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२. दानस्वरूपवणेनाधिकार धनाख्यानकम्
बहलजलवरिसयाले गंतुं पुरओ पहुप्पए नेय । ता इण्हि एत्थेव य छइत्त विरएमि आवासे ।। ३८ ।। इय चितिऊण सजडं सगुहं ससिवं सगंगमहिसहियं । तिणयणमिव धरणिधरं निवासहेउं समल्लियइ ।। ३९ । विरइत्त बहलपत्तलतरूमु रोहंसकड-कुडीराइं । सुत्थकयसपलसत्थियजणेण सह वसिउमारद्धो ॥ ४० ॥ अडविनिवासित्ताओ बहुदियहत्ताओ तुट्टसंबलिओ। कुणइ नियपाणांवात्त सत्था फल-मूल-कंदहि ॥ ४१ ।। अह अन्नया कयाई धणम्स रयणीए चिंतयंतम्स । नियसत्थसोक्ख-दुक्खं खुफिया साहुणो हियए ॥ ४२ ।। इह ते महाणुभावा परदत्तवजीविणो महासत्ता। कंद-फल-मूलभोयणविवजिया किह भविम्मति ? | ४३ ॥ जम्हा तया वि दाणं फलाण साहहिं तत्थ पडिसिद्धं । इण्हि तु वरिसयाले विसेसओ नहु गहिस्संति ।। ४४ ॥ अवरं च ताण तइया आसं दाऊण अवगणंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ४५ ॥ नियपडिवज्जियपालणसुपरिससरणि पि परिहरंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? || ४६ ॥ तिक्खतव-चरणसोसियतणुणो मुणिणोऽवहीरयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापाबपन्भारो ? || ४७ ॥ आबालकालपालियदुद्धरबंभव्वए चयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ४८ ।। धण-सयण-भवणसंबंधवज्जिए जियमए मुयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपच्भारो ? ॥ ४९ ॥ विसयविसपरवसेणं जईण वित्तिं अचिंतयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ५० ॥ साहूण पहपरिम्समसमुचियकज्जं विवैजयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ॥ ५१ ।। चारित्तिणो सुपत्ते अतिही मुणिणोऽवहीरयंतेण । अंगीकओ मए किह अहह ! महापावपन्भारो ? ।। ५२ ।। जइ कह वि एत्थ समए छुहाकिलंताण जायइ विरूवं । ता नणं नरयम्मि वि गयम्स सुद्धी मह न होजा ।। ५३ ॥ अह कह वि तिव्वतवतेयभावओ कुसलिणो भविस्संति । तह वि हु निकरुणो हं वयणं कह ताण दंसिम्सं ? ॥ ५४ ।। इय चिंतिउंसमुग्गयसहसकरे कयपभायकायव्वो । आपुच्छित्तु निवासं साहुसयासम्मि संचलिओ ॥ ५५ ॥ गच्छंतेणं दिट्ठा मुणिणो गुरुगिरिगुहाए गन्भम्मि । मासोबवाससोसियसरीरसोहाए भासंता ।। ५६ ॥ के वि पउमासणत्था मुणिणो उक्कुडयआसणा अवरे । मंडियलगंडआसणविहूसिया साहुणो अन्ने ।। ५७ ॥ नासम्गनिहियनयणा कलयंता के वि किं पि परमत्थं । उड्डीकयभुयदंडा चंडतवं के वि हु कुणंता ॥ ५८ ॥ वायण-पुच्छण-चिंतण-अणुपेहण-धम्मदेसणसरूवं । पंचविहं सज्झायं झायंता के वि तवनिहिणो ॥ ५९ ॥ इय एवंविहमुणिवरपरियरिओ सुरवइ व्व अमरेहिं । सिरिधम्मघोससूरी दिट्ठो धणसत्थवाहेण ॥ ६० ॥ दट्टण मुणिवरिंदं पसरियलज्जाविलक्खवयणो सो । अवणमियसिरो वंदिय कयंजली भणिउमाढत्तो ॥ ६१ ॥ आसाइया मुणीसर ! तुभे निभम्गसेहरेण मए । संचालिऊण जम्हा न भासिया वयणमेत्तेणं ॥ ६२ ॥ ता काऊण पसायं खमेह अवराहमेक्कमम्हाणं । जम्हा उत्तमपुरिसा हवंति कारुन्नजलनिहिणो ॥ ६३ ।। तो भणइ मुणिवरिंदो दसणावलिकिरणधवलियदियंतो । परिहर विसायमिणमो सुपुरिस ! मा कुणसु मणखेयं ॥ ६४ ॥ नियसत्थविविहवावारकरणवक्खित्तमाणसेण तए । जइ न कया साहूणं सारा ता तत्थ को दोसो ? ॥ ६५ ॥ अवरं च इह महायस ! मुणिणो माणाऽवमाणविसएसु । सुह-दुक्खकारणेसु य समचित्ता जेण सयकालं ।। ६६ ।। . इय निसुणिऊण वयणं गुरूण बहुगुणगुरूण तयणु धणो । पणमित्त तो निमंतइ दाणनिमित्तं नियावासे ।। ६७ ॥ गुरुणो वि तस्स बहुमाणपगरिसं पेच्छिऊण पेसति । तेण सह तस्स भवणम्मि साहुणो असण-पाणस्स ।। ६८ ॥ गंतूण धणो सह मुणिवरेहिं भवणम्मि भणइ नियपुरिसे । आणेह असण-पाणाइ जमिह साहूण पाउग्गं ।। ६९ ।। तो विन्न चिंति ते विहु असणाइ न अत्थि संपयं सामि !। किंतु घयमत्थि भणिए मुणिपुरओ तं पि उवणेति ॥ ७० ॥ दव्वाइचउहसुद्धिं पउंजिउं मुणिवरा वि गिण्हति । सो वि हु तदाणेणं मन्नइ सकयत्थमप्पाणं ।। ७१ ।।
१. संबलओ रं०।
२. विचितयंतेण २० ।
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