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बद्धिवर्णनाधिकारे अभयाख्यानकम्
सम्मोहकारिबहु विहवत्थुजुयं पाइओ मयं ताहिं । तयणु पयुत्तो संतो अवहरिओ रहवरेण इमो ॥ २०७॥ नीओ उज्जेणीए तीए नियरायपायपासम्मि । पक्वित्तो य नरिंदेण तयणु बोल्लाविओ एवं ॥ २०८ ॥ रे ! कत्थ गया बुद्धी महिलामेत्तेण जं इहाणीओ । धम्मच्छलेण छलिओ पाचाए इमाए सो भणइ ॥ २०९ ॥ इय भणिए नरनाहेण नियलिओ तह स वयणनियलेहिं । जह न अमुक्को सक्कइ नियनयरे गन्तुमेत्तो य ॥ २१०॥ चत्तारि संति रयणाणि चंडपज्जोयपुहइपालम्स । देवी सिवा नलगिरी करी तहा अग्गिभीरु रहो ॥ २११ ॥ लेहारिओ य तह लोहजंघनामो दिणम्मि पणवीसं । अइकमइ जोयणे लेहहत्थओ जाइ राईण ॥ २१२॥ अणुवासरं पि संताविएहिं तो तेहिं तम्स वहणत्थं । रइउं कुदव्वमोयगसंबलयं अप्पियं तत्तो ॥ २१३ ।। मम्गम्मि जाव जेमंद मायगे ता छड त्ति कणाव । छीय एवमसउणो संजाओ तम्स वारतिगं ।। २१४ ॥ तं विन्नत्तं तो तेण चंडपज्जोयराइणो सो वि । पुच्छइ अभयकुमारं सो वि तयं कहइ बुद्धीए ।। २१५ ॥ होही नियमेण नरिंद! एत्थ दिट्ठीविसो महासप्पो । तद्दिट्टीए दिट्टो एसो भासीकओ होज ॥ २१६ ॥ इण्हिं पुण अडवीए परम्मुहं छोडिउं मुयह थइयं । तो तहकए करालो नीहरिओ दिट्ठिविससप्पो ॥ २१७ ॥ तद्दिट्टिगोयरगया भासीभया असेसवणराई । कहियं च पुहइपालम्स सो वि तुट्टो भणइ अभयं ।। २१८ ॥ मोत्तुं बंधणमोक्खं वरमवरं वरसु जं मणोभिमयं । सो भणइ देव ! चिट्टउ मज्झ वरो तुज्झ पासम्मि ।। २१९ ॥ होही जया पओयणमहं तया नियवरं वरिम्सामि । अह अन्नया नलगिरी भग्गालाणो भमइ नयरिं ।। २२० ।। भंजंतो पुर-मन्दिरगोउर-दाराणि तो नरिन्देण । अभयकुमारो पुट्टो तेणावि पयंपियं एयं ।। २२१ ॥ वच्छाहिवई गायउ जो चिट्टइ उदयणो इहाऽऽणीओ । सो किह ? पजोयसुया वासवदत्ता कलाकुसला ॥ २२२ ॥ गंधचकलाकुसलो न तम्मि समयम्मि उदयणादन्नो । ता आणिजउ एसो एईए सिक्खणनिमित्तं ।। २२३ ।। सो कह आणेयव्वो ? अभएणुत्तंस गयबर दहें । गीएण कुणइ सवसं तो कारिमकरिवरोविहिओ ।। २२४ ॥ मुक्को य तस्स विसए चरमाणो वणयरेण केणावि । दिट्टो कहिओ य तओ गंतुं उदयणनरिंदम्स ॥ २२५ ॥ तत्तो वलसहिओ सो समागओ गयवरस्स पासम्मि । मोत्तुं खंधावारं अल्लीणो गयसमीवम्मि ॥ २२६ ॥ अइमहररावपूरियदियंतरी जाव गायइ नरिंदो । ताव गइंदो जाओ अविचलगत्तो पसुत्तो व्व ॥२२७॥ पच्चासन्नो जाओ राया पच्छन्नसंठियनरेहिं । धरिऊण चंडपज्जोयराइणो तेहिं उवणीओ ॥२२८ ॥ भणिओ य मज्झ धूयं काणं सिक्ख्वसु सुंदरं गेयं । न तए निरिक्खियव्वा जओ इमा लज्जिही अहियं ॥ २२९ ।। कहियं तीय वि वच्छे! एयं कोढाभिभूयसव्वंगं । मा पेच्छयु तं तुज्झ वि मा संचरिही इमो वाही ॥ २३० ॥ सो जवणियंतरठियं कमरिं सिक्खवह तस्स सद्देण । अवहरियमणा सा तं पलोइडं कोउयं वहइ ॥ २३१ ।। परमवलोयइ न हु रोगसंगभीया अहऽन्नया कुमरी । सम्मं सरसंगहणं न कुणइ रुटेण तो तेण ॥ २३२ ॥ भणिया काणे ! किं पढसि कूड़यं ? तो सरोसमेसा वि। जंपइ किं न वियाणसि अप्पाणं कोढिय ! निहीण ! ? ॥२३३॥ जारिसवो हं कोढी नूणं काणा वि तारिसा एसा । इय चिंतिऊण जवणियमुक्खिविउँनाव सो नियइ ॥ २३४ ।। ता पेच्छइ तं कुमरिं अहिणवजोव्वणमणोहरावयवं । सो सपिवासं तीय वि सच्चविओ कुसुमबाणो व्व ॥ २३५ ॥ अवरोप्पराणुराओ संजाओ ताण मुणइ न हु कोइ । मोत्तुं कंचणमालं नलगिरिकरिबंधणनिमित्तं ।। २३६ ॥ . भणिओ पज्जोयनिवेण उदयणो कुणसु सुंदरं गीयं । पभणइ गाएमि अहं वासवदत्ताए संजुत्तो ।। २३७॥ . आरूढो भद्दवई करेणुयं तो तहा कयं तेहिं । अंतरदिन्नपडेहिं गहिओ हत्थी तओ राया ॥ २३८ ॥ वियरइ वरं दुइज्ज अभयम्स तहेव तं पि निक्खिवइ । तो उदयणेण घडिया चउरो मुत्तम्स भरिऊण ॥ २३९॥
आरोवियाओ सद्धिं वासवदत्ताए नियपुराभिमुहं । सिग्धं पलाइओ सो सन्नज्झइ नलगिरि जाव ॥ २४० ॥ भणितं च तेन--
एषः प्रयाति सार्थः काञ्चनमाला वसन्तकश्चेति । भद्रवती घोषवती वासवदत्ता उदयनश्च ॥ २४१ ।।
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