________________
आख्यानकमणिकोशवृत्तिकार आम्रदेवसूरि
[१३
सिरिभम्मएवसरी पढमो तेसिं समस्सिरीभवणं । गुरुरयणरोहणगिरी सरस्सईवासवरकमलं ॥ ११ ॥ जो अक्खाणयमणिकोसवित्तिवियरणकयत्थकयलोभो । सन्चोदारजणाणं चूडारयणत्तमुन्वहइ ।। १२ । तह बीओ सिरिसिरिचंदसूरिनामो मुणीसरी संतो । संतोसपरो स-परोवयारकरणेक्कमणवित्ती ॥ १३ ॥ सिरिअम्मएवमरीहिं नियपए सूरिणो कया चउरो । हरिभद्दरिनामो सिग्घकई पढमओ तेसिं ॥ १४ ॥ सिरिविजयसेणसरी बीओ ससितेयकित्तिभरभूरी । एगंतरोववासी तक्का-ऽलंकार-समयन्नू ॥ १५ ॥ उद्दामदेसणझुणिपडियोहियसव्वभव्वविसरस्स । तस्स कगिट्ठो सिरिनेमिचंदबरी वि मंदमई ॥ १६ ॥ ताण तुरीओ जसदेवसूरिनामो मुणीसरो मइमं । लक्खग-छंदा-ऽलंकार-तक-साहित्त-समयन्नू ॥१७॥ सिरिविजयसेणमुणिवइपयम्मि सिरिनेमिचंदखुरीहिं । ठविओ समंतभदाभिहाणसूरी गुणावासो ॥ १८ ॥
संसोहियं च ससमय-परसमयन्नूहिं विउसतिलएहिं । जसदेवसरिमुणिवइ-समंतभद्दाभिहाणेहिं ॥ १८ ॥
वृत्तिकार आम्रदेवसरिने अपने तीन शिष्यों का नामोल्लेख तो प्रस्तुत वृत्ति की प्रशस्ति में किया है। इनके अलावा जिन दो अपर शिष्यों का उल्लेख अनन्तनाथचरित की प्रशस्तिमें (गा. १५, १७) मिलता है वे हैं- यशोदेवसूरि और विजयसेनसरि । विजयसेनसूरि को उनके सब शिष्यों में प्रधान कहे गये है।
वृत्तिकार ने पांच शिष्यों में से तीन शिष्यों को अपने पट्टधर के रूपमें स्थापित किये थे। किन्तु मुख्य पट्टधर के स्थान पर अपने गुरुभाई श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य आशुकवि हरिभद्रसूरि को स्थापित किये थे (देखो अनन्तच० प्र० गा. १४वीं)। इन आशुकवि हरिभद्रसूरि ने २४ तीर्थंकरों के चरित्र की रचना की थी जिनमें नेमिनाथचरित्रै अपभ्रंश में और मल्लिनाथचरियं तथा चंदप्पहचरियं प्राकृत में है । शेष अनुपलब्ध चरित्रों की भाषा का पता नहीं। आम्रदेवसूरि के द्वारा आख्यानकमणिकोशवृत्ति के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रन्थ के रचे जाने का उल्लेख कहीं पर भी नहीं मिलता । स्वयं आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने भी अपने अनन्तनाथचरित में आम्रदेवसूरि की केवल एक ही कृति आ० म० कोशवृत्ति का उल्लेख किया है (देखो अनन्तनाथच० प्रशस्ति गा. १२ वी )।
वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने अपने नहीं किन्तु अपने गुरुभाई श्रीचन्द्रसूरि के प्रकाण्ड विद्वान् शिष्य हरिभद्रसूरि को अपने प्रधान पट्टधर के रूप में स्थापित किये इस बात का उल्लेख आम्रदेवमूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने अपने अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति गा.१४ में किया है। इससे पूरे समुदायगत शिष्यमंडली में से योग्यता देख कर तेजस्वी शिष्य को योग्य स्थान देने की आम्रदेवसूरि की विवेकवृत्ति साबित होती है तथा यह भी सिद्ध होता है कि उन्होंने अपने गच्छाधिपतित्व को सार्थक किया था। साथ ही नेमिचन्द्रसूरि में पाण्डित्य होते हुए भी वे गुरु के निर्णय का बहुमान करते थे, विनीत थे भौर प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न भी थे-यह भी सिद्ध होता है।
.
१. "चउवीसइजिणपुंगवसुचरियरयणाभिरामसिंगारो । एसो विणेयळेसो जाओ हरिभरि त्ति ॥"
हरिभद्रसूरिकृत चंदप्पहचरियं (अप्रकाशित) की प्रशस्तिगत गाया। “ विरइयबहुप्पबंधो गुरुपयसरणोवलद्धसुहलेसो । एसो विणेयलेसो जाओ हरिभद्दसूरि ति ॥" -हरिभद्रसूरिकृत मल्लिनाहचरिय (अप्रकाशित) को प्रशस्तिगत इस गाथा से भी इनकी अनेक रचनाओं का प्रम
२. नेमिनाहचरिउ की ताडपत्रीय प्रति जेसलमेर के जिनभद्रसूरिज्ञानभंडार में है । अपर दूसरी विक्रम की सोलहवी शती में लिखी गई कागज की प्रति श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीयसंस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद में है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org