ७६ ॥ दट्टण तं कुमारं सिट्टी तुट्टो मणम्मि चिंतेइ । जं अज मए सुविणो दिट्टो रयणीए विरमम्मि || ७७ ।। करि-मयर-कुलिस-विद्द म-राजीव-पवित्तचक्कपवरपओ । रयणायरो व्व पुरिसो मह धूयं किर समुन्बूढो ।। ७८ ॥ सव्वंगलक्खणधरो स एव एसो त्ति चिंतिउं सेट्टी । पभणइ सुपुरिस ! तुन्भे इह नयरे कस्स पाहुणया ? ॥ ७९ ॥ तो तेण ताय ! तुम्हाण पभणिए सेट्टिणा निययभवणे । नेऊण ण्हाण-आसणपुरस्सरं भोइओ विहिणा ॥ ८०॥ सेट्टी कुमार ! जइ वऽणुचिया तुह सुनंदा । वणियदहिय त्ति तह वि हु सुविणयकहियं विवाहेमु ।।८।। तं निमुणिऊण कुमरो जलगभगभीरजलहरसरेण । वज्जरइ दसणकिरिणोहपूरियासेसदिसिचक्को ॥ ८२ ।। अमुणियकुलक्कमाणं अपरिक्खियसील-नय-सहावाणं । तायऽम्हाणं कन्नं वियरंतो मुणसि तं चेव ॥ ८३ ॥ तो भणइ भद्दसेट्टी कुमार ! तुह लक्खणाणि अक्खंति । पुहईपसिद्धउत्तमकुलक्कम खत्तवंसस्स ।। ८४ ॥ एवं भणिऊण पमोयपसरपरिपूरिओ तओ सेट्टी । कारावेइ सुनंदाए पाणिगणं कुमारस्स ।। ८५ ॥ उब्बूढजोव्वणाए बिबाहरहसियपउमरायाए । उच जइ विसयसुहं कुमरो सद्धि सुनंदाए ॥ ८६ ।। अह अन्नया सुनंदा सुविणं दट्टण कहइ कुमरस्स । जह अजउत्ताएसो अज मए सुविणओ दिट्टो ॥ ८७ ॥ रेहंतपुक्खरकरो सियदसणो दाणसंजुओ भद्दो । पियवारणो पविट्ठो तुमं व मह वयणकुहरम्मि ।। ८८ ।। तं सोऊण कुमारो पभणइ हरिणच्छि ! तुज्झ वरकुमरो । संभविही तो हरिसियहियया सा गम्भमुबहइ ।। ८९ ॥ अह अन्नया कुमारो.तीए समं जाव कीलइ जहिच्छं । ता नियइ निययजणयस्स मंतिणो तत्थ संपत्ते ।। ९० ॥ धरविलुलियसिरकमला कमजुयलं पणमिऊण कुमरस्स । आबद्धपाणिपउमा सप्पणयं ते भणंति इमं ॥ ९१ ॥ हक्कारणाय तुम्हाण पेसिया पुहइसामिणा अम्हे । ता रायपायपंकयमल्लियह कुमार ! अबियप्पं ॥ ९२ ॥ बहमन्निऊण मंतीण विणयवयणाणि तक्खणं कुमरो। जणयचरणावलोयणसमुस्मुओ पभणइ सुनंदं॥ ९३ ॥ सुयणु ! मह जणयलेहो समुस्सुओ ता अहं गमिस्सामि । तुमए पुण ससरीरं पालेयव्वं पयत्तेणं ।। ९४ ॥ परिणावितओ चइऊण निग्गओ गुन्विणी पमोत्तूण । ससिवयणि ! मणायं पि य मणम्मि मा मुणसु अवमाणं ॥ ९५ ॥ चिन्नवइ तओ कुमरं अंसुजलोल्लियकवोलफलया सा । किह मंदभाइणी तुह नयरमहं नाह ! जाणिस्सं ॥ ९६ ॥ तो तीए जाणणत्थं लिहेइ धवलहरभित्तिभायम्मि । रायगिहनयरपंडरकुडा गोयालय ति पयं ॥ ९७ ।। तो पणमिऊण सेटिं सम्माणेऊण पणइणिं कुमरो। आरोहिउँ वरियाए विणिग्गओ मंतिपरियरिओ॥ ९८ ॥ वच्चंतो संपत्तो कमेण कुमरो पुरम्मि रायगिहे । पेच्छंतो पणइयणं झडत्ति अत्थाणमणुपत्तो ॥ ९९ ॥ रायचलणावलोयणसमाणधरणियलविलुलियसरीरो । जा वच्चइ ता रन्ना गहिऊणाऽऽलिंगिओ गाढं ॥१००॥ पहईसरेण कुसलं ? ति पुच्छिए भणइ कयपणामो सो। ताय ! तुह पायपउमप्पसायओ मज्झ कुसलं ति ॥ १० ॥ अह भणइ अन्नसमयम्मि नरवई सजलजलहरसरेण । धवलं पि धवलयंतो धवलहरं दसणकिरणेहिं ॥ १०२ ॥ भो पउरजणा ! संपइ कहेह सव्वे वि नियमभिप्पायं । एएसि कुमाराणं कीरइ जो तुम्ह नरनाहो ॥ १०३ ॥ १. भोइसो पुरिसो-२० । २. पुच्छिनो-२० । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ इओ य आख्यानकमणिकोशे धरणिय लुलियसीसा विणयपरा विन्नवंति ते निवई । तं चेव रायलच्छि उवभुंजसु राय ! मुइरं पि ॥ १०४ ॥ तो भइ नरवरिंदो चिरकालं पालियं मए रज्जं । संपइ असमत्थो हं जो जोम्गो भणह तं तुम्भे ।। १०५ ।। जइ एवं ता सामिय ! समम्गगुणस्यणरोहणागिरिस्स । अम्ह मरणं दिज्जउ सेणियकुमरम्स रज्जसिरी ॥ १०६ ॥ तेसि निणित्तु बणं मोयपरिपूरिओ पुहद्दपालो । कारेइ सुहमुहुत्ते समभ्गमभिसेय सामरिंग ।। १०७ । वारविलासिणिविरइयसंगीयऽक्खित्तखत्तियसमूहे । बंदियणभणियजयजयरवबहिरियनहयलविभागे ॥ १०८ ॥ नती विदुलधम्मेल्लगलंतकुसुममालासु । दरउक्कं पिरपीवस्थणहररमणीय रमणीसु ॥ १०९ ॥ वज्चंत तूरपडिरवपडिपूरियविवरकंदरगिरिंदे । निवकज्ज सज्ज उन्भडभडकोडिनुसंकत्था ॥ ११० ॥ का मिणिपीणघणत्थण समाण निम्माणकणयकलसेहिं । मंतिसहिओ नरिंदो अहिसिंचइ सेणियकुमारं ॥ १११ ॥ तयणु मणिकिरणरंजियदियंतरं तस्स कणयमयमउडं | बंधित्तु उत्तमंगे पणमइ धरलुलियसिरकमलो ।। ११२ ।। उचविसिय खोणिवीढे विन्नवइ नरेसरो नरवरिंदं । नियछाय व्व नरेसर ! परिहरियब्बा पया न तए ।। ११३ ॥ इय वित्ते रज्जमहसवम्मि 'रिउनियरसमरसोडी | नवरायलच्छिरमणि उबभुजइ सेणियनरिंदो ॥ ११४ ॥ भाणुभावदोहलयदुच्चलं नियवि दुहियरं सेट्टी । पुच्छइ वच्छे ! अइदुच्चरंगिया कीस तं ? कहमु ॥ ११५ ॥ सा आह ताय ! मह अस्थि दोहलो तेण दुब्बलसरीरा । जाणामि अभयदानं वारणमारुहिय वियरेमि ॥ ११६ ॥ तं निसुणिऊण सेट्टी दोहल्यं तीए पूरिय पहिट्टो । उचहद्द तयणु गन्भं पमोयपरिपूरिया सा वि ।। ११७ ॥ परिपालिऊण गर्भ नवमासऽद्धट्टमेहिं दिवसेहिं । पसवइ तओ सुनंदा देवकुमारोवमं कुमरं ॥ ११८ ॥ नच्चंतकामिणिजणं चज्ज्रिरवरतूरपूरियदियंतं । वियरिज्जमाणदाणं वद्धावणयं कुणइ सेट्टी ॥ ११९ ॥ अह बारसम्म दिवसे सत्थतिहि - करण- जोगसंजुत्ते । कारइ दोहलयसमं नामं कुमरम्स अभओ त्ति ॥ १२० ॥ धाईहिं लालियंगो कमेण सो अट्टवारिसो जाओ । उज्झायस्सुवणीओ सुविणीओ विज्जगहणत्थं ॥ १२१ ॥ अह अन्नदिणे केणावि कलहयंतेण पभणिओ अभओ । तुह जणओ वि न नज्जइ किं कलहसि तं मए सद्धिं ? ॥१२२॥ तो तब्वयणायन्त्रणपुरंतअवमाणपूरिओ कुमरो । रुयमाणो नियभवणे गंतूणं पुच्छर जणणि ॥ १२३ ॥ अंब ! कहिं मह जणओ ? ति पुच्छिए पगलियंसुया भणइ । पुत्तय ! पवसंतेणं तुह जणएणं लिहियमेयं ॥ १२४ ॥ परिभाविउं तओ सो अवगयतत्तो पयंपए जणणी । अंब ! पुहईसरो मे जणओ ता तत्थ वच्चामो ॥ १२५ ॥ सेट्टिस्स वि कहियमिणं तेण वि पउणीकरेवि सामरिंग । पट्टाविओ कुमारी रायगिहे सह सुनंदाए || १२६ || आसाइऊण नयरं कुमरो जणणि बहिं पमोत्तॄण । नरनाहदंसणकए चलिओ नियपुरिसपरियरिओ ॥ १२७ ॥ तो वच्चतो जुन्नायडम्मि ददृण लोयस म्मदं । पुच्छइ पुरिसं कं पि हु किमेत्थ बहुलोयसम्महो ? ॥ १२८ ॥ सो पड़ बुद्धिपरिक्खणत्थमिह जुन्नकूवमज्झम्मि । मुद्दारयणं पक्खिविय पभणियं नरवरिंदे || १२९ ॥ तीर निसन्नो गिoes जो एयं तस्स देमि नियधूयं । पंचसयमंतिनाहं करेमि सह अद्धरज्जेण ।। १३० ॥ पभइ पुणो कुमारो लहइ किमागंतुओ इयं पुरिसो । आयड्डिउं ? तओ सो पर्यपए पावए बाढं ।। १३१ ॥ तो अयडतडे उवविसिय खिवइ तस्सुवरि गोमयं कुमरो । तस्स परिसोसणत्थं पलालपूलं पि जलमाणं ॥ १३२ ॥ पूरेऊणं सारणिजलेण तं अंधकूवयं कुमरो । तो नीरे तरमाणं छगणं घेत्तुं सहत्थेणं ॥ १३३ ॥ आयड्डिऊण मुद्दारयणं नियअंगुलीए पक्खिविडं । तो नरवइकमकमलावलोयणत्थं गओ कुमरो ॥ १३४ ॥ पडिहारकयपवेसो विसिट्टजणसरिस विहियसियवेसो । नयरजणजणियतोसो अत्थाणं पेच्छइ तओ सो ॥ १३५ ॥ जत्थिदनीलकुट्टिमतलविरयविमलमोत्तियचउक्को । सहइ करवालसामलनहंगणे तारयगणो व्व ॥ १३६ ॥ १. रिउनयर० रं० । २. इदम् । For Private Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद्धिवर्णनाधिकारे अभयाख्यानकम् जत्थ य मरगयभित्ती संबसिया फलिहथंभदित्तीए । अइरुग्गयससहरकरकरंबिया सहइ रयणि व्व ।। १३७ ॥ जत्थ नवमेहडंबरचंदोययतलपलंबहारोहो । नवजलहरधारासारडंबरं लहु विडंबेइ ॥ १३८ ।। नमिरनरेसरनिरुवमचूडामणिकिरणरंजियसरीरो । अरुणारुणकिरिणावलिसंचलिरो सुरगिरिंदोव्य ॥ १३१ ॥ नवइंदनीलचूडारयणकरुक्केररंजियसिरग्गो । सिरिधरियमेहडम्बरछत्तसमालंकियतणु ब्व ॥ १४० ।। परिहियमरगयमणिमयकुंडलकिरिणोहरुइरभुयसिहरो । घणहरिणनाहिकयपत्तवल्लिजुयलो व्व सोहंतो ॥ १४१ ।। - तारुजलमुत्ताहलहारावलिकिरिणछुरियवच्छयलो । सच्छसिरिखंड भृहरिभासुरभृय(म)मज्झमाओ ब्व ।। १४२ ।। मंडलियमंडलुड्डमरसमरसंदोहसंकहक्खित्तो । दाहिणजाणुनिवेसियसुललियतलवामकमकमलो ।। १४३ ।। दोपासपरिट्टियतरुणरमणिदोधुव्वमाणसियचमरो । दिट्ठो अभयकुमारेण तत्थ सिरिसेणियनरिंदो ।। १४४ ।। हरिसेण चरणकमलेसु निवडिओ महिमिलंतसिरकमलो । तत्तो नरिंदचलणारविंदपुरओ मुयइ मुदं ॥ १४५ ॥ पउरेहिं पुहइवइणो पयासिओ वइयरो असेसो वि । एएण जहा आगंतुएण आयड्डियं एयं ॥ १४६॥ तं निसुणिउं नरिंदो हरिसवसप्फुल्ललोयणो भणइ । सुपुरिस ! निययागमणेण विरहियं किं तए नयरं ? ॥ १४७ ॥ तत्तो अभयकुमारो विन्नवइ नरेसरं कयपणामो । बिन्नायडनयराओ समागओ हं तुह समीवे ॥१४८॥ तो भूवइणा भणियं भद्द ! तुम भदसेट्टिणो धूयं । परियाणेसि सुनंदं ? तो अभओ भणइ आमं ति ॥१४९॥ तो सायरं नरिंदेण पुच्छ्यिं तीए वच्छ ! गब्भम्मि । किं जायं ? ति सपणयं पुत्तो ति पयंपए अभओ ॥ १५० ।। सो केरिसगुणकलिओ ? ति सहरिसं पुच्छिए पुहइवइणा । अभओ पभणइ मं पिव देव ! परियाणसु कुमारं ॥ १५१ ॥ एसेव मज्झ पुत्तो त्ति कलिय पुहईसरेण सप्पणयं । पुरपरिहसरलसुललियभुएहिं आलिंगिओ गाढं ।। १५२।। नयउच्छंगे विणिवेसिऊण अग्घाइऊण सिरकमले । भणिओ य जाय ! जणणी समागया ? अहव नो तुज्झ ? ॥ १५३ ।। आबद्धपाणिपउमो विन्नवइ नरेसरं तओ अभओ। ताय ! तुह नयरपरिसरउज्जाणं आगया अम्बा ॥ १५४ ।। ता तव्वयणायन्नणफुरंतपरिओसपूरिओ राया । आइसइ मंतिनियरं पवेसणत्थं सुनंदाए ।। १५५ ॥ तो सिग्घयरतुरंगमवेगेणं जाव जाइ उज्जाणे । कुमरो ता संपेच्छइ नियजणणि जणियसिंगारं ॥ १५६ ।। पभणइ पउत्थवइयाण अंब ! न कयाइ जुज्जइ विहूसा । ता झत्ति अणुब्भडवेसविरयणं वियरसु इयाणिं ॥ १५७ ॥ तो तीए तणयवयणाओ विरइओ जा पसत्थओ वेसो । ता आगंतुं नयरे पवेसिया मंतिनियरेण ॥ १५८ ॥ राया वि अणुब्भडवेसभृसियं पणइणि पलोएउं । तो तीए अग्गमहिसीपयं पयच्छइ पहिट्टमणो ॥ १५९ ॥ नियरज्जसिरीअंखें दाऊण पसत्थवासरे राया । तो पंचसयामच्चाण नायगं कुणइ तं कुमरं ॥ १६० ॥ नियभइणीए सुसेणाए दुहियरं दलियकमलदलनयणं । वियरइ अभयकुमारस्स मयणसेणाभिहं तत्तो॥ १६१ ॥ भुंजताणं पंचप्पयारविसए नरिंद-कुमराण । निवलच्छिकज्जउज्जमपराण कालो अइक्कमइ ॥ १६२ ।। अह अन्नया जयत्तयसामी सिरिवद्धमाणजयनाहो । रायगिहनयरपरिसरउज्जाणम्मी समोसरिओ ॥ १६३ ॥ तो राया नयरजणं विलसिरसंगाररेहिरसरीरं । उज्जाणे वच्चंतं दट्ट पुच्छइ पडीहारं ।। १६४ ॥ कयमणहरसिंगारो नयरजणो भद्द ! वच्चए कत्थ ? । विन्नवइ तओ सो देव ! जाइ सम्वन्नुनमणत्थं ॥ १६५ ॥ अम्हे वि सम्वविउपायपंकयं कोउएण पेच्छामो । इय चिंतिउं नरिंदो महरिहरिद्धीए नीहरिओ ॥ १६६॥ रहरयण-तुरय-कुंजर-अंतेउर-पत्तिनियरपरियरिओ। संपत्तो गुणसिलयम्मि चेइए मणहरुज्जाणे ॥ १६७ ॥ दटुं कलहोय-हिरन्न-रयणपायारतियसमोसरणं । परिहरियगंधसिंधुरबंधुरखंधो विसइ तत्थ ॥ १६८॥ पेच्छइ य चउद्दिसिअमरनियरपणमिज माणकमकमलं । सुरविसरभत्तिविरइयअट्टमहापाडिहेरजुयं ॥ १६९ ॥ अवलोइऊण तिहुयणसरणं सिरिवद्धमाणजिणनाहं । संथुणइ कयपणामो राया रोमंचियसरीरो ॥ १७० ॥ जय रोसतिमिरदिणयर ! मयणमहाजलणजलहरसमाण ! । मच्छरकरेणुदारणदारुणकंठीरवकिसोर ! ॥ १७१ ॥ १. सिंगार-रं। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आख्यानकमणिकोशे १७७ ।। जय दुरियनियर सायरतारण ! नवतरणिअरुणकर-चरण ! | रायविसहर निवारण ! करुणारसनिज्झर ! नमो ते ॥ १७२ ॥ इय जिनवरिंद्रचरणारविन्दजुयलं श्रुणित्तु नरनाहो । उवविसइ उच्चरोमंचअंचिओ उचियदेसम्म || १७३ || भयवं पि दसणकिरणच्छलेण अमयं व विसयविसहरणं । वियरंतो नवजलहरसरेण सदेसणं कुणइ || १७४ ॥ भो भव्वपाणिविसरा ! वयणं निगुणंतु इह भवावट्टे । परियहंता सत्ता मणयं पि सुहं न पार्वति ।। १७५ ।। पेच्छह् परमाहुम्मियनिट्टु रकरचत्त कप्परिज्जता । नेरइया नयणनिमेसमित्तमवि न वि लहंति मुहं ।। १७६ ।। तिरिया वि बंध-वह-छेयँ-भेय उक्कत्तणाइदुक्खत्ता । विरसं रसमाणा विहु छुट्टंति न पुत्र्वपाचाओ ।। गुरुरोय-सोय-पियविप्पओग -दारिद्ददूमिया दुहिया । पेच्छह पुरिसा वि कुकम्मपरिणईपासपविद्धा ।। १७८ ॥ अमरा वि अवरसुरवररमणीअणुरायरंजियसरीरा । ईसा -विसायविसहरविसविवसा अणुवहंति दुहं ॥ १७९ ॥ न यचउगइसंसारे मुहलेसम्सावि संभवो सुलहो । इय परिभाविय भव्वा ! भवंतु सवे भवविरता ॥ १८० ॥ इय नियुणिऊण तित्थयरदेसणं तयणु सेणियनरिंदो । खायगदंसणरयणं पावइ हयपाचपन्भारो ॥ १८१ ॥ अभयकुमारो गिण्हइ सावगधम्मं दुवालसविहं पि । तो पणमिउं जिणिदं सव्वे वि गया सठाणेसु ।। १८२ ॥ एत्तो वि हु अणुवरिसं रोहइ रोसेण रायगिहनयरं । नियबलगव्वियचित्तो सुपयंडो चंडपज्जोओ ॥ १८३ ॥ तो सेणिएण भणिओऽभयमंती किंपि चिंतसु उचायं । नयरम्स जेण खेमं संजायइ तयणु अभएण ॥ १८४ ॥ पुरपरिसरपुहईए तेण निहाणीकया कणयकलसा । समयं मुसंढि - मोग्गर - तोमर - झसनिसियसत्थेहिं ॥ १८५ ॥ पुणरवि कम्म विवरिसे पुञ्चपओगेण रोहियं नयरं । तो अभएणं भणिओ सामंता तुज्झ सवे वि ।। १८६ ॥ मह पिउणा धणदाणेण भेइया जइ न पच्चओ तुज्झ । ता परिसरधरवीढं खणिउं निस्संकियं कुणसु ॥ १८७ ॥ तो तत्थ चंडपज्जोयनरवई जा खणावए खोणिं । ता नियइ कणयकलसे निसायघणपहरणगणे य ॥ १८८ ॥ पेच्छिय अतुच्छउच्छलियकंपपरिगलियसेयसलिलोहो । नियखंधचारक्रिइयसरक्खणो नासिऊण गओ ॥ १८९ ॥ नासंतस्स असेसं पि लूडियं सेणिएण तस्स बलं । जीवंतो उज्जेणिं पत्तो किच्छेण पुण राया ॥ १९० ॥ हक्के निए ते विहु भणंति एयस्स कारिणो न वयं । ता देव ! एत्थ अत्थे अभयपवचेण होयव्वं ॥ १९९ ॥ अवगयराब्भावो भणइ नत्थि सो कोइ मज्झ अत्थाणे । जो कूडकवडबुद्धि बंधिय आइ इह अभयं ।। १९२ ।। तं निणिऊण चिन्नवइ नरवइ चमरहारिणी गणिया । आइसमु देव ! मं झत्ति जेण बंधिय तमाणे हं ॥ १९३ ॥ तो नरवइणा मज्झिमवयाओ अवराओ सत्त गणियाओ । तीए सह थविरपरियणपायाओ पेसियाओ लहुं ॥ १९४ ॥ तत्तो समणिसयासम्मि सिक्खिउं सव्वमेव गिहिधम्मं । पत्ता परिपूयंती तित्थाणि कमेण रायगिहं ॥ १९५ ॥ तत्थ जिणभवणवंदणवडियं काऊण तयणु गिहपडिमा । पूयंती संपत्ता कमेण अभयस्स भवणम्मि ।। १९६ ॥ निस्सीहियं कुणंती सोउं अभओ पयंपइ पहिट्टो । सागयमत्थु निसीहियपरस्स साहम्मियजणस्स ।। १९७ ॥ पूइत्तु जिणवरिंदं वंदाविय तित्थजिणवरे अभयं । उचविट्टाओ पुट्टा अभएणं इह कओ तुभे ? ।। १९८ ।। मज्झिमाण मज्झाओ तस्स एगा कहेउमादत्ता । निसुणसु सावय ! एईए भवविरत्ताए सुहचरियं ॥ १९९ ॥ उज्जेणीए इब्भस्स भारिया तस्स आसि मणइट्टा । पुव्यकयकम्मपरिणइचसेण विहवत्तमणुपत्ता ॥ २०० ॥ भवउब्बिग्गा काऊण तित्थजत्ताओ तयणु नियनयरिं । गंतूणं पवज्जं घेत्तुं काही तच्चरणं ॥ २०१ ॥ इय नियुणिऊण अभएण तयणु विष्फुरियदसणकिरणेण । रेहिररोमंचचियसव्वंगेणं पुणो भणियं ॥ २०२ ॥ साहम्मिणीओ ! भोयणकरणेण अणुग्गहं मह कुणंतु । तित्थोववासियाओ अम्हे भणिऊण उट्टंति ॥ २०३ ॥ धरणियलनियिनयणा परिहरियस चित्तसरणिसंचरणा । गंतूण नियावासे कुणंति मुणिभणियसझायं ॥ २०४ ॥ तो बीयदिणे अभओ तासिं गुणरायरं जिओ संतो । तुरयारूढो गंतूण ताओ आमंतए सगिहें ॥ २०५ ॥ भणिओ य ताहिं तं एत्थ ताव कुण भोयणं तओ अम्हे । तुह भवणे काहामो पारणयं तयणु सो भुत्तो ॥ २०६ ॥ १. रायरंजियसरीरो-रं० । For Private Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धिवर्णनाधिकारे अभयाख्यानकम् सम्मोहकारिबहु विहवत्थुजुयं पाइओ मयं ताहिं । तयणु पयुत्तो संतो अवहरिओ रहवरेण इमो ॥ २०७॥ नीओ उज्जेणीए तीए नियरायपायपासम्मि । पक्वित्तो य नरिंदेण तयणु बोल्लाविओ एवं ॥ २०८ ॥ रे ! कत्थ गया बुद्धी महिलामेत्तेण जं इहाणीओ । धम्मच्छलेण छलिओ पाचाए इमाए सो भणइ ॥ २०९ ॥ इय भणिए नरनाहेण नियलिओ तह स वयणनियलेहिं । जह न अमुक्को सक्कइ नियनयरे गन्तुमेत्तो य ॥ २१०॥ चत्तारि संति रयणाणि चंडपज्जोयपुहइपालम्स । देवी सिवा नलगिरी करी तहा अग्गिभीरु रहो ॥ २११ ॥ लेहारिओ य तह लोहजंघनामो दिणम्मि पणवीसं । अइकमइ जोयणे लेहहत्थओ जाइ राईण ॥ २१२॥ अणुवासरं पि संताविएहिं तो तेहिं तम्स वहणत्थं । रइउं कुदव्वमोयगसंबलयं अप्पियं तत्तो ॥ २१३ ।। मम्गम्मि जाव जेमंद मायगे ता छड त्ति कणाव । छीय एवमसउणो संजाओ तम्स वारतिगं ।। २१४ ॥ तं विन्नत्तं तो तेण चंडपज्जोयराइणो सो वि । पुच्छइ अभयकुमारं सो वि तयं कहइ बुद्धीए ।। २१५ ॥ होही नियमेण नरिंद! एत्थ दिट्ठीविसो महासप्पो । तद्दिट्टीए दिट्टो एसो भासीकओ होज ॥ २१६ ॥ इण्हिं पुण अडवीए परम्मुहं छोडिउं मुयह थइयं । तो तहकए करालो नीहरिओ दिट्ठिविससप्पो ॥ २१७ ॥ तद्दिट्टिगोयरगया भासीभया असेसवणराई । कहियं च पुहइपालम्स सो वि तुट्टो भणइ अभयं ।। २१८ ॥ मोत्तुं बंधणमोक्खं वरमवरं वरसु जं मणोभिमयं । सो भणइ देव ! चिट्टउ मज्झ वरो तुज्झ पासम्मि ।। २१९ ॥ होही जया पओयणमहं तया नियवरं वरिम्सामि । अह अन्नया नलगिरी भग्गालाणो भमइ नयरिं ।। २२० ।। भंजंतो पुर-मन्दिरगोउर-दाराणि तो नरिन्देण । अभयकुमारो पुट्टो तेणावि पयंपियं एयं ।। २२१ ॥ वच्छाहिवई गायउ जो चिट्टइ उदयणो इहाऽऽणीओ । सो किह ? पजोयसुया वासवदत्ता कलाकुसला ॥ २२२ ॥ गंधचकलाकुसलो न तम्मि समयम्मि उदयणादन्नो । ता आणिजउ एसो एईए सिक्खणनिमित्तं ।। २२३ ।। सो कह आणेयव्वो ? अभएणुत्तंस गयबर दहें । गीएण कुणइ सवसं तो कारिमकरिवरोविहिओ ।। २२४ ॥ मुक्को य तस्स विसए चरमाणो वणयरेण केणावि । दिट्टो कहिओ य तओ गंतुं उदयणनरिंदम्स ॥ २२५ ॥ तत्तो वलसहिओ सो समागओ गयवरस्स पासम्मि । मोत्तुं खंधावारं अल्लीणो गयसमीवम्मि ॥ २२६ ॥ अइमहररावपूरियदियंतरी जाव गायइ नरिंदो । ताव गइंदो जाओ अविचलगत्तो पसुत्तो व्व ॥२२७॥ पच्चासन्नो जाओ राया पच्छन्नसंठियनरेहिं । धरिऊण चंडपज्जोयराइणो तेहिं उवणीओ ॥२२८ ॥ भणिओ य मज्झ धूयं काणं सिक्ख्वसु सुंदरं गेयं । न तए निरिक्खियव्वा जओ इमा लज्जिही अहियं ॥ २२९ ।। कहियं तीय वि वच्छे! एयं कोढाभिभूयसव्वंगं । मा पेच्छयु तं तुज्झ वि मा संचरिही इमो वाही ॥ २३० ॥ सो जवणियंतरठियं कमरिं सिक्खवह तस्स सद्देण । अवहरियमणा सा तं पलोइडं कोउयं वहइ ॥ २३१ ।। परमवलोयइ न हु रोगसंगभीया अहऽन्नया कुमरी । सम्मं सरसंगहणं न कुणइ रुटेण तो तेण ॥ २३२ ॥ भणिया काणे ! किं पढसि कूड़यं ? तो सरोसमेसा वि। जंपइ किं न वियाणसि अप्पाणं कोढिय ! निहीण ! ? ॥२३३॥ जारिसवो हं कोढी नूणं काणा वि तारिसा एसा । इय चिंतिऊण जवणियमुक्खिविउँनाव सो नियइ ॥ २३४ ।। ता पेच्छइ तं कुमरिं अहिणवजोव्वणमणोहरावयवं । सो सपिवासं तीय वि सच्चविओ कुसुमबाणो व्व ॥ २३५ ॥ अवरोप्पराणुराओ संजाओ ताण मुणइ न हु कोइ । मोत्तुं कंचणमालं नलगिरिकरिबंधणनिमित्तं ।। २३६ ॥ . भणिओ पज्जोयनिवेण उदयणो कुणसु सुंदरं गीयं । पभणइ गाएमि अहं वासवदत्ताए संजुत्तो ।। २३७॥ . आरूढो भद्दवई करेणुयं तो तहा कयं तेहिं । अंतरदिन्नपडेहिं गहिओ हत्थी तओ राया ॥ २३८ ॥ वियरइ वरं दुइज्ज अभयम्स तहेव तं पि निक्खिवइ । तो उदयणेण घडिया चउरो मुत्तम्स भरिऊण ॥ २३९॥ आरोवियाओ सद्धिं वासवदत्ताए नियपुराभिमुहं । सिग्धं पलाइओ सो सन्नज्झइ नलगिरि जाव ॥ २४० ॥ भणितं च तेन-- एषः प्रयाति सार्थः काञ्चनमाला वसन्तकश्चेति । भद्रवती घोषवती वासवदत्ता उदयनश्च ॥ २४१ ।। www.jainelibrary forg Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे पणवीस जोयणाई भद्दवई हस्थिणी गया तत्तो। मिलिओ नलगिरिहत्थी मुत्तघडी पाडिया एगा ।। २४२॥ उम्सिंघइ जाव तयं हत्थी ता हन्थिणी पवणवेगा। पणुवीसजोयणाइं गया पुणो नलगिरी पत्तो ॥ २४३ ।। तो अदरा मुघडीउ तप्पुरो पाडियाओ जा तिन्नि । ता संपत्तो कोसंबिनियपुरि उदयणनरिंदो ॥ २४ ॥ जाया य अम्गमहिसी वासवदत्ता इओ अवंतीए । केत्तियकालम्मि गए असिवग्गी दारुणो जाओ॥२४५ ॥ पज्जलइ उचल-इट्टाल-धूलिमाई वि सयलनयरीए । तण-कट्ट-करीसाणं का गणणा दाहजोगाण ? || २४६ ॥ तो पुट्ठोऽभयमंती तेणुत्तं खिवह एत्थ अवरग्गी । तह विहिए विज्झाओ समम्गनयरीए असिवग्गी ॥ २४७॥ लद्धो चरो तइज्जो तहा निहित्तो निवम्मि अभएण । अह अन्नया समुट्टियमसिवं अइभीसणं तत्थ ।। २४८ ॥ तो पुच्छह पुह इवई अभयं सो भणइ देव ! अत्थाणे । कयरायअलंकाराओ इंतु देवीओ सव्वाओ ॥ २४९ ।। जा का वि जिणइ तुम्भे दिट्टीए मज्झ सा कहेयब्वा । तह विहिए सव्वा विहु देवीओ अहोमुहीउ ठिया ।। २५० ॥ मोत्तण सिवादेवि निवेइयं तो निवेण अभयस्स । सो भणइ सा अवसणा निसाए आढगबलिं घेत्त ॥ २५१ ॥ चच्चर-च उक्क-रच्छा-गोउर-अट्टालपमुहठाणेसु । जत्थ समुट्टइ भूयं तस्स मुहे निव्यिसंकाए ॥ २५२ ॥ खिवियवो बलिकृरो तहा कए तो अवंतिनयरीए । जाओ असिवोवसमो तओ चउत्थो वरो लद्धो ॥ २५३ ॥ को चिट्टिही परगिहे ? इय चिंतिय अभयमंतिणा भणियं । चउरो वि वरा दिज्जंतु देव ! जे मज्झ पडिवन्ना ।। २५४ ।। आरूढो एगेणं खंधे नलगिरिकरेणुरायस्स । अवरेण तुमं मिठो तइएण सिवाए उच्छंगे ।। २५५ ॥ अवरमिह अम्गिभीरुयरहवरदारूहिं मह चउत्थेणं । वियरसु कट्ठाई चियाए जेण पविसामि निविन्नो ॥ २५६ ॥ नियमेणं गंतुमणो एसो एवं जओ परांपेइ । सम्माणिऊण मुक्को निवेण तो तेण पडिभणियं ॥ २५७ ॥ धम्मच्छलेण छलिओ तए अहं तं पुणो मए नियमा । रविणा दीवेण अवंतिपुरवरीलोयपच्चक्खं ॥ २५८ ॥ बंधेउं नेयव्यो त्ति 'जंपियं सो पुरम्मि रायगिहे । संपत्तो तो कइय वि दिणाणि तत्थेव गमिऊण ॥ २५९ ।। तरुणजणनयणमोहणअहिणवजोव्वणमणोहरंगीओ। गणियाओ दोन्नि घेत्तृण सो गओ नयरिमुज्जेणिं ॥ २६० ।। गुडियकयावररूवो रायदुवारम्मि आवणं घेत्तु । पारद्धो ववहरिउं अभओ अह अन्नदिवसम्मि ।। २६१ ॥ गच्छंतेण नरिंदेण ताओ गणियाओ गिहगवक्खम्मि । उवविट्ठाओ दिट्ठाओ भुवणअभहियरूवाओ ॥ २६२ ॥ सविलास-सविन्भम-सालसेहिं नेत्तेहिं ताहिं नरनाहो । आबद्धपंजलीहिं पलोइओ जा गिहं पत्तो ॥ २६३ ॥ तत्तो गणियासविलासनयणबाणेहिं सल्लियसरीरो । पेसइ ताण सयासम्मि दूइयं सा वि गंतूण ॥ २६४ ॥ जंपड़ जहा नरिंदो तुम्हाण समागमं समीहेइ । न कुणइ राया एयं ति ताओ कुवियाओ जपंति ॥ २६५ ॥ पुणरवि बीय-तइज्जम्मि वासरे दूइयाए तह भणिए । गणियाओ भणंति जहा बीहेमो भाउणो अम्हे ॥ २६६ ॥ परमेत्थ देवजत्ताए बाउलो सत्तमम्मि दिवसम्मि । सो होही तो राया मज्झण्हे एगगो एउ ॥ २६७ ॥ अभएण चंडपज्ज़ोयनामगो वाइओ कओ भिच्चो । वेज्जसयासे निच्चं निज्जइ एवं पर्यपंतो ॥२६८ ॥ भो नयरजणा ! तुम्हाण नायगो एस चंडपज्जोओ । निज्जइ बद्धो अभएण तयणु धावइ जणो सयलो ॥ २६९ ॥ किं एस इमं जंपइ ? पयंपिए भणइ अभयवरमन्ती । मझ कणिट्टो भाया कम्मवसा वाउलीहूओ ॥ २७० ।। अणुवासरं पि वेज्जस्स मंदिरे कारवेमि उवयारं । उज्जेणिजणो सब्यो एवं विस्सासिओ तेण ॥ २७ ॥ सत्तमदिणमझण्हे नरेसरो जा गवक्खमग्गेण । आरूढो ता बद्धो पच्छन्ननिउत्तपुरिसेहिं ।। २७२ ॥ पक्खित्तो पल्लंके वाहरमाणो तहेव अभएण | आणीओ रायगिहे खित्तो सेणियनरिंदपुरो ॥ २७३ ॥ तो बद्धभीमभिउडीभयंकरो सेणिओ पुहइपालो । आयड्डियकरवालो समुट्टिओ तम्स हणणत्थं ॥२७॥ पडिसिद्धो अभएणं पयंपए वच्छ ! कहा कि जुत्तं ? । तो भणइ अभयमन्ती देव ! महानरवई एसो ॥ २७५ ॥ ता सम्माणं काउं महरिहरिद्धीए तत्थ गंतूण । मुच्चइ तत्तो सेणियनिवेण विहियं तह च्चेव ॥ २७६ ॥ १. जंपिउं रं०। २. कइवह दिणाणि २०॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे धनाख्यानकम् जाया त महंता पीई दोण्ह वि परोप्परं ताण । एसा अभयम्स सुए भणिया परिणामिया बुद्धी || २७७ ॥ एवंविहाणि बहुयाणि अप्पणा कट्टसिट्टिमाईणि । परिणामियबुद्धीए वियाणियत्र्वाणि नायाणि ॥ २७८ ॥ ॥ अभयाख्यानकं समाप्तम् ॥ ४ ॥ इत्थं मनोभिमतकामभृतां नराणां श्रेयान् वसंततिलका कृतिमादधानः । विष्वक्युपत्र निचयः सुमनोभिरामश्छायान्वितो जयति वुद्धिकृतः प्रपञ्चः ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीमदाघ्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे बुद्धिप्रपञ्चवर्णनः प्रथमोऽधिकारः समाप्तः ॥ १ ॥ [ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारः ] बुद्धिमद्धिनादिके धर्मे प्रवृत्तिर्विधेया इत्युक्तम् । अतस्तमेव चतुर्विधं दानादिकं धर्मं विभणिपुस्तत्रापि गृहस्थानाश्रित्य विशेषविधेयतया दानधर्म प्रथमं तावदाह- आरंभपवत्ताणं गिहीण बहुविहपरिग्गहजुयाणं । धम्मस्स पहाणंगं दाणं ता तत्थ जहयव्वं ॥ ४ ॥ व्याख्या—आरम्भः—कृप्यादिकस्तस्मिन् प्रकर्षेण - आदेयबुद्ध्या वृत्ताः - प्रवृत्तास्तेषाम् 'गृहिणी' गृहस्थानां बहुविध:नानाप्रकारः परिग्रहः- धनधान्यादिरूपस्तेन युतानां - समन्वितानां 'धर्मस्य' प्राग्व्यावर्णितस्वरूपस्य प्रधानं परमं अङ्गं कारणं 'दानं ' वित्तवितरणम् । तस्मात् ‘तत्र' दाने 'यतितव्यं' प्रयत्नो विधेय इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ कुतः पुनरेतदवसितं यद् गृहस्थानां दानं धर्मस्य प्रधानमङ्गम् इति ? अत आह— सुर-नर- सिवसोक्खाणं मुणिदाणं कारणं जओ जायं । धण-धन्नय-कय उन्नय - दोणाई - सालिभद्दाणं ॥ ५ ॥ व्याख्या– 'सुर-नर-शिवसौख्यानां' देव-मनुज- मोक्षशर्मणां 'मुनिदानं ' यतिभ्यः कल्पनीयवस्तुवितरणं 'कारणं' हेतुः 'यतः' यस्मात् कारणाद् 'जातं' सम्पन्नम् । केषाम् इति ? अत आह-धनश्च- सार्थवाहः धेन्यकश्च - नलनृपतिजीवः कृतपुण्यकश्च -इभ्यपुत्रः द्रोणः - कर्मकरः स आदिर्येषां तत्स्वामिवणिजां ते द्रोणादयः ते च शालिभद्रश्च इभ्यमुतस्ते तथोक्तास्तेषामित्यक्षरार्थः ॥ ५ ॥ भावार्थस्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । तत्र तावत् प्रथमं धनाख्यानकमाख्यायते तच्चेदम् अवरविदेहविलासिणिविलसिर भालयलतिलय सोहिल्लं । आसि सिरिखिइपइट्टियनयरं धणरिद्धजणकलियं ॥ १ ॥ तत्थथि पुइपालो जियसत्तू पणयसयलभूवालो । रिउरुहिरछडकरालो रणंगणे जस्स करवालो ॥ २ ॥ चलचमरविहियसोहं निद्दलियासेससत्तुसंदोहं । रिउकरडिघड अखोहं सो भुंजह रज्जसमुहं ॥ ३ ॥ तत्थथि सत्सारो दुत्थियजणदिन्नरित्थवित्थारो । घणनाम सत्थवाहो पलंबपुरिपरिहसमबाहो || ४ || १. धान्यकश्भ- खं० रं० । ३ १७ For Private Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अत्थोवजणकज्जे सज्जीका कयाणयसमूहं । खर-करह-वसहसहिओ संचलियो सो वसंतउरे ॥ ५॥ गच्छंतेणं तेणं पयडो कप्पडिय-तडियपमुहम्स | जाणावणत्थमत्थियजणस्स घोसाविओ पडहो ॥ ६ ॥ जस्सऽथि बलं न हु संबलम्मि करवत्त-वत्थविसयम्मि । पाणहिय-वाहणाईमु तस्स सव्वं पयच्छामि ॥ ७॥ नयरम्मि वसंतउरे गंतुमणो धम्मघोससूरी वि । पेसइ तम्स सयासम्मि साहुसंघाडगं एगं ॥ ८॥ पुच्छह आगच्छामो समयं अम्हे वि तुम्ह सत्येण । साहेज्जकजसज्जो जह होहिसि जइसमूहम्स ॥ ९॥ गुरुणो वयणं बहुमन्निऊण जइणो धणम्स भवणम्मि । जा पविसंति तओ सो समुट्टिओ सम्मुहं ताण ॥ १०॥ गहिऊण पक्क-पीवरसहयारफलाणि भणइ भत्तीए । भयवं : विहियपसाया फलगहणेऽणुग्गहं कुणह ॥ ११ ॥ भणियं च तेहिमम्हं सच्चित्तफलाणि न हु पकप्पंति । तो भणइ धणो आगमणकारणं मह निवेएह ॥ १२ ॥ साहंति तओ मुणिणो वयणं सिरिधम्मघोससूरीण । सो वि अणुग्गहिओ हं सूरीहि पयंपइ पहिहो ॥ १३ ॥ तो सत्थवाहवयणं गंतूण कहंति साहुणो गुरुणो । सूरी वि साहुमंडलसमन्निओ पत्थिओ पंथे ॥ १४ ॥ सुपसत्थतिहिमुहुत्ते कयकोउयमंगलो धवलवेसो । नियदेवयाओ नमिउं नीहरिओ तयणु सत्थाहो ॥ १५ ॥ आयन्नन्तो संभारभरियसगडाण चक्कचिक्कारं । करहकडुरावमीसियखरखरसद्दच निसुणंतो ॥ १६ ॥ पेच्छंतो भंभारियदिणयरकरतत्तसेरहसमूहं । अत्थरियथोरमंथरमवलोयंतो वसहविंदं ॥ १७॥ गुरुभारविसंतुलखुरपडंतमणवरयमणुपलोयंतो । पुच्छग्गधरिय-पिट्टिय-उट्टाविज्जंतखरविसरं ॥ १८ ॥ भारकसकिसिरकाओडिवावडे पइखणं निरिक्खंतो। धाडीचाहे खंधाओ अवरखंधं भरं निते ॥ १९ ।। बहुसासवसपकंपिरपीवरथणहारणीहिं रमणीहिं । हीरिज्जंतो सिग्धयरगमणपावियतरुतलाहिं ॥२०॥ वच्चइ विजियपहंजण-मणजवणुत्तरलतुरयमारूढो । सिरउवरि धरियसिक्किरिविणिवारियतरणिकरपसरो ॥ २१ ॥ पावित्त पउरइंधण-सीयलजलकलिय-विउलवणसंडं । आवासिओ विसारियविसालपडमंडवगिहेसु ॥ २२ ।। सत्थियजणो वि को विहु कत्थइ अइबहलपत्तलतरूसु । अवरोप्परकलहपरो आवासइ रइयगुलिणीसु ।। २३ ॥ वियडकरवत्त-दीयड-काओडी-कुडयवावडकरग्गा । सिग्घयरं कम्मयरा नीराभिमुहं अणुसरंति ॥ २४ ॥ इय एवमाइबहुविहवावारविहत्थपंथसत्थस्स । पढमो पयाणदियहोऽइक्वन्तो सत्थवाहस्स ॥ २५॥ ताडाविडं पयाणगभेरिं पहरावसेसरयणीए । संवाहिऊण सत्थं संचलिओ पुणरवि पहम्मि ॥ २६ ॥ इय एवंविहबहुविहपयाणअकंतभूरिमहिवलओ। बहुविडविसंकडाए पत्तो वियडाए अडवीए ॥ २७ ॥ सा केरिसा ? तरुणि व्व तरलचित्ता संवरजुत्ता सुसाहुवित्ति व्व । सुरहि व्व सुह्यवच्छा वरकमला कण्हमुत्ति व्व ।। २८॥ जा पेच्छंतो गच्छइ तं सो लल्लकसावयसमूहे । ता गज्जंतो पत्तो नहंगणे नवघणारंभो ॥ २९ ॥ पहणियमुणिप्पहावो विहुणियबुह-सोम-गुरुपहापसरो । कलिकालो व्व वियंभइ गयणे घणतिमिरपन्भारो ॥ ३०॥ रयणिसमुन्न यसामल जलहरअंधारियम्मि भुवणयले । दीवसिह व्व तडिलया दरिसइ अभिसारियाण पहं ।। ३१ ।। उन्नयपओहराए तडितरलऽच्छीए गयणलच्छीए । धवलबलाहयमाला रेहइ मुत्ताहलसरि व्व ॥ ३२ ॥ रोलंब-गवलसामलसच्छायं नहयलं सहइ जत्थ । विरहिणिमणमयणानलधूमेण व मइलियमसेसं ॥ ३३ ॥ उम्मग्गपसरिया{ घणरसपरिपूरियासु तरलामु । असईसु व्व नईमुं निम्मूलुम्मूलियतडासु ।। ३४ ॥ बहलजलाविलपंकिलपहम्मि पल्हसिरकरहचरणेमु । उद्दामगद्दकद्दमचहुट्टचक्केसु सगडमु ।। ३५ ।। आसारवारिधारापहारअवणमिरसीसवसहेसु । गड्डुलजलोहपल्ललपविसिरसेरहसमूहेसु ।। ३६ ॥ अक्कमिउमसक्केसुं चिक्कणकद्द मिलदुमगमग्गेसु । धणसत्थवाहचित्ते चिंता एवं समुपन्ना ॥ ३७ ।। १. ह्रियमाणः। २. मयलिय ० २० । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवणेनाधिकार धनाख्यानकम् बहलजलवरिसयाले गंतुं पुरओ पहुप्पए नेय । ता इण्हि एत्थेव य छइत्त विरएमि आवासे ।। ३८ ।। इय चितिऊण सजडं सगुहं ससिवं सगंगमहिसहियं । तिणयणमिव धरणिधरं निवासहेउं समल्लियइ ।। ३९ । विरइत्त बहलपत्तलतरूमु रोहंसकड-कुडीराइं । सुत्थकयसपलसत्थियजणेण सह वसिउमारद्धो ॥ ४० ॥ अडविनिवासित्ताओ बहुदियहत्ताओ तुट्टसंबलिओ। कुणइ नियपाणांवात्त सत्था फल-मूल-कंदहि ॥ ४१ ।। अह अन्नया कयाई धणम्स रयणीए चिंतयंतम्स । नियसत्थसोक्ख-दुक्खं खुफिया साहुणो हियए ॥ ४२ ।। इह ते महाणुभावा परदत्तवजीविणो महासत्ता। कंद-फल-मूलभोयणविवजिया किह भविम्मति ? | ४३ ॥ जम्हा तया वि दाणं फलाण साहहिं तत्थ पडिसिद्धं । इण्हि तु वरिसयाले विसेसओ नहु गहिस्संति ।। ४४ ॥ अवरं च ताण तइया आसं दाऊण अवगणंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ४५ ॥ नियपडिवज्जियपालणसुपरिससरणि पि परिहरंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? || ४६ ॥ तिक्खतव-चरणसोसियतणुणो मुणिणोऽवहीरयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापाबपन्भारो ? || ४७ ॥ आबालकालपालियदुद्धरबंभव्वए चयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ४८ ।। धण-सयण-भवणसंबंधवज्जिए जियमए मुयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपच्भारो ? ॥ ४९ ॥ विसयविसपरवसेणं जईण वित्तिं अचिंतयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ५० ॥ साहूण पहपरिम्समसमुचियकज्जं विवैजयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ५१ ।। चारित्तिणो सुपत्ते अतिही मुणिणोऽवहीरयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ।। ५२ ।। जइ कह वि एत्थ समए छुहाकिलंताण जायइ विरूवं । ता नणं नरयम्मि वि गयम्स सुद्धी मह न होजा ।। ५३ ॥ अह कह वि तिव्वतवतेयभावओ कुसलिणो भविस्संति । तह वि हु निकरुणो हं वयणं कह ताण दंसिम्सं ? ॥ ५४ ।। इय चिंतिउंसमुग्गयसहसकरे कयपभायकायव्वो । आपुच्छित्तु निवासं साहुसयासम्मि संचलिओ ॥ ५५ ॥ गच्छंतेणं दिट्ठा मुणिणो गुरुगिरिगुहाए गन्भम्मि । मासोबवाससोसियसरीरसोहाए भासंता ।। ५६ ॥ के वि पउमासणत्था मुणिणो उक्कुडयआसणा अवरे । मंडियलगंडआसणविहूसिया साहुणो अन्ने ।। ५७ ॥ नासम्गनिहियनयणा कलयंता के वि किं पि परमत्थं । उड्डीकयभुयदंडा चंडतवं के वि हु कुणंता ॥ ५८ ॥ वायण-पुच्छण-चिंतण-अणुपेहण-धम्मदेसणसरूवं । पंचविहं सज्झायं झायंता के वि तवनिहिणो ॥ ५९ ॥ इय एवंविहमुणिवरपरियरिओ सुरवइ व्व अमरेहिं । सिरिधम्मघोससूरी दिट्ठो धणसत्थवाहेण ॥ ६० ॥ दट्टण मुणिवरिंदं पसरियलज्जाविलक्खवयणो सो । अवणमियसिरो वंदिय कयंजली भणिउमाढत्तो ॥ ६१ ॥ आसाइया मुणीसर ! तुभे निभम्गसेहरेण मए । संचालिऊण जम्हा न भासिया वयणमेत्तेणं ॥ ६२ ॥ ता काऊण पसायं खमेह अवराहमेक्कमम्हाणं । जम्हा उत्तमपुरिसा हवंति कारुन्नजलनिहिणो ॥ ६३ ।। तो भणइ मुणिवरिंदो दसणावलिकिरणधवलियदियंतो । परिहर विसायमिणमो सुपुरिस ! मा कुणसु मणखेयं ॥ ६४ ॥ नियसत्थविविहवावारकरणवक्खित्तमाणसेण तए । जइ न कया साहूणं सारा ता तत्थ को दोसो ? ॥ ६५ ॥ अवरं च इह महायस ! मुणिणो माणाऽवमाणविसएसु । सुह-दुक्खकारणेसु य समचित्ता जेण सयकालं ।। ६६ ।। . इय निसुणिऊण वयणं गुरूण बहुगुणगुरूण तयणु धणो । पणमित्त तो निमंतइ दाणनिमित्तं नियावासे ।। ६७ ॥ गुरुणो वि तस्स बहुमाणपगरिसं पेच्छिऊण पेसति । तेण सह तस्स भवणम्मि साहुणो असण-पाणस्स ।। ६८ ॥ गंतूण धणो सह मुणिवरेहिं भवणम्मि भणइ नियपुरिसे । आणेह असण-पाणाइ जमिह साहूण पाउग्गं ।। ६९ ।। तो विन्न चिंति ते विहु असणाइ न अत्थि संपयं सामि !। किंतु घयमत्थि भणिए मुणिपुरओ तं पि उवणेति ॥ ७० ॥ दव्वाइचउहसुद्धिं पउंजिउं मुणिवरा वि गिण्हति । सो वि हु तदाणेणं मन्नइ सकयत्थमप्पाणं ।। ७१ ।। १. संबलओ रं०। २. विचितयंतेण २० । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अन्नं च- आख्यानकमणिकोशे घयदाणसमयसज्जियहिययभंतरफुरंतपरिओसो । बंधड़ बंधुरबुद्धीए बोहिबीयं घणो धणियं ॥ ७२ ॥ अह घणसमए वित्ते पत्ते सरयम्मि विहसियायासे । धणसत्थवाहसत्थो मुत्थो संपत्थिओ पंथे ।। ७३ ।। पत्तो य वसंतपुरे कमेण गुरुययरबहुपयाणेहिं । विक्किय कयाणगाई बहुलाभो गयणमग्गो व्व ॥ ७४ ॥ कलकंठस उणकोलाहलेण विहरिय धणो वसंतो व्व । पुणरवि य खिड्पइट्टियनयराभिमुहं पडिनियत्तो ॥ ७५ ॥ पत्तो य तम्मि तन्नयरवासिनरनाहविहियपरिओसो । पंचप्पयारभोष उवभुंजतो गमइ दियहे || ७६ ॥ अह अन्नया जगत्तयसाधारणमरणमुचगओ जाओ । सुहदाणवससमज्जियभोगहलो मिहुणभावम्मि ॥ ७७ ॥ तत्तो य सुर महबल ललियंगय वइरजंघ मिहुणो य । सोहम्म वेज्ज अच्चुय चक्की सवट्टसिद्धे य ।। ७८ ।। एवं बारसभवे संसारसारसोक्खाइं । उवभुंजिऊण जाओ तेरसमभवे जिणो रिसहो ॥ ७९ ॥ भुंजितु रायलच्छ घेत् वयं विबोहिउं भविए । निट्टवियसेस कम्मो संपत्तो सासयं सोक्खं ॥ ८० ॥ ॥ धनाख्यानकं समाप्तम् ॥ ५ ॥ इदानीं धन्यकाख्यानकस्यावसरः, तच्च दवदन्त्याख्यानके भणिष्यत इति क्रमागतं कृतपुण्यकाख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् धरविल्यावासगिहे रायगिहे पवरनयर सिरितिलए । दरियारिमत्तवारणवियारणो सेणिओ राया ॥ १ ॥ सव्वंगसुंदराहिं सुनंद-चेल्लणविसिट्टभज्जाहिं । कलिओ रइ-पीईहिं व रेहइ सो कुसुमबाणो व्व ॥ २ ॥ निय बुद्धिपसरप डिह सुरगुरुणोऽभयकुमारमन्तिस्स । रज्जपमुहं समप्पिय भारं सो भुंजए भोए ॥ ३ ॥ एत्थेव मगहदेसे कम्मि वि गामम्मि दुग्गयमहेला । चारइ तग्गामे च्चिय तीए मुओ वच्छरूवाणि ॥ ४ ॥ अह अन्नदिने अडवीए वच्छरूवाण चारणगएण । दिट्टो उस्सग्गठिओ साहू अभिवंदिओ तेण ॥ ५ ॥ निच्चं पि साहु चरणारविंद सेवापवित्तगत्तस्स । वच्चति तस्स दिवसा अहन्नया कम्मि वि महम्मि ॥ ६॥ तम्गामपुरंधीणं सयासओ जाइऊण खीराइ । रद्धा तस्स निमित्तं तज्जणणीए पवरखीरी ॥ ७ ॥ उववेसिऊण पुत्तस्स अप्पियं खीरिपूरियं थालं । कज्जंतरेण केणइ तओ गया सा हिस्संतो ॥ ८ ॥ एत्थंतरग्मि साहू समागओ तग्गिहे तओ सो वि । भत्तिभरुन्भूयपभूयपुलयपरिपूरिओ संतो ॥ ९ ॥ उत्तमपत्तं साहू दाणं परमन्नमसरिसमिमं पि । इय चिंतंतो थालस्स उवरि रेहादुगं रयइ ॥ १० ॥ परमन्नस्सतिभायं मुणिणो देमि त्ति तो समुट्ठेइ । घेत्तूण खीरिथालं उच्छलिया तुच्छपरिणामो ॥ ११ ॥ आह इमो जइ कप्पड़ भयवं ! ता गिण्ह सो वि नियसुद्धिं । नाऊण धरइ पत्तं तिभागमेसो वि देइ तओ ॥ १२ ॥ परिभावइ अह थोवं वियरइ तो तम्स बीयभागं पि । पुणरवि चितइ जड़ खीरिभायणे किंचि अवररसं ॥ १३ ॥ गिण्हिम्सइ विहरंतो एसो ता पायसो विणस्सेहि । सो तम्स तइयभायं पि देइ उल्लसियबहुमाणो ॥ १४ ॥ तो बंदिउं मुणिदं उबविट्टो तम्मि चेव ठाणम्मि । साहुम्मि गए जणणी वि गेहमज्झाओ नीहरिया || १५ ॥ अवलोइऊण पुरुं तदवत्थं नृण भुत्तमेएण । इय चिंतिऊण तीए पुणो वि परिपूरियं थालं ॥ १६ ॥ रोरत्तणेण सव्वं भुक्तं तो निसि विसूइयाए मओ । मुणिदाणसमयसज्जियभोगफलो रायगिहनयरे ॥ १७ ॥ सो ववन्नो धणपालइन्भभद्दा कलत्त कुच्छिसि । उल्लवियं लोएणं कउन्नो कोइ इह भवणं ॥ १८ ॥ उपज्जिही समिद्ध धन-धन्नसमिद्धरयणरिद्धी हिं । वेलामासे भद्दा वि पसविया उत्तमं पुत्तं ॥ १९ ॥ विहियं वद्धावणयं वज्जिरवरतूरपूरियदियंतं । अह संपत्ते दसमम्मि वासरे तस्स इन्भेण ॥ २० ॥ उन्नाओ ति नामं विहियं जम्हा जणेण पुत्र्वं पि । भणियमिणं कयन्नो को वि हु उप्पज्जिही एत्थ ॥ २१ ॥ For Private Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे कृतपुण्यकाख्यानकम् अह सो कमेण जाओ निस्सेसकला कलावपारमई । पत्तो य जुवइजणनयणमोहणं जोव्वणं जाव ॥ २२ ॥ ताव वररुव जोवणमणोहरं इभकन्नयं एसो । परिणाविओ विन मणं मणयं पि हु कुणइ भोगेसु ॥ २३ ॥ भद्दा तओ इ भणिओ पिययम ! न एस विसयसुहं । उवभुजइ ता पभणसु जह सेवइ विसयहमिहि ॥ २४ ॥ इभ तओ पप पिए ! पसप्पति सवजीवाण । आहार-भय- परिभ्गह- मेहुणसन्नाओ सयमेव ॥ २५ ॥ भद्दा पुणो पर्यपड़ नाह ! इमा अइपभूय धणरिद्धी । जइ उवभुंजइ एसो संतोसो होइ तो मज्झ ॥ २६ ॥ तीए निबंधं नाउं दुल्ललिय कुमारगोडिमज्झम्मि । पक्खित्तो धणपालेण भमइ एसो वि तीए समं ॥ २७ ॥ आरामुज्जाण-विहार-वाचि - सरि परिसरे पलोयंती । अह अन्नया पविट्टो पुरम्मि वेसासमूहस्स ॥ २८ ॥ तत्थ य वसंतसेणा नवजोव्वणरूवसालिणी गणिया । दिट्टा तेण तओ सो अक्खित्तो तीए रुवेणं ॥ २९ ॥ तमवित्तमणं दट्टं सव्वे वि वयंसगा गया सगिहं । सविणय सविलासपर्यपिएहिं सो रंजिओ अहियं ॥ ३० ॥ तह कह विहु नवसुरयप्पसंगओ मोहिओ इमो तीए । न जहा अवरपुरंधी मणयं पि मणम्मि वीसम ॥ ३१ ॥ तीए समं सो भुजइ भोए रंभाए अमरनाहो व्व । तत्थ ठियस्स वि अम्मा- पियरो पेसंति घणनियरं ॥ ३२ ॥ अन्न समयम्म अम्मापियराणि दिवंगयाणि वि न तेण । मुणियाणि अह तह च्चिय भज्जा पेसह दविणजायं ॥ ३३ ॥ इय बारसवरिसेहिं सुररिद्धिसमं पि मंदिरं तस्स । जायं रोरगिहं पिव विच्छायं दविणरहियं च ॥ ३४ ॥ परिनिट्टियम्म दव्वम्मि पेसियं तीए निययमाभरणं । सुकुलीणयाए तो तं निएवि परिचितए अक्का ॥ ३५ ॥ मियाण एसो जाओ निद्धणो त्ति अक्काए । दीणारसहस्सजुयं पुणो वि पेसवियमाभरणं ॥ ३६ ॥ तो कुट्टिणीए भणिया वसंतसेणा जहा इमं वच्छे ! । निद्धणकामुयपुरिसं परिहर आयरमु घणवंतं ॥ ३७ ॥ जम्हा अम्हाणमिमो कुक्कमो निभ्गुणो वि धणवंतो । माणिज्जइ गुणवंतो वि न उण धणवज्जिओ सुयणु ! ॥ ३८ ॥ सा आह अंब ! एएण तुज्झ दिन्ना पभूय धणरिद्धी । जीए आसत्तवेणी उ जाव होही इमो अत्थो ॥ ३९ ॥ अवरपुरिसो वराओ किं दाही ? अहव तस्स किं होही ? । ता अंब ! न काहमहं परिहरणमिमम्स पुरिसम्स || ४० ॥ अवरं च गुणचिसि पि निद्धणं परिहरति इयराओ । उत्तमविलासिणी पुण न मुयइ मरणे वि पडिवन्नं ॥ ४१ ॥ इय नियुणिऊण नाऊण निच्छ्यं तीए संतियं अक्का । मोणेण ठिया धरिऊण नियमणे किं पि कायव्वं ॥ ४२ ॥ निद्दापरव्यसं जामिणीए पुरिसेहिं तं सपल्लंकं । मेल्लावर देवउले वसंतसेणाए सुत्ताए ॥ ४३ ॥ पडवुद्धो य पभाए पोयमाणो मणे विचितेइ । अवहरिओ हं केणइ ? किं वा मणविच्भमो मज्झ ? ॥ ४४ ॥ अहवा दिसिभमो मे ? उयाहु सुमिणंतरं इमं किं पि ? । किं इंदजा लमेयं ? धाउक्खोभोऽहवा एसो ? ॥ ४५ ॥ चिंतोपाट्टियाहिं दासीहिं पभणिओ एवं । मा किं पि कुण विसायं मुयाविओ तमिह अंबाए ॥ ४६ ॥ दविणरहिओ ति काउं नियकुलमज्जायमणुसरंतीए । मड्डाए नियसुयाए वसंतसेणाए सुत्ताए ॥ ४७ ॥ ता वच्च निययगेहम्मि जेण अम्हे वि गहिय पल्लंकं । गच्छामो तो एसो संचलिओ साममुहछाओ ॥ ४८ ॥ बहुदिवस दिवं नियगिहमगं जणाओ जाणेउं । पेच्छइ सो नियगेहं तं सुक्कसरं व गयपमं ।। ४९ ॥ पभट्टमत्तवारणमनाय कलियं कुनरवइगिहं व । मुणिवरमिव अत्थंभं समंतओ अतुलमहिमं च ।। ५० ।। गयरहरयणं वरचक्कवट्टिभवणं व नरवइरणं व । पव्भग्गनागदंतं सरोगपुरिसं व विगयसुहं ॥ ५१ ॥ जा पविसइ सासंको पोयमाणो चउद्दिसं तत्थ । ता पेच्छइ नियदइयं करवयसहियं समुहमिति ॥ ५२ ॥ दिन्नासो विट्टो विहियं पयसोयणं तओ तीए । पुच्छइ जणणी-जणयाण वइयरं तयणु कयन्नो ।। ५३ ।। कहियं च ताण मरणं अंसुजलोल्लिय कवोलफलयाए । तीए तओ कय उन्नो कंद्रह संजायसोयभरो ॥ ५४ ॥ हा ताय ! विसयविसमोहिएण निव्भग्गसेहरेण मए । मरणे वि तुह न विहिया सुस्सूसा पावकम्मेण ॥ ५५ ॥ हा माय ! मए आबालकालपरिपालिएण वि न तुज्झ । संभासो श्चिय विहिओडकयन्नुणा मरणकाले वि ।। ५६ ।। १. सुहमेहि रं० । For Private Personal Use Only २१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आख्यानकमणिकोशे हा ! एसा वि वराई उत्तमवंमुभवा विणीया वि । वीवाहिऊण मुक्का न भासिया वयणमेत्तेण ॥ ५७ ।। इय एवं बिलवंतो करुणसरं दीणिमं जणेमाणो । संधीरिओ कलत्तेण तयणु सो पुच्छई एवं ॥ ५८ ॥ कि अस्थि किं पि ? तो तीए दाइयं तम्स निययमाभरणं । अत्थोवजणकज्जे काउं तं चेव भंडोल्लं ॥ ५९ ॥ तत्थेव ठिओ नियमित्तबग्गलज्जाए कइवयदिणाणि । जा तीए संजाओ गन्भो ता पत्थिओ सत्थो॥ ६० ॥ तीए सत्थासन्नम्मि देउले सोविओ स पल्लंके । एत्तो य आसि इब्भो सुधणू नामेण तम्मि पुरे ॥ ६१ ॥ दझ्या महिमानामेण तम्स बहुकूडकवडदुल्ललिया । तीए सुओ धणदत्तो पिउणा परिणाविओ जाव ।। ६२ ।। वररूवजोव्वणाओ चत्तारि नियंबिणीओ ता इब्भो । पंचत्तं संपत्तो मित्तेहिं तयणु धणयत्तो ।। ६३ ॥ दविणावजणकज्जे सज्जीका कयागए नीओ। रयणायरपरतीरं विढत्तवित्तो पडिनियत्तो ।। ६४ ।। जा संपत्तो हल्लंतलहरिमाले समुद्दमज्झम्मि । ता गिरितडम्मि फुट्ट वहणं निहणं गओ सो वि ॥ ६५ ।। तो एक्केण नरेणं कहियं तरि तरंगिणीनाहं । महिमाए पुत्तमरणं तो उवयरिउं इमो तीए ।। ६६॥ विउलेण दविणजाएण पणिओ भद्द ! नो इमं तुमए । छक्कन्नं कायव्वं ति तयणु तेणावि पडिवन्नं ॥ ६७ ॥ चिंतेइ इमा आणेमि किं पि सुण्हाणमवरभत्तारं । जायंति जहा पुत्ता घर-लच्छीरक्खणसमत्था ॥ ६८ ॥ इय चिंतिऊण रयणीए नियइ नयरस्स परिसरे जाव । ता दिट्टो सुहमुत्तो कयउन्नो तीए देवउले ॥ ६९ ॥ पल्लंकपमुत्तो च्चिय उक्खित्तो तीए भणियपुरिसेहिं । मुक्को मंदिरमझे कमेण जा उट्टिओ ताव ।। ७० ॥ सोयपरिपूरियंगी कंट्टम्मि विलग्गिऊण रुयमाणी । जंपइ बालो वि तुमं अवहरिओ जाय ! केणावि ।। ७१ ॥ निउणं निरिक्खिओवि य महिवीटे न हु कहिं पि उवलद्धो। नाणेण मुणिय मुणिणा कहिओ तुह आगमो अज्ज ॥७२॥ दिट्टो य मए सुमिणे समागओ नियगिहम्मि कप्पतरू । ता एत्थ पुत्त ! पुन्नेहिं आगओ अज्ज अम्हाण ॥ ७२ ॥ दिट्टो य मए सुमिणे समागओ नियगिहम्मि कप्पतरू । ता एत्थ पुत्त ! पुन्नेहिं आगओ अज्ज अम्हाण ।। ७३ ।। तं कत्थ गओ विद्धि ? परिभमिओ वा कहिं ? कहमु मज्झ । किं वा तएऽणुभूयं सुहदुक्खं एत्तियं कालं ? ॥ ७४ ।। अचरं च मज्झ हिययं वज्जसिलिंकाहिं निम्मियं मन्ने । जं न गयं तुह विरहे धस त्ति सयसिक्किरीहोउं ।। ७५ ॥ जाय ! तुह विरहदुम्मियमणाएं जं चिंतियं मए किं पि । तं तुह वेरीणं पि हु एउ सरीरम्मि मा कह वि॥ ७६ ॥ एत्तियकालं पुत्तय ! नियकुलदेवीहिं रक्खिओ इण्हि । मह जीविएण जीवसु नहंगणे जाव ससि-सूरा ॥ ७७॥ विविहवररयण-मणि-कणय-रुप्पमुत्ताहलाइधणरिद्धि । उवमुं. जसु जाय ! तुम सम्माणंतो सुहिसमूह ॥ ७८ ॥ अवरं च तुझ जेट्टो भाया देसंतरम्मि वावन्नो । ता नियभाउज्जायाण होसु सामी तुमं वच्छ ! ।। ७९ ।। इय एवं तीए मइप्पवंचविम्हियमणो मुणतो वि । कूडकवडं ति जंपइ जं पभणसि अंब! तं काहं ॥ ८०॥ भणियाओ तओ तीए सुहाओ ठाविऊण एगते । पडिवज्जह देवरमवि कंतं एवंविहे कज्जे ॥८१ ॥ जओ भणियं गते मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।। ८२ ॥ ता देवरेण पुत्तं उप्पाइत्ता करेह कुलरक्खं । मा वच्चउ तुम्हाणं धणरिद्धी रायभवणम्मि ॥ ८३ ॥ कुंतीमहासईए अन्नन्नपईहिं पुत्तउप्पत्ती । सुव्वइ ता मह वयणं पडिवज्जह मा वियप्पेह ।। ८४ ।। इय एवंविहबहुविहलोइयजुत्तीहि ताए धुत्ताए। तह कह विहु भणियाओ ताओ जहा ताहि पांडवन्नं ॥ ८५ ।। तो ताहि समं एसो विसयमुहं नेहनिव्भरमणाहिं । भुंजइ मुणिदाणज्जियपकिट्टपुन्नाणुभावेण ॥ ८६ ॥ कालक्कमेण जाया पुत्ता चउरो चउण्ह सुण्हाण । गय-चक्क-संख-सारंगलंछिया लच्छिनाह व्व ॥ ८७ ॥ अन्नोन्ननेहनिभरमणाण परिहासहरियहिययाण | बारस समइक्वंताणि ताण वरिसाणि सोक्खेण ।। ८८ ॥ सुण्हाओ सासुयाए भणियाओ इमं विडं परिचयह । जम्हा तुम्हाण पई न होइ तो बिंति इयराओ॥ ८९ ।। अंब ! इमो तुमए च्चिय विहिओ अम्हाण भवणसामित्ते । ता सुविणे वि हु एयं अम्हे न कयाइ परिहरिमो ॥ Jain Education Interational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे कृतपुण्यकाख्यानकम् २३ तो बद्धभीमभिउडीभयंकरा हक्किउं तहा भणइ । भयभीयाओ ताओ जह पडिवज्जंति तब्बयणं ॥ ९१ ॥ जति य जइ पभणसि ता अंब ! इमम्स किंपि संबलयं । काहामो तो महिमाणुमईए तं कयं ताहिं ।। ९२ ॥ रइया य सिंहकेसरयमोयगा तयणु ताण मज्झम्मि । खित्ताणि ताहिं बहुमोल्लयाणि वरविविहरयणाणि || ९३ ।। तो मोयगाण थइया भरिया मुक्का य तम्स पल्लंके । महिमाए सो पमुत्तो मुक्को तत्थेव देवउले ॥ ९४ ॥ भवियव्वयाए सत्थो समागओ जो तया गओ आसि । रयणि त्ति नो पविट्ठो पुरम्मि आवासियो बाहिं ।। ९५ ॥ सोऊण आगयं तं भत्तारपउत्तिजाणणनिमित्तं । जा तत्थ गया दइया ता नियइ तयं तहिं मुत्तं ॥ ९६ ।। कसिंगारं ददृ पहिट्टयिया समुट्टविय कंतं । घेत्तु संबलथइयं पल्लंक चिय गया सगिहं ।। ९७ ॥ कयउन्नओ वि पत्तो नियभवणं मुणिय महिमपरमत्थो । आबद्धवेणिदंडं वसंतसेणं तहिं नियइ ॥ ९८॥ सयपागपभिइतेल्लेहिं जाव अभंगिओ तओ पुत्तो । पत्तो लेयसालाओ सविणयं जणयपयपणओ ॥ ९९ ॥ जंपड़ य अंब ! मह देहि भोयणं तो वसंतसेणाए । दट्ट् असिद्धमन्नं पियथइयामोयगो दिन्नो ॥१०॥ तं भक्खंतो पुत्तो संपत्तो जाव लेहसालाए । ता मोयगम्मि दिट्ठो तेण मणी फुरियकिरिणोहो ॥ १०१ ।। तो घुटओ त्ति काऊण इयरछत्ताण दंसिओ तेण । ते बिंति मणी ता पूइयम्स हट्टे पयच्छामो॥ १०२ ।। जेण इमो अम्हाणं दिण दिणे देइ मंडयाईयं । अप्पंति तओ ते पूइयम्स सो खिवइ जलकुंडे ॥ १०३ ।। तो तम्मणिप्पभावेण कुंडनीरं खणेण पविभत्तं । नायं च पूइएणं जलकंतमणी जहा एसो ॥ १०४ ॥ संगोविय जलकंतं रयणं उचियं च देइ छत्ताण । एत्तो य कहइ कयउन्नयम्स दासी पियंगुलया ॥ १०५ ॥ सामि ! जया परिचत्तो अंबाए तुमं तओ इमं नाउं । महिमंडले गविट्टो दिट्टो न वसंतसेणाए । १०६ ॥ वेणीबंधं काऊण तयणु परिहरियसयलसिंगारा । निवसियसियवस्थजुया तुच्छासणविहियतणुवित्ती ।। १०७॥ एत्तियकालं एसा पउत्थवइयावएण तुह विरहे । तुह गेहे चेव ठिया अंसुजलोल्लियकवोलजुया ॥ १०८ ।। सोऊण तयं कयउन्नयस्स जाओ पुणो वि अणुराओ । उवभुंजइ तो दोहिं वि भजाहिं समं विसयसोक्खं ।। १०९ ॥ अह अन्नया य सेयणयसिंधुरो जाव सलिलपाणथं । सरियाए अवयरिओ ता बद्धो तंतुणा तत्थ ॥ ११०॥ पोक्करियं पुरिसेहिं तं सोउं आउलो महाराओ। विन्नत्तो अभएणं खिवह तहिं देव ! जलकंतं ।। १११ ।। कड्डिजइ जाव मणी भंडाराओ तओ गओ मरइ। तो सिग्धपावणत्थं पुरम्मि घोसाविओ पडहो । ११२ ।। हहो ! जो जलकंतेण गयवरं तंतुणा मुयावेइ । तस्स निवो नियकन्नं देइ समं अद्धरज्जेण ॥ ११३ ।। तं सोउं कंदुइओ पक्खिवइ मणी तरंगिणीमज्झे । जायं थलं च सलिलं पलाइओ तंतुजंतू वि ॥ ११४ ॥ नीहरिओ य करिंदो संतुट्ठो नियमणे नरिंदो वि । कहिओ य पूइयगओ निवस्स जलकंतवुत्तंतो॥ ११५ ॥ तं निमुणिउं नरिंदो चिंतापव्भारपूरिओ भणइ । अभय ! कहं दायच्या नियकन्ना नीयजाइस्स ? ॥ ११६ ।। विन्नवइ तओ अभओ नीयस्स न हुंति देव ! रयणाणि । तो पुच्छिज्जउ एसो उप्पत्तिं नीरकंतस्स ? ॥ ११७ ॥ रन्ना वि पुच्छिओ सो सच्चं मह कहसु रयणवुत्तंतं । भयकंपिरेण तेण वि जहट्टियं राइणो कहियं ॥ ११८॥ तो भणइ अभयमंती भवंति रयणाणि रोहणे नूणं । राया वि य कंदुइयं उचियं दाउं विसज्जेइ ।। ११९ ॥ तो हक्कारिय कय उन्नयम्स दिन्ना निवेण नियकन्ना । सह रायलच्छिअश्रूण तयणु वीवाहिया तेण ।। १२० ।। तीए सह विविहविसए उवभुंजइ रायलच्छिपरियरिओ । अह अन्नदिणे महिमाए वइयरं कहइ अभयस्स ॥ १२१ ॥ सोऊण तीए मायापवंचमभओ सविम्हओ भणइ । पेच्छ जहा धुत्तीए अम्हे वि जिया सवुद्धीए ।। १२२ ।। एवंविहमच्चभुयकर्ज काऊण वसइ एत्थेव । न वियाणिया मए वि हु अहो ! सुनिउणत्तमेयाए ।। १२३ ॥ ता वीसत्थो होऊण चिट्ट जाणामि तुज्झ दहयाओ । इय मणि कारावह देवउलं दोहिं दारेहिं ।। १२४ ।। कयउन्नयपडिरूवा पडिमा जक्खस्स तत्थ कारविया । घोसावियं च नयरे जहा सपुत्ता पुरंधीओ ॥ १२५ ।। पविसिय पुव्वदुवारेण नितु अवरेण पूइउं जक्खं । होही ताणुवसम्गो न जाउ एयं करिस्संति ॥ १२६ ।। तं सोऊण सवच्छो विलयावग्गो समागओ तत्थ । कयउन्नयदइयाओ वि पत्ताओ तहिं सपुत्ताओ॥ १२७ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आख्यानकमणिकोशे ताण तओ चत्तारि वि पुत्ता भणिऊण ताय : ताय ! त्ति । आरूढा उच्छंगे झड त्ति जखम्स पहमंता ॥ १२८ ।। तो तेऽभय-कय उन्ना एगंताओ विणिम्गया झत्ति । तं दट्टणं ताओ अवणमियमुहाओ जायाओ ॥ १२९ ।। तो अभएणं महिमा हकारिय हकिया तहा कहवि । जह चलणेसु निवडिया दोण्हं पि हु दीणमुहछाया ॥ १३० ।। इय सत्तकलत्तेहिं सहियम्स सुहाई भुंजमाणम्स । रजसिरिमणुहवंतम्स तस्स कालो अइक्कमइ ।। १३१ ॥ एत्थंतरम्मि भयवं भुवणगुरू वद्धमाणजिणनाहो । थुव्वंतो सुर-चारणनियरेण तहिं समोसरिओ॥ १३२ ॥ तो कय उन्नयराया गंतुं उज्जाणपालपुरिसेहिं । बद्धाविओ तओ ताण देह पीइप्पयाणं सो ॥ १३३ ॥ संचलिओ जयवारणमारूढो धरियधवलसिरछत्तो । सामंत-मंतिजुत्तो संपत्तो समवसरणम्मि ॥ १३ ॥ का पयाहिणतियं खोणीमंडलमिलंतभालयलो । पणमित्तु जिणं सिररइयअंजली थोउमाढत्तो ॥ १३५ ॥ जयकम्ममहावणदहणगहण दवजलण ! माणनिम्महण ? | जय करणतरंगिणिनाहमणवरमंदर ! नमो ते ।। १३६ ॥ इय संथणिण जिणं पणरवि पणमित्त सामिकमकमलं। नरनाहनियरनिम्सियसहाए गंतं समवविट्रो ॥ ३७॥ तयणंतरं जिणिदो दसणावलिकिरणधवलियदियन्तो । जलहरगंभीरसरेण देसणं काउमाढत्तो ॥ १३॥ हंहो ! संसारमहासमुद्दनिवडंतजंतुजायम्स । जिणधम्मजाणवत्तं मोत्तूण न अस्थि उत्तारो ॥ १३९ ।। धस्मेण असुर-नर-खयर-अमररिद्धीओ हुंति जंतूण । कि बहुणा ? सिवमुहमवि सत्ता पावंति धम्मेण ॥ १४० ॥ इय निसुणिऊण जिणनाहदेसणं पाणिणो भवविरत्ता । कयउन्नयनिवई वि य संविग्गो भणइ भयवंतं ॥ १४१॥ भयवं! कि मह असरिसरिद्धी भोगा य सुंदरा जाया ? | परमंतरायबहुला कारणमएसिमाइसह ॥ १४२ ॥ तो भयवया समग्गो पुत्वभवो अक्खिओ नरिंदम्स । जाव परमन्नथाले रेहाकरणा विपरिणामो ॥१४३ ॥ तो तेण खीरिदाणेण पाविया उभडा तए रिद्धी । रेहाभावखएणं जायं भोयंतरायं पि ॥ १४४ ॥ तं सोउं कयउन्नयरोया संजायजाइसरणेण । अवलोइय पुत्वभवं जह कहियं जिणवरिंदेण ॥ १४५ ॥ जंपइ जहा जिणेसर ! तुमए कहियं तहा मए दिढें । इय जंपिडं नरिंदो पणामपुव्वं पुणो भणइ ॥ १४६ ॥ नाह ! तुह पायपासे फव्वज्जमहं करेमि भवमहणिं । आउच्छिऊण सेणियनिवाइ तो पभणिओ पहुणा ॥१४७ ॥ भो भो देवाणप्पिय ! मा पडिबंधं करेज्ज तो राया। पणमित्तु सामिसालं गओ य सो नयरमज्झम्मि ॥१४८॥ आपच्छिऊण सेणियनरेसरं नियसुयाण रज्जसिरिं । सव्वं पि विभइऊणं घोसाविय अभयदाणाइ ॥१४९ ॥ परिपाउं जिणिंदे सम्माणिय चउविहं समणसंघं । आरुहि सिबियाए सकलत्तो पुत्तसंजुत्तो ॥ १५०॥ सेणियनरेसरेणं अणुगम्मतो जणेण थुव्वंतो । महया महूसवेणं समागओ समवसरणम्मि ॥ १५१ ॥ जिणचरणकमलपणओ सकलत्तो दिक्खिओ जिणिंदेणं । कयपंचमुट्टिलोओ तो उवणीओ गणहराण ॥ १५२ ।। अज्जाउ चंदणज्जाइ अप्पिया तयणु मुणियसुत्तत्थो । गीयत्थो संजाओ चरिउ अइघोरतव-चरणं ॥ १५३ ॥ काऊण कालमासे कालं संलेहणाए कयकिच्चो । परिवत्तियनवकारो उववन्नो देवलोगम्मि ॥१५४॥ ॥ कृतपुण्यकाख्यानकं समाप्तम् ॥ ६ ॥ इदानीं द्रोणाद्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् निस्सेसदेसवसुहाविहूसणे कोसलम्मि देसम्मि । सिरिउरनयरं सिंगारमंदिरं आसि लच्छीए ॥१॥ तत्थऽस्थि कलानिलओ निहणियनिम्सेसदोसतमपसरो । तारावइ ब्व तारापीडो नामेण नरनाहो ॥ २ ॥ तम्सऽस्थि कामरइकेलिकुलहरं कामघरिणिसमरुवा । सयलंतेउरसारा देवी रदमुंदरी पचरा ।। ३ ।। निवसति तत्थ चत्तारि सेट्टिपुत्ता विसिट्टगुणजुत्ता। सुधण-धणवइ-धणीसर-धणया धणरिद्धिपरिकलिया ॥ ४ ॥ अह अन्नया कयाई अम्मा-पियराणि वंचिउंचलिया। दविणाय रयणदीवे दोणभिहाणक्ककम्मयरा ॥ ५ ॥ वच्चंताणं ताणं समागया कत्थई वियडअडवी । तो तेहि तत्थ पडिमापडिवन्नो मुणिवरो दिट्टो॥६॥ हरिसाऊरियहियएहिं तयणु गुरुभत्तिनिव्भरं भणिओ। संबलयमिणं दोणय ! देहि मुणिंदम्स एयस्स ॥७॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे द्रोणाद्याख्यानकम् सो वि मुणिदाणसद्धाभत्तिभरुभिन्नभूरिरोमंचो। वियसंतवयणकमलो पडिलाहद मुणिवरमुयारं ॥ ८ ॥ पत्ता य रयणदीवं कमेण सुविढत्तभृरिधणनिवहा । तत्तो य पडिनियत्ता पत्ता नियनयरमचिरेण ॥ ९ ॥ विलसंति धणं पालंति परियणं गुरुयणं पि पूयंति । दीणाण दिति दाणं कुणंति मित्ताण सम्माणं ॥ १० ॥ ईसिसमायं धणवइ-धीसरा ववहरंति कालेणं । निययाउसमत्तीए दोणो मरि समुप्पन्नो ।। ११ ।। गयउरनयरे दुप्पसहरायणो सुंदरीए कुच्छीए । तो तीए मुहे दिट्टो सोमो मुमिणम्मि पविसंतो ।। १२ ।। दट्टण तयं सुमिणं हरिसबमुभिज्जमाणरोमंचा । उहित्त विगयनिदा सुमिणं साहेइ दइयम्स ।। १३ ।। राया वि साहइ तओ नियमइमाहप्पमुणियसुविणत्थो । कुरुजणवयनेरचंदो होही पुत्तो पिए ! तुज्झ ॥ १४ ।। एवं होउ ति पयंपिऊण संजायगरुयआणंदा । संपज्जंतसमीहियमणोरहा गन्भमुव्वहह ॥ १५ ॥ अह सा देवी पुतं पसत्थसव्वंगलवखणावयवं । पसवइ पसत्थदियहे नवमासऽद्धट्टमदिणेहिं ॥ १६ ॥ तं च पसरंतनियतणुकिरणकडप्पप्पयासियदियंतं । दटुं सहरिससंभमखलंतपयगमणसंचारा ॥ १७॥ तुरियगमवसविसंटुलरसणारणझणिरकिंकिणिकलावा । वद्धावइ नरनाहं पियंकरा दासचेडि ति ॥ १८ ॥ तव्वयणसवणसंजायपहरिसो तीए वियरइ नरिंदो। केऊर-कडय-कुंडल-कंठाहरणायलंकारं ।। १९ ॥ दाऊण कणयजीहं दासत्तं अवणिऊण सप्पणयं । तत्तो वद्धावणयं राया नयरे समाइसइ ॥२०॥ तथाहि किग्जंतविविहरक्खं संपूइज्जंतदेवयसमूहं । कप्पूरमिम्सचंदणरससिंचिज्जंतरन्छोहं ॥ २१ ॥ मुच्चंतगोत्तिवग्गं घोसाविज्जंतअभयदाणं च । दिज्जंतमहादाणं सम्माणिजंतपउरजणं ॥ २२ ॥ पविसंतपाउलगणं पउणीकिज्जंतकणयमयकलसं । उभिजंतसुतोरणमुद्दा विज्जंतविंटलियं ॥ २३ ॥ किजंतमंगलसयं परिवाइजंततूरसमुदायं । हरिसाऊरियनच्चिररमणीतुटुंतहारलयं ॥२४॥ एवं बद्धावणयं काउं सुपसत्थबारसमदिवसे । तस्स कुरुचंद नामं विहियं सुमिणाणुसारेणं ॥ २५ ॥ अणुदियहं गहियकलो वट्ठतो सह गुणेहिं तो कुमरो । तरुणियणमणभिरामं संपत्तो जोव्वणारंभं ।। २६ ॥ तं कैइविवाहकम्मं वसुंधराभारबंधुरं नाउं । पवज्जकजसज्जो रज्जे राया निवेसेइ ॥ २७॥ जाओ य महाराओ पुडुपयडपयावपत्तमाहप्पो । दरियारिमत्तमायंगकेसरी केलिकुलभवणं ॥ २८। एत्तो य वसंतपुरे सुधणो मरिउं वसंतदेवो ति । सेट्टिसुओ संजाओ संपत्तो जोव्वणं परमं ।। २९ ।। कत्तियपुरम्मि रम्मे धणओ मरिऊण कामपालो ति । उप्पन्नो सेट्टिसुओ कलाकलावेसु अइकुसलो ॥ ३० ॥ धणवइजीओ मरिउं मइरानामेण संखनयरम्मि । उप्पन्ना सेट्ठिसुया आरूढा तारतारुन्नं ॥३१॥ मरिउं धणीसरो विहु जाओ य जयंतियाए नयरीए । रूयजुया सेट्टिसुया मणोहरा केसरा नाम ॥ ३२॥ इओ य खर-करह-वसह-वाहणसणाहबहुसत्थसंजुओ पत्तो । नयरीए जयंतीए वसंतदेवो वणिजेण ॥ ३३ ॥ एत्थंतरे वसंतो संपत्तो सह अणंगवीरेण । कुव्वंतो भुवणयलं परव्वसं कुसुमबाणेहिं ॥ ३४ ॥ तथाहि कामीहिं समं कुवंति महुयरा जत्थ सुरभिमहुपाणं । अंदोलएण सद्धिं अंदोलइ पहियजणचित्तं ॥ ३५ ॥ विरहिणिसासेहिं समं सोवचया मलयमारुया जाया । सह सिंगारजणेणं साहीहिं कओ कुसुमबंधो ॥ ३६ ॥ सद्धि पउत्थ वइयादु हेहिं दियहा य वडिउंलग्गा । 'उज्जंभिओ व मयणो सह कुसुमरएण भुवणयले ॥ ३७॥ सह मिहुणसुरयकृइयसरेण कृयंति कोइलकुलाइं । उवलद्धमहुसमागमपियाहिं सह हसइ वणराई ॥ ३८ ॥ १. नहचंदो रं० । २. ०६ालिज्जंत रं० । ३. कृतविवाहकर्माणम् । ४. उज्जंभिउ व्व २० । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अन्नं च अन्नं च- आख्यानकमणिकोशे झिज्जति सह विओइ यजणेण रयणीओ अणुद्रिणं जत्थ । परितावर भुवणयलं तरणी सह कुसुमबोणेहिं ॥ ३९ ॥ सह माणिणीण माणेण विरहिणीणं गलंति वलयाई । पेसइ पियासु सह दूइयांहि हिययाणि दद्दयजणो ॥ ४० ॥ सह कुरण कामी कामिणिपरिरंभ मीहए कोइ । सह केसरेण रमणीमयरागंडूसमह अन्नो || ४१ ॥ पियपहिपहारेण अन्नो विहसेइ सह असोएण । तिलएण समं तरुणो तरुणिकडक्खेहिं विहमे ॥ ४२ ॥ सह विरहण विरही अन्नो अहिलसइ पंचमुग्गारं । सह चंपण अन्नो अन्भत्थइ सुरहिवरसलिलं ॥ ४३ ॥ कामीहिं समं एगिंदिया वि जायंति जत्थ विसयवसा । तत्थ वसंते संते पंचदीणं तु का गणणा ? ।। ४४ ।। प्यारिसे वसंते संपत्ते मयणतेरसीदिवसे । पत्तो वसंतदेवो उज्जाणे रायनंदणए ।। ४५ ।। यि तत्थ सहिययणपरिवुडा कामकेलिकुलभवणं । विहिविन्नाणपगरिसा नवजीवणमणहरा बाला || ४६ ॥ तो चिंतडं पयत्तो किं एसा कामएववरघरिणी ? । उज्जाणसिरी अहवा ? उयाहु पायालकन्न ? ति ॥ ४७ ॥ इय चिंतंतो एसो तीए वि हु दिट्टिगोयरे पडिओ । पुत्रभवभासाओ मिलिया अवरोप्परं दिट्टी ।। ४८ ।। आपुच्छिओ पियंकरनामो तप्पुवरीए वत्थच्चो । उप्पन्नमित्तभावो वसंतदेवेग का एसा ? ।। ४९ । सो भइ इह पुरीए वत्थन्वयपंचनं दिसेस्सि । धूया जयंतदेवम्स केसरा नाम लहुबहिणी ॥ ५० ॥ पारद्धो तेण तओ नेहो सद्धि जयंतदेवेण । भुंजाविओ नियगिहे जयंतदेवो सबहुमाणं ॥ ५१ ॥ ते वि वसंतदेव निमंतिओ नियगिहम्मि जा नीओ । ता पेच्छइ तं बालं रई व रहियं अगंगेण ॥ ५२ ॥ ती व इमो दिट्ठो जयंतदेवस्स पाणिपउमाओ । वरसुरहिकुसुममालं गिव्हंतो कुसुमबाणो व्व ॥ ५३ ॥ अवरोप्परं पि दोहि वि जगेहि नियहिययपेसणसणाहा । पट्टविया नियदिट्टी दुइ व्व समागमनिमित्तं ॥ ५४ ॥ अन्नोन्ननयणजुयलाचलोयणुप्पन्ननेहसारेण । ते के चि ताण जाया भावा जे ते च्चिय मुति ॥ ५५ ॥ हिययन्भं तर घोलंतनेहभरमंथरेहिं नयणेहिं । ताणऽन्नोन्नपलोयणपराण जायं अणिमित्तं ।। ५६ ।। तत्तो पियंकराए धाई धूयाए ताण अन्नोन्नं । नवनेहनिव्भरालसदिट्टिप्पसरं पलोएडं ॥ ५७ ॥ भणिया एसा सामिणि ! जुत्तं तुज्झ वि इमस्स सम्माणं। काउं तओ पप तप्पुरओ केसरा एवं ।। ५८ ।। तं चैव जहाजुत्तं जाणसि भणिए समप्पए सा वि । सह कक्कोलफलेहिं पियंगुतरुमंजरी तस्स || ५९ ॥ भणियं च तीए गंतुं पट्टविया मज्झ सामिणीए इमा । सह कक्वोलफलेहिं पियंगुतरुमंजरी तुज्झ ॥ ६० ॥ 1 धिज्जमवलंबिरीए गुरुयणपुरओ तुमम्मि वोलीणे । पडिओ से अच्छिनिमीलणेण परिपीडिओ बाहो || ६१ ॥ कम्स भरसित्ति ? भणिए को मे अस्थि ? त्ति जंपमाणीए । 'उच्चिचिररुइरीए अम्हे वि स्याविया तीए ।। ६२ ॥ रुइरीए रुयावियपरियणाए तुह सुहय । पेसविज्जंतो । न समप्पइ ओसरसुंभिएहिं लहुओ वि संदेसो ॥ ६३॥ गिहित्तु तयं तेण वि समप्पियं तीए मुद्दियारयणं । भणियं नेहेण जहा पियाणुरुवं वियभ्वं ॥ ६४ ॥ एवं च पणयपुव्वं पडिवज्जिय पडिगया गिहे तत्तो । साहेइ केसराए तं सोउ सा विपरितुट्टा ।। ६५ ।। तत्तो वसंतदेवो उबूढो केसराए सुविणम्मि । तेण वि सा परिणीया रयणीए अह पभायम्मि || ६६ || कहिओ पियंकराए नियसुविणो केसराए तुट्टाए । तम्मि समयम्मि केण भणियं एवं इमं होही ॥ ६७ ॥ तं निणि परंपर पियंकरा निच्छरण तुह होही । भत्ता वसंतदेवो ता बंधसु उणगाट ति ।। ६८ ।। तत्तो पियंकराए वसंतदेवम्स साहिओ सुमिणो । सो परितुट्ठो चिंतइ संवाई सुमिणगी एमो ॥ ६९ ॥ सम्माणिया समाणी पियंकरा तेण जंपए एवं । बंधित्तु सउणगंठिं समप्पिओ तीए तुह अप्पा ॥ ७० ॥ १. बाणेण रं । २. उब्बिविर - उद्विग्न | For Private Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जओ - २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे द्रोणाद्याख्यानकम् एवमवरोप्परं पहु पउत्ति संपायण पद्रियहं । अक्कमइ कोइ कालो ता निर्माणह तत्थ जं जायं ॥ ७१ ॥ गंभीरतूरघोस ते पंचनंदिगेहम्मि । सवियक्केणं दासी पट्टचिया तप्पउत्तिकए ॥ ७२ ॥ नाउं समागया सा साहइ जह अज्ज वरणयं जायं । दिन्ना कन्ना कन्न उजवासिवरदत्तसेट्टिस्स ॥ ७३ ॥ जायं वद्धावणयं वज्जिरवरतूरबहिरियदियंतं । गिज्जंतमंगलसरं सिंगारियवालियासत्थं ॥ ७४ ॥ करकलियअक्खवत्तयपविसिरचरनारिनियर रमणीयं । निस्सरिरपवरकुंकुमदिन्नमुहालेवरमणियणं ॥ ७५ ॥ तं सोउं सो पडिओ मुच्छाविहलंघलो धरणिवीढे । सीयलजलेण सित्तों सचेयणो चितए एवं ॥ ७६ ॥ तग्गय ! तयागुरत्तय ! तम्सुक्कंटलय ! तभ्गुणदृहत्त ! | तब्बिरवज्जनिहणिय ! हियय । तए किह विणोइस्सं ? ॥७७॥৷ अच्छीणि ताव तं पेच्छिराइ रोयंतु अहब फुट्ट तु । हियय ! तए किं विहियं जमवत्थं वहसि मरणसमं ? ॥ ७८ ॥ हे हियय ! जइ नसक्का तं मोत्तु ता ममं परिच्चयसु । वारियवामेण तए सद्धि को मज्झ वावारो ? ॥ ७९ ॥ हियय ! निहुयं किलम्ममु निच्चं चिय खिज्जवेसु अत्ताणं । परवसजणाणुलगिर ! बहुयं खु तए सहेयवं ॥ ८० ॥ रे हियय ! किं विसूरसि ? किं तम्मसि ? किं खु भग्ग ! कलमलसि ? | दुल्लहलंभम्मि जणे अणुबंधे एरिसं होइ ॥ ८१ ॥ हा हियय ! निरंतरनेहपेसले माणुसम्मि चोलीणे । कह विसहिसि विरहुप्पन्न दुक्खकरवत्तकप्परणं ? || ८२ ॥ दुक्खेमु जड़ बिराओ जड़ राओ सोक्खजीवियन्वम्मि । तुह हियय ! हियं भणिमो तम्मि जण मुयमु पडिबंधं ॥ ८३॥ इय सो वसंतदेवो झूरंतो जाव चिट्टए तत्थ । एत्थंतरम्मि पत्ता पियंकरा पेसिया तीए ॥ ८४ ॥ सत्थीकाऊ तयं साहइ सा तीए तम्स संदेसं । खिज्जेयव्वं न तए जायं जं वरणयं मज्झ || ८५ || वाणुराय विसरिसमणुचिट्टिस् न नाह ! मरणे वि । किंतु मह चित्तभावं न य जाणइ गुरुयणो जेण ॥ ८६ ॥ वज्जित तुमं भत्ता नन्नो मह होइ इह भवे नाह ! । जइ एयमन्नहा कह वि होइ पविसेभि ता जलणे ॥ ८७ ॥ तं सोउं सो हरिसिय हियओ एवं पयंपिउं लग्गो । एस गई अम्हाण वि भणिऊणं तं विसज्जेह ॥ ८८ ॥ एवं च ताण पइदिणसमागमोवा यदिन्नहिययाण । जा जाइ कोइ कालो ता पत्ता तत्थ जन्नत्ता ॥ ८९ ॥ तत्तो वसंतदेवो वीवाहं सुणित्त दुक्खत्तो । नयराओ नीहरिओ उज्जाणगओ विचिंतेइ ॥ ९० ॥ अन्यथैव विचिन्त्यन्ते पुरुषेण मनोरथाः । देवा [दा] हितसद्भावाः कार्याणां गतयोऽन्यथा ।। ९९ ।। ता पेच्छ केरिसमिणं संजोयं कम्मपरिणइवसेण ? | मह दंसिऊण दइया दइवेणुद्दालिया जेण ॥ ९२ ॥ अवरं च पुचपडिवन्नभावओ तीए जा न अमणुन्नं । आयन्नेमि सयं चिय ता मह् मरणं हवउ सरणं ॥ ९३ ॥ इय चिंतिऊण उबंधिऊण अप्पा असोयसाहाए । जा मुक्को ता भमियं अजसेण समं दिसाचकं ॥ ९४ ॥ लोणजुयलेण समं निमीलियं तम्स सयलभुवणयलं । रुद्धो गलसरणिपहो सद्धिं सिव-सम्गमम्गेण ॥ ९५ ॥ एत्थंतरम्मि मा साहसं ति मा साहसं ति भणिरेण । उल्ललिऊणं केणइ छिन्नो छुरियाए तप्पासो ॥ ९६ ॥ वत्थंचलानिलेणं सत्थीकाउं पयंपए एसो । भद्द ! तए किं विहियं जं जुत्तं विलयवम्गस्स ? ॥ ९७ ॥ अलमेत्थ मह कहाए सुपुरिस ! सप्पुरिसकयविरायाए । गुरुदुक्खजलणजाला कलावकचलणसरूवाए ॥ ९८ ॥ भणियं पुणो वि तेणं जइ एवं भद्द ! तह वि मह कहसु । विनायत स्सरूवो जेण उवायं विचितेमि ॥ ९९ ॥ कहिओ वसंतदेवेण तम्स उवयाररंजियमणेण । सव्वो वि केसराए वृत्ततो भगह तो इयरो ॥ १०० ॥ अन्थि उवाओ तुह जेण होइ निच्चं पि दंसणं तीए । मज्झ अहन्नस्स पुणो न उवाओ दंसणं नेय ॥ १०१ ॥ न परिचयामि पाणे तह वि अहं जेण पावए भद्दं । जीवंतो एत्थ नरो केइया वि जओ इमं भणियं ॥ १०२ ॥ सत्या लोकश्रुतिरियं जीवन् भद्राणि पश्यति । वासुदेवसहायोऽपि यो मृतो मृत एव सः ॥ १०३ ॥ १. संजायइ कम्म० रं० । २. कयाइ वि रं० । For Private Personal Use Only २७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आख्यानकमणिकोशे जंपइ वसंतदेवो दुक्खं तुह केरिसं कह व जायं ?। को य तुमं ? इय भणिए भणइ तओ सो वि निमुणेमु ॥ १०४ ॥ कत्तियपुरवत्थव्यो इन्भमुओ कामपालनामो हं । जोव्वणमयउम्मत्तो विणिग्गओ देसियालीए ॥१०५॥ पत्तो य संखनयरे तत्थ तया संख[ ग्रं० १०००पालजक्खम्स । जत्तानिरूवणत्थं विणिग्गओ सयलपुग्लोओ।। १०६ । अहयं पि तत्थ पत्तो कीलारसनिन्भरे अह पयट्टे । सहयारतस्तलम्मि दिट्ठा बाला मए एक्का ॥ १०७ ॥ जाव निरिक्खेमि तयं ताव य रहसरिसरूयभंतीए । ईसाइ व मयणेणं विद्धो हिययम्मि बाणेहिं ॥ १०८ ॥ दट्टण ममं सा वि हु नवनेहुक्कंठिया सहत्थेण । जा पेसइ तंबोलं हलबोलो ता समुच्छलिओ ॥ १०९ ॥ एत्थंतरम्मि तीए पलाइयं सहियणेण सा कह वि । जाव न सकइ गंतुं संपत्तो ताव मत्तकरी ॥ ११० ॥ गयपयडो वररयणो निरंकुसो पवरपउमकयसोहो । भम्गवरमत्तवारणवावारो पवरआरक्खो ।। १११ अप्पडियारो भृसासमन्निओ नियनियडमाहप्पो | एवंविहगुणजुत्तो दुहा वि सम्वत्थ बत्तब्यो । ११२ ॥ तो सुंडादंडेणं जा किर तं गिहए पलवमाणि । दढमुट्टिपहारेणं पहओ पट्टीए ताव मए ॥ ११३ ॥ तत्तो तं मोत्तणं वलिओ मह सम्मुहो करी तुरियं । तं वंचिऊण नियदवखयाए गहिया मए कन्ना ॥ ११४ ॥ अइनेहनिम्भरणं भयभीया किर करिंदरक्खदा । परिरंभिऊण गाढं नीया निरुवहवे ठाणे ॥ ११५ ॥ मुक्का अमुचमाणी हियएणं परियणम्मि पत्तम्मि । बहुमनिओ य तेणं जीवियदाणेण कन्नाए ॥ ११६ ॥ एत्यंतरम्मि वंतरपओगओ वरिसिउं समाढत्तो । सम्मुच्छिमसप्पेहिं अकालमेहो महाघोरो ॥ ११७ ॥ लग्गो पलाइउं तो लोगो कथइ कहिं पिसत्थो वि । सा वि हु कहं पि नट्ठा न मए दिट्ठा अहन्नेणं ।। ११८ ॥ अप्पत्ततप्पउत्ती य हिंडिओ पुरवरीए सयलाए । तम्मोहमोहियमई संपत्तो मित्त ! इहई ति ॥ ११९ ॥ तं सोऊणं भणिओ वसंतदेवण मित्त ! जइ एवं । ता साहेसु उवायं तो जंपइ कामपालो वि ॥ १२० ।। नाओ मए उवाओ देसायारो सुओ इमो एत्थ । पविसित्तु कामदेवस्स मंदिरं ढकिउं दारं ॥ १२१ ।। लग्गदिणे पढमं चिय नववहुपाओग्गविहियसिंगारा । एगागिणी निसाए पूएइ बहु मयणपडिमं ॥ १२२ ।। ता अम्हे पढम चिय लम्गदिणे कामएचभवणम्मि । चिट्टिम्सामो पविसिय पुरओ सव्वं भलिम्सामि ।। १२३ ।। तो आवासे गंतुं दो वि हु भुंजंति मज्जणं काउं। जाओ महासिणेहो पुव्वभवन्भासओ ताण ।। १२४ ॥ तत्तो वसंतदेवो सत्थं मोक्कल्लिऊण नियनयरे । तो बीयदिणे बालं आगच्छंतं मुणेऊण || १२५ ॥ कयउभडसिंगारा दोन्नि वि कामस्स मंदिरं गंतुं । कामस्स पिट्टिभाए तिरोहिया जाव चिटुंति ॥ १२६ ।। ता केसरा वि पत्ता मोत्तु सिबियं सपरियणं दारे । गहियपूओवयारा दारं पिहिऊण मज्झम्मि ॥ १२७॥ पूइत्त तो पयंपइ अणंगमेगागिणी सबहुमाणं । किं भयवं ! रइवल्लह ! मज्झ तए ववसियं एयं ? ॥ १२८ ॥ अवरं च बाल कालाओ पूइओ तं मए सुभत्तीए । ता कीस तए अहयं विडंबिया इयरदइएण ? ।। १२९ ।। मोत्तु वसंतदेवं दइयं भयवं ! तमेव जाणासि । अन्नो न मज्झ सुविणे वि माणसे वसइ मणयं पि ॥ १३०॥ ता सामिसाल ! सुगहियनाम मुत्त वसंतदेवपइं । जम्मंतरे वि अन्नं दइयं मा देज्ज इय भणिउं ।। १३१ ॥ उत्तरिएणुबंधइ तत्तो तत्तोरणम्मि अप्पाणं । जा मेल्लइ ता पत्तो वसंतदेवो पयंपंतो ।। १३२ ॥ मा साहसं ति गाढं परिरंभिय वामबाहुदंडेण । इयरेण तओ सहसा छिन्नो छुरियाए तप्पासो ॥ १३३ ।। तत्तो मोत्तुं भूमीए वीइया अंचलेण वत्थम्स । उवलद्धचेयणा सा चिंतइ सो एस साणंदा ।। १३४ ॥ कत्तो संभवइ इहं सविसाया एगगो ? त्ति तरलच्छी । रुवेणऽहिओ एसो मं परिणेही ? नवा ? सभया ।। १३५ ॥ नायमणेणं उबंधणाइ मम चेट्टियं ति सचिलखा । मुच्छाविवसविसंटुलदेहावयव त्ति कयलज्जा ।। १३६॥ । इय एवंविहपाउनुभवंतरसहरियहिययवावारा । भणिया वसंतदेवेण केसरा केसरमणीया ।। १३७ ।। सो हं वसंतदेवो सुंदरि ! किं एत्थ विविह चिंताए ? । तुह हरणत्थं पुवं पि आगओ कामभवणम्मि ।। १३८ ॥ १. रूवभंतीए रं०। २. सब्बो बि २०। ३. सुमिणे रं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे द्रोणाद्याख्यानकम् १४० ॥ तत्तोय कामदेवं सखि काऊण कामपालेग । कारवियं परिणयणं वसंतदेवम्स सह तीए ।। १३९ ॥ भणिया य कामपाले केसरा ! गिण्ह मह अलंकारे । जेणाहं तुह वेसं घेत्तं गच्छामि तुह् भवणं ॥ एत्तो पाइयचं तुभेहिं अहं तु इह भलिम्सामि । नवपरिणिएहिं भणियं एवं होही तुह अणत्थो ॥ १४१ ॥ एत्थंतरम्मि केणइ छड त्ति छीयम्मि कामपालो वि । जंपइ न मज्झ चिंता तुम्भेहिं खणं पि कायव्वा ॥ १४२ ॥ जम्हा छीयासणी सणो मह कहइ तत्थ पियलाभं । एवं ति पभणिऊणं तं सव्वमणुट्टियं तेहिं ॥ १४३ ॥ काऊ कामपाल कामिणिवेसं विसालनीरंगिं । नीहरिय मंदिराओ आरुहिउं पवरसिबियाए ।। १४४ ॥ वज्वंतस जलजलह रगभीरजयतूरपूरियदियंतो । पत्तो गिहम्मि तत्तो उवविट्टो परपल्लंके ।। १४५ ॥ संखउराओ एत्थंतरम्मि तम्माउभाउणो धूया । तरुणमणुम्मायकरी महरा मइर व्व संपत्ता ।। १४६ ।। गं तूण तओ एसा उवविट्टा कामपालपलंके । पभणइ बहिणि ! मए तुह निम्युओ निस्सेसवुतो ।। १४७ ॥ संखउरमागयाए सयासओ तुह सहीए कमलाए । जह केसराए गरुओ वसंतदेवम्मि अणुराओ ।। १४८ ।। सो तुझ विहिवसेणं संजाओ जइ वि अन्नहा इहि । तह वि हु गुरुयणवयणाणुवत्तणे नियमणं कुणसु ।। १४९ ।। जम्हा जं जेण जया पावेयां सुहं व दुक्खं वा । सो पुव्यकम्मपरिणइवसेण पावेइ तं नियमा ।। १५० ।। अणुरुवरू- जोवण-संपय विन्नाण-नाणविसएसु । जायइ जए पवित्ती परम्मुहा हयपयावणो || १५१ ॥ इय जंपिऊण नियपियसंभरणसमुच्छलंतगुरुसोया । मोत्तु मुणालदीहरनिस्सासं भणइ पुण महरा || १५२ ।। जत्ताए पवित्ताएं संखउरे संखवालजक्खस्स । कमणीयकामपाले अणुराओ मज्झ संजाओ ।। १५३ ।। तम्मि विकाराए परोप्परं पेसियम्मि तंबोले । हलबोलो संजाओ संपत्तो तत्थ मत्तकरी ॥ १५४ ॥ नो समग्गलोगो गइंदभयकंपिरा अहं तेण । आलिंगिऊण गाढं नीया निरुवद्दवे ठाणे ।। १५५ ॥ कयसम्माणो मह गुरुयणेण जा तत्थ चिट्टए ताव । वुट्टो अकालदारुणचिसहरनियरेहिं नीरधरो ।। १५६ ॥ नियपणे घेत्तृणं नट्टो लोगो भुयंगभयभीओ । सुइरं निरिक्खिओ वि हु तप्पभिड़ न सो कहिं दिट्टो || १५७ ॥ तयतरं च विहिणा तेण समं दंसणं पि मह हरियं । जलबिंबं पि तरंगा हरंति अहवा रहंगस्स ।। १५८ ।। तं सोड नीरंगी अवणीया ज्झत्ति कामपालेण । कहमेसो सो ? त्ति ससंभमाए न हु जंपियमिमीए ।। १५९ ।। तो नियकरकमलेणं घेत्तूणं पाणिपल्लवं तीए । भणियं तेण न एसो लज्जाकालो कुरंगच्छि ! ॥ १६० ।। ता लज्जं मोत्तणं निग्गमणोवायमेत्थ चितेहि । जेण लहुं गच्छामो वीवाहक्खित्त सयलजणे ।। १६१ ।। 1 अवरं च केसरा वियमिलिया दइयस्स इय पओगेण । तो हरि सियहिययाए मइराए 'पयंपिगं एवं ।। १६२ ।। काउ' सरीरचिताaari नियअसोगवणियाए । दारेण पगच्छामो तो तेहिं कयं तह च्चेव ॥ १६३ ॥ तत्तो वसंतदेवस्स गयउरे ताणि तत्थ मिलियाणि । इय चत्तारि वि नेहेण तत्थ भुंजंति विसयसुहं ॥ १६४ ॥ नायं अम्मा-पियरेहिं केसरा जह वसंतदेवेण । उच्वूढा मइरा वि य ससिणेहं कामपालेण ।। १६५ ।। तो संतुट्ठाइं मणम्मि ताइं अणुरुववरनिओगेण । एत्तो वसंतदेवाइएहिं दविणं बहु विद्वत्तं ।। १६६ ।। उत्तुंगतोरणा गिहाणि काराविऊण नियगाणि । तत्थाऽऽणियाणि अम्मा-पियराणि सिणेहसारेहिं ॥ १६७ ॥ रन्नो य तत्थ कोसल्लियाणि दुक्कंति पंचसंखाए। नवरं कुओ वि न सयं परिभुंजइ ताणमेगं पि ॥ १६८ ॥ मिलियाण ताण तेणं तेसिं परिभाइउं चउण्हं पि । उवभुत्ताणि सहरिसं सिणेहसारं समग्गेहि ॥ १६९ ॥ जाओ महासिणेहो जम्मंतर नेहसंगइवसेणं । कुरुचंद्रराइणा सह तेसिं कालो अइक्कमइ ।। १७० ।। एत्थंतरे सुरासुर - खेर-नरनियरनमियकमकमलो । तन्नयरवरुज्जाणे समोसढो संतिजिणनाहो ॥ १७१ ॥ वद्धाविओ नरिंदो तत्तो उज्जाणपालपुरिसेहिं । दाऊण पारितोसि यद्वाणं तो ताण नरनाहो ॥ १७२ ॥ आरुहिय पट्टत्थि निस्सेसन रिंदनियर परियरिओ । सर्द्धि वसंतदेवाइएहिं पत्तो समवसरणे ॥ १७३ ॥ १. जंपियं रं० । For Private Personal Use Only २९ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे । कयपंचविहाभिगमो विरइयतिपयाहिणी पणय चलणो । सिरिसंतिसमासरण उवविठ्ठो उचियठाणम्मि ।। १७४ ।। भयवं पि सजलजलहरगंभीरसरेण दसणं कुणइ । तो अबसरम्मि राया पुच्छइ पणमित्तु जिणनाहं ॥ १७५ ॥ भयवं : किं अम्हाणं पंचण्ह वि एरिसा महापीई ? । तो भयवया वि कहिओ पुब्वभवो ताण सम्बो वि ॥ १७६ ॥ जह तुन्भे पुब्वभवे परोप्परं नेहनिभरा आसि । सुधण-धणवइ-धीसर-धणया तह दोणकम्मयरो ॥ १७७॥ मुणिदाणेणं दोणो नन्दि ! पुहईसरो तुम जाओ । तद्दाणेणं भोया एयाण वि एरिसा जाया ॥१७८ ॥ इच्चाइ नियुणिऊणं अवलोपऊण जाइसरणेण । पुवभवं सव्वे वि हु वेरग्गगया गया सगिहं ॥ १७९॥ नियरायलच्छिभारे कुमारमभिसिंचिऊण नरनाहो । इयरे वि नियसुएसुं कुडुंबभारं समप्पेउं ॥ १८० ॥ सकलत्ता निक्खंता तिन्नि वि सिरिसंतिनाहपासम्मि । समहिन्जियसुत्त-ऽत्था काउं घोरं तवचरणं ।। १८१ ।। नियघणघाइकम्मा उप्पाडेऊण केवलं नाणं । पडिबोहिऊण भविए संपत्ता सासयं ठाणं ॥ १८२ ॥ ॥ द्रोणाद्याख्यानकं समाप्तम् ॥ ७॥ इदानीं शालिभद्राख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् --- सालीणजणमिद्धे सालिग्गामम्मि आसि कुलपुत्तो। आबालकालदालिद्ददुक्खिओ कुणइ ओलम्गं ॥ १ ॥ धन्ना य तम्स भज्जा तेसिं संगमयनामओ पुत्तो। अह अन्नया य तीए भत्ता भवियव्वयाए मओ ॥ २॥ सा परगिहेसु कम्मं काऊगं कुणइ निययनित्थारं । संगमओ पुण चारइ सग्गामे वच्छरुवाई ॥ ३ ॥ सो अन्नया वणम्मी दट्ट उस्सग्गसंठियं साहुं । भत्तीए पणमिऊणं खणमेक्कं पज्जुवासेइ ॥ ४ ॥ पइदिणपणामपडिहयपावप्पसरस्स तस्स गच्छंति । दिवसा णि मुणीसरचरणकमलसेवाभिरत्तम्स ।। ५ ॥ परमूसवम्मि कम्मि वि विहिया अह तत्थ पइगिह खीरी । दटठूण तयं सो भणइ अंब ! मह देसु परमन्नं ॥ ६ ॥ उप्पन्नमन्नुभारा मुयराहाडि सुणित्तु सा रुयइ । दटठूण तयं आसन्नभवणमहिलाओ मिलियाओ ।। ७॥ संपुच्छिया य ताहि भद्दे ! किं रुयसि ? तीए तो कहियं । अमुणियनियभवणधणो मह पुत्तो मम्गए खीरं ॥ ८ ॥ तं निसुणिऊण संजायगरुयकरुणारसाहिं रमणीहिं । दुद्ध-घय-सालि सक्करउवगरणं तीए उवणीयं ।। ९ ।। तो तीए कया खीरी थालं भरियं च निययपुत्तम्स । घय-सकरासमेयं जा एसो भुंजिउं लग्गो ॥ १० ॥ ता पउरपुवपुन्नेण मुणिवरो मासखवणपारणए । धरणियलनिहियनयणो गिहंगणं तम्स अल्लीणो ॥ ११ ॥ दट्टण तयं उन्भूयभत्तिरोमंचअंचियसरीरो । उट्टित्तु तं नमसइ महिमंडललुलियभालयलो ॥ १२ ॥ उप्पाडिऊण थालं उच्छलियाखंडपरमपरिणामो। वियरइ परमन्नमसेसयं पि साहुस्स परितुट्ठो ।। १३ ।। दव्वाइविसुद्धिं भाविऊण धम्मन्तरायभयभीरू । घेत्तण मुणिवरिंदो तओ गओ गामउज्जाणे ॥ १४ ॥ उत्तमपत्तविसेसियतिकालवुट्ठीविसिठ्ठदाणेण । बंधइ सुकुलुप्पत्तीपुन्नं सुहभोगकम्मं च ॥ १५ ॥ आकंठं तो पच्छा खीरी घेत्तण भुंजिओ एसो । रयणी विसूइयाए सुहपरिणामेण कालगओ ॥ १६ ॥ रायगिहे उववन्नो महिन्भगोभद्दसेट्ठिभजाए । भद्दाए कुक्खिकुहरम्मि सूइओ सालिसुमिणेण ॥ १७ ॥ तीए पचड्डइ गम्भो अत्थोवजणनिमित्तमिभो वि । संचलिओ परतीरे भिन्नं जंतस्स बोहित्थं ॥१८॥ मणि-कणग-रयणरासिं मज्जंतं पेच्छिऊण जलहिम्मि । बहुविहविसायजुत्तो संपत्तो सो वि पंचतं ॥१९॥ एत्तो य सुओ जाओ भद्दाए तस्स मुविणए साली । जं दिट्टो तं विहियं नामं से सालिभद्दो त्ति ॥ २० ॥ एत्थंतरम्मि सोऊण निययदइयस्स उवरमं भद्दा । संजायगरुयसोया अक्कंदद करुणसद्देण ॥२१॥ हा हा पिययम ! एत्तियधणेण तुह आसि किं न पजत्तं ?। जं दविणज्जणकज्जे गंतूणं निहणिओ अप्पा ॥ २२ ॥ हा हा हयास ! निकरुण : देव्व ! विहियं किमरिसं तुमए ? । दाऊण मज्झ पुत्तं जमेवमुद्दालिओ दइओ ॥ २३ ॥ हा हा गुणरयणायर ! हा हा हा दीणजणसमुद्धरण ! । हा हिययदइय ! पिययम ! पुणो वि तं कत्थ दीसिहसि?॥२४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे शालिभद्राख्यानकम् इय एवं विलवंती भद्दा नियसयण मित्तलोएण | कहकहमवि संटविया जाया कालेग अवसोया ॥ २५ ॥ जाओ य सालिभद्दो कमेण जोग्गो कलाकलावम्स । उवझायस्वणीओ धणियं जाओ कलाकुसलो ॥ २६ ॥ पत्तोय हरिणनयणीमणहरणं जोव्वणं क्रमेण इमो । सोहा रूय-लायन्नसंजुओ सव्वजणइट्टो || २७ ॥ सरदक्खिन नही करुणारससायरो महुरवाणी । परउवयारेक्करओ किं बहुगा ? सयलगुणकलिओ ॥ २८ ॥ घणकसिणकुडिलको मलकेसकलावाओ हरिणनयणीओ । नवप उमरायरत्ताहराओ छणचंदवयणाओं ॥ २९ ॥ मणहरसिद्धि पीवरपओहराओ तरंगतिवलीओ | गंभीरनाहिकुवाओ गिरिसिलापिनियंत्राओ ॥ ३० ॥ कंकेल्लिकिसलयारुणपाणीओ करेणुकरसमोरूओ । नवकमलकोमलारुणचरणाओ करेणुगमणाओ || ३१ ॥ आरूढपढम जोव्वणकंतिकडक्खियसुरिंद्र्घरिणीओ । उत्तमकुलुभवाओ बत्ती इभकन्नाओं ॥ २२ ॥ एगदिवसम्म तेणं परिणीयाओ महाविभूईए । नच्चिरवारविलासिणिजय जयस्वमणहरसरेण ॥ ३३ ॥ गोभद्दो विहु जाओ तड़या मरिडं सुरो भवगवासी । अवहिं परंजमाणो सकलत्तं नियइ नियपुत्तं ॥ ३४ ॥ मुणिदाण समयसज्जियपुन्नेणाऽऽगरिसिओ समागंतुं । विरह सत्तभूमियपासायं सालिभस्स || ३५ ॥ सुरवरविमाणरुहरं विचित्तमणिमत्तवारणाइन्नं । अवरं च तम्स परिसरधराए सव्वत्वणसं || ३६ || सिसिर जलजंतवाहय पुत्तलिया विलसिरं पवरवाचिं । जलअंदोलयकीला निमित्त मेयम्स चिरइ || ३७ || नवणीयमसिणबत्तीस तूलिय (कलियपवरपल्लंकं । सयणनिमित्तं उणे सुखरो सालिमदम्स || ३८ ॥ केऊर-हार-कंकण-रसणा-मंजीरपभिइ आभरणं । वत्थंगराग तंबोल- पुप्फपमुहं च भोगंगं ।। ३९ ।। पइवासरं पि अमरो देइ सभज्जम्स सालिभद्दम्स । सो वि हुतभोगसुही गवं पि कालं न याणे ॥ ४० ॥ सव्वं गिवावारं चिंतइ भद्दा अहन्नया वणिया । घेतु कंबलरयणाणि आगया लक्खमोल्लाणि ॥ ४१ ॥ जाव ने इ को विगिण्हइ ताणि महग्घत्तणेण नयरजणो । ता अत्थाणे गंतुं सेणियरायस्स दरिसंति ॥ ४२ ॥ मोल्लं पुच्छइ राया ते वि पयंपंति लक्खमोल्लाणि । आह निवो न हु कज्जं एएहिं महग्घमोल्लेहिं ॥ ४३ ॥ संजायचहुविसायानीहरिया ते नरिंद्रभवणाओ । रिद्धिं सुणित्तु पत्ता पासाए सालिभद्दस्स ॥ ४४ ॥ I भद्दाए तओ अवलोइ ऊण गहियाणि कहियमोल्लेण । वणिणो वि हिट्टहियया सव्वे वि गया नियाबासे || १५ || कम्बलरयणसरूवं मुणिउं चिन्नवइ चेणानिवई । पिययम ! किं मज्झ कए न तए एक्कं पि संगहियं ? ।। ४६ ।। एरिसरिद्धिजयम्स वि चिट्टा किं एरिसी तुह नरिंद ! | अहवा न तुज्झ भावइ मह दिन्नं उत्तमं वत्युं ॥ ४७ ॥ अवरं च तुज्झ कित्तिं सुणिऊण इहं समागया वणिणो । एवं नु ताण पुरओ देसेमु वि लहुइओ अप्पा ॥ ४८ ॥ जइ तुह न अत्थि दविणं ता गिण्हसु मज्झ रयणमालाए । कंबलरयणं ताण वि पुज्जउ आसा वरायाण ।। ४९ ।। जाहेवमुवालद्धो राया दइयाए तयणु वाणियए । मग्गइ तो ते वि कहंति देव ! भद्दाए गहियाणि ॥ ५० ॥ तं नियुणिऊण देवी सुट्टयरं कोचमुचगया भणड् । वाणिगिणीए समं पि य न अस्थि सत्तं तुह नरिंद ! ? ॥ ५१ ॥ तो भूवणा भद्दा भणाविया देहि मज्झ मोल्लेण । संपइ संगहियाणं कंबलरयणाणमेगं ति ॥ ५२ ॥ ती पडिणियमेयं नरिंद ! नियपुत्तसालिभद्दम्स । बत्तीसभारियाणं विहिया पयलूणा तेहिं ।। ५३ ।। गिहउ चिरंतणाई देवोऽणुम्गहउ मं विणा मोल्लं । नियुणित्तु निवो पुच्छइ अभयं को सालिभद्दवणी ? || ५४ ॥ तेणावि अमरनिम्मियपासायप्पभिइ सव्वमक्खायं । तो विम्हिओ नरिंदो तच्चरिएणं विचिंतेइ ॥ ५५ ॥ अहमेव इह कयत्थो जस्स पुरे संति एरिसा वणिणो । इय चिंतिऊण संजायको उहल्लेण नरवइणा ।। ५६ ।। भद्दाए समाइसियं संपेस सालिभद्द नियपुत्तं । रायभवणम्मि जेणं हरिसेण अहं पलोएमि ॥ ५७ ॥ भिणियं भद्दा मज्झ सुओ सिरिसकुसुमसुकुमालो । ससि-सूरे वि न पेच्छइ निगच्छर न हु गिहाओ बहिं ॥ ५८ ॥ ताकि तुम्ह सासे मज्झ सुओ सामि ! कुणउ आगमणं ? । इय नाउं नरनाहो मा अपसायं कुणउ अम्ह ॥ ५९ ॥ न उ कोइ गिव्हइ रं० । ३१ For Private Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे तो भूवडणा भणियं तत्थेव अहं समागमिम्सामि । तुह सालिभददंसणसमुम्सुओ आह तो भद्दा ॥ ६०॥ एसो महापसाओ अमिहाऽऽगमणे समुम्मओ सामी। किंतु विलंबउ कइय वि दिवसे ज हामि पउणा हं॥६१ ।। अणुमन्निआ नरिंदेण रायभवणाओ जाव नियभवणं । सम्मज्जिऊण पडमंडवहिं संछाइओ मग्गो ॥ ६२॥ कथइ डझंतागरुघडिमुहरग्गिन्नधूमपडलेहिं । अंधारियं नहयलं जलहरसोहं समुन्यहइ ।। ६३ ॥ कत्थइ तलियातोरणमालानवतरणिकिरिणसंवलिया। रेहद पलयसमुग्गयदिणयरसेणि व्व दुप्पेच्छा ॥ ६४ ॥ कत्थइ मोत्तियहारावलीण किरिणावलि पलोयंता । ससिजोन्ह पाणलोला हिंडंति य चउरनिउबा ॥६५॥ गिहमवि भद्दाए कयं कमणीयं दारतोरणतिएण। आबद्धरयणमालाकिरिणावलिरंजियदियंतं ।। ६६ ।। जाणाविओ नरिंदो सेयणयमहागइंदमारूढो । संचलिओ बहुकुंकुमकद्दमिलपहं पलोयंतो ॥ ६७ ।। ठाणट्टाणविलासिणीविरइयवरपेच्छणाणि पेच्छंतो। भद्दाभवणे गंतुं उवविट्टो चंदणचउक्के ॥ ६८ ॥ हरिसियहियया भद्दा मुत्ताहल-वत्थ-रयणरासीओ। उवणेइ रायपुरओ गिन्हइ न हु किं पि नरनाहो ॥ ६९ ॥ जंपइ पुत्तं दंससु पभणइ गंतूण सालिभसा । उत्तरसु पुत्त ! भवणाओ आगओ सेणिओ जम्हा ॥ ७० ॥ सो भणइ कयाणाणं मोल्लन मुणेमि गिण्हमु सयं पि । जाय ! कयाणयमेयं न होइ भद्दा पयंपेइ ॥ ७१ ॥ किंतु इमो तुह सामी मज्झ विइह देसमाणवाणं पि । मज्झ वि अन्नो सामि त्ति सालिभद्दो सुणित्तु इमं ।। ७२ ॥ चिंतेइ गुरुविसाओ पेच्छ अहो ? अकयपुन्नपन्भारा । पुरिसा परम्स सेवाविडंबणं कमवि पाविति ।। ७३ ॥ भणियं च न करिति जे तवं संजमं च ते तुल्लपाणि-पायाणं । पुरिसा समपुरिसाणं अवस्सपेसत्तणमुर्विति ।। ७४ ॥ ते चेव जए. जीवंतु मुणिवरा बालकालगहियवया । मोत्तुजे देव-गुरु परम्स पाए न पणमंति ॥ ७५ ॥ जइ पुव्वं पि हु दुच्चरतव-चरणकयुजमो अहं हुतो । ता इण्हि निवपणमणविडंबणं नेय पावितो ॥ ७६ ॥ विसयमहाविसमोहियमणाण मणुयाण निचिवेयाणं । जिणनाहभणियधम्मो मणयं पि भणे न विप्फुरइ ।। ७७ ।। एवं विचिंतऊणं कलिवेरग्गकारणं तं पि । अभिमाणधणो धम्मेकमाणसो उट्टिओ सहसा ।। ७८ ॥ पसरंतदिसिविसप्पिरपरिमलपरिभमिरभमरनिउरुबो । सकलत्तो उत्तरिओ करेणुकलिओ करिंदो व्व ।। ७९ ।। रायचरणारविंदे पणओ आलिंगिऊण नरवइणा । उच्छंगे विणिवेसिय सच्चविओ तेण सव्वंगं ॥ ८०॥ चिंतेइ नो असझं सुचरियकम्माण किं पि भुवणयले । जं अमरसिरिं विलसइ पेच्छ इमो मणुयमेत्तो वि ।। ८१ ।। संभासिओ निवेणं न पयंपइ होइ साममुहछाओ। अंसुजलोल्लियनयणो भद्दाए तओ निवो भणिओ॥ ८२ ।। अणुवासरं पि अमरोवणीयभोएहिं लालिओ एसो । नरपरिमलं न सक्कइ सहिउं ता मुयमु नरनाह । ॥ ८३ ॥ तो मुक्को नरवइणा भणिणं गच्छ वच्छ ! नियठाणं| आरूढो सो भवणे गंतुमणो नरवरिंदो वि ॥ ८४ ॥ विन्नत्तो भद्दाए सपणामं बद्धपाणिपउमाए । देव ! पडिच्छह सागयकिच्चं काउं गुरुपसायं ।। ८५ ।। उवरोहेणं राएण मन्निए तयणु वाररमणीहिं । अभंगण-उवट्टणपुवं बावीजले ण्हविओ ।। ८६ ॥ वावीजलम्मि पडियं मुद्दारयणं नरिंदहत्थाओ। तो संभंतो राया जोय तरलेहि नयणेहिं ।। ८७ ॥ भद्दाए तओ भणियं किं नियह नरिंद ! एत्थ संभंता ? । कहियं तीए नरिंदेण मुद्दियारयणजलपडणं ।। ८८ ।। सिग्घं चिय भद्दाए जंतपओगेण तीए वावीए । दासिं भणित्तु सलिलं संकामियमन्नवावीए ।। ८९ ॥ तो तीए तले पेच्छद फुरंतकिरणं विहसणसमूहं । इंगालं व पलोयड तम्मझे मुहियारयणं ।। ९० ॥ चिंतइ( ? पुच्छइ) य कोउहल्लेण नरवई कि इमं ? ति तो भद्दा । विन्नबइ देव ! एयं निम्मल्लं सालिभद्दस्स ॥ ९१ ॥ जम्हा अणुदिणममरो आभरणमिमस्स पणइणिजुयस्स । वियरइ तो निम्मल्लं खिप्पइ वावीए मज्झम्मि ॥ ९२ ।। विम्हियहियओ घेत्त मुद्दारयणं मणुन्न सिंगारो। नंदणवणमवलोइय नियइ समगं पि पासायं ॥ ९३ ॥ १. नरवरो किरं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता पुत्रः माता पुत्रः -. माता --- पुत्रः माता पुत्रः - माता २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे शालिभद्राख्यानकम् तो देवालयपडिमं भत्तिभरुन्भूयभूरिरोमंचो । न्हवइ विलेबइ पूयइ पणमइ संथवइ नरनाहो ॥ ९४ ॥ भद्दाए तओ भणियो भोयणभवणे गओ पुहइवालो । भुत्तो य सपरिवारो कयसम्माणो गओ राया ।। ९५ । चिट्ट य सालिभद्दो जा विसयपरम्मुह सुधम्ममई । ता धम्मघोससूरी समागओ नयरउज्जाणं ॥ ९६ ॥ तव्वंदणवडियाए विणिग्गओ रायपभिइपुरलोगो । आपुच्छिऊण जणणि तत्थ गओ सालिभद्दो वि ॥ ९७ ॥ वंदित्तु समुवविट्टाए रायपमुहाए सयलपरिसाए । भयवं पि महुरवाणीए देसणं काउमारद्धो ॥ ९८ ॥ जलहिजलगलियमुत्ताहलं व दुलहं लहित्तु मणुयत्तं । कायव्वा धम्ममई भवभयभीरूहिं भविएहिं ॥ ९९ ॥ इनिणिऊण संविग्गमाणसा देसणं मुणिंदस्स । पत्ता नियनियभवणे संविग्गो सालिभद्दो वि ॥ १०० ॥ गंतूणं नियभवणे जणणिं नमिऊण भणइ अंब ! मए । निसुओ जिणिदधम्मो गुट्ट, कयं वच्छ ! सा भइ अंब ! ममं अणुजाणह फबज्जामि त्ति नियुणिउ भद्दा | मुच्छानिमीलियच्छी धस त्ति धरणीयले पडिया ॥ चंदणजलसित्तंगी ससलिलवीयणयवीइया संती । उवलद्धचेयणा सा रुयमाणी भणिउमादत्ता ॥ १०३ । वच्छ ! तमेक्को पुत्तो अव्भहियो मज्झ जीवियस्सावि । मा गिण्ह ताव दिक्खं जाव अहं जाय ! जीवेमि ॥ १०४ ॥ सो भइ न अंब ! इमं नज्जद को जियइ ? अहब को मरइ ? । जम्हा न बाल- तरुणा थविरा वि जमम्स छुट्टति ॥ १०५ ॥ सा जंपइ जाय ! इमं नवजोव्वणसुंदरं सुरूवं च । निययसरीरं पालसु ता विविहविलासकरणेण ॥ १०६ ॥ सो आह अंत: स - किमि - पुरीसपरिपूरियम्स अथिरस्स । तवचरणमिमस्स फलं अंब ! असारम्स देहस्स ॥ १०७ ॥ ॥ उवूढजोवणभरा अहिणवअणुरायरंजिया जाया । बत्तीसमिमाहिं समं उवभुंजसु जाय ! विसयसुहं ॥ १०८ ॥ मुहमहुररसा परिणामदारुणा विसमविससमा विसया । ता अंब ! एरिसेसुं विसएमु बुहा न रज्जति ॥ १०९ ॥ रयण-मणि-कणय-रुप्पय-मुत्ताहलपमुहपउरधणरिद्धिं । भोगोवभोग-बंदियणदाणकज्जेहिं विलसेमु ॥ ११० ॥ राय - जल-जलण-तकंकर-वंतर- दायायसाहिया लच्छी । मणपरिणइ व्व अथिरा ता अंब ! इमीए को मोहो ॥। १११ ।। जाय ! करवालधाराचंक्रमणसमं सुदुक्करं चरणं । भूसयण - लोय - भिक्खऽन्नपाण- बंभव्वयाईहिं ॥। ११२ ।। विसयहपरवसाणं कायरपुरिसाण निव्विवेयाण । दुक्करमिह तव चरणं न कयाइ वि धीरपुरिसाण ॥ ११३ ॥ अमुणियदुहसम्भावो वच्छ ! तुमं केलिग भसुकुमालो । किह विसहिसि अइदुस्सह उवसग्ग- परीस हे घोरे ? ॥११४॥ नरयम्मि अंब ! असिपत्त-जंत- करवत्तकप्पणाइदुहे । सहिउं इह उवसग्गा "केत्तियमित्तं किलिस्संति ॥ ११५ ॥ १. कित्तियमेत्तं रं० । ५ 1 जइ जाय ! तए एवं कायव्वं वासराणि ता कइवि । अप्पाणं परिकम्मसु पच्छा तं कुणसु तव चरणं ॥ ११६ ॥ अवरोहेणं जणणीपयंपियं मन्निरं रा पासायं । गंतूण पणइणीणं पडिबोहत्थं इमं भइ ॥ ११७ ॥ निच्चं परभवचिंता नरेण नियमेण होइ कायव्वा । न हु विसयलालसेहिं हारेयवो मणुयजम्मो ॥ ११८ ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ For Private Personal Use Only ३३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ आख्यानकमणिकोशे जम्हा न होइ तित्ती नराण विसएम निविवेयाण । ता विसए परिचइ पवाजमहं करिम्सामि ।। ११९ ।। जा तुम्हाण ससल्ला का वि हु अहवा अवच्चसंजुत्ता । ता गिहिधम्म कुव्वंतु सेसया दिक्खमिच्छाए । १२० ॥ दइयाओ एवमणुसासिऊण भज्जाओ तह य भोगंगे। परिहरमाणो चिट्टइ तव-चरणसमुस्सुओ मइमं ।। १२१ ।। इयो य तत्थेव य परिणीया भइणी धन्नेण सालिभदास । अभंगती कंतं साममुही मुयइ अंसूणि ॥ १२२ ।। संपुच्छिया य धन्नेण सुयणु ! किं सोयकारणं तुज्झ ? | सा भणइ सालिभद्दो पयजं घेत्तकामो त्ति ॥ १२३ ॥ परिकम्मणं कुण्तो दिण दिणे पणइणिं च तलिं च । एक्केक्कं परिमेलइ बोल्लइ तयणंतरं धन्नो ।। १२४ ।। जो गिण्हइ जिणदिक्खं का परिकम्मणं स काउरिसो। सप्पुरिसो पुण सुंदरि ! तणं व रिद्धिं परिच्चयइ ॥ १२५ ॥ जय धण-रिद्धी सुचया ता किं न तुम पि चयसि ? सा भणइ । इय निमुणिऊण एसो अहिमाणी भणिउमाढत्तो ॥१२६॥ पेच्छंतो तुह वयणं ठिओ म्हि इण्हि तु पेच्छ ज होइ । अह सा जंपइ पिययम ! एवं मह खमह परिहासं ॥ १२७ ।। कि भणिएणं बहुणा ? स आह भइणि व्व तं इयाणि मे । अह जइ तुज्झ वि इच्छा तुमं पिता गिण्ह पवज्ज ॥ १२८ ।। तम्मि समयम्मि तियणसामी सिरिवद्धमाणजिणइंदो। संपत्तो सुररइए उवविट्टो समवसरणम्मि ।। १२९ ॥ सेणियपमुहो लोगो गओ जिणिंदस्स बंदणनिमित्तं । विणिजुंजइ धन्नो वि हु धणरिद्धि धम्मकज्जेसु ॥ १३०॥ फ वरजासामगीनिरयं नाऊण धन्नयं दइया । गंतूणं वुत्तंतं सबंधुणो कहइ रुयमाणी ।। १३१ ।। अंतरिओ हं धन्नेण चिंतिउं संठवित्तु नियभइणिं । जणणिं भज्जाओ वि य संभासिय सालिभद्दो वि ॥ १३२ ॥ घोसाविऊण अभयं दाणं दीणाइयाण दाऊण । काउंजिणिंदमहिमं सम्माणिय समणसंघ च ।। १३३ ॥ निरसयण-जणणि-पणइणिपरिकलिओ आरुहित्त सिबियाए । सलहिज्जंतो नायरजणेण तित्थं पभावितो ।। १३४ ॥ सुरलोयसरिसरिद्धि सणंकुमारो व्व उज्झिउं ज्झत्ति । महया महूसवेणं समागओ समवसरणम्मि ॥ १३५ ।। पुर ओ पहत्तधन्नेण संगओ तयणु तत्थ भयवंतं। काउं पयाहिणतियं सधन्नओ थुणियमाढत्तो ॥ १३६ ॥ जय जय परमेसर ! चरमजिणेसर ! पुन्निमससिनिम्मलवयण !। जय धम्म पयासण !, कुगइपणासण !, वियसियसियपंकयनयण ! ।। १३७॥ जय वीरजिणेसर ! दिव्वनाण ! संपत्तपरमसिवसुहनिहाण! । जय चक्क-कमललंछियमुपाय! सिद्धत्थनरेसरअंगजाय! ॥१३८॥ जय कोहहु यासणअम्बुवाह! दुट्टट्ठकम्मवणगहणदाह! । जय माणसेलनिद्दलणवज्ज! परिचत्तसयलसंसारकज ! ॥१३९|| जय मायाभूमिविणाससीर! जर-जम्मपंकनिट्ठवणनीर! । जय लोहपिसायपयंडमंत! वरनिम्मल-सम-सियकुंददंत! ॥१४०॥ जय रायमहाकरिहरिकिसोर! सन्नयजणआवयहरणचोर !। जय दोसरेणुवियरणसमीर ! संसारमहोयहिलद्धतीर ! ॥१४॥ जय मोहतिमिरनिद्दलणभाणु ! तुह नमइ जिणेसर ! सुरपहाणु। जयमयणमुहडनिम्महणवीर! ससुरासुरनमिय! जिणिंद! वीर! ॥ जय मच्छररहिय! विमुक्कसंग! नियसत्तिविहियसंसारभंग!। जय संगमकयदट्टोवसम्गनिकंप ! पयासियमोक्वमग्ग! ॥१४३॥ जय अमरविणिम्मियसमवसरण !सरणागयवच्छलदरियहरण !। जय वीरजिणेसर! करि पसाउ महु देहि सामि ! सिवपुरिहिं ठाउ॥ इय जयपूरियास ! चंदाणण : विविहतवग्गिदभवकाणण!। सिरिसिद्धत्थरायवरनंदण ! पसिय मज्झ जणनयणाणंदण ! ॥ पुणरवि पणमिय सामि भणंति भयवं ! भवोहनिम्महणिं । दिक्खं देहि जिणेसर : जायइ दुक्खक्खओ जीए ॥१४६॥ भणियं भद्दाए विहुजामाउय-पुत्तया इमे मज्झ । पहु ! धन्न-सालिभद्दा दिक्खादाणणऽणुग्गहह ॥ १४७ ।। तत्तो तिहुयगनाहेण दिक्खिया पंचमुट्टिकयलोया । सिक्खविया य समग्गं आयारं साहुवम्गस्स ॥१४८ ॥ गीयस्था संजाया अइरेण य नायसयलमुत्त-ऽत्था । विहरंति जिणेण समं कुब्वंता तिव्वतव-चरणं ।। १४९ ।। पुणरवि रायगिहम्मि समागया भुवणसामिणा सद्धि । तिव्वतव-चरणसुक्का किडिकिडिभूया महासत्ता ॥ १५०॥ नरनाइपमुहपरिसाए सामिणा देसियं भवसरुवं । जायाए भिक्खवेलाए पत्थिया दो वि भिक्खट्टा ॥ १५१ ।। छट्टम्स पारणम्मि पणामपुवं जिणम्स आणाए । ते धन्न-सालिभद्दा पयंपिया निणवरिंदेण ॥ १५२ ॥ . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकार शालिभद्राख्यानकम् ३५ तुह सालिभद्द ! जणणी काही हरिसेण अज पारणयं । तो ते तवमुसियंगा भद्दाए गिहं समणुपत्ता ।। १५३ ॥ सिरिवीरजिणागमणं नाउं तह धन्न-सालिभदाणं । भद्दाइयो गिहजणो सन्चो वि समुम्सुओ जाओ ॥ १५४ ॥ तत्थाऽऽगया वि मुणिणो केणावि न याणिया ठिया य खणं । तत्तो य अदीणमणा महाणुभावा पडिनियत्ता ॥१५५ ।। भणियं च सुंदर-सुकुमाल-सुभोइएण विविहेहिं तवविसेसेहिं । तह सोसविओ अप्पा जह न विनाओ सभवणे वि ॥१५६॥ पडिलाहिया य गोउलथेरीए पहम्मि पवरदहिएण । जुगमेत्तनिहियनयणे समागया सामिणो पासे ॥ १५७ ॥ आलोइऊण विहिगा पुच्छंति जिणेसरं कयपणामा । भय ! न अम्ह विहियं पारणयं निययजणणीए ।। १५८ ॥ जंपइ सामी जीए दिन्नं दहियं पहम्मि तुम्हाणं । सा सालिभद्दजणणी पुचभवे आसि धन्न त्ति ॥ १५९ ॥ सव्यो वि य पुवभवो कहिओ जा साहुदाणओ भोगा । सुमरइ पुराणजम्मं तं सोउं सालिभद्दो वि ॥ १६० ।। तं चिय पारित दहिं संविग्गा पुच्छिऊण जिणनाहं । खामेवि समण संघ गहियाणसणा समाहीए ॥ १६१ ॥ गंतुं वेभारसिलायलम्मि आराहणाए कयकिच्चा । उल्लसिरमुक्कलेसा पाउवगमणं पवजंति ॥ १६२ ॥ एत्थंतरम्मि भद्दा समागया वीरवंदणनिमित्तं । नमिउं पुच्छइ धन्नो सामि कहिं सालिभद्दो य ? ॥ १६३ ।। परिकहिओ वुत्तंतो जिणेण सब्चो वि तो ससोया सा । ताण सयासम्मि गया निच्चलगत्ते नियइ ते वि ॥ १६४ ॥ वारं वारं वंदिय संभासइ ते न दिति पडिवयणं । निस्संगा तयणु इमा गुरुसोया रुयइ अइकरुणं ॥ १६५ ॥ हा पुत्त ! पावकम्माए आगओ नियगिहे विन हुनाओ । पडिलाहिओन दिट्टो न भासिओ मंदपुन्नाए ॥ १६६ ॥ हा पुत्त ! अमरउवणीयभोयणं भुंजिऊण कह तुमए । भुत्तं भिक्खं भमिऊण अंतपंता-ऽरसाहारं ? ॥ १६७ ॥ हा पुत्त ! मसिणबत्तीसतूलियाउवरि आसि कयनिदो । इण्हिं पुण खरकक्कससिलायले किह सुहं सुयसि ? ॥ १६८ ।। हा पुत्त ! घुसिण-हरियंदणेहिं विरइयविलेवणो आसि । इहि किह धम्मजलावगद्धमल-पंकमुबह सि ? ॥ १६९ ॥ हा पुत्त ! सवणमुहयरकागलिगीयप्पिओ सया आसि । इण्हिं सिवफेक्कारवमिस्से किह सुणसि घूयरवे ? ॥ १७० ॥ हा पुत्त ! सत्तभूमियपासाए सव्वया मुहं वसिडं। किह विहरिओ सि दिणयरकरतत्ते धरणिवीढम्मि ? || १७१ ॥ हा पुत्त ! जंतवावीए गिम्हमइवाहिऊण अणुवरिसं । किह चरियं तव-चरणं नयणे निहिउं दिणयरम्म ? ॥ १७२ ॥ हा पुस्त! तुह सिणेहो तारिसओ आसि मम विसयम्मि । इण्डिं किं दीणाए न देसि मह वयणमेत्तं पि? ॥ १७३ ।। इय एवं विलवंती तेसिं वंदणसमागयनिवेण । पडियो हिया सुहासियवयणेहिं इमं भणंतेण ॥ १७४ ॥ भद्दे ! धन्ना एए जेहिं दुहाणं विमोइओ अप्पा । तं पि कयत्था जीए जाएणाऽऽराहणा विहिया ।। १७५॥ वयण-चलणाइयं न हु कुणंति पाओवगमणपडिवन्ना । ता मा कुणसु अकारणखेयं मणयं पि नियमेण ।। १७६ ॥ एमाइमहरवयणहिं तत्थ सा सेणिएण संठविया । नोया य नियगिहम्मि भद्दा वहुययणसंजुत्ता ॥ १७७॥ ते विह मुणिणो मरिऊण पंचपंचोत्तरेसु उववन्ना । चविउं तओ विदेहे उववज्जिय उत्तमकुलम्मि ॥ १७८ ॥ भोगसमिद्धिं उवभुंजिऊण घेत्तूण पवरपव्वजं । निट्टवियअट्टकम्मा तयणु गमिम्संति सिद्धिपुरिं ॥ १७९ ।। ॥शालिभद्राख्यानकं समाप्तम् ।।८॥ अन्यच्चास्मिन्नेव जन्मनि सुपात्रदानं कल्याणावहमित्यत आह. दिन्नं सुपत्तदाणं इहेव कल्लाणकारगं होइ । चक्कयर-चंदणज्जा समूलदेवा उदाहरणं ॥६॥ व्याख्या- 'दत्त' वितीर्ण सुपात्र-गुणवत्साध्यादौ दानं-वित्तवितरणं सुपात्रदानम् ‘इहैव' अस्मिन्नेव जन्मनि आस्तां परभवे 'कल्याणकारक' सुखसमृद्धिजनकं 'भवति' जायते। निदर्शनमाह-चक्रचरश्च-चक्रचराभिधानो ब्राह्मणः, स च चन्दनार्या च-दधि १ मख०। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे वाहनराजपुत्री भगवतो महावीरस्य शिप्यका चक्रचर-चन्दनायें। किम्भूते ? स[ह] मूलदेवेन राजपुत्रेण वर्तेते ये ते तथोक्ते । 'उदाहरणं' दृष्टान्त इत्यक्षरार्थः ।।६।। भावार्थस्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । तत्रापि क्रमायातं प्रथमं तावत् चक्रचराख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् आसि नररयणरोहणगिरि व्व मणिरयणचक्कनयरं ति । समवजियगणचक्को चक्कयरो दियवरो तत्थ ॥१॥ करकलियतरुणदिणयरकिरणारुणतंबभायणो एसो । नयरभंतरभवणेसु भमइ कणभिक्खकज्जेण ॥ २ ॥ अह अवरदिणे केणावि तस्स दिन्ना महेसरसुएण । वरसुरहिघय-गुडाविलनवसत्तुगपिंडिया दोन्नि ॥ ३॥ गंतूण तओ सो वि य गिहम्मि कयनित्ततारणविहाणो । उवविट्टो जा चिट्ठइ संतुट्टो भोयणट्ठाए ॥ ४ ॥ ता तस्स पुव्वपुन्नाणुभावओ मासखमणपारणए । एगो महातवस्सी संपत्तो 'भवणदारम्मि ॥ ५॥ दट् ठूण मुणिं तवतेयभासुरं फुरियगरुयपरिओसो । उट्टित्तु तम्स एगं सत्तुगपिंडं पयच्छेइ ॥ ६ ॥ सहस ति तओ पडिया हिरण्णवुट्टी मुणिप्पभावेण । विम्हियमणेण तो दियवरेण सव्वा वि संगहिया ॥ ७॥ मुणिदाणसमयसज्जियपकिट्टपुन्नाणुभावओ नियमा। उवभुंजिऊण नर-सुरसुहाइं सो पाविही सिद्धिं ॥८॥ ॥ चक्रचराख्यानकं समाप्तम् ॥९॥ इदानी चन्दनार्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् अस्थि इह भरहवासे चंपा नामेण विस्सुया नयरी । कोसंबिनयरिसामी चउरंगबलेण कइया वि ॥१॥ दहिवाहणगहणत्थं चंपं वेढइ सयाणियो राया । एगागी रत्तीए नावाकडगेण गंतूण ।। २ ॥ दहिवाहणो विनट्टो चंपाए जगहो नरिंदेण । घोसाविओ य सेणालोगेण य लसिया नयरी ॥ ३ ॥ दहिवाहणस्स रन्नो वसुमइधूयाए संजुया गहिया । भयभीया एगेणं वंठेणं धारिणी देवी ॥ ४ ।। वलिओ सयाणियनिवो सो चंठो भणइ एस मे भज्जा । होही इमाए धूयं एयं पुण विक्किणिस्सामि ॥ ५ ॥ तो धारिणी विचिंतइ एसा बाला अणज्जहत्थगया । कमवत्थं पाविस्सइ ? न नजइ हा ! विहिविलासो ॥ ६ ॥ मझं पि सीलखलियं होही तं तु जस-धम्मनासणयं । सुद्धस्स वरं मरणं मा जीयं सीलखलियस्स ॥ ७॥ हा हियय ! किं न फुट्टसि बंधु विउत्ताए वसणवडियाए । मज्झ तुमं ? इय दुस्सहदुक्खेणं सा उ कालगया ॥ ८॥ अव्वत्तसरं रोयइ जणणीमरणेण वसुमई दीणा । तो सो वंठो चिंतइ मरिही एसा वि जइ किंचि ॥ ९ ॥ जपामि अजुत्तमहं तो मोल्लं पि हुन होइ इय नाउं। अणुयत्तंतेण दहें कोसांबपुरीए आणीया ॥१०॥ वीहीए उड्डिया सा दिट्टा य धणावहेण इन्भेणं । अणलंकिया वि लावन्नपुन्नसव्वंगसोहिल्ला ॥ ११ ॥ आगीए चेव नज्जइ ईसरधूया नरिंदधूया वा । एसा विसमं पत्ता हंत ! अवत्थं विहिवसेणं ॥ १२ ॥ ता मा वसणं दीहं पावड करुणायवन्नचित्तेणं । जम्मग्गियमोल्लेणं गहिया सा सेटिठणा तेणं ॥ १३ ॥ नीया निययघरम्मि का सि तुमं ? पुच्छिया न साहेइ । रुयइ परं फव्वालियगंडयला अंसुधाराहि ॥ १४ ॥ पियवयणेहिं सणेहं संठविया बेट्टिय त्ति पडिवन्ना । मजण-भोयण-वत्थाइएहिं सम्माणिया धणियं ॥ १५ ॥ मूला य निययभज्जा भणिया धूया तुहेस ता सम्मं । तह कायव्वं जह सरइ नेय नियजणणि-जणयाणं ॥ १६ ॥ चिठ्ठइ य कुलघरम्मि व सा नेवुयमाणसा गिहे तम्मि । विणएणं सीलेण य सव्यो वि य रंजिओ लोओ ॥१७॥ गिहवासी पुरवासी भणइ अहो सीलचंदणा एसा । तो तीए बीयनाम संजायं चंदण ति फुडं ॥ १८ ॥ एवं वच्चइ कालो मूला पुण मच्छरिजए हियए । तीए उवरि धणावहबहुमाणं पेच्छमाणी य ॥ १९ ॥ १. दारदेसम्मि-२०। २. इत आरभ्य ६३पर्यन्ताः कथागाथाः श्रीनेमिचन्द्रीय-श्रीमहावीरचरित्रे १२७३तः १३३४पर्यन्तं वर्त्तन्त इति टीकाकृता स्वरचनायां तत एवाऽऽहृता इति ज्ञेयम् । सूचितं चाप्येतद् वृत्तिकृता स्वयमप्येतत्कथाप्रान्ते ६६तमगाथायामिति । ३. वीहीय उड्डिया-२०। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे चन्दनार्याख्यानकम् चितइ य सव्वो वि जणो पायं अहिणववत्थुम्मि कुणइ अणुरायं । चिरपरिचियमवहीरइ ता जइ एसो इमं भज्जं ॥२०॥ कुणइ गुरुरायरत्तो गेहम्स असामिणी अहं होमि । इय सा तीए पावा चिट्ठइ छिड्डाइं जोयंती ॥ २१ ॥ सो सेट्टी मझण्हे चीहीओ आगओ गिहे विजणे । एगम्मि दिणे नत्थि उ कोइ वि जो सोयई चलणे ।। २२ ।। ताहे चंदणबाला उवठ्ठिया तत्थ पाणियं घेत्तु । वारंतम्स वि य बला आढत्ता सोइउं चलणे ।। २३ ।। एत्थंतरम्गि तीए छुट्टा केसा सहावसोहिल्ला । पडिहिंति कद्दमे इय चिंतेउं सेटिणा झत्ति ॥२४॥ हत्थट्टियलीलाजट्टियाए धरिया तहेव बद्धा य । ओलोवणोवविट्ठा मूला चिंतेइ तं दट्ठ ॥२५॥ नूण विणटुं कजं ता तरुणो चेव छिज्जए वाही। जइ पुण परिणेइ इमं ता मज्झ मुहे भवइ छारो ॥२६॥ अन्नं च वरि हउं मुय वरि हउं म जाय वरि विसहरि खद्धी, वरि उब्भिय सूलियहिं भिन्न वरि हुयवहि दद्धी । वरि उबंधिय रुक्खडालि वरि खड्डुर्हि घल्लिय । मैं मई दिट्ट सवत्तिजुत्त पिउ हियडासल्लिय ॥२७॥ इय एवमाइ चिंतिय सेट्टिम्मि विणिग्गए गरुयरोसा । निद्दयचित्ता पहणइ सिरं च मुंडावए तीए ॥२८॥ नियलेहि य बंधावइ चलणेसुं ओयरम्मि पक्खिवइ । पभणइ जो सेट्टिम्सा साहिस्सइ सो ममं वइरी ॥२९॥ गिहमागओ य पुच्छइ सेट्ठी भो ? चंदणा कहिं चिठे । मूलाए य भएणं न परियणो साहई कोइ ॥३०॥ सो मुणइ रमइ कत्थइ रतिं जाणाइ नवरि सा सुत्ता । बीयदिवसे न दिट्टा पुट्ठा य न केणई सिठ्ठा ॥३१॥ तइयदिणे परिकुविओ भणइ य मारेमि जइ न साहेह । ताहे एगा थेरी चिंतइ कि मज्झ जीएण ? ॥३२॥ सा जियउ महाभागा मज्झवि जीएण पाविया एसा । मूला जं सियबीयास सिलेहानिक्कलंकाए ॥३३॥ एईए इमं ववसई नरयनिमित्तं तओ य थेरोए । सेठिस्स जहावत्थं मूलाए चेठ्यिं कहियं ॥३४॥ सेठ्ठी वि अहो ! पावा मूला निद्धम्म-निद्दयसहावा । इय चिंतन्तो ओवरगदारमुग्घाडए सिग्धं ॥३५॥ दट्टुं तं सुसियंगि तिस-भुक्खकिलामियं सुदीणमुहं । रे जीव ! सहसु दुक्कयकम्मफलं एव भावंती ॥३६॥ बाहजलभरियनयणो गुरुदुक्खो पायए जलं थोयं । नियइ य भोयणजायं नत्थि य भवियव्वयवसेणं ॥ ३७॥ कुम्मास च्चिय दिट्ठा न य दिट्ट तत्थ भायणं किं पि । उम्सुगभावेणं चिय सुप्पे काऊण कुम्मासे ॥ ३८ ॥ पासेसु पुत्ति ! एए तुह भंजामि जाव नियले हैं । इय भणिय ते पणामिय लोहारघरं गओ सेट्टी ॥ ३९ ॥ सा तयवस्था सुमरिय पिउगेहं हथिणीव नियजूहं । मुत्ताहलसरिसाइं रोयइ अंसूणि मुयमाणी ॥ ४०॥ जणयविओगं पत्ता जणणीमरणं च बंधुविरहं च । परदेसमिममवत्थं हा हा ! देवस्स परिणामो ॥ ४१ ॥ ता रिसकुलजायाए तारिससीलाए एरिसं वसणं । ता नस्थि सा अवस्था कम्भवसा जा न संपडइ ॥ ४२ ॥ एवं चिंतेमाणी उद्धठिया गरुयदुक्खपन्भारा । पुरओ कयमुप्पा सा चिट्टइ पुरओ पलोयन्ती ॥ ४३ ॥ जइ कोइ एज अतिही ता अट्ठमपारणं करेमि अहं । एए च्चिय कुम्मासे दाउमवत्थोचिए तस्स ॥ ४४ ॥ एवं चिंतंतीए तीए पुन्नाणुभावओ सामी । संपत्तो तं दट्टुं खणेण जाया विगैयदुक्खा ॥ ४५ ॥ गुरुहरिसभरा चिंतइ दरिद्दगेहे हिरन्नवुट्टि व्व । संपत्तो मे भयवं कयपुन्नाए इहावसरे ॥ ४६ ॥ तो सुप्पं दरिसित्ता पयमेगं काउमेलुगाबाहिं । बीयं चंऽतो पभणइ भयवमणुग्गहह कुम्मासे || १७ ॥ पुन्नो अभिम्गहो मे दव्वाइचउन्विहो वि इय नाउं। कुम्मासम्गहणत्थं पसारिओ सामिणा पाणी ।। ४८ ।। दिन्ना य चंदणाए पंच य दिव्वाणि पाउभूयाणि । जिणपारणगं जायं पंचदिणेणूण छम्मासे ।। ४९ ।। देवा य सन्निवइया केसा तीए य वरतरा जाया । तुट्टा तडत्ति नियला सुवन्नमणिनेउरा जाया ॥ ५० ॥ १. विलसइ-खं० । २. विगयसोया-२० । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आख्यानकमणिकोशे अमरहिं य सा विहिया सव्वालंकारभृसियावयवा । पहयमहिरेणु उदयं वुटुं हरिचंदणुम्मीसं ।। ५१ ॥ मुक्काइं अइभरेणं दसद्धवन्नाइं सुरहिकुसुमाई। पह्याओ दुंदुहीओ चेलुक्खेवो कओ परमो ॥ ५२।। घुटं च 'अहो दाणं' गयणे सक्को समागओ तुट्टो। कोडीओ अद्धतेरस तहिं सुबन्नम्स वुट्टाओ ।। ५३ ।। गायति य नच्चंति य वायंति पटंति तह य मुंचति । उक्किट्टिनायममरा पारणए तम्मि वीरम्स ।। ५४ ॥ जाओ पुरे पबोसो चंदणबालाए पुन्नकलियाए । पाराविओ मुर्णिदो धणावहो तो समावन्नो ।। ५५ ।। राया मिगावई वि य नंदाऽमच्चो य आगया तत्थ । दट्टुं पारणमहिमं परमपमोयं गया सव्वे ॥ ५६॥ दहिवाहणम्स रन्नो संपुलओ नाम कंचुइज्जो उ । बंदित्तेणाऽऽणीओ सो पेच्छिय चंदणकुमारि ॥ ५७ ।। चलणेसु पडिय रोवइ रन्ना पुट्टो य का इमा कन्ना ?। दहिवाणम्स रन्नो एसा धूय त्ति सो आह ॥ ५८ ।। तं आलिंगिय पभणइ मिगावई एस भइणिधूया मे । राया हिरन्नवुट्टि गेण्हंतो वारिओ हरिणा ॥ ५९ ।। जस्सेसा भो ! वियरइ तम्स इमा होइ पुच्छिया सा य । तायम्स मए दिन्नं हिरन्नमेयं ति सा भणइ ।। ६०॥ सक्केण निवो भणिओ एसा वीरस्स सिम्सिणी पढमा । होही चरमसरीरा केवलनाणम्मि उम्पन्ने ॥ ६१ ।। ता संगोवाहि तुमं परिवालमु आयरेण परमेशं । रन्ना तह त्ति भणि कन्नतेउरगिहे नीया ॥ ६२ ॥ मूला धणावहेणं निच्छ्ढा धाडिया तह जणणं । निदित्त खिसित्ता विगोइया नयरमज्झम्मि || ६३ ।। सा वि हु चंदणवाला उप्पन्ने केवलम्मि वीरम्स । संविग्गा पव्वड्या ठविया य पवित्तिणिपयम्मि || ६४ ॥ ता एसा इहई चिय जाया कल्लाणभायणं तत्तो । उप्पन्नविमलनाणा संपत्ता सासयं ठाणं ॥६५॥ एयं च चंदणज्जाकहाणयं सुत्तकारिकविरइयं । सव्वं तयक्खरं चिय गुरुबहुमाणाओ लिहियं ति ॥६६॥ ॥चन्दनार्याख्यानकं समाप्तम् ॥१०॥ इदानीं मूलदेवाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् पउरपुर-गरुयपव्वयफणिवइकयभार भारहे वासे । अस्थि विदेहाविसए कुसुमपुरं नाम नयर-न्ति ॥१॥ दीसंति जत्थ निच्चं नरमणिसंदोहभूसियाऽऽवासा । नयनायसंपयपओ नयपरमो नरवई तत्थ ॥२॥ विक्खायसयलनरवइसिरोमणी कुसुमसेहरो नाम । दुव्वारवइरिवारणनिवारणा जस्स भुयदंडा ॥३॥ जम्मि जयलालसम्मिं वसुंधराभारमुब्वहंतम्मि । उत्तिन्नभरो कमढो रइहलीलं समुन्वहइ ॥ ४ ॥ सयलंतेउरसारा विसालकुलसंभवा विसालच्छी । नियरबोवहसियतियसमुंदरी मुंदरी भज्जा ॥ ५ ॥ तीए सह विसयसोक्खं अणुहवमाणस्स तम्स मुहियस्स । अइकमइ कोइ कालो रज्जधुराधरणधवलस्स ॥ ६॥ कालेण समुप्पन्नो पुन्नज्जियसव्वसुंदरावयवो । मुहसुमिणसूइयासेसलक्खणजुओ सुओ तस्स ॥ ७॥ कयमूलदेवनामो सुललियकरपंचधाइदुल्ललिओ । पणइयणमणभिरामो स बालभावं अइक्वन्तो ॥ ८॥ निम्सेसकलाकुसलो विलसिरलायन्नमणहरसरीरो । तरुणियणमणभिरामं संपत्तो जोव्वणारंभ ॥ ९॥ अह अन्नया कयाई अणगभडकाडिसकडत्थाणे । जा चिठ्ठ नरनाहो ता पडिहारेण विन्नत्तं ॥ १० ॥ पहु ! पउरपउरलोगो रायदुवारम्मि चिट्ठ निसिद्धो । पहुपायपउमदंसणसमुस्सुओ को समाएसो ? ॥ ११ ॥ अह भणइ नरवरिंदो दसणावलिकिरणधवलियदियन्तो । रे ! झत्ति तं पवेसमु मह पुरओ पउरपुरलोयं ।। १२ ।। नरवइआएसेणं पवेसिओ विहियउचियसम्माणो । धरणीयलमिलियनिडालमंडलो पणमिय निविछो ॥ १३ ॥ तो भणइ नरवरिंदो कि मह दंसणसमुम्लुओ लोओ । परचक्क-चोर-चरडाइडामरं किं नु मह रज्जे ? ॥ १४ ॥ किंवा को विहु असरिसपसायसंपत्तिदाणदुल्ललिआ। कुणइ पराभवमासंघिआ जणी रायउलठाई॥ १५ ॥ एवं जाव पयंपइ नरनाहो विहियपणयसम्माणो । ता मउलिमिलियकरकमलसंपुडो पभणए सेट्ठी ॥ १६ ॥ १. भूसिया बाला-रं०। २. निविटों-रं०। ३. प्रासंचित्र-विश्वस्त । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे मूलदेवाख्यानकम् तइ पालंते जयपह ! अइपयडपयावपहयपडिवक्खे । सुविणे वि देव ! नऽन्नो अम्हं भुवणे वि भयहे ऊ ॥१७॥ किंतु परदाररसिओ नयपालियपरियणो महियमित्तो । परमायायाररओ बंदीकयसयलपउरजणो ।। १८ ॥ खत्तेण गहियरह-गय-माणिको हयपहाणपत्तियणो । रायचरिएहिं कुमरो एवं नयरं महइ देव ॥ १९ ।। इय निमुणिय पउरजणं विसज्जए विहिय उचियपडिवत्ती । अंतगुरुकोवहुयवधूमसिहासामलच्छाओ ॥ २० ॥ एत्थंतरम्मि कुमरो हारविरायंतवियडवच्छयलो । पिउपायपणमणकए समागओ तत्थ अस्थाणे ॥ २१ ॥ पणमंतसयलसामंतमउलिमणिरयणकिरणकच्छुरिए । पयकमले मिलियनिडालमंडलो पणमइ कुमारो ॥ २२ ॥ जंपेइ महीवालो कयभिउडीभंगभासुरनिडालो । खत्तियणगोत्तवपण ! अवसर मह दिठ्ठिपसराओ ।। २३ ।। कुमरो वि गुरुपराभवमन्नुभरुप्पन्नअसरिसामरिसो। पिडपरुसवयणपरिभवमसहंतो चिंतए हियए ॥ २४ ॥ उज्झंति धणं मुंचंति परियणं महियलं परिचयंति । मरण वि महासत्ता न उणो माणं परिहरंति ॥ २५ ॥ अवि मरणमसमसाहसगिरिभइरवपडणवड्डियुच्छाहे । अहिलसइ महासत्तो न उणो माणं परिच्चयइ ॥ २६ ॥ इय चिंतिऊण कुमरी पणमित्ता पायपंकयं रन्नो । अन्थाणाओ नियत्तो तत्तो रयणीए जायाए ॥ २७ ।। हिमाणधणो नयराओ निम्गओ असमसाहससहाओ । वइरिकरिकुम्भदारणकरकलियकरालकरवालो ॥ २८ ॥ अणवरयमकमंतो गामाऽऽगरनगरमंडियं वसुहं । गुडियकयवामणंगो संपत्तो नयरिमुज्जेणिं ॥ २९ ।। तत्थ दुरोदरदइओ निश्चं कलगीयदिन्नमइपसरो । अन्नायकुल-परक्कमपरमत्थो निवसइ मुहेण ।। ३० ॥ अह अन्न या य दिट्टो किन्नरकलगीयवावडो तत्थ । नियभवणमत्तवारणपरिविलसिरदेवदत्ताए ॥ ३१ ॥ गीयाणुरायरत्ता वामणए तम्मि पेसए दासिं । साणुणयं सप्पणयं ससिणेहं सा वि तं भणइ ॥ ३२ ॥ वामणय ! तुम्ह दंसणसमुम्सुया सामिणी समाइसइ । मह किन्नर ! मणहरणो होसि तुमं गिहपवेसेण ॥ ३३ ॥ तो भणइ मूलदेवो का सा तुह सामिणी ? तओ भणइ । सोहग्गजयपडाया पणंगणा देवदत्त ति ॥ ३४ ॥ अह भणइ मूलदेवो विस्सासो मह न अत्थि वेसासु । खणरत्त-विरत्तासुं अवरा-ऽवरहरियचित्तासुं ॥ ३५ ॥ इयरासु चि जुबईसुं न वीससेयव्वमेत्थ कुडिलासु । विसमविससन्निभासुं कि पुण वेसासु विम्सासो ? ॥ ३६॥ अन्नोन्ननेहनिन्भररसाणुविद्धो न जत्थ सम्भावो । रुवावहरियदेहो न वामणो तत्थ अल्लियइ ।। ३७ ॥ जा एवं नाऽऽगच्छइ ता साहइ सामिणीए सा गंतुं । सा वि पुणो वि भणावइ दासीवयणेण वयणमिणं ॥ ३८ ॥ आगच्छ एकवारं उवरोहेणावि मझ गेहम्मि । दक्खिननीरनिहिणी हवंति जेणेत्थ सप्पुरिसा ॥ ३९ ॥ तो अणुमन्नियगमणो जा जाइ खणंतरं तमणुलम्गो । ता मुट्ठिपहारेणं झड त्ति पउणीकया खुजा ॥ ४०॥ विन्नाण-वयणपगरिस-किन्नरकलगीय-गुणविसेसं च । कलिऊण तम्स गणिया अहिययरं रंजिया हियए ॥ ४१ ॥ ताहे वामणगो विह पेच्छइ सव्वंगसुंदरावयवं । सो देवदत्तगणियं रइगुणमाणिक्कभंडारं ॥ ४२ ॥ तथा हि सिंगारजलहिलहरी सयलजुवाणेकमणवसीकरणं । जयविजयवेजयंती जयेककामम्स कामस्स ।। ४३ ॥ सयलजणनयणअंजणअमियसलाया विलासरइभवणं । विहिविन्नाणपगरिसो मुत्तिमई मोहबल्लि व्य ।। ४४ ॥ एवं संपेच्छंतो संपत्तो तीए वासभवणम्मि । कयसमुचियोवयारो उवविठ्ठो तीए पासम्मि ॥ ४५ ॥ तो कुसलवत्तपुव्वं आउच्छइ सव्वमेव वुत्ततं । सो वि समयाणुरुवं पयासए किं पि तप्पुरओ ।। ४६ ।। एत्थंतरम्मि सा वि हु तप्पच्चक्खं पयासइ पहिट्ठा । नियगीयपरमपगरिसमणुरंजियनिययपरिवारा ॥ ४७ ।। अह जंपइ वामणओ परियणकयचाडुरंजियं गणियं अप्पुब्बगेयपगरिसपरिस्समो तुह परं किंतु ।। ४८ ॥ वालाणुविद्ध तंती वंसो सुद्धो न तुम्ह वीणाए । विउसाण वन्नणिज्जो सद्दो न हु तेण रमणीओ ॥ ४९ ।। तब्वयणजायकोहिलेण सम्म निरूवए जोव । ता तंतीए पेच्छइ वालं वंसे य पाहाणं ।। ५० ॥ १. ०यमुणि विसेसं २०। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ जेण आख्यानकमणिकोशे तग्गुणरंजियचित्ता पणंगणा भणइ देवदत्ता सा । वामणय ! मणो मह गीयलालसं कुणमु सकयत्थं ॥ ५१ ॥ उद्दामरणंगणवीरपुरिसचरियाणुसारिचरिएण | सर- गामविहियमुच्छेण तेण आसारिया वीणा ॥ ५२ ॥ तो कुमरगीय संजाय परवसा हरियमाणसा सहसा । तडवियकन्नजुयला करिणी परिहरिय करकवलं ।। ५३ । संजयविम्या सा चिंत हिययम्मि अत्तणो गणिया । एवंविहगुणकलिओ सामन्नो होइ न हु एस ॥ ५४ ॥ ता कारणेण केणइ होयन्वमवस्स एत्थ रूवम्मि । इय चिंतिऊण हियए वामणओ तीए भोयविओ ॥ ५५ ॥ तो भोयावसाणे गते नेहनिव्भरं भणिओ । कहमु नियकुल- परक्कमपरमत्थं मज्झ एताहे ॥ ५६ ॥ तो ते नेहरंजियमणेण सव्वं पयासियं तीए । उग्गलियगुडियभावा संजायसहावरूवेण ॥ ५७ ॥ सम्भावरूयरंजियमणाए तो तीए देवदत्ताए । तरुणियणजणियकामो कामो व्व रईए सो दिट्टो ॥ ५८ ॥ पणइ य नेहसारं सा रंजियमाणसा विणयनियरा । सह रयणाहरणेहिं जीयं पि हु मह तुहाऽऽयत्तं ॥ ५९ ॥ अवहरियपरोप्पर माणसाण अन्नोन्ननेहसाराण | जा जाइ कोइ कालो परिवज्जियअवरकज्जाण ॥ ६० ॥ तो तीए अइपसंगं नाऊणं 'कुट्टणी भणइ इवं । परिहरसु पुत्ति ! एयं धणहीणं नाणदुवियङ्कं ॥ ६१ ॥ पाएण इयररमणी वि रच्चए उत्तमे वि न दरिद्दे । वेसाण पुण विसेसो नियदेहविदत्तदविणाण ॥ ६२ ॥ कयकूडकवडचाडुयरइकलिया कोढियं पि कामेइ । परिहरइ रविरत्ता धणहीणं कामएवं पि ॥ ६३ ॥ वीणा - विणोय- चिन्नाणपगरिमुप्पन्नकित्तिरमणीयं । जइ वि हु एयं तह वि हु धणहीणं पुत्ति ! परिहरसु ॥ ६४ ॥ तो भणइ देवदत्ता बहुवेणिपरंपरागया एसा । किं अम्मो ! किज्जिस्सइ रिद्धीकारट्टए तुज्झ ? ।। ६५ ।। तो तत्थ निवस सुरवइअयलो व अयलवरसेट्टी । सइभद्दसालकलिओ वररयणो कणयकडओ य ॥ ६६ ॥ सो अन्नया य गणियं वसंतमासम्मि विविहकीलाहिं । उज्जाणे कीलंतिं पेच्छन् सह मूलदेवेण ॥ ६७ ॥ तोचि सो हियए कह होही संगमो मह इमाए ? | अहवा दवुवयारो पणंगणाणं वसीकरणं ॥ ६८ ॥ इय चिंति पयट्टो तीए उचयरिउमत्थजाएण । उवरोहकयसिणेहा सा विहु अभिरमइ तं अयलं ।। ६९॥ एवं च जंति दियहा सद्धिं अयलेण देवदत्ताए । परमश्चंत सिणेहा सया वि सा मूलदेवम्मि ॥ ७० ॥ अह सा पुणरवि भणिया अक्काए निद्धणेण किह वच्छे ! ससएण व खोडेणं अणेण वणवाडओ रुद्धो ? ॥ ७१ ॥ तो भइ देवदत्ता गुणेहिं रत्ता धणम्मि न हु अंब ! | अंबा वि भणइ वच्छे ! अयलो वि हु गुणगणावासो ॥ ७२ ॥ तो भइ देवदत्ता जइ एवं अंब ! किज्जउ परिक्खा । इय भणिए नियदासि चवलं अयलम्म पेसेइ ॥ ७३ ॥ भइ तओ सागंतुं पुरओ सेट्स्सि वयणमिणमेवं । जह तुज्झ वल्लहाए इक्खहिं पओयणं अज्ज ॥ ७४ ॥ तो अलो इक्खूणं सगडं भरिऊण पेसए तीए । तो भणइ देवदत्ता पेच्छाहं अम्ब ! किं करिणी ? ॥ ७५ ॥ जेण सडाल-समूलयइक्वूणं सगडयं भरेऊणं । मह पेसिय-न्ति विन्नाणपगरिसं पेच्छ अयलस्स ॥ ७६ ॥ संपइ पुण विन्नाणं अम्ब! मिरिक्खेमु मूलदेवस्स । इय भणिउं तं दासिं संपेसइ मूलदेवम्मि ॥ ७७ ॥ तो सा साहइ गंतुं जूयफलयम्मि मूलदेवस्स । जह तुज्झ अज्ज दइया इच्छूवछं समुवह ॥ ७८ ॥ तो तेण वराडगदसदुगेण एगं गहाय वरलटिं । सिग्घमसिधेणुछोल्लियगंडलए काउमचिरेण ॥ ७९ ॥ अवरवराडगदसदुगसंगहियसराव संपुडे खिवइ । पक्खिविय चारजायं सूलानुं पोइउं तत्तो ॥ ८० ॥ पट्टवइ तीए तग्गुणरंजियहियया पजंपए सा वि । जूयार - अयलविन्नाणअंतरं एरिसं अंब ! ॥८१॥ तो कुट्टणी विचितइ केण उवाएण मज्झ गेहाओ । नीहरिही ? इय चिंतिय एगंते भणइ तं अयलं ॥ ८२ ॥ १. कु.ट्टिणी - रं० । २. सुरपतिचलः - मेरुः । ३. अज रं० । ४. कुट्टिणी रं० । तथा च- For Private Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे मूलदेवाख्यानकम् जह एसा अच्चतं अणुरता मूलदेवजूयारे । वत्थालंकाराई भरभोगं तीए तं वहसि ||८३ || ता किं एसो वि तए निकासिज्जइ न मज्झ भवणाओ ? । अयलो वि भगइ मह दिगोयरं कह णु सो होही ? ॥ ८४ ॥ अकावि भट्ट एवं नीकं तुह भएण न हुए । ता कवडगामगमणं करितु संझाए पुण एच ॥ ८५ ॥ जेण तुमं नीसंकं विलसंतं मूलदेवजूयारं । सह देवदत्तगणियाए पंच्छसे मज्झ गेहम्मि ||८६|| ते तह चियविहिए रंजियहियया पणंगणा पच्छा | वाहरिय मूलदेवं नीसंकं जाव अभिरमइ ||८०|| लल्लक्कभिउडिभीसणपाइक्कपमुक हकदुप्पेच्छो । विज्जुच्छड व्य सहसा ता अयलो तत्थ संपत्ती ॥८८॥ तो ती त तुरियं तूली तलम्मि तं खिवेऊणं । अभुट्निय भणियमिणं किं गमणं तुम्ह न हु जाये ? || ८९ ॥ अवसरणो त्ति भतो उवविट्ठो तम्मि चेव पल्लंके । गोविज्तो दिट्ठो जस्संते देवदत्ताए ||१०|| हाएवं नियमा अज्ज मए एत्थ चेव पल्लेके । सा भाइ पट्टतूलिं निरत्थयं किं विणासेसि ? ॥ ९१ ॥ सो भइ तुझ पिउणो न विणस्सइ किंतु मज्झ इय भणिए । तप्परियणेण अयलो सिग्ध अभंगिओ तत्तो ||१२|| अइमइलख लिखरंटियपल्हत्थियकलससलिलसंसित्तो । चिंतेड़ मूलदेवो धिरत्थु मह जीवियन्वस्स || ९३ ॥ धन्ना हुए, जो जो कंदप्पसप्पदप्पम्स । मरणे वि जाण मुसियो न माणमाणिक्कभंडारो || ९४ || परिहासपरंपरपासपरबसा नेहवागुरायत्ता । हरिण व्य कुसुमसरवाहबाणनिया न के एत्थ ? ।। ९५ ।। अह इह परभवम् य परिभवतरुकुसुममंजरी महिला | कामुयजणस्स सुइरं निम्मविया हयपयावरणा ।। ९६ ।। इय चिंतिऊण सहसा निम्गच्छद जाव तूलिहेट्ठाओ । दट्टोभिउडिभासुरअयलो केसेसु संगहिय ।। ९७ ।। निभच्छिऊण पभणइ कोवपरामुसियकूरकरचालो । किं रे ? कीर अवयारकारिणो वइरिणो तुज्झ ? ॥ ९८ ॥ तो भइ मूलदेवो अदीणचित्तो अभिन्नमुहराओ । जं किं पि तुज्झ चित्तस्स सम्मयं कुणलु तं चैव ॥ ९९ ॥ चिंतेइ तओ अयलो सामन्नो एस होइ न हु पुरिसो । न हि हीणकुलुप्पन्नाण धीरिमा एरिसा होइ ॥ इय चिंतिऊण पभइ आवइपडियं ममं पि कइया वि । रक्खिज्जत्ति सतोसं मुक्को सम्माणिउं तत्तो ॥ कह णु मए वसव्वं इह परिभवगुरुकलंककलिएण ? | इय चिंतंतो चित्ते चलिओ चिन्नायाभिमुहं ।। संबल-सहायरहिओ सबुरामबुद्धिसाहससहाओ । लंघंतो लंघंतो गिरि-सरियाइन्न महिवढं ।। १०३ ॥ वायामेत्तसहायं पिपेच्छए जाव नेय अडवीए । अकविलेसकाओ दिट्ठो ता बंभणो एगो ।। १०४ ॥ किवणाण चक्कट्टी टक्को जाईए सद्धडो नाम । जणकयनिग्विणसम्माभिहाणओ निग्विणत्तणओ ॥ १०५ ॥ संबलबलमचलंबिय एयस्स अहं सुहेण लंघिस्सं । इय चिंतिय संचलिओ कयसंभासेण सह तेण ॥ १०६ ॥ तो पहरदुगे सलिलप्पएसमासज्ज सद्धडो तुरियं । अवलोडिऊण सलिलेण सत्तुए जिमइ एगागी ।। १०७ ।। अह तेण मूलदेवो वयणेण वि न हु निमंतिओ जाव । चिंतेइ नूणमिहि विस्सरियमिमस्स मह मुहिणो ॥ १०८ ॥ अवरहे उण नियमा न वंचिही एस चिंतए जाव । चित्तम्मि मूलदेवो तो भोच्या बंभणो पत्तो ॥ १०९ ॥ तुंदं परामुसंतो मलमाणो ह्त्यजुयलमणवरयं । दाढियमवलहंतो उड्डग्गारे पहुंचती ॥ ११० ॥ अह बहलतस्तलम्मि खणमेत्तं ताव विम्समामो त्ति । खरकिरणतावियतणू मज्झत्थो जाव दिवसयरो ॥ १११ ॥ पच्छा पुरओ गमणं काहामो इय कुमारभणियम्मि । वीस मिउ खणमेकं पुणो पयट्टा पहे गंतुं ॥ ११२ ॥ एत्थंतरम्मि कुमरं आवकल्यिं वियाणिउ रन्नो । मित्तो अत्थनिमित्तं व दूरमवगाहए जलहिं ॥ ११३ ॥ तो सद्धडे भुत्तं तव एगागिणा वियाले वि । न य वायामेत्तेण वि निमंतिओ कठिणहियएण ।। ११४ ।। १०० ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ 1 हे व तहविहु निमंतिओ तेण न य मणागं पि । तइयम्मि दिणे अडविं अइकंता दो वि ते कह वि ।। ११५ ।। संपत्तव सिमदेसो तम्साऽऽसाधरियनिययपाणघणो । चिंतेइ मूलदेवो उवयारी बंभणो मज्झ ॥। ११६ ।। पण चच्च जहिच्छं भद्द ! तुमं किंतु एज्ज कइया वि । मह रज्जसंपयं जाणिऊण जं देमि ते गामं ।। ११७ ।। इय भणिय मूलदेवो पहरदुगे गाममागओ संतो । करकलियपत्तपुडओ भिक्खं भमिउं समादृत्तो ।। ११८ । केवलकुम्मासेहिं भरि पुयं तडागमणुसरिउ । जा निग्गच्छइ तत्तो संपेच्छइ मुणिवरं एगं ॥ ११९ ॥ For Private Personal Use Only ४१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे मामोववाससोसियसरीरसंपत्तिमसममुहलेसं । पारणगपत्तदिवस पविसंतं गाममञ्झम्मि ।। १२० । दट ठण मूलदेवो चिंतह मह पुन्नपरिणई एसा । महरन्नम्मि व एसो जं दिट्टो कप्परक्खो व्य ।। १२१ ॥ इय चितिऊण पभणइ भत्तिभरूल्लसियबहलरोमंचो । गिण्हमु करुण का कुम्मासे मज्झ मुणिनाह ! ॥ १२२ ।। दव्याइचउहसुद्धि परंजिउं गिण्हा मुणिवरो चि । एत्थंतरम्मि कुमरो रंजियहियओ भणइ एवं ॥ १२३ ।। धन्नाणं खु नराणं कुम्मासा हुंति साहुपारणए । इय भणिए भणइ तओ मुणिभत्ता देवया गयणे ।। १२१॥ मग्गनु वरं महायस! जं रोयइ तुज्झ उत्तरद्धेण । गणियं च देवदत्तं दंतिसहसंच रजं च ।। १२५ ।। इय भणइ जाव कुमरो भणइ तओ देवया पहिठ्ठमणा । मुणिदाणपुन्न पायवफलमिण मचिरेण तुह होही ।। १२६ ॥ उबरियसेसकुम्नासभोयणाणंतरं पसत्थगई। मुणिदाणपन्न कलिओ चलिओ विनायडाभिमुहं ।। १२७।। पइदियहपयाणेहि बेन्नायडनयरमागओ संतो । मुत्तो देसिकुडीए सुमिणं पेच्छइ निसासेसे ।। १२८ ।। अमयमयकिरणनिम्मयितावमसमाणकंति जगसुहयं । पविसंतं नियवयणे केरविणीरमणपडिविवं ।। १२९ ॥ कप्पडिओ वि हु पासित्तु तारिसं कहइ सुमिणमियराण । ते विहु भणति गुड-नेहमंडियं मंडयं लहसि ।। १३० ॥ तो तेण बीयदिवसे छाइजंतम्मि कम्मिवि घरम्म । भिक्वाए पविटेणं लद्धो गुटमंडओ गगो ।। १३१ ॥ कमगे विमणे मुणिमणोरहाणं अपावणिज्जं नि । सुमिणमिणं मणहरणं पहाणपुरिसाण कहणीयं ।। १३२॥ अह उग्गयम्मि सूरे कुमरो कमाणमंजलि भरिडं। सुविणन्नुयम्य पासे संपत्तो परमविणपण ॥ १३३ ॥ प्रइत्त पायकमलं पणामपुव्वं पयासए सुमिणं । अह चितइ सुविणविऊ रज्जालो एस मिणो त्ति ।। १३४ ॥ लायन्न पन्न कलियं अह तं परिणाविऊण नियधूयं । साहइ जह तुह होही सत्तदिणमंतरे रज्जं ॥ १३५॥ यं निसामिऊण थक्को सो तम्मि चेव नयरम्मि । कोउगअक्वित्तमणो दिगे दियन्तो नयरसोहं ।। १३६.॥ कहमेत्य निधणो. हं बिलसिम्सं चिंतिऊण नयरीए । ईसरगिहम्मि खत् खगिऊगं गहियगिहसारो ।। १३७ ।। जा निगच्छड तत्तो पत्तो आरक्खिएहिं सहस त्ति । तो बंपिऊण नीओ करणे मंतिम्स पासम्मि ॥१३८ ।। चोरो त्ति का उमेसो भणियममच्चेण देहचायम्स । ता निति बज्झभृमीए किंकरा लद्धआएसा ।। १३९ ।। पुवुत्तमलियमेयं किं होही जाव चिंता कमरो। ता दुग्गसूलवेयणविवसो तन्नयरनरनाहो ॥ १४०॥ मरद अपुत्तो तो मंतिपमुहसामंत-पटरलोएण । अहिवासिऊण सम्मं गयपभिई पंचदिव्वाइं ॥११॥ मग्गिजइ नररयणं पुव्वभवुप्पन्नपुन्नपन्भारं । रजनिमित्तं नयरे तिय-चच्चर-देउलाई ।। १४२ ॥ तो जंताई ताइं दिव्वाइं नयरबाहिरुइसे । पेच्छंति खरारूद रत्तंदणलित्तसव्वंगं ।। १४३ ॥ सिरिउवरिधरियछित्तिरमारोवियगलसरावमालं च । बज्जंतवज्झडिडिममुग्घोसिज्जंतचोरवहं ॥ १४४ ॥ तं मूलदेवचौरं गलगजी ता गएण पारद्धा । गुरुहरिसपरवसेणं हएण हेसारवी विहिओ ।। १४५ ।। कलसं घेत्तृण करी अहिसिंचिय नेइ खंधदेसम्मि । ढलियं चामरजुयलं उवरि ठियं सेयवरछत्तं ॥ १४६ ॥ उच्छलिओ तूररवो जयजयसद्दो पबढिओ झत्ति । उद्दामबंदिविंदेण परिगओ पउरलोएण ॥ १४७ ।। रायसहाए पत्तो मुत्तामणिमंडिए चउकम्मि । सिंहासणे निविट्टो पणओ सामंत-मंतीहिं ।। १४८ ॥ अह देवयाए गयणे भणिया सामंत-मंतिणो सव्वे । जह एस पुन्नकलिओ विक्कमराओ महाराओ ॥ १४९ ।। जो आणाए वट्टइ न सम्ममेयम्स तम्स न खमामि । तप्पभिइ अमच्चाई संजाया आणतल्लिच्छा ॥ १५० ॥ जाओ महानरिंदो पडुपयडपयावपत्तमाहप्पो । निट्टवियवइरिविंदो जत्थमणुपालए रज्जं ॥१५१॥ अह अन्नया कयाई गया चित्तम्मि चिंतए एवं । सह दंतिसहस्सेणं लद्धं रज्जं जहुद्दिढें ॥१५२।। किन्तु किमणेण देवदत्तारहिएणं सुंदरेण रज्जेण ? । जेण पियसंपओगो रज्जं कजं किमन्नण ? ॥१५३।। तो पट्टविओ लेहो उज्जेणिनराहिवम्स नरवइणा । भणिओ य मझ नेहो एईए देवदत्ताए ॥१५॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे नाग श्रीब्राह्मण्याख्यानकम् जइ परिहासह तीए तुम्हाणं सव्वहा अभिमयं च । मह जीयनिव्विसेसं ता पेससु तं सिणेहेण ॥ १५५ ॥ इ बाइ लेहं रन्ना लेहारिया इमं भणिया । भो भो ! किमेवमेयं विन्नायसामिणा लिहिये ? ॥ १५६ ॥ कि अम्हाणं तस्स य कोइ विसेसो समत्थि रज्जम्मि ? । जेणाहं नियरज्यं सव्वगिणं तस्स कप्पेमि || १५७|| हकारिऊण भणिया गणिया रन्ना जहा तए भद्दे ! | विन्नत्तमासि एवं जह मोत्तु मूलदेवं मे || १५८ || अन्नोन पेसियो पुरिसो ता एस सो महाराया । संजाओ पुत्र्वज्जियपुन्नमहापरिणइवसे || १५९ ॥ तो तुझाssणयणत्थं नियपुरिसा पेसिया इहं तेण । ता जाहि तम्स पासे पडिहासइ तुज्झ जड़ चित्ते ॥ १६० ॥ तो भइ देवदत्ता देव ! सया वि हु मणोरहो आसि । संपुण्णो पुण इहि तुम्हाणुन्नाए अम्हाणं || १६१॥ विभवेण इऊणं पट्टविया मूलदेवपा सम्मि । पत्ता य तत्थ तेण वि पवेसिया गुरुविभूईए || १६२ || तीए सह विसयसोक्खं उबभुंक्तस्स जाइ जा कालो । ता सद्धभट्टेणं निसुया रजस्स संपत्ती || १६३ ॥ तथाssaओ पविडो पडिहारनिवेओ निवसमीवे । दिन्नो गामो रन्ना चि तस्स भणिउं इमं वयणं ॥ १६४ ॥ पालज्जसु नियगामं अज्जप्पभि परं तुमं किंतु । मह नयणगोयरे मा हवेज्ज कइया विजाजीयं ॥ १६५ ॥ अह अन्नया य अयलो उज्ज्ञेणीए धणचणनिमित्तं । चिन्नायम्मि नयरे पत्तो बहुलोगपरियरिओ ।।१६६।। मंजिट्टाइयाणमज्झे गोवित्तु परमवत्थूणि । मंजिट्टाईण पुणो कं पाडेउमारो ॥१६७॥ नाओ सुकिलोएण कह वि तो दंसिओ नरवइस्स । जह देव ! सुकवोरीए वाणिओ सावराहु ति ॥ १६८॥ राया वि संभमभंतलोयणो जा पलोयए सम्मं । कह अयलत्थवाहो ? अबो ! अच्छरियमेयं नि ॥ १६९॥ तो भणियं नरइणा परियाणसि को अहं ? भगद अयलो । नियकित्तिभरियभुवणं देव ! तुमं को न याणेइ ॥ १७० ॥ तो नरवणा साहिनियत्ततो विस जिओ अयलो । सम्माणदाणपरिओसञ्चयं परिमुक्क || १७१ ॥ अह मूलदेवराया नएण परिपालिऊण नियरज्जं । सावगधम्मं च तहा मरिडं देवेसु उववन्नो ॥ १७२ ॥ ॥ मूलदेवाख्यानकं समाप्तम् ॥११॥ इदं च सुपात्रदानं कल्याणावहमप्यशुभ परिणामेनामुन्दरं दत्तं प्रत्युत भवभ्रमणाय भवतीत्यत आह जो अमन्नं असणाइ देइ साहूण दुट्ठपरिणामो | सो कि नागसि विव दुहपउरे भमइ संसारे ||७|| व्याख्या – यः कश्चिद् 'अमनोज्ञम्' असुन्दरम् 'अशनादि' ओदनादि 'ददाति' वितरति 'साधुभ्यः' मुनिभ्यः 'दुष्टपरिणामः' अनुभभावः 'सः' जीवः 'किल' इति आप्तोक्तौ 'नागश्रीरिव ' ब्राह्मणभार्येव 'दुःखप्रचुरे' प्रभूतदुःखे 'भ्रमति' पर्यटति 'संसारे' भवे इत्यक्षरार्थः ||७|| भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तच्चेदम् पाए पुरवरी निवसति सहोयरा दिया तिन्नि । सुपचित्तो पवरकलो सोमो सोमो व्व ताणेगो ॥ १ ॥ सोमो विभुइभासी हगेव्व तह सोमदत्तनामो ति । तहओ य सोमभृई गुरुभरणरुई मुसीसो व्व ॥ २॥ नागसिरी भूयसिरी जसिरी ताण भारिया कमसो । सव्वेसि पि सुहेणं वच्चइ कालो अहन्नदिणे ||३|| नागसिरीए महुरयतुंबयवामहिओ उवक्खडियं । कडुयविसतुंबयं घय- गुडाइमुसिद्धिदहि ||४|| नायं च कह विविसतुंबयं तओ कहमिमं परिचएमि ? | उत्तमदव्यविमीसियमिय चिंतिय मुयइ एत्थ ॥ ५ ॥ अह् तत्थ सयलसिद्धं तपारगा धम्मघोसमुणिवसभा । निरुवममुणिपरिवारा पत्ता अह तेसिमेगमुणी || ६ | समहिज्जियन् परियाणियसयलमुत्तपरमत्थो । जीवाणं करुणारसनिज्झरणगिरिं समरूवो ॥७॥ आबालकापालियसामन्नो सीलसंगओ सोमो । पारइ सया वि काउं मासवखमणं महाभागो ||८|| अह अट्टि-मिजपे माणुरायरत्तो जिणिदधम्मम्मि | धम्मरुई धम्मरुई अणगारो मासपारणए || ९ || उच्चावयभवणसुं परिभमंतो पसंत-थिरचित्तो । नागसिरीए गेहे गओ तओ तीए सो दिट्टो ॥१०॥ ४३ For Private Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे चितइ य कड्डयविसतुंक्यम्मि जाया पभूयधणहाणी । ता किं परिचत्तेणं इमिणा ? वियरिजर इमस्स ॥११॥ इय चितिऊण पावाए तीए दिन्नं तवस्सिणो सो वि । तं दवाइविसुद्धं कलि पडिगाहिय नियत्तो ॥१२॥ पत्तो य गुरुसमीवे आलोएउं पडिग्गहं गुरुणो । दसइ गंधं अग्घाइऊण सो जायसिरवियणो ॥१३॥ पभणइ अहो महायस ! कडुयं विसतुंवयं परिट्टवसु । कत्थइ गवेसिऊणं उवभुंजसु मुद्धमाहारं ॥१४॥ इच्छं ति पभणिऊणं धम्मरुई सुद्धथंडिलं पत्तो । तत्तो परिदृवंतम्स निवडिओ कहवि तबिद ॥१५॥ तग्गंधेण पभूया पिपीलिया आगया तओ तम्मि । विदुम्मि जा विलग्गइ रसेण सा तक्वणा मरइ ॥१६॥ तत्तो पिपीलियानियरमरणसंजायगरुयवेरग्गो । परिभावि पवत्तो धम्मरुई हा ! महापावं ॥१७॥ जइ एकविंदुमित्ते वि एत्तियाओ मरंति एयाओ । ता सव्वपरिच्चाए बहुजीवखओ धुवं होही ॥१८॥ इच्छंति न एगम्स वि कीडियमेत्तम्स साहुणो मरणं । ता किह परिठविउमिमं बहुयाण वहं करेमि अहं ? ॥१९॥ जायम्स धुवं मरणं होही कइया वि कह वि कम्सावि । ता जीवदयाकरणे जुज्जइ इण्हि पि मह मरणं ॥२०॥ इय चिंतिऊण पडिलेहिऊण मुहपोत्तियं महासत्तो । उवभुंजइ परमन्नं व समयविहिणा विसुद्धमणो ॥२१॥ तम्मि उ परिणममाणे सा का वि हु तम्स वेयणा जाया । जा कहिउं पि न तीरइ किं पुण सहिडं? तओ मुमुणी ॥२२॥ संथरिउमणालोयम्मि थंडिले दम्भसंस्थरं तत्तो । पणमइ जिणकमकमलं भत्तिब्भरनिभरो तयणु ॥२३॥ जेसि पसायाओ हं उत्तिन्नो भीमभवसमुद्दाओ । पणमामि ताण सिरिधम्मघोसमूरीण कमकमलं ॥२४॥ सिद्धाण पणमिऊणं बियरइ आलोयणं पुरो ताण । रमंचअंचियंगो उच्चरइ महब्बए पंच ॥२५|| खामेइ सब्वसत्ते इहलोए परभवे य दुक्खविए । आहारं पञ्चक्खइ चउब्विहं पि हु समयविहिणा ॥२६॥ जह जह पभूयपीडापरव्वसं तस्स जायइ सरीरं । तह तह धम्मज्झाणे थिरचित्तो ठाइ स महप्पा ॥२७॥ आगमभावियहिययम्स जीव तुह केत्तिया इमा वियणा ? । सहिया अणंतवारा उ वेयणा घोरनरएसु ॥२८॥ लद्धो जिपिदधम्मो सुइरं परिपालियं पि सामन्नं । वियणमिममसहमाणा सव्वं पि निरत्थयं कुगसि ॥२९।। अहियासंतो विसतुंबयुभवं वेयणं महासत्तो । हिययभंतरविप्फुरियगरुयसंवेगसंजुत्तो ॥३०॥ पंचपहुनमोक्कारा सुमरंतो सत्तु-मित्तसमचित्तो । मरिऊण समुप्पन्नो सबढे भासुरो अमरो ॥३१॥ गुरुणा वि गरुयवेल त्ति कलिय वाहिं गयस्स तवनिहिणो । पडिजागरणनिमित्तं पट्टविया साहुणो तम्स ॥३२।। आगंतूण गुरुणं पणमियचरणा कहंति ते साहू । कालगयं तो गुरुणो उवओगं दिति पुब्वेसु ॥३३॥ परियाणियपरमत्था वाहरिउं साहु-साहुणीवम्गं । नागसिरीकडुतुंबयदाणा मरणं पयासंति ॥३४॥ जाओ जा सबढे अमरो ता साहु-साहुणीवग्गो । निदइ नागसिरीए दुच्चरियं थुणइ मुणिचरियं ॥३५।। जाओ जणावचाओ नयरीमज्झम्मि तीए पावाए । भत्तार-देवरहिं वि चत्ता रिसिघाइणि ति तओ ॥३६।। निदिजंती नयरीजणेण डिंभेहिमभिहणिज्जंती । सव्वत्थ दीणवयणा भिक्खं पिन पावइ भमंती ॥३७॥ इहलोए च्चिय पावा अर्कता सोलसेहिं रोगेहिं । ते पुण सोलस रोगा सिद्धते वन्निया एवं ॥३८।। सासे कासे जरे दाहे जोणीसूले भगंदरे । अरिसा अजीरए दिट्ठी-मुहसूले अरोयए ॥३९।। अच्छि-कन्नाण वियणा कंडू अवरे जलोदरे । कुट्टवाही य दुहए एए सोलस वाहिणो ॥४०॥ अणुभविऊणं एए रोए सा तम्मि चेव य भवम्मि । मरिऊण समुप्पन्ना परलोए छट्टपुढवीए ॥४१॥ तत्तो तंदुलमच्छत्तणाइभवभमणदुक्खमणुभविडं । उप्पन्ना अइबहुसो सव्वासु वि नरयपुढवीसु ॥४२॥ तत्तो परिभमंती संसारे तिरियजोणिलक्खेसु । कह कह वि हु मणुयत्तं पत्ता चंपाए नयरीए ||४३|| धूयत्ताए जाया सागरदत्तम्स सेट्ठिणो भवणे । भदाए भरियाए नाम मुकुमालिया तीसे ॥४४॥ सा जोव्वणमणुपत्ता विलसिरलायन्नपूरियसरीरा । जिणदत्तेणं गंतुं वरिया सागरसुयस्स कए ॥४५॥ १ वइणा रं। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानस्वरूपवर्णनाधिकारे नागश्रीब्राह्मण्याख्यानकम् ४५ सागरएण सपणयं परिणीया सा महाविभूईए । संपत्तो वासगिहं तो तीए अंगफासेण ||४६।। तिक्खतरवारिधारासंगेण व छिज्जमाणसव्वंगो। पत्तो य नियं गेहं दुहपथारिं व तं मोत्तु ॥४७॥ गंतूणमुवालद्धो सागरदत्तेण तयणु जिणदत्तो । किं तुह कुलगुरूवं निदोसं चइय मझ सुयं ।।४८।। जं एस समायाओ तुह तणओ सिग्घमेव नियगेहं । जिणदत्तेण वि तणओ पयंपिओ एवमुल्लवइ ।।४९|| वरमहमुन्झामि गिहं तणं व धण-सयण-मित्तकलियं पि । न उणो करवत्तसमं तीए तणुफासमिच्छामि ॥५०॥ वच्चामि वा विसं छहा-पिवासाभिभूयसवंगो । न उणो करवत्तसमं तीए तणुफासमिच्छामि ||५|| पजलियजलणजालाकलावसह चियं पि पविसामि । न उणो करवत्तसमं तीए तगुफासमिच्छामि ।।५२।। तिव्वतरवारिधारासंचरणसमं वयं पि गिण्हामि । न उणो करवत्तसमं तीए तणुफासमिच्छामि ।।५३।। इय जामायभणियं कुडुंतरिओ समगमवि सोउं । सागरदत्तो पत्तो सविलक्खमणो सभवणम्मि ॥५४॥ कहमवि न महइ वच्छे ! नुज्झ पई तुझ संगम गुणवं । ता वीसत्था होउं उव जसु मज्झ धगरिद्धि ।।५५|| मिच्छत्तमाहिया सा सोहग्गकएऽणुवासरं कुणइ । मयरद्धयस्स पूर्य अच्चइ तह ग उरिपडिम पि ॥५६।। धूयण-विलवण-तिलय-मूलिया-मन्त-जन्त-तन्ताणि । जाणगजणोवइट्टाणि कुणइ सब्वाणि न तहा वि ॥५॥ संजायं सोहमगं दोहग्गं वड्डए सकोवं व । नेहपरव्वसहियया आदन्ना जणणि-जणया से ॥२८॥ चितंति य कस्सह भिक्खवित्तिणो वियरिमो अहऽन्नदिणे । कच्छोट्टयपरिहाणो लिल्लिरयावेढियसिरम्गो ॥५९॥ धूलीधूसरगत्तो अंगुलपिहुपयवियाउयाविवरो । सिप्पउडसरिसनहरो कुरुवयाकलियसव्वंगो ॥६०॥ जुनकुमरज्जुलंबिरमक्कडियाधरण [ वग्ग वामकरो । साणाइवारणत्थं दाहिणकर कलियढंख रओ ॥११॥ भिक्खयरा भिक्खकए समागओ तयणु सेटिणा भणिओ। को भद्द ! तुमं ? कत्थ व निवससि ? तो भणइ सो एवं ॥२॥ परिहीणबंधुवग्गो वणियमुआ भिक्खमेत्तधणकलिओ । अनिययवासी साहु व खोणिवीढम्मि वियरामि ॥३॥ सोऊण तम्स वयणं सेट्ठी चिंतइ जहा हवउ एसो । मह दुहियाए दोहम्गदुक्समियमणाए. वरो ॥६४॥ भणइ य भद्दय ! परिहरसु सयलभिक्खोवगरणममुहमिमं । तुह वियरेमि नियमुयं तं सोउं चिंतए दमओ ॥६५|| कम्मेहिं मज्झ विवरं दिन्नं दिव्यो वि अभिनुहो जाओ। फलियं च सुहमणोरहमालावल्लीवियाणेण ॥६६॥ जं मह भिक्खयरस्स वि रूवविहणम्स बंधुरहियस्स । अमुणियकुलकमस्स वि एसो वियरइ नियं धूयं ॥६७|| इय चिंतिऊण संजायगस्यहरिसेण तण पडिवन्नं । तो सेट्टिणा पहिडेण पहाविओ तक्खणे दमओ ॥६८॥ परिहाविओ य सुंदरवस्थाई तओ मणुन्नमाहारं । भुंजाविण विहियं परिनहपरिकम्मणं तम्स ॥६९॥ अणुवासरं पि ण्हाणुव्वट्टणपारेकम्मणेण संजाओ। सो जच्चकंचणनिभो दमओ वि ह देव्यकुमरो व्व ॥७॥ सेट्टी सुपसत्थदिणम्मि तम्स सुकुमालियं समप्पेइ । तो तीए संगमुस्युयचित्तो पत्तो स वासगिहं ॥७॥ अन्नोन्ननेहनिम्भरमणेहिमवरोप्परं तओ तत्थ । निवडियकयभुयजुयलेहि तेहिं परिरंभणं विहियं ॥७२॥ तो तीए सरीरलयाफासेण वि सव्वओ समुच्छलिओ । तम्स सरीरे मुम्मुरहुयाससरिसो महादाहो ॥७३॥ . चिंतइ विसन्नचित्तो जइ एसा सोक्खकारिणी होना । ता किं धण-सयणजुयाण वणियपुत्ताण न हु दिन्ना ? ॥४॥ जीए सरीरफासे वि दारुणो जायए महादाहो । संगेण तीए नियमेण होइ मरणं न संदेहो ॥७॥ वररूवसालिणी वि य महरिहवंसुभवा वि फासेण । असुहेण न परिणीया केणावि सुहत्थिपुरिसेण ॥७६॥ नूणं भिक्खयराणं थीरयणं को वि देइ न कया वि । ता एयारिसफासेण संजुया वियरिया मज्झ॥७७|| जइ एयारिस'फासो सव्वस्स वि होज नारिनियरस्स । ता नाम पि न पुरिसो गिण्हेज्ज इमाण किमु संग १ ॥७८|| ता सव्वहा वि वरि मज्झ होउ आबालकालिया भिक्खा । मा संपज्जउ फासो इमाए धणरिद्धिजुत्तो वि ॥७९॥ इय चिंतिऊण काउं कडीए कच्छोट्टयं तओ झत्ति । नीहरिओ रुयमाणिं तणं व चइऊण तं दमओ ॥८॥ १. मडकिया रं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे भणिओ य मेट्रिणा बच्छ ! पढमपेम्मे विझमणारंभो । किं तुज्झ? तओ सो भणइ मञ्झन हु रुसणं किं पि ॥८॥ किंतु तह अंगयाअंगसंगमंतावमसहमाणो हं । गच्छामि न भोगहि पओयणं मध्झ एयाग ॥२॥ जइ अहिलमेमि विसए इमाग ता होइ नित्तलं मरणं । जीवंतो पुण सीयलसलिलं सब्वत्थ वि पिएमि ।।८३॥ तो सहसा जन्नतणं घेत्तर्ण भामिऊण नियसीसे । पक्विविय तीए समुहं विणिग्गओ झत्ति भवणाओ ||४|| दमाण वि परिचत्ता तओ य संजायगरूयवेग्गा । पवइया अइयोरं चरिरं मुचिरं तवचरणं ॥८५॥ दटुं गणियं पंचहि विलासिपुरिमेहि आलविजंति । परिहास वाडुवय गहिं तयगु संभरियदाह ग्गा ॥८६॥ कुणइ नियाण इमेयं जद मज्झ तवम्स कि पि होज फलं। ता होज पंचपुरिसाण पणा हिययदइया य ॥८॥ मरिऊण समुप्पन्ना ईसाणे वाररमणिरवेण । अणुहवि विसयमुहं पंचपयारं सह सुरेहिं ॥८॥ चविऊण तओ कंपिल्लपुरवरे दुवयपुहइपालम्स । धूया जाया वररूवसालिणी दोवई नाम ।।८।। नवजोव्वणमारूदाए तीए पंचण्ह पंडुपुत्ताण । पक्खित्ता वरमाला निषयनियाणाणुभावेण ॥२०॥ जाया य ताण इट्टा अहऽन्नया नारएण कुविएण । धायइसंडे भरहम्मि राइणों पउमनाहम्स ।।९।। कहिउंरुवाइगणे हराविया दोवई तओ तत्थ । छट्टतव कुगमाणी ठिया तहाऽऽयामपारणया ||९२।। अक्वंडियनियसीला छदें मासम्मि वासुदेवेण । रहपहमगुजाणाविय देवं तरिऊग जलरासि ॥९३।। निजिणिय पउमनाहं पच्चाणीया य पंडमहुराए । तत्थ टिया बहुकालं उवभुजंती विसयसोऋग्वं ॥१४॥ तो पंडसेणकुमरे अहिसित्ते पंडवेहि नियरजे । तेहिं सह गहियदिक्खा अकलंकं पालिऊण वयं ॥९५|| मरिऊण बंभलोग उप्पन्ना तत्थ भुंजिउं भोए । चविड महाविदेहे पवइ पाविही सोक्ख ॥२६॥ ॥नागश्रीब्राह्मण्याख्यानकं समाप्तम् १२॥ दिन्नं सुपत्तदाणं विहीए धण-धन्नयाइमणुयाण | भत्तिकलियाण जायं कल्लाणपरंपराजणयं ॥१॥ नागसिरीए संसारकारणं तं पि अविहिणा दिन्नं । तम्हा विहीए देयं दाणं सिवमोक्खकामेहिं ।।२।। यत् प्राप्तवास्त्रिदशसार्थपतित्वमिन्द्रः, पातालराज्यमपि शास्ति यदत्र शेषः । यच्चक्रवर्तिपदवी परिपाति चक्री, तत् पात्रदानजनितं फलमामनन्ति ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे सुपात्रदानवर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः ॥२॥ [ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारः] व्याख्यातं विध्यविधिप्रकाराभ्यां शुभा-ऽशुभफलप्रदं दानम् । अधुना क्रमप्राप्त शीलमाख्यायते । तच्चेह यद्यपि देश-सर्वसंवररूपं समये शीलं प्रसिद्ध तथापीह तदवयवभूतं स्त्रियोऽधिकृत्य परपुरुषपरिहार स्वरूपमेवाह - सीलं सुगइनिहाणं नमंति देवा वि सीलमंताणं। . दवदंति-सीय-रोहिणि-मणोरमसुभद्दनाएणं ॥८॥ व्याख्या-'शीलं' करणनिग्रहम्वरूपं सुगतेः-सुदेवत्व-गुमानुषत्वरू.पाया निधानं-स्थानम् । 'नमन्ति' प्रणिपतन्ति देवा अपि आसतां मानवादयः, 'शीलवद्भयः' शीलसम्पन्नेभ्यः । दृष्टान्तानाह-दवदन्ती च-नलकलत्रं सीता च-रामदेवदयिता रोहिणी चश्रेष्ठिभार्या मनोरमा च-मुदर्शनपत्नी सुभद्रा च-वणिग्जाया दवदन्ती-सीता-रोहिणी-मनोरमा-सुभद्राः, ता एव ज्ञातम् तेन ॥८॥ तत्र तावद् दवदन्त्याख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम्अस्थि वियन्भादेसस्स मंडणा कुंडिणाभिहाणपुरी । निजिणियपुरंदरनयरिविन्भमा निययरिद्धीए ॥१॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ३. शीलमाहात्म्मवर्णनाधिकारे दवदन्त्याख्यानकम् जत्थ अदभवियंभियभवणुभवनीलरयणकिरणहि । अहिणवजलहरसंका जायइ गिहिगयसिहंडीणं ॥२॥ जत्थ निउरा रिनयणानलाओ भीगण कामदेवेण । विहिया पुरंगणाणं नयणिदीवरवणेसु ठिई ॥३॥ तं परिपालइ गया भीमम्ही भीमसमरसरंभी । बंदीकयारिकामिणिसंचालिज्जंतसियचमरो ॥४॥ तस्सऽस्थि पुष्पदंती सिंगारलयाविलासिपुप्फ व । हरिमुत्ति व्य पवित्ता भजा गरि व्य सुकुमाग ।।५।। ग्इकेलिबिसयमुहसारमणुहवंतम्स तम्स तीए समं । गच्छंति वासरा कमलचंचुणा पणइकमलाण ॥६॥ अह अन्नया य देवी रयणीए पच्छिमम्मि जामम्मि दिट्टुं सुमिणं साहद्द पहायसमयम्मि दयस्स ॥ जाणामि पेरिओ वणदवेण दंती सुरिंदकग्धिवलो । संपत्तो पिययन ! तुज्झ मंदिरे तयणु भगइ नियो ॥८॥ दइए तुज्झ भविम्सइ कुमरो कुमरी व जे सगुणनियरा । भुवणमिणं रययसलायपंजरत्थं करिम्संति ॥९॥ जाव इमं भणइ निवो सो दंती ताव तत्थ संपत्तो । आरोवित्त सखंधे देवीसहियं निवं तत्तो ॥१०॥ भमिऊण नयरिमझे उत्तारेऊण खंधदेसाओ। गेहम्मि दोन्नि वि तओ पत्ती आलाणखंभम्मि ॥११॥ पडिया तत्तो गयणाओ कुसुमबुट्टी पयंपई लोओ। पुन्नेहिं निव्वुडदेवयाए इह एस आणीओ ॥१२॥ तप्पभिई देवीप संजाओ गम्भसंभवो मुहओ। हियइच्छियपूरिज्जत डोहला पसवसमयम्मि ॥१३॥ सोयामिणिम्ब जलहरमाला जुण्हं व रयणिवरमुत्ती । दिणयरतणु व सुपहं मुहं पपूया सुयं देवी ॥१४॥ सह जम्मेणं ती भालयले तरुणतरणिसच्छाओ। पाउम्भूभो तिलओ उदयधरे वालतरणि व्य ||१५|| अइगरुयविभूईए वदावणयं करित्तु नरवडणा । दवदंति त्ति कयं से नाम सुमिणाणुसारेण ॥१६॥ अणुदियहं बटुंती कलाकल वेण चंदलेह व्व । संपत्ता मयणविलासमंदिरं जोवणारंभ ॥१७॥ सम्मोहणं व तिहुयणजणाण संतावणं व तरुणाण । उम्मायणं व एक्कग्गमाणसाणं नाणं पि ॥१८॥ निस्सेसलोयउवसमपल्लववेल्लीए सोमणं व इहं । संहारणं च परमं कामुयजणजीवियम्सावि ॥१९॥ जो पंचवाणमझ्याए तीए विटो कडकखभल्लाहिं । वच्छत्थलम्मि सो जियइ कानुओ कहवि किच्छेण ॥२०॥ नं दट्ट नरनाही असरिसलायन्न-व-गुणजलहिं । चिंतइ कत्थ भविम्सइ एयार. वरो गुणहिं समो ? ॥२१॥ ता एयाए निमित्तं सयंवरामंड्यं कगवेमि । तत्थ निवकुमरमझे वरेउ जो रोयइ मणम्स ॥२२॥ इय चिंतिय वाहरिया सवे वि नरेसरा नरिंदेण । निम्माविओ य नयरे सयंवरामंडवो रुइरो ॥२३॥ बेहाल धवलधयवडरणंतमणिकणयकिंकिणिकलावो । मंचाइमंचकलिओ निरुद्धरवितुरयसंचारो ॥२४॥ एगत्थ मेघडंबरवचूलमुत्ताकलावनियरेण । अणुहरइ सरयनिम्मलतारावलिसहियगयणम्स ॥२५॥ नीलमणिथंभविणिहियनाणामणिकिरणजालसंवलिओ। अणुहरइ कहवि हरिचाव जट्ठिजुयजलयपइलम्स ॥२६॥ अवरत्थ पंडपट्टउलवत्थउल्लोयविहियगुरुसोहो । आगामिनलकुमारम्स पसरिओ कित्तिपडओ व्व ॥२७॥ थंभनिवेसियजन्तधू मघडियासमुत्थधूमसिहो । भाविपरकुमरअवमाणकोवसिहिफुरियधूमो व्व ॥२८॥ परित लियपुरंदरधामविन्भमो धाम रामणीयम्स । निम्सेसदेसलच्छी विलासरमणीयगेहं व ॥२९॥ आगंतुं पडिहारेण नमिय वद्धाविओ महीनाहो । रायाणो देव ! इहं पत्ता लेहारिएहि समं ॥३०॥ समुहं गंतुं गुरुबलभारपकंपंतधरणिवीटेण । अइगरुयविभूईए तेसि पवंसो कओ रन्ना ॥३१॥ उवविद्वेसु महारिहमणिमयसिंघासणेसु निवईमु । तुलिया सयंवरेणं इंदसमा णियसहा सोही॥३२॥ अह देयम्भनिवस्या सव्वालंकारसुंदरावयवा । रमणीयसयंवरमंडवम्मि पत्ता निवाइन्ने ॥३३॥ उत्तत्तकणयगोरी कज्जलसामलकरणुमारूढा । रेहंती नवजलहरमालंकगया तडिलय ब्व ॥३४॥ अह करकलियसयंवरमाला वाला करेणुगइगमणी । निम्सेसनरिंदेहिं निरूविया साणुराएहिं ॥३५॥ तो तीए नरिंदाणं नयणेहिं समं गयाई हिययाई। सह कामवियारेहिं भणोरहा चिय पचड्डन्ति ॥३६॥ १. सुपवित्ता २० ॥ Jain Education Interational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आख्यानकमणिकोशे अणुरायजुया रेहंति के वि दवदंतिचलणजुयलं व । अन्ने उण उच्चित्ता तीए च्चिय ऊरुखंभ ||३७|| सारसणा संजाया इयरे तीए नियंत्र िव गंभीरा संजाया अन्ने तन्नाभिवो व्व ॥ ३८ ॥ तुच्छत्तं संपत्ता के विनिवा तीए मज्झदेसो व्व । साममुहा संजाया के वि हु तीए घणथग व्व ॥ ३९॥ अंगयकलिया जाया नरवणो के वि तन्भुयलय व्व । के चि समुद्दा सोहं तीए करकमलजुयलं व ॥ ४० ॥ रेति तत्थ अन्ने चराहरा तीए वयणकमलं व । इयर सरला तीए नासावंसो व् सोहति ॥ ४१ ॥ तरलत्तं संपत्ता के विहु तन्नेत्तनलिगजुयलं व । के वि हु कुडिला जाया तीए कुंतल कलावी व्व ॥ ४२ ॥ परिमलमिलंत भमर उलरुणझुणारावमुहलियदियंतं । काऊण करे सियकुसुममालियं बालिया तयशु || ४३ ॥ नवजवणं पिसुकुलुग्यं पि सूरं पि परिहरेऊण । निम्सेसरायमंडलम्णुपत्ता नलकुमारम्मि ||४४ || सवंगसुंदरावयवमणहरं कुसुमचाणसमरुवं । दद्दृण तयं पारूढपर मनव जीवणारंभं || ४५|| एएण मैयणवाणेहिं पीडिया हं ति जायकोवाए । बद्धो व जगसमक्खं कंटे घेत्तृण वरमालं ||४६ || एत्यंतरम्म एगो समुट्टिओ को दंतदट्टोट्टो । कन्हडदेव कुमारो जंपतो फरुसवयणाई || ४७|| रयणाणि मही लच्छी कुलकमेणं न हुंति कस्सावि । खग्गेण बसीकाउं उवभुंजड़ जो महासत्तो ||४८|| ता एसो मं जुज्झेण निज्जिरं कुणउ पाणिगहणं ति । नो एवं तो मुंचउ सह दवदंतीए महिवलयं ॥ ४९ ॥ तं निणित्त पपढ़ फुरंतकोवारुणच्छिदुप्पेच्छो । आबद्ध भिउडिभासुरभालयलो नलकुमारो वि ॥ ५० ॥ किं रे ! इमिणा गलगज्जिएण जलवज्जिएण व घणस्स । वायाडंबरमेत्तेण जंपिणं जणसमक्खं ॥ ५१ ॥ जड़ का वि तुज्झ सत्ती फुरइ मणे ता भवेसु सन्नद्धो । अवणेमि तुज्झ जेणं रणकंडुं बाहुदंडाणं || ५२ ॥ इय जंपतो तत्तो समुट्टिओ को भिउडिदुप्पेच्छो । पेच्छंताण निवाणं आयड्डियनिसियकरवालो || ५३ || इयरो विमंडलगं गिण्हित्तु समुट्टिओ समरधीरो । एत्थंतरम्मि दुण्ह वि सन्नद्धं चाउरंगवलं ॥ ५४ ॥ तरलतुरंगम खुखुन्नखोणिउच्छलिय बहलरयपसरं । उवसामितो गंडयलगलियमय जलप्रवाहेण ||५५|| उत्तुङ्गपयडपोओ कयलीवणराइरेहिरसरीरो । जंगमपत्र्वयपुञ्जो व्व सञ्चिओ गयघडावीढो ॥५६॥ निदुरखुरपहारकंपावियमहिहर - खोणिमंडलं, उचणियसेस रायगुरुमणहरु पसरिउ तुरयमंडलं । सेल्ल-मुमुंदि - कुंत - चावल्ल-सरासणभरिय संदणा, चोइय चडिय समरदप्पुद्धरकंधर रायनंदणा ॥ ५७॥ सुहडा परिफुरंत रणदुज्जयविक्रमबाहुपंजरा, संचलिय करालकरवालवियारियमत्तकुंजरा | कियअन्नोन्नचहलहलबोलसमा उलभुवणकंदरं, दलमभिट् टु समरि उद्धाइय पडिभडसुहडसुंदरं ॥५८॥ अभिट्ट गएहिं गया तुरया तुरएहिं रहवरेहिं रहा । सुहडा सुहडेहिं समं अन्नान्नसमच्छरं जाव ॥५९॥ तत्तो दवदंती कंचणकलसं करेण जलभरियं । गिण्हित्ता उल्लवियं निवुइदेविं मणे काउं ॥ ६० ॥ जइ हं जिणपचयणऽनन्न माणसा निञ्चला य सम्मत्ते । तो दोण्ह वि कुमरबलाणमुवसमं कुणसु तं देवि ! ॥ ६१॥ इय जंपिग तत्तो चुलयतिगं कणयकलससलिलस । उभयवलेनुं पक्खिवइ जाव नवकारपुञ्व-न्ति ॥ ६२ ॥ उवसमियवइरभावो कन्हडदेवो समागओ ताव । उम्मुक्कमंडलग्गो आसन्नं नलकुमारस्स ||६३|| चलणे निवडणं आबद्धकरंजली भणइ एवं । सप्पुरिस ! मेऽवराहं खमसु तुमं जो कओ पुवि ॥ ६४ ॥ अज्जप्पभि तं मज्झ सामिओ किंकरो अहं तुज्झ । तं दणं चरियं रायाणो विम्हिया सवे ॥ ६५ ॥ खणमेत्तं जा चिट्टद्द नरनाहो सिद्धपुत्तओ तत्थ । विमलो विमलसहावो आगंतुं सो इमं भणडू ||६६ ॥ देव ! इमा दवदंती पाणिग्गहणस्स वट्टए वेला । तो वच्च वेइयाए वीसत्थो एत्थ मा चिट्ट || ६७ ॥ निस्सेसजणो मिलिओ दोण्ह वि पक्खाण वेइयाए तर्हि । वित्तं पाणिग्रहणं दिनं कुमरस्स नरवइणा ॥ ६८ ॥ दतिसहस्सं परमम्मि मंगले बीयए तुरयलक्खं । तइए सुवन्नकोडी तुरिए पट्टउलकोडिसयं ॥ ६९ ॥ १. नयण रं० । For Private Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा हि ३. शीलमाहात्म्य वर्णनाधिकारे दवदन्त्याख्यानकम् धरिओ दस दिवसाई कुमरो आबद्धकंकणो रन्ना । सम्माणिऊण अन्ने विसज्जिया निययदेसु ||७०|| अह वासरे पसत्थे जोका रेऊण समुरवभ्गं सो । दवदंतीए सहिओ संचलिओ नियपुराभिमुहं ॥ ७१ ॥ नलकुमरो सह पिउणा कुवंतो चलभरेण भूमितलं । बिसमं पि समं असमं जल पूरेणेव जलरासी ॥ ७२ ॥ अणवरयपयाणेहिं संपत्ती कोसलाए नयरीए । चउरंगबलसमेओ दिन्नावासो य उज्जाणे ||७३ || तत्तो सोहणादिवसे दइयाए समं रहे समारूढो । अइगरुयविभृईए पचिस जा निवइमग्गेण ||१४|| हल्लफलेण धावइ रमणियणो मिहुणमुस्सुओ दहूं । हरिसाऊरियदेहो पयडियअन्नन्नवाचारो ||१५|| Ain Education International अबला विरह एका अहरदले कज्जलं पवालनिभे । नयणजुयलम्मि अन्ना लायइ आलत्तयं रहसा ॥७६॥ अवरा बंधइ मुद्धा नियंत्रचिचम्मि तारहारलयं । पक्खिवड़ का वि कंटे रसणादामं सुवन्नमयं ॥ ७७ ॥৷ कलसिंजियरमणीयं पक्खिवइ करम्मि नेउरं का वि । फुरियमणिकिरण कंकणमवरा पायम्मि पक्खि || ७८ || कडियल कयमज्जारा पुत्त मोत्तुं विणिग्गया का वि । दरलिहियस हियमुत्तवल्लिया चल्लिया अवरा ॥ ७९ ॥ दरल्हसियपडिय संवारय परिहणग्गहणवावडकरग्गा । अइरभसगमणकंपिरथणवठ्ठललंतहारलया ॥८०॥ ओसर मज्झ पुरओ त्ति का वि कलहंतिया वणिक्खता । पेल्लंती थणवट्टण पहिजणं का वि संचलिया || १ || रमणीओ रमणिय परिचत्तसमग्गनिययवावारो । संपत्तो रायपहम्मि पभणए एवमन्नोन्न ||२|| धन्नो जए कुमारो जस्सेसा निवसुया लवणिमाए । उवहसियतियसमहिला महिलासदं समुम्बइ || =३|| एएसिं संजोगं अन्नोन्नमनन्नरूवसाराणं । कुवं तेणं विहियं चंगं भुवणे पयावरणा ||४|| वीइज्जतो वत्थंच लेहिमसरिसथुईहिं थुब्वंतो । झाजतो चित्तेण परममन्तो व्व रमणीहिं ॥ ८५ ॥ पिज्जतो गुरुनयणंजलीहि सवणोयरे [हि] सुवंतो । दंसिज्जंतो अंगुलिसएहिं चरिएहिं गिज्जतो || ८६॥ पेच्छिज्जतो सुमणोरहेहिं हियएहिं संभरिज्जंतो । अणुगम्मतो संतो संपत्तो रायभवणम्मि ॥ ८७॥ संसारियवियहं विग्गसारं समं पिययमाए । भुंजंतस्स कुमारस्त कोइ कालो अकतो ||८८ ॥ अन्नम्म दिने पुहईसरेण पव्वइउमुज्जमंतेण । संसारविरत्तेणं आपुच्छित्ता समतियणं ॥ ८९ ॥ रज्जा हिसेयपुत्र्वं निक्खित्तो नलकुमारबाहुम्मि । भुयदंड कंकणसमो समग्गविस्संभराभारो ||१०|| परिहरिय रायलच्छ सयं पुणो पालिऊण पव्वज्जं । नरनाहो मुहचित्तो संपत्तो देवलोमि ॥ ९१ ॥ संजाओ पुरवई सूरो सूरो व्व अखलियपयावो । रिवुवंस दाहदावानलोवमो नलकुमारो वि ॥ ९२ ॥ सोमत्तणेण ससिणा फुरियपयावत्तणेण दिणमणिना । सेविज्जइ तहस तगू घणवइणा धणनि हत्तेण ॥९३॥ जे न वि सिद्धा तप्पुवयाणमिह पत्थिवा अइदुगेज्झा । समरे निज्जिणिऊणं नियआणं कारिया ते वि ॥ ९४ ॥ सव्वगुणाणं निलयस्स पणइकमलायरस्स दिणमणिणो । परमत्थि जूयदोसो अहवा सवे गुणा दुलहा ||९५|| जुवरन्ना कुच्चरभाउणा समं रमइ निच्चमक्खेहिं । परिहरियरज्जकज्जो दुरोदरख्वसणरसिंयमणो ॥ ९६ ॥ पदिवस कीलंतेण हारियं तेण सयलमहिवलयं । रज्जं रसाऽवरोहं चउरंगबलं सकोट्टारं ॥ ९७ || किंबहुना ? निवसणयं मोत्तुं सव्वं पि हारियं अन्नं । जाव न थक्कइ तह वि हु तो भणियं कुच्चरेण इमं ॥ ९८ ॥ भो भो निवमंतियणा ! पच्चक्खं तुम्ह निज्जिओ एसो । जूएणमिमं भणिउं निस्सारेउं समाढत्तो ||१९|| चिंतेइ मंतिवग्गो सबंधवाओ वि पाणिणो एत्थ । जूयवसणम्मि गिद्धा किं दुक्खं जं न पार्वति ? ॥ १०० ॥ अत्थविणासं नियकुलकलंकणं सयण - मित्तनासं च । माणमलणं पि पार्वति पाणिणो जूयवसणेण ॥ १०१ ॥ पावंत बंधणं गोत्तिगोयरं भाररोवणं सिरसा । किं जंपिएण बहुगा ? अवि कत्तणमुत्तमंगस्स ॥१०२॥ १. अन्नोन्न० २० ॥ २ वट्टलुलंत रं० ॥ ३ वट्टे रं० ॥ For Private Personal Use Only ४६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अन्नं च आख्यानकमणिकोशे कज्जाऽकज्जं न मुणंति नेयऽवेक्वंति दुवखरिछोलिं । जह मम कण इमिणा होहि त्ति अणत्थपत्थारी || १०३ || एसो वि महाराया समम्गनरनाहनमियपयकमलो । सव्वगुणाण निवासो अणन्नसामन्नवल कलिओ ॥ १०४ ॥ रज्जाओ भट्टो जम्स पसाएण मलियमाहप्पो । दोससहस्सनिवासं ता धिद्धीधी ! इमं वसणं ॥१०५॥ नियत्रंणो विजेणं कुणंति सत्तत्तणं निरवसेसं । वज्जियकज्जाकज्जा ता धिङीधी ! इमं दसणं ॥ १०६ ॥ गुरुदुहतरुणां बीयं सयलअणत्थाण मंदिरं विउलं । कुलकित्तिविणासकरं ता धिद्धीधी ! इमं वसणं ॥ १०७॥ गुरुदारं नरयपुरम्स सच्चनलिणीवणस्स हिमपडणं । निस्सेसद्रोसगेहं ता धिद्धीधी ! इमं वसणं ॥ १०८ ॥ इह-परलोयविरुद्धे अणत्यहेउम्मि को रमेज्ज इहं ? । इय नाउं सवित्रेया जूयम्स परम्मुद्दा जाया ॥ १०९ ॥ नरनाहो वितओ निवलच्छीमुज्झिऊण नीहरिओ । तयणु पयट्टा गंतुं दवदंती जाव तेण समं ॥ ११ ॥ ता कुच्चरेण धरिया जूपणं हारिय त्ति कलिऊणं । जंपइ तो मंतिजणो मा मा असमंजसं कुणम् ॥ १११ ॥ सीमा महासईणं ति तुज्झ जणणि त्ति सामिणि तिऽम्हं । पाणप्पिय त्ति रन्नो न हु जुत्तं तेणिमं धरिडं ॥ ११२ ॥ 1 जोन्ह व्ब चंद्रविरहे जलहरविरहे तडिल्लयसिरि व्व । चंदणतरुविरहे तल्लय व्व जाल व्व सिहिबिरहे ॥११३॥ छाय च वच्छविरहे द्विणयरचिरहम्मि दिवसलच्छि व्व । बेल व्व जलहिविरहे मुह दुहपंति व जियविरहे ॥ ११४ ॥ रिद्धि व पुन्नविरहे सुरगिरिविरहम्मि तम्स चूल व्व । घणसंगयगयणगणविरहे हरिचावजट्टि व् ||११५ || पाणप्पियस्स मणवल्ल्हस्स विरहम्मि नल्नरिंदम्स | खणमेत्तं पि न चिट्टइ एसा वि महासई एत्थ ॥ ११६ ॥ सम्माणि वत्थाइएहिं अवराहमवि खमावेउं । तत्तो इमं विसज्जसु तयणुवरोहेण एवं ति ॥ ११७॥ काऊ तयं सव्वं करुणाए समप्पिओ रहो एक्को । सो वि निसिद्धो रन्ना पउरजणो भगइ तो एवं ॥ ११८ ॥ सिमो मग्गो नरनाह ! कह णु चरणेहिं तरसि तं गंतु ? | देवी सिरीसमुकुमालतणुल्या कह् णु वचिहिही ? ॥ ११९ ॥ तम्हा गिण्हमु सामिय ! महापसायं करितु रहमेगं । उवरोहेणं नायरजणम्स तो रहवरारूढो ॥१२०॥ चंद्र इव जोहाए फुरियपहाए सहस्सकिरिणो व्व । सुरनाहो व्व सईए लच्छीए वासुदेवो व्व ॥ १२१ गउरीए वामदेवो व कामदेवो व्व कामवरिपीए । अमरकरि व्व वसाए हंसीए रायहंसो व्व ॥ १२२ ॥ गच्छंतो देवीए समं सकामाहिं नयणबाणेहिं । भिज्जतो सव्वंगं नायरजणतरुणरमणीहिं ॥ १२३ ॥ संपत्तो य क्रमेणं ऩयरीमज्झे अभिन्नमुहराओ । तम्मि परसे दिट्टो अप्पमाणो महाथंभो ॥ १२४ ॥ उत्तरऊण रहाओ लीलाए चालिओ जणसमक्खं । जो पुरिससहस्सेण वि न तीरए चालिउं कह वि ॥ १२५ ॥ उप्पाडियम्मि तम्मि तो पउरजणस्स पच्चओ जाओ । एसो होही भरहद्धसामिओ नमियसेसनिव ॥ १२६॥ एयम्स बालभावे उज्जाणगयस्स सह नरिंदेण । पुच्छावसरे चउनाणसूरिणा कहियमेयं ति ॥ १२७॥ जो नयरीमज्झगयं थंभं उप्पाडिउं पुणो ठविही । सो भरहद्धनरिन्दो होहि त्ति न एत्थ संदेहो ॥ १२८ ॥ asari एसोचि होही तिक्खंडसामिओ जम्हा | मिलिओऽम्ह पच्चओ सो वयणं च न अन्नहा मुणिणो ॥ १२९ ॥ इय चयणं निगुणंतो पत्तो य पुरीए परिसरपएसे । वेयभविसयसमुह संचलिओ साहससहाओ ॥१३०॥ वणवासं वच्चते नलम्मि नयरी पउत्थवइय व्व । पचसियजण व्व निज्जायसयलसोह व्व संजाया || १३१ ॥ परिहरियस मम्गारामविविहकीलाविलासवावारा । उवरयविवित्तचच्चर - चउक्क- चउमुहजहिच्छकहा ॥ १३२ ॥ विरमंतमंजुसिंजियमद्दल रवमुहलपेच्छणच्छणया । विणिवत्तिय वेया लिय सुललियकव्वाभिलासा य ।। १३३ ।।।। उक्कीलिय व्व घडिय व्य चित्तलिहिय व्व कट्टमय व्व । अवहरियरयणसार व्व तह य सुन्न व्व वुन्न व्व ॥ १३४॥ झाडिय व्व मोट्टिय व्व चिट्टइ मणम्मि झायंती | मोक्खं व नलं गुरुदुक्खवारणं मुणिजणो व्व सया ॥ १३५ ॥ १. उप्पाडियं रं | For Private Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शोलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे दवदन्त्याख्यानकम् अन्नं च--- ससहररहिया रयणि ब्व गयणमुत्ति व्य विगयरविबिंबा । सुत्ति व्व गलियमुत्ता गयहंसउला मुरसरि व्य ॥१३६।। सरसि व्य कमलमुक्का सुरपरिचत्ता विमाणलच्छि व्य । परिगलियजोवणा कामिणि व्व सेण व निवरहिया ।।१३।। उप्पाडियकप्पतरु व्य वाडिया चुयमणि व्व हत्थलया । नलनिवरहिया नयरी न सोहए गुणसमग्गा वि ॥१३८।। नलराया वि वयंती वेयभपहण अडविमइभीमं । पत्तो य तत्थ भिल्ला समुट्ठिया सत्यवग्गकग ।।१३९।। रे रे ! गिण्हह गिण्हह इय जपते नलो वि ते दट्टुं । दवदंति-वग्गसहिओ ओयरि रहवराओ ठिओ ।।११।। जा जुज्झिउं पवत्तो ता दवदंती विनुक्कहुंकारा । जंपइ सालय हावा मह हुंतु इमे हयपयावा ।।१४१॥ नट्टा उत्तट्ठमणा त भिल्ला रहवरं गहे ऊण । राया देवीए समं पाएहिं गंतुमारद्धो ॥१४२॥ निट्ठर खाणियलेऽदभदभसूई हि भिन्न चरणा सा । अंगम्मि अमायंतं रुहिरमिसा वमइ निवरायं ।।१४३।। किच्छेणं गच्छंती वच्छच्छायाए सुइरमच्छंनी । तह गंतुमणिच्छंती पेच्छंती रिच्छरिछोलि ॥१४४|| तो गंतुमचायंती नेइ नलो करयलम्मि धरिऊणं । पुरिसम्स दुक्ख हेऊ सव्वावत्थासु जं नारी ।।१४५|| उवरिं तवेह सूरो हेट्ठा धरणी मणम्मि संतावो । वच्चंति जत्थ तत्थ व खणमेत्तसुहं न पावंति ॥२४॥ एत्थंतरम्मि मित्तो तसिं दट्टणमावई परं । मित्तत्तमकुणमाणा लज्जाए अदसणं पत्ता ॥२४॥ अह पत्थियम्मि कत्थइ रविसिंहे गयणकाणणं मोत्त । अप्फुन्नं भवणवणं तमिस्सगयरायवंतहिं ॥२४॥ सप्पंतसप्प की ऊतकोलकुल-संचरंतमहिसेहिं । वहल तरं संजायं तमपडलं तह तमालहिं ॥१४९॥ दहसंतत्तो राया राएणं चेव निव्ववेयव्यो । इय चिंति व राया समुग्गओ तं सुही काउं ॥१५॥ गाहंतो गयणसरं तारागणकुमुयदंतुरमगाहं । रेहइ रयणीनाही हरधवलो रायहंसो व्व ॥१५१।। मम्गपरिम्समिपणं रन्ना तरुपल्लवेहिं रइयाए । सेजाए निसन्नेणं पयंपिया पिययमा एवं ॥१५२।। सुवसु पिए ! तमिह जओ घणसावयभीसणं अरन्नमिमं । जग्गेमि जेण भणियं नत्थि भयं जगमाणम्स ॥१५३|| इय जंपिय आयड्ढियखगकरो पहरए ठिओ राया । मग्गपरिस्समपरिसंतरुइरकोमलसरीरा य ॥१५४|| रन्नो पावरणपडम्स पाथरेऊण एगदेसम्मि । सुत्ता भीमरहमुया नली वि अह चिंति र लगाः ॥१५५।। विद्धी ! जयव्वसणं धिरत्थु भोगाण जेसि कजम्मि । पुरिसो सहोयरम्मि वि सत्तुत्तेणं व ववहरइ ॥१५६।। धन्ना ते जियलोए भरहनरिंदाइणो महासत्ता । जेहिं अगंजियमाणेहिं दो वऽवत्थाओ पत्ताओ ॥१५॥ अणवज्जा रज्जसिरी पवज्जसिरी अणुत्तरा चेव । अम्हे पुणो अहन्ना चुक्का दोण्ह वि अवत्थाणं ॥१५८॥ सेवा अहिमाणधणम्स काउमिहि न संगया मज्झ । पवजा वि न जुज्जइ विसयपिवासापरवसस्स ॥१५९।। एयाए समं मज्झं परिभमंतम्स जायइ विणासो । एसा वि हु पाविसई मुक्का एगागिणी मरणं ॥१६॥ अहवा महासईमिममुववेउं न सक्कए कोइ । नियसीलपहावेणं पभायसमयम्मि पडिवुद्धा ॥१६॥ एसा ममपेच्छंती सत्थं लद्ध ण कं पि तेण समं । वच्चिस्सइ नियपिउणो भवणं एयाओ रन्नाओ ॥१६२।। अहयं तु कम्मि वि पुरे गंतूणऽज्जेमि लच्छिविच्छड्डूं। पुणरवि संगोविम्स एयं माहप्पसंपत्तो ॥१६३० इय चिंतिऊण रन्ना अंगुलिरुहिरेण पडयपज्जंते । लिहियं गाहाजुयलं सम्मं ललियखरेहिमिमं ॥१६४॥ नग्गोहतरुतलेणं वेयम्भं वच्चए पहो एस । वामेण कोसलपुरि जत्थिच्छा तत्थ गंतव्वं ॥१६५।। अहयं वसणऽभिभूओ रज्जसिरीवजिओ नरिंदाण । सेवं काउमसत्तो तेण विएसम्मि वच्चामि ॥१६६।। कहिचंते वत्थे इमीए देहेण चंपिए सहसा । मा जग्गउ त्ति एसा छेत्तं छुरियाए पडमद्धं ॥१६॥ नीहरिओ तरुगहणं लंघतो मम अजत्तमेयं ति । भजामुयणं मन्ने चिंतेउमदंसणं पत्तो ॥१६॥ अह वेयन्भनिवस्या पहायसमयम्मि विगयनिदा सा । नलरायमपेच्छंती धसक्किया उट्टिया जाव ॥१६९।। १. इ धिरत्यु एगा-२०। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आख्यानकमणिकोशे ता पेच्छद् पडयद्धं छुरियाछिन्नं तदेगदेसम्मि । रुहिरेण लिहियमेगं गाहाजुयलं च संभंता ॥ १७० ॥ तं घेत्तु ं परिभावड् जाव तयत्थं मणम्मि दवदंती | मुच्छानिमीलियच्छी ता झत्ति महीयले पडिया || १७१ ॥ संपाविऊण कहमवि चेयन्नं सिसिरवारणा तत्तो । कलुणसरेण पलावे सुदुखिया का उमारा || १७२ ।। हा नाह ! हिययवल्लह ! हा सामिय ! हा विसालवच्छयल ! । हा पिययम ! जंपंती निक्करुणं हणइ वच्छयलं ॥ १७३ ॥ एगागिणीमहन्नं मोत्तुमणाहं गओ तुमं कत्थ ? । जीवामि नाह ! खणमवि नाहमरनम्मि तुह विरहे ||१७४ | जावज्जविन हु विदलइ हिययं मे सामि ! तुज्झ विरहम्मि । ता धरतु तमागंतुं तुरियं तं दुक्खियमणाए || १७५ ।। इच्चाइ चिलविऊणं चितइ चित्तम्मि कम्मि दिसिभाए । वच्चामि संपयमहं ? पियभवणं ? अहव सासुरयं ? ।।१७६ ।। पड़-पुत्तविरहियाणं नारीणं दुसहदुक्खकलियाणं । मोत्तृण जणयभवणं विसामो नत्थि अन्नत्थ ॥ १७७॥ इयं चिंतिय दवदंती गंतुं लग्गा वियन्भदेसस्स । मग्गो जो दइणं कहिओ गाहादुगेणं ति || १७८|| सरिऊण पुणपणो सिणेह सारं गुणाण पव्भारं । अइकलणसरं रोयइ तत्तो अच्चंतदुदुहिया || १७९ || हा हा करुणासायर ! हा सुहयसिणेह ! हा महाधीर! । हा वीर ! पुहइवच्छल ! हा पिययम ! कत्थ दीसिह सि ? ॥ १८० ॥ पंथाओ प-भट्ठा बच्चंती जणयदेसमडवीए । अल्हंती तं मग्गं तत्थेव ठिया बहुं कालं ॥ १ ८१ ॥ परिगलियसोयभावा अपुव्वपरिणामभावमणुपत्ता | चिंतइ मोहविनडिओ किं सरसि न जीव ! अप्पाणं ? ।। १८२ ॥ जत्ति यमेत्तो नेहो दुवखाण गणो वि तत्तिओ चेव । ता दुक्खकारणम्मि पडिबंधो तत्थ को तुझ ? || १८३ || केत्तियमेत्तं एयं इट्ठविओयरस संतियं दुक्खं ? | जीवा पावंति अणुत्तराइ दुक्खाइ नरए || १८४|| किं तुह दुक्खमपुत्रं संजायं जीव ! जं समुब्वियसि ? । पियसंजोगविओगा अनंतसो पत्तपुत्र्व त्ति ॥ १८५ ॥ जं पुण अपत्तव्यं सम्मत्तं कप्पपायवऽभहियं । तं इण्टिं संपत्तं ता पालमु तं चिय विमुद्धं ॥ १८६॥ इय संचिय नियमणं गुहाए जिण साहुचंद गुज्जुत्ता । जा चिट्टद्द ता कइया [वि] सुमरियं जणणिजणयाणं ॥ १८७॥ जइ कह विहु पंथमहं लभामि रन्नम्मि सुत्थसत्थं वा । नियजणयगिहं गंतुं निव्वयहियया करेमि तवं ॥ १८८ ॥ 1 चिंतिय पुत्र्वदिसाभाए जा जाइ ताव संजाओ । उदयपयावसहिओ सूरो सुयणो व्व मज्झत्थो ॥ १८९ ॥ दिणयरखर किरणगलंत सेयबिंदू तमालमूलम्मि । निदं काऊण पुणो पडिबुद्धा जाव दवदंती ॥ १९०॥ तह विहु वच्छच्छाया तं मुत्तूर्ण न अन्नओ सरइ । पेच्छइ य दुट्टसावयसमूहमह सम्मुहं इंतं ॥१९१॥ तं दहियमणामणहरसद्देण भणिउमरद्धा । जइ मज्झ सीलरयणं अगंजियं ता इमे सव्वे ॥ १९२॥ गच्छंतु नियावासं तं वयणं अमयसन्निहं सोउं । तिपयाहिणीकरेउं सट्टाणं ते गया सिग्धं ॥ १९३ ॥ पुरवित्तविद्धा नियचलणं पेच्छए अयगरेण । अइकसिणदारुणेणं खज्जंतं भणइ तो एवं ॥ १९४ ॥ भो भो निट्टूर अगर ! जड़ होमि पइव्वया अहं लोए । ता मुयमु मं महाबल ! निस्सरणमरन्नमज्झमि ॥१९५|| इय जंपिऊण हत्थेण आहओ मत्थए अयगरो सो । सीलस्स पहावेणं सो वि गओ सिग्घमन्नत्थ ॥ १९६॥ अन्नत्तो वच्चंती पत्ता सीहेण जंपए एवं । सीह ! तर पत्ताए सरणं मे नत्थि किं पि इहं ॥ १९७॥ मोत्तृण सीलरयणं ता जड़ मणयं पि खंडियं एयं । ता खायमु मममिहिं अह न वि तो चयमु सट्टाणं ॥१९८॥ इनिणिऊण वयणं मुक्का हरिणा पयाहिणीकाउं । एवं हिंडंतीए पभूयकालो इतो ॥ १९९॥ नवरं कंद्रफलाई आहारतीए सयलमवि देहं । जाव विणट्टं तत्तो मणम्मि सा चिंतए एवं ||२०० ॥ गिहिस्सं जिणदिक्खं गंतुं किर जणयमंदिरं अइरा । इण्हिं पुण कहमेयं मज्झ सरीरं विट्टं ? ति ॥ २०१ || इहलोय-पारलोइयसुहाण ता वंचिया धुवं अहह्यं । पढमं सरीरमिह होइ साहणं जेण कज्जाणं ॥ २०२ ॥ ताज माहप्पं पालियम्स सीलस्स अस्थि भुवणम्मि । ता होउ मम सरीरं पुणन्नवं तप्पभावाओ ॥ २०३॥ इय जंपिऊण तीए निट् टुयणं गिहिऊण वयणाओ । उव्वट्टियं सरीरं संजायं कंचणच्छायं ॥ २०४ ॥ १. पिउभवणं रं० । २. जीव ! रं० । ३. सुमरिउं रं० । For Private Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे दवदन्त्याख्यानकम् अन्नत्थ पज्जलंतं पेच्छइ जालाकलाबदुप्पेच्छं । वणदावं दहमाणं सव्वत्तो सत्तसंघायं ॥२०५॥ तं दट्टणं निस्सेससत्तसंहारकारिणं तीए । सीलेण साविऊणं विज्झविओ सो समग्गो वि ।।२०६॥ अन्नत्तो गच्छंती कोइलकुलकंठकालमरुणच्छं। विसमविसपुन्नवयणं नियइ भुयंगममरन्नम्मि ॥२०७|| दट् ट्रणमखुहियमणा जंपइ चित्तेण वंछिओ न मए । जइ परपुरिसो एसो सट्टाणं जाउ तो भुयगो ॥२०८॥ तं वयणं सोऊणं भुयगो अन्नत्थ नासिऊण गओ । दवदंती पुण पंथं गवेसमाणी भमइ रन्ने ॥२०९॥ एगम्मि तरुतलम्मि संझासमयम्मि चिट्टए जाव । ताव अइदीहकाओ निल्लालियदीहजीहमुहो ।।२१०।। अट्टहासपूरियदियंतरो धूमधूसरसरीरो। पिंगलनयणो कन्नावलंबियासियभुयंगदुगो ॥२११॥ अइनिसिय-दीहदाढो करालवयणो गलंतमुहलालो । निस्साणंतो कत्तियमणवरयं हड्डखंडम्मि ||२१२।। रुहिरारुणकरजुयलो बीभच्छो जणियजणमणुत्तासो । पायडियसिराजालो संपत्तो रक्खसो एगो ॥२१३।। नियसीलपहावेणं पसन्नक्यणेहिं करहियओ वि । उपसमिओ तह कहवि हु जह जंपइ रक्खसो एवं ॥२१४॥ तुट्टो हं तुह भद्दे ! पत्थेमु वरं मणिच्छियं किं पि । जेण जयम्मि अमोहं देवाणं दंसणं होई ॥२१५॥ सा जंपड मह संपइ पओयणं नत्थि पत्थियवरेण । पभणइ पूणो वि रक्खो तहा वि मग्गेसु किं पि तुमं ॥२१६॥ तो जंपइ दवदंती जइ एवं ता तुमं मह कहेसु । मह दइएणं सद्धि समागमो होहिही कइया ? ॥२१७॥ तो भणइ रक्खसो बारसम्मि वरिसम्मि तुज्झ जणयस्स । पासे नलेण सद्धिं होहि त्ति समागमो भद्दे ! ॥२१८॥ पणमित्त गओ देवो सट्टाणं सा वि सत्थियनरेहिं । दिट्टा तत्थुवविट्टा नीया निययम्मि सत्थम्मि ॥२१९॥ आसन्ने संपत्ता तत्थ वि धणदेवसत्थवाहेण । पुढे तीए कहिओ नियओ सम्वो वि वुत्तंतो ॥२२०॥ संचलिओ सो सत्थो दवदंती वि य गया समं तेण । संपत्तो य कमेणं वच्चंतो अयलपुरनयरे ॥२२१॥ नयराभिमुहं चलिया गच्छंती सलिलपुन्नवावीए । पत्ता तत्थ पविट्ठा सलिलकए कह वि दवदंती ॥२२२॥ पक्खालियकर-चरणा सीयलजलविहियतण्हवुच्छेया। उवविठ्ठा वावीए तडम्मि जावऽच्छए एसा ॥२२३।। एत्थंतरम्मि तन्नयरवासिरिउवन्नपुहइपालम्स । दासीओ संपत्ता जलकीलथं इमा ताहिं ॥२२४॥ दिट्ठा तो सप्पणयं नीया नियसामिणीसयासम्मि । विहियपणामा देवीए नाइदूरम्मि उवविट्ठा ॥२२५॥ . भणिया चंदजसाए संभासेऊण कोमलगिराहिं । वच्छे ! तुमं पि धूया मह चंदमईए सहिय त्ति ॥२२६॥ तम्हा चंदमईए गिहम्मि अच्छसु सुहेण तं वच्छे ! । तीए वि विणयदाणाइणा जणो रंजिओ सव्वो ॥२२७॥ तम्मि पुरे देवीए सत्तागारं करावियं तत्थ । दीणाईणं दाणं अणवरयं दिजइ जहिच्छं ॥२२८॥ जइ कहवि कुओ वि नलो आगच्छइ तत्थ इय विचिंतेउं । देवीए सम्मएणं दाणं सा देइ तत्थ ठिया ॥२२९।। एत्तो वेयव्भनराहिवेण निसुओ नलम्स वुत्तंतो । रजन्भंसाईओ जाव अरन्नम्मि संपत्तो ॥२३०॥ जीवंतस्स मयस्स व कुसलपउत्ती वि जाव नो लद्धा। काऊण महासोयं तत्तो रिउवन्ननामस्स ||२३१॥ नरवइणो रहमित्तं विप्पं पेसेइ नलकुमारस्स । कुसलपउत्तिनिमित्तं संपत्तो रायपासम्मि ॥२३२।। पुट्टो सो नरवणा सव्वं रज्जाइकुसलवुत्ततं । तेण वि रन्नो कहियं सकलत्तनलम्स निस्सरणं ।।२३३।। तं सोऊणं सयलं पि राउलं सोयदुक्खियं जायं । सो भोयणमलहंतो तत्थ गओ दाणसालाए ॥२३४॥ तेण तहिं सा दिट्ठा जायं दोन्हं पि पच्चभिन्नाणं । तत्तो सदुक्खमेसा वुत्तंतं पुच्छिया सव्वं ॥२३५॥ तं मुणिऊणं विप्पो चंदजसादेविअंतियं पत्तो । मा खिजसु देवि ! जओ लद्धा एत्थेव दवदंती ॥२३६॥ सा कत्थ ? तेण भणियं जा दाणं देइ दाणसालाए । इय सुणिऊणं पत्ता चंदजसा तीए पासम्मि ||२३७॥ दवदंतीए कहिओ रज्जन्भंसाइसयलवुत्तंतो। चंदजसादेवीए संपत्ता जाव एत्थ अहं ॥२३॥ तीए वि हु सप्पणयं दवदंती निययमंदिरे नीया । सम्माणिया सहरिसं वत्थाऽलंकारमाईहि ॥२३९।। रहमित्तेणं भणिओ नरनाहो अन्नवासरे नमिउं । देव ! इमा दवदंती पेसिजउ जणयभवणम्मि ।।२४०॥ दवदंतिविओयदुहाउराण भीमरह-पुप्फदंतीणं । संपजउ परमसुहं नियतणयादसणेणं ति ॥२४१।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आख्यानकमणिकोशे एवं पयंपिणं सत्यदिवसम्मि नरवरिंदेण । चउरंगबलं दाऊण पेसिया जणयपासम्म || २४२ ॥ अखंडपणेहिं गच्छंती जणयसन्तियं नयरिं । संपत्ता भीमरहो विणिग्गको सम्मुहो तीए ॥ २४३॥ अइगरुयविभृईए पवेसिया नियपुरम्मि दवदंती | पणया य पुष्पदंतीपमुहाणं निययंजणणीणं ॥ २४४ ॥ पुट्टा नियचरियं रहमित्त मुद्देण साहियं सवं । अंतेउरमज्झगया बहुविकीला विणोएहिं ॥ २४५ ॥ | वती तत्थ दिया मणयं संपन्नमणसमाहाणा । मणचितियपूरिज्जतवत्थुनियरा जणयभवणं ॥ २४६ ॥ ग्रन्थामम् २००० ॥ ] एत्तोय नलनरिंदो भमतो विडविसंकडं अडविं । जा गच्छ ता च्छ मसिकसिणं भीसणं भुयगं ||२४|| कीलाविण अक्खुहियमाणसो विसहरं बहुपयारं । पक्खिवइ पुरओ दिट्टि जाव तओ पेक्खए एक्कं ॥ २४८ ॥ केऊर-कडय-कुंडलविभूसियं जच्चकंचणच्छायं । तियसं नियर्कतिपहाए भासयंतं दिसावलयं ॥ २४९ ॥ पद देवो नलकुमर ! तुज्झ जणओ अहं निसढराया । जेण तुह रायलच्छि दाउं तव चरणमणुचिन्नं ॥ २५० ॥ मरिण समुप्पन्नो तियसो तियसालयम्मि दिव्वम्मि । तत्थ निविट्टेण मए दिट्टो तं रज्जपट्टो || १५१ ॥ हितो अडवीए गुरुनेहवसा समागओ एत्थ । तुह सत्तपरिक्वत्थं बिसहररूवं मए विहियं ॥ २५२ ॥ नियदेहखणक इहि बहुवइरिओ तुमं जम्हा । ता गिरह मह सयासा रूवपरावत्तिणि गुडियं || २५३ ।। एवं ति मन्निगं गहिया गुडिया नलेण देवो वि । सट्टाणं संपत्ती हिंडता नलधरिंदों वि ॥ २५४ ॥ गुडियकयखुज्जवेसो संपत्ती सुंसुमारनयरम्मि | रायपहं जाव गओ ता दिट्टो गयवरो एक्की || २५५ ॥ वियरंतो सच्छंद निरंकुसो मयजलोल्लियकवोलो । आमूलं उम्मूलियनिच्चलआलाणगुरुखंभो ॥ २५६ ॥ पात हट्टाई भजतो मंदिराई सव्वत्तो । कोलाहलो पयट्टो चूरिज्यंतम्मि लोगम्मि || २५७ || हलबोलं सुणिऊणं नाणासिक्खाहिं खुज्जयनरेण । काऊण वसे हत्थी नीओ आलाणखंभम्मि || २५८ ॥ लोएणऽणुगमंतो पत्तो दहिवन्नरायपासम्म । दट्टु खुज्जयरूचं नरनाहो विम्हिओ चित्ते || २५९ || विन्नाणं तुह् अन्नं पि अस्थि रन्ना पर्यपिओ भगह | देवऽत्थि रसब निम्मवेमहं सूरपागेणं ॥ २६० ॥ | दसे मज्झ रविपागरसवई कोउयं भणइ राया । तेण विहियं तह च्चिय संजाओ गोरवाणं ॥ २६९ ॥ कत्तो तुह आगमणं ? पुट्टो रन्ना पुणो चिसो भणइ । नलरन्नो सूयारो हुंडियनामो अहं आसि ॥ २६२ ॥ बाहत्तरी कलाओ तस्स सयासम्मि सिक्खिया य मए । नियचिन्नाणगुणणं संजाओ वल्लहो रन्नो || २६३॥ वणवासं संपत्ते नलम्मि जूएण हारिउं वसुहं । कत्थ गओ स न नज्जइ अहं तु तुह पासमल्लीणो ॥ २६४ ॥ अह अन्नया कयाई दहिवन्ननरिंद्रसंतिओ दूओ । भीमरहस्स सयासं केणइ कज्ज्रेण संपत्तो ॥ २६५ ॥ तत्थगएणं तेणं कहिओ सूयारसंतिओ सव्वो । वृत्तंतो नरवइणो दवदंतीए समेयम्स || २६६ || भणियं दवदंतीए रविपागं रसवई मुणइ नन्नो । मोत्तृण नलनरिंदं ता होज्य अवम्स मज्झ पिओ ||२६|| ता केण उवाएणं आणेयव्वो इहं स सूयारो । नवरं दहियन्ननराहिवेण समयं जइ समेइ || २६८ || अलियसयंवरमंडवकचडेणं एत्थ पत्थिवो सो वि । हक्कारिज्जउ इय मंतिऊण बालाए सह रन्ना || २६९ ॥ तो पट्टविओ ओ तेणावि सयंवरो समक्खाओ । जह दिणपंचगमज्झे आगंतवं तए सिग्धं ॥ २७० ॥ अह जंपर दहिबन्नो दूरे देसो त्ति कहणु गंतव्वं । पच्चासन्नो दिवसो तो भणिओ हुंडिएण इमं ॥ २७१ || देव ! विसन्नो मा होसु नेमि तं तत्थ पहरमेत्ते वि । पभणइ राया कहमाह सो वि सज्जं करेऊण || २७२॥ संजमियतुरयसंदणमारुहमु सहस्सजोहचउसहिओ । एवं ति कए रन्ना सूयारेणं पयत्तेणं || २७३ || अस्सावहार विज्जाए कन्नजावो कओ तुरंगाणं । तो ते निसायकरवालसामलं गयणमुप्पइया ||२७४॥ अह गच्छंतस्स नरेसरस्स मणपवणजवणरहरयणे । धरणीयलम्म पडियं चरुत्तरीयं सिरम्गाओ || २७५ ॥ तंजोयंतो उतरललोयणो हुडिएण पडिसिद्धो । जोयणसयं सवायं जम्हा तं देव ! परिचत्तं ॥ २७६ ॥ पत्तो य कुंडिणपुरिं पवेसिओ महरिहाए रिद्धीए । सम्माणिओ समाणो पयंपिओ भीमरहरन्ना || २७७॥ For Private Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे दवदन्त्याख्यानकम् काउं सयंवरमिमं मए तुमं कोउपण वाहरिओ । मूयारदंसगकए विसेसकजं न उण अन्नं ॥२७८|| ता रविपागरसबईकरणे आइसमु निययसूयारं । तो दहिवन्नाएसाणंतरमिमिणा वि सा बिहिया ॥२७९।। भोयविओ भीमरहो सपरियणो तो तयं पलोएउं । उन्भूयभूरिपणया दवदंती चितिउं लग्गा ॥२८॥ नूणमिमो मझ पिओ नज्जइ रविपागरसवईकरणा । तह दंसणमेत्तेग वि विप्फुरणाओ सिणहस्स ॥२८॥ किंतु न रूवं तारिसमिमम्स इय चितिऊण जणयस्स । सा साहइ तं सोउं तेणुत्तमिमं पि संभवइ ॥२८२॥ सा भणइ न रोमं पि हु भिज्जइ परपुरिसफंसओ मञ्झ । नलकरफंसेण पुणा पुलइज्जइ सव्वमवि अंगं ॥२८३।। ता ताय ! परिक्विजउ करयलफंसेणिमम्स तह विहिए। संजाओ सवंगं तीए सिणेहेण रोमंचो॥२८४॥ एसो स एव इय चितिऊण चलणसु लग्गिउं तीए । तह कह वि पभणिओ सो जह नियावं कयं तेण ॥२५॥ तो भीमरहनिवेणं वद्धावणयं कयं विभूईः । दहिवन्ननरिंदेणावि खामिओ सकयमवराहं ॥२८६॥ वेयम्भवइप्पमिदहिं रायविदेहिं विहियपरिवारो । संजाओ पुहइवई पुव्वं व नमंतसामंतो ।।२८७|| अकंतेसु दुवालसवासेसु अहऽन्नया नलनरिंदो । नियबलभरभरियमहीवलओ पत्तो नियं नयरिं ॥२८८॥ . आवासिओ पुरीए परिसरधरणीयले तओ तेण । पट्टविउं निययं भणाविओ कुब्बरो एवं ॥२८९|| मोत्तणं मह रज्जं वच्च अहया पुणो रमसु जूयं । तो खेल्लियम्मि जूए जिणिऊण वसीकयं रजं ॥२९०॥ कुब्चरजुवरायम्स वि दिन्नो देसो नलेण नरवइणा । सव्वे वि सुहं भुंजंति रायलच्छि मुइरकालं ॥२९१।। अन्नम्मि दिणे उजाणपालपुरिसेहिं पणमिउं राया। विन्नत्तो संपत्तो चउनाणी देव ! उज्जाणे ॥२९२।। नामेणं जिणसेणो सूरी दूरीकयंतरारिगणो । सोऊण तयं दाऊण ताण निययंगआभरणं ॥२९३।। पगलंतमयजलोहं आरुहिउं वारणं महीनाहो । संतेउरो सकुमरो सकुव्बरो पउरपरियरिओ ॥२९४॥ नीहरिओ नयरीओ संपत्तो सूरिपायपासम्मि । पणमियमुणिकमकमलो उवविट्ठो उचियदेसम्मि ॥२९५।। धम्मकहापज्जते पत्थावं पाविउं पुहइपालो । पुच्छइ पणामपुव्वं सूरि सिररइयकरकमलो ॥२९६।। किं पुत्वभवे भयवं ! मए कयं ? जेण एत्तियं कालं । दवदंतीए समयं संजाओ दुस्सहो विरहो ॥२९७|| तो पभणइ मुणिनाहो आयन्नसु पुहइपाल ! सम्मं ति । एत्तो पंचमजम्मे अट्ठावयपव्वयसमीवे ॥२९॥ उक्खायखम्गनिजिणियसंगरो सव्वसंगरो राया । संगरपुरनयरम्मी अहेसि तं मम्मणो नाम ।।२९९|| वीरमईनामेणं एसा वि हु तुझ पणइणी आसि । गच्छंतेणं अह अन्नया य आहेडयम्मि तए ॥३०॥ दिट्टो मलमलिणंगो उवसंतो मुणिवरो समुहमितो । अवसउणो ति विचिंतिय बंधित्तु समंदिरे नीओ ॥३०१।। धरिओ तओ दुवालस घडियाओ तओ कयाणुतावेणं । छोडेऊणं मुक्को पयंपिओ तं कुओ ? कहसु ॥३०२।। सो जंपइ रोहेडयनयराओ समागओ इह पुरम्मि । गंतव्वं पुण अट्टावयम्मि जिणवंदणनिमित्तं ॥३०३॥ पडिलाभिओ य दोहिं वि जणेहिं तुब्भेहिं भत्तिकलिएहिं । तस्स समीवे दोन्नि वि सावगधम्मं पवन्नाइं ॥३०४॥ कइया वि हु वीरमई संपत्ता देवयाणुभावेण । अट्ठावयम्मि सव्वे वि जिणवरा पूइया तीए ॥३०५|| दट्टण तत्थ जत्तं कीरंति नमिरअमरनियरेण । तत्तो पहिहियया समागया निययनयरम्मि ॥३०६|| काराविया य तीए झलकिरहीरावलीहिं रेहंता । चउवीसं कणगमया तिलया मुत्तावलीकलिया ॥३०७|| एक्केवं उज्जमि कमेण आयंबिलाण वीसाए । दिन्ना गंतुं अट्ठावयम्मि तीए जिणिदाणं ।।३०८॥ भुवणगुरुणो विभूसिय भत्तीए तत्थ तिलयरयणेहिं । नियगेहमागयाए निसुयं निम्मलतवस्स फलं ॥३०९॥ तहा हि तवेण उत्तमो जम्मो कंती लायण्णमुत्तमं । तवेण स्व-सामिद्धी तवेण सुहसंपया ॥३१०॥ तवेण वित्थडा कित्ती तवेण मुहगत्तणं । सुरा वि पज्जुवासंति तवोगुणरयं सया ॥३११॥ तवेणं हंति लद्धीओ सग्गा मोक्खा तवेण य । तं नत्थि एत्थ कल्लाणं तवाओ जं न जायए ॥३१२॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे इय नियुणिऊण तीए भद्द-महाभद्दमाइया विविहा । विहिया तवोविसेसा उज्जमिया जिणमयविहीए ॥३१३।। आउक्खयम्मि मरि उप्पन्ना मज्झमाऽऽउया देवी । सोहम्मे सुहभावा नामेणं खीरडिंडीरा ॥३१४॥ ध्वनिवद्धायुत्तेण पावि पत्थियो वि पंचत्तं । बहलोदेसे पोयणपुरम्मि नयरम्मि उत्पन्नो ॥३१॥ आभीरधम्मिलाभम्स भारियारेणुयाए गम्भम्मि । पुत्तत्ताए जायस्स धन्नओ से कयं नामं ॥३१६॥ परिहरियबालभावो अंगीकयजोव्वणो पुरजणस्स । चारेइ सेरहीओ पियपीऊसो सुरो व्य सया ॥३१७॥ अह अन्नया य यमलियनहंगणे नवघणम्मि संपत्ते । गलगज्जते आसारवारिधाराहिं वरिसंते ॥३१८॥ उत्तत्तकणयसमविजुपुंजउज्जोयमाणभुवणयले । विप्फुरियफारमणिकिरणबंधुरे सक्कचावम्मि ||३१९॥ जाए कद्दमिलपहे नीलंकुररेहिरे धरावलाए । दिसिदिसिरडंतदद्दरकडुरवपरिपूरिए भुवणे ॥३२०॥ मंडियउदंडसिहंडिमंडलीतंडवम्मि मणहरणे । नवइंदगोवराईविरायमाणे महीवलए ॥३२१॥ विय सियकयंबमहुपाणमत्तपरिभमिरभमिरनिउरुंबे । फुट्टतकेयईगंधवासियासेसदिसिचक्के ॥३२२॥ एवंविधणसमए महिसिसमूहस्स चारणगएणं । दिट्टो उम्सम्गठिओ साहू नमिऊण भत्तीए ॥३२३॥ भणियं च तेण भयवं ! सेरहमारुहिय वसिममल्लियह । पभणइ मुणी न कप्पइ साहूणं वाहणारुहणं ॥३२४॥ तो पंकिलम्मि मग्गे मंदं मंद मुणी समं तेण । इरियावहं नियंतो पत्तो पुरपरिसरुद्देसे ॥३२५॥ भणिओ य तेण भयवं ! वीसमसु खणंतरं तरुतलम्मि ! जाव कुटुंबनिमित्तं नियवावार करेमि अहं ॥३२६।। दुद्धासु सेरहीसुं हिययम्मि पवड्डमाणपरिणामो ।स कयत्थं मन्नतो अप्पाणं पुलइयसरीरो ॥३२७॥ सुसिणिद्धदुद्धपूरियपारिं कलिऊण करयले भणइ । भयवं ! महापसायं काऊणमिमं अणुग्गहह ॥३२॥ तो भयवया विदव्वाइच उहमुद्धीर सुद्धमेयं ति । गिण्हित्त तयं उवविसिय थंडिले पीयममयसमं ॥३२९।। तत्तो तिकालवुद्धीए पत्तमाहप्पगुणविसेसेण । मुणिदाणेणं बद्ध भोगफलं धन्नएण तया ॥३३०।। त्यणु अइक्वन्ते केत्तियम्मि कालम्मि सुद्धपरिणामो । मरिऊणं हेमवए संजाओ मिहुणभावम्मि ॥३३१॥ उवभुंजिय मिहणमुहं मरिउं सोहम्मदेवलोयम्मि । उप्पन्नो पुनवसा नामेणं खीरडिंडोरो ॥३३२॥ तत्तो चुओ समाणो निसढनरिंदस्स नलनरिंद ! तुमं । पुत्तत्तेणुप्पन्नो नमंतनिस्सेसनरनाहो ॥३३३॥ वीरमई वि हु चविऊण देवलोगाओ पणइणी तुज्झ । संजाया दवदंती धूया धेयन्भनरवइणो ॥३३४॥ बारसघडियामेत्तं आसि मुणी जं तए पुरा रुद्धो । तं तिव्वकम्मबंधाणुभावओ तुज्झ नरनाह ! ॥३३५।। बारसवरिसपमाणो संजाओ दुम्सहो इहं विरहो । नवनेहनिम्भराए सद्धिं दवदंतिदेवीए ॥३३६॥ जं साहुणो विइन्नं दुद्ध तुमए चउत्थजामम्मि । निस्साधारणरिद्धीकलिया तुह तेण रज्जसिरी ॥३३७|| एईए वीरमईभवम्मि जं जिणवराण वरतिलया। दिन्ना तं भालयले तिलयो अरुणारुणो जाओ॥३३॥ जं पुण ताणुज्जमणं विहियं आयंबिलेहिं तेणेसा । दित्तिजुया संजाया महासइत्तेण संजुत्ता ॥३३९॥ एयं निसामिऊणं वियाणिउं तह य जाइसरणेण । पभणइ राया पणओ पुत्तं रज्जे निवेसेउं ॥३४०॥ पव्वज्ज़ गिहिस्सं तुझ सयासम्मि सामि ! संविग्गो । गंतूण तओ नियमंदिरम्मि सुपसत्थदिवस म्मि ॥३४१।। पुक्खलकुमरं रज्जे निवेसिउं पणइणीए संजुत्तो । गंतुं सूरिसमीवे पव्वइओ फुरियपरिणामो॥३४२॥ समहिज्जियसुत्त-ऽत्यो गीयत्थो नायसयलपरमत्थो । विहरइ गुरूहि सद्धिं नलरायरिसी पहयपावो ॥३४३॥ परिपालियपव्वजो अणसणविहिणा विसुद्धपरिणामो । आउयखयम्मि मरिऊणुप्पन्नो तियसलोगम्मि ॥३४४॥ अजा वि हु दवदंती समुवज्जियपउरपुन्नपन्भारा । तम्सेव य संजाया देवी दइयाणुरत्तमणा ॥३४५॥ तत्तो वि हु चविऊणं पव्वजं पालिऊणमकलंक । खविऊण कम्मसेसं पत्ताई सासयं सोक्खं ॥३४६॥ ॥ दवदन्त्याख्यानकं समाप्तम् ॥१३॥ १. सुस्निग्धदुग्धभृतद्रोणीम् || २. इमो विरहो २०॥ Jain Education Interational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकार सीताख्यानकम् इदानीं सीताख्यानकमारभ्यते तच्च यथा भरतजनयिच्या निजबरं याचितस्य निजजनकस्य वचनं प्रमाणयन् दीर्घवियोगवशसमुच्छलदबहलनयनाथजलप्लुतनयनयुगलेन भरतप्रमुखपौरजनेन निवार्यमाणोऽपि वसुन्धराभारधरणधौरेयो रूप-सौभाग्यादिगुणमणिरोहणगिरिः प्रशस्तकमल-कलश-कुलिशादिलक्षणलाञ्छितविग्रहः समग्रसुकुमारशरीरावयवः पादविहारेण लक्षणकुमार-जानकीसमन्वितो रामचन्द्रो नगरीतो निर्जगाम । यथा च नगरीपरिसरजिनायतनप्रतिष्ठितं भव्यजनकमलपबोधनाभिनवभानुमन्तं भगवन्तं समस्तव्यसनसन्दोहसमुद्रपतिजन्तुनिस्तारणसमर्थ यानपात्रमिव प्रणम्य मनुत्वा च 'स्वामिन् ! त्वत्पादपङ्कजं मम शरणम्' इति प्रार्थनां विधाय वनवासाय प्रतस्थे । गच्छंश क्रमेण गोकुलपल्लीपु 'हलाः ! हलाः ! पश्यत पश्यत शीघ्रमिमी कौचिन्मनुप्यको कामदेवाकारधारिणौ पृष्ठप्रदेशसंयमिततोणीरयुगौ करकलितनिबिडकोदण्डदण्डौ, इयं च रूप-सौभाग्यनिर्जितामरसुन्दरी काचिदनयोरेवैकतरस्य कस्यचित् कान्ता भविष्यति' इति जल्पन्तीभिः प्रादुर्भवदभिनवयौवनाभिः कौतुकाक्षिप्तमानसाभिर्वेगवशकम्पमानसमुन्नमद्भूनस्तनीभिर्गापवधूभिरवलोक्यमानः, साधर्मिकवात्सल्यद्वारेण वज्रकर्णादीनामुपकुर्वन् कल्याणमाल-वनमालादीनां समाधानमुत्पादयन् कुलचन्द्रकेवलिपाश्चप्राप्तजिनधर्मः, दण्डकारण्यमाससाद । यथा च तत्र त्रिगुप्त-विचित्र-चित्रगुप्तभिधानदर्शनप्रतिलाभनावाप्तपुण्यवशाद मनाक स्वास्थ्येन तस्थुषो दिवसा निजग्मुः । यथा च शम्बकुमारपरासुताप्रापण-खड्गापहारकारणप्रकुपितखर-दूषणाभ्यां सह युध्यमानस्य लक्षणकुमारस्य सिंहनादव्याजेन रणभूमि प्राप्तस्य रामदेवस्य 'हा तात ! हा मातः ! हा दयितार्यपुत्र ! महापराक्रम ! भ्रातृजायावत्सल ! लक्षणकुमार ! कृतान्तभीषणेनामुना केशरिणेव कुरङ्गकान्ता' इति प्रलपन्ती रावणेन सीताऽपहर्तुमुपचक्रमे । यथा च-- मा भैषीः पुत्रि सीते ! जति मम पुरो नैष दूरं दुरात्मा, रे रे रक्षः ! क्व दारान् रघुकुलतिलकस्यापहृत्य प्रयासि ? चञ्च्वाक्षेपप्रहारत्रुटितधमनिभिर्दिक्षु विक्षिप्यमाणमाशापालोपहारं दशभिरपि भृशं त्वच्छिरोभिः करोमि ॥१॥ इति तामाभाषयतास्फूर्जद्वज्रकठोरचञ्चुनखरं प्रान्तप्रहारस्फुटद्भालश्रेणिगलत्कदुप्णरुधिरच्छन्नेक्षणाडम्बरः । अन्धीभूय विहङ्गराजहृदयप्रत्तप्रहाराकुलस्तम्थावुज्झितविक्रमो दशमुखः खड्गं परिभ्रामयन् ॥१॥ इति नियुध्यमानेन सता जटायु पक्षिणा तादृशोऽपि रावणो विलक्षीकृतः । यथा च तेन प्रकुपितेन दृढपाणिप्रहारेण वराकोऽसौ पञ्चत्वं प्रापितः । यथा च ततः स्थानात् कुररीव सकरुणं क्रन्दन्ती कालरात्रिरिव स्वकुलस्य कालपाशवशीकृतेन तेनापहृत्य लङ्कां प्रापिता । यथा च 'यावद् भर्तृवार्ता नोपलभे तावद् न भोक्ष्येऽहम्' इति विहितनियमा जिन-गुरुचरणकमलबहुमानपरायणा प्रत्यहं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारवासितान्तःकरणा नानाप्रकारपिशिताशनप्रचुरप्रार्थनप्रवणवचनैः पवनैरिव कनकगिरिचूडा निप्पकम्पा पुरीपरिसरोपेवनपादपस्याधः पिशाचपतिप्रणयिनीभिः परिवृता तस्थौ। यथा च वलितेन रामदेवेन लतागृहे सीतामपश्यता म्रियमाणं जटायुपक्षिणमवलोक्य 'केनाप्यपहृता सीता निश्चिक्ये आः! पापीयान् कुलपांशनः श्वेव परोक्षापकर्ता मदीयकान्तामपहृत्य क्व यास्यति ?' इत्यहङ्कृत्याऽनन्तरं हृदयसंघटेन मुमूर्छ, लब्धचेतनश्च शोकवशविलुप्तविशिष्टविवेको यत् किञ्चित् पशु-तरु-लतादिकं पश्यति तत् सीता सीता' इति व्याहरन् एकदा गिरिगुहागहरमशिश्रियत् । तत्र च कुलिशशिखरखरनखरचरणचपेटापाटितकरटिविकटकुम्भस्थलविगलन्निस्तुलस्थूलामलमुक्ताफलप्रकरापहारविच्छुरितगिरितटं प्रज्वलज्ज्वलनज्वालाकलापकपिलविकटकेसरसटासङ्कटम्कन्धपीठं सुखमुप्तोत्थितं सिंहमेकमद्राक्षीदप्राक्षीच्च-सखे कण्ठीरव ! कच्चित् तदीयतनूदरदेशेनोपमितत्वदीयोदरदेशां स्वनितम्बबिम्बवितत्वदीयविकटकटीभागां मन्दभाग्यदुर्लभां भुवो भूषणभूतां भामिनीमेकामुपलब्धवानसि ?' इत्यापृच्छय पुरो व्रजन् सुस्निग्धदलपटलावलुप्तप्रत प्रादुर्भवदपरापरारुणारुणप्रवालपरम्पराकिरणनिकररजितदिक्चक्रवालं तदीयकुसुमस्तबककिजल्कभ्रान्तिभ्रमभ्रमरनिकररणत्कारबधिरितदिगन्तरं तरुणतरमेकमशोकतरुमपश्यदलपच्च 'रक्तस्त्वं नवपल्लवैरहमपि श्लाध्यैः प्रियाया गुणैस्त्वामायान्ति शिलीमुखाः स्मरधनुर्मुक्ताः सखे ! मामपि । कान्तापादतलाहतिस्तव मुदे तद्वन्ममाप्यावयोः, सर्व तुल्यमशोक ! केवलमहं धात्रा सशोकः कृतः ॥१॥ १. भ्यां चतुर्दशसहस्रसुभटः सह-रं। २. वनदेवरमणोद्यानपादपस्याधः पिशाचपतिप्रणयिनीभिः त्रिजटाराक्षसीपरिवृता-२०। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे नद यदि तदीयकर-चरणानुकृतनवदिनकरकिरणकरम्बितत्वदीयवालपवाला बालामस्मिन्नरण्ये सञ्चरद्दष्टश्वापदभीषणे भ्रमन्ती भवान् क्वचिदैक्षिष्ट ततो विस्पष्टमाचष्टां मद्यमण्दष्टकर्मकृतकष्टाय' इति तमशोक पप्रच्छ । अथो अतुच्छस्वच्छपयःसम्भाररङ्गत्तरगावलीविलसत्कलकृजितकलहंस-कुरर-कारण्डव- चक्रवाकप्रभृतिपतत्रिचक्रवालविराजकमलसरोवरावतंसायमानाऽमन्द मकरन्दरसलुभ्यदभ्रमरमालालेलिह्यमानमेकं नीलोत्पलमदर्शदवादीच अरे रामाहस्ताभरण ! भसलश्रेणिशरण !, म्मरक्रीडाब्रीडाशमन ! विरहिप्राणिदमन ! । सरोहं सोरंस ! प्रवरदल ! नीलोत्पल ! सखे ! सखेदोऽहं मोहं श्लथय कथय क्वेन्दुवदना ? ॥१॥ इत्यादि बहुविधं प्रलपन् यावदास्ते तावत् सम्बकुमारमरणप्रादुर्भवत्पराभवमहासमरसंरम्भपराजितापरराजखरदूषणत्रिमुण्डराजगजघटासंघट्टनिर्भयप्रादुर्भवत्सुझटमण्डनप्रभविष्णुजिष्ण भटपरम्परा-(पराभवोपलब्धजयश्रीसमालिङ्गितविग्रहः पर्यन्तितविग्रहो लक्ष्मणकुमारस्तं प्रदेशं प्रापत् । अथ तदवस्थं रामदेवं समालोक्य 'धिक कष्टम् , किममुप्यासह्यं दुःखमजनि येनायं विह्वलो विलोक्यते ?' इति परिभावयतस्तस्य रामदेवः सोत्कण्ठं कण्टग्रहं कृत्वा 'हा वत्स ! हता हतविधिना, मुषिता मन्दभाग्या वयम् , यतो भवदभ्रातृजाया केनाप्यपहृता' इति मुक्तमहासूत्कारमरोदीत् । लक्ष्मणोऽपि तत् श्रुत्वा शोकवशाद् ध्रियमाणोऽपि रामदेवेन बलाद् मूर्छया भुवः पृष्ठे पपात । पुनरप्युपलब्धचेतनोऽनेकधा प्रलप्य स्वयमेव सत्त्वमवलम्व्य 'स्वामिन् ! मा व्रज विषादम् , ईदृशमेवास्य संसारस्य .. स्वरूपमसारमिति । अपरं च गतं मृतमतिक्रान्तं न शोचन्ति विपश्चितः । गतं गतमतिक्रान्तमतिक्रान्तं मृतं मृतम् ॥१॥ तथा च संसारे वसतामिह कुशलं किं पृच्च्य ते शरीरभृताम् ? । पतितस्य दहनराशौ दग्धोऽसि न वेति कः प्रश्नः ? ॥२॥ इति चिरन्तनमुनिवचनै रामदेवं स्वस्थयाञ्चकार । ततश्च जन्मान्तरसम्बन्धविटसुग्रीवविनाशनोपकाराभ्यां मिलितसुग्रीवादिसमग्रवानरसैन्यः सीतान्वेषणाय हनूमन्तं लङ्कायां प्राहिणोत् । यथा च तेन सुभटशिरोमणिना आसालीव विनाशनेन प्रकटितात्मना सानन्दरावणकान्तापरिवृता कृशतनुनिष्कलङ्का तारान्विता द्वितीयाशशिकलेव. सीताऽवलुलोके । समाश्वासिता च रामदेव-लक्षणकुमारकुरालवानिवेदनेन । भणिता च 'मातर ! आरोह मम पृष्ठे, किं करिप्यति मम रावणः ? नयामि निजस्वामिपावें स्वाम्' इति । अभिहितं च तया-'नाहं वत्स ! एवमागमिप्यामि, त्वं पुनः शीघ्रं गत्वा आर्यपुत्रादीनां निवेदय कुशलोदन्तम्, अक्षताऽहं देहशीलाभ्यां तिष्ठामि' इति सीतया प्रेषितः । तदनु च तेन समुत्पत्य गगने विधूय बाहुपञ्जरं 'कथमहं पचनाङ्गजो हनूमानिहायातो ज्ञाम्ये ?' इति मनसि विचिन्त्य उपवनतरुभञ्जनेन तद्रक्षःकुमारादिगञ्जनेन तैस्तैः प्रकारैः सीतामनोरञ्जनेन नागपाशत्रोटनेन रावणपराभवसम्पादनेन विजजृम्भे। यथा च प्रासादतोरणानि भक्त्वा राक्षसभटानां मुखे धूली दत्त्वा पश्यतामपि लङ्कानगरीतो निर्गत्य रामदेवं प्रति प्रत्याववृते । प्रत्यावृत्त्य च यथा तेन हनूमता गगनचारिणा दीर्घसन्तापहारिणा विशिष्टसम्पत्तिकारिणा समुन्नतेन घनेनेव विलसत्कलापं पर मुत्कं केकिकुटुम्बमिव रामदेवादिनृपवृन्दममृतवर्षिणेव सीतावृत्तान्तनिवेदनेनाऽऽनन्दितम् । यथा च तं श्रुत्वा त्रिवलीतरङ्गभीषणललाटपट्टेनैकैकेनाहङ्कुर्वता सम्भूय रामदेवादिभटसमूहेनापारपारावारमतिक्रम्य हंसद्वीपे सेनां निवेश्य रावणेन सह योद्धुमारेभे । यथा च महासमरसंरम्भसम्मर्दैन विनाश्य रावणम् , अभिषिच्य लंकाया राज्ये विभीषणम् , स्थित्वा च कियन्तमपि कालम् , मत्वा च नारदवचनाद् मात्रादिवर्ग बहुवर्पसमुद्भूतप्रभूतवियोग[ दुःख ]दुःखितम् , निर्वाहितनिजप्रतिज्ञः साधं च ज-वानरेन्द्रचमूचक्रेण, समारुह्य च सह जानक्या रणन्मणिघटितघण्टारवाडम्बरं पुष्पकविमानम् . 'प्रिये! पश्य समुद्रोऽयम्' इत्यादि वस्तुजातं दर्शयन् , तेनैव पथा विभीषणपुनर्नवीकृतां शत्रुभिरयोध्यामयोध्यामाजगाम । तत्र च बन्धुजनपरिवृतः सुग्रीवादिसमस्तभटविभाजितदेशो निष्कण्टकं राज्यसुखमनुभवन् महाजनात् सीतापवादमाकर्ण्य वज्राभिहत इव १.कि-२० । २. ता मुद्रार्पणेन च राम०९।३. प्रेषितः चूडारस्नः । तदनु-२०।। Jain Education Interational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शोलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे सीताख्यानकम् अकार्ये तथ्यो वा भवतु वितथो वा किमपरं, तथाप्युच्चैधाम्नां हरति महिमानं जनरवः । तुलोत्तीर्णस्यापि प्रकटनिहताशेषतमसो, रवेम्तादृक् तेजो नहि भवति कन्यां गत इति ॥१॥ माहात्म्यभ्रंशभीतो जानन्नपि निदोषां सीतामरण्यान्यां त्याजितवान् । तस्यां च दुष्टश्वापदायामळ्यामेकाकिनी सुकुमारसर्वावयवा गर्भभारालसा भयभीतमानसा मूच्छीमगमत् । तदुपरमे च 'हा तात ! हा मातः ! हा भ्रातः !' इति बहुप्रकारं प्रलप्य मनाग विवेकवशादेवं चिन्तितवती-जीव ! क ते देव-गरवः ? व ते जनकादयः स्वजनाः ? क्व तद राज्यमुखम् ? इति, ईदृश एव चायं लोकः । यत:-- जन्म-जरा-मरणभयैरभिद्रुते व्याधि-वेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके ॥१॥ तथा पुनरपि सहनीयः कर्मपाकस्तवायं, न खल भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् । इति सह गणयित्वा यद् यदायाति सम्यक् , सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूय: कुतस्ते ? ॥१॥ किश्च रे जीव ! विपत्प्रचुरे संसारे वर्तमानः किं विषद्भ्यो विभेपि ? तथा हि संसारवर्त्यपि समुद्विजते विपदभ्यो यो नाम मूढमनसां प्रथमः स नूनम् । अम्भोनिधी निपतितेन शरीरभाजा संसृज्यतां किमपरं सलिलं विहाय ? ॥१॥ पुनरपि मोहवशाद् 'आः पाप जीव ! किं न म्रियसे ? कियदद्यापि जन्मान्तरनिर्वतितं पापमनुभवनीयमस्ति येनैवं निर्दोषोऽपि दुःसहं स्वजनतः पराभवं सहसे ? । तथा हि दृष्टा बन्धुविपत्तयः परिजने सीदत्यपि प्राणितं यातं भग्नमनोरथैः प्रणयिभिर्याच्नागिरः शिक्षिताः । यद्यद्यापि न तोषमेपि भगवन् ! धातस्तदादिश्यतां शक्ताऽहं प्रियजाविता स्वजनतः सोदु निकारानपि ॥१॥ इति दैवमुपालभमाना दृष्टा तदनुकूलकोदयात् सर्पक्रीडकपुरुषेणेव नागसंयमनाय समागतेन स्वकीयपितृस्वसृजेन वज्रजङ्घनरपतिना। नीता च तेन सगौरवं निजनगरीम् । स्थिता च तत्र मनाकु सुखिता नीतिरिवार्थ-कामौ, धर्मपरिणतिरिव स्वर्गा-ऽपवर्गों, सद्गुरुसेवेव समयपाठ-परमार्थी, कुलीनसङ्गतिरिव विनय-वर्णी, पात्रदानपरिणतिरिवेहलोक-परलोको, समस्तलक्षणोपेती पुत्रौ सुपुवे । तौ च क्रमेण निरुपद्रय-निरपायगिरिनिकुजालीनो चम्पकपादपाविव प्रवर्धमानौ क्रमेण चाभ्यस्तकलाकलापौ रमणीमनोमोहनं यौवनमनुप्राप्तौ। परिणायिती मातुलेन रतिरूपाः कन्यकाः । साधिताश्च ताभ्यां स्वपराक्रमेण दुःसाग अपि देशाः । कालेनाशीर्वाददानपुरःसरं नारदेन योधितौ जनकाभ्यां सह पुनरपि तेनैव निवेदितवृत्तान्तौ प्रणतौ प्रणयप्रधानं पादयोः । प्रवेशितौ च प्रवरजयवारणस्कन्धसमारूढी ध्रियमाणश्वेतातपत्रौ दोधूयमानशरच्चन्द्रचन्द्रिकारुचिरचामरयुगौ तदीयलावण्यामृतरसं नयनाजलीभिः पिबन्तीभिः पौरवनिताभिर्वर्ण्यमानी 'हला हलाः ! पश्यत पश्यत ताविमौ सीतापुत्री, यकाभ्यामुदरस्थिताभ्यां सीतादेवी बने मुक्ता इति प्रजल्पन्तीभिर्नागरकवधूभिर्वर्ण्यमानौ सदाख्यातकृत्प्रकरण-चतुष्कालङ्कृतं शब्दव्याकरणमिव राजभवनम् । अथादृष्टपूर्व गुणवस्त्रियपुत्रसमागमजनितमनाख्येयमानन्दमनुभवन् रामदेवो विज्ञन्तो विभीषणादिभिः-देव ! धर्मक्रियेव करुणाविकला, सुगुरुकुलावस्थितिरिव भक्तिरहिता, राज्यस्थितिरिव नीतिविनाकृता, तनुरिव दृगपाकृता, रसवतीव लवगरसवत्तां त्याजिता, शास्त्रसम्पत्ति रिव प्रशमपरिणतिपरित्यक्ता, महिलेव अपत्यसन्ततित्यक्ता, विभवसम्पत्तिरिवाहतिनिर्मुक्ता, गन्धर्व-विद्येव तालमानक्रियारहिता, शेषगुणसमन्विताऽपि नगरी इयं देवीं विना न शोभते तत् प्रसादं विधायाऽऽनीयतामिति । ततस्तदुपरोधेन प्रेषिताः प्रधानपुरुषाः तैरपि सविनयं प्रणम्य भणिता सीता । यथा-देवि ! त्वदानयनाय देवेन रामदेवेन वयं प्रेषिताः; तयाऽप्यभिहितम्-कोऽयं रामदेवः ? पर्याप्तं मम तन्नाम्ना, रामदेवतरुच्छायायामपि नाहं विश्राम्यामि, किमहमद्यापि न लभे सुखेन स्थातुम् ? इति। तैरप्याग्रहं विधाय समानीता। १. मानाद् विवे० रं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० आख्यानकमणिकोशे भणिता च रामदेवेन-देवि! क्षमस्व ममैकमपराधम् , पालय सह पुत्राभ्यां राज्यम् , अनुभव पञ्च कारं विषयसौख्यं विधाय शुद्धिमात्मनो जनसमक्षम् . सर्व भवदीयमिदं हस्त्यश्वरथादीति । तयाप्यभिहितम् --आः मायाविन् ? कियदद्यापि सन्तापयसि, भवतु भवत्वमीभिरधरान्तरजल्पितैः, पर्याप्तं मम विषयसौख्येन यत् पुनरवादीः 'शुद्धिं विधाय' इति तत्र प्रगुणाऽहम् , किं मम सकलङ्काया जीवितेन ? येन केनचिद् दिव्येन जनः प्रत्येति तदहमङ्गीकरोमि, परं किमन्यः शरीरसापेक्षैः कातरजनाचरितैर्दिव्यैः ? मम तावदयमभिप्रायःप्रविशामि ज्वलज्ज्वालाकलापजटिले महति विभावसौ, यदि ततोऽहं शुद्धा सार्धषोडशकवर्णिकावर्णनीयस्वर्णमयशलाकेव निर्गता ततः प्राणान् धारयामि । ततो जनेन प्रतिपन्ने खानिता हस्तशतत्रयप्रमाणा चतुरमा वापी । पूरिता निरन्तरं निविरीशसारश्रीषण्डादिप्रधानकाप्टैः। तद्नु च स्नाता स्वच्छश्रीषण्डविलेपनविलिप्ततनुर्निवसितधवलबसमा सरस्वतीव विद्वज्जनमान्या महासती सीता समागता चितासमीपे । श्रावितं च तया स्मृत्वा भगवन्तं व्यसन-शतनीरनिधिनीरनिमग्नजन्तुसन्ताननिस्तारणसमर्थ सबहुमानं निजमानसे पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं कौतुकवशागतसबालवृद्धनगरीजनसमक्षम् -'भो भो लोकपालाः शृण्वन्तु भवन्तः, श्रूयतां प्रतिपन्नसर्वज्ञशासनसत्त्वसन्तानत्राणरसिके शासनदेवि ! यदि मया रामदेवप्रभुं निजपतिं स्वजनकजनकदत्तं मुक्त्वा मनसाऽप्यपरं पुरुषान्तरमभिलपितं ततोऽयं भगवान् कृशानुर्यदुचितं तत् करोतु' इति वदन्ती स्वकीय] शुचिशीलभरवसन केन भयरहिता सरभसमुपसृत्य सीता समारूढा पश्यतां पौराणां द्वादशकल्पप्रभुपदवीमिव परमप्रभावकाष्ठां पुण्यचिताम् । दृष्टा च कृतपद्मासना पद्मेव पद्मासना पौरजनेन । तदनु च भणितं पुरवृद्धैः--अहो ! केनाप्युपायेन मुखतरेणापि शुद्धिरभविष्यत् किमनया एवमध्यवसितम् ? यदि वा सुकरमेवैतद् मिथ्यारोपितकलङ्कानां महासत्त्वानां सत्त्वानाम् । भणितं च लज्जां गुणोघजननी जननीमिवामित्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥१॥ अभिहितमपरैर्मध्यमवयोभिः-राजानः खल्वेते मस्तकमध्येन वर्तिनी कुर्वन्ति, कि केनापि करी कणे ध्रियते ? करभो वा करण्डके क्रियते ? अन्यथा किमेवंविधं पात्रमेवं विडम्ब्यते ? । अभाणि च तरुणनरैः--नूनमयं राजा मूर्यो य एवविधं देवानामपि । दर्लभं भोगयोग्यं च कलत्रं विनाशयति । प्रोक्तं च पौरवृद्धाभिः-भगवन् वैश्वानर ! शोधय सीताम. अम्मजीवितेनापि चिरं जीवत. निजभर्तुर्भागभाजनं भवत्विति । अवादि च मध्यममहेलाभिः--आ मातः ! किमनया मूर्त्या एवंविधं पापं क्रियते । जल्पितमुच्छखलतरुणीभिः -हला हलाः ? पश्यत सीतासदृशी नान्या नारी रूपवती, तत् किमेषा जनापवादभीता म्रियते? वश्चयत्यात्मानं खादन-पानेभ्यः, मृता मृतैरपि न दृष्टाः । सर्वथा स्वहितमादरणीयं, किं करिष्यति जनो बहुजल्पः ? । विद्यते हि न स कश्चिदुपायः, सर्वलोकपरितुष्टिकरो यः ॥१॥ अत्रान्तरे सीतावचनेन दत्तः समन्तादग्निः । तदनु च सीताशोकेनेव श्याममुखैमॆघपटलैरिव व्यापे परितः पीयूषपायिपदवी धूमनिवहैः । पश्चाच्च विद्यच्चमत्कारैरिव कृतान्तजिह्वाकरालैानशे अनिमिषवर्त्म ज्वलज्ज्वलनजटिलैालाकलापैः । अत्रान्तरे समुत्थितो हाहारवः–'हा ? मन्दभाग्या वयं क्व पुनरपि सर्वज्ञप्रतिमाया इव शान्तनयनायास्तव मुखं देवि ! द्रक्ष्यामः ?' इति प्रलपितुं लग्नाः पौरजनाः । 'हा वत्से ! पुण्यविकला वयं किल वृद्धभावं त्वत्साहाय्येन गमिप्यामः' इति मनोरथा विफला अभूवन्निति बहुप्रकारं प्रलपितुं लग्मा अपराजितादयः । 'हा मातमातः ! किलाहं तव यावज्जीवं विनयं करिष्यामि, रावणमारणप्रयासो निष्फल: सञ्जातः' इति सदुःखं सराजचक्रश्चक्रन्द सुचिरं चक्रधरो लक्षणकुमारः । किं बहुना ? तत्र प्रस्तावे स कोऽपि नास्ति यो न तदुःखेन दुःखितो मुक्त्वैकं वज्रकठोरहृदयं रामदेवमिति । एवं यावद् आक्रन्दन्ति तावत् क्षणेन दृष्टा वापी पुण्यवत्पुरुषभवनपरम्परेव कमलालया, क्वचिन्महाराजसभेव राजहंससमन्विता, क्वचिद् रम्यरामाकटिस्थलीव सारसनादितगुणरमणीया, क्वचिद् गगनवीथीव विलसन्मकराकीर्णा, क्वचिद् महाराजसेनेव यन्त्ररथविराजिता, क्वचित् स्वर्गपुरीव हरिशोभिता । यावत् क्षणाद् दृष्टं पद्ममेकं ईश्वरभवनमिव विलसत्पत्रम् , गगनाङ्गणमिव सन्मकरन्दराजितारकविलासरमणीय, मुनिवृन्दमिव विभ्रमरहितं, सिंहस्कन्धपृष्ठमिव विलसत्केसरम् । दृष्टा च तदुपरि सुखसमासीना मन्दभाग्यानां दुर्लभा सकलजननयनानन्ददायिनी लक्ष्मीरिव सीता । ततश्च 'अहो ? शुद्धा शुद्धा' इति समुच्च Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्य वर्णनाधिकारे रोहिण्याख्यानकम् ६१ शब्दमुच्चारयद्भिः सानन्दं दत्ता: समकालं जनैर्हस्ततालाः 'समुत्तीर्णा सीता तदारूढा । ततो रामदेवोऽपि सीतामागच्छन्तीं सरः श्रिय मिव विलसत्कमलाध्यासितां विस्फुरद्धारतारपयोधरां निर्वर्ण्यमाननिर्मलाधरां समानन्दितराजहंसां समालोक्य भविष्यतीयं तथैव प्रणयपात्रमित्यनुरागवशात् शृङ्गारवान् तथा मामनुचितकर्मकारिणं विशिष्टजना उपहसिष्यन्तीति सविलक्षहास्यसहायः, कथमियं मया निर्दयेन शिरीषकुसुमसुकुमारशरीरा कष्टमेवंविधं कारितेति सकरुणः, तथा कदाचिन्मामपराधकारिणमभिनिवेशादवगणय्य कश्चिजनकादिः यदि स्वीकरिष्यति ततस्तमुपमर्यापि ग्रहीष्यामीति रौद्ररसाविष्टः, तथा अत एव कारणाद् यद्यसौ जनकादिः मया सह संग्रामयिष्यति ततः खड्गबलेनापि तं पराजित्यामुमङ्गीकरिष्यामीति वीररसप्रवरः, तथा निष्करुण ! भवतु त्वया सह सङ्गमेन दृष्टं मया तव स्नेनुमध्यं को म्रियमाणानां मरिष्यतीति स्त्रीजनसुलभमाग्रहमवलम्ब्य मम प्रार्थयमानस्यापि वचनमवमंस्यत इति सभयः, तथा धिक् त्वां जीव ! विषयपरवशेयमात्मनो विशुद्धिनिमित्तमेवमध्यवस्यति त्वं पुनरद्याप्येतन्निमित्तं रणादिकं करोषि किमेतस्य श्यामलजम्बालपूर्णशरीराया मध्ये त्वया दृष्ट[ म् ? इति ] बीभत्सरस परवशः, तथा पश्य शीलमाहात्म्यमस्या येन तत्प्रभावाज्ज्वलज्ज्वालाकलापजटि[ ल ]ज्वलनादप्यक्षतशरीरा निर्गतेत्यद्भुतरसानुगतः, तथा धन्याः पुण्यवन्तस्ते केचन ये एवंविधं विषमस्वभावं प्रेमापहाय प्रव्रज्यां प्रतिपद्य शान्तमूर्त्तयः तपः समाचरन्तीत्यभिनवनवरससङ्कीर्णतामनुभवन् यावन्न किञ्चिद् जल्पति तावत् सर्वजनसमक्षं विधाय शिरसि कराञ्जलिं भणितं सीतया प्रभो ! त्वत्प्रसादान्मयाऽनुभूतं राज्यसुखम्, आरूढा पुष्पक विमानम्, पूरितानि कौतुकानि, यत् पुनरीदृशानि व्यसनानि तत्र न तेऽपराधो नाप्यन्यस्य कस्यचित्, ममैव जन्मान्तरजनितस्य कर्मणो विलसितम् साम्प्रतं भीताऽमुतो व्यसनशतभीमाद्भवचासात् मुञ्च माम्, प्रव्रजामि, मदीयं भवतो निखिलनागरिकनर-नारीनिकरस्य च मिथ्या दुष्कृतमिति प्रशस्तपरिणतिरूपं तद्वचः श्रुत्वा प्रत्यागतचित्तः पूरितगलसर णिर्विगलिताश्रुलोचनः संस्मृत्य तया सह विलसितं संस्तम्भितमूर्तिर्मूच्छितः । यावत् तं चेतनां लम्भयन्ति तावत् सीताऽनुकूलकर्मपरिपाट्या तत्र प्रस्तावे पूर्वमेव समवसृतः सार्वभूतिसूरिः । तेन च प्रव्राज्य समर्पिता सुप्रभप्रवर्तिन्याः । तत्र चासौ षष्ठाऽष्टमादितपश्चरणशोषितशरीरा परिपाल्याऽऽत्मानमिव निष्कलङ्कं प्रव्रज्यापर्यायं पर्यन्ते सम्यक्प्रतिपन्नप्रायश्चित्ता पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारस्मरणपरायणा प्रतिपद्यानशनं प्रवर्धमानप्रशमपरिणामा मृत्वा प्राप्ता द्वादशकल्पपीयूषपायिप्रभुपदवीमिति । यथा च शेषं बिभीषणपृष्टतस्याः कलङ्ककारणं राम-रावणयोर्वैरनिमित्तं सुग्रीव-रामदेवयोस्तु प्रतिबन्धकारणं तत् सर्वं रामदेवचरिताद् इहैव वा किञ्चिद् भणिप्यमाणनमस्कार फलप्रतिपादनपरगोकथानकादवसेयम् । ॥ सीताख्यानकं समाप्तम् ॥१४॥ पालिपुत्तम्मि पुरे कामिणिमणकमलमहुयरजुवाणो । नन्दो नाम नरिंदो तिव्वपयाचो दिणमणि व्व ॥ १ ॥ तत्थ नरेसरपज्जंतपउरसम्माणमंदिरं आसि । चंदो इव समयजुओ घणावहो नाम वरसेट्टी ||२|| विष्फुरियकंतिजुत्ता वरचित्ता तरलता रया कंता । तस्स मयलंछणस्स व नामेणं रोहिणी भज्जा ॥ ३ ॥ अवरं च तस्स आबालकालपरिपालियं हिययदइयं । मज्जार-सालहीणं जुवलं भवणम्मि संवसर || ४ || अह अन्ना निसाए संजाया सेट्टिणो मणे चिंता । उवभुंजिरं न जुज्जइ जणस्स जणणि व्व जणयसिरी ॥५॥ ते च्चिय जियंतु भुवणेक्क भूसणा माणवा गुणगरिट्ठा | जे नियविद्वत्तदविणेण दिति दाणं अणाहाण || ६ || खज्जन्ती परिवद्धइ कंडू न उणो कयाइ धणरिद्धी । ता दविणज्ञणकज्जे उज्जयिव्वं सुपुरिसेहिं ||७|| इय चिंतिऊण पउणीकाऊण कयाणगाणि बहुयाणि । दविणज्जणिक्कचित्तो पयंपए पणइणिं एवं ॥ ८ ॥ ससिवयणि ! मज्झ गमणं होही देतंतरग्मि दचिणकए । तुमए अपमत्ताए भवणं परिरक्खियव्वमिणं ॥ ९ ॥ अवरं च सुयणु ! मज्वार - सालहीजुयलमिममईवपियं । संभालेज्जसु तिक्कालमेव संभासणाईहिं ॥ १० ॥ छणहरिणलंछणा मलसीलं रमणीयणस्स निच्चं पि । मंडणमकित्तिमं ता पालेयत्र्यं पयत्तेण ॥ ११ ॥ तो सालहीए भवणं भलाविरं पणइणि विसेसेण । मज्जारं पि हु नियकरयलेण अंगे परामुसिउं ॥ १२ ॥ १. ०त्तीर्णा तीरं तदा रं० । २ प्रशमपरि रं० । इदानीं रोहिण्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् For Private Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे सम्माणिऊण सव्वाणि ताणि सेट्टी पसत्थनक्खत्ते । भरिए कयाणगाणं वहणम्मि तओ समारूढो ॥१३॥ तरिउं तरंगिणीणं नाहं रंगंतलहरिसंदोहं । पत्तो कमेण सिंहलदीवे एत्तो य णंदनिवो ॥१४॥ आरूढो जयवारणखंधे दोधुव्वमाणसियचमरो । धवलायवत्तवारियतरणिकरुक्केरसंतावो ॥१५॥ पिहुवच्छत्थलघोलंतथूलमुत्ताकलावकयसोहो । सव्वंगरइयसिंगारसुन्दरो दरियरिउदलगो ॥१६॥ कुणमाणो परिहासं सद्धि रइकेलिणा विडनरेण । बहुकामसत्थसंकहपरिकहणक्वणियहियएण ||१७|| मयगंधलु द्धरुणुझुणिरभमरदोघट्टथट्टसंजुत्तो । खणखणिरकणयनिम्मियखलीणयनियरपरियरिओ ॥१८॥ रणझणिरकणयकिंकिणिरहरयणारूढरायनियरेण । अणुगम्मतो संतो नीहरिओ रायवाडीए ।।१९।। पत्तो य धणावहसेट्टिधवलपासायभित्तिभायम्मि। तभवणमत्तवारणपरिट्टिया नरवरिंदेण ॥२०॥ पारूढपढमजोवणमणोहरा तत्तकणयगोरंगी । पच्चस्वकामवरणि व्व विरहिया कामएवेण ॥२१॥ दिट्टा मयंकवयणी रोहिणिरमणी तओ अणंगेण । कयकोवेण व बाणावलीहिं सो तक्खणे विद्वो ॥२२॥ दट्टण तयं तव्वयणकमलमवलोयणेककयचित्तो । तत्थेव मतकुंजरकी काउंसमारद्धो ॥२३॥ वारं वारं आवलियखंधरो ठाइ सम्मुहो तीए । पक्खिवइ य तव्वयणे नियनयणे नंदनरनाहो ॥२४॥ सा वि हु महाणुभावा महासई पेच्छिउं पुहइपालं । नयणेहिं समयणेहिं पेच्छंतमतुच्छवंछाए ॥२५॥ गिहमत्तवारणाओ ओयरिऊणं समंथरगईए । अन्नत्थ गया तत्तो नरेसरो तं अपेच्छन्तो ॥२६॥ तविरहजलणजालावलीहिं पज्जलियमाणसो तत्तो । काउं सरीरकारणछ उमं राय उलमणुपत्तो ॥२७॥ तीए विरहे सरीरे संजाओ मुम्मुरग्गिसमदाहो । न लहइ खणं पि सुक्खं तल्लोविल्लि करेमाणो ॥२८॥ मयणमहागगहिओ परवसो सव्वहा वि संजाओ। पहसइ गायइ रोयइ एमेव य सो परिभमइ ॥२९॥ तो मंति-मंडलेसर-सामंतप्पभिइपउरजणनियरो । अवलोइय नरनाहं तदवत्थं आउलीहूओ ॥३०॥ तो तेण विजवाइय-जोइसिया आणिया नरिंदपुरो। जंपंति य विजा उन्भसन्निवाओ इमो जाओ ॥३॥ ओयरयमज्झयारे कुणह नरिंदं निवायठाणम्मि । पिहिऊण दुवाराई विहेह पच्छायणपयत्तं ॥३२॥ पिय उ तहऽऽपट्टजलं कुणउ तओ लंघणाणि नरनाहो । जह अइरेण वि जायइ निरुयसरीरो पड्यकरणो॥३३॥ जंपति वाइया पुण गहिओ राया महागहेण जओ । रोयइ गायइ पहसइ नियइ करालाए दिट्टीए ॥३४॥ रइडं महीए मंडलयमुन्भडं भूयनासणं जंतं । आलिहिऊणं कगवीरकुवुमनियरेण पूएउं ॥३५॥ पृयप्फल-पत्त-कणिक-दीवियापमुहपूयउवगरणं। पत्तेयं च उसर्टि काउंतह जोइणो ॥३६॥ अवयारिऊण डझन्तगुग्गुलुच्छलियधूमगंधम्मि । मंडलए उववेसिय नरनाहं परममंतेहिं ॥३७॥ सरसवुडिल्लयअक्खयपरिपूरियमुट्टिविहियघाएहिं । अच्छोडिआ समाणों पउगीहोही न संदेहो ॥३८॥ जोइसिया वि हु एवं वयंति संतीए समइ दोसोऽयं । गहपूयणं च सेयं बारसिदाणं च सुपसत्थं ॥३९॥ एत्थंतरम्मि पत्तो रइकेली रायपायनमणत्थं । दट्टण तहावत्थं नरेसरं पणमिउं भणइ ॥४०॥ किं देव ! तुज्झ दुक्खं मह कहसु करोमि तस्स पडियारं । एवं वुत्तो वि न जाव किंपि जंपइ तओ तेण ॥४१॥ नायं निउणत्तणओ रोहिणिरमणीए एस नरनाहो । अवहरियमणो जह मुयइ उण्ह-अइदीहरुम्सासे ॥४२॥ तो भणियं नूणं पहु ! तुज्झ मणं कामिणीए अवहरियं । ता मज्झ कहमु तं झत्ति जेण एत्थेव आणेमि ॥४३॥ तं निसुणिलं नरिंदेण जंपियं किह तए इमं नायं ? । भणियं च तेण तुह देव ! दिट्टिसवियारदसणओ॥४४॥ वंकमणियाणि कत्तो कत्तो अद्धच्छिपेच्छियाइं च । ऊससियं पि मुणिज्जइ छइल्लजणसंकुले गामे ॥४५॥ सोऊण तयं तो भणइ नरवई हिययनिव्विसेसस्स । तुज्झ कहिज्जइ सव्वं पि गुज्झमेयं जओ भणियं ॥४६॥ जणणीए जणयस्स व भइणीए भाउणो वि भज्जाए । अवि होज अकहणीयं न उ सुहिणो नेहसारस्स ॥४७॥ १. पारंभपढम०२०। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शोलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे रोहिण्याख्यानकम् जह रोहिणीए हरियं मज्झ मणं तयणु भणइ रइकेली । रत्ता व विरत्ता व त्ति तीए कि लक्वियं हिययं ? ॥१८॥ जओ भणियं चलह तहेव वियंभइ महुरं आलवइ भंजए अंगं । केसकलावं विहुणइ पुलइज्जइ डसइ अहरं च ॥४९।। तोडेइ अंगलीओ तहेव पयडेइ नाभिकमलं च । सवियार-सहरिसुप्फुल्ललोयणा विहसिरी नियइ ।॥५०॥ पीडइ नियथणहारं परिसिढिलियबंधणं फुसइ नीविं । चुंवेइ डिंभवयणं वम्महसरसल्लिया महिला ॥५१॥ जेण समं संबंधो गिण्हइ नामं पुणो पुणो तम्स । पूएइ तस्स मित्तं जायइ एवंविहा रत्ता ।।५२।। जत्थ न उज्जग्गिरओ जत्थ न ईसाविसूरणं माणो । सम्भावचाडुयं जत्थ नत्थि नेहो तहिं नस्थि ॥५३।। अवियंभिय-नीससियं अलियपमुत्तं च सीसदुक्खं च । निद्दालस व्व वयणं विरत्तभावाण जुबईणं ॥५४॥ तो नरवइणा भणियं न वियारो लक्खिओ मए तीए । तेणुत्तं लज्जाए वि अवियारा हुंति महिलाओ ॥५५॥ अवरं च तुज्झ देसे उप्पज्जइ जमिह सुंदरं रयणं । तं होइ तुज्झ अंतेउरम्मि ता खिवसु तं रमणि ॥५६॥ तो भणइ महीनाहो एवं पि करेमि किंतु लज्जेमि । पुरओ पउरजणाणं ता किं पि निहालमु उवायं ॥५७|| भणह तओ रइकेली तीए पई देव ! दूरदेसम्स । पाहुणओ संजाओ गम्मउ ता तत्थ वि निसाए ॥५॥ लद्धो बरो उवाओ मित्त ! तए इय पसंसिऊण तयं । तेण सह संकहाहिं दिणसेसं गमइ दुक्खेण ॥५९॥ तत्तो घोरंधारे जाए रइकेलिणा समं राया । अंधारपडयपावरणजायअद्देस्सरुवो य॥६०॥ करकलियरिउवियारणरुहिरछडारुणकरालकरवालो। वंचित्त अंगरक्खाइपरियणं झत्ति नीहरिओ ॥६१।। पत्तो य तीए मंदिरदुवारदेसम्मि तयणु सासंको । सणियं सणियं चोरु व्व पविसए तीए भवणम्मि ॥६२।। तो पविसंतं दट्टण नरवई तकरो त्ति कलिऊण | मज्जारो कंदेउं पारद्धो गरुयसदेणं ॥६३॥ सोउं मज्जारसरं संभंता सालही नियइ जाव । तो तीए इमो नाओ नंदनरिंदो न चोरु त्ति ॥६॥ एयम्स इहाऽऽगमणं न सुंदरं जमिह एस सासंको। न हु तक्करत्तमेयस्स घडइ ता होहिही जारो ॥६५॥ न हु जुज्जइ इयरस्स वि आगमणं एगयस्स परभवणे । रयणीए किं पुणो एरिसम्स ? ता सुंदरं न इमं ॥६६॥ किं हकामि इयाणिं पि ? अहव किं कुणइ ? ताव पेच्छामि । जइ मह जणणीसीलं खंडिस्सइ तो निवारिस्सं ॥६॥ इय चितिउण मोगेण संटिया साल ही अह नरिंदं । दट् टूण रोहिणी तयणु एरिसं चिंतिउं लग्गा ॥६॥ नूणं नंदनरिंदो समेइ मह सीलखंडणनिमित्तं । ता इहि कह सीलं पालेयव्वं ? न याणामि ॥६९॥ इय एवं चितंतीए तीए गंतूण नंदनरनाहो । सासंकं उवविट्टो रोहिणिपल्लंकपज्जंते ॥७॥ तो रोहिणी समुट्ठिय झड ति महिमंडलम्मि उवविट्टा । भणिया नंदनरिंदेण महुरसद्देण सा एवं ॥७॥ हरिणच्छि ! हरियहियओ तुमए हं तुह सयासमल्लीणो । अहवा वि मयणतवियस्स मज्झ सरणं तुमं चेव ।।७२॥ तं पुण समुट्टिणं उवविट्ठा निट्टरे महीवट्टे । ता न हु जुज्जइ एवं पत्ते इयरे वि पाहुणए ।॥७३॥ किं पुण सयमेव समागयम्मि राएऽणुरत्तचित्तम्मि । जुज्जइ गउरवकरणं आसण-संभासगाईहिं ॥४॥ ता काऊण पसायं सुंदरि ! आरुहमु एत्थ पल्लंके । निव्ववसु ममं मयणम्गितावियं संगमजलेण ॥७॥ सोऊण तयं वज्जरइ रोहिणी राय ! तुम्ह सरिसाण । एयारिसं न जुज्जइ उत्तमवंसप्पसूयाण ॥७६॥ अवरस्स वि अनयपरस्स सामि ! सिक्खं सया तुमं देसि । तुज्झ पुणो को दाही सिक्खमेनीइं कुणंतस्स ? ||७७|| जइ नरवई वि मेल्लइ मज्जायं साहुनीइनिउणो वि । ता एयारिसकन्जुज्जयाणमियराण को दोसो ? ||७८|| उक्तं च युक्तमुन्मुक्तकण्टेन बने हा हेति रोदितुम् । विद्वानपि जनो यत्र मार्गमुत्सृत्य गच्छति ॥७९॥ अवरं च असेसस्स वि जणस्स जणो व्व होइ नरनाहो । ता चितिउं न जुजह किं पुण एयारिसं वोत्तं ? |८|| १. यव्वं पयत्तेणं -२० । २. मनीयं –२०। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आख्यानकमणिकोशे बहुपूय-असुइ-बस-मंस-रुहिरपरिपूरियाण महिलाण । कज्जे किं कुणसि नरिंद ! असरिसं नियकुलकलंक ? ॥८॥ होही सुहमइतुच्छं अयसो पुण तिहुयणम्मि वित्थरिही। जह अज्ज वि निमुणिज्जइ सीयाहरणे दसासम्स ||२|| . अवरं च तरंगिणिजलतरंगचंचलतरम्मि तारुन्ने । पडुपवणपहयपोइणिजललवचवलम्मि पियपेम्मे ॥८३॥ नवजलयपडलविलसिरतडिल्लयातरलजीवियव्वम्मि । एयारिसं न जुज्जइ नरिंद ! काउं सुपुरिसाण ॥८४॥ रागज्झवसाएणं थेवम्स वि विरइयस्स कम्मस्स । जायइ गरुयविवागो नरिंद ! नरयम्मि जीवाणं ॥८५।। इहई पि हु जं कह वि हु कीरइ असमंजसं कुलीणेण | तं तम्स डहइ हिययं जम्हा एयारिसं भणियं ॥८६॥ कीरति जाई जोव्वणमएण अबियारिऊण कउजाई। वयपरिणामे भरियाई ताई हियए खडकति ॥७॥ ता सव्वा वि एरिसअकचितं पि देव ! परिहरसु । खणदिट्ट-नट्टरूवे असारसंसारपरिणामे ॥८॥ संजायचोरसंको पुणो पुणो गुरुसरेण मज्जारो। अक्कंदा तो सा वि हु सालहिया जंपए एवं ॥८९॥ किमाक्रन्दसि मार्जार ? नन्दो राजा न तस्करः । अमृते विषमुत्पन्नं यतो रक्षा भयं ततः ॥१०॥ सोऊण रोहिणीए सुभासियं सालहीसिलोयं च । संवेगअंसुजलभरियलोयणो चिंतए राया ॥९॥ पेच्छ जहा एयाणं अमुणियतत्ताण एरिसविवेओ। मह पुण मुणियसुयस्स वि चरियं एयारिसं पावं ॥९२॥ अहह ! महापावो हं जं असरिससुद्धसीलकलियाए । काउमकवमिमीए समागओ गिहममज्जाओ ॥९३॥ एसा वरं वराई सालहिया नाहमहमपरिणामो। जा एरिसं वियाणइ कज्जा-ऽकज्जाइं जीवाणं ॥१४॥ इय चिंतिऊण सहसा समुट्टिओ रोहिणीए कमकमलं। महिमिलियभालबट्ठो पणमइ रोमंचिओ राया ॥९५।। पभणइ य महामोहंधयारकूवम्मि निवडिओ अयं । नियवयणवरत्ताए तए सुसीले ! समुद्धरिओ ॥१६॥ जोव्वणमयमत्तेणं दुव्वयणं किं पि जं मए भणियं । तं मह महापसायं काऊणं खमसु सत्वं पि ॥९॥ इय खामिऊण राया नमिउं पयपंकयं पुणो तीए । रइकेलिणा समेओ संपत्तो निययभवणम्मि ॥२८॥ परिभावितो संवेगसारवयणाणि तीए हिययम्मि । आसाइऊण निदं सुहं पबुद्धो पभायम्मि ॥९९॥ तत्तो य रोहिणीए सीलाइगुणेहि रंजिओ राया। रइकेलिणा समाणं तीए माहप्पजणणत्थं ॥१०॥ कुणइ पवंचं जह किर भो भो सामंत-मंतिणो ! अज्ज । रयणीए पच्चक्खं का वि हु मं देवया भणइ ॥१०॥ भो भो नरिंद ! निमुणसु रोगाओ इमाओ मुच्चसे सिग्धं । रोहिणिमहासईए अभिमंतियसलिलपाणेण ॥१०२॥ . तेहुत्तं जाणामो देव, तयं रोहिणिं जणपसिद्धं । सेट्टिधणावहभज्जं सीलालंकाररमणीयं ॥१०३।। तो ते भणंति सव्वे पेसिज्जउ तीए आणणनिमित्तं । सुंदरिमहल्लियमिमं कल्लाणे को विरोहो ? ति ॥१०४॥ तत्तो य सपरिवारा पेसविया सुंदरी नरिंदेण । पत्ताए तीए गेहे सविणयपणयं समाणीया ॥१०॥ कोसंभवत्थविरइयनीरंगी ईसिदिस्समुहकमला । संझाणुरायछाइयससिविंबा गयणलच्छि व्व ॥१०६॥ अब्भुट्टिया नरिदेण मंति-सामंत-मुहडसंकिन्नं । रायत्थाणं सयलं पि किमवि विम्हावयंतेण ॥१०७॥ वजिंदनील-मरगय-मुत्ताहल-पउमरायजडियम्मि । सिंहासणे निवेसिय सलाहिया पउरपच्चक्खं ॥१०॥ निस्सेसमहिलतिलए ! निरुवमसद्धम्मकम्मसुहनिलए ! । मुत्ताहलहारुजलसीललयारोहवरमलए ! ॥१०९॥ तुम्हारिसाण सीलप्पभावओ दिणयरो कुणइ दिवसं । वरिसंति जलहरा वि हु हारावलिविमलधाराहिं ॥११०॥ रोगावणयणकज्जे मज्झ तुमं देवयाए उवइट्टा । ता मं तुमं महासइ ! पायसु सलिलं सहत्थेण ॥१११॥ तो तीए तहा विहिए जाओ निरुओ निवो पडुसरीरो । तत्तो कयसम्माणा अणुगम्मंती नरिंदेण ॥११२॥ बंदियणपढिज्जंती गिजंती नयररमणिनियरेण । सलहिज्जंती पुरथेरियाहि पत्ता निययगेहं ॥११३॥ नंदनरिंदाईओ पउरजणो पणमिउं पडिनियत्तो । एत्तो य तीए भत्ता विढत्तबहुवित्तसंजुत्तो ॥११४॥ संपत्तो तरिऊणं मयरकरालं तरंगिणीनाहं । सोऊण तीए चरियं पमोयपरिपूरिओ तयणु ॥११५|| जायाहियाणुराओ रमइ तओ तं मणुन्नभोगेहिं । कालक्कमेण जाओ धणसारो नाम तीए मुओ॥११६।। Jain Education Interational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे सुभद्राख्यानकम् अह अन्नया य दट्टण गरुयवेरग्गकारणं किं पि । सा साहुणीसयासे पव्वइया विहियतव-चरणा ।।११७।। मरिऊण समुप्पन्ना विमाणवासम्मि अमररूवेण । तत्तो चुया समाणी कमेण पाविहिह सिद्धिमुहं ॥११॥ रोहिण्याख्यानकं समाप्तम् ॥१५॥ इदानीं मनोरमाख्यानकस्यावसरः, तच्च नमस्कारफलवर्णने सुदर्शनाख्यानके भणिप्यत इति क्रमागतं सुभद्राख्यानकमारभ्यते । तञ्चदम् अंगाजणवयचूडामणि ब्व पायारपरिगया आसि । चंपा नामेण पुरी सिरीए सिंगारगेह व्व ॥१॥ तत्थऽस्थि विजियसत्तू जियसत्तू नरवई नयनरिंदो । जिणसासणाणुरत्तो जिणदत्तो नाम सेट्टी वि ॥२॥ तस्सऽस्थि पवरदुहिया दुहियाण दुहाण दलणदुल्ललिया । ललियकर-चरणकमला कमलालंकियतणुलया य ॥३॥ सच्छासया मुभद्दा नामेण मणुन्नसीलकुलभवणं । जिणचलणकमलसेवापरायणा रायहंसि व्व ॥४॥ सा अन्नया कयाई कीलंती नियगिहम्मि सच्छंदं । दिट्ठा तच्चन्नियभत्तसेट्टिसुयबुद्धदासेण ॥५॥ तं दट ट्रण विचितह तच्चन्नियसावओ निययचित्ते । एयाए अहो ! रुवं मोहइ भुवणत्तयजणं पि ॥६॥ ता किं एसा पायालकन्नया ? पणइणी अह भवस्स ? । किं वा वम्महदइया ? उआहु अमरंगणा का वि? ॥७॥ एवं विचिंतयंतो विद्धो वम्महसरेण हिययम्मि । तव्वरणत्थं पेसइ नियपुरिसे नियगिहे गंतुं ॥८॥ काउंजिणदत्तो वि हु पडिवत्तिं ताण पुच्छए कजं । सिटुं च तेहिं सव्वं भणियं तो सेट्टिणा एवं ॥२॥ तम्मि कुल-रूव-जोव्वण-लावन्नाई समग्गम वि अस्थि । होज परमवरधम्मत्तणेण नेहो न एयाण ॥१०॥ अवरोप्परं पि कलहो होही सयधम्मसंथवेण सया । ता नियधूयं न हु देमि तेहिं तो बुद्धदासस्स ।।११।। गंतं गिहम्मि कहियं तं सोउं सो वि चिंतए हियए । मायाए सावयत्तं सिक्खेमि अहं इमीए कए ॥१२॥ साहुसमीवे गंतुं तयणु इमो पणमिऊणिमं भणइ । मह कहह निययधम्मं भयवं ! भवभमणभीयस्स ।।१३।। तो साहहिं समग्गो कहिओ जिणनाहदेसिओ धम्मो । सो वि तयं पडिवजह भवोहभीओ व्व कवडेणं ॥१४॥ तस्साणुदिणं जिगनाहधम्मसवणेण भावियमणस्स । सम्मं चिय परिणमिओ मणम्मि जिणदेसिओ धम्मो ॥१५॥ तो वंदिउ मुणिंदे पभणइ भयवं ! सुणेह मह वयणं । पडिवन्नो जिणधम्मो आसि मए कन्नयाकज्जे ॥१६॥ इहि सो च्चिय धम्मो परिणमिओ मज्झ सुद्धभावेण । सम्भावो संजाओ कवडं चिय पुव्वपुन्नेहिं ॥१७॥ ता अन्नं पि हु भयवं ! कहेह तो मुणिवरेहिं सव्वं पि । बारसविहे वि सावयधम्मे सम्म स सिक्खविओ ॥१८॥ जाओ विसिट्ठसड्डो गाढं जिणसासणम्मि अणुरत्तो । जिणपूयण-गुरुवंदण-सज्झाय-ज्झाणउज्जुत्तो ।।१९।। एवंविहसावयगुणसंपन्नो जाव ता सयं चेव । दिन्ना जिणदत्तेणं नियधूया बुद्धदासम्स ।।२०।। महईए विभूईए परिणीया तेण हिट्टहियएण । तो उवभुंजइ एसो विसयसुहं तीए संजुत्तो ॥२१॥ अह अन्नया कयाई भणिओ जामाउएण जिणदत्तो । मोकलसु नियं धूयं नेमि जहा निययगेहम्मि ॥२२॥ तो जंपइ जिणदत्तो तत्थ गयाए इमाए तुह सयणा । दाहिस्संति कलंक विप्पडिवत्तीए धम्मम्स ॥२३॥ तो आह बुद्धदासो इमीए भिन्नं गिहं करिस्सामि । तो जिणदत्तेण सुया सम्माणेऊण पट्टविया ॥२४॥ नीया य निययभवणम्मि तेण नवनहनिभरमणेण । दिन्नं भिन्नं भवणं तीए तओ बुद्धदासेण ॥२५॥ तयणु सुभद्दाभवणे मुणिणो निच्चं पि भत्त-पाणट्टा । पविसंति वहंति पुणो पओसमियराणि तीए तओ ॥२६॥ अक्खंति बुद्धदासम्स भाउजाया इयाणि मिलिऊण । तुह दइया दुस्सीला चिट्ठइ जम्हा जईहिं समं ॥२७॥ निसुणित्तु तओ नियकन्नकडुयवयणाणि भणिउमाढत्तो । मा एरिसं पयंपह संभवइ न एयमेईए ॥२८|| अवि नहयलाओ निवडइ रविरहरयणं कहं पि दिव्ववसा । तह वि सुभद्दा सीलम्स खंडणं कुणइ न कया वि ॥२९॥ अवि उप्पज्जा गयणंगणम्मि वियसंतकमलवणसंडं। तह वि सुभद्दा सीलम्स खंडणं कुणइन कया वि ॥३०॥ अवि कहवि जए जायइ पुत्तो वंझाए विहिनिओगेण । तह वि सुभद्दा सीलम्स खंडणं कुणइ न कया वि ॥३१॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आख्यानकमणिकोशे 1 अवि कवि उवरि वच्च वसुहा गयणं पि जाइ पायालं । तह वि सुभद्दा सीलम्स खंडणं कुणइ न कया वि ||३२|| तत्तो विलक्खवणाणि ताणि जायाणि विहियमाणाणि । अह अन्नया सुभद्दा भवणम्मि समागओ साहू ||३३|| निप्पsिकम्मसरीरो दुक्कर एकल्लपडिमपडिवन्नो । दिट्टं तीए पविट्टं तन्नयण अणुतणकणुयं ||३४|| चितइ य जहा एसो निप्पडिकम्मो मुणी महासत्तो । मा विणसउ ता एयम्स नयणमेएण कगुण ॥ ३५॥ इय चितिउं सुभद्दाए झत्ति लहुयत्तयाए साहुम्स । दितीए तीए भिक्स्वं कणुयं जीहाए संगहि ||३६|| तत्तो य सुभद्दाभारुडरसिंदूरविरइओ तिलओ । संकतो साहुनिडालमंडले दोहिं वि न नाओ ||३७|| दद्दण साहुभाले तिलयं उवलद्धछलपवेसाओ । तीए नणंदा सासु-भाउज्जायाओ मिलियाओ ||३८|| अक्खति बुद्धदासम्स पेच्छ नियमारियासुसीलत्तं । सेवडयनिडालम्मिंपेच्छिय तिलयम्स पडिबिंबं ॥३९॥ तो जाव वुद्धदासो जोय ता तं तहट्टियं दट्टं । संजायपच्चओ सो झत्ति विरत्तो कलत्तम्मि ||४०|| तन्नाऊण सुभद्दाए चिंतियं पेच्छ केरिसं जायं ? । जायं मज्झ कलंकं मुणिणो वि महाणुभावस्स ॥४१॥ विसयमहाचिसमोहियमणाण गिहवासबंधबद्धाण | जायंति कलंकाई जियाण जं तं किमच्छरियं ? ॥ ४२॥ ईसा विसाय-मय-मोह- माणमहियाण निहयवृद्धीण । जायंति कलंकाई जियाण जं तं किमच्छरियं ? ॥४३॥ जं मज्झ विसयलालसमणाए गिहवासमहिवसंतीए । जाओ एस कलंको मणयं पि न मे इमं दुक्खं ||४४ || जं पुणमयंकमणिनिम्मलस्स जिणसासणस्स मालिनं । मह कज्जे संजायं तं द्रुमइ माणसे मज्झ ||१५|| ताज जिणिंदसा सण मालिन्नं नो कहं पि अवणेमि । तो मज्झ मणसमाही न होज्ज मरणे वि नियमेण || ४६ || इय चितिऊण अत्थमिय दिणयरे भवणजिणवरिंद्राण । रइउं पकिट्टपूयं पमज्जिऊणं महीवीढं ॥४७॥ सुभद्दा गिues महापइन्नं न जाव मालिन्नं । अवणेमि पचयणाओ न ताव पारेमि उत्सगं ॥ ४८ ॥ जो जिणसासणभत्तो सो अमरो होउ मज्झ पच्चक्खो । अह न वि होही तो मे काउस्सग्गे वि सन्नासो ||४९ ॥ इय जा काउस्सग्गेण संठिया सा खणंतरं ताव । उज्जयंतो भवणं समागओ सुरवरो एको ॥ ५० ॥ चलचचलकुंडलधरो निम्मलघोलंतमुत्तियकलावो । वरमउड-कडय- के ऊर-कंकणाभरणदिप्ती ॥५१॥ दिट्टो य सुभद्दाए तो भणिया तेण साचिए ! कहसु । किं संभरिओ अहयं ? भगइ सुभद्दा तओ एवं ॥ ५२ ॥ जिणसासणमा लिन्नं अवणेहि तओ य हरिसिओ अमरो । जंपइ सुंदरि ! इहि खेयं मणयं पि मा कुसु || ५३ || संपइ पुरीए चउरो पिहिऊणं गोउरे अहिट्टिस्सं । तं मोत्तुं न हु अन्नो होही उघाडणसमत्थो ॥ ५४ ॥ गणगणम्मि ठाउं भणिस्सं जा महासई का वि । सा उग्घाडउ चालणिकयसलिलेणं दुवाराई || ५५ || उम्घाडिस्ससि तं चेव ताइं इय जंपिउं तओ तियसो । सोयामणिपुंजो इव झड त्ति असणहुआ || ५६|| तयणन्तरं सुभद्दा उस्सगं पौरिऊण हिट्टमणा । निभ्गमइ निसं जाए पभायसमए पुरीलोओ ॥ ५७ ॥ उघाडड़ जाव समुग्घडन्ति ता कह वि नो कवाडाई | फोडतस्स विफुट्टेति न उण वज्जं व लोयस्स ॥ ५८ ॥ ता सहसा उच्छलिओ रउद्दहाहारवो पुरजणस्स | आरसइ एककालं चउप्पयाणं समूहो वि ॥ ५९ ॥ तारिस नाऊण नरवई तयणु आउलीहूओ । चिंतइ एयं नणु दिव्वचिलसियं किं पि संभविही || ६० ॥ तत्तो य पुइपालो परिहित्ता उल्लसाडयं सेयं । धूवकडच्छुयहत्थो होउं पउरेहिं परियरिओ ॥ ६१ ॥ विन्नव विणयपुत्र्वं विहियपणामो सुकोमलगिराहिं। काउं महापसायं निगुणउ वित्रत्तियं मज्झ ॥६२॥ देवरस दाणवरस व भूयस्य व किन्नरस्स कस्स वि य । जस्स मए अवरद्धं खमउ समभ्गं पि सो मज्झ ॥ ६३॥ तत्तो गयणे ठाऊण ते अमरेण भणियमेयं भो ! । जा का वि इह पुरोए महासइत्तं समुब्वहइ ||६४|| सा रमणी चालणियापक्खित्तजलेण तिन्नि वाराओ । अच्छोडिउं कवाडे उघाडउ निव्वियप्पं ति ॥ ६५ ॥ तं निणिऊण अहमहमिगाए सव्वाओ पुरपुरंधीओ । राया- ऽमच्च महायणभज्जाबहुयाओ वहुयाओ || ६६ || १. असुरो रं० । २. पारिउं पहिहं० रं० । For Private Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शीलमाहात्म्यवर्णनाधिकारे सुभद्राख्यानकम् कयन्हाण-मंगलाओ महासईगव्वमुव्वतीओ । चालणिजलपक्खिवणे विग्गुत्ताओ समगाओ ||६|| विग्गुत्ताओ जा सव्वनयरिनारीओ रायपज्जन्तं । ताव सुभद्दा सासुयपभिईण पुरो भइ एवं || ६८ || अणुजाण अंब ! ममं अहमवि एवं जहा परिक्खेमि । हसिऊण तओ सञ्वाओ ताओ एवं पयंपति ॥ ६९ ॥ जाणकवाडा कए विग्गुत्ताओ महासईओ वि । उग्वाडसि ताणि तुमं नूणं जा समणपरिभुत्ता ||२०|| ताणनिवारंतीण विसंगहिया तीए चालणी पवरा । तीए जलं पक्खितं परिगल न बिंदुमित्तं पि ।। ७२ ।। जायाणि कणिक्यणाणि ताणि सव्वाणि तो सुभद्दा वि । नियकरयलकयचालिणिसलिला चलिया निवसयासे ||७२ || भृवाली वि सुभद्दं दट्ट, करकलियचालिणीसलिलं । अभुट्टिओ सपउरो संचलिओ सम्मु होतीए || ७३ || धरविलुलियसिरकमलो पणमित्तु महासई चरणकमलं । पभणइ माइ ! महासइ ! महापसायं करेऊण ||७४ || उग्वाडे कवाडे पुरीपओलीण ता सुभद्दा वि । पुत्र्वदुवारं पत्ता अणुगम्मंती नरिंदे || १५ || एत्थंतरे महासइकोळे उयअक्खित्तमाणसा गयणे । संपत्ता सुर- किन्नर - चिज्जाहर-असुरसंघाय ||७६ || तयणंतरं सुभद्राए तिन्निवाराओ चालणिजलेग । अच्छोडिए कवाडे काऊणं जिणनमोक्कारं ॥ ७७ || उडिए कवाडे झति चिकारगहिरनिग्धोसे । उच्छलिए जयसदे सद्धि सुरदुंदुहिसरेण || ७८ || मुक्काय कुसुमबुट्टी सुरेहिं परिमलभमंतभमरउला । जयउ सुभद्दासीलं ति जंपिडं तीए सिरउवरे ॥ ७९ ॥ तो भइ पुइपालो धन्ना सि तुमं महासईतिलए । जीए सीलेणेवं अमरा वि कुणंति सन्निज्झं ॥ ८० ॥ तं जयउ जए सीलं जस्स पभावेण तव तरणी वि । वरिस य निययसमयम्मि जलहरो अमयधाराहिं ॥ ८१ ॥ तयतरं सुभद्दा भूवइपज्चंतपउरपरियरिया । गंतूण समुग्घाडइ दाहिण पच्छिमपओलीओ ॥ ८२ ॥ तत्तो उत्तरदारं जलेण अभिसिंचिउं भणइ एवं । उग्घाडउ सा एयं जा वहइ महासईगव्यं ॥ ८३ ॥ अज्ज वि चंपानयरीए सा तह चेत्र चिट्ट पओली । तयणु सुभद्दा जिणनाहमंदिरं पद समुच्चलिया ॥ ८४ ॥ सलहिज्जेती सुरवरगणेहिं विज्जाहरेहिं थुवंती । बंदीहि पढिज्जंती गिज्जूंती अमररमणीहिं ॥ ८५ ॥ पणमिज्जंती नायरजणेहिं जिणपचयणं पभावंती । जिणमंदिरम्मि पत्ता श्रुणिऊण जिणेसरं तत्थ || ८६ ॥ तत्तो गंतुं वसहीए साहुणो बंदिऊण भत्तीए । संचलिया नियभवणे धरणियले नियिनियनयणा ||८| नच्चिर विलासिणीसुं परिवज्जिरगहिरतूरनियरेसुं । गिज्वंतचच्चरीसुं संपत्ता निययभवणम्मि ||८८ || तो पणमिऊण राया तग्गुणरंजियमणो गओ सहिं । सीलेण सुभद्दाए दइओ वि अईच अणुरतो ॥ ८९ ॥ इय सा सीलपहावा सलाहणिज्जा सयाण लोयाण ! भोत्तूण विसयसोक्खं उववन्ना तियसलोम्मि ॥९०॥ ॥ सुभद्राख्यानकं समाप्तम् ॥१६॥ जह सीलरयणमेयाहिं पालियं जायमुभयलोयहियं । तह अन्नस्स वि जाय तम्हा परिपालियव्वमिणं ॥ १ ॥ दुष्टापकारि मदनारि मलापहारि सद्वारि तीक्ष्णतरवारि मघारिभेदे । धर्मोपकारि गुणधारि विपत्तिवारि, संसारिजीवविसराः ! परिपात शीलम् ॥ १ ॥ इति श्रीमदादेव सूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे शीलमाहात्म्यप्रख्यापनो नाम तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ||३|| For Private Personal Use Only ६७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारः ] व्याख्यातं शीलम् । अधुना क्रमप्राप्तं तपो व्याख्यायत इति तत् प्रतिपादयन्नाह - जहसति तवं कुजा सुहजणणं सयलकम्मनिद्दलणं । वीर-विसल्ला-सउरी - वीरमई- रुप्पिणि - महु व्व ॥ || व्याख्या- 'यथाशक्ति' शक्त्यनतिक्रमेण 'तपः' अनशनादि 'कुर्याद्' विदध्यात् 'सुखजनक' शर्मकारकं 'सकल कर्म निर्दलन ' समस्तकर्मविनाशकम् । दृष्टान्तानाह - वीरश्च चरमतीर्थाधिपतिः विशल्या च-- द्रोणराजपुत्रिका शौरिश्ध-वसुदेवः वीरमतिश्च दवदन्तिजीवः प्राग्भवे मम्मणराजपत्नी रुक्मिणी च - वासुदेवकलत्रं मवुश्च – रुक्मिणीपुत्रः प्रद्युम्नपूर्वभवजीवः ते वीर - विशल्या-शौरि-वीरमतिरुक्मिणी-मधवः तद्वद् इत्यक्षरार्थः || ९ || भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि क्रमप्राप्तं वीराख्यानकमाख्यायते । तच्च यथा- श्रीमन्महावीरो नन्दिवर्धनाय समस्तमपि राज्यं समर्प्य प्रव्रज्यां प्रतिपद्य पञ्चसमितिसमितस्त्रिगुप्तिगुप्तः समतृण - मणि-लेन्डुकाञ्चनः पञ्चमहाव्रतगुरुभारधुराधरणधौरेयोऽष्टादशशीलाङ्गसहस्रालङ्कृतविग्रहो निम्सङ्गविहारेण विहरमाणः अनुकूल-प्रतिकूलान् दिव्यादीनुपसर्गान् क्षुदादिपरीषहांश्चाव्यथितमना अधिसहमानः षष्ठाऽष्टमादि यावत् षण्मासान्तं विचित्रं तपः कृतवान् । तदनु च शुक्लध्यानानलेन निर्दह्य निःशेषं कर्मकान्तारं मोक्षं कर्म ( १ ) प्राप्तवान् । तथा सर्वं ग्रामचिन्तकप्रमुखं सप्ताविंशतिप्रमाणभवसम्बद्धं [ चरितं ] मूलावश्यकवीरचरितादव सेयमिति ॥ ॥ सङि क्षप्ततरं वीरचरिताख्यानकं समाप्तम् ॥१७॥ इदानीं विसल्लाख्यानकमारभ्यते । तश्चेदम् विदेहे पुंडरिगणित डिंडीरपंडुपासाया । जिण च किरिद्धिजुत्ता परिभवइ पुरिं सुराणं पि ॥ १ ॥ रमणीयणाणंदो राया तत्थऽत्थि तिहुयणाणंदो । सोहग्गजयपडायाऽणंगसरा तस्स वरधूया ॥२॥ दिट्टा य पुन्नवसुणा भिच्चेणं तस्स चेत्र नरवइणो । सव्वालं कियदेहा अत्थाणे जणयपासम्म ||३|| तो तीए धवललोयणसरसल्लियमाणसेण सहस त्ति । ओवडिय भडसमक्खं भुयदंडे हिं समुक्खित्ता ||४|| एत्थंतरम्मि सुहडा पडिभड उड्डमरसमरसोंडीरा । करवाल - कुंत - मोग्गर-मुसुंढि उड्डामरकरम्गा ||५|| आबद्धभिउडिभासुरभालयला नहयलेण उप्पइउं । दट्ट, पलायमाणं हक्कित्तु हढेण ओहडिओ ||६|| उम्मुकपिकको वाहुडिओ मुहडसम्मुहो सो उ । भामियकरालकरवालमंडलो सीधरियफरो ||७|| अन्नोन्नं संजाओ महाहवो मुक्कहक्क हुंकारो । अवरोप्पररिउपहरणसंघट् दुट्टंतजलणकणो ॥ ८ ॥ जाणित्तु सत्तुसेनं दुज्जेयं संभरेइ पन्नत्तिं । तीए समप्पिय बालं पलाइउं सो कहिं पि गओ ||९|| पन्नत्तीए पीचरपओहरी बालिया अरन्नमि । खित्ता वराह - रुरु - रोज्झजणियघोरारवरउदे ॥ १० ॥ सुहडेहिं तओ कंदर-कराल-गिरि - सिहर सरिय- धरणीसु । निउणं निरिक्खमाणेहिं बालिया कह विन हु दिट्टा ॥ ११ ॥ आगंतू तो रायपायपुरओ कहंति ते नाह ! । जल-थल नहयलमज्झे निरूविया कह विन हु दिट्टा ||१२|| तं निसुनि नरिंदो अकंदइ सोयसल्लियसरीरो । हा वच्छे ! तुह विरहे नयरं नरयं विसेसेइ ॥ १३ ॥ अह सा अणंगसरवालिया वि नियसयणविरहिया रन्ने । रोयइ रोयावंती कलुणसरेणं पशुगणं प || १४ || हा ताय ! ताय ! तायसु आगंतूणं महाडईमज्झे । तं पि हु मं मंभीससु नियदुहियावच्छले ! माए ! ||१५|| हा भाय ! भाय ! भीयं भइणिं भयभेरवम्मि रन्नम्मि । रक्ख रुरु - सीह-संबर सद्दूलावरम ||१६|| संभरिऊणं सयणे पुणो पुणो विलविडं विचितेइ । इह मज्झ अणाहाए सरणं ता होउ जिणनाहो ॥ १७॥ अणवरयभवपरंपरसमुवज्जियदुरियरासिनिद्दलणं । ता किं पि अहमिहेव य करेमि घोरं तवच्चरणं ॥ १८ ॥ For Private Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे शौर्याख्यानकम् इय चिंतिऊण नियमइ हत्थसयाओ परेण परिभमणं । तम्सन्भंतरनिवडियफल-मूलेहिं कयाहारा ॥१९॥ इय निव्वेयपहाणं संवेयगुणेण संगयं गरुयं । कुणइ तवं सुद्धमणा वित्तीसंखेवरूवमिणं ॥२०॥ एवंविहतिब्वतवेण वाससहसत्तयं गमेऊण । कयभत्तपरिच्चाया परियत्तेती नमोकारं ॥२१॥ एत्थंतरम्मि सोदासखेयरो मेरुसिहरजिणनाहे । वंदित्त तो नियत्तो समागओ तम्मि उद्देसे ॥२२॥ तम्मि समयम्मि सामलकरालजमरायबाहुदंडेण । अइघोरकालरत्तीरमणीसिरवेणिदंडेण ॥२३॥ विहिमुत्तहारनिम्मियमहिमंडलगुरुपमाणदंडेण । पेच्छइ गसिज्जमाणं वालं अयगरभुयंगेणं ॥२४॥ तं पिच्छिऊण उच्छलियकोवआबद्धभिउडिभासुरिओ । आयड्डियकरवालो दारइ जा अयगरं ताव ।।२५।। करुणारसभरमंथरगिराए बालाए वारिओ खयरो । तवसोसियस्स गयजीवियस्स अथिरस्स रुवस्स ॥२६॥ बहुदिवसछुहापरिपीडिएण पत्तम्स[5]सारदेहस्स । उरगेणं मज्झ कए इमिणा किं मारिएणं ति ॥२७॥ कहियवं मह पिउणो तुह कन्ना अणसणट्टियाऽरन्ने । अक्खंडियसीलगुणा गिलिया उरगेण सुद्धमणा ॥२८॥ गंतुं रन्नो खयरेण साहिओ तीए वइयरो सम्यो । राया वि कत्थ कत्थ ? त्ति जंपिरो तत्थ संपत्तो ॥२९॥ अन्नत्थ कहिं गिलिऊण बालियं अयगरो गओ ताव । राया वि सोयसल्लियहियओ तत्तो पडिनियत्तो ॥३०॥ बाला मरिउं देवी संजाया पढमदेवलोगम्मि । विहियतवो पुन्नवसू वि तश्विमाणे मुरो जाओ ॥३१॥ तत्तो चुया समाणा कोउगमंगलपुरे समुप्पन्ना । सिरिदोणमहरन्नो सुया विसल्ल त्ति नामेण ॥३२॥ पुत्वभवचिन्नदुक्करतवचरणपभावलद्धमहिमाए । तम्मजणसलिलेण वि देसे रोगा पणस्संति ॥३३॥ ॥विसल्लाख्यानकं समाप्तम् ॥१८॥ इदानीं शौर्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् मगहामहीमहेलालीलाकमलम्मि सालिगामम्मि । गोयमगोत्तो विप्पो रुइरंगोऽणंगरूवो वि ॥१॥ तप्पणइणीए गभागयम्मि पुत्तम्मि छट्टमासम्मि । पंचत्तं संपत्तो जणओ जणणी वि जायम्मि ॥२॥ असुभोदएण सद्धिं विद्धिं सो जाइ सव्वजणवेसो । तप्पिइकयाणुगमण व्व निग्गया सयलधणरिद्धी ॥३॥ जाओ य अट्टवरिसो खरखुरपुडसरिसचरणनहनियरो । करहकमसरिसचरणो खंजो अइसरलजंघजुओ ॥४॥ निम्सरियनाभिसुंदो कठोरअइगरुयजदरपिठरो य । निम्मंसपयडकीकसवच्छयलो विसमभुयजुयलो ॥५॥ लंबंतविसमओट्टो खोसलदसणोऽतिवंकवयणो उ । अइचिबिडवंकघोणो तह चिपिडप्फरलनयणजओ ॥६॥ टप्परकन्नो चउकोणमुंडओ कविलविरललहुकेसो । दुग्गंधो धूमसिहासामलगत्तो खलंतसरो ॥७॥ कुहियमुहगलियलालाविलित्तवच्छयललम्गमच्छीहिं । भक्खिजंतो भिक्खं परिन्भमंतो महीवीढे ॥८॥ अह संपत्तो मगहापुरम्मि माउलयपासमल्लीणो। तस्स परिणावणत्थं माउलएणं सध्याओ ॥९॥ सत्त वि य पणियाओ भणति मरणे वि न य इमं अम्हे । परिणेमो अवरा विहु थीओ थुक्कंति तं दट्ट ॥१०॥ तत्तो दुरंतदोहग्गदुक्खदृमियमणो स गंतूण । वेभारसेलसिहरं आरूढो जाव मरणत्थं ॥११॥ ता दिट्ठो एगेणं तवम्सिणा देसणाए पडिबुद्धो । पव्वाविऊण विहियं नाम से नंदिसेणो त्ति ॥१२॥ समहिन्जियएक्कारसअंगो संगहियसयलमुत्तत्थो । संजाओ गीयत्थो विहरइ समसत्तु-मित्तगणो ॥१३॥ छट्ट-ऽट्टम-दसम-दुवालसेहिं मास-ऽद्धमासखमणेहिं । कणगावलि-रयणावलितवेहिं परिसोसियसरीरो ॥१४॥ अममो विसुद्धलेसो उवसम्ग-परीसहाण य अभीरु । वाउ व्व अपडिबद्धो निकंपो मंदरगिरि व्व ॥१५|| सीहो ब्व भयविमुक्को सोडीरो कुञ्जरो व्व मयमुक्को । चंदो व्व सोममुत्ती तवतेएणं दिणमणि व्व ॥१६॥ गयणमिव निरुवलेवो संखो व्व निरंजणो वियारेहिं । धरणिं पिव सव्वसहो महासमुद्दो व्व गंभीरो ॥१७॥ लाभम्मि अलाभम्मि य जीविय मरणे सुहे य दुक्खे य । सव्वत्थ वि समभावो समो य माणाऽवमाणेसु ॥१८॥ कुणइ गुरूण सयासे अभिग्गहं दसविहे वि समणाणं । वेयावच्चे गिण्हइ छट्टपइण्णं लहुतवे वि ॥१९॥ १. दन्तुरदशनः । २. ०खवणेहि-२० । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आख्यानकमणिकोश इय जाव नियपइन्नं परिपालइ सो अखंडपरिणामो । बहुवाससहस्सेहिं गएहिं तो तम्स तवनिहिणो ॥ २०॥ सोहम्मसहामज्झे व्याचच्च म्मि तम्स निच्चयं । संगुणइ अमरनाहो अहो ! कयत्थो मुणी एस ॥ २१ ॥ वेयावच्चम्म थिरो नो सद्दहियं सुरेहिं तं दोहिं । काऊण साहुवे एगो बाहिं ठिओ ताण ॥ २२ ॥ बसहीए गओ बीओ गिम्हे खरतरणिताविओ स मुणी । उट्टतवचरणपारणनिमित्तमुक्खिवड़ जा पढमं ||२३|| नवकोडियुद्धकवलं ता वाहरियं सुरेण जइ कोइ । अस्थि मुणी इह गच्छे गिलाणपडियरणकयनियमो ||२४|| पडिजागरउ गिलाणं विसमावत्थं इमं निसामेउं । तो नंदिसेणसाहू समुट्टिओ उज्झिउं कवलं ||२५|| केणोसहेण कच्चं ? कहि कहिं सो ? त्ति तं पयंपतो । सुरसाहुणा वि भणियं पोक्खाले अभिओ ||२६|| सोचि अडवीए तं पुण निल्लज्ज ! एत्थ निश्चितो । भोत्तु महुराहारं सुयसि मुहेणं अहोरत्तं ||२७|| वैयावच्चकरो हं ति नाममेत्तेण विहियसंतोसो | तो भणइ नंदिसेणो न पमायाओ मए नायं ||२८|| पणमिय पुणो पुणो वियखामइ तो अमरसाहुणं एसो । तक्खेत्त-कालदुल्लहलंभं बहुओसहसमूहं ||२९|| आणाविओ जलं पि हु उन्हं तो सुरवरेण पइगेहं । विहिया असणा से तह वि अदीणो मुरं छलिडं ||३०|| घेत्तृण तयं सव्वं संपत्तो तम्स साहुणो पासे । तो तं द, स मुणी किर क्रुद्धो जंपए एवं ॥ ३१ ॥ चिट्ठामि अमरन्ने रोगमहावेयणाए अक्कन्तो । तं पुण पाविट्ठ ! निकिट्ट ! दुट्ट ! चिट्ठसि मुहं सुत्तो ॥ ३२॥ निभच्छिओ व एरिसवयणेहिं पुणो पुणो विखामेइ । अणुजाणाविय असुईविलित्तमंगं नियकरेहिं ||३३|| पक्वालिडं कओ सो साहू खंधम्मि नंदिसेणेण । खलियम्मि पर ताड सिरम्मि तं करपहारेहिं ॥ ३४ ॥ मुंबइ दुगंधमसु उवरिं सो नंदिसेणतवनिहिणो । जंपइ किं कठिणकरेहि धरसि पाविट्ट ! मह अंगं ||३५|| किं न वियाणसि पीडं परस्स निभाग सेहर ! अणज्य ? | इय निर्दुरं भणतम्स तम्स सो नंदिसेणमुणी ||३६|| चित कहं समाहिं करेमि सम्मं इमस्स ? मग्गम्मि | जं करेमि पीडं मिच्छा मिह दुक्कडं तस्स || ३७॥ चिंतिऊण भणियं भयवं ! मा कुणह नियमणे खेयं । गंतूण निययवसहिं करेमि नीरोगयं तुज्झ || ३८॥ तत्तो सुरेहि विमलेण ओहिणा जाणिओ जहा एसो । तावुत्तिन्नसुवन्नं व निक्कलंको महासत्तो ॥ ३९ ॥ तो दो चि कड - कुंडल-किरीड- केऊर-हारदिप्पतं । नियरूवं काऊणं नमिऊण तओ धुणंति मुणि ॥४०॥ जय सुररायपसंसिय! मुणिवेयावच्चकरणतल्लिच्छ ! । आबालकालपालियबंभव्वय ! मुणिवर ! नमो ते ॥ ४१ ॥ तं मत्तुं को अन्नो पालइ एवंविहं नियपइन्नं ? | माणे वियंभमाणे जियाण इय तं मुणिं थोडं ॥ ४२ ॥ कहिउं नियवृत्तं तमसद्दहमाणा इयं तओ अमरा । नियठाणं संपत्ता तत्तो साहू विनिश्वसहि ||४३|| निम्ममचित्तो गंतुं गुरुण चरणारविंदयं नमिउं । अविरयवेयाचच्च आलोयइ सुद्धपरिणामो ||४४ || तो बहुवाससहस्से वेयावच्चं करेवि समणाणं । विहियाणसणो अंते परियत्तद् जा नमोक्कारं ||४५ || तो असुहकम्मपरिणइवसेण तं नंदिसेणसाहुस्स । दोहां संभरियं चित्ते जह सयलनारीण ||४६ || जाओ अहं अणिट्टो दिट्टो वि हु भाविओ न कस्सावि । तह जणणि जणय धण- रिद्धिनाससंभरणभावेण ||२७|| वारंताण व साहूण तेण विहियं नियाणयं एयं । जइ मज्झ तवम्स फलं समत्थि ता अन्नजम्मम्मि || ४ || होज्ज अहं तरुणीयणमणहरणो सयलसुंदरावयवो । नियसोहग्गविणिज्जियभुवणजणो जणमणाणंदो ॥ ४९ ॥ जह पउमरायरयणकरण गुंजाओ गयवरेण खरं । हरिणमएणिंगालं पीऊसरसेण जह गरलं ॥ ५०॥ रघुसिणेण हलि कप्पदुमतरुवरेण एरंडं । तह तेण नियतवेणं सोहग्गं मम्मियं सारं ॥ ५१ ॥ तो गरिउं उप्पन्नो सत्तमकप्पम्मि भामुरो अमरो । तत्तो चुओ कुसट्टाजणवयसोरियपुरे नयरे ॥ ५२ ॥ अंधगवन्हिनरेसर पियासुभद्दाए कुच्छिसंभूओ । उप्पन्नो कुमरतेश विहियवमुदेववरनामो || ५३ || दसमो य दसाराणं समुद्दविजए ऽणवज्जरज्जसिरिं । पालते सो सवंगसुंदरं जोव्वणं पत्तो ॥ ५४ ॥ १. पायुक्षालेन मलोत्सर्गरोगेण । For Private Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे शोर्याख्यानकम् सवर्णतपत्तनयणो सारयहरिणकविवसमवयणो । मंसल-पिहुवच्छयलो पुरग्गलादीहभुयजुयलो ॥५५॥ जत्तो जत्तो वञ्चइ कुमरो वच्चंति तत्थ तत्थेव । निम्सेसरमणिनियरा परवसा तस्स रुवेण ||५६॥ तस्संगमुस्मुयाओ नियपइपल्लंकविहियनिदाओ । रमणीओ समयणाओ सुविणे कुमरम्स संजोगं ॥५७।। पाविय उम्मुमिणोऽयंति मुहय ! तुह विरहवेयणाविवसं । मं निब्वावर नियअंगसंगमोसहपयाणेण ॥५८।। तहसणुम्याओ पुच्छंति परोप्परं पुरंधीओ । कत्थऽच्छइ ? कत्थ गओ ? कत्थ मुओ सो हला मुहओ ? ।।५९।। दट्टण पुणो कुमरं का वि कडक्खेहिं हणइ अह का वि । कुणइ नियअंगभंग अंगावयवे पयासंती ॥६०॥ का वि पुणो नियपुत्तं गाढं आलिंगिऊण चुंबेइ । अवरा सहिं सहासं पहणइ लीलारविंदेण ॥१॥ विप्फुरियदसणकिरणा का वि हु पहसेति कुणइ अह अवरा । दरउक्कंपिरपीवरथणन्थलं कन्नकंडयणं ।।६२।। एवं मयणवियारा तरुणीणं हुंति तम्मि दिट्टम्मि । इय एवं निस्सेसा नयरी वि विसंटुला जाया ॥६३॥ तत्तो उत्तमपुरिसा मिलिऊण समुद्दविजयनरनाहं । मम्गियअभयपयाणा एवं विन्नविउमाढत्ता ॥६४॥ देव ! तुह लहुयभाया सोमो सरलो पियंवओ धीरो । सीलसमलंकियंगो अणंगरू वो य वसुदेवो ॥६५|| कयसिंगारो नरनाहकुमरपरिवारिओ पुरीमझे । जत्तो जत्तो कीलानिमित्तमल्लियइ लीलाए ॥६६।। तत्थ य तत्थ य तइंसणुस्लुओ बाल-तरुण-थेरो य । नर-नारिगणोऽणुदिणं तग्गमणा-ऽऽगमपहं नियइ ।।६७।। तं दट्ठ पुररमणीनियरो निस्सेसचत्तवावारो । मयणानलजलियंगो तस्संगसमुस्सुओ सामि ! ॥६८।। परिहरियगरुयलज्जो वज्जियनिस्सेसनिययमजाओ। धोत्तूरिओ व्व संजायधाउखोभो व्व सगहो ब्व ॥६९।। न कुणइ रंधण-खंडण-पीसणपमुहाणि भवणकजागि । ता सामिसाल ! सीयंति सयलनयरीकुटुंबाणि ॥७॥ कि बहुणा तिय-चच्चर-चउमुह-रच्छाइएमु ठाणेसु । वसुदेवो वसुदेवो त्ति जंपमाणो भमइ सुन्नो ।।७१॥ एवं विसंटुलत्तं पत्ता नयरी नरिंद ! सव्वा वि । थोवो वि नस्थि दोसो इह पहु ! वसुदेवकुमरस्स ||७२॥ ता सामिसाल ! तह कह वि जयसु जह होइ पुरवरी सुत्था । तं निमुणिउं नरिंदो पूइत्त महायणं भणइ ।।७३|| वीसत्था संचिठ्ठह सव्वं पि हु सुंदरं करिस्समहं । भणि महापसायं समुट्ठिया सेष्टिणो सव्वे ||७४॥ रायपणामनिमित्तं वसुदेवो आगओ कयपणामो । उवविठ्ठो तो भणिओ निवेण अइदुब्बलो वच्छ ! ॥७५।। किं एवमेव नयरीपरिभमणपरिस्समं सया कुणसि ? । इहई चिय नियंइकलाकलावपरिवत्तणं कुणसु ||७६।। भणिया य सिवादेवी सपरियणा नरवरेण एगते । एसो निस्सरमाणो निवारियवो गिहाओ बहिं ।।७७।। तो वसुदेवकुमारो तत्थ वि मणहरविलासदुल्ललिओ । बहुविहविणोयवक्खित्तमाणसो गमइ दिवसाइं ॥७८॥ अह अन्नया नरेसरविलेवणं गिण्हिऊण गच्छंतिं । दासिं दट्टुं कुमरेण झत्ति उद्दालियं तत्तो ॥७९॥ तीए कुवियाए भणियं एवमणक्खत्तयाएं तं रुद्धो । न हु लहसि परिव्भमिउं तो वसुदेवेण दासीए ।।८०॥ नियअंगुलीयरयणं दाऊणं पुच्छिया निबंधेण । तो तीए जहावुत्तं कहियं सव्वं कुमारस्स ।।८१।। तं सोउं माणधणो तं अवमाणं मणे मुणेऊण । नीहरिऊणं लिहिऊण भुज्जखंडे सिलोयमिणं ।।८२।। पुरीजनवचः श्रुत्वा नरेन्द्रेणापमानितः । प्रविष्टोऽहं ज्वलज्ज्वालाकरालेऽस्मिंश्चितानले ॥८३॥ तो तत्थ मडयमेगं पज्जालेऊण एक्कगो चेव । परिभमिओ जह खेयरकन्नानियरं समुव्बूढो ८४॥ जह जायवाण मिलिओ जह बलकेसवसुया समुप्पन्ना । तह सव्वं नेयव्वं हरिवंसाओ पवित्थरओ ॥८॥ ॥शौर्याख्यानकं समाप्तम् ॥१९॥ इदानी वीरमत्याख्यानकस्यावसरः, तच्च दवदन्त्याख्यानके भणितमित्यत्र नोच्यत इति क्रमागतस्य रुक्मिण्याख्यानकस्यावसरः। तच्चेदम् लच्छिग्गामम्मि अतुच्छलच्छिउच्छलियगरुयमाहप्पो । आसि पसंतो विप्पो जणप्पिओ सोमदेवो त्ति ॥१॥ १. निजककलाकलाप । २. अणक्खत्तयाए = अक्षात्रतया । ३. एगगो-२०। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे हरिणच्छी लच्छिमई छणमयलंछ गसमागवरवयणा । पाणप्पिया पिया से मंडइ निच्चं पि अ-पाणं ॥२॥ अह अन्नया य पक्खोपवासपारणदिणे मुणो तम्स । भवणे समाहिगुत्तो नामेण महीनिहियनयणो ॥३॥ भिक्खट्टाए पविट्टो दिट्ठो अभुट्टिओ य तुट्टेण । तेण तओ सा भणिया भिक्खं मुणिणो पयच्छ पिए ! ॥४॥ इय जंपिऊण भवणाओ निग्गओ बंभणी वि नियवयणं । मंडंती पडिबिंब पेच्छइ दप्पणतले मुणिणो ॥५॥ निम्मंसमट्टिचम्मावसेसमइपयडबहुसिराजालं । दुग्गंधमलविलित्तं तं दट्टुं कोवमावन्ना ॥६॥ तो तीए बद्धभिउडीभासुरदुप्पेच्छरत्तनेत्ताए । निभच्छिऊण निटुरगिराहिं निद्धाडिओ साह ॥७॥ तत्तो तवम्सिआसायणाए सत्तमदिणम्मि पावाए । तीए उंबरकोढो बाढं जाओ सरीरम्मि ॥८ पंकेरुहोवमं पि हु कमजुयलं मंदुलंचियं सहसा । रंभासमं पि ऊरूजुयलं सिंबलिसमं जायं ॥९॥ रमणं मणहरणं पि हु रोगेण कयं जुवाणहसणिज्जं । तिवलीधरं पि मझं जायं रोगेण अमान्नं ॥१०॥ कणयकलसोवमं पि हु जुवाणमणमोहणं पि थणजुयलं । पगलंतपूयधाराखरंटियं कं न दूमेइ ? ॥१२॥ चंपयलयोपमं पि हु बाहुजुयं जायमयगरसमाणं । सरलंगुलिकलियं पि हु करयलजुयलं गलेवि गयं ॥१२॥ बिंबाफलोवमं पि हु उट्टपुडं कोट्टथोत्थरं जायं । सरला वि नासिया से नट्ठा कुटुम्स भीय व्व ।।१३।। एवं उम्बरकोढक्कंता कता दिएण परिचत्ता । परिहरिया बंधहि वि तओ गया गरुयवेरग्गं ॥१४॥ पविसिय करालजाले जलणे मरिऊण तम्मि गामम्मि । अट्टज्झाणवसेणं रायउले रासही जाया ॥१५॥ पायसमपावमाणा कइहि वि दिवसेहि मरिउमुप्पन्ना। गड्डासूयरिगन्भे तओ वि मरिऊण साणते ॥१६॥ जाया परिभमंती दड्डा तत्तो वणम्गिणा रन्ने । मरिऊण लाडदेसे भरुयच्छसमीवगामम्मि ॥१७॥ नावियधूया जाया दुन्वन्ना दुस्सरा दुगंधा य । काण त्ति विहियनामा तमगंधं असहमाणेहिं ॥१८॥ जणगाइएहि नम्मयतरंगिणीतीरपरिसरे रइयं । रोहिंसकडकुडीरं तो तत्थ ठियाऽणुदिवसं पि ॥१९॥ जणमुत्तारइ नावाए अन्नया सा समाहिगुत्तमुणी । सिसिरम्मि नम्मयापुलिणपरिसरे विहियउस्सग्गो ॥२०॥ दिट्टो तीए तरंगिणितरंगजलकणविमिस्सवाएहिं । पहणिज्जंतो संझासमए संजायकरुणाए ॥२१॥ मारुयनिवारणथं समंतओ साहुणो खडभरेण । वाडि रइऊण गया समागया पुण पभायम्मि ॥२२॥ अभिवंदिउँ मुणिंदं उवविट्टा देसणा कया तेण । तो पडिबुद्धा पभणइ भयवं तं कथई दिट्टो ॥२३।। पुब्धि मए तओ सो साहू नाणेण कहइ तीए भवे । संजायजाइसरणा तो पेच्छइ नियभवे सा वि ॥२४॥ अभिवंदिय मुणिचरणा संजाया साविया तओ मुणिणा । धम्मसिरीअजाए समप्पिया तीए सह सा वि ॥२५॥ विहरंती संपत्ता कम्मि वि गामम्मि तयणु अज्जाए । उवणीया नायलसावयस्स सद्धम्मसीलम्स ॥२६॥ वेयावच्चं चेईहरम्मि सा कुणइ संठिया तत्थ । एगंतरोववासे बारस वरिसाई काऊण ॥२७॥ विहियाणसणा मरिऊण अच्चुइंदस्स पणइणी जाया । पलिओवमाणि पणपन्न तत्थ भोत्तूण सोक्खाई ॥२८॥ तत्तो चुया वराडगविसए कुंडिणिपुरीए उप्पन्ना । धूया भेसइरन्नो जसवइदेवीजढरजाया ॥२९॥ नामेण रुप्पिणी रुप्पिकुमरभइणी मणुन्नतारुन्ना । एत्तो य धणयनिम्मियबारवईए पुरवरीए ॥३०॥ उड्डमरसमरदोघट्टथट्टकुंभयडपाडणमइंदो । भरहद्धचक्कचट्टी कन्हो नामेण नरनाहो ॥३१॥ अह अन्नया य गयणंगणेण नारयरिसी समागंतुं । संभासिऊण भूवालमंडलं कन्ह-बलपमुहं ॥३२॥ अंतेउरे पविट्ठो अन्भुट्टाणाइविहियसम्माणो । सव्वाहि वि हरिअंतेउरीहिं न हु सच्चभामाए ॥३३|| विरइयसिंगाराए आयरसगिहम्मि पिच्छमाणाए । अप्पाणं तो कुविओ चिंतइ नारयरिसी एवं ॥३४॥ पेच्छ जहा नियसोहागवायलग्गाए न हु अहं नमिओ । ता एयाए सक्किं करेमि जह खिजए एसा ॥३५।। इय चितिऊण निसियासिपट्टसामलनहं समुप्पइओ। गंतुं कुंडिणिनयरीए रुप्पिरायाइ आलविङ ।।३६।। अंतेउरे पविटेण तेण छणरयणिरमणसमवयणा । इंदीवरदलनयगा रत्ताहरहसियबिंबिफला ॥३७॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे रुक्मिणी-मध्वाख्यानके परिपक्कफुडियदाडिमबीयावलिदित्तदंतपंतिजुया । कलरावकोइलामंजुभासिणी कंवुसमकंठा ॥३८|| वरसिरिसकुसुमकोमलरणंतआभरणचारुभुयजुयला । कंकेल्लिपल्लवारुणपाणिजुया फुरियनहकिरणा ॥३९।। सुरकुंभिकुंभपीवरपओहरा मुट्टिगिझवरमज्झा। गंभीरनाभिकूवा नइपुलिणमणोहरनियंवा ॥४०॥ रंभाखंभसविन्भमऊरुजुया कमलसरिसकमजुयला । दिट्टा रुप्पिनरेसरभइणी तीए वि सो दिट्टो ।।४१।। तो विहियअग्घपत्ताए तीए पणएण नारओ नमिओ । तेणावि रुप्पिणीए आसीसा एरिसा दिन्ना ॥४२॥ तं होज अग्गमहिसी वच्छे ! भरहद्धचक्किकन्हस्स । तो तीए रिसी पुट्ठो भयवं! को एस कन्हनिवो ॥४३॥ अह नारएण कहियं चरियं आबालकालओ हरिणो । जह अमरा वि हु कम्मयरवित्तिणो तम्स निच्चं पि ॥४४॥ सोहग्गाइ समग्गं पि गुणगणं वन्निऊण तो तीए । रूवं लिहिऊण पडे संपत्तो कन्हपासम्मि ॥४५॥ तो तम्स चित्तपडिया समप्पिया सो वि तं निहालंतो। तीए वररूवरंजियहियओ अणुरायमावन्नो ॥४६॥ तं पुच्छह किं खेयरकन्ना ? पायालकन्नया अहवा ?। किं गोरी ? गंधारी ? उयाहु अमरंगणा का वि? ॥४॥ तो नारएण भणियं एसा रुप्पिम्स राइणो भइणी । कन्हेण तओ वरणाय पेसिया तत्थ नियपुरिसा ॥४८|| तो रुप्पिपुहइवइणा भइणी दिन्ना न कन्हनरवइणो । गोवाला हीणकुल त्ति कलिय दिन्ना पुणो तेण ॥४९॥ सायरमेसा सिमुपालपुहइवइणो नरिंदतिलयस्स । अह पइरिक्के भणिया रुप्पिणिकुमरी पिउसियाए ॥५०॥ वच्छे ! तुह बालत्ते अइमुत्तयसाहुणा कहियमेयं । अग्गमहिसी भविस्सइ एसा कन्हस्स नरवइणो ॥५॥ तो पुच्छिओ मए सो साहू किह कन्हनरवई अम्हे । जाणिस्सामो तेणावि पभणियं पच्छिमदिसाए ॥५२॥ वियरिस्सइ बारवईपुरीए ठाणं महन्नवो जस्स । सो कन्हो त्ति [य] भणिऊण मुणिवरो विहरिओ वच्छे ! ॥५३।। इन्हि सो वरयनरेहिं पयडिओ तं पुणो न दिन्ना से । दिन्ना सिसुपालन।सरस्स ता रुप्पिणी भणइ ॥५४॥ किं अंब ! तं न कीरइ मुणिवयणं ? तयणु चिंतियं तीए । जह एसा भणइ इमं तह कन्हे बद्धअणुराया ॥५५॥ इय नाऊणं कन्हस्स पेसिओ पिउसियाए नियदूओ । जह माहसुद्धअट्टमितिहीए नागस्स भवणम्मि ॥५६॥ पच्छन्ना गच्छिस्सं रुप्पिणिसहिया य नागपूयट्ठा । तत्थ तए पुरिसोत्तम ! आगंतव्वं इओ य तहिं ॥५७।। सिमुपालस्स विवाहो पारद्धो रुप्पिणा नरिंदेण । सिसुपालो संपत्तो महंतसामंतसंजुत्तो ॥५८॥ सो वुत्तंतो नारयरिसिणा रणकामएण कन्हस्स । कहिओ तो कन्हो वि हु रामेण समं रहारूढो ॥५९|| पत्तो य कुंडिणिपुरि पच्छन्नो पिउसिया वि तम्मि दिणे । सह रुप्पिणीए बहुथेरिनियरपरिवारजुत्ताए ॥६॥ नागस्स गिहं गंतूण पूयणं जाव कुणइ पडिमाए । तत्तो चरेहिं कहियं जह पत्ता कन्ह-बलभद्दा ॥६१।। तो वासुदेवराया रहाओ उत्तरिय पिउसियं नमइ । भणइ यरुप्पिणि ! सहं तुज्झ निमित्तं अहं एत्थ ॥६२॥ संपत्तो जइ तुह माणसस्स पडिहाइ ता समारुहसु । रहरयणे तो पुच्छिय पिउस्सियं सा समारूढा ॥६३।। बलदेव-वासुदेवेहिं चालिओ रहवरो नियपुरीए । समुहो तओ पिउस्सियपमुहाहि असेसथेरीहिं ॥६४॥ धाहावियं जहा धाह धाह केणावि निजए कुमरी । तं सोउं संभंतो नयरीपरिसरजणो मिलिओ ॥६५॥ भणिओ हरिणा गंतूण रुप्पिरायस्स कहह तुह भइणी । निजइ कन्हेण बलं जइ तुह ता तं निवारेसु ॥६६॥ इय जंपिऊण हरि-हलहरेहिं दोहिं पि पूरिया संखा । तेर्सि सरेण नयरीलोगो भयकंपिरो जाओ ॥६७|| जाणऊण एय जणाआ सिमपाल-रुप्पिरायाणो । सन्नद्धबद्धकवया होऊण झड त्ति संचलिया ॥६011 सट्टिसहस्सेहिं रहाण तह य दोघट्टदसंसहस्सेहिं । तिहिं लक्खेहिं हयाणं बहूर्हि पाइक्कलक्खेहिं ।।६९॥ तो ताण समरभेरीसदं सोऊण रुप्पिणी भणइ । भरहद्धचक्कि उच्छंगसंठिया महुरसद्देण ॥७॥ पिययम ! चउरंगवलं आगच्छइ एक्कका पुणो तुमे । ता तुज्झ संगमसुहं अज वि दुलहं विचिंतेमि ॥७१॥ तो तीए निययबलदंसणत्थमायडिऊण कोडंडं । अद्धिंदुणा उविदेण पाडिया तालतरुमाला ॥७२।। नियअंगुलेयवज्जं मलिउं चुन्नीकयं करयलेहिं । तो रुप्पिणी नियमणे तुट्टा हरिणा हली भणिओ॥७३|| तं निययवहं घेत्तण वच्च अहमरिबलं निवारेमि । तो भणइ हली तं गच्छ सत्तणो हं निवारिस्सं ॥७४।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आख्यानकमणिकोशे तो रुप्पिणीए हरिणो चरणे नमिऊण पभणियं सामि !। रक्खावसु मह भायरमह हरिणा हलहरो भणिओ ।।७।। रक्खेयब्बो भाया इमीए भणिऊण भायरं कन्हो । संचलिओ बारवईसमुहो एत्तो य बलदेवो ॥७६॥ उग्गिन्न मुसलदंडो कुद्धो रिउकडयसम्मुहो चलिओ। चूरंतो करडिघडं करिकुलकुद्धो मइंदो व्व ।।७७।। तत्तो तुरंग-कुंजर-नर-नरवइपभिइसत्तुसंदोहं । कोवेण दट्टउट्टो मारइ मुसलप्पहारेहिं ॥७८|| लोट्टावइ भडनियरं तोडइ दोघट्टथट्ट मुंडाओ । मोडइ सियायवत्ते फाडइ पडिभडधयवडे य ॥७९॥ भंजइ रणंतघंगलिडंबरं रहवराण संदोहं । फोडइ गुडं गइंदाण दलइ सत्तूण संघायं ।।८०॥ के वि हु कमेयु घेत्तूण नहयले भामिऊण कुद्धमणो । रयगो व्व सिलाए पडं अच्छोडइ धरणिवीढम्मि ॥८॥ पाडेवि के वि महिमंडलम्मि दाऊण वंसए पायं । मोडइ तड ति मज्झाओ सुक्कएरंडकट्टे व ॥८२।। काण वि पायं दाऊण मत्थए तोडिउं भुयाजुयलं । तडयडतुटुंतसिरं पक्खिवइ बलिं व दिसिचक्के ॥८३।। सुहडेण हणइ मुहडं तुरयं तुरएण करिवरं करिणा । चूरइ रहं रहेणं तत्तो सव्वं बलं तस्स ।।८४॥ सीहस्स व हरिणकुलं गयजायं गंधसिंधुरस्सेव । सूरम्स व तमजालं नटुं दट्टुं तयं तत्तो ।।८।। उद्धाइऊण उम्मुक्कहक्कहुंकारभीसणो पत्तो । भामियकरालकरवालमंडलो झत्ति सिसुपालो ॥८६॥ ता हलहरेण उम्मुक्कमुसलघाएण तस्स करवालं । दोहंडियं तओ तेण कड्दियं चंडकोदंडं ॥८॥ तं पि हु तहेव भग्गं लग्गं तस्सेव उत्तमंगम्मि । तो जाव पीडिओ सो नियकोदंडस्स खंडेणं ॥८८|| तो हक्कंतो पत्तो रुप्पी दुप्पेच्छरत्तनेत्तजुओ । रे रे गोव ! न होहिसि इण्हि एवं पयंपंतो ।।८९॥ मोत्तण मुसलदंडं हढेण परिताडिओ करयलेण । पाडेऊणं महिमंडलम्मि तोडेवि सन्नाहं ॥९॥ हृढआयड्डियछुरियाए छिदिउं तस्स कुंतलकलावं । तो हलहरेण भिउडीभीमेणेयारिसं भणिओ ॥११॥ रे मुक्को जीवंतो वच्चसु ठाणम्मि इय पयंपेउं । चइऊण तयं भडरुंडमुंडमालं पलोयंतो ॥१२॥ नीहरिऊण रणंगणभूमीओ कन्हपासमल्लीणो । पत्तो य बारवइनयरिपरिसरे रुप्पिणी हरिणा ॥१३॥ भणिया पिए ! इमा सा बारवई पुरवरी मह निमित्तं । जा निम्मविया धणएण कणयनिम्मियसुपासाया ॥९॥ ता भुंजसु इह भोए मए समं पमुइया तओ सा वि । जंपइ पिययम ! तुह संति रूव-जोव्वणगुणडाओ ॥९॥ उत्तमकुलजायाओ दासी-दासाइपरियणजुयाओ । अंतेउरीओ सोहाविणिज्जियामरपुरंधीओ ॥१६॥ एगागिणी अहं पुण आणीया बंदिणि व्व एत्थ तए । तो तह करेसु न जहा हासट्टाणं भवामि अहं ॥९॥ कण्हेण तओ भणियं मा बीहसु देवि ! तह करिस्सामि । जह सव्वपणइणीणं सिरोमणित्तं समुव्वहसि ॥९८॥ इय पभणिऊण कन्हेणुज्जाणे सिरिहरम्मि गंतूण । मुक्का सिरीए ठाणम्मि रुप्पिणी पडिममवणेउं ॥९९॥ भणिया य जया सिरिपणमणत्थमंतेउरीओ सव्वाओ । आगच्छंति तया तं अणिमिसनयणा भवेज्जासु ॥१०॥ इय जंपिऊण कन्हो नियए भवणम्मि जा समणुपत्तो । कत्थ तुह वल्लहा सा ? ता भणियं सच्च भामाए ॥१०१॥ कहिया हरिणा सिरिमंदिरम्मि ता सच्चभामपमुहाओ। अंतेउरीओ पत्ताओ तत्थ सिंगारियंगीओ ॥१०२॥ तो सच्चाए उत्तत्तकणयछायं निमेसरहियच्छि । लच्छि त्ति कलिय पूयापुरस्सरं पणमिऊण तओ ॥१०३।। पभणइ सामिणि ! पसिऊण रमणिमागंतुगं ममाहिन्तो। रूवाइगुणकलावेण विरहियं कुणसि जइ कह वि ॥१०४॥ ता तुज्झ पउरपरिमलमिलंतरोलंबरोलमुहलेहिं । वियसंतपवरपुप्फेहिं पूयणं आयरिस्सामि ॥१०५॥ इय पभणिऊण पत्ता हरिणो पासम्मि पुच्छइ कहिं सा ? । लच्छीहरे पयंपिय कन्हो संतेउरो पत्तो ॥१०६॥ तो रुप्पिणीए अब्भुट्ठिऊण पुट्ठो नमामि कत्तो हं ? । तेणावि नेत्तपन्तेग दंसिया सच्चभामा से ॥१०७।। देवी वि सच्चभामा पयंपए पणमिया मए एसा । तो पहसिऊण हरिणा भणियं किर एत्थ को दोसो ? ॥१०८|| जं भइणीए भइणी पणमइ इय जंपिऊण नियभवणे । गंतूण रुप्पिणीए पणएणं देइ महुमहणो ॥१०९॥ आभरण-रयण-कंचण-दासी-दासाइयं महविभूई। नाऊण सच्चभामा मणम्मि गुरुमच्छरं वहइ ॥११०॥ अह अन्नया य नारयरिसिणा गंतूण साहियं हरिणो । जह वेयडे खयरस्स जंबवंतस्स भज्जाए ॥१११।। Jain Education Interational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे रुक्मिणी-मध्याख्यानके सिवचंदाए अंगुभवम्स कुमरम्स विजयसेणस्स । लहुभइणी जंबबई जंबूणयकंततणुछाया ॥११२।। रू वेण कामघरिणी ससिवयणा सुरतरंगिणीतीरे । सविलासं कीलंती कन्ह ! मए तत्थ सा दिट्टा ॥११३।। तव्वयणाणंतरमेव विण्हुणा सा वि तत्थ आणीया । निजिणिउं जणओ वि हु तीपणाहिट्टिणा तत्तो ॥११४॥ आणेउं उवणीओ हरिणो चरणारविंदजुयलपुरो । तो तेण वासुदेवो विवाहिओ निययधूयाए ॥११५॥ मुणिवरवयणायन्नणविवेयविप्फुरियमणपरीणामो। निक्खंतो जंबवईजणओ संजायसंवेगो ॥११६॥ गिरिनयराओ अह अन्नया य देवीए सच्चभामाए । पाहुणओ संपत्तो भाया दुजोहणो नाम ॥११७॥ परिहासेणं भणियं तीए वीवाहिओ भवसु भाया । जइ होज मज्झ पुत्तो भणिओ तो रुप्पिणीए वि ॥११८॥ जइ मह होही कुमरो तुह कुमरी ता करिज वीवाहं । इय ताण भणंतीणं ओहिन्नाणी मुणी एगो ॥११९॥ भिक्खट्ठा संपत्तो दाउं तस्सेसणीयमाहारं । तो रुप्पिणीए पुट्ठो भयवं ! मह होहिही पुत्तो ? ॥१२०॥ होहि त्ति जंपमाणो सच्चाए तमेव पुच्छिओ साहू । भणिऊण एगवयणं मुणी गओ नीहरेऊण ॥१२॥ अह रुप्पिणि-सच्चाणं जाओ दोण्हं पि सुयविसंवाओ । दोन्नि वि भणंति मुणिपुंगवेण मह अक्खिओ पुत्तो ॥१२२।। तो भणइ सच्चभामा जीए सुओ तं पमोत्तुमियरीए । केसेहि दन्भकजं कायव्वं कुमरवीवाहे ॥१२३|| तो सरिखणो वि जाया हरि-बल-दज्जोहणा इहं अत्थे । अह अन्नया तमिस्साए रुप्पिणी सुविणयं नियइ ॥१२४॥ सुसिणिद्धदुद्धधाराधवलं वसहं मुहम्मि पविसंतं । तो तीए वासुदेवस्स अक्खियं तयणु तेणावि ॥१२५॥ हक्कारिउं सविणयं सम्माणिय सुविणपाढगा पुट्टा । कहियं तेहिं पि जहा तुज्झ समाणो सुओ होही ॥१२६।। गन्भम्मि समुप्पन्नो महुअमरो चविय सुक्ककप्पाओ। तो रुप्पिणीए गम्भो वद्धइ सद्धिं पमोएण ॥१२७॥ तत्तो पसत्थदिवसम्मि पसविया पुत्तमुत्तमं देवी । विष्फुरियनियसरीरप्पहाए अवहरियतमपसरं ॥१२८॥ गंतूण तओ परिचारियाए अत्थाणमंडवे विण्हू । वद्धाविओ तओ तेण तीए दिन्नं नियाभरणं ॥१२९।। उठेऊणं सयमेव नरवई सूइमंदिरे गंतुं । उवविट्ठो तो दासी काऊणं करयले कुमरं ॥१३०॥ तणुकिरणपसरपडिहयदिणेसरं दसए नरिंदस्स । सव्वंगं पि हु सिरिवच्छलंछणो जाव तं नियइ ॥१३१॥ ता धूमकेउजक्खेण पुव्ववइराओ आसुरुत्तेण । कण्हपुरओ वि हरिओ रयणनिहाणं व रोरस्स ॥१३२॥ नीओ य विजयभूधरउत्तरओ भूयरमणवणगहणे । तत्तो टंकसिलायलसमीवमासाइउं कुद्धो ॥१३३॥ चिंतइ किं एत्थ सिलायलम्मि अप्फालिऊण निहणेमि ? । अहवा करवत्तेणं कप्परिऊणं विणासेमि ? ॥१३४॥ किंवा भूयाण बलिं देमि करेऊण खंडखंडाई?। अहवा किमप्पदुक्खेण मारिएणं इमेणं मे ? ॥१३५॥ ता इहई चिय एसो मेल्लिज्जउ जह छुहाकिलिस्सन्तो। खित्तो मच्छो व्व थले तल्लोवेल्लिं करेमाणो ॥१३६॥ सकरुणसरं रुयंतो खरकिरणकरहिं तापिओ संतो। सिग्धं पि जह विलिज्जइ जलणे नवणीयपिंडो व्व ॥१३७|| तो तं मोत्तण सिलायलम्मि देवो गओ इओ तत्थ । तं पेक्खिडं च उग्गयदिणेसरे खेयराण जुयं ।।१३८॥ हुयवहजालपुराओ खयरिंदो कालसंवरो नाम । खयरी विकणयमाला संपत्ता तं सिलुद्देसं ॥१३९॥ पेच्छइ य रयणपुंजं व तणुपहापडलपूरियदियंतं । तं दठूणं खयरो अवयरिऊणं विमाणाओ ॥१४०॥ हरिसियहियओ दोहिं वि करेहिं घेत्तण तं समप्येइ । नियपणइणीए संजायहरिसपरिपूरियंगीए ॥१४१।। तत्तो आरुहियरणन्तकणयघंटालिडंबरविमाणं । पत्ताणि ताणि गयणेण मेहकुंडम्मि नियनयरे ॥१४२।। तत्तो सोहणदिवसे भोयावेऊण परियणमसेसं । पज्जुन्नो से नामं विहियं विजाहरिदेण ॥१४॥ तो रुप्पिणीए तणओ जणेरजणणीए खेयराण मणं । आणंदंतो वद्धइ सियपक्खे बालचंदो व्व ॥१४४॥ एत्तो य रुप्पिणी तणयहरणगुरुसोयपूरियसरीरा । मुच्छामीलियनयणा झड ति महिमंडले पडिया ॥१४५॥ मिउ-सीयपवणवीयणयवीइया सिसिरनीरसित्तंगी। कहकहमवि पावेऊण चेयणं पलवइ सकरुणा ॥१४६॥ हा हा हयास ! निक्करुण ! दिव्व ! दाऊण पुत्तरयणं मे । कं अवराहं सरिऊण मज्झ हरियं ? तए कहसु ॥१४७॥ हा पुत्त ! मंदपुन्नाए पालिओ एक्कमेव न हु दिवसं । न हु धरिउं उच्छंगम्मि कारिओ निययथणपाणं ॥१४८॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आख्यानकमणिकोशे हा पुत्त ! मह मणोरहमालावल्लीवियाणमासि तुमं । इण्डिं अवहरणकुढारएण दोहंडियं विहिणा ॥१४९॥ हा वच्छ ! किं न पढमं मया सुयारोगपीडिया अहयं ? । जह मंदभाइणी तुह अवहरणदुहं न पेच्छंती ॥१५॥ कन्हो वि हरियकुमरो करुणसरं रुयइ जायवेहिं समं । हा मझ मणाणंदण ! कुमार ! तं केण अवहरिओ ? ॥१५॥ हा वच्छ ! तुज्झ विरहे रज्जमरणं महूसवो वसणं । भवणं पेयवणं पिव नयरं नरयं विसेसेइ ॥१५२॥ कुमरावहारकंदंतकन्हपमुहाण पउरलोयाण । पडिसद्दछलेण पुरी पलवइ गुरुसोयभरिय व्व ॥१५३॥ जो रुप्पिणिदुक्खेणं न दुक्खिओ नत्थि सो पुरीमज्झे । मोत्तण सच्चभामं सपरियणं तुट्ठमणमेगं ॥१५४॥ कंदताणं हरि-हलहराण जायवनरिंदचंदाणं । नारयरिसी नहंगणमग्गेण समुत्तरेऊण ॥१५५।। पुच्छइ सिरिवच्छंक किं पलवह सोयसंगया तुन्भे ? । सोऊण तयं हरिणा पयंपिओ नारओ एवं ॥१५६॥ हरिओ कुमरो केण वि अम्हाणं तं कहेसु नाऊण । सो आहऽणंतनाणि विणा न नज्जइ इमं कन्ह !॥१५७॥ सो पुण महाविदेहे केवलनाणी जिणेसरो इण्हि । सिरिसीमंधरसामी ता तं गंतूण पुच्छामि ॥१५८|| इय पभणिऊण रोलम्बजालसामलनहं समुप्पइओ । पेच्छंतो धरणियलं गिरि-सरियानियररमणीयं ॥१५९॥ पत्तो महाविदेहे तत्थ य चंपापुरीए उज्जाणे । अमर-नरसरपणमिरचरणं सीमंधरजिणिदं ॥१६॥ समवसरणे निविटें द ठूण नहंगणाओ ओयरिओ । पणमिय पुच्छइ भयवं ! कन्हसुओ केण अवहरिओ ? ॥१६१॥ तो भणइ भुवणसामी दासीहत्थाओ रुप्पिणीतणओ । सो धूमके उजक्खेण पुचवेरेण अवहरिओ ॥१६२॥ नीओ य विजयगिरिभूयरमणवणटंकगुरुसिलावटे । तं तत्थ परिच्चइऊण सो गओ निययठाणम्मि ॥१६३।। तो तत्थ कालसंवरखयरो सह भारियाए संपत्तो । घेत्तूण तयं सो वि हु समप्पए निययदइयाए ॥१६४॥ पत्तो य मेहकुंडम्मि नियपुरे तयणु तस्स कुमरस्स । पज्जुन्नो ति मुहुत्ते सुहम्मि नाम कयं तेण ॥१६५।। चरमसरीरो एसो न वहिज्जइ देव-दाणवेहिं पि । अम्मा-पियराणं पुण मिलिही वरिसम्मि सोलसमे ॥१६६॥ तो नारएण तं निसुणिऊण पणमिय जिणं पुणो भणियं । भयवं ! कुमरो हरिओ जक्खेणं केण वइरेण ? ॥१६७|| ता जंपियं जिणिंदेण कुमरअवहरणकारणं सुणसु । आसि भरहद्धवासे मगहामंडलतिलयतुल्लो ॥१६८॥ सालिग्गामो गामो समिद्धकोडुंबिनियरपरिकिन्नो । तप्परिसरे मणोरमवणम्मि सुमणा'भिहो जक्खो ॥१६९॥ तत्थऽस्थि सोमदेवो त्ति बंभणो बंभणी वि तब्भज्जा । नामेण अग्गिजाला ताण सुया दोन्नि विक्खाया ॥१७॥ सयलजणमाणणीया चउवेयवियवखणा गरुयगव्व। । पढमो य अग्गिभूई दुइज्जओ वाउभूइ त्ति ॥१७१।। अह अन्नया मुणिंदो नामेणं नंदिवद्धणो तत्थ । विहरन्तो संपत्तो गुरुगुणमुणिनियरपरियरिओ ॥१७२॥ तव्वंदणवडियाए गामीणजणो गओ मिलेऊण । विहिया संसारुब्वेयकारिणी देसणा मुणिणा ॥१७३॥ तो ते विप्पडिवत्तीए बंभणा दो वि उट्टिया वाए । निजिणिआ य कणिट्टेण साहुणा सच्चनामेण ॥१७४॥ तो ते फुरंतकोवा रयणीए जईण मारणनिमित्तं । संपत्ता तम्मि वणे उक्खायनिसायकरवाला ॥१७५।।। दिट्टा य सुमणजवखेण थंभिया साहुभत्तिजुत्तेण । पाहाणघडियपुत्तलयसच्छहा निच्चला जाया ॥१७६।। तो तं नाऊण समुमायम्मि रविमंडले रुयंताणि । अम्मा-पियराणि समागयाणि भणियाणि जक्खेण ॥१७७॥ एए मुणीण मारणनिमित्तमुक्खायखग्गया पावा । तत्तो एत्थं चिय थंभिऊण धरिया मए दो वि ॥१७८|| जइ पव्वजं गिण्हंति दो वि मेल्लेमि ता अहं एए । अह नवि ता पावाणं कइया वि न होहिही मोक्खो ॥१७९॥ तो तेहिं दीणसद्देण जंपियं सावयाण सव्वं पि । धम्मं वयं करेमो जिणदिक्खं काउमसमत्था ।।१८०॥ उत्थंभिया समाणा जक्खेण तओ मुणिं पणमिऊण । बारसविहं पि सावयधम्म सम्म पवजन्ति ॥१८॥ काउं सावयधम्मं कमेण मरिडं सुहम्मकप्पम्मि । विप्फुरियपहा अमरा उप्पन्ना पंचपलियाऊ ॥१८२॥ तत्तो चुया समाणा नयरे हत्थिणपुरम्मि उत्पन्ना । जिणदाससेट्टिपुत्ता मणहररूवाइगुणजुत्ता ॥१८३॥ १. गुणमणि-२०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे रुक्मिणी-मध्वाख्यानके नामेण पुन्नभद्दो पढमो बीओ य माणिभद्दो त्ति | तरुणिमणुम्मायकर संपत्ता जोव्वणं दो वि ॥१८४॥ अह अन्नया य वरदत्तसाहुपासम्मि पत्तसंवेगो । पञ्चइओ जिणदासो सद्धिं तन्नयरराएण ॥१८॥ ते दो वि रहारूढा मुणिणो चरणारविंदमभिनमिये । सावगधम्म सम्म पडिवज्जिय नियगिहं पत्ता ॥१८६॥ परिपालिऊण आउं काऊण सुसावगत्तणं विमलं । मरिऊण सुरा जाया इंदसमा दो वि सोहम्मे ॥१८७|| अमरंगणाहिं सद्धिं भोए भोत्तु तओ चवेऊण । हत्थिणउरम्मि सिरिवीरसेणरन्नो सुया जाया ॥१८८॥ महु-केढवाभिहाणा वियाणियासेससत्थपरमत्था । तरुणियणवसीकरणं व जोव्वणारंभमणुपत्ता ॥१८९॥ परलोए संपत्तो राया रज्जे ठवित्तु महुकुमरं । जुवरज्जे संठविओ केढवकुमरो महुनिवेण ॥१९०॥ तो तेहिं नियपरक्कमगुणेहिं सवे वि राइणो विजिया । एत्तो वडउरनयरे कणयाभरणं नरवरिंदं ॥१९॥ निजिणिऊणऽवहरिया महणा चंदाभभारिया तस्स । तीए सह विसयसोक्खं उव जंतो गमइ कालं ॥१९२।। अह अन्नया य वडउरनरेसरो पणइणीविओगम्मि । संजाओ जडहारी तरुवकलविहियपरिहाणो ॥१९३।। छारचुरकुंडियंगो दिट्ठो देवीए रायमग्गम्मि । तो महुणो नरवइणो विन्नत्तं तीए जह एसो ॥१९४॥ कणयाभरणनरिंदो मज्झ पई पेच्छ मह विओगम्मि । परिहरियसयलरज्जो अपरियणो भमइ एगागी ॥१९५।। चंदाभाए वयणं सोऊणं चिंतए महीनाहो । परदारलालसेणं मए कयं हा ! अकजमिणं ॥१९॥ भिच्चस्स विणीयस्स वि एयस्स कलत्तमवहरंतेण । जायं मए अणज्जेण सत्तणा सेवगस्सावि ॥१९७|| हरिणकनिम्मलं पि हु कलंकियं नियकुलं मए पेच्छ । निक्करुणयाए एसो वि पाविओ एरिसमवत्थं ॥१९८|| विबुयणनिंदणिज्जेण सुयणसंतावकारिणा इमिणा । पावेण मए कत्थ वि गंतव्वं ? न हु वियाणामि ॥१९९॥ ता अज वि तवचरणं भवभयहरणं करेमि किं पि अहं । पक्खालिज्जइ जेणं कलंकपंको जलेणेव ॥२०॥ इय एवं महुराया हिययभंतरभवंतसंवेगो । नामेण धुंधुमारं कुमरं रज्जम्मि संठविउं ॥२०१॥ तो सो केढवभाया य साहणो विमलवाहणसयासे । घेत्त जिणिंददिक्खं समहिजियसयलमुत्तत्थो ॥२०२॥ कुव्वंति तवच्चरणं संता बंता जिइंदिया दो वि । छट्ट-ऽट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मास-ऽद्धमासेहिं ।।२०३॥ दोमास-तिमासिय-चउर-पंच-छम्मासखमणपभिईहिं । जवमझ-वज्जमज्झय-भद्द-महाभद्दरूवेहिं ॥२०४॥ कणगावलि-मुत्तावलि चंदावलि-रयणआवलितवेहिं । सुक्का किडिकिडिभूया पयडसिराजालया जाया ॥२०५॥ बहु वाससहस्साई काऊणं एरिसं तवच्चरणं । पाउवगमणेण ठिया मासक्खमणं तओ मरिउं॥२०६॥ ते दोन्नि वि उप्पन्ना सत्तमकप्पम्मि भासुरा अमरा । अमरंगणाहिं सद्धिं सुररिद्धि दो वि विलसति ॥२०७॥ एत्तो वड उरराया काउं सुइरं अनाणतवचरणं । मरिऊण समुप्पन्नो पलियाऊ जोइसेसु सुरो॥२०८॥ दइयावहरणवइरं सरिउं निउणं निरिक्खिओ तेण । महुराया न हु कत्थ वि उवलद्धो ता चवेऊण ॥२०९॥ भमिओ भवाडवीए कहमवि मणुयत्तणं लहेऊण । ईसिकयसुकयकम्मो संजाओ धूमकेउसुरो ॥२१०॥ महुराया वि हु सत्तरस सागरे भुंजिउं अमरलच्छि । चविउं बारवईए जाओ महुमहणभूवइणो ॥२११॥ भज्जाए रुप्पिणीए पुत्तो उत्तत्तकणयसमगत्तो। तो धूमकेउजक्खेण पणइणीहरणवइरेण ||२१२।। अवहरिऊणं नीओ विजयद्धमहीधरुत्तरसिलाए । एत्थेव छुहक्कंतो विणसउ इय चिंतिउं चत्तो॥२१३।। एयं नारय! पज्जुन्नकुमरचरियं पयासियं तुज्झ । तो नारओ जिणिंदं नमिऊण नहंगणेण गओ ॥२१४॥ वेयड्सेलसिहरे दट् ठूणं कालसंवरं खयरं । वद्धावइ सकलत्तं सुपुत्तजम्मूसवेण तओ ॥२१५॥ खयरेण मेहकुंडम्मि पुरवरे नारओ निययभवणे । नीओ सप्पणयं तस्स दंसिओ तयणु पज्जुन्नो ॥२१६।। तो नारओ वि रुप्पिणिसमाणरूवं निरिक्खिउं कुमरं । संभासिउं च खयरं नहंगणेणं समुप्पइओ ॥२१७॥ पत्तो य जायवाणं अत्थाणे तेहिं सविणयं नमिउं । सम्माणिओ समाणो उवविट्ठो विट्ठरे पवरे ॥२१८॥ कहियं च कुमरहरणं जह निसुयं वीयरायवयणेहिं । तो रुप्पिणीसयासे गंतूणं कहइ सव्वं पि ॥२१९।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आख्यानकमणिकोशे जह सोलसमे वरिसे होही मेलावगो तुह सुएण । तो रुप्पिणी जिणेसरजंपियवयणाणि सोऊण ॥२२॥ भत्तिपरिपूरियंगी नमइ जिणं महिमिलंतसीमंता । कुमरवयणावलोयणसमुस्सुया गमइ दिवसाणि ॥२२१।। अह अन्नया य जाओ भाणू नामेण सच्चभामाए । कुमरो अमरसरूवो इओ य वेयडगिरिसिहरे ॥२२२।। नयरम्मि मेहकुंडे पज्जुन्नो गुणकलावपरिकलिओ । अमर-नरा-ऽसुरतरुणियणमोहणं जोव्वणं पत्तो ॥२२३।। निरुवमसव्वावयवो तेण समो तिहुयणम्मि न हु कोइ । नियलायन्नविणिज्जियअमरा-ऽसुर-खयर-नरनियरो ॥२२४।। अजवि जेणुवमाणं दिज्जइ रूवम्सिणो तिहुयणे वि । न हु सको सक्को वि हु रूवगुणे तस्स वन्नेउं ॥२२५॥ सो जत्थ खयरकुमरेहिं परिगओ कुणइ कीलणं तत्थ । सम्यो वि खेयरीणं नियरो दट्टण तं कुमरं ॥२२६।। न मुणइ सरीरफासं तंबोलरसं पि न हु वियाणेइ । परिमलमवि न हु जाणइ निसुणइ य न कागलीगीयं ॥२२७॥ इयरिंदियवावारं चइउं विष्फारिएहिं नयणेहिं । तं पेच्छंतो पावइ अणमिसभावं नरत्ते वि ॥२२८॥ नियदइय-पुत्त-बंधवपमुहे वाहरइ कुमरगोत्तेण । अणुदिवसं वंछंतो संगमसोक्खं कुमारस्स ॥२२९॥ अह तज्जणणी मयणानलेण पञ्चलियमाणसाऽणुदिणं । चिंतइ कुमारसंगमसोक्खमहं किह लहिस्सामि ? ॥२३०॥ तो एगते भणिओ कुमरो अम्हेहिं तं सिलावट्टे । पत्तो न अम्ह पुत्तो होहिसि ता रमसु में इण्हिं ॥२३१॥ तुह विरहगरलघारियमंगं महगुरुयवेयणकंतं । ता कोमलनिययसरीरसंगअमएण कुण पउणं ॥२३२॥ अवरं च तुज्झ गोरी-पन्नत्तीओ विसिट्टविजाओ । वियरिस्सामि तओ सो चिंतइ ह द्धी ! महापावं ॥२३३॥ जणणी वि तणयसंगमसमुस्सुया मुक्कमहिलमज्जाया । ता इयरमहेलाणं को दोसो निम्विवेयाण ? ॥२३४॥ जं किर सयाणजणनिंदणिज्जमह कुलकलंकजणणं पि । तं पि हयासा महिला मयणायत्ता अहिलसेइ ॥२३५।। . मयणपरत्वसहियया महिला [ग्रन्थाग्रम् ३०००] जइ महइ निययपुत्तं पि । ता कामलालसेसुं का गणणा अवरपुरिसेसु || गिण्हामि ताव विज्जाओ तयणु जं जुजए तयं काहं । इय चिंतिऊण कुमरेण पभणियं देहि विज्जाओ॥२३७॥ तो तीए काममोहियमणाए दिन्नाओ तस्स विजाओ । गोरी-पन्नत्तीओ मणवंछियकरणपवणाओ ॥२३८॥ तो न्हाइऊण रेहंतसयलसिंगारसोहियसरीरा । अन्भत्थइ सुरयकए कुमरं तत्तो भणइ सो वि ॥२३९॥ तं मह जणणी परिपालिओऽहमेत्तियदिणाणि अंब ! तए । ता वोत्तपि न जुत्तं तुज्झ इमं किं पुणो काउं? ॥२४॥ पुणरवि भणिओ सप्पणयमेस न तहावि मन्नए जाव । तो तीए नहेहिं वियारिऊण नियथोरथणजुयलं ॥२४१॥ तो धाह धाह धावह एसो मड्डाए खंडए सीलं । एक्कए कूयारे संभंतो खेयरो पत्तो ॥२४२॥ तो तस्स तीए कहियं जणणी वि न छुट्टए तुह सुयस्स । बलिवंडाए खंडइ मज्झ वि सीलं इमो पेच्छ ॥२४३।। तत्तो य कालसंवरखयरो कुद्धो सुए समाइसइ । रे रे ! मारह एयं पावं अकयन्नुयं शत्ति ॥२४४।। तो कालसंवरसुया सन्नद्धा बलभरेण संजुत्ता । हढआयड्डियकरवालमंडला झत्ति आभिट्टा ॥२४५॥ तो तेण नियबलेणं सरहा सहया समत्तमायंगा । सव्वे विणासिऊणं विहिया जमनिवगिहातिहिणो ॥२४६॥ तो कालसंवरनिवो रणलंपडभडयणेण संजत्तो । संपत्तो संगामे रुलंतरंडावलिरउद्दे ॥२४॥ तो तेण नियपरिकमअकंतासेससत्तुर्विदेण । निद्धाडिया भडोहा नट्टो कट्टेण खयरिंदो ॥२४८॥ गंतुं पुरे पविट्ठो भट्टसिरी हुयवहो व्व विज्झाओ । तो पज्जुन्नकुमारेण तस्स पट्टाविओ पुरिसो ॥२४९।। भणियं च ताय ! तुमए खमियव्वो मज्झ एस अवराहो । जं तुज्झ रणंगणमागयस्स समुहो अहं जाओ ॥२५०॥ अवरं च अपरिभाविय पेच्छ तए नियकुलं खयं नीयं । नारीवयणेणऽहवा अज वि किर केत्तियं एवं ? ॥२५॥ कहिओ य कणयमालाए वइयरो खेयरस्स सव्वो वि । तं सोउं सो चिंतइ महिलाणमिमं पि संभव ॥२५२॥ तो खेयरेण कुमरो पुणरवि सम्माणिओ सबहुमाणं । एत्थंतरम्मि गयणेण नारओ तत्थ संपत्तो ॥२५३॥ विज्जाए तओ कुमरो पयंपिओ वच्छ ! एस देवरिसी । तं निसुणिऊण कुमरेण नारओ सविणयं नमिओ ॥२५४॥ १.त-२०। २. मह मुणिय वेयणं-२०। ३. सकर्णजन । ४. मंडाए-२०। ५. बलात्कारेण । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तपोमाहात्म्यवर्णनाधिकारे रुक्मिणी-मध्वाख्यानके कहिओ य नारएणं अवहरणप्पभिइ तस्स वुत्तंतो । जह निसुओ सीमंधरजिणिंदवजरियवयणेहिं ।।२५५।। तुह अवहरणदिणाओ जा जायाणित्तियाणि दिवसाणि । ता तुह जणणीनयणाण असुविसरो न विरमेइ ॥२५६।। अवरं च कयपदन्ना तुह जणणी आसि सच्चभामाए । जीए पढमं भविस्सइ पुत्तो तो तम्स वीवाहे ॥२५७।। इयरीए सीसकेसेहिं दव्भकज्जाइं कारियव्वाइं । इण्हि तु सच्चभामासुयम्स वइ विवाहदिणं ॥२५८।। ता वच्छ ! तत्थ गंतूण निययजगणीए पूरसु पइन्नं । इय सोउं पज्जुन्नो पुच्छिय पियरं तओ चलिओ ॥२५९।। सह नारएण गयणंगणेण पत्तो पुरीए सन्निज्झे । पेच्छइ अणेगमणि-रयणनियरकिरणावलीफुरणं ॥२६०॥ तो देवरिसी पुट्ठो किमेयमह कहइ नारओ तस्स । वच्छ ! तुह् जणयनयरी धणएण विणिम्मिया एसा ॥२६॥ मणि-रयण-कणय-रुप्पय-विदुम-वज्जेहिं घडियपासाया। वारवई नामेणं तो पज्जुन्नो पहिट्टमणो ॥२६२॥ पभणइ न साहियव्यं कस्स वि जमिहागओ अहं तत्तो । कयबालसाहुवेसो, जणणीगेहम्मि संपत्तो ॥२६३॥ भणइ य सोलसवासोववाससोसियतणू तुह गिहे हैं। पारणगदिणे पत्तो ता जंपइ रुप्पिणी एवं ॥२६॥ उक्किट्ठतवोकम्मं वरिसपमाणं न एत्तियं कालं । तो पभणइ बालमुणी आसोलसवरिसमज्झम्मि ॥२६॥ जणणीथणछीरं पि हुन हु पीयं साविए ! तओ एत्थ । संपत्तो जइ इच्छा ता चियरसु अह न गच्छामि ॥२६६॥ तो रुप्पिणीए भणियं पओयणं तुज्झ वत्थुणा केण ? । सो जंपड़ पेज्जाए तो पेज्जा तीए अद्दहिया ॥२६७।। तेण तओ विजाए जलणो विज्झाविओ जलंतो वि । तो रुप्पिणी पयंपइ गिण्हसु वरमोयगे भयवं ॥२६॥ जीरवइ परं नऽन्नो मोत्तु सिरिवच्छलंछणं एवं । तवसोसियाणमम्हं जीरइ सव्वं पि तेणुत्तं ॥२६९।। अह रुप्पिणीए मोयगरासी रइया तवस्सिणो पुरओ। तो रक्खसो व्व भक्खइ ते सव्वे मोयगे सो वि ॥२७०॥ दट् ठूण तयं हसिऊण रुप्पिणी भणइ होहिही तुज्झ । सन्नेझं कीय[ वि ] देवयाए जेणेरिसा सत्ती ॥२७१॥ तो नारएण भणियं रुप्पिणि ! अंगुन्भवो इमो तुज्झ । पज्जुन्नो नामेणं संपत्तो तुह समीवम्मि ॥२७२।। कुमरो वि साहुरूवं परिहरिऊणं ठिओ निययरूवे । वियसंतवयणकमलो पणओ जणणीए चलणेसु ॥२७३।। आलिंगिऊण सीसम्मि चुंबियो नेहनिब्भरं तीए । तेण तओ सा भणिया मज्झाऽऽगमणं न जणयस्स ॥२७४।। कहियव्वं जावेसो मह मिलइ इओ य सच्चभामाए । रुप्पिणिभवणे पुरिसा पट्टविया नानिएण समं ॥२७५॥ पभणंति तेवि वीवाहदब्भकज्जाय वियरसु सकेसे । जम्हा कया पइन्ना पच्चक्खं कन्हपमुहाणं ॥२७६॥ पज्जन्नेणं विजाबलेण मुंडेवि नावियस्स सिरं । उवणीया भे केसा भणिउं सच्चाए अप्पेहा ॥२७७।। गंतुं तेहि वि सच्चाए अप्पिया सा वि कोचमावन्ना । सयमेव य संपत्ता रुप्पिणिभवणम्मि केसकए ॥२७॥ पज्जुन्नो वि हु काऊण कन्हरूवं तओ ठिओ तत्थ । दिट्टो य सच्चभामाए तयणु कोवेण तज्जती ॥२७९|| मूलमणत्थाणमिमो निग्गच्छिस्सइ तया गहिस्सामि । इय भणमाणी पत्ता जा हरिभवणम्मि सा तत्थ ॥२८॥ परियणजुयमच्छंतं पेच्छइ सिरिवच्छलछणं तयणु । भणिओ किं सिग्घयरं रामागओ एत्थ काऊण ॥२८१॥ मज्झ पइन्नाभंगं भणमाणी सा गया निए भवणे । कन्हो वि तीए अणुणयनिमित्तमच्चाउलीहूओ ॥२८२॥ एत्तो वि य पज्जुन्नो रहरयणे रुप्पिणिं ठवेऊण । आऊरितो संखं नीहरिओ नयरिमज्झेणं ॥२८३।। पभणंतो पउरजणं कहेह कण्हस्स रुप्पिणी देवी । निजइ भडेण केणइ जइ सत्ती ता निवारेसु ॥२८४॥ तं सोऊणं सव्वे वि जायवा जायकोवदट्ठोट्टा । करि-रह-तुरंगमारुहिय धाविया तस्स पट्टीए ।।२८५।। दढआयड्डियकोदंडमुक्कनारायछाइयदियंता । बलिऊण कुमारेणं निजिणिया गुरुमरट्टा वि ॥२८६।। नट्टा दिसोदिसिं ते इयरगया गंधसिंधुरस्सेव । कुमरस्स तओ पत्ता रणंगणे राम-महुमहणा ॥२८॥ आरूढा रहरयणे रणंतघंटालिडंबरे दोवि । उम्मुक्कासिंहनाया छन्ना कुमरेण बाणेहिं ॥२८॥ वायव-वारुण-अग्गेयपमुहबाणेहिं ते वि निजिणिया । नियपन्नत्ती-गोरीविजाण बलेण कुमरेण ॥२८९॥ तत्तो विलक्खवयणा जाया चिंताउरा रणे जाव । तो नारएण नारायणस्स कहियं जहा एसो ॥२९॥ Jain Education Interational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे तुह पुत्तो पजन्नो रुप्पिणिअंगुन्भवो समायाओ। तो कन्हेणं आलिंगिऊण काऊणमुच्छंगे ॥२९१॥ महया महूसवेणं पवेसिओ पुरवरीए हरिसेणं । काराविओ विवाहं नर-खेयरसुंदरीहिं समं ॥२९२।। असमगणरायरंजियमणेहिं हरि-हलहरेहिं कमरम्स । आरोविओ समग्गो भारो नियरज्जकज्जाणं ॥२९३।। एत्थंतरम्मि दुजोहणेण संपेसियाहिं दूई हिं । विन्नत्तो अस्थाणे कन्हनरिंदो जहा तुज्झ ॥२९४॥ सुन्हा केणइ हरिया ता तं कत्थइ गवेससु तओ सो । जंपइ न हु सव्वन्नू अहं तयं जेण जाणेमि ॥२९५।। जइ जाणतो ता किं न जाणिओ रुप्पिणीसुओ एसो । तं सोऊणं कुमरो पभणइ मं देव ! आइसम् ॥२९६॥ जं पन्नत्तिवलेणं आणेमि तयं तओ समाइट्ठो । तो आणिया य तेणं पुव्वं चिय तेण अवहरिया ॥२९७॥ तत्तो भाणुकुमारो विवाहिओ महरिहाए रिद्धीए । सव्वेसि पि हु सुक्खेण ताण कालो अइक्कमइ ॥२९॥ अह अन्नया य सच्चा सोच्चा पजन्नकुमरचरियाई । तारिसपुत्तसमुम्सुयहियया विन्नबइ महुमहणं ॥२९९।। जह मज्झ वि एयारिसकुमरो उप्पज्जए तहा जयसु । तो कन्हो वि पयंपह पुन्नेहिं पिए ! इमं होइ ॥३०॥ एवमणुवासरं पि हु भणिओ कयपोसहो सरइ अमरं । तो पुवपरिचियसुरो तइज्जदिवसम्मि संपत्तो ३०१।। तत्तो य कयंजलिणा हरिणा भणिओ पयच्छ वरकुमरं । भणियममरेण पज्जन्नपुव्वभवबंधवो होही ॥३०२॥ जीए हारमिमं तं कंठे पक्खिवसि तीर तो हारं । अप्पिय तिरोहिओ सो नायं च इमं कुमारेण ॥३०३।। विजाए तओ गंतुं पणमिय जणणिं पयंपिया तेण | उत्तमलक्खणजुत्तो पुत्तो तुह होउ बीओ वि ॥३०४|| सा भणइ न मज्झ सुओ अन्नो होहि त्ति नाणिणा कहियं । जंपइ कुमरो का तुज्झ सम्मया ? तीए तो भणियं ॥३०५|| जंबवई मह इट्टा तो तीए पयच्छ वच्छ ! वरकुमरं । एवं जपताणं ताणं सा आगया तत्थ ॥३०६॥ तो पन्नत्तीविजाए सच्चभामासमाणरूवं तं । काऊण सच्चभामाए पेसिया वासभवणम्मि ॥३०७|| सा गंतू णुवविट्ठा पल्लंके तयणु तीए कंठम्मि। हारं खिविउं कन्हेण सा सिणेहेण परिभुत्वा ॥३०८॥ तो गंतुं नियभवणे सुत्ता सुविणम्मि पासए सीहं । सुक्काओ चविय तीए गन्भे केढवसुरो जाओ ॥३०९।। सच्चा वि कण्हपासे समागया तेण चिंतियं एयं । अज्ज वि अतित्तचित्ता रइकेलिसुहं महइ एसा ॥३१०॥ कालेण केढवसुरो जाओ संबो त्ति से कयं नामं । उन्बूढजोव्वणभरो विवाहिओ रायकन्नाओ।३११।। जह नेमिनाहपासे पव्वइया दो वि जह पुरी दड्डा । जह विहियं तवचरणं अइघोरं सुद्धचित्तेहिं ॥३१२॥ उप्पाडिऊण केवलनाणं पडिबोहिऊण भवियजणं । जह सिद्धिपुरि पत्ता तह-हरिवंसाओ नेयव्वं ॥३१३।। ॥ रुक्मिणी-मध्वाख्यानके समाप्ते ॥२०-२१॥ जह एएहिं विहियं तवकम्ममिमं महाणुभावेहिं । तह अन्नेहिं कज्ज कम्मक्खयमिच्छमाणेहिं ॥१॥ सौभाग्यमावहति जन्म शुभं विधत्ते, पुष्णाति पुण्यमसमं दुरितं प्रमाष्टि । कर्मेन्धनं दहति निवृतिशर्म राति, किं वा करोति न तपः शुभभावतप्तम् ? ॥ ।। इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे चर्चिततपोमाहात्म्य प्रपञ्चश्चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः ॥४॥ १. महया विभूसएणं पवेसिनो पुरवरि पहरिसेणं । काराविओ विवाहो-२०। २. नकं समासम्-२० । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारः ] व्याख्यातस्तृतीयस्तपोरूपो धर्मभेदः । अधुना भावरूपं चतुर्थ धर्मभेदं व्याख्यातुकाम आह सुह परिणामो निचं कायव्यो जेण बंध-मोक्खाणं । सो परमंगं नाया दमगो भरहो इलापुत्तो ॥१०॥ व्याख्या-'शुभः' धर्मध्यानादिरूपः, प्राकृतत्वाद् विभक्तिलोपो द्रष्टव्यः, 'परिणामः' मानसव्यापारः 'नित्यम्' अनवरतम् 'कर्तव्यः विधेयः। किमिति ? अत आह—'येन' कारणेन 'बन्ध-मोक्षयोः' कर्मबन्धन मुक्त्योः 'सः' परिणामः 'परमाङ्गं' प्रधाननिमित्तम् । 'ज्ञातानि' दृष्टान्ताः 'द्रमकः' रङ्कः 'भरतः' भरतचक्रवर्ती 'इलापुत्रः श्रेष्ठिसुत इत्यक्षरार्थः ॥१०॥ भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तत्र तावद् द्रमकाख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् रायगिहम्मि पुरवरे आजम्मदरिद्दिओ वसइ दमओ । भिक्खामेत्तुवजीवी अहऽन्नया ऊसवे जाए ॥१॥ सव्वो वि नयरलोओ घेत्तुणं खज-पेज-लेज्झाई । वेभारगिरिसमीवे सव्वत्तुगचारुउज्जाणे ॥२॥ उज्जाणियाए पत्तो एत्तो जोएसु दोसु पहरेसु । कप्परयकरो दमओ नयरे भिक्खं परिभमइ ॥३॥ पडिभवणं हिंडंतो भणिज्जए भवणरक्खवालेहिं । सबो वि जणो घेत्तण भोयणं अज्ज उज्जाणे ॥४॥ संपत्तो ता तं पि हु वच्चसु तत्थेव तयणु सो जाव । तत्थ गओ ता लोगो भोत्तूण मणोन्नमाहारं ॥५॥ तत्तो तालय-रासय-नाडय-पेक्खणय-महुरगीएहिं । अक्खित्तमणो न हु कोइ तस्स भिक्खं पयच्छेइ ।।६।। सुइरं जायंतस्स वि उत्तरमवि तस्स देइ न हु कोइ । तन्हा-छुहाकिलंतो तत्तो सो कोवमावन्नो ॥७॥ वेभारसेलसिहरं समारुहेऊण महरिहसिलाए । उवविसियमहोभागे हणणकए सयललोयस्स ॥८॥ रोदज्झवसाएणं खणइ तओ सो वि चूरिओ तीए । मरिउमसिपत्तदारुणनरए सो नारओ जाओ॥९॥ निवडंतसिलाखडहडसदं सोऊण पउरपुरलोगो । नट्ठो तम्हा वजह अमुहं भावं पयत्तेण ॥१०॥ ॥द्रमकाख्यानकं समाप्तम् ॥२२॥ इदानीं भरताख्यानकमारभ्यते । तवेदम् नमिरनरिंद-दसिरसेहरकुसुमसमूहधारयं, जम्मणमरणसलिलपरिपूरियभवसिंधुवइतारयं । पणमिवि रिसहनाहपयपंकउ पणयविपत्तिवारयं, पभणिउ भरहराय-बाहुबलिहिं चरिउ भवंतकारयं ॥१॥ इह अस्थि चक्कहररायसज्झि, छक्खंडसमन्नियभरहमज्झि । जयलच्छितिलय नरवररवन्न, नवजोयणवित्थय जेम्ब कन्न । बारस गिम्हु व आयामि दीह, हरिणालि व पत्तपसत्थलीह । खमणयवउ जिम्व परिहाणवज, विझाडइ जिम्व गुरुसालसज्ज । जा कहिं वि गयालि व विमलरयण, अन्नत्थ जुवाणि व पयडरयण । पुणु कहिं वि सुमेरु व कणयतार, अवरत्थ जणणि जिम्ब नेहसार। निप्पुन्न व कत्थ वि हयपहाण, सुभग व्य कहिं वि सुहसन्निहाण । मुणिमाल व कत्थ वि विगयराय, वणिय व्व कहिम्बि सच्चवियमाय ।। इय उवरि सयासिय, भुवणपयासिय, सा अउज्झ नामि नयरि । रह-जाणमणोहर, हरियतमोहर, गुणेहिं समाणिय अहिमयरि ॥१॥ १. पणमवि -२०।२. पंकय २० । ३. जिम -२०। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्यानकर्माणकोशे जहिं भवणसिहर रविरहु खलंति, रविकतभित्ति दिणि पजलंति । जहिं पउमरायमणि विष्फुरंति, ससिकंत निसिहि जलु पज्झरन्ति । जहिं धयवड पर कंपति पवणि, मारणधणि सूयह विसइ सवणि । गंधियहं हट्टि जहिं कुट्टवाय, जूइयरहं सुब्वइ पासपाय । जहिं गहणु जणह निम्मलकलाहं, ताडणु कामिणिवच्छत्थलाहं । कइययणह पर सगुणप्पबंध, गय-हयपहाण जहिं रायखंध । जहिं कुट्टण छेयण सहहिं कणय, ससि-सूरह गसंणु वयंति गणय । करपीडणु तरुणिघणत्थणाहं, दीसइ न कयाइ वि जहिं जणाहं । नंदणवणसोहिय, मुणिहि विमोहिय, अविरोहिय सुमणसपरिस । गुरुरायरवन्निय, विबुहसमन्निय, जइ पर सुरपुरि तमु सरिस ॥२॥ तं पालइ भूवइ भरहु राउ, घरि जिम्ब रणि रेहइ जासु चाउ । चउसट्ठिसहस्सपुरंधिनाहु, छक्खंडविजयलच्छीसणाहु । पुरपरिहपलंबपसत्थबाहु, मण-पवणजवणरमणीयवाहु । चउरंगसेण्ण जसु सत्तमहण, जिम्बै जिणह धम्म क्रिय जत्तिगहण । तसु सव्वंतेउपहाण, लायन्न-रूव-रइ-सुहनिहाण। करि खग्गजट्टि जिम्न सुद्धवंस, सुपओहरपावियजणपसंस । अकलंक महासइवन्नणिज्ज, बीयाससिरेह व बंदणिज्ज । कलभासिणि परिपसरियसुभद्द, निवपयपंइट्ट नामि सुभद्द ।। सो गोरिए जिम्ब भवु, रइ जिम्ब रइधवु, सहु सिरीए जिम्व महुमहणु । राहवु जिम्व जाणइ, तिम्व सुहु माणइ, तीए समउ रिउवणदहणु ॥३॥ जिणकेवलनाणुप्पत्तिसमइ, उप्पत्ति'चकिचक तइंसमई' सम्भाव्यते । नियहियइ हियावइ भरहु राउ, पूएमि चक्कु ? किं वा वि ताउ ? | सविवेइं पुणरवि मुणिउ एम्व, हउं वड्डइ अंतरि भुल्लु केम्ब ?। कहिं तुच्छ चक्कु? कहिं जिणवरिंद?. गंडोवल कहिं ? कहिं सुरगिरिंद?। कहिं सायरु सोहइ ? कहिं तलाउ ?, कहिं चक्रवट्टिनरु ? कहिं चिलाउ। कहिं रासहु ? कहिं सुरवइकरिंदु ?, कहिं किर कुरंगु ? कहिं वणमइंदु । चिंतामणि कहिं ? कहिं उवलखंडु, ? .... खज्जोयउ कहिं ? कहिं दिवसनाहु ?, कहिं पामरु ? कहिं हरि सिरिसणाहु । इहलोइउ चक्कु, सुसुंदरु वि .......... जिणु परलोयह सुहजणउ । ने पूइउ [चक्कु, ] ताई पूयइ, ता पूयमि पढमउं जणउ ॥४॥ . पूइत्तु जिाणेसरु समुणिवग्गु, छक्खंडवसुहसाहणह लग्गु । मागह वरदाम पहास सिंधु, साहिंतु भरहु धय-छत्त] यचिंधु । साहेवि सट्टिवरिसहं सहास, माणेवि सिरिदेविं सहु विलास । कारवइ सहोयर नियय सेव, ति वि कहहिं जणेरह रिसहदेव । १. मारणवलि सूयह रं०। २. गहण २०। ३. जिम रं०। ४. उर वहुपहाण रं०। ५. सुइस रं०। ६. पयह नामि य सुभद्द २० । ७. एम रं०1८. वणगइंदु २० । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारे भरताख्यानकम् । उद्दालइ अम्हह भरह रज्ज, किं ओप्प हुं ? भवहुं कि जुज्झसज्ज ? । इंगा लगदा गपमुह ताहं, दिट्टंत देवि विसइहिं स्याहं । संबुज्झह होह म मूढचित्त, वेयालिय अड्डाणवड़ वित्त । पडिबोहिय पढिवि जुगाइदेवि, निदेवि विसय कयभुत्रणसेवि ॥ फव्वइय महायस, वडियसाहस, सेविय दुक्कर तव चरण । उप्पाडिय केवल, खालिय कलिमल, विहरहिं वसिकयनियकरण ||५|| साहिवि वह नराहिवसाहणु, पविसइ नयरिहिं हय-गय-वाहणु । जिम्व चउवेड विप्पु मायंगेह, पविसद गेहि न वज्जियसंगहं । जिव गुणवंती का वि महासइ, वेसहं पाडइ कहवि न पइसइ । अकयपओयणु भिच्चु पहाणउ, जिम्व लज्जइ पेच्छंतेउ राणउ । तिम्व चक्कु विक्रयवंदणमालहिं, पविसद् नवरि न आऊहसालहिं । तं पक्खि विम्हि भरहेसरु, 1 gat मंतिहिं पहु ! निमुणिज्जउ, कारणु चक्कपवेसि भरहेसरु | जिव कमचुक्कउ वणि पंचाणणु, कहवि न वंछड़ खरनहराणणु ॥ जिव को विकुलीण, मम्गनिलीणउ, महइ न माणु विणा सयणु । तिम्व माणधणेसरु, तक्खसिलेसरु, बाहुबलि वि तुह सासणु || ६ || ता अकपओणु चक्करयणु सट्टाणि न पइसइ दिव्वनयणु । अन्नु विआन व सामि !, तुह हियकरु सुरकरिलीलगामि ! | पइ भरह जित्तउं का देव !, बाहुबलि अलितई तुज्झ सेव । पय मुट्ठिपहारिहिं पहउ गयणु, किउ कुमउ मुयवि सञ्वन्नुवयणु । कण मेल्लिव रिसहेसरकुलेस ?, पइ कुक्कुस कुट्टिय कयकिलेस । चिरं निरत्थउं अंधयारि, किउ अग्गिहोमु निष्फलउ छारि । कि अंध मंडणू मुहह एउ, रोविउ अरन्नि पदं निव्विवेउ । उ दिन बहिरह कन्नजावु, एत्तिउ पयासु निष्फलउ सावु !! भरहु जिणंत, नउ अमुयंतइ, मुयह कलेवरु उच्चैलिउ । बाहुबलि अकायरु, लहुयउ भायरु, कारिउ सेव न जं बैलिउ ॥७॥ तं नच भर पपइ, भुंजउ रज्जु सु इंवइ संपइ । तिहु हु उ वय न भावइ, जगि अप्पणउ कु बंधव पावइ ? | सा संपय जासह दिज्जइ, तं फलु जं विहलहमुवउज्जइ । धतूरा कवणि खज्जह ?, किंपागह फल मुक्खु वि वज्जइ । किave घरि थुत्थुक्किय अच्छड़, लच्छिहि तर्हि कहि को मुहु पेच्छइ ? । लहुयसहोयर जं निकालिय, जणई दिन्न रज्जडं उद्दालिय । तंपि हु अज्ज वि पुट्टिहिं धावइ, दुव्विलसिड जिम्व मणु संतावइ । भरसर संतुट्ट सप्पड़, पुणरवि मंतिहि इम्व विन्नप्पद ॥ १. जिम रं० । २. • गहु रं० । ३. पिच्छंत रं० । ४. कुट्टिमपाय० रं । ५. उच्चलियउ रं० । ६. बलियउ । ७. संपइ रं० । For Private Personal Use Only ८३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे पहु ! तुझ हियत्थि, सइ सेयस्थि, अम्हिहि एउ कहिजह । निय सेव कराविवि, नउ सुमराविवि, सम्माणिवि विसज्जियइ ॥८॥ अह पणिइपवि णिहि भरहनाहु, मेल्लाविउ मंतिहि मणह् गाहु । पट्टवइ दूर नामि सुवेगु, अप्पविणु रहवर पवणवेगु । अहो दूय ! जाहि तक्खसिल ताव, पियवयणिहि भणमु महाणुभाव ! । पिउ बंधवु मज्झु कणिट्ट, भाय, बाहुबलि न रू.सइ जिम्व सुजाय । पवइय सहोयर लहुय सावि, दुइ अम्हिहिं राय न भंति ......... । महु मन्नइ सेव सिणहजुत्त, उवभुंजहु रज पसन्नचित्त । आएसुभगेविणु जाहु लग्गु, अवसउणसहसपडिखलियमग्गु । अत्याणि कणिट्टह पहुहु आण, सव्वा वि निवेदय कयपमाण ।। बाहुबलि भणइ भो भरहभाय !, म भायसु होहि थिरु मेल्लेविणु मुणिवर अन्नु जिणु, अवरह न नमइ नं मझु सिरु ॥९॥ एत्थंतरि रायपसायमुहिउ, चंदुम्गमि जलनिहिजलु व खुहिउ । अत्थाणु सयलु बाहुबलितणउं, दृयागमि मणि मच्छरिउ घणउं । आंबलीय भीमि दाढियहु लेवि, उत्ताणिय ददरहिं नयण चे वि । चउरंगुलु भूमिहिं निसढि भग्गु, अवलोइड सीहि निसिउ खग्गु । हत्थलिअयलिं हउ धरणिवठ्ठ, , दमघोसिं दंतिहिं अहरु दट्ट । भालयलिं सुवेगिं तिवलि भग्ग, महसेणह छुरियहिं मुट्टि लग्ग । फुड्ड पुप्फदंति फुरुफुरियहो?, पहरणहुं पिहुहु कंपिय पकोट्ट । य हो? उन्भडभडभीसणसुहडवम्ग, अन्ने वि एम्व बोल्लणह लग्ग ।। बहुसेन्नु भरहु कहि किर कवणु, बाहुबलिहि कुवियाणणह ? । परियारिड हरिणु कहि किं कुणउ कुवियह पंचाणणहं ? ॥१०॥ अह सुवेगवयणि रणकामय, दुन्नि पि भायर पायडनामय । रणसंभारखु हियसायरजल, सिंवासिबिहि मिलिय गंहावल । तो उदयाचलि चडियइ दिणयरि, पेच्छिउकामि पणासियतमभरि । अहो किर किं रिसहेसरजायहं, घरि वि विरोहु हुयउ दुहं भायहं । धिसि ! धिसि ! धिसि ! विसयह तुच्छत्तणु, धिसि ! धिसि ! धिसि ! कसायविरुयत्तणु । जाण कजि इम्ब होइ जणक्खउ, यावहं ताहं कु र्दुट्ठिम लक्खउ ? । विसय दुरंतनरयदुहकारण, विसय सग्ग-अपवम्गह वारण । विसय धम्मधिइवेयवियारण, विसय घरि वि इवें विहिय महारण । जद विहु जणसम्मय, जइ वि मणोमय, तह विहु खय गय विसयरह । किउ वलिहि सुवन्नर, जइ वि रवन्नउ, कन्नह छेयणु जं करइ ॥११॥ निग्गइ तमभरि पयडिय नहंगणि, बहुभडभीसावणे समरंगणि । बिन्नि वि रणरहसिं सन्नद्धई, बहुमच्छर अमरिसिं संकुद्धइं । बिन्नि वि जयसिरिसंगमलुद्धई। ........ १. आंबलिउ-२०। २. हुह -२०। ३. कंपिउ-२०। ४. सिउ तम० रं०। ५. इमरं०। ६. दिछिम रं०। ७. कारणु रं। ८. वारणुरं.६.इमरं०।१०. जइरं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. भावनास्वरुपवणनाधिकारे भरतास्यानकम् बिन्नि पि नियसामियकजजय. बिन्नि वि पयडपरकमदुजय । बिन्नि वि रणसंकडि अविसायई, यिनि वि नियपहुलद्धपसायई । बिन्नि वि रणकलसिक्खियसत्थई, विन्नि वि पउणीकियबहुसत्थई । विन्नि वि मिल्लियसिंहनिनायई, बिन्नि वि मुद्धवंसगुणनाया। विन्नि वि निकरुणई निप्पट्टइ, विन्नि वि रणरहसिं संघट्टा ॥ रवि[--] आगमि जिम्ब चंदुग्गमि, रेल्लंतई महियलु जलई। पुव्यावरसिंधुहं दोहिं वि बंधुहु, दुग्गाहइमिलियइबलई ॥१२॥ अभिट्ट गयाहिब गयवराह, गलगजिभरियभुवणंतराहं । संलग्ग तुरय जवसुंदराहं, तुरयह हयहेसियमणहराहं । संचोइय संदण रणि रहाहं, घरहररवपूरियसुरपहाहं । लल्लक्कमुक्कहक्कारवाहं, संलग्ग सुहड भडमाणवाहं । कडतल्कझलक्कियभीसणाह, उक्खायखग्गगुरुनीसणाह । भलभलियसेल्लभासियनहाहं, मुग्गर-मुसुंढिपयडाउहाहं । लल्ल[क्क]चक्कचच्चक्कियाहं, नाणाविहहेइचमक्कियाह । . बाणावलिछाइयनहयलाहं संलग्गु जुझु दोहिं वि बलाहं । इव कायरनासण, सूरह तासण, धणजणमहणि महाबलई। रिसहेसर जायह, दोहि वि भायहं, अभिट्टइ वियड इं बलई ॥१३॥ भिडंतरायनंदणं, भजंतभूरिसंदणं, किजंतसत्तुसद्दणं संपन्नवेरिमद्दणं । मरंतमत्तवारणं, पढंतचारुचारणं, विपक्खदिन्नदारुणं, महंतपावकारणं । पडतसेयछत्तयं, भिजंतरायगत्तयं, दीसंतरत्तगत्तयं, संजायगिद्धभत्तयं । छिज्जंतहत्थिसुंडयं, रुईतरुंडमुंडयं, उडुंतभूरिकंडयं,............॥ एवंविहु भीसणु, सुयहरिनीसणु, विम्हावियसुरनरनिवहु । जाय[3] आओहणु, भडसंखोहणु, दंसियबहुविहुसत्तुवहु ॥१४॥ चित्तरहह नंदणु चित्ततेउ, हक्किउ नलि भडहमसज्झतेउ। ओरिं चलु कायर म करि खेउ, जिं दंसेमि दुक रणह भेउ । तिं वयणिं रंजिउ चेत्ततेउ, बोल्लणह लग्गु तुहु रणि अजेउ । महु सामिहिसेव करावणेण, नियलहुयभायनीसारणेण । तुह जणयह जाउं जं कलंकु, पइं परिपक्खालिउ तउ विसंकु । पई अप्पउं पयडिउ सुहडविंदि, पई नाउं लिहाविउ धवलि चंदि । इय भणवि परोप्पर जुज्झि लग्ग, बाणेहिं संछाइय गयणमग्ग । सरधोरहिं छाइय सूरतेय, वरसहि घण जिम्ब नल चित्ततेय ॥ चित्तरहह नंदणि, कयकडमद्दणि, भरहह नंदणु अतुलबलु । बाणावलिघाइ, गरुयदुवाइ, पाडिउ तरुवरु जेम्व नलु ।।१५।। नलि पडियइ दंडाहिवि पयंडि, आयड्डिय दढ कोदंउदंडि । सीहरहु सुसेणि इम्ब सगबु, पडिभणिउ मुएविणु अवरु सब्बु । १. इम -२० । २. गिद्धछत्तयं खं० । ३. कायर -२० । ४. भणिवि -२० । ५. धारिहिं -२०। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे मइ सम सुहड परि जुज्झि लागु, करि घणुहर धरि अहवा वि खग्ग । नल मारवि गम्मइ केत्थु पाव, ए सयल देमि हतुम्ह ताव । इम्ब भणिवि सरिउ मणिदंडरयणु, करि चडिउ तेइं भासंतु गयणु । पविदंडिं सुरवइ जेम्व गिरि, तिम्व सो वि सुसेणिं पहउ सिरि । बाहुबलिसेन्नु निप्पहवयणु, संजाउ खणिण मैयलियनयणु । आवरिउ गयणु व दिणमणीए, अत्थमियइ भडचूडामणीए । बाहुबलिहि नंदणु भडआणंदणु, भरहसेन्नि सुहडह दुजउं । सुमरिवि रिसहेसरु, मणि परमेसरु, मरि समाहि सोहम्मि गउ ॥१६॥ ॥ नलकुमार-सीहरहविणासणो नाम पढमो संधी ॥१॥ पहुपल्हायरायकुलसंभवु भवरिउमहणजिणमणो, बहुबहुमाणविहियगुरुपयपउमपणमणो । बहिरंतरंगदुजयरिउगंजणु जणबहुस्सुउ। जिम्व हणुयंतु सुहडचूडामणि तिम्व निलवेउ विस्सुउ ॥१॥ अह निलवेउ सम ररसु भडु रणि अन्नियंतु नारउ । निब्भरसुहडघडणरणसंकडदंसणकेलिकारउ ॥२॥ चिंतइ चरणिं चत्तउ सुयहरु, नहयलि नीरिं रहियउ जलहरु । सुहरसलवणविहूणउं भोयणु, सुहसोहग्गविवजिउ जोयणु। तणु जिवं वयणविवजिउ दीणउं, वयणु व पम्हलनयणविहीणउं। गयणु व अत्थमियइ जिम्वे दिणमणि, हारु व हारियवरमज्झिममणि । मुहपरिणामविवजिउ मुणिमणु, सिंहकिसोरविहूणउं जिम्व वणु। रायहंसरहियउं जिम्व सरवरु, जिम्ब जणि रूवविवजिउ बहुवरु । विहवु व चत्तउ पत्तह दाणिं, दाणु व दूरीकिउ सम्माणिं । गीउ व वियलउं सुमहुरवाणिं, पउमु व रहियउं भमरर्जवाणि ॥ रिसहेसर जायह, चत्तविसायह, तेम्व रणंगणु..............। .... ॥१॥ .........''ग धरणि पकिलामि। जम्मि लयहरहिं कीलंति विजाहरा, भमहिं गय-गवय-हरि-हरिण-रुरु-नाहरा । तासु सिरि दोन्नि सेढीओ जणवयवरा, एग दक्खिणहिं उत्तरहिं भणियाऽवरा । अत्थि तहिं नयरु नामेण रहनेउरं, सदरमणीउ गिरिसरिहिं नं नेउरं । पयडपल्हाउ पल्हाउ तहिं नरवरो, रूवसोहग्गगुणकलिउ नं महिधरो ।। तं पयडपरक्कमु, सम्मयसकमु, खम्गवसीकयरिउनिवहु । पालइ महिमालउ, वरुच हिमालउ धवलकित्तिगंगापवहु ॥२।। नारयरिसि जायवि रायपासि, अज्झयणु पढेविणु गुरु पयासि । हउं बंभणु मग्गागमकिलंतु, महु भोयण दिजउ गुणमहंतु । मारिविरं । २. केत्थ रं०।३, मउलिय.२०। ४-५. जिम रं० । ६. जिम जिगरूव रं० । ७. विज्जल रं०। ८. जुयाणिं । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वेगु रं० । ५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारे भरताख्यानकम् " किं कारणु उत्तावलउ भट्ट !, सो भणइ रिसहमुय गुरुमरट्ट । आभिट्टा गरि बलपट्टि जाएवडं तहिं मई गुणगरिट्ट ! | भो भट्ट ! भुंजि तुह होउ भद्दु, मं करि वियत्त इव उच्चसद्दु । जाणिस्स वइयरु अनिल वेगु, पियपरिभवु मुणि एही सुवेगु । जा एय तत्थ आलाच हुंति, ता अनिलवेउ' संपत्तु झति । महु दिउ किंपि हुसेनु देव ! मई समरि करेवी तायसेव || पुति पभवतिं गुणेहिं महंति, ताय ! जणेरह गुण कवणु ? । मइ रणि पइसेवउं, निरु जुज्झें [उं], एम्व भणि चल्लिउ गुणभवणु ॥ ३ ॥ तं सुणिवि नेहिं भोलविउ ताउ, बोल्लणह लग्गु पल्हायराउ । तुहुं अज्ज वि बालउ सवह सज्झु, अन्नायचक्कहरजु [ज्झ ] मज्झु । आयन्नचि तं निम्मलविवेउ, पभणिउ साहसघणु अनिलवेउ । ह बालु अकारणु ताय ! एउ, जइ जियह फुरइ अप्पणउं तेउ । किं कुद्ध सीह किसोर बालु, निद्दलइ न गयकुलु कमकराल ? | लहुयउ चिंतामणि जणि समत्थु, चितिथउ पणामइ किं न वत्थु ? । किं नासियतमभरु फुरियतेउ, न पयासह दीवउ गुरुनिकेउ ? | पज्दलियउ सिहिकणु अप्पयासि किं न कुणइ तणभरु भासरासि ? ॥ बाहुबलिहितायह, भरहह भायह, मइ साहेज्जु करेव । निच्छ जोएवड, रणि पइसेवउ, वइरिमाणु मलेव ||४|| दससहस समप्पिय मयगलाह, तत्तिय जि रहहं हयचंचलाहं । दसलक्ख हयह कयघणथडाह, सन्नद्धकोडि दुद्दमभडाह । इम् विसs कुमरु रणि बलमहंतु, भडसंकडि ददु मयवज्जु दिंतु । परिकुविउ सणिच्छरु जिम्व नियंतु, उत्थरिउ नाइ कुद्ध कियंतु । सायरजल जिम्ब महि रेल्लयंतु, सरधोरणिछाइयदहदियंतु । गुणकार भरि सलु, बंभंडखंडु नं फुडइ वियलु । अच्च पेच्छवि तं समम्गु, भरहेसरु सइ बोल्लणह लग्गु । अहु हु हु किं वरिसयालु ?, किं वा वि जुयवखइ पलयकालु ? ॥ अक्खड, भडयणसक्खिउ, अनिलवेउ एहु वावरइ । भर साहिज्जइ आइउ, महिहिं न माइउ, जसु जसु तिहुयणु आवरइ ||५|| अह जावेव तेण बलुकाइउ, ता सुसेणु तमु सम्मुहु धाइउ | करयलकयदंडरयणु सुब्भड । हकंतउ दुप्पिच्छु दप्पुभडु । ओर चल रे निष्फलवग्गिय !, पाडमि तुह सिरि रोस निभग्गिय ! | ''। ता गलगज्जइ मत्तउ मयगलु, तो कुमरिं दंडाहिवु वुच्चइ, एहउ गव्वु महाभड मुच्चइ । कज्जदुवारि मुणिज्जइ भल्लउ, अप्पणि अप्पु न थुणइ महल्लउ । For Private Personal Use Only ८७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आख्यानकमणिकोशे छल्लुच्छलइ जं भायणु ऊग उं, रित्तउ पुणु कणकणइ निहीणउं । तूरु निजी निरारिउ बज्जइ, निजलु जलहरु निप्फलु गजइ ।। उपसप्पिवि वेई. इंव निलवेइं. हियइ पण्हि अप्फालियउ । मुरवरहं नियंतह, गयणि वहंतह, दंडरयणु उद्दालियउ ॥६॥ भरहसेन्नु अवसक्किउ समरह, सुरिहिं मुक्त कुसुभई सिरि कुमरह । भरहिं भणियउं करिबलनायग, अरि अरि अरि अरि वारिय सायग।' रणि दुजउ एहु पावु निरारिउ, मयगलघडिहिं मेल्लि परिवारिउ । वयणाणतरु तेण महायसु, मयगलघडहिं सु वेढिउ चउदिसु । जलहरु 'मालइ जिम्ब नहि दिणमणि, कम्मपरंपर जिम्व जिउ भववणि । कुमरु वि तं पेक्खिवि खुद्धउ मणि, सामवयणु संजाय तक्खणि । सारहि चिंतह एह रणि भग्गउ प्राहिउ कुलु लज्जावइ लम्गउ । मइ धुरि थकई होहि म कायरु, तुहुं भडु एहु सुसंगरसायरु ॥ तो कुमरिं सारहि, भणिउ महारहि !, हय हय वत्त म एय भणु । इम्ब मइ जुज्झंतउ, रणि सुझंतउ, ताउ न पेच्छइ तिणि विमणु ॥७॥ इम्ब भणि निग्गउ जयसिरिमाणणु, गयघड भंजिवि जिम्व ]पंचाणणु । काई असारइ इणि बलि भग्गइ, भरहिं सहुं वरि संगरि लम्गइ । सुहडिं एक्कु सीहु वरि जोहिउ, हरिणसत्थु मं बहु उवरोहिउ । वरि हिल्लूर एक रयणायरि, म छिल्लिरि अणुराउ दुहायरि । परि नहु एक्कु हुयउ कप्पूरह, मं चंदणह सराउ असारह । तिसियई अमयप्पुड वरि परिपीयउ, जलघडि जम्मु वि खयह म नीयउ। जहिं बंदिणह सद्द, सुमणोहरु, दीसइ विलयसत्थु सुपओहरु । जहिं सुम्मइ वीणारयु मणहरु, धयमालाउलु जहिं थड गुणहरु ।। तहिं रहवरु चोयहि, एम्ब म जोयहि, निसिय खम्ग साहसजुयहं । बाहुबलिहि तणयह, वल्लह जणयह, पेक्ख परकमु मह भुयह ॥८॥ एत्यंतरि जुज्झउ लग्गु बालु, भरहेसरिं सहु नं पलयकालु । वरिसंतु निरंतरु नहि न ठाइ, सरधारहिं अहिणवु मेहु नाइ । भरहु वि आयड्डियचावदंडु, बाणावलि मुंचइ बलपयंडु । भरहेसरबाणह खलवि जाइ, खण नहयलि खेणि महिवीदि ठाइ । खणि दीसइ करिवरि खण रहग्गि, खणि धणुहरि खणि भडनिसियखम्गि । खणि बाणि खणंतरि करिहि पुच्छि, खणि वियडि विलगड रायवच्छि । जिम्ब विज्जुपुंजु खणि दिट्टनट्ट, तिम्व भमइ रणंगणि गुणगरिट्ट । न य छेपई भरहह सो सरेहिं, मुणिराउ व मयणह दुहयरेहिं ।। नियधणुहरबाणिहिं, अगणियमाणिहिं, छाइउ सधउ सहँउ सरहु । जुझंतहं बालिं, अइसुकुमालि, किउ विलक्खु संगरि भरहु ॥९॥ १ सालइ २० । २. खण २० । ३. छिप्पहरं० ।। ४. सहसउरं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारः सो मंतिहिं वुत्तर इम्ब म तम्मु, एहु सव्वह सत्थह रणि अगम्मु । मणि चक्करयणु सरि सत्थरम्मु, एहु मारहि जइ पर मुयवि धम्मु । जं भरहि निरुद्ध जोगचक्कु. ........" तक्खणि मिलंतु जालावमालु, चउदिसिहि फुरंत सिहिकणकरालु । करकमलि ठियउं तं चक्करयणु, पेरिखवि कुमारु अक्खुहियवयणु । भरहेसरि बुच्चइ गुरुसिणेहि, अज्ज वि जीवंतउ जाहि गेहि । इह एही भवणि म होउ मज्झ, जसकित्तिहि नासण बालवज्झ । पभणिउ कुमारि करिलीलगामि, भज्जंतिहि रणि लज्जियइ सामि ! | उज्जलमुहछायह, तासु सुवायह, मुक्त चक्कु जं बहु करइ । धिसि रजह हुँतह एम्च गुणवंतह, पुत्तह पिय जहिं ववहरइ ॥१०॥ • आयंतह चक्कह चत्ततासु हूधणुहहत्थु सम्मुहउ तासु । दढबाणिहिं पहउ महाभुएण, अच्छोडिउ खरिंग बलजुएण । तह वि हु आगच्छइ तिक्खधारु, कम्मह विवागु जिम्ब दुन्निवारु । संखुद्धउ माणसि मोक्खकामु, गउ वेगिं गयणि [सु] जहत्थनामु । जहि जहिं नासंतउ जाइ बालु, तहिं तहिं जिं जाइ जालाकराल । बहिरंग जिणेविणु मुक्कखग्गु, एवंतरंगरिउ जिणह लग्गु । ते धन्न पुन्न रिसहेसजाय, समभावरुद्धमण-वयण-काय । मज्झ वि संपन्नउ समउ भावु, पउमासणि संठिउ समियपावु । चउसरणि पवन्नउ, महिहिं निसन्नउ, निंदिय गरहिय दुकियगई । सुमरिय परमेसरु, मणि रिसहेसरु, थुणटु लागु एम्व युद्धमइ ॥११॥ जय जय रिसहेसर ! भुवणसामि !, मयमद्दण ! मयगललीलगामि !। जय केवलवसविनायभाव !, पणमंतसत्त निम्महियताव !। जय तिहुयणभवणपयासदीव ! भवजलहिपडतासासदीव ! । जय लोयपयासियनीइसार!, परिवालियनिरुवमरजभार !। जय तिहुयणभवणुद्धरणखंभ!,संरक्खिय दुद्धरसुद्धबंभ !। जय सव्वसत्तसंजणियसोक्ख !, अट्टावयपवयभाविमोक्ख !। जय भवजलनिहिसंपत्तपार !, दुवहनिव्वाहियनियमभार !। जय जिणवर ! निजियजम्म-मरणु !, महु तुहुँ गइ [ तुहं मइ ] तुहुं जि सरणु ! ।। इय थुय रिसहेसरु, नयजोगेसरु, अनिलवेउ दुनयविमुहु । चक्काउहि दद्धउ, हियइ विसुद्धउ, पत्तउस मरियासिद्धिमुहु ॥१२॥ अह रणि सीहरहाहिय नेहह, सुयइ मरणि कुमरह निलवेयह । बिहिं पुत्तहं मरणिं विदाणउ । सोइवि वहु तक्खसिलऽहिराणउ । भरहिं सहु असमस्थियसंगरु, पत्तउ रणभुई वडियमच्छरु । भणिउ भरहु बाहुबलिं राई, बहुजणि किं मारियई वराई। भणि जिणि जुझि जुज्झउ भायर !, पडिवन्नइ भरहेसि ! म कायर । १. वडिउ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे दिद्विजुज्झि [जी]यउ भरहाहिवु, वइजुझि वि जित्तर चक्काहि । बाजुझि भग्गइ भरहेसरि, पुणु पडिवन्नइ दंडिहिं संगरि। पच्छिवि उद्धियदंड कणिट्टउ, आयह पासह अज्जु विणट्टउ ।। नियमणि खलभलियट, अइसई बलियउ, चिंतइ कि एहु चक्रवइ ? । पडिभट्टपइन्नई', रणरसिखिन्नई, कियउं चक्कु करि भरहवइ ।।१३।।रति खि अह चितिउ लहुयई लल्लकई, भंजउ भडमरट्टु सहु चक्कई । किं फलु तुच्छह विसयहं कारणि, आयह भट्टपइन्नह मारणि ? | धिसि ! धिसि ! अहो ! किं अमर णिएही (2), नियकुलसंहारणि निन्नेही । आई मह वल्लह सुय मारिय, लहुयसहोयर इणि नीसारिय।। धिसि ! धिसि ! विसय अंगुसंतावह, धिसि! धिसि ! विसय जि कारणु पावह] । धिसि ! धिसि ! विसय हेउ संसारह, घिसि ! धिसि ! विसय नियाणु जि मारह । विसयासत्त न जिणु परियाणहि, विसयासत्त न गुमयणु माणहिं । विसयासत्त विडंबण पावहि, एड चिन्तेविण वत्त तावहिं॥ अह तुझु अतित्तह, विसयासत्तह, किंपि ज असरिउ तं सरउ । अहु तुहुं अहु मंडलु, अहु भृखंडलु, मुक्कउ टारु ससिंदूरउ ॥१४॥ कउ पंचहिं मुट्टिहिं लोउ तेण, पुणरवि य विचिंतिउ नियमणेण । उप्पन्ननाण महु लहुयभाय, किम्व नमणि करेवी मई सवाय ? । उप्पन्ननाणि मई तायपासि, जीयवि पेक्खेवा गुणह रासि । ठिउ काउसग्गि संजमिय वाणि, मणि माणाहिटिउ धम्मझाणि । तण-लयहि पवेदिउ अप्पमाणु, तसु वैरिसु जाव न यऽसणु न पाणु । रिसहेसरि पेसिय समयवाय, तहिं बंभी सुंदरि भणहिं भाय !। हस्थिहि ओयरियह होइ नाणु, एउ भणइ ताउ सुरविह्यिमाणु । कहिं मज्झ हत्थि इह वणि पसत्थि ?, हुं नायउं एहु जि माणु हथि ।। तो जिणवरु वंदउं, मुणि अभिनंदउं, सुहइ हुयइ परिणामि मणि । उप्पन्नइ केवलि. नासियकलिमलि, जिणह पासि गउ तम्मि खणि ॥१५॥ . भरहेसु वि भुंजइ एग छत्त, छक्खंडवमुह बहुरिद्धिपत्त । कइया वि हु निवु विलसिरअणंगु, सव्वालंकारविभूसियंगु । आयरिसगेहि गोयंकु वीरु, राढइं किर कइसउं महु सरीरु ?। एगंगुलि पेच्छइ ता मणुन्न, दुईसण मुद्दारयणसुन्न । अवणेइ सव्व जी विगयमोहु, उच्चिणियपउम सरु जिम्ब असोहु । चिंतइ सरूवि सव्व असारु, मेल्लेवि धम्मगुणु निम्वियारु । सुहभाविं मज्झिवि ठियउ घरहु, उप्पाडइ केवलुनाणु भरहु । देवयई समप्पिय समणलिंगु, कयलोउ महिहिं विहरइ असंगु ।। विहरिवि बहुवासई, वजिउ हासइ, कम्मक्खयनिम्माणह । पडियोहिय महियलु, नासियकलिमलु, भरहु गयउ निब्वाणह ॥१६॥ ॥ भरताख्यानकं समाप्तम् ॥२३॥ १. जुझि उड्डाइय भरहेसरि रं । २. तुझ २० । ३. उ रं० । ४. जाइवि रं० । ५. वरिस २० । Jain Education Interational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदानीमिलापुत्राख्यानकमारभ्यते । तद्यथा जओ भणियं अपरं च - निरुवमनयरगुणहिं पुहईए पत्तवद्धणत्तणओ । यत्तजहत्थभिहाणं अस्थि इलावद्धणं नरं ॥ १ ॥ तत्थेव य वत्थवो इभो भवणं महाविभूईए । सुद्धसहावो दक्खिन्नसायरो सुइसमायारो || २ || रायाइपूयणिज्जो निच्चं नीसेसनिगमनिवहस्स । अग्गासणी गुणन्नू गुणिजणवग्गस्स गोवो ||३|| एवं एयस्स महायणम्मि सव्वत्थ मुत्थहिययस्स । परमेगमवच्चदुहं जयम्मि जड़ वा सुही नत्थि ||४|| मिउवयण-रूव-सोहग्गधारिणी धारिणी पिया तस्स । सइसुत्थिया वि नवरं, निरवच्चा पुत्तकामा य ॥ ५ ॥ तत्थ इलादेवीए, आययणं विज्जई जणपसिद्धं । तं च जणो कज्जत्थी पुत्ताइनिमित्तमच्चेइ ||६|| तं च पसिद्धि सोउं देवीए तीए इच्भभज्जाए । पायवडियाए भणियं भयवइ ! जद्द तुह पसाएणं ||७| मज्झ भविस्सइ पुत्तो ता तुह भवणे महाविभूईए । पइवरिसं कारिस्सं जत्ताइमसवं परमं ॥ ८ ॥ . गोउलपमुहं वित्तिं बद्धारिस्सामि तुज्झ आययणे । किं बहुणा ? नामं पि हु सुयम्स तुह संतियं दाहं ||९|| तो तीए पभावेणं खओचसमणेणमंतरायस्स । पाउन्भूओ गन्भो तप्पभिई इभभचाए ॥१०॥ जाओ कालकमेणं वद्धावणयं पयट्टियं नयरे । वित्तम्मि सूइकम्मे संपत्ते बारसाहमि ॥ ११ ॥ जं जह भणियं तं तह सव्वं ओवाइयं विहेऊण । पारसु पाडिऊणं नामं दिन्नं इला तो ॥१२॥ गिरिकुंजसमल्लीणो सो चंपयपायवो व्व निरवाओ । वङ्गतो अणुवरिसं संजाओ अट्टवारिसिओ ||१३|| अम्मा- पियरेहिं तओ वियाणिऊणं कलागहणसमयं । न्हाओ कयबलिकम्मो धवलाहरणो धवलवेसो ॥१४॥ सुहृदिवसे सुहमासे मुद्धे पक्खमि पंचमितिहीए । सुहजोगे सुमुहुत्ते गुरुवारे पुस्सनक्खत्ते ||१५|| सक्कारिऊण सम्माणिऊणमज्झावयं विसेसेणं । महईए विभूईए लेहायरियस्स उवणीओ ॥ १६ ॥ 1 सव्वगुणसंओ विहु विज्जाए विणा सुओ वरं कन्ना । गव्भे वि वरं नासो वंझा भज्जा वरं होउ ॥१७॥ वागरण-छंद-ऽलंकार-कव्व-सिद्धत - वेयनिउणाणं । सुकुलप्पन्नो वि हु पामरो व्व जोयइ मुहं मुक्खो || १८ | तथा हि ५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारे इलापुत्राख्यानकम् अजात मृत - मूर्खेभ्यो, मृता ऽजातौ वरं सुतौ । तौ किञ्चिच्छोकदौ पित्रोर्मूर्खस्त्वत्यन्तशोकदः ॥ १९ ॥ तत्तो सजोगयाए जणयपयत्ता तहाभिओगाओ । अज्झावयस्स पत्तो कलाकला वस्स पारम्मि ||२०|| भवियञ्वयानियोगा पायं विसएसु न रमइ मणो से । अम्मा-पिऊहिं तत्तो खित्तो दुल्ललियगोट्टीए ॥२१॥ एत्थं तरम्मि मन्ने जे उमसत्तस्स तिहुयणं स्यलं । मयणस्स सहायत्तं काउं पत्तो सरयसमओ ||२२|| वित्थिन्नसरोवरवियसियाई कुमुयाइं निम्मलनिसासु । तारानियरसमिद्धिं गयणगयं जम्मि पसंति ||२३|| बीपि दिसा सरोवराई सुइसच्छसलिलक लियाइ । जम्मि उ सरयसिरीए दष्पणलीलं विडंयंति ||२४|| हंसेहिं संचरंतेहिं सोहियं गुरुनहंगणं जम्मि । सुविसुद्धोभयपक्खेहिं अह व गरुया वि सोहंति ||२५|| जत् य पहिया मुहसालिगो वियासरसगीयपडिबद्धा । सम्मग्गाओ भस्संति अहव एवंविहा विसया || २६॥ सरसघणकालिमाए कलियाइ वि दिसिवहूण वयणाई | मुहयस्स जस्स संगे वियाससहियाइ जायाइ ॥२७॥ हिमसंकासो चंदो सवियासो सइइ जत्थ सविसेसं । सव्वत्थ वि वित्थरिओ सारयसिरिक्रितिपडर व्व ॥ २= ॥ धवलज्जइदिसिवल्यं जत्थ य कासेहिं ससहर सिएहिं । अइसरला सुहपवा सुविमुद्धा कं न धवलंति ? ॥ २९ ॥ अनिलंदोलिरविलसिरकासा आसाविलासिणीखंधे । सरयनरेसरचामरकलावलीलं विडंबंति ॥ ३०॥ १. सुच्छ० रं० ॥ For Private Personal Use Only ९१ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे पेच्छऽच्छरीयबहुवायसंजुयं जिणमयं जए जयइ । सिहिणो विमणा हंसा य सहरिसा जम्मि संजाया ॥३१॥ मुयपंतीए फलयं पि भक्खिडं सालिरक्खिया सालिं । देइ न जमदायारे कुणंतु किं रत्तवयणा वि ? ॥३२॥ उय सालिरक्खियाए सुदूरमुड्डाबिऊण सुयसेणिं । खित्ता किविणघरेसुं कुणंतु किं वा सपक्खा वि ? ॥३३॥ सउणेहिं संसियाओ सस्सइ ओसह..."सहलाओ ! सस्सेहिं समं सोहंति जम्मि सुहछेत्तसीमाओ ॥३४॥ जम्मि सुविसिट्टपरिपुट्टिलट्ठगोविंदतड्डियमुहाओ। गोटुंगणभूमीओ भमंतगोवीओ हंति ॥३५।। खत्तेहि समलिणेहिं धणेहिं संगे गया वि मलिणत्तं । सुइसंगे मुझंती सारयगयणं व गरुया वि ॥३६।। पेच्छह पयडपयायो अहिययरं सरयसंगमे वि रवी । निव्वडियपयावगुणा कुणंतु जे किंपि तह वि मुहा ॥३॥ विमलियनहम्मि सरयम्मि ससहरो अहह ! पेच्छ सकलंको । अहवा निम्मलसंगे वि नऽन्नहा जायइ सहावो ॥३८॥ इय एरिसम्मि सरए पकामकामम्मि सो इलापुत्तो। कइया वि कीलिउं काणणम्मि निजाइ सवयंसो ॥३९|| तत्थ ललंतो लीलाए लंखियं लहुललामलायन्नं । सोहम्ग-रूव-मुंदेरमंदिरं मयणघरणिं व ॥४९॥ नवजोव्वणरमणीयं नडधूयं नियइ मयणसबरम्स । जेउं जयं व विहिणा विणिम्मियं निसियभल्लि व ।।४१॥ पावो पेच्छइ मह पणइणि ति कामेण जायकोवेण । समगं सवंगं पि हु विद्धो पंचहि वि बाणेहिं ॥४२॥ ताहे अयकीलयकीलिउ व्व थिमिउ व्व चित्तलिहिउ व्व । लेप्पयमउ व्व मुच्छागउ व्व पाहाणघडिउ व्व ॥४३॥ जा तयवत्थो चिट्टइ तो तग्गयमणवियप्पकुसलेहिं । हरिस-विसायाउलमाणसेहिं मित्तेहिं संलत्तो ॥४४॥ उस्सूरं संजायं महई वेला समागयाणऽम्हं । ता गच्छामो गेहं कल्ले पुणरागमिस्सामो ॥४५॥ तं पि हु ता परिसंतो मा किमवि सरीरकारणं होही । अम्मा-पियरो दूरं तुह अवसेरिं करिस्संति ॥४६॥ वारं वारं भणिओ वि जाव तग्गयमणो न चिंतेइ । बाहाए घेत्तणं बला वि नीओ जणयगेहं ॥४७॥ तत्थ वि हसइ वियंभइ पलवइ रोवइ निरिक्खए सुन्नं । तत्तथले पक्वित्तो मच्छो व्व रई न पाउणइ ।।४८|| जा कट्टदसं पत्तो ताव य जणयम्स से निवेइन्ति । सो वि निसामिय वजाहउ व्व जाओ विसन्नमणो ॥४९॥ साणुणयं सप्पणयं सुजुत्तजुत्तिक्खमं खमासारं । परिफुसिय मुहं मुहरं भणियं सुण वच्छ ! मह वयणं ॥५०॥ पढियस्स तस्स सुणियम्स तस्स निरुवमकलाकलावस्स । मुहगुरुउवएसस्स य अवसाणं एरिसं वच्छ ! ॥५१॥ किंच लजिज्जइ जेण जणो महलिज्जइ नियकुलक्कमो जेण । कंटट्ठिए वि जीए कुणंति न कया वि तं सुयणा ॥५२॥ अन्नं च निवो नाही सो मह सव्वस्सनिग्गहं काही । परजणो वि हु भणिही अकज्जमिमिणा समायरियं ॥५३।। ता संति रूव-गोव्वण-लायन्नपवाहसारणीओ व्व । कुलबालियाओ ताओ वच्छस्स कए वरिस्सामि ॥५४।। ता नीयाए किमेयाए वच्छ ! रूवाइगुणजुयाए वि। सीयं पि पओ मायंगकूवए पियइ कि विप्पो ? ||५५।। भणियं च तेण अहमवि ताय ! वियाणामि जं तए भणियं । किंतु मह कम्मपरिणइवसेण विसमं तहिं पेम्मं ॥५६॥ जओ भणियं धारिजइ इंतो जलनिही वि कल्लोलभिन्नकुलसेलो । न हु पुब्वजम्मनिम्मियसुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ॥५॥ अवरं च ता लज्जा ता माणो ता इह-परलोयचिन्तणे बुद्धी । जा न विवेयजियहरा मयणम्स सरा पहुप्पंति ॥५८॥ ताव परो वि हसिज्जइ कीरइ माणं थिरत्तणं लज्जा । जा विसमे न पडिज्जइ अस्थाहे पेम्मकृवम्मि ||५९।। सुयनिच्छयं वियाणिय मग्गामि तयपि कि वियप्पेण ? | मा मह सुयम्स जीवियसमम्स अच्चाहियं होही ॥६०॥ गंतृण मग्गिओ सो सुवन्नतुलियं पयच्छ नियधूयं । भणियं तेण महायस ! सुवन्न अक्खयनिही एसा ॥६॥ ता जइ कज्ज मज्झं मिलेउ सो तुह सुओ किमन्नेण ? । गोरवअरिहस्स गिहागयम्स साहेमि कज्जमिणं ॥६२।। आगंतुणं जणएण लंखियाजणयभासियं कहियं । सो वि य निसामिऊणं मणे विसन्नो वियप्पेड ॥६॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. भावनास्वरूपवर्णनाधिकारे इलापुत्राख्यानकम् जणएण जणविरुद्ध अकज्जमवि ववसियं मह निमित्तं । तं पिन जायं तम्हा धिरत्थु विवरीयमयणस्स ॥६४|| जओ--- साहीणं मौत्तणं जं जं जणगरहणिज्जमहियं च । तं तं महइ वराओ दुरन्तयमयणवसवत्ती ॥६५॥ भणियं च पेरिज्जंतो पुवक्किएहिं कम्मेहिं कहमवि वराओ । सुहमिच्छंतो दुल्लहजणाणुराए जणो पडइ ॥६६।। अन्नं च-- सच्छंदपयपहाविरदुल्लहलंभं जणं विमम्गंतो । आयासपएहिं भमंतहियय ! कइया वि भजिहिसि ॥६७॥ एगत्तो गुरुआणा अलंघणिज्जा कुलं च ससिविमलं । एत्तो य अपडियारो मणभवणं दहइ मयणग्गी ॥६॥ ता किं वयामि देसं ? किं वा पाणे चयामि पावो हं ? अहव मणवल्लहाए मिलामि जे होइ तं होउ ॥६९|| जओ--- नासइ कुलाहिमाणो लज्जा परिगलइ पोरिसं पडइ । दूरे गुरूण सेवा नारीवसयाण भणियं च ॥७०॥ ताव फुरइ वेरग्गु चित्ति कुललज्ज वि तावहिं, ताव अकजह तणिय संक गुरुयणभउ तावहिं । तार्विदियई वसाई जसह सिरि हायइ तावहिं, रमणिहि मणमोहिणिहि वसउ नरु होइ न जावहिं ॥७१॥ सुकयत्थु वियक्खणु सो सुहिउ, सुगइमग्गि सो संघडिउ । परमोहणमूलियसरिसियह जो बालियहं न पिडि पडिउ ||७२॥ सो जणओ सा माया ते मित्ता तारिसो सयणवग्गो । एगपए च्चिय चत्तं अहह ! महामोहमाहप्पं ।।७३।। इय सो मिलिओ नडपेडयम्स जाणियकलाकलाओ वि । चउवेयपारगो माहणो व्व मायंगगेहम्मि ||७४॥ भणिओ समुच्छुगेणं सप्पणयं तेण लंखियाजणओ। देसु मम ताय ! धूयं, जमिमीए विणा न सक्केमि ||७५॥ तेणुत्तं वच्छ ! तुम असिक्खिओ सिक्खिया य मह धूया । अणुरूवो संजोओ न होइ ता सिक्ख विन्नाणं ॥७६॥ तो सो तह त्ति पडिवजिऊण तप्पभिइ सिक्खिउं लग्गो । अहवा वि किं न ववसइ ? किं न कुणइ लोहवसवत्ती ? |७७॥ तो सो मइपगरिसओ नच्चण-गंधव्वकरणपमुहासु । सवेसिमुवरिवत्ती संजाओ नाडयकलासु ॥७॥ पुणरवि जणएणुत्तं सिक्खं पयडेसु विढवसु सुवन्नं । जेण महाभूईए करेमि वच्छस्स वीवाहं ॥७९॥ विनायडम्मि नयरे. नडपेच्छं मग्गिओ महाराया। निहओ य रंगभूमीए गरुयवंसो तयग्गम्मि ॥८॥ फलिहम्मि उभयपासेसु कीलया तत्थ सो समारूढो । परिहियसछिद्ददोरुमयपाउओ वंससिहरम्मि ॥८॥ दाऊण खग्गखेडयविहत्थहत्थो विसिट्टकरणाई । पुरओमुहाई पच्छामुहाईपि हुसत्त सत्त तओ ।।८२॥ कीलेसु पाउयाओ खिविउं उद्धट्ठिओ निरुव्विग्गो । जा चिट्ठइ ता लोओ रंजियहियओ भणइ एवं ।।८३।। अहह ! महच्छरियमहो ! इमम्स नीसेसनडसिरोमणिणो । जो एरिसम्मि दुग्गे आयासे कुणइ करणाणि ||८४॥ ता जइ राया वियरइ पढमं किं पि हु इमस्स ता अम्हे । कुणिमो ईसरमेयं विभवपयाणेण किं बहुणा ? ॥८५|| राया उलंखियाए रूवाइगुणेहिं अक्खिवियहियओ। एईए इमो भत्ता पडिऊणं कहवि जइ मरइ ।।८६|| ता एसा मम भज्जा पाणपिया हवद इय विचिंतंतो। भणइ मए सच्चवियं न सम्ममेयम्स विन्नाणं ।।८७|| ता पुणरवि मह दंसउ एयं चिय पत्थुयं सविन्नाणं । इय भणिए नरवडणा दकम्वत्तणओ जणसमक्खं ॥८८|| किल सिक्खियस्स न हु किं पि दुक्करं तेग बद्धलक्खेग । लहुमेव वंससिहरे कयाणि पुण सत्त करणाणि ||८९॥ जा पुणरवि मज्झत्थो नरनाहो नो पयंपए कि पि । पुणरुत्तमवुत्तेण वि कयाणि तावंति करणाणि ॥९॥ एत्थंतरम्मि निवइम्मि तम्मि दिट्टम्मि दाणनिरवेक्खे । अहह ! अजुत्तमजुत्तं जणेण हाहारवो विहिओ ॥९१।। राया विलंखियाए अणुरत्तो लक्खिओ वियड्वेण । उवरिट्टिएण तेण वि तह चेव इलाए पुत्तेण ।।१२।। १. संजोगो २०॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ आख्यानकमणिकोशे तो परिभावियमिमिणा नूणमिमो मज्झ मारणनिमित्तं । करणाणि कारवेई पुणरुत्तमिमीए रत्तमणो ||९३ || ताकि एसो लावन्नरूवक लिएसु नियकलत्तेसु । सायत्तेसु वि एईए नीयजाईए अणुरतो ? ||१४|| ता किं इमिणा ? जम्हा अहं पि एयारिसों जणो अहवा । पेच्छइ गिरिम्मि जलणं पजलंतं न उण पायतले || ९५|| तो मणयं संविग्गो वंसग्गगओ विवेयवसवत्ती । परिभाविडं पयत्तो सतत्तमेसो सबुद्धी ||१६|| या अहं रत्तो राया व इमीए चेव वेलविओ । एयाए वि हु चित्तं चंचलचित्ताए दुग्गेज्झं ||१७|| तो पेच्छ मंदमइणा मए विमूढेण केरिसं विहियं ? । पच्छायावपरद्धो स दूरमेवं विचिते ||९८ || भणियं च न तहा तवेद्द तवणो न जलियजलगो न विज्जुनिग्धाओ । जं अवियारियकज्जं विसंवयंतं तवइ जंतुं ॥ ९९ ॥ यहि मह् विन्नाणं यमिणमो मज्झ मणुयमाहप्पं । जेण मए ससिविमले कुलम्मि मसिकुच्चओ दिनो ॥ १०० ॥ अवगणिओ नियजणओ अवगणिओ तारिसी सयणवग्गो । अवहत्थिया पसत्था ते वि हु इहलोय-परलोया ॥ १०१ ॥ जमिमीए मोहिएणं केणड् जम्मंतराणुराएणं । ववसियमेयमकज्जं वियाणमाणेण जमिहुतं ॥ १०२ ॥ अहो ! संसारजालस्य विपरीतः क्रियाक्रमः । न परं जलजन्तूनां धीवरस्यापि बन्धनम् ||१०३ || परमेत्तो वि हु एवं महंतमच्छेरयं जमेसो वि । राया कलत्तजुत्तो दढमणुरत्तो इमीए वि ॥ १०४ ॥ अत्राप्युक्तं केनचिद् यथा- भणियं च सर्वाभिरपि नैकोऽपि तृप्यत्येकाऽपि नाखिलैः । द्वितीयं द्वावपि द्विष्टः कष्टः स्त्रीपुंसमागमः ॥ १०५ ॥ ता अलमिमिणा परिदेविएण निच्चं नमोत्थु विसयाणं । वज्जिय कज्जमकज्जं कुणंति वसगा जमेयाणं ॥ १०६ ।। विसयविसमोहियाणं सुधम्ममंदायराण सत्ताणं । अमुणियसारा - Sसारण गलइ हत्थट्टियं अमयं ॥ १०७॥ विसया किंपागफलं विसया हालाहलं विसं परमं । विसया विसमं सल्लं विसया आसीवसभु यंगो ॥ १०८ ॥ विसया उक्कडपासो विसया कंदुज्जुओ नरयमग्गो । इय मुणिय विसयसंगं धीरा वज्वंति दूरेणं ॥ १०९ ॥ विसयासत्ता सत्ता विडंबणं तं जयम्मि पार्वति । ज्ञं कहिउं पि न तीरइ धूली चुकावण | महं व ॥ ११० ॥ तो विसयचिरत्तो हं संपइ विसएस मज्झ पज्जतं । दिट्टो मालवदेसो खद्धा मंडा मए इहि ॥ १११ ॥ वेरागणं नयमज्झं निरूवयंतेण । दिट्ठा धण भगिहे धम्मणा साहुणो के वि ॥ ११२ ॥ पंचसमिया तिगुत्ता संजमजुत्ता दढव्वया धीरा । सुपसंता पविसंता सुविसिट्टा भत्त- पाणट्टा ॥ ११३ ॥ नवजोव्वणाहिं सिंगारियाहिं लायन्न - रूवकलियाहिं । पडिलोभिज्जंता धम्मियाहिं धणचइगिहवहूहिं ॥ ११४ ॥ । मुणिवस दढमुल्लसिओ गुणाणुराएण । कयपुन्ना खलु एए विसयविरत्ता न उण अम्हे ||११५|| गुणगुणानुरागा उवसमाओ चरित्तमोहस्स । उल्लसियविरियवसओ जाओ चारितपरिणामो ॥ ११६ ॥ अहियं विवाहबुद्धी हिययम्मि सयत्यचितणपरो य | ठियसकलत्तविराओ विसयविरत्तो सुथिरचित्तो ॥ ११७॥ जह सो महाणुभावो अपुव्वकरणेण वंसजट्टीए । आरूढो तह चेव य गुरुईए खवगसेढीए ॥। ११ ॥ सिवपुरदंसणमो समणसमाहीए वट्टमाणस्स । लोया - ऽलोयपयासं संजायं केवलं नाणं ॥ ११९ ॥ एत्थंतरम्म ओरिय सभागाओ सो इलापुत्तो । रायाइजणसभाए धम्मं कहिउं समादत्तो ॥ १२० ॥ भो भो भव्वा! दुलहं लहिउं मणुयत्तमाइसामग्गिं । पडिवज्जह जिणधम्मं सम्मं सम्मत्तमायरह ॥ १२१ ॥ विरमह विसहिंतो सिग्धं सुहुमं पि दुच्चरियजायं । वियडह सुगुरुसयासे माऽहमिव विडंबणं वयह । १२२ ।। एत्थंतरम्मि भणियं रायाइसभाए विम्हियमणाए । भयवं कहमिव तुम्भे विडंबिया ? कहह निय चरियं ॥ १२३ ॥ निसुणह एगग्गमणा इओ भवाओ अईयतइयभवे । अहमासि वसंतउरे छक्कम्मरओ दियप्पवरो ॥ १२४ ॥ १. ०लाहिज्जेता रं० । For Private Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सम्यक्त्वगुणवर्णनाधिकारे सुलसाख्यानकम् । मह माहणी य भजा माहणकुलसंभवा पयइसामा । दढमणुरत्तमणाई' परोप्परं तम्मि जम्मम्मि ॥१२५|| समुदायकड! कम्मा समुदायफल त्ति इय सरंताई। संविग्गमाणसाइपवइयाइगुरुसमीवे ॥१२६।। रिउभावओ य भज्जा जाइमयं कुणइ तह मणे मुहुमो । मुगुरुसमीवे वऽम्हं नावगओ नेहपडिबंधो ॥१२७|| तं सुहुममणालोइय तहेव पत्ताई देवलोगम्मि । तत्तो इह जायाई तुम्हाणं चेव पच्चक्खं ॥१२८॥ तो जाइमएणेसा संजाया निंदियाए जाईए । अहमवि तन्नेहेणं विडंबणं एवमणुपत्तो ।।१२९॥ तो भो महाणुभावा ! मुगुरुसमीवम्मि सल्लमुद्धरह । कुणह य विसयविरमणं जइ सम्मं महह् सिवसोक्खं ॥१३०॥ इय निसुणिमण राया तहाऽवरा लंखिया महादेवी । संजायकेवलाई चउरो वि गयाइ मोक्खम्मि ||१३१।। ॥इलापुत्राख्यानकं समाप्तम् ॥२५॥ इय अहो परिणामो जाओ दमगम्स दग्गइनिमित्तं । भरह-इलापुत्ताणं हो य सिवसोक्ख संजणओ ॥१॥ तह अन्नाण वि जायइ दुग्गइ-सुगईण साहओ एसो । ता वजिऊणमसुहं सुहपरिणामं सया कुणह ॥२।। यद्वत् शुभो लवणरूपरसो रसेपु, चिन्तामणिमणिपु यद्वदिह प्रशस्यः । तद्वच्च धर्मशुभ कर्मणि शुद्धभावस्तस्मात् तमेव भजताशुभभावहानात् ॥१॥ ॥ इति श्रीमदानदेवसुरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे भावनोपवर्णनो नाम पञ्चमोऽधिकारः समाप्तः ॥५॥ [६. सम्यक्त्वगुणवर्णनाधिकारः] व्याख्यातो भावनारूपश्चतुर्थो धर्मभेदः। तद्व्याख्यानात् समर्थितश्चतुर्विधोऽपि दानादिधर्मः । अयं च सम्यक्त्वनिश्चलतायां सम्यक् फलदायी भवति । अतः सम्यक्त्वस्वरूपमेवाह भवचारयवासहरं तह सम्मइंसणं सुगइमूलं । ता सेणिय-सुलसा इव सम्मत्ते निचला होह ॥११॥ व्याख्या--'भवचारकवासहरं' संसारकारागारावस्थानविनाशनं 'तथा' इति समुच्चये 'सम्यग्दर्शनं' सम्यक्त्वं 'सुगतिमूलं' सुदेवत्व-सुमानुषत्वादिसुखप्राप्तिबीजम् 'तस्मात्' कारणात् श्रेणिक-सुलसे इव सम्यक्त्वे 'निश्चलाः' स्थिरा भवत इत्यक्षरार्थः ॥११॥ भावार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चामू । तत्र श्रेणिकाख्यानकं सेडुवकाख्यानके कथयिप्यते । सुलसाख्यानकं त्विदम् मगहामंडलअक्खंडमंडले आसि रायगिहनयरे । नयरेहिरो नरिंदो सेणियनामो ससोहो वि ॥१॥ तस्सऽथि पवरभूसो सुभद्दजाई सुदाणललियकरो। पउमालंकियदेहो रहिओ नागो व्व नागो त्ति ।।२।। जीवा-ऽजीवाइविऊ परियाणियपुन्नपावपरिणामा । सिरिवीरचरणतामरसमहुयरी सीलकुलभवगा३॥ तस्स सुलसाभिहाणा भज्जा वजियअवजसंसग्गी। चंदकरनियरनिम्मलनिच्चलसम्मत्तसंजुत्ता ॥४॥ अन्नोन्ननेहनिभरमणाण जिणथवणकरणपवणाण । अइकमइ ताण कालो विसयसुहं भुंजमाणाणं ।।५।। एत्तो य विहरमाणो गामा-ऽऽगर-नगरमंडियं वसुहं । वसु-हरि-नरिंद-मुणिवरभत्तिभरनमियकमकमला ॥६॥ कमलोलकणयनिम्मियकमलोवरिनिहियरुहररुइचरणो । चरणरुइचारुमुणिवरमाणससंजणियगुरुहरिसो ||७|| १. न्भरनिन्भरनमिय रं०। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे हरिसोयामणिविप्फुरियतेयपभारनिहयतमजाओ । तमजाइरहियसन्नाणफलयखलियंगयप्पसरो ॥८॥ पसरंतचरणनहमणिमयूहविच्छुरियसयलमहिवलओ । वल ओहकलियसुरवइसमूहथुव्वंतगुणनियरो ॥९॥ नियरोस-रायरिउघडसमरंगणविजयसयलसिद्धत्थो । सिद्धत्थसुओ सिरिवद्धमाणसामी समोसरिओ ॥१०॥ चंपाए परिसरम्मी अमुरा-ऽमरनिम्मिए समोसरणे । सीहासणे 'निविठ्ठो धम्मकहं कहि उमाढत्तो ॥११॥ एत्थंतरे तिदंडय-गणित्तिया-भिसिय-छत्तछन्नालो । अम्मडनामो सट्टो तत्थ परिव्वायगो पत्तो ।।१२।। काउं पयाहिणतियं पणमइ महिमंडले मिलियभालो। थोऊण जिणं भत्तीए तयणु खणमेक्कमुवविट्ठो ।।।।१३।। तो पणमि पयट्टो रायगिहे पुरवरम्मि ता एसो । सुलसाए मह पउत्तिं साहसु जगबंधुणा भणिओ ॥१४॥ इच्छं ति पभणिऊणं उप्पइओ गवलसामले गयणे । रायगिहे संपत्तो चिते चिंतेइ तो एवं ।।१५।। पेच्छ कह वीयराओ सुर-नरमज्झम्मि विहियमुपसंसो । केण गुणेणं सुलसाए ? तं परिक्खेमि गुणमहयं ॥१६।। इय चिंतिऊण तत्तो संपत्तो तीए गेहमचिरेण । मग्गइ भोयणमेसो देइ न धम्मत्थमेसा वि ॥१७॥ तो नयरपरिसरम्मी पुचपओलीदवारदेसम्मि । विरयइ विरिंचिरूवं चउवयणं पंकयनिविढें ॥१८॥ सियबंभसुत्त-सावित्ति-हंस-जड-मउड-अक्खमालाहिं । परिकलियं धम्मकहासमुजयं जाणिउं तत्तो ।।१९।। आगच्छइ पउरजणो तो मुलसा सहियणेण आहृया। दंभो त्ति पभणिऊणं न गया तव्वंदणट्टाए ॥२०॥ तत्तो स बीयदिवसे दाहिणदेसे विउब्वए कण्हं । गय-संख-चक्क-सारंग-गरुड-लच्छीहिं परिकलियं ॥२१॥ तेण विन रंजिया सा तो तइयदिणम्मि पच्छिमदिसाए । कुणइ सिरिकंठरूवं नयणत्तय-भूइभामुरयं ।।२२।। आवद्धजडामउडं चंदकलालंकियं वसहसोहं । अद्धंगगउरि-डमरुय-खट्टंगगणेण संजुत्तं ।।२३।। तत्थ वि न गया सुलसा तो उत्तरगोउरे विणिम्मविउं । वररयण-कणय-कलहोयकलियपायारतियसहियं ॥२४॥ तियसहियसमवसरणं कंकेतिलम्मि चउसरीरो सो। सिंहासणे निविट्ठो अट्टमहापाडिहेरजुओ ॥२५॥ तो जिणनाहं नाउं नयरजणो नरवररिंदपज्जन्तो । तत्वंदणवडियाए विणिग्गओ नो गया सुलसा ॥२६॥ तो अंबडेण एसा भणाविया जिणवरस्स नमणत्थं । सुलसाए तओ भणियं न एस सिरिवीरजिणनाहो ॥२७॥ तेण वि भणाविया सा पणुवीसइमो इमो जिणो मुद्धे !। सा आह न हुंति जिणा पणुवीसं भरहखेत्तम्मि ॥२८॥ किंतु कयकूडकवडो कोइ इमो सासणं विडंबेइ । तो अम्मडो वि चिंतइ थिरसम्मत्ता अहह ! एसा ॥२९॥ उप्पन्नविमलकेवलनाणीभयवं पिजं पसंसेइ । सा सुलसा जयउ जए निच्चलसम्मत्तवररयणा ॥३०॥ जं खोभिउं न सको सक्को विहु सासणाओ सुरसहिओ । सा सुलसा जयउ जए निच्चलसम्मत्तवररयणा ॥३१॥ देवा वि हु सन्निझं कुणंति जीए गुणेहिं अक्खित्ता । सा सुलसा जयउ जए निच्चलसम्मत्तवररयणा ॥३२॥ . इय संहरि सव्वं सुलसागेहम्मि अंबडो गंतुं । कुणइ निसीहियसदं सोउं अन्भुट्टए सा वि ॥३३॥ भणइ य निसीहियाए सागयमह कुणइ उचियपडिवत्तिं । वंदावइ गिहचेइयबिंबे एसोऽभिवंदइ य ॥३४॥ सासय-असासयाई वंदावइ चेइयाई सो सुलसं । सा वि धरलुढियसीसा वंदइ उभिन्नरोमंचा ॥३५॥ पुणरवि य सो पयंपइ सकयत्था तं सि पुच्छए जीए । सिरिवद्धमाणसामी कुसलपउत्तिं समवसरणे ॥३६।। निसुणित्तु तयं सुलसा भत्तिभरुमितरुइररोमंचा । महिमंडलमिलियनिडालमंडला पणमइ जिणिंदं ॥३७॥ तो तेण पुणो भणिया भद्दे ! हर-हरि-हिरन्नगव्भाणं । वक्खाणे सह लोएण नाऽऽगया कि तुमं ? कहसु ॥३८॥ किं भद्द ! तुम जंपसि अयाणमाणो व्व ? जंपए सुलसा । वीरं मोत्न रमइ मज्झ मणो इयरदेवेसु ॥३९।। तथा हि जो अइरावयगंडयलगलियमयरंदपरिमलग्घविओ। सो वियसियं पि न रमइ पिचुमंदं महुयरजुवाणो ॥४०॥ भरुयच्छ कच्छवच्छुच्छलंतमयरंदगुंडियंगस्स । भमरस्स करीरवणे मणयं पि मणो न वीसमइ ॥४१॥ १. निसन्नो २०।२. अम्बड०२० । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिनविम्बदर्शनफलाधिकारे शय्यम्भ यभट्टा ख्यानकम् । जो माणसम्मि वसिओ वियसियसयवत्तमासलामोए । सो किं फुल्लपलासे सविलासं छप्पओ छिवह ? ॥४२॥ जो नासियधवगंगं गंगं धवलुज्जलं जलं लिहइ । गयसोहं सो हंसो किं सेसनईपयं पियइ ? ॥४३॥ जो कयसीयलतीरे नीरे रेवाए मज्जइ जहिच्छं । सो किं इयरे वियरे गओ गओ देइ दिहि पि ? ॥४४॥ जो घणलयसामलए मलए मयरंदवासिए वसिओ । सारंगो सारंगो सो किं इयरे धरे रमइ ? ॥४५॥ जो गंतुजितनए नए नओ भवइ वसइ वरवच्छे । सो नीलगलो विगलो कि विगयतलं मरूं सरइ ? ॥४६॥ जो पोढपुरंधिरए रओ पकामं पकामकामम्मि । सो किं मोहियमोरे खोरे कामे मणं कुणइ ? ४७॥ इय सिरिवीरजिणेसरनिरुवमपयपंकयं नयं जेहिं । सो हरिहराण किं सुहसमूहमहणे कमे नमइ ? ॥४८॥ इय जो जिणिंदनिरुवमवयणामयपाणपियणदुल्ललिओ । सो सेसकुनयमयकजिएमु न य निव्वुइं लहइ ।।४९|| आउच्छिऊण सुलसं तओ गओ अम्बडो नियट्ठाणे । सुलसा वि य पजंते कमेण संलेहणं काउं॥५०॥ सुमरंती वीरजिणं खामंती सयलसत्तसंघायं । गरिहंती दुच्चरियं पभणंती पंचनवकारं ॥५१॥ मरिऊण गया सग्गे तत्तो चविऊण भरहवासम्मि । उववज्जिही जिणिंदो पनरसमो निम्ममत्तजिणो ॥५२॥ ॥सुलसाख्यानकं समाप्तम् ॥२५॥ जह एएहिं विसुद्धं सम्मत्तं पा लियं सुगइमूलं | तह अन्नेण वि एवं पालेयव्वं पयत्तेण ॥१॥ यद्वन्मनुप्यनिवहेपु जिनः प्रधानः, स्वर्णाचलो गिरिवरेषु यथा वरेण्यः । तारागणेप्वपि यथा शशभृत् प्रशस्यः, सम्यक्त्वमेवमिह धर्मविधौ वदन्ति ॥१॥ ॥इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोषे सम्यक्त्वगुणवर्णनः षष्ठोऽधिकारः समाप्तः ॥६॥ [७. जिनबिम्बदर्शनफलाधिकारः।] व्याख्यातं सम्यक्त्वम् । इदं च प्राप्तमपि जिनबिम्बदर्शनादेोधिसद्भावाद् विशुद्धिमासादयति इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातं जिनविम्बदर्शनं व्याख्यातुकाम आह जिणबिंबदसणाओ लहुकम्मा केइ इत्थ बुज्झति । जह सेजंभवभट्टो अद्दयकुमरो य संबुद्धा ॥१२॥ व्याख्या-'जिनबिम्बदर्शनात्' सर्वज्ञप्रतिमावलोकनात् 'लघुकर्माणः' स्वल्पीभूतज्ञानावरणीयादिकर्ममलाः 'केचन' न सर्वे 'अत्र' भवे 'बुध्यन्ते' अवगततत्त्वा भवन्ति । दृष्टान्ताभिधानायाह–'यथा' येन प्रकारेण 'शय्यम्भवभट्टः' प्रभवसूरिशिष्यः 'आर्द्रककुकुमारश्च' सम्बुद्धौ इति गाथाक्षरार्थः ॥१२॥ भावार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चामू । तत्र तावदादौ शय्यम्भवभट्टाख्यानकमारभ्यते । तश्चेदम्वीरजिणेसरदिन्नं निययपयं पालिउं सुहम्मम्मि । सिद्धिं गयम्मि तत्तो तम्स पयं जंबुणामम्मि ॥१॥ परिपालिऊण मोक्खं संपत्ते तप्पयं पभवसूरी । परिपालइ परियरिओ निरुवमगुणसाहुनियरेण ॥२॥ परगच्छ-सगच्छेमु वि निउणं पि निरिक्खियं पुरिसरयणं। कत्थइ अपेच्छमाणो नियगच्छधुराधरणधवलं ॥३॥ जा उवओगं पुवेसु देइ ता नियइ रायगिहनयरे । पारद्धमहाजन्नं सेजंभवमाहणं तत्तो ॥४॥ सिरिरायगिहे नयरे सूरी पत्तो तओ य मज्झन्हे । संपेसइ सिक्खविउं मुणिजयलं जन्नवाडम्मि ॥५॥ .. १. खिउं पुरि० २० । २. सिजंभव० २० । एवमग्रेऽपि कथासमाप्तिं यावद् शेयम् । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जओ आख्यानकमणिकोशे गंतुं सेज्जंभवयंभणस्स पुरओ उरालसद्देण । तुच्भेहि तिन्नि बाराओ एरिसं तत्थ भणियवं ॥ ६ ॥ अहो ! कष्टं [ अहो ! कष्टम् ] तत्त्वं न ज्ञायते । तो ते इच्छंति पयंपिऊण सेज्वंभवम्स जन्नग्मि । गंतॄण भणति तयं तं सोउं चितइ दिओ वि ||७|| पति सा स एए सच्चन्नुपुत्तया तत्तो । तत्तमिह किं पि अन्नं होही पुच्छामि ओज्झायं ॥ ८ ॥ तो पुट्टो उज्झाओ वेया तत्तं परुवियं तेण । जम्हा ओपोरिसेया पुरिमुत्तं किर विसंवइ ||९|| पुणरवि पुट्टो तत्तं स इओ जंप तइज्जवाराए । संजायमहाकोवो उक्खायनिसाय करवालो ॥ १० ॥ जंपड़ जड़ न हु इहि तत्तं अक्खसि तओ विणासिस्सं । तो संभंतो संतो जंपढ़ एरिसमुवज्झाओ ॥ ११॥ सच्चं पिसिरच्छेए तत्तं अक्खिज्जए ति तो कहइ । पुत्र्वा ऽपराविरुद्ध धम्मो जिनदेसिओ तत्तं ॥१२॥ तो माहणो पयंपइ दंससु मह एत्थ पच्चयं किं पि । सो जंपइ पूइज्जइ जन्नछलेणं इहं अरिहा ||१३|| इय भणिय जन्नखोडं खणिउं सिरिरिसहसामिणो पडिमा । उवसंत - कंतरूवा पयासिया तस्स सो तुट्टो ||१४|| पण पडिमं तत्तो मुणिणो वि गया गुरूण पासम्मि । निव्वत्तिऊण जन्नं सयलं सेज्जंभवेण तओ ॥ १५ ॥ दिण्णं च बंभणाणं दाणं तत्तो गुरूण पासम्मि । गुण सिलयचे इयम्मि पत्तो गरुयाए भत्तीए ॥ १६ ॥ पण मिय गुरुकमकमलं उवविट्टो जोडिऊण करजुयलं । गुरुणो वि गहिरसद्देण देसणं काउमारद्धा || १७॥ नभस्तलतरङ्गिणीजलविलासलोलाः श्रियः, कुरङ्गनयनेक्षगभ्रमण भङ्गुरं यौवनम् । विलोललवलीदलालि [...] चलाचलं जीवितं, समस्तमपि गत्वरं जगति जैनधर्मं विना ॥ १८ ॥ 1 ततो सो पडिबुद्धो गुरुचरणे पणमिउ भणइ एवं । जइ अस्थि जोग्गया मे ता दिक्खं देह मह भयवं ! ॥ १९ ॥ तो दिक्खिओ भयवया चउदसवी कमेण संजाओ । ठविओ य पभवसूरीहिं नियपए सो महासत्तो ॥ २०॥ तत्तो य पभवसूरी घेत्तृणं अणसणं समाहीए । मरिऊण समुप्पन्नो सुरालए सुंदरी अमरो ॥ २१ ॥ सेभवसूरी विय मुणिगणपरिवारिओ पसंतप्पा । तिहुयणगुरुणो सिरिवद्धमाणतित्थं प्रभावितो ॥२२॥ पंचविहं आयारं समायरंतो तहा परूवितो । सम्मत्तमूलधम्मं साहूणं सावयाणं पि ॥ २३ ॥ पडिबोहंतो सूरु व्व भवियकैमलाई विहरइ महप्पा । गामा-पर-पुर-कच्चड-मडंब - खेडाइ ठाणेसु ॥२४॥ एतोय तस्स भज्जा तं पवइयं सुणित्तु सयणेर्हि । पुट्ठा किं पि हु उयरे तुह अस्थि ? उयाहु न हु अस्थि ? ॥ २५ ॥ ती पयंपियमेयं मणयं लक्खिज्जए अह कमेण । विद्धिं पत्तो गन्भो जाओ य सुओ सुहमुहुत्ते ॥२६॥ ग गयम्मि एयम्मि तीए मणयं ति जंपियं आसि । ता होउ मणयनामो एसो तो तं कथं नामं ॥२७॥ जाओ पवमाण कमेण सो अट्टवरिसदेसीओ । अह अन्नया य जणणी पुट्टा मह अंब ! कत्थ पिया ? ॥ २८ ॥ तो तीए तस्स कहियं सेज्जंभवबंभणो पिया तुज्झ । फव्वइओ तं सोउं सो चितइ सुंदरं विहियं ॥ २९ ॥ जं पव्वइओ अहमवि करेमि पवज्जमिह विचितेउं । अकहंतो नीहरिओ गओ य चंपाए नयरीए ||३०|| भिक्खा वेलासमए गोयर चरियं गएसु साहूसु । सूरी सरीरचिन्ताए आगओ एगगो तत्थ ॥ ३१ ॥ तो तेहिं इमो दिट्ठो दिट्टा तेणावि सूरिणो तत्तो । जाओ महासिणेहो परप्परं ताण दुहं पि ॥ ३२ ॥ नाई नूण जाईसराई वियसंति वल्लहे दिट्टे । कमलाइ व रविकरबोहियाइं मउलंति वेसम्मि ||३३॥ मण तओ पण कमकमलं ताण भत्तिजुत्तेण । तो सूरिणा स पुट्टो को सि तुमं भद्द ! ? सो भणइ ||३४|| रायगिहे सेज्भवभणपुत्तोऽहमेत्थ संपत्तो । मह जणओ पव्वइओ तप्पासे फवसामि ||३५|| तो गुरुणा भणियमिणं तुह जणओ मह सरीरसमरूवो । तो फव्वयसु तओ सो सुमुहुत्ते दिक्खिओ तेहिं ॥ ३६॥ १. परोसेया खं० रं० । २. इत्थ रं० । ३. ०कमलसंडाई विह० रं० । ४. दोहं रं० । For Private Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिनविम्बदर्शनफलाधिकारे आर्द्रककुमाराख्यानकम् एयम्स जीवियत्वं कित्तियमेत्तं ? ति जाव उवओगं । पुवेमु देह सूरी तो छम्मासे नियइ तम्स ॥३॥ उद्धरिऊणं आगमसमुद्दमझाओ किं पि थेवसुयं । विरएमि इमम्स जहा जायइ सिग्धं पि उवयारो ॥३८॥ जम्हा चउदसपुची निज्जूहइ कारणम्मि जायम्मि । निज्जूहामि अहं पि हु कारणमेयं जओ मज्झ ॥३९॥ सो नियमा निज्जूहइ जो दसपुवीण होइ पच्छिमओ । इय चिंतिय सेजंभवसूरी निज्जूहिउं लग्गो ॥४०॥ निज्जूढा य वियालियवेलाए तओ य तस्स सत्थस्स । दसवेयालियनामं जायं भणियं च सूरीहिं ॥४१।। मणगं पडुच्च सेजंभवेण निज्जूहिया दसऽज्झयणा । वेयालियाए ठवियं तम्हा वेयालियं नाम ॥४२॥ तत्तो छहिं मासेहिं पढिउ मणओ गओ य सुरलोयं । जाओ अंसुनिवाओ सूरीणमवच्चनेहेण ॥४३॥ दट्टण तयं सेजंभवाण थेराण मोहवसयाण | पुढे जसभद्देणं अच्छरियमिणं जओ भणियं ॥४४॥ तुम्हारिसा वि वरपहु ! मोहपिसाएण जइ छलिज्जंति । तो साह तुमं चिय धीर ! धीरिमा कं समल्लियउ ? ॥४५॥ तत्तो कहिओ तेसिं निययविणेयाणऽवच्चसंबंधो । न उणो निवेइओ तुम्ह निजरा होउ एयस्स ॥४६॥ सेजंभवाख्यानकं समाप्तम् ॥२६॥ इदानीमा ककुमाराख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् सिरिरायगिहे नयरे जंबुद्दीवु व्व सेणिओ राया । आसि गुरुगोत्त-वाहिणि-विजयालंकारपरियरिओ ॥१॥ तस्साऽभयाभिहाणो पुत्तो सुइ-सुद्धगुणसमिद्धस्स । हारस्स व मंतिगणस्स नायगो तम्मि रज्जसिरिं ॥२॥ आरोविय विसयसुहं उवभुंजइ चेल्लणा-सुनंदाहिं । राया हरो व्व सुपओहराहिं गंगा-गिरिसुयाहिं ॥३॥ एत्तो य जलहिमज्झ अद्दयदसम्मि अद्दयं नयरं । तत्थ य अद्दयराया रिउकरिमहणो मइंदो व्व ॥४॥ नियनयणविजियहरिणी घरिणी तस्सऽस्थि अद्दया नाम । अद्दयनामो कुमरो तीए सिरीए व्व रइनाहो ॥५।। अह अन्नया नरिंदो उभडभडकोडिसंकडऽत्थाणे । करकलियकणयदंडेण दारवालेण विन्नत्तो ॥६॥ देव ! दुवारे सेणियमंती तुह चरणदंसणं महइ । संजाओ से हरिसो पुलएण समं इमं सोउं ॥७॥ भद्द ! पवेसय सिग्घं ति जंपिए सो पवेसिओ तेण । नरनाहचरणकमलं पणमिय उवणेइ तो मंती ॥८॥ कंबल-सोवच्चल-निंबपत्त-वरवस्थपभिइ कोसल्ल । तो संतुट्ठो राया सेणियकुसलं पपुच्छेउं ॥९॥ पभणइ को एयारिसमहग्घमोल्लाणि मज्झ वत्थूणि । मोत्तु सेणिय निवई पेसइ ? तो अद्दयकुमारो।१०॥ जंपइ को देव ! इमो सेणियराओ ? ति भणइ तो राया । वच्छ ! न याणसि मगहामंडलसामि महारायं ? ॥११॥ अम्हाण तेण सद्धिं नेहो नियकुलकमागओ तत्तो । अद्दयकुमरो पुच्छइ सेणियमंतिं जहा तस्स ।।१२।। सेणियनिवस्स कुमरो रजमहाभरधुराधरणधीरो । अत्थि ? त्ति तओ मंती पभपइ किं न ह तए नाओ ? ॥१३॥ बंधुरबुद्धिसमिद्धो धरणिपसिद्धो सुधम्मसद्धालू । धीरो वीरजिणेसरकमकमले रायहंसो व्व ॥१४॥ इच्चाइगुणगणजुओ अभयकुमारो ति तस्स वरकुमरो। तत्तो अद्दयकुमरो नरेसरं भणइ सपणामो ॥१५॥ ताय ! जहा तुम्हाणं नेहो अवरोप्परं तहऽम्हे वि । इच्छामो तो जंपइ नरेसरो पुत्त ! जुत्तमिणं ॥१६॥ पालिजइ निच्चं पि हु नियपुरिसपरंपरागओ नेहो । वच्छ ! जओ गुरुएहिं वि सुहासियं एरिसं भणियं ॥१७॥ उइ सणियं सणियं वंसे संचरइ गाढमणुलग्गो। थेरो व्व सुयणनेहो न वि भज्जइ बिउणओ होइ ॥१८॥ ते धन्ना सप्पुरिसा जाण सिणेहो अभिन्नमुहराओ । अणुदियहवड्डमाणो रिणं व पुत्तेमु संकमइ ।।१९।। तो कुमरेण अमच्चो भणिओ ताओ जया विसज्जेइ । तइया मह मिलियब्वं एवं ति तओ भणइ मंती ॥२०॥ अह अन्नदिणे सम्माणिऊण मंतिं निवो समप्पेइ । सिरिखंड-रयण-विद्दुम-कप्पूरप्पभिइ कोसल्लं ।।२१।। तत्तो विसजिओ सो निवेण नियपवरपुरिसपरियरिओ । पत्तो कुमरसयासे तेण वि सम्माणिओ सम्मं ।।२२।। १. पढियं रं०। Jain Education Interational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जओ- आख्यानकमणिकोशे वज्जिद नील - मरगय-मुत्ताहरूपमुहरायरयणाणि । अभयकुमारनिमित्तं समप्पिऊणं इमं भणिओ ||२३|| मज्झ वयणेण अभओ भणियवो जह तए समं पीई। काउं बंछइ अध्यकुमरो त्ति तओ विसज्जेइ ||२४|| अणवरयपयाणेहिं संपत्तो सो पुरम्मि रायगिहे । पडिहारकयपवेसो पणमइ नरनाहमत्थाणे ||२५|| तो अयनिचइनरेहिं राइणो ढोयणीयमुचणीयं । अभयकुमारस्स पुणो अद्दयकुमरस्स रयणाणि ॥ २६ ॥ तत्तो दहं रयणाणि रायपमुहा असेससामंता । विहियहियया जाया कहंति तो ते कयपणामा ||२७|| अद्दयकुमारपेसियपाहुडयं अभयमंतितिलयस्स । तं सोउं जिणचयणा मलमइणा चिंतियं तेण ||२८|| नूर्ण ईसिवि हियसामन्नोऽणारियम्मि उप्पन्नो । कोवि इमो लहुकम्मो ता' होही सिद्धिपुरगामी ||२९|| छs पीई काउ मए समाणं तओ इमो नियमा । ता परमबंधवत्तं पडिबोहिय तं पयासेमि ||३०|| 9 भगमज्झमि पमायजलणज लियम्मि मोहनिद्दाए । उट्टवइ जो सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ॥ ३१ ॥ ता मा कयाइ जिणबिंबदंसणे जायजाइसरणो सो । पडिबुज्झइ इय चिंतिय काराचइ सव्वरयणमयं ॥३२॥ उवसंतकंतरूवं पडिमं सिरिरिसहनाहदेवस्स । संगोविउ समुग्गे मंजूसामज्झयारम्मि ||३३|| धूकडच्छु - घंटिय-आरत्तिय - मंगलप्पईवाइ । पक्खिचिय तत्थ तालं दाउ मुद्दइ तओ अभओ ||३४|| राएण जया अयनरिंदपुरिसा विसज्जिया दाउ । कोसल्लं उवणीया तइया अभएण मंजूसा ||३५|| भणियं च जहा अद्दयकुमरेणेगागिणा तहेगंते । एसा निरिक्खियव्य त्ति जंपिउ ताण सम्माणं ||३६|| का विसज्जिया ते पत्ता य कमेण अद्दए नयरे । काउं पुव्वक्रमेणं जहोचियं तो कुमार गिहे ||३७|| कहियं सव्वं विजहा संदिट्टं अभयमंतिणा तस्स । तत्तो अध्यकुमरो गंतुं भवणस्स मज्झम्मि ||३८|| पिहि भवणकवाडे उघाडद जा तयं स मंजूसं । ताव पहापडलेणं पराभवंती तरणिबिंबं ||३९|| दिट्टा जिदिपडिमा तत्तो अच्चभूयं तयं दद्धुं । विहियहियओ चिंतइ अहो वराभरणमेयं ति ||४०|| ता किं नियसिरकमले ? अहवा कंठे ? उयाहु वच्छयले ? | अहव भुए ? अह चरणे परिहेमि ? न किं पि जाणामि ॥ ४१ ॥ किंतु इमं किंपि मए कत्थ वि दिट्टं सुयं व पडिहार । इय ईहापोहपरस्स जाइसरणं समुप्पन्नं ॥ ४२ ॥ मुच्छानिमिलियनेत्तो धस त्ति महिमंडले गओ कुमरो । गिहभित्तिमत्तवारणपवणेण सचेयणो जाओ ||४३|| पेच्छइ य जाइसरणेण नियभवे जह इओ तइज्जभवे । गामे वसंतपुरए आसि कुटुंबी जणपसिद्धो ॥४४॥ सामाइति नामेण बंधुरा पणइणी वि बंधुमई । अह सकलत्तो सुत्थियसूरिसयासम्मि फव्वइओ || ४५ || अम्भसि यदुविहसिक्खो विहरिय संविग्गसाहुजणजुत्तो । पत्तो कम्मि वि नयरे समागया साहुणी वि तहिं ॥४६॥ दणं बंधुमई तीए समं पुव्वकीलियं सरिउ । जाओ मे अणुराओ कहिओ य दुइज्जसाहुस्स ||४७| तेण वि पवत्तिणीए कहिओ तीए वि बंधुमइए वि । एसा तओ विचितइ अहो ! महामोहमूदत्तं ॥ ४८॥ जइ एरिसो वि संविग्गमाणसो मुणियसयलसुत्तत्थो । एयारिसं विचितइ मुणिवरसरणिं परिच्च ॥ ४९ ॥ ता जाव बलक्कारेण कुणइ न हु सीलखंडणं मज्झ । अक्खंडियसीलवया पाणे हं ता परिचयामि ॥५०॥ 1 उक्तं च- वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥५१॥ इय चिंति पवत्तिणिपासे घेत्तूण अणसणं अज्जा । उच्बंधिय मरिऊणं उववन्ना देवलोम्मि ॥ ५२ ॥ अहमवि एयं नाउ एसा एवं मय त्ति सविसाओ । अइयारमणालोइय कयसन्नासो मरेऊण || ५३ ॥ १. ता सेद्धी सिद्धि० खं० । ता सेई सिद्धि० रं० । २. भवगयम० खं० रं । ३. इय ऊहा० रं० । For Private Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिनबिम्बदर्शनफलाधिकारे आर्द्रककुमाराख्यानकम् भासुरसरीरधारी जाओ अमरोऽमरालए तत्तो । दुञ्चितियमेत्तेण वि उप्पन्नोऽणारिए देसे ॥५४॥ पडिबोहिओ य अहयं अभएणं परमबंधुणा इम्हि । संपेसिय रयणमयं पडिमं सिरिरिसहसामिस्स ॥५५॥ ता एस परममित्तो परमगुरू परमबंधवो मज्झ । जेण अणारियदेसे एवं उप्पाइया बोही ॥५६॥ ता तत्थ इओ गंतु आरियदेसे करेमि जिणधम्मं । पेच्छामि अभयकुमरं ति चिंतिऊणं समुढे ॥५७|| घेत्तृण सुरहिपुप्फप्पभिई पूओवगरणमइरम्मं । विरइयपडिमापूओ तओ गओ रायअत्थाणे ॥५॥ विन्नवह कयपणामो देव ! सिणेहोऽभएण सह मझं । जाओ तो ताय ! अहं पलोइउं तं समीहेमि ॥५९॥ भणिओ तओ नरिंदेण वच्छ ! अम्हाण तेहिं सह नेहो । अईसणेण निच्चं ता तत्थ तए न गंतव्वं ॥६०॥ तयणंतरं कुमारो साममुहो चत्तसयलसिंगारो । गमणेक्कमणो दिट्टो अह अन्नदिणे नरिंदेण ॥६॥ नायं च जहा एसो नियमेण गमिस्सइ त्ति एगते । भणइ तओ पंचसए सामंताणं जहा कुमरो ॥६२॥ तुम्हाणमुवरि जइ एस जाइ तत्तो समगसामंता । वच्चंति कुमरपासं जीवस्स व सुकय-दुकियाई ॥६३॥ नायं च कुमारेणं एए मह रक्खणे नरिंदेण । आइट्ठां ता कहवि हु वंचिय नियमेण गच्छिम्सं ॥६४॥ तो तुरयवाहियाली पारद्धा तेण ताण छलणत्थं । बबइ दूरे कुमरो सिग्घतुरंगेण ते चइउ ॥६॥ अणुवासरं पि एवं दूरे गंतु समेइ उस्सूरे । इयरे पुण परिसंता वणसंडेसुं विलंबंति ॥६६॥ अह अन्नया कुमारो पडिमं रयणाणि जाणवत्तम्मि । पुव्वं चडाविऊणं पच्छा सयमेव आरुहि ॥६७॥ पत्तो आरियदेसे पेसइ सिरिरिसहपडिममभयस्स । कारियजिणिंदमहिमो पव्वइउमणो महासत्तो ॥६८॥ कयपंचामुट्टिलोओ पभणइ सामाइयं इमो जाव । तो आगासे ठाउं भणियमिणं देवयाए जहा ॥६९|| मा गिण्हसु पव्वजं भोगफलं कम्ममत्थि तुह भद्द ! । किं काही मह कम्मं ? ति जंपिउंगहियपव्वजो ।।७।। गामा-ऽऽगर-नगर-मडंब-खेड-कब्बडसुसंकडं वसुहं । विहरंतो संपत्तो कमेण नयरे वसंतपुरे ॥७१।। कम्मि वि देवाययणे काउम्सग्गेण संठिओ तत्थ । एतो य देवलोगाओ पुव्वभवभारिया तस्स ॥७२॥ बंधुमई चविऊणं उप्पन्ना देवदत्तसेट्टिस्स । धणवइपणइणिकुच्छिसि दारिया सिरिमई नाम ||७३॥ पुरबालियाहिं सद्धिं समागया सा वि तम्मि देवउले । पइवरणेहिं कीलिउमारद्धा तयणु अवराहिं ॥७४॥ बरिया अवरकुमारा साहू पुण सिरिमईए ता देवी । जंपा गयणयलठिया अहो ! सुवरियं सुवरियं ति ।।७।। गजि काउं गयणंगणाओ विप्फुरियकिरणरयणाणं । जाया वुट्टो तत्तो संभंता बालिया नट्टा ॥७६।। अइघोरगजिभीया गंतूणं सिरिमई मुर्णिदस्स । कमकमलम्मि विलग्गा अहोऽणुकलो ममुवसग्गो ॥७७॥ इय चिंतिमुर्णिदो अन्नत्थ गओ इओ य नरनाहो । सुणिऊण रयण हि आगंतुं गिण्हए जाव ||७८|| ता फुक्कारकराला समुट्टिया कालदारुणा कसिणा । वियडफडाडोयजया फणिणो विसजलणकणभीमा ॥७९॥ तो देवयाए गयणे भणियं वरणम्मि बालियाए मए । दिन्नं दविणं तत्तो संगहियं तीए जणएण ||८०|| गच्छंति अणुदिणं वरया तो तीए पुच्छिओ जणओ। ताय ! किमेए सो भणह तुज्झ वरया इमे वच्छे ! ॥८१॥ ताय न जुत्तं उत्तमवंसुब्भवसुपुरिसाण सा भणइ । एगस्स सुयं दाउदिजइ जं सा दुइजस्स ||८२।। नीतावप्युक्तम्-- सकृजल्पन्ति राजानः, सकृजल्पन्ति साधवः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।।३।। दिन्ना य अहं तुटमेहिं तस्स तइया जया दविणनियरो। देवीदिन्नो गहिओ ता ताय ! बरेसि कहमन्नं १ ॥८॥ सो च्चिय गई इहभवे भवंतरे मह मयाए सो चेव । तो भणइ तीए जणओ पुत्ति ! कहं तं वियाणेसि ॥५॥ भणियं च तीए तइया भीयाए गहिरगज्जिसद्दाओ। तक्कमकमले लग्गाए एरिसं लंछणं दि॥६॥ १. ०रिसहनाहस्स २० । २. वुक्कार • खं..। ३. डोवजुया २० । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आख्यानकमणिकोशे तेण वियाणमि तयं तो भणियं सेट्टिणा तुम बच्छे ! । भिक्खय राणं दाणं वियरसु मा सो वि कइया वि॥८७।। महिमंडलं भगतो आगच्छइ सा पयंपए एवं । एत्तो य दुवालसवच्छरम्मि भवियवयवसेण ॥८८|| दिसिमोहिओ समाणो संपत्तो तत्थ अद्दयमुणिदो । परियाणिओ य तीए तओ इमं भणिउमाढत्ता ।।८९॥ हा नाह ! ममं मोत्तं दुहियं तं कत्थ एत्तियं कालं ?। परिभमिओ मणवल्लह ! मझ मणं तं हरेऊण ॥१०॥ पियवरणदिणप्पभिई, संजाओ जाव एत्तियं कालं । मणयं पि न मज्झ मणे मणोरहो वि य वरे अवरे ॥९१।। ता सामि ! मयणमग्गणजलणेणुत्तावियं मह सरीरं । इण्हि तु निययसंगमसीयलसलिलेण निव्ववसु ॥९२॥ सोऊण तयं सेट्ठी समागओ नरवई वि वाहरिओ। पणमिय मुणिकमकमलं भणियमिणं तो नरिंदेण ॥९३|| सुपुरिस ! भणिया वि इमा न कुणइ सुविणे वि अवरपरिणयणं । जंपइ एरिसवयणं न मणं मह रमइ अन्नत्थ ॥१४॥ भणइ य मज्झ सरीरे लग्गइ सो सिरिसकुसुमसुकुमालो । अहवा पज्जलियकरालजालमाला चियाजलणो ॥१५॥ तो पडिवजन संपइ पाणिग्गणं इमाए अणुकंपं । काऊग तओ अद्दयमुणीसरी चिंतए एवं ॥९६॥ एयं तं भोगफलं समागयं देवयाए जं कहियं । ता एयम्स न नासो जायइ एवं विचिते ॥१७॥ तेसिं च निबंधेणं परिणीया तेण तयणु तीए समं । पंचप्पयारविसए विलसइ अह अन्नसमयम्मि ॥९८॥ संजाओ से पुत्तो पढिओ जाव कइवि वरिसाइं। तो तेण इमा भणिया तुह एस दुइज्जओ होही ॥१९॥ पव्वज्जामि अहं तो तज्जाया जायजाणणनिमित्तं । चत्तं गहाय कत्ति उमारद्धा तो सुएण इमं ॥१०॥ भणिया कि अंब ! इमं इयरमहेलाण उचियमायरसि । तो सा जंपइ पुत्तय ! पइपरिचत्ताण जुत्तमिमं ॥१०॥ कि अंब ! इमममंगलरुवं जंपसि जियंतए ताए । भणिए सुएण जंपइ तज्जणणी जाय ! तुह जणओ ॥१०२।। पव्वइउमणो पुत्तो वि भणइ तमहं धरामि बंधेउं । तो जणणिकरयलाओ चत्तं घेत्तण नियजणओ॥१०३॥ चरणेसु चत्ततंतू हि बंधिउं तो पयंपिया जणणी । वीसत्था अंब ! तुम चिट्ठसु बद्धो मए ताओ ॥१०४॥ गच्छिस्सइ न हु कत्थइ तो तस्स सुणित्तु मम्मणुल्लावे। गाढं बद्धो अद्दयकुमरो नवनेहनिगडेहिं ॥१०॥ चिंतइ य पेच्छ एयस्स [बालयस्स] वि सिणेहआसंघो । ता जत्तियतंतूहिं बद्धो हं तत्तिए वरिसे ॥१०६॥ चिट्टामि तओ गणिया बारस ते तंतुणो तयणु सो वि । वरिसाइं ठिओ बारस उवभुंजतो विविहविसए ॥१०७॥ तत्तोऽइकतेमुं वरिसेसु दुवालसेसु रयणीए । चरिमपहरम्मि चिंता जाया एयारिसा तस्स ॥१०८॥ पेच्छ जहा विसयासापिवासिएणं मए महापावं । विहियं जं घेत्तृणं विराहियं सत्चविरइवयं ॥१०९॥ पूव्वभवे दुञ्चितियमेत्तेण अहं अणज्जदेसेसु । संजाओ इण्हिं पुण वयभंगे कत्थ गच्छिस्सं ? ॥११०॥ परियाणियपरमत्थेण जं मए विहियमेरिसमजुत्तं । तं नृणं भमियव्वं भीमम्मि भवाडवीमझे ॥११॥ ता इण्हि चिय अज्ज वि करेमि अइदुक्करं तवच्चरणं । जम्हा सिद्धंतवियाणएहिं भणियं इमं वयणं ।।११२॥ पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसिं पिओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च ॥११३। तत्तो पभायसमए संभासिय पणइणिं गहियचरणो । नीहरिओ नियभवणाओ पत्थिओ रायगिहनयरे ॥११४॥ तत्ता तयंतराले सामंतसयाणि जाणि पंच तया । तस्सेव रक्खणकए तज्जणएणं निउत्ताणि ॥११॥ दिहाणि अडविमझे धाडी[ए] कुणंतयाणि नियविति । ताणऽवि तं परियाणिय पणाम पुलं पयंपंति ॥११६॥ सामि ! जया इह तुम्भे अम्हे वंचिय समागया तइया । तुम्ह गवेसणकज्जे एत्तियभूमिं वयं पत्ता ॥११॥ तुम्ह पउत्ती लद्धा न हु कत्थ वि ता कहं अकयकज्जा । रन्नो नियमुहमम्हे दंसिस्सामो ? ति लज्जाए ॥११॥ न गया रायसमीवं अनिव्वहंता इहाडईमज्झे । धाडि पाडिय नियपाणवत्तणं सामि ! कप्पेमो ॥११९॥ तो भयवया पयंपियमेयं भो भो ! महन्नवजलम्मि । गलियरयणं व दुलहं मणुयत्तं पाविऊण तओ ॥१२०॥ काययो बुद्धिमया धम्मम्मि य होइ उज्जम्मो नियमा । ता परिहरिय पमायं उज्जमह जिणिंदधम्मम्मि ॥१२१॥ तो तेहिं बद्धकरयलकोसेहिं पयंपियं जहा भयवं!। जइ अस्थि जोग्गया ता अम्हाणं देहि पव्वजं ॥१२२॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिनविम्वदशनफलाधिकारे आद्रेककुमाराख्यानकम् १०३ अह भयवया पयंपियमेयं पचयह तो असेसा वि। दिन्नवया तेण समं संचलिया तयणु गोसाली ॥१२३।। पत्तेयबुद्धमयमुणीसरं वद्धमाणसामिम्स । वंदणनिमित्तमागच्छइ ति नाउं तओ वायं ॥१२४ ॥ दाउं समुट्टिओ सो उत्तर-पच्चुत्तरहिं निजिणिओ। अद्दयरिसिणा तत्तो पुणो पयट्टो पहम्मि मुणी ॥१२५।। तो हत्थितावसासमभूमि पत्तो तबम्सिणो ते वि । मारिय गरुयगइंदं भुंजंति पभूयदिवसाइं ॥१२६।। जंपति य किमिह विणासिएहिं बीयाइबहुयजीवहिं ? । वरमेककार मारिय किन्जा वित्ती सपाणाणं ॥१२॥ तत्थाऽऽणीओ अइगरुयगयवरो बंधितवम्सीहिं । लोहगलाहिं च उदिसि अग्गलिनिगडिओ गाढं ॥१२८|| तो इरियासमिइपरो समागओ तत्थ अद्दयमुणिंदो । तं दट् ठूण गइंदो सामंतमुणीहिं संजुत्तं ॥१२९।। जा वंदिउमभिवंछइ उच्छलियअतुच्छभत्तिपन्भारो । ता तडयड ति तुट्टा नियडा लोहग्गलाहिं समं ॥१३०॥ उडकयमुंडदंडो दोघट्टो झत्ति साहुणो समुहं । संचलिओ तो लोगो पलाइओ मुणिवरं मोत्तु ॥१३१॥ तत्तो कुंभी कुंभत्थलेण पणमित्तु साहुणो चरणे । आवलियखंधरी सो तं पेच्छंतो गओ रन्ने ॥१३२।। दट्टुं रिसिणो अइसयमेयं तत्तो तवम्सिणो सवे । विहियामरिसा वाए समुट्टिया तेण निजिणिया ॥१३३॥ पडिबोहिऊण सव्वे वि पेसिया सामिणो समोसरणे । ते गंतूणं सिरिवीरनापासम्मि पवइया ॥१३४॥ एत्तो य सणियनिवो सोउसिंधुरविमोयणच्छरियं । वंदणहेउ अदयमुणिम्स अभएण सह पत्तो ॥१३॥ तो तिपयाहिणपुव्वं मुणिणो पयपंकयं पणमिऊण । भणइ निवो अच्छरियं भयवं ! निययप्पभावेण ॥१३६|| जं मोइओ गइंदो बद्धो वि हु निबिडनियडनियरेण । तो गंभीरसरण पयंपियं साहुणा एवं ।। १३७।। न दुक्करं बंधणपासमोयणं, गयम्स मत्तम्स वणम्मि रायं । जहा उचत्तावलिएण तंतुणा, सुदुक्करं मे पडिहाइ मोयणं ।।१३८॥ तं सोउं नरवइणा भणियं भयवं ! किमेयमह मुणिणा । नियवुत्तंतो सगो पयासिओ पुहइपालम्स ॥१३९।। ता भो नरिंद ! ते चत्ततंतुणो बालएण जे बद्धा। दुक्खं ण मए ते मोहतंतुणो तोडिया तइया ॥१४॥ एएण कारणेणं गयबंधणमोयणाओ ते मज्झ । दुम्मोया पडिहासंति तो मए एरिसं पढियं ॥१४१॥ सोऊण तयं बढे पडिबुद्धा पाणिणो भवुग्विग्गा । संतुट्टो नरनाहो अभएण समं मुणिं नमिउं ॥१४२॥ संपत्तो नियठाणे मुणी वि सिरिवीरनाहकमकमलं । रोमंचंचियदेहो भत्तीए संथवेऊण ॥१४३।। विहरिय उग्गविहारेण तिव्वतर दारिधारसमघोरं । काऊण तबच्चरणं उप्पाडिय केवलं नाणं ॥१४४।। तो भवियजणं पडिबोहिऊण बहुकालमद्दयमुणिंदो । निट्टवियसेसकम्मो सासयसुहमोक्खमणुपत्तो ॥१४५।। आर्द्रककुमारास्यानकं समाप्तम् ॥२७॥ एयाण पुन्नवंताण दंसणं जिणवरिंदबिंबस्स । जह जायं बोहिफलं तह अन्नस्स वि भवइ एयं ।।१।। चिन्तामणिं जयदनङ्गजितो जिनस्य, बिम्बं जरत्तरतृणीयितकामधेनु । निस्सारकामघटमल्पितकल्पवृक्षं, कल्याणकृत कृतधियो ह्यवलोकयन्ति ॥२॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जिनविम्बदर्शनफलवर्णनः सप्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥७॥ १. दुक्खेण-खं० २० । २. संबुद्धो नर०२० । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८. जिनपूजाफलवर्णनाधिकारः । ] व्याख्यातं जिनबिम्बदर्शनम् । तच्च सम्यग्दृष्टिना दृष्टं सद् यथाशक्त्या पूजनीयम् इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातां तत्पूजां व्याख्यानयन्नाह जे जिणवराण पूर्य कुणंति ते इंति सयलसुहभागी । दीवयसिह नवफुल्लय-पउमुत्तर-दुग्गनारि व्व ॥१३॥ व्याख्या-'ये' केचन 'जिनवराणां' तीर्थकृतां 'पूजाम्' अभ्यर्चनं 'कुर्वन्ति' सम्पादयम्ति 'ते' जीवाः भवन्ति' जायन्ते सकलसुखभाजनम् । दृष्टान्तानाह-दीपकशिखश्च-कर्मकरीजीवः नवपुप्पकश्च-मालाकारजीवः पद्मोत्तरश्च-नौवित्तककर्मकरजीवः दर्गनारी च-कायन्दीवास्तव्यवृद्धा ता दीपकशिख-नवपुप्पक-पद्मोत्तर-दुर्गनार्यः ता इव इत्यक्षरार्थः ॥१३|| भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र ताषद् दीपकशिखाख्यानकमारभ्यते । तदम् सेयवियाए पुरीए कम्मयरी आसि गंगदत्त त्ति । अह अन्नया य जिणदीवदाणपुन्नं सुयंतीए ॥१॥ तथा हि जो देइ भत्तिनिभरचित्तो जिणनाहदीवयं तस्स । जायंति सयलकल्लाणयाई सहलाई पुन्नेण ॥२॥ नाओवज्जियतेल्लेण भत्तिपब्भारनिब्भरंगीए । दीवूसवम्मि देवस्स दीवओ दिन्नओ तीए ॥३॥ सुहपरिणामवसेणं समज्जियं तीए भोगफलकम्मं । कालक्कमेण मरिउ तीए नयरीए नाहस्स ॥४॥ सिरिविजयधम्मरन्नो भज्जाए जयाभिहाए कुच्छीए । उप्पन्ना पुत्ततेण तयणु सा सुविणयं नियइ ॥५।। किर पज्जलंतजालाकलावनिट्टवियतिमिरपन्भारो । निधूमो मुहकुहरेण पविसए पावओ उयरे ॥६॥ तत्तो सुहसंबुद्धाए तीए पइणो पयासिओ सुविणो । फुरियपयावो पुत्तो तुह होही राइणा भणियं ॥७॥ गम्भे पवढमाणे संजाओ तीए दोहलो एसो । कयरयणालंकारा दीणाणं देमि जह दाणं ॥८॥ तो तीए पुहइपालेण पूरिओ दोहलो अह कमेण । जाओ य पवरपुत्तो पसत्थतिहिकरणसंजोए ॥९॥ दीवसिहामलनियगत्ततेयपडिहणियभयणतमपसरो। दीवयसिहो ति नामं विहियं सुपसत्थदिवसम्मि ॥१०॥ संगहिओ कुमरेणं कला कलावो कमेण ससिण व्व । पत्तो य हरिणनयणीहिययहरं जोवणारंभं ॥११॥ एत्तो य महीमहिलाकंचीदामं व कंचियानयरी । गुरुविक्कमेक्करसिओ विक्कमसेणो निवो तत्थ ॥१२॥ तस्साऽऽसि पढमजोव्वणमणोहरा रायहंसगइगमणा । गंधव्वदत्तनामा धूया रूवाइगुणकलिया ॥१३॥ वीणाविन्नाणेणं जो मं निजिणइ तस्स हं घरणी । इय एरिसा पइन्ना तीए कया गरुयगव्वेण ॥१४॥ तीए तीए पइन्नाए निययविन्नाणगुरुमरट्टा वि । निजिणिया अइबहुया नरेसरा एरिसं सोउ ॥१५॥ दीवयसिहकुमरेणं जणओ भणिओ अहं पि पेच्छामि । वीणाविन्नाणं से तो नरवइणा कयाणुन्नो ॥१६॥ सिंधुर-तुरंग-गुरुरयरहरयणारूढरायकुमरेहिं । अणुगम्मतो पत्तो कंचिपुरिं गुरुपयाणेहिं ॥१७॥ आवासिओ य तन्नयररायअप्पियपकिट्टपासाए । काऊण कामिणीनयणमोहणं सयलसिंगारं ॥१८॥ आरुहिय गरुयसिंधुरबंधुरखंधेसु धीरिमाकलिओ। पत्तो य रायमग्गेण सुहडसंकिण्णमत्थाणं ॥१९॥ महियलमिलंतभालयलमणहरं तेण नरवई नमिओ । उवविट्ठो य तयाऽऽणाए रइयसिंहासणे रम्मे ॥२०॥ दिद्रा य तत्थ सज्जियसरस्स मयरद्धयस्स वासगिहं । लायण्णजलहिलहरीललणालीलाए कुलभवणं ॥२१॥ गंधव्वदत्तकुमरी अमरी विय सयलसुंदरावयवा । दीवयसिहकुमरो वि हु तीए मयणो ब्व सच्चविओ ॥२२॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ८. जिनपूजाफलवर्णनाधिकारे दोपकशिखाख्यानकम् दोहं पि नयणभमरा परोप्परं ताण वयणकमलेसु । निरुवमलायन्नमहुं पियंति अणुवरयमणवंछा ||२३|| पुपि पुइपाले तिन्नि दिवसाणि निरसणो हत्थी । विहिओ आसि तओ सो आणीओ रायभवणम्मि ||२४|| तो तम्स करे कवलो समप्पिओ गुरुगुहाकिलंतस्स । आसारिया य वीणा कुमरीए करेणुसनेझे || २५॥ तारणंतवीणासरं सुणेउं करी कवलमवसो । मोत्तुं कुमरिसयासम्मि पत्थिओ सदवसवत्ती ||२६|| तीए वीणाविन्नाणकोसलं पासिऊण विउसयणा । तग्गुणकित्तणपवणा संजाया धुणियसिरकमला ||२७|| कुमरो विपुण पप विन्नाणमिमीए सुंदरं किंतु । तंती इमा न सुद्धा वेण वि हु बाल उचलेहिं ॥२८॥ अह भणियं नरवणा कह नज्जइ ? तो झड त्ति कुमरेण । ऊवेढिऊण तंती पकडिओ कोमलो वालो ||२९|| मज्झाओ वेणुदंडम्स इंसियं निवइणो उवलखंडं । तत्तो य सज्जिऊणं वीणादंडं सबुद्धीए ||३०|| आसारिऊण तंती वाएउं जा पयत्तओ लग्गो । तो तीए सवणमुहयं सद्दं सोउं मुयइ हत्थी ||३१|| विन्नाणाइसएणं कुमरम्स नरिंद्रपमुहपुरलोगो । जाओ उन्भूयपभूयहरिसपरिपूरियसरीरो ॥ ३२ ॥ । काराविओ कुमारो पाणिग्गहणं समं तीए ॥ ३३ ॥ ना विपत्थमुहुत्त करण- सुहवार-वारल तो तत्थेव य क विदिणाणि पोणत्थणीए तीए समं । भुंजतो विसयमुहं ठिओ कुमारो अहन्नदिणे ||३४|| सम्माणिओ समाणो सद्धिं गंधव्वदत्तकुमरीए । नियबलभरपरियरिओ विसज्जिओ नरवरिंदे ||३५|| वचतो संपत्तो कमेण कुमरो पुरे पड़ट्टाणे । आवासिओ य तप्परिसरम्मि एत्थंतरे तत्थ ||३६|| कक्कन रेसरकुमरी नियवविणिज्जियामरी अहिणा । दट्टा मय त्ति निज्जइ दाहनिमित्तं मसाणम्मि ||३७| डिंडिमसद्द सोउं उल्लविया पणइणी कुमारेण । निस्सारिज्जइ सुंदरि ! सजीवमाणुसमिमं नियमा ||३८|| कह पिययमो वियाणइ ? इय भणिए तीए जंपइ कुमारो । डिंडिमसविसेसेण तयणु सा भणइ कहमेयं ? ॥३९॥ कुमरेण कहियमहिणा दट्ठा तो तीए जंपियं एयं । जीवाविडं वियाणसि ? तेणुत्तं अस्थि ता मंतो ॥४०॥ जइ एवं जोवावसु पिययम ! एयं पयंपियं तीए । नियपुरिसं पट्टाविय कुमरेण धरावियं मडयं ॥४१॥ कारावियं चियाए पच्चासन्नम्मि तेण मंडलयं । तो तत्थ गओ दिट्टो कक्कमही सामिणा कुमरो ॥ ४२॥ कहियं च तस्स रन्ना कन्ना लीलावई इमा मज्झ । दट्टा कसिणभुयंगेण कुणसु ता निञ्चिसं एयं ॥ ४३॥ मिल्लाविया य मंडलयमज्झभायम्मि सा कुमारेण । काऊण सिहाबंधं सरिउं विसनासणं मतं ॥ ४४ ॥ भणिया एसा उट्टि देहि मुहसोयणं सजणणीए । तत्तो समुट्टिया सा कंचणतंचालयं घेत्तुं ॥४५॥ दिनं मुहसोयणयं तं दट्टुं हरिसिओ जणो सव्वो । वज्जावियं च वद्धावणयं कुमरेण पडिसिद्धं ||४६ || भणियं च मए तुम्हाण दंसियं मंतकोउयं एयं । अज्ज वि सविसा एसा इय जंपंतम्स तस्स तओ ॥४७॥ पडिया सा मंडलए तो भणिओ सायरं नरिंदेण । कुमरो तेणावि कया कुमरी मंतेहिं विसवियला ||४८ || कुमरिं पच्चज्जीवियमवलोएउं पहरिसिओ राया । सो वि हु नाओ सिरिविजयधम्मरन्नो सुओ ति इमो ॥ ४९ ॥ नीओ य निययभवणम्मि निवइणा पारितोसियं दाणं । दिन्ना कुमरी कुमरम्स तत्थ तेणावि परिणीया ॥ ५० ॥ ती सह विसयसोक्खं उवभुंजेऊण कइय वि दिणाणि । संचलिओ निययपुरिं पत्तो य कमेण उज्जेणिं ॥ ५१ ॥ जाए संझासमए सुन्न जालेस रस्स उवकंठे । दिट्ठा चिया जलती तीसे जाला विसेसेण ॥५२॥ एसा सजीवमडया एयं देवीण साहिउं कुमरो । अंधारपडं पावरिय करयले कलिय करवालं ॥ ५३ ॥ एगेण भडेण समं गओ चियासन्नपायवतलम्मि । जा तत्थ ठिओ ता तक्खणेण गयणंगणगाओ ॥५४॥ अवयरिओ सोयामणिपुंजो व्व सिहि व्व दिणयररहो व्व । नियतेयपज्जलंतो चियाए कावालिओ एगो ॥ ५५ ॥ जालावली चियाए नट्टा मंडलयमालिहेऊण । मन्तुच्चारपुरस्सरमप्फालइ डमरुगं एसो ॥ ५६ ॥ तो उड्डामरडमरुगसं सोउ चियाए मज्झाओ । हा ताय ! ति भणंती समुट्टिया कन्नया एगा || ५७ ॥ भयकंपिरसव्वंगा घेत्तुं केसेसु कड्डिया तेण । संठविया मंडलए हढेण भिउडीए सित्ता ॥ ५८ ॥ For Private Personal Use Only १०५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे करकलियकत्तिएणं भणिया संभरसु देवयं इढें । एत्तियमेत्ती जम्हा होही तुह जीवलोओ त्ति ॥५९।। तो भामितो जमरायभूलयासमकरालकरवालं । मा साहसं भणंतो संपत्तो झत्ति कुमरो वि ॥६०॥ तत्तो कवालिएणं अद्धत्थंभीकओ विचिंतेइ । एसो महप्पभावो को वि तओ ईसि संखुद्धो ॥६१।। भणिओ कवालिएणं महाणुभावा ! न जुज्जए तुज्झ । मम विग्ध करण मेवं कवालिओ भारभूइ अहं ॥६२॥ पारद्धं थीरयणायरिसणमंतस्स साहणं अज्ज । बारसमासपमाणा कया मए पुवसेवा वि ॥६३|| इण्हि पुण पारद्धा पहाणसेवा नरिंदकन्नाए । दिजइ बली तओ इह एसा उप्फेरछ उमेण ॥६४॥ कन्ना अवन्तिबद्धणनरवइणोऽतिणि त्ति नामेणं । मंतेण कया सुतिरुद्धचेयणा आणिया एत्थ ॥६॥ भयवं करालजालो वि हुयवहो थंभिकओ सोमो । एवं विहिए मंतो सिझइ ता मा कुणयु विग्धं ॥६६॥ दीवयसिहो वि जंपइ थीवझा गरहिया महाभाग ! । कारणमिणं महंतम्स पावपन्भारभवणम्स ॥६॥ ता कि सिद्धःणं पि हु मंतेणं नग्यकारिणा इमिणा ? । पडिसिद्ध तुम्हारिसपुरिसाण जओ बिसेसेणं ।।६८॥ ता किं तुमए ववसियमणज्जजणजोम्गमेरिसं पावं ? । एवं वुत्तो कुमरेण लजिओ जंपिउंलग्गो ॥६९।। एवमिणं जं तुमए पयंपियं सब्बहा कओ मज्झ । गरुओ अणुग्गहो पावपडलपम्भारपिहियम्स ॥७॥ एरिसकुमंतकरणण किह मए पेच्छ मइलिओ अप्पा ? | ता मन्ने मह सुद्धी न अत्थि नरए वि पडियम्स ॥७२॥ ता दुब्बिलसियमेयं परिचत्तं सव्वहा मए इण्हि । पायच्छित्त सिरिपञ्चयम्मि गंतु चरिम्सामि ||२|| तुमए समप्पियवा रन्नो कन्ना पभायसमयम्मि । उचियमिणं सप्पुरिसाण जंपियं दीवयसिहेण ||७३॥ कम्स न चुकं खलियं समेइ भववासमहिवसंतम्स । पुणरवि तह जइयत्वं जहा न मइलिज्जर अप्पा ||७४॥ संपाडिम्सामि अहं भवओ आणं पयंपियं तेण । तत्तो गओ कवाली कुमरेण वि कन्नया नीया ||७५|| निययाचासे देवीण साहिओ तीए वइयरो सब्यो । सोऊण तयं विम्हियमणाओ जायाओ ताओ वि ॥७६॥ गोसे अवंतिवद्धणनिवस्स कुमरेण अप्पिया कन्ना । कहिओ य असेसो वि हु कावालियविहियवुत्तंतो ॥७॥ सोऊण तयं कन्नाए वइयरं पमुइओ पुहइपालो । तं चिय कन्नारयणं वियरह मुपसत्थदिवसम्मि ॥७८|| महया महसवेणं कओ विवाहो ठिओ तहिं कुमरो । कइय वि दिवसे विसए पंचपयारे अणुहवेउं ॥७९॥ नियदसे संचलिओ पत्तो पउमावईए नयरीए । आवासिओ य परिसरधराए वणराइरुइराए ॥८॥ नाओ कंचिनरिंदेण सो वि तस्सम्मुहो समणुपत्तो । नीओ य निययअन्थाणमंडवे विहियसम्माणो ॥८१।। जाया तत्थ ठियाणं नरिंद-कुमराण एवमुल्लावा । जंपई कुमरो अत्थेत्थ नत्थि वा संपयं थोभो ।।२।। मज्झ मएणं नरिथ त्ति राइणा जंपिए भणइ कुमरो । अस्थि तओ आह निवो जइ होइ मिलंतयं पत्तं ॥८३॥ दीवयसिहो पयंपइ अमिलंते वि हु करेमि पत्ते हैं । तत्थ करिजमु जमहं पत्तं अपेमि भणइ निवो ॥४॥ पडिवन्ने कुमरेणं तत्तो य दुइज्जवासरे राया । कामलयं नियकन्नं मूयगपत्तं समप्पेइ ।।५।। तम्स तओ मंडलए निवेसिया तेण विहियसियवेसा । तो तीए पत्तदेवयमवयारह मंतसरणण ||८६|| जाव न जंपइ कि पि हु ता सो उवउत्तमाणसो होउं । गाढयरं परिवत्तइ मंतं चित्तम्स मज्झम्मि ॥७॥ तत्तो कालविलंबेण पत्तदेवी पयंपिउं लग्गा । सा जंपिया कुमारेण कहसु किं एत्तिया वेला ? ॥८८|| तो पत्तदेवयाए पयंपियं मूयगं इमं पत्तं । भणियव्वं पुण पणकरणजोगओ तो मए झत्ति ।।८९|| गंतुं हिमवंताओ आणेउमिमीए मूलिया दिन्ना । जह जंपणम्स सत्ती जायइ एयाए तो मज्झ ||९|| जाओ कालविलंबो एत्तियमेत्तो तओ कुमारेण | काउंविणोयमेयं विसज्जिया देवया नमिउं ।।११।। सा मूयगा पयंपिउमारद्धा मूलियापभावण । तत्तो हरिसियहियएण कंचिरन्ना कुमारस्स ।।१२।। दिन्ना कन्ना तेण वि विवाहिया तत्थ कइयवि दिणाणि । उव जिऊण पंचप्पयारविसए स तीए समं ॥९३॥ १. या सन्निक० -खं० २० । २. इ राया अ०-खं० रं। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ८. जिनपूजाफलवर्णनाधिकारे नवपुष्पकाख्यानकम् बुद्धीहिं जहा अभओ नाईहिं निवो भुयाहिं गोविंदो। तह दीवयमिहकुमगे संजुत्तो चउहिं दइयाहिं ॥१४॥ नियवलभरपरियरिओ पउमावइपुरवरीण नीहरिओ। सेयवियं नियनयरिं पत्तो उत्तं गपासायं ।।१५।। अहिसित्तो नरनाहेण निययरज्जे पसत्थदिवसम्मि । जाओ य सत्तुसंदोहदलणदक्खा महाराया ॥९६।। कालेण समुप्पन्ना पुत्ता चिंता य एरिसा जाया । किं पुन्वभवे निहियं मा ? जमेसा महारिद्धी ॥९॥ इय ईहा-ऽपोहपरम्स तम्स निम्सेसरायतिलयम्स । जायं जाईसरणं दिवो तो तेण पुचभवा ।।९८॥ अह आसि गंगरूद्दा कम्मयरी तीए दीवओ दिन्नो । देवस्म तप्पभावेण एरिसो हं समुप्पन्नो ।।९९।। नाऊण इमं पूयइ जिणसरे कुणइ संघसम्माणं । रहजत्ताओ पवत्तइ भत्तिभरनिभरसरीरो ॥१०॥ अह अन्नया य अहिसिंचिऊण रज्जम्मि जेट्टनियकुमरं । पासे पहाससूरीण संजुओ चडहिं वि पियाहिं ॥१०१।। पवइओ समहिज्जियसुत्तत्थो विहियतिव्वतवचरणो । मरिउममरंगणाणं हिययहरो सुरखरो जाओ ॥१०२।। ॥ दीपशिखाख्यानकं समाप्तम् ॥२८॥ इदानीं नवपुष्पकाख्यानकमारभ्यते । तच्चदम् आसी विल्लरपुरे मालागारो असोगनामो त्ति । सयवत्त-जाइ-मचकुंद-कुंद कुसुमाई विकिणह ॥१॥ अह अन्नया य विकिणिय कुसुमनियरं गिहम्मि गच्छंतो । कम्मऽवि सावयभवणम्मि सुणइ गिजंतगेयाई ॥२॥ ता तत्थ गओ पेच्छइ' सड्डा गायंति केवि नचंति । वायंति केवि गंभीरसद्दमाउज्जसंदोहं ॥३॥ किमिमम्स गिहे ? इय पुच्छियम्मि केणावि अक्खियं तम्स । जिणपडिमाए पइट्टा जाया तो ऊसवो एत्थ ॥४॥ तियणगरुणो पडिमा जिणम्स दिट्टा पहिहियएण । मालागारेण तओ भत्तिभरुभिन्नपूलएण ॥५॥ चिंतियमणण जह पुन्नभायणं सावया इमे भुवणे । पूयंति जिणं विच्चेवि नियधणं गरुयभत्तीए ॥६॥ ता अहमवि [जिण]पडिमं पूरामि विचिंतिऊण जा नियइ । पुप्फकरंडयमझे ता नव फुल्लाणि लद्धाणि ॥७॥ तो तेण गरुयभत्तीए पूइया भुवणसामिणो पडिमा । नमिया य महीयलमिलियभालचट्टेण बहुमाणा ॥८॥ असरिसभत्तिवसेणं बद्ध तप्पच्चयं मुहं कम्मं । अइकमइ तस्स कालो जिणिंदबहुमाणजुत्तस्स ॥९॥ अह अन्नया य मयरद्धयस्स मित्ते वसंतसमयम्मि । वियसावंते वणराइमसममुसुयंधकुसुमेहिं ॥१०॥ भमरउलरोलमुहला घेत्तु सहयारमंजरी तेण । पुहईवइस्स नवफुल्लपण सप्पणयमुवणीया ॥११॥ संतद्रेण नरिंदेण ठाविओ मालियाण सम्वेसिं । मयहरपयम्मि आउक्खयम्मि सो सुद्धपरिणामो ॥१२॥ मरिऊणं एलउरे जाओ पुत्तो विसिट्टसिट्टिम्स । नवलक्खदविणनाहो तओ वि मरिऊण तत्थेव ॥१३॥ जाओ नवकोडीणं दविणबई अह तओ वि कालगओ । संजाओ तत्थेव य नयरे नवकणयलक्खेसो ॥१४॥ नवकणयकोडिनाहो जाओ मरिउं पुणो वि तत्थेव । तो मरिऊगं नवरयणलक्खनाहो समुप्पन्नो ॥१५॥ तत्तो वि मओ नवरयणकोडिसामित्तणं समणुपत्तो । एत्तो वाडिपुरीए वल्लहरायस्स नरवइणो ॥१६॥ अंगरुहो संजाओ अहिसित्तो तो निवेण नियरज्जे । जाओ महापयावो वसीकयासेसनरनाहो ॥१७॥ नवलक्खगामसामी तह जक्खाहिटियाइं नव तस्स । पुबपुरिसागयाई तेण निहाणाई पत्ताई ॥१८॥ अह अन्नया य कजल-जलहर-रोलंबसामलसरीरो । थुव्वंतो सुर-चारणनियरेण जिणेसरो पासो ॥१९॥ समवसरिओ तओ सो परिग्रन्थाग्रम् ४०००]यरिओ बहुनरिंदविंदेहि । आरूढ़ो जयवारणखंधे पत्तो समवसरणे ॥२०॥ परिहरियरायककुहो ओयरिऊणं गइंदखंधाओ । पणमिय पासजिणिदं नरेसरो थोउमारद्धो ॥२१॥ जय जय पास ! जयप्पयास ! पयडियवरसासण !, विविवाहि-उबसग्गवग्गसंसग्गपणासण!। आससेणनररायजाय ! विन्नवउं महापह !, बहुविहदुहदुत्थियहं देव ! विन्नत्तिं सुणि महु ।।२२।। १. पिच्छइ-२० । २. इत्थ -२०। Jain Education Interational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आख्यानकमणिकोशे अज्जु सक्ख सूरु अज्जु सुंदरु सुबिहाणउं, अज्जु पसत्थर वारु अज्जु वासरु सुपहाणउं । • अज्जु नोह ! नक्खत्त जांगु तिहि करण विसिट्टउ, दुल्लहदंसण भावसारु जं तुह मुहु दिट्टउ ||२३|| एवं थोऊण जिणं उवविट्टो जोडिऊण करजुयलं । धम्मकहापज्जंते पासजिणो पुच्छिओं एवं ||२४|| किं सामि ! कयं सुकयं भवम्मि पुग्वे मए जमेसा मे । रायसिरी ? तो कहिया पुत्र्वभवा भयवया तस्स ||२५|| जह नवफुल्लेहिं तए जिणपडिमा पूइया तओ सुकयं । संजायं तेणसा रिद्धी तुह असरिसा जाया ||२६|| तं सोड तेणावि हु जाईसरणेण जाणियं सव्वं । एयं पुण इय गाहाए पभणियं केइ बुहेण ||२७|| नवसयस हम्स- नवकोडिसामिओ दविण-कणय-रयणाणं । नवगामलक्ख- नवनिहिवई य नवफुल्लओ जाओ ॥ २८ ॥ नमिऊण जिणं गंतूण राहु [ · ] भुंजिऊण रायसिरिं । अहिसिंचिऊण कुमरं रज्जे पुणरवि य पत्तस्स ॥ २९ ॥ पासजिणस्स सासे पञ्चइओ चरियचारुतवचरणी । मरिऊण पंचपंचुत्तरेसु सो सुरवरो जाओ ||३०|| ॥ समाप्तं नवपुष्पकाख्यानकम् ॥२६॥ इदानीं पद्मोत्तराख्यानकमारभ्यते । तश्चेदम् वाणारसीए सुरवरतरंगिणीतीरविहियसोहाए । संखसियदंतपंती संखो नाइत्तगो तत्थ ॥ १ ॥ तस्साऽऽसि हिप ओयणपभूयपत्रमारधरणधुरधवलो । गुणवंतो थिरचित्तो कुलउत्तो नंदणो नाम ||२|| अह अन्नया य नाइत्तगस्स कज्जेण कम्मि वि पएसे । गंतूण पडिनियत्तो सिसिरजलं नियइ परमसरं ॥३॥ फलिह्मणिघडियकुट्टिमतलं व तेलोक्कलच्छिभवणस्स । तूलीतलं व जलदेवयाए सयणत्थमच्चत्थं ॥४॥ सारयजलहरखंडं व निवडियं पडिनिहिं व गयणस्स । मुउरो व्व दिसिवहूणं सियायवत्तं व फणिरन्नो || ५॥ परपयपूरियं पहु विलसिरछच्चरणपंतिपरिकलियं । संखसहस्समुहं पि हु असंखजलयरसमायन्नं ||६|| बहुलहरिपरिगयं पि हु नहरिमा लाविलास रमणीयं । नीरुयजलयरजुयमवि सरोयसत्ताहिगयमज्झं ||७|| मी जुयं गयणं पिव रहवररयणं व चारुचक्कजुयं । तिदिवं पिव सुरसहियं सविलासं तरुणिवयणं च ॥ ८ ॥ तो तत्थ सिसिरनीरे मग्गपरिस्समपणासणनिमित्तं । मज्जंतएण तेणं दिट्टं लट्टं सहसपत्तं ||९|| मयरंद्रमत्तमहुयर मणहर झंकारबाहिरिय दियंतं । घेत्तृण तयं रंगंतलहरमुत्तरइ जाव सरं ॥ १०॥ तो निययरूवउ वह सियअमररमणीहिं चउहिं कन्नाहिं । भणियमिममुत्तमस्स य कस्स वि जोगं ति तं सोउं ॥ ११ ॥ सो चिंतइ नायत्तइसंखो मह उत्तमो तओ तस्स । अप्पेयव्वं तत्तो पत्तो नायत्तइम्स गिहे ||१२|| सो तस्स तं समप्पइ जंपइ नाइत्तगो वि तं दट्टुं । उत्तममुत्तमजोग्गं तं सोउ नंदणो भगः ||१३|| मह उत्तमो तुमं चिय तो संखो भणइ मम वि सुविसिट्टो । सेट्ठी उत्तमठाणं ता तम्स इमं समप्पेमो ॥ १४ ॥ तो जंति गिहे ते दो वि सेट्टिणी जाव तं समप्पंति । तेण वि वृत्तं जुत्तं उत्तममिममुत्तमस्सेव ॥१५॥ नायत्तइ- नंदणया तमुत्तमो जाव तं पयंपंति । वज्जरइ तओ सेट्टी अम्हाणं उत्तमो मंती ॥ १६ ॥ सव्वें वितओ गंतूण मंतिमंदिरमिमं अमच्चस्स । अप्पंति सो वि उत्तममुत्तमजोग्गं समुल्लवद्द् ||१७|| जंपति ते वि अम्हाणं उत्तमो तं तओ भणइ मंती । अम्हं तुम्हाणं पि हु नरेसरो उत्तमं पत्तं ॥ १८॥ ता तस्स समप्पेमो इय जंपिय ते गया नरिंद्रपुरो । विहियपणामा उवणिति राइणो तं सहस्सदुलं ॥ १९॥ अह आह महाराया उत्तममिममुत्तमम्स होइ त्ति । सोऊण इमं जंपति ते वि तं उत्तमो अम्ह ||२०| तो जंप इवई कमकमलमहं पि जेसि पणमामि । ते उत्तम त्ति ता नाणगन्भसूरीण उवणेमो ॥२१॥ मयपाणमत्तछच्चरणरुणुझुणारावमणहरं तत्तो । आरुहिय गंधसिंधुरसंधं सद्धिं मुबुद्धीहिं ॥२२॥ नंदण - नायत्तइ- सेट्टि मंतिपभिर्हि पउरलोएहिं । नीहरिओ नरनाहो सूरीण सयासमणुपत्तो ॥ २३ ॥ १. नाहु ! - २० । २. णमुत्त० – रं । For Private Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ ८. जिनपूजाफलवर्णनाधिकारे पनोत्तराख्यानकम् पणमित्तु पायपउमं सूरीण सहम्सपत्तमप्पंति । तं दट्टण पयंपंति सूरिणो महुरवाणीए ॥२४॥ अमरकरि ब्व करीणं कंचणसेलो ब्व अवरसेलाणं । तारावइ व्व ताराण कप्परुखो व्ब रुक्खाणं ॥२५॥ मुरनाहो व्व मुराणं धम्माणं जिणवरिंदधम्मो व्य । चक्कि व्व नरिंदाणं इयरफणीणं फणिदो व्व ॥२६॥ चिंतामणि व्व रयणाण सेसजाईण मणुयजाइ व्व । सव्वेसि तित्थयरो जमुत्तमो तम्स ताजोगं ॥२७॥ तो गंतु जिणभवण जिसरं नंदणस्स दसति । सो विहु पभूयभत्तीए मुयइ जिणनाहसिरकमले ॥२८॥ सब्वे वि जिणं तत्तो खोणीमंडलमिलंतसिरकमला । बहुमाणवससमुच्छलियबहलरामंचकंचुइया ॥२९॥ सूगहिं तओ तेसिं पयासियं भयवओ गुणसवन्नं । विहिया य उचियसद्धम्मदेसणा बहुमया तेसिं ॥३०॥ जायं च बाहिबीयं भोगफलं कम्ममज्जियं तेहिं । जायं अणुमइपुन्नं कुमारिगाणं चउण्हं पि ॥३१॥ अवरुप्पराणुबंधेण तम्मि जम्मम्मि ताण सर्वसिं । जाया रिद्धी कालक्कमेण सुविसुद्धभावेणं ॥३२॥ पंचत्तमिमो संपप्प नंदणो पउमविसयमज्झम्मि । नंदणनामम्मि पुरे परिहासहिए वयंसि व्व ॥३३॥ तारावीढनरेसरसुतारनामाए परमभज्जाए । कुच्छिसि समुप्पन्नो पुत्तत्ताए तओ तीए ॥३४॥ रंगंतलहरिमालं हंसावलिकलियकमलकोसेमु । मयपाणमत्तभमरउलरुणुझुणारावरमणीयं ॥३५॥ पउमसरं पविसंतं दिट्टं सुमिणम्मि वयणकमलण । तत्तो सहसंबुद्धाए साहियं नरवरिंदम्स ॥३६॥ तेणुत्तं तुह सुंदरि ! पहाणपुत्तो भविस्सइ तओ सा । उव्वहइ सह पमोएण गम्भमह अन्नया जाओ ॥३७॥ दोहलओं जह दीणाण देमि दाणाई तह य कीलेमि । पउमसरेसुम्मीलियकल्हारपरायछुरिएमु ॥३८॥ दोहलयदुव्बलंगीए तीए सो अक्खिओ नरिंदम्स । संपाडिओ नरिंदण पहरिसुप्फुल्लनेतेण ॥३९॥ जायम्मि पसबसमयम्मि पसविया पुत्तमुत्तमं देवी । नियगत्तदित्तिसंताणपहणियासेसतमपसरं ॥४०॥ लद्धो नालयनिक्खणणखणियखोणीयलम्मि पउमनिही । नाम पि तेण पउमुत्तरो त्ति विहियं नरिंदण ॥४१॥ वच्चइ विद्धि अहियं कलाकलावेण कमलनयणो सो । पत्तो तत्तो सव्वंगसुंदरं जोव्वणारंभं ॥४२॥ ताओ वि कन्नयाओ चत्तारि वि कम्मधम्मजोएण । आयामुहीए नयरीए दोन्नि दोणस्स नरवइणो ॥४३॥ धयाओ जायाओ पउमावइ-कुमुइणीभिहाणाओ। तो दोन्नि हथिणाउरनयरे जियसत्तरायम्स |॥४४॥ विव्भमवइ त्ति पढमा बीया धृया पुणो विलासबई । कालक्कमेण ताओ वि जोव्वणारंभमणुपत्ता ॥४५।। जाया जणयाण मणे चिंता होही इमाण को भत्ता । अणुरूवो ? तो पडिछंदएहि आणाविया कुमरा ॥४६। तेसि वियड्सहीणं समप्पिया जंपिया य ता एवं । लक्खेउं कहियव्वो भावो कुमरीण अम्हाण ॥४७॥ तत्तो सहीहिं कुमरीण दंसिया रायकुमरपडिछंदा । भणियं च ताहिं कि एत्थ रूवमेत्तेण नाएण ? ॥४८॥ जाणेयवो जीवो सहीहि भणियं भवंति किं मणुया । निज्जीवा ? तो जंपति ताओ जीवो पवरभावो ॥४९।। भणियं सहीहिं सो किह जाणिज्जइ ? तयणु ताओ जंपंति । लिंगेहिं विसिट्टेहिं सहीहिं भणियं तयं सोउं ॥५०॥ काणि पुण ताणि लिंगाणि ? तो पयंपंति रायन्नाओ। सम्वत्थ उचियवित्ती सहीहिं तो एवमुल्लवियं ॥५१॥ लक्खिज्जइ कहमेसा ? तेण पओगेण हिययगम्मेण | भणियं सहीहिं कीरउ सो वि पओगो तओ ताहिं ॥५२॥ भणियं जइ एवं ता आणह वन्नयसमुग्गयं एत्थ । तह चित्तपट्टियाओ ताओ वयंसीओ उवणिति ॥५३।। अधुम्मीलियपउमुप्पलाणि लिहियाणि दोणतणयाहिं लिहियं विसिट्रकन्नाजुयलं जियसत्तधयाहिं ॥५४॥ तत्तो भणियं सव्वाण रायकुमराण पेसह इमाणि । भणियव्वा ते एयाणुरूवमिह आलिहेयव्यं ॥५५॥ तो दंसियवमम्हं जण सजीवत्तमक्खिमो तुम्ह । तज्जणयाणं ताओ सहीओ कहिउं समप्पंति ॥५६।। तयणु नरिंदेहिं वि रंजिएहिं निम्सेसरायकुमराण । वरचित्तपट्टियाओ पट्टवियाओ तओ तासु ॥५७।। आलिहिय पेसियाओ कुमरेहि नरवरिंदकन्नाहिं । अवलोइपयंपियमेए सब्वे वि निज्जीवा ॥५८|| १.तो-२० । २. सिरिकमले -२० । ३. इत्थ -२० । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आख्यानकमणिकोशे तं सो गयाणा मणम्मि ग्वेयाउरा विचितंति । को ण्याओ रंजिम्मइ ? ति पडिया दुहावत्ते ॥५९।। भणियं च-- उद्वेगमहावर्ते पातयति पयोधरोन्नमनकाले । सरिदिव तटमनुवप विवर्धमाना मुता पितरम् ॥६०॥ दोहं पि नरिंदाणं अहऽन्नया मागहेहिं अत्थाणे । पउमुत्तरकयगाहा पढिया उद्दामसदेण ॥११॥ आलाणम्मि उ ही नियए ठाणम्मि घेप्पए अस्सो । हिययम्मि पवरमहिला सुयणो सम्भावमेत्तेण ॥६२।। कहियं च तेण पउमुत्तरेण रइया परंपराए इमा। निमुया कन्नाहिं तओ भणियं एसो सजीवो त्ति ॥१३॥ ता चित्तपट्टियाओ तस्स वि पट्टवह अह नरिंदेण । पउमुत्तरम्स पट्टावियाओ दिट्टाओ तेणावि ॥१४॥ नायं च जहा--लिहियव्चमेत्थ एयाणुरूवयं तत्तो । पउमम्स पुचभायम्मि वियसियं कमलमालिहियं ॥६५॥ अवराभिमुहं पडिबुद्धमुप्पलं लिहियमुप्पलसयासे । उडतनिलीयंतो भमरजुवाणो का तेसु ॥६६॥ उभयाणुवत्तणपरो लिहिओ कन्नाजुयम्स सन्निज्झे । तरुणो रसंतरत्थं सुहमं रेहंतराणुगआ ॥६॥ को निउणमिणं जाणइ ? अणुरूवं ताव मज्झ पडिहाइ । एरिसवयणं लिहिऊण चित्तफलहीसु कुमरेण ॥६॥ पट्टावियाओ तासिं पलोइया ताहिं पुलइयंगीहिं । कुमरीहि निययसहियणसम्मुहमेवं समुल्लवियं ।।६९।। पंच्छह तम्सवियत्तमसरिसं तो सहीयणो भणइ । को इह भावो ? तो कन्नयाओ भावं पयासंति ||७०॥ पुव्वाभिमुहं पउमम्स कमलमरुणोदएण वियसेइ । उप्पलपच्छिममुप्पलमुम्मीलइ बालचंदण ||७१!! एसो एत्थ वियासो सलहिज्जइ तह य कहइ अविओगं । भमरजुवाणो तह वयणलिहणमक्खइ अगव्वं तं ॥७२॥ अवराहिं पुणो जियसत्तरायकन्नाहिं जंपियं एयं । एयाणुसारसंगयमेयं रूवं कुमारस्स ।।७३।। तत्तो सहीहिं विम्हियवियसियवयणारविद-नित्ताहिं । कहियं तेसि जणेराण ते वि हरिसियमणा जाया ॥७४॥ अवरोप्पराणुराओ पउमुत्तर-कन्नयाण संजाओ । तत्तो महरिहरिद्धीए तेण वीवाहिया ताओ ॥७॥ सद्धिं च ताहिं नवजोव्वणाहिं चउहिं पि रायकुमरीहिं । उवभुंजइ विसयसुहं नियपिउकमकमलसरहंसो ॥७६।। तारावीढनरिंदेण अन्नया सुहमुहुत्त-नक्खत्ते । अहिसित्तो पउमुत्तरकुमरो रज्जे पहिखूण ||७७॥ तेणावि निययभुयदंडचंडिमाइंबरेण सुंडा वि । अक्खंडमहीमंडलनरेसरा सेवगा विहिया ॥७८|| पालइ पडिहयपडिभडमयगलघडमवणिवीढमसममई । गाढाणुरत्त-सुवियड्डियाहिं पोढंगणाहिं समं ॥७९॥ उवभुंजतो पंचप्पयारविसए विणोयवक्खित्तो । वच्चंतं पिन याणइ कालं दोगुंदुगो व्व सुरो ॥८॥ एत्तो य अउज्झापुरवरीए राएण देवगुत्तेण । निसुया रूवाइगुणा पउमुत्तररायपत्तीण ॥८१॥ संपेसिऊण दूयं भणाचिओ सो समप्पसु कलत्ते । तेणुत्तं जुत्तमिमं वोत्तं पि न उत्तमनराण ॥८२॥ पुण पउमुत्तरराया भणाविओ देवगुत्तनरवइणा । जइ न समप्पसि ता तुह होही न हु रजसामित्तं ।।३।। तं सोउं पउमुत्तररन्ना दूओऽवगन्निओ जाव । ता देवगुत्तराया कोवदवानलपलित्ततणू ॥८४॥ गुडियगइंदारोवियनाराइयनरवरिंदविंदेण । पक्खरियतुरयआरूढपोटफारक्कचक्केण ॥८५॥ रहरयणचडिय-पहरणविहत्थवरसुहडचक्कवालेण । वजंतसमरभेरीभंकारारियनहेण ॥८६॥ वावल्ल-सेल्ल-मोरगर-असि-सर-तीरी-तिमूलसत्येहिं । भीसावणेहिं कोवुभडेहिं पाइवचक्केहिं ।।८७॥ एएहिं असेसेहिं वि अणुगम्मतो रणेकरसिएहिं । समरंगणभूमीए संपत्तो देवगुत्तनिवो ।।८८|| पउमुत्तरो वि रह-गय-तुरंग-पाइक्कचक्कपरियरिओ । नियखंधवारसंभारभरियभूमंडलो पत्तो ॥९॥ तो दोण्हं पि हु अग्गिमदलाई जइलच्छिलालसमणाई । उम्मुक्कहक्क हुंकारभीमरुवाइ भिडियाइ॥९०॥ दोघघडा सह गयघडाहिं तुरया समं तुरंगेहिं । अभिट्टा गरुयरहा रहेहिं सुहडा पडिभडेहिं ॥११॥ १. पवरविलया -२०। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जिनपूजाफलवर्णनाधिकार पद्मोत्तराख्यानकम् आयन्नायढ़ियचाचदंडउम्मुक्कककपत्तेहिं । संछाइयं नहयलं वासारते घणेहिं व ।।१२।। कयभिउडिभालवट्ठा दटुट्टा दा वि मुहासंघाया । अवरोप्परं सुनिटुरसत्यपहारेहिं पहरंति ॥९३॥ निसियासिपट्टपाडियसिराणि नच्चंति भडकबंधाई । हुंकंति महीमंडलपडियाणि वि मुहडसीसाई ॥९४|| एत्थतरांम्भ भइरुडमुडमालाउलांम्म संगामे । अभिट्टा पउमुत्तरपुहाइवइ-दवगुत्तनिवा ।।९।। मेल्लंति सीहनायं दोन्नि वि हक्कंति दो वि वगंति । उच्छलियमहामच्छरपरब्यसा दो वि पहरंति ॥९६।। झस-कुंत-सत्ति-तीरी-तोमर-नारायसत्थनियरहि । निप्पसरं पहरंता रज्जंति परोप्परं दो वि ॥९७|| तालद्धलखयाए दक्खण खणंतरण सो बद्धो । परमुत्तरण रन्ना रणंगण देवगुत्तनियो ।॥९॥ संगाममहीवी जयग्वंभं निक्खणित्त नरनाहो । जयजुत्तो संपत्तो बलवंतो निययआवासे ||९९|| मुक्को य देवगुत्तो राया काऊण तम्स सम्माणं । जाओ य साहुवाओ पउमुत्तरवरनरिंदम्स ॥१०॥ चउरंगबलसमेओ समागओ नियपुरि तओ राया । परिपालइ महिवलयं निम्मू लुम्मूलियारिगणं ।।१०।। कालकमेण जाया पुत्ता वररुवधारिणो तम्स । निच्चं पि बंदिविंदाण दाणरसिएकहिययम्स ।।१०२।। अह अन्नया य अस्थाणमंडवे मुहडसंकडिल्लम्मि । पडिहारेण नरिंदो विन्नत्तो कयपणामेण ॥१०३।। देविंदजालिओ विज्जुमालिओ महइ दंसणं तुम्ह । भणिओ तओ नरिंदण देह जं तम्स दायव्वं ।।१०४॥ गंतूण दारपालेण अखिए इंदजालिओ भणह । न हुदविणनूणया मे पसायओ रायपायाण ॥१०५!| कजं तु रायन्चरणावलोयणं कहइ सो वि तं रन्नो । जइ न कुणइ पेक्खणयं ता एउ पयंपिए पहुणा ॥१०६॥ सो आगंतुं पणमेचि रायपयपंकय समुवविट्टो । आणंदवियसियच्छो पेच्छइ लच्छि निवसहाए ॥१०॥ अह गयणाओ नवजोव्वणाए रमणीए संगओ खयरो। अवयरिओ अत्थाणे करालकरवालवग्गकरो ॥१०८॥ दिवो य तओ अन्भुट्टिओ य राएण सविणय एसो । सो वि नरिंदं नमिडं पयंपिउं एवमाढत्तो ॥१०९|| महया पओयणेणं देव ! अहं तुह सयासमल्लीणो । भणिओ रन्ना जं किर मए वि सिञ्झइ तय कहसु ॥११०॥ तेणुत्तमहं दुब्बारवइरिणा पाविओ पहु ! इयाणिं । तं तु सुओ परनारीसहोयरो सव्वया वि मए ॥१११॥ ता देव ! इमा दइया अभहिया मज्झ जीवियस्सावि । रक्खेयव्या नासो व्व जाव सत्तं विणासेमि ॥११२।। तं सोउं नरनाहो जंपइ किर केत्तिय इमं कज्जं ? । सो भणइ तुह न कि पि हु मह पुण सव्वस्समवि एसा ॥११३॥ तुज्ज्ञ पयावेण अहं निजिणि सत्तुमागमिस्सामि । इय भणिय समुप्पइओ फलिणीदलसामलं गयणं ॥११॥ तभजा पुण उन्नमियवयणकमला पलोयए गयणं । खणमेत्तेण तओ सा करुणसरं रोइडं लग्गा ॥११५॥ तो पुच्छिया नरिंदेण रुयसि किं भइणि ? सा वि पडिभणिया । संजाओ मेलावो पयट्टमाओहणं दोण्हं ॥११६।। तो भणिय भूवइणा करेमि किं भूमिगोयरो अहय? । इय एव पयंपंताण ताण गयणंगणग्गाओ ॥११॥ रुहिरच्छडाकराला परिमलरुणुझुणिरभमिरभमरउला । मंदारकुसुमकयमुंडमालिया निवडिया पुरओ ॥११॥ दट्टण तय कंकेल्लिपल्लवारुणकरेण गिण्हेउ । तप्पणइणीए वच्छत्थलम्मि निहिया रुयंतीए ॥११९|| हा हिययदइय! हा मज्झ दइय ! हा अमयमइय! मणरुइय ! हा वल्लह ! तुझ न सुंदरं ति मणसा विचिंतेमि ॥१२०॥ हा ! मंदभाइणीए अहिय दोलायमाणहिययाए । रे दिव्य ! तं ममोवरि केरिसओ ? तं न याणामि ॥१२॥ मा भइणि ! भाहि मुहडाण हुंति एवंविहाणि समरम्मि । मा होयु कायरा एस एइ तुह अक्खओ भत्ता ॥१२२॥ कहकह वि हु भृवइणा एवं मंभीसिया ठिया जाव । वच्छयलनिहियसिरमुंडमालिया तरलतरनयणा ॥१२३॥ ताव सहस त्ति गयणाओ निबडिया तम्स विग्गहावयवा । कर-चरणमाइणो कलस-कमल-कुलिसंकियपसत्था ॥१२४॥ तो दिट्टपच्चया सा मुदक्खिया पुण वि पलविलग्गा । हा भाय ! भाय ! संपइ कह तुमं कत्थ वच्चामि ? ॥१२५॥ सो हु दुरंतो दुजओ ग्णंगण मज्झ भत्तुणो सत्तू । तो तेण पावमइणा विरूवमेयारिसं विहियं ॥१२६।। १. मिल्लंति सिंहनायं-रं० । २. त्तरनरवरिंदस्स -२०। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आख्यानकमणिकोशे हा सुहसार ! हा कित्तितार ! हा रूवमार ! दुहवार ! | दे ! देसु दंसणं दृइय ! दीणचयणाए मह इहि १२७|| हा पणइपत्थ ! हा वियडवच्छ ! हा सरसपंकयदलच्छ ! | हा करणवच्छ ! हा हिययसच्छ ! तं कत्थ दट्टयो ? ॥१२= ॥ इय वच्छल निवेसियकर-चरणाए दर्द रुयंतीए । निवपज्जतो लोगो रुयाविओ तीए भणियं च ॥ १२९ ॥ संपइ सिणिद्धबंधच ! कज्जं कुण देहि मज्झ कट्टाई । जह झत्ति अमरलोए गंतूण मिलेमि दयम्स ॥ १३० ॥ तेणावि भणियमेयं जुत्तं सुकुलीणवीरघरिणीण । तो तीए कए रन्ना कारविया सुरहिकट्टचिया ॥१३१॥ तू मुंडमालं सह कर-चरणाइएहिं नियपड़णी । विज्जाहरम्स भज्जा सज्जा पज्जा लियचियरिंग ॥ १३२ ॥ काउं नियउच्छंगे अंगावयवे पियस्स उबविडा | सलहिज्बंती निस्सेसरायपज्जुंतलोएण ॥ १३३ ॥ तो पवणवसवियंभियकरालपज्जलियजलणजालाहि । विज्जाहर भज्जा झत्ति भासरासीकया तत्थ ॥ १३४॥ तो पउमुत्तरराया जलंजली जाव वियरए तीए । तो रुहिरारुणगत्तो पत्तो विज्जाहरो सहसा ॥ १३५॥ भणियं च तेण वियसंतवयणकमलेण जयउ नरनाहो । जम्स पभावेण मए निज्जिणिओ दुजयपडिवक्खो || १३६ || जन् मज्झ हिययदइयं दइयं न हु तं नरिंद ! रक्खंतो । ता किह पडिभयमहय हढेण एवं विणासंतो ? ॥ १३७॥ इय एवमुल्लवंतस्स तस्स वज्जप्पहारपहउ व्व । पउमुत्तरनरनाहो अहियं चिंताउरो जाओ ॥ १३८ ॥ एएण महासत्तेणऽविस्ससंतेण कम्स वि परम्स । मह अप्पिया नियपिया मए वि एयारिसं विहियं ॥ १३९ ॥ भज्जाविणासभीएण अप्पिया न हु अणण अवरस्स । सो पुण सिग्घयरं चिय मए कओ पावकम्मेण ॥ १४० ॥ विस्सासघायओ हं जाओ खयरीविणासकरणेण । अहवा अवियारियकज्जकारिणो केत्तिय एयं ? ॥ १४१ ॥ सत्थत्थपंडियम्स वि मज्झेणाssवडइ किं पि तं कज्जं । जं न जणइ चित्तमुहं घेप्पंतं नेय मुच्चतं ॥ १४२ ॥ अपरिक्खियकयकज्जं सिद्धं पि न सज्जणा पसंसंति । सुपरिक्खियं पुणो विहडिय पिन जणेइ वयणिज्जं ॥१४३॥ महिमंडलम अजसो मिट्टी काही न कोइ विस्सासं । कस्स वि अवरम्स जए मज्झ वि एवं कुणं तस्स ॥ १४४ ॥ अवरं च वीररमणीण जुत्तमयं मए भणतेण । उच्छाहिऊण विहिय थीवज्झालक्खणं पावं ॥ १४५ ॥ पुच्छंतस्स नियपिय उत्तर मेयम्स किं पयच्छिस्सं ? । विवरं जइ देइ मही ता हूं पविसामि पायालं ॥। १४६ ।। दहूं, विवखवणं निवई तेणिदियालियनरेण । चाएउ हुरुक्खियमेयं पढियं पट्टेिण ॥ १४७॥ पणमह चलणे इंद्रस्स इंद्रजालम्मि लद्धलवखस्स । तह अट्टसंवरे संवरस्स सुपइट्टियजसस्स || १४८ ॥ तं सोउं परमुत्तरराया जा नियइ ता न तत्थ चिया । न हु खयरो तो नाय विलसियमिण मिंदियालकय ॥ १४९ ॥ दावेइ दविणलक्खं तो सायरमिंदियालियनरस्स । राया रंजियहियओ चरिएणं तस्स गुणनिहिणो || १५० || वेरम्गभावियप्पा पुहइवई पेच्छिउ तमच्छरियं । अंतोरमंतसंवेगभाविओ चिंतिउ लम्गो ।। १५१ ।। खदिट्टनट्टचं जहा इमं इंदियालमह जाय । संसारविलसियां पि हु तह अथिरं पेच्छ सव्वंपिं ॥ १५२ ॥ विलसंतवारविलयालोयणभमणं व चंचलं पेम्मं । अनिलंदोलियलवलीदलोचमं तारतारुण्णं ।। १५३ || पवणुल्लालियरं गिरतरं गमालाचलाचलं जीयं । अथिरसरूवं वित्तं चित्तं व सरायजीवाणं || १५४ ॥ एवं विचिंतयंतो विन्नत्तो सो वरोहिएण इमं । दुक्खंतरिसी अज्जं समोसढो देव ! चउनाणी || १५५ || तं सोउ नरनाहो सपरियणो सावरोहणो चलिओ । आरुहिय मत्तहत्थि संपत्तो सूरिन्नेज्झे || १५६ ॥ गुरुणो चरणे नमिऊण धरणिवीढम्मि तयणु उवविट्टो | धम्मकहापज्जन्ते सप्पणयं पुच्छर एवं ॥ १५७॥ भयचं ! पुव्विल्लभवे मए कयं किं ? जमेरिसा रिद्धी । पुरओ वा किं भविही ? इय भणिए पभणइ मुणिंदो ॥ १५८ ॥ पुव्विल्लभवे परमेण पूइओ आसि जिणवरो तुमए । तेण सुरिंद्रसमाणा रिद्धी एयारिसा तुज्झ ॥ १५९ ॥ जाईसरणेण तओ पुण्यभवो जाणिओ नरिंदेण । भाविभवा वि हु कहिउ पारद्धा मुणिवरिंदेण ॥ १६०॥ सद्धि चहिं पिपियाहिं तुज्झ होही नरिंद ! सुरलोगो । सत्तमजम्मम्मि पुणो परमपय तं पि पाविहिसि ॥ १६१ ॥ तं सुणिऊण नरिंदो हरिसवसुधुसियरोमरेहिल्लो । काऊण गंठिभेय पावइ सम्मत्तवररयणं ॥ १६२॥ For Private Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. जिनवंदनफलाधिकारे वकुलाख्यानकम् ११३ अंतेउरण सद्धि, पणमिय पयपंकयं मुगिदम्स । हरिसाऊग्यिहिया संपत्तो निययपासायं ॥१६३।। एवं विमुद्धहिया नुइरं परिपालिऊग सम्मत्तं । मुणिभणियविहाणेणं सिद्धो सो सत्तमभवम्मि ||१६४॥ ॥पद्मोत्तरास्यानकं समाप्तम् ॥३०॥ इदानी दुर्गनार्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् कार्यदिपुरोए नरिंद-चंद-नागिंदनमिय कम] कमलो । समवसरिओ जिणिंदो तत्तो तन्नयरनरनाहो ॥१॥ सिंगारियपउरपयापरियरिओ सिंधुरं समारूढो । तित्थयरबंदणथं नीहरिओ गरुयभत्तीए ॥२।। दिट्टो दुग्गाथेरीए नीर-इंधणकए भमंतीए । तो तीए कोइ पुट्ठो सपरियणो जाइ कत्थ निवो ? ॥३॥ तेणुत्तं तित्थयरस्स दुसहदारिद्ददुक्खदलणस्स | अभिवंदण त्थ] मेय निसामि चिंतए थेरी ॥४॥ सकयस्थो एस जणो जो नियसत्तीए पूयइ जिणिदं । अयं तु अकयसुकया धणरहिया किह तमच्चेमि ? ॥५॥ एवं विचिंतिऊणं उम्मीलियसिंदुवारकुसुमाणि । घेत्तण मुहालभाणि रन्नमज्झाओ सा चलिया ॥६॥ समवसरणम्मि चलिया हिययभंतरभवंतभत्तीए । .... .........'णा ||७| सकयत्था हं जिणनाहचरणतामरसमच्चइस्सामि । एरिससुहपरिणामाए तीए अद्धतराले वि ॥८॥ जायं पज्जवसाणं अइवुड्डत्तेण जीवियव्वस्स । विप्फुरियपहापडलो सुरलोए सुरवरो जाओ ॥९॥ ... महिमंडलम्मि पडियं तीए सरीरं पुरीजणो दटुं । किं मुच्छिया मया वा एसा ? करुणाए सवियको ॥१०॥ नीरच्छडाहिं सिंचइ कट्टर हिययं मुहे जलं खिवइ । वत्थं चलेण वायइ तह विन जंपइ न संचलइ ॥११॥ तो गंतुं जिणइंदं पणमिय पुच्छइ निवद्धकरकमलो । किं मुच्छिया ? अह मया दुगा ? तो भयवया भणियं ।। मज्झ परिपूयणत्थं आगच्छंतीए आउयखएण । पूयापरिणामेण वि इमीए अमरत्तणं पत्तं ॥१३॥ एत्यंतरे स देवो नियरियं आहिणा बियाणउं । विप्फुरियरयणकुंडलकिरणकरंबियकवोलजुओ ॥१४॥ जा वंदिउं पवत्तो जणस्स ता दंसिओ जिणवरेण । भो ! पेच्छह पच्चक्खं एसो सो थेरिजीवसुरो ॥१५॥ तत्तो जणेण भणियं अहो ! पभावो जिणम्स पूयाए । जीए परिणामेण वि पाविजइ एरिसा रिद्धी ॥१६॥ ॥ दुर्गनार्याख्यानकं समाप्तम् ॥३१॥ जह एएसिं जाया जिणपूया सोश्वसंपयाहेऊ । तह अन्नस्स वि जायइ ता जइयव्वं इमीए सया ॥१॥ सौरभ्यभाजिकुसुमादिपदार्थसाथैः सिद्धान्तसिद्धविधिनोभयथाऽपि शुद्धाः । श्रीमज्जिनं जितमशेषविकारजातं श्रेयस्करं मुकृतिनः परिपूजयन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जिनपूजाफलोपवर्णनो नामाष्टमोऽधिकारः समाप्तः ॥८॥ [ ९. जिनवन्दनफलाधिकारः ] व्याख्यातो जिनपूजाफलाधिकारः । साम्प्रतं जिनबिम्बं पूजितं विधिना वन्दनीयमिति अतो जिनबिम्बवन्दनफलं व्याचिख्यासुराह तित्थयरवंदणेणं पाविजइ संपया सुराईणं । जह पत्ता बउलेणं तह सेदुय-नंदजीवेहिं ॥१४॥ व्याख्या-'तीर्थकरवन्दनेन' सर्वज्ञप्रणामादिना "पाविजइ" प्राप्यते आसाद्यते 'सम्पद' लक्ष्मीः 'सुरादीनां' गीर्वाणप्रभृतीनाम् । दृष्टान्तानाह–'यथा' येन प्रकारेण ‘प्राप्ता' लब्धा 'बकुलेन' मालाकारेण 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'सेदुव-नन्दजीवाभ्यां' सेदुवकश्च ब्राह्मणो नन्दश्च श्रेष्ठी तज्जीवाभ्याम् इत्यक्षरार्थः ॥१४॥ भावार्थस्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । १. म [-सवि. प्रतौ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकर्माणकोशे तत्र तावद् बकुलाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम कंचणधर इव सगुणं कंचणसोहं सिरीए वहमाणं । कंचणसमिद्धपउरं कंचणपुरमैत्थि रमणीयं ॥२॥ तत्थ य मालायारो बउलो नामेण सुइसमायारो । भज्जा य पउमिणी पउमिणि व्व गुगरायहंसाणं ॥२॥ तत्थ य सियधयमालं सिरिसंठियकणयकलससोहिल्लं । तडिलय-बलायमालासंगयसरयम्भखंडं व ॥३॥ सिरिरिसहेसरभवणं हिमगिरिसरिसं समग्गगुणकलियं । गम्भहररहियसिरिरिसहबिंबरेहंतगन्भहरं ॥४॥ तम्मि य वसंतसमए विसेसपरमूसवो समारद्धो। सावयजणेण जिणपुंगवस्स गुरुईए रिद्धीए ॥५॥ तथा हि विरइयवंदणमालं ललामउल्लोलयं विहारलयं । विलसंतफुल्लहरयं विचित्तविच्छित्तिवलिरयणं ॥६॥ चित्तियभित्तिविभायं पवित्तपडमंडवावरियगयणं । वेसुजलसिंगारियसाचय-साविय जणाइन्नं ॥७॥ तत्थ य मालायारा समागया पुष्फविक्किगणकज्जे । सवे वि नयरवासी विसेस भत्थागमनिमित्तं ॥८॥ चउलो वि तेहिं समयं समागओ पुष्फपच्छियाहत्थो । गरुययरपुप्फाच्छयवावडपियप उमिणिराणाहो ॥९॥ विक्किणिय पुप्फनिवहा मणोरहाईयलाभपरितुट्टा । सव्वे वि गया थक्को बउलो नियपणइणीसहिओ ॥१०॥ मुहकम्मादयवसओ चितिमिमिणा जिणाययणमञ्झ । एत्तियपुप्फहिमहो ! कि विहियमिमेहि वणिएहि ? ॥११॥ कोउयवसओ जा जिणहरम्स मज्झम्मि पविसइ सभजो । ता पेच्छइ सव्वं जिणवरस्स सोहासमुदयं सो ॥१२॥ जिणमंडवमझगओ सव्वालंकारभूसियसरीरं । पेच्छइ जिणवरबिंबं हरिसाऊरिजमाणमणो ॥१३॥ चितेइ पुन्नवंता एए खलु सावया वइय अत्थं । जे पूयंति जिणिदं करंति एयारिसं जत्तं ॥१४॥ अंगीकएहजम्मा अत्थोवजणमणा वयमहन्ना । घरवासमोहियमणा जे परलोयं न चिंतेमो ॥१५॥ उव्वरियपाडलामालियाए एयाए ताव पूएमि । अहमवि जिणमिय चिंतिय निययपियं पउमिणि भणइ ॥१६॥ पूएमि जिणवरं भणसि जइ तुमं तीए जंपियं सामि ! । पूय संगयमेयं मणोरहो मज्न पुग बहुओ ॥१७॥ जइ एवं तो कुणिमो वयमंगल]लक्खओ जियमिमस्स । तीए भणियं पिययम ! सइत्तिया जइ इमं कुणसि ॥१८॥ कइवयदिणेहिं विहिया उज्जमणे बलिविहाणमायरिउं । तिलओ निवेसिओ पउमिणीए रिसहस्स भालयले ॥१९॥ तत्तो य पहरिसुभिजमाणरोमंचकंचुइयतणुणा । बउलेणं सकलत्तण वंदिओ रिसह जिणइंदो ॥२०॥ आउक्खयम्मि गयउरपुरम्मि सिरिकमलसेणनरवइणो । देवीए रयणमालाए सूइओ सुहय सुमिणेणं ॥२१॥ सो बउलमालिओ पूयपुव्वजिणवंदणाणुभावेणं । जाओ पुत्तो कयरयणचूडनामो गुणवसड्डो ॥२२॥ जह गहियकलाविज्जो अवहरिओ हथिणा अरन्नमि । जह कयसुरसन्निज्झो सुहाई पत्तो सुपुन्नेण ॥२३॥ जह तिलयसुंदरीपमुहपणइणीसंगओ सुहाभागी । संजाओ तह नेयं सव्वं पि हु रयणचूडाओ ॥२४॥ ॥ वकुलाख्यानकं समाप्तम् ॥३२।। इदानीं सेदुवकाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् मगहाजणवयउत्तंससन्निभं अत्थि बहुजणाइन्नं । सिरिरायगिहं नयरं अणुरायगिहं व लच्छीए ॥१॥ तत्थऽत्थि पत्थिवो परमसव्वसत्थत्थवित्थरिय बुद्धी। अस्संखसंख उक्खायखापडिवखखयद क्खो ॥२॥ विक्खायजसो दक्खिन्न-दाणगुणरयणभूसियसरीरो । लायन्नपरमसिंधू सुपसिद्धो सेणिओ नाम ॥३॥ उवसंतडमर-डिबाडंबररज्जं परक्कमगुणेहिं । अइकमइ पालयंतस्स तस्स कालो कलावइणो ॥४॥ अह अन्नया कयाई अस्थाणे सुहडकोडिसंकिन्ने । उज्जाणपालएणं चिन्नत्तो नमिय पयकमलं ॥५॥ अक्खलियविमलकेवल विसारिकरनियरगुरुपयासेण । नियतमतिमिरनियरो तिमिरहरो इव महावीरो ॥६॥ १. पुरमित्थ -२० । २. • पत्थिया० -२०। Jain Education Interational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जिनवन्दनफलाधिकारे सेदुवकाख्यानकम् भुवणत्तयसिरिधरिओ गुणसिलए चेइए समवसरिओ । मुणिजणमणसुमगोहरनलिणीचणवड्डियाणंदो ||७|| तव्वयणसवणओ चंदणेण तव्वयणदंसणेण पहू ! । पणमियजिणपयकमलो सहलत्तणमत्तणो कुणउ ||८|| तं वयणं अमयर सोहसन्निभं निसमिऊण नरनाहो । हरिसभरनिव्भरंचियसव्वंगो उट्टओ सहसा ||९|| दाऊ पीइदा अद्धत्तेरस य तो सहस्साइ । अइगस्यविभूईए नीहरिओ वंदनिमित्तं ॥१०॥ संचल्लिय गुरुबलभर संभारनमंतफणिवइफणोहो । वरतुरयसमारूढो संचलिओ सेणियनरिंदो ||११|| उवरोहेणं चलिया के कुम्हलियमाणसा अन्ने । भत्तिभरेणं अवरे रायाणो तेण सह बहवे ॥ १२ ॥ उवरिधरियावत्तो निवारियासरायगुणवत्तो । रमणीयणनयणंजलिसइण्ह पिज्जंतलायो ||१३|| संपत्तो य कमेणं नरनाहो समवसरणभूमीए । कणय ज्झय-वंदणमालसंकुले तइयसालम्मि ||१४|| परिहरिय तुरय- चामर - सियछत्त करालखग्गनिवचिंधो । तयणु पयट्टो गंतुं सपरियणो पायचारेण ||१५|| सिरिवीरचरणकमलं दुहदलणं सयलसुक्खसंकलणं । निहिकंखिणा निहाणं व तेण लद्ध सउन्नेण ॥ १६ ॥ हरिसभरनीरपरिपूरपूरियासेसरोमवणराई । भालयलनिहियकरकमलसंपुडो पणमिउं थुइ ||१७|| जय जय गरुयपरक्कम ! जय जय असमाणसत्तसंपन्न ! | जय जय तवसिरिसोहिय ! जय जय जिणवर ! महावीर ! ॥ १८ ॥ बालत्तणम्मि लीलाए चालियं जेण मेरुचू लग्गं । चलणग्गेण महाबल ! तेण फुडं तं महावीरो ||१९|| कडपूयणिपमुहं कालचक्कजणियं च कन्नकीलकयं । उवसग्गं जं न गणसि तेण फुडं तं महावीरो ॥२०॥ तुच्छत्तणेण तणमिव संगमयसुरंगणाओ गणियाओ । गुणनिहि ! तुमए जेणं तेण फुडं तं महावीरो ॥२१॥ संगमयामरजणिया अवगणिया जेण विविहउवसग्गा । अन्ने वि य नाह ! तए तेण फुडं तं महावीरो ॥२२॥ एवंविहमुवसग्गं गोसालयपमुह पच्चणीएहिं । जं सम्मं सहसि कयं तेण फुडं तं महावीरो ||२३|| अह ! अणारियदे से अणज्जजणजणियदेहसंतावे । भयरहिओ जं विहरसि तेण फुडं तं महावीरो ||२४| इय धीरतण कुल्हर ! भवारिभीयाण भव्वसत्ताणं । भयभेरवभवहरणं विहेसु विरियं महावीर ! || २५॥ इय थुणिऊण जिणिदं तिपयाहिणपुव्वयं पुहइपालो | आबद्धपंजलिउडो उवविट्टो उचियदेसम्मि ॥२६॥ गंभीरिमगुणनिज्जियमंदरमंथिज्यमाणजलहिरखो । भयवं पि भुवणहियओ धम्मकहं कहिउमादत्तो ||२७|| जह जीवा बज्झती मुच्चंती जह व संकिलिस्संति । अट्टवसट्टोचगया संसारं परियडंति जहा ||२८|| एत्थंतरग्मि एगो गलंतेकोढो निरागिई पुरिसो । भयवंतपायमूले पणामपुव्वं समल्लीणो ॥२९॥ तत्थ टिओ परिसिंचइ पयकमलं भगवओ विगयसंको । ससरीराओ घेत्तृण कोढदुग्गंधखयर सियं ||३०|| अमणुन्नमुत्तिरूवं तं पासित्ता पसेणईतणओ । गुरुकोचानिलतरलियअहरदलो चिंतए एवं ||३१|| भुवणत्तयभत्तिवसुल्लसंतजननिवहन मियपयकमलं । अभिभवइ भुवणसामिं कहमेसो दूरगयलज्यो ? || ३२॥ एयं न जुत्तिजुत्तं जं गुरुपरिभावयं उविक्खेडं । इयरनराण वि मह उण विसेसओ सत्तिमंतस्स ॥ ३३॥ सइ सामत्थे गुरुणो जे परिभवकारयं उविक्ांति । नियजणणिकिलेसकराण को गुणो ताण जायाणं ? ||३४|| ता किं एयस्स त तणि खंडाई कप्परेऊण । अविणयनिहिणो पाचम्स दसदिसिं देमि भूयबलिं ||३५|| किंवा एयस्स दुरासयम्स सयमेव मंडलग्गेण । तालहलं पिव पाडेमि खंधमूलाओ सिरकमलं ? ||३६|| किंतु न जुत्तं एयं जिणवरपुरओ विरोहकरणं मे । जमिह परोप्पर मच्छरगया वि जीवा उवसमंति ||३७| तथा हि जत्थ नया खंडलम उलिमंडलो महियलं समल्लियइ । भयवं भवंतभयभमिरभवियनित्थारणसमत्थो ||३८|| तत्थुवसमंति वइराणऽन्नोन्नविरोहिसव्वजीवाणं । पुव्विकयाणि वि भावाण संभवो भवइ न कया वि ॥३९॥ तम्हा चिट्ट एसो दुट्टो निक्विट्ट कुट्ट अभिभूओ । एत्थ ट्टाणम्मि तहा कुणउ जहिच्छं वि चिट्टाओ ॥४०॥ १. तकुडो निरा - रं० ॥ For Private Personal Use Only ११५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोश जइ पुण एसो होही विणिग्गओ समवसरणबाहिं ति । ता नृणमविणयफलं दायव्वं मे सयं चेव ॥२१॥ समयंतरम्मि छीए मुणिवइणा मरसु सो नरो भणइ । नरवइणा पुण छीए जीवमु मुचिरं तुम देव ! ॥४२॥ अभएणं पुण छीए जंपइ सो मरमु तं सि जीवसु वा । मा जीवसु मा मरमु व कयछिक्के कालसूयरिए ॥४३।। तं वयणं सोऊणं जिणिंद ! मा जीवसु त्ति खर-फरुसं । घयसित्तजलणपुंजो व्व नरबई कोवपञ्जलिओ ॥४४॥ तम्युवरिअक्खिसंकोयसन्निया अंगरक्ख नियपुरिसा । जइ एस कह वि कुट्टी उदृइ तत्तो गहेयव्यो ।।४।। धम्मकहापजंते पणमित्ता मुणिवरिंदपयकमलं । सो निस्सारसरीरो निम्सरिओ ताण पच्चक्खं ॥४६॥ ते वि हु तमणु विलग्गा विणिग्गया तस्स धरिसणनिमित्तं । अवलोइऊण ते गहणमुज्जए सो वि किं कुणइ ? ॥४७॥ अंगीकयफारफुरंतजच्चतवणीयभासुरसरीरो । वरमउड-कुंडलधरो उप्पइओ गयणमग्गेण ॥४८॥ वलिया विलक्खचित्ता चित्ताउहकलियकरयला सुहडा । संपत्ता विम्हयसहियमाणसा रायपासम्मि ||४९।। अग्गेसरेण तेसिं कहियं सो झत्ति निययतेएण । तिरियंतो देवपह, देवपहं देव ! उप्पइओ ॥५०॥ अहह अहो ! अच्छरियं पेच्छह भणिऊण चिंता राया । ता किं असुरो एसो ? विज्जासिद्धो ? सुरो किं वा ? ॥५१॥ किं मे संसयकरणेण ? संसयं जयगुरुं पपुच्छेमि । हत्थत्थकंकणाणं किं कज्जं दप्पणेणऽहवा ? ॥५२॥ भणइ निवो जयसामिय ! को एस नरो ? किमेत्थ संपत्तो ? । किं वा एयम्स तणू अभिभूया कोढरूवेण ? ॥५३॥ सोहम्मसुरो एसो भणइ जिणो जंपई निवो नाह ! । देवत्तं जह पत्तं इमिणा तं सामि ! साहेसु ॥५४॥ आयन्नसु भणइ जिणो अस्थि इहं सुरघरेहिं संकिन्ना । वच्छाजणवयमझे कोसंबी नाम नयरि त्ति ॥५५॥ असरिसफुरंतविक्कमअस्संखअणीयकलियरज्जो वि । नरनाहसयाणीओ तत्थऽस्थि समग्गगुणनिलओ ॥५६॥ ताए पुरीए निवसइ दारिदसहोयरो दिओ एको । विन्नाण-नाण-गुणरयणवजिओ सेदुओ नाम ॥५७|| समरूव-गुणा तस्सऽस्थि रोहिणी बंभणी विणयकलिया । अणुसरिसो संजोगो सच्चविओ जीए भवणम्मि ॥५८॥ तीए समं विसयमुहं अणुभुंज़ंतस्स जंति दियहाई । तस्स पुरिमज्झकणभिक्खवित्तिकरणेकचित्तम्स ॥५९|| अह अन्नया कयाई वेलामासे पवड्डमाणम्मि । भणिओ य बंभणो बंभणीए हक्कारिउं एवं ॥६०॥ मम गव्भपसबसमए पओयणं घय-गुडेण भावि त्ति । ता एयं कत्तोच्चिय ठाणाओ आणसु तमिन्हि ॥६॥ अह भणइ दिओ मम मंदिरम्मि वित्तं वराडयामेत्तं । अवि नत्थि कहं होही तयभावे वंडिओ अत्थो ? ॥६२॥ इय चिंता[भर]घणपवणपूरपेरिजमाणमणरुक्खो । भणिओ कंताए पसन्नकंतवयणाए सो एवं ॥६३॥ गंतूण महारायं सपसायं कुणसु जेण सेवाए। काही तुट्टो दारिद्दकंदरुक्खक्खयं खिप्पं ॥६४॥ जंपद विप्पो नरवइसेवाए मज्झ कोसलं नस्थि । साहसु तुमं पि सुंदरि ! जंकायव्वं मए एत्तो ॥६५॥ तो बभणीए भणीओ घेत्तुं कुसुमाणि मलयमज्झाओ। गंतूण सीहवारं नरवइणो तं समच्चेसु ॥६६॥ अणुदियहं तुह भत्ति दट्टण सुनिच्चलं नरवरिंदो । करुणामयमयरहरी परिम्सइ वंछियं अत्थं ॥६७|| नवरं जया नरिंदो भणइ जहा भद्द ! तं वरं वरसु । पुच्छित्तु मं महायस ! मग्गेयव्वो वरो तइया ॥६८॥ एवं ति मन्निऊणं पभायसमयम्मि गोहलीपुव्वं । कुसुमेहि सीवारं पइदियहं पृयए सो उ ॥६९।। खीणम्मि लाभविग्ये दणं तम्स निच्चलं भत्ति । हक्कारिउमाह निवो मम्गसु तं देमि तुझो हं ॥७॥ किं देसो तुह दिजउ ? अन्नं वा हिययपंछियं भद्द ! । सो भणइ भट्टिणी पुच्छिऊण नरनाह ! मम्गिस्सं ॥१॥ गंतूण बंभणीए निवेइयं अज मह निवो तुट्ठो । तो कहनु तुमं जं किंचि पत्थिवं तत्थ पत्थेमि ॥७२॥ तो बंभणीए भणिओ भोयणमग्गासणम्मि मन्गेमु । दाणारदक्षिणा घि य कन्नुम्सारं च पइविदसं ॥७३॥ गंतूणऽग्गासण-भोयणाइ जं मग्गिओ नियो तेण । मग्गियमइथावं भद्द कि तए ? पभणिओ अहवा ॥७४॥ जो जत्तियम्स अस्थम्स भायणं सो हु तत्तियं लहइ । इय चितिऊण रन्ना पडिवन्नं तम्स तं चेव ॥७॥ १. कयछीए -२० । २. श्राइन्नमु -२० । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जिनवन्दनफलाधिकारे सेदुवकाख्यानकम् तं कुर्वतं हट्टं, नरनाह्ऽभासवत्तिणो अन्ने | चिंतंति कुणइ देवो महापसायं दियम्स जओ ॥७६॥ तो म्हेविय एवं भोयण-सयणः -ऽऽसणेहिं पृएमो । पासट्टिएहिं रन्नो पओयणं जायए जेण || ७७ || इय चितिगते विहु नियगेहे भायणं निमंतेउं । दीणार-वत्थजुयलं च दक्खिणाए पयच्छति ||१८|| सो 'तारिसलाभाओ संजाओ रिद्धिसंजुओ अइरा । पुत्ताइसतईए वि क्रिमवि विद्धिं समनुपत्तो ||१९|| एवं दक्खिणलोभागिहे गिहे उचमित्त भुंजतो । कोढेण समभिभूओ तिव्वेणमजिण्णसभावा ||८०|| फुवं व तहवि रन्नो भायणमग्गासणे टिओ कुगड़ । परिसडियंगुलि - नासाविवरो निम्संकिओ संता ॥८१॥ दट्टण तारिसं तं भयाउ मंतीहिं पभणिओ राया। एसो हु महारोगो वाढं संचरणसीला ति ॥८२॥ तो वारिज्जउ एसो भोयणमग्गासणम्मि कुर्वतो । एयट्टाणं पुत्ताण को वि ठाविज्जए जोगो || ३ || पडिवन्ने रन्ना एवमत्थु भणिओ स मंतिवग्गेण । पुत्तेण तुज्झ निवमंदिरम्मि भोत्तमेाहे ॥ ८४ ॥ तेणाचि निययपुत्त पट्टविओ भोयणाइकज्जम्मि | चिट्टद्द उब्विग्गमणो रोगक्कतो सयं तु गिहे ||२५|| वड्ंते पुण रोगे लज्जंतेहिं सुएहिं तम्स बई । काराविडं कुडीरं मुन्हाओ तं च दणं ॥ ८६ ॥ थुक्कति भतस्स वि न चेव वयणं कुणंति गासं पि । दूरट्टियडुंबम्स व छाइयनासा पयच्छति ॥८७॥ चिंतइ सो नियचित्ते मज्झ पसाएण एरिसा रिद्धी । संपत्ता जेहि पुणो वि चिड़ियं तेसिमेरिसयं ॥८८॥ पेच्छ अहो ! निल्लज्जा पुत्ता मामवि परिभवंति सया । ता नूणमविण्यफलं सिरम्मि पाडेमि एयाणं || ९|| इय चिंतिऊण भणिया निव्विन्नो जीवियस्स हं पुत्ता ! | काऊण कुलायारं वंछामि सजीवियं मोत्तु ॥९०॥ तं सोउं जइ जीयं छड्डइ सिग्धं तओ भवे लट्टं । इय मिणा प्रभणिति ताय ! जं भणसि तं करिमो ॥ ९१ ॥ जंप पुत्ता ! गोते अम्ह कमो एरिसो सबंधूणं । जं मंतहुणियछागो दायवो मरणकामेहिं ॥ ९२ ॥ तो आणित्तु समप्पहपमुमेगं मज्झ सुंदरावयवं । जेणऽप्पणी हियत्थं करेमि वियरय सबंध ||९३ ॥ आणि तेहिं बद्धो तस्स कुडीरम्मि छगलगो चलवं । विप्पो वि सरीरमलं उचट्टिय भोयणेण समं ॥ ९४ ॥ पइवासरं पयच्छइ मलस्स संतेणं थोवकालेण । पडिसडियरोमराई संजाओ तारिसी चेव ||९५|| नाउं सवंगेसुं विप्पो रोगं पसुम्मि संकतं । हणिऊण तओ पच्छा समप्पिओ निययपुत्ताणं ॥ ९६ ॥ अमुणियतच्चेट्टेहिं भुत्ते तेहिं पशुम्मि सो भणइ । अहयं कत्थइ तित्थे हड्डिस्सं जीवियं वच्छा ! ॥९७॥ जेण पुणो न सरीरं संजायइ मज्झ एरिसं कह वि । इय भणिऊणं गेहाओ निग्गओ हिट्टचित्तो सो ॥ ९८ ॥ गच्छंतो य पविट्टो कंतारं अग्गम हिसिसंकिन्नं । करि - सीहदा रहरिकमलसंकुलं रायभवणं च ॥ ९९|| तत्थ य हिंडणं तेणं तिसिएण रन्नमज्झम्मिं । दिट्टो अहदीहदहो बहुतरुछन्नप्पएसम्मि ॥ १०० ॥ तीरट्टियतरुनिवडियफल-पत्त-पसूणएहिं जत्थ जले | संजायं काढियकत्थसन्निभं गिम्हावे || १०१ ॥ तं दधुं उल्लसिओ निहिला भेणं दरिद्दपुरिसो व्व । तण्हावोच्छेयकए पीयं अह पाणियं तेण ॥ १०२ ॥ जह जह सो पियड़ जलं तह तह संजायए विरेओ से । सद्धिं किमहिं तो तेण थावदिवसेहिं संजायं ॥ १०३ ॥ ओसहसारिच्छेणं तस्स सरीरं पुणन्नवावयवं । दद्धुं सदेहसंपयमह चिंतइ नियमणे एयं ॥ १०४ ॥ एयं देहस्स सिरिं गंतुं दरिसेमि निययपुत्ताणं । पेच्छामि जारिसी तेसि संपयं दु बुद्धीणं ॥ १०५ ॥ I इय चिंतिऊण पत्तो पुरी जणणं स पञ्चभिन्नाओ । पुच्छंति तुज्झ कुटुं अवणीयं केण अइभीमं ? || १०६ ॥ सो जंपइ देवीए वणे समोलग्गियाए तुट्टाए । एसो मझं रोगो अवहरिओ वदिवसेहिं ॥ १०७|| सलहिज्जेतो नयरीजणेण पत्तो गिहं सुए दट्टुं । जंपड़ अणुहवह फलं अविणयतरुणा मह कयस्स || १०८ || किं ताय ! तए विहियं एवं अम्हाण ? भइ सो बाढं । पुत्ता भणति हा ताय ! किं तए एरिसं विहियं ? ॥ १०९ ॥ जं अम्हमवत्थमिमं का ऊण गओ तमेरिसं पत्तो । देहस्स सिरिं ता किं न लज्जिओ जणयभावम्स ? ॥११०॥ १. तारिसभावाश्रो - रं० । For Private Personal Use Only ११७ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आख्यानकमणिकोशे तं ताय ! जुत्तित्तं न तुम्हमेयं जओ उ दुवियायं । होइ परं न दुमाया एस पसिद्धी जणे पयडा ॥ १११ ॥ सो भइ पुरा तुम्हे विलज्जिया जं न पुत्तभावम्स । ता इन्हिमविण्यफलं इमिणा रुवेण अणुहवह ॥ ११२ ॥ विन्नायवइयरेणं हीलिज्जतो स नयरिलोएणं । नीहरिओ नयरीओ संपत्तो नयरमेयं ति ॥ ११३ ॥ पोलिदुबारे चिट्टह चंडीए मंदिरम्मि जावेसो । एत्थंतरम्मि अम्हे समागया एत्थ विहता ॥ ११४ ॥ पत्तो तुमं पिबंदणनिमित्तमम्हं पओलिपाहरिओ । संपत्तो सो वि इमं संठविउ तत्थ रक्खत्थं ॥११५॥ अच्चंत भुविखओ हं भणिओ विप्पेण जमिह नेवेां । दुग्गापुरओ तुमए तं भोक्तव्यं ति भणिऊण ॥ ११६ ॥ जीवियनिरवेक्खेणं तेणं दुलहं लभित्तु आहारं । कंठपमाणे भुत्ते पाउन्भूया तिसा गिम्हे ॥११७॥ नन्नगओ भीओ सो चिन्तइ चित्तम्मि एरिसं धन्ना । जलजीवा एमाई अट्टज्झाणट्टिओ मरिउं ॥ ११८ ॥ निव्वत्तिय तिरिया उयमिव बाबीए ददुरो जाओ । अह पुणरवि विहरंता एत्थेव वयं समोसरिया ॥ ११९ ॥ नयरजणा मम बंदणकज्जेण विणिग्गया विभूईए । गच्छंताणं तेर्सि एसो मम संकहं सुच्चा ॥ १२० ॥ तेणं चित्ते चितिय हो ! मए एरिसो निसुयपुथ्यो । कत्थइ सदो बहुविहमीहाऽपोहं कुणंतस्स ॥१२१॥ जायं जाईसरणं एत्थेव समागओ महावीरो । जस्स समीवे पत्तो मं मोत्तुं दारपाहरिओ || १२२ || तो हं गंतुं वंदेमि पज्जुवासेमि हिट्ट चित्तो सो । नीहरिओ बाबीओ सालूरो सुद्धपरिणामो ॥ १२३ ॥ बच्चंतो मभ्गम्मिं तुह तुरयखुरप्पहारनिहओ सो । मरिउं विशुद्धचित्तो सोहम्मे ददुरंके ॥ १२४॥ देवेनु समुप्पन्नो इओ य सोहम्मसुरसहामज्झे । सहसक्खो संभंतो तुज्झ गुणुवित्तणं कुणइ ॥ १२५॥ थिरभावो सम्मत्ते अहो ! अहो ! सेणियम्स नरवणो । न हु चालिज्जइ तत्तो सुरेहिं मेरु व्व पचणेहिं ॥ १२६ ॥ एसो असद्दहंतो तंवयणं वज्जपाणिणा भणियं । तुज्झ परिक्खनिमित्तं एरिसरुवेण संपत्तो ॥ १२७॥ जं सिंचइ पूइरसेण मम पए दिट्टिचित्रभमो तुज्झ । गोसीसचंदणेणं आलिंगइ सुरवरो एसो ॥१२ ॥ जंपइ राया विन्नायतियस निस्सेसवइयरो इमिणा । आसीवाओ पहु ! किं निमित्त एयारिस दिन्नो ? || १२९ ॥ भइ जिणो संसारं मोत्तमसारं तुमं सिवं वच्च । एएण हेउणा मं पडुच्च मा जीव इइ वृत्तं ॥ १३०॥ तुह जीवंतस्स गुणो मयस्स नरयम्मि चेवें उचवाओं । तेण निमितेणिमिणा भणियं तं जीव सुइरं ति ॥१३१॥ अभयकुमारो एत्थं जीवंतो गुणगणं समज्जिइ । देवेसु मओ होही तम्हा दोसु वि अणुन्नाओ ॥१३२॥ चितो इह बहु पावं संचिणइ कालसूयरिओ | अपइट्टाणम्मि मओ गुरुकम्मो नारओ होही || १३३|| एएण कारणं पडिसिद्धो उभयपक्खओ चेव । अह नियुणिउं नरिंदो स अत्तणो नरयगइगमणं ॥ १३४ ॥ जंपइ राया दुग्गगइगुरुकृचपडंतसत्तनिवहस्स । उद्धरणनिविडतररज्जुसन्निभे सामिसालम्मि ॥१३५॥ I सामिय ! किं मह होही तुमम्मि संते अहोगइनिवाओ ? । भयवंतेण वि भणियं अधि मा कुणमु निव! जेणं ॥ १३६ ॥ पुवं चिय बद्धाऊ गंतव्यमओ अवस्स नरयम्मि । भवियन्वयानिओगो न अन्नहा तीरए काउं ॥ १३७॥ किंतु मम समसरीरो समवन्नो समगुणो य तं होसि । उस्सप्पिणीए पढमो तित्थयरो पउमनाहो ति ॥ १३८ ॥ तं सोउं भइ निवो पुलइयदेहो विसायसहिओ य । भयवं ! अस्थि उवाओ जेण न निवडामि नरयम्मि ? ॥ १३९ ॥ जयसामिणा विभणियं जइ भिक्खं जइजणस्स दाविहिसि । कविलाए बंभणीए हत्थेणं कालसूयरिओ ॥ १४०॥ जइ मुंचइ दिणमेगं पाणिवहं ता न तुज्झ नरयगई। तो भणइ निवो एयाणि मम वसे चेव वट्टंति ॥ १४१ ॥ अह वंदितु जिणिदं चलिओ सम्मत्तनिच्चलो राया । नयराभिमुहं देवो सम्मत्तपरिवखणनिमित्तं ॥ १४२॥ सजलपएसे खुड्डुं गिन्हंतं मच्छए विङवेइ । तं दट्ट्टुं भणइ निवो भयवं ! तुमए किमारद्ध ? ॥१४३॥ जंपर मायासाहू चिक्किणि उं मच्छए महाराय ! | पाउसजलरक्खत्थं गिहिस्सं कंबलं एगं ॥ १४४ ॥ भणियं रन्ना जिणसासणस्स मा कुणसु लाघवं भद्द ! । जं किंचि तुमं जंपसि तं सव्वमहं करिम्सामि ॥ १४५ ॥ १. सोचा - रं० । २. जेण - रं० । For Private Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जिनयन्दनफलाधिकारे सेदुवकाख्यानकम् तं अविचलसम्मत्तो निवारि पविसई पुरं जाव । ताव विउवह देवो गुव्विणियं साहुणी एगं ॥१४६।। मगंति हट्टै बराडियं पेच्छिऊण तं राया । चितइ चित्ते जिणसासणस्स मालिन्नमिह गरुयं ॥१४॥ जंपइ अज्जे ! किं लोगगरहणिज्ज तए समारद्धं ? | सा जंपइ मह एवं कम्मवसेणेरिसं जायं ॥१४८॥ होही पओयणं घेय-गुलेण मह राय ! पसबसमयम्मि । पइआवणमेगेगं मग्गेमि वराडियं तेण ॥१४९॥ मा भवउ लाघवं पवयणम्स जंपइ ससंकिओ राया । एहि तुमं मह भवणे तुह सव्वमहं करिस्सामि ॥१५०॥ तो नेउं नियभवणे पच्छन्ने मंदिरम्मि संठबिया । पुत्तं तत्य पसूया य साहुणी देवमायाए ॥१५१॥ बालो रोयंतो न वि थक्कइ उच्चारयाई कुवंतो। सयमेव कुणइ राया परिचिटुं ताण तत्थ ठिओ ॥१५२।। पवयणलाघवरक्खत्थमुज्जुयं पबयणम्मि थिरचित्तं । नाऊण ओहिनाणेण सुरवरो तस्स पच्चक्खो ॥१५३।। संजाओ नरवइणो मणिकिरणफुरंतकुंडलाहरणो । निययपहानियरेणं उज्जोयंता दिसिमुहाई ॥१५४।। जंपइ देवो जिणपक्यणाओ अविचलियमाणसो तं सि । सोहम्मसहामज्झे सोहम्मे तियसपञ्चक्खं ॥१५५।। घणसारसियगुणावलिआवज्जियमाणसेण सुरवइणा । जारिसओ संथुणिओ तारिसओ च्चिय तुमं राय ! ॥१५६॥ अविचलसम्मत्तगुणेण रंजिओ राय ! तुझ तुट्ठो हं । ता गिण्ह गोलयदु गं अट्ठारसचक्कवेहं च ॥१५७॥ हारमिणं ति समप्पिय जंपइ अमरो विमं तु जो हारं । तु पुण संधिम्सइ फुडही सयहा सिरं तस्स ॥१५॥ इय कहिऊणं रन्नो पत्तो भईसणं सुरो झत्ति । राया वि चेल्लगाए हारं अप्पइ पहिट्टमणो ॥१५९॥ देइ सुनंदाए पुणो गोलयजुयलं निएवि तं तीए । पसरियसवक्किवेहवविहुरियमुसरीरजट्टीए ॥१६॥ किमहं कीलिस्सं बालिय व्व एएहिमिय सहासाए ? । जं पञ्चक्खं दिन्नो रन्ना हारो सपत्तीए ॥१६१॥ इय ईसाणुगयाए दाणं दिन्नं जमप्पमुल्लं ति । अवमाणियाए विग्गोवियाऽहमवरोहमज्झम्मि ॥१६२॥ इय अवलंबियरोसाए तयणु विप्फुरियरुदभावाए । रसनियरमुन्वहंतीए फोडियं गोलयदुर्ग पि ॥१६३।। पच्चासन्ने थंभे जाव तओ एक्कगाओ गोलाओ। पयडीभूओ भूगोलयाओ रविबिंबजुंगमं व ॥१६४॥ कुंडलजुयलं दसदिसिपसरियनवकिरिणजालसंवलियं । बीयाओ नीहरियं निदोसं देवदूसदुगं ॥१६५|| दटुं ताणि सुनंदाए फुरियआणंदअमयसित्ताए । अणुभूओऽपुव्वरसो समगं तद्दिवसलामम्मि ॥१६६।। उल्लसियं हियएणं कवोलफलएहिं पुलइयं तह य । वयणेणं पुण वियसंतसरसकमलाइयं सहसा ।।१६७।। उल्लसियं अंगेहिं लोयणजुयलेण किमवि वित्थरियं । रससंकरं वहंती गया सुनंदा नियावासं ॥१६॥ अह अन्नदिणे राया कविलं हकारिऊणिमं भणइ । तुममजं साहूणं भद्दे ! भिक्खं पयच्छेहि ॥१६९।। सा जंपइ निवपुरओ नाहं कुलखंपणं करिस्सामि । जं भिक्खं भिच्छूणं लंपित्त कुलक्कम देमि ॥१७०॥ वज्जरइ निवो जइ तं करेसि एयं हिरन्नकोडीओ । तो देमि तुज्झ जंपइ दासी एवं अभव्वत्ता ॥१७॥ जइ सव्वहिरन्नमयं करेसि मं देव ! तुममिहं तुट्टो । रुट्टो य परवसं मं खंडाखंडिं जइ विहेसि ॥१७२।। तो न वि करेमि एयं विन्नाए निच्छयम्मि सा मुक्का । बीयअभिमगहकज्जे वाहरिओ कालसोयरिओ ॥१७३।। भणियं रे ! मुंच इमं पाणिविणासं तुमं दिवसमेगं । इमिणा जीवइ सो भणइ एस पउरो जणो पउरो ॥१७४॥ रन्ना भणियं दव्वं गिण्हसु तं लक्ख-कोडिपभिईयं । नित्थरउ तुज्झ लोगो अजं तु निवारणीयमिणं ॥१७॥ जा कहवि न पडिवज्जइ ता रुट्टो पत्थिवो भणइ पुरिसे । पाविट्टमिमं घत्तह अहोमुहं अंधकृवम्मि ॥१७६|| पक्खित्तो सो कृवे तत्थ ठिओ महिसयाण पंच सए । मट्टियमयाण काऊण कूरचित्तो विणासेइ ॥१७॥ रत्ना वि भुवणसामी गंतूणं पुच्छिओ जहा मज्झ । अक्खलिओ संजाओ एसो किमभिग्गहो नाह ? ॥१७८|| भणइ जिणो निव ! एसो न पालिओऽभिग्गहो तए जेण । कूवठिएण वि तेणं विणासिया पंच महिससया ॥१७९।। राया विम्हिय-हियओ जंपइ कह नाह ! संभवो तत्थ ।. .""रहिएणं ? ॥१८०॥ १. पयगुडेण -२० । २. वैभव । ३. युग्ममिव । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आख्यानकमणिकोशे तो जंप मुणिना हो पुढचिमए संवित्तु दुद्वेण । हत्थं विहित्तु खगं उगं बाबाइया तेण ॥ १८९ ॥ नरवणा कुवाओं तत्तो निस्सारिडं पुणो मुक्का । सविलक्खमाणसेणं च भीरुणा नरयमग्गस्स || १-२ || तेहिमवत्तणओ दोहि वि पडिवज्जियं न निववयणं । किं लभइ तिसिएहिं अमयं पाउं अपुन्नेहिं ? ॥ १८३ || ॥ सेदुवकाख्यानकं समाप्तम् ॥३३॥ इदानीं नन्दाख्यानकमुच्यते । तश्चेदम् पास जिणधूभमहुरा महुरा भरहम्मि पुरवरी अस्थि । अभियासिया चिकिच्छं व्व गंधजुत्ति व्व सुहवासा || १ || तीए गुरुजणभत्तो निचं जिणपायपूयणासत्तो । निवसद् सेट्टी नंदो नंदो व्व सदत्थसारेण ||२|| सो सुआगरणरओ रायाइमहायणम्मि गोव्वो । अवदाणदाणवसणी अहन्नया पच्छिमवयम्मि ||३|| धम्मंतरायवसओ जाओ पुन्नक्खएण तणुविहवो । नाऽऽयरइ जणो तत्तो पत्ता वि पराभवंति तयं ||४|| तह विहु सो अहिययरं जिणवंदणवसणवं जहाविहवं । खिम्संति सुया धम्मं बहुयाओ कुरुकुरायंति ||५|| भज्जा उण निभच्छइ भणइ तुमं गलरघमघमीहूओ । न मुणसि अस्थि-अणत्थि न कुणसि घरचितणं किंपि ॥ ६ ॥ सो उण चितइ एवं सव्वो वि जणो इमो सकज्जत्थी । धम्मो च्चिय जीवाणं सरणं जोहारमित्तो व्व ॥७॥ अह अन्नदि सो जिणहरम्मि संपूईऊण जिणवसभं । साइसयगुरुसमीवे उवउत्तो मुणइ जिणवयणं ॥ ८॥ दण तस्स चेट्टं धम्मथिरत्तं जणाओ सौऊणं । सुगुरूहिं तयणु सेट्टी सायरमा भासिओ एवं || ९ || तुह सव्वा वि एवं धम्मखणो भद्द! निव्वहइ एसो ? । तो बंदिऊण भणियं आमं जिण गुरुपसायाओ || १०|| किंतु ममं परिवारो न सम्ममुज्जमइ धम्म कज्जम्मि । तो कमचि गुणं नाउं अइसयनाणाओ ते गुरुणा ॥ ११ ॥ मतं महापभावं कहिऊणं तस्स साहणोवायं । अन्नत्थ गया सो विहु सविलंबो सहिमणुपत्तो ॥ १२॥ भणिओ य कुटुंबे मिलिएहिं छुहाए अज्ज मरियव्वं । न कुणसि नियववसाय दंससु धम्मम्फलं किं पि ॥ १३ ॥ अवहेरिं काऊ थक्को तत्तो जहुत्तदिवसम्मि । सुइभूएणं मंतो पसाहिओ तयणु सिद्धो य ॥ १४ ॥ पत्तो य बंभसंती तम्स पभावेण भणइ बरसु वरं । तेणुत्तं तिक्कालं जिणवंदणय करेमि अहं ॥ १५ ॥ तो मह पूयापुच्चगजिणवं दणयस्स जं फलं होइ । एगम्मि दिणे विहियस्स संपयं पयडसु तमज्ज ॥ १६ ॥ भणियां च तेण महद्दिवेमाणियसंपयाफलं भणियं । एत्तियमेत्तस्स वि भावसार विहियम्स विहिपुत्रं ॥ १७॥ ता भद्दय ! वंतरजाइस्स महं एरिसा कुओ सत्ती ? । न हि गामसामियाओ लव्भइ मंडलियसामित्तं ॥ १८ ॥ नंदेणुत्तं देवस्स दंसणं तुज्झ सम्मदिट्टिस्स । संजाय मह जम्हा कयकिच्चो बोहिलाभेण ||१९|| तामे पओयणं नत्थि किं पि तं भद्द ! वयमु सट्टाणं । कज्जम्मि समुप्पन्ने सुमरिस्समहं कुण समाहिं ||||२०|| भणियं च तेण भवदुग्गयत्तहरणम्मि पडुपयावम्स | सम्म सणरयणस्स संभवे सव्वमवि जायं ||२१|| तहविहु भवओ दुक्कुहकुटुंबजिणधम्मथिज्जजणणत्थं । मह स कल्लाणभाइणो तं करेयवं ||२२|| चउको तुह मंदिरस्स चिट्टति घणनिहाणा । गिण्हसु एवं भणिउ देवो अहंसणीहूओ ||२३|| तत्तो सोहण दिवसे निहाणमेगं खणित्तु संगहियौं । जोयंति जाव पेच्छंति ताव मणि - कणयपडिनं ||२४|| तल्लाभाओ पुणरवि य पूयणिज्जो जणम्मि संजाओ । अत्थम्स निग्गुणस्स वि जमेरिसं पयडमाहप्पं ॥ २५॥ जिणधम्मपच्चयाओ तप्पभिई निच्चलाणि जायाणि । सम्मं कुणंति सव्वाणि तयणु जिणपूयणाईयां ||२६|| जिविंदणाओ लहिउं सुर-मणुयसंपयं विउलं । काउणं कम्मख्यं कमेण पत्ताइं सिवसोक्खं ॥ २७॥ ॥ इति नन्दाख्यानकं समाप्तम् ॥३४॥ जह एएसिं जिणबिंबवंदणं संपयावहं जायं । तह अन्नस्स वि भव्वम्स जायए ता तयं कुणह || १ || श्रेयःसमृद्धिमधिकं विदधाति शश्वत् स्वास्थ्य मनो नयति शुभ्रयशस्तनोति । स्वर्जेषमावहति मुक्तिमुखं विधत्ते, किं वा करोति न जनाः ! जिनवंदनं वः १ ॥२॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जिनवन्दनफलवर्णनो नाम नवमोऽधिकारः समाप्तः ॥ २ ॥ For Private Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०. साधुवन्दनफलवर्णनाधिकारः।] व्याख्यातो जिनवन्दनफलाधिकारः । साम्प्रतं वन्दितजिनेन सम्यग्दृशा गुरुभ्यो वन्दनकं दातव्यमित्यनेन सम्बन्धेन सम्बन्धितं गुरुवन्दनकं व्याख्यातुकाम आह जो वंदणयं सम्म साहूणं देइ सीलकलियाणं । सो लहइ सग्ग-मोक्खे हरि व्व दुक्खक्खयं कुणइ ॥१५॥ व्याख्या-'यः' भव्यः 'वन्दनक' कृतिकर्म 'सम्यग' भावसारं 'साधुभ्यः' गुरुभ्यः 'ददाति' वितरति 'शीलकलितेभ्यः' चारित्रयुक्तेभ्यः सः 'लभते' प्राप्नोति 'स्वर्ग-मोक्षी' सुरसदम-मुक्ती । किंवद ? इत्याह-'हरिवत्' वासुदेव इव । दुःखक्षयं च चम्य गम्यमानत्वात् 'करोति' विधत्त इत्यक्षरार्थः ॥१५॥ भावार्थस्त्वाख्यानकादवसेयः । तच्चेदम्-- अस्थि समत्थच्छरयपेच्छयजणजणियनयण-मणतोसा । सुरपुरिसमाणविहवा सुत्थियपउरा सुहनिवासा ॥१॥ पेरंतपरमपरिहा मुवन्नमयतुंगपवरपायारा । देवउलसिहरधुव्वंतधयवडा धबलपासाया ॥२॥ धणएण विणम्मविया बारवई पुरवरी सिरीभवणं । बारसजोयणदीहा नववित्थिन्ना सया थिमिया ॥३॥ तं पालइ पयडपयावपत्तमाहप्पपहयपडिवक्लो । ससि-सेसजससयन्नो जयसिरिनाहो निवो कण्हो ॥४॥ अह अन्नया य देविंदविंदवंदिज्जमाणचरणजुओ। सयमेव समयविहिणा समोसढो रिट्टनेमिजिणो ॥५॥ तो रभसपहरिमुन्भिज्जमाणरोमंचकंचुइयकाओ। तित्थयरवंदणत्थं विणिग्गओ कण्हनरनाहो ॥६॥ कापयाहिणतिगं विहिसारं वंदिऊण भयवंतं । पंजलिउडो पहिट्टो सट्टाणम्मि समुवचिट्टो ॥७॥ एत्थंतरम्मि नेमी जलहरगंभीरमहुरवाणीए । सुर-असुर-नर-सभाए धम्म कहि समाढत्तो ॥८॥ भो भव्या ! जइधम्म काउमसत्ताण मोहवसयाण | पाएण गिहत्थाणं जिण-गुरुभत्तीपरो धम्मो ॥९॥ जिणपृया मुणिदाणं एत्तियमेत्तं गिहीण सच्चरियं । जइ एयाओ भट्ठो ता भट्टो सव्वकज्जाओ ॥१०॥ तहा देवगुरूणं भत्ती इहेव वारेइ सयलदुरियाई । परलोए य नरा-ऽमरसुहाई संपाडइ जियाण ॥११॥ एत्थंतरम्मि कण्हेण पुच्छियं केरिसा सुगरुभत्ती? किं वा वि हु तीए फलं ? अणुग्गहत्थं कहह भयवं! ॥१२॥ भयवया भणियं बहुमाणो वंदणयं निवेयणा पालणा य वक्कम्स । उवगरणदाणमेव य गुरुभत्ती एस विन्नेया ॥१३॥ विसेसओ वंदणयफलं विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुयणस्स । तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया ॥१४॥ तहा खबई नीयागोयं उच्चागोयं च बंधए कम्मं । साहगं निव्वत्तइ आणासारं जणपियत्तं ॥१५॥ जइ एवं ता भयवं अहमवि एयाण तुम्ह सीसाण । समियाण खंतिमंताण सोलवंताण साहूणं ॥१६॥ अट्ठारसण्ह सहसाण दुसहतव-चरणखवियदेहाणं । कम्मविणिज्जरणकए वंदणयं देमि मुणिनाह ! ॥१७॥ इय भणिऊणं कन्हो काउमहाजायरूवमुवउत्तो । पडिलेहिय मुहपोत्ति समं तया सव्वराईहिं ॥१८॥ आवत्तसार-सरसार-भावसारं च दाउमारद्धो । राईणं पुण कोइ वि कहिं पि थक्को अदिन्ने वि ॥१९॥ जा वीरयसहिएणं सव्वे वि हु वंदिया नरिंदेणं । निव्वाहियसपइन्नो समागओ जिणसयासम्मि ॥२०॥ कोत्थुहकिरणकरंबियकज्जलकाओ गलंतसेयजलो । विप्फुरियसवणु-विज्जुपुंजजुयअहिणवघणो व्व ॥२१॥ १.०णम्मि - खं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आख्यानकमणिकोशे ठाऊ जिणपुरओ विरइयकरकमलकोरओ कण्हो । नमिणं नेमिजिणं हिट्टमणो भणिउमादत्तो ॥ २२॥ भयचं ! भिड़ंत भडकोडियट्टसंभिडणसंकडे सामि ! | एरिसपरिस्समो मे संगामे वि हु न संजाओ || २३॥ जारिसओ भत्तिवमुल्लसंतरोमंचकंचुइयतणुणो । मुणिपयपंकयवंदणय दाणकज्जुज्ञ्जय मणस्स ||२४|| भइ जिणो अज्ज तए चारितमहानिवम्स पञ्चक्खं । एवं जुज्झतेणं बहू जियं मुहड ! किंबहुना ? ||२५|| जेणए मह समणा चारितमहानिवस्स मणदइया । आराहयंति जमिमे अपमत्ता निच्चमेवमिमं ||२६|| ता एएस चंद्रणयदा करणेण रंजिओ एसो । अणुकुलो संजाओ भद्द ! तुमं पड़ विसेसेण ||२७| एए य सत्त सुडा सुयण ! महामोहरायसेन्नस्स । धणियं पहाणभूयाः पच्चक्खं पेच्छ तुह पुओं ॥२८॥ एएहिं विणा एसो मुण मोहनराहियो अकिंचिकरो । उद्धियदादोऽसमविसहरो व्व नणु सिंदुरीभूओ ॥ २९ ॥ तुम पयत्तवसओ वंदणयपयाससमरसंरंभो । वीरियखम्गलयाए हणिऊणं पाविया निहणं ||३०|| एएहिं तुज्झ च उगइसरूवसंसार गुविलकंतारे । पडियम्स सया वि चरित्तरायसेन्नाओ भट्टम्स ॥ ३१ ॥ जीवम्स तत्तरूवं जमिमं पावेहिमावरियमासी । संपइ पयडीभूयं खाइगसम्मत्तवररयणं ||३२|| तं तुह निम्मलमणभवणसंटियं दिप्पए पईवो व्व । करयलचडिया वियडा कल्लाणपरंपरा वि सुहा ||३३|| जं भणियमिमं तं तुममणुभवसि ? न व ? त्ति ताविमं कहसु । तेणुत्तं साहिज्ज सुरलोओ न हु सुरिंदम्स ||३४|| अहमणुभवामि भयवं ! तुमए जं पुच्छियं निरवसेसं । कोहहुयाससमाणो सीईओ महं अप्पा ||३५|| तणुईभूओ माणो मणयं माया पसन्निया जाया । लोभसमुद्दो वि थिरो थिमियतरंगोवमो जाओ || ३६॥ अहुणा तुम्हाणुवरिं भत्ती बिहु दद्वयरा मणोभवणे । जीवाइपयत्थेनुं विभिया तत्तबुद्धा वि ||३७|| अणुभवसिद्धं भयवं ! जं तुम्भे भणह विभमो नत्थि । पडिणिहियममयकुंडे सुक्खं लक्खेमि अप्पाणं ॥ ३८ ॥ भणियं च भयवया - 1 एयं पि गुहडसत्तगनिम्मूलम्मूलणेक्कपभवस्स । विलसियमसमं मुण तस्स चेत्र सम्मत्तरयणम्स ||३९|| एसो सुहपरिणामो न केवलं तुज्झ किंतु सव्वेसिं । जीवाणमिहं भडसत्तगेण पावेण आवरिओ ||४०| किं बहुना ? मोहनराहिवम्स सत्तगमिणं विसेसेणं । सेन्नम्स असंखम्स वि मज्झेऽसज्यं ववइति ॥ ४१ ॥ अन्नं च जणे जा का विपाविया गिज्जए तई पयडा । दंसगतिगनिम्माया सा एसा मुणसु न हु अन्ना ||४२|| चउरो पढमकसाया पेच्छसु कुलफंसणा महापाचा । एयाए मिलिऊणं जगदंति जयं असेसं पि ॥ ४३ ॥ एए य कम्मपरिणामरायजाया सहोयरा नेया । सवे वि असुहपरिणइसमुब्भवा सोलस कसाया ||४४ || किंचिमुहे मोत्तूणं सबंधुणो पाचियाए एयाए । मिलिया तईए पायं समाणसीले मुहिभावो ||४५|| एयाण तर सद्धि अट्टिाणं भडाण भंडणए । पडियाणमसेसं पि हु खलभलियं मोहरायबलं ॥ ४६ ॥ पलवइ मोहनरिंदो रुवंति रागाइणो सुहडसत्था । कुम्सुइ - कुबुद्धि- कुमईससाओ सोयंति साममुहा ||४७|| साहारणम्सरूवा सत्तण्ह वि पणइणी विसालच्छी । एसा अतत्तबुद्धी वि कण्ह ! रंडत्तणं पत्ता ||४८॥ घुसिणवित्ति नवरंग निवसणा गलविलंबियपसूणा । नज्जइ बोलणंकज्जे जलासए पेच्छसु वराई ॥ ४९ ॥ तुज्झऽज्ञ कण्ह ! कल्लाणसंपया सुत्थिओ चरित्तनिवो । दुहियं च मोहसेन्नं अहो ! विचित्तं भवसरूवं ॥ ५० ॥ एयम्स सरुवमिणं जो हणइ इमं सुहं पि तस्सेव । जीवाण जए जम्हा पत्तेयं पुन्न - पावाई ॥ ५१ ॥ ताविणास अवरेण वि सव्वहेव जयव्वं । चिढवियमेववभुंज अनेणऽन्नो न उण इह ॥ ५२॥ अवरं च अज्ज तुमए आसि महारंभसंचियं कम्मं । सत्तममहीए जोगं तं तइयाए समाणीयं ॥ ५३॥ " एयं निसामिणं भयभीओ केसवो भणइ भयवं ! | तुम्भेहि सामिएहिं अज्ज वि मह कहमकल्लाणं ? ॥ ५४ ॥ चिंतामणिम्मि पत्ते दारिद्दपराभवो जड़ जियाणं । उइयम्मि वि दियनाहे जड़ तमपसरो परिप्फुरद्द || ५५ ॥ १. पडियमम्मयकुंडे - खं० रं० । २. दिणनाहे - रं० । For Private Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. सामायिकफलवर्णनाधिकारे संप्रतिराजाख्यानकम् १२३ ता सामि ! कहिं गम्मत ? पविसिचर कम्स सरणमम्हेहिं ? | तो भणइ जिणो केसव ! अबम्समवि वेयणिजमिमं ॥५६॥ पुणरवि पावखयत्थं वंदणयं दसि तं पि न हु सम्मं नो सम्म मणुट्टाणं जं न कुगइ कम्मनिज्जरणं ॥५७|| एवं निवारिओ जा मणयं वेलक्खमागओ कण्हो । ता पुणरवि पडिभणिओ मा तम्मसु भद्द ! तुममेवं ॥५॥ जम्हा अहमिव तुममवि वरकेवलनाण-दसणपईवो । भुवणम्स पूयणिजो पसंसणिज्जो य भरहम्मि ॥५९॥ तेरसमो तित्थयरो होहिसि तं मुणिसहस्सपरियरिओ । ता एरिसकल्लाणे कह संपइ खेयमुब्वहसि ? ॥६॥ इय एवं जयपहुणा सायरमाभासिओ जिणं नमिडं। कण्हो मुत्तिसयण्हो नियनयरीण समणुपत्तो ॥६१॥ जह देहनिरावेवं दिन्नमणेणं तहाऽवरेणावि । दायव्वं वंदणयं सुगुरूण सुहऽस्थिणासम्मं ॥६२।। ॥ हर्याख्यानकं समाप्तम् ॥३५॥ इत्थं यथा विधिविशुद्धममुप्य जातं सद्वन्दनं निरपहस्तितजन्मजातम् । जायेत भव्यभविनोऽप्यपरस्य तद्वत्, तम्माद ददश्वमनवद्यमिदं गुरुभ्यः ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे साधुवन्दनफलवर्णनो दशमोऽधिकारः समाप्तः ॥१०॥ [११. सामायिकफलवर्णनाधिकारः] व्याख्यातः साधुवन्दनकाधिकारः । साम्प्रतं दत्तवन्दनकेन सामायिकं प्रतिपत्तव्यम् । अतः सामायिकाधिकारं व्याचियासुराह अव्वत्तस्स वि सामाइयस्स नर-सुरसमिद्धिमाईयं । फलमउलं निहिं जह संपइणो नरिंदस्स ॥१६॥ व्याख्या- 'अव्यक्तस्य' सम्यक्त्वस्वरूपपरिज्ञानरहितम्य अपिशब्दात् तदितरस्य सामायिकम्य समभावलक्षणस्य नर-सुरसमृद्ध्यादिकं मकारस्यालाक्षणिकत्वात् मनुजा-ऽमरसम्पत्तिप्रभृतिक ‘फलं' कार्य 'निर्दिष्टं' कथितम् । यथा इति दृष्टान्तोपन्यासे । सम्प्रतिनामकस्य 'नरेन्द्रस्य' राज्ञः इत्यक्षरार्थः ॥१६॥ भावार्थम्त्वाख्यानकादवसेयः । तच्चेदम् वच्छाजणवयभालयलसरससिरिखंडपट्टियासरिसा । अस्थि पुरी कोसंबी सियकित्ती सुइसमायारा ॥२॥ सत्तरिसिसमद्धासियमणेगरिसिसयसमस्सिया संती । जा तज्जइ गयणयलं करंगुलीसरिसधयमिसओ ॥२॥ तीए गणाहिवइणो सिरिअज्जसुहत्थिनामगा गुरुणो । कइया वि मासकप्पेण विहरमाणा समणुपत्ता ॥३॥ मुत्त-ऽत्थपोरुसीकरणपुव्वमह पत्तभिक्खपत्थावो । ईसरगिहम्मि कम्मि वि सुसाहुसंघाडगो तेसि ॥४॥ भिक्खट्टमणुपविट्ठो दुभिक्खे महइ वट्टमाणम्मि । अत्ताणं अत्ताणं सकयत्थं मन्नमाणेण ॥५॥ अब्भुट्टाणपुरस्सरमह मड्डाए वि तेण धणवइणा । विहियं पत्तयभरणं भत्तीए भत्त-पाणस्य ॥६॥ दिटुं च तमेगेणं भिक्खयरेणं तहिं पविट्टेणं । चिंतियमिमिणा पुन्नाणमंतरं पेच्छ पाणीणं ॥७॥ एए वि हु भिक्खयरा अहमवि भिक्खायरो परमहन्नो । अक्कोसिज्जामि परं भिक्खाकवलं पि न लहामि ||८|| एए उ भत्तिपुच्वं पडिलाभिज्जंति भक्ख-भोज्जेहिं । ता नूणमत्थि धम्मो न विब्भमो एत्थ वत्थुम्मि ॥९॥ ता मग्गामि इमे हं दाहिति दयावरा इमे मज्झ | भयवं! तुभ सव्वत्थ लहह ता देह मह कि पि ॥१०॥ तो मुणिवरेहिं भणियं भो भद्द ! न अम्ह संतियं भत्तं । एयं खु अम्ह पहुणो लहंति जमुवस्सए वि ठिया ॥११॥ १. देवि तं - खं० २० । २. सो सम्म - खं० २० । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आख्यानकमणिकोशे तो तम्स सुकयकम्मोदएण जाया इमा मणे चिंता । गच्छामि ताण पासे नूणं दाहिति ते गरुया ।।१२।। साहूहि समं पत्तो किमेस ? गुरुणा पयंपिए तेहिं । कहिओ से वुत्तंतो सुओवउत्तो गुरू भणइ ॥१३॥ भो ! एस उन्नइकरो होही जिणसासणम्स तेहुत्तं । तुन्भे जाणह न वयं वियाणिमो कुणह जं जोग्गं ॥१४॥ दाऊण तस्स कन्ने सामाइयमुत्तमेत्तमव्वत्तं । भोयाविओ जहिच्छं मणुन्नमइसरसमाहारं ॥१५|| अणुचियभायणवसओ संजायविसूइओ तओ संतो । सामइयपरिणईए पाइलिपुत्तम्मि नयरम्मि ॥१६॥ सिरिचंदगुत्तरन्नो पुत्तो सिरिबिंदुसारनग्नाहो । तस्स वि य असोयसिरी कुमरो तम्सावि य कुणालो ॥१७॥ सो मयमायत्तणओ रन्नो अइवल्लहो सवक्भिया । उज्जेणीनयरीए कुमारभुत्तीए परिचसइ ॥१८॥ पइदिवसमसोयसिरी लेहं पेसइ सहत्थलिहियं से । मह आएसा कुमरो अहिजऊ इय लिहेऊणं ॥१९॥ अह अन्नया य लेहो लिहिउं मुक्को निवेण एमेव । दिन्नो सवक्कि मायाप बिन्दुओऽयारवन्नसिर ॥२०॥ मुक्को लेहो परिवाइयवओ न सरिया इमा नीई । संवत्तिऊण रन्ना तहेव संपेसिओ तत्थ ॥२१॥ जा वाइऊण तं अक्खवडलिओ मुयइ नो करग्गाओ। घेत्तबला वि कुमरेण वाइओ मुणिय परमत्थं ॥२२॥ परिभावइ थिरसत्तो मोरियवंमुभवाणमम्हाण । न य केणइ गुरुआणा विलंघिया पुचपुरिसेणं ॥२३॥ तो साहसिक्करसिएण तेण कटुं कुणालकुमरेण | तत्तसलायाए नयणजुयलमंजियमयंडम्मि ॥२४॥ पच्छा नाऊणं माइविलसियं नियमणे विचितेइ । धिसि घिसि नारीण वि चेट्टियाणि कृराणि कुडिलाणि ॥२५॥ जइ हं असोगसिरिणा जाओ जइ को वि सच्चयं पुरिसो। ता तीए मुहे छारो दायव्वो किं वियप्पेण ? ॥२६॥ तत्तो य तस्स कुमरम्स पणइणी नामओ य सरयसिरी । कुसुमियसहयारतरुं सुमिणे दळूण पडिबुद्धा ॥२७॥ सो दमगजिओ मरिऊण पउरपुन्नप्पभावपरियरिओ। पुत्तत्तणेण तइया तीए गम्भम्मि संजाओ ॥२८॥ कालकमेण जाओ देवकुमारोवमो सुओ तीए । सो वि कुणालकुमारो गंधवकलाए अइनिउणो ।।२९।। निच्चं च गीयवसणी गायतो महियलं परिम्भमइ । पत्थावं नाऊणं पाडलिपुत्तम्मि संपत्तो ॥३०॥ हाहा-हूहू-तुंबुरुकंठो कहिओ निवस्स मंतोहिं । देव ! कुओ वि हु पत्तो अप्पुब्बो गायणो को वि ॥३१॥ नवरं नयणविहीणो एवं रन्नो निवेइए भणियं । आगच्छउ को दोसो ? गायउ मह जबणियंतरिओ ॥३२॥ तत्तो य तेण सर-गाम-मुच्छणासरसमहुरगीएणं । हयहियओ भणइ निवो वरसु वरं तेण तो भणियं ॥३३॥ चंदगुत्तपपुत्तो [य] बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागणिं ॥३४॥ तत्तो य सुयं नाउं झड त्ति नियजवणियं तमवणेउं । आगच्छ वच्छ ! वल्लह ! आरोहयु मज्झ उच्छंगे ॥३५॥ तत्तो य मन्नुवससंपयट्टनयणंसुसलिलधाराहिं । सिंचंतो नियतणयं सगग्गयं भणिउमाढत्तो ॥३६॥ कि वच्छ ! विहिवसेणं एयमवत्थंतरं तुमं पत्तो ? | तेणुत्तं ताय ! पयप्पसायओ नत्थि मह खूणं ॥३७॥ किंतु मह गीयवसणं तो एवं परिभमामि धरणियले । ता किं पसायदाणं थोवमिणं मम्गियं ? कहसु ॥३८|| जावेवं वुत्तो वि हुन जंपए ताव वजरइ मंती । कागिणिसद्देणं रज्जमाहियं देव ! निवईणं ॥३९।। को अन्नो वच्छ ! तुमं मोतुं रजस्स होज मह जोगो ? । जइ तुह नयणविणासो न होज्ज एसो विणा कजं ॥४०॥ ते तं मज्झ सुओ काही रज्जं ति तो निवेणुत्तं । तुह वच्छ ! कया पुत्तो ? सो जंपइ संपइ नरिंद ! ॥४१॥ तुह सुण्हा सरयसिरी ताय ! पसूया सूयं जयंतसमं । काउं पसायमसमं ता दिजउ तम्स रज्जमिमं ॥४२॥ साणंदं भूवइणा भणियं सिग्धं समेउ मह पासे । अहिसिंचामि सहत्थेण जेण रज्जम्मि तुह तणयं ॥४३॥ आणाविऊण सिग्धं सुर वर कुमरोवमं सुयस्स सुयं । सिंहासणे निवेसिय कओऽभिसेओ पुरसमक्खं ॥४४॥ सहरिसमसोयसिरिणा कओ पणामो महायणेण समं । भणियं निवेण एसो संपइ तुम्हाण होउ पह ॥४५॥ जणयमुहनिग्गयं जं संपइ नामं ति होउ एयस्स । तं चेव तस्स सिद्धिं गयं पियामहकयं नाम ॥४६॥ सो वद्धिउमारझोसद्धिं रिद्धीए बुद्धिविहवेणं । रूवेण पयावेणं कलाकलावणमसमेण ॥४७॥ अह अन्नया कयाई संपइरन्ना गएणमुज्जेणिं । दिट्ठा अज्जमुहत्थी विहरंता तत्थ संपत्ता ॥४॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. सामायिक फलवर्णनाधिकारे संप्रतिराजाख्यानकम् एए नेहं कत्थ एणुभूयपुत्र्वा सुसाहुणो एए । इय चिंतंतम्स मण जायं जाईसरणमेवं ॥ ४९ ॥ मह गुरुणो परोचयारी महाणुभावा य । जेसि पसाएण अहं संपइ संपइनिवो जाओ ||५० ॥ तो हरिसवसविसांतच हलरोमंचकंचुइयगत्तो । गंतुं तेसिमुवम्सयमभिवंदिय भणिमात्तो ॥ ५१ ॥ भयवं ! तुभे जाणह मं नियसीसं ? तुहृप्पसाएणं । सो तारिसओ होउं संपइ एयारिसो जाओ ॥५२॥ दाउ सुवओगं भणियं सम्मं तुमं वियाणामो । कोसंबीए महायस ! खणमेगमहेसि मह सीसो ॥ ५२ ॥ जय सन्नादिवायर ! परोवयारेक्करसिय ! गुणभवण ! करुणारसरयणायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ ५४ ॥ दारिद्दसमुह पतजंतु नित्थरणजाणवत्ताण । करुणारसरयणायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ ५५ ॥ सम्गा ऽपवग्ग संसग्गकारयाणं महाणुभावाणं । करुणारसरयणायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ ५६ ॥ चक्कं कुस धय-झस-कमल- कुलिससुपसत्थलक्खणधराण । करुणारसरयणायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ ५७ ॥ इय थोऊ नयणं सुपूरियच्छो पहूण नमिऊणं । धरणीयले निसन्नो धम्मं सोउं समादृत्तो ॥ ५८ ॥ भयवं ! किं धम्मफलं ? गुरुहिं भणियं जिणप्पणीयम्स । धम्मस्स फलमुयारं विसिसग्गोऽपवग्गो य ॥५९॥ सामइयं 'फल' " साहद्द सूरी सुए महाराय ! अव्वत्तस्स वि सामाइयस्स रज्जाइ फलमडलं ॥ ६० ॥ ता दिट्टपच्चओ सो भइ निवो सामि ! तुम्ह सीसो हं । पुत्र्वं पि अणुग्गहिओ संपयमवि मं अणुग्गहह ॥ ६१ ॥ तो भणियं मुणिवणा जड़ सत्ती राय ! ता पवज्ज वयं । अहवा सावयधम्मं पत्रयणसारं समायरसु ॥ ६२ ॥ तो तेणमिमी धम्मो रंकेण व पाविडं निधाणं व । सावगधम्मो विहिणा गुरुवएसेण जह विहिओ ॥ ६३ ॥ जह कत्तं सुमरिय सत्तागारेसु दाचियं दाणं । जह जिणरहजत्ताओ अणारिए मुणिविहारो ॥ ६४॥ जह साहूणं वणियावणेसु असणाइदाणमाइट्टं । जह अज्जमुहत्थी वि हु कओ विसंभोइओ गुरुणा ॥ ६५ ॥ जह धम्मं काऊणं राया वैमाणिएस उववन्नो । अणुहविडं सुररिद्धिं चुओ जहा सुद्धसम्म ||६६ || धूण माणुसत्तं कम्मं खविऊण पाविही मोक्खं । सव्वं सवित्रेणं तहा निसीहाओ विन्नेयं ॥६७॥ एए अवत्तसामइएण वि महाफलं रज्जं । पत्तं जो पुण विहिणा कुणइ इमं तस्स परमपयं ॥ ६८ ॥ ॥ सम्प्रतिराजाख्यानकं समाप्तम् ॥३६॥ निर्यातपापमनवद्यकृतिप्रधानं शश्वत्स्वभावसमभावितशत्रु-मित्रम् | सामायिकं तृण-मणीसमभावमेवं सम्यक् समाचरत सर्वविदा प्रणीतम् ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे सामायिकफलवर्णन एकादशोऽधिकारः समाप्तः ॥११॥ [ १२. जिनागमश्रवणफलाधिकारः ] व्याख्यातः सफलप्रपञ्चनः सामायिकाधिकारः । साम्प्रतं कृतसामायिकेन सदागमश्रवणं विधेयमित्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातमागमश्रवणफलं व्याख्यातुकाम आह १२५ आगमवणं निसुर्य थेवं पि महोवयारयं होइ | नायं चिलाइ तो तह रोहिणओ य नायव्वो ॥१७॥ व्याख्या -- 'आगमवचनं' सिद्धान्तवाक्यं निश्रुतं नितरामाकर्णितं 'स्तोकमपि' स्वल्पमपि 'महोपकारक' बृहद्गुणं 'भवति' जायते । 'ज्ञातं ' दृष्टान्तः 'चिलातीपुत्रः ' धनदासीपुत्रः ' तथा ' तेनैव प्रकारेण 'रौहिणेयकश्च' रौहिणेयकाभिधानश्चौरः 'ज्ञातव्यः' बोद्धव्य इत्यक्षरार्थः ||१७|| भावार्थत्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चामू । For Private Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आख्यानकमणिकोशे नत्र तावत् चिलातीपुत्राख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम इह कम्मि वि सुहवासे तहाविहे वसइ सन्निवसम्मि । सुय-जाइम उम्मत्तो नामेणं जन्नदिन्नदिओ ॥१॥ सो नाणलबुम्मत्तो निंदा पासंडिप हसइ देवं । पडिजाणाइ पमाणं वे उत्तमपोरिसेयत्ता ॥२॥ परिसा हि रायवसया वयंति विवरीयमेव जं कि पि । इय सो मयावलेवा खायइ दप्पेणमंगाई ॥३॥ अह अन्नया तहाविहथेराण समीववासिणा निसुयं । एयं खुड्डयमुणिणा तेणुत्तं भद्द ! मा भणम् ||४|| न य बयणमेत्तओ चिय जायइ साहुत्तणं विवेईणं । तम्हा जंपसु सद्धि ताव मए कि वियप्पेण ? ||५|| तेणुतं पणपुव्वं जंपामि स करिसो ? दिएणुत्तं । जइ हं जिणामि ता तं करेमि बडुयं नियविणेयं ॥६॥ अह नो ता तुह सीसो भवामि इय सविखणो मुणावेउं । भणियं मुणिणा न घडइ वयणं जम्हा विरुद्धमिमं ॥७॥ जह वयणमेस धम्मी तुह ता भण कहमपोरिसेयं तं । अत्थं च अत्तणो कह तं कहिही निययमिइ कहनु ॥८॥ अह अन्नो तं कहिही सो नणु रागाइसंगओ संतो। विवरीयं पि हु भणिही ता कह जुत्तीए तं घडड ? ॥९॥ इच्चाइजुत्तिसंगयपमाणवयहिं सो कओ तइया । निप्पिट्टपण्ह-वागरणवयणओ सब्भपञ्चक्खं ॥१०॥ पव्वाविओ य तेणं सुसाहुसंगाओ परिणओ धम्मो । नवरं मणयं न मुयइ मणम्मि सो जाइमयमेतं ॥११॥ अह माहणीए नियपणइणीए पावाए मोहवसयाए । दिन्नो जोगो भत्तम्मि तेण मरिडं सुरो जाओ ॥१२॥ सा वि हु निव्वेएणं गुरुण कहिऊण निययवुत्तंतं । पव्वजं काऊणं देवी मायाइ संजाया ॥१३॥ तत्तो सग्गाओ चुओ रायगिहे जाइमयकुदोसेणं । धणइन्भदासचेडीए सो चिलाए सुओ जाओ ॥१४॥ जाओ य अटवरिसो सा वि हु चविऊण देवलोयाओ । पंचसुओबरि जाया धणधूया मुंसमा नाम ॥१५॥ सो तीए बालगाही पुत्वभवव्भासओ अणालिपिओ । निद्धाडिओ धणेणं तद्दोसेणं नियगिहाओ॥१६॥ जाओ पल्लीवइणो पुत्तो पल्लीवयम्मि य मयम्मि । सो चेव य तम्स पएं चोरेहिं निवेसिओ तेहिं ॥१७॥ अमरिसवसओ तेणं भणिया ते अन्नया निययचोरा । रयणाई दविणजायं तुम्हें मह सूसमा कन्ना ॥१८॥ जामो धणम्स गेहं अहं वियाणामि गेहमम्मं से । इय मंतिऊण चोरा पडिया धाडीए धणगेहे ॥१९॥ तत्तो य चोरवइणा चिलाइपुत्तेण हक्किओ सेट्ठी । भणसि न भणियं संपइ होयु मणूसो मुसामि अहं ॥२०॥ तत्तो य रित्था ....... गुणरयणखाणि च सुंसुमं घेत्त । सक्खं पेच्छंतस्स वि चिलाइपुत्तो विणिक्खंतो॥२१॥ रायाणं आपुच्छिय पभायसमए निरूविया कुढिया । रयणाइयं मुयाविय बलिया कुढिया गया चोरा ॥२२॥ सुयपंचगेण लम्गो पट्टीए धणो पलाइया चोरा । निव्वाहिउमचयंतो तं कन्नं सो चिलाइसुओ ॥२३।। मूढो सीसं छेत्तं तीए मुहं पत्थिओ पलोयतो । ते वि हु विलक्खचित्ता लग्गा तं सोइ बालं ॥२४॥ हा मयणघरिणितुल्ले ! लायन्नामयललामजलकुल्ले ! हा सोहग्गविनियगिरिदुहिए ! हा सयामुहिए ! ॥२५॥ जाव न विदलइ हिययं अम्हाणं तुह गुणे सरंताणं । इंदीवरदलनयणे ! ता वच्छे ! पयड नियवयणं ॥२६॥ ताव परिसुसियकंठा मरणावत्थं गया छुहाभिया । जणएणुत्ता दुहियं मं खाउं तरह वसणमिमं ॥२७॥ इय सेसेहिं वि भणियं कमेण नो मन्नियं इमं जाव । ता सुंसुमाए देहं अरत्त-दुट्टेहि नं भुत्तं ॥२८॥ एयुवमाए जईणं आहारो वन्निओ जिणिंदेहिं । नित्थरिउं ते वसणं पुणरवि सुहभायणं जाया ॥२९॥ सो विहु चिलाइपुत्तो पेच्छइ झाणट्टियं मुणिं एगं । भो ! मज्झ धम्ममक्खसि जइ णो तुज्झ वि लुणामि सिरं ॥३०॥ उवसम-विवेग-संवरपएहिं तिहिमक्खिओ समासेण । जा सो तहेव गच्छइ तो चिंति उमेवमारद्धो ॥३१॥ एसो महाणुभावो धम्मज्झाणढिओ मए विग्धं । काउं पुट्ठो धम्मं ता धम्मपयाण को अत्थो ? ॥३२॥ तत्थोवसमो कोहम्स निम्गहो सो कहं नु कुद्धम्स ? । मह संजायइ तम्हा चत्तो सब्चो मए कोहो ॥३३॥ बीयं तु विवेगपयं तं पुण धण-सयण-जीवभेयत्थं । तो तं परिभावितो स महप्पा मुयइ खग्गसिरे ॥३४॥ १. निच्छरियं-रं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ १२. जिनागमश्रवणफलाधिकार रौहिणेयकास्यानकम् जाव णमेयइ वेयइ एस जिओ ताव बंधओ भणिओ। तो संवरपयबुद्धो काउम्सग्गे ठिओ भयवं ॥३५॥ तो रुहिरगंधसंपत्तवज्जतुंडप्पिपीलियाहिं सो । खजंतो सुपसंतो थिरचित्तो चालणि व्व कओ ॥३६॥ भणियं च जो तिहिं परहि धम्म समभिगओ संजमं समभिरुढो । उवसम-विवेग-संवर चिलाइपुत्तं नमसामि ॥३७|| अहिसरिया पाएहिं सोणियगंधेण जम्स कीडीओ । खायंति उत्तमंगं तं दुक्करकारयं वंद ॥३८॥ धीरो चिलाइपुत्तो मुयंगलीयाहिं चालणि व्व कओ। जो तह वि खत्रमाणो पडिवन्नो उत्तमं अर्द्धं ॥३९॥ अड्डाइजेहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुत्तेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥४०॥ आगमवयणं सोच्चा जह संबुद्धो इमो महासत्तो। तह अन्नो वि हु बुज्झइ तो सोयव्वं सया वि इमं ॥४१॥ ॥ चिलातीपुत्राख्यानकं समाप्तम् ।।३७॥ अधुना रौहिणेयकाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् सिरिरायगिहे रिउकरिवियारणो सेणिओ नरवरिंदो । बंधुरबुद्धिसमिद्धो अभयकुमारो सुओ तम्स ॥१॥ तत्थ य वेभारगिरिंदगुरुगुहारोहगूढकयवासो । लोहकरबुराभिहाणो निवसइ चोरो महाकूरो ॥२॥ अवहरिय धणं लोयाण मुत्त-मत्त-प्पमत्तचित्ताण । उच जइ परदारे भक्खइ मंसं महुँ पियइ ॥३॥ सोहाग-रुव-मुंदेरमंदिरं रोहिणी पिया तम्स । ताण युओ रोहिणओ गुणेहिं अहियं जणेरसमो ॥४॥ नियमरणकालसमए भणिओ लोहक्खुरेण सो एवं । जंपेमि किंचि' जइ कुणसि वुत्तयं जाय ! मज्झ तुमं ॥५॥ तो रोहिणओ पणमिय पयंपए भणमु ताय ! भणियव्वं । तेणुत्तं मिच्छाए बलियत्तं चोरियामम्मं ॥६॥ अवरं च एस सुरवरनमंसिओ जो जिणो महावीरो । वयणं पि तस्स मा सुणतु महसि जइ संपयं विउलं ॥७॥ एवमणुसासिऊणं पुत्तं पंचत्तमुवगओ चोरो । रोहिणओ वि हु सविसेसचोरियं कुणइ जणयाओ ॥८॥ अह अन्नया य भुवणत्तएण पणमिजमाणकमकमलो । गुणसिलयचेइयम्मी वीरजिणिदो समोसरिओ ॥९॥ रोहिणओ वि हु दटटण जिणवरं नियमणे वियप्पेड़ । जइ वीरजिणभासेण जामि ता होइ धम्मसुई ॥१०॥ जायइ जणयस्साऽऽणाभंगो मग्गो वि नत्थि पुण अवरो। ता एस वन्ध-दुत्तडिनाओ जाओ ममेयाणि ॥११॥ ता वच्चामि पिहेऊण कन्नजुयलं करंगुलिजुएण । इय चिंतिउं तहेव य काउं निच्चं पुरं वयइ ॥१२॥ अह अन्नया य वेगेण गच्छमाणम्स समवसरणंते । तम्स सुनिट टुरपयपडणभावओ कंटओ भग्गो ॥१३॥ तेणाणुद्धरिएणं न तरह गंतुं पयं पि रोहिणओ। अह उद्धरह तओ जिणवयणं सवणोयरं विसइ ॥१४|| जा एगसवणविवराओ अंगुलिं कडि तनुद्ध रइ । ता जिणवीरपरुवियसुरम्सरुवं सुयं तेण ॥१५॥ अणमिसनयणा मणकजसाणा पुप्फदामअमिलाणा । चउरंगुलेण भूमिं न छिवंति मुरा जिणा विति ॥१६॥ जिणभणियसुरसरूवं परिभावितो मणम्मि संचलिओ । मुसिऊण पुरं पुणरवि समागओ नियगुहागह ॥१७॥ एवं मुसिज्जमाणे नयरे अग्गेसरा नरा मिलिउं । पणमित्तु निवं आवद्ध करयला विन्नवंति इमं ॥१८॥ देव ! अणाहं व सया मुसिज्जए तुम्ह संतियं नयरं । ता तह करे जह सुत्थिया वयं तुह कमे नमिमी ॥१९॥ तं निमुणिऊण दट्ठोट्ट-भिउडिभासुरनिडालबट्टेण | आरक्खिओ सकोवेण राइणा जंपिओ एवं ॥२०॥ रे पाव : किं न नयरं पि रक्खिडं तरसि तक्करेहितो ? । एवं वुत्तो सो नरवरिंदमुल्लविउमारद्धो ॥२१॥ देव ! पयंडो चोरो निमुओ पुरजणपरंपराए मए । रोहिणओ नामेणं न उणो दिट्ठीए सच्चविओ ॥२२॥ तम्सावलोयणत्थं नियकरयलकलिय दीविओ देव ! नयरे परिन्भमंतो कत्थइ पेच्छामि अन्वत्तं ॥२३॥ जा तम्स धरणकज्जे सज्जीहया वयं पयट्टामो। मग्गेण ताव चोरो विज्जुक्वित्तेहिं करणेहिं ॥२४॥ १. किं पि जइ-२०। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आख्यानकमणिकोशे पासायाओ पासायमक्कमेउं तहेव पायारं । निउणं पेच्छंताण वि कत्थइ वच्चइ न याणामो ॥२५॥ ता कम्सइ आरक्खियपयं पयच्छंतु सामिणो एयं । तं नियुणिउं नरिंदो पलोयए अभयमंतिमुहं ॥२६॥ तेणुत्तं तग्गहण पउणीकाउं चउव्विहं पि बलं । जह तकरो न याणइ पुरे पइटे तओ तम्मि ॥२७॥ वेढेऊणं नयरं मझे हक्विजए तओ चोरो । निम्गच्छंतो बज्झइ एस मई ताव तम्गहणे ॥२८॥ तहविहिए आरक्खियभडेहिं पायारमकमंतो सो । बधु मऊरबंधेहिं घत्तिओ रायपयपुरऔ॥२९॥ तो कोवरत्तनेत्तेण भालतिवलीतरंगभीमेण । जा बज्झो आणत्तो सेणियराएण रोहिणओ ॥३०॥ तो विन्नत्तं अभएण नत्थि लोत्तं इमस्स पासम्मि । चोरो अलद्धलोत्तो जायइ राओ ब्व नरनाह ! ॥३१॥ ता देव ! परिविखज्जइ इय जंपिउमभयमंतिणा पुट्ठो। को सि तुमं कत्थऽच्छसि इय भणिए आह रोहिणिओ ॥३२॥ सालिग्गामे वत्थव्वगो अहं दुग्गचंडकोडंबी । निययपओयणकज्जे अज्जेव समागओ एत्थ ॥३३॥ पेच्छणयं पेच्छंतस्स मज्झ महई निसा गया देव ! । तो गच्छंतो गेहम्मि हक्किओ रायपुरिसेहिं ॥३४॥ तो तेहिं भेसिओ हं विजुक्खित्तेण जाव करणेण । पायारं अकंतो पत्तो ता तुज्झ पुरिसेहिं ॥३५॥ तव्वयणं सोऊणं पुच्छावियमभयमंतिणा गामे । जह दुग्गचंडनामो कोइ कुटुंवी वसइ इह ? ॥३६॥ अप्पायत्ता विहिया गामीणा रोहिणेण पुवं पि । जंपंनि अत्थि परमज्ज सो गओ कहिं वि कजेण ॥३७॥ तं सोउमभयमंती चिन्तह चोगे इमोऽहवा साह । नजइ नजइ कि पि हु कीरउ ता कोइ वि पबंधो ॥३८॥ इय चिंतिय कारविओ कणयमओऽभयकुमारसचिवेण । अमरविमाणसमाणो मणोहरो गरुयपासाओ ॥३९॥ चीणंसुय-पट्टेसुय-जद्दर-देवंग-देवदूसेहिं । कयउल्लोले वेल्लहळधयवडाडोयडंबरिओ॥४०॥ उल्लोयतलपलंबियमुत्ताहलहारदित्तिदिप्पंतो । तवणीयदप्पणावलिचामरनियरेहिं रेहंतो ॥४१॥ रणझणिरकणयकिंकिणिकलावमुहलिज्जमाणदिसिचक्को । कयपंचवन्नपुप्फोवहाररुणुझुणिरभमरउलो ॥४२॥ विदुम-मुत्ताहल-पउमराय-वजिदरायपमुहाहिं । विप्फुरियकिरणमालाहि रयणरासीहिं सोहंतो ॥४३॥ विलसंतसालिहंजियमणिघडियसुमत्तवारणाइन्नो । सव्वत्तो विणिवारियदिणयरकिरणावलीपसरो ॥४४॥ उब्बूढपढमजोव्वणपीवर-सुसिणिद्ध-सुघणसिहिणाहिं । वारविलयाहिं कलिओ तह नवजोव्वणजुवाणाहिं ॥४५|| मिउवेणु-वीण-मद्दलरवमीसियमंजुगेयसवणसुहो । किं बहुणा ? भुवणत्तयसंभविमुंदेरसोहन्तो ॥४६॥ तो रोहिणओ चंदप्पमं मुरं पाइऊण मयमत्तो । पडएण छाइउं तत्थ सोविओ रुइरपल्लंके ॥४७॥ तो मयनिद्दाविरमे अवणेउं पडयमुट्टए जाव । अभयाणुसासिओ तयणु उट्टिओ जुवइ-जुववम्गो ॥४८॥ जंपतो जय नंदा जय जय भद्दा पहू तमम्हाण । जाओ देवो अम्हे वि तुज्झ पुण किंकरा सव्वे ॥४९॥ एआओ अच्छराओ एए देवा इमं नियविमाणं । एयाओ रयणरासीओ सामि ! विलससु जहिच्छाए ॥५०॥ तो तेहिं तस्स पुरओ पारद्धं जाव परमपेच्छणयं । ता कंचणदंडकरेण जंपियं एवममरेण ॥५१॥ रे रे ! किं पारद्धं ? ते वि पयंपंति निययपहुपुरओ। विन्नाणदंसणं तयणु दंडहत्थेण पडिभणियं ॥५२॥ दंसिज्जउ विन्नाणं कारिजउ परमिमो सुरायारं । जंपति ते वि केरिसमायारं ? आह दंडकरो ॥५३।। रे ! विस्सरियं तुम्हं सुरलोए सुरवरो समुप्पन्नो । जं पुवभवोचजियमुक्कय-दुकयाई साहेइ ॥५४॥ तो उवभंज नियन्नपगरिसुन्भूयसम्गवाससुहं । सोऊण तयं ते बजरंति विम्हरियमम्हाणं ॥५५।। नियसामिसमुप्पत्तीए जायपरिओसपूरियंगाण । ता खैमउ एगमवराहमजमज्जो ! कयपसाओ ॥५६॥ रोहिणओ वि हु तमदिट्टपुचमच्छरमणुपलोयंतो । करकलियकणयदंडेण सविणयं तेण विन्नत्तो ॥५७|| पहुणो कयप्पसाया कहंतु नियसुकय-दुकयकम्माइं । जेण [ सु पुन्ना अमरा तं सोउं चिंतए चौरी ॥५८॥ किमहं जाओ अमरो ? जइ सच्चमिमं तओ कहिजंते । लवमेत्तो वि न दोसो अह अलियं ता महाणत्थो ॥५९॥ १.दनीलपमु०-२०। २. वीसरियं-रं। ३. खमसु एगमवराहमज्झमजो-२०। Jain Education Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जिनागमश्रवणफलाधिकारे रौहिणेयकास्यानकम् १२६ एवं विचिंतयंतस्स तस्स सिरिवीरनाहवजरियं । संभरियं अमरसरुववन्नणं तो विचिंतेइ ॥३०॥ जइ मिलिही जिणभणियं तओ कहिम्सामि इय विभावे । जाव पलोयइ निउणं ता नियइ न कि पि सुररुवं ॥६॥ नयणनिमेमुम्मेसे कुणंति फरिसंति तह महीवलयं । पगलंतसेयवारणकज्जे परिकलियवीयणया ॥६२॥ ता मज्झ जाणणकए होयत्वं अभयमंतिवुद्धीए । इय चिंतंतो पुणरवि य पुच्छिओ तेण सो कहइ ॥६३।। अहमासि सालिगामे 'कोडंबी दुम्गचंडयऽभिहाणो । पर्यईए महुरवाणी दयावरो दाणधम्मरओ॥६४॥ पररमणिविरत्तमणो सम्वेसि सुराण विहियबहुमाणो । विणयरओ सव्वेसि विसेसओ वयपवन्नाणं !॥६५॥ पाएण तुच्छविहवो सच्छासयसंगओ अपेसुन्नी । तेणुप्पन्नो अमरो पयंपए तयणु दंडधरो ॥६६॥ ता आयन्नियमेयं सुन्दरमिम्हि असुन्दरं कहसु । सो भणइ न किं पि कयं असोहणं करिसणं मोत्त ॥६७॥ तो तेहि तहा भणियं अभयकुमारम्स सबमक्खायं । तेणावि निवो भणिओ न सव्वहा एस चोरो त्ति ॥६॥ तो मुक्को कड्डे ऊण राइणा रोहिणो समोसरणे । वच्चइ परिभावंतो न सोहणं जणयसिक्खवणं ॥६९।। जइ न सुणंतो कंटयमवणितो भुवणसामिणो वयणं । तो हुँतो नरवइणा विणासिओ हं कुमरणेण ॥७॥ एक्कण वि पुण मुक्को जिणवयणेणं सुएण एमेव । ता सुदरं जिणेसरपयंपियं न उण जणयस्स ||७१।। एवं परिभावंतो जिणिंदचरणारविंदमल्लीणो । जिणचरणकमलमेलियभालयलो पणमिथुणइ ॥७२॥ जय करुणारसनिझरगिरिंद ! मुणिवंदवंदिय ! जिणिंद ! । दुव्वारमारवारणनिद्दारणदारुणमइंद ! ॥७३।। एमेव य तुह वयणं निसामियं सामिसाल ! सत्ताण । महईणं पि हु मझ व विवईण विणासणं कुणइ ।।७४॥ इय थोउं वीरजिणं सोउं सद्देसणं जिणाभिहियं । रोहिणणे पणमेउं कयंजली सविणयं भणइ ॥७५|| भयचं ! भवनिम्महणिं पव्वज्जमहं करेमि तुह पासे । परमस्थि किं पि सेणियनिवेण सह मज्झ वत्तव्वं ।।६।। अह सेणिओ पयंपइ पभणसु जं किं पि तुज्झ पडिहाइ । तो तेणुत्तं अहमेस तक्करो रोहिणो नाम ||७७॥ जेण अणाहं व पुरं मुसियं सव्वं पि तुज्झ नरनाह !। ता संपेससु अभयं जेण समप्पेमि धणजाय ||७|| तो कोउहलपरिवुडसपउररोहिणयसंजुओ अभओ। पत्तो वेभारगिरिं तत्थ धणं दंसियं तस्स ||७९ अवरं च सरिय-कंदर-मसाण-भूमीहराइठाणेसु । आभरण-रयणपभिइ समप्पिउं पुच्छिउं जणणिं ॥८॥ सुपसत्थतिहि-मुहुत्तम्मि सिबियमारुहिय विहियसिंगारो । अणुगम्मतो सेणियनिवेण तित्थं पभावंतो ।।८।। गंतूण समवसरणम्मि जिणवरं नमिय गहियपव्वज्जो । अहिगयसयलसुयत्थो तिव्वतवं काउमारद्धो ||८२।। कणगावलि-रयणावलि-छट्ट-ऽट्टम-दसम-मासखवणेहिं । नाणाविहेहिं दुच्चरतवेहिं परिसोसियसरीरो ॥८३।। सुक्को किडिकिडिभूओ जाओ पाओवगमणमरणेण । विष्फुरियगतदित्ती अमरो अमरालए रुइरो ।। ८४ ॥ तत्तो य चवेऊणं स पाविही सिवपुरि पहयकम्मो । ता सोयव्वं आगमवयणं जम्हा गुणो गरुओ।।५।। ॥ समाप्तं रौहिणेयकाख्यानकम् ॥३८॥ मोहं धियो हरति कापथमुच्छिनत्ति संवेगमुन्नमयति प्रशमं तनोति । सूतेऽनुरागमधिकं मुदमादधाति जैनं वचः श्रवणतः किमु यन्न धत्ते ? ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरि विरचित वृत्तावाख्यानकमणिकोशे जिनागमश्रवणगुणवर्णनो द्वादशोऽधिकारः समाप्तः ॥१२॥ १. कोडुंबियदुम्ग०-२०। Jain Education Interational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारः ।] व्यायातमागमश्रवणफलम् । साम्प्रतमागमश्रवणसामग्र्यभावे नमस्कारपरावर्तनं विधेयमित्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातं नमस्कारमाहात्म्यं प्रचिकटयिपु राह नवकारपभावेणं जीवा पावंति परमकल्लाणं । गो-पड्डय-फणि-मिठा सोमपह-सुदंसणा नायं ॥१७॥ व्याख्या--'नमस्कारप्रभावेण' पञ्चपरमप्ठिमन्त्रमाहात्म्यस्वरूपेण हेतुभूतेन ‘जीवाः' प्राणिनः प्राप्नुवन्ति' लभन्ते 'परमकल्याणं' प्रधानसुखम् । दृष्टान्तानाह-गौश्च-वृषभः पड्कश्च-सैरभेयः फणी च सर्पः मिण्ठश्च-हस्तिपकः गो-पडुक-फणिमिण्ठाः । तथा सोमप्रभश्च ब्राह्मणः सुदर्शनश्च-श्रेष्ठी सोमप्रभ-सुदर्शनौ च । चस्य गम्यमानत्वादित्यक्षरार्थः ।।१९।। भावार्थस्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । तत्र तावद् गोकथानकमाख्यायते । तच्चेदम् समस्ति स्वर्गसङ्काशरामणीयकभासिता । भासिता_लिहोदारदेवसद्मविराजिता ॥१॥ जितानुपमसौन्दर्यधामरम्यालकासमा । समानमानवावासदृश्यमानमहामहा ॥२॥ महत्त्वगुणविख्यातनिर्णतिगुणवैभवा । बै भवानीसमा कारवारयोषिल्लसज्जना ॥३॥ सज्जनानाविधाभ्यासपण्डिताभ्यस्तसत्कला । कलावित्सन्मनोहृद्या हृद्या क्षेमपुरी पुरी ॥४॥ तस्यामासीन्नयावासो नयाभिज्ञो नयप्रियः । नयदत्ताहयः श्रेष्ठी श्रेष्ठं कर्म समाश्रितः ।।५।। शील-सौन्दर्यसम्पन्ना दानानन्दितसज्जना । वसुनन्दाहया भार्या तस्यासीद वर्यवंशजा ॥६॥ स्वच्छाशयः सदाचारः सत्यवाक् शिष्टसम्मतः । धनदत्ताहयः पुत्रस्तयोर्जज्ञे जनप्रियः ।।७।। द्वितीयोऽपि मनाग मानी माननीयो मनस्विनाम् । बभूव वसुदत्ताहः सुतः स्वभ्रातृवत्सलः ॥८॥ अथ तत्रैव दुष्टात्मा दौर्जन्यप्रकृतिर्द्विजः । नानायज्ञावनिः पापात् पापमित्रमभूत् तयोः ॥९॥ तथाऽन्योऽपि नृणां मान्यो मानिनीनां मनोहरः । श्रेष्ठी समुद्रदत्ताहस्तत्राऽऽस्ते स्मयवर्जितः ॥१०॥ तस्य सौन्दर्य-लावण्यनिर्जितामरसुन्दरी । कन्यका गुणवत्यस्ति मन्दिरं यौवनश्रियः ॥११॥ तेन सा विधिवद् दत्ता धनदत्ताय धीमते । समक्षं सर्वलोकानां ललामरमया समम् ॥१२॥ तत्रैव श्रीपतित्वादिगुणैः श्रीकान्त इत्यदः । यथार्थतां नयन् नामापरोऽप्यस्ति वणिक्सुतः ॥१३॥ तेन सम्मान-दानादिगुणैरावर्जितो निजाम् । तां सुतां दत्तवांस्तस्मै विलोप्य वचनं स्वकम् ॥१४॥ विरूपं पश्य कीदृशं तादृशापि सता कृतम् । यदेकस्मै सुतां दत्त्वा तामन्यस्मै प्रदत्तवान् ॥१५॥ पुरतः शिष्टलोकानामात्मनो लाघवं कृतम् । प्रसिद्धव्यवहारश्च सतामेवं विलोपितः ॥१६॥ एतच्च तेन मित्रेण पिशुनत्वान्निवेदितम् । वसुदत्ताय यद्वा कः स्वभावं मोक्तुमीश्वरः ? ॥१७॥ उत्पासितश्च तेनासौ वचोभिः कोपदीपनैः । न युक्तो मानिनामेवं सोढुं शक्तौ पराभवः ॥१८॥ प्रकृत्या रोषणश्चैकं द्वितीयं तेन रोषितः । विरुद्धश्चिन्तयामास मानवान् मानसे निजे ॥१९॥ मा जीवद् यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवति । तस्याजननिरेवास्तु जननीक्लेशकारिणः ॥२०॥ आः ! पापेन विना कार्यमनार्येण दुरात्मना । प्रागप्यन्याय्यचर्येण पर्यणायि कथं छलात् ? ॥२१॥ भार्या भ्रातुर्ममानेन वैरिणेत्यतिरोषतः । गत्वा खड्गप्रहारेण प्रापितोऽसौ परासुताम् ॥२२॥ तेनाप्यसौ तथैवाऽऽशु मृत्युवक्त्रे प्रवेशितः । तावेचं कार्यतस्तस्य मृति प्राप्तौ परस्परम् ॥२३॥ सोऽयं वज्राग्निदाहस्य मुर्मुराग्निकणोपमः । राम-रावणयोराद्यः प्रारोहो वैरशाखिनः ॥२४॥ अथानेन प्रकारेण तयोर्मृत्युमुपेयुषोः । स्वपित्रा गुणवत्युक्ता विषादं पुत्रि ! मा गमः ॥२५॥ तत्रैव दूणां मान्य नामरसुन्दरा । सम Jain Education Interational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारे गोकथानकम् येनाधर्मफलं सर्वमेतदाख्यान्ति सूरयः । विशेषतः पुनः स्त्रीणां पापभावेन तद्यथा ॥२६॥ वैधव्यं बालभावेऽपि दीर्भाग्यं शीलखण्डनम् । अनाथत्वं च वैरूप्यं पैशुन्यं दुष्टभाषणम् ॥२७॥ ततः कुरुप्ब सद्धर्म मत्साहाय्येन निर्वृता । जन्मान्तरेऽपि येनैवं न भवेद् दुःखभाजनम् ॥२८॥ सा पुनः पापकर्मत्वाद् धर्म निन्दति पापिका । गुणिनां च गुणान् द्वेष्टि साधूंश्च हसति स्वयम् ॥२९|| ततोऽसौ संसृती प्रायः सञ्जाता दुःस्वभाजनम् । अयोग्यस्य गुणाधानं विधातुं कोऽथवा विभुः ? ॥३०॥ ततो वैधव्यदुःखेन मृताऽसौ स्वायुषः क्षये । कुरङ्गी समभूत् पापान्मृत्वा ती च कुरङ्गको ॥३१॥ सहैव जायते ताभ्यां कर्मवैचित्र्ययोगतः । वैरानुबन्धभावेन मृत्युभावं प्रपद्यते ॥३२॥ हरिण्या हारिणे भावे महिप्या माहिपे भवे । हस्तिन्या हास्तिके जन्मन्यन्योन्यं तो मृति गती ॥३३।। एवं वैरानुबन्धेन त्रयोदश भवानम् । तस्याः प्रयोजने रौद्रध्यानतो निधनं गतौ ॥३४॥ यथाऽनयोरियं जाता निमित्तं दुःखसन्ततेः । तथाऽन्यस्यापि नारीयं प्रायोऽनर्थपरम्परा ॥३५॥ यद्यप्यसौ क्वचिद गीता कारणं सुख-दुःखयोः । अतत्त्वदर्शिभिः कैश्चित् सामान्येनैव तद्यथा ॥३६॥ सत्यं जनाः! वच्मिन पक्षपातो, लोकेपु सप्तस्वपि तथ्यमेतत् । नान्यन्मनोहारि नितम्बिनीभ्यो दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः ।। तथापि वासनामात्रं सौख्यमस्यां न तत्त्वतः । बडिशामिषवत् तुच्छं ज्ञेयं पर्यन्तदारुणम् ॥३८॥ धनदत्तश्च भव्यत्वाद् दृष्ट्वा तच्चेष्टितं तयोः । वैराग्यान्निर्गतो गेहाद् भ्राम्यन् गामेकया दिशा ॥३९॥ पीडितः क्षुत्-पिपासाभ्यां प्राप्तो राजपुरं क्रमात् । विलोक्य व्रतिनः कांश्चित् तत्राऽऽचाररतान् निशि ॥४०॥ मुमुदे मानसेऽत्यन्तं तोषाच्च समचिन्तयत् । धन्याः सुलब्धजन्मानः पुण्यवन्तश्च केऽप्यमी ।।४।। अजानानस्तदाचारं ययाचे भोजनादिकम् । तैरूचे भद्र ! नास्माकं निःसङ्गत्वादुपाश्रये ॥४२॥ ध्रियते धान्य-पानादिवस्तु रात्री विशेषतः । तवापि पापहेतुत्वान्न युक्तं रात्रिभोजनम् ॥४३।। यत उक्तम् स कालः कश्चिदत्रास्ति यत्र नैवोपभुज्यते । हित्वाऽकालं ततः काले यो भुञ्जीत स धर्मवान् ॥४४॥ आयुर्वर्षशतं लोके तदर्ध स उपोषितः । करोति विरति धन्यो यः सदा निशिभोजने ॥४५।। घटिकाध घटीमात्र यो नरः कुरुते व्रतम् । स स्वर्गी किं पुनर्यस्य व्रतं यामचतुष्टयम् ।।४६।। जीवितं देहिनां यस्मादनेकापायसङ्कुलम् । कथञ्चिद् दैवयोगः स्यान्नक्तं सोऽनशनी भवेत् ॥४७|| श्रुत्वेदं भाषितं तेन धर्मः सर्वज्ञभाषितः । अणुव्रतादिकः सर्वो जगृहे जन्मिनां हितः ।।४८|| पालयित्वा स्वकं धर्म भावना-ऽभ्यासयोगतः । सम्यग्दर्शनसम्पन्नः सौधर्मेऽभूत् सुरोत्तमः ॥४९॥ पञ्चप्रकारमौदार्यसारं वैषयिकं सुखम् । सुरस्त्रीभिः समं तत्र भुक्त्वा द्वे सागरोपमे ॥५०॥ रत्नपुञ्जयुतैरट्टैर्जनैः सद्रत्नभूषणैः । यथार्थनामतां बिभ्रदासीद् रत्नपुरं पुरम् ॥५१॥ तत्राभूल्लोकमध्यस्थः प्रोत्तुङ्गः सुमनःप्रियः । नामतोऽन्वर्थतश्चापि ख्यातो मेरुप्रभो वणिक् ॥५२॥ स्वश्च्युतोऽसी समाधुर्यः सुकोशोऽभ्रमरोचितः । प्रियमित्र : पवित्रोऽस्याभूत् पङ्कजमुखः सुतः ॥५३॥ वर्धमानो जमुक्तः सत्पत्रो मन्दिरं श्रियः । स्पृष्टो मित्रकरैः श्रेयानुजजम्भे जनप्रियः ॥५४॥ क्रमेण सरसाहारो निप्पङ्कः साईतास्पदम् । पूजनीयार्चनप्रहः प्रौढभावमुपागतः ॥५५॥ सम्मतो राजहंसानामालयो गुणसन्ततेः । भूषणं वंशसरसो विश्रुतो नालसङ्गतः ॥५६॥ द्वासप्ततिकलाभिज्ञो धर्ममार्गे विचक्षणः । क्रमेण वर्धमानोऽसी सम्प्राप्तो यौवनश्रियम् ॥५७|| मेरुपमेण मित्रोऽसौ पङ्कजास्योऽभ्यधाय्यदः । वत्स ! वाह्या अमी अश्वा विनश्यन्ति विसूत्रिताः ॥५८|| विनीता जातिसम्पन्नाः स्बभर्तुर्भद्रकारिणः । संवाह्याः पोषणीयाश्च सच्छिप्या इव वाजिनः ॥५९|| अङ्गीकृते पितुर्वाक्ये विनीतत्वाच्च दक्षिणात् । ढोकयामास तत्पत्तिरश्वमेकं महागुणम् ॥६॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आख्यानकमणिकोशे तथा हि नानालङ्कारसुग्रीवं रामसैन्यमिवानघम् । विन्ध्यारण्यमिव प्रोच्चैश्चामरोपनिषेवितम् ॥६॥ नृपास्थानमिव व्यक्तमुल्लसत्कविकं पुरः । विशिष्टश्रुतिसम्पन्नं सैद्धान्तिकमनःसमम् ॥६२।। निर्दोषधारया युक्तं तीक्ष्णखड़गकृतोपमम् । प्रशस्तलक्षणोपेतं शब्दशास्त्रविदं यथा ॥६३।। विहितस्फारशृङ्गारो रम्यालङ्कारधारकः । सद्वेषः सुहृदाधारस्तमारुह्य विनिर्ययो ॥६४॥ क्वचित् प्लुत्या क्वचिद् गत्या क्वचिद् वेगेन वीङ्ख्या । क्वचिद् वाहयता भ्रम्या तेनारजि सुहृज्जनः ॥६५॥ ततोऽपि बहिरुद्यानं प्राप्तवान् नन्दनायम् । तत्रैकं गोवृषं वृद्ध पश्यति स्म स सन्नयः ॥६६॥ दुर्बलाङ्ग गलन्नेत्रं विरूपं विकृताननम् । विपर्यस्तं बृहच्छ्वासं विनिर्यन्मूत्र-गोमयम् ॥६॥ चतुर्भिश्चरणैभूमी सविलेखैर्विलक्षणैः । छन्दःश्लोकमिव भ्रष्टच्छायं कुकविना कृतम् ॥६॥ मुमूर्षु तं विनिश्चित्य संवेगागतमानसः । निर्वेदाच्चिन्तयामास सर्वस्यापीदृशी गतिः ॥६९॥ तथा हि क्व गतं युद्धमेतस्य ? क्व तादृग ढेक्कृतं गतम् ? । क्व गतं रूपलावण्यमहो! वस्तु विनश्वरम् ॥७०॥ तदस्य म्रियमाणस्य करोमि कुशलाशयः । जन्मान्तरहितं किञ्चिन्नमस्कारप्रदानतः ॥७॥ अभ्यर्णीभूय कणेऽस्य संसारार्णवतारिका । वर्णनीयातिगा कर्णे दत्ता पञ्चनमस्कृतिः ॥७२॥ गौरप्यमंस्त कोऽप्येष ममाकारणबान्धवः । पीयूषवर्षकल्पं मे प्रवेशयति कर्णयोः ॥७३॥ तथाऽयं भावनासारं नमस्कारः श्रुतो गवा । तत्प्रभावेन येनासावुदपादि नृपान्वये ॥४॥ तथा हि तत्रैव नगरे राज्ञः सन्नीतेनिहतद्विषः । सप्तच्छदस्य शुद्धान्तसाराया भुवनश्रियः ॥७॥ देव्याः कुक्षिसरःकोडे राजहंससमप्रभः । शारदाभ्रस्फुरच्छुभ्रकीर्तितारो विचक्षणः ॥७६॥ कुमारगोरीसम्पन्नः सभूतिः सविनायकः । महेश्वरश्च स नाम्ना प्रसिद्धो वृषभध्वजः ॥७७॥ ज्ञान-विज्ञान-सौभाग्यगुणरत्नमहोदधिः । विज्ञातशास्त्रसद्भावो यौवनं प्राप्तवानसी ॥७८॥ यथैवं भावतः स्मृत्वा गौर्गतो गतिमुत्तमाम् । तथान्योऽपि स्मरन्नेनां नरः कल्याणमश्नुते ॥७९॥ अहो ! माहात्म्यमेतस्याः स्पष्टं पञ्चनमस्कृतेः । यया गौरप्ययोग्योऽपि जज्ञे राजाङ्गजो गुणी ॥८॥ यद्वा न किञ्चिदाश्चर्यमचिन्त्यं दृश्यते भुवि । कस्यचिद्वस्तुनो वीर्य व्यक्तं वाचामगोचरः ॥८॥ यत:-- स्वल्पाक्षरोऽपि सन्मन्त्रो निगृह्णाति महाग्रहम् । स्वल्पोऽप्यग्निकणो दाह्यं दहत्येव प्रदीपितः ।।८२।। कल्पद्रमः कनिष्ठोऽपि कल्पितं राति देहिनाम् । मनाति न महानागान् कनीयानपि केसरी ? ||८३॥ यथैतल्लोकवस्तूनां सामर्थ्यमवलोकितम् । विशेषेण तथा दृश्यं मन्त्रस्य परमेष्ठिनाम् ।।८४॥ तथा हि यम्यासवो व्रजन्यत्र नमस्कारसमाःस चेत् । मोक्षं कथञ्चिन्नो यायादवश्यममरो भवेत् ।।८५|| किञ्च पन्नगः पुष्पमाला स्यात् स्थलं च जलधिर्भवेत् । अग्निः शैत्यमवस्कन्दद्यायाच्छत्रुश्च मित्रताम् ॥८६॥ एवं स ज्ञान-विज्ञान-सौभाग्यगुणसम्पदाम् । भाजनं भुवने जज्ञे यौवराज्यपदोचितः ॥८६॥ अथान्येद्युम्तदेवासौ सहेलं वाहयन् हयम् । मित्रादिपरिवारेण प्रधानेन समन्वितः ॥८८॥ पूर्वाभिहितमुद्यानं प्राप्तवान् प्रीतमानसः । रम्यत्वात् तत्प्रदेशानामितश्चेतश्च सञ्चरन् ।।८९॥ १. ०रच्छत्रकीर्ति-२० । २. सम्भूतिः२० । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तश्च कीदृशम् ? - तथा हि १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारे गोकथानकम् स्वेच्छया रममाणश्च तं प्रदेशं कथञ्चन । गतवान् गोवृषो यत्र पूर्वजन्मन्यभूत् स्वयम् ॥९०॥ दृष्टपूर्वो मयेत्येवं तदावारककर्मणः । क्षयोपशमयोगेऽस्य जातिस्मरणमुद्ययौ ॥९१॥ कवा मयाऽनुभूतोऽयमित्येवं तत्र चिन्तनम् । कुर्वाणः स्वल्पकर्मत्वादज्ञासीत् प्राक्तनं भवम् ॥९२॥ अस्मिन् स्थाने मया चीर्णं पीतमस्मिन्निहाऽऽसितम् । अमुत्र भ्रान्तमेतस्मिन् सुप्तमेवमबोधि सः ॥ ९३॥ केवलं न विजानाति यथा कर्णामृतोपमः । दत्तः पञ्चनमस्कारः केनापि स्निग्धबन्धुना ॥९४॥ व्यचिन्तयच्च स्वल्पोऽपि धर्मः कल्याणकारकः । यत्प्रभावादहं प्राप्तो रम्यां राज्यश्रियं क्षणात् ॥ ९५ ॥ परं किमेतया कृत्यप्राप्तयाऽपि परार्थया । दैवयोगाद् वियुक्तस्य महाभागेन तेन मे ? ॥९६॥ उपकुरुते यः पूर्वं सतावत् साधुसत्तमः । प्रत्युपकारलिप्युर्यो मन्येहं सोऽपि नो महान् ||१७|| पूज्य महोपकारित्वात् स तावत् किं विकल्पितैः ? । प्रत्युपकारं विना तस्य समाधिः केन मे भवेत् ? ॥९८॥ ततो यदि कथञ्चित्तं जाने जन्मान्तरप्रियम् । राज्यार्धं संविभज्यास्मै भविष्यामि निराकुलः ॥ ९९ ॥ चिन्तयित्वा मनस्येतत् निवृत्तोऽसौ गृहान् प्रति । यथावृत्तं स्ववृत्तान्तं पित्रादिभ्यो न्यवेदयत् ||१००|| तैरप्यूचे कुमार ! त्वं मास्म भूरुन्मनाः क्वचित् । सत्कुड्यादौ क्वचिच्चित्रे चरितं लिख्यते तव ॥ १०१ ॥ मा कश्चित् कोऽपि लिखितं दृष्ट्वा तच्चरितं निजम् । जातिस्मर्तृत्वतः सर्वं विद्यात् पूर्वभवान्तरम् ॥१०२॥ पित्रादिभ्यस्तकवाक्यं निशम्य वृषभध्वजः । युक्तियुक्तं गुणोपेतं व्यक्तं तुष्टोऽभवत्तराम् ॥ १०३ ॥ तस्मिन्नेव सदुद्याने तुङ्गत्वजितमन्दरम् । मन्दिरं सुन्दरं जैनं कारयामास कालचित् ॥ १०४ ॥ कचिद् व्योमाङ्गणं यद् विराजत्तारचन्द्रकम् । कचिद् रामांहियुग्मं वा तुला कोटिविभूषणम् ॥१०५ क्वचिद् भोजनशालावद् भास्वत्स्पष्ट करोटकम् । कचिन्नरेन्द्र कोशाभं विचित्रामलसारकम् ॥१०६ ॥ जम्बूद्रीपोपमं विष्वग् जगतीपरिवारितम् । स्वर्गाचलेन सङ्काशं भद्रशालेन वेष्टितम् ॥१०७॥ जगत्यां च क्वचित् कुड्ये मुमूर्षुवृषभश्रुतौ । नमस्कारं ददत् कश्चिच्चित्रे व्यालेखि मानवः ॥ १०८॥ नियुक्ताश्च नरास्तत्र यः कश्चिच्चित्रमीक्षते । पृच्छति वा तमाचड्वं ममेत्येवं विशेषतः ॥ १०९ ॥ पङ्कजास्योऽपि तत्राऽऽगात् कदाचिद् रामणीयकम् । जिनागारस्याथ पश्यंश्चित्रमैक्षिष्ट विस्मितः ॥११०॥ नियुक्तांश्च प्रयत्नेन पप्रच्छ प्रीतिपूर्वकम् । भद्राः ! केनेदमालेखि ? तेऽप्यूचुर्यद् यथास्थितम् ॥ १११॥ अत्रान्तरे समाहूतो नियुक्तैर्वृषभध्वजः । तद्वचश्च निशम्यासौ शीघ्रं तत्र समाययौ ॥ ११२ ॥ समायालेन तेनापि पङ्कजास्यः प्रसन्नधीः । जनानां वर्णयन्नुच्चैर्विचित्रं चित्रचेष्टितम् ॥ ११३॥ पियूष वृष्टिसात् तत्त्वदृष्टेः दृष्टो जनः प्रियः । समुन्नतो हरंस्तापमम्भोद इव के किना ॥ ११४ ॥ सस्नेहं सादरं चाऽभ्यां प्रतिपत्तिर्यथोचिता । निर्वर्तिता यथावृत्तं प्रस्तुतं च निवेदितम् ॥ ११५ ॥ तस्मिन् क्षणे तयोः सौख्यं सञ्जातं यत् परस्परम् । तदन्यस्मै समाख्यातुं पार्यते न मनीषिभिः ॥११६॥ इत्थं राज्यश्रियं श्रेयःकृत्येषु रतयोस्तयोः । भुञ्जानयोर्विधानेन गतेनेहाक्रियामपि ॥११७॥ प्रवर्धमानप्रणयौ पार्श्वे धर्मरुचेर्मुनेः । अणुत्रतादिकं धर्मं लब्ध्वा देवौ बभूवतुः ॥ ११८ ॥ ईशाननामके कल्पे भुक्त्वा तत्र चिरं सुखम् । सुग्रीवो रामदेवश्च जज्ञाते जनताप्रियौ ॥ ११९ ॥ नमस्कारफले चास्मिन् ज्ञेयं पूर्वभवानुगम् । वस्तुतो रामचन्द्रस्य वृत्तमेतत् कथानके ॥१२०॥ धनदत्तस्य यो जीवः प्रकृत्या शान्तमूर्तिकः । रामदेवः कलाभिज्ञो विज्ञेयः स विचक्षणैः ॥१२१॥ वसुदत्ताहृयो यस्तु धीरो धीरपराक्रमः । असहिष्णुर्मानवान् जीवो लक्षणस्य स लक्ष्यताम् ॥१२२॥ For Private Personal Use Only १३३ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आख्यानकर्माणकोशे श्रीकान्तस्तत्र यो गीतः करो न्यायबहिष्कृतः । स्त्रीलोलं भीमरूपं तं बुध्यध्वं रावणं बुधाः ॥१२३॥ वृषध्वजस्य यो जीवो नमस्कारप्रदानतः । रामदेवप्रियो जज्ञे सुग्रीवोऽसौ सुनिश्चितम् ॥१२४॥ गुणवत्यपि या कन्या वैरभावस्य कारणम् । सा सीतेति सदा प्रायो मृत्युहेतुस्तयोरभूत् ॥१२५॥ ग्रन्थाग्रम्-५०००॥ ॥ इति गोकथानकं समाप्तम् ॥३९॥ ख्यानकमाख्यायते । तञ्चेदम् रमणीयसन्निवेसे कम्मऽवि कुलपुत्तओ वसइ एगो । उवरयभजो लहुएगपुत्तओ पयइधम्मपिओ ॥१॥ वढुंतो जाव सुओ संजाओ अट्टवरिसदेसीओ। तो सो थविरसमीवे धम्मं सोऊण पव्वइओ ॥२॥ वेरग्गभावियमणो सो सम्म कुणइ साहुपवजं । नवरं सिसुत्तदोसा पमायवसओ सुओ न तहा ॥३॥ भणइ य नियडिपहाणो खंत ! न सक्के मि कढिणभूमीए । हिंडि उमणुवाहणओ जणओ विहु मोहपडिबद्धो ॥४॥ आणइ पाणहियाओ न समत्थो हं वियारभूमीए । उहाभिहओ तत्तो कप्पं से धरइ सीसम्मि ||५|| गोयरचरियं काउं खंत ! न सक्केमि तो तहिं पि पिया । भोयणजायं आणइ वसहिठियम्स वि सिणेहेण ॥६॥ जा जोव्वणमणुपत्तो तह वि कुओ वि हु किलिट्टकम्मवसा । देइ न चित्तं मुणिचक्कवालकिरियाकलावम्मि ॥७॥ चोयंति साहुणो तं जणयं पि भणंति एस सत्तो वि । किं न पयइ सम्मं संपइमवि साहुकिरियाए ? ||८|| परमत्थओ तए च्चिय विणासिओ एस मोहमू टेण । हेवाइओ सुहेणं नेहेण न किंचि सिक्खविओ ॥९॥ भणसि न भणियं भवओ तह कहवि हु भणसु भद्द ! नियपुत्तं । जह साहुसमायारिं सव्वं सम्मं समायरइ ॥१०॥ अन्नह गुरुकुलवासो तुज्झवि होही न एयदोसेणं । तंबोलपत्तनाया मा सेसे वी विणासिहसि ॥११॥ अह अन्नया पयंपइ इंदियवसगा रहम्मि नियजणगं । खंत ! न सकेमि अहं अविरइयाए विणा इहि ॥१२॥ तो जणएणं चिंतियमिमस्स संपाडियं मए सव्वं । एयं तु समोयरिउं न पह संपइ महापावं ॥१३॥ न वि किं पि अणुन्नायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं । मोत्तु मेहुणभावं न तं विणा राग-दोसेहिं ॥१४॥ तो परिभावियमिमिणा न एस पावो वयस्स जोगो त्ति । ता किं इमिणा मझं ? जाओ जहिं वलइ न गओ वि ॥१५॥ अवहीरिओ य तेणं चइऊण वयं गओ गिहावासं । एसो छालीए मुहे अहवा किं माइ कुंभंडं ? ॥१६॥ तत्तो कुणइ कुकम्मं न मुणइ तत्तं न सो सुणइ धम्मं । वहइ भरं सहइ छुहं महइ धणं लहइ न हु किं पि ॥१७॥ पुन्नविहीणत्तणओ पयडपयत्तो वि पत्थियं वत्थु । कारणवियलं कज्जं कुओऽहवा हवइ ? पयडमिमं ॥१८॥ एवं किलिट्ठमणसो कुकम्मनिरयस्स तस्स वरयस्स । उयरभरणं पि दुलहं दूरे संभोगसुहवत्ता ॥१९॥ पायं जणपरिभओ अप्पुन्नमणोरहो वसणवसओ। अप्पत्तवसणभवणो छहा-पिवासापराभिहओ ॥२०॥ पाणीण पुन्नवंताण पेक्खि धणविलाससामगि । झुरंतो अप्पाणं तिणतुल्लं पुन्नपरिहीणं ॥२१॥ पच्छायावपरद्धो सुमरंतो सुहयसमणपरियायं । पालंबयचुक्को मक्कडो व्व वेलक्खमावन्नो ॥२२॥ दीणो दुत्थियदेहो दुरंतदारिद्ददुक्खसंतत्तो । विसयसुहं पत्थितो अट्टज्झाणोवगयचित्तो ॥२३॥ मरिऊण समुप्पन्नो महिसीगभम्मि पड्डयत्तेण । जाओ कालकमेणं पयडावयवो दढसरीरो ॥२४॥ तत्तो य तप्पिया पाविऊणमिणमेव कारणं धम्मे । थिरचित्तो मरिऊणं देवो वेमाणिओ जाओ ॥२५|| ओहिन्नाणेण वियाणिऊण तं पड्डयं नियं पुत्तं । भामडरूवं वेउव्विऊण नेहेण संपत्तो ॥२६॥ तत्तो महिसीपहुणो पासाओ तेण पड्डुओ कीओ । पिट्टारोवियभारो पीडिज्जंतो परायत्तो ॥२७॥ निल्लालियग्गजीहो ताडिज्जंतो कसप्पहारेहिं । एयावत्थं पत्तो अहो ! पमाओ महासत्तू ॥२८॥ पंचनमोक्कारपयं पढिउं दाउं कसप्पहारं च । खंत ! न सक्केमि अहं ति सावए वयणमेसो उ ॥२९॥ कत्थ मए सुयपुव्वं वयणमिणं ? तस्स चिंतयंतस्स । जायं जाईसरणं संभरिओ समएपज्जाओ ॥३०॥ १. कस्मिन्नपि । २ भव्व-२० । ३. कुष्माण्डम् । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारे पडकाख्यानकम् १३५ पायडियसमणरूवो भणइ सुरो भद्द ! पाविओ वि तए । न कओ धम्मो सम्मं तत्तो एयारिसं वसणं ॥३१॥ तेणुत्तं ताय ! तुमं संपयमवि कुणसु मज्झ जं जोगं । पच्चक्खाणपुरस्सरमह सम्म भावियमणम्स ॥३२।। दाऊण नमोक्कारं जणओ पत्तो सुरालयं सो वि । नवकारपभावेणं पत्तो सुरसंपयं परमं ॥३३॥ जह एसो संपत्तो नवकारपभावओ सुराण सिरिं । तह अन्नो वि हु पावइ तम्हा जइयव्वमेयम्मि ॥३४॥ ॥ पड़काख्यानकं समाप्तम् ॥४०॥ इदानी फण्याख्यानकमारभ्यते सिरिआससेणपत्थिववित्थयकुलनयलामलमयंको । वरवम्माजणणीजढरसरस सर]रायहंससमो ॥१॥ भिंगंग-घणंजणसामवन्नदेहो दयेक्करसियमणो । नाणत्तयसंपन्नो कुमारभावम्मि वÉतो ॥२॥ सिरिपासजिणेसरभुवणसामिओ सयलजणमणाणंदो । समवयवयस्ससहिओ कोउयवसओ समणुपत्तो ॥३॥ जत्थऽच्छइ कढिण-करालकट्ठखोडीजलंतजलणम्मि । अइदुक्करदित्ततवप्पभाववक्खित्तपउरजणो ॥४॥ पंचम्गितावियतणू तरणि व्व तवप्पयावदुद्धरिसो। कट्टाणुट्टाणविकिट्ठकाय कमढाभिहाणरिसी ॥५॥ . भणियं च पासकुमरेण भद्द ! किं कुणसि कट्ठमन्नाणं ? । जम्हा जीववहाओ पावमिमं धम्मबुद्धीए ॥६॥ जीवदयाए धम्मो सा एवं जलणजालणे कत्तो । जम्हा जलणो सत्थं निसियमिमं सव्वओधारं ॥७॥ तं निसुणिऊण कमढो विवेयवियलत्तणाओ अमरिसिओ । आयंचिरनयणजुओ खलंतफुरियाहरोट्टउडो॥८॥ आबद्धभीमभिउडीभासुरतिवलीतरंगभालयलो । पगलंतसेयसलिलो खणेण जाओ स दुप्पेच्छो ॥९॥ पासट्टियपबलजरंतबहलजालाकलावजडिलस्स | जलणस्स व संपक्का सो वि हु कोवऽम्गिणा जलिओ ॥१०॥ पासेणुत्तं मा भद्द ! कुणसु कोवं जमेवमिह कुविओ। जलणो व तुमं जलिओ दहसि तवं कट्टनियरं व ॥११॥ अवरं च ववत्थाणं कोव-तवाणं विरुद्धमेगत्थ । अमय-विसाण व तम्हा परिहर परमत्थरिवुमेवं ॥१२॥ एवं मिउवयणेण वि सिक्खविओ दढयरं मणे कुविओ । भणइ तुमं किं जाणसि धम्मस्स तवस्स एवं ? ति ॥१३॥ जाणसि तुमं सरूवं हयाण हत्थाण रहवराणं च । अहयं तु धम्मतत्तं चिरपव्वइओ तवम्मि रओ ॥१४॥ अवरं च किमिह जायइ विसुद्धकट्ठाण जालणे पावं ? । तो फेडिऊण खोडिं पासेण पयासिओ सप्पो ॥१५॥ कमढो वि अत्तणो पासिऊणमन्नाणविलसियमपुव्वं । सामरिसो य सलज्जो य किमवि वेलक्खमावन्नो ॥१६॥ पासजिणो विहु दाउं फणिणो कन्नंसि जिणनमोक्कारं । पत्तो गिहं फणी विहु धरणिदत्तं मरेऊण ॥१७॥छ।। फण्याख्यानकं समाप्तम् ॥४१॥ इदानों मिण्ठाख्यानकस्यावसरः । तच्च नूपुरपण्डिताख्यानके भणिज्यतयिति क्रमागतं सोमप्रभाख्यानकमुच्यते । तब्दम् अह भारहखेत्तह दाहिणद्धि, सिरिगिरिवर-पुरलच्छीसमिद्धि । पुर वद्धमाणु नामेण आसि, धणारु सेट्टि तहिं गुणहं रासि । तसु पुत्तु धणेसरनामधेउ, नियरूविं नं सोहम्म देउ । अवरो वि तत्थ दिउ सोमदेउ, सोमप्पहु तसु सुउ पढियवेउ । तत्थेव नयरि नवजुब्वणाउ, निवसंति दोन्नि पन्नंगणाउ । अहमहमिगाए रंजियजणाउ, नियरूवविजियअच्छरगणाउ । तह एक कामरइनामधेय, तसु रत्तु धणेसरु कुणइ भोय । अह दुइजी कामपडाय नाम, भुंजइ सोमप्पह मणभिराम ।। इय विविहविलासिहि. मणपरिओसिहि, ताह कालु बच्चइ मुहेण । १. नकं समार०-२० । २. बृहत्काष्ठ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आख्यानकमणिकोशे एत्वंतरि पत्तउ निरु गिजंतउ. चित्त मास महयरगणेण ॥१॥ वियसिया जत्थ सहयारतरुमंजरी, कामभल्लि व्व विरहियणसल्लंकरी । कुसुमिया किंया कीरचंचुप्पहा, विरहियणदहणपजलियचियासच्छहा । फुल्लिया मल्लिया फुरियवरगंधया, महुयरा जीए महुपाणमयअंधया । सहइ वियसंतिया कुंदकुसुमावली, नं वसंतस्सिरी दित्तदंतावली । पाडलापरिमलाइन्नमलयानिलो, नं महुत्थीए निम्सासवरपरिमलो । कोइलाकलयलारावबहिरियवणं पेच्छिउं पहियलोयाण झिजद मणं । सहइ पवणेण वणराइ कूयंतिया, नं समासाइउं वरमहुं मत्तिया । सुब्बए मंजुरुणझुणिर भमरावली, कामएवस्स नं गिज्जए कागली ।। इय अवरि वि तरुवर, विलिहियअंबर, नवपवाल भरमंथरिय । सिंगारियपुरिसिहि, कयमहहरिसिहि सहं कुसुमिहिं समलंकरिय ॥२॥ तथाहि बियसिय कंकेल्लि सकंचणार, पुन्नाग नाग फुल्लिय अपार । ककोल लवल कयकुसुमबंध, पोमिणि पबुद्ध परिमलसुयंध । उम्मीलिय एलाऽगरु लवंग, हिंताल ताल कयकुसुमसंग । उन्जिभिय[....."]धवसणाह, कप्पूर कलिय कुसुमियससाह। मउरिय पिचुमंद निरंतराल, मंजरिय तिलय सपियंगुसाल । पसविय असेस कणियारयाउ, कलियाऽभिराम मालूस्याउ । मचकुंद कुंद कलिया विचित्त, जंबीर जाय पसविहिं पवित्त । केसर तमाल हुय कुसुमसार, विहसिय तरु अवरि वि बहुपयार ।। इय चित्ति पहुत्तइ, परहुयमत्तइ, कामकेलिविणिहियहियय । गीएहि गिजंतइ, जणि नच्चंतइ, चत्तारि वि उज्जाणि गय ||३|| आढत्त तेत्थु अंदोलिकील, तरुणीयणमणहरकामलील | तो मिलिए असेसए तरुणिवग्गि,, गणियागणि आगइमणहरिल्लि । जायउ अंदोलारुहणि ताहं, अन्नोन्न कलहु पन्नंगणाह ।। तो पभणिउ नयरमहाजणेण, किं गज्जहु अलियमडप्फरेण ?। जा चाई कणयह लक्खु देइ, जणि सज्जि पढम अंदोलएइ । तो ताहिं निरूविउ पियह वयणु, पडिभणिउ धणेसरु समयवयणु । हउ कामरइहि [ - - - - - - - - - - - - - - ----- ------------] विसाय सुवयणु । बंदिहि थुव्वंती, जणु रंजंती, चडिय झत्ति अंदोलइ । पडिवक्खु हसंती, चाइ करंती, कणयलक्खु इय हेलइ ॥४॥ तो कामपडाय विलक्ख जाय, उवहसिय जणिहि ठिय सामछाय । अधणतणेण सोमप्पहो वि, उवहसिउ विलक्खिउ हुयउ सो वि । न पुणो तीए गेहम्मि गयउ, चिंतणह लग्गु दुहभरियहियउ । १. सुसाह -२०॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारे सोमप्रभाख्यानकम् सुलहउ धणहीणह माणभंगु, निरु होइ पराभवतणउ संगु । न कलत्तु न मित्तु न निययसयण, उल्लवइ दलिद्दिउ एक्कु खणू । बच्चामि कहिवि ता दूरदेसि, अइपउरदविणआणणह रसि । इय चिंतिऊण नियसयणवग्गि, अकहिंतु वत्त संचलिउ मन्गि । ता जंतु जंतु पउमुत्तरम्मि, संपत्तु नयरि वणराइरम्मि ।। तो तहिं संपत्ति पहपरिसंति, दिट्टु एक्कु उज्झायवरु । सविणयनियछत्तहं, गुणसंजुत्तह, खन्नवायवक्वाणपरु ॥५॥ जहिं विल्ल-पलासह तरुवराह, पायउ जइ महिगउ होइ ताहं । अह खंजरीडसंजोउ होइ, ता तत्थ निरुत्तु निहाणु जोइ । जो पायउ रत्तइं रसिण जुत्त, सो रयणह निहि अक्खइ निरुत्तु । पीइं रसेण कंचणु विसिटु, धवलइ कलहोउ मुणिंदि सिटु । एमाइ सुणिवि गउ जंतु जंतु, जा एक्कु महागिरिकुहरु पत्तु । तहिं पायउ बिल्लह महिपविट् टु, महिं' चुंकिइ तहिं रसु रत्तु दिटु । हुँ होसह रयणनिहाणु एत्थु, दिसि जोइवि तो ति खणिउ तेत्थु । उवलधु समुग्गउ रयणजुत्तु, तं पेच्छिउ हरिसिउ तासु चित्तु ॥ तो गिहि हि हत्थि, छाइवि वत्थि, चलिउ जाव सो नियनयरह । ता पत्तउ चोरिहिं, पहरणघोरिहि, हुयउ घरह न बारह ॥६॥ उद्दालिंउ रयणनिहाणु तेहिं, गुरुहक्किहिं तं भेसंतएहिं । सो खित्तउ बंधिवि अंधकृवि, गयजीवियासु तहिं ठिउ विरूवि । तो दिवसि तइज्जइ कोइ सत्थु, आवासिउ लंघिवि पउरपंथु । तहिं नीरु निरिविखहिं जाव नरा, बोल्लाविय तो ति दीणगिरा । अहु पुरिसहु हउं तक्करिहिं घित्तु, बंधेविणु बंभणु एत्थु खेत्तु । ता कड्डहु मई महइए दयाए, जा मरउं न इह तन्हा-छुहाए । तो तेहि पपुच्छिउ सत्यवाहु, तेण वि कड्डाविउ दिउ अणाहु । पुच्छिय सव्वा वि हु तस्स वत्त, अक्खिय विप्पेण वि तहिं निरुत्त । सत्थाहिं कयवलु, वियरियसंबलु, पुणु पयट्ट देसंतरहं । अक्खंडपयाणिहिं, गरुयपमाणिहि, तलि संपत्तउ गिरिवरह ॥७॥ जम्मि रेहंति रम्माउ वणराइओ, सुद्धवंसालियाउ व्व सज्जाइओ । लोयणालि व्व संपुन्नसोहंजणा, पंडुसेण व्व दीसंतसज्जऽजुणा । कत्थ वी गेहपंति व्व बहुसालया, रासया जेम्व अन्नत्थ मुहतालया। पुन्ननारि व्व बिलसंतपुन्नागया, विंझभूमि व्व भासंतसन्नागया । रामसेण व्व वरनीलनलजुत्तया, कुडिलमहिल व्व उत्तरलतरचित्तया । वारविलय ब्व वरतिलयरेहंतया, समरभूमि व्व बाणावलीजुत्तया। विण्हुमुत्ति व्व विलसंतसिरिवच्छया, नोड्डजाइ व्व दीसंति उक्कच्छया । १. तहिं तुं किइ तहिं इत्यपि पाठो दृश्यते । १८ Jain Education Interational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आख्यानकमणिकोशे पवरकन्न व्य संपन्ननववरणया, साहुमुत्ति व्व सोहंतसुहकरुणया || इय यपयारेहिं, विहियवियारेहिं, सो गिरि निरुवमतरुवरेहिं । अइयारि विरायह, महिहिं न मायइ, तमु जसु संसि सुखरेहिं ||८|| तो तत्थ हेमकूडाभिहाणु दिट्टउ वाइउ मायापहाणु | कहिं भद्दय ! पत्थउ ? पुट्टू तेण महि भमहि नाई वज्जि उं घणेण । तो कहि स नियचरिउ तेण, तं सुणवि पयंपिउ वाइएण । ईसरह सिरोमणि करडं तई, तो भणिउ तेणाऽणुभ्गहहि मई । आरूढ दो वि तो गिरिहि सिहरि, संजुत्ति धाउ - मूलियहं पयरि । अवरोप्परु मीसिवि धमिउ जाव, दिप्पन्तु सुवन्नउं हुयउं ताव । तं गिहिवि तो गय कहिंवि गामि, तर्हि सुत्ता सुन्नइ देवथामि । तो बाइउस सुवन्नु लेवि, नट्टउ दिउ सुत्तउ तहिं चएवि ॥ तो उगइ तरणिहिं, जोइउ धरिणिहिं, तेण न कत्थइ दिउ । बीहंत, त्ति तुरंतउ, धरणीवीढि पट्टउ ||९|| गहियसोगो तओ चितए सो मणे, पुन्नहीणेहिं न हु किंपि लभइ जणे 1 तह वि धीरेण गरुएण होयव्वयं, लब्भए जेण नियमेण भवियन्वयं । एव चिंतंतु चित्तम्मि पुण गच्छए, जाव जोगीसरं जोगियं पेच्छए । तयणु नमिऊण सप्पस्सयं तप्पए, सिद्धजोगि त्ति काऊण स पयंपए । रुदारिद्ददुक्खेण अइदु क्खिओ, तुम्ह सरणं पवन्नो धणे कंखिओ । तापसायं क [रे] ऊण दविणज्जणे, हेउमुवइससु अवमाणमलमज्जणे । सो वि उवरोहसीलो तयं जंपए, नाममेत्तेण जणि जेणमणुकंपए । सो महामंतु सोवन्नधणदायगो, अत्थि मह भद्द ! मंताण वरनायगो || तो तेण पयंपिउ, भयवं ! मह पिउ, देहि मंतु एहु दय करिवि । जो करइ न बंधणु वियरइ कंचणु, दुहु दोगच्चह अवहरवि ॥ १० ॥ दिन्नु जोगिएण तसु मंतु विहिपुव्वयं कहिउ साहणउवायाइयं सव्वयं । किण्हचा उद्दसीए महापियवणे, मडय-वेयाल- फेक्कारभीसावणे । मंतकुसुमेहिं जलणम्मि होयव्वयं, नो रउद्दोवसग्गाण भयव्वयं । जाव निस्सरइ जलणाउ कंचणनरो, विज्झवेयव्वओ तयणु वइसानरो । कणयपुरिसोन छिन्नो वि सो निट्टए, सो वि जोगेसरेणेरि सो सिट्टए । पणमिणं पए तस्स सोमप्पहो, पत्तु कम्मिवि निवेसम्मि सोमप्पहो । कसिण- चउदसानिसाए मसाणट्टिओ, जाव होमेइ उवसग्गु तावुट्टिओ ॥ फेक्कारहिं डाइणि, हक्कहिं साइणि, कंपिय धरणि सगिरि - कुहर | जा खुहिउ न झाणह, सत्तपहाणह, ता गय तिन्नि निसिहि पहर ॥११॥ तो पच्छिमपहरि करालकाय, हक्कत पत्त रक्खसनिकाय । फेक्कारुग्गिन्न जलं तजलण, अड्गरुयसिलायलसरिसचलण । अट्टहासपूरियदियंत, नियकरकवाले लोहिउ पियंत । कंदंत रुलंत समुल्ललंत, पयददुरघा एहिं महिं दलंत । For Private Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कार परावर्त्तनफलाधिकारे सोमप्रभाख्यानकम् ते पेच्छिवि सो संखु जाव, छलियउ मंताद्द्विदेवि ताव | कंपंतु जाव मंडलए पडिउ, तो उदयगिरिहिं दिणनाहु चडिउ । एत्यंतरि पत्त लोहनंदि, रतंबरु पणयहं विहियनन्दि | तव तत्थ सोते दिदु, कुवि विज्जासाहणि इह बटू टु ॥ उवसग्गहि चलियर, विज्जए छलियउ, इय जाणिवि रत्तंवरिण । वरमंतपओगिहिं, मूलियजोगिहि, परणीकड सो आयरिण ॥ १२ ॥ उवयारि भणिवि रक्तंचरम्स, सो नमिउ कमेहिं करुणाय रस्स । तोपुच्छतिं किं भद्द एउ ?, तेण वि तसु अक्खिउ न किउ खेउ | तो चल्लि रिट्ठउराभिमुह, चिंतंतु विसन्नउ दीणमुह् । पडिकूल मज्झु किह पेच्छ विही ?, न वि होड़ पुन्नसंच सविही । जायद संपय अप्पमाण, महु होइ विवय मरणावसाण । ता किं भमेमिं संतरम्मि ?, इहि पि जामि नियपुरवरम्मि । गमण अहव किं निययनयरि, विलसिरसुहि- सज्जण-बंधुनियर ? । वरि निद्धणु उच्चधिवि मरउ, मा बंधवधरिहि कुकम्मु करउ ॥ जीवं विद्धि, विद्धणु, मुयह समाणु गणिज्ज | स्वर्ग-सुणय समूहिहि, सहुवजूहिहिं, जइ इम्वइमवि खज्जइ ॥ १३ ॥ ता अज्ज विकिज्जउ पुरसियारु, पेच्छिज्जउ मा बंधवनियारु । आराहिमि देव कावि पवर, जा देइ दविणु होएवि सवर । तो चलिउ रिट्टउरकाणणम्मि, चामुंड दिट्ट तहिं तो मणम्मि । चितइ आराहिमि एह देवि, अदरिदु करइ जिं दविणु देवि । इय चिंतिऊण सो संझयालि, तं नमिवि भणइ हउं कलिउ कालि । तु भव ! दुक्खदुक्खहरणि !, पयपणयजणह कल्लाणकरणि । मह दुक्खियम्स विविनडियस्स, दारिद्दमय रहर निवडियस्स । इय पिऊण सो तीए पुरउ, ठिउ निवडनिपाई (?) धरणिनिरउ || तो पहियतरणिहिं, तमभरि स्यणिहिं, गरुयमभ्गपरिसंतद् । तमु निद्द समागय, देविहिं संगय, निम्मलगुण समरंतरह ॥ १४ ॥ एत्थंतरि रायह वाररमणि, गच्छंती पेच्छिवि निययभवणि । तो केणवि तक्खणि तक्करेण तहिं कन्नजुयल तोडिवि करेण । वरकुंडल हाराऽऽभरणु लेवि, उज्जाणि नट्टु भड्डयणु छलेवि । तत्थेव देविमंदिर पविट्टु, तमु पासि दच्छु मिल्लिचि बट्टु । तो वेदिविटियभड देविभवणु, उग्गयउ जाव गयणयलि तवणु । तो तेहिं दिट्टु दिउ दच्छजुत्तु, संगहिउ चोरु जाणिव निरुत्तु । तो तेण पर्यपि संभ्रमेण, हउं चोरु न बंभणु कारणेण । देसंतरि पत्थिउ पयइसच्छु, इह सुत्तह केणइ मुक्क दच्छु ॥ तो तकरु बंधिवि, बंभणु संधिवि, दो वि नीय रायह भवणु । तेहिं अक्खड रायह, निवनयपायहं देव! चोरु आयहं कवणु ? ||१५|| For Private Personal Use Only १३६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आख्यानकमणिकोशे किउ दिव्वु नरिंदि सियजसेण, तो खुट्टर बंभणु विहिवसेण । चोर त्ति धरिय हिययाभिसंधि, बंधाविउ बंभण मोरबंधि । तक्करु पुणु मुक्कउ साहु करिवि, आणत्तु वज्झु दिउ कोवु धरिवि । आरोविवि रासहि भडयणहि, भामिविपुरि वेदिउ बहुजणेहिं । सो मरणमहाभयवेविरंगु, केसरिअक्कंतउ जिह कुरंगु । हा हा ह्यास ! निद्दय ! कयंत !,............... किं सुद्धसीलकलियम्स अज्ज, सइ महु कलंकु आणिउ अणज्ज !। इय एवमाइ कलुणउं रुयंतु, सूलहिं पक्खित्तउ जणुनियंतु ।। मिल्लिवि गय निवभड, भिउडीउभड, एत्थंतरि विजोहर । ति नहयलिं विट्ठा, रूवविसिट्टा, पभणिय करुणामयरहर ॥१६।। अहु पुरिसहु करुणासायरहो, हउसूलिय पोइउ भायरहो । ' निद्दोसु वि ता मइ करि पसाउ; रक्खहु दुम्मरणहु एरिसाउ । अणुकंप करिवि तो खेयरेहिं, आयड्डिउ जीवदयापरेहिं । सो नीयउ कम्मि वि गिरिसिरम्मि, मुक्कउ नवपल्लवसत्थरम्मि । तव्वइयरु पुच्छिउ लेयरहिं, ति कहिउ सब्बु कोमलसरेहिं ।। तं निसुणिविं पभणिउ तेहिं बुज्झि, तुह विसमकम्म ता मणि म मुज्झि । कण धम्मबुद्धि परलोय रेसि, तं विदधु जेण मम्मप्पएसि । ता जीवसि न हु इय भणिवि तेहिं, कारुन्त्रपरिहिं वरखेयरेहिं । अणुसहि सुहासिय, दिन्नमुहासिय, अणुकूलियसग्गप्पहह । सूलामुहभिन्नह, दुहनिम्विन्नह, हियकामिहि सोमप्पहह ॥१७॥ जो नरइ पडतहं होइ सरणु, बहुभवसमज्जियपावहरणु । दारिद्दमहाभरतिमिरतरणि, जो भवियह सिवपुरि पवरसरणि । सग्गाऽपवग्गवरमुहनिहाण, जिणसासणि जो समयप्पहाणु । जो माणमहाभडमाणमलणु, भविओहदरियदंदोलिकलणु । दढतोडिय बहुभवकम्मपासु, घणखुद्दोबद्दवकयविणासु । निज्जियचिन्तामणि-कामधेणु, पणमंतुड्डावियपावरेणु । गह-भूयपणासणपवरमंतु, वेयालुच्चाडण निबिडजंतु । कि बहुई ? वियारि अचित धामु, आसन्नसिवह सुगहीयनामु ।। पंचहिं परमिट्टिहिं, तेहिं विसिट्टिहिं, दिन्नु मंतु विजाहरिहिं । हुउ तामु पभाविं, पणमिउ भावि, धूमके उपरमामरिहिं ॥१८॥ ॥ सोमप्रभाख्यानकं समाप्तम् ॥४२॥ इदानी सुदर्शनाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् अस्थि इह भरहवासे चंपा नयरी सिरीए कुलभवणं । रिउरोसदलणदक्खो राया दहिवाहणो तत्थ ॥१॥ नियरूवविजियपज्जुन्नपणइणीपवरपीणघणसिहिणी। अभयाभिहाण भज्जा तम्स भवम्सेव गिरिदहिया ॥२॥ पउरपुरलोयसामी सेट्टी तत्थऽस्थि उसहदत्तो त्ति । अरिहदासी नामेण पणइणी तस्स ससिवयणा ॥३॥ ताण य सुभगो नामेण सेरहीरक्खगो अहऽन्नदिणे । घेत्त महिसीओ गओ अडविं अइरुग्गए सूरे ॥४॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कारपरावर्त्तनफलाधिकारे सुदर्शनाख्यानकम् संझाए पडिनियत्तो अग्गेकाऊण सेरहीनियरं । गच्छंतो संपेच्छइ उस्सग्गे संटियं साहुं ||५|| अप्पावरणं हिमकणविमिस्स हुमाहमाससीएहिं । उद्धसियरोमकूवं पणमित्तु तओ गओ सहिं || ६ || पुणरवि स्यणिविरामे गहिउं महिसीओ सो गओ रन्ने । दट्टण तं तह च्चिय भक्तिभर निन्भरो नमइ ||७|| अप्पावरण रयणीए सिसिरसीपण सोसियं साहु । तं अवसीय काउं व उग्गओ उन्हकिरिणो वि ॥८॥ भणिऊण मुणिवरिंदों नामोऽरहंताणमिह पयं पवरं । करवाललयासामलनहंगणं झत्ति उप्पड़ओ || ९॥ सुभगो वि नमोक्कारम्स तं पयं गयणगामिणि विज्जं । मन्नतो उम्घासद् न चयइ उच्चिट्टकाले वि ॥ १० ॥ तो सट्टा स भणि भद्द ! तए कत्थ पावियं एयं । तेण तओ तप्पुरओ कहिओ साहुम्स वृत्तो ॥ ११ ॥ सेट्टी वि आह एसा न केवलं गयणगामिणी किंतु । विज्जा असेसकल्लाणदाइणी कामधेणु व्व ॥ १२॥ जम्हा जं किंचि जयत्तयम्मि मण - नयणमोहणं वत्युं । जिणनाहनमोक्काराओ पाणिणो तं पि पाविति ॥१३॥ एम्स पभावेण पुरिसा पाविति परमरिद्धीओ । नर - असुरा डमर - खेयररायाण जिणेसराणं पि ॥ १४ ॥ ता भद्द ! सुंदरमिणं जं तुमए पावियं परं किंतु । उचिट्ठेहिं तिहुयणगुरूण नामं न घेत्तत्रं ॥ १५॥ सो आह सामि ! एवं करेमि ता सेट्टिणा सिणेहेण । सिक्खविओ सुविणीओ सव्वं पि हु पंचनवकारं ॥ १६ ॥ अणुदिवस अणुसमयं परिवत्तंतस्स तं नमोक्कारं । अइकम [इ] तस्स कालो अहन्नया पाउसो पत्तो ॥ १७॥ चियातडिल यहुयासडज्झतविरहिवग्गस्स । धूमसिहाजालेण व घणेण परिपूरियं गयणं ॥ १८ ॥ कयघोर गज्जिअट्टट्टहासबहिरियदियंतराभोगो । झलकंततरलतडिलयकत्तिय चिच्छो हदुप्पेच्छा ||१९|| चिलसिरबला हमालादसणिल्लो कोइलाकसिणछाओ । भेसंतो विरहियणं विष्फुरिओ पाउसपिसाओ ||२०|| पहिणिय राय पसरो वियरओ मलिणअंबरो पत्तो । अंगीकयभद्दवओ मुणि व्व घणसमयसंरंभो ||२१|| जइ मरइ विसरा सणविसदिट्टसिहंडिसद्दओ मरओ । विरहियणो तं चोज्जं जं सित्तो अमइमरएण ॥२२॥ दिसिदिसिरडं तददुर उक्कडकड्डु रावजणियउवेया । वच्चंति विरहिणीणं पाणा इव रायहंसगणा ||२३|| एवंविहमि समए महिसी घेत्तृण सो गओ रन्ने । तो तम्सेक्का महिसी तरिऊण तरंगिणीतीरे ॥ २४ ॥ खेत्तम्मि संपविट्टा दिट्टा सुभगेण तो नमोक्कारं । परिवत्तिऊग दिन्ना झड त्ति झंपा नईमज्झे ||२५|| तत्थ विखायकीलो खुत्तो पंकम्मि आसि तेणेसो । विद्धो मम्मपएसे पंचत्तं पाविओ सिग्घं ॥ २६॥ जिणनाहन मोक्कारप्पभावओ निययसेट्टिभज्याए । गंतूर्ण उववन्नो अरिहद्दासीए कुच्छिसि ||२७|| परिवद्धमाणव्भम्मि दोहलो तयणु तीए संजाओ । अभयप्पयाण-जिणण्हवण साहुमुस्सूसणाविस ओ ॥ २८ ॥ कहि यतओ सेट्टिस्स पूरिओ सेट्टिणा वि हिद्वेण । तो पवरवासरम्मि पुत्तं पसवइ अहिदासी ॥ २६ ॥ अह संपत बारसमवासरे सेट्टिणा सुनक्खते । विहियं तस्स सुदंसण नामं सुहदंसणो जम्हा ||३०|| तो ते कमेण अहिज्जियाओ बाहत्तरि चिय कलाओ। पत्तो य विलासिणिनयणमोहणं जोवणं एसो ॥३१ ॥ बररूव-जोग्वणड्ढा उब्वूढा पाढगुणवियड्ढेण । तेण रई कामेण व नामेण मनोरमा कन्ना ||३२|| ती सह विसयसोक्खं उवर्भुजंतस्स तस्सऽइक्कम । कालो विविहविणोयप्पसंगवक्खित्तचित्तस्स ॥३३॥ ते नियगुणगणेहिं पुरलोओ पुहइपालपज्जन्ती । तह रंजिओ जहा सो संजाओ तम्मओ चेव ||३४|| इओ य तत्थेव कविनामो निसइ उवरोहिओ दियपहाणो । नियहियय निधि [से] सो जाओ तम्स वरमित्तो ||३५|| तम्स य भज्जा कविलानामेणं तीए सो वि पइदियहं । रमणीयणमणहरणं गुणनियरं कहइ मित्तस्स ||३६|| रुवेण कुसुमत्राणो बुद्धिप्पसरेण सुरगुरुसमाणो । तेपण तिव्वकिरणो गमणेण करेणुगइगमणो ||३७|| दक्खिन्ननही सोहग्गसुन्दरो चाइनियर सिरितिलओ । किं बहुणा परनारीसहोयरो एरिसो मित्तो ॥ ३८ ॥ तभ्गुणगहणं सोड परोक्खअणुरायरंजिया कविला । जाया जाव सकामा परिहरिया ता समाहीए ॥३९॥ For Private Personal Use Only १४१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आख्यानकमणिकोशे सा अलहंती सोक्खं कत्थइ नियपरियण कविल्भज्जा । अहिलसइ तस्स संगममणुदियहमुवायकोडीहिं ॥४॥ अह अन्नदिणे गामम्मि पेसिओ पुहइसामिणा कविलो । कविला तओ सुदंसणपासे गंतुं इमं भणइ ॥४१॥ तुह मित्तम्स निसाए अइपउरसरीरकारणं जायं । तो एस तुह सयासे न आगओ पेसिया अहयं ॥४२॥ तुह हक्कारणकजे जम्हा सो तं विणा मणायं पि । न तरइ ठाउता एहि तस्स पासम्मि तो एसो ॥४३॥ न मए नायं ति पयंपिऊण चलिओ ससंभमो झत्ति । संपत्तो तम्भवणे भणइ तओ कत्थ मह मित्तो ? ॥४४॥ कविलाए पभणिओ सो मज्झे भवगस्स तो गओ तत्थ । पुणरवि पुच्छइ एसो सा आह तइज्जयम्मि खणे ॥४॥ तत्थ वि य अपेच्छंतो पुच्छइ कविला वि भवणदाराणि । ढक्कित्तु उत्तरीयं मेल्लइ पल्लंकपज्जन्ते ॥४६॥ सविलास-सविन्भम-सरल-तरल-सकडक्ख चक्खुखेवेहिं । कब्बुरयंती पभणइ सुदंसणं महुरवयणेहिं ॥४७॥ न ह एत्थ (अस्थि] कविलो पडिजागरणं करेसु कविलाए । किं पडिजागरियव्वं कविलाए सुदंसणो भणइ ॥४॥ सा आह सुहय ! कविलेण साहिया जप्पभीइ तुझ गुणा । तप्पभीइ मयणबाणानलेहिं तत्ता तणू मज्झ॥४९॥ एत्तियकालं तुह संगमुस्सुया संठिया सुदुक्खेण । इम्हि तु नोह नियअंगसंगसलिलेण निव्ववसु ॥५०॥ तत्तो सुदंसणेणं सम्भावं जाणिऊण कविलाए । नियसीलरक्खदक्खेण तक्खणुप्पन्नबुद्धीए ॥५१॥ भणियं सविसाएणं सुयणु ! समीहेमि संगमं तुझ । किंतु नियदुकियकम्मेण निम्मिओ पंडओ अयं ॥५२॥ अलियकयपुरिसवेसो वसामि नयरीए तो विरत्ताए। 'उग्घाडिउं कवाडे झड ति नीसारिओ तीए ॥५३॥ संपत्तो नियभवणे सुदंसणो नियमणे विचिंतेइ । अहह ! अहो ! महिलाणं अकजकरणुज्जमो अहियं ॥५४॥ तहा हि-- न गणइ कुलाभिमाणं न य इहलोगं न यावि परलोगं । नियकुलकलंककारी नारी चल्लंतिया मारी ॥५॥ महिला अयसनिवासो कवड-कुहेडाण मंदिरं महिला । महिला नरयमहापुरपायडपयवी विणिहिट्ठा ॥५६॥ मुहमहरा परिणइदारुणा य दीसह मणोहरा महिला । किंपागफलसरिच्छा महिला मूलं अणत्थाणं ॥१७॥ कंदररहिया वग्धी विसूइया भोयणं विणा महिला |पंक विणा वि कलंको महिला वयणिज्जकुलभवणं ॥१८॥ महिला मोहवरहिया अरज्जयं बंधणं जए महिला । खणरत्त-खणविरत्ता हलिद्दरागोवमा महिला ॥५९॥ करिकन्नचवलचित्ता कयंतचित्तं व निग्घिणा महिला । महिला सच्चविरहिया अणभवज्जासणी महिला ॥६०॥ ता कहमिमीए छलिओ पावाए चिंतिऊण नियमेह । एगागी परगेहे न गमिस्सं जावजीवाए ॥६॥ तद्दियहाओ जाओ विसेसओ धम्मकम्मकयचित्तो । अह अन्नया कयाई इंदमहो आगओ तत्थ ॥६२॥ समुदसणो सकविलो सपरियणो सावरोहणो राया। नीहरिओ नयरीओ उज्जाणसिरिं समणहविडं ॥३॥ एत्तो य रायदइया अभया कविलाए संगया तइया । संचलिया उज्जाणे महरिहजपाणमारूढा ॥६४॥ दइया सुदंसणस्स वि परियरिया छहिं सुएहिं संचलिया । आरुहिय महाजाणं रणंतघंटारवविसिढें ॥६॥ दट्टण तयं कविलाए जंपियं देवि ! कहसु का एसा ? नियसोहापहसियतियससुंदरी पुत्तपरियरिया ॥६६॥ देवी तओ पयंपइ हला ! तए किं न याणिया एसा ? । सेट्टिसुदंसणदइया विक्खाया खोणिवीढम्मि ॥६७॥ कविला आह इमा जइ तव्भज्जा ता इमीए ने उन्नं । उप्पाइयाणि जं एत्तियाणि वरपुत्तभंडाःि ॥६॥ वजरइ तओ देवी किं ने उन्नं ? नियम्स दइयम्स । आसाइयमुरयाए अक्खयबीयाए जं पुत्ता ॥६९|| उल्लवइ तओ कविला संभवइ इमं परं इमीए पई । संढो ति तओ देवी भणइ कहं जाणिओ तुमए ? ॥७॥ विन्नासिओ इमेणं वुत्तंतेणं इमो मए सक्खं । हसिऊण भणइ अभया हलि ! डोडिणि ! मूढमइविहवे ! ॥७॥ वरकामसत्थविन्नाणविरहिया तेण रइवियड्डण । तं वंचिऊण चत्ता अवरं च इमं पि संभविही ॥७२॥ होही नपंसओ सो जावजीवं पि परकलत्ताण । निययकलत्ताण पुणो निच्चं चिय कुसुमबाणो व्व ॥७३॥ १ उग्धाडियं -२०। २. डोदिणि !-खं० । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकार सुदर्शनाख्यानकम् १४३ भणियं विलक्खवयणाए एरिसं पहसिऊण कविलाए । जइ कामसत्थदक्खा सि ता इमं तं पि कामेसु ॥७४॥ देवीए तओ भणियं किमत्थ चोज्जं ? करेमि अहमेयं । कविला वि भणइ मा कुण अइसयसोहम्गगारवयं ।।७।। पभणइ अभया सो कुणइ जम्स निययं समत्थि सामत्थं । जाणे तुह सामत्थं जइ रमसि इमं भणइ इयरा ||७६।। देवी वजरइ इमं जइ नो कामेमि रइवियटुं तं । ता पजलियहुयासे पविसिय पाणे परिचयामि ||७|| एवं विवयंतीओ ताओ गंतूण मणहरुज्जाणे । सुइरं रमिऊण तहिं पत्ताओ निययगेहेमु ॥७८॥ भणिया अभयाए तओ नियधाई पंडियाभिहा एवं । अम्मो ! अज्ज पइन्ना एवंरूवा मए विहिया ॥७९॥ ता तह जएसु जह होइ मज्झ सह तेण भत्ति संपत्ती । धाईए तओ भणियं न हु सुट टु कयं तए पुत्ति ! ॥८॥ जओ-- अवि चलइ कह वि कुम्मो खिसइ वराहो नमेइ फणिनाहीं । खडखडइ धरणिवीदं न वि चलइ सुदंसणो तह वि ।।८१॥ जम्हा स महासत्तो परमहिलासंगविहियविणिवित्ती । इह-परलोयविरुद्धं न कणइ सुविणे वि कइया वि ॥८२॥ आणित्तमुवायाणं लक्खेण वि सो न तोरए तम्हा । मन्नेमि तुह पइन्ना विहला वच्छे ! न संदेहो ||८३॥ देवीए पुणो भणियं जइ एवं तहवि एकवारं तं । आणेहि तओ पच्छा तेण सममहं भलिम्सामि ।।४।। तो पंडियाए भणियं जइ एवं तुज्झ निच्छओ वच्छे ! । ता अस्थि एत्थ एक्को पवरउवाओ जओ एसो ॥८५॥ पव्वदिवसेसु गंतुं सुन्नहर-मसाणपभिइठाणेसु । चिट्ठइ काउस्सग्गे आणिजउ ता तह ठिओ वि ॥८६॥ देवीए तओ भणियं उवलद्धो अंब ! सुंदर उवाओ। अह अन्नया पुरीए समागए कोमुईदिवसे ॥८७।। तो नरवइणा पडहो पुरीए घोसाविओ वरूजाणे । सव्वेण नयरिलोएण सव्वरिद्धीए गंतूण ||८८॥ पेच्छेयत्वो कोमुहमहूसवो तं सुदंसणो सोउ । चिंतइ एगत्थ महो चाउम्मासं अहऽन्नत्थ ॥८९॥ पेच्छामि कोमुइमहं जइ ता न हु होइ देवयापूया । अह धम्मभाणमहं करेमि तो रूसए राया ॥९॥ एगत्थ गयआणाभंगो अन्नत्थ धम्मझाणस्स । ता भमिरतुंबअरयाण अन्तरे अंगुली मज्झ ॥११॥ ता पुत्वं पि हु कीरउ कोइ उवाउ ति चिंतिऊण गओ । रायपुरो उवणेउं उवायणं भणिउमाढत्तो ॥९२।। देव ! इह कोमुइमहे दियहो अम्हाण धम्मकजाणं । तो जइ कुणइ पसायं सामी ता पूइमो देवे ॥१३॥ मा होउ देवयाणं पूयाविग्धं ति चिंतिऊण नियो । अणुमन्नइ तो सेट्ठी महापसायं पयंपेउ॥९४॥ गंतूण तओ सव्वे जिणेसरे पूइपओसम्मि । कयपोसहो ठिओ सो उम्सग्गे चच्चरे गंतुं ॥९॥ तो पंडियाए अभया भणिया तुह अज्ज वंछियं वच्छे ! | पुज्जिस्सइ नियमेणं मा गच्छसु मणहरुज्जाणे ॥१६॥ तो देव ! मझ सीस पीडइ इय उत्तरं नरिंदस्स । दाऊण संठिया सा गओ नरिंदो वरुज्जाणे ॥९७|| तो पंडियाए लिप्पमयमयणपडिमा पिहित्तु वत्थेहिं । जावाऽऽणिया निरुद्धा झड़ ति ता दारपालहिं ॥९॥ किं एयं ति तओ तेहिं पुच्छिए कहइ पंडिया तेसिं । नो उजाणम्मि गया सरीरकारणवसा देवी ॥१९॥ काही ता इहई चिय पूयं देवाण तो इहाणीया । मयरद्धयस्स पडिमा इण्हि अवरा वि आणिस्सं ॥१०॥ जइ एवं ता दंससु पयंपिए तेहिं दंसिया तीए । मुक्का तेहिं तओ सा एवं च दुइज्जवाराए ॥१०१॥ वेलाए तइजाए सुदंसणं छाइऊण वत्थेहिं । तत्थ पविट्ठा नहु तेहिं निब्बियप्पेहि पडिसिद्धा ॥१०२।। अभयाए महादेवीए अप्पिओ तीए सा तयं दट्टुं । लग्गा बहुप्पयारं सविन्भमं खोहिउं एवं ॥१०३॥ तथा हि पिययम ! महापसायं काऊणं कुण समीहियं मम । आणाविओ सि जम्हा तमेत्थ पडिमापवंचेण ॥१०४॥ तुहविरहविसमविसपरवसाई धुम्मति मज्झ अंगाई। निययालिंगणअमएण कुणसु ता नाह ! पउणाणि ॥१०॥ १. गच्छउ २०। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आख्यानकमणिकोशे परियाणियपरमत्यो मुदसणो नेय चलइ भाणाओ । अभयाओसग्गेहिं बहुपवर्णहिं सुरगिरि व्व ॥१०६॥ अणुरायरसियहिययं अहिणवजोव्वणमणोहरसरीरं । वरमुरयकरणदक्खं सुवियर्ल्ड पवररूवं च ॥१०॥ किं बहुणा अमराण वि दुल्लहलंमं ममं तए पत्तं । माणेसु मगभिवंछिय विसएहि सामि ! कयकरुणो ॥१०७॥ अवरं च दंसणं पि हु न मम पावंति राय-सूरा वि । तं पुण मए सयं चिय आणीओ ता ममं रमसु ॥१०९॥ तं नाह ! मए निसुओ दयालुओ सावओ त्ति ता पसिय । रममु ममं अह न रमसि मह मरणे तुझ थीवझा ॥११०॥ एवं वुत्तो वि न जाव किं पि जंपइ सुदंसणो ताव । कंकल्लिपल्लवारुणकरकमलेहिं परामुसइ ॥११॥ परिरंभइ अइगाढं मुणालमुकुमारदीहरभुयाहिं । चक्कलपीणघणत्थणजुयलेण निपीडिऊण उरं ॥११२॥ तह कह वि कामतवियाए तीए संताविओ महासत्तो । अवरो जहा विलिज्जइ अग्गी इव मयणपुत्तलओ ॥११३॥ सो हि हु महाणुभावो जह जह सा पाविया कुणइ विग्धं । तह तह वि सुथिरचित्तो धम्मझाणं समारहइ ॥११४॥ तथाहि-- अमुणियसुइसम्भावा कुडिला उकंचुया महाभोगा । जीव ! भुयंगि व्व इमा खंडइ तुह सिद्धिपुरमग्गं ॥११५।। अवरं च असुइ-वस-मंस-पूय-रुहिरेहिं पूरियसरीरा । एसा ता जीव ! तुमं इमीए मा रच्चसु खणं पि ॥११६॥ चिंतइ य जइ इमाओ उम्सज्गाओ कहं पि मुंचेजा । पारेमि तओ अह नो होइ इमं अणसणं मम ॥११७॥ ता बद्धभीमभिउडीए पभणियं रूसिऊण अभयाए । जइ सावेक्खो नियजीवियस्स ता कुणसु मह वयणं ॥११॥ इय जंपिओ वि एसो धम्मज्भाणं झियाइ दढचित्तो । निम्सेसं पि हु रयणिं कयत्थिओ तह वि नो खुहिओ ॥११९॥ नाउं पभायपायं तमम्सिणिं तयणु तीए पावाए । तिक्खनहरेहिं निययं वियारिडं थोरथणजुयलं ॥१२०॥ पोक्करियं तो धावह धावह एसो नरो दुरायारो । खंडइ बलिपंडाए, अखंडियं सीलरयणं मे ॥१२१॥ तं सो उद्धाया पाहरिया मुक्कहक्कहुंहारा । काउम्सग्गेण ठियं सुदंसणं तत्थ पेच्छंति ॥१२२॥ न ह एरिसम्स एरिसकम्मं संभवइ इय विचिंते। विनत्तं नरवइणो राया वि समागओ तत्थ ॥१२३॥ संपुच्छिया य देवी पिए ! किमयं ? ति सा वि विन्नवइ । देव ! अहं एत्थ ठिया सरीरकारणवसेण तओ ॥१२४॥ आगंतणं इमिणा पावेण कयत्थिया बहपयारं । निन्भच्छिओ य निट टरवयणेहिं इमो मए नाह ! ॥१२५|| मड्डाए मज्झ सीलम्स खंडणं जाव काउमारद्धो । ताव मए पोकरियं तं सोउचिंतए राया ॥१२६।। जइ कहवि अमयकिरणो किरइ कराले जलंतअंगारे । तह वि सुदंसणसेट्टी न कुणइ असमंजसं किं पि ॥१२॥ इय चिंति नरिंदेण सायरं पुच्छिओ किमेयं ? ति । देवीअणुकंपाए न कि पि सो कहइ मणयं पि ॥१२८॥ एवं पुणो पुणो वि य पुट्टो वि निवेण जंपइ न किं पि । संभाविज्जइ एयं पि मनितो नरिदेण ॥१२९।। सो वझो आणत्तो भणिपउराण दोसमेयस्स । सयलं पयारिऊणं तो वावायह दुरायारं ॥१३०॥ गहिऊण तओ आरक्खिएहिं रत्तंदणेण परिलित्तो । खित्ता सरावमाला गलम्मि मसिपुंडयं रइयं ॥१३१॥ विहिया य मुंडमाला सुरत्तकणवीरकुसुममालाहिं । आरोहियों य रासहपिट्टि सिरिधरियछित्तरओ ॥१३२॥ वजंतडिंडिमेणं पारद्धो भामिनयरिमझे । उग्घोसिज्जइ एयं रच्छामुह-तिय-चउक्केसु ॥१३३॥ निसुणंतु जणा अन्तेउरम्मि चुक्को सुदंसणो सेट्टी । तेण इमो मारिजइ नय अंवराहो नरिंदम्स ॥१३४॥ तं निसणि समग्गो परजणो मिलिय भणि उमाढत्ती । ह द्धी किमयमेयस्स आगयं सुद्धसीलम्स ? ॥१३५॥ जइ अमयं पि हु परिणमइ कहवि हालाहलम्सरूवेण । तहवि सुदंसणसेट्टी न कुणइ एयारिसमजुत्तं ॥१३६॥ एवं बहुप्पयारं साहुक्कारं जणाओ निसुणंतो । पेच्छंतो परजणं रुयमाणं थूलअंसूहि ॥१३७॥ संपत्तो नियमंदिरपओलिदारम्मि जाव ता दिहो। दइयामणोरमाए धसकियाए किमेयं ? ति ॥१३८॥ हा हा हयविहि ! विहियं मह पइणो कि तए अदोसम्स ? । संभाविजइ सुविणे वि जं न कइया वि एयस्स ॥१३९॥ १. चन्द्रसूर्यावपि । २. पविलित्तो -२०।३. आरोविश्रो-२० । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कारपरावर्तनफलाधिकारे सुदर्शनाख्यानकम् अकलंकस्स वि एयरस आगओ जमिह दारुणकलंको । तं नृणं पुश्वभवोवज्जियकम्मेण होयव्वं ॥१४०|| ता किं इमिणा अप्पत्थुपण ? चिंतेमि किं पि कायव्वं । आराहिजउ सासणदेवी जह कुणइ सन्नेझं ॥१४१॥ तो गंतूणं नियगिहपडिमं परिपूइऊण कुसुमेहि । विहिओ काउस्सग्गो भणि एयारिसं वयणं ॥१४२॥ आबालकालउ च्चिय जइ सीलं पालियं मए विमलं । ता आगंतुं सासणदेवी इह कुणउ सन्निझं ॥१४३।। अह न करिस्सइ [जइ] सा सन्निझं ता इमं न उम्सम्गं । पारेमि होउ एसो वि अणसणं मम उम्सम्गो ॥१४४॥ सेट्टी सुदंसणो वि य नायरनर-नारिनियरवज्जरियं । हाहारवं सुणंतो संपत्तो पेयवणभूमि ॥१४५॥ चिंतइ अदीणचित्तो जीव ! तए जं पुराकयं कम्मं । तं सैविवेओ वेयसु सम्मं सहिऊण उवसग्गे ॥१४६॥ रे जीव ! सुह-दुहेसुं निमित्तमत्तं परो जियाणं ति । सकयफलं भुंजतो कीस मुहा कुप्पसि परस्स ? ॥१४७॥ रे जीव ! कसायहुयासणेण दड्डे चरित्तघरसारे । भमिहिसि भवकंतारे दीणमुहो दुत्थिओ य तुमं ॥१४८॥ सच्चं चिय जइ मोक्खत्थमुज्जओ जिणसु ता कसायरिख । पञ्चक्खं पेच्छंतो कह कवे निवडसि निहीण ! ॥१४९।। अप्पविसुद्धिनिमित्तं किलम्मसे ता चएसु कोवरिखं । विमलत्तमहिलसंतो कह मज्जसि पंकिलजलम्मि ॥१५॥ एगस्स वि नियहिययस्स जीव ! विणिवारणे जइ न सत्ती । ता कह यारंभियभवमहारिविणियारणं तुझ ॥१५१।। सव्वो वि इह पसंतो पसंतजणमझसंठिओ होइ । सइकोवकारणे जो अकोवणो सो इह पसंतो ॥१५२।। जं खमसि दोसवंते सो तुह खंतीए होइ अवयासो। अह न खमसि को तुह अविसयाए खंतीए वावारो ॥१५३॥ एवं विचिंतमाणो आरक्खियभडयणेहिं सूलाए । आरोविओ सुनिट टुरगिराहिं निभच्छिउँ एसो ॥१५४॥ एत्थंतराम्म सूला सासणदेविप्पभावओ भग्गा । जायं च झत्ति दित्तं कंचणकमलासणं तस्स ॥१५॥ तयणंतरं च तेहिं कविएहिं सिरोहराए सेट्रिस्स । दिन्नो खम्गपहारो सो संजाओ कुसुममाला ॥१५६॥ दठूण तयं आरक्खिएहिं भयकंपिरेहिं नरवइणो । विन्नत्तं तो राया संभंतो आगओ तत्थ ॥१५७॥ खामित्तु बहुपयारं सुदंसणं भणइ भूवई भद्द ! । किं मह न तए कहिओ पुव्वं चिय रयणिवुत्तन्तो ? ॥१५८॥ आरोविउंसहत्थेहिं राइणा नियकरेणुखंधम्मि । नीओ य सबहुमाणं नियधवलहरे तओ सेट्टी ॥१५९॥ न्हाण-विलेवण-आभरण-वसण-वरभोयणाइसामग्गिं । काऊण तस्स पुच्छइ राया रयणीए वुत्तंतं ॥१६॥ तयणु सुदंसणसेट्टी मग्गइ अभयं तओ भणइ राया । किं भणसि अभयमेत्तं ? अवरं पि हु देमि तुह इ8 ॥१६॥ तो तेण समग्गो वि हु कहिओ रायस्स रयणिवुत्तंतो । तं नियुणिउ नरिंदो आरुट्ठो उवरि अभयाए ॥१६२॥ उवसामिऊण तत्तो चलणेसु विलम्गिऊण नरनाहं । तो आरूढो सिंधुरखंधम्मि सुदंसणो सेट्टी ॥१६३॥ बंदियणपढिज्जतो वजिरजयतूरपूरियदियंतो । नायरलोयपमोयं जणमाणो सुद्धसीलेण ॥१६॥ परिभमिऊणं नारं चच्चर-रच्छा-चउक्कसंकिन्नं । संपत्तो नियभवणे परियरिओ नायरजणेण ॥१६५।। तइंसणेण अम्मा-पियराणि पमोयपूरियंगाणि । जाया मणोरमा वि य हरिसियहियया पियं दटुं ॥१६६।। नाऊण तयं अभया भएण उबंधिऊण पंचत्तं । संपत्ता तद्धाई वि पंडिया नासिऊण गया ॥१६७॥ पाडलिपुत्ते नयरे ठिया सयासम्मि देवदत्ताए । अणुदिवसं पि सुदंसणगुणगहणं कुणइ तप्पुरओ ॥१६॥ तग्गुणसवणाओ तीए तम्मि जाओ परोक्खअणुराओ । सो वि सुदंसणसेट्टी पव्वइओ जायसंवेगो ॥१६९।। अहिगयसयलसुयत्थो कुणमाणो दुच्चरं तवच्चरणं । एकल्लविहारेणं विहरइ सो गुरुअणुन्नाओ ॥१७॥ विहरतो भूवीढे पाडलिपुत्तम्मि पुरवरे पत्तो। भिक्खं परिभमन्तो गिहे गओ देवदत्ताए ॥१७॥ कहियं च पंडियाए सामिणि ! एसो सुदंसणो सेट्ठी । तो पिहियकवाडाए तीए खोभेउमारद्धो ॥१७२॥ अन्भस्थिओ सपणयं मयणानलतावियाए गणियाए । परिहासपेसलेहिं वयणेहिं सविन्भमं साहू ॥१७३॥ किं बहुणा ? बाहुलयापरिरंभणपभिइकामकेलीहिं । .........""रमिओ वियालवेलाए ता मुक्को ॥१७४॥ १. सुविवेश्रो रं०। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आख्यानकमणिकोश तो गंतु उजाणे काउम्मग्गम्मि संटिओ साहू । अभयावंतरिणीए दट्टण कयस्थिओ अहियं ॥१७५॥ बहुविह उम्सग्गेहिं रक्खस-गुरुसीह-सप्पपभिइहि । जा सम्म अहिह्यासह अव्वकरणं तओ जायं ॥१७६।। विहिया य खवगसेढी संजायं विमलकेवलं नाणं । देवहिं कया केवलमहिमा गुरुभत्तिकलिएहिं ॥१७७॥ पारद्धा य सुदंसगरिसिणा सद्धम्मदेसणा तत्तो। पडिवुद्धा बंतरिणी सपंडिया देवदत्ता य ॥१७८|| अवरं पि भवियलोगं पडिबोहेउ सुदंसणमुणिदो । निट्टविय अहःकम्मो सासयसोक्खं समणुपत्तो ॥१७९॥ ॥ सुदर्शनाख्यानकं समाप्तम् ॥४३॥ जह एएसिं जाओ नवकारो सुगइसाहगो सम्मं ।। तह अन्नम्स वि जायइ ता जइयत्वं इमम्मि सया ।।१।। स्फूर्जकरीन्द्र-हरि-सङ्गर-कालकूट-व्याला-ऽनलादिभवभीमभयापहारी । स्वर्गा-ऽपवर्गसुखसाधनकल्पवृक्षः, क्षीणाशुभो जयति सत्परमेष्ठिमन्त्रः ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावास्यानकमणिकोशे नमस्कारफलवर्णनस्त्रयोदशोऽधिकारः समाप्तः ॥१३॥ [ १४. स्वाध्यायाधिकारः] व्याख्यातं नमस्कारफलम् । अयं च नमस्कारः परावय॑मानः स्वाध्यायो भवति अतः स्वाध्यायफलं व्याचिख्यासुराह वेरग्गकरो सन्नाणकारओ पावकम्मखयकारी । इहलोगे वि गुणकरो जवसाहुस्सेव सज्झाओ ॥१६॥ व्याख्या- 'वैराग्यकरः' भवनिर्वेदकारी 'सज्ज्ञानकारकः' सद्बोधविधायी 'पापकर्मक्षयकारी' ज्ञानावरणीयाद्यशुभमलापहर्ता 'इहलोकेऽपि' आस्तां तावः परभवे 'गुणकरः' गुणकारकः । दृष्टान्तमाह-जवसाधोरिच 'स्वाध्यायः' वाचनादिरूप इत्यक्षरार्थः।।१९।। भावार्थस्त्वाख्यानकादवसेयः । तच्चेदम् जवउरनयरे राया जवाभिहो धारिणी पिया तस्स । गदहनामो पुत्तो धूया य अणोलिया ताण ॥१॥ मंती वि दीहपिट्टो सिटुं नेमित्तिएण निव ! तुज्झ । धूयं जो परिणेही होही रायाहिराओ सो ॥२॥ अह अन्नया य निउणाभिहाणपूरी विसिट्टचउनाणी । विहरंतो संपत्तो समोसढो जवयउजाणे ॥३॥ महरिहरिद्धीए जवो वि नरवई मुणिवरिंदनमणत्थं । गंतुं गुरुणो पणमिय कयंजली तत्थ उबविट्ठो ॥४॥ तो एगते पुढे निवेण भयवं ! अणोलियाए पई । होही को ? तो सूरी पयंपए तुज्झ भइणिसुओ ॥५॥ भद्दलओ तयणु निवो पयंपए तस्स देवि रजसिरिं । पव्वजामि अहं तो पयंपियं मुणिवरिंदेण ॥६॥ गद्दकुमरस्सिन्हि रज्जसिरी तवसिरी पुणो तुज्झ । जुज्जइ एयं सोउं नरेसरो पणमिऊण गुरुं ॥७॥ गंतुं भवणे गद्दहकुमारमहिसिंचिउ निययरज्जे । गद्दहमणोलियं पि हु भलाविउदीहपिट्टम्स ॥८॥ निक्खंतो नरनाहो विहरइ गुरुणा समं समाहीए । वुड्डत्तेण न जाओ पाढो ता कुणइ सज्झायं ॥९॥ अह अन्नया य नाणेण गद्दहाईण नाउमुवयारं । एगागी विहु गुरुणा जवरायरिसी विमुद्धमणो ॥१०॥ वंदावणाय सन्नाइयाण पट्टाविओ तओ सो वि । आगच्छद जाव पहे इरियासमियाए संजुत्तो ॥१२॥ ता पेच्छइ जवछित्ते पविसंतं गद्दहं चरणलोलं । हक्कित्तु आरहट्टियनरेण निमुणइ पढिज्जंतं ॥१२॥ १. देमि रं। Jain Education Interational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ १४. स्वाध्यायाधिकार यवाख्यानकम् अवघससि घससि धुत्ता ! ममं चेव निरक्वसि । लक्खिओ ते मए भावो जनं पेच्छसि गद्दहा ! ॥१३॥ तो सिक्खिरं तयं जाव जाइ परिवत्तयं पुणो मग्गे । ता उन्नइयाकीलापरवसे पेच्छइ कुमारे ॥१४॥ ताणेकेणं कणियाए पहणिया उन्नई समुल्ललिउं । कत्थइ बिलम्मि पडिया न य दिट्टा तेहिं तो पढियं ॥१५॥ इयो गया इओ गया जोइज्जन्ती न दीसए । वयं एवं वियाणामो अगडे पडिया अणोलिया ॥१६॥ तं पि हु सिक्खिय उग्घोसमाणओ जवपुरम्मि संपत्तो । अगुजाणाविय सालाए संठिओ कुंभयारम्स ॥१७॥ रयणीए उल्लभंडाणि छिंडिजाइ मूसओ भीओ। तो अगुकंपाजुत्तेण कुंभयारेणिमं पढियं ॥१८॥ सुकमालय ! भद्दुलया ! रतिं हिंडणसीलया ! । मम सयासाओ नत्थि ते भयं दीहपिट्टाओ ते भयं ॥१९॥ सिक्खेउतं पि मुणी गुणइ तओ ताणि तिन्नि वि पसंतो । एत्तो य बालरजं नाऊणं दीहपिट्टेण ॥२०॥ नेमित्तियसिटुं पि हु जमऽणोलियकन्नयापई होही। रायाहिबई तं चिय विचिन्तिउं तेण पावेण ॥२१॥ हरि कुमरी भूमीहरम्मि खित्ता तहेव सामंता । केत्तियमेत्ता वि हु तेण भेइया दविणजाएण ।।२२।। नाओ य जवमुणिंदो समागओ ता न सुंदरं एसो । महविलसियं मुणिम्सइ ता मारिजउ उवाएण ||२३|| इय चिंतिऊण गद्दहनरेसरं भणइ देव ! तुह जणओ। तिब्बतव-चरणभग्गो समागओ गिहिही रजं ॥२४॥ सामंता वि हु सव्वे वि भेइया तं पुणो मुणसि तइया । रज्जं जया गहिम्सइ ता तेणुत्तं कहसु जुत्तं ॥२५|| पभणइ य दीहपिट्ठो नीईसु वि जंपियं हरइ रजं । जो बप्पो वि स सप्पो व्व मरणमरिहइ महाराय ! ।।२६।। न जहा जणाववाओ जायइ तह सिग्यमेव गंतुणं । तं वावायसु इय जंपिऊण कहिओ कुलालगिहे | | राया विहिओ एसो ति चिंतिउंजणयमारणनिमित्तं । अंधारपडं पावरिय करयले कलिय करवालं ॥२८॥ सद्धि भद्दलएणं गंतुं सो जाव हेरिउलग्गो । ताव पढंतं निसुणइ जणयं अवघससि इच्चाइ ।।२९।। तं सोनरनाहो चिंतइ ताएण जाणिओ अयं । नाणेण अणोलियमवि नाही इय चिंतयंतस्स ॥३०॥ तस्स तओ पुण मुणिणा पढियं तमिओ गय त्ति इच्चाइ । तं सोनरनाहो चिंतइ पावेण मह भइणी ॥३१॥ छुढा अयडे केणावि तो भयं तस्स पासओ मज्झ । तं पि हु ताओ नाही तो पढियं साहुणा एयं ॥३२॥ सुकुमालय इच्चाई तं सोउं चिंतए निवो मज्झ । मंतिसयासाओ भयं कहियं ताएण नाणेण ॥३३॥ ता मह भइणी विहु तेण गिण्डिया नियमओ जओ ताओ। चिंतियमेत्तं पि हु कहइ मज्भ इय चिंति राया ॥३४॥ गंतुं भवणे नियबलभरेण धरिऊण झत्ति तं मंतिं । जाव निहालइ भूमीहराइं ता पाविया भइणी ॥३५॥ तो पुट्टाए सिट्ट तीए जहा अहमणेण अवहरिया । रु?णं रन्ना वि हु सरोसमणुसोसिओ मंती ॥३६॥ जाए पभायसमए सबलो राया गओ मुणिसमावे । पणमेउवविट्ठो मुणिणा वि हु निययसत्तीए ॥३७|| कहिया सद्धम्मकहा तो नरनाहो विलम्गिय कमेसु । जंपइ किह मह मोक्खो होही एयस्स पावस्स ? ॥३८॥ जंपइ साहू पावं नासइ सव्वं पि साहुदिक्खाए । एयं पि करिम्सामि त्ति जंपिउ उट्टिओ राया ॥३९॥ गंतुं भवणम्मि तओ भइणि परिणाविऊण भद्दलओ। अहिसित्तो नियरज्जे सयं पुणो सह सजणणीए ॥४०॥ पत्तो जणयसयासे तेण वि गंतूण गुरुसमीवम्मि । फव्वाविओ तओ ते सव्वे वि कुणंति तवचरणं ॥४१॥ मरिऊण समुप्पन्ना अमरा विप्फुरियतणुपहापडला । सिझिस्संति विदेहे उववज्जिय विजियकम्मभडा ॥४२॥ स-परोभयगुणहेऊ सञ्झाओ जह जवस्स नरवइणो । जाओ तह अन्नस्स वि जायइ इहई च भणियं च ॥४३॥ अट्टमट्ट पि सिक्खिज्जा सिक्खियं न निरत्थयं । अट्टमट्टप्पसाएणं जीवियं परिरक्खियं ॥४४॥ ॥यवाख्यानकं समाप्तम् ॥४४॥ स्वाध्यायकर्म कृतिनां कृतसिद्धिशर्म, सद्धर्मसाधनमपाकृतपापकर्म । सज्ज्ञानकारणमकारणबन्धुमेतद् , दुानसिन्धुरसितांकुशमाश्रयध्वम् ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे स्वाध्यायफलप्रतिपादकश्चतुर्दशाधिकारः समाप्तः ॥१४॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५. नियमविधानफलाधिकारः] उक्तः स्वाध्यायाधिकारः । साम्प्रतं पूर्वोक्तगुणयुक्तेन नियमेन विना न स्थातव्यमिति नियमविधानफलमाह थेवो वि कओ नियमो महाफलो होइ निच्छियमणाण । दामन-भणी-चंडचूड-गिरि-रायहंस व्व ॥२०॥ व्याख्या--'स्तोकोऽपि' स्वल्पोऽपि आस्तां बहुरित्यपिशव्दार्थः 'कृतः' विहितः 'नियमः' अभिग्रह विशेषः 'महाफलः' . बृहद्गुणः भवति' जायते 'निश्चितमनसां' दृढचित्तानाम् । दृष्टान्तानाह-दामन्नकश्च मत्सबन्धकजीवः ब्राह्मणी च-विप्रवधूः चण्डचूडश्चतथाविधकुलपुत्रकः गिरिश्च-डुम्बः राजहंसश्च-कुन्दकर्मकरजीवः दामन्नक-ब्राह्मणी-चण्डचूड-गिरि-राजहंसाः तद्वदित्यक्ष भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र तावद् दामनकाख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् कत्थवि य सन्निवेसे निवसइ पयइप्पसंतयाकलिओ। एगो धीवरपुरिसो अहऽन्नया सरयपज्जन्ते ॥१॥ सरयम्मि सप्पयावं सस्ससमिद्धं खलो व्य जडपयई । हेमंतो कलिराओ व्व याहि भुवणमवयरिओ ॥२॥ निब्वायगिहल्लीणं बहुवसणं फुरणतेयगमरहियं । जड्डुज्जरपवहियं विहियमणजेण जयमिहि ॥३॥ सच्चाई सुद्धिजणयाई तावहरणाई सउणसहियाई। सुयगकुलाईव सराई भट्टकमलाई विहियाई ।।४।। उव्वेयकराओ तमोजुयाओ सम्मग्गगमणखलणीओ । रयणीओ रंडाओ व्व जम्मि विद्धिं पवन्नाओ ॥५॥ सद्धम्मकम्मविहिहेउणो वि सम्मम्गपयडणपरा वि । सप्पु रिसा इव दिवसा पावेगं पाविया हाणि ॥६॥ बहुधण-धन्नक्खयकारयम्मि किर किं कहिज्जए अवरं ? । परिहरिऊणऽमयकरं दहणो सेविजए जम्मि ।।७।। सुपवित्तं सरसं पि हु हिमेण विच्छाइयं सरोयवणं । गुणवंता वि हु कलिणा विच्छाइज्जति सप्पु रिसा ॥८॥ फलरहिया सुमणसवज्जिया य साहारपभिइणोतरुगो । कंदो उग विडवो जम्मि कपुमिओ हसइ वगराई ।।९।। सूरो वि दरिद्दियमाणवो व्व खत्थो पयावधणरहिओ। जम्मि जडासयकमलंतरेसु परिभमइ खिवियकरो ॥१०॥ परमेगो तम्मि गुणो सिणेहसारम्मि जायइ जमेगा । मित्तोदयम्मि पायं परमाहारे रुई अहियं ॥११॥ चइऊण सुरससीयलसिरिखंडाईणि जम्मि सेवंति । संतावकर कारीसजलणजायं जडत्तहया ।।१२।। मोत्तुणं गुणवन्तं मणोहरं वित्तवं पवरहारं । वन्नति जम्मि रल्लय-तेल्लप्पमुहं अहममहमा ।।१३।। एवंविहहेमंते संते सो धीवरो पुराभिहिओ। मच्छयगहणनिमित्त जालकरो निग्गओ गेहा ॥१४॥ गंतुं तरंगिणीए घेत्तूणं मच्छए पडिनियत्तो । संझाए नियइ साहुं उम्सग्गठियं नईतीरे ॥१५॥ पहणिज्जंतं हिमकणविमिस्सअइसिसिरपवणपूरेण । तो तेणं करुणाए जालेणावेढिओ साहू ॥१६॥ अह नियगिहम्मि पत्तो सुत्तो काउंपलालसत्थरयं । सावच्चाए सह पिययमाए कंथिक्कपावरणो ॥१७॥ का पच्चासन्ने हुयासणं पज्जलंतगुरुजालं । तह वि हु पीडिज्जंतो सीएण न पावए निदं ॥१८॥ अहमेत्थ पियापरिरंभिओ वि सेवियसिही वि गिहमञ्झे । कंथापावरणो वि हु कंपामि सतुहिणपवणेण ॥१९॥ सो उण महाणुभावो मुणी कहं होहिई निरावरणो । अइदुसह-हियाहोडयहिमकणसम्भिस्ससीएण ॥२०॥ इय एवं चिंतंतस्स तस्स जाया निसा गयप्पाया । तो सो समुट्टिऊणं गओ तह च्चिय मुणिं नियइ ॥२१॥ तो भत्तिपगरिसुभिन्नपुलयपरिपूरिएण तेण मुणी । पणओ पयपंकयमिलियभालव?ण सप्पणयं ।।२२।। एत्थंतरम्मि भुवणस्स जडिममवणेउमिच्छमाणेण । उइयं पुवदिसाए विउसेण व उण्हकिरणेण ॥२३॥ मुणिणा वि. पारिऊणं उस्सगं तस्स देसणा विहिया । भो भद्द ! पावमूलं परिहर पाणिवहमेयं ति ॥२४॥ जओ भणियं हंतण परप्पाणे अप्पाणं जो करेड़ सप्पाणं | अप्पाणं दियहाणं करण नासेइ अप्पाणं ॥२५॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधान फलाधिकारे दामन्नकाख्यानकम् ¿ एकस खणं तित्ती अन्नरस य तिहुयणं पि अत्थमइ । एवंकह मारिज्जर खणसोक्खकरण पाणिगणो ? ॥ २६ ॥ एक्कसरीरस्स कए सरुयम्स असासयस्स तुच्छस्स । जे मारयंति जीवे ताणं किं सासओ अप्पा ? ॥२७॥ इय मुणित्रयणं सोउं पाणिवहं अत्तणो अणत्थफलं । सो जंपड़ भयभीओ देसु महं पाणिवहनियमं ॥ २८ ॥ भणिओ मुणिणा परिभाविऊण गिन्हसु पयंपए सो वि । किं मज्झ कोइ काही नियनियमे निच्छयपरस्स ? ॥२९॥ दिन्नो य साहुणा से नियमो तेणावि तोडियं जालं । एमेव गओ गेहे भणिओ भज्जाए बीयदि ॥ ३० ॥ किं न हु गच्छसि मच्छयनिमित्तमह तेण अविखओ नियमो । तं सोउं सा कुविया गुरुसदं कलहियं लग्गा ॥ ३१ ॥ मिलिओ य मच्छियाणं सच्वो वि हु पाडओ भणइ एवं । न हु जीवदयाधम्म अम्हाणं निम्मिओ विहिणा ||३२|| इय जंपिऊण नीओ इयरेहिं तरंगिणीए मड्डाए । घल्लाविओ य जालं जरुम्मि भरियं च मच्छाणं ||३३|| मुक्का करुणारसिएण तेण सव्वे विमुच्चमाणाणं । भग्गा एगस्स परं पंखुडिया तंतुसंगेणं ॥ ३४ ॥ एवं जालियपुरिसेहिं मड्डया मच्छसंगहं एसो । कारविओ वारदुगं मुक्का ते तेण तह चेव ||३५|| तप्परओ परिपालय नियमं अह आउयक्खए जाए। जीवदयापरिणाम। बद्धं मणुयाउयं तेण ॥ ३६॥ रायगि सिट्टिओ जाओ दामन्नगो के नामं । अट्टवरिसम्स मारीए मारियं तम्स य कुटुंबं ||३७|| नायरजणेण मारीसंचरण भएण तस्स भवणस्स | चाउद्दिसं पि विहिया वाडी बहुकंटयभरेण ॥ ३८ ॥ सो पुण जीवदयावससंजायपकिट्ट पुन्नभावेण । जीवंतो नीहरिओ सणि यं कयवाडिदारेण ||३९|| भुंजतो भिक्खन्नं तहा सुयंतो य सुन्नहट्टेमुं । वच्च विद्धिं अह अन्नया य सिसिरम्मि संपत्ते ||४०|| पावरणचिहूणो सो सिसिरानिलकंपमाणसावंगो । दिट्टो समुद्ददत्तेण सेट्टिणा जायकरुणेण ॥४१॥ नियमंदिरम्मि नीओ भोयणपाचरणपभिइ सवं पि । संपाडिऊग विहिओ कम्मयरो नियगिहे चेव ॥४२॥ अह अन्नदि मुणिणो समागया दोन्नि विहरणनिमित्तं । दट्टु दामन्नगमेगसाहुणा जंपियं ताण ॥ ४३ ॥ एसो इमस्स भवणस्स नायगो होहिही न संदेहो । निसुयं कुडुंतरिएण सेट्टिणा साहुणो वयणं ॥ ४४॥ चितय मइ जियंते मज्झ सुए वा कहं इमो होही । मह भचणवई ? अहवा न अन्नहा होइ मुणिभणियं ॥ ४५ ॥ ताकेणावि उवाएण एस मारिज्जउत्ति चिंतेउं । वाहरिय पुत्र्वपरिचियचंडालं भगइ उवपरिडं ||४६ ॥ रे रे ! इमं विणाससु जह कोइ न याणए तओ तेण । सह सेट्टिणा पवंचो रइओ अह अन्नदिवसम्मि || ४७|| विवणी वच्चतं चंडाल हक्किउ भणइ सेट्टी । रे ! मज्झ देहि दम्मे तं सोउं भणइ मायंगो ॥ ४८ ॥ इह चि संपेस नियपुरिसं कंपि मज्झ गेहम्मि । दम्मे जम्स समप्पेमि तयणु पट्टावए सेट्टी ॥ ४९ ॥ दामन्नगमेव तओ मायंगेणं कयप्पवचेण । मायंगवाडयाओ वि दूरदेसम्मि सो नीओ ॥ ५० ॥ तो तव्वहणनिमित्तं कालनिसाचूलय व्व अइयंका । जमजीह व्व सुभीमा कालसरूवा भुयंग व्व ॥ ५१ ॥ आयडिया कराला किवाणिया तडिलय व्व दुप्पेच्छा । तो पुत्र्वभवसमज्जियजीवदया सुकयकम्मेण ॥५२॥ मायंगणे करुणा जाया जह किं विणा सिएणिमिणा ? । भणिओ य सो तुममहो हणाविआ सेट्टिगा आसि ॥ ५३ ॥ ता वच्च दूरदे से नामं पि न नज्जए जहां भद्द ! । अहयं तु तस्स पच्चयनिमित्त लेसंगुलिं तुज्झ ॥ ५४ ॥ छिंदेउ' दंसिस्सामि एवमायन्निङ वराओ सो । मरणमहाभयकंपिरगत्तो दीणस्सरं भइ || ५५ || मंच ममं जीवंतं महापसाएण तयणु नीएण । छेत्तूण अंगुली से समप्पिया सेट्टिणो गंतुं ॥ ५६ ॥ तं दट्टु, संतुट्ठो सेट्टी दमन्नगो वि नासंतो । तस्सेव गोउलम्मी संपत्तो संठिओ य तहिं ॥ ५७॥ सो तत्थ भयविमुको गोउलवणो गिहम्मि परिवसइ । रक्खइ दक्खत्तणओ तग्गोडलवच्छरुवाणि ॥ ५८ ॥ सेट्टी विहु तत्थ गओ गोउलसाराकए तमायंतं । गोरसपुट्टावयवं पेच्छिय दामन्नगो भीओ ॥ ५९ ॥ सासंक माणसेणं अंगुलिछेएण पञ्चभिन्नाओ । चितियमिमिणा नृणं मुणिवयणं नऽन्नहा होही ॥ ६० ॥ १. मुणिवयणं रं० । For Private Personal Use Only १४९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे बलियं दहवं जइ वि हु तह वि पयट्टेमि पोरिसं ताव । पोरिसविहवा जम्हा दइवं पिछलंति सप्परिसा ॥६॥ परिभाविऊणमेयं भणिओ दामनओ मह मुयस्स । लेहमिमं वच्छ ! तुमं गंतुं सिग्धं समप्पेसु ॥६२।। सो वि विणीयत्तणओ पडिवज्जिय तं गओ तुरियगमणो । पत्तो य परिस्संतो पुरपरिसरबाहिरुजाणे ॥६३|| निद्दापरब्यसो तरुतलम्मि जा सुयइ ताव सेट्टिसुया । कोलंती संपत्ता तम्मि पएसे विसा नाम ॥६४॥ दिट्टो य तीए लेहो निदाए निन्भरं सुयंतस्स । निययसहोयरनामेण लंछिओ तस्स पासम्मि ॥६५॥ थीचावलभावाओ छोडेउं वाइओ तयत्यो य । एसो एयम्स विसं दायव्वमधोयपायस्स ॥६६॥ चिंतियमिमीए तायस्स किमवरद्धं सुदूरमेएण । काराविओ जमेवं दंडो मह भायपासाओ ? ॥६७॥ अहवा विहु मज्झ पिया संपयमहियं जराभिभूयतणू । मइ-मुइवियलो अन्नं मणम्मि अन्नं कुणइ कजं ॥६८॥ चिंताउरो य जम्हा अहमेव य पढमजोव्वणाभिमुहा । अड्डायतिरिच्छा विव भमामि जणयस्स जमिहत्तं ॥६९॥ जायंति य दीणिम जणंति जोव्वणि संपत्तिय, चिंतासायरि खिवहिं तवहिं परमंदिरि जंतिय । पियपरिचत्त अहंतपुत्त मणु तावहिं जणयहं, जम्मदिणि च्चिय नयणनीरू ति दिज्जइ तणयहं ॥७०॥ अहवा विह किमणेणं वियप्पजालेण रुच्चइ जमेसो। .................................... ॥१॥ इय चितिगमच्छीए कज्जलं सहरिसाए घेत्तणं । विससदस्स विणीओ नहसुत्तीए अणुस्सारो ॥७२॥ विहिओ य दीहभावो सरम्स संवत्तिऊण तह चेव । लेहो मुक्को तुरियं काऊणमिमं गया सगिहं ॥७३॥ दामन्नगो वि निद्दाखयम्मि बुद्धो गिहम्मि गंतूण । सागरदत्तस्स पुरो पक्खिबइ करेण तं लेहं ।।७४॥ घेत्तूण करे सीसेण बंदि जाव वायए लेहं । ता विनायतयत्थो मणम्मि परिभावइ मुहुत्त ॥७५|| एयस्स विसा ताएण दाविया सिग्घमेस लेहत्थो। कायचमिणं नवरं जोइसियं ताव पुच्छामि ॥७६॥ जा पुच्छइ ता तेण वि वुत्तं सुभमज्जमड्ढरत्तम्मि । लग्गं पुरओ सुद्धी वरिसद्गेणं मह मईए ॥७॥ सागरदत्तो वि हु सुणि उमरिसं नियमणे विचितेइ । नृणमिमं मह जणओ नाऊगमकारविंसु दुयं ॥७॥ तो तेण पमोएणं पमाणयंतेण निययपिउवयणं । गंधव्दविवाहेणं दुन्नि वि वीवाहियाणि लहुं ॥७९|| सेट्टी जावाऽऽगच्छइ पभायसमयम्मि ताणि तो नियइ । निवसियवलक्खवत्थाणि रुइरनवकंकणकराणि ॥८॥ पुच्छइ किमेयमह तस्स दंसिओ तस्सुएण सो लेहो । जा वायइ ता पेच्छइ तहेव लेहत्थमच्चत्थं ॥८॥ चिंतियं च तेण केसरिं वारि सक्का, वारणं वा वि भीसणं । नालं बुद्धिसमिद्धा वि वारिउ भवियव्वयं ॥२॥ किं च अवि चलइ मेरुचूला, गयणाओ दिणमणी वि निवडेजा । न हु मुणिवयणं भुवणम्मि अन्नहा होइ कइया वि॥८॥ ता किं अज्ज वि जामाउयस्स चिंतेमि मारणोवायं । परमेव कए कटुं वच्छा कह होहिइ वराई ? ॥८४॥ परमेयं न मणम्मि वि धरियव्वं नीयमणुसरंतेहिं । भणियमिणं नीइविसारएहिं वयणं जमेत्थत्थे ॥८॥ त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।८६॥ इय चिंतिऊण वुत्तं नवपरिणीयं बहू-वरं वच्छ ! । कुलदेवयाए पाएमु पाडियं किं न वऽज वि य ? |७|| पुत्तो पभणइ नऽज वि सेट्टी पुण भणइ अम्ह कुलमग्गो । ता संपयमवि वच्चउ संझासमयम्मि सुमुहत्ते ॥८॥ इय भणि भेसविओ मायंगो रे ! तयं तए तइया । तह चेव कयं ? किं वा किं पि हु कावाइयं विहियं? ॥९॥ सो भयभीओ जा किं पिन भणई ताव सेट्टिणा भणियं । संपयमवि मह वुत्तं करेसु तुह नऽन्नहा मोक्खो ॥१०॥ मा कुप्प सामि ! जं भणसि संपयं तमहमायरिम्सामि । जइ एवं ता जो चंडियाए भवणम्मि संझाए ॥९॥ १. तमिह० २० । . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधानफलाधिकारे ब्राह्मण्याख्यानकम् १५१ आगच्छद प्रयत्थं पुरिसो तं सव्वहा विणासेसु । मा पुव्वं व पमायं काहिसि तुममेस सिक्खविओ ॥१२॥ दामन्नगो वि सह पिययमाए जा जाइ जाणमारूढो । ता सायरदत्तेणं भणिओ तं पत्थिओं कत्थ ? ॥१३॥ तेण वि कजम्मि निवेइयम्मि बुत्तं तमेत्थ हट्टम्मि । उचविससु ससं कुलदेवयाए पाएसु पाडेउं ॥१४॥ जावाऽऽगच्छामि तहा कयम्मि जा जाइ ताव तमसम्मि । विद्धो बाणणं तेण झत्ति मुको य जीएणं ॥९॥ हाहारवो य जाओ सिद्धं कजं ति जाइ जा सेट्टी । ता दामन्नगमेसो पेच्छइ हट्टम्मि उवविढें ॥९६।। तं किं न गओ ? भणियं च तेण एत्थेव चिट्टयु तुमं ति । मं मोत्तुं तुह पुत्तो बला गओ किं करेमि अहं ? ॥९७|| खुहियमणो जा चिट्ठइ सेट्टी सिटुं च ताव केणावि । नाउं परंपराए सेट्टिसुओ हा ! विणट्टो त्ति ॥९८॥ पुणरवि एस जियंतो पावो माराविही अपावमिमं । इय कलिव स सेट्टी को सहस त्ति पाणेहिं ॥९९॥ नाऊण वइयरमिमं रन्ना पुढे वउप्पए कोइ । नत्थि त्ति देव ! नवरं चिट्टइ जोमाउगो लगो ॥१००॥ . आगच्छउ सो पेच्छामि ताव पत्तो य निवसयासम्मि । दिट्टो रन्ना पुग्विल्लपुन्नपयरिसपवित्तंगो ॥१०१।। चिंतियमिमिणा मा होउ मज्झ एसो जणम्मि अववाओ। रन्नो गिहे पवि, समुद्ददत्तस्स सव्वस्सं ॥१०२॥ जइ वि हु एसो जामाउगो त्ति जोग्गो न गेहसामित्ते । तह वि मए दिन्नमिमस्स चेव सव्वं पि सव्वस्सं ॥१०३॥ तत्तो रन्ना दामन्नगस्स नायरयलोयपच्चक्खं । दिन्नं रंजियमणसा सव्वं पि समुद्ददत्तपयं ॥१०४॥ तो दामन्नगसेट्टी संजाओ नायराण गोरव्यो ।सव्वत्थ चक्खुभूओ जाओ य असेसनयरम्स ॥१०॥ अह कइया वि विसाए परुढपणयाए साहियं तम्स । लेहम्स बिंदफुसणाइ सव्वमेयं मए विहियं ॥१०६॥ ते पिययम ! तुह पाणे तया मए रक्खियाऽणुरत्ताए। तेग वि परितुट्टणं ठविया सव्वस्स सामित्ते ॥ १०७ ।। अह कइया वि हु चिरपेसियाणि जलहिम्मि जाणवत्ताणि । पत्ताणि ताणि पुन्नपभावओ तस्स सव्वाणि ॥१०८॥ वद्धाविओ य सेट्टी जा गच्छइ ताव अंतरालम्मि । नच्चंतेण नडेणं' परिपढियं रंगमूमीए ॥१०९॥ अणुपुंखमावहता वि अणत्था तस्स बहुफला हुंति । सुह-दुक्खकच्छपुडओ जस्स कयंतो वहइ पक्खं ॥११०॥ नियचरियसुमरणेणं रंजियहियएण तेण से दिन्नी । एगी लक्खो दविणम्स पाढिपुणरवि तमेव ॥१११।। पुणरवि दिन्नो लक्खो पुणरवि पढियम्मि तइयओ दिन्नो । जा दिन्नं लक्खतिगं रन्ना रुटेण तो भणिओ ॥११२॥ रे निभग्गय ववहरसि किह णु पाएहि छड्डिएहिं तुमं । मह् पासाओ लद्ध रिद्धिमिमं जं विणासिहिसि ॥११३।। भणियं च तेण जाणामि देव ! वणियाणमणुचियं एयं । कजेण जेण विहियं तस्स तुमं सुणसु परमत्थं ॥११४॥ मह सुमरावियमिमिणा चरियं तो तोसओ मए दिन्नं । इय नाऊणं देवो जं जाणइ तं कुणउ मज्झ ॥११॥ पुढे नियवुत्तंतो कहिओ दामन्नगेण सब्बो वि । सुणिऊण तयमसेसं रंजियहियएण रन्ना वि ॥११६॥ परिपूइऊण महरिहवत्थालंकारपभिइणा भणिओ। वियरसु भद्द ! जहिच्छं गोरव्वो मज्झ तुममिहिं ॥११७|| इय सो जणाणुरायप्पुव्वगममरोव मणुयोक्खं । भुंजिय सग्गसमिद्धिं पत्तो कमसो य सिद्धि च ॥११८॥ ॥ दामनकाख्यानकं समाप्तम् ॥४५॥ इदानी ब्राह्मण्याख्यानकमारभ्यते। तश्चेदम् उज्जेणीए पुरीए वणिणो निवसति तिन्नि जिणभत्ता । वणिजन्नदत्त-सिरिविण्हुमित्त-जिणदासनामाणो ।।१।। धूयाओ ताण जयसिरि-विजयसिरीओऽवराइया अवरा । अन्ना वि हु ताण सही वसुमित्ता माहणम्स सुया ॥१॥ अवरोप्परं च वढतपीइपरिहासहरियहिययाण । अइकमइ ताण कालो अहऽन्नया माहणम्स मुया ॥३॥ आसाढचउम्मासयपभायसमए समीवमियराण । संपत्ता ताओ वि हु एव समुल्लविउमाढत्ता ॥४॥ १. पदियमिणं रंग -२० । २. पाढियं-२० । ३. लक्खो तहेव पदि० २०। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आख्यानकमणिकोशे पियसहि ! न रमिस्सामो अम्हे जेण धम्मदिवसमिणं । जिणपूयं काऊणं बंदिस्सामा सुसमणीओ ||५|| ता गच्छ तं सगेहे पपिए तयणु भणड़ वसुमित्ता । आगच्छिम्समहं पि हु तो ताओ भणंति को दोसो १ ॥ ६ ॥ तो चत्तारि वि जिणमंदिरम्मि गंतुं जिणिदचिंचाण । न्हविय विलेविय पूइय पणमिय संथविय भत्तीए ||७|| पत्ताय साहुणी सन्नेज्झे पणमिउं समुचविट्टा | विहिया य देखणा साहुणीए तो सांवयसुयाओ ॥८॥ अंगीकरंति तिन्नि वि सावयधम्मं दुवालसविहं पि । वसुमित्ता वि हु अजाण पणमि एवमुल्लवइ ||९|| मंस-निसिभोयणारं अहमवि नियमेमि तीए परिणामं । नाउ दिन्नो नियमो सा वि हु तं पालए सम्मं ॥ १० ॥ अह अन्नयाय वद्धणपुराओ ससुरेण आणयणकज्जा । पट्टाविओ नरो सा वि ताओ आउच्छिऊण गया ॥ ११ ॥ न कुणइ नियनियमाणं भंगं तो जंपिया ससुरएण । निसिभोयण-मंसाई अम्ह कमो तीए तो वृत्तं ॥ १२ ॥ दिवसस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तंद्धि विज्ञानीहि, न नक्तं निशिभोजने ||१३|| अवरं च राहभत्तं जइ भणियं किन्न कीरए ताय ? । तीए पिंडपयाणं तम्हा न हु होइ निद्दोसं ||१४ ॥ मंसं पि हु पंचिदियपाणिविणामुच्भवं सदोसमिमं । जम्हा घायग-कयगा भक्खागा विहु समा भणिया ||१५|| तेत्तं मह चयणं जइ न कुणसि निच्छएण तो गच्छ । नियपियहरम्मि तं निमुणिऊण सा चिंतए एवं ॥ १६ ॥ नहु जुज्बइ जणयगिहे गंतुं एवं ठिए ममेयाणिं । पडिबोहेमि इमं पि हुं ता केणात्रि हु उवाएण ||१७|| इय: चतऊण भणियं मेल्लावसु ताय ! तस्स पासम्मि । नियमो जस्स सयासे गहिओ तो मन्नियं तेण ॥ १८ ॥ सासू-ससुरय-सुण्हाइयाणि चलियाणि नयरिमुज्बेणि । गामम्मि जीवहरणे पत्ताणि तमस्सिणीसमए || १९ ॥ दिट्टाणि माहवेणं दिएण तो रसवई कया गेहे । ताण निमित्तं सालणयसंगया सुमहुररसा य ॥२०॥ अयि बहुतीमम्मि थालीए उवरिभागाओ । मूसयमभिधावन्तो कसिणाही निवडिओ तत्थ ॥ २१॥ चालंतेणं डोएण खंडिओ तयणु माहवदिएण । भणियाणि भोयणट्टा ताणि न मन्ने वसुमित्ता ॥ २२ ॥ ती अजमंती सासू ससुरो य दो वि नो जिमिया । भुत्तो य ताण परियणलोगो विसजोगओ य मओ ||२३|| दिट्टा गोससमए विसहरखंडाणि तीमणस्संते । तो ससुरयस्स जाओ बहुमाणो तम्मि नियमम्मि ॥ २४ ॥ रवि चलियाणि हे पत्ताणि पुरम्मि दसउरे ताणि । रयणीए समुत्तिन्नाणि मंदिरे बउलदत्तस्स ||२५|| पुतोय तस्स नियगिनि उत्तकुलपुत्तयम्स भज्जाए । आगच्चसम्मनामा अगुरत्तो तेण नाओ य ॥२६॥ तज्जणणी-जणयाणं कहियं तेहिं पि किंपि न हु भणियं । तो बहुययरं कुविओ निहालए तम्स छिड्डाणि ॥२७॥ पाहुणयाण निमित्तं मंसाणयणे य पेसिओ तेण । गच्छंतेर्ण नियभारियाए सह रहसि सो दिट्ठो ॥ २८ ॥ कुविएण तओ उच्बंधिऊण तम्सेव ऊरुजुयलस्स । उक्कत्तिऊण मंसं तज्जणणीए समप्पे ॥२९॥ घेत्तूणय सकलत्तं कुलउत्तो नासिउ गओ कोह वि । भणिया य भोयणट्टा पाहुणगा भोयणे सिद्धे ॥३०॥ निसिभोयण-मंसाणं नियमो तो जेमिया न वसुमित्ता । सासू-ससुरेहिं पि हुन हु भुत्तं तयणुरोहेण ॥३१॥ जोइ जा नियपुत्तं जणओ ता नियइ तं तहावत्थं । नाओ य समुरएणं माहण मंसस्स वृत्तंतो ॥३२॥ तो जंपइ जयउ जए नियमो तुह पुत्ति ! जप्पभावेण । नो जायं विसमरणं न भक्खियं विप्पमंसं पि ॥३३॥ तो एसो चैव जए धम्मो न हु अस्थि कोइ पुण अन्नो । जेणेरिसोवयारो जाओ एमेव य करण || ३४ ॥ अम्हे विकरिस्सामा निसिभोयण-मंसविरमणं वच्छे ! | जम्हा न एयअवरो अओ परो अस्थि वरधम्मो ||३५|| तो तेहिं विपडिवन्ना नियमा बलिउ गयाणि नियनयरे । जाया य हिययदइया अहियं दइयस्स वनुमित्ता ॥ ३६ ॥ तो तिन्नि वि नियनियमे सुनिम्मले पालिऊण मरिऊण । भासुरसुंदी जाया अमरा सोहम्म कम्पन्मि ||३७|| वि ससुर जीवो जाओ एत्थेव भरहवासम्मि । सिरिधम्मो निवपुत्तो संपत्तो जोव्वणारंभं ||३८|| सुमित विवि जाया तत्थेव सेट्टिणो धूया । सिरिदेवी नामेणं अवरा वि हु तत्थ नयरम्मि ||३९|| जायाओ चउद्दस कन्नयाओ सासूजिओ वि ताणेक्को । उप्पन्ना नामेणं देवजसा देवकुमरि व्व ॥४०॥ For Private Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधानफलाधिकारे ब्राह्मण्याख्यानकम् १५३ तत्तो चउद्दसण्हं पि सेट्टिणा विरइयं विभूईए । वद्धावणयं कालकमेण पत्ताओ तारुन्नं ॥२१॥ नियवहुयनियमभंजावणुब्भवं उदयमागयं कम्मं । तो देव जसागत्ते बाद कोढो समुप्पन्नो ॥४२॥ सिरिदेवीए सव्वाओ ताओ नेहेण नियनियनिओगे। एगा केसे संजमइ का वि ऊबट्टणं कुणइ ॥४३॥ परिहावइ आभरणे अवग़ अन्ना य आसणं देइ । इय उवओगं गच्छंति तीए कज्जेसु सव्वाओ ॥४४॥ देवजसा पुण जंपइ ममं पि कारवसु कि पि नियकज्जं । पियसहि ! एरिसपरिवजणिज्जरोगेण सहियं पि ॥४५॥ तीए भणियं ठाणन्मि जम्मि पहाणं समायरामि अहं । तम्मि पएसे सुपसत्थसत्थियं देसु समईए ॥४६॥ तो तं समायरंतीए तीए पंकप्पभावओ हत्था । जाया तो तप्पाओग्गओ य सज्जं सरीरं पि ॥४७॥ जाओ सिरिधम्मस्स वि कोढो सो चेव तेण कम्मेण । पच्चक्खाओ विज्जेहिं तयणु घोसाविओ पडहो ॥४८॥ छित्तो देवजसाए भणियं च अहं करेमि निरुयमिमं । तो आणेउं नियमंदिरम्मि तीए वहम्मि ठिओ ॥४९|| ऊबट्टिओऽणु दिवसं सिरिमइ उबट्टणेण निवकुमरो। जाओ य जच्चकंचणसच्छाओ थेवदिवसेहिं ॥५०॥ परिणाविओ य सब्बाओ ताओ तुट्टेण राइणा कुमरो । अहिसिंचिओ य रज्जे पत्थावे कणयकलसेहिं ॥५॥ जाओ य महाराया अहऽन्नया सुहगुरूण पासम्मि । पडिवन्नो जिणधम्मो सव्वाहिं वि पणइणीहि समं ॥५२।। तं सम्मं परिपालिय गयाणि सव्वाणि देवलोगम्मि । उप्पनि विदेहे सिद्धिसुहं लहु लहिम्संति ॥५३॥ गंथाओ नेयव्वं वित्थरओ बहिणिवच्छलाओ इमं । इय नियमं नाऊणं कायव्यो सो सुबुद्धीहिं ॥५४॥ ॥ब्राह्मण्याख्यानकं समाप्तम् ॥४६॥ इदानी चण्डचूडाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम-- अस्थि इहेव को वि तहाविहकोडुबियपायजणाहिटिओ, रोहणाभिहाणभूहरभूमिभागो व्व महाहीरयाहारो, पंडियसहापएसो व्व गोवाहिट्टिओ, मरुमंडलो व्व थोववाणिओ, जणाउलनिवासो व्व अप्पसावओ, सप्पुरिसदेहो व्व सच्छायवच्छत्थलोवसोहिओ सुहत्यलाभिहाणो नाम गामो । तम्मि य एगो कुलपुत्तओ परोवहसणसीलो सहाबकुडिलो चंडचूडाभिहाणो परिवसइ । अवरो वि तम्गिहसमीवे चेव दुग्गयाभिहाणो कुंभयारो खल्लिहडओ । सो य चंडचूडो पइदिणं पेच्छइ रविकिरणकरालियं पिलिपिलंतं इतो तओ नितो गिहडिओ तस्स खल्लिं ।। अन्नया पासइ तहाविहसाहुसमीवे सावयाइजणं मज-मंसाइनियमे गिण्हतं । आगंतूणं उपहासपरो पभणइभो ! जइ एयारिसेहिं नियमेहिं धम्मो भवइ ता 'अहमवेतस्स दुग्गयाभिहाणकुंभयारस्स जाव खल्लिं न पेच्छामि ताव न भुंजामि, मज्झ वि होउ एस नियमो । साहहिं भणियं-जइ निच्छएण परिपालेसि ता अत्थि फलं । गहिओ य अवन्नाए नियमो. पालइ य तं तहा कल्लाणभायणत्तणेण सम्ममेसो। अन्नया य गओ सो कुंभयारो अणुग्गए चेव दिवसयरे मट्टियाखणणत्थं । जायमवरण्हं । सुइरं निरिक्खिओ विन दिट्ठो कुंभयारो। दढपइन्नत्तणओ न भुंजए एसो। पुच्छिओ भारियाए-किं न भुंजसि ?। भणियं च णेण-मए एरिसो नियमो अंगीकओ। तीए पणयपुव्वमुवहसिओ-तुझ वि केरिसो नियमो ? । तेण भणियं--भद्दे ! मा भणसु एवं, पडिवन्नानिव्वहणे केरिसं पुरिसत्तणं । तओ तीए तस्स निच्छयं जाणिऊण पुच्छियाणि दुग्गयमाणुसाणि । भणियं च तेहिं गओ मट्टियानिमित्तं खाणीए । तत्थेव गओ चंडचूडो तदंसणत्थं । एत्थंतरे कुंभयारम्स मट्टियाखणणत्थं दिन्ने कुदालियापहारे उम्मिट्टं निहाणभायणं । 'दिट्टो दिट्ठो' त्ति भणिऊण वलिओ चंडचडो। तेण य संकिएण 'नायमणेणं' ति वालिओ। तेण वि भिउडि काऊण भेसिऊण भणियं मम पुब्विल्लए हिं निहाणीकयमासि । तओ तदुचियं दीणारसहस्सं दाऊण वसीकयं दविणजायं। जाओ य तप्पभावेण जणपूयणिजो। कुणइ य चाय-भोय-विलासाइयं । जाओ य पत्थुयनियमविसए बहुमाणो । चिंतियं च तेण अणुभूयनियमफलेणं-अहो ! मे पावपरिणई, अहो ! मे पयहडिलत्तणं. अहो! मे पुरिसाहमत्तणं, अहो ! मे लोगववहारवज्झत्तणं, अहो ! मे दुइंतइंदियत्तणं, अहो ! मे परलोयनिरवेक्खत्तणं, अहो ! मे गुणवेसत्तणं; १. अहमप्येतस्य । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे जेण मए मलिणपत्रवेण अञ्चंतमुच्छितेण लोहमइएण सुतिखतुंडेण परमम्मवेहिणा सव्वजणसंतावगेण चत्तगुणेग धम्मविमुक्केण बालेण व तया तारिसा वि साहुणो परोवयारनिरया इहलोयनिप्पिवासा समसत्तु-मित्ता समतिण-मणि-लेट् ठु-कंचणा 'एए. सुबड्डया लिंबायरिया असंबद्धभासिणो भोगतरायकारय' ति पावकम्मुणा निंदिया, एए वि सावया जीवदयापरायणा असञ्चवावारविरया परदव्यावहारभीरुणो सकलत्तसंतुट्टा अपरिमियपरिग्गह-राइभोयण-मज-मसाइपरिभोयनियत्तचित्ता अयाणमाणेणोवह सिया, पेच्छ ममोवहासपरस्स वि एरिसं एत्तियं नियमफलं जायं ति, ता सव्वहा अहमेत्तियम्स चेव जोगो त्ति, किं कइया वि काऔ कंचणसलागामयपंजरपक्खेवमरिहइ ? किं कइया वि मायंगगेहदारमेरावयसिंधुरबंधणभायणं होइ ? किं वा छालीए मुहे कुंभंडं 'माइ ? किं वा दोणघणवरिसणे वि रहा ? किंवा आमनिय कंभो महर-सीयलनीरपत्तत्तणं पावह ? किंवा मरुमंडलं वियसियकमलसरोवरसोहाभवणं भवइ ? त्ति; किं बहुणा ? सव्वहाऽहमकल्लाणभायणं जेण मए एएहिं सावएहिं समं बहुययरनियमगहणं न कयं-ति साहुसावयगुणपक्खवायबहुमाणेण पोसियं बोहिबीयं, परित्तो कओ संसारो। आउयक्खए पत्तो तियसालयं । तओ चुओ कमेण पाविही परमपयं ति ॥ ॥ चण्डचूडाख्यानकं समाप्तम् ॥४७॥ इदानों गिरिडुम्बाख्यानकमाख्यायते । तद्यथा अस्थि सिरिसिरिउरं नाम नयरमइनयररम्मयाकलियं । राया तम्मि जियारी जियारिनामो जहत्थक्खो ॥१॥ पुरपरिसरम्मि डुबो सुकुडुबो पयइभद्दगो एगो। निवसइ नाडयवित्ती नडो व्य नामं च तस्स गिरी ॥२॥ तस्स य दो भज्जाओ सज्जाओ नाडयं चलंतम्स । पज्जते चलमाणा तासिं पासेसु दोसुं पि ॥३॥ मंसम्स छब्बयं वारओ य मज्जस्स वच्चइ चलंतो। जावेगीए पासं ता मंसं खाइ पियइ सुरं ॥४॥ तीए वि हु दाऊणं चलमाणो जाइ पासमियरीए । तत्थ वि तहेव ववसइ इय कम्मरओ वसइ तत्थ ॥५|| अह कइया वि हु मयमल्लसूरिणो समणसंघपरियरिया । संपत्ता विहरंता तओ य भोत्तृणमवरण्हे ॥६॥ संजमवियारभूमीए पत्थिया पवरनाणिणो जाव । ताव खरतरणिकरनियरतत्ततणुणो समाभिहया ॥७॥ वच्छच्छायाए वीसमंति पेच्छंति तत्थ ताव तयं । तारिसकुकम्मकरणेकवावडं मढवावारं ॥८॥ चिंतियमिमेहि केच्चिरमेसो निंदियकुकम्मकरणाओ। पावं समायरिस्सइ सुओवओगेण तो नायं ॥९॥ खणमेत्तमिमो जीवह तओ य परिभाविऊण करुणाए । एस वराओ कहमम्ह दिट्टिगोयरगओ चेवं ? ॥१०॥ महु-मज्ज-मंसभक्खणसंचियगुरुकम्मकयवरो कुगई। गच्छिहिइ सम्ममाभासिऊण भो भद्द ! किं कुणसि ? ॥११॥ एवं वुत्तो मोत्तूण नाडयं रइयकरकमलकोसो । पडिउं पाए{ भणइ देव ! किं कम्ममम्हाणं ? ॥१२॥ जियहियओ नियचेट्टिएण जावऽच्छई विलक्खमणो । ता भणिओ भद्द ! वयं समागया तुज्झ गेहम्मि ॥१३॥ सव्वो वि हु गोरव्यो समागओ होइ एस ववहारो । ता संपयमम्हाणं वुत्तं किं पि हु करेणु तुमं ॥१४॥ तेणुत्तं तुह वुत्तं केरिसमम्हेहिं तीरए काउं ? | तुम्भे भणिस्सह इमं मंसं मज मुयसु भद्द ! ॥१५॥ भणियं गुरूहिमिच्छा तुहेत्थ जं तरसि तत्तियं कुणसु । जइ एवं ता पउणो जमुचियमम्हाण तं भणह ॥१६॥ भणिओ गुरूहिं गंठिं बंधसु घेत्तूण मह तुमं नामं । जावंतरालमेयं संपत्तो भक्खपासम्मि ॥१७॥ भुत्ते तहेव बंधसु छोडेउं भक्खियम्मि पीयम्मि । पुणरवि तहेव बंधसु एव कए तुह सुहं होही ॥१८॥ जोगत्तणओ तेणं पडिवन्ने भावओ सनियमम्मि । तट्ठाणाओ सूरी वियारभृमीए संपत्तो ॥१९॥ इयराणि वि वक्खित्ताणि जाव चिटुंति नाडए तम्मि ! भवियवयाए ताव य जं जायं तं निसामेह ॥२०॥ घेत्तणं उग्गविसं भुयंगमं सउणिया समुप्पइया । भुयगस्स मुहाओ मज्जवारए निवडियं गरलं ॥२१॥ न य लक्खियमियरेहि इओ य सो गंठिसंगओ डुबो । पत्तो मंससमीवे छोडइ गठिं सरिय नामं ॥२२॥ १. मायइ रं०। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधानफलाधिकारे राजहंसाख्यानकम् भक्खिय मंसं जा पिय मज्जमह गरलदोसओ झत्ति । भामियदिट्टी भूमिए निवडिओ ताब गयचेट्टो || २३ || मुक्क पाणहिमिओ य तस्स भज्जाओ कंदमाणीओ । काउ परिहाणं मत्ययम्मि पत्ता निवसया ||२४|| हा देव ! दुच्चलाणं बलिओ राय त्ति ता परित्ताहि । कत्तो तुम्हाण भयं ? तो भणियं ताहि गुण पहू ! ||२५|| सज्जो संपयमेव हि भत्ता अम्हाण सेयचडएहिं । दाऊण कमवि जावं विणासिओ मंदभग्गाणं ||२६|| रन्ना वि सम्ममपरिविखऊण कोवेण पेसिया पुरिसा । तेहिं वि निद्दयदट्टाट्ट - भिउडिभासुरसरीरेहिं ||२७|| भणिया सूरी चल्लह रायासेण रायपासम्म । टिंबारिएहिं तुम्भेहिं मारिओ रायडुंबडओ ||२८|| सो विहु डुंब नियमप्पभावओ सुमरिऊण गुरुनामं । मरिऊण समुप्पन्नो कबड्डजक्खो महिडीओ ॥ २९ ॥ जो अज्ज वि सत्तुंजय गिरिसंठियरिस हवं दणपरम्स । कुणइ सया सन्निज्झं मग्गे संघस्स भत्तीए ॥ ३० ॥ जाव पउंज ओहिं ता तयवत्थे निएइ नियगुरुणो । विउरुव्विऊण नयरस्स मत्थए गिरिवरं गरुयं ॥३१॥ उदंडवा यदंदूलविविह[]कडयडंतविडविभरं । उक्खणियधूलिधूसरियसत्तसत्थं दढमसत्थं ॥३२॥ जा चिट्ट ताव भणति केइ एएहकज्जमायरियं । डुंबव्वहकरणाओ तो जायं विड्डरमकंडे ||३३|| अन्ने वि सावया सम्मदिट्टिणो ते इमं पयंपंति । सासणदेवीए कयं सन्नेज्झं साहुभत्तीए ||३४|| जावेवं सव्वो विहु नयरजणो खुहियमाणसो जाओ । ता आयासे ठाउं पयंपियं कवडिजक्खेण ||३५|| हो ! अप्पत्थियपत्थियाइ गुणकलियगलियमाहप्प ! । एवं अपरिक्खियकारगस्स तुह नत्थि कल्लाणं ||३६|| तत्तो भीओ राया सुइभूओ उल्लपडयपावरणो । धूयकडच्छुयहत्थो एवं भणिउं समादत्तो ॥३७॥ देवो व दाणवो वा गंधव्यो किन्नरो व जक्खो वा । सो खमउ मज्झ सव्वं अवरद्धं पायपणयस्स ||३८|| इय सोऊणं जक्खो मणयं उवसंतमाणसो जाओ । सम्मदिट्टी जीवा अणुसयर हिया भवंति जओ ||३९|| भणिओ सुरेण राया तुमए रायं ! विरूवमायरियं । जं एवंगुण निहिणो कयस्थिया साहुणी एए ॥ ४० ॥ समसत्तु - मित्तभावा जीवाण हिया दयावरा धीरा । अवरद्धे वि विरुद्धं परम्स चिंतंति न कया वि ॥ ४१ ॥ एएसि पभावेण परोवयारेक्कमाणसाणमहं । सो तारिसो वि डुंबो जाओ जक्खो महिड्डीओ || ४२ || ता एएसि पणओ भवाहि पडिवज्ज धम्ममेएसिं । एएसि माणनिरओ भवेज्ज जड़ जीवियं महसि ||४३|| इय सोउं सूरीणं केसेहिं पमज्जिऊण पयकमलं । भणइ निवो मरिसिज्ज अन्नाणाओ जमवरद्धं ||१४|| अज्ज पभिई तं मज्झ सामिओ बंधवो गुरू जणओ । आणाकारी भयवं ! सीसो हं तुम्ह पयसेवी || ४५|| जक्खो वि हु पच्चक्खो सखं होऊण सूरिपयपुरओ । दंसंतो सुररिद्धिं निययं संधुणिमात् ||४६ || अणुवक पराणुभ्गहकरणपरायण ! पसंतमणपसर ! | दुत्थियजणकरुणारसनिज्झरणगिरिंद ! तुज्झ नमो ॥ ४७|| इय थोऊणं जक्खो सुमरंतो सूरिपायपरमजुयं । निच्चलसम्मत्तजुओ संपत्तो अत्तणो ठाणं ॥ ४८ ॥ ॥ गिरिडुम्बाख्यानकं समाप्तम् ॥४८॥ इदानीं राजहंसाख्यानकमाख्यायते । तश्चेदम्— सोरट्टदेसमझे पुरीए अणिमंजियाभिहाणाए । कुंदसियदंतपंती कुंदो नामेण कम्मयरो ॥१॥ कज्जलसिणिद्धतारा वि भारिया मंजरी पिया तस्स । अह अन्नया य तेणं कट्ठाण कए गएण बहिं ॥ २ ॥ सिरिधम्मघोससूरी दिट्टो उज्जाणमज्झयारम्मि । दिप्पंतो तवतेएण पणमिओ परमभत्तीए ||३|| एवमवासरं पि हु पणमइ पयपंकयं मुणिंदस्स । गुरुणा वि तओ सद्धम्मदेसणा तस्स परिकहिया || ४ | तो तेण मज्ज-मंसाणि नियमियं पणमिउं गुरुण पुरो । नियनियम पालणुज्जुत्त चित्तजुत्तस्स कुंद ||५|| पाहुणओ संपत्तो अहऽन्नया तस्स भारियाभाया । तस्स कए निम्मवियं मंसं तह रसवई महुरा || ६ || १. तुब्भ रं । For Private Personal Use Only १५५ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आख्यानकमणिकोशे सालय-भइणीवेइणो उवविट्ठा दो वि भोयणनिमित्तं । परिवेसियम्मि मंसे दोण्हं पि न भुंजए कुंदो ॥७॥ भुंजाविओ य नियमं अयाणमाणीए तीए मड्डाए । सुत्तो पच्छायावं निसाए सो काउमारद्धो ॥८॥ पिच्छ जहा घेत्तणं नियमो निभासेहरेण मए । जाणतेण वि भग्गो अभीरुणा पावकम्मम्स ॥९॥ अप्पाणं निंदन्तो पुणो पुणो पुच्छिओ पिययमाए । कि सोयसि ? ति भणियं तेणं नियमो मए भग्गो ॥१०॥ अहह ! विरुवं जायं ति जंपिउं तीए पमणिओ भत्ता। किं मह कहियं न तए लज्जाए तम्मि समयम्मि ॥११॥ जं विहिओ वयभंगो अहमवि काराविया इमं पावं । ता किमिह सोइएणं ? गोसे गुरुणो कहिम्सामो ॥१२॥ तो उग्गयम्मि अरुणे गुरूण चरणारविंदमभिनमिउं । मोणमवलंबिऊणं साममुहो मणयमुवविट्ठो ॥१३॥ . संजाओ लजाए अहोमुहो तो पयंपिओ गुरुगा । किं भद्द ! सामवयणो ? तह वि हु न पयंपए किंपि ॥१४॥ तो तस्स सहयरीए कहियं नियमस्स खंडणं गुरुगो । करुणारसिएण तओ सायरमाभासिओ गुरुणा ॥१५॥ कह विहु कतंतीए संधिज्जइ किं न तुट्टओ तंतू ? | पाओ य किं न धुवइ असुइविलित्तो पमायवसा ? ॥१६॥ भग्गो रणम्मि सुहडो पुण भिडिओ किं न लहइ जयलच्छि ? । एवं खंडियनियमो वि लहइ नियमप्फलं सच्चं ॥१७॥ ता तुममवि मणखेयं मुयसु पुणो वि हु पवज नियममिणं । तेण वि य भावसारं पडिवन्नो पुलइयंगेण ॥१८॥ तम्भजाए वि कओ नियमो भत्तीए मज्ज-मंसाण । दोन्नि वि पालंति पवड्डमाणबहुमाणसाराई ।।१९।। कालक्कमेण सुहपरिणईए कुंदोऽभिवंदिय मुर्णिदे । मरिऊण समुप्पन्नो देसे सिरिकंठनामम्मि ॥२०॥ . नयरीए जयंतीए नरिंदकुरुचन्दअगमहिसीए । गम्भम्मि मंगलाए तीए इमं सुविणयं दि॥२१॥ लीलाचंकममाणो महुरसरो चंदबिंबसियपक्खो । वयण रायहंसो पविसंतो रयणिविरमम्मि ॥२२॥ कहिओ य नरवरिंदम्स भणइ सो तुज्झ उत्तमो पुत्तो । होही तं सोऊणं तुट्टा गब्भं समुन्वहइ ॥२३॥ जाओ य दोहलो से मुणिंदपयपज्जुवासणाविसओ । संपूरिओ य रन्ना तो पसवदिणे पसूया सा ॥२४॥ जाओ य रयणपुंजो व्व गत्तदित्तीए भासियदियंतो । पुत्तो तो तस्स कयं वद्धावणयं विभूईए ॥२५॥ जाए बारसमदिणे सुविणयसरिसं कयं नरिंदेण । कुमरस्स रायहंसो नाम सम्माणिउं पउरे ॥२६॥ लालिज्जन्तो नवकमलकोमलारुणकराहिं धाईहिं । जाओ पवड्डमाणो कमेण सो अट्टवरिसो उ ॥२७॥ जा संपत्तो पारे कुमरो निम्मलकलाकलावस्स । भवियव्वयाए राया ता संजाओ कहासेसो ॥२८॥ निवमग्गो अणुसरिओ देवीए वि रायमरणदुक्खेण । बालो त्ति रायहंसो न कओ नरनाहर जम्मि ॥२९॥ अहिसित्तो पउरेहिं सिरिचंदो राइणो लहू भाया । नरनाहपए सो पुण जुवरायपयम्मि संठविओ ॥३०॥ कालेण कामिणीयणदुम्मणसंपायगं सुमजं व । सो संपत्तो सव्वंगसुंदरं जोव्वणारंभं ॥३१॥ तो पुव्वजम्मकयनियमभंगसंजायकम्मदोसेण । सिरिचंदअगामहिसो तम्सुवरि कोवमुबहह ॥३२॥ एत्तो य कोइ राया नियदुग्गरलेण लूसए देसं । तो रायहंसकुमरं मोत्तुं नयरीए निवसहियं ॥३३॥ राया तग्गहणत्थं कडयं काउं तओ गओ सो वि । दुग्गबलेणं घेत्तं न तीरए तो नरिंदो वि ॥३४॥ वेढेवि टिओ तत्थेव दुग्गमित्तो य रायहंसो वि । निच्चं पि रइयसिंगारसुंदरो देइ अस्थाणं ॥३५॥ अस्थाणठियं तं विप्फुरंतमणि-रयणजडियमउडधरा । पणमंति मंति-मंडलियजुत्तसामंतसंघाए ॥३६॥ एमेव य भणिया वि हु आणं सीसेण ते पडिच्छंति । अप्पाणं कयकिच्चं तम्साऽऽएसेण मन्नंता ॥३७|| सो वि हु सम्माणं कुणइ ताण सम्वेसिमइसएण सया । आलवणा-भरण-पलोयणाइउचियप्पयाणेहिं ॥३८॥ आवज्जिया तहा ते संजाया तम्मया जह सपउरा । पेच्छंति तयं जणयं व देवयं वाऽहव गुरुं व ॥३९॥ कुणइ य कयसिंगारो सिंधुरमारुहिय पुरिपरिभमणं । सियपुंडरीयवारियदिणयरकिरणावलीपसरो ॥४०॥ वीइज्जतो विलसिरविलासिणीधरियचारुचमरेहिं । अणूगम्मतो रह-तुरय-गयवरारुढराएहिं ॥४१॥ १. वयणो रं० । २. अहवारिसिओ २० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधानफलाधिकारे राजहंसाख्यानकम् जत्तो जत्तो लीलापलोयणं कुणइ तत्थ तत्थेव । भामंति अंचले कुलवह ओ पणमंति परजणा ||४२।। इय एवं विलसंतं तं दट्टुं दुट्टचित्त वित्तीए । तीए नरनाहभजाए चिंतियं पावकम्माए ॥४३॥ नणं इमम्स होही रजमिणं न उण मज्झ कुमरम्स । ता तह करेमि न जहा अरिहइ एसो नरिंदसिरिं ॥४४|| श्य वितिऊण पावाए तीए मंडुक्कवाहिसंजणणं । दिन्नं कराविऊणं कम्मणयं रायहंसस्स ॥४५|| तो तप्पभावओ तस्स जबरमाऊरियं महंतेहिं । भेएहिं महं उयरं अइतणयं पि हु तयं जायं ॥४६॥ कडयट्टिपण वेज्जेहि कारिया राइ णा चिगिच्छा से । न तहा वि गुणो जाओ रोगो पुण वड्डिओ अहियं ॥४॥ चिट्ठउ तावियरजणो न कुणइ नियपरियणो वि तस्साऽऽणं । देवीभीओ पेच्छद य केवलं तं अवन्नाए ॥४८॥ अह अन्नया य सारीर-माणसाणेगदुक्खसंतत्तो । रयगीए रायहंसो एवं चिन्तेउमारद्धो ॥४९॥ पेच्छ मए सयलजणो सुइरं परिपालिओ सजीयं व । निच्चं कय-पसाओ वि कुणइ न हु मज्झ वयणं पि ॥५०॥ माणधणा पयईए पराभवं पयणुयं पि न सहन्ति । अहमवि अहीणमाणो ता एत्थ न जुज्जए ठाउं ॥५१॥ ता जावऽजवि सत्ती गंतुं थेवा वि विजए मज्झ । ता वच्च मि विएसं धिसि सयगपराभवं सोढुं ॥५२॥ इय चिंतिय नीहरिओ पयुत्तनिस्सेसपउरलोगम्मि । मंदं चंकममाणो संपत्तो नयरमुज्जेणि ॥५३॥ तो तत्थ महाकालम्स चच्चरे संठिओ तओ तस्स । वियरइ करुणाए जणी मंडयखंडाइ अदिवसं ॥५४|| कालक्कमेण रोगेण बाहियं तस्स सव्यमवि अंगं । नासाऽहर-कर-चरणंगुलीओ सव्वा पविद्धाओ ॥५५।। वालग्गाओ नहंतं जाव सरीरम्मि फोडया होउं । फुटृति पक्क-दुगंधपूयपरिपूरिया पयडं ॥५६॥ लिल्लिरयमेत्तकच्छोट्टनिवसणो मच्छियाहिं परियरिओ । न तरइ पयमवि गंतुं अणिट्टदुस्सरधणी धणियं ॥५७॥ एत्तो य मंजरी तस्स भारिया आउयक्खए जाए । तीए चेव पुरीए मरिउं महसेणनरवइणो ||५८॥ अग्गमहिसीए धूया जाया विहियं च देइणीनामं । दंतुम्गमपत्थावे तं कम्मं तीए वि उदिन्नं ।।५९॥ तो गरुय-घोररोगेहिं पीडिया दुव्बलंगिया जाया । ताहे पच्चक्खाया नाउमसज्झ त्ति वेज्जेहिं ।।६०॥ आगासरेवईयाइदेवया पूइया नरिंदेण । जाणगजणोवइटें सव्वं पि कयं विसेसेण ॥११॥ तह विन थेवो वि गुणो संजाओ तीए तिव्वकम्मवसा । कम्मोवसमे सयमवि तारुण्णे नीरुया जाया ॥६२॥ देवीए तओ सिंगारिऊण संपेसिया निवत्थाणे । सहिययणसंगया सा कीलइ तत्थेव निच्चं पि ॥६३।। अहिमाणिणा नरिंदेण अन्नया निययरिद्धि-बलकलिया। वाहरिया सव्वे वि हु सामंता पउरजणजुत्ता ॥६४॥ कयसिंगारा रह-करि-तुरंग-नर-नारिनियरपरियरिया । आउज्जसहपरियदियंतरा तयणु संपत्ता ॥६५॥ पणमिय निवमुवविट्टा पुट्टा एवं नरिंदचंदेण । मह कहह कस्स पुन्नेहिं तुम्ह एयारिसा रिद्धी ? ॥६६॥ छंदाणवत्तिणो ते नमिय नरिदं निबद्ध करकमला । जंपति तुम्ह पुन्नप्पभावओ अम्ह संपत्ती ॥६७॥ सोऊण तयं कुमरीए तीए विप्फुरियदन्तदित्तीए । हसियं तं दट्टणं पयंपियं नरवरिंदेण ॥६॥ वच्छे ! किमलियमेयं मह वयणं जमिणमेवमुबहससि ? । सा भणइ ताय ! तुम्हं सच्चं साहेमि ? किमसच्चं ? ॥६९।। सच्चं ति निवेणुत्ते सा जंपइ ताय ! तुह जणो सम्यो । छंदाणुवत्तणपरो पयंपए सयलमलियमिणं ॥७०॥ सच्चं पुण निच्चं पि हु नियपुन्नसमुभवं सिरिं सव्वे । भुंजंति जओ न हु होइ अवरभुत्ते अवरतित्ती ॥७२॥ पुवकयमुकयकम्मप्पभावओ तं पि तूससे न मुहा । तब्बिरहे पुण रूससि निमित्तमित्तं तमेत्थ जओ ।।२।। सव्वो पुचकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमेत्तं परो होइ ।।७३।। तं सोउ नरनाहो भासुरभिउडीकरालभालयलो । पभणइ रुट्ठो वच्छे ! तुह रिद्धी कस्स पुन्नेहिं ? ॥७४।। सा जंपा नियपन्नप्पभावओ ताय ! न उण अन्नम्स । तं सोउघयसित्तो व्व पावओ पज्जलिओ राया ॥७॥ आइसइ सेवयनरे पुरीए जो कोइ दुहभरकंतो । सिग्धं तमिहाऽऽणावह मज्झ समीवम्मि जेणाहं ॥७६॥ वियरेमि तम्स पावं जह भुंजइ निययपुन्नपव्भारं । इय सोनिवपुरिसा भमंति नयरिं पलोयंता ॥७७॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे रायनिबंधं नाउ पर पिया देइणी सजणगीए । सामंत-मंति-मंडलिय-पउरनियरेण जुत्ताए ॥७८|| वच्छे ! जणयं चलणेमु लगिउ भणसु खमसु अवराहं । अह न भणसि ता कम्स वि दाही जह दुक्खमणुहवसि ॥७९॥ सा जंपइ इह अत्थे भवियव्वं जं भविम्सइ तमेव । ता किं अपत्थुएणं खामणयपयासकरणेण ? ॥८॥ एत्तो य महाकालम्स चच्चरे रोगविहुरसव्वंगो । पुरिसेहि रायहंसो दिट्ठो तो चिंतियं एवं ॥८१॥ अन्नो एयाओ न कोइ अस्थि दहभायणं ति तो तेहिं । नीओ उप्पाडेउसमप्पिओ नरवरिंदस्स ।।८२॥ दट्टण तयं हिट्टेण राइणा जंपियं जहा भद्द !। वीवाहमु मह धूयं तं सो जंपए एसो ।।८३॥ कप्पिज्जइ किं कइया वि कमिलिणी ददुरस्स सिरिभवणं ? । किं वा जुज्जइ कायस्स मंजरी चारुच्यम्स ? ॥४॥ किं वा सव्वंगसुहा सामि ! सुहा सहइ असुरविसरस्स ? । किं वा वि हु सलहिज्जइ सामिय ! सीही सियालम्स ? ॥५॥ ता देव ! तुझ तणया अन्नायकुलक्कमम्स रोरम्स । रोगकंतस्स कहं सलाहणिज्जा हवइ दिन्ना ? ॥८६॥ तो भणियं भूवइणा एसा तुह सव्वहा मए दिन्ना । वीवाहिण भणियाणि ताणि मेल्लेह मह विसयं ॥७॥ कुमरी वि जणयचरणे पणमिय माणसिणी अदीणमणा । उल्लवइ रायहंसं पिययम ! आरुहसु मह खंधे ॥८॥ तो नियखंधे काऊण देइणी पुरवरीए मज्झेण । नोहरिया निमुणंती जणाववायं सजणयस्स ॥८९|| गंतूण बहलपत्तलसह्यारतलम्मि तमुववेसे उं। तस्स सरीरे मच्छीओ वीजयंती सवत्थेण ॥९॥ भणिया करुणारसिएण रायहंसेण देइणी एवं । मह संसग्गीवसओ विणस्सिही तुह सरीरं पि ॥२१॥ तहा हि नहपंतिकंतिकलियं कमजुयलं तुज्झ लक्खणधरं पि । हिमवायझलुक्रियकमलसन्निभं होहिही सुयणु ! ॥९२॥ तुह सुंदरि ! ऊरुजुयं नवरंभाखंभविभमधरं पि । होही दवग्गिनिद्दड्डथाणुजुयलं व रोगहयं ॥१३॥ गयगमणि ! तुझ रमणं तवणीयसिलासमं पि रोगेण । होही दावानलदड्डगिरिसिलासामलच्छायं ।।९४॥ खामोयरि ! तुह मज्झं विलसिरतिवलीतरंगरुइरं पि । होही सिप्पउडं पिव खर-फरुसं खसरसंवलियं ॥९५।। थोरत्थणि ! थणजुयलं करिकुंभत्थलसमं पि मह संगा। होही थ उडं पिडएहि सुसियमालूरफलसरिसं ।।९६।। तुह सिरिसकुसु[म]मालासुकु मालं भुयलयाजुयं सुयणु ! । सोहारहियं होही जलणझुलुक्कियसयजुयं व ॥९७।। कंकल्लिपल्लवारुणतलं पि सियदसणि ! पाणिजुयलं ते । होही विमुक्कएरंडपत्तजुयलं व रोगेण ॥९८॥ बिंवाफलोवमो वि हु अहरो इंगालसच्छहो होही। मंडुक्किय व्व चिविडा भविही सरला वि तुह नासा ॥९९।। सवणंतं पत्तं पि हु तरलं पि हु पम्हलं पि पसयच्छि ! । अच्छिजुयं रोगवसा मिलाणकुसुमं व संकुइही ॥१०॥ पडिपन्नहरिणलंछणछायं वयणं पि तुज्झ रोगेण । होही राहुग्गत्थं गयसोहं चंदबिंब व ॥१०॥ मयणाहिपरिमलड्डा कज्जलकसिणा वि कुंतला तुज्झ । घम्माहयखंखरदम्भसन्निभा सुभु ! होहिंति ॥१०२।। ता सञ्चहा वि सव्वंगसुंदरावयवमणहरं एयं । मह कजम्मि विणाससु नियरूवं मा मयच्छि ! तुमं ॥१०३।। वच्चसु माउलयगिहं अवरं वा किं पि सयणमल्लियसु । तं सोऊण सविणयं पयंपिया देइणी एवं ॥१०४॥ मा अजउत्त ! एयं जंपसु जम्हा न होइ अलियमिणं । भत्तारदेवया कुलवहु त्ति सत्थे पसिद्धं ति ।।१०५।। तम्हा तं मज्झ पहू बंधू सयणो मुही सुहगुरू य । वल्लीए वच्छसमासियाए वच्छो व्व तं सरणं ॥१०६।। झिज्जड अंगं पगलंतु लोयणा जोव्वणं अइक्कम उ । मरणं पि होउ पिययम ! तुह सुस्सूसं कुणंतीए ॥१०७|| इय जंपिऊण तीए आसन्नावासियम्मि सस्थम्मि । गंतूण सत्थवाहो सविणयमेयारिसं भणिओ ।।१०८|| ताय अहं पिह तुम्हाण सुत्थसत्थेण गंतुमिच्छामि । तं सोउं सत्थाहो चिंते एवमारद्धो ॥१०९॥ नणं सुकुलुप्पन्ना नजइ वयणेहिं विणयगन्भेहिं । इय चिंतिय तेणुत्तं वच्छे ! सिग्धं समागच्छ ॥११०॥ तो देइणीए भणियं मज्झ पई रोगविहुरसव्वंगो । सो वि समागच्छिम्सइ तं सोउं सत्थवाहेण ॥११॥ तस्साऽऽरुणनिमित्तं समप्पिओ से रहो तओ तीए । तम्मि समुप्पाडेउं चडाविओ निययभत्तारो ॥११२॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. नियमविधानफलाधिकारे राजहंसाख्यानकम् सद्धिं सत्थेण तओ कुमरी परिहरियनिययपिउविसया । रुरु-रोज्झर उद्दा डविमज्झे आवासिए सत्थे ॥ ११३ ॥ नगोह साहिसीयलतलम्मि तरुपत्तरयसयणिज्जे । तीए समुत्तारेऊण सोविओ पहपरिस्तो ।। ११४ ॥ निय उच्छंगियतम्सीस केसनियरं निरुवयंतीए । तीए सिसिरसमीरणमुहेण तस्साऽऽगया निद्दा ||११५ ॥ एत्तो कुमारजणणी तया मरिऊग वंतरी जाया । तो तीए रायसो दिट्टो तमवत्थमणुपत्तो ॥ ११६ ॥ इणिकुमरी जाणावणत्थमिणमिदयालमायरियं । सहस त्ति वम्मियाओ वियडफडो निगओ सप्पो ॥११७॥ कुमरस्स य निद्दापरवसम्स वयण समागओ सहसा । उयराओं दद्दुगे दट्टूमेस सप्पं भणइ कुवि ॥ ११८ ॥ रे रे हयास ! विसहर ! समहिट्टिय संटिओ निहाणमिमं । जो तत्तजलं खिविडं हणिउं तं लेइ सो नत्थि ॥ ११९ ॥ तो तेत्तं रे दुट्ट ! पाच ! मंडुक्क ! निवसुओ एसो । सञ्वंगसुंदरी वि हु एयमवत्थो तए विहिओ ॥१२०॥ तो एत्थ नत्थि सो कोइ राइयाचुन्नमीसियं तक्कं । जो पाइउं कुमारं हणिउं तं कुणइ पउणमिमं ॥१२१॥ सप्पपयंपियमायन्निऊण चिंतेइ देइणी एवं । नूणं नरिंदपुत्तो एसो ता सुंदरं जायं ॥ १२२॥ लद्धो य वाहिविगमोवाओ चत्तो य तायविसओ वि । ता गोटलम्मि कम्मि वि गम्मउ इय चिंतिउं चलिया ॥ १२३ ॥ पत्ताय गोउलम्मिठिया य आउच्छिऊण सत्थाहं । गंतूण गोउलवई पयंपिओ सविनयं तीए || १२४ ॥ ताय ! इमो मज्झ पई कम्मवसा रोगविरसवंगो । निरुओ जायइ तक्केण राइया चुन्नमिम्सेण ॥ १२५ ॥ सो विपयंपड़ चच्छे! घ्या तं मज्झ चिट्टमु इहेच । सुम्सुसंती कंतं जावेसो जायए निरुओ ।। १२६ ।। सह राइयाहिं तक्क पायंती पिययमं ठिया तत्थ । तो तप्पभावओ दारुणो वि वाही अवक्कतो ॥ १२७॥ नासा - sहर-कर-चरणा नीहरिया रंभगव्भसुकुमाला । अइरेण वि संजाओ मणहरणो मयणसमरूवो ॥१२८|| आउच्छियम्मि तीसे पयासिओ नियकुलकमा तेण । सा वि पर्यपइ पिययम ! ता गम्मउ तुम्ह कुलभवणे || १२९|| तेत्तं जुत्तमिणं परमेएसिं कयम्मिं उवयारे । तं सोउं सा चिंतड़ मणम्मि एसो महासत्तो ॥ १३० ॥ पच्चुवयारं काउं वंछइ ता दहुरोवइट्टेण । दग्वेण होउ इय चिंतिऊण तो तीए दइयस्स ॥ १३१ ॥ दहुर-कसिणाहीणं वृत्तंतो साहिओ तओ तेण । घेत्तूण तं निहाणं उवणीयं गोउल्वइस्स || १३२|| भणियं च देइणीए अणुकूलो तुह विही जओ नाह ! । जाओ रोयविणासो तह संपत्तं निहाणं पि ॥ १३३|| ता गम्मउ तुह नयरे तओ पयट्टाणि ताणि मग्गम्मि । गच्छंताणि कमेणं जयंतिनयरीए पत्ताणि ॥१३४॥ तामग्गपरिस्तो सुत्तो सहयारतरुतले कुमरो । एत्तो य तत्थ सिरिचंद नरवई पुत्तमरणम्मि || १३५|| पंचत्तं संपत्तो सो विहु सुयसोयसल्लिओ संतो। अहिसित्ताणि अपुत्तोति पंच दिव्वाणि मंतीहिं ॥ १३६ ॥ ताणितिय चच्चराइ भमिडं पत्ताणि जत्थ सो कुमरो। तो अहिसिंचिय करिणा चडाविओ निययखंधम्मि || १३७ || तो मंति-मंडलसर-सामंतप्पभिइपउरपरियरिओ | संपत्तो रायउले अहिसित्तो रायपए || १३८ || जाओ य महाराया नायं एत्तो अवंतिनाहेण । जह कोइ देसियनरो राया जाओ जयंतीए ॥१३९॥ तो ते पेसिओ निययदूयओ रायहंसनरवइणो । भणिओ दूएण निवो वियरसु मह राइणो दंडं || १४०॥ अह नो ता रज्जं पिहु गिहिस्सइ तं निसामिउं रन्ना | भणियं जं तस्स मणे पडिहासइ कुणड तं सिधं ॥ १४१ ॥ दूएण तओ गंतुं महसेणनिवास साहियं सव्वं । होऊण जुज्झसज्जो विणिग्गओ सोऽभिमाणघणो ॥ १४२ ॥ नाउं चरेहिं सिरिरायहंसराया वि विहियसन्नाहो । नीहरिओ नियचलभरपरिपूरियभूरिभूवलओ ॥ १४३॥ दोन्नि विबलाई सन्नद्ध - बद्धकवयाई देससीमाए । भिडियाई मुक्कहक्काणि झत्ति जयलच्छिलद्धाणि ॥ १४४ ॥ करि-तुरय-रह- नरोहा गय-हय- संदण-भडाणमभिट्टा । आबद्ध भिउडिभीमा भूवइणो भूमिनाहाण || १४५॥ एवमवरुप्परं पि हु दुन्हं पि बलाण जायमइघोरं । आओहणं विणासियसंधुर-नर- तुरयसंदोहं ॥ १४६॥ बद्धो सामंतेणं महसेो रायहं सतणएण । किं कीरउ तुह जणयम्स ? पुच्छिया देइणी रन्ना ॥ १४७॥ तीए पर्यापयमेयं मुच्च सम्माणिउं तओ रन्ना । गंतूण तेण सयमेव कारियं तस्स वणकम्मं ॥ १४८ ॥ १५६ For Private Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे पणमिय पियफ्यपटमा पयंपए देइणी जहा ताय ! । पयडीभूयाणि इमाणि संपयं मज्झ पुन्नाणि ॥१४९॥ भणियं महसेणनरेसरण कहमेयमह कहइ कुमरी । दददर-विसहरबजरियपमुहनिम्सेसनियचरियं ॥१५०।। तं सोउं सब्वे वि हु सामंता बजरंति जह एसो । सो रायहंसकुमरो जो आसि विणट्टसव्वंगो ॥१५१।। सा एसा महसेणम्स अंगया जा तया सकोवेण । दिन्ना अणेण कोट्टामिभूयदेहस्स दमयम्स ॥१५२।। जं सव्वे नियपुन्नं भुंजंति इमाए आसि उल्लवियं । तं सच्चं चिय जायं जमिमाणं रजसंपत्ती ॥१५३॥ तो महसेणनरिंदेण जंपिओ रायहंसनरनाहो । तं मह पुत्ताण पहू अहयं तु तवं करिस्सामि ॥१५४॥ एवं विहिया सव्वे निययाणावत्तिणो नरवरिंदा । जाओ रायाहिवई नरेसरो रायहंसो सो ॥१५५॥ असरिसनरिंदलच्छि उव जंतस्स तस्स बहुकालो। समइक्कतो अह अन्नया य सूरी समोसरिओ ॥१५६|| नामेण भवंतकरो तिलउजाणे तओ नरवरिंदो । महरिहरिद्धीए गओ सूरिसयासम्मि सकलतो ॥१५७।। अभिवंदिऊण सुगुरूण चरणतामरसमुचियठाणम्मि । उवविट्ठो तो सूरीहिं देसणा तस्स परिकहिया ॥१५८॥ भो भो भव्वा ! संविग्गमाणसा मुणह परममुणिवसणं । एसो ता संसारो चिंतिजंतो धुवमसारो ॥१५९॥ कम्मवसया जमेत्थं जीवा खणभंगुरस्सरूवम्मि । संपय विवयाओ पाउणंति ता कह णु सविवेया ॥१६०॥ हरिस-विसायं वच्चंतु संपयाओ भवंति पुन्नेण । विवयाओ अपुन्नेणं ता पुन्ने जयह जमिहत्तं ॥१६॥ वच्चइ जत्थ सउन्नो विदेसमडविं समुद्दमझे वा । नंदइ तहिं तहिं चिय ता भो ! पुन्नं समजिणह ॥१६२॥ पुन्नं पि नियमभंगाइदोसओ संतरं जणइ दुक्खं । जह तुझ इमं जायं जम्मंतरनियमभंगेण ॥१६३॥ एत्थंतरम्मि पुट्ठो सो सूरी पणमिउं पुहइवइणा । किं भयवं ! मह रोगो जाओ तह असरिसा रिद्धी ॥१६॥ तो भयवया वि सव्वे पुन्वभवे साहिए महीनाहो । नाऊण जाइसरणेण तं तओ भणइ एवं ति ॥१६॥ कहिओ य रायहंसेण नियभवो सयलरायलोयम्स । जह जाया नियमेणं रिद्धी तभंगओ रोगो ॥१६६।। तं नियुणिण बहवे पडिबुद्धा पाणिणो भवुब्विग्गा । राया वि सावयत्तं पडिवज्जिय सभवणम्मि गओ ॥१६७।। कारेइ जिणहराई पूएइ जिणे नमसए गुरुणो । पुहईए पयट्टावइ रहजत्ताओ सुभत्तीए ॥१६८।। जाओ य देइणीए पुत्तो पत्तो य जोव्वणारंभ । अहिसित्तो निययपए निवेण सुपसत्थदिवसम्मि ॥१६९।। तो देवणीए सहिएण रायहंसेण सुगुरुपासम्मि । गहिया जिणिददिक्खा चरिडं अइघोरतवचरणं ॥१७॥ मरिऊण बंभलोगे जाओ भासुरतणुप्पहो अमरो । तत्तो चुओ समाणो स पाविही सिद्धिसुहमसमं ॥१७१।। ॥राजहंसाख्यानकं समाप्त ॥४९॥ जह एयाणं नियमो संजाओ गरुगणाण संजणओ। तह अन्नस्स वि जायइ ता तम्हणे कुणह जतं ॥१॥ पुण्यानुबन्धजनकं शुभभावसारमङ्गीकृतस्वनियमग्रहणं क्रमेण । स्वर्गा-ऽपवर्गफलदायि दिताभिमानाः प्रत्यग्रपापमथनावहमामनन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे नियमफलप्रतिपादको नाम पञ्चदशोऽधिकारः समाप्तः ॥१५॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६. मिध्यादुष्कृतदानफलाधिकारः ] नियममालिन्ये च मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातं मिथ्यादुष्कृतं व्याख्यातुकाम आह— खमगा य चंडरुद्दो मिगावई तह पसन्नचंदो य । सम्म मिच्छा उकडदाणफले हुंति आहरणा ||२०|| व्याख्या- ' क्षपकारच' प्रतीता एव, 'चण्डरुद्र: ' समयप्रसिद्धः सूरिः, "मृगावती' शतानिकनृपतिभार्या, ' तथा ' तेन प्रकारेण 'प्रसन्न चन्द्रश्च' पोतनपुराधिपतिः, 'सम्यग्' भावसारं 'मिथ्यादुष्कृतदानफले' स्वदोषप्रतिपत्तिवितरणगुणे 'भवन्ति' जायन्ते "आहरण " तिदृष्टान्ता इत्यक्षरार्थः ॥ २१॥ भावार्थस्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । तत्र तावत् क्षप[का] ख्यानकमाख्यायते तच्चेदम् अत्थि तहाविहगच्छे करुणारसपूरियम्मि विच्छिन्ने । जलहिम्मि व खमगरिसी परमपहावो वरमणिव्व ॥ १ ॥ सो भुंजइ मासं केसरि व्व कइया वि पारणगदिवसे । भिक्खट्टाए पविट्टो खमगरिसी खुड्डएण समं ॥२॥ मच्छियपमाणमंडुक्कियाहिं पच्छाइयम्मि मग्गम्मि । खमरिसिणा अकंता कमेण मंडुक्किया एगा ॥ ३ ॥ भणिओ य खुड्डणं खमग ! तए पेच्छ मारिया एसा । कहियव्वा य गुरूणं चारित्तायारसोहिकए ||४|| तं सोउं सो रुट्टो इमाओ पाविट्ट ! केण वहियाओ । दंसइ लोएणं मारियाओ तो चितियमिमेण ||५|| आवस्सयवेलाए पसंतहिययस्स संभराविस्सं । ता पारावर एसो छुहियस्स न एस पत्थावो || ६ || जओ तं जहा नासइ खंती परिगलइ पोरिसं लहु पलायइ विवेगो । सिक्खा वि ठाइ न मणे छुहाभिभूयाण जीवाणं ||७|| किरकिमसंग मिमिणा चुक्क - क्खलियम्मि चोइओ जमिमो ? । परमिह दुजओ कोवो गुणट्टियाण वि महासत्तू ॥८॥ कट्टं करंति समरे मरंति जलणं धरंति सीसेण । न उणो जिणन्ति कोवं पावमिणं धम्मवणदहणं || ९ || पढ़उ सुयं धरउ वयं कुणउ तवं चरउ बंभचेराई। तह वितयं सव्वं पि हु निरत्थयं कोववसगस्स ॥ १० ॥ जइ जलइ जलर लोए कुसत्थपवणाहओ कसायग्गी । तं चोज्जं जं जिणवयणवारिसित्तो वि पज्जलइ ॥ ११॥ तो सो अणुसयवसओ तहेव भुत्तो वियालवेलाए । सुमरावियम्मि कोवेण पजलिओ खुड्डयस्सुवरिं ||१२|| मिलियाण मज्झयारे विगोविओ अहमणेण पावेण । ता मारेमि सयमहं खुड्डयमेयं ति चिंतेउं ॥ १३ ॥ गहिऊण खेलमल्लगमसुहज्झाणो पहाविओ जाव । तावाऽऽवडिओ खंभे विम्हरियेपओ मओ खमओ || १४ || जाओ कुलम्म मद्दलियवयाण दिट्टीविसाण सप्पाण । कुगईए संपत्तो दीणमुह चितिउ लग्गो || १५ ।। रे जीव ! कसायहुयासणेण दड्ढे चरितघरसारे । भमिहिसि भवकंतारे दीणमुहो दुक्खओ य तुमं ||१६|| तो जायजाइसरणो रयणीए दयावरो परियडेति । मा रविकर संपका दिणम्मि दिट्टी वहउ जीवे ||१७|| एत्तोय वसंतपुरे कुमरो अरिमद्दणस्स नरवणो । तइया भुयंगदट्टो मुक्को सहस ति पाणेहिं ॥ १८ ॥ या वि सुसिणेहा कुविओ सप्पाण ते विणासेउ । जो दंसइ सप्पसिरं दीणारं देइ तस्स तओ ॥ १९॥ संजाए सप्पखए वणम्मि रयणीए संचरंताणं । घसणीउ नियइ एगो गारुडिओ तेसि वहणत्थं ॥२०॥ मेल्लेइ ओसहीओ बिलेमु तो तेसि गंधमसहंता । निग्गच्छंति वराया सो ते मारेइ दविणकए ||२१|| १. मृगापतिः रं० । २. विस्मृतपश्चात्तापः । ३ मयलिय० रं० । २१ फल्गु ज्ञेया सो वि हु खमगभुयंगो ओसहिगंधेण विहुरियसरीरो । बिलमज्झम्मि य चिट्टिउमचयं तो चिंतए एवं ||२२|| ग्रन्थाग्रम् - ६००० ॥ For Private Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आख्यानकमणिकोशे एस वराओ को विहु मुहेण जइ नीहरामि ता मरिही । मह दिट्टीविसदोसा इय करुणापरिगओ धणियं ||२३|| निम्गच्छइ पुच्छेणं जत्तियमेत्तं च निस्सरइ बाहिं । तत्तियमेत्तं छिंदइ गारुडिओ सो उ चिंतेइ ||२४|| ॥४०॥ रे जीव ! सुइविवज्जिय निहीण ! निव्भग्गसेहर ! अणज्य ! संपयमवि मा कुप्पसु अणुभूयं कोवफलमेयं ||२५|| जइ संतियाए किर चोइओ तया तेण समणरूवेण । ता तस्सोवरि कुवियम्स तुज्झ किं कस्स संजायं ? ||२६|| तं तारिससुगुरुणं विजोजिओ धम्मबंधवाणं पि । तह तारिससंजमगिरिवराओ पडिऊण खडहडिओ ||२७|| तारिससामगीए तइया एयस्स तारिसो कोवो । इव्हि पुण एस खमा अहो ! हु कम्माण कुडिलत्तं ॥ २८॥ इसो वेगगओ सिहंतो वेयणं तमइदुसहं । मणुयाउं निव्वत्तइ सुकुलुप्पत्तिं च खमगाही ॥ २९ ॥ अह नागदेवयाए सुमिणम्मि नेविइयं नरवइस्स । विरमसु नागवहाओ तुह पुत्तो होहिही राया ॥ ३०॥ सो मरिउ' खमगजिओ संजाओ तस्स राइणो पुत्तो । इस कुलिस-चक्कलंछणलंछियसुहविग्गहावयवो ॥३१॥ विहियं वद्धावणयं सुयजम्भमहूसवम्मि नरवइणा । दिन्न च देवयाए नामं से नागदत्तो चि ॥ ३२ ॥ अह देहोचणं कलाकलावेण विद्धिमणुपत्तो । सयलजणनयणमुहओ ससि व्व पयईए सोमतणू ॥ ३३ ॥ सुहओ पुव्वाभासी पुव्यभवन्भासओ य नायपिओ । देव-गुरुपूयणरओ पच्चक्खो पसमधम्मो व्व ॥ ३४ ॥ संसारियसुहविमुह रज्जसिरीसंगमस्स निरवेक्खो । कारागारगओ विव निव्वेयाओ बसइ गेहे ॥ ३५ ॥ अह अन्नया कया विहु गुणवंताणं गुरूण पासम्मि । मोयाविऊण पियरं निक्खतो जायसंवेगो ॥ ३६॥ पंचसमिओ तिगुत्तो दसविहमुणिचक्कवालकिरियाए । सययं चिय उवउत्तो वेयावच्चे विसेसेण ॥ ३७॥ अह तम्मि चेव गच्छे खमगा चत्तारि चरणसंपन्ना । मास - दुमास-तिमा सिय- चउमासतबोविसेसरया ॥३८॥ अममत्ता निस्संगा कट्टाणुट्टा सोसियसरीरा । खुड्डगसाहू तेसिं विसेसओ कुणइ बहुमाणं ॥ ३९॥ - सो उण तिरिक्खजोणीसमागमा सययमेव य छुहाल । भुंजइ पइक्खणं चिय वियुद्धमाहारमा वह य मम्मि खेयं धिसि घिसि मम देह-जीवियन्वाण । पढमपरीसहभीओ जोऽहमसत्तो तवं काउं ॥ ४१ ॥ एए महाणुभावा पेच्छह सरिसे वि माणुसत्तम्मि । दुक्करतवचरणरया खर्वेति पोराणयं कम्मं ॥ ४२ ॥ अह अन्नया पभाए भरिउं दोसीणकूर दहियस्स । नियपडिगहयं पत्तो आलोएउं गुरुसयासे ॥ ४३ ॥ साहवो तो यत्ते, निमंतेज्ज जहकमं । जइ तत्थ कोई इच्छेज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥ ४४ ॥ इय वयणमणुसरं तेण तेसि सव्वेसि दंसियो कमसो । निच्छूढं सवेहि वि पडिग्गहे कोववसगेहिं ॥ ४५ ॥ सो उण तव भुत्तो पवित्तमेयं मणम्मि चिंतंतो । मणयं पि हु न पउट्टो अहो ! हु से पसमपगरिसया ॥ ४६॥ चितइ पसंतहियओ नडिओऽह्मणेण निच्चमुयरेण । एएसि खेलमल्लयमवि सत्तो न हु समप्पेउं ||४७|| अह अन्नया य खुड्डयपसमगुणावज्जियाए ते खमए । मोत्तूण देवयाए गंतूणं वंदिओ खुड्डो ||४८ || निग्गच्छंती वत्थंचलम्मि धरिऊण मच्छरव सेण । चउमासियखमगेणं भणिया सामरिसवयणेण ||४९ || कडपूर्याणि ! पावे ! पाचपडलपच्छन्न निम्मलविवेए ! । गुण-दोसवियारविसेससुन्न हियए ! हयपयावे ! ||५०॥ मोत्तू म्हे खवगे दुक्करतवचरणसोसियसरीरे । एयं तिकालभोई वंदसि कह खुड्डुयं लहुयं ? ॥ ५१ ॥ तीए वृत्तं भो दव्वखवग ! वंदामि भावखवगमहं । तेणुत्तं कहमेवं जंपसि पावे ! पदुट्टमणे ! ? ॥ ५२॥ यस अप्पणो विय विसेस मिहि पि पासिहह पयडं । इय वोत्तृणं खवगं सट्टाणं देवया पत्ता || ५३ ॥ एवं खुड्डयमुणिणो निरवज्याहारभोइणो सययं । उवसंतमणस्स दढं वेयावच्चम्मि निरयस्स || ५४ ॥ गुणपक्खवायच हुमाणवसणिणो गुरुकुले वसंतस्स । उल्लसियजीव विरियम्स खवगसेदिं पवन्नस्स || ५५ || सुक्कझाणहुया सणविसेसनिद्दढघाइकम्मस्स । लोयालोयपयासं उप्पन्नं केवलं नाणं ॥ ५६ ॥ केवलमहिमं काउं खुड्डयमुणिणो सुरेहि भत्तीए । रइयम्मि कणयकमले उवविट्टे खुड्डयमुणिम्मि ||५७ ॥ आगन्तूनं भणिया ते खवगा देवयाए सामरिसं । पेच्हह खुड्डयमुणिणो अप्पाणस्सावि य विसेसं ॥ ५८ ॥ For Private Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मिथ्यादुष्कृतदानफलाधिकारे चण्डरुद्राख्यानकम् १६३ एवं ते भणिया देवयाए तह कहवि सम्ममाउट्टा । जह अप्पाणं निंदिउमाढत्ता पसमरसवसया ॥५९॥ धिसि घिसि अम्हाणं कोवसत्तुवसयाण कट्ठनिरयाणं । जेहिमिमं पिन नायं गुरूवएसं सुणतेहिं ॥६०॥ निरवजाहाराणं साहणं निच्चमेव उववासो । कोहंधाणं तु तवो वि निष्फलो कासकुसुमं व्व ॥६॥ इय तेसिं पि हु सम्म मिच्छाउक्कडपुरस्सरं हियए । सुहभावगावसेणं संजायं केवलन्नाणं ॥१२॥ ॥क्षपकाख्यानकं समाप्तम् ॥५०॥ इदानी चण्डरुद्राख्यानकं व्याख्यायते । तश्चेदम् उज्जेणीए पुरीए सूरी बहुगुणगणेहिं परियरिओ । नामेण चण्डरुद्दो रुद्दो व्व सिवासयसणाहो ॥१॥ सम्भावेण सकोवो त्ति निययसिस्साण भिन्नवसहीए । चिट्टइ तन्निस्साए सज्झायपरो महासत्तो ॥२॥ अह अन्नया य एगो विलसिरसिङ्गारसुंदरसरीरो । नवपरिणीओ बहुमित्तसंजुओ इन्भवणियसुओ ॥३॥ साहुसयासं पत्तो परिहासेणं भणंति से मित्ता। भयवं भवउविग्गोऽभिवंछए एस पव्वजं ॥४॥ नाउ परिहासमिमेसि साहुणोऽवगणिऊण तव्वयणं । सज्झायप्पभिईयं वावारं काउमारद्धा ॥५॥ ते वि हु पुणो पुणो वि य परिहासेणं तहा पयंपंति । दुस्सिक्खियाणमोसहमिमेसि सूरि त्ति चिंते॥६॥ भणियं मुणीहि गुरुणो दिक्खं वियरंति इय पर्यपेउं । भिन्नट्ठाणम्मि ठिओ सूरी वि य दंसिओ तेसिं ॥७॥ केलीकिलत्तणेणं ते सव्वे सूरिणो समीवम्मि । संपत्ता परिहासेण पणमितत्थ उवविट्ठा ।।८।। भणियं च तेहिं भयवं ! भवभमणुव्विम्गमाणसो धणियं । अम्ह वयंसो एसो फवजं गेण्हि महइ ।।९।। एयत्थमेव सव्वंगसुंदरं विरइऊण सिंगारं । तुम्ह कमकमलजुयलं दुहसयदलणं समल्लीणो ॥१०॥ ता काऊण पसायं दिक्खादाणेणऽणुग्गहह एयं । इय निसुणिऊण सिरिचंडरुद्दसूरी वि कोववसा ॥११॥ चिंतेइ पेच्छ पावा मामवि कहमुवहसंति ता एए । दुविलसियफलमिण्हि भुंजंतु विचिंति भणइ ॥१२॥ जइ एवं ता भूइं दुयं समप्पेह सूरिणा भणिए । उवणेति तयं ते वि हु कुओ वि ठाणाओ आणे ॥१३॥ तयणंतरं सकोवेण सुरिणा भिउडिभीमभालेण । पेच्छंताण वि ताणं सिरम्मि निप्फाइओ लोओ ॥१४॥ ते वि हु विलक्खवयणा नियनियठाणेसु पडिगया मित्ता । तत्तो य इब्भपुत्तो कयंजली सुद्धपरिणामो ॥१५॥ पणमियतप्पयपउमो पयंपए पहु ! पयच्छ पव्वजं । सम्मं चिय परिणमिओ परिहासो वि हु इमो मज्झ ॥१६॥ तो इन्भकुलुब्भूओ सम्म पव्वाविओ मुर्णिदेण । पुणरवि गुरूण चरणे पणमित्त पयंपए एवं ॥१७॥ भयवं! बहसयणो हंमा मे धम्मंतराइयं होउ। ता वच्चामो अन्नत्थ कत्थई भणइ तो सूरी ॥१८॥ जइ एवं पडिलेहसु ममग इच्छंति जंपिऊण गओ। सुविणीओ सुविणेओ मम्गं पडिलेहिउं पत्तो ॥१९॥ तत्तो निसाए सूरी गंतुमसत्तो पयं पि एगागी । वुड्डत्तणेण नवसिक्खगस्स खंधे भुयं काउं॥२०॥ संचलिओ खलियम्मि वि पयम्मि पयइप्पभूयकोवत्ता । तं निभच्छिय ताडइ सिरम्मि दंडप्पहारेण ॥२१॥ सो वि हु महाणुभावो चित्तभंतरभवंतसुहभावो । चितेइ मए किह एस पाडिओ एरिसे वसणे ? ॥२२॥ एयस्स महासत्तस्स साहुसज्झायजुत्तचित्तम्स । जणयंतेणमसोक्खं अहह ! मए पावमायरियं ॥२३॥ नियसयलसाहुसामायारीपरिपालणेक्कचित्तस्स । जणयंतेणमसोक्खं अहह ! मए पावमायरियं ॥२४॥ बहुदिवसजराजज्जरियविहुरगत्तस्स भुवणचि(मि?)त्तस्स । जणयंतेणमसोक्खं अहह ! मए पावमायरियं ॥२५॥ एरिसपरिणामवसुल्लसंतसुविसुद्धसुक्कझाणम्स । नवमुणिवरम्स विमलं संजायं केवलन्नाणं ॥२६॥ तप्पभिई सो तह कहवि नेइ जह से न होइ पयखलणा । तेणुत्तं तं संपइ कह सम्मं नेसि मं भद्द ! ? ॥२७॥ अइसयभावाओ अहं सम्मं पासामि भणइ सो भयवं!। पडिवाइ अपडिवाइ ? ति भणइ सूरी कहसु एयं ॥२८॥ तेणत्तमपडिवाई गरू वि संवेगमागओ देइ । सम्मं मिच्छाउक्कडमेत्तो सूरुम्गमणसमए ॥२९॥ १. वाइ य गुरू रं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आख्यानकमणिकोशे सो चंडरुद्द सूरी नियइ सयं चेव निययसीसस्स । दढदंडताडणुभूयरुहिरधारारुणं सीसं ॥३०॥ तयणंतरं विचिंतइ सूरी संजायगरुयवेरम्गो। अहह ! महापावमिणं मए कयं कोववसगेण ॥३१॥ अजदिणदिक्खियम्स वि अन्नाणम्स वि य बालयम्सावि । अन्नायविवेयम्स वि अहो ! खमा पेच्छ एयस्स ॥३२॥ बहुदिणपव्वइयम्स वि सिद्धतसमुह पत्ततीरम्स । तित्थप्पहावगम्स वि मह पुण एयारिसो कोवो ॥३३॥ बालो वि वरं एसो जो एयारिसखमाए परिकलिओ। न उणो अयं परिणयवओ वि कोवंधनयणजुओ ॥३४॥ ता एयस्स मए जं किंपि हु मणदुक्कई कयं इण्हि । तं होउ भावसारं मह मिच्छादुक्कडं विहिणा ॥३५॥ तम्स वि हिययभंतरभवंतसुहभावणाओ संजायं । पयडियलोगा- लोगं केवलनाणं मुणिंदम्स ॥३६॥ केवलिपरियायं पालिऊण पडिबोहिऊण भवियजणं । ते दो वि खवियकम्मा संपत्ता सासयं ठाणं ॥३७|| ॥ चण्डरुद्राख्यानकं समाप्तम् ॥५१॥ अधुना मृगापत्याख्यानकस्यावसरः । तञ्च चित्रप्रिययक्षाख्यानके वक्ष्यते इत्यत्र नोच्यते। क्रमप्राप्तं तु प्रसन्नचंद्राख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् अस्थि समुन्नयपव्वयपओहराए रसावरवहए । हाररयणं व गुणरयणपोयणं पोयणं नयरं ॥१॥ तत्थाऽऽसि सोमचंदो चंदो व्व सुहायरो सुहो राया । तं सासंतो विहु नवरमत्तिजणगो न लोयाणं ॥२॥ तम्साऽऽसि ससहरस्सेच रोहिणी रोहिणी व सुहवच्छा। सीलाइगुणालंकारधारिणी धारिणी भज्जा ।।३।। तीए पसन्नमुत्ती पसन्नचंदो सुओ पसन्नमुहो । पणइयणबंधुकइरववणवियसावणपसन्नकरो ॥४॥ एवं तेसिं चउरंगवलसमग्गं समिद्धरज्जसिरिं । पालंगाणं वच्चंति वासरा सुत्थहिययाणं ॥५॥ अह समयणमसमवसंतलच्छिसमलंकियं जयं सुहियं । दटुं अचयंतो दुजगो व्व गिम्हो समणुपत्तो ॥६॥ मन्ने रविरहतुरया वि तरणिकरताविया परिस्संता । तुरियं गंतुमसत्ता तेण तहिं दीहरा दियहा ॥७॥ जम्मि य रविकरतविया जलासया सुहरसा वि संजाया । खलसंगे सुयणा इव असेवणिज्जा य सुसिया य ॥८॥ सो चेव रवी ते चेव रविकरा जम्मि संतवंति जणं । मित्तो वि तवइ भुवणं अहवा विगुणेसु दियहेसु ।।९।। चीरीरवेहिं गायइ वणराई जम्मि गिम्हनवनिवई। उदयं पत्तो संतावगो वि सेविजइ [जयम्मि ॥१०॥ जम्मि य मयणाहियदुसहताव पाझुलुक्कियसरीरा । पहिया जडहयहियया जोयंति पैवालियावयणं ॥११॥ एवंविहम्मि गिम्हे सीयलवायायणोवविठ्ठाए । नियपिययमस्स दूरं परूढपणयाए देवीए ॥१२॥ चिहुरे विउरंतीए दिर्दै तम्मज्झसंठियं पलियं । ससहरसियनियकंतीकलावचवलिय दिसावलयं ।।१३।। वृत्तं तीए पहसियमुहीए दूओ समागओ देव !। जा जोयइ तरलच्छो तीए हसिऊण तो भणियं ॥१४॥ देव ! न माणुसरूवं दूयमहं संपयं निवेयेमि । किंतु पलियं पि दूयं विउसा वन्नति जेणुत्तं ॥१५॥ उज्झसु विसए परिहरसु दुन्नए ठवसु नियमणं धम्मे । ठाऊण कन्नमूले इट्ट सिटुं व पलिएण ॥१६॥ तं सोउं साममुहो जाओ राया पियाए पुण भणिओ । भावं अमुणंतीए लज्जसि पलिएण किं देव ! ॥१७॥ सो भणइ मज्झ लज्जा न एस अज वि य हरिसठाणमिणं । किंतु मए निययाणं मज्जाया लंघिया देवि ! ॥१८॥ जम्हा अदिट्रपलिया पुचिल्ला पंव्वसु महपरिसा । अयं पुण एमेव य विसयासत्तो गिहम्मि ठिओ ॥१९॥ ता संपइ मुयसु ममं तं पुण रज्जं सुयं च पालेसु । तीए भणियं एयं न भवइ सामिय ! जुयंते वि ॥ २०॥ तो अहिसिंचिय रज्जे पसन्नचंदं गया य वणवासे । तीए गम्भो आसी पच्छन्नो तो सुओ जाओ ॥२१॥ टइओ य वक्कलेहिं वक्कलचीरि ति से कयं नामं । अणुचियसामग्गीए देवी मरिउ सुरेसु गया ॥२२॥ वणमहिसीरूवेणं पायइ नेहेण दुद्धमागंतुं । जाओ य अट्ठवरिसो कमेण सो तावसवणम्मि ।।२३।। १. झलक्किय २० । २. प्रपाऽऽलिकाऽऽपतनम् । प्रवालिकावदनम् । ३. पव्वयंमु रं० । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मिथ्मादुष्कृतदानफलाधिकारे प्रसचन्दाख्यानकम् एतो पसन्नचंदो संजाओ पयडसासणो राया । नायं च जहा भाया चिट्टइ मह जणयपासम्मि ||२४|| तस्साऽऽणयणनिमित्तं कुमरीओ तस्समाणरूवाओ । पच्चइयनरेहिं समं मोयगसंबलयकलियाओ ||२५|| पेसइ जम्हा बालो हीरइ सुव्वत्तमन्न-पाणेहिं । मोयगपुंजे विरयन्ति ताणि रुक्खाण छायासु ||२६|| सो विहु चक्कलची गिण्ह्इ ते मोयगे तरुतलाओ । रुक्खाणमिमाणि फलाणि मुणिय संजायविम्संभो ||२७|| एवं कुमरो मोगलीभाओ तासि सविहमल्लिइ । जम्हा पसू वि धिप्पड़ लोभेणं किं पुण मणुसो ? ||२८|| उ वि दरिसा तस्स दिति विस्संभयंति वयणेहिं । दूरे जा आणीओ ता दिट्टो तावसो इंती || २९॥ आरु हिऊणं जाणे ताणि नट्टाणि तम्स सावभया । सो ऊग न तेसि मिलिओ न यावि जणयम्स वणमज्झे ||३०|| दिट्टो रहिएण सभारिएण देसंतराओ बलिएण । भणिउमभिवायए ताय ! तेण विहिओ पणामो से ||३१|| तावसकुमरो कोवेस भमइ ता मा विणम्सउ कर्हिपि । इय संजायदपणं रहम्मि आरोविओ रहिणा ||३२|| दिन्ना य तस्स संचलय मोयगा तेण जंपियमिमाणि । रुक्खष्फलाणि पोयणतवोवणे पत्तपुत्र्वाणि ||३३|| पत्ताणि पोयणपुरे भणिओ गिण्हाहि उडवयं किंपि । ओयारियं रहाओ मुक्को रहिएण पुरबाहि ||३४|| सो विपविट्टो गणियागिहम्मि तीए निमित्तसंवाया । धरिओऽणिच्छंतो वि हु नहसोहणपभिइ कारवओ || ३५ ॥ दिन्ना से नियच्या वत्थालंकारभूसियसरीरो । सकलत्तो पल्लेके निवेसिओ सा य तुट्टमणा ||३६|| जा चिट्ट निभरसरसगीय पेक्खणयविहियवक्खेवा । पुरिसेहिं ता कहिओ रन्नो कुमरम्स वृत्तंतो ||३७|| तं सोउं दुहियमणो गयनिदो जाच चिट्टए राया । ता नियुणइ गिज्जंतं गणिया गेहम्मि तं गेयं ॥ ३८ ॥ को एस ए दुहिम सुत्थिओ पुरवरे महापावी ? ! जोयावियम्मि रन्ना कहिओ गणियाए वृत्तंतो ॥३९॥ रुट्टेणं वाहरिया तीयुक्तं सुणमु देव ! परमत्थं । मह अस्थि पिया दुहिया सा सुहिया किर कहं होही ? ||४०|| एयत्थं च सुवयणो पुट्टो नेमित्तिओ मए एगो । तेगुत्तं तावसंख्ववारिपुरिसो अमुगदिवसे ||४१ || जो आगच्छ तं तस्स देमु ता होहिही इमा सुहिया । तं मज्झ अज्ज जायं नेमित्तियवयणमवियप्पं ॥४२॥ हरिसा ऊरियहिययाए विहियमेयं अयाणमाणीए । मह उवरि देवपाया सकोवणा हुंतु मा तम्हा ||४३|| तं सोऊणं रन्ना सो विहु कइया वि होज्ज इय मुणिउं । ते पुरिसा पट्टविया तेहिं वि सो पच्चभिन्नाओ || ४४ ॥ आणीओ निवपासे एसो च्चिय तुह सहोयरो देव ! । विहियं वद्धावणयं गणियाधूया य आणीया ||४५ ॥ रज्जसिरिमणुहवंताण ताण वच्चंति जाव दिवसाणि । ता सो तावसजणओ वक्कलचीरीविओगम्मि ||४६ ॥ सोएण नयणनीलीरोएणं नवरमंधओ जाओ । नाऊणमिमं राया सपरियणो तत्थ संपत्तो ॥ ४७ ॥ पणओ पिउणो तेण वि सायरमाभासिओ य वच्छ ! तुमं । कुसली पालमु रज्जं धम्मपरो खत्तनाणं ||४८|| वक्कलचीरी पणमइ भयवं ! तुह पायपरममिइ सोउं । हरिसविसप्पियहियओ उच्छंगम्मी निवेसेउं ॥ ४९|| नियकरयलेहिं कुमरं परामुसंतस्स सुहियहिययस्स । हरिसंसूहि समं चिय नट्टा नीली निरुयनयणो ||५०|| पासइ सचं जणओ इय तेसिं हरिसमुव्वहंताणं । वक्कलचीरी उडवेसु भंडयं पुत्र्वविहिणा उ ॥ ५१ ॥ जा पडिलेहइ मुणिपायकेसरीपत्तयप्पयारेण । ता जायजा इसरणो जाओ पत्तेयबुद्धमुणी ॥५२॥ संपत्तखवगसेढी सुहपरिणामेण केवली जाओ । कहिओ तेसिं धम्मो पडिवन्ना जिणवरमयं ते ॥ ५३ ॥ नीया य वीरपासे सम्मं पव्वाविया जिणिदेण । अह कइया वि हु वीरो समागओ पोयणपुरम्म || ५४ ॥ राया पसन्नचंदो रज्जे अभिसिंचिऊण नियकुमरं । फवइओ वीरेणं सह पत्तो रायगियरे || ५५ || नयर-समोसरणाणं आयावइ अंतरम्मि स महप्पा । सेणियराया वि जिनिंदवंदणत्थं विणिक्खतो ॥ ५६ ॥ सुम्मुह- दुम्मुहनामा रन्नो दो सेवगा रयभएण । अग्गे गच्छंतेणं भणियं सुमुहेण मित्त ! इमो || ५७ || राया पसन्नचंदो कयपुन्नो उज्झिऊण रज्जसिरिं । आयावइ निस्संगो बीएणुत्तं कहं मित्त ! ॥ ५८ ॥ पावइ एस पसंसं ? जो बालं नियसुयं ठविय रज्जे । निक्खतो सो संपइ सीवालेहिं पराभूओ ॥ ५९ ॥ For Private Personal Use Only १६५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे इय कनकडुयवयणायन्नणसंजायरोसरत्तच्छो । चिंतइ मइ जीवंते को मम पुत्तं पराभवइ ? ॥६॥ हिययभं[त] रविप्फुरियरोसपारद्धसमरभूमीए । सत्तूहि समं झस-सत्ति-सेल्ल-वावल्लसत्थेहिं ॥६१॥ जुझंतस्स पहुत्तो सेणियराया पयाहिणं काउं। तं वंदिऊण य गओ सुमरंतो तस्स गुणनियरं ॥२॥ वंदित्त जिणं पुच्छइ जंसमयं वंदिओ मए भयवं ! । राया पसन्नचंदो तंसमयं कुणइ जइ कालं ॥३॥ ता जाइ कहिं ? भणियं जिणेण सत्तममहि महाराय ! । तुण्हिक्को जाव ठिओ तो तेण पसन्नचन्देण ॥६४॥ मुक्केसु पहरणेसुं पहाणसत्तम्मि विसहमायाए । जाव पसारइ हत्थं तत्वहणत्थं सिरत्ताणे ॥६५॥ ता पेच्छइ निययसिरं विलुत्तकेसं तओ महासत्तो । पच्चागयसंवेगो चिंतिउमेवं समाढत्तो ॥६६॥ रे जीव ! कत्थ समरो ? कत्थ तुमं संजमं समभिरूढो ? | अप्पाणं मोत्तणं अणज्ज ! तं पत्थिओ कत्थ ? ॥६७।। चारित्तरायसुहडत्तमस्सिओ तं पहाय निययपहुं । मिलिओ सि मूढ ! पडिवक्खमोहरायस्स सेन्नम्मि ॥६८॥ एरिसमुहेण रंजिहसि निच्छियं तं चरित्तनिवइममुं । पाविहसि जयपडायं सिवपुररज्जं च मन्ने हं ? ॥६९॥ भयवइवयणं सुहयं तमेगमेगस्स णं ति सुमरंतो। कत्थ तुमं ? कत्थ सुओ ? किं मूढमणो परिब्भमसि ? ॥७॥ इय पच्चागयभावो पुणो वि तं कहवि झाणमारूढो । सम्मं मिच्छाउक्कडदाणपुरस्सरमिमो भयवं! ॥७१|| जह खवगसेढिमारुहिय घाइकम्मक्खएण खणमज्झे । जाणियसव्वपयत्थं संपत्तो केवलन्नाणं ॥७२॥ देवेहिं कया महिमा पहयाओ दुंदुहीओ तं दट्टुं । सेणियनिवेण पुढे भयवं ! किं एस सुरविसरो ? ॥७३॥ जायं पसन्नचंदस्स केवलं कहमिमं ? ति सव्वो वि । रन्नो मणवावारो निवेइओ वीरनाहेण ||७४॥ ॥प्रसन्नचन्द्राख्यानकं समाप्तम् ॥५२॥ मिच्छाउक्कडदाणा जह एएसिं महाणुभावाणं । जायं केवलनाणं तह अन्नस्स वि य होइ तयं ॥१॥ वैरानुबन्धमभिहन्ति महन्ति–स्य, दातारमङ्गिनमनङ्गजितां मतेऽस्मिन् । निःशेषकर्मशमकं जनकं च शद्धेर्मिथ्येति दुप्कृतपदानुगमाम नन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे सम्यग्मिथ्यादुष्कृतदानफलवर्णनः षोडशोऽधिकार: समाप्तः ॥१६॥ [१७. विनयफलवर्णनाधिकारः ] उक्तो मिथ्यादुष्कृताधिकारः । साम्प्रतं मिथ्यादुष्कृतशुद्धन विनयो विधेय इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातं विनयाधिकार व्याख्यातुकाम आह विणएण कञ्जसिद्धी सिझंति सुरा वि विणयकरणेण । जह चित्तपिओ जक्खो जहेव वणवासिणो जक्खा ॥२२॥ व्याख्या-'विनयेन' औचित्यप्रतिपत्तिलक्षणेन 'कार्यसिद्धिः' प्रयोजननिप्पत्तिर्भवतीति शेषः । 'सिध्यन्ति' वशीभवन्ति सुरा अपि आसतां मनुप्यादयः 'विनयकरणेन' भक्तिसम्पादनेन । अत्र दृष्टान्तावाह–'यथा' येन प्रकारेण 'चित्रप्रियः' दयितचित्रकर्मा 'यक्षः' देवविशेषः, यथैव 'वनवासिनः' उद्यानवसतयो 'यक्षाः' सुरविशेषा [इति गाथाक्षरार्थः ॥२२।। भावार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चाम् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. विनयफलवर्णनाधिकारे चित्रप्रिययज्ञाख्यानकम् तत्र तावत् चित्रप्रिययज्ञाख्यानकमाख्यायते । तश्चेदम् अस्थि महायणकिज्वंतरायमाणं विरायमाणं पि । सग्गसिरीए अलब्धं पि पुरवरं नाम साकेयं ॥ १ ॥ तस्युत्तरदिसिभाए रम्मुज्जाणे [य] सुरपिओ जक्खो । सो चित्तपिओ जत्तं काउं चित्तियइ वरिसंते ॥२॥ चित्तरं पुण मारइ एवमविहिए जणं पि मारेइ । मयवसगस्सऽहव सुरप्पियस्स जुज्बइ इमं चैव ॥३॥ चित्तयरा तस्स भया सवे लग्गा पलाइउं बद्धा । संकलिगाए जस्सेइ नामगं सो विचिंतेइ ||४|| कोसंबीओ चित्तयरदारओ चित्तसिक्खणनिमित्तं । तत्थाऽऽयाओ विद्धाए एगपुत्ताए गेहम्मि || ५ | तीए सुयस्स नामं समागयं सा वि रोविडं लग्गा । आगंतुगेण वृत्तं अम्मो ! किं रुयसि ? तीयुत्तं ॥ ६ ॥ जहवत्तं तेणुत्तं अंब ! अहं चेव चित्तहस्सामि । तीए वि हु संलत्तं किं वच्छ! तुमं मह न पुत्तो ? ॥७॥ सच्चमिमं तह वि मए कायव्वमिमं ति निच्छयं काउं । कयण्हाणो सुइभूओ सियवत्थो बंभवयधारी ||८|| काऊ छट्टतवं पवित्तवन्नेहि विणयपुत्र्वमिमो । तह कहवि चित्तिओ खामिओ य जह तस्स सो तुट्टो ||२॥ वरसु वरं देमि तयं तुट्टो हं तुज्झ किंपि मणरुइयं । तेणुत्तं जइ एवं जणस्स मा मारणं कुणसु ॥ १०॥ जायमिमं अन्नं पि हु भणसु महाभाग ! मह समाहिकए । तेणुत्तं दुपय-चउप्पयस्स पासामि जं देस ॥ ११ ॥ तस्साणुसारओ च्चिय लिहेज्ज सेसं पि एस होज्ज वरो । पडिवन्ने तेणमिमो संपत्तो अक्खयसरीरो ॥१२॥ रायाणं कहिओ सवो वि हु जक्खवइयरो तेण । तं सोउं तुट्टेणं सलाहिओ पूइओ एसो ||१३|| नियनयरे संपत्तो इओ सयाणायराइणा तत्थ । चित्तेउं चित्तसभा पारद्धा तयणु सव्वेसिं ॥ १४ ॥ चित्तयराण समाए विभइज्जंतेसु भूमिभाए । अंतेउरस्स पासे भूभाओ तेण संपत्तो ॥ १५॥ मियावईए पायंगुट्टो कहिंपि सच्चविओ । तो तयणुसारओ चिय रूवं देवीए निम्मवियं ॥१६॥ जावसम्बारइ चक्खुं ता पडिओ ऊरुयम्मि मसिबिंदू । फुसिओ वि पुणो पडिओ एवं दो तिन्नि वाराओ || १७॥ पडियम्मि तम्मि नायं एवं चिय नूणमेत्थ भवियन्वं । निप्पन्नम्मि य चित्ते जाव निवो नियइ चित्तसहं ॥ १८ ॥ ता तम्मि तहा दिट्टे मम पत्ती धरिसिया अणेणं ति । जा वज्झो आणत्तो ता मिलिया चित्तयरसेणी ॥ १९ ॥ 1 देवेस वरगुणेणं अट्टिमवि रूवयं लिहइ सव्वं । अवयवदरिसणओ च्चिय ता पसिऊणं मुयमु एयं ॥२०॥ खुवाए अंगुट्टो जवणंतरियाए दंसिओ तत्तो । तीए रूवे निम्मावियम्मि से पच्चओ जाओ ||२१|| अंगुलिअंगपुतहा वि छिंदाविऊण वेरवसा । मुक्को रन्ना तेण वि पुणरचि आराहिओ जक्खो ||२२|| वामकरेण वि चित्तिहसि तेण दिन्ने वरम्मि अमरिसओ । लिहिऊण चित्तफलए मियावई दंसिया तेण ||२३|| पज्जोयस्स निवइणो तेण वि दूओ सयाणियनिवस्स । जह पेसविओ नयरी य रोहिया जह य खोभेणं ॥ २४ ॥ रायम्म मम्मि जहा कारिय सुत्थत्तणं विसंबइया । संभरियं तीए जहा सिरिवीरजिणिदपायाणं ॥ २५ ॥ वीरम्मि समोसरिए जह पव्वइया जहा य सविमाणा । अवयरिया चंद- रवी जह तत्थ ठिया अणाभोगा ||२६|| वेलाइक मभीया जह पत्ता चंदणाए पयमूलं । जह संतियाए सा चोयणाए तीए वि सिक्खविया ||२७|| तारिसकुलजायाए तारिसगुरुदिक्खियाए तुह जुत्तं । एगागिणीए ठाउं एत्तियवारं पमायवसा ||२८|| जह एवं सिक्खविया तीए चलणेसु निवडिया संती । जह निंदिउमारद्धा अप्पाणं गुरुपमायवसा ॥ २९॥ रे जीव ! किमुच्चरियं अज्ज वि तुह गुरुगुणाए गुरुणीए । पडिचोइयस्स ? एवं बुज्झमु जइ अस्थि चेयन्नं ॥३०॥ तं कत्थ गओ मुज्झसि ? कत्थ गओ निवुई तुमं लहसि ? । दंससि तं कस्स मुहं काऊणं एरिसपमायं ? ॥ ३१ ॥ इय समामय सत्ताए तीए नियगरुयदोसपडिवति । मंसंतीए तइया सो को चि सुहो समुल्लसिओ ॥ ३२॥ परिणामो अवो जेणारूढाए खवगसेढीए । पयडियजीवा - ऽजीवं उप्पन्नं केवलं नाणं ||३३|| वणी सप्पदंसणपभिई जह पुच्छियं तहा सव्वं । गंथंतराओ नेयं एत्थ न भणियं पसिद्धं ति ||३४|| ॥ चित्रप्रिययज्ञाख्यानकं समाप्तम् ॥५३॥ १. प्पय अपयस्स पासामि खं० रं० । २. समवाये इत्यर्थः । For Private Personal Use Only १६७ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकणिकोशे - इदानीं वनवासियक्षाख्यानकमारभ्यते । तद्यथा अत्थि तहाविहधम्मियजणाउले महइ सन्निवेसम्मि । विंझो व्व गुरुपमाणो पालियसावयवओ सड्डो ॥१॥ अह अन्नया य सम्मेयसेलसिहरम्मि तित्थ जत्ताए । सत्थेण समं चलिओ जा पत्तो तम्समीचम्मि ॥२॥ एगम्मि सन्निवेसे बाहिं आवासियम्मि सत्थम्मि । जस्खाययणम्स वणे पलासतरुणो समतलम्मि ॥३॥ नियइ तहाविहलोयाण पूयणिज्जाओऽहिटियधणाओ। निक्खयकीलयरूवाओ जक्खपडिमाओ णेगाओ ॥४॥ ताण य मञ्झे पासइ पलासपायं निहाणकयसूर्य । अन्नस्स कहिम्समिम मम वयाइक्कमो जम्हा ॥५॥ तत्तो य गाममज्झे सावयगिहपडिमवंदणनिमित्तं । जाच पविट्ठो ता नियइ सावगं दुग्गयं एगं ॥६॥ परमच्चंतविणीयं तस्स गिहे वंदिऊण जिणबिंबं । जावऽच्छइ ता तेणं साहम्मियविणयकरणेणं ॥७॥ रंजियचित्तो साहइ निहाणसंबद्धवइयरं तम्स । तेण वि य दीहदरिसित्तणेण रन्नो तयं कहियं ॥८॥ रन्ना वि तस्स रिजुया-विणयाइगुणेण रंजियमणेण । अणुजाणियं निहाणं गिन्हमु सव्वं पि तुह दिन्नं ॥९॥ तेण वि सुइभूएणं विणएणाऽऽवजिऊण ते जक्खे । सुमुहुत्ते सव्वं पि हु वसीकयं दविणजायं तं ॥१०॥ जिणभवणाइसु सत्तसु खेत्तेसुं वइय निच्चमेव तयं । पजंते सुगईए पत्तो काऊण धम्ममिमो ॥११॥ जह एयाणं जाओ इह-परलोयाण साहओ विणओ । तह अन्नस्स वि जायइ ता जइयव्वं इमम्मि सया ॥१२॥ ॥ वनवासियक्षाख्यानकं समाप्तम् ॥५४॥ प्राणप्रियो विनयवानिह लोक एव, सर्वज्ञशासनमिदं विनयात् प्रवृत्तम् । कुर्वन्ति तीर्थपतयोऽपि यदेनमेवं, सद्धर्मकल्पतरुमूलमुशन्ति सन्तः ॥१॥ ॥ इति श्रीमदानदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे विनयफलवर्णनो नाम सप्तदशोऽधिकारः समाप्तः ॥१७॥ [१८. प्रवचनोन्नत्यधिकारः] व्याख्यातः सामान्येन विनयः ! साम्प्रतं प्रभावनारूपं विशेषविनयमभिधित्सुराह मोक्खसुहवीयभूयं सत्तीए पवयणुन्नई कुज्जा । विण्हुमुणि-बइर-सिरिसिद्ध-मल्ल-समिय-ऽजखउड व्व ॥२३॥ व्याख्या-'मोक्षसुखबीजभूतं' निर्वाणशमैककारणं 'शक्तौ' सामर्थ्य सति प्रवचनोन्नति तीर्थप्रभावनां 'कुर्याद' विदध्यात् । दृष्टान्तानाह-विष्णुश्च-विष्णुकुमारो राजपुत्रः वैरश्च-वैरस्वामी [श्रीसिद्धश्च] श्रीसिद्धसेनदिवाकरो [मल्लश्च] मल्लवादी समितश्च वैरस्वामिगुरुः आर्यखपुटश्च-समयप्रसिद्धो विद्यासिद्धः ते तथोक्ताः, ते इव तद्वद् इत्यक्षगर्थः ॥२३॥ भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र तावद् विष्णुकुमाराख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् हस्थिणउरम्मि नयरे दुब्वन्नजुओ सुवन्नजुत्तो वि । अट्टावयपरिकलिओ आवयरहिओ वि जत्थ जणो ॥१॥ मणपवणजवणवाहो बाणासणगुणकिणाभरणबाहो । पउमुत्तरनरनाहो तत्थऽस्थि महाबलसणाहो ॥२॥ समुवज्जियगुणमाला जाला नामेण आसि से देवी । अन्नोन्ननेहसाराण ताण-कालो अइक्कमइ ॥३॥ केसरिसुविणयसिट्टो विण्हुकुमारो त्ति ताण पढमसुओ । बीओ य चउद्दससुमिणसूइओ सिरिमहापउमो ॥४॥ तत्थ निरीहो जेट्टो रजमिरि ईहए पुण कणिट्टो । जुवरायपए रन्ना तो अहिसित्तो महापउमो ॥५॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ १८. प्रवचनोन्नत्यधिकारे विष्णुकुमाराख्यानकम् एतोय अवनीए पुरीए सिरिधम्मनामओ राया । सम्भावेग पडट्टो मंती नामेण ननुई से ॥६॥ सिरिमुणिनुब्बयजिगनाहसंति सुव्वामी सूरी। समवसरिओ पुरीए उज्जाणं सुनुनिरियरिओ ||७|| सह मुहमंतिणा नरवई गओ सूरिवंदणनिमित्तं । पणमिमुचचिट्टे नम्मि रायपज्जंतलीयमि ||८|| सह सूरिणा वितंडाबाओ पारंभिओ अमचेण । अवहीरिओ मुणिदेण मोणमालेत्रिय खमाए ||९|| एसो हु बलीवद्दपाओ सूरी न याणए किंपि । इय तेणुत्ते नियगुरुपराभवं असहमाणेण ॥१०॥ एगेण विशेषणं नरिंद्रपञ्चन्तपरपच्चत्रस्वं । विहिओ निरुत्तरो सो महापओसं ग तय || ११ || मुणिमारणाय रयणीए आगओ कड्डिऊण करवालं । धरिओ तहेव पावो सासणदेवीए थंभेउ ||१२|| द्विट्टो तहट्टिओ सो गोसे रन्ना सपउरलोगेण । तं दद्दू हुं बहुमाणो जाओ सामु लोगस्स ||१३|| मुको देवया करुणाए तत्थ लोयलज्जन्तो । हन्थिणउरम्मि गंतुं अल्लीणो निवमहापउ || १४ || ते कओ मंतिपए अन्नया सीहबलनियो तस्स । नियदुग्गबलसमेओ लूडइ निस्सेसमवि सं ॥ १५ ॥ सो निययबुद्धिपरिपभावओ नमुमंतिया बद्धो । तुट्टेण बरो दिन्नो रन्ना तेण वि भणियमेयं ।। १६ ।। चिउ तुम्ह समासे जायम्मि पओयण गहिस्सामि । अह अन्नया य जालादेवीए दविणजाएण ||१७|| कारवियं रहरयणं जिणस्स बंभस्स पुण सवत्तीए । लच्छीनामाए तओ जाओ दोह वि विसंवाओ ||१८|| पढमं रहजत्ताए तो पउमुत्तरनिवेण पडिसिद्धा । दोन्ह वि रहा महापउमजुवनिवो तयणु रयणी ॥ १९ ॥ जण अवमाणं मन्त्रिऊण सो एग़गो चि नीहरिओ । वीवाहितो नर खयर - रायकन्नाओ परिभमिओ ||२०|| सलं पि चक्किरिद्धि आसाएऊण हरिथणपुरम्मि । जाओ पयडपयावो छक्खंडवई महापउम ||२१|| जो रन्ना पडिसिद्धो जणणीए रहबरो तया आसि । सो गरुयविभूईए नियनयरे भामिओ तेण ||२२|| एवं सो चक्कवई पुन्नपभावेण परममाहप्पं । पत्तो अह्न्नया तत्थ आगओ सुब्बाओ सूरी ||२३|| राय महापरमेहिं रज्यनिमित्तं पर्यपिओ विण्हू । विसयपिवासावरएण तेण परिवज्जिए रज्जे ||२४|| अहिसित्ता सुमुहुत्ते परमुत्तरराइणा महापउमो । फव्वइओ य सविण्हू राया सुरीण पासम्म ||२५|| कयचारुतवच्चरणो राया सिद्धिं गओ निहयक्रम्मी । जाओ विण्हुकुमारो चि सयलसिद्धं तत्तविऊ ||२६|| आगासगमप्पभिईओ तम्स जायाओ असमलडीओ । विहरेइ महासत्तो उवसंता सो महीवी ||२७|| अह अन्नयाय हथिगउरम्मि विहियम्मि वरिसयालम्मि । सिरिमुच्चयसूरीहिं बहुमुणिपरिवार कलिएहि ||२८|| दिट्टा य अन्नया नमुइमं तिणा ते पओसजुत्ते । पुत्र्वपराजयसंभरणमच्छर फुन्नहियण ||२९|| एसो समओ निवेरसाहणे इय विचितयंतेण । चक्की कयप्पणामेण नियवरं मग्गिओ तेण ||३०|| उत्तविहाणं देव ! महाजन्नमायरिस्समहं । ता मज्झ केत्तियाणि वि दिणाणि रज्जं पयच्छेहिं ॥ ३१ ॥ अंतेउरे पविट्टो नरेसरो तस्स रज्जमध्येडं । अलियकयजन्नदिक्खो संपत्तो जन्नवाडम्मि ||३२|| पासंडिगो सपउरा वढावणए समागया तस्स । नवरं न गया समणा तो वाहरिऊण तेणुत्ता ||३३|| बद्धाविडं न पत्ता तुम्भे मं जन्नदिक्खियं एत्थ । ता चयह संवयं मे दे तो जंप सूरी ||३४|| पंचप्पयारसज्यकरणवक्खित्त चित्तवित्तीहिं । परिहरियसंयलसावज्जलोयततीहि अम्हेहि ||३५|| चद्धाविओ न तं नरवरिंद ! न हु किंपि कारणं अन्नं । ता मा कोचं कुम अम्हमुवरि इय जंपिओ तर्हि || ३६ | सुयरं कुविओ सो पयंपए सत्तदिवसज्यंते । जो चिट्टिही स नियमेण मारियो मए पावो ||३७|| गंतुं नरुज्जाणम्मि सूरिणा सह समग्गसंघेण । आलोचिउं पयत्ता किह उवसमिही इमो मंती || ३ || तागेण विण पणियं एड़ कहवि जड़ एत्थ । विण्हुकुमारमुणी ता उवसमद्द न अन्ना एसो ||३९|| पुण अंगामंदिरसेले ता भगर मुणिवरो अवरो । आगासगमणसत्ती विज्जड़ मह न उण आगमणे ||४०|| जड़ एवं ता सो वि हुतमहाऽऽही पभणिओ गुरुणा । इय भणिए उप्पड़ओ तमालदलसामलं गयणं ॥ ४१ ॥ I सो For Private Personal Use Only १६९ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आख्यानकमणिकोशे दट्टण तयं संघम्स कारणं किंपि होहिही गुरुयं । जं पा उसे वि साह समेइ इय चितयंतम्स ।।२।। विण्हकुमारम्स मुणी समागओ पणमिऊण तच्चरण । कहिओ सब्बो विहु नमुइमंतिणो वइयरो तम्स ॥४३॥ . तो विण्हुकुमारमुणी तं घेतु नहयलण संपत्तो । पणमियगुरुकमकमलो समागओं नमुइअत्थाणे ।।४४॥ सामंत-मंति-मंडलिय-पउरपजंतरायलोएण । नमुइविहणण महामिलंतभालण पणओ सो ॥४५।। तो तेणुत्तो मंती नरिंद : विस्यम्मि बरिसयालम्मि । गच्छिम्सामो अन्नत्थ सहसु ता कइवयदिणाणि ॥४६।। तं सोउं घयसित्ती व्व पावओ पावओ) नमुइमंती । पभणइ जइ भणियदिणाणमुवरि तुम्हाणमेगं पि ॥४७॥ पेच्छिम्सामि समम्गं पि दंसणं ता तहा हणिम्सामि । न जहा तुम्हाणं कोइ कत्थई दीसई भुवणे ॥४८॥ एयारिसं निसामिय चित्तभंतरसमुच्छलियकोवो । पगलंतसेयजालो भिउडीभीसावणनिडालो ॥४९॥ दुप्पेच्छरत्तनेत्तो खलंतजीहाविणिम्सरियवयणो । फुरफुरियहोट्टजुयलो एवं भणिउं समाढत्तो ॥५०॥ अहो ! प्रकृतिसादृश्यं श्लेप्मणो दुर्जनस्य च । मधुरैः कोपमायाति, कटुकैरुपशाम्यति ॥५१॥ जइ वि हु एवं तह वि हु वियरसु तिण्हं पयाण मह ठाणं । तेणावि अवन्नाए भणियं गिण्हसु पए तिन्नि ॥५२॥ तो वेउब्वियलद्धीए बद्धिओ लक्खजोयणपमाणो । विकरालकालकाओ भयंकरो तिहुयणम्सावि ॥५३॥ ददं महाभयंकरकरालरूवं महापमाणं तं । नर-अमरा-ऽसुर-खेयरनियरा भयकंपिरा जाया ॥५४॥ गरुयप्पमाणपव्वयनिटटुरपयदद्दरे कए तेण । विम्संभरा सगिरिनियरकंदरा कंपिउंलग्गा ॥५५॥ झल्लझलिया सव्वे वि सायरा खडहडंति पायारा । इय असमंजसरूवं तिजयं सव्वं पि संजायं ॥५६॥ दाउ सिरम्मि पायं पायाले घत्तिओ नमुइमंती । साहुवियंभियमेरिसममच्चनाहेण नाऊण ॥५७॥ पट्टवियाओ सिंगारियाओ अमरीओ कोवसमणट्टा । ठाऊण ताओ मुणिसवणजुयलसविहम्मि मिउवयणा ॥१८॥ मुणिउवसमसंबद्धं गेयं गायति महुरसद्देण । तह अमर-चारणा वि हु पारद्धा उवसमं पढिउ ॥५९।। कुव्वंति संतिकम्मं विप्पा तह सावया वि भयभीया। जाया जिसराणं न्हवण-ऽच्चणकरणतल्लिच्छा ॥६०॥ मुणिणो उवसमरसपूरियाई वयणाणि भणि उमाढत्ता । सह चक्किणा जणो से लग्गो चलणेमु सब्बो वि ॥६॥ तो उवसंतो स मुणी उवसमरसगम्भवयणसवणेण । जिणपवयणम्स जाया समुन्नई तप्पभावेण ॥६२।। तद्दियहाओ जाओ जयम्मि स मुणी तिविक्कमऽभिहाणो । उप्पाडिकमेण य केवलनाणं गओ सिद्धि ।। ६३ ॥ चक्की वि महापउमो भारहखेत्तं समग्गमवि भोत्तु । कयपव्वजो संजायकेवलो सिवपुरि पत्तो ॥६४॥ ॥ विष्णुकुमाराख्यानकं समाप्तम् ॥५५॥ अधुना वैरस्वाम्याख्यानकमाख्यायते । तद्यथा इह जइया किल भयवं गोयमसामी जिण णऽणुन्नाओ । अट्टावयमारूढो नीसेसपमायरहिओ वि ॥१॥ आयासगमणलद्धी वि परमिमो खेयरहियगइगमणो । पुट्टो वेसमणेणं रयणीए महातवम्सिगुणो ॥२॥ जह जाए संदेहम्मि तम्स कुवियप्पविउडणनिमित्तं । पुंडरिय-कंडरीयाण तणयमझयणमकहिंसु ॥३॥ पढियमसेसं पि हु जेण तप्परीवारगुज्झगेण त्यं । तुंबवणसन्निवेसे सो जाओ वइरसामिमुणी ॥४॥ तत्तो गम्भत्थम्स वि जणओ मोयाविऊग पव्वइओ। जह सो बालो दिन्नो तइया जणणीए जणयम्स ॥५॥ जह य विवाए जाए जित्तं संघेण तम्मि पत्थावे । जह पवइओ निइमइगुणेग जह रंजिओ सुगुरू ॥६॥ जह गुज्झएहिं बालो निमंतिओ जह य गणहरपयम्मि । नियगुरुणा संठविओ जाओ आएज्जवयणो य ॥७॥ जह तम्स रूय-लायन्न-कंति-सोहम्गगुणकलावेण । हयहिययाए धूयाए सेट्टिणो पत्थिओ भयवं ॥८॥ वेउब्धियलद्धीए कुसुमपुरे रंजिओ जहा राया । जह ओराला जस-कित्ति-वन्न-सदा य से जाया ॥९॥ किंच हयासणगेहाओ कुंभमाणेण कुसुमनियरेण । गुणमणिरोहणगिरिणा पभावणा जह कया तत्थ ॥१०॥ पुव्वदिसाओ उत्तरपहम्मि पत्तेण महइ दुभिक्खे । पडविजाए य जहा संघो नित्थारिओ तेण ॥११॥ . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. प्रवचनोन्नत्यधिकारे बैरस्वाम्याख्यानकम् सिरिवीरजिणसरतित्थनाहतित्थं पभावयंतेण । विहरतेण पभृयं कालं कलिकलुसमहणण ॥१२॥ पच्छिमवयम्मि कइया वि तम्स सिंभाहियम्मि संजाए । मुंठीप विम्हरण अणसणमाराहियं तेण ॥१३॥ नियपरिवारजुएणं जहा रहावत्तपन्वयवरम्मि । आवम्सयाओ नेयं सव्वं पि हु वित्थरेण तहा ॥१४॥ ॥ वैरस्वाम्याख्यान सङ क्षेपतः समाप्तमिति ॥५६॥ अधुना [क्रम]प्राप्तं श्रीसिद्धसेनास्यानकमाख्यायते । तश्चेदम् उजेणीए पुरीए सूरी सिद्धंतपारगो आसि । नामेण विद्धवाई सिरोमणी विउसवम्गम्स ॥१॥ नियविउसत्तवसेणं तहा महागरुयगव्चयाए इमो । विहियपइन्नो नजइ सव्वत्थ इमेण पढिएण ॥२॥ मद्गोः शृङ्ग शक्रयष्टिप्रमाणं, शीतो वहिर्मारुतः स्थैर्ययुक्तः । यद्वा यस्मै रोचते यन्न किश्चिद् ,वृद्धो वादी भाषते कः किमाह ? ॥३॥ सोऊगरिसगव्वं बंभणवंसुम्भवो गुरुमरट्टो । सिरिसिद्धसेणनामो परियरिओ निययछत्तेहिं ॥४॥ वायं दाउं पत्तो सद्धिं सो विद्धवाइसूरीहिं । सह बंभणहिं कलहं को काही ? इय विचितेउ ॥५॥ सूरी चलिओ कम्मि वि गामे जा ताव सिद्धसेणो वि । नट्ठो त्ति विचिंतिय झत्ति धाइओ तम्स पट्टीए ॥६॥ गच्छंतो संपत्तो सूरी सिग्घयर बडुयवग्गेण । भणिओ य कहिं बच्चसि नट्ठो सेवडय ! तपियाणिं ? ||७|| भणिया य सूरिणा ते नाहं नट्टो कुओ वि हु भएण । एवं जपंताणं संपत्तो सिद्धसेणो वि ॥८॥ भणइ य निययपइन्नं पालसु वियरसु मए समं वायं । जंपइ सूरी नयरीए वियरिमो विउसपच्चक्खं ॥९॥ तेणुत्तं एत्थेव य आह मुणिंदो न संति इह सभा । सो जंपइ एमेव य वियरमु सूरी वि पडिभणइ ॥१०॥ एए वि ताव गोवाल-हलहरा हंतु इह सहायिणो । तेणाणुमन्निए ते वाहरिया सूरिणा सव्वे ॥११॥ जो हारिही स सिम्सो होही इयरम्स सिद्धसेणण । विहिया इमा पइन्ना पच्चक्खं हलहराईणं ॥१२॥ तुह चेव पुचपक्खो होउ त्ति पयंपिए मुणिदेण । सो सक्कयवाणीए विप्पो जंपेउमारद्धो ॥१३।। नत्थि जए सम्वन्नू पमाणपंचगपवत्तणाभावा । गयणारविंदमिव ता अभावमाणस्स विसओ सो ॥१४।। तहाहि पच्चक्खपमाणेणं सव्वन्नु ता न दीसए लोए । लिंगाभावाओ तहा अणुमाणेणावि तह चेव ॥१५॥ उवमाणेण वि तत्तुल्लऽदसणाओ न सो भवे गझो । गम्मइ न आगमेण वि विरोहओ तेसिमन्नोन्नं ॥१६॥ अत्थावत्तीए वि हु दूरं गम्मई न सो भुवणभाण । जम्हा तेण विणा वि हु सव्वे अत्थे पसिझंति ॥१७॥ तम्हा अभावविसओ सव्वन्नू मुयह तम्मि पडिबंधं । धम्मा-ऽधम्मवियारो वेयाओ गम्मए सन्चो ||१८|| कत्तारदोसरहिए अपोरुसेए सया वि किल वेए । गयणं व सव्वतुल्ले सइ किं सव्वन्नुकप्पणया ? ||१९|| इय सव्वन्नुनिसेहप्पहाणमेयं सुणित्तु दियवयणं । हलहरसहाए उचियं पभणइ सिरिविद्धवाई वि ॥२०॥ धम्मु सामिउ सयलसत्ताह, विणु धम्मि नाहिं धर । .....' ......... ||१|| .................. 'धण धन्नु धम्मह पसाएण । धम्मक्खरबाहिरिण धिसि, धिरत्थु किं तेण जाएण ? ॥२॥ धरणिहिं भारु करतेण, पयपूरणपुरिसेण । किउ संसारि भमंतेण, धम्मु सुमित्त न जेण ॥३॥ इय पढिऊणं पुट्टा मुणिवइणा हलहरा सहावइणो । मझमिमम्स य पढिए भब्वमभव्वं भणह तुन्भे ॥२१।। तेहत्तं तह पढिए महजयममण्ण सिंचियं अम्ह । एयम्स संतियं पुण न किंपि अम्हे मुहावेइ ॥२२॥ ता किंपि भणियमिमिणा न बुद्धमम्हेहि तत्तमेयम्स । मूरी वि भणइ निमुणह जं भणियमिमेण तम्सत्थं ॥२३॥ जंपियमणेण तुम्हाण देवहरयम्मि नत्थि अरहंतो । ते बिति अस्थि अम्हेहिं पणमिओ संपयं चेव ॥२४॥ जइ एरिसं पयंपइ पिया वि अलिओ इमम्स ता नृणं । इय जंपिऊण विप्पं घेतं बाहाहि ते विति ॥२५।। १.श्लेष्माधौ श्लेष्मरोगे। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे आगच्छ जह तुझ वि दंसेमो जिणहरम्मि अरहंतं । सम्वेहिं तओ दिन्नो जयवाओ मुणिवरिंदम्स ॥२६॥ विप्पण वि निययपइन्नपालणुज्जुत्तमाणसेण तओ। भणियमहं तुम्हाणं सिम्सो ता देह मे दिवं ॥२७॥ तो दिविवाओ मुर्णिदेण सिद्धमेणो पसत्थदिवसम्मि । जाओ य सयलसिद्धंतपारगामी महासत्तो ॥२८॥ बहुगुणगगपरिकलिओ ठविओ सो नियपयम्मि सूरीहिं । विहरइ वीरजिणेसरविसिट्टतित्थं पभावतो ॥२५॥ उज्जगोप पुगए कमेग पत्ता महीप विहरंता । निमुणइ जणाक्वायं पाययसिद्धंतविसयन्मि ॥३०॥ मेले ऊणं संघ कयंजली मुणिवई भणइ एवं । जइ आएसं संघो मह वियरइ विरइयपसाओ ॥३१।। सिद्धतं सव्वं पि हु करेमि भासाए सक याप अहं । सोऊण तयं संघो वि एवमुल्लवि उमारद्धो ॥३२॥ दूरे ता भणियव्वं एसा चिंता वि जुञ्जइ न तुम्ह । जम्हा चिंतियमेत्ते वि जायए गरुयपच्छित्तं ॥३३॥ तो सिद्धमेणसूर्ग पयंपए मज्झ चरिमपच्छित्तं । संपइ संपन्नमिमं पुण न हु मह वट्टए इण्हि ॥३४॥ ता काऊण पसायं संघो मह देउ चरिमपच्छित्तं । तम्मऽभासाओ जेण मज्म संजायए सुद्धी ॥३५॥ तं पुण बारसवासप्पमाणमवत्तलिंगधारीहिं । पायच्छित्तं किज्जइ संजाए एरिसे पावे ॥३६॥ अणुजाणिओ समाणो संघेणं सिद्धसेणमुणिनाहो । अव्वत्तलिंगधारी होउ तं चरिउमारद्ध। ॥३७॥ चिंतइ य महीवीढे परिभमंतो पसंत-थिरचित्तो । ते धन्ना मुणिवसभा सलाहणिज्जा तिहुयगम्मि ॥३८॥ जायं चुक्कक्खलियं न जेसि कइया वि एरिससरूवं । अक्खंड चरणपरिणामसुंदरा ते जयंतु जए ।। ३९ ।। इय एरिसमुहभावगपडिह्यपावस्स तम्स वरिसाणि । बारस जाव अईयाणि ताव पत्तो अवंतीए ॥४०॥ सो तत्थ कुडंगेसरदेवम्स मढम्मि संठिओ मइमं । संथुणइ न तं देवं इय नाउँनयरिलोएण ॥४१॥ . विन्नत्तं नरवइणो देव ! कुडंगेसरम्स देवम्स । चिठ्ठइ मढम्मि अव्वत्तलिंगिओ थुणइ न हु देवं ॥४२॥ तं सोउ नरनाहो संपत्तो तत्थ तं पयंपेइ । को सि तुमं ? सो वि हु भणइ धम्भिओ हमिह संपत्तो ।।४३।। तो भणइ निवो किं न हु देवमिमं थुणसि ? भणइ पुण सो वि। एस न सहिडं सक्कइ मझ थुई भणइ तयणु नियो ।।४४|| एयं चिय पेच्छामो कुणसु थुइं कोउयं जओ अम्ह । इह होउ अम्ह दंसणपभावणा इय विचिते ॥४५॥ तेणुत्तमिमं गोसे कायव्वं तयणु बीयदिवसम्मि । निवपजंतो लोगो संपत्तो तम्मि देवउले ॥४६॥ तो सिद्धसेणसूरी सुइभूओ सुमरिऊग जिणनाहं । बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं थोउं समारद्धो ॥४७॥ ओहिन्नाणण वियाणिऊण जिणपवयणुन्नइनिमित्तं । सासणदेवी जिणसासणम्स भत्ता समगुपत्ता ॥४८॥ एत्थंतरम्मि सिरकमलमज्झभागाओ तम्स देवस्स । पासजिणेसरपडिमा सहसा निस्सरिउमारद्धा ॥४६॥ उवसंत-कंतरूवा अंते वतीसियाण सव्वाण । नीहरिया सव्वा वि हु सच्चविया राय-लोएहिं ॥५०॥ दटळूण पवयणुन्नइमेरिसमच्छरियभृयमच्चत्थं । पडिबुद्धो पउरजगो तित्थस्स पभावणा जाया ॥५१॥ ॥ श्रीसिद्धसेनाख्यानकं समाप्तम् ॥५७॥ इदानीं मल्लवाद्याख्यानकं कथ्यते । यथा-- सरसप्पवालकलिए अमियावासे महाअरन्ने व । रयणायरे व्व भरुयच्छपट्टणे निवसए सूरी ॥१॥ नामेण जिणाणंदो बुद्धाणंदाभिहाणभिक्खू वि । निवपज्जंतो वाओ परोप्परं तेहिं पारद्धो ॥२॥ जो हारइ सो नियमा नयरं परिहरइ विरइया तेहिं । दोहिं वि इमा पइन्ना संजाए तयणु वायम्मि ॥३॥ भवियन्वयावसेणं विणिजिओ भिक्खुणा मुणिवरिंदो । नीहरिऊण ससंघो समागओ वलहिनयरीए ॥४॥ फव्वइया सूरिससा दुल्लहएवी समं तिहिं सुएहिं । अजियजस-जक्ख-मल्लाभिहेहिं सुविसुद्धबुद्धीहिं ॥५॥ समहिज्जियमुत्तत्था तिन्नि वि जाया विसेसओ मल्लो । मोत्तणं पुव्वगयं तह नयचकं समग्गं पि ॥६॥ बारसअरयपमाणं रइयं पुवाओ तं समुद्धरियं । अरयाणं पत्तेयं पारंभे तह य पजते ॥७॥ कीरइ जिणाण पूया महापयत्तेण इयरहा विग्धं । संजायइ क्वखाणे पढणम्मि य सयलसंघम्स ॥८॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. प्रवचनोन्नत्यधिकार मल्लवाद्याख्यानकम् १७३ सूर्गहिं तीण अजाए अप्पिा पोत्थयाण भंडारो । अह अन्नया यं विहरिउकामेहिं पयंपिओ मल्लो ॥९॥ नयचक्कपोत्थयमिणं न वाइयव्वं ति विहरिया गुरुणो । अह निग्गयाए अजाए तीए केणावि कज्जेण ॥१०॥ इह पोत्थयम्मि किं चिद ? ति संजायकोउहल्लेण । मल्लण तयं घेत्तण छाडियं तयणु से पत्तं ॥११॥ पढम कलिऊण करम्मि चाइओ तम्मि आइमसिलोगो । निम्सेससन्थभावम्स साहगो महग्वाणीए ॥१२॥ विधि-नियमभङ्गवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचावत । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधय॑म् ।।१३।। जा सम्मं परिभावह तम्सऽत्थं ताव देवयाप तयं । अविहि त्ति चिंतिऊणं सपत्तमवि पोत्थयं हरियं ॥१४॥ तमपेच्छंतो संतो जा संजाओ विलक्ववयणो सो । ता आगयाए अजाए. पुच्छिओ किं विसन्नो सि ? ||१५|| तेण वि पोत्थयहरणं कहियं तीए वि सयलसंघम्स । तं सोउं साममुहो संघो सव्वो वि संजाओ ॥१६॥ यसिमम्मि पविसियव्वं न मा नयचकपोत्थपण विणा । रुकवा य भविश्वयवा केवलया भोयण वल्ला ॥१७॥ भणिओ संघणसो बाहिज्जसि केवलेहिं वल्लेहिं । ता देहरक्षणकए गिण्हमु तं किंपि विगई वि ॥१८॥ संघाएसं बहुमन्निऊण सो वल्ल-घय-गुडाहारो | गंतूण संठिओ गुरुगुहाए गिरिदुमासेलम्स ॥१९॥ तत्थ ठियस्स वि मल्लम्स मुणिवरा दिति भत्त-पाणाई । तम्मइपरिक्खणत्थं अहऽन्नया देवयाए इमं ॥२०॥ भणियं रयणीए के मिट्टा ? वल्ल त्ति जंपियं तेण । पुणरवि पज्जन्ते तीए जंपियं छह मासाणं ॥२१॥ केण ? ति घय-गुडेणं ति] जंपिए मल्लचेल्लएण तओ । तस्सेवंमइपगरिसरंजियहिययाए देवीए ॥२२॥ भणियं जं किंपि मणप्पियं तयं मल्ल ! मम्गसु इयाणि । तुह तुट्टा हं तो मल्लचेल्लएणं इमं भणिया ॥२३॥ नयचक्कपोत्थयं मे वियरसु ता देवयाए सो भणिओ । पढमसिलोगाओ च्चिय होही तं तारिसं तुझ ॥२४॥ तो देवयाणुभावेण विरइयं तेण तत्थ नयचक्कं । संघेण वि वलहीए पवेसिओ सो विभूईए ॥२५॥ गुरुण वि विहरिउणं समागया नायसयल वुत्तता । अजियजस-जक्ख-मल्ला गुणगणजुत्त त्ति तेहिं तओ ॥२६॥ संठविया मृरिपए जाया परवाइवारणमइंदा । अह अन्नया य सिरिमल्लमूरिणा सुमरियं एयं ॥२७॥ जह भिक्खबद्धदासेण वायमुद्दाए मूरिणो विजिया । भरुयच्छाओ संघेण संगया तयण नीहरिया ॥२८॥ निययगुरुणऽवमाणं संघम्स पराभवं च नाऊणं । मल्लमुगिंदो भझयच्छपट्टणे झत्ति संपत्तो ॥२९॥ कयतारिसप्पइन्नेण तेण सह भिवखुणा समारद्धो । निवपज्जंतो वाओ बहुविउससहाए पच्चक्खं ॥३०॥ एयम्स गरू विमा विणिजिओ विजयवाइविंदो वि । ता एयम्मि दुहा वि हु बाले किर मज्झ का गणणा ? ॥३१॥ इय भणिउमग्गवाओ समप्पिओ भिवखुणा मुणिंदम्स । सो वि हु सुमरिय सासणदेविमुवन्नसिउमारद्धो ॥३२॥ सियवायसारजिणमयगम-हेऊ-भंग-पवरजुत्तीहिं । काऊणमुवन्नासं धरिओ छद्दिवसपजते ॥३३॥ भणियं च तेणमणुवइ दूसेयत्वं तए इमं गोसे । तो बुद्धदासभिक्खू नियठाणगओ तमिस्साए ॥३४॥ दीवयमुज्जालेऊण करयल कलिय सेडियं सुम्भं । जमुवन्नसियं मल्लेण तं लिहे समारद्धो ॥३५॥ परिभावणाए मढमज्झिमाए भित्तीए ता न से किंपि । सम्मं संभरइ तओ धसकिओ हिययमझम्मि ॥३६॥ निवपजंतसहाए भणियब्वं किह मए पभायम्मि ? । एवमयज्झवसाणेण सो गओ झत्ति पंचत्तं ॥३०॥ मिलियम्मि विउसवग्गे बीयदिण जा न एइ सो भिक्खू । हक्कारणाय ता तस्स राइणा पेसिया पुरिसा ॥३॥ ते तत्थ गया भिक्खू नियंति भित्तीसमीवमुवविढें । उत्ताणियनयणजुयं सेडियपाणि विगयपाणं ॥३९॥ गंतण तहिं रन्नो साहियमह भणइ नरवई एवं । जह कहियमिमेहिं तहा चितंतो सो भएण मओ ॥४०॥ तो तेण हारियं तयणु राइणा मल्लवाइणो दिन्नं । जयपत्तं संजाया संघम्स पभावणा महई॥४१॥ निम्सारिउमारद्धं रन्ना भिक्खूण दंसणं सयलं । तो मल्लवाइणा सो निवारिओ जायकरुणण ॥४२॥ सूरी वि जयाणंदो निवेण निम्सेससंघसंजुत्तो । पच्चाणीओ गंतूण सम्मुहं गुरुविभूईए ॥४३॥ १. वायविंदो रं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आख्यानकमणिकोशे । विहिया पभृयकालं पभावणा मल्लवाइसृरीहि । निन्नासिया य सम्वे वि तेण परवाइणो बहुसो ॥४४|| सवणोयम्सुहसदेसणाए पडिबाहिऊण भवियजणं । सिरिमल्लवाइसूरी मरिऊण गओ अमरलोए ॥४५॥ ॥ मल्लाख्यानकं समाप्तम् ॥५८॥ अधुना समितास्यानकमारभ्यते । तद्यथा-- कन्ना-वेन्नाण नईणमन्तरे तावसासमो एगो । बंभद्दीवियसाहाण तावसाणं समत्थि तओ ॥१॥ कुलवइणा तरुमूलाण मेलण जाणिओ कहवि जोगो । तं पयतलेसु दाऊण तावसा उत्तरंति नइं ॥२॥ तेसिं पभावणा सावयाणमोहावणा धुवं जाया। दट्टणमइसयं तं तेसिं भत्ति कुणइ लोओ ॥३॥ तम्मि य समए सिरिवइरसामिणो माउला य समियज्जा । विहरंति जोगसिद्धा तो तेसि निवेइए भणियं ॥४॥ पायतललेववसओ एयं न उणो तवाणुभावेणं । तो सावगेण विउणा एगेण निमंतिया गेहे ॥५॥ तेसिमणिच्छंताण वि पाए पवखालिऊण भोयविया । गच्छंति चडयरेणं बुडंति नईए ताव जले ॥६॥ तो तत्थ अज्जसमिएहिं जोगसिद्धेहिं जोगचप्पुडियं । खिविङवुत्तं विन्ने ! परकूलं गंतुमिच्छामि ॥७॥ ताव य दो तीए तडा. मिलिया जोगप्पभावओ जाया । सासणपभावणा तावसा य सम्वे वि पडिबुद्धा ॥८॥ पव्वइया गुरुपासे संजाया बंभदीविया साहा । जम्हा उ बंभदीवियतवोवणाओ इमे जाया ॥२॥ ॥ समिताख्यानकं समाप्तम् ॥५६॥ इदानीमार्यखपुटाख्यानकं व्याख्यायते । तच्चेदम् सिरिअज्जखउडसूरी विजासिद्धो मुसाहुपरियरिओ। विहरंतो संपत्तो भरुयच्छपुरम्मि कइया वि ॥१॥ तम्सऽस्थि भाइणज्जो खुड्डमुणी कुणइ तस्स सुम्सूसं । सोउं परिवत्तंते गुरुणो विज्जाओ अणुदिवसं ॥२॥ पढियाओ कन्नाहेडएण विजाओ पढियसिद्धाओ। ताओ जओ तो तस्स वि चिंतियमेत्ताओ विफुरंति ॥३॥ गुडसत्थाओ अह अन्नया य मुणिजुयलमागयं तत्थ । पणमिय गुरुकमकमलं कयंजली जंपए एवं ॥४॥ भंते ! अकिरियवाई गुडसत्थपुरे समागओ भिक्खू । देवाइधम्मतत्तं नत्थि त्ति पयंपमाणो सो ॥५॥ विजिओ संतो साहहिं गुरुपओसं गओ मरेऊण । वड्डुक्कराभिहाणो जाओ तत्थेव सो जक्खो ॥६॥ पुव्वपराभवमवलोइऊण नाणेण आसुरुत्तो सो। उवसग्गइ साहुजणं संपइ तुम्हे पमाणं ति ||७|| मोत्तुं सभाइणेज्जं गच्छं तत्थेव अज्जखउडपहू । सद्धिं मुणिजुयलेणं पत्तो गुडसत्थयं गामं ॥८॥ अवलंबिउं उवाणहजुयलं वड्डुक्करस्स जक्खम्स । कन्नेसुं तप्पुरओ सुत्तो पावरिय सियपडयं ॥९॥ देवच्चएण दिट्टो सिट्टो य सपउरनरवरिंदस्स । तं सोऊण सकोवो सपरियणो नरवई पत्तो ॥१०॥ नियजक्खम्स अवन्नं ददै उहाविओ स नरवइणा । न वि उट्टइ गरुएहिं वि सद्देहिं पयंपिओ बहुसो ॥११॥ मुह डेहिमेगदेसा कुओ वि पडयम्मि तम्मि अवणीए । तेहिं अहोभागो से दिट्ठो सपउरनरिंदेहिं ॥१२॥ जत्तो जत्तो पइयं अवणेउं ते तयं पलोयंति । तत्थ य तत्थ य मुणिणो पुयप्पएसं निरूवेति ॥१३।। द ट्रण तयं भूवेण पभणियं रे ! बिभीसिया एसा । ता सिग्वं परिताडह कर-कस-दंडप्पहारहिं ॥१४॥ तहविहिए मुणिवइणा तेसि पहारा निवावरोहम्मि । संकामिया सविज्जाबलेण तत्थेत्थ लग्गंति ॥१५॥ नाउं महल्लएहिं कहियं रन्नो निवो वि तं सोउं । चितेइ को वि एसो महप्पभावो महासत्तो ॥१६॥ उच्छलियबहलकोवो जावन मं हणइ पउरपरिकलियं । खामेमि ताव इय चिंतिऊण पणओ निवो तम्स ॥१७॥ भणइ य महापसायं काउं मह खमह एगमवराहं । जम्हा करुणारसिया भवंति पणएसु सप्पुरिसा ॥१८॥ तं निसुणिऊण सूरी समुट्टि चल्लिओ तओ झत्ति । वड्डक्करजक्खो वि हु संचलिओ तयणुमग्गेण ॥१९।। अवराणि वि चामुंडाइयाणि सव्वाणि देवरूवाणि । सूरिपहम्मि पयट्टाणि खडहडंताणि समकालं ॥२०॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. प्रवचनोन्नत्यधिकारे आर्यखपुटाख्यानकम् १७५ जक्खाययणद्वारे बहुपुरिससापहि चालणिजाओ। बाहरियाओ मुणिदेण दोन्नि पाहाणदोणीओ ॥२१॥ ताओ वि हु चलियाओ एरिसमच्छरियमइसयं दटुं । रायाइनयरलोओ पयपणओ पभणए एवं ॥२२॥ मुंचमु भयवं जक्वं मुक्को य स भयवया सपरिवारो । निययट्ठाणम्मि गा ताओ पुण दा वि दाणीआ॥२३॥ धरियाओ हट्टमझम्मि थंभिपभणयं च मूरीहिं । जो कोइ मज्झ तुल्लो सो नेउ इमाओ नियटाण ॥२४॥ गुडसत्थपुरे अज वि तहेव चिटुंति ताओ तत्थेव । तदियहाओ जाओ जक्खो जिणसासणे भत्तो ॥२५॥ पडिबुद्धो पउरजणो महई जिणपवयणुन्नई जाया । साहुककार इ सव्वो वि सासणं वीरनाहम्स ॥२६॥ एतो चिय भरुयच्छे भोयणगिद्धो स भाइणजमुणी । जाओ बुद्धो विजप्पभावओ तम्स पत्ताणि ॥२७॥ गयणंगणेण गच्छंति अणुदिणं निय उवासयगिहेसु । भोयणभरियाणि पुणो तह चेव य पडिनियत्तंति ॥२८॥ अहिवासिया समाणी टोप्परिया पवरआसणनिविट्टा । सम्वेसिं पत्ताणं पुरओ सा एइ गच्छइ य ॥२९॥ एयारिसमच्छरियं पेच्छिय बुद्धाण दंसण लोगो । आउट्टो संजाया संघस्सोहावणा गरुई ॥३०॥ जाणाविओ समाणो संघेण समागओ मुणिवरिंदो । ताणवि उवासगाणं गिहेसु पत्ताणि पत्ताणि ॥३१॥ तेहिं वि पूयापुव्वं भत्तिभरनिभरेहिं भरियाणि । उप्पइयाणि नहंगणमग्गेणं जाव सव्वाणि ॥३२।। ता मुणिवइवेउव्वियसिलाए अभिट्टिऊण भग्गाणि । नायं च भाइणेजेण मह गुरू आगओ एत्थ ॥३३॥ तो भयभीओ नट्टो बुद्धविहारम्मि सूरिणो वि गया । भिक्खूहि जंपिया एह नमह बुद्धम्स कमकमलं ॥३४॥ सूरीहिं जंपियं एहि बुद्ध ! वंदाहि मज्झ कमजुयलं । तो बुद्धदेवपडिमा विणिग्गया तेसि पणया य ॥३५॥ चिट्टइ महरिहथूमो विहारदारे पयंपिओ सो वि । वंदाहि तं पि तो सो विनिवडिओ सूरिचलणसु ॥३६॥ पुणरवि भणिओ चिट्ठयु अद्धोवणओ तहेव सो थक्को । तत्थ नियंठोणामियणामेण गओ गुरुपसिद्धिं ॥३७॥ दट्टण तमच्छरियं विम्हयउप्फुल्ललोयणो लोगो । जिणसासणाणुरत्तो पयंपिडं एवमारद्धो॥३८|| तं जयउ वीरसासणमेरिसअइसयसहस्ससंकिन्न । जत्थ अजंगमदेवा वि सूरिचरणेऽभिवंदंति ॥३९।। सव्वा वि जणो जिणपवयणम्मि जाओ सुभत्तिथिरचित्तो। जिणसासणस्स जाया समुन्नई भुवणमज्झम्मि ॥४०॥ ॥ आर्यखपुटाख्यानकं समाप्तम् ॥६०॥ एएहिं जहा विहिया सत्तीए पवयणुन्नई असमा । कायवा अन्नेहिं वि तहेव सप्युरिसरयणेहिं ।।१।। सैद्धान्तिकप्रमुखसत्पुरुषप्रभावैरष्टाभिरप्यपरतीर्थमतं निरम्य । श्रीसर्व वित्लवचनोन्नतिमङ्गिमान्यो धन्यः स कोऽपि कुरुते शिवशर्मबीजम् ।।२।। ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे प्रवचनोन्नतिवर्णनो नामाष्टादशोऽधिकारः ॥१८॥ [ १९. जिनधर्माराधनोपदेशाधिकारः] उक्तं प्रवचनोन्नतिकारणम्, एतच्च परमं धर्मसर्वम्वम् । एतत्करणशक्त्यभावेऽपि स्वजनादिमोहं विहाय धर्म एव विधेय इत्यु पदेशमभिधातुकाम आह सयणे धणे असारे मोहं मोत्तूण कुणइ जिणधम्मं । जं परभवाणुगामी सो चिय जोहारमित्तो व्व ॥२४॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे व्याख्या--'स्वजने' माता-पित्रादौ 'धने च' गणिमादौ 'असारे' परमार्थसारशून्ये 'मोह' मूढतां 'मुक्त्वा त्यक्त्वा [ कुरु] विधत्त 'जिनधर्म' सर्वविद्भणितमनुष्ठानम् । कारणमाह – 'यद्' यस्मात् कारणात् 'परभवानुगामी' परलोकानुयायी 'स एव' जिनधर्म एव । किंवत् ? ‘जोत्कारमित्रवत् मित्रतृतयमिव इत्यक्षरार्थः ||२४|| भावार्थत्वाख्यानकादवसेयः । तच्चेदम्— १७६ निसेसमुहयवहाविलासिणीकुसुमसेहरसमाणं । सप्पुरिसरयणजलही रयणउरं नाम पुरमत्थि ॥ १ ॥ तम्मि पुरे अरिवारणचियारणो स्यणसारनरनाहो । परिहरियइयरनरवइकमलाकुलवालिया गेहूं ||२|| उप्पत्तियाइच उविमइविहवालंकिओ महामंती । तस्सऽत्थि बुद्धिसारो सारयरनायपरमत्थो ||३|| सो अन्नया विचिंत राया मित्तो न होइ कइया वि । किंतु मह वपुन्नप्पभावओ वह मित्तत्तं ||४|| अह कवि देव्वपरिणइवसेण रूसिज्ज मज्झ नरनाहो । तद्दियहवसणतरणाय किंपि विरएम मित्तमहं ||५|| इय चितऊण तत्तो महंत सामंतवंससंभूयं । विरएड गरुयनवनेहनिच्भरं किंपि वरमित्तं ॥ ६ ॥ आभरण-वत्थ-भोयण-सयणा ऽऽसण जाणवाहणाईयं । नियदेहनिव्विसेसस्स तस्स वियरेइ अणुदियहं ||७|| अवरो वि तेण वीवाह - विद्धि-बद्धावणाइपब्वे । विहिओ मित्तो आभरण-वत्थदाणेहिं सचिवेण || ८ || अवरं च रायमग्गे उत्तमवंसुग्भवो महागुहो । जोहारमेत्तसज्झा संजाया तेण सह मेत्ती ॥९॥ अह अन्नया अयंडे बाढं कुवियं नरेसरं नाउं । चिंतेइ महामंती भयकंपिरमाणसो एवं ॥ १० ॥ नृणं न एत्थ वासो मह होही राइणा विरुद्धेण । ता वच्चामि विएसं तत्थ कहं जामि असहाओ ? ॥ ११ ॥ पर मज्झ परममित्तो विज्जर नवनेहनिभरो पढमो । सन्निज्झणं तो तरस जामि रज्वंतरं अन्नं ॥ १२ ॥ इय चिंतिऊण मंती जाइ तओ पढममेत्तगेहमि । उट्टित्तु सो वि समुहं सयणा-Ssसणदाण-विणयाई || १३|| विरइत्तु तो पर्यपद् मह गेहमलंकियं तए मित्त ! । कज्ज्रेण केण ? भणिए भणइ तओ बुद्धिसारो वि ||१४|| मह कम्मपरिणईए विणाऽवराहेण रुट्टओ राया । ता तुह साहिज्जेणं वच्चामी अन्नसम्म ||१५|| इनिणि पपड़ जड़ रुट्टो तुज्झ नरवई मित्त ! । एकं पि पयं गंतुं ता न खमो सामि ! साहेज्जे ||१६|| आयन्त्रिण एवं मंती चिंतेड़ जायवेरगो । एकपए च्चिय जाया उवयारा निष्फला किह णु ? ||१७|| विच्छायमुहो गच्छ मंती बीयम्मि मित्तगेहम्मि । सो वि समुट्टिय समुहं पर्यापए भणसु किं कज्जं ? || १८॥ मंती वि क स पपए सो वि मित्त ! न समत्थो । नियपुत्त-कलत्ताइं परिहरिउं तुज्झ कज्जम्मि ||१९|| किंतु पुरीए परिसरे तं अभडवंचियं नियत्तेमि । संतरम्मि गंतुं तुमए सद्धि न सकमि ॥२०॥ तो तं पण मंती सच्चयमाहाणयं कयं तुमए । तक्केण मक्खिउं मक्खियाहिं खावेसि तुममेवं ॥ २१ ॥ चिंतेइ इमे सम्माणदाणपरिओसघणसिणेहा वि । जइ न सहाया जाया ता किं जोहारमेत्तेण ? ||२२|| तह विपरिच्छित्ति चिंतिर जाइ संसइयहियओ । जोहारमेत्तभवणे साहइ सव्वं पिवत्तंतं ॥ २३॥ सो भइ मह जियंते निलियासेस दुक्ख दोहे । वालविणिवायमेत्तं पिमित्त ! न भयं तुह् जयम्मि ||२४|| ता सामु नियकज् य भणिए भणइ बुद्धिसारो वि । गिहित्तु सारदव्वं वच्चामो अन्नदसम्म ||२५|| भरिऊण सारदविणम्स रहवरं स्यणिपढमपहरम्मि । नीहरिओ नयराओ तं सन्नद्धं पुरो काउं ॥ २६॥ पत्तो य अवरदेसंतरम्मि तद्देसनयरनरनाहो । जाणित्तु बुद्धिसारं समागयं सम्मुह एह ||२७|| नाऊण बुद्धिकलहंस के लिलीलाविलासकमलसरं । सो वि नियमंतिमंडलसिरोमणित्त निवेस ||२८|| इदानीमन्तरङ्गभावना— मंती संसारिजिओ बुद्धीविनाणसंपयावसहो । पयईए वल्लह हो दुहभीरू गुणनिवासहिं ||२९|| जमसरिस पुइवई समुत्थियजणअतक्कियागमणो । सच्छंद्र चरणसीलो करुणारहिओ य सवस्स ||३०|| अकन्नुयानिवासो विन्नेओ पढममंतिमित्तसमो । उवयारगुणअगेज्झो नेओ देहो खलयणो व्व ॥३१॥ For Private Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणियं च भणियं च -- भणियं च - तहा २०. नरजन्मरक्षाफलाधिकारे वणिक्पुत्रत्रयाख्यानकम् तह लालियम्स रहपालियम्स तहसुरहिगंधमहियम्स । खलदेह ! तुज्झ जुत्तं ? पयं पि नो देसि गंतव्वे ॥ ३२ ॥ जह सो पढमी मित्तो सरणं मंतिस्स आवइगयस्स । मणयं पि न संजाओ देहो वि तहेब जीवस्स ||३३|| जह सो बीओ मित्तो नियकज्जपरायणो सुहेकरसो । मंतिस्स न साहेज्जं दुहियम्स तहाहिमकासी ||३४|| तह सयणा विनेया कित्तिमनेहा सकज्जतलिच्छा । परमत्थेण न किंचि वि जियम्स जंतम्स साहज्जे ||३५|| २३ बंधवा सुहिणो वे पिय-माइ- पुत्त भायरा । पिचणाओ नियत्तंति दाऊणं सलिलंजलि || ३६ || अवंतिय तं गेहं पियम्मि वि मए जणे । हिट्टा तेणऽज्जियं दव्वं, तहेव विलसंति य ॥ ३७ ॥ अत्थोवज्ञणहे ऊहिं, पावकम्मेहिं पेरिओ । एकओ चेव सो जाइ, दुमाई दुहभायणं ||३८|| जोहारमित्तमेत्ती मंतिसहाओ जहा तइयमित्तो । तह अप्पपयत्तकओ वि होइ जीवस्स जिधम्मो ||३९|| थेवं थेवं धम्मं करेह जड़ ता बहुं न सकेह । पेच्छह महानईओ बिंद्रहिं समुदभृयाओ ||४०|| इहलोइयम्मि कज्जे समारंभेण जह जणो तणइ । तह जइ लक्खंसेण वि परलोए ता सुही होइ ॥ ४१ ॥ येवोवयारविहिओ वितणा जह इमो तइयमित्तो । सरणं जाओ जीवम्स परभवे तद् इमो धम्मो ||१२|| ॥ योत्कारमित्राख्यानकं समाप्तम् ॥ ६१ ॥ सर्वं धनं सनिधनं स्वजनादयोऽपि प्रायो भृशं स्वभरणं प्रतिबद्धकक्षाः । मोहं विहाय तदमी जिनेन्द्रधर्म जात्कारमित्रमिव जन्मिहितं कुरुध्वम् ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जोत्कारमित्रनिदर्शनजिनधर्मवर्णन एकोनविंशोऽधिकारः समाप्तः ॥ २१ ॥ [ २०. नरजन्मरक्षाधिकारः ] अनन्तरं जोत्कारमित्रनिदर्शनेन धर्मो व्यावर्णितः । साम्प्रतमेतत्कारणसामग्री प्रधानतरमूलधनकल्पनरत्वप्राप्तावपि निजयोभ्यतानुरूपेण धर्मफलं प्राप्यते इत्येतदभिधित्सुराह लधुं के नरतं सग्गसुहं नरसुहं व अजिंति | हारिंति के तं पि हु इह नायं वणियपुचेहिं ॥ २५॥ व्याख्या—' लब्ध्वा' अवाप्य 'केचिद्' जीवाः 'नरत्वं' मनुष्यत्वं 'स्वर्गसुखं' देवलोकशर्म 'नरसुखं' मनुजसुखं वा 'अर्जयन्ति' विद्वपन्ति 'हारयन्ति' नाशयन्ति 'केऽपि' निर्माग्याः 'तदपि' नरत्वम् । हुः इति पादपूरणे । 'इह' अस्मिन्नर्थे 'ज्ञातं ' दृष्टान्तः 'वणिक्पुत्रैः' वाणिजकतनयैरित्यक्षरार्थः ||२५|| गर्भार्थस्त्वाख्यानकगम्यः तच्चेदम् रमणीयमहावणसंड मंडिए सरवरेहिं संकिन्ने । अंतो बहिं च चच्चर-चटक्क चउमुह - तिगविभत्ते ॥१॥ नयरम्मि वसंत पुरे नायरय जणाण गोरवट्टाणं । निवसइ सुइववहरणो नयसारो नाम पुरसेट्टी || २ || १७७ For Private Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अह अन्नया य को किर कुटुंबपयसमुचिओ महं होही ? । इय चिताप तिण्हं पुत्ताण परिक्वणनिमित्तं ॥३॥ नियसयणबंधपमुहं नायरयजणं निमंतिउं गह। भोयाविऊण विहिणा तम्स समक्खं भणइ सेट्टी ॥४॥ पासि मह सुयाणं तिण्हं पि हु को कुडुंबपयजोगो ? । तं चैव विसेसेणं जाणसि जोगो त्ति तेणत्तं ।।५।। इय एवं ता तुम्हं समग्वमेए अहं परिक्खेमि । इय भणि वाहरिया तिन्नि वि ते पउरपञ्चक्खं ॥६॥ पत्तेयं गत्तेयं लक्खं दाऊण दविणजायम्स । ववहारत्थं देसेसु पेसिया तम्समक्खमिमे ॥७॥ तो तेसिं पुत्ताणं चिंतियमेगेणमम्हमेस पिया । पाएण दीदरिसी धम्मपिओ सुइसमायारो ॥८॥ पाणच्चए वि अम्हाणमुवरि न कया वि चितइ विरुवं । केणावि कारणणं ता नूणं एत्थ भवियव्वं ॥९॥ इय परिभाविय तहियं तह कहवि हु नियमईए ववहरियं । जह विढविऊण कोडी वरिसंते पूरिया तेण ॥१०॥ बीएण चिंतियमिमं मम पिठणो विजए पभूयधणं । ता कि किलेसजाले पाडेमि मुहाए अप्पाणं ? ॥११॥ जइ सव्वं पि य विलसामि ता गओ कह मुहं पयंसिस्सं ? तम्हा मूलं रक्खिय सेसं भक्खेमि किं बहुणा ? ॥१२॥ तइएणमजोगत्ता विगप्पियं नियमणम्मि मह जणओ । वुत्तणदामहिं संपइ कोडीकओ जम्हा ।।१३।। तिट्टा लज्जानासो भयबाहुल्लं विरूवभासित्तं । पापण मणुम्साणं दोसा जायंति वुड्डत्ते ॥१४॥ अन्नह कहमम्हे पट्टवेइ देमंतरम्मि सइ विहवे ? । इय परिभाविय सव्वं वरिसंते भक्खियं दव्वं ॥१५॥ संपत्ता सवे वि हु नियस म]प वन्नियम्सरुवा ते । पुणरवि तहेव विहिऊण सेट्टिणा भोयणाईयं ॥१६॥ सयणाईण समक्खं पढमो संठाविओ कुटुंबपए । बीओ भंडारपए तइओ किसिमाइकज्जेसु ॥१७|| मझत्थेणं जणएण नियसुया जह इमे जणसमक्खं । सकयाणुरुवपयवीए ठाचिया बुद्धिमंतण ॥१८॥ तह चेव धम्मविसए जीवे ठावेइ कम्मपरिणामो । सकयाणुरूवसरिसे पयम्मि भणियं च जेणमिमं ॥१९॥ जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेण निग्गया। एगो त्थ लभए लाभं एगो मूलेण आगओ ॥२०॥ एगो मूलं पि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह ॥२१॥ माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरय तिरिक्खत्तणं भवे ॥२२॥ ॥ वणिक्पुत्रत्रयाख्यानकं समाप्तम् ।।६२॥ लब्ध्वा शुभं मनुजजन्म नरोऽर्जयन्ति, स्वःशर्म केचन नरप्रभवं सुखं वा । निर्बद्धयस्तदपि केचन हारयन्ति, ज्ञातं वणिक्तनयसत्रयमाहुरत्र ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे मूलधनकल्पनरजन्मव्यवहारसातादिप्रतिपादको विंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥२०॥ [२१. उत्तमजनसंसर्गिगुणवर्णनाधिकारः ] लोकव्यवहारज्ञातेन धर्मव्यवहारलाभादिकमभिहितम् । लाभश्चोत्तमजनसंसर्गाद् भवतीत्युत्तमसंसर्गिविधेयतामाह उत्तमजणसंसग्गी परमगुणाणं निबंधणं होइ । एत्थ पहाकर-वरसुय-कंबलसबला उदाहरणं ॥२६॥ व्याख्या-'उत्तमजनसंसगिः' प्रधानजनसम्बन्धः 'परमगुणानां[ सवात्कृष्टगुणानां 'निबन्धनं' कारणं भवति' जायते 'अत्र' अम्मिन्नर्थ प्रभाकरश्च- ब्राह्मणपुत्रः वरशुको च--गिरिशुक-पुप्पशुको कम्बल-सबलौ च-श्रावकवत्सतरौ ते तथोक्ताः 'उदाहरणं' दृष्टान्ता इति गाथावयवार्थः ॥२६॥ भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । Jain Education Interational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. उत्तमजनसंसर्गिगुणवर्णनाधिकारे प्रभाकराख्यानकम् तत्र तावन् प्रभाकराख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम सोवागावाणगमंडले व्व बिलसंतमत्तमायंगे । नयरम्मि धरणिनिलए दिवायरी वसइ दियपवरो ॥१॥ च उद्सविजाठाणाण पारओ रायपउरजणपुज्जो । विजाजुयाणमहरा जणाण सव्वत्थ कल्लाणं ।।२।। तम्स य एगो पुत्तो पहाकरी सो य तारिसपिया वि । विजावियलोऽजोगाण हंत : किं कुणउ सामग्गी ? ॥३॥ जूयं रमेइ धाउं धमेइ वेसं समेइ पयईए । न कुगइ सिक्खं वल्ली पर्यईण जमोसहं नस्थि ॥४॥ तह वि हु सो जणएणं निरंतरं सिक्खविज्जइ हियत्थं । अम्मा-पिऊगमहवा हिययमवच्चे हियं चेव ।।५।। भणिओ वेयमहिजम् इहई पि हु जेण गोरवट्ठाणं । होहिसि वच्छ ! निरायं विउसाणं सेवणिजो सि ॥६॥ एवं भणिओ पभणइ को पढिऊणं दिवं गओ ताय ? । होही जं भवियव्वं विणा वि पाढणमवरं च ॥७॥ वभुक्षितैव्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते । न च्छन्दसा केनचिदुद्धृतं कुलं, हिरण्यमेवार्जय निष्फलाः कलाः ।।८।। पुणरवि भणिओ जइ वि हु बहुयं न पढसि तहा वि मह वयणा । गिण्हमु सिलोगमेगं बुझ तयत्थं च सो य इमो॥ उत्तमैः सह साङ्गत्यं, पण्डितैः सह सङ्कथा । अलुब्धः सह मित्रत्वं, कुवाणी नावसीदति ॥१०॥ एवं वसणासत्तम्स जणयलच्छि च विलसमाणम्स । वच्चंति वासरा तम्स वेयकिरियाविउत्तम्स ॥११।। अह अन्नया य जणओ तिहुयणसाहारणेण रोएण | अच्चंतं अभिभृओ सो य पमत्तो रमइ जूयं ||१२|| वाहरिओ वि हु जूएण छोहिओ भणइ एस एमि त्ति । एव पयंपंतम्स वि पंचत्तं पाविओ जणओ ॥१३।। उदृसु भो ! तुझ पिया मउ त्ति ता कुणस तम्स मयकिच्चं । पभगइ निग्विणकम्मो संपयमवि सो अजोगत्ता ॥१४॥ भो भो ! तं मह पियरं अणेण मग्गेण नीहरावेह । समगं चिय लोएणं जेणं वच्चामि पेयवणे ॥१५॥ एवमजोगत्तणओऽवहीरिओ सो मयम्मि पियरम्मि । निदिजइ लच्छी वि हु समं गया जणयपुन्नेहिं ॥१६॥ एवमणेणं न कयं पिउवयणं न वि य सिट्टलोयम्स । जाओ दुहाण भायणमच्चंतमिमो जओ भणियं ॥१७|| विदुरेप्यमपायमात्मना, परतः श्रद्दधतेऽथवा बुधाः । न परोपहितं न च स्वतः, प्रमिमीतेऽनुभवादृतेऽल्पधीः ।।१८।। तत्तो अनिव्वहंतो नयराओ निग्गओ सरइ पिउणो । तह वि अजोगत्तणओ न कुणइ पिउवयणसद्दहणं ।।१९।। चिंतइ य सिलोगमहं कि उत्तमसंगयाइकारविओ ? । को किर दोसो ? नीएहिं ताव नीयं परिक्खामि ॥२०॥ तो दिट्टपच्चओ हं गरुएहिं समं तमायरिस्सामि । इय परिभाविय नीयं ठक्कुरमेसो समल्लीणो ॥२१॥ विहिया य चोडदासी भज्जा तेणं तहा वरो मित्तो । तइओ तस्सेव य ठक्कुरम्स खट्टिकमायंगो ।।२२।। अह अन्नया य रन्ना वाहरिओ ठक्कुरो समं तेण । पत्तो पहाकरो वि हु सो उण पंडियपिओ राया ॥२३॥ वत्था-ऽऽसणप्पयाणा पइदियहं भरण-पोसणं वहइ । पंडिच्चरंजियमणी पंचण्हं पंडियसयाणं ॥२४॥ जाए समाणसील-व्वसणेसुं सक्ख मिइ विचायम्मि । कहमवि य दइवजोगा कम्स वि न पयट्टए एयं ।।२५।। काया विह पिउपासे तेणं तं पढियमासि विप्पेण । ता तेण तेसि पुरओ पढियमसेसं पितं च इमं ॥२६॥ मृगाः मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः । मुर्खाश्च मुखैः सुधियः सुधीभिः, समानशील-व्यसनेपुसत्यम् ।।२७।। तो तुट्टेणं रत्ना दिन्नं गामसयसंजुयं नयरं । तेण वि भणियं मह ठक्कुरम्स जीवणमिमं देहि ॥२८॥ तो तम्स पभावेणं जाओ सो पंवरलच्छिविच्छड्डो। तुरय-रह-जाण-वाहणसोहाभवणं जओ भणियं ।।२९।। सोहेइ महावेइ य उवभुंजतो लवी वि लच्छीए । देवी सरस्सई पुण असमत्ता कं न विन हेइ ? ||३०|| ओलम्गिऊण निवइं पत्थावे ते गया पसायपुरं । अह कम्मि वि अवराहे रु?णं तेण मायंगी ॥३१।। सो वझो आणत्तो मरणाओ मोइओ दियवरेण । एग खमहऽवराहं सामि ! वरायस्स एयम्स ॥३२॥ तीए वि ह दासीए गम्भपभावाओ दोहलो जाओ। सुयसरिसनिद्धटक्करमऊरपोयम्स मंसम्मि ॥३३।। १. पउर० २० । २. असमग्गा २० । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आख्यानकणिकोशे तण वितं रक्खर विइन्नमवरम्स मंसमेईए । एवं कयाणि तेणं महोवयाराणि सव्वाणि ||३४|| भायणसमए संभरइ ठकुरो तं मयूरमनियंतो । गविसावइ सव्वत्तो जा कत्थ वि सो न उवलद्धा ॥३५॥ दीणाराणं गंटीए संटियं दंसिगमट्टसयं । घोसावइ नियनयरे पडहयमेसो मयूरकए ॥३६॥ जो कहइ मयूरमुइ सो अभयं लहइ तह य दीणारे । पच्छा नाए काही दुसहं सारीरियं दंडं ॥३७|| इय सोऊणं ताप दासीए चिंतियं कयग्घाए । मह अन्नो वि हु होही भत्ता गिण्हामि ता दव्वं ॥३८॥ इय परिभाविय छित्तो पडहो पावाए जंपियमिमीए । मह सामि ! समुप्पन्नो दोहलओ मंसविसयम्मि ॥३९।। एएणमवरमंसं दाउमसत्तेण निद्दयमणेण । वारंतीए वराओ मंसकए मारिओ मोरो ॥४०॥ तेण वि अपरिक्खियकारण निग्विणसिरोमणिसमेण । तम्सेव अप्पणो खट्टिगम्स वझो समुवणीओ ॥४१॥ तेणुत्तं भद्द ! मए तुमं पि मरणाओ मोइओ आसि । ता मुयमु ममं एत्तो वि जामि, देसंतरं दूरे ॥४२॥ तेणुत्तं जुत्तमिमं परमेसो मित्त ? ठक्कुरो दुट्टो । तुमए पुण अवरद्धं गरुयं ता कह मुयामि अहं ? ॥४३॥ 'चिंतियमिमेण दटुं माहप्पमिमाण ताण सव्वाण । उत्तममिन्हि सेवे धि द्धी ! नीयम्स पयईए ॥४४॥ त्यं जं तं पि ह एगपए चिय कहं पिहु पलाणं ? | जइ वा नीयम्स कयं छार हुणियं जओ भणियं ।।४५|| उवयारसहम्सेण वि तिन्नि न घेप्पंति तिहुयण सयले । वेसा अविवेयपहू दुजणलोओ तह च्चेव ।।४६।। सो वि हु समप्पिऊणं मऊरमाभासियं नियं सामि । मणयं सलज्जयियं सत्थि ति भणित्तु निक्खंतो ॥४७॥ गच्छंतो संपत्तो रयणउरं तत्थ रयणरहराया। तम्स सुओ कणगरहो तं पासिय भणइ दियपुत्तो ॥४८॥ अयं माहणपुत्तो तुमं पि गुणगेह ! रायपुत्तो सि । जइ भणसि तुज्झ पासे अच्छामि अहं कुमारो वि ॥४९॥ इमिणा पुरोहियपए पओयणं मह पुरा भवइ तम्हा । सम्माणदाणपुब्वयमहमेयं संगहिम्सामि ॥५०॥ परिभाविऊणमेयं पभणइ तं भह ! मझ पासम्मि । अच्छगु तं मह मित्तो तुह सचमहं भलिम्सामि ॥५१॥ भणियं च-- पाऊण पाणियं सरवराओ पिट्टि न देइ सिहिडिंभो। होही जाण कलाओ पयइ च्चिय साहए ताण ||५२।। इय सो सहरिसमच्छइ पेच्छइ तत्थ य पहाणसेट्टि सुयं । अणुदिणमेव मणोरहनामं तं कुणइ नियमित्तं ॥५३।। अवरा वि पिंडवासे गुणगेहं नाम निग्गया वेसा । नामेण रइविलासा संगहिया सा वि घरवासे ॥५४॥ एवं सो लिहि वि समं परोप्परं वड्डमाणपणयगुणो । चिट्टइ निव्वुयहियओ सुमरंतो जणयहियवयणं ॥५५॥ अह अन्नया य हेडा उडेहि देसंतराओ दो तुरया । सव्वंगलक्खणजुया समप्पिया पुहइवालम्स ॥५६॥ आरूढा तेसु कुमार-माहणा जाव वाहिडं लग्गा । कटुंताण वि ताणं ते चलिया काणणाभिमुहं ॥५७|| नायमिमे जह विवरीयसिक्खगा तयणु आंबलीहेट्टा । गच्छंतेण दिएणं गहियं आंबलगतिगमेयं ॥५८|| गुरुणो रुक्खाओ तयं नाणाइतिगं व पुन्नवंतेण । भवतण्हाहरणखमं परिणाममुहं च संपत्तं ॥५९॥ तो खित्ता दुजणयं भवकतारं व राग-दोसेहिं । अबसेहिं तेहिं तुरएहऽमाणुसं निजलमरन्नं ॥६॥ तो कणगरह कुमारा बाहें तण्हाए पीडिआ संतो । भणइ कुओ वि हु आणहि पाणियं जति मह पाणा ॥६॥ धीरो होसु त्ति पयंपिऊण जा तम्मि जोयइ जलं सो । ताव न पत्तं कहमवि ता दिन्नं आंबलगमेगं ॥६२॥ आसायइ जाव तयं ता अमयकला वियंभिया कंठे । एवं बीयं तइयं तो पत्तो चेयणं कुमरो ॥६३॥ मणयं वीसत्थमणा तम्मि अरन्नम्मि जाव चिट्ठति । ता भोयण-पाणजुयं संपत्तं रायसेन्नमवि ॥६४॥ जओ आवइगओ वि नित्थरइ आवयं तरह जलहिपडिओ वि । रणसंकडे वि जीवइ जीवो अणुकुलकम्मवसा ॥६॥ संपत्ता नियनयरे कमेण नियनियपएस संठविया । जणयाइएहिं सव्वे संपत्ता सगुणमाहप्पं ॥६६॥ इय सव्वाण वि तेसि सिणेहसाराणमइवयइ कालो । जम्हा पवढमाणा परिणाममुहा सुयणमेत्ती ॥६७॥ १. व्यमिमिणा दटुं२० । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ २१. उत्तमजनसंसर्गिगुणवर्णनाधिकारे वरशुकाख्यानकम् अह कइया वि पुरोहियजायाए तीए रइविलासाए । गम्भाणुभावजणिओ संजाओ दोहलो अहमो ॥६८॥ रायसुयं कीलंतं दट्टणं पंचबरिसदेसीयं । जाणइ मणम्मि एसा जइ मंसमिमम्स भक्खेमि ॥६९॥ तं साहि उमचयंती संजाया दुब्बलंगिया अहियं । पुट्टे अविसिट पि हु कहियं कह कह वि तं पइणो ॥७॥ तेणुत्तं किमसंगयमहामयं मयणु ! पूरयिम्सामि । कीस किसोयरि ! न कहियमेत्तियकालं विणा कज्ज ॥७॥ कुमरं गोविय दिन्न मंसमिम ए सुसाउरममवरं । तो सा परियवंछा मुहेण तं गम्भमुन्वहइ ।।७२।। साराविओ कुमारो भोयणसमयम्मि जाव नरवइणा । कत्थ वि य तो न लद्धो नयरम्मि गवेसिओ वेसो ॥७३॥ तं वइयरमायन्निय गणिया धणियं धसक्किया हियाए । दुहिया दुक्कियकम्मं निदिउमप्पाणयं लग्गा ||७४|| बलि किजउ मह जम्मो किं न मया अकहिऊण पावमिमं ? । किं जीविया करिम्सं भक्खिय तं पुत्तनररयणं ।।७।। ता पुच्छिउं मणोरहसेट्टिमवायं करेमि किंपि अहं ? । जा नरवइपासाओ मह पइणो न भवइ अणत्यो ॥७६।। तो गंतूणं गुज्झं निवेइयं सेट्टिणो अणेणावि । पेच्छ विरूवं केरिसमावडियमिमं ? ति चिंतेउं ॥७७॥ धीरा होमु समग्गं सुत्थमहं काहमिइ पयंपतो । जाव न वच्चइ ता सिग्यमेव गंतु निवसयासे ||७८|| भणियं सदक्खमेईए देव ! पावं मए कयं एयं । ता मरिसस पसिऊणं अवराहं मझ पावाए ॥७९॥ इय जाच पायवडिया मरिसावइ ताव सेटिणा भणियं । मह गेहम्मि रमंतो दद्दरपडिओ मओ कुमरो ||-०॥ एव खमावंताणं दुण्ह वि निवई समागओ विप्पो । पभणइ जइ सच्चमिमं मह दोसा ता मओ कुमरो ॥८१॥ नियगरुययाए सामिय ! मह दोसावणयणत्यमेयाणि । भुल्लाहराणि बोलंति देव ! ता कुणमु जं जुत्तं ॥८२।। ता जायपच्चओ सो सव्वेहिं खमाविओ पयत्तेण । पभणइ जइ एवमिमं तो खमियं तुह मए मित्त ! ॥३॥ जेणस मज्झ भवओ लाभो रज्जाइओ निरवसेसो। किं बहुणा ? मम संपइ पविट्ठमामलयमेगमिमं ॥८४॥ इय वयणं सोऊणं पुरोहिओ नियमणे विचिंतेइ । सव्वेसिं गरुयत्तं विसेसओ राइणो जेण ।।८५।। सो तारिसगुणभवणं देवकुमारोवमो सुओ पढमो । आमलगमोल्लपरिकप्पणाए गणिओ गुणड्रेण ॥८६॥ ता सव्वहा वि मुयं संपइ मह परिणयं जणयवयणं । एवं मणयं सत्थाणि जाव जायाणि सच्चाणि ||८|| तो विन्नतो बीए दिणम्मि विप्पेणमज्ज सैपरिजणो । घरभोयणकरणेणं सपसाओ होउ मह देवो ॥८८॥ तहविहिए विहिपुव्वं भोयावेडं सपरियणं रायं । भुत्तुत्तरे य तत्थ वि वीसंताणं सुसत्थाणं ।।८९।। केऊर-कडय-कुंडल-महरिहहार-ऽद्धहारमाईहिं । आहरिऊण कुमारं रन्नो अंके निवेसेइ ॥२०॥ तं पासिऊण राया लज्जाए अहोमहो ठिओ जाय । ता भणियं पहु ! किमयं हरिसट्टाणे वि हु विसाओ ॥११॥ हरिसट्टाणं मह मित्त ! केरिसं ? जम्स मोल्लमवि नन्थि । तं आमलगं मोहाऽमहियमहम्मेण जेण मए ॥१२॥ तो तेण जणयवयणं संसग्गिगयं पयासियं सव्वं । तं सोउं सव्वो वि हु रायाई रंजिभो लोओ ॥१३॥ भोत्तणं रज्जसिरिं उत्तमसंसम्गिजायबमाणा । संपत्ता सव्वे वि हु गुणबहुमाणेण सुगईए ॥९४॥छ।। ॥प्रभाकराख्यानकं समाप्तम् ॥६३॥ इदानीं वरशुकाख्यानकमाख्यायते । तद्यथा अस्ति काचिदरण्यानी विस्फूर्जल्खड्गभीषणा । सिंहनादकृतोत्कम्पा दुर्गा सयामभूरिव ॥१॥ सङ्घटितशुद्धवंशा विराजिगुणसङ्गता । फलाट्यविस्फुरबाणा धनुर्यष्टिरिवासमा ॥२॥ युग्मम् ॥ तस्यां समुन्नमच्छाखे साधाविव तरौ क्वचित् । एका शुकी सदाकारा समास्ते भर्तृसङ्गता ॥३॥ अन्यदाऽसौ स्वक नीडे सुपुवे कीरयुग्मकम् । सल्लक्षणं लसत्पक्षं सीतेव तनयद्वयम् ||४|| जगृहे तापसेनैकस्तयोभिल्लंन चापरः । स्वकं स्वकं समाचारं ती ताभ्यां शिक्षितौ शुकौ ॥५|| अथापहृत्य तत्रौच्चैरश्वेनाऽऽनायि भूपतिः । तं दृष्टा लात लातेति न्यगादीद भिल्लकीरकः ॥६॥ १. पुच्छियं रं० । २. निःश्रेणीपतितः २० । ३. सपउरजणो ख. २० । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आख्यानकमणिकोशे नंष्ठा गजा ततः स्थानाद गतो यावत् तपोवनम् । तावत् तत्र शुकोऽवादीदतैत मुनिपुङ्गवाः ! ॥७॥ ग्विन्नोऽतिथिः समायातो विधत्तातिथ्यमजसा । ततो राजा तकच्छत्वा तदन्तिकमशिथियत् ॥८॥ अथो राज्ञा शकः पृष्टम्त्वत्समोऽन्यो मयेक्षितः । परमन्तरं महद विद्मो न हेतुं सोऽभ्यधाच्छकः ॥९॥ माताऽप्येका पिताऽप्येको मम तम्य च पक्षिणः । अहं मुनिभिरानीतः स च नीतो गवाशनैः ॥१०॥ गवाशनानां स गिरः शृणोति, अहं तु राजन् ! मुनिपुङ्गवानाम् । प्रत्यक्षमेतद भवताऽपि दृष्ट, संसर्गजा दोप-गुणा भवन्ति।।११॥ ॥वरशुकाख्यानकं समाप्तम् ।।६४॥ अधुना कम्बल-सवलाख्यानकं व्याख्यायते । तद्यथा अस्थि महुरापुरीए पासजिणसरपवित्तियधगए । नामेणं जिणदासो जिणदासी साविया तस्स ॥१॥ सो य करिसो ? जीवाइपयत्थविऊ जिणपवयणरागरत्तमिज-ऽट्टी । धम्माओ न चालिज्जइ देवेहिं जक्ख-रक्खेहिं ॥२॥ पंचहि अणुव्वएहिं गुणव्वएहिं च तिहि वि परिसुद्धो । बहुबीय-ऽणंतकाइय-कम्मादाणाण वि नियत्तो ॥३॥ सामइयमुभयसंझं चीबंदण-पूयणं च तिक्कालं । अट्टमि-चउद्दसामु य च उब्विहं पोसहं कुणइ ॥४॥ • असणं पाणं पत्तं उवस्सयं सयणमासणं वत्थं । ओसहमाई वियरह अतिहीणं संविभागम्मि ॥५॥ पढइ मुणइ गुणइ य एगग्गो झायए नमोक्कारं । तव-नियम-भावणाइमु सावगकिच्चेसु उवउत्ती ॥६॥ तेहिं पञ्चक्खायं जामीयं चउपयम्स सव्वम्स । गिण्हंति दहियमाइय निच्चं गोउलियहत्थाओ जाया सिणेहबुद्धी परोप्परं तसिमित-जंताणं । गोउलियविवाहम्मि य कयाइ सोहा कया तेहिं ॥८॥ वत्थाऽऽरणाईहिं तेहिं य तुमुहिं तम्स सट्टम्स । उवणीया सियवन्ना गोणजुवाणा दुवे परमा ॥९॥ सो भणइ मझ नियमो परिम्गहे चउपयम्स काउंजे । ताणि पुणो तम्स गिहे बंधित्त गयाणि सट्टाणं ॥१०॥ सो वि य सड्डो चिंतइ बाहिं मुक्का इमे उ लोगेहिं । वाहिज्जति चरंति य अफासुयं हरियमाईयं ॥११॥ तो ते गिहट्टियाणं फास्यचारीए गलियमुदएणं । खाणेण य सो तेसि करेइ सव्वं पि अक्खूणं ॥१२॥ अट्टमि-च उद्दसीमुं उववासं करिय धम्मसत्थाइं । वाएइ तेसि पुरओ ते सन्नी ताणि सोऊणं ॥१३॥ भद्दयचित्ता जाया जद्दिवसं सावगो न जेमेइ । तदिवसं मुहभावा आहारं ते वि वज्जंति ॥१४॥ सडम्स तेसु जाओ बहुमाणो समहिओ सिणेहो य । उवसंतप्पा एएभावियचित्त त्ति नाऊणं ॥१५॥ भंडीरवणे जत्ता जाया नीया य ते अपुच्छाए । सावगमित्तेण तहिं जोएत्ता नियफिरिवाए ॥१६॥ अन्नम्स एरिसो नत्थि एव सिंगारमुव्वहंतेण । अन्नन्नेहि य सद्धिं धवाडिया ते य वसहेहिं ॥१७॥ ते य बलिद्दा छिन्ना सङ्कुगिहे तेण आणि बद्धा । न चरंति ते य उदयं पियंति अइविहुरसव्वंगा ॥१८॥ विनायवइयरेणं सड्डेण य खिजिउ बहुपयारं । भत्तं पच्चक्खाविय दिन्नो तेसिं नमोकारो ॥१९॥ तो मरिउ सुहभावा नागकुमारा महिड्डिया जाया । उत्तमजणसंसग्गी एवंगुणकारिया होइ ॥२०॥ उत्तमगुणसंसग्गी जह एएसिं गुणावहा जाया। तह अन्नम्स वि जायइ ता एईए कुणह जत्तं ॥२३॥ ॥ कम्बल-सबलाख्यानकं समाप्तम् ॥६५॥ कंबल-सबलकहाणयमेयं बीयं तु चंदणज्जाए। 'कविविरइयमेव मए गुरुबहुमाणाओ लिहियमिमं ॥२॥ वैदग्थ्यमावहति धर्ममतिं विधत्ते, सद्योगतां प्रथयति प्रशमं करोति । कीर्ति च शुभ्रशरदभ्ररुचिं तनोति, साङ्गत्यमुत्तमजनम्तदतः कुरुध्वम् ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचिवृत्तावाख्यानकमणिकोशे उत्तमजनसंसर्गिगुणवर्णन एकविंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥२१॥ १. एतदाख्यानकमणिकोशकर्तृश्रीनेमिचन्द्रसूरिविरचिते प्राकृतमहावीरचरित्रे इत्यर्थः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२. इन्द्रियवशवर्तिप्राणिदुःखवर्णनाधिकारः ] कुसंसर्गि-मुसंसर्गिवशाद दोप-गुणावभिहितौ। कुसंसगिदोपश्चेन्द्रियवशगानां भवतीत्यतो गुणम्थिनैरपि तद्विश्वासा न विधेय इत्यमुमर्थमभिधित्सुराह वीससियव्यं न य इंदिएसु तव-नियमसुट्ठिएहिं पि । जह उवकोसगिहगओ महातबस्सी वि संखुहिओ ॥२७॥ व्याख्या--'विश्वसितव्यं विश्वासः कर्तव्यः 'न च' नैव 'इन्द्रियेपु' इन्द्रिय विषये पु तपो-नियमसुम्थितैरपि आम्तामपरैः इत्यपेरर्थः अत्रार्थ । दृष्टान्ताना(न्तमा)ह-'यत् यस्मात् कारणाद'उपकोशागृहे' कोशालधुभगिनिवेश्मनि 'गतः' स्थितः 'महातपम्यपि' विकृष्टतपश्चरणशोषितोऽपि 'संक्षभितः धर्मात म्खलित इत्यक्षरार्थः ॥२७॥ भावार्थस्त्वाम्यानकगम्यः । तच्चेदम् नंदंतयम्मि नवमम्मि वट्टमाणम्मि नंदनिवइम्मि । कप्पयवंसपभए सयडाले मंतिणि मयम्मि ||२|| तह पञ्चइयम्मि पवित्त-थूलभदम्मि धूलभद्दम्मि । संभ्यविजयपासम्मि तम्मि गच्छम्मि खमगतिगं ॥२॥ एगो सिंहगुहाए सप्पबिले मंडुकासणे तइओ । चउमासियम्मि नियमे एएहिं तिहिं वि पडिवन्ने ॥३॥ चिरपरिचियाए सरसाए गाढपेमाणुरायरत्ताए । सिंगारकोवियाए रूवाइगुणेहिं अहियाए ॥४॥ कोसावेसाए गिहे करणजयट्ठाए निच्चभुत्तीए । विहियपइन्ने सिरिथूलभद्दसाहुम्मि पजंते ॥५॥ गुरुपडिवत्तिं दटुं समच्छरो बीयवरिसयालम्मि । सीहगुहाइत्तमुणी आगच्छड वेसभवणम्मि ।।६।। तीए, भइणी भणिया तह खोहसु जह न होइ वयभंगो। तीए कडक्वविक्खेवमाहिओ जाव सो खुहिओ ॥७॥ जओ उप्पयउ गयणमग्गे रुंजउ कसिणत्तणं पयासेउ । तह वि हु गोबरईडो' न पावए भमरचरियाइं ॥८॥ तथा अहो ! का काकानामहमहमिका हंसविहगैः ?, सहामर्षः सिंहैरिह हि कतमो जम्बुकतुकाम् ? । बत ! स्पर्धा कीदृक् कथय कमलैः सैवलततेः ?, सहाऽसूया सद्भिः खलु खलजनस्यापि कतमा ? ॥९॥ तीए जहा पेसविओ कंबलरयणस्स जायणनिमित्तं । पाउसकाले नेपालबिसयनरनापासम्मि ॥१०॥ तं जह कंबलरयणं समप्पियं तीए जह नियंतस्स | खित्तं असुइट्टाणे सोयंतो तं च सिक्खविओ ॥११॥ भयवं : तं मुइदेहो सीलालंकारभूसिओ सययं । मह असुइसरीरवसा तुम पि एयारिसो होसि ॥१२॥ ता तं एयं सोयसि न उगो गुणरयणरुइरमप्पाणं । ता इयगए वि भयवं संभरसु पवित्तनियपयविं ॥१३॥ किंच सीलु सुनिम्मलु दोहकालु तरुणत्तणि पालिउ, भाण-ऽज्झयणिहिं पावपंकु तवचरणिहिं खालिउ । इय हालाहलविससरिच्छ विसयास निवारहिं, उज्जलवन्नु सुबन्नु धम्बिउ मं फुक्कई हारहि ॥१४॥ अभसिउ वीरपइन्नाण बरु, आवजिउ मुणिगुणहं गणु । ता संपइ उवसमि धरहि मणु, आवइ तुरिरं जर-मरणु ॥१५|| ता मुणसु भो महायस : इंदियवसगम्स अत्तवियलम्स । सिरिथूलभद्दमुणिणा का तुह सह तेण समसीसी ? ॥१६॥ पच्छम् मह भइणीए सोहग्गखणीए रइ वियड्डाए । पयडियमयणवियाराए पइदिणं दिढपइन्नो सो ॥१७॥ वाओलीए मंदरगिरि व्ब निकंपझाथिरचित्तो । तिलतुसमेत्तं पि हु नेय चालिओ अहह ! स महप्पा ।।१८।। तं पुण मए वि अद्दिगुणसरूवाए बोहिओ एवं । ता पुरिसाणं पच्चक्खमंतरं दीसए गरुयं ||१९|| अवरं च--- १. ०रकीडो २०। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आख्यानकमणिकोशे समरे मरंति जलण विसंति निवदंति गिरिसिरम्गाओ।जे उण करणाणि जिणं ति तियण ते जणा विरला ॥२०॥ जम्हा --- जाण रमणियणभमुहाधणुनिग्गयसियकडक्खभल्लाहिं । सीलकवयं न भिन्नं नमो नमो ताण वीराणं ॥२१॥ ता भद्द ! संपयं पि हु सुगुरुसयासम्मि वच्च दुच्चरियं । आलोइऊण सम्मं संजमभारं समुबहमु ॥२२॥ इय तीए सिक्खविओ भट्टपइन्नो विलक्खवयणो सो । अणुसासिओ सगुरुणा पडियसल्लो वयं चरइ ॥२३॥ तह सव्वं नेयत्वं आवम्सगविवरणाओ वित्थरओ । इह गंथगोरवमया वित्थरओ नो मग भणियं ॥२४॥ ॥ उपकोशागृहगततपस्व्याख्यानकं समाप्तम् ॥६६॥ स्यान्मतिः-इन्द्रियाणां समाहितपूरणन मुखितम्य पूर्वदोषासम्भव इति एतदपि नास्ति, यत आह जो होइ इंदियवसो सुहमप्पं तस्स दुक्खमइबहुयं । भद्दा-माहुर-निवसुय-नराय-सुकुमालियाणं व ॥२८॥ अम्या व्याख्या---'यः' मूढः प्राणी 'भवति' जायते 'इन्द्रियवशः' करणपरतन्त्रः 'सुखं शर्म 'अल्पं' म्तोक 'तम्य' इन्द्रियवशगम्य 'दुःखं' तद्विपरीतं 'अतिबहुकं प्रभूतम् । दृष्टान्तानाह-भद्रा च-श्रेष्ठिभार्या माथुरश्च-मथुराभवो वणिक्तनयः नृपयुतश्च राजपुत्रो गन्धप्रियकुमारः नरादश्च--नरमांसभक्षको नृपः सुकुमारिका च-नृपभार्या तास्तथोक्तास्तासामिव इत्यक्षरार्थः ॥२८॥ भावार्थम्त्वाख्यानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि । तत्रापि तावत् क्रमागतं भद्राख्यानकमभिधीयते । तच्चेदम् आसीह वसंतपुरे छंदम्मि व पवरजइसमाइन्ने । नरगणकलिए बहुवित्तसंजुए पयपहाणम्मि ॥१॥ अणुसरियविवुहमग्गो पुव्वाभासी पहाणसत्तिजुओ । धणनाम सत्थवाहो निवसइ अणुहरियदिवसयरो ॥२॥ पयईए बुद्धिजुया सुपच्चया सुम्सरा य गुणकलिया। तस्स य भद्दा भज्जा सुपयां वायरणवित्ति व्व ॥३॥ अह अन्नया य धणओ भई मोत्तण निययगेहम्मि । अत्थोवजणकर्ज संचलिओ अवरदेसम्मि ॥४॥ तदासीओ अन्नम्मि वासरे हट्टमज्भयारम्मि । कजेण गया केणवि उम्सूराओ पडिनियत्ता ॥५॥ अंबाडियाहिं ताहिं भणियं मा कुप्प सामिणि ! तमज्ज । जेण निमित्तेण टिया इत्तियवेलं तयं सुणसु ॥६॥ नामेण पुप्फचूलो महुरसरो मुणियगीयविनाणो । नियगीयपरवसीकयअसेसपुरनारि-नरनियरो ॥७॥ सो गायंतो दिट्टो कलकंठो विरहि विहिय उक्कंठो । तम्गीयपरवसाणं जाया अम्हाण वेल,त्ति ॥८॥ तं निसुणिऊण तत्तो पभणइ भद्दा कया वि अम्हं पि । दरिसेयव्वो त्ति पयंपियम्मि तं ताहि पडिवन्नं ॥९॥ अह अन्नदिणे कत्थइ पारद्धा देउले महाजत्ता । नियदासीहि समेया समागया तत्थ भद्दा वि ॥१०॥ एत्तो य पुप्फचूलो सयलं रयणिं पि गाइउं खिन्नो । देवउलपिट्ठिभाए चिट्टइ जा निन्भरं मुत्तो ॥११॥ कुणमाणाए पयाहिणमेसो भद्दाए दंसिओ ताहिं । सो एस पुप्फचूलो सामिणि ! गंधविओ सुयइ ॥१२॥ दट्टण तं विरूवं कसिणं उदंतुरं कविलकेसं । पभणइ भद्दा जस्से रिसाऽऽगिई को गुणो तम्स ? ॥१३॥ इय एवं जंपंती उब्बिग्गा तम्मि सा विरूवम्मि । निट्टीविऊण तत्तो तट्ठाणाओ गया सगिह ॥१४॥ पच्छा तप्पुरिसेहिं निवेइए तीए वइयरे तस्स । तो सो कुविओ विरइय धणचरियं गीयबंधेण ॥१५॥ जह भद्दाए नियगिहं भलावि परियणेण सह चलिओ । जह अवरदेसनरवइपसायदाणेण लद्धजसो ॥१६॥ विढवित्त भरिदव्वं नियदेसं पड़ जहा पडिनियत्तो । जह नियगेहे पविसइ तह गायइ महरमेसा वि ॥१७॥ पियविरहजलणजालाकरालिया हरियहिययवाबारा । तम्गीयसवणविवसा जाणइ किर एह मह भत्ता ॥२८॥ पविसह गिहाम्म ता जामि सम्मुहा इय विगप्पियं तरसा । उवरिमतलाओ मेल्लइ विवसा सव्वंगमत्ताणं ॥१९॥ ताव सहस त्ति पडिया मुक्का पाणेहिं पुष्फचूलो वि । तज्जीवियं व घेत्त नट्टो अन्नत्थ चोरो ब्व ॥२०॥ ॥ भद्राख्यानकं समाप्तम् ॥६७॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. इन्द्रियवशवर्तिप्राणिदुःखवर्णनाधिकारे नरादाख्यानकम् १८५ अधुना माथुराख्यानकस्यावसरः, तच्च भावट्टिकाख्यानके भणिप्यते । अतः क्रमप्राप्तं नृपसुताख्यानकमारभ्यते । यथा नयरम्मि वसंतपुरे नवसंतपुरे रणंगणकरसो । आसि नरसीहराया रायायवसियजसप्पसरो ॥१॥ तम्साऽऽसि पढमकुमरो जणियं भुवणम्मि जेग अच्छरियं । जणमेगमुहं काउं नियगुणगहण बहुमुहं पि ॥२॥ सव्वत्थ वत्थुजायं जं जं पेच्छइ स जिग्वए तं पि । इट्टा-ऽणिटेमु सया राय-विराए कुगइ कमसी ॥३॥ नाऊणऽच्चासत्ति जिग्यतो गुरुयणण सिक्वविआ। एवं अइप्पसगा न जुज्जए वच्छ ! तुम्हाण ॥४॥ मा कुणमु दुगुंछमसोहणम्मि मा सोहणम्मि अणुरायं । जम्हा दुन्नि वि जीवाण कारणं कम्मबंधस्स ॥५॥ अवरं च सुगंधं पि हु कप्पूगई सरीरसंसग्गा । जायइ दुगंधरुवं ता जुञ्जइन इह अणुराओ ॥६॥ खरमडयगंधवासिय जलाइवरलुरहिवत्थुसंजोगा। जायइ सुरहिसरूवं तं पि न विउसा दुगुंछति ॥७॥ ता पोग्गलपरिणामम्मि एरिसे बच्छ ! होसु मज्झत्थो । मा हाउ तुह] अगत्यो कझ्या वि असोहगावाए ॥ ८॥ एवमणसासिओ वि हु गुमहिं न हु मुयह गंधवसणं सो । भमइ य जिग्बंतो परिमलढवत्थणि सव्वत्थ ॥९॥ तो सव्वत्थ वि जायं नामं गंधप्पिओ ति कुमरम्स । कुणइ य आरुहि ऊगं बहुमो वि हु गरुयनावाए ॥१०॥ मणहरसलिलंदोलणकेलिं कल्लोलिणीए गंतूर्ण । समवयवयंसविलसिरविलासिणीवग्गपरियरिओ ॥११॥ अह से सवक्किजणणी तं विलसंतं विलोइउं पावा । चिंतइ रज्जं होही इमस्स न हु मम पुत्तम् ॥१२॥ ता मारिजउ एसो त्ति चिंतिउं लहुपुडे विसं बद्धं । उम्सिघियमेत्तण वि मरणं संपज्जए जेण ॥१३॥ तो तं समुग्गयम्मि मंजूसासत्तगस्स मज्झम्मि । तं पि हु पक्खिविऊगं पवाहिया उवरिमे तिस्थे ॥१४॥ तत्तो तरंगिणीए तरमाणी दिद्विगोयरं पत्ता । कुमरम्स तओ तेणं तं विसमुस्सिंघियं घेत्तु ॥१५॥ गुरुविसमाहप्पणं खणेग कुमरो परव्यसो जाओ। तत्तो विसभीएहिं व मुक्को पाहिं सहस ति ॥१६॥ ॥ नृपसुताख्यानकं समाप्तम् ॥६॥ अधुना नरादास्यानकं व्यास्यायते । तद्यथा अस्थि सुसीमा नयरी नयरी संकुणइ कावि जीए समं । सययं सुत्थियजणया जणयाइजणाण कयपूया ॥१॥ जो न पडिवन्नराओ गुणेसु पत्तिय स भन्नइ नराओ । पायडअवन्नराओ तं राया रक्खइ नराओ ॥२॥ जम्हा उ सो नरं माणुसं ति अत्तित्ति भक्खइ निसंसो । तेण नरायं तं वजरंति अन्ने उ सोदासं ॥३॥ सो पर्यईए वसणी विसेसओ मंसलोलुयाकलिओ । मंसं च सूययारप्पमायओ केण वि हियं से ॥४॥ तेण वि भयभीएणं माणुसमंसं सुसंभियं काउं । परिवेसियमस्साऽऽसाइयम्मि पुट्टो कुओ एयं? ॥५॥ तेण वि निब्बंधेणं निवेइए तम्मि चेव नरमंसे । रसलोलयाए लुद्धा एगेगं माणुसं हणइ ॥६॥ तस्स भएणं सब्चो नायरलोओ पलाइडं लम्गो । संकलियाए निबद्धो माणुसमेगं समप्पेइ ॥७॥ एवं वच्चइ कालो कयाइ पउरेहिं मंतियं एयं । एसो रक्खसपयई ता गण न कज्जमम्हाणं ।।८।। रज्जे निवेसिऊणं तम्स सुयं सम्मएण सव्वेसि । अडवीए पक्खित्तो सो मत्तो मज्जपाणेणं ॥९॥ तत्थ विसेसाहारेण धम्मरहिओ घिई अलभमाणो । पंथे माणुसमेगं मारइ परिचत्तमज्जाओ ॥१०॥ अह अन्नया य तेणं भुक्खिय-तिसिएण साहुणो दिट्ठा । उद्धाइओ य ते वि हु भक्खिउकामो दुरायारो ।।११।। तो ते घेत्तं सागारमणसणं ठन्ति काउसम्गम्मि । न तरह उग्गहभूमि तेसिमइक्क मिउमहममई ।।१२।। तत्तो विलक्खवयणो पडियोहकए मुणीहिमालविओ । भो भो सुणसु महायस ! पंचिंदियजियवहसमुत्थं ।।१३।। मंसं विसिट्टलोयाण गरहियं गरुयपावसंजणयं । सामन्नेणं सव्वं माणुसमंसं विसेसेणं ॥१४॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आख्यानकमणिकोश यत: स्वं मांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । वृद्धि न लभते सोऽपि यत्र यत्रोपपद्यते ॥१५॥ आयुःक्षयो भवति तस्य दरिद्रता च, नैवान्यजन्मनि भवेत् कुल-जातिलाभः । मांसाशिनो हतमतेविफल क्रियस्य, स्यान्नीचकर्मकरणोदरपणं च ॥१६॥ तथा मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीपिणः ॥१७।। तं सोऊण नराओ पडिबुद्धो कुगइगमणजायभओ । सइ मंसभक्खणाओ विणियत्तो जायधम्मरई ॥१८॥ ॥ नरादाख्यानकं समाप्तम् ॥६६॥ इदानी सुकुमारिकाख्यानकं व्याख्यायते । तद्यथा चंपापुरीए राया जियसत्तु सत्तुसमरसंहारो । सरयरयणियरकंता कंता सुकुमालिया तम्स ।।१।। तो तीए कमलकोमलसरीरफासेण मोहिओ अहियं । अणवरयसुरयवावारहरियहियओ महाराया ।।२।। अवमन्निय अवरोहणरमणीनियरो विमुक्तकरिकीलो । परिचत्तवरत्थाणो दूरीकयमंतिपउरजणो ॥३।। अगणियजणाववाओ परिहरियहिओवएससंघाओ । अवगन्नियगुरुवयणो अवहत्थियसत्थपरमत्थो ॥४॥ अगुणियकलाकलावो अदिन्नबंधुयणदंसणालावो । परिचत्तधम्मकम्मो अवमाणियमित्त-पुत्तगणो ।।५।। अकलियनियबलमाणो अजणियबंदियणदाणसम्माणो । अन्नायसत्तुमंडलबावारो अकयकायव्यो ।।६।। किं बहुणा भणिएणं ? तच्चित्तो तम्मओ व्य संजाओ । तप्फासलालसो सो निग्गच्छइ नावरोहाओ ॥७॥ राया मयणमहागहगहिओ त्ति असेससत्तसंघाओ। चंपेइ चउप्पासं तद्देसं विहियसन्नाहो ॥८॥ खत्ते खणंति चौरा धाडि पाडिति चरडचक्काणि । बंदंति वंदियगणा वणियजणं दविणलुद्धमणा ॥९॥ तोडंति जुवइकन्ने जूयारा कणयकुंडलनिमित्त । गंठिच्छेया गंठिं छिंदित्ता झत्ति नासंति ॥१०॥ सेवंति पारदारियनियरा निस्संकमेव पररमणि । किं बहुणा ? सव्वा वि हु नयरी असमंजसा जाया ॥११॥ न य कोइ सुहं निदं पावइ भुंजइ न कोइ सोक्खेण । एगागी न य कोइ वि नयरीमज्झम्मि परिभमइ ॥१२॥ पेयवणं व मुभीमं पुरि पलोएइ विमलमइमंती । चिंतह अहो ! विणटुं रजं ता कीरउ किमत्थ ? ॥१३॥ परिहरइ विसयवसणं न निधो सुइरं पि पभणिओ वि मया । ता दिज्जर रायसिरी कुमरम्स विचिंति एवं ॥१४॥ पभणइ तो एगते कुमरं मंती जहा महाराया । नीइनिवारियविसयासत्तो हारेइ रज्जसिरिं ॥१५॥ तुम्हारिसा वि जइ किर निययकुलक्कमसमागयं लच्छि । समुविक्खंति तओ सा गिण्हेयव्या रिऊहिं सुहं ॥१६॥ तो निव्वासिय पियरं कुमार ! समलंकरेसु रायसिरिं । जेण तुह पायपायवछायाए सुहं वसइ लोगो ॥१७॥ जं भणइ महामंती करेमि तं पभणिए कुमारेण । मंती पहिहियओ महापसायं पयंपेइ ॥१८॥ तत्तो अप्पायत्ता कुमरेण कया समग्गसामंता । राया वि तीए जुत्तो जोगजुयं पाइओ मइरं ॥१९।। तो मयमत्तो सुत्तो उप्पाडित्ता निउत्तपुरिसेहिं । देवीए जुओ मुक्को पल्लंकठिओ महारन्ने ॥२०॥ रुरु-रोज्झ-सीह-सम्बर-सदूलविमुक्कघोरवोंकारे । बद्धं च तम्स वत्थे पत्तं एवं लिहेऊण ॥२१॥ वसणासत्तो त्ति तुमं कलिऊणं सयलनवरलोएण । मुक्को देवीए समं एयम्मि महाअरन्नम्मि ॥२२॥ ता एयं नाऊणं न हु वलियव्वं तए इओहुत्तं । ......... “य नाउं कुण जहाजुत्तं ॥२३॥ मयरामयपज्जते पच्चागयजीविओ व्व नरनाहो । उचलद्धचेयणो सो पेच्छह घोरं महाअडविं ॥२४॥ किं इंदियालमेयं इय चिंततेण पत्तयं विटुं । उच्छोडिऊण वायइ अवगयतत्तो तओ राया ॥२५॥ जंपइ य पिए ! चत्तो त्ति अहममच्चेण दुट्टचित्तेण । ता मज्म रायलच्छी को गिण्हइ मइ जियंते वि ? ॥२६॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. इन्द्रियवशवर्त्तिप्राणिदुःखवर्णनाधिकारे सुकुमालिकाख्यानकम् इय जंपिऊण आवद्धमभिउडीए भासुरनिडालो | आयड्डियकरवालो सनुट्टिओ जाव तो देवी || २७॥ जंप न जुत्तमेयं नरिंद्र ! चउरंगवलविणेण । तो भगइ पुइपालो कि कायच्वं पिए ! इहि ? ||२८|| सेवेमि न किंपि नि जम्हा सव्वेहि सेविओ अहयं । न हु उत्तमाण सेवाविडंबणा जुज्जइ कया वि ॥ २९ ॥ ता गच्छामो कत्थ इय भणिउं जाव अडविमज्झम्मि । गच्छन्ति तओ देवी सुकुमालत्तेण परिसंता ||३०|| जाया अव तिसिया तो राया सिसिरतरुतले मात्तु । नीरनिरिक्खणक भमिओ सम्वत्थ न हु लद्धं ॥ ३१ ॥ तो नियभुयदंडसिरं छित्तुं छुरियाए तम्स कीलालं । अच्छीकाउं तं मूलियाए पाएइ पुडयगयं ||३२|| तत्तो छुहियाए इमाए अवरमाहारमलहमाणो सो । नियऊरुमंसखंडाई छिंदिउं भुंजिऊण दवे ||३३|| संरोहिण ऊर्णपि संरोहणीए मूलीए तो ससमंसछलेणं नियमंसं देइ देवीए ||३४|| पत्ताई तओ गंगा तरंगिणीतीरपचरनयरम्मि । ता देवी आभरणेहिं नरवई कुणइ वाणिज्जं ||३५|| अह अन्नदि देवी पुवइ भइ अज्जउत्त! अहं । तझ्या सहियणकलगीयवेणुवीणाविगोएहिं ॥ ३६॥ नमुती गच्छंतंपि कालमेगागिणी कहूं इहि । चिट्ठामि ? किंपि ता कुण विणोयणत्थं मह सहायं ||३७|| तो तीए विणोयकए ठविओ पंगू निवेण नियभवणे । कागलिगेयं गायइ किन्नरसदेण सो तत्थ ||३८|| कहइ य कामकहाओ बहुप्पयारं तओ इमा तम्मि । गाढमणुरायरता भत्तारं मारिउं महइ ||३९|| उज्जाणीए राया गंगाए गओ अहन्नदिवसम्मि । ता झत्ति तीए खित्तो वीसत्थो वारिमज्झमि ||४०|| तो भुयदंडे हिं तरंतएण लहूं तरंडयं तेण । तरिउ तरंगिणी नियडमागओ कस्स वि पुरस्स ||४१ || तो परिसंतो सुत्तो महल्लकंकेल्लिरुक्खछायाए । न दुहा वि तस्स छाया ओसरइ खणं पि पुन्नेहिं ॥ ४२ ॥ एत्यंतरे अतोपुवई तम्मि पुरवरम्मि मओ । अहिवासिओ तुरंगो मंतीहिं विसितेहि ||४३|| तो तिय- चउक्क-चच्चर-रच्छामुह मुहे परिभमि । पत्तो नरिंद्रपासे उड्डड्इ पिट्टि चड राया ||४४|| तो मंतिमंडलेसर सामंतप्पभिइपउर लाएहिं । पणमिज्तो पत्तो रायउलं तत्थ अहिसित्तो || ४५ || पुल्लिरायपट्टे जाओ अइउग्गसासणी राया । सुकुमालिया वि एत्तो भक्खिय निम्सेसनिवद्रविणं ॥ ४६ ॥ तत्तो चोल्लयखित्तं पंगुं काऊण निययसीसम्मि । भिक्खं परिभमंती जणण पुच्छिज्जए एवं ॥ ४७ ॥ किं तुज्झ पई पंगू ? सा जंपइ देवबंभणाईहिं । मह दिन्नो भत्तारो परिणीओ तो मए एसो || ४८ || सीलं परिपालंती सेवेमि इमं पि इय पयंपेइ । एवं परिभमंती पत्ता जियसत्तुनयरम्मि ||४९|| पडिमंदिरं पि भिक्खं भमेइ गायइ य पंगुणा सद्धिं । रायस्स तओ कहियं केण वि एयारिससरूवं ॥ ५० ॥ तं हक्कारिय पुच्छर जवणीमज्झट्टिओ महाराया । असरिसवजुयाए तुह किं एयारिसो भत्ता ? ॥ ५१ ॥ सा जंप देव ! अहं पइव्वया तो इमेण दइएण । पालेमि निययसीलं भणियमिणं तो नरिंदेण ॥ ५२ ॥ बाह्रो रुधिरमापीतमूरुमांसं च भक्षितम् । गङ्गायां प्लावितो भती साधु साधु पतित्रते ! ||५३ || सोउ नरिंद्रवणं नाया हं राइण त्ति लज्जाए | जाया अहोमुही सा तो भणियं मंतिवग्गेण ॥ ५४ ॥ सामि ! किमेयं ? अम्हाण कोउयं कहसु भाइ तो राया । अलमेईए कहाए पावाए मंतिणो वि पुणो ॥ ५५ ॥ पभणंति अकहणीयं जइ नो ता कहसु देव ! सुपसायं । कहइ तओ नरनाहो वृत्तंतं तीए ताण पुरो || ५६ || तं सोऊणममच्चा भणति पावाए पेच्छ जं विहियं । विबुहजण निंदणिज्जं उवहसणिज्वं अमित्ताण || ५७ ॥ परिहरिय पुरिसरयणं अहिणववरकुसुमबाणअभिरुवं । रायं किं अणुरत्ता पावा पंगुम्मि गुणही ? || ५८ || अहह ! अहो ! अविवेओ अहह ! महापावपरिणई गरुया । जं गरुयकुलुप्पन्ना वि कुणइ एयारिसमजुत्तं ॥ ५९ ॥ दंडो नारीण विसज्जगं ति मंतीहिं नीइमणुसरिडं । देसस्स समग्गस्स वि पावा निवाडिया तेहिं ॥ ६० ॥ ॥ सुकुमालिकाख्यानकं समाप्तम् ॥७०॥ For Private Personal Use Only १८७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आख्यानकमणिकोशे जह एएहिमसज्झं इंदियवसगेहिं पावियं दुग्वं । तह अन्नो वि हु पावइ ता तेसिं निग्गहं कुणह ॥१॥ रम्यं यदक्षजसुखं परिकल्पयन्ति, मूढारतकद व्यसन-विघ्नशतोपगूढम् । कृपोपदवटपादपपादलग्नमोपलब्धमधुबिन्दुसमान मल्पम् ।।२।। ॥इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावास्यानकमणिकोशे इन्द्रियवशप्राणिदुःख वर्णनो द्वाविंशतितमोऽधिकारः समाप्तम ॥२२॥ [२३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारः ] ___ इन्द्रियवशगम्य मुखमल्पमित्युक्तम् । तद्वश्यता च प्रायः प्राणिनो युवतिभ्यो भवति, ताश्च दुःखहेतुत्वाद् विश्वासस्थानमेव न भवन्तीत्येतदाह जुवईसु न वीसासो कायव्यो पयइकुडिलहिययासु । नेउरवंडिय-दत्तयदुहिया-भावट्टियासुं व ॥२६॥ अम्या व्याख्या-'युवतिपु' महेलासु 'न' नैव 'विश्वासः' हृदयसमर्पणं कर्तव्यः' विधेयः । कीदृशीपु 'प्रकृत्या' स्वभावेन 'कुटिलहृदयासु' वक्रचित्तासु । दृष्टान्तानाह-नूपुरपण्डिता च-श्रष्ठिवधूः दत्तकदुहिता च -दत्तकश्रेष्ठिमुता भावट्टिका च श्रेष्ठिसुतैव तास्तथोक्ताः तास्विवेत्यक्षरार्थः ॥२९॥ भावार्थश्चासामप्यान्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र क्रमाप्राप्तं तावद् नूपुरपण्डिताख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् नामेण वसंतपुरं नयरं सुपसिद्धमत्थि जम्मि सया । लयपरिकलिओ वि हु अलयसंजुओ गाइणीसत्थो ॥१॥ तम्मि य असंखसंखो पउरगओ णेगपवरबलभद्दो । उवहसियपउमनाहो जियसत्तू नाम नरनाहो ॥२॥ परिवसइ देवदत्तो सेट्ठी तम्मि उ विसिट्टगुणजुत्तो । सोहम्ग-रूय-लायन्नगुणनिही तस्स पवरसुया ॥३॥ अवरो कुमारनंद निवसइ मइविहवलद्धमाहप्पो । रूवेण पंचबाणो तम्स सुओ पंचनंदि त्ति ॥४॥ परिणीया सा तेणं महाविभूईए नेहसारेण । तीए सह विसयसोक्खं उवभुंजइ निच्चमणुरत्तो ॥५॥ अह अन्नया कयाई ण्हाणत्थं सा गया नई कहवि । मज्जंति तं दटुं अह एगो चिंतए तरुणो ॥६॥ सो च्चिय जयम्मि धन्नो जो एयाए सपक्खगणकलिओ। अहरदलवयणकमले छप्पयलीलं समुव्वहइ ॥ सो च्चिय जयम्मि जाओ गुणकलिओ निम्मलो वि सो चेव । जो एयाए विलसइ विउले हारो व्य थणव? ॥८॥ एवं विचिंतयंतो निव्भरअणुरायरंजिओ अहियं । तीसे अणुरायपरिक्खणत्थमेसो इमं पढइ ॥९॥ सुण्हायं ते पुच्छइ एस नई मत्तवारणकरोरु ! । एए य नईरुक्खा अहं च पाएमु ते पडिओ ॥१०॥ तं सोऊणं गाह वलंतसकडक्खचक्खुबाणहि । चिधंती तं तरुणं वियदयाए इमं पढइ ॥११॥ सुभगा हंतु नईओ चिरं च जीवंतु जे नईरुक्खा । मुण्हायपुच्छगाणं घत्तीहामो पियं का ॥१२॥ तभावं नाऊणं तम्गेहाईण जाणणनिमित्तं । तीए सह आगयाणं डिंभाण फलाणि सो दाउं ॥१३॥ पुच्छइ गेहाईयं ताणि वि साहंति सुद्धभावा उ । तं सव्वं तप्पुरओ तत्तो सो चिंतए एवं ॥१४॥ तविरहजलणजालाकरालकवलिजमाणमच्चत्थं । कह निव्ववेमि तीए संगमसलिलेण अत्ताणं ? ||१५|| इय संगोवायमिमो चितंतो अहियमुवयरेऊणं । पेसइ पुव्वपरिच्चियपब्वाईतीए गेहम्मि ॥१६।। सा तत्थ गया दिट्टा इंती भिसयाइवावडकरग्गा । काऊण तप्पणामं दाऊणं आसणं तत्तो ॥१७|| पुच्छइ भगवइ ! किं दिट्टमेस्थमच्छरियमसरिसं किंपि ? । सा भणइ दिट्टमामं वच्छे ! एत्थेव नयरम्मि ॥१८॥ वहु आह कहमु भयवइ ! अच्छरियं मज्झ जं तए दिटुं । पञ्चाइयाए भणियं सुदंसणो नाम सेट्टियुओ ॥१९॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशत जनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे नृपुरपण्डिताख्यानकम् नय जुत्तम हियमसरिसमच्छरियस [प्रन्थाग्रम् ७००० १०] बमकलाकुसलं । पावहि तयं वच्छे ! दुहत्यमणुरतभत्तारं ॥२०॥ तप्पट्टचियं नाउं अहो ! छछल्लो तहा वि छन्नं । मा होउ रहस्समिमं ता पञ्चाई पर्वचेमि ॥ २१ ॥ इय चिंतेउ थालीतलधोयणवावडाए तो तीए । पंचंगुलीचवेडाए सा हया पट्टिसम्म ||२२|| पणइ पावे ! वइणीहोउं एवंविहं पर्यपंती । कुलबहुकलंककारिणि ! न लज्जिया निययवेसस्स ||२३|| सा वि विलक्खा जाया पट्टिपहारं इमम्स दरिसंती । पभणड़ न पुत्त ! जोग्गा तुह सा सीलेग दुनिया ||२४|| चित सुदंसणो विहु अहो ! छइल्लत्तमसरिसं तीसे । जं वंचिया वराई पचाई नियपवचेण ||२५|| मह संकेओ दिन्नो कसिणाए पंचमीए रयणीए । ठाणं पुणो न कहियं ता पुणरवि तत्थ पेसेमि ॥२६॥ इय चितिऊण पभणड़ पञ्चाई ठाणजाणणनिमित्तं । जइ सीलवई तह वि हु गंतूणं भणलु इगवारं ||२७| सागंतुं तं पण सुमहुरवयणेहिं चितए सा वि । किं एसा पट्टविया पुणो वियद्वेग इह तेण ? ||२८|| हुं नायं संकेाणं न मए पयासियं किंपि । इहि पि ता पयासेमि चितिउ भणइ सा रुसिउ ॥२१॥ आ पावे ! निल्लज्जे ! तं भग्गमणोरहे ! दुरायारे ! । नित्रभच्छिया वि एवं समागया पुणरवि किमत्थं ? ||३०|| निभच्छिण एवं निरवयणेहिमद्धचंदेण । गाढं गलत्थिऊणं असोगवणियाए दारेण ॥ ३१ ॥ निम्सारिया समाणी साहइ सव्वं पि तम्स सो भणइ । जइ एवं ता अम्मी ! निन्नेहाए न मह कच्चं ॥ ३२ ॥ अह सो संयदिणे पत्तो रयणीए अढरत्तम्मि । । भत्तारं रंजेउ सा वि य विहिप्पयारेहिं ||३३|| तंतु पत्ता असोगणियाए विडसमीवम्मि । तेण सह विसयसोक्खं उवभुंजड़ विविहभंगहिं ॥ ३४ ॥ अइसुरयगुरुपरिस्समखिन्नाई दो वि जाव सुत्ताइ । ताव तहिं संपत्तो ससुरो ससरीरचिंताए ॥ ३५ ॥ जारेण समं पेच्छ निययवहुं निद्दपरवसं तत्थ । तो सो चिंतइ हियए सुता एसो न मह पुत्तो ||३६|| जाए पभायसमए न हु एसा मन्निहि त्ति तो घेत्तुं । साहिन्नाणनिमित्तं चरणाओ नेउरं जाइ ||३७| घेतं तं दट्टु, भयभीया उट्टवित्तु तं पुरिसं । साहेइ तयं सव्वं भणइ जहा जाहि तुममिहि ||३८|| समए मह साहेज्जं कायव्वं बुद्धिपगरिसेण तए । तम्मि गए सा सणियं गंतुं भत्तारसेज्जाए ||३९|| निसियइ खणंतरेणं उट्टावेऊण पभणए कंतं । अह पिययम ! मे धम्मो असोगणियाए ता जामो ॥४०॥ परमत्थमजाणंतो तीए समं सोविओ गओ तत्थ । मुत्तं जाणित्तु तयं उट्टा वित्ता भइ एवं ॥ ४१ ॥ किं एस कुलाया तुम्हाणं ? जेण निययवहुयाए । नियपइणा सह सुत्ताए नेउरं गिन्हाए ससुरो || ४२ ॥ सो पण वीसत्था सुसु पिए ! अप्पिही पभायम्मि । सा भणइ संपयं चिय मग्गसु मह नेउरं नाह ! ||४३|| ताओ न चेव दूरे न गमिस्स तं कहिंपि तेणुत्ते । पभणइ सा वि हु एवं महाकलंकी इमो होही ||४४ ॥ म साहीणम्मि पिए ! वयणिज्जं तुज्झऽवुज्झ को कुणइ ? । सा भणइ पिय ! विवागं पभायसमयम्मि जाणिहिसि ||४५ || एवं जंपताई सुत्ताई जाव तत्थ खणमेगं । ताव पभाया रयणी परिगलिओ तारयानिय ॥ ४६ ॥ जाए पभायसमए नियपुत्तं संठवित्तु एगते । सेट्टी साहइ सव्वं निमाए वृत्तंतमाह सुओ || ४७|| ताय ! अहं सो सुत्तो न हु अन्नो पुण वि पभणए सेट्टी । पुत्त ! तुमं गेहंते नियपल्लं कम्मि पागुत्तो ॥ ४८ ॥ तो पंचनंदिणा पुणवि भणियं ताय ! तुम्ह विद्धत्ता । नयणा नयंति न तहा न हु तेणं लक्खिओ अहह्यं ॥ ४९|| एवं पुणो विभणिओ जाव न पत्तियह कवि तं जणओ । ता भिउडिभंगभामुरवयणो भणिउं समादत्तो ॥ ५० ॥ भुल्लो सि ताय ! तं नियवहुए सुत्ताए मज्झपासम्मि । अलियमिणं जंपतो न लज्जिओ निययपलियाणं ॥ ५१ ॥ एवं पंताणं पिय- पुत्ताणं समागया बहुया । जइ एवं ता सुद्धा गिहिस्सं अन्न-पाणमहं ॥ ५२ ॥ मिलिओ य सयणवग्गो तीए सच्चो वि मलिणमुहछाओ । समुरकुलेणं सद्धि समागओ पउरपुर लोगो || ५३ ॥ सा भइ ताय ! साहसु सुज्झवणं मज्झ अइदुसज्यं पि । समुरो न जाव जंपइ ता भणियं पउरलोएण || ५४ || १. महघम्मो २० । १८६ For Private Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आख्यानकमणिकोशे अथेत्थ सच्चाई जो नयरम्मि पसरियपयावो । तज्जंघा मज्झणं निग्गच्छउ जइ इमा मुद्धा || ५५ ॥ तत्तोसा सुइया जक्खाययणम्मि जाव संचलिया । जाओ अलियगहिल्लो विडपुरिसो जाणि ताव ॥ ५६ ॥ गायंतो पलवंतो नच्चंत डिंभपरिवुडो संतो । धूलीधूसरगत्तो आलिगंतो सयललोयं ॥ ५७|| तम्मि पए से पत्तो सा गच्छन् जत्थ पउरपरियरिया । सहसा आलिंगंतो तीए निम्भच्छिओ बाढं ॥ ५८ ॥ आ पाव ! कहं छित्ता पुणो वि व्हाइत्तु आगया भवणे । जक्खम्स परपच्चक्खमेरिसं भणिउमादत्ता ॥ ५९ ॥ भयवं ! नियभत्तारं एयं च गहिल्लयं पमोत्तूणं । अन्नो जइ मह देहे लग्गइ ता धरमु जंघाहिं ॥ ६०॥ चिंते जाव जक्खो ईहा ऽपोहेहिं हरियहियओ सो । ताव सहस त्ति सा वि हु नीहरिया जंघमज्झेण ॥ ६१ ॥ क्खो टिओ चिलक्खो चिंतइ पावाए कहमहं छलिओ | अहव महिलाण चरियं दुविनेयं सुराणं पि ॥६२॥ ससुरो चिन्तेइ जहा कलंकिओ पेच्छ कहमहमिमीए | अहव महिलाण चरियं दुब्विन्नेयं सुराणं पि ॥ ६३ ॥ कमसईए होउं सत्तभावाओ रंजिओ सयणो । अहब महिलाण चरियं दुविन्नेयं सुराणं पि ॥ ६४ ॥ तूररवेणं सद्धि जाओ तीए महासईसहो । ससुरो वि य अयसेणं वसीकओ सह अवक्खाए || ६५ || निदाए समं नट्टा धणियं सेट्टिम्स मणसमाही वि । हरिसेण समं जाओ तीए कंतस्स पणओ वि ॥ ६६ ॥ ससुरो वि पउरलोएण निंदिओ साहिऽणंदिया अहियं । संपत्ता समुरगिहे अहिययरं रंजिओ भत्ता ॥ ६७॥ सेट्टिम्स अवक्खाए निद्दा नट्ट त्ति नियुणिउ रन्ना । वाहरिऊणं विहिओ महल्लओ निययअवरोहे ॥ ६८ ॥ तो तत्थ निरिक्ख सेट्टी अंतेउरीणमेगयरिं । उट्टंतिं निसियंति तल्लुव्वेल्लिं करेमाणिं ॥ ६९॥ तो सो चिंतइ सेट्टी एसा किं कुणइ ? जाणणनिमित्तं । पावरिऊणं पडयं मुत्तो सो अलियनिहाए || ७० || जाव निहु निरिक्खड़ ता पेच्छइ मत्तवारणतलम्मि । खंभम्मि मत्तवारणमागलियं मिंटपरिकलियं ॥ ७१ ॥ रयणीए अंधयारे हत्थी मिंठेण चोइओ संतो। उड्ड काऊण करं उत्तारइ रायवरपत्ती ॥७२॥ किं तुह महई वेल ? त्ति जंपिडं भारसंकलाए हया । मिंटेण भणइ देवी न मज्झ दोसो परं किंतु ॥७३॥ रना जो पाहरिओ विहिओ सो सामि ! सुयइ न कहिंपि । सुत्तम्मि तम्मि संपइ समागया तुह समीवम्मि ||७४ || रमिऊण तं जहिच्छं मेल्लावड़ करिकराओ सट्टाणे । तं सव्वं अवलोइय सवियक्को चितए सेट्टी ॥ ७५ ॥ जत्थ नरनाहमहिला विविपयारेहिं रक्खियाओं वि । एवं कुत्र्वंति जए का गणणा इयरनारीणं ? || ७६ || अविव कत्था जाण पुरंधीओ निग्गया बाहिं । नीराईण निमित्तं नियगेहेसुं नियत्तंति || ७७ || इय चिंतिउं पत्तो विगयअवक्खो तहा कहवि सेट्टी | सूरुग्गमे वि न जहा पडिवुज्झइ जग्गवंताणं ॥७८॥ बिल्ला पाहरिया तत्तो साहिंति राइणो गंतुं । देव ! नवल्लमहल्लो न य उट्टइ सूरउदए वि ॥ ७९ ॥ रन्ना तो आणतं पडिवोहह मा तयं सुयउ कामं । सो वि जह एगदिवस तह सुत्तो सत्त दिवसाणि ॥ ८० ॥ सत्तमदिणम्मि वृद्धो वाहरिओ राइणा तओ सेट्टी । किं तुह अणन्नसरिसा समागया एरिसा निद्दा ? ॥ ८१ ॥ तो सेट्टिणा विभणियं एतं कुणह जेण साहेमि । नरवइनयणुक्खेवा एगंते जाइ सव्वसहा ॥ ८२ ॥ तो साहइ तं सव्वं सुणिउं रन्ना विसज्जिओ सेट्टी । तक्कहियजाणणत्थं राया अंतउरे गंतुं || ३ || सव्वाओ ताओ अंतेउरीओ एगत्थ मेलिडं भणइ । जह अज्ज मए दिट्टो सुमिणो रयणीविरामम्मि ॥ ८४ ॥ गयनिवसणाहिं भवईहिं लंघियन्बो किलिंजमयहत्थी । ता सच्चसुमिणयं तह करेह जह होइ मह खेमं || ४ || घंति तव तयं अवराओ सा य कुडिलहिययत्ता | जंप बीहेमि इमाओ दढमहं हथिरूवाओ || ८६ ॥ तो नरवणा हसिउ लीलाकमलेण ताडिया संती । पडिया सहस त्ति महीयलम्मि सा अलियमुच्छाए ||७|| पंच्छ य पट्टिभायं संकलसलसंजुयं तओ राया । तव्वइयर जाणावणनिमित्त मेसो पढ गाहं ॥ ८८|| मत्तगयमारुहन्तिए ! भिंडमयम्स हत्थिम्स बीहंतिए ! । तत्थ न मुच्छिय संकलाहया ! एत्थ य मुच्छिय उप्पलाया ॥८ तो कोवकुरियअहरो राया वज्झाणि तिन्नि वि इमाणि । आणवइ सावराहे मिठं देवि करिंदं च ॥ ९० ॥ For Private Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे नूपुरपण्डिताख्यानकम् देवि चडाविऊणं मिठं आरोहयं च काऊणं । कारवइ छिन्नटंके तं करिवरमेगपाएण ॥९॥ तिक्खग्गअंकुसेणं मिंटेणं चोइओ करिवरिंदो । उक्खिवइ एगपायं तह बीयं तह य तइयं च॥९२।। जा तिहिं पएहि हत्थी आयासे संठिओ निराहारो । ता हाहारवसद्दो उच्छलिओ पउरलोगम्मि ||९३।। हा हा ! न जुत्तमेयं नरवइणो परवसं गहियसिक्खं । एरिसविन्नाणजुयं करिरयणं जं विणासेइ ॥१४॥ तो रन्ना जणवायं सुणिऊणं पभणिओ वरारोहो । ओयारि समत्थो विसमाओ गयं समपहम्मि ? ||९५॥ तेणुत्तं जइ अभयं देवीसहियम्स देसि मह देव ! । ता हं करेमि एयं पडिवन्नं राइणा तं पि ॥२६॥ तत्तो सणियं सणियं ओयरिए करिवरे समाइसइ । मह विसयं मोत्तूणं वच्चसु रे पाव ! अन्नत्थ ॥९७॥ सो सद्धिं देवीए वच्चन्तो अन्नया य संझाए । एगस्थ नयरपरिसरदेवउले जाव पासुत्तो ॥९८॥ ताव सहस त्ति चोरो आरक्खियतासिओ गहियदच्छो । तत्थ पविठ्ठो तं वेढिऊण ते वि हु ठिया बाहिं ॥९९|| चोरो वि अंधयारे पविसंतो तीए कह वि सो छित्तो । तप्फंसरायरंजियहियया देवी पयंपेइ ॥१०॥ को सि तुमं चोरो ह इय भणिया सा वि पभणए निहुयं । जइ इच्छसि मं भोत्तता तुह जीयं पयच्छेमि ॥२०१॥ नियजीयरक्खणकए पडिवन्नं तेण वयणमह सा वि । मोयावद तं दच्छं पावा मिठस्स उम्सीसे ॥१०२॥ अह निहणियदोसो वि हु तीए दोसं व पयडिओ सूरो । निययकरप्फंसेणं उज्जोयंतो भुवणवलयं ॥१०३॥ उदयगिरिं संपत्तो तत्तो आरक्खिया सलोत्तं तं । चोरो त्ति कलिय बंधंति जाव ता जंपए मिंटो ॥१०४॥ पहिओ हं न हु चोरो एसा मह भारिया गुरुसिणहा । पुच्छंति ते वि जुबई को भत्ता तुज्झ एयाण ? ।।१०५|| साहइ सा वि हु तेसिं मह भत्ता देवबंभणेहिं इमो । दिन्नो तो तं मोउं मिठो हियए विचिंतेइ ॥१०६॥ महिला मरणमयंडे महिला दुग्गेज्झमाणसपयारा । महिला कयंतकत्ती महिला मूलं परिभवाणं ॥१०७|| महिला दुहसयवाणी सम्भावविवज्जिया सया महिला । महिला नरयदुवारं गुणगिरिवज्जासणी महिला ॥१०८।। महिला निद्द यचित्ता उभडविसवल्लरी जए महिला । संतावजलणजालापरिभवतममंजरी महिला ॥१०९।। इय मिठो चितंतो सूलाए रोविओ निरवराहो । आरक्खिएहि तत्ता खणंतर तिव्ववियणाए ॥११०|| जाओ तिसाभिभूओ जा बंछइ पाणियं तहिं पाउं । ता गच्छंतं पेच्छइ सुदंसणं नाम वरसड्ड ॥१११॥ तो भणइ भो महायस ! पायसु सलिलं करेवि कारुन्न । सो पभणइ जइ सुमरसि जिणनवकारं महामंतं ॥११२।। तेणावि हु पडिबन्ने तिसाभिभूएण सेट्ठिणा दिन्नो । दुहतरुवणदावानलसरिसो परमेट्टिनवकारो ।।११३॥ सलिलं घंत्त सेट्टि आगच्छंतं चियाणि तत्तो । अहिययरं उग्घोसइ सलिलकए सद्धकयचित्तो ।।११४| एत्थंतरम्मि सहसा मिन्नो सूलाए सो तओ मरिउं । परमेट्ठिपहावेणं संजाओ वंतरी बलिओ ॥११५।। तयणंतरं च तेणं सन्नेझं सावयम्स जह विहियं । जह सा धम्मे ठविया सियालवेसेण बोहेउं ॥११६।। जह राया भेसविओ पुत्रुत्तं जह कलंकमवणीयं । वित्थरओ विन्नेयं सव्वं गंथंतराओ तहा ॥११७॥ ॥नू पुरपण्डिताख्यानकं समाप्तम् ॥७१॥ इदानीं दत्तकदुहिताख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् सलिल व्व निम्मलपया जंबुद्दीवो व्व वन्नियसवासा । अस्थि पुरी उज्जेणी मणोहरा मयणमुत्ति व्व ॥१॥ तीए राया रिउकरडिकरडनिद्दलणकेसरिकिसोरो। विष्फुरियवुद्धिविन्नाणविक्कमो विक्कमाइच्चो ॥२॥ कया वि हु रयणीए नयरीचरियावियाणणनिमित्तं । पावरियनीलपडओ अदिम्समाणो परिब्भमइ ॥३॥ पेच्छंती तिग-चच्चर-चउक्त-चउमुह-महापह-पहेसु । जणवइयरे नरिंदो वइससमेगं इमं नियह ॥४॥ कुलडाए काए] को वि हु करम्मि घेत्तण भन्नए सुहय !। किं कइया वि न दीससि ? तेणुत्तं सुयणु ! सममेयं ॥५॥ तीए भणियं चल्लसु गिहम्मि तं संपयं पि सो भणइ । तुह गेहे भत्तारो ता कह मे' कज्जसंसिद्धी ?॥६॥ १ ते २०॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आख्यानकर्माणकोशे नीयुत्तं मा भायसु तत्थ गया है सयं भलिम्सामि । मड्डाए अणिच्छंतो वि चालिओ तीए सो गेहे ॥७॥ राया चितइ तावडज चरियमेयाए चेव पेच्छामि । अच्छमु अवरं काही कह सकजं पइसमीवे ? ॥८॥ तिन्नि वि पत्ताणि गिहं तं मोत्तणं सयं विसइ गेहे । सव्वं विहियं किच्चं सिमुपुत्तो पाइओ थन्नं ॥९॥ भणिआ तीण भत्ता सहीए मह छट्टिजागरा हाही । ता जइ कहि पि वला लगइ ता तं भलमु गहे ॥१०॥ इय भणिऊणं दइयं विणिग्गया सिक्खवित्त विङपुरिसं । समग तेण पविठ्ठा पणमिय सेट्टि विडो भणइ ॥१२॥ जिणदत्तसेट्टिगेहं होइ इमं ? सेट्टिणा भणियमामं । ता किं न धणसिरी दीसह ? त्ति कज्जे कहिं पि गया ॥१२॥ संपयमेवाऽऽगच्छइ तुम्भे कत्तो समागयाणि ? त्ति । पुढे पाहुणगेणं भणियं तुह ससुरगेहाओ ॥१३॥ एवं वुत्तो तेसि सेजा-पावरणपमुहपडिवत्ती । ससुरकुलसिणहेणं सगउरवं सेट्टिणा विहिया ॥१४॥ नीसंकं जा सुत्ताणि ताव य छुहाइओ'बालो । रोवइ रइविग्घकरो तीए आणाविओ पासे ॥१५॥ किं एस रुयह ? पुट्टम्मि सेट्टिणा भणियमेयजणणीए । पडियमणागमणमिमो छुहाइओ किं करेमि अहं ? ॥१६॥ तेणुत्तं मह भज्जा वि बालबच्छा तओ धयावेमि । तहविहिए सो मुत्तो सुहेण ताणि वि असेसनिसं ॥१७|| पच्छिमपहरे रयणीप णीणिओ सा वलंतिया वुत्ता । रन्ना भद्दे ! तुह सरिसियाओ कइ मज्झ नयरीए ? ॥१८॥ नायं जहेस राया तीयुत्तं देव ! केरिसी अहयं ? । दत्तयदुहिया एत्थेव जणसमक्खं वसइ गेहे ॥१९॥ सा केरिसिया भद्दे ? कहनु जओ मज्झ कोउगं गरुयं । तीए वुत्तं निमुणसु खणमेगं अवहिओ राया ॥२०॥ इह अस्थि देव ! दत्तयसेट्टी सव्वत्थ सुइसमायारो | तम्स सुया रूयवई सुवियड्डा बालविहवा य ॥२१॥ तं सीलरक्वणकए सेट्टी पासायसंठियं धरइ । भोगंगं तु समग्गं पइदियहं देइ नेहेणं ॥२२॥ सा तत्थऽच्छइ पारूढरूयलायन्नजोव्वणारंभा । उज्जंभमाणमयणा वि अमयणा मयणघरिणि व्व ॥२३॥ अह मयणविहरियंगी अहोवयंतं च सत्थवाहसुयं । जाणावह नियभावं कयाइ केणइ पयारेण ॥२४॥ सो विह तत्थाऽऽगच्छद निच्चं चिय मंचियापओएण। तीए जणएण समं ववहारं कुणइ पीइंच ॥२५॥ तीए सिक्खविओ सो अमुगं पव्वाइयं वसीकाउं। तस्सिस्सिणिवेसधरेणाऽऽगंतव्वं मह समीवे ॥२६॥ जणओ विमीए वुत्तो एगागीए विणोयणनिमित्तं । मह धम्मवंतममुगं पव्वाइं ताय ! आणेसु ॥२७॥ तप्पभिइ तत्थ रायं ! तहा कए जंति तेसि दिवसाणि । न य को वि किं पि जाणइ पेच्छम् तीए वियड्ढत्तं ॥२८॥ अह अन्नया य अन्नं पि काउकामाए तीए नियदइओ । भणिओ को निवाहो एयाए कूडचरियाए ? ॥२९॥ जइ भणसि कमवि अन्नं पवंचमहमायरामि जेण मुहं । अच्छामो तेणुत्तं जं जाणसि तं पिए ! कुणम् ॥३०॥ कल्लमहमागमिस्सामि जक्खजत्ताए जणसमूहम्मि । एवं करेज पच्छा सव्वं सत्थं करिस्सामि ॥३॥ तो तत्थ जणसमक्खं घेत्तु बाहाए सामरिसवयणं । भणिया कि हिंडसि छड्डिएण नियगेहकिच्चेण ॥३२॥ तप्परियणेण भणियं भुल्लो किं भमसि भद्द ! तुममेवं ? । तेणुत्तं सच्चमहं भुल्लो सारिक्खयाए दढं ॥३३॥ तप्पभिई कट्टरकारियाए तं सुणसु जं समारद्धं । परपुरिसेणं छित्त त्ति छोल्लिउं दंतसंपुडयं ॥३४॥ जम्मंतरम्मि घेच्छं कृरमहं सा ठिया पइन्नाए । अढन्नो सयो वि हु जणयाई परियणो तीसे ॥३५॥ अन्नम्मि दिणे जं तीए कृरकम्माए देव ! पारद्धं । कहिउपि तं न तीरइ किं पुण काउं सकरुणाण ? ॥३६॥ फवाइयाए मज्झट्टियाए पजालिऊण पासायं । तब्वेसं घेत्तणं नीहरिया पिययमेण समं ॥३७॥ हाहारवो य जाओ महासईए पसाहिओ अप्पा । सीलम्स रक्खणकए जुत्तमिणं सीलवंताणं ॥३८॥ यत उक्तम् वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो, न चापि शीलम्खलितम्य जीवितम् ॥३९॥ पच्चाइओ य लोओ धुत्तीए सयं च भुंजए भोए । जणपयई च पवंचं पेच्छ महाराय ! महिलाणं ॥४०॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकार दत्तकदुहिताख्यानकम् काऊणं मयकिच्चं कालणं सोयविहिओ जाओ। जणयाइ जमो जम्हा सणसागई पेम्माई ॥४१॥ सो उण सत्याहमुओ तहेव ववहरइ मट्टिणा सद्धि । अह अन्नया य वधे घेत्त पत्तो पियाए कप ॥१२॥ वाले ऊणं मुक्काणि ताणिजा दोन्नि निन्नि वागओ । गहाला मज्झ पिया ताय ! न रोयंति एयाणि ॥४३॥ केरिसिया तुझ पिया ? आगच्छउ बच्छ ताव पेच्छामि । गिण्हउ मणम्स रुच्चंति जाणि वत्थाणि सयमेव ॥४४॥ तो आगंतु चलणेनु निवडिया एस चेव मह धूया । धरिया नियउच्छंग गहवरिओ तं निपऊण ॥४५।। आऊरिय गलसरणी पमुक्कपोकारवं परुन्नो य । भणियं च जणसमक्खं एस च्चिय होउ मह धया ॥४६॥ एसो च्चिय जामाऊ बुढो हं एस मज्झ घरसारो । विलसउ देउ जहिच्छं न किंपि केणावि वत्तव्यं ॥४७॥ सस्थाहसुएणुत्तं इमीए भंतीए ताय ! तज्झ सुया । बाहाए मए गहिया तीसे एईए न विसेसो । ॥४८॥ तो राय ! तीए पुरओ केरिसिया हं ? सयं विचिंतेमु । इय सुणिउं पुहइबई विम्हइयमणो विचिंतेइ ॥४६॥ गह-सूर-चंदचरियं ताराचरियं च राहुचरियं च । जाणंति बुद्धि मंता महिलाचरियं न याति ॥५०॥ गंगाए वालुया सायरे जलं हिमवओ य परिमाणं । जाणंति बुद्धिमंता महिलाचरियं न याणंति ॥५१॥ भणिया सा नियपदणी तं करिसमुत्तरं पयच्छिहिसि ? | तीयुत्तं खणमेगं नियसु महाराय ! जइ एवं ॥५२॥ उट्टाविऊण सेट्टी भणिओ तीयत्थुडंकियमुहीए । सेज्जा किमेस ? छिदं लहिउं कम्माइयं किंपि ? ॥५३|| मा रूस पिए : किंपि हु मह सासुरयाओ काणि वि इमाणि । वसिऊण गयाणि तओ सरोसमेईए संलसं ॥५४॥ इममेव मए पुढे मुहय ! तए अज किंपि सासुरयं । घडियमउव्यमिमीए को विलक्खो वराओ सो ॥५५॥ भणिओ य तीए राया दिद्वं मम किंपि चेट्टियं तुमए ? । तन्भे स्थ वंदणिज्जाओ भवह भणिउं गओ गेहे ॥५६॥ ॥ दत्तकदुहिताख्यानकं समाप्तम् ॥७२॥ इदानीं भावभट्टिकाख्यानकमुच्यते । तद्यथा रयणविणिम्मियपासाय-भवण-पायार-तोरणाईहिं । रयणपुरं व जहत्थं जं नियनामं समुव्वहइ ॥१॥ सव्वत्तो च्चिय पसरियरयणंसुनिबद्धसक्कचावाए । रयणप्पहाए आयरिसए व्व जं नियइ नियसोहं ।।२।। तम्मि पुरे ससहरकरसियजसधवलियदिय तराभोगो । भौगोवभोगसुत्थियसमस्सियासेसपणइजणो ॥३॥ जणयाणुरायगुणवसविढत्तमुविसुद्धसंपयाकलिओ। कलिओहामियरिउजणकरिमरिकरचलियचमरजुगो ॥४॥ जुगसमपयंडभुयदंडचंडिमाधरियवसुमईवलओ। बलओहजुओ सिरिरयणसेहरो नाम नरनाहो ॥५॥ तस्स य रन्नो भजा सुयणाणं हिययहारिणी अहियं । नामेण रयणमाला विमलगुणा रयणमाल व्व ॥६॥ मइमाहप्पविणिच्छियरज्जत्थो सुमइनामओ मंती। तस्स य पुत्तो गुणरयणसायरो सायरो नाम ॥७॥ गुणदिवसाणं सुहिचकवायमिहुणाण बंधुकमलाणं । पुरिसेट्टी नामेणं भाणू भाणु ब्व मणदइओ ॥८॥ नामेणं भाणुसिरी तम्स पिया तप्पह व्व सुपयासा । तेसिं अब्भुयभूया धूया भावट्टिया नाम ॥९॥ बालत्तण वि पढिया सेट्टिएणं समं मुरिंदेणं । लोइय-वेझ्यसत्थेमु जा पवीणत्तमुन्वहइ ॥१०॥ इत्थीजणजोग्गाओ सयलाओ कलाओ तीए नायाओ । तेणं चिय सा किल बावडिया विम्मुया नयरे ॥११॥ वदंती य कमेणं परूढनवजोव्वणाहियं जाया । लायन्न-रूय-सोहग्ग-ललियसुंदरगुणभवणं ॥१२॥ तथाहि चलणजुयं भस-ससि-संख-मीण-कमलोवसोहियं जीए । लायन्नलहरिलडहं छजइ रयणायरसरिच्छं ॥१३॥ ऊरुजुयं रंभार्थभविभमं कमपविद्धवित्तजुयं । भवणम्स मयणरन्नो तोरणथंभोवमं सहइ ॥१४॥ रमणं सुरसरियापुलिणसन्निभं सइमुहिल्लिसोहिल्लं। जगजगडणपरिसंतम्स मयणसुह डस्स सयणं व ॥१५॥ जीए सिसुमुट्टिगेज्मो कडिभाओ निम्मिओ पयावइणा । थणभरभंगभएण व वलित्तयसमस्सिओ सहइ ॥१६॥ २५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आख्यानकमणिकोशे जीसे थणजुयमच्चंतमुन्नयं वट्टलं ससाममुहं । रेहइ कामनिवइणो निहिकलसजुयं व्व कयमुई ॥१७॥ बाहुलया वि हु जीसे सहजारुणकरसरोयरमणीया । पजंतपरूढाभिणवपल्लवा चंपयलय व्व ॥१८॥ जीसे कंटो रेहातिगेण समलंकिओ कहइ एवं । थीरयणमवरमेरिसरुवं भुवणत्तए नत्थि ॥१९॥ अहरदलिल्लं सियदसणकेसरं नयणभमररेहिल्लं । नासानालं लायन्नसिरिगिहं सहइ मुहकमलं ॥२०॥ रमणीयं सवणजुयं जीसे सरलं सहावसोहिल्लं । रइ-पीईणं मणहरमंदोलयकरणिमुबहइ ॥२१॥ सुसिणिद्ध-कसिण-मिउ-कुडिलकेसकबरी मणोहरा जीसे । कामकुलकेलिसिहिणो कलावलीलं विडंबेइ ॥२२॥ अवरं च विन्नाणगुणवियद गरुयगमं जइ निएज्ज पुव्वमिमं । ता जडपयई निन्नयगई च गिण्हेज कह गु हरो ॥२३॥ गंगं ? कहं व गारिं पव्वयदहियं सया सुहियमेयं । लच्छि व वासुदेवो समुद्दमहणुभवं चवलं ॥२४॥ सज्जणजणण सुहयं थिरस्सहावं व चइय जं दटुं। एवं वियप्पइ जणो को सक्का वन्नि तमिह ? ॥२५॥ अह अन्नया य कम्मि वि पत्थावे तत्थ रायअत्थाणे । महिलागओ वियारो जाओ रायाइपुरिसाणं ॥२६॥ केणावि भणियमित्थी तुच्छा पयईए ऊणहियया य । कुडिलसहावा दोसाण मंदिरं भणियमवरेण ॥२७॥ सत्यं वच्मि प्रियं वच्मि हितं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचना ॥२८॥ राज्ञोक्तम् चवला मइलणसीला सिणेहपरिपूरिया वि तावेई । दीवयसिह व्व महिला लद्धप्पसरा भयं देइ ॥२९॥ भाणुसेटिणा भणियं महिला कुडिलसहावा बंधवकुलभेयकारिणी महिला । महिला निद्दयहियया पच्चक्खा रक्खसी महिला ॥३०॥ महिला आलकुलहरं महिला लोयम्मि दुच्चरियखेत्तं । महिला सकजनिट्टा महिला जोणी अणत्थाणं ॥३१॥ मन्त्रिपुत्रेणावाचि मम तावन्मतमेतदिह, किमपि यदस्ति तदस्तु । रमणीभ्यो रमणीयतरमन्यत् किमपि न वस्तु ॥३२॥दोधकः॥ अपरेणोचे अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वाणी वीणा नरश्च नारी च । पुरुपविशेष प्राप्ता भवन्त्ययोम्याश्च योग्याश्च ॥३३॥ भणियं च भागुणा जइ वि एवमिह तह वि निच्छओ मज्झ । देवेहिं पिन एसा रविव जइ मुक्कमज्जाया ॥३४॥ एवं विवयंता सो मिलिऊण कुओ वि अभिनिवेसाओ। सम्वेहि पराभूओ विसेसओ मंतिपुत्तेण ॥३५॥ एवं विसन्नचित्तो भणिओ भावट्टियाए गेहगतो । दीससि असमाहिजुओ तेण वि कहियं जहावत्तं ॥३६॥ जणयावमाणमसमं तीए परिभावि असझमिमं । धणियं माणधणाए भणिओ भावट्टियाए पिया ॥३७॥ वियरसु मं मंतिसुयम्स ताय ! सच्चं करेमि तुह वयणं । मइमाहप्पं पेच्छामि जेणमेएसि सम्वेसि ॥३८॥ एवमभिमाणवसगाए तीए चित्तप्पवंचनिउणाए । परिणावियमप्पाणं सुरिंदगयमाणसाए वि ॥३९॥ तेण वि नायमिमीए परिभवकामाए विहियमेयं मे । तो तं पासायतले सुगोवियं धरइ मंती वि ॥४०॥ भोगोवभोगजायंतीए सो अप्पणा पणामेइ । मायापवंचनिउणाए रंजिओ ससुरओ भणिओ ॥४१॥ ताय ! मह मुत्थमवरं परमहमेगागिणी वसामि दुहं । ता सहियणमझाओ सुपरिक्खियमप्पणा सहियं ॥४२॥ एगं दो वा पेससु जेण नवाणं कलाणमन्भासं । सद्धिं ताहिं करेमी मणयं च सुहेण चिट्ठामी ॥४३॥ जावाऽऽगच्छंति सहीओ तीए पासम्मि मंतिवयणेणं । ता कइया वि सुरिंदो सहिवेसेणं समाहूओ ॥४४॥ तप्पभिई तेण समं सुरयसुहं सरसमणुवंतीए । वच्चंति दिणाणि अहो ! गूढायारित्तमित्थीणं ॥४५॥ तीए वि हु तह कह वि हु विणएण वसीकओ ससुरवग्गो । जह कन्नाओ कन्नं न को वि किं पि हु तयं सुणइ ॥४६॥ तप्पइणा य कया वि हु सरीरमलणाइणा पयारेण । परिजाणियं जमेसा समगं पुरिसेण संवसइ ॥४७॥ छक्कन्नं जाव कयं ता भणिओ तीए सविणयं ससुरो । ताय ! तए सच्चवियं नियसुयविलसियमपुव्वमिमं ? ॥४८॥ Jain Education Interational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकार भावभट्टिकाख्यानकम् तुह चेव निद्धमयणम्स सेट्ठिणो भाणुणो अहं धृया । परिणेऊण जमेयं सुद्धायारा वि परिहरिया ॥४९॥ न ह एत्तिएण तुट्टो दसणमागेवा महऽन्नपि । ता णेण कयं सन्नं केणावि वुहेण जं भणियं ॥५०॥ न ह एत्तिएण ठाही गयणयल मइलिऊण घणनिवहो । कायव्वा अज्ज वि रायहंसमुन्ना सरुच्छंगा ॥५१॥ ता संपइ सधा हं कृरग्गहण करिम्समलमिमिणा । चाविजंति न मिरिया जह चणया ताय : पयडमिणं ॥५२॥ छडुस भलिमवराणं महिलाणं गयनिमीलियं काउं । जा सकलंका जीयंति ताय ! ता कुणस मह सुद्धिं ॥५३॥ इय सोऊणं सव्वा सराय-पउरो जणो तहिं मिलिओ। जा कोवि किंपि पभणइ पहाणपुरिसेहिं ता वुत्तं ॥५४॥ जा एवं कयनियमा सा कावि हु होउ किं वियप्पेण ? खिप्पड सुगपियभवणे किमियरदिव्वेहिं कायव्वं ॥५५॥ न्हाया कयवलिकम्मा धवलविलेवणविलित्तसव्वंगा । धवलाहरणविहूसियसव्वावयवा धवलवसणा ॥५६॥ धवलप्पमृणपरिमलमिलंनभमरउलरुहरगलमाला । धवलसरोरुहसयवत्तकुसुमसिरधरियसेहरया ॥५७|| इय सन्चंगीणमहग्यवत्थसच्चवियफारसिंगारा । अणुगम्ममाणमम्गा नरवइ-नायरयनिबहेण ॥५८॥ निरवजवजिराउजमणहरागवपूरियदियंता । पढमाणभट्ट-बंदियणबहलहलबोलमुहलनहा ।।५९॥ सवियक-सविम्हय-सदय कोउगविपत्तनायरजणम्स । गरुययरचडयरेणं पत्ता सुरपियभवणमेसा ॥६०॥ सो उण जाखो सन्निहियपाडिहरो निसाए बलवंतो । पालइ पयत्तओ पाणिनिवहमिह सुइसमायारं ॥११॥ दुटुं रुट्टो निग्गहइ गहिय जमजीहसच्छहच्छुरिओ। दिवसम्मि अकिंचिकरो पयई एसा जणपसिद्धा ॥२॥ खिविऊण जवखभवणे भावट्टियजुवइमुभडकवाडे । ढक्किय ढढसमेयं काउं बलिओ नयरिलोओ ॥१३॥ सो तं द? दट्ठोट्टभिउडिभासुरकरालभालयलो । आयड्डिउमसिधेणुं पाविट्टे ! सुमरमु तमिढें ॥६४॥ एवं भसविया वि हु सविणयमवलंबिऊण थिरचित्तं । पभणइ भयवं ! एवं को किर मह उवरि संरंभो ? ॥६५॥ अहमेगघायसझा महापभावो तुमं च दयरसियो । ता विन्नत्ति नियुणसु मह पच्चासन्नमरणाए ॥६६॥ संपइ मह मरणं पिहु सलाहणिज्जं जयम्मि जं दुलहं । एएण निमित्तेणं संजायं दंसणं तुम्ह ।।६७|| ता संपइ होसु थिरो जाव सुदिढे करेमि जियलोयं । तुह चिंतण-भासण-दंसणेहिं दुलहेहऽपुन्नाणं ॥६॥ साणुणयं सप्पणयं तह कह वि हु तीए भणिइनिउणाए । सो भणिओ जह जाओ मणयं उवसंतकोवभरो ॥६९॥ भणियं च तेण भद्दे ! जीयं मोत्तूण वरसु किं पि वरं । जं सावराहजीयं कइया वि न दिन्नपुव्य मे ॥७०|| तो तीउत्तं निमुणसु कहाणयं किंपि तुह कहेमि अहं । तेणुतं निस्संका कहसु अहं अवहिओ एस ॥१॥ [विक्रमादित्यनृपाख्यानकम् ] अत्थि अवंतीजणवयपरमालंकारसन्निभा भयवं! । परमच्छेरयभूया सव्वेसि गुणाण कुलभवणं ॥७२॥ तथा हि तं विन्नाणं भुवणे वि नत्थि तं कोउयं जए नस्थि । तं साहसं पि अवरत्थ नत्थि कुहगं पि तं नत्थि ॥७३॥ चाओ नाओ वा भो धाउव्वाओ विसिट्ठसमवाओ । तह य रसायणवाओ जोगिणिवाओ य गह्वाओ ॥७४॥ कि बहुणा नयनिउणं जोइज्तो विवेयचक्खूहिं । सो कोवि हु नत्थि गुणो पाएणं तीए जो नत्थि ॥७५॥ जम्हा हरिसट्टाणं परमुज्जयणी जणम्मि नयरी सा । तम्हा तं नयनिउणे परमुज्जयणी बुहा बेति ॥७६|| तं नयरिमसमसाहसवसीकयाणहपभावभूयतिगो । पालइ पयडपरक्कमसमुवज्जियकित्तिजसपसरो ॥७॥ हयविक्कमो वि गयविक्कमो वि रहविक्कमो वि सो तत्थ । तह सव्वविकमो वि हु जाओ नयविक्कमो जेण ||७८॥ • महिवलयभासणाओ कमलाण वियासणाओ सव्वत्तो । दुन्नयतमहरणाओ आइच्चो विकमाइच्चो ॥७९।। चाई सूरो पडिवन्नवच्छलो बुद्धिविजियसरमंती । दक्खिन्ननिही निययं परोक्यारेकगुणरसिओ ।।८।। अह तं कइया वि निवं अणेगभडकोडिसंकडत्थाणे । कणयमयदंडहत्थो पडिहारो विन्नवइ एवं ।।८१।। सियभूइगुंडियतणू लक्खणपडिपुन्ननरकवालकरो। डमडमियडमरुयधरो खंधोवरि धरियखटुंगो ।।२।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आख्यानकमणिकोशे वियडजडाम उडसिरोगो कावालिओ दुवारम्मि । अहिलसइ देवदंसणमुई देवो पमाणं ति ॥८३।। सिग्यं पवससु तयं भणिए रन्ना पवेसिओ तेण । ससमयपसिद्धमेसो दाऊणासीसमुवविट्टा ॥८४॥ भणियं च तण हिमवंतपवए आसि साइसयमंतो । मज्झ गुरु तम्सीसं मं जाण भइरवाणंदं ॥५॥ मह तेण मरंतणं दिन्नो नरनाह ! साइसयमंतो । सिद्धेण जेण सिझइ पओयणं तिहुयगऽहियं ॥६॥ विहिया य जहाविहिणा वारस वरिसाणि पुव्वसेवा मे । इण्हि तु असमसाहससहायसाहेजवसगाणं ॥७॥ सिझइ एसो तं पुण तुझ सयासाओ होहिही नृणं । महिवलए वि जमवरो नेवंविहभारधुरधवलो ॥८८|| तं पुण साहसविहवो परोवयारेककरणदुल्ललिओ। निव्वडियसूरचरिओ अभत्थणभंगभीरू य ।।८९॥ ता तुझ सयासमहं पडुच्च कज्ज इमं समणुपत्तो । तो कण्हचउदसिदिणे निसिमेगं कुणसु साहेजं ॥९॥ चिंतियं च राइणा गुरु-मित्तत्थे पाणा एवं तारुन्नयं च दइयाए । विहलुद्धरणम्मि धणं जं उबउज्जइ तयं सफलं ॥९॥ इय पडिवज्जिय सहरिसमुद्दिट्टदिणम्मि नरवई पत्तो । एगागी सत्तधणो करालकरवालवागकरो ॥१२॥ पुरओ च्चिय संपत्तो पेतवणं तम्मि भेरवाणंदो। सयलीकरणं काऊणाऽऽलिहियं मंतमंडलयं ॥९३।। रन्ना भणियं भयवं ! आइस तं किंपि जं मए कजं । तेणावि भणियमक्खयमडयं तुममेगमाणेसु ॥१४॥ सो वि हु तह त्ति पडिवजिऊण भीसावणम्मि पेयवणे । जाव भमइ ता दिट्ठो रुक्खे उल्लंबिओ चोरो ॥९॥ चडिऊणं छुरियाए जा छिदिय रज्जुमुत्तरइ तरुणो । ता पेच्छइ उवरि तयं तहेव लंबंतमायासे ॥९६॥ दुइयं वारं छिदइ ताव तहेव य तयं नियइ रुक्खे । तइयाए वाराए आलिंगिय देइ झंपमहो ॥९॥ खंधे काऊण तयं जावाऽऽगच्छइ पहम्मि ता तेण । कहि किं पि कहाणयमेसो बोल्लाविओ जाय ॥९८॥ ता तं तहेव रुक्खे विलग्गिउं ठाइ एव बीयं पि । तइयाए वाराए आयासे सुणइ वयणमिमो ॥१९॥ भो भो नरिंद ! कावालियस्स मा वीससेज एयस्स । एसो हु सुवन्नकए हंतुं तं महइ कूरमई ॥१०॥ राया वि भणइ न जुगंतरे वि मह वयणमन्नहा होइ । पडिवन्नमिमं कज्ज कायव्वं सव्वहा वि मए ॥१०१॥ जओ छिज्जउ सीस अह होउ बंधणं वयउ सव्वहा लच्छी । पडिवन्नपालणे सुपुरिसाण जं होइ तं होउ ॥१०२॥ जइ एवं तह वि तुमं कह वि हु अक्खाणयस्स पज्जन्ते । पुच्छंतस्स वि नरवर ! पडिवयणमिमस्स मा देसु ॥१०३।। अन्नं च मडयभाले पणवमिमं गवलगुलियवन्नाभं । झाएजसु थिरचित्तो खेमं एवंकए तुज्झ ॥१०४॥ इय पडिवञ्जिय सम्म मडयं काऊण खंधदेसम्मि । गंतुं जाव पयट्टो ता मडएणं इमं वुत्तं ।।१०५॥ गरुयंतरालमन वि अज्ज वि तुह मंतबाइओ दूरे । ता पहनिव्वहणकए कहेमि अक्खाणयं मुणम् ॥१०६॥ राया वि मोणमस्सिय पत्तो कावालियं भणइ एवं । एयं अक्खयमडयं अन्न पि हु भणसु मह किच्चं ॥१०७॥ तेणत्तं तलहट्टन वसाए संपयमिमस्स पयजुयलं । सो उण निवकरवालं करम्मि काऊण मडयम्स ।।१०८॥ आढत्तो परिजविउं मंतं राया वि पणवमक्खुहिओ । ताव य मंतपभावा सहस त्ति समुट्ठियमिमा वि ॥१०९।। गाढयरं जा झायइ पणवं भूमीए ताव तं पडियं । पुणरवि य मंत-पणवे दुन्नि वि सुट्टयरमुवउत्ता ॥११०॥ भायंति जाव ताव य भूओ वि हु लम्गमुट्टि मइयं । पणवपभावा पडियं तहेव कावालिओ तत्तो ॥१११।। आवेसणं जा जवइ मंतमएणमुट्टिताव । तइयाए वाराए पहआ खग्गेण कावाली ॥११२॥ जाओ सुबन्नखोडी तं पण किच्चा सुवनयं भणियं । पुरिसो छिन्नावयवो विजायए पुणरवि य पुनो ॥११३॥ इय सो मुवन्न पुरिसो पइदियहं पि हु वइज्जमाणो वि । देवाणुभावओ खलु न निट्टए तत्तिओ चेव ॥११४॥ तो तम्स पभायेणं सव्वं पि वसुंधरं रिणविहीणं । विहिउं विहिओ तेणं नियओ संवच्छरो रन्ना ॥११॥छ।। इय विक्कमनरवइणो कहाणयं तुह मए समक्खायं । तुह संगमरसियाए न उणो नियपाणभीयाए ॥११६॥ : Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनक युवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् उक्खणिऊणं जबखो जमजीहासन्निहं छुरियमेसा । जा मारिउं पवत्ता ता भणिओ तीए मिउवयणं ॥ ११७ ॥ भयवं ! पढमो पहरोइता जामिणीए पहरतिगं । पडिपुन्नमेव चिट्टड् ता कुणसु थिरत्तमवरं च ॥ ११८ ॥ मह उवरि सियालीए उम्भवदादाविडंबिय मुहम्स | पंचाणणस्स भण तुज्झ केरिसी एस संरंभी ? | ११९ ॥ ता कप्पपायसमं जम्मन्तरपुन्नपावणिज्जमिमं । माणेमि तुज्झ दंसणमओ कहाणयमिमं सुणसु ॥ १२०॥ तो तीए सजीहाए सो जक्खो मारणुज्जुओ बहरी । बंधुसमो संजणिओ अहो ! हु जीहाए माहप्पं ॥ १११ ॥ जइ एवं तो भद्दे ! कहाणयं कहमु जमभिरुइयं ते । एसो हं तस्सवणे पउणो तं जंपियमिमीए ॥ १२२ ॥ [ वणिक्पुत्र- जिनदत्तयोराख्यानकम् ] जंबुद्दीतरभारहवासस्स मज्झखंडम्मि । महुराभिहाणनयरी आसि महीवीढविक्खाया ॥ १२३ ॥ तत्थथि महीनाहो जियसत्त धारिणी पिया तस्स । कइया वि हु मंडीरवणचेइए ऊसवे जाए || १२४ ॥ संपत्तो नरनाहो सपरियणो सावरोहणो तत्थ । केणावि वणियपुत्तेण जवणियंत रियदेवीए ॥ १२५ ॥ आलत्तयर सरंजियनहमणिकिरणावलीहि विच्छुरिओ । रयणाभरणविसिट्टो दिट्टो अंगुट्टगो तेण ॥ १२६ ॥ अंगुट्टओ विजीसे असरिससुंदेरमंदिरं तीसे । अमरीण वि अमहिया सरीरसोहा धुवं होही || १२७|| जइ न इमाए सव्वंग सुंदरावयवमणहरंगीए । पावेमि संगमसुहं ता नियमा होइ मरणं मे ॥ १२८ ॥ इय चितिऊण नाया य धारिणी सा तओ वणिगुण । तव्विरह विहुरियंगेण रायमंदिरदुवारम्मि ॥ १२९॥ गहियं गंधियहट्टं देइ समग्धं स सुन्दरं वत्युं । अंतेउरदासीओ वि तम्स हट्टे ववहरति ॥१३०॥ आवज्जियाओ सञ्चाओ तेण अन्तेउरीण दासीओ । धारिणिदेवीचेडी पियंकरा पुण विसेसेण ॥ १३१ कइया व वणिपुत्ते चेडिया धारिणीए देवीए पारूढगरुयपुलएण पुच्छिया कहसु मह भद्दे ! ॥ १३२॥ को उवेद पढमं पुडए ? चेडीए जंपियं देवी । तो लेहगव्भपुडओ समप्पिओ तेण दासी ॥१३३॥ ती विधारिणी देवी उब्वेढए तयं जाव । ता तत्थ लेहलिहियं पवाइयं एरिसं तीए || १३४ ॥ काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्र !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥ १३५|| 'कामेमि ते' इमाई पढमाणि पयक्खराणि नाऊण । सा अवगयले हत्था य चिंतिउं एवमारद्धा || १३६ || सिंघरत्यु विसयाण पाणिणो जेहिं मोहिया संता । रागंधनयणजुयला कज्जा कज्जाई न नियंति ॥१३७॥ तं किंपित्थ भुवणोरम्मि पावं न जं अहिलसंति । पुरिसा विसय पिवासापरव्वसा मुक्कमज्जाया ॥ १३८ ॥ भुवणभंतरचित्यग्यिजसहरा ते जियंतुं जियलोए । जे परकलत्तविसए विरत्तचित्ता महासत्ता ॥ १३९॥ ता एस विसयछाविमोहिओ मा विणस्सउ चराओ । इय चिंतिय पुडयकओ लेहो तीए वि पेसविओ || १४०|| जायं मम समीहियमिइ चिंतिय तेण हिट्टहियएण । उवेढिऊण पुडयं पवाइयं एरिसं तत्थ || १४१ ॥ नेह लोके सुखं किञ्चिच्छादितम्यांहसा भृशम् । मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु ॥ १४२ ॥ पढमक्खराणि पायाण तेण "नेच्छामि ते" त्ति नायाणि । तो विमणदुम्मणो सो विगयासो चिंतिउं लग्गो ॥१४३॥ नेच्छ परपुरिसमिमा संजायमहासइत्तगुरुगत्र्वा । ता चिट्टिउन सक्को तीए विओगे इह खणं पि ॥ १४४ ॥ अमरा उरीमाणं पेवणं परिवरं पि पियविरहे । पडिहासइ सग्गसमं वल्लहजणजुयमरन्न पि ॥ १४५ ॥ ता किमिह संटिपणं तव्विर हे ? इय विचितिउ चलिओ । गच्छंतो संपत्तो कम्मि विरज्यंतरे स वणी ||१४६ ॥ दिट्टो य सिद्ध उत्तो उज्झाओ तेण निययछत्ताण । नीइ वक्खाणंतेण नेण एयारिसं पढियं ॥ १४७॥ काम धम्मो सत्तुविणासो अतूरमाणम्स | जिणदत्तसावयस्स व जहिच्ओि होइ पुरिसस्स || १४८ || को एसो जिणदत्तो ? ति पुच्छिए ताण कहइ उज्झाओ । आसि वसन्तउरपुरे जिणदत्तो इभसेट्टियुओ || १४९ ॥ अयि जीवा जीव परियाणियपुन्न - पाचपरिणामों । अह अन्नया य दचिणचणाय चंपाए सो पत्तो ॥ १५० ॥ तत् सत्वाहो महेसरो तस्स दुन्नि रयणाणि । चउजल हिसारहारो अवरा हारप्पहा घ्या || १५१ ॥ १६७ For Private Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आख्यानकमणिकोशे जाए संहारे जिणदत्तो तयणु तस्स भवणम्मि । पत्तो कीर्ति तत्थ नियइ हारप्पहं कन्नं ॥ १५२ ॥ उभिज्ञमाणजीवणरमणीयं अमररमणिसमरुवं । अणुरायरंजिओ सो निययावासम्मि संपत्तो ॥ १५३ || माविण तं कन्नं हारप्पहं न से दिन्ना । तो विक्किणियकाणी जिणदत्तो नियपुरं पत्तो ॥ १५४ ॥ हारप्पहानिमित्तं काऊणं छत्तवेसमणुपत्तो । चंपाए किंचि उज्झायमुत्तमं सो समल्लीणो || १५५|| मह खानु किंपि हु तेणुत्तं जंपए उवज्झाओ । भोयगरहियं विज्जं गिरहनु जं किंपि पडिहाइ ॥ १५६ ॥ मग्गसु धणस्स पासम्मि भोयणं भद्द ! दाणवसणी सो | पंचसए ससरकखाण जेण भुंजंति तस्स गिहे ॥१५७॥ तो तेण घणो भोयणनिमित्तमभत्थिओ भइ कन्न । वच्छे ! जं वा तं वा एसो भोयाविवोति ॥ १५८ ॥ हारपाऽणुदिवसं पि भोयणं तस्स वियरए सो वि । तं पुप्फ-फलाईहिं उवयरइ न मन्नए सा वि ॥ १५९ ॥ छंदाणुवत्तणणं मिउभासतेण तेण अणुदिवसं । आयारिंगियकुसलेण रंजिया सा तहा कहवि ॥ १६० ॥ तीए जहा भणिओ सो मग्गसु इट्ट पर्यपए सो य । जइ एवं ता सुहयसु ममंगसंगेण तीयुक्तं ॥ १६९ ॥ .पायाइ गहियवन्नं सललियपयगामिणिं मम सरिच्छं । मुणिऊगं गाहमिमं जं कायव्यं तयं कुणसु ॥ १६२॥ हसियं तुह हरइ मणं रमियं पि विसेसओ न संदेहो । मयरद्धओं व् विनड मेनू वि तुमाओ वित्थरिओ || १६३॥ भावत्थों एयाए गाहाए 'हर मर्म' ति पढमेहिं । पयअक्खरहिं सिट्टो हरामि किं ? अब नो जुत्तं ॥ १६४॥ इह-परलोगविरुद्ध हरणं इय चिंतिऊण भणिया सा । सस्विवणि ! सुपुरिसाणं न जुज्जए कवि अवहरणं ।। १६५ ।। ता अलियगहग्गहिया होसु तुमं जेण मन्तवाद्दत्तं । काउं निरुयं जायं गुरुयणदिन्नं विवाहमि || १६६ ॥ मह वल्लहेण विहिओ चारुपवंचो त्ति चितिउं लग्गा । हारप्पहा पर्यापउमुहासपरं असंबद्ध || १६७॥ एमेव हसइ गायइ पलवइ नच्च पुरे परिभमइ । तो सत्यवाहपमुहो लोगो अच्चाउलो जाओ ।।१६८|| वाहरिया सवे विहु पयंडवरमंतवाणो तत्थ । तेहिं वरमंतवार कए गहो वद्धिओ अहियं ।। १६९|| किंबहुना ?जह जह विज्वाइणो से कुणंति उवयारे । तह तह महागहो सो बाहड़ तं पिगुणलोगो व्व ॥ १७० ।। तो पुच्छिओ स छत्तो धणेण जिणदत्त ! जाणसे किंपि ? | तेणुत्तं मज्झ कुलकमागया संति विज्चाओ ।।१७१॥ पेच्छामि परमिमीए सचमिय पिऊण जिणदत्तो । पत्तो तीए सयासे रहम्मि सा जंपिया तेण ॥ १७२॥ सुयणु ! करिस्समहं ते मंतपओगं परं तह कए वि । तझ्याए वाराए पउणा तं होसु इय भणिउं ॥ १७३ ॥ गंतूण घणो भणिओ महागहो ताय ! एस दुस्समो | मंतो वि भूयतासो समत्थि ता कुणमु सामगिंग || १७४|| आबालकालपालियविसुद्धबंभव्वया नरा अट्ट । ताय ! निहालसु मज्झं जे उत्तरसाहया होति ॥ १७५ ॥ भणइ घणो भयवंतो ससरक्खा सन्ति सीलबलकलिया । ता सो किण्हच उद सिनिसाए चलिओ घणाइजुओ || १७६॥ संपत्तो पेयवणे पिसायअट्टहासभी मम्मि । उज्झतमडयवसविस्सगंधपरिपूरियदियंते ॥ १७७॥ एयारिस भी सावणमसाणमज्झम्मि मंडलं काउं । ससरक्खा खम्गकरा चिहिया एवं च उल्लविया ॥ १७८ ॥ सोउं सहा ससदं तुभेहिं सिवारवा विहेयव्वा । इय सिक्खविडं मुक्का ते अट्ट वि अट्टमु दिसामु || १७९ ॥ पुचि सिक्खचिया ताण पुरो सदवेहिणो अट्ठ । विधेयव्वं लक्खं तुच्भेहिं सिवारखे जाए || १८० ॥ तो मंडलए उबवेसिऊण हारप्पहं समुचविट्टा । पज्जा लिऊण जलणं 'हुंफडुसाह' ति तेणुते ॥ १८९ ॥ सइवेहिं सिवाफेक्कारवो कओ तयणु सद्दवेहीहिं । विद्धा बाणेहिं तओ नट्टा भयकंपिरा ते वि ॥ १८२ ॥ पीडियमहियं पत्तं मंडलए मन्तवाइओ पडिओ । उवलद्धचेयणो पुए खणेण भणिउं समाहत्तो ॥ १८३॥ ताय! मए पुव्वं पि हु पयंपियं वंभचारिणी दुलहा । इय जंपिऊण सव्वाणि ताणि पत्ताणि नियठाणं ॥ १८४ ॥ गहनिम्गहं कहं तं कुणसि ? त्ति धणेण पुच्छिओ छत्तो । जइ किर अज्ज वि इह बंभयारिणो हुंति तेणुते || १८५ ॥ निगुरुणा सत्थाहेण भणिया बंभयारिणो परमा । पेसह तह विहिए तं पि विहडियं झत्ति पुवं व ॥ १८६॥ निवाडिया धणेणं कुविएण तओ असेसससरक्खा । पुट्ठं च कहं पुण बंभयारिणो वच्छ ! नायव्वा ? ॥ १८७॥ For Private Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् वसहि-कह-निसिजिदिय-कुडुंतर-पुव्वकीलिय-पणीए । अइमायाहार विभूसणा य नव वधात्तीओ ॥१८८|| बुझंति अणुटुंति य गाहत्थं जे इमं विसुद्धा ते । वरवंभयारिणो तो धणेण सा दंसिया गाहा ।।१८।। ससरक्ख-अक्खपायाइयाण नाओ न तेहिं परमत्थो । एत्थंतरम्मि सिरिधम्मघोससूरी समोसरिओ ॥१९॥ उववि? परजणे जिणदत्तो सह धणेण संपत्तो । पणमिय गुरूण चरणे उचिट्टो उचियठाणम्मि ।।१९१।। सूरीहिं समारद्धा सनीरनीरयसरेण धम्मकहा । भो भव्वा ! सव्वाणि वि सुहाणि धम्मेण जायंति ॥१९२।। जओ धम्मेणं चिय अत्था धम्मेणं चेव उत्तमा भोगा । धम्मेण सम्ग-मोक्खा सुहाई सव्वाणि धम्मेण ||१९३॥ नारय-तिरियगईओ सत्ता पावंति पुण अहम्मेण । ता परिहरिय अहम्मं धम्मम्मि रई सया कुणह ॥१९४॥ इय निसुणिऊण सूरीण देसणं फुरियगरुयसंवेगो । पडिबुद्धो पाणिगणो धणो वि सावयसमो जाओ ॥१९५।। ते सकयत्था सूरुग्गमम्मि सूरीण जे नमंति कमे । इय भावेंतेण धणेण पभणिओ तयणु जिणदत्तो ।।१९६।। जारिसया वच्छ ! तए संलत्ता बंभयारिणो नृणं । तारिसया जइ एए वक्खाणावेसु ता गाहं ॥१९७॥ वक्खाणिया मुणिंदेण पभणियं तत्थ सत्यवाहेण । भयवं ! मंडलकम्मे पट्टावसु साहुणो नियए ॥१९८|| न हु एसो मुणिमग्गो वच्चंति जमेरिसेमु कज्जेमु । मुणिणो इय गुरुभणिए सविणयमुल्लवइ जिणदत्तो ॥१९९|| परिचत्तगिहावासा ताय ! इमे सत्त-मित्तसमचित्ता । समतिण-मणिणो वरबंभयारिणो तिव्वतवनिरया ॥२०॥ मुणिणो कुणंति न कया वि ताव गिहिसमुचियाई कज्जाइं। किंतु इमेसिं नामं पि नासणं कुणइ भूयाणं ॥२०१।। लिहिउं मुणीण नामाणि तेण अट्टसु दिसामु पेयवणे । ठविऊण मंतवाओ कओ पयत्तेण छत्तेण ।।२०२।। हारप्पहा महीए पडिया सहसा विमुक्त अक्कंदा । उवलद्धचेयणा पुण खणेण सा जंपिउ लग्गा ॥२०३।। किं ताय ! जणो मिलिओ पेयवणे तयणु तीए वृत्तंतो । कहिओ तं सोउसा लजाए अहोमुही जाया ॥२०४॥ तो सव्वाणि वि नियमंदिरम्मि पत्ताणि ताणि हिट्टाणि । जाए पभायसमए विचिंतियं सत्थवाहेण ||२०५॥ निकित्तिमोवयारी जिणदत्तो ता इमस्स मह जुत्तं । काउं पञ्चुवयारं सो य सुयादाणओ होइ ॥२०६॥ भणिओ य तओ सो वच्छ ! गिन्ह हारप्पहं विवाहेउं । तेणुत्तं ताओ च्चिय जुत्ता-ऽजुत्तं वियाणेइ ॥२०७॥ सुपसत्थदिणे परिणाविओ य हारप्पहं धणेण तओ । करमेल्लाबणदाणं दिन्नं हारेण संजुत्तं ॥२०८॥ तो जिणदत्तो कइय वि दिणाणि तत्थेव भुंजिउं भोए । हारप्पहाए जुत्तो संपत्तो निययनयरीए ॥२०॥ हारपहा जह लद्धा तेणं थिरयाए तह य बुद्धीए । तह अन्नो वि हु थिरबुद्धिभावओ लहइ सव्वं पि ॥२१०॥छ।। सोऊण नीइसत्थं माहुरवणिणा वि चिंतियं एयं । जह संजाया एयरस इट्टसिद्धी सबुद्धीए ॥२१॥ अहमवि तह नियनयरिं गंतुं पेसेमि दृढकज्जेण । अक्खलियप्पसराओ तीए परिवाइयाओ दुयं ॥२१२॥ सिक्खेमि वसीकरणाय मंत-तंताहयाणि सव्वाणि । तह विजासिद्धाणं नराण काहामि ओलग्गं ॥२१३॥ इय चिंतिऊण पत्तो नियनयरिं तह अणुट्टियं सव्वं । अवलग्गिएहिं विजासिद्धेहिं पयंपियं एयं ॥२१४॥ तुट्टा वयमभत्थमु इ तो मग्गिया इमं तेण | जह होइ धारिणी मे भज्जा तुन्भे तहा जयह ॥२१॥ इय पडिवन्जिय मारी विउब्विया तेहिं डिंभरूवाण । नीरोगाणि विं डिंभाणि तत्थ एमेव य मरंति ॥२१६॥ आइट्टा नरनाहेण नियह मारीए कारणं सिद्धा । देव ! महादेवी ते मारी इय जंपियं तेहिं ॥२१७|| देवीए सेज्जाए मयडिंभकराइयाणि खंडाणि । खित्ताणि तओ वयणं विलिंपियं तीए रुहिरेण ॥२१८॥ जाव निवो तीए निरिक्षणाय पत्तो तमस्सिणीविरमे । तो तं दटुं, रुट्ठो तीए असुहोदयवसेणं ॥२१९|| अह सिद्धाणं हणणस्थमप्पिया धारिणी तओ तेहिं । भेसविया पेयवणे नेऊण निसाए सा बाढं ॥२२०॥ कयसंकेओ पत्तो वणियसुओ भणइ भो ! किमारद्धं ? । तेहुत्तमिमं मारिं दुम्मरणेगं विणासेमो ॥२२१॥ मारी न सोमयाए एयारिसयाए होइ ता मुयह । मरणं विणा न मोवखो तेहुत्ते भणइ वणियसुओ ॥२२२॥ Jain Education Interational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आख्यानकमणिकोशे दविणण मुयह न मुयंति जाव ता जापया इमं तंण । मारह मं ण्यं पुण मुयह न मलेति ते तह वि ॥२२३।। तो तण भशियमेईए मारणे इह मए वि मरियचं । अम्हाग तुमं विश्वं संजाओ जंपियं तहिं ।।२२४॥ तो दादाणाराग काडिमम्हाण तं पुणो दूरं । वच्चनु गिन्हेवि इमं न जहा नजइ इमा एत्थ ॥२२५॥ दिन्नम्मि ताण दविण देवी चितइ अहो ! महासत्तो । कोइ इमा मह कजे जो निय जीयं पि परिहाइ ॥२२६।। जइ एस महासत्ता निकारिमवच्छलो न इह हुँतो । ता केणावि कुमरणण मारिया नियमओ हुंती ॥२२७॥ पच्चुवयारं काउंन तरामि इमम्स नरसिरामणिणो । नियतणुदाणण वि इथ विचिंतितण संजुत्ता ॥२२८॥ गंतण दूरदेसे मणप्पिया तम्स भारिया जाया। दोण्ह वि नवनेहवसंगयाण काली अइकमइ ॥२२९|| पंचप्पयारविसए दोन्नि वि भुंजंति पमुइयमणाणि । विविहप्पयारकीलाविणोयवक्वित्तचित्ताणि ॥२३०॥ अह अन्नया य रयणीए देवजत्ताए गच्छमाणो सो । तश्विरमसहमाणाए तीए वत्थं चले धरिओ ॥२३॥ तं तारिसं इमं पुण एयारिसमिइ पयंपिए तेण । देवीए पुच्छिओ सो गरुयनिबंधेण कहसु त्ति ||२३२।। तेण वि लेहाईओ वत्थंचलधरणकहणपज्जंतो। कहिओ से वुत्तंतो विसन्नवयणा ठिया सा वि ॥२३३॥ भणियं च तयं तुमए वियिं ? वणिएण भणियमामं ति । सा भणइ पाव : विहिया विडंबणा किं तए मझ ? ॥२३४॥ ता तिविहं तिविहेणं नियमो मह होउ सयलपुरिसाण । इय जंपिऊण काण वि अजाण सयासमल्लीणा ।।२३५॥ भणियाओ ताओ भयवइ ! पव्वज देहि जोग्गया जइ मे। जोग्ग ति दिक्खिया ताहिं तयण तिव्वं तवं काउं॥२३६॥ समउत्तविहाणेणं पत्ता सा मरिउममरलोयम्मि । सो पुण अज्झाणेण किन्हलेसाए नरयम्मि ॥२३७॥ तो तेण वणियपुत्तेण थेजवसओ समीहियं पत्तं । तुम्हारिसा विसेसेण हन्ति सव्वत्थ थिरचित्ता ॥२३॥ पुणरवि तइज्जपहरे जा सो उद्धाइओ हणिउकामो। ता कीए वि भणिइए कहं सुणावेइ सा य इमा ॥२३९।। [अमरदत्त-मित्रानन्दाख्यानकम् ] आसि विसालवसन्धरविलासिणीवरबिलासभवणं व । भुवणयलतिलयतुल्ल तिलयपुरं नाम नयरं ति ॥२४॥ सिंधुरसमिद्धिरिद्धो राया मयरद्धउ ति तत्थाऽऽसि । उद्दामसत्तुवारणवियारणो जस्स करवालो ।।१४१॥ रइरमणिकलिभवणं सिंगारगिहं व कुसमबाणम्स । तस्साऽऽसि मयणसेण व्व पणइणी मयणसेण त्ति ॥२४२॥ पुवभवपुन्नपगरिसपरिचयपरिणामपावियपयायो । तीए सह विसयसोक्खं उवभुंनो गमइ कालं ॥२४३।। अह अन्नया य देवी निरूवयंती निवस्स चिहुरचयं । नियभवणमत्तवारणपरिट्टिया पेच्छिउ पलियं ॥२४४॥ परिहासेण पयंपइ पिययम ! दूओ समागओ एत्थ । तो नरवई निरिक्खद संभंतो तरलनयणेहिं ॥२४॥ चिंतेइ कह णु दूओ समागओ वंचिऊण वाव(?)सिए ?। सा.. विम्हइयं दइयं दट्टणं भणइ परमत्थं ॥२४॥ देव ! तुह सवणमले पलियछलेणं समागओ दूओ। विन्नवइ खमं चइऊण नियमणं धरमु धम्मम्मि ॥२४॥ इय निमणिऊण वणयं पियाए परिहासपेसलरसं पि । वेरगगओ चिंतेइ नियमणे तयणु नरनाहो ॥२४॥ पुवपुरिसाणुसरिओ परिहरिओ नियमओ मए मम्गो । जम्हा अदिट्टपलिया करिंसु ते घोरतवचरणं ॥२४९॥ ता इहि चिय रज्जे ठविऊणं पउमकेसरकुमारं । गंतूण तावसवणं तावसवयमणु चरिस्सामि ॥२५॥ इय चितिऊण मुपसत्थवासरे कणयकलससलिलेण । आपुच्छिय मंतियणं करेइ कुमरम्स अहिसेयं ॥२५॥ चइऊण रायलच्छि सकलत्तो सत्त-मित्तसमचित्तो । गंतूण ताबसवणे पडिवजह सो तवच्चरणं ॥२५२।। वच्चंतेमु दिणमुं मुगूढगम्भो पवडिओ तीए । सुयणजणम्स व नेहो तं पेच्छिय पुच्छिए रिसिणा ॥२५३।। सामि! तह च्चिय गम्मी एसो साहइ सा वि निवरिसिणो । वयगणभंगभीयाए साहिआ नो मए तइया ॥२५४॥ तो पच्छन्नं तीए सुहेण गम्भं समुन्वहंताए । नवमासऽद्धट्टमवासरेहि पुत्तो समुप्पन्नो २५५।। अगुचियआहारहिं सुकुमारत्ताओं तह सरीरस्स । सह घोरवेयणाए सूयारोगो समुप्पन्नो ॥२५६।। नवबालपालणकए आदन्ना जाव तावससमूहो । देवसिरिभारियाए समन्निओ बालधूयाए ॥२५॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहा हि--- २६ २३. व्यसनशतजनक युवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् ताज्जेणिनिवासी देवाणंदा मिहाणवर सेट्टी । हरिसउराओ नियत्ती संपत्ती तावसवणम् ।। २५८ ।। पणमित् तात्रसजणं चिमणं संणि पुच्छे | साहेइ मयणसेणाए वइयरं सो वि तप्पुरओ ।। २५९ ।। अम्हाण पुत्र्वपुन्नाणुभावओ तं समागओ एत्थ । इय भणिण समप्पेइ तम्स कुमरं मयणसेगा || २६० || तणुकिरणनियरणिज्जियनवतरणिं तं हित्तु सेट्टी वि । देवसिरिभारियाए पमुइयहिययाए अप्पेइ || २६१ || अच्चंतवेयणगया दिवंगया तयणु मयणसेणा वि । तद्दुक्खभरियहियए पडियोहइ तावसे सेट्ठी ॥ २६२ ॥ तरुणीकडक्खचवलम्मि जोचणे जीवियम्मि तडितरले । सोगो जईण जुत्तो न होइ ता तं परिचयह ॥ २६३॥ इय अवसोए काऊण तावसे ताण पणयपयपरमो । संचलिओ सकुमारो संपत्तो नयरिमुज्जेणिं ॥ २६४ ॥ सुपसत्यतिहिमुहुत्ते करेइ कुमरस्स अमरदत्तो त्ति । नामं सम्माणंतो सेट्टी नियनयरजणनियरं ॥ २६५ ॥ परिवमाणदेहेण तेण बाहत्तरी विय कलाओ । २०१ ॥२६६॥ अवरं च तत्थ वेसमणसेट्ठिपुत्तो कलाकुसलचित्तो । मित्ताणंदो नामेण तस्स जाओ परममित्तो ॥ २६७॥ तेण सह विविलिप्पसंगवत्रिखत्तमाणसो कुमरो । गच्छंतमवि न याणइ कालं सग्गे सुखरो व्व ॥ २६८ ॥ एत्थंतरम्मि गंभीरगज्जिजयतूरपूरियदियंतो । थुग्वंतो बरहिणमागहेहिं केक्कारवथुईहिं ॥ २६९ || बीइज्जतो दिसिसुंदरीहि पवसंत हंसचमरेहिं । हयसूर रायपावियबलायमालाजयपडाओ || २७० || अक्खंडाखंडलचावदंडमणिकणयपट्टकयसोहो । उद्दंड गुरुसमीरणजयवारण खंधमारुढो || २७१ || अवलोयंतो उब्भडतडिच्छडाडोयरत्तनेत्तेहिं । भुवणयलं संताविय विणिग्गयं गिम्हपडिवक्खं ॥ २७२॥ धाराहारविराइयविष्फारियमेहडंबरो भुवणं । निव्वाविंतो पत्तो नहंगणे नवघणनरिंदो ॥ २७३ ॥ एत्थंतरम्मि दोन्नि वि गंतूणं मत्तकोइलज्जाणे । सिप्पसरिपरिसरम्मी कुवंति अणोलियाखेयं ॥ २७४॥ अह अमरदत्तकणियासमाहयाऽगोलिया समुच्छलिया । जा गयणे सेट्ठिसुओ उढकरो झल्लाए ताव || २७५ ।। चडविडविविडवलंचियमडयमुहे निवडियं तयं नियइ । विम्हइयमणो हसिउं पयंपएऽहह ! महच्छरियं ॥२७६॥ तो मडएणवि हसिउं भणियं तुइ थेवकालओ एत्थ । अवलंचियस्स एयं होही ता किं महच्छरियं ? ॥२७७|| तव्वयणायन्नणजायगरुयभयकंपमाणमण- गत्तो । सो अमरदत्तमित्तेण सह गओ निययभवणम्मि || २७८ || परिहरियालंकारो अवहत्थियविविहवत्थसिंगारो । न हसइ न रमइ न भमइ न सुयइ न चवइ न जेमेइ || २७९॥ करकलियकबोलो सो केवलमविचलसरीरवावारो । उत्थंभिओ व्व उक्कीरिओ व्व लिहिओ व्व सुत्तो व्व ॥ २८०॥ उव्वगमाणसं तं दद्दूणं भणियममरदत्तेण । मित्त ! अणिमित्तमेयं किं तुह हिययं पणट्टमिणं ? ॥२८१ ॥ किं मित्त ! पराभूओ केण वि ? अहवावमाणिओ पिउणा ? । उत्तसिरहरिणनयणी अह रमणी कावि तुह हियए ? ॥ २८२ ॥ अञ्च्चतम कहणिज्जं न होइ जइ ता कहेसु मह एयं । इय अमरदत्तभणिए मित्ताणंदो पर्यपेइ ॥ २८३ ॥ नियजणणि-जणय-बंधव-भइणी-भज्जाइ-भिच्चवग्गस्स । अवि होज्ज अकहणीयं मित्तस्स न नेहसारस्स ||२८४॥ इय भणिऊणं तेणं कहिओ सबो वि मडयवन्तो । तं निसुणिउ कुमारो पभणइ मा मित्त ! बीहेसु || २८५ ॥ जेण न नज्जइ एयं सच्चं होही उआहु पुण अलियं । जम्हा मडयमुहि ट्टिय भणति भूयाणि केलीए ॥ २८६॥ किंतु तह पुरिसयारो कीरड गुरुदुरियनासननिमित्तं । नियगोत्तरक्खणकए जह विहिओ नाणगव्भेण ॥२=७॥ I नयरम्मि वसंतपुरे उच्भडभडकोडिसकडत्थाणे । जियसत्तुपुइपाले उवविट्टे मंतिजनकलिए ||२८८|| पडिहारकयपवेसो एगो नेमित्तिओ नरिंदेण । संपुच्छिओ पयासह सुह-दुहमत्थाणलोयस्स ॥२८९॥ स्वणमेगं कयमोणो ही ही ! दिव्वस्स विलासयं पिच्छ । जं पुरिसरयण ! एयस्स आवया अहह ! निवडेही || २९० ॥ होही मारी तेरसमवासरे नाणगभमंतिस्स । तं नियुणिऊण मंती नेमित्तियनाणि भवणे || २९१ ॥ सम्माऊिण विणण पुच्छए कहसु कारणमिमीए । सो भगइ जेट्टत्ताओ पभणिए मंतिणाऽभिहिओ ॥ २९२ ॥ एयं न भासियव्वं कम्ऽवि पुस् ति तं विसज्जेंट | साहेद्द जेट्टपुत्तस्स सो वितव्यइयरं सव्वं ॥ २९३ ॥ 4 For Private Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आख्यानकमणिकोशे भइ य जड़ बच्छ ! तुमं मह वयणं कुणसि तो सबुद्धीए । रक्खेमि जममुहाओ वि घोरमारीए नियगोत्तं ॥ २९४ ॥ इय नियुणिऊण पुत्तो भइ जं ताय ! भणसि तं काहं । मंजूसाए तो खिवइ पाण-भायणजयं तं से ॥ २९५ ॥ तात्तु चप्पास मंजू राइणो समप्पे । पभणेइ देव ! मह हिसारं रक्खेह कइविदि ॥ २९६ ॥ तं वयणं पडिवज्जिय राया रक्खइ निउत्तपुरिसेहिं । मंती गंतूण गिहे चिट्ट सद्धम्माणपरो ॥ २९७॥ अह तेरसम्म दिवसे उच्छलिओ कलयलोऽवरोहम्मि । कुमरीए मंतिपुत्तेण कडिओ वेणिदंडोति ॥ २९८॥ तं नियुणिउं नरिंदो उम्मभिउडी भयंकरो भणइ । रे रे मारह मारह मंतिं गंतूण सकुटुंबं ॥ २९९ ॥ रायाएसाणंतरमुद्धाया घोरपहरणा पुरिसा । पावित्त मंतिभवणं भांति एवं कहिं मंती ? ||३०० || लल्लक्कहक्ककक्कसवयणं सोउं भणावए मंती | अचराहदूसियम्स वि देवो मह दंसणं देउ ॥ ३०९ ॥ जह मंजूसादव्वं उवणेमि निवास पायपउमपुरी । पच्छा जह पडिहासइ तह मज्झ विणिग्गहं कुणउ ॥ ३०२ ॥ रायाएसेण तओ तेहिं चि मंती निवस्स उवणीओ | उम्बाड मंजूसं निवपुरओ जाव ता तत्थ ||३०३|| वामकरगहियत्रेणिं दाहिणकर गहियतिक्ख असिधेणुं । पासित्तु मंतिपुत्तं तयवत्थं विम्हिओ राया ॥ ३०४ || पुच्छइ अतुच्छउच्छलियकोउओ पत्थित्रो महामंति । साहेइ सो वि सव्वं नेमित्तियवइयरं तस्स || ३०५ || तो भइ निवोतु गोत्कुवियवंतरकया वि अघोरा । नियबुद्धिपगरिसेणं तुमए अवहत्थिया मारी ॥ ३०६ ॥ इ भणिऊणं पुहईसरेण मविहवहरियहियएण | मुक्को पसायपुव्वं मंती सिरिनाणगन्भो त्ति ||३०७ छ। नियबुद्धिपगरिसेणं तेणं जह रक्खियं नियकुटुंबं । अम्हे वि तह विहेमो रक्खमुचाएण केणाचि ॥ ३०८ ॥ मित्तानंदी पभणइ स उवाओ मित्त ! केरिसो ? कहसु । तो भगइ अमरदत्तो गम्मइ देसंतरं दूरं ॥ ३०९ ॥ तो पभणद्द सेट्ठिमुओ सुदु उवाओ निरिक्खिओ तुमए । किंतु सुकुमारतणुणो तुह गमणं कह विएसम्मि ? ॥३१०॥ अह एको चिय देतरम्मि गच्छामि तह वि तुह विरहे । जं मह काले हो ही तं जायइ संपयं चेव ।। ३११ ।। इनिणिऊण पभणइ कुमरो बहुनेहनिभरं वयणं । मित्त ! तए सह अहमविविएसवासं अणुसरिस्सं ||३१२ || इय एकमणा गमकबुद्धिणो निययजणणि-जणयाणं । अन्नोन्नभवणसयणं कहिऊण निसाए नीहरिया ||३१३ ॥ जत्थ पए से भुंजंति तत्थ न कुणंति कहवि सयणीयं । इय गच्छंता पत्ता पाडलिपुत्तम्मि नयरम्मि ||३१४॥ तत्थुज्ञाणत्रभंतरवावीजलधोयपायपरमजुया । दट्टण देवहरयं हरिसेण पलोइउं लग्गा ||३१५॥ | पेच्छंताणं अह अमरदत्तकुमरस्स पवरपुत्तलिया । अद्भुट्टभंगघडिया पडिया पसरम्मि नयणाण || ३१६ ॥ तं पेच्छंतो पीवरपओहरिं हरिणनयणरमणीयं । कुमरो हिययम्मि तओ विद्धो मयरद्धय सरेहिं ॥ ३१७|| तं यहिययं दट्टु भित्ता देण पभणियं कुमर ! | नयरम्मि भोयणकए पविसामो जेण उस्सूरं ॥ ३१८ ॥ तो भइ अमरदत्तो सवंगं पुत्तलिं पलोएमि । ताव तुमं खणमेकं एत्थेव विलंबसु वयंस ! ||३१९॥ पुणरवि खणेण भणिओ पभणइ साहेमि तुज्झ परमत्थं । मित्त ! न सक्केमि अहं परिहरिउमिमं मणागं पि ॥ ३२० ॥ तो सेट्टिगुओ जंप निचेट्टाए किमेत्थ तुह् नेहो ? । परिहासवयणलीला कडक्खचित्रखेवरहियाए || ३२१॥ सो जंपइ किंबहुना ? एयाए विणा न मित्त ! मह पाणा । अह मेल्लावेसि ममं ता मज्झं देहि कट्टाई || ३२२|| सो सेट्टि मन्नुभम्प्पन्नवाहसलिलाहो । जा विलविउ पयत्तो विलवइ ता अमरदत्तो वि ॥ ३२३ ॥ ते दो वि जाव विवंति ताव नियदेवपूयणनिमित्तं । नामेण रयणसारो समागओ तत्थ पुरसेट्टी || ३२४ ॥ पवितो संपच्छइ रोवंते दो वि तत्थ वरकुमरे । आभासिउ पर्यपड़ नारीण व चेट्टियं किमिमं ? || ३२५॥ भणियं मत्ताद्रेण ताय ! तुह जणयनिव्विसेसस्स । किं न कहिज्जई ? भणिऊण अक्खिओ पुत्र्ववत्तो ॥ ३२६ ॥ जह उज्बेणिपुरीए समागया एत्थ पाडलीपुत्ते । पुत्तलियदंसणाओ पव्वसो जह इमो जाओ ||३२७|| जा ताय ! मए भणिओ वच्चामो ताव मग्गए कट्टे । इय सोउं मज्झ मणं मन्नुमरुम्मंथरं जायं ॥ ३२८ ॥ १. तेण जहा रं० । For Private Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जओ २३. व्यसनशतजनक युवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् तं नियुणिऊण सेडी कोमलवणेहिं पभणइ कुमारं । वच्छ ! न जुत्तं उत्तमपुरिसाणमठाणपडिबंधो ॥ ३२९ ॥ बालो वि जओ जाणइ नत्थि निचेट्टाए रइरसमुहाई । ता विबुहहासठाणे वच्छ ! तुमं किह णु रत्तो सि ? ||३३०|| जंपइ सोऊण तयं कुमरो बिहु ताय ! मोहिओ अहियं । जइ मेल्लावेसि इमं मह् अग्गी हो ता सरणं ||३३१ ।। चिते तओ सेट्टी चित्ते तद्दुक्खसल्लियसरीरो । सच्चमिणं तं नूणं जं भणियं विउसवग्गेण ॥ ३३२ ॥ गह-विस भूयपणासण अत्थि अणेग नर, अस्थि जि वाहि विणासहिं तक्खणि वेज्जवर । जाणमि वेज्जु सु सच्चर सत्यागमु वहइ, नेहगहिल्लह चित्तह जो ओसहु कहर ||३३३|| किंतु परिहासपेसलरसाए रमणीए होउ अणुराओ । जं पुण पाहाणविणिम्मियाए जायइ तमच्छरियं ॥ ३३४॥ इय चितो सेट्टी मित्ताणंदेण भणिओ ताय ! । मह मित्तजीवियकए किं पि उवायं विचिनेहि ||३३५|| बज्जरइ रयणसारो मज्झ उवाओ न को विविष्फुरद । जइ कोइ तुज्झ चित्ते ता झत्ति तयं पयासेसु || ३३६ ॥ तो भणइ सेट्टिनुत्ता अत्थि उवाओ अईवदुन्नेओ । जइ जाणिज्जइ एयं पुत्तलिया केण घडिय त्ति ||३३७|| तो आह्यसागे भवणं कारावियं मए वच्छ ! | जाणेमि सुत्तहारं पि निम्मिया जेण पुत्तलिया ||३३८ ॥ कुंकणविणसोपारयपुरवरम्मि सो वसइ । साहसु जं कायव्यं इय भणिए भाइ सेट्टिनुओ || ३३९ || च्छामो कि पडिछंदपण घडिया ? उयाहु एमेव ? | पंडिछंदएण घडिया जड़ ता आणेमि तं नियमा || ३४० ॥ ता हो कज्जसिद्धी वच्चामि ताय ! ता अहं तत्थ । पडियरियवो तुमए पद्रियहं एत्थ मह मित्तो || ३४१ ॥ सेट्टी चि तयं मन्नइ भणइ तओ अमरदत्तकुमरो वि । किं मित्त ! असरिसेणं मंतेण किलेसबहुलेण ? ||३४२॥ पुत्तलिय विरह हुयवह जालो लिपलीवियम्स मह मरणं । अवरं च सुह्य ! तुह मुहविओगकरवत्तकप्परणं ||३४३॥ इयरो पर्यंपइ इमं कुमार ! जइ नो दुमासमज्झम्मि | आगच्छामि तओ तं मुणिज्ज जीवइ न मह मित्तो || ३४४ ॥ इय गरुयनिबंधेणं कुमरं संठविय सेट्टिणाऽणुमओ । पत्तो अक्खंडपयाणएहिं सोपारयम्मि पुरे || ३४५ || मुद्दारयणं विणिजोइऊण परिविहियवत्थ- सिंगारो । करयलकयतंबोलो जाइ गिहं सुत्तहारस्स || ३४६ ॥ तं पविसंतं पासित्तु सुत्तहारो वि कुणइ पडिवत्तिं । परितुट्टमणा पुच्छंति दो वि अपरोप्परं कुसलं ||३४७|| कज्ज्रेण केण मह गिमलंकियं ? सूरदेवभणियम्मि | तंबोलदाणपुत्र्वं मित्ताणंदो पेड़ || ३४८ ॥ इच्छामि कारिउमहं देवउलं तुह् सयासओ किंतु । पाडलिपुत्तविणिम्मियपकिट्टपा सायसारिच्छं ||३४९॥ तो भइ सूरदेवो देवउलं निम्मियं मए तं पि । इयरो वि भणइ अमुगा पुत्तलिया सालभंजी य || ३५०|| पडिछंद्रएण घडिया ? उयाहु नियबुद्धिनिम्मिया तुमए ? । तो भणइ सूरदेवो तरुणाणं मणवसीकरणं ॥३५१॥ उज्जेणिनयरिनायगमह सेणनरेसरस्स कन्नाए । सिरिरयणमंजरीए घडिया पडिछंदएण इमा || ३५२ || इनिणिऊण अहिलसियकसिद्धी स बंधुरं भणइ । पुणरवि पसत्यदियहे तुज्झ सरुवं निवेइस्सं ॥ ३५३॥ तयणंतरं समुट्टिय वत्थे विणिवट्टिऊण नीहरिओ । अणवरयं वच्चंतो संपत्तो नयरिमुज्जेणिं ॥ ३५४ ॥ अभितरे पट्टिस तस्स पिहिएसु नयरदारेसुं । अल्लियइ वारवासिणिभवणं सयणाय सो जाव || ३५५ ॥ एत्थंतरम्मि निगुणइ पडहयसद्देण पोक्करिज्वंतं । मडयमिणं जो रक्खड़ पहरे चत्तारि रणी || ३५६ || दीनाराण सहस्सं वियरइ तस्सेह ईसरो सेट्टी । तं निमुणिउं पओलीपाहरिओ पुच्छिओ तेणं ॥ ३५७ ॥ किं एत्तियम्मिक वियरिज्जइ एत्तियं दविणजायं ? । सो भइ एस नयरी उवदुया घोरमारीए || ३५८ ॥ तं मारिनियमडयं निकाल्द जाव ईसरो सेट्टी । अत्थमिओ ताव रवी पुरीपओलीओ पिहियाओ ||३५९|| मारिपकंपिरगत्तो रक्खड़ मडयं न कोवि भयभीओ । इय नियुणिऊण नियमाणसम्मि चिंतेइ सेट्टिओ || ३६० ॥ नहु का विकसिद्धी निणपुरिसाण जायइ जयम्मि । ता मडयरक्खणऽज्जियधणेण साहेमि नियकज्जं ॥ ३६१ ।। परिभाविऊण एवं छित्तो मडयम्स पडहओ तेण । तो ईसरेण दिन्ना दीणाराणं सया पंच ॥३६२॥ सेसं पहायसमए दायचं पभणिउं गओ सेट्टी । सो वि अपमत्तचित्तो मुणि व्व मडयं निरिक्खेइ || ३६३॥ 1 For Private Personal Use Only २०३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आख्यानकमणिकोशे अह उम्गम्मि सूरे थाहायनो सपरियगो सेट्टी। जायुप्पाइ मइयं तो मग्गइ सो वि सेसधणं ॥३६॥ पंच सयाई दिलाई तुज्झ किं गग्गसे ? ति भणिऊणं । तो तं गलस्थिऊणं मइयं उप्पाडियं तेणं ॥३६५|| तो भणइ सेट्टिपुत्तो जह होही इह पुरे पहइपालो । ता सचिसेसं दव्वं गिहिस्सं तुह सयासाओ ॥३६६॥ तो दीणारसरणं दासियह? किणित्त वत्थाई। कय उन्मइसिंगारो गणियागेहं गओ रम्मं ॥३६॥ तं पविसंतं दटुं वसंततिलया समुट्टिया समुहं । उचूढजोव्वणा चमरधारिणी जा नरिंदम्स ॥३६॥ तीए समप्पड़ च उसयपमाणदीणारन उलयं सा वि । नियकुट्टणीए अप्पद संभालइ सा तमेगंते ॥३६९।। पुन्नाणि तत्थ पेच्छइ दीणाराणं सयाणि चत्तारि । तो विम्हइया चिंतइ अहह ! उदारो न से कोइ ॥३७०॥ सा जंपइ नियधूयं पडिवत्तिमिमम्स कुण सयं वच्छे ! । सा वि तहा निवत्तइ न्हाणा-ऽऽसग-भोयणाईयं ॥३७१॥ अह पत्तम्मि पओसे पविसइ सो वरबिलासभव णम्मि । कय उन्भडसिंगारा समागया सा वि पल्लंके ॥३७२॥ तं दट्टण विचिन्इ मित्ताणंदो विलासबसगाण | सिझंति न कज्जाइं ति चिन्तितं समाइसइ ॥३७३।। आणेहि पट्टमेगं जत्थुवचिसिउं करेमि भाणमहं । तो उवणीओ तीए तवणीयमओ मसिणपट्टो ॥३७४॥ . तत्थ पउमासणत्यो पिहिऊणं सियवडेणमत्ताणं । जा चिट्टइ ता पहओ रयणीए पढमओ पहरो ॥३७५।। पभणइ वसंततिलया सामि ! पसायं विहेलु मह इम्हि । अवगन्नि ठिओ सो ता पहओ बीयपहरो वि ॥३७६।। एवं तइय-तुरीया अइकता तस्स जामिणीजामा । पहए. पहायपडहे उद्वित्त गओ तडागम्मि ॥३७॥ ता कुट्टणी पयंपइ अमलियगत्ता किमज्ज तं वच्छे ! । सा वि हु साहइ तीसे निसाए निस्सेसवुत्ततं ॥३७८|| निमुणितु कासिमवयणा अका उलबइ नो थिरं दव्वं । ता अज रंजियव्यो विविहविलासेहिं सो वच्छे ! ॥३७९॥ एवं बीया तइया वि जामिणी जा तहवऽइकमइ । तो तुरियदिणे उग्गयदिणेसरे भणइ तं अका ||३८०॥ अणुरायरसियहिययं मह दुहियं किं विडंबसे सुहय ? । जा अणुवज्जियपुन्नाण दुल्लहा सुरवराणं पि ॥३८१॥ ता अमरदत्तमित्तो जंपइ जं भणसि अंब ! तं काहं । किंतु परिपुच्छियव्वं अत्थि तओ आह सा कहसु ॥३८२॥ सो भणइ रायकुमरी परियाणसि रयणमंजरीमंब ! । सा भणइ मह सुयाए वयंसिया चमरधारीए ॥३८३॥ जइ एवं ता अम्मो ! गंतूणं कह तीए मह चयणं । जह बंदियगिजंतं गुणनियरं अमरदत्तस्स ॥३८४॥ आयन्निकग संजायगरुयअणुरायरंजियमणाए । नियकरकमलेण लिहित्त पेसियं जइ इमं तुमए ॥३८॥ सामि ! तुह बंदिविंदप्पयासियं गुणगणं निसामंती । मयणानलजलियंगी संगमसलिलेण निव्ववसु ॥३८६॥ तो अमरदत्तकुमरेण पेसिओ पडिसरीरसरिसोहं । नियलिहियलेहजुत्तो त्ति जंपिए कुट्टणी भणइ ॥३८७॥ वच्छ ! करेमि समग्गं ति जंपिउं जाइ कुमरिभवणम्मि । तो रयणभंजरीए दटुं बोल्लाविया अक्का ॥३८८ अम्मो! अईवहरिसियहियया कि ? कहसु कारणं अञ्ज । सा आह तुज्झ वलहलेहेण तओ भणइ कुमरी ॥३८॥ को मज्झ वल्लहो ? कहनु अम्ब ! सा वि हु पवंचिउं अक्का । मित्ताणंदेण जहा तह साहइ तीए पुरओ वि ॥३९०॥ कि एयमघडमाणं विचिंतए रयणमंजरी जम्हा । न य को वि रायकुमरो मझगणे वल्लहो वसह ॥३९१॥ न य गुणनियरो कस्सइ निसाभिओ नेय पेसिओ लेहो । ता धुत्तविलसियभिणं ममापुरत्तम्स कस्सावि ॥३९२॥ जाणामि ताव कज सा वा उण करिता महाधुत्ता ? | परिभाविऊण एयं पयंपिया कुट्टणी तीए ॥३९३॥ मह वल्लहलेहकरो पुरिसो इह दंतवलभियाए तए । आणेयव्यो ति तओ मुणित्तु अक्का गया सगिहं ॥३९४॥ परितुट्ठमणा पमपाइ तुह कज्ज साहियं मए वच्छ ! । जंपइ मित्ताणंदो कह ? तओ काइ सा सव्वं ।।३९५।। गंतव्वं जाव तए तोए सयासे स आह आमं ति । सह तीए निसाए गओ संपत्तो रायदारम्मि ||३९६।। सा भणइ पुत्त : एत्तियमेत्तं मग्गं सुहेण पत्ताणि । पायार-पओलीथाणगाणि पिह पिहु पुरो सत ॥१७॥ ता दुप्पवेसमेयं सोउं सो भणइ कत्थ सा कुमरी ? । तो अक्का देक्खालइ वासगिहं तीए तप्पुरओ ॥३९८॥ १. दर्शयति । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनकयुवस्यचिवासवर्णनाधिकारे भावहिकाख्यानकम् २०५ भित्ताणंदण तओ पयंपियं अंब ! वञ्च नियभवणे । ता सा यि नियत्तेउं पच्छन्नं हेरिउ लगा ॥३१९॥ आवद्धपरियरो सो विज्जुविखत्तेहिं पवरकरणेहिं । सब्वे वि हु पायारेऽइक्कमई जाब ता अक्का ।।४००॥ नृणं वीरवरिट्टो गरिमुभवो इमो को वि। तो होज कजसिद्धि त्ति चितिउपडिनियत्ता सा ॥४०१॥ इयरो वि दंतवलभिं गवक्खमम्गेण आरुहइ तीए । एत्थंतरम्मि कुमरी तं दटुं चिंतए एवं ॥४०२।। किं वा करेइ एसो ? किं या जंपेइ ? चिंतिऊण तओ । पावरणपिहियगत्ता सुत्ता सा अलियनिदाए ॥४०३॥ तो अमरदत्तमित्तो तारिसरूचं तयं निएऊण । गिण्हइ वामकराओ कडयं नरनाहनामकं ॥४०४।। कट्टित्तु तओ छुरियं लंछित्ता तीए दाहिणं ऊरूं । तो पुव्युत्तकमेणं नीहरिओ झत्ति झंपाहिं ॥४०॥ तो देवकुले गंतुं सुत्तो नियबुद्धिविवपरितुट्टो । परिचिंतइ कुमरी वि हु अहो ! इमो को वि अइदक्खो ॥४०६॥ घेत्तण रयणकडयं ऊरू लंछित्तु एस नीहरिओ । तं सुट्ट, कयं न मए जं न कया तस्स पडिवत्ती ॥१७॥ इय चिंतिऊण कुमरी सुत्ता रयणीविरामसमयम्मि । इयरो वि साहुलकरो समागओ रायदारम्मि ॥४०८|| पोक्कारतो अन्नायमेस हक्कारिओ पुहइवणा । पभणइ संभंतमणो विन्नत्तिं देव ! निसुणेसु ॥४०॥ धरणियललुलियसीसो पणमित्ता जाब संठिओ ताय । रन्ना नयणुवरखेवेण पभणिओ विन्नवेहि ति ॥४१०॥ विन्नवइ तओ तुम्भेहिं नाह ! पुहईवईहिं महमेवं । देसंतरिओ का परिभविओ ईसरेण ददं ॥४११॥ जम्हा पओससमए सामि ! अहं आगओ विदेसाओ । इच्चाइवइयरं नियुणिऊण सव्वं पि तेणुतं ॥४१२॥ कोवभरभिउडिभासुरभालयलो भणइ भूवई रे रे ! । आणेह मम पुरओ बंधित्तु तयं दुरायारं ॥४१३॥ आएसो त्ति भणित्ता संचलिओ जाव भइयणो ताव । तं नाउ सिग्घ चिय दविणकरो ईसरो पत्तो ॥४१४॥ विन्नवइ देव ! एयन्स दिनमद्धं धणस्स सेसं तु । संपइ देमि जमज वि नो दिन्नं तं निसामेहि ॥४१५|| तम्मि समयन्मि सामिय ! कि मडयं नेमि ? अब एयस्स । दीणारे देमि ? सयं जुत्ता-ऽजुत्तं वियारेसु ॥४१६॥ अवरं च वासरतिगं लोयायारेण संटिओ सामि ! । एसो इह उवणीयं संपइ गिण्हेउ नियविणं ॥४१७॥ मित्ताणंदो राएण पभणिओं भद्द ! गिण्हसु सदव्वं । कारणवसेण जम्हा ठिओ इमो ता अदोसो त्ति ॥४१८॥ एएण धुत्तिओ नरवई वि धुत्तेणमिइ विचिंतेउ । मित्ताणंदो घेत्तुं नियदविणं तं विसज्जेइ ॥४१९॥ । उच्छलियकोउहल्लेण राइणा पुच्छिओ कहं तुमए ? । जोइणिवीटे मारीउवदुयं रक्खियं मडयं ॥४२०॥ अवहियहियओ होऊण नाह ! निसुणेहि भणइ इयरो वि । साहेमि तयमसेसं जं वित्तं मज्झ रयणीए ॥४२१॥ चिंतेगि मडयमारीभयमेयं कह णु नित्थरिस्सामि ? । हुं नायमप्पमत्तम्स किल भयं पभवइ न किं पि ॥४२२॥ इय चिंतिऊण आबद्धपरियरो कड्डिअगमसिधेणुं । जा चिट्ठामि दसदिसं पेच्छंतो ता गए पहरे ॥४२३॥ फेक्कारुगिन्नजलंतजलणजालाकरालनुहकुहग। परिपिकलमपिंगलनयणपहाछुरियदिसिविवरा ॥४२४॥ घोरसिवारिंछोली समागया हविया मए जाव । सहस ति ता पणट्टा सीहस्स करेणुमाल व्य ।।४२५॥ एत्थंतरे नरेसर ! बीए पहरम्मि धूपरसरीरो । कयमुंडमालवेसो पिंगलकेसो चिबिडनासो ॥४२६॥ नियमहकहरविणियहुयवहजालावलीहिं भुंजित्ता । उक्कत्तिऊण नियखंधमडयमंसाई भक्खंतो ॥४२७॥ पप्फोडतो बंभंडखंडयं पायदद्दुररवेण । अट्टहासभीसगपिसायविसरो समुन्भृओ ॥४२॥ करकलियतरलछुरिएण भेसिओ निभएण जाव मए । सहस त्ति ता पणट्टो दिणमणिणो तिमिरनियरो व्व ॥४२९॥ तो देव ! तइयपहरे समागया डाइणीउ उड्डुमरा । फेक्कारनियरपूरियदियंतरा हक्कियाउ मए ॥४३०॥ नट्टाउ जहा उप्पन्ननाणिमो घाइकम्मपगडीओ।ता पह ! तुरिए पहरे जं जायं तं निसामेहिं ॥४३१॥ वररयणघडियआहरणकिरणपन्भारहरियतमपसरा 1 उत्तत्तकणयभासुरतणुप्पहा कामपरिणि व्व ॥४३२॥ उब्बूढपढमजोव्वणमणोहरा तसिरहरिणसमनयणी । कंदप्पभिल्लभल्लि व्य मोहवल्लि ब्व तरुणाण ॥४३३।। रोलंब-गवल-कज्जलसामलओमुक्तकुंतलकलावा । तडितरलकत्तियकरा करालफेकारवर उदा ॥४३४॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आख्यानकमणिकोशे पभणंती रे ! अज्ज वि चिट्टसि पाविट्ठ : निटर निकिट्ट ! । तो पुहइपाल ! पत्ता घोरा मारी मह सयासे ॥४३५॥ जा पच्चासन्नटिया ता गहिया वामकरयलम्मि मए । उम्मोडिऊग हत्थं पलायमाणा तओ झत्ति ॥४३६।। दाहिणकरयलरियाग लंछिया दाहिणम्मि ऊरुम्मि । तीए करकमलकडयं मझ करे च्चिय ठियं सामि ! ॥४३७॥ अईसणी गया सा सहसा रविमंडलम्स रयणि व्व । एत्थंतरम्मि तरणी सनुग्गओ तं निएउव॥४३८॥ एत्तो य परमसेसं पि साहियं तुम्ह तो भणइ राया । अहह ! अहो ! अच्छरियं अच्छरियमिमम्स पुरिसम्स ॥४३॥ कोऊहलेण राया जंपइ दंसेस मज्झ तं कडयं । तो उट्टियाए कड़ित अप्पए पुहइपालम्स ||४४०॥ पेच्छेइ नरवरिंदो कदा उकीरियं नियं नाम । दट्टण तं विचिंतइ अहो ! किमयं अघडमाणं ? ॥४४१॥ जम्हा कुमरीए करे पुग पिणद्धं इमं मए आसि । ता कि नारीहत्थे चडियं अहवा वि सा मारी ॥४४२॥ जइ एरिसाए मारीए कारिया रयणमंजरी कुमरी । ता नूण मयंकमणी जलणफुलिंगे समुग्गिरइ ॥४४३॥ इय चिंतिऊण राया सरीरचिंताछलेण तं दटुं । जा जाइ रयणमंजरिपासे ता नियइ तं मुत्तं ॥४४|| अवरं च वामपाणी सुन्नं कडपण दाहिणोरं च । बद्धं पट्टेण निरिक्खिऊण वज्जेण पहओ व्व ।।१४५॥ चिंतेह निवो पावाए मझ चंसो कलंकिओ चेव । तो निग्गहेमि एवं नयरिजणं भक्खा न जाब ॥४४६॥ इय चिंति वलित्ता पुणरवि सीहासणे समुवविठ्ठो । मित्ताणंदं पुच्छइ किं केवलमेव तुह सत्तं ? ॥४४७॥ विप्फुरइ अहव तुह कावि मंतसत्ती वि ? तयणु सो भणइ । नरनाह ! मज्झ नियकुलकमागओ अस्थि मंतो वि ॥४४८॥ तो एगते काऊण भूवई भणइ भद्द! मह कुमरी । नियमेण घोरमारी ता तीए विणिग्गहं कुणम् ॥४४६|| विनवइ सो वि सामिय ! सज्झमसझं ति तं परिक्खेमि । नरवडणाऽणुन्नाओ तओ गओ तीए गेहम्मि ॥४५०॥ किं रयणिवीरपुरिसो समेइ ? अह तायपेसिओ कोइ ? । इय चिंतिऊग कुमरी अन्भुट्टिय आसणं देइ ॥४५१।। जंपइ मित्ताणंदो कुमारि ! संभरसि रयणिवुत्तंतं ? । अवरं च घोरमारीरूवो जाओ तुह कलंको ॥४५२।। नरवइणा वि हु तं मम अप्पिया गरूयनिग्गहनिमित्तं । एयं पुण सव्वं पि हु तुज्झ निमित्तं मए विहियं ॥४५३॥ ता जइ करेसि करुणं आसाबंधं च नेसि सहलत्तं । ता एहि जेण इमिणा ववएसेणं तुम नेमि ।।४५४॥ अह नाऽऽगच्छसि तो तुह रउद्दमारीकलंकमवणेमि । तं पि मह जीवियत्वे संपइ सलिलंजलिं देहि ॥४५५। चिंतेइ तओ कुमरी सप्पुरिसो एस मं पयंपेइ । ता जामि अहं अहवा न व ति दोलायए हिययं ॥४५६॥ अहवा रक्खेमि इमं इण्हि गुणरयणरोहणगिरिंदं । इय चिंतिऊण पभणइ तुह जीयं वल्लहं मझ ॥४५७|| ता भण जं कायव्वं केकरमु तुमं ति तेण सा भणिया । मह हुंफुडु त्ति भणिए सरिसवनिक्खेवसमयम्मि ।।४५८॥ इय संकेयं का समागओ भणइ देव ! मह सज्झा । किंतु समप्पसु जाणं जेण निसाए मुयइ देसं ॥४५॥ अह कह वि देसमझे गच्छंतीए समुग्गई सूरो । ता अवलोइयमेत्ता मारी एसा तह च्चेय ॥४६०॥ भीएण पुहइपालेण अप्पिया पवणवेगवडवा से । अत्थमिए दिवसयरे वित्थरिए तिमिरपन्भारे ॥४६॥ काऊण सिहावं, अभिमंतिय सरसवेहिं ताडित्ता । सा पक्कारकराला वडवाए चडाविया तेण ।।४६२।। हरिस-विसाय-महाभयविवसेण नरेसरेण सह चलिओ। उग्घाडाविय पुरवरपओलिदारेण नीहरिओ॥४६३।। अक्कंतनयरिपरिसरधवीटो पभणिओ कुमारीए । आरुहसु वडवपिढें सो जंपइ जामि पाएहिं ।।४६४॥ थोवंतरे पुणो वि हु भणिओ नाऽऽरुहइ कहइ परमत्थं । आणीया जह न तुम नियकज्जे किंतु मह मित्तो ॥४६५॥ नामेण अमरदत्तो तुह पडिकवेण मोहिओ अहियं । मह हिययवल्लहो सो तम्स निमित्तं तमाणीया ॥४६६।। ता मित्तकलत्तेणं सह निवसिज्जइ न एगटाणम्मि । इय नियुणिऊण कुमरी हरिसियहियया विचिंतेइ ॥४६७|| एयम्स अहो ! मित्ते वच्छल्लं अहह ! नीइकुसलतं । अहह ! महापुरिसत्तं परोवयारित्तणं अहह ! ॥४६८॥ अवरं च अमरदत्तम्स नाममेत्तेण पुलइयसरीरा । सा चिंत्तइ सुहहेऊ मझ कलंको वि संजाओ ॥४६॥ अणवस्यपयाणहिं पाडलिपुत्तम्स परिसरे पत्ता । एत्तो य अमरदत्तो मित्ताणंदे गए देसे ॥४७०॥ Jain Education Interational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् २०७ चिंतेइ अहो ! अस्थाणरागिया अहह ! बुद्धिहीणत्तं । अणवेक्खियकारित्तं अहह् ! महामोहमूढत्तं ॥१७॥ जओ पाहाणघडियपडिमाणुरायरत्तेण किह मए मित्तो । विहिओ विएसअतिही अहह ! महामोहमूढेण? ||४७२।। ससिविमलनियकुलक्कमपहपन्भट्टण किह मए मित्तो । विहिओ विएसअतिही अहह ! महामोहमूढेण? ||४७३।। जणयसमसेट्ठिसिक्खं परिहरमाणेण किह मप मित्तो । विहिओ विएसअतिही अहह ! महामोहमूढेण ? ||१७४॥ कंदप्पभिल्लभल्लासल्लियहियएण किह मए मित्तो । विहिओ विएस अतिही अहह ! महामोह मूढण ? ॥४७५|| कह कह वि सरीरटिइ करेइ सो सटिणावराहेण । निहुयनिहुयं रुयंता मुत्ताहलथूलअंमूहि ॥१७६॥ अह कहमवि संपत्ते दुमासपज्जंतअवहिदिवसम्मि । आबद्धपंजलिउडो जंपइ सेटिं अमरदत्तो ॥४७७॥ ताय ! खमेजसु सवं अवरद्धं तुज्झ जं मए कि पि । नियजणयनिविसेसो संजाओ मज्झ तं जम्हा ||४७८|| जेण न विजड़ मित्तो मित्ताणंदो जयम्मि जीवंतो । जा अमणुन्न न सुणमि तम्स ता देहि मे कट्टे ॥४७६॥ तं नियुणिउण सेट्टी कुमरमहादुवखसल्लियसरीरो। सो पउरजणसमेओ चिलवंती रयइ कट्टाई ।।४८०॥ तो पउरजणो सव्वो कयंजली पणमिरो'कुणइ लल्लि । अत्थमइ जाव तरणी ता कुमर : तुमं विलंबेसु ॥४८१॥ अवरो वि जणो मंदिर-देवउल-पयार-तरुवरारुढो । मित्ताणंदागमणं अणिमिसनयणो पलोएइ ।। २८२।। अह दिवससेससमए समागओ सो न जाव ता कुमरो । पज्जालाविय कट्टे ण्हाइत्तु तओ सचेलो वि ॥४८३॥ जा देइ तत्थ झंपं जलंतजालाकरालजलणम्मि । ता हाहारवपुल्वं वारेइ जणी भणइ एवं ॥४८४।। एगोऽह आसवारो एगो पुरिसो समेइ सिग्धगई । इय जपंताण तओ मित्ताणंदो तहिं पत्तो ४८५।। भणइ य एसा तुह चित्तचोरिया कुणमु निग्गहमिमीए । नियपाणिपीडणेणं ति तयशु आलिंगए मित्तं ॥४८६॥ तो अमरदत्तकुमरो उच्छलियातुच्छ रिसपत्भारो । आभासिऊण पुच्छइ समग्गमवि तीए वुत्तंतं ॥४८७।। कन्नंतपत्तनयणि छणरयणीयरसमाणवरवणिं । उभिज्जमाणसिहिणि मणहरकलहंसगइगमणिं ॥४८८|| अवलोयंतो चिट्टइ सवंगं रयणमंजरिं जाव । सेट्टी वि तुट्टहियओ सविम्हयं चिंतए ताव ॥१८॥ किं पुत्तलिया घडिया दळूणं रयणमंजरिं कुमरिं ? । पुत्तलियदंसणाओ अहव इमा निम्मिया विहिणा ? ॥४९॥ अह सेट्टी उट्टित्ता कट्टे फेडित्तु अमरदत्तस्स । कारेइ पाणिगहणं सुमुहुत्ते तम्मि समयम्मि ॥४२१॥ इओ य तत्थ अपुत्तो राया पंचत्तं पाविओ गयदिणम्मि । रायनिमित्तं दिवाइं पंच अहियासए लोओ ॥४१२॥ ताणि तओ तिय-चच्चर-चउक्क-रच्छासु परिभमंताणि । आगंतुं नवपरिणीयकुमरपासम्मि पत्ताणि ॥४१३॥ गलगजित्ता अहिसिंचिऊण वरकणयकलससलिलेण । तं मुंडादंडेणं हत्थी संठवइ नियखंधे ॥४६४॥ छत्तेण अलंकरिओ ढलिए सयमेव चामरे तम्स । हयहेसारखपुव्वं जयतूरवो समुच्छलिओ ॥४५॥ पणमिजन्तो मंडलिय-मंति-सामंत-मुहडविंदेहिं । बंदियणुग्घुट्ठजओ तओ पयट्टो पुरपहम्मि ॥४९६।। एत्थंतरम्मि अहिणवनरनाहपवेसहरिययियाओ । पभणंति पहिट्टाओ परोप्परं पुरपुरंधीओ॥४१७॥ अह ताण आह एक्का सकयत्था रयणमंजरी देवी । जीए ईए व दइओ संपत्ता कुसुमबाणो व्य ॥४९८॥ अह अवरा हरिणच्छी पभणइ सिरियणसारसेट्टी वि । सकयत्थो जेण हले ! जणएण व रक्खिओ कुमरो ॥४९॥ मित्ताणंदं वन्नह हले! किमन्नेण ? जंपए कावि ? । नियमित्तजीवियकए परिभमिओ जो विदेसेसु ॥५०॥ इच्चाइ हरिणनयणीपभणियवयणाई सो निसामेंतो । पविसिय नरिंदभवणं पवरे सौहासणे विसइ ।।५०१।। तो मंति-मंडलेसर-सामंतेहिं सुवन्नकलसेहिं । अहिसिंचिओ कुमारो वजिरयरतूरसद्देहिं ॥५०२॥ मित्ताणंदो मंतीपयम्मि संटाविओ तह य सेट्टी। नियजणयपए सिरिस्यगमंजरी अग्गमहिसि त्ति ॥५०३।। १. करइ रं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आख्यानकर्माणको अह विस्यनापरुवसचित्ताणं ताण जाइ जा कालो। मित्ताणदेण तओ विनतो नरवई एवं ॥५०॥ तं देव ! मइयययणं अज्ज विहियए खुडुकए मज्झ। तो गंतूणं दूरे कि पि हु कालं विलंबेमि ॥५०॥ तो भणइ निवो मह बाहुवजपंजरगयम्स तुह न भयं । ता मित्त ! असरिसेणं किं देसंतरकिलेसेणं? ॥५०६|| इय स्यामंजरीए दुत्तो विहु जाय नो थिई लहइ । तो तेण पेसिओ सो भडयणजुत्तो वसंतपरे ॥५०७॥ अणुगंतृणं कइ वि हु पयाणए भणइ भइयणं राया । रे रे ! मह कहियव्या सुद्धी पत्तस्स मित्तम्स ॥५०८॥ आलिंगिऊण मितं पुट्टइबई दुम्मणो पडिनियत्तो । मित्ताणंदविरहिओ गमेह कालं निराणंदो ॥५०॥ जाव न कोवि हु मित्तम्स कहइ वत्तं पि पडिनियत्ते। पेसित्तु तओ पुरिसे संभालइ तो तहिं नस्थि ॥५१०॥ अह अन्नया नरिंदो उजाणगयं मुणित्तु मुणिनाहं । सिरिधम्मघोससूरिं पणमइ अवरोहसंजुत्तो ॥५११॥ उवविट्टे नरनाहे धम्मकहं कहद मुणिगणाहिवई । नरनाह ! इह असारे संसारे सारया नत्थि ॥५१२॥ तथा हि खरपवणपहयपोइणिदलग्गजलबिंदुचंचलं जीयं । लोललवलीदलावलिचवलतरा पेम्मपरिणामा ॥५१३॥ नवजलहरसिहरावलिविलसिरतडिलेहचंचला लच्छी । करिकन्नतालतरला नराण नवजोव्वणारंभा ॥५१४॥ अणिवारिज्जप्पसरा सुहा-ऽमुहा कम्मपरिणई जेण | ता जिणधम्मं मोत्तुं सरणं न हु किं पि संसारे ॥५१५॥ एत्थंतरे नरिंदण पच्छिओ पणमिऊण मुणिनाहो । पत्तो मित्ताणंदो किमवत्थं संपयं सामि ! ॥५१६॥ तो भणइ मुणिवरिंदो निमुणसु नरनाह ! मित्तवुत्तंतं । लघित्तु दूरदेसं वणम्मि आवासिओ जाव ॥५१७॥ भोणसमए भीमा भिल्लाणं ताव निवडिया धाडी । मोत्तु मित्ताणंदं भएण नट्टा भडा सव्वे ॥५१८॥ सोविहु पलायमाणो तिसिओ पत्तो सरम्मि सिसिरजले । विहियसलिलावगाहो सुत्तो नग्गोहतरमूले ॥५१९॥ तत्ते. अकालदारुणकसिणभुयंगेण तत्थ सो डको । दिट्टो य घोरगरलेण धारिओ तावसेण तओ ॥२०॥ नह-नयण-दसणनीलत्तणेण नाऊण नागदहो त्ति । अहिसित्तो अभिमंतियसलिलेण समुट्टिओ सहसा ॥५२१॥ साहेइ तस्स तावसमुणीसरो विसहरस्स वुत्तंतं । पुच्छइ य वच्छ ! तं कत्थ पत्थिओ कहमु एगागी ? ॥५२२॥ तो तेण तम्स पणमित्त साहिओ पुव्यवइयरो सम्बो । आसीसं दाऊणं नियासमं तावसम्मि गए ॥५२३|| चिंतेइ सुधीरेहिं वि विहिपरिणामो खलिज्जइ न जम्हा । मह मरणनासिरस्स वि समागयं दारुणं मरणं ॥५२४॥ जीवाविओ म्हि नवरं निकारिमपरमबंधुणा रिसिणा । ता किं परिभमिएणं ? मित्तसयासम्मि बच्चामि ॥५२५|| इय चिंतिउं पयट्टो पाडलिपुत्तम्मि पच्छिमाहुत्तो । एत्थंतरम्मि निद्दयमाणसचोरेहिं सो गहिओ ॥५२६।। नाइत्तयाण पासे चिक्किणिओ तयणु ते वि नाइत्ता । नियदेसं वच्चन्ता संपत्ता नयरिमुज्जेणिं ॥५२७॥ आवासिया य बाहिं निसाए छिदं लहित्तु सो नहो। तो मडयवडं दटुं धसकिओ झत्ति हिययम्मि ||५२८।। उच्छलियमहाभयकंपमाणगत्तो पेणट्ठधारिट्टो । किंकायविमूढो पविसइ पायारखालेणं ॥५२॥ तम्मि समयम्मि नयरी निरंतरं चोरहरियसव्यस्सं । जाणित्तु पुहइपालेण ताडिओ उभडतलारो ॥५३०॥ उवउत्तमणो सो तत्थ जाच जोएइ तक्करपवेसं । मित्ताणंदो खालेण पविसिरो तेहिं ता दिट्टो ॥५३१॥ धरिऊण तओ वालेहिं कडिओ बंधिऊण पिढेति । निटुरमुसुंढि-मोग्गर-कत्तरि-पन्हिप्पहारेहिं ॥५३२॥ रे रे पाविट्ट ! निकिट्ट! दट्ट मुसिउ.ण नयरिमुजेणिं । किह छुट्टिसि ? त्ति भणिऊण नियभडे सो समाइसइ ॥५३३॥ उबंधह वडपायवसाहाए सिप्पसरियतीरम्मि । आएसाणंतरमेव तेहिं उपाडिओ सहसा ॥५३४॥ एत्थंतरम्मि चिंतइ मित्ताणंदो मणम्मि मह तइया । जं आसि मडयभणियं समागओ अवसरो तम्स ॥५३५॥ अचि कवियवजपाणिप्पमुकुलिस पि विखसक्का । न हु पुत्वभवसमज्जियसुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ॥५३६॥ अवि उभडमयरहरी निय भुयदंडेहि तीरए तरिउं । न हु पुब्वभवसमज्जियमुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ॥५३७|| १. निवकारणपरम० २० । २. प्रनष्टधायः । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवणेनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम २०६ अवि ससुरा-ऽसुरभुवणं जिप्पद समम्मि वीरसतहिं । न हु पुब्बभवसमजियमुहा-सुही कम्मपरिणामो ॥५३८|| पुरिसक्कारपरेहिं वि विहिपरिणामो खलिजइ न जम्हा । ता एरिससंसार मा तम्मसु जीव ! मणयं पि ॥५३९॥ इय चिंतंतो वडपायवम्मि उबंधिओ तलारहि । तह कालिरगोयालाणुन्नइया वि हु मुहे पडिया ॥५४॥ इय मित्तमरणनिटूरवजपहारेण ताडिओ व्व निवो । सह रयणमंजरीए धस त्ति धरणीयले पडिओ ॥५१॥ नियपरियणेण सित्तो जलेण उवलद्धचेयणो राया । लल्लक्कमुक्कपोको अक्कंदइ गरुयसद्देण ॥५४२॥ हा मित्त ! मित्तरहियं व नहयलं मन्झ सोहइ न रज्ज। मणवल्लह ! तुह विरहे भुवणमरन्नं व पडिहाइ ॥५४३॥ हा बंधव ! तइय च्चिय निवारिओ तं मए विदेसम्मि । गच्छंनो तह वि तुमं न ठिओ कम्माणुभावेण ॥५४४॥ हा ! तइया मज्झ कए आणीया रयणमंजरी देवी । अकयन्नुणा मए पुण तुह साहेजपि न य विहियं ।।५४५|| विलवइ देवी वि तओ सल्लंती मुणिजणम्स हिययाइ। हा हा देवर ! गुणनिहि ! निक्कारणपरमकारुणिय ! ।।५४६॥ हा मित्तकज्जवच्छल ! परोवयारेककरणतल्लिच्छ ! । हा सच्छासय ! सुंदर ! ता इहि कत्थ दीसिहसि ? ॥५१७॥ हा ! तइया मज्झ कए विहियाओ तए अणेगबुद्धीओ । नियमरणवसणसमए हा ! भुल्लो कह तुमं वच्छ ! ? ॥५४८॥ हा हा ! सुपुरिसरयणं अवहरिऊणं कयंत ! किं पत्तं ? । हा हा हयविहि ! निधिण ! पुजंतु मणोरहा तुज्झ ॥५४९॥ एत्थंतरग्मि सूरी करुणारसरसियमाणसो भणइ । नरनाह ! परिसो च्चिय संसारो किविसाएण ? ||५५०|| जम्हा संसारवियाणएहिं जिणवयणभावियमई हिं । न हु सोगो कोयचो नट्टविणट्टम्मि कजम्मि ॥५५१॥ किर कम्स थिरा लच्छी ? कस्स जए सासयं पिए पेम्म ? । कम्स व निच्च जीयं ? भण को वन खंडिओ विहिणा ? ॥५५२॥ अन्नं च हयकयंतो न नियइ दढपेम्मपरवसाण दुहं । न गणइ कुटुंबभंगं न य चिंतइ मित्तविच्छोहं ।।५५३।। न य परिभावइ पिय-माइपभिइवुडत्तणं नवरमेसो । सच्छंदमुहं वियरइ भंजंतो मत्तहत्थि व्व ॥५५४॥ इय एवभावणाए संसारासारयं वियाणित्ता । परिहरमु राय ! सोयं कुगइकरं मुगइ पडिवक्खं ॥५५५।। इय निसुणिऊण सोयं परिहरिऊणं पयंपइ नरिंदो । मुणिनाह ! मज्झ मित्तो मरिऊणं कत्थ उववन्नो ? ॥५५६॥ तो भणइ मुणिवरिंदो मरिऊणं रयणमंजरीगम्भे । जो चिट्ठइ सो होही तुह पुत्तो कमलगुत्तो ति ॥५५॥ तो निययमित्तपुत्तत्तणेण परितुट्टमाणसो राया। जंपइ पुचभवम्मि भयवं ! अम्हहिं कि विहियं ? ॥५५८|| मित्तस्स जेण मरणं मारिकलंकं च अग्गमहिसीए । बधूहि मह विओगो कहइ तओ मुणिवरिंदो वि ॥५५९॥ इह तइयभवे खेमंकरो त्ति कोडुबिओ तुमं आसि । सञ्चसिरी तुह दइया कम्मयरो चंडरुद्दो य ॥५६०॥ अह अन्नया कयाई कम्मयरो खेत्तरक्खणनिमित्तं । गच्छंतो संपेच्छइ कप्पडियं वाडिअंतरियं ॥५६१।। नवचवलयसिंगाओ गिण्हतं हकिउं भणइ एवं । रे रे ! एयं पावं उबंधह रुक्खसाहाए ॥२६२।। तो कप्पडिओ तं निमुणिऊण अइदूमिओ नियमणम्मि । कम्मयरो विहु खेत्ताओ आगओ ताव गेहम्मि ॥५६३|| ता राय ! तुझ वहुयाए भुंजमाणीए लग्गियं गलए । भणियं सच्चसिरीए किं रक्खसि ? भक्ग्वसे न थिग ? ॥५६४॥ अह अन्नया नरेसर ! कम्मयरो जंपिओ तए एवं । भद्द! तुमं मह कजे गच्छम् अमुगम्मि गामम्मि ।।५६५।। सामि ! अहं अक्खणिओ पभणइ कज्जेण निययसयणाण । अह सो तुमए भणिओ मिलंतु मा तुज्झ ते सयणा ।।५६६।। तुम्भेहिं तओ दुम्भासिएण समुवज्जियं अमुहकम्मं । एत्थंतरम्मि पत्तं मुणिजुयलं तत्थ भिक्दट्टा ।।५६७|| दट्टण तयं तुमए पयंपिया पणइणी मुणिंदाण । भत्तं पाणं वियरसु उत्तमपत्तं जओ एए ॥५६८॥ तब्वयणसवणसमयुच्छलंतरोमंचकंचुयंगीए । महुराहारेण तओ मुणिणो पडिलाभिया तीए ॥५६॥ चिंतेइ चंडरुद्दो निययमणे पुन्नभायणमिमाणि । जेणेरिसाए भत्ताए एत्थ पडिलाभिया एए ॥५७०।। तो दाणफलेण तए सकलत्तेणं समजिय राय : । अणुमायणेण तेण वि समाजयं भोगकम्मं ति ।।५७१।। एत्थंतरम्मि तुम्हाण उवरि आउक्खए नहयलाओ। तइयडिऊणं पडियं तड त्ति तडिमंडलं तत्थ ॥५७२।। मरिऊण तओ मुहभावलद्धसोहम्मदेवलोगम्मि । उप्पजिऊण नेहेण तत्थ भुंजित्त सोक्खाइं ॥५७३।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आख्यानकमणिकोश तत्तो चइत्त नरनाह ! अमरदत्तत्तणण तं जाओ। सच्चसिरी वि य सिरिरयणमंजरित्तेण उववन्ना ॥५७४॥ जाओ कम्मय। वि हु मित्ताणंदत्तणण नरनाह ! । जं तइया दुव्बयणं भणियं तेणेह तुह राय ! ॥५७५॥ बालत्तणाओ जाओ तम्स विवागण बंधवविओगो । जाओ य तुज्झ दइयाए वहुयदुभासिएण इमो ॥५७६।। रक्खसिवाओ दुसहो मित्ताणंदेण जं पुरा भणियं । कप्पडियवइयरम्मि तेणं सो पाविओ मरणं ॥५७७॥ एत्तियमेत्तम्स वि भासियम्स नरनाह ! एरिसविवागो । जो पुण कसायवसयाण होइ तं मुणइ सव्वन्न ॥५७८|| परिहरिऊणं ता पुहइपाल ! दुब्वयणगोयरं पावं । जिणनाह भणियधम्मे समुज्जुआ होमु युगइपहे ॥५७९॥ इय निमुणिउं नरिंदो देवीए समन्निओ गओ मुच्छं । चंदणजलण सित्तो सचेयणो कहइ सूरीण ||५८०॥ तुभहिं सामि ! जं मज्झ साहियं नाणचक्खुणा चरियं । तं पञ्चक्खं जायं जाईसरणेण सयलं पि ॥५८१॥ किंतु मडएण तइया जं भणियं तत्थ मज्भ संदहो । ता साहमु मह भयवं ! जम्हा न चवंति मडयाई ॥५८२।। साहेइ तस्स सूरी सिंगग्गाही मरित्तु कप्पडिओ। भवियव्ययावसेणं तत्थ वडे वंतरो जाओ ।।५८३।। दट्टुं मित्ताणंदं पुवकयं वइरमणुसरंतेण । समहिट्टिऊण मडयं पयंपियं तेण तो तइया ॥५४॥ तव्वयणसवणसंजायगरुयवेरग्गसंगओ राया । आबद्धपाणिपउमो पणामपुवं पयंपेइ ॥५८५॥ भयवं! भीमभवाडविपरिभमणुभूयभयपकंपतो । परिचालिऊण कुमरं पवन धुरं धरिम्सामि ॥५८६।। इय पभणिउं नरिंदो मुणिविंदं वंदिगओ नयरे । सह रयणमंजरीए उवभुंजइ विसयसोक्खाई ।।५८७|| कालेण कमलगुत्तं पुत्तं रज्जे ठवित्त सकलत्तो। निक्खंतो सुहचित्तो पासे सिरिधम्मघोसस्स ॥५८८॥ छट्ट-ऽट्ठम-दसम-दुवालसाइं काऊण तिव्वतवचरणं । कयभत्तपरिच्चाओ सवढे सुरवरो जाओ ॥५८९॥छ।। इय तेण मित्तसंतियमणन्नसझं पओयणं विहियं । अहमवि कइपयपयभासणेण तुह मित्तमसमं ति ॥५१०|| ता मम वि मित्त ! कजं तुममेत्तियमन कुणम पसिऊणं । जह तुज्ज पए पेच्छामि जाव जंपंति एयाणि ॥५११॥ ताव य घडियाहरए रयणीए वजिओ तइयपहरो । ता सो चिंतइ धुत्तीए वंचिओ कहमहमिमीए ? ॥५९२।। जा किर मारिउ लम्गो तं जक्खो तिक्खधारछुरियाए । ताच य दीणमुहाए पयंपियं पायवडियाए ॥१९३।। अहमित्थिया अणाहाऽणुकंपणिज्जा सहायवियला य । पयईए अप्पसत्ता मज्भ वहे तुझ गरुयस्स ॥५९४॥ लोयम्मि जसो कित्ती वन्नो सद्दो य करिसो होही? । इय परिभावसु कज्जे भवंति गरुया थिरारंभा ॥५९५॥ परमेरिससितखाए किं मह दिन्नाए तुज्झ विसयम्मि ? । तं चेव बुद्धिमंतो सुंदरमियरं व जं मुणसि ॥५९६।। परमहमईव तुह दंसणस्स तित्तिं न देव ! पावेमि । ता सामि ! संपयं पि हु कहाणयं सुणसु तुममेयं ॥५९७॥ इय सो विलक्खवयणो वट्टइ दोलायमाणसो जाय । तो तीए मलयविसयाए महुरराएण पारद्धं ॥५९८॥ कहिउं संरंभेणं चरियमिमं चारुदत्त सेट्टि स्स । अप्पश्वसंधिबंधेण विरइयं विउसहिययहरं ॥५९९।। [चारुदत्तचरिउ ] इह भरहि अत्थि पुरि नौमि चंप, पररायचक्कभयनिप्पकंप । धणुकुडिलवंकपायारवलय, सुमहंतहिमालयसरिसनिलय । पयपणयपुरंदररइयपुज्जु, जहिं मोविश्व पत्तु जिणु वासुपुज्जु । जियसत्तु नानु जियसत्तु राउ, तहिं अस्थि अखंडियमुहडबाउ । अन्दगे वि अस्थि तहिं सेट्टि भाणु, सुहि-सयणकमलवणसंडभाणु । जणवन्नणित्र अकलंकदेह, उन्नय जिव बीयाचंदरेह । नामि सुभद्द तमु भज्ज हुयइ, अणुरत्तिय जइ पर देहि जुजुइय । १-२. नाम रं०। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् सहु तीए मुहउ सत्रु गेहवामु, जमऽपुत्तु एक्कु परदोमु तामु ।। कुलवंसुद्धारणि, पुत्तह कारण, सेट्टि समजु वि. दुक्खियउ । संसारि महालइ, एवदुहालइ, माइ कवणु किर मुत्थियउ ॥१॥६००॥ इय जा जिणिंदपूयणरयाई, चिटुंति निसामियजिणमयाइं । ता तत्थ नाण-चारित्तपत्तु, चारणमुणि जिणहरि कोवि पत्तु । पुच्छियउ सुभद्दई पुत्तजम्मु, मुणिराउ वियाणियसमणधम्मु । जाणिवि गुणु नाणिण तीए कोवि, होहीइ भणविणु गयउ सो वि । .. आहूयउ तक्खणि तीऐ गम्भु, जो अन्नह महिलह पुन्नलम्भु । नवमासिहिं अद्धट्टमदिणेहिं उप्पन्नु पुत्तु तहिं सहुं गुणहिं । सुहलक्खणलक्खियचारुगत्तु, तसु नामु पइटिउ चारुदत्तु ! वडतु अइच्छियबालभावु, अव्भसियसमत्थकलाकलावु ।। हरिसीहपमुक्खिहिं, अइसयदक्खिहि मित्तिहिं सहियउ निउणमह । अगमंदिरपव्वइ, कीलणभव्वइ, गयउ जेत्थु गिरिनइ वहइ ॥२॥६०१॥ तहिं नइहि पुलिणि तिणि जंति अंति, थी-पुरिसहं दिट्ठिय पयह पंति । अणुमग्गि तीए विप्फुरियथामु, कयलीहरु गउ सुंदरधामु । तहिं खग्गु दिटु सेज्जासणाहु, नररयण अन्नु दुखिउ अणाहु । अयकीलिहि कीलिउ रुक्खि सहिउ, तसु दुखि निरारिउ हियइ वहिउ । जा जोइउ तावऽज्ज वि सजीउ, परितम्मइ सरसदयापरीउ । अवलोयइ जावहि तासु खग्गु, ता पेच्छइ ओसहितिगु विलग्गु । उक्कीलिय तावुक्कीलिणीए, संरोहिय वणसंरोहणीए । चेयन्नु कयउ संजीवणीए, पड्डपन्नु हुयउ ओसहिमणीए । चितियइ न जं मणि, न य दीसइ जणि, जुत्ति वियारि न जं घडइ । तं पि हु सो पाविउ, तिणि जीवाविउ, सव्वु सपुन्नहं संपडइ ॥३॥६०२।। तउ अग्गइ दिट्ठउ चारुदत्तु, तिं भणि मज्भ तुहुं लंधु मित्तु । जिम्व कीलिउ हउं इह अकयपाउ, अक्खणह लग्गु जिह एत्थु आउ । 'वेयद नामु भारहि गिरिंदु, सुरयणिहि समन्निउ नं सुरिंदु । सिवमंदिरु दाहिणि तासु नयरु, तहिं राड महिंदविक्कमु सखयरु । अमियगइनाम हउं तामु पुत्त, चिट्ठामि जाव सुहसंपउत्तु । धूमसिह-गउरमुंडाभिहाण, दुइ मज्झ मित्त ! हुय गुणपहाण । हिरिमंतु नामु नगु कलियवोमु, तावसु माउलट हिरन्नरोमु । तहिं निवसइ मज्मु सिणेहवंतु, हउं तहिं समित्तु गउ जंतु जंतु ॥ तमु धीय मणोहर, पुन्नपओहर, विहिवाहिं परिकम्मविय । तावणि अन्नाणहं, हरणि जुवाणह, कामभल्लिनं निम्मविय ॥४॥६०३।। सुकुमालिय नामि मझ कज्जि, सा ताई मग्गिय नेहसज्जि । सा मई वीवाहिय सुहइ लग्गि, सहु तीए वसउ जिम्ब सक्कु सम्गि । १. रायरं० । २. तीइ रं० । ३. बेयट्ट २० । ४. नाम रं० । ५. गउरसुंडा रं० । ६. जिम रं० । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आख्यानकमणिकोशे सा तारिसकुलसंभव विसिट्ट, कइया वि धूमसिहिं सह विणट्ट । अहमवि भमामि रिउभावजुत्त, न यणामि किंपि परमत्थु तत्त । कीलानिमित्त आइय उ एत्यु, सहुँ भज्जई सेजहिं रमउ सत्थु । पाविट्टि आवि ओवधु अज्जु, एयारिसमित्तहं पडउ वज्जु । गउ दुक्खु लेवि सहु तीए पावु, धूमसिहु अहव दहणसभावु । घिमि ! घिसि ! धिरत्थु जगि महिलियाहं, मित्तह वि विसयविसकवलियाहं ! ।। नामाइ मुणेविणु, सुकिउ सरेविणु, 'पुण दंसणु भणि सुद्धमइ । वेरम्गपबन्नउ, चित्ति विसन्नउ, कर जोडिवि गउ अमियगइ ॥५॥६०४॥ तमु टावह सो वि हु चारुदत्तु, गउ गेहि निद्धमुहिसंपउत्तु । विन्नायसमग्गकलाकलावु, जोव्वणि संपत्त विमुद्धभावु । सव्वत्थु नामि माउलउ तासु, धण-कणसमिधु चड्डियविलायु । तसु अस्थि पढमजोव्वणरवन्न, रन्नावि जेव मित्तवइ कन्न । सहु तीए तासु वीवाहु जाउ, संपन्नसयणगरुयाणुराउ । मित्तवइसमउं पर चारुदत्तु, कलरसिउ न भोगहं देह चित्त । दुल्ललियवयंसह मज्झि छुद्रधु, नं बधु बिगलउ जेत्थु दुधु । सामग्गिवसिण भोलियउ नेहिं, पाडियउ वसणि पावेहि तेहिं ।। अप्पणई कुवासिं, भवअन्भासिं, एक्कु जि जीवह पावरइ । तारिसववरसिं, गुरुउवए सिं, कव न पसरह विसयमइ ॥६॥६०५।। जहिं कुट्टणि गरुय कलिंगसेण, तमु धूय सुरूव वसंतसेण । तहिं वेसावाडइ तेहिं छुदधु, वेसह सरूवु अमुणंतु मुधु । अहु वेस विसिट्ठिय हुंति केंच, उच्चिट्ठिय निग्विणि गुणहि जेम्ब । धणलुद्धिय किम्च कोढिउ रमंति, निद्धण गरुओ वि परिच्चयंति । मणिदुट्टिय चाडुसयई करेंति, पररंजणत्थु कवळि मरंति । जउं पोसगु पुज्जइ महुर ताव, अवरत्थ निंबवक्कलिय पाव । रूयडउ सो जि सोहगिउ सो जि, धणवंतु जु रंजहिं किंव अभोजि । निष्फलिं सह सेजहिं न उ सुयंति, झंझोलवि तरुवरु जिम्चे मुयंति ॥ सहु तीए विलासिहिं, पसरियहासिहि, सोलह कोडि सुवन्नह । चड्डिय उक्करिसिहिं, बारह वरिसिहि, निहणह नीय रवन्नह ॥॥६०६॥ निग्घिणइ निरूविवि बहुपयारु, मोसारिय जाणिवि लुत्तसारु । पाविट्टइ पाइवि मज्जपाणु, बाहिरि छड्डाविउ साबमाण । उट्टिवि गउ गहि विसन्नचित्त, तं दिट्ट कुमुण जिम्ब नवित्तु । नरबइहि गेहु जिम्ब विगयसोहु, मुणिमाणमु जिम्व परिगलियमोहु । काउरिसिं सरिसु विणदारु, भग्गालउ जेम्ब जुवाणिवारु । मित्तवइ निएविणु कंतु पत्तु, उक्खिवि अब्भुक्खणनीर' पत्तु । १. पुणु २० । २. समिद्ध रं० । ३. जेय रं० । ४. जिम २० । ५. नीरु २० । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जेम रं० । २३. व्यसनशत जनकयुवत्य विश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् आसाणासु कियपयत्त, आपुच्छिय जणयहं तणिय वत्त । माया- वित्त, नीवियहिं कलत्ताहरणु लेवि ॥ वित्तासह पत्थर, मग्गि सुसत्थिउ, अत्थोवज्जणि दिन्न उरु । माउलई समभ्गउ, सोहण लगाउ, पत्तु उसीरावत्तपुरु ||८||६०७|| कप्पासु तेरथु लयउ महत्थु आवंतह दवि दड्डउ समत्थु । माउलइ विउत्तर अत्थकामु, वेलाउलु पत्तु प्रियंगुनामु । पिउमित्ति पेरिउ तर्हि अकीवि, गउ जाणवत्ति लहु जवणदीवि । तत्थ वि य मुक्कवाणिज्जि खोड, तिणि अट्ट विदत्त सुवन्नकोडि । आवंतह फुट्ट जाणवत्तु, श्रीगुज्झु जेव हारवियवित्तु । दिणसत्तगि फलहिं तरेवि नीर, आसमपउ पाचिउ कहवि तीरु । दियर पहु तर्हि परिवार दिदु गिरिविवरि गहिरि तिणि सहु पविट्टु । चपुरिसमाणि रसकृवि खित्तु रज्जूपओगि भयविहुरचित्तु ॥ अग्गेरइ पडियs, नरि घणनडियई, रसह सरूवु निवेइयउ । सो विहु तहिं खित्तउ, दुहसंतत्तउ, वसणु सुणेविणु वेवियउ || १ ||६०८ || सुमरे विणु सावगकुल पहाणु, सुमरेविणु जिणवरु गुणनिहाणु । सुमरेणु गुरुवेरडिङ, भावेइ भवन्नव दुक्खनडिउ । ते धन्न उन्न कत्थ नरा, जे चत्तसंग वय-नियमधरा । हुए सिरपसर, नवकारु निवारियजरमरणू । कर्हितारिनु पाविविध सुइ ? कह एत्थ मरेवर्ड एव मइ ? | तं नियुणिवितलि बोल्लियइ नरिं, मा भद्द! बिसाउ महंतु करी । जेणsa वि अस्थि उचाउ तऊ, महु पुणु रसि खद्धउ अवसऊ । इह आवर गोह महंततणू, रसु जाइ पिएचिणु एक्कु खणुं ॥ जइ जग्गहि पुच्छिहि चिळग्गहि [लग्गहि] गोहहि, ता आवइ तरहि । अह उज्जमि मुक्कड़, आयहं चुक्कउ, ता एत्थ वि म जिम्व मरइ ||१०||६०९॥ जावऽच्छ अवहिउ एक्क मणी, ताविंतहिं गोहहि सुणइ झुणी । जा वल पिएविणु कूचरसू, ता लगउ गाढउ पुच्छि तसू । नरगाउ जेव' सुहपरिणईए, काराउ व कुवि सुहनिववईए । नावाए व जलहिनिमज्जणाओ, विरईए व पावपवत्तणाओ । जणणीए व दुहगन्भालयाओ, नीसारिउ तीए वि गिरितलाओ । केत्तिउ वि जाइ जा भूमिभाउ, तिस-भुक्खहिं पीडिउ सो बराउ । जममहिसु व मुक्कड बंधणाउ, वणमहिमु द्धाइउ ता वणाउ | तनु भए सिलहि सिरि चिचडिउ, अजगरह महिसु ता पह पडिउ || ते जाव परोप्पर, भिडहिं समच्छरु, ताव पलाणउ उत्तरवि । धिसि घिसि! तमु पावह, दावियतावह, वलि वलि जो जीवइ मरिवि ॥११॥६१०॥ अन्नु जागामि पत्तु, तावेगु मिलिउ माउलह मित्तु । For Private Personal Use Only २१३ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आख्यानकमणिकोशे भमडंतु रुद्ददत्ताभिहाणु, पयईए पावु दोसहं निहाणु । तिणि सहुँ सुवन्नभूमिहिं पयटटु, अपमाणवित्तवंछावस टु । नइ नियहिं जंत वेगवइ नाम, सिंधुवइ पासि तं बहुसकाम । दुइतडकुलउभय विमुद्धं जासु, रत्तुप्पलचलणसजंघ तासु । सुकुमालपुलिण वित्थयनियंब, कोमलमुणाल भुयलयपलंब । आवत्त नाहि तिवली तरंग, वर कंबु गीव घण थण रहंग । सयवत्त वयण सुइ सिप्पि भाल, चल सफरि नयण सेवाल वाल | जलवट्ट सुवसणिय, मोत्तियदसणि य, धाउरायतंबोलजुय । नं जलनिहिवरहरि, केणइ महिहरि, सिंगारिवि पेसिय वहुय ॥१२॥६११॥ अग्गेरइ गंतु पवन्नु जाव, वित्तवणु गहणु संपत्त ताव । अजमग्गु परेरइ अस्थि तासु, गुरुकिच्छि पारि जाइयइ तासु । अयपिट्ठारू ढहं तेत्थु गमणु, अयमग्गु पवुच्चइ तेण पवणु । अय दुन्नि लइय तहिं रुद्ददत्ति, आरुहिवि तेसु पस्थिय पयत्ति । पुणु तेहिं वि जंतह मग्गु भग्गु, तो रुद्ददत्तु बोल्लणह लग्गु । भो भत्थ एइ मारेवि करहुं-पइसेवि तेत्थु ओ बसणु तरहुँ । भारंडपक्खि आयहि भमंति, मंसबुद्धि अम्हे नयंति । तेणुत्तु जेहि आरूढ आय, उवगारी एइ अम्हह वराय ।। उवयारिहि मारणु, पावह कारणु, एरिमु करहिं जि नरयगइ । जसु मणि जिणु निवसइ, सो किं ववसइ, अइसनिग्घिणु सुद्धमई ? ॥१३॥६१२॥ तिणि भणिउ एइ मइ कीय दो वि. जं भावइ तं हकरिसु लेवि । तो नियपसु पाडिउ खडहडंतु, पेक्खंतह मारिउ तडफडंतु । बीयई भइ जोइउ तासु मुहू, मइ आयह रक्खहि भद्द ! तुंहू । तुह वाहणु हउ उवयारु सरि, मइ रक्खिवि पडिउवयारु करि । जोयंतु तरलतारयनयणू, वित्थरियमरणभयवुन्नमणू। पसु पेक्खवि कोडीकिउ मरणी, किरि का सुन पूरिय गलसरणी ?। तो पभणिउं तं पइ चारुदत्तु, जो भद्द ! भवन्नवजाणवत्त । सुसमत्थउ रक्खणि तुझ रम्मु, जिणभासिउ संपइ देवधम्मु ॥ उवसमि मणु दावहि, मणि परिभावहि, पुवक्किउ परिणमिउ तुय । इय पंचाणुव्वय, कियकम्मव्वय, एव सरणु सम्मत्तजय ॥१४॥६१३॥ सो वि हु मुहभावण भावयंतु, नित्तिसि विणासिउ उत्तसंतु । तहिं तेहइ कुहियइ ते अमोज्झि, एककहि भत्थहि पइट्ट मज्झि । भूमिहिं भमंत भारुड पत्त, उप्पाडहिं आमिसलुद्धचित्त । उप्पयवि जाहिं जा गयणमग्गु, अन्नि पक्खिं सहु जं जुझु लग्गु । जुझंतह पयडियसाहसाह, अवरुप्परपरवसमाणसाहं । जहिं पोट्टलि अच्छइ चारुदत्त, सो खिसिबि सरोवरनीरि पत्त । नीसरिउ तासु जलधोयगत्तु, परिभमण लग्गु वीसत्थचित्त । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् पुणरवि य तासु हुय जीवियास, पासट्ठियजीवह जम्म तास । रमणीयपएसिहि, पयइविसेसहि, भमइंतइं जलडुंगरिणि । गुरुसिहरसमग्गउ, गयणि विरूगउ, एगु महीहरु दिटु तिणि ॥१५॥६१४॥ रायंतु रुक्खेहिं साहोडयखेहिं हिंताल-तालेहि जंबीरसालेहिं । बोरी-करंजेहिं नारंगसज्जेहिं बबूलझिल्लेहिं [....... ... .. .] | सोहंजणक्खेहिं दीसंतदक्खेहिं सामा-कयंवेहिं खज्जर-निवेहिं । मंदारु-गुंदेहिं कोरिट-कुंदेहिं पुन्नाग-नागेहिं कप्यूर-पूगेहिं ॥ इय पसरियसाहेहिं, सीयललाएहिं, सो गिरि सहइ समुन्नएहिं । फलपावणपणेहिं, संसियसउणेहिं. जिम्व विउसयणु सकन्नएहिं ॥१६॥६१५॥ जा चडइ उवरि विम्हइयचित्त, ता पेच्छह चारणमुणि पवित्त । तो भावसारु बंदियउ साहु, पारेवि झाणु किउ धम्मुलाहु । भो चारुदत्त ! किम्व एत्थ आउ ?, माणुसहं एह जमगम्मु ठाउ । मूलह पभिइ जिम्व तासु वित्त, तिम्व कहिय सयल अप्पणिय वत्त । मुणिराउ वि अक्खइ नियपउत्ति, तमु भाणुसेट्टितणयह सजुत्ति । जो मोइउ कीलयबंधणाउ, सो हं तहु पत्थिउ काणणाउ । रिउमाणु मलेविणु पत्तु गेहिं, जोग्गय निएवि वट्टियसिणेहि । पव्वइउकामि अप्पणइ रज्जि, अहिसित्तु पियरि सुहजणणिसज्जि ॥ नियपउ पालंतह, दुट्ट दलंतह, सिट्टलोय रक्खणखमहु । जयसेण मणोरम, रूवमणोरम दुन्नि भज्ज संजाय महु ॥१७॥६१६॥ दुइ पुत्त [ग्रन्थाग्रम् ८०००] मणोरमदेवि जाय, गुणमहि[म]विढत्तजणाणुराय । सिंहजसु पढमु विक्कमि अकीवु, बीयह अभिहाणु वराहगीवु । जयसेणह पुण गंधव्वसेण, हुए धूय वित्तगंधव्वएण । परथावि समप्पिवि सुयह रज्जु, पव्वइउ जाउ वयधरणसज्जु । परिहरिय सयल सावज कज्जु, इह आइउ आयावणह अज्जु । इह कुंभ-कंबुदीवहं पहाणु, एह पव्वउ कक्कोडयभिहाणु । इय जाय ताहं आलोव जाव, विजाहर दोन्नि पराय ताव । मुणिपुत्त नाय अणुहारिरुव, जाणाविय साहम्मियसरूवु ॥ मुणि जीवियदावय, वंदहु सावय, संभमि बंदण विहिय तसु । उवयारु कु किजउ ? किं तुह दिजउ ? भुवणि न बिजउ अवर जसु ॥१८॥६१७॥ जावऽच्छहिं इम्ब ते तिणि समाणु, तावेगु गयणि आइउ विमाणु । पणवन्नरयणमयभित्तिभाउ, आबद्धरुइरसुरइंदचाउ। ओलंबिरमुत्ताहारतारु, नं सिद्धिधामु लोयम्गसारु । विलसंतचमरु नं विज्झरन्नु, सुविभत्तथंभु नं मयविन्नु । सुइचित्तकम्मु जारिसय सुयणु, उल्लोयसारु नं साहुरयणु । जसु सरयसरोवरु आहरणू, कमलालउ सच्छरसाहरणू । सरयन्भसुब्भधयवडसणाहु, दप्पुधरि नं उब्भविबाहु । Jain Education Interational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २र६ आख्यानकमणिकोशे किं बहुयई वायावित्थरेण ?, रमणीयवत्थु न समाणु तेण ॥ तसु मज्झह सुरवरु, चलकुंडलबरु, निग्गर चंगिमनिव्वडिउ । [ तो सो ] मुणि मिल्लिचि, नयपहु पोल्लिवि, चारुदत्तुपाइहि पडिउ ॥१९॥६१८॥ नय-विणय-रुवरहाजुए हिं, पुच्छिजइ विजाहरसुएहिं । भो भद्द ! भत्तिवर्द्धनपणउ, मुणि मिल्लिवि आयह किं पणउ ? । हिमवंत धरहिं जिम्ब सुरसरिया, तिंव नीइवि सम्गह नीसरिया । आयन्नहु विजाहरसुयहो !, नीसेसकुवासणमणिमुयहो ! । वाणारसि नामि इह नयरि, परिवारिय जा पुरिगुणनियरि । तत्थ य सुभद्द-मुलसाभिहाण, पव्वाइय वेय-सुइप्पहाण । अवरु परिवायगु जन्नवकु, तहि अस्थि वियाणियवेयवक्क । तिं वेयवियारिं सुलसजिया, तसु पासि दासि जिम्ब सा उ ठिया । सो तीयऽणुरत्तउ, हुयउ पमत्तउ, कामपिसाई भोलियउ। जइ वा जिणु मेल्लिवि, बाणेहिं पेल्लिवि, मयणि भुवण धंधोलियउ ॥२०॥६१९॥ तो तीए गम्भसंभूइ हुया, उप्पन्नि पुत्ति लज्जाए मुया । पिप्पलहे हिट्टि परिचत्तमुया. सहु कंति नासिवि कहिंवि गया। बालह मुहि पडियउं पिंपफलू, आसायइ सो तं छुहवियलू । संपत्त कुओ वि सुभद्द तहिं, पिप्पलतलि मुक्कउ बालु जहिं । विनायउ वइयरु तीए सहू, संगोविउ एहु सुउ ससहि महू । किउ पिप्पलाउ गुणनाउं तसू , हुयउ वेयविसारउ लद्धजसू । नियजम्मु मुणिवि अहिमाणधणि, दुवि वाई पराइय जणय तिणि । पिइमेह पयट्टिय जन्न जणि, उच्छलिउ करंतउ मारि हणि ॥ अहिमाणि ...."विणु, जणय'हणेविण, पाच वेय वित्थरिय तिणि । अन्नाणि मूढउ, माणारूढउ, कवणु पावु जं न करइ जाण ॥२१॥६२०॥ तमु पच्छइ वद्दलि सीसु हूउ, सु अणेग करेविणु जन्नसुउ । पसु मारिवि पावि नरइ गऊ, उव्वट्टिवि नरयह हुयउ अऊ ।। सो पंच वार पसुमेहि हऊ, छट्टइ भवि टंकणविसइ गऊ । तो रुद्ददत्ति मारिउ बराउ, जिणधम्मवसिण दिवि देउ जाउ । इणि कारणि एहु मह धम्मगुरू, आयह पसाइं हां हुयउ मुरू। गुरु दुप्पडियारउ होइ जई, कुलि जायउ तमु संभरइ जई । बिज्जाहर रंजिय बिति बे वि, सुकयन्नु भावु तारिमु मुणेवि । अम्हाहिं वि उवकिउ एह तणउ. आई जीवाविउ जि जणउ ।। अह अवसरपत्तउ, सुरिं विन्नत्तउ, दिजउ पहु ! आएम महु । संभरियउ एज, जिणु सुमरिज, पडिवजिवि उप्पइउ नहु ॥२२॥६२१॥ अह तेहिं अदंसणि हुयइ सुरि, निउ चारुदत्तु अप्पणइ पारे । तहि विहियदाण-सम्माण-विणय, ठिय कइवय दिण वटुंतपणय । १. पापहि रं। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकारे भावभट्टिकाख्यानकम् २१७ पत्थावि तेहिं वरविभवजओ, संपाविउ चंपहिं भाणयुनो। स वसंतसेण मुक्किलबसणा उबद्धवेणि छुल्लियदसणा । जप्पभिड विउत्त सुभद्द मुया, तप्पभिइ मित्तवइगेहि टिया । मुहि-सयण-कलत्तद्गेण जुओ, पुणरवि य लच्छिकुलभवणु हुओ। जे संपय-विवयहं हे उभाव, सन्निहिय ति जीवह पुन्न पाव।। जिम्ब उदय-पयाव-ऽत्थमण सूरि, तिव आयई सवह भविय दूरि ॥ जिम्ब [जिय आयह, तिव जिय जायह, सव्वह संपय विवय जणि । एउ मुणिवि सयाणहु, तत्तवियाणहु, हरिस विसाय न करहिं मणि ॥२३॥६२२॥ सो हयहियओ भावट्टियाए बहुहाव-भावनि उणाए । तड्डुवियसवणजुयलो विम्हरियप्पा मुणइ जक्खो ॥६२३॥ जावऽज वि न समप्पड दुण्ह वि रसियाण ताण चरियमिमं । घडियाहरए ताव य पहया चउपोरिसी नयरे ॥६२४॥ एत्थंतरम्मि य रवी मिलंतचकाणमंचिओ चडिओ। भावट्टियाए चरियं व चाहि उदयगिरिसिहरे ॥६२५।। एत्थंतरम्मि सव्वा सकोउओ नायरो जणो पत्तो । जक्खाययणे अवखयदहं भावट्टियं नियइ ॥२६॥ पुबुत्तविहाणेणं पमोयसंभारमुबहतेण । परजणेणं पत्ता पवेसिया भाणुभवणम्मि ॥१२॥ महईए विभूईए वद्धावणयं पयट्टियं नयरे । पत्थावम्मि सपणयं पणमित्ता पउरलोएण ॥६२८॥ पट्टाइ तं महासइ : कहमुवरिया इमाओ जक्खाओ ? । भणियं निरहंकारं तीए विह ओणयमुहीए ॥६२९॥ देव-गुरुण पसाया महासईणं च सीलमहिमाए । उवसमिओ मह जवखो रुट्टो परमेस लोयम्स ॥३०॥ भणियं च कीसमिमिणा कलंकमारोवियं असंतं ते ? । किं वा वि हु तुह जणओ तइया णेणं पराभविओ ? ॥६३१॥ ता एयं पुरलोयं पभायसमयम्मि सिक्वबिस्समहं । तत्तो य मए चिंतियमहो ! कहं एस परिकुविओ? ॥६३२।। मा होउ मन्निमित्तयमेसोऽणत्थो पुरम्मि एयाओ । कह कह वि मए पणमिय कारविओ सो ववत्थमिमं ॥६३३॥ जइ एसो पुरलोओ मज्झमवाणुभवण तेल्लेण । टिल्लागि कुणइ मुंचामि नऽन्नहा भणियमेएण ।।६३४।। तं निसमिउंजणेणं दिवसम्मि न किंचि का उमलमेसो। उप्पाडिऊण निहओ चउहट्टे नायरसएण ॥६३४॥ उक्कीरिऊण घाणयकरणिवरमवाणदेसमेयस्स । परिपीलिऊण तिलनियरमेवमुप्पाइयं तेल्लं ॥६३६।। विहियाणि सव्वलोएण निययभालेसु तेल्लटिल्लाणि । एयं सव्वं किर कूडकवडभरियाए तीए कयं ॥६३७|| तथा हि अणुभूयं विसयसुहं पभूयमप्पाणयं च सुज्झवियं । विग्गोविओ य सव्वो पिउपरिभवकारओ लोगो ॥६३८॥ जक्खो महप्पभावो अपमाणं कारिओ पुरसमक्खं । अवरो वि जो विरूवो वसीकओ सो वि किं बहुणा ? ॥६३९॥ पढम पि हु विहियमिमं असहंतीए पराभवं पिउणो । माणधणाएं भणियं तहेव निव्वाहियमिमीए ॥१४॥ जओ-- अभिमाणवज्जियाणं ठाणे ठाणे पराभवयाणं । काउरिसाणं ताणं न य इहलोगो न परलोगो ॥६४१॥ तथा अवि उड्ड चिय फुटृति माणिणो न य सहति अवमाणं । अत्थवणम्मि वि रविणो किरणा उखै चिय फुरंति ॥६४२॥ किंच वियसंतकमलवणसंडमंडियं भमरमणहरुम्गीयं । अभिमाणधणम्स तणं व सरवरं रायहंसम्स ॥६४३।। तथा देसं मुयंति जीयं चयंति पियवंधवं पि न गणंति । अभिमाणधणा पुरिसा रज्जभंसं पि हु सहति ॥६४४॥ अह अन्नया कयाई विचित्तकम्मक्खओवसमजोगा । अंतररिउवग्गं पड़ वियंभिओ तीए अभिमाणो ॥६४५॥ २८ Jain Education Interational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अभिमाणेण किममिणा बहुपण वि अविसए परतेण ? । जइ जाणिऊण जिप्पड़ किंपि हु तो जायए लट्ठ || ६४६॥ इय सुपरिणामाए दिट्टो तीए समंतभद्गुरू । नमिऊणं सो पुट्टो अभिमाणो कत्य कायवी ? ||६४७ ॥ भणियं च तेण २१८ तथा हि राग-दोस - कसाए भद्दे ! अभिमाणओ जिणसु एए । जित्तेसु जेमु सुहिया होहिसि जम्मंतर || ६४८ ॥ इसुणिणं तीए भणियं भयवंत ! तुह समवम्मि । मोयाविऊण पियरो तुह वृत्तमहं करिस्सामि || ६४९॥ तो सा अम्मा-पियरो मोयावेउं खमाविउ पउरे । महईए विभूईए पन्वइया गुरुसमीचम्मि ||६५० || पञ्चाविण गुरुणा समप्पिया सुन्वयाए गणिणीए । उद्धरियसव्वसल्ला विहरइ सा गुरुसमीवम्मि ||६५१ ॥ पंचसमिया तिगुत्ता जिइंदिया जियपरीसह कसाया । विसयनिउत्तऽभिमाणा विसेसओ तवसमाउत्ता ||६५२ ॥ छट्ट-ट्टम-दसम-दुवालसेहिं मास - ऽद्धमासखमणेहिं । तह सोसविओ अप्पा जह रागाई वि सोसविया || ६५३॥ तत्तो य निक्कलंकं सामन्नं पालिऊण बहुकालं । सुरलोयं संपत्ता तओ चुया पाविही मोक्खं ||६५४|| कह तीए तारिसओ परिणामो भवनिबंधणं आसि ? । कह संपइ सिवहेऊ ? अहो ! विचित्ताणि कम्माणि ॥ ६५५॥ जह एयाओ बहुकूड - कवडदोसाण मंदिरमणज्जा । तह पायं सव्वा विहु विवेइणा ता विवज्जाओ || ६५६ ॥ [ ॥ भावट्टिकाख्यानकं समाप्तम् ॥७३॥ ] एता निर्वृणपुरन्ध्रि राक्षसीपु, मायाधनासु च न विश्वसनीयमेव । एहि मुग्धजनमात्मवशं विधाय, संसारदुःखजलधौ खलु पातयन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे व्यसनशतजनकयुवतिविश्वासवर्णनस्त्रयोविंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥ २३॥ [ २४. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारः ] युवतिषु विश्वासो न विधेय इत्यभिहितम् । तासु चाभिलाषो जन्तो रागादिसद्भावे भवति । तेषां चैहिका -ऽऽमुमिकापायहेतुत्वेन परिहार्यतामाह - संसारवुड्डिजणगा राग-दोसा तहा कसाया य । तवसंजमहाणिकरा इह चेव इमे अणत्थफला ||३०|| अस्या व्याख्या–‘संसारवृद्धिजनकौ' भवोपचयकारको 'राग-द्वेषी' प्रीत्यप्रीतिलक्षणौ जीवपरिणामौ, ' तथा ' इति समुच्चये, 'कपायाश्च' क्रोधादयो जीवपरिणामा एव ' तपः- संयमहानिकराः ' तपश्च- अनशनादिरूपं संयमश्च - पृथिव्यादिरक्षणलक्षणः तयोः हानिं–वृद्ध्यभावं कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः 'इहैव' अस्मिन्नेव जन्मनि 'अनर्थफलाः' अपायप्रयोजनाः ||३०|| एतानेव दृष्टान्तेनाह रामम्मि वणियपत्ती दोसे नायं ति नाविओ नंदो । कोहम्म य चंडहो मयकरणे चित्तसंभूया ॥ ३१ ॥ मायाए आइचो लोभे उण लोभनंदि - नउलवणी । इय नाउं जेयव्वा रागाइरिऊ पयत्तेण ||३२|| For Private Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारे वणिक्पत्म्याख्यानकम् २१६ अनयोयाख्या- 'रागम्मि' त्ति रागविषये वणिक्पत्नी' वणिग्भायी। 'दोसे' त्ति दोपविषये 'नायं ति' दृष्टान्तः 'नाविकः ' पोतवाहकः 'नंदो' त्ति नन्दाभिधानः । 'कोहम्मि य' त्ति क्रोधे च 'चंडहडो' त्ति चण्डमटनामकः । 'मयकरण'त्ति अहङ्कारनिर्वर्तने 'चित्र-सम्भृतौ' इति चित्र सम्भूताभिधानौ मातङ्गदारकौ ||३१|| 'मायाए' ति मायाकरण 'आदित्य' इति मायादित्याभिधानः । 'लोभे उण' त्ति लोभचिषये पुनः ज्ञातमित्यर्थः 'लोभनंदिन उलवणी' इति लोभनन्दिश्च श्रेष्टी नकुलवणिक् च-नकुलकप्रधानो वाणिजकः लोभनन्दि-नकुलवणिजौ । 'इति' अमुना प्रकारेण 'ज्ञात्वा' [अवबुध्य] अनर्थहेतुतया 'जेतव्याः' वशीकर्तव्याः 'रागादिरिपवः' रागप्रमुखाः शत्रवः ‘प्रयत्नेन' आदरेण इति गाथासङ्क्षेपार्थः ||३२|| व्यासार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र तावत् क्रमप्राप्तं वणिक्पत्न्याख्यानकमाख्यायते निवसंति खिइपइट्टियनयरे जणरेहिरे धणसमिद्धे । अरिहन्त्र अरिहमित्ता वाणियगा भाउणो दोत्रि ॥ १ ॥ अरिहृन्नभारियाए अहऽन्नयऽभत्थिओ अरिहमित्तो । अणुरत्ताए चंदो व्व सोमपयई सुहाहारो ||२|| ते सा पडिसिद्धा बहुप्पयारं न जाव विरमेइ । तो भणियं मह भाउगभयमवि ते नत्थि इय भणिए || ३ || चिंतेइ न कइया विहु एसो मं मन्निही जियंतम्मि । नियभा उगम्मि नियमा ता तं कहमवि विणासेमि ||४|| अह केणावि छलेणं भत्तारं मारिऊण तं भइ । इहि ते कस्स भयं ? तो सो चिंतइ अहह ! निहओ || ५॥ मह बंधू या पावाए मह निमित्तमिइ नाउं । वेरगागओ गिन्हइ पव्वज्जं सुगुरुमूलम्मि ||६|| विरहविहुरियंगी कम्मिच मरिण सन्निवेसम्म । सुणिया सा संजाया सो विहु कह कहवि विहरंतो ||७| तत्थेव अरिहमित्तो पत्तो पेच्छिऊण तं सुणिया । पुन्वभवभासाओ न मुयइ पिट्टि मुणिवरस्स || ८॥ तत्तो जणेण कहमवि विओइया मुणिवरं अपेच्छंती । अट्टज्झाणोवगया पडिबद्धा तम्मि साहुम्म ||९|| मरिउं महाडईए संजाया मक्कडी मुणी वि तहिं । विहरंतो संपत्तो तं दद्धुं कंठमणुलग्गा ॥ १० ॥ साहुजणेणं निच्छोडिऊण निद्धाडिया कवि तत्तो । तं साहुमणुसरंती मरिडं सा वंतरी जाया ॥११॥ नाऊण विभंगेणं पुत्र्वभवं तप्पओसमावन्ना । छिड्डाई निहालती अच्छइ सा अरमित्तमि ॥ १२ ॥ हसिऊण तरुणसमणा भणति धन्नो सि अरिहमित्त ! तुमं । जं सि पिओ सुणियाणं वयंस ! गिरिमक्कडीणं पि ॥ १३ ॥ सो तह व निकसाओ विहरंतो अवश्वासरे सरियं । थोवजलमवक्कमिडं उप्पडइ मुणी तहिं जाव ॥ १४ ॥ ता तं छिद्दं लहिउं छिंदइ सा ऊरुयं गुरुपओसा । पडिए ऊरुम्मि जले मिच्छा उक्कडमिमो देइ || १५ ॥ अह सासणदेवीए सो ऊरू लाइओ ससत्तीए । निद्धाडिया य पच्चंत देवया साहुभत्ता ॥ १६ ॥ ॥ वणिक्पत्न्याख्यानकं समाप्तम् ॥७४॥ अधुना नन्दाख्यानकमाख्यायते - बहुजीवसंकुलाए गंगाए हसियमुरसमूहाए । उत्तारइ मोल्लेणं जणनिवहं नाविओ नंदो ॥१॥ अह अन्नया य साहू धम्मरुई विविहलद्धिसंपन्नो । उत्तिन्नो गंगाए धरिओ सो तेण मोल्लकए ||२|| अइकंते पहरदुगे वि जाव न हु मेल्लए तओ विहिओ । सहस त्ति छारपुंजो मुणिणा सो तेउलेसाए || ३ || मरिऊण समुप्पन्नो सभाए घरकोइलो किलिट्टमणो । धम्मरुई वि य पत्तो विहरंतो तत्थ कालेन ||४|| गामाओ विणिक्तो भिक्खं गहिऊण भुंजए जाव । तत्थ घरकोइलो सो पुव्वभव भास रोसा ||५|| विक्खिरइ कयवराई मुणी वि अन्नत्थ उट्टिउं जाइ । सो कुणइ तं तहेव य एवं तइए वि ठाणम्मि ||६|| तो चिंतइ धम्मरुई को एसो नंदसरिसगो पावो । क्रूरं निरिक्खिऊणं सो वि हु भासीकओ ते ||७|| तत्तो मयंगतीरे हंसो मस्ऊिण सो समुप्पन्नो । कालेण तत्थ पत्तो विहरंतो धम्मरुइसाहू ||८|| तं दट्टु ं सो हंसो पक्खउडं भरिय सीयलजलम्स । पुव्वभवकोचचसओ आउंटइ सिसिरसमयमि ||९|| एवं पुणो पुणो वि हु थक्कइ न हु जाव ताव मुणिणा वि । को एस नंदकप्पो ? ति झामिओ तेउलेसाए || १० || For Private Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आख्यानकमणिकोशे मरिऊणं संजाओ अंजणसेलम्मि दुद्धगे सीहो । सह सत्येणं पत्तो का लेणं तत्थ साहू वि ॥११॥ दट्ट्टण तयं सहसा सत्थं मोत्तृण धावए कुविओ । जा मुणिवरम्स समुह निवारिओ नाव लोण ||१२|| जा कह विनो नियत्तड़ को एसी नंददेसिओ पायो ? । मुणिणा वि विगप्पे सहसा छारीकओ सो वि ॥१३॥ मरि सो जाओ बहुओ वोणारसीए नयरीए । भिक्खट्टाए पविट्टो दिट्टो सो तेण धम्मरुई || १४ || तोडि रममाणं मोत्तृणं कुणइ जाव उवसगं । पुव्यभववदरभावा तो तत्थ वि मारिओ तेण ||१५|| मरिणं संजाओ या तत्थेव सुमरिडं जाई । चिंतेइ तेण मुणिणा दी हं एत्तियभवेसु || १६ || इन्हिप जड़ उज्जा न हु होही रज्जसंपया मज्झ । पेच्छेमि तयं जइ ता तो हं खामेमि नियमेण ॥ १७॥ तज्जाणणानिमित्तं सङ्कसिलोगेण पुत्र्वभवचरियं ! निययं सव्वजणेणं पढावई तं सिलोगमिमं ||१८|| "गंगाए नाविओ नंदो, सभाए घरकोइलो । हंसो मयंगतीराए, सोहो अंजणपव्व ॥ १॥ वाणारसीए बडुओ, राया तत्थेव आगओ ।" एवं बीयसिलोगं, जो पूरइ तम्स पत्थिवो देइ । रज्जस्सऽद्धं अघोसियं च नयरीए तो लोगो ॥ १९ ॥ रइ सबुद्धिविहवाणुसारओ पच्छिमद्धमचणिवई । अणुसरह तयं दद्धुं न पच्चओ होड़ नरवणो ||२०|| अह धम्मरुई विहरिय अन्नत्थ समागओ तहिं वुत्थो । उज्जाणम्मि उज्जाणपालएणं पचिंतं ॥ २१ ॥ गंगाए नाविओ इ पयाई नियुणित्तु तेण सो भणिओ । वारं वारं परिपढसि कीस तं भद्द ! एयं ? ति ॥२२॥ सच्चो वि साहिओ तेण वइयरो तस्स मुणिय परमत्थं । तत्तो मुणिणा तं पच्छिममा पूरियं एवं ||२३|| एएसिं घायगो जो उ सो एत्थेव समागओ ॥२॥ ति तो तं संपुन्नपयं घेत्तूणाऽऽरामिओ निवस्यासं । पत्तो निवेइयं तं ददु राया भन्चिग्गो ||२४|| मुच्छासेण महिमंडलम्मि पडिओ तओ परियणेण । एसो असोक्खकारी पहुणी इय जायकोवेण || २५॥ पिट्टिज्जतो सो आह कव्वमेयं कयं मए नेय । किंतु महं समणेणं समप्पियं दुक्खमूलं ति ||२६|| उवलद्धचेयणेणं रन्ना उज्जाणपालओ पुट्टो । केण कथं कव्वमिमं ? सो भणइ वणम्मि मुणिण ति ||२७|| तो तत्थ निवो पत्तो रिसिणा वंद्रणय-खामणनिमित्तं । वंदित्तु खामिऊणं पडिवज्जिय सावगं धम्मं ॥ २८ ॥ संपत्तो नियभवणे मुणी विसरिऊण पुत्र्वदुच्चरियं । आलोइय पडिकंतो सम्मं गुरुपायमूलम्मि ||२६|| सुक्कज्झाणानलदडघाइकम्मिश्रणो विमलनाणो । निम्महियसेसकम्मो सासयसोक्खं सिवं पत्तो ॥ ३० ॥ ॥ नाविकनन्दाख्यानकं समाप्तम् ॥७५॥ इदानीं चंडहडाख्यानकमाख्यायते । तचेदम् — 1 अस्थि विसेसयनामो बहुसरसीरसियगोवयसमूहो । विंझो व्व समयसंगयकरकरिसयसंगओ गामो ॥१॥ अह तम्मि चेव गामम्मि दुम्मई वसइ करिसगो एगो । नामेणं चंडहडो भंडणवसो सहावेण ||२|| अह अन्नया य सरयम्मि सम्ससंपत्तिवन्नणिज्जम्मि । फलियम्मि तम्स खेत्तम्मि कहवि सुन्नम्म एगम्मि ||३ ॥ गामवल्ला कस्सविय संतिया किल कुओ वि हु पविट्टा । तेहि वि छुहाकिलंतेहिं भक्खियं बहुविहं धन्नं || ४ || द तयं पयईएकोहो पेच्छिउं च ते वसहे । पाहाण-कट्ट जट्ठीहिं निद्दयं हणियमारद्धो ||५|| भंजइसिस केसिपि खुरे मुहाड़ के सिंपि । रुहिरपवाहव्वाविय सव्वंगे मुयइ न तहा वि || ६ || कोहवसट्टो गलियं पि निवसणं मुणइ नेय तयवत्थो । विम्हरियप्पा वसहे पहरंतो सो गओ गामं || ७|| लोएणं सिक्खविओ भो भो ! किं कयमिमेहिं तुह पायें ? । जं पहणसि निस्संको निक्करुणो मुक्कमज्जाओ ||८|| १. वाराणसीए रं० । T For Private Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारे चण्डभडाख्यानकम् तुममें सामी मग्गसुखाई निएमु चबहारं । मुंचसु इमे बगए गोरुवे निञ्चिवे य ||९|| हो किमेवमेतियमप्पाणं नग्गयं ति नो नियसि ? । भणड् य नग्गमिमेसिं, सामी काहं न संदेहो ॥ १० ॥ एवं सिओ कोहंधी जाव चेयड़ न किंपि । तावाऽऽरक्खियपुरिसेहिं बधिरं गाढवंधेहिं ॥ ११ ॥ कारागिम्मि खित्तो घरि कवयदिणाणि सेहउं । हरिडं गिहसच्वस्सं मुक्को काउ' जहाजाओ ||१२|| ॥ चण्डभडाख्यानकं समाप्तम् ॥ ७६ ॥ उक्तं चण्डभडाख्यानकम् । अधुना चित्रसम्भूता[ख्यानक ] माख्यायते । तच्चेदम् साकेयनयर नायगचंडव डिंसयसुओ गुरुसमीचे । पचइओ मुणिचंदो अंडबीए सत्यपरिभट्टो || १ || दिट्टो गोवालयदार एहिं पडिग्गिओ य सो चउहिं । पडिबोहिऊण धन्मे सच्चे पत्वाविया तेण ||२|| पालिति समणधम्मं नवरं तेसिं चउण्ह मज्झम्मि | दो जाईमयमहमं कुणंति मणयं तओ मरिडं || ३ || उबवन्ना सुरलो भोत्तणं तत्थ अमरसोक्खाई । संचिणियनीयगोया चइउं वाणारसिपुरीए || ४ || रज्जे रन्नो संखम्स तम्स मायंगभूयदिन्नस्स । उववन्ना पुत्तत्तेण नामओ चित्त-संभूया ॥ ५ ॥ ते दो विरुवता दोन्नि वि मेहागुणेण संजुत्ता । दोन्नि व कलाण जोगा संजाया अट्टवारिसिया || ६ || एत्तोय नमुइसचिवेण किंपि अंते उरग्मि अवरद्धं । तो पच्छन्नो मारेउमप्पिओ तेसि जणयस्स || ७| चितियमिमिणा जड़ कहवि मह सुए एस गाहइ कलाओ । तो गोवेड रक्खेमि चिंतिउ पुच्छिओ एसो ||८|| तेवितं पडिवनं सव्वं पि हु मरणमीयहियएणं । भूमीहरयम्मि ठिओ पाढद ते दो वि तरस सुए ||९|| मायंगी चिहु किच्चं सव्वं पि हु भोयणाइयं कुणइ । तो तीए वि समं सो तहेव लग्गो 'अकज्जम्मि ||१०|| पत्तो वि हुतीए सह कहं सो अकज्जमायरइ ? । घिसि धिसि ! एयम्स अकज्जकारिया नयणहयगस्स ||११|| इविडियं पनि विग्गोवइ खलु विगोवियं पि जणं । मारेइ मारियं पि हु एस अणज्जो जओ भणियं ॥ १२ ॥ कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो दीनः पिठरककपालार्पितगलः । व्रणैः पूयक्लिन्नैः कृमिकुलचितैराचिततनुः, शुनीमभ्येति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः ॥ १३ ॥ मायंगेणमिमं पुण पच्छन्नं पि हु वियाणियं कह वि । नज्जइ चोरियरमियं गोविज्वंतं पि जेणुत्तं ॥ १४ ॥ चंद्रकला - हरमट्टी-चोरियर मियाई राइणो मंतो । सुट्ट वि गोविज्वंतं चउदियहे पाय होइ ||१५|| चितियमिमिणा संपइ पावमिमं सव्वहा वि मारिस्सं । पत्थावं लहिऊणं गुरु त्ति काउं पुण सुएहिं ॥ १६ ॥ नीसारिणमुक्को गंतुं हत्थिणपुरम्म अन्नाओ । जाओ पहाणमंती सणकुमारस्स चक्किस्स ||१७|| विहु मागया जोव्वण-लायन्न रूवसंपन्ना । जाया कलासु कुसला गीयकलाए विसेसेणं || १८ || अह अन्नया य पत्ते उम्मायकरे वसंतसमयम्मि | अंदोलयकीलासुं विलासिलोयम्मि कीलंते ॥१९॥ विविहासु चचरी गायंतीसु [] नायरजणेणं । तेसिं मायंगाणं नीहरिया चच्चरी तइया ||२०| गायंति गीयांना तीए मज्झम्मि चित्त-संभूया । नायरयचच्चरीओ तेसिं गीएण भग्गाओ ॥ २१ ॥ मायंगचच्चरीए मिलियाओ गीयपरवसमणाओ । मोत्तु छिप्पमछिप्पं जायं असमंजसं सव्वं ॥ २२ ॥ नाऊ वरमिमं पहाणपुरिसेहिं गंतु विन्नत्तं । रत्न्ना जह देव ! इमे मायंगा तुज्झ गायंति ||२३|| जत्थ तहिं सच्चो विहु हरिणजुवाणो व्व गोरिगीएणं । अक्खित्तमणो न मुणइ कज्जमकज्जं नयरिलोओ ||२४|| तं सोउं नरवणा गायंता चारिया समायंगा । रयणीए पच्छन्नं सुति चच्चरीगीयं ||२५|| निसुताणं तेसिं बला वि गव्वेण निभ्गयं गीयं । सुणिऊण सियालाण व सद्दियमुन्नाइयद्धणियं ॥ २६॥ तं नाणं रन्ना निययाणाइकमाओ रुट्टेणं । नियविसयाओ निव्वासिऊण ते दो वि पम्मुक्का ||२७|| १. किचम्मि रं० । २२१ For Private Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आख्यानकमणिकोशे चितियमिमेहिं तइया अहिमाणाओ मण सनिव्वयं । धिसि विसि ! अम्हाणमिमो कलाकाबाइगुगनियरी ॥२८॥ तथा 'हि रुवं सोहग्गगुणो पियभासित्तं कलासु कुसलत्तं । जाईए दोसेणऽम्ह निष्फलं कासकुसुमं व ॥२९॥ ता दुक्कियहणणत्थं कुणिमा किपि हु मुहं तवच्चरणं । जम्म वि जण एवं न भवामो परिभवट्टाणं ॥३०॥ इय वेरग्गगएहिं अइसयनाणी मुणी जहा दिट्टो । तेण जहा दिन्नवया कट्टाणुट्टाणतवनिरया ॥३१॥ दिट्ठा य नमुइणा जह विहियं संभूइणा जह नियाणं । जह पत्ता सुरलोयं चुया तओ माणुसा जाया ॥३२॥ तह सव्वं समयाओ विन्नेयं वित्थरेण विउसेहिं । इह गंथगउरवमया न सम्ममुत्तं जमम्हेहिं ॥३३॥ ॥चित्र-सम्भूताख्यानकं समाप्तम् ॥७७॥ अधुना मायादित्यकथानकमुच्यते । तच्चेदम् रेहइ जो बहुगोउलसयसंकुलभूरिगामनिवहेहिं । गामा सारयससहरबलवदेव उलवंद्रेहिं ॥१॥ देवउलाई वि निम्मलजलभररमणीयसरवरसएहिं । रेहति सरवराई वियसियसयकमलसंडेहिं ॥२॥ कमलवणाई वि मयरंदलुद्धपरिभमिरभमरनियरेहिं । भमरा वि हु मुइमुह्यरसमहुरझंकाररावेहि ॥३॥ महुयरझंकारा वि हु सया वि सवणेकरसियकुसलेहिं । सोयारा वि हु रेहति जत्थ गंधव्वियकलाहिं ॥४॥ एवं परंपराए गुणाण को लहइ तस्स पज्जन्तं । तियसालयसंकासो सो कासी जणवओ अस्थि ॥५॥ तम्मि य पासजिणेसरपयपउमपवित्तियावणिविभागा । निस्सेसनयरिगुणगामधाम वाणारसी नयरी ॥६॥ तीसे समीववत्ती सालिग्गामो समत्थि थिमियजगो । तम्मि य गंगाइच्चो निवसइ कोडुबिओ एगो ॥७॥ सो उण कुकम्मवसओ धणवइपरिपूरियम्मि गामम्मि । दारिद्दभरकंतो कुकम्मनिरओ सया वसइ ॥८॥ नियतणुरूवविडंबियमयरद्धयमाणवाण मज्झम्मि । सो च्चिय कुरूवयाए दिट्ठो दिट्ठीए देइ दुहं ॥९॥ पुव्वाभासि-पियंवय-कन्नामयवयगभासणरयाणं । सो चेवेगो उब्वेयकारओ नवरि भासंतो ॥१०॥ सरलेसु वि मायावी किवणो चाईण मज्भयारम्मि । मुकयन्नण कयग्यो विवहाणं मुक्खसेहरओ ॥११॥ मुद्धजणवंचणरओ मायाए चेव कुणइ ववहारं । तत्तो जणेण विहियं मायाइच्चो त्ति से नामं ॥१२॥ अह तम्मि चेव गामे दक्खिन्नमहोयही महिमनिलओ । सरलसहावो सज्ज गसिरोमणी साहुसिरतिलओ ॥१३॥ वसहाहिट्ठियदेहो अगतणयाहियमओऽभिहाणेण । थाणु त्ति विस्सुओ[...]संकरो अस्थि थाणु व्व ॥१४॥ जल-जलणाण व छाया-ऽऽयवाण वरमणि-चराडियाणं व । राहु-ससीण व तेसिं अमय-विसाणं व सुहिभावो ॥१५॥ संजाओ कहवि हु पुवजम्मअब्भत्थनेहरायाण । वारंतस्स वि लोयस्स सुद्ध-कलुसियमणाण परं ॥१६॥ अह अन्नया य नियसच्छयाए कलिएण थाणुणा भणिओ । मायाइच्चो मित्तोऽकलुसियचित्तेण कलुसमणो ॥१७॥ पुरिसत्थवजिएणं जाएण वि को गुणो मणूसेणं ? | चिंचापुरिसेण व मित्त ! मट्टियामयनरेणऽहवा ॥१८॥ धम्मत्थो तावऽम्हाण नत्थि सुहभावणाए रहियाणं । कामत्थो वि हु धणवन्जियाण दूरेण दुहियाणं ॥१९॥ अस्थोवजणकज्जे जुत्तो तावुजमो जमत्थेण । रहियाण माणवाणं निरत्थओ गुणकलावो वि ॥२०॥ जओ भणियं जाई रुवं विजा तिन्नि वि निवइंतु गिरिगुहाविवरे । अत्थो च्चिय परिवड्ड उ जेण गुणा पाय डा हुंति ॥२१॥ किंच अणहुंता वि हु हुंतीए हुंनि हुंता वि जंति जंतीए । ओ! जीए समं नीसेसगुणगणा जयउ सा लच्छी ॥२२॥ अवरं च दविणरहियस्स मित्त ! धम्मप्पियस्स वि गिहिस्स । इहलोय-पारलोइयकिरियाओ गलंति सयलाओ ॥२३॥ इय मित्तवयणमायन्निऊण मायापवंचमइनिउगो । जंपइ मायाइच्चो पहसियवयगो कुडिलहियओ ॥२४॥ जइ एवं ता चल्लमु जामो वाणारसीए नयरीए । तीए विहु धणयसमाणविवनागरयगेहेसु ॥२५॥ Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारे मायादित्यास्यानकम् २२३ खत्ताणि खणामो कणय-रयणऽलंकार भूसिए कन्ने । तोडेमो वणियवहूण दविणगंटीओ छिंदेमो ॥२६॥ काहामो बंदिगहं पभूयविहवाण वणियनिवहाणं । एवंविहमवरं पि हु तत्थऽत्थकए करिस्सामो ॥२७॥ एवं जत्तपराणं साहससहियाण बुद्धिमंताणं । एस वराओ अत्यो कत्तियमेत्तो किलऽम्हाणं ? ॥२८॥ एवं सोउं मयसमयमत्तकरिदंतघट्टियतरु व्व । करपल्लवे धुणंतो, तहिं पिहिन्तो य सवणजुयं ॥२९॥ मा मित्त ! वयणमेरिसमणंतभवभमणकारणममुद्धं । हियए वि धरसु सज्जण !, किमंग पुण वयण-किरियामु ? ॥३०॥ जेण परस्स विरूवं, जायइ परलोगवाहगं जं वा । तद्दारेणं ज होइ वंछियं तेण न हु कजं ॥३१॥ भणियं च अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलसङ्गतिम् । अनुत्सृज्य सतां मार्ग, यत् स्वल्पमपि तद् बहु ॥३२॥ ता अवरे वि उवाया अणेगरूवा धणज्जणे संति । तेहिं वि जायइ वित्तं पुन्नसहायाणं पुरिसाणं ॥३३॥ ते उण वाणिज्जकला किसिकम्मं गरुयराइणो सेवा । धाउव्वाओ वरदेवयाए आराहणाकरणं ॥३४॥ जलनिहितरणं पसुपालवित्तिया गिरिगुहापवेसो य । ईसरनिकम्मकरत्तमप्पणो विणयकरणेणं ॥३५॥ एमाइअणेगविहं अत्थोवजणकए अणुट्टाणं । ता किं भवओ भणिएण निदिएणं सैयाणाण ? ॥३६॥ तो भणइ तस्स मित्तो, हासेणं मित्त ! जंपियमिमं ति । न उणो मरणा वि अकजमेरिसं अहमणुट्ठिस्सं ॥३७॥ अत्योवजणहेउं तत्तो दोन्नि वि गया पइट्टाणे । तत्थ अणेगोवाएहिं विढवियं तेहि पउरधणं ॥३८॥ जा गणियं ता जाया, पंच्चसहस्सा सुबन्नजायस्स । पत्तेयं पत्तेयं दोन्हं पि हु दव्वसंखाए ॥३९॥ चिंतियमिमेहिं दव्वं कायकिलेसेण जायमम्हाणं । अन्नत्थ देसियाणं परं किमेएण ? भणियं च ॥४०॥ किं तीए सिरीए पीचराए ? जा होइ अन्नदेसम्मि । जा य न मित्तेहिं समं जं च अमित्ता न पेच्छंति ॥४१॥ ता गच्छामो संपइ नियदेसे तत्थ धम्मियजणाणं । नियसयणाण जहिच्छं नियलच्छि संपयच्छामो ॥४२॥ परमेयं चोरिभया निव्वाहेउं न तीरइ सुवन्नं । ता विणिवट्टिय लेमो महग्घरयणाणि एएण ॥४३॥ ताणि सुहं संगोविय मग्गे निजंति चिंतिऊणेवं । किणियाणि सुवन्नेणं सहस्समुल्लाणि रयणाणि ॥४४॥ तत्तो य मलिणजरचीवरस्स गंठीए बंधिउं ताणि । सुमुहुत्तम्मि पयट्टा गंतुं कप्पडियवेसेण ॥४५॥ मग्गे गच्छंतेणं मायाइच्चेण चिंतियमणिटुं । वंचेऊणं थाणुं गिण्हामि समग्गरयणाणि ॥४६॥ तो कवडेणं भणियं भो ! भिक्खाभोयणेण एएण । पव्वहिया पइदियहं मित्त ! वयं मग्गपरिसंता ॥४७॥ मुक्खत्तणेण अयं काउं कयविक्कयं न याणामि । ता आगच्छतु किणिऊण किं पि तं मंडयाईयं ॥४८॥ परमेत्थ नयरमझे न नज्जए केरिसो वि ववहारो ? । तो रयणकप्पडमिमं मह पासे मेल्लि जाहि ॥४६॥ तत्तो वंचणमइणा नयतरुकरिणा ....... कयसिरमणिणा । निद्दयवणिणा तेणं जं विहियं तं निसामेह ॥५०॥ तारिसयमलिणचीवरगंठिद्गे बंधिऊण पाहाणे । किर एयमप्पि गिहिऊण सेसं पलाइम्सं ॥५१॥ तो आगए तमप्पिय जामि अहं गोरसाइकज्जम्मि । तं परिवालसु एत्थेव निग्गए तम्मि इय भणिउं ॥५२॥ एसाऽऽगच्छइ मित्तो इय बहा खिजिऊण थाणुवणी। गेहाभिमुहो चलिओ सविसाओ मित्तवसणेण ॥५३॥ हा मित्त ! सुहय ! तं कत्थ दीससे ? किन देसि पडिवयणं ? । कत्थ गओ सि महायस ! संपई मोत्तममेगागीं ॥५४॥ जइ जीवंतो एही मह मित्तो ता इमं धणं तस्स । अह नो एही तम्माणुसाण गेहे समप्पिस्सं ॥५५॥ एवं थाणू वच्चइ मायाइच्चो वि दूरदेसम्मि । गंतुं जाव निरू.वइ पेच्छइ तावुवलगंटिदुगं ॥५६॥ . तत्तो झुरइ पलवइ कुट्टइ वच्छत्थलं मलइ हत्थे । दीहरनीसासे मुयइ दुम्मणो रुयइ चिंतइ य ।।५७|| जो अन्नस्स विरुयं चिंतइ तेणेव दुगुणतरगेण । सो हम्मइ कंडेण व पच्चुप्फिडिएण न हु भंती ॥५८|| भमडंतो महिवलयं भिक्खाभोई किलिट्टपरिणामो । मिलिओ मायाइच्चो कइया वि हु थाणुणो मग्गे ॥५९।। १. ०ण संताणं २० । २. सकर्णानाम् । ३. गंतू खं० । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आख्यानकमणिकोशे नो उकंठियहिया कंटम्मि विलग्गिउं परुन्ना मा । हा मित्त : मझ वल्लह ! कत्थ ठिओ एत्तियं कालं ? ॥१०॥ किं वा सुद-दुहजायं, मह विरहे विमहियं ताप मित्त ! ? । इय पुट्ठो मायाए मायाइच्चो पयंपेइ ॥६॥ अस्थि तुह स्यणदसगं समप्पिाउं पत्यिओ अहं तइया । गोरसकन्न तत्तो कम्मि वि गह पविट्टो हं ॥६२।। चोरो ति भणिय गहिओ आरक्खियसंतिपहिं पुरिसहिं । पविखत्ती गोतीए मुदक्विओ जाव चिट्ठामि ॥१३॥ भोयावणथमेगा तावाऽऽया मम मज्झिमा जुबई । तीए कहियं तं देवयाए गहिओ बलिनिमित्तं ॥६४॥ घरमझवाउलाणं जड़ कह वि विणिमाओ तओ लढें । तो हं भीओ लहिऊगमंतरं कह वि नीसरिओ ॥६५॥ इय नियवइयरजायं तुमए जं पुच्छ्यिं तयं कहियं । सुह-दुहकहणाओ अहं जाओ सुहिओ जओ भणियं ॥६६॥ मित्तहिं जाव न स्यं मुहं व दुवखं व जीवलोयम्मि । सुयणाण हिययलग्गं ताबऽच्छइ नद्धसल्लं व ॥६७|| एवं बच्चंताणं अडवी निम्माणुसा समणुपत्ता । तत्तो छुहाकिलंतो मायाइच्चं भणइ थाणू ॥६॥ गिण्हमु रयणाणि इमाणि मित्त! मह परवसस्स पडिहिंति । तो तेण हरिसिएणं घेत्तणं चिंतियं यं ॥६९॥ पुणरवि बंचमि इमं हत्थे चडियाणि मज्म रयणाणि । इय कलसिएग दिट्टो तगछन्नी कृवओ तत्तो ॥७०॥ अवह स्थिय चिरपरिचयमवगन्निय निय]कुलकमायारं । परिहरि पुरिसञ्चयमंगीकाउं नरयवडणं ॥७१।। उज्झिय नियमज्जायं विस्सरिउं मुहिसिणेहसम्भावं । परिचइ सदयत्तं दूरीकाऊग लायटिइं ॥७२॥ पविश्वत्तो पिनुगत्तगमवलंबिय तेगमंधकूवम्मि । सरलसहायो मित्तो कयग्यनिकिवसिरोमगिणा ॥७३॥ तत्थ वि पडिओ चितइ पक्खित्तो केण कृवमज्झम्मि ? । न मुणइ सरलत्तणओ थाणू जह मित्तकम्ममिमं ।।७४|| जावुप्पहेण चलिओ इयरो ता हण हण त्ति भणिरेहिं । भिल्लेहिं बंधिऊग मुक्को घेत्तण रयणाणि ||७|| अणुभव दुन्नयतरुणो कुसुमं रे जीव ! फलमिओ नरओ । इय भावितो चिट्टइ कुडंगिममम्मि पक्खितो ॥७६।। एत्तो सेणावइणा भणिया भिल्ला तिसाभिभूएण । भो भो ! जोयह नीरं ते वि भमंता गया तत्थ ॥७॥ जत्थऽच्छइ सो थाणू तणछन्ने कूवयम्मि पक्खित्तो । नीरं जाव निहालंति ताव निमुणंति नरसदं ।।७८॥ भो भो ! मं पहियनरं नरयसमाओ तमंधकृवाओ। उत्तारह केणावि हु पक्खित्तं करिय कारुन्नं ॥७९॥ तेहिं वि सेणावइणो कहिऊणं कडिओ निउत्तेहिं । पुढेण जहावुत्तं कहियं तेसिं नियं चरियं ॥८॥ भो भो ! एस वराओ पक्खित्तो तेण कूवए नृणं । रयणाणि दंसिऊणं सव्वं पि विणिच्छियं तेहिं ॥१॥ तेण वि मग्गंतेणं दिट्टो मित्तो कुडंगमज्झम्मि । नीसारिऊण तत्तो मग्गे गंतुं पयट्टा ते ॥८२॥ वच्चंता य कमेणं पत्ता पच्चंतगाममेगमिमे । तत्तो विचित्तयाए कम्माणमचिंतसत्तीए ।।८३॥ जाओ सुहपरिणामो मायाइच्चस्स एत्थ पत्थावे । चिंतियमिमिणा मह चेट्टियस्स घिद्धी ! विरूयम्स ||८४॥ ता केण पयारेणं मह सुद्धी होज पावमलिणस्स ? । इय चिंतिऊण पुट्टा गामकुलीणा विसुद्धिकए ॥८॥ तेहिं वि केण वि किं पि हु पावविसुद्धीए कारणं भणियं । जावंते सव्वहिं वि गंगान्हाणं समाइ8 ॥८६॥ तो तत्थ पट्टिएणं दिट्टो सिरिधम्मनंदणो सूरी । धम्म वागरमाणो भवाणं पावसुद्धिकए ॥८॥ तत्तो सो वि हु पुच्छइ पच्छायावेण दूमिओ भयवं ! । मह मित्तवंचणऽजियपावविलुत्तम्स किं ताणं ? ।।८८॥ पुब्बिल्लगामगामीणएहिं मह मेत्तदोहमलिणस्स । जल-जलण-तित्थाहाणाइएहिं किल दंसिया सुद्धी ॥८९॥ मुणिनाहो वि पयंपइ इमेहि पुणरुत्तपावजणएहिं । भद्दय ! न भवइ ताणं धुवमन्नाणियबहुमएहिं ॥१०॥ अइहररायकमरिकगलमुहकुहरमझवडियाणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तणाऽऽणं जिणिदाणं ? ॥२१॥ उभइदामा हागयजगडियगम्याभिमाणविहवाण । कत्तो ताणं ताणं मोत्तूगाऽऽणं जिणिदाणं ? ॥१२॥ पजलियकोहहुयासणजालावलिङझमाणहिययाणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तूगाऽऽगं जिगिंदाणं ? ॥९३॥ माणमहागुरुपब्वयचंपियनिम्मलविवेयगत्ताणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तूणाऽऽणं जिणिंदाणं ? ॥१४॥ मायादुट्ठभुयंगीवितवेयविलुत्तसुद्धबोहाणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तृगाऽऽणं निणिंदाणं ? ॥६५॥ Jain Education Interational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ २४. रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनाधिकारे मायादित्याख्यानकम् तिहुयणजगडगसंपत्तमहिमगुणलोहरायवसगाणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तणाऽऽणं जिणिदाणं ? ॥१६॥ भुवणत्तयसंतावयमच्चुमहारायवयणपत्ताणं । कत्तो ताणं ताणं मोत्तणाऽऽणं जिणिदाणं? ॥९॥ इय सोऊणं सम्मं मायाइच्चो पवन्नजिणधम्मो । आलोइऊण मायामहल्लसल्लं गओ सगं ॥२८॥ मायादित्याख्यानकं समाप्तम् ॥७८|| . इदानी लोभनन्द्याख्यानकमुच्यते । तद्यथा नयरम्मि वसंतउरे जियारिनामो नरेसरो आसि । तेणऽन्नया सरोवरमेगं कारावियं तत्थ ॥१॥ तम्मि उ खणिज्जमाणे कणयकुसा निग्गया मिउपणिद्धा । निवपच्छन्नं दिन्ना उड्डेहिं लोहनंदिस्स ॥२॥ विनायसरूवेण वि लोहऽग्गलिएण लोहमुल्लेण । गहिऊण तेण भणियं अवरे वि य मझ दायव्वा ॥३॥ ते वि अणुवासरं पि हु तस्स पयच्छंति अन्नया स वणी। नीओ बलिचंडाए मित्तेणं अन्नगामम्मि ॥४॥ गच्छंतेणं तेणं पयंपिओ नियमुओ जहा वच्छ ! । लोहकुसा दविणेणं बहुएण वि संगहेयया ॥५॥ ते आगया महग्यत्तणेण कुविएण सेट्टितणएण | ताणेगो उल्लालिय खित्तो अन्नायतत्तेण ॥६॥ पाहाणे अभिट्टो विघट्टिया मट्टिया तओ तस्स । दिवो य दित्तकंचणविणिम्मिओ रायपुरिसेहिं ॥७॥ भणियं च तेहिं चोरा वणियाणं दिति रायदविणमिणं । तो बंधिऊग खित्ता रायपुरो पुच्छिया तेण ॥८॥ हट्टम्मि कस्स कस्स य दिन्नमिणं ? ते भणंति नऽन्नस्स । मोत्तूण लोहनंदि सामि ! समग्गं पि तुह दविणं ॥६॥ पढमं पि हु जिणदासस्स दंसियं तेण गिण्हियं नेय । तो वाहरिय स पुट्ठो निवेण किं न हु तए गहियं ? ॥१०॥ तेणुत्तं सामि ! सया वयाणि मह संति ताणमेगयरं । भज्जद गिण्हिज्जंतो तेण इमं देव ! नो गहियं ॥११॥ तो तुट्टेण नरिंदेण पूइउं सो विसजिओ गेहे । लुसियमसेसगं पि हु गेहं पुण लोहनंदिस्स ॥१२॥ आणत्ता तम्गहणाय नियभडा भिउडिभासुरनिडाला । तेण वि आगच्छंतेण जाणिओ एस वुत्तंतो ॥१३॥ छिन्नं च कुढारेणं चरणजुयं एवमुल्लवंतेण | एएहिं पाविओऽहं अइघोरं आवई एवं ॥१४॥ सुहडेहिं तह वि एसो नीओ कुद्धेहिं रायपयपुरओ । तेणावि मारिओ सो दुम्मरणेणं विडंवेउं ॥१५॥ लोभनन्द्याख्यानकं समाप्तम् ॥७॥ इदानीं नकुलवणिज्याख्यानकमुच्यते उजेणीए पुरीए सहोयरा दोन्नि आसि वणियसुया । सिवसिवभद्दऽभिहाणा दुरंतदोगच्चसंतत्ता ॥१॥ दोन्नि वि दविणोवजणकज्जम्मि गया सुरविसयम्मि । दुक्खोवज्जियदविणं न उले काउं पडिनियत्ता ॥२॥ जइया जेट्टसयासम्मि नउलगो सो विचिंतए तइया । हणिऊण कणिटुं सव्वमेव गिण्हामि दविणमिमं ॥३॥ सिवभहस्स वि जायइ चिंता एसेव नउलसहियम्स । इय बुद्धिजुया नियनयरिपरिसरे दो वि संपत्ता ॥४॥ गंधवईए नईए दहम्मि परिभमिरमयर-तिमिनियरे । पयसोहणं कुणंतेण चिंतियं तयणु जेट्टेण ॥५॥ अत्थो धुवं अणत्थो जेण महामोहविसविमूढेण । पाणप्पियस्स वि मए विचिंतियं बंधुणो हणणं ॥६॥ ता अलमिमिणा नियजणविणासकरणेण पावरूवेण । इय चिंतिऊण नीरम्मि निवलओ खित्तओ तेण ||७|| भणियं तओ कणिट्टेण हा ! किमेयं तए कयं भाय ! ? । तेणुत्तमम्स दोसा मारिउमिच्छामि तं सहसा ॥८॥ तेणेस मए खित्तो दहम्मि तं निसुणिउं भणइ लहुओ। तुह मारणम्मि मज्झ वि आसि इमा लोभओ चिंता ॥६॥ ता बंधव ! सुट्ट कयं जमेस खित्तो तरंगिणीनीरे । इय भणिय हिट्टहियया नियगेहे दो वि संपत्ता ॥१०॥ तच्चरणसोयणाई काउं जणणीए तेसि लहुभइणी । मच्छाणमाणणत्थं ताण कए पेसिया हट्टे ॥११॥ एत्तो य निवलओ सो गिलिओ तिमिणा छुहाकिलंतेण । तत्तो य जालिएणं स मच्छओ गिण्हिओ तत्थ ॥१२॥ . १. गुणमोहराय -खं० २० । २३ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आख्यानकमणिकोशे ओउ विवणमज्झेकीओ भविय्व्वयाए सो तीए । वंजणनिमित्तमेईए छिंदिओ मंदिरे गंतुं ॥ १३ ॥ दिट्टो य नउलओ तयणु झत्ति मुक्को नियम्मि उच्छंगे। पच्छायंती तं पेच्छिऊ जणणीए सा पुट्टा ॥ १४ ॥ किं पच्छायसि वच्छे ! ? न किंपि इय तीए जंपिए जणणी । निस्संकियकरणत्थं तीए समीवम्मि संपत्ता ||१५|| मम्मट्ठाण चुल्हें तएण सहस त्ति तीए हणिया सा । तं निवतिं दट्टण दो वि तप्पासमल्लीणा ||१६|| भयकंपिए तीए सयासओ पडिओ । सो निवलओ तओ तेहिं चितियं हा ! स एवेसो ॥१७॥ तो दो वि विसन्नमणा भणति जं दूरमेव परिहरियं । तं पुरओ चिय जायं अहह ! महापावपरिणामो ॥ १८ ॥ लोहतिमिरंधनयणा जीवा सयणं पि सत्तठाणम्मि । पेच्छंति जओ एईए मारिया निययजणणी वि ॥ १६ ॥ ता एयारिससंतावकारयं परिहरितु गिहिवासं । इह-परभवहियकरणं तवचरणं किंपि काहामो ||२०|| इय पिऊण काउं मयकिच्चमसेसयं पि जणणीए । भइणीए तयं दाउं दचिणं तो दो वि गंतूणं ॥ २१ ॥ सुत्थियरिसमवे पञ्चइया चरियचारुतचचरणा । परिपालियसामन्ना दोन्नि वि सुगई समणुपत्ता ॥ २२॥ ॥ नकुलवण्याख्यानकं समाप्तम् ॥८०॥ रागाइदो सबसओ पत्ताणि जहा इमाणि दुहवसणं । तह अन्नो विहु पावइ ता एयविणिग्गहं कुणह ॥ १ ॥ हे धार्मिकाः ! प्रशमसम्भृतिमुक्तिवश्यान् रागादिशत्रुविसरान् कुरुत प्रयत्नात् । एते हि धर्मपथवर्तिनमप्यकस्मादुन्मार्गमङ्गिनिवहं नितरां नयन्ति ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाघ्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे रागाद्यनर्थपरम्परावर्णनश्चतुर्विंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥२४॥ [२५. क्षान्तिगुणवर्णनाधिकारः ] रागादिरिपोऽनर्थजनकत्वेन जेतव्या इत्यभिहितम् । साम्प्रतमुपलक्षणद्वारेण क्रोधरिपुजयलक्षणां क्षान्तिमाह स- परोभय गुणहेऊ खंती ता तं कुणेज्ज इह नाया । मुणि नंदिसेणा तह सीसो चंडरुद्दस्स ||३३|| अस्या व्याख्या – 'स्व-परोभयेषाम् ' आत्म-परोभयस्वरूपाणां 'गुणहेतुः ' गुणकारणं ' क्षान्तिः' क्षमा । 'तत्' 'तस्मात् कारणात् 'तां' क्षान्ति 'कुर्याद्' विदध्यात् । 'इह' अस्मिन्नर्थे 'नाय' तिज्ञातानि क्षुल्लकमुनि नन्दिषेणौ, 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'शिष्यः "" विनेयः ‘चण्डरुद्रस्य' चण्डरुद्राभिधानसूरेः इत्यक्षरार्थः । भावार्थोऽपि प्राक् प्रतिपादिताख्यानकेभ्यो ज्ञेयः ॥३३॥ जाणं खंती सपरोभयगुणपसाहिया जाया । अस्स वि तह जाय ता तीए जयह जहसत्ती ||३४|| क्षान्त्या सदैव मनुजाः सुरपूजनीयाः, क्षान्त्या भवन्ति भविनो भुवि माननीयाः । क्षान्त्या वसन्ति सुरसद्मसु शर्मभाजः, क्षान्त्या व्रजन्ति शिवतामिति तां कुरुध्वम् ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे क्षान्ति गुणवर्णनः पञ्चविंशतितमोऽधिकारः समाप्त ॥२५॥ For Private Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारः ] गुणहेतुः क्षान्तिरभिहिता । इमां च जीवदयावानेव प्रायो विधत्ते इत्यतो जीवदयागुणवत्तामाह-- दीहाउयाइहेऊ जीवदया इह परे य सुहहेऊ । सनुसुओ गुणमइया मेहो दामन्नगो नायं ॥३५॥ अस्या व्याख्या-'दीहाउयाइहेउ' त्ति भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य दीर्घायुष्कत्वादिहेतुः दीर्घायुष्कत्वं-चिरजीवित्वं आदियेषां नीरोगत्वादीनां गुणानां ते तथोक्ताः तेषां हेतु:-कारणं 'जीवदया' प्राणिदया 'इह' अस्मिन्नेव लोके 'परे च' परलोके च 'मुखहेतुः' सौख्यनिमित्तं भवतीति शेपः । दृष्टान्तानाह--'सडसुओ' त्ति गृहीताणुव्रतः परकूलसूपकारहस्तविक्रीतः श्रावक सुतः 'गुणमती च' श्रेष्ठिसुता 'मेघश्च' श्रेणिकराजयुतः 'दामन्नकश्च' मत्स्यबन्धकजीवः 'नायं ति प्रत्येक योजनीयम् इत्यक्षरार्थः ॥३५|| भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि धन्नउरग्गामे माणिभद्दसेट्टिम्स धम्मरुइ पुत्तो । सम्ममणुव्यय-गुणवयधारी सम्मत्तथिरचित्तो ॥१॥ जिणचलणकमलभसलो निच्चं गुरुपायपूयणे सत्तो । कइया वि सह वयंसेहिं निग्गओ गामबहिभागे ॥२॥ पत्तो य तकरहिं नीओ नयरीए सो अवंतीए । दिन्नो दविणेण नरिंदसूवगारस्स तो तेण ॥३॥ नीओ रसवइसालाए पभणिओ लावयाण हणणट्टा । रे ! ऊसाससु एए वंजणकज्जे नरिंदस्स ॥४॥ सो पाणिवहाईणं विरओ करुणापवन्नहियओ य । तो तेण पासयाओ छोडेउ लावया मुक्का ॥५॥ दिट्ठो य सूवकारेण जंपिओ किं तए इमे मुका ? सो भणइ तुज्झ वयणं मए कयं किमिह पुच्छाए ? ॥६॥ आवलिऊणं कंधरमिमेसि मोक्खं विहेमु बीयदिणे । इय सिक्वविउं तेगं समप्पिया तित्तिरा तस्स ॥७॥ बीयदिणे वि हु तेणं वंकं काऊण कंधरं निययं । उप्पाडेमुक्का उड्डेऊणं गया सव्वे ॥८॥ तइयदिणे गाढयरं निव्वुद्धिय ! मंसभक्खानिमित्तं । मारसु एए इय भणियमप्पिया लावया तम्स ||९|| जइ एवं ता सिट्टाण निदियं नरयकारणं घोरं । पाणच्चए वि नाहं करेमि एयारिसं पावं ॥१०॥ तत्तो य सूयकारेण आमुरुत्तेण ताडिओ बाढं । धम्मरुई धम्मरुई तह वि न मन्नेइ तन्वयणं ॥११॥ तो पुणरवि निठुरयरपहारनियरेहिं ताडिओ संतो । कंदतो गुरुसद्द मुओ महीसामिणा एसो ॥१२॥ वाहरिय सूवगारो पुट्टो किं एस कंदए करुणं ? । सो भणइ देव ! एसो विक्किज्जंतो मए गहिओ ॥१३॥ न कुणइ जीवविणासं ति ताडिओ निठुरं मए रुयइ । पुट्टो सो वि नरिंदेण किं न जीवे विणासेसि ? ॥१४॥ सो भणइ मए विहिया जावजीवं पि पाणिवहविरई । आह निवो न हु नियमो पलइ परायत्तचित्तीणं ॥१५॥ ता कुणसु पाणिघायं न हु मन्नइ सो तओ नरिंदेण । तस्स परिक्खनिमित्तं भिउडाभीसणनिडालेण ॥१६॥ ताडाविओ सुनिट टुरकसप्पहारेहिं तह विमण्यं पिन हु मन्नइ पाणिवहं तओ महादुट्टकरिपुरओ ।।१७|| पक्खिविभेसविओ संतो चिंतइ मणे महासत्तो । जीव ! तुह वेयणीयं कम्मं समुवट्टियं सहसु ॥१८॥ वरमत्थु मज्झ मरणं अक्खंडियनिययनियमजुत्तम्स । न उणो जीवविणासो चलम्मि जीयन्मि भणियं च ॥१६॥ एक्कास कए नियजीवियम्स बहुयाओ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे केइ ताण कि सासयं जायं ? ॥२०॥ इय चितंतो एसो भणिओ रन्ना न मन्नए जाव । तो नाओ नियनियम थिरचित्तो एस नरवइणा ॥२१॥ तो एस अंगरक्खगपयस्स जोगो त्ति चिंतिउं तेण । काऊण सप्पसाओं निवेसिओ अंगरक्खपए ॥२२॥ विम्सासठाणमेसो जाओ दिन्नो य तम्स वरदेसो । तं उवभुंजिय बहुकालमसमरिद्धीए संजुत्तो ॥२३॥ Jain Education Interational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आख्यानकमणिकोशे पासे केसि पि गरुण गिहि दिक्खमुत्तमं तत्तो । कयतिव्वतवच्चरणो कमेण सुगई समणुपत्तो ॥२४॥ ॥ श्राद्धसुताख्यानकं समाप्तम् ॥१॥ इदानीं गुणमत्याख्यानकं व्याख्यायते नयरम्मि मुसन्मपुरे राया ससिसेहो हरी व्व तहिं । निवसइ धणाभिहाणो नरवाणो सम्मओ सेट्टी ॥१॥ नंदो व्व गोउलपिनो गयणाभोओ व्व सुहयमुणिचंदो । भव्यो व्व गुणमइसुओ नयवं व सुसंपयाधरओ ॥२॥ मुणिचंदनिविसेसो कम्मयरो थावगे थिरप्पयई । सव्वं पि हु घरचितं चिंतइ चउरो चिचित्तं पि ॥३॥ अह अन्नया य सेट्टी तिहुयणसाहारणेण मरणेण । धणवं पि धणो निहणं नीओ धणियं अधणिउ व्व ॥४॥ मुणिचंदो सेट्टिपयं परिपालइ गुणमई वि जिणधम्मं । सा उण असंपया संपया वि जाया कुकम्मवसा ॥५॥ विनडिज्जंती अवसेहिं इंदिएहिं दिणं पि राई पि । अन्भत्थइ थावरयं विसयत्थे सुत्थयाहे ॥६॥ सो उण तह वि वराओ मयणंसू गालुओ जसोकामी । भणइ य विरूवमम्मो ! वयणमिणं जं तुमं वयसि ॥७॥ तं मह जणणी अहयं तु तुह सुओ विस्सुयं जणम्मि इमं । ता अंब ! इममकज्जं न जंपणीयं न करणीयं ॥८॥ अन्नच गेहसामिम्मि विजमाणम्मि अंब ! मुणिचंदे । एरिसमकज्जमेवं किज्जतं केरिसं ? कहसु ॥३॥ तीए भणियं एयं सुत्थं सव्वं करिम्समवरं च । गिहसामित्तमयाणुय ! किमेवमंगीकरेसि न तं ? ॥१०॥ इय तं मन्नावेउ मायाबहुलाए जं समारद्धं । आयन्नह तमयंडे सा पावा रोविलग्गा ॥११। कि अम्मो! स्यसि तुमं ? पुट्ठा मुणिचंदसेट्टिणा सव्वं । तीयुत्तं नियकज्जं सीयंतं वच्छ ! रोएमि ॥१२॥ तेणुत्तं केरिसयं ? कवडेणं सा पयंपइ सक्खं । दुद्धाइ गोउलाओ तुह जणओ वच्छ ! आणतो ॥१३॥ तं पुण पमत्तचित्तो करेमि ता किमिह गोरसेण विणा । सयणाईयं कज्ज ? तेणुत्तं मा वय विसायं ॥१४॥ सयमाणिस्सामि इहं तो तीए गोउलम्मि पेसविओ । थावरएणं समयं नाऊणं गुणमईए इमं ॥१५॥ सिक्खविओ मुणिचंदो होयव्वं निच्चमप्पमत्तेणं । न मुणसि मुद्धत्तणओ नियजणणीविलसियं तुमयं ॥१६॥ सो वि हु खग्गागरिसणपमुहं थावरयचेट्टियं मुणिउं । सुटुयरं अपमत्तो पत्तो नियगोउलम्मि तओ ॥१७॥ पडिवत्ती सव्वा वि हु विहिया गोउलियसामिणा तस्स । सामि त्ति मुणिय सेज्जा रइया रयणीए गिहमज्झे ॥१८॥ तेण वि भणियं बहुदिवसदिट्ठसंखाणजाणणनिमित्तं । गोरूवाणं गोवाडयम्मि सोविस्समज्जमहं ।।१९।। तह विहिए रोजाए खोडिं पच्छाइऊण वत्थेणं । सयमेगंते थक्को जग्गंतो खग्गवग्गकरो ॥२०॥ जाव य थावरएणं खग्गपहारेण आहया खोडी । ता हकिऊणमियरेण मारिओ खग्गघाएण ॥२१॥ लोयाववायरक्खत्थमेस निकालि ऊण गोवग्गं । पोकरइ मारिऊणं थावरयं निति गावीओ ॥२२॥ एए चोरा तो वालियाओ गावीओ कुढियवग्गेणं । सयमारुहितुरयं तुरियं पत्तो निययगेहं ॥२३॥ जणणीए थावरए पुढे कहियं समेइ मग्गम्मि । तो संकियाए तीए पिपीलियासरणओ कहवि ॥२४॥ थावरयरत्तरत्तं तीए थावस्यरत्तरत्ताए । खच्छंखच्छाए दिट्टमसिवरं समिवपावाए ॥२५॥ मुणिचंदसिरं छिन्नं तीए तेणेव तयण खग्गेणं । चक्केण राहुसीसं व विण्हुमुत्तीए रुट्टाए ॥२६॥ मुणिचंदमहेलाए विणासिया सा वि तेण खग्गेणं । तह चेव ठिया तं नियइ गुणमई पाणिवहविरया ॥२७॥ मिलिए लोए सव्वो वि वइयरो गुणमईए सो कहिओ। धन्ना सलक्खणा तं सि संसिया सा वि लोएणं ॥२८॥ ॥ गुणमत्याख्यानकं समाप्तम् ॥८२॥ अधुना मेघाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् वायरणं व गुणाहियमुसद्दसंगयवियाररमणीयं । निम्मलवन्ननिवेसणपसाहियं चित्तयम्मं व ॥१॥ विस्मयणगविणायगमेगविणायगगुणज्जियजसोहं । जमणेगहरविराइयमेगहरं हसइ कइलासं ॥२॥ १. सार्द्धसुता० प्रतौ। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारे मेघाख्यानकम् २२६ नाणाविहवत्थव्वयदिय-खत्तिय-वणियवासगेहं व । नयवंतसगुणजणमंदिरं पि पुरमत्थि रायगिहं ॥३॥ तं पालइ समरहिओऽसमरहिओ गुरुपरक्कमावासो। वीसं पि हु पसरियपवरसेणिओ सेगिओ राया ॥2॥ जो साहीणमुहत्थी परमरहो पउरमुहयपरिवारो । विस्मुयमुहडसमूहो चउरंगबलो उभयहा वि ।।५।। तम्स य सुनंद-चेल्लणपहाणओरोहमझियारम्मि । सव्वंगसुंदरंगी समस्थि सिरिधारिणी देवी ॥६॥ जा हरइ मणं सारयसिरि व्व निम्मलनहा विरायंती । तह य सलक्खणचरणा जणपुज्जा वेयकिरिय व्व ||७|| सुघडियपवित्तजंघा पासायपरंपर ब्व मणदइया । परमोरुजुया रेहइ रहवरगइ व्व रमणीया ॥८॥ सुकुमार-सुहयरमणा नवजोवणललियकलियविलय व्व । जिणमुत्ति व्व गभीरा परमयसमणे हिया सहइ ॥९॥ लच्छि ब्व मयणमुहया सया वि परमोयरा विसालच्छी । लायन्नललामरसा सुहथणिया मेहमाल व्व ॥१०॥ वेल्लहलललियवाहा पयंडनरवरनिउत्तसेण ब्व । रामसह व्व समंता सुम्गीवा यिसयाण सुहा ॥११॥ कउरवभडयणसेणि व्व सव्वया सहइ सरलसुहकन्ना । जिणदेसण व्च भविययणसवण-मणसुयमुहवयणा ॥१२॥ विलसिरनिद्धसुरयणा भाइ पुरंदरमहापुरवरि व्व । निम्मलविसुद्धदिट्टी सिवमुहह्मणसमणकिरिय व्व ॥१३॥ निव्वणनिद्धनिडाला निरुवहयपहाणपायवालि व्व । विलसिरसरम्मवाला सपुन्नपुन्नायनारि व्य ॥१४॥ एवं किर को सक्कइ तीए पइअवयवं सरीरगुणं । वन्ने विन्नो वि हु अच्चभुयपवररूवाए ? ॥१५॥ तम्सऽत्थि पवरपुत्ता अभओ नामेण नायपरमत्थो । मज्झम्मि महामंती पंचण्ह सयाण मंतीणं ॥१६॥ बुद्धीसु चउसु चउरो निउणो चउमुं पि रायनीईसु । सव्वकलाण वराए धम्मकलाए विसेसेणं ॥१७॥ आरोवियरज्जभरो सो तम्मि सुयप्पहाणमंतिम्मि । उवभुंजतो विसए निञ्चितो गमइ दियहाइं ॥१८॥ अह अन्नया य पासिय सुहसुमिणं धारिणी महादेवी । सुमिणम्स फलं नाउं निवपासे जाइ मुइयमणा ॥१९॥ इटाहिं पियाहिं सुहाहिं चित्तपल्हायणाहिं कंताहिं । मउयाहिं मणामाहिं सयथजुत्ताहिं वायाहि ॥२०॥ आलवमाणी विणएण सेणियं हिययवल्लहं रायं । सणियं साणयं सणि पाम या मल्लियइ मणदइया ॥२१॥ निसियह समणुन्नाया निवेण नियडम्मि पायवीढम्म । सप्पणयमभिप्पायं कयप्पणामा भणइ देवी ॥२२॥ अहमज्ज तम्मि पहु ! तारिसम्मि मुमणुन्नवासभवणम्मि । मणि-रयणपहानासियतमंधयारम्मि रुइरम्मि ॥२३॥ दोसु वि पासेमु समुन्नयम्मि मज्झे गभीरविणयम्मि । सुकुमालतूलि-गंडोवहाण-आलिंगिणिजुयम्मि ॥२४॥ सयणम्मि पसुत्ता सुत्तजागरा किं पि किं पि सुहनिदा । सुमिणमिमं पासित्ता ससंभमा सामि ! पडिबुद्धा ॥२५॥ सत्तंगसुप्पइट्ट तुसार-ससहरवलक्ख चउदंतं । संगय-समुन्नयकरं समम्गलक्खण-गुणोवेयं ॥२६॥ किर गयणादवयरिउमयसलिलपवाहधोयगंडयलं । वयणम्मि पविसमाणं गयमेगं सामि ! पासामि ॥२७॥ ता सामिय ! किं मन्ने होही मह फलमिमस्स सुमिणस्स ? | भणइ निवो एस पिए ! पहाणसुमिणाण मज्झम्मि ॥२८॥ ता ओरालो सुमिणो कल्लाणकरो य मंगलकरो य । वंससमुन्नइजणगो पयइपहाणो इमो सुमिणो ॥२९॥ तं अम्हं कुलके कुलसेउं कुलवडिंसयमुयारं । कुलकित्तिकरं कुलविद्धिकारयं कुलपसाहणयं ॥३०॥ अद्धट्टमदिवसाणं नवन्ह मासाणमुवरि वरपुत्तं । दिणयरमिव पुवदिसा देवाणुपिए ! पयाइहिसि ॥३१॥ सो वि हु परिवई तो तणुवचएणं कलाकलावेणं । होही नाहो पुहईए भावियप्पाऽणगारो वा ॥३२॥ तं वयणं सोऊणं धारऽभाहयकयंबपुष्पं व । ऊससियरोमकूवा संवुत्ता धारिणी देवी ॥३३॥ भणइ य देव-गुरूणं पयप्पसायाओ जं तए भणियं । तुम्ह पभावाओ वा होही सव्वं पि मह एवं ॥३४॥ इय सुयसूयासंजायहरिसपप्फुल्ललोयणा देवी । वत्थंचलम्मि सहसा बंधइ वायास उणगंठिं ॥३५॥ तत्तो सेणियकता परिणममाणम्मि तइयमासम्मि । असरिसपुन्नाहियमुकयलभगम्भाणभावाओ॥३६॥ कुणइ मणे दोहलय गम्भट्टियजीवविलसियसरुवं । इममेयारिसरूवं पुरिसासझं तयं सुगह ॥३७॥ १. डलयं खं० । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आख्यानकमणिकोशे धन्नाओ ताओ पुत्ताण मायरो ताओ सुकयपुन्नाओ । कयलकखणाओ ताओ विद्वत्तसच्चरियविभवाओं ॥३८॥ नगु तासिमम्माणं सुद्धमिह जन्म जावियफलं च । जाओ विविविभूसभूसिय सेयमारूढा ||३९|| सह सेणिगण रन्ना धरियमाणेण मेयछत्ते । अभुन्नएयु अभुग्भासु पणवन्ननेहेषु ||४०|| सप्फुसिए सुहगज्जिएस निव्वचियमेणितलेसु । पुरर्तिग चक्क चच्चर-चउम्मुहेसुं निवसुं ॥ ४१ ॥ आरामे वर्ण उज्जाणे सकाणणवरे । वेभारगिरिगुहासु सकंदरा दरीसु च ॥ ४२ ॥ वियरंति जहिच्छाए वियरंतीओ मणुन्नमसणाई । तह विवित्थ तंबूलपभिपणइयणवरंग ||४३|| नायरयजणावरिया महरिह-मणहरमहाविभूईए। पूरेमि मणीवंछियमहमचि जइ कहचि एवमिमं || ४ || तो तमिमणाभिमए अपूरमाणम्मि भिज्जिउ लग्गा । पइदिवसमसियपत्रखम्भि चंद्रमुत्ति व्व विच्छाया || ४५|| तो सेणिएण पुट्टा साहीणं बिहु समत्थवत्थुम्मि । किसिया कोस किसायरि ! साहसु किंपि हु मणोभिमयं ॥ ४६ ॥ तो साहियम्मि तीए नियगम्मि मणोरहम्मि नरनाहो । आयमुचायं वा तस्स साहगं कमवि अनियंता ॥४७॥ परिसिढिलियरज्जवुरो पडिओ चिंतामहासमुदम्मि । किंकायव्यविमूढो चिट्टइ नं हरियस वस्सो ॥ ४८ ॥ ताव य अभयकुमारो पत्तो पिउपायपणमणनिमित्तं । वक्खित्तमणत्तणओ नाऽऽभट्ठो न वि य विन्नाओ ॥ ४६ ॥ तो पुच्छियमभएणं तुभे मं ताय ! अन्नया इंतं । आभासह आमंतह निसियावह निययउच्छंगे ॥५०॥ जिग्घह सिरम्मि अद्धारुणेण तुट्टा य मं निमंतह । ओहयमणसंकप्पा । किं झायह अज्ज ? मे कहह ॥ ५१ ॥ रन्ना भणियं सम्मं वियाणियं वच्छ ! मज्झ सुन्नत्तं । जं चुल्लमाउयाए संजाओ दोहलो एस || १२ || जत्थ न पसरइ बुद्धी न याचि संक्रमइ पोरिसं मज्झ । न य विहवेणं सिज्झइ तो तच्चिताए सुन्नो हं ॥५३॥ अभणतओ भणियं कज्जमिमं तुज्झ ताय ! विसमं पि । साहिम्समहं ताओ निराकुलो संपयं भवउ || १४ || तत्तो पो सहसा लाए पुव्वसंगइयगरुयदेवस्स | आराहणत्थमारुहइ दव्भसंथारयं अभओ || ५५ || ता परिणममाणम्मि अट्टमे सुद्धाणसहियस्स । मणि-रणयभासुरं दिव्वमासणं चलियममरस्स || ५६ ॥ तत्तो रवियरभासुरकिरी डकुंडलपहा कडप्पेण । उज्जीयतो गयणं पाउनूओ पुरो अमरो ॥ ५७ ॥ साहिकामोत्थुपओयणं अभयसंगइपहाणो । पयडपयावो अमरो गयणगओ सहइ सूरो व्व ॥ ५८ ॥ गरुयपयावोऽभयवंछियत्यनिप्फायगो अमररूयो । मेहकुमरस्स रेहड् भविस्सतवतेयपुंजो व्व ॥ ५६ ॥ सो वि हु विरइयकरकमलसंपुडो भइ सप्पणयमभयं । भो भो ! भणसु महायस ! किं सरिओ हं तए अज्ज ? ॥६०॥ ताभण जमभिरुइयं किं रज्ज देमि ? किमरिसंदोहं । तुह निट्टवेमि ? किमवरमसज्झमिह किंपि साहेमि ? ॥ ६१ ॥ तं सुणिऊ जंपियमभरणमकालमेहदोहलओ । जाओ मह मायाए तो तं पूरसु महाभाग ! ||६२ || एवं करेमि भणिऊण सुरवरो सो तिरोहिओ सहसा । तत्तो अर्चितदेवप्पभावओ मेहपडले ||६३ || कत्थविय सामवन्ने मइलियं निम्मलं पि गयणयलं । गरुओ वि हु मइलिज्जइ अहवा मलिणेण न हु भंती ॥६४॥ रेहइ घणेण जह रायवट्टवन्नेण गयणवित्थारो । तह सेणिओ चि गुणवंतभाविषु तप्पसूणं ॥ ६५ ॥ अवरत्थ सरसजासुयणरत्तवन्नेण जलयविंदेणं । अप्फुन्नं गयणयलं भुवणं व निवाणुराणं ॥ ६६ ॥ कत्थ विय सुवन्नसमुज्जलेण जह सहइ नहयलाभोओ । मेहेण विमलगव्भट्टिएण तह सेणिओ राया ॥ ६७ ॥ अन्नत्थ बलाह्यमिलणविउणधवलेण धवलियं गयणं । जलएणं धवलिज्जड़ निम्मलवन्नेणऽव सव्वो ||६८|| इय सप्पवंचवन्नेहिं मालियं वित्थयं पि गयणयलं । जलएहि जयं व गुणेहिं सिरिमहावीरनरवणो ॥ ६९ ॥ सेयण गाढा ताहे सा विहरिया जहिच्छाए । सम्माणियदोहल्या सुहेण गर्भ समुह ॥ ७० ॥ समुचचियंगा-ऽवयवं पुन्नाहियपुहइपालरज्जं व । लवणमहोयहिनीरं व सरसलायन्नरमणीयं ॥ ७१ ॥ सारयदिणदिणमणिमंडलं व विष्फुरियतेयपत्रमारं । नाणयपारिक्खियमंदिरं व सुहरूवयमन्नं ॥७२॥ सूरजणचंभणिज्वं गुणन्नियं वरधणु व सुहवंसं । माणससरं व जीसे सहइ सरीरं विसालच्छं ||७३ || For Private Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जीवदयागुणवणेनाधिकारे मेघाख्यानकम् २३१ तीसे सिरिमवलोइय नयरं सव्वं पि वियसियच्छि-मुहं । जायं खलो व्व एक्कं साममुहं नवरि थणजुयलं ||७४|| सणियं निसियइ सणियं च सयइ सणियं च कुणइ चंकमणं । मणिकुट्टिमम्मि चियणे चिट्टइ निरुबद्दवे ठाणे ॥७५।। जं नाइतित्तमसणं न यावि कडुयं न यावि अइअंबं । जं नाइसीयमुण्हं वेलाइक्कमविमुकं जं ॥६॥ जं तम्स पुट्टिजणयं वुड्डियरं जं च तस्स गभस्म । जं च हियं जं च मियं परिणाममुहं च जं तम्स ||७७॥ उउसमयमुह्यफासं वत्थुज्जलरयणकंबलाईयं । काले देसे य तयं उवभुंजइ बज्जियविसाया ||७|| मुक्कजहिच्छायारा चेट्टइ सव्वं पि तयणुरोहेणं । विलयायणस्स गन्भो अहो ! पिओ भणियमेयं पि ॥७९॥ दुद्धं गम्भो तूरं घुसिणंऽजण-कत्तणं च पिसुणत्तं । पाएण महिलियाणं इट्टाई भवंति लोयम्मि ॥८॥ तत्तो नवण्ह मासाणमुवरि अद्धट्ठमाण य दिणाणं । नियदेहकतिपदभारभरियनिस्सेसदिसिवलयं ॥८१॥ सुकुमालपाणि-पायं लक्खणपडिपुन्नविग्गहाऽवयवं । कंतं पियं मणुन्नं नियवंससमुन्नइकरं च ॥८२॥ बुहयणपसंसणिज्जं समुच्चकुल-गोत्तसंसियं सुयं । पुव्वदिसा दिणनाहं व पुत्तरयणं पसूया सा ॥८३॥ तत्तो य रभसवसपक्खुलंतपयपाय-तुरियगमणवसा । परिसिढिलियपरिहाणा सिरसंसियउत्तरीया य ।।८४॥ हिययभंतरह रिमुभवंतजणसुहमणोरहा धणियं । बद्धावइ निवचेडी पियंकरानामिया निवइं ॥८५॥ तो सो जमंगलगं वत्थाऽलंकारजायमइरुइरं । तं से सव्वं पि हु पारितोसियं देइ दासीए ।॥८६॥ तं कुणइ मत्थयं धोविऊण परिवारमझयारम्मि । पियभासणाओ तुट्टो वियरइ य सुवन्नमयजीहं ॥७॥ अह पुत्तजम्मसवणुब्भवंतसव्वंगपयडरोमंचो । आणंदियनायरयं कारवइ महूसवं राया ॥८॥ तं जहा गंभीरमहुरवज्जिरचउबिहाउज्जरावरमणीयं । नच्चिरवारविलासिणिरंजियपेच्छयवियड्डजणं ॥८९।। कलकंठविविहगायणगोयरवावहियछेयजणनिवहं । उद्दामसद्दमागहपढिजमाणाणवजगुणं ॥९०॥ अहिणवपल्लवविरइयवंदणमालामणुन्नगिहदारं । उन्भिजमाणचंदणचच्चियबहुजूय-मुसलसयं ॥९१॥ पउमप्पिहाणजलपुन्नपुन्नकुंभाभिरामघरदारं । वंसुग्गयविद्धाकिजमाणबहुभेयसुयरक्खं ॥९२॥ अणवरयतेल्लतुप्पिज्जमाणचट्टालिविहियहलबोलं । करकमलकलियचोक्खक्खवत्तनवरमणिरमणीयं ॥१३॥ पियवयणभणणपुत्वजमुद्दालिज्जंतविविहविंटलयं । उत्तालभमिर-धावणहासाविजंतजणनिवहं ॥४॥ खजंतविविहफल-भक्ख-भोज-तंबोलतुट्ठसयलजणं । सोहिज्जमाणगरुयावराहजणपुन्नेगोत्तिगिहं ॥२५॥ चिरकालं नरवर ! नंद जीव तुह होउ सयलकल्लाणं । कुलरिद्धि-विद्धिजणओ जस्स सुओ एरिसो तुज्झ ॥९६|| तुह वद्धउ रायसिरी तुह संपइ रट्टवद्धणं होउ । ओरोहविलयविसरो पुन्नाहिय ! वयउ तुह विद्धिं ॥९७॥ चउरंगवलसमिद्धी वद्धिम्सइ तुझ सेणियनरिंद ! । तुह विविहवाहणाणं समुन्नई मुहय ! साहीणा ॥९॥ तुह नरवइ ! वद्धउ वइरिविसरदुसहो परक्कमपयावो । तुह सारयससहरकरवलक्खजस-कित्ति-गुणविद्धी ॥१९॥ मणहरमणि-रयणविभूसणाई नेवच्छरुहरदेहाई। पविसंति पाउलाई इय आसीवायमुहलाइं ॥१०॥ राया वि विविहमणि-रयण-कणय-करि-तुरय-रहवराईहिं । सामंत-मंति-पउराण देह दाणं पहिट्ठमणो ॥१०१॥ तेहिं पि दिजमाणं पडिच्छए तुरय-करिवराईयं । सुयजम्ममहसवविद्धि करणपरिवद्धियाणंदो ॥१०२।। इय गरुय-विविहविच्छड्पयरिसुप्पन्नपउरसंतोसं । पमुइयपकीलियजणं वद्धावणयं कयं रन्ना ॥१०३॥ अह नामकरणदिवसे पुणरवि य महामहूसवं राया । कारविय देइ नाम गुणनिप्फन्न तयं तु इमं ॥१०॥ जम्हा इमम्मि गम्भे गयम्मि माऊए मेहदोहलओ । जाओ तम्हा एयम्स होउ मेहो ति मुहनामं ॥१०५!! तो सो विवुहाणंदो सरीरसोमत्तनिव्ववियभवणो। चंदो व्व मुक्तपक्खे परिवद्धइ नयण-मणमुहओ ॥१०६।। नाऊण नरवरिदो मेहकुमारं कलागहणजोग्गं । मइ-मेहागणपडयं मणयं मुव्वत्तविन्नाणं ॥१०७|| १. शिरःस्रस्तोत्तरीया । २. गुप्तिगृहं कारागृहम् । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आख्यानकमणिकोशे काऊणं सियचंदण-वत्थाऽलंकारभूसियसरीरं । विज्जा-विभूइकारयतिहि-वार-मुहुक्त-करणे ॥१०८॥ जत्तेण कलायरियं वत्था-ऽऽहरणा-ऽऽसणाइणा सम्मं । सक्कारिऊण सम्माणिऊण तम्सऽप्पए विहिणा ॥१०९॥ तो निवसिक्ववणाओ तहा कलायरियकयपयत्ताओ। नियजोग्गयागणाओ भविस्सकल्लाणभावाओ ॥११०॥ नइनाहं व नईओ सोहग्गगुणा हियं व तरुणीओ। नयवंतं व सिरीओ विणयनिहिं वा पसिद्धीओ ॥१११॥ सम्गा-ऽपवम्गसुहवित्थराणि जह संकमंति धम्मजुयं । तह मेहकुमारं पि हु कलाओ सयलाओ संकंता ॥११२॥ तत्तो तरुणीहरिणीण वागुरासममणंगनरवइणो । लोला-विलासगेहं व रूयसव्वस्सभवणं व ॥११३॥ सोहम्गसंपयामंदिरं व लायन्नधणनिहाणं व । विभम-विलास-विन्नाण-नाणनायरयनयरं व ॥११॥ निम्सेसगुणारोहणपहाणपासायमुन्नयमणाणं । कप्पियकप्पदुमकप्पमप्पपुन्नाणमइदुलहं ॥११५॥ पोरिसपयावपयरिससिक्खादिक्खागुरुं गरुयगव्वं । तारुन्नं तारुन्नयसरीरसोहं समणुवत्तो ॥११६।। तओ य लायन्नामयकुल्लाओ असमसुंदेरनीरसरिसीओ। सिंगारतरंगतरंगिणीओ रइसोक्खखाणीओ ॥११७|| कुम्मुन्नयचरणाओ मंसल-बटुलसुबत्तजंघाओ । रंभाखंभोरुयवित्र्भमाओ नइपुलिणरमणाओ॥११८॥ गंभीरनाहियाओ वलिरेहिर-मुट्टिगेज्झमझाओ । उन्नयपओहराओ मुणालवेल्लहलबाहाओ ॥११९॥ रेहारेहिरकंठाओ बिंबअहराओ कुंददसणाओ। पुन्निमससिवयणाओ वियसियसयवत्तनयणाओ ॥१२०॥ धणुकुडिलभूलयाओ पुन्निमचंदद्धसमनिडोलाओ । रइअंदोलयसवणाओ सिहिकलावाहकेसाओ ॥१२१॥ उत्तमकुलुभवाओ लक्खणपडिपुन्नमणहरंगीओ। निम्मलकलाकलावाओ महुर-मिउभासिणीओ य ॥१२२॥ समरू वजोव्वणाओ तुल्लालंकाररुइरवेसाओ । मेहं सेणियराया परिणावइ अट्ट कन्नाओ ॥१२३॥ तो परिणयणाणंतरमुदारयागुणविभूसिओ राया । वियरइ वरपासायं सव्वासिं तासिमेगेगं ॥१२४॥ एवं सो विसयसुहं भुंजतो ताहिं अट्टहिं समेओ । दोगुंदुगो व्व देवो गयं पि कालं न याणेइ ॥१२५॥ मइया वि सत्थविसयं वियारमन्भसइ छेयनरसहिओ । कइया वि विविहकरणंगहारकलियं च नट्टविहिं ।।१२६॥ कइया वि सरसपत्तयछेयं कइया वि चित्तयम्मविहिं । कइया वि सत्तसरगाम-मुच्छणाकलियगीयविहिं ॥१२७॥ कइया वि तुरयसिक्खं कइया वि हु हत्थिसिक्खमायरइ । कइया वि मुट्ठिजुद्धं कइया वि हु मल्लजुद्धं च ।।१२८॥ कइया वि वारविलयापेक्खणयासत्तमाणसो सययं । नियपासायपरिंगओ नायरयजणाण सुहजणओ ॥१२९॥ भो ! केरिसो वि देवो न याणमो एस नित्तलं देवो । इय जणयंतो बुद्धिं विसिट्टलोयाण सो ललइ ॥१३०॥ अह अन्नया य भयवं ! सिरिवीरजिणेसरो समणसहिओ। विहरंतो संपत्तो समोसढो बाहिरुज्जाणे ॥१३१॥ एत्थंतरम्मि उज्जाणपालओ हरिसनिन्भरसरीरो । वद्धावइ आगंतु जएण विजएण नरनाहं ॥१३२॥ देवाणुपिया ! किर जस्स दसणं मुहयरं समीहंति । बंछंति नयणनिव्वुइजणयं वा वीयरागस्स ॥१३३॥ सवणेणं नामस्स य जलधाराहयकयंबपुप्र्फ व । उसवियरोमकूवा हयहियया हुंति नरनाह ! ॥१३४॥ एसो वीरजिणेसरतित्थयरो णेगदेवकोडीहिं । परियरिओ पावहरो परिमुणियासेसनायव्वो ॥१३५॥ इहइ चिय संपत्तो गिहागओ इह समोसढो भयवं ! । ता एयं वयणमहं पियं ति काउं निवेएमि ॥१३६॥ सुणिणं वयणमिणं धाराहयनीवरुक्खकुसुमं व । रोमंचंचियदेहो अणुभवमाणो रसमपुव्वं ॥१३७|| दाऊण पीइदाणं सहरिसवयणो विसुद्धदविणस्स । तं पुण समए देसियमद्धत्तेरससयसहस्सा ॥१३८॥ तो सब्वेण बलेणं सब्वेणंतेउरेण परियरिओ । सव्वाए विभूईए सव्वाए रायलच्छीए ॥१३९॥ आभरणरुइरदेहो सेयणयं सिंधुरं समारूढो । सारयजलहरसंसियपरिविलसिरविज्जपुंजो व्व ॥१४०॥ चलिओ वंदणहे जाव य पत्तो समोसरणभूमि । परिहरियरायककुहो काउंतिपयाहिणं विहिणा ॥१४१॥ १. निलाडाओ रं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारे मेघाख्यानकम् २३३ कयपंचंगपणामो भत्तिभरुल्लसियबहलरोमंचो । जिणवयणनिहियनयणो एवं थोउं समाढत्तो ॥१४२॥ जय जय भुवणुज्जोयण ! जय जय जस-कित्तिवद्धियाणंद !! जय जय गुणरयणायर ! जय जय जय बद्धमाण ! तुमं ॥१४३॥ वद्धद मणसंतोसो तिसलादेवीए देहलायन्न । गम्भम्मि गए तुमए तेण तुमं वद्धमाणो सि ॥१४४॥ परमपयाव-परक्कमगुणाण चउरंगबलविभूईए । बद्धइ सिद्धत्थनिवो तेण तुमं बद्धमाणो सि ॥१४५॥ पीई-सक्कारेहिं मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-वइरेहिं । जं वद्धइ रायसिरी, तेण तुमं वद्धमाणो सि ॥१४६॥ तइ उदिए चंदम्मि व परमपवित्ते कलानिहाणम्मि । जं वद्धइ कुलजलही तेण तुमं वद्धमाणो सि ।।१४७|| वद्धइ सुहमारोग्गं जणम्स पाएण धम्मबुद्धा य । तइ संभूए भयवं ! तेण तुमं वद्धमाणो सि ॥१४८॥ तिहि-रिक्खम्मि पसत्थे अम्मा-पियरो करिंसु जं तुज्झ । गुणनिप्फन्न नामं तेण तुमं वद्धमाणो सि ।।१४९॥ इय बद्धमाणसामिय ! करुणायर ! सइ करेवि कारुन्न । सिद्धिनिबंधणधम्मस्स वद्धणं कुणसू भवियाणं ॥१५०॥ एवं थोऊण जिणं गंतुं पुवुत्तरे दिसीभाए । जिणसमयभणियविहिणा उवविट्टो मणुयपरिसाए ॥१५१॥ मणि-हेमभासराभरणकन्तिपसरंततणुपहावलओ । मेहकुमारो वि रवि व्य वयइ आसरहमारूढो ॥१५२॥ सिरिवीरवंदणत्थं ओयरिउं रहवराओ विहि पुज्छ । जणओ व्व जिणं वंदिय उवविठ्ठो जणयपासम्मि ॥१५३॥ एत्थंतरम्मि भयवं! जलहरगंभीरमहुरवाणीए । सुरअसुरनरसभाए एवं कहि समाढत्तो ॥१५४|| संसारे संसरंतम्स जंगमत्तं पि दुल्लहं । तम्मि पंचिंदियत्तं च तओ वि मणुयत्तणं ॥१५५|| नरत्ते आरियं खेत्तं खेत्त वि विमलं कुलं । कुले वि उत्तमा जाई जाईए रूवसंपया ॥१५६|| रूवे वि बलसंपत्ती बले वि चिरजीवियं । हिया-ऽहियाइविन्नाणं जीविए खलु दुल्लहं ॥१७॥ सम्मत्तममलं तम्मि सम्मत्ते सीलमुत्तमं । सीले वि खाइओ भावो सबकम्मखयंकरो ॥१५८॥ इय संजोगा इत्थं दुलहा जीवाण कुणह ता धम्मं । संपज्जइ जेण इमं सफलं माणुस्सयं जन्म ॥१५९॥ दुग्गइधरणा धम्मो जइ-सावयभेयओ य सो दुविहो । दुविहो वि भवे कजो उचियत्तं अप्पणो नाउं ॥१६॥ पाहेएण विरहिओ पहम्मि पहिओ जहा भवे दुहिओ । इय धम्मेण विरहिओ परलोयपहम्मि जीवो वि ॥१६॥ धम्मत्थिणा य पियजीवियाण जीवाणमवहणं कज्जं ।। सव्वगुणाणं मूलं सच्च भासंति धम्मपिया ॥१६२।। बाहिरपाणसरूवं परदव्वं परिहरंति धम्मरया । जीववहमूलममं निच्चमबंभं च बज्जेति ॥१६॥ अप्पं व बायरं वा परिम्गहं परिहरंति धम्मधणा । राईभोयणविरई सया वि धम्मत्थिणा कज्जा ॥१६४॥ समिईओ पालणीया मायाउ व धम्ममायरंतेण | गुत्तीओ वि हु रक्खा गुत्तीओ व धम्मसस्सस्स ॥१६५|| इच्छाकारो कज्जो परम्म धम्मत्थिएण सव्वत्थ । मिच्छाउक्कडमुत्तं वितहायरणम्मि धम्मंगं ॥१६६॥ धम्मोवएसदाणे गुरुणो परिभासिओ तहक्कारो । आवस्सिया य कज्जा कजे नेताण वसहीओ ॥१६७॥ जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स पविसणे भणिया । आपुच्छणा उ कज्जा गुरुणो कजम्मि पाएणं ॥१६॥ पडिपुच्छणा गुरूणं पुव्वनिसिद्धण होइ कजं ति । लद्धम्मि भत्त-पाणम्मि छंदणा होइ कायव्वा ॥१६९॥ साहूण निमंतणयं पविसिउकामो करेइ गोयरियं । उवसंपया वि गुरुणो नाणाईणं निमित्तम्मि ॥१७॥ इय एस समणधम्मो सप्पुरिसनिसेविओ महाइसओ। अक्खेवेणं मोक्खस्स साहओ जिणवराभिहिओ ॥१७१॥ एयं काउमसत्ता सावयधम्म दुवालसविहं पि । विहिणा जिणवरभणियं नाऊण कुणंति कयउन्ना ॥१७२।। एसो वि सुगइमग्गो पायं सुकरो विलंबमुहजणओ। समणाणं धम्ममिमं काउमसत्ताणमुचिओ य ॥१७३॥ भणियं च विसयसुहपिवासाए अहवा बंधवजणाणुराएणं । अचयंतो अइदुसहे बावीसपरीसहे सहि ॥१७४॥ जइन तरसि काउंजे सम्म अइदक्करं समणधम्मं । तो कुजा गिहिधम्म मा बज्झो होसु धम्माओ॥१७५॥ इय सोउ धम्मकहं के वि हु सुविवेइणो लहुयकम्मा । मोत्तूण गिहं जाया अणगारा भावियप्पाणो ॥१७६।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ धारिणी - मेघ: धारिणी मेघः - धारिणी अज्ज विहान्नं तातं माणसु विलासकरणेण । समयम्मि कज्ज माणं सलाहणिज्जं हवइ कज्जं ॥ १६८ ॥ जलबुबु ओवमाणं खणभंगुरमंब ! सुंदरं पि इमं । निच्छयओ सहलत्तं वच्चइ जिणधम्मकरणेण ॥ १९९ ॥ तं जाय ! कलाकुसलो सव्वुत्तमराय लक्खणाऽऽवसहो । ता विलससु रज्यसिरिं नियजणयपट्टिओ वच्छ ! ॥ २००॥ रायसिरी वि हु बहुदुक्खलक्ख संपुन्ननरयपुरपयवी । अप्प पर गरुयसंत । चकारिया कह सुहा अंब ! ? ॥२०१॥ उत्तमकुलुब्भवाओ रुवाइगुणऽन्नियाओ रत्ताओ । वच्छट्ट भारियाओ माणसु एयाओ ता जाय ! २०२॥ गिरिगरुयपराभवकारियासु पियभारियासु एयासु । को कुणउ कसु पडिबंधमंत्र ! परिणामविरसासु ? ॥२०३॥ तुह वच्छ ! कुलप्पभवो पउरो मणि-कणयपभिइओ अत्थो । वियरण-भोगसमत्थो जहोचियं विलसमु तयं पि ॥२०४॥ १. मकारोऽत्रालाक्षणिकः । २. विश्वासम्, भरोसो इति लोकभाषायाम् | मेघः ] - धारिणी आख्यानकमणिकोशे अवधारी अन्ने पडिवन्नमुद्धसम्मत्ता । उवलद्धयो हिबीया केवि अहाभद्दया जाया ||१७७|| मेहकुमारी विसमुल्लसंतसुविसुद्धचरणपरिणामो | अभिवंदिऊण वीरं एवं भणिउ समादत्ता ॥ १७८ ॥ आलित्ते णं भंते! लोए वसुं पि तह पलिते य | आलित्त पलिते वि य जराए मरणेण रोगेहिं ॥ १७९ ॥ अहिमेयं भंते ! भयवं तहमेयमन्ना नेय । सच्चे णमेस अड्डे जहेयमेवं वयह तुमे ॥ १८० ॥ जह गेहम्मि पलित्ते सचिवेओ कोइ रयणमाईयं । गिन्हइ सारमसारं च चयइ घणधनमाई || १८१ ॥ एवं भवगिहिवासे भयवं ! रागम्गिणा पलित्तम्मि । नित्थारिस्समहं पि हु भेप्पाणं धम्मकरणणं ॥ १८२॥ 'ता जाव म्मा-पियरो पडिमोयावेमि भयवमप्पाणं । ता तुम्ह पायमूले पडिवज्जिम्सामि पत्रजं ॥ १८३॥ तो भणियं जयपहुणा अहामुहं तुज्झ होउ मा विग्धं । मा पडिबंधं काहिसि इय भणिओ भयवया तुट्टो || १८४ ॥ तो सप्पण पणमिय वीरं पडिवज्जिऊण तव्वयणं । नियगेहे संपत्तो तत्तो वि य जणणिपासम्मि ॥ १८५ ॥ पासु पणमिणं नियजणणि भणइ महुरवाणीए । अम्मो ! अहमज्ज गओ ताण समं समोसरणे || १८६॥ यि तत्थ वीरो मुणिसहिओ वंदिओ सबहुमाणं । सासयसिवसुजणओ धम्मो य तयंतिए निमुओ ॥ १८७॥ धन्ना हं तुह जणणी वच्छ ! तए अज्ज सोहणं विहियं । जं भुवणवंद णिज्जो मुणिसहिओ वंदिओ वीरो ॥ १८८ ॥ जइ एवं ता संपइ मुयमु तुमं अम्ब ! फवइस्समहं । सिरिवीरनाहपासे छेत्तु पासं व गिहवासं ॥ १८९ ॥ अस्यवं तं कन्नकडुयमायन्निऊण सुयवयणं । परसुनिकिंतियचंपयलय व्व पडिया धरणिवीढे ॥ १८०॥ तक्खणमेव य सिरिखंडमीससीयलजलेण सित्तंगी । पडिलंभियचेयन्ना रादुक्ख मिइ पलविडं लग्गा ॥ १९१ ॥ तुममेगो वच्छ ! सुओ उबरपुष्कं व दुल्लहो मज्झ । ता तुह वच्छ ! विओोगं खणमवि न सहामि अइदुसहं ॥ १९२॥ ता जाय ! जाव जीवामि ताव मा भणसु एरिसं वयणं । परलोयं पत्ताए जं जुत्तं कुणमु तं वच्छ ! ॥ १६३ ॥ मेहेत्तं तु वयणमंब ! सव्वं पि घडइ जइ होज्जा | जीवाण जमेण समं का वि हु एवंविह्ववत्था ॥ १९४॥ पुव्वं मरेज्ज बुड्डो बालो पच्छा जया य न हु एवं । तो को कुज्जा भैरवसयमेरिसे जीवियम्मि जओ || १५ || भे जम्मे बालत्तणम्मि तरुणत्तणम्मि वुड्डत्ते । मट्टियभंडं व जिया सव्वावत्थासु विहति ॥ ११६ ॥ ता होउ मज्झ भणियं कुणसु पसायं इमम्मि अत्थम्मि । माया हिया अवच्चम्मि इय पसिद्धी हवउ सच्चा ॥ १९७॥ For Private Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारे मेघाख्यानकम् .. २३५ मेघ: जल-जलण-राय-तक्कर-दाइयभयविदुओ दृढं अत्थो । वह-बंध-मरणहेऊ को मुच्छउ अंब ! एयम्मि ? ॥२०॥ धारिणी सुहलालिओ सि मुहपालिओ सि सुहसमुचिओ सि तं वच्छ : । कह कम्मक्खयहेउ कट्टाणुट्टाणमायरसि ? ॥२०६।। मेघः संसारभीरुयाणं सप्पुरिसाणं विवेयसाराणं । सुकयझवसायाणं केत्तियमेत्तं इमं कट्टं ? ॥२०७॥ धारिणी लोहमयचणयचावणयतुल्लमञ्चंतदुक्करं वच्छ ! । निसिउग्गखग्गधाराचंकमणसमं खु समणत्तं ॥२०८॥ मेवः एयं पि कुणंति न किंपि दुक्करं अंब ! साहससहाया । पेच्छ झलकियकडतल्लभीसणे अन्भिडंति रणे ॥२०९|| धारिणी अवरं च सरस-महुरेहिं लालिओ निच्चमन्न-पाणेहिं । कहमंत-पंत-विरसं भुंजसि वच्छय ! तमाहारं ॥२१॥ मेघः परलोयदिन्नचित्ताण धिइसहायाण पाणमसणं वा । गलविवराओ परेणं किं काही भद्दमियरं वा ? ॥२११।। धारिणी केणावि अपरिभूओ मणयं पि हु वच्छ ! वयपवन्नो उ । अक्कोस-हणणपभिई कह विसहसि नीयजणविहियं ? ॥२१२॥ मेघ: मोक्खमुहबद्धचित्ताण नियसरीरे वि निप्पिवासाणं । थोवं पि दुक्खमक्कोसणाइ न हु जणइ धीराणं ॥२१३॥ धारिणी नवणीयफासमिउहंसरूयतलीकलावकलियाए। सुविओ कोमलसेज्जाए सुयसि किह धरणिवम्मि ? ॥२१॥ मेघः हरिणाईण वरायाण रन्नभूमीसु संवसंताणं । सयणीयमंव ! केरिसमह य वणे ते वि हु जियंति ॥२१५॥ इय विविहहेउ-जुत्तीहिं धारिणी जा न सक्कए धरिउं । मेहकुमारं ताहे मुयइ अकामा वि पव्वइउं ॥२१६॥ तत्तो पुवाभिमुहो महरिहसिंहासणे समुवविट्टो । चउसट्टिसहस्सेहिं अभिसित्तो मंतिपमुहेहिं ॥२१७॥ पसरंतवहलपरिमलसिरिखंडविलित्तरुइरसव्वंगो । भमिरभमरउलमणहरमल्ला-ऽलंकाररमणीओ ॥२१॥ हार-ऽद्धहार-तिसरय-पालंबप्पमुहभूसणकलावो । नियसियधवलदुगुल्लो सक्खं चिय कप्परुक्खो व्व ॥२१॥ सुसिलिट्टकट्ट-मणि-रयणकम्मनिम्मवियपवरसिबियाए । आरुहिऊण निसन्नो महरिहसिंहासणवरम्मि ॥२२०॥ सव्वेयरपासट्टियतरुणीकरधुव्वमाणसियचमरो । धरियधवलायवत्तो बंदियणुग्घुट्टजयसद्दो ॥२२१॥ पत्थिज्जंतो वंछियविसए वियसंतनयणमालाहिं । पेच्छिज्जतो अंगुलिसएहिं दाइजमाणो उ ॥२२२॥ दिक्वाविणिच्छियमई दुक्करकरणेण भवियलोयम्स । विम्यमुप्पायंतो निजाइ पुराओ जिणपासे ॥२२३॥ सिरिवीरजिणवरेणं विहिणा पव्वाविओ सहत्येण । किरियाकलावमिणमो सव्वं समणाण सिक्खविओ ॥२२४॥ एवं भासमु एवं च सयमु एवं च भुंजमु सया वि । एवं चिट्टमु एवं च वयम् इरियासमिइसमिओ ॥२२५|| एवमणुसासिऊणं थेराण समप्पिओ जिणवरेणं । पत्तो य तेहिं समयं समणाणमुवम्सए मेहो ॥२२६॥ ताहे वियालवेलाए समणसंथारएमु दिन्नेमु । मेहम्स दारदेसे कमेण संथारओ जाओ ।।२२७॥ तो सव्वं पि हु स्यणिं निरंतरं मुणिवरेहिं वसहीओ । सज्झायाइनिमित्तं नितेहिं पुणो विसंतेहिं ॥२२८|| मेहकमारो केहिंवि जईहिं रयरेणुगुंडिओ विहिओ। केहिं वि कहिं पिपायाइएहिं संघट्टिओ वहा ॥२२९॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माख्यानकमणिकोशे एवं सव्वनिसाए खणं पि निद्दा न पाविया तेण । तत्तोऽसुहकम्मवसा चिंतियमसुभं इमं मणसा ॥२३०॥ जइया गिहत्थभावे अहमासं समणगा इमे तइया । मं आलयंति मं संलवंति भासंति मेह ! ति ॥२३॥ जप्पभिइ अगाराओ पव्वइओ है इमेसि मज्झम्मि । तप्पभिइ समणगा परिभवंति मं ता धिरत्थु ! इमे ॥२३२।। समणत्तमिमं सप्पुरिससे वियं कायराण दुरणुचरं । भूसयण-लायसहणाइदुक्करं भणियमंबाए ॥२३३।। एवं जहुत्तमिण्हि सक्किम्समहं न चेव काउंजे । ता मात्तुं जिणपासे लिंगमिमं जामि गिहवासे ॥२३४॥ इय परिचिंतिय गोसे अचितमाहप्पमोहवसवत्ती । जिणवारवंदणत्थं साहूहिं समं गओ मेहो ॥२३५॥ आभासिओ जिणणं पढम चिय धारिणीमुआ सम्मं । अस्थि तुह मेह ! रयणीए अज्ज परिचिंतियमिमं ? ति ॥२३६॥ सिररइयकरंजलिणा मेहकुमारेण पणमिउं भणियं । सच्चमिमं जं तुम्भे नाणण वियाणि भणह ॥२३७|| पुणराह जिणो तुह भद्द ! जुत्तमेयं न सुद्धवंसम्स । जं पाविय पव्वजं पमायमायरसि अप्परिटं ॥२३८॥ जम्हा एसो च्चिय वच्छ ! विविहदुहवसणकारणमणज्जो । भवपहसंपत्थियऽणत्थसत्थसत्थाहसिररयणं ॥२३९॥ सयमेव चितमु तुम इहई चिय जे अचिंतकम्मवसा । संजमगिरिवरसिहराओ एयवसया खडहडंति ॥२४॥ ते दुक्यकम्महया ससंकिया लज्जिया विवन्नमुहा । बहुजणधिक्कारहया जियंति दुहजीवियं वच्छ ! ॥२४१॥ इय निउण-महुरवयणप्पुव्वगमणुसासिओ भुवणपहुणा । परितुट्टो एवं चिय लहुदोसे सिक्खवंति गुरू ॥२४२॥ भणियं च महरेहिं निउणेहिं क्यणेहिं सिक्खवंति आयरिया । सीसे कहिं पि खलिए जह मेहमुणी महावीरो ॥२४३॥ अवरं च वच्छ ! तुह पुव्वजम्मभावम्मि वट्टमाणस्स । तिरियस्स वि आसिस कोवि कम्मवसओ सुहविवेओ ॥२४४॥ तथा हि तुममेत्तो तइयभवे गुरुबलमाहप्पपहयपडिवक्खो । वेयड्डपायमूलेसु जायजूहाहिवपहाणो ॥२४॥ विझो व्व सरलवंसो निवो व्व सययं समुन्नयक्खंधो । सुहृदाणविलसिरकरो चाइ व्व मुणि व्व सुइदंतो ॥२४६॥ निवरज्जभरो व्व महासत्तंगपइट्टिओ पगिढपओ। सव्वंगलक्खणधरो अहेसि हत्थी समग्गगुणो ॥२४॥ तत्थठिय वणयरेहिं सहसि सुमेरुप्पहो त्ति कयनामो । चरसि निरुठिवग्गमणो भयमगणंतोऽभिमाणधणो ॥२४८॥ कइया विलयनियकलह-कलभियाजूहयं पडिक्खंतो। करिणीकरकंडूयणमीलियनयणो सुहं लहसि ॥२४९॥ कइया वि हु चरसि महल्लसल्लईपल्लवेसु पडिबद्धो । कइया वि पयंडविपक्खभिडणसंपत्तजयपसरो ॥२५०॥ कइया वि हु पयपूरियगुरुसरवरजलनिमम्गसव्वंगो । घणचाडुकरणकोवियकरेणुयासुरयसुहरिसिओ ॥२५१।। कइया वि कुणंतो सरवरम्मि सह भारियाहिं जलकीलं । अणुभवसि सकामकरेणुगंडगंडूसपाणसुहं ॥२५२।। एवं गिरिकंदर-काणणेसु गुरुसरवरेसु वियरंतो । सच्छंदसमुत्थमुहिल्लिसंगओ गमयसि दिणाणि ॥२५३॥ अह अन्नया य खरतरदिणयरकरनियरताविए भुवणे । गिम्हम्मि परोप्परवंसघंससंजायजलणवसा ॥२५४॥ पाउन्भूओ संभंतसत्त-तरु-कट्टदहणदुप्पेच्छो । धूमंधयारजालामालियगयणो वणदवग्गी ॥२५॥ तथा हि 'मल्लियसमुच्चगोत्तो झामियसच्छायतरु-सउणनिवहो। कलिकालो व्व समंता वित्थरिओ वणदवयासो ॥२५६॥ फुटुंतवंसअट्टहासरवभरियनहयलाभोगो । जालापिंगलकेसो ढयरो व्व वियंभिओ दावो ॥२५॥ निद्दट्टविसप्पिरसमयसावभयभीयसत्तसंघाओ । कुद्धमुणि ब्व विसप्पइ विमुक्कतेओ वणदवम्गी ॥२५८|| तत्तो य वणदवभया पलायमाणेसु सावयगणेसु । मणवल्लहं पि जूहं मोत्तूण तुमं पि हु पलाणो ॥२५॥ मोडतो तरुनिवहे वणदवपाउन्भवंतदप्पण । तोडतो वेयवसा विविहे वल्लीबियाणे य ॥२६॥ १. मइलियसमु रं०। २. पिशाचः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ २६. जीवदयागुणवर्णनाधिकारे मेघाख्यानकम् जालावलिधूमेणं सुदूरमप्फुन्नविग्गहावयवो । एगागी नीहरिओ महया किच्छेण दावाओ॥२६॥ दवजलणदाहतावियतणुणा तत्तो तिसाभिभूएणं । तुच्छ जलं बहुकद्दममेगं पत्तं सरं तुमए ॥२६२।। तत्तो पिवासिओ तं पविससि पाहं ति पाणियं तम्मि । नवरमतित्थपवेसा खुत्तो पंके अगाहम्मि ॥२६३॥ तत्तो तं तयवत्थो दिट्टो तरुणण वेरिणा करिणा । विद्धो य पट्ठिभायम्मि दंतमुसलेहिं तेणावि ॥२६४॥ पंकम्मि खुत्तगत्तो पिवासिओ दंतमुसलजजरिओ । अणुभवसि सत्त दिवसाणि दुरहियासं महावियणं ॥२६५|| वीसाहियवरिससयं सव्वाउं पालिऊण तम्मि भवे । अदृवसट्टोवगओ मरिउं इह चेव भरहम्मि ॥२६६॥ सरसतरुराइरेहिरसर-सरियानियर निज्झराइन्ने । विंझगिरिपायमूले पुणरवि य गओ समुप्पन्नो ॥२६७॥ ससि-संख-कुंदधवलो चउदसणो गलियदाणगंडयलो । परिसकिरनवनीरयरेहासंगयहिमगिरि व्व ॥२६८॥ सुपसत्थलक्षणंकियसत्तसयपमाणगयपरीवारो । वियरसि तुमं जहिच्छं भयरहिओ विंझगिरिगहणे ॥२६९॥ परितुवणयरेहिं तत्थ वि मेरुप्पहो त्ति कयनामो । गिम्हम्मि नियसि वंसीसाहाघंसणसमुन्भूयं ॥२७०॥ खरपवणवसवियंभियजालामालियसमग्गगयणयलं । धूमंधयारवेविरसमत्थषणसावयसमूहं ॥२७॥ पज्जलियवणदवम्गि कत्थ वि मह एस दिट्टयुब्यो त्ति । इय ईहाकरणवसा सुमरसि तं मेह ! पुवभवं ॥२७२।। तो विनायं तुमए वणम्मि एसो भविस्सइ सया वि । ता एयरक्खणोवायमविकलं किंपि चिंतेमि ॥२७३।। जम्मंतरे वि अयं एयाओ पाविओ महावसणं । वणदवदाहभयाओ अणागयं निययबुद्धीए ।।२७४॥ आई-मज्झ-ऽवसाणे वासारत्तम्स थंडिलाण तिगं । तं कुणसि कयवराई तत्थगयं सव्वमवणे उं ॥२७५॥ इय जा निव्वुयहियओ चिट्ठसि ता वणदवम्मि पज्जलिए । नट्ठो भयभीयमणो पत्तो ता थंडिलं पढमं ॥२७६।। तम्मि रुरु-रोज्झ-संबर-ससय-तरच्छ-ऽच्छभल्लपभिईणं । बिलधम्मेणं चिट्टइ अरन्नसत्ताण संघाओ ॥२७७॥ तो तं मोत्तुंबीयम्मि वयसि तं पि हु तहेव पडिपुन्नं । तो तइए गंतूर्ण पविरलसत्तम्मि तं थक्को ॥२७८॥ उक्विवसि पायमेगं कंडुयगत्थं पुणो वि जा मुयसि । तो तम्मि पायठाणे पेल्लिज्जंतो बलिटेहिं ॥२७९॥ ससयसरूवो कोवि हु सत्तविसेसो ठिओ तयं मुणिउ । मा मारिजउ एसो मह पाएणं पमुक्केणं ॥२८॥ इय अणुकंपावसओ तहेव आकुंचिउधरसि पायं । सो थंभिओ तहेव य भरिओ रुहिरस्स निम्भिच्चं ॥२८॥ तत्तो तुह तिरियस्स वि अचिंतविरियत्तणाओ जीवस्स । कम्माणं च तहाविहविचित्तपरिणामभावाओ ॥२८२॥ जीवाणुकंपलक्खणसव्वुत्तमगुणपभावजोगेण । मणुयाउ निबंधसि विसुद्धसम्मत्तबीयं च ॥२८३॥ जओ थेवा वि हु जीवदया जियाण कल्लाणसंपयं कुणइ । मणकप्पियं पयच्छइ अहवा तणुया वि कप्पलया ॥२८४॥ किंच सम्गसिरीए नियाणं विलसिरनररायसंपयाहेऊ । सिवलच्छिवसीकरणं एक च्चिय होइ जीवदया ॥२८॥ सुहपुन्नसस्सभूमी निम्मलगुणरयणरोहणगिरिंदो । भवजलहिजाणवत्तं एक च्चिय होइ जीवदया ॥२८६॥ चिंतियचिंतारयणं अहरीकयकामधेणुमाहप्पा । अवहत्थियकामघडा एक च्चिय होइ जीवदया ॥२८७।। अडाइयदिवसेहिं पभूयतण-कट्ट-कयवराइन्न । विंझारन्नमसेसं दहिउ विरओ वणदवग्गी ॥२८॥ तो नीसरिए सव्वम्मि मंडलाओ पसूण संघाए । तुममवि पायं धरणीए मुयसि गमणाय वेगेण ॥२८॥ तत्तो य दज्जयजराजजेरियतणुत्तओ तुमं तइया । थंभियचरणत्ताओ य पद्धसि धरणीए सहस त्ति ॥२९॥ हत्थीणमेगपडणाओ उट्टि सव्वहा वि अचयंतो । समकालं पसरियतिव्ववेयणाविहुरसवंगो ॥२१॥ खद्धो सि तं सियालाइएहिं मंसासिसावयसएहिं । अहियासिऊण दूसहतणुवियणं तिन्नि दिवसाणि ॥२९२॥ संपन्नं वाससयं सव्वा पालिऊण हस्थिभवे । अणुकंपागुणविढवियनिरुवमपुन्नप्पभावेण ॥२१३|| Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आख्यानकमणिकोश जाओ सेणियपुता मणप्पिओ धारिणीए दवाए । सम्वगुणाण निवासो मह सीसो एस पच्चकम्खो ॥२४॥ इय वीरजिणेसरमुहविणिग्गयं नियुणिऊण नियचरियं । जाईसरणा जायं मेहकुमारस्स पच्चक्खं ॥२९॥ रयणीए वइयरे अक्खियम्मि वीरेण मेहकुमरो वि । जाओ विलक्खवयणो नियदुच्चरियं सुमरमाणो ॥२९६।। भणइ जिणं मेहमुणी मह सामि ! पवित्तनुत्तिगो मुणिणो । नयणदुर्ग मोत्तर्ण सव्वत्थ कुणंतु संघट्ट ॥२९॥ एयाणं मुणिसीहाण विमलसीलंगगुणपवित्ताणं । पायाइघट्टणेणं संपन्नो पूयपावो हं ॥२९॥ पञ्चागयसंवेगो आलोइयमणसमुत्थअइयारो । परिणमियसुद्धभावो विहरइ सिरिवीरपयमूले ॥२१९॥ एक्कारस अंगाइ तेण अहीयाइगुरुसयासम्मि । गीयत्थो संजाओ थिरधम्मो मंदरगिरि ब्व ॥३०॥ एयस्स महामुणिणो सोहणपंथम्मि संपयट्टम्स । कंटगखलणातुल्लो विन्नेओ वयविपरिणामो ॥३०॥ संलिहियनिययतणुणो विणीयविणियम्स तस्स साहुस्स । पव्वजापरियाओ बारस वासाणि संजाओ ॥३०२।। बारस भिक्खूपडिमा तेण तया फासिया महामइणा । गुणरयणवच्छरेणं तवेण परिसुसियसव्वंगो ॥३०३॥ उद्धरियसव्वसल्लो पइसमयसमुल्लसंतपरिणामो । मासद्धपमाणाए अणसणकिरियाए मुहलेसो ॥३०४॥ आपुच्छिऊण वीरं सह गीयत्थेहिं सुविहियमुणीहिं । आरुहइ विउलपव्वयसिलायले जिणवराणाए ॥३०॥ आउयखयम्मि जाए कालं काऊण कालमासम्मि । पंचपरमेट्ठिमंतं झायन्तो सुद्धपरिणाभो ॥३०६॥ मेहो ब्व मेहकुमरो सुहरसनिव्ववियसत्तसंघाओ । जह इह तहा मओ वि हु वरविजयविमाणमारूढो ॥३०७॥ तत्तो चुओ समाणो सव्वुत्तमगुणविसिटकुलजम्मो । परिपालियपव्वजो महाविदेहम्मि सिभिहई ॥३०॥ मेघकुमाराख्यानकं समाप्तम् ॥८॥ अधुना दामनक[कथानक स्यावसरः। तच नियमाधिकारे भणितमिति कृत्वा नाऽऽख्यायते। इहलोय-पारलोइयमुहाण भायणमिमे जहा जाया । जीवदयाए तहऽन्नो वि होइ ता ताए जइयव्वं ॥१॥ यत् सुस्थिता गतरुजो निरवद्यदेहा, आजन्म जन्मिनिवहा गमयन्ति कालम् । तत् सर्वमङ्गिगणनिर्मलनस्य [शस्य श्रेयोविजृम्भितमुदारधियो भणन्ति ॥२॥ ॥ इति श्रीमदानदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जीवदयागुणवर्णनः षड्विंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥२६॥ [ २७. धर्मप्रियत्वादिगुणवर्णनाधिकारः ] जीवदया मुखहेतुत्वेनाभिहिता । साम्प्रतं सर्वाऽपि जिनधर्मः सुखहेतुः परमादेयबुद्ध्या गृहीतोऽयं मोक्षसाधको भवतीत्यमुमर्थमभिधित्सुराह पियधम्मा दढधम्मा गिहिणो वि य मोक्खसाहगा होति । जह कामदेव-सागरचन्दा चंडावडिंसो य ॥३६॥ अस्या व्याख्या-प्रियः-बल्लभः धर्म:-जिनोदितं दानाद्यनुष्ठानं येषां ते प्रियधर्माणः । दृढः-व्यसनगतैरपि यो न विराध्यते स तादृशो धर्मो येषां ते दृढधर्माणः । गृहिणोऽपि च न केवलं यतय इत्यर्थः 'मोक्षसाधकाः' निवृत्तिजनकाः 'यथा' येन प्रकारेण कामदेव-सागरचन्द्रौ श्रावको चन्द्रावतंसकश्च राजेति गाथासमासार्थः ॥ व्याख्या(व्यासा)थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामनि । तत्र तावत् कामदेवाख्यानकमारभ्यते जियसत्तू नाम निवो अहेसि चंपाए विस्सुओ भुवणे । स्वेण कामएको ब्वसावओ कामएवो त्ति ॥१॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ २७. धर्मप्रियत्वादिगुणवर्णनाधिकारे कामदेवाख्यानकम् रूवाइगुणसुभद्दा भद्दा नामेण पणइणी नम्स । सम्माणट्टाणं सो नरिंदपज्जंतपउराण ॥२॥ विन्नायपुन्न-पायी जीवा-ऽजीवाइजाणियसम्वो । छक्कोडीउ निहाणीकयाउ कणयम्स तब्भवणे ॥३॥ छ व्वित्थरप्पउत्ताउ तह य छ व्वडिसंपउत्ताओ । छ व्वहणाई तहा से वहति सगडाण पंच सया ॥४॥ पंच सयाणि हलाणं किसिप्प उत्ताणि गोउलाई से । छ प्पत्तेयं दसदससहम्सगोसंखजुत्ताणि ||५|| तत्थऽन्नया य अमरा-ऽसुरिंद-नर-खयररायनयचरणो । समवसरिओ पुरीए उज्जाणे बद्धमाणजिणो ॥६॥ परिसाए निग्गयाए स कामदेवो जिणिदनमणत्थं । संपत्तो रोमंचियगत्तो वंदित्तु भयवंतं ॥७॥ उचियट्टाणनिविट्टो सोउं सद्देसणं जिणाभिहियं । चित्तभंतरसुहपरिणइजुओ भणइ जिणनाहं ॥८॥ भयवं : काउमसत्तो पब्बज्जमहं करेमि पुण सम्मं । धम्मं सुसावगाणं तो बारसहा वि पडिबन्नो ॥२॥ सावयधम्मो पणमिय जिणेसरं पडिगओ तओ तस्स । तं सम्म पालंतस्स सुद्धसज्झायजुत्तम्स ॥१०॥ अमि-च उद्दसीयं चउव्विहं पोसहं कणंतस्स । चोहस समहर्कताणि तम्स वरिसाणि गुणनिहिणो ॥११॥ अह अन्नया य पोसहसालाए सव्वराइयं पडिमं । पडिवन्नमिमं खोभेउमागओ रक्खरवसुरो ॥१२॥ आरत्तनेत्तदित्ती विद्धंसियअंधयारसंधाणो । पज्ज लियजलणमिस्सियविमुक्कलल्लक्कफेक्कारो ॥१३॥ गुरुकरहकंधरारोमकविलकेसो करालमुहकुहरो । फालसमविसमदंतो धूमसिहासामलच्छाओ ॥१४॥ गोणसकयावयंसो जन्नोइयअइगरेण अइभीमो । धुंटतो करयलकयकवालकीलालमणवरयं ॥१५॥ उक्खायखग्गदंडो पभणइ भो कामदेव ! जइ नो तं । सीलव्वयाइं खंडसि ता खग्गेणं हणिस्सामि ॥१६॥ तो कामदेवसड्डो गाढयरं धम्मझाणमारूढो । इय वारत्तियमुत्तो विन चलिओ धम्ममाणाओ॥१७॥ ता खग्गदंडघाएहिं खंडिओ सहइ सम्ममेसो वि। तो मुक्कजक्खरूवो देवो जाओ गुरुकरिंदो ॥१८॥ उभियसुंडादंडो रणंतघंटाजुएण डंबरिओ । गलगज्जिभरियभुवणो सत्तंगोगलियमयपवहो १९॥ जंपइ य कामदेवं जइ न कुणसि खंडणं नियवयाणं । ता उल्लालिय मुंडाए तह पडिच्छेवि दंतेहिं ॥२०॥ वलवट्टिस्सं पाएहिं होइ तुह मरणमट्टझाणेण । इय तिक्खुत्तो वुत्तो वि न चलिओ सो सुझाणाओ ॥२१॥ तत्तो य आसुरुत्तेण हस्थिणा गिण्हिऊण सुंडाए । उल्लालिऊण दंतेहिं कलिय दलिओ सपाएहिं ॥२२॥ सो विहु करिकयवियणं सम्मं अहियासए महासत्तो। तो अमरो करिरूवं परिहरिउं विसहरो जाओ ॥२३॥ फुक्कारविड्डरिल्लो वियडफडाडोयडंबरुड्डमरो । जलणकणारुणनयणो तरलदुजीहो घणच्छाओ ॥२४॥ भणइ य तयं तहेव य वारतिगं सो न मणयमवि खुहिओ । गाढं वेढिय कंठेमु तिक्खदाढाहिं तो डसइ ।।२५।। तं पि हु वियणं सम्म अहियासइ जिणमयम्मि थिरबुद्धी । तो तं अभीयमवलोइऊण धम्मम्मि थिरचित्तं ॥२६॥ तयणु कयामररूवो विलसिरमणिकणयकुंडलाऽऽहरणो । पभणइ य कामदेवं सकयत्थो धन्न-पुन्नो तं ॥२७॥ तुह जम्म-जीवियाई सकयत्थाई समथि निग्गंथे । जिणपवयणम्मि एरिसनिच्चलया जस्स सयकालं ॥२॥ विहियं देवाणुप्पिय ! सक्केण सुहम्मसुरसहामज्झे । तुझ गुणम्गहणमिणं जहा सईदेहिं देवेहिं ॥२९॥ चंपाए कामदेवो तीरइ न जिणप्पणीयधम्माओ। चालेउमिममसद्दहमाणोऽहमिहागओ झत्ति ॥३०॥ विहिया ग चालणकए घोरुवसग्गा मए इमे तुज्झ । ता खमसु इय पयंपिय पणमिय तं खामिउं अमरो ॥३१॥ नियठाणे संपत्तो गोसे पारेइ पडिममेसो वि । एत्यंतरम्मि सामी समोसढो वद्धमाणजिणो ॥३२॥ वंदेवि कामदेवो भयवंतं पजवासए जाव । ता भुवणसामिणा सो पयंपिओ तुज्झ रयणीए ॥३३॥ सम्ममहियासिया इह उवसम्गा रक्खसाइणो तुमए । तेणुत्तं जह भयवं ! तुम्भे जाणह तह च्वेव ॥३४॥ पुणरवि य भयवया सो भणिओ जिणपवयणम्मि जस्सेसा । निचलया सो तं पुन्नभायणं इय निसामे ॥३५॥ हरिसपरिपृरियंगो पणमेवि जिणं गओ सठाणे सो । वाहरिय भयवया पभणिया य समणा य समणीओ ॥३६॥ अज्जो ! जइ गिहिणो वि हु एवं सम्मं सहति उवसग्गे । ता किं न हु सहियव्वा तुन्भेहिं विमुक्कसंगेहिं ॥३७|| Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आख्यानकमणिकोशे ताणि जिणवयणमेयं सम्मं रोमंचियाणि मन्नंति । एत्तो य कामदेवो सावयपडिमाउ काऊण ||३८|| अप्पाणं भाविंतो सीलवयभावणाहि जा वीसं । वासाई सावयत्तं परिपालिय सो महासत्तो ॥ ३९ ॥ आलोइय-पडिकतो मासियसंलेहणाए कालगओ । सोहम्मअमरलोए अरुणाभे वरविमाणम्मि ||४०|| विष्फुरियसरीरप हो चउपलियाऊ सुरो समुप्पन्नो । तत्तो चुओ विदेहे उववज्जिय पाविही सिद्धिं ॥ ४१ ॥ ॥ कामदेवाख्यानकं समाप्तम् ॥८४॥ अधुना सागरचन्द्राख्यानकमारभ्यते । तश्चेदम् बारवईए बलदेवपुत्तनिसदस्स नंदणो मइमं । सागरचंदो नामेण आसि निस्से सगुणभवणं ॥१॥ संचाइकुमाराणं मणप्पओ सयलसुंदरावयवो । एत्तो य आसि घणसेणनरवई विस्तुओं तत्थ ॥२॥ कमलदलसरलनयणा कमलामेलाभिधा सुया तस्स । दिन्ना निवुम्ग सेणंगयस्स नहसेणकुमरम्स ||३|| वीवाहकज्जज्जम्मि परियणे नारओ नहयलेण । पत्तो नहसेणंते न जाव सम्माणिओ तेणं || ४ || ताव पट्टो संतो सागरचंदस्स मंदिरं पत्तो । सम्माणिय पुट्टो कहसु किंपि भयवं ! ममऽच्छरियं ॥ ५ ॥ सो भइ वच्छ ! अच्छरियमेरिसं तुह कहिज्जइ इहेव | कमलामेला धणसेणकन्नया अस्थि रुइरंगी ||६॥ नियचविजियअमरी भमरी निउरुंबकसिणघणकेसा । कुमरेण तओ भणियं भयवं ! सा मम कहं होही ? ||७|| नमुणेमि त्तिपयंपिय कमलामेला सयासमल्लीणो । तो तीए सम्माणिय सविणयमा भासिओ एवं ||८|| भयवं ! अच्छरियं किंपि कहसु तेणाचि जंपियं वच्छे ! । दिट्टं अच्छरियमिमं इहेव नयरी मज्झमि ||९|| रूविजणसिरोरयणं सागरचंदा जयत्तए एसो । अवरो कुरूविचूडामणी पुणो एत्थ नहसेो ॥ १० ॥ सोऊण तमणुरत्ता सागरचंदे नरिंदकुमरी सा । नहसेणम्मि विरत्ता चंचलचित्ताऽहवा नारी ॥ ११ ॥ गंतुं सागरचंदस्स अक्खियं नारएण सा कुमरी । तं पइ अणुरायपरा तं सोउं सो वि अणुरतो ॥ १२ ॥ तं चिय कुमरी चिंतइ चित्तइ रुवेहिं तस्स भूवलयं । तो विमणदुम्मणो सो दिट्ठो संबेण साममुहो ॥१३॥ परिहासेणं पिट्टीए तस्स ठाऊण तेण नयणजुयं । पिहियं नियकरजुयलेण तयणु तेणेचमुल्लवियं ॥१४॥ कमलामेल त्ति तओ भणियं संबेण ईसि हसिऊण । नाहं कमलामेला कमलामेलो अहं किंतु ||१५|| तेत्तं जइ एवं तातं तुममेव मज्झ मेलेहि । कमलदलदीहनयणं कमलांमेलं मणाभिमयं ॥ १६ ॥ कुमरेहिं सुरं पाइय अब्भुवगच्छाविओ इमं संबो । विगयमओ पुण चिंतइ कहमेयमहं करिस्सामि ? ||१७|| घेत्तूणं पन्नत्तिं पज्जुन्नाओ कुमारपरियरिओ । गंतूणुज्जाणे नारयस्स सो भिन्दइ रहस्सं ॥ १८॥ परिणयणकज्जसज्जे नहसेणे नारएण लग्गदिणे । हरिऊण सुरंगाए कुमरी नेऊणमुज्जाणे ॥१९॥ परिणाविओ य सागरचंदो चिट्ठति तत्थ कीलंता । विज्जाहररूवेणं इओ य घणसेणभवणम्मि ॥२०॥ नणं निरिक्खिया विहु कुमारी दिट्टा न तेसि लोएण । तत्तो मग्गंतेहिं सच्चविया तम्मि उज्जाणे ॥२१॥ कहिओ य वासुदेवस्स वइयरो सो वि कोवदट्टोट्टो । सन्नद्धबद्धकवओ उज्जाणम्मि समपत्तो ॥२२॥ संबाइकुमारेहिं रणंगणे गुरुबलं पि कन्हवलं । निज्जिणियं तो पत्तो हक्कंतो वासुदेवो वि ॥ २३ ॥ संहरियखयरवो संबो चलणेसु निवडिओ तस्स । सागरचंदस्सेव य दिन्ना कन्हेण सा कुमरी ॥ २४ ॥ नहसेणसयणवग्गो खमाविओ सो पुणो सकोवमणो । मग्गइ छिड्डाणि तओ सागरचंदस्स हणणत्थं ॥२५॥ सागरचंदो वि पुणो अहिणव जोन्वणमणीहरंगीए । तीए समं विसयसुहं उवभुंजंतो गमइ कालं ||२६|| अह अन्नया जगत्तयजणसरणी तियसकयसमासरणां । पयडियमुणिजणचरण कमलोवरिनिहियनियचरणो ||२७|| निज्जिणियसयलकरणो पयासियासेससाहुगुरुकरणो । मुसिणिद्धबहल कज्जलतमा लदलसन्निभो भयवं ॥ २८ ॥ सिरिनेमिजिणो उज्जितफबए पञ्चए समासरिओ । निस्सेसजायवेसुं पणमिय तत्थावविट्टेमु ॥२९॥ धम्मका पज्जंते सागरचंदेण नमिय नेमिजिणं । पडिवन्नो भत्तीए सावगधम्मो समग्गो वि ||३०|| 1 For Private Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. धर्ममर्मशजनप्रवोधनगुणवर्णनाधिकारे पादावलम्वाख्यानकम् २४१ अह अन्नया य पडिमापडिवन्नं तं मसाणभूमीए । द ट्रं नहणणं चिंतियमिमिणा जहा अजं ॥३१॥ पुजिस्संति अवस्सं मणोरहा मज्झमिय विचिंतेउं । कुरियं ठयं विहेडं नहसेणणं सिरे तस्स ॥३२॥ भरिओ पजलियचियाअंगाराणं तओ य स महप्पा । जिणवयणभावियमई सम्म अहियासिउं लगी ॥३३॥ इह इयरजलणजणिया वियणा तुह केत्तिया इमा जीव ! । सहिया वजग्गिकया अणेगसो नरयपूढवीसं ॥३४॥ मा कुणसु कोवलवमवि निमित्तमेत्ते इमम्मि रे जीव ! । अवरझंति जओ तुह पुचक्क यदुकयकम्माणि ॥३५॥ एवमहियासिऊणं सागरचंदो विमुद्धपरिणामो । मरिऊण समुप्पन्नो तियसो तियसालए पवरो ॥३६॥ ॥ सागरचन्द्राख्यानकं समाप्तम् ॥२५॥ इदानी चन्द्रावतंसकाख्यानकस्यावसरः। तच्च मेतार्याख्यानके भणिप्यत इति अत्र नोच्यते. ग्रन्थगौरवभयादिति । धम्मम्मि निच्छियमई जह एए धम्मसाहगा जाया । अन्ने वि हु होति तहा ता एयगुणेहिं भवियव्वं ॥ यद्यप्यनल्पगृहपासपरिग्रहाता भोगोपभोगसुखगृद्धियुजो गृहस्थाः । केचित् तथापि दृढधर्मतया गुणज्ञा मोक्षं महागुणममी इव साधयन्ति । ॥ इति श्रीमदानदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे धर्मप्रियत्वादिगुणवर्णनः सप्तविंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥२७॥ [२८. धर्ममर्मज्ञजनप्रबोधनगुणवर्णनाधिकारः ] एते प्रियधर्मत्वादिगुणयुक्ता धर्मनिश्चये सति मोक्षसाशका जाताः । ततश्च न केवलं तत्परिज्ञाने आत्मनः गुणो जायते । किं तर्हि ? परप्रतिबोधनमपि भवति । अमुमर्थमभिधिल्सुराह धम्मट्ठनिउणबुद्धी गिही वि बोहिंति बहुजणं धम्मे । पायावलंब-रयणत्तिकोडि-मंसकयनाएहिं ॥३७॥ अस्या व्याख्या-धर्म एव शेषपुरुषार्थजनकत्वेन वस्तुतोऽर्थः-पुरुषार्थो धर्मार्थः, तस्मिन् निपुणबुद्धयः-निश्चितधियः 'गिही वि' ति गृहिणोऽपि 'बोधयन्ति' [धर्मे धर्ममार्गे योजयन्ति 'बहुजनं' प्रभूतलोकम् । दृष्टान्तानाह-पादस्य-लिखितवृत्तचतुर्भागभूर्यादिखण्डस्य अवलम्बनं-शाखादेव दिवा मोचनं पादावलम्बः स च, रत्नानां तिस्रश्च ताः कोटयश्च रत्नत्रिकोटयः ताश्च, मांसक्रयश्च-मूल्येन मांसग्रहणम् ते तथोक्ताः, त एव ज्ञातानि--दृष्टान्ता इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि क्रमप्राप्तं पादावलम्बाख्यानकम् । तच्चेदम कम्मि वि नयरे कुरुचंदनरवई नरवरिंदनयचलणो । देव-गुरु-धम्मतत्ते सययं संपन्न जिन्नासो ॥१॥ तस्स य रन्नो रज्जाइचिंतगो मुणियमुइसमायारो । नामेणं चउरमई चउराणणसन्निभो मंती ॥२॥ तेणऽन्नया तहाविहगीयत्थगुरुण पायमूलम्मि । सम्मं परिक्खिऊणं धम्मम्मि पहट्रिओ अप्पा ॥३॥ नायं च इमं रन्ना चिंतियममुणा ममावि जुत्तमिणं । देवो वि पृयणिजो पइट्टिओ जेण पन्नाण ॥४॥ भणिओ रन्ना मंती सायरमेगागिणा वि किं धम्मो । अंगीकओ महांयस ! ? ममावि जुत्तं तमायरि ॥५॥ तो भणियममच्चेण देवऽम्हे वणियजाइणो धम्मो । जह तह होउ न दोसो देवस्स परिक्खिउं जुत्तं ॥६॥ ३१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जओ उक्तं च- आख्यानकमणिकोशे रन्ना भणियं तं चि बुद्धीए तं परिविख सम्मं । धम्मियजणं च पुच्छिय ठाव मं सव्वा धम्मे ||७|| जइ एवं तो जुत्तं सव्वे पासंडिए सम्मरए । बाहरिऊण वियारसु धम्मं पायावलंवेण ||८|| तत्तो "सकुंडलं वा वयणं" इच्चाइ भुज्जखंडम्मि । आलिहिउं वंसग्गे पलंचिरं भाणियं रन्ना || ९ || जो पायमिमं परियवित्तं सकव्बसत्तीए । रंजइ रायाणमिमं तम्सेव य होइ सो भत्ती ॥१०॥ इय सोडणं सव्वे वसग्गाओ पगिहिउं पायें। पूरेऊणं वित्तं समागया रायअत्था ॥ ११ ॥ आसीवार्य दाउँ कमेण भट्टाइया समुचविट्टा । पढमं चिय भट्टेणं रन्ना भणिएण पढियमिमं ॥ १२ ॥ कत्थभिक्खाए गएण दिट्टा, सुवन्नवन्ना जजमाणजाया । वक्खित्तचित्तेण न सुट्टनायं सकुंडलं वा चयणं न वेति ॥ १३ ॥ तयणंतरं च सइयो रन्ना भणिओ तवस्सि ! तं पढसु । रन्नाइट्टं निययं वित्तमिमं जपइ जडी वि ॥ १४ ॥ भिक्खाभमंतेण मएज दिट्ठा माहेसरी पिहुलनियंबिंवा । वक्खित्तचित्तेग न सुट्टु नायं सकुंडलं वा वयणं नव ति ॥ १५ ॥ तयणंतरं च भणिओ रत्तंचरनिवसणो युगयसिस्सो । तं भणसु बुद्धदेवय ! पयाणुरूवं रय कव्वं ॥ १६॥ मालाविहारम्मि मज्ज दिट्टा उवासिया कंचणभूसियंगी । वक्खित्तचित्तेण न मुट्टूनायं सकुंडलं वा चयणं न वेत्ति ॥ १७॥ तनी पच्चक्खमाणपंच (मह) भूयमयवती । भणिओ नाहियवाई पढनु तुमं पि हु सकयकव्वं ॥ १८ ॥ भिक्खाभमंतेण मएज्च दिट्ट पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं सकुंडलं वा वयणं नवति ॥ १६ ॥ तो विभूवणा भणाविओ कविदंसणवयत्थो । तं भणसु भगवभयवं ! भव्यं कथं समइरइयं ॥२०॥ फलोदणम्हि गिहं पविट्टो, तत्थाssसणत्या पमया मे दिट्टा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ट नायं, सकुंडलं वा वयणं न यत्ति ॥२१॥ तो सारेयरभावं कव्वाणं पुच्छिया सहावइणो । भणियं तेहिं विसेसं चयमेयाणं न पेच्छामो ||२२|| जम्हा नरिंद ! वक्खित्तचित्तया फूडमिमेहिं वागरिया । सो य पमाओ तेण य सह धम्मो चिंतणीयमिमं ||२३|| तयणंतरं च रन्ना पलोइयं मंतिणो मुहं भद्द ! । एयाणं कस्स तए पडिवन्नो कहसु मह धम्मो ||२४|| तत्तोय भणियमिमिणा अन्नं पि हु देव ! दरिसणं जइणं । विज्जइ ते पुण केणावि कारणेण न सपत्ता ||२५|| समतिण-मणिणो समलेट्टु-कंचणा तुल्लरंक-रायाणो । अनिययभिक्खातणुवित्तिजीविणो जियअहंकारा ||२६|| छज्जीवनिकायहिया सज्झाय-ज्झाण-संजमुज्जुत्ता | वाहरिया वि हु ते इंति नेन्ति वा तं न याणामो ||२७| रन्ना भणियं वाहरमु ताव पेच्छामि ताण विसरुवं । तत्तो खुड्डयरूवो वाहरिओ मंतिणा साहू ||२८|| रन्ना नमिउं भणिओ काउं किं मुणसि किंपि तं कव्वं ? । तेणुत्तं जाणामो गुरुप्पसाया महाराय ! ||२९|| जइ एवं ता पूरसु सिलोगमेगं इमं समस्साए । भणियं खुड्डयमुणिणा भणसु तुमं पायमद्धं वा ॥ ३० ॥ भणिए परिभावे पढियं सव्वेसि देसि पच्चक्खं । तं च इमं जं मुणिणा वज्जरियं तेसि निरवेक्खं ॥ ३१ ॥ खंतस्स दंतस्स जिइंद्रियस्स अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । किं मज्झ एएण विचितिएणं सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ॥ ३२ ॥ भणिओ रन्ना साहू विसरिसमेयाण किं तए पढियं ? । तेणुत्तं एयाणं गुरुणा वि हु एरिसं वृत्तं ||३३|| 1 उल्लो मुक्की व दो वेत्थ गोल्या मट्टियामया । दो वि अभेडिया कुड्डे जो उल्लो सोऽत्थ लाई ||३४|| एवं लग्गंति दुम्मेहा नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गंति जहा से सुक्कगोलए ||३५|| परितुट्टेणं रन्ना परिविखरं सम्ममप्पणो एयं । पडिवन्नो जिणधम्मो गुणाहिओ सव्वधम्माणं ||३६|| रुक्खे कप्परुवखो मणीसु चिंतामणी जह पहाणो । [ ग्रन्थाग्रम् ९००० ] अमयं रसेमु गोसीसचंदणं चंदणेसु जहा ॥३७॥ तह पावकम्ममहणो सयलद्हनिवारणो सुहनिहाणं । सव्वेसिं धम्माणं जिणधम्मो चेव सुपहाणो ||३८|| ॥ पादावलम्बाख्यानकं समाप्तम् ॥ ८६ ॥ For Private Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. धर्ममर्मशजनप्रवोधनगुणवर्णनाधिकारे मांसक्रयाख्यानकम् २४३ इदानी रत्नत्रिकोटव्याख्यानक व्याख्यायते । यथा नयरे सिरिरायगिह विहरंता केवि आगया थविरा । दिटुपयत्या पालियमहत्वया पवरगाव व ॥१॥ आजम्मं भिक्खयरो रायगिहजणस्स परिचिओ एगो। कम्मयरो पडिबुद्धी पव्वाइओ तेसि पासम्मि ||२|| अह सो सिरिमणुपत्तो अहिणववत्थाइभृसिओ संतो। ईसरजणपणिवइओ जाओ जिणधम्ममाहप्पा ||३|| तो इयरजणो पभणइ एसो सो अम्ह गेहकम्मयरो । इच्चाइवयणसवणा दूमिज्जइ सोऽहियं हियए ॥४॥ तो सो असमाहिजुओ गुरुहिं पुट्टो तयं भणइ दुक्खं । तो तम्स समाहिका विहरि उकामे मुणी दट टुं॥५॥ भणियमभएण भयवं ! किमेस किर सिग्यमेव य विहारो ? । कहियम्मि कारणम्मि अभयकुमारेण संलत्तं ॥६॥ जइ एवं ता चिट्ठह एयत्थे मुत्थयं करिम्सामि । भणियं गुरु हिं सावय ! जणाण कृवाण य मुहाणि ॥७॥ बंधेउं को सक्कइ ? तेणुत्तं बुद्धिविलसियं मम । पेच्छह पच्छा भयवं ! जं जुत्तं तं करिजाह ॥८॥ इय भणिऊगं चउहट्टयम्मि रयणाण तिन्नि कोडीओ। उक्कुरुडाविय लोयं जाणावइ पडहयपयाणा ॥९॥ अभयकुमारो रयणाणि देइ इय आगयम्मि जणनिवहे । गिण्हह स्यणाणि अहो ! परमेयाए ववत्थाए ॥१०॥ परिहरइ जो सचेयणपाणीयं तह य जलणमित्थि च । सो गिन्हउ पगं वा दो वा तिन्नि वि जहासति ।।११।। सम्वेहिं वि परिहरिए भणिया ते अभयमंतिणा लोया । जइ एवं किं पभणह एस मुणी रंककम्मयरी ॥१२॥ रंकोऽत्थ तुम्ह जणओ कम्मयरो तुम्ह जणयजणओ य । जो धणमेत्तियमुझइ सो भग कह भन्नई रंको ? ॥१३॥ एवं ते सिक्खविया सव्वे वि हु मोणमस्सिया लोया । सो वि हु साहू विहरइ समाहिसहिओ गुरु हिं समं ॥१४॥ ॥रत्नत्रिकोटयाख्यानकं समाप्तम् ॥८७॥ इदानीं मांसक्रयाख्यानकमाख्यायते । तद्यथा नयर रायगिह चिय रन्नो सिरिसेणियम्स अत्थाणे । जाओ सामंताणं अभयाईणं च मंतीणं ॥१॥ 'विश्यंताण विवाओ अनायतत्ताण थूलबुद्धीणं । कह वि समन्ध-महग्घयकयाणविसओ विसेसेण ॥२॥ केणावि हु कप्पूरं कुंकुममवरण हेममवरेण । हीराइयं च कणचि महम्पयं संपयं कहियं ॥३॥ जाव य मंसवियारे महग्घयं मंसमभयकुमरेणं । भणिए सव्वे जंति देव ! नेयं घडइ कहवि ॥४॥ जम्हा भरियं छव्यगमेगेणं रूवगेण ववहरियं । रन्ना वि हु पडिवन्नं अभओ पुण पत्तियइ नेयं ॥५॥ अभएणुत्तं कल्ले सव्वमिमं [तुम्ह] पत्तियाविम्सं । तत्तो सरीरकारणमलियं रन्नो पुरे कहियं ॥६॥ आदन्नो नयरजणो पहाणवेज्जेहिं पुण समाइटें । जइ माणुसकालजयजवतिगमेत्तं लहह मंसं ॥७॥ ता कीए वि जुत्तीए ओसहसहिएण तेण दिन्नणं । पउराणं पुन्नवसा कया वि पउणो हवइ राया ॥८॥ जाव तयं मग्गिज्जइ न ताव लक्खेण न वि य कोडीए । पुहवीमोल्लेणावि हुन को विदाउं समुच्छहइ ॥३॥ विवयंतो जावऽच्छइ सव्वजणो ताव भणियमभएण | भो भो ! 'समग्य मंसं ति तुम्ह वयणं गयं कत्थ ? ॥१०॥ पडिवन्न सम्वेहिं वि अभयकुमारम्स संतियं वयणं । तेणावि हु वुज्झविया जुत्तीए अणुभवजुयाए ॥११॥ सामी-जीवादत्तं तित्थयरेणं तहेव य गुरुहि । चउविहमदत्तदाणं विगयमला जिणवरा विति ॥१२॥ तो सव्वो वि हु लोओ जीवादिन्नं सया असइ मंसं । कहमन्नहा न लभंति देवकज्जे वि तिन्नि जवा ॥१३॥ सव्वो वि जणो मग्गम्मि लाइओ एवमभयकुमरेण । धम्मम्मि नायतत्ता एवं बोहंति भव्यजणं ॥१४॥ ॥ मांसक्रयाख्यानकं समाप्तम् ॥८॥ एएहिं धम्ममग्गम्मि बोहिया कोविएहिं जह लोया । तह अन्नो वि हु बोहइ भव्यजणं धम्ममम्मविऊ ।। इत्थं विवेकवशतो व्यवहारविज्ञा, विज्ञातधर्मगुरु-लाघवचिन्तनाश्च । सत्तत्त्वनैपुणगुणा गृहिणोऽपि चित्रं, सद्धर्मवम॑नि जनानवतारयन्ति ॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे धर्ममर्मशशेषजनप्रबोधनगुणवर्णनोऽष्टाविंशति तमोऽधिकारः समाप्तः॥२८॥ Jain Education Interational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारः ] अम्य च धर्मस्य सम्यग् ग्रहणेऽप्यनाभोगादिना मालिन्यसम्भवेऽपि सम्यग् गुरोरालोचनीयम् असम्यगालोचने दोष इत्येतदभिधातुकाम आह-- जो सम्मं नालोयइ नियसल्लं सो हु पावइ अणत्थं । जह माइ-सुया मरुओ रिसिदत्ता मिच्छमल्लो य ॥३८॥ व्याख्या—'यः'-कश्चिदविवेकविकल: 'सम्यग' यथावद 'नालोचयति' न गुरुभ्यः कथयति 'निजशल्यं स्वदश्चरितं 'सः' प्राणी 'प्राप्नोति' लभते 'अनर्थ व्यसनम् । दृष्टान्तानाह-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासे । 'मातृ-सुती' जननी-पुत्री 'मरुकः'ब्राह्मणः 'ऋषिदत्ता' तापसकन्या 'मत्स्यमल्लः' राजमल्ल इति गाथासमासार्थः ।। व्यासार्थस्त्वाख्यानकैः कथयति । तानि चामूनि । तत्रापि प्रथम क्रमायातं मातृ-सुताख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम्। विंझे व्व बहविहधवे तहाविहे कहिं वि सन्निवेसम्मि । अस्थि महेला अडवि व्व दुग्गया सुमयबालसुया ॥१॥ सा सव्वया वि ईसरगिहेमु परिपूरणत्थमुदरम्स । कुणइ कुकम्मं चारह पुत्तो वि हु वच्छ वाइं ॥२॥ सा य सुयत्थं भोयणजायं काऊण सिक्कयम्मि गया । कस्स वि गेहे कम्मत्थमागओ तम्मि जामाऊ॥३॥ सा कम्मयरी जामाउयस्स न्हाणाइकारिया पढमं । पच्छा पीसण-कंडण-रंधणकिच्चेसु कम्मविया ॥४॥ जाया महई वेला वाउलभावेण तीए भत्ताई । दिन्नं न कि पि तो सा भुक्खिय-तिसिया गया सगिहं ॥५॥ तं दटुं मन्नुइएण तेण पुत्तेण निटुरं भणिया । तत्थ वि तं किं सूलाए पोइया जं न संपत्ता ॥६॥ तयणु घयसित्तपज्जलियजलणजालासमाणरूवाए । तीए वितावियाए सुनिटूरं कोववसगाए ॥७॥ भणियं तुह पुण किं कट्टिया करा सिक्कगाउ भत्तमिमं । घेत्तूण जं न जिमिओ अहयं तु परवसा थक्का ॥८॥ एवं च तेहिं दोहि वि निकाइयं दुक्कियं वराएहिं । तं पुण मूढत्तणओ कत्थवि नालोइयं कहवि ॥९॥ तेसिं दाणरयाणं मणयं सत्ताण मज्झिमगुणाणं । किंचि मुहभावणाए वटुंताणं गलियमाउं॥१०॥ तीए सुओ मरिऊणं भरुयच्छे सेट्टिनंदणो जाओ। नामेण बंधुदत्तो उदारयाईगुणावासो ॥११॥ माया वि हु मरिऊणं धूया रइसायरस्स सेटिम्स । नामेण बंधुमई संजाया तामलित्तीए ॥१२॥ दुजयभवट्टिईए विचित्तयाए य कम्मपयईए । परिणयणव्यवहारो तेसिं जाओ जओ भणियं ॥१३॥ भज्जा जायइ माया धीया पत्ती पिया वि पुण पुत्तो । दासो जायइ सामी संसारे संसरंताणं ॥१४॥ हर-गोरीण व तेसिं मयण-रईण व सुहेल्लिसव्वसं । महुसूयण-कमलाण व परोप्परं वडिओ पणओ ॥१५॥ मोत्तणं पिइगेहे बंधुमई बंधुपरियणसमेओ । जलहिम्मि बंधुदत्तो संचलिओ जाणवत्तेणं ॥१६॥ विणियट्टिउं कयाणे मणोरहारित्तविढवियधणोहो । जावाऽऽगच्छइ पाउन्भवंतबहुविहवियप्पसओ ॥१७॥ तथाहि एएण सुद्धनायागएण नियभुयविढत्तदविणेण । नियपणईणं पढम मणोरहे पूरइम्सामि ॥१८॥ नियपणइणिं च मणहरसव्वालंकारभूसियसरीरं । काउंपंचपयारं विसयमुहं अणुभविम्सामि ॥१९॥ चइऊण सम्ममेयं धम्मट्टाणं समुद्धरिस्सामि । तो जलहिमज्झभाए केणइ पावोदयवसेणं ॥२०॥ ऊसरखेत्ते बीयं व भट्टसीले विमुद्धदाणं व । उवयरियं व खलयणे विणयविहणम्मि सत्थं व ॥२१॥ निग्गुणविज्जादाणं व दुट्टसिम्सोवएसरयणं व । जलहिम्मि जाणवत्तं धणपडिपुन्नं विणटुं तं ॥२२॥ तत्तो विसन्नचित्तो कम्मवसा किंपि पाविडं फलयं । कहकहवि हु किच्छेणं उत्तरिओ जलहितीरवणे ॥२३॥ लदधृणं चेयन्न जाव य सम्मं निरुवा दिसाओ । ताव य निस्संदेहं विणिच्छियं समरपुरमेयं ॥२४॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भावशल्यानालोचनदोपाधिकारे मरुकाख्यानकम् २४५ जाणावियं च कणइ अप्पाणं तेण ससुरवग्गम्स । जाबाऽऽगच्छइ ससुरो तयाणणत्थं सपरिवारो ॥२५॥ समयं बंधुमईए सव्वालंकारभूसियंगीए । ता रयणकणयचूडयविभूसियं रुहर रजुयलं ॥२६॥ छेत्तणं पावमई कोवि हु जइयग्सन्निभो चोरी। आरक्खियभीओ बंधुदत्तपासम्मि संपत्ती ।।२७|| तेणं च धुत्तयाए चिंतियमिणमेव पत्तकालं मे । मोत्तूण तम्स पासे करजुयलं निग्गओ चोरो ॥२८॥ घेत्तृणं सेटि-सुयं चोरो एसो त्ति कलिय सूलाए । ते आरक्खियपुरिसा रायाएसेण पोयंति ॥२९॥ तं तेसिं दोण्हं पि हु तहेव दुब्वयणविलसियं जायं । थेवम्स वि पेच्छ अहो ! हु दुट्टया भावसल्लम्स ॥३०॥ मातृ-सुताख्यानकं समाप्तम् ॥८६॥ अधुना मरुकाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् को वि तहाविहविप्पो समयायावणरओ रइधवो व्व । महुमासपिओ वेयत्तईमओ तावसो जाओ ॥१॥ पंचम्गितवण-तिलहोमकरण-जलण्हाण-तवण-महणाई । निययाणुट्ठाणरओ तरुदल-फल-कंदमूलासी ॥२॥ तहा हि सिसिरम्मि जले मज्जा आयावइ गिम्हतवणसमयम्मि । वासासु गुहासीणो चिट्ठइ सज्झाणमल्लीणो ॥३॥ इय कट्टाणुट्ठाणा गयाइजणस्स विस्सुओ जाओ । आवजंति गुणा खलु पाएण जणं अमच्छरियं ॥४॥ सो अन्नया य चियणे नईए न्हाणत्थमागओ नियइ । जालेण नइदहाओ गिण्हतं मच्छियं मच्छे ॥५॥ वेयुत्तविहाणेणं सो पुब्बि मंसभक्षणमकासी । ता सुमरिय तस्स रसं संजाओ अमुहपरिणामो ॥६॥ चिंतियमिमिणा तइया न ताव मं कोइ पेच्छइ अरन्ने । ता उवसप्पिय मच्छियमेयं मन्गित्तु मच्छमहं ॥७॥ भक्खामि मच्छमंसं जइ ता नियमेण होइ वयभंगो । रसगिद्धीए न चएमि अच्छिउं इय विचिते ॥८॥ रसबंछाए रसणिंदियम्स दोसाण मंदिरत्तणओ। एगागित्तम्स तया भक्खियमिमिणाऽणमिसमंसं ॥९॥ अणुचियभक्खवसाओ सो तक्खणमेव पीडिओ गाढं। जररोगेण न किंचि वि चेयइ सो कंठगयपाणो ॥१०॥ तत्तो रन्नो जाणावियम्मि वेज्जेण सह समायाओ । तक्खणमेव य राया दिट्ठो वेज्जेण तयवत्थो ॥११॥ पुट्टो नियाणमेसो लज्जाए न किंचि साहितरइ । भणइ य कंद-फलाणं आहारो तावसजणस्स ॥१२॥ तो सो वायजरं बुज्झिऊण नेहोवयारमारद्धो । जा काउं जे ताव य दुगुणतरं पीडिओ रोगी ॥१३॥ ता परिभावइ वेजो नियाणतत्तं न नज्जए सम्मं । तो एगते काउंपुट्टो वेज्जेण सो एवं ॥१४॥ वेज्जा गुरुणो तुल्ला भवंति नायम्मि कीरइ चिगिच्छा । ता भद्द ! साहसु तुमं सम्म पउणो भवसि जेणं ॥१५॥ तो लज्जं मोत्तणं कहियं सव्वं जहट्टियं तस्स । तेण वि य तयणुरुवं किरियं काउं कओ पउणो ॥१६॥ ॥मरुकाख्यानकं समाप्तम् ॥१०॥ अधुना ऋषिदत्ताख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् अस्थि अदिट्टोववधण-धन्नसमिद्धगामरमणीओ । निम्सेसदेसअवयंससन्निभो मज्झदेसो त्ति ॥१॥ तस्थऽस्थि विलसिररहं रहंगकयसोहसरवराइन्नं । अद्दिट्टसयणविरहं रहमदणनाम नयरं ति ॥२॥ जिणमंदिराइं डिंडीरपिंडपरिपंडुराई रम्माइ । जसपडलाइं व तस्सामियाण रेहति जम्मि सया ॥३॥ जम्मि य मुणिणो परिमुणियसमयसम्भावसुंदरसहावा । विहरंति पायफरिसणपवित्तियासेसधरणियला ॥४॥ नियभुयविढत्तधणवियरणकरसिया विसायरहियमणा । अहरीकयकप्पद्रुममाहप्पा सावया जत्थ ॥५॥ को वन्निऊण सक्कइ गुणनियरं तम्स पवरनयरम्स । सव्वं पि जत्थ दीसइ वमुमइअच्छेरयन्भूयं ॥६॥ तत्थ य समत्थि पत्थिवसमत्थजयलच्छिलालसेक्कमणो । निस्सेसगुणावसहो वसुंधराभारधरणसहो ॥७॥ १. एकत्र मधुमासप्रियः वसन्तमासप्रियः, अन्यत्र मधुमांसप्रियः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आख्यानकमणिकोशे जम्स गुरुविक्रम तरिणो चिकमारुणनहेसु । संकंता पउरतं पावन्ति नमंतसामंता ||८|| हेमरहो नरनाहो समुद्दपज्वंतमेइणिसणा हो । रिउवंसजाणियदाहो सन्वत्थवियंभियसला हो ||९|| तस्सऽत्थि रूवलावन्नअमयकुल्ला विसालवरनयणा | वित्थरियमहीसुजसा सुजसा नामं महादेवी ॥१०॥ केलिगिहंसयलकलाकलावकुलचालियाए बरवी । तेसिं समस्थि पुत्ती कणयरहो कणय समन्त्री ॥ ११ ॥ विसयहमहतो तिग्गसारं समं पिययमाए । पालतो नियरज्जं गमेड़ कालं महीवाली ||१२|| पत्तो का वेरिपुरी कावेरितरंगिणीजणिय सोहा । अंवर लिहूपासाया घण-धन्नसमिद्धजणकलिया ||१३|| विष्फुरियडमरायाणि सोत्तिया संख-विदुमजुयाणि । जत्थ जणस्स कुलाइ तुल्लाइ नईए कुलेहिं ॥१४॥ तत्थऽस्थि नरवरिंदो सुंदरपाणी जहत्थकयनामा । निम्सेसन मिरनियमउडरयणकिरणच्छुरियचरणो || १५|| वासुदेवी नामेण पणइणी तम्स अस्थि नरवणो । निम्मलसीलाहरणालकियदेहा सुहनिहाणं ॥ १६ ॥ तीए समत्थि बाला मुहपरिमलहसिय कमलवरमाला | सुसिणिद्धकसिणवाला नवरंभाग भनु कुमाला ||१७|| कंकेल्लिपल्लवारुणकर-चरणा छणमियंकवरवयणा । लावन्नकंतिपरिपुन्नरूविणी रुप्पिणी नाम ॥ १८ ॥ सा जोवणमणुपत्ता सव्वालंकारभूसियसरीरा | पिउपायपणमणत्थं जणणीए पेसिया चाला || १९|| दट्टण तयं तारुन्नसरल्लायन्नसुंदरसरीरं । चितइ अणुरुवो को इमीए होही गुणेहिं बरो ? ||२०|| अणुरुवराभावे संबंधावि हुन सोहमावहइ । ता किं सयंवरं सुत्तिऊण दूपहिं रायसुए ||२१|| जाणावेमि सपणयं ? उयाहु कुलदेवयं पसत्तमणी । आराहेउ पुच्छामि वहियं ? सा सयं कहिही ||२२|| एवं दुहियाचिंतासमुद्दवसणम्मि निवडिओ राया | अहवा मूलाओ चेव होइ दुदाइया नारी ||२३|| एवं नाऊण विसन्नमाणसं नरवई सुमइनामा | मंती पुच्छइ उच्चिग्गमाणसा देव ! किं तुभे ॥ २४ ॥ तत्तो कहियं रन्ना कुमरीवरलाभसंभवं दुक्खं । तेणुत्तं होसु थिरो कयाइ लद्धोऽणुरुवरो ||२५|| जेण एई यदि निसुओं तक्कुयजणेण गिज्जंतो । हेमरहरायतणओ कणगरहो नाम कुमरवरी ||२६|| चाई सूरो दक्खिन्नमंदिरं सीलवं कलानिउणो । ता तस्स देसु जुज्जर सीहकिसोरेण सह सीही ॥२७॥ रन्ना भणियं जइ एवमेत्थ कज्जम्मिता तुमं चैव । सिग्धं वच्चसु चिंताभारं अवर्ण मह एयं ॥ २८ ॥ एवं वृत्तीमंती सत्यदिवसम्मि पत्थिओ तत्थ । पत्थुयरायपओयणपसाहृणत्थं समनुपत्ता ||२९|| दिट्टो य गोरवेणं मंती हेमरहनरवरिंदेण । भाणयं च तेण सविणयमागमणपओयनं रन्नो ||३०|| देव ! मह सामिसालो तुमए सद्धिं समीहए काउं । आजम्ममेव संगयमणुरुवाऽवच्च जोयणओ ||३१|| जओ भणियं ता इयरह वि सिणेहो सज्जगाण जाओ जणेइ संतोसं । किं पुण अवच्चसंबंधबद्धमूलो महाराय ! || ३२ ॥ ता जड़ कुलाणुरुवं वयाणुरूवं च महसि वा मेत्तिं । ता किज्जउ मह वयणं पडउ घयं सूयमज्झम्मि ||३३|| मरणं कणरहो पेसिओ सह बलेण । गच्छंतो संपत्तो अरिदमणनिवस्स विसयम्मि || ३४॥ अरिदमणणं कुमरो भणाविओ वज्जिऊण मह विसयं । वच्चसु होमु व सज्जो मए समं समरसंरंभे ||३५|| कुमरो वि फसवणेण तेण धणियं मणम्मि परिकुविओ | कंडारिओ व्व सीहो सामरिसं भणि उमादत्तो ||३६|| रायपणं गंतुं न लब्भए केरिसो इमो नाओ ? । न मुयामि रायमग्गं आगच्छसु जुज्झसज्जो हं ॥ ३७॥ तं सोऊणं अरिदमणनरवई नियबलेण परियरिओ । जुज्झेण संपलग्गो समं कुमारेण समरम्मि ||३८|| अभिडियनिबिडगुडगडियगयघडाडोय भीसणमयंडे । हयनिवहतिक्खखुरखणियखोणिरयपिहियरविबिंबं ||३९|| रयचलियतुरय [खरखुर]रहवररवपसरबहिरियदियंतं । लल्लक्कपकपाइक चक्क पम्मुक्कदढहकं ||४०|| जयसिरिसंगमलुद्धाण ताण सपसायसामिभत्ताणं । दोण्ह वि बलाण जुद्धं बहुजीवखयंकरं लग्गं ॥४१॥ निद्दयखग्गवियारियकरिकुंभत्थलगतरुहिरेण । पवहन्तनई वुब्भंतजाण-जंपाणदुप्पेच्छं ॥४२॥ For Private Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भावशल्यानालोचनदोपाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् कत्थवि य मंस बसलुद्धसाइणी- पेयसयसमाइन्नं । कत्यइ सुरवररमणीनिवहवरिज्जतवीरगणं ||१३|| कत्थवि करालकरवाल छिन्नसिरभमिरभीसणक बंधं । कत्यचि य नरामिसद्ध गिद्ध - जंबुयगणानं || ४४ || इय असमंजरूवं बहुजीवखयंकरं रणं दट्टुं । अरिदमणी कुमरेणं दयालुणा एवमालविओ ||१५|| किं निरवराहजणमारणेण एएण कज्जमम्हाणं ? | तुममयं चित्र नरवर ! जुज्कामी बाहुजुज् ||१६|| अणुमन्नियम्मि तेणं महीए होऊण बाहुजुद्धेण । कुमरेरण विबंधे वसीकओ नागपासेहिं ॥४७॥ जिणिऊगवं भणिओ कुमरेणं सो विपक्खनरनाहो । गिन्हमु रज्जं दिनं तुज्झ मए मन्नयु ममाणं ||१८|| सो विहु माणणो भइ मज्झ सीसं जिणेसर-मुणिंढे | मोत्तुं न नमः अन्नस्स निच्छओ एस जा जी || ४९ ॥ ता अमिनो अचयंतो माणगंजणं दुसहं । मोतुं तणं व रज्यं पव्वइओ गुरुसमीवम्मि ||५० ॥ ठविण तस्स र तत्तणयं पत्थिओ पुरो कुमरो । वच्चतो य कमेणं पत्तो भीमाडविं एगं ॥ ५१ ॥ सा य केरिसा ?— कत्थइ सज्ज -ऽज्जुण-तल - तमाल-हिंताल - सरलसोहिल्ला । कत्थइ करीर - कणवीर - जंबु जंबीररमणीया ॥५२॥ कत्थवि य सरह - सद्दूल-सीह - गुरुगवय-गंडयाइन्ना । कत्थवि य तरच्छ मय ऽच्छभल्ल बहुसंचरर उद्दा ॥५३॥ तत्थ य निवेसिउं सिविरमेगदेसे दिसाए एगाए । पट्टविया नियपुरिसा पाणीयन्नेसणनिमित्तं ॥ ५४ ॥ मईए वेलाए समागया पुच्छिया कुमारेण । कालविलंबो तुम्हाण किंनिमित्तो इमो जाओ || ५५ ॥ एवं ते परिपुट्टा नीरनेसयनरा निवेति । कुमरsम्हे ताव गया तुह् पासाओ तुरियगमणा || ५६ || जलजोत्थमे तो जोयणमेत्ते सरोवरं दिहं ! बहुतरुवरसंकिन्नं तप्पेरंतेमु चणमेगं ॥ ५७ ॥ ती तीरम्मि देवकुलिया अवरं पि हु कुमर ! दिट्टमच्छरियं । अंदोलंती वडपायवम्मि कन्ना सुतारुन्ना || ५८ || क्खित्ता पच्छंता तं ठिया वर्णतरिया । सा वि हु खणंतरेणं विज्जु व्व अदंसणीया ॥ ५९ ॥ पुरओ जा वच्चामो ता तीए कुमर ! देवकुलियाए । फल- पुप्फ-कंदहत्थो संपतो तावसो एगो ॥ ६०॥ सा वि हु बाला सह तावसेण कंद्रा इयं तमाहारं । आहारेउं कत्थइ सहस त्ति असणं पत्ता ॥ ६१ ॥ तत्तो वयं वलेडं समागया कुमर ! तुज्झ पासम्मि । एवं विलंब कारणमावन्नं तत्थ अम्हाणं || ६२ || बीयमिदि कुमरो पयागढकं दवाविडं सिबिरे । तुरयारूढो वेगेण तत्थ पुरिसेहिं सह पत्तो ॥ ६३ ॥ दिहं तव सुसिद्धिपत्तसहिएहिं मुहयफलएहिं । संतावहरेहि समस्सियाण वित्थिन्नसाहेहिं ॥ ६४ ॥ सुयणेहिं व नाणाविहतरुवरनिवहेहिं जणियसंतोसं । नंदणवणमिव सग्गम्मि नयण - मणहरणमुज्जाणं ॥ ६५ ॥ तस्य मज्झमि सरं बाहुलयाहिं व नीरलहरीहिं । आलिंगइ व् कुमरं समागयं जं सिणेहेण ॥ ६६ ॥ निम्मलदलहत्याहिं नलिणीविलयाहिं भवणपत्तस्स । अग्वं व जं पयच्छइ सररुहविसरं कुमारस्स ||६७|| कलहंस- कुरर-सारस- कारंडवमहुरमणहररवेण । सुहसागयं व पुच्छर कुमरस्स गिहागयस्स सयं || ६८ || महुपात्तमहुयरमुमहुररुणझुणियसुंदररवेण । जं गायइ व्व कुमरस्स गुणगणं जायगुरुहरिसं ॥ ६९ ॥ तीरम्मि देवकुलियं नियइ सुतारं नहंगणसिरिं व । समयरमुहं सकन्नं सतुलं कुंभाभिरामं च ॥ ७० ॥ पचासने वडपायवम्मि अंदोलयम्मि कीलंतिं । पेच्छइ तहेव पुरिसेहिं वन्नियं कन्नयं एगं ॥ ७१ ॥ सुरवइसावादुत्तोलियं च सग्गंगणा [ पुढवि] वासं । रमणीयवणे रमणत्थमागयं नायकन्नं च ॥७२॥ उज्जाणनिवासिणिदेवयं व सुंदरसरोवरसिरिं व । तत्थतवोवण लच्छि व ललियविज्जाहरसुयं व || ७३ ॥ तीए य रूख- लायन्नपुन्नतास्त्रपुत्रमण भवणो । जा नियइ तयं निष्कंदलोयणो वणलयंत रिओ ||७४ || ताव सहसति निष्पुन्नपुरिससंपत्तभवणलच्छि व्व । कत्थचि गया न नज्जइ सपिवासम्स वि कुमारस || ७५ ॥ तत्तो तट्टाणाओ उट्टे विसइ देवकुलियाए । दिट्टो य तत्थ कुमरेण मणहरो तावसो एंतो ॥७६॥ १. गुरुवग्धगंड० रं० । For Private Personal Use Only २४७ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आख्यानकमणिकोशे सणियमहामहदिदी जराए जजरियसिढिलसव्वंगो । सारयससहरनिप्पंकपलियसंपुन्नपुन्नतणू ||७|| उव्वद्धजडाजूडो पभूयफल-पुप्फसिरिसमाउत्तो । सउणसमम्सियमुत्ती पञ्चवो कप्परुकवगे ब्व ||७|| निविभच्चसमुद्धूलियदेहो सरयम्भ[सरिस]भूईए । नं नजद सव्वंगं समस्सिओ पुन्नलच्छीए ।।७९।। विप्फुरियासमसत्ती रवि व्य पयडियपयत्यसभावो । सुहसोमयाए भवणं अमयकरो सास्यससि ब्व ।।८०॥ पालियनियमज्जाओ बहुसत्तसमस्सिओ जलनिहि व्व । मेरु व्व गरुयमुत्ती गिरिपवरो लोयमझत्थो ॥८॥ पच्चासन्ने पत्तो सहसा अभुट्टिओ कुमारेण । पणग्यि पाए भणियं भयवं ! बड्डउ तवो तुज्झ ॥८२॥ सुहभागी होसु तुमं कुमार ! दाऊणमेवमासीसं । उवविट्ठो वित्थारियसियपउभे रायहंसो व्व ||३|| कुमरो वि हु तप्पुरओ पवित्तपउमासणे समासीणो । पुट्ठो य तावसेणं कुमार ! कत्तो तुहागमणं ? ॥८४॥ कत्थवि किर गंतव्वं ? इय पुढे तेण पणइपवणेणं । सव्वो नियवुत्तंतो कहिओ कणगरहकुमरेण ॥८५॥ तो तावसेण भणियं वट्टइ देवच्चणस्स मह वेला । इय जंपियम्मि मुणिणा पणमित्तु समुट्टिओ कुमरो ॥८६॥ तं चेव कन्नयं नियइ निद्धनयणेहिं तरुलयंतरिओ। पेच्छइ भक्खंतिं वणफलाणि सह तावसेण तयं ॥८॥ खणदिट्टनट्ठरूवं एवं तं पइदिणं पि पेच्छंतो । अच्चणियं कुणमाणो निरंतरं देवकुलियाए ।।८८| विणयाइएहिं तं विद्धतावसं किमवि पजुवासंतो । अणुजाणाविय कइयवि दिणाणि तत्थेव संवसिओ ।।८९॥ अन्नम्मि दिणे सो विन्नवेइ तं तावसं विणयपुव्वं । भयवं ! निवसह इह कावि कन्नया तावसवणम्मि ॥१०॥ सा कइया वि हु दीसइ खणेण विजु व्व होइ अदिस्सा । ता कहमु तीए वइयरमिय पुट्ठो चिंतइ मुणी वि ॥११॥ नूणमिमीए रोयइ एस कुमारो मणम्मि ससिणेहं । तेणऽप्पाणं पयडइ कहेमि तो तत्त मेयरस ॥१२॥ भणियं च तावसेणं इमीए कन्नाए वइयरं सोउं । जइ अत्थि कोउयं तुह ता अवहियमाणसो सुणसु ॥९३॥ अत्थि धण-धन्न-मणि-रयणपुनपुन्नावणा वणियमुहया । नट्ठावया वि सइ मत्तियावया नाम नयरि ति ॥१४॥ तत्थ य राया निसिउग्गखग्गदारियविपक्खसंघाओ । नामेण नयगुणन्नियमणुस्ससेणो वि हरिसेणो ॥१५॥ पेच्छयजणाण रूवाइएहि सययं पियाणि जणयंती । निम्मलगुणेहिं नामेण तस्स पियदंसणा भज्जा ॥१६॥ विसयसुहमणुहवंतम्स तम्स सह तीए हिययदइयाए । निज्जियविपक्खवग्गस्स जंति दिवसाणि नरवइणो ॥९॥ नवरं दुक्खमसज्झं समत्थि तम्सेगमेव सुहनिहिणो । जं दुवहरज्जधुराधरणखमो नत्थि से पुत्तो ॥१८॥ तत्तो तं सुयचिंतादुहृदुहियं पासिऊण नरनाहं । पियदंसणाए भणियं सामि ! तुमं किं समुव्विग्गो ? ||९९।। कहियं दुक्खनिमित्तं थेवमिमं तीए सामि ! संलत्तं । आराहसु कुलदेविं पुन्नंतु मणोरहा तुज्म ॥१०॥ सोउं पियाए वयणं सुइभूओ सुद्धबंभयारी य । करकलियनिसियखम्गो धवलाहरणो धवलवसणो ॥१०१॥ सुयलाभनिच्छयमई पुरओ कुलदेवयाए पुहईसो । संथरियदभसयणो थक्को कुलदेवएक्कमणो ॥१०२॥ जा जंति तिन्नि दिवसा वज्जियपाणा-ऽसणस्स नरवइणो । तो सियवस्था-ऽऽभरणा पुरओ कुलदेवया पत्ता ॥१०३॥ किं वच्छ ! ववसियं ते साहसमेयारिसं विसमकजं ? । जंपइ राया तं चेव मुणसि मणवंछियं मज्झ ॥१०४॥ तीयत्तं जमविहियं सुरा वि सत्ता न चेव तं दाउं। जं पुण विहियं तं वच्छ ! होइ एमेव पुरिसाण ॥१०६।। राया वि बजरइ बक्करम्स न हु देवि ! एस पत्थावो । सज्जो पडिच्छमु सिरं वियरसु वा मज्झ वरपुत्तं ॥१०७|| इय भणिऊणं दाहिणकरेणमाकरिसिऊण करवालं । वामेण केसपासं धरिउवाहरइ सामरिसं ॥१०॥ जइ मह चिरंतणाणं सुमरसि कुलदेवि ! कमवि भत्तिगुणं । ता देसु सुयं इय जंपिऊण कंठे कओ खग्गो ॥१०॥ मा साहसं ति भणिरीए थंभिओ भूवइम्स भुयदंडो । पयडीहोउं भणियं होही तुह वच्छ ! अंगरुहो ॥११०॥ तो उट्रिओ नरिंदो महापसाओ त्ति भणिय नियभवणं । पत्तो पभायसमए पेच्छा पियदंसणा समिणं ॥११॥ किर मह सीहकिसोरो उच्छंगगओ सुहं थणं पियइ । इय पेच्छिय पडिबुद्धा सुमिणं साहइ नरिंदस्स ॥११२॥ तेणावि हु भज्जाए कहिओ सव्वो वि रयणिवुत्तंतो । सा वि हु तुट्टा जंपइ दिन्नो देवीए मह पुत्तो ॥११३।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋपिदत्तास्यानकम् २४६ तत्तो सुहंमुहेणं गन्भं परिवहद जायसंतोसा । अद्धट्टमदिवसाणं नवन्द मासाणमुवरिं सा ॥११॥ पसवइ पहाणपुत्तं सोहणतिहि-गह-मुहुत्त-रिक्खेसु । वद्धावणयं काउं दिन्नं नामं अजियसेणो ॥११॥ अन्नम्मि दिण राया जिओ व्व कम्मेण गुविलभवगहणे । एयम्मि वण खित्ता अणप्पवसारण तुरएण ||११६|| दिट्टो य विस्सभूई नामेणं तावसो परमजोगी। राया वि तस्स पासे धम्म सोऊण पडिबुद्धो ॥११॥ एत्थंतरम्मि पत्तं तयाणुसारेण राइणो सेन्नं । तो तेण देवउलिया कारविया गुरुकए एसा ॥११८॥ तत्तो य विस्समई विनत्तो राइणा वलंतेण । भयवं ! खमनु विरुवं तबोवणे जं मए विहियं ॥११९॥ दिन्नो य तेण रन्नो गारुडमंतो अचिंतमाहप्पो । पत्तो य मत्तियावइनियनयरिं नरवरिंदो वि ।।१२०॥ अह अन्न या य पेच्छइ करभीजुयलं दुवारदेसम्मि । तत्तो उत्तरिऊणं दोन्नि नरा विन्नविति इमं ॥१२२।। देवऽम्हे तुह पासे रन्ना पियदंसणेण पट्टविया । दट्टा कहवि पमाया मह कन्ना उम्गभुयगेण ॥१२२।। ता काऊण पसायं गारुडमतेण कुणसु तं पउणं । तं मुणिय मंजुलावइनयरिं संपत्थिओ राया ॥१२३।। पत्तो य तेहिं समयं तन्नयरीए. खणेण नरनाहो । दिट्ठो य रायलोगो सह नरवडणा विसन्नमणो ॥१२४॥ अह भणइ नरवरिंदो तुह कन्नं पन्नवेमि विसपुन्नं । इय धीरविओ राया तेण वि मंतप्पओगेण ॥१२५॥ उट्टविया निवध्या उच्छंगे ठाविऊण नियपिउणा । पट्टा पसन्नवयणा किं तुह बाहइ सरीरम्मि? ॥१२६॥ ताय ! न किंपि हु बाहइ परमेसो किं बहू जणो मिलिओ ? । तूररवी वि किमेसो ? तो भणियं तोए जणएण ॥१२॥ वच्छे ! तं भुयगेणं अहेसि दट्टा मय त्ति काऊण । आणीया पेयवणे चियाइयं पउणियं एयं ॥१२॥ दिन्ना य तुज्झ पाणा निकारणवच्छलेण नरवइणा । एएण मझ पुन्नाणुभाव ओ भणियमईए ॥१२९॥ जइ एवं ताय ! मए वि निययपाणा महाणुभावम्स । दिन्ना इमस्स जगएण जंपियं जुत्तमेयं ति ॥१३०॥ हरिसेणेण वि भणियं सुणमु महाभाग ! गुरुसयासम्मि । पव्वइउमणो अहयं तवोवणं मंतुमिच्छामि ॥१३१॥ तं नियधूयं वियरसु कस्स वि अन्नम्स तं निसामेउं । भणियं पियमइनामाए तीए कन्नाए वयणमिणं ॥१३२॥ मझ सरीरे एसो लग्गइ जलणो व तहयओ नत्थि । तं निच्छयं वियाणिय दिन्ना तेणावि परिणीया ॥१३३॥ तं घेत्तूणं नियनयरिमागओ तीए सह सिणेहेणं । विसयमुहं भुजंतो गमेइ कालं निरुब्विग्गो ॥१३४॥ अह अन्नया य सुमरियगुरुवयणो भणइ पियमइं राया । तं गिण्हसु पउरधणं चिट्ठसु गेहम्मि पसयच्छि ! ॥१३५॥ अहयं भवनिम्विन्नो संपइ तावसवयं पवजामि । अंजलभरियनयणा सा वि इमं भणिउमाढत्ता ॥१३६।। तरुविरहे कइया विहु चिट्टइ किं तरुसमस्सिया छाया ?। अहमवि तुह पिय ! विरहे निवसामि गिहे न कइया वि॥१३७|| ता पुणरवि वयणमिमं दुहजणयं सव्वहा न वत्तव्वं । इण्हि तं चेव गई मई वि मह सामि ! तं चेव ॥१३॥ इय तीए मुणिऊणं विणिच्छयं नेहपासपडिबद्धो । सकलत्तो संपत्तो एयम्मि वणम्मि सो कुमर ! ॥१३९।। दिट्टो य विस्सभूई भणिओ संविग्गमाणसेण इमो । देसु मह तावसवयं भय ! संसारभीओ हं ॥१४॥ तेणावि ह सो राया विहिणा पञ्चाविओ कुणइ किरियं । सव्वं पि तावसाणं तवोवणे एत्थ भवभीरू ॥१४॥ अह देवीए अनाओ गम्भो आगमणसमयसंभूओ । परिवडिउं पवत्तो सा पुट्ठा किं इमं भद्दे ! ? ||१४२।। तीए वि हु संलत्तं वयं पवन्नाए सामि ! न हु एसो । ता किं कीरउ इम्हि ? कम्मगई का वि मह एसा ॥२४३।। तेणावि तावसेणं विचिंतियं मज्झ ताव संजायं । गरुयं कलंकमेयं धिरत्यु ! मह जीवियवस्स ॥१४४॥ जओ अलियं पिहु वयणिज्जं गरुयाणं दूमए हिययमहियं । ता किं करेमि संपइ ? जामिन नज्जामि जत्थ अहं ॥१४॥ मुणिधिक्कारहएणं पओयणं किं ठिएण एत्थ मए ? । चिंताउरस्स एवं समागया भीसणा रयणी ॥१४६।। नाओ एस कओ विहु कुलवइणा गभसंभवो तम्स । चइडं वणं सयं चिय अन्नत्थ गओ सपरिवारो ॥१४॥ ताहे सो अहिययरं मणम्मि संतावमुबहइ गरुयं । पेच्छह पावेग मए मुणिणो निवासिया गुणिणो ॥१४॥ ३ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आख्यानकमणिकोशे ता किं करेमि संपद? कत्थ गओ निव्वु लहिम्सामि ? | अहवा वि पावियव्वं अवम्स पावइ धुवं जीवो ॥१४९।। जआ दूरं वच्चइ पुरिसो तत्थ गओ निव्वुई लहिम्सामि । तत्थ वि पुचकयाई पुवगयाइं पडिखंति ॥१५०॥ जं जण पावियत्वं मुहं व दुक्खं व कम्मनिम्मवियं । तं सो तहेव पाबद कयम्स नासो जआ नत्थि ॥१५१॥ धीराण कायराण व अणत्थरिंछोलिया पडइ देहे । सा सहियव्वा न सहइ बला वि दइयो सहावेइ ॥२५२।। ता किं वियप्पिएणं एत्थेव तवोवणग्मि निवसंतो। पालमि मद्धसीलं विहिणा नियपणइणि एयं ॥१५३।। अह सव्वगुणविमुद्ध दिवसे वणदेवयं व दित्तीए । उज्जोयंती वणदसदिसाउ वरदारियं देवी ॥१५४॥ सा पियमई पक्या पसत्थलक्खणविराइयावयवं । अह तत्थ कम्मवसओ जं जायं तं निसामेह ।।१५५॥ अणुचियऽवत्थाणाओ अणु चियपावरण-भोयणाओ य । परिचारयविरहाओ पंचत्तं पियमई पत्ता ॥१५६॥ ततो विसन्नचित्तो तइया सो तावसो समाहीए । किंकायव्वविमूढो पडिओ चिंतासमुद्दम्मि ॥१५७|| रे जीव ! तए भवभीयमाणसेणं इमं वयं पत्तं । जाव य धम्मगुरू हिं धम्मसहाएहिं य विउत्तो ॥१५८॥ एसा वि पेमपत्तं समाहिहेऊ पिया मया जीव ! । इण्हि कह कुणसि तुमं तद्दिणजायं इमं बालं ? ॥१५९।। अहवा जं एइ अवसरेणं परिवाडीए सुहं व दुक्खं वा । तं सहह अदीणमणा जाव पसायं विही कुणइ ॥१६॥ इय भावितो संठाविऊण अप्पाणमप्पण चेय । मणयं समाहिवसओ देह मणं पत्थुयत्थम्मि ॥१६॥ पालइ महुररसेहिं पहाणतरुसंभवेहिं य फलेहिं । तं बालियं पयत्ता वसीकओ नेहपासेहिं १६२॥ अह कम्मि वि पत्थावे पसत्थरूवे निवेसियं नामं । जमिमा रिसिप्पसाया जाया ता होउ रिसिदत्ता ॥१६३॥ सा विहु कम्मोदयओ कुमार ! विद्धि गया इमम्मि वणे । जणयमणाणंदयरी संजाया अट्टवारिसिया ॥१६॥ लायन्नकंतिकलिया अहिणवतारुन्नसुन्दरावयवा । मा कोवि हु अवह रिही इमं ति संजायसंकेण ॥१६५|| निययगुरुविस्सभूई सिक्ववियंजणपओगकरणेण ! विहिया अदिस्सतणू वणम्मि कीलइ जहिच्छाए ॥१६६॥ भणिया तेणेसा कुमर ! बालिया तुज्झ कोवि जो पुरिसो । रुच्चइ तं मह साहसु जेण पयच्छामि तं वच्छे ॥१६॥ कुमर ! तयं हरिसेणं मं चेव य तावसं वियाणाहि । एयं पि निवियप्पं मह धूयं चेव रिसिदत्तं ॥१६८॥ तं सोउं मुणिवयणं कुमरो आणंद निवभरो भणइ । भयवं ! तं रिसिदत्तं दंसमु मणवल्लहं अज ॥१६९।। वयणाणंतरमेव य सव्वालंकारमणहरं काउं। हरिसेणो नियधूयं दंसइ कणगरहकुमरस्स ॥१७०॥ दिट्टा य तेण बाला रइ व्व मयणेण निद्धदिट्टीए । सो वि हु ससिणेहाए दिट्टीए तीए सञ्चविओ ॥१७१॥ सुसिणिद्धदिट्टिपसरं परोप्परं ताणि पेच्छमाणाणि । वच्छत्थलम्मि विद्धाणि मयणभिल्लेण भल्लीहिं ॥१७२।। तो तावसेण नायं नृणमिमीए इमो मणे रुइओ। कह मन्नहाऽणुराएण पेसए दिटिमेयम्मि ? ॥१७३।। जओ जं मणरुइए छेया दिदि दूई भणंति मिहुणाणं । जं हिययम्स न रुच्चइ तत्थ गया कुणउ किं दिट्टी ? ॥१७४॥ गरुणो पेच्छंतम्स वि तेसिं पढमे वि संगमे दूरं । पेच्छमु केरिसमेयम्स विलसियं मयणहयगम्स ॥१७॥ तह कहावे नेह वसओ परोप्पर ताण निव डिया दिट्टी । निव्वत्तरइसुहाणीव तीए जायाणि ताणि जहा ॥१७६।। भणियं च-- दिट्रीए च्चिय सा तेण पिययमा नेहनिभररसाए । आभासिय व्च आलिंगिय व्य रमिय व्व पीय व्य ।।१७७॥ जओ दरहसियं सरसकडक्खियं च वन्नंति पेमसम्बस्सं । मिहुणाणमेगसयणेऽवत्थाणं लोगववहारो ॥१७॥ तत्तो य तावसेणं पाणिग्गहणं कराविओ तीए । तत्थेव कहवयदिण वसिओतावससमाहिकए ॥१७९॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् २५१ रिसिदत्ताप लामे संजाए चिंतियं कुमारेण | अवराए भज्जाए न संपयं किंपि मह कजं ॥१८०॥ तो नियनयराभिमुहं वच्चंतेणं विणीयविणएणं । भणिओ तावसससुरो मुयमु ममं ताय ! नियनयरे ॥१८॥ देसु मह किंपि सिक्वं पओयणं रुप्पिणीए मह सिद्धं । संपइ कलत्तविसए तुह धूयाए कयत्थोऽहं ॥१८२॥ तत्तो भणियं रिसिणा लच्छीए मा छलिज्जन कुमार ! | बहवो इमीए छलिया अथिरसहावाए पावाए ॥१८३।। मा मजसु विजाए जम्हा विचा मयस्स पडिवक्खो । विनडिजंति अणगे एईए वि बच्छ ! तुच्छमई ॥१८४॥ एयं पुण तारुन्न विवेयवियलाण मंधया भणिया । रुवं पि हु उम्माओ रज्जसिरी बिहु कुगइहेऊ ॥१८५॥ किंबहुणा वायावित्थरेण सगुणेमु वहमु मा गव्वं । मइलिज्जति मएणं गरुयाण विजण वच्छ ! गुणा ॥१८६॥ तह एयं रिसिदत्तं मज्झ पसाया अदिदुहलेसं । मा मुंचसुनियछायं व वच्छ ! विहियावराहं पि ॥१८७|| एवं गमणावसरे धूया विहु तावसेण सिक्खविया । पइणो सरीरकिच्चं सयमणुचिट्टसु सया वच्छे ! ॥१८८|| मा कइया वि हु मज्जसु पियपणएणं वियारिया वच्छे ! । पइपणएणं भुल्ला महिलाओ धुवं विणस्संति ॥१८९॥ तहा वच्छे ! विणओ च्चिय होइ भूसणं इह नरम्स वि जयम्मि । नारीण पुण विसेसा निच्चपराहीणजम्माणं ॥१९॥ एत्तो च्चिय कायव्वो निच्चं चिय उवसमो इमाहिं जओ । अन्नो वि अणुवसंतो न नंदा किं पुणित्ीओ ? ॥२२१॥ अविसिट्टसंगमेणं सुपुरिसमग्गं चयति धीरा वि । अबलाण वराईणं ताण विणासम्मि कि चोचं ? ॥१९२।। अणुयत्तिविरहियाणं विहडंति सुयाइणो पहूणं पि । ससुरकुलायत्ताणं निच्चं पि हु किं पुणित्थीणं ? ॥१९३।। दिताण दाणमेव हि संकइ न य परिभवं कुणइ कोइ । दाणेण विरहियाणं न टलइ लोओ करीणं पि ॥१९४॥ लोयट्रिइमेत्तं चिय विभूसणं कणय-रयणमाईहिं । सीलालंकारो च्चिय पसाहणं कुलपसूयाणं ॥१९५।। इय पुत्ति ! विणय-उवसम-मुसंग-अणुवित्ति-दाण-सत्तीसु । निच्चं पि समुज्जुत्ता रक्खेज्जयु सीलसंपत्तिं ॥१९६|| सा एवं सिक्खविया पणमिय पिउणो पिएण सह चलिया । कुमरे दढमणुरत्ता सिढिलियनेहा य जणयम्मि ॥१९॥ भणियं च बालत्तणम्मि पिइ-माइ-भइणि-सहियायणो पिओ होइ । आरूढजोव्वणाणं जुबईण पिओ पिओ एक्को ॥१९८॥ अह पणमिऊण जणयं तवोवणाओ विणिग्गया बाला । मणयं पडिबंधाओ वलियम्गीवं पलोयंती ॥१९९।। जओ भणियं अच्छंतु निरंतरनेहगब्भसम्भावसुंदरा सुयणा । सहवासवड्डिया तरुवरा वि दुक्खेहिं मुच्चंति ॥२०॥ तत्तो तवोवणं तीए विरहियं किमवि जणइ रणरणियं । सहस च्चिय परिचत्तं असेसजणमाणणिज्जाए ॥२०१॥ भवणं व भवणलच्छीए साहुचित्तं व पसमवित्तीए । विजाए विउसमणं व निवसिरीए व निवभवणं ॥२०२॥ अणवस्यपयाणेहिं पत्ताई पमोयनि-भरमणाइं । रन्ना पवेसियाइं महाविभूईए नयरम्मि ॥२०३|| पिउणा परितुटेणं. समप्पिओ ताण पवरपासाओ । परिवारो य विणीओ दासी-दासाइओ सवो ॥२०४॥ तत्तो पइभत्ताए भुंजइ भोए गुणाणुरत्ताए । समयं रिसिदत्ताए कणगरहो सुद्धचित्ताए ॥२०५|| कीलइ गीयकलाए कइया वि हु चित्तकम्मकोलाए । कइया विहु पण्हुत्तर-पहेलियाणं विणोएण ॥२०६॥ लोयणनिमेसमेत्तं विरहं सोढुं अपारयंतेहिं । दोहिं पि तेहिमइवाहियाई वरिसाणि पंच तहिं ॥२०॥ एत्तो कावेरीए सिरिसुंदरपाणिणा सुर्य रन्ना । जह किर तावसकन्नं परिणे कणगरहकुमरो ॥२०॥ वलिओ नियनयरीए ताहे सो रुप्पिणीए चिंताए। कोड़ीकओ किलेसेण गमइ कह कहवि दिवसाणि ॥२०९॥ एयावसरे पत्ता मुलसा पवाइया परिभमंती । बहुकूडकवडभरिया पावा परलोयनिरवेक्खा ॥२१॥ कइया वि हु कन्नतेउरम्मि सा रुप्पिणीए पासम्मि । संपत्ता परिपुच्छइ पणइपरं रुप्पिणिं कन्नं ॥२१॥ वच्छे ! किं तुममज्ज वि वररहिया रइसमा वि रूवेण । देवाणं पि हु दुलहं निरत्थयं नेसि तारुन्न ? ॥२१२।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आख्यानकमणिकोशे तीए भणियं भयवइ ! मह भत्तारो वसीकओ कहवि। कीए वि तावसकन्नाए संपयं किं करेमि अहं ? ॥२१३।। सा वि ह जंपड़ जइ भणसि तुज्झ वसवत्तिणि करमि तयं । तो रुप्पिणीए वुत्तं भयवइ ! भुवण वि तुह कजं ॥२१४॥ नस्थि असझं किंचि वि ता मह उवरिं करेवि कारुन्नं । तह कहवि जयमु संपइ समीहियं होइ जह मज्झ ।।२१।। एवं तीए वुत्ता अणवस्यपयाणएहि संपत्ता । रहमदणम्मि नयरे दिट्ठो कुमरो सह पियाए ॥२१६॥ तो चिनियमेयाए गिसिदत्तारूवसंपयं दद। एवंचिहरूवणं माहिजई का न एयाए ? ||२१७|| जीवंतीए इमीण सुमिण वि न रुप्पिणिं महइ कुमरो। को अमयपाणतित्तो कंजियमहिलसह मुक्खो वि ? ॥२१८॥ परमेयारिसपावं नरयदुहावहमणज्जरिया हं । गुणवंतं पत्तमिमं मारिय कहमायरिम्सामि ? ॥२१९॥ इय पुण करुणं काउं ववसामि न साहसं इमं कहवि । ता भट्टपइन्ना हं कह तीए पुरो भविस्सामि ? ॥२२०॥ इय चितिऊग तीए करुणावियलाए कृरकम्माए । सव्वजणक्खयकारी विजाए विउव्विया मारी ॥२२॥ मणमोहणीए विजाए मारि रायसम्मयं पुरिसं। रुहिरेणं हत्थमुहे रिसिदत्ताए विलिंपेइ ॥२२२॥ दणं तं वइयरमहमसरुवं जणो पयंपेइ । कुमरऽत्थाणे पावस्स कम्स किर ववसियं एयं ? ॥२२३।। कुमरो पियाए वयणं दट्ट संजायविम्हओ भणइ । किं तुह चेट्टियमेयं ? ति सा वि जंपइ न याणामि ॥२२४॥ बीयम्मि दिणे तह चेव रायपुरिसं विणासि पावा । मुंचइ रिसिदत्ताए सयणे नरमंसखंडाई ॥२२५॥ कुमरो वि तयं दट्टुं चिंतइ नणु रक्खसी पिया मज्झ । सा वि हु पुट्टा सुद्धस्सहावओ भणइ तं चेव ॥२२६॥ कुमरो वि ताणि धरणीए गोवप हड्डु-मंसखंडाइं । तइए वि दिणे तह चेव मारिरं कुणइ तं चेव ॥२२७॥ नवरं कुमारछुरियं रुहिरेण विलिंपिडं वयइ गेहे । विजाए न सा नजद निग्गच्छंती न पविसंती ॥२२८॥ कुमरो वि तयं छुरियं रिसिदत्ताए पयासिउं मणइ । अज पिए ! किं जंपसि ? सा जंपइ पुच्छ मह कम्मं ॥२२९॥ पुणरवि य मोहमोहियमणेण सा दढयरं रहे पुट्टा । कहसु पिए ! सम्भावं तुझ हियत्थं भणेमि अहं ॥२३०॥ जइ तुह माणुसमंसे कुओ वि कम्मोदयाओ रसगिद्धी । ता हं पच्छन्नं पि हु एवं संपाडइस्सामि ॥२३१॥ एवं भणिया लज्जाए कि पि ओणयमुही परुन्ना सा । किं तुह पिययम ! पच्छन्नमेरिसं किं कयावि कयं ? ॥२३२॥ तुमए चिय सच्चवियं तवोवणे मज्झ भत्त-पाणाई । जइ पुण पच्छन्नं को वि कुणइ पहु ! तं न याणेमि ॥२३३॥ कुमरो वि तीए दुस्सहविओगजणयं दुहं असहमाणो । सव्वं गोवइ पुट्टो य भणइ नाहं वियाणामि ॥२३४॥ ताहे रुट्ठो राया पुच्छइ नियमंतिणो नयरमज्झे । वइससमेयं न मुणह तुम्हाणं केरिसा बुद्धी ? ॥२३५।। तेहिं वि सविणयमुत्तं तह कह विहु संपयं जइम्सामो। जह कजमिणं जायइ विन्नायं देवपायाण ॥२३६।। इय भणिऊण पवीणा पव्वाया होइ एरिसे कज्जे । सायरमओ तयं चिय गंतुं पुच्छंति पव्वाइं ॥२३७॥ तीए भणिए सव्वं सुत्थमहं संपयं करिस्सामि । रयणीए देवयं पुच्छिऊण तत्तं कहिस्सामि ॥२३८॥ रयणीए रुहिरेणं रिसिदत्ताए मुहं विलिंपेउ । अवसोयणिं च दाउ रन्नो पास गया पावा ॥२३९।। अभयं मग्गिय जंपइ रिसिदत्ताचेट्टियं इमं राय !। जा जोयावइ राया ता पेच्छइ तं तह च्चेव ॥२४॥ तो जायपच्चएणं रन्ना निस्सारिऊण सा बाला । पाणाणमप्पिया मारणथमकयावराहा वि ॥२४॥ पाणेहिं वज्झमंडणपुव्वंसा विनडिऊण नयगए । नीया निद्द यहियएहि तेहिं भीमे मसाणम्मि ॥२४२।। कत्थइ भल्लुंकियरुद्दसदविद्दवियकायरजणोहं । कत्थवि य कूरकोल्हुयदाढाविक्कत्तियकरकं ॥२४३।। कत्यवि य मडयवस-मंसपट्टवेयालभृरिभयजणयं । कत्थवि य विहियसंकुद्धसाइणीकिलिकिलारावं ॥२४४॥ कत्थवि य पयडडझंतमडयदुग्गंधभरियदिसिविवरं । कत्थवि य दूरमुभवियबाहुनच्चंतभूयगणं ॥२४५॥ कत्थवि य वीरविकिज्जमाणनियदेमंसखंडलयं । कत्थवि कावालियकीरमाणवरविजसाहणयं ।।२४६॥ इय एरिसविहभीसणमसाणमज्झम्मि मुक्किया बाला । सुमरिय कुमरं पलवइ पमुक्कलल्लकपोकारं ॥२४७॥ हा पाणदइय! हा अमयमइय! हा निद्धहियय : हा नाह! हा जीवियसम! हा परममहिम! हा पत्तजयपउम। ॥२४८|| Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकार ऋषिदत्ताख्यानकम् २५३ सुसरय ! तुमं पि सहसा संजाओ कीस निग्धिणो ? कहनु । एक च्चिय पाणपिया जेणाहं तुज्झ सुयभज्जा ॥२४९।। कत्तो वि हु आगंतुं मंभीसमु संपयं तुमवि तीय ! । आजम्मं पाणपिया जेणाहं तुज्झ नियधूया ॥२५०।। हा माए ! माए ! पियमइ ! कुओ वि सम्गालयाओ आगंतुं । भयसंभंतमसरणं परितायमु दुयिरं दुहियं ॥२५१॥ इय एवं विलवंती भीया भयभेरवे मसाणम्मि । तायारमविदंती पडिया बसणंधकृवम्मि ॥२५२॥ तयणंतरमन्नुभडभिउडीभासुरनिडालबट्टेहिं । उक्खायनिसियकत्तियविहत्थहत्थेहिं पाणहिं ॥२५३| आ पावे ! कुडकुडगाइदासेहि भरिय ! यहियए ! । भक्खसि रन्नो पुरिसे मारेउं रावसि इयाणि ॥२५४॥ रे रे ! एयाए पावियाए निकरुणकरहिययाए । छिंदह नासा-कन्ने खग्गेणं लणह सिरकमलं ॥२५५।। एवं भीसणवयहिं तेहिं निभच्छिया विवन्नमुही । खरपवणाहयतरुवरलय व्व परिकंपिउं लग्गा ॥२५६॥ हा ताय ! ताय ! हा भाय ! भाय ! मा हणह पायवडिया हं । घेत्तृणाऽऽहरणाई कुणह दयं मुयह जीवंती ॥२५७।। एत्थंतरम्मि पोणाण मझयारम्मि भणियमेगेण । एवंविहमेयाए संभवइ न निग्घिणं कम्मं ॥२५८|| अन्नं च सूरमिमं (?) गुणकलियं बालियं हणंताणं । केणावि कारणेणं न वहंति करा किमन्नेण ? ॥२५॥ अणुकूलकम्मपरिणामपेरिओ तीए चेव मायंगो । एगो जंपइ जीएण मज्झ जीवउ चिरं एसा ॥२६०॥ तत्तो य तेहिं वुत्ता तुममेएणं विमोइया भद्दे ! । गच्छसु जत्थ न नजसि जइ पुण तं कह वि दीसिहसि ॥२६१॥ तो राया अम्हाणं कुलसंहारं करिस्सह पउट्टो । इय तजिऊण पाणा पेयवणाओ नियत्तंति ॥२६२।। सारिक्खमडयमत्थयमेगं छेत्तण दंसियं रन्नो । पच्चयनिमित्तमेत्तो रिसिदत्ता जाइ भयभीया ॥२६३।। चलियम्स वाउवसओ तरुपत्तस्स वि पकंपमाणमणा । भीसणमसाणमझे धीराण वि ताससंजणए ॥२६४॥ एगागिणी असरणा धीरत्तणवज्जिया सहावेण । पयचारेणं गच्छइ सिरीसपुप्फ व सुकुमारा ॥२६॥ न तहा सा दूमिज नियतणुसुकुमारयाए गच्छंती । जह मिच्छारोवियदूसणेण हिययम्मि भणियं च ॥२६६।। संतगुणविप्पणासे असंतदोसुब्भवे य जं दुक्खं । तं सोसेइ समुदं किं पुण हिययं मणुस्साणं ? ॥२६॥ अहवा वि भवावट्टम्मि वट्टमाणं सकम्मुणा जीवं । तं नत्थि किंपि विसमं जं न सहावद विही एसो ॥२६८॥ तथा हि एयम्मि पराहुत्ते जियाण जणओ वि वइरिओ होइ । बहुदुक्खलक्खजणणी जणणी विहु जायए वग्घी ॥२६॥ मित्तो वि सत्तभावं पडिवज्जइ संपया वि विवयसमा । सच्चं पि होइ अलियं नओ वि अनओ गुणो दोसो ॥२७॥ एवं परिभावंती विसन्नहियया विमूढदिसियक्का । दक्खिणदिसाए चलिया साहसमवलंबिय मणागं ॥२७१।। कत्थवि य वीसमंती तरुवरछायासु कयफलाहारा । विसहंती तिस-भुक्खं निवसंती देसियकुडीसु ॥२७२।। पत्ता पभूयकालेण कह वि किच्छेण तम्मि चेव वणे । दट् ठूण तं पएसं जणयं सरिउं गया मुच्छं ॥२७३।। हा ताय ! किं न पेच्छसि नियदुहियं निवडियं दुहसमुद्दे ? । संभाससि कि नतुमं ? तुह पाणपिया अहं आसि ॥२७४॥ इय पलवंती असमंजसाई संधीरिऊणमप्पाणं । रे जीव ! किं न बुज्झसि ? किं मुज्झसि ? कत्थ सो ताओ ? ॥२७५।। कत्थ तुमं ? किं मूढा ? जमेस एवंविहो विहिनिओगो । ता नियकयस्स मोक्खो संपइ सम्म सहतस्स ॥२७६॥ जइ पविससि पायालं लुक्कसि गिरिकंदरेसु विसमेसु । तह वि हु पुवकयाओ न मुच्चसे जीव ! किं बहुणा ? ॥२७७॥ एवं विवयवसओ वल्लहभावाओ जम्मभूमीए । मणयं पत्तसमाही सा वसई तवोवण तम्मि ॥२७८|| अह अन्नया य तीए विचिंतियं पढमजोवणत्था हं । ता सीलरयणमेयं रक्खेयव्वं कहनु मए ? ॥२७९॥ . जम्हा महिला महुरत्तणेण पर्यईए पत्थणिज्जगुणा । चिंचापक्कफलं पिव वड्डियवंछा जयस्सावि ॥२८॥ सीलं च मएऽवम्सं रक्खेयव्वं सपाणचाए. वि । एयम्मि विणट्टम्मि नो इहलोओ न परलोओ ॥२८॥ सीलं महानिहाणं सुकुलुप्पन्नाण भावभंडारो । बसणसयसल्लियाणं सरणमिमं जेण भणियं च ॥२८२।। १. मच्चन्भुयभिउडी००। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आख्यानकमणिकोशे सीलं सासयवित्तं परमपवित्तं अकित्तिमं मित्तं । उत्तमकित्तिनिमित्तं मुत्तिनुहपसाहणपसत्थं ॥ २८३ ॥ अणा धणं सीलं भूसणरहियाण भूसणं परमं । परदेसे नियगेहं सयणविमुक्काण नियसयो || २८४ ॥ ताकेण पाओगेणं आजम्ममगंजियं इमं होही । ता सुमरियमुवइट्टं जणएणं मूलियावत्युं ॥ २८५ ॥ जण मज्झ कहियं कइया वि हु कोउयं जड़ हवेज्जा । ता एयाए तरुमूलियाए माहप्पमेयं ति || २८६ ॥ ज महिला बामे ऊरुम्मि पक्खिव फालिऊणमिमं । तो पुरिसो जायड़ नीणियाए जायइ पुणो महिला ||२८|| एयं चि विवरीयं नारीभवणम्मि जाण पुरिसस्स । नवरं दाहिणऊरुम्मि तं वियड्डा ववइति ॥ २८८ ॥ तह चैव तीए विहिए जाओ सहस त्ति सोहणो पुरिसो । पयईए दुद्धरिसो मणुन्नलायन्नरूवधरो ||२८९|| चक्कं कुस-कलसंकियकर-चरणतलो वियड्डिमानिलओ । मणि- मंत-ओसहीणं अचितमाहप्पजोगाओ ||२०|| तो जणयवयं घेतु तावसवयवेसधारओ कुमरो | चिट्ठइ चक्कलवसणो तवोवणे कंद्रफलभोई ॥२९१॥ एवं सा रिसिदत्ता तावसवेसेण सुत्थिया वसइ । एत्तो य तीए विरहे कणगरहो जायरणरणओ || २९२ ॥ न लहइ रहूं निसाए न य दिवसे न य गिहे न वि य सयणे । न य कीलावावीए न य उज्जाणे न यथाणे ||२३|| नय कीलड् न य भुंजइ न सुयइ न कुणइ कलाणमन्भासं । नवरं हसइ वियंभद् गायइ रोयइ नियइ सुन्नं ॥ २९४ ॥ नावेक्खइ गय-तुरए न कुणइ गुर-जणय-जणणिपडिवत्तिं । नवरं सुमरिय दइयं कुणइ पलावे विविहरूवे ॥२९५|| हा तारुन्नयसिहिणे ! हा ससिवयणे ! सरोयदलनयणे ! । कलकंठिमहुरवयणे ! वित्थयरमणे ! ललियगमणे ! ॥ २९६ ॥ नियरूवविजियचिलए ! रमणीतिलए ! समग्गगुणनिलए ! । हरिसेणजणयदइए ! तं दइए ! कत्थ दच्छीहं ? ॥२९७॥ अम्मा-पिऊहिं किच्छेण कारिओ पत्थुयं सरोरठि । अच्छइ तहेव तग्गयचित्तो परिचत्तवावारो ॥ २९८ ॥ एत्तो कावेरीओ सुंदरपाणिस्स संतिओ दूओ । संपत्तो सो संपइ देवाहं पेसिओ पहुणा ॥२६६॥ भणियं च तेण एसा मह कन्ना रुप्पिणी महाराय ! । पुरिसंतरस्स सुंदर ! सुविणे वि न गिण्हए नामं ॥ ३०० ॥ रन्ना भणियं कुमरो तावसकन्नं विवाहिउं वलिओ । सा पंचत्तं पत्ता संपइ तह तं भणिस्सामि ||३०१॥ जह तुज्झ मुयं परिणइ मा एयं अन्नहा वियप्पेसु । इय भणिऊणं दूओ विसज्जिओ हेमरहरन्ना ||३०२ ॥ तत्तो कुमरो भणिओ मुंचमु सोयं समुज्झतु विसायं । नट्टविणट्टे कज्जे गरुया एवं न सोयंति ॥ ३०३ ॥ ता वच्चतुममिहि कावेरीए विवाहिउं कन्नं । आगच्छ वच्छ ! पच्छा परिचितसु रज्जकज्जाई ॥ ३०४ ॥ उवरोहसीलयाए संचलिओ सबलवाहणो कुमरो । हियए समुञ्वहंतो रिसिदत्तं देवयं व सया ॥ ३०५ ॥ पत्तो कवयदिवसेहिं तं वणं जत्थ आसि रिसिदत्ता । तव्विर हे तं चैव य उब्वेयकरं मसाणं व ॥ ३०६ ॥ एत्थंतरम्मि फुरियं दाहिणनयणेण तस्स कुमरस्स । नायं च तेण सूयइ पियमेलयमेयमुत्तं च ॥३०७॥ सिरफुरणे किर रज्जुं पियमेलो होइ अच्छिफुरणम्मि । बाहुफुरणम्मि पियजणभुयालयालिंगणं जाण ॥ ३०८ ॥ दिट्टो तावसकुमरो परिब्भमंतेण तेण कुमरेण । तदंसणेण जाओ तस्स अउव्वो पमोयभरो ||३०१ || हरिसा ऊरियमणसा तावसकुमरेण पञ्चभिन्नाओ । पणमिय सो तप्पुरओ उवविट्ठो अमयसित्तो व्व ॥ ३१०॥ पुठ्ठे च कुमारेणं भयवं ! तुह पढमजोव्वणत्यस्स । एगागिणो अरन्ने केत्तिय कालं वसंतस्स ॥३१९॥ ते विभणियं सुंदर ! हरिसेणो एत्थ तावसो आसि ! | रिसिदत्ता तद्धूया कत्थइ सा परिणिउं नीया ||३१२॥ केण वि कुमरेण रिसी सो जलणं साहिउं गओ सग्गं । अहयं पुण संपत्तो अन्नंतो कुमर ! कइया वि ॥ ३१३॥ सुन्नमिमं रमणीयं नाउं एत्थेव ताव निवसामि । असमसमाहाणजुओ कुणमाणो नियमऽणुट्टा ॥३१४॥ कुमरेण चिंतियमिणं तावसकुमरं अहं नियच्छंतो । पच्चक्खं रिसिदत्तं नियदइयं चैव पेच्छामि ॥३१५॥ कुमरे सो भणिओ केणावि हु कारणेण तं भयवं ! | अवलोयंतो मन्ने नयणनिमेसं पि विग्धमहं ॥ ३९६ ॥ तो जाव वसामि अहं तवोवणे ताव मज्झ पासम्मि । वसियब्वं सुयणु ! तए महापसायं विहेऊण || ३१७॥ तावसकुमरेणुत्तं तवोहणाणं समं हित्थेहिं । केरिसओ संबंधो ?, न संगयं ता इमं कुमर ! ||३१८ ॥ T For Private Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् चलणेसु निवडिऊणं तं मन्नाविय विणिग्गए कुमरे । सा पावा पव्वाया परिभमंती तहिं पत्ता ॥३१९॥ पुट्ठो तावसकुमरो तीए नमिऊण भयवमेगागी । कह कुणसि तवं रन्न[म्मि] भीसणे पढमतारुन्ने ? ॥३२०॥ तेणावि चिंतियमिमं कइया वि हु सा वि संभवइ एसा । निग्घिणसिरोमणीए जीए निवासिया अहयं ॥३२१॥ तो तावसेण भणियं ओसहिविज्जा-तवाणु भावाओ । पभवह न किं पि मज्झं गुरुवटुं कुणंतम्स ॥३२२॥ पुणरवि य तीए भावावगमनिमित्तं पयंपियं मुणिणा । तुममवि भद्देगागिणी कहं भमसि किसि यकाया य ॥३२३॥ किं सिस्सिणी वि बीया न अस्थि ? कत्तो य आगया इहइं?। तीए वि एसो जइ किंचि तावसो मज्झ विज्जाइ ॥३२४॥ देइ इय चिंतिऊणं भणियं भयवं ! ममावि विजाओ । अवसोयणि-तालुग्घाडगीओ विजंति विविहाओ ॥३२५।। तो तं मम पयच्छम् अहं तु तुह देमि अप्पणिज्जाओ। मुणिणा भणियं विज्ञाण केरिसं तुझ माहप्पं ? ॥३२६।। तीए अमुणंतीए तच्चं सव्वं पयासियं तम्स । जह कावेरिपुरीओ पत्ता रहमद्दणपुरम्मि ॥३२७॥ जह कुमरपिययमाए रक्खसिवायं पुरम्मि पयडेउं । कुमरपियं माराविय कुमरेण समं समायाया ॥३२८॥ रुप्पिणिपरिणयणत्थं इमो मए चेव चालिओ कुमरो। एयं मह विजाणं माहप्पं तावसकुमार ! ॥३२९॥ मुणिणा भणियं कजं न मज्झमेयाहिं पावविज्जाहिं । इय भणियम्मि निरासा सट्टाणं सा गया पावा ॥३३०॥ एत्थंतरम्मि भाणू अस्थमणमिसेण दुयमइक्कंती । पवाइयाए तीसे कुचेट्टियं दट्टमचयंतो ॥३३१॥ दद्लु कुमरो वि सुइरमभतिथओ वि किं नाऽऽगओ कुमारमुणी ? । इय भावितो पुणरवि तम्स सयासम्मि संपत्तो ॥३३२॥ पेच्छइ भाणारूढं झाणसमत्तीए गरुयविणएणं । अभत्थिऊण नीओ नियसेन्ने तावसकुमारो ॥३३३।। पच्चासन्ने रयणीए दो वि सयणेसु तावस-कुमारा । ससिणेहसंकहासुहियमाणसा तत्थ परिवसिया ॥३३४॥ भणियं तावसकुमरेण कुमर ! किर केरिसाऽऽसि रिसिदत्ता ? । जीए कए परितम्मसि तुममेवं निभरसिणेहो ॥३३५।। कुमरेणुत्तं तीए वन्निज्जइ किर किमैगजीहाए ? । सा जेण पयावइणा गुणमइया चेव निम्मविया ॥३३६।। रूवं रइरूवनिभं लायन्नं गिरिसुयाए अन्भहियं । सुंदेरं देवीण वि न दीसए तारिसं मित्त ! ॥३३॥ अवरे वि महुरभासण-दाण-दया-विणयपनुहगुणनिवहा । जोइज्जंता वि जणे दीसंति न अन्ननारीणं ॥३३८॥ तीए सह सरसजंपिय-उवगूहिय-ललियसुरयरमियाई । सुमरंतस्स न विदलइ मह हिययं वज्जनिम्मवियं ? ॥३३॥ किंतु मह तुज्झ पासे मणयं संपज्जए सुहं मित्त ! । इयरह भुयणमसेसं विसं व मन्नामि तीए विणा ||३४०॥ किं बहुणा ? दहदियहे रयणनिहिं दंसिऊण तं दइयं । उद्दालिऊण विहिणा विडंबिओ किं करेमि अहं ? ॥३४१॥ भणियं मुणिणा सुंदर ! मा तम्मसु एत्तियं कए तीसे । अवहरियं जं विहिणा सोयंति तयं न सप्पुरिसा ॥३४२।। इय एवं जाव तहिं परोप्परं हुति तेसिमालावा । ताव पहाया रयणी सेमागया मंतिणो तत्थ ॥३४३।। भणियं च कुमर ! दिजउ पयाणयं बहु विलंबियं एत्थ । पुणरवि य नियत्तेहिं एस मुणी एत्थ दट्टयो ॥३४४॥ भणियं च कुमारेणं जइ एस मुणी मए समं चलइ । ता होइ पयाणयमिहरहा उ मह नियमओ नत्थि ॥३४५॥ इय कुमरनिच्छयं जाणिऊण तह कहवि तावसकुमारो । भणिओ मंतीहिं जहा संचलिओ सह कुमारेण ॥३४६॥ कावेरीए पुरीए अणवरयपयाणएहिं कणगरहो । संपत्तो तप्पहुणा पवेसिओ परमभूईए ॥३४७॥ परिवाराइपरिगओ समप्पिओ तम्स पवरपासाओ । तो जोइसियविसोहियसुहकरण-मुहुत्त-लग्गम्मि ॥३४॥ मंगलतूररवेणं नच्चिरवरविलयसत्थसुहएणं । वित्तं पाणिग्गहणं सह कुमरेणं कुमारीए ॥३४॥ तत्थेव ठिओ कइय वि दिणाणि कुमरो मुहेण ससुरकुले । समयं तावसकुमरेण विविहसंगयविणोएण ॥३५०॥ मह अन्नया य सो रुप्पिणीए संजायपोढपणयाए । भणिओ सा के रिसिया रिसिकन्ना कहमु रिसिदत्ता ? ||३५१।। जीए तुममंतराले वसीकओ आसि मं विमोत्तण । तेणुत्तं जइ तीए का वि समा दीसए नारी ॥३५२॥ ता तुज्झ पिए ! साहेमि इहरहा कह णु तीरए कहिउं ? । किं बहुणा ? तारिसिया न लब्भए मंदपुन्नेहिं ॥३५३॥ १. तत्त्वम् -खं० टिप्पणी। २. समगया -प्रतौ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आख्यानकमणिकोशे विहिणी वसेण तीए. हत्थुत्तिन्नाए जणयवयणाओ। तुझ पिए ! परिणयणथमागओ मुणमु सञ्चमिमं ॥३५४॥ तो रिसिदत्ताअणुकृलकम्मपरिणइवसेण तीयुत्तं । पिययम ! तुम न जाणसि जहा माए एत्थ आणीओ ॥३५५।। कहमिव ? तीए सव्वो वि वइयरो साहिओ मुणताणं । कणगरह-तावसाणं गुरुविम्यमुव्वहंताणं ।।३५६।। चिंतियमिसिदत्ताए विहियमिमं साहणं जमेयाए । पच्चरखं दोण्हं पि हु महऽलीयकलंकमवणीयं ॥३५७|| तं साउं कणगरहो कोहहुयासणपलित्तसव्वंगो । दट्टोट्टभि उडिभीसणवयणो रत्तच्छिदुप्पेच्छो ॥३५८|| अवसर दिट्ठिपहाओ तमेरिसं जइ तए समायरियं । मेच्छाणं चिय निदियमिह कड्डयं रुप्पिणि भणइ ॥३५९।। संपइ रिसिदत्ताए इय मरणे किं मए जियंतेण ? | साहेमि जलणमिम्हि कह कट्टे चियाजोग्गे ॥३६०।। तं सोउं सम्यो वि हु मंतिजणो गुरुविसायमावन्नो । गुरुसोयसल्लियंगो निवेयए रायपायाण ॥३६१।। तेणावि हु परिचिंतियमहो! हु कुडिलत्तणं महेलाणं । जेण मए विन नायं पच्छन्नं पेच्छ पावमिमं ॥३६२।। धिद्धी ! एयाए पावियाए बहुकृडकवडभरियाए । नरयगइगामिणीए निंदियसच्चरियचेट्टाए ॥३६३।। एवं पि वयमिमीए सिरम्मि निवडउ अणजहिययाए । रक्खसिवायकयं पुण इहई पि हु मत्थए पडियं ॥३६१।। एवं खिसिज्जंती पुग्लोएणं पए पए पावा । लुयपुच्छ-कन्न-धूसरखरपिट्टाऽऽरोवियसरीरा ॥३६५।। विग्गोविण नयरे रन्ना निवासिया परिवाया । नारी जणे अवझ ति तेण जीवंतिया मुक्का ॥३६६॥ कुमरो वि हु जा न मुयइ कहिं पि भणिओ वि मरणनिबंधं । नायरजणेण रइया चिया तओ सारकट्टेहिं ॥३६७॥ तत्तो वारंतस्स वि रन्नो नायरसमग्गलोयम्स । हाहारवमुहलस्स वि चित्तं चलिओ चियाए सो ॥३६८।। सियवत्थ-विलेवण-कुसुमदाम-ऽलंकारसेयमुत्ती वि । कणगरहो रिसिदत्ताणुरायगुणओ दढं रत्तो ॥३६॥ तव्वयणाओ हुयासो जा किर पउणीकओ चियापासे । ता रन्ना विन्नत्तो विणएणं तावसकुमारो ॥३७०॥ भयवं ! तुह वयणमिमो न कयावि हु लंघए तओ एयं । तह कह वि हु भणनु जहा विरमइ एयाओ पावाओ ॥३७१।। भणिओ तावसकुमरेण भद्द ! किमिमं तए समारद्धं । नीयजणोच्चियमइनिंदियं च सुकुलप्पसूयाणं ? ॥३७२॥ अन्नं च तया तुमए तवोवणाओ ममाणयंतेण । भणियं कयकिच्चो हं तुममाणेऊण मुच्चिसं ॥३७३।। तं विम्सरियं संपइ पारद्धं अवरमेव किं पितए । कज्जं जइ जुत्तमिमं ता.कुमर ! तमेव जाणासि ॥३७४।। अहुणा अणुहूयमिणं पावं पावाइयाए जं विहियं । सा वि हु मुह-दुक्खाणं तुह भज्जा भायणं जाया ॥३७५।। ता विरममु एयाओ दुरज्यवसियाओ सिट्टवजाओ । परलोयबाह्याओ अप्पवहाओ महाभाग ! ॥३७६।। अन्नं च सगुणं व निग्गुणं वा कज्जकलावं समायरंतेण । परिणामो सव्वत्थ वि चिंतेयव्वो चउरमइणा ॥३७७॥ अवरं च तुहाऽऽकूयं मरिऊण मिलामि निययदइयाए । सव्वमिमं पि महायस ! मुणमु महामोहललियं ति ॥३७८॥ जम्हा उ भवाव? सकम्मफलभोइणो जिया सव्वे । ता तीए सह जोगो होही तुह भद्द ! चित्तमिमं ॥३७९।। चलसीइजोणिलक्खेकसंकडे भववणम्मि भवडंतो । को जाणइ को वि कहिं कहसु महाभाग ! जाइ जिओ? ||३८०॥ ता जइ तुज्झ ममोवरि को वि सिणेहो समस्थि ता मुयसु । मरणकयमसग्गाहं विवेइणो तुह न जुत्तमिमं ॥३८॥ अवरं च जइ पियाए निमित्तमग्गिम्मि पविससि कुमार ! । ता इहई चिय तं तुह भज्जं दंसेमि रिसिदत्तं ॥३८२॥ तं सोउं कणगरहो पञ्चागयजीविओ पयंपेइ । भयवं ! तुज्झमसज्झं कज्जं भुवणे वि नत्थि फुडं ॥३८३।। ता जड तं पाणपियं रिसिदत्तं कहवि पुन्नजोएणं । पेच्छामि ता महायस! जलंजलि देमि मरणस्स ॥३८४॥ अन्नं च जोवियं पि हु तुझ पयच्छामि जइ इमं कुणसि । तेणुत्तं एस वरो चिट्ठउ पासे तुह कुमार ! ॥३८५।। तत्तो तुटो तावसभरवसगेणं इमेण जं वुत्तं । तं होइ तहेव तओ पत्तो कुमरो सपासायं ॥३८६।। तत्तो तावसमुणिणा कहिओ तेसिं सविम्हयमणाणं । रहमद्दणपुरनिस्सारणाइओ निययवुत्तंतो ॥३८॥ ताहे कुमरच्छुरियं घेत्तुं वामं वियारिउं ऊरं । कड्डियमोसहिवलयं जाया रमणीसहावत्था ॥३८८|| Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् आणंदमुव्यहंतेण तेण निझाइया कुमारण । भणियं भो भो ! पेच्छह एस पिया मज्झ रिसिदत्ता ॥३८।। कि एसा सा गउरी ? रई व किं वा ? सरस्सई किं वा ? | किं वा रंभा ? पायालकन्नया का वि किं होज्जा ? ॥३९०॥ इय एवं ते विम्हइयमाणसा सहरिसं पलोयंता । अनिमिसनयणा तित्तिं पावंति न तम्मि पत्थावे ॥३१॥ रुप्पिणि-रिसिदत्ताणं दीसइ पच्चक्खमंतरं गरुयं । सुणया-सीहीण व काइ-रायहंसीण वयणेण ॥३९२।। अन्नं च जणो जंपइ टाणे कुमरम्स एत्थ पडिबंधो । एईए रूवेणं मोहिजड़ को न भुवणम्मि ? ||३९३।। तो रन्ना सा ग्रहविया सव्वालंकारभूसियसरीरा । देवंगनिवसणधरा विहिया कप्पदुमलय व्व ॥३९४।। संजायगरुयहरिसो तीए सह भुंजिउं समारद्धो । पंचप्पयारभोए अवगन्निय रुप्पिणि रमणि ।।३९५।। तं ढ8 रिसिदत्ता चितइ एसो इमीए निन्नेहो । दिविलीओ एवं अवन्नवाओ धुवं मझ ॥३६६।। एसा जइ वि वराई कयावराहा परोवरोहेण । तह वि हु मए इमीए उवयरियव्वं किमन्नेण ? ॥३९७|| उवयरिए उवयारो जो सो वणियाण होइ ववहारो । अवरत्थ जमुवयरियं तं पुण गरुया पसंसंति ॥३९८|| तो कइया वि सहरिसं निययवरं पत्थिओ पयत्तेण । रिसिदत्तपणइणीए तेणुत्तं भणसु जं देमि ॥३९९|| जइ एवं ता एसा दट्टव्वा मज्झ सरिसया सामि ! । एवं तुझ वि मज्झ वि मज्झत्थगुणेण माहप्पं ॥४००॥ जइ एयाए कहमवि तीए पावाए पेरियाए कयं । तह वि हु मह खमियव्वं विसिटकुलसंभवो तं सि ॥४०१॥ इत्थी निद्दयहियया ईसाविसमोहिया सकज्जपरा । फुसिओ एस कलंको एवं तीए कुणंतीए ॥४०२॥ अह अन्नया य भणिओ कणगरहो मंतिपमुहलोएण । मोयाविजउ राया गम्म उ संपइ नियपुरीए ॥४०३।। कुमरेण वि सप्पणयं तहेव विहियम्मि नरवरिंदेण । संवाहिया सहरिसं विभवं दाऊण नियधूया ॥४०४॥ तत्तो सुंदरदिवसे अणवरयपयाणएहिं संपत्तो । पविसइ निययपुरीए पेच्छिज्जंतो पुरजणेण ॥४०५॥ सव्वेयरपासट्ठियरिसिदत्ता-रुप्पिणीहिं परियरिओ । सव्वमयसमयबंधुरसिंधुरखंधे समभिरूढो ॥४०६॥ भणियं केणावि हु मेत्त ! पेच्छ एयं महंतमच्छरियं । एसा किर रिसिदत्ता विणा सिया पाणपुरिसेहिं ।।४०७॥ जाव य सक्खं अक्खंडसुंदरावयवरेहिरसरीरा । दीसइ दाहिणपासम्मि संठिया मुहयकुमरम्स ॥४०८॥ अहवा विहिराए माणुसस्स तं नस्थि जं न संभवइ । अणुकूले कल्लाणं जह जायमिमीए किं बहुण ? ॥४०९।। एवं वियद्दपुरिसेहिं विसइ वन्निज्जमाणगुणनिवहो । पियपरपरिवायत्ता विसेसओ तरुणरमणीहिं ॥४१०॥ सहइ मुहाहाराहिं पियाहिं वि वहुप्पिओ गइंदगओ । रंभा-तिलोत्तमाहिं हरि व्व कुमरो भणइ कावि ॥४११॥ मयरद्धओ व्व कुमरो रइ-पीईहिं व पियाहि परियरिओ । भणियमवराइ [इह हिरि-]सिरिदइओ समयणाहि इमो॥४१२॥ अहवा वि भरहखेत्तस्स मज्झदेसो व्ब धम्मकम्मनिही । सरसाहिं गंग-सिंधूहिं सहइ कुमरो सह पियाहि ॥४१३।। अवराए भणियमेसो हु भागसाराहि भारियाहिं समं । उत्तर-देवकुरू हिं व ससुवन्नो सहइ मेरु व्व ॥४१४॥ सीया-सीओयाहि व विदेहभागो व्व रेहइ सुवासो । सुपओहराहिं सह पिययमाहिमेसोऽवरा भणइ॥४१५।। अन्ना भणइ सुदिट्ठीहिं संगओ सहइ पिययमाहिमिमो । दसण-नाणसिरीहिं व चरित्तराओ व्व सिवजणओ ॥४१६ इय नायरनर-नारीनिवहेणं नंदणो नरिंदम्स । वन्निजंतो पविसइ पए पए कोउयक्खित्तो ॥४१७॥ पत्तो य रायभवणं रुइरुल्लोयं ललामललणोहं । विरइयवंदणमालं पूरियमुत्ताहलचउक्कं ॥४१८॥ विहियं वद्धावणयं रण्णा कुमरागमम्मि हरिसेणं । हरिसपणच्चिरवरवारविलयतुटुंतहारलयं ॥४१९॥ वजंततूरनिवहं गायणगिजंतरायगुणनिवहं । विद्धाजणनिव्वत्तियकुमरोयारणयरमणीयं ॥४२०॥ चलणेसु पाडियाओ सासुय-ससुराइयाण बहुयाओ। रिसिदत्ताए कहिओ सव्यो कुमरेण वुत्तंतो ॥४२१ समुराइएहिं तत्तो खमाविया आयरेण रिसिदत्ता । खमसु महासइ ! जंतुझ विहियमसमंजसं किंपि ।।४२२॥ पव्वाइयाए चरियं नाऊणं विम्हिया नयरलोया । पेच्छ जहा धुत्तीए अम्हे वि हु वंचिया तीए ॥४२३॥ अणुरायपरवसाहिं दोहिं वि [ भज्जाहिं ] सह कुमारस्स । विसयमुहमणुहवंतस्स कोइ कालो वइक्वंतो ॥४२४॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे 1 अह अन्नयाय चडनाणसंजुओ सगुणसमणपरियरिओ । सिरिभद्दजसो सूरी विहरंतो तत्थ संपत्ती ||४२५ || तत्तो राया नायरजणेण चउरंगबलविभूईए | कुमरेण य परियरिओ चंद्रणवडियाए नीहरिओ || ४२६ || सोऊण सृरिमुहकुहरनिग्ायं धम्मतत्तममयसमं । पडिवृद्धी हेमरहो संजायचरित्तपरिणामो ॥ ४२७॥ अभिवंदिऊण मुणिनाहचरणतामरसमसमसंवेगो | सव्वेसि मंतीणं निवेइउं नियमभिप्पायं ॥ ४२८ ॥ सव्वंगलवखणधरं नियए रज्जम्मि मुहमुहुत्तम्मि । टविऊणं हेमरहो कणगरहं धरणधीरेयं ॥ ४२९|| दाई दादा घोसाविउ अभयदानं । विहिणा जिणभवणेसुं काऊणऽट्टा हियामहिमं ॥४३०|| चइऊणं रज्जसिरिं निरुवमविष्फुरियजीवचिरियगुणा । गरुईए विभूईए निक्खतो निम्मलजसोहो ॥१३१॥ अब्भसियदुविहसिक्खो खंतिखमो महियमोहपडिवक्खो । पंचसमिओ तिगुत्तो विहरइ गुरुवयणपविद्धो ||४३२॥ कणगरहो वियराया अप्पडियसासणी महीचीढे । असमपयाचपरक्कमवसीकया से सवरिगणो ॥ ४३३ ॥ वित्थरियकोस कोट्टायारो निट्टवियकंटयसमूहं । उवसंत डिंब डमरं पालइ रज्जं जणाण मओ ||४३४ || अह अन्नयाय महरिहविसिट्टमुसिलिट्टकट्ट घडियम्म । सुपसत्यवत्यविरइयमहल्लउल्लोयलडहम्मि || ४३५॥ रुद्रपणवन्नविरइयविचित्तविच्छित्तिचित्तयम्मम्मि । उज्यंत धूयघडियासुगंधिगंधाभिरामम्मि ||४३६॥ तंबूल-पुप्फपडलयसमभ्गभोगंगगरुयगामम्भि | भुवणऽच्चन्य भूभचणम्मि सुवासभवणम्मि ||४३७|| सुकुमालतूलिकलियम्मि मउयगंडोवहाणमुहयग्मि । आलिंगिणि गल्लमसुरिया इसामग्गिरुइरम्मि || ४३८ ॥ उस्सीसयपंचसमुन्नयम्मि मज्झे गभीरविणयम्मि । नवणीयतूलफासम्म सुरनईपुलिसरिसम्म ||४३९|| सुहसम्म सुत्ता चिंता - संताव-सोयरहियमणा । निवपट्टमहादेवी रिसिदत्ता नियइ सुमिणमिमं ॥ ४४०॥ किर मह उच्छंगगओ सारयरयणियरधवलसवंगो । खंधप्पएसपारूढकविलकेसरसडासुहओ ||४४१|| वियडकडिभायरुइरो तणूयरो तिक्ख-विडदाढालो । सीहकिसोरो ग्रुपसन्नलोयणो पियइ थणीरं ॥ ४४२ ॥ तयं सुमिणं निवेयए निवरण पहिदुमणा । सो वि य गरुयपरक्कमसुयलाभेणं सुहावे ||४४३|| तत्तो नवह मासाणमुवरि अट्टमाण य दिणाण । उच्चट्टाणगए हेमु सुपसत्यदिवसम्म || ४४ || विष्फुरिय तेयपच्भारपयडियासेस दिसिवह्वयणं । पुव्वदिसारविबिंबं व सा पसूया सुयं देवी || ४४५|| वृद्धाविओ पियवयणियाए दासीए कणगरहराया। दाऊण तीए निवो वंछाअद्दित्तवमुद्राणं ॥ ४४६ ॥ कारावड़ नयरम्मिं कुमारजम्मम्मि गरुयरिद्धीए | पडहयपयाणपुत्रं वद्धावणयं पुहइना हो ||४४७|| तं च केरिसं ?— २५८ वज्जिरगहिर मणोहरतूरा रवमुहल, जहिं नवरंगयनिवसणु नारीयणु सहलु | रभसपणच्चिरसुंदरवारविलयनिवहु, जहिं सबु सम्माणिज्जइ नायरजणु सबहु ||४४८ || ठाँचि ठाँचि जहि गिज्जइ चच्चर सवणसुह, मग्गि मग्गि मग्गिज्जहिं जहिं नरवड़ पमुह । भवणि भवणि उभिज्जहिं जहिं जूचय-मुसल, पड़ पड़ जहिं पृइज्जहि सत्था ऽऽगमकुसल ||४४९ ॥ चंद्रणमालालंकिय तोरण जहिं सहहिं, वत्था ऽऽहरण परोप्पर जहिं नायर लहहिं । चट्टट्ट जहिं दीसइ तेल्लचुयंतसिर, बद्धावणउं त बन्नि सक्कहिं कवण किर ? ४५० ॥ 'जीव नंद नंदय' व सुव्वहिं जहिं वयण, जहिं संतुट्टउ नरवर वियरइ रह रयण । अभयदाणु जहिं दिज्जइ मणह सुहावणउं, तं तर्हि हरिसिं वित्त निरु वद्धावणउ ॥ ४५१ ॥ एवं वद्धावणए सुहेण चित्ते सुहम्मि दिवसम्मि | सीहरहो त्ति विइन्न कुलविद्धाहिं कुमरनामं ॥ ४५२ ॥ एवं सो दिवसं वित्थय कुलन हयलम्मि बडुंनो | चंद्रो व्व सुकपक्खे सयलजणाणंदणो कुमरो ||४५३ || विज्जागहणसमत्थो संजाओ अट्टवरिसपरिमाणो । लेहायरियसया से कलाण सव्वाण पारगओ ||४५४ ॥ अह अन्नयाय या रिसिदत्ताए पियाए परियरिओ । पासायोवरि वायायणम्मि लीलाए ललइ सुहं || ४५५॥ For Private Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ २६. भावराल्यानालोचनदोपाधिकारे ऋपिदत्ताख्यानकम् पेच्छइ य गयणभागे मुहुमं सम्मुच्छियं जलयखंडं । पच्छा विद्धि पत्तं तहेव रन्नो नियंतम्स ।।१५६।। पणवन्नरुइस्वत्तावयवं मण-नयणमुह्यरं जायं । सिइ नहलच्छीए कंचुयलील विडंबंतं ॥४५७|| तत्तो पेच्छंतम्स वि पयंडपवणायं कुओ वि गय । पुच्छइ देविं दहए ! दिट्ट फुडमिंदियालमिमं ॥४५८|| जह एयं तह सव्वं भवम्मि पडिबंधकारणं मुणसु । पिय-माइ-कलत्त-सुमित्त-पुत्त-बल-रुव-रज्जाइ ॥४५९|| पेच्छ पिए ! एवंविहभवासरूवं वियाणमाणा वि । न कुणंति धम्मतत्ति विसयामिसमोहिया जीवा ।।४६०॥ मायन्हियाहिं नडिओ जलबुद्धीए जहा भमइ कोई । तह जीवो विसयवसो भवगणे भमइ सुहवुद्धी ॥४६१॥ जह किंपागतरुफलं मुहम्मि महुरं कुणंति खजंतं । तह आवाए सुहया परिणामे दारुणा विसया ॥४६२॥ जह वा मुहम्मि महुरं मारइ हालाहलं विसं भुत्तं । तह विसया वि हु पावा मारंति जियं भवावट्टे ||४६३॥ घेव विसमसल्लेण सल्लिओ कोवि दुक्खिओ तोइ । तह विसयसल्लिओ विहु भवम्मि जीवो वसइ दुहिओ॥४६४॥ अन्नाणमोहमूढा तुच्छामिसविसयमोहिया जीवा । न मुणंति आयइदुहं विवागरूवं जओ भणियं ॥४६५॥ जह किर दुद्धं पेच्छइ मज्जारी न उण लउडयं मुद्धा । तह मूढो विसयसुहं पेच्छइ नो नरयदुक्खाइं ॥४६६।। ता उज्झिउंदुरते एए विसए अणत्थफलजणए । सुगुरुसमीवे कुणिमो परलोगसुहावहं धम्मं ॥४६७|| एवं वेरग्गगओ राया सह पिययमाए ओयरिओ। काऊण रज्जचिंतं सुत्तो रयणीए सुहसयणे ।।४६८॥ तत्थ वि वेरग्गगओ गुरु-धम्मियसंकहाहिं सुहलेसो । अइवाहिऊग रयणिं मुणइ पहाए पढिजंतं ॥४६॥ जन्मेदं न चिराय भूरिभयदा लक्ष्म्योऽपि नैव स्थिराः, झिम्पाकान्तफला नितान्तकटवः कामाः क्षणध्वंसिनः । आयुः शारदमेघचञ्चलतरं ज्ञात्वा तथा यौवनं, हे लोकाः! कुरुताऽऽदरं प्रतिदिनं धर्मेऽधविधासनि ॥४७०॥ तं सोऊणं भणियं पिए ! सुभासियमिमं पढइ कोइ । मह चिंतियत्थसरिसं ता कुणिमो उज्जमं धम्मे ॥४७१॥ इय राया सह नियपिययमाए संवेयभावियमईओ। काऊप गोसकिच्चं उवविट्टो रायअत्थाणे ||४७२।। एत्थंतरम्मि उज्बाणपालएणं कयंजलिउडेणं । विन्नत्तो देव ! तुमं वद्धाविज्जसि सपरिवारो॥४७३|| उज्जाणे संपत्तो विहरंतो तुह गुरू जणयसहिओ । दाजग पारितोसियदाणं वद्धावयनरम्स ॥४७४|| संचलिओ भत्तीए वंदणवडियाए सहरिसो राया। काउं पयाहिणतियं उवविठ्ठो रइय करकमले ॥४७५॥ गुरुणा वि हु पारद्धा जलहरगंभीरसुस्सररवेण । भवियाण बोहत्थं धम्मकहा धम्मवुद्धीए ॥४७६॥ पंचिंदियत्तणं माणुसत्तणं आरिए जणे सुकुलं । साहुसमागम सुणणा सद्दहणाऽऽरोग फबजा ॥४७७॥ इय एवं भो भव्वा ! सुदुल्लहो एरिसो गुणकलावो । ता पाविय सामग्गिं जिणधम्मे उज्जम कुणह ॥४७८॥ एत्यंतरम्मि भवभमणीयहियएण धम्मरसिएण । सिवसोक्खलालसेणं मुणिनाहो पुच्छिओ रन्ना ॥३७॥ भयवं चउगइरुवे भमइ जिओ केण भीमभवगहणे ? । सासयसोक्खे वच्चइ केण व कम्मेण वियमलो ? ||४८०॥ तो मुणिवइणा भणियं आयन्नसु भ६ ! अवहिओ होउं । हिंडइ भवम्मि जीवो कम्मेणऽट्टप्पयारेण ॥४८॥ तं च इमं नाणस्स दंसणस्स य] आवरणं वेयणीय माहणियं । आउय नाम गोयं तहंतरायं च कम्ममिमं ॥४८२॥ पंच नव दोन्नि अट्ठावीसं चउरो तहेव बायाला । दोन्नि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव ॥४८३|| बंघस्स मिच्छ-अविरइ-कसाय-जोगा य हेयवा चउरो । पंच दुवालस पणुवीस पनरस कमेण भेया सिं ॥४८४॥ आभिम्गहियमणाभिग्गहं च तह अभिनिवेसियं चेव । संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा एवं ॥४८५॥ बारसविहा अविरई मण-इंदियअनियमो छकायवहो । सोलस नव य कसाया पगुवीसं पन्नरस जोगा ॥१८६|| सामन्नेणं एए विसेसओ बंधहेउणो तस्स । नाणपडणीययाई पइकम्म सुत्तओ णया ॥४८७|| तत्थ वि आरंभेणं गरुएण परिम्गहेण पावेण । कुणिमाहारेणं अहमरूवपंचिदियवहेणं ॥४८८|| निव्वत्तियनरयाऊ जीवा गुरुकम्मभारिया नरए । निवडंति सरणरहिया जलम्मि अयगोल उव्व अहे ||४८९॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आख्यानकमणिकोशे तत्थ य छिदण-भिंदण-उक्त्तण-दहण-दंभणाईयं । विसहंति तिव्ववियणं तेत्तीसं सागरा जाव ॥४९॥ तत्तो वि य उबट्टा जीया तिरिएसु जति विविहेसु । मायाबहुला बहुकवडकूडपरवंचणुज्जुत्ता ॥४११॥ तत्थ वि वाहण-दोहण-दहणंकण-छुह-पिवास-सहणाई। भारारोवण-सीया-ऽऽयवाणसहणं सहति दुहं ॥४९२॥ तत्तो वि खवियकम्मा-पयईए पयणुमाण-मय-कोहा । अज्जवगुणभावियमाणसा य मणुया पयायंति । ४९३|| तत्थ वि दारिद्दहया दोहग्गकलंकदूसियसरीरा । कुकलत्तपराभूया अपत्तपुत्ताइसंताणा ॥४९४॥ मुक्खत्तसिरोमणिणो कुवन्न-कुस्सर-कुरुवयाभिहया। आजम्मं बहुविहकास-सास-रोगाभियतणुणो ॥४९५|| तम्हा तेसु वि सोक्खं न किंपि परमत्थओ महाराय ! | नवरमिमो मणुयभवो धम्मगुणाराहणाओ सुहो ॥४६६॥ जम्हा मणुयभवे च्चिय पडिवन्नो संजमो तवो होइ । दव्वत्थओ य परमो विसिट्टसम्गोऽपवग्गो य ।।४९७॥ परमेयम्मि वि बहवो निम्वित्ताणा सिणेहपडिबद्धा । बहुविहपावपरिग्गहमुच्छियहियया कुबुद्धीया ॥४९८|| जोव्वणमयउम्मत्ता परलोयपरम्मुहा पमायपरा । विसयासत्ता अजरामर व्व चिट्ठति मूढऽप्पा ॥४९॥ देवेमु वि नत्थि सुहं चिंतिज्जंतं सतत्तबुद्धीए । ईसाविसायपरपरवसित्तदुहदूमियमणेसु ॥५००॥ ते वि हु कोहाभिहया माणमहासेलचंपियावयवा । मायासल्लियहियया लोहमहाजलहिणिन्छुड्डा ॥५०१॥ विज्जति कसाया जत्थ निव्वुइं तत्थ राय ! मा मुणसु । पज्जलइ जत्थ जलणो जाण को तत्थ मुत्थत्तं ? ॥५०२॥ किं बहुणा भणिएणं ? पभवंति कसायसत्तणो जत्थ । गयणे अरविंदं पिव मा जोयमु तत्थ सुहसत्तं ।।५०३।। इय चउगइभवरूवे संसारे दुक्खिओ भमइ जीवो । संपय सासयसोक्खे मोक्खे जह वसइ तह मुणसु ॥५०४॥ मोक्खो असेसकम्मस्स संखए सो य संवहेऊण । मिच्छत्ता-ऽविरइ-कसाय-दुट्ठजोगाण सव्वेसिं ॥५०५॥ होइ विपक्खासेवणदारेण नरिंद ! सो उण विवक्खो । सम्मत्त-णाण-दसण-चरणाणि विमुद्धरूवाणि ॥५०६॥ जह वत्थाईण मलो सुज्झइ मुहवारिसंपओगेण । तह सम्पाइपओगा कम्ममलोऽवेद जीवाणं ॥५०७|| तो सव्वकम्मविगमे सरूवलाभम्मि निच्चओ जीवो । सासयसोक्खे मोक्खे अणाइनिहणं वसइ कालं ॥५०८।। सो तम्मि निराबाहो केवलवरनाण-दसणपईयो । अणुभवमाणो निवसइ निरुवमसोक्खं जओ भणियं ॥५०९॥ न वि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जे सोक्खं सिद्धाणं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥५१०॥ जह नाम कोइ मेच्छो नयरगुणे बहुविहे बियाणंतो । न चएइ परिकहेउवमाए तहिं असंतीए ॥५११॥ इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं नत्थि तम्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणेत्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं ॥५१२॥ जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तण भोयणं कोइ । तन्हा-छुहाविमुक्को अच्छेज जहा अमयतित्तो ॥५१३॥ इय सव्वकालतित्ता अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही मुहं पत्ता ॥५१४॥ इय सोउं उवएसं सवणसुहामयपवाहसारिच्छं । भवभयसंभंतो भणइ भूवई भव्बपरिणामो ॥५१५॥ भयवं! जं तुम्मे भणह भीमभवभयमिमेसि भव्वाणं । भवभयभीयाणं तत्थ विभमो मह मणे नत्थि ॥५१६॥ ता एवं मणुयभवं सफलं काहामि तुम्ह पासम्मि । पडिवज्जिय पव्वजं काऊणं रज्जमुत्थत्तं ॥५१७॥ एत्थंतरम्मि मत्थयनिहित्तकरकोससंपुडा देवी । रिसिदत्ता मुणिनाहं परिपुच्छइ पउरपच्चक्खं ॥५१८॥ भयवं ! रक्खसिवाओ मह जाओ केण कम्मुणा ? कहह । नाऊणऽइसयनाणेण कोऽयं मज्झ अइगरुयं ॥५१॥ तो पारद्धो कहिउं भद्दजसो गणहरो मिउगिराए । अवहियचित्ता होउ खणमेक्कं सुणसु तं भद्दे ! ॥५२०॥ अस्थि इह जंबुदीवे नयरं गंगा उरं मणभिरामं । चित्तमिम ज़ न तयं कयाइ विसमक्खपरिभुत्तं ॥५२१।। तं पालइ नरनाहो अरिवम्गकुरंगसंहरणवाहो । नामेण गंगदत्तो रिओगयघडदलणथिरसत्तो ॥५२२॥ सव्वंते उरसारा गंगा नामेण तस्स पियभज्जा । नामेण गंगसेणा तस्स सुया सव्वगुणदइया ॥५२३॥ चंदजससाहुणीए पासे तीए जिणिदपन्नत्तो । पत्तो धम्मो सा तं परिपालइ सुद्धपरिणामा ॥५२४॥ ITIM १. जीवस्स रं०। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् धम्मामयतित्तमणा दूरं परिचत्तविसमविसयतिसा । वज्जियपरिणयणकहा चिट्ठइ सा धम्मगयबुद्धी ॥५२५॥ अवरा वि तत्थ एगा संगा नामेण साविया अस्थि । दारिद्दभरकता निवखंता साहुणिसयासे ||५२६॥ सा कुणइ तवं उम्गं वयमाहप्पेण पूयए लोगो । रायसुया वि हु तप्पइ किंपि तवं अंबिलाईयं ॥५२७॥ नवरं न कोवि बन्नं कुणइ गिहत्थ त्ति काउमेईए । तत्तो सा निवधूया मच्छरमुबहइ संगाए ॥५२८|| भणइ य एसा वइणी रयणीए बलेण खाइ मडयाणि । ताहे सवो वि जणो पत्तिन्तो रायधूयाए ॥५२९।। सा वि हु सकयफलमिमं ति सम्ममहियासए विवेयवसा । तीए तं पुण कम्मं बद्धमभक्खाणसंजणियं ।।५३०॥ भमिऊणं संसारे दुहपउरे एत्थ चेव गंगउरे । जाया नरिंदतणया पत्तो जिणदेसिओ धम्मो ॥५३१॥ गहिऊणं पव्वज्जं तवोविहाणं समायमायरइ । तो मायाणुट्टाणं अभक्खाणं च संगाए ॥५३२॥ मुगुरुणमणालोइय नरिंदधूया तहेव य ससल्ला । मरिऊणमग्गमहिसी ईसाणिंदम्स संजाया ॥५३३॥ तत्तो चविडं जाया तुममेसा इहभवम्मि रिसिदत्ता । इय मुणिउं नियचरियं जाईसरणेण संबुद्धा ॥५३४॥ चलणेसु निवडिऊणं गुरुणो संजायगरुयसंवेगा । भणइ गुरुं भयवमिमं सव्वं सच्चं भणह तुठभे ॥५३५।। रायाई सयलजणो विम्हइओ नियुणिऊण गुरुभणियं । रिसिदत्ताए चरियं जाओ दुच्चरियभयभीओ ॥५३६।। कणगरहो विय राया रज्जे अभिसिंचिऊण सीहरहं । महया विच्छड्डणं कारविय जिणिंदपूयाओ ||५३७॥ सिबियाए समारूढो कुणमाणो सासणुन्नई परमं । सकलत्तो निक्खंतो विहिणा गुरुपायमूलम्मि ॥५३८|| अन्भसियदुविहसिक्खो तवसा संखवियघाइकम्मंसो । उप्पन्नविमलनाणो वियाणियासेसनायवो ॥५३९|| केवलिपरियायं पालिऊण पडिबाहिऊण भवियजणं । सासयसोक्खे मोक्खे संपत्तो सह कलत्तेण ॥५४०॥ ॥ऋषिदत्ताऽऽख्यानकं समाप्तम् ॥११॥ इदानीं मक्षिकामलाख्यानकमाख्यायते । तश्चेदम् उज्जेणीनयरीए जियसत्तुनराहिवस्स रचम्मि । नामेणं मल्लमरकट्टणो अट्टणो मल्लो ॥१॥ सो उण समुद्दतीरे गेन्हइ सोपारयम्मि नयरम्मि । गंतूण जयवडायं सीहगिरिनिवस्स रज्जम्मि ॥२॥ चिंतियमिमिणा रजंतराउ आगम्म मज्झ मल्लमहे । घेत्तूण जयवडायं जाइ इमो परिभवो मज्झ ॥३॥ तो अहमिहि मल्लं महाबलं चिंतयामि नियरज्जे । एवं जा गविसावद ता पेच्छइ पुरिसमेगं सो ॥४॥ उचियसाणियमंस वियडकडि पिहुलवच्छयलभायं । पोण-समुन्नयखंधं करिसुंडायारभुयदंडं ॥५॥ महु-मंसभक्खणरयं सुराए मत्तं सरेहि विझंतं । लगते वि हु न मुणइ बाणपहारे मयवसेणं ॥६॥ भणइ य कुओ वि लग्गंति मच्छियाओ सतिक्खतुंडाओ। तो सो रण्णा ठविओ मच्छियमल्लो निए रज्जे ॥७॥ अन्नम्मि महे जाए मच्छियमल्लेण अट्टणा जित्तो । तेणावि चिंतियमहं जित्तो वुढ तणेणिमिणा ॥८॥ एसो पढमवयत्थो अयं तु जराए चउविहबलेणं। अक्कमिओ सञ्चत्तो पराभिभूओ जओ भणियं ॥९॥ सयणपराभव-मुन्नत-वाउ-सिभाइयं जरासेन्नं । गरुयाणं पिहुबलमाण-खंडणं कुणइ वुड्डत्त ॥१०॥ तो तेण तरुणमल्लं सुरदृचिसए निरूवयंतेण । दूरुल्लकृवियाए सच्चविओ हालिओ एगो ॥११॥ एगेण वाहइ हलं करेण फलहीउ लुणइ अवरेणं । तं दट्टणं तुट्टो एसो मह वंछियं काही ॥१२॥ जं बलमाहाराओ तेण परिक्खामि भोयणमिमम्स । एत्थंतरम्मि भज्जा भत्तं गहिऊण संपत्ता ।।१३।। कूरस्स भरिय पिडयं कुइयं कुसणस्म सव्वमवि भुत्तं । भुत्तस्स वि परिणामं जा जोयइ ता तयं पि सुहं ॥१४॥ तो भणियं किं खिजसि ? आगच्छ करमि ईसरं जेण । पडिवन्ने भज्जाए निम्बाहं चिंतिउं नीओ ॥१५॥ काऊण कायमृद्धि आहाराई हिं पोसिओ चिहिणा । सिक्खविओ य निजद्धं कयकरणो जाव संपत्तो ॥१६॥ मल्लमहे संजाए मच्छियमल्लेण जोहिओ तेण । पढमे दिणम्मि न जओ पराजओ न वि य मल्लाणं ॥१७॥ बीयम्मि दिणे फलहियमल्लो दुक्खंतयं सरीरम्मि । पुट्ठो य अट्टणेणं तेण वि कहियं जहावत्तं ॥१८॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आख्यानकमणिकोशे अभंगण-मदण-लेयणहिं विहिओ पुणन्नवो तेण । मच्छियमल्लो पुट्टो भणइ ममं तस्स पिउणो वि।। ।।१९ गन्नं न किंपि तहप दिगम्मि अंबाडिए सरीरम्मि । न चयइ चलिर्ड थंभो व्व संठिओ अचलठाणणं ॥२०॥ सुमराविण फल हियपओगमियरेण तोडियं सीसं । पत्ता फलहियमल्लेण रंगमञ्झे जयवडाया ॥२१॥ अट्टणसरिसा गुरुणो मल्लसमा साहुणो समक्खाया । अवराहा य पहारा आराहणया जयबडाया ॥२२॥ ॥मक्षिकामल्लाख्यानकं समाप्तम् ॥२॥ अन्नाणाओ जहेसिं गुरुणो णाऽऽलोइयं सदुच्चरियं । जायं अणिटफलयं तह अन्नस्सावि दट्टव्वं ।। नानर्थमङ्गिनिवहस्य रिपुर्विवृद्धस्तादृक्षमुग्रकरवालकर: करोति । यादृक्षमेतदिह शल्यमनुधृतं सत् , कुर्यादतस्तदलमुद्धरताऽऽशु सम्यक् ।। ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे भावशल्यानालोचनदोषप्रकटन ___ एकोनत्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥२६॥ [ ३०. मोहालमृतकुगतिपातदर्शकाधिकारः] सम्यगनालोचनमरणे दोषोऽभिहितः । एतच्च मोहवशगस्य भवतीत्याह मोहेणऽदृवसट्टो जो कालं कुणइ जाइ सो कुगई। तावस-सागरदत्त व्व नंद-ललियंगजणणि व्व ।।३।। व्याख्या—'मोहेन' मोहनीयकर्मणा 'आर्तवशातः' इति आर्तस्य–आर्तध्यानस्य वशः-आयत्तता तेन ऋतः-पीडितः आर्तवशातः यः कश्चित् 'कालं' मरणं 'करोति' विधत्ते 'याति' गच्छति स प्राणी कुगतिं नरक-तिर्यग्गतिरूपाम् । दृष्टान्तानाहतापसश्च श्रेष्ठी सागरदत्तश्च-वणिक ताविव तद्वत् , नन्दश्च-मणिकारः ललिताङ्गजननी च वासुदेवपूर्वभवमाता ते तथोक्ते, ते इव तद्वदिति गाथासमासार्थः ।। व्यासार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्र तावत् क्रमागतं तापसाख्यानकमभिधीयते । तच्चेदम् आसी कोसंबिपुरीए तावसो नाम विस्सुओ सेट्ठी । मोहवसट्टो मरिउं सगिहे चिय सूयरो जाओ ॥१॥ दळूण निययभवणं जाओ संजायजाइसरणो सा । तं न मुयइ मणयं पि हु अहऽन्नया तस्स [दिवस ति?] ॥२॥ तकज्जे तस्स सुएण सयणवग्गो निमंतिओ सब्यो । विहिया मंसाईया महुररसा रसवई तत्थ ॥३॥ मज्जारेण महाणसगिहाओ नीयम्मि संभिए मंसे । दिट्टो रसोयणीए भीयाए सूयरो तत्थ ॥४॥ नीओ य तओ विजणम्मि मारिओ विरसमारसंतो सो। पइऊण तस्स मंसं दिन्नं सयणाण सव्वेसिं ॥५॥ सो पुण अट्टज्माण विसहरो तत्थ भीसणो जाओ। दळूण गिहं संजायजाइसरणो न तं मुयइ ॥६॥ दिट्ठो य पीढिविवरे भवगभंतरगएण पुतणं । विद्धो तहडिओ सो झड त्ति कुंताइणा तेण ॥७॥ मरिडं सुण्डाए मुओ जाओ विद्धिं गओ गिहं दटुं। संजाइजाइसरणो विचितए किह भणिस्सामि |||| ताय त्ति पुत्त मेयं मुण्हं जणणि त्ति लज्जमाणो सो । जाओ मूओ पियरेहिं कारिया मंतवाया से ॥९॥ मोणट्रिओ न पउणो जायइ सो अन्नया समोसरिओ। सूरी ओहिन्नाणण संजुओ नयरिउज्जाणे ॥१०॥ भिक्खावेलासमए मुणिणो गुरुणा पयंपिया एवं । अमुगाहिनाणसंजुत्तभवणदारप्पएसम्मि ॥११॥ पेच्छिस्सह वणियसुयं तं पइ वत्तव्यमेरिसं वयणं । तावस ! मोत्तु मोणव्वयं इमं कुणासु जिणधम्मं ॥१२॥ मरिऊण सूयरो तं जाओ तह विसहरो सुयसुओ य । इय भणिए से होही पडिबोहो तयणु ते मुणिणो ॥१३॥ इच्छं ति भणिय भिक्खाए निग्गया पइगिहं भमंतेहिं । तेहिं सडिंभो डिंभो दिट्ठो भणियं च गुरुभणियं ॥१४॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. मोहातमृतकुगतिपातदर्शकाधिकारे तापसाख्यानकम् २६३ सोऊण इमं चलणसु निवडिओ मुणिवराण सो झत्ति । अम्मा-पियरो दट्टण चेट्टियं तस्स चितंति ॥१५॥ नूणं मंतपओगो कोइ कओ मुगिवरहिं पयस्स । ताणमिमं चिंताण तेण ते पुच्छिया मुणिणी ॥१६॥ किह भयवं मह चरियं नायं ? गुरुवयणआ त्ति तेहुत्ते । भणियमिमेग कहि ते ? ठाणं सिटुं तओ तेहिं ॥१७॥ पडिलाभिऊण मुणिणो डिभो अम्मा-पिऊहिं संजुत्तो । पत्तो गुरुण पासम्मि पणमिउं तत्थ उवविट्ठो ॥१८॥ गुरुणा वि तस्स चरियं कहियं विहिया य देसणा परमा । सम्मत्तं संपत्त अम्मा-पिउजुत्तडिंभेण ॥१९॥ ॥ तापसाख्यानकं समाप्तम् ॥३॥ सागरदत्ताख्यानकमाख्यायते उड्डुमरसमररिउकरडिकरडतडपाडणेकखरनहरो। कुसुमपुरन्मि पुरम्मि अस्थि निवो डमरसिंहो त्ति ॥१॥ तत्थ य सागरदत्तो सेट्ठी निवसइ पभूयधणकलिओ । गुणचंदो नामेणं तस्स सुओ अन्नदिवसम्मि ॥२॥ भणिओ सागरदत्तेण नियओ वच्छ ! दुक्खलक्खेहिं । लच्छी एसा संकलइ सा वि गेहम्मि संठविया ॥३॥ सज्झा जायइ तकर-निव-गोत्तिय-मित्त-जलणमाईण । तो सुन्नमसाणम्मि एसा किजउ निखाय त्ति ॥४॥ जेणावइसिंधुवईए निवडियाणं सुजाणवत्तं व । नित्थरणत्थं जायइ एवमिई पभणिए पुत्ते ॥५॥ नियतणएणं सहिआ कलसं भरि सुवन्नटंकाणं । रयणीए संपत्तो सागरदत्तो मसाणम्मि ॥६॥ निवखणिउं तेहिं तहिं तं दव्वं विरइयाई चिन्हाई। एत्तो य नाइदूरट्टिएण कप्पडियपुरिसेण ॥७॥ पहसंतेणं मुत्तेण पेच्छिउं तं विचिंतियं तेण । जइ कहवि इमे नियमंदिरम्मि गच्छंति तो पच्छा ||८|| अयं घेत्तणमिमं करेमि विविहे समीहियविलासे । सागरदत्तेणावि ह भणिओ पुत्तो जहा वच्छ ! ॥९॥ आगच्छ तुमं आसावलोयणं काउमिह सुओ तयणु । अइनिउणो ताय !तुमं ति जंपिउं काउमारद्धो ॥१०॥ हिंडंटेणं दिट्टो कप्पडिओ विगयसासनिम्सासो । सुत्तो धणलोभाओ कवडेणं मडयसारिच्छो ॥११॥ चिंतियमिमिणा एसो मओ य जीवइ व इय परिक्खाए । तो तम्स सवणजुयलं छिन्नं जणयस्स तं कहियं ॥१२॥ जंपइ सो ताय ! मओ इय लिंगा लक्खिओ भणइ जणओ। धणलोभेणं तं नत्थि जं न विसहति इह जीवा ॥१३॥ सम्मं निरू विऊणं पुणरवि आगच्छ तो गओ तत्थ । नासावंसं मूलाओ छिंदिरं आगओ पुत्तो ॥१४॥ नायं जहा मओ सो पत्तो सेट्ठी गिहम्मि सो वि पुणो । कप्पडिओ तं दव्वं घेत्तूणऽन्नत्थ गोवेउं ॥१५॥ गिण्हित्तु तयं थोवं लेइ तओ बत्थ-आभरणमाई । भुंजइ अणंगसेणापणंगणाए समं भोए ॥१६॥ अन्नम्मि दिणे तेणं विहिया उज्जाणिया वरुज्जाणे । दिन्नं दीणाईणं दाणं वित्थारियं तेहिं ॥१७॥ नयरम्मि जहा अहिणवधणओ दाणं पयच्छए अज्ज । अइमसिणवसण-संविहियसवणजय-नासियाविवरो ॥१८॥ नियुणित्तु जणाओ इमं सागरदत्तो विचिंतए एवं । सोऽयं पुरिसो होही निरूविओ जो मसाणम्मि ॥१९॥ ता इमिण मिम दवं गहियं होहि ति चिंतिऊण तओ। कहिउं पुत्तस्स तयं गओ निसाए मसाणन्मि ॥२०॥ जाव निहालइ सम्मं न हु पेच्छइ ताव तत्थ तं कलसं । तो जायनिच्छएणं निवेइयं राइणो एवं ॥२१॥ अज्जं जेणुज्जाणी विहिया सो दवहारओ मझं । अवहरियं सव्वस्सं इमिणा ता सामि ! वालेसु ॥२२॥ तो रन्ना रुट्टणं आहुआ सो निउत्तपुरिसाह । आगंतु निवपुरओ पणामपुव्वं समुवविट्टा ॥२३॥ तत्तो रन्ना सेट्टी पयंपिओ भणसु तुझ जं हरियं । इमिणा सो आह सुवनटंकपरिपूरिओ कलसो ॥२४॥ नरवइणा पुट्टेणं कहिओ चोरेण सव्ववुत्तंतो । आमूलनासियाछेयणाइओ भणियमवरं च ॥२५॥ नियअंगाइं विवित्त गिण्यिं जं मए दविणजायं । तं कहमप्पेमि ? निवेण भणियमन्नायरसिएणं ॥२६॥ तम्सत्तरंजिएणं भद्दय ! जइया समप्पए सेट्टी । सवणाई अंगाई तइया तुमए वि एयस्स ॥२७॥ अप्पेयव्वो अत्थो त्ति जंपिउं दो वि नरवरिंदेण। सट्टाणे पट्टविया चोरो विलसइ जहिच्छाए ॥२८॥ १. पथश्रान्तेन । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आख्यानकमणिकोशे सेट्टी वि हु तं अत्थं अलहंतो मोहमोहिओ तम्मि । अट्टवसट्टोवगओ मरिऊणमहोगई पत्तो ॥२९॥ ॥ सागरदत्ताख्यानकं समाप्तम् ॥१४॥ इदानीं नन्दाख्यानकमारभ्यते । तच्चदम् रमणीयदेउला-ऽऽरामराइए पुरवरम्मि रायगिहे । सिरिवीरनाहकमकमलमहुयरो लेणिओ राया ॥१॥ मणियारवणियवग्गस्स अग्गणी गुणमणीनईनाहो । सेट्टी नंदो नामेण माणणीओ निवम्सऽत्यि ॥२॥ अह अन्नया य भुवणेक बंधवं वद्धमाणजिणनाहं । समवसरियं निसामिय समागओ वंदणथमिमो ॥३॥ भूमीमिलंतभालोऽभिवंदिउं जिणवरं समुवविट्टो । विहिया तिलोयगुरुणा तत्तो सदसणा तम्स ||४|| तं निग्नुणिऊण नंदो गिहत्यधम्म दुवालसविहं पि । पडिवजिऊग तह पगमिऊग सामि गिहं पत्तो ॥५॥ सम्मं गिहत्थधम्म परिपालइ वड्डमाणपरिणामो । संसारुत्तिन्नं पिव अप्पाणं मन्नमाणो सो ॥६॥ अह अन्नया असंजयजणम्स संसम्गओऽणुदिवसं पि । विरहम्मि सुविहियाणं सिढिलीहयम्मि सम्मत्ते ॥७॥ जायम्मि जेट्टमासे पोसहसालाए पोसह परस्स । कयअट्टमतवचरणम्स नंदमणियारसेटिम्स ॥८॥ तन्हा-छुहाकिलंतम्स वासणा एरिसा समुप्पन्ना । ते धन्ना सप्पुरिसा ते च्चिय जीवंतु जियलोए ॥९॥ कारावियाओ जेहिं पुक्खरिणीओ सुसीयलजलाओ । जासु जणो वहइ जलं पियइ तहा मज्जइ जहिच्छं ॥१०॥ ता अहमवि नरनाहं आपुच्छिय कारवेमि पोक्खरिणिं । इय चिंति पभाए पारिता पोसहं सेट्टी ॥११॥ परिहियवलक्खवत्थो पाहुडहत्थो निवं समल्लीणो । तप्पुरओ उवणेउं उवायणं तेण विन्नत्तं ॥१२॥ देव ! तुहाणुन्नाए पुर परिसरमेइणीए पोक्खरिणिं । काउमभिप्पाओ मे तोऽणुन्नाओ नरिंदेण ॥१३॥ तत्तो य तेण हिंताल-ताल-ताली-तमालपमुहेण । सुसिणिद्धबहलसच्छायवच्छनियरेण परियरिया ॥१४॥ मुत्ताहलावलीविमलसलिलसंभारपूरिया परमा । कलहंसावलिविलसंतबहलकल्लोलपरिकलिया ॥१५॥ कल्हार-कमल-कुवलयपरायविच्छुरियनीरसंभारा । मयरंदमत्तभमरउलरोलमुहलियदिसावलया ॥१६॥ परिभमिरगरुयकरिमयर-मच्छ-मंडुक्क-कच्छवऽच्छन्ना । कारविया पोक्खरिणी नंदा नामेण नंदेणं ॥१७॥ पहियजणदाणसाला वि परिसरे तीए कारिया रम्मा । अप्पाणं कयकिच्चं तकरणे मन्नमाणेण ॥१८॥ मजंतो भुंजतो जलं पियंतो य तत्थ कीलंतो । कुणइ गुणग्गहणं से समग्गलोगो वि अन्नोन्नं ॥१२॥ नंदमणियारसेट्टी सो च्चिय धन्नो जयम्मि सो जियउ । जेणेसा कारविया पोक्खरिणी सिसिरजलभरिया ॥२०॥ इय निसुणतो नंदो मन्नइ अप्पाणममयसित्तं व । अहवा सगुणथुईए हरिसिज्जइ को न जियलोए ? ॥२१॥ एवं वच्चंते केत्तियम्मि कालम्मि अमुहदोसेण । तस्स सरीरे सोलस संकंता दुस्सहा रोगा॥२२॥ पच्चकवाओ वेज्जेहिं तयणु गुरुरोगवेयणकंतो। मरि नियपोक्खरिणीए दददरो सन्निओ जाओ ॥२३॥ धन्नो स नंदसेट्ठी पोक्खरिणी जेण कारिया एसा । इय जणसाहुक्कारं सोउंसो सुमरए जाई ॥२४॥ विनायव जम्मो विचिंतए फुरियगरुयसंवेगो । अहह ! अणज्जेण मए कह अप्पा पाडिओ पावे ? ॥२५॥ लधूण वि भुवणनमिज्जमाणपयपंकयं जिणं वीरं । धम्ममवि भुवणगुरुणो सयासओ तस्स नाऊण ॥२६॥ सव्वं पि हारियं नियमईए मूढेण किह मए तइया ? । एयं तु मज्झ जायं मिच्छत्तफलं अहन्नम्स ॥२७॥ ता अज्ज वि किंपि सुहं करेमि जह होइ सुगइगमणं मे । इय चिंतिय छ?तवोऽभिग्गहमेसो सया कुणइ ॥२८॥ पारइ य फामुएणं आहारेणं सजाइजोग्गेण । इय धम्मज्झाणपरम्स तम्स कालो वइक्वंतो ॥२९॥ अवरम्मि अवसरे वद्धमाणसामी समोसढो तत्थ । मज्जंतो पोक्खरिणीए तीए लोओ समुल्लवइ ॥३०॥ गुणसिलए उज्जाणे चलह लहुं वीरवंदणनिमित्तं । इय निमुणिऊग सो दद्दुरो वि संजायभत्तिभरो ॥३१॥ समवसरणम्मि चलिओ समुल्ललंतो इमं विचिंतंतो । भूमिलियभालचट्ठो वीरजिणिंदं नेमिम्सामि ॥३२॥ १. नमसामि २० । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना ललिताङ्गजनन्याख्यानकं व्याख्यायते । तचेदम् जओ ३०. भावशल्याना लोचनदोषाधिकारे ललिताङ्गजनन्याख्यानकम् तत्तो य रह-तुरंगम-गयघड-सुहडोहघडियपरिवेढो । नमणत्थं वीरजिणस्स निग्गओ सेणिओ राया ||३३|| तम्सेगयरतुरंगमखुरेण पहओ स ददुरो मग्गे । तग्घायपीडिओ सो सरिऊण जिणेसरं वीरं ||३५|| बिहियाणसणी मरिउ जाओ दूरवर्डिसयचिमाणे । सो ददुरंकदेवो तओ य सिज्झिम्सइ विदेहे ||३५|| ॥ नन्दाख्यानकं समाप्तम् ॥ ६५॥ ३४ निवसंतनिव्यजणं निवसंत ताइयं समत्थि पुरं । भोगिद्धमंडलमयं वसंतउरमिव वसंतउरं ॥ १॥ तत्थ य नयरे निवसंति भायरो दोन्नि दाणधम्मरया । पयईए तेसि जेट्टो दयावरो दुत्थियजणम्मि ||२|| लहुओय हुप्पयई पमाय-मयपरवसो किलिट्टमणो । एगुयरसंभवा वि हु न हुंति कहया वि समसीला ॥३॥ ते अन्नया कयाई सगारूढा पओयणवसेणं । गामम्मि पत्थिया सुत्थमाणसा जाव गच्छंति ॥ ४ ॥ तत्तो ते वित्यवत्तिणीए सुकुमालसीयलरयाए । गड्डीए गंडहाराए मुहपमुत्तं पसत्यमणं ||५|| पयईए पमाया - ssलम्स सहिय सुकुमार-मंसलावयवं । सप्पविसेसं लोयम्मि विस्सुयं चक्कुलंड त्ति ||६|| पासंति तओ जेट्टेण जंपियं जायजीवकरुणेण । वच्छ ! वराई एसा निस्सह देहा सुयइ मग्गे ||७|| सिग्धं चलिउमसत्ता ता तं उचट्टिऊण वट्टाए। उम्मग्गेणं खेडसु वसहे सइ सोक्खमुहियस्स ॥८॥ यस जियस्स जहा न विणासो होड़ बच्छ ! इय वयणं । जेट्टम्स संतियं विसइ तीए सवणेमु अमयं व ॥१॥ मरु वायाए कुत्तो रूसइ हिययम्मि भंडणं कुणइ । जड़ पुण जिओ त्ति वुच्चइ तो तूसइ मन्नए अमयं ॥ १० ॥ बीएण भणियईए रिसो चंपियाए किर होइ । करडक्कयसदो ? भाय ! कोउयं कज्जइ मणम्स ॥११॥ सगडं खेडिस्समहं तम्हा एएण चेव मग्गेणं ! वारंतस्स वि जेट्टम्स खडइ वेगेण सो वसहे ||१२|| एयं पितीए निमुयं विसं व सवाण दुहयरमकन्तं । सा वि य मगयं सच्चरियवासगा चूरियावयवा ॥ १३ ॥ मस्ऊिण हत्थिणउरे कम्माण विचित्तारिणइवसेण । धूयत्तणंग जाया कस्स वि इस भवणम्मि ॥ १४ ॥ विहिओ महसवो से जन्मे जणएण गरुयविहवेण । चंपयलय व्व गिरिकंदरम्मि अह विद्धि मणुपत्ता ॥ १५ ॥ एवं तीए कमेणं पत्थावे थीजणस्स जोग्गाओ । मेहागुणकलियाए कलाओ सञ्चाओ गहियाओ ॥ १६॥ पत्ता य त तारुन्नमुत्तमं तरुणनयणमोह्णयं । कमणीयकंतिकुलकमनिकेयणं कामनरवणो ॥ १७॥ परिणीया तत्थेव य विसालविहवेणमिन्भतणएण । ॥१८॥ ||२२|| तो तेसि पुन्नवसओ परोप्परं दढपरूढपेम्माणं । पंचप्पयारविसए भुंजंताणं वयइ कालो ॥ १९॥ तत्तोय तीए गभे सो जेट्टसहोय समुप्पन्नो । भवियन्वयानिओगेण सुकय संपुत्रपुन्नभरो ||२०|| सागभभावेणं सवंगसुहेल्लिसंगया जाया । आनंदनित्र्भरंगी आसाइयचक्किरज्जव्व ॥ २१ ॥ चिरविरहियपियजणमीलिय व्व सुविसिट्टपत्तसग्ग व्व । अमयरससित्तगत्त व पत्त अपवग्गसोक्ख किंपि अणक्यमुहं संपत्ता जह न माइ अंगेसु । होय चिय पुन्नवसा जीवाणं एरिससरुवं ॥ २३ ॥ संपुन दोहला सा मचितिय संघडंतसयलत्था । रयणनिहिं व महग्घं साणंदा वह तं गमं ||२४|| ततो सत्यदिवसे अट्टमदिणनवण्ह मासाणं । उचरिं पसत्थतिहि-करण लग्ग - होरा मुहुत्ते ||२५|| जाओ नियदेहपहापयासिया से सभवणदिसियको । सुपसत्थलक्खणधरो तीए सबुत्तमो पुत्ती ॥ २६ ॥ तो रभसवससमुत्तालगमणचिह्डफडाए दासीए । बंडियसुयजम्मणवइयरेण वद्धाविओ इन्भो ||२७|| तो तीसे हरिवल्लसंतरोमंचकंचुइयतणुणा । निययंगलग्गव रवत्थमणहराभरणमरम्मं ॥ २८ ॥ दारिद्द गरुयपव्यय मत्थयनिद्दलणवज्जदंडसमं । तेण परितुट्टिद्वाणं दिनं दासित्तमवणेउं ॥ २६ ॥ पियभासिणित्ति काऊण दाविया तीए कणयमयजीहा । सकुटुंबनिव्विसेसं तं पेच्छ सव्वकज्जे ||३०|| For Private Personal Use Only २६५ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ तं च केरिसं ?-- जओ आख्यानकमणिकोशे तयणंतर मित्रभो पुत्त जम्मा उच्भवतपरितोसो | नायरयाणंदयरं वद्धावणयं पवते ||३१|| वज्र्जतचारुतूरयं नच्चंतनारिपूरयं, गायंततारगायणं दुर्ऋतसाहुबायणं । तुप्पिज्ञमाणचट्टयं पढंतभूरिभट्टयं, आवन्तअक्खवत्तयं हीरंत पुन्नवत्तयं ॥ किज्तबालरक्खयं पूइज्माणपक्खयं, सुव्वंत विद्धिसद्दयं संतुट्टपीढमद्दयं । ओग्गमाणसेवयं संधुवमाणदेवयं, आवन्तभूरिपाउलं तोसिज्ज माणराउलं ॥ सिज्झतभत्त-पाणयं दिज्वंतीणदाणयं, मुच्चंतगोत्तिधणं किज्वंतरुट्टसंघणं । ariतचारुचारणं संजायलोयसारणं, तुप्पंतसाहुपत्तयं लभन्तभृरिभत्तयं ॥ इय बहुविविच्छड्डिण रंजियसयलजणु, विलसिर कित्तिकुलंगण निम्मलकुलभवणु । नर-नारियण-नरेसरमणह सुहावणउं, विश्वमहाभरिमिटिंभ किउ बद्धावणउं ॥ ३२ ॥ रमणीयंगत्तणओ जणाणमाणंदकारगत्तेण । ललियंगओ त्ति नामं कारियमिव्भेण तणयस्स ॥ ३३ ॥ 1 जा वय-तणुबंधणं जाओ [सो] अट्टवरिसदेसीओ। बहुंतो पइदियहं सह जणयमणोरहसएहिं ॥ ३४॥ तो सोहणतिहि बारे समप्पिओ सो कलाण गहणत्थं । लेह यरियस्स कला कलावविउणो विणयपुव्वं ॥ ३५ ॥ सम्माणिऊण सम्मं वत्था-ऽलंकारपभिइणा भणिओ । इभेणमुवज्झाओ तह सम्मं जयसु एस जहा || ३६ | थेवेण वि कालेणं समग्गसत्थत्थपारगो होउ । विउसाण वन्नणिज्जो जायइ मह मणसमाहिकरो ||३७|| तो वहु अम्मा-पिऊण ता दुक्खमावहइ तणओ । होऊण विवज्र्ज्जतो बहुययरं कुणइ सो दुक्खं ॥३८॥ परमेए अप्पयरं तेसिं जणयंति दुक्खरिंछोलिं । अवियाणियपरमत्थो मुक्खो बहुदुक्खसंजणओ ||३९|| अत्राप्युक्तम् - I अजात मृत गुर्खेभ्यो, मृता ऽजातौ वरं सुतौ । तौ किञ्चिच्छोकदौ पित्रोर्मूर्खस्त्वत्यन्तशोकदः ||४०|| ते विभणियं माकुणसु खेयमयं तहाऽहमित्थत्थे । भद्द ! जइस्सं जह बुहसिरोमणी तुह सुओ होही ॥४१॥ एवं सो नियगुणजोग्गयाए तह जणयतज्जणाओ य। निउणकलायरियपयत्तसंभवाओ य निच्चं पि ॥ ४२ ॥ थेवेहिं वि दिवसेहिं निग्मलमइविउसजणपसिद्धाणं । बावत्तरीकलाणं पारगओ पुन्नलभाणं || ४३ ॥ तो सो सोवज्झाओ पसत्यदिवसम्मि जणयभवणग्मि । संपत्ती कारविओ महो य पुणरुत्तमिव्भेण ॥ ४४ ॥ मणि-रण-हेम-वत्थाइएहिं परिपूइऊण पज्जतं । सप्पणयमुवज्झाओ विसज्जिओ निययभवणम्मि ||४५ ॥ सो विहु जम्मंतरलहुसहोयरो कम्मपरिणइवसेण । तज्जणणीए गभे पुत्तत्ताए समुप्पन्नो ॥ ४६ ॥ तो तन्निमित्तदुच्चयणसवणमरणाणुभावजणिएण । वइरेण तीए देहे महई अरई समुपपन्ना ||४७|| पक्खित्ता पाहाणा किं मह उयरम्मि तिव्वदुहजणया । किं वा वि कप्परिज्जइ मह उयरं तिक्खछुरियाए ? || १८ || पज्जलिय जलणजालाचियाए किं वाऽहमेत्य पक्खित्ता ? । किंवा वि कोइ वाही संजाओ अप्पडीयारो ? ||१९|| जेणेयं मह दुक्खं अजायपुचं समागयमयंडे । इय सा दुक्खसमुद्दे पक्षित्ता गमइ दियहाई ॥ ५० ॥ तत्तो पाडण- साडणकारयपाणाइयाणऽणेगाइ । कारावियाणि तीए तह वि हु सो कम्मदोसेण ॥ ५१ ॥ न मओ तत्तो कालकमेण सो वि हु तहेव संजाओ । जणयंतो जणणीए दुह्मतुलं दुक्खपसवेण ॥ ५२॥ सुयणो व्वतओ दुज्जणसंसग्गीए गयाए सा सुहिया । उयराओ तेण विणिभ्गएण सहस त्ति संजाया ॥ ५३ ॥ तो सो तक्खणमुक्कुरुडियाए चइराणुभावदोसेण । दासीए हत्थेणं समुज्झिओ जायरोसाए || ५४ || तप्पुन्नपभावाओ कुओ वि विन्नायमेयमिवभेण । संगोविओ य तेणं परुसं भणिया य तणणी ॥ ५५ ॥ केत्तियमेत्ता पावे ! तुझ घरे संति संपयं पुत्ता । छड्डावसि निश्चिन्ना जं तुच्छमणोरहा एवं ॥ ५६ ॥ इन्भेण मुहमुहुते सव्वं भोयाचिऊण बंधुयणं । विहियं विद्याणपुत्र्यं नामं से गंगदत्तोति ॥५७॥ For Private Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ ३०. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ललिताङ्गजनन्याख्यानकम् तो सो धावीए समप्पिऊण वद्धारिओ पयत्तेण । जाओ कइवयवरिसो पच्छन्नं तीए मायाए ॥५८॥ तत्तो सो जणय-सहोयरेहिं कम्मि वि महसवे जाए । नेहेण समाणीओ भोयविओ तीए पच्छन्नं ॥५॥ सो जेमंतो जणणीए कह वि दिट्टो बला वि तो तेसिं । पाएमु कड्ढिऊणं पक्खित्तो ओघसरयम्मि ॥६०।। तत्तो जणएणुत्तं किमणेणं तुज्झ बालएण कयं ? । सा वि हु पभणइ किं मम मंदिरे एस आणीओ ? ॥६॥ एवं जणयाइणं कलहंताणं परोप्परं तेसि । भिक्खट्टाए पविट्ठा अइसयनाणी मुणी एगो ॥६२॥ तो तं वंदिय सिरकयकरंजली जायविम्हओ इन्भो । पुच्छइ वइयरमिणमो माइ-सुयाणं अघडमाणं ॥६३।। भयवं ! कि जणणी वि हु एरिसअसमंजसं कुणइ पावं । पुत्ते जारिसमेसा मम जाया चत्तमज्जाया ? ॥६४|| तेण वि भणियं मा कुणसु विम्हयं भद्द ! कुणइ माया वि । पुत्तम्मि अप्पियं पुव्वजम्मवेराणुभावेण ॥६५॥ एएणं पुवभवे अन्नाणाओ विराहिया एसा । दुञ्चयणभणण-मारणरूवं वइरं जणंतेण ॥६६॥ तो तेण तत्थ मुणिणा संखेवेणं निवेइओ सयो । पुश्वभववइयरी कडुयवयणभणणाइ-मरणंतो ॥६॥ तो सोम ! इमीए इमो पुत्तो वि हु अप्पिओ इहं जाओ। पावमिमं भयजणयं ता भव्वा ! परिहरह वइरं ॥६८|| भीमम्मि भवे भव्वा वि भमइ कालं दुरंतमेएण | पावमिमं भयजणयं ता भव्वा ! परिहरह बहरं ॥६९॥ दोगच्च-दुम्गदोहम्गदुक्खमेएण पाउणइ जीवो । पावमिमं भयजणयं ता भव्वा ! परिहरह वहरं ॥७॥ लक्खण-रावणसुहडा अज्ज वि जुझंतिमेण नरयम्मि । पावमिमं भयजणय ता भव्या ! परिहरह वइरं ॥७१॥ परिवजह मिच्छत्तं कसायभडवम्गनिग्गहं कुणह । परिहरह राग-दोसे दुद्दमदंडत्तयं हणह ॥७२॥ परिचयह विसयसंगं मोहमई मुयह महह मयणभडं। उम्मग्गगमणरसियं परिरंभह करणहयवंद्रं ॥७३॥ ग्रन्थाग्रम् १००००।] सम्मम्गं पडिवजह परिवजह पावमित्तसंजोयं । महिऊण मोहमल्लं सिवरज्जं जेण पाउणह ||७४|| इय मुणिवयणं सोउं संवेयकरं सुहं सुणंताणं । वेरम्गगया जंपंति जायचारित्तपरिणामा ॥५॥ जाउ खयं गिहवासो निवडउ वजं सिरे सिणेहस्स । पविसउ पायालतले परिम्गहो वि हु महापावो ॥७६॥ वच्चउ पलयमणजो अणत्थजणगो इमो महारंभो । एयाए वि हु जायउ सममुत्ती विसयवंछाए ॥७७|| संसारियभावाणं नमोत्थु एयाण मोहिया जेहिं । न मुणंति मोहविसधारिय व्व परमत्थमिह जीवा ॥७८॥ इय विविहविमलसंवेगभावणाभाविया भवावासे । रइमलहंता सिववहुसंगमरसलालसा अहियं ॥७९॥ रागाइजलणजालोलिपज्जलंतं गिहासमं मोत्तु । तिन्नि वि ते पव्वइया संविग्गमणा महासत्ता ॥८०॥ अब्भसियदु विहसिक्खा गुरुकुलवासं समस्सिया सययं । परिचत्तसव्वसंगा विसुद्धलेसा समियपावा ॥८१॥ विप्फुरियगरुयविरिया संखो व निरंजणा गयविसाया । कुलवहुय व्वऽवियारा वमुहं विहरंति विगयभया ।। ८२।। सा वि हु जम्मन्तरनेहनियलसंजमियहिययवावारा । ललियंगओ त्ति ललियंगओ त्ति वाहरइ तज्जणणी ।।८३॥ अवहरियमणसमाही विसममहामोहविलसियविसन्ना । हरिणि व्व जूहभट्टा परिवड्डियगरुयरणरणया ॥८४॥ न सुयइ सुहं निसाए दिवा वि जेमइ न जेमणं छुहिया । अट्टवसट्टोवगया ललियंगयमोहियमईया ||८५।। मरिऊण मोहवसया पत्ता कुगई पगिट्टिदहदुहिया। भमिही भवकंतारे अहो ! हु मोहो अणत्थफली ।।८६॥ ॥ ललिताङ्गकजनन्याख्यानकं समाप्तम् ॥६६॥ एए अट्टवसट्टा कुगई मोहाओ पाविया मरिउं । ता सम्मं मरियव्वं समाहिलामे मुहीहिं ।। यः स्वापतेय-गृह-पुत्र-कलत्रमूढः, कालं करोति स भवेदिह दुःखधाम । तस्मात् समाधिवशगेन विवेकभाजा, मर्तव्यमन्यजन्मन्यमृतत्वहेतोः (?) । ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे मोहवशातैमरणकुगतिपातदर्शकस्त्रिंशत्तमोऽधिकारः समातः॥३०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१. धर्मसुकरता वर्णनाधिकारः ] एतच्च गुरुकर्मणां भवति । लघुकमणः पुनस्तारुण्येऽपि च वर्तमानाः सुगतिगामितया तपश्चरन्तीति प्रतिपादनायाऽऽहसाहीणसव्वभोगा ए वि पढमम्मि केइ लहुकम्मा साहति तवच्चरणं ढंढणकुमरो व्व जंबु व्व ॥४०॥ व्याख्या – स्वाधीनाः – स्वायत्ताः सर्वे - शब्दादयो भोगाः येषां ते तथोक्ताः, 'वयस्यपि प्रथमे' तारुण्यावस्थायामित्यर्थः, 'केचन' न सर्वे लघुकर्माणः 'साधयन्ति' कुर्वन्ति 'तपश्चरणम्' अनशनादिरूपम् । किंवत् ? इत्याह- 'ढण्ढणकुमारवत्' वासुदेवपुत्र इव 'जम्बुवद्' इभ्यवृषभपुत्र इव इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । चामू । तत्र तावत् क्रमप्राप्तं ढण्ढणकुमाराख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् - अस्थि इह दाहिडे भारहमज्झे समग्गदेसाण | चूडामणिसंकासो मगहा नामेण विसओ ति ॥ १ ॥ तत्थ विसमग्गगामाणमग्गणी धन्नपूरओ गामो । किसिपारासरनामो तत्थाऽऽसि बलाहिओ विप्पो ॥२॥ रन्नो निमित्तमेसो चरीउ कारइ अहन्नदिवसम्मि । तण्हा-छुहाकिलंता भत्ते पत्ते नरा तेण || ३ || नियखेत्ते एक्केक्कं चंभं मड्डाए दाविया खीणा । तो तन्निमित्तविग्धं निकाइड आउयते ||४|| तिरिए समुपपन्नो कय वि जम्मन्तराणि तत्थ ठिओ । केणइ सुहकम्मेणं तत्तो मरिऊण संजाओ ||५|| सोरट्टविसयभूसणबारचईसामिवासुदेवस्स । पुत्तो ढंढणकुमरो नामेण कलाकलावविऊ ||६|| वाहिओ य निवकन्याओ नवजोव्वणाभिरामाओ । विसयसुहमणुहवंतो ताहिं समं गमइ कालं सो ॥७॥ अह अन्नया य सिरिनेमिजिणवरे रेवए समोसरिए । कन्हप्पभिइमहीवविंदे नमि निविट्टम्म || || कुणमाणे नवजलहरसरेण सदेसणं भुवणना हे । संजायगरुयवेरग्गमाणसे भव्वनिवहम्मि ||९|| पुच्छितु सयणवगं रज्जसिरिं उज्झिउ महासत्तो । ढंढणकुमरो गिण्हइ पवज्जं जायसंदेगो ॥१०॥ तिणमिव पडग्गग्गं विसयमुहं उज्झिऊण निक्खतो । अब्भसियदुविहसिक्खो कुमरो तवलच्छिसंपन्नो ॥ ११॥ रयणमहाकलिओ बिहु दूरं परिहरियरयणपहवत्तो । नाणाविह देसेसुं विहरइ सो सामिणा सद्धिं ॥ १२ ॥ अह पुचभवसमज्जियविग्घम्मि विवागमा [ग] ए भयवं । सुइरं हिंडतो वि हु न लहइ सो किंपि भणियं च ॥१३॥ सिरिवासुदेवतणओ सीसो तेलोक्सामिनेमिस्स । सव्वगुणाण निवासो धण-कणयसमिद्धनयरी ॥ १४ ॥ भमाणो विन पावइ भिक्खामेत्तं पिढंढणकुमारो । जम्मंतर निव्वत्तिय तिव्वमहाकम्मदोसेणं ॥ १५ ॥ तसंतरायदोसा बीओ वि हु जाव पावइ न किं पि । तो सव्वे विहु मुणिणो गंतु पुच्छंति नेमिजिणं ॥१६॥ कहिओ य भयवया से पुवभवो तयणु ढंढणकुमारो । गिन्हइ नियमं नियलाभभोयणं भयवओ पुरओ ॥१७॥ एवं च अलाभपरीसहं सहंतस्स तस्स अइसम्मं । समइक्कतो कालो बहुओ अह अन्नदिवसम्म ॥१८॥ बारवईए सिरिनेमिजिणवरो नमिय पुच्छिओ हरिणा । तुम्ह मुणिनियरमज्झे को दुक्करकारओ सामि ॥ १९ ॥ भयवं साहइ सव्वे बऽइदुक्करकारया विसेसेण । ढंढणकुमरो तं नियुणिऊण नमिऊण नेमिजिणं ॥२०॥ पविसद्द जाव पुरीए कण्हो ता दिट्टिगोयरे पत्तो । गोयरचरियाए गओ थिरचित्तो ढंढणकुमारो ||२१|| ओयरिय करिवराओ भनीए वंदिओ तयं दट्टं । वंदिज्जंतं हरिणा सेट्टी वायायणम्मि ठिओ ||२२|| चितइ एस कथा कोइ मुणी जो नमिज्जए रण्णा । जइ एड् मज्झ गेहे ता पडिलाभामि एयमहं ॥ २३॥ पत्तो कमेण सो तस्स मंदिरे तेण सिंहकेसरए । पडिलाभिओ सहरिसं भत्तिभरसहियहियएण ||२४|| तत्तो नियत्तिणं संपत्तो नेमिपायमूलम्मि । पुच्छइ भयवं ! किं मम तमंतरायं खयं पत्तं ? || २५ | ܦ For Private Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ३१. धर्मसुकरतावर्णनाधिकारे ढण्ढणकुमारास्यानकम् भयवंतेण वि भणियं अज्ज वि कम्मं न खिज्जए तुज्झ । एसा वि कण्हलद्धी तं सोउं ढंढणकुमारो ॥२६॥ सव्वेसि दंसिऊणं उम्सूरत्ताओ तेहिं वि निसिद्धे । मुहचित्तो पारद्धो परिठविउं मोयगे तत्तो ॥२७|| जीव ! तुमं मा काहिसि रसगिद्धि मायगेसु जह एए । न मए भुत्ता जम्हा अणेगसो भुतपुच त्ति ॥२८॥ तणरासीहिं व जलणो जह जलनाहो नईसहस्सेहिं । नो तिप्पइ तह जीवो बहुयाहिं वि भायणविहीहि ॥२९।। इय सम्म चितंतस्स मोयगे तस्स परिठवंतम्स । पयडियसव्वपयत्थं केवलनाणं समुप्पन्नं ॥३०॥ पडिबोहिय भवियजणं पालित्ता केवलिम्स पज्जायं । निवियअट्टकम्मो स महप्पा मोक्खमणुपत्तो ॥३१॥ ॥ ढंढणकुमराख्यानकं समाप्तम् ॥१७॥ इदानी जम्ब्याख्यानकमाख्यायते तं च जहा रायगिहे सुधम्मसामिम्मि समवसरियम्मि । जायाविणोयणत्थं पहाणरहमारुहि उमिम्भो ॥१॥ संपत्तो गुरुपासे पुट्टम्मि पियाए पुत्तजम्मम्मि । जसभद्देणं कहियम्मि पुत्तलाभम्मि जायाए ॥२॥ जह ओवाइयमट्टसयमंबिलाणं सुयम्स नामं च । जंबूदेवीए तयं तीए कयं पुत्तकामाए ॥३॥ तम्मि जहा नररयणम्मि इन्भभवणम्मि जायमेत्तम्मि । वद्धावणयविहाणेण दाण-सम्माणकरणेण ॥४॥ दुत्थियसुहेल्लिजणणेण पुन्नवंतम्मि जम्मि सव्वजणो । पमुइयपकीलिओ सइ सुही य जाओ जिणिदे व्व ॥५॥ जह सो सव्वकलाणं मइगणपगरिसपभावगम्माणं । जाओ सवपवीणो धम्मकलाए विसेसेण ॥६॥ जह सो तरुणीहरणीण वागुरासरिसमसमगुणकलियं । लायन्त्रललाममणंगधाम तारुन्नमणुपत्तो ॥७॥ जह सो सरोयपत्तं व कामजलसंगवजिओ मइमं । कंसीपत्तं व सणेहनीरपरिहरियरुइरतणू ॥८॥ संखो व्व पवित्त-सुइत्तसंगओ विरहिओ वियारेहिं । वियरइ समग्गनर-नारिहिययहरणो समियकरणो ॥९॥ जह कइया विहु मुणिवरसुहम्मगणहारिसंगइगुणण । जाओ विसुद्धलेसो धणियं धम्मो' व्व पच्चक्खो ॥१०॥ जह सो जणणीउवरोहगुणवसा अट्ट इन्भकन्नाओ। परिणइ मणोहराओ सुरंगणाहिं व सुरकुमरो ॥११॥ परियरिओ जह सो ताहि वासभवणम्मि धम्मवुद्धीए । करिसगनायाईहिं पडिबोहइ ताओ धम्मम्मि ॥१२॥ संबोहिय रायमुयं पभवं गणहरसुधम्मपासम्मि । पब्वइयो जह छड्डिय तणं व तं लच्छिविच्छड्डु ॥१३॥ जओ भणियं सो जयइ जंबुणामो तरुणत्ते जेण पालियं सीलं । अट्ट कलत्ते नवनउइकणयकोडीओ परिहरिउं ॥१४॥ अभसियदुविहसिक्खो जिणसासणनीरनाहपारगओ। छत्तीसगुणसमनियनियगुरुसंपत्तसृरिपओ ॥ १५ ॥ परिपालियपरियाओ नियपयसंठवियपभवरायसुओ। संपत्तकेवलसिरी विहुयमला सिद्धिमणुपत्तो ॥१६॥ तह वित्थरओ जिणनाहभणियसिद्धंतओ समुन्नेयं । इह पुण संखेवेणं भणियं भव्वाण संतिकरं ॥१७॥ तथाहि कल्लाणं मंगल्लं चरियमिमं जयइ जंबुनामम्स । एत्तो चिय पञ्चूसे कुणंति गुणथुइमिमस्सेवं ॥१८॥ सो जयह जंबुणामो मणपज्जवसन्नियस्स नाणस्स । मणचिंतियगुणविउणो अपच्छिमो जो इहं भरहे ।।१९।। सो जयइ जंबुणामो केवलरविणोऽरुणोदयसमस्स । परमोहिस्स महप्पा अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२०॥ सो जयइ जंबुणामो पुलायलद्धीए गुरुपभावाए । चक्किबलचूरणीए अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२१॥ सो जयइ जंबुणामो विसिट्टकजप्पसाहणखमम्स । आहारगस्स गुणवं अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२२।। सा जयइ जंबुणामा विसिट्ट सुद्धिपयखवगसेढीए । कम्मक्खयजणणाए अपच्छिमा जा इह भरह ।।२३।। सो जयइ जंवुणामो दुज्जयगुरुमोहणिजसमणीए । उवसमसेढीए वि हु अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२४॥ १. धणो व्व-खं०। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० आख्यानकमणिकोशे जो जयह जंबणामो महइमहासत्तसेवणिजस्स । जिणकप्पम्स वि गुरुणो अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२५॥ सो जयइ जंबुणामो परिहारविमुद्धिपभिइचरणाणं । तिण्हं परमगुणाणं अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२६॥ सो जयइ जंवुणामो लोयाऽलोयप्पयासणखमाए । केवलनाणसिरीए अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२७॥ सो जयइ जंबुणामो असेसकम्मक्खयप्पसूयाए । सासयमुहसिद्धीए अपच्छिमो जो इहं भरहे ॥२८॥ मयणकरिकेसरिणा चूडामणिणो चरित्तिचक्कास । अच्चभुयगुणनिहिणो नमो नमो जंबुणामस्स ॥२९॥ एपहिं जोव्वणम्मि वि साहीणे वि हु समुग्झिउं भोए । जह चरियं सीलमिमं तह अन्नो वि हु धरइ धीरो॥३०॥ ॥जम्ब्याख्यानकं समाप्तम् ॥१८॥ आत्मप्रभावपरिभूतजगत्त्रयस्य, प्रौढप्रतापविभवैरपि दुर्जयस्य । दत्त्वा पदं सपदि मूर्द्धनि मन्मथस्य, केचित् तपः कृतिमेमू इव साधयन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिचिरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे प्रथमवयस्यपि विवेकिनो धर्मसुकरतावर्णनो नाम एकत्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥३१॥ [ ३२. धर्मविषयकुलप्राधान्यनिवारकाधिकारः] स्यान्मतिः कस्यचित्-कुलजातत्वाद् ढण्ढणकुमारादिभिरिदं निरवाहि, न पुनरपर एतत् कर्तुमलम् इति मतमपाकुर्वन्नाह न कुलेण पहाणत्तं हवइ नराणं सुरा वि जं मुइया । हरिकेसि-नंदिसेणे वंदंति नमंति सेवंति ॥४१।। व्याख्या-'न' नैव 'कुलेन' शुद्धपितृपक्षेण 'प्रधानत्वं प्रधानभावः धर्मविषये इत्यध्याहारः भवति 'नराणाम् । 'सुरा अपि' आसतां मनजाः 'यदर यस्मात कारणाद 'मुदिताः' हृष्टाः हरिकेशि-नन्दिषेणौ 'वन्दन्ते' वाग्भिः स्तुवन्ति 'नमन्ति' कायेन प्रणिपतन्ति 'सेवन्ते' एवमेव पर्युपासन्ते इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते च इमे । तत्रापि क्रमप्राप्त हरिकेश्याख्यानकं व्याख्यायते । तद्यथा सुपवित्तसुइत्तसमुद्दसंभवो सिरिनिवासगणओ य । सव्वत्थ वि विक्खाओ संखो संखो व्व सुहसदो ॥१॥ वाणारसीए नयरीए नरवई सामनीइनयनिउणो । मंती नमुई नमुइ व्व दाणवो तस्स दुट्टप्पा ॥२॥ सो य अमच्चो पयईए निटटरो सइधणो व्व दोन्नमणो । पासायतले ओलोयणदिओ नियइ मुणिमेगं ॥३॥ पंचसमियं तिगुत्तं भिक्खट्टा परियडंतमुवउत्तं । तत्थ य हुयवहरच्छा पयईए जलंतरेणुकणा ॥४॥ न य को विहु वत्थव्वा तीए संचरइ पायदाहभया । तत्ता पुट्टा सा तण साहुणा मग्गमेसा य ॥५॥ चितइ दत्तणओ समणगमिममुल्ललंतमेएणं । मग्गेण डज्झमाणप्पएण पिच्छामि ताव सुहं ॥६॥ निग्गच्छइ बहिमेसो ता वच्चमु समण ! सो वि सोउमिमं । गंतुं जाव पयट्टो इरियासमिओ समयविहिणा ॥७॥ ता तग्गुणभत्ताए कीए वि हु देवयाए सो मग्गो । हिमकणसीयलफासो विहिओ दट्टण तं नमुई ॥८॥ पच्छायावपरद्धो तेणेव पहेण गंतुमिसिपासे । निंदाइ सो अप्पाणं कहिऊणं पुव्ववुत्तंतं ॥९॥ वियरमु मह पव्वज्ज जेणाऽऽराहेमि तुज्झ पयजुयलं । अवरेण पयारेणं न जाउ मह जायए सुद्धी ॥१०॥ पव्वाविओ य तेणं पालइ पव्वज्जमणहपरिणामो । नवरं मणे न मुंचइ कम्मवसा जाइ-रूवमयं ॥११॥ मरिऊण सुरवरेगुं पत्तो सो आउयक्खए चवि। मयजणियकम्मदोसेण सावसेसेण मणुयभवे ॥१२॥ १. अम् इव ढण्ढणकुमार-जम्बूकुमाराविवेत्यर्थः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ ३३. एकाकिविहारदोपवर्णनाधिकारे अरहन्नककथानकम् गंगातीरे हरिकेसजाइया किर वसंति मायंगा। बलकुट्टो मायंगो गोरीनामेण से भज्जा ॥१३॥ तीए गम्भे जाओ मण्ण हरिकसवलऽभिहाणो त्ति । उदंतुरो विरुवो लंबोट्टो वक्कनासो य ॥१॥ खर-फरुस-कविलकेसो विरुयलंबोयरो तिकोणसिरो । दुभगो बिडालनयणो विसमावयबो य पाएणं ॥१५॥ पर्यईए अणालीओ करेइ वयणेण जंपइ विरुवं । किं बहुणा ? सो विसपायवो व्व सव्वस्स वि य वेसो ॥१६॥ कहया वि हु रइयावाणगाण तेसिं महुँ पियंताणं । मायंगाणं महुभायणाणि भंजेइ भयरहिओ ॥१७॥ तो मिलिऊणं तरुवरजडाए सो तडफडतओ बद्धो । पेच्छइ महुं पियंते कीलंते डिभरूवे य ॥१८॥ जाव य खणंतरेणं तेसि समीवे समागओ सप्पो । तो मिलिऊणं भक्खणभयाओ सो मारिओ तेहिं ॥१९॥ पुणरवि य तयागारो तयंतिए दीयडो समणुपत्तो । तो तं पि हु विसभयओ मायंगा मारिउं लग्गा ॥२०॥ तावेगेणं भणियं मा मारह एस निविसो अज्ज । अट्टमि-चउद्दसीसुं एयम्स विसं जओ होइ ॥२१॥ तयवत्थेणं तेणं हरिकेसबलेण सव्वमवि एयं । सच्चमियं सयमेव य तो पडिबुद्धो विचिंतेइ ॥२२॥ पेच्छ इमो निग्गहिओ सविसो बीओ य निविसो मुक्को । कीलंति इमे डिंभा अहयं दोसेण संजमिओ ॥२३॥ तो मोत्तृणं दोसे संपयमहमवि समायरामि गुणे । इय वेरगगएणं कहमवि दिट्टो मुणी एगो ॥२४॥ तो हरिसनिम्भरेणं पणमित्ता सविणयं भणियमिमिणा । जइ अस्थि जोग्गया मह तो भयवं ! देसु पञ्चज्जं ॥२५॥ पव्वाविओ य तेणं अइसयनाणण जोग्गयं नाउं । तो सो निव्वेयाओ जाओ समणो समियपावो ॥२६॥ दुक्करतवचरणरओ निम्संगो किमवि निब्वियारो य । निप्पडिकम्मसरीरो विहरइ वमुहं अपडिबद्धो ॥२७॥ कइया विह विहरंतो संपत्तो तिंदगम्मि उजाणे । तत्थ य तिंयजक्खो तम्भवणे सो टिओ भयवं ॥२८॥ निस्संगयाइगुणगणरंजियहियएण तेण जस्खेण । माइज्जइ पणमिज्जइ वंदिज्जइ सो मुणी निच्चं ॥२६॥ उवरिं जह भद्दाए रायसुयाए विवाहि विहिओ । जक्खणं जणपुज्जो सुयाओ सेसं पि तह नेयं ॥३०॥ ॥हरिकेशाख्यानकं समाप्तम् ॥६॥ इदानीं नन्दिषेणाख्यानकस्यावसरः। तच्च पूर्व व्याख्यातमेवेति । न कुलस्स पहाणत्तं कारणमिह लहुयकम्मया धम्मे | तो जिणवयण विऊहिं कुलाभिमाणो न कायव्वो ॥१॥ प्राधान्यमल्पभपि निश्चयतो जनाः ! मा, मन्यध्वमत्र जिनधर्मविधौ कुलस्य । यन्नन्दिषेण-हरिकेशिमुनी गुणाढ्यौ, भक्त्या विनाऽपि कुलमङ्ग ! सुराः स्तुवन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे धर्मविषयकुलप्राधान्यनिवारकः द्वात्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्त ॥३२॥ [ ३३. एकाकिविहारदोषवर्णनाधिकारः] एतच्च हरिकेश्यादीनामेकाकिन्दमापवादिकं मन्तव्यम् । उत्सर्गतो गुरुकुलवास एव श्रेयान् , तस्य गुणहेतुत्वाद्, इतरस्य च दोषदुष्टत्वात् । तथा चाह एगागिणो विहारो पडिकुट्ठो साहुणो जमेगस्स । इत्थीमाई दोसा अरहन्नय-कूलवाल व्व ॥४२॥ व्याख्या-'एकाकिनः' एककस्य विहारः विहरणं 'प्रतिकुष्टः' निषिद्धः निराकृतः । 'यद्' यस्मात् कारणाद् एककस्य स्यादयो दोषाः । कयोरिव ? अरहन्नक-कूलवालयोरिव प्रसिद्धयोरित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वाख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चामू । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आख्यानकमणिकोशे तत्र तावदरहन्नककथानकमास्यायते अत्थेत्थ पवरगच्छो गुरुगोत्तसमम्सिओ विउलसत्तो। पवरसुजाणनिचासो पाढीणपयाररमणीओ ॥१॥ जं विहियर सच्चाओ मयरमणिविवजिओ य जं निच्चं । तं तम्स महच्छरियं संजायं जलहिरूवम्स ॥२॥ तम्मि गुरुविणयनिरओ अरहन्नयनामओ वसइ खुड्डो । नियजणणि-जणयसहिओ छज्जीवहिओ सयाकालं ॥३॥ किंतु नियजणयविरइयवेयावच्चो सया विमुहकलिओ। आबालकालओ च्चिय कया वि अहिलेसो ॥४॥ अह अन्नया य जणए पंचत्तमुवागयम्मि मुहलेसे । खरकिरणतरणिताविलभुवणयले गिम्हसमयम्मि ।।५।। पियमरणतावियतणू भणिओ साइहिं एरिसं वयणं । जह अरहन्नय ! इमिणा मुणिणा सह विहर अज तुमं ॥६॥ पियमरणदुक्खसंभरणजायगुरुसोयसाममुहकमलो । तेण सह मुणिवरेणं गोयरचरियाए नीहरिओ ॥७॥ खरकिरणतावियतणू गच्छंतं सो पमोत्तु तं साहु। पासायच्छायाए खणमेगं जाव वोसमइ ।।८।। ताव नियमत्त वारणपरिट्टियाए पउत्थवइयाए । दिट्टो सुकुमालतण वयविसए मंदपरिणामो ॥९॥ तो तीप वाहरिओ आगच्छ मह गिहे महाभाग ! । जेण वियरेमि भिक्खं तं सोउं जाव तग्गेहे ॥१०॥ पविसइ ताच पहिट्टा दारं दाऊण पभणए एसा । अइकढिणकायजोग्गं परिहर वयमेरिसं सुह्य ! ॥११॥ उवभुंजसु गुरुलच्छि माणसु तारुन्नमसरिसं मझ । सहलीकुरु मणुयभवं संपत्तं पुवपुन्नेहिं ।।१२।। निसियकरवालधारासंचरणसमं सुदुम्सहं चरणं । परिपालिउमसमत्थो अणुमन्नइ तीए तं वयणं ।।१३।। उवभुंजइ विसयसुहं तीए समं जायगरुयअणुराओ । तन्नेहहरियहियओ गयं पि कालं न याणेइ ॥१४॥ एत्तो तमपेच्छंती तम्माया नट्टचेयणा जाया । परिचत्तसाहुवेसा उम्मत्ता वसणपरिहीणा ॥१५|| परिभमइ हसइ गायइ नच्चइ परिलुढइ धरणिवीढम्मि । डिभसहस्सपरिखुडा भममाणी नयरमज्झम्मि ॥१६॥ सव्वं पि वत्थुजायं 'अरिहन्नय पुत्त य !' त्ति भणिरी सा। नेहमहागगहिया न य चेयइ किंचि अप्पाणं ॥१७॥ रुयमाणी सा दिट्ठा पासायगवक्खसंठिएणिमिणा । चिंतेइ तओ चित्ते धिरत्थु मह जीवियवस्स ॥१८॥ परिचत्तनियकुलक्कमसमुवज्जियअसमपावभारस्स । गयसीलरयणनिहिणो धिरत्थु मह जीवियव्वस्स ।।१९।। असहायं ससणेहं गुरुजरया जज्जरं नियं जणणिं । परिहरमाणस्स जए धिरत्थु मह जीवियव्वस्स ॥२०॥ आसाइयवरमुणिणो अवहत्थियसुहगुरुवएसस्स । विसयासत्तस्स जए धिरत्थु मह जीवियव्वम्स ॥२१॥ उझियसुपुरिसमुहचेट्टियम्स परिगलियगुरुविवेयस्स । निद्दयचेट्टम्स जए धिरत्यु मह जीवियवस्स ।।२२।। इय भाविऊण तत्तो पासाया ओयरित्तु सहस त्ति । उभडसिंगारधरो धरणीयलमिलियसिरकमलो ॥२३॥ पणमित्त भणइ अरहन्नओ अहं अंब ! वच्छलो तुज्झ । निमुणित्तु तयं सहसा सचेयणा सा वि तं भगइ ॥२४॥ विउसजनिंदणिज्जं किं ववसियमेरिसं तए वच्छ ! ? । सो भणइ मंदपुन्नी न समत्थो काउमंब ! वयं ॥२५॥ अज्ज वि नियपाण परिचयामि न चयामि वयमिमं काउं। अवरं च भग्गसीलम्स मज्झमिणमेव जुत्तं ति ॥२६॥ तीप भणियं वरमिममच्चंतं दुक्करं कयं वच्छ ! 1 न उणो हीणजणोच्चियमसमंजसमेरिसं विहियं ॥२७॥ ता गहियसाहुवंसा आलोइय निदिऊण दुचरियं । गहियाणसणा सम्म मरिसावियसयलसत्तगणों ॥२८॥ अइगिम्हतावताविलसिलायले निवडिओ महासत्तो। मुहभावभावियमणो लोणियपिंडो व्व पविलीणो ॥२६॥ मरिऊण समुप्पन्नो देवो वमाणिओ महिडीओ। जणणी वि वयं काउं उप्पना तियसलोगम्मि ॥३०॥ अरिहन्नकाख्यानकं समाप्तम् ॥१०॥ इदानी कुलवालाख्यानकं व्याख्यायते । तच्चेदम् अस्थत्थ पवरगच्छो अणगसत्थेमु लद्धमाहप्पो । नयरारक्खियपुरिसो व्य लोयविणयाइसंजुत्तो ॥१॥ परिहरियखमाभारो महावराहो वि नायराओ वि । गुरुचरणपञ्चाओ पडिवजियसुगुरुचरणो वि ॥२॥ अइमायाहारा वि हु अइमायाहारवजिओ निच्चं। परिवसइ तम्मि एगो साहू पन्भट्टमुहलेसो ।।३।। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. एकाकिविहारदोपवर्णनाधिकारे कूलवालाण्यानकम् २७३ अह अन्न या य कम्मि वि गिरिम्मि तित्थाणि वंदिउं गुरुणा । सह जाव पडिनियत्तो ता चिंतह सूरिविसयम्मि ।४।। एसो न देइ सोक्खं निच्चं चिय चोयणं मह कुणंतो । मारेमि ता इयाणि इममेगागि महापावं ॥५॥ इय चिंतिऊण मुक्को पट्टीए तेण टोलपाहाणो । आवलियखंधरेणं गुरुणा सहस त्ति तं दढें ॥६॥ ओसरिऊणं रुट्टेण] साविओ तेण पच्चणीओ सो रे पाव ! थीसयासाओ तुज्झ होही खओ नियमा ॥७॥ परिहरियं तं पावं एगागी गच्छमागओ सूरी । सो वि गुरुवयणपडिकूलणत्थमेवं विचिंतेइ ॥८॥ तत्थ मए वसियव्वं इत्थीनामं पि जत्थ न सुणमि । तत्तो अइउग्गतवं नइकूले का उमारद्धो ।।२।। आउट्टियाए नइदेवयाए तत्तो य वालियं कूलं । नइकूलवालओ सो संजाओ तद्दिणाऽऽरव्भ ॥१०॥ तत्तो चेडयनयरी वेसालो वेढिया गुरुबलेण । रन्ना असोगचंदेण जाव न हु भज्जए कह वि ॥११॥ तत्तो बिसन्नचित्तो किं पि उवायं विचिंतए जाव । तावुच्छलिया सहसा गयणे एयारिसी वाणी ॥१२॥ समणे जइ कृलवालए, मागहियं गणियं लभिस्सइ । लाया य असोगचंदए, वेसालीनगलिं गहिस्सइ ॥१३॥ तं निमुणिऊण राया मागहियं वाहरित्तु तं भणइ । मह देवयाए कहियं कज्जं सझं इमं तुज्झ ॥१४॥ ता कूलवालयमुणिं सवसीकाउं विहित्त भट्टवयं । आणे इहं जेणं वेसाली भज्जए नियमा ॥१५॥ केत्तियमेत्त कजं देव ! इमं मज्झ तुह पसाएणं । सकडक्खबाणविवसीकयससुरा-ऽसुरसमूहाए ॥१६॥ चीवंदणाइ तत्तो सिक्खित्ता कवडसाविया जाया । कयविहवसरूवा समाणवय-रूवपरिवारा ॥१७॥ वंदिउकामा तित्थाणि निग्गया किर महासइसरूवा । गच्छंती संपत्ता स कूलवालयमुणी जत्थ ॥१८॥ तं दळूण पहिट्ठा पणमइ परिवारसंजुया तस्स । भत्ति-बहुमाणपुव्वं आउच्छइ सुहविहाराइ ।।१९|| गुणसवण-थवण-दसण-पणमण-भरणेहि तुझ धन्नाणि । जायाणि सवण-वाणी चक्खू काओ मणं मज्झ ॥२०॥ इय थोऊणं तत्तो भणिया साहम्मिणीओ सयलाओ । अवगुंठियवयणाओ लज्जाए ओणयमुहीओ ॥२१॥ जंगमतित्थुववासा तुम्भेहि पमज्जियं महापावं । 'अज्जेह महापुन्नं अज्जेह मुणिस्स दंसणओ ॥२२।। इय एवं सो दिवसो अइकंतो पज्जुवासमाणीए । तीए अह बीयदिवसे पभायसमयम्मि पणमित्ता ||२३|| भणियं पच्चक्खाणं तुम्भे वि हु परमियं कुणह अज्ज । काऊण संविभागं पारणयं जेया काहामो ॥२४॥ तत्तो खणंतरेणं वाहरि कूडकवडभरियाए । अइसारजोयकयमोयगेहिं पडिलाभिओ तीए ॥२५।। अन्नायतस्सरूवेण मोयगा मुणिवरेण ते भुत्ता । ताणं पभावओ से जाओ रोगो अईसारो ॥२६॥ अह बीयदिणे जा किर आगच्छइ सा वि वंदणनिमित्तं । ता रोगवसविसंटुलदेहावयवं मुणिं दट्टुं ॥२७॥ पभणइ पावाए इमो अणुचियआहारदाणओ भयवं!। हा ! मंदभाइणीए विहिओ रोगो मए तुज्झ ॥२८॥ तो कूलवालयमुणी पभणइ मणयं पि नत्थि तुह दोसो। किंतु मह कम्मपरिणइवसेण एसो समुन्भूओ ॥२६॥ तीए पुणो वि भणियं तुज्झ अणुन्नाए गरुयजयणाए । पडिजागरेमि भयवं ! गीयत्था हं तुह सरीरं ॥३०॥ पच्छा आलोएज्जमु अववायपयं गुरुम्स पयमूले । तो तेण अणुन्नाया वेयावच्चं कुणइ तम्मि ॥३१॥ तीए पइदियहमेवं वेयावच्चं ससंपरातीए (?) । पउणीकओ मुणी सो ओसह-विम्सामणाईहिं ॥३२॥ सुकुमारकरप्फंसाणुरायरत्तं मुणित्तु तं साहुं । ससिणेहं सकडक्खं सविलासं भणि उमादत्ता ॥३३॥ भयवं ! तावेस मए निस्संगस्स वि सुधम्मनिरयम्स । तुह धम्मझाणविग्यो विहिओ बहुपावकम्माए ॥३४॥ न हु एत्तिएण ठाही अज्ज वि जं मझ माणसमणज्ज अहिलसइ किं पि अवरं तं संपयमवहिओ मुणसु ॥३५॥ मह आसि धम्मवुद्धी सा का वि हु जा न तीरए कहि। संपइ जलहिजलं पिव मे हिययं जायकल्लोलं ॥३६॥ किर तित्थजत्तमेयं काऊणऽप्पहियमायरिस्सामि । इय चिंतियं महायस ! सव्वं पि हु अन्नहा जायं ॥३७॥ भणइ मुणी मा खिज्जसु मज्झ कए जेण नीरुओहं ति । तीयुत्तं करुणायर ! मह अन्नं सुणसु विन्नत्तिं ॥३८॥ १. अद्य इह । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आख्यानकमणिकोशे जम्मंतरनेहाओ किंवा तुह दंसणाओ पडिबंधो । जं तुह् पास मेल्लंतियाए वच्चंति मह पाणा || ३९॥ विदलइ हिययं निज्जाइ मह रई कप्परिज्जए अंगं । परिवड्डइ रणरणओ तं वारिज्जइ समाहाणं ॥४०॥ तुह कोमलतणुफरिस - दंसण-संभासणाइओ जाओ । मं दहइ मयणजलणो ता सुहयमु संगमजलेण ॥ ४१ ॥ तं मह नाहो तं मज्झ सामिओ तं गई मई चेव । तं चिय आसट्टाणं संपइ मह मंदपुन्ना ॥ ४२ ॥ तुहसंगो अमदहो अमयफलाई व तुज्झ नयणाई । तुह अंगममयकुंडं तुह वाणी अमयरसकुल्ला ॥४३॥ इय कूलवालयमुणी तीए तारिसवियड्ड भणिएहिं । अभिमाणघणो वि तया बद्धो दढनेहनियलेहिं ॥ ४४ ॥ तीए भणिए तूसइ ससिणेहं नियइ तीए मुहकमलं । परिसिढिलियधम्ममई धणियं जाओ जओ भणियं ॥ ४५ ॥ पासो व्व बंधिउं जे महिला छेत्तु असि व्व पुरिसस्स । सल्लं व्व सल्लिउं जे विमोहिउं इंदजाल व ॥४६॥ फालेउं करवत्तं व्व होइ सूलं व्व महिलिया भेत्तुं । पुरिसस्स खुप्पिउं कदमो व्व मच्चु व मरिउ जे ||४७॥ खेलालीढा तुच्छ व्व मच्छिया दुक्करं विमोएउ । महिलासंसग्गीए अप्पाणो पुरिसमेत्तेण ॥४८॥ पुणरवि तीए भणियं कूडकुहेडयम हल्लखाणीए । मा तम्मसु तुह वेला महेसपासाणरेह व्व ॥ ४९ ॥ पत्थावे सममेव य सामन्नमणुत्तरं चरिस्सामो । पच्छा वि हु धम्मधणा मलिणं सोहिंति अप्पाणं ॥ ५० ॥ संपद तारुन्नमिमं निरत्ययं सुहय ! नेसु मा एवं । दियहाइ पंच दह वा जोव्वणमिणमो बुहा चिंति ॥ ५१ ॥ सो किलिकम्मोदयाओ गुणनिहिगुरूण वयणस्स । अवितहभावाओ तहा खडहडिओ सीलपासाया ॥ ५२ ॥ जं न कयं गुरुवयणं इह तं तस्सेव मत्थए पडियं । अहहो ! अणत्थहेऊ आणाभंगो महापावो ॥५३॥ पेच्छसु तीए मोसारियाए तह सावियाए' होऊण । सवसीकओ वराओ अहो ! हु थीचरियगहणमिमं ॥ ५४ ॥ सो तारिस वि निस्संगसाहुचूडामणी वि परिवडिओ | गुरुजणवयणा इक्कमतरुणो अज्ज वि कुसुममेयं ॥ ५५ ॥ पुरओ जह सा नयरी पविसित्तु खडक्किया दुवारेणं । उक्खणिय पाउयाओ सव्वा भंजाविया तेण ॥५६॥ तह सव्वं वित्थरओ नेयं गंथंतराओ चरियमिमं । इह पुण एत्तियमेत्तं पसाहगं पत्थुयत्थस्स ॥५७॥ ॥ कूलवालाख्यानकं समाप्तम् ॥१०१॥ जइ विहु वज्जियसंगो कुलेण चंगो तवेण तणुयंगो । तह वि हु एगो परिवडइ वसह ता सुगुरुकुलवासे ॥१॥ स्वप्रत्यनीकरमणीकृतदोषभावादेकाकिनो व्रतवतो विहृतिर्विरुद्धा | यस्मादनागमरुचेर्यतनावतोऽपि दोषाः कदाचिदनयोरिव सम्भवन्ति ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे साधोरैकाकित्वविहारदोष वर्णनस्त्रयस्त्रिंशत्तमो ऽधिकारः समाप्तः ॥३३॥ [ ३४. साधुदर्शन महागुणवर्णनाधिकारः ] एतच्च कूलवालकसाधुदर्शनमुभयेषामप्ययोग्यत्वाद् गुणाय नाभवत् । यत्र पुनरुभयोर्गुणवत्ता भवति तत्र साधुदर्शनं गुणाय भवतीत्येतदाह साहूण दंसणं पि हु गुणावहं सोम- सन्तरूवाणं । जह तकरस्स तह भिगु -[ उ ] वरोहियपुत्तजुयलस्स ||४३|| व्याख्या –‘साधूनां’ मुनीनां 'दर्शनमपि' अवलोकनमपि आस्तां सम्भाषणादि 'गुणावहं' गुणजनकमेव । हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । कीदृशामित्याह--‘सौम्य शान्तरूपाणां' सौम्यम् - आन्तरकोपनिग्रहात् शान्तं - बहिरपि कोपविकारविरहाद्-रूपम् - आकाशे येषां १. मृषार्यया तथाभाविकया भूत्वा । For Private Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. साधुदर्शनमहागुणवर्णनाधिकारे भृगूपरोहितपुत्रयुगलकाख्यानकम् २७५ ते तथोक्तास्तेषाम् । 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः । 'तस्करस्य' चौरस्य 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'भृगूपरोहितपुत्रयुगलस्य' भृगुनामकोपरोहितसुतयुग्मभ्य इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थस्तु आख्यानकाभ्यामवसेयः । ते चामू । तत्र तावत् तस्कराख्यानकमारभ्यते एगम्मि सन्निवेसे वसंति दो तकरा असमसत्ता । परदव्वहरणवावारसंजुया निहयपरलोगा ॥१॥ अह अन्नया य कम्मि वि नयरे कस्स वि य सेट्टिगेहम्मि । खणिऊण खत्तमवहरिय दव्वमारक्खियभयाओ ॥२॥ नासंति जाव पेच्छंति ताव नयरस्स परिसरे साहुँ। उस्सग्गठियं निप्पंदलोयणं किं पि झायंतं ॥३॥ तत्तो ताणेगेणं भणियं धन्नो महामुणी एस । परिचत्तसयलवावारपत्तअपवग्गसुहलेसो ॥४॥ बीएण पुणो भणियं कह एसो समणमुंडओ दिट्ठो ? । अवसउणसूइयावयपरंपरापेच्छणीओ त्ति ॥५॥ एवं ते निययाउं परिपालिय मरणमुवगया संता । उज्जेणीए जाया पिहु पिहु सेट्ठिस्स गेहेसु ॥६॥ पुत्तत्ताए निच्चं पुव्वभवव्भासओ महापीई । आबालकालओ च्चिय संजाया ताणमन्नोन्नं ॥७॥ अन्नं च वसण-ववहार-असण-सयणा-ऽऽसाणाइयं सव्वं । एगेण विहियमवरो वि कुणइ तह चेव नेहाओ ॥८॥ तो लोयकयभिहाणा संजाया एगचित्तया तत्तो । अह अन्नया य भयवं समोसढो तत्थ वीरजिणो ॥९॥ लोएण समं नयराउ निग्गया ते वि वंदणनिमित्तं । सुर-मणुय-तिरियपरिसाए देसणं कुणइ भयवं पि ॥१०॥ एगस्स कहिज्जंतं सम्मं परिणमइ धम्मसव्वस्सं । अन्नस्स पुणो मुणिवरपओसनियस्स न हु किं पि ॥११॥ तो लोएणं नाउं परोप्परं ताणअन्नहाभावं । पुट्ठो भयवं भेओ किमेगचित्ताणमेएसिं ॥१२॥ इहि जाओ? तत्तो पुव्वभवो भयवया समाइट्टो । इय साहुदंसणं तक्करम्स जायं महाफलयं ॥१३॥ ॥ इति तस्कराख्यानकं समाप्तम् ॥१०२॥ इदानीं भृगूपरोहितपुत्रयुगलकाख्यानकमाख्यायते तद्यथा जे आसि चित्त-संभुयसहयरा पुव्वजम्मसंगइया । ते पावियसम्मत्ता सुरलोगं दो वि संपत्ता ॥१॥ आउक्खयम्मि चविऊण विस्सुए खिइपइट्ठिए नयरे । इब्भकुले ते दो वि हु सहोयरा भायरो जाया ॥२॥ तत्थऽन्ने इन्भसुया चउरो तेसिं वयंसया जाया । उवभुंजिय विसयसुहं छावि हु थेराण पासम्मि ॥३॥ पव्वइया सव्वे वि हु सामन्नं पालिऊण सुहभावा । मरिऊण पउमगुम्मे चउपलिया सुरवरा जाया ॥४॥ गोवालदारयाणं जे ते चउरो वयंसया आसि । तेसिं एगो कुरुजणवयस्सऽलंकारभूयम्मि ॥५॥ उसुयारनामयपुरे सइसभवणराइए दुहा वि तहिं । रिउविसरबाणघडणो उसुयारो गुन्नअभिहाणो ॥६॥ राया जाओ बीओ तब्भज्जा नयण-वयणजियकमला । कमलावई वि नामेण किमवि कमलाए वुड्डिकरी ॥७॥ तइओ तस्सेव य नरवइस्स विप्पो कुलक्कमायाओ। नामेण भिगू चउदसविज्जाठाणाण परगओ ॥८॥ आई-मज्भ-ऽवसाणाहिओ वि स पुरोहिओ जणपसिद्धो । वेयभणिएककम्मप्पिओ वि छक्कम्मकरणरओ ॥९॥ जाया जसाभिहाणा चउत्थओ तस्स चेव वरभज्जा । निरवचणदोसेणं ताणि य तम्मंति परमऽहियं ॥१०॥ यत उक्तम् अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा सुखं स्वर्गे प्रयास्यति ॥११॥ जे गोवदारया दो वि ओहिणा तेहिं नायमम्हे उ । उवरोहियस्स पुत्ता होहामो तो समणरूवं ॥१२॥ काऊण धम्ममग्गे सभारिओ ठाविओ भिगू तेहिं । गहियाणुव्वयधम्मो पालइ धम्म गिहत्थहियं ॥१३॥ ताहे सुयस्स लाभ नमिऊणं पुच्छिया मुणी तेण । तेहिं वि नाउं भणियं होही तुह विप्प ! सुयजुयलं ॥१४॥ नवरं लहुकम्मत्ता रइमलहंतं गिहम्मि विसयसुहं । विसमिव परिचइऊणं पव्वइही मा निवारेसु ॥१५॥ तेणावि चिंतियं होउ ताव पच्छा वि अभिमयं काहं । भणि महापसायं विसज्जिया मुणिवरा तेण ॥१६॥ कालकमेण जायं सुयजुयलं जाव अट्टवारिसयं । संजायं ता पिउणा सिक्खवियं दुबुद्धीए ॥१७॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आख्यानकमणिकोशे ज इमे दीसंति जणे पुत्तय : कंवलयपावरियदेहा । सेयवडया इमेसि वीससियव्वं न कइया वि ॥१८॥ जमिमे रक्खसपर्यई माणुसमंसासिणो विसेसेणं । सिसुभावे वट्टतं मुहेण भक्खंति मारेउं ॥१९॥ तो ते तह त्ति पडिवजिऊण कइया वि जाव रममाणा । नीहरिया वणमझे नियंति ता साहुणो तत्थ ॥२०॥ सत्थेण समं चलिए भिक्खं गहिऊण गाममझाओ। वियणम्मि भोयणट्टा वच्चंते तो इमे भीया ॥२१॥ चडिया तरुम्मि भयभीयमाणसा ताव ते तमेव तरूं । संपत्ता तरुछायाए समयविहिणा समग्गं पि ॥२२॥ किच्चं काउं भुंजंति भोयणं ताव चिंतियमिमेहिं । न हु होति रक्खसा नेय ताव मंसासिणो एए ॥२३॥ छज्जीवहिया उवसंतमाणसा सोममुत्तिणो समणा । परदुहजणया न हु होंति एरिसा निच्छियमिमे त्ति ॥२४॥ ता नणमम्ह जणओ न तत्तदंसी न यावि हियजणओ । एयाण दंसणं पि हु जो वारइ संतरूवाणं ॥२५॥ इय चिंतिऊण तरुणो समुत्तरेउं पसंतहिययभया । संविग्गमणा सम्म साहुसयासं समल्लीणा ॥२६॥ बहुमाणभत्तिसंभारसंभमुभिजमाणरोमंचा। चरणे निवडिऊणं मुणीण पुरओ समुवविट्टा ॥२७॥ नाऊण जोगियं तेसि साहुणा मुणियसमयसारेण । जेठूण जंपियं सुणह भद्दया ! सम्ममुवएसं ॥२८॥ तं जहा जाएण जीवलोए दो चेव नरेण सिक्खियब्वाइं । कम्मेण जेण जीवइ जेण मओ सोग्गइं जाइ ॥१९॥ तथा इहलोइयम्मि कज्जे सव्वारंभेण जह जणो तणइ । ता जइ लक्खसेण वि परलोए ता सुही होइ ॥३०॥ परलोइयकजमिमं गिहवासं दुच्चयं परिच्चइय । पडिवन्जिय पवजं जं कीरइ सोहणो धम्मो ॥३१॥ तेहिं वि भणियं भयवं ! सच्चमिमं तुम्ह संतियं वयणं । मोयाविऊण पियरो काहामो किं वियप्पेण ? ॥३२॥ मोयाविऊण जणयाओ सुत्तजुत्तीहिं सम्ममप्पाणं । संविग्गभावियमणा फवइया ते समियपाचा ॥३३॥ जह एए तह राया पुरोहिओ तेसि भारियाओ वि । पवइउ छावि हु माणुसाणि पत्ताणि सिद्धिसुहं ॥३४॥ ॥ भृगूपरोहितसुतयुग्माख्यानकं समाप्तम् ॥१०३॥ जह एएसिं जायं साहूणं दंसणं पि हु गुणाय । तह अन्नस्स वि जायइ ता बहुमाणाओ तं कुणह ॥१॥ कल्याणकारनिरवद्यगुणैरनल्पं, शश्वत्पवित्रपरपावनतीर्थकल्पम् । धन्यस्य कस्यचिदिदं शुभजन्मभाजः, पुण्यात्मनः सुमुनिदर्शनमाविरस्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदानदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे साधुदर्शनमहागुणप्रतिपादकश्चतुस्त्रिंशत्तमो ऽधिकारः समाप्तः ॥३४॥ [३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्त्यधिकारः] साधुदर्शनं गुणावहमित्युक्तम् । इदं च पूर्वपुण्यजनितमेव गुणावहमनयोर्यथा जातं तथाऽपरमपि विभूत्यादिकं यद् यस्य पूर्वपुण्यजनितं तत् तस्यावश्यमेव जायते इत्येतदाह जं जस्स पुव्वविहियं सो तं पावेइ एत्थुदाहरणा । करकंडु-नमी तह चारुदत्त-वणिपंधुदत्ता य ॥४४॥ व्याख्या-'यत्। किमपि विभवादिकं 'पूर्वविहितं' पूर्वकर्मोपात्तं तत् 'सः' प्राणी 'प्रप्नोति' लभते । अत्रीदाहरणानिकरकण्डुश्च-दधिववाहनपुत्रः नमिश्च-राजपुत्र एव तौ तथोक्तौ । तथा इति समुच्चये । चारुदत्तश्च-श्रेष्ठिपुत्रः वणिग् बन्धुदत्तश्चबन्धुदत्ताभिधानो वाणिजकः तौ च । चः समुच्चये इत्यक्षरार्थः ।। भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । Jajn Education International Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकारे करकण्ड्याख्यानकम् २७७ तत्रापि परिपाटीप्राप्त करकण्ड्याख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् उत्तंगविसालेणं सालेणं परिगया पुरी चंपा । निस्सेसभुवणलच्छीए मंदिरं अस्थि सुपसिद्धा ॥१॥ लायन्नलच्छिकलिओ मयरहिओ घणरसाणुगयदेहो । रयणायरो व्व निवसइ अलद्धमझो जणो जत्थ ॥२॥ उड्डमरसमरसंरंभभिडियभडकोडिसंकडे समरे । वइरियजयसिरि-जसगहणलालसो जम्स करवालो ॥३॥ ससहरसमजसधवलियसधरधरावलय-कंदराभोगो । तं परिपालइ नयरिं राया दहिवाहणो नाम ॥४॥ तस्स उवरोहसीला मणहरजोव्वणविभूसियसरीरा । सयलावरोहसारा भज्जा पउमाई नाम ॥५॥ आरोविय रज्जं रज्जकजसज्जम्मि पयइपुजम्मि । मंतिम्मि विसयसोक्खं सो भुंजतो गमइ कालं ॥६॥ पुव्वभवोवज्जियपुन्नपगरिसब्भूयगम्भवसयाए । देवीए दोहलओ संजाओ अक्खियो रन्नो |७|| जइ तुमए धारियधवलछत्तरयणा रणतमणिघंटं । जयवारणमारूढा कुंदुजलचलियचमरजुया ॥८॥ आरामुज्जाण-विहार-गरुयगिरिकंदरामु विहरामि । इय भणिए देवीए रन्ना विहियं तहेव तयं ॥२॥ एत्थंतरम्मि हरिचाव-विज्जु-गुरुगन्जिभरियभुवणयलो । पहिययणुम्मायकरो वासारत्तो समणुपत्तो ॥१०॥ एवंविहम्मि पाउसपारंभे नवघणालिसोहिल्ले । नीलतिणंकुररेहिरधरणीवलएण रमणीए ॥११॥ सीरवियारियखोणी-जलहरजलसंगमाओ सुरहण | गंधेण हत्थिराया घाणिदियपरवसो विहिओ ॥१२॥ सरिऊण विंझवंसग्गकरलअइसरलसल्लइप्पभिइ । मयमत्तो चत्तजणो वणसमुहो गंतुमारद्धो ॥१३॥ गंतुमसत्तो संतो वलिओ सामंत-मंतिपभिइजणो । हत्थी उण संपत्तो वणम्मि जलसिसिरपवणम्मि ॥१४॥ तत्थ वि गच्छंतेणं दट्टुं वडपायवं पुरो भणिया । देवी निवेण गच्छइ तलेण एयस्स जइ हत्थी ॥१५॥ तो तं वडवाययलग्गणम्मि जत्तं करेज इय भणिए । राया दक्खत्तणओ गिण्हित्तु तयं समुत्तिन्नो ॥१६॥ दहिवाहणो वि तत्तो वलिउं चंपं गओ निराणंदो। पउमावई गएणं नीया निम्माणुसं अडविं ॥१७॥ दणं तत्थ सरं हत्थी कीलानिमित्तमोयरिओ। देवी समुत्तरेउं सणियं अडवीए भमडंती ॥१८॥ दिट्टा य तावसेणं नीया नियकुलवइस्स पासम्मि । पुट्ठा य तेण भद्दे ! काऽसि तुमं ? किमिह संपत्ता ? ॥१९॥ तीयुत्तं दहिवाहणदइया धूया य चेडयनिवस्स । इह संपत्ता अहयं अवहरिया हथिणा तयणु ॥२०॥ भणियं कुलवइणा जइ एवं ता मम वि होसि तं धूया। जेण मह तुज्झ जणओ दुइज्जहिययं परममित्तो ॥२१॥ सम्माणिया समाणी तत्थ ठिया सा वि कइवयदिणाणि । नाउं तत्थ निवासं असंगयं अन्नदियहम्मि ॥२२॥ नियसीम अब्भड वंचिऊण सा ताबसेहिं सिक्खविया । अम्ह न विसओ वच्छे ! एत्तो पुरओ तओ तुमए ॥२३॥ सिरिदंतवक्कनयरं गंतव्वं दंतवक्कनरवइणो । सा वि हु तं संपत्ता पव्वइया साहुणीपासे ॥२४॥ पच्छन्नगभभावा संजाओ दारओ तओ तीसे । मुद्दारयणसमेओ कंबलरयणेण वेढेउं ॥२५॥ मुक्को पेयवणम्मि पच्छन्ने सा ठिया निरूविती । पेयवणसामिणा भारियाए सो दारओ दिन्नो ॥२६॥ अजाए मित्ततं तीए सह पाणगीए पारद्धं । जं लहइ मोयगाई तं सव्वं तीए अप्पेइ ॥२७॥ बढतो तीए सुओ संजाओ अट्ठवरिसदेसीओ । कच्छूसंगहियतणू कीलंतो सह वयंसेहिं ॥२८॥ जंपइ भो ! तुम्हाणं मझे राया अहं करं देज । ता तुम्भे मज्झ तणकच्छूकंडूयणेणं ति ॥२९॥ तो कयजहत्यनामो सो करकंडु त्ति दिक्करूवेहिं । विद्धिं गओ मसाणं रक्खइ अह साहुणो दोन्नि ॥३०॥ तम्मि मसाणम्मि गया वंसं दट् ठूण ताणमेगेणं । वुत्तं जो वंसमिमं गिहिस्सइ सो निवो होही ॥३१॥ नवरं पडिक्खियव्यो चउरंगुलमेत्तयं पबटुंतो । तत्तो इमो जहोइयलक्खणगुणसंजुओ होही ॥३२॥ पच्छन्ने विप्पेणं तं वयणं सुणिउ खणिउमारद्धो । करकंडुणा स दिट्टो पयंपिओ मुणियभावेण ॥३३॥ कि मझ संतियं बंसदंडयं उक्खणेसि रे विप्प ! । उद्दालिए हटेणं दिएण सो करणमाणीओ ॥३४॥ जाओ य विसंवाओ तेसिं दोण्हं पि दंडकजम्मि । कारणिगेहिं भणिओ करकंडू किं न अप्पेसि ? ॥३५॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आख्यानकमणिकोशे विप्पस इमं सो आह मज्झ एसो त्ति ता न अप्पेमि । अन्नं गेण्हमु भणिए जा कह वि न अप्पर तत्तो ॥ ३६ ॥ तेत्तं हसि राया कि होसि एयपासाओ ? । तेणुत्तं होहिस्सं बाढं भणिओ पुणो तेहिं ||३७|| जइया तं होसि निचो तझ्या गामो इमस्स दायव्वो । पडिवज्जिऊण एवं दो वि गया नियनियगिहे ॥ ३८ ॥ धिज्याइएण दंड गहणत्थं मेलिए दिए नाउं । सो जणय-जणणिसहिओ संपत्तो कंचनपुरमि ||३९|| तत्थ अपुत्तो राया मओ य अहिवासियाणि दिव्वाणि । भमिऊण चच्चराइमु संपत्ताइं तर्हि ताई ॥४०॥ जत्थऽच्छइ करकंडू सुत्तो छायाए सीयलतरुस्स । तं दणं चक्कं कुसाइसल्लक्खणोवेयं ॥४१॥ आरोविओ सधम्मि हत्थिणा पउरलोयपरियरिओ । जा पविसइ पुरमज्झे ता मायंगो त्ति कलिऊण ॥४२॥ धिज्जाइया पवेसं न देंति तो दंडरयणमइघोरं । पज्जलियं तं दट्ठे नट्टा विप्पा तओ रन्ना || ४३॥ निव्विसया आणत्ता मायंगा पुण कया दियप्पवरा । सो वि हु मरुओ सोउं करकंडुनिवं तहिं पत्तो ||४४॥ भणिओ रन्ना गामं गिण्इमु जं किं पिरोयए तुज्झ । तेणुत्तं मह गेहं चंपाविस तर्हि देहि ||४५ || तत्तो य दूयवयण भणइ दहिवाहणं निययदे से । मह देसु गाममेगं घेत्तु ं गामं व नयरं वा ॥४६॥ मायंगो न वियाणइ अप्पं गामं च मग्गइ अणज्जो । इय भणिय अवन्नाए तेणं निद्धाडिओ दूओ || ४७॥ तो करकंडू चंपं चउरंगबलेण रोहए गंतुं । नायं च साहुणीए मा होउ जणक्खओ एवं ॥ ४८ ॥ इ चिंतिऊण करकंडुगुड्डु रे आगयाए नरवइणो । कहिओ नियवुत्तंतो तस्स वि मायंगणएण ॥४९॥ सन्भावत्थो कहिओ मुद्दारयणाइ दंसियं तेण । तो भणइ तह वि अम्मो ! माणेणं न हु नियत्तेमि ॥ ५० ॥ निग्गंतू अज्जा पत्ता दहिवाहणस्स भवणम्मि । नरवइणा विन्नाया पुट्ठा सा तुह कर्हि गन्भो ? ॥ ५१ ॥ ती युत्तमेस गन्भो जो चंप रोहिउं ठिओ तुज्झ । तो हिट्टमणो राया गओ कुमारस्स पासम्म ॥ ५२ ॥ दाऊण दो वि रजाई तस्स दहिवाहणो विणिक्खंतो । करकंडो उण जाओ नरनाहो पयडमाहप्पो ॥ ५३॥ सो पयईए धण-गोउलप्पिओ गोउलम्मि संपत्तो । पेच्छछ य थोरगत्तं सेयं सो वच्छगं तत्थ ॥५४॥ वृत्ता गोवा दुद्धं पाएयन्वो इमोऽन्नगावीणं पडिवन्नं तेहिं तयं सो वि हु उव्वित्तसु विसाणो ॥ ५५ ॥ संजाओ पीणुन्नयखंधो जुद्धम्मि निज्जिणियवसहो । कालेण पुणो रन्ना समागएणं तहिं एगो ॥ ५६ ॥ परिघट्टिज्वंतो पड्डएहिं दिवो वि सो तओ गोवे । पुच्छइ सो कत्थ गओ बसहो ? सो दंसिओ तेहिं ॥ ५७॥ रन्ना चितियमेयं सविसाएणं अहो ! असारत्तं । संसारस्स जमेसो एरिससत्तीए सहिओ वि || ५ || निस्सेसआवयाणं संजाओ मंदिरं पुणो इण्हि । संसारियवत्थूणं एसेव गई जओ भणियं ॥ ५९ ॥ सेयं सुजायं सुविभत्तसिंगं जो पासिया वसहं गोट्टमज्झे । रिद्धि अरिद्धिं समुपेहिया णं कलिंगराया वि समेक्ख धम्मं ॥६०॥ गोगणस्स मज्झे ढिक्कियसद्देण जस्स भज्वंति । दरिया विदित्तवसहा सुतिक्खसिंगा समत्था वि ।। ६१ ।। पोराणयगयदप्पो गलंतनयणो चलंतवसहोट्टो । सो चेव इमो वसहो पड्डयपरिघट्टणं सहइ ||६२|| इय एचमा इबहुविहसंसारासारयं विचिंतंतो । आसाइयसुहभावो जाओ पत्तेयवुद्धमुणी ॥६३॥ संभरिपुव्वम्मो जाई सरणेण दिन्नसुरलिंगो । संजाओ पव्वइओ विहरइ विउलं महीवीढं ॥ ६४ ॥ ॥ करकण्ड्वाख्यानकं समाप्तम् ॥१०४॥ इदानीं नम्याख्यानकमाख्यायते । तद्यथा अत्थि अवंती जणवयतिलयं नयरं सुंदसणं परमं । परमम्मो घट्टणदोसवज्जिओ वसई जत्थ जणो || १ || सुह-संपयाण कत्ता विहियअवायाण जणियअहिगरणो । सुहकम्मो करणरुई असरिससंजणियसंबंधो ||२|| सुविभत्तपयपहाणो निफा इयसंधिविग्गहो तत्थ । वसइ नरिंदो नामेण मणिरहो सव्वधम्मो व्व ॥३॥ लहुभाया जुवराया तस्सऽत्थि निहाणमसमसत्तस्स । नामेणं जुगबाहू जुगबाहू विडवच्छलो ||४|| सुहसीलसलिलसायरलहरी तस्वऽत्थि सुंदरा भज्जा । नामेण मयणरेहा मयणाहंकाररेह व्व ||५|| अह अन्नया य राया अवलोयणसंठिओ तयं दद्धुं । तम्मोहमोहियमई एवं हियए विचिंतेइ ॥६॥ For Private Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकार नम्याख्यानकम् २७६ कह एसा भणियव्या मए ? जहिच्छं कहं व रमियचा ? | अहव ससुरा-ऽसुरम्मि वि जयम्मि दाणं वसीकरणं ॥७॥ तंबोलाईहिं तओ आढत्तो तं पलोभिउं राया । गेण्हइ अदुट्ठभावा जेट्टपसाओ त्ति काउंसा ॥८॥ पट्टविया अन्नदिणे दुई रन्ना पयंपए गंतुं । तुहरूय-गुणक्खित्तो पभणइ भद्दे ! इमं राया ॥९॥ पडिवज्जमु मं भत्तं भत्तारं तुह गुणेहिं अणुरत्तं । सहलीकुरु मणुयत्तं अणुमन्नसु रज्जसामित्तं ॥१०॥ तो भणइ मयणरेहा रेहा तुह राय ! रायवंसस्स । सीलगुणेणं ता किं नियदुच्चरिएण तं फुससि ? ॥११॥ अन्नं च जं चिंतिउंन जुज्जइ सप्पुरिसाणं मणम्मि वि जयम्मि । विउसजणनिंदणिज्जं नरवइणा जंपियं कह णु ॥१२॥ इयरम्मि वि परदारे न रमइ मणयं पि उत्तमाण मणं । किं पुण नियवहुयाए सेवावुद्धी नरयहेऊ ? ॥१३॥ अन्नं च जुवरायगेहिणीए सामित्तं मज्झ विजए रज्जे । नट्ठम्मि सीलरयणे अहवा मह होउ रज्जेण ॥१४॥ अन्नं च बहुभवेर्मु जाया तित्ती न तुज्झ रमणीसु । इम्हि मं रममाणो निन्नेहं कह णु तिप्पिहिसि ? ॥१५॥ अवरं च एवं तं जपंतो न लजिओ नियसहोयरस्सावि । एवमकजं दटुं तम्स मणं केरिसं होही ? ॥१६॥ इच्चाइ मयणरेहापयंपियं परिकहेइ सा दुई। नरवइणो न नियत्तइ तह वि इमो अमुहकामस्स ॥१७॥ परिहरियनियकुलक्कममज्जाओ तो विचिंतए राया । मह बंधुम्मि जियंते एसा हु न तीरए घेत्तुं ॥१८॥ ता तं विणासिऊणं हटेण गिण्हामि इय विचिंतेउ । नियबंधुणो निरिक्खइ छिड्डाइं मारणकएण ॥१२॥ एत्यंतरम्मि कोइलकुलरवसंजणियजणमणुम्माहो । अहिणववसंतमासो संपत्तो परमरमणिजो ॥२०॥ दाहिणपवणंदोलिरतरुमंजरिविहुयरेणुसंघाओ । डिंभो व्व नववसंतो धूलीकीलाए कीलंतो ॥२१॥ आवाणयगोट्टिपरिट्टिएहिं तरुणेहि जत्थ हरिसेण । कुसुमाउहनरवइणो गिजइ रजाभिसेओ व्व ॥२२॥ वणराइकुसुमपरिमलतित्तसमुड्डीणभमररिंछोली । जत्थ पियविरहियाणं कूरकडक्खो व्व कालस्स ॥२३॥ एवंविहे वसंते गिज्जेते विविहचच्चरिसमूहे । तरुणजणुम्मायकरे परहुयरवबहिरियदियंते ॥२४॥ केणावि कारणेणं न गओ राया तहा वि उज्जाणे । जुगबाहू पुण पत्तो कीलत्थं पिययमासहिओ ॥२५॥ सुइरं कीलंतस्स य तम्मि य रयणी समागया तत्तो । रइसुहमणुहविउमणो कयलीहरए सुहपसुत्तो ॥२६॥ पत्थावं नाऊणं असहायत्तं च निच्छिउंराया । खग्गसहाओ सहसा समागओ तत्थ दुट्ठमई ॥२७॥ तो चइऊणं लज्ज परिचइऊणं च निययमज्जायं । अवगन्निऊण य जसं पहिहरिऊणं च परलोयं ॥२८॥ अवहत्थिय जणवायं अंगीकाऊण नरयदुक्खाई । निसियासिपहारेणं गीवाए भायरं हणइ ॥२९॥ अह कह वि मयणरेहाए परियणो मिलइ जाव दुक्खत्तो। वट ठुत्तरं विहे ताव गओ नरवई गेहे ॥३०॥ तत्तो य मयणरेहा विहुरसरीरं वियाणि दइयं । होऊण कन्नमूलेमु महुरवयणेहि तं भणइ ॥३१॥ भो भो महायस ! तुम मणयं पि मणम्मि कुणसु मा खेयं । नियकम्मपरिणइवसा संजायं तुज्झ दुक्खमिमं ॥३२॥ जइ कुणसि तुममियाणिं कंठट्ठियजीविए गुरुपओसं । हारिहिसि तुमं परलोयमेव न हु किंचि वि परस्स ॥३३॥ ता धीर ! सव्वसत्तेमु कुणमु मेत्तिं ममत्तमवि छिंद । अंतो धरसु समाहिं अणुसर चउसरणमह इहि ॥३४॥ सिद्धाणं पच्चक्खं नियदुच्चरियं च गरहमु सुधीर ! । खामसु सव्वे सत्ते खमंतु ते तुज्झ सव्वे वि ॥३५॥ कम्मविसपरममंतो पणयामर-मणुयजणियजम्मंतो। देवो सिवमरहंतो जाजीवं तुज्झ अरहंतो ॥३६॥ परिचत्तघरावासा विसुद्धचारित्तिणो महासत्ता । सम्मत्त-नाणसहिया साहू गुरुणो पवज तुमं ॥३७॥ पडिवजसु वेरमणं पाणिवहाईण तिविहतिविहेणं । जाजीवं अट्ठारसपावट्ठाणाण पडिकमसु ॥३८॥ परिभावसु तह सम्म अणिच्चयं सव्वभावविसएसु । अणुसरसु सयलसिद्धंतसारपरमेट्ठिनवकारं ॥३॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आख्यानकमणिकोशे जओ पंचनमोक्कारसमा अंते वच्चंति जम्स दस पाणा । सो जइ न जाइ मोक्खं अवम्स वेमाणिओ होइ ॥४०॥ अम्मा-पियरो मित्तं पुत्त-कलत्ताइसयणवग्गो य । विह डइ सव्वं पि इमं होइ सहाओ परं धम्मो ॥४१॥ अणुहूयनरयदुक्खस्स तुझ किर केत्तियं इमं दुक्खं ?। तो अहियासमु सम्मं धरि मणपरिणइं परमं ॥४२॥ एसा पुणो महायस ! दुलहा मणुयाइया तु सामग्गी । ता गिण्हमु तीए फलं समाहिमवलंबिडं सोम ! ॥४३|| इय तीए वयणघणरसविज्झावियकोवहुयवहो सम्मं । सिरविरइयकरकमलो पडिवज्जइ तं तहा सव्वं ॥४४।। सह वेयणाए बटुंतपरमसंवेगसंजुओ मरि । संजाय भावसमणो उववन्नो बंभलोगम्मि ||४५|| एत्तो य मयणरेहा कंदंते परियणम्मि सयलम्मि । चिंतइ किमहं गम्भे न विलीणा मंदपुन्न ? ति ॥४६॥ सुद्धसहावस्स जओ महाणुभावस्स सुद्धसीलम्स । अहमस्स मरणहेऊ संजाया निरवराहस्स ॥४७॥ अवरं च जेण निहओ नियभाया सो अवस्स सुहसीलं। मह गंजिही बला वि हु ता तं रक्खेमि जत्तेण ॥४८॥ चंदजसे नियपुत्ते कंदंते परियणम्मि सोयंते । एगागिणी निसाए गुरुहारा' निग्गया तत्तो ॥४९।। पुव्वाभिमुहं पत्ता कमेण वियडं महाडवि एकं । अह अइकता रयणी मज्झन्हे बीयदिवसम्मि ॥५०॥ सा कुणइ पाणवित्ति फलेहिं एकम्मि सरवरे नीरं । पाऊग कुणइ तत्तो पच्चक्खाणं च सागारं ॥५१॥ हिययभंतरविलसंतपंचपरमेट्टिमंतसव्वस्सा । कयलीहरए तरुपत्तविहियसयणम्मि पामुत्ता ।।५२।। एत्थंतरम्मि रयणीसमुन्भवा भीमसावयसमूहा । नाणाविहभयभेरवसद्दसमूहेहिं भेसंति ॥५३॥ तथा हि फेक्कारंति सिवाओ धुरुधुरिया भीमवग्यसंधाया । घुग्घुकरेंति घूया गुंजारवयंति केसरिणो ॥५४॥ एत्थतरम्मि जाया गुरुवियणा चलियगव्भसंभूया । तो पयडियलयहरयं कंतीए सुयं पसूया सा ॥५५|| तत्थेव तयं मोत्तु पच्चासन्ने सरम्मि जा पत्ता । वत्थाइधोयणत्थं उक्खित्ता ताव जलकरिणा ॥५६॥ उल्लालिऊण मुंडादंडेणं घत्तिया गयणमग्गे । विज्जाहरेण विहिणो निओगओ तयणु सा दिट्टा ॥५७|| नंदीसरम्मि दीवे गच्छंतेणं तओ वलेऊण । आरोविउं विमाणे वेयड्डे पव्वए नीया ॥५॥ भणिओ य तीए एसो अज महाभाग ! तम्मि वणगणे । संपयमेव पसूया पुत्तं अयं लयाहरए ॥५९॥ ता सो सावयपासाओ अहव सयमंव दूसहछुहाए । मरिही ता तमिहाऽऽणसु तत्थ व मं नेसु रन्नम्मि ।।६०॥ तेणत्तं सुयण ! तुमं पडिवजसि पाणसामियं जइ मं । तो हं आणाकारी आजम्मं होमि किं बहणा ? ॥६॥ अन्नं च सुयण ! गंधारजणवए जणवयाण पवरम्मि । रयणावहम्मि नयरे मणिचूडो नाम नरनाहो ॥६२॥ कमलाबई य भज्जा तेसिं पुत्तो मणिप्पहो अहयं । रजधुराधरणखमो पाणपिओ जणणि-जणयाणं ॥६३॥ मह जणओ विजाहरसेढीणं पालिऊण सामित्तं । निव्यिन्नकामभोगो पव्वइओ गुरुसमीवम्मि ॥६४॥ ठविऊणं मं रज्जे निस्संगो सो अईयदिवसम्मि | आसि इहं चेव गओ संपइ नंदीसरे दीवे ॥६५॥ तव्वंदणत्थमहयं पि पत्थिओ ता मए तुमं दिट्ठा । ता होसु सामिणी सुयणु ! सव्वविजाहरवहूणं ॥६६॥ अवरं च तुझ तणओ तुरंगमावहरिएण संपत्तो । पउमरहेणं महिलाहिवेण चिइ मुहेण तहि ॥६॥ एयं पन्नत्तीए मह कहियं चयसु ता तुमं खेयं । उव जसु रज्जसिरिं मा विहलं नेसु तारुन्नं ॥६॥ चिंतियमिमीए मह पावकम्मवसयाए दुक्खरिंछोली । उवरुवरि पडइ ता पडउ वजमेयस्स रूवम्स ॥६९॥ जेणाहं रूवेणं पइमरणं पढममेव संपत्ता । पुणरवि य सुयविओयं संपत्ता एयदोसेणं ॥७०॥ एसो वि हु मं पत्थइ रू वेणं चेव मोहिओ संतो । ता मह एस गुणो वि हु आवइ-दुहकारणं जाओ ॥७१॥ एयरस मा बहुदक्खलक्खसंघडणवावडमणस्स । विहिणोऽवसरो कज्जंतरम्स करणे धुवं नस्थि ॥७२॥ १. गुरुभारा सगर्भा। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकारे नम्याख्यानकम् २८१ ता अत्थावत्तीए नजइ अन्नो वि अस्थि जयकत्ता । अन्नह जयवइचित्तं कुओऽवरेणावि भणियमिमं ॥७३॥ अस्त्येव कश्चिदपरो जगतां विधाता, तुभ्यं शपे तदलमत्र विकल्पितेन । मदुःखजालघटनाकुलचित्तवृत्तेः, कण्ड्यनेऽपि शिरसोऽवसरः कुतोऽस्य ? ॥७॥ परमिमिणा किं परिचिंतिएण ? गच्छामि ताव मुणिपासे । उम्मग्गं पि पयट्ट बोहिस्सइ सो नियं तणयं ॥७॥ तो तीए सो भणिओ सव्वं तुह जंपियं करिम्सामि । नेह ममं नंदीसरदीवं वंदावसु जिणिंदे ॥७६|| तो सो हरिसियहियओ विज्जाए बिउबिउं वरविमाणं । आयासेणुप्पइओ संपत्तो तम्मि दीवम्मि ॥७७॥ वंदिय जिणिंदचंदे मणिचूडं मुणिवरं पणमिऊणं । उवविट्ठा तेण समं निसुणइ जिणभासियं धम्मं ॥७८|| मुणिणा वि मयणरेहाए वइयरं जाणिऊण नाणेण । भणिओ सो नियतणओ.भद्द! तए किं समारद्धं? ॥७९॥ भीमभवभमणहेऊ परदारासेवणं नरयपयवी । सुहसंपयाण विग्छो भुयम्गला सुगइदारस्स ।।८०॥ नियकुलनिम्मलपासायभित्तिमसिकुच्चओ चरणसत्त । आसंसारं भुवणम्मि अयसपडहो महाभाग ! ॥८॥ अन्नं च मयणाइत्तो पुरिसो न गणइ वंसट्टिई हणइ कित्ति । गंजइ अप्पाणं दलइ पोरिसं मलइ माहप्पं ॥८२॥ ता विरमसु एयाओ दुरज्झवसियाओ तं महाभाग ! । जइ वंछसि जसकित्तिं महसि सुहं वहसि पुरिसवयं ।।८३॥ इय अणुसट्रो मुणिणा विलक्खवयणो अहोमुहो जाओ। लज्जाए नियवयणं न तरह दंसेउमवि मुणिणो ॥८४॥ तो उट्टि सविणयं पणमिय पाएमु मयणरेहाए । खममु महासइ ! सव्वं अवरद्धं जं मए तुज्झ ॥८॥ मणिचूडमुणिवरेणं पुणरवि जिणभणियसमयवयणेहिं । अणुसासियाणि कोमलगिराए जायाणि सुत्थाणि ॥६॥ जावेवं चारणमुणिपुरओ अच्छंति ताव पेच्छंति । गयणयलाओ विम्हयविष्फारियनयणपत्ताणि ||७|| सज्जो अमंदसुंदेरधाममेगं विमाणमवइन्नं । नंदीसरजिणमंदिरदसणकयको उगेणं व ॥८८॥ पणवन्नरयणघडियं सिरविलसिरसे यधयवडसमूहं । उवरिभमंतबलायं पणवन्नं जलयखंड व ॥८९॥ तो मउडभासियसिरो वियसियमंदारदामसुइसिरओ । कुंडलमंडियगंडो हारविरायंतवच्छयलो ॥९॥ केऊर-कडय-वररयणमुद्दियाभरणभूसियसरीरो । नियसियदुगुल्लवसणो विम्हयभवणं नियंताण ॥९॥ निप्पंकभित्तिसंकंतपयडपडिबिंबबहुविहसरीरो । अणुराएममणेगो ब्व मयणरेहाए दीसंतो ॥९२॥ अवयरिऊण विमाणाउ सुरवरो सरसपंकयदलच्छो । पेच्छंताणं सम्वेसिमेस मणिचूडमुणिपुरओ ॥१३॥ आणंदवियसियमुहो पढम पडिऊण मयणगेहाए । पयपंकयम्मि पच्छा पणओ चारणमुणिवरस्स ॥९॥ लद्धासीसो सोयामणि व्व दिप्पंतभासुरसरीरो । उवविट्टो तप्पुरओ पुट्टो विज्जाहरेण तओ ॥९५|| नीईओ सरियाउ व समुच्चगोत्ताणमुन्नयगुणाण । अमराण महिहराण व धुवं महाभाग ! पभवंति ॥१६॥ मोत्तणं मणिचूडं चरित्तचूडामणिं मुणिवरिंदं । ता किं तुच्छगुणाए एयाए पएसु पणिवइओ ? ॥९७॥ तो जंपियममरेणं सुणसु महाभाग ! कारणमिहत्थे । मोरणं मुणिनाहं जं पणओ पुज्वमेईए ॥९८॥ आसि सुदंसणनयरे नामेणं मणिरहो महाराया । जुगरामा जुगबाहू सहोयरो तस्स गुणभवणं ॥१९॥ केणावि कारणेणं पहओ सो तेण तिक्खखग्गेणं । तो कंठम्गयपाणो इमीए जिणवयणसलिलेणं ॥१०॥ वेराणभावतविओ निव्वविओ थिरमणाए सव्वंगं । पंचनमोक्कारपरो खमावियासेसजीवगणो ॥१०१॥ निम्मलवयपरिणामो उववन्नो पंचमम्मि कप्पम्मि । दससागरोवमाऊ सुरिंदसामाणिओ देवो ॥१०२॥ सो य अहं सुकयन्नू सरमाणो धम्मजणियमुवयारं। तक्खणमेवाऽऽयाओ गुरु त्ति काउं नया पढमं ॥१०३॥ भणियं च-- जो जेण सुद्धधम्मम्मि ठाविओ संजएण गिहिणा वा । सो चेव य तस्स गुरू जायइ सद्धम्मदाणाओ ॥१०४॥ अमरेण वि सा भणिया साहम्मिणि! भणसु जंपियं किं पि। तुज्झ करेमि महासइ ! तो भणिओ तीए सो अमरो ॥१०५॥ Jain Education Interational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आख्यानकमणिकोशे मह नस्थि कि पि कज्जं धम्म मोत्तण जिणवराभिहियं । ता मं पुत्तसयासे नेसु महाभाग ! जेण तयं ॥१०६॥ द? निवुययिया करेमि तं सुगुरुपायमूलम्मि । इय भणियम्मि विमाणे नियये आरोवि तम्मि ॥१०॥ भत्तीए मयणरेहा नीया मिहिलापुरीए अमरेण । अवयरिउं चेइहरे भावेणं बंदिउं देवे ॥१०८॥ पत्ताई वयणिपासे पणमित्ता साहुणीण पयकमलं । उवविट्ठाई पुरओ तासिं पासे सुओ धम्मो ॥१०९॥ तं जहा लघृण माणुसत्तं धम्मा-ऽधम्मप्फलं च नाझण । सयलसुहसाहणम्मि जत्तो धम्मम्मि कायवो ॥११॥ अमरेण मयणरेहा भणिया भद्दे ! सुयस्स पासम्मि । वच्चामो तीउत्तं गच्छ तुमं संपयं सोम ! ॥११।। चिंतियमिमीए दिटे सयम्मि होही मणम्मि पडिबंधो । ता किं तत्थ गयाए मए? पवज्जामि पव्वजं ॥११२॥ जओ सव्वे जाया सयणा सव्वे जीवा य परजणा जाया । ता तेसिं सविवेओ उवरिं को कुणउ पडिबंधं ? ॥११३।। इय परिभाविय सम्म साहुणिपासे वयं पवन्ना सा । ठावियसुव्वयनामा पालइ तव-संजममसंगं ॥११४॥ सो वि हु तीए तणओ वढूइ पउमरहराइणो गेहे । सुयमाहप्पा रन्नो नया जओ सेसरायाणो ॥११५॥ तो से नमि ति नाम कयं तओ पंचधाइपरियरिओ। बढतो य कमेणं संजाओ अट्टवारिसिओ ॥११६॥ परिणयकलाकलावो संपत्तो जोव्वणं तओ पिउणा । कन्नाणं कारविओ करगहमट्टोत्तरसयस्स ॥११७॥ पउमरहो नमिकुमरं रज्जे ठविऊण गहियपव्वज्जो । उप्पन्नविमलनाणो विहुयमलो सिद्धिमणुपत्तो ॥११८॥ जाओ य नमी राया पयावपडिहयविवक्खसामंतो । एत्तो य मणिरहनिवो पावाओ तम्मि चेव दिणे ॥११॥ दट्ठो भुयगेण मओ चउत्थपुढवीए नारओ जाओ । चंदजसो नमिभाया ठविओ मंतीहिं तस्स पए ॥१२०॥ एत्थंतरम्मि सरिऊण विझवणमुन्नओ नमिनिवस्स । हत्थी भंजिउमालाणखंभमनिवारियप्पसरो ॥१२॥ डिंडीरपिंड-गोखीर-तारनीहार-हार-हरधवलो । भूवलयं भमिउं जे विनिग्गओ कित्तिपुंजो व्व ॥१२२॥ दिट्टो य चंदजससेवएहिं नयरंतिएण वच्चंतो। तो तेहिं बंधिऊणं नीओ नियरायनयरम्मि ॥१२३॥ तत्तो य चारपुरिसेहि साहियं नमिनिवस्स जह देव! तुह धवलपट्टहत्थी चिट्ठइ चंदजससंगहिओ ॥१२४।। ताहे नमिणा दूओ पहिओ चंदजसराइणो सिग्धं । जह एस धवलहत्थी वणम्मि जो पाविओ तुमए ॥१२५।। सो मज्झ संतिओ ता नरिंद ! पेसस तुमं ति तेणुत्तं । रयणाणि न कस्स वि संतियाणि ता तं न पेसेमि ॥१२६॥ निभच्छिऊण निस्सारिऊण मुक्को निवेण नमिदूओ । तेण वि सविसेसे साहियम्मि कुद्धो नमी राया ॥१२७।। चउरंगबलसमेओ चंदजसोवरि विणिग्गओ समरे । सो वि तमागच्छंतं सोतस्सम्मुहो चलिओ ॥१२८॥ अवसउणखलियमग्गो काऊणं नयररोहयं थको । नाउं वइयरमेयं च सुव्वयजा विचिंतेइ ॥१२९|| मा होउ जणस्स खओ मा हु वराया वयंतु नरयमिमे । तो उवसमामि दोन्नि वि गंतूणं तेसि पासम्मि ॥१३०॥ मोयाविऊण गुरुणिं पत्ता नमिरायसंतिए कडए । दिट्टो राया दिन्नं च तीए परमासणं रन्ना ॥१३॥ कहिओ नियवुत्तंतो परूविओ जिणवराण सद्धम्मो । नरयदुहाण निमित्तं च साहिओ तस्स संगामो ॥१३२।। अन्नं च केरिसो तुह संगामो जेट्टभाउणो सद्धिं ? । कहमिव भाया एसो ? सपच्चओ तीए सो सव्वो ।।१३३।। कहिओ सो वुत्तंतो तह वि हु अभिमाणओ न ओसरइ । ताहे खडकियाए पत्ता चंदजसपासम्मि ॥१३४।। तो रायपमुहनायरजणेण सहस त्ति पच्चभिन्नाया। अंतेउरियासत्थो पएसु पडिउं परुन्नो सो ॥१३५।। तत्तो निवेण नमिऊण तीए पयपंकयं तओ पुट्टा । अम्मो ! किमेरिसं ते कट्ठाणुट्टाणमायरियं ? ॥१३६॥ कहिओ य तीए नियओ पुरनिग्गमणाइवइयरो सम्वो । भणियं च तओ रन्ना सहोयरो कत्थ मे अज्जा ! ? ॥१३७॥ तीए भणियं एसो जेण तुमं वेढिओ नियबलेण । तं सोउ चंदजसो हरिसवमुन्भिन्नरोमंचो ॥१३॥ नीहरिओ नयराओ निम्भरमालिंगिओ सिणेहेण । दाऊण तस्स रज्जं वयं पवन्नो सयं परमं ॥१३९॥ Jain Education Interational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकारे नम्याख्यानकम् २८३ इयरो वि दोसु रज्जेसु पत्तपयरिसविसेसओ जाओ। निग्गयपयडपयावो वसीकयासेसरि उनिवहो ॥१४०।। भुंतस्स य पंचप्पयारविसए गओ बहु कालो। अह अन्नया य जाओ दाह जरो नमिनरिंदस्स ॥१४॥ तस्सोवसमनिमित्तं घसंति विज्जोवएसओ सव्वा । अंतेउरिया गयदंतवलयपडि पुन्नबाहुलया ॥१४२।। सिरिखंडाई सिसिरोवयारजणणत्थमवणिनाहस्स । तत्तो उत्तालाणं परोप्परं तेसि वलयाणं ।।१४३।। संघडण-विहडणावसविसेसओ संतयं समुच्छलिओ। हलबोलरवो विरसो सुदस्सहो रायकन्नाणं ॥१४४।। भणियं च तओ रन्ना न सहइ एसो दढं मह मणम्स । तत्तो एगेगं दंतवल्यमुम्मोइयं ताहिं ॥१४॥ तह वि हु जाव न पसमइ ताव य सवाणि ताहि मुक्काणि | एगेगं मोत्तणं तो भणियं नरवरिदेण ॥१४६।। संपइ किं उवसंतो वलयरवो ? तो निवेइयं रन्नो । वलयाण सरूवमिमं विवेयओ तो विचिंतेइ ॥१४॥ पेच्छमु अइहववलयं मोत्तुं सव्वाणि जाव णीयाणि । ता मह असमाहिकरो उवसंतो एस हलबोलो ॥१४॥ ता एसो वि हु बहुओ पुत्त-कलत्ताइओ सयणवम्गो । जावऽज्ज वि ता जायइ जियाण हिययम्मि असमाही ॥१४९|| अन्नं च जियस्सिमिणा बहुएण वि पासवत्तिणा ताणं । न भवइ दुहम्मि मणयं पि परियणेणं जओ भणियं ॥१५०॥ जइया दाहजरत्तो अइदुस्सहवाहिवयणाविहुरो । तइया पासबइट्टो सयणो अक्कंदए करुणं ॥१५॥ पंके खुत्तो व्ब करी सयणगओ तडफडेइ दुक्खत्तो । सयणो वुन्नो जोयइ असमत्थो वेयणुद्धरणे ॥१५२।। अन्नह कहमेयाओ सरसाओ भारियाओ मिलियाओ ?। ससिणेहाउ मह कए खिज्जंतेवं वराईओ? ॥१५३॥ एए विचिगिच्छाए चउप्पयाराए सत्थभणियाए । धन्नन्तरिसारिच्छा वेज्जा कुसला किलिस्संति ? ॥१५४॥ अवरे वि मंत-तंताइवाइणो मंतिणो ससामंता । चउरंगबलं एयं बहुयं पि हु विभयइ न दुक्खं ॥१५५।। जइ पुण पुन्वभवकयं सहायमेगं पि होइ मह सुकयं । ता तयमवियप्पेणं होज्जा ताणं दुहत्तस्स ॥१५६।। ता जइ कहमवि एयाओ रोगवसणाओ हं विमुंचेज्जा । ता सुकयम्मि पयत्तं करेमि चइऊण रज्जसिरिं ॥१५७।। इय चिंतिय रयणीए सेज्जाए जाव सुयइ ताव सुहा । जाया निद्दा वयपरिणई य कम्मक्खओवसमा ॥१५८॥ पेच्छइ रयणिविरामे सुमिणमिमं किर अहं सयं चेव । संजमभरे व चडिओ समुन्नए मेरुसिहरम्मि ॥१५९।। तत्थ वि य सरयससहरकरनियरपहासमुज्जलसरीरे । नियगे व्व पुन्नपुंजे करिम्मि आरूढमप्पाणं ॥१६॥ ताहे नायं एसो मेरुगिरी देवपुव्वजम्मम्मि । दिट्ठो जिणिंदजम्मणमज्जणयमहूसवम्मि मए ॥१६॥ एवं सो नमिराया जाईसरणेण नायपरमत्थो । देवयविइन्नलिंगो जाओ पत्तेयबुद्धमुणी ॥१६२॥ गिरिकंदराए वीसुं पि पबलपज्जलियजलणदित्ताए। सीहो व्व विणिक्खंतो गिहवासाओ महासत्तो ॥१६३।। एत्थंतरम्मि मणिरयणभामुराभरणभूसियसरीरो । सोहम्मवई सक्खं समागओ तप्परिक्खत्थं ॥१६॥ अच्चव्भुयतच्चरिएण रंजिओ नमिरिसिं महासत्तं । नयरीओ नीहरंतं माहणरूवो भणइ सक्को ॥१५५।। भो भो । मुणसु महायस ! पवजा ताव पाणिदयमूला । तुह वयगहणे य इमा अकंदइ दुक्खिया नयरी ॥१६६।। ता दरमजुत्तमिणं पुञ्चा-ऽवरबाहयं वयं तुज्झ । तो भणइ मुणी न दुहस्स कारणं एत्थ मज्झ वयं ॥१६॥ किंतु नियनियपओयणहाणी दुक्खस्स कारणं लोए । ता अहमवि नियकजं करेमि किमिमाए चिंताए ? ॥१६८॥ ततः स्वयमेवान्तःपुरगृहाणि प्रज्वलन्त्युपदश्य पुनरप्याह शक्र : एस अग्गी य वाऊ य एयं डज्झइ मंदिरं । भयवं ! अंतेउरतेणं कीस णं नावएक्खह ? ॥१६॥ ततो नमिराह मुहं वसामो जीवामो जंसि मो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डझमाणीए न मे डज्झइ किंचणं ॥१७०॥ चत्तपुत्त-कलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विचई किंचि अप्पियं पि न विजई ॥१७१॥ १. अविधवावलयं-सौभाग्यचिह्नरूपं वलयमित्यर्थः । Jain Education Interational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आख्यानकमणिकोशे पुनराह शक्रः पागारं कारइत्ता णं नयरस्स अइदुग्गयं । नाणाजंतेहिं संजुत्तं तओ पव्वय खत्तिया ! ॥१७२॥ राजर्षिः प्राह संजमो नयरं मज्झ सयं च विहियो तहिं । दुग्गो पसमपायारो नयजंतेहिं संजुओ ॥१७३॥ पुनर्वदति शचीपतिः निवासहेउं लोयस्स सासए सुमणोहरे । पासाए कारइत्ता णं तओ पव्वय खत्तिया ! ॥१७४।। नमिः प्राह मूढो चेव जणो पंथे वहंतो कुणई गिहं । निच्छएण जहिं ठाणं जुत्तं तत्थेव मंदिरं ॥१७५॥ इन्द्रः प्राह तक्करे निग्गहेऊणं सुत्थं काऊण पव्वय । नमिराह चोरा रागाइणो चेव ते य निग्गहिया मए ॥१७६॥ हरिराह जे केइ पत्थिवा तुझं न नमंति बलगव्विया । वसे ते ठावइत्ता णं तओ पव्वय खत्तिया ! ॥१७७॥ मुनिरुवाच जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जयं जिणे । एगं जिणेज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥१७॥ सुरपतिरवादीत् गिहासमसमो धम्मो को अन्नो एत्थ विजई ? । दिजंति जत्थ दाणाई दीणा-ऽणाहाइपाणिणं ॥१७॥ साधुरुत्तरयति जीवघायरओ धम्मं जं कत्थइ कुणई गिही । साधुधम्मगिरिंदस्स राइमेत्तो वि नो इमो ॥१८॥ पुरन्दरः प्राह सुचन्न-मणि-मुत्ताओ कंसं दूसं च वाहणं । कोसे वड्ढावइत्ता णं तओ पव्वय खत्तिया ! ॥१८१॥ [राजर्षिरुवाच]-- जइ होति हिरण्णस्स गिरितुल्ला वि रासिणो । से तहा विरई कत्तो असंतुट्टम्स जंतुणो ॥१८२॥ सुराधिपो न्यगादीत् अणागयाण भोयाणं कारणम्मि नराहिवा ! । हत्थागए इमे भोए मूढो जं एवमुज्झसि ॥१८३।। राजमुनिरभाषत भोगासंसाए नो भोए लद्धे परिचयामऽहं । अजिन्नसंभवे दोसे को घयं पियई बुहो? ॥१८४॥ सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा । कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं ॥१८॥ य भणिओ वि हु एसो जा न चलइ मंदरो व्व पवणेहिं । ता जाओ पच्चक्खो हिट्टो नमिडं मुणी सको ॥१८६॥ भणइ महायस ! भुवणे वि तुज्झ सलहिज्जए कुलं गोत्तं । जेण तए पडलम्गं तणं व चत्ता इमा रिद्धी ॥१८७॥ आगासं व न लिप्पसि मुणिंद ! कत्थइ ममत्तपंकेण । रागाइसत्तुंवग्गो य सव्वहा तइ विणिम्गहिओ ॥१८॥ एवं अभित्थुणंतो रायरिसिं उत्तमाए सद्धाए । तिपयाहिणं कुणंतो पुणो पुणो वंदई सक्को ॥१८॥ तो बंदिऊण पाए चकंकुसलक्खणे मुणिवरस्स । आगासेणुप्पइओ चलंतमणिकुंडलो सको ॥१९॥ न वि रुद्रो न वि तुट्रो पालेउं नमिमुणी वि पव्वजं । सिद्धि गओ इमं चिय कुणंति अन्ने वि सप्पुरिसा ॥१६॥ ॥ नमिराजाख्यानकं समाप्तम् ॥१०५॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकारे वन्धुदत्ताख्यानकम् २८५ अधुना चारुदत्ताख्यानकस्यावसरः तच्च भावट्टिकाख्यानके भणितमिति । क्रमप्राप्तं तु बन्धुदत्ताख्यानकमारभ्यते । तद्यथा अस्थि समिद्धिसमन्नियनायरजणजणियहिययसंतोसं । लच्छीतिलयं नयरं पुन्नाहियमणयवंद्र व ॥१॥ तत्थ य समग्गलक्खणचंगिमगुणकलियनरकवालकरो । सुनओ वसणविरहिओ सिवो व्व ससिसेहरो राया ॥२॥ सचंतेउरसारा सुदंसणा नाम पिययमा तस्स । नियमइविहवविणिज्जियजीवो' मंती वि य सुवुद्धी ॥३॥ नेगमवग्गपहाणो समुद्ददत्ताभिहाणओ सेट्टी । सीलाइगुणनिवासा वसंतसेणा पिया तस्स ॥४॥ नामेण बंधुदत्तो धम्मपिओ तीए पढमओ पुत्तो । बीओ वि हु वमुदत्तो सो मणयं वक्कववहारो ॥५॥ वाणियगकलाकुसला जाया ते दो वि जोव्वणाभिमुहा । तत्तो भणिओ दुट्ठाभिसंधिणा विहवलुद्धेण ॥६॥ जेट्टो कणिट्टएणं अच्छिज्जइ किमिय पंगुपाएहिं । दविणज्जणस्स जोग्गा जम्हा अम्हाणिमाऽवत्था ॥७॥ तो दविणऽजणकज्जे गम्मउ देसंतरम्मि इय भणिए । मोयाविया य अम्मा-पियरो सप्पस्सयमिमेहिं ॥८॥ अम्मा-पिऊहिं भणिया विज्जद वच्छा ! गिहे पभूयधणं । विसमा देसा तुम्भे सुहोइया ता न जुत्तमिमं ॥२॥ भूओ वि आयरेणं मोयावेऊण सोहणे दिवसे । चलिया एगदिसाए अत्थोवजणकए दो वि ॥१०॥ इय ते बाहुबिइज्जा सहाय-वाहण-कयाणयाइ विणा । नियपुन्नपरिक्खत्थं दो वि हु वच्चंति सेट्टिसुया ॥११॥ भणिओ य बंधुदत्तो वसुदत्तेणं जहा इमो भाय ! । मग्गो निव्वहइ कहाणियाए अहवा वि कलहेणं ॥१२॥ ता कहमु मह कहाणयमेगं अहवा वि पत्थुयत्थम्मि । अहमेव ताव कहयामऽवन्तरकहाणयं एगं ॥१३॥ हलहरजणप्पहाणे कम्मि वि गामम्मि साहिमाणधणो । एगो करिसणवित्ती सकलत्तो वसइ कुलउत्तो ॥१४॥ सो निययभारियाए कइया कुवेइओ अणज्जाए । नवघडियछुरियधारासरिच्छदुव्वयणजीहाए ॥१५॥ तस्स य देसंतरपत्थियस्स मग्गम्मि संपयट्टम्स । महियाइविक्कयकए, चलिया गोउलनिवेसाओ ॥१६॥ महियारीओ मिलियाओ निविवेयाओ जोव्वणत्थाओ। अप्पाणयस्स सरिसाउ मत्थए ताण थालीओ ॥१७॥ तथा हि सुपयाओ सिणिद्धाओ सुमहियदहियाओ सामलंगीओ। निम्मलपहाओ सैममणियाओ पायडियपंतीओ ॥१८॥ सो उण जइ वि सखेओ हलहरपाओ तहा वि तरुणवओ । दटुं ताओ जाओ जायवियारो जओ भणियं ॥१२॥ अवश्यं यौवनस्थेन विकलेनापि जन्तुना । विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ॥२०॥ इत्थीतरलत्तणओ भणियमिमाहिं मणस्सगा ! कहसु । किं पि कहाणयमेगं राडि वा कुणसु जेण इमो ॥२१॥ मग्गो सुहेण निव्वहइ अम्ह तुह वयणहरियचित्ताणं । सो उण ताओ अवगन्निऊण वच्चइ विहियमोणो ॥२२॥ वारं वारं ताओ तहेव जपंति जाव तं चेव । ताव य चिंतियमिमिणा मणयं संजायकोवेण ॥२३॥ मोणेण ताव नोवसममेंति एयाओ पेच्छ पावाओ । दिजउ तम्हा वक्का हु कीलिया वक्कवेहस्स ॥२४॥ इय परिभाविय कुलपुत्तएण तेणुल्लसंतणक्खेण । खिविउं पायं पायाणमंतरे पाडिया एगा ॥२५॥ तीए पड़तीए निवाडियाओ ताओ धस त्ति धरणीए । महिविक्खिरियरसाओ तेरस थालीओ भग्गाओ ॥२६॥ तप्पभिई चलियाओ तेण समाणं कलिं कुणंतीओ । अमरिसविलक्खवयणाओ झत्ति नयरम्मि पत्ताओ ॥२७॥ कुलपुत्तएण भणियं सिग्धं राडि कुणंतएण मए । नयरम्मि पावियाओ खमह महं जामि सट्टाणं ॥२८॥ तत्तो सद्धिं तेणं थालीणं सामिणी झगडएणं । लग्गा बहुजणमज्झे अवगन्निय तं बला नहो ॥२९॥ संपत्तो वेसा]वाडयम्मि पत्थेइ वासयट्ठाणं । ताहिं वि अणाहसालाए दंसिओ सिक्कडो एगो ॥३०॥ तम्मि निसन्नो जा सुयइ नेय अज्ज वि य मग्गपरिसंतो । ता विद्धकुट्टिणोए भणिओ आगंतुमेगाए ॥३१॥ कहसु कहाणयमेगं तेणुत्तमईव मग्गपरिसंतो । न चएमि कहेउं जे खणमेगं सुविउमिच्छामि ॥३२॥ सा उभयहा वि वेसा जाया कुलउत्तयस्स तम्मि खणे । होइ हु वेसो कुव्वं निद्दाभंगं जओ भणियं ॥३३॥ १. वृहस्पतिः । २. सप्रश्रयम् । ३. सममनसः-एकमनसः। ४. कलहम् । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आख्यानकमणिकोशे निद्राभङ्गं कथोच्छेदं सारथ्यं क्रयविक्रयम् । शक्रोऽपि द्वेप्यतां याति यः करोति चतुष्टयम् ॥३४॥ पुणरवि न देह जा कह वि सोविताव तेण रुटेण। भणियं कप्पियमयं किं वा विहु चरियमक्खमि ? ॥३५॥ तीए भणियं चरियं कहेसु रामायणाइयं किं पि । ता रुसि रंडाए मुट्टीए पाडिया दंता ॥३६॥ तो मिलिए वेसावाडयम्मि कोलाहलम्मि चईते । दीवसिहाए पज्जालिऊण गेहं विणिक्खंतो ॥३॥ विनायवइयरेहिं पत्तो आरक्खिएहिं निज्जन्तो । रायंतियम्मि दिट्टो तीय वि महियारियाए तओ ॥३८॥ सवाहि वि मिलिऊणं कहिओ आरक्खियाण तद्दोसो। तेहि वि रन्नो पायाण दंसिओ बंधिउं पुरओ ॥३॥ भणियं रन्ना पुट्टण तेण देवऽज्ज मग्गखिन्नेण । निदंतरायकरणेण बाढमुब्वेविएण मए ॥४०॥ चरियं भारह-रामायणाइयं मह कहाणयं किं पि । वारं वारं पुट्टेण सामि ! एयाए विद्धाए ॥४१॥ जह मउडमुत्तियाइं हणुएणं खलहलावियाई तया । लंकाहिवस्स तह देव ! दंसियं दंतपाडणओ ॥४२॥ तेण जह पुच्छपजलणपयारओ पहु ! पलीविया लंका । तह दीवयगिहपज्जालणेण सव्वं पि सच्चवियं ॥४३॥ एयं तीए चरियं रामायणसंतियं समक्खायं । इय विहियं देव ! मए उर्दु देवो पमाणं ति ॥४४॥ एयाहिं वि देव! तहेव दूरमुल्लंठभासणपराहिं । महियारियाहिं संताविएण परिभाविऊण मए ॥४५॥ अन्नो नत्थि उवाओ ति सामि ! एयाण वंकमणिरीणं । एयं धरणीए पाडिऊण थालीओ भगाओ ॥४६॥ भव्वं कयं जमेवं सिक्खवियाओ इमाओ पावाओ । एवं पसंसिऊणं मुक्को कुलपुत्तओ रन्ना ॥४७॥ राडी-कहाणएहिं ता एवं भाय! पहपयट्टेहिं । गम्मइ सुहेण मग्गे ता कहसु कहाणयं तुमवि ॥४८॥ तेणुत्तं वच्छ! न किं पि ताव अहयं कहाणयं कहिउं । जाणामि इय भणंता दोन्नि वि वच्चंति मग्गम्मि ॥४९॥ अह निययदुट्टयाए जंपइ जेटुं पुणो वि वसुदत्तो । जीवस्स जओ धम्माओ भाय! किं वा वि पावाओ ? ॥५०॥ भणियमियरेण धम्माओ भणइ लहुओ वि भाय! पावाओ । एवं विवयंताणं ताणं जाओ अभिनिवेसो ॥५१॥ विहिओ य पणो लोयणजुयेण पत्ता य कम्मि वि निवेसे । पुट्ठा विद्धा अत्थाइयाए धम्माओ तेहुत्तं ॥५२॥ न य पडिवन्नं लहुएण तो पयंपंति तुच्छया तत्थ । भव्वं भणइ वराओ पावेण जओ न धम्मेण ॥५३॥ पेच्छह पच्चक्खं चिय जे चोरा बंचगा असच्चपिया । दुव्बयणा दुद्धरिसा ते सुहिया वुत्तमेत्थऽत्थे ॥५४॥ नातीव सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्पतीन् । सरलास्तत्र छिद्यन्ते कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥५५॥ तथा गुणानामेव दोषात् स्याद् धुरि धुर्यो नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः सुखं जीवति गौगलिः ॥५६॥ तत्तो य बंधुदत्तो हारियलोयणजुओ विलक्खमुहो । जाओ वच्चंताण य समागया भीसणा अडवी ॥५॥ सा य केरिसा ? धुरुधुरियवग्घगुरुजणियभया, गुंजारवभीसणसीहसया । रुरु-हरिणकरुणसंवरपवरा, दुप्पेच्छतरच्छपवत्तदरा ॥२८॥ दीसंतविविहतरुवरविसरा, विहरंतवाह-नालयनरा । गुरुपव्वयकंदरदुग्गधरा, पवहंतनीरनिग्झरणसरा ॥५॥ एत्थंतरम्मि लज्जं लहुईकाउं दुहा वि लहुएण । कुलमज्जायं अवहत्थिऊण चइऊण गुरुयत्तं ॥६॥ अवियारिऊण धम्मं तंबारेउं विसिट्टवावारं । परिहरउं परलोयं अंगीकाऊण नरयदुहं ॥६॥ चिंतियमिमिणा जीवंतएण साहारणा हु घरलच्छी । ता मारिजउ एसो दुलहो एवंविहोऽवसरो ॥६२॥ सामंत्थिऊण एवं भणियं मह देमु लोयणजुयं तं । सच्चपइन्नत्तगओ पडिवन्नं तेण तं तइया ॥६३॥ तत्ता सो वमुदत्तो नयणुप्पाडणविहिं अयाणंतो । मुक्खत्तेण तहाविहसत्थेणुत्तोलि नयणे ॥६४॥ वलिओ हरिसियहियओ संपयमेगागिणी वि घरलच्छी । मज्झ भविस्सइ पियरे मयम्मि चित्ते वियप्पंतो ॥६५॥ न मुणइ अकज्जमेयं मए कुणंतेण पाडिओ अप्पा । नरयम्मि दुक्खपउरे धिद्धी ! लोहस्स माहप्पं ॥६६॥ १एकाम् Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणियं च ३५. अवश्य प्राप्तव्यप्राप्तिवर्णनाधिकारे बन्धुदत्ताख्यानकम् धावे रोहणं तर सायरं भमइ गिरिनिउंजेसु । मारेइ बंधवं पि हु पुरिसो जो होइ घणलुद्ध ||६७॥ बहुं वह भरं सहइ छुहं पावमायरइ घट्टो । कुल-सील- जाइपच्चयटिडं च लोभद्दुओ चयइ ॥ ६८ ॥ एत्थंतरम्मि पेच्छह निद्धस्स सहोयरस्स पावेण । पेच्छंतस्स वि मज्झं कहमिमिणा कज्जमायरियं ॥ ६१ ॥ सूरो हं सुभगो हं सुपवित्तो हं पयावपयडो हं । तामसपडिवक्खो हं सुपरक्क मसत्तिजुत्तो हं ॥७०॥ कमलाण बोहओ हं समुच्च गोत्तदयपत्तपसरो हं । सब्बुवरि संटिओ हं महिहरसिर दिन्नपाओ हं ॥ ७१ ॥ भुवणत्तयमित्तो हं तेयस्सिसिरोमणि त्ति पत्तो हं । ता किं इमिणा गुणसमुद्रएण मह कज्जवियलेण ? ॥७२॥ इय बंधु दत्तवणियं निद्दोसं दुक्खियं सरणरहियं । दद्धुं अचयंतो लज्जिर व्व अत्थं गओ तरणी ॥७३॥ कहमवि सुयणो सुयणस्स आवयावणयणम्मि असमत्थो । आवइपडियं दद्धुं अपारयंतो अवक्कमइ ||७४ || इय बुद्धी मन्नेऽवतो मह पई सुयणतिलओ । इय परिभाविय संझा वि झत्ति पइमग्गमणुसरिया || ७५ ॥ सो वि वणिबंधुदत्तो रुहिरुल्लियनयणजुयलओ जुगवं । अंगीकओ सरीरय- माणस दुक्खेण खीणतणू ॥७६॥ कहमवि य हत्थफंसप्पयारओ पत्ततरुतलपएसो । परिभाविन्तो नियकम्मपरिणई जाव वीसमइ ॥७७॥ तावय पयईए चेव दुहयरी तमविलुत्तसम्मग्गा । कलिकालकरणिमहिमामणुकु व्वंती निसा पत्ता ॥ ७५ ॥ ती तमपडलाई विष्फुरियाई समंतओ भुवणे । संतावकारयाई खलं दुन्नयविलसियाई व ॥ ७६ ॥ तत्तोय धूयसंघा घुग्घुइया निग्विणा सवणकडुया । नीयजणा इव दुव्वयणजणियसुइसुयणसंतावा ॥ ८० ॥ कत्थवि य घोरबग्घा घुरुहुरिया भयकरा करालमुहा । लंचोवयारकलिया पिसुणा इव पयडपेसुन्ना ॥ ८१ ॥ अवरत्थ दुसहखरतर करपसरा तासकारिणो कुरा । कलिकालनरिंदा इव गुंजारवयंति केसरिणो ॥ ८२ ॥ उव्वेयकारिणीओ भल्लुंकीओ भसंति भमिराओ । कुलडाउ व तरलयराउ उभयकुलफंसणकरीओ || ८३॥ इय सोसावयभीओ समीहए तरुसिरे समारोढुं । नवरमिमो मूलाओ समुन्नओ सज्जणो व्व तरू ॥ ८४ ॥ साहाओ विहु कुलबालिय व्व पणयाओ तस्स वरतरुणो । अवलंबिऊण ताओ साहाविवरे समल्लीणो ॥ ८५॥ अड्डवियड्डाओ चंपिऊन कोमलल्याओ तानुवरिं । रइऊण पत्तसयणं तम्मि पसुत्तो भयविमुक्का || ८६ ॥ जवच्छता दीवंतराओ पत्ताण सुबइ पक्खीणं । सिहरम्मि जंपियमिमो महल्लजणएण पुट्टाणं ||८|| भो ! को कुओ इहाऽऽओ ? केण व दीवंतरम्मि किं दिट्टं ? । निसुयं च कहइ सव्वं मह पुच्छंतस्स नियपिउणो ॥ ८७॥ तेहि वि जं जहवत्तं दिट्टं जं जेण जम्मि दीवम्मि । तं तह सव्वं कहियं नवरमिमाणं भणइ एगो ॥ ८९ ॥ अहम ताय ! पत्तो सिंहलदीवम्मि तत्थ नरवइणो । मयणघरणि व्व रूवेण मयणरेहा सुया तस्स ॥९०॥ ती य अच्छिवियणाए पीडियाए तइज्जओ मासो । विज्जेहि वि परिचत्ता पिउणा वि दवाविओ पडहो ॥ ६१ ॥ जो मह धूयं पणं करेइ वियरामि तस्स तीए समं । अद्धं रज्जम्स तयं च को वि न य पडहयं छिवइ ॥९२॥ अज्ञ दिणं छट्टं पडहयस्स ता ताय ! ओसहं तीए । किं नत्थि तिहुयणे वि हु ? किं वा अस्थि ? त्ति मे कहमु || १३|| अत्थि त्ति परं वच्छय ! केत्तिय एवंविहाणि वत्थूणि । जाणंतेहि वि उग्घाडएण वयणेण सीसंति ? ॥१४॥ तेत्तं ताय ! महंतकोउयं कहसु मज्झ जमिह वणे । न य को चि सुणइ जइ एवमेस रुक्खो समग्गाणं ॥ ६५ ॥ वाहीणमोसहं नयणवाहिणो पुण विसेसओ वच्छ ! | तो जड़ इमस्स तरुणो को वि हु पक्खिवइ पत्तरसं ॥ ९६ ॥ तीए नयणे तो सा पउणिज्जर निच्छयं इमं सोउं । चितइ लोयणवियणाए बाहिओ बंधुदत्तवणी ॥९७॥ ताव परिक्खामि अहं जइ मह पउणीभवंति नयणाणि । ता जायपच्चओ हं पुरओ काहामि जं जुत्तं || १८ || इय परिभाविय सम्मं कोमलपत्ताणि चाविऊण रसं । खिवइ नयणेसु पिंडी च बंधए ताण चेवुवरिं ॥ १६ ॥ जाखमेगं चितामणि- मंतोसहिप्पभावस्स । गाढमचितत्तणओ नट्ठा वियणा असेसा वि ॥ १००॥ जाय यणिविरामे अवणेउं पट्टयं नियइ ताव । पुवं व पेच्छिउं लोयणाणि जाओ पहिट्टमणो || १०१ ॥ २८७ For Private Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अवरं च आख्यानकमणिकोशे ओयरिऊणं तरुणी सरम्मि पक्खालिऊण मुहमाई । परिविहियपाणचित्ती फलाइणा गमइ तं दियहं ॥ १०२ ॥ पुणरवि तहेव चडि चिट्टड् तरुणो लयंतरालम्भि | संझासमए भारुंडयक्खिणो पेच्छइ तहेव || १०३ || चितियमिमिणा पडेमि पोरिसं पउणयामि निवधूयं । गेहे गओ पडिम्सामि तत्थ पुणरचि अणत्थम्मि || १०४॥ पणीभूओं पत्ताणि गिन्दिउं तस्स अमयफलतरुणो । सिंहलदीवे गमणं निवेइवं जेण जणयस्स ॥ १०५ ॥ चरणे अप्पयं बंधिऊण भारुडपक्खिणो तस्स । वसिओ रयणीचिगमे नीओ सरणेण तेण तहिं ॥ १०६ ॥ छिविऊण पडद्यमिमो पत्तो हईवइम्स पासम्मि । कयसमुचियपडिवत्ती पुट्टो रन्ना कुसलवत्तं ॥ १०७॥ संकासमए काराविऊण बलिमंडलाइयमसेसं । वाहरिय मयणरेहं नयणचिगिक्छं कुणइ सव्वं ॥ १०८ ॥ जाया तब निरुया सोहण दिवसे विवाहिओ कन्नं । दिन्नं रज्जस्सऽद्धं रन्ना पत्तो पसिद्धिं च ॥ १०६ ॥ । भुंज पंचपयारे विसए सह तीए नेहसाराए । अह अन्नया य पत्तो वसुदत्तो विहिनिओगेण ॥ ११० ॥ ववहरणत्थं वहणेण तयणु निवदंसणत्थमत्थाणे । पत्तो महरिहमणहरपाहुडहत्यो सपरिवारो ॥ १११ ॥ पेच्छय विरायंतं सहोयरं तत्थ रायलच्छीए । सम्मं वियाणिऊणं घसक्किओ माणसे सहसा ॥ ११२ ॥ चिंतइ य कूरकम्मो जइ कह वि हु मज्झ चइयरं एसो । रन्नो पयडइ ता हं हियसव्वस्सो विणस्सामि ॥११३॥ ताकेणावि उवाएण मरइ जइ एस तो भवे लट्ठ । एसो पट्टचित्तो चवहरइ अभिन्नमुहराओ ॥ ११४ ॥ अह अन्नदिणे विजम्मि जाइ मायाए बंधुदत्तगिहे । पुच्छियकुसलोदंता परोप्परं जाव अच्छेति ॥ ११५ ॥ ता लहुएणं भणिओ सहोयरे भाय ! ताव कइ वि दिणे । मा मं जाणाविज्जसु रन्नो तेण वि य पडिवन्नं ॥ ११६॥ इय ते सकम्मनिश्या सहोयरा दो वि तम्मि दीवम्मि । निम्मल-कलुसियहियया गमंति दिवसाणि भणियं च ॥ ११७ ॥ कसमई कसं चि विमला विमलं परं पि पिच्छंति । अत्ताणयं व आयरसए व्व जेणं जणो नियइ ॥ ११८ ॥ जाणंति पियं चियवोत्तुमुत्तमा अमयमुत्तिणो नृणं । किं अमयाओ अन्नं झरिउं मयलंछणो मुणइ ? ॥११९॥ अह अन्नदिणे विम्हइयमाणसो तम्मि चेव अत्थाणे । नियए सहोयरे निभ्गयम्मि रायाइपच्चक्खं ॥ १२० ॥ भणइ सविसायहियओ वमुदत्तो मद्दिऊण करजुयलं । को सक्कड़ वन्नेउं नयर सिरिं एगजीहाए ? ॥ १२१ ॥ परमिह विरूवमेगं पयई एसा हवे पयावइणो । जं पडिपुन्नं एसो न कुणइ कत्थइ सनिम्माणं ॥ १२२॥ sara एसो कुणमाणो अन्नया नरिंदेण । भणिओ विजणे भो भद्द! किं विरूवं मह पुरीए ? ॥ १२३ ॥ नीससिउं सविसायं भणियं नरनाह! अकहणिज्जं पि । तुज्झ कहिज्जइ नवरं पयासियव्वं न कस्सावि ॥ १२४ ॥ विन्ने नरवणा भणियं पहु! एस तुज्झ जामाऊ । अम्ह पुरे सुपसिद्धो अंगरुहो वेज्जडुंबस्स || १२५ ॥ तं सोउं नरनाहो चिंतइ एयं पि घडइ जुत्तीए । अन्नह कह मह धूया परिचत्ता सव्ववेज्जेहिं ? ॥ १२६ ॥ एएणं पन्नविया ? ता जइ सच्चं जहा इमो भणइ । ता हयविहिणा अम्हे विडंबिया पावकम्मेण ॥ १२७ ॥ एवं विसन्नहियओ पुट्टो राया सुबुद्धिसचिवेण । देव ! किमेयं ? तेण वि कहियं वसुदत्तवणिभणियं ॥ १२८ ॥ सचिवेणुतं देव! एवमेयं तओ गुरू अयसी । ववहारियाणं ठाणं जमिमा दीवम्मि तुह नयी ॥ १२६ ॥ ता जावऽज्ज वि न भवइ पायडमेयं नरिंद ? जणमज्झे । तावोवायं चिंतसु एत्थत्थे भणइ तो राया ॥ १३० ॥ तुममेव वुद्धिमंतो ताजं किच्चं तमेव मे कहसु । तेण वि भणियं पच्छन्नमेव वाचायसु इमं ति ॥ १३१ ॥ तं सोउं नरनाहो दुहिया दुक्खेण दुक्खिओ अहियं । कह कायव्वा एसा मयम्मि जामाउए दुहिया ? १३२॥ पडिवन्ने नरवणा रहम्मि पुट्टा इमं मयणरेहा । किं अकुलीणवियारो सच्चविओ को वि कहया वि ॥ १३३ ॥ नियपणो ? पुत्ती तीयुत्तं ताय ! चंदबिंबम्मि । अज्ज वि अस्थि कलंको न उणो पइणो मह कयाइ ॥ १३४॥ सरलो सच्चपन्नो पुव्वाभासी कयन्नुओ सुहओ । परउवयारेक्करओ चाई सूरो महासत्तो ॥ १३५ ॥ किं बहुणा ? कोउयहारिएण विहिणा विणिम्मिओ एसो । केवलगुणमयमुत्ती पडो व्व परगुज्झरक्खट्टा ॥१३६॥ For Private Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् २८१ इय सोउं सट ट्यरं अभिभूओ माणसेण दुक्खेण । कहमेरिसनररयणं विणासियत्वं ? अहो! पावं ॥१३७|| पुणरवि सचिवेणुत्तं किज्जउ निवनीइमणुसरंतेहिं । इय निच्छिणमेसो संझासमयम्मि वाहरिओ ॥१३८॥ सुहपुन्नपेरिएणं तम्मि दिणे तेण पेसिओ भाया । नियवेसमप्पिऊणं रायउलेऽनायतत्तेहिं ॥१३९।। पच्चइयनरेहिं तओ वसुदत्तो चेव मारिओ तेहिं । रन्नो निवेइयं तं च निसुणिउं मुच्छिओ राया ॥१४॥ सिसिरोवयारसंपत्तचेयणो वाहरेइ नियधूयं । किं ताय ! इमं ? ति सुयाए पुच्छिओ भणइ पावो हं ॥१४॥ जं तुह वेहव्वकरो तीए भणियं किमेरिसं ताय ! ? | मज्झ पई नियगेहे जीवउ दीवालियं लक्खं ॥१४॥ सेज्जाए सुहपसुत्तं मोत्तमहं तस्स चेव पासाओ । तुझ सयासे पत्ता मममिव ता पेच्छ जामाउं॥१४३।। निवुयहियओ जाओ तं सोउं नरवई रहे पुट्टो । सव्वं पि बंधुदत्तो तेण वि तच्चेट्टियं कहियं ॥१४४। वमुदत्तवइयरो वि हु जणम्मि न य पयडिओ अयसहेऊ । पेसविय निययपुरिसे सपरियणो आणिओ जणओ ॥१४५।। विहिओ विच्छड्डेणं नयरीए महूसवो नरिंदेण । अजं चिय जं एसो जाओ जामाउओ मज्झ ॥१४६।। जाया य वंससुद्धी स-परेसु सुहाण कारओ जाओ । रज्जसिरिं परिपालिय सुगई पत्तो कमेणेसो ॥१४७।। धम्मेण जओ जाओ एवमिमो बंधुदत्तवणियस्स | पावाओ स्वयं पत्तो वसुदत्तो दत्तस-परदुहो॥१४॥ ॥वणिग्बन्धुदत्ताख्यानकं समाप्तम् ॥१०६॥ जह पुत्वकम्मविरइयमवस्समेएसि कज्जमावडियं । तह सव्वस्स वि जायइ सक्को विन वारि तरइ ॥१॥ पापात्मके गतवति क्षयमन्तराये, पुण्यात्मनो गुण[सु]कर्मवशान्नरस्य । श्रीवेश्महेमगृह-पुत्र-कलत्रजातं, यद् यस्य पूर्वविहितं भुवि तस्य तत् स्यात् ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे अवश्यप्राप्तव्यप्राप्तिदर्शकः पञ्चत्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्त ॥३५॥ [ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारः ] पूर्वविहितस्य नाशो [ना]स्तीत्यभिहितम् । साम्प्रतं पूर्वविहितवशादेव प्राप्तयोर्व्यसन-सम्पदोः सत्पुरुषैस्तुल्यैर्भवितव्यमित्यमुमर्थमभिधित्सुराह वसणम्मि समावडिया मुयंति धीरत्तणं न सप्पुरिसा । विहवे वि विगयगव्वा नायं नरविक्कमकुमारो॥४॥ व्याख्या-'व्यसने' विपद्यपि 'समापतिताः' प्राप्ताः 'मुश्चन्ति' त्यजन्ति 'धीरत्वं' धैर्य 'न' नैव 'सत्पुरुषाः' उत्तमाः। 'विभवे' सम्पद्यपि समापन्ना इति द्रष्टव्यम् “विगतगी:' परित्यक्ताभिमानाः। 'ज्ञात' दृष्टान्तः 'नरविक्रम कुमारः' ] नरविक्रमाभिधानो राजपुत्र इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु आख्यानकादवसेयः। तच्चेदम् अस्थि परचक्क-दुन्भिक्ख-डमरविरहाइनायरगुणेहिं । अलयं पि जयंती जणवयम्मि नयरी जयंति ति ॥१॥ तत्थ य राया रिउकरडिकरडदलणेकपच्चलो धणियं । गरुयपरक्कमभवणं समत्थि सीहो व्व नरसीहो ॥२॥ जस्स गुणन्नियधम्मप्पमोइया मग्गणा मुसद्दजुया। गंतुं वंछियठाणे परसियकित्तिं वियारेति ।।३।। जस्स य रिउजणसंहारकारओ जलयसामलच्छाओ । जमरायबाहृदंडो व्व सहइ समरंगणे खम्गो ॥४|| तस्स य दुइज्जचित्तं व राइणो परमपेम्मसव्वस्सं । चंपयपल्लवहत्था चंपयमाला महादेवी ।।५।।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० तथा हि किंच आख्यानकमणिकोशे जीसे सविलासनिरिक्खिसु वंकत्तणं न पयईए । कुडिलत्तं चिहुरेसुं न उणो हिययम्मि कइया वि || ६ || जम्मंतरसमु वज्जियपुन्नपभावाओ अणुहवंतस्स । तीए समं विसयसुहं ईसाइ अदूसियमणस्स ||७|| नियम पहाव निज्जियसुरगुरुणो रज्जचिंतणपरस्स । आरोवियरज्जधुरं सुकुलुग्गयमं तिवग्गस्स ||८|| पाण सुत्थहिययम्स तह वि नीइ त्ति वसणरहियस्स । पुव्विल्लरायनाएण पालयंतस्स रज्जभरं ||९|| नाणं परिपालइ सिट्टजणं दुट्टनिम्गहं कुणइ । निविसइ रायत्थाणे परिचित दूयकज्जाई ||१०|| चउरंगबलं पालइ परिभावइ कोस कोट्टयाराइ | अंतेउरं निरू वह निसुणइ सद्धम्मसत्थाई ॥ ११॥ सच्चाइरज्जसंगयकिच्चमसेसं पि चिंतयंतस्स । अप्पडिमबहुपयावस्स तस्स कालो अइक्कमइ ||१२|| परिणयपायाए जामिणीए अह अन्नया य नरवइणो । सत्तंगरज्जसंगय सुहसंपयसुत्थहिययस्स ॥१३॥ धम्मत्थ- कामलक्खणतिवग्गसारं सुहं पवन्नस्स । सुहनिद्दा - वल्लह कामिणीहिं परिसिढिलियंगस्स ॥ १४ ॥ सुइसुहयछेयमागहवयणविणिस्स रियमिम्सरियचिन्हं । पाहाउयरायपयारसुंदरं सुकइरइयं व ॥१५॥ सुविसुद्धजाइकलियं सुवन्नपयसंजयं कलत्तं व । गाहाजुयलं सुइजुयलमसरिसं विसइ तस्स इमं ॥ १६ ॥ विद्धिं वयंतमसमं गुरुवंसं खमपट्टमुहमूलं । कमविद्ध- निद्ध-घणपव्व-पत्त-साहासमाइन्नं ॥ १७ ॥ कज्जभरे आरोविय पुत्तं पुरिसस्स सगुणधम्ममई । जावऽज्ज वि न पवत्तइ ता कत्तो निव्वुइसुहाई ? ॥ १८॥ तं सोउं नरनाहो सुर्याचिंतागरुयसायरे पडिओ । पेच्छसु ममंतरायस्स विलसियं अप्पडीयारं ॥ १६ ॥ जं मज्झ अणेगासु वि बिसिट्टलायन्न रूवकलियासु । ओरोहपणइणीसुं सुयस्स एगस्स वि न लाभो ||२०|| अहवा विकिमेयाए सुचिताए समाहिमहणीए ? | जम्हा अचिंतियं पि हु जं भवियव्वं तयं होइ ॥ २१॥ जावन्नं चितिज्ज पयत्थजायं असासयमसारं । ताव वरं चिंतिज्जइ धम्मो च्चिय सुहयरो बंधू ॥२२॥ धम्मो जियाण जणओ धम्मो माया सुओ सुही बंधू । भवभमणविनडियाणं जायड़ परमत्थओ ताणं ||२३|| इहु एवं तहविहु ववहारनएण धम्मवोच्छेए । सुयसंतइरहियाणं मयाण को लेइ नामं पि ? ॥२४॥ अवरं एम वराओ लोओ पुव्विल्लपालिओ अहियं । दूमइ हिययं वुड्डत्तणम्मि ताणं पि हु सुयाओ ||२५|| यत उक्तम्- लक्ष्मीः परोपकाराय विवेकाय सरस्वती । सन्ततिः स्वर्ग - मोक्षाय भवेद् धन्यस्य कस्यचित् ||२६|| चंपयमालापमुहं संपयमेयं पि पणइणीविंदं । सव्वं निरत्थयं चिय भणियं केणइ जमेत्थं पि २७|| कज्जविहूणं वयणं धम्मंविहूणं च माणुसं जम्मं । निरवच्चं च कलत्तं तिन्नि वि लोए अणत्थाइं ||२८|| ता किं करेमि ? कं विन्नवेमि ? पेच्छामि कमिह कज्जम्मि ? | सुयविरहियस्स मन्ने मरणे वि हु मज्झ न समाही ||२६|| परममिणा किं परिदेविण विहलेण बुद्धिमंताणं ? । सव्वम्मि कज्जजाए जमुवायपवत्तणं सेयं ||३०|| जा एवं नरनाहो विवेयवसओ मणम्मि सयमेव । सुरचिताभरदुहिओ संठावइ मणयमप्पाणं ||३१|| तावय भेरी - भाणय-झल्लरि-तिलमाइओ पहासमए । बहिरंतो गयणयलं पचाइओ तूरसंघाओ ||३२|| वट्टियघुसिणरसेण व रविरमणसमागमम्मि सरसेणं । पुव्वदिसावहुवयणं रंजियमरुणेण मरुणेणं ||३३|| अमयमएणविन मए निव्वविओ नरवई नियकरेहिं । इय खेएण व जाओ विच्छाओ ससहरो गयणे ||३४|| सुयदुहिओ नरसीहो तमसा तविओ मए अणजाए । इय लज्जाए मन्ने सहसा विलयं गया रणी ||३५ मिलिएहिं वि अम्हेहिं निचकज्जं न विहियं किमेयं ? ति । तारा वि दुहकंता सन्हीहोऊणऽवक्ता ||३६|| बहुयाणं किम[स]ज्झं ? कुणिमो ता निवसमीहियमिमं ति । कोलाहलमुहलम्हो समुट्टिओ सउणसत्थो वि ||३७|| मित्तोति विस्सुओहं समुच्चगोत्तं समस्सिओ हं ति । उदयं पत्तो भाणू साहिउकामो व्व निवकज्जं ||३८|| For Private Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् २६१ एत्थंतरम्मि महरिहसहसेज्जं चइय धीरिमानिलओ। परिविहियगोसकिन्चो निव्वत्तियफारसिंगारो॥३९।। सामंत-मंति-जोइसिय-पीढपरिमद्दपमुहपरिवारो । परिहरियत्थाणो वि हु अत्थाणं भयइ भूमिवई ॥४०॥ सिंगाररुइरवरवाररमणिपरिधुव्वमाणसियचमरो । बहुमाणसहियसामंतपत्तिपणिवइयपयकमलो ॥४१॥ आभासियपउरजणो परिपुच्छियनयरनायरयखेमो । पच्चंतरायपेसियपाहुडपडिपाहुडविहत्थो ॥४२॥ पत्थावे भूसन्नियविसज्जियासेसरायअत्थाणो । पासपरिट्ठियकइवयपहाणपुरिसो पसन्नमुहो ॥४३॥ आमंतिय सप्पणयं साहइ सुयरयणिवइयरमसेसं । भो भो ! तुब्भे मह रजचिंतगा बुद्धिमयरहरा ॥४४॥ ता कहह किं पिजह गरुयतणयचिंताभरो समुत्तरइ । मह माणसाओ ते विह वयंति करकमलकयकोसा ॥४५॥ बहुदेवसिया एसा अम्हाण वि माणसे वसइ चिंता । देवेणमेयमम्हं हिययाओं कटिउं भणियं ॥४६॥ परमम्हे किं भणिमो देवायत्ते इमम्मि कजम्मि ? । अन्नं च न भवओ वि हु मइविहवो समहिओ अम्हं ।।४७॥ परमेयं कहइ जणो पुत्तसमुप्पत्तिकारणं कुसलो । देवाराहण-पहाणाइ-मूलियापाणगाईयं ॥४८॥ एयं कयम्मि कम्स-वि कइया विह होइ कजनिष्फत्तो । कस्स वि य पुणो विहलं पि होइ पडिकूलकम्मवसा ॥४६॥ ता देव ! दुयं कीरउ पत्थुयकज्जम्मि संपयं जत्तो । एवं पि जइ न सिज्मा कजं पुरिसस्स को दोसो ? ॥५०॥ परमम्हमभिप्पाओ इह संपइ पहु ! कुओ वि संपत्तो । नियविन्नाणमहागुणविम्हावियसयलनयरिजणो ॥५१।। ससिकंतसमुज्जलबहलभू इधवलियतणू तिणयणो व्व । दाहिणहत्थत्थससद्दडमरुओ धरियखटुंगो ॥५२।। गहनिग्गहणे निउणो पयंडसत्ती पिसायनिम्महणे । उड्डडाइणीनिग्गहम्मि सव्वत्थ साहसिओ ॥५३॥ अइदुट्ठ-रुट्ट-खरखेत्तपालरक्खणखमो खमावलए । ओसहिबंधणपसमियजराइबहुविविहरोयभरो ॥५४॥ गरुयगिरिदुग्गविवरप्पवेसतोसवियजविखणीलक्खो। घाउबायपसाहियमुवन्नविद्दवियदारिदो ||५५|| अवि य आगिट्टिम्मि पडिट्टो खुन्नो पन्नगमहाविसुद्धरणे । विक्खेवकरणदक्खो अमूढलक्खो वसीकरणे ॥५६॥ किंच जं विउसेहिं न कहियं न दंसियं कह वि पुव्वपुरिसेहिं । जुत्तीए वि न जुज्जइसयाणया सद्दहति न जं ॥५७|| सव्वं पि तयं मझं सझं किं पलविएण बहुएण ? । उग्धोसंतो बहुहा उभियबाहू भमइ नयरे ॥५८॥ एवं महप्पभावो घोरसियो नामओ महावइयो । सो पुच्छिज्जउ पत्थुयपओयणे एस अम्ह मई ॥५२॥ इय सोऊणं संजायकोउओ भणइ तो महीपालो । वाहरह तयं सइवं पुच्छामो पत्थुयत्थकए ॥६०॥ तत्तो पहाणपुरिसे पेसेउं सायरं समाहओ। सो वि ह सहरिसहियओ संपत्तो रायपासम्मि ॥६॥ कयसमुचियपडिवत्ती सुहासणत्थो कयप्पणामो य । पुट्टो रन्ना भयवं! संपइ कत्तो तुहागमणं ? ॥६२॥ गमणमिओ वा कत्थ वि ? स आह सिरिपव्वयाऽऽगओ हं ति । गंतव्वं सिरिजालंधरम्मि उत्तरपहे रायं ! ॥६३।। पुणरवि भणियं रन्ना तुह सत्ती का वि सुवइ अपुवा । ता अम्हाणं कि पि हु सकोउगाणं पयंसेस ॥६४॥ आगिट्टि-चित्तचिन्ताइकोउहल्लेण रंजिओ भणइ । एस च्चिय तुह सत्ती ? उआहु अन्नत्थ वि किमत्थि ? ॥६५॥ तो जंपइ सो हसिउं सम्वन्नू चेव जाणए सव्वं । लोयव्यवहारकयं अन्नं पिहु अत्थि मह किं पि॥६६॥ जइ एवं ता किज्जउ महापसाओ सुपुत्तलाभेण । तेणुत्तं मह नरवर ! केत्तियमेत्तं इमं कज्जं ? ॥६७|| नवरं होसु सहाओ दिणमेगं मंतसाहणे मज्म । मणवंछियमन्नं पि हु जेण पसाहेमि सव्वं पि ॥६॥ तो कण्हचउदसि दिणे खग्गकरो सह कवालिएण निवो । पत्थुयकजनिमित्तं पत्तो भीसणमसाणम्मि ॥६९।। आलिहियमंडलो सो सकलीकरणं विहाणओ काउं। नियमं घोरसिवो थिरासणो जविउमारद्धो ||७०॥ भणिओ राया तेणं हत्थसयाओ परेण चिट्ठ तुमं । करवालकरो मा एसु सव्वहां तं अवाहरिओ ॥७१।। १. सकर्णकाः । २. महाव्रतिकः । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ आख्यानकमणिकोशे राया तहेव थक्को कालविलंबं महंतमाकलिउं । सणियं तप्पिट्टीए समागओ सुणइ से जावं ॥७२॥ 'हुँ फड्ड साह त्ति हुणामि नरवई' हक्किओ इमं सोउं । रे रे कावालिय ! होसु संपयं मह पुरो पुरिसो ॥७३।। तत्तो य समुक्खणिऊण तक्खण च्चेव कूरकावाली । विप्फुरियतरलजमजीहसच्छहं कत्तियं कुडिलं ॥७४|| काऊण दाहिणकरे निन्भच्छइ भिउडिभीमभालयलो । रे रे तं रायाहम ! कुणसु सुदि8 मणुस्सभवं ॥७॥ तत्तो पयडपरक्कमपयंडभुयदंडपहरणरउद्दा । जुज्झेण संपलग्गा दो वि कवालिय-महीवाला ॥७६॥ दोन्नि वि वग्गंति घणं दोन्नि वि पहरंति पयडियपहावा । दोन्नि विरोसारुणवयण-नयणविक्खेवदुप्पेच्छा ॥७७|| जाव य खणंतरेणं निद्दयनरवइपहारजज्जरिओ । मुच्छानिमीलियच्छो पडिओ धरणीए कावाली ॥७८॥ एत्थंतरम्मि विप्फुरियतणुपहापडलपयडियदियंता । चवलतरचरणझणझणिरनेउरारावरमणीया ॥७॥ विलसंतविविहभुसणविभूसियासेसविग्गहावयवा । ठाऊणं निवपुरओ देवी भणिउं समाढत्ता ॥८॥ भो नरसीहनरेसर ! भव्वं विहियं जमेस कावाली। कित्तिवलक्खसलक्खणखत्तियखयकारओ पाओ ||१|| भुवणस्स वि दुद्धरिसो पयंडमंतप्पभावदुरभिभवो । संतावियभुवणयलो विणिजिओ जगडियजणोहो ॥८२॥ ता तुट्टा हं संपयमजेव समीहियं मह पसाया । भो भो तुज्झ नरीसर ! पसन्नवयणा पयंपंती ॥८३॥ पणमिय पुट्ठा रन्ना भयवद्द ! कहमेस वयपवन्नो वि । खत्तियवहसंजणओ भणिओ भवईए ? कहसु इमं ॥४॥ तीयुत्तमिमो खत्तियवंसपसूओ नरेसर ! नरिंदो । नामेण वीरसेणो जह रज्जाओ परिब्भट्ठो ॥५॥ जीवियनिम्विन्नेणं वित्थयभूमंडलं भमंतेणं । भइरवनिवडणमरणं जह भीमं ववसियमणेणं ॥८६॥ जह य महाकालेणं जोगाइरिएण वारिओ मरणा । तेणं चेव य दिन्नं जह कावालियवयमिमस्स ।।८७॥ तइलोक्कविजयमंतो दिन्नो गुरुणा जहा मरंतेण । जह अट्टोत्तरनरवइसएण जावो समाइट्ठो ॥८॥ जह वा कलिंगदेसाइएसु लक्खणजुया निवा हणिया । तह सव्वं नरवइणो निवेइयं देवयाए तया ॥१॥ इय कावालियवइयरमायन्निय देवयाए परिकहियं । सुयलाभेण पहिट्ठो पणमिय देविं गओ सगिहं ॥९०॥ केण वि अलक्खिओ चेव सेजमारुहइ जाव ता पढियं । समयनिवेयगपुरिसेण तत्थ केणावि सवणसुहं ॥११॥ तरिऊण तुमं व दुरंतदुक्खदंदोलिजलयराइन्न । वसणसमुदं पावइ उदयं नरनाह ! एस रवी ॥१२॥ तो सुणिऊणं गणयं सिढिलियनिदो विचिंतए राया। सूरुग्गमसमयनिवेयगो इमो पढइ को वि नरो ॥१३॥ एत्थंतरम्मि चंपयमाला पत्ता नरिंदपासम्मि । जंपइ सनम्म वयणं अहो ! हु सुहिओ जणो सुयइ ॥१४॥ पुट्ट रन्ना सुंदरि ! विसेसओ किं तुहाऽऽगमणकजं ? । अवरं च किं पि हु पिए ! हरिसियहियय व्व लक्खिहिसि ॥२५॥ ताहे पयडियविणया जोडियकरसंपुडा भणइ देवी । आगमणकजमेयं पहु ! अवहियमाणसो सुणसु ॥६६॥ अज्ज मए रयणीए समुस्सिओ सरलवंसविक्खाओ। विलसंतजयवडाओ कलकिंकिणिसद्दसवणसुहो ॥९७॥ सयलजणाणंदयरो महल्लमंगल्लदसणमहग्यो । धम्मनिही परमधओ तुमं व सुमिणम्मि सञ्चविओ ॥९८॥ ताहे सुहसुमिणसमुब्भवंतरोमंचकंचुइयतणुणा । भणियं रन्ना सुन्दरि ! सुहजणओ सुमिणओ एस ॥१९॥ अम्ह कुलकेउभूयं पुत्तं पसविहिसि सुन्दरि ! नवन्हें । मासाणमुवरिमद्धट्ठमाण राइंदियाणं च ॥१०॥ सो वि चउजलहिपज्जंतमहिमहेलाए नायगो होही । दुव्वारवइरिकरिकुंभदलणखरनहरपंचमुहो ॥१०१॥ सा वि हु सोउं पियवयणमेरिसं भत्तुको मणोदइयं । हरिसाऊरियहियया बंधइ वत्थे सउणगंठिं॥१०२।। जह नरवइणा तह सउणपाढएहिं वि वियारिए सुमिणे । चंपयमाला परितुट्ठमाणसा गम्भमुव्वहइ ।।१०३॥ गम्भप्पभिईदिवसाओ वड्डमाणम्मि तइयमासम्मि । चिंतइ चंपयमाला देवी दोहलयगुणवसओ ॥१०४॥ विविहेहिं 'पयारेहिं जइ पूयणमायरामि देवाणं । आणंदियमणवित्ती करेमि भत्तिं गुरुयणस्स ॥१०॥ वियरामि विविहसुहभक्ख-भोज्ज-वत्थाइएहिं मणदइयं । दीणाईणमहं जइ दाणं अनिवारियप्पसरं ॥१०६॥ १. सनर्म सहासमित्यर्थः। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् २६३ सवणामयसरिसाई परिणामसुहाई निव्वुइकराई । निसुणेमि गुरुसयासम्मि जइ अहं धम्मसत्थाई ॥१०७॥ तत्तो मणोरहन्भहियवित्तवियरणगुणप्पयारेण । रन्ना दोहलए पूरियम्मि सइमुहियसव्वंगी ॥१०॥ गब्भमुहावहसयणा-ऽऽसणाइणा सोहणप्पयारेण । गभं वहमाणीए तीए जाए पसवसमए ॥१०॥ नवमासाण सवायाणमुवरिमणहम्मि दिणि मुहुत्तम्मि । उच्चट्ठाणगएसुं गहेसु विरयासु य दिसासु ॥११०॥ पणइजणमणवियप्पियपयत्थसंपयसमप्पणापवणं । कप्पमहीरुहभूमि व्व कप्पपायवमणप्पगुणं ॥११॥ चंपइमाला पसवइ पुत्तं पुन्नप्पभावओ रन्नो । नियतणुकंतिकडप्पप्पभावपज्जोइयदियंतं ॥११२॥ तत्तो हरिसविसंटुलगइवसपरिसिढिलवसण-घम्मिल्ला । ओरोहदासचेडी वद्धावइ वसुमईनाहं ॥११३॥ संपइ बद्धाविज्जसि नरनाह ! तुम जएण विजएण । जेण पसूया पुत्तं चंपयमाला महादेवी ॥११॥ रन्ना वि य दासित्तं अवणेउं तीए दासचेडीए । दिन्नं च पारिओसियदाणं सुयजम्मतुट्टेण ॥११५।। आणत्ता नायरया जहाविभूईए नयरमज्झम्मि । कारवह महाऽऽणाए सुयजम्ममइसवं गरुयं ॥११६॥ तेहिं वि तह ति पडिवजिऊण निस्सेसनयरिमञ्झम्मि । वद्धावणयं विहिणा कारवियं तं च एरिसयं ॥११७ ॥ विरइजमाणतोरणवंदणमालं दुवारदेसेसु । ठाविज्जमाणचंदणचच्चियसुहपुन्नकलसजुयं ॥२१८॥ उभिजमाणनवरंग-वसण-परिहाण-जूय-मुसलसयं । पढमाणचवलतरचट्ट-भट्ट-सूमाइयाइन्नं ॥११९|| पविसंतक्खयवत्तं विद्धाजणकिजमाणसुयरक्खं । नच्चन्तवारविलयं सनम्महीरंतसिरनेढं ॥१२०॥ इय गरुयविभूईए वद्धावणयं नरिंदचंदेण । आणंदियपउरजणं कारवियं पुत्तजम्मम्मि ॥१२१॥ अह नामकरणदिवसम्मि सोहणे तिहि-मुहुत्त-करणम्मि । भोयाविऊण नीसेसपरियणं भोयणविहीए ॥१२२।। सम्माणिऊण वरवत्थ-रयण-असणप्पयाणओ सम्मं । पुहइवई सप्पणयं सव्वं पि हु पुरपहाणजणं ॥१२३॥ कुलविद्धनारिनिवहेण मत्थए चोक्खयक्खिवणपुव्वं । नरविक्कमो ति नामं सुयस्स कारवइ कालण्णू ॥१२४॥ संजाओ य कमेणं वटुंतो अट्टवरिसदेसीओ.। मुहसियपंचमि-गुरुवार-पुस्सनक्खत्त-करणेसु ॥१२५॥ उवणीओ लेहायरियपायमूलम्मि मलियमाणभडो। ससिणेहं सम्माणिय कलागुरुं गरुयभत्तीए ॥१२६॥ नियजोग्गयागुणेणं जणयपयत्ताओ निच्चमभिओगा । लेहायरियस्स गओ कलाण सव्वाण सो पारं ॥१२॥ लेहम्मि लद्धलक्खो अहियं परिनिटिओ धणव्वेए । गंधव्वकलाकुसलो पत्तच्छेयम्मि पत्तट्टो ॥१२८॥ नर-नारि-तुरय-गय-रहवराइपरमत्थलक्खणविहन्नू । गंधंगजुत्तिनिउणो चउरमई चित्तयम्मम्मि ॥१२६॥ लोयव्ववहारविऊ मंतपओगेसु नायपरमत्थो । परचित्तगणदषसोविसारओ सद्दसत्थेसु ॥१३०॥ सा नत्थि कला तं नत्थि कोउयं किं पि नत्थि विन्नाणं । जत्थ न सो पत्तट्टो विसेसओ मल्लजुद्धम्मि ॥१३॥ अह अन्नया य पेक्खणय-गीयवक्खित्तरायअत्याणे । निवपाससुहासीणे सुहए नरविक्कमकुमारे ॥१३२॥ करकलियपयंडसुवन्नदंडदुद्धरिसभासुरसरीरो । आगंतुणं विन्नवइ सविणयं निवपडीहारो ॥१३३॥ हरिसउरसामिणो देव ! देवसेणस्स दारदेसम्मि । चिट्ट दूओ देवस्स दंसणं महइ किं कजं? ॥१३४॥ सिग्धं भद्द ! पवेससु तमिइ निउत्ते निवेण स पविट्ठो । कयसमुचियपडिवत्ती एवं विन्नविउमाढत्तो ॥१३५॥ संति पहु ! मझ पहुणो अइसयभूयाणि दोन्नि रयणाणि । नियरूवोवहसियतियससुंदरी कन्नगा एगा ॥१३६॥ अवरो य रायमल्लो पडिभडकमलाण कालमेहो व्व । नामेण कमलमेहो विणिज्जियासेसमलगणो ॥१३॥ तत्थऽन्नया कयाई सुहासणत्थस्स रायअत्थाणे । सव्वालंकारमणोहरंगियानिययजाणणीए ॥१३८|| पिउपायपणमणत्थं पट्टविया पुव्ववन्निया कन्ना । उच्छंगम्मि निविट्ठा पलोइया तयणु पिउणा वि ॥१३॥ वरचिंतणत्थमेसा [ग्रन्थाग्रम् ११०००] मन्ने पउमावईए देवीए। पट्टविया मह पासे ता को णु इमीए अणुरुयो॥१४॥ होही भत्ता भवणे वि ? विसरिसाणं कए वि संबंधे । आजम्मं घरवासो दुहपासो होइ मिहणाणं ॥१४१।। इय दुहियावरचिंतणजलहिमहावत्तसंकडे पडिओ। राया सव्वावस्थासु दुयरी होइ जेण सुया ॥१४२॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आख्यानकमणिकोशे तत्तो रन्ना सयमे पुच्छिया तुज्झ सीलमइ ! वच्छे ! | केरिसगुणो कहिज्ज रुच्च हिवयम्स भत्तारो ? ॥ १४३ ॥ किं चाई ? किं सूरो ? किं वा विउसो ? कयन्नुओ ? सुहओ ? | गंधव्वकला निउणो ? परोवयारी ? दयालू वा ॥ १४४ ॥ ईस अहमुहीए सलज्जमेईए जंपियं ताय ! । जो को वि हु तुह रोयइ सो चिय मह सम्मओ भत्ता ॥ १४५॥ तो भणियं नरवणा ईसिसमुन्ना मिऊण मुहकमलं । उवरोहसीलयाए बच्छे ! न सुहाई कज्जाई ॥ १४६ ॥ जइ एवं ता एसो तुह मल्लो महियले वऽपरिभूओ । जिप्पिस्सइ जेण बली सो मह भत्ता किमवरेण ? || १४७ || तो नायं नरवणा ऐसा हु बलाणुराइणी बाला । ता भद्दं परमिमिणा सवे वि पराजिया बलिणा ॥ १४ ॥ तो तं विसन्नचित्तं दद्धुं भणियं पहाणपुरिसेहिं । अज्ज वि देव ! जयंतीए अस्थि अपरिक्खिओ एगो ॥१४९॥ नरसीहसुओ बलपोरिसंक्करसिओ रसायलपसिद्धो । नरविक्कमाभिहाणो सो वि परिक्खिज्जउ नरिंद ! ॥ १५० ॥ सामत्थिऊण सम्मं तयत्थमहमेत्थ पेसिओ सामि ! | तो नरवणा चयणं निरिक्खियं निययतनयस्स ॥ १५१ ॥ तणाचि पणमिणं भणियं देवाणुभावओ भव्वं । होही सव्वं पेसवह ताय ! मं तत्थ किं बहुणा ? ॥ १५२ ॥ तो मंतिऊण सामंत-मंति- नायरजणेण सह रन्ना । पेसविओ हरिसउरे हिट्टो नरविक्कमकुमारो || १५३ ॥ अम्मइयाए नियमहत्तमो देवसेणनरवइणा । कुमरस्स पेसिओ चडयरेण चउरंगबलकलिओ ॥ १५४ ॥ तो गरुयविभूईए सोहण दिवसे पवेसिओ नयरे । नर-नारिनियरनयणाण किमवि परमूसवो कुमरो ॥ १५५ ॥ सयणा - Ssसण-बहु परिवारसंजुओ धवलघयव डसणाहो । कुमरस्स वासगेहं समप्पिओ पवरपासाओ || १५६ ॥ वीयम्मद भणिओ रत्ना कुमरो महऽस्थि सीलमई । नामेण कन्नया सा [प]भणइ जो कालमेहमिमं ॥ १५७ ॥ मह मल्लमपडिमल्लं परिभविही होहिही स मे भत्ता । सह कित्ति जयवडायाहिं कुमर ! ता गिण्हसु तयं ति ॥ १५८ ॥ अंगीकयम्मि कुमरेण सज्जिया नयरपरिसरे रम्मे । मंचाइमंचकलिया वित्थिन्ना मल्लरंगमही ॥ १५६ ॥ नर-नारिनियरसहिए उबविट्टे देवसेणनरनाहे । सिरिकुमर- कालमेहा समागया रंगभूमी ॥ १६० ॥ आबद्धनिबिडकच्छा संजमियसिद्धि के सपव्भारा । दोन्नि वि निजुद्धनिव्वडियपोरुसा साहसेक्करसा ॥ १६१ ॥ दहूण कालमेहो कुमरं संहणणदुद्धरिसदेहं । पुन्नक्खयाओ खिप्पं खुहिओ चित्तम्मि बलिओ वि ॥ १६२॥ चितइ य एस रन्नो वल्लहजामाउओ जणाणुपिओ । ता जय-पराजएसुं कुओ वि मह नत्थि कल्लाणं ॥ १६३ ॥ इय भयसंभमवसओ फुट्ट हिययं तडति मल्लस्स । कुमरस्स साहुवाओ संजाओ रंगमज्झमि || १६४॥ तत्तो य कलानिहिणो कंठे बलसालिणी कुमारस्स । पक्खित्ता वरमाला कुमरीए नेहरज्जु व्व ॥ १६५॥ अणुवो संजोगो विहिणा विहिओ समाणमेयाण । जाओ साहुक्कारो अहो ! सुवरियं ति जणमज्झे ॥ १६६॥ तत्ता सोहण दिवसे पाणिग्गहणं करावियं रन्ना । मंगलगीयरवेणं वज्जिरवरतूरनिवहेण ॥ १६७॥ पइमंडलमेईए तह हय-गय- रहवराइयं दिन्नं । रन्ना जह नयरजणो सम्वो वि धुणाविओ सीसं १६८ ॥ कइय विदिणाणि नरवर वणमणुभविय मंगलं राया । मोयाविओ सनयरं पर गमणत्थं कुमारेण ॥ १६९ ॥ तत्तोय सत्यदिणे चउरंगमहाबलेण परियरिओ । संपत्थिओ कुमारो विढवियससिनिम्मलजसोहो ॥ १७० ॥ तत्तो पिउणा दुस्सहविओगतुट्टंतनेहपासेण । सिक्खचिया सीलमई समुरकुलं पत्थिया तइया ॥ १७१ ॥ वच्छं ! गुणवियले विहु जणणी-जणयाण धुवमवच्चम्मि । को वि अपुव्वो नेहो तेण हियत्थं भणामि तुमं ॥ १७२ ॥ निप्पंक सुवन्नसमुज्जला वि सुइसीलसोरभजुया वि । केयइफडस व्व सुया परोवयाराय निम्मविया ॥ १७३॥ तावच्छे ! तत्थ गया सुविणीया होमु ससुरवग्गस्स । अविणीओ जलणो इव जण पत्तिो वि संतावं ॥ १७४॥ निनाममणुसरन्ती सीलम्मि मई सया वि मा मुयमु । सोलरयणे विणट्टे न सुन्दरं उभयलोगे वि ॥ १७५ ॥ नियमत्तणो करेज्जसु सयमासण-भोयणाइयं कज्जं । भत्तारदेवयाओ नारीओ जेण एस सुई ॥ १७६ ॥ पद्दणोऽभिमएसु य नम्मभासणा तस्स पुण अमित्तंसु । विहियावन्ना पियभासिणी य सञ्वम्मि परिवारे ||१७७॥ ससुराईण गुरुणं भत्ता नमिरा नणंदवगम्मि । हरिसियमणा सवक्किसु पइबंधुयणम्मि ससिणेहा ॥१७८॥ For Private Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नं च- तहाहि ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् संसारियसोक्खपिवासियाण कुलबालियाण किल एवं । पइणो विसए निच्छियममंत- मूलं वसीकरणं ॥ १७६ ॥ विजय सरूवं गव्वं पि हु सव्वा परिच्चयसु । धणुदंडं चिय विउसा जेण सगव्वं पसंसंति ॥ १८० ॥ रज्जसिपमुहेतुं सुवच्छे ! मयं पि परिहरसु । सुयणु ! ससि व्व निरूवसु समओ झिज्जर सुहयरो वि ॥ १८९ ॥ दापि जहा विहवं सया पयट्टेमु पणइचम्मम्मि । मयसमयम्मि अदाणो करि व्व निंदिज्जइ जणेण ॥ १८२ ॥ सिक्खणि सुयं दूरमणुव्वल्य देवसेणनियो । वलिओ चिवन्नछाओ सुमरंतो ताण गुणनियरं ॥ १८३ ॥ कुमरो वि अखंडपाणएहिं पत्तो जयंतिनयरीए । नवजलहरो व्व सिहिणो पिउणो मग्गं नियंतस्स ॥ १८४॥ जयवारणमारुढो सीलमईए समं सभज्याए । पिउणो पुरीए सोहं पेच्छंतो विसह अह कुमरो ॥ १८५ ॥ कुमरस्स दंसणत्थं दो वि पासेसु रायमास्स । हट्ट -ऽट्टालय- देउलय-भवणपासायसिहरगओ || १८६ ॥ मोत्तु ं नियवावारं निस्सेसो नयरिनारि-नरनियरो | निच्चलनेत्तो नरनाहनंदणं नियइ नयणमुहं ॥ १८७॥ परिणयवहिं भणियं सव्वं पि हु होइ पुन्नवन्ताण । जेणेसो पत्तजसो सकलत्तो नियपुरिं पत्तो ॥ १८८ ॥ तरुणाण भइ को विहु कुमरो रूवेण मयरकेउ व्व । अवरो जंपइ कुमरी तिहुयणअन्भहियरुवगुणा ॥ १८९ ॥ विद्धाहि भणियमम्मा-पिऊण सुइरं कुणंतु संतोसं । जीवंतु चिरं विलसंतु संपयं पुन्नवन्ताणि ॥ १९०॥ तरुणीण पुणो तरलत्तणेण अविवेयबहुलयाए य | विविहालाचा जाया परोप्परं ताण विसयम्मि || १९९१ ॥ कीय विकहियं करकमलकलियवज्जो पियाए सह कुमरो । सोहइ सिंधुरखंधे सहि ! सेइसहिओ सुरिंदो व्व ॥ १९२॥ अवए भणियमलं पियसहि ! तुह जंपिएण जेण हरी । सो अकुलीणो अवरं च छिद्दसंछन्नसव्वंगो ॥ १८३॥ सुह सिरिजणओ सोहइ समारिओ निवसुओ महासयणो । वेलाए सहिओ जलनिहि व विलसंतलायन्नो ॥ १९४ ॥ मयरसिएण जलहिणा अमयं विन्दु जडासएण समं । कुमरं करेसि जाणंतिया वि पियसहि ! बहु भुल्ला ॥ १९५॥ कप्पियकरेण संतावहारिणा सहि ! समो सहइ कुमरो । भज्जासहिओ कप्पदुमेण सियचंपयलपण || १९६ ॥ साहिपहाणं मणताववज्जिएणं समं कुमारेणं । जंपती सिरसूलं पिय[सहि ! ] मह कुणसि जाणंती ॥ १६७॥ करकलियसंख-चक्को जणनिव्वुइकरसुदंसणो कुमरो । सीलमईए सिरीए व सहिओ बिन्दु व्व पडिहाइ ॥ १९८ ॥ आचयवइसयणेणं सुहिसयणो विण्हुणा समो कुमरो । लच्छीसमभज्जो वि हु सगएण निरामओ कह णु ? || १९९॥ सुहरसणो जयसूरो मय-रणभयवज्जिओ सह पियाए । सीहीए समं पंचाणणो व्व सहि ! सोहइ कुमारो ||२००|| सहि ! ससधर सियदेहेण भणसि सीहेण जं समं कुमरं । केण वि अगंजियं तं मयच्छि ! मह चालसि अणक्खे ||२०१॥ इय परपुरंधीणं कुमरो समयणवियड्डवयणाणि । निसणंतो नायरनारिनयणमालाहिं पिज्जती ॥ २०२ ॥ वीइज्जंतो वत्थंचलेहिं नरनाहमंदिरं विसइ । उभियतोरण- मोत्तियच उक्ककलियं कलाकुसलो ॥२०३॥ पणओ पिउणो पाएसु सविणयं भारियाए सह कुमरो । पिउणा वि हु परिपालसु रज्जधुरं एवमणुट्टो ||२०४॥ माया पुण पणओ चिरकालं जियसु पुत्त ! इय भणिओ । सीलमई पुण भणिया अक्खयवच्छा भवसु वच्छे ! ॥२०५॥ नियपासायसमीवे पासायं देइ निययकुमरस्स । भोगोचभोगपरिवारसंजुयं सहरिसं जणओ ||२०६ || जुवरज्जम्मि निवेसइ नायरजणसम्मएण ते कुमरं । इय सो सत्थत्थचिऊ नियजणयपसायदुल्ललिओ ॥ २०७॥ पंचविहे कामगुणे भुंजंतो भारियाए सह कुमरो । दोगुंदुगो व्व देवो गयं पि कालं न याइ ॥२०८॥ अह अन्नया कुमारो पंडियगोट्टि समीहए काउं । चउरमइ - विउसभूसणनामगमित्ताइपरियरिओ ||२०९ || सद्धिं सहिसहियाए सीलमईए वियड्डभज्जाए । नियपासायवरगओ सरिऊण सुभासियं एयं ॥ २२० ॥ काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन हि मूर्खाणां निद्रया कलहेन च ॥ २१९ ॥ १. शचीसहितः । २९५ For Private Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आख्यानकमणिकोशे काऊण छंद-लक्खण-प्रमाणसत्याइपंडियवियारं । पन्होत्तरगोट्टीए हरियमणी भणइ चउरमई ॥ २१२ ॥ पियमित्त ! समइरइयं किं पि हु पन्होत्तरं पढमु पढमं । जेणेस बियाणइ विउसभूसणो मज्झ वयणेण ॥ २१३ ॥ पढियं च चउरमा सेरइयपन्होत्तरं कुमरवयणा । वैत्थमिममेगवारं तहा समत्थं च तं च इमं ||२१४ || भ्रान्तिमाशु बत बोधय पृष्टं, कानने न ननु का जगदिष्टा: ? । कीदृशाश्च पशुपालगृहाः स्युर्नीलशप्पपरिपुप्पदुरभ्राः ? ॥ २१५ ॥ सिग्धं विचितिऊणं सुगममिमं कुमर ! जाणइ सिसू वि । नाऊ[णं विउसविभूसणेण प] भणियमिमं तस्स ॥ २१६ ॥ अमदवयः ॥ भणियं च चउरमइणा जइ सुगममिमं तओ तुमं पढनु । विसमतरं जेण तयं पेच्छामो तेण पढियमिमं ||२१७|| सम्बोध्यते कथमजो धरणीरुहश्च मर्त्यः प्रकाममवबोधनवर्जितश्च ? | कीदृग् नगाधिपसुतापतिरंहिहीनमर्त्या भवन्ति भुवने कतम [स्व] भावाः ॥२१८॥ नायं च चउरमइणा किंचि चिरं चिंतिऊण किच्छेणं । सच्चं चिय विउसविभूसणो सि हसिऊण तं च इमं ॥ २१९ ॥ आगमनाः ॥ भणियं तो विउसविभूसणेण तं कुमर ! पढसु दुरवगमं । पन्होत्तरमम्हाणं जं पढियं जणइ संतोसं ॥२२० ॥ तक्खणमेव वियप्पियमिणमो नरविक्कमेण तं पढियं । वत्थमणेगालावं गयपच्चागयमिमं तं च ॥२२९॥ दैत्याः केन विदारिताः ? रिपुगणाकीर्ण च कीदृग् रणं ?, प्रोक्त' ब्रह्म मनोरथेन वदति ब्रह्मा किमिष्टं नृणाम् ? | ब्रूते शर्मपतिर्विशुद्धयति मल: केनात्र कीदृग् नमः, प्रत्येकं ब्रुवते विकल्पविधिभृद् वर्णादनब्रह्मजाः ॥ २२२॥ अहह ! कुमारमईए ने उन्नं जेण गरुयकिच्छेणं । नायमिमं नवनाडीनिरोहओ तं कबाइ इमं ॥२२३॥ केशवारिणारिवाशके ॥ अह विभूसो भइ कुमर ! समईए विरइय मियाणि । पण्होत्तरमेरिसगं भणामि जइ भणसि तुममेगं ॥ २२४ ॥ कुमरेण भणियमहमवहिओ म्हि अवरं च का वि हु अपुत्र्वा । आसुकवित्ते सत्ती तुह पढसु तओ य तेणुत्तं ॥ २२५ ॥ पृष्टं पुष्करपालकेन मधुभिद् धत्ते किमस्त्रं ? रिपोः सैन्यं कीदृगयो विकल्पचचनो वर्णश्च किं पीयते ? | पृष्टं चित्त[...] पिपासति गजो विन्ध्योद्भवः किं पृथक्, सञ्जल्पन्ति निपात-वामसलिलाभिख्या समाजश्रियः ॥ २२६ ॥ कुमरेणावि हु सविलंबमूहिउं भणियमुत्तरमिमस्स । भव्वमिमं दुरवगमं गुणेसु को मच्छरं वहइ ? ॥ २२७॥ रेवावारिवैरिवावारे ॥ तत्तोय चउरमइणा भणियं अहमवि विसिट्टजाईए । आयन्नसु कुमर ! तुमं पदमि पण्होत्तरं एगं ॥ २२८॥ कुमर ! पढावसु जम्हा विसिट्टिजाईए कोउगं अम्ह । सव्वेहिं सहरिसं मन्नियम्मि तेणावि पढियमिमं ॥२२६॥ कीदृग्दग्धमरण्यमर्तिजनकं किं चाहुरत्रोदितं, गन्त्र्या कीदृगथो मनोविद इति धान्वो वदन्त्यम्बुदम् । वोद्या चाव्ययपद्मजाङ्गजमरुन्निः श्रीकशब्दैकता, ब्रूते पञ्चजनोऽथ कीदृगुदितं वृन्दं मुनीनां वद ॥ २३०॥ तं बहुसो चीमंसियमलद्ध मज्झं न जाव विन्नायं । केण वि ता कुमरेण भणियमिमं उत्तर मिस्स ॥२३१॥ सव्वेहि वि मिलिऊणं भणियं पुणरचि कुमार ! तं पढसु । दुखगमं पण्होत्तरमवगच्छामो न वा अम्हे ॥२३२॥ तो पढियं कुमरेणं गयपच्चागयमिमं परमबंधे । समईए विरइयं मुणउ कोई जस्सऽत्थि मइविवो ॥२३३॥ अतिशायिबलो वध्यः सुराज्ञः कीदृशी तनुः ? । तपोलक्ष्म्या च कीदृक्ष्या युता कीदृग् मुनेस्तनुः ? ॥२३४॥ 1 वितं सौख्यं सगमनमालप की ग् वणिक्कला बोध्या ? | भौमयुनस्सततगतिर्बलं च कीदृक् स नो दा स्त्री ॥२३५॥ तो जावन को विहु किं पि मुणइ ता चउरबुद्धिणा भणियं । उत्तरमिमस्स धुणिऊण मत्थयं कुमरपन्नाए ॥ २३६ ॥ सारतरयारतरसा ॥ १. स्वरचितम् । २. व्यस्तमिदमेकवारं तथा समस्तं च । ३, 'आगम-नः !' पुराणपुरुष ! 'श्रगमन' ! वृक्ष ! | 'अ-गमनः ! बोधवर्जितपुरुष ! | 'ग-मनाः ' हिमालयमनाः । 'अगमनाः' गतिरहिताः । समस्यादिषु स्वरादीनां विपर्यासो न दोषाय For Private Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुष समतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् ता विसाणंदेण जंपियं कुमर किंपि हु भणामि । अहमवि पण्होत्तरमेगमेरिसं जइ मयं तुज्झ ॥ २३७॥ कुमरेणमीसि हसिऊण जंपियं मह सभाए तं पढमो । कुणयु जहत्थं नामं पढसु जहिच्छाए मज्झ मयं ॥ २३८ ॥ दृष्ट्वा रूपसुरभीभर भूरिशोभं, भूमीविभागमभितोऽभिहितो धरित्र्या । स्याद्वादसावचनेन च यद् विरागस्ताभ्यां सदुत्तरमदायि तदेव तेन || २३९॥ समपन्होत्तरमेयं वियाणिउं जंपियं कुमारेण । काउं नाउं च इमं सुदुक्करं पंडियाणं पि ॥ २४० ॥ तद्यथा - कोऽनेकान्तात्मगोत्रजः ॥ तेत्तं मइसायर! न वि तं कुणसि कुमरसंतोसं । तेणुत्तं अम्हे सुत्तपाढया के बुहाण पुरो ? || २४१ ॥ सुत्तपढणाणुरुवं तहा वि किं पि हु पढिज्जउ पसत्थं । जइ एवं सुत्तं चिय मह पण्होत्तरमिमं सुणह ॥ २४२ ॥ का सौरव्यैकनिबन्धनं त्रिभुवने ?, केषां महद् गौरवं १, नीरुग् वक्ति, जनस्य तात्त्विकरिपुः कः ?, कौ च बभ्रुर्द्विषन् ? । सङ्घो वक्ति, सुदर्शनं वद करे [के]षां, स्वराप्रयोभिधात्, को वर्णो ?, नपरो वितुन्दति [न] किं सूत्रं पुरस्यानञः ॥ २४३ ॥ अह तेहिं पुणियसीस दिन्ना नहछोडिया भणतेहिं । पंडियसभाए कुमरस्सऽणेण वित्थारिया कित्ती ॥ २४४॥ नवरं विन्नायमिमं मइसायरसंतियं न केणावि । पण्होत्तरगयमुत्तं मुणियं कुमरेण तं तु इमं ॥ २४५ ॥ -अहिंसाऽर्थानामज्वरे || विउ सेहिं पुणो भणियं सहियणपरिवारिया मुणंती वि । तुह कुमर ! वल्लहा मोणमस्सिया संपइ किमेसा ? || २४६ ॥ पेच्छ न किंपि पसंसइ न य एसा पढइ किंपि अम्हाणं । संतोसकए ताहे भणियं कुमरेण पढमु पिए ! ॥ २४७॥ तीए भणियं पिययम ! पाययभासानि उत्तवाणीणं । अम्हाण तुम्ह पुरओ पढियं भण केरिस होइ ? || २४८ ॥ कुमरेणुतं मा भण एरिसं जं बुहा वि जंपंति । उत्तिविसेसो कव्वं भासा जा होइ सा होउ || २४९|| ता सीलमईए नाऊण विणिच्छयं कुमारस्स । विउसमणानंदयरं पढियं पण्होत्तरं एयं ॥ २५० ॥ पुत्थयहत्थी, तह सावयं च, कह भण्णए धरातणओ ? । गमणं पुच्छर, को वा बुहाण सङ्घन्नणिज्जो उ ? ।। २५१ ॥ विज्जेणं बुद्धिमया को लक्खिज्जइ सरीरिणो देहे ? । समरंगणम्मि दीस जणेण किर केरिसो कण्हो ? ॥ २५२ ॥ रहवाई केरिसओ संजायइ वढविओयपज्जाओ ? । दुह वत्थं [ति ] समत्थं जाण[ह] पण्होत्तरं मज्झ ॥ २५३॥ सीलमईए पढियं पण्होत्तरयं [च चिंतयं] ताणं । जाया महई वेला कहवि हु किच्छेण निन्नायं ॥ २५४ ॥ गयवियारो ॥ २६७ एत्थं तरम्मि पंडियगुणाणुराएण रंजिओ कितिं । कुमरस्स कहेउं जे पत्तो दीवंत रम्मि रवी || २५५ || सिविणं नरवइ आणं अखंडयंतस्स । कुमरस्स केत्तिओ वि हु सुहेण कालो वइकंतो ॥ २५६ ॥ अह अन्नया य नरनिवइभूसणं कुसुमसे हरकुमारं । पसवइ पसत्यदिवसे सीलमई मुमणसगुणड्डुं ॥ २५७॥ बीयं कमेण सिरिविजय से हरं विजयकारयं पिउणो । तणयदुगं पि हु तं पुण निचं पि पियामहस्स पियं ॥ २५८ ॥ अह कइया विहु मयसम्यपरवसो भग्गनिरालाणो । पाडियमिठो निद्दलियनिचिडनिगडो नयरमज्झे ॥ २५९ ॥ भजतो भवणचयं मोडतो वियडविडविसंघायं । पाडितो पासाए मारंतो माणवसमूहं ॥ २६० ॥ नररायपट्टहत्थी परिभमइ निरग्गलो अपडियारो । ताहे पुरीए मज्झे जायं असमंजसं सव्वं ॥ २६९ ॥ तत्तो भणियं रन्ना करिरयणमिमं पहारमकरितो । गिन्हउ को विहु जस्सऽत्थि साहसं सुणिउमिय मुद्दा || २६२ || सवि सन्नद्धा परमेगो वि हु जमं व तं हरिंथ । अंगीका उमसत्तो तो रोसविसप्पिर मरण || २६३॥ कइया वि पुरीमज्झे गन्भभरालसविहत्सव्यंगी । एगा बाला वालेण तेण पत्ता परायत्ता ॥ ६१ ॥ हा भाय ! भाय ! हा ताय ! ताय ! हा राय ! राय ! तुरमाणा । तायह तायह मं करिवराओं पावाओ एयाओ ॥ २६५॥ १ बभ्रुः नकुलः । २ अहिंसा, अथीनाम् अज्वर ?, 'इ', कामः, श्रहिम्, सार्थ!, 'अनाम्' वासुदेवानाम्, श्र, स्वरविपर्यासाद् ज्वरः, "हिंसार्थानामज्वरेः " [कातन्त्र २-४-४०] । ३ गज !, वृक !, 'आर ! मङ्गल ! गत !, विचारः । गढ़विकारः । गदाविचारः । गतविचारः । ३८ For Private Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जओ आख्यानकमणिकोशे 1 हा हा ! कत्थइ किं कोइ नत्थि कित्तिप्पिओ कुमारवरो । जो मोयावइ मरणाओ मं इमाओ महासत्तो ? || २६६ ॥ इय बिलवतिं भयविहुरमाणसं तत्थ तासतरलच्छि । पच्चासन्नी हुयमरणमेरिसं करुणसद्देण ॥ २६७॥ पासिउमपारयंतो कुमरो करुणापव्वसो सहसा । हकन्ती करिनाहं दुक्की करिणो समीवम्मि || २६८ ॥ तो वारितस्स वि परियणस्स निम्सेसनायरजणम्स | सीहो व खंधभाए भयरहिओ चडइ चवलगई || २६९॥ तत्तोय अंकुसो अंकुसो त्ति कुमरम्स बाहरंतस्स | मारेउं पारद्धो तं नारिं मत्तमायंगो ॥ २७० ॥ ततो कुमरो करुणाए तीए विम्हरियरायआएसो । पहणइ कुंभयडे तिक्खखभ्गघेणूए करिनाहं ॥ २७१ ॥ ताहे हत्थी सो तारिसी वि गाढप्पहारजज्वरिओ । निग्गयरुहिरपवाही तह चेव अचेयणो व्व ठिओ ॥ २७२ ॥ दिट्टो जणेण छुरियप्पहारकुंभयडगलियरुहिरजलो । विको व्व गलियनिज्मरणनीरपरिधोयधा उरसो ॥ २७३॥ गयणाभोउव्व अणूरुरत्तसंझाणुरायसंवलिओ । रेहइ हत्थी कुमरप्पहारपगलंत रुहिरोहो ॥ २७३॥ विप्फुरियविज्जुवलयावण द्धपणवन्नसक्ककोयंडो । नवजलहरो व्व रेहइ करिराओ रुहिरसंछन्नो || २७५॥ तो ओयरिडं कुमरो करिंदखंधाउ सुद्धपरिणामों । उक्खिविऊणं बालं मुंचइ निरुवद्दवे ठाणे ॥ २७६ ॥ ना राया करिरायवइयरं नेहनिव्भरमणो वि । धणियं कुद्धो बुद्धरिसभिउडिभासुरियभालयलो || २७७॥ फुरियाहरभयजणओ गुंजारुणवयण-नयणदुप्पेच्छो । घयसित्तहुयासणरासिसन्निभो भणिउमादत्तो ॥ २७८ ॥ रे रे कुलफंसण ! पावकम्म ! गुरुवयणलंघणसयन्ह ! । अवसर दिट्टिपहाओ मह जीवियसमकरिकयंत ! ॥ २७६ ॥ इय दुस्सह पियपरिभवहुयवहजाला पलित्तसव्वंगो । नियनिद्धजणयविरहणमचयंतो चिंतिउं लग्गो || २८०॥ ता किं इहेच चिट्ठामि विणयकरणेण पत्तियावेमि । जणयमहवा न संगयमावडियमिमं पि मज्झ फलं ॥ २८९ ॥ गुरुवयणाइकमतरुणो ता निस्सरामि गेहाओ । अन्नं च जणयपरिभवमहियासेउं न सक्केमि ॥ २८२ ॥ 1 गयणम्मि निरालंबणमवि परिसकंति साहसेकरसा । माणंसिणो न मणयं पि माणभंगं परिसहंति ॥ २८३ ॥ भीसणमसाणपज्ज लिय हुयवहं मत्थयम्मि साहसिया । गुग्गुलभारं घारिति माणभंगं न माणघणा ॥ २८४॥ अवि कालकूडकवलणमसुहं सुहमायरंति पियमाणा । न उणो मुयंति मरणे वि माणमाणिक्कघणमणहं ॥ २८५ ॥ अवि समरमरणमवि देसगमणमवि बंधुमुयणमिच्छंति । माणधणा न उ नियनिद्धबंधुजणियं पराभवणं ।। १८६ ।। इय चिंतिऊण कुमरो परियणमाभासिऊण सप्पणयं । सम्माणिऊण समुचियमाभरणाईहिं तं भइ ||२८७|| भो भो ! जणयाणाए गंतव्वं ता मए विएसम्मि । समयम्मि पुणो तुभे पुणरवि संभालइस्सामि ॥ २८८ ॥ ते विहु विओयपसरियवाह जलाउलोयणा जाया । पियवयणपुव्वमाभासिऊण धीरेण धीरविया ॥ २८६॥ सीमई पुण भणिया पिए ! तुमं जाहि जणयगेहम्मि । तायमणुयत्तमाणो गमिस्समहयं विदेसम्मि ||२९०॥ तं सोऊ दुस्सहविओगदुहभारभारियसरीरा । बाहजला ऊरियनयणसंपुडा रोविडं लग्गा ॥ २९९ ॥ किं रुयसि पिए ! ? आवंति आवयाओ भवे वसंताण | जीवाणमओ सुंदरि ! विवेणो हुंति धीरमणा ॥ २९२ ॥ तत्तं मणवल्ल ! धीरमणा विहु रुवामि जमयंडे । मं मोत्तुं वयसि तुमं तं मह गुरुदुक्खमन्नं च ॥ २९३ ॥ सामि ! तुमं सिक्खविओ जइ सुमरसि तायसंतियं वयणं । एक च्चिय मह धूया छाय व्ब तए न मोक्तव्या ॥ २९४ ॥ तेत्तं सव्वमहं सराम सुंदरि ! परं तुमं मग्गे । कहमहियाससि सुहिया सीयाऽऽयवसंभवं दुक्खं ? || २१५॥ सा भइ सामि ! मग्गो वि मह घरं काणणं पि कुलभवणं । कक्कससिला वि सेज्जा गिरी वि सुहओ मही वि पिया २९६ जत्थ तुमं मह पासे किं मह जणएण? किं व ससुरेण ? | मणनिइमेव सुहं सामि ! सयाणा पसंसंति ॥ २९७॥ जइ एवं समदुक्खा ता पउणा होसु जेण वच्चामो । संपयमेव पयाणं किज्जइ किर कि वियप्पेण ? || २६८॥ एवं सो सकलतो सिसुसुयजुयलो सुहिल्लिदुल्ललिओ । एगागी पयचारी पयत्थिओ साहससहाओ || २६६॥ कत्थ तयं सनुरसहं ? जणयपसायाओं कत्थ ते भोगा ? । एकपए चिय नट्टा अहो ! हु विहिविलासयमपुत्र्वं ॥ ३०० ॥ For Private Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जओ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुष समता वर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् इय सो माणेकघणो दुहममुणंतो अभिन्न मुहराओ । वच्चइ बिसायरहिओ पियाणुरोहेण भणियं च || ३०१ ॥ बसणे विसायरहिया संपत्तीए अणुत्तणा हुंति । मरणे वि अणुविग्गा साहससारा य सप्पुरिसा ॥ ३०२ ॥ अह हरिरहिय व्व गुहा गुंफविउत्ता सुकव्ववाणि व्व । चायरहिय व्व लच्छी मुणिमाला पसमचियल व्व ||३०३॥ कुमररहिया जयंती न विरायइ सेसगुणसमग्गा वि । अहह्वाऽवणीयहारा थणत्थली लहइ कह सोहं ? || ३०४|| पच्चागयपडिबंधो पच्छायावानलेण तवियतणू । राया विसन्नवयणो विन्नत्तो मंतिवग्गेण ॥ ३०५ ॥ देव ! किमेयमयंडम्मि वज्जदंडप्पहारसममसुहं । तणु-मणसंताचयरं कुमारपरिभवणमावडियं ? ||३०६ || जुत्तमतं जाणंति देवपाया परं वयं भणिमो । अवि याणिय मम्हेहिं वि न संगयं सामिणा विहियं ॥३०७॥ तिलतुसमेतं पहु कज्जमन्नया ने कहंति निवपाया । मंदरगिरिगरूयं पि हु एयं नायं न अम्हेहिं ॥ ३०८ ॥ कहमवि करयलचडिओ पडिओ चिंतामणी जहा दुलहो । तह देव ! कुमररयणं पाविसामो कहमहन्ना ? ॥ ३०९ ॥ उद्दालियनिहिरयणा हियसव्वस्सा पणट्टपरिताणा । निमग्गसेहरा सामि ! किं करेभो ? कहिं जामी ? ||३१०|| इय दीणमंतवणेण चलियमुयसल्लविहुरिओ राया । लल्लकमुक्कपोक्को धस त्ति पडिओ धरणिवी ||३११॥ सिसिरोवयारकरणेण लंभिओ चेयणं परियणेण | पलवद्द राया सल्लं चालितो सयललोयस्स ॥३१२॥ हा विहियविणय ! हा गरुयपणय ! हा दिन्नकणय ! पणयाणं । हा विवघणय ! हा निद्धजणय ! हा जणियरणरणय ! ||३१३|| वच्छ ! गयरायडियं सुरकरिमारूढममरनाहं व । विबुहजणाणंद्रयरं तं दच्छीहामि कइया हं ? || ३१४॥ हा वच्छ ! विउसगोट्टी वि तुझ विरहम्मि झूरइ सदुक्खं । हा पुत ! तुज्झ विरहे रायत्याणं पि दुहजणयं || ३१५॥ सरभसमागच्छंतं षेच्छिस्सं वच्छ ! कत्थ पत्थावे ? | मह पायपणमणत्थं वियसियमुहकमल - नयणजुयं ॥ ३९६ ॥ अंकम्मि निवेसिस्सं अग्घाइस्सं सिरम्मि संतुट्टो । अद्धासणेण कड्या निमंतइस्लामि बच्छ ! तुमं ? ॥३१७॥ हा वच्छ ! पुरवरीयं परमपमोयप्पया वि पेयवणं । तइ पवसियम्मि जाया उवेययरी भयं जणइ || ३१८॥ एवं अपरिक्खियकारयस्स निब्बुद्धियस्स मह जीहा । सयखंडा किं न गया कुमरं कडुयं भणतस्स ? ॥३१९॥ चंपयमाला वि तया परिसिढिलिय देहबंधना धणियं । सुयसोयविहुरियंगी चिलवड़ विविहप्पयारेण ॥३२०|| हा ! मज्झ मंदभग्गाए कह णु जीवियसमो वि जणएण । विहिवसगेणमकम्हा तुममिय निव्भच्छिओ वच्छ ! ? || ३२१॥ तुममवि वच्छे ! सीलमइ ! बालमुयजुयलसंजुया कह णु । पयचारेणं गच्छसि कइया वि अदिट्टदुहलेसा ? ॥ ३२२ ॥ इय असमंजसत्रयाणि जणणि-जणयाणि पलवमाणाणि । संठावियाणि कह कह चि मंतिवग्गेण महुरगिरा || ३२३ || सो विहु कुमरो वच्चइ सिसुसुयजुयक लिय सीलमइकलिओ । अमरिसऽवहरियहियओ अक्खंडियपथपयाणेहिं ॥३२४|| गच्छंतो संपत्तो कोडीसरवणियसयसमाइन्ने । संदणपुरम्मि वेला उलम्मि धण - कणयपरम्मि || ३२५ || तत्थ य परिचयविरहाओ किमवि गेहाइयं अयाणंतो । पविसइ पाडल्या हिमालायारम्स गेहम्मि || ३२६ ॥ सो उण पाडलओ पयइभद्दओ दुत्थिए दयालू य । सगुणप्पिओ पसंतो परोवयारेक्करसिओ य || ३२७॥ भणियं च तेण चिट्ट मह गेहे होइ कम्मवसगाणं । विसमो दसाविभागो जियाग को विम्हओ भद्द ! ? ॥ ३२८ ॥ चंदम्स खओ न हु तारयाण रिद्धी वि तम्स न हु ताण । गरुयाण चडण पडणं इयरा पुण निच्चपडियति ॥ ३२९ ॥ चिति तत्थ मणयं सुहेण परमाऽऽसि दविणजायं जं । आभरणाई कालेण भक्खियं तो विसन्नाई ||३३० ॥ पाडलएणं भणियं ववसायविवज्जियाण किं दइयो । कत्तो मुहम्मि पाडइ ? ता किं पि करेह ववसायं ||३३१॥ कुमरेणुत्तं भो भद्द ! भणसु जं किंचि किञ्चमम्हाणं । तेणावि भणियमुच्चिह मज्झ मलए गदेसाओ ||३३२ ॥ पुष्पाणि कुह चिक्कयमेवं निव्वहह निव्चियप्पेण । जुत्तमिमं ति कुमारो कुणइ तयं चिंतिऊणमिमं ॥ ३३३॥ जह जह वाएइ विही विसरिसभंगेहि निट् टुरं पडहं । धीरा पसन्नवयणा नच्चति तहा तहा चेव ||३३४|| २६६ For Private Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आख्यानकमणिकोशे तप्पभिइ कलाकुसलत्तणेण कुमरो विचित्तमालाओ । गुंथइ सीलमई वि हु ताओ विक्किणइ रायपहे ॥३३५॥ परमेसा रूवबई पयईए पसंतवम्महचियारा । कुणइ जणाण वियारे वत्थाऽलंकाररहिया वि ॥३३६।। भणियं च मुद्धाण नाम हिययाई हरंति हंत !, नेवच्छकम्मगुणणेण नियंबिणीओ। छेया पुणो पयइचं गिमरंजणिज्जा, दक्खारसो न महुरिज्जइ सक्कराए ॥३३७॥ अह अन्नया य दीवंतराओ पत्तेण पोयवणिएण । दिट्टा य देहिलेणं तओ य सा मयणवसगेणं ॥३३॥ भणिया तुह पुप्फाणं विच्छित्ति का वि सुंदरि ! अपुव्वा । ता मह इमाणि सव्वाणि सुयणु ! मोल्लेण देयाणि ॥३३॥ अन्नत्थ न गंतव्वं कत्थइ सो देइ समहियं दव्वं । सा वि हु घणलोभेणं पइदियहं देइ तस्सेव ॥३४०॥ अह अन्नया य भणिया सीलमई तेण पावकम्मेण । मयणाउरेण सीलम्मि निच्चला हरिउकामेण ३४१॥ जइ एहि जाणवत्ते मह पासे तो बहूण पुप्फाण । सिग्धं पि विक्कओ होइ सा वि तत्येव संपत्ता ॥३४२॥ तीए सुद्धसहावाए जाणवत्ते मुणालवेल्लहला । पक्खित्ता बाहुलया पुप्फाण समप्पणनिमित्तं ॥३४३॥ तो घेत्तु पावणं चडाविया तेण जाणवत्तम्मि । संवरिया नंगरया समुभिओ झत्ति सेयवडो ॥३४॥ चालेऊणमवल्लाइं पेल्लियं पाणियम्मि तं वहणं । आयन्नायड्डियचावमुक्ककंडग्गवेगेण ॥३४५|| पत्तं पभूयजोयणपमाणमाणम्मि जलहिमज्झम्मि । एत्तो वि गिहे कुमरो पियाए मग्गं पलोएइ ॥३४६॥ जाव न पत्ता ताहे गवेसिया तेण तत्थ सव्वत्थ । अनियंतेणं कहिओ मालायारस्स वुत्तंतो ॥३४७॥ तेण वि चउक्क-चच्चरठाणेसु गवेसिया पयत्तेण । तत्तो य नयरबाहिं निरूविया जाव न हु दिट्टा ॥३४८॥ ताहे पाडलएणं भणिओ कुमरो नईए परकूले । भद्द ! गवेससु गंतुं कइया वि हु होइ तत्थेव ॥३४९॥ ते विहु जणणीविरहे पिउपासं पुत्तया न मुंचंति । तो तेहिं सहिओ च्चिय गवसणत्थं नईए गओ ॥३५०॥ संठाविऊणमेगं बीयं नेउं नईए परकूले । जावाऽऽगच्छइ पढमाणयणत्थं ताव असुहवसा ॥३५१॥ सहस च्चिय नइनीरं विद्धि पत्तं तओ अवसपाओ । पययूरेण नईए कुमरो वोढुं समाढत्तो ॥३५२॥ भवियव्वयाए पत्तं कि पि हु कट्ठाइयं नईमझे। तन्निस्साए पत्तो केत्तियमेत्तम्मि भूभागे ॥३५३॥ उत्तरिऊण तहाविहतरुपायं पाविउं समुवविठ्ठो । चिंतइ विसन्नहियओ विहिविलसियमप्पणो असुहं ॥३५४॥ पेच्छसु एगपए च्चिय मह विहिणो वामया यासस्स । जं चिंतिउं न सक्का न यावि सहिउं न वा कहिउं ॥३५५|| भणियं च चिंतिज्जइ जं न मणे जुत्तिवियारेण जुज्रइ न जं च । तं पि हयासो एसो सुहमसुहं वा विही कुणइ ॥३५६।। तहा खणदंसियसुरसरिवित्थराइ खणसुन्नरन्नसरिसाइं। एयाइं ताई कम्मिदयालिणो जीव ! ललियाई ॥३५७॥ जणय-जणणीविओगो पियाए विरहो सुयाण विच्छोहो । भूयबलि व्व कुटुंबं दिसोदिसिं पत्तियं विहिणा ॥३५८॥ न तहा जणणी-जणया न तहा मह भारिया तवइ हिययं । जह बाला वणमझे दुहावहा नद्धसल्लं व ॥३५९॥ ता किं करेमि संपइ ? कं वा सरणं जणं पवजामि ? । विसम-विसंटुलचेट्टिय ! हयविहि ! वच्चामि भण कत्थ ?॥३६०॥ अहवा गरुयाणं पि हु जायइ वसणं विहिम्मि विवरीए । किर किं चोज्जं अम्हारिसाण ? विउसा भणंति जओ ॥३६१।। अलङ्कारः शङ्का करनरकपालं परिकरः, प्रशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको गतवयाः । अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति यत्रामरगुरोविधौ वक्र मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी ? ॥३६२॥ ता मह सत्थत्थविसारयस्स जुत्तं न सोइउं एवं । इय जा संठवइ मणं ता जं जायं तयं सुणह ॥३६३॥ सिरिजयवद्धणनयरस्स सामिओ कित्तिधम्मनरनाहो । सूलाइकयायंकणमुवरओ केवलमपुत्तो ॥३६४॥ तत्तो तप्पयसमुचियसव्वुत्तमपुरिसरयणनाणत्थं । अहिवासियाणि मंतीहिं पंच दिव्वाणि विहिपुव्वं ॥३६॥ | Jain Education Interational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकार नरविक्रमाख्यानकम् ३०१ हत्थी तुरओ चमरा कलसो छत्तं च ताणि पुरमझे । भमिचउक्क-चच्चर-तिगाइठाणेसु सव्वत्तो ॥३६६॥ अनियंताणि पुराओ बाहिं पि विणिग्गयाणि पत्ताई। नत्थऽच्छइ नरविक्कमकुमरो तरुणो तलम्मि ठिओ ॥३६६॥ पढमं चिय गिरिगरुयं थोरोरुकरं करि नियइ कुमरो । चिंतइ वणहत्थी को वि एस ता अणउ जमभिमयं ॥३६७॥ एयं न ताव करिरायमागयं दुज्जयं पि दमइस्सं । सिक्खाविऊ वि जम्हा मह मरणं विरहियस्स वरं ॥३६८॥ जओ विरहाओ वरं मरणं विरहो मह निरंतरं देहं । ता सेयं मरणं चिय जेण समप्पंति दुक्खाइं ॥३६॥ मरणम्मि निच्छियमई कुमरो तं जाव नियइ सम्ममिमं । तो तं लीलायंतं जिंभायंतं च सोममुहं ॥३७०॥ तम्मग्गेणं तुरयं छत्ताईयं च पासिउं कमरो। चिंतइ मणम्मि कारणमिह किं पि न एस वणहत्थी ॥३७१॥ तिपयाहिणिय कमारं गलगजियजलहिगहिरगज्जीए । उक्खिविऊण करेणं सखंधमारोविओ कुमरो ॥३७२।। अहिणवजलहरसामलसमुच्चकरिरायसंठिओ कुमरो। सोहइ सिंहकिसोरो व्व विंझगिरिमत्थयारूढो ॥३७३।। उक्खिविऊण करेणं निम्मलजलभरियपुन्नकलसेण । विरहग्गितावियतणू अमयरसेणेव अहिसित्तो ॥३७१।। हरहास-हारधवलं कुमरस्स सिरम्मि संठियं छत्तं । बिंबं व्व सोमयाए विजिएणं पेसियं ससिणा ॥३७५|| ससि-कुद-संखसेयं चामरजुयलं सुसंगयं ढलियं । जस-कित्तिपुंजजुयलं व्व सहइ पासेसु कुमरस्स ॥३७६।। तिपयाहिणिय तुरंगो समुच्चरोमंचकंचुइयगत्तो । हिणहिणइ भणइ पिट्टम्मि चडसु मह विवपए व्व तुमं ॥३७७॥ मंचाइमंचकलिए नयरम्मि पवेसिओ विभूईए । वरवत्थरइयउल्लोयरुइरविच्छित्तिरमणीए ॥३७८॥ विरइयवंदणमाला-मणहरतोरणविराइयवारे । रायभवणम्मि पविसइ कयकोउयमंगलपवित्ते ॥३७९॥ विलसिरवारविलासिणिविरइयमोत्तियचउक्ककमणीए । सीहासणे निसीयइ सुपसत्थमुहुत्तसमयम्मि ॥३८०॥ तो समकालपवजिरनाणाविहतूरबहिरियदियं । पुणरवि महायणेणं विहिओ रज्जाहिसेओ से ॥३८१॥ महरिहवत्थालंकाररुइरनिस्सेसविग्गहावयवो । पणओ असेससामंत-मंति-नायरयनियरेण ॥३८२।। पणया पच्चंतनिवा सव्वे वि हु तप्पयावगुणवसओ । अणुकूलकम्मकलिओ पुणरवि सो संपया वरिओ ॥३८३।। नवरं न कि पि लग्गइ चित्ते से पुत्त-पिययमाविरहे । सल्लंति ताणि हियए खणे खणे नद्धसल्लं व ॥३८४॥ जओ भुजउ जं वा तं वा परिहिजउ सुन्दरं व मलिणं वा । इटेण जत्थ जोगो तं चिय रज्जं किमवरेण ? ॥३८॥ इओ य जिणसमयभणियविहिणा वियाणियासेससमयसब्भावो । छत्तीससूरिगुणरयणरोहणो रुद्धमणपसरो ॥३८६।। खंतीनिवासगेहं मद्दवगुणविजियदुजयमाणभडो । अज्जवनिज्जियमाओ मुत्तीबलविजियलोहखलो ॥३८७॥ तवतेयदित्ततणुओ संजमसंजमियकरणहयपसरो । सच्चवसीकयभुवणो सोयसमुज्जलसमायारो ॥३८॥ आकिंचन्नविभूसियदेहो बंभवयगुणपवित्ततणू। सुविसुद्धधम्मदसभेयरयणसमलंकियसरीरो ॥३८९॥ दसणमेत्तेण वि भवियनिवहनिम्महियचित्तसंतावो । परमालवणसुहारसपवाहनिव्ववियजणहियओ ॥३९०॥ विहरंतो संपत्तो समंतभद्दाभिहाणमुणिवसभो । जयवद्धणपुरपरिसरबहिरुज्जाणे समवसरिओ ॥३२१॥ सोऊण तयागमणं भत्तिभरुल्लसियबहलरोमंचा । के वि हु वंदणवडियाए निग्गया सूरिपायाणं ॥३२॥ के विहु कोउयवसओ के वि हु पत्ता पराणुवत्तीए । संसयवोच्छेयत्थं च पत्थिया तत्थ के वि नरा ॥३९३॥ राया वि मुणियमुणिनाहवइयरो रइय[विमल] नेवच्छो । पियपुत्त-पियावुत्तंतपुच्छणत्थं समणुपत्तो ।।३९४॥ सव्वेसुं पि जहारिहमुवविढेसुं विसिट्टलोएसुं । मुणिनाहो नवनीरयगज्जियगंभीरवाणीए ॥३९५।। पारद्धो धम्मकहं कहि कारुनपुन्नमणभवणो । भवियजणबोहणत्थं सत्थत्थविसारओ भयवं ॥३९६॥ तं जहा खणदिट्टनट्टविहवे खणपरियटुंतविविहसुह-दुक्खे । खणसंजोय-विओए नत्थि सुहं कि पि संसारे ॥३९७।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जओ तथाहि तहा हि - आख्यानकमणिकोशे जीयं जोन्वणमिड्डी पियसंजोगा य अस्थिरं सव्वं । खणदिट्टनट्टरूवं नहम्मि गंधवनवरं व ||३९८|| खरपवणपणुन्न कुसग्गलग्ग जलबिंदुसच्छहं जीयं । तरणिकरतवियतरुखुडियकुसुमसरिसं च तारुन्नं ॥ ३९९॥ सुररायचावलयसच्छहाओ लच्छीओ चलसरूवाओ । विज्जुलयचिलसियसमा पियसंजोगा य जीवाणं ||४००|| तम्हा सुर-नर-सिवसोक्खकारए सासए जिणपणीए । परमत्थबंधवे कुह उज्जमं युद्धधम्मम्मि ||४०१ ॥ इय मुणिववयणाओ विणिग्गयं धम्मरयणमभिमुणिउं । संवेयभावियमणा जाया सवे वि भवियजणा ||४०२ || राया विहु मुणिवणी नाणाइसयं वियाणिउँ तया । पत्थुयमत्थं पुच्छिउकामो कामं भणइ एवं || ४०३ || भयवं ! तुमे नाणेण नत्थि तं जं न याणह जयम्मि । तां कहह कया होही मह पुत्त-पियाहि संजोगो ? || ४०४ ॥ भयवं पि भणइ नरनाह ! धम्ममेयं सया कुणंतस्स । सव्वं पि घडइ जीवम्स वहियं वत्थुजायं ति || ४०५|| भयवमसमा हिजोगे धम्मो वि हु तीरए न काउं जे । भवयाणमिव न अम्हं विवेयवियलाण मणथेज्जं ॥ ४०६ ॥ जइ एवं तह वि तुमं निञ्चलचित्तो चरित्तवंताणं । मुणिपुंगवाण सह पज्जुवासणं कुणसु भणियं च ॥ ४०७|| सेवा विहु दुलह च्चिय महाणुभावाण पाचनिद्दलणी । छायं पि कंप्पतरुणो पुन्नविहुणा न पार्वति ॥ ४०८|| सो विहु तह त्ति पडिवज्जिऊण साहूणं कुणइ पयसेवं । गुणंपक्खवायभावा अलंकिओ पउरपुन्नेण ||४०९|| एत्तोय नईतीरे ते कुमरे नियइ गोउलियपुरिसो । तम्मि पएसे कत्तो वि आगओ तेसि पुन्ने || ४१०॥ तो घेतु [जा]इ वणं, ते नरकुच्चर - जयंतकुमर व्व । अप्पेइ गोउलियम यह रस्स वज्जरियतव्वत्तो ॥ ४११ ॥ तेण वि य अपुत्ताए समप्पिया पणइणीए नियगाए । सा वि हु पालइ अंगुभव व्व परमन्नपाणेहिं ॥ ४१२॥ सो वि हु मणदइओ नरवइस्स कोसल्लियाणि घेत्तूण । वच्चइ रायसमीवे अहन्नया ते वि सह पिउणा ॥ ४१३॥ राहाडि काऊणं चलिया अम्हे वि आगमिस्सामो । नयरस्स दंसणत्थं पत्तो सो तेहिं समयं पि ॥ ४१४ ॥ जा नियइ निवो ते दो वि दारए अणमिसाए दिट्टीए । ता नायं जह एए मज्झ सुया कहइ मह हिययं ॥ ४१५ ॥ पुट्टेण महरेणं तव कहियं निबंधओ सव्वं । तो काउं उच्छंगे नेहवसा भरियगलसरणी ॥ ४१६ ॥ किमवि पन्ना राया ग ंतनयणंसुधोवियकवोलो । भणइ सुया एए ते मह मिलिया गुरुपसाएणं ॥ ४१७॥ यदि गुरु कहिओ सवो वि पुत्तवृत्तंतो । केत्तियमेत्तं भो भद्द ! साहुसेवाए फलमेयं ॥ ४१८॥ अवि होही तुह पिययमाए जोगो वि धेवदिवसेहिं । अहरीकयकप्पदुममाहप्पा जेण मुणिसेवा || ४१६॥ हरइ रुयं दलइ दुहं जणइ समाहिं समीहियं कुणड् । अवणेइ आवयाओ मुणिसेवा कामधेणु व्व ॥ ४२०॥ एवं राया संजायपच्चओ कुणड् साहुपयसेवं । पालइ रज्जं निव्वुयहियओ अङ्गमइ दियहाणि ४२१ ॥ साहु सीलमई देहिण जलहिम्मि दढमणज्त्रेण । नाउं हरिज्जमाणं अप्पाणं निवडिया वहणे || ४२२ ॥ मुच्छा निमीलियच्छी विहिया सिसिरोवयारओ सत्था । अइदुसहविरहदुहभारभारिया पलविउँ लग्गा ||४२३॥ हा जलहिदेवयाओ ! हा पवहणदेवयाओ ! हा सुयणा ! । इह अस्थि कोइ जो मं रक्खइ पावेण हीरंतं ||४२४ || हाताय ! दुहियवच्छल ! हा ससुर ! सिणेहसार ! हा दय ! । मह पाणप्पिय ! तायमु हीरंतिं सरणरहियं मं ॥ ४२५ ॥ तं पेच्छिऊण सहस त्ति विहियकरसंपुडो वहणसामी । भाइ सविनयं सुंदरि ! मा रोयसु गुणसु विन्नति ||४२६|| वीसत्था होसुखणं अवधारसु मंज्झ वयणपरमत्थं । अहमेव ताय तुह सुयणु ! किंकरो पसिय पसयच्छि ! ॥ ४२७ ॥ भवसु मह विलगिहविभवसामिणी वहमु गेहिणीसद्दं । चयसु विसायं संटवसु अप्पयं मणसमाहीए || ४२८|| निव्वसु सुणु ! मं मयणदहणतवियं ससंगमजलेण । इय विन्नत्तिं मह कुणसु करिय करुणं कुरंगच्छि ! ॥ ४२६ ॥ तं सोउं कावारत्तनयणुभडभिउडिभीसणनिडाला । फुरियाहरुट्टपक्खलियवयणपरिसन्नमुहकमला ॥ ४३० ॥ For Private Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम् ३०३ अवसर दिट्ठिपहाओ निकिव ! निभग्गसेहर! निहीण ! | निद्धम्म ! नराहम ! निब्बिवेय! निप्फुट्ट ! निल्लज ! ॥४३१॥ मा भणसु पुणो एवं मा निवडसु नरयअंधकृवम्मि । निम्विन्नाण ! न याणसि अप्पस्स परम्स य विसेसं ॥४३२॥ एवं तीए निभच्छिओ ददं मोणमस्सिओ वणिओ । लोभाभिहयं च सयं जीवामुवालद्धमारदा ॥ ४३३ ॥ हा जीव! तया लोभेण विनडिओ मुणसि नेय कवडमिमं । ज मह कज्जत्थमिमा समायमत्थ पयच्छंतो ॥४३॥ वाहियइ अहव झट्टेण लोभिओ लोयजंपियं जायं । तमिमं सच्चं संपइ जइ मह सीलस्स माहप्पं ॥४३५॥ अस्थि तओ देवो वा असुरो वा किन्नरो व जक्खो वा । सन्नेझं कुणउ जओ गरुया दुहियम्मि कारुणिया ॥४३६॥ इय सावियम्मि सीलप्पभावओ जलहिदेवया खुहिया । पक्खिव इ महावत्ते वणं कयजलयवद्दलया ॥४३॥ वायाविद्धं परिभमइ पचहणं जाव ता नहयलम्मि । सहस त्ति जंपियं जलहिदेवयाए सरोसमिमं ॥४३८॥ हं हो अणज्ज ! निल्लज्ज ! दुट्ठ ! पाविट्ट ! चत्तमज्जाय ! सीलमई सीलमई महासई एवमहिखिवसि ॥४३९॥ संपइ जइ भइणिसमं पिच्छसि परिपालिउं पयत्तेण । अप्पसि पइणो ता तुज्झ जीवियं अन्नहा नत्थि ॥४४०॥ तप्पभिई भयभीओ भोयण-पाणाइएहिं भइणि व्व । पालंतो गंतव्वं संपत्तो वंछियं ठाणं ॥४४१॥ विणिवट्टिऊण भंडं विढवियदविणो गिहं पइ नियत्तो । पडिकूलपवणवसओ पणोल्लियं पवहणं पत्तं ॥४४२।। जयवद्धणम्मि नयरे वणिओ घेत्तृण पाहुडं पवरं । वच्चइ निवम्स पासे तेणावि सगोरवं दिट्टो ॥४४३॥ दीवंतरवत्ताकहणवावडाणं परोप्परं महई । वेला लग्णा जाव य वोलीणो जामिणीपहरो ॥४४४॥ ता विन्नत्तो राया बहुदव्वं देव ! पवहणं मज्झ । ता मुयह देव ! पुणरवि समागमिस्सं पहायम्मि ॥४४५|| भवियव्ययानिओगेण भूवई भणइ भद्द ! भवओ हं । पच्चइयनियनरेहिं रक्खाविस्सामि तं वहणं ॥४४६॥ भवया उण मह पासे वसियव्वं अज्ज मन्निए वणिणा । नरवइणा पेसविया पहाणपुरिसा पवहणम्मि ॥४४॥ अणुकूलकम्मवसओ कुमारकयकोउया जलहिवहणे । जणयं विणएणं विन्न वंति सप्पणयमम्हाणं ॥४४८॥ पवहणमदिट्टपुव्वं ता तइंसणकए तहिं ताय ! । बच्चामो जइ मन्नसि तो रन्ना पेसिया तत्थ ॥४४९॥ रयणीए सुहं सुत्ता तत्थेव य पवहणम्मि सेज्जाए । जाए पच्छिमपहरे पडिबुद्धो भणइ लहुभाया ॥४५०॥ भाय ! मह कुसुमसेहर ! कहाणयं किं पि कहसु कमणीयं । वच्चइ सुहेण रयणी जेणेसा तं सुणंतस्स ॥४५१॥ जेट्टेण भणियमेयं महंतमच्छेरयावहमपुव्वं । अम्हाणमेव चरियं कहाणयं सुण किमवरेण ॥४५२॥ लहुएणं संलत्तं तयं पि मह कहसु अवहिओ अहयं । अस्थि इह संदणपुरं वेलाउलसन्नियं वच्छ ! ।।४५३ तत्थ इमो मह जणओ पिउणा अवमाणिओ सह मियाए। देसाओ आगंतुं मालायारस्स गेहम्मि ॥४५४॥ गुंथइ पुप्फाणि सयं भज्जा विक्किणइ रायमम्गम्मि । खत्तियकुलुभवा वि हु अहो ! हु विहिविलसियमपुव्वं ।।४५५॥ न हु एत्तिएण तुट्ठो वच्छ ! इमो हयविही जमम्हाणं । केणावि हु अवहरिया माया वि हु जीवियम्भहिया ॥४५६॥ तीए गवसणत्थं अम्ह पिया निम्गओ नईतीरे । नरविक्कमो कुमारो अम्हे मोत्तु नईकूले ॥४५७॥ बूढो नईपवाहेण पुन्नजोएण नरवई जाओ । अम्हे वि हु संपत्ता कह वि हु गोउलियपुरिसेण ॥४५॥ तेणावि वच्छ ! अम्हे समप्पिया मयहरस्स तस्स गिहे । विद्धिं पत्ता पुन्नेण जोइया जणयपायाणं ॥४५९॥ संपइ दुक्खत्ताणं जइ माया मिलइ कह वि पुन्नवसा । देव-गुरूणं पायप्पसायओ ता भवे लढें ॥४६०॥ गुणलयणियाए मज्झे सयणीयगयाए अवहियमणाए । सीलमईए सव्वं निसामियं निययचरियमिमं ॥४६॥ तत्तो नेहपरव्वसहियया सव्वंगजायरोमंचा । सुरहि व्व निययवच्छगदंसणनिग्गयथणयदुद्धा ॥४६२।। जामि बलिं तुम्ह मुहस्स होमि ओयारणं नियसुयाणं । इय जपंती तुटुंतकंचुया निग्गया बाहिं ॥४६३ एसा अलक्खणा हं तुम्हाणं दुक्खदाइया माया । ता एह एह चिरविरहियाऽहमारुहह उच्छंगे ॥४६४॥ इय उच्छंगो काऊण मुक्कपोक्काए तीए तह रुन्नं । कुमरेहिं समं वहणे रुयाविओ जह जणो सव्वो ॥४६५।। संठावियाणि निवपरियणेण संजायपरमतोसेण । आणंदरोदणेण वि पज्जत्तं देवि ! बहुएणं ।।४६६॥ Jain Education Interational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आख्यानकमणिकोशे सिग्धं केण वि गंतुं निवेइओ एस वइयरो रन्नो । हरिसाऊ रियहियओ सो वि हु अंगे अमायंतो ॥१६७॥ देवीपवेसणकए नयरम्मि महूसवं समाइसइ । चयणानंतर निव्वत्तियम्मि अह तम्मि निवमग्गे ||४६८ ॥ मंगलगीयरवेणं अवलोयंती समग्गपुरसोहं । पविसद् पेच्छिज्जेती नर-नारिसहस्सर्वद्रेणं ॥ ४६६॥ वीइज्जती सियचामरेहिं कणयप्पहा करेणुगया । विज्जु व्व विरायंती बलायजुयजलयमालाए ||४७० ॥ पविसद् नरिंद्रभवणे विद्धाजणविहियमंगलपवित्ते । नारीहिं सलहियगुणा आसीसा मुहलवयणाहिं ॥ ४७१ ॥ रायाई पुरलोओ मिलिओ सच्चो वि तम्मि समयम्मि । नच्च गायइ पहसद् हरिसियहियओ तयागमणे ||४७२ ॥ रायाइमाणु साणं तेसिं मिलियाण निरुवमं सोक्खं । जं जायं तं तीरइ कहिउं नऽन्नस्स केणावि ॥ ४७३ ॥ अभयप्पयाणपुत्र्वं कहिओ देवीए वइयरो वणिणो । निव्विसओ आणत्तो सो वि हु रन्ना ससव्वस्सी ||४७४॥ तप्प भइ रज्जसोक्खं विसयमुहं मन्नए मणे राया । जं हिययनिव्वुईए विउसा मन्नंति परममुहं ॥ ४७५॥ विवया निरुन्चिग्गो विहवं पत्तो न गन्यमुब्बहइ । लच्छीए न छलिज्जइ अहो ! हु गरुयाण पुरिसवयं || ४७६ ॥ देइ अणवरदाणं पयड् भत्तिं पि सीलवंताणं । रक्खड़ तवोवणाई सया सहावेण मुहभावो ||४७७॥ चउरंगबलसमिद्धो पडियसत्तू विणिग्गयपयाचो । ससहरकरधवलजसो जाओ नरविक्कमनरिंदो ||४७८ ॥ एवं सो गुरुपयपज्जुवासणाजायवंछियपयत्थो । संपत्तसावयवओ पत्तो माहिंदकप्पमि ||४७९ ॥ ॥ नरविक्रमाख्यानकं समाप्तम् ॥१०७॥ जह एसो सप्पुरिसो संपइ-विवयासु तुल्लमणवित्ती । एयासु तन्नेण वि हरिस-विसाओ न कायव्व ॥ १ ॥ औद्धत्यदोषरहिता विभवे भवन्ति, दैन्यादपेतमनसो व्यसनेऽपि सन्तः । पुण्याशयाः स्तिमितनीरधिनीरकल्पाः, सर्वत्र सम्पदि विपद्यपि तुल्यचित्ताः ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे सम्पद्-विपदोः सत्पुरुषतुल्यताप्रतिपादकः पट्त्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥ ३६ ॥ [ ३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारः ] पूर्व सम्पद्विपद्भवनं दैवविलसितमित्यभिहितम् । एतच्च पुरुपकारपरैरपि निवारयितुं न शक्यते । अतो तदभिधातुकाम आह पुरस्कार परेहिं वि विहिपरिणामो खलिञ्जए नेय । दियय-कुक्कुड-जायव-मित्ताणंदा यदिता ॥ ४६ ॥ । दृष्टान्ता व्याख्या - 'पुरुषकारपरैरपि' उद्यमवद्भिरपि 'विधिपरिणामः' दैवविलसितं 'स्खल्यते' निवार्यते 'नेय' त्ति नाह — द्विजयुतश्च - वराहमिहिर ब्राह्मणपुत्रः कुक्कुटश्ध - पक्षिविशेषः यादवाश्च - द्वारकावतीलोकाः मित्रानन्दश्च श्रेष्ठितः ते तथोक्ताः 'दृष्टान्ताः' उदाहरणनीति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि तावत् क्रमप्राप्तं द्विजसुताख्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् अस्थि समत्थसमीहियसंपाडणसंपयं थिमियवासं । निम्मलजसगुणभवणं पाडलिपुत्तं पवरनयरं ॥ १ ॥ तत्थ स्थिदरियरिउकरडिकेसरी पणयसयलसामंतो पुत्र्वपुहईसपालियपयपालणपच्चलो राया ॥२॥ नामेगं जियसत्तू जियरंभा विघ्भमा महादेवी । नियरायपट्टपयवीपट्टिया धारिणी नाम ||३|| For Private Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारे द्विजसुताख्यानकम् ३०५ नियमइविभवविणिज्जियसुरमंती सुमइनामओ मंती । रन्नो सयले कज्जे रज्जधुराधरणधोरेयो ॥४॥ अवरो वि अस्थि रन्नो पुरोहिओ रायसम्मओ सययं । छक्कम्मरओ चउदसविजाठाणाण पारगओ ||५|| नामेण विन्हुमित्तो सोमा नामेण भारिया तस्स । माहणकुलसंभूया पइव्वया पयइसोमा य ॥६॥ तत्तो य नियकुलागयसकम्मकरणुज्जयाण नीईए । कालक्कमेण जाया ताणं दो चेव सुयरयणा ||७|| उब्यूटवेयवहाभारो अन्नाणतिमिरनिद्दलणो । पढमो पत्तपइट्टो वराहमिहिरो जहत्थऽक्खो ||८|| बीओ य सयलकल्लाणकारगत्तेण भव्वलोयम्स । पुरपरिघदीहबाहु त्ति भद्दबाहू समक्खाओ ॥२॥ दोन्नि वि लक्खणकुसला दोन्नि वि साहित्तजलहिपारगया । दोन्नि वि पमाणपडुया दोन्नि वि परिमुणियगणियमया ॥१०॥ अन्नेयु वि बंभन्नयसत्थेसु विणिच्छियत्थपरमत्था । जाया च उण्ह वेयाण पारया धारया यावि ॥११॥ अह रमणीमणमोहणभूयं तारुन्नयं च जा पत्ता । लोइय-वेइय-समइय-ववहारवियक्खणा जाया ॥१२॥ तो कालसमयविउणा पिठणा काराविओ करगहणं । जेट्टो विसिट्टनक्खत्ततिहिमुह ईए ॥१३॥ नामेणं सावित्ती जाया जाया वराहमिहिरस्स । बंभस्स व वेयविसारयस्स चउराणणस्स सई ॥१४॥ भाया वि तस्स सारीर-माणसाणेयदुक्खसंतत्तं । कलिऊण जीवलोयं परमाणंदं च मुत्तिसुहं ॥१५॥ मुणिय तहाविहथेराणमंतिए जायगरुयसंवेगो । फव्वइओ परिचइऊण गेहवासं विवेयवसा ॥१६॥ अन्भसियदुविहसिक्खो विन्नायजहुत्तसमयपरमत्थो । चउदसपुवी जाओ कवितिलओ कित्तिकुलभवणं ॥१७॥ पंचमहब्बयधुरधरणपञ्चलो सगुरुपत्तसूरिपओ । विहरइ पुहविं छत्तीससूरिगुणसंपयासहिओ ॥१८॥ नवरं वराहमिहिरो तस्सुवरिं गरुयमच्छरं वहइ । मिच्छत्तमोहियमई धम्मम्मि अनायपरमत्थो ॥१६॥ भणइ य पालणयाओ किं न बिरालीए भक्खिओ सरखं । पाव ! जमेवं ववसंतएण लज्जाविया लोए ॥२०॥ नामाइ घडाईणं निरत्थयत्तं पओयणाभावा । मन्नइ भावघडं चिय विसिट्टकजप्पसाहणओ ॥२१॥ सो उण सूरी समसिरिसमस्सिओ थिमियनीरनाहनिभो। अहह ! महंतं पुरिसाणमंतरं दीसइ जयम्मि ॥२२॥ अह उवरयम्मि जणए वराहमिहिरो पुरोहियपयम्मि । महईए विभूईए पइट्टिओ रायपमुहेहिं ॥२३।। तप्पभिइ पूयणिज्जो संजाओ पउरमझयारम्मि । पायं पाहाणो वि हु पइट्टिओ लहइ माहप्पं ॥२४॥ विन्नाणे नाणम्मि य कलाकलावे य गणियमग्गम्मि । सव्वत्थ वि पत्तट्टो विसेसओ जोइसत्थम्मि ॥२५॥ किंतु कुल-जाइमयओ दढमभिमाणी परं पराभवइ । अथिरसहावो अहवा अकलंकगुणा जए विरला ॥२६॥ नियवंसजाओ अवरेण कह वि जिप्पामि जइ सविजाए । ता साहेमि पइन्नारूढो दुसह चियाजलणं ॥२७॥ एवमसन्नयसुयनाणजणियगुरुगव्यपव्वयारूढा । उद्धरखंधो नयरे वराहमिहिरो परिव्भमइ ॥२८॥ अह अन्नया कयाई सावित्तीगभसंभवो पुत्तो । सव्वंगलक्खणधरो संजाओ सहमहत्तम्मि ॥२९॥ वद्धाविओ य दासीए रायअत्थाणसंठिओ विप्पो । नवरं हरिसट्टाणे वि सामवयणो दिओ जाओ ॥३०॥ जम्हा तं चिय लग्गं विणिच्छियं न उण आगमणकालो। परिगणिओ दासीए सुयजम्मुप्पत्तिरसिएणं ॥३१॥ निवच्छिएण भणियं देव ! इमो एरिसम्मि लग्गम्मि । संजाओ मज्झ सुओ जह वईतो अलक्खणओ ॥३२॥ देवरस य रज्जम्स य रहस्स य जाव नियकुलम्सावि । जायइ विणासहेऊ कूरग्गहदिट्टिवायाओ ॥३३॥ ना भणियं अह हो ! असंगयं कहसु अस्थि जइ को वि। दाह वि य खेमकरणत्तणण परिरक्खणोवाओ ॥३४॥ सो आह बिन्नि रज्जंतराई जइ जाइ लंघिऊण महिं ! ता दुरियभरो एयम्स चेव निवडइ न संदेहो ॥३५।। रायाऽऽह निग्विणमिमं भणइ दिओ नीइमणुसरंतेहिं । कायश्वमवस्समिमं ति जंपिडं निग्गओ विप्पो ॥३६॥ पच्चइयपरिस-मुहधाइमाइयं पउणिऊग सामगि । तद्दिणजाओ पुत्तो पिउणा निम्सारिओ सिग्धं ॥३७॥ भणिओ सो परिवारो सोलसवासाणमेस पज्जते । मरिही ता तुम्भेहिं वलियव्वं किं वियप्पेणं? ॥३८|| अवगणिय सुयसिणेहं अवगणिय जणं पि निग्घिणं कम्मं । पुत्तस्स पिया ववसइ अहो ! सकजम्स गरुयत्तं ॥३९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जओ आख्यानकमणिकोशे कवि दिणाणि परिदेविऊण चवहरइ निव्वुओ जणओ। राया जणो वि अहवा दंसणसाराई पेम्माई ॥४०॥ सो बिहु परिवारजुओ दक्खिणदेसं गओ गरुयपुन्नो । दीसंतो सुहजणओ पच्चक्खो पुन्नरासि व्व ॥४१॥ जाओ य अट्टवरिस हायरियस्स पायमूलम्मि । विणयजुओ पयईए पयत्तओ पढि उमादत्तो ||४२|| चउदसविज्जाठाणा चउरो वेया सहंग-निग्घंटा । अण तेण नाया विसेसओ जो इस निमित्तं ॥ ४३ ॥ लायन्न-रूब-जोन्वण- विज्जा-विन्नाणपत्तमाहप्पो । पत्तपहाकरनामो गओ समिद्धि पसिद्धिं च ॥ ४४ ॥ परदेस - निययदेसाण वन्नणं वढ ! कुणंति काउरिसा । परदेसो वि सदेसो सत्ता हिय- पुन्नवंताणं ॥ ४५ ॥ अह कइया चि हु जो सबलेण नियजायगम्मि विन्नाए । विम्हइओ निययमणे अहो ! हु तायम्स अथितं ॥ ४६ ॥ जं मुहम्गं पि असोहणं ति कलिऊण चावलचलेणं । अन्नाणवसेण कहं विदेसभागी अहं विहिओ ? ||४७ || अहवा महोवयारी मह ताओ देसदंसणे जम्हा । गुणपयरिसो महंतो संजाओ जेण भणियं च ॥ ४८ ॥ क विलासाः ? क्व पाण्डित्यं ? क्व बुद्धिः ? क्व विदग्धता ? । क्व देशभाषाविज्ञानं ? क्व देशाचारचारुता ॥ ४६ ॥ यावद् धूर्तसमाकीर्णा नानावृत्तान्तसङ्कुला । नानेकशः परिभ्रान्ता पुरुषेण वसुन्धरा ॥ ५०॥ एवं कवि गुरुण कुलप्पसूयाण गोरवद्वाणं । ता कइया वि हु तेसिं संतोसमहं करिस्सामि ॥ ५१ ॥ एत्थं तरम्मि पच्छिमवयम्मि विप्पस्स वट्टमाणस्स । पाडलिपुत्ते पुत्तो पुणरवि अवशे समुप्पण्णो ॥ ५२ ॥ रायसेन तओ मणयं पिउणा पट्टिचित्तेण । महईए विभूईए वद्धावणयं समादत्तं ॥ ५३ ॥ रायाई पउरजणो पायं पत्तो पुरोहियगिहम्मि । अक्खयपत्तविहत्थो सुयजम्ममहूसवे सन्चो ॥ ५४ ॥ तत्थेव विरमाणा समागया भद्दबाहुणो गुरुणो । नवरं निस्संगत्ता विप्पस्स गिहं न ते पत्ता || ५५ || मच्छरवसेण पुणरवि तमेव खूणं मणम्मि धरिऊणं । लोग ववहारचज्झ त्ति निंदई लोयमज्झमि ||५६ || सूरी ओवओगं काउं तहियं तहाकए कमवि । पासिय गुणं महंतं जाणाचइ सत्तमदिणमि ॥५७॥ एक्काए वाराए पडिबोहत्थं समागमिस्सामो । सोम ! जमम्हे सज्झायवावडा निःश्चमक्खणिया ॥ ५८॥ तम्मि दिने उण सुयमरणसंभवे तुज्झ सोयतत्तस्स | धम्मोवएसनीरेण निव्वुई भद्द ! काहामो || ५९ ॥ तंबणं सोऊणं घयसित्तो पावओ व्व पज्जलिओ । पडियममंगलमिमं तुह चेव य मत्थए पडउ ॥ ६०॥ जड़ पुण जाणसि सेवडय ! किं पिता मरणकारणं कहसु । मज्जारीए पासाओ भद्द ! मरणं तुह सुयस्स ॥ ६१॥ एसो मिच्छावाइ ति होउ निच्छिड्डु - निबिडकट्टेहिं । घडिए कट्टहरम्मि खित्तो पत्तो सजणणीओ ॥ ६२॥ दारम्मि निविडलउड हत्था दो दो पयंडपाहरिया । धाराविया बिरालीरक्खणनिउणेण विप्पेण ॥ ६३ ॥ तो जाव सत्तमदिणे परिचारीए पमायवसगाए । मुक्का भुयग्गला अवणिऊण सेज्जासमीवम्मि ||६४॥ जणणी उच्छंगगयस्स तत्थ थिमियं थणं पियंतस्स । पडिया मम्मपए से सुयस्स भवियव्वयावसओ ||६५॥ मम्मप्पहारविवसो पत्तो सो तक्खणेण पंचत्तं । नाऊण निरुच्छासं धस त्ति धरणिं गया जणणी ॥ ६६॥ मुट्टा मुट्टत्ति हया हयत्ति धाहावियं सदुक्खाए । किं किं एयं ? ति पयंपिरेण रुन्नं दिएण चिरं ॥ ६७॥ हा हा हयविहि ! पच्छिमवयम्मि दाऊण पुत्तरयणनिहिं । पुन्नरहियस्स निद्दय ! नित्तुद्धारो कओ मज्झ ||६८|| याई परणो जाओ सुयसंभवम्मि जह सुहिओ । तह तम्मरणम्मि दुही धिरत्थु संसारियमुहम् ||६९ || किं बहुणा मोहनराहिवस्स आणाए सोयच रडेण । जह कहिउ पि न तीरइ तह तत्थ चियंभियं बहुहा || ७० || गुरुणो वि तत्थ सिरिभद्दबाहुणो मुणियसमयसारत्था | संपत्ता रायाईहिं पूइया सुहनिसन्नाय ॥७१॥ संभासिओ य भी भद्द ! भवसरूवं वियाणमाणो वि । खणभंगुरम्मि लोए कीस मुहा सोयसि सुयं नं ? ॥७२॥ होहिंति केइ विहति केइ कालेण केइ वोलीणा । हे हियय ! केत्तियाणं सयणाण कए विसूरिहसि ? || ७३ ॥ १. पहुणो रं० । For Private Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ ३७. देवनिवारणाऽशक्यताधिकारे द्विजसुताख्यान कम् अवरं च पिइ-माइ-पमुहसयणत्तणण जीवा अणंतवाराओ । सब्वे वि य संजाया जीवस्स उ एगमेगम्स |७४॥ इय भयवइवयणहिं सवणामयरसपवाहमहुरेहिं । भवियायणदइएहिं सोयसमुच्छेयछेएहिं ||७|| आसंघयवसएणं सहायरेणं दहें समणुसट्टे । सो तारिसो वि दुट्टो धम्माभिमुहो दिओ जाओ ॥६॥ भणियं च आगमलंभे वयपरिणईए भंगे य धण-विलासाणं । ईसिअसमंजसाण वि हिययाइं वहंति परिणामं ॥७॥ भणियं च तेण भयवं ! तुह वयणं मरणनिच्छयकरं जं । तं परिभाविजंतं सच्चमसच्चं च पडिहाइ ।।७८॥ गुरुणा भणियं कहमिव ? तेणुत्तं सत्तमम्मि दिवसम्मि । जायं सुयस्स मरणं न उण बिरालीसयासाओ |७|| जइ एवं तो कत्तो ? सो आह भुयम्गलापहाराओ। सा केरिस ? ति गहिऊण जोइयं जाव तीए मुहं ॥८॥ ताववणा पडिबिंब दिट्ट निक्कुट्टियं बिरालीए । दंसिजइ जस्स तओ जंपइ एसा बिरालि त्ति ॥८॥ मिच्छत्तावगमाओ तप्पभिई जिणमयप्पसिद्धाणं । नामाईवत्थूणं विप्पमण पच्चओ जाओ ॥२॥ तयणु मणागमसोओ जाओ एसो गुरूवएसाओ । दुण्ह वि सुयाण मरणं हिययम्मि खुडुक्कए नवरं ॥८३।। एत्थंतरम्मि देसंतराओ सो पुव्ववन्निओ पुत्तो । महईए विभूईए समागओ बाहिरुज्जाणे ॥४॥ जाणावियं च नयरे जहित्थ जोइस-निमित्तसत्थविऊ । अवितहवयणो चिट्टइ राया तहयं पयंसेह ||५|| पयईए सोममुत्ती उज्जलनेवच्छभूसियसरीरो। पडिपुन्नसयलविन्नाणभावओ थिमियजलहि व्व ॥८६॥ पत्तो रायदुवारे पडिहारनिवेइओ अणुन्नाओ । रन्नो सहं पविट्ठो कयपडिवत्ती समुवविट्टो ॥८७|| रन्ना पुढे किं भद्द ! अज नियमेण दिवसमज्झम्मि । होही ? तेण वि भणियं मज्झन्हे बाहिरुजाण ॥८८॥ पडिही मच्छो पणयालपलपमाणो विणिच्छिओ एस । अवलोइयं च तत्तो रन्ना वि वराहमिहिरमुहं ॥८९॥ जंपियमिमिणा पडिही नवरं पन्नासपलपमाणो सो । जइ एयमन्नहा तो निययपइना मह पमाणं ॥९॥ कोउयवसेण नयराओ निग्गओ नरवई सपरिवारो । नंदणवणाभिहाणे संपत्तो बाहिरुज्जाणे ॥११॥ मंडलमालिहिय तओ विप्पो सिंहासणे समासीणो । इयरेणं भणियमिमो मंडलयाओ बहिं पडिही ॥१२॥ उत्ताणतरलनयणो जाव निरायं नियइ नयरलोओ। ताव सुयभणियठाणे झडत्ति पडिओ नहाओ झसो ॥९॥ तत्तो वारंतस्स वि नरनाहसमन्नियस्स पउरस्स । अट्टवसट्टो भट्टो झत्ति पयट्टो चियाभिमुहं ॥१४॥ किंकायव्वविमूढं चियापवेसुज्जमं निसेहतं । मरणम्मि निच्छियमई पत्थिवमिणमो भणइ भट्टो ॥१५॥ मुयसोयग्गिपलित्तं विहलपइन्नं परेण परिभूयं । निववउ देव ! दहणो जरजजरियं मह सरीरं ॥१६॥ एत्थंतरम्मि हा ताय ! ताय ! मा साहसं ति भणमाणो । मन्नुभरागयनयणंसुवारिसंसित्तधरणियलो ॥९॥ एसो हं तुह सन्तावकारओ ताय ! सरसु पढमयुओ । नियतायपायपंकेरुहेमु पडिउं तह परुन्नो ॥९८॥ किं किं किमेयमेयं ? ति जंपिरो मन्नुपसरखलियसरो। जह नयरजणो हाहारवेण रोयाविओ सव्वो ॥९॥ ताय ! नहमच्छपडणं सामन्नेणं वियाणियं तुमए । नवरं न वाउधुणणं तस्सोसणयं चऽणाभोगा ॥१०॥ अन्नं च मए तुह निज्जियम्स किल केवल च्चिय सलाहा । भुवणंतरम्मि वुच्चइ पयडमिमं सत्थयारेहिं ॥१०१।। चाएण दरिदत्तं घाएहि य काण-कुंट-मंटत्तं । पुत्तेहि परिभवं जे गुणेहिं पावंति ते धन्ना ॥१०॥ पच्चज्जीवियगुणवंतपुत्तलाभम्मि जं मुहं जायं । हारवियरयणलाभि व्व तीरए तं न कहिउंजे ॥१०३।। उक्तं च चिरविरहियपियजणसंगमम्मि जायइ जणस्स जं सोक्खं । तं कहिउं पिन तीरइ संकासं निरुवममुहम्स ॥१०४|| पडपडह-संख-काहलरवेण रन्ना गइंदमारूढो । तग्गुणवंदणमुहयं पवेसिओ जणयभवणम्मि ।।१०।। एत्थ य लहपुत्तो च्चिय दिट्टतो पत्थुयत्थविसयम्मि । जेट्टसुयचरियकहणं पसंगओ चेव नायव्वं ॥१०६।। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आख्यानकमणिकोशे पवणखुहियनीरं नीरनाहं धरंति, झरियमयपवाहं वारणं वारयति । खरनखरकरालं केसरिं दारयंति, न उण बलजुया वी दिव्वमेतं जयंति ॥१०७॥ ॥ द्विजसुतकथानकं समाप्तम् ॥१०८॥ इदानीं कुक्कुटाख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् अस्ति शालीनसल्लोकलोचनानन्ददायकः । गोधूम-यव-शाल्यादिसस्यशालीनसज्जनः ॥१॥ पुष्टगोवृन्दसम्मर्दशब्दितश्रुतिसौख्यकृत् । गोप-गोपीसमारब्धरासकश्रुतिसुन्दरः ॥२॥ दुर्भिक्ष-मारि-दौगत्य-परोपद्रववर्जितः । शालिग्रामाभिधः श्रीमान् सन्निवेशो जनाकुलः ||३|| तत्रानेकगुणाधारैरुत्तमा-ऽधम-मध्यमैः । मानवनिर्मितावासैः सर्वदा सुस्थिते सति ॥४॥ विजातीयविशेषस्य सम्बन्धी कस्यचिद वरः । विद्यते व्यक्तावयचो विहङ्गः कुक्कुटायः ।।५।। बह्वपत्य-सपत्नीक-स्वबन्धुस्नेहसङ्गतः । भक्ष्यार्थ विकिरन्नुच्चैश्चञ्चू-चरणकोटिभिः ॥६॥ गोमयावकरं हर्षादशुच्यादिसमन्वितम् । विरूपं यदि वा किं नो कुर्यात् प्राणी वुभुक्षितः ? ॥७॥ तस्मिन् यल्लभते किञ्चित् कण-कीटादिकं तकत् । यच्छत्यतुच्छधीः प्रायः स्वबन्धुभ्यो महाशयः ॥८॥ उक्तं च शीर्ष शेखरकः कुक्कुटस्य युक्तः कृतः प्रजापतिना । निजबन्धुवण्टनोद्वरितमश्नतः सत्यसन्धस्य ॥९॥ एवं निवृतचित्तस्य कुटुम्बकृतसन्निधेः । पुण्यक्षयेण यत् तस्य सञ्जातं तन्निशम्यताम् ॥१०॥ महीयान् महिषारूढो दण्डपाणिः परन्तपः । कालकायः क्रियाको रक्तनेत्रोऽतिभीषणः ॥११॥ स्वच्छन्दः सर्ववैरी च जगदुद्वेजको यमः । भ्राम्यन् कुतोऽपि पापीयांस्तं प्रदेशमुपाययौ ॥१२॥ यत्राऽऽस्ते स सुखी पक्षी बन्धुवर्गसमन्वितः । दुष्टेन पाप्मना तेन क्रूरदृष्ट्याऽवलोकितः ॥१३॥ ततो हा ! मन्दभाग्योऽहं मृतोऽहमधुनाऽमुना । निर्यातः क्रूरचित्तेन कथं जीवाम्यपुण्यकः ? ॥१४॥ क्क प्रयामि ? क तिष्ठामि ? व शयामि ? स्मरामि कम् ? । अरत्या स्वीकृतः स्वास्थ्यं नाऽऽससाद कथञ्चन ॥१५॥ एवं सम्भ्रान्तचित्तस्य सम्यक चिन्तयतश्चिरं । भयोद्विग्नमनोवृत्तेः कथञ्चिच्चेतसि स्थितम् ॥१६॥ विधुरैः स्मर्यते बन्धुरस्माकं विहगोत्तमः । वैनतेयो वरो बन्धुरतो यामि तदन्तिकम् ॥१७॥ अफलस्यापि वृक्षस्य छाया भवति शीतला । निगुणोऽपि वरं बन्धुर्यः परः पर एव सः ॥१८॥ सञ्चिन्त्यैवं स्मरन् भर्तुत्राणार्थ मृत्युसम्भ्रमात् । जगाम जगतो वयं वेगाद् बैडोजसं सदः ॥१९॥ तच्च कीदृशम् ? क्वचिन्नीलमहानीलभास्वरे कुट्टिमे सुरः । व्रजस्तिष्ठन् जलाशङ्की सहासं विप्रतार्यते ॥२०॥ दृष्ट्वा स्फाटिकनिष्पङ्कभित्ति सङ्क्रान्तमेकतः । स्वमन्यस्त्रीकृताशङ्का भ; कान्तोपहस्यते ॥२१॥ अतीतप्राप्तनिर्वाणजिनदंष्ट्रासमन्वितम् । देवैर्माणवकस्तम्भं पूज्यमानं व्यलोकयत् ।।२२।। क्वचिच्चाभिनवोत्पन्नं सुरं स्वीयैः सुरादिभिः । जीव नन्द जयेत्येवं श्लाध्यमानं निरीक्षते ॥२३॥ अनादिनिधनं सिद्धप्रतिमाष्टोत्तरं शतम् । सिद्धायतनमध्यस्थं स्तूयमानं समीक्षते ॥२४॥ क्वचित् पुप्प-फलापतैर्मन्दारादिमहीरुहैः । मनाहरं वनं हृष्टी निशामयति नन्दनम् ॥२५॥ क्वचित् सद्रलसोपानां स्वच्छपानीयपूरिताम् । मज्जनार्थ महावापी विह्वलोऽपि विलोकते ॥२६॥ अहो ! आपदियं सम्पद् व्यसनं च महोत्सवः । यन्मयैतच्छुभं दृष्टं सौरंधामेत्यचिन्तयत् ॥२७॥ किच्च रलरोचिष्णुसन्मौलिभ्राजिष्णुं सिंहविष्टरम् । अलङ्करिप्णुं सौराज्याजिष्णुं सर्वं जगत्त्रयम् ॥२८॥ १. निरीक्षते । २. सुराणां सम्बन्धि धाम-निवासः, स्वर्ग इत्यर्थः । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ ३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारे कुक्कुटास्यानकम् प्रशस्तकामिनीहस्तधूयमानकीर्णकम् । अनिन्द्यबन्दिसवृन्दगीयमानगुणोत्करम् ॥२९॥ अखर्वगर्वगीर्वाणभटकोटिसमन्वितम् । पारद्धय भाग्यसौभाग्यमहर्द्धिद्युतिविक्रमम् ॥३०॥ विरत्न रपि विख्यातैर्नवभेदैः समाश्रितैः । शक्रं सत्यापयामास त्रिदशैरुपसेवितम् ॥३१॥ तथा हि माता-पितृवत् सम्मान्या गौरव्या गुरुवद् गुणैः । इन्द्रसामानिका देवाः स्वःपतिं पर्युपासते ॥३२॥ त्रायस्त्रिंशास्त्रयस्त्रिंशत्प्रमाणा मन्त्रिवन्मताः । शान्तिकर्मणि साधिष्ठा महिष्ठाश्च महन्ति तम् ।।३३|| नर्मकर्मणि विद्वांसः प्रवीणाः प्रेमभाजनम् । मित्रकल्पाः कलाभिज्ञाः पारिषद्याः स्तुवन्ति तम् ॥३४॥ सन्नद्धबद्धवर्माणः समुद्गीर्णस्वहेतयः । आत्मरक्षाः क्षमासारा नमन्ति धुसदां पतिम् ॥३४॥ आरक्षिकभटप्रायाः सन्धि-विग्रहकारिणः । नमन्ति नम्रमूर्धानो लोकपाला बलद्विषम् ॥३६॥ सप्तप्रकारसैन्यस्य नायका नयशालिनः । विक्षेपप्रभवोऽनीका नमस्कुर्वन्ति वासवम् ॥३७॥ प्रकीर्णकवणिक्प्रख्या अनायत्ता प्रभोरपि । सेवायै स्वर्गनाथस्य प्रयतन्ते प्रकीर्णकाः ॥३८॥ लोककर्मकरप्रायाः सदाऽऽदेश विधायिनः । आभियोग्याः प्रभोर्नोग्या भजन्ते तमृभुप्रभुम् ॥३९॥ कुकर्मकरणव्यग्राः कुकर्मफलभोजिनः । नमस्कुर्वन्ति दूरस्थाः शक्र किल्बिषिकाः सुराः ॥४०॥ तस्यैवं कौतुकाक्षिप्तचेतसः स्मृतिमागतम् । यमावलोकितं तादृक् ततोऽसौ भयविह्वलः ॥४१॥ गौरव्यं देवराजस्य स्फूर्जत्प्राज्यपराक्रमम् । पक्षिराजं जितारातिं स्वत्राणार्थमशिथियत् ॥४२॥ प्रणम्य वैनतेयाय ब्रूते प्रीतिपुरस्सरम् । ताताहं भवतोऽपत्यं मृत्योस्त्रस्तः समाश्रितः ॥४३॥ अद्याहं सुस्थितो यावत् तिष्ठामि सकुटुम्बकः ।तावद् विलोकितोऽनेन कुतश्चित् क्रूरकर्मणा ॥४॥ आपन्नः स्मर्यते त्राता त्वं मे त्राता पिता प्रभुः । पाहि माममुतः पापाद बिभ्यन्तं भीमकर्मणः ।।४५॥ इत्युक्त्वा विरते तस्मिन् समचिन्ति गरुत्मता । यमेन विहितोऽस्माकं पश्य कीदृक् पराभवः ? ॥४६॥ मा भैषीः पुत्रकेत्येवं तमाश्चास्य विहङ्गमम् । तेनैव सह सम्भ्रान्तः शक्रान्तिकमगादसौ ॥४७॥ दर्शयित्वा तकं तस्मै सानुक्रोशतया पुरः । वज्रिणे विहगाधीशो मनाग् रुष्टो व्यजिज्ञपत् ॥४८॥ स्वामिन् ! निरागसं सौम्यं मत्सेवकमपापकम् । पराभवति ते पत्तिरस्माकं प्रियपुत्रकम् ॥४९॥ किमस्य युज्यते कतु दुर्बले बलशालिनः । उपेक्षणं यदेतस्य भवतो वा विवेकिनः ? ॥५०॥ स्वच्छन्दं सञ्चरत्येष कुरङ्गेष्विव केशरी । भ्राम्यत्यनर्गलो भञ्जन् द्रुमेष्विव प्रभञ्जनः ॥५१॥ तदयं निर्दयो भ्राम्यन्ननार्यो वार्यतां यमः । नो चेञ्चञ्च्वाऽहमेतस्य त्रोटयिष्यामि मस्तकम् ॥५२॥ स्थिरत्वादभ्यधादिन्द्रो भद्रैवं मा वृथा रुषः । दुर्जयोऽयं जगन्मल्लो यमश्चारभटो भटः ॥५३|| न चैनमीदृशैर्वाक्यैः कश्चिच्छिक्षयितुं क्षमः । शिक्षयिष्येऽहमेवातः साम-दण्डप्रयोगतः ॥५४॥ आकार्य भणितः साम्ना मुश्चाऽमुं तुच्छपक्षिणम् । न कषत्यसभित्तिं स्वामल्पस्कन्धे द्रुमे गजः ॥५५॥ सामतो भणिताऽप्येवं तुच्छः सावज्ञमीक्षते । सर्पिः प्रदीयते तप्तं सिक्तं शीताम्भसाऽथवा ॥५६।। आः पापीयंस्तवानेनापराद्धं किं तपस्विना ? | निस्त्रिंश ! यन्नयस्येनं पक्षिणं क्षीणविग्रहम् ।।५७॥ साकं स्वाभिनिवेशन मुच्यतां मा वधीरमुम् । हटेनापि भवत्यादि रक्षणीयो मया यतः ॥५८॥ भद्रैवं क्रियतां मत्तो भद्रं नापरथा तव । तावच्चक्रीवतः कर्णी यावद भोः ! स्वामिनो मतो ॥५९॥ अभिप्रायममुं ज्ञात्वा नायकस्य दिवौकसाम् । याथातथ्याद् यमो वाक्यं व्याजहार जगज्जयम् ॥६०॥ आराध्यस्त्वं मम स्वामी तबाहं पत्तिरन्वहम् । त्वया साध मम स्पर्धा कीदृशीति विभाव्यताम् ॥६॥ १. चामरम् । २. विरत्नानि-दिव्यरत्नानि । तानि चेमानि-"रत्नं गारुत्मतं पुष्परागो माणिक्यमेव च । इन्द्रनीलश्च गोमेदः तथा वैडूर्यमेव च ॥१॥ मौक्तिकं विद्रुमश्चेति रत्नान्युक्तानि वै नव ।” ३. गर्दभस्य । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आख्यानकमणिकोशे परमादित्सितं वस्तु यन्मया भुवनत्रये । तं न त्रातमलं कोऽपि किं नाश्रावि सभापितम ? ॥२॥ न ब्रह्मा नेन्दुमौलि: शशधर-तपनी नापि नारायणोऽसौ, नाप्यष्टौ लोकपालाः सह सुरपतिना नापि बुद्धो न चाहन् । आकृष्टं कालपाशैजनमनुदिवसं नीयमानं वराक, व्याघ्राघ्रातं वनान्तात् पशुमिव विवशं त्रातुमेते न शक्ताः ॥६३॥ कोडीकृतो मयाऽप्येप आयुपः सङ्क्षये सति । निःसन्देहं ततो मत्तो मर्त्तव्यममुनाऽधुना ॥६॥ एतच्छ त्वा विशेषेण कम्पमानं पुरःस्थितम् । दृष्ट्वा त्रातुमशक्तस्तं शक्रोऽभूद विह्वलः क्षणम् ॥६५॥ तथा हि विज्ञापनाप्रवृत्तं तं गरुडं स्निग्धया दृशा । पश्यन्तं जातसंशीत्या विवक्षन्तं च वासवम् ॥६६॥ सुरान् सामानिकादींश्च त्राणार्थ दीनया मुहुः । तर्जयन्तं मुहुस्त्रस्ततारया यममेकया ।।६७|| क्रियाहीनं कृपापात्रं कृतान्तवशवर्तिनम् । सतां शोच्यं सुदीनास्यं दुस्थितं गद्गदस्वरम् ॥६८॥ तदवस्थं समालोक्य दयैकरसिकः सुरः । शक्रसंसदि नास्त्येव यो नाभूत् साश्रुलोचनः ॥६९|| दुःखितेषु सुरेप्वेवं परमेको यमः मुखी । दुःखापन्नेऽथवा साधावसाधुः सुखमश्नुते ॥७॥ हा हा ! धिग ! धिग ! वराकोऽयमस्माकं शरणागतः । न त्रातुं शकितोऽस्माभिर्महानेष पराभवः ॥७१।। विषण्णमानसा एवं गीर्वाणा यावदासते । विवेकात् सत्त्वमालम्व्य तावदुक्तं बिडीजसा ॥७२॥ अहो देवाः ! पराभूय वक्रवाक्यममुं यमम् । जीवितव्यं प्रयच्छामः कथञ्चित् कृकवाकवे ||७३॥ अयं हि स्वीकृतोऽनेन दौबल्ये पुण्यकर्मणः । तच्च साध्यमसाध्यं वा द्वेधा कर्म विनिश्चितम् ||७४॥ साध्यं सोपक्रमं प्रोक्तमसाध्यं निरुपक्रमम् । यत्नसाध्ये तदेतस्मिन् पौरुषं युज्यते सताम् ॥७॥ एतच्छ त्वा सुराः प्राहुयुक्तियुक्तं वचः प्रभोः !। विधास्यामस्तदेतस्मिन् वयमद्यापि पौरुषम् ॥७६।। एतावतां किमस्माकं करिप्यत्येष दुष्टधीः ? । साध्ये सिद्धिन चेदित्थं कोऽपराधो विवेकिनाम् ? ॥७॥ सम्यक सङ्गोपयिप्यामः कथञ्चित् तत्र कुत्रचित् । गुप्तस्थाने यथाऽमुप्य न जानाति पिताऽप्यमुम ||७|| उक्त्वैवं तं करे कृत्वा चेलुः स्वर्गाचलं प्रति । विलम्वेन विना प्रापुर्मेरीः शृङ्गं मनोहरम ॥७॥ गुहामध्येऽथ चूडायाः सम्यक संस्थाप्य कुक्कुटम् । निविरीसं शिला दत्ता द्वारे तस्य महीयसी ॥८॥ इत्थं यत्नवतां प्रायः संसिद्धं नः समीहितम् । सन्तुष्टमानसा एवं सुराः स्वर्गालयं ययुः ।।८१॥ सोऽपि तस्मिन् गुहामध्ये प्रक्षिप्तो भक्षितः क्षणात् । आरण्यकबिडालेन बुभुक्षाक्षामकुक्षिणा ॥२॥ सुप्रसन्नमुखा लेखाः साधितस्वप्रयोजनाः । यथावृत्तं स्ववृत्तान्तं स्वर्नाथाय न्यवेदयन् ॥८३॥ सावज्ञं साभ्यसूयं च सुरांस्तान् वीक्षते यमः । किमेते बत खिद्यन्ते निष्फलारम्भचेष्टिताः ? ॥४॥ किमेतत् ? केनचित् पृष्ट तस्मै सर्व न्यवेदयत् । तदैवासौ गुहामध्ये मुक्तः प्राप्तः परासुताम् ॥८॥ परस्परं सुरैतिं यावच्छऋण तच्छ्र तम् । ततो भूयोऽपि ते देवा निश्चयार्थं नियोजिताः ॥६॥ यावन्निभालयन्त्येते न पश्यन्ति तकं क्वचित् । पश्यन्तः पिच्छकान्येव परस्परमिदं जगुः ॥८७।। अन्यथा चिन्तितेऽप्यर्थे सम्पन्नं फलमन्यथा । रक्षणे चिन्तितेऽप्यस्य भक्षणे विधिरुद्यमी ॥८८|| यथाऽमुप्य तथाऽन्यस्य यदेवं कर्मणां गतिः । विषादो नोचितः कर्तुमुक्तमत्रापि केनचित् ॥९॥ चिन्तयति कार्यजातं मतिमान् मतमन्यथाविधानेन । निर्दुःखसुखस्तु विधिस्तच्चिन्तितमन्यथा कुरुते ॥९०॥ अहो ! पौरुषमप्यस्मत्प्रयुक्तं तद् वृथाऽभवत् । वृथैवैतद् विधौ वक्रे यतोऽवाचि विपश्चिता ॥११॥ छित्त्वा पाशमपास्य कूटरचनां भित्त्वा बलाद वागुरां । पर्यन्तोनशिखाकलापजटिलान्निर्गत्य दावानलात् । व्याधानां शरगोचरादपसृतो वेगेन धावन् मृगः । कूपान्तः पतितः करोतु विमुखे किं वा विधौ पौरुषम् ? ॥१२॥ यथावृत्तं समागत्य वृत्तान्तं नमुचिद्विपे । अधःपातितरूक्षाक्षा विलक्षा आचचक्षिरे ॥१३॥ १. कुक्कुटाय । २. दृदं यथा स्यात् तथा इत्यर्थः । ३. इन्द्राय । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. देवनिवारणाऽशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् तच्छुत्वा जातसंवेगः 'स्वाराट् सञ्जातविस्मयम् । संसारासारतां जानन् निजगाद सुधाभुजः ॥१४॥ अहो सुराः ? कृतो यलो मद्वचनमनुष्ठितम् । दैवायत्तेपु कार्येषु वाच्यता काऽनुजीविनाम् ? ॥१५॥ एवं संस्थाप्य तान् सर्वान् सन्मार्गप्रतिपत्तये । सद्धर्मसङ्गतं वाक्यं प्रस्तावोचितमब्रवीत् ॥१६॥ भो भो देवाः ! यथाऽमुप्य प्राणितं पक्षिणोऽस्थिरम् । सर्वप्राणभृतामेवं जानन्तः सुस्थिताः कथम् ? ॥९॥ तथाहि स्वबन्धन पालयिप्यामि जीवियामि चिरं स्वयम् । मरिप्यामीति नो चिन्ता ताम्रचूडम्य चेतसि ॥२८॥ मुग्धवुद्धिस्तथाऽन्योऽपि जीवो विषयलम्पटः । न ब्रह्मणो विजानाति विजम्भितमवाचि च ।।९९।। कृतमिदमिदं करिष्ये केवलमतिसरल ! किमिति चिन्तयसि? तुटिदलितसकलवाञ्छं विलसितमपि चिन्तय विधातुः॥१०॥ दुःखरूपं यतः सवे हेतुश्च भवसंसृतेः । अतः सर्वविदाऽऽख्यातं कुरुध्वं धर्ममञ्जसा ॥१०॥ त्रायध्वं प्राणिसङ्घातं सेवध्वं साधुसंहतिम् । ददध्वं सन्मतौ चित्तं यतध्वं शासनोन्नती ॥१०२॥ सम्यग्दर्शननैर्मल्ये भावनायां भवच्छिदि । गुणवद्वरिवस्यायां सम्पद्यत्वं सदोद्यताः ॥१०३॥ एतच्छत्वा मुरेन्द्रोक्तं वैराग्यगतमानसा । सभा सर्वाऽपि देवानां जाता भवपराङ्मुखी ॥१०४॥ प्रशमकुलिनिकेतः कौतुकाधायि केषाश्चिदभिनवविभङ्गथा भव्यवैराग्यबीजम् । जिनवचनरतानामङ्ग ! संवेगहेतुः, कथितमिदमपूर्व लौकिकाख्यानकं वः ।।१०५॥ ॥ कुक्कुटाख्यानकं समाप्तम् ॥१०६॥ इदानी यादवाख्यानकं व्याख्यायते । तच्चेदम् सुकविविणिग्गयवाणि व्व घडणसंगयसुवन्नपायारा । केलासमहीहरचूलिय व्व विलसंतधवलहरा ॥१॥ मेरुमहि व्व सुकणया मुरवसुरयणा धणा सुरपुरि व्व । जुवइ व्व दीहरच्छा नयरी नामेण बारवई ॥२॥ पज्जुन्नपयडजणओ दुहा वि बलभद्दबंधवाणुगओ । सच्चाहिट्टियदेहो दुहा वि ससुदंसणो सुहओ ॥३॥ चक्कि व्व सुसंखनिही सुधम्मचको जिणाण नाहो व्व । विझो व्व गयाहारो तं पालइ वासुदेवनिवो ॥४॥ तम्स सुइसच्चभामापमोक्खमंतेउरं मणभिरामं । सारयसरं व सोहइ सहसलक्खणवयावरियं ॥५॥ तथा हि लायन्नसलिललहरीमणुन्नमारत्तचलणनलिपिल्लं । सुकुमार-सिलावित्थयनियंबसुहपुलिणरेहिल्लं ॥६॥ नाहिगहीरावत्तं चंचलतिवलीतरंगभंगिल्लं । घण-संगय-जुयलट्ठियथणकलसरहंगरमणीयं ॥७॥ कोमलकरजुयभुयलयमुणाल-रत्तुप्पलाभिरामतरं । रेहिररेहातिगकलियकंठवरकंबुकमणीयं ॥८॥ वियसियवयणसरोरुहनिलीणनयणाभिरामभमरभरं । भालयलसिप्पिसंपुडमलिसामलवालसेवालं ॥९॥ सेणं समुद्दविजयप्पामोक्खाणं दसद्दसाराणं । बलभद्दप्पमुहाणं पंचन्ह महंतवीराणं ॥१०॥ पज्जुन्नप्पमुहाणं अधुट्टाणं कुमारकोडीणं । संबप्पामोक्खाणं सट्टीदुइंतसहसाणं ॥११॥ तह उम्गसेणपमुहाण सोलसन्हं तु रायसहसाणं । महसेणपमोक्खाणं इगवीसं वीरसहसाणं ।।१२।। रुप्पिणिपामोक्खाणं बत्तीसं महिलियासहस्साणं । गणियाणऽणंगसेणापमुहाणऽद्वारसहसाणं ॥१३॥ अन्नेसिं राईसर-तलवर-माइंबियप्पमोक्खाणं । बारवईनयरीए भरहद्धस्स य समग्गस्स ॥१४॥ आणाईसरियत्तं सेणावच्चं पुरोगमत्तं च । कारेमाणे पालेमाणे एवं च णं विहरे ॥१५॥ अह अन्नया नरिंदो सुंदेरं नियपुरीए पेच्छंतो । परिभमइ पहिट्टमणो समंतओ गयवरारूढो ॥१६॥ पेच्छइ य रायमग्गं ताव विदेहाओ हट्टपंतीओ । नाणापयारविक्कियमाणप्पडिपुन्नपन्नाओ ॥१७॥ कत्थ वि य धन्नपुन्नाओ नियइ धम्मियजणावलीओ व्व । ससिणेहाओ अन्नत्थ नियइ मुयणावलीओ व ॥१८॥ १. इन्द्रः । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आख्यानकमणिकोशे बहुबसणं निप्पुन्नं व दोसियावणसमूहमन्नत्थ । विलसिरनेत्तं रामायणं व्व पेच्छइ पुहइपालो ॥१९॥ परमपयं पउरजणं च धम्मसत्थं व सोहणाहरणं । उभडवेसं गणियागिहं व्व अन्नत्थ नियइ निवो ॥२०॥ विज्जुपहाओ सुपओहराओ लायन्नरससणाहाओ । पेच्छइ पाउसलच्छीए सच्छहाओ मयच्छीओ ॥२१॥ जायवजणं च पमुइयपालियं पुज्जमाणमणवंछं । अमुणियपरचक्कभयं सुहियं सग्गे सुरयणं व्व ॥२२॥ अन्नं पि भवण-देउल-परिहा-पायार-पव-सभाईयं । सुरसन्नेझं सुरनिम्मियं च अञ्चन्भुयभूयं ॥२३॥ अप्पाणयं च पसरियपयंडवलसाहणं समग्गबलं । अखलियपयावपसरं वसीकयासेसरिघुवग्गं ॥२४॥ नियनयरसिरिं संचितिऊण हिययम्मि किमवि परितुट्टो । अजरामरो व्व कण्हो गयं पि कालं न याणाइ ॥२५॥ 'जओ विसयामिसगिद्धमणा सयणविमूढा परिग्गहासत्ता। न मुणंति जिया एन्तं पि विसमविहिविलसियमकंडे ॥२६॥ आह च एषा स्थली नवतृणाङ्करजालमेतदेषा मृगीति हृदि जातमदः कुरङ्गः । एतन्न वेत्ति स यथाऽन्तरितो लताभिरायाति सज्जितकठोरशरः किरातः ॥२७॥ एत्थंतरम्मि गामाणुगामदूइज्जमाणमुणिवग्गो। आयासगएण सयप्पभावओ धम्मचक्केणं ॥२८॥ आयासगएण य पव्वदिवसपडिपुन्नचंदधवलेणं । छत्तेण छन्नरवियरनियरेण महापभावेण ||२९|| आयासगयाहिं तुसार-हार-हरहास-कासधवलाहिं । सेयवरचामराहिं मणि-रयणविचित्तदंडाहिं ॥३०॥ आयासगएण महग्घहेम-माणिक्क-रयणघडिएणं । सिंहासणेण महया सपायपीढेण पवरेणं ॥३१॥ सुयणेण व किमवि समुन्नएण पुरओ पणिज्जमाणेण । धम्मज्झएण एसो धम्मनिही इय भणतेणं ॥३२॥ विप्फुरियपहावलओ, विलसन्तपओ घणंजणच्छाओ । अहिणवधणसरिसो वि हु भयवं भासंतनवकमलो ॥३३॥ मणि-रयण-हेमनिम्मियरमणीयाभरणभामुरतणूहिं । नियदेहपहापसरियकिरिणावलिरंजियदिसाहिं ॥३४॥ पणवन्नरुइरमणिमयविमाणमालानिरुद्धगयणाहिं । परिवारिओं समंता णेगाहिं देवकोडीहिं ॥३५॥ वरदत्तपमोक्खाणं अट्ठारसहिं समं सहस्सेहिं । समणाणं अट्टारससीलंगसहस्सकलियाणं ॥३६॥ जक्खिणिपामोक्खाणं चत्ताए अज्जियासहस्साणं । समियाणं गुत्ताणं सद्धि संपरिखुडो निच्चं ॥३७|| जेणेव य बारवई नयरी जेणेव रेवयगिरिंदो । जेणेव य रेवयगं उज्जाणं तेण संपत्तो ॥३८॥ सिद्धंतभणियविहिणा सक्काइसुरा-ऽसुराण निवहेहिं । रइयम्मि समोसरणे असमोसरणे नमंताणं ॥३॥ कयकिच्चो वि जिणिंदो कयतिन्निपयाहिणो पणयतित्थो । धम्मंगं विणयं चिय कयन्नुभावं च भणमाणो ॥४॥ मणि-रयणविणिम्मविए महरिहसिंहासणे समुवविट्ठो। सुरसेलसिहरसंसियनवघणलील विडंबंतो ॥४१॥ तं पासिऊणमुजाणपालओ बहलपुलइयसरीरो। उत्तालगमणरसिओ वद्धावइ वासुदेवनिवं ॥४२॥ देवाणुपिया ईहंति दंसणं जस्स अज्ज सो भयवं । सुर-असुर-रायमहिओ समोसढो रेवगुज्जाणे ॥४३॥ सोऊण वयणमेसो वियरावइ पारिओसियमिमस्स । अद्धत्तेरसकोडीओ पयडवन्नस्स रुप्पस्स ॥४४॥ कोमोइयभेरीदाणपुव्वमाइसइ सव्वनयरीए । जह नेमिवंदणत्थं निजाइ जणणो राया ॥४५॥ तो सम्वो परजणो सव्वालंकारभृसियसरीरो। तित्थयरवंदणत्थं निजाउ महाविभूईए ॥४६॥ हाओ कयबलिकम्मो सयमवि सच्चवियफारसिंगारो । हार-ऽवहार-मउडाइसुंदराभरणरुदरतणू ।।४७|| गलियमयगंडपरिभमिरभमरझंकारजणियसवणहो । आरुढो गयपरिवारकलियकरिरायखंधम्मि ॥४८|| पासगयसमुद्दसमुद्दविजयपामोक्खपणइनिवहेहिं । गुडगडियमत्तमयगलखंधारूढेहिं परियरिओ॥४९।। पवररयतुरयखरखुरखोणीरयनियरपिहियदिसियको। रयचलियतुरयरहवरगभीररवबहिरियदियंतो ॥५०॥ उदंडपहरणुव्भडपयंडभुयदंडपक्पाइको । पुरओपयनंगलिय-वयणमंगलियमुहलनरो ॥५१॥ Jain Education Interational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. देवनिवारणाऽशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् ३१३ बहुमाणपहरिमुभिजमाणरोमंचकंचुइयगत्तो । तित्थयरवंदणत्थं विणिग्गओ वासुदेवनिवो ॥५२।। मन्नंतो अप्पाणं सकयत्थं सुद्धपरिणइवसेण | सच्चवियजिणेसरपाडिहेरपसरंतपरिओसो ॥५३॥ ओयरिय करिवराओ परिहरियपसिद्धपंचनिवककुहो । अच्चंतमेगसाडयपसंगकय उत्तरासंगो ॥५४॥ पंचविहाभिगमपुरम्सरं च काउं पयाहिणाण तिगं । कयपंचंगपणामो एवं थोउं समाढत्तो ॥५५॥ जय जय नेमिजिणेसर ! नमिरामरनिवहनमियपयकमल ! । तुह चेव य चंदुजलचरियमहं वन्नइस्सामि ॥५६।। तुह पहु ! गुणमणिरोहण! को सका वन्नि सुहं चरियं?। तह वि य किंपिह भयवं ! भणामि भत्तीए भवभीओ॥५७।। अवराइयाओ चविओ कत्तियकिण्हाए बारसीए तुमं । सिवएवीकुच्छोए समुद्दविजयरस भवणम्मि ||५८|| सोरियपुरम्मि जाओ सावणसियपंचमीए चित्ताहिं । निव्वत्तियजम्ममहो सुमेरुसिहरम्मि सुरवइणा ॥५९।। गंतुं तुमए मझं आउहसालाए सुबलकलिएणं । आऊरिओ जिणेसर ! संखो संखुहियभुवणयलो ॥६०॥ कुवियप्पविउडणत्थं जिण ! मह नियबलपयासणत्थं च । अंदोलिओ तए पहु ! भुयालयाए हरि व्य अहं ॥६१।। सिरिखंडबहलकुंकुमरसरंजियनीरपुन्नवावीए । कणयविणिम्मिय सिंगी मुहमुक्कजलच्छडापयडं ॥१२॥ मज्झ वहूहिं समेओ कुणमाणो मजणं जहिच्छाए । सोहग्ग-रूव-गुणनिहि ! ते धन्ना जेहिं दिट्टी सि ॥६३॥ जं सामि ! सच्चभामाइ वयणओ मन्नियं करगहणं । तुमए तं पत्थणभंगभीरुणो नूण सप्पुरिसा ॥६४॥ लायन्न-रूव-सोहग्गगुणनिहिं नाह ! परिचयंतस्स । रायमई तुह नायं न दुक्करं किं पि गरुयाणं ॥६५॥ पसुणो अवसे पासिय वालावेतेण रहबरं तुमए । सच्चवियं सप्पुरिसा दुहिएसु दयावरा होंति ॥६६॥ रइरसियं रायमई गुणरयणखर्णि खणेण परिहरिउं । संजमसिरिं पवज्जिय जं पसमसुहं समल्लीणो ॥६७|| तं सामि ! विवेयवमुल्लसंतनाग निच्छियं तुमए । संसारियसोक्खाओ निचुइवहुमुहमणन्नस मं ॥६८॥ [ युग्गम् ॥] दामोयर-वत्थावय-कडितोडय-संबकंटए कमिउं । उजिंतसेलसिहरे कायरज गजणियमणभंगे ॥६॥ आरूढो हरिसवसुल्लसंतसुविसुद्धमणपरीणामो । सावगसियछट्टीए संजमभारे य भवमहणे ॥७॥ चउपन्नवासराई छउमत्थो विहरिओ निरभिसंगो । सुक्क झाणानलदड्डघाइकम्भिधणो धणियं ॥७१॥ आसोयमावसाए विसयपिवासाए सव्वहा चत्तो । लोयाऽलोयपयासं तं पत्तो केवलन्नाणं ॥७२॥ ता पहु ! पहूयकालं केवलसिरिसंगओ सुहाहारो । अमयमयकरपबोहियतममोहियभवियकुमुयवणो ॥७३॥ रेवयगिरिसिहरम्गे आसाढसियऽट्ठमीए सुहलेसो । सिरिनेमिचंद ! जिणवर ! पाविहिसि सिवं पहयकम्मो ||७४॥ इय नेमिनाह ! नयसुर-नरभमरकयंब ! देवसूरीहिं । वन्नियससिकिरणुज्जलचरिय ! चरिते रहं कुणसु ॥७॥ इय थुणिऊणं कण्हो जिणव यणायन्नणे सइ सयन्हो । संवेगभावियमणो सट्ठाणम्मि समुवविट्ठो ॥७६|| एत्थंतरम्मि भयवं जोयणनीहारिणीए वाणीए । अच्चंतमहुरमणहरजलहरगजियगभीराए ॥७७॥ सन्नाण-दसणधरो दुहा वि चउराणणो चरित्तनिही । सुर-असुर-नरसभाए धम्म कहिउं समाढतो ॥७८॥ धम्मो अत्थो कामो मोक्खो चत्तारि हंति पुरिसत्था । धम्माओ जेण सेसा ता धम्मो तेसि परमतरो ॥७९॥ जओ धम्मो संसारमहासमुद्दनिवडंतजाणवत्तं व | धम्मो भीममहाडविनित्थारणसत्थसत्थाहो ॥८॥ धम्मो भबंधकूवयपडंतहत्थावलंबणसमाणो । धम्मो दुरंतदालिददलणसुंदरनिहाणनिभो ॥८॥ धम्मो सिणेहसंगयसुयवच्छलभावसंगया जणणी । धम्मो सुहयरसिक्खासंपाडणपञ्चलो जणओ ॥२॥ धम्मो समत्थविस्सासठाणसम्भावसंगयं मित्तं । धम्मो विणीय-आणावडिच्छ-निभिच्च भिच्चसमो ॥३॥ धम्मो समग्गगुणजुत्तसग्गसुहगमणसुंदरविमाणं । धम्मो सासयसिवपूरसंपावणपवररहरयणं ॥४॥ किं बहणा ? भो भन्वा ! भुवणे वि न अस्थि किं पि कल्लाणं । जंन कुणइ एस जियाण सम्ममाराहिओ धम्मो ॥५॥ पडिवजह सव्वन्नुं देवं सगुणं गुरुं च धम्मं च । जं रयणत्तयमेयं परिक्खियवं सुहत्थीहिं ।।८६।। १० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे च उतीसअइसयजुआ जहमलापानिहरकयसोही । जियराग-दोस-मोहो एसो देवो सुगइहेऊ ||७|| परिहरियघरावासो जुगप्पहाणागमो चरित्तनिहीं । सम्मइंसणसुहओ उवएसपरो गुरु भणिओ ||८८॥ कस-छेय-तावसुद्धो पुवा-ऽवरबाहवजिओ धणियं । सचरा-ऽचरजीवहिओ धम्मो वि हु विसयनिग्गहणो ॥६॥ इय सोऊणं धम्म सम्मं जिणभासियं भवविरत्ता | धम्माभिमुही जाया सव्वा वि तया भवियपरिसा ॥९॥ अह पाविय पत्थावं पुच्छइ पंजलिउडो पुहइपालो । सुरकयसन्नेम्झाए बारवईए पुरवरीए ॥२१॥ जक्खसहम्साहिट्टियतणुणो भरद्धचकिणो मम वि । नासो नेमिजिणेसर : किमियरभावाण व भविस्सो ? ॥१२॥ अह भणइ नेमिनाहो सनीरनीरयनिभाए वाणीए । नरनाह ! वत्थुजायं जं किंचि वि दीसइ जयम्मि ॥१३॥ कयगसरूवं सव्वं विणस्सरं तमिह किं वियप्पेणं? । जइ एवं ता कइया ? कुओ य ? कह व ? ति सुण रायं ! ॥१४॥ पारासरनामो आसमम्मि कम्मि वि अहेसि को वि रिसी । निदियकुलसंभूया संपत्ता कनया तेण ||५|| सो कइया विहु तीए समं भमंतो गओ जउणदीवं । दीवम्मि समुभूओ त्ति तेण दीवायणो नामं ॥६॥ तीए पुत्तो तत्थ वि तुज्झ कुमारेहिं मज्जमत्तेहिं । खलियारियाओ तत्तो बारवईए धुवं नासो ॥९॥ तुज्झ पुण कन्ह ! होही जराकुमाराओ जाण एयाओ। भवियव्वयानि' ओया न अन्नहा तीरए काउं॥९८॥ कन्हविणासयमेयं वयणं जिणमुहविणिग्गयं सोउं । निम्भरमन्नुवसागयनयणंसुजलाओ दिट्टीओ ॥९९|| जलहिम्मि नईओ इव वाहीओ इव अपत्थभोइम्मि । पावम्मि कुगइओ इव विवयाउ व दुन्नयपरम्मि ॥१०॥ सदयाओ सकोवाओ सविम्हयाओ सयाणुतावाओ । सव्वेसि जायवाणं जराकुमारम्मि पडियाओ ॥१०॥ सो वि हु जराकुमारो हिययम्मि धसक्किओ विलक्खमणो । ल जाए जायवाणं मुहं पि दंसे उमसमत्थो ॥१०२॥ खणमवि ठाउमसत्तो सयणकडक्खेहिं सल्लियसरीरो । उच्छीहरबाणेहिं व विद्धो मम्मम्मि दहवयणो ॥१०३॥ भणइ महिं मह भयवइ ! वियरसु विवरं विसिट्ठजणवज्जे । जेणाहं हयवु द्धी पावो पविसामि पायाले ॥१०॥ धिद्धी ! कहमेवं विहमहमहमो पावमायरिस्सामि ? । दूरम्मि मंदभम्गो जामि जहिं फुट्टपाहाणा ॥१०॥ पयडेमि पारिसमओ निरत्थयं किं वियप्पजालेण ? । मह जीविएण जीवउ चिरकालं बंधवो कण्हो ॥१०६॥ करकलियबाण-धणुहरदुद्धरिसो साहिऊण कण्हम्स । पायडियवाहवेसो कोसंबवणम्मि संपत्तो ॥१०॥ तारारुदरा वि तया जराकुमारम्मि निग्गए नयरी । न विरायइ रयणीयरविरहे रयणि व्व तमगसिया ॥१०८॥ कन्हो पुण सुन्नमणो पियबंधवविरहिओ मुणइ रन्नं ।जणसंकुलं पि नयरिं जराकुमारे पवसियम्मि ॥१०९॥ जओ एगेण विणा पियमाणुसेण सन्भावनेहरसिएण । जणसंकुला वि पुहवी अव्वो ! रन्नं व पडिहाइ ॥११॥ किंच मणवल्लहलोयविओयणम्मि जायइ जणस्स जं दुक्खं । तं कहिउं पिन तीरइ सारिच्छं नारयदहस्स ॥११॥ बलभाया सुसिणिद्धो सिद्धत्थो सारही सुणिय वसणं । मोयावइ बलभदं तेण वि भणियं कुणाभिमयं ॥११२॥ गुरुदुक्खं गिहवासं मुयमु महाभाग ! संपलित्तमिमं । आवइगयं कया वि हु पडिबोहसु मं पवजवयं ॥११३।। इय सामपुठवमेसो सम्म मोयाविऊणमप्पाणं । सिरिनेमिनाहपासे एयावसरम्मि पवइओ ॥११॥ आयन्नियजिणवयणा कण्हाई जायवा निराणंदा । वेरग्गभावियमणा बारवइं पडिगया सव्वे ॥११५॥ भयवं पुण नीहरिओ बारवईओ बहिं विहाराए । चउविहसुरपरियरिओ बोहितो भवियजणनिवहं ॥११६॥ विष्फुरियधम्मचक्को निद्दारियमोहरायरि उचक्को । आएज्ज-महुरबक्को पाडियपरतित्थियधसको ॥११७॥ पन्नवियतत्तवाओ भावलयबिलुत्ततिमिरसंघाओ। अलि उलसामलकाओ सुरकयकमलुवरिकयपाओ ॥११८॥ भयवं अरिट्रनेमी गामा-ऽऽगर-नगरमंडियं वसुहं । विहरइ फुरियपयावो पयासियासेसवणयलो ॥११॥ १. भामण्डल। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् भवकुसेसयभाणू नियकिरणहि व सुहोवएसेहिं । नासियतमंधयारो बोहिन्तो भवियकमलवणं ॥१२०॥ घोसावियं पुरीए जणदणेण वि जिणेण वागरियं । जं किर तं तुमहिं वि सक्खं निसुयं निरवसेसं ॥१२१।। मजप्पमायवसओ नासो नयरीए जं समाइट्टो । परिवजह पावमिमं तम्हा मजं परमसत्तुं ॥१२२।। कन्हाएसेण तओ मजं मणवल्लहं पि पउरेहिं । कायंबरीगुहाए मज्झम्मि समुझियं झत्ति ॥१२३॥ अन्नमिमं आइ8 सव्वो वि जणो जिणिंदभवणसु । न्हवण-विलवण-पूयणवावाररओ हबउ निच्चं ॥१२४|| पोसहसालाए पुणो चउम्विहाहारवजणुज्जत्तो । सज्झाय-ज्झाणरओ जहासमाहीए पासहिओ ॥१२५।। पारद्धिपावविरओ असच्चभासण-परम्सहरणेसु । परदारपसंगेमु य जहसत्तीए भवउ विरओ ॥१२६॥ एवं धम्मरयाणं विसिट्ठसंवेगभावियमणाणं । लोयाणमकल्लाणं न किं पि पायं समावडइ ॥१२॥ अह अन्नया तहाविहदुद्धरभवियव्वयानिओएणं । संबाइया कुमारा विणिग्गया कह वि कीलाए ।।१२।। कायंबकाणणम्मि संबकुमारम्स संतिओ पुरिसो । को वि पिवासाभिहओ गओ भमंतो वणनिगंजे ||१२९।। जत्थऽच्छइ किर मज्जं समुझियं गिरिगुहाए कुंडेसु । छम्मासावत्थाणा सुपक्कमइसाउरसकलियं ॥१३०॥ तेण य पिवासिएणं आकंठपमाणओ तयं पीयं । कहियं संबाईणं गएहिं तत्थट्ठियं दिढें ॥१३१॥ तेहिं वि तयमइरसियं पीयं चिट्ठति जाव खणमेगं । ताव य मयाभिभूया संजाया परवसा सव्वे ॥१३२।। कहिं वि भमंतेहिं वणे दिट्ठो दीवायणो रिसी तत्थ । संभरियपुव्ववइयरा आयंबिरलोयणा जाया ॥१३३।। एसो सो किर पावो दहिही अम्हाण संतियं नयरिं । ता संपइ जाइ कहिं दिट्ठो अम्हेहिं दुट्टप्पा ? ॥१३४॥ जुगवं पि तओ लग्गा हणिउं पाहाण-जट्टि-मुट्ठीहिं । निच्चेट्टं काऊणं अन्नाणाओ गया नयरिं ॥१३५॥ विनायवइयरेहिं सिग्य बलदेव-वासुदेवेहिं । भयभीयमाणसेहिं खमाविओ पायवडिएहिं ॥१३६।। भो भो ! खमसु महायस ! खमापहाणा भवंति महरिसिणो । मा कुणसु भद्द ! को कोवो जं दारुणसहावो ॥१३७॥ ... जओ पढमं चिय तं जंतुं कोहग्गी दहइ जत्थ उववज्जे । जत्थुप्पन्नो तं चेव इंधणं धूमके उ व्व ॥१३८॥ रन्ने वि कयावासा कसायवसया वयंति नरयगई । वसिमे वि कयनिवासा जिइंदिया जंति सुरलायं ॥१३९॥ किंच एगस्स वि नियहिययस्स भद्द ! विनिवारणे जइ न सत्ती । ता कह पारंभियभवमहारिविणिवारणं तुझ ? ॥१४०॥ अह भणसि निरवराहो कयत्थिओ हं इमेहिं पावेहिं । तं पि न जं अवयासो खंतीए कयावराहेसु ॥१४१।। जओ जं खमसि दोसवंते सो तुह खंतीए होइ अवयासो । अह न खमसि को तुह अविसयाए खंतीए वावारो ? ॥१४२॥ अवरमिमेसि सिसूर्ण विवेयवियलाण मूढहिययाण । खमियत्वं चेव जओ देवियाय होइ न दमाया ॥१४३॥ तहा पढउ सुयं धरउ वयं कुणउ तवं चरउ बंभचेराई । तह वि तयं सव्वं पि हु निरत्थयं कोववसगस्स ॥१४॥ अन्नं च भो महारिसि ! कोहवसट्टो दयं पि नासेज्जा । दहइ तव-संजमं पि हु जहेव मंडुक्कियाखमओ ॥१४॥ परिगलइ मई नम्सइ सरस्सई गलइ वयपरीणामो । कोववसयाण तम्हा परिहरसु कसायसत्तुमिमं ॥१४६॥ भणियं च तेण सव्वं अहं पि जाणामि जं अकजमिणं । सव्वेसिमणत्थफलं विसेसओ वयपवन्नाणं ॥१४॥ परमभिमाणवसेणं तया निरायं कयथिएण मए । बद्धं नियाणमसुभं निकाइयं चेव तं च इमं ॥१४८|| जइ अस्थि इमस्स फलं कट्टाणुट्ठाणसंचियतवस्स । तो पावाणमिमेसिं नयरिमहं निडुहिज्जामि ॥१४॥ परमेवं पणयाणं विणयजुयाणं भविस्सई मोक्खो । तुम्हं दोण्ह जणाणं सुणयम्स य नत्थि अन्नस्स ॥१५०॥ १. दुर्विजातं-दुःसन्ततिः। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आख्यानकमणिकोशे एसा मज्झ पइन्ना न चलइ विहिया जओ जुगते वि । तो हो महाणुभावा ! मा खिज्जह एत्थ वत्थुम्मि ॥१५१॥ वुत्तं च तओ हलिणा जं जाणइ कुणउ तं किमन्नण ? । भवियव्वं एमेव य न अन्नहा होइ जिणभणियं ॥१५२।। तत्तो ते साममुहा परिगलियपरक्कमा अकयकज्जा । सविसाया सविलक्खा समागया निययनयरीए ॥१५३॥ सो वि हु पन्भट्टवओ सामरिसो रुद्दभाणवसवत्ती । मरिऊण समुप्पन्नो अग्गिकुमारेसु देवेसु ॥१५४॥ पुणरवि य देव-दाणवनमंसिओ जिणवरो समोसरिओ। पुचक्कमेण राया वंदणवडियाए नीहरिओ ॥१५॥ तत्तो य तिय-चउक्कग-चच्चर-चउमुह-महापह-पहेमु । बहुजणवूहे बहुजणरोले सद्दे बहुजणस्स ॥१५६। जंपइ परोप्परेणं जह किर जउनंदणो जिणवरिंदो। उप्पन्नविमलनाणी समोसढो नंदणुज्जाणे ॥१५॥ ता भो ! तित्थयराणं नामस्स वि सवणयं हियकर ति । किं पुण वंदण-पूयण-नमंसणं धम्मसवणं वा ? ॥१५॥ तम्हा देवाणुपिया ! गच्छामो जिणवरं नमंसामो । तइंसणेण विणएण पूयपावा भवामो त्ति ॥१५॥ ण्हाया कयबलिकम्मा अप्प-महामुल्लभूसणपहाणा । राईसरमाईया विणिग्गया पउरजणनिवहा ।।१६०॥ असुयाइं सुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाई काहामो । अप्पुव्वं पि य किं पि हु पुच्छिम्सामो जिणवरिंदं ॥१६॥ गयमारूढा हयवरगया य रहवरगया य के वि नरा । नरजाण-जुग्ग-गिल्ली-थिल्ली-सिबियाइजाणगया ॥१६२।। अन्ने पयचारेणं चलिया बलिपूयवावडकरग्गा । किं बहुणा ? संखोभियसायरलहरीसरिसचरिया ॥१६३॥ छत्ताइछत्तदंसणसमणतरमुक्कपहरणावरणा । जिणसमयभणियविहिणा पणय[जि]णा ठंति संठाणे ॥१६४॥ भयवं विरायजणयं संवेगकरं च तीए परिसाए । पारद्धो दाउं जे सुहोचएसं सुहावयणो ॥१६५॥ भो भ० वा ! भीमभयोयहिग्मि जर-जम्म-मरणसलिलम्मि । दुत्तर-गहीर-भीसणमोहमहावत्तदुम्गम्मि ॥१६६॥ पजलंतमयणवडवानलम्मि दुव्वाररोगभुयगम्मि | विलसंतवसणसावयसहस्ससंरंभविसमम्मि ॥१६७|| जलहिजलपडियरयणं व दुल्लहं पाविऊण मणुयत्तं । सिद्धंतसवण-सद्धा-विरियजुयं जाणवत्तं व ॥१६८॥ मा धम्मकम्मकरणम्मि पावमेवं पमायमायरह । जीवाण जमेसो च्चिय परमत्थरिऊ जओ भणियं ॥१६९॥ पमाएणं महाघोरं पायालं जाघ सत्तमं । पडंति विसयासत्ता बंभदत्ताइणो जहा ॥१७॥ पमाएणं परायत्ता तुरंगा कुंजराइणो । कसंकुसाइघाएहिं वाहिज्जति सुदुक्खिया ॥१७१॥ पमाएणं कुमाणुम्स-रोगाऽऽयंकेहिं पीडिया । करुणा हीणदीणा य मरंति अवसा तओ ।।१७२।। पमाएणं कुदेवा वि पिसाया भूय-किविसा । आमिओगत्तणं पत्ता मणोसंतावताविया ॥१७३।। पमाएणं महासूरी संपुन्नसुयकेवली । दुरंता-ऽणंतकालं तु णन्तकाए वि संवसे ॥१७४॥ पमाओ उ मुणिंदेहिं भणिओ अट्टभेयओ । अन्नाणं संसओ चेव मिच्छत्ताणं तहेव य ॥१७५॥ रागो दोसो मइन्भंसो धम्मम्मि [य] अणायरो । जोगाणं दुप्पणीहाणं अट्टहा वज्जियव्वओ ॥१७६।। वरं हालाहलं पीयं वरं भुत्तं महाविसं । वरं तालटडं खद्धं वरं अग्गीपवेसणं ॥१७७॥ वरं सत्तहिं संवासो वरं सप्पेहिं कीलियं । खणं पि न खमो काउं पमाओ भवचारए ॥१७८॥ एगम्मि चेव जम्मम्मि मारयति विसायणो । पमाएणं अणंताणि दुक्खाणि मरणाणि य ॥१७९॥ ता पमायं पमोत्तण कायव्यो होइ सव्वहा । उज्जमो चेव धम्मम्मि सव्वसोक्खाण कारणे ॥१८॥ खणभंगुरसंसारियपयत्थसत्थम्मि नायपरमत्था । पडिबंधमणत्थफलं कुणंतु कहमेत्थ सविवेया ? ॥१८१॥ जओ-- गयकन्नतालतरलं जीवियमवि ताव सव्व जीवाणं । संझन्भरायसरिसं जोव्वणमवि चंचलसहावं ॥१८२॥ सवियार] तरलतरुणीकडक्वविक्खेवविव्भमं रूवं । लायन्नं पवणायलवलीदलचंचलमसारं ॥१८॥ जं पिकिर विसयसोक्खं जियाण रम्मत्तणेण पडिहाइ । तं पि महबिंदकूवयनायाओ तुच्छमच्चत्थं ॥१८४॥ १. विषादयः । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् ३१७ एवमणिचसरुवं नाउं संसारियाण वत्थूणं । सासयसिक्सुहजणए धम्मे च्चिय होइ जइयव्वं ॥१८५|| इय सवणामयसरिसं सोउंसिरिनेमिसामिणो वयणं । संसारविरत्तमणा जाया सव्वा वि पुरिपरिसा ॥१८६॥ ते तारिसा वि जउवल्लहा वि दुइंत-तरलहियया वि । संवाइया कुमारा संविग्गा फव्वइंसु तया ॥१८७|| उत्तमकुलुग्गयाओ वि रूव-सोहागगुणजुयाओ वि । रुप्पिणिपामोक्खाओ वयं पवन्नाओ देवीओ ॥१८॥ सो वि हु कुलिगिदेवो नाउण विगओ नियपइन्नं । तुरमाणो आगच्छइ पेच्छइ धम्मुज्जयं लोयं ॥१८९॥ न' तरह किं पि अणत्थं काउं धम्मप्पभावओ तत्थ । छिदं निभालयंतो अच्छइ पासेमु भमडंतो ॥१९०॥ अह बारसमे वरिसे अवस्सभदियव्ययानिओयम्स । भवणाओ जायवाणं संजाओ माणसवियप्पो ॥१९१।। धम्मपभावेणऽम्हं सो पावो निप्पभो टिओ नूणं । न तरह काउं किं पि वि उद्धियदाढो भुयंगो व्य ।।१९२।। भुंजामो विलसामो संपइ बादं पराइया अम्हे । मज्जाई नियमेहिं दुक्करकरणेण भणियं च ॥१९३॥ पुप्फ-फलाणं च रसं सुराए मंसम्स महिलियाणं च । जाणंता जे विरया ते दुक्करकारए वंदे ॥१९४॥ तो ते पमत्तचित्ते दणं मज्जपाणगासत्ते । छिद्द पाविय पावो उप्पाए बहुविहे कुणइ ।।१९५॥ अट्टहासमसमं मुंचंति अचित्तचित्तपुत्तलिया। देवउलदेवयाओ सकडक्खाओ निरिक्खंति ॥१९६॥ गयणयलनारिनच्चण-रुहिरपवरिसण-सिवापवेसा य । कुसुमिणदंसण-सूरोवराय-कविहसियरूवा य ॥१९७|| अवरे वि हु संजाया भूमीकंपाइया दुरुप्पाया । किं बहुणा जिणभणियं पच्चासन्नं तया जायं ।।१९८॥ आहुणिय कट्ट-तण-कयवराइसंवट्टवाउणा धणियं । पुंजीकरेइ पावो नयरीए मज्झयारम्मि ॥१९९॥ सहि कुलकोडीओ बहिट्टियाओ (तओ य] निकरुणो । बाबत्तरं च मज्झट्ठियाओ सयलाओ मेलेउं ॥२०॥ अपय-च उप्पयमाई जं कि पि हु पासई तयं सव्वं । नयरीए पडिबद्धं तं मज्झे खिवइ दुक्खनिही ॥२०१॥ तत्तो चउपासेसुं पज्जालिय पावयं पबलपवणं । उल्ल]लियबहलधूमंधयार-जालानिरुद्धनहं ॥२०२॥ हा ताय ! भाय ! पिययम ! डझंताऽसरणया अणाहा य । वीसुंपलित्तगत्ता कहमच्छामो ? कहिं जामो ? ॥२०३॥ जलणेण पलित्ताई पडंति माऊए उवरि डिंभाइं । मायाओ पलित्ताओ पडंति उवरि पलित्ताणं ॥२०४॥ अंगीकयनरयदुहो हा हा ! को एरिसं महापावं । कजं ववसइ ? जो किर न दूरभव्वो अभब्चो वा ॥२०॥ कंदंति जायवा जायवीओ नाणापलावमुहलाओ। अवराओ नायरीओ रुयंति असमंजसपयारा ॥२०६॥ हा बलदेव ! महाबल ! [हा'"] वंत केसव ! कहिं ते । सहस त्ति गया सत्ती ? हा हा ! ते वि हु कहिं कुमरा ? ॥२०७।। डझामो डग्झामो रक्खह रक्खह कुओ वि आगंतुं । इय सव्वत्तो सुव्वंति दारुणा पइपयं सदा ॥२०८|| बलदेवसुओ नामेण कुज्जओ गुरुसरेण पोक्करइ । जइ किर चरमसरीरो ता कह डज्झामि एवमहं ? ॥२०॥ इय भणिए सो सह सा उक्खित्तो जंभगेहि जिणपासे । पव्वइओ कयपुन्नो कम्म खविऊण सिद्धो य ॥२१०॥ बलदेव-वासुदेवा तुरए जोइत्त रहवरे पियरो । आरोबिऊण सिग्घं जा किर नयरीओ नीति ॥२११॥ ता देवेणं भणिया निभच्छेऊण निठुर गिराहिं । भो भो ! तुम्मे भुल्ला ? किं वा विसघारियावयवा ? ॥२१२।। किं वा वि हु वीसरियं मह वयणं मोहमोहियमणाण ? । जं दो वि जणा तुब्भे मोत्तु नऽन्नस्स नीसारो ॥२१३॥ एवं वोत्तू पावो पिहेइ दाराई पुरपओलीए । तो पण्हिपहारेणं फोडिंति कवाडसंपुडए ॥२१॥ एवं पि कए जाव य न देइ निम्गममिमो रहवरस्स । अम्मा-पिऊहिं भणिया तो ते मा कुणह पडिबंधं ॥२१५॥ अम्हाणमुवरि जम्हा जिणिंदवयणं न अन्नहा होइ । ता वयह तुमे अम्हं पुणाइ जं होइ तं होउ ॥२१६॥ तु भेहिं जियंतेहिं पुणरवि कुलसंतई धुवं होही । अम्हाण संतियं पुण मिच्छादुक्कड मिमं वच्छा ! ॥२१७॥ तो ते पमुक्कधाहा महया सद्देण रोविउं लग्गा । गुरुसोयतावियमणा महंतमुब्वेयमावन्ना ॥२१॥ जिन्नुजाणम्मि ठिया ओरुन्नमुहा गलंतनयणजला । पेच्छंति पुरि दीवायणेण डझंतियं दुहिया ॥२१९॥ १. न शक्नोति । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ आख्यानकमणिकोशे हा हा लच्छीहर ! लच्छिवच्छदुल्ललियवच्छ ! अच्छेरं । पेच्छम् समुहविजया विजं वयं एव परिभविया ॥२२०॥ दीवायणेण इमिणा संखोहियमाणसा समग्गा वि । अक्खोह्गुणजुया वि हु जायववग्गा खयं नीया ॥२२॥ अइथिमिय-सुत्थिया वि हु अप्पत्थियदत्थणत्तदुत्थाओ । नायरयइत्थियाओ वच्छ ! अणाहाआ डझंति ॥२२२॥ सागरगंभीरिमसंगया वि जलणण लाघवं नीया । जत्तेण पालिया वि हु पेच्छमु पउरा विणसंति ॥२२३।। अहियं हिमवंतसमुन्नो वि बहुदेवदेवडलनियरो । निद्दङ्मूलभागो विहडइ खडहडियसिहरग्गो ॥२२४॥ अवलोयमु अयलपइट्टिया वि निट्टवियमेइणिपइट्टा । निवडंति खडहडारावभीसणा हेमपासाया ॥२२५।। दढधरणधरियपायासु डझमाणासु हथिसालामु । डझंति तडयदारावगम्भिणं वंससंघाया ।।२२६॥ पइदियहं पूरणपूरिओ वि मणि-कणग-रयणभंडारो। उवहसियधणयकोसो वच्छ ! विणट्टो विहिवसेण ॥२२७॥ अभिचंदं रायं पीय इसप्पहं सयलमुहयरं सोमं । जायवलच्छी पेच्छंतिया विकह झामिया सवा ? ॥२२॥ वच्छऽच्छेरयमवरं देवइ-वसुदेव-रोहिणिजुओ वि । पेच्छंताणं पज्जलइ रहवरो तह वि जीवामो ॥२२९॥ दुक्क्यपरिणइपन्हीए पेरिया पेच्छ पडइ पुरिमहिला । कुंतय-मद्दीरूवाहि दोहिं बाहाहिं धरिया वि ॥२३०॥ एरिसगाण वि सुकुम्भवाण पुरिसाणमेरिसं वसणं । पुन्नक्खएण जायइ जियाणमियरेसि का गणणा ? ॥२३॥ एत्थंतरम्मि हलिणा भणिओ कण्हो सुदुक्खिओ संतो । बंधव ! कत्थ वयामा ? किं करिमा ? कस्स पोकरिमो? ॥२३२॥ कस्स मुहं दरिसामो ? किं वा सरणं वयं पवजामो ? । इण्हि का अम्ह गई हरिणाण व जूहभट्टाण ? ॥२३३॥ एयावत्थं नया पेच्छंताणं समिद्धमम्हाणं । वजमयं नणु हिययं जं न वि सयसिक्करं जाइ ॥२३४।। सरि जिणिंदवयणं तओ पयट्टति दाहिणाभिमुहं । वारं वारं परिवलियकंधरं ते पलोयंता ॥२३॥ पंडुयुया अम्हाणं संपइ सरणं ति पंडुमहुराए। चलिया ललियगईए मयगललील विडंबंता ॥२३६।। भृसणजुइविजुजोयभासुरा नयणनीरकयवरिसा । पाउसजलहरसरयभविन्भमा पहनहम्मि ठिया ॥२३॥ समकालं सारीरिय-माणसदुक्खेण ते समुप्फुन्ना । पेच्छाऽहो ! बलियाण वि बलिओ बाढं विहिनिओओ ॥२३८।। पहिय व्व पहे वच्चंति पायचारेण भुक्खिया तिसिया । कंद-फल-पत्त-पुप्फाइभक्खिणो खवियतणुसोहा ॥२३९॥ भूमीसयणा सयणाइविरहिया वत्थ-पावरणरहिया । पहाण-विलवण-भोगोवभोगमुक्का मुणिवरु व्व ॥२४॥ ते तारिसा वि मुहमुत्थिया वि अविउत्तसयणवग्गा वि । एक्कपए च्चिय दुहिया अहो ! दुरंतो विहिनिओगो ॥२४१॥ सव्वत्थ वि वित्थरियं जह किर दीवायणेण बारवई । दड्ढा दो उव्वरिया नवरं बलभद्द-महुमहणा ॥२४२।। ते वि य कमेण जंता संपत्ता पुव्वदक्खिणविभागे । धयरट्टरायबलवंतसत्तुसुयरायकयरक्खं ।।२४३।। सत्तंगसुप्पइटें उन्नयकरदाणवरिसरमणीयं । कुंभत्थलसोहिल्लं जहत्थयं हत्थिकप्पपुरं ॥२४४।। एत्थंतरम्मि कन्हो छुहाभिभूओ हलाउहं भणइ । आणेहि भोयणं भाय ! भुक्खिओऽहं दढमसत्तो ॥२४५॥ गंतं पयमवि तत्तो भणइ हली वच्छ ! होसु वीसत्थो । आणेमि भोयणं बंधवम्स मा बच्चसु विसायं ॥२४६।। परमेयं वइरिपुरं जइ कह वि हु वइरिएहिं पारद्धो । मुंचामि सीहनायं ता रक्खसु वच्छ ! अप्पाणं ॥२४॥ गंतूण नयरमञ्झे महरिहमणिकडगविणिमयं काउं । कुल्लू रियावणाओ मंडगपभिई परममन्नं ॥२४८॥ कल्लालियावणाओ सरगाई सुरभि पाणगं घेत्तु । जावाऽऽगच्छइ सहस त्ति ताव सन्निहियसत्तहिं ।।२४९॥ सन्नद्धबद्धकवएहिं हकिओ हण हण त्ति भगिरेहिं । बलदेवो वि हु संगोविऊग तं भत्त मेगस्थ ॥२५॥ उप्पाडिऊग स महप्पमाणमालाणखंभमणवरयं । संचूरियं पवत्तो ससीहनायं तमरिसेन्नं ॥२५॥ कण्हो वि तुरियमागम्म सम्ममादाय परिहमुदंडं । हणिऊणं हयमहियं विहियमसेसं पि रिउसेन्नं ॥२५२॥ अमलियमाणो बलभद्दभाउणा मुइयमाणसा मिलिओ । जेण न साहा वसणस्सिा वि सज्झो सियालाणं ॥२५३॥ अह कत्थइ तरुतलछाइयाए तरुपत्तरइयपुडएहिं । भुंजंति जाव ता तेहिं सुमरियं पुव्वभुत्तस्स ॥२५४॥ हा जिय ! तारिस जाइयाए तह भुंजिऊण सविलासं । सम्माणदाणपरिवजिएहिं परिभुजद इयाणि ॥२५॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. दैवनिवारणाशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् ३१९ कह साजि-गुरुपूया कह सा कलगीयपमुह सामगी ? । कह सो गो ? कह ते जीवियसमा कुमरा ? || २५६ ॥ हा हियय ! किं न फुट्टसि सुमरंतं सरसपुव्यभुत्ताणं ? । इन्हि विदेसिएहिं परिभुज्जइ भोयणं विहलं ॥ २५७॥ तह विहु परिभुंजिज्जड़ गयलज्जेहिं छुहा पिवासाओ । पत्थावमपत्थावं जाणंति न जेण पावा उ ॥ २५८ ॥ एवं सविसायमणा भुंजित्ता वीसमित्तु खणमेगं । पुरओ केत्तियमेत्तं भूभागं जाच गच्छति ॥ २५९॥ कंट पहाणबच्चूल बोरि-धव-खड़पमुहतरुनियरं । करकरकरन्तकार्य पत्ता को सम्बवणमसुहं ॥ २६० ॥ ता लवणभोयणाओ खरतरकरतरणिगादृतवणाओ । अणुचियसमाओ पुन्नक्खयाओ दवदद्धगमणाओ ॥२६१|| कन्हो तिसाभिभूओ मुच्छा विहलंघलो तरुतलम्मि । पडिओ बंधव! तण्हाए बाहिओ गंनुमसमत्यो ॥ २६२ ॥ वामं पायं काऊणमुवरिमियरस्स रायलीआए । पच्छाइऊण को सेयपीयवत्थेणमप्पाणं ॥ २६३ ॥ मिजिणेसरवयणं व सीयलं मुहय ! पायमु जलं ति । अन्नह पाणा वच्चंति मज्झ इय भणिय पासुत्तो ॥ २६४ ॥ एवं सुन्नमरन्नं ता अपमत्तेण वच्छ ! होयव्वं । जेणऽम्हाणं बहवे वसणावडियाणमरिनिवहा ॥ २६५ ॥ भो भो वाहिया देवयाउ ! एसो पिओ महं भाया । नासो मुक्को तुम्हं रक्खेयव्वो पयत्तेणं ॥ २६६ ॥ अप्पाहि एवं जलमन्निसिउं गयम्मि बलभद्दे । भवियन्वयावसेणं जं जायं तं निसामेह || २६७॥ खर-फरुससरीरछबी पलंबमंसू परूढदीहन हो । वल्लीवियाणसं जमियमुद्धओ वाहवेसरो || २६८ || कन्हम्स कालपासेहिं कड्डिओ कलियकंडकोयंडो । पत्तो तम्मि पएसे जराकुमारो कयंतो व्व ॥ २६६ ॥ ग्रन्थाग्रम् १२०००|| आरोविऊण धणुहरमायन्नं कड्डिडं कढिणकंडं । कन्हो मिगबुद्धीए विद्धो वामम्मि पायतले ||२७०॥ तत्तो भयरहिएणं ससंभमं उट्टिऊण भणियमिमं । भो भो ! किल केणाहं विद्धो बाणेण पायतले ? || २७१ || ता साहउ नियवंसं नियनामं नियकुलं नियं कज्जं । जेण मए न कया विहु अयाणिओ पहयपुत्र्वो ति ॥ २७२ ॥ हा हा ! धिसि धिसि ! मम चेट्टियस्स एसो हु माणुसो कोइ । हरिणजुवाणो न हु होइ एस इय खिज्जिउं बहुयं ॥ २७३ ॥ साइयं च पुच्छर ता तं उवसप्पिऊण साहेमि । भो भो ! अहयं हरिवंससंभवो जायवसगोत्तो ॥ २७४॥ नामं जराकुमारो पुहई एकल्लवीरचरियस्स । जायववित्थयनहयलमयंक वसुदेवतणय || २७५ || रुरु- हरिण-सीह - सद्दूलभीसणे काणणम्मि कण्हस्स । जीवियसमम्स रक्खत्थमेत्थ निवसामि अइदुहिओ ॥ २७६ ॥ इमानि कण्हो जराकुमारो त्ति एस नाऊण । उग्घाडियदुहनियरो एवं भणिउं समादत्तो ॥ २७७॥ ए ! एहि एहि भायर ! परोवयारेक्करसिय ! परिरंभ । एसो सो हं कण्हो तुहमप्पाणस्स वि य दुहओ || २७८॥ तेत्तं परिरंभणमुचियं जलियचियानलस्स महं । निल्लक्खणस्स न उणो पसत्थलक्खणवओ भवओ ॥ २७९ ॥ पियबंधवस्स जीवियसमस्स बारसमवरिसमिलियस्स । कण्हस्स मए भयवं ! विहियमणज्जेण पाहुन्नं ॥ २८० ॥ पावस किं न निवडइ गयणाओ मज्झ मत्थए वज्जं ! । जइ वा सो विहु संकइ फंसेंभयाओ जओ भणियं ॥ २८९ ॥ एरिसकम्मरयाणं जं न पडइ खडहडंतयं वज्जं । तं नूणमिमो चिंतइ छिविउमिमे कत्थ सुज्झिस्सं ? ||२८२॥ इय खिज्जिऊण बहुयं कंठम्मि विलग्गिऊण कन्हस्स । उम्मुक्कमहाधाहं कलुणसरं रोविडं लग्गो ॥२=३॥ हा कन्ह ! हा जणद्दण ! हा जायवगयगमंडणमयंक ! | हा ! कहमिहमायाओ नं बंधव-बंधुजणरहिओ ? || २८४ ॥ किं वा विसामि जलणे ? किं वा पविसामि गुविलपायाले ? । कत्थ गओ सुज्झिम्स ? कस्स मुहं दरिसइस्सामि ? ॥ २८५ ॥ आसंसारमकित्ती संजाया मज्झ मंदभग्गस्स । जह नियमाया कन्हो जराकुमारेण निहओ त्ति ||२८६|| नियवइयरो य एसो जराकुमारम्स पुच्छमाणस्स । कहिओ कण्हेण तहिं सञ्चो आगमणवुत्तंतो ॥२८७॥ इय पलवंतो एसो बाहलापुन्नदीणनयणजुओ | भणिओ जणद्दणेणं अवसर तं मज्झ पासाओ || २८८ ॥ हिययाओ कुत्थुभमणि पायतलाओ समुद्धरिय बाणं । पच्छाहुत्तपएहिं पयाहि तं पंडुमहुराए || २८९ || कवि ही बलभद्दो तो तुमं पि मारिहिही । मा वयउ विणासं जायवाण वंसो निरवसेसो || २९०॥ १. अनुचितश्रमात् । २. स्पर्शभयात् । For Private Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आख्यानकमणिका पवाइयवत्तो बारवईए विणासपज्जंतो। मज्झवि मरणं एवं कहियवं पंडुपुत्ताणं ॥२९॥ एवं बहुप्पयारं रुयमाणो पन्नवित्तु कन्हेण । कमवि किच्छेण तया जराकुमारो विणिग्गमिओ ॥२९२। कण्हो वि बाणपहरुत्थवेयणाविहुरविग्गहावयवो । वेरग्गभावियमणो चिंतिउमेवं समाढत्तो ॥२९३।। पेच्छाऽहो ! मम तारिसनिरुवमहरिवंससंभविम्सावि । तारिससिणिद्धबंधवसहस्सपरिवारियस्सावि ॥२९४॥ खणमेत्तेण वि दुद्धरविहाणवसवत्तिणो ममेयाणि । एगाणियस्स मरणं हरिणस्स व जायमुत्तं च ।।२९५॥ खणदंसियसुरसरिवित्थराइं खणसुन्नरन्नसरिसाई । एयाई ताई कम्मिदयालिणो जीव ! ललियाई ॥२६६॥ ता अलमिमिणा परिचिंतिएण कज्जम्मि देमि निययमणं । भावियजिणवयणाणं जियाण परिदेवणमजुत्तं ॥२७॥ संपइ नेमिजिणेसरपमुहाणं मझ तित्थनाहाणं । पाया सरणं निज्जियजम्मण-मरणाण सिद्धाणं ॥२९८॥ साइण नाण-दंसण-चरणजुयाणं गओ सरणमिहि । केवलिपन्नत्तस्स वि धम्मस्स महाणुभावस्स ॥२९९॥ इय चउसरणगओ हं सम्मं निंदामि दुक्कडं इहि । सुकडं अणुमोएमो सव्वं चिय ताण पच्चक्खं ॥३०॥ पंचप्पयारमइयारजायमेसिं समक्खमालोए । वयपरिणामो पुण मज्झ जाणमाणस्स वि न जाओ ॥३०१॥ ते धन्ना कयपुन्ना संबकुमाराइया मह कुमारा । रुप्पिणिपामोक्खाओ पियाओ मे निबिडनेहाओ ॥३०२॥ जे चइऊणं घरवासमेरिसं दुक्खसंतइनिहाणं । जिणपासे पव्वइया ता तेसि वयाणिमणुसरिमो ॥३०३।। संगामपमुहपावं समायरंतेण के वि जे जीवा । इहभव-अन्नभवेसु वि दुक्खविया ते खमावेमि ॥३०॥ अन्नं च सरणमिहि विसेसओ मज्झ मरणसमयम्मि । जिणसासणस्स सारो परमेट्ठीणं नमोकारो ॥३०५।। एवं मुहुत्तमेगं जावऽच्छइ सुद्धमणपरीणामो । तावासुहकम्मवसा सरिय दीवायणरिसिस्स ॥३०६॥ पेच्छ अहो ! तेण तया कुलिंगिमेत्तेण तुच्छरूवेण । भुवणे अगंजियस्स वि माणमरट्टो महं भग्गो ॥३०७॥ जं मह पेच्छंतस्स वि दद्धा नयरी सुरिंदपुरिसरिसा । पिय-माइ-सयणवग्गो विणासिओ पावकम्मेण ॥३०८।। ता जह पेच्छामि तयं संपयमवि पावकारिणमणजं । कदमि तदुदराओ तो हं सकलंतरं सव्वं ॥३०९॥ एवं वहगयहियओ पुणरवि जाओ किलिट्ठपरिणामो। जारिसिया अहव गई मई वि मरणम्मि तारिसिया ॥३१०॥ रुद्द ज्झाणोवगओ सुमरंतो वइरभावमणवरयं । मरिऊग समुप्पन्नोऽमुहलेसो वालुयपभाए ॥३११॥ एत्थंतरम्मि बलभद्दबंधवो बंधुबंधुरसिणेहो । परिपूरिऊण पयसो पोयिणिपुडयं पहपयट्टो ॥३१२॥ पाइस्सं पाणपियं सीयलमिणमो जलं ति चिंतंतो। न मुणइ मणयं पि जह। विहिविलसियमन्नहा जायं ॥३१३॥ अवसउणम ग्गखलणा निययमणे संकिओ सकम्माण । विवरीयत्तगओ तह तुरियगई तत्थ संपत्तो ॥३१४॥ पेच्छइ तं तयवत्थं परिसंतो सुयउ ताव मह भाया । पडिबुद्धं पाइस्सं जलं ति संठविय जलपुडयं ॥३१५|| गोयइ वयणमिमो ता पेच्छइ कसिणमक्खियावरियं । मयगसरूवं नाउं धसक्किओ ताव हिययम्मि ॥३१६॥ पडिबोहिओ वि कह वि हु जा न पयंपेइ ता मयं नाउं । उम्मुक्कमहानाओ ताव हली रोविडं लग्गो ॥३१॥ वाहो वा सुहृडो वा जो को वि वणे स होउ मह पुरओ । जेणेस सुहपसुत्तो विद्धो पायम्मि मह भाया ।।३१८॥ बालं विद्धं समणं नारिं सुत्तं पमत्तमह मत्तं । पहरंति न सप्पुरिसा ता नृण स को वि काउरिसो ॥३१९।। ता पयडउ अप्पाणं पोरिसवायं च चत्तमज्जाओ। जेण भडवायजणियं भंजेमि मरट्टमविसेसं ॥३२॥ हा कन्ह ! कन्ह! बंधव ! कत्थ गओ? पसिय देसु पडिवयणं। अवरद्धंन कया विहु तुज्झमए कह णु मह रुट्ठो?॥३२१॥ पेम्ममकित्तिममेयाणमलियमेयं पि संपयं जायं । अन्नह कह तुह मरणे अहमिह जीवामि निप्पुन्नो ? ॥३२२॥ मोडइ हत्थे तोडइ सिरोरुहे भिडइ रुक्खमूलम्मि । ताडइ वच्छं फोडइ महीयलं पण्हिघाएहिं ॥३२३॥ खणमेगस्थ वियंभह विस्संभइ तत्थ पासमल्लियइ । नियदेवमुवालंभइ परिरंभइ मयगकन्हतगूं ॥३२४॥ उग्गायइ खणमेगं खणमेगं रुयइ हसइ खणमेगं । खणमेगं परिदेवइ वेवइ खणमेगमन्नत्थ ॥३२५॥ कइया वि मोहबसगो पलवइ असमंजसं असंबद्धं । कइया वि हु वीसत्थो रोवइ सरिऊण गुणनियरं ॥३२६॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. नष्टमृतरोदनादिनरर्थक्याधिकारे भरताख्यानकम ३२१ हा चंदवयण! हा रूवमयण! हा कमलपत्तसमनयण ! । हा अमयवयण ! हा गरिमगयण ! हा वच्छ ! नररयण ! ॥३२७॥ हा पुहइवीर ! हा वसणधीर ! हा समरसुहडसोडीर ! । हा भुवणमल्ल ! हा वइरिसल्ल ! हा तुंगिममहल्ल ! ॥३२८॥ रूवं सोहगं वा लावन्नं वा पियंवइत्तं वा । सोजन्नं दक्खिन्नं पुन्नमपेसुन्नने उन्नं ॥३२९॥ चायं नायं वायं अविसंवायं विसिट्टसमवायं । गुणमणिरोहण ! रोएमि के गुणं तुहमहमहन्नो ? ||३३०|| अज्ज वि जीवइ रुट्टो त्ति मुणिय परिभमइ जाव छम्मासे । खंधारोवियमडओ वणमझे मोहवसवत्ता ।।३३।। जाणतो वि हु भुल्लो अहह ! महामोहविलसियमपुवं । दढमवियाणिय मज्झं जेण नडिज्जति गरुया वि ॥३३२।। आह च विविच्य बाधाः प्रभवन्ति यत्र, मिथ्यामतयश्चरन्ति। संसारमोहस्त्वयमन्य एव, दिग्मोहवत् तत्त्वधिया सहाऽऽस्ते ॥३३३।। अपरं च केनचिदनयुक्तममुष्मै नमस्कृतम् कृच्छ्राद् ब्रह्मेन्द्रभूतेरजनि परमितः स्थूलभद्रो विकारं, मुञ्चत्यश्रूण्यजस्र मणकमृतिविधौ पश्य सेजम्भवोऽपि । षण्मासान् स्कन्धदेशे शबमवहदसौ हन्त ! रामोऽपि यस्मादित्थं यश्चित्ररूपो भवतु भुवि नमो मोहराजाय तस्मै ॥३३४॥ जह गिरिवरग्गरहवडणरूव-चिरमयगगाविचारणओ । दवदद्धरुखसिंचण-सिलपउमिणिरोवणपयारा ॥३३५।। रमणीयरमणिकन्हावहारसिढिलियसिणेहबंधणओ । संयुद्धगमकयकन्हकायसरकारकरणेण ॥३३६॥ संकेयसहियपव्वइयत्तसुरलोयदेवरूवेण | सिद्धत्थनिययसारहिजिएण पडिबोहिओ य जहा ॥३३७|| तवलद्धिसहियजिणनेमिपहियचारणसमीवपवइओ। जह विहियविविहतव-चरणपत्तमाहप्पगुणवसओ ॥३३८॥ पडिबुद्धसीह-सदुल-हरिणवणसत्तसंघपरियरिओ । गुणविम्हियवणयरलोयदिट्ठिपीऊसविट्ठिसमो ॥३३६।। पारणयदिवससंपत्तसीमसक्यिारनारिदंसणओ । तक्खणनियत्तवणमझपत्ततणुवित्तिकयनियमो ॥३४०॥ जह हरिणकहियरहयारपासभिक्खानिमित्तमभिपत्तो । जह अद्धछिन्नतरुपडणअप्पतिगपत्तहमरणो ॥३४१॥ जह बंभलोयवरकप्पपत्तपंचप्पयारविसयसुहो । तत्तो चविऊण जहा सिझिस्सइ कन्हतित्यम्मि ॥३४२॥ तह तच्चरियपवंचियवित्थरनिउणाओ समयसिद्धाओ । हरिवंसाओ नेयं इह पुण संखेवओ भणियं ॥३४३।। ॥यादवाख्यानकं समाप्तम् ॥११०।। इदानी मित्राणन्दकथानकस्यावसरः, तच्च भावट्टिकाख्यानके भणितमिति । एएहिं बुद्धिमंतेहिं सत्तमंतेहिं उज्जमपरेहिं । तह विन खलियं एयं एवं दुजयं इमं दइवं ॥१॥ दंष्ट्राकरालवदनं हरिमप्यजन्ति, मत्तं करीन्द्रमपि वीरधियो धरन्ति । कल्लोलसङ्कलमपांपतिमापिबन्ति, दैवं बृहस्पतिधियोऽपि न वारयन्ति ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशेऽशक्यदैवनिवारणप्रतिपादनपरः सप्तत्रिंशत्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥३७॥ तद्यथा [३८. नष्टमृतरोदनादिनरर्थक्याधिकारः ] प्राग् दैवमस्खलितप्रेतापमभिहितम् । साम्प्रतम् 'एतद्वशगानां स्वजनादौ मृते रोदनाद्यपार्थकम्' इत्येतदभिधीयते । रुन्नेण सोइएण य कालग्घत्थो न एइ इह बंधू । भरहो सगरो रामो पउमो एत्थं उदाहरणा ॥ ॥ १. प्रभावमभिः । ५१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे अस्या व्याख्या—'रुदितेन' अश्रुविमोचनेन 'शोचितेन च' मानसाशुभव्यापारेण 'कालग्रस्तः ' कृतान्तक्रोडीकृतः 'न' नैव "एइ "त्ति आयाति 'इह' अस्मिन् लोके 'बन्धुः' स्वजनः । दृष्टान्तानाह - 'भरतः ' प्रथमचक्रवर्ती, 'सगरः' द्वितीयचक्रवर्ती, 'रामः' बलदेवः, 'पद्मः' लक्ष्मणवृहद्भ्राता "एत्थं" ति अत्रार्थे 'उदाहरणानि ' दृष्टान्ता इति गाथासमासार्थः ||: व्यासार्थस्त्वाख्यान कैराह । तानि चामूनि । तत्रापि क्रमायातं प्रथमं किञ्चिद् भरताख्यानकमाख्यायते ३२२ इह् जझ्या किर भयवइ रिसहजिणिदे जुगाइजिणवस मे । तिहुयणलग्गणखंभे अट्टावयपव्व सिद्धे ||१|| संपइ भयवं ! सम्मग्गगमणखलणेक्कपच्चलो भुवणे । पसरिस्सइ तमपसरो अदिट्टपरमत्थसम्भावो ||२|| वियरिसइ अक्खलिओ कुम्सुइ - कुद्दिट्टिपंसुलीसत्थो । तमसा अपस्समाणे जणनिवहे सुइसभायारो ||३|| चीसुं पि वियंभिस्सइ कुनयपवत्तियकुवाइवूयगणो । केवल किरणुस्सा रियतमम्मि तइ पसिए सूरे ||४|| वग्गिस्संति जगवणे परतित्थियक सिणमयगलकुलाई । सियवायदाढदुसहे भयवं ! तइ पचसिए सिंहे ||५|| एवं बहुप्पयारं परिनिव्वाए जिणे जयपईवे । सयलं पि जयं तमसा अप्फुन्नमिणं ति मुणिऊ || ६ || आणंद-सोयवसओ संकिन्नरसं समुन्वहंतेण । विबुहा हिवेण विहिओ जया महंतो मणे खेओ ||७| हा भुवणुत्तम ! हा भुवगनाह ! हा भुवणबंधव ! सरन्न ! | हा भुवणच्चिय ! हा भुवणधीर ! हा भुवणनररयण ! ||८|| हो भुवणुज्वल ! हा भुवणवीर ! हा भुग्णवल्लह ! जिणिंद ! | तुमए गुणमणिनिहिणा विवज्जियं सामिसालेण ॥ ६ ॥ जायमणाहं भुवणं कंदतो संगयं ससोगमणी । जाओ जहत्थनामो सक्को संकंदणो जझ्या ॥ १० ॥ तया किर भरहो विहु सोयसमुप्फुन्नमाणसा सययं । नियजणयमरणदुहिओ अवत्तसरं रुयइ हियए ॥ ११ ॥ न मुणइ जह रोइज्जइ लोयम्मि मयम्मि वल्लहजणम्मि । ता निविडसोयगंठी जाओ भरहस्स हिययम्मि ||१९|| चितइ सुरनाहो विहुमा पीडिज्जउ इमो महापुरिसो । मुक्को घाहासदो भरहस्स विलग्गिउं कंठे ॥ १३॥ भरहेसरो वि महया सद्देग तहेव रोविडं लग्गो । सव्वजणो वि हु एवं रोवइ तइया दुहाभिहओ ॥१४॥ सरिंदे विभरहेण रोविए न य नियत्तिओ ताओ । ता किं इमिणा भावह निरत्थएणं परुन्ने ? || १५॥ ॥ इति भरताख्यानकं समाप्तम् ॥ १११ ॥ अधुना सगराख्थानकमाख्यायते । तच्चेदम् - वज्रहररज्यचि व्व गोरिंगीयावसत्तहरिणि व्व । कामियणसुरयकिरिय व्व सुइसमायारसेणि व्व ॥ १ ॥ पायालनिलयलच्छि व्व जा निरासुरामनायरया । भुवणत्तयविक्खाया अस्थि अउज्झाभिहाणपुरी ॥२॥ साहियछखंडभरहो अइसयसंपन्ननवनिहाणवई । मउडविभूसियबत्तीससहसनरनाहनमियकमो || ३ || रुवाइ गुणविणिज्जियसुररमणीणं विसिट्टविल्याणं । चउसट्टिसहस्साणं भत्ता भुवणन्भहियमहिमो ॥४॥ नाहो हय रहवर - गवराण चुलसीइसयसहस्साणं । चउदसरयणाहिवई तं पालइ सयरचक्कवई ||५|| तस्य समकुमराणं रूयविणिज्जियजयंतकुमराणं । गंजियरिउसमराणं जिदिपयपउमभमराणं ॥ ६ ॥ निरुवमनररयणाणं सट्टिसहम्साणि सुंदरसुयाणं । अवरं पि हु अच्चभु[यभू ]यं सव्वं पि चक्किसुहं ॥७॥ अह अन्नया कुमारेहिं नियपिया [स] विणएहिं विन्नविओ । ताय ! तुह रिद्धिसहिया परिक्कमामो पुहईवीढे || ८ || ससिणेहमणुनाए मणुन्ननरवइसिरीए दिप्पंता । वियरंता संपत्ता अट्टावयपव्वयं कुमरा ॥ ९ ॥ पेरंतपयडकडओ विविहविरायन्ततुरय-गयगमणो । चिलसंतसेयचमरो गिरिमा कलिउं नरवइ व्व ॥ १० ॥ सूरो व्व युद्धवंसो विचित्तवणराइरे हिरसरीरो । पयडसमुन्नयपाओ अट्टाचयपचओ दिट्टो ॥११॥ सेन्नं निवेसिऊणं तलम्मि तच्चंगिमं नियच्छंता । उवरिमभाए चडिया पर पए को उगऽक्खित्ता ॥ १२ ॥ दिहं पञ्चयसिहरं सुरसयणसमन्नियं मयप्पवरं । महुपाइकुलं व पडिक्खलंतपयचाररमणीयं ॥ १३॥ जत्थिंदनीलमणिमयकुट्टिमतलभूमिमज्झसंकंतो । उडुनियरो जगह जणस्स धरणिगयगयणआसंकं ॥ १४॥ विलिहियगयणं गणतुंग सिहरस्य सन्निरुद्ध गहमभ्गं । पत्रयचंगिमदंसणसंपत्तं सुरविमाणं व ॥ १५ ॥ For Private Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. नष्टमृत रोदनादिनैरर्थक्याधिकारे सगराख्यानकम् विरइय (विरह) विसंक्रमित्तो घणओ इव विहिय उत्तरासंगो । पयडियपुप्फविमाणो विरायए जत्थ सुविसरो ||१६|| चन्नप्प माणसंगयविमाणदिप्पंत देवपडिमहरं । सग्ग व जिणाययणं नियंति निरुवद्दवं तत्थ ॥ १७॥ उस भाइ जिणेसर पडिमदंसणुप्पन्नपयडरोमंचा । पणमित्तु भावसारं एवं थोडं समादत्ता ||१८|| चक्कु लक्खणु, भुवणविलक्खणु, पक्खा लिय बहुपावमलु । च उनीसजिगिंदहं, पणयसुरिंदहं, पणमिवि भसिए पयकमलु ॥ १९ ॥ अट्टावयपचय सेहराहं, भरहेसरकारियजिणवराहं । जमु लेतिर जिगह पमाणु वन्नु तं पभणहुं निसुणहु देवि कन्नु ॥ २० ॥ सई पंच सिरिरिसहसामि, वरकणयकंति करिलीलगामि । धणुस चियारि पंचासअहिय, कणयप्पहि अजियजिदि कहिये ॥ २१ ॥ संभवह जिहि सय चियारि, उच्चत्त कणयवन्नह वियारि । आहुट्टुसयइ धणुहहं पमाणु, हेमाभह अभिनंदनह जाणु ||२२|| सय तिनि सुमइ परमेस रहो, उत्तत्तक्रणयतणुभासुरहो । निम्मलपवालजुइसुप्पहम्स, अड्डाइय सय पउमप्पहम्स ||२३|| दुइ धणुस आसि सुपाससामि, तवणिज्जवन्नु सिवनयरगामि । ३२३ चंद्रप्पहु जिणवरु चंदछाउ, धणुसउ दिवड्दु तसु तणउ काउ ||२४|| for सुविहि संखतलविमलदेहु, सो धणुसउ एक्कु गुणोह गेहु | जिण धणुह नउ सीयसनामु, तवणीयवन्नु निम्महियकामु ||२५|| सेयं सुवन्नवन्नति, धणुहहं असीइ तसु तणु कहंति । रतुप्पलस्तु सुरिंदपुज्जु, सत्तरि धणुहहं सिरिवामुपुज्जु ॥२६॥ जणु विमल विमलकर कणयवन्नु, सो सट्टियणुह सिचपहपवन्नु ! पंचासह जिणवरु अणंतु, कुलभवणु सिरिहि कलहोयकंतु ||२७|| सिरिधम्मु धम्मधुरधरणधीरु, पणयालधणुह मज्जुणसरीरु । सिरिसंतिजिणह चालीस आसि, जो हेमवन्नु सिवनयरिवासि ॥ २८ ॥ पणतीस कुंधुजिण हेमभासु, जिं सासयसिवपुरि पत्तु वासु । अरु कणयवन्नु धणुहरहं तीस, जसु पणमहिं पाय सुरासुरीस ||२६|| नीलप्पलसाम मल्लिनाडु, पणुवीसघणुह केवलसणाहु । मुणिनुब्ब सुब्वउ साममुत्ति, सो वीसधणुह वज्जरिय सुति ||३०|| पन्न रसधणुह नमिजिणवरासु, तवणीयतणुहु पणयामरासु । घणकज्जलसामल रिट्टनेमि, दसघणुह धम्मवरचक्रनेमि ||३१|| मरगयसवन्नु तित्थयरु पासु, नवहत्य विणिधुयकम्मपासु । कणसामु सत्तरयणीपमाणु, सिद्धत्थह नंदणु वद्धमाणु ||३२|| इयनिरुवमसासण, भुवणपयासण, जो नरु भत्तिए संथवइ । चवीस वि जिणवर, सिवसिरिवहुवर, सो संसारि न संभमइ ||३३|| एवं थोडं जिणहरगिरिवरगयचंगिमाहरियहियया । पुच्छंति मंतिवग्गं सप्पणयं ते पयतेण ||३४|| के इमं जिणभवणं कारवियं सुकयकम्मुणा सुहयं ? । तेण वि कहियं जह किर नियजणयसयासओ सोउं ||३५|| जिणभवण विहाणफलं कारवियं भरहचविणा एयं । तेहिं वि भणियं जोयह एयारिसपव्वयं रम्मं ||३६|| जे अम्हे जिणभवणमेरिसं मणहरं करावेमो । तेहिं वि तारिसयगिरी गवेसिओ विहु महीवीढे ||३७|| जा कह विनोवलद्धो ता भणियमिमस्स चैव काहामो । रक्खाविहाणमणहं जेण महागुणमिमं पिजओ ||३८|| जिन्नाणं सिन्नाणं भट्टाण महाफलं समुद्धरणे । समए चिरंतगाणं दंसियमन्नच्चयाणं पि ||३६|| तत्तो वड्डरयणेण छिंदिरं जोयणप्पमाणाओ । पइयाओ दुरारोहाओ भाविमणुयाण विहियाओ ||४०|: उपासेसुं जोयणसहस्समाणा खणाविया परिहा । जिणभवणरक्खणट्टा विसुद्ध चितेहिं कुमरेहिं ॥ ४१ ॥ जाओ भवणवणं भवणेमु उवद्दवो तओ रुट्टो । जलणप्पहाभिहाणो अग्गिकुमारो गुरुप्रभावो ||४२|| तू भणिया भोपाचा ! किं समायरियमेयं ? | अहवा दुन्नयकरणाणं तुम्ह समुवट्टियं मरणं ॥ ४३॥ तो जन्हकुमारेण मा रूस सुभद्द ! जिणहरस्स कए । कयमेयं ति सविनयं खमाविओ सो गओ ठाणं ॥ ४४ ॥ भविव्वया निओगे तेसिं चिंता पुणो इमा जाया । अइसोहणा वि परिहा जलरहिया सोहइ न एसा ||४५ || For Private Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आख्यानकमणिकोशे तो सारणिं विहेउं गंगानीरप्पवाहमाणेउं । परिपूरिया समंता पत्तं नीरं असुरभवणे ॥४६।। तो जलणप्पहअमरेण नीरभरपूरिए निययभवणे । रुसिऊण नेत्तजलणेण भासरासीकया कुमरा ॥४७॥ तत्तो दइववसेणं तेसिमकंडम्मि तारिसे जाए। किंकायव्वविमूढो परिवारो कंदिर लग्गो ॥४॥ अवरोह-मंति-सामंतपभिइणोऽसज्झदुहभरवंता । हाहारवमुहलदिसा सव्वे वि हु पलविउ लग्गा ॥४॥ हा रूव-कंति-विन्नाण-नाण-लायन्नरयणजलनिहिणो ? । कत्थ गया सव्वे वि हु मोत्तुमणाहे समगमम्हे ? ॥५०॥ अम्हे अक्खयदेहा कुमरा सव्वे वि जममुहं पत्ता । एरिसमकंतवयणं कोणु कहिम्सइ पुरो रन्नो ? ||५१।। एत्थेव ता मरामो निब्भग्गा किं गया करिस्सामो ? । इय कयनिच्छयहियया तया चियाओ रयावेति ।।५।। दट ट्रणं तं वइयरमेगेण दिएण चिंतियं तमिमं । मूढाण विलसियमिमा किमणत्थपरंपरा अवरा ? ||५३।। पभणइ भट्टो भद्दा ! तुम्भे वि हु मा निरत्थयं मरह । मा भवउ उवरि गंडस्स फोडया तुम्ह मरणेणं ।।५४।। रन्नो य सावइस्सं पढममहं चेव कुमरखुत्तंतं । इय सब्वे वि मरते निसेहिउं बुद्धिमं विप्पो ॥५५॥ काऊण मडयमेगं खंधे पोक्करइ नयरमज्झम्मि । अन्नाओ अन्नाओ अहो ! हु सयरे वि पभवंते ॥५६|| राया वि हु पयईए माणससरसलिलसच्छहो सोउं । पुच्छह किमेयमन्नायघोसणं भणइ विप्पो वि ? ॥५७|| देवेगो संपयमंधजट्ठिया पाणवल्लहो पुत्तो । दसिऊण सप्परूवेण यकयंतेण मह हरिओ ।।५।। राया वि हु गारुडिए वाहरि भणइ मंतसत्तीए । जीवावह पुत्तमिमं महाणुभावस्स विप्पस्स ॥५२॥ ते विह सवे मिलिउं सामत्थेऊण निययबुद्धीए । कुणिमो देवाएसं सवमिमं किं वियप्पेणं ? ॥६॥ परमाणावसु भूई देव ! कुओ वि हु कुलाओ जत्थ कुले। न कया विहु कोइ मओ तो रन्ना पेसिओ विप्पो ॥६॥ नीसेसनयरमाहिंडिऊण परिपुच्छिण पदभवणं । अप्पत्तमंतवाईवुत्तविसेसणकलियभूई ॥२॥ सो आगओ विलक्खो जंपइ एरिसविसेसणविसिट्टा । देव ! न लब्भइ भूई उद्धं देवो पमाणं ति ॥६३।। तो ईसि विहसिऊणं भणिओ रन्ना स माहणो विप्प ! । जइ जणसामन्नमिमं ता तुज्झ पराभवो को णु ? ॥६४॥ जओ पंचजणसमाणे विह वसणे पत्ते न कीरई सोगो। किं पुण सयलनरा-ऽमर-तियणसाहारण मरणे ॥६५॥ भट्टेण भणियमेवं जइ जाणसि तो थिरो भवसु सामि ! | नियमणियं परिपालसु तमप्पियं सावइस्सामि ॥६६।। जम्हा तुझ वि संपइ सट्टिसहस्साणि सामिय ! सुयाणं । सगाम्गमणोलग्गाइं जायाइं विहिनिओगेण ॥६७|| सुणिऊण कन्नकडुयं तं वयणं विवसविम्गहावयवो । वजप्पहारपहओ व्व मुच्छिओ तयणु पुहइवई ॥६८|| सत्थीकओ य सिरिखंडपवणजलसीयलोक्यारेहिं । कुणइ पलावे दढसोयसंकुसल्लियसमम्गतणू ॥६।। हा गुणनिहिणो ! हा जणयवच्छला ! हा सिणिद्धजणणिपिया ! | तुम्हाणं सव्वेसिं कहेह रोयामि कयरमहं ? ||७०॥ हा वच्छ रयणसेहर ! हा कणयद्धयकुमार ! मणदइय!। हा पुत्त पउमसेहर ! हा पउमुत्तर ! पियालाव ! |७१।। हा सीहविक्कमंगय ! नियविक्कमविजियकेसरिकिसोर ! | हा गयवाहण ! मयगलमंथरगइगमणदुल्ललिय ! |७२।। हा समरकेउ ! रिउविसरसमरजयसिरिनिवासकुलभवण !। हा दढधम्म ! मणोहर ! धम्मियसव्वंगगुणगेह ! ||७३|| हा वज्जंगय ! संगय ! हा वीरंगय ! विसालबच्छयल ! । इय कयनामम्गा सयरो रोवइ नियकुमारे ।।७४|| हा दइय ! निग्विण ! तए समसुत्ती पाडिया ममेगम्स | दे! पसिय पसिय दंससु सुयमेगं ताव मह पुरओ ||७५|| रे दइय ! किमवरद्धं तुझ मए कहसु मंदभग्गेण । सुयरयणाण सहस्साणेगपए च्चिय हरंतस्स ? ॥७६।। हे विहि ! फुक्किय ! निल्लज्ज ! पाव ! निप्फुट्ट ! चत्तमज्जाय ! । किं कुणसि एत्तिएहिं ? मुंचसु सुयमेगमुच्छंगे ॥७७।। हा ललिए ! लीलावइतिहुयणतिलए ! रयंगि ! रइसरिए !। किं न मरह सुयरहिया निप्पुन्ना संपयं सहसा ? ||७८।। हा हियय ! कढसु हा हियय ! फुडसु हा हियय ! दलसु सयराहं । पाविय ! धरसि किमज्ज वि बजसिलिंकाहिं निम्मवियं ? ।।७।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. नष्टमृतरोदनादिनैरर्थक्याधिकारे सगराख्यानकम् कि नत्यि कोइ देवो गंधवो दाणवो व खयरो वा ? । किं निद्देवयमेयं ? न कुणइ जं को वि मह ताणं ॥८॥ भणियं दिएण सुमरनु जं संपयमेव जंपियं तुमए । अहवा वि हु नियवसणे मुज्झइ सव्वो वि जमिहत्तं ॥८॥ दिज्जइ सुहमुवएसो हत्थं नच्चाविऊण अन्नस्स । नियवसणे सा बुद्धी न याणिमो कत्थइ पलाया ? 1:२।। ता अज्ज वि होसु थिरो अवलंबसु धारिमं महाराय !। विसहइ वज पहारं अयलो च्चिय न उण लेटुदलं ।।८।। इय गपयारेणं रोवंतेण वि नरिंदसयरेणं । नियदयकुमरनिवहो न वालिओ मच्चगेहाओ ।।४।। सव्वे समाउया जह जाया आसायणाए संघस्स । उत्तरायणाओ तहा जम्मंतरसंगयं नेयं ।।८५॥ ॥ सगराख्यानकं समाप्तम् ॥११२॥ इदानीं रामाख्यानकस्यावरः, तच्च यादवाख्यानके भणितमेवेति क्रमप्राप्तं पद्माख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् जइया य दुहा वि हु पारदारिओ मारिओ दुरायारो । लंकानाहो वाहो व्वनीइघरिणीए दहवयणो ॥१॥ जइया य निकलंका महासई अच्चुयं गया सीया । रज्जं पालंताणं लक्खण-रामाण पज्जते ।।२।। रामस्स सुए मरणे नियमणं मरइ लक्खणकुमारो । रामो वि हु तम्मरणे गहगहिओ भमइ भूवीढे ॥३॥ एवं विहो सिणेहो पाएण सहोयराण नऽन्नेसि । सक्केण सुरसमक्खं इय वज्जरिए नियसभाए ॥४॥ एगो असद्दहंतो अणेगभडकोडिसंकडत्थाणे । सीहासणोवविट्टे लक्खणकुमरम्म मायाए ॥५॥ अंतेउरं विहेउं हाहारवगम्भिणं भणइ देवो । मुट्टा मुट्ट त्ति अहो ! मओ मओ रामदेवपहू ॥६॥ तं वयणं सोऊणं नेहऽझवसायजायसंघट्टो । उवविठ्ठो लच्छिहरो मुक्को सहस त्ति पाणेहिं ॥७॥ नेहो अणत्थहेऊ जियाण नेहो हु दुग्गइनिमित्तं । नेहो हासट्ठाणं नेहो हु विडंबणाहेऊ ॥८॥ नेहेण नियलरहिओ भवचारयमंदिरे वसइ जीवो । नेहेण दढं खुप्पइ जलरहिए कद्दमे मूढो ।।। नेहेण दारुरहियम्मि पंजरे वसइ सह सुओ व्व जिओ। कीलियविवज्जिए खोडयम्मि फुडमेस संवसइ ॥१०॥ नेहो विवेयवइरी अणामिया दढमणत्थरिंछोली । नेहेणं चिय परिभमइ जियगणो दुहभवावत्ते ॥११॥ पेच्छसु नेहेण इमो पंचत्तं पाविओ विमूढमणो । तेणं चिय परिचत्तो मूलाओ इमो विवेईहिं ।।१२।। इय भावितो देवो विलक्खचित्तो विसायमावन्नो । धिसि घिसि विलसियमेयं अपरिक्खियकारिणो मज्झ ।।१३।। एवं विसन्नचित्ते पच्छायावेण दुमिए देवे । एएण निमित्तेणं मयम्मि लक्खणकुमारम्मि ॥१४॥ हाहारवं कुणंते सोरोहे परियणे ससामंते । नीसेसे नयरिजणे संपत्तो रामएवो वि ॥१५|| दणं निच्चेटुं विच्छायमुहं च लक्खणकुमारं । मुच्छानिमीलियच्छो धस त्ति पडिओ महीवीढे ॥१६॥ सिसिरोवयारकरणा चेयन्नं पाविओ मणायमिमो । सिरिपउमपुहइपालो पलवइ विविहप्पयारेहिं ॥१७॥ हा वच्छ ! लक्खण ! तुम मम भत्तो किं न देसि पडिवयणं!। किं वा अब्भुट्टाणं न कुणसि मह पासपत्तस्स ? ॥१८॥ किं तुह गुरुयणविणयं ? किं वा पणयं च पणइवग्गम्मि ? | मग्गणगणम्मि चायं तुज्झ गुणं कमिह वन्नेमि ? ॥१६॥ तथा हि किं सुंबकुमरसिरछेयसाहसं सुज्जहासखग्गगहं । किं वा वि हु सुप्पनहाभीसणरक्खसिपराभवणं ॥२०॥ किं वा खरदूसणरायसमरभडभिडगसुहडनिव्वहणं । किं कोडिसिलप्पाडणमहवा दहवयणरक्खवहं ॥२२॥ भुवणऽच्चब्भुयभूयं विसिट्ठजणविम्हयावहमपुव्वं । तुह वियसियकमलदलच्छ ! वच्छ ! रोएमि क व गुणं? ॥२२॥ तुह वच्छ ! नावरद्धं कइया वि मए न यावि मह तुमए । ता किं संपइ रुट्टो न देसि दुहियरस पडिक्यणं? ॥२३॥ पावियफुडचेयन्नो चिंतइ समईए रामदेवनियो । किं एसो सच्चं चिय मओ न जं देइ पडिवयणं? ॥२४॥ एत्थंतरम्मि भणियं पहाणपुरिसेहिं एस अम्ह पहू । अवहरिओ हयविहिणा ता कीरउ देहसकारो ॥२५॥ १. पलाण। २० । २. सूरहास०२०।। Jain Education Interational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आख्यानकमणिकोशे रामो वि भणइ पडियममंगलं तुम्ह एरिसं वयणं । न उणो मरिही कइया वि बंधवो एस मज्झ पिओ ॥२६॥ पुणरवि जंपइ पउमो दुजणलोयाण मज्झयाराओ । उट्ठसु वच्छ ! वयामो कहिं पि दूरे अरन्नम्मि ॥२७॥ इय भणिऊगं खंधे का अन्नत्थ जाइ गहगहिओ। तत्थ वि न्हावइ धोवइ परिहावइ वत्थ-ऽलंकारे ॥२८॥ जेमावइ परमन्नं मुहम्मि पक्खिवइ सरसतंबोलं। उच्छंगम्मि निवेसिय परिमुसिउं वयणमालवइ ॥२९॥ इय मोहमाहियमई पभूयकालं वणम्मि परिभमइ । खंधारोवियमडओ न मुणइ जह एस कालगओ ॥३०॥ तं जह सारहिदेवो पडिबोहइ जह य सीयदेविंदो। उवसग्गे कुणइ जहा उप्पाडइ केवलं नाणं ॥३१॥ तह सव्वं वित्थरओ विन्नेयं रामदेवचरियाओ। ठाणासुन्तत्थं पुण इह भणियं जाणियव्वमिमं ॥३२॥ छ।। ॥ पद्माख्यानकं समाप्तम् ॥११३॥ एएहिं मओ बंधू बहुएण वि रोइएण नाऽऽणीओ । तह अन्नो वि न आणइ निरत्थयं रोइयाइ तओ ॥?|| आक्रन्दितेन बहुनाऽपि च शोचितेन, सार्द्ध सुरेश्वरगणैरपि रोदितेन । ___ क्रोडीकृतं हतकतान्तभटैः स्वबन्ध.प्रत्यानयेयुरिह केऽपि न सद्धियोऽपि ॥१॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे नष्टमृतविषयरोदनादिनैरर्थक्यप्रतिपादनपरोऽष्टत्रिंश त्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥३८॥ [३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारः ] अनन्तरं रोदितादि निरर्थकमभिहितम् । अधुना चैतत् स्नेहवशगैः क्रियमाणं कृत्रिमस्नेहत्वाद् बन्धूनां निरवकाशमेवेत्येतदभिधातुकाम आह बंधू वि इह अरित्तं कुणइ सकजेण तेसु को मोहो ? । रविकंत-चुलणि-कोणिय-संख-भरहकणगकेउ व्व ॥ व्याख्या-बन्धुरपि आस्तां परः 'इह' अस्मिन् लोके 'अरित्वं' शत्रुत्वं "कुणइ" त्ति करोति 'स्वकार्येण' स्वप्रयोजनेन, तेषु बन्धुषु को मोहः' कः स्नेहः ? । दृष्टान्तानाह-'रविकान्ता च' सूर्यकान्ता प्रदेशिनृपभार्या 'चुलणी च' ब्रह्मभार्या 'कोणिकश्च' श्रेणिकपुत्रः 'शङ्खश्च' कलावतीपतिः 'भरतश्च' वृषभजिनपुत्रः 'कनककेतुश्च' कनककेत्वाख्योराजा येते तथोक्ताः तद्वदित्यक्षरार्थः ।। भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि तावत् क्रमप्राप्तं रविकान्ताख्यानकमाख्यायते केयइदेससरोवरभूसणसियकमलसंडसंकासा । केयइदलधवला इन्भतुंगधवलहरमालाहिं ॥१॥ सेयविया नाम पुरी तत्थऽस्थि पएसिनाम नरनाहो । साहसिओ करमणो पावमई वम्मकलिओ वि ॥२॥ नाहियवायपरो वि हु दीसंतो रोद्ददसणो दूरं । इहलोयविसयगिद्धो वसीकयासेसपरलोओ ॥३॥ सूरियकता नामेण अत्थि लायन्न अमयरसाहा । नियरूवोवहसियतियसपणइणी पणइणी तस्स ॥४॥ तासाइदोसरहिओ फुरियपयावो य सूरसंजोगा । सुविसुद्धवन्नकलिओ सूरियकंतो व्व तस्स सुओ ॥५॥ सूरियकंतो नामं पारं पत्तो कलाकलावम्स । तस्स य पएसिरन्नो सिणेहपत्तं परमहेसि ॥६॥ चित्तो नाम अमच्चो अलद्धमझो थिराउ बुद्धीओ । मयरहरम्मि नई उ व समकालं जम्मि विलसति ॥७॥ सो अन्नया कयाई पद्रविओ निवपओयण कहि वि । सावत्थीए जियसत्तरायपासम्मि नरवणा ॥८॥ तेण च उनाणकलिओ केसी नामेण गणहरो दिट्टो । अन्तेवासी सिरिपाससामिणो तत्थ य गएण ॥९॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे रविकान्ताख्यानकम् धम्मकहं कहमाणो तस्स सयासम्मि सो वि संपत्तो । सोऊण परमधम्म संबुद्धो जायसंवेगो ॥१०॥ बारसविह गिहिधम्म सम्मत्तपुरस्सरं सुहासयओ। पडिवजह कयकिच्चं अत्ताणं मन्नमाणो य ॥११॥ पभणइ भयवं ! भवदुरवगाहकूवम्मि निवडिओ अयं । तुम्भेहिं समुद्धरिओ जिणपवयणरज्जुखिवणेण ॥१२॥ काऊण गुरुपसायं इन्हि नियचलणकमलफरिसेण । सेयवियानयगए भूमितलं कुणह सुपवित्तं ॥१३।। सूरीहुत्तं जह वट्टमाणजोगेण आगमिस्सामो। बंदित्त भावसारं सेयवियं पडिगओ मंती ।।१४।। विहरंता य कमेणं संपत्ता सूरिणो वि तत्थेव । निययमुनि उत्तपुरिसेहिं तयणु वद्धाविओ मंती ॥१५॥ नाऊण तेसिमागमणमसमरोमंचकंचयकाओ। ठाणट्रिओ वि भत्तीए नमइ सूरीण पयकमलं ।।१६।। चिंतइ य जहा मिच्छत्तमोहिओ मज्भ एस नरनाहो । रुद्दाणीयपरिगओ भवाभिणंदी हरजणो व्व ॥१७॥ किं मह जीवंते विहु सचिवे एसो गमिस्सई नरयं ? । किं सो हु तस्स इट्टो जोइज्जइ जो न धम्मम्मि ? ॥१८॥ किं वा हवेज मित्तो जो न समुद्धरइ पावपंकाओ ? | ता केणावि उवाएण नेमि सूरीण पासमिमं ।।१९।। भवजलहिम्मि निवडियं जेण इमं उद्धरंति ते गुरुणो। जिणसमयजाणवत्तेण मंतिणा चिंतिऊण तओ ॥२०॥ देव ! इमे वरतुरया वहुकालमवाहिया विणस्संति । इय आसवाहियालिच्छलेण मंती तहिं नेइ ॥२१॥ कुव्वंति जत्थ सद्धम्मदेसणं सूरिणो बहुजणस्स । तो भणियं नरवइणा एसो मुंडो किमारडइ ? ॥२२॥ तत्तो चित्तेणुत्तं सम्मं जाणे न देव ! हं किंतु । गंतूणं निसुणेमो तयणु गया गुरुसमीवम्मि ॥२३॥ जीवाईए तत्ते परूविए देवयासरूवे य । गुरुणा ता भणइ निवो सव्वमसंबद्धमेयं ति ॥२४॥ इह नत्थि ताव जीवो तुह वंछियतत्तमूलभूओ य । पच्चक्खगोयराईयत्ताआ ससविसाणं व ॥२५|| तो भणियं सूरीहिं किमियं पञ्चक्खगोयराईयं । भो भद्द ! तुझ ? किं वा सव्वेसिं जंतुजायाणं ? ॥२६॥ तत्थ जइ पढमपक्खो तो पव्वय-थंभ-कुंभमाईणं । होइ अभावपसंगो जं पञ्चक्खम्स विसओ ते ॥२७॥ पडिनिययजीवगोयरचारित्तं अह दुइज्जपक्खो य । सो वि असिद्धो सिद्धीए तम्स तुह चेव सम्भावो ॥२८॥ सव्वन्नुजीवसिद्धीए तयण जीवाइतत्तपडिसेहो । होइ अणत्थो जीवे सइ बंधाईण सुकरत्ता ॥२६॥ इच्चाइतंतजुत्तीए तेहिं राया निरुत्तरो विहिओ। तो भणइ सविणयमिमो भयवं ! जइ होज्ज परलोओ ॥३०॥ ता मम माया अच्चंतधम्मिया आसि सयलसत्तहिया। जणओ पुण नित्तिसो निद्धम्मो पावकरणरओ ॥३१॥ तुम्ह मएणं मरिऊण ताणि पत्ताणि सग्ग-णरएसु । ते कह आगंतूणं न प्पडिबोहिंति मं एत्थ ? ॥३२॥ तो भणियं सूरीहिं भद्द ! जहा कोइ रायपुरिसेहिं । महयावराहगहिओ वज्झभुवं निज्जए पुरिसो ॥३३॥ सो भणइ तेसि पुरओ नियसयणाणं मिलित्तुमीहे हैं । एक्कं वारं काऊण मह दयं मुयह ता तुन्भे ॥३४।। तो किं तेसि सयासा मिलणं सो लहइ जणणि-जणयाणं ? । एवं नेरइया वि हु परमाहम्मियसया साओ ॥३५॥ न लहंति इहाऽऽगंतुं करवत्ताईहिं कप्परिज्जंता । करुणारहिएहिं दढं निरंतरं नरयवालेहिं ॥३६।। देवा पुण विसयपसत्त मणहरुज्जाणकीलणे सत्ता । नरभवअसुहत्ताओन हुइंति इहं जओ भणियं ॥३७|| संकंतदिव्वपेमा विसयपसत्ता समत्तकत्तव्वा । अणहीणमणुयकज्जा नरभवममुहं न इंति सुरा ॥३८॥ चत्तारि पंच जोयणसयाणि गंधो उ मणुयलोयम्स । उ8 वच्चइ जेणं न हु देवा तेण आवंति ॥३॥ इच्चाइकारणाओ उवति नरनाह ! ते कहं इहई ? । तो भणियं भूवइणा सच्चं भयवं ! भवउ एवं ॥४०॥ तह विमए तावेगो चोरो निच्छिहलोहमइयाए । मंजूसाए निहित्तो कालेण निरिक्खिओ तम्मि ।।४१॥ किमिपुंजो च्चिय दिट्ठो मज्झंतेणं न यावि कालेण । मंजूसाए विहियं छिदं तो नत्थि एत्थ जिओ ॥४२॥ तो भणियं सूर्गहिं वायामेत्तं नरिंद ! एयं पि । जम्हा लोहमयाए कुंभीए निहत्तपुरिसेण ।।४३।। वाइजंते संखम्मि संखसही बहिं विणिस्सरह । लोहमए वा गोले निक्खित्ते जलणमझम्मि ।।४४।। १. संतुठो रं० । २. सूरिभिरुक्तम् । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ आख्यानकमणिकोशे तम्मि य धमिजमाणे अम्गी पविसेइ गोलयम्संतो । निग्गमपवेसबिहियं न किं पि दीसह तहिं छिदं ॥४५॥ मुत्तेसु वि संख-सराइएमु जइ एवमत्थि नरनाह ! । ताव अमुत्ते जीवे सद्दहियव्वं विसेसेणं ॥४६॥ पुणरवि भणियं रन्ना भयवं! एगम्स तक्करस्स मए । खंडीकयं सरीरं तिलोत्तं न य कहिं पि तहिं ॥४७॥ दिट्ठो जीवो ता कहमेसो अस्थि त्ति सद्दहेयव्यं ? । सूरीहुत्तं रायं ! ससिकंतमणिम्मि बहुसो वि ॥४८|| फोडिज्जंतम्मि जलं अरणियकट्टाइएमु तह अग्गी । नो उवलब्भइ अह चंदकिरणजोगाइसामग्गी ॥४६॥ तेसिं भावं जणयइ ससिकताईमु एवमिहई पि । अह भणियं नरवइणा भयवं ! अवरो मए चोरो ॥५०॥ जीवंतो तोले गलमावलिऊण मरिडं पच्छा । पुणरवि य तोलिओ न य निभालिओ तो वि चोरम्स ॥५१॥ तुल्ल जणिओ विसेसो ता कहमत्थि ति सद्दहेयवो ? | गुरुणा भणियं नरवर ! केण वि गोवालपुत्तेण ॥५२॥ वायंडयं परिपूरिय पचणम्स स तालिओ पुणो रित्तो। विहिऊण तोलिओन उण पवणजणिओ तहिं दिट्टो ॥५२॥ कोइ विसेसो अह पुव्वमेस पञ्चक्खमेवमुबलद्धो । मुत्तेमु ताव एवं भणियव्वं अमुत्तेमुं ? ॥५४॥ तम्हा उ असाहारणचेयन्नगुणोवलंभभावाओ । तुम्हाण वि..... 'देसेणऽप्पा हु पच्चक्खो ? ॥५५॥ इच्चा इमोहविद्धंसनिउणजिणसमयवयणमंतेहिं । तह कह विउंजिओ सो मिच्छत्तविसेण जह मुक्को ॥५५।। जंपइ य तओ तुम्भेहिं जं समाइट्टमवितहं भयवं !। किंतु कमागयनस्थियवाइत्तं परिचयामि कहं ? ॥५६॥ सूरीहिं तओ भणियं एयं पि अकारणं महाराय ! | कमपत्तं रोग-दरिद्दमाइयं किं न मोत्तव्वं ? ||५|| जायइ पच्छायावो उ अन्नहा लोहमारवाहस्स । पुरिसम्स व को एसो ? रन्ना भणिए भणइ सूरी ॥५८|| दविणोवजणकज्जे चउरो पुरिसा विणिग्गया केइ । तत्तो कम्मि पएसे दिट्ठो लोहागरो तेहिं ॥१९॥ जावयमेत्तं वहिउ तरंति लोहं सउत्तमंगेण । घेत्तु तावयमेत्त संवलिया कह वि अह पुरओ ॥६०॥ . रुप्पागरम्मि दिटे लोहं चइऊण ते जणे तिन्नि । गिन्हंति रुप्पमेगो परिहरइ न कह वि तं लोहं ॥६॥ अन्नेहिं भणिज्जंतो वि भणइ तुम्भेऽणवट्टिया दूरं अयं तु पुणो एयं चिरपरिखूढं न हु चएमि ॥२॥ अम्गे गच्छंतेहिं निहालिओ कणयआगरो रुप्पं । परिहरि ते तिन्नि वि लिंति सुवन्नं जहिच्छाए ॥६३॥ इयरो वि तेहिं भणिओ लोहं मोत्तण गिन्ह कणयमिणं । उवहसइ अहो! तुम्भे निच्छयरहिया य पडिवन्ने ॥६॥ पुरओ संचलिएहिं संपत्तो रयणआगरो तेहिं । तत्तो समुझिऊणं कणयं गिन्हति रयणाई॥६५॥ वुत्तो य लोहवाही अन्नेहिं भणसि जं न कहियं मे । एत्तियगए वि गिन्हमु लोहं मोत्तण रयणाणि ॥६६॥ दारिद्दभरक्कंतो इहरा सोइहिसि मूढ ! तं बहुयं । एवं भणिजमाणो नवरमुबह सइ सो अन्ने ॥६७|| संपत्ता नियदेसे कइय वि रयणाणि विकिऊण तओ। विलसति जहिच्छाए नियभवणे पिययमासहिया ॥६८॥ लोहभरवाहओ वि य तेसिं पासित्तु लच्छिविच्छड्डु । पच्छायावदवेणं पइदिवसं डज्झए हियए ॥६॥ इय लोहभारवाहयपुरिससमं चयसु नियमभिप्पायं । नाणाईरयणाई गेन्हमु सिवसोक्खहेऊणि ||७०॥ इय जंपिओ य गुरुणा संवेगपरायणो महीनाहो । पाएमु निवडिऊण एवं भणि समाढत्ता ||७१॥ तुमेहि समुद्धरिओ कारुन्नपरेहिं निवडिओ अयं । अन्नाण-दुहसमुद्दे सुदेसणाजाणवत्तेणं ॥७३॥ सोऊणं नरनाहो दुविहं धिम्म पि भावियमणो सो । गिहिधम्म पडिवज्जइ सम्मं बारसविहं तत्तो ॥७३॥ गच्छंतेहिं दिणेहिं रन्नो तह कह वि परिणओ धम्मो । जह खोभिन सक्का सक्काईया सुरा वि तयं ॥७४॥ संवेयभावियमणो पडिवजह पोसहं अहऽन्नदिणे । कामाउरा विचितइ रविकंता नियमणे एवं ॥७५॥ अंगीकयजिएधम्मो जप्पभिइचव एस संजाओ। अच्छंतु ताव परिहासगभिणा संगमारंभा ॥७६॥ आलवणं पि हु तप्पभिइ चेव न कयं मए समं इमिणा । ता मारिऊणमेयं रज्जे पुत्तं निवेसेउ ॥७७|| विलसामि जहिच्छाए इय चिंतिय दुवुद्धिसहियाए । पोसहपारणयदिणे दिन्नं हालाहलं रन्नो ॥७॥ १. दीयडयं रं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे चुलण्याख्यानकम् ३२६ तो तिव्यविससमुन्भूयवेयणावेसविहुरसबंगो। सूरियकताविलसियमेयं नाऊण चिंतेइ ॥७६|| नियकज्जबद्धचित्ता महिलाऽणत्थाण कारणं परमं । धिप्पइ न य रुवेणं न यावि सम्माणदाणणं ।।८०॥ विज्जु व्य चवलहियया विसहरमणि व्व कुडिलगइगमणा । बहुनियडि-कृड-कवडाण मंदिरं निंदिया महिला ॥८१॥ नेहगणक्खयकारी दीवयकलिय व्व पत्तनिहिया वि । निच्चं सकज्जलग्गा दहणसरूवा जए महिला ॥२॥ ता कि मह एयाए चिंताए ? निययकज्जमेवेन्हि । साहिज्जउ जेणेत्तो थावं मे जीवियव्वं ति ॥३॥ इय चिंतिऊण तत्तो विप्फुरियअपुवगरुयसंवेगो । तत्थ ठिओ वि हु सरणं पडिबज्जा वीरकमकमलं ॥४॥ निद्दअट्टकम्मिधणाण सिद्धाण सुद्धबुद्धिजुओ । सरणं गओ म्हि संपइ सासयसिवसोक्खपत्ताणं ॥५॥ भवपंकुक्खुत्तो हं सधम्महत्थावलंबदाणेणं । करुणाए समुद्धरिओ परोवयारेक्कर सिएहिं ॥८६॥ पयकमलं सरणमहं पडिवज्जे तेसि केसिसूरीणं । समसत्तु-मित्तचित्ताण सुहय उवएसनिरयाणं ।। ८७॥ अहरीकयकप्पददम-चिंतामणि-कामधेणुमाहप्पो । सासयसिवमुहहेऊ जिणधम्मो होउ मह सरणं ॥८८|| इय चउसरणगओ हं पाणिगणं सव्वमवि खमावेमि । समभावसहियहिययम्स मम वि सो खमउ सययं पि ॥८९| सूरियताउरि विसेसओ होउ मह समो भावो । अवरझंति जओ इह पुवक्कयदुकयकम्माई ॥१०॥ इय भावितो सम्म नरनाहो गहियअणसणो मारिउं । सोहम्मसूरियाभे पवरविमाणे समुप्पन्नो ॥९१।। नामेण सूरियाभो तियसो वररिद्धि-कंतिसंजुत्तो । तत्तो चुओ समाणो महाविदेहम्मि सिज्झिहइ ॥१२॥ ॥रविकान्ताख्यानकं समाप्तम् ॥११४॥ इदानी चुलण्याख्यानकं व्याख्यायते । तच्चेदम्पंचालजणवयाणं नयरमलंकारभूयमवि सुयं । कंपिल्लं तं पालइ पउमावासो निवो बंभो ॥१॥ सयलावरोहसारा चुलणी नामेण भारिया तस्स । तीए चउदससुमिणेहिं सूइओ बारसमचक्की ॥२॥ चइउंसुरलोगाओ चरित्तिणो चित्तसाहुणो भाया । पुत्वभवकयनियाणो तइया नामेण संभूई ॥३॥ गब्भम्मि समुप्पन्नो जाओ कालकमेण सुमुहुत्ते । कयबंभदत्तनामो जा किर परिवड्डिर लग्गो ॥४॥ ताव य बंभो राया तिहुयणसाहारणेण रोएणं । अव्भाहओ समाणो सुत्थकए निययरज्जस्स ।।५।। कडयं कणेरुदत्तं तहावरं पुप्फचूलनरनाहं । दीहं च दीहदरिसी चउरे चउरो वि नियमित्ते ॥६॥ वाहरिऊण पयंपइ सप्पस्सयमेस बालओ तुम्हं । उच्छंगे पक्खित्तो जह पालइ मज्झ रजसिरिं ||७|| तह कायव्वं इय जंपिऊण वियणाए मरणमणुपत्तो । इयरेहिं वि मित्तेहिं दीहो जोगो त्ति कलिऊण ||८|| रज्जपरिपालणत्थं मुक्को.मइपुव्वगं प्रयत्तेण । सो विहु तं परिपालइ समईए बंभमंतिजुओ॥९॥ तं जहा पाढह कुमरं विहिणा समप्पि बंभदत्तमभिउत्तो। विउसाणंदस्स कलाविउम्स पासम्मि सूरिस्स ॥१०॥ चिंतइ कोट्टायारं संभालइ धणसमिद्धभंडारं । कारवइ संधि-विग्गह-जाणाऽऽसणरायनीईओ ॥११॥ गयसाहणं निरूवइ परिभावइ तरलहयवरसमूहं । पडियरइ रहवरोहं परिपालइ पत्तिपरिवारं ॥१२॥ चउरंगबलसमिद्धिं वद्धारइ बुद्धि-पोरिससहाओ । अंतेउरं च रक्खइ चुलणीए समं विसेसेणं ॥१३॥ एवं पइदिणमेसो रहम्मि सह तीए मंतणं कुणइ । सा वि हु तेण समाणं सया वि ससिणेहमालवइ ॥१४॥ तओ य आलावाओ पेम्म पेम्माओ रई रईए विस्संभो । विस्संभाओ पणओ पंचविहो वडिओ नेहो ॥१५॥ अविवेयबहुलयाए इमस्स हयजोब्वणम्स जीवाणं । दुइंतत्तणओ दढमिदियतुरयाण पावाणं ॥१६॥ पइभवमन्भासाओ एयाणं पावगामधम्माणं । दूरं जाणंताणि वि परोप्परं ताणि घडियाणि ॥१७॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आख्यानकमणिकोशे अवि य सविलासहसिय-जंपिय-सकडक्खनिरिक्खणाइणा दीहो । समरंगणसूरो वि हु तीए विहिओ सवसवत्ती ॥१८॥ तथा चाभ्यधायि मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः , क्रूरप्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । सत्यं ब्रवीमि कृतिनां पुरतः प्रसह्य , कन्दर्पदर्पजयिनो विरला मनुष्याः ॥१२॥ तत्तो तं नियमित्तम्स संतियं सुकयमवगणेऊण । सह तीए मोहियमई लग्गो सक्खं अकज्जम्मि ॥२०॥ दीहो अदीहदरिसी तीए विहिओ सुदीहदरिसी वि। अहवा वि महिलियाहिं गिरि व्व गरुया वि भिज्जति ॥२१॥ भणियं च नीयंगमाहिं सुपओहराहिं उप्पिच्छ-मंथरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहि व गिरि व्व गरुया वि भिज्जति ॥२२॥ घणमालाओ व समुल्लसंतसुपओहराओ वटुंति । मोहविसं महिलाओ गोणसगरलं व पुरिसस्स ॥२३॥ एवं सो तीए समं विजणवसाओ अकज्जमावन्नो । एत्तो च्चिय एयाहिं रहो विरुद्धो सयाणाण ॥२४॥ उक्तं च मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥२५॥ अन्नं च महिलियाणं रहम्मि न हु दंसणं हवइ जाव । सद्धि परपुरिसेणं ताव सइत्तं जओ भणियं ॥२६॥ रहो नास्ति क्षणो नास्ति, नास्ति प्रार्थयिता नरः । तेन नारद ! नारीणां सतीत्वमुपजायते ॥२७॥ एवं सो पच्छन्नो ववहरमाणो जणेण विन्नाओ । गोविजंतं पि जओ अकज्जमिह नज्जह जयम्मि ॥२८॥ तो जणपरंपराए नायमिमं बंभदत्तकुमरेण । तो तेणं नियचित्ते विचिंतियं चउरमइएण ॥२२॥ जइ पयडं चिय संपइ पच्चारिजंति कह वि हु इमाणि । ता लज्जं मोत्तणं विरूवमवि किं पि हु कुणंति ॥३०॥ जम्हा मयणायत्ता मणुया मारंति मायरं पियरं । पियपुत्तं पि हु तम्हा छन्नं केण वि पयारेण ॥३१॥ जाणावेमि इमाइं कह विहु विरमंति जइ अकजाओ। तो लटुं पयर्ड पुण पुच्छिज्जंतं नयविरुद्धं ॥३२।। उक्तं च अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च । वञ्चनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ॥३३॥ इय परिभाविय नयनिउणमन्नया तेसिमेव बोहत्थं । करकलियकाय-कोइलजुयलं संजमिय निबिडमिमो ॥३४॥ अंतेउरमज्झेणं वच्चइ उग्गिन्नकंबियाहत्थो । किमिमं वरायमेवं बद्धं तुह किं कयमिमेण ? ॥३५॥ इय पुट्टो सो जंपइ जणेण एयं विजाइयं जुयलं । दिटुं मए अकजं कुणमाणं नयरमज्झम्मि ॥३६॥ तत्तो हं नियनयरे अनयं न सहामि तेण पावमिमं । निहणामि एवमन्नो वि को वि जो काहिइ विरूवं ॥३७॥ निग्गहियव्वोऽवस्सं सो वि मए इय सुणित्तु दीहनिवो । जंपइ चुलणि पइ नायकुमरगंभीरभिप्पाओ ॥३८॥ काओ हं तं पुण कोइल त्ति जाणावियं कुमारेण । ता न हु सोहणमेयं सा वि हु जंपइ अनायनया ॥३॥ सिसुरूवाणं ओ! केत्तियाणि कन्नम्मि कुणसि किच्चाणि ? । बालत्तणओ जपंति जं व तं वा वि हु इमाणि ॥४०॥ अन्नम्मि दिणे संकिन्नहत्थिणी भद्दजाइओ हत्थी ! बंधिय तहेव वच्चइ कुमरो दीहो वि भणइ तयं ॥४१॥ संपइ किं भगसि पिए ! ? एयं पि हु अम्ह बोहणनिमित्तं । कुमरेण कयं तत्तो तं चिंतमु किं पि हु उवायं ॥४२॥ जओ मटओ वि पिए ! छिज्जड वाही बालो वि हम्मए सत्त । मइ जीवंते अन्ने वि तुह सुया सुयणु ! होहिंति ॥४३॥ एवं सा सिक्खविया जंपइ कहमेरिसं महापावं । नियजाए ववसिज्जड़ मेच्छाण वि निंदणिज्जं ? ति ॥४४॥ एवं पइदिवसं पि हु चोइज्जंती चरित्तपरिचत्ता । मन्नइ तं पि हु पावा अहो ! हु मोहम्स माहप्पं ॥४५॥ परमेयं पयर्ड चिय किजंतं जणइ गरुयमववायं । ता पच्छन्नं कइया वि कन्जिही सहसु कइ वि दिणे ॥४६॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा हि ३६. बन्धुकृत्रिम स्नेहत्वाधिकारे कोणिकाख्यानकम् इय ताणि कुमरमारणपट्टचित्ताणि ताव अच्छंति । अलहंताणि कुओ वि हु सुविसिद्धं मारणोवायं ॥४७॥ कुमरो विवरणा सद्धि पिउभमंतितणएण | चिट्ट विसिकीलाहि कीलमाणो निरुव्विग्गो ॥ ४८ ॥ कइया वि हु परिवाह तुरंगमे तुरयवाहियालीए । कइया वि हत्थिसिक्खानिउणो कोलावर करिंदे ॥ ४६ ॥ कइया विहु कीलासु कीलइ कुमारपरियरिओ । कइया वि धणुत्र्वेए परिस्समं कुणइ अवहिओ ॥ ५० ॥ कइया वि मल्लजुद्धं विउसविणोयं कयाइ सत्थगयं । इय विविहकलाविसयं कुणइ पबंधेणमभासं ॥ ५१ ॥ नाओ धणुणा नियजणयमंतिणा एस वइयरो सव्वो । कुमरविणासणविसओ तो भणिओ तेण दीहनियो ॥५२॥ तं चिंतसु रज्यमिमं मज्झ पए संपयं सुओ एस । कायव्वो अहह्यं पुण परलोयहिए जइम्सामि ॥ ५३ ॥ सो चितइ लट्टमिमो जइ ओसहमंतरेण मह वाही । नासह तो तेणुत्तं समीहियं कुणसु किमजुत्तं ? ॥ ५४ ॥ तो तेण नयरबाहिं सत्तायारं करावियं तत्थ । अच्छइ पेच्छंतो दुट्टबिलसियं ताण पावाणं ॥ ५५ ॥ चुणीए चिंतियमिमो र विग्धकरो कहं किर कुमारो। मारेको ? तो तीए निच्छियं मज्झ भायसुया ॥ ५६ ॥ वयपत्ता तीए समं वीवाहं कारवेमि कुमरस्स । महया विच्छड्डेणं तस्सेव य वासभवणकए ॥ ५७ ॥ कारविय चित्तरूवं जउपासायं पहाणखंभजुयं । तम्मि य सयणनिमित्तं सवहूयं पक्खिविय कुमरं ॥ ५८॥ वीसं पि हु पासायं पज्जालिस्सं कयम्मि एवमिमो । मरिही अवन्नवाओ वि रक्खिओ मज्झ किर होही ॥५६॥ इय चिंतिऊण कहियं दीहनरिंदस्स सोहणमिमं ति । पडिवज्जिऊण तेणं पासायाई तहेव कयं ॥ ६०॥ नायमिमं सचिवेणं तओ सुरंगा खणाविया तेण । जउहर- सत्तायाराणमंतरालम्मि पच्छन्ना ॥ ६१॥ विवरण या कुओ वि हु भयं भवइ एत्थं । तइया पन्हिपहारं दाविज्जसु कुमरमेत्थ पए ॥६२॥ नी हरिय सुरंगाए सत्तायारम्मि मज्झ पासम्मि । आगच्छेज्ज सकुमरो पमाइयव्वं न एत्थइत्थे ॥६३॥ तत्तो चुलणीवपणा तहेव पज्जालियम्मि पासाए । पन्हिपहारं कुमरो कारविओ भणियभूभाए ||६४ || निम्ांतूण य तत्तो पत्तो घणुमंतिणो सयासम्मि । तेण वि सब्बो कहिओ कुमारमारणकयपवंचो ||६५|| चुलणी-दीहरणं तत्तो ठाणाओ जह विणिग्गमिया । आरोढुं तुरएहिं जहा पणट्टा अरन्नमि ||६६|| काले जहा जाओ चोदसरयणाहिवो छखंडवई । भरहम्मि बंभदत्तो सुयाओ सव्वं तहा नेयं ॥ ६७॥ एत्थ पुणपत्यथे एत्तियमेत्तं सुहं कहिज्जंतं । तो तत्तियमेव मए भणियं ति कयं पसंगेण ॥ ६८ ॥ ऐवं दुहावहाणं नमो त्थु विसयाणिमाण पावाण । जाण कए जणणी वि हु ववसइ पुत्ते वि पावमिमं ॥ ६९॥ जंतु खयं सिमि विसया अहवा विसंतु पायालं । जाण कए जणणी विहु ववसइ पुत्ते वि पावमिमं ॥ ७० ॥ निवडउ य निरालंबं गिरिसिहराओ इमा विसयवंछा । जीए कए जणणी वि हु ववसइ पुत्ते वि पावमिमं ॥ ७१ ॥ ॥ चुलण्याख्यानकं समाप्तमिति ॥ ११५ ॥ अधुना कोणिकाख्यानकमारभ्यते । तश्चेदम् मेरु व्व नाभिभूयं पच्चंत पुरं समत्थि वित्थिन्नं । गयणं व कविविरा इयमहीणवं भोगिभवणं व ॥१॥ तत्थऽत्थि निबो निस्सेससत्तुसंदोहसंजणियअंतो । जियसत्तू सयलकला कलावलक्खणकलियदेहो ॥२॥ निस्से सगुणनिवासो नामेण सुमंगलो सुओ तस्स । तत्थ य सेणयनामो मइसायरमंतिणो पुत्तो ॥ ३ ॥ दूरीकयमइपसरो पिंगलनयणो मसीकसिणदेहो । उद्दंतुरो य खुज्जो कसिण कुरूवाण दिट्टंती ॥४॥ अवइण्णो दिट्टपहं कुमरस्सेसो अहन्नया कह वि । तो कुमरो नच्चावइ तं दाउ हत्थतालाओ || ५॥ अन्नेहिं वि हासेहिं केलिपिओ तं विडंबए निच्चं । एवं विनडिज्जंता विचित्तभंगेहिं कुमरेण ॥ ६ ॥ निवेयमुवगओ सो कुमरस्स य किं पि काठमसमत्थो । गिण्हइ तावसदिक्खं तव्वेलमभिग्गहं च इमं ॥७॥ मासंते कायव्यं पारणयं तत्थ वेगगेहाओ । न हु गंतव्वं बीए नियत्तियव्वं अलाभे वि ॥ ८॥ For Private Personal Use Only ३३१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ आख्यानकमणिकोशे कल्लालकुंभियाए मज्झगएणं निदाहमा से वि । चिट्टेयव्वं ति मए तहेव सव्वं इमो कुणइ ॥१॥ पंचत्तं संपत्ते जणए जाओ सुमंगलो राया । कल्लालकुंभियगयं तं ददुमहन्नया कह वि ॥ १०॥ को एसो ? इय पुच्छइ तो सन्निहिएहिं सव्वमवि कहियं । तयणु दया संपन्ना रन्नो तो तत्थ आगंतुं ॥११॥ भणिओ पणामपुत्र्वं जं पुवि विनडिओ तुमं भद्द ! । तं सव्वं सहियवं अवरं च तए इमं कज्जं ॥१२॥ काऊ गुरुपसायं पारणए मह गिहम्मि भोक्तव्वं । रन्नो निबंधेणं तत्तो अब्भुवगयं तेण ||१३|| संपत्ते पारणए स तबस्सी जाव निवगिहं पत्तो । संपन्नं ताव सरीरकारणं नरवरिंदस्स || १४ || तो दारवालिएहिं पडिसिद्धो कुंभियाए पविसित्तुं । तह चेव खिवइ मासं बीयं पि हु सेणगतवसी ॥१५॥ रोगविवज्जियदेहो नरनाहो वि हु दिणेहिं संजाओ । परियाणिय तवइयरमापुट्टे परियणजणमि ||१६|| तो लज्जाजुत्तमणो तम्स समीवे पुणो वि गंतूण । अत्ताणं निंदेउं भोयणकज्जे पुणो भइ || १७|| तह कह वि महरवणेऽच्भुवगच्छाविओ स भूवइणा । जह बीए पारणए सो पत्तो तग्गिहे जाव ||१८|| अपडुसरीरं रन्नो केणइ रोगेण ताव संजायं । दद्धुं च जणं वक्खित्तमाणसं पडिनियत्तेउं ||१६|| तह चेव कुंभियाए मझगओ खिवड़ तइयमासं पि । उल्लाघेणं रन्ना विलक्खचित्तेण तो गंतुं ||२०|| पासु निवडिऊणं पुणो पुणो खामिऊण बहुवेलं । मन्नाविओ य पारणयमइनिबंत्रेण पुण वेसो ||२१|| नरवइभवणम्मि गओ तत्तो सो जाब तइयवेलं पि । ताव नरनाह देहे दाहजरो वट्टए अहियं ||२२|| तह कह वि जहा सव्वो परियणलोगो दुहाउलीभूओ । निव्भच्छिऊण बाढं पडिहारेहिं तओ एसो || २३ ॥ भणिऊणमिमं वयणं गयलक्खण ! तुह कए पहू अम्ह । वेलं वेलमणत्थं पत्तो एयारिसमणिहूं ||२४|| मा पुणरवि एज्ज तुमं गेहम्मि दसद्धियाउ दाऊण । सीसे घेत्तूण गले घराओ निस्सारिओ तेहिं ॥२५॥ सो वि पुणो सट्टा गंतूणं कोवकलियसयलंगो | चिंतइ एएण जहा कुमारभावम्मि नरवइणा ||२६|| तह कह वि विडिओ हं जहा मए तावसं वयं गहियं । ता अज्ज चि न हु तुट्टो इन्हि विनडइ जमेवं ति ||२७|| जइ पुर्ण सच्चं एसो निमंतए नियगिहम्मि भत्तीए । ता भणइ किं न मंतिप्पभिजणं एत्थ कज्जम्मि ||२८|| कोवचसारुणदेहो फुरंतहोट्टो खलंतवयणकमो । परिगलियसेयजलबिंदुजालओ तवगुणेहिं समं ||२१|| परिचत्तगुणग्गामो समयं सत्थत्थजणियबोहेण । मलिणीकय नियचित्तो सद्धि बुद्धिप्पवचेण ||३०|| अवहत्थियमज्जाओ गुरूण सद्धिं सधम्मबुद्धीए । समयं कुलक्कमेणं दूरं परिहरियपरलोओ ||३१|| विलसंतकोवतिमिरावलुत्तनयणो समं समग्गेण । नरनाहं पइ तत्तो स नियाणं काउमादत्तो ||३२|| ता जइ चिन्नस्स मए तवस्स सामत्थमत्थि एत्थेव । ता होज्जमिस्स विणासकारणं परभवम्मि अहं ॥ ३३ ॥ इय मरिउं सनियाणो संजाओ वाणमंतरेसु सुरो । एए विरागेणं [स] पत्थिवो वि तवम्सिवयं ॥३४॥ घेत्तूण तयं पालिय पंचत्तं पाचिऊण संजाओ । तत्थेव वंतरते सो वि य पढमं चवित्तु तओ ||३५|| उववन्नो रायगिहे विक्खाओ सेणिओ महीनाहो । मत्तपरपक्खगयघडवियारणुड्डमरजयसिंहो ||३६|| सेणगजीवो [सो] चेल्लणाए अइवल्लहाए गव्भम्मि । पुत्तत्तेणुप्पन्नो तत्तो तस्साणुभावेण ||३७|| चितेइ इमं देवी नयणेहिं वि जइ न दीसए राया । अन्नं च चित्तमज्झे सया पओसं समुव्ह ||३८|| गन्भाणुभावदोसो इय जाणिय चेल्लणाए देवीए । पाडेऊणाssढत्तो बहुसाडण - पाडणाईहिं ॥ ३९ ॥ नय पs तह वि एसो देवीए इमो य दोहलो जाओ । उयरं वियारिऊणं मंसं भक्खेमि जइ रन्नो ||४०|| तो सा विसायपरिकलियमाणसा विलविऊणमद्दबहुसो । जंपर हा देव ! तए कि दिन्नो मज्झ दइयस्स ||४१ ॥ अच्चंतपरमसत्तू ? जो मज्झ वि एरिसं जणइ कुमई । ता कुमरेण वि अलमेत्थ मज्झ गब्र्भट्टिओ जो उ ||४२|| चितवइ मज्झ मणवल्लहम्मि एसो अणिट्टमेवं ति । अणुरायनिव्भरंचियदेहे सम्भावसहियम्मि ||४३|| 1 १. “पंच टक्कर " For Private Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेह त्वाधिकारे कोणिकाख्यानकम् एवं रोयंती सा गमेइ कालं न दोहलं कहइ । अह् रन्ना निबंधेण पुच्छिया कहिउमादत्ता ||२४|||| नियसहिमुहेण सव्वं पितयणु चित्ते विसायसहिओ वि । अवलंबिय वीरतं नरनाहो जंपिडं लग्गो ॥ ४५ ॥ केत्तियमेत्तं दइए ? एयं मंभीसिउं तयं राया । सव्वमभयम्स साहइ तो सो बुद्धिप्पवत्रेण ॥ ४६ ॥ देविं निवेसिऊणं नियगिवायायणम्मि भूमितले । निवई पुण सयणिज्जे संठविउं मुयरउवरिम्मि || ४७॥ संधित्तु समयवम्मेण विविमंसं विकत्तिऊण तयं । वियरिज्जइ देवीए तत्तो किर रायमंसं ति ॥ ४८ ॥ जं वेलं निवमेसा चिंतड़ तो निंदए नियं चरियं । गव्भाणुभावओ पुण इच्छइ सव्वं पि भक्खेडं || ४९|| संपुन दोहलओ तीसे पुत्तो कमेण संजाओ । उज्झाव निञ्चिन्ना असोगवणियाए तं मज्झे ॥ ५० ॥ विद्धा तत्थ य बालस्स अंगुली तंबचूडपिच्छेण । नाऊण वइयरमिमं नियो वि निव्भच्छए देवीं ॥ ५१ ॥ कीस तए पढमसुओ परिचत्तो दुल्लहो अपुन्नेहिं ? । आणाचिय नियपुत्तं समप्पए धाइवग्गस्स ॥५२॥ नामं असोगचंदोत्ति तयणु विहियं निवेण सुमुहुत्ते । मुकुमारत्तेणं तस्स अंगुली कूणिया जाया || ५३ || पच्छा कुमरेहिं कूणिओ त्ति बीयं पि से कयं नामं । परिगलइ पूय - रुहिरं तयंगुली पत्थिवो तयणु ॥ ५४ ॥ सुयनेहमोहियमणो तह वि तयं नियमम्मि पक्खिव । तो थक्कइ रोयंतो बालो इहरा उ सो रुइ || ५५ || एवं सोबतो देहेण समं कलाकलावेण । तरुणीयणमणहरणं संपत्तो जोव्वणारंभं || ५६ || एत्तो य चेल्लणाए हल्ल-विहल्ल त्ति दो सुया जाया । सव्वेसि कुमाराणं उज्जाणगयाण कीलत्थं ॥ ५७॥ पेसइ असोगचंदम्स चेल्लणा मोयगे गुडेण कए । इयरेसि खंड - सक्करनिम्मविए कोणिओ तत्तो ॥ ५८ ॥ जम्मंतरवइरवसा पओसमुव्वहइ सेणियनिवम्मि । जह एसो च्चिय पेसवइ मज्झ गुडमोयगे एए || ५९ || एत्तो अभयकुमारम्मि गहियदिक्खम्मि सामिपासम्म । चिंतइ राया रज्जं दायव्वमसोगचंदस्स ||६०|| उत्तावलेण तेण विकालाई हिं सवक्कबंधूहिं । परिक्के होऊणं समयं आलोचियं एयं ॥६९॥ काऊण जहा एयं रज्जं एक़्कारसेसु भागेसु । गिन्हामो कुमरेहि वि पडिस्सुयं होउ एवं ति ॥ ६२ ॥ अन्नदिणे अत्थाणे बंधित्तुमसोगचंदकुमारेण । पक्खित्तो गोत्तीए तत्तो दुग्गाए नियजणओ ||६३|| पुन्वन्ह - पच्छिमन्हे कसघायसयं च देइ पइदिवसं । पाणीय-भोयणं पि हु निवारए तस्स सो कुमरो || ६४ || ता चेल्लणा विमइराभरिएसुं गोविऊण केसेसु । कुम्मासे देइ निवस्स धोविउं तह य वाले य ॥ ६५॥ पाए[इ] सुरं सोविय तीए पभावेण वेयइ न किंपि । कसघायाई एवं चितो चितए तत्थ ॥६६॥ संसारविलसियमिणं दुलक्खमज्झं अईव पेच्छ अहो ! । कज्जम्मि जेसि किज्वंति देवाराहणाईणि ॥६७॥ जायाणं पुण जायाण कारविज्जति उच्छवाईया । काऊण कुकम्माई कीरइ परिपोसणं जेसिं ॥ ६८ ॥ दुक्खेणं पाढिज्वंति जे य विविहावराहजायाणि । जेसि खमिज्जति तहा परिचेट्टाओ विहिज्वंति ||६९|| किज्जति सुहियचित्ता जे य मणोभिमयवत्थमाईहिं । अप्पाणमसुत्थमणं काऊणमसुत्थकाले वि ॥ ७० ॥ आसा-मणोरहेहिं विद्धिं नीयाण जेसि करणिज्जे । तं नत्थि जं न दुक्खं सहिज्जए मोहमूढे हिं ॥ ७१ ॥ परिणामो तेसिमिमो जं नियजणयम्मि मोहमइयम्मि । आवालकालपरिजणिय विविहउवयारनियरे वि ॥ ७२ ॥ वच्छल्लकारणे विहु निक्कारणमेरिसं ववइसंति । अच्चतं परिकुविय व्य दुज्जणा सज्जगजणम्मि ॥७३॥ अहवा न हु एएसिं दोसो अन्नस्स नेय कस्सावि । पुत्ताइमूढहिययम्स केवलं अप्पणी चेव ॥ ७४ ॥ लक्षूण दुरियदंदोलिमोसणं पोसणं सिवसुहाणं । सिरिवीरजिणेसरपायपंकयं जं न फवइओ || ७५ || ते धन्ना मज्झ सुया मेहकुमारो अभयकुमारो य । तह नंदिसेणकुमरो अन्ने वि हु नायपरमत्था || ७६ || परिहरिऊणमसारं संसारं परिभवाऽऽव निवासं । जे सिवसुहबद्धमणा निक्खता वीरपासम्मि ॥७७॥ बासु विवज्जं पडिवज्जंतेसु परिणयवओ वि । पुत्तामोहमा हियमणवित्ती विसयसुहगिद्ध ||७८|| जहि ठिओ निहियमणो नारयपहसज्जरज्जकज्जम्मि । तस्स फलं सविसेसं तुमए रे जीव ! संपत्तं ॥ ७९ ॥ For Private Personal Use Only ३३३ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आख्यानकमणिकोशे ता अप्पाणं सयमेव निक्वियंतो अगत्थसत्थम्मि । सुमरंतो जिणवयणं कीस मुहा कुप्पसि परस्स ? ॥८॥ एवं परिभावंतम्स तस्स सेणियनिवस्स जिणवयणं । साहुम्स व गुत्तिगयस्स कोइ कालो वइक्कतो ॥१॥ एत्तो य कोणियनिवो उदाइनामं सुयं निउच्छंगे । संठाविउमुवविट्ठो भोयणकग्जे तओ सम्स ।।८२।। भुंजंतम्स य थालोवरिम्मि विहियं मुएण पासवणं । मुत्तनिरोहभएणं रन्ना विन चालिओ एसो ॥३॥ भुत्तं मुत्तविमिम्स उस्सारेऊण तं निरवसेसं । सुयनेहतरलियमणो तो पुच्छइ चेल्लणं एवं ॥८४॥ किं एरिसो सिणेहो अम्मो ! दीसइ जयम्मि अवरम्स । तो रुयमाणी साहइ केत्तियमेत्तो इमो पाव ! ? ॥८५॥ जेत्तियमेत्तो नेहो आसि तमासज्ज तुझ जणयस्स । सो आह कहं ? तो कहइ चेल्लणा अंगुलीचरियं ॥८६॥ जइ एत्तिओ सिणेहो मह उवरि पिउम्स कृणिओ भणइ । ता कीस मज्झ गुलमोयगे इमो अंब ! पेसंतो। सा आह जहा गम्भप्पभिइ तुमं मरणहेउओ जाओ। जणयम्स जहा दोहलयपूरणं तेण तुज्झ कयं ॥८॥ जह उज्झिओ य संजायमेत्तओ च्चिय असोगवणियाए । सुयनेहमोहिएणं आणिय जह पोसिओ रन्ना ॥२॥ तह भूसिओ य तुमयं मणवंछियवत्थ-भूसणाईहिं । गुलमोयए य जे उण अहयं ते तुझ पेसंती ॥१०॥ तुमए पुण उवयारं कुणमाणेणं पिउम्स एरिसयं । पाविट्टेणं विहियं गिहकोइलनायसमरूवं ॥१॥ तो पच्चागयचित्तो पसंतवइरो असोगचंदनिवो। चिंतेइ जहा अज्जं नियले भंजेमि जणयस्स ।।१२।। तो नियलभंजणत्थं चलिओ घेत्तण लोहमयदंडं । वेगेणाऽऽगच्छंतो दिवो सो दारपालहिं ॥१३॥ तो तेहिं अक्खियं सेणियस्स वेगेण कृणिओ एइ । करकलियलोहदंडो जं काही तं न याणामो ॥९४॥ इंतं तं दट्टणं अइरोइं सेणिओ विचिंतेइ । दीसइ अवरसरूवो पाविट्ठो कूणिओ अजं ॥९५।। तो जावऽज वि एसो मारइ केणावि न हु कुमारेण । इय चिंतिय तालउडं भक्खित्तु विसं मा तत्तो ॥१६॥ चुलसीइसहस्साऊ रयणपहापढमपत्थडे जाओ। नेरइओ उव्वट्टिय पढमो तित्थंकरो होही ।।९।। पच्छायावपरिगओ तयवत्थं पेच्छिउं कुणइ राया । विविहपलावे पिइमरणसोयसंतत्तमणभवणो ॥१८॥ हा ताय ! सुचाय ! महापसाय ! संपत्तपरमजसवाय !। हा ताय ! विवायविसिट्टनाय ! हा रायगिहराय ! ॥१९॥ हा ताय ! जिणेसरवीरभत्त ! हा ताय ! वसणपरिचत्त ! ।'हा ताय ! पयंडपयावविजियदुवाररिउविसर ! ॥१०॥ हा खाइगसुहसम्मत्तरयणनिम्महियभावदोगच्च ! । हा भुवणभवणभूसणभारहसंभवियतित्थयर ! ॥१०१॥ हा ताय ! तयणवच्छल ! हा निम्मलकुलपसूय ! वररूय ! । हा ताय ! कुलंगारयसुएण संपत्तदुहमरण ! ॥१०२॥ एवं कोणियराया दुस्सहपिउसोगकलियसव्वंगो। अचयंतो वसिउं तत्थ चंपनयरिं निवेसेइ ॥१०३॥ कालेण विगयसोगो साहियतिक्खंडसयलमहिवालो । पालइ असोगचंदो रज चउरंगबलकलिओ ॥१०॥ दट्टणमन्नया रिद्धिमप्पणो चक्कवट्टिणो सरिसं । ता किं चक्की अहयं ? गंतुं पुच्छेमि बीरजिणं ।।१०५।। सव्वबलसमुदएणं विणिग्गओ पणमिडं महावीरं । पुच्छइ भयवं चक्की अयं किं वा ? न व ? ति तओ ॥१०६॥ जयसामिणा वि जंपियमिह सव्वे चक्किणो वइक्कंता । पभणइ पुणो वि राया मरिऊणं कत्थ वच्चिम्सं ? ॥१०७॥ छट्टीए पुढवीए जिणेण भणिए न जामि किं सामि ! | सत्तमियं ? भणइ जिणो चक्कहरा तत्थ गच्छंति ॥१०॥ तो सो अचक्किभावं असहहंतो करित्त रयणाणि । लोहमइयाणि पत्तो तिमिसगुहं साहियतिखंडो ॥१०॥ आराहियकयमालो अट्टमभत्तेण हणइ दंडेण । जाव गुहाए कवाडे ता कयमालेणिमं भणिओ ॥११०।। वोलीणा सव्वे वि हु चक्कहरा ता तुमं नियत्तेनु । तह वि य सा न नियत्तइ काऊणं हत्थिसीसम्मि ॥११॥ मणिरयणं संचलिओ कयमालाभिमुहमह गुहावइणा । दाऊण चवेडं मारिओ गओ छट्टपुढवीए ॥११२।। ॥ इति कोणिकाख्यानकं समाप्तम् ॥११६॥ इदानीं शङ्खास्यानकमाख्यायते । तच्चेदम् सिरिमंगलम्मि देसे नयरं गुरुगोरं पि संखउरं । सुइहारजणं पि विहारलोयसोहासमाइन्नं ॥१॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे शङ्काख्यानकम् ३३५ संखाइक्वंतगुणो संखागयसत्तुदलणदुल्ललिओ । संखामलकित्तिधरो संखाभिहनरवई तत्थ ।।२।। पालेइ य पडियभडभडचरडाइवज्जियं रज्जं । वित्थिन्नऽत्थाणत्थो अहऽन्नया सो महीनाहो ॥३॥ गयसेट्टिपुत्तदत्तेण पयडपडिहारकयपवेसेण । उवणेउं रायारिहपाहुडमह पणमिओ तेण ॥४॥ संभासिओ य रन्ना उबविट्ठो आसणम्मि सप्पणयं । गयतणय ! किं चिराओ दीससि ? कुसलं सया तुज्झ ? ॥५॥ तेण वि पणामपुवं पयंपियं पहु ! पसायओ तुम्ह । पायाण जणच्छायापायवतुल्लाण कुसलं मे ॥६॥ नाएण धणोवजगमेवऽम्हाणं कुलक्कमो सामि ! । तं पुण गंतुं कीरइ दिसिजत्ताए वि दुग्गाए ॥७॥ अवरं च अपुव्वाणं देसाणं होइ दसणं देव ! । संपज्जइ अच्चव्भुयकोऊहलदसणं बहसो ||८|| ता देव ! देवसाले विसालसालोवगूढनयरम्मि । दविणज्जणकज्जे हं बहुसत्थजुओ गओ हुँतो ॥२॥ भणियं च भूमिवइणा चित्तचमक्कारकारयं कहसु । तत्थ तए जं किंचि वि सच्चवियं चारु अच्छरियं ॥१०॥ दत्तेणुत्तं पहु ! देवसालमच्छरियनियरपरिकिन्नं । बहुहयमाहप्पो वि हु जत्थ जणो अयमाहप्पो ॥११॥ अवरं पि हु अच्छरियं पेच्छउ सामी सयं पितं जेण । न य सक्को सक्को वि हु कहिउं जे किं पुण मणुस्सो ? ॥१२॥ इय जंपिऊण दत्तो पयत्तपच्छायणाणि अवणेउं । उवणेह चित्तफलयं निवस्स तं गिहिउं सो वि ।।१३।। नियइ य सरूवरेहोवहसियतियसिंदमुंदर कुमरिं । एसा देवि त्ति विचिंतिऊण पणओ निवो तीए ॥१४॥ आउच्छिओ य दत्तो का एसा देवया ? भणइ सो वि । न हु देव ! देवया किंतु माणुसी एत्थ आलिहिया ॥१५॥ तं सोउं नरनाहो निझाइय अंगचंगयं तीए । वालग्गाओ नहगं जाव समुल्लविउमारद्धो ॥१६॥ किं दत्त ! माणुसीओ एवंरूवाओ कत्थइ हवंति ? । ईसिप्पहासपुव्वं पयंपियं तयणु दत्तेण ॥१७॥ सा का वि सरीरलयालीला रूवं पि तीए तं किं पि । जस्स लवो विन नजइ लिहिउं निउणेहिं वि सुरेहिं ॥१८॥ परमेत्थ सुमरणत्थं रूवलवो सामिसाल ! आलिहिओ। तो विम्हिएण भणियं रन्ना मह कहसु का एसा ? ॥१९॥ भइणी मम त्ति दत्तेण पभणिए भणइ भूवई भद्द ! । जइ तुह भइणी ता देवसालनयरे कह दिवा? ॥२०॥ तेणत्तं परमत्थं निमुणसु पहु ! देसदसणथमहं । दविणज्जणकज्जेण य विणिग्गओ जणयमड्डाए ॥२१॥ पउरपयाणयलंघियगामा-ऽऽगर-नगरकिन्नबहुदेसो । पत्तो य गुरुअरन्न अब्भासे देवसालस्स ॥२२॥ भीमम्मि तम्मि सन्नद्धभडयणो तरलतुरयमारूढो । गच्छामि पलोयंतो चउद्दिसं भिल्लसंकाए ॥२३॥ अह तत्थ मए दिट्टो निच्चेट्टो निवडिओ महीवट्टे । स्वस्सी पच्चासन्नमयतुरंगो नरो एगो ॥२४॥ कंठंतपत्तपाणो नाओ सित्तो य सिसिरनीरेण । उवलद्धचेयणो तयणु पाइओ सीयलं सलिलं ॥२५॥ छहिओ त्ति सीहकेसरयमोयगे भोइउं समुल्लविओ। सुपुरिस ! कत्तो आगंतुमित्थ पत्तो महावसणं ॥२६॥ तेणत्तमहं हरिओ हएण सिरिदेवनंदिदेसाओ । इह संपत्तो तुम्भे वि पत्थिया कत्थ ? मह कहह ॥२७॥ भणियं मए वि तद्देसभूसणे देवसालनयरम्मि । गच्छिम्सामो अम्हे ता दोन्ह वि सोहणो सत्थो ॥२८॥ तुम्भे तरलतुरंगमहरणुभूयप्पयासपरिसंता । अल्लियह ता सुहासणमम्हं तो सो समारूढो ॥२९॥ सप्परिसगणुवित्तणकहाहिं दोन्हं पि हरियहिययाण । लंघियकेत्तियमेत्तारन्नाण रवी गओ अत्थं ॥३०॥ आवासिओ य सत्थो तत्थ वि सव्वा वि वोलिया रयणी । नासियतमपन्भारे जाए अरुणुग्गमे सहसा ॥३१॥ दिटै पभूयसेन्नं खुहिओ मह भइयणो वि सन्नद्धो । मा भाहि त्ति भणंतो ता पत्तो आसवारेगो ॥३२॥ तेणुत्तं यहरियं पुरिसं पेच्छिउमिमं बलं पत्तं । घुटुं च बंदिविदेण जयउ जयसेणकुमरो त्ति ॥३३॥ तो विजयभूवई वि य पत्तो विनायकुमरवुरंतो । कुमरेण वि सप्पणय पणओ भूमिलियभालेण ॥३४॥ आउच्छिओ नरिंदेण वच्छ ! कह तं समागओ रन्नं ? । सो भणइ देव ! दुटेण तेण तुरएण हं हरिओ ॥३५॥ आणीओ य अरन्ने इमम्मि परिभमिरसीह-सदले । तो ताय ! मए मुक्का वग्गा गुरुमग्गसमिएण ॥३६॥ परिसंठिओ तुरंगो तो मुक्को सो मए समुत्तरिउं । पाणेहिं वि परिचत्तो मन्ने दुट्टो त्ति कलिऊण ॥३७॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ आख्यानकमणिकोशे गिम्हखरतरणितावियतणुणो जाया अईव मह तन्हा । अंधारिजंतमिणं भुवणमहं पेच्छिउं लग्गो ॥३८॥ तयणंतरं न कि पि वि विन्नायं जा इमेण आगंतुं । जीवाविओ अकारणसुबंधुणा पुरिसरयणण ||३९।। तं सोउं समकालं पलोइओ हं निवेण सबलेण । पणमिय मए वि राया सविणयमेयारिसं भणिओ ॥४॥ मझ न जीवियदाण सत्ती थेवा वि विजए सामि ! । किन्तु तुह पायपउमप्पभावओ जीविओ कुमरो ॥४१|| तो पमुइपण पुहईसरेण आलिंगिऊण हं भणिओ । तं मम पढमपुत्तो जयसेणो पच्छिमो वच्छ ! ॥४२॥ नीओ य निययनयरे समप्पिओ मज्झ परमपासाओ । नियकुमरनिन्विसेसा ठिई वि विहिया समग्गा चि ॥४३॥ तह कह वि रायकुमरेहि रंजियं मह मणं विणोएहिं । न जहा सुमरइ जणणी-जणय-सदेसाण मणयं पि ॥४४॥ तन्निवइअम्गमहिसीसिरिदेवीकुच्छिकमलसरहंसी । रमणीययावयंसी अवयंसीकयसरलनयणा ॥४५|| अस्थि सुसुवन्नवन्ना कन्ना लायन्नपुन्नसबंगा । कुसला कलाकलावे कलावई नाम कामगिहं ॥४६॥ पायं गवेसिओ वि हुन पाविओ कोइ तीए तुल्लबरो । तचितासंतावियमणेण राएण हं भणिओ ||४७|| वच्छ ! कहिं पि निहालसु नियभइणीसमुचियं वरं किं पि । तो रूबलवो तीए मए इमो देव ! आलिहिओ॥४८॥ नरवइणाऽणुन्नाओ कमेण पहु ! तुह सयासमल्लीणो । जम्हा उत्तमरयणाण ठाणमिह देव ! तं चेव ॥४६॥ आयन्निऊण एयं महीबई चिंतिउं समारद्धो । किह संगमो भविम्सइ मह सममेयाए ? न मुणेमि ॥५०॥ एत्थंतरम्मि मञ्झन्हसूयगो सुरगिहेसु संखरवो । उच्छलिओ तह एयं पढियं निवकालकहगेण ॥५१॥ उल्लसियतेयपसरो सूरो जणमत्थयं कमइ एसो। तेयगुणन्भहियाणं किमसज्झं जीवलोगम्मि ? ॥५२॥ अस्थाणाओ समुट्टिय न्हाओ पणओ य देवयाण निवो । सुरसं पि तीए विरहे भुत्तो विरसं व आहारं ॥५३॥ पुणरवि वासरसेसो अस्थाणत्थेण राइणा गमिओ। विन्नत्तो बीयदिणे ससंभमं चारपुरिसेण ॥५४॥ पडिहयपडिवक्खस्स वि सन्नद्धा चाउरंगिणी सेणा । देव ! तुह देसमज्झे पविसइ वजंतआउज्जा ॥५५॥ तं सोऊण रणंगणपवेसरहसुच्छलंतरोमंचो । सन्नज्मह त्ति आइसइ नरवई निययसामंते ॥५६॥ ताडाविया य सहसा भयंकरा कायराण रणभेरी । पहरिसिया रणरसिया नयरे हल्लोहलो जाओ ॥५७|| एत्थंतरम्मि दत्तो पत्तो पहिओ व्व तत्थ पहसंतो । भणइ य किमयंडे विड्डरिल्लओ पहु ! रणारंभो ॥५८॥ नणु तं रमणीरयणं सयंवर तुह समेइ सयमेव । जयसेणकुमारो वि हु सो एसो नरसिरोरयणं ॥५६॥ तं सोउममयसित्तो व्व नरबई विगयविरहविसवेगो । आभरणमंगलग्गं वियरइ से कणयजीहं च ॥६०॥ भणइ य दत्तय ! किह इह समागया सा ? तओ भणइ दत्तो । हरिणि व्व देव ! तुह पुन्नवागुरायड्डिया पत्ता ॥६१॥ तो मइसायरमंती पयंपए देव ! एस सप्पुरिसो । जम्हा एएण कओ पच्छन्नो तुम्ह उवयारो ॥२॥ तुम्हाण गुणग्गहणं तीए पुरो कयमणेण संभविही । होही इमा परोक्खाणुरायरत्ता तुमम्मि पहू ॥६३॥ तीए निबंध नाउं अम्मा-पियरेहिं पेसिया भविही । तो एसो सिग्घयरं संपत्तो सामि ! तुह पासे ॥६४॥ तो संलत्तं दत्तेण देव ! मंती जहत्थअभिहाणो । जो अस्मुयसव्वं पि हु जाणइ एवं नियमईए ॥६५॥ सन्नग्झमाणनियबलनिवारणं काउमह महीनाहो । आइसइ नयरसोहं पमोयपरिपूरिओ संतो ॥६६॥ विहिया य नयरसोहा नयरे नायरजणेण सव्वेण । मंचाइमंचविरइयतलियातोरणमणहरिल्ला ॥६॥ आइटो मइसायरमंती तेसिं पवेसणनिमित्त । तेण वि महरिहरिद्धीए तीए विहिओ पुरपवेसो ॥६॥ आवासत्थं तिम्सा समप्पियं सत्तभूमियं भवणं । सम्माणिओ य तीए लोगो उचियप्पयाणण ॥६९।। जयसेणकुमारो वि हु पणओ गंतुं सहाए नरवइणो । पुट्टा य कुसलवत्ता परोप्परं रायकुमरेहिं ॥७॥ रायकुमारा-ऽमच्चाइएमु सव्वेसु मुहनिविटेसु । अवराप्परसम्माणुच्छलंतपरमप्पमोएमु ॥७॥ एत्थंतरम्मि बजरइ कुमर-मंती फुरंतरयदित्ती । एत्तो य तत्थ पत्तेण देव ! दत्तेण तह कह वि ॥७२॥ तुम्हाण गुणग्गहणं विहियं जह रायपमुहपउराण । ओयरइ माणसाओ टंकुकिन्नं वन कया वि॥७३॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेह त्वाधिकारे शङ्खाख्यानकम् तुह मुत्ताहलनिम्मलगुणावलीधरणहारिहियएण । रन्ना संदिट्टं तुज्झ गउवं किं वयं कुणिमो ? || ७४|| तत्तो य हिययदड़या समग्गगुणरयणमालिया कुमरी । तुह समुचिय त्ति काऊग पेसिया गुरुसिणेहेण ॥७५॥ अणुओ न हु जाओ इमाए अवरेसु रायकुमरेसु | अहवा मांत्तृण रवि बंछइ किं कमलिणी अन्नं ? ॥७३॥ तो भइ संखराया पेच्छ अहो ! मज्झ निग्गुणस्सावि । नरनाहविजय सेणम्स पक्खवाओ किमवि अहिओ ॥७७॥ जइ जाओ राओ हं लहुओ वि हु ता कहं गुणी जाओ ? | अहवा उत्तमपुरिसा नियंति दोसं पि गुणरूवं ||७८ || जड़ मज्झमुवरिहुत्तो एवं नेहो मणे परिष्फुरइ । ता तस्स तायतुल्लम्स वयणमम्हेहिं काय ॥७९॥ तो सव्वे विय संतुट्टमाणसा ते गया सठाणेसु । अवरोप्परपीड़पव्वसाण ताणं वयइ कालो ॥८०॥ अह अन्नया य सुपसत्यतिहि मुहुत्तम्मि लग्गदिवसम्मि । पारद्धो रायउले वीवाहमहूसको रन्ना ॥८१॥ गंभीर मद्द लारव विमिम्स जयतूरगहिरनिग्घोसे । अविह्वविलया गिज्वंत मंगलारवसमुत्पन्ने ॥ ८२ ॥ बहुबंदिवं दवज्जरियजय जयारावभरियभुवणयले । मणहररमणीयणनट्ट [ थट्ट] तुट्टंतहारोहे ||२३|| लाइरित्तवियरिज्जमाणवरदाणरंजियजणोहे । वीवाहकज्ज उज्जुयकंचियकरभमिरसामंते ||८४|| एवंविहम्मि लग्गस्स वासरे पमुइएण परिणीया । अणुरायर सियहियया राएण कलावई कुमरी || ८५ ।। वित्ते वीवाहमहूसवम्मि सव्वंगचंगिमजुयाए । तीए सह विसयसोक्खं भुंजइ सो वज्जियावज्जो || ८६ ।। जयसेणकुमारेणं समं पवड़ंतपीइप भारो । नाणाविणोयवक्खित्तचित्तवित्तो गमइ कालं ||८७|| अह अन्नया कुमारो भूमिलियसिरो निवं नमिय भणइ । दुम्मोयं मणयं पि हु तुह पहु ! पयपंकयं मज्झ ॥ ८८|| किंतु जणयाणुरोहाओ होहिही नियपुरम्मि गमणं मे । ता कय बहुप्पसाया तुह पाया मं विमुंचंतु ॥ ८९ ॥ अवरं च देव ! देवी कलावई तह सुहेण धरियन्वा । सुविणे वि सरइ न जहा नियजणणी-जणय-बंधूणं ।। ९० ।। एवं ति जंपिगं निवेण सुपसत्थवासरे कुमरो । चोलावेउं सम्माणिऊण संपेसिओ सबलो ॥ ९१ ॥ देवीलाई तह कह वि हु रंजिओ महाराया । जह सव्वहा वि जाओ तच्चित्तो तम्मओ चैव ॥ ६२॥ संभासणाइएहिं तीए समग्गो सउत्तिलोगो वि । तह तोसविओ न जहा तव्विर हे चिट्टइ खणं पि ॥ ६३॥ दासी - दासमुह परिवारो वियरणाइणा तीए । आवज्जिओ तहा जह आणं सीसेणमुव्वहइ || ९४॥ अह अन्नया य रयणीतुरीयपहरावसेससमयम्मि । सयणीयगया देवी कलावई नियइ सुमिणम्मि || ९५|| विष्फुरियविविहमणिरयण किरणविरइयसुभत्तिदिसिचित्तं । कप्पूर मिस्सचंदणथवक्कचच्चक्कियावयवं ॥१६॥ वीरोयनीरभरियं भमरावलिकलियकमलपिहियमुहं । अंकम्मि पुन्नकलसं दवणीयविणिम्मियं रम्मं ॥ ९७॥ सुविणावसाणओ पिडिबुद्धा बंधुरस्सरं रन्नो । कहइ जहा देव ! मए सुमिणो एयारिस दिट्टो || १८ | तो पुवई पसरियपमोयपरिपूरिओ पपे । तुह पिययमे ! भविस्सइ पुत्तो मह कुलगयणचंदो ॥ ६६ ॥ एवं होउत्ति पयंपिऊण गब्भं सुहं समुव्वहइ । देवी हियइच्छियपुन्नपरमनिस्सेसदोहल्या ॥ १०० ॥ नाऊ पसवसमयं अम्मा- पियरेहिं पेसिया नियया । पडिजग्गया तओ ते पत्ता य कमेण तम्मि पुरे ॥ १०१ ॥ गयसेट्टिगिहे आवासिया य ते दत्तपरिचयवसेणं । भवियन्वयाए दिट्टा कलावई तेहिं पढमं पि ॥ १०२ ॥ सागयकिच्चं काउं परोप्परं पुच्छिया कुसलवत्ता । कहिओ तेहिं पि कलावईए जणयाइसंभासो ॥ १०३ ॥ जणयप्प उत्तिसवणुच्छलंत रोमंचेकंचुयंगीए । हरिसेण समं तीए अच्छिजुयं वियसियं सहसा ||१०४ ॥ तो तेहिं समुवणीयं कुंकुम - कप्पूर-चंदणाईयं । भोगंगं तह वत्थाणि तीए पट्टउलयाईणि ॥ १०५ || अवरं च अंगयजुयं जडियं झलकंतरयणनियरेण । कुमरेण सिणेहेणं पेसियमेयं नरिंद्रकए || १०६ ॥ पढपण जाइयं आसि दत्तएणावि । नियपिययमानिमित्तं तस्स विदिन्नं न कुमरेण ॥ १०७ ॥ तं घेत्तु ं तीयुत्तं अहमवि रन्नो समप्पइस्सामि । सम्माणिऊण तीए विसज्जिया ते गयाऽऽवासे ॥ १०८ ॥ १. चअंचियंगीए रं० । ४३ For Private Personal Use Only ३३७ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ आख्यानकमणिकोशे अंगयजयलं विप्फुरियरयणकिरिणावलीहिं दिप्पंतं । नियभुयजुयले परिहियमसेससहिययणजुत्ताए ॥१०॥ एत्थंतरम्मि रायाऽवरोहमज्झे समागओ मुणइ । हसियरवं किं एवं ? ति चिट्ठए जाव सवियको ॥११॥ ता जालगवक्खणं भुयासु अंगयजुयं नियइ तीसे । निमुणइ य बजरंतिं देवि एवं सहीण पुरो ॥१११।। पियसहि ! अंगयसंगा सुहारसेणेव सित्तमंगं मे | अहवा इमेसि दंसणमेत्तेण वि सो मए दिट्टो ॥११२॥ तन्नामगह णेण वि मज्झ मणं किमवि वियसियं इन्हिं । संसग्गाओ इमेसिं सो चेव य मज्झ परिसत्तो ॥११३॥ पेच्छह अच्छरियमिणं मणप्पियस्सावि दत्तयस्स इमं । दिन्नं न मम्मियं पि हु तं सोडं सहियणेणुतं ॥११४॥ सामिणि ! तस्स जहा तं मणप्पिया सव्वहा तहा नऽन्नो । तो तम्स नेव दिन्नं ता इह अत्थे किमच्छरियं ? ॥११॥ नामग्गहणविहूणाणि तासि वयणाणि निसुणिउं राया । कुवियप्पवसवियंभियईसाविसविहुरसव्वंगो ॥११६॥ चिंतइ बिसन्नचित्तो इमीए अवरो मणप्पिओ कोइ । जस्स गुणग्गहणमिमं करेइ सहिययणपञ्चक्खं ॥११७॥ अहयं तु कवडनेहप्पवंचओ मोहिऊणमच्चत्थं । अवियाणियपरमत्थो वसीकओ पावकम्माए ॥११८॥ ता तालहलं व इमाए सीसमिन्हि पि खम्गदंडेण । पाडेमि वल्लहं वा हणिउं वियरेमि भूयाण ॥११९॥ एवं हिययभंतरपलित्तकोवानलाउलो राया । किंकायव्वविमूढो विसन्नहियओ विचिंतेइ ।।१२०॥ नूणं न होइ नारी सीलवई जं कलाईए वि । उत्तमकुलुब्भवाए वि जायमेवंविहसरूवं ॥१२१।। इय कुवियप्पवियंभणपरत्वसो नरवई पडिनियत्तो । अइवाहइ कहकहमवि वाससहस्सं व दिणसेसं ॥१२२॥ तम्मि समयम्मि रन्ना पच्छन्नं वाहरित्तु भणियाओ। मायंगीओ कं पि हु पडिवज्जिय तं गयाउ गिहे ॥१२३॥ पयईय वि निकरुणो निकरुणो नाम सारही रन्ना । भणिओ भद्दय ! रयणीविरामसमयम्मि पच्छन्नं ॥१२४॥ देवी कलावई मे मोनव्वा अमुगगुरुअरन्नम्मि । आएसो त्ति भणित्ता निक्करुणो रयणिविरमम्मि ॥१२५।। पउणीकाऊण रहं रहंगचिक्कारगहिरनिग्धोसं । पत्तो कलावईए भवणे तं भणइ पयपणओ ॥१२६॥ देवि ! समारुहसु रहे राया वि करिंदमारुहेऊण । पत्तो कुसुमुज्जाणे तुम्हाऽऽणयणेऽहमाइट्टो ॥१२७॥ तं सोउं सत्थमणा रहमारूढा कलावई देवी । निकरुणेण वि पवमाणगामिणो पेरिया तुरया ॥१२८॥ निकरुण ! कत्थ राय ? त्ति तीए भणिए स आह एसेस । एवं समुल्लवन्ताणि ताणि पत्ताणि रन्नम्मि ॥१२९|| एएण वंचिया हंति चितिउं भणइ गम्गयगिरं सा । हा पाव! वंचिऊणं किमिहाऽऽणीया तए ? कहसु ॥१३०॥ न म ए किमवि विरूवं विहियं ता किं तएऽवहरिया हं ? । इय सोउं निक्करुणो करुणारसपूरियसरीरो ॥१३॥ अंसुजलुल्लियनयणो कयंजली तक्कमे नमेऊण । पभणइ सामिणि ! कम्मं पि मम नामस्स समरूवं ॥१३२॥ मा होज मज्झ सरिसो पुरिसो निन्भग्गसेहरो पावो । जो एवंविहकम्मे निओइओ हयपयावयणा ॥१३३॥ चयइ सिणिद्धं पि जणं कुणइ अकज्ज पि हणइ जणयं पि। किं किं न कुणइ सामिणि ! परव्वसो सेवयवराओ?.॥१३४॥ सव्वाण वि पावाणं सिरोमणितं सया समुव्वहइ । सेवापरव्वसत्तं नराण जेणेरिसं भणियं ॥१३५॥ सोच्छ्वासं मरणं निरग्नि दहनं, निःशृङ्खलं बन्धनं, निष्पy मलिनं, विनय लिने विनैव नरकं सैषा महायातना। सेवासञ्जनितं जनस्य सुधियो धिक् पारवश्यं यतः, पञ्चानां सविशेषमेतदपरं षष्ठं महापातकम् ॥१३६।। ता ओयरिय रहाओ उवविससु तले विसालसालम्स | आणत्तमिमं रन्ना न अन्नहा कीरए एयं ॥१३७॥ तं सोयं सोयामणिपहारपहय व्व जाव ओयरइ । रहरयणाओ मुच्छाए निवडिया ता महीवीढे ॥१३॥ निक्करुणो रुयमाणो रहरयणं 'गिहिउं: गओ नयरे । वणपवणवीइयंगी सचेयणा सा वि संजाया ॥१३९।। चिइ जाव सकरुणं रुयमाणी मन्नुपूरियसरीरा । ता पत्ताओ मायंगिणीओ नरवइनिउत्ताओ ॥१४॥ भिउडीभीमनिडालाओ तडिलयातरलकत्तियकराओ। निव्भच्छिउं पयत्ताओ ताओ फरुसक्खरगिराहिं ॥१४॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे शङ्खास्यानकम् ३३९ आ पाविट्टे ! दट्टे ! रायसिरिं माणि न याणासि । अणुरत्तम्स वि पडिकलवत्तिणि ! होसि जं रन्नो ॥१४२।। ता उवभुंजसु दुबिलसियस्स फलमिइ पयंपिउं ताहिं । रयणाभरणविराइयभुयजुयलं छिदियं तीए ॥१४३॥ सद्धि भुयजुयलेणं देवी पडिया महीए मुच्छाए। कह कहमवि चेयन्नं लहिऊणं विलविउं लग्गा ॥१४४॥ हा हा निद्दय ! हयविहि ! विहियं किं एरिसं तए मज्झ । गुरुदुक्खमयंडे वि हु विणावराहेण दीणाए ? ॥१४॥ हा अज्ज उत्त ? जुत्तं न तुज्झ उत्तमकुलप्पसूयस्स । दाउं दारुगदुक्खं दोसमदंसिय दयानिहिणो ॥१४॥ गुरुदोसदूसियाण वि अपरिक्खियकारिणो न सप्पुरिसा । ते मह निद्दोसाए वि किं तए एरिसं विहियं ? ॥१४॥ मह उवरि आसि नेहो सामि ! सयाऽनन्नसरिसओ तुझ । संजायं तस्स इमं पञ्जवसाणं पभणियं च ॥१४८|| ताण गुणग्गहणाणं ताणुकंठाण ताण भणियाण । ताण रमियाण पिययम ! अवसाणं एरिसं जायं ॥१४९|| अहवा मह पुव्वक्कयकम्माणं परिणई इमा जाया । न हु अस्थि एन्थ कस्स वि दोसो थेवो वि हु परस्स ॥१५०॥ इय एवं अत्ताणं संधीरंतीए तीए संभरियं । नियजणय-जगणि-बंधूण तयण पुण विलविरं लग्गा ॥१५॥ हा ताय ! ममं तायसु उच्छलियतरच्छ-अच्छभल्लम्मि । रन्ने नाहर-रुरु-रोज्झमुक्कवोकारवरउद्दे ॥१५२॥ हा अंब ! संवरालीकरालकतारमझयारम्मि । नियदुहियं सुहियं कुग काउं पुवं व उच्छंगे ॥१५३॥ हा भाय ! भाय ! भीमाडवीए भीयाए देसु मंभीसं । जम्हा जगे पसिद्ध भइगाए वच्छलो भाया ।।१५४॥ तह तीए तत्थ रुन्नं सरिउं पिय-जणय-जणणि-बंधूणं । जह जायाणि पसूण वि मणाणि विप्फुरियकरुणाणि ॥१५५।। भुयजुयविकत्तणभवपीडाविहुरियसमग्गअंगाए । उयरम्मि तीए जायं सूलं संचलियगम्भाए ॥१५६।। नाऊण पसवसमयं पत्ता पत्तलतरूण गुम्मम्मि । गुरुवेयणाए विवसा उत्तमपुत्तं पसूया सा ॥१५७|| नियइ य निययकमकमलजुयलमज्झम्मि फुरियतणकिरिणं । पुत्तं उत्तमलक्खणसमन्नियं अमरकुमरं व ॥१५८॥ तत्तो चित्तभंतरभवंतपरिओस-गुरुविसायजुया । जंपइ पुत्तय ! कल्लाणसंजुओ होसु दीहाऊ ।।१५९॥ किर तुज्झ जम्मदिवसे वद्धावणयं गुरुं करिस्सामि । इय चिंतियं पि संजायमन्नहा पुत्त ! उत्तं च ॥१६॥ अन्नह परिचिंतिज्जइ सहरिसकंदुज्जुएण हियएण | परिणमइ अन्नह च्चिय कज्जारंभो विहिवसेण ||१६१।। पाणिविहूणा पुत्तय ! परिचेट्टं मंदभाइणी अयं । तुह किह करेमि संपइ ? इय विलवंतीए देवीए ।:१६२।। पुत्तो चडप्फडतो तरंगिणीकूलसम्मुहो दुलिओ। धरिओ य तीए चलणेसु झत्ति एवं भणंतीए ॥१६३॥ हा हा निकरुण ! कयंत ! किं न तुट्टो सि एत्तियदुहेण । जं हरसि पुत्तरयणं पि दीणवय णाए मह इण्हि ? ॥१६॥ पणइयणकरुणकरणे पणया हं तुह तरंगिणीतिलए ! । भयवइ ! पवित्तनीरे ! तीरे तुह हीरए कुमरो ! ॥१६५॥ ता देवि ! दयं काऊण कुणसु कुमरम्स रक्खणं इन्हि । जम्हा तुम्हाणं सरणमागया दीणवयणा हं ॥१६६।। जइ जयइ जए सीलं रयणीयरकिरणनियररमणीयं । परिपालियं मए वि हु तं जइ सुविसुद्धहिययाए ॥१६७|| ता दिव्वनाणनयणे ! कुण प्पसायं नइप्पयइसच्छे ! । जह पालिज्जइ बालो नवरंभागभयुकुमालो ॥१६८॥ इय दीणरुयणसवणुच्छलंतकरुणाए सिंधुदेवीए । सा कमलनालकोमलभुयालया निम्मिया सहसा ॥१६॥ तो तीए तक्खणं चिय सोयपिसाओ पलाइऊण गओ। मंतस्स व भुयजुयलस्स दंसणे हिट्टहिययाए ॥१७०॥ घेत्तण तयं कंकेल्लिपल्लवारत्तपाणिजुयलेण । अंकम्मि कुगइ नवकमलम उलमुकुमालयं बालं ॥१७१॥ अग्घाइऊण सीसे पयंपए जाय ! तुझ मुहससिणो । ओयारणयं किजामि भणिय कारेइ थणपाणं ॥१७२॥ पुणरवि चित्तभंतरभवंतसंपुन्नमन्नुसंभारा । अइकरुणं रुयमाणी पयंपिउं एवमारद्धा ॥१७३॥ जायाऽहमकयसुकया कहमणुचियकंदमूलफलवित्तीं । काउं काहं तुह देहवद्धणं वच्छय ! अपत्था ॥१७४॥ धन्नाउ बालकाले वि कलियबंभव्चयाओ समणीओ । विप्फुरिओ जाण मणे मणयं पि न पेम्मपरिणामो ॥१७५।। जइ किर अहमवि हुंता समणी बालत्तणे वि सुहचित्ता । ता पिययमपेम्मविडंबणं इमं नेय पार्वता ।।१७६|| इय एवं दीणसरं रुयमाणी तं वणं भमंतेण । कंद-फल-मूलकज्जे सा दिट्ठा तत्थ कुलवइणा ॥१७७॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आख्यानकमणिकोशे मंभीसिऊण भणिया वच्छे ! आगच्छ आसमपयम्मि । तो सा तेण समया तवम्सिआसमपयं पत्ता ॥१७८॥ भणिया य पुत्ति ! उत्तिमवंयुप्पत्तिं कहेइ तुह देहो। दंसंतो सुहलक्खणनियरं झस-कुलिसपमुहमिमो ॥१७९॥ ता कहसु काऽसि तं ? इय पयंपिया जायमन्नुसंभारा। संधीरिया य तावसवइणा इय कोमलगिराहिं ।।१८०॥ मुंच सु विसायमिणमो वच्छे ! सच्छंदयाए दुल्ललिओ। जह पडिहाइ तहेव य विलसइ एसो हयकयंतो ॥१८॥ जो होइ सया सुहिओ वियाइ दुहमइसएण तम्सेव । जो पुण दुहसंभारेण पूरिओ कुणइ तं मुहियं ।।१८२।। जो होइ धणाहिबई दरिद्दचूडामणिं तयं कुणइ । जो पुण दोगच्चदुही सुहयइ तं दविणदाणेण ।।१८३॥ जो विलसिरसोहग्गो दोहग्गं देइ दुम्सहं तस्स । दोहग्गजुयं तह जणइ होइ जह सयलजगइट्टो ॥१८४॥ जेसिमकित्तिमपेम्मं परोप्परं तेसि तं विहाडे । संघडइ विहडियं पि हु केसि पि तयं महापावो ॥१८॥ ता एवंविहविहिविलसियम्मि भद्दे ! कहं कुणसि सोयं ? । धीरत्तणमवलंबिय सोयपिसायं परिच्चयसु ॥१८६॥ एत्थ ठिया परिपालसु पुत्तं गुरु-देवजणियबहुमाणा । जा पुचभवोवज्जियसुकयं सविहीभवद भद्दे ! ॥१८७|| एवमणुसासिया सा कुलवइणा जायजीवियव्वासा । पुत्तं परिपालंती तत्थ ठिया ईसिअवसोया ॥१८॥ एत्तो मायंगीओ सह केऊरेहिं तीए भुयजुयलं । दसति रुहिरधारारुणियाभरणं नरिंदस्स ॥१८९॥ जा नरवई निरुवइ केऊरजुयं करे कलेऊण | जयसेणकुमरनामं ता तत्थु कोरियं नियइ ।।१९०॥ तं पेच्छिउं नरिंदो धसक्किओ वजघायपहओ व्व । तन्निच्छयाय वाहरिय पुच्छए झत्ति गयसेट्टिं ॥१९॥ कि देवसालनयराओ आगओ कोइ ? भणइ सेट्टी वि | संतीह देव : देवीमुयावणे आगया पुरिसा ॥१२॥ नवरं नऽज वि पावंति तुम्ह पयपउमदंसणं देव ! । तो ते वि समाहूया संपत्ता रायपयपुरओ ॥१९॥ भणिया य भो किमेयं केऊरजुयं ? ति तयणु ते बति । सामिय ! ममुल्लमणिमयमंगयजुयमिममइप्पवरं ॥१९४॥ जयसेणकुमारेणं तुम्हं पाणप्पियाए पेसवियं । मुक्कं समइकंते दिणम्मि देवीगिहे आसि ॥१९५॥ इय एवमुल्लवंताण ताण सहस ति संखनरनाहो । मुच्छामीलियनयणो पडिओ सीहासणुच्छंगे ॥१६॥ जललवविमिस्सवीयणयवीइओ किच्छपत्तचेयन्नो । निस्सेसजणसमक्खं अत्ताणं निंदिरं लग्गो ॥१९७॥ अहह ? महापावो हं अहह ! अणज्जो अहो ! सुनिक्करुणो । जं सुद्धसीलकलिया कलावई पाविया मरणं ॥१९८॥ तो मंति-मंडलेसर-सामंता आयरेण पुच्छंति । सामि ! किमेयमयंडे ? राया वि कहेउमारद्धो ॥१९९॥ भो ! निपएणं दुम्विलसिएण संताविओ अईवाहं । जेण तणं व न गणिओ नेहजुओ वि हु विजयराया ॥२०॥ जयसेणकुमारस्स वि नेहतरू वडिओ वि मणठाणे । पक्खित्तो उक्खणिउं आमूलाओ वि पेच्छ मए ॥२०१॥ थीरयणदाणगयपुत्त दत्तमेत्ती गया वि गरुयत्तं । सव्वा वि य पम्हुसियाऽकयन्नुणा पेच्छ पावेण ॥२०२॥ पणओ कलावईए वरुणन्नसरिसो गओ वि गरुयत्तं । एगपए च्चिय चत्तो अपरिक्खियकजकरणेण ॥२०३|| अमयकरकिरणनिम्मलकुले मसीकुच्चओ मए दिन्नो। वित्थारिओ य सनरा-ऽमरा-ऽसुरे तिहुयणे अयसो ॥२०॥ जं सुद्धसीलकलिया वि नट्टसील त्ति कप्पिऊण मए । संपत्तपसवसमया पवेसिया यकयंतमुहे ॥२०५॥ न य मज्झ अस्थि सुद्धी थीवज्झाकारिणो विणा जलणं । ता कुणह मह निमित्तं कट्टचियं जेण पविसामि ॥२०६।। इय. नर वरिंदवजरियवयणसमगुच्छलंतगुरुसोओ । अस्थाणजणोऽन्नोन्नं वयणाणि पलोइउं लग्गो ॥२०७॥ तो समकालं हा हा ! हह ! त्ति उम्मुक्कपुक्कधाहोहो । सोउं नरिंदवयणं नयरजणो कंदिउं लग्गो ॥२०८॥ हा उचियकरणदग्वे ! हा ससहरसेयसीलकयरक्खे ! । दे देवि ! देसु दंसणमेवं पलवंति कंचुइणो ॥२०९॥ हा सामिण ! दीणाआऽणुकंपणीयाओ संपयं अम्ह । जायाआ तं विणा इय रुयंति दासीओ सयलाओ ॥२१०॥ हा ! दइएण न सुन्दरमणुट्टियं निटुरेण जं तुज्झ । जणियमइदुट्टकट्ठे ति रायदइयाओ रोयंति ॥२११॥ हा निम्वियारनयणे ! हा मिउवयणे! हहा समसयण !। हा हा ! तं कत्थ गय ? ति मंतिवग्गो वि पलवेइ ॥२१२।। १. प्रशमसदने !। Jain Education Interational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धु कृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे शङ्खाख्यानकम् हा ! को दाही निययंगलग्गमाभरणमइसुतुट्टो वि । मज्झं देवीए विण ? त्ति कंदए बंदिविदं पि ।।२१३ || हा हा रमणीयणत्रयणमंडणे ! खंडणे ! अकज्जाण । कत्थ गया सि ? त्तिरुयंति पुरपुरंधीओ मिलियाओ || २१४ ॥ एवं सबाल - विद्धापमुक्कपोक्कग्मि पुरजणे सयले । पभणइ राया मंतीण सम्मुहं करुणसद्देण ॥ २१५ ॥ जाव न तडत्ति फुट्ट मह हिययं ता झड तिकट्ठेहिं । कुणह चियं न वियाणह किं दुस्सहवेयणं मज्झ ? ॥२१६॥ तत्तो मंतिष्पमुहा पउरा पगलंतअंसुजलनयणा । सविणयमाबद्धकरंजलीजुया चिन्नविंति निवं ॥ २९७ ॥ किं सामि ! समारद्धं मयमारणमन्ह देविदुहियाण ? । जं वंछसि पविसेउं पज्ज लियचियानले घोरे ॥२१८॥ तुम्हारिसा वि धीरा जइ सोयपरव्वसा भविस्संति । ता पाययप्पयाए कायर हिययाए को दोसो ? ॥ २१९ ॥ अवरं च तइ जियंते सबाल -विद्धो वि जियइ पुरलोगो । मरइ मरते पुण निच्छएण देवे दएक्करसे ॥ २२० ॥ तादु विखयप्पयापालओ वि होऊण सामि ! किह कुणसि । लोगस्स विणीयस्स वि कमागयस्सावि खयमेवं ? ॥ २२१ ॥ पुज्जंतु माइयाणि मणोरहा तुह रिकूण सव्वाण । ता काऊण पसायं परिपालसु पहु ! पयं पउरं ||२२२ ॥ एवं सविनय सप्पणयवयणनिउणेहिं पभणओ वि तहा । मरणेक्कबद्धबुद्धी समुट्टिओ संखनरनाहो ||२२३|| अणुगम्मंतो गुरुसोयरचनेत्तेहिं नयर लोएहिं । नियमंदिराओ चलिओ चलणेहिमरइयसिंगारो ॥२२४॥ अम्भस्थिऊण कह कह वि तुरयमारोविओ अमचेहिं । परिहरियछत्त- चिंधाइरायलंकारसंदोहो ॥२२५॥ वज्जियजय आउज्जो वारियचारणगणत्थवणकज्जो । निस्सद्दबंदिबिंदो अहक्कपाइक्कचक्कजुओ || २२६॥ पेच्छिवंतो पगलंतअंसुजाला हिं नयरबालाहिं । वारिज्वंतो आबद्धपाणिपउमाहिं थेरीहिं ॥ २२७॥ पत्तो य नंदणुज्जाणपरिसरे तो विसन्नवयणेसु । मंतीसु रायरक्खानिमित्तमप्पत्तबुद्धीसु ॥ २२८ ॥ गयसेट्टिणा सविनयं भणियं इह सामि ! नंदणुज्जाणे । फलिहमणिरयणनिम्मियजिणिदवरमंदिरं अस्थि || २२९॥ अवरं च अमियतेओ सूरी तत्थाऽऽगओ अमियतेओ । ता देव ! देवपूयं कुणसु तहा गुरुकमे नमसु ॥ २३०॥ पच्छा जमभिप्पेयं करेज्य तं इय पयंपिओ राया । एवं ति भणिय जिणनाहमंदिरुद्देसमणुपत्तो ॥२३१॥ ओरिय तुरंगाओ पत्तो अब्भंतरे जिणहरस्स । न्हाय वाय पूइय पणमिय पडिमं सुभत्तीए ॥ २३२॥ तत्तो गुरूण चरणे नमिऊणं तप्पुरो समुवविट्टो । दुहिओ इमो ति चिन्तिय पारद्धा देसणा तेहिं ॥ २३३ ॥ भो नरवरिंद ! जर मरण - रोय - सोयाउलम्मि संसारे । परियहंताण जियाण दुल्लहं माणुस जम्मं ॥ २३४ ॥ तंपि हुआरियखेत्ताइसयलसामग्गिसंगयं लधुं । कायव्वा धम्ममई भवकारागारनिद्दलणी || २३५ || जम्हा जीयं जलबिंदुचंचलं गत्तरा सिरी सयला । खणभंगुरा चिलासा विणस्सरं तारतारुन्नं ॥२३६॥ अथिरं पियम्मि पेम्मं चवलं लीलाललामलायन्नं । न चिरट्टाई सयणाण संगमो सव्वजीवाणं ||२३७॥ एवंविहे असारे संसारे नरवरिंद ! न हु जुत्ता । मरणमई परियाणियसारा-साराण तुम्हाणं ||२३८ || तामुळेच मरणबुद्धिं धम्मम्मि पुणो समुज्जमं कुणसु । जम्हा नऽन्नो सरणं जियाण मोत्तूण जिणधम्मं ॥ २३६ ॥ इय निंसुणिउं नरिंदो पर्यंपए मुट्टु सव्वहा धम्मो । परमच्चंतं हियए खुडुक्कए मह मयच्छिदुहं ॥२४०॥ ते न सको खणमचि पाणे धरिडं कलावईविरहे । ता मरणसमयजोगं जमणुट्टाणं तयं कहह || २४१ ॥ इयत्ता गुरुणो भणति नरनाह ! वुज्झ मा मुज्झ । रुहिरेण धोइयं न हु सुज्झइ रुहिरारुणं वत्थं ॥ २४२॥ तह दुक्खं पिन फिट्टइ मरणदुहेणं नरिंद ! नियमेण । अहिययरं पुण जायइ जम्हा अन्नाणकट्टं तं ॥ २४३॥ ताकुण जिणवरिंदप्पासियं धम्ममुत्तमं राय ! । जह न कयाइ वि जायइ विओगाइदुहनियरो || २४४॥ अवरं च दिव्वदिट्टीए नज्जए तुह भविस्सए जोगो । सह पिययमाए सव्वंगसुंदरावयवनिरुयाए ॥ २४५ ॥ इयसूरिवयणसिसिर [यर] वारिधाराहि रायहिययम्मि | गुरुसोयदावपायवपसरो सव्वो वि विज्झाओ || २४६॥ तो तत्थ रयणी सुविणयं नियइ पच्छिमे जामे । किर केणइ एगफला कप्पदुलया दुहा छिन्ना || २४७॥ पडिया महीए तत्तो लग्गा तत्थ वि तहा गया विद्धिं । जाया य पुणो अहियं हिययहरा सयललोयस्स || २४८ || For Private Personal Use Only ३४१ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आख्यानकमणिकोशे तत्तो पहाड पकिट्टपडहयसरेण पडिबुद्धो । सूरीण कहद्द सुविणं पट्टिहियओ जहादिहं ॥ २४६ ॥ परियाणियसुविणत्था गुरुणो रन्नो कहंति नरनाह ! । छिन्ना जा कप्पलया सा तुज्झ कलावई देवी || २५० ॥ एगफला जं तं पुत्तसंजुया जं पुणो वि पारूढा । तं तुह मिलिही अज्जेव जायसं पुन्नसव्वंगा ||२५१ ॥ तुम्हाण पायपरमप्पसायओ होउ एवमिइ भणिउं । राया पहरिसवसपुलइयंगओ वंदिऊण गुरुं ॥ २५२ ॥ नियपासायं पत्तो तत्तो दत्तं भणेइ बाहरिडं । दत्तय ! एवमकज्जं कथं मए मूढमइएण || २५३॥ पच्छा मरणपना विहिया ता जइ कलावई जिय । ता जीविज्बइ अह नो मरणं चिय हवइ मह सरणं ॥ २५४ ॥ तापवणजवणवाहं रहं समारुहिय रन्नमज्झाओ । जड् जियइ ता तमाणेज्ज अह न तो तं मयं मुणसु ॥२५५॥ एवं वृत्ती दत्तो पत्तो रत्नं रहं समारुहिउं । निउणं निरिक्खयंतेण तेण ते तावसा दिट्ठा ॥ २५६ ॥ पुट्टा य कहह भयवं ! कत्थइ तुमेहिं गुग्विणी रमणी । सच्चविया इह रन्ने परिभमंती ? तओ ते वि ॥ २५७॥ जंपति किं न मुंचइ इमाए उवरिं नरेसरो रोर्स ? । अज्ज वि वंछइ किं पि हु काउं अइदारुणं दुक्खं ? ॥ २५८ ॥ तेसि वयणाओ तीए अस्थित्तं चितिउं भणइ दत्तो । भयवं ! नेय सकोवो किंतु ससांगो निवो अहं ॥ २५६ ॥ ता जइ कलावई जियइ जियइ राया चि नन्नहा भयवं ! काही पाणच्चायं पविसिय पज्जलिय जलन मि ॥ २६० ॥ एवंत्तेहिं स ताचसेहिं करुणेकर सियहियएहिं । कुलवइपासे नीओ दत्तो पणओ य सो तस्स || २६१ ॥ कुलवइणा वि कलावइवुत्तंतो साहिओ असेसो वि । नोहरिया देवी विय तवस्सिणीलोयमज्झाओ || २६२॥ दत्तं ददुं मन्नुइयमाणसा पलविउं समारद्धा | संधीरिया य दत्तेण निहुयनिहुयं रुयंतेण ॥ २६३ ॥ T आसासिया य सामिणि ! खेयं मा कुणसु सुणसु मह चयणं । विहिविलसियम्स नासो न होइ अथिरम्मि संसारे || २६४ || ता धीरतणमवलंबिण सोगावयासमवि मुंच । जम्हा बहुएण वि सोइएण न य फिट्टए दुक्खं || २६५ ॥ जाणामि दारुणं तुह एयं दुक्खस्स कारणं जायं । एएण निमित्तेणं णंतगुणं दुखिओ देवो ॥ २६६॥ sue इमेण दुव्विलसिएण संतत्तचित्तवित्ती सो । अज्ज न जइ तं पेच्छइ निसाए ता पविसए जलणे || २६७॥ जाणामि तुज्झमाणं जेणाऽऽगंतुं न तरसि तं तत्थ । ता देवि ! दयं कुण रायरक्खणे मज्झ वयणेण || २६८|| काउं पसायमारुहसु रहवरे जेण तत्थ गच्छामो । कालविलंबो जुत्तो न होइ एवंठिए कज्जे ॥ २६९ ॥ निवनिच्छयं वियाणिय कुरुवइमा उच्छिउं पणमिऊण । आरूढा रहरयणे पत्ता य कमेण संखउरे ||२७० || दट्टु देवि अक्खयसमम्गअंगं पहरिसिओ वि नियो । तं पेच्छिउमचयंतो लज्जाए अहो मुहो जाओ || २७१ ॥ पारद्धं लोएणं वद्धावणयं पुरे समग्गम्मि । बद्धा चंदणमालाउ पइगिहं चूयपत्तेहिं ॥ २७२॥ तत्तो वद्धावणए वित्ते पत्ते पओससमयम्मि । खगमत्थाणे उवविसिय हरिसिया से सामंते ॥ २७३ ॥ उत्तराया कलावईवासभवणमणुपत्तो । संभासइ तं संजायमन्नुपरिपूरियरं ॥ २७४ ॥ देवि ! महापावेणं मए महादुक्खदारुणे वसणे । पक्खित्ता निद्दोसा वि खमसु ता एगमवराहं ॥ २७५ ॥ दंसंतो नियवयणं धणियं लज्जामि तुह अहन्नो हं । ता पसयच्छि ! पसायं काउं खेयं परिच्चयसु ॥ २७६ ॥ ती चिलक्खवयणं नमिऊण निवं सगग्गयं भणियं । सामि ! न कस्सइ दोसो मोत्तुं मह कम्मपरिणामं ॥ २७७॥ परिकप्पिऊण दोसं जमहं निस्सारिया तयं कहसु । तो अंगयाइओ से वृत्तंतो साहिओ रन्ना ॥ २७८ ॥ ती विनियओ रन्नो निवेइओ तं निसामिउं राया । पभणइ पिए ! न होही मज्झ समो निधिणो भुवणे ॥ २७६ ॥ जो निम्मलसीलाए वि तुज्झ आणेइ एरिसं वसणं । ता खमियवं तुमए एयं सुपसन्नहियाए ॥ २८० ॥ जइ गुरुणो न कहंता ता तुह संगमसुहं न मे हुतं । तो देवीए पुट्टे सिट्टो गुरुवइयरो रन्ना ॥ २८९॥ दंसेव्वा मज्झवि गोसे गुरुणो कलावईभ थिए । संगयमिमं ति रन्ना पमुइयहियएण पडिवन्नं ॥ २८२॥ एवं सिणेहनिभर कहाहिं नीया तमस्सिणी तेहिं । नियकिरणहरियतिमिरे समुग्गए सहसरस्सिम्मि ॥ २८३ ॥ चिहियप्पभायकिच्चो राया आरुहिय पट्टदोघट्टे । सबलो कलत्तजुत्तो पत्तो सूरीण सविहिम्मि ||२८४ ॥ For Private Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. बन्धुकृत्रिमस्नेहत्वाधिकारे कनककेत्वाख्यानकम् ३४३ दोन्नि वि सूरीण कमे नमिय निविट्टाणि उचियठाणम्मि । तेहिं वि महुरसरेणं पसंसियं सीलमाहप्पं ॥२५॥ सीलं सत्ताण अखंडमंडणं खंडणं च दुक्खाण । सीलं सोहागकरं विवईणुत्तासगं सीलं ॥२८६॥ किं बहुणा सव्वाण वि नर-अमरा-ऽसुरसुहाण संजणणं । सीलं ता पालिजउ तमखंडं भव्वसत्तेहिं ॥२८७|| इय मुणिवइसद्देसणमायन्निय निव-नरिंदपत्तीणं । संजायगंठिभेयाण होइ सम्मत्तवररयणं ॥२८८|| तो पडिवन्नो दोहिं वि सावयधम्मो दुवालसविहो वि । गहियं च बंभचेरं जावज्जीवं विरागाओ ॥२८९॥ तो गंतुं नियनयरे सुयजम्ममहो पवत्तिओ तेहिं । बारसमदिण नामं दिन्नं कुमरम्स सुमुहत्ते ॥२६॥ सुमिणम्मि पुन्नकलसो दिट्ठो गम्भागयम्मि एयम्मि । तेणेस पुन्नकलसो त्ति नाम निव्वत्तियं रन्ना ॥२१॥ जिणमंदिरेसु जत्ताओ कारयंतस्स गरुयरिद्धीए । सुम्सूसंतस्स गुरूण चरणजुयलं सुभत्तीए । २१२॥ साहम्मियवच्छल्लुजयस्स सज्झाय-नियमनिरयस्स । जिणरहजताउ सया पवत्तयंतस्स नियदेसे ॥२३॥ एवमणुट्टाणपरस्स तस्स देवीए संपरिवुडस्स । सो पुन्न कलसकुमरो संपत्तो तारतारुन्नं ॥२४॥ विहरं तो गामा-ऽऽगर-नयरपकिट्टे वसुंधरावीढे । सूरी वि अमियतेओ संपत्तो नंदणुज्जाणे ॥२६॥ राया वि सपरिवारो समागओ तस्स वंदणनिमित्तं । पणमिय तं उवविठ्ठो पभणइ वक्खाणपजंते ॥२१६॥ निरवज्जा रज्जसिरी सुइरं परिपालिया मए भयवं!। इण्हि तु तवसिरीपालणम्मि मह विजए वंछा ॥२९७|| भणिओ गुरुणा जत्तं उत्तमवंमुम्भवाण तुम्हाण । तो पणमिय गरुचरणे पत्तो राया सपासाए ॥२१॥ अहिसिंचिय नियरज्जे पुत्तं तत्तो कलत्तसंजुत्तो । निक्खंतो नरनाहो पासे सुरीण संविग्गो ॥२९९|| अहिगयसयलसुयत्थो तिव्वतवं कुणइ पहयमयणरिखू । मय-माण-कोह-लोहाइयाण पन्भम्गवावारो ॥३०॥ तिव्वतवचरणपवरा जाया अज्जा कलावई वि दढं । दोन्नि वि सुगई पत्ताणि ताणि सुहभावमरणेण ॥३०॥ ॥शलाख्यानकं समाप्तम् ॥११७॥ इदानीं भरताख्यानकस्यावसरः। तच भावनाद्वारे भणितम् । अतः क्रमप्राप्त कनककेत्वाख्यानकमाख्यायते । तश्चेदम तेयलिपुरम्मि नयरे नरेसरो कणगकेउनामो त्ति । पउमावइ त्ति देवी मंती तेयलिसुओ तस्स ॥१॥ सो भोगलालसमणो रजे गिद्धो निम्तिए पुत्ते । नासा-हर-कर-चरण-ऽच्छि-कन्नपभिईहिमंगेहिं ॥२॥ तत्थ य कलादमुसियारसेटिधूया मणुन्नतारुन्ना । नामेण पोट्टिला तं मग्गिय जणयं अमच्चेण ॥३॥ उब्बूढा तीए समं विसए सो भुंजए अहऽन्नदिणे । एगं कह वि कुमारं रक्खसु देवी भणइ मंतिं ॥४॥ पडिवन्ने तेण अहऽन्नया य देवीए पोट्टिलाए वि । जाओ गठभो अह ताओ एगदिवसे पसूयाओ॥५॥ जाओ देवीए सुओ सुवन्नसमगत्तदित्तिदिप्पंतो। धूया य पोट्टिलाए तओ अमच्चेण सिग्धं पि ॥६॥ संचारियाणि दोन्हं पि पुत्तभंडाणि ता कुमारस्स । कणगझओ त्ति नामं विहियं दिवसम्मि बारसमे ||७|| पत्तो पवड्डमाणो कुमरो पारं कलाकलावस्स अह अन्नयाय दोहम्गभावओ पोट्टिला जाया ॥८॥ मंतिम्स अणिट्टा तयणु सो न नाम पि गिण्हए तीए । सा वि हु सोहग्गकए अज्जाओ पज्जुवासेइ ॥९॥ पभणति ताओ अम्हं जुज्जइन कया वि एरिसं काउं । विहिया य ताहि सद्धम्मदेसणा सा वि पडिवुद्धा ॥१०॥ निम्विन्नकामभोया मंतिं विन्नवइ तुह अणुन्नाए। काहमहं पव्वजं मं पडिबोहेज तेणुत्ते ॥११॥ अणुमन्नियतव्वयणा सुगुरुसयासम्मि गहियपव्यज्जा । थेवेण वि कालेणं संपत्ता देवलोगम्मि ॥१२॥ राया वि कणगकेऊ जाओ कालेण संकहासेसो । अनियंतो रज्जखमं कुमरमओ आउलो लोगो ॥१३॥ सामंताणं पउमावईए देवीए कुमरवुत्तो । कहिओ तो अहिसित्तो रज्जे कणगझयकुमारो ॥१४॥ देवीए तओ कुमरो पयंपिओ वच्छ ! तेतलिमुयस्स । सम्मं वट्टेजमु जेण रज्जमेयम्स भावेण ॥१५॥ ठविओ सव्वट्टाणेसु रायणा तयण सो च्चिय अमच्चो । एत्तो य पोट्टिलाए देवो पडिबोहए मंतिं ॥१६॥ भोगासत्तो जाहे नो बुज्झइ ओहिणा तओ नाउं । रूसविओ नरनाहो सुरेण एमेव य अयंडे ॥१७॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आख्यानकमणिकोशे जावाऽऽगच्छद मंती ठाइ निवो तो परम्मुहो तम्स । पणमियचरणम्मि वि तम्मि कोवमुव्वहइ नरनाहो ॥१८॥ एवं सव्वजण वि परिभूओ तो गिहम्मि संपत्तो। नियपरियणो वि आणं न कुणइ से तयणु सो भीओ ॥१९॥ ताहे सो भक्खइ ताल उडविसं तह वि नो मओ जाव । छिंदइ सीसं तो तिक्खकंककरवालधाराए ॥२०॥ तं पि न लवमवि छिदइ उब्बंधइ तयणु रज्जुणा सा वि । छिन्ना तो पाहाणं बंधेवि गले जले पडिओ ॥२१॥ अत्थाहम्मिं तम्मि वि तरेइ तो पचलंतजलणम्मि । झ त्ति पविट्ठो तत्थ वि न डझए तयणु भयभीओ ॥२२॥ नीहरिओ नयराओ तो पिट्टि धाइओ गुरुगइंदो । पुरओ करालखड्डा दो पासे दुद्धरा चोरा ।।२३।। तो भयकंपिरकाओ पभणइ हा पोट्टिले ! महाकटें । दाऊणं दंसणं मह एरिसवसणाओ रक्खेसु ॥२४॥ तो नियरूवं काऊण पोट्टिला तम्स संठिया पुरओ । भणियं च महाभीयस्स होइ सरणं सुपव्वज्जा ॥२५॥ पडिबुद्धमणो पभणइ करेमि तं किंतु रुट्टओ राया। ता उवसामेहि तयं न हु होइ अवन्नवाओ मे ॥२६॥ देवविउब्वियमाया संहरिया तुट्टओ तओ राया । जाओ जणो वि सव्वो अणुकुलो तस्स पुव्वं व ॥२७॥ खामेऊण सपउरं निवई सिवियं समारुहेऊण | गंतुं गुरूण पासे पच्चइओ गरुयरिद्धीए ॥२८॥ चोहसपूची जाओ अपुव्वकरणेण केवलन्नाणं । संपत्तो सो तत्तो कमेण सिद्धिं समारूढो ॥२९॥ ॥ कनककेत्वाख्यानकं समाप्तम् ॥११८॥ जह एएहिं विरुवं कयं सकज्जे विसंवयंतम्मि । तह अन्नो वि हु बवसइ बंधुसिणेहो मुहा तम्हा ॥२॥ स्निह्यन्ति मूढमनसः स्वजनेप्वमीषां, यावन्मतं वहति तावदमी भवन्ति । पश्चात् स्वकार्यपरिपूरणमन्तरेण, सर्वे व्रजन्ति वध-बन्धन-वैरभावम् ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरिचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे स्वकार्यविसंवाद-बन्धुशत्रत्वभवननि दर्शनप्रतिपादक एकोनचत्वाशित्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥३६॥ [४०. धनधान्यादिविषयकशोकापार्थकताधिकारः ] प्राग् बन्धुविषयकृत्रिमस्नेह-शोककरणम्यापार्थकताऽभिहिता । साम्प्रतमपरमपि धन-धान्यादि चिन्त्यमानमनित्यम् इति तद्विषयोऽपि शोकोऽपार्थक एव इत्येतदभिधातुकाम आह सव्वमणिच्चं नाउं सोयट्ठाणे वि पंडियजणेहिं । न हु सोगो कायव्यो धम्मे चिय होइ जइयव्यं ॥४६॥ व्याख्या-'सर्व' वस्तुजानं 'अनित्यं' विनश्वरं "नाउं" ति ज्ञात्वा 'शोकस्थानेऽपि' शोकविषयेऽपि' 'पण्डितजनैः' विद्वल्लोकः 'न हु' नैव शोकः 'कर्तव्यः' विधेयः । यद्येवं तर्हि किं कर्तव्यम् ? इत्याह-"धम्मे चिय' त्ति धर्म एव भवति 'यतितव्यं' प्रयत्नः कर्तव्य इत्युपदेशः ॥४६॥ अपरं च शोककरणमनिष्टफलमेव इत्युपदिशन्नाह असुहफलो जमवस्सं रोयणमाईओ लोइओ सोओ । सावित्ति-मंति-समणी-राम-कुलाणंदनाएणं ॥५०॥ . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. धनधान्यादिविषयकशोकापार्थकताधिकारे सावित्र्याख्यानकम् ३४५ अस्या व्याख्या-‘अशुभफल:' अनिष्टप्रयोजनः 'यद्' यस्मात् कारणाद् 'अवश्यं' निश्चयेन "शेयणमाईओ” त्ति रोदनादिकः 'लौकिकः' लोकसम्बन्धी 'शोक' पूर्वोक्तार्थः । अत्रार्थे दृष्टान्तानाह - सावित्री च - ब्राह्मणी मन्त्री च-सचिवः श्रमणी चअरहन्नकमाता रामश्च —–बलदेवः कुलानन्दश्च - राजतनयः ते तथोक्ताः, त एव ज्ञातं दृष्टान्तः तेनेति गाथासमासार्थः ॥ ५० ॥ व्यासार्थस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि प्रथमं तावत् सावित्र्याख्यानकमभिधीयते । तश्वेदम् ४४ सावत्थीए पुरीए अहेसि भिगुनाम बंभणो मइमं । सावित्ती से भज्जा सत्त सुया तीए संजाया ॥ १ ॥ aar - वेसामा - वेईसर - वेयसारनामाणो । तह वेयगन्भ - सिरिवेयमित्त तह वेयरूवा य ॥२॥ या विहु गायती सत्रे सव्वंगवेयपारगया । एवमइकंते केत्तियम्मि कालम्मि सोक्खेण ॥३॥ मरणाचसाणयाए अहन्नया सयलजीवलोगस्स । पढमो सुओ मओ तो सावित्ती सोगमणुपत्ता ||४॥ [ प्रन्थायम् - १३००० ] ऐमेव बीयदिवसे बीओ पुत्तो वि मरणमणुपत्तो । गाढयरं सावित्ती सोएणं बाहिया हिए ||५|| एवं तइय-चउत्थय-पंचमपुत्ता कमेण पंचत्तं । संपत्ता सावित्तीए तयणु सोयग्गहो लग्गो ||६|| नयर मंतर - रच्छामुहेसु निच्चं परिभमंती सा । चाहरइ दारयाणं नामेणं सव्वमवि दट्टु ॥७॥ पुच्छइ य सुयपउत्तिं दट्टुमचेयण-सचेयणाई पि । वेयारिज्जर डिंभेहिं डंडिया खंडपावरणा ||८|| अह अन्नया अपच्छिमजिणेसरो तं पुरिं समणुपत्तो । तस्स प्पभावओ ईसि उवसमो तीए संजाओ ||९|| ती पडिबोहसमयं नाऊणं भुवणसामिणा एगो । पट्टाविओ रिसी अप्पिऊण अंतरपडं निययं ॥ १० ॥ भणिओ य माहणी तं पेच्छसि अमुगत्थ एरिससरुवा । सा एवं भणियव्वा भद्दे ! न हु किं परमनाणी ? ॥११॥ पुच्छसि पुत्तपत्ति तो संखोहं गमिस्सए एसा । लज्जिरसह अप्पाणं अप्पावरणं निएऊणं ॥ १२ ॥ तो तुम दायचो तीए अंतरपडो इमो झति । इय विहिए सा इहई आगच्छस्स तओ रिसिणा ॥ १३॥ तह विहिए संजायं सव्वं पि हु सामिणा जहुद्दिहं । पत्ता य समवसरणे सावित्ती पणमिया पहुणो || १४ || भणिया य भुवणगुरुणा सुधम्मसीले ! कुओ वि ठाणाओ । तुह पुत्ता संपत्ता ? तीयुक्तं नो वियाणामि ॥१५॥ विणिवा भणिया जाणेसि कत्थइ गया ते ? । सा जंपइ न वियाणामि सामि ! तो भणइ जिगनाहो ||१६|| सिंह- दुक्खाई जाणसि ? सा भणइ नो वियाणामि । जंपइ तिहुयणसामी अणत्थयं किं किलम्मिहसि ? ॥१७॥ सा आह मज्झ मोहो किलेसमुप्पायए तओ भयवं । जंपइ उज्झिय मोहं तत्तसरूवे मणं कुणम् ||१८|| जहित्थि वत्थुजायं तमसारं सव्वमेव संसारे । धम्मो उ सासओ इह ता तम्मि समुज्जमं कुणसु || १९|| बहुए वि भद्दे ! सोइएण न वलंति वल्लहा पुत्ता । ता जिणधम्मे उज्जमसु जायए जेण न विओोगो ॥२०॥ कम्मगंठी भिन्नो तीए एवं निसामयंतीए । सम्मत्तं संजायं पडिवन्ना देसविरई वि ॥ २१ ॥ 1 दिय जिम पत्ता गिम्मि तं पेच्छिउं पई तुट्ठो । पट्टाविओ य तीए पासे सिरिवद्धमाणस्स ||२२| तो रहरयणं रणणिरकणयघंटं समारुहेऊण । पत्तो य समवसरणे पणमिय सामिं समुवविट्टो || २३ ॥ कहिया सद्धम्मका पहुणा संजायचरणपरिणामो । सो पत्रइओ पत्तो य मंदिरे सारही सरहो || २४ | कहियं सावित्तीए पइपव्वयणं तओ इमा तुट्टा । तं चैव पारितोसियदाणं से देइ रहस्यणं ||२५|| तेत्तं पञ्चत्तं रहेणमहमवि य फवइस्सामि । तं निर्माणिय तीए वि हु संजाओ चरणपरिणामो ||२६|| सहसारहिणा सा विहु फवइया पुत्तया दुवे तीए । गिहिधम्मं पडिवन्ना सद्धिं भइणीए जिणपासे ॥ २७॥ ॥ सावित्र्याख्यानकं समाप्तम् ॥ ११६ ॥ इदानीं मन्त्र्याख्यानकमारभ्यते । तच्चेदम् — तिहुयणमंगलनिलए नयरे मंगलउरम्मि नरनाहो । नामेण चंद्रसेणो नियकंतिकला विजियचंदो || १ || नियतेयपहयभाणू भाणू नामेण तस्स वरमंती । तस्स य सरस्सई नाम पणइणी हरिणसमनयणी ||२|| For Private Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ आख्यानकमणिकोशे तह कह विकुरंगाण व परोप्परं ताण पेम्ममारूढं । जह निक्कित्तिमपेम्माणिमाणि जाया जणपसिद्धी ||३|| अह अन्नया निसाए निदं चइउं सरस्सई सहसा । रुयमाणी पल्लंकाओ उट्टिया तो अमच्चेण ||४|| संतेण भणिया पिए! किमेयं ? ति जंपइ इमा वि । न हु किं पितो निबंधेण पुच्छिया साहए एवं ॥ ५ ॥ दिट्टो सुचि तं पिय ! अबराए समं मए पर्यापतो । तं सोऊणं चितइ मंती सुविण वि जइ एसा ॥ ६ ॥ उब्वहइ महाखेयं तो जइ पञ्चक्खमेव मं कह वि । पेच्छइ अबराए समं ता पाणे चित्र परिचय ||७|| तो अन्नभारियाए जावज्जीवं पि होउ मह नियमो । तत्तो भणिज्यमाणो वि नेय परिणेड़ सो अवरं ||८|| सेव से पसिद्धी संजाया नरवरिंदपज्जंता । मंतिं मोत्तुं नयरम्मि नरवई अवरसमयम्मि || || रिउविजयत्थं पत्तो कत्थइ अह तत्थ मंतिमिहुणस्स । पेम्मका संजाया जह एगेणं मरंतेणं ॥१०॥ मरइ दुइज्जं पितओ तम्स परिक्खणकए तेण । अलियप्पओयणणं मंर्ति हक्कारिडं कडए || ११|| नयरम्मि अलियवत्ता कारविया जह मओ महामंती । तं सोउं तब्भज्जा मया दहा फुट्टिउं हिययं ॥ १२ ॥ तं नियुणिऊण राया अप्पाणं निंदए गुरुविसाओ । हा ! कत्थ इत्थििवज्झापावमहं नित्यरिम्सामि ? ॥१३॥ तीए जहा नियपाणा तणं व चत्ता सुणित्तु पइमरणं । मंती वि पियामरणं सोउं नृणं तहा रही ॥ १४ ॥ इय चिंति नरिंदो सहस त्ति गओ अमच्चपासम्मि । भणियं च तेण किं देव ! अणुचियं कयमिहाऽऽगमणं ? ॥ १५ ॥ तो भूवणा भणियं इहाऽऽगया गरुयकारणेण वयं । किं पि तुमं पत्थेमो जड़ वियरसि भणइ तो मंती ॥ १६ ॥ देव मह जीचियं पि हु तुज्झाऽऽयत्तं किमेत्थ अवरेण ? । सामी तो अवियप्पं आइसउ पओयणं जेण ॥ १७॥ तत्तो मंति घरि भुयाए पुहईसरेणिमं भणियं । तुह दइया पंचत्तं पत्ता इमिणा पयारेण || १८ || अत्थामो एवं मरियव्वं न हु तए इमं सोउं । संखुद्धमणो मंती चिंतइ हा हा ! किमेयं ? ति ॥ १९ ॥ भइ य तुहाणुभावो जं फुट्टइ संपयं न मह हिययं । किंतु न देवेण अहं भणियचो अवरदारकए || २०॥ अवरं च तीए लोयव्यवहाराई करेमि गंतूण । तो नरवइणा मुक्को संपत्तो निययनयरम्मि ||२१|| पच्चइयपुरिससंगहियमट्टिनियरं पियाए पूर्यतो तीए ससिकिरणनिम्मलगुणनियरं संभरेऊण ॥२२॥ रोयावंतो नियपरियणं पिकरुणस्सरं रुयइ मंती | सुमरंतो तमणुदिणं मणम्मि मरणं पि अहिलसइ || २३॥ किंतु निववयणबंधणबद्धो गमिउ पभूयवरिसाई । अह अन्नया अमच्चो चितइ मह हो जइ मरणं ॥ २४॥ तो पणइणीए अट्टियनियरं न हु कोइ नेइ गंगाए । सयमेव य जीवंतो नेमि अहं तत्थ एयाणि ॥ २५ ॥ इय चितिऊण मंती नीहरिओ राइणो अकहिऊण । वाणारसिनयरीए गंगातीरम्मि संपत्तो ||२६|| तत्तो अमरतरंगिणितीरे द्रविणं दियाण दाऊण | संभरिऊण सकरुणं पियागुण रुयइ गुरुसोओ ||२७|| कंकेल्लिपल्लवुब्वेल्लिरेहिं हत्थेहिं जेहिं गहिया सि । तेहिं चिय इहि विहिवसेण सलिलंजली दिन्नो || २८॥ कयवेरो व्व कयंतो न सहइ दइयाए अट्टिएहिं पि । संगममुहं ति बहुविहमेवं पलवइ पणट्टमुह ||२९|| ता तत्थ समणपत्ता अहिणवजोव्वणमणोहरसरीरा तन्नयररायधूया नामेण सरम्सई कन्ना ||३०|| कोऊहलेण पुलिणे परिब्भमंतीए तीए सो मंती । दिट्टो दुहसंतत्तो संसंभमं पुच्छिओ एवं ॥ ३१ ॥ सुपुरिस ! किं तुह दुक्खं दीणसरं रुयसि जं ? तयणु मंती । तीए पयासह सवं नियवृत्तंतं तओ कुमरी ॥ ३२॥ संजायजा इसरणापडिया महिमंडलम्मि मुच्छाए। तो भीओ सहिवग्गो उवयारे का उमारो ||३३|| 1 तं सोऊण नरिंदो संभंतो झत्ति तत्थ संपत्तो । संपुच्छिया तओ सा वच्छे ! मुच्छा तुह किमेसा ? ||३४|| भणियं च तीए एसो भत्ता मह आसि पुत्रजम्मम्मि । अवरोप्परं पि पीई नाम पि सरम्सई आसि ||३५|| कहियं इच्चाइ असेसयं पि रायस्स तो अमञ्चस्स । सप्पच्चयं समग्गं साहइ सा सोचि संतुट्टो ||३६|| परिणाविओ य रन्ना गरुयपमोएण सो महामंती । नियमरणाओ सयलं पि पुच्छिओ तो इमो तीए ||३७|| कहियम्मि अमच्चेणं चितइ एसा अहो ! महासत्तो । पेच्छ जहा किच्छेणं एत्तियकालं ठिओ एसो ||३८|| For Private Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. धनधान्यादिविषयकशोकापार्थकताधिकारे कुलान्दाख्यानकम् तो सविसेसं पेम्मं परोप्परं ताण जायमइसरसं । अह अन्नया नरिंदो तस्सेव य भाणुसचिवस्स ||३१|| दाउँ नरिंद्रलच्छ पत्तो पंचत्तमह अमच्चनियो । तीए सह विसयसोक्खं उवभुंज रायलच्छिजुओं ॥४०॥ अह अन्नया य देवी दाहजरेणं अईव अभिभूया । पञ्चकखाया वेज्जहिं सवहा तयणु भाणुनिवो ॥ ४१ ॥ चिंत जाव इमाए अमन्नं न हु निएमि ताव सयं । अयं मरामि न सुणेमि जेण नियपिययमामरणं ॥ ४२॥ इय चिंतिऊण भाणू आरूढो सत्तमा भूमीए । पासायम्स तलाओ उच्बंधड़ जाव ता सहसा ||४३|| भणिओ चारणमुणिणा सुपुरिस ! किं कुणसि बालमरणमिणं ? | अप्पवणं जायइ भवंतरेसु वि महादुक्खं ||४४ || तो भाणुभूमिवरणा भणियं भयवं ! करेमि किं इन्हि । अतरंतो नियपाणे धरिउं दइयाविओगम्मि ? ॥ ४५ ॥ तो भइ चारणमुणी धम्मो चिय हरइ दुक्खदंदोलिं । ता निच्चं पि नरेसर ! कायव्वो सो सुबुद्धीहिं ॥ ४६ ॥ रागाइरहियदेवं पंचमहव्वयसमन्नियं च गुरुं । जिणनाहकहियतत्तं संपइ पडिवज्जसु नरिंद ! ॥ ४७ ॥ 1 तो भूवइणा भत्तीए सविनयं गिव्हिडं जिणाभिहियं । धम्मं नीओ य मुणी पासे नियपिययमाए तओ ||४८ ॥ सा वि हु चारणमुणिणो चरण पणमेव गिण्हइ गिहीण । धम्मं तो मुणिचरणाणुभावओ सज्जया जाया || ४९ ॥ तत्तो पंचपयारे भोए भोत्तूण दो वि बहुकालं । अहिसिंचिऊण कुमरं रज्जे गुगुरुण पासम्म ||५० || पत्र्वज्वं घेत्तृणं काउं अइदुक्करं तवच्चरणं । काऊण कालमासे कालं सभ्गं समणुपत्ता ॥ ५१ ॥ ॥ मन्त्र्याख्यानकं समाप्तम् ॥१२०॥ इदानीं श्रमण्याख्यानकस्यावसरः, तच्च एकाकित्वाधिकारेऽर्हन्नकाख्यानकेऽप्युक्तमेव । तदनन्तरं रामाख्यानकस्यावसरः, तदपि अप्रतिविधेयविध्यधिकारे यादवाख्यानके व्याख्यातम् । अतोऽवसरायातं - कुलानन्दास्थानकमभिधीयते । तच्श्चेदम् I जिनेन्दमिव प्रकटं स्वगुणैः पुरमस्ति भूतलानन्दम् । तं परिपालइ सुहमुभयहा वि राया कुलानंदो ॥१॥ सर्वान्तःपुरसारा निजरूपविनिर्जितम्मरकलत्रा । तिहुयणतिलया नामेण पिययमा तस्स नरवणो ||२|| जन्मान्तरपुण्यवशोपात्तं पञ्चप्रकार विषयसुखम् । उवभुंजड़ तीए समं निरंतरं नेहपडिबद्धो ॥ ३ ॥ सहते तया वियोगं नो नयननिमेषमात्रमप्यसकौ । तम्भाविओ व्व तच्चेडिओ व्व सह तम्मओ व्व निवो ॥४॥ भणितश्च मन्त्रिभिरसावरिषड्वर्गं वदन्ति विद्वांसः । कामं कोहं लोहं गवं हरिसं च माणं च || ५ || राज्ञः परिहरणीयं तस्माद् देव्या सहाल्पममुमधुना । आयरनु देव ! कल्लाणमप्पणो महसि जइ विउलं ॥ ६ ॥ एवमसौ हितकामैर्मन्त्रिवरैः शिक्षितोऽपि मोहवशात् । नो तं मन्नइ सिक्खा मयणाहीणेऽहवा विहला ||७|| अन्येद्युरसौ राजा विचित्रचित्राभिरामभित्तिघने । पुप्फीचयाररेहिरमगहर मणिकुट्टिमतलम्मि ||८|| बहुमूल्य वसनविरचितशुचिचञ्चञ्चन्द्रगोपकपवित्रे । ससि कुंदधवललं बिरमुत्तासरियासयसमिद्धे ॥ ९ ॥ सुकुमारहंसतूली कल्पित पर्यङ्करूपशयनीये । सुरहिविलेचण तंबोल- पुप्फपडलय पहाणम्मि ॥१०॥ प्रज्वलितदीपसर्पत्प्रभाप्रभावावलुप्ततिमिरभरे । देवीए समं पविसह राया वरवासभवणमि ॥११॥ पुष्पग्रहणनिमित्तं यावद्धस्तं करण्डके क्षिपति । ताव सहस त्ति देवी दट्टा राइल्लभुयगेण ॥१२॥ स्वामिन्! दष्टा दष्टेति पूत्कृते परिकरः समस्तोऽपि । रन्नो पासे पत्तो जपतो किं किमेयं ? ति ॥ १३ ॥ उत्कटचिषवेगवशात् सम्मीलितलोचनाऽभवद् देवी । वयणविणिग्गयफेणा विदुलावयव विगियतणू ॥१४॥ गारुडिक-वैद्य-वातिकमुख्यैः सर्वैरपि त्यक्तमूर्ति सा । पेच्छंताण वि तेसिं परिचत्ता जीवियव्वेण ||१५|| हा ! हतविधिना मुषिताः [ सर्वे ] देवी मृता मृतेति जनः । हाहारवमुहलमुहो पलवइ दुहसल्लियसरीरो ॥१६॥ राजाऽपि स्नेहवशादधिकं सज्जातहृदयसङ्घट्टः । आगयमुच्छो सिसिरोवयारसंजायचेयन्नो ॥१७॥ १. पूर्वार्धसंस्कृतोत्तरार्ध प्राकृतभाषामिश्रेयं कथा । ३४७ For Private Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ आख्यानकमणिकोशे प्रलपति बहुप्रकारं प्रतिवचनं देवि ! देहि मम दयिते!। कत्थ गया ? संधीरसु दंससु वयणं दुहृत्तम्स ॥१८॥ हा देवि ! नयननिर्जितपद्मदलं सरसललितसम्मेरम् । तुझ मुहं गयपुन्नो पेच्छिम्सं कहसु कइया हं ॥१९॥ एवं प्रलपन् राजा सचिवैः सन्धीरितो मधुरवचनैः । विहिणो मल्लो एयस्स देव ! भुवणे वि नत्थि जओ ॥२०॥ अवलम्बस्व ततो हृदि सुन्दर ! धैर्य विचारय विचित्रम् । विलसियमिमस्स विहिणो किं बहुएण वि पलविएण ? ॥२१॥ सम्प्रति देव्या विधिना विधीयतां देव ! वहिसंस्कारः । गय-मय-पब्वइएसुं सोयं न कुणंति सप्पुरिसा ।।२२।। प्रतिहतममङ्गलमिदं सपदि पतिप्यति शिरस्यतो भवताम् । अग्गी वि हु लग्गिस्सइ तुम्हं देहे न देवीए ॥२३॥ यस्मादपराधवतो मम रुष्टा प्रेमरोषणादेषा । तम्हा नियपिययममिममहमेव य पत्तियाविस्सं ॥२४॥ एवं न ददाति यदा कर्तुममुप्याः स वहिसंस्कारम् । तो संजाया सव्वे वि मंतिणो किमवि सविसाया ॥२५॥ एकमपुत्रो मोहेन विनटितोऽन्यच्च धरणिपतिरेषः । कह होही रज्जमिमं ? ति गरुयचिंता गमति दिण ॥२६॥ सा तु त्रिभुवनतिलकामूर्तिर्मुक्ता तथैव तैलेन । तलिऊण तं नियंतो चिट्ठइ राया गहगहिल्लो ॥२७॥ तेऽपि च तथैव तं शिक्षयन्ति राजानमतिनिपुणवचनैः । राया वि देवि ! एए न अच्छिउं दंति वसिमम्मि ॥२८॥ तदितः स्थानाद यावो दुर्जनरहिते क्वचिद् विजनदेशे । तत्थ सुहेणं गंतूण चिट्ठिमो सव्वया जेण ॥२६॥ इत्युक्त्वा तामुत्क्षिप्य मोहतः स्कन्धदेशमारोप्य । गंतुणं वणगहणे तं मोत्त कम्मि वि पएसे ॥३०॥ कन्द-फल-मूलभक्षी पश्यन्नास्ते प्रियां स तत्र सुखम् । एवं कयम्मि कइया वि कोविओ कहइ को वि नरो ॥३१॥ अहमिममत्यन्तं मूढमानसं मन्त्रिणो महीनाथम् । काउं कमवि पवंचं करेमि पउणं सपन्नाए ॥३२॥ प्रतिपन्ने तद्वचने तेनाप्यानायिता निपुणमतिका । एगा रमणी रमणीययाइगुणमंदिरमुदारं ॥३३।। सा कञ्चन नरमेकं मृतकं स्कन्धे तथा समारोप्य । तत्येव वणे परिभमइ तस्स रन्नो नियंतस्स ||३४|| तेनाऽऽपृष्टा सुन्दरि ! का त्वं ? स्कन्धे किमेष पुरुषस्ते ? । तीए भणियं कुलबालियाऽहमेसो य मे भत्ता ||३५|| परमेनं मृतकममी नागरका बालिशाः प्रजल्पन्ति । तो तेहिमहं बाढं संतविया एत्थ संपत्ता ॥३६॥ राजाऽप्यभाणि भद्रे ! दुर्जनलोकोऽयमीदृशः सर्वः । अहमवि तस्स भएणं एयम्मि वणे परिवसामि ॥३७॥ एनामपि मम दयितां मृतां प्रजल्पन्ति येन मूढधियः । ता समदुक्खाणऽम्हं जुत्तमरन्नम्मि वसिउं जे ॥३८॥ एवं च तत्र वसतोः सुखमतिजग्मुः कियन्त्यपि दिनानि । अह अन्नया य तीए भणिओ राया लयंतरिओ ॥३२॥ पश्यासौ तव दयिता किञ्चिजल्पति सहामुना पत्या । मह संतिएण दिट्ठा दिणम्मि अवरम्मि वि जमेसा ॥४०॥ तच्छत्वा वचनमसौ मन्दम्नेहो मनागजनि राजा। पेच्छसु अकयन्नुत्तं अलोइयं किमवि एईए ॥४१॥ . आलापयतोऽपीयं ददाति मम नोत्तरं किमपि पापा । एएणऽसंथुएण वि समं पुणो एवमालवइ ।।४२॥ अन्येद्युः कूपादौ क्वापि प्रत्यक्षिपत् तकन्मिथुनम् । सा पच्छा सविसाया आगंतूणं भणइ रायं ॥४३॥ पश्य त्वद्दयितायाः कीदृगहो ! अधमचेष्टितं राजन् ! । उद्दालिऊण नीओ कत्थइ पाणप्पिओ मज्झ ॥४४॥ अधुना तु मन्दभाग्या रोदिमि कस्याग्रतः ? श्रये कं वा ? । पेच्छ कहं धुत्तीए दो वि दढं बंचिया अम्हे ? ॥४५॥ श्रुत्वैतद् राज्ञाऽचिन्ति किमनया विहितमित्थमेवैतत् ? । अहवा मह मइमोहो मयाणि दोन्नि वि धुवमिमाणि ॥४६॥ नूनं मबोधार्थ [विहितः) केनचिदिति प्रपञ्चोऽयम् । ता कहमहमिय मूढो जाणतो वि हु भवसरूवं ॥४७॥ रे जीव ! कस्य माता ? कस्य पिता ? कस्य किल कलत्रमपि ? । भिन्नपहा जं सव्वे नियकयफलभोइणो सत्ता ॥४८॥ प्रत्यागतचैतन्यः पुनरपि पालयति नरपती राज्यम् । दोन्ह वि थी-पुरिसाणं महापसाओ को ताणं ॥४९॥ पश्यत मतेरचिन्त्यं माहात्म्यं येन तादृशो विपदः । मुक्को राया जाओ य भायणं रायलच्छीए ॥५०॥ ॥ कुलनन्दाख्यानकं समाप्तम् ॥१२१॥ यद्वदमीषामभवत् सन्तापपरम्पराकरः शोकः । तह अन्नम्स वि जायइ ता चयह इमं विवेयवसा ॥१॥ शोककरणमशुभफलमभिहितम् , अत एव विदितजिनतत्त्वाः केचन एनं न कुर्वन्त्येव एतद् दृष्टान्तेनाह Jain Education Interational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. धनधान्यादिविषयकशोकापाथकताधिकारे भव्यकुटुम्बाख्यानकम् ३४६ जिणवयणभावियमई संसारासारयं वियाणंता। न करंति मए सोयं भवियकुडुचं व सुपिए पि ॥५१॥ अस्या व्याख्या---जिनवचनेन-आगमोपदेशेन भाविता वासिता मतिर्येषां ते तथोक्ताः 'संसारासारतां' भवनैर्गुण्यं 'विजानन्तः' अवबुध्यमानाः न कुर्वन्ति मृते शोकं भव्यकुटुम्बवत् 'सुप्रियेऽपि' अतिवल्लभेऽपि इत्यक्षरार्थः ॥५१॥ भावार्थस्त्वाख्यानकगम्यः। तच्चेदम् निरुपद्वतादिसदगुणैः, क्वचिदाधिक्यगुणातिशायिनि । बहुधाविधिधान्यसम्भवप्रथिते कर्षकसन्निवेशके ॥१॥ वसति प्रियधर्मनामकं, प्रवणं भव्यकुटुम्बमेककम् । जिनधर्मगुणेन भावितं, प्रियसन्तोषसुधातिसुस्थितम् ॥२॥ अथ तत्र कुटुम्बके बृहन् , जनकः सुन्दरनामधेयकः । दयिताऽपि मनोरमाभिधा, शचिशीलादिगुणा जनप्रिया ॥३॥ तनयोऽप्यनयोर्मनोरथो, भणितोऽथास्य वधूश्च सूमिका । गुणयोग्यमिति प्रसिद्धितः, कथितं भव्यकुटुम्बकं जनैः ॥४॥ प्रियभाषितया विभूषितं, न च केनापि जनन दूषितम् । स्वकुटुम्बकसंहतो स्थितं, परमात्सयवियोगसुस्थितम् ॥५॥ परमेतदनिन्द्यसङ्गतं, जिनधर्माचरणे सुनिश्चितम् । तदचिन्त्यकुकर्मदोषतो, विभवकवल रत्नसिद्धवत् ॥६॥ स्वकुटुम्बकवृत्त्यभावतः, पितृ-पुत्रावनुवासरं हलम् । प्रतिवाहयतो बहिःस्थिती, किमु कुर्यादथवा न दुर्विधः ? ॥७॥ जठरापरिपूरणे पुमानतिमान्यां मुक्त्वा मनस्विताम् । अवध्य मनःप्रियां हियं, परिहृत्य स्वकुलव्यवस्थिताम् ॥८॥ कुरुते कुनरेन्द्रसेवन, तनुते नीचजनेऽपि संस्तुतिम् । प्रथयत्यहितेऽपि मित्रतां, त्यजति स्वाचरणं सतां मतम् ॥२॥ तदमू अपि दौस्थ्यतो जिनं, प्रतिपन्नी कुरुतो हलिक्रियाम् । अथ तत्र कथञ्चिदप्यसौ, तनयः प्राप परासुतामहेः ।।१०॥ जनकोऽपि विबुध्य तं मृतं, जिनवाक्यामृतसुस्थमानसः । हलबाह्यभुवो बहिः सुतं, शुभचित्तोऽक्षिपदुच्चकैः स्वयम् ॥११ सुमना उपचक्रमे हलं, खलवे खेटयितु तथैव सः । अथ तेन पथाऽस्य सीहकः, स्वजनः प्राप कुतोऽपि चाग्रतः ॥१२॥ अवलोक्य तमेवमुज्झितं, तनयं सीमनि तस्य तादृशम् । तमपि प्रयतं निजे हले, जनकं तस्य तथा विशोककम् ॥१३॥ तदनु स्वजनः सविस्मयस्तमपृच्छत् सुतमृत्युकारणम् । स्वजनाय यथाऽभवत् तदा, सकलं सोऽचकथत् तथैव तत् ॥१४॥ अथ तादृगलौकिकं वचः, स निशम्य प्रजगाद सुन्दरम् । यदमुं सुतमित्थमत्यजस्तत् तव सुन्दर ! सुन्दरं नु किम् ? ॥१५॥ अथ तस्य निशम्य तद् वचः, प्रतिबोधाय जगाद सुन्दरः । मयका किमसुन्दरं कृतं, यदयं भद्र ! परासुरुज्झितः? ॥१६॥ अपरोऽपि च किं मृते करोत्वतिरिक्तेऽपि च रोदनाद ऋते । तदपि क्रियमाणमङ्गिनां, नितरांस्वार्थहरं विचिन्त्यताम् ॥१७॥ अपरं च निशम्यतामिदं, प्रकटेऽमुष्य यमस्य वर्त्मनि । निजकर्मभटैगलस्तितो, बत! कोऽप्येति निरेति कश्चन ||१८|| यदपि प्रथितं मृते जने, मिलिते क्वापि च रुद्यते जनैः । अवगच्छ स काकरोलकः, क्रियते तैः पतिते कलेवरे ।।१।। तदयं सुकृतेन कर्मणा, समियाय स्वयमेव मद्गृह । ? स्वयमेव पुनर्गतः क्वचित् , तदहो : किं परिदेवितेन नः ? ॥२०॥ अपरं च ममामुनाऽऽगतं, कथितं नो निजमायता तथा । गमनं च [न] गच्छता ततो, निरपेक्षस्य सतोऽस्य कीदृशः ।।२१।। उपरि क्रियते निबन्धनः ? प्रतिबन्धोऽपि च ? भद्र! कथ्यताम् । इह यो किल मन्यते परं, सजनेनापि च मन्यते स्फुटम् ।।२२।। अथ वक्षि बलीयसी स्थिति न लोकस्य न लभ्यते क्वचित् । तव सत्यमिदं वचः परं, मरणे साऽपि निरर्थकोदिता।।२३।। उचिता पुनरस्ति जीवतः, परमेषाऽपि मया न पारिता । प्रविधातुममुप्य यन्मृतो, विषवेगोत्कटतावशाद दूतम् ।।२४।। कियतामिति भद्र ! खिद्यतां, स्वजनानां भवतां कृते वृथा ? । भविनो निजकर्मवश्यतावशिनः स्वर्गगमा भवन्त्यमी ॥२५॥ तदलं बहुभाषितेन नो, यदतीतं भुवि तन्न शोचयेत् । सुतमृत्युममुं निवेदयेर्मम वेश्मनि निजकः स शिक्षितः ॥२६।। अथ तेन निशम्य तद्वचो, विदितं तावदयं सुनिष्ठुरः । सुतमातृ-कलत्रयोः पुनश्चरितं कीदृगिदं न वेदमयहम् ॥२७॥ इति कौतुकपूर्णमानसः, प्रथमं वेश्मनि तस्य सोऽविशत् । विहितोचितसक्रियः क्षणं, सविषादं निजगाद मातरम् ।।२८|| अयि धर्मनिधे ! मनोरमे !, किमपि त्वं शृणु वाक्यमप्रियम् । कथयेति निवेदिते तया, भणितं तेन तवाङ्गजो मृतः ॥२९॥ कथमित्यविषादमाह सा, भणितं तेन महाहिना क्षितः । अथ सान्यगदत् सहायकः, सदनुष्ठानविधौस नोऽभवत् ॥३०॥ १. नः अस्माकम् । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० आख्यानकमणिकोशे परमत्र विधौ विधीयते, किल किं सीहक : ? सा तमब्रवीत् । यदशक्यनिवारणो यमो, जिनराजैनिरदेशि शासने ॥३१॥ तथा हि न गर्न हयैर्न पत्तिभिर्न रथैनैव नयैर्न विक्रमैः । न धनैश्चिरसञ्चितैर्घनै च मन्त्रैरपि वार्यते यमः ॥३२॥ हलभृद्धरि-चक्रवर्तिनः, सुगत-ब्रह्म-पुरन्दरादयः । भुवनत्रयनायका जिना, विधिना धिग ! निहता हहाऽमुना ॥३३॥ पुनरप्यवदत् स बान्धवो, जठरे सुन्दरि : स त्वया धृतः । प्रणयेन च पालितस्तरां, सरसाहारवशाच्च लालितः ॥३४॥ तदियं किमलौकिकी तव, प्रथिता निर्वरता सते निजे ? । तदनु प्रियवाग मनोरमा, सदयं सीहकमाह सन्मतिः ॥३५।। यदि पालन-कुक्षिधारणं, स्वजनस्नेहनिमित्तमुच्यते । विहितं च परस्परं तकद्, भविभिः सन्तु समेऽप्यमी निजाः ॥३६॥ शृणु सीहक ! शासनस्थिति, भवकान्तारमनन्तमृच्छतः । समभूत् प्रतिदेहिनं यतः, स्वकभावो बहुधाऽपि देहिनः ॥३७॥ तदयं भविको विवेकवान् , वद केन प्रतिबन्धमृच्छतु ? । समभावतयैव वर्तनं, मुनिवत् सङ्गतमङ्गिनां ततः ॥३८॥ इति संसरतां तनूमता, स्वजनः को वद ? कोऽथवा परः ? । इति युक्तिवचोभिरीदृशैनिजके मौनमुपेयुषि क्षणम् ॥३९॥ भणिता च सुतप्रियाऽनया,तव भर्ता कथितोऽमुना मृतः । तदशक्यनिराकृतौ विधौ,क्रियते किं ? कुरु मानसों धृतिम् ॥४०॥ अधुना तु गृहीतभोजना, चलिता श्वसुर-वराय यद्यपि । श्वसुरस्य कृतेऽशनं नयेरिदमास्तां पतिभक्तभाजनम् ||४१॥ विहितेच तया तथैव तां,निजगादाऽथ निजः सुतप्रियाम् । पतिमद्य न शोचसेऽङ्ग! किं,चलिताऽन्यत्र शुचः पदेऽपि यत् ॥४२॥ जगदेऽथ तया पति विदुर्जिनधर्म मुगुरुं जिनेश्वरम् । अपरे पुनरात्मपोषकाः, पतयस्तात ! भवे भवेऽभवन् ॥४३॥ यदि वेदिम शुचोऽपि सत्फलं, तदहं रोदिमि वच्मि विक्लवम् । उपहन्मि वपुः पति स्तुवे,नितरामद्मिन भक्तमप्यदः ॥४४॥ विहितेऽपि यदेवमस्ति न, प्रकृतं किश्चिदपि प्रयोजनम् । प्रथयेच्छुगियं कृता तदा, बत ! कर्तुळूवमजतामलम् ॥४५॥ यदि शोककृदानयेन्मृतं, म्रियमाणं विनिवर्तयेज्जनम् । विदधातु शुचं न चेदिदं, द्वितयं किं कृतयाऽनया वृथा ? ॥४६॥ कुपितैः किल कुट्यते यकद् ,विपदि स्वेन निजं शरीरकम् । बत ! सम्प्रति तेन नृत्यते, प्रकटाङ्गं किल का विदग्धता ?॥४७॥ कुधियः क्वचिदतिसङ्गताः, किल कुर्युः शुचमङ्गकैर्यकैः । विलसन्ति तदैव तैरमी, मनुजानां धिगिमां विडम्बनाम् ॥४८॥ चरणैरिह शोकतो यकैबिलिखद्भिर्भुवमङ्ग शोचितम् । मुदितैरिह गम्यते तकैर्विलसद्भिभुवि हंसलीलया ॥४॥ गुरुशोकवशेन ताड्यते, हृदयं यत् स्वकरैः सुनिर्दयम् । तदपि प्रियहारयष्टिभिः प्रमदेऽलकियते विचेतनः ॥५०॥ शुचि निर्भरमुक्तपूत्कृतिव्यथितैर्यन मुखेन रुद्यते । गुरुपर्वणि तेन गीयते, किल कीदृश्यपरा विडम्बना ? ||५१।। नयनर्गलदश्रकं जनः, शशचे यैरिह तैरपत्रपः । सकटाक्षमपाङ्गसञ्चरन्नयनव्यंशमयं निरीक्षते ॥५२॥ इति बहुविधमूढलोकजं, कियदसमञ्जसमत्र कथ्यते ? । जिनवाक्यविशुद्धचेतसां, पुनरेवंकरणं न सङ्गतम् ॥५३॥ तदिदं गुणवत्तया प्रियं, प्रथितं भव्यकुटुम्बकं जने । इह मोह जयाद बृहत्सुखं, परलोकेऽपि च सद्गतिं गतम् ॥५४॥ प्रशमय्य मनो विवेकतस्तदनेनैव कुवासनामयम् । गृह-पुत्र-कलत्र-सम्पदां, प्रलयेऽप्यङ्ग ! न शोच्यमङ्गिभिः ॥५५॥ ॥ इति भव्यकुटुम्बाख्यान समाप्तम् ॥१२२॥ यद्वद् बभूव भुवि भव्यकुटुम्बकस्य, सर्वज्ञशासनवचोऽमृतभावितस्य । बन्धावशोककरणं महते गुणाय, तद्वद् भवेत् तदितरेप्वपि मानवेपु ॥१॥ ॥इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे जिन शासन भावितमतिषु शोकाकरणप्रतिपादन परश्चत्वारिंशोऽधिकारः समाप्त इति ॥४०॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१. विवेकिजनस्वकृत कर्मोदयोपतनदुःखाधिसहनाधिकारः ] अनन्तरं शांककरणमनर्थकमभिहितम् । अधुना तु न केवलमिदमनर्थकम् किं तर्हि ? शारीरमानसह मप्येतत् तच्च विवेकिनः स्वकृतफलमिदम् इति मन्वानाः सम्यक सहन्त इत्येतद्वक्तुकाम आह " सम्मं सहति धीरा कम्मवसेणं समागयं दुक्खं । पासजिण-वीर-गय मुणि-मेयञ्ज- सणकुमार व्व ॥ ५२ ॥ अस्या व्याख्या–‘सम्यग्’ भावसारं 'सहन्ते' तितिक्षन्ते 'धीराः' सात्त्विकाः 'कर्मवशेन' स्वकृतानुभावेन 'समागतं' समायातं 'दुःखम्' अशर्म । दृष्टान्तानाह— पार्श्वजिनश्च – प्रसिद्धः वीरश्च - महावीरः गजमुनिश्च – गजसुकुमारः मेतार्यश्च - श्रेणिकराजजामाता सनत्कुमारश्च -- चतुर्थचक्रवर्ती ते तथोक्ताः, तद्वदित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थेस्त्वाख्यानकगम्यः । तानि चामूनि । तत्रापि क्रमप्राप्तं किञ्चित् - पाश्र्वाख्यानकमभिधीयते । तच्चेदम् गुणालए भारहमज्झखंडे, चक्काहिबोसारियदुदंडे | कासी जणो जत्थ सया वि धम्मं, करेइ वा जीवदया रम्मं ॥१॥ कासीइ देसो सगुणेहिं सभ्गो, जम्मी सिरीमंदिरमंगिवग्गो । वाणारसी तत्थ पुरी पसिद्धा, मुत्थत्तयाईहिं सया समिद्धा ||२|| तत्थाऽऽसि राया सिरिआससेणो,युवेग-दप्पुद्धरआससेणो । तस्साऽऽसि वम्मा निवपट्टदेवी, जीएन दोसा विलसंति के वी ॥३॥ सुहाई तीए सह भुंजमाणो, पालेड़ रज्जं असमाहिमाणो । कयाइ वम्मा सुहसेज्जमुत्ता, खेयाइदोसेहिं दढं वित्ता ||४|| निएइ निद्दावसवत्तिनाणे, गयाइए चोद्दस पुन्नठाणे । गंतूण वम्मा मणुइंदपासे, पयासई पाचमलप्पणासे ||५|| तेणावि वृत्तं तुह पुत्तलाभो, होही पिए ! पंकयनिम्मलाभो । एमेव होज्जा मणजायतुट्टी, वत्थंचले बंधइ सउणगंटी ||६|| काण देवी सिरिवम्ममाया, सुयं अरोया अरुयं पयाया । कओ सुरिंदेहिं जिणाभिसेओ, मुरायले सन्नयदिन्नसेओ ||७|| माऊ सप्पाणुभवाणुरूवं, समंतओ भग्गभवंधकवं । पासो ति पुत्तस्स जयप्पसत्थं, नित्रेण नामं विहियं जहत्थं ॥ ८ ॥ कलाकलावे निउणो कुमारो, रुवेण ओहामियदेव - मारो । पत्तो वयंसेहिं समं भमंतो, जत्थऽच्छई कट्टतवं तबंतो ||९|| काभिहाणो समणो तबस्सी, दिट्टिप्पहे दिन्नसहस्सरस्सी । अञ्चत्तयं किंचि मणे सरंतो, पंचग्गितावं तवमायरंतो ॥१०॥ तो तेण नाऊण कुमारएणं, वृत्तो किमेएणमसारएणं । अन्नाणकट्टेण महाणुभावा ? कुद्धो निसामेउमिमं कुभावा ॥ ११॥ पयासिओ फोडिय कट्टखोडिं, सप्पो गओ सो विहुकोवकोडिं । पासो वि सप्पं तयमद्धदर्द्ध, काउं नमोक्कारगुणेण सुद्धं ॥ १२ ॥ गओ गिहं सो वि मओ तयाऽही, जाओ अहीसो स महासमाही । पासो वि गेहम्मि कुमारभावे, मुणेइ कइया विहु गीयरावे ॥ १३ ॥ काइ कारावर नट्टकम्मं, कयाइ आयन्नह सुद्धधम्मं । कयावि कीलावइ हत्थिराए हुए विवाहेइ समुच्चकाए ||१४|| कमेण लायन्नगुणेण पुन्नं, पत्तो जुवत्तं रमणीयवनं । तओ य रत्ना सुकुमारियाओं, विवाहिओ रायकुमारियाओ ||१५|| पंचप्पयारे रमणीयभोए, सुरो व्व सो भुंजइ चत्तसोए। एत्तो य लोयंतियनाम एहिं विवोहिओ जीयनिवेयएहिं ॥ १६ ॥ देवेहिं दाऊण सुवन्नदाणं, किमिच्छयं सव्वजणेऽनियाणं । संवच्छरं जाव अदुट्टभावं, दारिद्दसंतत्तविलुत्ततावं ॥ १७॥ सपि रज्जसारं, फवज्जई संजमरुवभारं । कढो मरेऊण पभूयपावो, नियाणदोसेण किलिट्टभावो ॥ १८ ॥ को हग्गिणा सवपत्तिकाओ, आउकखए अग्गिमुरेसु जाओ । पासित पासं कयका उसग्गं, झाणट्टियं निज्जियमोहवग्गं ॥ १९ ॥ समागओ जाणियपुञ्चवेरो, खोभे उकामा परिचत्तमेरो । जिगोवरिं धारियक्रूरचित्तो, फुरंतकोवाहियरत्तनेत्तो ||२०|| विव्त्रिया तेण तओ पिसाया, दुहावहोदीरियदुट्टवाया। जमव्व जीयंतकरा कराला, मुहेण निज्जंतदवग्गिजाला ॥ २१ ॥ निसाय विष्फारियकत्तियाला, सभावओ भीसण-सामभाला । घण व्व भिंगंजणकालकाया, विज्जुच्छडाभासुरमुत्तिभाया ॥ २२ ॥ लल्लकहक्का भय-मेरवेहि, अट्टट्टहासुग्गमहारवेहिं । निकंपझाणाउ घिईसगाहो, न खोहिओ तेहिं वि पासनाहो ||२३|| पुणो वि आपिंगलकेसखंधा, पडदाढाहिय मीइर्विधा । ससंभ्रमावसवसा दुलंबा, विउब्विया भीसणसिंहसंघा ॥ २४ ॥ विरूपवेहिं तहाऽवरेहिं, बग्घाइएहिं पि भयंकरेहिं । न खोहिओ जाव जिणो सयाओ, मेरु व्व झाणाओ सुहासयाओ ||२५|| 1 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आख्यानकमणिकोशे तओ तहिं वित्थरिएहिं देवप्पभावओ सव्वमकंड एव । विज्झायदीवं व गिहं धणेहिं, अंधारियं वोमतलं घणेहिं ॥२६॥ कढंबुओ सज्जियसक्कचावो, धारासरो वासइ रुद्द रावो । पासं जिणं गपि मणम्मि कूरे, नासावहिं नीरभरेण पूरे ॥२७॥ दिट्ट जिण निच्चलझाणसूर, मुह सुनत्त गुरुनारपूर । पंकेरुहं वऽद्धनिमम्गमेव, सुमुद्धफुल्लधुयजुम्मसेवें ॥२८॥ जहा जहा मुंचइ वारि देवो, तहा तहा पासजिणो अलेवो । काऊण सज्झाणगयं पयत्तं अलोइयं झायइ किं पि तत्तं ।। तं वारिनिम्मायममाइयस्स, सम्म सहंतस्स दुहं जिणम्स । पयासियासेसपयत्थमाणं, जायं सुहं केवलरूवनाणं ॥३०॥ एवं कढे नीरभरं मुयंते, झाणंबुणा कम्ममलं धुवंते । जिणे गिरिंदे व्व सुनिप्पकंपे, अहो ! अहीसासणमाचकंपे ॥३१॥ नाऊणमोहीए जिणोवसम्गं, आगम्म सिग्छ कढमत्थभंगं । निभच्छिउं वंदइ नायराओ, जिणेसरं जायगुणाणुराओ ॥३२॥ काउं सरीरं सफणायवत्तं, सिंहासणं सूरकरायवत्तं । निवेसिउं तम्मि जिणिंदपासं, थोडं पवत्तो गयनेहपासं ॥३३॥ कढेण तं पास ! कयत्थिओ वि, तम्मि सुहोऽहेसि अपत्थिओ वि । विणिच्छिउं ने अहवा वि देव !, समीहियं लभइ कि मुहेव ॥३४॥ अणंतरं ओसरणाइकिच्चं, करेंसु सक्काइसुरा हु निच्चं । एवं जिए बोहिय धम्ममग्गे, खवित्त कम्माणि गओऽपवग्गे ॥३५॥ कल्लाणयं मंगलकारयं च, अणिदंदोलिनिवारयं च । पासम्स वित्तं विउसेहिं धेयं, विसेसओ तच्चरियाओ नेयं ॥३६|| पाख्यिानकं समाप्तम् ॥१२३॥ इदानीं वीराख्थानकमाख्यायते, तच्च सम्यग्दुःखाधिसहनार्थमेव समवगन्तव्यम् । तद्यथा ____ संयमभरग्रहणाङ्गीकारप्रस्तावे मिलितसमस्तचतुर्विधदेवनिकायसचिवसौधर्माधिपतिप्रमुखसुरेश्वरसमुदायं नन्दिवर्धनराजप्रभृतिस्वजनसमाज मन्त्रि-सामन्त-धुरोगपौरप्रकारांश्चाऽऽपृच्छ्य विहाराय प्रस्थितेन कर्मारग्रामबहिरुधानप्रतिपन्नकायोत्सर्गेण [यथा] प्रथमप्रारब्धगोपालोपसर्गरूपम् , तदनन्तरं दिव्यादिचतुर्विधोपसर्गसम्पातप्रस्तावे जघन्योपसर्गमध्ये उत्कृष्टं कटपूतनाजनितसतुहिनपवनमिश्रं जलशीकरशीतरूपम् , मध्यमोपसर्गमध्ये तूत्कृष्टं प्रकुपितसुराधमसङ्गमकमुक्तकालचक्रसम्पातजनितवेदनाविसहनरूपम् , उत्कृष्टोपसर्गमध्ये चोत्कृप्टं छम्माणीनामकग्रामवास्तव्यसिद्धार्थवणिग्गृहोपविष्टवैद्यशिरोमणिखरकाभिधानवणिग्मित्रदृष्टजिनागमाभिहितविधानभिक्षासमयसिद्धार्थगृहप्रविष्टसमस्तलक्षणसमन्वितश्रीमन्महावीरतनपदिष्टसरोगताश्रवणसञ्जातातिदुःसहमानसकष्टसिद्धार्थवचनप्रोत्साहितखरकवैद्य - सम्यगन्विष्टसमुपलब्धछिन्नमूलकर्णगतानिष्टकीलकाकर्षणसमयसमुद्भूतमहावेदनाविसहनरूपम् , तदनन्तरं च समुत्पन्नदिव्यामलकेवलावलोकावलोकितलोकाऽलोकेनापि प्रोत्सर्पत्प्रौढबहुमानपुरस्सरभक्तिभरावनम्रभवनपत्यादित्रिदशसमन्वितशक्रादिसुरेश्वरविरचिताष्टमहाप्रातिहार्यरूपपूजोपचारकलितरमणीयप्राकारत्रयसमलकृतसमवसरणमध्यव्यवस्थितस्वर्णमणिखचितविचित्रदिव्यसिंहासनावस्थितेनापि स्फुरन्महाप्रभावसङ्ख्यातीतदेवकोटीकलितेनापि नानाविधलब्धिधुनीशतसन्निपातमहाजलधिकल्पगौतममुनिप्रमुखश्रीश्रमणसङ्घपरिवृतेनापि गोशालकविमुक्ततेजोलेश्यापरितापनारूपम् , अपरं च स्वकृतावश्यवेद्यावेद्यवेदनीयवेदनाऽऽविर्भूतदौर्बल्याऽरोचक-रुधिरातिसारसमन्वितदाघज्वरसमुत्थवेदनानुभवरूपं दुःखं सम्यगधिषोढम् , तथा तदीयबृहच्चरितादवसेयम् ॥ ॥इति संक्षेपतो वीराख्यानकं समाप्तम् ॥१२४॥ साम्प्रतं गजमुन्याख्यानकमाख्यायते तच्चेदम् गंगेयनिम्मियावासमणहराए वि धणयविहियाए । बारवईए नयरीए नरवई वासुदेवो त्ति ॥१॥ नामेण देवई से जणणी भवणम्मि अन्नया तीए । पारणयदिणे छट्ठम्स साहुसंघाडया तिन्नि ॥२॥ जुगमेत्तनिहियनयणा अंतरिया थोवथोववेलाए । समरूवा संपत्ता सप्पणयं पणमिया तीए ॥३॥ पडिलाभिया य ते सिंहकेसरप्पवरमोयगेहिं तओ । अह तेसि तइयसंघाडगो इमं पुच्छिओ तीए ॥४॥ भयवं ! किं मइमोहो मह ? किं दिसिविब्भमो इमो तुम्ह ? । अह सम्गसमाए वि हु पुरीए न हु लब्भए भिक्खा ? ॥५॥ जं हह पुणो पुणो वि य समागया तयणु भणइ जेट्टमुणी । नो मइमोहो तुम्हाण साविए ! अत्थि मणयं पि ॥६॥ नो वा दिसिन्भमो अम्ह न वि . य भिक्खा न लभए एत्थं । परमत्थि कारणं तं पि तुम्हमक्खिज्जए इहि ॥७॥ १.नागराजः। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. विवेकिजनस्वकृत कर्मोदयोपनत दुःखाधिसहनाधिकारे गज सुकुमालास्थानकम् भद्दिलपुरम्म नागस्स सेट्टिणो सुलसभारियाए सुया । छ च्चेव वयं सिरिनेमिचरणमूलम्मि फवइया ||८ ॥ ते एत्थ परियडंता कुलेसु उच्चावसु सव्वे वि । तुह मंदिरम्मि पत्ता समाणरुव त्ति संदेहो || ६ || इय जंपिऊण मुणिणो विणिग्गया देवई वि चिंतेइ । हरिणो समाणरूवा जइणो सव्वे वि पेच्छ इमे ॥१०॥ पुचि पर्यपि आसि मज्झ नेमित्तिएण अट्टहं । जीवंताणं पुत्ताण होसि जणणी तुमं देवि ! ॥ ११ ॥ तावि हुने महत्ता जं सिणिज्झए हिययं । इय चिंतिऊण दिवसे दुइज्जए जाणमारूढा ||१२|| पत्ता य समवसरणे जिणसरं पणमिउं समुवविट्टा | पहुणा वि हु तत्रभावं साहेउं सा इमं भणिया ||१३|| देवापिए ! मग्गाणुसारिणी तुह मई समुप्पन्ना । जेणेसा सुर्याचिता संवित्ता अविता चेव ||१४|| तो देवदिट्टा ते मुणिणो जिणवरस्स पासम्मि । पन्हुयपओहराए पणमिय एवं समुल्लविया || १५ || मम कुच्छ भूयाण पुत्तया ! तुम्हमेरिसं जुत्तं । गुरुरज्जसिरी सज्जा अणवज्या अहव पव्वज्जा ||१६|| नवरं दूमइ हिययं जं सच्चवियं न तुम्हमेगं पि । सुहबालविलसियं मंदमम्मणुल्लावरमणीयं ||१७|| तो जगगुरुणा भणिया जम्मन्तरक्रम्मविलसियं तुज्झ । जम्हा सवक्किरयणाणि सत्त तुमएऽवहरियाणि ॥ १८ ॥ विलवंती ती पुणो च करुणाए अप्पियं एक्कं । तम्स फलेणं जाओ पुत्तेहि समं तुह विओगो ||१६|| इय सोउं तीए पुणो पुणो वि दुच्चरियगरहणा चिहिया । वंदिय नेमिजिणिदं संपत्ता निययपासाए ||२०| जणणीकमनमणत्थं समागओ कण्हनरवई गोसे । तो साममुहं तं पेच्छिऊण पुच्छर पणयपुत्र्वं ॥ २१ ॥ किं अंब ! कसिणवयणा ? किं आणाखंडणं कुणइ को वि ? । तो सा जंपइ पुत्तय ! न खंडए कोइ मम आणं ||२२|| किंतु मह दुक्खमेयं बहुपुत्तप्पसविणी वि होऊण । जाया दुहाण ठाणं न बालविलसियमुहाणमहं ||२३|| निययुच्छंगे काउं न कारिओ कोइ निययथणपाणं । ऊरुणमुवरि धरिडं न य न्हविओ मंदपुन्ना ||२४|| हरितो खेल्लणयदंसणाडंबरेण डिंभेहिं । रिखंतो मणिकुट्टिमगिहंगणे न विय सच्चविओ ||२५|| एमेव मम्मल्लावमणहरं पहसिरो दसणमुन्नं । आलिंगिऊण गाढं न चुंबिओ वयणकमलमि ||२६|| नहु डिंभविहिय के लिप्पसंगओ धूलिधूसरसरीरो । आगंतुं मह कंटे विलग्गिओ झ त्ति एमेव ॥२७॥ न हु बालयसुलहाए राहाडीए महीए विलुलंतो । काउं कडीए आलिंगिऊण मंभीसिओ बालो ||२८|| न कया विहु कुविएणं मन्नुभरुम्मंथरं रुयंतेण । सुकुमालपाणिअमयच्छडाहिं पहया अहमहन्ना ||२९|| इय मन्नुनिच्भरं जणणिजंपियं नियुणिऊण कन्हनिवो । उल्लवइ अंब ! मा कुणसु कमवि खेयं नियमणम्मि ||३०|| सव्वं पि सोहणमहं करिस्समिइ जंपिऊण नीहरिओ । आराहइ अमरं पुत्र्वपरिचियं विहियतवचरणो ॥ ३१ ॥ ता कणयकुंडलाहरणभूसिओ सुरवरो समणुपत्तो । किं कण्ह ! सुमरिओ हं ? इय तेणुत्ते भइ कण्हो ||३२|| मह जणणीए पयच्छसु पुत्तं तो सुरवरो भणइ होही । नवरं तारुन्ने विहु पञ्चइही इय पयंपेउं ॥ ३३ ॥ सिग्धं तिरोहियम्मितियसे तियसालयाओ चविय सुरो । देवीए सुओ जाओ गयसुकुमालो कयं नामं ॥ ३४ ॥ नवजोवणमणुपत्तो अणिच्छमाणो वि सयणवग्गेणं । परिणाविओ य धूयं दियम्स सो सोमसम्मस्स || ३५॥ अह तत्थरिनेमी समोसढो रेवयम्मि उज्जाण । तस्साभिवंदणत्थं संपत्ता जायवा सो वि ॥ ३६ ॥ पहुपयपडमं नमिउं उचविट्टो भयवया चि सव्वेसिं । कहिया सद्धम्म कहा जणणी सग्गा- ऽपवग्गाणं ||३७|| पुव्यभवन्भासाओ धरिज्यमाणो वि बंधुवम्गेण । गयसुकुमालो सिरिनेमिपायमूलम्मि पव्वइओ ||३८|| गंतुं उड्डामरडाइणीहिमुम्मुक्क पिक्कफक्कारे । वेयाल-भूय-रक्वसविमुक्का अट्टहासम्मि ||३९|| बहुरंडमुंड मंडलमज्झे परिभमिरसिवसमूहम्मि । उज्झतमडयवसविस्सगंधवासिय दिसाचके ||४०|| एवंविहभीसावणमसाणमज्झम्मि सो महासत्तो । काउसम्मम्मि ठिओ गयसुकुमालो नवतवस्सी ||२१|| तत्थाऽऽगएण भवियन्वयाए दिट्ठो स सामसम्मेण । तं पेच्छिऊण कुचिओ अहो ! सुया मज्झ एएण || ४२ ॥ 1 I 1 १. तुम्हाण मे० प्रतौ । ४५ For Private Personal Use Only ३५३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ आख्यानकमणिकोशे परिणऊण विडंबिय परिचत्ता इय विचितिउं तेण । पावेण घडीकंठो ठविओ सीसम्मि से मुणिणो ॥ ४३ ॥ भरिओ य जलंताणं अंगाराणं पणट्टकरुणेण । तेहि मुणी उज्झतो सम्मं अहियासिउं लग्गो ॥ ४४ ॥ मा कुप्पयु जीव ! तुमं इमम्स जम्हा निमित्तमित्तमिमो । अवरज्झ तुह इह कम्मपरिणई पुञ्वभावविहिया || ४५ || वयग्वेि यणाओ (?) सहियाओ अणगसो तए नरए । इहि पुण पीडिस्सइ केत्तियमेत्तं इयरजलणो ? || ४६ || अज्ज विय संसणिज्जी होइ इमो सव्वहा वि रे जीव ! । जो सिद्धिपुरपहम्मि एवं तुह कुणइ साहिज्जं ॥४७॥ एवं विचितयंतम्स तस्स सीसं बहिं दहइ दहणो । मज्झमि भवपरंपरसमज्जियं कम्मकट्टभरं ॥ ४८ ॥ जह जह उच्छलद्द महावियणा जलंगण तस्स तवनिहिणो । तह तह स महासत्तो धम्मज्झाणं समारुहइ ॥ ४६ ॥ इहभवि - पारभविए जीवे खामेइ खमइ य सयं पि । पणमइ कमकमलं भुवणसामिणो नेमिनाहम्स ||५० || आलोयणं पयच्छइ सिद्धाण पवडमाणपरिणामो । एवं अहिया संतस्स तस्स सम्मं जलणवियणं ॥ ५१ ॥ जायं लोया लोयप्पयासयं विमलकेवलन्नाणं । तवेलं चिय निव्वाणमुत्तमं सां समणुपत्तो ॥ ५२ ॥ यदि सब दुहा वि दोघट्टमारुहेऊण । नमणत्थं नेमिजिणस्स निग्गओ कण्हनरनाहो || ५३|| पत्तो य समवसरणे नमिउं जिणपायपरममुबविट्टो । भयवं ! गयसुकुमालो कत्थऽच्छइ ? पुच्छिए तेण ॥५४ || सिद्धिट्टा सिट्टो जिणेण कह मेयमुल्लवइ कण्हो । भणइ जिणो जह तुमए आगच्छंतेण साहिज्जं ||१५|| करुणारसिएण कयं विप्पस्स जराए विहुरियंगस्स । देवलियाकरणकए सिरेण इट्टा वहंतस्स || ५६ || तह सुकुमालस्स वि केणाचि कयं तओ भणड़ कण्हो । कह नज्जिही स भयवं ! मए ? तओ भणइ भुवणगुरु ॥५७॥ उच्बंधणानिमित्तं निम्गच्छंतस्स जस्स तं ददुं । फुडिही सिरं तहेव य मरिही स तए मुणेयव्व ॥ ५८॥ इय सोउं कण्हनिवो नियबंधवमरणजायगुरुसोओ। 'अंसुजलोल्लकवोलो नमिउं नेमिं पडिनियत्तो ॥ ५९ ॥ ॥ जा पुरीए पविस्सर कहो ता दिट्टिगोयरं पत्तो । सो सोमसम्मविप्पो फुहं से सत्तहा सीसं ॥ ६० ॥ तो पंचत्तं पत्तो चिन्नाओ वासुदेवनरवइणा । नयरीए भामिओ सो कड्डावेऊण पाएहिं ॥ ६१ ॥ खित्तो य पुरीए बहिं एरिसमन्नो वि कुणउ मा पावं । इय निसुणिऊण गुरुदुक्खसल्लिया जायवा सव्वे ॥६२॥ वसुदेवेण विरहिया निक्खता नव दसारनरनाहा । तह नेमिबंधवा सत्त संजुया हरिकुमारेहिं ॥ ६३ ॥ जिणजगणी सिवदेवी तह हरि बलभद्दकन्नयाओ वि । [" ..]। देवइ - रोहिणिरहिया फव्वइया नेमिपासम्मि ॥ ६५ ॥ किंबहुना गयसुकुमालसोयसल्लियमणो समग्गो वि । वसुदेवबंधुवग्गो निक्खंतो जायसंवेगो ॥६६॥ ॥ गजसुकुमालाख्यानकं समाप्तम् ॥१२५॥ ...॥६४॥ इदानीं मेतार्याख्यानकं प्रस्तूयते । तचेदम् साए साके साए गुणगणागरे नयरे । साहारे साहारे साहारे सउणसउणाणं ॥ १ ॥ नियजसधवलिमनिज्जियसारयचंदावयंसया जस्स | चंद्रावयंसयासममित्तघणा पुरजणा जस्स ॥२॥ सयलकलागमपडिपुन्नभावनियवंसमहमिययसोहो । संपाडणपक्खदुगुज्जलत्तअकलंकयाईहिं ॥३॥ उपायंतो चंदावयंसओ सुहयनिम्मलगुणेहिं । चंद्रावयंसओ नाम नरवई [राय ] सिरिमवइ || ४ || सव्वंते उरसाराओ गयवियाराओ सुइसरीराओ । निम्मलगुणधाराओ सिणिद्ध - मि उचिहुरभाराओ ||५|| महिहर समुन्भवाओ सुकुमाराओ सिवासयधराओ । गंगा-गउरीओ विव हरस्स दो तस्स दइयाओ ||६॥ पढमा तासिंनामेण धारिणी धारिणी धरावइणो । बीया वयणविणिज्जियपउमा परमावई नाम ||७|| रूवविणिज्जियमयणा ससिवयणा कमलपत्तसमनयणा । कुंदकलियाभरयणा दो दो तासिं च सुयरयणा ||८|| निययं हिययपट्टा समुन्नयाऽन्नोन्नसंगपाचित्ता । सिहिणा इव नयणपिया संपक्कसुहा सुवयणा य ॥ ६॥ १. जलार्द्र कपोलः । २. स्फुटितम् । ३. मरणम् । ४. कर्पयित्वा । For Private Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकार मेतार्याख्यानकम् रन्नो रहसुहसायरसमुल्लसावणगुणा ससहर व्व । कि बहुणा संसारियसुहाण सव्वाण सव्वस्सं ॥१०॥ पढमाए मुणिचंदो सागरचंदो य सुंदरावयवा । गुणचंद-बालचंदा बीयाए विणयकुलभवणं ॥११॥ इय एवमिमाणि तया तिवग्गसाहणपराणि मुहियाणि । नीसेसपउरसम्मयगुणाणि विलसंति रज्जसिरिं ॥१२॥ जं पुण जिणवयणामयभावियहिययाणि ताणि सव्वाणि । एसो पुण विन्नेओ खीरे खलु खंडपक्खेवो ।।१३।। राया उ विसेसेणं कुओ वि कम्मक्खआवसमभावा । इहलोयनिप्पिवासा परलायमुहक्कगयचित्ता ॥१४॥ अहिगयजीवाऽजीवो निच्चं चिय साहुपज्जवासणओ । उवलद्धपुन्न-पावो सम्मं सुहतत्तचिंतणा ॥१५॥ असहेजदेव-दाणव-किंपुरिस-महोरगाइदेवेहिं । निग्गंथपवयणाओ अणइक्कमणिज्जथिरचित्तो ॥१६॥ निम्गंथे पावयणे धणियं निस्संकियाइगुणकलिओ। लट्ठो गहियट्टो विणिच्छियट्टो य समयम्मि ॥१७॥ इय पंचमंगभयवइपंचमगणहरसुहम्ममुणिवइणा । सावयवनयवन्नियगुणरयणालंकियसरीरो ॥१८॥ परिपालइ रज्जसिरिं रक्खइ खत्तेण सिट्टजणनिवहं । निग्गहइ दुट्ठलोयं पवयण उच्छप्पणं कुणइ ॥१९॥ अह अन्नया य संझारायत्थाणं विसज्जिय नरिंदो। जा वयइ वासभवणं ता तत्थ न का वि सामग्गी ॥२०॥ खण-उव-तव-च्चियाए ति वयणमणुसरिय ताव नरनाहो । सनगरमिव साकेयं पच्चक्खाणं पवनो सो ॥२१॥ जावेस वासभवणे दीवो पजलइ ता न पारेमि । इय हिययम्मि विगप्पिय काउस्सगं कुणइ धीरो ॥२२॥ मेरु व्व निप्पकंपो कम्मविणिज्जरणमेगमिच्छंतो । नियदेहनिरावेक्खो अगणंतो दंस-मसगाई ॥२३॥ इय पासिय पुहइवइं देवी वि न का वि रायपासम्मि | संपत्ता वोलीणो ता पढमो जामिणीजामो ॥२४॥ दीवो वि पजलंतो एयावसरम्मि नेहविरहाओ । विज्झाइमारतो ता सेज्जापालियाए इमो ॥२५॥ मह सामी उस्सग्गे अच्छिस्सइ दुक्खमंधयारम्मि । इय परिभाविय समईए पूरिओ तेल्लयूरेण ॥२६॥ इय तइय-चउत्थेसुं पहरेसुं तेलपक्खिवणपुवं । पज्जालिओ पईवो तओ पभाया निसासेसा ॥२७॥ उम्गमिओ दिणनाहो पुहईनाहो य रुहिरभरियंगो । जावुस्सग्गं पारइ ता पडि ओ धरणिबीढम्मि ॥२८॥ नेहक्खयम्मि जाए दीवो आउक्खयम्मि नरनाहो । भवणप्पयासजणगा समयं चिय दो वि विज्झाया ॥२९॥ अवाचि च प्रतिज्ञाशैलमारुह्य ये भयो न पतन्त्यधः । साधयन्ति स्वमर्थ ते. यथा चन्द्रावतंसकः ॥३०॥ एत्थंतरम्मि पोकारियम्मि सहस त्ति सेजवालीए । किं किं ? ति पयंपंतो पत्तो सव्वो वि परिवारो ॥३१॥ दटट्टणं तयवत्थं चेयन्नविवज्जियं महीनाहं । मुणिचंदकुमरपमुहो लोओ विहलंघलसरीरो ॥३२॥ पडिओ धस त्ति धरणीयलम्मि सिसिरोवयारकरणेण । संपावियचेयन्नो एवं पलवइ बहुपयारं ॥३३॥ हा ताय ! ताय! हा हा सुजाय ! हा राय ! वल्लह ! सुनाय ! । हा विहियपसाय ! पसन्नवाय ! संपन्नजसवाय ! ॥३४॥ हा धम्मनिलय ! हा भुवणतिलय ! हा सरसविलयपरिवार ! । हा पहु ! पसन्नवयणं पसिऊणं देसु पडिवयणं ॥३५॥ एवं च पलवमाणो कुमारपमुहो जगो स मंतीहि । सोयावहारवयणेहिं सासिओ समयकुसलेहिं ॥३६॥ निकारणअवयारुज्जयस्स निकिवकुलावयंसम्स । एयस्स कुमर ! चिंतसु को विम्हरिओ कयंतस्स ? ॥३७॥ भणियं च लक्ष्मीलताकुठारस्य, भोगाम्भीदनभस्वतः । विलासवनदावाग्नेः, को हि कालस्य विस्मृतः १ ॥३८॥ अवरं च सो नत्थि च्चिय भुवणम्मि को विजो खलइ तस्स माहप्पं । सच्छंदचारिणो सव्ववारिणो हयकयंतस्स ॥३९॥ ता कुमर ! एस पावो समवत्ती गिजए जहत्थक्खो । पञ्चलिओ जलणो विव कवलइ गरुए वि किं बहुणा ? ॥४०॥ Jain Education Interational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशे बलभद्दवि वलभद्द सयलनीसेस विभद्दिय 1 रावणपमुह पयंडजोह अवरे वि गभद्दिय । नवि उचरिउ कया वि को वि कुवियह जमरायह । पपयावह पाणिनिहु पावह जिम्व राह || ४१ ॥ इय मुणिचंदष्पमुहो परिवारो सासिओ विगयसोओ । जाओ जणयम्स तओ कारविओ अग्गिसकारो ॥४२॥ कझ्वयदिवसाणंतरमुत्तो मंतीहिं कुमरमुणिचंदो । रज्जमणुट्टमु संपइ अनायगा जेण भद्द ! वयं ||४३|| तुह पिउणो रज्जमिमं नायगरहियं विसंकुलं होही । तुममेव रज्जजोगो मज्झम्मि जओ कुमाराण || ४४॥ जेण तुह लहुयभाया उज्जेणीए कुमारभुत्तीए । पउमावइदेवीए अज्ज वि सिसुणो सुया दो वि || ४५ ॥ कुमरो वि मंतिवयणं निसमिय पिउसोयसल्लियसरीरो । चिंतइ निययमईए रज्जमिमं नरयदुहऊ ||४६ || एयम्मि रज्जभारे इहलोयसुहं पि तत्तओ नत्थि । वासंगबहुलयाए नरवणो जेणिमा चिंता ॥४७॥ गयसाहणं न सुहियं संपइ मह तुरयसाहणममुत्थं । अंतेउरे न को वि हु दुम्सीलो मज्झ वचहरइ ||१८|| रपि दुट्टचरडाइएहिं संपयमभिदुयं दूरं । नरया (?) वि कुओ वि हु विरोहओ दुत्थिया अहुणा ॥ ४९ ॥ दे से दुत्थत्तणओ नऽज्ञ वि संपज्जए सुहेण करो । चोरा वि हु अणवरयं मुसंति मग्गम्मि सत्थजणं ॥५०॥ नियबलगव्वियचित्तो सीमालो मज्झ मन्नइ न सेवं । खत्तपडणाइदुत्था कुणन्ति रावं पि नायरया ॥ ५१ ॥ लंचोवयारलुद्धा सम्मं अहिगारिणो न वट्टंति । अज्जं माणधणाए अंतेउरियाए रुसणयं ॥५२॥ एवमणेगमणोगयवियप्पमालाउलम्स नरवइणो । मोत्तुमभिमाणमेगं नत्थि सुहं भणियमेत्थत्थे ॥ ५३ ॥ औत्सुक्य मात्रमवसादयति प्रतिष्ठा, क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव । नातिश्रमाय नयनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवाऽऽतपत्रम् ॥५४॥ I किंबहुना भणिणं इह-परलोइयदुहाण खणिमेयं । चइऊणं रज्जसिरिं संजमसिरिमस्सिओ होमि || ५५|| इय परिभाविय भणिया माया पउमावई कुमारेण । गेण्हसु माए ! रज्जं अणुजाण पव्वयामि अहं ॥ ५६ ॥ ती भणियं बाला मज्झ सुया रज्यपालणासत्ता । वोढुं गयपल्लाणं कुमार ! किं रासहो तरइ ? ||५७ || इय सुगिउं तीयुक्तं पडिवन्नमकामएण तं रज्वं । मंतीहिं सुहमुहुत्ते विहिओ रज्जाहिसेओ से ॥५८॥ जे पिणो विन पणया वसीकया ते वि तेण सीमाला । पुन्नप्पभावपत्तं सो पालइ रज्जमणवज्जं ॥ ५१ ॥ उवसंतडिच डमरं दुरीइ - दुब्भिक्खदोसपरिमुक्कं । दुरी कयपरचकं अदितक्करपयारं च ॥ ६०॥ अहिगारिणो विणीया पणया सव्वे वि मंति-सामंता । आणावडिच्छओ से सव्वो वि य सेवयसमूहो ॥ ६१ ॥ अणुरता पयईओ सिणेहसारो सुही य सुहिसत्थो । वट्टड् वसम्मि सञ्चो उवरोहवरंगणानिवहो ॥६२॥ बंधवकुमुयाणंदे जाए चंदे व्व तम्मि मुणिचंदे | महिवाले सब्वे वि हु विस्सरिया पुरायाणो ||६३ || इय सो मुणिचंदनिवो पयईए यि विसिट्टगुणभवणं । बीयं पुन्नपभावा अलंकिओ रायलच्छीए ॥ ६४ ॥ नोहरइ नयरमज्झे कलावमापूरियं विहियवेसो । मयसलिलसित्तगंडयल गरुयजयवारणारूढो ॥६५॥ कमणीयकंतिकामिणिकर यलदोधुच्चमाणसियचमरो । उद्दंडधरियधवलायवत्तपडिहणियरविकिरणो ||६६|| विविचरवाहणारूढमंति-सामंत - सुहडपरियरिओ । पढमाणविविमागह कलयलखबहिरियदियंतो ||६७|| इय पइवासरसुररायलच्छिविच्छड्डु संजणियसोहो । आगच्छन् निग्गच्छइ पेच्छितो पुरजणेण ॥६८॥ तं पेच्छिय पावमई दुहा वि पउमावई पट्टमणा । पच्छायावपरद्धा मच्छर पच्छाइयविवेया ॥६९॥ चितइ पावाए मए सुयाणमेवंविहा नरिंद्र सिरी । आगच्छंती दंडेण ताडिया कहमहन्नाए ? ॥७०॥ संपइ दुलहा एसा मह पुत्ताणं इमम्मि जीवंते । सच्च वियं तीए इमं बुद्धी पण्हीए नारीणं ॥ ७१ ॥ तो केण उवाएणं एस मए मारियव्वओ राया ? इय कूरमणा चिट्टइ विकप्पमालाउला तत्तो ॥ ७२॥ For Private Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. विवेकिजनस्वकृतकौदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकारे मेतार्याख्यानकम् जो जमिह काउकामो सोऽवसरं तम्स लहइ कइया वि । पयडा एस पसिद्धी जणम्मि ता तीए वि उवाओ७३॥ लद्धो मारणकजे जम्हा पयईए पत्थिवो एसो । भुक्खालुओ तओ से भोयणजायं किमवि माया ॥७॥ निच्चं पि रायवाडीए निग्गयम्सावि पेसह सिणेहा । अह अन्नया य मायाए मोयगो सिंहकेसरओ॥७॥ सोहणदव्वेहिं कओ दासीहत्थे सुसंयुओ काउं। पट्टविओ सा दिट्टा गच्छंती रायमग्गेणं ||७६॥ पउमावइदेवीए वाहरिटं दासचेडिया पुट्टा । तुह हत्थम्मि किमेयं ? कत्थ व संपत्थिया तं सि ? |७७|| तीए वि निवियप्पं एसा जणणि त्ति सच्चयं भणियं । भूवइभोयणकज्जे जामि अहं मोयगो एसो ॥७८॥ नीसेसो वुत्तंतो निवेइओ तयणु चिंतियमिमीए । एसो चेव समत्थो पत्थुयकजम्मि मह हेऊ ||७६॥ तत्तो तीए भणियं केरिसगो एस मोयगो भद्दे ! । दासीए निस्संकं समप्पिओ देवि ! पेच्छ इमं ॥८॥ तीए वि पुज्वमेव य विसभावियकरयलेण पासेसुं । पागए परामुसिओ अइसुरही निवइणो जोगो ॥८१॥ उजिघिऊण सुइरं संचारेउं विसं नहग्गेहिं । मोयगमज्झे भद्दे ! सिग्घं जाहि त्ति भणिऊणं ।।८२॥ दासीए अप्पिओ करयलम्मि तीए विमुद्धहिययाए । रन्नो पणामिओ चिंतियं च तेणावि पुन्नवया ॥८३।। भक्खेमि कहमहमिमं बालेहिमिमेहिं भुक्खिएहिं तओ। काउं दुहा तयं तेसिमेव पउमावइयाणं ॥८४॥ दिन्नं दलमेगेगं अयाणमाणेण मोयगसरूवं । मुणिचंदनरिंदेणं तदुवरिमणवजहियएणं ॥८॥ ते उण भुजंता विहु विसमविसावेसविहुरियसरीरा । वयणविणिग्गयफेणा सम्मीलियलोयणा सहसा ।।८६।। पेच्छंताण वि रायाइयाण पडिया धस नि धरणीए । सिसिरोवयारवसओ वि जा न पावंति चेयन्नं ।।८७|| ता नायं निउणमईए एस निस्संसयं विसवियारो । ता तक्खणमेव सुवन्नघसणजलपाणपभिईहिं ॥८८॥ पउणीकया कुमारा वाहरिउं दासचेडिया रन्ना । पुट्ठो भद्दे ! को एस ? कहसु जेणेरिसं पावं ॥८९|| जीवियनिम्विन्नेणं विहियमणजेण ? तीए संलत्तं । देव ! न याणामि अहं इह कज्जे कमवि परमत्थं ॥१०॥ नवरमिमो पउमावइदेवीए मोयगो सहत्थेहिं । परिमलिओ घेत्तृणं मज्झ सयासाओ मग्गम्मि ॥११॥ अवरेण न केणावि हु दिट्टो पहु ! एत्तियं वियाणामि । तो नायमवणिवइणा तीए च्चिय विलसियमिमं ति ॥१२॥ ता कयमहममणाए सच्चं आहाणयं इमं तीए । जो चिंतवइ विरुद्ध परम्स तं आवइ घरस्स ॥१३॥ हा मण मयंकधम्मो न मारिओ हं ति तीए पावाए । मंतिसमक्खे पचारिऊण मोत्तण रज्जसिरिं ॥४॥ निम्विन्नकामभोगो मुणिचंदनराहिवो सुकयपुन्नो । अद्दिद्दवराहाणं वएसु सूरीण राहाणं ॥१५॥ पासे मुहपरिणामो पव्वइओ गहियदुविहमुणिसिक्खो । उम्गतवचरणनिरओ विहरइ गुरुपायमूलम्मि ॥१६॥ अह कइया वि हु सूरीणमंतिए साहुणो विहरमाणा । उज्जेणीओ पत्ता पुट्टा गुरुणा सुहविहारं ॥९७॥ तेहिं वि सव्वं कहियं साहुविहाराइयं नवरमेगो । गरुओ उवद्दवो मुणिवराणमकयप्पडीयारो ॥२८॥ राय-पुरोहियकुमरा दुल्ललिया दुरुलिविलसिया दुरं । मुणिवम्गं राउलवायविनडिया पहु ! कयत्थंति ॥९॥ तं निमुणिऊण मुणिचंदमुणिवरो मणयममरिससहाओ । चिंतइ चंदपहुज्जलमुचरियचंदावयंसस्स ॥१०॥ जाओ वि हु मह भाया कहमेवंविहपमायमायरइ । ता सिक्खवेमि गंतुं मह सत्ती एत्थ वत्थुम्मि ॥१०१॥ सत्तीए संतीए. जो दरिसणपरिभवं सहइ सत्थो । सो धम्मं पि न याणइ अहवा दोग्गइगमं महइ ॥१०२॥ मा जम्मउ सो पुरिसो जाओ चि हु जियउ मा चिरं कालं । जिणसासणावमाणं सामत्थे सहइ जो मूढो ॥१०॥ जो देव-गुरुपराभवमममई सहइ सत्तिसम्भावे । निम्संदेहं सदसणे वि तस्सऽत्थि संदेहो ॥१०४॥ तो गुरुणा मोयाबिय गंतुमहं सिक्खवेमि अविणीए । मा वच्चंतु वराया ते वि हु नरयम्मि मूढमणा ॥१०५॥ तो नमिऊणं गुरुणो भणिया जइ तुम्ह होइ आएसो । तो तत्थ गंतुमयं वारेमि मुणीणमुवसम्गं ॥१०६॥ गुरूणा वि जुत्तमेयं जं किज्जद पवयणुन्नई धम्मे । एयं धम्मरहस्सं पवयणसारो इमो चेव ॥१०७|| तो गुरुणाऽणुनाओ पत्तो सो तक्खणेणमुजेणिं । संभोइयवसहीए पविसइ साहुण मज्झम्मि ॥१०८॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ आख्यानकमणिकोशे कयसमुचियपडिवत्ती भणिओ साहहिं भिक्खवेलाए । चिट्टसु नं वसहीए तुह पाहुन्नं करिस्सामो ॥१०॥ एवं विहिए तेणं भणिया मुणिचंदसाहुणा साहू । भो ! अत्तलद्धिआ हं तो ठवणकुलाणि साहेह ॥११०॥ तो वत्थव्वयसाहहिं खुडुओ से दुइज्जओ दिन्नो। दंसेउं पडिकुट्टे कुले तओ खुड्डुओ वलिओ ॥११॥ तत्थेव य रायकुले पत्थुयकज्जप्पसाहणट्टमिमो । भिक्खट्टाए पविट्ठो तत्थ वि य समुच्चसद्देणं ॥२१२।। जाणावणथमेएणमत्तणो धम्मलाभिए सहसा । अंतेउरियासत्थो विणिग्गओ पणमिय मुर्णिदं ॥११३॥ विन्नवइ पंजलिउडो भयवं ! मा वयह गरुयसद्देणं । काऊणमकण्ण पुहं सो वि हु गरुययरसहेणं ॥११४॥ किं भणह सावियाओ! तुम्भे अहमुच्चकन्नओ मणयं । इय तासिं तेण समं, परोप्परं जंपियं सोचा ॥११५॥ कोउयवसओ किं किं ? ति जंपिरा निव-पुरोहियकुमारा । कलयलरवं कुणंता कुओ वि सहस त्ति संपत्ता ॥११६॥ वारंतीण वि तासिं अंतेउरियाण को विहु अपुग्यो । आगंतुगपाहुणओ अयाणमाणो इह पविट्टो ॥११७॥ ता मा महाणुभावं इमं कयत्थह निरत्थयमिमो हु । कण्णयबहिरसरिच्छो ता वच्छा ! गच्छर जहिच्छं ॥११८॥ एवं ते भणिया वि हु अणत्थजणगत्तओ सिमुत्तम्स । दाउं भवणदुवारे भुयग्गलं भणिउमादत्ता ।।११९॥ नच्चमु समणग ! संपइ पूरसु अम्हाण कोउगं गरुयं । तेणुत्तं कह कीरइ वायणविरहम्मि नट्टविही ? ॥१२०॥ तो भणियमिमेहिं वयं वाएमो तयणु साहुणा भणियं । जइ एवं लट्टमिमो पउणो हं नच्चियवम्मि ॥१२१॥ तो वाइउं पवत्ता तालाराहणमयाणमाणा ते । चुक्के ताले रुसिऊण साहुणा निटुरं भणिया ।.१२२॥ एएण मुहेण तुमे मं नच्चाविहह मुक्खसेहरया !। ताहे रुट्टा रे मुंड! देसि गालीउ अम्हाणं ॥१२३॥ मुणिणा वि निजद्वेणं सव्वाणि विटालिऊणमंगाणि । मयपाया निच्चेट्टा काउं मुक्का सयं च पुणो ॥१२४॥ निग्गंतूणुजाणे भूभायं पेहिउं निराबाहं । उवविसिय निरुब्विग्गो सज्झायं काउमाढत्तो ॥१२५।। ते उण कुमारगे पासिऊण पडिए महीए तयवत्थे । पोक्करिए परिवारेण आगओ तत्थ नरनाहो ॥१२६।। संभंतो संभासइ ते वि न भासंति नेय फंदंति । कट्टमयपुत्तला इव चिट्ठति थिरं पलोयंता ॥१२७।। तो भणइ आसुरुत्तो केणमिमं पावकम्मुणा विहियं ?। तो भणियं केणावि हु इमेहिं पहु ! समणगो एगी ॥१२८॥ बाद कयत्थिओ सो कयाइ एवंविहे इमे काउं । सामि ! पलाणो कथइ पायमिमं नज्जइ मईए ॥१२॥ तो तक्खणेण जोयावियाओ सव्वाओ साहुवसहीओ । जाव न को वि पयंपइ तो भणियं तेहिं साहहिं ॥१३९॥ वत्थव्वओ न को वि हु राय उले विसइ तब्भया चेव । नवरं पाहुणगमुणो समागओ आसि अमुणंतो ॥१३॥ जइ कह वि सो पविट्ठो न याणिमो तं ति तो महीवइणा । सव्वायरेण मज्झं निरूविओ वि हु न सो दिवो ॥१३२॥ तो केणावि हु निउणं निरूवयंतेण बाहिरुजाण । सज्झायंतो दिट्ठो निवेइओ राइणो तत्तो ॥१३३॥ वाहरिओ [वि हु] जा कह वि नेइ सो राइणो सयासम्मि । ता सयमेव य राया संपत्तो साहपासम्मि ॥१३४॥ जा वंदिर पवत्तो सहस च्चिय ताव पञ्चभिन्नाओ । चलणेसु निवडिअणं मुइरमिमो रोविलं लग्गो ॥१३५॥ ताहे विलक्खवयणो लज्जाए अहोमुहो ठिओ जाव । ताव य कित्तिमकोवेण भाउणा फरुसवयणेहिं ॥१३६॥ निभच्छिऊग भणिओ होउं चंदावयंसनरवइणो । पुत्तो मुणिवम्गे कुणसि मूढ ! एवं विहं भत्तिं ॥१६७॥ जो परिवार पि नियं नाऽऽणाए धरसि मूढमइविहवो । सो कह नियववसाओ दुट्ठाण विणिग्गहं कुणसि ? ॥१३॥ केरिसियं तं सावयकुलुब्भवो सासणे जिणिंदाणं । सम्मत्तसुद्धिकजं पभावणं कुणसि मूढप्पा ? ॥१३९॥ एवं बहुप्पयारं सुइरमिमो फरुस-सामवयणेहिं । तह कह वि हु सिक्खविओ मुणिणा आसंघयवसेण ॥१४॥ जह जंपिउं पवत्तो पुणरवि एवंविहं पमायमहं । न करिस्सं मुणिवग्गे निरुवमभत्तिं च काहामि ।।१४१॥ पइ पसिय पयच्छयु मह मुणिवइ ! पुत्तभिक्खाभय वुत्ता । भणइ मुणी राहाडि मुंचसु सुयपउणिमाविसए ।।१४२॥ अविणयतरुणो फलमणुहवंतु एमेव ते महापावा । इय जा कह वि न मन्नइ रन्नो लल्लि करेंतस्स ॥१४३॥ ता पडिऊणं थक्को मुणिणो पाएमु सविणयं निवई । करुणं काऊण तओ भणियं मुणिचंदतवनिहिणा ॥१४४॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकारे मेतार्याख्यानकम् ३५९ पुच्छमु जइ मह पासे कहमवि ते पव्वयंति मुहभावा । तो पउणयामि रायं ! न अन्नहा निच्छओ एसो ॥१४॥ मुणिणा विहु काऊणं वयणं पउणं कुमारया पुट्टा । पडिवन्नं पन्चयगं तेहिं वि पियजीवियत्तणओ ॥१४६॥ तत्तो य कलाकुसलत्तणेण संवाहिऊणमंगाणि । पउणीकाउं दोन्नि वि मुमुहुत्ते दिक्खिया विहिणा ॥१४७|| मुणिचंदो वि हु पत्तो अहिणवपव्वइयएहि परियरिओ। राहायरियसमीवे पालइ सम्म समणधम्म ॥१४॥ ताणं मझे नरनाहनंदणो पुन्नपरिणइवसेण । चिंतइ भव्वं जायं बला वि पव्वाविओ जमहं ॥१४॥ विप्पसुओ वि वियप्पइ मणम्मि कहमहमणज्जमुद्देण । नीएणमणण हढेण ? विनडिओ जाइमयवसओ ॥१५॥ ते दो वि सुद्ध-कलुसियचित्ता पालंति समणपजायं । पज्जते मरिऊणं जाया वेमाणिया देवा ॥१५१॥ मुंजंति तत्थ भोए मणहरलायन्न-रूवकलियाहिं । अमरंगणाहिं सद्धिं विविहालंकाररुइराहिं ।।१५२॥ अवयरण-जम्म-पव्ययण-नाण-निव्वाणसंभवदिणेसुं । कल्लाणगेसु पंचसु जिणाणमिह मणुयलोयम्मि ॥१५३।। आगच्छंति कुणंति य पूयं महिमाइयं पमोयवसा । नंदीसरदीवाइसु सासयजिणभवणठाणेसु ॥१५४॥ तित्थयरपायमूले सुणंति धम्मं जिणिंदपन्नत्तं । अन्न पि धम्मकिच्चं कुणंति तित्थुन्नइप्पमुहं ॥१५५॥ अह अन्नया कयाई धम्मपियत्तेण तेहिं तित्थयरो। पुट्टो सुरलोयाओ चुया समाणा मणुयजम्मे ॥१५६॥ किं सुलहबोहिया दुलहबोहिया वा वयं भविस्सामो ? । भणियं जिणेण नरनाहपुत्त ! तं सुलहजिणबोही ॥१५॥ एसो पुण भवओ भद्द सहचरो सो चुओ चरित्तगुणं । किच्छेणं पाविहिही मणुयभवम्मि वि समायाओ॥१५८॥ इय सोऊणं सुरलोयमइगया ते जिणं पणमिऊणं । तो नियसुही पुरोहियसुएण भणिओ महाभाग ! ॥२५९|| मं पडिबोहसु जम्हा जिणेण हं दुलहबोहिओ भणिओ। मा हुपमायं काहिसि जइ तुह मह उवरि पडिबंधो ॥१६॥ इय संकेयं काउं सुरलोयाओ चुओ दियस्स सुओ । जाईमयदोसेणं गुरुविसयपओसवसओ य ॥१६॥ रायगिहम्मि पुरवरे पावियपञ्चंतमेयघरणीए । गब्भम्मि समुप्पन्नो जाइमयकुकम्मवसयाए ॥१६२॥ तारिसजाइजुओ वि हु पालियतारिसविसिट्टचरणो वि । उववन्नो हीणकुले अहो! दुरंतो मयविवागो ॥१६३॥ तत्थेवऽवट्टिया सेट्ठिभारिया मेइणीए पियसहिया । सा उ दढनिंदुयत्तेण दूमिया गमइ दियहाई ॥१६॥ नवरमिमीए वि हु गम्भसंभवो मेइणीए सह जाओ। तो सेट्ठिभारियाए सायरमब्भत्थिया सहिया ॥१६५। पियसहि ! अहमेएणं कयत्थिया निंदुयत्तदोसेण । ता जइ कहमवि समगं पसवामो तो नियगजायं ॥१६६॥ भद्दे ! देजसु मज्झं कह वि हु जीवेज तुज्म पुन्नेणं । तीए वि हु पडिवन्नं नत्थि अविसओ सिणेहस्स ॥१६७॥ अद्धट्टमदिवससमन्निएसु मासेसु नवसु दिवसाणं । कमसो य वइकंतेसु सेट्टिमेयाण भज्जाओ ॥१६॥ सममेव पस्याओ सेट्टिपियाए सुया मया जाया । इयरीए लक्खणधरो निरुवमरूवो सुओ जाओ ॥१६॥ तत्तो जहा न जायइ छक्कन्नमिमाहिं विहियमायाहिं । संचारियाई तह ताइं दो वि छन्नं संवच्चाई ॥१७॥ दरं रायविरुद्धं सत्थविरुद्धं न जं जणपसिद्धं । तं ताहिं तया चेट्टियमहो! ह कुडिलत्तमित्थीणं ॥१७॥ नायमुवट्टियसेट्रिस्स भारिया सुरकुमारसमरूवं । अक्खयतणू पसूया पुत्तं ति जणेण नयरम्मि ।।१७२॥ तत्तो य वज्जंति तरनिवहां गायति गुणडगायणसमूहा । नचंति रमणिसत्था पविसंति सुहक्खपत्ताई ॥१७३॥ वेसमणसमाणधणो वियरइ सेट्ठी पभूयधणनिवहं । बद्धावयहत्थाओ गिण्हइ सो विविहवत्थाई ॥१७४।। अणवरयविविहवियरिजमाणमुहभक्ख-भोजमुत्थजणो । इय वद्धावणयमहामहूसवो सिट्टिणा विहिओ ॥१७५।। सा वि सुयं मेईए पाडइ पाएमु एस तुह तणओ । नाम पि हु दिन्नं तीए संतियं तस्स मेयजो ॥१७६॥ वडा सो सेट्टिगिहे कलाकलावेण देहुवचएण । गयणे सियपक्खे ससहरो व्व निस्सेसजणसुहओ ॥१७७॥ अट्टवरिसप्पमाणो लेहायरियस्स पायमूलम्मि । बाहत्तरीकलाओ सयलाओ पाढिओ पिउणा ॥१७८॥ १. स्वापत्ये । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आख्यानकमणिकोशे तत्तो य तरुणरमणीहरिणीसंजमणवागुराकरिणि । पत्तो विलामविन्भमगुणभवणं तारतारुन्नं ॥१७॥ अह विहियविसिट्ठविलाससारसिंगारमणहरसरीरो । परिभमइ सुवेसवयंसपरिवुडो पुरपहाईसु ॥१८॥ नाऊण तयं मेयजमोहिणा पुवसंगइय देयो । पडिबोहइ बहुविह सुमिणदंसणाईहिं धम्मम्मि ॥१८॥ परमेसो न गणइ कि पि तारिसं कम्मभारियत्तणओ । जम्मंतरनिव्वत्तियसुगुरुपओसाणुभावेण ॥१८२।। कालेण सरसलायन्न पुन्नतारुनगुणमणिखणीओ। अट्ट कुलबालियाओ विहिणा परिणाविओ पिउणा ॥१८३॥ सिथियारूढो सह पिययमाहिं परिभमह नयरमझम्मि । रूवविणिज्जियमयणो अच्छरसहिओ व्व सरकुमरो ॥१८४॥ तं दट्टणं देवेण चिंतियं एस विसयवामूढो । एवंविहसामग्गीए दुक्करं बोहिउं धम्मे ||१८|| जओ जाव न दक्खं पत्तो पियबंधवविरहिओ य नो जाव । जीवो धम्मक्खाणं भावेण न गिहए ताव ॥१६॥ ता धम्मबोहणकए पाडेमि कहिं पि आवयावते । इय परिभाविय तज्जणयमेयदेहम्मि अवयरिङ ॥१८७|| लम्गो रोविउमेसो सदुक्खमह पासिऊण मेईए । वुत्तो पिययम ! तुमए किमेवमसमंजसं विहियं ? ॥१८८॥ जम्हा मज्झ सहीए सुयवीवाहो महाविभूईए । तं पुण पमोयठाणे वि मज्झमिय सोइ लग्गो ॥१८॥ तेणुत्तं अज्ज पिए ! नियाए धूयाए मुमरियमिमेण । सह जायाए जीवेज कह वि जइ मज्झ सा धूया ॥१०॥ ता अहमवि मेयाणं भत्तं काउं जहाविह्वमेवं । वीबाहं कारितो तं मम पिए ! न संजायं ॥११॥ ता मज्झमिमेणं माणसेण दुक्खेण दूमियमणम्स । सोयावेसवसाओ समागयं रुन्नमेयं ति ॥१२॥ तो तीए पई भणिओ परमत्थमिमं अयाणमाणीए। एसो तुह चेव सुओ सहीए दिन्नो मए सामि ! ॥१३॥ तं सोऊणं रुटेण ताडिया सा वि रोबिउ लग्गा । किमियं भो भद्द ! ? जणेण पुच्छिए तेण संलत्तं ॥१९४॥ पावाए इमाए कयं एयं असमंजसं मह पियाए । सिट्टजणनिंदणिजं जओ इमो मज्झ तणओ ति ॥१९५॥ दिन्नो मह दइयाए सिणेहओ सेट्टिणीए एयाए । ता नियमंगरुहमिमं गिण्हेस्समहं मह न दोसो ॥११६॥ इय वोत्तणं सहस ति पाडिओ गिहिऊण बाहाए । सिबियाओ समक्खं परियणस्स सो खत्थहिययम्स ॥१९७॥ जाओ य रंगमज्झे महाविराओ इमं निएऊण । लोओ वि हु पत्तिल्लो को वि कहं पत्थुयत्थम्मि ॥१९॥ जेण सिणेहो अहिओ इमाण तो संभवेज एयं पि । निभच्छिऊण नीओ मेयजो तेण वि सगेहं ॥१२॥ भणिओ रे ! किं लज्जसि कुलक्कमेणाऽऽगएण कम्मेण ? । ता पयडमिमं भणियं मुणसु मणे कुणसु मा खेयं ॥२०॥ इय वोत्तं पक्खित्तो कोलियखड्डाए सो विसन्नमणो । अच्छद तीए भिणिभिणियमक्खियाजालकलियाए ॥२०१॥ दट्टं तं तयवत्थं पयडियरूवो पयंपए देवो । भो भद्द ! तं चियाणसि ममं ? ति तं सुणिय मेयज्जो ॥२०२॥ चितइ मणम्मि मह एस दिट्टपुवो कहिं पि मन्ने हं । इय ईहा-ऽपोह-गवेस-मम्गणाओ कुणंतस्स ॥२०३।। जायं जाईसरणं नाओ सुरजम्मवइयरो तेण । भणियं च भो महायस ! विहियं मित्तत्तणं तुमए ॥२०४॥ पउणो हं पव्वदउं परमज वि मज्झ विसयपडिबंधो । अइबलिओ जं जुत्तं तं सयमुबइससु मह मित्त ! ॥२०५|| तो भणियं विबुहेणं विसयपिवासाए अणुवसंताए । वयविग्यकारिणीए न संगयं तुझ वयगणं ॥२०६॥ जइ एवं ता किज उ मज्झ पसाओ दुवालससमाओ । विसए हं भुंजिस्सं पच्छा बोहेज नियमेण ॥२०७॥ पडिवज्जिय तं मेयजवयणममरोऽमराणमावासं । गच्छंतोऽतुच्छमई विन्नत्तो सेट्टिपुत्तेणं ॥२०८॥ संपयमेवं विमोवियम्स मह केरिसा भणनु भोया ? । ता तह जयमु जहा हं भवामि जणपूयणिजगुणो ॥२०९॥ तत्तो वयणाणतरमूरणगो तेण तम्स गेहम्मि । बद्धो भणि ओ] य इमो जहेस तुह भद्द ! भवणम्मि ॥२१०॥ रयणाणि अवाणेणं मुयही मणहरगुणाणि अणवस्यं । तो ताण भरेऊणं वित्थयथालं पसन्नमुहो ॥२१॥ जणओ तुझ निमित्त मग्गिजउ सेणियं नियं कन्नं । परिणीयाए तीए तुह होहिइ सव्वमवि भव्यं ॥२१२।। अवरं पि हु जं किंचि वि तुज्झ पिया कारविम्सइ जणेण | मझ पभावा तं पि हु संपजिस्सइ धुवमिमस्स ॥२१३।। Jain Education Interational Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकार मेतार्याख्यानकम् इय भणिऊणं सहस त्ति सुरवरो [ सो ] अदंसणीहओ। ऊरणगो वि हु रयणाणि मुयइ रविकंतिरुइराणि ॥२१४॥ तत्तो मेयजपिया थालं रयणाण पूरियं काउं । रायदुवारे चिट्ठइ मग्गंतो कन्नयं रन्नो । २१५॥ अभयकुमारो पुच्छइ तुज्झ कुओ एरिसाणि रयणाणि ?। तेणोइयमूरणगो पइदिणमेयाणि वोसिरह ।।२१६।। तो भणियमभयकुमरेण भद्द ! मेरिसगमूरणयरयणं । न विरायइ तुह गेहे ता आणसु रायअत्थाणे ॥२१७।। तेण वि तहेव विहिए रायत्थाणम्मि पयडमूरणओ । मुंचइ असुई फुटृति जम्मि गंधेण नासाओ ॥२१८॥ उब्वेविएहिं तत्तो पुणरवि नीओ गिहम्मि तस्सेव । तत्थ तहेव य वोसिरइ ताणि रयणाणि पवराणि ॥२१९॥ तो जाणियमभएणं नणमिमा का वि देवमाय त्ति । तो भणिओ से जणगो परिक्खणत्थं पणयपुव्वं ॥२२०॥ भो ! एस मज्झ जणओ निच्चं चिय जाइ वंदणनिमित्तं । सिरिवीरजिणेसरपायपउमजुयलस्स सुकुमारो ॥२२१॥ किच्छेणं पयचारेण चडइ वेभारपव्वयपहम्मि । ता जइ रहमग्गो तत्थ कह वि संजायए सुहओ ॥२२२॥ ता तुह सुयम्स तुट्टो वियरइ नियकन्नगं महीनाहो । इय भणिए संपन्नो पव्वयसिहरम्मि रहमग्गो ॥२२३।। तो निच्छियमभएणं सुरमाया एस विभमो नस्थि । काही अवरं पि हु तप्पभावओ एस मायंगो ॥२२४॥ तो केण पयारेणं जणाववाओ अवेइ ? हुं नायं । आणावयामि जलहिं जेण इमो तस्स वेलाए ॥२२५|| छत्ते धरिजमाणे नरवइसिंहासणे विहियण्हाणो । होइ पवित्तो इय वेयवयणमेवं बुहा बॅति ॥२२६॥ इय चिंतिऊण भणिओ मेओ भो ! जइ समुद्दमाणेसि । तो तुझ भद्द ! भणियं वयणमसेसं पि कुणइ निवो ॥२२७॥ एवं कए कुओ वि हु जलही रायगिहपरिसरे पत्तो । सो केरिसओ दिट्ठो इंतो नयरे निवाई हिं ? ॥२२८॥ महिहरसमुन्भवाणं सरियावहुयाण विलसिररसाणं । सव्वंगं पयर्डतो लवणरसं सामलसरीरो ॥२२॥ एस सलूणो सरसो गरुओ गंभीरिमाए गुणनिलओ । इय जस-कित्तिं जो वहइ पयडडिंडीरपिंडमिसा ॥२३०॥ एगेगमीण-मयरं नाणाविहमीण-मयरसंकिन्नो । सफरोव्वत्तियमिसओ सकडक्खं नियइ जो गयणं ॥२३१॥ सिरिधर-सुरवरमहिओ विलसिरमयजलकरिंदसियमुत्ती । सुरयणपरिजुसियपओ सक्खं सक्को व्व जो सहइ ॥२३२॥ महिहरपसंसिओ हं सिरिजणओ हं अलद्धमज्झो हं । इय विहियगरुयगव्वो जो गजइ गहिरसद्देण ॥२३३॥ मयरसिओ दुरहिगमो जडपयइत्तं पयासयंतो व्व । गज्जंतो अच्चम्गलमुल्ललियमहल्लकल्लोलो ॥२३४॥ बहुसत्ताहाराओ करुणारसपूरियत्तगुणओ य । सप्पुरिसो व्व विरायं सुव्वत्तममुक्कमज्जाओ ॥२३५।। रणरसियसेयसंखो घणरसकरि-तुरयसिरिसमाउत्तो । अणुरूवसंगमकए निवो व्व सेणियनिवं पत्तो ॥२३६॥ आलिंगतो गुरुतरकल्लोलभुयाहिं रायगिहनयरं । नेहेणमप्पसरिसं सप्पायारं ससुरभवणं ॥२३७॥ जलवित्थारेण मए पायाल-मही-नहाई रुद्धाइं । इय दप्पेण व नहयलमुल्लंघइ हल्लिरजलोहो ॥२३८॥ इय एवंविहरयणायरस्स वेलाजलेण सो न्हविओ । मेयजो भूवइपमुहपउरलोएण सप्पणयं ॥२३९॥ तत्तो य सुहमहत्ते रत्ना परिणाविओ नियं कन्नं । विहिओ पुणरवि रायाइएहिं नयरम्मि परममहो ॥२४॥ तो सो सेणियनरवइविइन्ननिरुवमसमुच्चपासाए । सयणीया-ऽऽसण-भोगोवभोग-परिवारपरियरिओ ॥२४॥ पंचविहविसयमुहमुभयहा वि नववहुयचंद्रपरिकलिओ । उवभुजंतो दोगुंदुगो व्व देवो गमइ दियहे ॥२४२॥ तत्तो बारस वरिसाणि तस्स नाणापयारकीलाहिं । ललमाणम्स मुहुत्तं व्व सुत्थमणसो अईयाणि ॥२४३।। पुणरवि य मित्तदेवो अबइन्नो तस्स बोहणनिमित्तं । पेच्छ अपुवा पडिवन सूरया का वि सुयणाण ॥२४॥ दटुं देवं सिरि रइयरुइरकरकमलसंपुडो सहसा । मेयजो सजो पत्थुयत्थकजम्मि संजाओ ॥२४५॥ एत्थंतरम्मि पयडियनवाओ ताओ नवावि बहुयाओ । ललियक्खर-सुहयर-लडहवाणिविन्नत्तिपवणाओ ॥२४६।। उत्तालगमणरणझणिरनेउरारावमुहलियदिसाओ। जंपंति पहु ! पसायं अम्हाण वि एत्तियं कुणसु ॥२४७॥ तासि पि हु पडिवन्नं देवेण दयालुणा तयं वयणं । पणइयणपत्थणाभंगभीरुणो हुँति जं गरुया ॥२४॥ ता तेसिं बारसगं वरिसाण तयं पि दुयमइक्वंतं । जंतं पि हु कालं जंन मुणइ सुहिओ सुहेल्लिवसो॥२४॥ . Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आख्यानकमणिकोशे तो वयपरिणइवसओ सुरोवरोहाओ भुत्तभोगाणि । चरणखओवसमाओ संजायविमुद्धभावाणि ॥२५॥ गरुईए विभूईए समयं पव्वावियाणि नरवडणा । सिरिवीरजिणेसरपायअंतिए ताणि सव्वाणि ॥२५१।। अव्भसियदु विहसिक्खाणि विणय-वेणइयकरणनिरयाणि । गुरुकुलवासे विहरंति विहुयरय-मलजिणाणाए ॥२५२॥ मेयजो उण मेयजपरिणई वयविमुद्धमुहभावो । निरुवमकरुणारसपूरपुन्नजलरासिसारिच्छो ॥२५३॥ विहरंतो संपत्तो कयाइ पुणरवि य रायगिहनयरे । भिक्खट्टाए पविट्टो सुवन्नकारस्स गेहम्मि ॥२५४॥ सो उण मुवन्नयारो पइदिणमट्टोत्तरं जवाण सया । सोवन्नियाण सेणियनरवइणो दिन्नवेयणओ ॥२५५॥ परमं विस्सासपयं भोयणविसए सया वि अपमत्तो । निव्वत्तइ निरुवमवीरनाहपयपूयणनिमित्तं ॥२५६॥ तो सो पुंजीकाउंजवे पविट्ठो गिहे सकजण । वियरसु दइए ! एयस्स भिक्खुणो भिक्खमिइ भणिउं ॥२५७।। ते उण घाडेरुहगेहकुंचजीवेण भुक्खिएण जवा । गिलिया पेच्छंतस्स वि मुणिणो निरुवमदयानिहिणो ॥२५८।। तो नीहरिओ वत्थाणि परिहिउं किर जवे समप्पेमि । नरवइणो जिणपुरओ सत्थियपूयानिमित्तमिमो ॥२५९।। अहिगरणीए उवरिम्मि पुंजिए नियइ न हु जवे जाव । सुन्नमणो ता जोयइ इओ तओ संभमवसेण ॥२६॥ तो पुट्टो मुणिवसभो भयवं! तं मोत्तमेगमवरस्स । संपइ न संभवो कहसु ता जवे पयडियपसाओ॥२६॥ जेणऽच्चणियावेला अइजाइ निवो जवप्पणाभावे । रुट्ठो काही भयवं ! म नवखंडं अयंडं ति ॥२६२॥ एवमिमो भणिओ वि हु विविहपयारेहिं जाव न हु किं पि । जंपइ ता रुसिऊणं किलिट्टकम्मेण सो सीसे ॥२६३।। अइनिबिडं बद्धो तेण अल्लवद्धेण सीसवेढेण । सुक्कते वद्धे वेयणाए साहू समभिभूओ ॥२६॥ चिंतइ महाणुभावो कम्मरिवुजयत्थमुज्जमंतस्स । अणुवकयपराणुग्गहकारी तुह जीव ! को वेस ॥२६५॥ रे जीव ! नरयवासम्मि तुह वसंतस्स नरयवालेहिं । छेयण-मेयण-कत्तण-दहणं-कणपमुहवियणाओ ॥२६६॥ अणुभाविजंतसरीरयस्स तुह केत्तियं इमं दुक्खं ? । इय समभावो तं दुरहियासमहियासए वियणं ॥२६७॥ पुणरवि भणिओ अज वि कहस सरूवं जवाण तमणज्ज ! । तह वि हु कुंचदयाए न कहइ सो कि पि भणियं च ॥२६॥ जो कुंचगावराहे पाणिदया कुंचगं तु नाऽऽइक्खे । जीवियमणपेहं तं मेयजरिसिं नमसामि ॥२६॥ निप्फेडियाणि दोन्नि वि सीसावेढेण जस्स अच्छीणि । न य संजमाओ चलिओ मेयज्जो मंदरगिरि व्व ॥२७॥ एवं वेयणनियरं अहियासंतस्स तस्स तवनिहिणो । अप्पुवकरणपत्तस्स खवगसेटिं पवन्नस्स ॥२७१॥ सासयमणंतमक्खयमणंतरूवं निरावरणमेगं । लोया-ऽलोयपयासं संजायं केवलन्नाणं ॥२७२॥ आउयखयम्मि समकालमेव सेलेसिभावमणुपत्तो । सो किर महाणुभावो अंतगडो केवली जाओ ॥२७३॥ एत्थंतरम्मि चेडीए केंट्टहारो महीए पक्खित्ती । तम्घायधसक्रियमाणसेण ते कुंचजीवेण ॥२७४॥ उम्गिलिया हेमजवा तं दटुं चिंतियं कलाएण । धिद्धी ! असमंजसकारयस्स मह बुद्धिवियलस्स ॥२७५॥ जेणाहं निवजामाउयस्स रिसिणो य घायगो पावो । ता मरियव्वमवस्सं मएऽहुणा रायपासाओ ॥२७६।। ता पव्वजामि अहं सकुडंबो अन्नहा न मोक्खो मे । इय बुद्धीए जाओ सुवन्नयारो समणरूवो ॥२७७॥ तं वुत्तंतं नाउं जा पेसइ तस्स निग्गहनिमित्तं । सेणियराया पुरिसे ता दिट्टो समणरूवो सो ॥२८॥ नीओ य रायपासे जंपइ निव! होउ धम्मलाभो ते । मइविहवेणं राया विरंजिओ तस्स तणएणं ॥२७॥ भणिओ जइ नो सम्मं पालसि तो तुज्झ निग्गहं काहं । सो वि हु भएण पालइ जावजीवं पि विहियवयं ॥२८॥ ॥ इति मेतार्याख्यानकं समाप्तम् ॥१२६॥ इदानी सनत्कुमाराख्यानकमभिधीयते । तद्यथा आराम व्व सुदक्खा जम्मि जणा जलहिणो पएसो व्व । परमावरियमहेला कयसुरमहणा विरायंति ॥१॥ निरुवमनियगुणवसओ कुरुजणवयभूसणं भणंतं व । अस्थि वसुहापसिद्धं कुरुजणवयभूसणं नयरं ॥२॥ १. 'श्रावधैंण' आर्द्रचर्मणा । २. काष्ठभारः। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनाधिकारे सनत्कुमाराख्यानकम् ३६३ सहिययमविसयमेयं नामेणं गयउरं समक्खायं । सइ सुहियनायरं पि हु दुहियासयस'जुयजणडं ॥३॥ जम्मि य वणिणो पामाणिएहिं सह पयडरायमग्गम्मि । अब्भसियसुहवियका विसुद्धमाणा ववहरंति ॥४॥ असईओ सईहिं समं कयमुइसीलब्वया विरायंति । सुहयपरलोयविसयम्मि जत्थ जायाणुरायाओ॥५॥ लहुया वि गरुयसरिसा रायसभावन्निया गयवियारा । वद्धियसिणिद्धबंधवधण-धन्ना जत्थ निवसंति ॥६॥ जम्मि पुरपरिहसन्निभभुयदंडुइंडक्रलियकरवाले | कालो वि किलाऽऽसंकइ सत्तुसमूहम्मि का गणणा ? ||७|| समरंगणपत्तेणं सुयणुवयारे य जेण गुणनिहिणा। सत्तूणं सुयणाण व दिन्ना कइया वि हुन पिट्ठी ॥८॥ वीसु पि हु पसरियगुरुपयावचउरंगचंगगुरुसेणो । नामेण विस्ससेणो तं परिपालइ जहत्थक्खो ॥९॥ सोहम्गाइगुणेणं अप्पडिहयपुन्नपगरिसत्तणओ । देवीकयसन्नेज्मा सहदेवी पणइणी तस्स. ॥१०॥ सा अन्नया पसूया चोद्दससुमिणेहिं सूइयं सुहयं । चक्कंकुसंकियपयं सणंकुमारं तुरियचक्किं ॥११॥ वटुंतो य कमेणं पत्तो सो अट्ठवरिसमाणतणू । सव्वजणाणंदयरो सियपक्खे सारयससि व्व ॥१२।। लेहायरियसमीवे मंतिसुएणं महिंदसीहेण । सहिओ सिणिद्धसुहिणा पढिओ बावत्तरिकलाओ ॥१३।। संपत्तो य कमेणं तरुणीहरिणीण वागुराकप्पं । तारुन्नसमारंभं मयरद्धयरूवरमणीयं ॥१४॥ अह अन्नया वसंते संपत्ते तुरयवाहियालीए । अवहरिओ सहस च्चिय हएण विवरीयसिक्खेण ॥१५॥ तो कुमरमणुसरंतो पणमिय राया महिंदसीहेण । विणिबारिओ सयं पुण कुमरन्नेसणकए चलिओ ॥१६॥ भमिओ रन्ने गिरिकाणणेसु सरिया-सरोवराईसु । मित्तं गवेसयंतो बहुकालं न उण उवलद्धो ॥१७॥ तत्तो निसुणइ सदं कारंडव-कुरर-सारसाईणं । जा तयभिमुहो चलिओ ता सुणइ इमं पढिजंतं ॥१॥ जय वीससेणनहयलमयंककुलभवणलग्गणक्खंभ ! । जय 'तिहुयणनाह ! सणंकुमार ! जय लद्धमाहप्प ! ॥१९॥ हरिसियहियओ नियमित्तनामसवणेण जाव संचलिओ । ता विजाहरलच्छीए परिवुडं नियइ नियमित्तं ॥२०॥ आणंदनिब्भरंगा परोप्परं जाव तत्थ अच्छंति । पुच्छियकुसलोदंता महिंदसीहेण ता पुट्ठो ॥२१॥ कुमरो तुह मित्त ! कहं जाया एगागिणो वि रायसिरी ? | तो लज्जंतो नियचरियमक्खिउं भणइ बउलमई ॥२२॥ मह निदाए घुम्मंति लोयणा कहसु तं पिए ! नाउं । विज्जाए मह चरियं इमस्स भणिए य सुत्तो सो ॥२३॥ भणिओ महिंदसीहो तीए तं ताव निम्गओ तइया । मित्तन्नेसणकज्जेणेसो पुण मज्झ मणदइओ ॥२४॥ पसरंतजलहिकल्लोलेणं तेणं तरस्सिणा सामी । कामेण व बाणेणं हएण कंतारयं नीओ ॥२५॥ तत्थ वि रमणीयाणं उवरिं वच्छत्थलीण लोलंतो । आयासिओ य सुपवासिओ य मुच्छाविओ य घणं ॥२६॥ तो सत्तच्छयतरुनायगेण जक्खेण जायकरुणेणं । माणससरनीरेणं सिंचिय सत्थीकओ कुमरो ॥२७॥ सत्येण सुरो भणिओ जत्तो एयं समाणियं नीरं । तम्मि सरे मह हायस्स जइ परं समइ तणुदाहो ॥२८॥ ता तम्मि तुमं मं नेसु सुहय ! जइ सच्चयं मह हिओ सि । इय भणिए सिग्धं चिय सुरेण नीओ सरे तम्मि ॥२६॥ दिटुं च तयं कविवन्नणाइयं सरवरं कुमारेण । कयण्हाणो पीयजलो य तम्मि सत्थीहुओ कुमरो ॥३०॥ जह पुत्ववइरिणा तम्मि सरवरे जुज्झिओऽसियक्खेण । जक्खेण समं जुज्झेण जह जिओ नियबलेण मुरो ॥३२॥ जह विजाहरराया संजाओ वित्थरेण तं सव्वं । कहियं महिंदसीहस्स सा वि भणिया इमं तेण ॥३२॥ सुयण ! इमो मह मित्तो सामुद्दियलक्खणहि सव्वंगं । समणुगआ कि चाज्जं जं जाओ खेयराहिवई ? ॥३ इय निसुणिय बउलमई, भणइ महिंदं कुऊहलं मग्झ । ता पुरिसलक्खणं कहसु तेण भणियं सुणसु भद्दे ! ॥३४॥ वित्थरओ सामुदं लक्खपमाणं भणंति मुणिवसभा । संखेवेण सहस्सं सयं व जाव य सिलोगं वा ॥३५॥ तत्थ संखेवओ कहं सिलोगो ? गतेर्धन्यतरो वर्णो, वर्णाद् धन्यतरः स्वरः । स्वराद् धन्यतरं सत्त्वं, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ।।३६॥ १. संजय० २० । २. 'हयेन' अश्वेन । ३. त्यलम्मि लो. ९०। ४. कविवर्णनातीतम् । ५. स्वस्थीभूतः । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आख्यानकमणिकोशे लक्खिच जेण सुहं दुवखं व जियाण दिट्टमेत्ताण । तं लक्खणं ति निसुणसु निरूवियं नाइसंखेवा ॥३७॥ रत्तं मउयं निद्धं पायतलं जस्स होइ पुरिसस्स । न य सेयणं न वंकं सो नाहो होइ पुहईए ॥३८॥ ससि-सूर-वज-चक्कं-ऽकुसंकियं कमतलं सुहं भणियं । रासह-वराह-जंबुय-विगंकियं दुक्खियाण भवे ॥३॥ वट्टे पायंगट्टे अणुकूला भारिया विणिद्दिट्टा । अंगुलिपमाणमेत्ते अंगुट्टे भारिया दुइया ॥४०॥ पहिओ पिलंगुट्टो विणयग्गेणं च पावए विरहं । भग्गेण निच्चदुहिओ इय भणियं लक्खणन्नहिं ॥४१॥ दीहा पएसिणी जस्स जायए सो वसम्मि महिलाणं । स च्चिय मडहा कलहप्पियस्स पिय-पुत्तविरहो वा ॥४२॥ दीहाए मज्झिमाए धण-महिलविणासणं कुणइ पुरिसो । तइयाए पुण विज्जा कणिटिया निंदिया जाण ॥४३॥ उत्तंगनहा धन्ना पिहुलेहिं नरा सुहाई पावंति । रुक्खेहिं हंति दुहिया 'आयरिससमेहिं रायाणो ॥४४॥ तंबेहिं विहवभोगी पउमेहिं सुही निवो य अरुणेहिं । समणो सिएहिं जायइ दुस्सीलो पुप्फियनहेहिं ॥४५॥ अइदीहर-खरजंघा वराहजंघा य कायजंघा य । ते हुति दुक्खभागी अद्धाणं निच्चपडिवन्ना ॥४६॥ जे हंस-बसह-चक्काय-मोर-गयगमणगामिणो पुरिसा । ते हंति भोगभागी गईहिं सेसाहिं दुक्खत्ता ॥४७॥ जाणू जस्स भवे गूढो गुप्फो वा सुसमाहिओ। सो भवे सुहिओ निच्चं घडजाणू न सुंदरो॥४८॥ जइ दाहिणेण वलियं लिंगं तो होइ पुत्तवं पुरिसो । अह वामे तो धूया भोगा पुण उज्जुए हुति ॥४९॥ दाहिणपलंबविसणे पुत्तो वामम्मि होइ पुण धूया। हुंति समे सुय-भोगा दीहर-वट्टेसु य इमेसु ॥५०॥ मंसोवचिया पिहुला होइ कडी धन्न-पुत्तलाभाय । संकड-हुस्साए पुणो होइ दरिदो विएसी वा ॥५१॥ बड्डयरं भोगकर हुस्सं वक्कं च होइ विवरीयं । समकुच्छी भोगड्डो उन्नयकुच्छी वि सिरिकलिओ ॥५२॥ वामावर्दै तुंगं अपसत्थं नाहिमंडलं भणियं । गंभीरदाहिणावत्तसंगयं तं पुण पसत्थं ॥५३॥ अंसस्थलं विसालं समुन्नयं मंसलं मुरोमजुयं । विसमहियया दरिदा सत्थप्पहया विणस्संति ॥५४॥ महिसम्गीवो सुहडो कंबुग्गीवो नराहिवो होइ । बहुभक्खी गुरुदुक्खो पुरिसो अइदीह-किसगीवो ॥५५॥ आजाणुपलंबा अप्परोम पीणा कमेण वट्टा य । होति पसत्था बाहू अकम्मकढिणं च हत्थयलं ॥५६॥ सरलाओ कोमलाओ करंगुलीओ सुदीहजीयाणं । सहा मेहावीणं कम्मयराणं तु थूलाओ ॥५७॥ लहुओट्टो दुहभागी सुभगो पीणोट्टओ मुणेयचो । भोगी य पलंबोट्टो विसमोटो भीरुओ भणिओ॥५॥ सुद्धा समा पसत्था घणा सिणिद्धा य सिहरिणो दंता । रत्तं तालुं सुहयं कसिणं नीलं च दुहहेऊ ॥५९॥ बत्तीसाए नरवई एगत्तीसाइ भोगमुहभागी । तीसाए मज्झिमगुणो दन्ताणमओ परं असुहो ॥६॥ सारस-हंसाइसरा सुहया वायस-खरस्सरा दुहिया । सरला य सहविवरा समुन्नया नासिया धन्ना ॥६१॥ आययविउला कन्ना धन्नाणं लोमसा चिराऊणं । मूसयकन्ना मेहाविणो य दुहिया ससयकन्ना ॥६२।। उत्थल्लदिट्टिणो थोवजीविणो भोगिणो विउलदिट्टी । पावाण अहोदिट्टी सरलं जोएइ उज्जुमई ॥३॥ तिरियं नियंति कूरा धन्ना उण उद्धदिट्टिणो हुँति । काणाओ वरं अंधो केकयराओ बरं काणो ॥६॥ विउलं अद्धिंदुसमंधण्णाण नराण होइ भालयलं । अइविउलं दुहियाणं अइतुच्छं तुच्छजीवीणं ॥६५॥ वामावत्तो भमरो अपसत्थो सीसवामपासम्मि । सो दाहिणम्मि पासे होइ महो दाहिणावत्तो ॥६६॥ भमराण विवजासे भोगा जायंति पच्छिमवयम्मि । छत्तायारं सीसं होइ नरिंदाण अह केसा ॥६॥ निद्धा घणा पसस्था मउया आकुंचिया य ते धन्ना । फुडिया मलिणा रुक्खा दारिदकरा भवे चिहुरा ॥६॥ अपरं च तिन्नि य गंभीराइं तिन्नि य विउलाई हंति धन्नाई। हुम्साई चउर सुहमाइं पंच पंचेव दीहाई ॥६९॥ छ चन्नयाई रत्ताई सत्त एएसि विवरणं भणिमो । नाभी-सर-सत्ताई तिन्नि इमाइं गभीराई॥७॥ १. 'स्वेदनं' प्रस्वेदस्रावि । २. 'आदर्शसमैः' दर्पणतुल्यैः ॥ ३. ०जीहाणं रं० ! Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाहि ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयो पनतदुःखाधिसहनाधिकारे सनत्कुमाराख्यानकम् aणं उरं निडालं विरलाई इमाई तिन्नि धन्नाणं । लिंगं पिट्टं कंठो जंघा चत्तारि हुस्साई ॥ ७१ ॥ केस-दसणं-ऽगुली पञ्च-नह-तया पंच मुणह सुहमाणि । हणु नयण-थणंतर बाहु-नासिया पंच दीहाई ॥७२॥ नाई नह-हियय-नासिया - कक्ख-कंट-वयणाई । नयणंत-ओट्ट-कर-चरण-जीह नह-तालु रत्ताई ७३ ॥ पंचहि जीवंति सयं नउई भालम्मि चउहिं रेहाहिं । ति दु-एक्काहिं कमसो सट्टी चालीस तीसा य ॥ ७४ ॥ इय जा महिंदसीहो तीसे नरलक्खणं कहइ कुसलो । तावुट्टिओ कुमारो भणिओ य महिंदसीहेण ॥ ७५ ॥ सामि ! तुम विरहदुहिओ ताओ अंबा य चिट्टइ सदुक्खं । तो गम्मउ नियनयरं इय भणिए गयणमग्गेणं ॥ ७६ ॥ सिग्धं चि संपत्ती कमेण रज्जेऽहिसिंचिओ पिउणा । जाओ य चक्कवट्टी सुहसाहियभरहछक्खंडो ॥७७॥ अह सक्केणं रूवम्म वण्णिए तरस सुरसहामज्झे । दो देवा तं वयणं असद्दहंता गयपुरमि || ७८ || माहणरुवं काउं दूरपहागमणकहियतणुखेया । पडिहारवयणवारियमज्झपवेसा पडिक्खति ॥ ७६ ॥ पज्झयणमुहलवयणा मुट्टियकविलकेसपव्भारा । वच्छत्थलविलसिरचंदधवलजन्नोवइयरुइरा ||८०|| सिंगग्गलग्गदव जलणगरुयजाला कलावपडहच्छा | पवडंतबंभसुत्तियनिम्मलनिज्झरणरमणीया ॥ ८१ ॥ वेयज्झयणमणोहरस उणगणाराव मुहलियदियंता । महिहरसद्दायन्त्रणसमस्तिया सज्झ-विज्झ व्व ॥ ८२॥ रायाणुन्नाए पवेसिया निवं विहियण्हाणनेवच्छं । अणमिसनयणा पेच्छंति रंजिया रायरूवेण ॥ ८३ ॥ रन्ना भणिया नियरूवसंपयागव्वमुव्वहंतेण । भो ! मह रूवं सम्मं पेच्छिय गच्छिहह सट्टाणं ॥ ८४॥ एवं ति भणिय पेच्छति जावऽलंकारियस्स से रूवं । तो वाहिसंक मे रूवहाणिमवलोइय विसन्ना || ८५|| पयडियरूवा कहिऊण वाहिसंकंतिम गया सगं । राया वि हु नियदेहं दद्धं परिभावइ मणम्मि || ६ || जलजायबुब्बुयाओ वि गयणगयविज्जुविलसियाओ वि । खलमेत्तीओ वि कुसग्गलग्गचलजललवाओ वि ॥८७॥ सरयघणाउ वि संझारायाउ वि खरसमीरणाओ वि । संसारियवत्थूणं घिरत्थुमथिरत्तणमिमाण || ८८|| हा अथिरेण थिरं निच्चमणिच्चेण सुहयमसुहेण । देहेणिमिणा धम्मं किणामि किं बहुवियप्पेग ? ॥ ८९ ॥ इय पसरियसंवेगो तणं व चइऊण चक्कवट्टिसिरिं । विणयंधरगुरुपासे निक्खंतो सो महासत्तो ॥ ९० ॥ निहिणो 'स्यणाणाऽऽभोगिया य अंतेउरं च पलवंतं । चउरंगबलं भमियं पट्टीए तस्स गुणनिहिणो ॥ ६१ ॥ छम्मासे जाव परं जाओ सिंहावलोयणेणाचि । निस्संग सिरोमणिणा अवलोइय ते ण मणयं पि ॥९२॥ पारणयदिणे छट्टस्स छेलियातक्कसंजुओ लद्धो । चीणयकूरो भुत्तम्मि तम्मि अप्पत्थसेवणओ ॥ ९३ ॥ आवइपडियं सुयणं व दुज्जणा इव गया बहुं कुविया । ते बाहिउं पयत्ता पयडीहोऊण मुणिनाहं ॥ ६४ ॥ पढमं मणयं सोक्खं कंडुयमाणस्स तयणु दाहदुहं । भजंति नहा जीए सा कंडू से समुपपन्ना || ९५|| असुहच्छी रणरणओ रोया अन्ने वि सयगुणा जम्मि । आहारारुहरूवो संजाओ से महारोगो ॥ ९६ ॥ उत्तोलिज्जइ चक्खू गलंति नयणाई संकुडइ दिट्टी । जम्मि न निद्दालाहो सो जाओ अक्खिरोगो से ॥१७॥ अणवरयजठरसंभववायावत्तुन्भवा महापीडा । जम्मि भवे महरिसिणो सो जाओ कुक्खिवाही वि ॥ ९८ ॥ पबलुद्धसमीरन सुच्छलंत गुरुसासभरियहिययपहो । उक्खणियसव्वगत्तो कासो सो तस्स संजाओ || १६ | सव्वरुयाणं पभवो महागओ जीवसत्तनिम्महणो । अइदुसहो तिब्वजरो संजाओ तस्स तवनिहिणो ॥ १०० ॥ पूरिज्ज माणहियओ दुब्विसहो गमणखलणसंजणओ । कासविसेसो सासो वि तस्स तइया समुत्पन्नो ॥ १०१ ॥ भणियं च "कंडू अभत्तसद्धा तिव्वा वियणा य अच्छि कुच्छीसु । कासं जरं च सासं अहियासे सत्त वाससा ॥ १०२ ॥ विहु एसोsवरस्स जीवियहरो न संदेहो । सो उण सत्त वि समगं अहियासह ते महासत्तां ॥ १०३ ॥ १. रत्नानि 'आभियोगिकाश्च' किङ्करदेवाश्च । For Private Personal Use Only ३६५ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आख्यानकमणिकोशे वाहिसमूहो सो तारिसो वि परलोयबद्धलम्वम्मि । सज्झाय-झाणवावडमणम्मि असमाणुभावम्मि ॥१०॥ आवाहं वाबाहं व तम्मि न कुणइ मणागमवि अहवा । आवडिओ वज्जसिलायलम्मि किं कुणउ सत्थगणो ? ॥१०५ सम्ममहियासमाणम्स रोयनियरं विसुद्धलेसम्स । जायाओ तस्स दुकरतवचरणपभावजणियाओ ॥१०६॥ आमोसहि-विरासहि-खेलोसहिपभिइओ अणेगाओ। पत्थुयरोयाबहरणकरणसमत्थाओ लद्धीओ ॥१०७॥ परमेसो न सयं चिय कुणइ चिगिच्छं, न कारवइ अन्नं । निप्पडिकम्मसरीरो परिभावह ऐरिसं—जीव! ॥१०८॥ अणहवसु सकयमेयं इहई चिय कज्जकारिणो दंडो। अकयं को वि न पावइ भगीरही नागवहणं व ॥१०॥ पुणरवि सुरनाहोऽसंखदेवभडकोडिसंकडत्थाणे । उन्भडकिरीड-केऊर-कडय-वरकुंडलाहरणो ॥११०॥ जम्मन्तरनिरुवमगरुयपुन्नपब्भारवससमुद्भूए । अणुभवमाणो पंचप्पयारसुरसंभवे भोए ॥११॥ पेच्छइ पडिपुन्नं मणुयलोयवित्थारमोहिणा सम्मं । तत्थ वि य वाहिविहुरियसरीरमप्पाण झाणगयं ॥११२॥ तेएण रविं व सणंकुमाररायरिसिमायरेण तओ। भुवणऽच्चव्भुयतञ्चरियरंजिओ भणइ गुरुसदं ॥११३॥ भो भो देवा ! एसो सणंकुमारो निरीहरायसिरी । अच्चंतवाहिबिहुरियतणू विन चिगिच्छमायरइ ॥११४॥ तं सोऊणं ते चेव पुव्वदेवा दुवे असद्दहणा । विउन्चिय सव्वं सबरवेज्जरूवं समणुपत्ता ॥११॥ रायरिसिं पर वाहीण नामगाहं भमंति भासंता । खंधावलंबिपुट्टलयदवकोत्थलयरूवधरा ॥११६॥ तत्तो रिसिणा सज्झाय-झाणवाघायकारया एए । इय बुद्धीए भणिया भो ! किमिह निरत्थयं ममह ? ॥११७॥ तेहुत्तं तुज्झ वयं कुणिमो किरियं गयाभिभूयस्स । मुणिणा वि हु केरिसयं मह किरियं कुणह ? ते भणिया ॥११॥ किं दव्ववाहिकिरियं ? उयाहु मे कम्मभावगयकिरियं ? । तेहुत्तं केरिसया दवे भावम्मि वा किरिया ? ॥११९॥ मुणिणा भणियं दुन्नि वि चउन्विहाओ इमाओ भणियाओ। दव्वकिरियाए इणमो चउव्विहत्तं भणंति बुहा ॥१२०॥ तद्यथा भिषग् द्रव्याण्युपस्थाता, रोगी पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येकं च चतुर्गुणम् ॥१२१॥ दक्षो विज्ञातशास्त्रार्थो, दृष्टकर्मा शुचिभिषग् । बहुकल्पं बहुगुणं, सम्पन्नं योग्यमौषधम् ॥१२२॥ विनीतो लोभजित् क्षान्तो बुद्धिमान् प्रतिचारकः । रोगी त्वाढ्यो भिषग् वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानिति ॥१२३॥ एयाए दव्ववाही असायकम्मक्खओवसमभावा । दव्वाईए सहकारिकारणे पप्प खयमेइ ॥१२४॥ नवरमणेगंतभवो एसोऽणचंतिओ य नायव्यो । जं दवाओ अपहाणभावखवणाओ संजाओ ॥१२॥ भणियं च कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्कचुन्नसरिस त्ति । भावकिरियाए पुण......" .........॥१२६॥ ......"वाहिहेउणोऽसायभावरुवस्स । कम्मस्स खवणओ भावओ य खवणाओ भावखओ ॥१२७|| एगंतिओ य एसो नेओ अञ्चंतिओ य भावखओ । पुणरवि य अखवणाओ विसिट्टमुहकारणाओ य ॥१२॥ एयाए पुण वेजो सत्थत्थविसारओ सुई सोमो । किरियाकलावकुसलो सत्तहिओ सुहगुरू नेओ ॥१२९॥ दव्याणि नाण-दंसण-चरणाणि रसायणप्पकप्पाणि । तइओसहसरिसाणि य परिणामसुहाणि नेयाणि ॥१३०॥ पडिचारगा उ इह धम्मबंधुणो मोक्खकंखिणो मुणिणो । खंता दंता मुत्ता जिइंदिया विणयसंपन्ना ॥१३१॥ रोगी पत्थुयसाहू गुरुआणाकारगो महासत्तो । इहलोयनिप्पिवासो सिद्धिवहूबद्धरागो य ॥१३२॥ एयाए भावकिरियाए वट्टमाणा पवज्जियपमाया । परमारोग्गं पावंति सिवमुहं पहयदुहजाला ॥१३३॥ ता भो महाणुभावा ! एयाए मञ्झ दवकिरियाए । उवरिं न पक्खवाओ किमेत्थ भणिएण बहुएण ? ॥१३४॥ जइ पुण होजऽहिलासो एईए दव्ववाहिदलणीए । ता अलमिमीए पेच्छह सामत्थं मज्झ लद्धीए ॥१३॥ इय वोत्तॄणं तेसिं समक्खमह निययवयणकुहराओ। घेत्तु निट्टुहणं वामतजणी मदिया दूरं १३६।। १. एरिसं चेव रं० । २. कर्मभावगदक्रियाम् । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवरं च ४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिस हनाधिकारे सनत्कुमाराख्यानकम् पेच्छति सड्ड सोलसवण्णयकणगोचमं तयं सव्वं । विम्हइयमणे ते भणइ सबरवेज्जे य रायरिसी || १३७॥ भो भो ! जह एवं निययमंगुलिं का उमहमिह समत्थो । तह सव्वं पि सरीरं काउं मह अत्थि तवसती ॥ १३८ ॥ किंतु इय द्धिवजीवणम्मि जायम्मि भावकिरियाए । होइ अपत्थासेवणरूवो दोसो जओ भणियं ॥ १३९ ॥ जह वाहिओ उ किरियं पवज्जिउं सेवई अपत्थं तु । अपवन्नगाओ अहियं सिग्धं च स पावइ विणासं ॥ १४० ॥ एमेव भावकिरियं पवज्जिडं कम्मवाहिखयहेरं । पच्छा अपत्थसेवी अहियं कम्मं समज्जिइ ॥ १४१ ॥ कारण डिसेवा विहु सावज्जा निच्छरण करणिज्जा । बहुसो वियारइत्ता अवारणिज्जेमु कज्जेसु ॥ १४२ ॥ जइ विहु समणुन्नाया तह वि हु दोसो न वज्जणे दिट्ठो । दढधम्मया हु एवं न य भिक्खनिसेवनिया || १४३ ॥ ता भो ! न भावकिरियामालिन करिं अहं करावेमि । तुम्भेहिं दव्वकिरियं पज्जत्तमइप्पसंगेण ॥१४४॥ चितियमिमेहि सच्चं पपई सव्वहेव सुरनाहो । ठाणे गुणाणुराओ गरुयाणं मच्छरो को ने ? || १४५ ॥ संहरियविज्जवेसा साहाचियरूवसुंदरावयवा | मणिरयणघडियभूसणकलावपहभासुरसरीरा ॥ १४६ ॥ ३६७ विजय- वेजयंता देवा सिररइयकरकमलकोसा । रायरिसिं सुहभावा उवट्टिया तं पसाएउं ॥ १४७ ॥ गयणाभोयं पिय पयइवित्थयं निम्मलं निरुवलेवं । तारपहानिन्नासियतमपसरा सूर -ससिणो व्व ॥ १४८ ॥ धन्नो सि तुमं कयलक्खणो सि मुणिनाह ! सुकयपुन्नो सि । तुज्झ सुलद्धं जम्मणजीवियजणियं सुहं च फलं ॥१४९॥ जं सक्को देविंदो सुरराया "तं सलाहइ गुणन्नू । सुरकोडीपैंरियरिओ सोहम्माए सुरसभाए ॥ १५० ॥ तं च असद्दहमाणा समागया तुह परिक्खणनिमित्तं । जं भे झाणविघाओ बिहिओ तं खमह अम्हाण ॥ १५१ ॥ इय मुणिसणं कुमारं खमाविडं लद्धिसंपयाभवणं | आनंदनिन्भरंगा कुसलमणा थुणिउमादत्ता ॥ १५२ ॥ जय चत्तकुमार ! सणकुमार ! वररूवनिज्जियकुमार ! सक्कपसंसिय ! भयवं ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५३ ॥ जय तणसममन्नियचक्कचट्टिछक्खंडवसुहविच्छड्ड ! | अंगीकयतवसंजम ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५४॥ जय अंतरंगरि उवग्गसेन्नमाहप्पदलणदुल्ललिय ! | पत्तमहामुणिवन्नण ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ।। १५५ ।। जय विविहवाहि समवायजणियवियणाऽविसन्नमणपसर ! | अविचलसत्तमहानिहि ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५६ ॥ जय अववायविवज्जियदुक्कर उम्सग्गपक्खसेवणओ । पालियपंचमहव्वय ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५७॥ जय अम्हवयणवज्जरियवाहिसंकंतिमेत्तसवणाओ । अवगयतत्त ! महामइ ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५८ ॥ जय दुव्वहअट्टारससोलंगसहस्सभरसमुञ्चहणे । घोरेयधवलसमगुण ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५९ ॥ जय विविहमहातवलद्धिसिंधुसमवायपायनइनाह ! | संहरियमणोचिक्किय ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १६०॥ इय थुणिय मुणियतव्वयमाहप्पकहापर्वचणसयण्हा । सुमरंता तग्गुणनियरमालयं सं वैइंसु सुरा ॥१६१ ॥ साहू वि निययमाउयपज्वंतं जाणिऊण सुहलेसो | संवेगभावियप्पा गीयत्थगुरूण पासम्म ॥ १६२॥ विडित्तु नाण- दंसण-चरित्त तव वीरियाण विसयम्मि । अइयारजायमुच्चारिऊण सम्मं गुरुवयाणि ॥ १६३॥ खामेऊणं सव्वे चउगइसंसारवत्तिणो सत्ते । सुमरंतो अणवरयं हियए पंचण्ह नवकारं ॥ १६४ ॥ पडिवज्जिऊण रागाइचरडलुंटिज्जमाणमग्गाणं | सरणम्मि साहुभूए सरणं चउरोऽरहंताई ॥१६५॥ पञ्चक्खिऊण पयओ चउव्विहाहारजायमवि सव्वं । आराहणापडायं घेत्तुमउण्णाणमइदुलहं ॥१६६॥ कालं काऊण महासणकुमारं गओ समाहीए । नियनामगं व कप्पं परिच्चयंतो वि तं चित्तं ॥ १६७॥ ॥ सनत्कुमाराख्यानकं समाप्तम् ॥१२७॥ जह सकयकम्मकज्जं पासजिणाईहि सम्ममहिसोढं । अवरेहि विदुक्खमिमं तह सहियव्वं सुहत्थीहिं ॥ १ ॥ १. त्वां श्लाघते गुणज्ञः । २. परिकरितः परिवृतः । ३. वयंसु रं० । For Private Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाख्यानकमणिकोशे शास्त्रोपसंहार: प्रस्ताव एष तव जीव ! पुनः कुतस्त्यो, भूयोऽपि मूढ ! ? मनसीति विभावयन्तः । यद् यत् समापतति कर्मवशादशर्म, तत् तत् समस्तमपि धीरधियः सहन्ते ॥२॥ ॥ इति श्रीमदाम्रदेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिसहनो नाम एकचत्वारिंशोऽधिकारः समाप्त इति ॥४१॥ [ शास्त्रोपसंहारः] इदानी शास्त्रकारः शास्त्रवक्तव्यतामुपसंहरन् शास्त्रगतपठनादिफलं च दिदर्शयिपुरिदमाह अक्खाणयमणिकोसं, एयं जो पढइ कुणइ जहजोगं । देविंद-साहुमहियं, अइरा सो लहइ अपवग्गं ॥५३।। ॥ कृतिरियं सैद्धान्तिकशिरोमणिश्रीमन्नेमिचन्द्रसूरेरिति ॥ व्याख्या--'आख्यानकमणिकोशं' व्यावर्णिताभिधेयम् 'एतं' पूर्वोक्तस्वरूपं "जो पढई" 'य' पुण्यवान् 'पठति' व्यक्तं कण्ठे धारयति 'करोति' विधत्ते 'यथायोगम्' औचित्याराधनेन 'देवेन्द्र-साधुमहितं' सुरपति-मुनिपूजितम् , अपवर्गविशेषणमिदम् , 'अचिरात्' शीघ्रमेव 'सः' जीवः 'लभते' प्राप्नोति 'अपवर्ग' मोक्षमिति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थस्तु अत्रापि गाथायां देवेन्द्रेति साध्ववस्थायां - निजनामविशेषणमध्ये विरचितमिति ।। वृत्तिं विधाय यदिमां महती मयाऽऽतं. पुण्यं पवित्रितजगत्त्रयचित्तवृत्ति । तेनाश भव्यनिवहो लभतां भवाब्धौ. सद्यानपात्रमिव बन्धुरबोधिबीजम् ॥१॥ ॥ आख्यानकमणिकोशवृत्तिः समाप्ता॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ ज्ञानादिरत्नवसतिर्जनमान्यलक्ष्मीजन्माप्रभूमिरभितो बहुसत्त्वसेव्यः । निधीतकर्ममलनिर्मलधर्मनीरः, क्षोणीभृदाश्रितगरिष्ठगभीरमध्यः ॥१॥ अच्युतप्रवणावासो, मर्यादाऽनतिवर्तकः । अस्ति स्वच्छो बृहद्गच्छः, श्रीमान् नाथ इवाम्भसाम् ॥२॥ इति नीरधितुल्यगुणे, दयासुधापास्तजन्म-रुग-मरणे । क्वचिदतिशायिनि समये, शिष्टाः ! निशमयत यजातम् ।।३।। मुनिविबुध[विधृतजिनमतमन्दरमथिमध्यमानतन्मध्यात् । स्फूर्जन्महाप्रभावः, प्रादुरभूद् रम्यरत्नचयः ॥४॥ तथा हिश्रीदेवसरिः सुमनःसमृद्धः, समुल्लसत्सत्फलपत्रशाखः । कुतोऽप्यथो आविरभूदमुष्मात् , सुरावगीतोपचिपारिजातः॥५॥ अनेकविकृतिक्रियाकुटिलकर्मरूपामया ___sपहारकरणक्षमः श्रुतिविचारदक्षः शुचिः । प्रवृद्धकरुणामृतस्समुदपादि धन्वन्तरिः, श्रियां पदमनागसामजितमरिरर्यः सताम् ।।६।। रुचिरचरणयोगाद् दुर्धरैरावतोऽभूदनुपममदवारिप्रोल्लसत्कीर्तिघण्टः । प्रकटितसकलाङ्गो मोहसैन्याप्रधृष्यो, विबुधपतिनिषेव्यः श्रीमदानन्दसूरिः ॥७॥ समुन्नत्याधारः स्वरगतलसल्लागधरः, श्रुतिश्रेयानंशिर्दधदपरचिह्नानि नितराम् । विनिर्यत्सद्धेतौ सुविषममहावादिसमरे, स्फुरत्तेजोदप्यत्तरलनयनोऽश्वश्च निरगात् ॥८॥ श्रीनमिचन्द्रसूर्यिः कर्ता प्रस्तुतप्रकरणस्य । सर्वज्ञागमपरमार्थवेदिनामग्रणीः कृतिनाम् ।।९।। अन्यां च सुखावगमां, यः कृतवानुत्तराध्ययनवृत्तिम् । लघुवीरचरितमथ रत्नचूडचरितं च चतुरमतिः ॥१०॥ शश्वत्पण्डितमण्डलीकुमुदिनीकान्ताप्रमोदावहः, सर्वज्ञागमदेशनामृतकरैर्निर्वापयन् मेदिनीम् । भास्वत्सन्मुनितारकेषु नियतं सन्नायकत्वं दधत् , स श्रीमानुदियाय यो निजकुलथ्योमाङ्गगालङ्कृतिः ॥११॥ सूरिः श्रीजिनचन्द्रश्चन्द्रो निःशेषजनमनोदयितः । सौम्यव-कलावित्वप्रभृतिगुणानां स्वकुलभवनम् ॥१२॥ तच्छिष्यः प्रथमपदे, श्रीपदवानाऽऽम्रदेवसरिरभूत् । अपरोऽपि तत्कनिष्ठः, श्रीमान् श्रीचन्द्रसरिरभूत् ॥१३॥ इतश्च यो मेदपाटाघ्युषितोऽपि धीमान् , दयाधनो धार्मिकमध्यवर्ती । सत्साधुताधर्मकृताभिलाषः, मुश्रावकत्वं परिपाति सम्यक् ॥१४॥ मारावल्या अल्लकश्रेष्ठिवर्यो, मुक्त्वा स्वीयं धाम हेतोः कुतश्चित् । आयातोऽसावर्बुदाधःप्रदेशे, तत्राप्यासीत् स्वैर्गुणैः सुप्रसिद्धः ॥१५॥ . किञ्च कासहदधाम्नि निज, धर्म्य धाम प्रवर्तितं येन । पोषधशाला सच्छावकादिधर्मार्थमत्यर्थम् ॥१६॥ १ 'अर्यः' पूज्यः ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आख्यानकमणिकोशवृत्तिप्रशस्तिः । धर्मार्थं व्ययतो धनं सफलतां यस्याऽगमद् धीमतः ॥ १७॥ स सिद्धनागः .... सु लब्धजन्मा, सदाकृतिर्धर्मविशुद्धकर्मा । पुत्रोऽभवत् तस्य जनप्रसिद्धः, पुण्यानुभावाच्च सदा समृद्धः ||१८|| तस्मादपि दौस्थित्यात्, कुतोऽपि धवलक्कके समायातः । आस्ते स सिद्धनामा, तत्रापि जने गुणैः प्रथितः ॥ १९ ॥ अन्यच्च येन कारितमतिरम्यं भव्यजनमनोहारि । सीमन्धरजिनबिम्बं रमणीये मोढचैत्यगृहे ॥२०॥ त्यागी भोगी देव- गुर्वादिभक्तो, जैने धर्मे प्रेमरागानुरक्तः । वार्द्धक्येऽभूदेक उद्योतनाहः, पुत्रस्तस्य व्यक्तदुष्टद्विजिह्नः ॥२१॥ श्री नेमिचन्द्रसूरेर्वाक्यात् तदनु स्वशिष्यभणनाच्च । उद्योतनसच्छ्रावकविशेषसद्भक्तिवचनाच्च ॥२२॥ तत्रैव बृहद्गच्छे रत्नाकरसन्निभे प्रसूतेन । प्राकृतमणिकल्पेन, श्रुत-गुरुबहुमानसहितेन ॥२३॥ श्रीपदसङ्गतनाम्ना, श्रीमज्जिनचन्द्रसू रिशिष्येण । रचिताऽऽम्र देवमुनिपेन वृत्तिरेषा स्वबोधेन ||२४|| व्याख्याप्रज्ञप्ताविव, लब्धवरायामिहापि सद्वृत्तौ । श्रुतिसुखदवर्णरुचिरा, विचित्रगम-भङ्गरमणीया ॥२५॥ सुव्यक्तमेकचत्वारिंशदनूना भवेयुरधिकाराः । तत्र सतानी च विचारश्रुता अग्र्यवृत्ताश्च ( ) ||२६|| सत्स्वपि नानारूपेषु पूर्वकविभिर्विशिष्टमतिविभवैः । रचितेषु शास्त्रविवरणकथाप्रबन्धेषु सरसेषु ||२७|| कीदृगिदं मत्काव्यं ? तदपि ग्राह्यं कृतप्रचुरकरुणैः । मयि वल्लभमाध्यस्थ्ये, माध्यस्थ्यगुणान्वितैः सद्भिः ||२८|| छन्दोलक्षणविकलं, समयोत्तीर्णं च यत् किमपि लिखितम् । तच्छोध्यं विद्वद्भिः कृताञ्जलिः प्रार्थये भवतः ॥ २९ ॥ अन्यच्च नेमिचन्द्रा गुणाकराः पार्श्वदेवनामानः । एते त्रयोऽपि गणयो विपश्चितो मुख्यनिजशिष्याः ||३०|| साहाय्यं कृतवन्तो मम लेखन - शोधनादिकृत्येषु । आधानोद्धरणे च प्रमादविकलाः कलाकुशलाः ॥३१॥ नवत्या युक्तेषु प्रथितयशसो विक्रमनृपा आजन्मापि जिनेश्वरस्य सदने बिम्बे जिनाभ्यर्चने, तीर्थानामभिवन्दने जिन् नतव्यालेखनेऽलङ्कृतौ । श्रीमत्सूरि- महत्तरापद - जिनप्रवाजनादौ शुभं, च्छतेषु क्रान्तेषु त्रिनयनसमानेषु शरदाम् । अजय्ये सौराज्ये जयति जयसिंहस्य नृपते-, रियं स्थानीयेऽगाद् धवलकपुरे सिद्धिपदवीम् ॥३२॥ श्रेष्ठियशोनागस्याऽऽरब्धा वसताववस्थितैः सद्भिः । वसतां सम्यगवसिता वसतावच्छुप्तसत्कायाम् ॥३३॥ भुवनानीव चतुर्दश धातुर्मम रम्यवर्ण - पदभाञ्जि । अक्षरगणनाद् ग्रन्थो जातोऽनुष्टुप्सहस्राणि ॥ ३४ ॥ मानसगर्भे स्थित्वा, लक्षणयुगयं सपादनवमासैः । आख्यानकमणिकोशः, सुत इव समपाचि सद्वृत्तिः ॥ ३५॥ यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च, यावन्मेरुर्महीतलम् । स्वर्गा ऽपवर्गवत् तावन्नन्द्यादेषाऽपि मत्कृतिः || ३६ || ग्रन्थाग्रम् १४००० ॥ १. भाजि - प्रतौ । ॥ इति श्रीमदाम्र देवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशवृत्ति[प्रशस्तिः] समाप्तेति ।। शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम अइमुक्तय अउज्झा अभिगमीक अभिगमुद्र [निग्रन्थ सुनिः ] [ नगरी ] _८१,११०,३२२ * अक्खाणयमणिकोस [ प्रस्तुतग्रन्थः ] १,३६८ [ पर्वतः ] कुमार [ देवजातिः ] अगमंदिर २११ अग्गजाला [माणपत्नी ] अच्चुय अच्युत भजितसूरि अजिय अजियम अजियरोग अज्जखउड 33 अजहरवी किम् ? अ "" 35 टीकाप्रशस्तौ ] अणिमंजिया [ नगरी ] भगोलिया अद्दय आख्यानकमणिकोश-तट्टीकान्तर्गतानां विशेषनाम्नामकारादिक्रमेणानुक्रमः [* एतादृक्कुलिकाङ्कितानि विशेषनामानि मूलग्रन्थगतानि ज्ञेयानि ] [ रा ) [ ब्राह्मणपुत्रः ] [ देवलोकः ] २०,७२,३२५ [ श्रेष्ठी - टीकाप्रशस्तौ ] ३७० [ निर्मन्थ- आचार्यः, पत्रम् २४९ १७४ १६८ १२३-२५ २६१ अट्टण [ मलः ] अट्ठारसचकवेह [ आभूषणम् - हारः ] ११९ अट्ठावय ५५,३२२ ६८ अगसरा [ पर्वतः ] [ राजपुत्री ] [गणिका) अणंगणा [ तीर्थंकरः ] अनंत अणाहिडि [ देवः ] [ राजपुत्री ] [ देशः ) [ नगरम् ] [ राजा ] ३१६ ७६ ३६९ [ तीर्थंकरः ] ३२३ (निर्मन्थ- मुनिः] १७२-७३ [राजपुत्रः ] [ निर्मन्थ-स्थविरः ] १५,१६ ७६ २६३,३११ ३२३ ०५ १५५ १४६-४७ ९९ नाम किम् ? * अमकुमार [ राजपुत्रो निमन्धमुनि अय+कुमार, कुमर १ प्रथमं परिशिष्टम् अपइट्टाण अपराजिता * अभय ९९, १००, १०२-३ ९९ अट्या [ राज्ञी ] अलिक बेअ } [ विद्याधरपुत्रः ] ८६ ८७ ८९ ११८ ६० अभय + कुमार अभया अभिनंदन अमरदत्त 39 अबलपुर अर * अरहजय अरहनक-य अरिहन् अर्हक 39 [ नरकः ] [राज्ञी ] [ राजपुत्रोऽमात्यश्च ] "3 " [[ राशी ] [ तीर्थंकर ] [ श्रेणिकपालित पत्रम् २११-१२ राजपुत्रः ] २०१-७, २१० अमियगइ [ विद्याधरः ] अमियतेय [ निग्रन्थ- आचार्यः ] ३४१.३४३ अम्मड - अम्बड [ परिव्राजकः ] ९६९७ अयल [श्रेष्ठी सारादः ] ४० ४१,४३ [ सुभटः] ८४ ५३ [ नगरम् ] [ तीर्थकरः ] ३२३ [ निर्ग्रन्थ मुनिः ] २७१ ९७ ३,१२-१७२०, २३, २४, ३१, ९९. १००, १०१.१०३, १०७.११६. ११८, १२७-२९, २२९३०, २३२, २४३, ३३३ ९९,१०० ९९,१०० अरिनेमि [ तीर्थंकरः ] ३ १४० १४२-४६ ३२३ २७१-७२, ३४५,३४७ ३१४,३५३ नाम अरिदमन अरिमरण अरिहद्दासी अरिहन अरिहमित्त अरुणाभ अर्बुद अल्लक अवराइया अवंतिणी अवंतिवद्धण अवंती अमिक्स असोग असोगचंद असोगचंद कोणिय कूणिअ ६) किम् ? * आइच पत्रम् २६४-४७ १६१ १४०-४१ २१९ २१९ 33 [विमानम् ) २४० [ पर्वतः टीकाप्रशस्ती ] ३६९ [ श्रेष्ठी, ,] ३६९ [ श्रेष्ठिपत्नी ] १५१ [ राजपुत्री ] [ राजा ] [देव] [ नगरी ] "" [ श्रेष्ठिपत्नी ] [ वणिक् ] असोगणिया [ वाटिका ] असोयसिरी [ राजा ] अस्सावहारा [ विद्या ] अंगा [ देशः ] अंगामंदिर [ पर्वतः ] अंजण अंगद १०६ १०६ १९५,२७८ १६,१५९, १६९,२२७ [क्षा] ३६३ [ मालाकारः ] १०७ [ राजा ] २७३ [ राजपुत्रो राजा च ] ३३३-३४ _३३३-३४ १२४ ५४ ६५ १६९ २२० राजा ] आ २१८ [ कुटुम्बी] आख्यानकमणिकोश [ऋतुतमन्धः] १.२.१७, ४६, ६७, ८०,९५, ९७, १०३,११३,१२०,१२३, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ नाम आगचसम्म [ ब्राह्मण: ] आगासरेवई [ देवता] आनन्दसूरि [ निर्मन्थ - आचार्यः, टीकास्त] आमदेवरि [ निर्धन्य आचार्य, आवस्सय आसमेन इलादेवी इलापुत किम् ? ३६८-१० आयामुद्दी [ नगरी ] बाईककुमार [ राजपुत्रो, निर्मन्थ "3 इलापुत्र इलावण इंदमह पत्रम् १२५,१२९,१४६, १४७, १६०,१६६,१६८,१७५, १७७-७८, १८२, १८८, २१८,२२६,२३८, २४१, २४३,१६२,१६७,१७०० ७१, २७४, २७६, २८९. ३०४,३२१,३२६,२४४, ३५०,३६८,३७० ईशान प्रस्तुतग्रन्थटीकाकारः ] १७,४६, ६०,००,१५,१७,१०३, मुनिः ] ९७,९९,१०३ आर्यपुट [निर्मन्थ स्थविरः ]१६८, १७४-७५ आवस्सगविवरण [जैनागमः ] १८४ १७१ [ राजा ] १०७, १३५,३५१ इ ११३,१२०,१२३, १२५, १२९, १४६-४७, १६०, १६६, १६८, १७५, १७७, १७८, १८२, १८८, २१८, २२६,१३८,२४१,२४२, २६२,२६७, २७०-७१, २७४, २७६, २८९,३०४, ३२१,३२६,३४४,३५०, [ देवी ] [ श्रेष्ठिपुत्रः ] १५२ १५७ ३६९ "3 " [ नगरम् ] [ उत्सवः ] [देवलोकः ] १०९ ९१ ९१,९२ ८१ ८१,९५ ९१ १४२ १३३ नाम ईसर ईसाण उग्गसेण उज्जयणी उर्जित उज्जेणी उत्तरापह उदयण उदाइ उद्योतन उपकोशा * उनकोसा उबिंद उसभ उसाहदत्त उसीरावत उसुवार ३५६-५७ उत्तरज्झयण [जैनागमः ] ३२५ उत्तराध्ययनवृति [ टीकास्त] ३६९ " " [ देशाः ] २९१ १५,१६ [ राजपुत्रः ] ३३४ [ श्रेष्ठी, टीकाप्रशस्तौ ] ३७० [ गणिका ] १८३-८४ १८३ ७३ ३२३ १४० " शवदत्ता एलउर प्रथमं परिशिष्टम् किम् ? [ श्रेष्ठी ] [देवलोक ] कक कटपूतना कट्ठ कडय उ [ राजा ] २४०,३३१ [ नगरी ] १९५ [ पर्वतः ] २४०,३१३ [ नगरी] ४,५,१४,१६,३९, ४२ ४३ १०५ १२४, १५१,१५७,१६३,१७१ ७२, १९१, २०१-३, २०८,२२५,२६१,२७५, "3 [कृष्ण-वासुदेवः ] [ तीर्थकर ] [ श्रेष्टी ] [ नगरम् ] 33 [ राजा ] ए [नगरम् ] ऋ [ तापसपुत्री ] २४४-४५,२६१ कढ *कणगकेउ कणगड- 'गज्झअ पत्रम् २०३, २०५ ४६,२६१ 16 क " २१३ २७५ २७५ [ राजा ] १०५ [ देवी ] ३५२ [ श्रेष्ठी ] १७ [ राजा ] [ तापसः ] ३२९ ३५१-५२ [ राजा, अमात्यपुत्रः ] ३२६ ३४३ १०७ नाम कणगरह कणयद्धय कणयाभरण [ राजा ] कण्ह कन्ह कणयप्पहा [दस्तिनी] कणयमाला [ विद्याधरपत्नी ] ७५,७८ कणयरह - कणग० [ राजपुत्रः ] २४६, २४८, २५१,२५४-१८,२६१ } कतियपुर कनककेतु कमउज कना कन्हडदेव कप्पय कमढ कमलगुत्त कमल ह कमलसेन मलाला किम ! [ राजपुत्रः ] करेणुदत्त कर्मार कलिंग कलिंगसेणा कल्याणमाल कलादि • कविल [ नगरम् ] [ राजा ] [ नगरम् ] [ नदी ] [ राजपुत्रः ] [ अमात्यः ] [ तापसः ] [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [ मल्लः ] [ राजा ] [राजपुत्री ] [ राशी ] [ बलीवर्दः ] [figer] [कृष्ण वासुदेवः] ७२-७६,७९, ८०, १६, १२१-२३, २६८,३१२-१५,३१८२०-३५३ पत्रम् " [ राजा ] १७८ ३२४ ३०४ [ देश ] [ गणिका ] ૭ [ राजा ] [यक्षः ] [ पुरोहितः ] १५,२८ ३२६,३४३-४४ कमलाई २७५,१०० कम्बल १७८, १८२ कयउज *कय उन्नय २०-२४ १७ ['यक्षः ] ३३४ करकंडु [ मातङ्गपालितराजपुत्रः ] २७६-७८ कयमाल २७६ ३२९ २७ १७४ ४८ १८३ १३५ [ प्रामः ] [ सन्निवेशः ] कलाव "बती [ राजपुत्री, राशी] २३६-३८, ३४०-४३ २०९-१० २९३-९४ ११४ २४० ३५२ ३४९ २९२ २१२ ५७ १५५ १४१-४२ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम कविला " कंचनपुर [ मगरम् ] कंचिया । [ नगरी ] कंची } कंडरीय [राजपुत्रो ममनि] १७० + कंपिल +पुर [ नगरम् ] ४६,३२९ * कंबल १७८ काणा ७२ कामएक-देव [टी] *कामदेव कामरइ कामलया कायन्दी कायंबरी काल कामपडाया [ गणिका ] कामपाल [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [[] गणिका ] कालिदास कावेरी चिमू [ ब्रह्मपानी ] [ पुरोहितपन] कासहद कासी कितिधम्म कुजअ कुडगेसर [ राजपुत्री ] [ नगरी ] [ गुहा ] [ राजपुत्रः ] [विद्याधरः] कालसूरि- [ वपाकः] ११६,११८-१९ कालसंवर 'सोयरिअ कुणाल कुस्थुभ कुब्बर कुमारनंदी कुणी [ बलीवर्दः ] [नावित्री ] कुरु कुरुचंद कुलचन्द्र *कुलानंद कुलानंद [ कविः ] [ नदी ] [ नगरी ] [देव] [ राजपुत्रः ] [ मणिः ] पत्रम् ११८-१९ १४१-४३ ११४,२७८ १०४, १०६ [ राजपुत्रः ] [ श्रेष्ठी ] [ राजपुत्री] २४६ २४६,२५१, २५४-५५ [आम, टीकाप्रशस्तौ ] ३६९ [ देशः ] [ राजा ] २२३,३५१ ३०० [ राजपुत्रः ] ३१७ १७२ १२४ ३१९ ५०,५५ १८८ १०९ २३८-४० २३८ १३५-३६ २५,१८,१९ १३५-३६ १०६ १०४,११३ ३१५ ३३३ ७५-७८ " ८ [ देशः ] २५,२७५,३६२ [ राजपुत्रो राजा च] १५,१९, १५६,२४१ [ निर्धन्य केवली ] ५७ [ राजपुत्रो राजा च ] ३४४ ३४५,३४७-४८ नाम कुसट्टा [ देशः ] कुसुमपुर [ नगरम् ] कुसुमसेहर [राजा ] " कुंकण कुंडवलय कुंडिणा कुंडिणिपुरी कुंती विशेषनाम्नामकारादिक्रमः किम् ! कुंषु *कूलवाल कूलवाल+अ, क, म कृतपुण्य केव केय केसरा केसव केसी कोणिय भूमिअ असोगचंद कोमोरया कोशा कोसल कोसला कोसलपुरी *कोणिय " कोरड [ मणिः ] कोसंब कोबी कोसा क्षेमपुरी *खमग [ राजपुत्रः ] [ देश: ] [ नगरम् ] [ नगरी ] को मुईदिवस - ईमह [ उत्सव ] "ईमडूसन स्वमगरिसि [ राशी ] [ तीर्थंकरः ] [ दासः ] [ भत्रतमुनिः ] 33 [मेरी ] [ गणिका ] [ देश: ] [ नगरी] [बनम् ] [ नगरी ] १७,२०,२४ [ टिपुत्रः ] [ राजपुत्रः ] ७७,८० [ देश: ] ३२६ २५-२९ [ श्रेष्ठिपुत्री ] [ कृष्ण - वासुदेवः ] ७१,१२२ २३,३१७. [निर्ध-गणधरः] ३२६,३२९ ) [राजपुत्र राजा च] ३२६, ३३१,३३३ ३४ [ गणिका ] [ नगरी ] ७० ३०, १००, २६२ ३८ पत्रम् 33 ४६ ७३ २२ ३२३ १४८, १५५-५६ २७१ २७१-७४ २९७,३०३ २०३ ख [निन्ध-मुनिः ] ८ ३२६ १२१ १४३ ३१२ १८३ २४ ४९,९१ २१४,३१९ १६,३६,११६, १२३, १२५, १६७, २६२ १८३ १३० १६१ १६१ नाम फिम पत्रम् खर [ राक्षसवंशीयः ] ५७, ५८, २२५ [ वणिक् ] त्रिपइडिय [नगरम् ] खरक ३५२ १७,२०,११९, २७५ खीरडिंडीर [देव] सीरडिंडोरा [देवी ] लेकर ग [ विद्याधरः ] [ देवी ] गज+कुमार [ राजपुत्रो निन् मुनिश्व ] गउरमुंड गउरी गद्दह गन्धप्रिय *गय गय गयउर गय वाहण गयकुमाल गंगदत्त 23 गंगदता गंगवा गंगा गंगा 93 गंगाइच मायाइच गंगाउर गंगउर [ कुटुम्बी ] गंधार गिरिनयर गुडसत्थ ३५१-५२ [ राजपुत्रो राजा च ] १४६-४७ [ राजपुत्रः ] १८४ [ राजपुत्रो निन्य-मुनिय] ३५१ [ing] [ नगरम् ] [ राजपुत्रः ] [ राजपुत्री निर्मन्थ मुनिश्व] [ राजा ] [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [ दासी ] 33 [ राजपुत्री ] [ राज्ञी ] [ नदी ] [ कुटुम्बी ] [ नगरम् ] गंधप्पिय [ राजपुत्रः ] गंध [ नदी ] गंधम्यदत्ता [ राजपुत्री ] गंधव्वसेणा ३७३ " [ देशाः ] [ नगरम् ] ५६ ५६ २०९ २११ ९६ ३३५,३३७, ३४०-४१ २५,२९,३१४, ३६३,३६५ ३२४ ३५३-५४ २६० २६६ १०४ १०७ २६० २६० २१९-१०, २७१, ૩૨,૩૪૬ २२२-२५ २६०-६१ १८५ २२५ १०४-५ २१५ २८० ७५ १७४-७५ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ प्रथम परिशिष्टम् ८५ १५. नाम किम् ? पत्रम् गुणचंद [श्रेष्टिपुत्रः] [राजपुत्रः] गुणमइ-ती [धेष्ठिपुत्री] २२७,२२८ *गुणमइया , गुणवती १३०,१३४ गुणसिल+अ [चैत्यम्] १३,९८,११५, १२७,२६४ गुणाकर [निग्रन्थ-गणी, टीकाप्रशस्तौ] ३७० गोभद्द [श्रेष्ठी] ३०,३१ गोयमसामी [निग्रन्थ-गणधरः] १७० गोरी [विद्या] ७८७९ [मातङ्गपत्नी] २७१ गोविंद [कृष्ण-वासुदेवः] १०७ गोशालक [आजीवकसम्प्रदायप्रणेता] ३५२ गोसाल+य १०३,११५ गौतम [निग्रन्थ-गणधरः] १,३५२ . " चेडय चलणा ३२३ . ७७ घोरसिव [कापालिकः] नाम किम् । पत्रम् नाम किम् ? पत्रम् चंडवडिसय [राजा] २२१ चित्तरह [विद्याधरः] *चंडहड [कर्षकः] २१८ चित्रमा [मातापुत्रो निर्मन्थचडहड-भड , २१९-२१ मुनिश्च] २१९,२२१ चंडावडिस [राजा] चित्रगुप्त [निग्रन्थ-मुनिः] ५५ चंडिया [देवी] चित्रप्रिय [यक्षः] चंडी , ११८ चिला [दासी] चिलाइपुत्त [दासीपुत्रः] चंदगुत्त [राजा] १२४ , *चंदणजा [निग्रन्थिनी] ३५ चिलातीपुत्र १२५-२६ चंदणज्जा- [राजपुत्री. निग्रन्थिनी- २५, चुलणी [ब्राह्मणपरनी] •णकुमारी- प्रवत्तिनी] ३५-३८, ३२६ •णबाला १६७ चंदणा चुलगी [राशी] ० ३२९-३१ चंदजस [राजपुत्रो राजा च] २८२ [राग] चंदजसा [राज्ञी] [राज्ञी] २०.९९,११९, चंदप्पभा [मदिरा १२८ - २२९,३३२,३३५ चंदप्पह [तीर्थकरः] चदमई [राजपुत्री] छम्माणी [प्रामः] चंदसेण [राजा] चंदाभा [राज्ञी] चंदावयंस +अ [राजा] ३५४,३५७-५८ जउणदीव [द्वीपः] जक्न चंपयमाला [राज्ञी] २८९-९०२९२, [निर्ग्रन्थ-मुनिः] १७२-७३ चंपइमाला, जक्खसिरी [ब्राह्मणपत्नी] ५३ चंपा [नगरी] ३६.४३. १५.६५. जक्खिणी [विग्रन्थिनी] १२ ७६९६,९८,१४०, जणहण [कृष्ण-वासुदेवः ] ३१५,३१९ १८६, १९७-९८, जनक [राजा] २१०,२१७,२३८- जनदत्त [वणिक्] १५१ ३९, २७७-७८, जन्मदिन [ब्राह्मणः] जन्नवक [परिव्राजकः] चामुड [देवी] १३९,१७४ जमवाड [राजगृहपाटक ] ९७ चारुदत्त [श्रष्टिपुत्रः] २१०-१२,२१५ जन्हकुमार [राजपुत्रः] १६,२७६ जम्बु [प्रेष्ठिपुत्रो निर्ग्रन्थ- २६८-७. २७६ स्थविरथ] चित्त [मातङ्गपुत्रो निग्रन्थ जयवद्धण [नगरम्] ३००-१,३.३ मुनिश्च] २२१,२७५,३२९ जयवारण [हस्ती] २४ जयसिरी *" [श्रेष्टिपुत्री] " २१८ १५१-५२ चित्त [अमात्यः] ३२६-२७ जयसिंह [गूर्जरेश्वरः, चित्ततेअ-चेत्त० [विद्याधरपुत्रः] टीकाप्रशस्तौ] ३७. *चित्तपिय [यक्षः] जयसेण [राजपुत्रः] ३३५-३७,३१० चित्तपिय । , जयसेणा [राज्ञी] २१५ सुरथिय । जयंतदेव [श्रेष्ठिपुत्रः] चउरम २४१ [अमात्यः] [राजपुत्रमित्रम् ] २९५-९६ [ब्राह्मणः] चक्कयर चकचर चण्डचूड [कुलपुत्रकः] १४८,१५३-५४ चण्डरुद्र [निर्मन्थ-आचार्यः] १६१, १६३-६४ चन्दनार्या [निग्रन्थिनी] ३५,३६,३८ चन्द्रावतंसक [ राजा] २३८,२४१,३५५ चमरहारिणी [गणिका] चवला [दासी] १. चंडचूड [कुलपुत्रकः] १५३ १४८ चंडपज्जोअ-य[राजा] १४-१६ पजोय चंडरुद्द [निम्रन्थ-आचार्यः]१६३-६४ १६१ चंडह [दासः] २०९ १६७ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नामकारादिक्रमः नाम किम् ? पत्रम् नाम किम् ? पत्रम् नाम किम् ! पत्रम् जयंती-'तिया [ नगरी] २५,१५६,१५९, २८९,२९५ २९८ जया [राज्ञी] १०४ जराकुमार [राजपुत्रः ] ३१४,३१९-२० अलणप्पह [देवः] ३२३-२४ जब [निग्रन्थ-मुनिः] १४६-४७ टक टंकण [ब्राह्मणजातिः] [देशः] ४१ २१६ डमरसिंह [राजा] १४६ दढधम्म [राजपुत्रः] दण्डक [अरण्यम् ] दत्त [श्रेष्ठिपुत्रः] ३३५-३७,३४२ दत्तक-य [श्रेष्ठी ] १९१-९३ ददर [सुभटः] दुद्दुरवटिसय [विमानम् ] ददुरंक [देवजातिः] ११८,२६५ दधिवाहन [राजा] ३५,२७६ दमघोस [सुभटः] दवदंती [राजपुत्री, राज्ञी] २०,४६-५६, २६८ २६२-६३ २६९ २७७ १६. " जवउर-पुर [नगरम्] १४६-१७ ढण्ढणकुमार [राजपुत्रः] २६८,२७० जवणदीव [द्वीपः] २१३ ढंढणकुमर २६८-६९ वसभह [निग्रन्थ-स्थविरः] ५९,२६९ *, जसवई [राशी] जसा [पुरोहितपत्नी] २७५ णंद-नंद [राजा] अंबई [विद्याधरपुत्री, राशी] ७५,८० णोड़जाइ [वन्यजातिः] जंबवंत [विद्याधरः] [श्रेष्ठिपुत्रो निर्ग्रन्थस्थविरव] तक्खसिला [नगरी] ८३,८४,८९ २६८ तापस [श्रेष्ठी] जंबुणाम तामलित्ती [नगरी] २४४ जंबुद्दीव [द्वीपः] १९७,२६. तारापीड [राजा] जंबू [देवी] तारावीढ १०९-१० जानकी [राजपुत्री, राज्ञी] ५५.५८ तावस [श्रेष्ठी] २६२ जालंधर [पर्वतः] २९१ २६२ जाला [राज्ञी] १६८-६९ तिला [उद्यानम्] जिवायत्त [श्रेष्ठी] १४,१५,६५, तिलयपुर [नगरम्] १९२,१९७-९८ तिलयसुन्दरी [राजपुत्री, राज्ञी] ११४ विपदास , ७६,७७,१५१, तिविकम ।[राजकुमारो १८२,२२५ विण्हुकुमार | निर्ग्रन्थ-मुनिश्च] १६८-७० जिणदासी [श्रेष्ठिपत्नी] १८२ तिसला [राज्ञी] जिणसेण [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] ५५ तिहुयणतिलया , ३४७ जिणाणंद [, -स्थविरः] १७२-७३ तिहुयणाणंद [राजा] जिनचन्द्र [, आचार्यः, तिदुग-य [यक्षः] टीकाप्रशस्तौ] ३६९-७० तुंबवण [सनिवेशः] जियसत्तु [राजा] :-७,१०९-१०, तेयलि [नगरी] १८६-८८,१९७, तेयलिसुअ-तेतलि. [अमात्यः] २०१,२१०,२३८, त्रिगुप्त [निग्रन्थ-मुनिः] २६१,३०४,३२६, त्रिभुवनतिलका [राज्ञी] ३४८ ३३१ जियारि १५४,२२५ थाणु [वणिक्] २२२-२४ जीवहरण [प्रामः] १५२ थावर थावर [दासः] जुगवाहु [राजपुत्रः] २७८-७९,२८१ थूलभद्द [अमात्यपुत्रो, जुगाइदेव [तीर्थकरः] निग्रन्ध-स्थविरश्च] १८३ २३३ दसउर [नगरम् ] १५२ दसवेयालिय [जैनागमः] दहवयण [राक्षसवंशीयराजा रावणः] ३२५ दहिवन [राजा] ५४,५५ दहिवाहण " ३६,३८,१०, २७७-७८ दंतवक्क [नगरम् ] [राजा] २७७ दाममअ-ग [श्रेष्ठिपुत्रः] १४९-५१ दामनक १४८,१५१ १४८ दामन्नक [कुलपुत्रकः] २२७,२३८ दिवायर [ब्राह्मग:] दीणार [नाणकम्] ११६-१७ दीपकशिख [राजपुत्रः] १०४,१०७ दीवयसिह १०५,१०६-७ १०४ दीवायण [ऋषिः] ३१४-१८,३२० दीवूसव [उत्सवः ] दीह [राजा] ३२९,३३१ दीहपट्ट [अमात्यः] १९६-४५ दुक्खंतरिसि [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] ११२ दुग्गचंड [परावर्तितचौरमाम] १२८-२९ दुग्गय [कुम्भकारः] १५३ दुग्गा । [देवी] ११. चंडी । २७१ १०. २२८ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ नाम दुजोहण दुप्पसह दुम्मुद्द डुग्रहएवी डुब दूषण देवणी देई देवगुत्त देस देवदत्त देवदता देवनंदि देवरसि देवसाल देवसिरी देन सुरि देवसे देवानंद ●विंद देहिल दोण दोग दो मेह दोब द्रोण در *घण धण धण + अ किम् ? [ राजा ] "3 [ दासः ] पण धणदत्त यत्त धणदेव धणपाल [निम्धिनी] [ राजा ] [ राक्षसबंशीयः ] ५७,५८,११५ [ राजपुत्री ] १५७-६० [ राशी ] ३१८,३५२-५४ ११०-११ १५२-५३ १०१,१८८ [ राजा ] [ श्रेष्ठपुत्री ] [[]] [गणिका ] ३९-४२१४५-४६ [ राजपुत्री ] [ दासः ] [ राजा ] द्वारकावती [ नगरी ] [ देश: ] [ निग्रन्थ-मुनिः ] [ नगरम् ] [श्रेष्टिनी] [निर्धन्य आचार्यः, टीकाप्रशस्ती ] [ राजा ] [ श्रेष्ठी ] [निर्धन्य मुनिः प्रस्तुतमूलग्रन्थकारः ] [ वणिक ] [ दासः ] 33 [ राजा ] ध [ सार्थवाहः ] [ श्रेष्ठी ] [ सार्थवाहः] [ष्ठिपुत्रः ] पत्रम् ७५,८० २५ १६५ १७२ ४६ [ सार्थवाहः ] [ श्रेष्ठी ] ३३५ ७९ ३२५,२४० २००-१ ३२९ २९३-९४ २०१ ३६८ ३००,३०२ २४, २५,३० १७ १०९ ६९ ४६ १७,२४,३० ६८ ३०४ १७ ९४,१२६,२२८ १७- २०,४६, १८४, १९७ ९९ २४,२५,३० २२ ५३ २०,२१ नाम धणवइ धणावई धणसार 33 धणसिरी भगसेण धणावद्द धणीसर धणु घणेसर धन धनदत्त धन्न + अ धन्नअ धन्नउर धन्नपूरअ धन्नय धन्ना धन्यक धम्म धम्मघोस धम्मनंदण धम्मरुइ धम्मसिरी धम्मिलाभ धयरट्ठ धरगति धरणिंद धर्मरुचि धवलक्कक धायइसंड धारिणी प्रथमं परिशिष्टम् किम् ? [ श्रेष्टिपुत्रः ] [पित्नी ] [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [ श्रेष्ठी ] धुंधुमार धूमकेउ [] [ राजा ] [] ३६,३०,११,१२,६४ [figger:] २४,२५,३० ३३१ [ अमात्यः ] [ श्रेष्ठपुत्रः ] १३५-३६ [ साथै हा] १७ [ श्रेष्ठिपुत्रः ] 23 [ आभीरपुत्रः ] [ प्रामः ] पत्रम् २४,२५,३० १०१ ६४ [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [ आभीरपुत्रः ] [ कुलपुत्रपत्नी ] [ आभीरपुत्र ] १७,३० [ तीर्थंकर ] ३२३ [निर्धन्य आचार्यः] १८,१९, " [ निर्ग्रन्थ-मुनिः ] [ श्रेष्ठिपुत्रः ] [निधन्विनी] [ आभीरः ] [ राजा ] [ नगरम् ] १३५ १९२ २४० १३०-३१,१३३ ३४, ४६ ५६ ८ [ द्वीपः ] [ राशी ] [यक्ष ] २६८ १७ ३३,४३,४४,१५५, १९९,२०८, २१० २२४ ४३, ४४, २१९-२० ३० [ इन्द्रः ] १३५ [ निर्मन्थ-मुनिः ] १३३ [ नगरम्, टीकाप्रशस्तौ ] ३७० २२७ ७२ ५६ ३,१८ १७९ ४६ ९,३६,१६४, १९७,१९९,२२८, २३६,३०४,३५४ .. ७५-७७ नाम धूमकेउ धूम सिंह नउलवणी नन्द नन्दिवर्धन नमि नमि नमुई 23 नम्मया नयचक्क नयसार नरदत्त नरविकम 22 नरविक्रम नरसीह 31 नराअ - द सोदास नराय नल नलगिरि ● नंद नवपुष् नवपुलअ नवपुलय नहसेण नंद ;} किम् ! [देवः ] [ विद्याधरः ] न [ श्रेष्ठी] " [ राजपुत्रः ] [ राजपुत्रो राजा, निर्मान्ध-मुनि] [ तीर्थंकर ] [ अमात्यः ] पत्रम् १४० २११ [मदी] ७२ [ जैन- दर्शनशास्त्रम् ] १७२–७३ [ श्रेष्ठी ] १७७ [ सुभटः ] [ती] २१९ २१८ ११३,१२० १३० [ राजपुत्रः ] २९३-९४, २९६ ३९१,३०३-४ २७६, २७८, २८२.८४ [ राजपुत्रः ] [ श्रेष्ठी] [ नाविकः ] [मणिकारः ] २७६ ३२३ १६९-७०, १२१-२२,२७० [ अमात्यः ] [ श्रेष्ठी] [ राजा ] [ नाविकः ] [ राजा] १८५,२८९-९०, २९२,२९४ १८४-८६ १८४ [ राजपुत्रो राजा च ] १७, ४७ – ५१ ५३-५६ २८९. २८९ ८५,८६ 14,75 [ मालाकारः ] १०४, १०७-८ १०७-८ 1 २४०-४१ ११३ २१८ २६२ ३८ १२० १८३ २१९ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नामकारादिक्रमः नाम पत्रम् नाम किम् ? पत्रम् पभव+सरि [निर्ग्रन्थ-स्थविरः] ९७,९८, नंद नाम किम् ? नेमिचन्द्र [निग्रन्थ-गणी, टीकाप्रशस्तौ] ३७० नेमिचन्द्रसूरि [निग्रन्थ-आचार्यः, १, प्रस्तुतमूलग्रन्थकारः] ३६८-७० पत्रम् [मणिकारः] २६२,२६४ [नगरम् ] १०९ [श्रेष्ठिपुत्रः] १०४-९ [उद्यानम् ] ३०७,३१६, ३४१.३४३ [वापी] २६४ [निम्रन्थ-मुनिः] ७६ नंदण गंदणवण ८६,८७ ९,११५ पइट्ठाण पउम परासर [ऋषिः] पल्हाअ-य [राजा] पसेणइ+य पसमचंद [राजा, निर्ग्रन्थ मुनिः ] [नगरम्] १०५,२२३ [राजपुत्रो राजा रामचन्द्रः] ३२५-२६ नंदा नंदिवरण मंदिसेण १६५-६६ २७० १.९ २०. नंदिसेण [राजपुत्रः] ३३३ नंदीसर द्विीपः] २८०-८१,३५९ नाग [श्रेष्ठी] नागकुमार [देवः] १८२ नागदत्त [राजपुत्रः] नागश्री [ब्राह्मणपत्नी] ४३.४६ नागसिरी ४३,१४,५६ पहाकर [ब्राह्मणः] १७९ १७८ पहाकर [पुरोहितपुत्रः] पहास [तीर्थम् ] पहासरि [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] १०७ पंचनदी [श्रेष्ठी] २६,२७,१८८ नाणगन्म [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] १.८ [अमात्यः ] २०१-२ नारअ-द-य[निग्रन्ध-मुनिः] १६.५९, ७२-७४,७६ पंचाल [देशः] ३२९ पंडिया [धात्री १४३,१४५-४६ [राजा] १६,३१८,३२० पंडुमहुरा [नगरी] १६,३१८-१९ पंडुसेण [राजपुत्रः] १६ पाडलय [मालाकारः] २९९,३.. पाटलिपुत्त [नगरम् ] ६१,१२४,१४५, २०२,२०,२०८, २९९,३००,३०४, elili lii IT पउम [देशः] पउमकेसर [राजपुत्रः] पउमगुम्म [विमानम्] ७५ पउमनाह [राजा] [तीर्थकरः] ११० पउमप्पह ३२३ पउमरह [राजा] २८०,२८२ पउमसर [सरः] १०८ पउमसेहर [राजपुत्रः] ३२४ पउमावई [नगरी] [राजपुत्री] , [राज्ञी] २७७,२९३,३४३, ३५४,३५६-५७ पउमिणी [मालाकारपत्नी] ११४ पउमुत्तर [नगरम् ] १३७ " [राजा] १०९-१२, १६८-६९ [राजपुत्रः] [राजा] १. पएसि ३२६ पङ्कजमुख । [श्रेष्ठिपुत्रः] १३१,१३३ पजास्य, पर्वतपुर [नगरम्] पज्जुन [राजपुत्रः] ७५-८०,३११ पजोय [राजा] पत्तदेवया [देवी] १०६ पन [राजपुत्रो राजा- ३२२ रामचन्द्रः] २४,३२६ पद्मोत्तर [राजपुत्रो राजा] १०४,१०८,११३ पनत्ती [विद्या] ६८,७८-८०, २४०,२८. नारायण [कृष्ण-वासुदेवः] ७९ निउण [निग्रंन्य-आचार्यः] १४६ निकरुण [सारथिः] निग्षिणसम्म ।[ब्राह्मणः] सुड निम्ममत्त [तीर्थकरः] मिलवेअ [विद्याधरपुत्रः] ८६,८७,८९ अनिलवेग । निम्बुड [देवी] ४७,४८ निसढ [राजपुत्रः] [सुभटः] निसीह [जैनागमः] १२५ नपुरपण्डिता [श्रेष्टिपुत्री) १३५.१८८,१९१ नेपाल [देशः] १८३ नेमि+चंद, [तीर्थकरः] ८०,२४०,२६८ +माह ३१२-१४,३१५, ३१९-२१,३५३- पार्थ २४. पारासर [प्रामणः] २६८ [तीर्थकरः] ३५१-५२ पार्श्वदेव [निम्रन्थ-गणी, टीकाप्रशस्ती] ३७० *पास पास [तीर्थकरः] ३५१ पास+कुमार, १.५-८,१२०, जिण, नाह १३५, १८२,२२२, ३२३,३२६,३५१ ५२,३६७ पिप्पलाअ [ऋषिपुत्रः] २१६ पियदंसण [राजा] २४९ पियदसणा [राज्ञी] २.८ पियमइ [राजकुमारी] २४९-५०,२५३ पियंकर [श्रष्ठिपुत्रमित्रम् ] २६ पियंकरा [दासी] २५-२७,१९७,२३. ४८ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ प्रथमं परिशिष्टम् नाम " ८४ पत्रम् भद्दा [सार्थवाहपानी] १८५ १८५ भद्दा [श्रेष्ठिपत्नी] २०,२१,३० ३५,४५,२३१ [राजपुत्री] भहिलपुर [नगरम् ] ३५३ भद्दुलअ [राजपुत्रः] १६-१७ भद्रा [ सार्थवाहपत्नी] १८४ भरत [नटपुत्रः] [राजपुत्रः, रामचन्द्रभ्राता] ५७ [चक्रवर्ती] ८१,९०,३२६, ३ माम किम् ! पत्रम् पियंगु [प्रामः] २१३ पियंगुलया [दासी] [सुभटः] पुक्खल [राजपुत्रः] पुनकलस ३५३ पुनभद्द [श्रेष्टिपुत्रः] पुभवसु [दासः] ६८,६९ पुष्पचूल [सङ्गीतकारः] १८४ - [राजा] ३२९ पुष्फदंत [सुभटः] ८४ पुष्पदंती [राज्ञी] ४७,५३,५४ पुरिसोत्तम [कृष्ण-वासुदेवः] ५३ पुष्वविदेह [क्षेत्रम्] पुष्पक [विमानम्] ५८ पुंडरिगिणी [नगरी] पुंडरीय [राजपुत्रो निम्रन्थ मुनिश्च] पोटिला [अमात्यपस्नी] ३४३-४४ पोतनपुर [नगरम् ] पोयण+पुर , ५६,१६४-६५ प्रदेशि [राजा] ३२६ प्रद्युम्न [राजपुत्रः] प्रभवसरि [निन्थ-स्थविरः] ९७ प्रभाकर [ब्राह्मणः] १७८-७९,१८१ प्रसनचन्द [राजा, निर्ग्रन्थ मुनिः ] १६१,१६४ नाम किम् ? पत्रम् बंधुदत्त [श्रेष्टिपुत्रः] २४४,२७६, २८५,२८७,२८९ २७६ बंधुमई [कुटुम्बिपत्नी] १००-१ [श्रेष्ठिपुत्री] बंभ [राजा] ३२९,३३१ बंभदत्त [चक्रवर्ती] ३२९-३१ बंभदीवया । [तापसशाखा, बंभदीविया । निग्रन्थशाखा च] १७४ बंभलोअ-क, [देवलोकः] १६,१६०, २८०,३२१ बंभसंति [यक्षः] १२. बंभी [निप्रन्थिनी] बारवई [नगरी] ७२-७४,७७,७९, १२१,२४०,२६८, ३११-१२,३१४, ३१८,३२०,३५२ बालचन्द [राजपुत्रः] बाहुबली ८१,८३,८४, ८६-८९ विधायड- [नगरम् ] ११,१३,११बेना ४३,९३ विभीषण [राक्षसवंशीयः] ५८-५९ बिंदुसार [राजा] १२४ बुद्धदास [श्रेछिपुत्रः श्रेष्टी च] ६५,६६ बुद्धाणंद। [बौद्धश्रमणः] १७२-७३ बुद्धदास। बुद्धिसार [अमात्यः] बृहद्गच्छ [निर्ग्रन्थगच्छः, टीकाप्रशस्तौ] ३६९-७० भरह ८१,३२१-२२,३२६ भरह+नाह,वइ, , ५१,८१-८५, ८७"हेस, हेसर ९०,३२२-२३ [नटपुत्रः] " भरह १६१ [क्षेत्रम्] १,३६,५६,७२, ७३,७६,१७,१२०, १४०,१५२, २१०, २३५,३११, ३२२, ३३१ [नगरम्] ७२,१७२-७५, भरुयच्छ फलहियमल [मलः] ११३ भवनपति [देवजातिः] भवंतकर [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] १६. भंडीरवणचेइय [ चैत्यम् भाणु [श्रेष्ठी] १९३-९५,२१०, २१७ [अमात्यः] ३१५,३४७ [राजपुत्रः] ७८,८० माणुसिरी [श्रेष्ठिपत्नी] १९३ भारभूइ [कापालिकः] १.६ भारह [क्षेत्रम्] १८,१३५.१७०, १९७१११२६८ भावट्टिका-या। [श्रेष्ठिपुत्री] १८५,१९३-९५, बालवंडिया । २१७,२८५,३२१ [पुरोहितः] २७५ *बउल [मालाकारः] बउल-कुल ११३-१४ बउलदत्त [ब्राह्मणः] बउलमई [राज्ञी] ३६३ बल+देव,भह [राजपुत्रः कृष्ण- ७१-७५, वासुदेवभ्राता ] २४०,३११, ३१४-१५,३१७ २०,३५४ बलकुट्ट [मातशः] बहली [देशः] १५२ भइरवाणंद [कापालिकः] भगवई [जैनागमः] [श्रेष्ठी] ११,१३ भद्दजस [निर्ग्रन्थ-गणधरः ]२५८,२६. भद्दबाहु [पुरोहितपुत्रो निग्रन्थ-स्थविरश्च] ३०५-६ भदवई । [हस्तिनी] १५,१६ भद्रवती मिगु भिगु [ब्राह्मणः] Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नामकारादिक्रमः २६ नाम किम्? पत्रम् भिभसार [राजपुत्रः, श्रेणि कापरमामा ] ९१. भीम [सुभटः] ८१ भीमरह [राजा] १७,५१,५३-५५ भुवनश्री [राज्ञी] १३२ भूतलानन्द [नगरम् ] भूयदिन [मातङ्गः] भूयसिरी [ब्राह्मणपत्नी] ४३ [पुरोहितः] २७५-७६ मेसई - [राजा] ३४७ २२१ *मल्ल नाम किम् ? पत्रम् नाम किम्। पत्रम् मयणतेरसी [उत्सवः] माथुर [वणिक] १८४-८५ मयणरेहा [राज्ञी] २७८-८२ मायाइच। [कुटुम्बी] २२२-२५ . [राजपुत्री] २८७-८८ गंगाइच । मयणसेणा मायादित्य , .. २१८,२२२,२२५ [राज्ञी] २००-१ मारावल्ली [प्रामः, टीकाप्रशस्तौ] ३६९ [निग्रन्थ-आचार्यः] १५४ मालव [देशः] मालवमंडल [राजा] , मयरद्ध [निग्रन्थ-स्थविरः] १६८ माहव . [ब्राह्मणः] १५२ माल+वाइ, वादी , १६८,१७२-७४ माहिद [देवलोकः ] ___ +रि माहुर [वणिक्] १९९ मलि [तीर्थकरः] १८५ महन्बल [राजा] २० मिगावई [राशी] ३८,१६७ महसेण [सुभटः] " [राजा] १५७,१५९, मित्तवई [श्रेष्टिपुत्री] २१२,२१७ १६०,२०३ मित्ताणंद [श्रेष्ठिपुत्रः] २०१-५,२०७महाकाल [देवः] १५७-५८ ८,२१. [कापालिकः] २९२ * , ३०० महापउम [चक्रवर्ती ] १६८-७० मित्राणन्द ३०१,३२१ महाविदेह [क्षेत्रम् ] ७५,२३८.३२९ मिहिला। [नगरी] २८२-८३ महावीर [तीर्थकरः] ३६.६८,१११, महिला ११८, १२७.२३६ मुणिचंद [निग्रन्थ-मुनिः] २२१ ३७३३४,३५१-५२ , [श्रेष्टिपुत्रः] महासणंकुमार [ देवलोकः] , [राजपुत्रः, निर्ग्रन्थ-मुनिः] ३५५-५९ महिमा [श्रेष्ठिपानी] २२-२४ मुणिसुवा-य [तीर्थकरः] १६९.३२३ महिला । [नगरी] २८०,२८२-८३ मुसियार [श्रेष्ठी] मिहिला मूलदेव [राजपुत्रः] महिंदविक्कम [विद्याधरराजा] २११ ३६.३८,३९, ११-१३ महिंदसीह [अमात्यपुत्रः] ३६३३६५ ३५ महु [राजपुत्रो राजा च] ७५,७७ मूला [श्रेष्ठिपत्नी] * , महुमहण [कृष्ण-वासुदेवः] ७४,७७,७९, मृगावती-पती[राज्ञी] ८०,३१८ मेघ+कुमार [राजपुत्रः] २२७-२८,२३८ महुरा [नगरी] १२०,१८२,१९७ मेतार्य मातङ्गपुत्रो राजा, २४१,३५१, मंगलउर [नगरम्] निर्ग्रन्थ-मुनिश्च ] ३५४,३६२ मंगला [राज्ञी] मेदपाट [देशः, टीकाप्रशस्तौ] ३६९ [दासपत्नी] १५५.१५७।। मेयज [मातापुत्रो राजा, मंजुलावई [नगरी] २४९ निर्ग्रन्थ-मुनिश्व] ३५९-६२ [तीर्थम् ] मागहिया [गणिका] [पर्वतः] माणिभद्द [श्रेष्ठिपुत्रः] [हस्ती ] [श्रेष्ठी] २२७ मेरुप्रभ [श्रेष्ठी] १३१ मइरा [श्रेष्ठिपुत्री] २५,२९ मइसायर [राजपुत्रमित्रम्] [अमात्यः] मक्षिकामल [मल्लः] २६१,६२ मगहा [देशः] ९९,११४,२६८ मगहापुर [नगरम्] *मच्छमाल [मः] मच्छियमल , २६१ मझदेस [देशः] २४५ मण-ग, य [ब्राह्मणपुत्रो निर्ग्रन्थ मुनिश्व] मणिचूड [राजा, निर्ग्रन्थ-मुनिः] २८०-८१ मणिप्पह [राजपुत्रः] २८० मणिरह [राजा] २७८,२८१ मणोरमा [राज्ञी] २१५ मोर शेष्ठिपुत्रः] १८० मणोहर [राजपुत्रः] ३२४ मत्तकोइल [उद्यानम्] २०१ मत्तियावया-वह [नगरी] २४८-१९ मत्स्यमाल [मलः] २४४ मधु [राजपुत्रो राजा च] ६८,८० *मनोरमा [श्रेष्ठिपत्नी] ४६ मनोरमा [कर्षकपत्नी] ३४९-५० , [श्रेष्ठिपत्नी] ४६,६५ , -मणो० , १४१,१४४-४५ मनोरथ [कर्षकपुत्रः] ३४९ मम्मण [राजा] ५५,६८ २२८ मागह २७३ मेरु ६९ मेरुप्पह Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ नाम मेह + कुमार मेहकुंड मोढचैत्यगृह मोरियवंस किम् ! राजपुत्रः ] [ यव यशोनाग युगादिजिन [ तीर्थंकर ] २३०-३८,३३३ 33 [ नगरम् ] ७५-७८ [ चत्यम्, टीकाप्रशस्तौ ] ३७० [ राजवंश ] १२४ रइके लि [ विटः ] रविलासा [गणिका ] य १४७ [निर्धन्य मुनिः ] [श्रेष्ठी, टीकाप्रशस्ती] ३७० १ रइसायर [ श्रेष्ठी] रसुंदरी [ राज्ञी ] रत्नचूडचरित [जनशास्त्रम्, सूर्यकान्ता } रहनेउर रहमद्दण रमित टीकायास्ती ] [ नगरम् ] रयणमाला [ राशी ] रयणरह [ राजा ] रयणसार रत्नपुर रमणउर-पुर रमणचूड [ राजपुत्रो राजा च ] रमणचूड[ कहा ] [ जनशानम् ] रणदीव [ द्वीपः ] रयणप्पहा [ नरकः ] रयणमंजरी [ राजपुत्री ] " 33 [ श्रेष्ठी ] रयणसेहर [राजा ] रयणावह *रविता रविकंता 1 सूरियता [ नगरम् ] राशी ] 33 [ नगरम् ] पत्रम् २२७ [] ६२-६४ १८०-८१ २४४ २४ ३६९ १३१ १७६, १८०, १९३ ११४ ११४ २४,१५ ३३४ २०३-४, २०६-१० ११४,१९३ १८० १७६ २०२-३ १९३ २८० ३२६ ३२६,३२८-२९ ३२६,३२९ ८६ २४५, २५२, २५५-५६ ५३,५४ प्रथमं परिशिष्टम् नाम किम् ? रहावत्त [ पर्वतः ] १७१ राजपुर [ नगरम् ] १३१ राजहंस [ राजपुत्रः ] १४८, १५५,१६० राम [ राजपुत्रः, कृष्णवासुदेवभ्राता ] ७३, ७९,३२२,३२५, ३४५-४६ ३२१,२४४ [ राजा, दशरथपुत्रः ] राम+एव, चन्द्रदेव रायगिह रायनंदन रायम रायहंस "3 रुक्मिणी रुद्ददन्त रूपिणी ४६, ५७-६१, १३२-३४, ३२५-२६ [ नगरम् ] ९, ११-१४, १६, २०,३०, ८१,९५ - १००, [११४,१२६-२७, १४९, १६५,२२९,१४३,२६४, २६९,३३२,३३४,३५९, ३६१-६२ [उद्यानम् ] [ राजपुत्री ] [ राजपुत्रः ] राह रिउनम रिट्ठउर रिनेमि रिसह + देव. सामि नाद, - "हेस, हेसर रिसिदसा " रावण दशमुख राक्षसवंशीय राजा ] ५७,६०, ६१,१३४ ३५९ [ निग्रन्थ-आचार्यः ] [ राजा ] [ नगरम् ] [ तीर्थंकर ] पत्रम् २६ ३१३ १५६-६० १४८ " ५३ १३९ १२१,३९३ २०,८२-८५,८७, ८९,९०,९८, १००-१, ११४,१५५३२२-२३ [ तापसपुत्री ] २५०-५४, २५६-५८,२६०-६१ २४४ [ राजपुत्री, राशी] ६८, ७१.८० [ वणिक् ] २१४,२१६ [ राजपुत्री, राज्ञी ] ७२,७३, ७५ ७७, २४६, २५१५२,२५४-५७, ३११, ३१७,३२० ६८ "" रूप्पी [ राजकुमारः, राजा ] ७२,७३,७९ माम रेणुमा रेवय रेवय+ग रेवा [ उद्यानम् ] २६८, ३१२,३५३ [ नदी ] रोह+अ, क [ नटपुत्रः ] रोहण रोहिण+अ रोहिण रोहिणी 30 रोहिणी रोहेडय रौहिणेयक लक्खण लक्षण लक्ष्मण किम् ? [ आभीरपत्नी ] [ पर्वतः ] लोनंदि } लछिमनाम [ ग्रामः ] समई लच्छी 23 [94] [ चौरः ] *वइर [ श्रेष्ठिपत्नी ] बहरबंध इरसामि " [ चौरपरनी] [ राशी] [[]]] [ देवी ] [ राशी ] लच्छीतिलय [ नगरम् ) ललिता [ *ललियंग " ४६ १२७ २१८,२५४ ५५ [ नगरम् ] [ चौरः ] [ चौरः ] १२५, १२७, १२९ ल [ राजपुत्रः ] ललियंगअ " ललियंगय [ देवः ] लंका [ नगरी ] लाड [ देशः ] लीलावई [ राजपुत्री ] लोभनंदि-लोह ० [ श्रेष्ठी ] लोक्चुर [ चौरः) ● लोजप [ लेखाचार्यः ) "" पत्रम् ५६ ३१२ ९.७ ३-७ १५३ [ श्रेष्ठी] [ परिब्राजकः] व १२७-२९ १२५,१२७ ४६,६१-६५ ५७,५८,६०,१३३ ३२५ २६३,२६५,२६७ २६२ २६६-६७ २० ५७,३२५ ७२ १०५ २१९,२२५ १२७ १५ २१८ १३९ ७१ ७२ ९६ १६९ २८५ [निग्रन्थ स्थविर ] १६८ २० [ राजा ] [निर्धन्य स्थविरः] १००, १७४ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ पत्रम् " विशेषनाम्नामकारादिक्रमः नाम . किम् ? पत्रम् वसुमई [राजपुत्री] वसुमित्ता [ब्राह्मणपुत्री] वाउभूइ [ब्राह्मणपुत्रः] वाडिपुरी [नगरी] वाणारसी , १०८,२१६,२२० २२, २७०, ३४६, ३५१ वालुयपहा [ नरकः] ३२० वासवदत्ता [राजपुत्री] १५,१६ वासुदेव [कृष्ण-वासुदेवः] १६,६८,७३, ७५,१२१,२४०, २६८, ३११,३१३,३१५,३१७, ३५४ वासुपुज [तीर्थकरः] २१०,३२३ वासुलदेवी [राज्ञी] २४६ विउसभूसण [राजपुत्रमित्रम् ] २९५-९६ विउसाणंद [लेखाचार्यः] ३२९ विउसाणंदण [राजपुत्रमित्रम् ] . २९७ विकमसेण [राजा] विकमाइच , विचित्र [निग्रन्य-मुनिः] ५७ विजय [पर्वतः] - [विमानम्] [राजा] ३३५,३३७,३४० नाम किम् ? पत्रम् वक्कलचीरी [राजपुत्रः] १६४-६५ वच्छा [देशः] १५,११६,१२३ वजंगय [राजपुत्रः] ३२४ बजकर्ण [राजा] बजजक वडउर [नगरम्] वाकर [यक्षः] १७४ वहलि [ऋषिः ] २१६ बद्धणपुर [नगरम्] १५२ वद्धमाण १३५ वद्धमाण+सामि [ तीर्थकरः] १३,२४,३४,९६, ९८,१०३,२३३,२३९, २६४,३२३,३४५ बनमाला [राज्ञी] बम्मा [राज्ञी] १३५३५१ वरदत्त [श्रेष्ठी] [निग्रन्थ-मुनिः] ७७,३१२ वरदाम [तीर्थम् ] ८२ वरधणु [अमात्यपुत्रः] वराडग [देशः] वराहग्गीव [राजपुत्रः] . २१५ वराहमिहिर [पुरोहितः ] ३०४-५,३०७ बलहि [नगरी] १७२-७३ वालहराय [राजा] १०७ वसंतउर-'पुर [ नगरम् ] १८,२५,९४,१६१, १७७, १८५-८५, १८८,१९७,२०१, २०८,२२५,२६५ वसंततिलया [गणिका] २०४ वसंतदेव [श्रेष्ठिपुत्रः] २५-२९ पसंतपुर [प्रामः] १०० वसंतसेणा [गणिका] २१,२३,२१२, २१७ [श्रेष्टिपत्नी] २८५ वसुदत्त [श्रेष्ठिपुत्रः] १३०,१३३, २८५-८६, २८८-८९ वसुदेव [राजपुत्रो राजा च] ६८,७०,७१, ३१८-१९ वसुनन्दा [श्रेष्ठिपत्नी] १३० नाम किम् ? विन्हुमित्त [पुरोहितः] ३०५ विन्भमवई [राजपुत्री] १०९ विमल [तीर्थकरः] विमलवाहण [निग्रन्थ-मुनिः ] ७७ वियम्भ [देशः] विरिचि ।[देवः] हिर जगभ विलासवई [राजपुत्री] विल्लूरपुर [नगरम् ] विशल्या [राजपुत्री] विष्णु + कुमार[ राजपुत्रो निग्रन्थ मुनिश्च] १६८,१७० विसाला [राजपुत्री] विझ १९१,१९५ १५१ विजयधम्म [राजा] १०४-५ विजयसिरी [श्रेष्टिपुत्री] विजयसेण [विद्याधरपुत्रः] विजयसेहर [राजपुत्रः] विज्जुमाली [ऐन्द्रजालिकः] . विणयंधर [निग्रन्थ-आचार्यः] ३६५ विण्हु [कृष्ण-वासुदेवः] ७५ *, [राजपुत्रो निग्रन्थ-मुनिश्च] १६८ विण्हु+कुमार , १६८-७० तिविकम विण्हुदत्त [वणिक्] १५१ विदेह [क्षेत्रम् ] ३५,१४७,१५३, २४० विदेहा [देशः] विद्धवाई [निर्ग्रन्थ-स्थविरः] १७१ विसा [श्रेलिपुत्री] १५०-५१ विसेसय [ग्रामः] २२. विस्सभूइ [तापसः] २४९-५० विस्ससेण। [राजा] वीससेण । विहल [राजपुत्रः] [पर्वतः] *वीर [तीर्थकरः] १,६८,३५१ वीर , १,२,३४,३५,३८, ६८, ९५-९७, ११५, १२७,१२९,१६५,१६७, १७१-७२,१७५,२३२३५, २३८, २६४-६५, २७५,३३३-३४,३५१ ५२,३६१-६२ वीरचरित्र [जैनशास्त्रम्, टीका प्रशस्तौ] ३६९ वीरनाह [तीर्थकरः] *वीरमई [राज्ञी] वीरमई-ती , ५५,५६,६८,७१ [शालापतिः] १२१ वीरसेण [राजा] ७७,२९२ वीरंगय [राजपुत्रः] ३२४ वृषभ [श्रेष्ठी] २६८ वृषभजिन [तीर्थकरः] ३२६ वृषभध्वज [राजपुत्रः] १३२-३४ वेईसर [ब्राह्मणपुत्रः] ३४५ वीरय Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम पत्रम् २१४ ३६७ वेभार ३२. बेय संपइ २२० " " १६८,१७५ समित संभूय ३८२ प्रथमं परिशिष्टम् किम् ? नाम किम् ? पत्रम् वेगवई [नदी] सञ्चभामा [राज्ञी] ७२,७४-७६,७९, वैजयंत [देवः] ८०,३११,३१३ वेना [नदी] १७४ सच्चवाई [यक्षः] १९. [पर्वतः] ८१,१२७,१२९, सञ्चसिरी [कुटुम्बिपरनी] २०९-१० सणंकुमार [चक्रवर्ती ] २२१३६३,३६६ [ब्राह्मणपुत्रः] ३४५ बेयगन्भ - ३४५ सनत्कुमार ३५१,३६२,३६७ वेयड्ढ़ [पर्वतः] ७४,७७,७८ सप्तच्छद [राजा] १३२ २११,२३६ सबल [बलीवर्दः] १७८,१८२ वेयन्म [नगरम्] ५१,५३,५५,५६ * ,, १७८ वेयमित्त [ब्राह्मणपुत्रः] ३४५ समरकेउ [राजपुत्रः] ३२४ वेयरूव ३४५ समंतभद्द [निग्रन्थ-आचार्यः] २१८ वेयसाम , [, मुनिः ] ३.१ वेबसार ३४५ समाहिगुत्त , , वेसमण [श्रेष्ठी] २०१ *समिय [, स्थविरः] १६८ वेसाली [नगरी] २७३ समियज। वैर + स्वामी [निग्रन्थ-स्थविरः] १६८, १७०-७१ समुद्दविजय [राजा] ७०,७१,३११-१३ व्याख्याप्रशप्ति [जैनागमः, समुद्रदत्त [श्रेष्ठी] १३०,१४९,१५१, टीकाप्रशस्तौ] ३७० २८५ सम्प्रति . [राजा] १२३,१२५ शङ्ग [राजा] ३२६,३३४,३४३ ।। सम्भूत [मातापुत्रो, शतानिक निग्रन्थ-मुनिः] २१९,२२१ शम्बकुमार ।[राक्षसवंशीयः] ५७,५८ सम्मेयसेल [पर्वतः] सम्बकुमार , सयडाल [अमात्यः] शय्यम्भव [ब्राह्मणो निर्ग्रन्थ-स्थविरः] ९७ सयपाग [तैलम् ] शालिग्राम [प्रामः] ३०८ शालिभद्र सयाणिय-णीय [राजा] ३६,११६,१६० [श्रेष्ठिपुत्रः] १५,३० शौरि सरयसिरी [राजपुत्री] १२४ [राजा] ६८,६१,७१ सरस्वती देवी] श्रीकान्त [श्रेष्ठिपुत्रः] १३०,१३४ सरस्सई [अमात्यपत्नी] ३४५-४६ श्रीचन्द्रसूरि [निर्ग्रन्थ-आचार्यः, सम्वट्ठ + सिद्ध[ देवलोकः] २०,४४,२१० टीकाप्रशस्तौ] ३६९ सब्वत्थ [श्रेष्ठी] २१२ श्रेणिक [राजा] ३,९५,२२७, ससिसेहर [राजा] २२८,२८५ ३२६३५१ सहदेवी [राज्ञी] ३६३ [श्रेष्ठी] १०८ *सउरी [राजा] [राजा] २२१,२७०,३३५, *सगर [चक्रवर्ती ] ३२१ ३३७,३४०-४१ सगर। ३२२,३२४-२५ ३२६ सयर) संख + उर [नगरम् ] २५,२८,२९, [निर्ग्रन्थ-मुनिः] ३३४,३४२ नाम किम् ? पत्रम् संखपाल-बाल [यक्षः] २८,२९ संगमअ-य [कुलपुत्रः] संगमय [देवः] ११५ संगय [राजपुत्रः] संगरपुर [नगरम्] ५५ संगा [श्रेष्ठिपत्नी ] संति + नाह [तीर्थकरः] २९,३०,३२३ संदणपुर [नगरम् ] २९९,३०३ [राजा] १२५-२५ १२३ संपया [श्रेष्ठिपस्नी] संपुल कञ्चुकी] संब [राजपुत्रः] ८०,२४०,३११, ३१५३१७,३२० [तीर्थकरः] ३२३ संभूइ [मातंगपुत्रो निर्ग्रन्थ-मुनिश्च] ३२९ *संभूत २१८ २२१,२७५ संभूयविजय [निर्ग्रन्थ-स्थविरः] १८३ साकेम-य [नगरम् ] १६५,२२१,३५४ सागर + अ [श्रेष्ठी] ४४,४५ सागरचंद [राजपुत्रः] २४०,३५५ २३८ सागरचन्द्र २४०-११ *सागरदत्त [श्रेष्ठी] २६२ सागरदक्त-सायर०, ४४,४५,१५०-५१, २६२-६१ सामाइअ [कुटुम्बी] सामि [वर्धमानस्वामी तीर्थकरः] ३३३ सायर [अमात्यपुत्रः] १९३ सार्वभूति [निर्ग्रन्थ-आचार्यः] ६१ सालिगाम [ग्रामः] ३०,६९,७६, १२८-२९, २२२ सालिभद्द [श्रेष्टिपुत्रः] १७,३०-३५ सावत्थी [नगरी] ३२६,३४५ *सावित्ती [ब्राह्मगपत्नी] ३४४ सावित्ती ३४५ [पुरोहितपत्नी] ३.५ [देवी] सावित्री [ब्राह्मणपत्नी] १६८ संख Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ पत्रम् सुबुदि नाम किम् ? पत्रम् सित्तुंजय [पर्वतः] . १५५ *सिद्ध [निग्रन्थ-स्थविरः] १६८ सिद्ध [नमित्तिकः] सिद्धउत्त [लेखाचार्यः] १९७ सिद्धत्थ [राजा] ९६,२३३,३२३ , [सारथिः] ३१४,३२१ सिद्धनाग [श्रेष्ठी, टीकाप्रशस्तौ ] ३७० सिद्धपुत्त [नमित्तिकः] सिद्धसेण [ब्राह्मणो निग्रन्थ-स्थविरश्च] १७१-७२ सिद्धसेनदिवाकर , १६८,१७१-७२ सिद्धार्थ [राजा] , [वणिक्] ३५२ सिप्पनई-सरी। [नदी] ४,५,२०१ सिप्पा सियजस [राजा] १४० सिरिउर [नगरम् ] २४,१५४ सिरिकंठ [देशः] १५६ सिरिकंठ ।[देवः] २६१ ७. " विशेषनाम्नामकारादिक्रमः नाम किम् ! पत्रम् सिहल+दीव [द्वीपः] ६३,२८७-८८ *सीया [राज्ञी] सीया-ता , ४६,५७,५८,६०, - ६१,३२५-२६ सीमंधर+सामि [ तीर्थकरः] ७६,७९,३७० सीयल ३२३ सीलमई [राजपुत्री] २९४-९५, २९७-३००,३०२-३ सीह [सुभटः] सीहक [कर्षकः] सीहगिरि [राजा] सीहबल १६९ सीहरह [सेनानीः] ८५,८६,८९ [राजपुत्रः] २५८ सीहविक्कम , सुकुमारिका-'लिका [राज्ञी] १८४,१८६-८७ सुकुमालिया १८६-८७ १८४ सुकुमालिया [विद्याधरपुत्री] २११ [श्रेष्ठिपुत्री] - ४४,४५ सुक [देवलोकः] सुग्रीव [वानरवंशीयः] ५८,६१ १३३-३४, सुजसा [राज्ञी] २४६ सुज्जहास [खड्गः] ३२५ सुतारा [राज्ञी] सुस्थिय [निग्रन्थ-आचार्यः] १००,२२६ सुदर्शन [श्रेष्ठी] ४६.६५,१३०, १४०,१४६ *सुदसण १३. सुदंसण १४१-४६ [श्रेष्ठिपुत्रः] , [श्रेष्ठी] १९१ [नगरम्] २७८,२८१ ममणा सुदंसणा [राज्ञी] २८५ सुद्धड [ब्राह्मणः] ४१,४३ निग्घिणसम्म । सुधण [श्रेष्ठिपुत्रः] २४,२५,३० सुधणु [श्रेष्ठी]. २२ सुधम्म-हम्म [निग्रन्थ-गणधरः]:९७,२६९ नाम किम् ? सुनंदा [श्रेष्ठिपुत्री, राज्ञी] ११-१३, २०,९९,१९,२२९ सुन्दर [कर्षक:] ३४९ सुपाससामि [ तीर्थकरः] ३२३ सुप्पणहा [राक्षसवंशीया] ३२५ सुप्रभा [निर्गन्धिनी] [अमात्यः] २८५,२८८ सुभग [दासः] १४०-११ *सुभद्दा [श्रेष्ठिपस्नी] सुभद्दा २१०,२१७ [राज्ञी] [प्ररिवाजिका] २१६ सुभद्रा [श्रेष्ठिपत्नी] १६,६५,६७ सुमइ [अमात्यः] १९३,३०५ [तीर्थकरः] ३२३ सुमंगल [राजपुत्रः] ३३१-३२ सुमिण [यक्षः] सुमुह [दासः] सुमेरुप्पह [हस्ती] २३६ सुरट्ठ [देशः] २२५,२६१ सुरपिय [यक्षः] १९५ सुरपिय । चित्तपिय । सुरवरतरंगिणी [नदी-गङ्गा] १.८ सुरिद [श्रेष्ठी] १९३-९४ *सुलसा [रथिकपस्नी] ३२४ 111111111 112 : 34. . . 11111111 11 ८२ सुलसा सिरिचंद [राजपुत्रः] १५६,१५९ सिरिदेवी [देवी] [श्रेष्टिपुत्री] १५२-५३ [राज्ञी] ३३६ सिरिधम्म [राजपुत्रः] १५२-५३ [राजा] सिरिपब्धय [पर्वतः] १०६,२९१ सिरिमई [श्रेष्ठिपुत्री] १०१ सिरिमंगल [देशः] सिलागाम [प्रामः] सिव [वणिक्पुत्रः] २२५ सिवएवी-देवी [राज्ञी] ७१,३१३,३५४ सिवादेवी सिवचंदा [विद्याधरपत्नी] सिवभद्द [वणिक्पुत्रः] २२५ सिवमंदिर [नगरम्] २११ सिवा+देवी [राज्ञी] १५,१६ सिसुपाल [राजा] सिंधु+देवी [देवी] ८२,३३९ सिंहकेसरअ-य [ मोदकः] २३,२६८ सिंहजस [राजपुत्रः] . ૧૮૮ [परिवाजिका] २१६,२५१ , [श्रृष्टिपत्नी] सुवमजालेसर [ देवः] [तीर्थकरः] ३२३ सुवेग [सुभटः] [दूतः] सुन्वअ-य [निग्रन्थ-आचार्यः] १६९ सुब्बया [निग्रन्थिनी] २१८,२८२ सुसीमा [नगरी] १८५ सुसेण [सेनानीः] ८५-८७ सुसेणा [राजपुत्री] सुहत्थल [प्रामः] १५३ २१५ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् नाम सेदुअ * ., सेदुव+क सेयणय सेयविया किम् ? पत्रम् [ब्राह्मणः] ११६ ११३ , ११३,१२० [हस्ती] २३,३२,२३२ [नगरी] १०४,१०७,३२६ हरि सुंब माम किम् ! पत्रम् सुहम्म। [देवलोकः] २०,५६,७०,७६, सोहम्म ७७,८६,११८-१९, १५२,२०९, २३९ ४०,२८३,३२९ सुन्दरपाणि [राजा] २४६,२५१,२५४ सुन्दरी [निग्रन्थिनी] [अन्तःपुरमहत्तरा] [राज्ञी] २५,३८ [राजकुमारः] सुंसमा [श्रेष्टिपुत्री] सूमिका [कर्षकपुत्रवधूः] सरदेव [स्थपतिः] सरियकंत [राजपुत्रः] सुरियकता। [राज्ञी] ३२६,३२८-२९ रविता ॥ सुरियाभ [देवः] [विमानम् ] सूर्यकान्ता। [राज्ञी] ३२६,३२९ रविकान्ता सेज्जभव [ब्राह्मणो निर्ग्रन्थ स्थविरश्च] ९७-९९ mom २०३ ४३ ३२६ ३२९ सेयंस [तीर्थकरः] ३२३ सोदास (विद्याधरः] सोदास ।[राजा] १८४-८६ नराअ-द सोपारय [नगरम् ] २०३,२६१ सोम [ब्राह्मणः] सोमचंद [राजा] सोमदत्त [ब्राह्मणः] सोमदेव १,७६,१३५ सोमपह ,१३५-३६,१३८,११० १३० सोमप्रभ १३०,१३५,१४० सोमभूइ १३ सोमसम्म ३५३-५४ सोमा . [पुरोहितपत्नी] ३.५ सोरट्ट [देशः] १५५,२६८ सोरियपुर [नगरम् ] ७०,३१३ सोहम्म। [देवलोकः] २०,५६,७०,७६, सुहम्म) ७७, ८६, ११८-१९, १५२,२०९,२३९-४०, २८३,३२९ . सौधर्म नाम किम् ! पत्रम् हस्थितावसासम [आश्रमः] १.३ हनूमत् [वानरवंशीयः] ५८ [कृष्ण-वासुदेवः] ७३-७६, ७९,८०,१२१,१२३, २६८,३५१ १२१ हरिकेशि-केश [मातङ्गपुत्रो निग्रन्थ-मुनिध] २७०-७१ हरिकेसबल २७१ हरिकेसा [मातङ्गजातिः] २७१ *हरिकेसि [मातापुत्रो, निम्रन्थ-मुनिश्च] २७० हरिवंश [जैनशास्त्रम् ] ७१,८०,३२१ [राजवंशः] ३१९-२० हरिसउर [नगरम् ] २०१,२९३-९४ हरिसीह [श्रेष्टिपुत्रमित्रम्] २११ हरिसेण [राजा] २४८-५०,२५४ हलहर [राजपुत्रो बलदेवः] ७४,७६,८० __, ३१६,३१८,३२० हलाउह [राजपुत्रः] ३३३ [द्वीपः] हारप्पहा [सार्थवाहपुत्री] १९७-१९ हिमवंत [पर्वतः] हिरभरोम [तापसः] २११ हिरिमंत [पर्वतः] २११ हुयवहजाल [नगरम् ] हुंडिय [राजा-गुप्तनलराजा] ५४ हेमकूड [धातुवादी] १३८ हेमरह [राजा] २४६,२५१,२५८ हेमवभ [क्षेत्रम् ] हंस सेडवक [ब्राह्मणः] सेणग-'य [अमात्यपुत्रः तापसश्च] ३३१-३२ *सेणिय [राजा] सेणिय , ९-१४,१६.२०,२४, ३१,३२,३५,९६, ९९, १०३,११४-१५,११८, १२७-२९, १६५-६६. २२९-३०,२३९,२४३, २६४-६५,३३२-३४, ३६०-६२ ३१८ हन्थिकप्पपुर [नगरम्] हत्थिणउर-णाउर- ७६,४७,१०९, १६८-६९,२२१,१६५ पुर Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् आख्यानकमणिकोश-तट्टीकान्तर्गतविशेषनाम्नां विभागशोनुक्रमः [परिशिष्टेऽस्मिन् प्रथमपरिशिष्टगतविशेषनाम्नां तत्परिकल्पिता विभागा अधस्तादुल्लिखिता इति तत्तद्विभागदिदृक्षुभिस्तत्तदाङ्काङ्कितो विभागोऽवलोकनीयः] १ अन्तःपुरमहत्तरा २ अमात्यास्त त्परिवारश्च ३ आजीवकमत. प्रणेता १ आभूषणम् ५ आमीरस्त परिवारव ६ आश्रमः १५ क्षेत्राणि १६ खड्गम् १. गणिकाः १८ गुहा १९ चक्रवर्तिनः २० चैत्यानि २१ चौरस्तत्पनी पुत्रौ च २२ तापसर्षिपुत्री पुत्री २३ तापसशाखा २४ तीर्थानि २५ तीर्थकरा २६ तलम् २७ दास-दास्यः २८ दूतः २९ देवजातयः ३० देव-देव्यः ३१ देवलोकाः ३२ देशाः ३३ द्वौपाः ४७ पर्वताः ६२ मालाकारा मा- ७५ विटः ३४ धातुवादी ४८ पुरोहित-ब्राह्मणा- लाकारपत्नी च ___ ७६ विद्याः ३५ धात्री स्तत्परिवारश्च ६३ मोदकः ७७ विद्याधरास्त३६ नगर-नगरी- ४९ बलीवदी ६४ यक्षाः परिवार प्राम-सनिवेशाः५० ब्राह्मणजातिः ७८ विमानानि ३७ नटपुत्रः ५१ भग्नव्रतमुनी ६६ रथिकपत्नी ३८ नदी-वापी- ५२ मेरी ७५ शालापतिः ६७ राक्षसवंशीयाः सरांसि ८. शामाथि ५३ मणिः ६८ राजगृहपाटक: ३९ नरकाः (प्रन्याः ) ५४ मणिकारः ६९ राजवंशी ४. नाणकम् ५५ मदिरा ८१ श्रेष्ठि-सामाह४१ नाविक नाविक ७. राजानो राश्यो ५६ मल्लाः वणिजस्तत्परिपत्न्यौ राजपुत्र्यो राज५७ मातङ्गजातिः वारथ १२ निग्रन्थगच्छः पुत्रास्तन्मित्राणि ५८ माताजातीया ८२ श्वपाका ४३ निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थाः निग्रन्थिन्यः ७१ लेखाचार्याः ८३ सङ्गीतकारः ५९ मातङ्ग जातीयो ४१ निन्धशाखा (उपाध्यायाः) ८१ सारथी राजा १५ नैमित्तिको ६. मातङ्गपालित- ७२ वना-रण्यो- ८५ सुभटाः १६ परिव्राजक ताप- राजपुत्रः द्यान-चाटिकाः ८६ सेनान्यौ सर्षि-श्रमण- ६१ मातङ्गास्तत्पत्नी- ७३ वन्यजातिः ८७ स्थपतिः कापालिकाः पुत्राः ७४ वानरवंशीयौ ८८ हस्ति-हस्तिन्यः ८ उत्सवाः ९ ऐन्द्रजालिकः १० कविः । ११ कञ्चुकी १२ कुम्भकारः १३ कुलपुत्र-कर्षक कुटुम्बिनस्तत्प रिवारश्च १५ कृष्णवासुदेव नामानि (५) आभीरस्तत्परिवारश्च धमअ-क,य रेणुया धम्मिलाभ सुम (१) अन्तःपुरमहत्तरा सुंदरी (२) अमात्यास्तत्परिवारश्च अभय कुमार धणु कणगकेउ नमुई कप्पय चउरम नाणगन्म चित्त पोट्टिला धूलभर बुद्धिसार बीहपट्ट भाणु मइसायर सायर महिंदसौह सुबुद्धि बरघणु सयडाल सेणग-य सरस्सई __ (३) आजीवकमतप्रणेता गोशालक गोसाल+य (४) आभूषणम् (हारः) अट्ठारसचकवेह (६) आश्रमः नंद हस्थितावसासम धरणिंद Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ इंदमह कोईदिवस मद "ईमडूसय मिली कालिदास संपुलअ Error आइच शंकर गंगाइश्च चण्डचूड चंबल-भ दामनक धना बंधुमई मनोरमा कण्ह कन्ह केसव' दुग्गय (१३) कुलपुत्र-कर्मक-कुटुम्बिनस्तत्परिवारथ जणद्दण (८) उत्सवाः पुत्रविदेह भरह भारह (९) ऐन्द्रजालिकः सुज्जहास दीवसव मयणतेरसी (१०) कविः (११) कञ्चुकी (१२) कुम्भकारः (१४) कृष्णवासुदेवनामानि मनोरथ मायाइश्व मायादित्य सचहिरी संगमन-य सामाइय सीइक सुंदर सूमिका नारायण पुरिसोत्तम महुमहण वासुदेव विन्दु हरि (१५) क्षेत्राणि महाविदेह विदेह हेमवभ (१६) खड्गम् अनंगसेवा उपकोशा उनकोसा कलिंगा कामपडाया कामरइ कोशा कायंबरी बंमदत्त भरत भरह+नाह, वइ -हेस, हेर द्वितीयं परिशिष्टम् (१७) गणिकाः कोसा दुग्गचंड रोहिण+अ गुणसिल+अ भंडीरवणचेइय ऋषिदत्ता पिप्पलाअ पहास मागह अजिय (१८) गुहा अनंत अभिनंदन मरहारिणी (१९) चक्रवर्तिनः अर अरिनेमि देवदत्ता मागहिया रहविलासा वसंततिल्या वसंतसेणा संभवमादीनिया (२१) चौरस्तत्पानी-पुत्रौ च (२०) चैत्यानि महापउम सगर सर्णकुमार सनत्कुमार (२२) तापसर्पिपुत्री-पुत्रौ रिसिया मोढगृह रौहिणेयक लोहर (२३) तापसशाखा (२४) तीर्थानि वरदाम (२५) तीर्थकराः उसभ कुंडु चंदष्पद जुगाइदेव धम्म नमि निम्ममत्त नेमि +चंद, नाह पउमनाह पउमप्पह पार्श्व पास मल्लि महावीर मुनिसुव्यव युगादिजिन रिनेमि सयपाग कुंद गंगदत्ता भेगका चवला चंडस्ट चिला चिलाइपुत चिलातीपुत्र थावर सुवेग अग्गिकुमार ददुरंक कटपूतना कुडंगेसर सीरवीर खीरडिडीरा गउरी वद्धमाण+सामि वासुपुज्ज वीर+नाह वृषभजिन संति+नाह संभव सामि अगाडि आगासरेवई इलादेवी सीमंधर+साम सुपासतामि सुमइ सुविहि सेयंस (२६) तैलम् (२७) दास-दास्यः डुम्मुह दोण द्रोण पियंकरा पिबंगुलमा पुनवसु मंजरी सुभग (२८) दूतः (२९) देवजातयः भवनपति (३०) देव-देव्यः चंडिया चंडी चामुंडा जलणप्पह जंबू दुग्गा धूमकेउ नागकुमार Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां विभागशोऽनुकमः ३८७ (३५) धात्री महिला पंडिया महुरा मंगलउर अवंती निव्वुई सरस्वती पत्तदेवया संगमय महाकाल सावित्ती कच्छी सिरिकंठ ललियंगय विजय सिरिदेवी विरिचि सिधु+देवी हिरनगन्भ सुवमजालेसर वेजयंत रियाभ (३१) देवलोकाः अच्चुय सबढ+सिद्ध ईशान सुक्क ईसाण सुहम्म बंभलोअ सोहम्म महासणंकुमार सौधर्म माहिद (३२) देशाः पंचाल अवंती बली अंगा मगहा उत्तरापह मज्झदेस कलिंग मालव कासी मेदपाट कुरु लाड कुसट्टा वच्छा कुकण वराडग केयह विदेहा कोसल वियम्भ गया सिरिकंठ टंकण सिरिमंगल सुरट्ठ नेपाल पउम (३३) द्वीपाः जउणदीव नदीसर जवणदीव रयणदीव जंबुद्दीव सिंहल+दीव धायइसंड हंस (३४) धातुवादी हेमकूड (३६) नगर-नगरी-ग्राम-सन्निवेशाः अउज्ज्ञ चंपा अणिमंजिया छम्माणी अद्दय जयवद्धण अयलपुर जयंती-'तिया जवउर-पुर आयामुही जीवहरण इलावद्धण तक्खसिल उजयणी तामलित्ती उज्जेणी तिलयपुर उसीरावत्त तुंबवण उसुयार तेयलि एलउर दसउर कत्तियपुर दंतवक कन्नउज देवसाल कार द्वारकावती कर्षक धन्नउर कंचणपुर धरणितिल कंचिया धवलक्कक कंची धवलकपुर कंपिल्लपुर नंदण कायंदी पइट्ठाण कावेरी पउमावई कासहद पउमुत्तर कुसुमपुर पञ्चतपुर कुंडवलय पंडमहुरा कुंडिणा पाडलिपुत्त कुंडिणिपुरी पियंगु कोसलपुरी पुंडरिगिणी कोसला पोतनपुर कोसंबी पोयण+पुर क्षेमपुरी बारवई खिइपइट्टिय बिन्नायड-बेन्ना गयउर भद्दिलपुर गंगउर भस्यच्छ गंगाउर भूतलानन्द गिरिनयर मगहापुर गुडसत्थ मत्तियावया-वइ मंजुलावई मारावल्ली मिहिला मेहकुंड रत्नपुर रयणावह रहनेउर रहमद्दण राजपुर रायगिह रिट्ठउर रोहेडय लच्छिग्गाम लच्छीतिलय लंका वडउर वद्धणपुर वद्धमाण वलहि वसंतउर-पुर वसंतपुर वाडिपुरी अद्दय वाणारसी विल्लूरपुर विसेसय वेयन्भ वेसाली शालिग्राम संख+उर संगरपुर संदणपुर साकेअ-य सालिग्गाम सावत्थी सिरिउर सिलागाम सिवमंदिर सुदंसण सुसीमा सुहत्थल सेयविया सोपारय सोरियपुर हत्थिकप्पपुर हत्थिणाउर-°णउर हरिसउर हुयवहजाल (३७) नटपुत्रः रोह+अ, क भरत भरह सोरट्ठ (३८) नदी-वापी-सरांसि रेवा कावेरी वेगवई गंगा वेन्ना गंधवई सिप्पनई-सरी नम्मया सिप्पा सुरवरतरंगिणी पउमसर नंदा (३९) नरकाः वालुयप्पहा अपइट्ठाण रयणप्पहा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् जालंधर मेरु रहावत्त रेवय वेयड्ढ सम्मेयसेल सित्तुंजय सिरिपव्वय हिमवंत हिरिमंत विजय विज्ञ वेभार राह वेय चुलणी ३८८ (४०) नाणकम् हीणार (४१) नाविक-नाविकपल्यौ काणा नंद (४२) निर्ग्रन्थगच्छः बृहद्गच्छ (४३) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिन्यः अइमुत्तय जसभद्द अजितरि जंबु+णाम अजियजस जिणसेण अजखउड जिणाणंद अजसुहत्थी जिनचन्द्र अद्दयकुमार तिविक्कम अमियतेय त्रिगुप्त अरहन्नक-य थूलभद्द अहेन्नक दुक्खंतरिसि आनन्दसूरि दुल्लहएवी आम्रदेवसूरि देवरिसि आर्यखपुट देवसूरि कुलचन्द्र केसी धम्मघोस खमग+रिसि धम्मनंदण गज+सुकुमार धम्मरुइ गय+सुकुमाल धम्मसिरी गुणाकर धर्मरुचि गोयमसामि नमि गौतम नंदिवद्धण चण्डरुद्र नंदिसेण चन्दनार्या नाणगन्भ नारअ-द.य चंदणज्जा निउण 'णकुमारी नेमिचन्द्र णबाला नेमिचन्द्रसूरि पभवरि चित्रगुप्त पसन्नचंद जक्ख पहासरि जक्खिणी पाश्वदेव पुंडरीय जव प्रभवसूरि प्रसन्नचन्द्र विष्णु+कुमार बंभी वैर+स्वामि भद्द जस शय्यम्भव भद्दबाहु श्रीचन्द्रसूरि भवंतकर मणअ-ग, य समंतभद्द मणिचूड समाहिगुत्त मयमल्ल समियज मल+वाई,वादी समित मुणिचंद संभूयविजय यव सार्वभूति सिद्ध+सेण वइरसामि सुत्थिय वरदत्त सुधम्म-हम्म विचित्र सुप्रभा विणयंधर सुब्बअ-य विण्हुकुमार सुब्बया विद्धवाई सुंदरी विमलवाहण सेजंभव (४४) निर्ग्रन्थशाखा बंभदीवया-दीविया (४५) नैमित्तिको सिद्ध सिद्धपुत्त (४६) परिवा जक-तापसर्षि-श्रमण-कापालिकाः अम्मड भइरवाणंद अम्बड भारभूइ कढ महाकाल कमढ घोरसिव विस्सभूइ जन्नवक सुभद्दा दीवायण सुलसा परासर सेणग-य बुद्धदास हिरन्नरोम बुद्धाणंद (४७) पर्वताः अगमंदिर अंगामंदिर अट्ठावय अंजण अर्बुद उजित देविंद (४८) पुरोहित-ब्राह्मणास्तत्परिवारश्च अग्गिजाला वसुमित्ता अग्गिभूइ बाउभूइ आगच्चसम्म विन्हुमित्त कविल वेईसर कविला चक्यर वेयगन्भ चक्रचर वेयमित्त वेयरून जक्खसिरी वेयसाम जन्मदिन वेयसार जसा शय्यम्भव दिवायर सावित्ती नागश्री सावित्री नागसिरी सिद्धसेण निग्घिणसम्म सुद्धड पहाकर सेज्जंभव पारासर सेडुवक प्रभाकर सेदुअ बउलदत्त सेदुव+क भद्दबाहु सोमदत्त भूयसिरी सोमदेव भृगु सोमप्पह मणअ-ग सोमप्रभ माहव रहमित्त सोमसम्म लच्छिमई सोमा वराहमिहिर (४९) बलीवी कम्बल (५०) ब्राह्मणजातिः सोम भिगु वद्दलि चंडरुद्द सोमभूइ चंदणा सबल टक Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां विभागशोऽनुक्रमः ३८९ कंडरीय (५१) भग्नव्रतमुनी कूलवाल+ (५२) भेरी कोमोइय कुस्थुम (५३) मणिः कोत्थुह (५४) मणिकारः (६२) मालाकारा मालाकारपत्नी च असोग पउमिणी नवपुष्पक पाडलय नवफुल्ल अ-य बउल-कुल . (६३) मोदकः सिंहकेसरअ-य (६४) यक्षाः असियक्ख बंभसंति कयमाल वहकर कवहिजक्ख-कवडि. सच्चवाई चित्तपिय संखपाल-वाल चित्रप्रिय सुमिण तिदुग-य सुरपिय धूमकेउ नन्द (५५) मदिरा चंदप्पभा (५६) मल्लाः भट्टण मच्छमल्ल कमलमेह मच्छियमल्ल फलहियमल मत्स्यमल्ल मक्षिकामल्ल (५७) मातङ्गजातिः हरिकेसा (५८) मातङ्गजातीया निर्ग्रन्थाः संभूइ संभूत-य मेतार्य हरिकेशि-केश मेयज हरिकेसबल संभूत हरिकेसि (५९) मातङ्गजातीयो राजा मेतार्य मेयज्ज (६५) रथः अग्गिमीरु (६६) रथिकपत्नी सुलसा (६७) राक्षसवंशीयाः खर रावण-दशमुख दहवयण शम्बकुमार सुप्पणहा बिभीषण अभया अमरदत्त अरिदमण अरिमद्दण अवंतिणी अवंतिवद्धण असोगचंद कूणिअ-कोणि असोयसिरि अंधगवन्हि आद्रककुमार आससेण उग्गसेण उदयण उदाइ उसुयार कक कडय कणगकेउ कणगज्झ कणगरह कणयद्धय कणयरह कणयाभरण कनककेतु कन्हडदेव कमलसेण कमलामेला कमलावई करेणुदत्त कलावई कल्याणमाल कंडरीय कामलया काल कित्तिधम्म कुजअ कुणाल कुब्बर कुमुइणी कुरुचंद कुलाणंद कुलानंद कुसुमसेहर कुंती केढव कोणिअ-क,कूणि असोगचंद गज+सुकुमार गद्दह गन्धप्रिय गयवाहण गयसुकुमाल गंगदत्त गंगसेणा गंधप्पिय गंधव्वदत्ता गंधबसेणा गुणचंद चउरमइ चन्द्रावतंसक चंडपजोअ-'य, पज्जोय चंडवडिसय चंडावडिस चंदगुप्त चंदणकुमारी-णबाला चंदणा चंदजस चंदजसा चंदमई चंदसेण चंदामा चंदावयंस+अ चंपइमाला चंपयमाला चुलणी चेडय चेल्लणा जनक जन्हकुमार जयसिंह जयसेण चित्र दूषण (६८) राजगृहपाटकः जन्नवाड (६९) राजवंशी मोरियवंस हरिवंस (६०) मातङ्गपालितराजपुत्रः करकंड (६१) मातङ्गास्तत्पत्नी-पुत्राः गोरी मेयज्ज चित्त सम्भूत चित्र हरिकेशि-केश बलकुट्ट हरिकेसबल भूयदिन हरिकेसि (७०) राजानो राख्यो राजपुत्र्यो राज पुत्रास्तन्मित्राणि च अजिय अणंगसरा अणोलिया अद्दय अद्दयकुमार अद्दया अपराजिता अभय कुमार मेतार्य Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० जयसेणा जया जराकुमार जसवई जंबबई जानकी जाला जियसत्तु जुगबाहु अमरसिंह ढण्ढणकुमार ढढणकुमर गंद तारापीक ताराबीढ तिलयसुंदरी तिविकम तिसला तिहुयणतिलया तिहुयणाणंद त्रिभुवनतिलका दढधम्म दधिवाहन दवदंती दहिवल दहित्राहन दंतवक दीपशिख दीवयसिह दीद दुज्जोहण दुप्पसह दुवय देइणी देवई देवगुप्त देवसेण दोण दोणमेह दोयई द्रोण धणसेण धयरटु धारिणी धुन्धुमार नन्दिवर्धन नमि नरवियम नरविक्रम नरसीह अ- द नल नहसेण मंद नंदिसेण नागदत्त नारायण निसढ पउम पउमकेसर पउमनाह पउमरह पठमसेदर पउमावई पउमुत्तर एसि पज्जुन्न पज्जोय पद्म पद्मोत्तर पल्हाअ - य पसेणइ+य पसन्नचंद पंडु पंडुसेण पियदसण पियदसणा पियमई पुक्ल पुन्नकलस पुष्फचूल पुष्पदंती पुरिसोत्तम पुंडरीय प्रदेशि प्रद्युम्न प्रसन्नचंद्र बउलमई बंभ बालचंद बाहुबली बिंदुसार देशभ भद्दा भदुलभ भरत भाणु भिमसार भीमरह भुवनश्री मेसई मइसागर मणिचूड मणिप्पह मणिरह द्वितीयं परिशिष्टम् मणोरमा मनोहर मधु मम्मण मयणरेहा मयणसेणा मयरद्धअ मद्दब्बल मह महु मंगला सिंगाप मुणिचंद मूल्य मृगावती- पती मेप+कुमार मेह+कुमार रसुंदरी रयणचूड रयणमंजरी रयणमाला रयणरह रयणसार रयणसेहर रविकता रविकान्ता राजहंस राम (कृष्णभ्राता) राम+एव चन्द्रदेव ( दाशरथी ) रायमई रायहंस विपन्न रुक्मिणी रुपिणी रुप्पी रोहिणी लक्खण लच्छिहर लक्षण लक्ष्मण लच्छी लीलावई वक्कलचीरी यजकर्ण वज्रजङ्घ वनमाला वम्मा वराहग्गीव वल्लहराय वसुदेव वसुमई वासवदत्ता वासुदेव विसरण विउसाणंदण विक्रमसेग विद्यमा विजय विजयधम्म विजय सेहर वि+कुमार भिमनई बिलासपई विशल्या विष्णुकुमार विसल्ला विस्ससेण बीससेण विहल वीरमई-ती वीरसेण बीरंगम वृषभध्वज হাজ্ব शतानिक शौरि श्रेणिक सउरी सच्चभामा सच्चा सप्तच्छद समर केउ समुह विजय सम्प्रति सयाणिय-णीय सरबसिरी ससिसेहर सहदेवी संख संगय संपइ संब सागरचन्द्र सागर चंद सिद्धत्थ सिद्धार्थ सियजस सिरिचंद सिरिदेवी सिरिधम्म विएबी- "देवी सिवा+देवी लोप विउसाणंद सिसुपाल सिंहजस सीमाता - सीलमई सीह गिरि सीहबल सीहरड सहविकम थुकुमारिका-"लिका शुकुमारिया सुजसा सुतारा सुदंसणा सुनंदा सुभद्दा ग सुसेणा सुंदरपाणि सुंदरी मुंब सूरियत सूरियकता सूर्यकान्ता सेणिय सोदास सोमचंद हरिसेण हलहर हली इलाउह हल्ल इंडिय हेमरह (७१) लेखाचार्या : ( उपाध्यायाः) सिद्धउत Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) बनाऽरण्योद्यान वाटिका : असोगवणिया कोसंब तिलअ दण्डक डजाइ सुप्रीव अस्सावद्दारा गोरी अनिलवेअ अभियग कणयमाला कालसंवर नंदण+वण मतकोइल रायनंदणअ वयस्य (७३) वन्यजातिः (७४) वानरवंशीयौ हनूमत् चित्तरद जंबवई (७७) विद्याधरास्तत्परिवारथ जंबवंत गउर मुंड चित्ततेम- पेश वीरब (७५) विट: (७६) विद्याः अरुणाभ दरवसिय पउमगुम्म पन्नती धूम सिह मिलनेअ सोदाब (७८) विमानानि अक्खाणयमणिकोस आख्यानकमणिकोश आवस्यविवरण आवस्य महिदविक्रम विजयसेण सिवचंदा मालिया (७९) शालापतिः पुष्पक विजय सूरियाम (८०) शास्त्राणि (ग्रन्थाः) उत्तरज्झयण उत्तराध्ययनति दसवेयालिय नयचक्क विशेषनाम्नां विभागशो ऽनुक्रमः वीरचरित व्याख्याप्रज्ञप्ति हरिवंस निसीह भगवई रत्नचूडचरित रयणचूड [ कहा ] (८१) श्रेष्ठि- सार्थवाह - वणिजस्तत्परिवारथ अच्छुप्त अयल अरिहासी अरिहन अरिमित अलक अवराइया इलापुरा-इलापुत्र ईसर उद्योतन उसहदत्त कट्ठ कमलगुप्त कयउज+य कामएव - देव कामपाल कुमारनंदी कृतपुण्य केसरा खरक गय गंगदत्त गुणचंद गुणम-"ती गुणमइया गुणवती गोभद्द चारुदत्त जन्नदत्त जम्बु जयसिरी जयंतदेव जंबु +णाम जिणदत्त-यत्त जिणदास जिनदासी तापस तावस थाणु दत्त दत्तक-य दामन - क देवजसा देवदत्त देवसिरी देवाद देहिल धण अ- य धणदत्त - यत्त धणपाल धणवइ धणाई धणसार धणसिरी धणावद्द धणीसर धणेसर धन धनदत्त धन+अ धम्मरुइ नउलवणी नन्द नयसार नयदत्त ཁྐྲ་ ལ་ नंदण नाग नूपुर पण्डिता पङ्कजमुख पङ्कजास्य पंचनंदी पियंकर पुलभ संधुदत्त बंधुमई बुद्धदास भद्द भद्दा भद्रा भाणु भाणुसिरी भावट्टिकाया। बालडिया } मइरा मणोरह मनोरमा महिमा माणिभद्द माथुर माहुर मित्तवई मित्ताणंद मुणिचंद मुसियार मूला मेरुप्रभ यशोनाग रइसायर रयणसार रुद्ददत्त ललिताङ्ग ललियंग+अ लोभनंदि लोडनंदि वरदत्त वसंतदेव वसंतसेवा वसुदत्त वसुनन्दा विजयसिरी विण्डुदत्त विसा वृषभ कालपरिय-सोयरिय समण शालिभद्र श्रीकान्त समुद्रदत सव्वत्थ संख संगा संपया सागर+अ सागर दस साबर' सालिभद सिद्धनाग सिद्धार्थ सिरिदेवी सिरिमई सिन सिवभट् सुकुमालिया सुदर्शन सुदंसण सुधण सुधणु सुनंदा सुभद्दा सुभद्रा सुरिंद ३९१ सुलसा सुसमा हरिसीह हारप्पहा (८२) श्वपाकः Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ (८३) सङ्गीतकारः निसढ पिहु द्वितीयं परिशिष्टम् महसेण सीह सुवेग पुप्फचूल पुष्फदंत (८८) हस्ति-हस्तिन्यः कणयप्पहा भद्रवती जयवारण मेरुप्पह नलगिरि सेयणय भाइबई भीम (८४) सारथी सिद्धत्थ निकरुण सीहरह (८६) सेनान्यो सुसेण (८७) स्थपतिः । (८५) सुभटाः दमघोस मल अयल ददर सूरदेव Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यानकमणिकोशटी कान्तर्गतसमस्तदेश्यशब्दानां शब्दकोशोपयोगिमाकृतशब्दानां चाकारादिक्रमेणानुक्रमः [*एतादृक्कुलिकाङ्किता देश्यशब्दा आचार्यदेमचन्द्रीयदेशीनाममालायां नोपलभ्यन्ते ] शब्द अ अइहवा अविधवा अक्खडलिय अक्षपटलिक अगमहिसी महिषियगृह अखिय १२४-२२ ११७-९९ अच्छन्न अस्पृश्य २२१-२२ आच्छन, व्याप्त २६४-१७ अजेमत् १४२-२३ अट्टमट्टा (दे० ) अव्यवस्थित, १४७-४४ अजमंत अणक्खत्तया अक्षत्रता ●अणालिटी दे० हि० अंटसंट, अंडबंड अडाय (दे०) बक, आई १५०-६९ अणक्ख (दे०) २९५-२०१ ७१-८० १२६-१६, २७१-१६ • अणुण (दे०) निरभिमानिन् २९९-३०२ १४७-१६ २०१-२७४ * अणोलिया (दे०) हिं० गिल्ली, गु० मोई अणोलिया राजपुत्री नाम अत्थरिय अन्नव्यय आवाणग अम्मड (दे०) अग्भिट्ट (दे०) आस्तृत अन्यदीय मद्यपानगोष्ठी अम्मोगया (३०) अम्हच्चय अयड (०) अलीड पत्र - गाथा ७-७ अस्मदीय अविष्ट अल्ल आर्द्र ● अक्खा (दे०) निस्तेजस्व अवरोहण भवत (दे०) ५० ३२३-३९ २७१-१७ १७६-२०, २७७-२३ |११०-९१,१२२-४६. १५९ - १४५ २९४ - १५४ ५-५६ १२-१२८,१३२ १०-४९ २६२-२६४ १९०-६५,६८ १४६-१ १८-१७ अन्तःपुर ११२-१५६ ३००-३४५ ३ तृतीयं परिशिष्टम् शब्द * अवसेरी (दे०) चिन्ता असंथुम संधारित बदन (दे०) आभिट्ट (दे० आरट्टिय आलिंगिणी * अपरिचित अन्धकारयत् आ समभिगत आरपट्टिक आलिहिनी शरीरप्रमाणात्र च्छादनवस्त्रम् आसंघ (दे०) संधि (दे०) विश्वसित ३८-१५ आंबलिय (अप०) आवलित ८४-१० चिया, अम्बिका १८० -५८ आंबली उत्तावल (दे०) कीट १०२-१०६,३५८-१४० उगार उद्गार उडुमर राज्यस्यान्तःकलह उडुमर (दे० ) उड्डामर (दे०) प्रबल, उत्कृष्ट पत्र - गाथा ९२-४६ ३४८-४२ ९-१३ ४५-५८ ७८-२४५ १४६-१२ २५८-४३८ उ ६-५८,२६६-५४ ११४-१९ उक्कुरुडिया (दे०) उज्जमण ( अप० ) उट्टिया अवस्थितिका २०६-४४० हिं० अंटी, गु० ओटी उडिदे०) माप, हि० उरद ६२-३० ड्डू (उत्+टो) दिना ९२-३३ उडु (दे०) जातिविशेष, ११५--पंक्ति ७ गु० ओड " ० कृत १८३-८ ४१-११० १३-१४३ ६८-५ ६८५ ३६-११ ३३३-६१ शब्द उतावळ (१०) *सोलिय(दे०) (1) *या दे०) उमतिका हिं० गिल्ली, ० मोई उन्नति, ” * उन्नई (दे०) * उप्फेर (? दे०) ( 1 ) उम्र (०) १४७-१५ १०६-६४ २६-६२ * उम्मिट्ट (दे०) बहिर्निर्गतम्, १५३ - पंक्ति ३१ शु-उमरे उयर • उल्लाघ (दे०) उल्लोय (दे०) उव्वित्त उन्वेषि उंबर (दे०) एलुगा ओघसर (दे०) ओयर ओयरय मध्य १२७-१४ रोगमुक्त ३३२-२० ४७-२७,१२८-४०, २५८-४३५, ३०१३७८ उद्वेजित ए एलुक ओ पत्र - गाथा ८७-३ २४७-७२ १४७-१४ ४८-३७ ३६१-२१९ प्रकार ७२८, १४ अपवरक " २६७-६० ३७-२९ ६२-३२ 23 ओर (अप० ) अर्वा समीप ८७-६ ८५-१५ अपवरक ओरि (अप०) ओलोवण अवलोकनक, गवाक्ष ३७-२५ ओवरग ३७-३५ ओसग्ग उपसर्ग १४४ - १०६ ओसरसुंभिय अवसरमित २६-६२ ओहडिय अवहृत ६८-६ · ३७-४७ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ शब्द कच्छोह (दे०) कच्छोय (दे०) कट्टरकारिया हडकारिका कडतल कडप (दे० ) कणिया क शस्त्रविशेष ( ? ) खट्टिक्क (दे०) खट्टिग (दे०) ८५-१३ ९-२८ दण्ड, गिल्ली के साथ १४७-१५ खेलनेका काष्टदण्ड २०१-२७५ ११७-१०१ ५६-३२० ११६-७३ कत्थ कहमिल कन्नुस्सार कप्परय कलहयंत कल्लूरिय(दे०) सकसिर दे०) हिं० जकड़ा हुआ गु० कसकसेलुं २४६-३६ ६-८२ * कंडारिय(दे०) कुपित कंबिया दे०) ि कामोटि कापोति, गु०कावड १८-१९ कारट्टअ दे०) मृतभोजन, ४०-६५ हिं० मृतभोज, गु० कारज कावाइय (दे०) हिं०० चालाकी १५०-८९ किवाणिया कृराणिका १४९-५२ कुटः १८-२४ कुडय कुढिय (दे०) पदप्रतिकृतिज्ञाता, १२६-२२ गु० पगी कूयार केकयर केरविणी कोत्थलय (दे०) क्वाथ कर्दमवत् कर्णोत्सार कर्पूरक कलहयत् २४६-१० , कुल्ल (दे०) कुंडिय(दे०) खरष्टित लिप्स ७७-१९४ कुंभिया कुम्भिका ३३२-९, गु० कोठी १५,२० कूकार, हिं० कूका, ७८-२४२ कोसल (दे०) कोसलिय (दे० ) गु० पत्र- गाथा १५७-५७ ४५-५९,८० १९२-३४ केकर केर विणी ख ८१-३ १२-१२२ ३१८ - २४८ १८-१९ ३६४-६४ ४२-१२९ ३६६-११६ ९९-९,१००-३५ ३०२-४१३ १७९-२२ १८०-४१ शब्द खइडिय(दे०) शिथिलत खड्डा (दे०) वत्तियण क्षत्रियजन खत्थ स्थ आकाशस्थित संतप्त खत्थ(दे०) खलर्भालय (दे०) तृतीयं परिशिष्टम् पत्र - गाथा १६२-२७ ३४४-२३ ३९-२३ १४८-१० ३६०-१९७ १२५-४६ खलि खल, हि०खली, गु०खोळ ४१-९३ खल्लि (दे०) खलिदड (दे०) * खसर (दे०) *खल्ली (दे०) रिक्त, हिं० गु०खाली १७९-४ कर्कश, गु० खरबचडुं १५८-९५ कलङ्क, गु० खांपण. ३९-२३, फा० खामी खंपण (दे०) ११९-१७० ६-८० १२०-५ खाडहिला (दे०) खिस्स विम् दासी ३९ ४०,१६७-२१ १४०-१६ १९-४२ १६१-१३ खुपण(दे०) निमज्जन, गु० ७८ कलुषित, तुच्छ ९७-४७ *खोर दे० ' खोसल दे०) ६९-६ खुज्जा खुट्ट (दे०) खुडकिय (दे०) खुप (दे०) गडुल (दे० ) गणित्तिया गत्तर गद्द (दे० ) गलि ग कर्दममिश्र गणेत्रिका १५३-पंक्ति २१ १५३-पंक्ति २० गत्वर गाढ गलि गहवरि ग्रहावृत गंडधारा दे०) कश्म १८-३५ ६-८९ १९३-४५ ६-६१ ४०७९ गिल्ली (दे०) ८२-४ ३१६-१६२ २७८-४९ गुडुर (दे०) गुणलयणिया गुणलयनिका ३०३-४६१ हिं० तंबु गुरुहारा गुरुमारा, गुर्विणी * गुलिणी (दे०) * गोबर (दे०) गोहली (दे०) १८-३६ ९६-१२ ३४१ - २३६ *डल दे०) खण्डक, हिन्दू मंडोवल राष्ट २००-४९ लतागृह. १८-२३ गोमय, हिं०गोयर १८३-८ गोधूमाली ११६-६९ शब्द घाडे रुद्द (दे०) घुंटअ चकल दे०) चचकिय चत्त दे०) चरी चहुट्ट (दे०) चंग (दे०) चंभ (दे०) " छुस्तुच्छल छोहिअ (दे०) घ जगड दे०) जग्गह जणेर ( अप० ) घुष्टक च जद्दर (दे०) जनता (दे०) चकचकित (?) संश्लिष्ट २६८-४ घाउजाय ६९-६ दृश्यतां चाउजाय ४०-८० चिपिष्ट चिपिट चीरी पक्षिविशेष, गु० चीवरी धीवंदण चेयवन्दन * चुल्हे (दे० हिं० चुल्हे की चुंक क्षिपू ० चूरी (दे०) छ छाल (दे०) ६२-४५ छक्कण्ण २२-६७ षट्कर्ण छगण छगण, गोमय, गु०छाण १२-१२३ उन्नाल(दे०) ९६-१२ छप्पय (दे०) १५४-४ १५३-४९ छित (दे०) छित्तरअ (दे०) १४४-१३२ ४२-१४४ छित्तिर दे०) जीर्णसूर्प छिप-छेप स्पृश ८८-९ छिप्प स्पृश्य २२१-२२ २२१-१५ छुरमट्ठो दे० क्षुरमृष्टि, हिं० गु० हजाम छलछलय् पत्र- गाधा ज ३६२-२५८ २३-१०२ १४४-११२ ८५-१३ १०२-१०० २६८-३ १८-३५ ४९-८४ यह २७३-१७ २२६-१६ १३७-६ १०-४१ ८८-६ १७९-१३ १२२-४३ ३६-३ ७५-१४४, ११०-७४, १२७-४ १२८-४० २७-८९ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द दुइजी दीप्त जोडु दीप्त झुट्ठ(दे०) देश्य-प्राकृतशब्दानामनुकमः शब्द पत्र-गाथा शब्द पत्र-गाथा पत्र-गाथा द्वितीया १३५-१ झगडअ(दे०) २८५-२९ दुगेज्स णिस्साणंत निशाणयत् ४९-९४ दुर्ग्राह्य ५३-२१२ झलकंत दुरुलि दुश्चष्टा (१) ३५७-९९ वन्यजाति १३७-८ झलकिर दीप ५५-३०७ दुवियाय दुर्विजात, कुजात ११८-१११ झलक्किय ८५-१३ देवपह देवपथ ११६-५० झलुक्किय दग्ध १५८-९२,९७ तक्कुय दे०) २४६-२६ देवलिया देवकुलिका ३५४-५६ २०१-२७५ तञ्चन्निय वुद्धधर्मानुयायी ६५-५ देसि पान्थ ४२-१२८ झिज्ज ११-६९ तडिअ भिक्षुविशेष १८-६ देसिकुडी पान्धशाला ४२-१२८ ३०३-४३५ तरवारि तरवारि ६-६६,४५-४७, ___ *देसियाली(दे०) देशाटन २८-१०५ झुलुकिय(दे०) दग्ध १०३-१४४ १६४-११ दोघट्ट(दे०) ९-१६,६२-१. ७३-६९, तलियातोरण तलिकातोरण, ३२-६४, ७४-७९, १०३-१३१, गु०तारियातोरण ३३६-६७ ११०-९१,३४२-२८१, टप्पर(दे०) ६९-७, तल्लोवेल्ली(दे०) ६२-२८,७५-१३६ ३५४-५३ टार(दे०) ९०-१४ *तंबालय(दे०) भाजनविशेष १०५-४५ दोधुब्वमाण दोधूयमान १३-१४४ *टिल्ल(दे०) तिलक, हिं टीका, २१७-६३४ तंबार (?) २८६-६१ दोहंडिय द्विखण्डित ७४-८७,७६-१४९ गुल्टीखें ताविल तप्त २७२-२९ *टोप्परिया(दे०) कचोलिका, १७५-२९ तिद्वा (?) १७८-१४ धवाडिय धावित १८२-१७ गु०श्रीफलनी काचली तिरियंत तिरयत् ११६-५० धसक(दे०) . ३१४-११७ टोल अघटित २७३-६ . तीरी दे०) ११०-८७ घसक्किय(दे०) १७३-३६ टोलपाहाण गण्डर्शल २७३-६ धाडीवाह समूहबद्धभारवाहक १८-१९ थट्ट दे०) ९-१६,६२-१८,७४-७९ धारिद्व धाष्ट्य २०८.५२९ डंबरिय आडम्बरित ९-१५,१२८-४० ८७-५,८८-८ धोत्तरिय धत्तूरित, मत्त ७१-६९ ढुंब दे०) ११७-८७,१५४-२, थाणग(दे०) २०४-३९७ १५५-३३ थिमिय दे०) १२१-३ नउलय नकुलक, यलोदिमयी २२६-१४ ढुंबडअ(दे०) दृश्यता-डंब १५५-२८ थिल्ली(दे०) ३१६-१६२ नाणकस्थगिका, गु०नउली डाअ(दे०) १४२-२२ *थोत्थर(दे०) शोथस्तर . ७२-१३ नाइत्तग-य(दे०) १०८-१,२०८-५२७ डोडिणो(दे०) १४२-७१ थोभ क्षोभ १०६-८२ नवल नव्य १९०-७९ *डोढिणी(दे०) दृश्यतां-डोडिणी १४२-टि.२ निराय(दे०) ३०७-९३,३१५-१४८ ददर(दे०) १८१-८० निरारिअ(अप०) ८८-६,७ दसद्धिया चपेटा २३२-२५ निवलय दृश्यतां- २२५-पंक्ति २९, ढड्ढ दे०) हि किवाड बंध १९५-६३ दंदोली द्वन्द्वावलि 'नउलय' २२६-१७ करनेका बाहरी साधन दीयड दीपक १८-२४ निस्सरिर निःसरणशील २७-७५ ढयर(दे०) *'दीयड(दे०) सपविशेष २७१-२० निदिण (नि+दो), गु० निंदवू-नंदयुं ८-१८ ढलिअ(दे०) २०७-४९५ दीयडय दृतिका ३२८-टि०१ नीरंगी दे०) हिं० धुंघट २९-१४४, ढंखरअ दे०) ४५-६१ दीवालिया दीपालिका २८९-१४२ ६४-१०६ दिबायरिय पाषाणाकार १५४-पंक्ति २ दीहपट्ट सप १४७-१९ दिबारिय , १५५ १५५-२८ दीहपट्ट स्त्रनामख्यात १४६-२, पइरिक्क(दे० २९८-२६८ अमात्य १४७-२० . पच्छिया दे०) दृश्यतां 'पत्थिया' ११४-९ *दुलि अ(दे०) स्खलित, अवनत, ३३१-१६३ १ अष्टमि-चतुदर्श( दिनद्वय )व्यतिरिक्त- पडुय(दे०) १३०-पंक्ति ५,१३४-२४ हिंदुला हआ, गु०ढळेलु दिनेषु विषविकल: सपः । पत्तिल्ल विश्वसित ३६०-१९८ थड(दे०) २३६-२५७ दुक दे०) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ पत्र- गाथा ४९-१०३ ११४- दि० ११-९५ ४९-८० ३१-५३ १८-३५ ४९-८१ २५-२३ २३१-१०० १३४-५ सन्धानादियोग्यं ५६-३१० मृण्मयं भाजनम्, गु० पार प्राभृतिका १००-२८ पितुःस्वसृ ७३-५० पितृग्रह, गु० पियर १५२-१६ ३६६-११६ प्रवेश नितम्ब १७४ १३ (?) ८८-७ फ 1 फडस (दे०) खंड हिंसा १९४ १७२ गु० फाडफाडसा (?) शब्द पत्थरी (दे०) पन्थिया (दे०) परिणावितम परिणीत परिक्षण (दे०) पयऌहण पन्हसिर पहिजण पाउल (दे०) पाणहिया पारी पाहुडिया पिउसिया पियहर पुहलय दे०) पुय प्रादिम पादप्रोञ्छनक खसनशील फरल ६९-६ फारक (दे०) ११०-८५ * फिरिक्का (दे०) न्त्री, शकटिका १८२-१६ फुकादि०) १८३-१४ पान्थ हृष्टनारी वृन्द (१) उपान मद्दलभ भद्दलभ बक्कर बप्प दे०) *बलियंडा दे०) बलात्कार मुष्टिप्रक्षेप ९४-११० बुकावण बुड्ढ (दे०) २३४-१९५ बुर दे०) हिं०बुरादा, काष्टका बेर ७७-१९४ ३६-१५ १२२-४९ व परिहास बेट्टिया दे०) पुत्री बोलण दे०) जोडन भ स्वनामख्यात राजपुत्र भद्र २४८-१०७ १४७-२६ ७८-२४३, १४४ - १२१ १४६-६, १४७-२९, ४० १४७-१८ तृतीयं परिशिष्टम् शब्द पत्र- गाथा • मद्दुल (दे०) सूपक १४७-१९ *भरवसग-य(दे०) हिं० भरोसा, २३४-१९५, गु०भरोसो - विश्वास २५६-३८६ भलभलिए भडभडित अग्निशब्दे ८५-१३ भलिम (दे०) भद्रत्व, हिं० गु० भलाई १९५-५३ भवडत भ्राम्यत् २५६-३८० १२२-४६ भंडोल भाण्डकुल, गु० भंडोळ २२-५९ भंभारिय भम्भारित भंडण (दे०) १८-१७ भामड भ्रमणशील, गु०भामटो १३४-२६ भिड़ंत युध्यत् १०-६२ मिडिअ (दे०) १५६-१७ मिसया (३०) यां मिसिया १८८१७ भिसिया (दे०) ९६-१२ भूहरि (दे० ) तिलकविशेष, १३-१४२ गु० भूहड भोजित भोयविय म मऊरबंध मयूरबन्ध, विशेष११८-१९ मडप्फर (दे०) मड्डा (दे०) मरट्ट (दे०) मलय (दे०) १३६-४ २१-४७, ७८-२४२, १२१६, १४४ - १२६, १४९३३,१५६ - ८, १९२-७, २६८-४, ३३५-११ ७९-२८६, १०४-१५ ११६-६६ महल दे०) महलिया अन्तःपुरमहत्तर १९०-७९ अन्तःपुरमहत्तरा ६४-१०४ महियारिया दधिविका- २८६-३८,४५ यिका, गु० महियारी दद्रु मंदुल मुगलिया (दे०) मोक्कल (दे०) मोरबंध ४०-५५ ७२-९ १२७-३९ दृश्यतां - मोक्कल २८-१२५ दृश्यतां - मऊरबंध १४०-१६ र कम्बल रल्लय १४८-१३ रवन ( अप० ) ८१-१ ८२-२ रनिय (अप०) रमणीय *सोयणी (दे०) रसीकारिका १६२-४ गु० रसोयण शब्द रंडत्तण रण्डत्व रामभुयग सर्पजातिः राडि (दे०) * राढ (दे०) शुभ् राढाल (दे०) अतिविभूपाप्रिय १९३-४३ राहाडि डी राडि, हिं३ि०-७, ९०-१६ हट, गु० राड ३०२-४१४, ३५३-२८,३५८-१४२ रिच्छ रिखंत रिछोली (दे०) रेसि अप०) रोल, दे०) रोलंब (दे०) रोहंस रोहिंस ललक (दे०) ऋक्ष, भल्लूक रिज लेन्स लेहारिय लोजिय वउप्पअ बडू(दे०) *घट (दे०) *वरह (दे०) घरिया वरोहिय ५१-१४४ ३५३-२५ ५०-१०३, ५१-१४४. पत्र- गाथा १२२-४८ ३४७-१२ २८५-२१ ३२५-११ १३७–५, १४०-१७ ललि०) लिलिकिअ * लिल्लिरय (दे०) वस्त्रचीरी, लयलयकृत ७४-१०५,१०७-११ १८- ३३.७४ - १०५ ७६-१५९, १०७-१९ रोडिक पक्ष १९-४० ७२-१९ १८-२९४१-८८, ८५-१३,२४६-४०, १०-३५ ४५-५९, गु० लीरी, लेरो १५७-५७ लिंडिया (दे०) लिण्डिका, ६-७७ अजादिविष्टा नेता लेखाचार्य ८१-२ ४३-१५६ नकारस्य श्रुत्या २७२-२९ नवनीत म० लोणी ३५१-२३ २०७-४८१,३५८-१४३ - य दृश्यत पोप १५१-१०० ८२-४ मुख ३०६-४५ रज्जु, गु० वरेढुं ५-५० दृश्यतां वलया ११-९८ ११२-१५५ पुरोहित Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ देश्य-प्राकृत शब्दानामनुक्रमः शब्द पत्र-गाथा स शब्द पत्र - गाथा सीवाल सीमापाल १६५-५९ सुहिल्लि(दे०) १९३-१५ सुहेल्लि(दे०) २४४-१५,२६५-२१, २६९-५,२९८-२९९, ३६१-२४९ सूम कृपण, हिंसूम, गु०सोम २९३-११९ सेडिया(दे०) १७५-३५ सेरह महिष १८-१५,३६, ५६-३२४ सेरही महिषी ५६-३१७ शब्द पत्र-गाथा वलवट्ट (वल+वत् , बल+वत्) २३९-२१ हिं• कुचलना वल्ल(दे०) १७३-१७ वसा हस्तिनी ४९-१२२ वाइअ वातिक, हि.पागल, १६-२६८ गु० वायडो वाइय वादिन् , हि गु०मदारी ६२-३४ पाडिया वाटिका ५१-१३८ वाणिगिणी वणिक्पत्नी ३१-५१ गु०वाणियाणी, हिं० बनियाइन वायडय वाततिका ३२८-५२ धार वासर, दिन ९१-१५ पारसिय द्वारश्रित, द्वारपाल २००-२४६ पाहियाली वाहिका, हि०सवारी १०१-६५ वाहुडिय(दे०) विगोविअ विगोपित. १६१-१३ गु० वगोवायेलु विगुत्त ६७-६७,६८ विग्गोविय ११९-१६२ विहर(दे०) १५५-३३ विडुरिल्ल दे०) आटोपित ३३६-५८ वियर,दे०) ९७-४४ विटलिय दे०) २५-२३ वेलामास गर्भकाल ११६-६० वेल्लहल ४७-२४,१२८-४०, ३००-३४३ सइण्ण . सतृष्ण ११५-१३ सञ्चमिय सत्यापित, दृष्ट २७१-२२ सत्थाह सार्थवाह १३७-७ सन्नास प्रव्रज्या १००-५३ समसीसी(दे०) १८३-१६ सल शल्य ?), हिंगु०सळ १९०-८८ ससरक्ख सरजस्क, १९८-१५७, परिव्राजकादि १७६ संथुअ परिचित ३४८-४२ संभिय सम्भृत २६२-४ संसिय खस्त २३१-८४ सारा स्मारणा. १९-६५ हिं० सम्हाल, गु० संभाळ साव(अप०) सर्व ८३-९ साहुल दे०) २०५-५०८ सिक्कड दे०) २८५-३० सिक्किर खण्ड हि• टुकडा २२-७५ *सिक्किरि(दे०) छत्र १८-२१ *सिलिंका शलाका २२-७५ ३२४-७९ सिहिण(दे०) १२८-४५ सिंदुर(दे०) रज्जु, हिरस्सी १२२-२९ सिंबासिबि अतिवेगेन, हिं० ८४-११ चटचट, गु० सबोसब सीमाल सीमापाल ३५६-५१,५९ हक्का(दे०) २४६-४०,३५१-२३ हड्(दे०) ५३-२१२ हल्लप्फल(दे०) हलंत कम्पमान २२-६५ हिणहिण हेष् , हि हिन- ३०१-३७७ हिनाना, गु० हणहणवू हिल्लूर(दे०) अन्दोलन ८८-८ हुरुडुक्खिय(दे०) डमरुक ११२-१४७ हुंक (हुं+कृ) १११-९४ हिं० हुंकार करना हेति, प्रहरण ८५-१३ हेडाउड(दे०) हिण्डनव्यामृत, १८०-५६ परिभ्रमणशील व्यापारी हेर(दे०). २०५-३९९ हेवाइय हेवाकिक १३४-९ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् आख्यानकमगिकोशटीकान्तर्गतानि अपभ्रंशभाषानिवद्धानि पद्यानि गह-विस-भूयपणासण अस्थि अणेग नर, अस्थि जि वाहि विणासहिं तवावणि वेज्जवर । जाणमि वेज्जु सु सचउ सस्थागमु बहइ, नेहगहिहह चित्तह जो ओसहु कहइ ॥ [स्नेहे, पत्र २०३ पद्य ३३३ ] चकंकुसलक्वणु, भुवणविलकावणु, पक्वालिय बहुपावमलु । चउवीसजिणिदहं, पणयमुरिंदहं, पणमिवि भत्तिए पयकमलु ॥ अट्ठावयपव्वयसेहराह, भरहेसरकारियांजणवराहं । जसु जेत्तिउ जिणह पमाणु वन्नु, तं पभणहुँ निमुणहु देवि कन्नु ।। धणुसई पंच सिरिरिसहसामि, वरकगयति करिलीलगामि । धणुसय चियारि पंचासअहिय, कणयप्पहि अजियजिणिद कहिय ॥ संभवह जिणिदह सय चियारि, उच्चत्तु कणयवन्नह वियारि । आहुइसयई धणुहहं पमाणु, हेमाभह अभिनंदणह जाणु ॥ सय तिन्नि मुमइपरमेसरहो, उत्तत्तकायतणुभासुरहो । निम्मलपवालजुइमुप्पहस्स, अड्ढाइय सय पउमप्पहस्स ॥ दुइ धणुसय आसि सुपाससामि, तवाणिज्जवन्नु सिबनयरगामि । चंदपहु जिणवरु चंदछाउ, धणुसउ दिवड्दु तसु तणउ काउ ।। जिण सुविहि संखतलविमलदेहु, सो धणुसर एक्कु गुणोहगेहु । जिण धणुह नउइ सीयलसनामु, तषणीयवन्नु निम्महियकामु ॥ सेयसु मुवन्नसबन्नति, धणुह गीति तमु तणु कहति । रत्तुष्पलरत्त मुरिंदपुज्जु, सत्तारे धणुहह सिरिवासुपुज्जु ॥ जिणु विमल विमलकर कणयचन्नु, सो साट्ट धणुह सिपह पवन्नु । पचास धणुह जिणवरु अगंतु, कुलभवणु सिरिहि कलहोयकंतु ॥ सिरिधम्मु धम्मधुरधरणधीर, पणयालधणुहमज्जुणसरीरु । सिरिसंतिजिणह चालीस आसि, जो हेमवन्नु सिवनयरिवासि ॥ पणतीस कुंथुजिण हेमभासु, जिं सासयसिवपुरि पत्तु वासु । अरु कणयवन्नु धणुहरहं तीस, जमु पणमहि पाय सुरा-ऽसुरीस ॥ नीलुप्पलसामलु मल्टिनाहु, पणुवीसधणुह केवलसणाहु । मुणिमुव्बउ मुधर साममुत्ति, सो वीसवणुह बज्जरिय सुत्ति ॥ पन्नरसधणुह नमिजिणवरासु, तवणीयतणहु पगयामरामु । घणकज्जलसामलु रिट्टनेमि, दसवणुह धम्मवर चक्कनेमि ॥ मरगयसवन्नु तित्थयरु पामु, नवहत्य विणिदुयकम्मपामु । कणयाभु सत्तरयणीपमाणु, सिद्धत्यह नंदणु बद्धमाणु ॥ इय निरुवमसासण, भुवणपयासण, जो नरु भत्तिए संथवइ । चउवीस वि जिण पर, सिसिरिवहुवर, सो संसारि न संभमइ ॥ • [ चतुर्विशतिजिनानां वर्ण-देहमानगर्भा स्तुतिः, पत्र ३२३ पद्य १९-३३ ] जय जय पास ! जयप्पयास : पयडियवरसासण!, विविवाहि-उबसम्गवग्गसंसग्गपणासण । आससेणनारायजाय ! विनाउं महापहु !, बहुविहदुहदुत्थियहं देव ! विन्नति सुणि महु ।। अज्जु सलक्खणु सूरु अज्जु सुन्दरु मुविहाणउं, अन्जु पसत्थु वारु अज्जु वासरु मुपहाणउं । अज्जु नाह ! नक्वत्त जोगु तिहि करण विसिट्टउं, दुल्लहदंसण भावसारु जं तुह महु दिई । [पाश्वजिनस्तुतिः, पत्र १०७-८ पद्य २२-२३] जायंतिय दीणिम जणंति जोब्वणि संपत्तिय, चिंतासायरि खिवहिं तवहिं परमंदिर जंतिय । पियपरिचत्त अहुंतपुत्त मणु तारहि जणयहं, जम्मदिणि च्चिय नयणनीरु ति दिजइ तणयह ॥ [दुहितरि, पत्र १५० पद्य ७.] ताव फुरइ वेरग्गु चित्ति कुटलज्ज वि तावहि, ताव अकजह तणिय संक गुरुयणभउ तावहिं । तार्विदियई बसाई जसह सिरि हायइ ताहिं, रमणिहि मणमोहिणिहि वसिउ नरु होइ न जावहिं ।। सुकयत्थु वियकल णु सो सुहिउ, सुगइमरिंग जो संघडिट । परमोहणमूलियसरिसियह, जो बालियहं न पिडि पडिउ ॥ [ कामे, पत्र १३ पद्य ७१-७२] Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंशपद्यानामनुक्रमः ३९९ निठुर खुरपहारकंपावियमहिहरखोणिमंडलं, उवणियसेसरायगुरुमणहरु पसरिउ तुरयमंडलं । सेल्ट-मुमुदि-कुंत-वावल्ल-सरासणभरियसंदणा, चोइय चडिय समर दप्पुद्धरकंधर रायनंदणा ।। सुहडा परिपुरैतरणदुजयविकमबाहुपंजरा, संचलिय करालकरवालवियारियमत्तकुंजरा । कियअन्नोन्नबहलहलबोलसमाउलभुवणकंदर, क्लमब्भिट्ट समरि उद्धाइय पडिभडमुहडमुंदरं ॥ [युद्धवर्णनम् , पत्र ४८ पद्य ५७-५८] बलभद्द वि बलभद्द सयल नीसेस विमद्दिय, रावणपमुह पयंड जोह अवरे वि गभद्दिय । न वि उपरिउ कया वि को वि कुवियह जमरायह, पयडपयावह पाणिनिवहु पावह जिम्ब रायह ॥ [कृतान्ते, पत्र ३५६ पद्य ४१] वजंतचारुतूप्यं नञ्चंतनारिपूरयं, गायंततार गायणं दुवंतसाहुयायणं । नुप्पिजमाणचट्टयं पढंतभूरिभट्टयं, आवंतअक्खयत्तयं हीरंतपुन्नवत्तयं । किज्जतबालरक्खयं पूइज्जमाणपक्वयं, सुवेतविद्धिसद्दयं संतुट्ठपीढमद्दयं । ओलग्गमाणसेवयं संधुबमाणदेवयं, आवंतभूरिपाउले तोसिज्जमाणराउल । सिज्झतभत्त-पाणय दिज्जंतदीण दाणय, मुच्चंतगोत्तिबंधणं किज्जतरुट्ठसंधणं । वगंतचारुवारणं संजायलोयसारणं, तुप्पंतसाहुात्तयं लभंतभूरिभत्तयं । इय बहुविविच्छड्डिण रजियसयलजणु, विलसिरकित्तिकुलंगणनिम्मलकुलभवणु । नर-नारियण-नरेसरमणह मुहावणउं, विहवमहाभरिमिभि किउ वद्धावणउ ॥ [श्रेष्ठिपुत्रजन्मोत्सववर्णनम् , पत्र २६६ पद्य ३२ ] वज्जिरगहिरमणोहरतूरारवमुहल, जहिं नवरंगयनिवसणु नारीयणु सयलु । रभसपणच्चिरसुंदरवारविलयनिवहु, जहि सवु सम्माणिज्जइ नायरजणु सवहु ॥ ठावि ठांवि जहि गिजइ चच्चर सवणसुह, मगि मरिंग मग्गिजहि जहिं नरवइपमुह । भवणि भवणि उभिज्जहिं जहि जूवय-मुसल, पइ पइ जहि पूइज्जहि सत्था-55गमकुसल ॥ बंदणमालालंकिय तोरण जहि सहहि, वत्था-ऽऽहरण परोप्पर जहिं नायर लहहि । चट्टथट्ट जहिं दीसइ तेछचुयंतसिर, वद्धावणउं त वन्निउ सकहिं कवण किर? ॥ 'जीव नंद नंद य' रव सुब्बहिं जहि वयण, जहि संतुट्ठउ नरवइ वियरइ रह रयण । अभयदाणु जहिं दिग्जइ मणह सुहावणउं, तं तहिं हरिसिं वित्तउं निरु वद्धावणउं ॥ [राजकुमारजन्मोत्सववर्णनम् , पत्र २५८ पद्य ४४८-५२ ] वरि हर्ष मुय वरि हउँ म जाय वरि विसरि खद्धी, वरि उब्भियसूलियहि भिन्न वरि हुयवहि दद्धी । वरि उबंधियं स्क्वडालि वरि खड्डहि घल्लिय, मैं मई दिलु सवत्तिजुत्तु पिउ हियडासलिय ॥ [सपत्निदुःखे, पत्र ३७ पद्य २७ ] सील सुनिम्मलु दीहकालु तरुणत्तणि पालिउ, झाण-ऽज्झयणिहिं पावांकु. तव-चरणिहि खालिउ । इय हालाहलविससरिच्छ विसयास निवारहि, उज्जलवन्नु सुवन्नु धम्बिई में फुक्कई हारहि ॥ अब्भसिउ वीरपइन्नाण वरु, आवज्जिउ मुणिगुणहं गणु । ता संघइ स्वसमि धरहि मणु, आवइ तुरिउं जर-मरणु ॥ [शीले, पत्र १८३ पद्य १४-१५] Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् आख्यानकमणिकोशटीकान्तर्गतानां वर्णकानामकारादिक्रमेणानुक्रमः वर्णनम् पत्राकः गाथाङ्क: अनुरक-विरक्तनारी- ६३ ४९-५४ वर्णनम् । अयोध्यावर्णनम् ८१ १ ( अपभ्रंशभाषायाम् )। उजयिनीवर्णनम् । १९५ ७३-७६ काशीदेशवर्णनम्। २२२ १-५ प्रीष्मवर्णनम् । १६४ परिणीतराजकुमार ७६-८७ नगरप्रवेशवर्णनम् । २९५ १८८-२०१ पर्वतवर्णनम् १३७-३८८ (अपभ्रंशभाषायाम् )। युद्धवर्णनम् (अपभ्रंशभाषायाम् )। वर्णनम् पत्राङ्कः गाथाङ्कः युवतीवर्णनम् । २३२ ११७-२१ राजकुमारजन्मोत्सव- २५ २१-२४ वर्णनम् । २३१ ८९-१०२ २५८४४८-५१ ( अपभ्रंशभाषायाम् )। राजकुमारीवर्णनम् । ७२-७३ ३७-४१ राज्ञीवर्णनम् । ७-१५ वनवर्षावर्णनम् । १८ ३०-३६ वर्षा वर्णनम् । १४१ १८-२३ २०१ २६९-७२ वसन्तवर्णनम् । २५ ३५-४५ १३६ २-३ (अपभ्रंशभाषायाम् )। वर्णनम् पत्राः गाथाङ्क: विक्रमादित्यवर्णनम् । १९५७८-८. शरद्वर्णनम् । ९१-९२ २३-३८ श्रेष्ठिपुत्रजन्मोत्सववर्ण- २६६ ३२ . नम् (अपभ्रंशभाषायाम् )। श्रेष्टिपुत्रीवर्णनम् । ३१ २९-३२ " १९३-९४ १३-२५ समुद्रवर्णनम् । ३६१ २२९-३८ सरोवर्णनम् । १०८ सार्थवर्णनम् । १८ १५-२१ स्कन्धावारवर्णनम् । ११-१७ स्मशानवर्णनम् । २५२ २४२-१६ हेमन्तवर्णनम् । २-१३ षष्ठं परिशिष्टम् आख्यानकमणिकोशटीकान्तर्गताः स्तुतयः पत्राङ्कः गाथाङ्कः ३२३ स्तुतयः चतुर्विशतिजिनस्तुतिः (अपभ्रंशभाषायाम्) । जम्बूस्वामिस्तुतिः । पार्श्वस्वामिस्तुतिः (अपभ्रंशभाषायाम् ) । वर्धमानस्वामिस्तुतिः । २६९-७० १०७-८ १३-१४ १९-३३ १८-२९ २२-२३ १७१-७२ २४ ११५ १३५-४५ १८-२५ १४२-५० २३३ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 सप्तमं परिशिष्टम् आख्यानकमणिकोशटीकान्तर्गतानां सुभाषितपद्यानामकाराद्यनुक्रमः गाचादि अकायें तथ्यो वा भवतु पितयो या किमपरं तथाप्युन इरति महिमानं जनरवः । तुलोत्तोर्णस्यापि प्रकटनिहिताशेषतमसो, रवेस्तादृक् तेजो नहि भवति कन्यां गत इति ॥ अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलसङ्गतिम् । अनुत्सृज्य सतां मागं यत् स्वल्पमपि तद् बहु ॥ अच्छंतु निरंतरनेद्गम्भसम्भावसुंदरा सुयणा सहवासडिया तस्वरा वि दुबेहिं मुषंति ॥ अजात मृत मूर्खेभ्यो मृता ऽजातौ वरं सुतौ । तौ किञ्चिच्छोकदौ पित्रोर्मूखस्त्वत्यन्तशोकदः । , विषयः पत्राङ्कः अब बहु, बदर भरे सदर, पायमायर पड़ोसी जापचय च लोभद्दुओं चयः ॥ अता विहु तीए हुति हुंता दिति तीए ओ जीए समे नीलेसगुणगणा जय सा लच्छी ॥ अतो विहु अम्मा-पिऊग ता दुक्खमावहइ तणओ । होऊण विवज्र्ज्जतो बहुययरं कुणइ सो दुक्खं ॥ अणुपुंखमावहंता वि अणत्या तस्स बहुफला हुंति । सुइ-दुक्वकच्छपुडओ जस्स कयंतो वहइ पक्खं ॥ अविणासं नियकुल कलंकणं सयण मित्तनासं च । माणमलणं पि पार्वति पाणिणो जूयवसणेण ॥ पावंति बंधणं गोतिगोयरं, भाररोवणं सिरसा । कि जंपिएण बहुणा ! अवि कत्तणमुत्तमंगस्स ॥ कज्जा - Sकज्जं न मुर्णति, नेयऽवेक्खति दुक्खरिछोलिं । जह मम कएण इमिणा होहि त्ति अणत्थपत्थरी ॥ अथणाण धर्म सीलं भूतपरदियाण भूसणं परमं परदेसे निगेहूं, सबणविमुकाण नियरायणो ॥ अन्नह परिचितिज्जइ सहरिसकंदुज्जुएण हियएण । परिणमइ अनह चिय कज्जारंभो विहिवसेण ॥ अन्न व इयतो न नियह दडपेम्मपरबसाग दुई न गगइ कुटुंब न य चित मितविच्छोई ॥ न म परिभावद विश्-माइपभितगं नवरमेसो सच्छेदमुहं वियर भजतो मत्तस्य म ॥ अन्य विचिन्तयन्ते पुरुषेण मनोरथाः । देवा [दा] हितसद्धायाः कार्याणां गतयोऽन्यथा ॥ अपरिक्तियकयकज्जे सिद्धं पिन सा पति 2 सुपरिविजयं पुणो विडिये पि न जणे वयनि ॥ परीक्षिता परीक्षितकायें अपरोऽपि च कि मृते करोत्वतिरिक्तेऽपि च रोदना ऋते तदपि क्रियमाणमशिनां नितरां स्वार्थहरं विचिन्त्यताम् ॥ ३४९ मृतशोकत्यागे पुत्रे २७५ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्त्रर्गों नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा सुखं स्वर्गे प्रयास्यति ॥ अप्यविद्धिनिमित्तं किलम्मले ता चएस कोवरिनुं । विमलत्तम हिलतो कह मज्जति लिमि ॥ कोषपरिहारे १४५ अप्पं व बायरं वा परिग्गहं परिहरति धम्मधणा । राईभोयणविरई सया वि धम्मत्थिणा कज्जा ॥ परिषद रात्रिभोजन २३३ बान्धवे ३०८ स्वमाने २१७ कुशिष्ये नीतौ ३३० ७ लोकापवादे सदाचारे . वियोगे मूर्ख पुत्रे ५९ २२३ २५१ ९१ २६६ लोमे २८७ अर्थ २२२ मूर्खपुत्रे २६६ देवे १५१ अफलस्यापि वृक्षस्य छाया भरति शीतला निर्गुणोऽपि वरं बन्धुः परः पर एव सः ॥ अभिमानवजिया ठाणे ठाणे पराभवहयाणी । काउरिसाणं ताने न य इलोगो न परलोगो अयोग्यस्य गुणाधानं विधातुं नैव पार्थते । लाक्षारसेन केनापि कपसः किमु रज्यते । ॥ अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च । वचनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ॥ अलङ्कारः शङ्का करनरकपालं परिकरः, प्रशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको गतत्रयाः ॥ अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति यत्रामरगुरोर्विधौ वक्रे मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी ! ॥ अवमानिया वि जे नियगिदं पि न चति हीणमान्वणा। अभिमाणगुणविहूगा सामसमाण व ते नियमा ॥ समाने अवश्यं यौवनस्येन विकलेनापि जन्तुना । विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ॥ यौवने २०५ दैवे ३०० १० ५१ कृतान्ते २०९ देवे २७ गाथावडः १ ३२ २०० १९ १० २२ ३८ Apps द्यूते ४९-५० १०१-३ श्रीले २५४ २८४ १६१ देवे २३९ ११० ५५३-५४ ९१ १७ ११ १५० १६४ १८ ६४१ १९ ३३ ३६२ ६१ २० Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सप्तमं परिशिष्टम् AdS८ २६८ गाथा विषय पत्राङ्कः गाथाः अवि उड्ढं चिय फुट्ट ति माणिणो, न य सहति अवमाणं । अत्थवणम्मि वि रविणो किरणा उड्ढं चिय फुरति ॥ स्वमाने २१७ ६.२ अवि उभडमयरहरो नियभुयदंडेहि तीरए तरिउं । न हु पुवभवसमजियसुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ॥ . दवे २०८ ५३० अवि करवालकरालियरणंगणे कप्परिति ससरीरं । न सहति सयणविरइयपराभवं पोरिसिक्करसा ॥ स्वमाने १० अवि कालकूडकवलणममुह सुहमायरंति पियमाणा । न उणो मुयंति मरणे वि माणमाणिकधणमणहं ॥ २९८ २८५ अवि कुवियवज्जपाणिप्पमुक्ककुलिस पि रक्खिउं सक्का । न हु पुन्वभवसमज्जियसुहा-ऽमुहो कम्मपरिणामो ॥ दवे २०८ अवि चलइ धरणिवीढं रइकेलिविसंतुलस्स फणिवइणो । अभिमाणं माणधणा मणयं पि मुयंति न तहा वि ॥ स्वमाने १० अवि चलइ मेरुचूला, गयणाओ दिणमणी वि निवडेज्जा । न वि मुणिवयणं भुवणम्मि अन्नहा होइ कइया वि ।। मुनिवचने १५० अवि समरमरणमवि देसगमणमवि बंधुमुयणमिच्छंति । माणधणा न उ नियनिबंधुजणियं पराभवणं ॥ स्वमाने २९८ अवि ससुरासुरभुवर्ण जिप्पइ समरम्मि वीरसत्तेहिं । न हु पुन्वभवसमज्जियमुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ॥ देवे २०९ ५३८ अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वाणी वीणा नरश्च नारी च । पुरुषविशेष प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च ॥ संसर्ग १९४ अहव इह-परभवम्मि य परिभवताकुसुममंजरी महिला । कामुयजणस्स सुइरं निम्मत्रिया हयपयात्रइणा ॥ नारीनिन्दायाम् ४१ अहवा वि भवावदृम्मि वट्टमाणं सकम्मुणा जीवं । तं नस्थि कि पि विसमं जं न सहावइ विही एसा ॥ देवे २५३ अहो ! का काकानामहमहमिका हसविहगः, सहामर्षः सिंहैरिह हि कतमो जम्बुकतुकात् ? ॥ बत स्पर्धा कीहक् कथय कमलैः सेवलततेः १, सहासूया सद्भिः खलु खलजनस्यापि कतमा ? ॥ दुर्जने १८३ अहो! प्रकृतिसादृश्यं लेष्मणो दुर्जनस्य च । मधुरैः कोपमायाति कटुकैरुपशाम्यति ॥ , १७० अहो ! संसारजालस्य विपरीतः क्रियाक्रमः । न परं जल जन्तूनां धीवरस्यापि बन्धनम् ।। संसारस्वरूपे ९५ आक्रन्दितेन बहनापि च शोचितेन, सार्द्ध सुरेश्वरगणैरपि रोदितेन । कोडीकृतं हतकृतान्तभटैःस्वबन्धु, प्रत्यानयेयुरिह केऽपि न सद्धियोपि ।। कृतान्ते ३२६ आगमलमे वयपरिणईए भंगे य धण-विलाससाणं । ईसि असमंजसाण वि हिययाई वहति परिणामं ॥ सुपरिणामकारणानि ३०७ आयुःक्षयो भवति तस्य दरिद्रता च, नवान्यजन्मनि भवेत् कुलजातिलाभः । मांसाशिनो हतमतेविफलक्रियस्य, स्यान्नीचकमकरणोदरपूरणं च ॥ मांसत्यागे १८६ आयुर्वर्षशतं लोके तदर्ध च उपोषितः । करोति विरति धन्यो यः सदा निशिभोजने ॥ रात्रीभोजनत्यागे १३१ आलाणम्मि उ हत्थी, नियए ठाणम्मि घेप्पए अस्सो। हिययम्मि पवरमहिला, सुयगो सब्भावमेत्तेग ॥ सुजनावजने ११० आवइगओ वि नित्थरइ आ..यं, तरइ जलहिपडिओ वि । रणसंकडे वि जीवइ जीयो अणुकूलकम्मवसा॥ पुण्योदये १८० इयरासु वि जुवईसुं न वीससेयवमेत्थ कुडिलासु । विसमविससन्निभासुं कि पुण वेसासु विस्सासो ? ॥ वेश्यायाम् इह-परलोयविरुद्ध अणत्थहेउम्मि को रमेज इहं ? । इय नाउं सविवेया जूयस्स परम्मुहा जाया ।। ईसा-विसाय-मय-मोह-माणमहियाण नियबुद्धीण । जायंति कलंकाई जियाण जं तं किमच्छरियं ? ॥ कषाये ६६ उज्झसु विसए. परिहरसु दुन्नए, ठवसु नियमणं धम्मे । ठाऊण कन्नमूले इटुं सिटुं व पलिएण ॥ पलितोद्गमे १६४ उज्झंति धणं, मुंचंति परियणं, महियलं परिचयंति । मरणे वि महासत्ता न उणो माणं परिहति ॥ स्वमाने ३९ उट्ठइ सणिय सणियं वंसे संचरइ गाढमणुलग्गो । थेरो ब सुयणनेहो न वि भज्जइ बिउणओ होइ ॥ सुजनस्नेहे ९९ उत्तमैः सह साङ्गत्यं पण्डितैः सह सङ्कथा । अलुब्धैः सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति ॥ नीतौ १७९ उद्वेगमहावर्ते पातयति पयोधरोन्नमनकाले । सरिदिव तटमनुवर्ष विवर्धमाना सुता पितरम् ॥ दुहितरि ११० उप्पयउ गयणमग्गे रुंजउ कसिणत्तणं पयासेउ । तह वि हु गोब्बरईडो न पावए भमरचरियाई ॥ दुजने १८३ अवयरिए उवयारो जो सो वणियाण होइ ववहारो । अवरत्थ जमुवयरियं तं पुण गझ्या पसंसंति ॥ सुजने २५७ उवयारसहस्सेण वि तिन्नि न घेप्पंति तिहुयणे सयले । वेसा अविवेयपहू दुज्जणलोओ तह चैत्र ॥ दुर्जनादौ १८. पकस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ । दुक्खे ठवंति जे केइ ताण कि सासयं जीयं ? ॥ अहिंसायाम् ३२७ एकस्स खणं तित्ती अन्नस्स य तिहुयणं पि अत्थमइ । एवं कह मारिज्जउ खणसोक्खकएण पाणिगणो ? ॥ , ११९ एगेण विणा पियमाणुसेण सन्मावनेहरसिएण । जणसंकुला वि पुहवी अव्यो ! रनं व पडिहाइ ॥ विरहे ३१४ एतासु निघृणपुरन्ध्रिषु राक्षसीषु, मायाधनासु च न विश्वसनीयमेव । एता हि मुग्धजनमात्मवशं विधाय, संसारदुःखजलधौ खलु पातयन्ति ।। नारी निन्दायाम् २१८ murv . . Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितपद्यानामनुक्रमः ४०३ गाथाङ्कः ३४ . ४ ८ ८ . 5 गाथा विषय पत्रातः एषा स्थली नवतृणाकुर जालमेतदेषा मृगीति हृदि जातमदः कुरङ्गः । एतन्न वेत्ति स यथाऽन्तरितो लताभिरायाति सज्जितकठोरशरः किरातः ॥ कृतान्ते ३१२ औद्धत्यदोषर हिता विभवे भवन्ति. दैन्यादपेतमनसो व्यसनेऽपि सन्तः । पुण्याशयाः स्तिमितनीरधिनीरकल्पाः, सर्वत्र सम्पदि विपद्यपि तुल्यचित्ताः ॥ धीरे ३०॥ औत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा, फ्लिनाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव । नातिश्रमाय नयनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवातपत्रम् ॥ राज्यश्रीनिन्दायाम् ३५६ कज्जविहूर्ण वयणं, धम्मविहूणं च माणुसं जम्म । निरवच्चं च कलत्तं तिनि वि लोए अणस्थाई । सन्ततौ २९० कट्ठ करति, समरे मरति जलणं धरति सीसेण । न उणो जिणंति को पावमिणं धम्मवणदहणं ॥ क्रोधे १६१ कयकूडकवडचाडुयरइकलिया कोढियं पि कामैइ । परिहरइ रइविरत्ता धणहीणं कामएवं पि ।। वेश्यायाम् ४० करिकन्नचवलचित्ता कयंतचित्तं व निग्विणा महिला । महिला सच्चविरहिया अणभवज्जासणी महिला ॥ नारीनिन्दायाम् १४२ कलुसमई कलुसं चिय विमलो विमलं परं पि पिच्छंति । आत्ताणयं व आयरसए मजेणं जणो नियइ ॥ सुजन-दुजनयोः २८८ कल्पद्रुमः कनिष्ठोऽपि कल्पितं राति देहिनाम् । मध्नाति न महानागान् कनीयानपि केसरी ! ॥ १३२ . कल्याणकारनिरवद्यगुणैरनल्पं, शश्वत्तवित्रपरपावनतीर्थकल्पम् । धन्यस्य कस्यचिदिदं शुभजन्मभाजः, पुण्यात्मनः सुमुनिदर्शनमाविरस्ति ।। मुनिदर्शने २७६ कस-छेय-तावसुद्धो पुमा-घरवाहबज्जिओ धणियं । सचरा-ऽवरजीवहिओ धम्मो वि हु विसयनिग्गहणो॥ धर्मे ३१४ कस्स न चुकं खलिय समेइ भावासमहिवसंतस्स । पुणरवि तह जइयव्वं जहा न मइलिज्जए अप्पा । भवस्वरूपे १०६ कामवि सुयणो सुयणस्स आवयावणयणम्मि असमत्थो । आवइपडियं दटुं अपारयंतो अवक्कमइ ॥ सुजने २८७ कह वि हु कत्तीए संधिज्जइ कि न तुट्टओ तंतू! | पाओ य कि न धुवइ असुइविलित्तो पमायवसा? ॥ पश्चात्तापे १५६ कंदररहिया वग्घी विसूइया भोयणं विणा महिला । पंक विणा वि कलंको महिला वयणिज्जकुलभवणं ॥ नारीनिन्दायाम् १४२ काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन हि मूर्खाणां निद्रया कलहेन च ॥ पण्डित-मखयोः २९५ किर कस्स थिरा लच्छी ? कस्स जए सासयं पिए पेम्म । कस्त व निचं जीयं? भण को व ण खंडिओ बिहिणा?" देवे २०९ कि तीए सिरीए पीवराए ? जा होइ अनदेसम्मि । जा य न मित्तेहिं समं जं च अमित्ता न पेच्छंति ॥ लक्ष्म्याम् २२३ कि बहुणा सव्वाण वि नर-अमरा-ऽसुरसुहाण संजणणं । सील ता पालिज्जउ तम बंड भब्धसत्तेहि ॥ शीले ३४३ कुधियः क्वचिदर्तिसङ्गताः, किल कुयुः शुचमङ्गकैयकैः । विलसन्ति तदेव तरमी, मनुजानां धिगिमां विडम्बनाम् ॥ शोके ३५० कुपितः किल कुटयते यकद्, विपदि स्वेन निजं शरीरकम् । बत ! सम्प्रति तेन नृत्यते, प्रकटाङ्ग किल का विदग्धता ? ॥ कृच्छ्राद् ब्रह्मन्द्रभूतेरजनि परमितः स्थूलभद्रो विकार, मुञ्चत्यभ्रूण्य जसं मणगमृतिविधी पश्य सेज्जम्भवोऽपि । षण्मासान् स्कन्धदेशे शवमवहदसौ हन्त ! रामोऽपि यस्मादित्थं यश्चित्ररूपो भवतु भुवि नमो मोहराजाय तस्मै ॥ मोहे ३२१ कृतमिदमिदं करिष्ये केवलमतिसरल ! किमिति चिन्तयसि ? । तुटिदलितसकलवाञ्छ विलसितमपि चिन्तय विधातुः॥ देवे ३११ कृशः काणः खनः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो दीनः पिठरककपालार्पितगलः । वर्णः पूयक्लिन्नः कृमिकुलचितैराचिततनुः, शुनीमभ्येति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः ॥ कामे २२१ केसरि वारिउ सक्का वारणं वा वि भीसणं । नालं बुद्धिसमिद्धा वि वारिउ भवियब्वयं ॥ देवे १५० क्क विलासाः ? क्व पाण्डित्यं ? क्ा बुद्धिः ? व विदग्धता: । क्व देशभाषाविज्ञानं ? क्व देशाचारचारुता?॥ यावर्तसमाकीर्णा नानावृत्तान्तसकुला । नानेकशः परिभ्रान्ता पुरुषेण वसुन्धरा ॥ देशाटने ३.६ खणदंसियसुरसरिवित्थराई खणसुन्नरन्नसरिसाई । एयाई ताई कम्मिदयालिणो जीव ! ललियाई ॥ वे ३०० ३२. खणदिद्वनविहवे खणपरिय{तविविहमुह-दुक्खे । खणसंजोय-विओए नत्थि सुहं कि पि संसारे ॥ संसारासारत्वे ३.१ खणभंगुरसंसारियपयत्थसत्थम्मि नायपरमत्था । पडिबंधमणत्यफलं कुणतु कहमेत्थ सविवेया ? ॥ निर्वेदे ३१६ खरपवणपणुन्नकुसग्गलग्गजलबिदुसच्छह जीयं । तरणिकरतवियतरुखुडियकुसुमसरिसं च तारुन्न ॥ अनित्यत्वे ३०२ २११ ५५२ C We८८. . . . ४९-५० २९६ १८१ ३९९ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सप्तमं परिशिष्टम् V MY गाथादि विषयः पत्राङ्कः गाथाद्यतः खेलालीढा तुच्छ ब्व मच्छिया दुकर विमोएउ । महिलासंसग्गीए अपाणो पुरिसमेत्तेण ॥ नारीनिन्दायाम् २७५ गतं मृतमतिकान्तं न शोचन्ति विपश्चितः । गतं गतमतिकान्तमतिक्रान्त मृत मृतम् ॥ शोकापहारे ५८ गते मृते प्रबजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ नारीपुनर्लग्ने गतेर्धन्यतरो वर्णों वर्णाद् धन्यतरः स्वरः । स्वराद् धन्यतरं सत्त्वं सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ __ सत्त्वे ३६३ गयकन्नतालतरलं जीवियमवि जाव सबजीवाणं । संझन्भरायसरिसं जोवणमवि चंचलसहावं ॥ अनित्यत्वे ३१६ गयणम्मि निरालंबणमवि परिसकंति साहसेकरसा । माण सिणो न मणयं पि माणभंगं परिसहति ॥ . स्त्रमाने २९८ गह-सूरचंदचरियं ताराचरियं च राहुचरियं च । जाणंति बुद्धिमंता महिलाचरियं न याणंति ॥ नारीचरिते १९३ गंगाए बालुया, सायरे जलं, हिमवओ य परिमाणं । जाणंति बुद्धिमंता महिलाचरियं न याति ॥ नारीचरिते १९३ गुणानामेव दोषात् स्याद् धुरि धुर्यों नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः सुखं जीवति गौगलिः ॥ निर्गुणप्रशंसायाम् २८६ गुरुदार नरयपुरस्स, सच्चनलिणीवणस्स हिमपडणं । निस्सेसदोसगेहं ता घिद्धीधी! इमं वसणं ॥ यूते ५० गुरुदुहतरुणो बीयं सयलअणत्थाण मंदिरं विउलं । कुलकित्तिविणासकर ता घिद्धीधी1 इमै बसणं ॥ ५. गुरु-मित्तत्थे पाणा, रूवं तारुनय च दइयाए । विहलुद्धरणम्मि धणं जं उवउज्जइ तयं सफलं ॥ नीतौ १९६ गुरुशोकवशेन ताडयते हृदयं यत् स्वकरैः सुनिर्दयम् । तदपि प्रियहारयष्टिभिः प्रमदेऽलक्रियते विचेतनः ॥ शोके ३५० घटिकाध घटीमात्र यो नरः कुरुते व्रतम् । स स्वर्गी कि पुनर्यस्य व्रतं यामचतुष्टयम् ॥ रात्रिभोजनत्यागे १३१ घणमालाओ व समुलसंतसुपओहराओ वड्ढंति । मोहविसं महिलाओ गोणसगरलं व पुरिसस्स ॥ नारीनिन्दायाम् ३३० चउतीसअइसयजुओ अट्ठमहापाडिहेरकयसोहो । जियराय-दोस-मोहो एसो देवो सुगइहेऊ ॥ सुदेवे ३१४ चयइ सिणिद्ध पि जणं कुणइ अकज पि हणइ जणयं पि । कि कि न कुणइ सामिणि ! परवसो सेवयवराओ?॥ दासत्वे ३३८ चरणैरिह शोकतो यकैर्विलिखद्भिर्भुवमा ! शोचितम् । मुदितैरिह गम्यते तकविलसद्भिर्भुवि हंसलीलया ॥ शोके ३५० चवला मइलणसीला सिणेहपरिपूरिया वि तावेइ । दीवयसिह व महिला लद्धप्पसरा भयं देइ ॥ नारीनिन्दायाम् १९४ चंदकला-छुरमट्ठी-चोरियरमियाई राइणो मतो । सुठु वि गोविजतं चउदियहे पायड होइ॥ गोप्यस्यारक्षायाम् २२१ चंदस्स खओ, न हु तारयाण, रिद्धी वि तस्स, न हु ताण । गरुयाण चडण-पडणं इयरा पुण निश्चपडिय त्ति ॥ विपदि चाएण दरिद्दत्त, घाएहि य काण-कुंट-मंटत्तं । पुत्तेहि परिभवं जे गुणेहि पाति ते धना ॥ सुपुत्रे ३०७ चिन्तयति कार्यजातं मतिमाः मतमन्यथाविधानेन । निर्दुःखसुखस्तु विधिस्तच्चिन्तितमन्यथा कुरुते ॥ देवे ३१० चिन्तामणि जयदनगजितो जिनस्य, बिम्ब जरत्तरतृणीयितकामधेनु । । निस्सारकामघटमल्पितकल्पवृक्षं, कल्याणकृत् कृतधियो हवलोकयन्ति ।। . जिनबिम्बे १०३ चिरविरहियपिनजणसंगमम्मि जायइ जणस्स जं सोक्खं । तं कहिउं पि न तीरइ संकासं निरुवमसुहस्स ॥ प्रियप्राप्तौ ३०७ चितिजइ जं न मणे, जुत्तिवियारेण जुज्जइ न जं च । ते पि हयासो एसो मुहमसुहं वा विही कुणइ ॥ देवे ३०० चितियचितारयणं अहरीकयकामधेणुमाहप्पा । अवहत्थियकामघडा एक चिय होइ जीवदया ॥ जीवदयायाम् २३७ छिजउ सीसं, अह होउ बंधणं, वयउ सव्वहा लच्छी । पडिवनपालणे सुपुरिसाण जं होइ त होउ ॥ प्रतिज्ञापालने १९६ छित्त्वा पाशमपास्य कूटरचना भित्त्वा बलाद् वागुरां, पर्यन्तोगशिखाकलापजटिलान्निगल्य दावानलात् । व्याधानां शरगोचरादपसृतो वेगेन धावन् मृगः, कूपान्तः पतितः करोतु विमुखे किं वा विधौ पौरुषम् ॥ दैवे ३१० जइ जलइ जलउ लोए कुसत्थपवणाहओ कसायग्गी । तं चोज्जं जं जिणवयणवारिसित्तो वि पजलइ ॥ क्रोधे १६१ जइ पविससि पायाल, लुक्कसि गिरिकंदरेसु विसमेसु । तह वि हु पुवकयाओ न मुच्चसे जीव ! कि बहुणा ? ॥ देवे २५३ जइ वि हु वज्जियसंगो कुलेण चंगो तवेण तणुयंगो। तह वि हु एगो परिवडइ, वसह ता सुगुरुकुलवासे ॥ गुरुकुलवासे २४४ जठरापरिपूरणे पुमानतिमान्यां मुक्त्वा मनस्विताम् । अवधूय मनःप्रियां ह्रियं परिहत्य स्वकुलव्यवस्थिताम् ॥ कुरुते कुनरेन्द्रसेवन, तनुते नीचजनेऽपि संस्तुतिम् । प्रथयत्यहितेऽपि मित्रतां त्यजति स्वाचरणं सतां मतम् ॥ उदरभरणे ३.९ जन्म-जरा-मरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरण क्वचिल्लोके ॥ जिनवचने ५९ जन्मेदं न चिराय भूरिभयदा लक्ष्म्योऽपि नव स्थिरा, किम्पाकान्तफला नितान्तकटवः कामाः क्षयध्वंसिनः । आयुः शारदमेघचञ्चलतरं ज्ञात्रा तथा यौवनं, हे लोकाः ! कुरुतादरं प्रतिदिनं धर्मेऽघविध्वंसिनि ॥ अनित्यत्वे २५९ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितपद्यानामनुकमः गाथादि जम्हा गुणाण मूल माणो पुरिसाण धीरचित्ताणं । परदेसे वि न पात्रंति परिभव जेण संजुत्ता ॥ जड़ फिर हुई पेच्छ मजारी न उण उडयं मुद्धा तद मूढो विसयहं पेच्छ जो नरवदुक्ताई ॥ विषयपरिहारे जह किंपागतरुफलं मुहम्मि महुरं कुणंति खजंतं । तह आवाए सुहया परिणामे दारुणा विसया ॥ धैय २५० देवे २५० विषयपरिहारे ३१६ ॥ स्नेहे २५० अर्थ २२२ सुकृते २७६ जह चेव विसमसल्लेण सल्लिओ को वि दुक्खिओ होइ । तह विसयसहिओ वि हु भत्रम्मि जीवो वसइ दुहिओ जह जह वाएइ विही विसरिसभंगेहि निडुरं पडलं । घीरा पसन्नवयणा नश्चंति तहा तहा चेव ॥ जह वा मुहम्मि महुरं मारइ हालाहलं विसं भुतं । तह विसया वि हु पावा मारंति जियं भवावट्टे ॥ विषयपरिहारे जं एइ अवसरेणं परिवाडीए सुहं व दुक्ख वा । तं सहह अदीणमणा जात्र पसायं त्रिही कुणइ ॥ जं जेण पावियन्वं सुहं व दुक्खं व कम्मनिम्मवियं । तं सो तहेव पावइ कयस्स नासो जओ नत्थि ॥ जं पि किर विसयसोक्खं जियाण रम्मत्तणेण पडिहाइ । तं पि महुबिदुकूवयनायाओ तुच्छमचत्थं ॥ जं मण या दिहिं हं मनंति मिदुगाणं हियरस न च तत्थ गया कुणउ कि दिडी जाई रुतं विजा तिथि विनिवरंतु विरिगुहाविवरे । अत्थो चित्र परिक्डड जेण गुणा पायड़ा हुति ॥ जाएण जीवलोए दो चेव नरेण सिक्खियव्त्राई । कम्मेण जेण जीवइ जेण मओ सोग्ाई जाइ ॥ जाण रमणियणनमुदानयको सीकयं न मि नमो नमो साथ वीराण ॥ जागंति पिगं थिय दोगुत्तमा अमयमुत्तिणो नूपं कि अमयाओ अन शरिदं मयलछणो गुणइ १ ॥ जाव न दुक्खं पत्तो, पियबंधवविरहिओ य नो जाव । जीवो धम्मक्खाणं भावेण न गिव्हए ताव ॥ जाव चिति पयत्यजाये असासयमसारं तावरं चितिज धम्मो थिय सुहयरो बंधू ॥ जिगपूपा मुशिदार्थ एसियने गिहीण सचरियं जइ एमाओ भट्ठो ता भट्टो सम्मकजाओ ॥ जिनानं शिक्षाणं महाण महाफलं समुद्धरणे समए चिरंतणाणं दंसियमसचयाणं पि ॥ जी जोन्वणमिट्टी पियजोगा व अस्थिर सम्वं खणदिनहरुवं महम्मि गंधवनगर जीवितं देहिनां यस्मादनेकापायसम् । कयचिद् देवयोगः स्वातं सोऽनशनी भवेत् ॥ जो अरावयगडयल मडियमवर दपरिमलपनि शीले १८४ सुजने २८८ धर्मे ३६० २९० जो कमसीयलतीरे नीरे रेवाए मज जहिच्छे सो कि इवरे वियरे गओ गओ दे दिह्निपि १ ॥ जो गंतुजितनए नए नओ भवइ वसइ वरवच्छे । सो नीलगलो विगलो कि विगयतरुं मरु सरइ ! ॥ जो पयसामलए मलए मयरंदवासिओ बसियो । सारंगी सारंगो सो कि इसरे घरे रम ! ॥ जो जेण सुद्धधम्मम्मि ठाविमो मिहिना वा सो चेव व तस्य गुरू जाय सद्धम्मदाणाम | जो देह मलिनिम्मरवितो जिगनाहवीवयं तस्स जायंति सलहाणयाई सहलाई पुत्रेण ॥ जो नासियधवगंगं गंगं धवलुजलं जलं लिहइ । गयसोहं सो हंसो कि सेसनईपयं पियइ ? ॥ जो पोठपुरंधिरए रओ पका पकामकामम्मि सो कि मोहियमोरे खोरे कामे मर्ण कुइ ! ॥ जो माणसम्म बसिओ दिवसिय सयवत्तमासलामोए । सो कि पलासे सविलास छप्पओ छिन विषयः पत्राङ्कः माने १० २५९ २५९ धैर्ये २९९ २५९ तवेण हुंति लद्धीओ सग्गा मोक्खा तवेण य । तं नत्थि एत्थ कल्लाणं तवाओ जं न जायए ॥ तहलालियरस तहपालियस्स तहसुरहिगंधम हियस्स । खलदेह । तुज्झ जुत्तं ? पयं पि नो देसि गंतव्वे ॥ तं किं पिजए पुदि माणुसे मिलद गुणमणिमहग्धं अश्वाहिज जम्मो वि जस्स साहिजएण मुहं ॥ तं किं भुषणोयरम्मि पावं न जं अहिलसति पुरिसा विसयपिवासपरसा मुहमजाया ता पमायं पमोत्तूण कायव्वो होइ सन्त्रहा । उज्जमो चेव धम्मम्मि सव्वसोक्खाण कारणे ॥ ता लजा ता माणो ता इहपरलोयचितणे बुद्धी जा न विवेयजियरा मययस्व सरा पहुप्यति ॥ देवपूजा मुनिदाने १२१ पोरणे ३२३ او अनित्यत्वे ३०२ रात्रिभोजनत्यागे १३१ ९६ ९७ ९७ सो निवसिय पिन रम पिचुमंदं महुयरजुवागो ॥ पात्रानुरागे މވ 23 " ९७ गुरौ २८१ दीपपूजायाम् १०४ पात्रानुरागे ९७ ॥ विरहे तग्गय ! तथाणुरतय । तस्सुकंठलय ! तम्गुणदुहत्त । तव्विरहवज्जनिहणिय ! हियय ! तए किह विणोइस्सं? तणरासीहिं व जलणो, जह जलनाहो नईसहस्सेहिं । नो तिप्पइ तह जीवो बहुयाहिं वि भोयणविहीहि ॥ रसगृद्धौ तवेण उत्तमो जम्मो कती लायणमुत्तमं । तवेग वसामिद्धी तरेण गुहपया ॥ तपसि तवेण वित्थडा कित्ती तवेग मुहगत्तमं । सुरा वि पक्तुवाति तवोगुणरयं सया ॥ " ९७ ९७ २७ २६९ ५५ ५५ ५५ देहासारत्वे १७७ सुजने कामे धर्मे कामे ૭ १९७ ३१६ ९२ ४०५ गाथाद्यङः ६० ४६६ ४६२ ४६४ ३३४ ४६३ १६० १५१ १८४ १७४ २१ २९ २१ ११९ १८६ २२ १० ३९ ३९८ ४७ ४० ४४ ४६ ४५ १०४ २ ४३ ४७ ४२ ७७ २९ ३१० ३११ ३१२ ३२ ९८ १३८ १८० ५८ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सप्तमं परिशिष्टम् ५९ १०२ गाथादि विषयः पत्राङ्कः गाथाद्यतः ताव परो वि हसिजइ कीरइ माणं थिरत्तणं लज्जा । जा विसमे न पडिजइ अत्याहे पेम्मकूव म्मि ॥ कामे ९२ तिट्ठा लज्जानासो भयबाहुलं विरूवभासित्तं । पाएग मणुस्साणं दोसा जायंति वुड्ढतं ॥ वाद्धक्ये १७८ तेसि घिरत्थु विसयाण पाणिणो जेहि मोहिया संता । रागंधनयणजुयला कजा-ऽकजाई न नियंति ॥ कामे १९७ १३७ त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्याथें कुलं त्यजेत् । ग्राम जनपदस्याथै, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ आत्मप्राधान्ये १५. त्राय, प्राणिसङ्घातं, सेवध साधुसंहतिम् । ददध सन्मती चित्तं, यतध्वं शासनोन्नती ॥ धमकरणे ३११ थेवं थेवं धम्मं करेह ता जइ बहुं न सकंह । पेच्छह महानईओ विहि समुद्दभूयाओ । धर्मकरणे १७७ थेवा वि हु जीवदया जियाण कल्लाणसंपयं कुणइ । मणकप्पियं पयच्छइ अहवा तणुया वि कप्पलया ॥ जीवदयायाम् २३७ दरहसियं सरसकडक्खियं च वनति पेमसबस्स । मिहुणाणमेगसयणेऽवत्थाणं लोकववहारो ॥ स्नेहे २५० दंष्ट्राकरालवदनं हरिमप्यजन्ति, मत्त करीन्द्रमपि वीरधियो धरन्ति । कल्लोलसङ्गुलमपांपतिमापिबन्ति, देवं बृहस्पतिधियोऽपि न वारयन्ति । देवे ३२१ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तद्धि विजानीहि, न नक्तं निशिभोजने ॥ रात्रिभोजने १५२ दुःखरूपं यतः सर्व हेतुश्च भवसंमृतेः । अतः सर्वविदाऽऽख्यातं कुरुधं धर्ममञ्जसा ॥ धर्मे ३११ दुष्टापकारि मदनारि मलापहारि, सद्वारि तीक्ष्णतरवारि मघारिभेदे । धर्मोपकारि गुणधारि विपत्तिवारि. संसारजीवविसरा: ! परिपात शीलम् ॥ शीले ६७ दूरं वच्चइ पुरिसो तत्थ गओ निव्वुई लहिस्सामि । तत्थ वि पुवकयाई पुव्वगयाई पडिक्वंति ॥ देवे २५० देव-गुरूणं भत्ती इहेव वारेइ सयलदुरियाई । परलोए य नरा-ऽमरसुहाई संपाडइ जियाण देव-गुवोंः १२१ देस मुयंति जीयं चयंति पियबंध पि न गणेति । अभिमाणधणा पुरिसा रजन्भसं पि हु सहति ॥ स्वमाने २१७ दोगच्च-दुग्गदोहग्गदुक्खमेएण पाउणइ जीयो । पावमिमं भयजणयं ता भवा! परिहरह वइरं ॥ वैरपरिहारे २६७ धन्ना हु जए जइणो जइणो कंदप्पसप्पदप्पस्स । मरणे वि जाण मुसियो न माणमाणिकभंडारो ॥ मुनौ ११ धम्मत्थिणा य पियजीवियाण जीवाणमवहणं कर्ज । सवगुणाणं मूलं सच्चं भासंति धम्मपिया ॥ प्रियधर्मे २३३ धम्मेणं चिय अत्था धम्मेणं चेव उत्तमा भोगा । धम्मेण सग्ग-मोक्खा सुहाई सब्वाणि धम्मेण ॥ धम्मो अत्थो कामो मोक्खो चत्तारि होति पुरिसत्था । धम्माओ जेण सेसा ता धम्मो तेसि परमतरो ॥ धम्मो जियाण जणओ धम्मो माया सुओ सुही बंधू । भवभमणविनडियाणं जायइ परमत्थओ ताणं ॥ धम्मो भवंधकूवयपडतहत्थावलंबणसमाणो । धम्मो दुरंतदालिद्ददलणसुंदरनिहाणनिभो ॥ __, ३१३ धम्मो समग्गगुणजुत्तसग्गसुहगमणसुंदरविमाणं । धम्मो सासयसिवपुरसंपावणपरमरहरयणं । , ३१३ धम्मो समत्थविस्सासठाणसम्भावसंगयं मित्त । धम्मो विणीय-आणावडिच्छ-निभिच्चभिचसमो ॥ , ३१३ धम्मो संसारमहासमुद्दनिवडतजाणवत्तं व । धम्मो भीममहाडविनित्यारणसत्थसत्थाहो ॥ . ३१३ धम्मो सिणेहसंगयसुयवच्छलभावसंगया जणणी । धम्मो मुहयरसिक्खासंपाडणपञ्चलो जणओ ॥ धारिजइ इंतो जलनिही वि कलोल भिन्नकुलसेलो । न हु पुग्वजम्मनिम्मियसुहा-ऽसुहो कम्मपरिणामो ।। कर्मपरिणामे ९२ धावेइ रोहणं, तरइ सायर, भमइ गिरिनिउंजेसु । मारेइ बंधवं पि हु पुरिसो जो होइ धणलुद्धो । लोभे २८७ धीराण कायराण व अणथरि छोलिया पडइ देहे । सा सहियबा, न सहइ बला वि दइवो सहावेइ ॥ दैवे २५० न करिति जे तवं संजमं च ते तुलपाणि-पायाणं । पुरिसा समपुरिसाणं अवस्सपेसत्तणमुर्विति ॥ तपसि ३२ न कुलस्स पहाणत्तं कारणमिह लहुयकम्मया धम्मे । तो जिणवयणविऊहिं कुलाभिमाणो न कायवो ॥ कुलाभिमानपरिहारे २७१ न राजन हयन पत्तिभिन रथ व नयन विक्रमः । न घनश्चिरसञ्चिधनेन च मन्त्रैरपि वार्यते यमः ॥ कृतान्ते ३५० न गणइ कुलाभिमाणं न य इहलोग, न यावि परलोगं । नियकुलकलंककारी नारी चलंतिया मारी ॥ नारीनिन्दायाम् १४२ न तहा तवेइ तवणो, न जलियजलणो, न विज्जुनिग्याओ . जं अवियारियकजं विसंवयंतं तबइ जंतुं ॥ अविचारितकायें न ब्रह्मा नेन्दुमौलिः शशधर-तपनौ नापि नारायणोऽसौ, नाप्यष्टौ लोकपालाः सह सुरपतिना नापि बुद्धो न चाहन् । आकृष्ट कालपार्शजनमनुदिवसं नीयमानं वरावं, व्याघ्राघ्रातं वनान्तात् पशुमिव विवशं त्रातुमेते न शक्काः ॥ कृतान्ते ३१० धर्म ३१३ Jain Education Interational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितपद्यानामनुक्रमः ४०७ . ८ 22 . . . AMC . . , ३२५ ० गाथादि विषयः पत्राङ्कः गाथाद्यः नभस्तलतरङ्गिणी जलविलासलोलाः श्रियः, कुरङ्गनयनेक्षणभ्रमणभार यौवनम् । विलोललवलीदला[व]लिचलाचलं जीवितं, समस्तमपि गत्वरं जगति जैनधर्म विना ॥ जैनधर्म ९८ नयनर्गलदश्रक जनः, शुशुचे यरिह तैरपत्रपः । सकटाक्षमपाङ्गसञ्चरनयनत्र्यंशमयं निरीक्षते ॥ शोके २५० नातीव सरलर्भाव्य गत्वा पश्य वनस्पतीन् । सरलास्तत्र छिद्यन्ते कुब्जास्तिष्टन्ति पादपाः ॥ नीतौ २८६ नानर्थमनिनिवहस्य रिपुर्विवृद्धस्तादृक्षमुग्रकरवालकरः करोति । यादृक्षमेतदिह शल्यमनुद्धतं सत् , कुर्यादतस्तदलमुद्धरताशु सम्यक् ॥ अन्तःशल्ये २६२ नारय-तिरियगईओ सत्ता पार्वति पुण अहम्मेण । ता परिहरिय अहम्मं धम्मम्मि रई सया कुणह ॥ धर्म १९९ नासइ कुलाहिमाणो, लज्जा परिगलइ, पोरिसं पडइ । दूरे गुरूण सेवा नारीवसयाण भणियं च ॥ नारीनिन्दायाम् ९३ नासइ खंती, परिगलइ पोरिसं, लहु पलायइ विवेगो । सिक्खा वि ठाइ न मणे छुहाभिभूयाण जीवाणं ॥ क्षुधि १६१ निद्राभङ्गं कथोच्छेदं सारथ्यं क्रयविक्रयम् । शकोऽपि द्वेष्यतां याति यः करोति चतुष्टयम् || अरुचिस्थानानि २८६ निप्पकसुवन्नसमुज्जला वि सुइसीलसोरभजुया वि । केयइफडस व्व सुया परोवयाराय निम्मविया ॥ दुहितरि २९४ नियकज्जबद्धचित्ता महिलाऽणत्याण कारणं परमं । घिप्पइ न य रूवेणं न यावि सम्माणदाणेणं ॥ नारीनिन्दायाम् ३२९ नियबंधुणो वि जेणं कुणति सत्तुत्तणं निरवसेसं । वज्जियकज्जा-ऽकजा ता धिद्धीधी ! इम वसणं ॥ द्यूते ५० नीयंगमाहिं सुपओहराहिं उप्पिच्छमंथरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहि व गिरि व्य गरुया वि भिजति ॥ नारीनिन्दायाम् ३३० नेहगुणक्खयकारी दीवयकलिय ब्व पत्तनिहिया वि । निश्चं सकजलगा दहणसरूवा जए महिला ॥ ३२९ नेहेण दारुरहियम्मि पंजरे वसइ सइ सुओ ब्व जिओ । कीलियविवजिए खोडयम्मि फुडमेस संवसइ ॥ स्नेहे ३२५ नेहेण नियलरहिओ भवचारयमंदिरे बसइ जीवो । नेहेण दढं खुप्पइ जलरहिए कद्दमे मूढो ।। , ३२५ नेहो अणत्थहेऊ जियाण. नेहो हु दुग्गइनिमित्तं । नेहो हासट्टाणं, नेहो हु विडवणाहेऊ ॥ नेहो विवेयवइरी अणामिया दढमणथरिछोली । नेहेणं चिय परिभमइ जियगणो दुहभवायत्ते ॥ पइ-पुत्तविरहियाणं नारीणं दुसहदुक्वकलियाणं । मोत्तूण जणयभवणं विस्सामो नत्थि अन्नत्थ ॥ पितृगृहे ५२ पच्छा वि ते पयाया खिषं गच्छंति अमरभवणाई । जेसि पिओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च ॥ संयमे १०२ पढउ सुर्य, धरउ वयं, कुणउ तवं, चरउ बंभचेराई । तह वि तयं सचं पि हु निरत्ययं कोववसगस्स ॥ क्रोधे १६१ १४४ पढम चिय तं जंतुं कोहम्गी दहइ जन्य उववजे । जत्थुप्पनो तं चेव इंधणं धूमकेउ व्व ॥ क्रोध ३१५ १३८ पमाएणं कुदेवा वि पिसाया भूय-किविसा । आभिओगत्तणं पत्ता मणोसंतावताविया ॥ प्रमादे ३१६ १७३ पमाएणं कुमाणुस्स-रोगायकेहिं पीडिया । करुणा हीणदीणा य मरंति अवसा तओ ॥ १७२ पमाएणं परायत्ता तुरंगा कुंजराइणो । कसंकुसाइघाएहि वाहिजति सुदुक्विया ॥ १७१ पमाएणं महाघोरं पायालं जाव सत्तमं । पडति विसयासत्ता बंभदत्ताइणो जहा ॥ १७० पमाएणं महासूरी संपुनसुयकेत्रली । दुरन्ता-उणंतकालं तु गंतकाए तु संबसे ।। पमाओ उ मुणिदेहि भणिओ अट्ठमेयओ । अन्नाणं संसओ चे मिच्छत्ताणं तहेव य ॥ रागो दोसो भइन्भंसो धम्मम्मि [य] अणायरो । जोगाणं दुप्पणीहाणं अट्टहा वजियवओ ॥ प्रमादमेदाः ३१६ १७५-७६ परदेस-निययदेसाण वन्नणं बढ ! कुणंति काउरिसा । परदेसो वि सदेसो सत्ताहियपुन्नवंताणं ।।। सत्त्वे ३०६ परिगलइ मई, नस्सइ सरस्सई, गलइ वयपरीणामो । कोववसयाण तम्हा परिहरसु कसायसत्तुमिमं ॥ क्रोधे ३१५ परिहरियघरावासो जुगप्पहाणागमो चरित्तनिही । सम्मइंसगसुहओ उवएसरो गुरू भणिओ ॥ गुरौ ३१४ परिहासपरंपरपासपरवसा नेहवागुरायत्ता । हरिण व कुसुमसरवावाणनिहया न के एत्य ? ॥ कामे ४१ पवणखुहियनीरं नीरनाहं धरंति, झरियमयपवाहं वारणं वारयति । खरनखरकरालं केसरि दारयंति, न उण बलजुया वी दिव्वमेत्तं जयंति ॥ दैवे ३०८ पंचनमोक्कारसमा अंते वच्चंति जस्स दस पाणा । सो जइ न जाइ मोक्त्रं अबस्स वेमाणिओ होइ ॥ परिमेष्टिनमस्कृतौ २८० , ३१६ . १७४ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ सप्तमं परिशिष्टम् माथादि पाऊण पाणियं सरवराओ पिट्ठि न देइ सिहिडिभो । होही जाण कलाओ पयइ श्चिय साहए ताण ॥ पाएण इयररमणी विरचए उसमे न दरिहं वैसाग पुन विसेसो नियदेवदत्त विभाग || पारात्मके गतवति क्षयमन्तराये, पुण्यात्मनो गुण[[]] कर्मवशान्नरस्य । श्री वेश्म - हेमगृह पुत्र कलत्रजातं यद् यस्य पूर्वविहितं भुवि तस्य तत् स्यात् ॥ पुण्योदये २८९ पासो व बंधि जे महिला छेतु अति व् पुरिसस्स साई व जे विमोहित इंद्रजाल ॥ नारीनिन्दायाम् १५४ पाहेएण विरहिओ पद्दम्मि पहिओ जहा भवे दुहिओ । इय धम्मेण विरहिओ परलोयपहम्मि जिवो वि ॥ धर्म २३३ पिइ माइपमुहणतमेन जीवा अवाराओ ने दि व संजाया जीवस्स उ एगमेगस्थ || निर्वेदे ३०७ पुण्यानुबन्धजनकं शुभभावसारमङ्गीकृतस्वनियमग्रहणं क्रमेण । स्वर्गापवर्गफलदायि दिवाभिमानाः प्रत्यपापमथनावहमामनन्ति ॥ पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तत्रायं, न खलु भवति नः कर्मणां सचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद् यदायाति सम्यकू, सदसदिति विवेकोऽन्यन्त्र भूयः कुतस्ते । ॥ पुरिसकारपरे विविहिपरिणामो खलिज़न जम्हा ता एरिससंसारे मा तम्मसु जीव पुंसस्तस्यां प्रवृत्तस्य प्रेयसी जन्मकर्मणः । तेन यत्कृतसामयः श्रीयन्ते विग्रहेतवः ॥ पेरिज्जतो पुन्नक्किएहिं कम्मेहिं कहमवि वराओ । सुहमिच्छंतो दुल्लहजणाणुराए जणो पडइ ॥ प्रतिज्ञालमा ये भूयो न पतन्त्यभः साधयन्ति समर्थ ते यथा चन्द्रावतंसकः ॥ नियमपालने १६० ५९ कर्मोदयाप्यासे निर्वेदे २०९ शुभकर्मणि २ कामे ९३ प्रतिज्ञापालने ३५५ मणये पि ॥ विषयः पत्राङ्कः विनये १६८ प्रस्ताव एष तव जीव ! पुनः कुतस्त्यो, भूयोऽपि मूढ ! ? मनसीति विभावयन्तः । यद् यत् समापतति कर्मवशादशर्म, तत् तत् समस्तमपि धीरधियः सहन्ते ॥ प्राणप्रियो विनयवानिहलोक एव सर्वज्ञशासनमिदं विनयात् प्रवृत्तम् । कुर्वन्ति ततोऽपि वदेनमेनं समंकल्पतरमूलमुशन्ति सन्तः ॥ प्राधान्यमल्पमपि निश्चयतो जनाः । मा मन्यध्वमत्र जिनधर्मविधौ कुलस्य । यन्नन्दिषेण - हरि केशिमुनी गुणाढ्यौ, भक्त्या विनाऽपि कुलमङ्ग ! सुराः स्तुवन्ति ॥ कुलाभिमानपरिद्वारे २७१ फाउंड करवतं न होइ सूलं व महिलिया मेत्तुं पुरिसस्स खुप करमो मच्ामरि जे ॥ नारीनिन्दायाम् २७४ बंधवा सुहिणो सव्वे पिय-माइ पुत्त-भायरा । पिइत्रणाओ नियत्तंति दाऊणं सलिलंजलि ॥ बाहिर पागसह परदन परिहरति धम्मरवा जीववद्दमूलमहम नियमच बजेति ॥ बुद्धिजुओ आलोवद धम्मा उदादिपरिमुद्धं ओगतमप्यणो दिय अरज ॥ आढवई सम्ममेसो तहा जहा लाघवं न पावेइ । पावेइ य गुरुगत्तं इह-परलोए मुही होइ ॥ निर्वदे १७७ त्रियधर्मे २३३ बुद्धिमत् ३ भरुयच्छकच्छवच्छुच्छलंतमय रं दगुंडियंगस्स । भमरस्स करीरवणे मणयं पि मणो न वीसमइ ॥ भवगिह मज्झम्मि पमाय जलणजलियम्मि मोहनिद्दाए । उट्ठवइ जो सुयतं सो तस्स जणो परमबंधू ॥ मीमम्मि भवे भव्वो वि भमइ कालं दुरंतमेएण | पावमिमं भवजणयं ता भव्वा! परिहरह वरं ॥ मीसणमसागपालि मत्थयम्मि साहसिया । गुग्गुलमारं धारित मानभंग न मानणा ॥ पात्रानुरागे ९६ धर्मबन्धौ १०० वैरपरिहारे २६७ समाने १९८ शीले १९७ देवगुर्योः १२१ भुज्जउ जं वा तं वा परिहिज्जउ सुंदरं व मलिणं वा । इद्वेण जत्थ जोगो तं चिय रजं, किमवरेण ? ॥ इष्टयोगे ३०१ भुवणभंतर वित्थरियजसहरा ते जियंतु जियलोए । जे परकलत्तत्रिसए विरतचित्ता महासत्ता । मो भव्वा | म् काउमसत्ता मोहरसबाग पाएग निहत्था जिण गुरुमत्सीपरो धम्मो ॥ भो भन्या ! भीमभवोयहिम्मि जर जन्म-मरणसलिलम्मि उत्तर- गद्दीर श्रीसणमोहमहारसमाम्म पजलैतमवगडचानलम्म डुब्बाररोगभुयगम्मिलितपणाय सहस्वसंरंभविसमम्मि ॥ जलजलपडियर वर्ण व पाणिमयत सिद्धंतरायण सदा निश्विन मा धम्मकम्मकरणम्मि पावमेवं पमायमायरह जीवा जनेसो थिय परमत्थरिक अभी भणियं ॥ प्रमादपरिहारे ३१६ मणवललोयविभोयणम्मि जायइ जणस्स जं दुक्खं । तं कलिडं पि न तीरइ सारिच्छं नारयदुहस्स ॥ वियोगे ३१४ कुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः क्रूरप्रचण्डमृगराजवचेऽपि दक्षाः । सस्वीमि कृतिनां पुरतः प्रका, कन्दर्पदर्पनयिनो बिरला मनुष्याः ॥ कामे ३३० श्रदात्ये १८० येश्यायाम् ४० ३६० गथावकः ५२ ६२ ४६ १६१ ७४ ર ५३९ १ ६६ ३० २ १ ४७ ३६ १६३ १-२ ४१ ३१ ६९ २८४ ३८५ १३९ ९ १६६-६९ १११ १९ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितपद्यानामनुक्रमः . ४०९ १९१ १९१ १०३ गाथादि विषयः पत्राः गाथाद्याः मम तावन्मतमेतदिह, किमपि यदस्ति तदस्तु । रमणीभ्यो रमणीयतरमन्यत् किमपि न वस्तु ॥ नारीप्रशंसायाम् १९४ मयणाइत्तो पुरिसो न गणइ वंसट्टिई हणइ कित्ति । गंजइ अप्पाणं, दलइ पोरिसं, मलइ माहप्पं ॥ कामे २८१ मह वायाए वुत्तो रूसइ हिययम्मि भंडणं कुणइ । जइ पुण जिओ त्ति बुञ्चइ तो तूसइ मनए अमयं ॥ सुवचने २६५ महिला अयसनिवासो, काड-कुहेडाण मंदिरै महिला । महिला नरयमहापुरपायडपयवी विणिहिट्ठा ॥ नारीनिन्दायाम् १४२ महिला कुडिलसहावा, बंधवकुलमेयकारिणी महिला । महिला नियहियया. पञ्चक्खा रक्खसी महिला ॥ , १९४ महिला दुहसयखाणी, सब्भावविवज्जिया सया महिला । महिला नरयदुवार, गुणगिरिवज्जासणी महिला ॥ ,, १९१ महिला नियचित्ता, उन्भडविसवल्लरी जए महिला । संतापजलणजाला परिभवतरुमंजरी महिला ॥ महिला मरणमयंडे, महिला दुग्गेज्ममाणसपयारा । महिला कयंतकत्ती, महिला मूलं परिभवाणं ॥ महिला मोहवरहिया अरज्जुयं बंधणं जए महिला । खगरत-खणविरत्ता हलिहरागोवमा महिला ॥ " १४२ मा जम्मउ सो पुरिसो, जाओ वि हु जियउ मा चिरं कालं । जिणसासणावमाण सामत्थे सहइ जो मूढो ॥ जिनधर्मप्रभावनायाम् ३५७ मात्रा स्वना दुहित्रा वा न विविकासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ शीलरक्षायाम् ३३० मायन्हियाहि नडिओ जलबुद्धीए जहा भमइ कोइ । तह जीवो विसयवसो भवगहणे भमइ सुहबुद्धी ॥ विषयपरिहारे २५९ मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहादयहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ मांसत्यागे १८६ मित्तेहि जाव न सुयं सुहं व दुक्खं व जीवलोयम्मि । सुयणाण हिययलग्गं तावऽच्छइ नद्धसी व ॥ मित्रे २२४ मुद्धाण नाम हिययाइं हरति हत !, नेवच्छकम्मगुणणेण नियविणीओ। छेया पुणो पयइचंगिमरंजणिज्जा, दक्खारसो न महुरिज्जइ सकराए ॥ वैदग्भ्ये ३०० ३३७ मुहमहुरा परिणइदारुणा य दीसइ मणोहरा महिला । किपागफलसरिच्छा महिला मूलं अणत्थाणं ॥ नारी निन्दायाम् १४२ मृगा मृगैः सख्यमनुव्रजन्ति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरः । मूर्खाश्च मूर्खः सुधियः सुधीभिः, समानशील-व्यसनेषु सख्यम् ॥ सख्ये १७९ मोहं धियो हरति कापथमुच्छिनत्ति, संवेगमुन्नमयति प्रशमं तनोति । सूतेऽनुरागमधिकं मुदमादधाति, जैनं वचः श्रवणतः किमु यन्न धत्ते ॥ जिनवचने १२९ यः स्वापतेय-गृह-पुत्र-कलत्रमूढः, कालं करोति स भवेदिह दुःखधाम । तस्मात् समाधिवशगेन विवेकभाजा, मर्तव्यमन्यजन्मन्यमृतत्वहेतोः (?) ॥ समाधिमरणे २६५ यत् प्राप्तवान् त्रिदशसार्थपतित्वमिन्द्रः, पातालराज्यमपि शास्ति यदत्र शेषः । यच्चकार्तिपदवी परिपाति चक्रो, तत् पात्रदानजनित फलमामनन्ति ॥ दाने १६ यत् सुस्थिता गतरुजो निरवद्यदेहा आजन्म जन्मनिवहा गमयन्ति कालम् । तत् सर्वमजिगणनिर्मलनस्य [शस्य] श्रेयोविजृम्भितमुदारधियो भणन्ति ॥ अहिंसायाम् २३० यदपि प्रथितं मृते जने, मिलिते क्यापि च रुद्यते जनैः । अवगच्छ स काकरोलकः, क्रियते तैः पतिते कलेवरे ॥ शोके ३४९ यदि शोककृदानयेन्मृतं, म्रियमाणं विनिवर्तयेजनम् । विदधातु शुचं न चेदिदं, द्वितयं कि कृतयाऽनया वृथा ॥ , ३५० यदत् शुभो लवणरूपरसो रसेषु, चिन्तामणिर्मणिषु यद्वदिह प्रशस्यः । तद्वच्च धर्मशुभकर्मणि शुद्धभावस्तस्मात् तमेव भजताशुभभावहानात् ॥ शुभभावे ९५ यद्वन्मनुष्यनिवहेषु जिनः प्रधानः, स्वर्णाचलो गिरिवरेषु यथा वरेण्यः । तारागणेष्वपि यथा शशभृत् प्रशस्यः, सम्यक्त्वमेवमिह धर्मविधी विदन्ति ॥ सम्यक्त्वे यस्यासबो व्रजन्त्यत्र नमस्कारसमाः स चेत् । मोक्षं कथञ्चिन्नो यायादवश्यममरो भवेत् ॥ परमेष्ठिनमस्कृतौ १३२ युक्तमुन्मुक्तकण्ठेन वने हा हेति रोदितुम् । विद्वानपि जनो यत्र मार्गमुत्सृज्य गच्छति ॥ अनाचारे ६३ रने वि कयावासा कसायवसया वयति नरयई । वसिमे वि कयनिवासा जिइंदिया जति सुरलोयं ॥ क्रोधे ३१५ रहो नास्ति क्षणो नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः । तेन नारद ! नारीणां सतीत्वमुपजायते ॥ द्रौपदीसत्यवाक्यम् ३३० रे जीव ! कसायहुयासणेण दड्ढे चरित्तघरसारे । भमिहिसि भवकतारे दीणमुहो दुत्थिओ य तुमं ॥ निवेदे १४५ १४८ रे जीव | सुह-दुहेसुं निमित्तमत्त परो जियाणं ति । सकयफलं भुजतो कीस महा कुप्पसि परस्स!॥ १४५ १४७ CD युक्त कसायवसया वयति नरयई । वसिम मपजायते ॥ द्रौपदीसत्यवाक्यम् ३३० Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सप्तमं परिशिष्टम् गाथाद्यः ३०२ गाथादि विषयः पत्राङ्कः लक्खण-रावणसुहडा अज्ज वि जुज्झतिमेण नरयम्मि । पावमिमं भयजणयं ता भव्वा ! परिहरह वइरं ॥ वैरपरिहारे २६७ लक्ष्मीः परोपकाराय, विवेकाय सरस्वती । सन्ततिः स्वर्ग-मोक्षाय भवेद् धन्यस्य कस्यचित् ॥ भाग्यवति २९. लक्ष्मीलताकुठारस्य भोगाम्भोदनभस्त्रतः । विलामवनदावाग्नेः को हि कालस्य विस्मृतः ? ॥ कृतान्ते ३५५ लजां गुणौधजननी जननीमिवामित्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ प्रतिज्ञापालने ६. लज्जिजइ जेण जणो मइलिजइ नियकुलकमो जेण । कंठहिए वि जीए कुणंति न कया वि तं सुयणा ॥ सदाचारे ९२ लभ्रूण माणुसत्तं धम्मा-ऽधम्मप्फलं च नाऊण । सयलसुहसाहम्मि जत्तो धम्मम्मि कायव्यो । धर्मे २८२ बच्चइ जत्थ सउलो विदेसमडवि समुहमझे वा। नंदइ तहिं तहिं चिय, ता भो । पुर्ण समजिणह ॥ पुण्योपार्जने १६. वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसश्चितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ शीले १.. १९२ वरं हालाहलं पीयं वरं भुत्तं महाविसं । वरं तालउडं खद्धं वरं अम्गिपवेसणं ॥ वरं सत्तर्हि संवासो वर सप्पेहिं कीलियं । खणं पि न खमो काउं पमाओ भवचारए ॥ प्रमादपरिहारे ३१६ वसणे दिसायरहिया संपत्तीए अणुत्तुणा हुँति । मरणे वि अणुविग्गा साहससारा य सप्पुरिसा ॥ सत्पुरुषे २९९ वागरण छंद-ऽलंकार-कव्व-सिद्धंत-वेयनिउणाणं । सुकुलुप्पन्नो वि हु पामरो व जोयइ मुह मुक्खो ॥ पाण्डित्ये विज्जु म चवलहियया विसहररमणि ब कुडिलगइगमणा । बहुनियडि-कूड-कवडाण मंदिरं निदिया महिला ॥ नारीनिन्दायाम् ३२९ विदुरेष्यमपायमात्मना, परतः श्रद्दधतेऽथवा बुधः । न परोपहितं न च स्वतः, प्रमिमीतेऽनुभवादृतेऽल्पधीः ॥ बुधा-ऽबुधयोः १७९ वियडुन्भडभिउडिभिडंतसुहडकोदंडडंबरे वि रणे । जइ अपरिमलियमाणा सुयणा ता किन पजत्तं ? ॥ स्वमाने १० वियसंतकमलवणसंडमंडिय भमरमणहरुग्गीयं । अभिमाणधणस्स तणं व सरवरं रायहसस्स ॥ विरहाओ वरं मरणं विरहो दूमइ निरंतरं देहं । ता सेयं मरणं चिय जेण समप्पंति दुक्खाई ॥ विरहे ३.१ विलसंतवार विलयालोयणभमणं व चंचलं पेम्मं । अनिलंदोलियलवलीदलोवम तारतारुन्न ॥ अनित्यत्वे ११२ विवयाए निरुबिग्गो, विहवं पत्तो न गव्वमुब्वहइ । लच्छीए न छलिजइ अहो ! हु गरुयाण पुरिसवयं ॥ पौरुषे ३०४ विसयमहाविसमोहियमणाण गिहवासबंधबद्धाण । जायंति कलंकाई जियाण जं तं किमच्छरिय? ॥ कामस्वरूपे विसयमहाविसमोहियमणाण मणुयाण निधिवेयाणं । जिणनाहभणियधम्मो मणयं पि मणे न विप्फुरइ । विसयविसमोहियाणं सुधम्ममंदायराण सत्ताणं । अमुणियसारा-ऽसाराण गलइ हत्यट्ठिय अमय ॥ विसयसुहपरवसाणं कायरपुरिसाण निविवेयाण । दुक्करमिह तवचरणं न कयाइ वि धीरपुरिसाण ॥ विसया उकडपासो विसया कंदुज्जुओ नरयमग्गो । इय मुणिय विसयसंगं धीरा वज्जंति दूरेणं ॥ विसया किपागफलं, विसया हालाहलं विसं परमं । विसया विसमं सल्लं, विसया आसीविसभुयंगो ॥ विसयामिसगिद्धमणा सयणविमूढा परिग्गहासत्ता । न मुणंति जिया एंत पि विसमविहिविलसियमकंडे ॥ , विसयासत्ता सत्ता विडंबणं तं जयम्मि पार्वति । जं कहिउ पि न तीरइ धूलीवुकावणमहं व ॥ वैदग्ध्यमावहति धर्ममति विधत्ते, सद्योगतां प्रथयति प्रशमं करोति । कीर्ति च शुभ्रशरदभ्ररुचि तनोति, साङ्गत्यमुत्तमजनस्तदतः कुरुवम् ॥ सत्सो १८२ वैरानुबन्धमभिहन्ति महन्ति [-]स्य, दातारमङ्गिनमनङ्गजितां मतेऽस्मिन् । निःशेषकर्मशमकं जनकं च शुद्धमिथ्येति दुश्कृतपदानुगमामनन्ति । मिथ्यादुष्कृते १६६ शुचि निर्भरमुक्तपूत्कृति व्ययितैर्येन मुखेन रुद्यते। गुरुपर्वणि तेन गीयते, किल कीदृश्यपरा विडम्बना ? ॥ शोके ३५० श्रियः प्रसूते तनुते विवेकं यासि धत्ते विपदो निहन्ति । संस्कारयोगाच परं पुनीते शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनुः ।। सद्बुद्धौ ३ श्रेयःसमृद्धिमधिकं विदधाति शश्वत् , स्वास्ध्यं मनो नयति शुभ्रयशस्तनोति । स्वोषमावहति मुक्तिसुखं विधत्ते, किं वा करोति न जनाः ! जिनवन्दनं वः ॥ जिनयन्दने १२. ६४३ १५३ ४७६ AN १०८ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितपद्यानामनुक्रमः 2m. गाथादि विषयः पत्राङ्कः गाथाद्याः सइ सामत्थे गुरुणो जे परिभवकारयं उविक्खंति । नियजणणिकिलेसकराण को गुणो ताण जायाणं? ॥ गुरुभक्तौ ११५ स कालः कश्चिदत्रास्ति यत्र नैवोपभुज्यते । हित्वाऽकालं ततः काले यो भुञ्जीत स धर्मवान् ॥ रात्रिभोजनत्यागे १३१ सकृजल्पन्ति राजानः सकृजल्पन्ति साधवः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥ नीतौ १.१ सगुणं व निरगुणं वा कजकलावं समायरेतेण । परिणामो सम्बत्य वि चितेयन्वो चउरमइणा ॥ कार्यपरिणामविचारे २५६ सग्गसिरीए नियाणं विलसिरनररायसंपयाहेऊ । सिवलच्छिवसीकरणं एक चिय होइ जीवदया ॥ जीवदयायाम् २३७ २८५ सच्चं चिय जइ मोक्खत्थमुजओ जिणसु ता कसायरिवू । पच्चकवं पेच्छंतो कह कूवे निवडसि निहीण 1 ॥ निदे १४५ १४९ सत्थस्थपंडियस्स वि मझेणाऽऽवडइ कि पि तं कज । जे न अणइ चित्तसुहं घेप्पंत नेय मुच्चंतं ॥ दैवे १२२ सत्यं जनाः। वच्मि न पक्षपातो, लोकेषु सप्तस्वपि तथ्यमेतत् । नान्यन्मनोहारि नितम्बिनीभ्यो, दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः ॥ नारीसारा-सारतायाम् १३१ सत्यं वच्मि प्रियं वच्मि हितं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचना ॥ नारीसारतायाम् १९४ सत्या लोकश्रुतिरिय जीवन् भद्राणि पश्यति । वासुदेवसहायोऽपि यो मृतो मृत एव सः ॥ सम्यक तत्वपरिज्ञानाद् विरक्ता भवतो जनाः । क्रियाशक्त्या त्यविध्नेन गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ तत्त्वज्ञाने साम्यक् तत्वोपदेशेन यः सत्वानामनुग्रहम् । करोति तत्त्वशन्यानां स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् ॥ तत्त्वोपदेशे सम्यग्दर्शननमल्ये भावनायां भवच्छिदि । गुणवद्वरिवस्यायां सम्पद्यध्वं सदोद्यताः ॥ सस्कायें ३११ सर्वथा स्वहितमादरणीयं, कि करिष्यति जनो बहुजल्पः । विद्यते हि न स कश्चिदुपायः, सर्वलोकपरितुष्टिकरो यः ॥ हिते सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोकं तावत् तत् केन गृह्यताम् ? ॥ शास्त्रग्राह्यताम् सर्वाभिरपि नैकोऽपि तृप्यत्येकाऽपि नाखिलः । द्वितीयं द्वावपि द्विष्टः कष्टः स्त्रीपुंसमागमः ॥ कामे सब्वगुणसंजुओ वि हु विजाए विणा वरं सुओ कना । गन्भे वि वरं नासो वंझा भजा वर होउ ?॥ मूर्षपुत्रे ९१ सव्वे जाया सयणा सम्वे जीवा य परजणा जाया । ता तेर्सि सविवेओ उरि को कुणउ पडिबंध ? ॥ निर्वेदे २८२ सव्यो पुखकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमेत्तं परो होइ ? ॥ संतगुणविप्पणासे असंतदोसुब्भवे य जं दुक्खं । तं सोसेइ समुदं कि पुण हिययं मणुस्साणं? ॥ मिथ्याकलके २५३ संसारवयपि समुद्विजते विपद्भयो यो नाम मूढमनसां प्रथमः स नूनम् । अम्भोनिधौ निपतितेन शरीरभाजा संसृज्यतां किमपरं सलिलं विहाय ? ॥ दुःखसहने संसारे वसतामिह कुशलं कि पृच्छयते शरीरभृताम् ? । पतितस्य दहनराशौ दग्धोऽसि न वेति कः प्रश्नः ॥ संसारस्वभावे ५८ साहीणं मोत्तणं जं जं जणगरहणिज्जमहियं च । तं तं महइ वराओ दुरंतहयमयणवसवत्ती? ॥ __ कामे ९३ सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवतते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ प्रयोजनवक्तव्ये सीलं सत्ताण अखंडमंडणं, खंडणं च दुक्खाण । सीलं सोहग्गकर विवईणुत्तासगं सीलं ॥ शीले ३१३ २८६ सील सासयवित्तं परमपवित्तं अकित्तिमं मित्तं । उत्तमकित्तिनिमित्तं मुत्तिमुहपसाहणपसत्थं ॥ शीले २५४ २८३ सुविया[रतरलतरुणीकडक्खविक्खेव विन्भमं रूवं । लायनं पवणाहयलवलीदलचंचलमसार । अनित्यत्वे ३१६ सुहपुनसस्समूमी निम्मलगुणरयणरोहणगिरिंदो । भवजलहिजाणवत्तं एक चिय होइ जीवदया ॥ जीवदयायाम् २३७ सेवा वि हु दुलह चिय महाणुभावाण पावनिद्दलणी । छायं पि कप्पतरुणो पुनविहूणा न पावंति ॥ मुनिसेवायाम् ३०२ सैद्धान्तिकप्रमुखसत्पुरुषप्रभावैरष्टाभिरप्यपरतीर्थमतं निरस्य । श्रीसर्ववित्प्रवचनोनतिमणिमान्यो धन्यः स कोऽपि कुरुते शिवशर्मबीजम् ॥ जिनप्रवचनोमती १७५ सोच्छवास मरणं, निरनि दहनं, निःशृङ्खलं बन्धनं, निष्पकं मलिनं, विनैव नरकं सषा महायातना । सेवासञ्जनितं जनस्य सुधियो धिक् पारवश्यं यतः, पञ्चानां सविशेषमेतदपरं षष्ठं महापातकम् ॥ दास्ये ३३८ सो नत्थि चिय भुवणम्मि को वि जो खलइ तस्स माहप्पं । सच्छंदचारिणो सबवइरिणो हयकयंतस्स ॥ कृतान्ते ३५५ सौभाग्यमावहति जन्म शुभं विधत्ते पुष्णाति पुण्यमसमं दुरितं प्रमाटि । कर्मेन्धनं दहति निर्वृतिशर्म राति किं वा करोति न तपः शुभभावतप्तम् ? ॥ तपसि ८० Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सप्तमं परिशिष्टम् गाथादि सौरभ्यभाजिकुसुमादिपदार्थसार्थ सिद्धान्तसिद्धविधिनोभयथाऽपि शुद्धाः । श्रीमजिनं जितमशेषविकारजातं श्रेयस्करं सुकृतिनः परिपूजयन्ति ॥ स्निह्यन्ति मूढमनसः स्वजनेष्वमीषां यावन्मतं भवति तावदमी भवन्ति । प्रश्चात् स्वकार्यपरिपूरणमन्तरेण सर्वे व्रजन्ति वध - बन्धन-वरभावम् ॥ स्फूत्कन्द्र-रि-सरकार-क्याला नलादि भवभीमभयापहारि । स्व-पवर्गसुखसाधनकल्पवृक्षः क्षीणाशुभो जयति सत्परमेष्ठिमन्त्रः ॥ स्वल्पाक्षरोऽपि सन्मन्त्रो निगृद्धाति महामदम् स्वल्पोऽप्यमिको दायं दहत्येव प्रीति ॥ स्वं मां परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । वृद्धि न लभते सोऽपि यत्र यत्रोपपद्यते ॥ स्वाध्यायकर्म कृतिनां कृतसिद्धिशर्म सद्धर्मसाधनमपाकृतपापकर्म । सज्ज्ञानकारणमकारणवन्धुमेतद् दुयनिसिन्दुर सिता कुरामा ध्यच्यम् ॥ स्वाध्याये १४७ हर कयं दल दुई जगह समाहि, समीदियं कुणइ अपणे आववाओ मुणिसेवा कामधेनु व्य । मुनिसेवायाम् ३०२ हलमृद्धरि- चक्रवर्तिनः सुगत ब्रह्म- पुरन्दरादयः । भुवनत्रयनायका जिना विधिना धिग् निहता हहाऽमुना ॥ कृतान्ते ३५० इंतूण परप्पाने अप्पार्ण जो करेइ सप्पाणं । अप्पार्ण दियहाणं करण नासेर अप्पाणं ॥ अहिंसायाम् १४८ प्रयत्नात् । हे धार्मिकाः 1 प्रशमसम्मृतिमुक्तिनश्यान् रागादिशत्रुविसरान् एते हि धर्मपथवर्तिनमप्यकस्मादुन्मार्गमनिनिवहं नितरां नयन्ति ॥ हेयमुवाएवं ना न जाग विमलबुद्धिपरिहीणो न य धम्माइपरिक्लं, बुद्धी ता सम्मगुणहेड होहिति केइ, विहडंति केइ, कालेण केइ वोलीणा । हे हियय । केत्तियाणं सयणाण कए विसूरिहसि ? ॥ SIC विषयः पत्राङः जिनपूजायाम् ११३ निर्वेदे ३४४ परमेष्टिमन्त्रमाहात्म्ये १४६ मन्त्रे १३२ मांसत्यागे १८६ रागादिजये बुद्धौ निदे २२६ ३ २०६ गाथावडः १ ८२ १५ १ ४२० ३३ २५ २ १ ७३ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमं परिशिष्टम् आख्यानकमणिकोशटीकान्तर्गताः सूक्तिरूपाः पद्यांशाः पत्राः गाथाद्य ३ १७९ १३१ २४९ १४५ ३०२ ३३७ २४६ ३३० SOWA...८ १८३ २५१ ३६६ २४५ अकलंकगुणा जए विरला । अजोग्गाण हंत ! कि कुणउ सामग्गी? । अयोग्यस्य गुणाधानं विधातुं कोऽथवा विभुः । अलियं पि हु वयणिज गरुयाणं दूमए हिययमहियं । अहरीकयकप्पदुदुममाहप्पा जेण सप्पुरिसा । अहवा उत्तमपुरिसा नियंति दोसं पि गुणरूवं । अहवा उत्तमसम्नेज्झमावओ किन्न कल्लाणं? । अहवा दव्वुवयारो पणंगणाणं वसीकरणं । अहवा मूलाओ चेव होइ दुहदाइया नारी । अहवा वि महिलियाहि गिरि म गरुया वि भिजति । अहवा सव्वे गुणा दुलहा । अहो! का काकानामहमहमिका हंसविहगैः । आरूढजोव्वणाणं जुवईण पिओ पिओ एको । आवडिओ वजसिलायलम्मि किं कुणउ सत्थगणो । आवजति गुणा खलु पाएण जणं अमच्छरियं । उत्तिविसेसो कव्वं, भासा जा होइ सा होउ । एउ दिनउ बहिरह कन्नजावु । कजदुवारि मुणिजइ भल्लउ, अप्पणि अप्पु न थुणइ महल्लउ । कप्पिज्जइ कि कइया वि कमलिणी दद्दुरस्स सिरिभवणं? । कल्लाणे को विरोहो ? ति । कह वि हु कतंतीए संधिज्जइ कि न तुट्टओ तंतू ? । कः स्वभाव मोक्तुमीश्वरः । कारणवियलं कज्जं कुओऽहवा हवइ ? पयडमिमं । किउ अग्गिहोमु निष्फलउ छारि ।। किउ अंधह मंडणु मुहह एह किल सिक्खियस्स न हु कि पि दुक्कर । किवणह घरि थुत्थुक्किय अच्छइ, लच्छिहि तहिं कहि को मुहु पेच्छइ ! । कि कुद्धउ सीहकिसोरबालु निद्दलइ न गयकुलु कमकराल ? । कि नासियतमभरु फुरियतेउ न पयासइ दीवउ गुरुनिकेउ ? । किपागह फलु भुक्खु वि वज्जइ । कि वा जुज्जइ कायस्स मंजरी चारुचूयस्स ? । कि वा वि हु सलहिज्जइ सामिय ! सोही सियालस्स ! । किं वा सवंगसुहा सामि ! सुहा सहइ असुरविसरस्स। किं वा हवेज्ज मित्तो जो न समुद्धरइ पावपंकाओ? । १५८ १५४ - - १५८ १५८ १५८ ३२७ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ कि सो हु तस्स इट्टो जोइज्जइ जो न धम्मम्मि ? | को अमपातितो जयमहिल्स मुबी वि गय-मय-पव्यइए सोयं न कुर्णति सप्पुरिसा 1 गुणवंता निहु कलिगा विच्छाइजंति सप्पुरिसा । गोविजंतं पि जओ अकज्जमिह नज्जइ जयम्मि । चाविजति न मिरिया जह चणया । छालीए मुहे अहवा किं माइ कुंभंड ? | जतियमेत्तो नेदो दुक्खाण गयो वि सत्तिओ देव । जम्दा पमाणा परिणाममुहा सुवणमेती । जम्दा पनि विपद लोमेणं, किं पुण मनुस्यो । जारिसिया हवइ गई मई वि मरणम्मि तारिसिया । ज्वसम्मि विद्धा किन पाति । जो चितवइ विरुद्ध परस्स तं आवइ घरस्स । जो जत्तियस्स अत्थस्स भायणं सो हु तत्तियं लहइ । जो जमिह काउकामो सोऽवस्सं लहइ कइया वि । अष्टमं परिशिष्टम् तं फल जं समुज्ज ता नत्थि सा अवस्था कम्मवसा जा न संपडइ । ताकीवतः वर्गों यावद् भीः स्ामिनो मती । ! तेयगुणमडियानं किम जीवोमम्मि ! | सकराए । क्यारसो न महुरि दंसणसाराई पेम्माई । दिट्ठो मानवदेसो सदा मंडा भए इदि । दिज्जउ जम्हा वक्का हु कीलिया वक्कवेहस्स । दुःखापन्नेऽथवा साधावसाधुः सुखमश्नुते । दुनिया होइन दुमाया देवाय कार्येषु वाच्यता काऽनुजीविनाम् । धतूराहलु कवणि खज्जइ ? । पिरत् विवरीयमयणस्स । घिसि घिसि विसय अंगुसंतावह । घिसि घिसि विसय जि कारणु [ पावह ] । धिसि घिसि विसय नियाणु जि मारह | पिसि पिसि विसय हेउ संसारह न अन्ना होइ मुणिभणियं । न कषत्यं समितिं स्वामल्पस्कन्धे द्रुमे गजः । नचिय निरत्व अंधवारि नत्थि अविसओ सिणेहस्स । नस्थि भयं जग्गमाणस्स । न दुसरं किपि गरयाणं । न हि गामसामियाओ लब्भइ मंडलियसामित्तं । निम्बडियपयावगुणा कुतु जे कि पितह वि मुद्दा । पत्राङ्कः ३२७ २५२ ३४८ १४८ ३३० १९५ १३४ ५२ १८० १६५ ३२० ४९ ३५७ ११६ ३५७ ८३ ३७ ३०९ ३३६ ३०० १९३-४१, ३०६ ९४ २८५ ३१० ३१५ ३११ ८३ ९३ ܀ ܀ ९० १४९ ३०९ ८३ ३५९ ५१ ३१३ १२० ९२ गाथावङ १८ २१८ २२ ८ २८ ५२ १६ १८३ ६७ २८ ३१० १०० ९३ ७५ ७३ ८ ४२ ५९ ५२ ३३७ ४० १११ २४ ७० १४३ ९५ ८ ६४ १४ १४ १४ १४ ४५ ५६ १६७. १५३ ६५ ३७. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपणएणं भुल्ला महिलाओ धुवं विणस्संति | पज्जलियउ सिहिकणु अप्पयासि किं न कुणइ तणभरु भासरासि ? । पणइयगपत्थणाभंगभीरुणो हुति जे गरुया । पाओ य कि न धुव्वइ असुइविलितो पमायवसा ? | पायं पादाणो वि हु पद्विभो लहर माहत्यं । पावए भदं जीवंतो एत्थ नरो कइया वि । पुरिसस्त दुफ्त सव्यावस्थासु जं नारी । पेच्छइ गिरिम्मि जलणं पजलंतं न उण पायतले । बात स्पर्धा कीटक व्यय कमल वलसते ! बुद्धी पण्हीए नारीणं । भग्गो रणम्मि सुहडो पुर्ण भिडिओ कि न लहइ जयलच्छि ? । भत्तारदेवया कुलवहु । भविव्वयानिओगो न अन्नहा तीरए काउं । मुक्को लेहो पडिवाइयव्वओ । रोवि अरम्नि पई निधिने सूक्तिरूपाः पद्यांशाः । लहुयउ चितामणि जणि समत्थु, चितियउं पणामइ किन अत्थु ? । उधिरि मरिउ मा बंधनपरद्दि कम्मु करि । चरि नि चाहिय अहन सडे लोभिओ । विरूपं यदि वा कि नो कुर्यात् प्राणी बुभुक्षितः ? । विसयासत्त न गुरुयणु माणहि । विसयासत्त न जिणु परियाणहि । विसयासत्त विडंबन पावहिं । विसहर बजपहार असलो थिय न उण खेद्दलं । विहिविलसियत नासो न छोड़ अधिरम्मि संसारे । सचं पि सिरच्छेए तत्तं अक्खिजए । - सप्पुरिसा दुहिएसु दयावरा होंति । सर्पिः प्रदीयते तप्तं सिक्तं शीताम्भसाऽथवा । सब्दो वि जगो पाय अहिमस्वत्युम्मि कुणइ अगुराये चिरपरिचियमत्रहीरह सामर्षः सिंहेरि दि कतमो जम्बुकतुका ! | सहास्या सद्भिः खलु खलजनस्यापि कतमा ? | -सा संपय जा सयणह दिजइ । सिक्खा मयणाहीणेऽहवा विहला । सीयं पि पक्ष मागकूपए पियह कि विप्पो ! सुद्धस्स वरं मरणं मा जीयं सीलखलियस्स । सुविसुद्धोभयपक्खेहि अहव गरुया विसोहति । इत्थत्थकंकणाणं कि कजं दप्पणेणऽहवा ! | हुयउ घरह न बारह । होही जाण कलाओ पयइ चिय साहए ताण । पत्राङ्कः २५१ ८७ ३६१ १५६ ३०५ २७ ५१ ९४ १८३ ३५६ १५६ १५८ ११८ १२४ ८३ ८७ १३९ ३०३ ३०८ ९० ९० ३२५ ३४२ ९८ ३१३ ३०९ ३७ १८३ १८३ ८३ ३४७ ९२ ३६ ९१ ११६ १३७ १८० गाथाद्यङ्कः १८९ ४ २४८ १६ २४ १०२ १४५ ९५ ७१ १७ १०५ १३७ २१ 8 १३ ४३५ ७ १४ १४ १४ ८३ २६४ १२ ६६ ५६ २० ५५ २५ ५२ ६ ५२ ४१५ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- _