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आख्यानकमणिकोशवृत्ति और वृत्तिकार आम्रदेवसूरि
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अहिंसा, सत्य, दान, तपश्वरण आदि उपदेशात्मक और प्रेरणात्मक सामग्री भी इस में पर्याप्त मात्रा में है। साथ ही विविध विषयों की सुभाषित गाथाएँ और सूक्त, ग्रन्थ और ग्रन्थकार के गौरव में चार चाँद लगा देते हैं (देखो परिशिष्ट ७-और ८ वाँ ) ।
संस्कृत - प्राकृत और अपभ्रंश की गद्य-पद्य रचनाओं में वृत्तिकार की सिद्धहस्तता सिद्ध है ही तथापि १२१ वें कुलानन्दाख्यानक ( जिसका पूर्वार्द्ध संस्कृत में और उत्तरार्द्ध प्राकृत में है ) तो उनकी वैविध्यप्रियता और सिद्धकवित्व का परिचायक है ।
प्रस्तुत रचना में संस्कृतरूप वज्रस्वामि के स्थानपर वैरसामि ऐसा प्रयोग संस्कृत भाषा के बीच किया है । (देखो ‘वैरस्वाम्याख्यानकं ’ पृ. १७० - १७१ ) । तथा “मुञ्चत्यश्रूण्य जसं मणकमृतिविधौ पश्य सेज्जंभवोऽपि " (पृ. ३२१ पद्म ३३४ वाँ ) इस संस्कृत पद्य में मणक और सेज्जंभत्र इन दो प्राकृत के रूढ नामों का प्रयोग किया है । पृ. ४८ गाथा ५९ में आये हुए 'अब्भिट्ट' शब्द में विभक्ति का लोप हुआ है' । पृ. १४० गाथा ३, पृ. १४१ गा. २७ में आये हुए 'अरिहवासी' शब्द में द्विर्भाव हुआ है ।
प्रस्तुत वृत्तिगत कथानकों में कई स्थान पर गाथाओंका प्रथम चरण, चतुर्थ चरण और उत्तरार्द्ध ( तीसरा और चौथा चरण ) ध्रुवपदात्मक मिलता है । यह पद्धति महाभारत पुराण आदि संस्कृत प्रन्थों में, तथा उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राकृत आगमों में एवं चरित्र ग्रन्थों में आम तौर पर अपनाई गई है।
किसी भी संप्रदायगत कथा साहित्य में उस की परम्परागत मान्यता का असर प्रत्यक्ष या परोक्ष में होना स्वाभाविक ही है यानी उस-उस संप्रदाय के देव, गुरु, धर्म विषयक शुद्ध मान्यता को समझाने वाला भाव कथावस्तु में आता ही है । फिर भी इस महान ग्रन्थ में से कथासाहित्य के विविध पहलुओं की दिग्दर्शक विविध सामग्री अभ्यासियों को अवश्य प्राप्त होगी, यह निर्विवाद है ।
आख्यानकमणिकोश के वृत्तिकार आम्र देवरि
आम्रदेवसूरि ने ग्रन्थ प्रशस्ति के १ से १३ पद्यों में अपने गच्छ तथा पूर्ववर्ती आचार्य देवसूरि, अजितसूरि, आनन्दसूरि और इस ग्रन्थ के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि के संबन्ध में विशेष जानकारी न दे कर केवल उनके नामों का ही स्मरण किया है । इस से इन आचार्यों का पारस्परिक क्या सबन्ध था यह भी स्पष्ट नहीं होता । यहाँ केवल मूलकार की अन्य रचनाओं का उल्लेख मात्र है । खुद वृत्तिकार के संबन्ध में भी इतना ही जाना जासकता है कि वे मूलकार नेमिचन्द्रसूरि के गुरुभाई जिनचन्द्रसूरि के शिष्य तथा श्रीचन्द्रसूरि के बड़े गुरुभाई थे । वृत्तिकार के नेमिचन्द्र, गुणाकर और पार्श्वदेव नामक तीन शिष्य थे । जो प्रस्तुत रचना में लेखन आदि में सहायक थे ( प्रशस्ति पद्य ३०-३१) । इतना होने पर भी वृत्तिकार के शिष्य नेमिचन्द्ररचित प्राकृतभाषानिबद्ध अनन्तनाथचरित ( अप्रकाशित ) की प्रशस्ति में उपरिनिर्दिष्ट आचार्यों का क्रम इस प्रकार है
१- २. यहाँ केवल उदाहरणस्वरूप ही स्थल बताया है । और अन्य उद्वृत्तस्वर संधी आदि प्रयोग भी प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलते हैं ॥ ३. देखो पृ २६९-२७० गा. १९ से २८ ॥ ४. देखो पृ ५० गा १०५ से १०८, पृ. ११५ गा. १९-२४, पृ. २३३ गा. १४४-४९, पृ. २६९-७० गा. १९-२८, पृ. २७२ गा. १८-२२ और पृ. २६७ गा. १५३-६० ॥ ५. देखो पृ. १९ गा. ४५-५२, पृ. ६५-६६ गा. २९-३२, पृ. ९६ गा. ३०-३२, पृ. १२५ गा. ५४-५७, पृ. १६३ गा. २३-२४, पृ. १९३ गा. ५०-५१, पृ. २०७ गा. ४७२-७७, पृ. २०८-९ गा. ५३६-३८, पृ. २२४-२५ गा. ९१-९७, और पृ. ३३१ गा. ६९-७१ ॥
६. विक्रम संवत् १२१६ में वर्द्धमानपुर में रचे गये इस चरित्रप्रन्थ की सं. १४९४ में कागज पर लिखी गई एकमात्र प्रति हमें मिली है ।
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