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आख्यानकमणिकोशे किं बहुयई वायावित्थरेण ?, रमणीयवत्थु न समाणु तेण ॥ तसु मज्झह सुरवरु, चलकुंडलबरु, निग्गर चंगिमनिव्वडिउ । [ तो सो ] मुणि मिल्लिचि, नयपहु पोल्लिवि, चारुदत्तुपाइहि पडिउ ॥१९॥६१८॥ नय-विणय-रुवरहाजुए हिं, पुच्छिजइ विजाहरसुएहिं । भो भद्द ! भत्तिवर्द्धनपणउ, मुणि मिल्लिवि आयह किं पणउ ? । हिमवंत धरहिं जिम्ब सुरसरिया, तिंव नीइवि सम्गह नीसरिया । आयन्नहु विजाहरसुयहो !, नीसेसकुवासणमणिमुयहो ! । वाणारसि नामि इह नयरि, परिवारिय जा पुरिगुणनियरि । तत्थ य सुभद्द-मुलसाभिहाण, पव्वाइय वेय-सुइप्पहाण । अवरु परिवायगु जन्नवकु, तहि अस्थि वियाणियवेयवक्क । तिं वेयवियारिं सुलसजिया, तसु पासि दासि जिम्ब सा उ ठिया । सो तीयऽणुरत्तउ, हुयउ पमत्तउ, कामपिसाई भोलियउ। जइ वा जिणु मेल्लिवि, बाणेहिं पेल्लिवि, मयणि भुवण धंधोलियउ ॥२०॥६१९॥ तो तीए गम्भसंभूइ हुया, उप्पन्नि पुत्ति लज्जाए मुया । पिप्पलहे हिट्टि परिचत्तमुया. सहु कंति नासिवि कहिंवि गया। बालह मुहि पडियउं पिंपफलू, आसायइ सो तं छुहवियलू । संपत्त कुओ वि सुभद्द तहिं, पिप्पलतलि मुक्कउ बालु जहिं । विनायउ वइयरु तीए सहू, संगोविउ एहु सुउ ससहि महू । किउ पिप्पलाउ गुणनाउं तसू , हुयउ वेयविसारउ लद्धजसू । नियजम्मु मुणिवि अहिमाणधणि, दुवि वाई पराइय जणय तिणि । पिइमेह पयट्टिय जन्न जणि, उच्छलिउ करंतउ मारि हणि ॥ अहिमाणि ...."विणु, जणय'हणेविण, पाच वेय वित्थरिय तिणि । अन्नाणि मूढउ, माणारूढउ, कवणु पावु जं न करइ जाण ॥२१॥६२०॥ तमु पच्छइ वद्दलि सीसु हूउ, सु अणेग करेविणु जन्नसुउ । पसु मारिवि पावि नरइ गऊ, उव्वट्टिवि नरयह हुयउ अऊ ।। सो पंच वार पसुमेहि हऊ, छट्टइ भवि टंकणविसइ गऊ । तो रुद्ददत्ति मारिउ बराउ, जिणधम्मवसिण दिवि देउ जाउ । इणि कारणि एहु मह धम्मगुरू, आयह पसाइं हां हुयउ मुरू। गुरु दुप्पडियारउ होइ जई, कुलि जायउ तमु संभरइ जई । बिज्जाहर रंजिय बिति बे वि, सुकयन्नु भावु तारिमु मुणेवि । अम्हाहिं वि उवकिउ एह तणउ. आई जीवाविउ जि जणउ ।। अह अवसरपत्तउ, सुरिं विन्नत्तउ, दिजउ पहु ! आएम महु । संभरियउ एज, जिणु सुमरिज, पडिवजिवि उप्पइउ नहु ॥२२॥६२१॥ अह तेहिं अदंसणि हुयइ सुरि, निउ चारुदत्तु अप्पणइ पारे । तहि विहियदाण-सम्माण-विणय, ठिय कइवय दिण वटुंतपणय ।
१. पापहि रं।
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