Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यदीप दीप जम्बूद्वीप 11 हरिकांता नदी 52 D हरिवर्ष क्षेत्र शानदी sa meng "1 4 उत्तर " Isl लंच guten wurmh २. हिमक्षेत्र when सचित्र श्री जम्बूदीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्रवर्तक श्री अगर मुनि RE KADAS समा ILLUSTRATED SHRI JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA Pravartak Shri Amar Muni सं उत्तर HA तिगिछ दह ARR U महापद्मदह पादह १. भरत क्षेत्र अयोध्या दरदान भागव केयुप Kab १. क्षेत्र अमरीष th हरी सलिला नदी Cont याताय www.jajneliatary.ory Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्रस्तुत सूत्र जैन संस्कृति और इतिहास का ज्ञानकोष है। जैन भूगोल की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र है। इस सूत्र को मनोयोग पूर्वक पढ़ लेने व समझ लेने से जैन संस्कृति की बहुत-सी अविज्ञात महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिल जाती हैं। इस शास्त्र में मुख्य रूप से जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन किया गया है। मानव-क्षेत्र, पर्वत, नदियाँ, मेरू पर्वत उसकी प्रदक्षिणा करते सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि जम्बूद्वीप की सम्पूर्ण भौगोलिक स्थिति, कालचक्रउत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का सम्पर्ण जीवन चरित्र तथा प्रथमचक्रवर्ती सम्राट भरत की षट्खण्ड विजय का सर्वांगीण वर्णन भी इस आगम में मिलता है। इस आगम को सात वक्षस्कार (प्रकरण) में बाँटा गया है। श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र जैन आगमों का अंग उपांग आदि के रूप में जो विवेचन हुआ उसके अनुसार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र छठा उपांग है। प्रस्तुत जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र का मुख्य प्रतिपाद विषय जम्बूद्वीप का वर्णन हैं सभी द्वीप समुद्रों के मध्य बसा हमारा जम्बूद्वीप एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। इस आगम के सात वक्षस्कार हैं। जिनमें जम्बूद्वीप का परिचय, अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल, भगवान ऋषभदेव का जीवन चरित्र, भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय यात्रा वैराग्य प्राप्ति, केवल्य ज्ञान प्राप्ति का वर्णन, महाविदेह क्षेत्र का वर्णन एवं ज्योतिष्य चक्र की जानकारियाँ दी गई हैं। इन भौगोलिक वर्णनों को समझाने के लिए हमने प्राचीन ताड़पत्रिय चित्रों को दुबारा हाथ से बनाकर नई रंग सज्जा देकर प्रस्तुत किया है। जिससे पाठकगण जटिल विषयों को भी आसानी से समझ सकेंगे। सरल अंग्रेजी अनुवाद भी साथ ही दिया गया है। • यह आगम जैन भूगोल की जानकारी प्राप्त करने के उत्सुक जिज्ञासु पाठकों के लिये एक रिसर्च वर्क सिद्ध होगा। यह ग्रन्थ श्रद्धा और विश्वास पूर्वक पढ़ने पर 'लोक भावना' की अनुप्रेक्षा करने में भी सहायक सिद्ध होगा। SHRI JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA This work is a compendium of Jain culture and history. It is an important reference work on Jain geography. A careful study of this book would reveal important but lesser known information about Jain culture. The main theme of this book is detailed description of Jambudveep. It includes all enveloping description of the geography and cosmology including various topics like inhabited areas, mountains, rivers, Meru mountain and the sun, the moon, planets and constellations moving around it. This Agam also contains complete details about regressive and progressive time cycle, the life of the first Tirthankar. Bhagavan Rishabhdev and the Emperor Bharat's conquest of the six divisions of Bharat area. This Agam is divided into seven chapters (Vakshaskars). JAMBUDVEEP PRAJNAPTI In the traditional classification of Jain Agamic literature Jambudveep Prajnapti is the sixth Upanga. The central theme of Jambudveep Prajnapti is this Jambu continent with an expanse of one hundred thousand yojans situated at the center of all islands and seas. Its shape is circular like a wheel. This book has its unique importance in the spiritual field. The geographical description of this area is its fulcrum of the concern for the world of the living. . This edition has been prepared after detailed study of ancient palm-leaf manuscripts in order to give new illustration of the complex map of Jambudveep. Readers will find it easy to understand. Multi coloured printings lively and vividly present some incidents from the lives of Bhagavan Rishabhdev and Bharat Chakravarti. For curious readers this Agam will prove to be a reference book for their research. For Free Personal use only dair heatonal Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 辦農機總機總機總機籌辦。 चित्र श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति मूत्र gas at AERU HRI JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA Pravartak Shri Amar Muni Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | स्थविर प्रणीत छठा उपांग सचित्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | मूल प्राकृत : हिन्दी-अंग्रेजी भावानुवाद-विवेचन व चित्रों सहित ) * प्रधान सम्पादक जैनधर्म दिवाकर अध्यात्म युगपुरुष प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी महाराज *सह-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' पद्म प्रकाशन पद्म धाम, नरेला मण्डी, दिल्ली-११००४० i5555555555555555555555555555) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 25 5 5 5 5555 5555 5 5 5 5 5 555 5555 5 55 5 5 55555555 5 55 55 5959595 卐 卐 उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. सा. द्वारा सम्प्रेरित सचित्र आगममाला का बीसवाँ पुष्प ■ सचित्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ■ प्रधान सम्पादक जैनधर्म दिवाकर अध्यात्म युगपुरुष प्रवर्त्तक श्री अमर मुनि जी महाराज ■ सह-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' ■ अंग्रेजी अनुवादक राजकुमार जैन, नई दिल्ली ■ प्रथमावृत्ति वि. सं. २०६३, बैशाख ईस्वी सन् २००६, अप्रैल ■ चित्रांकन डॉ. त्रिलोक शर्मा ■ प्रकाशक एवं प्राप्ति-स्थान पद्म प्रकाशन पद्म धाम, नरेला मण्डी, दिल्ली- ११००४० ■ मुद्रक एवं वितरक संजय सुराना श्री दिवाकर प्रकाशन ए - ७, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा- २८२००२ दूरभाष : (०५६२) २८५११६५ ■ मूल्य छह सौ रुपया मात्र (६०० /- रुपये) © सर्वाधिकार : पद्म प्रकाशन, दिल्ली वेबसाइट : /http/jainvision.com ई-मेल : padamprakashan@gmail.com 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 1 555 5555655555565555959595955559555595959595555555952 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दिवाकर जैनागम रत्नाकर आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज की अमर स्मृति में सविनय सादर भेंट 099 आपश्री का प्रशिष्यानुशिष्य विनम्र सेवक अमर मुनि (प्रवर्तक) -For Private & Personal use only. ' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरलमना संस्कृत-प्राकृत विशारद पंडित शिरोमणि पूज्य श्री हेमचन्द्र जी म.. राष्ट्रसन्त, उत्तर भारतीय प्रवर्तक अनन्त उपकारी गुरूदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. POTO युवामनीषी ललित लेखक श्री वरूण मुनि जी म. 'अमर शिष्ट', परम सेवा भावी तपस्वी रत्न श्री पंकज मुनि जी म. वैराग्यशीला कु. प्रतिभा जैन वैराग्यशीला कु. दीप्ति जैन For Private & Personal use only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत सेवा में सहयोग दाता श्री सत्यपाल जी - रुक्मिनीदेवी अग्रवाल, कुरूक्षेत्र श्री विरेन्द्र जी - नीरू अग्रवाल खन्ना मण्डी श्री सुदर्शन जी - मोहिता अग्रवाल, कुरूक्षेत्र नन्दिनी और मास्टर सार्थक अग्रवाल, कुरुक्षेत्र श्री सुभाष जी - सुलोचना जैन हुड्डा कॉलोनी, पानीपत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनसेवा सहयोगदाता ला. उग्रसैन जी-सुन्दरी देवी जैन विवेक विहार, दिल्ली पर ला. जय भगवान जी-विद्यादेवी जैन योजना विहार, दिल्ली श्री सुभाषचन्द जी-शशि जैन विवेक विहार, दिल्ली श्री सुशील कुमार - कौशल्यादेवी जैन योजना विहार, दिल्ली समाचार BALLL श्री अनिल जी-मंजू जैन विश्वा अपार्टमेंट, दिल्ली श्री बृजलाल जी - देवकी देवी जी मानसा Jan Education International For Private & Personal use only wolw.jainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 55 55 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 455 456 457 454545454545454545454 SIXTH UPAANG BY STHAVIRS ILLUSTRATED JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA Basic Prakrit Text: Hindi-English Translation alongwith Elaboration and Illustrations EDITOR-IN-CHIEF Jain Dharma Diwakar Adhyatma Yugapurush Pravartak Shri Amar Muni ji Maharaj Da * ASSOCIATE-EDITOR Srichand Surana 'Saras' PADMA PRAKASHAN PADMA DHAM, NARELA MANDI, DELHI-110 040 45454545454545454545454545454545454545454545454545494141414141414 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 454 455 456 454 455 454 455 456 457 454 455 456 457 4 5454545454545454545454545 THE TWENTIETH NUMBER OF THE ILLUSTRATED AGAM SERIES INSPIRED BY UTTAR BHARATIYA PRAVARTAK GURUDEV BHANDARI SHRI PADMACHANDRA JI M. S. 455 454 455 456 454 455 456 45 54 455 456 454 ILLUSTRATED JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA Editor-in-Chief Jain Dharma Diwakar Adhyatma Yugapurush Pravartak Shri Amar Muni ji Maharaj 451 454 Associate-Editor Srichand Surana 'Saras' English Translator Rajkumar Jain, New Delhi First Edition Baishakh, 2063 V. April, 2006 A.D. • Illustrator Dr. Trilok Sharma @456 454 455 456 457 454454545454545454545454 455 456 457 454 455 456 455 456 457 455 456 455 456 457 455 454 455 456 457 4 Publisher and Distributor Padma Prakashan Padma Dham, Narela Mandi, Delhi-110 040 5555545454545454 455 456 457 451 451 455 456 457 4545454545454545454 455 456 457 451 Printers & Distributors Sanjay Surana Shree Diwakar Prakashan A-7, Awagarh House, M.G. Road, Agra-282 002 Phone : (0562) 2851165 Price Six Hundred Rupees only (Rs. 600/-) © Copyright: Padma Prakashan, Delhi Website : /http/jainvision.com eMail : padamprakashan@gmail.com 因为步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步$步步步步步步步 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிசுததததததததததமிழ********************* प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष है कि सदा की भाँति इस वर्ष भी हमने दो सचित्र आगमों का प्रकाशन किया है, जिनमें से एक सचित्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ग्रन्थ आपके हाथों में प्रस्तुत है । पदम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सचित्र आगम माला का यह 20वाँ पुष्प है। इन सचित्र आगमों को जिज्ञासु पाठक वर्ग ने एवं विद्वानों ने स्तुत्य एवं अत्यंत उपयोगी बताया है। आगमों को रंगीन चित्रों के एवं हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित करना सर्वथा नवीन प्रयोग है। जैन साहित्य के इतिहास में आज तक इस तरह के आगमों का प्रकाशन नहीं हुआ है। प्रस्तुत शास्त्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप के सुन्दर रंगीन नक्शे एवं अन्य भावपूर्ण चित्र दिये गये हैं । ये चित्र सम्बन्धित गूढ़ विषयों को स्पष्ट रूप से समझने में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे। मनोयोग पूर्वक चित्र देखने पर पूरा विषय आपके मानस पटल पर अंकित हो जायेगा । उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक भण्डारी पद्म चन्दजी म. सा. के विद्वान शिष्य प्रवर्त्तक श्री अमर मुनिजी म. सा. ने सचित्र आगम प्रकाशन की योजना को प्रारम्भ किया और निरन्तर 15 वर्षों तक अथक परिश्रम कर सफलता के सोपान पर चढ़ाया । आपश्री द्वारा संपादित अब तक 23 सचित्र आगम प्रकाशित हो चुके हैं। आपश्री ने इतनी सरल सुगम भाषा शैली में इनका हिन्दी में अनुवाद किया, फलस्वरूप जो लोग शास्त्र स्वाध्याय के नाम से ही डरते थे। अब वे भी इन सचित्र आगमों का स्वाध्याय करने लगे हैं। विदेशों में रहने वाले अनेक जैन श्रावक जो आगमों को पड़ने के लिये उत्सुक रहते थे। परन्तु हिन्दी का ज्ञान न होने के कारण वंचित रह जाते थे। वे भी अब इन शास्त्रों का अंग्रेजी अनुवाद सहित मँगाकर बड़े चाव से पड़ते हैं। इनका अंग्रेजी भाषानुवाद और आवश्यकतानुसार अंग्रेजी में संलग्न पारिभाषिक शब्दकोष उनके लिये अत्यंत उपयोगी है। यद्यपि सचित्र आगमों का प्रकाशन एक बहुत ही खर्चीला व श्रम साध्य कार्य है। हाथ के चित्र, अंग्रेजी अनुवाद, छपाई कागज आदि काफी व्यय होता है फिर भी प्रवर्त्तक श्री जी के निर्देशानुसार इनका मूल्य लागत से अल्प रखने का प्रयत्न रहता है। सभी साधु साध्वी तथा श्री संघों को यह भेंट स्वरूप भेजा जाता है । परन्तु गुरुदेव की प्रेरणा से इस प्रकाशन कार्य में सहयोग करने वाले गुरु भक्तों के उत्साह में कभी कमी नहीं आती। वै निरन्तर इस श्रुत सेवा का लाभ उठाकर इस पुण्यशाली कार्य में सहभागी बनते हैं । आगमों का यह ऐतिहासिक कार्य अब अपने लक्ष्य के निकट पहुँच रहा है। अब पूज्य प्रवर्तक श्री के निर्देशन में उनके अन्तेवासी शिष्य विद्या रसिक श्री वरुण मुनिजी भी पूरे मनोयोग से इस कार्य में लग गये हैं। आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान 'श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' तथा सुश्रावक 'राजकुमारजी जैन' एवं 'सुरेन्द्र कुमारजी' बोथरा का सहयोग भी अविस्मरणीय है। अनेक उदार सद्गृहस्थों ने भी अपनी स्वतः प्रेरणा से उदारतापूर्वक सहयोग दिया है। हमारे कार्य में सहयोग देने वाले सभी व्यक्तियों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए हम पुनः अपने प्रेरणा स्रोत स्व. गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक भण्डारी पद्म चन्दजी म. सा. एवं उनके सुशिष्य प्रवर्तक श्री अमर मुनिजी को अपना कोटि-कोटि आभार प्रकट करते हैं। (5) 6955595555555 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5595959 महेन्द्रकुमार जैन अध्यक्ष पद्म प्रकाशन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ குககத்தக***************************SE 555555555555555555555555 卐 卐 5 PUBLISHER'S NOTE I take great pleasure in presenting two Agams in this year. The illustrated edition of Jambudveep Prajnapti is now in the hands of reader. This is the twentieth Number of Illustrated Agam Series by Padam Prakshan. The most learned class and the ardent readers have approved this publication as it being very beneficial and fruitful. We have tried to creat innovative series by introducing coloured illustrations and translation in Hindi and English for the benefit of our variety of readers. This is a new concept and has never been done before in the history of Jainism. In this presentation of Jambudveep Prajnapti we have included beautifully coloured maps of Jambudveep and many other pictures full of emotions and sentiments. These pictures will be extremely helpful to understanding the deep mysteries and difficult subjects clearly in a more apparent way. When the reader looks at the pictures with full faith and concentration the whole subject will become crystal clear in his mind. This was started by Knowledgable disciple of Uttar Bharatiya Pravartak Gurudev Bhanadari Shri Padm Chandra Ji M. S., Pravartak Shri Amar Muni Ji M. S. and after 15 years of continuous hardwork he has made it the master piece. Till now 23 pictorious Books have been published. He has deliberately used simple language with the result that the people who were hesitating to read because of complex words are now encouraged to imbibe it. Also there were a lot of Jain of Shravak in foreign countries who wished to read but because of not being versant with Hindi they shied away. Now happily they are demanding the English Version of these 'Shastra' and are getting Jain knowledge which the desired. The translation to English and attached annexures of meanings of important difficult words has proved useful to them. 45 Pictorial representations and publication involves a lot of hard work and expense. Illustrations, English translation, paper printing etc. cost a lot but still it is tried that the price of each book should be less than the cost price. A lot of books are distributed as gifts to all reverend Sadhu and Sadhvi. Still we receive a lot of help from the followers of 'Gurudev' and they are ever ready to help in this pious work. This historical representations of books is now reaching its long cherished goals. Now even Cherished disciple. Agam Rasik Shri Varun Muni Ji M. S. under the direction of Pujya Pravartak Shri is lending his hand for this work. The help we have got through 'Marmagya Vidwan Shri Srichand Surana and Shri Raj Kumar Jain' has been invaluable. Many generous families have also supported this work by volunteering themselves. We are thankful to all the people who have helped us with full zeal. We are especially thankful to "Prerna Srot Shri Gurudev Uttar Bharatiya Pravartak Gurudev Bhanadari Shri Padm Chandra Ji M. S., Pravartak and his disciple Shri Amar Muni Ji M. S. -Mahendra Kumar Jain 555555555555555555555555555555SE PRESIDENT Padma Prakashan (6) ககககக*த***************************& 卐 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155555555555555) )))))))))))))))))) प्राणवक्तव्य जैन आगमों को सरलतापूर्वक समझने के लिए उनके विषयों को चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है-१. चरण करणानुयोग में जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययनसूत्र आदि। इनमें मुख्य रूप में साधु तथा श्रावक के आचार-विचार का वर्णन है। २. धर्मकथानुयोग में धर्म के विविध अंगों को दृष्टान्तउदाहरण व कथानकों के माध्यम से निरूपण किया गया है। जैसे ज्ञातासूत्र, विपाक सूत्र आदि। ३. द्रव्यानुयोग में जीव-अजीव आत्मा-पुद्गल आदि द्रव्यों का वर्णन आता है। जैसे स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्र आदि। ४. गणितानुयोग-इसमें मुख्यतः गणित पर आधारित ज्योतिष एवं भूगोल सम्बन्धी वर्णन मिलता है। जैसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र आदि। प्रस्तुत जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र का मुख्य प्रतिपाद्य जम्बूद्वीप का वर्णन है। जम्बूद्वीप में आये मानव क्षेत्र, पर्वत, नदियाँ, मेरु पर्वत तथा मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा करते सूर्य चन्द्र आदि ग्रह-नक्षत्र। इन सबका वर्णन इसी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में आता है। इसी विषय वस्तु को कुछ विस्तार के साथ कहें तो इसमें निम्न विषयों का कथन है जम्बूद्वीप का स्वरूप, विस्तार, प्राकार, जैन कालचक्र-अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि। चौदह कुलकर, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, बहत्तर कलाएँ, नारियों के लिए विशेषतः चौंसठ कलाएँ, बहुविधशिल्प, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत, षट्खण्डविजय, चुल्लहिमवान्, महाहिमवान्, वैताढ्य, निषध, गन्धमादन, यमक, कंचनगिरि, माल्यवन्त, मेरु, नीलवन्त, रुक्मी, शिखरी आदि पर्वत। भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, उत्तरकुरु, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरवत आदि क्षेत्र। बत्तीस विजय। गंगा, सिन्धु, शीता, शीतोदा, रूप्यकूला, सुवर्णकूला, रक्तवती, रक्ता आदि नदियाँ। पर्वतों, क्षेत्रों आदि के अधिष्ठातृदेव, तीर्थंकराभिषेक, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्क देव। अयन, संवत्सर, मास, पक्ष, दिवस आदि एतत्सम्बद्ध अनेक विषयों का बड़ा ही विशद वर्णन इस आगम में हुआ है। ___ यह सूत्र हमारी जैन संस्कृति और इतिहास का ज्ञान कोष है। इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव तथा प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत का जितना विस्तृत व सर्वांगीण वर्णन इस आगम में है, वैसा अन्य सूत्रों में नहीं है। इस सूत्र को मनोयोग पूर्वक पढ़ लेने व समझ लेने से जैन संस्कृति की बहुत-सी अविज्ञात महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिल जाती हैं। जम्बूद्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में बसा मध्यलोक का केन्द्र हमारा यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन लम्बा और एक लाख योजन चौड़ा है। स्थानांग, समवायांग तथा भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जम्बूद्वीप का थोड़ा-थोड़ा वर्णन आता है। जैन परम्परा के अलावा वैदिक ग्रन्थों और बौद्ध ग्रन्थों में भी इस विशालद्वीप को जम्बूद्वीप के नाम से ही पहचाना गया है। श्रीमद् भागवत् के वर्णन अनुसार यह पृथ्वी सात द्वीपों में विभक्त है। जिनमें चौथे द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। यह गोलाकार तथा एक लाख (7) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555554))))))))))55555555555555555555 9555555555555555555555558 ॐ योजन चौड़ा है। योगदर्शन के व्यासभाष्य में तो जम्बूद्वीप के साथ ही सुमेरु पर्वत, जम्बू वृक्ष, नील निषधपर्वत, उत्तर कुरु, लवण समुद्र आदि का भी वर्णन है। ये सभी नाम जैन ग्रन्थों से मिलते हैं। म बौद्ध धर्म के अभिधर्म कोष में जम्बूद्वीप, जम्बूवृक्ष, उत्तर कुरु, पूर्व विदेह आदि का भी उल्लेख ॥ + आता है। उक्त सन्दर्भो के आधार पर यह सुनिश्चित कहा जा सकता है कि जैन ग्रन्थों में वर्णित है जम्बूद्वीप और उसके पर्वत, नदियाँ आदि कोई मनोकल्पित नाम नहीं हैं, परन्तु भारतीय संस्कृति की 卐 तीनों ही धाराओं-जैन, बौद्ध, वैदिक के ग्रन्थों में इसका सुव्यवस्थित किन्तु कुछ भिन्न-भिन्न रूपों में है वर्णन मिलता है जो एक सर्वमान्य भौगोलिक हकीकत है। भारतीय ज्योतिष ग्रन्थ आज भी 'जम्बूद्वीप' ॐ नाम को महत्त्व देते हैं। प्रस्तुत आगम की विषय वस्तु इस आगम के सात वक्षस्कार (प्रकरण) हैं। प्रथम वक्षस्कार में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते ॥ न ने बताया है-यह जम्बद्रीप रथ के पहिये जैसा व प्रतिपर्ण चन्द्रमा जैसा गोलाकार है। ॐ कहीं-कहीं झालर या थाली की तरह इसकी आकृति गोल व चपटी बताई है। वैदिक पुराणों व बौद्ध + ग्रन्थों में भी इसकी आकृति गोल बताई गई है। इससे पता चलता है कि भारतीय धर्म ग्रन्थों की, पृथ्वी के के आकार विषयक यह मान्यता सर्व सम्मत है। किन्तु आधुनिक विज्ञान में थाली की तरह चपटी की 5 जगह पृथ्वी का आकार नारंगी या गेंद की तरह गोल बताया है। यह अन्तर विवादास्पद बना हुआ है। कुछ जैन मनीषियों का कहना है कि जैन आगम वर्णित 'झल्लरी' या 'स्थाली' शब्द का अर्थ झल्लरी : अर्थात् झालर नहीं, किन्तु 'झांझ' नामक वाद्ययंत्र और स्थाली का अर्थ थाली न होकर हण्डिया होता 卐 है। इस अर्थ के अनुसार वे प्राचीन आगमिक मान्यता व आधुनिक विज्ञान की मान्यताओं में संगति के बैठाने का प्रयास भी कर रहे हैं। अस्तु . . . इसके साथ यह भी ध्यान देने की बात है, कि वैज्ञानिक 5 धारणा कोई अन्तिम निष्कर्ष या निर्णायक सत्य नहीं मानी जाती। विज्ञान सदा ही नवीन-नवीन खोजों के आधार पर अपनी धारणा व स्थापनाएँ बदलता रहा है। वह गतिशील ज्ञान है। अतः यह भी सम्भव म - है कि कुछ समय बाद वैज्ञानिकों को इस धारणा में भी परिवर्तन करना पड़े। अनेक वैज्ञानिकों ने 'पृथ्वी , गोल है' इस मान्यता का खण्डन भी किया है। लन्दन की 'फ्लेट अर्थ सोसायटी' नामक संस्था के वैज्ञानिक पृथ्वी को चपटी सिद्ध करने में काफी अनुसंधान कर रहे हैं। अतः वैज्ञानिक मान्यता को अन्तिम स्थापना के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, जबकि आत्म द्रष्टा महर्षियों का कथन अधिक विश्वसनीय होता है। अस्तु . . . . प्रथम वक्षस्कार में जम्बूद्वीप का सामान्य भौगोलिक परिचय है। द्वितीय वक्षस्कार में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल चक्र का वर्णन है। पर्यावरण का जीवन पर प्रभाव अवसर्पिणी काल चक्र के पहले तीन आरों के समय में पृथ्वी के पर्यावरण का मनुष्यों के आहारव्यवहार-स्वभाव चरित्र का जो वर्णन है वह आज पर्यावरण विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही अनुसंधान १. तुलसी प्रज्ञा, अप्रैल, जून १९७५ पृष्ठ १०६ युवाचार्य महाप्रज्ञ 5555555555555555554)55555555555555555555 (8) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $5听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐乐乐乐乐乐乐乐 * का विषय है। तब पृथ्वी पर किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं था, कल-कारखाने नहीं थे, समय पर पर्याप्त म वर्षा होती थी, धरती खूब रस युक्त थी, फसलें बहुत अच्छी होती थी, जल भी अमृत तुल्य था और 5 - फल व खाद्य पदार्थ भी पौष्टिक व स्वादिष्ट होते थे। मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बहुत स्वल्प ॐ थी। वे न तो परस्पर कभी झगड़ते, न ही कोई किसी से शत्रुता करता। सब निर्भय और निर्द्वन्द्व भाव से + स्वतंत्र पाद विहारी थे। पशु-पक्षी भी क्रूर व हिंसक स्वभाव के नहीं थे। पशु-पक्षी, साँप-बिच्छू जैसे जहरीले जीव-जन्तु भी कभी किसी को काटते नहीं थे, न ही भयभीत करते थे। घोड़े, गाय, भैंस आदि ॥ पशु भी होते थे, परन्तु मनुष्य न तो घोड़े से कभी सेवा लेता, न ही गाय, भैंस का दूध दुहता। वह मात्र फलाहारी था। वृक्षों के फल भी इतने पौष्टिक व स्वादिष्ट होते थे कि थोड़ा-सा फल खा लेने पर भी तीन दिन तक भूख नहीं सताती। उस यग का जीवन सर्वथा संक्लेश मक्त आनन्दमय था ॐ प्राकृतिक जीवन जीता था। इसलिए स्वस्थ, बलिष्ट, शान्त, प्रसन्न और दीर्घजीवी होता था। इसके . # विपरीत पर्यावरण में जब परिवर्तन होने लगता है, तो मनुष्य की इच्छाएँ बढ़ती हैं। आवश्यकताएँ * बढ़ती हैं। धरती भी धीरे-धीरे रसहीन होने लगती है। वायुमण्डल में अधिक सर्दी, अधिक गर्मी बढ़ती 卐 है। पशु-पक्षियों के स्वभाव में क्रूरता, हिंसकता आती है और धीरे-धीरे पांचवाँ आरा समाप्त होने तक के तो यह पृथ्वी तवे सी तपने लगती है। मनुष्य क्रोधी, कामी, लोभी और धूर्त बन जाता है। नदियों का % पानी सूख जाता है, धरती बंजर हो जाती है। वनस्पतियाँ जल जाती हैं। मनुष्य मजबूरी वश माँसाहार म से जीवन निर्वाह करने लगता है। द्वितीय वक्षस्कार में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल का यह वर्णन आज के पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ॥ ॐ कुछ सोचने समझने की प्रेरणा देता है और जो वर्णन किया गया है, उसका कुछ-कुछ प्रभाव आज भी 5 अनुभव किया जा रहा है। जैसे जंगलों का कटना, धरती की उर्वरा शक्ति क्षीण होना, और पानी का 9 भयंकर संकट तथा तापमान में असाधारण वृद्धि। पर्यावरण का यह असंतुलन आने वाले अत्यन्त ॥ कष्टमय समय की पूर्व सूचना है। जिसका आँखों देखा जैसा वर्णन प्रस्तुत सूत्र में मिलता है। म मेरा सभी पाठकों से आग्रह है कि इस वर्णन के परिप्रेक्ष्य में वे आज की इकोलॉजी को समझेंगे तो इसकी सत्यता स्वयं अनुभव कर सकेंगे। इसी क्रम में भगवान ऋषभदेव के अवतरण का भी संक्षिप्त वर्णन दूसरे वक्षस्कार में है। ॐ तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती का आदि से अन्त तक का बहुत ही रोचक वर्णन है। भरत की 5 दिग्विजय यात्रा, फिर चक्रवर्तित्व और अन्त में उसके विशाल राज्य वैभव का रोमांचक वर्णन पढ़ने के पश्चात् ऐसा लगता है, कितना महान पुण्यशाली होगा वह आत्मा जीव। जिसकी सेवा में १६ हजार देवता सेवक की तरह खड़े रहते थे और वह अपार वैभव का स्वामी भीतर से कितना अनासक्त और वीतराग होता है कि भावनाओं की उच्चतम निर्मलता प्राप्त करके शीशमहल में बैठे-बैठे ही केवलज्ञान ॐ प्राप्त कर लेता है। चरित्र कथा की दृष्टि से इस आगम में केवल बस यही एक चरित्र है। बाकी सब जम्बूद्वीप का म भौगोलिक वर्णन है। 5555555555555555555555555555555555555 (9) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555952 295 5 55 5 5 555555559555555555 5 5 5 55 555555555 5 5 55 55 59552 卐 चौथे वक्षस्कार में मुख्य रूप में महाविदेह क्षेत्र का बहुत ही सुन्दर वर्णन है । पाँचवें वक्षस्कार में भगवान ऋषभदेव की जन्म महिमा व इन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक का रोचक वर्णन है। छठे वक्षस्कार में भी जम्बूद्वीप के पूर्व वर्णित विषयों की तालिका मात्र है। इन भौगोलिक वर्णनों को समझाने के लिए हमने यत्र-तत्र प्राचीन ग्रन्थों में प्रकाशित व शताब्दियों पूर्व हाथ से बने चित्रों का सहारा लिया है। प्राचीन ताड़पत्रीय चित्रों की रेखाकृतियों में रंग आदि की संयोजना कर कम्प्यूटर पर उन्हें नया रंग-रूप सज्जा देकर यहाँ प्रस्तुत किया है। जिससे क्षेत्र, पर्वत फ आदि का वर्णन तथा सूर्य-चन्द्र आदि की गति का चक्र तथा नक्षत्रों की आकृतियों आदि का चित्रण सम्मिलित है। इन चित्रों से यह नीरस व जटिल विषय समझने में रुचिकर व सुबोध बन गया है। सातवाँ वक्षस्कार ज्योतिष चक्र की जानकारी देता है। सूर्य, चन्द्र, ग्रहों, नक्षत्रों, तारों की गति, भ्रमण उनके भ्रमण से दिन-रात, मास, संवत्सर आदि का वर्णन है । अंतरिक्ष सम्बन्धी इस वर्णन में आधुनिक विज्ञान सम्मत मान्यताएँ भले ही मतभेद रखती हों, परन्तु प्राचीन भारत के ज्योतिष ग्रन्थ, 5 वेद, उपनिषद् से लेकर ज्योतिष संहिताओं तक के वर्णन इन मान्यताओं की पुष्टि करते हैं और आज प्रत्यक्ष व्यवहार में भी सूर्य, चन्द्र सम्बन्धी यह वर्णन बहुत कुछ अपना प्रभाव जता रहा है, जिसके हम सब साक्षी हैं। इसके साथ ही भरत चक्रवर्ती के जीवन से सम्बन्धित अनेक नये चित्र और भगवान ऋषभदेव के जन्म महोत्सव पर दिशा कुमारियों द्वारा महोत्सव का चित्रण भी मनमोहक व ज्ञानवर्धक बना है। फ अंग्रेजी अनुवाद 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जैसे शास्त्र का अंग्रेजी अनुवाद करना भी बहुत श्रमसाध्य कार्य रहा । इन शब्दों के अंग्रेजी पारिभाषिक शब्द मिलना भी मुश्किल काम है। फिर भी अंग्रेजी तत्वार्थसूत्र व अन्य कुछ 5 प्रकाशित साहित्य से सहयोग मिला है। सुश्रावक श्री राजकुमार जी जैन ने बहुत ही अधिक श्रम करके सूझ-बूझ पूर्वक इस कठिन कार्य को सम्पन्न किया है। उनकी यह निस्वार्थ भाव से की गई श्रुत- - सेवा फ एवं बौद्धिक परिश्रम पुनः पुनः अभिनन्दनीय है। द्वारा सम्पादित गणितानुयोग का सहारा भी लिया है। कुछ स्थानों पर स्पष्टीकरण हेतु विशेष टिप्पण व 卐 5 तालिकाएँ भी बनाकर दी गई हैं। इस प्रकार सुन्दर सार्थक सम्पादन में हमारे सहयोगी विद्वान श्रीचन्द फ्रजी सुराना 'सरस' का परिश्रम अपने आप में महत्त्वपूर्ण है । ' शुद्ध मूल पाठ तथा हिन्दी भावानुवाद के लिए हमने युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. द्वारा सम्पादित, डॉ. छगनलाल जी शास्त्री द्वारा अनुदित जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का उपयोग किया है। अनेक स्थानों पर शान्तिचन्द्र वाचक विरचित वृत्ति (संस्कृत टीका) तथा उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' 5 (10) - 95 96 97 95 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55955555 5 5 5 5 5 55 55 5 55 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 2 卐 १. आगम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित प्रति में 'जाव' पूरक विशेष पाठों को अन्य आगमों से संकलित कर पूर्ण व विस्तृत किया गया है, जबकि आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित तथा शान्तिचन्द्र वाचक विरचित वृत्ति (आगम श्रुत 5 प्रकाशन अहमदाबाद) तथा धम्मकहाणुओग, गणितानुयोग (संपादक : उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल') में ये जाव पूरक पाठ नहीं दिये हैं। हमने वृत्ति सहित प्राचीन प्रति के अनुसार पूरक पाठ नहीं लिए हैं। -सम्पादक फफ 卐 卐 卐 卐 卐 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355555555555555555555555555 अंग्रेजी अनुवाद सहित सचित्र आगम प्रकाशन के इस महनीय कार्य का शुभारम्भ पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द् जी म. सा. की प्रेरणा व प्रोत्साहन से उनकी विद्यमानता में ही प्रारम्भ किया गया था और आज उनके आशीर्वाद का ही यह सुपरिणाम है कि हम निरन्तर अपनी योजना में प्रगति करते हुए २४ आगमों का सम्पादन-प्रकाशन कर चुके हैं। मुझे विश्वास है उन्हीं की कृपा से यह कार्य अपनी सम्पन्नता को भी प्राप्त करेगा। मेरे शिष्य विद्यारसिक सेवा भावी श्री वरुण मुनि जी भी पूर्ण समर्पित भाव से मेरे साथ जुटे हैं। अन्य विद्वानों व सहयोगी गुरुभक्तों का भी पूर्ण समर्पण भाव हमारा सम्बल बना है। इस प्रकार सबके सहकार-सहयोग से मैं इस कार्य को आगे बढ़ा रहा हूँ और आशा करता हूँ पूज्य गुरुदेवों की कृपा-आशीर्वाद से यह आगे बढ़ता ही रहेगा। ___ मैं सभी आगम स्वाध्यायी सज्जनों से अनुरोध करता हूँ कि वे इन प्रकाशित आगमों का स्वाध्याय हेतु यतनापूर्वक उपयोग कर श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि तथा प्रभावना करते रहें . . . . धन्यवाद ! जैन स्थानक, -अमर मुनि लुधियाना। (प्रवर्तक) (11) )))))))))))) )) )))))) ))))))) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99551545454541 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 44 45 445 44 PREFACE In order to understand properly the Jain Agams, their subject matter has been classified into four categories (Anuyog) namely 1. Anuyog relating to Conduct--Charan-Karananuyog, Dashvaikalik, Uttaradhyayan Sutra and the like are in this category. In this category, $i primarily the conduct and the matter relating to spiritual discipline of Jain monks and Jain householders has been discussed. 2. Category relating to spiritual stories (Dharm-Kathanuyog). In this category, various aspects of Dharma has been described with the help of illustrations and stories. Jnatadharm Sutra, Vipak Sutra and the like belong to this category. 3. Category concerning Spiritual concepts (Dravyanuyog). In this category, the fundamentals such as living being, non living being, soul, matter and the like have been discussed Sthanang Sutra, Bhagavati Sutra and the like belong to this category. 4. Category relating to mathematical element in spiritual' thought (Ganitanuyog). Is this category subjects concerning astrology, geography primarily based on mathematics has been discussed, Jambudveep Prajnapti Sutra and the like belong to this category. The main subject of the present treatise-Jambudveep Prajnapti Sutra is detailed description of Jambudveep (continent). The areas having human population, the mountains the rivers, Meru mountains, suns, moons, planets and constellations that move around Meru 41 mountain in Jambu continent have been discussed in this Sutra. In case we mention this very subject in a little detailed manner, then we can say that the following subjects have been discussed in it Nature of Jambudveep, its extent, its shape, the Jain time-cycle Avasarpani and Utasarpani time-cycle and the like, fourteen Kulakars, first Tirthankar Bhagvan Rishabh Dev, Seventy two arts meant for men and Sixty four arts concerning women, various trades, Bharat, the first 4 king emperor (Chakravarti), his conquest over six regious, Chull Himavan, Maha Himavan, Vaitadhya, Nishadh, Gandhamadan, Yamak, 5 Kanchanagiri, Malyavant, Meru, Neeivant, Rukmi, Shikhari mountains, in Bharat, Haimavat, Harivarsh, Mahavideh, Uttarkuru, Ramyak, 55555 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 45 46 47 46 45 44 45 46 47 46 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 452 ( 12 ) 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 455 45454545454545454545454 455 456 45 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555 55 4575 557 47 45 F Hairanyavat, Airavat and suchlike regions, thirty two Vijayas. Ganga, Sindhu, Sita, Sitoda, Rupyamula, Suvarnkula, Ruktavati, Rukta rivers and the like, the celestial beings commanding these mountains and regions, the anointing of Tirthankar, the sun, moon, planets, constellations, stars and the like, Jyotish gods, the time division such as day, fortnight, month, half-year, year and the like and the matters relating these to have been discussed in detail in this Agam. This Sutra is the treasurer of knowledge relating to Jain culture and Jain history. The detailed and comprehensive account of Bhagavan Rishabh Dev-The first Tirthankar and Emperor Bharat, the first Chakravarti of that period which we find in this Agam is not available in any other scripture. In case one studies this Sutra with full concentration, he can know many important matters relating to Jain culture. Jambudveep (Continent) Jambudveep in which we live is at the centre of all the islands and oceans in the middle world. It is one lakh yojan long and one lakh yojan wide. At many places in Sthanang, Samvayang and Bhagavati Sutra, there is a little account of Jambudveep. In addition to Jain tradition, even in Vedic and Buddhist scriptures, this great continent is described as Jambudveep. According to Shrimad Bhagavat, the scripture of Hindus, this land is divided into seven continents and the fourth continent out of them is Jambu continent. It is circular in shape and one lakh yojan wide. In the commentary on Yogic philosophy by Vyas, alongwith Jambudveep, Sumeru mountain, Jambu tree, Neel Nishadh mountain, Utttar Kuru, Lavan Sea and the like have also been mentioned. All these names are in Jain scriptures. In Abhidharm Kosh of the Buddhists, there is description of Jambu island, Jambu tree, Uttar Kuru, East Videh and the like. On the basis of these references, it can be said with certainly that Jambu continent and its rivers and mountains are not imaginary. But there is a well reasoned account in all the three streams of Indian culture namely Jainism, Vedic and the Buddhist texts but with a little variation. It is a geographical fact accepted by all Indian texts and astrology that give prominance to Jambudveep even today. Subject Matter of the Present Agam This Agam has seven chapters (Vakshaskar). In the first chapter, while replying to the questions put up by Gautam, Bhagavan said, "This (13) 5555555555555555555558 *5555555555555555555555555555555 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0555555555555555555555555555555555555@ Jambu island is circular in shape like wheel of a chariot or full moon." At some places its shape has been mentioned as round like a plate or ribbon at the circumference and flat. Even in Vedic Purvas and Buddhist scriptures its shape has been mentioned as round. All these facts indicate that Indian scriptures believe in union that the earth is round. But modern science is of the view that the earth is round like an orange or ball and not flat like a circular plate. This difference is still a matter of discussion. Some Jain thinkers are of the view that the words Jhallari or Sthaali mentioned in Jain Agams do not mean Jhalar The flat ribbon but it means Jhaanjh a musical instrument and Sthaali is not Thaali-a plate but it means a handiya-a pitcher shaped vessel. With there interpretations theyl try to bring in harmony the Jain viewpoint with the viewpoint of modern science, Simultaneously it is also worth consideration that scientific belief is not necessarily the final conclusion science always goes on changing into beliefs and conclusions on the basis of new research. It is progressive knowledge. So it is also possible that after same time the scientists may also have to change their belief about the shape of the earth. Many scientists have discarded the belief that earth is round. The scientists of Flat Earth Society in London are doing research to prove that eath is flat so the scientific belief cannot be accepted as final conclusion. On the other hand the statement of Sages who have realised the soul is more trustworthy. In the first chapter, there is general geographical description of Jambudveep. 55 55 55 5 5 45 45 55 45 45 557 46 5 45 45 45 In the second chapter, there is the description of Avasarpini and Utasarpini time-cycle. Effect of Environment on Human Life The description of environment of the earth, the nature, food and behaviour and conduct of human beings during the period of first three aeons of Avasarpini time-cycle is a subject of deep research in the context of environmental science at present. At that time there was not pollution of any type on the earth. There were no mills or factories. The rainfall was in time and sufficient. The land was very rich. The crops. were every good. The water was as good as nectar. The fruit and consumable articles of food were sweet and nourishing. The desires and needs of the people were very few. They were neither quarrelling among themselves nor owing any enmity against any one. Every one was Tulsi Prajna June 1925 PP 106 Yuvacharya Mahaprajna (14) க*த*தி**************தத************ 555555555555555555555555555555555555555555555 卐 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5552 45 morning food independently without any fear or feeling of creating trouble. The animals and birds were also not cruel or dreadful in nature. Animals, birds, poisonenous creatures like Snakes and scorpions were also not biting any one. They were not even causing fear to any one. There were animals like horses, buffaloes, cows and the like but man never got any fun from the horse nor milk the buffalo. He was totally vegetarian. The fruits of the tree, were so much nourishing and sweet that with the consumption of a little amount of fruit he was not feeling hungry for three days. The life in that period was totally free from quarrels and was full of ecstatic pleasure. Man was having a totally natural state of living. So he was healthy, strong, quiet happy and had a long span of life. On the other hand when the change in environment starts, the desires of the people increase. Their needs increase. Slowly and gradually the productive power of the earth decreases. Heat and cold in the environment increases. Dreadfulness and violence slowly 卐 creep in the nature of animals and birds. When the fifth ara comes to its end, the earth starts burning like hot plate. Man becomes naughty, fi greedy, sexual and cheat. The water in the rivers dries up. The vegetation dries up. In a state of helplessness man becomes nonvegetarian. 457 45 卐 F This description of Avasarpini and Utsarpini time-cycle in the second chapter encourages one to think and understand much in the context of present environment. Its effect to a certain extent is being experienced even today; for instance cutting of forests, the loss in productive power of the earth, the dread caused by floods. The unusual increase in temperature. This inbalanced state of environment is providing prior information of extremely troublesome period ahead whose practical experience has been described in this Sutra. My humble request to the readers is that they should try to study the present ecology in the context of this description. They shall then experience the truthfulness of this description themselves. In this very order. There is a brief description of arrival of Bhagavan Rishabh Dev on this earth in the second chapter. 55 卐 45 45 卐 卐 卐 5 47 5 47 45 5575 In the third chapter, there is a very interesting description of the life of Emperor Bharat Chakravarti from beginning to end. After studying the detailed journey of Bharat for conquering the land, his coronation as Chakravarti and, at the end, the grandeur of his great kingdom, it appears that he must have been very lucky. 卐 457 (15) சுழிதிதமிழிதிதததததததததததததததததத****SS 45 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 45 46 45 44 445 446 447 44646456 45 446 44 45 46 47 46 454 455 456 454 455 456 454545454545454545454544 251414141414141414141414141414141414141414141414141414 415 41 41 41 41 41 41 41 Sixteen thousand gods were always at his service. Although he was 4 the master of limitless prosperity, he was highly detached and non\i attached in his inner self. It is because of his extremely pure si contemplation that he attained omniscience while sitting in mirror palace. So far as life sketch is concerned this Agam contains only this one. The remaining account in this Agam is only geographical description of 41 Jambudveep. In the fourth chapter, there is primarily a very beautiful account of Mahavideh region. In the fifth chapter, there is an interesting account of the birth of Bhagavan Rishabh Dev, his grandeur and celebration of his birth by Indras. In the sixth chapter there is simply the table of subjects earlier mentioned. The seventh chapter provides knowledge about stellar activity. There is the description of movement of sun, moon, planets, constellations and stars and how their movement creates days, nights, month, year and the like. This description concerning space may be different from the beliefs of present day science but the treatise on astrology of ancient India, the Vedas, the Upanishad and the Samhitas describing astrology support these descriptions. Today, in practical behaviour, this description of sun and moon has a great effect and we are withness of it. In order to enable others to understand these geographical narrations, we have taken the help of ancient literature published, at various places and hand made centuries old paintings. The sketches drawn on Palm leaves in ancient period have been developed with colours. They have been then given a new shape on the computer before presenting them here. It includes the description of regions, mountains 5 and the like, the orbit of sun, moon and the like, the sketching of shapes of constellations. Due to this change, the dry and difficult subject has become interesting and easily intelligible. Simultaneously, many new illustrations relating to the life of Bharat Chakravarti and the illustrated account of Dishakumaris at the celebration concerning birth of Bhagavan Rishabh Dev has become enjoyable and helpful in increasing knowledge. English Translation Translating Agams such as Jambudveep Prajnapti has been very laborious. It is very difficult to find suitable words in English. Still some help has been possible from English version of Tattvarth Sutra and 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 45454545454 455 456 457 454 455 456 457 45 4545454545455 456 457 455 456 457 ( 16 ) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步555 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555 other published literature. Shri Rajkumar Jain has completed this difficult work by putting in great efforts intelligently. His selfless service for this scriptures and mental effort is worthy of appreciation. We have made use of the translation of Jambudveep Prajnapti by Dr. Chhagan Lal Shastri and edited by Yuvacharya Shri Madhukar Muni for correct basic text and Hindi translation. At many places, we have also taken help of Sanskrit Commentary by Vachak Shantichandra and Ganitanuyog edited by Upadhyaya Muni Kanhaiyalal Kamal. In order to clarify certain points we have also given special notes and tables. The efforts put in by my companion learned Shrichand Surana 'Saras' in this beautiful editing is commendable in itself. This important work of publishing Agam with illustration and eighth translation was started with the inspiration provided by respected Gurudev Bhandari Shri Padmachandra Ji Maharaj and it was started during his life time. It is the result of his blessings that continuously progressing ahead 22 Agams have beem edited and published. I am confident that with his blessings, this work shall reach its completion. My disciple Shri Varun Muni Ji is helping me in this project with full devotion. The devotion of other scholars and devoties is also providing great encouragement. Thus with the active assistance of all type, I am progressing in this work. I also hope that with the blessings of respected gurus, this work shall go ahead continuously. I earnestly impress upon all those who are interested in study of Agams that they should make use of these published Agams for their study with due care so as to increase their knowledge. Jain Sthanak, Ludhiana. 1. In the Beawar edition the text connected with the term 'Java' have been included with the help of other Agams. The same is not taken for the vritti by 'Shantichandra Vachak' and 'Anuyoga literature by Upadhyaya Shri K. L. Kamal'. We have also not included these portions. (17) -Amar Muni (Pravartak) 155555555555555555555555555 -Editor Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ्र ததததததத*************************** प्रथम वक्षस्कार उपोद्घात जम्बूद्वीप एवं भरत क्षेत्र का वर्णन गणधर गौतम की जिज्ञासा 5 जम्बूद्वीप की अवस्थिति जम्बूद्वीप की जगती प्राचीर खण्ड : भूमिभाग सिद्धायतनकूट दक्षिणार्ध भरतकूट वैताढ्य पर्वत नाम क्यों ? जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान स्वरूप ऋषभकूट द्वितीय वक्षस्कार १० जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र का स्थान और स्वरूप जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान और स्वरूप १२ वैताढ्य पर्वत १४ विद्याधर श्रेणियाँ १७ वैताढ्य पर्वत पर कूट २१ २२ २७ ३० ३१ ३३ 5 उपोद्घात भरत क्षेत्र : कालचक्र - वर्णन कालगणना औपमिक काल अवसर्पिणी : (१) सुषम- सुषमा अनुक्रमणिका द्रुमगण मनुष्यों की आकार देह रचना ३-३४ ३ ३ ४ ५ ५ ७ ८ ३५- १२३ ३५ ३५ ३६ ३८ ४२ ४५ ४७ स्त्रियों की शरीर रचना मनुष्यों की आहार स्थिति मनुष्यों का आवास जीवनचर्या तिर्यंच आदि के उपद्रवों का अभाव युद्ध व रोग आदि का अभाव मनुष्यों की आयु आदि (२) सुषमा आरक (३) सुषमा - दुःषमा कुलकर-व्यवस्था प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव : गृहवास प्रव्रज्या : अभिनिष्क्रमण केवलज्ञान-प्राप्ति संघ संपदा परिनिर्वाण देवकृत महामहिमा : महोत्सव ईशानेन्द्र का आगमन शरीर संस्कार : चिता रचना शिविका रचना दाढ़ा ग्रहण चैत्य स्तूप रचना अवसर्पिणी: दुषम- सुषमा अवसर्पिणी: दुषमा आरक अवसर्पिणी: दुषम-दुषमा (छठे आरे का पर्यावरण) मनुष्यों का स्वभाव - व्यवहार मनुष्यों का आहार-व्यवहार उत्सर्पिणी का दुषम-दुषमा-दुषमकाल (18) ५१ ५८ ६० ६७ 999999 ७० ७२ ७४ ७५ ७७ ७९ ८० ८८ ९० ९४ ९५ ९६ ९७ ९९ १०१ १०२ १०३ १०५ தமிமிததமி****************************** १०६ १०९ ११२ ११४ 25955 55 5 5 5 5 5 5 5 5959595959595 5 5 5 5 5 5 5955 5 5 59595959555595959592 卐 फ्र फ्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ १७५ १९६ १९८ 55555555555555555555555555555555555 दुषमा-द्वितीय आरक : पुष्कर संवर्तक महामेघ ११५ निष्कुट प्रदेश-विजयार्थ तैयारी १६८ क्षीर, घृत, अमृत, रसमेघ वृष्टि ११६ चर्मरत्न का प्रयोग १७१ सुखद परिवर्तन और शुभ संकल्प विशाल विजय : यवनों द्वारा उपहार १७२ दुषमा : द्वितीय आरक ११९ सेनापति द्वारा भरत के समक्ष उपहार-अर्पण १७४ दुषम-सुषमा आरक १२० तमिस्रा गुफा : दक्षिणद्वारोद्घाटन सुषम--दुषमा आरक १२२ काकणीरत्न द्वारा मण्डल-आलेखन १८० उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ १८३ तृतीय वक्षस्कार १२४-२५५ आपात किरातों से संग्राम १८५ उपोद्घात १२४ आपात किरातों का पलायन १८८ विनीता राजधानी १२४ अश्वरल वर्णन १८९ चक्रवर्ती भरत १२५ मेघमुख देवों का आह्वान १९४ चक्ररत्न की उत्पत्ति : अर्चा : महोत्सव १३० मेघमुख देवों द्वारा उपद्रव विनीता नगरी की सज्जा १३२ छत्ररत्न का प्रयोग भरत का स्नान आदि सुसज्जा १३३ गाथापतिरल द्वारा सेना की निर्वाह व्यवस्था २०० आयुधशाला की ओर प्रस्थान १३६ देवों द्वारा मेघमुख देवों की तर्जना २०२ चक्ररल की अर्चा १३७ भरत की शरण में किरात आठ दिवसीय महोत्सव १३९ चुल्लहिमवंत विजय २०८ चक्ररत्न का मागध तीर्थाभिमुख प्रयाण १४१ ऋषभकूट पर नामांकन २१० मागध तीर्थ में अष्टमभक्त-पौषधकरण १४४ नमि-विनमि-विजय मागध तीर्थ-विजय १४६ खण्डप्रपात-विजय के नट्टमालक देव मागध तीर्थाधिपति का भरत के समीप आगमन १४९ द्वारा प्रीतिदान अष्टमभक्त का पारणा तथा भरत का प्रत्यागमन २१८ अष्टदिवसीय महोत्सव १५१ नवनिधि उत्पत्ति २१९ चक्ररत्ल का वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण १५२ विनीता को प्रत्यागमन २२५ वरदाम तीर्थ-विजय १५३ विनीता में प्रवेश २३१ रथ वर्णन १५८ राज्याभिषेक २३६ प्रभासतीर्थ-विजय १६२ देवों द्वारा अभिषेक मण्डप रचना २३८ सिन्धुदेवी-साधन १६३ अभिषेक-मण्डप में प्रवेश २४० वैताढ्य गिरिकुमार-विजय १६६ महाराज्याभिषेक २४२ तमिस्रा गुफा-विजय द्वादशवर्षीय प्रमोद घोषणा २४४ २०३ २१२ २१६ १६७ (19) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ ३४२ ३४२ ३४३ ३४४ ३४५ AJAN AM २४० २७८ 20 20 355555555554)))))))))))))))))))))495555555 ॐ चतुर्दश रत्न : नव निधि उत्पत्ति-स्थान २४७ चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत __ भरत का राज्य-वैभव २४८ (२) सुकच्छ विजय आदर्श गृह में केवलज्ञान २५० (३) महाकच्छ विजय अष्टापद गमन २५१ पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत भरत क्षेत्र : नामाख्यान २५५ (४) कच्छकावती (कच्छावती) विजय (५) आवर्त विजय चतुर्थ वक्षस्कार २५६-३९२ नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत उपोद्घात २५६ (६) मंगलावर्त विजय चुल्ल हिमवान् पर्वत २५६ (७) पुष्कलावर्त विजय पद्मद्रह वर्णन २५८ एकशैल वक्षस्कार पर्वत + गंगा, सिन्धु, रोहितांशा नदियाँ २६३ (८) पुष्कलावती विजय चुल्ल हिमवान् पर्वत के ग्यारह कूट २७१ उत्तरी शीतामुख वन 卐 हैमवत वर्ष २७६ दक्षिणी शीतामुखवन शब्दापाती वृत्त वैताठ्य पर्वत वत्स आदि विजय हैमवतवर्ष नामकरण का कारण २७९ सौमनस वक्षस्कार पर्वत ॐ महाहिमवान् वर्षधर पर्वत २८० देवकुरु महापद्मद्रह २८२ चित्र-विचित्र कूट पर्वत महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट निषध द्रह हरिवर्ष क्षेत्र २८८ कूटशाल्मलीपीठ निषध वर्षधर पर्वत २९० विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत महाविदेह क्षेत्र का वर्णन २९७ पक्ष्मादि १६ विजय गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत २९९ मन्दर पर्वत उत्तरकुरु ३०३ भद्रसाल आदि वन यमक पर्वत ३०४ दिशाहस्तिकूट पर्वत नीलवान् द्रह ३१५ (२) नन्दन वन जम्बूपीठ, जम्बूसुदर्शना (वृक्ष) ३१६ (३) सौमनस वन ॐ माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत ३२४ (४) पण्डक वन हरिस्सह कूट अभिषेक शिलाएँ # कच्छ विजय ३२८ मन्दर पर्वत के काण्ड (१) उत्तरार्ध कच्छ विजय ३३२ मन्दर के १६ नाम ३ a$$$$$$$$$$ $555555555555555555555555555555 $ $$$$$$ $ ३५३ २८७ ३५४ ३५५ ३५६ سه 3 له १ 2 ليه ur ३६६ Aal ३७४ ३२६ ३७७ ३८० (20) B))))))))))))))))))))))))))) ) ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ नीलवान् वर्षधर पर्व ३८३ सूर्य-मण्डल-संख्या आदि ४६८ रम्यक् वर्ष ३८६ मेरु से सूर्य-मण्डल का अन्तर ४७० रुक्मी वर्षधर पर्वत ३८७ सूर्य-मण्डल का आयाम-विस्तार आदि ४७४ हैरण्यवत् वर्ष ३८९ मुहूर्त-गति ४७८ शिखरी वर्षधर पर्वत ३९१ दिन-रात्रि-मान ४८३ ऐरावत वर्ष ३९३ ताप-क्षेत्र ४८७ सूर्य-परिदर्शन ४९२ पंचम वक्षस्कार ३९४-४४८ क्षेत्रगमन ४९४ अधोलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव ३९४ । ऊर्ध्वादि ताप ४९५ ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव ३९९ उत्पत्ति स्थान ४९६ रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव ४०० इन्द्रच्यवन : अन्तरिम व्यवस्था ४९८ शक्रेन्द्र द्वारा अरिहंत-स्तवंना ४०७ चन्द्र-मण्डल : संख्या : अबाधा आदि ५०० जन्मोत्सव की तैयारी ४१३ चन्द्र-मण्डलों का विस्तार ५०५ पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वणा ४१८ चन्द्रमुहूर्तगति शक्रेन्द्र का उत्सवार्थ प्रयाण ४२१ नक्षत्र-मण्डलादि ५१२ ईशान प्रभृति इन्द्रों का आगमन ४२६ सूर्य-चन्द्र उद्गम ५१७ चमरेन्द्र आदि का आगमन ४२९ संवत्सर-भेद अभिषेक-द्रव्य : उपस्थापन ४३२ मास, पक्ष आदि ५२४ अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक ४३५ करणाधिकार ५२९ अभिषेक उपक्रम संवत्सर, अयन, ऋतु आदि ५३३ अभिषेक -समापन ४४४ नक्षत्र नक्षत्रयोग षष्ठ वक्षस्कार ४४९-४६६ नक्षत्र देवता ५३८ उपोद्घात ४४९ नक्षत्र-तारे ५३९ स्पर्श एवं जीवोत्पाद नक्षत्रों के गोत्र एवं संस्थान ५४० जम्बूद्वीप के खण्ड, योजन, नदियाँ आदि ४५० नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य योग काल ५४६ कुल-उपकुल-कुलोपकुल : पूर्णिमा, अमावस्या ५४८ सप्तम वक्षस्कार ४६७-६०४ मास-समापक नक्षत्र ५५९ उपोद्घात. ४६७ अणुत्वादि-परिवार ५७१ चन्द्र-सूर्यादि संख्या ४६७ गति-क्रम ५७४ ५१९ ४३९ ५३४ ५३६ ४४९ (21) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककककककककककक55555555555 विमान-वाहक देव ५७८ जम्बूद्वीप का विस्तार ज्योतिष्क देवों की गति : ऋद्धि ५८७ जम्बूद्वीप : शाश्वत : अशाश्वत एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर ५८८ जम्बूद्वीप का स्वरूप ज्योतिष्क देवों की अग्रमहिषियाँ ५८८ जम्बूद्वीप : नाम का कारण गाथाएँ-ग्रह ५९१ उपंसहार : समापन देवों की काल स्थिति ५९१ नक्षत्रों के अधिष्ठातृ-देवता ५९३ परिशिष्ट ६०५-६११ अल्प, बहु, तुल्य ५९४ तीर्थंकरादि-संख्या ५९५ प्रकाशित आगमों की सची ६०५ 55555555555555555558 85555555555555555555555555555555555555555555555558 卐5555555555555 (22) ) ) ))))555555555555555558 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 455 456 45 4 4 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 45 4 455 45 CONTENTS 3 First Chapter 3-34 Introduction Description of Jambu Dveep and Bharat Area The Query of Ganadhar Gautam Location of Jambudveep The Boundary Wall (Jagati) of Jambudveep Garden : Location in that Land The Gates of Jambudveep The Location of Bharat Area in Jambudveep and its Nature 10 Nature and Location of Southern Bharat in Jambu Island Vaitadhya Parvat 14 Vidyadhar Shrenis Tops (Koots) of Vaitadhya Mountain Sidhayatan Koot Koot of Southern Half of Bharat Vaitadhya Mountain : Why so Named ? Location of Uttarardh Bharat in Jambu Island Rishabh Koot 12 Thickets of Trees The Figure and Structure of Human Beings The Structure of Women Food Duration of Human Beings 58 Residence of Human Beings Daily Routine Absence of Calamities Caused by Sub-Humas Absence of War and Diseases Life-span etc. of Human Beings Sukhama Aeon Sukhama-Dukhama Kulakar State First Tirthankar Rishabhadev : Domestic Life Renunciation Attainment of Omniscience Strength of Organisation (Sangh) 90 Salvation (Pari-niravan) Festival Arranged by Devas Arrival of Ishanendra Disposal of Body: Arranging the Pyre Preparation of Palanquin (Shivika) Collecting Molars 101 Constructing Chaitya Pillar 102 Avasarpani : Dukhma-Sukhama 103 Avasarpani : Dukhama Aeon 105 (Sixth Aeon) Dukham-Dukhma 106 Nature of Human Beings 109 The Food and Behaviour of People 112 35-123 35 Second Chapter Introduction Bharat Continent : Time-cycle Counted Time-Period Time Period Counted by Illustration Avasarpani-(1) Sukhama-Sukhama 36 38 42 ( 23 ) 步步步步步步步55555555555555555555555555559 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1944 455 456 457 454 455 456 454 455 456 45 44 445 44 45 46 47 46 45 44 445 45 115 163 4 Dukham-Dukhma Period of i Utsarpani Dukhma-The second Aeon : Pushkar clouds Rain of Milk, Ghee, Amrit, Juicy Clouds 116 Happy Change and Good Resolve 118 Utsarpani : Dukhma : Second Aeon Dukhma-Sukhma Aeon 4 Sukhma-Dukhma Aeon 119 120 122 Third Chapter 124-255 124 124 125 130 132 $555555 55 5 FFFFFFFFFFF 5555555555555555FFFFFFFFFF Conquest of Vardam Tirth 153 Description of Chariot (Rath) 158 Conquest of Prabhas Tirth 162 Sindhu Devi Conquest of Vaitadhya Giri Kumar Conquest of Tamisra Cave (Gupha) Preparation for Conquering Nishkut State Use of Charma Ratna Great Success : Gifts From Yavans 172 Presentation of Gifts to King by Army Chief 174 Tamisra Cave : Opening of Southern Gate 175 By Kakani Ratna Unmagnajala and Nimagnajala Rivers 183 Battle with Apat Kirats 185 Departure of Aapat Kirat Description of Horse Call to Meghamukh Deva 194 Disturbances by Meghmukh Devas Use of Umbrella (Chhatra Ratna) 198 Arrangement for Army by Gathapati Ratna 200 Warning by Devas to Meghamukh Demi-Gods Kirats at the Mercy of Bharat Conquest of Chulla-Himavant Carving of Name on Rishabhakoot 210 Victory over Nami-Vinami 212 Offering by Natt Malak Dev of Khand-Prapat Vijay 216 445454545454545454 455 456 457 41 41 41 41 41 41 $5454545454545454545454545454545454545454545454545455 456 455 133 188 Introduction Capital City Vinita Chakravarti Bharat Appearing of the Chakra : Welcome Ceremony Decoration of Vinita City King Bharat : Taking Bath and Preparation Departure Towards Ordnance Store Worship of Chakra Ratna Eight Day Festival Departure of Chakra Ratna Towards Magadh Tirth Three Day Paushadh Fast at Magadh Tirth Conquest of Magadh Tirth Arrival of Magadh Tirth Master Deva Near Bharat Breaking of Three Day Fast and Celebration of Eight Day Festival Departure of Chakra Ratna Towards Vardam Tirth 189 136 137 139 141 144 146 149 151 152 ( 24 ) 4 455 456 457 455 456 4 454 455 4 56 457 458 459 455 456 455 456 4 458 455 456 457 455 456 450 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65555555555555555555555555555555555 Arrival of King Bharat Appearance of Nava-Nidhi (Nine Divine Treasures) Departure Towards Vinita Entry in Vinita Coronation of the King Construction of Coronation Hall by Devas Entry in Coronation Hall Coronation Ceremony of King Emperor Proclamation of Twelve Year Celebrations Fourteen Jewels (Ratnas): Appearance of Nine Nidhis The Wealth of King Bharat Attaining Omniscience in Glass Palace Going to Ashtapad Bharat Kshetra: How so Named? Fourth Chapter Introduction Chull Himavan Mountain Description of Padma Lake (Dreh) Ganga, Sindhu and Rohitansha Rivers Eleven Tops (Koots) of Chull Himavan Mountain Haimavat Varsh Shadapati Vritt Vaitadhya Mountain Reason for Naming it as Haimavat Varsh Maha Himavan Varshadhar Mountain 218 219 225 231 236 238 240 242 244 247 248 250 251 255 256-392 256 256 258 263 271 276 278 279 280 Mahapadm Dreh The Tops of Maha Himavan Mountain Harivarsh Continent Nishadh Varshadhar Mountain Description of Mahavideh Continent Gandhamaadan Vakshaskar Mountain Uttar Kuru Yamak Mountain Neelavan Lake Jambu Seat, Jambu Sudarshana Tree Maha Kutchh Vijay Padmakoot Vakshaskar 282 287 288 290 297 316 Malyavan Vakshaskar Mountain 324 Harisseh Top 326 Kutchh Vijay 328 Uttarardh (Southern Half) Kutchh Vijay 332 Chitrakoot Vakshaskar Mountain 335 Sukutchh Vijay 337 339 299 303 304 315 339 Mountain Kachhakavati (Kachhavati Vijay) 340 341 Aavart Vijay Nalinkoot Vakshaskar Mountain 342 Mangalavart Vijay 342 Pushkalavart Vijay 343 344 EkShail Vakshaskar Mountain Pushkalavati Vijay 345 North Sitamukh Forest 345 347 348 Southern Sitamukh Forest Vatsa Vijay and the Like Saumanas Vakshaskar Mountain 351 Deva Kuru 353 Chitra-Vichitra Koot Mountain 353 (25) 155555555555555 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 429 41 41 4 1 361 362 449 377 386 94414545454545454545454545454545454545454 455 456 41 41 41 41 41 41 4 Nishadh Dreh 354 Arrival of Ishan Indras 426 Koot Shalmali Peeth 355 Arrival of Chamarendra Vidyut Prabh Vakshaskar Material for Coronation 432 Mountain 356 Coronation by Achyutendra 435 Sixteen Vijays-Pakshim Procedure of Coronation 439 and Others 358 Copletion of Coronation 444 Mandar Mountain Bhadrasal Forest and Others Sixth Chapter 449-466 Disha Hastikoot Mountain 366 Introduction 449 Nandan Forest 369 Touch and Live-Product Saumanas Forest 373 Regions, Yojans and Rivers of Pandak Forest 374 Jambu Island 450 Coronation Slabs Parts of Mandar Mountain 380 Seventh Chapter 467-604 Sixteen Names of Mandar 382 Introduction 467 Neelavan Varshadhar Mountain 383 Number of Moons, Suns Ramyak Varsh and Others Rukmi Varshadhar Mountain 387 Number of Solar Orbits Hairanyavat Varsh and Others Shikhari Varshadhar Mountain 391 Distance of Solar Orbit Airavat Varsh 393 from Meru 470 Extent of Sun's Orbit Fifth Chapter 394-448 Muhurat-Movement Function of Dik-Kumaris of Measurement of Day and Night Lower World 394 Area of Heat 487 Celebration by Dik Kumaris of Description About Sun 492 Upper World 399 Area of Movement Celebration by Dik-Kumaris Heat in Upper Zone of Ruchak Ared 400 Place of Birth (Origin) 496 Appreciation of Tirthankar Death of Indra-Interim State 498 by Shakrewdra 407 Lunar Rounds: Their Number 500 Preparation for Birth Extent of Lunar Rounds 505 Celebrations 413 Movement of Moon in a Muhurat 509 Preparation of Divine Constellations-Their Movement 512 Vehicle by Palak Rising of Sun-Moon 517 Departure of Shakrendra Year-Their Types 519 for Celebration 421 Month, Paksh Etc. 45 446 45 45 45 455 456 457 455 456 457 455 455 456 457 455 456 457 4541414141414141455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 455 456 457 455 456 4554 389 1455 456 457 45454545454545454545454545454545455 456 457 454 455 456 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 4 474 478 494 418 524 454 455 456 457 4 ( 26 ) 41414141414141414141414141414141414141414141414141414 415 416 41 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 536 455 456 455 456 457 45414141414 591 591 45 听听听听折纸折折折折折折后拆开后 4 8455 456 457 456 45 44 45 46 47 46 45545644141414141414141414 455 456 45454545454545 Karna 529 Speed of Stellar Gods—Their Year, Half Year, Season etc. 533 Weaeon 587 Constellations 534 Distance of One Star from Constellations-Connection Another with Moon Head Goddesses of Stellar Gods 588 Gods of Constellaions 538 Verses Naming Planets Constellation-Stars 539 Life-Span of Gods Shape and Nature of Master Gods of Constellations 593 Constellations 540 Less, More, Equal 594 Constellations-Moon-Sun Number of Tirthankars their Period of and Others Connection (Yoga) 516 Extent of Jambu Island Family-Sub-Family (Upakul), Family in Family: Full Jambu Island-Permanent : Bright Night, Full Dark Non-Permanent Night (Amavasya) 548 Nature of Jambu Island Constellation at End of Month 559 Jambu Island : Why So Named 603 Atom and the Like-Family 571 Conclusion 603 Sequence of Movement 574 Celestial Gods Driving the Appendix 605-611 Divine Vehicles 578 Index of Published Agams 608 595 600 455 456 457 451 451 451 451 4 60 602 4 5 56 457 451 455 456 457 455 456 457 41 41 41 41 451 451 451 4 L 45 455 456 457 455 456 457 455 4 - (27) 4 55555555555555555牙牙乐555555555$$$$ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555559 AVI a55555 5 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$ 55555 JOO TO 355 55555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F55555555 (8) 5555555555555555555555555555555555555 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555455555555555545万円 नमो समणस्स भगवओ महावीरस्स Namo Samanassa Bhagavao Mahavirassa FFFFFFFFFFFFFFhhhhhhhhhhhhhFFFFhFF जंबुद्दीवपण्णत्ति सुतं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 回听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFs JAMBUDVEEP PRAJNAPTI SUTRA 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步hhhhh Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%% %%%%%%%%%%%%% %%%%%% %%%%%%% %%%% %%%% %% %%%%%%%% % g乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 cur.. 也听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 6 %%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%% %%% %%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%% Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555 प्रथम वक्षस्कार FIRST CHAPTER उपोद्घात INTRODUCTION जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के सात वक्षस्कार (प्रकरण) हैं। प्रथम वक्षस्कार में तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप की अवस्थिति, उसमें दक्षिण भरत क्षेत्र का स्थान, वैताढ्य पर्वत, सिद्धायतन कूट आदि का वर्णन है। Jambudveep Prajnapti Sutra has seven chapters (Vakshaskar). In the first chapter there is the description of the location of Jambudveep in the middle universe (tiryak lok), the location of southern Bharat area (kshetra), Vaitadhya mountain, Siddhayatan koot and the like. जम्बद्वीप एवं भरत क्षेत्र का वर्णन DESCRIPTION OF JAMBUDVEEP AND BHARAT AREA १. णमो अरिहंताणं। तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णामं णयरी होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धा, वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तर-पुरथिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था, वण्णओ। जियसत्तू राया, धारिणीदेवी, वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। १. अरिहंतों को नमस्कार। उस काल-(वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्त में) उस समय-(जब भगवान महावीर विद्यमान थे) मिथिला नामक नगरी थी। वह वैभव, सुरक्षा, समृद्धि आदि विशेषताओं से युक्त थी। मिथिला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा-(ईशान कोण) में माणिभद्र नामक चैत्य-(यक्षायतन) था। जितशत्रु मिथिला का राजा था। धारिणी उसकी पटरानी थी (उक्त सभी का वर्णन औपपातिक आदि आगमों में आया है)। एक समय भगवान महावीर वहाँ पधारे। लोग भगवान के दर्शन हेतु रवाना हुए, जहाँ भगवान विराजमान थे वहाँ आये। भगवान ने धर्मदेशना दी। (धर्मदेशना सुनकर) लोग वापस लौट गये। ____ 1. Obeisance to Arihants (the adored ones). At that time (the end of the fourth segment of descending time-cycle) during that period (when Lord Mahavir was present), there was a city named Mithila. It was famous for its prosperity, security, grandeur and suchlike specialities. In its north-east direction there was Manibhadra Chaitya (abode of a demigod). Jitashatru was the ruler of Mithila and his head queen was Dharini (The detailed description of all of them can be seen in Aupapatik Sutra and other Agams). Once Bhagavan Mahavir came there. People came to the place where Mahavir was staying. They attended his discourse and thereafter returned. प्रथम वक्षस्कार (3) First Chapter 55555555555牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙乐5555555555 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))))555555555555555555555555558 विवेचन : संकेतित 'चैत्य' शब्द अनेकार्थवाची है। 'चैत्य' शब्द के सन्दर्भ में भाषा वैज्ञानिकों का ऐसा ॥ 卐 अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीनकाल में 5 परम्परा रही है। सम्भव है, चिता के स्थान पर लगाये जाने के कारण वह वृक्ष 'चैत्य' कहा जाने लगा हो। आगे चलकर वृक्ष के स्थान पर स्मारक के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाती थी। इस प्रकार उसने एक देवस्थान या मन्दिर का रूप ले लिया। वह 'चैत्य' ' कहा जाने लगा। ऐसा होते होते 'चैत्य' शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। Elaboration—The word Chaitya has many interpretations. The linguists believe that there was an ancient tradition to plant a tree at 4 the place where a person was cremated as a token to commemorate him, It is possible that the said tree, which was planted at the place where the pyre (chitaa) was lit, was later termed a Chaitya. In later period, instead of tree a memorial was constructed at that place and the idol of a worldly diets or a yaksha (demi-god) was installed. Thus that place converted into a place of worship or a temple and was called Chaitya, with passage of time the word Chaitya became a synonym of temple. । गणधर गौतम की जिज्ञासा THE QUERY OF GANADHAR GAUTAM २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे ॐ गोअमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वइर-रिसहणाराय-संघयणे, कणग-पुलग. निघस-पम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, 5 घोरबंभचेरवासी, उच्छूट-सरीरे, संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता, णमंसित्ता एवं वयासी। २. उसी समय की बात है, भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-(शिष्य) गौतम गोत्र में जन्मे 卐 इन्द्रभूति नामक अनगार थे, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथ थी। वे समचतुरस्र संस्थान (देह के चारों अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनायुक्त शरीर) के धारक थे। उनका वज्र ऋषभनाराच-संहनन था, कसौटी पर अंकित स्वर्ण रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान उनका गौरवर्ण था। वे उग्र तपस्वी थे, कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले दीप्त तपस्वी थे। तप्त-卐 तपस्वी-जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी।जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर गुण, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचारी, मोह से रहित एवं विपुल-तेजोलेश्य को संगोपित किये हुए थे। गौतम भगवान के पास 卐 आये. तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की. वंदन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर बोले। 2. In that very period, the senior most disciple of Bhagavan Mahavir was ascetic Indrabhuti of Gautam clan. His height was seven haath (a measure). His body-constitution was well-proportioned (Samachaturasra Samsthaan). His bone-structure was extremely strong 9 (Vajra-rishabh-narach samhanan). His complexion was fare like a lotus having the brightness of gold lining. He was practicing hard austerities. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (4) Jambudveep Prajnapti Sutra 口5555555$$$$$ $5555555555555555555555F 5555 $$$$听听听听听西 B))))))4954555555555555555558 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%% ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת He was observing such ascetic practices that could burn karmic matter fi just as a fire burns everything. A glow of austerities was visible on his fi body. He was grand, strong, deep in his austerities and practice of celibacy. He was free from delusion and was endowed with great but controlled-fire power (tejoleshya). Gautam came to Bhagavan Mahavir, bowed to him three times, and then said. जम्बूद्वीप की अवस्थिति LOCATION OF JAMBUDVEEP ३.[प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे १, केमहालए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे २, किंसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ३, किमायारभावपडोयारे णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ४, पण्णत्ते ? । [उ. ] गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सब्बभंतराए १, सव्वखुड्डाए २, वट्टे, A तेल्लापूयसंठाणसंठिए वट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे, पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे, । पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए वट्टे ३, एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई # अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं ४, पण्णत्ते। ३. [प्र. ] भगवन् ! यह जम्बूद्वीप कहाँ है ? कितना बड़ा है ? उसका संस्थान कैसा है ? उसका 5 आकार स्वरूप कैसा है ? [उ. ] गौतम ! (१) यह जम्बूद्वीप सब द्वीप समुद्रों के मध्य में स्थित है, (२) सबसे छोटा है, (३) गोल है, तेल में तले पूए जैसा गोल है। रथ के पहिए जैसा, कमल की कर्णिका जैसा एवं प्रतिपूर्ण चन्द्र के आकार जैसा गोल है। (४) अपने गोल आकार में यह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि (चारों तरफ का घेरा) तीन लाख सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। 3. [Q.] “Melord ! Where is Jambudveep located ? How much is its Esize ? What is its structure ? What is its shape ?" i (Ans.) Bhagavan replied, "Gautam ! (1) This Jambudweep is located at the centre of all the dveeps (continents) and oceans. (2) It is the smallest of all the dveeps. (3) It is round like a cookie fried in oil, as also the wheel of a i chariot, the petal of lotus, or a full moon. (4) Its length and breadth is 0.1 million yojans each. Its circumference is a little more than 3,16,227.75 yojans one hundred twenty eight dhanush thirteen and a half finger measure.” जम्बूद्वीप की जगती : प्राचीर THE BOUNDARY WALL (JAGATI) OF JAMBUDVEEP ४. से णं एगाए वइरामईए जगईए सबओ समंता संपरिक्खित्ते। सा णं जगई अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले बारस जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, उवरिं चत्तारि 8454555555555555555555555555555555555555555555) प्रथम वक्षस्कार (5) First Chapter 15岁男牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%%%%% Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35555555555555555555555554)))))))))))49559 555555555555555555555555555555 फ़ जोअणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिना, मझे संक्खित्ता, उरि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिपंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, समिरीया, ॐ सउज्जोया, पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा। सा णं जगई एगेणं महंतगवक्खकडएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। म से णं गवक्खकडए अद्धजोअणं उड्ढे उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, सव्वरयणामए, अच्छे, जाव पडिरूवे। तीसे णं जगईए उप्पिं बहमज्झदेसभाए एत्थ णं महई एगा पउमवरवेडया पण्णत्ता-अद्धजोयणं उडढं उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, जगईसमिया परिक्खेवेणं, सव्वरयणामई, अच्छा जाव पडिरूवा। तीसे __णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वइरामया णेमा एवं जहा जीवाभिगमे जाव अट्ठो जाव धुवा णियया सासया, (अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया) णिच्चा। ४. वह (जम्बूद्वीप) एक वज्रमय जगती (दीवार) द्वारा सब ओर से घिरा है। वह जगती आठ योजन ऊँची है। मूल (नीचे) में बारह योजन चौड़ी, बीच में आठ योजन चौड़ी और ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में सँकड़ी तथा ऊपर पतली है। उसका आकार गाय की पूँछ जैसा है। वह सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई-सी, घिसी हुई-सी, तरासी हुई-सी, रजरहित, मैलरहित, कर्दमरहित तथा निरन्तर प्रकाशयुक्त है। वह प्रभा, कान्ति तथा उद्योत से युक्त है, चित्त को है प्रसन्न करने वाली, देखने योग्य, मन को अपने में रमा लेने वाली तथा मन में बस जाने वाली है। उस जगती के चारों ओर एक जालीदार गवाक्ष है। वह आधा योजन ऊँचा तथा पाँच सौ धनुष के चौड़ा है। सर्वरत्नमय, स्वच्छ, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूप है। उस जगती के बीचोंबीच एक विशाल पद्मवरवेदिका (मणिमय कमलों की उत्तम वेदिका जहाँ देवगण 卐 क्रीड़ा करते हैं) वह आधा योजन ऊँची और पाँच सौ धनुष चौड़ी है। उसकी परिधि (घेरा) जगती है जितनी है। वह स्वच्छ एवं सुन्दर है। पद्मवरवेदिका का वर्णन जैसा जीवाभिगमसूत्र में आया है, वैसा ही म यहाँ समझ लेना चाहिए। वह ध्रुव, नियत, शाश्वत (अक्षय, अव्यय, अवस्थित) तथा नित्य है। 4. Jambudveep is surrounded on all sides by an extremely strong wall which is eight yojan high, twelve yojan wide at the base, eight yojan i wide in the middle and four yojan wide at the top. It is well-spread at the base, narrow in the middle and thin at the top. Its shape is like that of 4 the tail of a cow. It is studded with jewels, clean, fine, smooth, wellrubbed, well-polished and faceted, free from dirt or dust, free from mud and ever-shining. It is full of brightness, shine and radiance. It is attractive alluring to the mind, worth-seeing and worthy of pleasant recollection. There is a grilled window all around the said wall which is half a yojan high and five hundred dhanush wide. It is fully jewel-studded, clean, worth seeing and pleasant to the mind. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (6) Jambudveep Prajnapti Sutra B卐555555555555555555555 9 5555555555555555555555555555555555558 05555555555 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因%%%%$$$$$$$55555555555555555555558 At the centre of that Jagati (the boundary wall) there is a huge lotus shaped platform where celestial beings play and enjoy. That platform is half-a-yojan high and five hundred dhanush wide. Its circumference is equal to that of the wall. It is clean pure and beautiful. The detailed description of the studded platform (padmavar-vedika) should be considered the same as mentioned in Jivabhigam Sutra. It is permanent, ever-existent, un-diminishing. बनखण्ड : भूमिभाग GARDEN : PLATEAU ५. तीसे णं जगईए उप्पिं बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते। देसूणाई दो # जोअणाई विक्खंभेणं, जगईसमए परिक्खेवेणं वणसंडवण्णओ णेयबो। ५. उस जगती के ऊपर तथा पद्मवरवेदिका के बाहर एक विशाल वनखण्ड-(अनेक जाति के वृक्षों का हरा-भरा उद्यान) है। वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है। उसकी परिधि जगती के समान है। उसका वर्णन अन्य आगमों से जान लेना चाहिए। 6 5. At the top of that wall and beyond padmavar-vedika, there is h blossoming garden that contains trees of many kinds. It is a little less hthan two yojans wide. Its circumference is equal to that of the wall. Its detailed description is available in other scriptural texts. ६. तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा, जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि, तणेहिं उवसोभिए, तं जहा-किण्हेहिं एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सहो, पुक्खरिणीओ, पव्वयगा, घरगा, मंडवगा, पुढविसिलावट्टया गोयमा ! णेयव्या। तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति, सयंति, चिट्ठति, णिसीअंति, तुअटॅति, रमंति, ललंति, कीलंति, मेहंति, पुरापोराणाणं सुपरक्कंताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति। ___ तीसे णं जगईए उप्पिं अंतो पउमवरवेइआए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोअणाई विक्खंभेणं, वेदियासमए परिक्खेवेणं, किण्हे, किण्होभासे, नीले, नीलोभासे, हरिए, हरिओभासे, सीए, । सीओभासे, गिद्धे, गिद्धोभासे, तिब्वे, तिव्वोभासे, किण्हे, किण्हच्छाए, नीले, नीलच्छाए, हरिए, हरियच्छाए, सीए, सीयच्छाए, गिद्धे, गिद्धच्छाए, तिब्बे, तिब्वच्छाए, घणकडिअकडिच्छाए, रम्मे, महामेहणिकुरंबभूए, तणविहूणे णेअब्बो। ६. उस वनखण्ड में एक अत्यन्त समतल, रमणीय भूमिभाग (स्थान/प्रदेश) है। वह आलिंग-पुष्कर यावत् मुरज या ढोलक पर मढ़े हुए चर्म जैसा समतल है। बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है। कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द हैं। वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मण्डप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं। 5 5555555555555555555555558 PIC 3555555555555555 प्रथम वक्षस्कार (7) First Chapter Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 55555555555555555555555555555555558 ॐ वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव एवं देवियाँ आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, देह ॥ को दायें-बायें घुमाते हैं-मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत-क्रिया के करते हैं। यों वे अपने पूर्व कृत शुभ, कल्याणकर-पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप विशेष सुखों का 卐 उपभोग करते रहते हैं। उस जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका के भीतर एक विशाल वनखण्ड है। वह कुछ कम दो योजन ॐ चौड़ा है। उसकी परिधि वेदिका जितनी है। वह कृष्ण, कृष्ण-आभामय, नील, नील-आभामय, हरित, ॐ हरित-आभामय, शीतल, शीतल-आभामय, स्निग्ध, स्निग्ध-आभामय, तीव्र, तीव्र-आभामय, कृष्ण, कृष्ण-छायामय, नील, नील-छायामय, हरित, हरित-छायामय, शीतल, शीतल-छायामय, स्निग्ध, स्निग्ध-छायामय, तीव्र, तीव्र-छायामय, वृक्षों की शाखा-प्रशाखाओं के परस्पर मिले होने से सघन छायामय, रम्य एवं विशाल मेघ-समुदाय जैसा भव्य तथा तृणों के शब्द से रहित है-शान्त है। (पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन जीवाभिगमसूत्र, में देखें।) 6. In that garden there is an extremely beautiful well levelled area. It is levelled like the leather on a drum. It is shining due to beads of five colours and foliage embellishing it of many types. They have their specific colours such as black and the like, special fragrance, taste, touch 41 and sounds. There are lakes, hills, canopies and stone-benches. Many Vyantar demi-gods and goddesses take rest there, sleep there, stand there, sit there, move their body to the right and to the left, bend their body, play and enjoy themselves. Thus as a result of the fruit of their meritorious Karmas of earlier life-spans, they enjoy themselves. At the top of that wall (Jagati) and within the said padmavar-vedika, there is a grand garden which is a little less than two yojans wide. Its circumference is the same as that of the Vedika. It is black, shedding black aura, blue, shedding blue aura, green, shedding green aura; cool, spreading cool shade, soft, shedding soft shade, sharp, shedding sharp shade; since branches and sub-branches of the trees are intermingled, it produces dense shade. It is beautiful and well spread. It looks pleasant like a chain of clouds. It is free from any noise of the hay (The detailed description of padmavar-vedika can be seen in Jivabhigam Sutra) जम्बूद्वीप के द्वार THE GATES OF JAMBUDVEEP 卐 ७.[प्र. ] जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कइ दारा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। ७. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? ___ [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के चार द्वार हैं-(१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, तथा (४) अपराजित। B5555555555555555555555555555555555555555555558 spreading cool shades and sub-branches of the road. It looks pleasan जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (8) Jambudveep Prajnapti Sutra 8455555555555555555555555558 . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ u5555 $ $$$$$$$ $$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFFhhhhhh 7.[Q.] Reverend Sir ! How many are the gates of Jambudveep ? [Ans.] Gautam ! Jambudveep has four gates-(1) Vijay, (2) Vaijayant, (3) Jayant, and (4) Aparajit. ८.[प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइवइत्ता म जंबुद्दीवदीवपुरथिमपेरंते लवणसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीआए महाणईए उप्पिं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स , दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ठा जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणगथूभियाए, जाव दारस्स वण्णओ जाव रायहाणी। ८. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नामक द्वार कहाँ है? ___ [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में ४५ हजार योजन आगे जाने पर ॐ जम्बूद्वीप के पूर्व के अन्त में तथा लवण समुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का म विजय नामक द्वार है। वह आठ योजन ऊँचा तथा चार योजन चौड़ा है। उसके प्रवेश-मार्ग की चौड़ाई चार योजन की है। वह द्वार सफेद वर्ण का है। उसकी स्तूपिका-शिखर उत्तम स्वर्ण की बनी है। द्वार एवं ऊ राजधानी का वर्णन जीवाभिगमसूत्र में जैसा ही यहाँ समझना चाहिए। 8. [Q.] Reverend Sir ! Where is the Vijay gate of Jambu continent located ? (Ans.) Gautam ! At a distance of forty five thousand yojans towards the east of Mandar mountain (located at the centre of Jambudveep) where in the eastern half of Lavan Samudra (salty ocean) there is the great river Sita in the west, the Vijay gate of Jambudveep is located. It is 4 eight yojans high and four yojans wide. The width of its entrance is four yojans. It is white in colour. Its spire is of pure gold. The description of 1 gate and the capital should be considered the same as in Jivabhigami Sutra. ९. [प्र.] जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! अउणासीइं जोअणसहस्साई बाबवण्णं च जोअणाई देसूणं च अद्धजोअणं दारस्स य २ अबाहाए अंतरे पण्णत्ते अउणासीइ सहस्सा बावण्णं चेव जोअणा हुंति। ऊणं च अद्धजोअणं दारंतरं जंबुदीवस्स॥ ९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित अन्तर कितना है ? ___ [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित अन्तर उनासी हजार बावन योजन तथा कुछ कम आधे योजन का है। 8听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 $ 5555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听555555 | प्रथम वक्षस्कार (9) First Chapter Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$ $$$$$$$$$$$ $ 5555555555FFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听 4 9. IQ.) Reverend Sir! What is the distance between one gate and the 卐 next one? (Ans.) Gautam ! The straight distance between a gate and the gate that follows is a little less than 79,052,5 yojan. जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र का स्थान और स्वरूप THE LOCATION AND DESCRIPTION OF BHARAT AREA IN JAMBUDVEEP १०. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते ? म [उ.] गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं ॐ वासे पण्णत्ते___खाणुबहुले, कंटकबहुले, विसमबहुले, दुग्गबहुले, पव्वयबहुले, पवायबहुले, उज्झरबहुले, णिझरबहुले, खड्डाबहुले, दरीबहुले, णईबहुले, दहबहुले, रुक्खबहुले, गुच्छबहुले, गम्मबहुले, लयाबहुले, वल्लीबहुले, अडवीबहुले, सावयबहुले, तणबहुले, तक्करबहुले, डिम्बबहुले, डमरबहुले, दुभिक्खबहुले, 卐 दुक्कालबहुले, पासंडबहुले, किवणबहुले, वणीमगबहुले, ईतिबहुले, मारिबहुले, कुवुट्ठिबहुले, अणावुट्ठिबहुले, रायबहुले, रोगबहुले, संकिलेसबहुले, अभिक्खणं अभिक्खणं संखोहबहुले। ___ पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, उत्तरओ पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए, 5 तिधा लवणसमुदं पुढे, गंगासिंधूहिं महाणईहिं वेअड्ढेण य पब्बएण छन्भागपविभत्ते, जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचछब्बीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं। भरहस्स णं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणड्डभरहं च उत्तरड्डभरहं च। १०. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष-क्षेत्र कहाँ है ? __ [उ. ] गौतम ! चुल्लहिमवंत-(लघुहिमवंत) पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवण समुद्र के पूर्व में यह जम्बूद्वीपान्तर्वर्ती भरत क्षेत्र है। (चित्र देखें) (भरत क्षेत्र का सामान्य पर्यावरण) इसमें स्थाणुओं की-सूखे ढूंठों की, काँटों की-बेर, बबूल आदि काँटेदार वृक्षों की, ऊँची-नीची भूमि की, दुर्गम स्थानों की, पर्वतों की, प्रपातों की-(गिरने के ऐसे 5 # स्थानों की जहाँ से मरणेच्छु व्यक्ति झम्पापात करते हैं,) अवझरों की-जल-प्रपातों की, गड्ढों की, फ़ गुफाओं की, नदियों की, द्रहों की, वृक्षों की, गुच्छों की, गुल्मों की, लताओं की, विस्तीर्ण बेलों की, वनों : की, वनैले हिंसक पशुओं की, तृणों की, तस्करों की-चोरों की, डिम्बों की-स्वदेश में उत्पन्न विप्लवों की, # डमरों की-पर-शत्रुराजकृत उपद्रवों की, दुर्भिक्ष की, दुष्काल की-धान्य आदि की महँगाई की, पाखण्ड 卐 की-विविध मतवादी जनों द्वारा उत्थापित मिथ्यावादों की, कृपणों की, याचकों की, ईति की-फसलों ॥ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudweep Prajnapti Sutra B555555555)))))))))))))))5555555555555555555553 (10) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555) 3555555555555555555555555555 ॐ को नष्ट करने वाले चूहों, टिड्डियों आदि की, मारी की-मारक रोगों की, कुवृष्टि की-किसानों द्वारा ॥ अवांछित-हानिप्रद वर्षा की, अनावृष्टि की, प्रजोत्पीड़क राजाओं की, रोगों की, संक्लेशों की, क्षण-क्षण 5 में आने वाले संक्षोभों की-चित्त की व्याकुलता की अधिकता है-अधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं। (भौगोलिक स्थिति) वह भरत क्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। उत्तर में पर्यंक-संस्थान में स्थित है-पलँग के आकार जैसा है, दक्षिण में धनुपृष्ठ-संस्थान-संस्थित है-प्रत्यंचा 卐 चढ़ाये धनुष के पिछले भाग जैसा है। यह तीन ओर से लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढ्य पर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं, जो छह खण्ड कहलाते हैं। इस जम्बूद्वीप के १९० भाग करने पर भरत क्षेत्र उसका एक भाग होता है। इस प्रकार यह 卐 ५२६६ योजन चौड़ा है। भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताठ्य नामक पर्वत है, जो भरत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता म हुआ स्थित है। वे दो भाग दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं। 10. (Q.) Reverend Sir ! In Jambudveep where is Bharat kshetra located ? [Ans.) Gautam ! In the south of Chulla-Himvant mountain, in the north of the southern Lavan Samudra, in the west of eastern Lavan Samudra and in the east of western Lavan Samudra, the Bharat continent of Jambudveep is located. (see the picture) From environmental aspect, Bharat continent is full of dried trees, thorny trees such as berry and keekar trees, undulating land, highly inaccessible regions, mountains, deep terrains, water-falls, caverns, caves, rivers, lakes, trees, creepers, wide-spread plants, forests, fi dangerous beasts, dry plants, thieves and robbers, civil disturbances and disturbances caused by the enemies, famines, high cost of food grains. It i is also full of wrong notions spread by various exponents of philosophical ki thought. It is full of misers, beggars, locust and rodents that destroy the crop, fatal diseases, rainfall at wrong time, lack of rainfall when needed, cruel rulers who are indifferent to the needs of their subjects, communal disturbances and the activities of persons having unpredictable disturbed state of mind. (From geographical aspect) This Bharat continent is long in east-west and wide in north-south. In the north it is bed like, in the south it is like the back side of a stringed bow. It touches salty ocean (Lavan Samudra) from three sides. It has been divided into six parts by the Ganga river, the Indus river and the Vaitadhya mountain. The six parts are called six 4 Khandas. It is 190th part of Jambu island. Thus, it is 526 and six.' nineteenth yojans wide. 山55FFFFFF$$$$$$$$$$$$FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF hhhhhhFF ת ת ת ת ת ת प्रथम वक्षस्कार . (11) First Chapter 1955555555555555555555555555) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vaitadhya mountain is exactly at the middle of Bharat continent dividing it into two parts. The two parts are called the southern Bharat and northern Bharat. जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान और स्वरूप NATURE AND LOCATION OF SOUTHERN BHARAT IN JAMBUDVEEP ११. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे भरहे णामं वासे पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुद्दस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, अद्धचंदसंठाणसंठिए, तिहा लवणसमुदं पुढें, क गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपविभत्ते। दोण्णि अद्वतीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए म पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा। णव जोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, तीसे कधणुपुढे दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछावठे जोयणसए इक्कं एगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते। [प्र. ] दाहिणद्धभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविहपञ्चपण्णेहिं मणीहिं तणेहिं उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। __ [प्र. ] दाहिणद्धभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, बहूई वासाइं आउं पालेंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिब्वायंति सब्बदुक्खाणमंतं करेंति। ११. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र कहाँ है ? 3 [उ. ] गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, दक्षिण लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्व लवण समुद्र के म पश्चिम में तथा पश्चिम लवण समुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। यह आकार में अर्द्ध-चन्द्र के सदृश है। वह तीन ओर से लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। गंगा महानदी और सिन्धु महानदी से वह तीन भागों में विभक्त हो गया है। वह २३८३३ योजन चौड़ा है। उसकी जीवा-धनुष की प्रत्यंचा जैसी सीधी उत्तर में, पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दोनों ओर से लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। अपने पश्चिमी किनारे से + वह पश्चिम लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पूर्वी किनारे से पूर्व लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए | जम्बूदीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 9555555555555555555555555555558 听听听听听听听听听听听听听听听听听F55555555FFFFFFFFFFFFFF 5555555 (12) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 步步步步步步步5555555555555555555555555555号 है। दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की जीवा ९,७४८१२ योजन लम्बी है। उसका धनुष्य-पृष्ठ-पीठिका दक्षिण में ९,७६६१३ योजन से कुछ अधिक है। यह परिधि की अपेक्षा से वर्णन है। [प्र. ] भगवन् ! दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का आकार स्वरूप कैसा है ? [उ. ] गौतम ! उसका अति समतल रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है। वह अनेकविध कृत्रिम, अकृत्रिम पंचरंगी मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। [प्र. ] भगवन् ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का आकार/स्वरूप कैसा है ? [उ. ] गौतम ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य अनेक प्रकार का है। वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। आयुष्य भोगकर उनमें से कई नरकगति में, कई तिर्यंचगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। 11. [Q.] Reverend Sir ! What is the exact location of southern Bharat area in Jambudveep ? [Ans.] Gautam ! Southern Bharat area is located in the south of Vaitadhya mountain. It is in the north of southern Lavan Samudra. It is in the east of western Lavan Samudra and in the west of eastern Lavan Samudra. Its length is east-west and breadth is north-south. It is like a half moon in shape. It is touching Lavan Samudra from three sides. It has been divided into three parts by the Ganga river and the Indus river. It is two hundred thirty eight and three-nineteenth yojans wide. Its jeeva is straight like a bow-string in the north and its length is in east-west direction. It touches Lavan Samudra from both sides. From western side it touches western Lavan Samudra and from eastern side it touches eastern Lavan Samudra. The jeeva of southern Bharat area is nine thousand seven hundred forty eight and twelve-nineteenth yojan long. In the south it is more than nine thousand seven hundred sixty six and onenineteenth yojan in the context of its circumference. [Q.] Reverend Sir ! What is the figurative nature of southern Bharat area ? [Ans.] Gautam ! It is extremely levelled and beautiful. It is levelled like the upper part of a Muraj (drum). It is studded with many types of artificial and natural jewels of five colours. 10.) Reverend Sir! What is the shape and structure of human beings residing in Bharat area ? (Ans.] Gautam ! The structure, shape, height and the age of human beings of southern Bharat area is of many types. They possess a life प्रथम वक्षस्कार (13) First Chapter Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259595955 5955 55955 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555955555595550 卐 சுமிதிததமி***தத*********************பூத lasting for many years. After spending their life-span some re-incarnate in hell, some in sub-human state, some in human state and some as celestial beings. Some become liberated and attain salvation and thus bring a total end of all their miseries. वैताढ्य पर्वत VAITADHYA PARVAT १२. [ प्र. ] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! उत्तरद्धभरहवासस्स दाहिणेणं, दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेण एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेअड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते - पाईणपडीणाय, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, दुहा लवणसमुद्धं पुट्ठे पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दे पुट्ठे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्टे, पणवीसं जोयणाई उडूढं उच्चत्तेणं छस्सकोसाई जोअणाई उब्वेहेणं, पण्णासं जोअणाइं विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं चत्तारि अट्ठासीए जोयणसए सोल य एगूणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च 5 आयामेणं पण्णत्ता । तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, दस 5 जोयणसहस्साइं सत्त य वीसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स आयामेणं, तीसे धणुपुट्टे दाहिणं दस जोअणसहस्साइं सत्त य तेआले जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंटाणसंठिए, सव्वरययामए, अच्छे, सण्हे, लट्ठे, घट्टे, मट्ठे, णीरए, णिम्मले, 5 णिप्पंके, णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, समिरीए, पासाईए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे । उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं अ वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, पंचधणुसयाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियाओ आयामेणं वण्णओ भाणियव्वो । ते णं वणसंडा देसूणाई जोअणाइं विक्खंभेणं, पउमवरवेइयासमगा आयामेणं, किण्हा, * किण्होभासा जाव वण्णओ। फ्र 卐 卐 फ्र १२. [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य नामक पर्वत कहाँ पर है ? [उ.] गौतम ! उत्तरार्ध भरत क्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के उत्तर में, पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिम लवण समुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत है। वह 5 पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह दो ओर से लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। फ्र फ्र 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र अपने पूर्वी किनारे से पूर्व लवण समुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिम लवण समुद्र का स्पर्श किये 5 卐 फ हुए है। वह पच्चीस योजन ऊँचा है और सवा छह योजन जमीन में गहरा है। वह पचास योजन लम्बा है। इसकी बाहा -दक्षिणोत्तर वक्र आकाश प्रदेशपंक्ति, पूर्व-पश्चिम में ४८८१६ योजन की है। उत्तर वैताढ्य पर्वत की जीवा पूर्व तथा पश्चिम दो ओर से लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। वह पूर्वी किनारे से पूर्व लवण समुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिम लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए जीवा १०,७२०१३ योजन लम्बी है। दक्षिण में उसकी धनुष्य-पीठिका की परिधि १०,७४३५ योजन 5 (14) 卐 4955 5 5959595959555595959595555959595959595555959595695 96 95 96 95 95 है। Jambudveep Prajnapti Sutra 25 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 55 5 5 5 5 5 52 फ्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555559 की है। वैताढ्य पर्वत का आकार रुचक-ग्रीवा के आभरण-विशेष जैसा है। वह सर्वथा रजतमय है। वह स्वच्छ, सुकोमल, चिकना, घुटा हुआ-सा, घिसा हुआ-सा, तराशा हुआ-सा, रजरहित, मैलरहित, कर्दमरहित तथा कंकड़रहित है। वह प्रभा, कान्ति एवं उद्योत से युक्त है, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है।। __उसके दोनों पार्श्व भागों में दो पद्मवरवेदिकाएँ, मणिमय पद्म-रचित वनखण्डों से सम्पूर्णतः घिरी हैं। वे पद्मवरवेदिकाएँ आधा योजन ऊँची तथा पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं, पर्वत जितनी ही लम्बी हैं। पूर्वोक्त के अनुसार उनका वर्णन समझ लेना चाहिए। वे वनखण्ड कुछ कम दो योजन चौड़े हैं, कृष्ण वर्ण तथा कृष्ण आभा से युक्त हैं। इनका वर्णन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। 12. (Q.) Reverend Sir ! Where is Vaitadhya mountain of Bharat area located in Jambu island ? [Ans.] Gautam ! Vaitadhya mountain is located in the south of northern Bharat area and in the north of southern Bharat area. It is in the west of eastern Lavan Samudra and in the east of western Lavan Samudra. It is long in east-west direction and wide in north-south direction. It touches Lavan Samudra from two sides-eastern Lavan Samudra in the east and western Lavan Samudra in the west. It is 25 yojan high and six yojan and a quarter deep underground. It is 50 yojan long. Its north-south curved stretch is 48816 yojan in east-west direction. In the north the stretch of Vaitadhya its Jeeva touches Lavan Samudra from two side namely east and west. Its Jeeva (radial distance) is 10,72012 yojans long. The circumference of its south ward bow, like back is yojans. The shape of Vaitadhya mountain is like ruchak-an ornament worn in the neck. It is completely silvery. It is clean, soft, smooth, polished, well-rubbed, free from all dust, dirt, mud or stonepieces. It is shining due to its brightness and the aura it reflects is pleasant and worth-seeing. On its two sides there are two lotus like structures (Vedikas) studded with jewels totally surrounded by lotus like forest. Those structures are half yojan high and 500 dhanush wide. In length they are equal to that of the mountains. These description should be understood as mentioned above. These forest parts are a little less than two yojan wide, black in colour and black in shine. Their description should also be considered as earlier mentioned. १३. वेयडस्स णं पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं दो गुहाओ पण्णत्ताओ-उत्तरदाहिणाययाओ, पाईणपडीणवित्थिण्णाओ, पण्णासं जोअणाई आयामेणं, दुवालस जोअणाई विक्खंभेणं, अट्ठ जोयणाई प्रथम वक्षस्कार (15) First Chapter Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25555555555555555555550 ॐ उड्ढं उच्चत्तेणं, वइरामयकवाडोहाडिआओ, जमलजुअलकवाडघणदुप्पवेसाओ, णिच्चंधयारतिमिस्साओ, ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसपहाओ जाव पडिरूवाओ, तं जहा-तमिसगुहा चेव खंडप्पवायगुहा चेव। म तत्थ णं दो देवा महिट्टीया, महज्जुईआ, महाबला, महायसा, महासोक्खा, महाणुभागा, पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तं जहा-कयमालए चेव णट्टमालए चेव। तेसि णं वणसंडाणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ। वेअहस्स पब्वयस्स उभओ पासिं दस दस जोअणाई उड्ढे उप्पइत्ता एत्थ णं दुवे विज्जाहरसेढीओ पण्णत्ताओ-पाईणपडीणाययाओ, उदीणदाहिणवित्थिण्णाओ, दस दस जोअणाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियाओ आयामेणं, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं, दोहिं वणसडेहिं संपरिक्खित्ताओ, ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोअणं उड्ढे उच्चत्तेणं, पञ्च धणुसयाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियाओ आयामेणं, वण्णओ णेयब्बो, वणसंडावि पउमवरवेइयासमगा आयामेणं, वण्णओ। १३. वैताढ्य पर्वत के पूर्व-पश्चिम में दो गुफाएँ हैं। वे उत्तर-दक्षिण लम्बी हैं तथा पूर्व-पश्चिम ॐ चौड़ी हैं। उनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊँचाई आठ योजन है। उनके वज्ररत्नमय-हीरकमय कपाट हैं, दो-दो भागों के रूप में निर्मित, समस्थित कपाट इतने सघन-निश्छिद्र, या निविड हैं कि गुफाओं में प्रवेश करना दुःशक्य है। उन दोनों गुफाओं में सदा अँधेरा रहता है। वे ग्रह, + चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्रों के प्रकाश से रहित हैं, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। उन गुफाओं के नाम तमिस्रगुफा तथा खण्डप्रपातगुफा हैं। ॐ वहाँ कृतमालक तथा नृत्यमालक नामक देव निवास करते हैं। वे महान् ऐश्वर्यशाली, द्युतिमान्, बलवान्, यशस्वी, सुखी तथा भाग्यशाली हैं। एक पल्योपम की स्थिति या आयुष्य वाले हैं। उन वनखण्डों के भूमिभाग बहुत समतल और सुन्दर हैं। वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में-दोनों ओर के दस-दस योजन की ऊँचाई पर दो विद्याधर श्रेणियाँ-(विद्याधरों के आवास) हैं। वे पूर्व-पश्चिम लम्बी ॐ तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दस-दस योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी ही है। वे दोनों पार्श्वभ में दो-दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो-दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं। वे पद्मवरवेदिकाएँ ऊँचाई में आधा ॐ योजन, चौड़ाई में पाँच सौ धनुष तथा लम्बाई में पर्वत-जितनी ही हैं। वनखण्ड भी लम्बाई में वेदिकाओं म जितने ही हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। (उक्त सभी का स्पष्ट आकार संलग्न चित्रों से समझें) 卐 13. In east-west of Vaitadhya mountain there are two caves. They are 卐 long in north-south direction and wide in east-west direction. Their length is fifty yojan, width is twelve yojan and height is eight yojan. 4 They have doors studded with diamonds. Built in two parts, the doors are so solid that it is extremely difficult to enter in those caves. There is always darkness in the two caves. They are without any light of planets, constellations, the sun and the moon. The names of the two caves are Tamisra-gupha and Khandprapat-gupha. 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F55555555555 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (16) Jambudveep Prajnapti Sutra 555 步步步步步步步步步步步555555555555555555555 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक लाख योजन लम्बा चौड़ा जम्बू द्वीप तथा उसकी प्राचीर (जगती) जम्बू द्वीप की जगती (कोट) अपराजीत द्वार जगती में बने गवाक्ष कर चौड़ा जयंत जंबुद्धीप lob2 १ लाख योजन वेजयंत द्वार -10122312 ८चौड़ाई जगती ९७४८९ लंबाई जगती की रचना जगती मूल में १२ यो. लवण समुद रुचक आकार में वैताढ्य पर्वत O खड ३ रोहितांश नदी खड२ जगती उत्तर ३ मेखला१०. सिंधु नदी वैताढ्य पर्वत दक्षिण विजयतद्वार षट्खंड भरत क्षेत्र अ.दे.श्रेणी २ मेखला तीर्थ प्रभास खड१ वरदाम तीर्थ Awebअयोध्या मागध तीर्थ १०आ. देव श्रेणी FEMAN पर्वत ऋषभकूट पद्मद्रह १० १ मेखला विद्याधर श्रेणी -१० ऊँचाई 3 billil भरत TISDA खड६ वैताढ्य पर्वत चुल्ल हिमवंत पर्वत लवण समुद्र खंड५ वैताढ्य पर्वत पर उत्तर दक्षिण की विद्याधर श्रेणियाँ ..... विद्याधरों की.उत्तर श्रेणी ... ...... ६० बड़े नगर ..... अभियोगीक देवों की उ. श्रेणी -१०७२० - वैताढ्य के ९ कूट-शिर सिंधु मर्दी तमिस्र गुफा खंड प्रपात गुफा गंगा नदी अभियोगीक देवों की द. श्रेणी ४. विद्याधरों की दक्षिण श्रेणी..........................५० बड़े नगर ....... गोलाई में होने से दक्षिण दिशा में उत्तर दिशा से लम्बाई कुछ कम है इसलिए दक्षिण में ५० विद्याधर नगर हैं, उत्तर में ६० हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ 95 95 95 95 95 959595959595 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9 @55555555555556 卐 फ चित्र परिचय २ भरत क्षेत्र तथा वैताढ्य पर्वत जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत है। पूर्व पश्चिम-दक्षिण तीनों तरफ से तथा उत्तर में चुल्लहिमवंत पर्वत से घिरा बीच का यह अर्ध चन्द्राकार भाग भरत क्षेत्र है इसका विस्तार (इषु) ५२६ योजन लगभग तथा पूर्व-पश्चिम में इसकी जीवा ९७४८ योजन लगभग है। चुल्लहिमवंत पर्वत तथा लवणसमुद्र के बीच दीर्घ वैताढ्य आ जाने से इसके दो भाग हो गये पद्मद्रह से निकली सिंधु व गंगा महानदी के कारण इसके छह खण्ड हो गये हैं। सिंधु व गंगा के पास वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, पूर्व-पश्चिम में दो विशाल गुफाएँ हैं- (१) खण्डप्रपाता गुफा, तथा (२) तमिस्र गुफा वैताढ्य पर्वत से उत्तर में चुल्लहिमवंत पर्वत की तलहटी में 'ऋषभकूट' नाम का एक रमणीय लघु पर्वत है। दक्षिण भरत के खण्ड १ में लवणसमुद्र की तरफ समुद्र और द्वीप को जोड़ने वाला विजयंतद्वार है। लवण व जम्बूद्वीप के बीच एक विशाल दीवार (जगती) है। जो नीचे मूल में १२ योजन चौड़ी, ८ योजन ऊँची है और ऊपर I ४ योजन चौड़ी है जगती की दीवार के बीच-बीच में सुरम्य गवाक्ष बने हुए हैं। विजयंतद्वार के निकट तीन शाश्वत तीर्थ हैं प्रभास, वरदाम तथा मागध तीर्थ - लवणसमुद्र अभियोगिक (लोकपाल) देवों के आवास हैं तीसरी मेखला पर नौ कूट हैं। T वैताढ्य पर्वत ऊपर रुचक = गले में पहनने के आभूषण के आकार का है। इसकी तीन मेखला (स्टेप) नीचे से 10 योजन ऊपर पहली मेखला के उत्तर-दक्षिण में विद्याधरों के ११० नगर (श्रेणी) हैं। दूसरी मेखला पर समुद्र - वक्षस्कार १, सूत्र ४ से २३ तक BHARAT AREA AND VAITADHYA MOUNTAIN In Jambudveep, to the south of Meru mountain, there is Varshadhar mountain called Chullahimavant. This half moon shaped area surrounded on three sides by Lavan Samudra and on one side by Chullahimavant mountain is Bharat area. Its expanse (Ishu) is 526 Yojan and transverse or east-west span is about 9748 Yojans. This area in between Chullahimavant mountain and Lavan Samudra is bisected by Deergh Vaitadhya mountain. It is further divided into six sections by Sindhu and Ganga rivers coming out of Padmadraha lake. Near the Sindhu and Ganga rivers and to the north of Vaitadhya mountain are two huge caves in the east and west - ( 1 ) Khandaprapat cave and (2) Tamisra cave. To the north of Vaitadhya and in the valley of Chullahimavant there is a beautiful hill called Rishabh-koot. हैं। In the first section of Bharat area there is Vijayant gate where the edge of the land mass joins Lavan Samudra. Separating Lavan Samudra and Jambudveep there is an eight Yojan high boundary wall (Jagati). It is twelve Yojan thick at the base and four Yojan at the top. Large and beautiful windows break the monotony of this wall. Near Vijayant door are located three eternal pilgrimages - Prabhaas, Varadaam and Maagadh. Near the top Vaitadhya mountain is shaped like Ruchak (a half moon shaped collar-like necklace). It has three steps. To the north and south of the first step, at a height of 10 Yojans, there are 110 rows of cities of Vidyadhars (a class of divine beings). On the second step there are abodes of Abhiyogik gods (the guardians of directions). On the third step there are nine peaks. - Vakshaskar 1, Sutra- 4-23 $ 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9 45 फ्र फ्र 卐 卐 卐 ®फ़फ़फ़फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ़50 फ्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ h5555555555555555555555%%%%%%%%%% Kritamalak and Nrityamalak angels reside there. They possess great wealth, brightness, strength, glamour, comfort and good fortune. Their life-span is one palyopam. The land of those forest areas is very much levelled and beautiful. On the two sides of Vaitadhya mountain there are the colonies of Vidyadhar, each of which is 10 yojan high. They are long in east-west direction and wide in north-south direction. Their width is 10 yojan and length is the same as that of the mountain. They are surrounded by forest land and lotus like structures (Vedikas) in both sides. These Vedikas are half a yojan high, 500 dhanush wide and in length same as the mountain. The length of the forest region is that of the Vedikas. Their description may be understood as mentioned earlier. (The shape can be seen clearly in the enclosed pictures.) Are aforat VIDYADHAR SHRENIS १४. [प्र. ] विजाहरसेढीणं भंते ! भूमीणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि, तणेहिं उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। तत्थ णं कपिणिल्लाए विज्जाहरसेढीए गगणवल्लभपामोक्खा पण्णासं विज्जाहरणगरावास पण्णत्ता, उत्तरिल्लाए कियाइरसेढीए रहनेउरचक्कवालपामोक्खा सर्टि विज्जाहरणगरावासा पण्णत्ता, एवामेव सपुव्वावरेणं प्रणिल्लाए, उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेटीए एगं दसुत्तरं विज्जाहरणगरावाससयं भवतीतिमक्खायं, ते शिल्पाहरणगरा रित्थिमियसमिद्धा, पमुइयजणजाणवया। तेतु णं विज्जाहरणगरेसु विज्जाहररायाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवण्णओ माणिअबो। १४. [प्र.] भगवन् ! विद्याधर श्रेणियों की भूमि का आकार/स्वरूप कैसा है ? [उ. ] गौतम ! उनका भूमिभाग बड़ा समतल रमणीय है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है। वह बहुत प्रकार की कृत्रिम अकृत्रिम मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। दक्षिणवर्ती विद्याधर श्रेणी में गगनवल्लभ आदि पचास विद्याधर-नगर हैं-उत्तरवर्ती विद्याधर श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल आदि साठ नगर-राजधानियाँ हैं। इस प्रकार दक्षिणवर्ती एवं उत्तरवर्ती-दोनों विद्याधर श्रेणियों के नगरों की-राजधानियों की संख्या एक सौ दस है। वे विद्याधर-नगर वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध हैं। वहाँ के निवासी समृद्ध नगरों की सभी सुविधा व साधनों से सम्पन्न थे। यावत् उन नगरों की शोभा प्रतिरूप मन में बस जाने वाली है। ___ उन विद्याधर नगरों में विद्याधर राजा निवास करते हैं। वे महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के समान प्रधानता या विशिष्टता लिए हुए हैं। प्रथम वक्षस्कार (17) First Chapter Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र **********************************த5 卐 14. [Q.] Reverend Sir ! What is the shape and nature of the land where Vidyadhar Shrenis are located? [Ans.] Gautam ! Their land is very much levelled and worth-seeing. It is as much levelled as the upper part of muraj (a type of drum). Many types of natural and artificial jewels and hay is adding to its beauty. In the southern colony of Vidyadhars, there are fifty Vidydhar towns namely Gaganvallabh and the like. In the northern colony of Vidyadhars, there are sixty capital cities namely Rathanupura Chakraval and the like. Thus the total number of towns and capital cities of southern and northern colonies of Vidyadhars is one hundred and ten. These towns and capital cities are prosperous and well-guarded. The residents of these places enjoy all the facilities available in great cities. The grandeur of those towns and cities is everlasting in the mind. Vidyadhar kings reside in those Vidyadhar towns. They have the grandeur similar to that of a great mountain and importance or uniqueness like that of Malaya, Meru and Mahendra mountain. १५. [ प्र. ] भगवन् ! विद्याधर श्रेणियों के मनुष्यों का आकार/स्वरूप कैसा है ? [ उ. ] गौतम ! वहाँ के मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई एवं आयुष्य बहुत प्रकार का है। (वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। उनमें कई नरकगति में, कई तिर्यंचगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं। कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं) सब दुःखों का अन्त करते हैं। उन विद्याधर श्रेणियों के भूमिभाग में वैताढ्य पर्वत के दोनों ओर दस-दस योजन ऊपर दो आभियोग्य फ्रं श्रेणियाँ - आभियोगिक देवों-शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों-व्यन्तर देवों की आवासपंक्तियाँ हैं। वे पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दस-दस योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियाँ अपने दोनों ओर दो-दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो-दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं। लम्बाई में दोनों पर्वत - जितनी हैं। वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। Jambudveep Prajnapti Sutra १५. [ प्र. ] विज्जाहरसेढीणं भंते ! मणुआणं केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, ( बहूई वासाई आउं पालेंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी, अप्पेइआ देवगामी, अप्पेगइआ सिज्यंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति) सव्यदुक्खाणमंतं करेंति । तासि णं विज्जाहरसेढीणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ बेअडस्स पव्वयस्स उभओ पासिं दस दस जोअणाई उडुं उप्पइत्ता एत्थ णं दुवे अभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ - पाईणपडीणाययाओ उदीणदाहिणवित्थिण्णाओ, दस दस जोअणाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियाओ आयामेणं, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेर्हि संपरिक्खित्ताओ वण्णओ दोण्हवि पव्वयसमियाओ आयामेणं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र (18) 2 55 55 5 5959595959555555555955555552 卐 फ्र 卐 फ्र फ 卐 卐 फ्र 卐 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 步步步步步步步步步步步为$$$$$$$$$$$$ $$$ $ $ ___15. [Q.] Reverend Sir ! What is the figure and nature of the human beings residing in Vidyadhar colonies (Shrenis)? __[Ans.] Gautam ! The body-structure, figure, height and life-span of the residents is of many different types. (They have life-span of many years. Out of them some take re-birth in hell, some as sub-humans, some as human beings and some as celestial living beings. Some attain omniscience, salvation and liberation from this mundane world) and thus bring a total end of all the miseries. In the land of Vidyadhars on both sides of Vaitadhya mountain at a height of ten yojans each there are two colonies of abhiyogya gods namely serving angels of Shakra, Lokapals and the like the residence of peripatetic gods. They are eastwest in length and north-south in width. There width is ten yojan each and length is that of the mountain. Those two colonies of residences are surrounded by two padmavar-vedikas and two forest areas on both the sides. In length, both of them are equal to the length of the mountain. Their description may be understood similar to the one mentioned earlier. १६. [प्र. ] अभिओगसेढीणं भंते ! केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव तणेहिं उवसोभिए वण्णाइं जाव तणाणं सहोत्ति। तासि णं अभिओगसेढीणं तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ अ आसयंति, सयंति, फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति। तासु णं आभिओगसेढीसु सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइआणं आभिओगाणं देवाणं बहवे भवणा पण्णत्ता। ते णं भवणा बाहिं उट्टा, अंतो चउरंसा वण्णओ। तत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइआ बहवे आभिओगा देवा महिड्डिआ, महजुईआ, (महाबला, महायसा) महासोक्खा पलिओवमट्टिइया परिवसंति।। तासि णं आभिओगसेढीणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेयहस्स पव्वयस्स उभओ पासिं पंच २ जोयणाई उड्डूं उप्पइत्ता, एत्थ णं वेयडस्स पब्वयस्स सिहरतले पण्णत्ते-पाईणपीडयायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, दस जोअणाई विक्खंभेणं, पब्वयसमगे आयामेणं, से णं इक्काए पउमवरवेइयाए, इक्केणं वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ते, पमाणं पण्णगो दोहंपि। १६. [प्र. ] भगवन् ! आभियोग्य श्रेणियों का आकार/स्वरूप कैसा है ? [उ. ] गौतम ! उनका बड़ा समतल, रमणीय भूमिभाग है। मणियों एवं तृणों से शोभित है। मणियों के वर्ण, तृणों के शब्द आदि अन्यत्र विस्तार से वर्णित हैं। (देखें-राजप्रश्नीयसूत्र) वहाँ बहुत से प्रथम बक्षस्कार (19) First Chapter 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 步步步步功%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%5555555 ॐ देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, यावत् पूर्व आचरित शुभ, पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप ॥ विशेष सुखों का उपभोग करते हैं। उन अभियोग्य श्रेणियों में देवराज, देवेन्द्र शक्र के सोम-(पूर्व 5 दिक्पाल), यम-(दक्षिण दिक्पाल), वरुण-(पश्चिम दिक्पाल) तथा वैश्रमण-(उत्तर दिक्पाल) आदि ॐ आभियोगिक देवों के बहुत से भवन हैं। वे भवन बाहर से गोल तथा भीतर से चौरस हैं। भवनों का ॥ वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में द्रष्टव्य है। वहाँ देवराज, देवेन्द्र शक्र के अत्यन्त ऋद्धि-सम्पन्न, द्युतिमान्, (बलवान्, यशस्वी) तथा सौख्यसम्पन्न सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण नामक आभियोगिक देव निवास करते हैं। उन आभियोग्य श्रेणियों के अति समतल, रमणीय भूमिभाग से वैताठ्य पर्वत के दोनों ओर पाँचपाँच योजन ऊँचे जाने पर वैताव्य पर्वत का शिखर-तल है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर दक्षिण ऊ चौड़ा है। उसकी चौड़ाई दस योजन है, लम्बाई पर्वत-जितनी है। वह एक पद्मवरवेदिका से तथा एक ॥ वनखण्ड से चारों ओर परिवेष्टित है। उन दोनों का वर्णन पूर्ववत् है। ____16. [Q.] Reverend Sir ! What is the shape and nature of the colonies : (Shrenis) of Abhiyogyas ? । (Ans.] Gautam ! The ground level of those colonies is very much levelled and attractive. It is shining with jewels and corn. The colour of jewels, the sound emitted by the corn and the like has been described in detail (in Rajaprashniya Sutra). Many gods and goddesses stay and take rest and enjoy special comforts which are the fruit of their meritorious Karmas of earlier lives. In the colonies of abhiyogya celestial beings Som, Yam, Varun and Vaishraman, the protectors of the people residing in the east, south, west and the north respectively and the like belonging to the heaven ruled by Shakrendra reside in these mansions. These mansions are round from outside and rectangular from inside. The detailed description of these mansions can be seen in Prajnapana Sutra. The abhiyogya celestial beings belonging to the realms of Devendra Shakra, who are very much prosperous, bright, strong, influential and are enjoying all sorts of comforts, reside there. They are Som, Yam, Varun and Vaishraman. At a distance of five yojans from the colonies of abhiyogya devas from their levelled and beautiful land there is the top of Vaitadhya mountain. Its length is in east-west and breadth is in north-south direction. Its breadth is ten yojans and length is equal to that of the mountain. It is surrounded by a padmavar-vedika and forest land from all the four sides. Their description is the same as mentioned earlier. 855555455555555555555555555555555555555555555555 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (20) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步5555555555 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. [प्र. ] वेयड्डस्स णं भंते ! पब्बयस्स सिहरतलस्स केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए (तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे) वावीओ, पुक्खरिणीओ, (तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे) घाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव भुंजमाणा विहरंति। १७. [प्र. ] भगवन् ! वैताब्य पर्वत के शिखर-तल का आकार/स्वरूप कैसा है ? . [उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह मृदंग के ऊपर के भाग जैसा समतल है, बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँ स्थान-स्थान पर बावड़ियाँ एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव-देवियाँ निवास करते हैं, पूर्व-आचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं। ___ 17.[Q.] Reverend Sir ! What is the shape and nature of the top land of Vaitadhya mountain ? (Ans.] Gautam ! The land portion is very much levelled and charming. It is as much levelled as the upper part of a drum. It is shining with many types of jewels of five colours. There are lakes and tanks at various places. Many interstitial (Van Vyantar) gods, male and female, reside there enjoying the fruits of meritorious karmas of their earlier lives. वैताब्य पर्वत पर कूट PEAKS ON VAITADHYA MOUNTAIN १८.[प्र. ] जंबुद्दीये णं भंते ! दीवे भारहे वासे वेअड्डपव्वए कइ कूडा पण्णता ? [उ.] गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, २. दाहिणभरहकूडे, ३. खंडप्पयायगुहाकूडे, ४. मणिभइकूडे, ५. वेअड्डकूडे, ६. पुण्णभद्दकूडे, ७. तिमिसगुहाकूडे, ८. उत्तराभरहकूडे, ९. वेसमणकूडे। १८. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के कितने कूट-शिखर या घोटियाँ है? [उ. ] गौतम ! वैताठ्य पर्वत के नौ कूट हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) सिद्धायतनकूट, (२) दक्षिणार्ध भरतकूट, (३) खण्डप्रपातगुफाकूट, (४) मणिभद्रकूट, (५) वैताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट, (७) तमित्रगुफाकूट, (८) उत्तरार्ध भरतकूट, तथा (९) वैश्रमणकूट। 18. [Q.] Reverend Sir ! How many are the peaks on Vaitadhya mountain in Bharat continent of Jambu island ? ___[Ans.] Gautam ! Vaitadhya mountain has nine peaks (koots). They are (1) Sidhayatan koot, (2) Dakshinaardh Bharat koot, (3) Khandaprapatgupha koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot, (6) Puranabhadra koot, (7) Tamisragupha koot, (8) Uttarardh Bharat koot, and (9) Vaishraman koot. प्रथम बक्षस्कार (21) First Chapter B%% %%%% %%%%%%% %%%%%%% %%% %%%% %%% %%%%% Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 859 ))) )))))))) ))))))))))) ))) S卐555555555555555555555555555555555555555555555555 के सिद्धायतनकूट SIDHAYATAN KOOT १९. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेअडपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णते ? [उ. ] गोयमा ! पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, दाहिणभरहकूडस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं ॐ जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेअड्डे पव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते-छ सक्कोसाइं जोअणाई उड्डे उच्चत्तेणं, मूले छ सक्कोसाइं विक्खंभेणं, मझे देसूणाई पंच जोअणाई विक्खंभेणं, उवरि साइरेगाई ॐ तिण्णि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले देसूणाई बावीसं जोअणाइं परिक्खेवेणं, मज्झ देसूणाई पण्णरस जोअणाई परिक्खेवेणं, उवरिं साइरेगाइं णव जोअणाई परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पिं तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे, सण्हे जाव पडिरूवे। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसडेणं सवओ समंता संपरिखित्ते, पमाणं वण्णओ दोण्हंपि। सिद्धाययणकूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा य जाव विहरंति। ___ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उड़े उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसनिविटे, अब्भुग्गयसुकयवइरवेइआ-तोरण-वररइअसालभंजिअ-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठिअ-पसत्थवेरुलिअ-विमलखंभे, णाणामणि-रयणखचिअ-उज्जलबहुसम-सुविभत्तभूमिभागे, ईहामिग-उसभतुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय जाव पउमलयभत्तिचित्ते, कंचणमणिरयण-थूभियाए, णाणाविहपंच. वण्णओ, घंटा-पडाग-परिमंडिअग्गसिहरे, धवले, मरीइकवयं विणिम्मुअंते, लाउल्लोइअमहिए जाव। तस्स णं सिद्धायणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता। ते णं दारा पंच धणुसयाई उड्डे उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेअवरकणगथूभिआगा दारवण्णओ जाव वणमाला। तस्स णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव तस्स णं सिद्धाययणस्स णं बहसमरमणिज्जस्स भमिभागस्स बहमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पण्णत्ते-पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पंच धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, सबरयणामए। एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सहेप्पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ, एवं (तासि णं जिणपडिमाणं, अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया हत्थतलपायतला, अंकामयाई णक्खाई अंतोलोहियक्खपडिसेगाई, कणगामया पाया, कणगामया गुप्फा, कणगामईओ जंघाओ, कणगामया जाणू, कणगामया ऊरू, कणगामईओ गायलट्ठीओ रिट्ठामए मंसू, तवणिज्जमईओ णाभीओ, रिट्ठामईओ रोमराईओ, तवणिज्जमया चुच्चुआ तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगामईओ बाहाओ, कणगामईओ के गीवाओ, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवणिज्जमईओ जीहाओ, तवणिजमईआ तालुओ, . कणगमईओ णासिगाओ अंतोलोहिअक्खपडिसेगाओ, अंकामयाइं अच्छीणि अंतोलोहिअक्खपडिसेगाई, 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (22) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ தமி*தமிழ***தமிழ*********மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதமிY पुलगामईओ दिट्ठीओ, रिट्ठामईओ तारगाओ, रिट्ठामयाइं अच्छिपत्ताई, रिट्ठामईओ भमुहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामईओ णिडालपट्टियाओ, वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिज्जमईओ संतसभूमिओ, रिट्ठामय उवरिमुद्धया । तासि णं जिणपडिमाणं पिट्ठओ पत्तेयं २ छत्तधारपडिमा पण्णत्ता । ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिम- रयय - कुंदिंदु - सप्पगासाइं सकोरंटमल्लदामाई, धवलाई आयवत्ताई सलीलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति । तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पतेअं २ दो दो चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ । ताओ णं चामरधारपडिमाओ चंदप्पह - बइर - बेरुलिय- णाणामणिकणग - रयण - खइअ - महरिह - तवणिज्जुविचित्तदंडाओ, चिल्लियाओ, संखंक - कुंद - दगरय- अमयमहिअ - फेणपुंजसन्निकासाओ, सुहुमरययदीहवालाओ, धवलाओ चामराओ सलीलं धारेमाणीओ चिट्ठति । तासि णं जिणपरिमाणं पुरओ वो दो णागपडिमाओ, दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूअपडिमाओ, दो दो कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ, पायबडियाओ, पंजलिउडाओ, सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति - सव्वरयणामईओ, अच्छाओ, सण्हाओ, लण्हाओ, घट्टाओ, मट्ठाओ, नीरयाओ, निप्पंकाओ जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जिणपरिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसगाणं, थालाणं पाईर्ण, सुपट्ट्टगाणं, मणोगुलिआणं, बातकरगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं, पुष्कचंगेरीणं जाब लोमहत्थचंगेरीणं, पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं धूवकडुच्छुगा । १९. [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ है ? [उ.] गौतम ! पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, दक्षिणार्ध भरतकूट के पूर्व में, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्बत पर सिद्धायतनकूट नामक कूट है। वह छह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह प्रोजन एक कोस चौड़ा, मध्य में कुछ कम पाँच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है। मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है। यह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संकुचित या सँकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गाय के पूँछ के आकार जैसा है। वह सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। यह एक पद्मयरवेदिका एवं एक वनखण्ड से सब ओर से परिवेष्टित है। दोनों का परिमाण पूर्ववत् है । सिखायतनकूट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मृदंग के ऊपरी भाग जैसा समतल है। यहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियाँ विहार करते हैं। उस अति समतल, रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बड़ा सिद्धायतन है। वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह ऊँची, सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुत्तलिकाओं से सुशोभित है। उसके उज्ज्वल स्तम्भ चिकने, विशिष्ट, सुन्दर आकारयुक्त उत्तम सूर्यमणियों से निर्मित हैं। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ है, उज्ज्वल है, अत्यन्त समतल तथा सुविभक्त है। उसमें ईहामृग-भेड़िया, वृषभ - बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, प्रथम वमस्कार ( 23 ) 6 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55559 First Chapter Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 955555555%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% 8455555555555555555555555555555555555555555555553 ॐ पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी-मृग, शरभ-अष्टापद, चँवर, हाथी, वनलता यावत् आदि पद्मलता के चित्र है अंकित हैं। उसकी स्तूपिका-शिरोभाग स्वर्ण, मणि और रत्नों से निर्मित है। जैसा कि अन्यत्र वर्णन है, ॐ वह सिद्धायतन एक प्रकार की पंचरंगी मणियों से विभूषित है। उसके शिखरों पर अनेक प्रकार की है। पंचरंगी ध्वजाएँ तथा घण्टे लगे हैं। वह सफेद रंग का है। वह इतना चमकीला है कि उससे किरणें प्रस्फुटित होती हैं। वहाँ की भूमि गोबर आदि से लिपी है। उसकी दीवारें खड़िया, कलई आदि से पुती हैं , है यावत् उसकी दीवारों पर गोशीर्ष चन्दन तथा सरस-आर्द्र लाल चन्दन के हाथ की छापें लगी हैं। उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे द्वार पाँच सौ धनुष ऊँचे और ढाई सौ धनुष चौड़े हैं। उनका उतना ही चौड़ा प्रवेश द्वार है। उनकी स्तूपिकाएँ श्वेत उत्तम स्वर्ण-निर्मित हैं। म (देखें-राजप्रश्नीयसूत्र १२१-१२३) उस सिद्धायतन के अन्तर्गत बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है, जो मृदंग आदि के (शिरोभाग) के ऊपरी भाग के सदृश समतल है। उस सिद्धायतन के बहत समतल और सुन्दर भमिभाग के ठीक बीच में देवच्छन्दक-देवासन-विशेष है। वह पाँच सौ धनुष लम्बा, पाँच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पाँच 5 सौ धनुष ऊँचा है, सर्वरत्नमय है। यहाँ तीर्थंकरों की दैहिक ऊँचाई जितनी ऊँची एक सौ आठ जिन+ प्रतिमाएँ हैं। (उन जिन-प्रतिमाओं की हथेलियाँ और पगलियाँ तपनीय-स्वर्ण-निर्मित हैं।) उनके नख ॐ अन्तःखचित लोहिताक्ष-लाल रत्नों से युक्त अंक रत्नों द्वारा बने हैं। उनके चरण, गुल्फ-टखने, जंघाएँ, जानु-घुटने, उरु तथा उनकी देह-लताएँ कनकमय-स्वर्ण-निर्मित हैं, श्मश्रु रिष्टरत्न निर्मित है, नाभिक तपनीयमय है, रोमराजि-केशपंक्ति रिष्टरत्नमय है, स्तन के अग्र भाग एवं श्रीवत्स-वक्षःस्थल पर बने ॐ चिह्न-विशेष तपनीयमय हैं, भुजाएँ, ग्रीवाएँ कनकमय हैं, ओष्ठ प्रवाल-मूंगे से बने हैं, दाँत स्फटिक ॥ निर्मित हैं, जिह्वा और तालु तपनीयमय हैं, नासिका कनकमय है। उनके नेत्र रत्नमय अंक-रत्नों से बने हैं, तदनुरूप पलकें हैं, नेत्रों की कनीनिकाएँ, नेत्रों के पर्दे तथा भौंहें रिष्टरत्नमय हैं, गाल, कान तथा + ललाट कनकमय हैं, खोपड़ी वज्ररत्नमय-हीरकमय है, केशान्त तथा केशभूमि-मस्तक की चाँद तपनीयमय है, मस्तक के ऊपरी भाग रिष्टरत्नमय हैं। जिन-प्रतिमाओं में से प्रत्येक के पीछे दो-दो छत्रधारक प्रतिमाएँ हैं। वे छत्रधारक प्रतिमाएँ बर्फ, चाँदी, कुंद तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त, सफेद छत्र लिए हुए म आनन्दोल्लास की मुद्रा में स्थित हैं। ____ उन जिन-प्रतिमाओं के दोनों तरफ दो-दो चँवरधारक प्रतिमाएँ हैं। वे चँवरधारक प्रतिमाएँ । ॐ चन्द्रकांत, हीरक, वैडूर्य तथा नाना प्रकार की मणियों, स्वर्ण एवं रत्नों से खचित, बहुमूल्य तपनीय म सदृश उज्ज्वल, चित्रित दण्डों सहित-हत्थों से युक्त, देदीप्यमान, शंख, अंक-रत्न, कुन्द, जल-कण, रजत, मथित अमृत के झाग की ज्यों श्वेत, चाँदी जैसे उजले, महीन, लम्बे बालों से युक्त धवल चॅवरों 卐 को सोल्लास धारण करने की मुद्रा में या भावभंगी में स्थित हैं। ॐ उन जिन-प्रतिमाओं के आगे दो-दो नाग-प्रतिमाएँ, दो-दो यक्ष-प्रतिमाएँ, दो-दो भूत-प्रतिमाएँ 5 तथा दो-दो आज्ञाधारा-प्रतिमाएँ संस्थित हैं, जो विनयावनत, चरणाभिनत-चरणों में झुकी हुई और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (24) Jambudveep Prajnapti Sutra 日历步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 9 हाथ जोड़े हुए हैं। वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई-सी घिसी हुई-सी तरासी हुईसी, रजरहित, कर्दमरहित तथा सुन्दर हैं। उन जिन - प्रतिमाओं के आगे एक सौ आठ घण्टे एक सौ आठ चन्दन - कलश मांगल्य घट, उसी प्रकार एक सौ आठ झारियाँ, दर्पण, थाल, छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठान, विशिष्ट पीठिका, वातकरक, चित्रकरक, रत्नकरंडक, अश्वकंठ, वृषभकंठ, फूलों की डलिया, मयूरपिच्छ - चंगेरिका, पुष्प-पटल, मयूरपिच्छ-पटल तथा धूपदान रखे हैं। 19. [Q.] Reverend Sir ! In Bharat continent of Jambu island, where is Sidhayatan koot of Vaitadhya mountain ? [Ans.] Gautam ! In the west of eastern Lavan Samudra, in the east of Dakshinaardh Bharat koot, the Sidhayatan koot of Vaitadhya mountain of Bharat continent of Jambu island is located. Its height is six yojans and a quarter. In the centre it is a little less than five yojans wide, at foundation it is six yojans and a quarter wide and at the top its width is a little more than three yojans. Its circumference is a little less than 22 yojans at the bottom, a little less than 15 yojans in the middle and a little more than nine yojans at the top. It is wide-spread at the root, narrow at the centre and thin at the top. Its shape is that of the tail of a cow. It is all studded with jewels, clean, soft and beautiful. It is surrounded by a padmavar-vedika and forest land from all sides. Their size is the same as above mentioned. 1 On Sidhayatan koot there is extremely levelled and beautiful land which is as much levelled as the upper part of a drum. Interstitial (Vyantar) gods and goddesses reside there. In the exact centre of that levelled beautiful ground, there is a large Sidhayatan (temple). It is 2 miles (one kos) long, one mile wide and less than two miles high. It is decorated with high, well made vedikas, arches and beautiful figurines. Its shining pillars are glossy, attractive and made of best cat's-eye. Its base is studded with different types of jewels and pearls. It is very bright, levelled and properly divided. Paintings of leopard, bull, horse, man, crocodile, bird, snake, kinnar, musk-deer, ashtapad, whisk, elephant, wild creepers up to lotus creeper decorate it. Its spire is made of gold, pearls and jewels. As mentioned in other accounts, that Sidhayatan is decorated with jewels of five colours. On its top there are flags of five colours and bells. It is white in colour. It is shining to such an extent that rays are spreading from it. The ground is plastered with cow-dung. Its walls are plastered with lime, clay and प्रथम वक्षस्कार 555555555 (25) Firat Chapter Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 45 45 55 55 5 45 5 卐 56 55 55 55 55 455 45 45 45 45 ************************************* 卐 the like. On its walls there are hand prints in gosheersh and red sandalwood paste. 5 சு There are three gates on the three sides of that Sidhayatan. They are 500 dhanush (a measure) high and 250 dhanush wide. The entrance is also that much wide. Its spires are made of white gold of best quality. (see Raj-prashniya Sutra 121-123) 卐 45 Attached to that Sidhayatan is a well levelled beautiful piece of land which is levelled like the upper part of a drum. A special pedestal is made right at the centre of the levelled beautiful ground of that Sidhayatan. It is 500 dhanush long, 500 dhanush wide and a little more than 500 dhanush high and completely studded with jewels. There are 108 idols of Tirthankars equal to their size in height. (The palms and foot-prints of them are made of purified gold.) Their nails are made of red gems inlaid on Risht gems. Their feet, ankles, thighs, knees, chest and body lines are made of gold. Their sides, hair lines, body pores are of Risht gem. The symbols on their breasts and chest are of special shining material. The arms and neck are of gold. The lips are of coral, the teeth are of rock crystal. The tongue and upper part of the mouth from inside is also shining. Their nose is of gold. The eyes are made of Ank gems. The eye-lids are also of same material. The pupils of the eyes, the retinas and the eye-brows are of Risht jewels. The cheeks, ears and forehead are of gold. The skull is of diamond. The roots and tips of hair on the head are of shining gold. The upper portion of the head is of Risht jewels. At the back of each idol of the Tirthankar, there are two idols of umbrella-carriers. Those umbrella-carrier idols are bearing garlands made of shining korant flowers as bright as snow, silver, kund and the moon. They are holding white umbrella and are in a mood of ecstatic pleasure. In front of each of the idols of Tirthankar, there are two snake-idols, two yaksh-idols, two bhoot-idols and two idols in a servient position waiting for orders, in a pose of humility, bending at the feet and with जम्बूदीप प्रज्ञप्ति सूत्र (26) Jambudveep Prajnapti Sutra 055555555555 On both the sides of the idols of Tirthankars, there are idols holding whisks. The handles of the whisks are studded with pearls, gems and diamonds of various types decorated with gold and bear bright paintings. The hair of the whisks are as white as conch shell, ank jewel, water drop, silver, rubbed foam. They are very fine and long. The posture of those idols is that of ecstatic pleasure. 55555555555555555555555555555550 卐 卐 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555 their hands clasped. All of them are gem studded, pure, soft, slippery, well-rubbed, well-cut, dust free, mud free and beautiful. In front of the said idols of Tirthankar there are 108 bells, 108 sandal pots, 108 small pitchers, mirrors, plates, small pots, special seats, Vatkarak, Chitrakark, ratna-karandak, ashva-kanth, vishabh-kanth, baskets of flowers, baskets containing peacock feathers, cloth woven of flowers, cloth made of peacock feathers and incense put. दक्षिणार्ध भरतकूट KOOT OF SOUTHERN HALF OF BHARAT २०. [प्र. १ ] कहि णं भते ! वेअड्डे पव्वए दाहिणड्डभरहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! खंडप्पवायकूडस्स पुरथिमेणं, सिद्धाययणकूडस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं वेअड्डपव्वए दाहिणड्डभरहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते-सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे (सूत्र १९ के समान)। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडिसए पण्णत्ते-कोसं उडुं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसियपहसिए जाव पासाईए ४। तस्स णं पासायवडंसगस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता-पंच धणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, अड्डाइजाहिं धणुसयाई बाहल्लेणं, सबमणिमई। तीसे णं मणिपेढिआए उप्पिं सिंहासणं पण्णत्तं, सपरिवार भाणियब्वं। २०. [प्र. १ ] भगवन् ! वैताठ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकूट नामक कूट कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! खण्डप्रपातकूट के पूर्व में तथा सिद्धायतनकूट के पश्चिम में वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकूट है। उसका परिमाण आदि वर्णन सिद्धायतनकूट के बराबर है। (सूत्र १९ के समान) दक्षिणार्ध भरतकूट के अति समतल, सुन्दर भूमिभाग में एक उत्तम प्रासाद है। वह एक कोस ऊँचा और आधा कोस चौड़ा है। अपने से निकलती प्रभामय किरणों से वह हँसता-सा प्रतीत होता है, बड़ा सुन्दर है। उस प्रासाद के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका है। वह पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी तथा अढाई सौ धनुष मोटी है, सर्वरत्नमय है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन है। उसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है। 20. (Q. 1] Reverend Sir ! Where is Dakshinaardh Bharat koot of Vaitadhya mountain ? __[Ans.] Gautam ! In the east of Khand-prapaat koot and in the west of Sidhayatan koot, the Dakshinardh Bharat koot of Vaitadhya mountain is located. Its size and the like are similar to that of Sidhayatan koot (Sutra 19). There is a beautiful palace in the extremely levelled beautiful land portion of Dakshinardh Bharat koot. It is two miles high and one प्रथम वक्षस्कार .. (27) First Chapter FFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5955 595 卐 mile wide. It appears to be smiling due to the rays emitting from it. It is 5 very beautiful. 卐 फ्र 卐 卐 फ्र फ्र 卐 卐 २०. [ प्र. २ ] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-दाहिणहृभरहकूडे २ ? In the centre of that palace there is a jewel-studded platform which is फ्र फ्र 500 dhanush long, 500 dhanush wide and 250 dhanush thick and is फ्र completely studded with jewels. On that platform there is another throne. Its detailed description can be seen at another place. [प्र. ] कहि णं भंते ! दाहिणड्डूभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णामं रायहाणी पण्णत्ता ? [उ. ] गोयम ! मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता, अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे दक्खिणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणडभरहकूडस्स वेबस्स दाहिणडभरहा णामं [उ. ] गोयमा ! दाहिणड्डभरहकूडे णं दाहिणहुभरहे णामं देवे महिड्डीए जाव पनिओवमट्ठिईए परिवसइ । से णं तत्थ चउन्हं सामाणिअसाहस्सीणं, चउन्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयारक्खदेवसाहस्सीणं दाहिणड्डभरहकूडस्स 5 दाहिणड्डा रायहाणी अण्णेसिं बहूणं देवाण य देवीण य जाव विहर। रायहाणी भाणिअव्वा जहा विजयस्स देवस्स, एवं सव्वकूडा णेयब्वा (सूत्र १८ के समान) बेसमणकूडे परोप्परं पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं, इमेसिं वण्णावासे । गाहा 5 पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिअं असंखेज्जदीबसमुद्दे बीईवइत्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीबे बारस जोअणसहस्साई मणिभद्दकूडे १, वेअड्डकूडे २, पुण्णभटकूडे ३ - एए तिण्णि कूडा कणगामया, सेसा छप्पि रयणभया मज्झ वेअड्ढस्स उ कणगमया तिण्णि होंति कूडा उ सेसा पब्ययकूडा सब्बे रयणामया होंति ॥ दोहं विसरिसणायमा देवा कयमालए चैव णट्टमालए चैव, सेसाणं छणहं सरिसणामयाजण्णामया य कूडा तन्नामा खलु हवंति ते देवा । पलिओवमद्विईया हवंति पत्तेयं पत्तेयं । रायहाणीओ जंबुहीबे दीवे मंदरस्स ओगाहित्ता, एत्थ णं रायहाणीओ भाणिअब्बाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ । २०. [प्र.२ ] भगवन् ! उसका नाम दक्षिणार्ध भरतकूट किस कारण पड़ा ? [उ. ] गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली यावत् एक पल्योपम स्थिति वाला देव रहता है। उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत्त चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएँ, सात सेनापति तथा सोलह हज़ार आत्मरक्षक देव हैं। दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है-सुख भोगता है। 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र [प्र. ] भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट नामक देव की दक्षिणार्धा नामक राजधानी कहाँ है ? (98) 295 5 5 5 5 595555 55959595959 55 5 5 55 55 59555555559595955 5952 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 फ्र फ्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙555555555 [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है। वहाँ दक्षिण दिशा में बारह सौ योजन नीचे जाने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्ध भरता नामक राजधानी है। उसका वर्णन विजयदेव की राजधानी के सदृश जानना चाहिए। वैश्रमणकूट तक सब कूटों का वर्णन (सूत्र १८ के अनुसार) सिद्धायतनकूट जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है वैताठ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं। मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट एवं पूर्णभद्रकूट-ये तीन कूट स्वर्णमय हैं तथा बाकी के छह कूट रलमय हैं। दो पर कृत्यमालक तथा नृत्यमालक नामक दो भिन्न-भिन्न नामों वाले देव रहते हैं। बाकी के छह कूटों पर कूटसदृश नाम के देव रहते हैं। कूटों के जो-जो नाम हैं, उन्हीं नामों के देव वहाँ रहते हैं। उनमें से प्रत्येक पल्योपम स्थिति वाले हैं। मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों को लाँघते हुए अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन नीचे जाने पर उनकी राजधानियाँ हैं। उनका वर्णन विजया राजधानी जैसा समझ लेना चाहिए। 20. [Q.2] Reverend Sir ! Why is it called Dakshinardh Bharat koot ? [Ans.] Gautam ! On Dakshinardh Bharat koot an extremely prosperous celestial being resides whose life-span is one palyopam. He has 4,000 celestial beings of his status under his charge. His family consists of four head-goddesses, three assemblies, seven armies, seven army-chiefs and 16,000 body-guard celestial beings. The capital city of Dakshinardh Bharat is Dakshinardha. This god holds the command of his family of celestial beings and of many other divine gods and goddesses and spends his life enjoying their company. [Q.] Reverend Sir ! Where is Dakshinardha, the capital city of Dakshinardh Bharat koot deva located ? (Ans.] Gautam ! After crossing innumerable islands and oceans to the south of Mandar mountain, there is another Jambu continent. At a distance of 1,200 yojans in the southern direction from it, there is Dakshinardha, the capital city of Dakshinardh Bharat. Its description should be understood similar to that of the capital city of Vijay deva. The description of all the koots up to Vaishraman koot is similar to that of Sidhayatan koot (Sutra 18). They are located from east to west in that order In the centre of Vaitadhya mountain, there are three koots of gold. All the other koots of the mountain are of gems. The three koots namely Manibhadra koot, Vaitadhya koot and Puranbhadra koot are of gold. The remaining six koots are of gems. Two प्रथम वक्षस्कार (29) First Chapter Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ குழித்த* फ 卐 crossing innumerable islands and oceans 12,000 yojans downwards. 5 Their description should be understood similar to that of capital city 5 Vijaya. 卐 devas namely Krityamalak and Nrityamalak reside on two koots and 卐 each of them has a life-span of one palyopam. Their capital cities are in another Jambu continent in the south of Mandar mountain after 5 वैताढ्य पर्वत नाम क्यों ? VAITADHYA MOUNTAIN : WHY SO NAMED ? 5 卐 २१. [ प्र. ] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ वेअड्डे पव्वए ? [उ.] गोयमा ! वेअड्डे णं पव्वए भरहं वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, 卐 5 तं जहा - दाहिणड्डूभरहं च उत्तरड्डभरहं च । वेअड्डगिरिकुमारे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पनि ओवमट्ठिइए परिवसइ । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-वेअड्डे पव्वए २ । தமிழமிழததததததததததி फ्र 5 अदुत्तरं च णं गोयमा ! वेअड्डस्स पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि, ण 卐 5 कयाइ ण अत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, णिअए, सासए, 卐 अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे । 卐 சு फ्र 卐 फ्र க फ्र சு 卐 फ्र 卐 गौतम ! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, 卐 5 यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और यह कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा, यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। 21. [Q.] Reverend Sir ! Why is Vaitadhya mountain so called ? [Ans.] Gautam ! Vaitadhya mountain divides Bharat area in two फ parts namely southern Bharat and northern Bharat. A prosperous deva 卐 whose name is Vaitadhya-giri Kumar resides there. His life-span is one palyopam. So it is called Vaitadhya mountain. २१. [.] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत को 'वैताढ्य पर्वत' क्यों कहते हैं ? [उ. ] गौतम ! वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता है। उस पर वैताढ्य गिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम स्थिति वाला देव 5 फ्र निवास करता है। इन कारणों से वह वैताढ्य पर्वत कहा जाता है। 卐 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र 卐 Further, the name of Vaitadhya mountain is eternal. There was never फ्र a period when this name did, does and will not exist, in the past, in the f present and in the future. It was in the past, it is at present and it shall always be in future also. It is permanent, unaltered everlasting, imperishable stable and unchangeable. फ फ्र 卐 卐 (30) Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 5 卐 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान स्वरूप LOCATION OF UTTARARDH BHARAT IN JAMBU ISLAND २२. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपचयस्स दाहिणेणं, वेअड्डस्स पबयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलिअंकसंठिए, दुहा लवणसमुदं पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चत्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं) पुढे, गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपविभत्ते, दोण्णि अद्वतीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभागे जोअणस्स विक्खंभेणं। तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं अट्ठारस बाणउए जोअणसए सत्त य एगूणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, तहेव (पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुहं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा), चोइस जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एक्कहत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं पण्णत्ता। ___ तीसे धणुपिट्टे दाहिणेणं चोद्दस जोअणसहस्साइं पंच अट्ठावीसे जोअणसए एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ] उत्तरडभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। [प्र. ] उत्तरडभरहे णं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, (बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, बहूई वासाइं आउं पालेंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया) सिझंति (बुझंति मुच्चंति परिणिव्यायंति) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। २२. [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत नामक क्षेत्र कहाँ है? [उ.] गौतम ! चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिम लवण समुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत नामक क्षेत्र है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, उसका आकार संस्थित है-आकार में पलँग जैसा है। वह दोनों तरफ लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवण समुद्र का (तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवण समुद्र का) स्पर्श किये हुए है। वह गंगा महानदी तथा सिन्धु महानदी द्वारा तीन भागों में विभक्त है। वह २३८३३ योजन चौड़ा है। प्रथम वक्षस्कार (31) First Chapter Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555955555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55550 अफ्र 卐 卐 फ 卐 फ 卐 फ 5 卐 फ्र continent. Its length is in east-west direction and width is in north-south direction. Its shape is like that of a bed. It touches Lavan Ocean on both sides eastern Lavan Ocean from its eastern side and western Lavan Ocean from its western side. It is divided into three parts by the Ganga 5 river and Sindhu river. It is 238, yojan wide. 卐 95 उसकी बाहा - भुजाकार क्षेत्र विशेष पूर्व-पश्चिम में १,८९२९ योजन लम्बा है। उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम लम्बी है, लवण समुद्र का दोनों ओर से स्पर्श किये हुए (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवण समुद्र का स्पर्श किये हुए है)। इसकी लम्बाई कुछ कम १४, ४७१६६ योजन है। उसकी धनुष्य - पीठिका दक्षिण में १४,५२८११ योजन है। यह प्रतिपादन परिक्षेप-परिधि की अपेक्षा से है । 卐 [प्र.] भगवन् ! उत्तरार्ध भरत क्षेत्र का आकार / स्वरूप कैसा है ? [उ.] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग जैसा समतल है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से सुशोभित है। [प्र. ] भगवन् ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का आकार / स्वरूप कैसा है ? 22. [Q.] Reverend Sir ! Where is Uttarardh Bharat in Jambu continent located? 卐 [उ.] गौतम ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, (संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है। फ्र वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। आयुष्य भोगकर कई नरकगति में, कई तिर्यंचगति में, कई मनुष्यगति में, कई देवगति में जाते हैं, कई) सिद्ध (बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त) होते हैं, समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । north of Vaitadhya mountain, in the west of eastern Lavan Ocean in the [Ans.] Gautam ! In the south of Chull-Himavant mountain, in the 5 east of western Lavan Ocean, there is Uttarardh Bharat area in Jambu Its ridge in east-west direction is 1,892, yojan long. It spur in the north is going from east to west and is touching Lavan Ocean from both sides. (Eastern bank from the eastern side and western bank from the western side) Its length is a little less than 14, 471g yojan. Its curved length in the south is 14,528 circumference. yojan in context of [Q.] Reverend Sir ! What is the shape of Uttarardh Bharat area ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र 2959595959595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5 55 555 5959595952 (32) फ [Ans.] Gautam ! Its land portion is very much levelled and beautiful. फ्र It is as much levelled as the upper part of a drum. It is studded with artificial and natural gems. Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 卐 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555 5 (Q.) Reverend Sir! What is the shape of the human beings residing in northern-half Bharat? [Ans.] Gautam ! The physical structure (figure, height, life-span) of human beings residing in Uttarardh Bharat is of many types. They have life-span of many years and after completing it some take birth as hellish beings, some as sub-human beings, some as human beings and some as celestial beings. Some of them attain omniscience, salvation and liberation from cycles of birth and death and thus bring a complete end of their miseries. ऋषभकूट RISHABH KOOT २३. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरडभरहे वासे उसभकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते ? __ [उ. ] गोयमा ! गंगाकुंडस्स पच्चत्थिमेणं, सिंधुकुंडस्स पुरथिमेणं, चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे वासे उसहकूडे णामं पबए पण्णत्ते-अट्ट जोअणाई उडे उच्चत्तेणं, दो जोअणाई उव्वेहेणं, मूले अट्ठ जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ जोअणाई विक्खंभेणं, उवरि चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे साइरेगाइं अट्ठारस जोअणाई परिक्खेवेणं, उवरिं साइरेगाई दुवालस जोअणाई परिक्खेवेणं। मूले वित्थिण्णे, मज्झे संक्खित्ते, उप्पिं तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सब्बजंबूणयामए, अच्छे, सण्हे, जाव पडिरूवे। से णं एगाए पउमवरवेइआए तहे (एगेण य वणसडेण सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। उसहकूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाव विहरंति। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते) कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसऊणं कोसं उठं उच्चत्तेणं, अट्ठो तहेव, उप्पलाणि, पउमाणि (सहस्सपत्ताई, सयसहस्सपत्ताई-उसहकूडप्पभाई, उसहकूडवण्णाई)। उसभे अ एत्थ देवे महिटीए जाव दाहिणेणं रायहाणी तहेव मंदरस्स पव्वयस्स जहा विजयस्स अविसेसियं । २३. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत क्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत कहाँ है ? । [उ. ] गौतम ! हिमवान् पर्वत के जिस स्थान से गंगा महानदी निकलती है, उसके पश्चिम में; जिस स्थान से सिन्धु महानदी निकलती है, उसके पूर्व में; चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब-मेखला के निकटस्थ प्रदेश में; जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत क्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत है। वह आठ योजन ऊँचा, दो योजन गहरा, मूल में आठ योजन चौड़ा, बीच में छह योजन चौड़ा तथा ऊपर चार योजन चौड़ा है। मूल में कुछ अधिक पच्चीस योजन परिधियुक्त, मध्य में कुछ अधिक अठारह योजन परिधियुक्त तथा ऊपर कुछ अधिक बारह योजन परिधियुक्त है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त-सँकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह आकार में गाय की पूँछ जैसा है, सम्पूर्णतः जम्बूनद जातीय स्वर्ण से निर्मित है, स्वच्छ, सुकोमल एवं सुन्दर है। प्रथम बक्षस्कार First Chapter (33) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555595 55 5 5 5 5 5 5 55 55 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5955 595 卐 卐 हैं) ऋषभकूट के अनुरूप उनकी अपनी प्रभा है, उनके वर्ण हैं। वहाँ परम समृद्धिशाली ऋषभ नामक देव 5 का निवास है, उसकी राजधानी है, जिसका वर्णन सामान्यतया मन्दर पर्वत गत विजय राजधानी जैसा 5 卐 卐 卐 卐 फ्र தததததததத*த************************* 卐 卐 area close to the southern string of Chull-Himavant mountain in Jambu 卐 5 卐 फ्र वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। ऋषभकूट के ऊपर फ्र एक बहुत समतल रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल है । वहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियाँ बिहार करते हैं। उस बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल फ भवन है)। वह भवन एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, कुछ कम एक कोस ऊँचा है। भवन का वर्णन 5 वैसा ही जानना चाहिए जैसा अन्यत्र किया गया है वहाँ उत्पल, पद्म (सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र आदि 5 फ्र समझना चाहिए। 卐 ॥ प्रथम वक्षस्कार समाप्त ॥ 23. [Q.] Reverend Sir ! Where is Rishabh koot mountain of Uttarardh Bharat in Jambu continent located? 卐 [Ans.] Gautam ! It is in the west of the source of Ganga river in Himavan mountain and in the east of the source of Sindhu river. In the 5 8 yojan high, 2 yojan deep, 8 yojan wide at its foundation, 6 yojan wide in 5 卐 5 than 12 yojan at the top. It is broad at the bottom, narrow in the middle and thin at the top. Its shape is like that of the tail of a cow. It is all built 5 of gold of Jambunad quality, pure, soft and beautiful. 卐 continent in northern half of Bharat area is Rishabh koot mountain. It is the middle and 4 yojan wide at the top. Its circumference is a little more than 25 yojan at the bottom, more than 18 yojan in the middle and more It is surrounded by a padmavar vedika and forest land from all sides. At the top of Rishabh koot, there is a very much levelled and beautiful there. Their brightness and colour are in accordance with Rishabh koot. Very grand celestial being whose name is Rishabh resides there. He has his capital city whose description may be understood similar to that of capital city Vijay of Mandar mountain. FIRST CHAPTER CONCLUDED जम्बूदीप प्रज्ञप्ति सूत्र 2559555555595555 5555 5555955 5 55955 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 2 area which is levelled like the upper part of a muraj. The Vaan-vyantar divine beings-male and female move there. At the very centre of that levelled beautiful land is a great mansion. 2 miles long, one mile wide and less than 2 miles high. The description of the mansion ( Bhavan) should be understood similar to as mentioned elsewhere. Lotus, hundred-leaved lotus, thousand-leaved lotus, utpal and the like are 5 (34) 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 卐 குததத5தமி**************************HE फ्र Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क फ फफफफ )) )) ))))))))) )))) द्वितीय वक्षस्कार SECOND CHAPTER GUIGUIN INTRODUCTION इस द्वितीय वक्षस्कार में भरत क्षेत्र का वर्णन, कालचक्र-वर्तन, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आरक तथा उनमें उत्पन्न मनुष्यों का स्वभाव, उनकी जीवनचर्या, कुलकर एवं प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के जन्म से दीक्षा, केवलज्ञान एवं परिनिर्वाण तक का वर्णन है। In the second chapter there is description of Bharat area, the timecycle, divisions of Utsarpani and Avasarpani time-cycle, the nature of human beings born in the respective periods, their daily routine, the lifesketch of kulkars, the life-sketch of Tirthankar Rishabhdev from the very birth up to renunciation, attainment of omniscience and then salvation. भरत क्षेत्र : कालचक्र-वर्तन BHARAT CONTINENT : TIME-CYCLE २४. [प्र. १ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे कतिविहे काले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! दुविहे काले पण्णत्ते, तं जहा-ओसप्पिणिकाले अ उस्सप्पिणिकाले । [प्र. ] ओसप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! छविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुसम-सुसमाकाले १, सुसमाकाले २, सुसमदुस्समाकाले ३, दुस्सम-सुसमाकाले ४, दुस्समाकाले ५, दुस्सम-दुस्समाकाले ६। [प्र. ] उस्सप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! छब्बिहे पण्णत्ते, तं जहा-दुस्सम-दुस्समाकाले १, दुस्समाकाले २, दुस्सम सुसमाकाले ३, सुसम-दुस्समाकाले ४, सुसमाकाले ५, सुसम-सुसमाकाले ६। २४. [प्र. १ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कितने प्रकार का काल प्रवर्तित है ? [उ. ] गौतम ! दो प्रकार का काल है-अवसर्पिणी काल तथा उत्सर्पिणी काल। [प्र. ] भगवन् ! अवसर्पिणी काल कितने प्रकार का है ? [उ. ] गौतम ! अवसर्पिणी काल छह प्रकार का है, जैसे-(१) सुषम-सुषमाकाल, (२) सुषमाकाल, (३) सुषम-दुःषमाकाल, (४) दुःषम-सुषमाकाल, (५) दुःषमाकाल, (६) दुःषम- दुःषमाकाल। [प्र. ] भगवन् ! उत्सर्पिणी काल कितने प्रकार का है ? [उ. ] गौतम ! छह प्रकार का है, जैसे-(१) दुःषम-दुःषमाकाल, (२) दुःषमाकाल, (३) दुःषमसुषमाकाल, (४) सुषम-दुःषमाकाल, (५) सुषमाकाल, (६) सुषम-सुषमाकाल। द्वितीय वक्षस्कार 牙牙牙牙牙步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步5555555 (35) Second Chapter Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFFFFFFFFFFFFFFF折$$$$$$$$$$$$$FFFFFFFFFFFFFF。 24. [Q. 1] Reverend Sir ! How many are the divisions of time-cycle in - Bharat continent of Jambu island ? (Ans.] Gautam ! The time-cycle is of two types-Avasarpani time+ cycle and Utsarpani time-cycle. (Q.) Reverend Sir ! How many are the divisions of Avasarpani time-cycle ? [Ans.) Gautam ! Avasarpani time-cycle has six divisions namely(1) Period of great happiness, (2) Period of happiness, (3) Period of greater happiness and lesser sorrow, (4) Period of greater sorrow and " lesser happiness, (5) Period of sorrow, (6) Period of great sorrow. [Q.] Reverend Sir ! How many are the types of Utsarpani time-cycle ? [Ans.] Gautam ! Utsarpani time-cycle is of six types namely(1) Period of great sorrow, (2) Period of sorrow, (3) Period of more sorrow and less happiness, (4) Period of more happiness and less sorrow, (5) Period of happiness, (6) Period of great happiness. कालगणना COUNTED TIME-PERIOD २४. [प्र. २ ] एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया उस्सासद्धा विआहिआ ? [उ. ] गोयमा ! असंखिज्जाणं समयाणं समुदय-समिइसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति वुच्चइ, + संखिज्जाओ आवलिआओ ऊसासो, संखिज्जाओ आवलिआओ नीसासो, हवस्स अणवगल्लस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसास-नीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चई ॥१॥ सत्त पाणूई से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्तेत्ति आहिए॥२॥ तिण्णि सहस्सा सत्त य, सयाई तेवत्तरिं च ऊसासा। एस मुहत्तो भणिओ, सबेहिं अणंतनाणीहिं॥३॥ एएणं मुहत्तप्पमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्तो, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिण्णि उऊ अयणे, दो अयणा संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाई वाससए, दस वाससयाई वाससहस्से, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्से, चउरासीइं वाससयसहस्साइं से एगे पुवंगे, चउरासीइ ॐ पुव्वंगसयसहस्साइं से एगे पुव्वे। एवं विगुणं विगुणं णेअब्बं; तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, णलिणे, अत्थणिउरंगे, अत्थणिउरे, ॐ अजुअंगे, अजुए, नजुअंगे, नजुए, पजुअंगे, पजुए, चूलिअंगे, चूलिए, सीसपहेलिअंगे, सीसपहेलिए, जाव , | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra M55555555 $ $$$$ $$ $$$$$$$$$$$ 听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFFF (36) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步园 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRE STRICT Though सागरोपम (OVE पहला 4कोडा कोडा कोड़ी सागरोपम आरा सुषम-सुषम सागरोपम कोड़ा-कोड़ी साग कोडा कोड़ी सागरोपम सुषम-सुषम छठवाँ आरा 4दन दूसरा पणी काल दस कोडा कोड़ी सागरोपमV सषम मिलिया पसलियाँ 256256 Etat एकल्प/ कोड़ा काड़ा सागरोयम पाँचवों कल्प वृक्ष आरा वृक्ष युगलिक 1264दिन THER शरीर 3 कोस आयुष्य 3 पल्योपम आहर 3 दिन से तूवर प्रमाण तीसरा 1) काड़ा सागरोप आरा शरीर 3 कोस आयुष्य 3 पल्योपम आहर 3 दिन से सुषम- दुःषम युगल्लिक शरार2 कोस आयु,2 पल्यो.को आहर 2 दिन युगलिक तूवर प्रमाण तिवमएक पसलिया। अग्नि अनि आन तटीपल्यो एमलिया 64 -12 शरीर 1 कोस आयु.1 पल्योपम/ (बेर प्रमाण/ ताधिकर आहर 2 दिन आयु.2 पल्यो शरीर 2 कास . आँवला प्रमाणावर आरसादल था रा सुषम- दुःषम 2 कोड़ा कोड़ी सागरोपम पत्तीर्थकर 10 को दिन पत्या.आयु.1पल्योपम आहर 1 दिन असंख्य बालों से भरा आम प्रति मावर एक क बाल निकालने निकालत कंआ सम्पूर्ण खाली हो जाये - असंख्य वर्ष एक पल्योपम स.पा. 50 दिन सागरापन शरीर । कोस आंवला प्रमाण सहपा.79 दिन कायत श. 500 धनुष चौथा श,500 धनुष आयु. पूर्व क्रोड़ आहर अनियमित आयु. पूर्व क्रोड़ आहर अनियमित आरा दुःषम-सुषम 28 नी achhe00000 220 तीर्थकर श.7 हाथ आ. 133 वर्ष अन्तम सवप्रलय शहाथ .. सर्वप्रलय कृषि आयु. 20 वर्ष -अन्त में कृषि दुःषम-सुषम 2000 वर्ष न्यून 1 को,को, सागर आ तीसरा आरा श.1हाथआय 20 वर्ष बिलवासी मत्स भोजन बिलवासी नरकगामी 'SR आग्न AM अग्नि काप माम पलियां पाँचवा एमलिया आरा 21000 वर्ष दुःषम दूसरा आरा 21000 वर्ष दुःषम छठवा 21000 वर्ष दुःषम-दुःषमा आरा पहला आरा 21000 वर्ष दुःषम-दुःषमा सकोड़ा-कोडी सागर अवसर्पिणी कालर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05555555555555555555555555555555555se क卐555555555555555555555555555555555555555555te चित्र परिचय ३ | कालचक्र वर्तन ___ जम्बूद्वीप के भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में समयचक्र (कालचक्र) सतत परिवर्तनशील रहता है। यह निरन्तर घटता-बढ़ता, ह्रास विकास करता है। चित्र में बताये अनुसार बारह आरों (विभागों) का एक कालचक्र होता है। इसमें उत्सर्पिणी काल के छह तथा अवसर्पिणी काल के छह-छह आरे होते हैं। अवसर्पिणी काल में पहला सुषम-सुषम आरा सर्वाधिक सुखमय तथा श्रेष्ठ होता है। सूत्र २६ से ३२ तक में इसका वर्णन है। दूसरा सुषम आरा इससे कुछ हीन होता है। शरीर आयु, आहार, पर्यावरण आदि म सभी पहले आरे से घटते-घटते जाते हैं। (-सूत्र ३३) सुषम-दुषम तीसरे आरे के अंतिम भाग में प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। अग्नि की उत्पत्ति हाती है। (-सूत्र ३४-४३) दुषम-सुषम नामक चौथे आरे 5 में शेष २३ तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव-बलदेव उत्पन्न होते हैं। मनुष्य कृषि, व्यापार, कला-कौशल सीख जाता है। दुषम नामक पाँचवाँ आरा प्राय: दु:खमय रहता है। व्यापार उद्योग आदि में झूठ आदि की वृद्धि होती है। पर्यावरण दूषित रहता है तथा छठा आरा अत्यन्त दु:खमय होता है। मनुष्य का शरीर १ हाथ मात्र का, आयुष्य २० वर्ष मात्र तथा वातावरण अत्यन्त उष्ण, अत्यन्त शीतमय होता है। (-सूत्र ४५-४६) पुन: उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है और जिस प्रकार हीनता आई अब उसी क्रम से सभी बातें धीरे-धीरे म अभिवृद्धि की ओर होती है। अवसर्पिणी का छठा तथा उत्सर्पिणी का पहला आरा एक जैसा दु:खमय होता है। इसी प्रकार अवसर्पिणी का पहला व उत्सर्पिणी का छठा आरा एक समान सुखमय होता है। -वक्षस्कार २, सूत्र ४७-५३ ॥ PASSAGE OF THE TIME CYCLE In the Bharat and Airavat areas of Jambudveep the time cycle is ever changing. It always continues to regress and progress. As shown in the illustration one wheel-like cycle of time is divided into twelve spokes. These are LE six spokes of the progressive half-cycle (Utsarpini) and six of the regressive half-cycle (Avasarpini). Sukham-sukham, the first spoke or epoch of the progressive half-cycle is Sukham-sukhama Ara and is the best and the period of extreme happiness. It is described in details in Sutras 26 to 32 The second Sukhama Ara (epoch of happiness) is with slight regression. Body constitution, lifespan, food, ecology all undergo regression as compared to the first epoch. -- Sutra 33 Sukham-dukhama Ara (epoch of more happiness than sorrow) sees the advent of the first Tirthankar during its last phase. There also is the origin of fire. — Sutra 34-43 Dukham-sukhama Ara (epoch of more sorrow than happiness) is the period when the remaining 23 Tirthankars are born besides Chakravartis, Vasudevas and Baladevas. Human beings learn farming, trading, arts and crafts. Dukhama Ara (epoch of sorrow) is mostly filled with misery. There is enhancement of falsity and other vices in trading and other activities. Atmosphere is polluted. Dukham-dukhama Ara, the sixth epoch, is the period of extreme sorrow, Humans are merely one cubit tall and have a life-span of just 20 years. Weather has extremes of heat and cold -Sutra 45-46 After the end of regressive half-cycle the progressive half-cycle commences. Like the 17 regression, this period undergoes similar and gradual progression in conditions in reverse order. The sixth epoch of the regressive period is similar to the first epoch of the progressive half-cycle. In the fi same way the first epoch of the regressive period and last epoch of the progressive period are 47 fi equally pleasant. - Vakshaskar-2, Sutra-47-534 D5555555555555555555555555555555550 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555 )5555555Ehhina के चउरासीइं सीसपहेलिअंगसयसहस्साइं सा एगा सीसपहेलिया। एताव ताव गणिए, एताव ताव गणिअस्स ॐ विसए, तेणं परं ओवमिए। २४. [प्र. २ ] भगवन् ! एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास-निःश्वास होते हैं ? ॐ [उ. ] गौतम ! असंख्यात समयों के समुदाय रूप सम्मिलित काल को आवलिका कहा जाता है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास तथा संख्यात आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। ॐ हृष्ट-पुष्ट, अग्लान, नीरोग प्राणी का-(मनुष्य का) एक उच्छ्वास-निःश्वास प्राण कहा जाता है। 5 सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव तथा सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है। यों तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वास-निःश्वास का एक मुहूर्त होता है। ऐसा सर्वज्ञों ने बतलाया है। इस मुहूर्तप्रमाण से तीस मुहूर्तों का एक अहोरात्र-(दिन-रात), पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक म संवत्सर-(वर्ष), पाँच वर्षों का एक युग, बीस युगों का एक वर्ष-शतक-(शताब्द या शताब्दी), दस 5 वर्ष-शतकों का एक वर्ष-सहस्र (एक हजार वर्ष), सौ वर्ष-सहस्रों का एक लाख वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है अर्थात्-८४,००,००० x 5 ८४,००,००० = ७,०५,६०,००,००,००,००० वर्षों का एक पूर्व होता है। चौरासी लाख पूर्वो का एक 5 श्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक अडडांग, चौरासी लाख आउडांगों का एक अडड, चौरासी लाख अडडों का एक अववांग, चौरासी लाख अववांगों का एक ॥ अवव, चौरासी लाख अववों का एक हुहुकांग, चौरासी लाख हुहुकांगों का एक हुहुक, चौरासी लाख हुकों का एक उत्पलांग, चौरासी लाख उत्पलांगों का एक उत्पल, चौरासी लाख उत्पलों का एक 3 पाग, चौरासी लाख पद्मांगों का एक पद्म, चौरासी लाख पद्मों का एक नलिनांग, चौरासी लाख नलिनांगों का एक नलिन, चौरासी लाख नलिनों का एक अर्थ-निपुरांग, चौरासी लाख अर्थ-निपुरांगों का एक अर्थ-निपुर, चौरासी लाख अर्थ-निपुरों का एक अयुतांग, चौरासी लाख अयुतांगों का एक अयुत, चौरासी लाख अयुतों का एक नयुतांग, चौरासी लाख नयुतांगों का एक नयुत, चौरासी लाख जनयुतों का एक प्रयुतांग, चौरासी लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, चौरासी लाख प्रयुतों का एक चूलिकांग, चौरासी लाख चूलिकांगों की एक चूलिका, चौरासी लाख चूलिकाओं का एक शीर्ष-प्रहेलिकांग तथा चौरासी लाख शीर्ष-प्रहेलिकांगों की एक शीर्ष-प्रहेलिका होती है। यहाँ तक काल का गणित है। यहाँ तक ही गणित का विषय है। यहाँ से आगे औपमिक काल (उपमा के द्वारा बताया जाने योग्य काल)।। 24. (Q. 2] Reverend Sir ! How many are the inhale-exhale breathings in one Mahurat ? (Ans.] Gautam ! An avalika consists of innumerable samayas (indivisible smallest time unit). Numerable avalikas constitute one inhale time and so is one exhale time. The breathing period of one inhale and one exhale of a healthy, nonsick human being is called a praan (life-force unit). Seven units of praane SESES 8555555555555555555555555555555555555555555555558 ))SSSSSS क) |बितीय बक्षस्कार (37) Second Chapter - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 5555555555555555555555555550 卐 ததததததததததV********************** constitute one Stoak. Seven Stoaks are in one Lau. Seventy seven Laus are in one muhurt. Thus there are 3,773 exhale and inhale in one muhurt. Such is the pronouncement of omniscients. A day-night consists of thirty muhurts in all. Fifteen day-nights are in a fortnight (paksh). Two fortnights constitute one month. Two months constitute one season (ritu). Three seasons constitute one ayan. Two ayans constitute on year. Five years are in a yug. Twenty yugas are in a century. Ten centuries are in thousand years. One hundred thousand years are in one lakh years. 84 lakh years are in one purvaang. 84 lakh purvaang are in one purva. Thus a purva consists of 7,05,60,00,00,00,000 years. 84 lakh purvas are in one trutitaang. 84 lakh trutitaang are in one trutit. 84 lakh trutits are in one adadaang. 84 lakh adadaang are in one adad. 84 lakh adad are in one avavaang. 84 lakh avavaang are in one avav. 84 lakh avavas are in one huhukaang. 84 lakh huhukaang are in one huhuk. 84 lakh huhukas are in one utpalaang. 84 lakh utpalaang are in one utpal. 84 lakh utpal are in one padmaang. 84 lakh padmaang are in one padma. 84 lakh padmaas are in one nalinaang. 84 lakh nalinaang are in one nalin. 84 lakh nalins are in one arth-nipuraang. 84 lakh arth-nipuraang are in one arth-nipur. 84 lakh arth-nipur are in one ayutaang. 84 lakh ayutaang are in one ayut. 84 lakh ayut are in one nayutaang. 84 lakh nayutaang are in one nayut. 84 lakh nayut are in one prayutaang. 84 lakh prayutaang are in one prayut. 84 lakh prayut are in one chulikaang. 84 lakh chulikaang are in one chulika. 84 lakh chulikas are in one sheersh-prahelikaang. 84 lakh sheersh-prahelikaang are in one sheersh-prahelika. The time period is countable in numbers upto this extent. It is a subject of numerical arithmetic upto this extent and beyond it, it is the period understood by metaphors. औपमिक काल TIME PERIOD COUNTED BY METAPHORS २५. [.] से किं तं उवमिए ? [उ. ] उबमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पण्णत्ते, तं जहा - ( १ ) पलिओवमे अ (२) सागरोवमे अ । [प्र. ] से किं तं पलिओवमे ? [उ. ] पलिओबमस्स परूवणं करिस्सामि परमाणू दुविहे पण्णत्ते, तं जहा सुहुमे अ वावहारिए अ, ॐ अनंताणं सुहुम-परमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं बाबहारिए परमाणू णिष्फज्जइ, तत्थ णो सत्थं कमइ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र - सत्थेण सुतिक्खेण वि, छेत्तुं भित्तुं च जं किर ण सक्का । तं परमाणु सिद्धा, वयंति आइ पमाणाणं ॥ १ ॥ (38) தததததத*******ததததததததத****ததததத***5S 5555555555555555555555555555555555555555555555555 Jambudveep Prajnapti Sutra Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र वावहारिअ परमाणूणं समुदय- समिइसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसहिआइ वा, सहिसहिआइ वा, उद्धरेणू वा, तसरेणूइ बा, रहरेणूइ वा, बालग्गेइ वा, लिक्खाइ वा, जूआइ वा, जवमज्झेइ वा, उस्सेहंगुले इवा, अट्ठ उस्सण्हसहिआओ सा एगा सण्हसहिया, अट्ठ सहसहिआओ सा एगा उद्धरेणू, अट्ठ उद्धरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साणं वालग्गे, अट्ठ देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साणं वालग्गा, से एगे हरिवास - रम्मयवासाण मणुस्साणं वालग्गे, एवं हेमवय - हेरण्णवयाण मणुस्साणं, अट्ठ पुव्वविदेह - अवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूआ, अट्ठ जूआओ से एगे जवमज्झे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले । अंगुलप्पमाणं छ अंगुलाई पाओ, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छण्णउइ अंगुलाई से एगे अक्खेइ वा, दंडेइ वा, धणूइ वा, जुगेइ वा, मुसलेइ वा, गालिआइ वा । एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साइं गाउअं, चत्तारि गाउआई जोअणं । एएणं जोअणप्पमाणेणं जे पल्ले, जोअणं आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्डुं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअ - बेहिय - तेहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संभट्टे, सण्णिचिए, भरिए वालग्गकोडीणं । ते णं वालग्गा णो कुत्थेज्जा, णो परिविद्धंसेज्जा, णो अग्गी डहेज्जा, णो वाए हरेज्जा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । तओ णं वाससए वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे, णीरए, णिल्लेवे, णिट्ठिए भवइ से तं पलि ओवमे । एएणं सागरोवमप्यमाणेणं चत्तारिसागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - सुसमा १, तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा २, दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - दुस्समा ३, एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिओ कालो दुस्सम- सुसमा ४, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समा ५, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्सम- दुस्समा ६ । एएसिं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिआ । तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं ॥ १ ॥ पुणरवि उस्सप्पिणीए एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्सम- दुस्समा १ एवं पडिलोमं णेयब्व्वं जाव चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - सुसमा ६, दससागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी, इससागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी, वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी-उस्सप्पिणी । २५. [ प्र. ] भगवन् ! औपमिक काल का क्या स्वरूप है वह कितने प्रकार का है ? [उ. ] गौतम ! औपमिक काल दो प्रकार का है - पल्योपम तथा सागरोपम । [प्र. ] भगवन् ! पल्योपम का क्या स्वरूप है ? [ उ. ] गौतम ! पल्योपम की प्ररूपणा करूँगा - ( इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है - ) परमाणु दो प्रकार का :- (१) सूक्ष्म परमाणु, तथा (२) व्यावहारिक परमाणु । अनन्त सूक्ष्म परमाणु- पुद्गलों के एक-भावापन्न मुदाय से व्यावहारिक परमाणु निष्पन्न होता है। उसे (व्यावहारिक परमाणु को) शस्त्र काट नहीं सकता । द्वितीय वक्षस्कार (39) $55555555955555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 Second Chapter Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) )) ) )) 55555555555555555555555))))))))))))) कोई भी व्यक्ति उसे तेज शस्त्र द्वारा भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता। ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। वह ॥ (व्यावहारिक परमाणु) सभी प्रमाणों का आदि कारण है। __अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। आठ बाल का अग्रज भाग उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं का एक ॐ ऊर्ध्वरेणु होता है। आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेणु होता है। आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु (रथ के चलते समय उड़ने वाले रज-कण) होता है। आठ रथरेणुओं का देवकुरु तथा उत्तरकुरु निवासी मनुष्यों के का एक बालाग्र होता है। इन आठ बालारों का हरिवर्ष तथा रम्यक्वर्ष के निवासी मनुष्यों का एक ॐ बालाग्र होता है। इन आठ बालागों का हैमवत तथा हैरण्यवत निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। के इन आठ बालाग्रों का पूर्वविदेह एवं अपरविदेह के निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। इन आठ फ़ बालागों की एक लीख होती है। आठ लीखों की एक जूं होती है। आठ जूओं का एक यवमध्य होता है। ॐ आठ यवमध्यों का एक अंगुल होता है। छः अंगुलों का एक पाद-पादमध्य-तल होता है। बारह अंगुलो 5 की एक वितस्ति होती है। चौबीस अंगुलों की एक रनि-हाथ होता है। अड़तालीस अंगुलों की एक कुक्षि , में होती है। छियानवे अंगुलों का एक अक्ष-आखा-शकट का भाग-विशेष होता है। इसी तरह छियानवे : अंगुलों का एक दण्ड, धनुष, जुआ, मूसल तथा नालिका-एक प्रकार की यष्टि होती है। दो हजार धनुषों के का एक गव्यूत-कोस होता है। चार गव्यूतों का एक योजन होता है। इस योजन-परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊँचा तथा इससे तीन गुनी परिधियुक्त पल्य-धान्य रखने के कोठे जैसा हो। देवकुरु तथा उत्तरकुरु में एक दिन, दो दिन, तीन फ़ , अधिकाधिक सात दिन-रात के जन्मे यौगलिक के प्ररूढ़ बालानों से उस पल्य को इतने सघन,, ठोस, निचित, निविड रूप में भरा जाये कि वे बालाग्र न खराब हों, न विध्वस्त हों, न उन्हें अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके, न वे सड़ें-गलें-दुर्गन्धित हों। फिर सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकाले जाते रहने पर जब वह पल्य बिल्कुल रीता हो जाये, रजरहित-धूलकण-सदृश बालारों से रहित हो जाए, निर्लिप्त हो जाये-बालाग्र कहीं जरा भी चिपके न रह जायें, सर्वथा रिक्त हो जाये, तब ! + तक का समय एक पल्योपम कहा जाता है। (अंगुल, धनुष आदि के चित्र पृष्ठ ९२ तथा पल्य का स्वरूप एवं __ चित्र देखें--अनुयोगद्वार, भाग २, पृष्ठ १६३) + ऐसे कोड़ाकोड़ी पल्योपम का दस गुना एक सागरोपम होता है। ऐसे सागरोपम परिमाण से सुषम-सुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल म तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषम-दुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषम-सुषमा काम काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष तथा : दुःषम-दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष है। यह अवसर्पिणी काल के छह आरों का परिमाण है। उत्सर्पिणी काल का परिमाण इससे प्रतिलोम-उल्टा समझना चाहिए। यावत् सुषम-सुषमा का काल + चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है तथा । के उत्सर्पिणी का काल भी दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी-दोनों का काल बीस है कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (40) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步高 055555555555555555555555555555555555555 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 451 451 454 445 446 4450 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 fi 25. (Q.) Reverend Sir ! What is the nature of Aupamik time-period fi (time known through metaphor) and how many are its types ? (Ans.] Gautam ! The aupamik time is of two types palyopam and sagaropam. (Q.) Reverend Sir! What is a palyopam ? (Ans.] Gautam ! In the context of nature of a palyopam it should be first understood that paramanu is of two types—(1) Subtle paramanu, fi and (2) Practical paramanu. An infinite number of subtle paramanus 41 form into a practical paramanu. A weapon cannot pierce even a practical paramanu. It is stated by the omniscient that no one can cut it even with a sharp 4 weapon. This practical paramanu is the initial cause of all the formations. fi Infinite practical paramanus constitute one utshlakshana shlakshnika. Eight hair-tips or utshlakshanashlakshnikas constitute one 4 shlakshanashlakshnika. Eight shlakshanashlakshnikas constitute one urdhvarenu. Eight urdhvarenu constitute one trasarenu. Eight trasarenu constitute one ratharenu (dust particle flying at the time of the movement of a chariot). Eight ratharenu constitute one hair-tip of the human beings residing in Devakuru and Uttarakuru. Eight such hairtips constitute one hair-tip of human beings of Hari-varsh and Ramyak- i varsh. Eight such hair-tips constitute one hair-tip of human beings of Haimavat and Hairnayavat. Eight such hair-tips constitute one hair-tip of human beings of eastern Videh and western Videh. Eight such hairtips constitute one leekh. Eight leekhs constitute one louse. Eight lice 4 constitute thickness of a barley grain in the middle. Eight times such thickness equals thickness of one finger. Six such thickness equals width of one foot in the middle. Twelve thickness of finger equals one Vitasti. Twenty four times thickness of a finger equals one ratni or one haath (distance between tip of finger of the hand up to elbow). Forty eight times thickness of finger equals one kukshi (distance from tip of finger i up to armpit). Ninety six times thickness of finger equals one Aksha i (part of a yoke). Similarly ninety six times thickness of finger equals one dand, dhanush, jooaa, moosal or nalika. Two thousand dhanush equals one gavyoot (kos). Four gavyoots equal one yojan. Consider a storehouse one yojan long, one yojan broad and one yojan | high, the circumference being three times the length. Let us densely fill 2441414141454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454541 41 41 41 4 4 4 4 4 h 11 ת נ ת ת ת ת ת ת ת ת द्वितीय वक्षस्कार ( 41 ) Second Chapter 341441451461454545454545454545454545454141414141414141414141414141414141 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐धक)) 5555555 听听听听听听听听F555555555555F FFFFFFFFFFFFFFFFFF团 4 that storehouse with the hair-tips of yuglik human beings of uttarakuru 41 and devakuru who have been born only one to seven days earlier in such a way that those hair-tips do not get damaged, destroyed, burnt by fire, moved away by the wind or get rotten. Then take out only one hair-tip after every hundred years till that storehouse becomes totally empty and their remains no hair-tip attached to it. The total time taken in this i process of taking out all the hair-tips is called one palyopam. (In Illustrated Anuyogdvar, Part II, the illustration of finger, dhanush etc. can be seen at page 92 and of palya at page 163) ___10 million palyopam multiplied by 10 million and again multiplied by 10 equals the Sagaropam. The span of Sukhama-Sukhama period is 4x 10 million x 10 million 卐 Sagaropam. The span of Sukhama period is3x10 million x 10 million Sagaropam. The span of Sukhama-Dukhama is 2 x 10 million x 10 million Sagaropam. The span of Dukhama-Sukhama is 10 million x 10 million Sagaropam reduced by 42,000 years. The span of Dukhama is 21,000 years. The span of Dukhama-Dukhama is 21,000 years. This is the timeperiod of six aeons of Avasarpani time-cycle. The time-period of aeons of Utsarpani time-cycle is just in the reverse 卐 order. Thus the total time-period of Avasarpani cycle is 10 x 10 million x 10 million Sagaropam and same is that of Utsarpani cycle. The total period of Avasarpani and Utsarpani cycle is thus 20 x 10 million x 10 million Sagaropam (20 kota-koti Sagaropam). ॐ अवसर्पिणी : (१) सुषम-सुषमा AVASARPANI (1) SUKHAMA-SUKHAMA २६. [प्र.] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहे वासे इमीसे ओस्सप्पिणीए सुसम-सुसमाए समाए ॐ उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? __[उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव जणाणामणि-पंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहि य उवसोभिए, तं जहा-किण्हेहिं, (नीलेहिं, लोहिएहि, हलिदेहिं) सुक्किल्लेहिं। एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सद्दो अ तणाण य मणीण य भाणिअव्वो जाव तत्थ णं बहवे म मणुस्सा मणुस्सीओ अ आसयंति, सयंति, चिटुंति, णिसीअंति, तुअटुंति, हसंति, रमंति, ललंति। म तीसे णं समाए भरहे वासे बहवे उद्दाला कुद्दाला मुद्दाला कयमाला णट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संखमाला सेअमाला णामं दुमगणा पण्णत्ता, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला, मूलमंतो, जाव कंदमंतो के बीअमंतो; पत्तेहि अ पुप्फेहि अफलेहि अ उच्छण्णपडिच्छण्णा, सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (42) Jambudveep Prajnapti Sutra 95555555555555555555555555555555555555558 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555555 तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे भेरुताल-वणाई हेरुताल-वणाई मेरुताल-वणाई पभयाल-वणाइं साल-वणाई सरल-वणाई सत्तवण्ण-वणाई पुअफलि-वणाई खज्जूरी-वणाई णालिएरी-वणाई कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूलाई जाव चिट्ठति। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे सेरिआगुम्मा णोमालिआगुम्मा कोरंटयगुम्मा बंधुजीवगगुम्मा मणोजगुम्मा बीअगुम्मा बाणगुम्मा कणइरगुम्मा कुज्जयगुम्मा सिंदुवारगुम्मा मोग्गरगुम्मा जूहिआगुम्मा मल्लिआगुम्मा वासंतिआगुम्मा वत्थुलगुम्मा कत्थुलगुम्मा सेवालगुम्मा अगत्थिगुम्मा मगदंतिआगुम्मा चंपकगुम्मा जाइगुम्मा णवणीइआगुम्मा कुंदगुम्मा महाजाइगुम्मा। रम्मा महामेहणिकुरंबभूआ दसवण्णं कुसुमं कुसुमेंति; जे णं भरहे वासे बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधुअग्गसाला मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिअं करेंति। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहुईओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमिआओ, लयावण्णओ। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तहिं तहिं बहुईओ वणराईओ पण्णत्ताओ-किण्हाओ, किण्होभासाओ जाव मणोहराओ, रयमत्तगछप्पय-कोरंग-भिंगारग-कोंडलग-जीवंजीवग-नंदीमुहकविल-पिंगलक्खग-कारंडव-चक्कवायग-कलहंस-हंस-सारस-अणेगसउणगण-मिहुणविअरिआओ सदुणइयमहुरसरणाइआओ, संपिंडिअ-दरियभमर-महुयरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पय-कुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंत-गुंजंतदेसभागाओ, जाव पासाईयाओ, ४। २६. [प्र. ] जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषमा नामक प्रथम आरे में, जब वह अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा में था, भरत क्षेत्र का आकार, स्वरूप आदि किस प्रकार का था? [उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल तथा रमणीय था। मुरज के ऊपरी भाग की ज्यों वह समतल था। नाना प्रकार की काली, (नीली, लाल, हल्दी के रंग की-पीली तथा) सफेद मणियों एवं तृणों से वह उपशोभित था। तृणों एवं मणियों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द आदि अन्यत्र वर्णित के अनुसार कथनीय हैं। वहाँ बहुत से मनुष्य, स्त्रियाँ आश्रय लेते, शयन करते, खड़े होते, बैठते, देह को दायें-बायें घुमाते-मोड़ते, हँसते, रमण करते, मनोरंजन करते थे। ___ उस समय भरत क्षेत्र में उद्दाल, कुद्दाल, मुद्दाल, कृत्तमाल, नृत्तमाल, दन्तमाल, नागमाल, श्रृंगमाल, शंखमाल तथा श्वेतमाल नामक वृक्ष थे, ऐसा कहा गया है। उनकी जड़ें दर्भ तथा दूसरे प्रकार के तणों से विशुद्ध-रहित थीं। वे उत्तम मूल-जड़ों के ऊपरी भाग, कंद-भीतरी भाग तथा बीज से सम्पन्न थे। वे पत्तों, फूलों और फलों से ढके रहते तथा अतीव कान्ति से सुशोभित थे। __उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत से वृक्षों के वन थे, जैसे-भेरुताल वृक्षों के वन, हेरुताल वृक्षों के वन, मेरुताल वृक्षों के वन, प्रभताल वृक्षों के वन, साल वृक्षों के वन, सरल वृक्षों के वन, सप्तपर्ण वृक्षों के वन, सुपारी के वृक्षों के वन, खजूर के वृक्षों के वन, नारियल के वृक्षों के वन थे। उनकी जड़ें दर्भ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। द्वितीय वक्षस्कार Second Chapter (43) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 55 5 595555555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 952 卐 5 उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ अनेक गुल्म (वृक्षों की पंक्तियाँ) थे। जैसे सेरिका - गुल्म, नवमालिका 卐 卐 का - गुल्म, कोरंटक - गुल्म, बन्धुजीवक गुल्म, मनोऽवद्य - गुल्म, बीज - गुल्म, बाण- गुल्म, फ 5 कर्णिकार - गुल्म, कुब्जक - गुल्म, सिंदुवार - गुल्म, मुद्गर-गुल्म, यूथिका-गुल्म, मल्लिका- गुल्म, वासंतिका - गुल्म, वस्तुल - गुल्म, कस्तुल-गुल्म, शैवाल - गुल्म, अगस्ति-गुल्म, मगदंतिका - गुल्म, चंपक 卐 फगुल्म, जाती- गुल्म, नवनीतिका - गुल्म, कुन्द - गुल्म, महाजाती- गुल्म थे। वे रमणीय, बादलों की घटाओं 5 जैसे गहरे, पंचरंगे फूलों से युक्त थे। वायु से प्रकम्पित अपनी शाखाओं के अग्र भाग से गिरे हुए फूलों से 5 वे भरत क्षेत्र के अति समतल, रमणीय भूमिभाग को सुरभित बना देते थे । भरत क्षेत्र में उस समय जहाँ-तहाँ अनेक पद्मलताएँ तथा श्यामलताएँ थीं। वे लताएँ सब ऋतुओं में फूलती थीं यावत् लताओं का वर्णन जानना चाहिए। 卐 26. [Q.] Reverend Sir ! In the first aeon namely Sukhama - Sukhama of 卐 Avasarpani time-period of Bharat area in Jambu continent, when it was फ at its climax, what was the nature and the shape of Bharat area? 卐 5 उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत-सी वनराजियाँ - वनपंक्तियाँ थीं। वे कृष्ण, कृष्ण आभायुक्त इत्यादि अनेकविध विशेषताओं से विभूषित थीं, मनोहर थीं। पुष्प-पराग के सौरभ से मत्त भ्रमर, 卐 5 कोरंक, भृंगारक, कुंडलक, चकोर, नन्दीमुख, कपिल, पिंगलाक्षक, करंडक, चक्रवाक, बतख, हंस, 5 卐 सारस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े उनमें विचरण करते थे। वे वनराजियाँ पक्षियों के मधुर शब्दों से सदा प्रतिध्वनित रहती थीं। वे वनराजियाँ चित्त को प्रसन्न करने वाली तथा मन में बस जाने वाली थीं। [Ans. Gautam ! Its land was levelled and attractive. It was as much levelled as the upper part of a drum. It was decorated with beads of various colours (black, blue, red, turmeric-yellow and white) and grass. The men and women of that land were then enjoying the colour, smell, taste, touch and sound of beads and grass (as mentioned earlier) in different postures namely sleeping, standing, sitting, turning round their body to the right, or to the left, laughing, playing and the like. At that time the trees in Bharat continent were of uddal, kuddal, muddal, krittamal, nrittamal, dantmal, nagamal, shringamal, shankhamal 5 and shwetamal species. Their roots were free of any grass or other types of 卐 weeds. They were having excellent type of mool (the upper part of roots), 5 kand (the inner part from where the roots off-shoot) and seeds. They were always covered with leaves, flowers and fruits and were very attractive. 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 फफफफफफफ At that time in Bharat continent, there were many forests full of 5 trees namely Bherutal, Herutal, Merutal, Prabhatal, Sal, Saral, फ्र 5 Saptaparna, beetle nuts, palms, coconuts. Their roots were free from grass and weeds. 卐 5 (44) Jambudveep Prajnapti Sutra 255555 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5552 卐 . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2555 55 55555555555 5 55 555 5 5 5 5 5 555 55556 F F ५ At that time in Bharat continent there were many rows of trees such ias Serika-row, Navamalika-row, Korantak-row, Bandhujeevak-row, ५ i Manovadya-row, Beej-row, Ban-row, Karnikar-row, Kubjak-row, y Sinduvar-row, Mudgar-row, Yuthika-row, Mallika-row, Vasantika-row, Vastul-row, Kastul-row, Shaival-row, Agasti-row, Magadantika-row, Champak creeper-row, Jati-row, Navanitika-row, Kund-row, Mahajatifi row (gulm ). All of them were very beautiful, deep like black clouds and y were full of flowers of five colours. They were decorating the extremely levelled and attractive land of Bharat area with the flowers fallen from the tip of their branches due to the wind. ५ 4 Y At that time in Bharat continent there were padma creepers and y shyam creepers all around. Those creepers were flowering in all seasons. Y (Here the detailed description of creepers should be considered.) y Y At that time in Bharat continent there were many rows of forests. They were having many special features namely black in colour, black in lustre and attractive. Bumble-bee, korank, bhringarak kundalak, chakor, y Y nandimukh, kapil, pingalakshak, karandak, chakravak, geese, swans 4 and suchlike many birds intoxicated with the fragrance of the flowers 4 dust were moving about. Those rows of forests were always full of y sweet sounds of birds. They were pleasant to the mind and attractive to the heart. द्वितीय वक्षस्कार 4 4 ५ द्रुमगण THICKETS OF TREES ५ 또 २७. तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं मत्तंगा णामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से ५ चंदप्पभा– (मणिसिलाग–वरसीधु - वरवारुणि – सुजायपत्तपुप्फफलचो अणिज्जा, ससारबहुदव्यजुत्ति- ५ संभारकालसंधि-आसवा, महुमेरग - रिट्ठाभ - दुद्धजातिपसन्नतल्लगसाउ-खज्जूरिमुद्दि आसारकाविसायण - 4 सुपक्क - खोअरसवरसुरा, वण्ण-गंध-रस-फरिस - जुत्ता, बलवीरिअ - परिणामा मज्जविही बहुप्पगारा, तहेब ते मत्तंगा वि दुमगणा अणेगबहु - विविहवीससापरिणयाए मज्जविहीए उववेया, फलेहिं पुण्णा वीसंदंति कुसविकुस - विसुद्धरुक्खमूला) छण्णपडिच्छण्णा चिट्ठति, एवं जाव (तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे) अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता । २७. उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ मत्तांग नामक कल्पवृक्ष - समूह थे। वे चन्द्रप्रभा, (मणिशिलिका, उत्तम मदिरा, उत्तम वारुणी, उत्तम वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शयुक्त, बलवीर्यप्रद सुपरिपक्व पत्तों, फूलों और फलों के रस एवं बहुत से अन्य पुष्टिप्रद पदार्थों के संयोग से निष्पन्न आसव, मधु - मद्यविशेष, मेरक- मद्यविशेष, रिष्टाभारिष्ट रत्न के वर्ण की सुरा या जामुन के फलों से निष्पन्न सुरा, दुग्ध जाति-प्रसन्ना - आस्वाद में दूध के सदृश सुराविशेष, तल्लक-सुराविशेष, शतायु -सुराविशेष, खजूर (45) y Y Second Chapter | 5 5 5 5 5 555555 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 550 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 5 के सार से निष्पन्न आसवविशेष, द्राक्षा के सार से निष्पन्न आसवविशेष, कपिशायन- मद्यविशेष, पकाए हुए 卐 卐 卐 卐 ************************************* 卐 फ अनुरूप प्रस्तुत करने वाले फलों से परिपूर्ण थे। उनसे ये सब मद्य, सुराएँ झरती थीं। उनकी जड़ें डाभ तथा 5 दूसरे प्रकार के तृणों से रहित थीं। वे वृक्ष खूब छाये हुए और फैले हुए रहते थे ।) इसी प्रकार यावत् ( उस 5 समय सर्वविध भोगोपभोग सामग्रीप्रद अनग्नपर्यन्त दस प्रकार के) अनेक कल्पवृक्ष थे। फ्र 5 卐 फ्र गन्ने के रस से निष्पन्न उत्तम सुरा, और भी बहुत प्रकार के मद्य प्रचुर मात्रा में, तथाविध क्षेत्र, सामग्री के 5 rishtabharisht coloured wine, wine prepared from Jamun fruit, wine of milk-like taste, tallak, shatayu, wine prepared from palm fruit and wines and intoxicants of many types in ample quantity could be procured from them. The wine and intoxicants were dripping from those kalpa trees. Their roots were free from any grass or other growth. Those trees were 卐 卐 5 मध्य के आठ कल्पवृक्ष 'जाव' शब्द से गृहीत किये गये हैं। सबके नाम व काम इस प्रकार हैं 27. At that time in Bharat area clusters of kalpa trees were at various places. They were shining like moon. They were full of such fruits that serve as raw-material for excellent wine and intoxicants. They were having exquisite colour, smell, taste and touch. They could provide strength. The juice of their ripe leaves, flowers and fruits could help in preparation of energy-giving medicines with the combination of other suchlike material. Wines of special types namely madhu, merak, 5 卐 wide-spread and thick. Such trees of ten different types were there, which were providing material of worldly enjoyment. विवेचन : दस प्रकार के कल्पवृक्षों में से प्रथम मत्तांग और दसवें अनग्न का मूल पाठ में उल्लेख हुआ है। (१) मत्तांग - मादक रस प्रदान करने वाले । (२) भृत्तांग - विविध प्रकार के भाजन - पात्र - बर्तन देने वाले । (३) त्रुटितांग- नानाविध वाद्य देने वाले । (४) दीपशिखा - प्रकाशप्रदायक । (५) जोतिषिक - उद्योतकारक । Elaboration-The first among ten types of kalpa-vriksh (desire fulfilling trees) namely Mattang and tenth namely Anagna are mentioned in the text. The other eight are to be understood by the word up to. Their names and attributes are as under (1) फफफफफफफफफफफफफफ्र 卐 5 5 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र f अफ्र (६) चित्रांग-माला आदि प्रदायक। (७) चित्ररस - विविध प्रकार का रस देने वाले । (८) मण्यंग- आभूषण प्रदान 5 करने वाले। (९) गेहाकार- विविध प्रकार के गृह निवासस्थानप्रदा । (१०) अनग्न-वस्त्रों की आवश्यकता पूर्ति करने वाले । (विस्तृत वर्णन जीवाभिगमसूत्र से जानें ।) 卐 卐 फ्र फ्र Mattang-The tree that provides intoxicating juice. फ ( 2 ) Bhrittang – The tree that provides various types of pots and utensils. (3) Trutitang – The tree that provides various types of music. फ (4) Deepashikha-Light producing tree. (5) Jotishik - Brightness 5 providing tree. (6) Chitrang – The trees that provide various types of 5 (46) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 garlands. (7) Chitra-ras-The trees that provide various types of juices. (8) Manyang-—The trees that provide various types of ornaments. (9) Gehakar-The trees that provide various types of shelters for stay (10) Anagna-The trees that provide clothes as required (for details refer to Jivabhigam Sutra). मनुष्यों की आकार देह रचना THE FIGURE AND STRUCTURE OF HUMAN BEINGS २८. [प्र. १ ] तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुआण केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! ते णं मणुआ सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा, (रत्तुष्पलपत्तमउअसुकुमालकोमलतला, णगणगर-मगरसागरचक्कंकवरं कलक्खणंकिअचलणा, अणुपुब्बसुसाहयंगुलीया, उण्णयतणुतंबणिद्धणक्खा, संठिअसुसिलिट्ठगूढगुप्फा, एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुब्वजंघा, समुग्गनिमग्गगूढजाणू, गयससणसुजायसण्णिभोरू, वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासिअगई, पमुइअवरतुरगसीहवरवट्टिअकडी, वरतुरगसुजायगुज्झदेसा, आइण्णहयवनिरुवलेवा, साहयसोणंदसमुसलदप्पण-णिगरिअ-वरकणगच्छरुसरिसवरवइरवलिअ-मज्झा, झसविहगसुजाय-पीणकुच्छी, झसोअरा, सुइकरणा, गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुरविकिरणतरुणबोहिअआकोसायंतपउमगंभीरविअडणाभा, उजुअ-समसंहिअजच्च। तणु-कसिण-णिद्धआदेज-लडह-सूमाल-मउअ-रमणिज्ज-रोमराई, संणयपासा, संगयपासा, सुंदरपासा, सुजायपासा, मिअमाइअ-पीणरइअ-पासा। ___ अकरंडुअकणगरुअगणिम्मल-सुजाय-णिरुवहय-देहधारी, पसत्थवत्तीसलक्खणधरा, कणगसिलायलुज्जल-पसत्थ-समतल-उवइअ-विच्छि(त्थि)ण्ण-पिहुलवच्छा, सिरिवच्छंकियवच्छा, जुअसण्णिभपीणरइअ-पीवरपउट्ठसंठियसुसिलिट्ठ-विसिट्ट-घण-थिरसुबद्धसंधिपुरवर-वरफलिहवट्टिअ-भुजा, भुजगीसर-विउल-भोगआयाणफलिहउच्छूट-दीहबाहू, रत्ततलोवइअमउअमंसलसुजायपसत्थलक्खणअच्छिद्दजालपाणी, पीवरकोमलवरंगुलीआ, आयंब-तलिण-सुइ-रुइल-णिदणक्खा, चंदपाणिलेहा, सूरपाणिलेहा, संखपाणिलेहा, चक्कपाणिलेहा, दिसासोवत्थियपाणिलेहा, चंद-सूर-संख-चक्कदिसासोवत्थियपाणिलेहा, अणेग-वर-लक्खणुत्तम-पसत्थ-सुरइअ-पाणिलेहा, वरमहिम-वराहसीहसहूलउसहणागवर-पडिपुण्णविपुलखंधा, चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुवरसरिस-गीवा, मंसलसंठिअपसत्थसदूलविपुलहणुआ, अवट्ठिअ-सुविभत्तचित्तमंसू, ओअविअसिलपवाल-बिंबफल-सण्णिभाधरोहा, पंडुरससि-सगलविमल-णिम्मल-संख-गोखीर-फेणकुंददगरय-मुणालिआधवल-दंतसेढी, अखंडदंता, अफुडिअदंता, अविरलदंता, सुणिद्धदंता, सुजायदंता, एगदंतसेढीव अणेगदंता, हुअवहणिवंतधोअतत्तवणिज्जरत्ततलतालुजीहा, गरुलायत-उज्जु-तुंग-णासा, अवदालिअ-पोंडरीकणयणा, कोआसियधवलपत्तलच्छा, आणामिअ-चाव-रुइलकिण्हन्भराइसंठियसंगयआयय-सुजायतणुकसिणणिद्धभुमआ, अल्लीणपमाणजुत्तसवणा, सुस्सवणा, पीणमंसलकवोलदेसभागा, णिवण-सम-लट्ठमट्ठचंदद्धसम-णिलाडा, उडुवइपडिपुण्ण-सोमवयणा, घण-णिचिअसुबद्ध-लक्खणुण्णयकूडागारणिभपिंडि द्वितीय वक्षस्कार (47) Second Chapter 5岁岁男宝牙牙步步步步步步步步步步步步步步步步步岁岁岁历历历%%%%% Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफ 卐 फ अग्गसिरा, सामलिबोंड - घण- णिचिअच्छोडिअ छत्तागारुत्तमंगदेसा, मिउविसय-पसत्थसुहुमलक्खण- सुगंध - सुंदर भुअमो अग- भिंग नीलकज्जल - पहट्ट - भमरगण - णिद्धिणिकुरंबणिचिअ - पयाहिणावत्तमुद्धसिरया ) पासादीया, ( दरिसणिज्जा, अभिरूवा) पडिरूवा । २८. [प्र.१] उस समय भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आकार / स्वरूप ( देह रचना ) कैसा था ? [उ. ] गौतम ! उस समय वहाँ के मनुष्य बड़े सुन्दर, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थे। उनके चरण - पैर सुप्रतिष्ठित - सुन्दर रचनायुक्त तथा कछुए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे। [ उनकी पगलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार और कोमल थीं। उनके चरण पर्वत, 5 नगर, मगर, सागर एवं चक्ररूप उत्तम मंगलचिह्नों से अंकित थे। उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः आनुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुन्दर रूप में एक-दूसरी से सटी हुई थीं। पैरों के नख उन्नत, पतले, ताँबे की तरह कुछ-कुछ लाल तथा स्निग्ध-चिकने थे। उनके टखने सुन्दर, सुगठित एवं माँसलता के कारण बाहर नहीं निकले हुए थे। उनकी पिंडलियाँ हरिणी की पिंडलियों, कुरुविन्द घास तथा कते सूत की गेडी की तरह क्रमशः उतार सहित गोल थीं। उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे। हाथी फकी सूँड़ की तरह जंघाएँ सुगठित थीं । श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम, गम्भीरता और मस्ती लिए उनकी चाल 1 卐 दाडिमपुप्फ- पगास - तवणिज्जसरिस - णिम्मल - सुजाय - केसंतभूमी, 5 卐 5 थी । स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी । उत्तम फ घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनके गुह्य भाग थे। उत्तम जाति के घोड़े की तरह उनका शरीर मलमूत्र विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था । उनकी देह के मध्य भाग त्रिकाष्ठिका, मूसल दर्पण के हत्थे के मध्य भाग के समान, तलवार की श्रेष्ठ स्वर्णमय मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतले थे। उनके कुक्षिप्रदेश - उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुनिष्पन्न - सुन्दर रूप में 卐 5 रचित तथा पीन परिपुष्ट थे। उनके उदर मत्स्य जैसे थे। उनके आन्त्रसमूह - आँतें शुचि - स्वच्छ-निर्मल - थीं। उनकी नाभियाँ कमल की ज्यों गम्भीर, विकट- गूढ़ गंगा की भँवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते 5 कमल की तरह खिली हुई थीं । फ्र फ्र उनके वक्षस्थल और उदर पर सीधे, समान, एक-दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट, हल्के, काले, चिकने, उत्तम लावण्यमय, सुकुमार, कोमल तथा रमणीय बालों की पंक्तियाँ थीं। उनकी देह के पसवाड़े नीचे की 卐 卐 ओर क्रमशः सँकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न तथा समुचित परिमाण में माँसलता लिए हुए थे, मनोहर थे। उन मनुष्यों के शरीर स्वर्ण के समान कांतिमान, निर्मल, सुन्दर, रोग-दोष - वर्जित तथा फ्र माँसलतामय थे, जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी अनुपलक्षित थी । उनमें उत्तम पुरुष के बत्तीस लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे। उनके वक्षस्थल-सीने स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, 卐 फ माँसल, चौड़े, विशाल थे । उन पर श्रीवत्स - स्वस्तिक के चिह्न अंकित थे। उनकी भुजाएँ गाड़ी के जुए, 5 यज्ञस्तम्भ - यज्ञीय खूँटे की तरह गोल, लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र फ्र फफफफफफ (48) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 卐 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र सुसंगत, विशिष्ट, ठोस, स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की आगल के समान गोलाई लिए थीं । इच्छित वस्तु प्राप्त करने हेतु नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे। उनके पाणि - कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, माँसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षणयुक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे। उनके तल- हथेलियाँ ललाई लिए हुई थीं । अंगुलियाँ पुष्ट, सुकोमल और सुन्दर थीं। उनके नख ताँबे की ज्यों कुछ-कुछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले, देखने में अच्छे लगने वाले, चिकने तथा सुकोमल थे। उनकी हथेलियों में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त एवं स्वस्तिक की शुभ रेखाएँ थीं । उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, साँड़ तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे। उनकी ग्रीवाएँ - गर्दनें चार-चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिवलियुक्त एवं उन्नत थीं। उनकी टुड्डियाँ माँसल-सुपुष्ट, सुगठित, प्रशस्त तथा चीते की तरह विस्तीर्ण थीं। उनके श्मश्रु- दाढ़ी व मूँछ कभी नहीं बढ़ने वाली, बहुत हल्की-सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, उनके होठ संस्कारित या सुघटित मूँगे की पट्टी जैसे, बिम्ब फल के सदृश थे। उनके दाँतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुन्द के फूल, जलकण और कमल नाल के समान सफेद थी । दाँत अखण्ड - परिपूर्ण, अस्फुटित - टूट-फूटरहित, सुदृढ़, परस्पर सटे हुए, चिकने- आभामय, सुन्दराकार थे, अनेक दाँत एक दंत-श्रेणी की ज्यों प्रतीत होते थे । जिह्वा तथा तालु अग्नि में तपाए हुए और जल से धोए हुए स्वर्ण के समान लाल थे। उनकी नासिकाएँ गरुड़ की चोंच की ज्यों लम्बी, सीधी और उन्नत थीं। उनके नयन खिले हुए पुण्डरीक-सफेद कमल समान थे। उनकी आँखें पद्म की तरह विकसित, धवल, बरौनीयुक्त थीं। उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर-टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान पतली, काली एवं स्निग्ध थीं । उनके कान मुख साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत- समुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे। उनके कपोल माँसल और परिपुष्ट थे। उनके ललाट फोड़े, फुन्सी आदि के घाव के चिह्न से रहित, समतल, सुन्दर एवं निष्कलंक अर्ध-चन्द्र- अष्टमी के चन्द्रमा के सदृश भव्य थे। उनके मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य थे । अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित, उत्तम लक्षणयुक्त, पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनके मस्तक थे। उनके उत्तमांग- मस्तक के ऊपरी भाग छत्राकार थे। उनकी केशान्तभूमि - त्वचा, जिस पर उनके बाल उगे हुए थे, अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय- लाल, निर्मल और चिकनी थी। उनके मस्तक के केश बारीक रेशों से भरे सेमल के फल के फटने से निकलते हुए रेशों जैसे कोमल, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भृंग, नील, कज्जल तथा सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले, काले, घने, घुँघराले, छल्लेदार थे। वे मनुष्य सुन्दर, मन को आकृष्ट करने वाले थे। के 28. [Q. 1] Reverend Sir ! What was the figure — physical structure of human beings in Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! At that time human beings of that area were very handsome, charming, beautiful and of ecstatic appearance. Their feet were of beautiful shape and were attractive as they were a bit lifted द्वितीय वक्षस्कार फ्र (49) Second Chapter Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 卐 55555555555555555555555555555555555 upwards like a tortoise. [The lower part of their feet were soft like leaves of red lotus and were pleasing to the touch. Their feet were bearing auspicious symbols of mountains, towns, crocodile, seas and wheel. Their toes were graduated in proper proportion, beautiful and well set. The nails of their feet were raised, thin and somewhat red and smooth like copper. Their ankles were beautiful, well set and were not bulging out due to being fleshy. Their shins were round like those of a doe or ball of kuruvind grass or spun yarn becoming thinner in an orderly manner. 45 Their knees were thick like cover of a box. Their thighs were like trunk of an elephant. Their gait was graceful like that of a grand elephant. Their waist was round like that of a healthy horse of good breed or of a lion of a good order. Their private parts were well developed like that of a horse of excellent breed. Their body was like that of horse of good breed so far as going for the call of nature without spoiling the body. The middle part of their body was round and thin like trikashthika, centre of handle of a mace or a mirror, good golden handle of a sword or excellent Vajra. Both the sides below their abdomen were beautifully structured like that of a fish or a bird and well developed. Their abdomen was like a fish. Their intestines were pure and clean. Their navel was round like a lotus or a whirlpool in the river Ganga turning towards the right in a beautiful circular fashion and blossoming like a lotus with rays of a shining sun. 47 45 சு 45 5 卐 卐 卐 55 45 卐 5 45 455 45 Their were rows of hair on their chest and abdomen in straight line, equal in size, closely knit containing thin, black, slippery and attractive hair. Their flanks were thin downwards and in proportion to their body. They were beautiful, properly developed and the flesh was in proper proportion. They were looking attractive. The physical body of those human beings was shining like gold was clean, beautiful, free from disease and defect and was fleshy. So, their back-bone was not in any way defective. They had all the thirty two features of a human being born with the best kind of physical body. Their chest was bright, well-built, levelled, fleshy, broad and large like bottom of a slab of gold. They had Swastik symbol printed on their body. Their arms were round, long, well-built, pleasant to the eye, like yoke of a cart, the pillar near sacrificial fire. They had well-built wrists with excellent dense muscles and joints and round like tower-bolt of a cities gate. Their shoulders were large like wide-spread giant body of a serpent-king keen जम्बूद्वीप प्रतप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (50) 45 45 卐 45 45 45 5 5 卐 45 55 45 45 455 5 45 5 45 455 45 5 45 45 5 45 45 45 5 குசுகககக*த***************************SE 5 45 卐 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 50 卐 to get the desired thing. The part of their hand below the wrist was 45 developed, soft, fleshy, well-built and having meritorious signs. No hole could be seen when they joined their fingers together. The palms of their hands were red. Their fingers were soft, beautiful and well-developed. Their nails were a bit red like copper, thin, shining, good looking, smooth and soft. There were auspicious signs of moon, sun, conch-shell, wheel, dakshinavart and swastik on the palms of their hands. Their shoulders were broad and fully developed like those of a he-buffalo, pig, lion, leopard, bull or high-class elephant. Their neck was four finger wide, round and developed like high-class conch-shell. Their chins were fleshy, properly developed and fine. They were broad like a leopard. Their beard and moustaches were never growing out of proportion. They were very little and contained exquisite beauty. Their lips were in proper shape like a strip of coral or bimb fruit. Their teeth were as white as spotless part of the moon, extremely pure conch-shell, milk or the foam on cow-milk, kund flower, water drop, or stem of a lotus. Their teeth were complete and in order. They were dense and without any gap, well-set, shining and had beautiful shape. Many teeth were looking like a row of teeth. Their tongue and inner part of the mouth was red like heated and well washed gold. Their nose was long, straight and properly developed like beak of garuda bird. Their eyes were blossoming like white lotus. They were developed like lotus and white. Their eye-brows were beautiful and curved like a bit stretched bow, thin black and soft like line of black clouds. Their ears were well joined with the face in a beautiful manner and in proper shape. So, they were looking very beautiful. Their cheeks were fleshy and properly developed. Their forehead was free from any wound, cut and the like, levelled, beautiful and graceful like spotless half-moon on the eighth day of bright fortnight. Their head was thick, properly developed, having symptoms of good quality and developed like hill top. The upper part of their head was umbrella like. The skin of their head on which hair grew was shining like flowers of a pomegranate tree For gold, red, soft and slippery. Their hair were soft, beautiful, subtle attractive like thin threads emerging from semal fruit when it breaks. They were shining, black, thick, curved like cluster of black-bees, collyrium, neelam and bhring. Those human beings were handsome and attractive. F (51) 15555555555555555 卐 卐 45 57 卐 卐 5 卐 55 55 45 卐 55 स्त्रियों की शरीर रचना THE STRUCTURE OF WOMEN २८. [प्र.२ ] तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मणुईणं केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? 4575 द्वितीय वक्षस्कार Second Chapter 5 卐 5 卐 57 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கத்தததததததததததததததததததததததததததத***** சு 卐 [ उ. ] गोयमा ! ताओ णं मणुईओ सुजायसब्बंगसुंदरीओ, पहाणमहिलागुणेर्हि जुत्ता, अइक्कंत- 5 विसप्प - माणमउया, सुकुमाल - कुम्मसंठिअविसिट्ठचलणा, उज्जुमउ अपीवरसुताहयंगुलीओ, अब्भुण्णफ्र यरइअ - तलिण- तंब - सूइ - गिद्धणक्खा, रोमरहिअ - बट्ट - लट्ठ - संटिअ - अजहण्ण-पसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुअलाओ, सुणिम्मि असुगूढ - जाणुमंसलसुबद्धसंधीओ, कयलीखंभाइरेक- संटिअ - णिव्वणसुकुमाल - म अमंसल - अविरल - समसंहिअ - सुजाय - वट्ट - पीवरणिरंतरोरुओ, अट्ठावय-वीइयपट्ट फ्र फ्र संठिअ - पसत्थविच्छिण्णपिहुलसोणीओ वयणायामप्पमाणदुगुणिअविसाल- मंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ, 5 वज्जविराइअ - प्पसत्थलक्खण-निरोदरतिवलिअ - बलिअतणुणयमज्झिमाओ, 5 कसिणणिद्ध आइज्ज - लडहसुजायसुविभत्त - कंतसोभंतरुइलरमणिज्जरोमराईओ, वत्ततरंगभंगुररविकिरण-तरुणबोहिअ - आकोसायंतपउमगंभीर - विअडणीओ, उज्जुअसमसहिअजच्चतणुगंगावत्तपयाहिणाअणुब्भडपसत्थपीण कुच्छीओ, सण्णयपासाओ, संगयपासाओ, सुजायपासाओ, मिअमाइअपीणरइ अपासाओ, अकरंडुअ 卐 5 जमलजुअलवट्टिअ - अब्भुण्णयपीणरइयपीवरपओहराओ, भुअंगअणुपुव्वतणुअगोपुच्छवट्ट - संहिअणमिअआइज्जललि अबाहाओ, तंबणहाओ, मंसलग्गहत्थाओ, पीवरकोमलवरंगुलीआओ, णिद्धपाणिलेहाओ, her अगणिम्मल सुजायणिरुवहयगायलट्ठीओ, कंचन - कलसप्पमाणसमसहिअ - लट्ठ - चुच्चु आमेलग रवि - ससि - संख-चक्क - सोत्थिय - सुविभत्तसुविरइ अपाणिलेहाओ, पीण्णयकरक- क्ख-वक्खवत्थिप्पएसाओ, पडिपुण्णगल - कपोलाओ, चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवाओ, मंसलसंटिअपसत्य - 5 卐 फहणुगाओ, दाडिमपुप्फप्पगासपीवर - पलंबकुंचि अवराधराओ, सुंदरुत्तरोट्ठाओ, दहिदगरयचंदकुंदवासंतिम 5 उलधवल अच्छिद्दविमलदसणाओ, रत्तुप्पलपत्तमउ असुकुमालतालुजीहाओ, कणवीरमउलाकुडिल अब्भुग्गयउज्जुतुंगणासाओ, सारयणवकमलकुमुअकुवलय - विमलदलणिअर - सरिसलक्खणपसत्थ अजिम्हकंत 卐 5 णयणाओ, पत्तलधवलायत आतंबलो अणाओ, आणामिअ-चावरुइलकिण्हन्भराइसंगयसुजायभुमगाओ, अल्लीणपमाणजुत्तसवणाओ, सुवणाओ, पीणमट्टगंडलेहाओ, 5 कोमुईरयणिअरविमलपडिपुण्णसोमवयणाओ, छत्तुण्णयउत्तमंगाओ, अकविलसुसिणिद्धसुगंधदीहसिरयाओ। 卐 5 卐 छत्त १, झ २, जूअ ३, थूभ ४, दामणि ५, कमंडलु ६, कलस ७, वावि ८, सोत्थिअ ९, पडाग १०, जब ११, मच्छ १२, कुम्म १३, रहवर १४, मगरज्झय १५, अंक १६, थाल १७, अंकुस १८, 5 अट्ठावय १९, सुपइट्ठग २०, मयूर २१, सिरिअभिसेअ २२, तोरण २३, मेहणि २४, उदहि २५, फ 5 वरभवण २६, गिरि २७, वरआयंस २८, सलीलगय २९, उसभ ३०, सीह ३१, चामर ३२, उत्तमपसत्थबत्तीस लक्खणधराओ । 卐 卐 फ वाहिदोहग्गसोगमुक्काओ, उच्चत्तेण य णराण थोवूणमुस्सिआओ, सभावसिंगारचारुवेसाओ, संगय 5 गयहसियभणिअ-चिट्ठिअ - विलास - संलावणिउण - जुत्तोवयारकुसलाओ, चलण-णयण- लावण्णवण्णरूवजोब्वणविलासकलिआओ, णंदणवणविवरचारिणीउब्व 5 भरहवासमाणुसच्छराओ, अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ, पासाईआओ जाव पडिरूवाओ। 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र चउरंगुलपत्थसमणिडालाओ, हंससरिसगईओ, कोइलमहुरगिरसुस्सराओ, कंताओ, सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवलिपलि अवंगदुव्वण्ण- 5 (52) 2 95 5 55 5 5 55 5 5 5 5 55 55 59555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 सुंदरथण - जहण - वयण-कर अच्छराओ, Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 555 55555555552 卐 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555E ALLE LE LLELE %%%%%%%% by ELELEVEn २८. [प्र. २ ] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र में स्त्रियों का आकार/स्वरूप कैसा था? 1 [उ. ] गौतम ! उस काल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ तथा सर्वांग सुन्दरियाँ थीं। वे उत्तम महिलोचित गुणों से : युक्त थीं। उनके पैर अत्यन्त सुन्दर, विशिष्ट प्रमाणोपेत, मृदुल, सुकुमार तथा कछुए के आकार के थे। उनके पैरों की अंगुलियाँ सरल, कोमल, माँसल एवं परस्पर मिली हुई थीं। अंगुलियों के नख समुन्नत, ' । देखने वालों के लिए आनन्दप्रद, पतले, ताँबे के वर्ण के हल्के लाल, मलरहित, चिकने थे। उनके जंघा। युगल रोमरहित, वर्तुल या गोल संस्थानयुक्त, उत्कृष्ट, प्रशस्त लक्षणयुक्त, अत्यन्त सुभगता के कारण । 1 अकोप्य-अद्वेष्य थे। उनके जानु-मंडल सर्वथा प्रमाणोपेत, सुगूढ़ तथा माँसलता के कारण अनुपलक्ष्य थे, ५ । सुदृढ़ स्नायु-बंधनों से युक्त थे। उनके ऊरु केले के स्तम्भ जैसे आकार से भी अधिक सुन्दर, फोड़े, फुन्सी आदि के घावों के चिह्नों से रहित, सुकुमार, सुकोमल, माँसल, अविरल-परस्पर सटे हुए जैसे, 1 सम, परिमाणयुक्त, सुगठित, सुन्दर रूप में समुत्पन्न, गोल, माँसल, अंतररहित थे। उनके श्रोणिप्रदेश घुण आदि कीड़ों के उपद्रवों से रहित-अखंडित द्यूत-फलक जैसे आकारयुक्त, प्रशस्त, विस्तीर्ण तथा स्थूल-मोटे या भारी थे। विशाल, माँसल, सुगठित और अत्यन्त सुन्दर थे। उनकी देह के मध्य भाग । वज्ररत्न-हीरे जैसे सुहावने, उत्तम लक्षणयुक्त, विकृत उदररहित, त्रिवली-तीन रेखाओं से युक्त, बलित-सशक्त अथया वलित-गोलाकार एवं पतले थे। उनकी रोमराजियाँ-सरल, बराबर, परस्पर मिली हुई, उत्तम, पतली, कृष्ण वर्णयुक्त-काली, चिकनी, स्पृहणीय, लालित्यपूर्ण-सुन्दरता से युक्त तथा ! । स्वभावतः सुन्दर, सुविभक्त, कान्त-कमनीय, शोभित और रुचिकर थीं। उनकी नाभि गंगा के भँवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की ज्यों घुमावदार, सुन्दर, उदित होते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमलों के समान विकट तथा गम्भीर थीं। उनके कुक्षिप्रदेश-उदर के नीचे के दोनों पार्श्व अनुभट-माँसलता के कारण साफ नहीं दीखने वाले, उत्तम-स्थूल थे। उनकी देह के पार्श्व भाग-पसबाड़े क्रमशः सँकड़े, देह के परिमाण के अनुरूप सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में माँसलता लिए हुए मनोहर थे। उन स्त्रियों की देहयष्टियाँ-देहलताएँ ऐसी समुपयुक्त मांसलता लिए थीं, जिससे उनके पीछे की हड्डी नहीं दिखाई देती थीं। वे सोने की ज्यों देदीप्यमान, निर्मल, सुनिर्मित, निरुपहत-रोगरहित थीं। उनके स्तन स्वर्ण कलश सदृश थे, परस्पर समान, परस्पर मिले हुए से, सुन्दर अग्र भागयुक्त, सम श्रेणिक, गोलाकार, उभारयुक्त, कठोर तथा स्थूल थे। उनकी भुजाएँ सर्प की ज्यों क्रमशः नीचे की ओर पतली, गाय की पूँछ की ज्यों गोल, परस्पर समान, झुकी हुई, आदेय तथा सुललित थीं। उनके नख ताँबे की ज्यों कुछ-कुछ लाल थे। उनके हाथों के अग्र भाग माँसल थे। अंगुलियाँ परिपुष्ट, कोमल तथा उत्तम थीं। उनके हाथों की रेखाएँ चिकनी थीं। उनके हाथों में सूर्य, शंख, चक्र तथा : स्वस्तिक की सस्पष्ट, सविरचित रेखाएँ थीं। उनके कक्षप्रदेश. वक्षस्थल तथा वस्तिप्रदेश-गह्यप्रदेश पष्ट एवं उन्नत थे। उनके गले तथा गाल भरे हए होते थे। उनकी ग्रीवाएँ चार अंगल प्रमाणोपेत तथा उत्तम शंख की ज्यों तीन रेखाओं से युक्त होती थीं। उनकी ठुड्डियाँ माँसल-सुपुष्ट, सुगठित तथा प्रशस्त थीं। उनके अपरोष्ठ अनार के पुष्प की ज्यों लाल, पुष्ट, ऊपर के होठ की अपेक्षा कुछ-कुछ लम्बे, नीचे की ओर कुछ मुड़े हुए थे। उनके दाँत दही, जलकण, चन्द्र, कुन्द-पुष्प, वासंतिक-कलिका जैसे धवल, + । छिद्ररहित-अविरल तथा मलरहित-उज्ज्वल थे। उनके तालु तथा जिह्वा लाल कमल के पत्ते के समान तीय वनस्कार Second Chapter 通场站55555555555555$$$$$$$$%%%%%%%%% 3步步步步步步步步步步步步步%%%%%%%%%%%%%%%%% (53) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 5 65 5 5 5 5 595555555 5 55955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 50 मृदुल एवं सुकुमार थीं। उनकी नासिकाएँ कनेर की कलिका जैसी अकुटिल, आगे निकली हुई, फ्र 卐 ऋजु - सीधी, तुंग-तीखी या ऊँची थीं। उनके नेत्र शरद् ऋतु के सूर्यविकासी रक्त कमल, चन्द्रविकासी 5 श्वेत कुमुद तथा कुवलय- नीलोत्पल के स्वच्छ पत्रसमूह जैसे प्रशस्त, सीधे तथा सुन्दर थे। उनके लोचन सुन्दर पलकों से युक्त, धवल, आयत - विस्तीर्ण - कर्णान्तपर्यंत तथा हल्के लाल रंग के थे। उनकी भौहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर - कुछ टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश एवं सुरचित थीं । 5 उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत-समुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे। उनकी कपोल - पालि परिपुष्ट तथा सुन्दर थीं। उनके ललाट चौकोर, उत्तम तथा समान थे। उनके मुख शरद् ऋतु की पूर्णिमा के समान निर्मल, परिपूर्ण चन्द्र जैसे सौम्य थे। उनके मस्तक छत्र 5 की ज्यों उन्नत थे । उनके केश काले, चिकने, सुगन्धित तथा लम्बे थे। 卐 卐 फ्र (१९) अष्टापद - द्यूतपट्ट, (२०) सुप्रतिष्ठक, (२१) मयूर, (२२) लक्ष्मी - अभिषेक, (२३) तोरण, (२४) पृथ्वी, (२५) समुद्र, (२६) उत्तम भवन, (२७) पर्वत, (२८) श्रेष्ठ दर्पण, (२९) लीलोत्सुक हाथी, (१) छत्र, (२) ध्वजा, (३) यूप - यज्ञ - स्तम्भ, (४) स्तूप, (५) दान-माला, (६) कमंडलु, 5 (७) कलश, (८) वापी - बावड़ी, (९) स्वस्तिक, (१०) पताका, (११) यव, (१२) मत्स्य, 5 (१३) कछुआ, (१४) श्रेष्ठ रथ, (१५) मकरध्वज, (१६) अंक- काले तिल, (१७) थाल, (१८) अंकुश, 卐 卐 फ्र 5 होते थे । वे विकृत अंगयुक्त या हीनाधिक अंगयुक्त, दूषित या अप्रशस्त वर्णयुक्त नहीं थीं । वे 5 व्याधिमुक्त - रोगरहित होती थीं, दौर्भाग्य - वैधव्य दारिद्र्य आदि - जनित शोकरहित थीं। उनकी ऊँचाई 5 पुरुषों से कुछ कम होती थी । स्वभावतः उनका वेष शृंगारानुरूप सुन्दर था। संगत- समुचित गति, हास्य, 卐 फ बोली, स्थिति, चेष्टा, विलास तथा संलाप में वे निपुण एवं उपयुक्त व्यवहार में कुशल थीं। उनके स्तन, वदन, हाथ, पैर तथा नेत्र सुन्दर होते थे। वे लावण्ययुक्त थीं, वर्ण, रूप, यौवन, फ्र जघन, विलास - नारीजनोचित नयन-चेष्टाक्रम से उल्लसित थीं। वे नन्दनवन में विचरणशील अप्सराओं जैसी 卐 फ मानो मानुषी अ सराएँ थीं। उनका सौंदर्य, शोभा आदि देखकर प्रेक्षकों को आश्चर्य होता था। इस प्रकार वे चित्त को प्रस् करने वाली तथा मन में बस जाने वाली थीं। 卐 (३०) बैल, (३१) सिंह, तथा (३२) चँवर इन उत्तम, श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों से वे युक्त थीं । 卐 卐 卐 उनकी गति हंस जैसी थी। उनका स्वर कोयल की बोली सदृश मधुर था। वे कान्तियुक्त थीं । उन्हें फ्र सब चाहते थे - कोई उनसे द्वेष नहीं करता था । न उनकी देह में झुर्रियाँ पड़ती थीं, न उनके बाल सफेद 28. [Q. 2] Reverend Sir ! What was the shape and form of women folk at that time ? [Ans.] Gautam ! The women of that period were of best order and completely beautiful. They had all the good qualities of a woman. Their feet were extremely beautiful in proper proportion, soft and tortoise like in shape. Their toes were soft, fleshy and well joint. Their nails were फ्र 卐 15 properly developed, attractive, thin, slightly red like copper, dirt-free and 5 smooth. Their shins were free from hair, round, developed and possessing good symptoms. In view of extremely fortunate character ब जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 (54) Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 52 5 फ्र . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கதக*த****தமிழ********************* 45 55 5 none could dislike them. Their knees were completely in order thick, fleshy and free from any defect. They were well-knit. Their urus thighs were more beautiful than a banana trunk. They were free from any mark of a wound, hurt and the like. They were soft, fleshy, well-joined levelled, in proper proportion, thick, beautifully developed, round and without any gap in between. Their buttocks were free from attack of worms, unbroken and in shape like the board of game of dice. They were broad, thick and well-developed. They were fleshy, well-knit and extremely beautiful. The middle of their body was attractive like a diamond containing meritorious signs. It was free from faulty abdomen. It contained three lines, was strong round and slim. The rows of their pubic hair were well-knit, straight, of highest quality, thin, black, smooth, beautiful, well-divided, shining and pleasant to the eye. Their navel was round like circular movement of the Ganga in right direction. They were beautiful like rays of the rising sun and blossoming lotus. The two sides below their abdomen were not clearly visible due to the flesh and were prominent. The flanks of their body were gradually tapered inwards and were in accordance to their body. It was beautiful, well-developed and totally in proper proportion. The flesh on the body of those women was in such a proportion that their back-bone was not visible. They were shining like gold, dust free, well-developed and free from any disease. Their breasts were like golden urns. They were equal in size, closely joined, beautiful from the front part, round level, round raised, hard and plump. Their arms were thin from below like a snake, round like the tail of a cow, equal in size, bent, attractive and beautiful. Their nails were a bit reddish like copper. The front part of their hands was fleshy. Their fingers were soft, beautiful and properly developed. The lines on their hand were smooth. There were signs of sun, conch-shell, wheel and swastik clearly and sharply visible on their hands. Their armpits breasts and private parts were well-developed. Their throat and cheeks were well-developed. Their neck was four finger wide and was having three lines like those of a conch-shell of best quality. Their chins were fleshy and beautiful. Their lips were red like flowers of a pomegranate plant and developed. The lower lips were a bit longer than upper lips and a little bent downwards. Their teeth were white like curd, water drop, moon, kund flower, vasantik flower. They were free from any hole, gap or dust and were bright. Their tongue and palate were soft like leaf of red lotus. Their nose were bulging outwards like kaner flowers, straight, pointed and high. Their eyes were like red lotus that blossoms at the द्वितीय वक्षस्कार Second Chapter 1555555555555 45 5 5 F F F F 5 F (55) 55555555555555555555555555555555555555555555 卐 卐 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555 557 45 45 47 555 卐 57 5 45 55 rising sun in winter and white kumud at the sight of the moon. They were fine, straight and beautiful like a bundle of clean blue lotus leaves. Their eyes were having beautiful eye-lids, white, broad and slightly red upto the ears. Their eye brows were beautiful and a little bent like a stretched bow, thin like a line of black clouds and well formed. Their ears were looking beautiful in the face and were of proper shape. Their cheeks were beautiful and well-developed. Their forehead was rectangular excellent and levelled. Their face was beautiful like full moon of winter season on fifteenth days of bright fortnight. Their head was high like an umbrella. Their hair were black, soft, long and emitting fragrance. 557 卐 They had thirty two meritorious signs on their body which are as follows-(1) umbrella, (2) flag, (3) pillar at sacrificial fire, (4) broad plank, (5) garland, (6) small bucket, (7) urn, (8) small lake, (9) swastik, (10) bunting, (11) barley seed, (12) fish, (13) tortoise, (14) good chariot, (15) makardhvaj, (16) black sesame, (17) plate, (18) lance, (19) board of playing dice, (20) supratisthak, (21) peacock, (22) anointing of goddess of wealth, (23) festoon, (24) earth, (25) ocean, (26) grand mansion, (27) mountain, (28) grand mirror, (29) enchanted elephant, (30) bullock, (31) lion, and (32) whisk. 卐 卐 Their gait was like that of a swan. Their voice was like that of a nightingale. They were beautiful. Everyone liked them. Nobody was jealous of them. Their were no wrinkles on their body. Their hair never became white. They were free of any improperly developed or undeveloped part of the body. The parts of their body were neither more nor less than the desired ones. Their complexion was not faulty. They were free from disease, free from any sorrow caused by widowhood and 卐 the like. Their height was a little less than that of males. Their dress 457 was in order and beautiful. Their gait was graceful. They were accomplished in talk, cutting jokes, amorous activities and the like. Their breasts, armpits, face, hand, feet and eyes were beautiful. They were charming. They were attractive due to their complexion, colour, youth, twinkling of the eyes and the like. They were looking like fairies of Nandan forest in human form. The spectators used to be wonderstruck at their beauty. Thus, they were attractive to the mind and the heart. 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (56) 45 卐 57 47 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 5 5 卐 卐 5 卐 45 २८. [ ३ ] ते णं मणुआ ओहस्सरा, हंसस्सरा, कोंचस्सरा, गंदिस्सरा, गंदिघोसा, सीहस्सरा, फ्र सीहघोसा, सुसरा, सुसरणिग्घोसा, छायायवोज्जोविअंगमंगा, वज्ञरिसहनारायसंघयणा, समचउरसंठाण 卐 47 卐 卐 575 卐 卐 卐 卐 555 * 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 5555555 5 55 5 5 555 552 卐 47 47 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))))))))5555555555 8听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐乐乐 + संठिआ, छविणिरातंका, अणुलोमवाउवेगा, कंकग्गहणी, कवोयपरिणामा, सउणिपोसपिटुंतरोरुपरिणया, छद्धणुसहस्ससिआ। म तेसि णं मणुआणं वे छप्पण्णा पिट्ठकरंडकसया पण्णत्ता समणाउसो ! पउमुप्पलगंधसरिसणीसाॐ ससुरभिवयणा, ते णं मणुआ पगईउवसंता, पगईपयणुकोहमाणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्ना, अलीणा, भद्दगा, विणीआ, अप्पिच्छा, असण्णिहिसंचया, विडिमंतरपरिवसणा, जहिच्छिअकामकामिणो। + २८. [३] भरत क्षेत्र के मनुष्य ओघस्वर-प्रवाहशील स्वरयुक्त, हंस की ज्यों मधुर स्वरयुक्त, क्रौंच 卐 पक्षी की ज्यों बहुत दूर तक पहुँचने वाले स्वर से युक्त तथा नन्दी-द्वादशविध-तूर्य-समवाय-बारह ॐ प्रकार के तूर्य-वाद्यविशेषों के सम्मिलित नाद सदृश स्वरयुक्त थे। उनका स्वर एवं घोष-अनुनाद-दहाड़ या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी। उनके स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी। उनकी देह के अंग-अंग 5 प्रभा से उद्योतित थे। वे वज्रऋषभनाराच संहनन-सर्वोत्कृष्ट अस्थिबन्ध तथा समचौरस संस्थान वाले थे। 卐 उनकी चमड़ी में किसी प्रकार का रोग या विकार नहीं था। वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित 卐 - वेग-गतिशीलता संयुक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचन ॐ शक्ति वाले थे। उनके अपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप थे। उनके पार्श्व भाग-पसवाड़े तथा ऊरु सुदृढ़ थे। वे छह हजार धनुष ऊँचे होते थे। म आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उन मनुष्यों के पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती थीं। उनके साँस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होते थे, जिससे है उनके मुँह सदा सुवासित रहते थे। वे मनुष्य शान्त प्रकृति के थे। उनके जीवन में क्रोध, मान, माया और प्रलोभ की मात्रा मन्द या हल्की थी। उनका व्यवहार मृदु परिणाम-सुखावह होता था। वे गुरुजनों के के अनुशासन में रहने वाले अथवा सब क्रियाओं में गुप्त-समुचित चेष्टारत थे। वे भद्र-कल्याणभाक्, ॐ विनीत-बड़ों के प्रति विनयशील, अल्पेच्छ-अल्प आकांक्षायुक्त, अपने पास (बासी खाद्य आदि का) + संग्रह नहीं रखने वाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर बसने वाले और इच्छानुसार काम-शब्द, 5 रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमय भोग भोगने वाले थे। 28. [3] The human beings of Bharat area were having a fluent voice, sweet voice like that of a swan, far-reaching voice like that of a cronch bird and a voice similar to mixed sound emitting from twelve types of musical instruments. Their voice was like roaring of a lion. Their was a unique attraction in their voice and roar. Every part of their body was 45 beautiful. The structure of their body was extremely strong well joined Vajra-rishabh-narach structure. Their figure was well proportioned from all the four sides. Their was no disease or fault in the skin of their body. 6 They were having perfect movement of the inner air in their body and 5 faultless anus like kanka bird. They were having great power of digesting food like that of a pigeon. Their discharging part was spotless द्वितीय वक्षस्कार (57) Second Chapter 94एमए B5555555555 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 45 46 45 5555555555 5 5 5 5 5 55955 5 5 5555555 5 5 55 5555 5 5 फ्र 卐 卐 5 like that of a bird. Their sides and thighs were strong. They were 6,000 5 dhanush high. 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 फ्र 卐 फ्र Blessed Gautam ! The bones of their ribs were 256 in number. Their breath was fragrant like lotus or sweet smell of kushtha. So, their mouth was always emitting sweet smell. They were cool by nature. In their life, anger, ego, deceit and greed were subsided or very little. Their behaviour 5 मनुष्यों की आहार स्थिति FOOD HABITS OF HUMAN BEINGS was pleasant. They were always observing discipline prescribed by their teacher in all the activities. They were fully absorbed. They were humble, simple respectful towards elders and were having limited desires. They were never accumulating stale food and the like. They were living under the trees that were mansion-like in shape. They were 卐 enjoying sensual pleasures of voice, sight, taste, smell and touch according to their desire. २९. [ प्र. ] तेसि णं भंते! मणुआणं केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ? 5 समणाउसो ! [उ. ] गोयमा ! अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ, पुढवीपुप्फफलाहारा णं ते मणुआ पण्णत्ता [प्र. ] तीसे णं भंते! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? फ्र [उ.] गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा, खंडेइ वा, सक्कराइ वः, मच्छंडिआइ वा, पप्पडमोअएइ वा, भिसेइ वा, पुप्फुत्तराइ वा, पउमुत्तराइ वा, विजयाइ वा, महाविजयाइ वा, आकासिआइ बा, आदसिआइ वा, आगासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, अणोवमाइ वा । [प्र. ] एयारूवे ? [उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, सा णं पुढवी इतो इट्ठतरिआ चेव, (पियतरिआ चेव, कंततरिआ चेव, मणुण्णतरिआ चेव) मणामतरिआ चेव आसाएणं पण्णत्ता । [प्र.] तेसिं णं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! से जहाणामए रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स कल्लाणे भोअणजाए सयसहस्सनिफन्ने वववे, (गंधेणं उववेए, रसेणं उववेए) फासेणं उववेए, आसायणिज्जे, विसायणिज्जे, दिप्पणिज्जे, दप्पणिज्जे, मयणिज्जे, बिंहणिज्जे, सव्विंदिअगायपल्हायणिज्जे । [प्र. ] भवे एयारूवे ? [ उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे तेसि णं पुप्फफलाणं एत्तो इट्ठतराए चैव जाव आसाए पण्णत्ते । २९. [ प्र. ] भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (58) 2 95 95 95 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2 Jambudveep Prajnapti Sutra 255 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55552 फ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35555555555555555555555555555 卐 [उ.] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उनको तीन दिन के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। वे पृथ्वी ॥ तथा कल्पवृक्षों से प्राप्त पुष्प, फल आदि का आहार करते हैं। म [प्र. ] भगवन् ! उस पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? [ [उ. ] गौतम ! गुड़, खाँड़, शक्कर, मत्स्यंडिका-विशेष प्रकार की शक्कर, राब, पर्पट, मोदक-एक 卐 विशेष प्रकार का लड्डू, मृणाल, पुष्पोत्तर (शर्करा-विशेष), पद्मोत्तर (एक प्रकार की शक्कर), विजया, महाविजया, आकाशिका, आदर्शिका, आकाशफलोपमा, उपमा तथा अनुपमा-ये उस समय के ॐ विशिष्ट आस्वाद्य पदार्थ होते हैं। [प्र. ] भगवन् ! क्या उस पृथ्वी का आस्वाद इनके आस्वाद जैसा होता है ? [उ. ] गौतम ! यह कथन उपयुक्त नहीं है। उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे इष्टतर-सब इन्द्रियों के लिए इनसे कहीं अधिक सुखप्रद, (अधिक प्रियकर, अधिक कांत, अधिक मनोज्ञ-मन को भाने वाला) तथा अधिक मन को रुचने वाला होता है। [प्र. ] भगवन् ! उन पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है? [उ. ] गौतम ! तीन समुद्र तथा हिमवान् पर्यन्त छः खण्ड के साम्राज्य के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् ॥ का भोजन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं के व्यय से निष्पन्न होता है। वह अति सुखप्रद, प्रशस्त वर्ण, (प्र गन्ध, प्रशस्त रस तथा) प्रशस्त स्पर्शयुक्त होता है, आस्वाद योग्य, विशेष रूप से आस्वाद योग्य, दीपनीय-जठराग्नि का दीपन करने वाला, दर्पणीय-उत्साह तथा स्फूर्ति बढ़ाने वाला, मदनीय-मस्ती देने , वाला, बृहणीय-शरीर की धातुओं को संवर्धित करने वाला एवं सभी इन्द्रियों और शरीर को आह्लादित करने वाला होता है। [प्र. ] भगवन् ! उन पुष्पों तथा फलों का आस्वाद क्या उस भोजन जैसा होता है ? [उ.] गौतम ! ऐसा नहीं होता। उन पुष्पों एवं फलों का आस्वाद उस भोजन से अधिक सुखप्रद होता है। ____29. [Q.] Reverend Sir ! After how much period those human beings 卐 had a desire for taking food ? (Ans.] Blessed Gautam ! They had desire for food only after three days. They were consuming flowers and fruit of earth and kalpa trees. [Q.] Reverend Sir! What was the taste of that earth ? [Ans.] Gautam ! Jaggery, brown sugar, sugar, special type of sugar, 卐 syrup, parpat, ball-like sweet, mrinal, pushpottar, padmottar, vijaya, mahavijaya, akashika, adarshika, akash-phalopama, upama and anupama--all these were extremely tasty things of that time. (Q.) Reverend Sir! Was that land sweet in taste like above-mentioned things? 555555555 555555555555555555 5555$$$$$$$$$$$$$ 555558 85555555555555555555555555555555555555555555555552 |द्वितीय वक्षस्कार (59) Second Chapter Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र 卐 卐 ததததத**************************** फ्र [Ans.] Gautam ! It is not correct. The taste of that land was exquisite, 5 much more pleasant to all the senses, much more loveable, beautiful and pleasant to the mind. [Q.] Reverend Sir ! What is the taste of those flowers and fruits ? [Ans.] Gautam! A Chakravarti emperor rules over six continents up to three seas and Himavan mountain. His food is prepared with one lakh gold coins. That food is very pleasant, tasty and of graceful appearance, smell, taste and touch. It is taste worthy. It increases the capacity of digestion, courage and brilliance, and is intoxicating. It bolsters the faculties of the body and provides pleasure to all the senses and the body. [Q] Reverend Sir! Is the taste of those flowers and fruits similar to that of the food (of Chakravarti) ? [Ans.] Gautam ! It is not so. The taste of those flowers and fruits is far more pleasant than that food. मनुष्यों का आवास जीवनचर्या RESIDENCE OF HUMAN BEINGSDAILY ROUTINE ३०. [प्र.] ते णं भंते ! मणुया तमाहारमाहारेत्ता कहिं बसहिं उवेंति ? [उ. ] गोयमा ! रुक्खगेहालया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! [प्र. ] तेसि णं भंते ! रुक्खाणं केरिसए आयार भावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! कूडागारसंठिआ, पेच्छाच्छत्त- झय - धूभ - तोरण- गोउर - बेइआ - चोप्फालगअट्टालग - पासाय- हम्मिअ- गवक्ख-यालग्गपोइआ - वलभीघरसंटिआ । अत्थण्णे इत्थ बहवे वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिआ तुमगणा सुहसीअलच्छाया पण्णत्ता समणाउसो ! ३०. [ प्र. ] भगवन् ! वे मनुष्य वैसे आहार का सेवन करते हुए कहाँ निवास करते हैं ? [उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! वे मनुष्य वृक्षरूप घरों में निवास करते हैं। [प्र.] भगवन् ! उन वृक्षों का आकार / स्वरूप कैसा है ? [ उ. ] गौतम ! वे वृक्ष कूट-शिखर, प्रेक्षागृह - नाट्यगृह, छत्र, स्तूप- चबूतरा, तोरण, गोपुरनगरद्वार, वेदिका - उपवेशन योग्य भूमि, चोप्फाल बरामदा, अट्टालिका, प्रासाद-शिखरबद्ध देवभवन या राजभवन, हर्म्य - शिखर वर्जित श्रेष्ठिगृह- हवेलियाँ, गवाक्ष-झरोखे, बालाग्रपोतिका - जलमहल तथा फ वलभीगृह सदृश विविध आकार-प्रकार लिए हुए हैं। इस भरत क्षेत्र में और भी बहुत से ऐसे वृक्ष हैं, जिनके आकार उत्तम, विशिष्ट भवनों जैसे हैं, जो 5 सुखप्रद शीतल छायायुक्त हैं। 30. [Q.] Reverend Sir ! While consuming such food, where do those human beings live? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (60) Jambudveep Prajnapti Sutra उफफफफफफफफफफ फ्र Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 ***************************************தமிதிமிதிததமிதி 卐 फ्र [Ans.] Blessed Gautam ! Those human beings live in tree-shaped houses. [Q.] Reverend Sir ! What is the shape of those trees ? [Ans.] Gautam ! Those trees are of different shape namely those tree tops, dancing hall, umbrella, platform, arch, gate of city, vedika, verandah, palatial mansion, grand buildings, balcony, lake palace and Vallabhi house. फ्र There are many other trees in this Bharat area whose shape is similar to grand buildings, which provide joyous cool shade. ३१. [ प्र. १ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहावणाइ वा ? [ उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, रुक्ख-गेहालया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! ३१. [ प्र. १ ] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र में क्या गेह - घर होते हैं ? क्या गेहापण - गृहयुक्त आपण दुकानें या बाजार होते हैं ? [ उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता। उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं। 31. [Q. 1] Reverend Sir ! Were there houses in Bharat area at that time? Were there shops and bazaars ? [Ans.] Blessed Gautam ! It is not so. The trees were the only abodes of those human beings. ३१. [ प्र. २] अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा, जाव संणिवेसाइ वा । [उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, जहिच्छिअ- कामगामिणो णं ते मणुआ पण्णत्ता । ३१. [ प्र. २ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में ग्राम - बाड़ों से घिरी बस्तियाँ नगर यावत् नगर सन्निवेश- सार्थ-व्यापारार्थ यात्राशील सार्थवाह एवं उनके सहवर्ती लोगों के ठहरने के स्थान होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वभावतः स्वेच्छानुरूप विविध स्थानों में गमनशील होते हैं। 31. [Q. 2] Reverend Sir ! At that time in Bharat area were there colonies, towns up to cities where trading community, travellers or their companies could stay? [Ans.] Gautam ! It is not so. Those human beings move about in different places as they desire. of ३१. [प्र. ३ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा, मसीइ वा, किसीइ वा, वणिएत्ति वा, पणिएत्ति वा, वाणिज्जेइ वा ? द्वितीय वक्षस्कार [उ. ] णो इणट्ठे समट्ठे, ववगय - असि - मसि - किसि - वणिअ - पणिअ - वाणिज्जा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! (61) Second Chapter 2 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5955 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 卐 卐 卐 OSSS 5 5 55 555555555 फ्र Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因%%%%%%%步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步岁男男男B a5听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 ॐ ३१. [प्र. ३] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में असि-तलवार के आधार पर +जीविका-युद्धकला, मसि-लेखन या कलम के आधार पर जीविका-लेखन कला, कृषि-खेती, वणिक्- कला-विक्रय के आधार पर चलने वाली जीविका, पण्य-क्रय-विक्रय-कला तथा वाणिज्य-व्यापारॐ कला होती है ? [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य असि, मसि, कृषि, वणिक्, पणित तथा वाणिज्य-कला के प्रधान जीविका से रहित होते हैं। 31.[Q.3] Reverend Sir! Do the residents of that time in Bharat area earn their livelihood on the basis of the power of the sword, writing power, agriculture, trade or business talent ? [Ans.] Gautam ! It is not so. Those human beings are ignorant of the art of sword, writing, agriculture, trade and commerce and the like. 卐 ३१. [प्र. ४ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे हिरण्णेइ वा, सुवण्णेइ वा, कंसेइ वा, दूसेइ वा, मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा ? म [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ। म ३१. [प्र. ४ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में चाँदी, सोना, काँसी, वस्त्र, मणियाँ, मोती, शंख, शिला-स्फटिक, रक्तरत्न-पदमराग-पुखराज-ये सब होते हैं ? ॐ [उ. ] हाँ, गौतम ! ये सब होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के परिभोग में-उपयोग में नहीं आते। 31. [Q. 4] Reverend Sir ! Do the articles like silver, gold, bronze, clothes, beads, pearls, conch-shell, crystal-quartz, ruby and yellow sapphire exist in Bharat area at that time? म [Ans.] Gautam ! All these articles do exist, but those human beings do not make use of them. + ३१. [प्र. ५ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे रायाइ वा, जुवरायाइ वा, ईसर-तलवर माइंबिअ-कोडुंबिअ-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहाइ वा ? म [उ. ] गोयमा ! णो इणढे समठे। ववगयइडिसक्कारा णं ते मणुआ पण्णत्ता। 3 ३१. [प्र. ५ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में राजा, युवराज, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली एवं के प्रभावशाली पुरुष, तलवर-सन्तुष्ट राजा द्वारा प्रदत्त-स्वर्णपट्ट से अलंकृत-राजसम्मानित विशिष्ट के 1 नागरिक, माइंबिक-जागीरदार-भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य-जिनकी अधिकृत 5 ॐ वैभव-राशि के पीछे हाथी भी छिप जाये, इतने विशाल वैभव के स्वामी, श्रेष्ठी-सम्पत्ति और सुव्यवहार म से प्रतिष्ठा प्राप्त सेठ, सेनापति-राजा की चतुरंगिणी सेना के अधिकारी, सार्थवाह-देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारी होते हैं ? म [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य ऋद्धि-वैभव तथा सत्कार आदि से निरपेक्ष होते हैं। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (62) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. [Q.5] Reverend Sir ! Is it a fact that king, crown prince, noble, distinguished person enjoying special status awarded by the king, landlord, heads of large families, extremely rich person whose wealth could conceal even an elephant, civilized, well cultured persons, army chiefs, expert traders dealing in export and import were there in Bharat area at that time ? [Ans.] Gautam ! It is not so. Those human beings were indifferent towards wealth, status and honour. ३१. [प्र. ६ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दासेइ वा, पेसेइ वा, सिस्सेइ वा, भयगेइ वा, भाइल्लएइ वा, कम्मयरएइ वा ? [उ. ] णो इणट्टे समठे। ववगयअभिओगा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! ३१. [प्र. ६ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में दास-खरीदे हुए या गृह-दासी से उत्पन्न परिचर, प्रेष्य-दौत्यादि कार्य करने वाले सेवक, शिष्य-अनुशासनीय, शिक्षणीय व्यक्ति, भृतक-वृत्ति या वेतन लेकर कार्य करने वाले परिचारक, भागिक-भाग बँटाने वाले, हिस्सेदार तथा कर्मकर-गृह सम्बन्धी कार्य करने वाले नौकर होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वामी-सेवक-भाव आदि से अतीत होते हैं। 31.[Q.6] Reverend Sir ! Is it a fact that there were slaves, families of slaves, employees or students, employees working on salary or wages, or on share of the produce and domestic servants at that time in Bharat area? [Ans.] Gautam ! It is not so. Those human beings are far away from servant-master attitude. ३१. [प्र. ७ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, भज्जाइ वा, पुत्ताइ वा, धूआइ वा, सुण्हाइ वा ? [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं तिब्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ। ३१. [प्र. ७ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा पुत्र-वधू ये सब होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र प्रेम-बन्ध उत्पन्न नहीं होता। 31. [Q.7] Reverend Sir ! Do mother, father, sister, brother, wife, son, daughter and daughter-in-law exist in Bharat area at that time? (Ans.) Gautam ! All these relations can be found but they do not have attachment of extreme order among them. द्वितीय वक्षस्कार (63) Second Chapter 后步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2955 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 5 55 5555555559555 5 5 5 5 5 5 555 55552 卐 卐 फफफफफफ 卐 5 卐 5 ३१. [प्र. ८ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा, वेरिएइ वा, घायएइ वा, वहएइ फ वा, पडिणीय वा, पच्चामित्तेइ वा ? 卐 [उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । ववगयवेराणुसया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! ३१. [ प्र. ८ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में अरि-शत्रु, वैरिक- जातिप्रसूत शत्रुभावयुक्त, घातक - दूसरे के द्वारा वध करवाने वाले, वधक- स्वयं वध करने वाले अथवा व्यथक- चपेट आदि द्वारा 5 ताड़ित करने वाले, प्रत्यनीक - कार्योपघातक - काम बिगाड़ने वाले तथा प्रत्यमित्र - पहले मित्र होकर बाद में अमित्र - भाव रखने वाले होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य वैरानुबन्धरहित होते हैं - वैर करना, उसके फल पर पश्चात्ताप करना इत्यादि भाव उनमें नहीं होते । [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं तिब्वे राग- बंधणे समुष्पज्जइ । ३१. [प्र. ९] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में मित्र - वयस्य- समवयस्क साथी, ज्ञातक - प्रगाढ़तर स्नेहयुक्त स्वजातीय जन अथवा सहज परिचित व्यक्ति, संघाटिक- सहचर, सखा - एक साथ खाने-पीने वाले प्रगाढ़तम स्नेहयुक्त मित्र, सुहृद - सब समय साथ देने वाले, हित चाहने वाले, 5 हितकर शिक्षा देने वाले साथी, सांगतिक-साथ रहने वाले मित्र होते हैं ? 5 31. [Q.8] Reverend Sir ! Is it a fact that enemies, persons with inimical attitude, person engaging others to kill human beings, persons engaging themselves in killing persons, beating others by fists or by hand, persons spoiling the work of others and persons who were friends earlier but later become enemies do exist in Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! It is not true. Those human beings are free from any inimical thoughts or attitude. They do not become inimical nor they have to repent later. ३१. [प्र. ९ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मित्ताइ वा, वयंसाइ वा णायएइ वा, संघाडिएइ वा, सहाइ वा, सुहीइ वा, संगएइ वा ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 [उ.] गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र राग-बन्धन उत्पन्न नहीं होता । 31. [Q. 9] Reverend Sir ! Is it a fact that friends, companions of same age, extremely attached relatives or those of easy acquaintance, cooperating persons, friends who live together, companions who always extend help, wish for the welfare and offer friendly advice and those friends who always live together exist in Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! All such type of persons are there but they have no bondage of deep attachment. फ (64) 卐 फ फ्र Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र க 5 卐 卐 फ्र Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र ३१. [प्र. १० ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे आवाहाइ वा, विवाहाइ वा, जण्णाइ वा, सद्धाइ वा, थालीपागाइ वा, मियपिंड - निवेदणाइ वा ? [उ. ] णो इणट्टे समट्टे, ववगय - आवाह - विवाह - जण्ण-सद्ध - थालीपाक-मियपिंड - निवेदणाइ वा आपण्णत्ता समणाउसो ! ३१. [ प्र. १० ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में आवाह - विवाह से पूर्व ताम्बूल - दानोत्सव अथवा वाग्दान रूप उत्सव, विवाह - परिणयोत्सव, यज्ञ - प्रतिदिन अपने-अपने इष्ट देव की पूजा, श्राद्ध पितृ-क्रिया, स्थालीपाक- लोकानुगत मृतक - क्रिया-विशेष तथा मृत - पिण्ड - निवेदन- मृत पुरुषों के लिए श्मशान भूमि में तीसरे दिन, नौवें दिन आदि पिण्ड, समर्पण - ये सब होते हैं ? [उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ये सब नहीं होते। वे मनुष्य आवाह, विवाह, यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपाक तथा मृत-पिण्ड - निवेदन से निरपेक्ष होते हैं। 31. [Q. 10] Reverend Sir ! Is it a fact that offerings before marriage or festivity in this context, marriage ceremony, daily worship of gods of the concerned clan, celebration in the name of deceased ancestors, ceremonies performed at the death of a family member, offering in the name of the dead on the third day, ninth day and the like was being arranged in Bharat area at that time? [Ans.] Blessed Gautam ! It is not true. Those human beings are indifferent towards all such ceremonies namely marriage, sacrificial fire, offering in the name of the dead and the like. ३१. [ प्र. ११ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे इंदमहाइ वा, खंदमहाइ वा णागमहाइ बा, जक्खमहाइ वा, भूअमहाइ वा, अगडमहाइ वा, तडागमहाइ वा, दहमहाइ वा णदीमहाइ वा, रुक्खमहाइ वा, पव्वयमहाइ वा, थूभमहाइ वा, चेइयमहाइ वा ? [उ. ] णो इणट्ठे समट्ठे, ववगय-महिमा णं ते मणुआ पण्णत्ता । ३१. [प्र. ११ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में इन्द्रोत्सव, स्कन्दोत्सव - कार्त्तिकेयोत्सव, नागोत्सव, यक्षोत्सव, कूपोत्सव, तड़ागोत्सव, द्रहोत्सव, नदीउत्सव, वृक्षोत्सव, स्तूपोत्सव तथा चैत्योत्सवये सब होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ये नहीं होते। वे मनुष्य उत्सवों से निरपेक्ष होते हैं। 31. [Q. 11] Reverend Sir ! Is it a fact that festivals relating to Indra, Shanda, Kartikeya, Naga, yaksha, well, pond, lake, river, tree, memorial and temple were celebrated in Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! It was not done. Those human beings were indifferent towards festivals. द्वितीय वक्षस्कार (65) फफफफफफफफफ Second Chapter Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र 2 5 5 5 5 5 595555 55959595955 559555 5 55595555555 5 5 5 5 5 5 55 5552 ததததததததததததததததததததததததததததித*திகழி कवा, मल्ल-पेच्छाइ बा, मुट्ठिअ - पेच्छाइ वा, बेलंबग-पेच्छाइ वा, कहग-पेच्छाइ वा, पवग-पेच्छाइ वा, फ्र लासग-पेच्छाइ वा ? 卐 [उ. ] णो इणट्टे समट्टे, ववगय - कोउहल्ला णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! ३१. [ प्र. १२ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में नट-नाटक दिखाने वालों, नर्तक- नाचने फ्र 5 वालों, जल्ल-कलाबाज- रस्सी आदि पर चढ़कर कला दिखाने वालों, मल्ल - पहलवानों, 5 मौष्टिक - मुक्केबाजों, विडंबक- विदूषकों-मसखरों, कथक - कथा कहने वालों, प्लवक - छलाँग लगाने या फ नदी आदि में तैरने का प्रदर्शन करने वालों, लासक-वीर रस की गाथाएँ या रास गाने वालों के कौतुक - तमाशे देखने हेतु लोग एकत्र होते हैं ? 卐 卐 फ्र 卐 फ्र ३१. [प्र.१२ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए गड-पेच्छाइ वा, णट्ट-पेच्छाइ वा, जल्ल-पेच्छाइ 卐 卐 卐 फ्र [ उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता। क्योंकि उन मनुष्यों के मन में कौतूहल देखने की उत्सुकता नहीं होती। फ प्रमाण पालखियाँ- ये सब होते हैं ? [Ans.] Blessed Gautam ! It is not true. The human beings of that period did not have the curiosity to watch suchlike things. 31. [Q. 12] Reverend Sir ! Is it a fact that the people at that time in 5 Bharat area were assembling together to watch theatrical performance, dances, rope-dance, wrestling bout, boxing, joke related festivities, story tellers, swimming competitions and those who recite ballads and warrelated poems ? घोड़ों या खच्चरों द्वारा खींची जाने वाली बग्घी, शिविका - पर्देदार पालखियाँ तथा स्यन्दमानिक- पुरुष - ३१. [प्र.१३ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे सगडाइ वा, रहाइ वा, जाणाइ वा, 5 卐 जुग्गाइ वा, गिल्लीइ वा, थिल्लीइ वा, सीआइ वा, संदमाणिआइ वा ? [ उ. ] णो इणट्टे समट्ठे, पायचार-विहारा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउओ ! ३१. [ प्र. १३ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में शकट-बैलगाड़ी, रथ, यान- दूसरे वाहन फ युग्य-दो हाथ लम्बे-चौड़े डोली जैसे यान, गिल्लि -दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली डोली, थिल्लि - दो [ उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता, क्योंकि वे मनुष्य पादचारविहारी - पैदल चलने की प्रवृत्ति वाले होते हैं । 卐 were always pedestrians. [Ans.] Blessed Gautam ! It is not true because those human beings 31. [Q.13] Reverend Sir ! Is it a fact that bullock driven carts, other vehicles, palanquine like vehicles, palanquines carried by two persons, coaches driven by two horses or mules, palanquines having curtains and human-size palanquines existed at that time? 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 2955 5 5 5 5 59595959595955555559555555595555555559@ 卐 (66) 卐 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra - 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555555 5 5 5 5 59552 卐 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथंच आदि के उपद्रवों का अभाव ABSENCE OF CALAMITIES CAUSED BY SUB-HUMANS ३१. [प्र. १४ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गावीइ वा, महिसीइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा ? [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति। ३१. [प्र. १४ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में गाय, भैंस, अजा-बकरी, एडका-भेड़-ये सब पशु होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ये पशु होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते। 31. [Q. 14] Reverend Sir ! Did animals such as cows, buffaloes, goats and sheep exist in Bharat area at that time? (Ans.] Gautam ! Such animals were there but they were not made use of by those human beings. ३१. [प्र. १५ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे आसाइ वा, हत्थीइ वा, उट्टाइ वा, गोणाइ वा, गवयाइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा, पसयाइ वा, मिआइ वा, वराहाइ वा, रुरुत्ति वा, सरभाइ वा, चमराइ वा, सबराइ वा, कुरंगाइ वा, गोकण्णाइ वा ? [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। ३१. [प्र. १५] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में घोड़े, हाथी, ऊँट, गाय, गवय-वनैली गाय, बकरी, भेड़, प्रश्रय-दो खुरों के जंगली पशु, मृग-हरिण, वराह-सूअर, रुरु-मृग-विशेष, शरभ-अष्टापद, चँवर-जंगली गायें, जिनकी पूँछों के बालों से चँवर बनते हैं, शबर-सांभर, कुरंग-मृग-विशेष तथा गोकर्ण-मृग-विशेष-ये होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ये होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते। 31. [Q. 15] Reverend Sir ! Did horses, elephants, camels, cows, wild cows, goats, sheep, wild animals with two hoofs, deer, pig, deer with twisted horns, ashtapad, wild cows the hair of whose tails are used in making of whisks, sambhar, kurnag deer and gokaran deer exist there in Bharat area at that time? (Ans.) Gautam ! All these are there but they were not used by human beings at that time. ३१. [प्र. १६ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे सीहाइ वा, वग्याइ वा, विग-दीविगअच्छ-तरच्छ–सिआल-बिडाल-सुणग-कोकंतिय-कोलसुणगाइ वा ? [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेअं वा उप्पायेंति, पगइभहया णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! हितीय बक्षस्कार (67) Second Chapter 55555555555555555555555; Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐卐55555555555555555555555555555555555555555555558 ३१. [प्र. १६ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में सिंह, व्याघ्र-बाघ, वृक-भेड़िया, . द्वीपिक-चीते, ऋच्छ-भालू, तरक्ष-मृगभक्षी व्याघ्र-विशेष, शृगाल-गीदड़, विडाल-बिलाव, शुनक-कुत्ते, . कोकन्तिक-लोमड़ी, कोलशुनक-जंगली कुत्ते या सूअर-ये सब होते हैं ? + [उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ये सब होते हैं, पर वे उन मनुष्यों को जरा भी बाधा, विशेष बाधा के नहीं पहुँचाते और न उनका छविच्छेद-अंग-भंग ही करते हैं अथवा न उनकी चमड़ी नोंचकर उन्हें 5 विकृत बना देते हैं। क्योंकि वे जंगली जानवर प्रकृति से भद्र होते हैं। ____31. [Q. 16] Reverend Sir ! Did lion, leopard, wolf, tiger, bear, special type of tiger that takes flesh of deer, jackal, cat, dog, fox, wild dogs or boars-and the like exist at that time in Bharat area ? [Ans.) Blessed Gautam ! All such beasts were there but they were not causing even the slightest disturbance, special disturbance or harm to humans. They never caused harm to any part of their body nor pulled out skin. Those wild beasts were of simple nature. ३१. [प्र. १७ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे सालीइ वा, वीहि-गोहूम-जवजव-जवाइ वा, कलाय-मसूर-मग्ग-मास-तिल-कुलत्थ-णिप्फाव-आलिसंदग-अयसिकुसुंभ-कोहव-कंगुवरगरालग-सण-सरिसव-मूलगबीआइ वा ? [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति। ३१. [प्र. १७ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में शाली-कलम जाति के चावल, व्रीहि-ब्रीहि ॐ जाति के चावल, गोधूम-गेहूँ, यव-जौ, यवयव-विशेष जाति के जौ, कलाय-गोल चने-मटर, मसूर, + मूंग, उड़द, तिल, कुलथी, निष्पाव-वल्ल, आलिसंदक-चौला, अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव-कोदों, कंगु-बड़े + पीले चावल, वरक, रालक-छोटे पीले चावल, सण-धान्य-विशेष, सरसों, मूलक-मूली आदि जमीकंदों : के बीज-ये सब होते हैं ? [उ. ] गौतम ! ये होते हैं, पर उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते। 31. [Q. 17] Reverend Sir ! Did rice of kalam quality, of brihi quality, wheat, barley, special type of barley, grams, peas, masoor, pulses like moong, urad, til, kulath, vall, linseed, kusumbh, kodravas, long yellow Si rice, small yellow rice, sana seeds, mustard, radish seeds and seeds of vegetables that grow underground exist in Bharat area at that time? ___ [Ans.] Gautam ! They did exist but they were not used by these people. ३१. [प्र. १८ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गुड्ढाइ वा, दरी-ओवाय-पवाय-विसमविज्जलाइ वा ? [उ. ] णो इणढे समढे, तीसे समाए भरहे वासे बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (68) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555FFFF55555$$$$$$ $55555555听听听听听听听听听听听FM Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. [प्र. १८] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में गर्त-गड्ढे, दरी-कन्दराएँ, अवपात-ऐसे गुप्त खड्डे, जहाँ प्रकाश में चलते हुए भी गिरने की आशंका बनी रहती है, प्रपात-ऐसे स्थान, जहाँ से व्यक्ति मन में कोई कामना लिए गिरकर प्राण दे दे, विषम-जिन पर चढ़ना-उतरना कठिन हो, ऐसे स्थान, विज्जल-चिकने कर्दममय स्थान-ये सब होते हैं ? _ [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। उस समय भरत क्षेत्र में बहुत समतल तथा रमणीय भूमि होती है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों एक समान होती है। 31. (Q. 18] Reverend Sir ! Did caverns, gorges, ditches where there is risk of falling even while moving in sunlight, such places where one may commit suicide in a fit of some unfulfilled desire in his mind and muddy places exist in Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! It is not true. At that time the land of Bharat area was very much levelled like the upper surface of a drum. ___३१. [प्र. १९ ] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे खाणूइ वा, कंटग-तणय-कयवराइ वा, पत्तकयवराइ वा ? [उ. ] णो इणढे समढे, ववगय-खाणु-कंटग-तण-कयवरपत्तकयवरा णं सा समा पण्णत्ता। ३१. [प्र. १९] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में स्थाणु-ऊर्ध्व काष्ठ-शाखा, पत्र आदि से रहित वृक्ष-दूंठ, काँटे, तृणों का कचरा तथा पत्तों का कचरा-ये होते हैं। [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वह भूमि स्थाणु, कंकर, तृणों के कचरे तथा पत्तों के कचरे से रहित होती है। 81. (Q. 19) Reverend Sir ! Did withered trees, thorns, trash of hay and dry leaves exist in Bharat area at that time? (Ans.) Gautam ! It is not true. That land is free from trash of wood, shinghal, hay collection and decaying leaves. ३१. [प्र. २०] अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे डंसाइ वा, मसगाइ वा, जूआइ वा, लिक्खाइ घा, टिंकुणाइ वा, पिसुआइ वा ? । [उ.] णो इणढे समढे, ववगयडंस-मसग-जूअ-लिक्ख-टिंकुणपिसुआ उवद्दवविरहिआ णं सा समा पण्णत्ता। ३१. [प्र. २० ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में डांस, मच्छर, जुंए, लीखें, खटमल तथा पिस्सू होते हैं? [उ.] गौतम ! ऐसा नहीं होता। वह भूमि डांस, मच्छर, लूँ, लीख, खटमल तथा पिस्सू-वर्जित एवं उपद्रव-विरहित होती है। बितीय पक्षस्कार (69) Second Chapter 9555555555555555555555555555555 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 195955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 2 [Ans.] Gautam ! It is not true. The land at that time is free from 5 mosquitoes, lice, bed-bugs and the like. फ्र 卐 31. [Q. 20] Reverend Sir ! Do wasps mosquitoes, lice, bed-bugs and the फ्र like in Bharat area at that time? 卐 फ्र ३१. [प्र.२१ ] अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे अहीइ वा अयगराइ वा ? 卐 [उ. ] हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं आबाहं वा, (वाबाहं वा, छविच्छेअं वा उप्पायेंति) पगइभद्दया णं ते वालगगणा पण्णत्ता । ३१. [ प्र. २१ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में साँप और अजगर होते हैं ? [उ.] गौतम ! होते हैं, पर वे मनुष्यों के लिए बाधाजनक - ( पीड़ा व हानिकारक) नहीं होते। वे सर्प, अजगर (आदि सरीसृप जातीय जीव) प्रकृति से भद्र होते हैं। 31. [Q. 21] Reverend Sir ! Do snakes and pythons exist in Bharat area at that time ? युद्ध व रोग आदि का अभाव ABSENCE OF WAR AND DISEASES [Ans.] Gautam ! They do exist but they are not harmful to human 5 beings. Those snakes and pythons are unharmful by nature. फ्र [ उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुआ पण्णत्ता । ३१. [ प्र. २२ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे डिंबाइ वा, डमराइ वा, कलह-बोलखार - वइर - महाजुद्धाइ वा, महासंगामाइ वा, महासत्थपडणाइ वा, महापुरिस - पडणाइ वा, महारुहिर- फ्र णिवडणाइ वा ? 卐 ३१. [ प्र. २२ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में डिम्बभय-भयावह स्थिति, डमर - राष्ट्र में 卐 आभ्यन्तर, बाह्य उपद्रव, कलह - वाग्युद्ध, बोल- अनेक आर्त्त व्यक्तियों की चीत्कार, क्षार - पारस्परिक ईर्ष्या, वैर असहनशीलता के कारण हिंस्य - हिंसक भाव, महायुद्ध-व्यूह रचना तथा व्यवस्थावर्जित 5 महारण, महासंग्राम - महाशस्त्र - पतन - नागबाण, तामसबाण, पवनबाण, अग्निबाण आदि दिव्य अस्त्रों का प्रयोग तथा महापुरुष - पतन - छत्रपति आदि विशिष्ट पुरुषों का वध, महारुधिर - निपतन - छत्रपति आदि विशिष्ट जनों का खून बहाना - ये सब होते हैं ? 5 [ उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता । वे मनुष्य वैरानुबन्ध - शत्रुता के संस्कार से रहित होते हैं। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ब 31. [Q. 22] Reverend Sir ! Do dreadful situation, civil disturbances, disturbances from outside, quarrelsome dialogue, shrieks of many people in pain or in sorrow, mutual jealousy, violent attitude due to nonacceptance of others behaviour, great wars, dreadful battles and use of 5 poisonous arrows, tamas arrows, windy arrows, fiery arrows and other 5 suchlike weapons, the killing of persons of importance and killing of chiefs and disturb resulting in flow of blood occur at that time in Bharat? Jambudveep Prajnapti Sutra (70) 555555555 卐 卐 卐 फ्र சு 卐 卐 卐 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 கதகததமிமிமிமிதததததததத**************தமிழின் 5 [Ans.] Gautam ! It is not true. Those human beings are free from any 5 5 inimical attitude. • ३१. [ प्र. २३ ] अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दुब्भूआणि वा, कुलरोगाइ वा, गामरोगाइ फ्र बा, मण्डलरोगाइ वा, पोट्टरोगाइ वा, सीसवेअणाइ वा, कण्णोट्ठ-अच्छि - णह - दंत - वे अणाइ वा, कासाइ वा, सासाइ वा सोसाइ वा, दाहाइ बा, अरिसाइ बा, अजीरगाइ वा, दओदराइ वा, पंडुरोगाइ वा फ्र भगंदराइ वा एगाहिआइ वा, बेआहिआइ वा, तेआहिआइ वा, चउत्थाहिआइ वा, इंदग्गहाइ वा, फ धग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा, जक्खग्गहाइ वा, भूअग्गहाइ वा, मत्थसूलाइ वा, हिअयसूलाइ वा, फ्र 5 पोट्टसूलाइ वा कुच्छिसूलाइ वा, जोणिसूलाइ बा, गाममारीइ वा, सण्णिवेसमारीइ वा, पाणिक्खया, जणक्खया, वसणभूअमणारिआ ? 卐 [ उ. ] गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, ववगयरोगायंका णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! फ्र ३१. [ प्र. २३ ] भगवन् ! क्या उस समय भरत क्षेत्र में दुर्भूत- मनुष्य या धान्य आदि के लिए उपद्रव 5 हेतु, चूहों, टिड्डियों आदि द्वारा उत्पादित ईति - संकट, ( कृषि विघातक उपद्रव) कुल - रोग - कुलक्रम से आये हुए रोग, ग्राम - रोग - गाँवभर में व्याप्त रोग, मंडल - रोग - ग्रामसमूहात्मक भूभाग में व्याप्त रोग, पोट्टक रोग पेट सम्बन्धी रोग, शीर्षवेदना-मस्तक पीड़ा, कर्ण-वेदना, ओष्ठ-वेदना, नेत्र - वेदना, नख- वेदना, दंत - वेदना, खाँसी, श्वास रोग, शोष-क्षय रोग, दाह-जलन, अर्श- बवासीर, अजीर्ण, जलोदर, पांडु-रोग- पीलिया, भगन्दर, एक दिन से आने वाला ज्वर, दो दिन से आने वाला ज्वर, तीन दिन से आने वाला ज्वर, चार दिन से आने वाला ज्वर, इन्द्रग्रह, धनुर्ग्रह, स्कन्दग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह आदि उन्मत्तता हेतु व्यन्तरदेव कृत उपद्रव, मस्तक - शूल, हृदय-शूल, कुक्षि-शूल, योनि-शूल, गाँव यावत् फ सन्निवेश- इनमें किसी विशेष रोग द्वारा एक साथ बहुत से लोगों की मृत्यु आदि द्वारा गाय, बैल आदि 5 प्राणियों का नाश, मनुष्यों का नाश, वंश का नाश - ये सब होते हैं ? [ उ. ] आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य रोग- कुष्ठ आदि चिरस्थायी बीमारियों तथा आतंक - शीघ्र प्राण लेने वाली शूल आदि बीमारियों से रहित होते हैं । (मनुष्यों की जीवनचर्या का यह वर्णन उस समय की परम शान्तिदायक परिस्थिति का चित्रण है ।) फ्र 31. [Q.23] Reverend Sir ! Is it a fact that in Bharat area, human beings at that time including many persons, cows, bullocks were perishing in large number resulting in extinction of their clan as a result of damage to crops by rats, locust and the like, loss of agricultural crop, family diseases, wide spread fatal diseases spreading throughout in the village, diseases in large areas, diseases pertaining to stomach, head, fear, lips, eyes, pain in teeth, in nails, cough, breathing trouble, tuberculosis, burning sensation, piles, disease due to overeating, jaundice, bhagandar, typhoid, fever for one, two, three, four days, disturbances such as Indragrah, dhanurgrah, skandagrah, kumaragrah, 5 द्वितीय वक्षस्कार (71) ON 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 फ्र Second Chapter 卐 5 卐 5 5 卐 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555$$$$$$$$$$$$$$$$$因 a听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听555555555 yakshagrah, bhootagrah and the like caused by vyantar gods, unbearable pain in head, heart, armpit, private part, when such diseases spread in villages up to towns. [Ans.) Blessed Gautam ! Those human beings were totally free from lasting diseases such as leprosy and the like and fatal diseases such as heart diseases. (This discription of the daily life of those people indicates that peace was prevailing in the region at that time.) मनुष्यों की आयु आदि LIFE-SPAN ETC. OF HUMAN BEINGS ३२. [प्र. १ ] तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुआणं केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! जहण्णेणं देसूणाई तिण्णि पलिओवमाइं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। ३२. [प्र.१] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आयुष्य कितने काल का होता है? [उ. ] गौतम ! उस समय उनका आयुष्य जघन्य-तीन पल्योपम से कम (स्त्रियों की अपेक्षा) का तथा उत्कृष्ट-तीन पल्योपम का होता है। 32. [Q. 1] Reverend Sir ! What was the life-span of human beings in Bharat area at that time? (Ans.) Gautam ! The minimum life-span was a bit less than three palyopam (in case of women) and the maximum was three palyopam. ३२. [प्र. २ ] तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुआणं सरीरा केवइअं उच्चत्तेणं पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! जहण्णेणं देसूणाई तिण्णि गाउआई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउआई। ३२. [प्र. २ ] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र में मनुष्यों के शरीर कितने ऊँचे होते हैं ? [उ. ] गौतम ! उनके शरीर जघन्यतः कुछ कम तीन कोस तथा उत्कृष्टतः तीन कोस ऊँचे होते हैं। 32. [Q. 2] Reverend Sir ! What was the height of human beings then in Bharat area ? [Ans.) Gautam ! The minimum height was a little less than three kos (six miles) and the maximum was three kos. ३२. [प्र. ३ ] ते णं भंते ! मणुआ किंसंघयणी पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणी पण्णत्ता। ३२. [प्र. ३ ] भगवन् ! उन मनुष्यों का संहनन कैसा होता है ? [उ. ] गौतम ! वे वज्र-ऋषभ-नाराच-संहननयुक्त होते हैं। 32. [Q.3] Reverend Sir ! What was the bone-structure of the human beings then ? 55555555555555555555555555555555555515555555555558 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (72) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ urrir - - - - Eiriririr נ ת תב תב תב תב תגוב וב FIFIFir נ ת 155555555555555555555555555555555555 [Ans.] Gautam ! They had Vajra-rishabh-narach (the strongest possible) bone-structure. ३२. [प्र. ४ ] तेसि णं भंते ! मणुआणं सरीरा किंसंठिआ पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिआ पण्णत्ता। तेसि णं मणुआणं बेछप्पण्णा पिट्ठकरंडयसया पण्णत्ता समणाउसो! ___३२. [प्र. ४ ] भगवन् ! उन मनुष्यों का दैहिक संस्थान कैसा होता है ? __ [उ. ] आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य सम-चौरस-संस्थान-संस्थित होते हैं। उनके पसलियों की दो सौ : छप्पन हड्डियाँ होती हैं। 32. [Q. 4] Reverend Sir ! What was the constitution of the human body at that time? [Ans.] Their constitution was well proportioned and balanced from all four sides. They had 256 rib-bones. __३२. [प्र. ५ ] ते णं भंते ! मणुआ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छन्ति, कहिं उववज्जति ? __[उ. ] गोयमा ! छम्मासावसेसाउ जुअलगं पसवंति, एगूणपण्णं राइंदिआई सारक्खंति, संगोति; संगोवेत्ता, कासित्ता, छीइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अव्वहिआ, अपरिआविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जंति, देवलोअपरिग्गहा णं ते मणुआ पण्णत्ता। ३२. [प्र. ५ ] भगवन् ! वे मनुष्य अपना आयुष्य पूरा कर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [उ. ] गौतम ! जब उनका आयुष्य छह मास बाकी रहता है, वे युगल-एक बालक, एक बालिका उत्पन्न करते हैं। उनपचास दिन-रात उनकी सार-सम्हाल करते हैं, पालन-पोषण करते हैं, संगोपन-संरक्षण करते हैं। यों पालन तथा संगोपन कर वे खाँसकर, छींककर, जम्हाई लेकर, शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप का अनुभव नहीं करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है, अन्यत्र नहीं। (यौगलिक के आगे के भव का आयुष्य-बन्ध उनकी मृत्यु से छह मास पूर्व हो जाता है, जब वे युगल को जन्म देते हैं।) 32. (Q. 5) Reverend Sir ! After completing their life-span, where were those human being taking re-birth? ___ [Ans.] When only six months of their life-span is in balance, they give birth to a son and a daughter. They look after them, nourish them and take care of them for 49 days. Later without experiencing any physical ! ailment, diseases or disturbance they die with just a cough, a sneeze or a yawn. Later they take re-birth in heaven and nowhere else. (These yugaliks determine their next life-span six months before their death when they give birth to twins a son and a daughter.) נ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת E ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת द्वितीय वक्षस्कार (73) Second Chapter Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ्र தத்திததமி**************************55 ३२. [ प्र. ६ ] तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे कइविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था ? [उ. ] गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - पम्हगंधा १, मिअगंधा २, अममा ३, सहा ५, सणिचारी ६ । ३२. [ प्र. ६ ] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र में कितने प्रकार के मनुष्य होते हैं ? [उ.] गौतम ! छह प्रकार के मनुष्य होते हैं - ( 9 ) पद्मगन्ध - कमल के समान गंध वाले, (२) मृगगंध - कस्तूरी सदृश गंध वाले, (३) ममत्वरहित, (४) तेजस्वी, (५) सहनशील, तथा 5 (६) शनैश्चारी - उत्सुकता न होने से धीरे-धीरे चलने वाले । 卐 32. [Q. 6] Reverend Sir ! How many types of human beings are in 5 Bharat area at that time? (२) सुषमा आरक SUKHAMA AEON ३३. तीसे णं समाए चउहिं सागरोवम कोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, जाव अणंतेहिं गंधपज्जवेर्हि, अनंतेहिं रसपज्जवेहिं, अनंतेहिं फासपज्जवेहिं, अणंतेहिं संघयणपज्जवेहिं, अणंतेहिं संठाणपज्जवेहिं, अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं, अनंतेहिं आउपज्जवेहिं, अणंतेहिं गुरुलहुपज्जवेहिं, अणतेहिं अगुरुलहुपज्जवेहिं, अनंतेहिं उट्ठाण - कम्म-बल-वीरिअ - पुरिसक्कार - परक्कम - पज्जवेहिं, अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं सुसमा णामं समाकाले पडिवज्जिंसु समणाउसो ! [प्र.] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमाए समाए उत्तम कट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिस आयारभाव पडोयारे होत्था ? अतली ४, [Ans.] The human beings at that time are of six types (1) those who 5 emit lotus smell, (2) those who emit musk fragrance, (3) those who have no attachment, ( 4 ) bright, ( 5 ) forbearing, (6) those who move about 5 slowly as they are free from any curiosity. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र फफफफफफफफफफफफफ्र (74) 卐 卐 [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा तं चैव जं 卐 सुसम - सुसमाए पुव्ववण्णिअं णवरं णाणत्तं चउधणुसहस्समूसिआ, एगे अट्ठावीसे पिट्ठकरंडकसए, छट्टभत्तस्स आहारट्ठे, चउसट्ठि राइंदिआई सारक्खंति, दो पलिओवमाई आऊ सेसं तं चेव । तीसे णं समाए चहा मस्सा अणुसज्जित्था, तं जहा - एका १, पउरजंघा २, कुसुमा ३, सुसमणा ४ । Jambudveep Prajnapti Sutra ३३. उस समय के प्रथम आरक का जब चार सागर कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक द्वितीय आरक प्रारम्भ हो जाता है। उसमें अनन्त वर्ण - पर्याय, अनन्त फ्र गंध- पर्याय, अनन्त रस - पर्याय, अनन्त स्पर्श - पर्याय, अनन्त संहनन - पर्याय, अनन्त संस्थान - पर्याय, अनन्त उच्चत्व-पर्याय, अनन्त आयु-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु - लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान - कर्म-बल-वीर्य - पुरुषाकार - पराक्रम- पर्याय इनका अनन्तगुण परिहानि - क्रम ह्रास होता जाता है। 卐 卐 卐 卐 फ्र 5 5 卐 卐 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%% %%%%%% ))))55555555555555555 %%% %%%% म [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत इस अवसर्पिणी के सुषमा नामक आरक में उत्कृष्टता की पराकाष्ठा प्राप्त समय में भरत क्षेत्र का कैसा आकार/स्वरूप होता है ? [उ.] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है। सुषम-सुषमा के वर्णन में जो कथन किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए। उससे ॐ इतना अन्तर है-उस काल के मनुष्य चार हजार धनुष की अवगाहना वाले होते हैं, उनके शरीर की ऊ + ऊँचाई दो कोस होती है। उनकी पसलियों की हड्डियाँ एक सौ अट्ठाईस होती हैं। दो दिन बीतने पर उन्हें 5 भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक बच्चों का चौंसठ दिन तक पालन-पोषण करते हैं, उनकी म आयु दो पल्योपम की होती है। शेष सब जैसा पहले वर्णन आया है, उसी प्रकार है। उस समय चार प्रकार के मनुष्य होते हैं-(१) प्रवर-श्रेष्ठ, (२) प्रचुरजंघ-पुष्ट जंघा वाले, (३) कुसुम-पुष्प के सदृश है ॐ सुकुमार, (४) सुशमन-अत्यन्त शान्त। 33. When 4 x 10 million x 10 million Sagar time period of the first aeon has passed, the second aeon of Avasarpani time-cycle namely Sukhama aeon starts. At that time there is short fall in colour, smell, taste, touch, body structure, figure, height, life-span, aguru-laghu, strength and courage to a great extent gradually. [Q] Reverend Sir ! When Sukhama the second aeon of Avasarpani 5 time-cycle is at its climax in Bharat area, what is the nature of the land area ? (Ans.) Gautam ! The land is well levelled and attractive like the upper surface of a drum. The description may be considered the same as earlier mentioned in case of Sukhama-Sukhama aeon. The only difference is that the height of human beings is 4,000 dhanush. They have 128 rib-bones. They have desire for food after two days. They look after their twin children for 64 days. Their life-span is two palyopam. The remaining description is exactly the same as of first aeon. The human beings at that time are of four types—(1) noble, (2) with strong things, (3) delicate like a flower, and (4) extremely quiet. %%%%%% %%%% ) )))))) %%%%%%% % %% (३) सुषमा-दुःषमा SUKHAMA-DUKHAMA ॐ ३४. तीसे णं समाएतिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, जाव है अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणो २, एत्थ णं सुसम-दुस्समाणामं समा पडिवज्जिंसु। समणाउसो ! सा णं समा तिहा विभज्जइ तं जहा-पढमे तिभाए १, मज्झिमे तिभाए २, पच्छिमे तिभाए ३। 4 [प्र.] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे, इमीसे ओसप्पिणीए सुसम-दुस्समाए समाए पढममज्झिमेसु तिभाएसु के भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे ? पुच्छा। %%%% %%%%%% द्वितीय वक्षस्कार (76) Second Chapter 卐 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555555555555555555 0555555555 ) )) )))) ) ) )))4958 ॐ [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, सो चेव गमो अव्वो णाणत्तं दो धणुसहस्साई उड़े उच्चत्तेणं। तेसिं च मणुआणं चउसटिपिट्ठकरंडगा, चउत्थभत्तस्स आहारत्थे समुष्पज्जइ, ठिई पलिओवमं, एगूणासीइं राइंदिआई सारक्खंति, संगोवेंति, जाव देवलोगपरिग्गहिआ णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! .. [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिं उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे होत्था ? [उ. ] गोयमा ! तेसिं मणुआणं छबिहे संघयणे, छबिहे संठाणे, बहूणि धणुसयाणि उड्ढे उच्चत्तेणं, है जहण्णेणं संखिज्जाणि वासाणि, उक्कोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि आउअं पालंति, पालित्ता अप्पेगइया ॐ णिरयगामी, अप्पेगइया तिरिअगामी, अप्पेगइया मणुस्सगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। ___३४. आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस द्वितीय आरक का तीन सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषम-दुःषमा नामक तृतीय आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त ॐ वर्ण-पर्याय, (अनन्त गंध-पर्याय, यावत् सूत्र ३३ अनुसार आदि का अनन्त उत्थान-कर्म बल-वीर्य पुरुषकार-पराक्रम-पर्याय)-इनका अनन्त गुण परिहानि–क्रम से ह्रास होता जाता है। उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया गया है-(१) प्रथम त्रिभाग, (२) मध्यम त्रिभाग, (३) पश्चिम त्रिभागॐ अन्तिम त्रिभाग। [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषम-दुःषमा आरक के प्रथम तथा मध्यम त्रिभाग ॐ का आकार स्वरूप कैसा है ? 1 [उ.] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। उसका ॐ पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए। अन्तर इतना है-उस समय के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनुष फ़ होती है। उनकी पसलियों की हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। एक दिन के बाद उनमें आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। उनका आयुष्य एक पल्योपम का होता है, ७९ रात-दिन अपने यौगलिक शिशुओं की वे सार-सम्हाल म करते हैं, यावत् काल-धर्म को प्राप्त होकर-मरकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही 85555555555555554)))))))))))))))))))))))55555558 म होता है। [प्र.] भगवन् ! उस आरक के पश्चिम विभाग में आखिरी तीसरे हिस्से में भरत क्षेत्र का आकार स्वरूप कैसा होता है ? ॐ [उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होता है। यह मुरज के ऊपरी भाग + जैसा समतल होता है। यह यावत् कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है। - [प्र.] भगवन् ! उस आरक के अन्तिम तीसरे भाग में भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आकार/स्वरूप म कैसा होता है? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (76) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555 5 ) फ्र)))) ))) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555 555555555555555555555555555555555 [उ. ] गौतम ! उन मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन तथा छहों प्रकार के संस्थान होते हैं। उनके # + शरीर की ऊँचाई सैकड़ों धनुष परिमाण होती है। उनका आयुष्य जघन्यतः संख्यात वर्षों का तथा : उत्कृष्टतः असंख्यात वर्षों का होता है। अपना आयुष्य पूर्ण कर उनमें से कई नरकगति में, कई ॐ तिर्यंचगति में, कई मनुष्यगति में, कई देवगति में उत्पन्न होते हैं और सिद्ध होते हैं, यावत् समग्र दुःखों : + का अन्त करते हैं। 34. Blessed Gautam ! When 3x 10 million x 10 million Sagar time period of the second aeon has passed, Sukhama-Dukhama—the third Hi aeon of Avasarpani time-cycle starts. Gradually there is dicrease in colour, smell, taste, touch and the like (as mentioned in Sutra 33) to a $ great extent. This aeon has been divided into three parts-(1) first, (2) second, and (3) third part. (Q.) Reverend Sir! What is the nature of the first and the second part of this aeon ? (Ans.] Blessed Gautam ! The land is well levelled and attractive 4 as earlier mentioned. The points of difference are that the height of 卐 human beings is 2,000 dhanush, the rib-bones are 64, they have desire for food after gap of a day in between, their life-span is one palyopam and they nourish their twin children for 79 days. After death they take re-birth in heaven. (Q.) Reverend Sir ! What is the shape of Bharat area in the last third fi part of this aeon ? (Ans.] Gautam ! The land is well levelled and attractive like that of the upper part of muraj. It was shining with natural and artificial jewels. (Q.) Reverend Sir ! What is the shape of human beings in the last third part of this aeon ? (Ans.) Gautam ! Those human beings had all the six types of bonestructure and six types of constitution. Their height was several hundred dhanush. Their minimum life-span was numerable number of years and maximum life-span of innumerable years. After completing their life span some of them take birth in hell, some as sub-humans, some as i human beings and some in heaven, and some attain liberation and thus bring an end of all of their miseries. 5 955555555555555 कुलकर-व्यवस्था KULAKAR SYSTEM ३५. तीसे गं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्ठभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जित्था, तं जहा-सुमई १, पडिस्सुई २, सीमंकरे ३, सीमंधरे ४, खेमंकरे ५, खेमंधरे ६, म द्वितीय वक्षस्कार (77) Second Chapter Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 55 55 5 5 5 5 5 5 5555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 7 7 5 5 5 5 5552 फ्र *த*ததத****************************** फ विमलवाहणे ७, चक्खुमं ८, जसमं ९, अभिचंदे १०, चंदाभे ११, पसेणई १२, मरुदेवे १३, णाभी 卐 फ्र १४, उसमे १५, त्ति । 卐 (१४) नाभि, (१५) ऋषभ । 卐 ३५. उस आरक के अन्तिम तीसरे भाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का आठवाँ भाग फ्र अवशेष रहता है तो ये पन्द्रह कुलकर - विशिष्ट बुद्धिशाली पुरुष उत्पन्न होते हैं - (१) (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर, (४) सीमन्धर, (५) क्षेमंकर, (६) क्षेमंधर, (७) सुमति, विमलवाहन, 卐 35. When only one-eighth of a palyopam is there for the end 5 of the last third part of this aeon, fifteen kulakaras take birth. They are highly intelligent. Their names are as follows (1) Sumati, 5 (2) Pratishruti, ( 3 ) Simankar, (4) Simandhar, ( 5 ) Kshemankar, 5 (6) Kshemandhar, ( 7 ) Vimalvahan, (8) Chakshushaman, (9) Yashasvan, 5 (10) Abhichandra, ( 11 ) Chandrabh, ( 12 ) Prasenajit, (13) Marudev, (14) Nabhi, (15) Rishabh. तत्थ णं चंदाभ ११, पसेणइ १२, मरुदेव १३, णाभि १४, उसभाणं १५ - एतेसि णं पंचहं 5 कुलगराणं धिक्कारे णामं दंडणीई होत्था । ते णं मणुआ धिक्कारेणं दंडेणं हया समाणा जाव चिट्ठति । ३६. उन पन्द्रह कुलकरों में से (१) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर, (४) सीमन्धर, तथा (५) क्षेमंकर - इन पाँच कुलकरों की 'हकार' नामक दंडनीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य 'हकार' - 'हा, यह क्या किया" इतने कथन मात्र रूप दंड से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित - विशेष रूप से लज्जित, व्यर्द्ध- अतिश लज्जित, भीतियुक्त, तूष्णीक - चुप तथा विनयावनत हो जाते हैं। (८) चक्षुष्मान्, (९) यशस्वान, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव, 5 उनमें से (६) क्षेमंधर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान्, (९) यशस्वान, तथा (१०) अभिचन्द्रइन पाँच कुलकरों की 'मकार' नामक दण्डनीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य 'मकार' - 'मा कुरु' - "ऐसा मत करो" - इस कथन रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं। उनमें से (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव, (१४) नाभि, तथा (१५) ऋषभ - इन पाँच कुलकरों की 'धिक्कार' नामक नीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य 'धिक्कार' - "इस कर्म 5 के लिए तुम्हें धिक्कार है", इतने कथन मात्र रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं। (78) * 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 55 59595959 59 5955 5 5 5 5 5 595959595952 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 ३६. तत्थ णं सुमई १, पडिस्सुई २, सीमंकरे ३, सीमंधरे ४, खेमंकरे ५ - णं एतेसिं पंचण्डं 5 कुलगराणं हक्कारे णामं दंडणीई होत्था । ते णं मणुआ हक्कारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिआ, फ विलज्जिआ, वेड्डा, भीआ, तुसिणीआ, विणओणया चिट्ठति । फ्र तत्थ णं खेमंधर ६, विमलवाहण ७, चक्खुमं ८, जसमं ९, अभिचंदाणं १० - एतेसिं पंचन्हं 5 कुलगराणं मक्कारे णामं दंडणीई होत्था । ते णं मणुआ मक्कारेणं दंडेणं हया समाणा (जाव) चिट्ठति । 卐 फ Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ததததததி****தததததததததததததததததததிதமிழிதி 36. The first five kulkaras namely-(1) Sumati, (2) Pratishruti, (3) Simankar, (4) Simandhar, and (5) Kshemankar award punishment of ‘Hakar' as criminal jurisprudence. The word 'Hakar' means – “Oh ! This has been done." Such a statement as punishment makes one to feel ashamed, deeply ashamed, extremely ashamed and creates in the accused a sense of fear and makes him quiet and humble. The next five kulkaras namely-(6) Kshemandhar, (7) Vimalvahan, (8) Chakshushaman, ( 9 ) Yashasvan, and ( 10 ) Abhichandra award punishment of 'Makar' which means "Do not do it." Such a statement makes them feel deeply ashamed. The last five kulkaras namely-(11) Chandrabh, (12) Prasenajit, (13) Marudev, ( 14 ) Nabhi, and ( 15 ) Rishabh award punishment of 'Dhikkar' which means-"You are condemned for such an act." Simply such a statement makes them feel deeply ashamed. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव गृहवास FIRST TIRTHANKAR RISHABHADEV DOMESTIC LIFE ३७. [ १ ] णाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारिआए कुच्छिंसि एत्थ उस णामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थगरे, पढमधम्मवरचाउरंत - चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था । तए णं उसमे अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झे वसई, वसित्ता तेवट्ठि पुब्वसयसहस्साई महारायवासमज्झे वसइ । तेवट्ठि पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झे वसमाणे लेहाइआओ, गणि अप्पहाणाओ, सउणरुअ - पज्जवसाणाओ बावन्तरिं कलाओ चोसट्ठि महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिणिवि पयाहिआए उवदिसइ । उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचाइ । अभिसिंचित्ता तेसीइं पुब्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झे वसइ । ३७. [ १ ] नाभि कुलकर के, उनकी भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्, कौशलिक - कौशल देश में अवतीर्ण, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर, दान, शील, तप एवं भावना द्वारा चार गतियों या चारों कषायों का अन्त करने में सक्षम धर्म - साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख 'पूर्व' कुमार - राजपुत्र - युवराज- अवस्था में व्यतीत किये। तिरेसठ लाख 'पूर्व' महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली की पहचान तक गणित - प्रमुख कलाओं का, जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों-कलाओं तथा सौ प्रकार कार्मिक शिल्प-विज्ञान का समावेश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया। कलाएँ आदि उपदिष्ट कर अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में पृथक्-पृथक् राज्य दिये । उनका राज्याभिषेक कर वे तिरासी लाख 'पूर्व' (कुमारकाल के बीस लाख पूर्व तथा महाराज काल के तिरेसठ लाख पूर्व) गृहस्थवास में रहे। (बहत्तर पुरुष कला का वर्णन रायपसेणिय सूत्रानुसार समझें ।) द्वितीय वक्षस्कार (79) 65 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 Second Chapter Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955555559555555955559555555559542 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5559562 卐 37. [1] Arhat Rishabh was born of Nabhi Kulkar and his wife Marudevi in Kaushal state, he was destined to be the first king, the first Jina, the first Omniscient, the first Tirthankar, the first Chakravarti of Dharma who by his charity, chastity, austerity and attitude was capable of bringing an end to all the four passions and all the four states of worldly existence. प्रव्रज्या : अभिनिष्क्रमण RENUNCIATION 卐 卐 फ्र Rishabh of Kaushal state spent a period of 20 lakh purvas as 卐 youngster, crown prince and 63 lakh purvas as king. As a king he फ propagated 72 arts of men and 64 arts of women which included the art of writing, the art of recognising the language of the birds and the art of counting. For the welfare of his people, he also taught hundred types of industries and trade. Thereafter, he divided his kingdom into one hundred parts among his hundred sons and coronated them as kings of the respective kingdoms. Thus, he spent a total period of 83 lakh purvas as householder. (Detailed description of 72 arts of men may be seen in Raipaseniya Sutra.) जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! धम्मेणं अभीए परीसहोवसग्गाणं, खंतिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउत्ति कट्टु अभिनंदंति अ अभिधुणंति अ । 卐 卐 卐 ३७. [ २ ] वसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स वमपक्खेणं दिवसस पच्छिमे भागे चइत्ता हिरण्णं, चइत्ता सुवण्णं, चइत्ता कोसं, कोट्ठागारं, चइत्ता बलं, 5 चइत्ता वाहणं, चइता पुरं, चइत्ता अंतेउरं, चइत्ता विउलधण - कणग - रयण-मणि - मोत्तिअसंसिलप्पवाल - रत्तरयणसंतसारसावइज्जं विच्छडियित्ता, विगोवइत्ता दायं दाइआणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिअ - चक्किअ - गंगलिअ - मुहमंगलिअपूसमाणव - वद्धमाणा - आइक्खग - लंख - मंख - घंटिअगणेहिं ताहिं इट्ठाहिं, कंताहिं, पियाहिं, मणुण्णाहिं, 5 मणामाहिं, उरालाहिं, कल्लाणाहिं, सिवाहिं, धन्नाहिं, मंगल्लाहिं, सस्सिरिआहिं, हियगमणिजाहिं, हिययपल्हायणिज्जाहिं, कण्णमणणिव्वुइकराहिं, अपुणरुत्ताहिं, अट्ठसइआहिं वग्गूहिं अणवरयं अभिनंदंता फ्र अभिधुता य एवं वयासी फ्र 5 फ्र 5 (80) தததிததமித*************************மிதிதி फ्र 卐 5 ३७. [ २ ] यों गृहस्थ-वास में रहकर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास - चैत्र मास में, प्रथम पक्ष-कृष्ण पक्ष में, नवमी तिथि के उत्तरार्ध में - मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश- भाण्डागार, कोष्ठागार - धान्य के आगार, बल-चतुरंगिणी सेना, वाहन - हाथी, घोड़े, रथ आदि सवारियाँ, पुर-नगर, 卐 अन्तःपुर - रनवास, विपुल धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला-स्फटिक, राजपट्ट आदि, प्रवाल- मूँगे, रक्त रत्न - पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर ये सब पदार्थ अस्थिर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 फ 5 फ्र फ्र 卐 卐 卐 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555 हैं, यों उन्हें जुगुप्सनीय या त्याज्य मानकर-उनसे ममत्व भाव हटाकर अपने-अपने गोत्र या परिवार के जनों में धन का बँटवारा कर वे सुदर्शना नामक पालखी में बैठे। देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् उनके साथ-साथ चली। शंख बजाने वाले, चक्र घुमाने वाले, स्वर्णादि-निर्मित हल गले से लटकाये रहने वाले, मुँह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले, मागध, भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, औरों के कंधों पर बैठे पुरुष, शुभाशुभ-कथक, बाँस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, घण्टे बजाने वाले पुरुष उनके पीछे-पीछे चले। वे इष्ट कमनीय शब्दमय, प्रिय अर्थयुक्त, मन को सुन्दर लगने वाली, मन को बहुत रुचने वाली, शब्द एवं अर्थ की दृष्टि से विशिष्ट कल्याण-कल्याणप्राप्तसूचक, निरुपद्रव, धन्य-धन-प्राप्ति कराने वाली, अनर्थनिवारक, अनुप्रासादि अलंकारों से शोभित, हृदय तक पहुँचने वाली, सुबोध, हृद्गत क्रोध, शोक आदि ग्रन्थियों को मिटाकर प्रसन्न करने वाली, कानों को तथा मन को शान्ति देने वाली, पुनरुक्ति-दोष वर्जित, सैकड़ों अर्थों से युक्त अथवा सैकड़ों अर्थ-इष्ट-कार्य निष्पादक-वाणी द्वारा वे निरन्तर उनका इस प्रकार अभिनन्दन तथा अभिस्तवन-स्तुति करते थे____ “वैराग्य के वैभव से आनन्दित ! अथवा जगन्नन्द ! जगत् को आनन्दित करने वाले, भद्र ! जगत् का कल्याण करने वाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो। आप धर्म के प्रभाव से परिषहों एवं उपसर्गों से निर्भय रहें, आकस्मिक भय-संकट, सिंह आदि हिंसक प्राणि-जनित भय अथवा भयंकर भय-घोर भय का सहिष्णुतापूर्वक सामना करने में सक्षम रहें। आपकी धर्मसाधना निर्विघ्न हो।" 37. [2] After spending the life as householder as above mentioned, in the first month of summer season namely first fortnight viz. dark fortnight of Chaitra on the ninth day in the afternoon, he renounced his attachment and control over silver, gold, state treasury, storehouses of foodgrains, the army, elephants, horses, chariots, the town, the harem, the huge collection of cash, gold, silver, pearls, gems, sphatik, rajapatt and the like including costly, worldly articles such as moonga jewel, red jewels, padmarag jewels realising that all these possessions are nonpermanent and worthy to be discarded. He withdrew his attachment for them completely and distributed his entire wealth among his family and members of his clan and then sat in a palanquin named Sudarshana. A gathering of human and divine beings and Asuras moved behind him. The conch-shell blowers, wheel movers, persons carrying gold plough on their neck, persons uttering ominous words, singers, maagadh, bhaat, chaaran and the like; person sitting on the shoulders of others, pole dancers, persons who earn their livelihood by exhibiting their art and skills followed him. They were honouring and appreciating him in beautiful words, loveable meaningful words, pleasant words, attractive words, words exhibiting welfare, words that cool down disturbances, द्वितीय वक्षस्कार (81) Second Chapter 955555555555555555555 , Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 words that help in getting rich, words that remove all ills, words that touch the very core of the heart and which are easily intelligible, words that remove the feelings of anger sorrow and the like and create feeling of happiness, words that provide solace to the ears and to the mind, words that are free from fault of repetition, words that have hundreds of interpretations, words that help in successfully completing hundreds of projects. They were singing “You are in ecstatic mood with the wealth of renunciation. You are Jagannand-you are going to provide ecstatic pleasure to the world, you are welfare seeker for the world. May you always be conqueror. May you always be successful in your mission. In view of your religious conduct, may you always remain courageous and fearless at the time of listurbances. May your courageously face any disturbance caused by untoward dangerous situation, ferocious beasts like lion, or any dreadful situation causing extremely fearful state. May your religious practice continue undisturbed." ३७. [३] तए णं उसभे अरहा कोसलिए णयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे २ एवं (हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिज्जमाणे अभिणंदिज्जमाणे, उन्नइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं के विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुबमाणे अभिथुबमाणे, कंति-सोहग्गगुणेहिं . ॐ पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, बहणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे, पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साइं समइच्छमाणे ॐ समइच्छमाणे) आउलबोलबहुलं णभं करते विणीआए रायहाणीए मझमझेणं णिग्गच्छइ। ___आसिअ-संमज्जि-असित्त-सुइक-पुप्फोवयारकलिअं सिद्धत्थवणविउलरायमगं करेमाणे हय-गयम रह-पहकरेण पाइक्कचडकरेण य मंदं २ उद्भूयरेणुयं करेमाणे २ जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे, जेणेव : असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीअं ठावेइ, ठावित्ता सीआओ * पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ, ओमुइत्ता सयमेव चाहिं अट्टाहिं लोअं करइ, करित्ता छठेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं, भोगाणं, राइनाणं, खत्तिआणं चाहिं सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए। ३७.[३] उन पौरजनों के शब्दों से आकाश गूंज रहा था। इस स्थिति में भगवान ऋषभ राजधानी के बीचोंबीच होते हुए निकले। सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार उनके दर्शन कर रहे थे, 卐 (सहस्रों नर-नारी अपने हृदय से उनका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे, सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ-हम इनकी सन्निधि में रह पायें इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मनोकामनाएँ लिए हुए थे। सहस्रों नरॐ नारी अपनी वाणी द्वारा उनका बार-बार अभिस्तवन-गुण-संकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी 卐 उनकी कांति-देह-दीप्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण-ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (82) Jambudveep Prajnapti Sutra a$ 5555 $ $555555555 555$ $$$ $5555555555 FFFFFFFF55555558 फ़555555555555555555555 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी अभिलाषा करते थे। भगवान ऋषभ सहस्रों नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला को अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर स्वीकार करते जाते थे, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल-क्षेम पूछते जाते थे। यों वे घरों की हजारों पंक्तियों को लाँघते हुए आगे बढ़े।) सिद्धार्थवन की ओर जाने वाले राजमार्ग पर जल का छिड़काव कराया हुआ था। वह झाड़बुहारकर स्वच्छ कराया हुआ था, सुरभित जल से सिक्त था, शुद्ध था, वह स्थान-स्थान पर पुष्पों से सजाया गया था, घोड़ों, हाथियों तथा रथों के समूह, पैदल चलने वाले सैनिकों के समूह के चलने से जमीन पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ रही थी। इस प्रकार चलते हुए वे जहाँ सिद्धार्थवन उद्यान था, जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था, वहाँ आये। आकर उस उत्तम वृक्ष के नीचे शिविका को रखवाया, उससे नीचे उतरे। नीचे उतरकर स्वयं अपने गहने उतारे। गहने उतारकर उन्होंने स्वयं चार मुष्टियों द्वारा अपने केशों का लोच किया। इस दिन निर्जल बेला किया। फिर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर अपने चार हजार उग्र-आरक्षक अधिकारी, भोग-विशेष रूप से समादत राजपुरुष या अपने मंत्रिमंडल के सदस्य, राजन्य-राजा द्वारा वयस्य रूप में-मित्र रूप में स्वीकृत विशिष्ट जन या राजा के परामर्शक मण्डल के सदस्य, क्षत्रिय-क्षत्रिय वंश के राजकर्मचारीवृन्द के साथ एक देवदूष्य-दिव्य वस्त्र ग्रहण कर मुण्डित होकर गृहस्थावस्था से साधुत्व में प्रव्रजित हो गये। 37. [3] The sky was resounding with the words of the people. In this condition Bhagavan Rishabh came out from the city capital. Thousands of men and women were looking at him repeatedly (Thousands of men and women were praising him. Thousands of men and women were expressing the desire that they may remain close to him and the like. Thousands of men and women were repeatedly singing in his praise. Thousands of men and women were desiring that they may always hav such a ruler as he was having shining face and many grand qualities. Bhagavan Rishabh was accepting their gratitude by raising his right hand upwards and was asking about their welfare. Thus, he moved ahead passing through thousands of rows of houses.) Water was already sprinkled on the highway leading to Siddharth forest. It was already cleaned of bushes. It was drenched with fragrant water. It was clean. It was decorated with flowers. The dust that had collected due to the movement of horses, elephants, chariots, infantry was slowly moving upwards. Thus going in this manner, they reached Siddharth garden and placed the palanquin under Ashok tree. Rishabh hen came down. He removed his ornaments himself. He then removed he hair of his head in four pluckings. He was on two day fast without en water at that time. Then in Uttarashadha constellation when it was with the moon, four thousand men who belonged to the status द्वितीय वक्षस्कार (83) Second Chapter 95555555555 5 555 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B55555555555555555555555555555555555555555555555558 因为55555555555555555555555555555555555 high security officials, royal officials, members of cabinet, persons accepted as friends by the king, members of the advisory council of the king, state employees from kshatriya families, adopted renunciation, simultaneously. Getting his head shaved and accepting a divine piece of cloth; Rishabh discarded getting household life and adopted monkhood. ३८.[१] उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरसाहिअंचीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए। जप्पभिई च णं उसभे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं उसभे अरहा ॐ कोसलिए णिच्चं वोसट्ठकाए, चिअत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पजंति, तं जहा-दिव्या वा, (माणुसा वा, तिरिक्खजोणिआ वा,) पडिलोमा वा, अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वित्तेण वा, (तयाए वा, छियाए वा, ॐ लयाए वा) कसेण वा काए आउट्टेज्जा; अणुलोमा वंदेज्ज वा (णमंसेज्ज वा, सक्कारेज्ज वा, सम्माणेज्ज वा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुवासेज्ज वा, ते सब्बे सम्मं सहइ, (खमइ, तितिक्खइ) अहिआसेइ। तए णं से भगवं समणे जाए, ईरिआसमिए, (भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए) पारिट्ठावणिआसमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, (वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, ॐ गुत्तिदिए) गुत्तबंभयारी, अकोहे (अमाणे, अमाए, अलोहे), संते, पसंते, उवसंते, परिणिब्बुडे, ॐ छिण्णसोए, निरुवलेवे, संखमिव निरंजणे, जच्चकणगं व जायसवे, आदरिसपडिभागे इव पागडभावे, कुम्मो 5 इव गुत्तिंदिए, पुखरपत्तमिव निरुवलेवे, गगणमिव, निरालंबणे, अणिले इव णिरालए, चंदो इव ॐ सोमदंसणे, सूरो इव तेअंसी, विहगो इव अपडिबद्धगामी, सागरो विव गंभीरे, मंदरो इव अकंपे, पुढवी के विव सव्वफासविसहे, जीवो विव अप्पडिहयगइत्ति। । पत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे। से पडिबंधे चउबिहे भवइ, तं जहा-दव्यओ १, खित्तओ २, कालओ ३, भावओ ४। (१) दव्वओ इह खलु माया मे, पिया मे, भाया मे, भगिणी मे, संगंथसंथुआ मे, हिरणं मे, सुवण्णं ॐ मे, उवगरणं मे; अहवा समासओ सच्चित्ते वा, अचित्ते वा, मीसए वा, दबजाए; सेवं तस्स ण भवइ। म (२) खित्तओ-गामे वा, णगरे वा, अरण्णे वा, खेत्ते वा, खले वा, गेहे वा, अंगणे वा, एवं तस्स ण ॐ भवइ। (३) कालओ-थोवे वा, लवे वा, मुहुत्ते वा, अहोरत्ते वा, पक्खे वा, मासे वा, उऊए वा, अयणे वा, के संवच्छरे वा, अन्नयरे वा दीहकालपडिबंधे एवं तस्स ण भवइ। (४) भावओ-कोहे वा, (माणे वा, माया वा) लोहे वा, भये वा, हासे वा एवं तस्स ण भवइ। से णं भगवं वासावासवज्जं हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए, णगरे पंचराइए, ववगयहाससोग-अरइहै भय-परित्तासे, णिम्ममे, णिरहंकारे, लहुभूए, अगंथे, वासीतच्छणे अदुढे, चंदणाणुलेवणे अरत्ते, लेटुंसि # कंचणंमि अ समे, इह लोए परलोए अ अपडिबद्धे, जीवियमरणे निरवकंखे, संसारपारगामी, ॐ कम्मसंगणिग्यायणट्ठाए अन्भुट्टिए विहरइ। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 5555555555555555555555555555555555555555555558 (84) 因%%%%%步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. [ १ ] कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे । तत्पश्चात् निर्वस्त्र | जब से वे गृहस्थ से श्रमण-धर्म में प्रव्रजित हुए, वे कायिक परिकर्म, संस्कार, श्रृंगार, सज्जा आदि रहित, दैहिक ममता से अतीत - परिषहों को उपेक्षा व तितिक्षांभावपूर्वक सहने वाले बने। देवकृत, (मनुष्यकृत, तिर्यक् - पशुपक्षिकृत) जो भी प्रतिकूल - अनुकूल उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक् - निर्भीक भाव से सहते, प्रतिकूल परिषह - जैसे कोई बेंत से, (वृक्ष की छाल से बँटी हुई रस्सी से लोहे की चिकनी साँकल से- चाबुक से, लता दंड से, चमड़े के कोड़े से उन्हें पीटता अथवा अनुकूल परिषह-जैसे कोई उन्हें वन्दन करता, (नमस्कार करता, उनका सत्कार करता, यह समझकर कि वे कल्याणमय, मंगलमय, दिव्यतामय एवं ज्ञानमय हैं) उनकी पर्युपासना करता तो वे यह सब अनासक्त भाव से सहते, 1. क्षमाशील रहते, अविचल रहते । भगवान ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन चलन आदि क्रिया, (भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि उठाना, इधर-उधर रखना आदि) तथा मल-मूत्र, खँखार, नाक आदि का बैल त्यागना-इन पाँच समितियों से युक्त थे। वे मनसमित, वाक्समित तथा कायसमित थे । वे मनोगुप्त, (बचोगुप्त, कायगुप्त- मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का संयम करने वाले; गुप्त-शब्द, रूप, रस, ध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध विषयों में रागरहित; गुप्तेन्द्रिय- इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित) गुप्त ब्रह्मचारी - नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का परिपालन करने वाले, क्रोधरहित मानरहित, मायारहित, लोभरहित), शान्त - प्रशान्त, परम शान्तिमय, छिन्नस्रोत- लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप - कर्मबन्धन के लेप से रहित, काँसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंखवत् निरंजन- शंख जैसे रंग से अप्रभावित, उसी प्रकार क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, राग आदि की रंजकता से शून्य, उत्तम जाति शुद्ध स्वर्ण के समान प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थित, निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, अर्पणगत प्रतिबिम्ब की ज्यों प्रकट भाव, प्रवंचना, छलना व कपटरहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींचकर निवृत्ति भाव में स्थित रखने वाले, कमल - पत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब - वायु की तरह गृहरहित, चन्द्र के सदृश सौम्यदर्शन - देखने में सौम्यतामय, सूर्य के सदृश तेजस्वी - दैहिक एवं आत्मिक तेज से युक्त, अप्रतिबद्धगामी - उन्मुक्त विहरणशील, समुद्र के समान गम्भीर, मंदराचल की ज्यों अकंप- अविचल, सुस्थिर, पृथ्वी के समान सभी शीत-उष्ण अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में समर्थ, जीव के समान अप्रतिहत-प्रतिघात या निरोधरहित गति से युक्त थे। पक्षी की ज्यों उन भगवान ऋषभ के किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध - रुकावट या आसक्ति का हेतु नहीं था । • प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है - (१) द्रव्य की अपेक्षा से, (२) क्षेत्र की अपेक्षा से, (३) काल की अपेक्षा से, तथा (४) भाव की अपेक्षा से । (१) द्रव्य की अपेक्षा से, जैसे ये मेरे माता, पिता, भाई, बहिन, (पत्नी, पुत्र, पुत्र- वधू, नाती, पोता, पुत्री, सखा, स्वजन ) सग्रन्थ - अपने पारिवारिक के सम्बन्धी, जैसे- चिर-परिचित जन हैं, ये मेरे तीय वक्षस्कार Second Chapter (85) ******** फ्र 卐 फफफफफफफफफफफ 5 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555;)))))))55555555555555558 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FF 55F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 म चाँदी, सोना, उपकरण-अन्य सामान हैं, अथवा अन्य प्रकार से संक्षेप में जैसे ये मेरे सचित्त-द्विपद-दो पैरों वाले प्राणी, अचित्त-स्वर्ण, चाँदी आदि निर्जीव पदार्थ, मिश्र-स्वर्णाभरण सहित द्विपद आदि हैंॐ इस प्रकार इनमें भगवान का प्रतिबन्ध-ममत्व भाव नहीं था। वे इनमें जरा भी बद्ध या आसक्त नहीं थे। + (२) क्षेत्र की अपेक्षा से ग्राम, नगर, अरण्य, खेत, खल-धान्य रखने, पकाने आदि का स्थान या ॐ खलिहान, घर, आँगन इत्यादि में उनका प्रतिबन्ध-आसक्ति भाव नहीं था। (३) काल की अपेक्षा से स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर या और ॐ भी दीर्घकाल सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध उन्हें नहीं था। (४) भाव की अपेक्षा से क्रोध (मान, माया), लोभ, भय, हास्य से उनका कोई लगाव नहीं था। भगवान ऋषभ-चातुर्मास के अतिरिक्त-शीतकाल के महीनों तथा ग्रीष्मकाल के महीनों के अन्तर्गत * गाँव में एक रात, नगर में पाँच रात प्रवास करते हए हास्य. शोक. रति, भय तथा परित्रास-आकस्मिक ॐ भय से वर्जित, ममतारहित, अहंकाररहित, लघुभूत-सतत ऊर्ध्वगामिता के प्रयत्न के कारण हल्के, अग्रन्थ-बाह्य तथा आन्तरिक ग्रन्थि से रहित, बसूले द्वारा देह की चमड़ी छीले जाने पर भी वैसा करने वाले के प्रति द्वेषरहित एवं किसी के द्वारा चन्दन का लेप किये जाने पर भी उस ओर अनुराग या + आसक्ति से रहित, पाषाण और स्वर्ण में एक समान भावयुक्त, इस लोक में और परलोक में अप्रतिबद्ध-इस लोक के और देवभव के सुख में पिपासारहित जीवन और मरण की आकांक्षा से मुक्त, ॐ संसार को पार करने में समुद्यत, जीव-प्रदेशों के साथ चले आ रहे कर्म-सम्बन्ध को विच्छिन्न कर फ़ डालने में अभ्युत्थित-सप्रयत्न रहते हुए विहरणशील थे। 38. [1] Kaushalik Arhat Rishabh remained in clothed condition for more than a year. Thereafter, he became clotheless. Since the very day he adopted monkhood, he discarded all decorations of the physical body, attachment to the body and patiently endured all troubles and disturbances caused by men, sub-humans or celestial beings whether they were to lure him or to cause pain to him. He remained fearless. The sufferings faced were like beating by a rope made of skin of a tree, of a thin rod, or leather rope or cane thrashing. The other disturbances are when one bowed to him (honoured him considering that honour to him causes welfare good omen and helps in gaining knowledge). In case any one thus served him, he patiently endured it with a feeling of complete non-attachment and never felt elated or disturbed. Bhagavan Rishabh was such a Shraman of highest order that he always followed the code of five Samitis namely carefulness in movement, in talking, in movement in search of food, in seeking alms, in picking up a pot, in placing a pot at a particular place, in discarding excreta, in blowing of the nose and the like. He was vigilant in mind, ))555555555555555)))) )))))))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (86) Jambudveep Prajnapti Sutra फ़ %%%%%%%%% %%%%%% %%%% %% %%%% %%%% Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4545454545454545454545454 455 456 457 455 456 454 455 456 45 44 45 46 45 455 41 41 455 $ $$95 14 4 4 454545454545454545454545 1 speech and in physical activities. He had controlled his mind and his activities. He was observing silence. He was non-attached in all activities of senses namely words, appearance, taste, smell, touch and the like. He was never curious in engaging his sense organs in their respective activities. He was meticulously following the vow of chastity. He was 1 devoid of anger, ego, deceit and greed. He was totally equanimous. 41 He was never a follower of worldly routine or tradition. He was without the bondage of karma. Just as water does not stick to a pot of bronze, he was not having any attachment for any one. Just as a conch-shell remains unaffected by colour, he was unaffected in any situation 5 concerning anger, jealousy, attachment, hatred, love, praise or 41 condemnation. He had free from all allurements of attachment. He was și stabilised in the conduct of the highest order like pure gold. He was following faultless conduct. He was free from any deceit like shadow in a mirror. He had controlled his senses like a tortoise. He was spotless like lotus leaf. He was without any support like the sky. He was without any 4 house like the wind. He was worth seeing like the moon. He was bright \ like the sun. His brightness was both internal and external. His movement was without any restriction like that of a bird. He was within his limits like the sea. He was stable like a mountain. He was enduring L5 all the situations-heat or cold-like the earth patiently with 4 equanimity. His movement was without any speed-breaker like that of a $ living being (Jiva). There was no cause of disturbance or attachment to Bhagavan Rishabh. The disturbances or bondage is stated to be of four types namely of-(1) Privative (dravya) aspect, (2) Place aspect, (3) Time Vi aspect, (4) Attitude (Bhaava) aspect. (1) The bondage of privative aspect is as follows-Such a person is my 4 father, mother, brother, sister, (wife, son, daughter-in-law, grandson, 15 daughter, friend, relative). Such a person is the relative of my relative. 4 These persons are known to me since long. Here is my silver, gold, other 41 articles. Two legged persons are sachitt; gold, silver and the like are non living (ajeev) substances while persons wearing gold ornament are mixed (mishra), Bhagavan Rishabh did not have any attachment with any one of them. He was not even slightly attached to them. (2) The bondage from place aspect is attachment to the village, town, forest, field, place for storage of foodgrains or for cooking them, courtyard and the like. He had no attachment in any such thing. द्वितीय वक्षस्कार (87) Second Chapter 94445455 456 457 455 456 457 455 456 457 41 41 41 41 41 41414141414141414141414141414141414 546 55 5455 456 457 41 41 41 451 455 456 457 4595 545 446 45 44 45 46 456 457 451 451 451 454 455 456 457 455 456 451 451 41 41 455 456 457 455 456 41 $ $$$ $ $ $ $ $5555听听FFFF Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355555555555555555555555555555555558 156 (3) The units of time are stok, lav, muhurt (48 minutes period), full 45 41 day of 24 hours, fortnight, month, two months (ritu), half a year, (ayan), 41 year. He had no restriction from time point of view even for a period more than the period above-mentioned. (4) He had no inclination to be in a fit of passion such as anger, (ego, fi deceit) and greed and thus, he was not in bondage from attitude aspect. Except the period meant for Chaturamas, Bhagavan Rishabh was 4 spending only one night in a village and five nights in a town during the i months of summer and those of winter respectively. He was free from any inclination for laughing, moaning, engaging in worldly enjoyment, bisking in fear, sudden sensation of fear. He was without any attachment or ego. He was light hearted as he was continuously trying to lift his soul upwards. He was without any internal and external bondage. He had no hatred even for one who might remove his skin with a sharp weapon and had no attachment for one who may apply sandal paste on his body. He was treating gold and a stone as of same category in his thoughts. He was not in any bondage or attachment with this world or the next world. He was not having any pleasure in this mundane world or in the lifespan as a celestial being. He was not even desiring early death. He was always engaged in crossing the mundane world of life and death. He was always trying to shed or destroy the karma attached to the space-points of his soul in all of his activities. केवलज्ञान-प्राप्ति ATTAINMENT OF OMNISCIENCE ३८. [ २ ] तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइक्कंते समाणे ॐ पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उज्जाणंसि णिग्गोहवरपायवस्स अहे झाणंतरिआए वट्टमाणस्स . फग्गुणबहुलस्स इक्कारसीए पुवण्हकालसमयंसि अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासाढाणक्खत्तेणं ॐ जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं नाणेणं, (दसणेणं) चरित्तेणं, अणुत्तरेणं तवेणं बलेणं वीरिएणं आलएणं, . विहारेणं, भावणाए, खंतीए, गुत्तीए, मुत्तीए, तुट्ठीए, अज्जवेणं, मद्दवेणं, लाघवेणं, सुचरिअ-सोवचिअ फलनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, णिब्बाधाए, णिरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे 5 केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे; जिणे जाये केवली, सव्वत्रू, सम्बदरिसी। सणेरइअ-तिरिअनरामरस्स लोगस्स पज्जवे जाणइ पासइ, तं जहा-आगई, गई, ठिइं, उववायं, भुत्तं, कडं, पडिसेविअं, आवीकम्म, म रहोकम्मं तं कालं मण-वय-काये जोगे एवमादी जीवाण वि सव्वभावे, अजीवाण विसवभावे, मोक्खमग्गस्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे, एस खलु मोक्खमग्गे मम अण्णेसिं च जीवाणं हिय卐 सुहणिस्सेयसकरे, सब्बदुक्खविमोक्खणे, परमसुहसमाणणे भविस्सइ। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (88) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **********************************SI AFF LE LE LE LE LE LE ३८. [ २ ] इस प्रकार विहार करते हुए एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर पुरिमताल नगर बाहर शकटमुख नामक उद्यान में एक वट वृक्ष के नीचे, ध्यानान्तरिका - ( आरब्ध ध्यान की समाप्ति तथा अपूर्व ध्यान के अनारंभ की स्थिति में अर्थात् शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क - सविचार तथा एकत्ववितर्क - अविचार- इन दो चरणों के स्वायत्त कर लेने एवं सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपति और व्युच्छिन्नक्रिय - अनिवर्ति- इन दो चरणों की अप्रतिपन्न अवस्था में) फाल्गुण मास कृष्ण पक्ष, एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल तेले की तपस्या की स्थिति में चन्द्र के संयोग से युक्त उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सर्वोत्तम तप, बल, वीर्य, निर्दोष स्थान में आवास, विहार, भावना - महाव्रत-सम्बद्ध उदात्त भावनाएँ, शान्ति - क्रोधनिग्रह, क्षमाशीलता, गुप्ति- मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन, उनका विवेकपूर्ण उपयोग, मुक्ति - कामनाओं से छूटते हुए मुक्तता की ओर प्रयाण - समुद्यतता, तुष्टि - आत्मपरितोष, आर्जव - सरलता, मार्दव-मृदुता, लाघव- आत्मलीनता के कारण सभी प्रकार से, निर्भरता - हल्कापन, स्फूर्तिशीलता, सच्चारित्र्य के निर्वाण - मार्ग रूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनन्त, अविनाशी, अनुत्तर, निर्व्याघात - व्याघातरहित, सर्वथा अप्रतिहत, निरावरण- आवरणरहित, कृत्स्न- सम्पूर्ण सकलार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण - अपनी समग्र किरणों से सुशोभित पूर्ण चन्द्रमा की ज्यों सर्वांशतः परिपूर्ण, श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन, उत्पन्न हुए। वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए। वे नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवलोक के पर्यायों के ज्ञाता हो गये । आगति - नैरयिक गति तथा देवगति से च्यवन कर मनुष्य या तिर्यंचगति में आगमन गति - मनुष्य या तिर्यंचगति से मरकर देवगति या नरकगति में गमन, काय-स्थिति, भव- स्थिति, मुक्त, कृत, प्रतिसेवित, प्रकट कर्म, एकान्त में कृत गुप्त कर्म, तब उद्भूत मानसिक, वाचिक व कायिक योग आदि के जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के, मोक्षमार्ग के प्रति विशुद्ध भाव - यह मोक्षमार्ग मेरे लिए एवं दूसरे जीवों के लिए हितकर, सुखकर तथा निःश्रेयस्कर है, सब दुःखों से छुड़ाने वाला एवं परम आनन्दयुक्त होगा - इन ५ सबके ज्ञाता, द्रष्टा हो गये । द्वितीय वक्षस्कार 38. [2] When a period of one thousand years passed in wandering in y this fashion, he was once engaged in deep meditation under a banyan tree in Shakatamukh garden outside Purimatal town. He had practiced two stages of Shukla meditation namely-absorption in meditation of the self but unconsciously allowing its different attributes to replace one another (Prithakatva vitarka savichara) and absorption in one aspect of the self y without changing the particular aspect concentrated upon (ekatva vitarka vichar) and was still in a state when the other two stages of concentration still remained to be practiced namely concentration on the very subtle vibratory movements in the soul even when it is deeply ५ absorbed in soul (Sukshma kriya pratipati) and total absorption of the y i soul in itself, steady and undisturbably fixed without any motion or y vibration whatsoever (vyuchhinna kriya anivritti). It was then the forenoon of the eleventh day of dark fortnight of Phalgun month and he y pure Second Chapter ****** ! (89) ॥ गगगगगगगगगगगगगग Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41414141414 4444444444444444444444444444 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 457 454 45 46 45 44 455 456 457 4455 456 455 456 457 455 456 457 46 45 44 45 46 45 44 455 456 457 444 445 446 44 45 46 45 44 45 46 47 46 45 446 447 44 45 was observing three day complete fast. The Uttarashadha constellation was in company of the moon. He was in the state of excellent austerity, 4 strength and courage. The place and movement was faultless. He was in a state of high class meditation in respect of practice of five major vows. He had controlled the instinct of anger completely and was in a state of compassion, and that of preservation of mind, speech and physical activities. He was adopting full care in the use of his senses. He was moving ahead towards full freedom from wordly desires fully prepared for the same. Due to self-restraint, straight-forwardness, humility, lightness due to self-abosrption, chastity, assimilating the unique fruit of treading y on the path of liberation, he was speedily crossing the stage of spiritual elevation. Then he was blessed with infinite, permanent, unique, free from impediments, completely transparent, perfect knowledge and perfect vision in full grandeur like full moon spreading its rays in all the direction. He then became a Jina (perfect controller of all senses), omniscient and one with infinite conation. He became the knower of all the modes of hellish beings, human beings, sub-human beings and $i celestial beings. The incarnation of living beings from hellish and celestial state of existence to human and sub-human state and of living beings from human and sub-human state to hellish and celestial state, the duration of life-span in a state, the duration of total repeated life-span in the same state of all living beings became known to him. The activities done in a transparent manner, the secret actions committed at a lonely place, the mental, vocal and active attitude, the activities done in the past, all the thought-activities of living beings, all such thought-activities that such and such path of liberation is helpful to me and to others and is going to provide happiness and welfare and help in gaining freedom from $1 miseries and shall ultimately result in estate unique happiness—all these became known to him and he could see all such things in all modes. 4i na HTGT WEALTH OF ORGANISATION (SANGH) ३८.[३] तए णं से भगवं समणाणं निग्गंथाण य णिग्गंथीण य पंच महव्वयाई सभावणगाई, छच्च 卐 जीवणिकाए धम्मं देसमाणे विहरइ; तं जहा-पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्वयाई सभावणगाई भाणिअव्वाइं इति। उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासी गणा गणहरा होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स उसभसेणपामोक्खाओ चुलसीइं समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ + कोसलिअस्स बंभीसुंदरीपामोक्खाओ तिण्णि अज्जिआसयसाहस्सीओ उक्कोसिआ अज्जिआसंपया होत्था, . जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (90) Jambudveep Prajnapti Sutra 455 456 457 46 45 44 45 46 47 46 45 44 455 456 457 458 459545454 455 456 457 0 4 4 55 456 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 4554 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 95 95 95 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5955 5 5 55 55555555955555559555595552 卐 5 卐 उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स सेज्जंसपामोक्खाओ तिण्णि समणोवासगसयसाहस्सीओ पंच य फ्र साहस्सीओ उक्कोसिआ समणोदासग-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स சு 5 सुभद्दापामोक्खाओ पंच समणोवासिआसयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा उक्कोसिआ समणोवासिआ - 5 संपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स अजिणाणं जिणसंकासाणं, सव्वक्खरसन्निवाईणं, जिणो 5 विव अवितहं वागरमाणाणं चत्तारि चउद्दसपुव्वीसहस्सा अद्धट्ठमा य सया उक्कोसिआ चउदसपुबी - संपया 5 होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स णव ओहिणाणिसहस्सा उक्कोसिआ ओहिणाणि - संपया 5 होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स वीसं जिणंसहस्सा, वीसं वेउव्विअसहस्सा छच्च सया 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 5 छच्चसया पण्णासा, बारस वाईसहस्सा छच्च सया पण्णासा, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स फ्र गइकल्लाणाणं, ठिइकल्लाणाणं, आगमेसिभद्दाणं, बावीसं अणुत्तरोववाइआणं सहस्सा णव य सया 5 उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइय-संपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जिआसहस्सा सिद्धा, सट्ठि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा । 卐 उक्कोसिआ जिण - संपया वेउब्विय-संपया य होत्था, अरहओ कोसलिअस्स बारस विउलमइसहस्सा फ अरहओ णं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो - अप्पेगइआ मासपरिआया, जहा उववाइए सव्वओ अणगारवण्णओ, जाव उद्धंजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । कौशलिक अर्हत् ऋषभ के चौरासी गण, चौरासी गणधर, ऋषभसेन आदि चौरासी हजार श्रमण, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि तीन लाख श्रमणियाँ श्रेयांस आदि तीन लाख पाँच हजार श्रमणोपासक, सुभद्रा 5 आदि पाँच लाख चौवन हजार श्रमणोपाासिकाएँ, जिन नहीं पर जिन सदृश सर्वाक्षर-संयोग- वेत्ता 15 जिनवत् यथार्थ - सत्य-अर्थ-निरूपक चार हजार सात सौ पचास चतुर्दश - पूर्वधर श्रुतकेवली, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार जिन सर्वज्ञ, बीस हजार छह सौ वैक्रियलब्धिधर, बारह हजार छह सौ पचास 15 वादी तथा गति - कल्याणक - देवगति में दिव्य सातोदय रूप कल्याणयुक्त, स्थितिकल्याणक - देवायुरूप 卐 अरहओ णं उसभस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तं जहा - जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमी य जुगतकरभूमी जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई, परियाआयंतकरभूमी अंतोमुहुत्तपरिआए अंतमकासी । ३८. [३] भगवान ऋषभ निर्ग्रन्थों-निर्ग्रन्थियों, श्रमण-श्रमणियों को पाँच महाव्रतों, उनकी भावनाओं तथा जीव - निकायों का उपदेश देते हुए विचरण करते । (पाँच महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध भावनाध्ययन में देखें ।) 5 में उत्पन्न होने वाले बाईस हजार नौ सौ मुनि थे । . स्थितिगत सुख - स्वामित्वयुक्त, आगमिष्यद्भद्र - आगामी भव में सिद्धत्व प्राप्त करने वाले अनुत्तर विमानों कौशलिक अर्हत् ऋषभ के बीस हजार श्रमणों तथा चालीस हजार श्रमणियों ने सिद्धत्व प्राप्त फ्र किया-यों उनके साठ हजार अंतेवासी सिद्ध हुए । द्वितीय वक्षस्कार (91) Second Chapter फ्र Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 5 5 फ़फ़ भगवान ऋषभ के अनेक अंतेवासी अनगार थे- उनकी बड़ी संख्या थी। उनमें कई एक मास यावत् 5 कोष्ठ में कोठे में प्रविष्ट थे - ध्यानरत थे। (जैसे कोठे में रखा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं, खिंडता नहीं, उसी प्रकार ध्यानस्थता के कारण उनकी इन्द्रियाँ विषयों में प्रसृत नहीं होती थीं।) इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से आत्मा को भावित - अनुप्राणित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा में गतिशील थे। फ्र फ्र अनेक वर्ष के दीक्षा-पर्याय के थे। (अनगारों का वर्णन औपपातिक सूत्र से जानें ) उनमें अनेक अनगार फ्र अपने दोनों घुटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-यों एक विशेष आसन में अवस्थित हो ध्यान रूप 38. [3] Bhagavan Rishabh was moving about delivering lessons to monks (nirgranths) and nuns about five major vows, attitudes relating to those vows and different stages of living beings. [The attitudes about five major vows may be seen in the chapter captioned Bhavana (attitude) in 5 second Part (Shrutskandh) of Acharanga Sutra . ] 卐 भगवान ऋषभ की दो प्रकार की अंतकर भूमि थी - युगान्तकर भूमि तथा पर्यायान्तकर भूमि । युगान्तरकर भूमि गुरु-शिष्य परम्परा असंख्यात - पुरुष - परम्परा से चलती रही तथा पर्यायान्तकर भूमि अन्तर्मुहूर्त थी । (क्योंकि भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् मरुदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी ।) Kaushalik Arhat Rishabh had 84 ganas (groups of monks); 84 फ्र 5 ganadhar; 84,000 monks namely Rishabhasen and others; 3 lakh nuns 5 namely Brahmi, Sundari and others; 3,05,000 householder male followers (Shramanopasak) namely Shreyans and others; 5,54,000 female householder followers (Shramanopasikas); 4,750 perfect scholars of scriptures (Chaturdash-purvadhar Shrut kevali) who were not omniscient but knew every word of the scriptures like an omniscient; 9,000 monks 5 having visual knowledge (avadhi jnan); 20,000 omniscients; 20,000 5 monks who possessed the attribute of forming fluid body (vaikriya labdhi) and 12,650 monks expert in spiritual dialogue in his order. Further he had in his order 22,900 monks who had attained such a perfection that they were going to re-incarnate in divine state where all the divine pleasures, duration and divine life-span is available to them in the high class (anuttar) heaven (vimaan) and thereafter in the next life-span as human beings they were going to attain liberation from the mundane world. 20,000 monks and 40,000 nuns in the order of Arhat Rishabh attained salvation. Thus in all 60,000 of his disciples attained liberation from this mundane world. Bhagavan Rishabh had many monks and nuns as his disciples. Their number was very large. They had the period of monkhood varying from जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (92) 1 95 95 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 555595555555 5 5 5 5 5 5 55 5 55 5 59595959595952 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 卐 卐 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 5 5955 卐 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 फफफफफफफफफफफफ़556 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 卐 one month up to many years to their credit detailed description of them can be seen in Aupapatik Sutra). Many monks in his order were practicing meditation in specific posture such as keeping both the knees raised, and the head a little downwards. (Just as the foodgrain stored in a store home does not scatter hither and thither, their sense organs were not engaged in their respective activities due to the state of meditation.) Thus, those monks were passing their period of monkhood in selfrestraint and austerities so as to brighten their soul. 卐 There were two classes of act of ending all miseries of mundane world 卐 and attaining liberation namely Yugantakar Bhoomi and Paryayantakar Bhoomi. Yugantakar Bhoomi continued as teacher-disciple tradition was followed by innumerable number of men while Paryayantakar Bhoomi lasted for less than one muhurt. (because Marudevi attained omniscience within a period of less than a muhurt after Rishabh attained omniscient.) ३९. भगवान ऋषभ के जीवनगत घटनाक्रम पाँच उत्तराषाढ़ा नक्षत्र तथा एक अभिजित नक्षत्र से सम्बद्ध हैं । चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में उनका च्यवन - सर्वार्थसिद्ध-नामक महाविमान से निर्गमन हुआ । च्युत - निर्गत होकर माता मरुदेवी की कोख में अवतरण हुआ । उसी उत्तराषाढ़ा में ही जन्म हुआ । उसी में वे मुण्डित होकर अनगार बने- उसी में उन्हें अनन्त, (अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन) समुत्पन्न हुआ। भगवान अभिजित नक्षत्र में सिद्ध, मुक्त हुए। द्वितीय वक्षस्कार 卐 (93) 卐 Second Chapter ३९. उसमे णं अरहा पंचउत्तरासाढे अभीइछट्टे होत्था, तं जहा - उत्तरासाढाहिं चुए, चइत्ता गब्भं वक्कंते, उत्तरासाढाहिं जाए, उत्तरासाढाहिं रायाभिसेयं पत्ते, उत्तरासाढाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पव्वइए, उत्तरासादाहिं अनंते (अणुत्तरे निव्वाघाए, णिरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे 5 केवलवरनाणदंसणे) समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिब्बुए । 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 595 595959555 5 5 5 55 55 55 2 卐 卐 39. Five important events in the life of Bhagavan Rishabh occurred in Uttarashadha constellation and one in Abhijit constellation. His 卐 mundane soul descended from twenty sixth heaven (Sarvarth Siddha Vimaan) and entered the womb of Marudevi in Uttarashadha constellation. He took birth also in Uttarashadha constellation, 卐 卐 renounced the world and adopted monkhood in Uttarashadha constellation, and attained omniscience (perfect knowledge and perfect conation-unique unclouded and complete in all respects) in 卐 Uttarashadha constellation (nakshatra). 卐 He attained liberation (Siddhahood) in Abhijit constellation. 卐 卐 卐 卐 2555555 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 卐 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555 ॐ परिनिर्वाण SALVATION (PARI-NIRAVAN) ४०. उसभे णं अरहा कोसलिए वज-रिसह-नाराय-संघयणे, समचउरंस-संठाण-संठिए, # पंचधणुसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं होता। ___उसभे णं अरहा वीसं पुबसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता, तेवढि पुब्बसयसहस्साई + महारज्जवासमझे वसित्ता, तेसीइं पुबसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पबइए। उसभे णं अरहा एगं वाससहस्सं छउमत्थपरिआयं पाउणित्ता, एगं पुबसयसहस्सं ॐ वाससहस्सूणं केवलिपरिआयं पाउणित्ता, एगं पुबसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरिआयं पाउणित्ता, ॐ चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं सवाउअं पालइत्ता जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले, तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे अट्ठावय-सेलसिहरंसि चोइसमेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलिअंकणिसण्णे पुवण्हकालसमयंसि अभीइणा णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं सुसमदूसमाए समाए एगूणणवउईहिं पक्खेहिं सेसेहिं कालगए वीइक्कते, समुज्जाए छिण्ण-जाइ-जरामरण-बंधणे, सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, अंतगडे, परिणिबुडे सब्बदुक्खप्पहीणे। ४०. कौशलिक भगवान ऋषभ वज्र-ऋषभ-नाराच संहननयुक्त, सम-चौरस-संस्थान-संस्थित है तथा पाँच सौ धनुष दैहिक ऊँचाई युक्त थे। ॐ वे बीस लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे। यों तिरासी 5 लाख पूर्व गृहवास में रहे। तत्पश्चात् मुण्डित होकर अगार-वास से अनगार-धर्म में प्रव्रजित हुए। वे एक हजार वर्ष छद्मस्थ-पर्याय में रहे। एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वे केवलि-पर्याय में रहे। इस ॐ प्रकार परिपूर्ण एक लाख पूर्व तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर-चौरासी लाख पूर्व का परिपूर्ण ॐ + आयुष्य भोगकर हेमन्त के तीसरे मास में, पाँचवें पक्ष में-माघ मास कृष्ण पक्ष में तेरस के दिन दस 5 हजार साधुओं से संपरिवृत्त अष्टापद पर्वत के शिखर पर छह दिनों के निर्जल उपवास में पूर्वाह्न-काल में 卐 पर्यंकासन में अवस्थित, चन्द्रयोगयुक्त अभिजित नक्षत्र में, जब सुषम-दुषमा आरक के नवासी पक्ष-तीन 9 वर्ष साढ़े आठ मास बाकी थे, वे जन्म, जरा एवं मृत्यु के बन्धन छिन्नकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अंतकृत् परिनिर्वृत्त सर्व-दुःखरहित हुए। ____40. Kaushalik Bhagavan Rishabh had extremely strong bone- 5 structure (Vajra Rishabh Narach Sanhanan). His figure was properly proportioned and his height was 500 dhanush. He remained as non-ruler, in a state of childlike freedom (kumar state) for twenty lakh poorva, and as a king for 63 lakh poorva. Thus, he spent a period of 83 lakh poorva as householder. Thereafter, he shaved his head, discarded householder state and adopted monkhood. He spent 1,000 years of monkhood in practices as a lay monk and for a period of one lakh poorva reduced by one thousand years in the state of omniscience. Thus his total period of monkhood was one lakh poorva. 555555555555555555555) 55555555555555555555555555555555555555555555555558 $$ $$ 听听听听听听听听听听听$ $ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (94) Jambudveep Prajnapti Sutra 455555555555555555555555555 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555 After passing the total period of 84 lakh poorva of his life-span he, in the third month of winter in the fifth fortnight on the thirteenth day of dark fortnight of month of Magh, he went to Ashtapad mountain with ten thousand monks. He was then on six day fast sitting in cross-legged posture. It was then Abhijit constellation with the moon and only 79 fortnights of the first aeon Sukhma-Sukhma were remaining. In other words after three years and eight and a half months the said aeon was going to end. At that time he ended all the miseries of the mundane world, snapped completely all the bondage of birth, old age and death and attained salvation. He was liberated from the mundane world. देवकृत महामहिमा : महोत्सव FESTIVAL ARRANGED BY DEVAS ४१. जं समयं च णं उसभे अरहा कोसलिए कालगए वीइक्कंते, समुज्जाए छिण्णजाइ-जरामरण - बंधणे, सिद्धे, बुद्धे, (मुत्ते, अंतंगडे, परिणिब्बुडे) सब्व - दुक्खप्पहीणे, तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरणो आसणे चलिए । तए णं से सक्के देविंदे, देवराया, आसणं चलिअं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, परंजित्ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी - परिणिब्बुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसके अरहा कोसलिए, तं जीअमेअं तीअ-पच्चुप्पण्ण-मणागयाणं सक्काणं देविंदाणं, देवराईणं तित्थगराणं परिनिव्वाणमहिमं करेत्तए । तं गच्छामि णं अहंपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाण - महिमं करेमित्ति कट्टु वंदइ, णमंसइ; वंदित्ता, णमंसित्ता चउरासीईए सामाणिअ - साहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं, चउहिं लोगपालेहिं, (अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणीएहिं ) चउहिं चउरासीईहिं आयरक्खदेव - साहस्सीहिं, अण्णेहिं अ बहूहिं सोहम्म- कप्पवासी मणिएहिं देवेहिं, देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे ताए उक्किट्ठाए, तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमज्झेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्ण - णयणे तित्थयर - सरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता णच्चासणे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे ( णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे) पज्जुवासइ । ४१. जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त, अन्तकृत् परिनिर्वृत्त) तथा सर्वदुःखरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ। देवेन्द्र, देवराज शक्र ने अपना आसन चलित देखा, अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर भगवान तीर्थंकर को देखा। देखकर वह यों बोला- 'जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अतः अतीत, वर्तमान, अनागत- भावी देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत व्यवहार है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाण - महोत्सव मनाएँ । इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण - महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ ।” यों सोचकर देवेन्द्र ने वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार कर वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस हजार त्रायस्त्रिंशक देवों, परिवारोपेत अपनी आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों द्वितीय वक्षस्कार (95) சுமித்திததி****தமி பூமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதிமிதிததமிதிதித்ததி Second Chapter Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 555 5555 55552 फ्र 卐 फ दिशाओं के चौरासी - चौरासी हजार आत्म-रक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं फ देवियों से संपरिवृत, उत्कृष्ट - आकाश गति में सर्वोत्तम, दिव्य गति से चलता हुआ तिर्यक्-लोकवर्ती 5 असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत और जहाँ भगवान तीर्थंकर का शरीर था, वहाँ आया। उसने उदास, आनन्दरहित, अश्रुपूर्णनयन- आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के 5 शरीर को तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिणा की। वैसा कर, न अधिक निकट, न अधिक दूर स्थित हो (नमस्कार किया, विनयपूर्वक हाथ जोड़े) पर्युपासना की । 卐 5 卐 41. The throne of Shakrendra, the ruling god of first heaven trembled 5 when Kaushalik Arhat Rishabh, breaking the bondage of brith, old age and death in this mundane world attained liberation (total freedom from the cycles of birth and death). When Indra saw his throne trembling, he applied his Avadhi Jnana and said, "In Bharat continent of Jambu island, Kaushalik Arhat Rishabh has attained liberation. It has been the tradition of Indras of the first heaven the past, present and in future that they celebrate this occasion as a grand function. So, I should also there for this purpose so as to arrange the desired function." Thereafer, Devendra bowed and in the company of his 84,000 divine beings of equal 5 strength 84,000 diving beings each who are for the security, in charge of 5 go 卐 卐 卐 the four directions, and many other gods and goddesses residing in first heaven Saudharma devalok, 33,000 devas of advisory council, eight head 5 goddesses, members of his three cabinets and seven armies flew at a very fast divine speed towards the middle world crossing innumerable islands and oceans and arrived at Ashtapad mountain where the body of Tirthankar Rishabh was lying. He was sad, morose and there were tears in his eyes. He moved around the body three times. Then, he stood at a place which was neither very near nor very far from the body and humbly bowed to it with clasped hands. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र ईशानेन्द्र का आगमन ARRIVAL OF ISHANENDRA 5 5 ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे, देवराया, उत्तरद्धलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाण- फ्र सयसहस्साहिवई, सूलपाणी, वसहवाहणे, सुरिंदे, अयरंबरवरवत्थधरे, जाव विउलाई भोगभोगाई 5 भुं विहर। फ्र 5 तस्स ईसाणस्स, देविंदस्स, देवरण्णो आसणं चलइ । तए णं से ईसाणे (देविंदे ) देवराया आसणं चलिअं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजइत्ता भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएइ, आभोएइत्ता जहा सक्के निअगपरिवारेणं भाणेअब्बो जाव पज्जुवासइ । एवं सव्वे देविंदा (सणंकुमारे, माहिंदे, बंभे, लंतगे, 5 महासुक्के, सहस्सारे, आणए, पाणए, आरणे) अच्चुए णिअगपरिवारेणं भाणिअव्वा, एवं जाव भवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोण्णि निअगपरिवारा णेअव्वा । Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र (96) 卐 5 5 卐 卐 5 . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकककककक)5555555555555558 ४२. उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणि-हाथ में शूल लिए हुए, वृषभवाहन-बैल पर सवार, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हुए ईशानेन्द्र अपने विशाल देव-परिवार के साथ विपुल भोग भोगता हुआ रहता था। ईशान (देवेन्द्र) का आसन चलित हुआ। ईशान देवेन्द्र ने अपना आसन चलित देखा। वैसा देखकर ॐ अवधिज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग कर भगवान तीर्थंकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा। देखकर शक्रेन्द्र के की ज्यों अपने देव-परिवार से संपरिवृत होकर (शक्रेन्द्र की भाँति) उपस्थित हुआ, यावत् पर्युपासना करने लगा। उसी प्रकार सभी देवेन्द्र (-सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, 卐 प्राणत, आरण, अच्युत देवलोकों के अधिपति-इन्द्र) अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आये। उसी फ़ प्रकार भवनवासियों के बीस इन्द्र, वाणव्यन्तरों के सोलह इन्द्र, ज्योतिष्कों के दो इन्द्र-सूर्य तथा चन्द्रमा । ॐ अपने-अपने देव-परिवारों के साथ वहाँ-अष्टापद पर्वत पर आये। 42. At that time in the northern half of the heaven, its ruler god Ishanendra was residing. He was the master of 28 lakh Vimaans. He had a pointed weapon (Shoolapani) in his hand. He was riding the divine 4 bullock. His dress was that of the colour of the sky. He had a very large 4 family of divine beings and was enjoying divine pleasures. The throne of Ishan god also trembled. When he saw it trembling, he fi applied his Awadhi Jnana and thereafter he also reached there with his entire family in the same manner as Shakrendra had come. Similary all 45 the Indras of divine realms (rulers of Sanat Kumar, Maahendra, A Brahma, Lantak, Mahashukra, Sahasrar, Anat, Pranat, Aran, Achyut . heaven) reached there with their respective families. Twenty Indras of u Bhuvanapati abodes, 16 Indras of Vyantar status and two Indras-sun and moon-of Jyotishk heaven also reached there at Ashtapad mountain with their divine families. के शरीर संस्कार : चिता रचना ANOINTING OF BODY : ARRANGING THE PYRE ४३. [१] तए णं सक्के देविंदे, देवराया बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! णंदणवणाओ सरसाइं गोसीसवरचंदणकट्ठाइं साहरइ, साहरेत्ता तओम चिइगाओ रएह-एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणधराणं, एवं अवसेसाणं अणगाराणं। तए णं ते ॐ भवणवइ (वाणमंतर-जोइसिअ) वेमाणिआ देवा णंदणवणाओ सरसाइं गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरंति, साहरेत्ता तओ चिइगाओ रएंति, एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं। म तए णं से सक्के देविंदे, देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो 5 # देवाणुप्पिया ! खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह। तए णं ते आभिओगा देवा खीरोदगसमुद्दाओ । खीरोदगं साहरंति। तए णं से सक्के देविंदे, देवराया तित्थगरसरीरगं खीरोदगेणं ण्हाणेति, पहाणेत्ता 5 | द्वितीय वक्षस्कार (97) Second Chapter 355555555)भएमएमएफ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 955555555555555555555555555555555555555555555558 5555555555555555555555555555555555558 ॐ सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपेत्ता हंसलक्खणं पडसाडयं णिअंसेइ, णिअंसेत्ता, 5 सव्वालंकारविभूसिअं करेति। तए णं ते भवणवइ जाव वेमाणिआ गणहरसरीरगाइं अणगारसरीरगाइंपि खीरोदगेणं व्हावंति, + ण्हावेत्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिपति, अणुलिंपेत्ता अहयाई दिव्वाइं देवदूसजुअलाइं णिसंति, णिअंसेत्ता सव्वालंकारविभूसिआई करेंति। ४३. [१] तब देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों से + कहा-“देवानुप्रियो ! नन्दनवन से शीघ्र स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाओ। लाकर तीन चिताओं ॥ की रचना करो-एक भगवान तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के 卐 लिए।' तब वे भवनपति, (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) वैमानिक देव नन्दनवन से स्निग्ध, उत्तमम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाये। लाकर चिताएँ बनाई-एक भगवान तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए। तब देवराज शक्रेन्द्र ने आभियोगिक देवों को पुकारा। पुकारकर उन्हें कहा-देवानुप्रियो ! क्षीरोदक ॐ समुद्र से शीघ्र क्षीरोदक लाओ। वे आभियोगिक देव क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाये। तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन का लेपन किया। अनुलिप्त कर उसे हंस-सदृश श्वेत वस्त्र पहनाये। वस्त्र पहनाकर सब प्रकार के 卐 आभूषणों से विभूषित किया-सजाया। फिर उन भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने गणधरों के शरीरों को तथा साधुओं के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर उन्हें स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त किया। अनुलिप्त ॥ कर दो दिव्य देवदूष्य-वस्त्र धारण कराये। वैसा कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। 43. [1] Thereafter, Shakrendra, the Lord of first heaven asked Bhavanapati, Vanvyantar and Jyotishk gods, “O beloved of gods ! Kindly i bring quickly best quality of sandalwood from Nandan forest and prepare three pyres-one for Tirthankar, one for Ganadhars and one for other monks.” Then Bhavanapati (Vanvyantar and Jyotishk) divine beings brought best quality of soft Sandalwood from Nandan forest. Thereafter, they prepared pyres-one for the Tirthankar, one for the Ganadhars and one for the remaining liberated monks. Then Shakrendra called abhiyogik gods and ordered them to bring water from Ksheerodak ocean. The abhiyogik gods then brought ksheerodak (milky water) from Ksheer ocean. Thereafter, Shakrendra bathed the body of Tirthankar Rishabh with Ksheerodak, applied sandal paste of gosheersh sandalwood on it and covered it with white cloth-as white as a swan. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (98) Jambudweep Prajnapti Sutra 85555555555555555555555555555555555555555555555558 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********தமிழ********ததததததததி Thereafter, he decorated it with ornaments of various types. Later the Bhavanapati and Vaimanik gods bathed the bodies of ganadhars and other monks with gandhodak, applied gosheersh sandalwood paste on them and covered them with divine pieces of cloth. Thereafter, they decorated them with ornaments of all types. शिविका रचना PREPARATION OF PALANQUIN ४३. [२] तए णं से सक्के देविंदे, देवराया ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ईहामिग-उसभ - तुरग ( णर - मगर - विहग - वालगकिन्नर - रुरुसरभ - चमर - कुंजर) वणलयभत्तिचित्ताओ तओ सिवियाओ विउव्वह, एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं । तए णं ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिआ तओ सिविआओ विउब्वंति, एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं । तए णं से सक्के देविंदे, देवराया विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्णणयणे भगवओ तित्थगरस्स विणट्ठजम्मजरामरणस्स सरीरगं सीअं आरुहेति आरुहेत्ता चिइगाइ ठवेइ । तए णं ते बहवे भवणवइ जाव बेमाणि देवा गणहराणं अणगाराण य विणट्ठजम्मजरामरणाणं सरीरगाई सीअं आरुहेंति, आरुहेत्ता चिइगाए ठवेंति । தமிழதமிழி ४३. [२] तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहा - "देवानुप्रियो ! ईहामृग - (भेड़िया) वृषभ, तुरंग - घोड़ा, (मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी मृग, शरभ - अष्टापद, चँवर, हाथी) वनलता के चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा करो - एक भगवान तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए।" इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने तीन शिविकाओं की विकुर्वणा की - एक भगवान तीर्थकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष अनगारों के लिए। तब उदास, खिन्न एवं अश्रुपूरित नयन देवराज देवेन्द्र शक्र ने भगवान तीर्थंकर के, जिन्होंने जन्म, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया था- इन सबसे जो अतीत हो गये थे, शरीर को शिविका पर आरूढ़ किया। आरूढ़ कर चिता पर रखा । भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों ने जन्म, जरा तथा मरण के पारगामी गणधरों एवं साधुओं के शरीर शिविका पर आरूढ़ किये। आरूढ़ कर उन्हें चिता पर रखा । फ्र 43. [2] Thereafter, Shakrendra asked Bhavanapati and Vaimanik gods, "Blessed ones! Kindly prepare three Shivikas bearing sketches of leopard, bullock, horse, (human being, crocodile, birds, snake, kinnar, musk-deer, ashtapad, chanvar, elephant) and forest creepers, with fluid body-one for the Tirthankar, one for ganadhars and one for other monks." Then many Bhavanapati and Vaimanik divine beings prepared three palanquins one for the Tirthankar, one for ganadharas and one for other monks. द्वितीय वक्षस्कार (99) Second Chapter Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFFFF55 ))) ) )) ))) ))) ))) Then with a melancholy, sad heart and tears coming out of his eyes, Shakrendra placed the body of the Tirthankar who had become totally liberated from cycles of birth and death after destroying the bondage of birth, old age and death, on a Shivika. Thereafter, he placed it on the pyre. Bhavanapati and Vaimanik gods placed the bodies of ganadhars and other monk who had crossed the cycle of birth and death on the respective Shivikas and then on the pyre. ४३. [३] तए णं सक्के देविंदे, देवराया अग्गिकुमारे देवे सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए। (गणहरचिइगाए) अणगारचिइगाए अगणिकायं 5 विउव्वह, विउव्वित्ता एअमाणतिरं पच्चप्पिणह। तए णं ते अग्गिकुमारा देवा विमणा, णिराणंदा, अंसुपुण्णणयणा तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगणिकायं विउव्वंति। तए णं से सक्के देविंदे, देवराया वाउकुमारे देवे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ वाउक्कायं विउव्वह, विउवित्ता अगणिकायं म उज्जालेह, तित्थगरसरीरगं, गणहरसरीरगाई, अणगारसरीरगाई, च झामेह। तए णं ते वाउकुमारा देवा ॥ विमणा, णिराणंदा, अंसुपुण्णणयाणा तित्थगरचिइगाए जाव विउव्वंति, अगणिकायं उज्जालेंति, ॐ तित्थगरसरीरगं (गणहरसरीरगाणि) अणगारसरीरगाणि अ झाति। तए णं से सक्के देविंदे, देवराया ते ॥ भी बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पाभेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव 5 अणगारचिइगाए अगुरुतुरुक्कघयमधुं च कुंभग्गसो अ भारग्गसो अ साहरइ। तए णं ते भवणवइ जाव तित्थगर-(चिइगाए, गणहरचिइगाए, अणगारचिइगाए अगुरुतुरुक्कघयमधुं च कुंभग्गसो अ) भारग्गसो ॐ असाहरंति। तए णं से सक्के देविंदे देवराया मेहकुमारे देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ॐ देवाणुप्पिआ ! तित्थगरचिइगं जाव अणगारचिइगं च खीरोदगेणं णिवावेह। तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरचिइगं जाव णिवावेति। ___ ४३. [ ३ ] देवराज शक्रेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को पुकारकर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर की चिता में, (गणधरों की चिता में) तथा साधुओं की चिता में शीघ्र अग्निकाय की विकुर्वणा करो-अग्नि उत्पन्न करो। इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरित नेत्र वाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, फ़ गणधरों की चिता तथा अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्वणा की। देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को पुकारकर कहा-तीर्थंकर की चिता एवं अनगारों की चिता में वायुकाय की विकुर्वणा कर अग्नि प्रज्वलित करो, तीर्थंकर की देह को, गणधरों तथा अनगारों की देह को 5 अग्निसंयुक्त करो। विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरित नेत्र वाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुर्वणा की-पवन चलाया, तीर्थंकर-शरीर (गणधर-शरीर) तथा अनगार-शरीर अग्नि संयुक्त किये। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 85 5555555555555558 )) )) ))) )) 卐))) (100) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.jainelibra B भगवान ऋषभदेव के परिनिर्वाण का देवकृत महोत्सव इन्द्रादि देव देवियाँ गणधर अष्टापद पर्वत पर भगवान का परिनिर्वाण महोत्सव मनाने आये इन्द्रादि देव-देवियाँ (PRA Edda BOOK 02 भगवान ऋषभदेव का चिता सस्कार ७०००० TRILOK Sang (Ad A अन्य अणगार Amala Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0555555555555555555555555555555555 | चित्र परिचय आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण भगवान ऋषभदेव के निर्वाण प्राप्त होने पर इन्द्र आदि देव-देवियाँ भगवान का परिनिर्वाण म महोत्सव मनाने पृथ्वी पर आये। देवेन्द्र द्वारा आज्ञा प्राप्त कर ज्योतिष्क एवं वाणव्यंतर देवों ने सर्वश्रेष्ठ 5 गोशीर्ष चन्दन से तीन चिताओं की रचना की। एक भगवान के लिये, एक गणधरों के लिए एवं एक है अणगारों के लिये। ॐ फिर क्षीरोदक समुद्र के जल से भगवान के पार्थिव शरीर को स्नान कराकर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया। देवदूष्य वस्त्र धारण कराये और तीन दिव्य शिविकाओं की रचना की। एक शिविका ॐ में भगवान को बैठाकर चिता पर रखा। (एक पर गणधर एवं एक पर अन्य साधुओं को।) अग्निकुमार देवों ने अग्नि की विकुर्वणा कर चिता में अग्नि प्रज्वलित की। वहाँ उपस्थित सभी ॐ देवेन्द्रों, देव-देवियों ने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान की चिता को हाथ जोड़ नमस्कार किया। तत्पश्चात् भनन्दीश्वर द्वीप आकर अष्ट दिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाया। -वक्षस्कार २, सूत्र ४३ NIRVANA OF BHAGAVAN RISHABHDEV When Bhagavan Rishabhdev attained nirvana, Indra and other gods and 4 goddesses came to conduct the Parinirvana celebrations. With the permission of the king of gods, Jyotishk and Vanavyantar gods created three funeral pyres with best Goshirsh sandalwood. One for Bhagavan, one for Ganadhars and one for other ascetics. After that the worldly body of Bhagavan was anointed with the water from Kshirodak Sea and sandalwood paste was smeard on it. Divine clothes were puts on. Now three palanquins were created. One was used for placing Bhagavan body in sitting posture. (one for Ganadhar and one for other ascetics). These palanquins were placed on the funeral pyre. Now Agnikumar gods created fire and lit these fureral pyres. All kings of gods and other gods and goddesses joined their palms and paid homege to the funeral pyres with tear filled eyes. At last they all went to Nandishwar Dveep and organised an eight day Parinirvan celebration. – Vakshaskar 2, Sutra 43 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 55555555555555 देवराज शक्रेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकरचिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घटपरिमित घृत एवं मधु डालो। तब उन भवनपति आदि देवों ने तीर्थंकर-चिता, (गणधर-चिता तथा अनगारचिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घट-परिमित) घृत एवं मधु डाला।। देवराज शक्रेन्द्र ने मेघकुमार देवों को पुकारकर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से शान्त करो-बुझाओ। मेघकुमार देवों ने तीर्थंकर-चिता, गणधरचिता एवं अनगार-चिता को निर्वापित किया। ___43. [3] Thereafter, Shakrendra called Agnikumar gods and ordered, "O beloved of gods ! Quickly light the fire in the pyres of Tirthankar, ganadhars and other monks.” Then with a heavy sad mind and with eyes full of tears, Agnikumar celestial beings lighted the fire in the three pyres. Shakrendra then called Vayukumar gods and asked them to create wind on the pyres with their fluid body so that the fire in the pyres picks up speed and thus turn the bodies of Tirthankar, ganadhars and monks totally covered with fire. The Vayukumar gods with a sad melancholy heart and with tears in their eyes created wind on the pyres. They blew the wind and the bodies of Tirthankar, ganadhars and the monks became totally covered in grip of fire. Devaraj Shakrendra then asked many Bhavanapati and Vaimanik gods who had gathered there to put incense material such as agar, turushk in large quantity in the burning pyres and also to put ghee in great quantity. The gods obeyed the orders accordingly. Shakrendra then called Meghakumar gods and asked them to pacify the fire by raining Ksheerodak. Meghakumar devas extinguished the fire of the three pyres of Tirthankar, ganadhars and other monks. माला ग्रहण COLLECTING MOLARS ४३. [४ ] तए णं से सक्के देविंदे, देवराया भगवओ तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ, साणे देविंदे देवराया उवरिल्लं वामं सकहं गेण्हइ, चमरे असुरिंदे, असुरराया हिडिल्लं दाहिणं सकहं शेडइ, बली वइरोअणिंदे, वइरोअणराया हिडिल्लं वामं सकहं गेण्हइ, अवसेसा भवणवइ जाव वेमाणिआ नया जहारिहं अवसेसाई अंगमंगाई, केई जिणभत्तीए, केई जीअमेत्ति कटु, केई धम्मोत्तिकटु गेण्हंति। ४३. [४] तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी दाढ़ ग्रहण की। असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी दाढ़ ली। वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बायीं दाढ़ ली। बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंग-अंगों की अस्थियाँ लीं। कइयों ने बितीय बक्षस्कार (101) Second Chapter Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ u555555555听听听听听听听听听听听听听听听听听Fhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh 55555555555555555555555555%%%%%%%%B 卐 जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से, कइयों ने यह समुचित पुरातन परम्परानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कइयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया। ईशान देवेन्द्रराज ने ऊपर की बायीं दाढ़ ग्रहण की। 41 43. [4] Thereafter, Shakrendra picked up the upper molar of the right y side from Tirthankar pyre. The lord of Asuras took the lower molar of the right side. Vairochanendra Bali took the lower left molar. The remaining Bhavanapati and Vaimanik gods and others picked up the bones of various parts of the body. Some took them as a token of respect and i devotion, and some as age long tradition and some as their duty 4 (dharma). Ishanendra took the upper molar of the left side. चैत्य स्तूप रचना CONSTRUCTING CHAITYA PILLAR ४३. [ ५ ] तए णं से सक्के देविंदे, देवराया बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे जहारिहं एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! सव्वरयणामए, महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एगं भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणहरचिइगाए, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। तए णं ते बहवे करेंति। ४३. [५] तदनन्तर देवराज, देवेन्द्र शक्र ने भवनपति एवं वैमानिक आदि देवों को यों । कहा-देवानुप्रियो ! तीन सर्वरत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण करो। एक भगवान तीर्थंकर के चिता स्थान पर, एक गणधरों के चिता-स्थान पर तथा एक अवशेष अनगारों के चिता-स्थान पर। उन बहुत से देवों ने वैसा ही किया। 43. [5] Thereafter, Shakrendra ordered Bhavanapati and Vaimanik gods to build three great totally gem-studded pillars-one at the cremation ground of Tirthankar, one at the pyre location of ganadhar and one at the pyre location of other monks. Those divine beings did the same immediately as directed. ४३. [६] तए णं ते बहवे भवणइ जाव वेमाणिआ देवा तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करेंति, करेत्ता जेणेव नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छन्ति। तए णं सक्के देविंदे, देवराया पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए अट्ठाहि महामहिमं करेति। तए णं सक्कस्स देविंदस्स देवरायस्स चत्तारि लोगपाला चउसु दहिमुहगपव्वएसु अट्ठाहियं महामहिमं करेंति। ईसाणे देविंद, देवराया उत्तरिल्ले अंजणगे अट्ठाहिक महामहिमं करेइ, तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहगेसु अट्ठाहिअं, चमरो अ दाहिणिल्ले अंजणगे, तस्स लोगपाला दहिमुहगपव्वएसु, बली पच्चथिमिल्ले अंजणगे, तस्स लोगपाला दहिमुहगेसु। तए णं ते बहवे भवणवइ वाणमंतर (दवा) अट्ठाहिआओ महामहिमाओ करेंति, करित्ता जेणेव साइं २ ॥ विमाणाई, जेणेव साई २ भवणाई, जेणेव साओ २ सभाओ सुहम्माओ, जेणेव सगा २ माणवगा चेइअखंभा # तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण-सकहाओ पक्खिवंति, पक्खिवित्ता , अग्गेहिं वरेहिं मल्लेहि अगंधेहि अ अच्चेंति, अच्चत्ता विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (102) Jambudveep Prajnapti Sutra %% %%% %%%%%%%% %%%% %%%%%%%%%% %%%%%%%% | Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ***************************மிமி**************** फ्र 5 5 फफफफ 卐 ४३. [ ६ ] फिर उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण 5 महोत्सव मनाया। ऐसा कर वे नन्दीश्वर द्वीप में आ गये । देवराज, देवेन्द्र शक्र ने पूर्व दिशा में स्थित फ अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण - महोत्सव मनाया। देवराज, देवेन्द्र शक्र के चार लोकपालों ने 5 चारों दधिमुख पर्वतों पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाया। देवराज ईशानेन्द्र ने उत्तरदिशावर्ती 卐 अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण - महोत्सव मनाया। उसके लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों फ पर अष्टाह्निक परिनिर्वाण - महोत्सव मनाया। चमरेन्द्र ने दक्षिण दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर उसके 5 लोकपालों ने दधिमुख पर्वतों पर परिनिर्वाण - महोत्सव मनाया। बलि ने पश्चिम दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर और उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वतों पर परिनिर्वाण - महोत्सव मनाया। 卐 इस प्रकार बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर आदि देवों ने अष्टदिवसीय महोत्सव मनाये। ऐसा कर वे जहाँ-तहाँ अपने विमान, भवन, सुधर्मा सभाएँ तथा अपने माणवक नामक चैत्यस्तम्भ थे, वहाँ आये । आकर जिनेश्वर देव की दाढ़ आदि अस्थियों को वज्रमय-हीरों से निर्मित गोलाकार मंजूषा में रखा। रखकर अभिनव, उत्तम मालाओं तथा सुगन्धित द्रव्यों से अर्चना की । अर्चना कर अपना विपुल सुखोपभोगमय जीवन बिताने लगे। 43. [6] Then many Bhavanapati, Vaimanik and other gods celebrated the salvation of Tirthankar and others in a grand manner. They then came to Nandishvar island. They then celebrated eight day festival. Shakrendra celebrated it at Anjanak mountain located in the east, his four guardian gods (Lok-pal) celebrated it on four Dadhimukh mountains. Ishanendra celebrated it on Anjanak mountain located in the north and his guardian gods of four directions on four Dadhimukh mountains. Chamarendra celebrated it on Anjanak mountain located in the south, his security guards of four directions on the respective Dadhimukh mountains. Bali celebration it on Anjanak mountain located in the west and his lokpals on respective Dadhimukh mountains. Thus many Bhavanapati, Vaimanik and other divine beings participated in the celebration lasting eight days. Thereafter, they came to their Vimaans, abodes, Sudharma halls and respective memorial pillars. They then placed the molars, bones and the like of the Tirthankar in the diamond studded round jewellery-boxes. They then worshiped them with fresh garlands and fragrant incense. After all these ceremonies, they started living peacefully enjoying their life-span. अवसर्पिणी: दुषम- सुषमा AVASARPANI DUKHMA-SUKHAMA द्वितीय वक्षस्कार (103) 卐 फ्र 25555555555595555555 5 55 5555 5 5 55555555 5 59 卐 卐 ४४. तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव फ्र परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं दूसमसुसमा णामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो ! Second Chapter 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 फ्र . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))) )))) ))) ))) [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिं म उवसोभिए, तं जहा-कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव। [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए भरहे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! तेसिं मणुआणं छबिहे संघयणे, छब्बिहे संठाणे, बहूई धणूई उद्धं उच्चत्तेणं, जहण्णेणं + अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी आउअं पालेंति। पालित्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, (अप्पेगइआ है तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी, अप्पेगइआ) देवगामी, अप्पेगइआ सिझंति, बुझंति, (मुच्चंति, ॐ परिणिव्वायंति) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पग्जित्था, तं जहा-अरहंतवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे। तीसे णं है समाए तेवीसं तित्थयरा, इक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जित्था। ॐ ४४. आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का-तीसरे आरक का दो सागरोपम कोडाकोडी काल + व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम-सुषमा नामक चौथा आरक प्रारम्भ होता है। उसमें 5 + अनन्त वर्ण-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। म [प्र. ] भगवन् ! उस समय भरत क्षेत्र का आकार स्वरूप कैसा होता है ? - [उ. ] गौतम ! उस समय भरत क्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है। [प्र. ] भगवन् ! उस समय मनुष्यों का आकार स्वरूप कैसा होता है? [उ.] गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं छह प्रकार के संस्थान होते हैं। उनकी ॐ ऊँचाई अनेक धनुष की होती है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि का आयुष्य भोगकर उनमें + से कई नरक गति में, (कई तिर्यंच गति में, कई मनुष्य गति में) तथा कई देव गति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त एवं परिनिवृत्त होते हैं) समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। उस काल में तीन वंश उत्पन्न होते हैं-अर्हत् वंश, चक्रवर्ति-वंश तथा दशारवंश-बलदेव-वासुदेववंश। उस काल में तेवीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होते हैं। 44. Blessed Gautam ! When a period of 200 million x million sagaropam of this third aeon had passed, the fourth aeon of Avasarpani time-cycle which is called Sukhma-dukhma starts. There is a great decline in colour and the like as compared to earlier aeon. (Q.) Reverend Sir! What is the shape of Bharat area at that time? [Ans.] Gautam ! The land of Bharat area at that time is very much 4 levelled and attractive like the upper surface of Muraj and is decorated i with natural and artificial gems. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (104) Jambudveep Prajnapti Sutra E5555 555555555 55 5555听听听听听听听听听听听听 5 55 555 听听听听听听FFFFFF ))))) ) ))) )))) ))) 9))) कककककककककककक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F F फफफफफफफफफफफफफफफ फ्र [Q] Reverend Sir! What is the figure and the nature of human 卐 beings at that time? फ्र [Ans.] Gautam ! Those human beings have all the six types of bone joints and all the six types of shapes. Their height is of many dhanush. 5 The minimum life-span is antar-muhurt (less than 48 minutes) and the h maximum is 10 million purva. Thereafter, they are reborn either in hell, in sub-human state, in human state or as celestial beings. Some of them end all the miseries of mundane world and directly attain liberation. फ्र 卐 In that period, three clans come up namely - Arhat family, फ्र Chakravarti family and Dashar family which includes Baladevas and Vasudevas. In that aeon twenty three Tirthankars, eleven Chakravartis, nine Baladevas and nine Vasudevas take birth. अवसर्पिणी : दुषमा आरक AVASARPANI DUKHAMA AEON ४५. तीसे णं समाए एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए बयालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जेवेहिं तहेव जाव परिहाणीए परिहायमाणे २ एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? [उ.] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव । [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! तेसिं मणुआणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहुइओ रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं, जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउअं पालेंति, पालेत्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, जाव 5 सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । 5 तणं समाए पच्छिमेतभागे गणधम्मे, पासंडधम्मे, रायधम्मे, जायतेए, धम्मचरणे अ वोच्छिज्जिस्सइ । 5 [प्र.] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र का कैसा आकार/स्वरूप होता है ? [उ.] गौतम ! उस समय भरत क्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। वह मुरज के. मृदंग के ऊपरी भाग- जैसा समतल होता है, विविध प्रकार की पाँच वर्णों की कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों द्वारा उपशोभित होता है। द्वितीय वक्षस्कार 卐 फ्र फ्र 5 ४५. आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के चतुर्थ आरक के बयालीस हजार वर्ष कम एक फ्र सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी-काल का दुःषमा नामक पंचम आरक प्रारम्भ होता है । उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। 卐 (105) 卐 5 卐 Second Chapter फ्र फ्र . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B)) ))))) )))) )))))))) )) ) )))) )))) )) १ ))) ))) म [प्र. ] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र के मनुष्यों का आकार स्वरूप कैसा होता है ? ॐ [उ. ] गौतम ! उस समय भरत क्षेत्र के मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होते हैं। + उनकी ऊँचाई सात हाथ की होती है। वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष 4 (१३३) के आयुष्य का भोग करते हैं। आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक गति में, (कई तिर्यंच 卐 गति में, कई मनुष्य गति में, कई देव गति में, (कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं)। उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गणधर्म-किसी समुदाय या जाति के वैवाहिक आदि व्यवहार, 卐 पाखण्ड-धर्म-निर्ग्रन्थ प्रवचन से इतर अन्यान्य मत, राजधर्म-राजव्यवस्था, अग्नि तथा चारित्र-धर्म विच्छिन्न हो जाता है। 45. Blessed Guatam ! At that time when 100 million x million Sagaropam period reduced by 42,000 years of that fourth aeon had passed, the fifth aeon of Avasarpani time-cycle which is called Dukhama starts. In it there is gradual decline in colour, smell, taste and the like. (Q.) Reverend Sir! What is the shape of Bharat area at that time? [Ans.] Gautam! The land of Bharat is very much levelled and attractive like top of Muraj or upper surface of a drum. It is decorated with natural and artificial gems of five colours. [Q.) Reverend Sir ! What is the figure and the nature of human beings then ? [Ans.] Gautam ! The human beings have any one of the six bone formation and any one of the six shapes. Their height is of seven haath. Their minimum life-span is less than 48 minutes (antar-muhurt) and the maximum is more than 100 years (133 years). After completing their lifespan some take re-birth in hell, some as sub-human, some as human, some as celestial beings while some cross the mundane world of birth death cycle and attain liberation. In the last third part of that aeon the traditional activities such as marriage ceremonies, state administration and spiritual activities go astray. Religious orders other than nirgranth pravachan (ordero Tirthankar) also go astray. अवसर्पिणी : दुषम-दुषमा (छठे आरे का पर्यावरण) (SIXTH AEON) DUKHAM-DUKHMA 卐 ४६. [१] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि, गंधपज्जवेहिं, रसपज्जवेहिं, फासपज्जवेहिं जाव परिहायमाणे २ एत्थ णं दूसमदूसमाणामं समा काले म पडिवज्जिस्सइ समणाउओ ! जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (106) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555555555)))))5555555555555555555555558 )) )))) )))) ))) 卐1 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35555555555555555555555) म [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? [उ.] गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण यम खरफरुसधूलिमइला, दुबिसहा, वाउला, भयंकरा य वाया संवट्टगा य वाइंति, इह अभिक्खणं २ धूमाहिति अ दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल-णिरालोआ, समयलुक्खयाए णं अहिअं चंदा ॥ सीअं मोच्छिहिंति, अहिअं सूरिआ तविस्संति, अदुत्तरं च णं गोयमा ! अभिक्खणं अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, अजवणिज्जोदगा, वाहिरोग-वेदणोदीरण परिणामसलिला, अमणुण्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वासिहिंति, जेणं भरहे ॐ वासे गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं जणयं, चउप्पयगवेलए, खहयरे, पक्खिसंघे गामारण्णप्पयारणिरए तसे अ पाणे, बहुप्पयारे रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लयवल्लिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्धंसेहिति, पबय-गिरि-डोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअड्डगिरिवज्जे विरावेहिंति, सलिलबिल-विसम-गत्तणिण्णुण्णयाणि अ गंगासिंधुवज्जाइं समीकरेहिति। [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? 卐 [उ.] गोयमा ! भूमि भविस्सइ इंगालभूआ, मुम्मुरभूआ, छारिअभूआ, तत्तकवेल्लुअभूआ, म # तत्तसमजोइभूआ, धूलिबहुला, रेणुबहुला, पंकबहुला, पणयबहुला, चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोअराणं । सत्ताणं दुनिक्कमा यावि भविस्सइ। ॐ ४६. [१] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के-पंचम आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो +जाने पर अवसर्पिणी काल का दुषम-दुषमा नामक छठा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, * गन्ध-पर्याय, रस-पर्याय तथा स्पर्श-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। [प्र.] भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरत क्षेत्र का ॐ आकार/स्वरूप कैसा होगा? [उ. ] गौतम ! उस समय दुःखार्ततावश लोगों में हाहाकर मच जायेगा, गाय आदि पशुओं में ॐ अत्यन्त दुःखोद्विग्नता से चीत्कार फैल जायेगा अथवा भेरी के भीतरी भाग की शून्यता या सर्वथा रिक्तता के सदश वह समय विपल जन-क्षय के कारण जन-शन्य हो जायेगा। उस ॐ प्रभाव है। तब अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, दुस्सह, आकुलतापूर्ण भयंकर वायु चलेंगे, तृण, काष्ठ आदि को उड़ाकर कहीं का कहीं पहुंचा देने वाले संवर्तक-वायु चलेंगे। उस काल में दिशाएँ पुनः पुनः धुआँ छोड़ती रहेंगी। वे सर्वथा रज से भरी होंगी, धूल से मलिन होंगी तथा घोर अंधकार के कारण म प्रकाशशून्य हो जायेंगी। काल की रूक्षता के कारण चन्द्र अधिक शीत-हिम छोड़ेंगे। सूर्य अधिक असह्य, म : रूप में तपेंगे। गौतम ! उसके अनन्तर अरसमेघ-मनोज्ञ रस-वर्जित जलयुक्त मेघ, विरसमेघ-विपरीत ॐ रसमय जलयुक्त मेघ, क्षारमेघ-खार के समान जलयुक्त मेघ, खात्रमेघ-अम्ल या खट्टे जलयुक्त मेघ, + अग्निमेघ-अग्नि सदृश दाहक जलयुक्त मेघ, विद्युन्मेघ-विद्युत्-बहुत जलवर्जित मेघ अथवा बिजली द्वितीय वक्षस्कार Second Chapter 听听听听听听听听听听听听听听听听听听$$$ $$ $$$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FE T The (107) 5555555555555555555))))) ))))) ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफ 卐 5 卐 卐 5 गिराने वाले मेघ, विषमेघ - विषमय जलवर्षक मेघ, कुष्ठ आदि लम्बी बीमारी, शूल आदि शीघ्र प्राण फ 卐 हरण करने वाली बीमारी जैसे वेदनोत्पादक जलयुक्त, अप्रिय जलयुक्त मेघ, तूफानजनित तीव्र प्रचुर जलधारा छोड़ने वाले मेघ निरन्तर वर्षा करेंगे। भरत क्षेत्र में ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रमगत जनपद - मनुष्यवृन्द, गाय आदि चौपाये प्राणी, वैताढ्य पर्वत पर निवास 5 卐 करने वाले गगनचारी विद्याधर, पक्षियों के समूह, गाँवों और वनों में स्थित द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव, बहुत प्रकार के आम्र आदि वृक्ष, वृन्ताकी आदि गुच्छ, नवमालिका आदि गुल्म, अशोकलता आदि 卐 लताएँ, वालुक्य प्रभृति बेलें, पत्ते, अंकुर इत्यादि बादर वनस्पतिकायिक जीव-तृण आदि वनस्पतियाँ, 5 औषधियाँ - इन सबका वे विध्वंस कर देंगे । वैताढ्य आदि शाश्वत पर्वतों के अतिरिक्त अन्य उज्जयन्त, 5 वैभार आदि क्रीड़ापर्वत, गोपाल, चित्रकूट आदि गिरि, डूंगर - पथरीले टीले, ऊँचे स्थल, बालू के टीबे, 5 धूलवर्जित भूमि-पठार, इन सबको तहस-नहस कर डालेंगे। गंगा और सिन्धु महानदी के अतिरिक्त जल 5 के स्रोतों, झरनों, ऊबड़-खाबड़ खड्डों, नीचे-ऊँचे जलीय स्थानों को समान कर देंगे-उ 卐 卐 卐 फ फ्र -उनका नाम निशान मिटा देंगे। [प्र. ] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र की भूमि का आकार / स्वरूप कैसा होगा ? [उ.] गौतम ! भूमि अंगारभूत तपे हुए कड़ाहे सदृश, सर्वत्र एक जैसी तप्त, ज्वालामय होगी । उसमें धूलि, रेणु - वालुका, पंक-कीचड़, पतले कीचड़, चलते समय जिसमें पैर डूब जायें, ऐसे प्रचुर 5 कीचड़ की बहुलता होगी। पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले प्राणियों का उस पर चलना बड़ा कठिन होगा। 卐 卐 卐 46. [1] Blessed Guatam ! At the time when 21,000 years of fifth aeon 卐 of Avasarpani time-cycle have passed, the sixth aeon Dukham-Dukhma (miseries and miseries) shall start. There shall be a gradual decline in 5 colour, smell, taste, touch and the like to a great extent. 卐 卐 [Q.] Reverend Sir ! What shall be the state of Bharat area when that aeon shall be at its climax ? फ्र 卐 5 [Ans.] Gautam! At that time people shall be moaning due to miseries. The cows shall be extremely in pain and shrieking loudly. That period shall be devoid of a large number of people due to deaths at large scale just as a trumpet is empty from inside. Such shall be effect of this time-cycle. Many dreadful storms shall be blowing making everything 卐 5 extremely dirty. They shall scatter the corn, wood and the like far away. 5 All the sides shall be emitting smoke. They shall be full of dust. They 卐 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र shall be dirty due to the dust. They shall be without any light due to 卐 dreadful darkness. Moon shall be more cold and shall emit cold icy rays due to the harshness of this period. Sun shall be extremely hot and unbearable. The clouds shall provide rain devoid of likeable taste, Jambudveep Prajnapti Sutra (108) फफफफफफफफ फ्र 卐 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555555555 5555555555555555555555 15 tasteless rain, bitter rain water, sour rain water, burning rain water, 4 4 lightening rain water, poisonous rain water that shall cause long lasting diseases like leprosy and heart diseases that may cause death soon. Such clouds shall rain continuously causing trouble and unwanted water causing floods due to accumulation of water in great quantity. They shall ___destroy villages, trade centres, towns, ports, cities, open places, places of stay, human folk, quadrupeds like cows, vidyadhars residing on Vaitadhya mountains, flocks of birds, two-sensed, three-sensed, fourki sensed and five-sensed living beings residing in forests, many types of fi mango trees and the like gulms such as navamalika, guchha such as Urintaki, creepers such as Ashok, other creepers, leaves, gross living beings having plant-body, vegetables and food grains. All mountains such as Ujjayant, Vaibhar and the like where one used to play, y Chitrakoot mountain, stony tops, high regions, sandy tops shall be destroyed and only permanent mountains such as Vaitadhya and the like shall remain. All the sources of water, springs, ditches, high and low water collection spots shall be levelled. Only Ganga and Sindhu shall remain in existence. $ (Q.) Reverend Sir! What shall be the shape of the land of Bharat area 4 41 at that time ? [Ans.] Gautam ! The land shall be burning like embers, heated vessel, and shall be hot throughout. There shall be mud in very large quantity. It shall contain dust, sand and slime where, foot shall sink in it while walking. It shall be very difficult for pedestrians and other mobile living beings to move on it. मनुष्यों का स्वभाव-व्यवहार NATURE OF HUMAN BEINGS ४६. [प्र. २ ] तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? [उ. ] गोयमा ! मणुआ भविस्संति दुरूवा, दुबण्णा, दुगंधा, दुरसा, दुफासा, अणिट्ठा, अकंता, ॐ अप्पिआ, असुभा, अमणुना, अमणामा, हीणस्सरा, दीणस्सरा, अणिट्ठस्सरा, अकंतस्सरा, अप्पिअस्सरा, अमणामस्सरा, अमणुण्णस्सरा, अणादेज्जवयणपच्चायाता, पिल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-बंधवेरनिरया, मजायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जणिच्चुज्जुया गुरुणिओगविणयरहिआ य, विकलरूवा, परूढ-ॐ । णह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस-समावण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलिअकेसा, बहुण्हारु णिसंपिणद्धदुईसणिज्जरूवा, संकुडिअ-वलीतरंग-परिवेढिअंगमंगा, जरापरिणयव्वथेरगणरा, पविरल-, 卐 परिसडिअ-दंतसेढी. उन्भडघडमहा. विसमणयण-वंकणासा, वंकवलीविगयभेसणमहा, दद्द-विकिटिभ 卐5555555555555555555555555555555555555555555555558 95555555555555 15459 | द्वितीय वक्षस्कार (109) Second Chapter Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफ्र फफफफफफफफफ 卐 卐 ४६. [ प्र. २ ] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आकार / स्वरूप कैसा होगा ? [उ.] गौतम ! उस समय मनुष्यों का रूप, रंग, गंध, रस तथा स्पर्श अनिष्ट- अच्छा नहीं लगने वाला, अकान्त - कमनीयतारहित, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ-मन को नहीं भाने वाला तथा अमनोऽम- मन को नहीं रुचने वाला होगा। उनका स्वर हीन, दीन, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोगम्य और अमनोज्ञ होगा। उनका वचन, जन्म अशोभन होगा। वे निर्लज्ज, छल, दूसरों को ठगने हेतु विविध प्रयत्न वाले होंगे। झगड़ा, रज्जु आदि द्वारा बन्धन तथा शत्रुभाव में निरत होंगे। मर्यादाएँ लाँघने, तोड़ने में प्रधान, अकार्य करने में सदा उद्यत एवं गुरुजन के आज्ञा-पालन और विनय से रहित होंगे। वे असंपूर्ण देहांगयुक्त - काने, लँगड़े, चतुरंगुलिक आदि, आजन्म संस्कारशून्यता के कारण बढ़े हुए नख, 5 केश तथा दाढ़ी-मूँछयुक्त, काले, कठोर स्पर्शयुक्त, गहरी रेखाओं या सलवटों के कारण फूटे हुए मस्तकयुक्त, धुएँ के से वर्ण वाले तथा सफेद केशों से युक्त, अत्यधिक स्नायुओं - नाड़ियों से परिबद्ध या फ्र छाये हुए होने से दुर्दर्शनीय रूपयुक्त, देह में पास-पास पड़ी झुर्रियों की तरंगों से परिव्याप्त अंगयुक्त, 卐 से 卐 5 जरा-जर्जर बूढ़ों के सदृश, दूर-दूर टूटी दन्त श्रेणीयुक्त, घड़े के विकृत मुख सदृश मुखयुक्त अथवा भद्दे 5 卐 में उभरे हुए मुख तथा घांटी युक्त, असमान नेत्रयुक्त, टेढ़ी नासिकायुक्त, झुर्रियों से वीभत्स, भीषण 卐 5 मुखयुक्त, दाद, खाज आदि से विकृत, कठोर चर्मयुक्त, चितकबरे अवयवमय देहयुक्त, पाँव एवं खसर- फ्र नामक चर्मरोग से पीड़ित, कठोर, तीक्ष्ण नखों से खाज करने के कारण व्रणमय या खरोंची हुई देहयुक्त, टोलगति - ऊँट आदि के समान चालयुक्त या टोलाकृति - विकृत आकारयुक्त, टेड़ी-मेढ़ी अस्थियुक्त, 5 पौष्टिक भोजनरहित, शक्तिहीन, जिनका संहनन, परिमाण, संस्थान एवं रूप, कुत्सित होना था। आश्रय, 卐 卐 सिन्भफुडिअ - फरुसच्छवी, चित्तलंगमंगा, कच्छूखसराभिभूआ, खरतिक्खणक्ख - कंडूइअ - विकयतणू, फ्र टोलगतिविसमसंधिबंधणा, उक्कडुअट्ठि - अविभत्तदुब्बलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिआ, कुट्ठाणासण - कुसेज्कुभोइणो, असुइणो, अणेगवाहिपीलि अंगमंगा, खलंतविन्भलगई, सत्तपरिवज्जिया विगयचेट्ठा, नट्ठतेआ, अभिक्खणं सीउण्ह - खरफरुस - वायविज्झडिअ - मलिण- फ्र पंसुर ओगुंडि अंगमंगा, बहुकोमाणमायालोभा, बहुमोहा, असुभदुक्खभागी, कुरुवा, णिरुच्छाहा, धम्मसण्णसम्मत्तपरिब्भट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता, सोलसवीसइवासपरमाउसो, बहुपुत्त- 5 परियालपणयबहुला गंगासिंधूओ महाणईओ वेअड्डुं च पळयं नीसाए बावत्तरिं णिगोअबीअं बीअमेत्ता बिलवासो मणुआ भविस्संति । 卐 卐 आसन, शय्या तथा भोजन भी कुत्सित अपवित्र होगा । अथवा श्रुत-शास्त्र ज्ञान-वर्जित, अनेक व्याधियों क 5 से पीड़ित लड़खड़ाकर चलने वाले, उत्साहरहित, सत्त्वहीन, निश्चेष्ट, तेजोविहीन, निरन्तर शीत, उष्ण, 5 卐 रूप 5 कठोर वायु से व्याप्त शरीरयुक्त, मलिन धूलि से आवृत देहयुक्त होंगे बहुत क्रोधी, अहंकारी, 5 मायावी, लोभी तथा मोहमय, अशुभ कार्यों के परिणामस्वरूप अत्यधिक दुःखी, प्रायः धार्मिक श्रद्धा तथा 5 卐 ओसणं तीक्ष्ण, सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट होंगे। उत्कृष्टतः उनके शरीर की ऊँचाई - एक हाथ - ( चौबीस अंगुल) की होगी । उनका अधिकतम आयुष्य - स्त्रियों का सोलह वर्ष का तथा पुरुषों का बीस वर्ष का होगा। अपने पौत्रमय Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 5 5 5 5 5 55 55 5 595555955 5 5 5 5 5 5 55 5 55 (110) 卐 இதததததததததததி*********************தமிழி 55555555 फ्र 卐 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 5 5 55 5 55 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 परिवार में उनका बड़ा प्रेम या मोह रहेगा। वे गंगा महानदी, सिन्धु महानदी के तट तथा वैताढ्य पर्वत के आश्रय में बिलों में रहेंगे। वे बिलवासी मनुष्य संख्या में बहत्तर होंगे। उनसे भविष्य में फिर मानवजाति का विस्तार होगा।' 46. [Q. 2] Reverend Sir ! What shall be the figure and nature of human beings at that time? [Ans.] Gautam ! The complexion, colour, smell, touch and the like of those human beings shall not be pleasant. It shall be despicable, bad and without any attraction. It shall not be pleasant to the mind. Their voice shall be without any beauty, poor, very low, unattractive and angur bad happening. Their birth shall be non-meritorious. They shall be shameless and shall make various efforts to deceive others. They shall be of quarrelsome nature and shall always be engaged in keeping others in the rope-bondage with an inimical altitude. They shall be in the forefront in transgressing the established restraints, in breaking the traditions and shall be always ready to do an undesirable act. They shall not obey the command of their teachers and shall not have any humility towards them. They shall have deformed body and their body parts shall not be completesay being one-eyed, one-legged or having only four fingers and the like. As they shall not gain good guidance since their birth they shall have large protruding nails, hair, beard and moustaches. They shall be dark complexioned and of rough touch. In view of deep lines and wrinkles on their face, they shall appear to have broken fore-head. They shall be smokecoloured and shall have white hair. They shall have too many protruding nerves. So, they shall look ugly. The parts of their body shall be covered १. छठे आरे के वर्णन में ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है २१,००० वर्ष 'दुषम- दुषमा' नामक छट्टे आरे का आरम्भ होगा, तब भरत क्षेत्राधिष्ठित देव पंचम आरे के विनाश पाते हुए पशु व मनुष्यों में से बीज रूप कुछ पशु, मनुष्यों को उठाकर वैताढ्य गिरि के दक्षिण और उत्तर में जो गंगा और सिन्धु नदी हैं, उनके आठों किनारों में से एक-एक तट में नव-नव बिल हैं एवं सर्व ७२ बिल हैं और एक-एक बिल में तीन-तीन मंजिल हैं, उनमें उन पशु व मनुष्यों को रखेंगे। ७२ बिलों में से ६३ बिलों में मनुष्य, ६ बिलों में स्थलचर पशु एवं ३ बिलों में खेचर पक्षी रखेंगे। 1. It also finds mention in the description of sixth aeon as under At the time when the fifth aeon Dukham-Dukhma is going to start, the guarding angel of Bharat area shall pick up some animals and human beings of fifth aeon as seed and shall place them in the holes on eight banks of Ganga and Sindhu river in the south and north of Vaitadhya mountain. There are nine holes at each bank. Thus, there are 72 holes in all. Each hole has three storeys. They shall place animals and human beings in them. In 63 holes they shall keep human beings, in six holes animals and in three holes the birds. द्वितीय वक्षस्कार (111) 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55555555 5 5555 5 5 5 5 5 5 Second Chapter Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AF55555听听听听 卐55555 u乐听听听听听听听听听听听听听听F 5555555555 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 4 with waves of deep wrinkles. They shall look like very old and frail person. 15 4 Their line of teeth shall be broken and shall have large gaps. Their face i shall be like a deformed mouth of a pitcher. Their face shall be badly protruding outwards. Their eyes shall be unequal. Their nose shall be i oblique. Their face shall be wrinkled and dreadful. Their body shall be rough and spotted due to skin diseases. Their gait shall be like that of a camel or the like. They shall have deformed bones. They shall be living on unenergetic food, their feet shall be affected by skin discases such as exima. Their nails shall be hard and sharp. They shall have scratched skin and 4 wounds due to scratchings by sharp nails. They shall be weak. Their body structure, size, shape and appearance shall be condemnable. Their support, scat, bed and food shall also be bad and impure. They shall be without spiritual knowledge. They shall be suffering from many diseases. They shall be moving in a crooked manner. They shall be without any courage, strength or brightness. They shall have the body that had continuously suffered cold, sharp and rough winds. They shall have dirty body covered with dust. They shall be influenced by passions namely anger, ego, greed and deceit. They shall be infatuated with attachment. They shall be extremely unhappy as a result of demeritorious deeds. They shall be mostly 451 fallen from right faith and true spiritual conation. Their maximum height shall be one haath (a unit of measurement equal to thickness of 24 fingers). 46 The maximum life-span of ladies shall be sixteen years and of men twenty years. They shall have great attachment in their grand children. They shall remain in the holes near Ganga and Sindhu rivers. The persons living in holes shall be seventy two in number. Later the human race shall develop from those 72 persons. ॐ मनुष्यों का आहार-व्यवहार THE FOOD AND BEHAVIOUR OF PEOPLE ४६. [प्र. ३ ] ते णं भंते ! मणुआ किमाहारिस्संति ? [उ. ] गोयमा ! ते णं कालेणं ते णं समएणं गंगासिंधूओ महाणईओ रह-पहमित्तवित्थराओ अक्खसोअप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिंति। सेवि अणं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव णं आउबहुले भविस्सइ। तए णं ते मणुआ सूरुग्गमणमुहूत्तंसि अ सूरत्थमणमुहूत्तंसि अ बिलेहितो णिद्धाइस्संति, विलहितो णिद्धाइत्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहेहिंति, मच्छकच्छभे थलाई गाहेत्ता सीआतवतत्तेहिं मच्छकच्छभेहि ॐ इक्कवीसं वाससहस्साई वित्तिं कप्पेमाणा विहरिस्संति।। म [प्र.] ते णं भंते ! मणुआ णिस्सीला, णिव्वया, णिगुणा, णिम्मेरा, णिप्पच्चक्खाणपोसोहववासा, ॐ ओसण्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खुड्डाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति, कहिं उववन्जिहिंति ? 955555 8955555555555555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (112) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रफ़ फ्र [उ. ] गोयमा ! ओसण्णं णरग-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जिर्हिति । [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए सीहा, वग्घा, विगा, दीविआ, अच्छा, तरस्सा, परस्सरा, सरभसियाल - बिराल - सुणगा, कोलसुणगा, ससगा, चित्तगा, चिल्ललगा ओसण्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खोहाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिर्हिति कर्हि उववज्जिर्हिति ? [उ. ] गोयमा ! ओसण्णं णरग-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जिर्हिति । [प्र.] ते णं भंते ! ढंका, कंका, पीलगा, मग्गुगा, सिही ओसण्णं मंसाहारा, कहिं गच्छिहिंति कहिं उववज्जिहिंति ? [ उ. ] गोयमा ! ओसण्णं णरग-तिरिक्खजोणिएसु-उववज्जिर्हिति । ४६. [ प्र. ३ ] भगवन् ! वे मनुष्य कैसा आहार करेंगे ? [उ.] गौतम ! उस काल में गंगा महानदी और सिन्धु महानदी ये दो नदियाँ रहेंगी। रथ चलने के लिए अपेक्षित पथ जितना मात्र उनका विस्तार होगा। उनमें रथ के चक्र के छेद की गहराई जितना गहरा जल रहेगा। उनमें अनेक मत्स्य तथा कच्छप- कछुए रहेंगे। उस जल में सजातीय अप्काय के जीव नहीं होंगे। वे मनुष्य सूर्योदय के समय तथा सूर्यास्त के समय अपने बिलों से तेजी से दौड़कर निकलेंगे। बिलों से निकलकर मछलियों और कछुओं को पकड़ेंगे, किनारे पर लायेंगे। किनारे पर लाकर रात में शीत द्वारा तथा दिन में आतप द्वारा उनको रसरहित बनायेंगे, सुखायेंगे। इस प्रकार वे अतिसरस खाद्य को पचाने में असमर्थ अपनी जठराग्नि के अनुरूप उन्हें आहार योग्य बना लेंगे। इस आहार - र-वृत्ति द्वारा वे इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त अपना निर्वाह करेंगे। [प्र.] भगवन् ! वे मनुष्य, जो शीलरहित - आचाररहित, महाव्रत- अणुव्रतरहित, उत्तरगुणरहित, कुल आदि की मर्यादाओं से रहित, त्याग, पौषध व उपवासरहित होंगे, प्रायः माँसभोजी, मत्स्यभोजी, यत्र-तत्र अवशिष्ट तुच्छ धान्यादिकभोजी, कुणिमभोजी - वसा या चर्बी आदि दुर्गन्धित पदार्थ खाने वाले होंगे। अपना आयुष्य समाप्त होने पर मरकर कहाँ जायेंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? [उ. ] गौतम ! वे प्रायः नरकगति और तिर्यंचगति में उत्पन्न होंगे। [प्र.] भगवन् ! उस काल में सिंह, बाघ, भेड़िए, चीते, रीछ, तरक्ष- बाघ जाति के हिंसक जन्तु - जैसे गेंडे, शरभ - अष्टापद, शृगाल, बिलाव, कुत्ते, जंगली कुत्ते या सूअर, खरगोश, चीतल तथा चिल्ललक, जो प्रायः माँसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी तथा कुणपाहारी होते हैं, मरकर कहाँ जायेंगे ? कहाँ उत्पन्न होंगे ? [उ. ] गौतम ! वे प्रायः नरकगति और तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होंगे। [प्र.] भगवन् ! ढंक-काक विशेष, कंक-कठफोड़ा, पीलक, मद्गुक-जल काक, शिखी - मयूर, जो प्रायः माँसाहारी होते हैं, मरकर कहाँ जायेंगे ? कहाँ उत्पन्न होंगे। [.] गौतम ! वे प्रायः नरकगति और तिर्यञ्चगति में जायेंगे । द्वितीय वक्षस्कार (113) 695 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 55 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 Second Chapter Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 454 455 456 45 46 47 48 444445445454545454545454545454545454545454545454545454545455 456 457 45 46. [Q. 3] What type of food shall the human beings take at that time? [Ans.] Gautam ! There shall be only two rivers Ganga and Sindhu at that time in existence. Their width shall be just that of the path on which a cart can move and the depth shall be that of the wheel in the cart. Many fish and tortoise shall live in that water. There shall not be any water-bodied beings of that class. Those human beings shall come out from their caves running quickly at the time of sunrise and sunset. They shall catch the fish and tortoise and bring them at the bank. They shall make them juiceless and dry in the cold at night and in the sun during the day. Since they are not 4 capable of digesting a very juicy food, they shall turn it worthy of their ! digestion. They shall pass on their life taking such a food. In this way 21,000 years of this aeon shall pass. (Q.) Reverend Sir! Those human being who are without chastity, who are not following five major vows or five partial vows, who have no higher spiritual qualities, who are not following family traditions, who do not observe fasts or paushadh or any such restraints, who are 4 generally meat-eaters, fish-eaters, or consumers of dirty food, who are $ non-vegetarians, and consume animal fat or bad-smelling things; where i shall they be re-born after this life-span ? [Ans.] Gautam ! Normally they shall be reborn in hell or in subhuman state. (Q.) Reverend Sir ! The animals of that period, including lion tiger, olf, leopard, bear, Taraksh (a type of tiger), rhino, sharabh facked, cat, dog, wild dog or pig, rabit, deer, etc are generally meat, fish, lowls food \i and carrion eaters. Where will these go after death and be born ? (Ans.] Gautam ! They will mostly be born as infernal beings or animals. 45 (Q) Bhagvan ! The birds of that period, including raven, woodpecker, 45 4 duck, peacock are generally meat-eaters. Where will these go after death and be born ? [Ans.] Gautam ! The will mostly be born as infernal beings or animals. Tartof 324–3447–59440177 DUKHAM-DUKHMA PERIOD OF UTSARPANI ४७. तीसे णं समाए इक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कते आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइणक्खत्ते चोद्दसपढमसमये अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव + अणंतगुण-परिविद्धीए परिवद्धेमाणे २ एत्थ णं दूसम-दूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! 455 456 457 455 456 455 456 455 456 457 456 455 456 457 455 456 457 455 456 45 55 55 55 45 455 456 457 45545454545454545454545454 455 456 4572 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (114) Jambudveep Prajnapti Sutra 454 455 456 457 451 454545454545454545454545454545454545454545454 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))) נ ת ת ת ת ת ת ת ת נ ת ה ת ))))))))))) ב ו 355555555555555555555555) ) ) )) [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? # [उ. ] गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए एवं सो चेव दूसम-दूसमावेढओ णेअव्वो। ४७. आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस अवसर्पिणी काल के छठे आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर आने वाले उत्सर्पिणी-काल का श्रावण मास. कष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन बालव नामक करण में चन्द्रमा के साथ अभिजित नक्षत्र का योग होने पर चतुर्दशविध काल के प्रथम समय में दुषम-दुषमा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि अनन्त गुण-परिवृद्धि-क्रम से परिवर्द्धित होते जायेंगे। म [प्र. ] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र का आकार/स्वरूप कैसा होगा? म [उ. ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय हाहाकारमय, चीत्कारमय स्थिति होगी, जैसा अवसर्पिणी काल के छठे आरक के सन्दर्भ में वर्णन किया गया है। # 47. Blessed Gautam ! After the completion of 21,000 years of sixth fi aeon of Avasarpani time-cycle on the first day of dark fortnight of the fi month of Shravan when Abhijit constellation is in line with the moon in the first part of fourteen types of time period, Dukham-Dukhma the first 5 aeon of Utsarpani time-cycle shall start. There shall be gradual increase fi in the colour and the like of various things. (Q.) Reverend Sir ! What shall be the shape of Bharat area at that time? (Ans.] Blessed Gautam ! The condition at that time shall be very dreadful and perturbed. It shall be the same as that of the sixth aeon of Avasarpani time-cycle already mentioned above. दुषमा-द्वितीय आरक : पुष्कर संवर्तक महामेघ DUKHMA-THE SECOND AEON : PUSHKAR CLOUDS ४८. [१] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिवुद्धीए परिवद्धेमाणे २ एत्थ णं दूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ भरहप्पमाणमित्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं। तए णं से पुक्खलसंवट्टए महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, खिप्पामेव पतण-तणाइत्ता खिप्पामेव पविजुआइस्सइ, खिप्पामेव पविज्जुआइत्ता खिप्पामेव जुग-मुसलमुट्ठिप्पमाणमित्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूअं, मुम्मुरभूअं, छारिअभूअं, तत्तकवेल्लुगभूअं, तत्तसमजोइभूअंणिव्बाविस्सति त्ति। ४८. [१] उस उत्सर्पिणी काल के प्रथम आरक दुषम-दुषमा के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उसका दुषमा नामक द्वितीय आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि अनन्त गुण-परिवृद्धि-क्रम से परिवर्द्धित होते जायेंगे। ב ת וכתב וב ובו 卐))))))))))))))))))))))))))) द्वितीय वक्षस्कार (115) Second Chapter %% %%%%%%%%%% %%%%% %%% %%%%% %%%%%%%%%% Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 फ्र उस उत्सर्पिणी काल के दुषमा नामक द्वितीय आरक के प्रथम समय में भरत क्षेत्र की अशुभ फ्र अनुभावमय रूक्षता, दाहकता आदि का अपने प्रशान्त जल द्वारा शमन करने वाला पुष्कर - संवर्तक नामक महामेघ प्रकट होगा। वह महामेघ लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरत क्षेत्र जितना होगा। वह 卐 पुष्कर - संवर्तक महामेघ शीघ्र ही गर्जन करेगा, उसमें बिजलियाँ चमकने लगेंगी, शीघ्र ही वह युग- रथ 5 के अवयव विशेष (जूंवा), मूसल और मुष्टि - परिमित-मोटी धाराओं से सात दिन-रात तक सर्वत्र एक जैसी वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरत क्षेत्र के अंगारमय, मुर्मुरमय, क्षारमय, तप्त-कटाह सदृश, सब फ ओर से परितप्त तथा दहकते भूमिभाग को शीतल करेगा। फ्र 48. [1] After the completion of 21,000 years of the first aeon dukhamdukhma of Utsarpani time-cycle, the second aeon dukhma shall start. There shall be gradual increase in modes like colour and others. In the first Samay (unit of time) of the second aeon of Utsarpani 卐 time-cycle Pushkar Samvartak (circular) great cloud shall appear. It फ्र shall have the capacity of eliminating badly experienced dryness, burning nature of the land of Bharat area with its quietly raining water. That great cloud shall be in length expanse and breadth equal to Bharat area. It shall soon make roaring sound. The thunder and lightening shall shine in it. Soon it shall start raining which shall continue for seven days and seven nights. The rain shall be uniform and as thick as the yoke, rod or the fist. Thus the Bharat area whose land was burning like embers and was extremely hot due to scorching sun shall become cool. क्षीर, घृत, अमृत, रसमेघ वृष्टि RAIN OF MILK, GHEE, AMRIT JUICY CLOUDS 5 फ्र க 5 फ्र (116) 卐 卐 ४८. [ २ ] तंसि च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं खीरमेहे णामं महामे पाउ भविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खं भवाहल्लेणं । तए णं से 5 खीरमे णामं माहमे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ खिप्पामेव जुगलमुसलमुट्ठि - (प्यमाणमित्ताहिं धाराहिं ओघमेघं) सत्तरतं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहवासस्स भूमीए वण्णं गंधं रसं फासं च जणइस्सइ । ४८. [२] सात दिन-रात तक पुष्कर - संवर्तक महामेघ के बरस जाने पर क्षीरमेघ नामक महामेघ प्रारम्भ होगा। वह लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरत क्षेत्र जितना होगा। वह क्षीरमेघ नामक फ्र विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा, शीघ्र ही युग, मूसल और मुष्टिं (परिमित धाराओं से सर्वत्र एक 卐 सदृश) सात दिन-रात तक वर्षा करेगा । यों वह भरत क्षेत्र की भूमि में शुभ वर्ण, शुभ गन्ध, शुभ रस फ्र तथा शुभ स्पर्श उत्पन्न करेगा, जो पूर्वकाल में अशुभ हो चुके थे। சு फ्र 5 फ्र 5 卐 卐 फ 48. [2] After the raining for seven days of Pushkar-Samvartak clouds, 5 the ksheer cloud (cloud containing milk-like water) shall start raining. फ्र Its length, breadth and expanse shall be equal to Bharat area. That cloud shall soon start roaring and then it shall rain continuously for 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र 55555 卐 卐 卐 फ्र Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ seven days. The rainfall shall be uniform and dropping as thick as the es, rod or fist. Thus, it shall produce good colour, smell, juice and touch in the land of Bharat area which had earlier gone bad. ४८. [ ३ ] तंसि च णं खीरमेहंसि सत्तरतं णिवतितंसि समाणंसि इत्थ णं घयमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभवाहल्लेणं। तए णं से घयमेहे महामेहे खिप्पामेव पतण-तणाइस्सइ जाव वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमीए सिणेहभावं जणइस्सइ। ४८. [३] उस क्षीरमेघ के सात दिन-रात बरस जाने पर घृतमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा। वह लम्बाई, चौड़ाई और विस्तार में भरत क्षेत्र जितना होगा। वह घृतमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा, वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरत क्षेत्र की भूमि में स्नेहभाव-स्निग्धता उत्पन्न करेगा। ___48. [3] After seven day rainfall of ksheer cloud, ghrit Megh (the cloud whose rain water shall be like, liquid butter) shall appear. Its length, breadth and expanse shall be equal to Bharat area. That cloud shall soon make a roaring sound and rain. Thus, it will create softness in the land of Bharat region. ४८. [ ४ ] तंसिं च णं घयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं अमयमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमित्तं आयामेणं जाव वासं वासिस्सइ। जेणं भरहेवासे रुक्ख-गुच्छ-गुम्मलय-वल्लि-तण-पबग-हरित-ओसहि-पवालंकुर-माईए तणवणस्सइकाइए जणइस्सइ। ४८.[४] उस घृतमेघ के सात दिन-रात तक बरस जाने पर अमृतमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा। वह लम्बाई आदि में भरत क्षेत्र जितना होगा। एक जैसी सात दिन-रात वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरत क्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण-घास, पर्वग-गन्ने आदि, हरित-हरियाली-दूब आदि, औषधि-जड़ी-बूटी, पत्ते तथा कोंपल आदि बादर (२४ प्रकार की) वनस्पतियों को उत्पन्न करेगा। 48. [4] After seven day rainfall of ghrit Megh, amrit Megh (the cloud containing nectar) shall appear. Its length, breadth and expanse shall be equal to Bharat continent. It shall uniformally rain for seven days continuously. This rainfall shall produce trees, gulms, creepers, grass, greenery, herbs, leaves, petals and the like (24 types of vegetation). ४८. [५] तंसिं च णं अमयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं रसमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं जाव सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ। जेणं तेसिं बहूणं रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वग-हरित-ओसहि-पवालंकुर-मादीणं तेत्त-कडुअ-कसाय-अंबिल-महुरे पंचविहे रसविसेसे जणइस्सइ। तए णं भरहे वासे भविस्सइ परूढ-रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्ययग-हरिअओसहिए, वचिय-तय-पत्त-पवालंकुर-पुप्फ-फलसमुइए, सुहोवभोगे आवि भविस्सइ। द्वितीय वक्षस्कार (117) Second Chapter 955555 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B95555 ))) ))))) )))) ))))55558 ४८. [ ५ ] उस अमृतमेघ के सात दिन-रात तक बरस जाने पर रसमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा। ॥ ॐ वह लम्बाई, चौड़ाई आदि में भरत क्षेत्र जितना होगा। यावत् सर्वत्र एक जैसी सात दिन-रात वर्षा करेगा। इस प्रकार बहुत से वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल के आदि में तिक्त-तीता, कटुक-कडुआ, कषाय-कसैला, अम्ल-खट्टा तथा मधुर-मीठा, पाँच प्रकार के के रस उत्पन्न करेगा-रस-संचार करेगा। तब भरत क्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल आदि ॐ उगेंगे। उनकी त्वचा-छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल, ये सब परिपुष्ट होंगे, सम्यक्तया म उदित या विकसित होंगे, सुखपूर्वक सेवन करने योग्य होंगे। 48. [5] After seven day rainfall of Amrit Megh, Rasa Megh (Juicy cloud) shall appear. It shall be equal in breadth, length and expanse equal to Bharat area and shall uniformally rain for seven days. Thus it shall produce juice in trees, gulms, creepers, greenery, grains, leaves, petals and the like. The juice shall be of all the five types namely sharp, bitter, sour, sweet. Then in Bharat land trees, creepers, foodgrain, greenery, leaves, petals and suchlike vegetation shall flourish. Its skin, leaves, petals, flowers and fruit shall come up and develop properly. They shall be worthy of consumption. सुखद परिवर्तन और शुभ संकल्प HAPPY CHANGE AND GOOD RESOLVE ४९. तए णं से मणुआ भरहं वासं परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वय- हरिअओसहीअं, उवचिय-तय-पत्त-पवाल-पल्लवंकुर-पुष्फ-फल-समुइअं, सुहोवभोगं जायं २ चावि ॐ पासिहिंति, पासित्ता बिलेहितो णिद्धाइस्संति, गिद्धाइत्ता हद्वतुट्ठा अण्णमण्णं सहाविस्संति, सद्दावित्ता एवं वदिस्संति-जाते णं देवाणुप्पिआ ! भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पब्वय-हरिय जाव सुहोवभोगे, तं जे णं देवाणुप्पिआ ! अहं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहारिस्सइ, १. विशेष : पुष्कर संवर्तक मेघ की वृष्टि के पश्चात् ७ दिन वर्षा बन्द रहती है। पुनः क्षीर मेघ की वृष्टि के पश्चात् ७ दिन वर्षा बन्द रहती है। इस प्रकार २ + ५ कुल सात सप्ताह (४९ दिन) पश्चात् बिलवासी मानव बिलों से बाहर निकलकर माँसाहार को छोड़ देंगे। यह समय श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक का आता है। (आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ १०२) 1. Acharya Amolak Rishi has mentioned at pp. 102 in Jain Tattva Prakash, that after rainfall of Pushkar Samvartak cloud, the rainfall remains stopped for seven days and again after rain by ksheer Megh, the rain remains stopped for seven days. Thus the total period of rainfall and the two stoppage comes to 49 days. Then the human beings who were living in caves or holes come out and discard nonvegetarian food. It shall be from the first day of dark fortnight of Shravan up to fifth day of bright fortnight of Bhadra month. 4FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF FFFFFFFFFFFFFF 955555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (118) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहत्याकासकल्पब वालापणा काल: दुधम-दुषमा नामक छठवें आरे का दृश्य उत्सर्पिणी काल : दुःषमा आरा (सुखद परिवर्तन) तीव्र सूर्य का प्रकाश जल क्षीर-घृत-अमृत रस वर्षा के परिणाम स्वरूप हरियाली छायी। पेड़ों पर फल-फूल कोपल आदि आये। वैताढ्य पर्वत केबिलों में वास मनुष्यों ने मांसाहार त्यागकर फल फूल सेवन का निश्चय किया। गर्म बालू में मछलियाँ दबाते हुये। 1 पतली सकरी गंगा नदी मछलिया पकड़ता बीने बेडौल मनुष्य। नदी जल से परिपूर्ण हो गयी। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555555555555 | चित्र परिचय५ । मांसाहार त्याग का संकल्प १. अवसर्पिणी काल के छठे आरे दुःषम-दुःषमा काल में मनुष्यों का आकार एक हाथ चौबीस अंगुल प्रमाण हो जायेगा। आयु २० वर्ष रह जायेगी। शरीर में आठ पसलियाँ होंगी। वे वैताढ्य पर्वत के बिलों में वास करेंगे। रात्रि में शीत और दिन में सूर्य का ताप प्रबल होगा। वे सूर्योदय और सूर्यास्त के समय एक मुहुर्त के लिये बिल से बाहर निकलकर गंगा और सिन्धु नदियों में कछुये-मछली आदि पकड़ेंगे और उन्हें रेत में गाड़ देंगे और बिलों में वापस भाग जायेंगे। कछुये-मछली आदि शीत अथवा ताप से पक जायेंगे तो दूसरी बार उन्हें आकर ऊ निकाल लेंगे और लूट-लूटकर खा जायेंगे। उस काल में मनुष्य दीन-हीन, दुर्बल, बीमार, कुसंस्कारी, अपवित्र 卐 होंगे। २. अवसर्पिणी काल के छठे आरे के २१००० वर्ष बीत जाने के पश्चात् उत्सर्पिणी काल का पहला आरा 卐 दु:षम-दुःषमा, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रारम्भ होगा। यह अवसर्पिणी काल के छठे आरे की तरह ही होगा। फर्क सिर्फ इतना होगा कि मनुष्यों की आयु और अवगाहना बढ़ने लगेगी। ॐ इस आरे के २१००० वर्ष और बीत जाने के पश्चात् उत्सर्पिणी काल का दुःषमा नामक दूसरा आराम 卐 प्रारम्भ होगा। इस आरे के प्रारम्भ होते ही भरत क्षेत्र में घने-घने मेघ छा जायेंगे। जल क्षीर- घृत-अमृत और रस 5 की वृष्टि होगी। जिससे पृथ्वी की सब दुर्गन्ध दूर हो जायेगी। चारों ओर हरियाली छा जायेगी। वृक्षों पर। कोपलें-फल-फूल आदि उत्पन्न होने लगेंगे। मनुष्य बिलों से निकलकर फल आदि का सेवन करने लगेंगे। म卐 धुर स्वाद से परिपूर्ण फलों के सेवन से मांसाहार का परित्याग करेंगे और मांसाहार से घृणा करते हुए मांसाहार का त्याग का संकल्प ले लेंगे। गंगा और सिन्धु नदियाँ जल से भर जायेंगी। शुभ पर्यायों में अनन्त गुणी वृद्धि होती रहेगी। चारों ओर सखद परिवर्तन हो जायेगा। -वक्षस्कार २, सूत्र ४६ से ४९ तक 555555555555 5555 1. During the sixth epoch, Dukham-dukhama, of the regressive half-cycle of time the height of human beings will become one cubit or 24 Anguls. The life-span will reduce to mere 20 years. There will be only eight ribs. They will live in holes in Vaitadhya mountain. Nights will be extremely 4 cold and days will be extremely hot. They will come out of there holes only at dawn and dusk just for 45 Lione Muhurt. At that time they will catch tortoises and fish from Ganga and Sindhu rivers, bury them 45 in the sand and rush back to their holes. By the time of their next outing their earlier kills will roast 15 or freeze. They will dig these out and eat fighting and snatching. In that epoch human beings will be poor, lowly, weak, sick, ill-mannered and dirty. 2. At the end of the 21,000 year period of the sixth epoch of the regressive half-cycle will commence the first epoch, Dukham-dukhama, of the progressive half-cycle. The date would be the first day of the dark half of the month of Shravan. This epoch will be same as the sixth epoch of the regressive half-cycle. The only difference is the life-span and size of the human beings will gradualiy increase. At the end of 21,000 years of this epoch will commence the second epoch, Dukhama, of the progressive half-cycle. At the beginning of this epoch intense clouds will cover the whole sky of Bharat area. There will be rains of water with qualities of milk, butter, and ambrosia. This will wash away all the dirt and stench on the earth. Greenery will spread all around. New leaves, flowers and fruits will sprout on trees. Human beings will come out of there holes and start eating fruits and vegetables. The tasty fruits will inspire them to stop eating meat. Soon they will become averse to - eating meat and resolve to be vegetarians. Water level in Ganga and Sindhu rivers will start rising. Noble qualities will enhance in leaps and bounds bring about a pleasant change all around. - Vakshaskar-2, Sutra-46-49 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफ सेणं अणेगाहिं छायाहिं वज्जणिज्जेत्ति कट्टु संटिइं ठवेस्संति, ठवेत्ता भरहे वासे सुहंसुहेणं अभिरममाणा २ विहरिस्सति । ४९. तब वे बिलवासी मनुष्य देखेंगे - भरत क्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि - ये सब उग आये हैं। छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प तथा फल परिपुष्ट, समुदित एवं उपभोग के लिए सुलभ हो गये हैं। ऐसा देखकर वे बिलों से निकल आयेंगे। निकलकर हर्षित एवं प्रसन्न होते हुए एक-दूसरे को पुकारकर कहेंगे- देवानुप्रियो ! भरत क्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, सब उग आये हैं। यावत् तथा सुखोपभोग्य हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! आज से हममें से जो कोई अशुभ, माँसमूलक आहार करेगा, ( उसके शरीर-स्पर्श की तो बात ही दूर), उसकी छाया तक को नहीं छूएँगे । ऐसा निश्चय कर वे समीचीन व्यवस्था स्थापित करेंगे, तथा भरत क्षेत्र में सुखपूर्वक, सोल्लास रहेंगे। 49. Then those human beings who were living in caves shall see that in Bharat area trees, creepers, food grain and vegetation has grown in plenty. Their skin, leaves, petals, flower and fruit have fully developed. They are easily available and are worthy of consumption. They shall then come out of their caves feel pleased and address each other, "O beloved of gods! From today, we shall not even go in the shadow of that person who shall take non-vegetarian food. (The question of touching the body of such a person does not even arise.) After such a resolve, they shall establish administrative set up and live nicely in Bharat area enjoying the benefits of nature. दुषमा : द्वितीय आरक DUKHMA : SECOND AEON ५०. [प्र.१ ] तीसे णं समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयार भावपडोआरे भविस्सइ ? [ उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव । [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए मणुआणं केरिसए आयार भावपडोयारे भविस्सइ ? [उ. ] गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहूईओ रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउअं पालेहिंति, पालेत्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अप्पेगइआ देवगामी । ण सिज्झति । ५०. [ प्र. १ ] भंते ! उस उत्सर्पिणी काल के दुषमा नामक द्वितीय आरक में भरत क्षेत्र का आकार / स्वरूप कैसा होगा ? [उ.] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। अनेक प्रकार के पंचरंगी कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होगा । [प्र.] भंते ! उस समय मनुष्यों का आकार / प्रकार कैसा होगा ? द्वितीय वक्षस्कार (119) Second Chapter फ्र Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听 山听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFE 955555555555555555555555555555555555 [उ. ] गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे। उनकी ऊँचाई सात हाथ की 卐 होगी। उनका जघन्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष (१३३) का है + आयुष्य होगा। आयुष्य को भोगकर उनमें से कई नरक गति में, (कई तिर्यंच गति में, कई मनुष्य गति म में), कई देव गति में जायेंगे। किन्तु सिद्ध नहीं होंगे। 50. [1] [Q.] Reverend Sir ! What shall be the shape of Bharat area in the second aeon dukhma of Utsarpani time-cycle ? (Ans.] Gautam ! Its land shall be very much levelled and worth seeing. It shall shine with artificial and natural gems of five colours. [Q.] Reverend Sir ! What shall be the shape and structure of human beings then ? (Ans.] Gautam ! Those people shall have all six types of bonestructure and all the six types of shape. Their height shall be seven haath. Their minimum life-span shall be less than 48 minutes (antar muhurt) and the maximum 133 years. After completing their life-span some shall take re-birth in hell, some as sub-humans, some as humans and some as celestial beings. But none shall attain liberation in that period. दुषम-सुषमा आरक DUKHAM-SUKHMA AEON ५०. [२] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव (सूत्र २८ वत्) परिवड्ढेमाणे २ एत्थ णं दुस्सम-सुसमा णामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो ! [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे अकित्तिमेहिं चेव।. [प्र. ] तेसि णं भंते ! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? [उ. ] गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे, छबिहे संठाणे, बहूई धणूई उद्धं उच्चत्तेणं, + जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुचकोडीआउअं पालिहिंति, पालेत्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, है (अप्पेगइआ तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी; अप्पेगइआ देवगामी, अप्पेगइआ सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं) अंतं करेहिति। तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पज्जिस्संति, तं जहा-तित्थगरवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे। तीसे णं समाए तेवीसं तित्थगरा, एक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जिस्संति। ५०. [ २ ] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर ++ उत्सर्पिणी काल का दुषम-सुषमा नामक तृतीय आरक आरम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि क्रमशः परिवर्द्धित होते जायेंगे। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (120) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )5555555555 [प्र. ] भगवन् ! उस काल में भरत क्षेत्र का आकार/स्वरूप कैसा होगा? __[उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल एवं रमणीय होगा। वह नानाविध कृत्रिम, अकृत्रिम * पंचरंगी मणियों से उपशोभित होगा। __[प्र. ] भगवन् ! उन मनुष्यों का आकार/स्वरूप कैसा होगा? [उ. ] गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन तथा संस्थान होंगे। उनके शरीर की ऊँचाई अनेक धनुष-परिमाण होगी। जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि तक का उनका आयुष्य म होगा। आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक गति में (कई तिर्यंच गति में, कई मनुष्य गति में, कई देव गति में जायेंगे, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होंगे) समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। म उस काल में तीन वंश उत्पन्न होंगे-(१) तीर्थंकर वंश, (२) चक्रवर्ति वंश, तथा (३) दशार # वंश-बलदेव-वासुदेव वंश। ___ उस काल में तेवीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होंगे। fi 50. [2] Blessed Gautam ! After the completion of 21,000 years of Dukhma aeon, the third aeon Dukham-Sukhma of Utsarpani time-cycle shall start. There shall be great improvement in colour, smell, taste, touch and the like of all things gradually. A [Q.] Reverend Sir! What shall be the shape of Bharat area at that time? (Ans.) Gautam ! Its land area shall be very much levelled and F worth seeing. It shall shine with natural and artificial gems of five colours. [ [Q.] Reverend Sir ! What shall be the bone-structure and shape of 5 human beings at that time? ___ [Ans.] Gautam ! Those men shall have all the six types of bonestructure and shape. Their height shall be of many dhanush. Their minimum life-span shall be less than 48 minutes (antar muhurt) and the maximum shall be 10 million poorva. After completing their life-span some shall be re-born in hell, some as sub-humans, some as human beings and some as celestial beings, some shall attain liberation after bring an end to all the miseries of the mundane world. ____Three clans shall originate in that period (1) Tirthankar, (2) Chakravarti clan, (3) Dashaar clan-Baldevas, Vasudevas. Twenty three Tirthankars, eleven Chakravartis, nine Vasudevas and ninc Baldevas shall take birth in that period. गानाaamana B55555555555555555555555555555555555555555555555 | द्वितीय वक्षस्कार (121) Second Chapter 卐5551551955555555555555555555555 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555558 सुषम-दुषमा आरक SUKHAM-DUKHMA AEON ५०. [३] तीसे णं समाए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले + वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिवुद्धीए परिवद्धेमाणे २ एत्थ णं सुसम-दूसमा णामं * समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! सा णं समा तिहा विभज्जिस्सइ-पढमे तिभागे, मज्झिमे तिभागे, पच्छिमे तिभागे। [प्र. ] तीसे णं भंते ! समाए पढमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? __ [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे जाव भविस्सइ। मणुआणं जा वेव ओसप्पिणीए पच्छिमे तिभागे . वत्तव्वया सा भाणिअव्वा, कुलगरवज्जा उराभसामिवज्जा। ____ अण्णे पढंति तं जहा-तीसे णं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जिस्संति तं जहा-सुमई, पडिस्सुई, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, चक्खुमं, जसमं, अभिचंदे, चंदाभे, पसेणई, मरुदेवे, णाभी, उसभे, सेसं तं चेव, दंडणीईओ पडिलोमाओ णेअब्बाओ। तीसे णं समाए पढमे तिभाए रायधम्मे (गणधम्मे पाखंडधम्मे अग्गिधम्मे) धम्मचरणे अ वोच्छिज्जिस्सइ। तीसे णं समाए मज्झिमपच्छिमेसु तिभागेसु पढममज्झिमेसु वत्तव्वया ओसप्पिणीए सा भाणिअव्वा, सुसमा तहेव, सुसमसुसमा वि तहेव जाव छविहा मणुस्सा अणुसज्जिस्संति जाव सण्णिचारी। ५०. [३] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस आरक का बयालीस हजार वर्ष कम एक सागरोपम F कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर उत्सर्पिणी काल का सुषम-दुषमा नामक चतुर्थ आरक प्रारम्भ ॐ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि अनन्त गुण परिवृद्धि क्रम से परिवर्द्धित होंगे। वह काल तीन भागों में विभक्त होगा-प्रथम तृतीय भाग, मध्यम तृतीय भाग तथा अन्तिम तृतीय भाग। [प्र.] भगवन् ! उस काल के प्रथम विभाग में भरत क्षेत्र का आकार/स्वरूप कैसा होगा? ॐ [उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। अवसर्पिणी काल के सुषम+ दुषमा आरक के अन्तिम तृतीयांश में जैसे मनुष्य बताये गये हैं, वैसे ही इसमें होंगे। केवल इतना अन्तर होगा, इसमें कुलकर नहीं होंगे, भगवान ऋषभ नहीं होंगे। इस संदर्भ में अन्य आचार्यों का कथन इस प्रकार है-उस काल के प्रथम त्रिभाग में पन्द्रह ॐ कुलकर होंगे-(१) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर, (४) सीमन्धर, (५) क्षेमकर, (६) क्षेमंधर, 卐 () विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान्, (९) यशस्वान्, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव, (१४) नाभि, (१५) ऋषभ। शेष उसी प्रकार हैं। दण्डनीतियाँ प्रतिलोम-विपरीत क्रम से ऊ होंगी, ऐसा समझना चाहिए। उस काल के प्रथम विभाग में राज-धर्म (गण-धर्म, पाखण्ड-धर्म, अग्नि-धर्म) तथा चारित्र-धर्म विच्छिन्न हो जायेगा। 卐55555555555555555555555555555555555555555558 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (122) Jambudweep Prajnapti Sutra Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555555 卐 卐 55555555555550 इस काल के मध्यम तथा अन्तिम त्रिभाग की वक्तव्यता अवसर्पिणी के प्रथम - मध्यम त्रिभाग की ज्यों समझनी चाहिए। सुषमा और सुषम- सुषमा काल भी उसी जैसे हैं। छह प्रकार के मनुष्यों आदि का वर्णन उसी के सदृश है। ॥ द्वितीय वक्षस्कार समाप्त ॥ 50. [3] Blessed Gautam! When a period of 100 million × million Sagaropam reduced by 42,000 years of Dukham-Sukhma aeon had passed, Sukham-Dukhma the fourth aeon of Utsarpani time-cycle shall start. There shall be extremely great development in all the modes namely colour, taste, smell, touch and the like gradually. In the first-third part of that aeon, the administrative set up (GanaDharma, Pakhand-Dharma, Agni-Dharma) and Charitra-Dharma shall become extinct. The description of second and the last one-third should be understood similar to that of first and second one-third of Avasarpani time-cycle. Sukhma and Sukham-Shukhma time-period are also of the same type. The description of six types of human beings and the like is also similar to that one. That period shall have three divisions the first one-third, second one-third and third one-third. 5455 卐 [Q] Reverend Sir! What shall be the shape of Bharat area at that time? 卐 [Ans.] Gautam ! It shall be very much levelled and attractive. The people of this aeon shall be similar to that of human beings of the last one-third Sukham-Dukhma of Avasarpani time-cycle. The only difference shall be that there shall be no kulakars and Bhagavan Rishabh shall be in that period. द्वितीय वक्षस्कार In this context some Acharyas state as under-In the first one-third of this aeon there shall be fifteen kulakars-(1) Sumati, (2) Pratishruti, (3) Simankar, (4) Simandhar, (5) Kshemankar, (6) Kshemandhar, (7) Vimalvahan, (8) Chakshushman, (9) Yashaswan, (10) Abhichandra, 455 (11) Chandrabh, (12) Prasenjits, (13) Marudev, (14) Nabhi, and (15) Rishabh. The rest is as already mentioned. The code of punishment shall be in the reverse order. 45 • SECOND CHAPTER CONCLUDED. (123) 855555555555 卐 Second Chapter 卐 4 477 卐 575 5 卐 卐 4575 475 55 45 45 45 卐 455 卐 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ தமிழிழமிழதததததததததத****************************தமிழிழில் 5 5 卐 卐 In the third chapter the adventure of Bharat Chakravarti for conquering six parts, fourteen ( unique) jewels, the appearance of nine types of wealth (nidhi) the grandeur of kingdom of Bharat, his nonattachment from mundane world, his renunciation, his attainment of omniscience and then his liberation (from cycles of birth and death) has 5 been described. O 卐 5 卐 卐 5 卐 ५१. [ प्र. ] भगवन् ! भरत क्षेत्र को 'भरत क्षेत्र' किस कारण से कहते हैं ? के [उ. ] गौतम ! भरत क्षेत्र स्थित वैताढ्य पर्वत के दक्षिण के ११४११ योजन तथा लवणसमुद्र उत्तर में ११४१ योजन की दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम में और सिन्धु महानदी के पूर्व में फ दक्षिणार्ध भरत के मध्यवर्ती तीसरे भाग (खण्ड) के ठीक बीच में विनीता नामक राजधानी है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी एवं उत्तर-दक्षिण चौड़ी है। वह लम्बाई में बारह योजन तथा चौड़ाई में नौ योजन है। वह ऐसी है, मानो धनपति - कुबेर ने अपने बुद्धि-कौशल से उसकी रचना की हो। स्वर्णमय-परकोटों, 5 5 उपोद्घात INTRODUCTION प्रस्तुत तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती के षट्खण्ड विजय के अन्तर्गत विजय यात्रा, चौदह रत्न, नवनिधि की उत्पत्ति भरत के राज्य-वैभव तथा अन्त में वैराग्य, दीक्षा एवं केवलज्ञान-प्राप्ति व निर्वाण तक का वर्णन है। विनीता राजधानी CAPITAL CITY VINITA तृतीय वक्षस्कार THIRD CHAPTER फ्र उस पर लगे विविध प्रकार के मणिमय पंचरंगे - कंगूरों (भीतर से शत्रु सेना को देखने आदि हेतु निर्मित ५१. [ प्र. ] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-भरहेवासे भरहेवासे ? [उ. ] गोयमा ! भरहे णं वासे वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एक्कारस य गूणबीसइभाए जोअणस्स, अबाहाए लवणसमुद्दस्स उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एक्कारस य बीसइभाए जोअणस, अबाहाए गंगाए महाणईए पच्चत्थिमेणं, सिंधूए महाणईए पुरत्थिमेणं, दाहिणद्ध भरह - मज्झिल्लतिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं विणीआ णामं रायहाणी पण्णत्ता । पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, दुवालसजोअणायामा, णवजोअणवित्थिण्णा, धणवइमतिणिभ्माया, 5 चामीयरपागार - णाणामणि - पञ्चवण्णकविसीसग - परिमंडिआभिरामा, अलकापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिआ, पच्चक्खं देवलोगभूआ, रिद्धित्थिमिअसमिद्धा, पमुइअजणजाणवया जाव पडिरूवा । बन्दर के मस्तक के आकार के छेदों से) सुशोभित एवं रमणीय है। वह अलकापुरी जैसी है। वहाँ अनेक प्रकार के आनन्दोत्सव, खेल आदि चलते रहते हैं। मानो प्रत्यक्ष स्वर्ग का ही रूप हो, ऐसी लगती है। वह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वैभव, सुरक्षा तथा समृद्धि से युक्त है। वहाँ के नागरिक एवं जनपद के अन्य भागों से आये हुए व्यक्ति Jambudveep Prajnapti Sutra (124) फफफफफफफ 5 卐 卐 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 5 5 5 卐 फ्र Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रि 5 i आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से बड़े प्रमुदित रहते हैं। वह मन में बस जाने वाली - अत्यधिक फ सुन्दर है। 卐 卐 51. [Q.] Reverend Sir ! Why is this Bharat area called Bharat kshetra ? फ्र फ्र 卐 [Ans.] Gautam ! In the south of Vaitadhya mountain at a distance of 114 and eleven-nineteenth yojan and at a distance of 114 and elevennineteenth yojan in the north from Lavan Ocean, in the west of Ganga river and in the east of Sindhu river, in the central third part of Southern Bharat, capital city Vinita is located. It is 12 yojans long in cast-west direction and a yojan wide in north-south direction. It is so beautiful that it appears to have been built by Kuber, the god of wealth 卐 with his divine wisdom. It is decorated with gold boundary walls. It has holes studded with gems of five colours (in order to see the army of the enemy from inside and they are of the shape of monkey's head). It looks like Alkapuri (the divine city). Many grand festivals and celebrations and sports are arranged there. It appears that it is really heavenly place. It is full of grandeur, adequate security and wealth. Its citizens and the 5 people who come here from other parts of the state enjoy fully as there 卐 are sufficient arrangement of entertainment facilities. It is extremely beautiful and attractive. चक्रवर्ती भरत CHAKRAVARTI BHARAT ५२. तत्थ णं विणीआए रायहाणीए भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था, महयाहिमवंत-महंतमलय-मंदर - [ महिंदसारे, अच्छंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए, णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुमाणपूइए, सव्वगुणसमिद्धे, खत्तिए, मुइए, मुद्धाहिसित्ते, माउपिउसुजाए। दयपत्ते, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मणुस्सिदे, जणवयपिया, जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, णरपवरे, पुरिसवरे, पुरिससीहे, पुरिसवग्धे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुंडरीए, पुरिसवरगंधहत्थी, अड्डे, दित्ते, वित्ते, वित्थिण्ण - विउलभवण - सयणासण- फ्र जाणवाहणाइणे, बहुधण - बहुजायरूव - रयए, आओग-पओगसंपउत्ते, विच्छड्डियपउर भत्तपाणे, 5 बहुदासीदास - गोमहिसगवेलगप्पभूए, पडिपुण्णजंतकोस- कोट्ठागाराउधागारे, बलवं, दुब्बलपच्चामित्ते; ओहयकंदयं, निहयकंटयं, मलियकंटयं, उद्भियकंटयं, अकंटयं, ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं, उद्धियसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं, ववगयदुब्भिक्खं, मारिभयविप्पमुक्कं, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिंबडमरं ] रज्जं पसासेमाणे विहरइ । बिइओ गमो रायवण्णगस्स इमो तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उप्पज्जए जसंसी, उत्तमे, अभिजाए, सत्तवीरिय-परक्कमगुणे, पसत्थवण्ण - सरसार- संघयण - तणुगबुद्धिधारण - मेहासंठाणसीलप्पगई, Third Chapter तृतीय वक्षस्कार फ़फ़ (125) 5 5 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555558 पहाणगार-वच्छायागइए, अणेगवयणप्पहाणे, तेयआउबलवीरियजुत्ते, अझुसिरघणणिचिय-लोहसंकलणा राय-वइरउसहसंघयणदेहधारी। म झस १, जुग २, भिंगार ३, वद्धमाणग ४, भद्दासण ५, संख ६, छत्त ७, वीयणि ८, पडाग ९, चक्क १०, णंगल ११, मूसल १२, रह १३, सोत्थिय १४, अंकुस १५, चंदाइच्च १६-१७, ॐ अग्गि १८, जूय १९, सागर २०, इंदज्झय २१, पुहवि २२, पउम २३, कुञ्जर २४, सीहासण २५, दंड २६, कुम्म २७, गिरिवर २८, तुरगवर २९, वरमउड ३०, कुंडल ३१, णंदावत्त ३२, धणु ३३, ॐ कोंत ३४, गागर ३५, भवणविमाण ३६, अणेगलक्खण-पसत्थ-सुविभत्त-चित्तकर-चरणदेसभाए, म उड्डामुह-लोमजालसुकुमाल-णिद्धमउआवत्त-पसत्थलोम-विरइयसिरिवच्छ-च्छण्ण-विउलवच्छे, ॐ देस-खेत्त-सुविभत्तदेहधारी, तरुणरवि-रस्सिबोहिय-वरकमल-विबुद्धगब्भवण्णे, हयपोसण कोससण्णिभ-पसत्थपिटुंत-णिरुवलेवे, पउमुप्पल-कुन्द-जाइ-जुहिय-वरचंपग-णागपुष्फ सारंगतुल्लगंधी, छत्तीसाहियपसत्थ-पत्थिवगुणेहिं जुत्ते, अव्वोच्छिण्णयवत्ते, पागड-उभयजोणी, म विसुद्धणियग-कुलगयणपुण्णचंदे, चंदे इव सोमयाए णयण-मणणिबुइकरे, अक्खोभे सागरो व थिमिए, धणवइव्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए, समरे अपराइए, परमविक्कमगुणे, अमरवइसमाणसरिसरूवे, मणुयवई म भरहचक्कवट्टी भरहं भुजइ पणट्ठसत्तू। ५२. वहाँ विनीता राजधानी में भरत नामक चातुरंग चक्रवर्ती-(पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण तीन ओर ॐ समुद्र एवं उत्तर में हिमवान्-यों चारों ओर विस्तृत विशाल राज्य का अधिपति) राजा उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महान् तथा मलय, मेरु [एवं महेन्द्र नामक पर्वतों के सदृश प्रधान या + विशिष्ट था। वह अत्यन्त विशुद्ध-दोषरहित, चिरकालीन-प्राचीन वंश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग ॐ पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे। वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सब ॐ गुणों से शोभित क्षत्रिय था-जनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था, वह सदा प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका राज्याभिषेक या राजतिलक हुआ था। वह उत्तम माता-पिता से उत्पन्न उत्तम पुत्र था। वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादाओं की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने + वाला था। वह क्षेमंकर-सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर-उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था। वह परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह अपने राष्ट्र के लिए ॐ पितृतुल्य प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श था। वह नरप्रवर-वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में उद्यमशील, पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिंहतुल्य, रौद्रता । में बाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के सामर्थ्य में सर्पतुल्य था। वह पुरुषों में उत्तम, सेवाशील जनों के लिए श्वेत कमल जैसा सुकुमार था। वह पुरुषों में गन्धहस्ती के समान था-अपने विरोधी राजारूपी हाथियों का मान-भंजक था। वह समृद्ध, दर्प या प्रभावयुक्त तथा सुप्रसिद्ध था। उसके यहाँ बड़े-बड़े विशाल भवन, सोने-बैठने के आसन तथा रथ, घोड़े आदि सवारियाँ, वाहन बड़ी मात्रा | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (126) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐ध9555555555555555555 में थे। उसके पास विपुल सम्पत्ति, सोना तथा चाँदी थी। वह आयोग-प्रयोग-अर्थ-लाभ के उपायों का प्रयोक्ता था-धन-वृद्धि के सन्दर्भ में वह अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता था। उसके यहाँ भोजन कर के लिये जाने के बाद बहुत खाद्य-सामग्री बच जाती थी (जो जरूरतमंदों में बाँट दी जाती थी)। उसके यहाँ अनेक दासियाँ, दास, गायें, भैंसें तथा भेड़ें थीं। उसके यहाँ यंत्र, खजाना, अन्न आदि वस्तुओं का भण्डार तथा शस्त्रागार अति समृद्ध था। उसके पास प्रभूत सेना थी। वह ऐसे राज्य का शासन करता था जिसमें अपने राज्य के सीमावर्ती राजाओं या पड़ोसी राजाओं को शक्तिहीन बना दिया गया था। अपने सगोत्र प्रतिस्पर्धियों को विनष्ट कर दिया गया या उनका धन छीन लिया गया था, उनका मान भंग कर दिया गया तथा उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। यों उसका कोई भी सगोत्र विरोधी नहीं बचा था। अपने (गोत्रभिन्न) शत्रुओं को भी विनष्ट कर दिया गया था, उनकी सम्पत्ति छीन ली गई थी, उनका मान भंग कर दिया गया था और उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। अपने प्रभावातिशय से उन्हें जीत लिया गया था] इस प्रकार वह राजा भरत दुर्भिक्ष तथा महामारी के भय से रहित-निरुपद्रव, क्षेममय, कल्याणमय, सुभिक्षयुक्त एवं शत्रुकृत विघ्नरहित राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम (पाठ) इस प्रकार है-वहाँ (विनीता राजधानी में) असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, अभिजात कुलयुक्त, सत्त्व, वीर्य तथा पराक्रम आदि गुणों से शोभित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सुदृढ़ देह-संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, मेधा, उत्तम शरीर-संस्थान, शील एवं प्रकृतियुक्त, उत्कृष्ट गौरव, कान्ति एवं गतियुक्त, अनेकविध प्रभावकर वचन बोलने में निपुण, तेज, आयु-बल, वीर्ययुक्त, निश्छिद्र, सघन, लोह-श्रृंखला की ज्यों सुदृढ़ वज्र-ऋषभ-नाराच-संहननयुक्त था। ___ उसकी हथेलियों और पगथलियों पर (१) मत्स्य, (२) युग, (३) भुंगार, (४) वर्धमानक, (५) भद्रासन, (६) शंख, (७) छत्र, (८) चँवर, (९) पताका, (१०) चक्र, (११) हल, (१२) मूसल, (१३) रथ, (१४) स्वस्तिक, (१५) अंकुश, (१६) चन्द्र, (१७) सूर्य, (१८) अग्नि, (१९) यज्ञ-स्तंभ, (२०) समुद्र, (२१) इन्द्रध्वज, (२२) कमल, (२३) पृथ्वी, (२४) हाथी, (२५) सिंहासन, (२६) दण्ड, (२७) कच्छप, (२८) उत्तम पर्वत, (२९) उत्तम अश्व, (३०) श्रेष्ठ मुकुट, (३१) कुण्डल, (३२) नन्दावर्त, (३३) धनुष, (३४) भाला, (३५) गागर-घाघरा, (३६) भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे। उसके विशाल वक्षःस्थल पर है ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न निर्मित था। देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था। बाल-सूर्य की किरणों से विकसित उत्तम कमल के मध्य भाग के वर्ण जैसा उसका वर्ण था। उसका पृष्ठान्त-(गुदा भाग) घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों मल-त्याग के समय पुरीष से अलिप्त रहता था। उसके शरीर से पद्म, उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी। वह छत्तीस से कहीं अधिक उत्तम राजगुणों से अथवा शुभ राजोचित लक्षणों से युक्त था। वह अविच्छिन्न प्रभुत्व का स्वामी था। उसके मातृवंश तथा : पितृवंश-दोनों निर्मल थे। अपने विशुद्ध कुलरूपी आकाश में वह पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था। वह चन्द्र-सदृश सौम्य था, मन और आँखों के लिए आनन्दप्रद था। वह समुद्र के समान निश्चल-गंभीर के | तृतीय वक्षस्कार (127) Third Chapter 55555555555555555555555555555)))))))))))) . - . - . - . - . - . - . 「步步步步步步步步步步步牙牙牙%%%%%%%%%%%%%%%%% Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 45 46 45 41 41 41 41 41 41 44 45 46 455 456 457 455 456 45 441 446456 457 46 45 44 45 46 47 4651 455 456 457 455 456 457 455 456 457 452 451 451 451 452 455 456 457 455 456 45454545454545 457 451 卐 तथा सुस्थिर था। वह कुबेर की ज्यों भोगोपभोग में द्रव्य का समुचित, प्रचुर व्यय करता था। वह युद्ध में 5 सदैव अपराजित, परम विक्रमशाली था, उसके शत्रु नष्ट हो गये थे। यों वह सुखपूर्वक भरत क्षेत्र के 4PT at as a TI 52. In capital city Vinita Bharat Chakravarti (one whose kingdom was upto the sea in east, west and the south and up to Himavan mountain in the north; as such he was ruler of a very great kingdom) was born. He was great like Mahahimavan mountain and great and unique like Malay and Meru mountains (and Mahendra mountain. He was born in such a family which was extremely chaste, faultless and ancient. His parts of the body were bearing all the signs of a ruler. He was respected and worshiped by many people. He had all the good traits of a Kshatriya. He was the saviour of people from hardships and external invasion. His coronation was done in ancestral tradition by the kings who had accepted his supremacy. He was a noble son of noble parents. He was compassionate by nature. He was the one who had established the code of conduct and was meticulously following it. He was the one who created desirable conditions for every one (kshemankar) i and was able to be make those conditions stable (kshemandhar). He was like Indra among men because of his unique wealth. He was the protector of his state like a father. He was always helpful. He looked for the welfare of his people. He was a guide to them and was their ideal. He was excellent among men in view of humanly grandeur, his army, his strength and the like. He was deeply engaged in four types of endeavour namely spirituality, wealth, pleasures and liberation. He was unique among men because he always looked for extreme welfare of others namely salvation from mundane world. In bravery and valour he was like a lion. He was like a tiger in dreadfulness. He was able to secure fruit of his anger like a snake. He was excellent among men, and soft like a white lotus for his employees. He was like a grand elephant i (gandh hasti) among men. He could reduce the ego of those kings who opposed him. He was very wealthy, influential and famous. There were many great mansions and beds and seats for taking a nap or for taking rest in his possession. He had many chariots, horses and means of transport. He had immense wealth including gold and silver. He was experimenting new methods for gaining wealth. In the context of increasing his wealth, he was engaged in many ways. Food in great quantity was there in his kitchen, so much that a lot was left over after all had taken meals (which used to be distributed among the needy). He 451 451 451 45454545454545 4545454545455 456 457 458 459 451 455 456 457 455 456 457 455 456 41 41 41 41 454 455 456 457 455 456 457 455 456 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 128 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 45454545454545454545454541 41 41 41 41 41 41 451 451 451 455 41 41 41 41 41 414141414141415 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ h5555555555555555555555555555555555 had many maids, servants, cov!s, buffaloes and sheep. There was a great collection of yantras, coins, food and other suchlike with him. His store of weapons was very large. He had a huge army. He was ruling such a 45 kingdom that had made neighbouring kings and the rulers at the borders powerless. He had destroyed his opponents. He had snatched their wealth. He had weakened their ego and exiled them. Thus, there was no opponent from his caste. He had destroyed, his enemies even from the other clans, had snatched their wealth had reduced their ego and had turned them out from the state. He had conquered them due to his effective influence.] Thus, king Bharat was free from fear of famine, plague and civil disturbances as well as external disturbance created by enemies. He was fully engaged in welfare activities. The other description of the king is as under-Chakravarti named Bharat was born in capital city Vinita after innumerable number of years. He was famous, respected, belonging to high class family and had the qualities of courage, strength and the like. His complexion, voice, bone-structure, intellect, intelligence, figure, conduct, nature, reputation, brightness and gait was excellent. He was expert in making eloquent speech. His aura, life-span and power were excellent. His bonesturcture was extremely strong (Vajra rishabh narach sanhanan) like a 45 thick iron chain which is strong and has no holes. There were signs of (1) fish, (2) yoke, (3) bhringar, (4) vardhmanak, (5) bhadrasan, (6) conch-shell, (7) umbrella, (8) whisk, (9) bunting, (10) wheel, (11) plough, (12) mace, (13) chariot, (14) swastik, (15) lance, (16) the moon, (17) the sun, (18) fire, (19) pillar of sacrificial fire, (20) sea, (21) Indra-dhvaj, (22) lotus, (23) earth, (24) elephant, (25) throne, (26) stick, (27) tortoise, (28) unique mountains, (29) excellent si horse, (30) unique crown, (31) ear-rings, (32) nandavarta, (33) dhanush, (34) javeline, (35) vimaan, and (36) many meritorious acquatic symbols existing on the palms of hands and on his foot-prints. There were upwards bent, soft, smooth, good hair on his chest from which the symbol of Shrivatsa was made naturally. His physical body was beautiful and well-structured according to the country and the state. His complexion was like the colour of the central part of fully developed lotus blossoming with the rays of the rising sun. His anus remained clean even after the call of nature like that of a horse. His body was emitting fragrance like that of lotus, utpal, chameli, malti, juhi, champak, saffron and kasturi. He had more than thirty six royal qualities and auspicious 4545455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 455 456 455 456 457 455 456 457 454545454545455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 455 456 457 455456 तृतीय वक्षस्कार ( 129 ) Third Chapter 5 F1451461454545 4545454545454545454545454545454545454545454545454545454 $4 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ signs. He commanded undisturbed control. His parental side and maternal side were both excellent and unpolluted. He was shining like full moon in sky of his family. He was pleasant like the moon and was always pleasing to the eyes and to the mind. He was poised and stable like the sea. He was properly spending his wealth like Kuber in the articles of consumption. He was always undefeated in the battle and had great strength. His enemies had been eliminated. Thus, he was happily enjoying the state administration. चक्ररत्न की उत्पत्ति : अर्चा : महोत्सव APPEARING OF THE CHAKRA : WELCOME CEREMONY ५३. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ आउहघरसालाए दिवे चक्करयणे समुप्पज्जित्था। तए णं से आउहरिए भरहस्स रण्णो आउहघरसालाए दिव्वं चक्करयणं समुप्पण्णं पासइ, पासित्ता हट्ट तुट्ठ चित्तमाणदिए, णदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवस-विसप्पमाणहियए जेणामेव दिव्वे : + चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल-(परिग्गहिअदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं) कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता ॐ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणामेव भरहे राया, तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल-जाव-जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं आउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पण्णे, तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियद्वयाए पियं मणिवेएमि, पियं भे भयउ।" म तए णं से भरहे राया तस्स आउहघरियस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हटु-सोमणस्सिए, वियसिय-वरकमलणयण-वयणे, पयलिअवरकडग-तुडिअ-केऊर-मउड-कुण्डलहारविरायंतरइअवच्छे, पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे, ससंभमं, तुरिअं, चवलं परिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अन्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउआओ ओमुअइ, आमुइत्ता एगसाडिअं ॐ उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता अंजलिमउलिअग्गहत्थे चक्करयणाभिमुहे सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहट्ट करयल-जाव-अंजलिं कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता तस्स आउहपरियस्स अहामालियं मउडवज्जं ओमोयं दलयइ, दलिइत्ता विउलं # जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जेत्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। ५३. एक दिन राजा भरत की आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। ॐ आयुधशाला के अधिकारी ने राजा भरत की आयुधशाला में समुत्पन्न दिव्य चक्ररत्न को देखा। देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, चित्त में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ अत्यन्त सौम्य मानसिक भाव और हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा। जहाँ दिव्य चक्ररत्न था, वहाँ आया, के तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की (हाथ जोड़ते हुए उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए अंजलि बाँधे)। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (130) Jambudveep Prajnapti Sutra $55555555FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听听听 卐55555555555555555555555555555555555555555555558 R55555555454545455545454545455454554545454545545454555円 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र रत्न की उत्पत्ति एवं पूजाय cod CD आयुधशाला में चक्र रत्न उत्पत्ति का - समाचार सुनकर राजा भरत पुष्प आदि KA लेकर पूजा के लिए आये पुरोहित द्वारा शखनाद नमोत्युर्ण मुद्रा बनाकर चक रन की पूजा की। चक्र (OTONOo 47 ai Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05555555555555555555555555555555550 | चित्र परिचय ७ । 9555555555555555555555555555555555555555se 95555555 चक्ररत्न की उत्पत्ति एवं पूजा भरत राजा की आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। आयुधशाला अधिकारी ने चक्ररत्न उत्पन्न होने का समाचार राजा को दिया। स्नान आदि कर अलंकारों से शोभित हो राजा भरत दिव्य चक्ररत्न की पूजा के लिए है ॐ आयुधशाला पहुंचे। उनके साथ महामंत्री, सेनापति, नगर के गणमान्य व्यक्ति दास-दासियाँ आदि के सैंकड़ों लोग हाथों में पुष्पमाला, धूप-दीप, श्रीफल, पूजोपकरण लिये हुए थे। वहाँ पहुँचकर म भरत ने चक्ररत्न मंजूषा के अन्दर रखे दिव्य चक्ररत्न को प्रणाम किया। पुष्प अर्पित किये और ॐ धूप-दीप जलाकर सात-आठ कदम पीछे हटकर नमोत्थुणं मुद्रा बनाई (बांया घुटना ऊँचा, दाहिना घुटना भूमि पर टिका हुआ) मस्तिष्क के ऊपर की ओर करके हाथ जोड़े और चक्ररत्न 卐 को प्रणाम किया। पास खड़े पुरोहित ने शंखनाद किया। -वक्षस्कार ३, सूत्र ५३-५६ THE APPEARANCE OF CHAKRA-RATNA AND ITS WORSHIP On day Chakra-ratna (the disk-gem) appeared in the armoury of king Bharat. 45 The head of the armoury informed the king of this incident. After taking his bath and embellishing himself with ornaments king Bharat came to his armoury to perform worship of Chakra-ratna. His prime minister, commanderin-chief, the city elite, attendants and hundreds of citizens accompanied him carry ing garlands, incense holders, lamps, coconuts and other things needed for wor4 ship. Arriving there, Bharat offered salutations and flowers to Chakra-ratna placed in its box. After lighting incense and lamp he took seven-eight steps backwards. 41 He then took the Namotthunam posture (squatting right knee on the ground and left knee raised), raised his joined palms above his head and paid homage to i Chakra-ratna. The priest standing nearby blew the conch-shell. - Vakshaskar-3, Sutra — 53-56 0455555555555555555555555555555555550 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐555555555555555555555555555555 95993 ॐ चक्ररत्न को प्रणाम किया, प्रणाम कर आयुधशाला से निकला, निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थापनशाला में 卐 राजा भरत था, आया। आकर उसने हाथ जोड़ते हुए राजा को 'आपकी जय हो, आपकी विजय हो'-इन शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर वह बोला- "देवानुप्रिय की-(आपकी) आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, आपकी प्रियतार्थ यह प्रिय संवाद निवेदित करता हूँ। आपका प्रिय-शुभ हो। ___ तब राजा भरत आयुधशाला के अधिकारी से यह सुनकर अत्यन्त हर्षित हुआ, अत्यन्त सौम्य ॐ मनोभाव तथा हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा। उसके श्रेष्ठ कमल जैसे नेत्र एवं मुख विकसित हो ॥ + गये। उसके हाथों में पहने हुए उत्तम कटक, त्रुटित, केयूर, मस्तक पर धारण किया हुआ मुकुट, कानों के कुंडल हिल उठे, हर्षातिरेकवश हिलते हुए हार से उसका वक्षःस्थल अत्यन्त शोभित प्रतीत होने लगा। 卐 उसके गले में लटकती हुई लम्बी पुष्पमालाएँ चंचल हो उठीं। राजा उत्कण्ठित होता हुआ बड़ी शीघ्रता से सिंहासन से उठा, उठकर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा, नीचे उतरकर पादुकाएँ उतारी, एक वस्त्र का उत्तरासंग किया, हाथों को अंजलिबद्ध किये हुए चक्ररत्न के सम्मुख सात-आठ कदम चला, म चलकर बायें घुटने को ऊँचा किया, ऊँचा कर दायें घुटने को भूमि पर टिकाया, हाथ जोड़ते हुए, उन्हें 5 मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए अंजलि बाँध चक्ररत्न को प्रणाम किया। वैसा कर आयुधशाला के अधिपति को अपने मुकुट के अतिरिक्त सारे आभूषण दान में दे दिये। उसे जीविकोपयोगी विपुल । प्रीतिदान दिया-[जीवन पर्यन्त उसके लिए भरण-पोषणानुरूप आजीविका की व्यवस्था बाँधी] उसका सत्कार-सम्मान किया। उसे सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। फिर वह पूर्वाभिमुख हो ॐ सिंहासन पर बैठा। 53. One day the divine Chakra Ratna appeared in the armoury of king Bharat. The officer-in-charge of ordnance store of king Bharat saw the appearance of divine Chakra Ratna there in the store. He was pleased to see it. He experienced ecstatic pleasure. He got up with an immense mental satisfaction and great happiness. He came near the divine Chakra Ratna, went round it three times (with clasped hands and rotating them around his head in that state), he bowed to it. He then came out of the ordnance store and arrived at the main hall where king Bharat was present. He then clasped his hands in respect, and exclaimed, 'May you be victorious.' Honouring him in this manner, he said, 'Beloved of gods ! In (your) ordnance store, a divine Chakra Ratna 5 has appeared. I present to you this loveable message for your information. May it be beneficial and meritorious for you.' King Bharat became very happy to hear it from the officer-in-charge 45 of ordnance store. His joy knew no bounds. His lotus like eyes brightened, the ornaments that he was wearing, namely high class katak 卐 in his hands, trutit, keyur, ear-rings and the crown on his head started 35555555555555555555555555555555555555555555555558 तृतीय वक्षस्कार (131) Third Chapter 9555555555555555555555555555555555555 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5 5 5 5 5 5 ब फ्र 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 5 卐 卐 moving. His chest appeared extremely beautiful with the garland he was wearing as he was in a very happy mood. Long garlands hanging from his neck also started moving. In a state of great curiosity the king got up quickly from his throne and after placing his foot on foot rest, he came down. He removed his shoes. He covered a part his face with a piece of cloth, clasped his hand and then went seven-eight steps towards Chakra 卐 Ratna. Thereafter, he sat on the ground with right knee touching the ground and the left knee raised upwards. He then bowed to Chakra Ratna with clasped hands rotating his clasped hands around his head. Then he gave all the ornaments he was wearing, except the crown, to the officer-in-charge of the ordnance store in charity. He gave him sufficient money that was sufficient for his livelihood. (He made arrangement for his livelihood for the remaining period of his life.) He honoured him and then allowed him to go. Then he sat on his throne facing eastwards. 卐 तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ट० करयल जाव एवं सामित्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता भरहस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता विणीयं रायहाणिं जाव करेत्ता, कारवेत्ता य तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । 555 552 विनीता नगरी की सज्जा DECORATION OF VINITA CITY 卐 ५४. तए णं से भरहे राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! विणीयं रायहाणिं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय- संमज्जिय- सित्त- सुइगरत्थंतर-वीहियं, फ्र मंचाइमंचकलियं, णाणाविहरागवसण - ऊ सियझय - पडागाइपडागमंडियं, लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरस- 5 रत्तचंदणकलसं, चंदणघडसुकय जाव गंधुद्धुयाभिरामं, सुगंधवरगंधियं, गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह; करेत्ता, कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र ( 132 ) 卐 卐 5 卐 ५४. तत्पश्चात् राजा भरत ने कौटुम्बिक पुरुषों को - व्यवस्था से सम्बद्ध अधिकारियों को बुलाया, बुलाकर उन्हें कहा- देवानुप्रियो ! राजधानी विनीता नगरी की भीतर और बाहर से सफाई कराओ, 卐 सुगंधित जल का छिड़काव कराओ, नगरी की सड़कों और गलियों को स्वच्छ कराओ, वहाँ मंच, विशिष्ट 5 या उच्च मंच-मंचों पर मंच निर्मित कराकर उसे सज्जित कराओ, विविध रंगों में रंगे वस्त्रों से निर्मित 5 ध्वजाओं, पताकाओं - झंडियों, बड़ी-बड़ी झंडियों से उसे सुशोभित कराओ, भूमि पर गोबर का लेप 卐 कराओ, गोशीर्ष एवं आर्द्रलाल चन्दन से सुरभित करो, उसके प्रत्येक द्वारभाग को चंदनकलशों- 5 (चंदनचर्चित मंगलघटों और तोरणों से सजाओ) यावत् वातावरण को रमणीय सुरभिमय बनाओ, 5 जिससे सुगंधित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बनते दिखाई दें। ऐसा कर आज्ञा पालने की सूचना करो। 5 卐 फ्र उन्होंने हाथ राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर व्यवस्थाधिकारी बहुत हर्षित एवं प्रसन्न हुए । जोड़कर 'स्वामी की जैसी आज्ञा' यों कहकर उसे- शिरोधार्य किया, शिरोधार्य कर राजा भरत के पास फ्र 卐 卐 卐 फ्र 2 55 5 5 555 5555 555 55 5552 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1555555559555555595959595959595959595952 से रवाना हुए, रवाना होकर विनीता राजधानी को राजा के आदेश के अनुरूप सजाया सजवाया और राजा के पास उपस्थित होकर उन्होंने आज्ञा-पालन की सूचना दी। 54. Thereafter, king Bharat called the officers responsible for making administrative arrangements and ordered, 'Beloved of gods ! Please get cleaned Vinita city from outside and also from inside. Sprinkle fragrant water and get cleaned the streets and the roads. Arrange for high platform and get it decorated with flags and large buntings of different colours. Get the ground plastered with cow-dung. Make it fragrant with gosheersh and red sandalwood. Decorate every entrance with chandan pots, auspicious pitchers and festoons. In brief make the environment attractive and fragrant, so that due to the fragrant smoke there appear rings of smoke in large number. After compliance, inform me. The officials concerned felt very happy to receive these orders. They accepted the command of their master with folded hands. Thereafter, they started from there. They decorated capital city Vinita in compliance of the orders of the king and after getting it done, they came to the king and informed him about the compliance of his orders. भरत का स्नान आदि सुसज्जा KING BHARAT TAKING BATH AND PREPARATION ५५. तणं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे, विचित्तमणि - रयणकुट्टिमतले रमणिज्जे हणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि, सुहणिसण्णे, सुहोदएहिं, गंधोदएहिं, पुप्फोदएहिं, सुद्धोदएहि य पुणे कल्ला - पवरमज्जणविहीए मज्जिए । तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणग - पवरमज्जणावसाणे पम्हल - सुकुमाल - गंधकासाइयलूहियंगे, सरस - सुरहि- गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते, अहय - सुमहग्घ - दूसरयण - सुसंवुडे, सुइमालावण्णगविलेवणे, आविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारद्धहार - तिसरिय - पालंबलंबमाण - कडिसुत्तमुकयसोहे, पिणळगेविज्जग - अंगुलिज्जग - ललि अंगयललियकया भरणे, णाणामणि- कडग - तुडिय - थंभियभुए, अहियसस्सिरीए, कुण्डलउज्जोइयाणणे, मउडदित्तसिरए, हारोत्थयसुकयवच्छे, पालंबलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे, मुद्दियापिंगलंगुलीए, णाणामणिकणग- विमलमहरिह - णिउणोयवियमिसिमिसिंतविरइय- सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ - लट्ठसंठियपसत्थ- आविद्धवीरबलए । किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव अलंकिअ - विभूसिए, णरिंदे सकोरंट - ( मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं), चउचामरवालवीइयंगे, मंगलजयजयसद्दकयालोए, अगगणणायग-दंडणायग दूयसंधिवालसद्धिं संपरिवुडे, धवल - महामेहणिग्गए इव (गहगण - दिप्पंतरिक्ख - तारागणाण मज्झे) तृतीय बक्षस्कार Third Chapter (133) 259595955 5 555 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 95 999 9999 999999 ***फळ 5 5 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ्र फ्र 卐 卐 卐 फ्र ५५. तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट फ हुआ। वह स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था । उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था । उसमें रमणीय स्नान - मंडप था। स्नान - मंडप में अनेक प्रकार से चित्रात्मक रूप में जड़ी गई मणियों एवं रत्नों से सुशोभित स्नान पीठ फ्र था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा। राजा ने शुभोदक-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतल, सुखप्रद जल, 5 5 गन्धोदक- चन्दन आदि सुगंधित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक - पुष्प मिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा 5 परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नान-विधि से स्नान किया। 卐 फ 5 फ्र 卐 ससिव्य पियदंसणे, णरवई धूव - पुप्फ-गंध- मल्ल - हत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, 5 पडिणिक्खमित्ता जेणेव आउहघरसाला, जेणेव चक्करयणे, तेणामेव पहारेत्थ गमणाए । स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये। तत्पश्चात् रोएँदार, सुकोमल हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली 5 वनौषधियों से रंगे हुए अथवा लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर पोंछा । सरस- रसमय, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया । अदूषित - चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए बहुमूल्य उत्तम या प्रधान वस्त्र भलीभाँति पहने । पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया। मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने। हार-अठारह लड़ों के हार, अर्धहार-नौ लड़ों के हार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटि सूत्र - करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया। गले के आभरण धारण किये। 5 अँगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं। इस प्रकार सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया। नाना फ मणिमय कंकणों तथा भुजबंधों द्वारा भुजाओं को कसा । यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई। कुंडलों से मुख चमक रहा था। मुकुट से मस्तक देदीप्यमान था । हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण 5 किया। सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अँगुलियाँ पीली लग रही थीं । सुयोग्य शिल्पियों द्वारा फ नानाविध मणि, स्वर्ण, रत्न-इनके योग से सुरचित उज्ज्वल, बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुन्दर जोड़युक्त, उत्कृष्ट, प्रशंसनीय आकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय-विजय कंकण धारण किया। फ 卐 卐 अधिक क्या कहें ? इस प्रकार अलंकारयुक्त, वेशभूषा से विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, फ्र मानो कल्पवृक्ष हो । अपने ऊपर लगाये गये कोरंट (श्वेत) पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर 5 डुलाये जाते चार चँवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ राजा स्नान- गृह से बाहर निकला। स्नान-घर से बाहर निकलकर अनेक गणनायक - जनसमुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक- 5 आरक्षि-अधिकारी, राजा–माण्डलिक नरपति यावत् नागरिक वृन्द, बड़े सेठ, सेनापति तथा सार्थवाह, 5 दूत - संदेशवाहक, संधिपाल - राज्य के सीमान्त - प्रदेशों के अधिकारी- इन सबसे घिरा हुआ राजा श्वेत, 5 विशाल बादल से निकले, ग्रहगण से देदीप्यमान आकाशस्थित तारागण के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने 5 बड़ा प्रिय लगता था । वह हाथ में धूप, पुष्प, गन्ध, माला लिए हुए स्नानघर से निकला, निकलकर 卐 फ्र फ फ जहाँ आयुधशाला थी, जहाँ चक्ररन था, वहाँ के लिए चला। 卐 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 फ्र फ्र फ़ (134) Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 455 456 454 455 456 45454545454545454545454545454545454545455 456 457 45 455 456 457 452 54 456 457 4 457 455 55 55 451 455 456 55. Thereafter, king Bharat came to the bathroom and entered it. It i was very beautiful because of mesh like holes all decorated with hanging garlands of pearls. The floor was studded with beads and gems of different types. There was beautiful bathing pavilion. The seat for taking bath was studded with beads and gems in a picturesque manner. The king sat on it comfortably. He took bath in an extremely pleasant manner with water which was lukewarm and in which fragrant substances like sandalwood powder were added including water containing essence of flowers. After taking bath, the king performed many traditional customs so as to remove the effect of any evil eye. Thereafter, he cleaned his body with soft turkish towel of red colour. It was coloured with many bitter herbs 4 like haritaki, vibhitak, amlak. He plastered his body with fragrant paste 4 of gosheersh sandalwood. He then wore costly clothes which were not in any way damaged by rats and the like. He wore a pious garland. He applied saffron paste. He wore gold ornaments studded with precious stones, the eighteen-lined garland, nine-lined garland and three-lined 4. garlands. He wore long, hanging waist-band. He wore ornaments at his neck and rings in his fingers. He wore bangles studded with gems on his arms. Thus the grandeur of the king increased further. His face was shining with ear ornaments. The head was shining with the crown. His chest covered with garland was looking beautiful. The king took a long hanging cloth on shoulders. His fingers were looking yellow because of gold rings. He wore the bangle of victory which is worn only by high class respectables and which was prepared by experts with precious stones, gold and gems and which was very beautiful, praiseworthy and which 45 had an attractive look. In a nutshell, the king looked like a Kalpa tree with this dress and decorations. The king came out of the bathroom. There was umbrella on him having garlands of korant flowers, four whisks were being waved on 4 both flanks. The people were uttering meritorious words in his honour. The king was surrounded by many representatives of the people, the security guards, mandalik kings, the municipal commissioners, the nobles, the army chief, the messengers, the officers from border areas of \i the kingdom. It looked as if the moon is coming out from a large white i cloud and is shining amidst the stars and planets. The king was looking very charming. He came out from the bathroom holding incense, flowers 457 455 456 457 451 451 455 456 457 451 451 51 51 451 4 5 6 457 454 455 456 457 तृतीय वक्षस्कार ( 135 ) Third Chapter 254 455 4 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B)) )))))) )))))) ))))) )))))) ))))))) and garlands in his hand. He then left for the place where the Chakra Ratna was present in his ordnance store. आयुधशाला की ओर प्रस्थान DEPARTURE TOWARDS ORDNANCE STORE ५६. [१] तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहवे ईसरपभिइओ अप्पेगइआ पउमहत्थगया, अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया, अप्पेगइआ सयसहस्सपत्तहत्थगया भरहं रायाणं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहूईओ(गाहा) खुज्जा चिलाइ वामणि वडभीओ बब्बरी बउसिआओ। जोणिय-पह्लवियाओ इसिणिय-थारुकिणियाओ॥१॥ लासिय-लउसिय-दमिली सिंहलि तह आरबी पुलिंदी य। पक्कणि बहलि मुरुंडी सबरीओ पारसीओ य॥२॥ अप्पेगइया वंदणकलसहत्थगयाओ, भिंगारआदंस-थाल-पातिसुपइट्ठग-वायकरग-रयणकरंडपुष्फचंगेरी-मल्लवण्ण-चुण्णगंधहत्थगयाओ, वत्थ-आभरण-लोमहत्थय-चंगेरीपुष्फपडलहत्थगयाओ जाव के लोमहत्थगयाओ, अप्पेगइआओ सीहासणहत्थगयाओ, छत्तचामरहत्थगयाओ, तिल्लसमुग्गयहत्थगयाओ। (गाहा) तेल्ले-कोट्ठसमुग्गे, पत्ते चोए अ तगरमेला य। हरिआले हिंगुलए, मणोसिला सासवसमुग्गे॥१॥ ___अप्पेगइआओ तालिअंटहत्थगयाओ, अप्पेगइयाओ धूवकडुच्छुअहत्थगयाओ भरहं रायाणं पिट्ठओ. ॐ पिटुओ अणुगच्छंति। ५६. [१] राजा भरत के पीछे-पीछे बहुत से ऐश्वर्यशाली विशिष्ट जन चल रहे थे। उनमें से 卐 किन्हीं-किन्हीं के हाथों में पद्म, यावत् हजार पंखुड़ियों वाले कमल थे। राजा भरत की बहुत-सी दासियाँ भी उनके पीछे-पीछे चल रही थीं। उनमें से अनेक कुबड़ी थीं, + अनेक किरात देश की थीं, अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थी, अनेक बर्बर देश की, वकुश देश की, यूनान देश की, पह्नव देश की, इसिन देश की, थारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, + बहल देश की, मुरुंड देश की, शबर देश की, पारस देश की-यों विभिन्न देशों की थीं। उनमें से किन्हीं-किन्हीं के हाथों में मंगलकलश, झारियाँ, दर्पण, थाल, रकाबी जैसे छोटे पात्र, सप्रतिष्ठक, करवे, रत्न-मंजषा. फलों की डलिया. माला. वर्ण. चर्ण. गन्ध, वस्त्र, आभषण, मोरपंखों से बनी फूलों के गुलदस्तों से भरी डलिया, मयूरपिच्छ, सिंहासन, छत्र, चँवर तथा तिलसमुद्गक-(तिल के # भाजन-विशेष) डिब्बे जैसे पात्र आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ थीं। इनके अतिरिक्त कतिपय दासियाँ तेल-समुद्गक, कोष्ठ, पत्र, चोय-(सुगन्धित द्रव्य-विशेष), तगर, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल तथा सर्षप (सरसों) के समुद्गक डिब्बे हाथों में लिए थीं। कतिपय दासियों के हाथों में पंखे, धूपदान थे। 卐55555;55555555555555555555555555555555555558 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (136) Jambudveep Prajnapti Sutra B )))))))) ) )))))) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BSE ) )))))))))))55555555555558 卐 56. [1] Many respectables were following king Bharat. Some...were i holding lotus and some were holding thousand petalled lotus in 4 their hands. Many maid servants of king Bharat were also moving behind him. Some of them were having hunched back. Some were belonging to Kirat area. Some were dwarf. Some were having bent waist. Some were of Barbar region. Some were of Bakush region. Some were Greek. Some were of Pahnav region. Some were of Isin. Some were of Tharukinik. Some were of Lasak. Some were Sinhal. Some were Dravidians. Some were Arabs. Some were of Pulind. Some were of Pakkan. Some were of Bahal. Some were of Marud. Some were of Shabar. Some were of Persia. Thus, they belonged to many different countries. Some of them were carrying auspicious pots, long necked pots (Jharis), mirror, plate, small plates, supratishthak, small earthen pots (karava), jewellery box, bunches of flowers, garlands, colour, powder, cloth, ornaments, baskets made of peacock feathers containing bouquets of flowers, fans made of peacock feathers, Simhasan, umbrella, whisk, ¥ special pots of sesame, box shaped pots and the like in their hands. ____In addition, some maid servants were having container of oil, koshth, leaf, fragrant special substance, tagar, harital, hingul, mansil and box of mustard seeds in their hands. Some maid servants were holding fans and incense holders in their hands. चक्ररत्न की अर्चा WORSHIP OF CHAKRA RATNA ५६. [ २ ] तए णं से भरहे राया सव्विडीए, सव्वजुईए, सव्वबलेणं, सव्वसमुदयेणं, सव्वायरेणं, . सबविभूसाए, सबविभूईए, सबवत्थ-पुष्फ-गंधमल्लालंकारविभूसाए, सव्वतुडिअ-सहसण्णिणाएणं, ॐ महया इड्डीए, महया वरतुडिय-जमग-समग-पवाइएणं संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि मुरय-मुइंग-दुंदुहि-णिग्घोसणाइएणं जेणेव आउहघरसाला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए ॐ चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता जेणेव चक्करयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागछित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, परामुसित्ता चक्करयणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता अग्गेहिं, वरेहिं, गंधेहिं, मल्लेहि अ अच्चिणइ, + पुप्फारुहणं, मल्ल-गंध-वण्ण-चुण्ण-वत्थारुहणं, आभरणारुहणं करेइ, करेत्ता अच्छेहिं, सहेहिं, * सेएहि, रययामएहिं, अच्छरसा-तंडुलेहिं चक्करयणस्स पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ, तं जहा-सोत्थिय । 卐१, सिरिवच्छ २, णंदिआवत्त ३, वद्धमाणग ४, भद्दासण ५, मच्छ ६, कलस ७, दप्पण ८। अट्ठमंगलए है तृतीय वक्षस्कार (137) Third Chapter 5555555555))))))))))))))))))))))) 55555555555555555555555558 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ आलिहित्ता काऊणं करेइ उवयारंति, किं ते-पाडल-मल्लिअ-चंपग-असोग-पुण्णाग-5 चूअमंजरी-णवमालिअ-बकुल-तिलग-कणवीर-कुंदकोज्जय-कोरंटय-पत्त-दमणय+ वरसुरहिसुगंधगंधिअस्स, कयग्गहगहिअ-करयलपब्भट्टविप्पमुक्कस्स, दसद्धवण्णस्स, कुसुमणिगरस्स तत्थ चित्तं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करता। म चंदप्पभवइर-वेरुलिअ-विमलदंडं, कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं, कालागुरु-पवरॐ कुंदुरुक्कतुरुक्कधूव-गंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवटि विणिम्मुअंतं, वेरुलिअमयं कडच्छुअं पग्गहेत्तु पयते, धूवं + दहइ, दहेत्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्केत्ता वामं जाणुं अंचेइ जाव अंजलिं कटु पणामं करेइ # करेत्ता आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमेत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सीहासणे, ऊ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसीयइ, सण्णिसित्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी ५६. [ २ ] इस प्रकार वह राजा भरत सब प्रकार की ऋद्धि, धुति, बल, समुदय, आदर, विभूषा, वैभव, वस्त्र, पुष्प, गन्ध, अलंकार-इस सबकी शोभा से युक्त कलापूर्ण शैली में एक साथ बजाये गये ॐ शंख, प्रणव, पटह, भेरी, झालर, खरमुखी, मुरज, मृदंग, दुन्दुभि के निनाद के साथ जहाँ आयुधशाला ॥ थी, वहाँ आया। आकर चक्ररत्न की ओर देखते ही प्रणाम किया, प्रणाम कर जहाँ चक्ररत्न था, वहाँ आया, आकर मयूरपिच्छ (मोर पंख की पूंजणी) द्वारा चक्ररत्न को झाड़ा-पोंछा, झाड़-पोंछकर दिव्य 卐 जल-धारा द्वारा उसका सिंचन किया, सिंचन कर सरस गोशीर्ष-चन्दन से अनुलेपन किया, अनुलेपन कर अभिनव, उत्तम सुगन्धित द्रव्यों और मालाओं से उसकी अर्चा की, पुष्प चढ़ाये, माला, गन्ध, वर्णक एवं वस्त्र चढ़ाये, आभूषण चढ़ाये। फिर चक्ररत्न के सामने उजले, स्निग्ध, श्वेत, रत्नमय अक्षत चावलों 卐 से-(१) स्वस्तिक, (२) श्रीवत्स, (३) नन्दावर्त, (४) वर्धमानक, (५) भद्रासन, (६) मत्स्य, (७) कलश, 4 (८) दर्पण-इन अष्ट मंगलों का आलेखन किया। गुलाब, मल्लिका, चंपक, अशोक, आम्रमंजरी, 9 नवमल्लिका, वकुल, तिलक, कणवीर, कुन्दर, कुब्जक, कोरंटक, पत्र, दमनक-ये सुरभित-सुगन्धित पुष्प राजा ने हाथ में लिये, चक्ररत्न के आगे चढ़ाये, इतने चढ़ाये कि उन पंचरंगे फूलों का चक्ररत्ल के आगे जानु-प्रमाण-घुटने तक ऊँचा ढेर लग गया। तदनन्तर राजा ने धूपदान हाथ में लिया, जो चन्द्रकान्त, वज्र-हीरा, वैडूर्य रत्नमय दंडयुक्त, विविध चित्रांकन के रूप में संयोजित स्वर्ण, मणि एवं रत्नयुक्त, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से शोभित, वैडूर्य मणि से निर्मित था। आदरपूर्वक धूप जलाया, धूप जलाकर सात-आठ कदम पीछे हटा, बायें घुटने को ऊँचा किया, यावत् अंजलि बाँधे, चक्ररत्न को प्रणाम किया। प्रणाम कर आयुधशाला से निकला, निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला-सभाभवन था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, आकर पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर विधिवत् बैठा। बैठकर अठारह श्रेणिप्रश्रेणि-सभी जाति-उपजाति के प्रजाजनों को बुलाया, बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा 56. [2] Thereafter king Bharat came to the ordnance store with all types of grandeur, regal splendour, royal strength, retinue, respectables, EFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (138) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 45 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 57 5555555555555555558 卐 卐 卐 卐 45 卐 decoration, wealth and all decorations, clothes, flowers, fragrance and ornaments. The trumpets were then being blown in an artistic way with high class rhythm. The conch-shell, pranav, pateh, flute, jhalar, mulemouthed musical instrument, muraj, drum, long flutes were also being blown in this fashion at the time of his arrival. He saluted Chakra Ratna 57 immediately when he saw it and then came to the place where it was located. He cleaned the Ratna with the whisk made of peacock feathers. Thereafter, he bathed it with divine water. He then applied gosheersh sandalwood paste on it. Thereafter, he worshipped it with fragrant substances and garlands. He offered flowers, rosaries, incense and pieces 卐 of cloth to it and also offered ornaments. Thereafter, he scribed before it eight auspicious signs namely (1) Swastik, (2) Shrivatsa, (3) nandavart, (4) vardhmanak, (5) bhadrasan, (6) fish, (7) pot, and (8) mirror with white shining soft rice grains. The king then took rose, mallika, champak, ashok, mango, navmallika, vakul, tilak, kanaveer, kundar, kubjak, korantak, patra, damanak and other fragrant flowers in his hands and offered them to Chakra Ratna to such an extent that there became a knee high heap of five-coloured flowers. 卐 45 卐 आठ दिवसीय महोत्सव EIGHT DAY FESTIVAL ५६. [३] खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं, उक्किट्ठे, अदिज्जं, अमिज्जं, फ अभडप्पवेसं, अदंडकोदंडिमं, अधरिमं, गणिआवरणाडइज्जकलियं, अणेगतालायराणुचरियं अणुद्धअमुइंगं, अमिलाय - मल्लदामं, पमुइय - पक्कीलिय - सपुरजणजाणवयं विजयवेजइयं चक्करयणस्स अट्ठाहिअं 5 महामुहिमं करेह, करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह । Thereafter, the king took an incense holder in his hand, which was made of Vaidurya precious stone. It was decorated with Chandrakant, Vajra, diamond, Vaidurya rod and many sketches were on it. It was fragrant with black agar, kundrak, lobaan and dhoop smell and was 45 45 studded with gems and precious stones. He lighted the incense stick 45 respectfully and then took seven-eight steps backwards. He then raised his left knee and bowed to Chakra Ratna with folded hands. He then came to the outer assembly hall where there was the throne meant for him. He then sat on that throne in the traditional manner facing eastwards. He then called the people of all the eighteen castes and sub-castes and said तणं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वृत्ताओ समाणीओ हट्ठाओ जाव विणणं वयणं पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमेंति, पडिणिक्खमित्ता उस्सुक्कं Third Chapter तृतीय वक्षस्कार (139) 55555555555555555555 557 卐 卐 卐 45 555 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 45 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5952 2 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595959 5955 5959595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 卐 5 उक्करं चक्करयणस्स अट्ठाहिअं महामहिमं जाव करेंति य कारवेंति य, करेत्ता कारवेत्ता य जेणेव भरहे फ्र राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । 卐 फ्र 卐 卐 फ्र 卐 卐 5 卐 " ५६. [ ३ ] देवानुप्रियो ! चक्ररत्न के उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में तुम सब महान् विजय का संसूचक अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो। (मैं उद्घोषित करता हूँ) 'इन दिनों राज्य में कोई भी क्रयविक्रय आदि सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति आदि पर प्रतिवर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर नहीं लिया जायेगा। 5 किसी से यदि कुछ लेना है, उसमें जोर न दिया जाये, आदान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड- यथापराध राजग्राह्य द्रव्य - जुर्माना, कुदण्ड - बड़े अपराध के लिए दण्ड रूप में लिया जाने वाला अल्प द्रव्य-थोड़ा जुर्माना ये दोनों ही नहीं लिए जायेंगे। ऋण के सन्दर्भ में कोई विवाद न हो; राजकोष से धन लेकर ऋणी का ऋण चुका दिया जाये ऋणी को ऋण मुक्त कर दिया जाये । नृत्यांगनाओं के तालवाद्य - समन्वित नाटक, नृत्य आदि आयोजित कर समारोह को सुन्दर बनाया जाये, यथाविधि समुद्भावित मृदंग - निनाद से महोत्सव को गुंजा दिया जाये । नगर-सज्जा में लगाई गई या पहनी गई मालाएँ कुम्हलाई हुई न हों, ताजे फूलों से बनी हों। यों प्रत्येक नगरवासी और जनपदवासी प्रमुदित हो आठ दिन तक महोत्सव मनाएँ। मेरे 5 आदेशानुरूप यह सब सम्पादित कर लिए जाने के बाद मुझे शीघ्र सूचित करें । राजा भरत द्वारा यों आदेश दिये जाने पर वे अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि के प्रजा - जन हर्षित हुए, विनयपूर्वक राजा का वचन शिरोधार्य किया । राजा भरत के पास से रवाना हुए, रवाना होकर उन्होंने राजा की आज्ञानुसार अष्ट दिवसीय महोत्सव की व्यवस्था की, करवाई। वैसा कर वापस लौटकर राजा भरत को निवेदित किया कि आपकी आज्ञानुसार सब व्यवस्था की जा चुकी है। तृतीय वक्षस्कार 卐 卐 56. [3] 'O the blessed ! You arrange eight day festival in the honour of फ्र appearance of Chakra Ratna which is indicative of great success. I declare that during these days no sales tax, property tax and the annual tax shall be charged by the Government for transactions done during this period. In case any tax is already due, that defaulter should not be harassed. The practice of measurement or weighment should not be done. No state employee should enter any one's house. The fine for criminal act, or default, the big fine for grave act and small amount of fine for ordinary default shall not be charged during this period. There should be no dispute regarding debt. The debt of the creditor be paid from the state treasury. The debtor should be freed from debt. The theatrical performances of dancers be arranged. The celebrations should be made beautiful, the festivities should be made resounding with the sound of drums and trumpets, garlands used for decoration of the town and those worn by the people should not be stale. They should be of fresh flowers. Thus every citizen and the resident of the state should be happy 卐 卐 卐 卐 卐 (140) Third Chapter फ 5 5 5 फ्र 卐 卐 卐 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 555 552 卐 फ्र Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 卐 ததததமிமிமிமிமிமிமிமிமிதததததததததததததததததததழிழிக and the festivities should be celebrated for eight days. After arranging all this as ordered, I should be informed about compliance. The people of eighteen categories felt happy to receive these orders. They accepted the orders respectfully. They started from there and made arrangement for eight day grand festival as ordered. Then, they came back and informed king Bharat about the compliance of his orders. चक्ररत्न का मागध तीर्थाभिमुख प्रयाण DEPARTURE OF CHAKRA RATNA TOWARDS MAGADH TIRTH तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं मागतित्थाभिमुहं पयातं पासइ २ त्ता हट्ठतुट्ठ-हियए कोडुंबि अपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पि ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय-गय-रहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणिं सेण्णं सणाहेइ, एत्तमाणत्तिअं पच्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबिअ - ( पुरिसे तमाणत्तियं) पच्चष्पिणंति । 5 卐 卐 ५७. [ १ ] तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए 5 आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे, जक्खसहस्स– संपरिवुडे, फ दिव्वतुडिअ - सहसण्णिणाएणं आपूरेंते चेव अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता गंगा महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं मागहतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था । तृतीय बक्षस्कार फ़क तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ ता समुत्तजालाभिरामे, जाव धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता हय-गय-रहपवरवाहण - भड - चडगर - पहकर - संकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अंजणगिरिकडगसण्णिभं गयवई वई दुरु 卐 卐 तणं से भरहाहवे रिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे, कुंडलउज्जोइआणणे, मउडदित्तसिरए, णरसीहे, 5 णरवई, णरिंदे, णरवसहे, मरुअरायवसभकप्पे अब्भहिअरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे, पसत्थमंगलसएहिं फ्र संधुव्यमाण, जयसद्दकयालोए, हत्थिखंधवरगए, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं, सेअवरचामराहिं फ्र उद्धुव्वमाणीहिं २ जक्खसहस्ससंपरिवुडे वेसमणे चैव धणवई, अमरवइसण्णिभाइ इड्डीए पहिअकित्ती । 卐 गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं गामागर - नगरखेडकब्बड - मडंबदोणमुह - पट्टणासमसबाहसहस्समंडिअं, थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिणमाणे २ अग्गाई, वराई रयणाई पडिच्छमाणे २ तं दिव्वं चक्करयणं अणुगच्छमाणे २ जोअनंतरिआहिं वसहीहिं वसमाणे २ जेणेव मागहतित्थे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मागहतित्थस्स अदूरसामंते दुवालसजोयणायामं णवजोअणवित्थिण्णं, वर-णगरसरिच्छं, विजय - खंधावारनिवेसं करेइ २ त्ता वड्डइरयणं सद्दावेइ, सद्दावइत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो 5 देवाप्पि ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि । तए णं से वड्डइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिए, पीइमणे जाव अंजति कट्टु एवं सामी ! फ Third Chapter 卐 卐 ( 141 ) 5 卐 卐 फ्र 卐 5 फ्र Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ u乐5555 F 555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$$$$$$555$$$$ तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता भरहस्स रण्णो आवसहं पोसहसालं च करेइ २ त्ता एअमाणत्ति खिप्पामेव पच्चप्पिणंति। ऊ ५७. [१] अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधगृहशाला ॥ (शस्त्रागार) से निकला। निकलकर आकाश में अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्त्र यक्षों से संपरिवृतॐ घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की 卐 5 ओर चला। म राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध फ़ तीर्थ की ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, यावत् (हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो ज उठा।) उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य-(प्रधान पद पर क अधिष्ठित) राजा की सवारी के योग्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो। घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो। यथावत् आज्ञा पालन कर मुझे सूचित फ़ करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेश के अनुरूप सब किया और राजा को अवगत कराया। ॐ तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह ॐ स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था। यावत् शरद ऋतु में धवल महामेघ, विशाल बादल से निकले चन्द्र की भाँति देखने में प्रिय लगने वाला ॐ वह राजा स्नानघर से निकला। स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा ॥ + योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला, जहाँ आभिषेक्य ॐ हस्तिरन था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ़ हुआ। भरत क्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र-राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर लग ॐ रहा था। उसका मुख कुंडलों से उद्योतित था। मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था। मनुष्यों में सिंहसदृश के शौर्यशाली, मनुष्यों के स्वामी, मनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के मध्य वृषभ-मुख्य सौधर्मेन्द्र के सदृश, राजोचित ॐ तेजस्विता रूप लक्ष्मी से अत्यन्त दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा सैकड़ों मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत, जयनाद से सुशोभित, गजारूढ़ राजा भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत (चक्रवर्ती का शरीर दो हजार व्यन्तर देवों से अधिष्ठित होता है।) यक्षराज कुबेर के जैसा लगता था। देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, ऊ जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था। कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र मस्तक पर तना था। श्रेष्ठ, + श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे। ऊ राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, + मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संवाध-इनसे सुशोभित, पृथ्वी को-वहाँ के शासकों को जीतता ॐ हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआफ एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ जहाँ मागध तीर्थ था, वहाँ आया। आकर मागध तीर्थ के जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (142) Jambudveep Prajnapti Sutra 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听Fu 白牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65555555555555559 न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार - सैन्य -शिविर लगाया। फिर राजा ने वर्धकिरत्न- एक अति श्रेष्ठ शिल्पकार को बुलाया । बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान एवं पौषधशाला का निर्माण करो, आज्ञा-पालन कर मुझे सूचित करो। राजा द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पकार हर्षित तथा परितुष्ट हुआ। उसने अपने चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव किया। उसने हाथ जोड़कर 'स्वामी ! जो आज्ञा' कहकर विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। उसने राजा के लिए आवास-स्थान तथा पौषधशाला का निर्माण किया। निर्माण कर राजा को शीघ्र ज्ञापित किया कि उनके आदेशानुरूप कार्य हो गया है। 57. [1] After the conclusion of eight day festival, the divine Chakra Ratna came out from the ordnance store and stood in the space without any support. It was surrounded by 1,000 yakshas (demi-gods). The sky was resounding with the divine sound of divine musical instruments. The Chakra Ratna then passed through capital city Vinita and moving along the southern bank of Ganga river, it went towards Magadh Tirth in the east. King Bharat saw that divine Chakra Ratna passing along the bank of great Ganga river and then moving towards Magadh Tirth. He felt very happy and satisfied. He then got up in an ecstatic mood and called his attendants. He ordered them, 'Beloved of gods! Decorate quickly the elephant meant for a coronated king. Also prepare four types of army with the requisite gradients namely horses, elephants, chariots and excellent warriors. Inform me after compliance of these orders.' The attending officers complied the orders accordingly and then informed the king. Thereafter, king Bharat came to the bathing place and entered there. It was very much beautiful because of hanging chains of pearls. After sometime the king came out from there. He was looking very attractive like the moon of winter season coming out of great white cloud. He then came to that place where the elephant meant for coronation was present. He was then in the company of horses, elephants, chariots and many other means of transport, the army wherein there were many warriors. He then sat on the great elephant which looked like the top of Anjangiri. The chest of Bharat, king of Bharat area was full of garlands and was looking very grand and loveable. His face was shining with ear-rings (kundal). His head was shining with the crown. King Bharat while riding the elephant was looking brave like a lion amongst men. He was the Third Chapter तृतीय वक्षस्कार (143) 15555555555555555555555 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555550 55555555555555555555555555555555555 卐 卐 45 卐 master of his people. He was with great grandeur and as such he was 5 Indra among men. He could carry on the administrative burden of the kingdom like a bullock. He was like Saudharmendra among Vyantar gods. He was extremely bright due to royal grandeur. He was being praised by hundreds of learned people with auspicious words. The sound of his 47 success was all around. He was surrounded by thousands of yakshas (The physical body of a Chakravarti is guarded by 2,000 Vyantar gods). He looked like Kuber, the master of yakshas. His grandeur was like that of god Indra. So, his reputation was spreading all around. He was bearing umbrella having garlands of Korant flowers on his head. White whisks of best qualities were being waved on his sides. King Bharat moved ahead along the southern coast of Ganga river. He was conquering thousands of villages, treasures, towns, areas, khet, karvat, madamb, ports, pattans, Ashram, Samvadh, the land that was falling in it, and the rulers of that land. He was accepting grand jewels that they were offering as gift. He was following the divine Chakra Ratna and staying after covering one yojan each up to Magadh Tirth. He set up his army camp in an area twelve yojan long and nine yojan wide when he came to a place which was neither very far nor very near to Magadh Tirth. His camping site was then looking like a great town. The king then called his skilled artisan (Vardhik ratna) and ordered, 'O beloved of gods! Please build a residence and place of worship (Paushadhashala) for me quickly and inform me after compliance. The Vardhik felt happy at these orders and experienced ecstatic pleasure in his heart. He accepted the order with folded hands and in a humble posture. He built the house and the Paushadhashala for the king. He then informed the king that the needful had been done. 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 मागध तीर्थ में अष्टमभक्त - पौषधकरण THREE DAY PAUSHADH FAST AT MAGADH TIRTH 45 ५७. [२] तए णं से भरहे राया आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता जेणेव फ पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पोसहसालं अणुपविसइ २ त्ता पोसहसालं पमज्जइ २ त्ता दब्भसंथारगं संथरइ २ त्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ २ त्ता मागहतित्थकुमारस्त देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ त्ता पोसहसालाए पोसहिए, बंभयारी, उम्मुक्क- मणिसुवण्णे, ववगयमाला - वण्णग- विलेवणे, णिक्खित्त - सत्थमुसले, दब्भसंथारोवगए, एगे, अबीए अट्ठमभत्तं पडिजागरमाणे २ विहरइ । (144) 555555555555 卐 45 तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता कोडुंबिअपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्यामेव फ Jambudveep Prajnapti Sutra 4 45 卐 卐 卐 卐 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 59595952 F Y 5 भो देवाणुष्पिआ ! हय-गय-रह- पवरजोहकलिअं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह, चाउग्घंटं आसरहं ५ F 5 Y ५७. [ २ ] तब राजा भरत आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। नीचे उतरकर जहाँ पौषधशाला ५ थी, वहाँ आया। आकर पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ, पौषधशाला का प्रमार्जन किया, सफाई की। प्रमार्जन कर दर्भ - डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हुआ-बैठकर उसने मागध 5 तीर्थकुमार देव को उद्दिष्ट कर तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास - तेले की तपस्या स्वीकार की । ५ तपस्या स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध व्रत स्वीकार किया । मणिस्वर्णमय आभूषण शरीर से उतार दिये। माला, वर्णक - चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये, शस्त्र - कटार आदि, ५ मूसल - दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे । यों डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत निर्भय ५ भाव से आत्मबलपूर्वक तेले की तपस्या में प्रतिजागरित - सावधानी से संलग्न हुआ । Y 5 F Y पडिकप्पेहत्ति कट्टु मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता समुत्त० तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्य ५ पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता हयगयरहपवरवाहण सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे। F तेले की तपस्या परिपूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। आकर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें . इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी, रथ एवं उत्तम योद्धाओं - पदातियों से सुशोभित चतुरंगिणी सेना को शीघ्र सुसज्ज करो। चातुर्घंट-चार घंटाओं से युक्त - अश्वरथ तैयार करो। यों कहकर राजा # स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर, स्नानादि से निवृत्त होकर राजा स्नानघर से निकला । वह श्वेत, विशाल बादल से निकले, ग्रहगण से देदीप्यमान, आकाश - स्थित तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने ५ में बड़ा प्रिय लगता था । स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा सेना से सुशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चार घण्टा वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। आकर 4 6 रथारूढ़ हुआ । F F 57. [2] Then king Bharat got down from the elephant (Hasti Ratna) f and came to Paushadhashala. He entered in it, cleaned it, spread a bed of hay and then sat on it. He then observed three day fast concentrating his mind on Magadh Tirth Kumar Dev. He removed the jewel-studded ornaments from his body. He also removed the garlands, the fragrant substances like Sandal paste from his body. He kept the sword, the dumble and other suchlike weapons aside. Then staying on the bed of y hay, king Bharat in a fearless, cautious and fully awakened state engaged his soul completely in three day austerities. After completion of three day austerities king Bharat came out of Paushadhashala. He then came to the assembly hall. He called his officials and ordered, 'O the blessed of gods! You prepare quickly the horses, the elephants, the chariots and the four tier army. Also prepare तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (145) 1733NE Y y 4 ५ ५ y ५ ५ ५ 1995 55 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 ५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 卐 फ्र the horse-driven chariot fixed with four bells. Thereafter, he entered the 卐 bath room, and after taking the bath he came out. He was looking very loveable like the moon coming out from white large cloud, shining among a number of planets stationed at the centre of stars in the sky. The king 卐 came to the outer assembly hall at the place where the horse-driven 卐 chariot having four bells was stationed. The king was looking grand with horses, elephants, chariots, other means of transport and the army. 5 then got on the chariot. 卐 फ his He 卐 मागध तीर्थ - विजय CONQUEST OF MAGADH TIRTH कलिआए ५८. [ १ ] तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे हय-गय- रहपवर - जोह - सद्धिं संपरिवुडे महया - भड - चडगर - पहगरवंदपरिक्खित्ते चक्क - रयणदेसिअमग्गे फ अगरायवर - सहस्साणु आयमग्गे महया उक्किट्ठ- सीहणायबोल - कलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरव- फ्र भूअं पिव करेमाणे २ पुरत्थिमदिसाभिमुहे मागहतित्थेणं लवणसमुहं ओगाहइ जाव से रहवरस्स फ्र कुप्परा उल्ला । फ्र हंदि सुणंतु भवंतो, बाहिरओ खलु सरस्स जे देवा । णागासुरा सुवण्णा, तेसिं खु णमो पणिवयामि ॥१ ॥ हंदि सुणंतु भवंतो, अब्भिंतरओ सरस्स जे देवा । णागासुरा सुवण्णा, सव्वे मे ते विसयवासी ॥२॥ इतिकट्टु उसुं णिसिरइत्ति - परिगरणिगरि अमज्झो, वाउद्धुअसोभमाणकोसेज्जो । चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोव्ब पच्चक्खं ॥ ३ ॥ तं चंचलायमाणं, पंचमिचंदोवमं छज्जइ वामे हत्थे, णरवइणो तंमि महाचावं । विजयंमि ॥४॥ परिक्खित्तं तए णं से भरहे राया तुरगे निगिण्हइ २ त्ता रहं ठवेइ २ त्ता धणुं परामुसइ, तए णं तं अरुग्गयबालचन्द - इंदधणुसंकासं वरमहिसदरिअदप्पिअ - दढघणसिंगरइ असारं उरगवर-पवरगवल - पवर - परहुअभमरकुलणीलिणिद्धं धंतधोअपट्टं णिउणोविअ - मिसिमिसिंतमणिरयण - घंटिआजाल- 5 तडित्तरुणकिरण - तवणिज्ज - बद्धचिंधं दद्दर- मलय- गिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंदचिंधं 5 काल - हरिअ-रत्त - पीअ - सुक्किल्ल - बहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीवं धणू गहिऊण फ्र से णरवई उसुं च वरवइरकोडिअं वइरसारतोंडं कंचण - मणि-कणग - रयण - धाइट्ठसुकयपुंखं फ अणेगमणि - रयण - विविहसुविरइयनामचिंधं वइसाहं ठाईऊण ठाणं आयतकण्णायतं च काऊण उसुमदारं फ्र इमाई वयणाई तत्थ भणिअ से णरवई 卐 फ्र 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5555555 (146) 卐 க க 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 255555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555 5 5 55 55 5 5 5 555952 फ्र Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555$$$$$$$$ तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसढे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवणंसि निवइए। ५८.[१] तत्पश्चात राजा भरत चार घंटे वाले-अश्वरथ पर सवार हआ। वह घोडे, हाथी, रथ तथा पदातियों से यक्त चातरंगिणी सेना से घिरा था। बडे-बडे योद्धाओं का समह उसके साथ चल रहा था। हजारों मकटधारी राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाए गये मार्ग पर वह आगे बढ रहा था। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वाय द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो। उसने पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ते हुए, मागध तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। फिर राजा भरत ने घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया और अपना धनुष उठाया। वह धनुष तत्काल उदित हुए शुक्ल पक्ष की द्वितीया के बालचन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था। उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैंसे के सुदृढ़, सघन सींगों की ज्यों ठोस था। उस धनुष का पृष्ठ भाग उत्तम नाग, महिषशृंग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमर-समुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था। निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहने वाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूँछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध-चन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुओं-नाड़ी-तन्तुओं से उसकी प्रत्यञ्चा बँधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यञ्चा चंचल थी। राजा ने वह धनुष उठाया। उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-हीरों से बनी थीं। उसका सिरा वज्र की भाँति अभेद्य था। उसका पुंख-पीछे का भाग-स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। भरत ने वैशाख-धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले पादन्यास (विशेष मुद्रा) में स्थित होकर उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा और वह यों बोला (गाथार्थ) मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें-स्वीकार करें। यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा। मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था, विद्युत की तरह देदीप्यमान था। पञ्चमी के चन्द्र सदृश शोभित वह महाधनुष राजा के विजयोधत बायें हाथ में चमक रहा था। राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपतिअधिष्ठायक देव के भवन में गिरा। 58. [1] Thereafter, king Bharat rode on the horse-driven chariot having four bells. He was surrounded with horses, elephants, chariots तृतीय वक्षस्कार (147) Third Chapter $乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 555 4 ததததததததததமிமிமிமிமிமிமி****************** and four tier army and their officials. A large number of distinguished soldiers were with him. Many kings were following him. He was going ahead on the path marked by Chakra Ratna. The sound of his movement was such as if a great ocean disturbed by strong wind is roaring. Moving ahead in the eastern direction, close to Magadh Tirth, he entered Lavan Sea to such a depth that the wheels of his chariot became wet. y F Then king Bharat stopped the horses, halted the chariot and picked up his bow. That bow looked like recently risen crescent moon of second day of bright fortnight or a rainbow. It was solid like strong, thick horns of a high class prominent he-buffalo. The back side of the bow was having bright black shine and radiance like a grand serpent, horn of a buffalo, an excellent koel, a collection of black-bees, or the indigo. It was very clean. It was covered with the bells in a large number, studded with precious gems and stones polished well by an expert in that profession. It was emitting shining rays like an electrical gadget. It was bound with gold and was marked. It had fine bands made of the mane of lion of Dardar or Malay mountain and the hair of the tail of whisked cow. Those bands were of half-moon shape. Its string was tied with black, green, red, yellow and white threads. It was capable of destroying the very life of enemies. Its string was vibrant. The king picked up that bow and set an arrow on it. Both the sides of the arrow were made of strong high-class diamonds. Its tip was non-pierceable like Vajra. Its back portion was shining with precious stones like Chandrakant and the jewels studded in gold. The name of king Bharat was inscribed on it with many precious stones and gems in a beautiful manner. The king adopted the posture adopted at the time of hurling an arrow and pulled that grand arrow up to his hear. He then said 45 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (148) 'O the Nagakumar, Asurkumar, Suparnkumar and other suchlike demi-gods that are guarding the inner and outer parts of this arrow being used by me, I bow to you. You listen to me to and accept my words.' Saying so, king Bharat released the arrow. King Bharat had tied his waist with a cloth used in battle-field in the same manner as a wrestler ties his waist when he enters the arena. The special cloth which he was 卐 wearing was moving with the wind and was looking very beautiful. He was shining like Indra himself holding a wonderful, excellent bow and was shining like lightening. That great bow was shining like moon of the fifth day of the fortnight in the right hand of the king ready for gaining a victory. 45 தமிழிழதமிதமிமிமிமிமிமிமிததமி***தத***மிழததிமிதிமிதித 4 Jambudveep Prajnapti Sutra Y Y 卐 5 7 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 卐 卐 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 5 5 5 5 5 55 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 Immediately when king Bharat released the arrow, it went up to a distance of twelve yojans and fell in the abode of the celestial being controlling the Magadh Tirth. मागध तीर्थाधिपति का भरत के समीप आगमन ARRIVAL OF MAGADH TIRTH MASTER DEVA NEAR BHARAT ५८. [ २ ] तए णं से मागहतित्थाहिवई देवे भवणंसि सरं णिवइअं पासइ २ त्ता आसुरुते रुट्ठे डिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलिअं भिअर्डि णिडाले साहरइ २ त्ता एवं वयासी सणं भो एस अपत्थि अपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एआणुरूवाए दिव्वाए देविद्धीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं देवाणुभावेणं लगाए पत्ता अभिसमण्णा या उप्पं अप्पुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कट्टु सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ २ त्ता जेणेव से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तं णामाहयंकं सरं गेण्हइ, णामंकं अणुप्पवाएइ, णामंक अणुप्पवाएमाणस्स इमे एआरूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जीअमेअं ती अ-पच्चुष्पण - मणागयाणं मागहतित्थकुमाराणं देवाणं राईणमुवत्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि गं अहंप भरहस्स रण्णो उवत्थाणीअं करेमित्ति कट्टु । एवं संपेइ, संपेहित्ता हारं मउडं कुंडलाणि अ कडगाणि अ तुडिआणि अ वत्थाणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं मागहतित्थोदगं च गेण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए जयणाए सीहाए सिग्घाए उद्घआए दिव्याए देवगईए वीईवयमाणे २ जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता अंतलिक्खपडिवणे सखिंखिणीआई पंचवण्णाई वत्थाइं पवर-परिहिए करयलपरिग्गहिअं दसणहं सिर जाव अंजलिं कट्टु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ वद्धावित्ता एवं वयासी - 'अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे पुरत्थिमेणं मागहतित्थमेराए तं अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी, अहणणं देवापि आणं आणत्तीकिंकरे, अहण्णं देवाणुष्पिआणं पुरत्थिमिल्ले अंतवाले, तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! ममं इमे आवं पीइदाणं तिकट्टु हारं मउडं कुंडणाणि अ कडगाणि अ जाव मागहतित्थोदगं च उवणेइ । तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ ता मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता पडिविसज्जे । ५८. [ २ ] मागध तीर्थाधिपति देव ने ज्यों ही बाण को अपने भवन में गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त हो गया, कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड - विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएँ उभर आईं। उसकी भृकुटि तन गईं। वह बोला 'जिसे कोई नहीं चाहता, उस अप्रार्थित मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री - शोभा से परिवर्जित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव से लब्ध प्राप्त स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवद्युति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ?' यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (149) ******************* Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))55555558 5 555555554) 5555555555555555555555555555555555551 卐 नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ आया। आकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा। देखकर उसके मन में । ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ卐 'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। अतः । भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती मागध तीर्थ के अधिष्ठायक देवकुमारों के लिए यह उचित है, परम्परागत फ्र व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूँ।' यों विचार कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कंकण-कड़े, भुजबन्ध, वस्त्र, अन्यान्य विविध ॐ अलंकार, भरत के नाम से अंकित बाण और मागध तीर्थ का जल लिया। इन्हें लेकर वह उत्कृष्ट, त्वरित वेगयुक्त, सिंह की गति की ज्यों प्रबल, शीघ्रतायुक्त, तीव्रतायुक्त, दिव्य देवगति से चलता हुआ जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। वहाँ आकर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहने हुए, ऊ आकाश में संस्थित होते हुए उसने अपने जुड़े हुए दोनों हाथों से मस्तक को छूकर अंजलिपूर्वक राजा भरत को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा उसे बधाई दी और कहा-'आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त के समस्त भरत क्षेत्र को भलीभाँति जीत लिया है। मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका + अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल-सीमा का रक्षक हूँ। अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान हर्षपूर्वक उपहृत भेंट स्वीकार करें।' यों कहकर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक यावत् ॐ मागध तीर्थ का जल भेंट किया। राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया। स्वीकार कर * मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार सम्मान कर उसे विदा किया। 58. [2] Immediately when the god controlling Magadh Tirth saw the .. arrow falling in his abode, his anger knew no bounds. He became dreadful : and burning in anger. Three lines developed on his forehead due to the state of extreme anger. His eye-brows became lifted upwards. He said “Who is that unfortunate person desiring death which is not liked by any one ? Who is the one destined for a painful end and who has bad signs ? Who is the one born in a bad day? Who is that unfortunate one devoid of any shame and grandeur that has taken the courage of making y an attack on my divine wealth and divine grandeur that has been procured by me due to my divine existence ? Who is the one that has thrown an arrow on my abode not feeling afraid of death ? Saying so, hey got up from his seat and came to the place where that arrow bearing the y name was lying. He, then picked up the arrow and saw the name ! inscribed on it. Thereafter, his thoughts, mental contemplations and the ideas in his brain took a turn as follows "The Chakravarti king Bharat has taken birth in Bharat area of Jambu continent. So, it has been the appropriate tradition of the past, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (150) Jambudveep Prajnapti Sutra -1-1-1-1-नानानानागासागनानानागागागागागागागागागा) 959555555 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र फ present and future ruling celestial gods of Magadh Tirth that they offer gift to the king. So, I should also go and offer gift to the king.' Thinking in this manner, he took garland, crown, kundals (ornaments f worn in the ear), bangles, armlets, cloth, many other ornaments, the arrow bearing the name of Bharat and the water of Magadh Tirth. He then with a great speed like that of a lion moved quickly and anxiously with divine speed and came to the place where king Bharat was seated. Thereafter, he with folded hands touched his forehead while he was wearing excellent clothes of five colours and stationed in the open space. He congratulated king Bharat with the words, 'May you always be successful' and said, 'You have conquered the entire area up to Magadh Tirth of Bharat area in the eastern side. I am residing in the region conquered by you. I am your obedient servant. I am your lieutenant guarding the eastern boundary. So, you please accept my gift happily. 5 Saying so, he offered the garland, crown, ear-ornament, the Katak up to the water of Magadh Tirth. 卐 卐 King Bharat accepted the gift thus offered by Magadh Tirth Kumar. Thereafter, he honoured him and then bid him to go. 卐 卐 5 अष्टमभक्त का पारणा तथा अष्टदिवसीय महोत्सव BREAKING OF THREE DAY FAST AND CELEBRATION OF EIGHT DAY FESTIVAL 卐 ५८. [ ३ ] तए णं से भरहे राया रहं परावत्तेइ २ त्ता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ २ ता फ्र फ जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तुरए णिगिण्हइ २ ता फ्र रहं ठबेइ २ ता रहाओ पच्चोरुहति २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ ता जाव ससिव्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २ त्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं जाव मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ २त्ता मम एअमाणत्तिअं पच्चप्पिण्णह ।' तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वृत्ताओ समाणीओ हट्ठ जाव करेंति २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति । ५८. [३] फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा। रथ मोड़कर वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवण समुद्र से वापस लौटा। जहाँ उसका सैन्य शिविर था, बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, जहाँ स्नानघर था, गया । स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। उज्ज्वल महामेघ से निकलते हुए चन्द्र सदृश सुन्दर दिखाई देने वाला राजा स्नानादि सम्पन्न Third Chapter तृतीय वक्षस्कार (151) फफफफफफफफफफफफ 卐 5 卐 फफफफफ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 卐 फ्र 卐 5 卐 कर स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ भोजनमण्डप था, वहाँ आया। भोजनमण्डप में आकर सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। तेले का पारणा कर वह भोजनमण्डप से बाहर निकला, 5 जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया । आकर पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर 卐 आसीन हुआ । सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणी - प्रश्रेणी के पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा- 5 ‘देवानुप्रियो ! मागध तीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित करो। उस बीच शुल्क और राज्य-कर आदि न लिये जाएँ, यह उद्घोषित करो। राजा भरत द्वारा यों आदेश देने पर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही किया। राजा के पास कर यथावत् निवेदित किया। 卐 58. [3] Thereafter, king Bharat turned back his chariot. He then 卐 passing near Magadh Tirth came back through Lavan Samudra to his army camp and the place where outer assembly hall was located. He then stopped his horses, halted the chariot and came down. Thereafter, he went to the place meant for taking bath. He entered the bathroom. The king who was as handsome as the moon coming out of shining dark clouds came out from the bathroom after taking bath. He then came to the place where the dining hall was located. He sat in a comfortable position in the dining hall and broke his three day fast. Thereafter, he came out from the dining hall to the assembly hall. He then sat on his seat facing eastwards. Thereafter, he called his officials of eighteen divisions and sub-divisions and said, 'O the blessed ! Arrange eight day celebrations in view of the conquest over Magadh Tirth Kumar deva. During this period no state dues, fees or taxes be charged. Make such an announcement. They then happliy made such an announcement as ordered by king Bharat and then informed the king accordingly. 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 चक्ररत्न का वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण DEPARTURE OF CHAKRA RATNA TOWARDS VARDAM TIRTH ५८. [४] तए णं से दिव्वे चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयारए जंबूणयणेमीए णाणामणि- खुरप्प - थालपरिगए मणिमुत्ताजाल-भूसिए सदिघोसे सखिंखिणीए दिव्वे तरुणरविमंडलणिभे णाणामणिरयणघटि आजालपरिक्खित्ते सव्वोउ असुरभिकुसुम आसत्तमल्लदामे अंतक्खिपविणे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्यतुडिअसद्दसण्णिणादेणं पूरेंते चेव अंबरतलं णामेण य सुदंसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ फ्र पडिणिक्खमइ २ त्ता दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्थाभिमुहे पयाए यावि होत्था। फ़फ़ ५८. [ ४ ] तत्पश्चात् राजा भरत का दिव्य चक्ररत्न अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर 5 शस्त्रागार से बाहर निकला। उस चक्ररत्न का आरों का जोड़ वज्रमय था - हीरों से जड़ा था। आरे लाल 5 रत्नों से युक्त थे। उसकी नेमि पीत स्वर्णमय थी। उसका भीतरी परिधि का भाग अनेक मणियों से जड़ा था। वह चक्र मणियों तथा मोतियों के समूह से विभूषित था। वह मृदंग आदि बारह प्रकार के वाद्यों के 卐 ( 152 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 5 சு 卐 5 卐 卐 卐 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25**தமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிதமி*****மிததமிதமிதிதிதி 5 घोष से युक्त था । उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी थीं। वह दिव्य प्रभावयुक्त था, मध्याह्न काल के सूर्य के सदृश तेजयुक्त था, गोलाकार था, अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों की घंटियों के समूह से परिव्याप्त था । सब ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों की मालाओं से युक्त था, आकाश में अवस्थित था, गतिमान था, एक हजार यक्षों से घिरा था। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनतल को मानो भर रहा था। उसका सुदर्शन नाम था । राजा भरत के उस प्रथम - प्रधान चक्ररत्न ने यों शस्त्रागार म दक्षिण-पश्चिम दिशा में नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया । निकलकर ! फ F 58. [4] After the conclusion of eight day celebrations, the Chakra Ratna moved out of weaponery. The joints of the spokes of Chakra Ratna were studded with diamonds. The spokes were also bearing red jewels. Its centre (nemi) was of yellowish gold. Its inner ring was studded with precious stones of many types. That wheel (Chakra) was decorated with fi beads and pearls. It resonated with sound of twelve musical instruments ५ including Mridang. Many small bells were fitted on it. It was shining like bright sun of noon time. It had many bells of precious stones and ! jewels. There were garlands of flowers blossoming in all seasons on it. It was located in the sky and was moving. A thousand Yakshas (a class of Y fi gods) were surrounding it. It appeared that the entire environment at that time was full of divine music. Its name was Sudarshan. That y Chakra Ratna of king Bharat thus after coming out of the ordnance store! went toward Vardam Tirth in the south-west direction. 4 वरदाम तीर्थ - विजय CONQUEST OF VARDAM TIRTH 4 4 Y ५९. तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्थाभिमुहं पयातं ५ चावि पासइ २त्ता हट्टतुट्ठ० कोटुंबिअपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - 'खिप्पामेव भो देवाणुष्पिआ ! ५ हय-गय-रह - पवरचाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेह, आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, त्ति कट्टु मज्जणघरं अणुपविस २त्ता तेणेव कमेणं जाव धवलमहामेहणिग्गए जाव । Б Я LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE अ से अवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं २ माइ अवरफलयपवर - परिगर - खेडय - वरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उक्कडवर - मउडतिरीड - पडाग - झय - वेजयंति - चामर - चलंतछत्तंधयारकलिए प्र असिखेवणि-र‍ - खग्गचावणारायकणयकप्पणिसूल - लउड - भिंडिमाल - धणुह - तोणसरपहरणेहि काल-पील- रुहिर - पीअ - सुक्किल्ल - अणेगचिंधसयसण्णिविद्वे अप्फोडिअसीहणाय - छेलिअ हलिअ - हत्थगुलुगुलाइ अ- अणेगरह - सयसहस्सघणघणेंत - णीहम्ममाणसद्दसहिएण जमग- समग- 5 भंभाहोरंभ किणितखर- मुहिमुगुंद - संखिअ - परिलिवच्चग - परिवाइणिवंस - वेणुविपंचि - 4 5 महतिकच्छभिरिगिसिगिअ - कलताल - कंसताल - करधाणुत्थिएण महया सद्दसण्णिणादेण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिवुडे वेसमणे चेव धणवई अमरपतिसण्णिभाइ 5 इद्धीए पहिअकित्ती गामागर - नगर - खेडकब्बड तहेव सेसं जाव विजयखंधावारणिवेसं करेइ २ त्ता प्र Third Chapter त तृतीय वक्षस्कार 5 (153) 5555555 4 y Y y Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a555FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF 5FFFFFFFFF ॐ वद्धइरयणं सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! मम आवसहं पोसहसालं च करेहि, के ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। म ५९. राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण-पश्चिम दिशा में वरदाम तीर्थ की ओर जाते हुए देखा। देखकर वह बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर ॐ कहा-'देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो।' यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। धवल ॐ महामेघ से निकलते हुए चन्द्रमा की ज्यों सुन्दर प्रतीत होता वह राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से के बाहर निकला। (पूर्व सूत्रानुसार) उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। जिन्होंने अपने-अपने हाथों में उत्तम ढालें ले रखी थीं, श्रेष्ठ कमरबन्धों से अपनी कमर बाँध रखी थीं, उत्तम कवच धारण कर रखे थे, ऐसे हजारों : योद्धाओं से वह विजय-अभियान पर प्रस्तुत था। उन्नत, उत्तम, मुकुट, कुण्डल, पताका-छोटी-छोटी झण्डियाँ, ध्वजा-बड़े-बड़े झण्डे तथा वैजयन्ती-दोनों तरफ दो-दो पताकाएँ जोड़कर बनाये गये झण्डे, म चँवर, छत्र-इनकी सघनता से अंधकार जैसा लग रहा था। असि-तलवार विशेष, क्षेपणी-गोफिया, ॐ खड्ग-सामान्य तलवार, चाप-धनुष, नाराच-सम्पूर्णतः लोह-निर्मित बाण, कणक-बाणविशेष, + कल्पनी-कृपाण, शूल, लकुट-लट्ठी, भिन्दिपाल-वल्लम या भाले, बाँस के बने धनुष, तूणीर-तरकश, शर-सामान्य बाण आदि शस्त्रों से, जो कृष्ण, नील, रक्त, पीत तथा श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्नों से युक्त - 卐 थे, व्याप्त था। भुजाओं को ठोकते हुए, सिंहनाद करते हुए योद्धा राजा भरत के साथ-साथ चल रहे थे। 5 घोड़े हर्ष से हिनहिना रहे थे, हाथी चिंघाड़ रहे थे, सैकड़ों हजारों-लाखों रथों के चलने की ध्वनि, घोड़ों + . को ताड़ने हेतु प्रयुक्त चाबुकों की आवाज, भम्भा-ढोल, कौरम्भ-बड़े ढोल, क्वणिता-वीणा, खरमुखी- मैं काहली, मुकुन्द-मृदंग, शंखिका-छोटे शंख, परिली तथा वच्चक-घास के तिनकों से निर्मित है # वाद्य-विशेष, परिवादिनी-सप्त तन्तुमयी वीणा, दंस-अलगोजा, वेणु-बाँसुरी, विपञ्ची-विशेष प्रकार फकी वीणा, महती कच्छपी कछुए के आकार की बड़ी वीणा, रिगीसिगिका-सारंगी, करताल, कांस्यताल, + परस्पर हस्त-ताड़न आदि से उत्पन्न विपुल ध्वनि-प्रतिध्वनि से मानो सारा जगत् आपूर्ण हो रहा था। ॐ इन सबके बीच राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा यशस्वी-ऐश्वर्यशाली प्रतीत होता था। वह ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब आदि से सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-वहाँ 卐 के शासकों को जीतता हुआ, उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न म का अनुगमन करता हुआ-उसके पीछे-पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर पड़ाव डालता हुआ जहाँ ॐ वरदाम तीर्थ था, वहाँ आया। आकर वरदाम तीर्थ से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना सैन्य-शिविर लगाया। उसने वर्द्धकिरन को बुलाया। उससे कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान तथा पौषधशाला का + निर्माण करो। मेरे आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न कर मुझे सूचित करो। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (154) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555555)555555555555555555555555555555558 8555 55555555555555 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54454545454545454545454545454545454545455 456 457 4554564545454545454545452 45 $ 454 57 45454545454545 46 45 44 $$$ 455 456 455 456 457 456 457 455 456 457 45 54545 47 46 45 46 456 457 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 4 59. King Bharat saw the Chakra Ratna proceeding towards Vardam Si Tirth. Seeing it, he felt happy and satisfied. He called his offici said, “Prepare the horses, the elephants, the chariots and the four-tier army and brave soldiers. Quickly decorate the elephant earmarked for coronation. After issuing such orders, the king entered the bathroom. After taking bath, he came out from there. He was then looking beautiful like the moon coming out of white dense clouds. (as described earlier in aphorisms) White whisks of excellent quality were being waved around him. Si Thousands of warriors were in the march for the battle. They were holding excellent shields in their hands. Their waist was tied with high quality cloth. They were wearing armours (kavach). The entire surrounding was covered with kundals, buntings, flags, the flags prepared by joining two buntings each and the whisks. Umbrellas were 4 so densely displayed that it looked like a cover of darkness. The soldiers were having special sword (asi), missile (kshepani), ordinary sword (khadg), bow, arrow totally made of iron (chaap), quiver, ordinary arrow (shar), special arrow (kanak), small sword, javeline, thick stick, spears and bows made of bamboo, which were bearing hundreds of signs in black, blue, red, yellow and white colour. Those warriors were moving along with king Bharat spreading their arms and making war sounds. The horses were neighing in a joyful mood. The elephants were trumpeting. There was a great sound of the movement of hundreds, thousands and millions of chariots, the leather sticks for goading horses, ms, big drums (kaurambh), flute, kahali (hoof like burgle), mridang, small conch-shell, parili, musical instrument made of grass straw (vachchak), seven-ringed violine, dans, special type of flute (vipanchi), tortoise shaped violine (kachchapi), sarangi (rigisigika), kartal, kansyatal, sound emitting due to clapping of hands and the like. Thus the entire environment was full of such sounds and their echo. In this 15 environment king Bharat with his four-tier army, many vehicles, and his immense grandeur and wealth, which looked like Kuber (the god of 4 wealth) surrounded with thousands of yakshas, was going ahead. He was looking powerful and grand. He was conquering villages, suburbs, towns, karvats, madambs and all such areas that fell on his route. He was 41 conquering the rulers of those areas and accepting gift of excellent jewels offered by them. He was following the divine Chakra Ratna. He was 步步步牙%%%%%%%% 451 45 46 45 44 45 46 $$$$$听听听听听 तृतीय वक्षस्कार ( 155 ) Third Chapter 455555657 556 56 955 456 457 455 456 457 458 455 456 457 455 456 457 458 454 455 456 454545454545454545 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ))) )))) 555555555555555555555555555步步步步步步步步步 camping at a distance of one yojan each during his march. Then, he reached Vardam Tirth. He then set up his army camp in an area of twelve yojan by nine yojan, which looked like a town. That camp was neither very near nor very far from Vardam Tirth. He then called his Vardhaki Ratna and said, 'O the blessed ! You quickly prepare a rest house and the Paushadhashala (place for observing austerities) for me and inform me after compliance. ॐ ६०. तए णं से आसम-दोणमुह-गाम-पट्टण-पुरवर-खंधावार-गिहावण-विभागकुसले जएगासीइपएसु सब्बेसु चेव वत्थूसु णेगगुणजाणए पंडिए विहिण्णू पणयालीसाए देवयाणं वत्थुपरिच्छाए ॐ मिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छज्जे वेज्झे अ दाणकम्मे पहाणबुद्धी 卐 जलयाणं भूमियाणं य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तहेव सहे वत्थुप्पएसे पहाणे गन्भिणिकण्णरुक्खवल्लिवेढिअगुणदोसविआणए गुणड्ढे सोलसपासायकरणकुसले चउसट्ठि-विकप्पवित्थियमई गंदावत्ते य वद्धमाणे सोत्थिअरुअग तह सबओभद्दसण्णिवेसे अ बहुविसेसे उइंडिअअदेवकोट्ठदारुगिरिखायवाहणविभागकुसले इह तस्स बहुगुणद्धे, थवईरयणे परिंदचंदस्स। तव-संजम-निविटे, किं करवाणी तुवट्ठाई॥१॥ सो देवकम्मविहिणा, संधावारं परिंद-वयणेणं। आवसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं मुहुत्तेणं॥२॥ करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ २ त्ता जेणेव भरहे राया (तणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता) एतमाणत्तिक 卐 खिप्पामेव पच्चप्पिणइ, सेसं तहेव जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ। 卐 ६०. वह शिल्पी (वर्द्धकिरत्न) आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्य-शिविर, गृह, आपण : इत्यादि की समुचित रचना करने में कुशल था। इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का अच्छा जानकार था। उनके यथाविधि चयन और अंकन में निष्णात था। शिल्पशास्त्र के पैंतालीस प्रकार की वास्तु परीक्षा में ॥ कुशल विशेषज्ञ था। विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्ग-भित्तियों, शयनगृहों के यथोचित : रूप में निर्माण करने में निपुण था। काठ आदि के छेदन-वेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएँ अंकित है + कर नाप-जोख में कुशल था। जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, खाइयों के के खनन में शुभ समय का जानकार, इनके निर्माण के प्रशस्त एवं अप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था। शब्दशास्त्र में-शुद्ध नामादि चयन, अंकन, लेखन आदि में अपेक्षित व्याकरणज्ञान में, वास्तुप्रदेश में-विविध दिशाओं में देवपूजागृह, भोजनगृह, विश्रामगृह आदि के संयोजन में सुयोग्य था। भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न फल उत्पन्न करने वाली बेलों, निष्फल अथवा दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन 卐 पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था। प्रज्ञा, हस्तलाघव आदि गुणों से युक्त था। 895))))))))))))))))))))))))))))) 听听听听听听听听听听听听听听听听听$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFF | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (156) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355555555555555555555555555555555555555558 85555555555555555555555555555555555 ॐ सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था। शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौंसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था। नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवन-निर्माणार्थ अपेक्षित ऊ काठ के उपयोग में, दुर्ग आदि निर्माण के अन्तर्गत जनावास हेतु अपेक्षित पर्वतीय गृह, सरोवर, यानवाहन, तदुपयोगी स्थान-इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था। (गाथा) वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था। राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं आपके लिए क्या निर्माण करूँ? राजा के वचन के ॐ अनुरूप उसने देवकर्मविधि से-चिन्तन मात्र से रचना कर देने की अपनी असाधारण, दिव्य क्षमता द्वारा + मुहूर्त मात्र में-सैन्य-शिविर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी। वैसा कर उसने फिर उत्तम पौषधशाला का निर्माण किया। तत्पश्चात् वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। आकर शीघ्र ही राजा को निवेदित किया कि 5 ॐ आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है। इससे आगे का वर्णन सूत्र ४५ के अनुसार है। के जैसे राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ ॥ था, आया। 60. That Vardhakiratna was expert in building properly an ashram, a port, a village, a town, an army camp, the houses, the shops and the like. He had expertise of 81 types of constructions. He had expert knowledge in selecting and arranging building material properly. He was an expert specialist in 45 types of building experiments relating to the construction treatise. He was expert in culling, piercing and sawing wood and the like, in making with red thread the lines indicating the required measurements. He had the due knowledge regarding the appropriate time for constructing tunnels on land and in water, in digging ditches. He had expert knowledge as to when such construction should not be done. Regarding linguistic study, he had expert knowledge of selecting suitable names and the like, the grammatical knowledge of sketching and writing them properly. He had also the knowledge of how the construction of the place for worship of celestial beings guarding the 4 different directions, dining hall, kitchen, rest house and the like should 4 be selected, properly arranged and constructed. He had expert owledge of suitable plantation, creepers that produce fruit of good quality, creepers that do not produce fruit or whose fruit grow at a large distance or after a very long time, trees and the qualities of creepers spreading on them--their merits and demerits. He had the knowledge of palmistry. He was expert in constructing sixteen types of building तृतीय वक्षस्कार (157) Third Chapter 555555555555555555555555555555555558 855555555555555555555555555558 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 五听听听听$$$$$$$$$$$$$$5555 卐))))555555555555555555 namely Santan, Swastik and the like. He was expert in construction of 64 types of buildings mentioned in architecture. He was capable of constructing Nandyavart, Vardhaman, Swastik, Ruchak, Sarvatobhadra and the like constructions, building flags, idols of Indra and the like, 4 food-grain stores, use of proper type of wood in construction, construction of residences within the fort, construction of habitats in hilly areas and lakes, means of transport and suitable place for their storeage. He was expert in selecting such sites and in making construction on them. That builder had many qualities. He was availed by king Bharat as a result of the restraints and austerities observed by him in previous lifespans. He said to the king, 'Melord ! What should I build for you ?' He built the army camp and the beautiful rest house just in 48 minutes (a muhurt) as a result of his unique divine capabilities merely by his contemplation about it and that also in accordance with the orders of the king. Thereafter he came to the king and informed him that the construction had been completed as per the orders. Further description is similar to that of Sutra 45 including that the king came out of he $1 bathing house to the assembly hall. He then came to the horse-driven chariot that had four bells. रथ वर्णन DESCRIPTION OF CHARIOT (RATH) ६१. तए णं तं धरणितल-गमणलहुं तओ बहुलक्षण-पसत्थं हिमवंत-कंदरंतर-णिवायसंवडिय-चित्ततिणिस-दलियं जंबूणय-सुकयकूबरं, कणय-दंडियारं, पुलय-वरिंदणील-सासगपवाल-फलिह-वर-रयण-लेछ-मणि विदुम-विभूसियं, अडयालीसार-रइय-तवणिज्ज-पट्टसंगहिय-जुत्त-तुम्बं, परसिय-पसिय-णिम्मिय-णव-पट्ट-पुट्ठ-परिणिट्ठयं, विसिट्ठ-लट्ठ-णव-भ लोह-बद्धकम्मं, हरि-पहरण-रयण-सरिसचक्कं, कक्केयण-इंदणील-सासग-सुसमाहिय बद्धजाल-कडगं, पसत्थ-विच्छिण्ण-समधुरं पुरवरं च गुत्तं, सुकिरण-तवणिज-जुत्त-कलियं, कंकटय-णिजुत्त-कप्पणं, पहरणाणुजायं, खेडग-कणग-धणु-मंडलग्ग-वरसत्ति-कोंत-तोमर-5 ॐ सरसय-बत्तीसतोण-परिमंडियं, कणग-रयण-चित्तं, जुत्तं हलीमुह-बलाग-गयदंत-चंद-मोत्तिय+ तण-सोल्लिय-कुन्द-कुडय-वरसिंदुवार-कंदल-वर-फेण-णिगर-हारकासप्पगास-धवलेहिं ॐ अमर-मण-पवण-जइण-चवल-सिग्घ-गामीहिं चाहिं चामरा-कणग-विभूसियंगेहि, तुरगेहि, सच्छत्तं सज्झयं सघंटं सपडागं सुकयसंधिकम्मं, सुसमाहिय-समर-कणग-गंभीर-तुल्लघोसं-वरकुप्परं + सुचक्कं वरणेमीमंडलं, वरधुरातोंडं, वरवइरबद्ध-तुम्बं, वरकंचण-भूसियं वरायरिय-णिम्मियं, ॐ वरतुरग-संपउत्तं, वरसारहि-सुसंपग्गहियं, वरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे पवर-रयण-परिमंडियं के ॐ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (158) Jambudveep Prajnapti Sutra 9555555555555555555555555555555555555555555555558 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிதமி*தமிழ********ததததததததி****ததததததத*Y कणय - खिंखिणीजाल - सोभियं, अउज्झं सोयामणि - कणग-तविय - पंकय- जासुयण - जलणजलिय - सुय - तोंडरागं, गुंजद्ध-बंधुजीवग - रत्तिहिंगुलग - णिगरसिंदूररुइल- कुंकुम - पारेवग - चलणणयणकोइला - दसणावरण - रइयाइरेग - रत्तासोगकणग - केसुय-गयतालु – सुरिंदगोवग - समप्पभप्पगासं, बिंबफल - सिलप्पवाल - उट्ठितसूर - सरिसं, सब्बोउय - सुरहि- कुसुम - आसत्त- मल्लदामं, ऊसियंसेयज्झयं महामेहरसिय-गंभीर - णिद्ध-घोसं, सत्तु-हियय-कंपणं, पभाए य सस्सिरीयं णामेणं हविविजयलंभं ति विस्सुयं लोगविस्सुय - जसोऽहयं चाउग्घंटं आसरहं पोसहिए णरवई दुरूढे । तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सेसं तहेव दाहिणाभिमुहे वरदामतित्थेणं लवणसमुहं ओगाहइ - जाव - से रहवरस्स कुप्परा उल्ला - जाव - पीइदाणं से। णवरं चूडामणिं च दिव्वं उरत्थगेविज्जगं सोणियसुत्तगं कडगाणि य तुडियाणि य- जाव - दाहिणिल्ले अंतवाले - जाव - अट्ठाहियं महामहिमं करेंति, करित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । ६१. वह रथ पृथ्वीतल पर चलने में अत्यन्त शीघ्र गति वाला है, अनेक शुभ लक्षणों से प्रशस्तसुन्दर है, हिमवन्त पर्वत की कंदराओं गुफाओं में पवनरहित (निर्वात) स्थान उत्पन्न एवं संवर्धित आश्चर्यकारी तिनिस वृक्ष विशेष के काष्ठ से बनाया गया है, जम्बूनद जाति के सुवर्ण से निर्मित जिसका कूबर - जुआ है, पहिओं के अर (डाँडियाँ) व डाँडे सोने से बने हुए हैं तथा पुलक, श्रेष्ठ इन्द्रनील रल, सासक, प्रवाल, स्फटिक, उत्तम रत्न, लेष्ठ-विजातीय रत्न, मणि विद्रुम आदि रत्नों से विभूषित है, उसमें अड़तालीस आरे हैं, जिनके तुम्बे सोने से बने हैं, भली प्रकार से घिस - घिसकर चिकनी की गई और चमचमाती हुई पुंठी पर बराबर दृढ़ता से रखे हैं, विशेष प्रकार से अति मनोहर नवीनतम लोहे की कलियों से जोड़ा गया है अर्थात् मजबूती के लिए जगह-जगह कीलें, पत्ती आदि लगाई गई हैं। वासुदेव के शस्त्र - प्रहरणरत्न- चक्ररत्न जैसे गोल जिसके पहिये हैं, जिसके जाली झरोखे; कर्केतनरल, इन्द्रनीलमणि, सासक आदि रत्नों द्वारा सुन्दर रीति से बनाये गये हैं, जिसकी धुरी प्रशस्त है, विस्तीर्ण है और समवक्रतारहित है, श्रेष्ठ नगर की तरह चारों ओर से सुरक्षित है, सुन्दर किरणों वाले तपनीय सुवर्ण से बनी हुई घोड़ों की लगामें हैं, बख्तरों से ढका हुआ है, प्रहार करने के साधन अस्त्र-शस्त्र आदि जिसमें रखे हैं, खेड - ढाल, कनक - विशेष प्रकार के बाण, धनुष मण्डलाग्र तलवार, त्रिशूल, कुन्ता - भाला, तोमर विशेष प्रकार का बाण सैकड़ों सामान्य बाण जिनमें रखे हैं ऐसे बत्तीस तूणीरतरकस आदि यथास्थान रखे हैं, सुवर्ण और मणियों के चित्र बने हैं, अथवा सुवर्ण और मणियों की चित्रकारी से चित्र जैसा प्रतीत होता है, इसमें हलीमुख - एक प्रकार का श्वेत पदार्थ, बगुला, हाथीदाँत, चन्द्र, मोती, तृण - मालती पुष्प, कुन्द पुष्प, कुटज पुष्प, उत्तम सिंदुवार निर्गुण्डीपुष्प, कलन्द वृक्ष विशेष - पुष्प, उत्तम फेन समूह, हार, कांस के सदृश धवल - श्वेत और देव, मन, पवन के वेग से भी अधिक वेग वाले, चपल, शीघ्रगामी तथा चामर और सुवर्ण के आभूषणों से शृंगारित, अश्व जुते हुए हैं तथा जिस पर छत्र ताना गया है, ध्वजा लहरा रही है, घंटा लगे हुए हैं, पताका फहरा रही हैं, जिसकी संधियों को मजबूती से जोड़ा गया है, युद्ध के योग्य समर करणक नामक वाद्य के घोष के सदृश गम्भीर घोष वाला है, जिसके दोनों कूपर - रथ के अवयव विशेष उत्तम हैं, सुन्दर पहिये हैं, नेमिमण्डल- पहियों तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (159) फ्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))))))))))))))))))))))) 因听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听因 ॐ का मध्य भाग, उत्तम है, धुरा के दोनों कोने उत्तम हैं, अग्र भाग उत्तम वज्ररत्न से बँधे हुए हैं, उत्तम म सुवर्ण से विभूषित हैं, श्रेष्ठ शिल्पी द्वारा निर्मित हैं, श्रेष्ठ घोड़े जुते हुए हैं जो उत्तम सारथी के द्वारा चलाये जाते हैं, उत्तम पुरुषों के बैठने के योग्य उत्तम महारथ है तथा जो श्रेष्ठ रनों से सुशोभित है, ॐ सुवर्ण निर्मित धुंघरुओं से शोभायमान है, अयोध्य है अर्थात् जिसका सामना कोई योद्धा नहीं कर सकता है, जिसका रंग बिजली के समान तपाये हुए सोने, पंकज, जपा पुष्प, ज्वाला और तोते की चोंच के ॐ समान लाल है, रथ की कांति आधी गुम्मची, बंधुजीवक, रक्तहिंगलुक के समूह, सिंदूर, रुचिर, कुंकुम, * +कबूतर के पैर, कोयल की आँख, अधरोष्ठ, रतिद, अत्यधिक लाल अशोक वृक्ष, कनक, तपाया हुआ 5 सुवर्ण, किंशुक, पलाश पुष्प, गजतालु, इन्द्रगोप; इन सभी पदार्थों तथा बिम्बफल शिलाप्रवाल-मूंगा, ॐ उगते हुए सूर्य जैसी लाल प्रभाव वाली है, जिस रथ पर सब ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों की मालाएँ लटक रही हैं, उन्नत श्वेत ध्वज फहरा रहा है, महामेघ की गर्जना जैसा गम्भीर और स्निग्ध जिसका ॐ घोष है, शत्रुओं के हृदय में कैंपकपी मचा देने वाला है, पृथ्वी विजय लाभ के नाम से प्रसिद्ध है तथा लोक 卐 में जिसका यश फैला हुआ है, सब अवयवों से युक्त है, चार घंटाओं से जो युक्त है ऐसे अश्व रथ पर . प्रातःकाल में वह शोभा-सम्पन्न राजा भरत आरूढ़ हुआ। म इसके बाद का समग्र वर्णन पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिए कि चातुर्घटक रथ पर आरूढ़ हुआ है राजा भरत वरदाम तीर्थ से दक्षिण दिशावर्ती लवणसमुद्र में उतरा-यावत् उस उत्तम रथ के कूप-धुरी ॐ तक का अवयव विशेष-भीग गये-यावत् वरदाम तीर्थाधिपति से प्रीतिदान ग्रहण किया। लेकिन इतना भी विशेष समझना कि चूड़ामणि-मुकुट वक्षस्थल पर पहनने का दिव्य आभूषण कटिसूत्र-कदोरा, कडा, ॐ तोडा पहने हुए यावत् मैं दक्षिण दिशा का अन्तपाल हूँ। यहाँ तक का वर्णन पूर्वानुसार समझें। आठ दिन का महोत्सव करता है, उत्सव करके आदेशानुसार कार्य सम्पन्न होने की सूचना देता है। 61. That chariot is very fast in running on the ground. It is very beautiful in view of many auspicious symbols. It is made of special wood of wonderful Tinis tree. That tree grows in the caves of Himavat mountain where there is no wind and develops there. Its yoke is made of Jambunad gold. The rods in the wheel are made of gold. It is decorated with many types of gems namely Pulak, Indraneel jewel, Sasak, Praval, 45 Sphatik, excellent jewel, leshth, vidrum precious stone and the like. The 4 wheel has 48 divisions whose centre is made of gold and they have been 4 uniformly and firmly fixed on a belt which has been brightened by rubbing and made soft. It has been joined with the latest iron nails. In other words in order to make it strong the nails and plates have been fixed at various places. Its wheels are as round as the Chakra Ratna, the weapon for attack used by Vasudev. Its mesh and holes have been made of Karketan gem, Indraneel precious stone, Sasak and the like whose centre is good wide spread and without any bend. It is well secured like an ideal city from all sides. The reins of the horses are made of well 听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (160) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555555555555555555555555558 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11455 456 457 454 455 456 457 4 4 445 446 447 444 445 44 45 46 47 46 45 44 45 46 45 446 4E burnt gold emitting beautiful rays. It is covered with bridle. On the sides the weapons of attack have been kept. At proper places shield, special type of arrows, bow, sword, trishul, spear, tomar, special type of arrow, y I thirty two quivers wherein hundreds of arrows have been kept. The pictures have been made of gold and precious stones. In other words due to painting with gold and precious stones it looks like a picture. White horses decorated with whisks and ornaments of gold are fixed in it for i driving. They are as white as halimukh, crane, ivory, moon, pearl, malti flower, Kund flower, Kutaj flower, best nirgundi flower, Kaland tree special flower, best collection of foam, garland and kaas. The horses run faster than a celestial being, the mind or the wind and they are very smart. An umbrella is spread on the chariot. The flag is fluttering on it. Bells are fixed on it. Its joints are firmly fixed. It is making a balanced f sound like that of music at the time of the battle. Both sides of the i i chariot are excellent. It has beautiful wheels. The central part of the wheels is excellent. Both the corners and the centre are excellent. The front part is tied with Vajra stone. It is decorated with high quality gold. Best horses drive it and the horseman is expert in his job. It is the great chariot meant for high class persons. It is decorated with best type of jewels. It is decorated with bells made of gold. No one can face it in the battle field. Its colour is as red as the burnt gold, lotus, Japa flower, y i flame or beak of a parrot. The shine of the chariot is as red as aadhi y gummachi, bandhu jivak, red hingaluk, Sindoor (vermillion), ruchir, Kumkum, feet of a pigeon, eye of a Koel, lower lip, ratid, very red Ashok tree, Kanak, burnt gold, Kinshuk, Palash flower, Gajatalu, Indragope. It u has a red effect as the Bimb fruit, praval or the rising sun. Garlands of i fragrant flowers of all the seasons are hanging from it. A white flag is fluttering high. Its sound is like that of a roaring cloud and is able to 9 make the heart of the enemy tremble. It is famous as provider of conquest (Prithvi Vijay Labh). Its name is famous throughout the universe. It has all its parts in order. It has four bells. That grand king Bharat rode on this horse driven chariot in the morning. The entire description after it should be understood as earlier mentioned. King Bharat got down in the Lavan Ocean in the south of Vardam Tirth. The chariot then got drenched up to the centre of the wheels. He accepted the gift offered by the master of Vardam Tirth. It i should also be understood that description of Churamani crown, the y ornaments worn on the chest, Kandora--the thread worn at the waist, the bangle, tora were on his body up to that he is the master of the | तृतीय वक्षस्कार (161) - Third Chapter IFICIELE 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步! Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因%%% %%% %% %% %% %%% %% %%% %%% %%% %% %%% %%% ) southern side corner as earlier mentioned. He does celebrations for eight days and then informs compliance of the orders. ))) ))) ) ))) ))) ) 卐 प्रभासतीर्थ-विजय CONQUEST OF PRABHAS TIRTH ६२. तए णं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव पूरते चेव अंबरतलं है उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं पभासतित्थाभिमुहे पयाए यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं तहेव जाव पच्चत्थिमदिसाभिमुहे , पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ २ ता जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से णवरं मालं मउडि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि अ तुडिआणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं पभासतित्थोदगं च ॥ गिण्हइ २ त्ता जाव पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी जाव पच्चत्थिमिल्ले अंतवाले, सेसं तहेव जाव अट्ठाहिआ निव्वत्ता। ६२. वरदाम तीर्थकुमार देव को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर वह आकाश में 5 अधर अवस्थित हुआ। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगन-मण्डल को आपूरित करते हुए उसने । 9. उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थ की ओर प्रयाण किया। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररल का अनुगमन करते हुए, उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए, पश्चिम 卐 में, प्रभास तीर्थ की ओर जाते हुए, अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश के गे का वर्णन पर्वानसार है। वरदाम तीर्थकमार देव की तरह प्रभास तीर्थकमार देव ने राजा को प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट, दिव्य मुक्ता-राशि, स्वर्ण-राशि, कटक, त्रुटित, वस्त्र, अन्यान्य आभूषण, राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल राजा को भेंट किया और कहा कि मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल (सीमारक्षक) हूँ। आगे का प्रसंग पूर्ववत् है। पहले की ज्यों राजा की आज्ञा से इस विजय के उपलक्ष्य में है अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हुआ। 62. After celebrations of conquest of the ruler of Vardam Tirth for eight days, the divine Chakra Ratna came out from the ordnance store 51 and was stationed in the space without any support. Among the sound of beating of unique trumpets it moved toward Prabhas Tirth in the north, 15 west direction. King Bharat followed that divine Chakra Ratna in the north and west direction towards Prabhas Tirth and thus entered Lavan Samudra up to such a depth that the wheels of his chariot became wet. Further description is the same as earlier mentioned. Like the guarding angel of ki 955555555555555555555555555555555555555555555) ))))) )) )) ) 555555555)) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (162) Jambudveep Prajnapti Sutra 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vardam Tirth, the master of Prabhas Tirth offered garland of jewels, crown the heap of pearls, gold, Katak, Trutit, clothes and many types of ornaments as gift. He also offered an arrow bearing the name of king Bharat and the water of Prabhas Tirth to him (king Bharat). He further stated that he is the native of the country conquered by him and the security guard of the western boundary. Further description is the same as already mentioned. With the permission of the king, in honour of this conquest, eight day celebration were held as before. सिन्धुदेवी - साधन EVOKING SINDHU DEVI ६३. तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जाव पूरंते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्ले कूलेणं पुरच्छिमं दिसिं सिंधुदेवी भवणाभिमुहे पयाते यावि होत्था। फ्र तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधुए महाणईए दाहिणिल्लेण कूलेणं पुरत्थिमं सिंधुदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइ पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए तहेव जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते दुवालसजोअणायामं णवजोअणवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ जाव सिंधुदेवीए अट्टमभत्तं पगिण्हइ २ त्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी दब्भसंथारोवगए अट्टमभत्तिए सिंधुदेविं मणसि करेमाणे चिट्ठइ । तए णं तस्स भरहस्स रणो अट्टमभत्तंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ । तणं सा सिंधुदेवी आसणं चलिअं पासइ पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउजित्ता भरहं रायं ओहिणा भोइ २ त्ता इमे एआरूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था उप्पणे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी, तं जीअमेअं ती अपचुप्पण्णमणागयाणं सिंधूणं देवीणं भरहाणं राईणं उवत्थाणिअं करेत्तए । तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्त रण्णो उवत्थाणिअं करेमित्ति कट्टु कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणामणि - कणग- रयणभत्तिचित्ताणि अ दुवे कणगभद्दासणाणि य कडगाणि अ तुडिआणि अ जाव आभरणाणि अ गेण्हइ गिरिहत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव एवं वयासी अभिजिए णं देवाप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे, अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासिणी, अहण्णं देवापि आणं आणत्तिकिंकरी तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! मम इमं एआरूवं पीइदाणंति कट्टु कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगकडगाणि अ सो चेव गमो (तए णं से भरहे राया सिंधूए देवीए इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ त्ता सिंधु देविं सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता) पडिविसज्जेइ । तए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता हाए कयबलिकम्मे जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (163) நிமிமிமிமிமிமிமிமிமி*******************5*மிழ் Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **********************************திதி 卐 4 5 परियादियाइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णीसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ ता ५ जाव अट्ठाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पच्चपिणंति । Y Y ६३. प्रभास तीर्थकुमार देव के सम्मान में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह ५ दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। दिव्य वाद्यों की ध्वनि से गगन-मण्डल को आपूरित करते 4 हुए 4 उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया । Y Y 5 राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को जब सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह मन में बहुत हर्षित हुआ, आनन्दित हुआ। जहाँ ५ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया । आकर, सिन्धु देवी के भवन के न अधिक दूर और न अधिक Y समीप - थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य शिविर Y स्थापित किया। निर्माण कार्य सुसम्पन्न कर मुझे सूचित करो। राजा भरत ने जब उस शिल्पकार को ऐसा ५ कहा तो उसने राजा द्वारा आज्ञापित कार्य सम्पन्न कर सूचित किया । यावत् राजा भरत ने पौषधशाला में आकर सिन्धु देवी को उद्दिष्ट कर तीन दिनों का उपवास स्वीकार किया। तपस्या का संकल्प कर उसने ५ पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य धारण किया । दर्भ (सूखे घास) के आसन पर बैठकर तेले की तपस्या में संलग्न भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ । 4 भरत द्वारा तप किये जाने पर सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ। सिन्धु देवी ने जब अपना सिंहासन डोलता हुआ देखा, तो उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उसने भरत को देखा, ५ तपस्यारत, ध्यानरत जाना। देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ 4 ५ जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। भूत, वर्तमान तथा भविष्यवर्ती सिन्धु देवियों के लिए यह समुचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूँ । यों सोचकर देवी रत्नमय ५ एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, त्रुटित तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और राजा से बोली Y y Y Y आप देवानुप्रिय ने भरत क्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके राज्य में निवास करने वाली आपकी आज्ञाकारिणी सेविका हूँ। देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत रत्नमय एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, आभूषण आदि (सूत्र ५८ के अनुसार) ग्रहण करें। आगे का वर्णन सूत्र ५८ के अनुसार है। (तब राजा भरत ने सिन्धु देवी द्वारा प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार कर सिन्धु देवी का सत्कार किया, सम्मान किया और उसे विदा किया ।) - तदन्तर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। जहाँ स्नानघर था, वहाँ आकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य किये। जहाँ भोजन- मण्डप था, वहाँ आकर भोजन - मण्डप में सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया । यावत् उपस्थानशाला में आकर पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा। अपने अठारह श्रेणी - प्रश्रेणी के अधिकृत पुरुषों को बुलाया और कहा कि अष्टदिवसीय महोत्सव का आयोजन ! Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (164) தததததததததிததமிமிமிமிமிமிமிததமிழ*********திதS L Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555 करो। मेरे आदेशानुरूप उसे सम्पन्न कर मुझे सूचित करो। उन्होंने सब वैसा ही किया । यथावत् राजा को ज्ञापित किया। 63. After the completion of the eight day celebration in honour of the conquest of Prabhas Tirth, the divine Chakra Ratna came out of the weaponery and among the sound of musical instruments, it moved along the right bank of Sindhu river. It then went towards the abode of Sindhu Devi in the east. King Bharat felt very much excited and pleased to see the divine Chakra Ratna going along the eastern bank of Sindhu river towards the abode of Sindhu Devi in the east. He established a great army camp, twelve yojan long and nine yojan wide at a place which was neither very far nor very near from the abode of Sindhu Devi. That camp looked like a grand city (king Bharat had ordered the divine builder to construct such a camp and report compliance. The builder started immediately and after completion reported compliance) king Bharat then keeping in his mind Sindhu Devi as his object, observed three day fast in Paushadhashala. On a seat of hay, he sat for three days continuously concentrating on Sindhu Devi in his mind. As a result of this austerity of king Bharat, the seat of Sindhi Devi trembled. Seeing it, Sindhu Devi with her avadhi jnana, found that Bharat is observing austerities and concentrating on her. The following thought then arose in her mind In Bharat continent of Jambu-dveep, Chakravarti king named Bharat has taken birth. It has been the accepted custom for Sindhu Devi in the past, present and future that as an ancient tradition, the Devi offers a gift to him. So I (Sindhu Devi) should also go and make an offering. She then came to king Bharat with 1,008 pots, various types of precious stones, gold, two seats of gold studded with jewels, Katak, Trutit and many other ornaments and said 'O the beloved of gods! You have conquered Bharat continent. I am your obedient servant residing in your kingdom. You please accept the gift of 1,008 jewel-studded pots, various precious stones, gold and the two gold thrones studded with jewels and sketches, Katak, ornaments and the like as an offering from me (as in Sutra 58). Further description is the same as in Sutra 58 (Then king Bharat accepted the gifts, honoured Sindhu Devi and then allowed her to go). तृतीय बक्षस्कार (165) 55555555555555555555555555555 Third Chapter Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LCLC Thereafter, king Bharat came out of Paushadhashala. He came to the si bathing place and took his bath. He performed routine exercises. He then came to the dining hall and sat there in easy posture. He broke his three day fast and thereafter sat in the outer assembly hall facing east. He called his officials of eighteen categories and asked them to arrange eight day celebration and then report compliance. They arranged the same and reported compliance. वैताढ्य गिरिकुमार-विजय CONQUEST OF VAITADHYA GIRI KUMAR ६४. तए णं से दिव्वे चक्करयणे सिंधूए देवीए अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए म आउहघरसालाओ तहेव जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं वेअद्धपव्वयाभिमुहे पयाए आवि होत्था। ॐ तए णं से भरहे राया जाव जेणेव वेअद्धपब्बए जेणेव वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे तेणेंव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ करित्ता जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ पगिहित्ता पोसहसालाए जाव (सूत्र ६२वत्) अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे ॥ करेमाण चिट्ठइ। मी तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स आसणं चलइ, 3 एवं सिंधुगमो अब्बो, पीइदाणं आभिसेक्कं रयणालंकारं कडगाणि अ तुडिआणि अ वत्थाणि अ आभरणाणि अ गेण्हइ २ ता ताए उक्किट्ठाए जाव अट्टाहि पच्चप्पिणंति।। ६४. सिन्धु देवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पूर्ववत् शस्त्रागार से बाहर निकला। यावत् (दिव्य वाद्यध्वनि से गगन-मण्डल को आपूर्ण करता हुआ।) उत्तर-पूर्व दिशा में ईशानकोण में वैताढ्य पर्वत की ओर चला। भी राजा भरत (चक्र का अनुगमन करता हुआ) जहाँ वैताढ्य पर्वत के दाहिनी ओर की तलहटी थी, ॐ वहाँ आया। वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य-शिविर स्थापित किया। वैताढ्यकुमार फ़देव को उद्दिष्ट कर उसे साधने हेतु तीन दिनों का उपवास किया। पौषधशाला में (सूत्र ६२ अनुसार) तेले की तपस्या में स्थित मन में वैताढ्य गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ। ज भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में निरत होने पर वैताठ्य गिरिकुमार का आसन डोला। (आगे का प्रसंग सिन्धु देवी के प्रसंग जैसा समझना चाहिए) वैताढ्य गिरिकुमार ने राजा भरत को प्रीतिदान भेंट 卐 करने हेत योग्य रत्नालंकार-मकट. कटक. त्रटित. वस्त्र तथा अन्यान्य आभषण लिये। तीव्र गति से वह राजा के पास आया। (आगे का वर्णन सिन्धु देवी के वर्णन जैसा है) राजा की आज्ञा से अष्टदिवसीय 1 महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया। 64. After the conquest of Sindhu Devi and eight day festivities in lieu thereof, the divine, Chakra Ratna came out of the ordnance store as | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (166) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐ऊ5555 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25555 55555555555955559555555555 5 5 5 5 5 951 卐 फ्र 卐 before and moved towards Vaitadhya mountain in north-east direction filling the environment with divine music. Following the Chakra Ratna, king Bharat came to the foot of Vaitadhya mountain in the South. He set up a camp in the area of 12 yojan by 9 yojan for the army. He observed fast for three days aiming at Vaitadhya Kumar Deva in order to control it. In the Paushadhashala he concentrated during his three days fast in meditation on Vaitadhya Giri Kumar Deva ( Sutra 62 ). The seat of Vaitadhya Giri Kumar Deva trembled as a result of continued three day fast of king Bharat (Further description should be understood similar to that of Sindhu Devi). Vaitadhya Giri Kumar came to king Bharat at a fast speed for offering jewels, crown, Katak, Trutit, clothes and many ornaments as gift (Further description is the same as that of Sindhu Devi). The officer responsible for arrangements arranged eight day festival and then informed the king about compliance of his order. तमिस्रा गुफा विजय CONQUEST OF TAMISRA CAVE ६५. तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए जाव पच्चत्थिमं दिसिं तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आवि होत्था । तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव पच्चत्थिमं दिसिं तिमिसगुहाभिमुहं पयातं पासइ २ त्ता हट्ठतुट्ठचित्त जाव तिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालस - जोअणायामं वो अणविच्छिणं जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ त्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव कयमालगं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्टमभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव 5 वेअद्धगिरिकुमारस्स णवरं पीइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोद्दसं भंडालंकारं कडगाणि अ (तुडिआणि अ वत्थाणि अ) गेहइ २ त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता पडिविसज्जेइ ( सूत्र ३४वत्) भोअणमंडवे, तहेव महामहिमा कयमालस्स पच्चष्पिणंति । ६५. अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न यावत् पश्चिम दिशा में मित्रा गुफा की ओर आगे बढ़ा। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न का ( अनुगमन करते हुए) पश्चिम 5 दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर आगे बढ़ते हुए देखा। उसे यों देखकर राजा अपने मन में हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ। उसने तमिस्रा गुफा से न अधिक दूर, न अधिक समीप - थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा सैन्य शिविर स्थापित किया । कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर उसने तेले की तपस्या स्वीकार की । तपस्या का संकल्प कर उसने पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। तेले की तपस्या में अभिरत राजा भरत मन भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में अभिरत हो जाने तृतीय वक्षस्कार (167) 25 55 5 5 555 5555 5555 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 595 Third Chapter 15 4 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 599 9 95 5 5 595959552 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र फ्र 卐 卐 फ्र फ्र फ्र 卐 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 कृतमाल देव का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ । फ पर कृतमाल देव का आसन चलित हुआ। आगे का फ्र 卐 卐 卐 卐 近 卐 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因牙牙牙牙5555555555555555555555555555554 EFFFFFFFFFF55555 4 . HF乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ॐ वर्णन-क्रम वैसा ही है, जैसा वैताढ्य गिरिकुमार का है। कृतमाल देव ने राजा भरत को प्रीतिदान देने हेतु राजा के स्त्री-रत्न के लिए-रानी के लिए रत्न-निर्मित चौदह तिलक-ललाट-आभूषण सहित है आभूषणों की पेटी, कटक लिये। उन्हें लेकर वह शीघ्र गति से राजा के पास आया। उसने राजा को ये 卐 उपहार भेंट किये। राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर फिर वहाँ से विदा + किया। फिर राजा भरत (स्नान आदि करके सूत्र ३४वत्) भोजन-मण्डप में आया। आगे का वर्णन के पूर्ववत् है। कृतमाल देव को विजय करने के उपलक्ष्य में राजा के आदेश से अष्टदिवसीय महोत्सव 卐 आयोजित हुआ। महोत्सव के सम्पन्न होते ही आयोजकों ने राजा को वैसी सूचना की। 65. After the conclusion of eight day festival the divine Chakra Ratna moved towards Tamisra cave in the west. The king felt happy to see it moving forward and followed it. He set up the camp of his army in an area of 12 yojan by nine yojan neither very far from Tamisra cave nor very near it. He observed three day fast aiming at Kritmal Dev. He took the decision about austerity and then accepted Paushadh and vow of chastity. During the period of three days king Bharat observed three day fast 45 concentrating on Kritmal Dev. As a result of the austerities, the seat of Kritmal Dev trembled. (Further description is the same as that of Vaitadhyagiri Kumar. Kritmal Dev, in order to offer as gift, took jewel studded fourteen Tilak ornament for forehead of Stri Ratna, the chief 41 queen of king Bharat, the box containing ornaments and Katak. He then quickly came to the king and offered them to him as gift. King Bharat honoured him and then allowed him to go. Thereafter king Bharat (after taking bath and the like as in Sutra 34) came to the dining hall. Further description is as mentioned earlier. Under the orders of the king Bharat, eight day festival was arranged to celebrate the victory over Kritmal dev. After the completion of the festivals, the officers concerned informed the king accordingly. 5 निष्कुट प्रदेश-विजयार्थ तैयारी PREPARATION FOR CONQUERING NISHKUT STATE ६६. तए णं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं क सेणावई सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिआ ! सिंधूए महाणईए पच्चथिमिल्लं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाइं वराई रयणाई म पडिच्छाहि अग्गाइं० पडिच्छित्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे वासंमि विस्सुअजसे महाबलपरक्कमे महप्पा ओअंसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि णिक्खुडाणं निण्णाण य दुग्गमाण य ॐ दुप्पवेसाण य विआणए अत्थसत्थकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे 5555555555555555555555555555) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (168) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 55 5 555 5555 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 5திதிதததததததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிதததத***************S 卐 卐 5 हतुट्ठचित्तमाणंदिए Sarai 卐 फ्र 卐 卐 जाव करयलपरिग्गहिअं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामी ! तहत्ति 5 डिसुणेइ २ त्ता भरहस्स रण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव सए 卐 आवासे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अभिसेक्कं हत्थरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर - चाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेहत्ति । कट्टु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता हाए कयबलिकम्मे 5 कयको अमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मि अकवए उप्पल असरासणपट्टिए पिणद्धगेविज्जबद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टे गहि आउहप्पहरणे अणेगगणनायगा -दंडनायग जाव सद्धिं संपरिवुडे 5 सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढे । फ्र ६६. कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर 卐 5 卐 5 5 卐 5 राजा भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! सिन्धु महानदी के पश्चिम में फ पश्चिम समुद्र द्वारा तथा उत्तर में वैताढ्य पर्वत द्वारा विभक्त- भरत क्षेत्र के कोणवर्ती 5 5 खण्डरूप निष्कुट (कोने का) प्रदेश को, उसके सम, विषम अवान्तर - क्षेत्रों को अधिकृत करो - मेरे अधीन बनाओ। उन्हें अधिकृत कर उनसे अभिनव, उत्तम रत्न- अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थ गृहीत करो - प्राप्त करो। मेरे इस आदेश की पूर्ति हो जाने पर मुझे इसकी सूचना दो । 5 विद्यमान, फ्र 卐 फ्र भरत द्वारा यों आज्ञा दिये जाने पर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । फ्र सुषेण भरत क्षेत्र में बड़ा यशस्वी था । विशाल सेना का वह अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था। स्वभाव से उदात्त - बड़ा गम्भीर था । ओजस्वी, तेजस्वी - शारीरिक तेजयुक्त था। वह पारसी, अरबी आदि भाषाओं में निष्णात था। उन्हें बोलने में, समझने में, उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था। वह विविध प्रकार से सुन्दर, शिष्ट भाषा-भाषी था। नीचे, गहरे, दुर्गम, दुष्प्रवेश्य - जिनमें जाना व प्रवेश करना दुःशक्य हो, ऐसे स्थानों का विशेषज्ञ था । अर्थशास्त्र - नीतिशास्त्र आदि में कुशल था । सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े। उन्हें मस्तक से लगाया - मस्तक पर से घुमाया तथा अंजलि 5 बाँधे, 'स्वामी ! जो आज्ञा' यों कहकर राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ऐसा कर वह वहाँ से चला। चलकर जहाँ अपना आवास-स्थान था, वहाँ आया । वहाँ आकर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनको कहा - 'देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को - गजराज को तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओं - पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजाओ ।' फ्र (169) 卐 5 फ क 5 卐 ऐसा आदेश देकर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान किया, 5 नित्य - नैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक - मंगल-प्रायश्चित्त किया - देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि फ्र पर निर्मल, से मंगल - विधान किया। उसने अपने शरीर पर लोहे के मोटे-मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष दृढ़ता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की । गले में हार पहना। मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक उत्तम वस्त्र गाँठ लगाकर बाँधा । बाण आदि क्षेप्य-दूर फेंके जाने वाले तथा खड्ग आदि अक्षेप्य - 5 तृतीय वक्षस्कार फ्र Third Chapter சு फ्र 2 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 52 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555550 45 5 पास ही से चलाये जाने वाले शस्त्र धारण किये। अनेक गणनायक, दण्डनायक आदि से वह घिरा था । उस पर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र तना था । लोग मंगलमय जय-जय शब्द द्वारा उसे वर्धापित कर रहे थे। वह स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, 5 आभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया। आकर उस गजराज पर आरूढ़ हुआ। 47 55 47 Sushen, the army chief felt highly pleased to receive these orders. Sushen was very effective in the Bharat area. He was the commander of a large army. He was extremely brave and courageous. He was complacent by nature. He had a well built, smart, bright physique. He was well versed in Persian, Arabic languages and the like. He was able to understand them, to speak in these languages and in making others understand. He was expert in conveying his ideas in a beautiful worthy manner. He had expert knowledge of lower areas, deep unaccessible areas and those areas where it is very difficult to enter. He was expert in economics, ethics and the like. He folded his hands, touched his forehead, moved the folded hands around his forehead and respectfully accepted the orders of the kings saying, "I shall do as you have ordered. He then came to his residence and called his people. He ordered them, O beloved of gods! Prepare the coronated elephant, horses, other elephants, chariots and the four tier army with the best warriors commanding it.' After ordering in this fashion, he came to the bathing place, entered the bath room, took his bath and performed the routine exercises. He performed auspicious acts. He put collyrium in his eyes in order to beautify them, put auspicious tilak on his forehead, performed the auspicious ceremonies with sandal paste, Kumkum, curd, akshat and the like in order to wash off the effect of bad dreams. He wore the iron coat (Kavach) made of thick iron wire and stuck the string on his bow firmly. He wore garland around his neck. He tied a neat cloth of high quality on his head indicative of heroism. He took weapons including missiles 卐 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 66. After the conclusion of eight day festival to celebrate victory over Kritmal Dev, king Bharat called Sushen, his army chief and said, 'O beloved of gods! You conquer the area of Bharat area in the corner (nishkut) which is in the west of Sindhu river, surrounded by western 卐 ocean and in the north by Vaitadhya mountain. You conquer the levelled as well as unlevelled areas therein and bring them to my subjugation. Thereafter, you collect new, excellent jewels and worthy substances of respective area. After compliance of these orders you inform me. (170) 055555555555555555555555555555555555555555555555 卐 卐 卐 * 5 5 5 5 5 5 5 5 955555555555555555555555555551 卐 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2555 5555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 5 (which could hit distant objects) and sword and the like which could attack nearby objects. He was surrounded by many leaders of respective battallians. An umbrella bearing garlands of Korant flowers was spread 卐 on his head. The people were praising him with shouts of success. He than came out from the bath room and arrived at the place where the coronated elephant was stationed. He then rode the elephant. 5 फु चर्मरत्न का प्रयोग USE OF CHARMA RATNA 卐 ६७. तए णं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं 卐 हय-ग-रह-पवरजोह - कलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभड - चडगर - पहगर 5 वंदपरिक्खित्ते महयाउक्किट्ठसीहणाय - बोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयंपिव करेमाणे २ सव्विड्डीए सब्वज्जुईए सव्वबलेणं जावणिग्घोसणाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता चम्मरयणं परामुसइ । 卐 卐 卐 तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्त-तारद्ध - चंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरे फ अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाईं सव्वधण्णाई जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविआई, वासं णाऊण चक्कवट्टिणा परामुट्ठे दिव्वे चम्मरयणे दुवालस जोअणाई तिरिअं पवित्थरइ तत्थ साहिआईं। 卐 卐 卐 तणं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावइणा परामुट्ठे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए होत्था । तए गं सुसेसेावईसखंधावारबलवाहणे णावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ २ त्ता सिंधुमहाणई विमलजलतुंगवीचिं 5 णावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिष्णे । फ्र ६७. सुषेण सेनापति घोड़े, हाथी, उत्तम योद्धाओं--पदातियों से युक्त सेना से संपरिवृत था। कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र उस पर लगा था। विपुल योद्धाओं के समूह से वह समवेत था। उस द्वारा किये गये गम्भीर, उत्कृष्ट सिंहनाद की कलकल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था, मानो समुद्र गर्जन कर रहा हो। सब प्रकार की ऋद्धि, सब प्रकार की द्युति - आभा, सब प्रकार के बल सैन्य, शक्ति से युक्त 5 वाद्यों को निर्घोषनादपूर्वक जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ आया। वहाँ आकर चर्मरत्न का हाथों से स्पर्श किया। वह चर्मरत्न स्वस्तिक जैसा रूप लिये था। उस पर 卐 5 मोतियों के, तारों के तथा अर्ध-चन्द्र के चित्र बने थे। वह अचल एवं अकम्प था। वह अभेद्य कवच 5 जैसा था। नदियों एवं समुद्रों को पार करने का अनन्य साधन था । दैवी विशेषता लिये था । चर्म-निर्मित 卐 वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था। उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सकें, वह 卐 5 ऐसी विशेषता लिये था। ऐसी मान्यता है कि गृहपतिरत्न इस चर्मरत्न पर सूर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उगकर दिनभर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है। चक्रवर्ती भरत द्वारा स्पर्श 5 किया हुआ वह चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन विस्तृत था । सेनापति सुषेण द्वारा स्पर्श करने पर चर्मरत्न शीघ्र ही नाव के रूप में बदल गया । सेनापति सुषेण सैन्य शिविर सेना, हाथी, घोड़े, रथ आदि वाहनों सहित उस चर्मरत्न पर सवार हुआ। सवार होकर निर्मल जल की ऊँची उठती तरंगों से परिपूर्ण सिन्धु महानदी को सेना सहित पार किया । Third Chapter तृतीय वक्षस्कार फ्र (171) बफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 卐 5 5 5 5 5 5 559 65555 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GF听听听听听听听听F F FFFFFFFFFFFF 55 5555FFFFFFFFFFF 听听听听听听听听听 5555555555555555555555555555555555559 67. Sushen, the army chief was surrounded by an army consisting of horses, elephants, brave warriors and officers of other ranks. The umbrella bearings garlands of Korant flowers was on him. He was in the company of many warriors. The loud sound of the army bugle that he blew appeared to be like the roaring sound of the sea. He came with all his grandeur, his aura, his wealth, his army strength and blowing tumpets near to the place where the Sindhu river was located. Immediately on arriving Sushen, the army chief touched Charma Ratna. It was of the shape of a Swastik. There were sketches of pearls, stars and half-moon on it. It was stationary and motionless. It looked like the Kavach (the iron dress) that cannot be pressed. It was a unique means of crossing rivers and seas. It had a divine speciality. It was the best among all the articles made of skin. It had such a special characteristic that seeds of 17 types sown on it could grow as ripe crop just in a day. It is believed that the manager of the household (grihapati ratna) sows the seeds on it at the time of sunrise, which ripen during the day and he 4 harvests the crop in the evening. That Charma Ratna, touched by king Bharat, was spreading up to a distance of a little more than 12 yojans. When the army chief touched the Charma Ratna, it soon changed into the shape of a big boat. Sushen the army chief along with the entire army 4 in the camp, the elephants, horses, chariots and other means of transport got on it. It led the entire army to the other bank while the waves of $ Sindhu river were rising high and the river was full of pure water. ॐ विशाल विजय : यवनों द्वारा उपहार GREAT SUCCESS : GIFTS FROM YAVANS ६८. [१] तओ महाणईमुत्तरित्तु सिंधु अप्पडिहयसासणे अ सेणावई कहिंचि ऊ गामागरणगर-पव्वयाणि खेड-कब्बड-मडंबाणि पट्टणाणि सिंहलए बब्बरए अ सव्वं च अंगलोअं + बलायालोअंच परमरम्मं जवणदीवं च पवर-मणि-रयण-कणग-पकोसागारसमिद्धं आरबए रोमए अ ॐ अलसंड-विसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ उत्तरवेअडसंसियाओ अ मेच्छजाई बहुप्पगारा + दाहिणअवरेण जाव सिंधुसागरंतोत्ति सव्वपवरकच्छं अ ओअवेऊण पडिणिअत्तो बहुसमरमणिज्जे अभ भूमिभागे तस्स कच्छस्स सुहणिसण्णे। ताहे ते जणवयाण णगराण पट्टणाण य जे अ तहिं सामिआ पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ+ पट्टणपती अ सब्वे घेत्तूण पाहुडाइं आभरणाणि भूसणाणि रयणागि य वत्थाणि अ महरिहाणि अण्णं च जं + वरिद्रं रायारिहं जं च इच्छिअव्वं एअं सेणावइस्स उवणेति मत्थय-कयंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलिं मत्थयंमि पणया तुन्भे अम्हेऽत्थ सामिआ देवयं व सरणागया मो तुन्भं विसयवासिणोति विजयं जंपमाणा + सेणावइणा जहारिहं ठविअ सवारिय विसज्जिआ णिअत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा। B5555555555555555555555555555555555555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (172) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 , Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती के सेनापति द्वारा अरब-यवन द्वीपों पर विजय (ORK4 INET MNI सेनापति सुषेण कोरल आभाषण आदिभेटा करते अरब यवन आदि देशों के राजा HILE उपहार आदि देकर यवना न भरत चक्रवती का आधिपत्य स्वीकार किया। SEENA (OD Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र परिचय८ चक्रवर्ती भरत के सेनापति द्वारा अरब-यवन द्वीपों पर विजय भरत चक्रवर्ती ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाकर भरत क्षेत्र के खण्डों को विजय करने + का आदेश दिया। तब सेनापति सुषेण अपनी विशाल सेना के साथ सिन्धु महानदी को पार कर ग्राम-नगर-पट्टन आदि जीतता हुआ सिंहल, बर्बर देश, यवन द्वीप, रोम और अरब देश पहुँचा है और वहाँ के सर्व देशों पर विजय प्राप्त की। अरब-यवन-रोम-सिंहल आदि देशों, पट्टनों, नगरों 卐 के राजा स्वर्ण अलंकार, रत्न- माणिक-मोती-पन्ना, सुन्दर रत्नों से सुसज्जित शस्त्र एवं अन्य 5 ॐ राजोचित वस्तुएँ लेकर सेनापति सुषेण के पास आये और घुटने टेककर समर्पण करते हुए म आदरपूर्वक सब वस्तुएँ भेंट कर राजा भरत का आधिपत्य स्वीकार किया। की सेनापति सुषेण सभी उपहार आदि लेकर सिन्धु नदी पार कर राजा भरत के पास आया और , उन्हें अपनी विजय यात्रा का सारा वृतांत सुनाया। -वक्षस्कार ३, सूत्र ६८ VICTORY OVER ARAB YAVAN ISLANDS BY CHAKRAVARTI BHARAT'S COMMANDER Bharat Chakravarti called his commander-in-chief Sushen and ordered him to conquer various sections of Bharat area. General Sushen crossed Sindhu river with his huge army and commenced his victorious march. One after another, he conquered Simhal, Burbur country, Yavan island, Rome and Arab country as well 4 as all settlements on the way. The rulers of all these kingdoms and states brought to general Sushen gifts of gold, jewellery, gems including ruby, pearls, and emeri alds as well as gem studded weapons and other presents suitable for royalty. They $ surrendered before him, humbly submitted these gifts and accepted the sovereignty of king Bharat. Crossing Sindhu river general Sushen returned to king Bharat with all these 41 gifts and narrated the details of his conquest. -Vakshaskar-3, Sutra-68 015)))))))))55555555555555555550 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************தமி***தமிமிமிமிதிததமிழ்தமிழி 55555555 फ्र 5 फ्र 卐 卐 卐 ६८. [ १ ] सिन्धु महानदी को पार कर अप्रतिहत शासन वाला वह सेनापति सुषेण ग्राम, आकर फ्र नगर, पर्वत, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुआ, सिंहलदेश, बर्बरदेशवासी जनों को, अंगलोक, 5 बलावलोक नामक क्षेत्रों को, अत्यन्त रमणीय, उत्तम मणियों तथा रत्नों के भंडारों से समृद्ध यवन द्वीप को, अरब देश के, रोम देश के लोगों को अलसंड- देशवासियों को, पिक्खुरों, कालमुखों, विविध म्लेच्छ जातीय फ्र जनों को तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में बसी हुई अनेक प्रकार की म्लेच्छ जाति के जनों को, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) कोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को जीतकर वापस मुड़ा। कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर विश्राम करने लगा। 卐 तब उन जनपदों देशों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक स्वर्ण आदि की खानों के मालिक, मण्डलपति, पत्तनपतिवृन्द ने आभरण - अंगों पर धारण करने योग्य अलंकार, भूषण - उपांगों पर धारण करने योग्य अलंकार, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएँ लेकर हाथ जोड़कर, जुड़े हुए हाथ मस्तक लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सुषेण को भेंट कीं। वापस लौटते हुए उन्होंने फ पुनः हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया, नतमस्तक हुए। वे बड़ी नम्रता से बोले - " आप हमारे स्वामी हैं। 5 देवता की ज्यों आपके हम शरणागत हैं, आपके देशवासी हैं।" इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए जय-जयकार किया। तब उन सबको सेनापति सुषेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यों में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, उनका सम्मान किया और उन्हें विदा किया। वे अपने-अपने नगरों, पत्तनों आदि स्थानों में लौट आये। 卐 卐 卐 卐 68. [1] After crossing Sindhu river Sushen, the army chief, who was never defeated went ahead conquering villages, mines, towns, hills, grounds, karvat, madambs, ports, Simhal region, Barbar population, 卐 Ang region, Balava region, Yavan island that was attractive and had rich treasures of jewels and precious stones, Arab country, Romans, Alasand population, the barbarians (mlechha) namely Pikhurs, Kalmukhs and the people belonging to various barbarian tribes settled at the foot of 卐 Vaitadhya mountain. He stopped only after conquering Kuchh region फ which was extending from south-west corner up to the place where 卐 Sindhu river joins the Ocean. He then took rest in the extremely beautiful land of Kuchh region. 卐 Then the masters of those areas, the towns, the suburbs, the gold mines and the like, the rulers of the divisions dressed themselves properly with appropriate ornaments and decorations, took the jewels, costly clohes, and suitable things worthy of royal presentation. They 卐 folded their hands, touched their heads with folded hands and uttered फ्र humbly, ‘you are our master. We are your subjects. Like the divine one, we seek your refuge, we are citizens of your domain. Uttering such words of praise and salutaion, they greeted the victor. Then Sushen, the army तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (173) फफफफफ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐5555555555555555555555555555555555)))))))))) 05555555555555555555555555555555555 chief, entrusted them. Suitable jobs appropriate to their stated, 4 honoured them and allowed them to go. They then came back to their respective towns suburbs, and the like. सेनापति द्वारा भरत के समक्ष उपहार-अर्पण PRESENTATION OF GIFTS TO KING BY ARMY CHIEF ६८. [ २ ] ताहे सेणावई सविणओ घेत्तूण पाहुडाइं आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि तं सिंधुणामधेनं उत्तिण्णे अणह-सासणवले, तहेव भरहस्स रण्णो णिवेएइ णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिअ सम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए। म तए णं सुसेणे सेणावई बहाए कयबलिकम्मे कयकोउअ-मंगलपायच्छित्ते जिमिअ-भुत्तुत्तरागए समाणे # जाव सरस-गोसीसचंदणुक्खित्तगायसरीरे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धेहिं ___णाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिज्जमाणे २ उवगिज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ महयाहय-णट्ट गीअ-वाइअ-तंती-तलताल-तुडिअ-घण-मुइंग-पडुप्पवाइअ रवेणं इढे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरइ। ६८. [ २ ] अपने राजा के प्रति विनयशील, अप्रतिहत-शासन एवं बल वाले सेनापति सुषेण ने सभी उपहार, आभरण, भूषण तथा रत्न लेकर सिन्धु नदी को पार किया। वह राजा भरत के पास आया। आकर जिस प्रकार उस देश को जीता, वह सारा वृत्तान्त राजा से निवेदित किया। निवेदित कर सभी उपहार राजा को अर्पित किये। राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया। सेनापति पटमंडप-तम्बू में स्थित अपने आवास-स्थान में आया। ___ तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। फिर उसने राजसी ठाट से भोजन किया। भोजन कर विश्रामगृह में आया। शरीर के पर सरस गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का, ऊपर अपने आवास में गया। वहाँ मृदंग बज रहे थे। सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा नाटक कर रही थीं। सेनापति की पसन्द के अनुरूप नृत्य आदि क्रियाओं द्वारा वे उसका मनोरंजन करती थीं। नाटक में गाये जाते गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे। मृदंगों से बादल की-सी गंभीर ध्वनि निकल रही थी। वाद्य बजाने वाले वादक अपनी-अपनी वादन-कला में बड़े निपुण थे। सेनापति सुषेण इस प्रकार अपनी इच्छा के अनुरूप शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमय पाँच प्रकार के मानवोचित, प्रिय कामभोगों का आनन्द लेने लगा। 68. [2] Sushen the army chief who was very loyal to the king and who 4 was a great commander and had great strength then crossed the Sindhu Si river with all the gifts, ornaments and jewels. He came to king Bharat and narrated in detail how he conquered that region. He then offered all the gifts to the king. The king honoured the army chief and happily allowed him to go. The army chief then came to the tent where he was staying. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (174) Jambudveep Prajnapti Sutra 555555555555555555555 स Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ़फ़फ़फ़फ़ Thereafter army chief Sushen took his bath and performed usual exercises. He put collyrium in his eyes to beautify his physical body. He put a mark (tilak) on his forehead. He performed auspicious ceremony with sandal paste, curd, akshat and the like in order to remove the faults if any. He then took his meals in a splendid regal manner. He then came to the rest house. He then sprinkled nectar of gosheersh sandalwood on his body and came to his residence. There the drums were being beaten. Young damsels were performing dances of thirty two types. They were entertaining the army chief with the dances of his choice and the like. The tune of the flute, the drum and the like was in harmony with the songs being sung in that dramatical performance. A resonant sound was coming with the beat of the drums. The musicians were expert in their art. Thus Sushen, the army chief was enjoying all the five types of sensual pleasures namely those of touch, sound, sight, smell and taste in accordance with his taste and liking. तमिस्रा गुफा : दक्षिणद्वारोद्घाटन TAMISRA CAVE OPENING OF SOUTHERN GATE ६९. तए णं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छ गं खिप्पामेव भो देवाणुप्पि ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि विहाडित्ता मम एअमत्तिअं पच्चप्पिणाहि त्ति । तसे सुसेसेणावई भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जाव पडिसुणेइ पडिसुणित्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दब्भसंथारगं संथरइ कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव (सूत्र ५०वत्) अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअ - मंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे धूवपुप्फ- गंध - मल्ल - हत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव तिमिसगुहा दाहिणिल्लरस दुवारस्स कवाडा तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहवे राईसर - तलवर - माडंबिअ जाव सत्थवाहप्पभिइओ अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया जाव सुसेणं सेणावई पिट्ठओ २ अणुगच्छंति । तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहूईओ खुज्जाओ चिलाइ आओ जाव इंगिअ - चितिअ - पत्थि अ - विआणिआओ णिउणकुसलाओ विणीआओ अप्पेगइआओ कलसहत्थगयाओ अणुगच्छंतीति । तए णं से सुसेणे सेणावई सव्विद्धीए सव्वजुईए जाव णिग्घोसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आलोए पणामं करेइ २ त्ता लोमहत्थगं परामुसइ Third Chapter तृतीय वक्षस्कार (175) நிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிதிமிதிமி***** Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555558 ॐ परामुसित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्थेणं पमज्जइ पमज्जित्ता दिव्याए उदगधाराए + अब्भुक्खेइ अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चच्चए दलइ २ त्ता अग्गेहिं वरेंहि गंधेहि अ . ॐ मल्लेहि अ अच्चिणेइ अच्चिणित्ता पुप्फारुहणं जाव वत्थारुहणं करेइ २ ता आसत्तोसत्तविपुलवट्ट जाव म करेइ करित्ता अच्छेहिं सण्णेहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहिं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स ॐ कवाडाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ। तं जहा-सोत्थियसिरिवच्छ जाव कयग्गह-गहिअ-करयलम पन्भट्ट-चंदप्पभ-वइर-वेरुलिअ-विमलदंडं जाव धूवं दलयइ दलइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता करयल के E जाव मत्थए अंजलिं कटु कवाडाणं पणामं करेइ २ ता दंडरयणं परामुसइ। तए णं तं दंडरयणं पंचलइअं 卐 वइरसारमइअं विणासणं सबसत्तुसेण्णाणं खंधावारे णरवइस्स गड्ढ-दरि-विसम-पन्भार गिरिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकरं हितकरं रण्णो हिअ-इच्छिअ-मणोरहपूरगं दिव्बमपडिहयं ॐ दंडरयणं गहाय सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया २ सद्देणं तिक्खुत्तो आउडेइ। तए णं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्त कवाडा सुसेणसेणावइणा दंडरयणेणं महया २ सद्देणं तिक्खुत्तो आउडिया समाणा महया २ सद्देणं कोंचारवं म करेमाणा सरसरस्स सगाई २ ठाणाई पच्चोसक्कित्था। ॐ तए णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेइ विहाडित्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव करयलपरिग्गहिअं जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावेत्ता एवं ॐ वयासी-विहाडिआ णं देवाणुप्पिया ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा एअण्णं देवाणुप्पिआणं, पिअं णिवेएमो पिअं भे भवउ।। तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव # हिआए सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं ॐ वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह हय-गय-रहपवर तहेव जाव ॐ __ अंजणगिरि-कूडसण्णिभं गयवरं णरवई दुरूढे। ६९. एक समय राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया। बुलाकर कहा- 'देवानुप्रिय ! जाओ, क में शीघ्र ही तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के दोनों कपाट उद्घाटित करो। वैसा कर मुझे सूचित करो।' राजा भरत का आदेश सुनकर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। उसने 5 दोनों हाथ जोड़े। मस्तक से लगाया, मस्तक पर से घुमाया और अंजलि बाँधे विनयपूर्वक राजा का वचन 卐 स्वीकार किया। फिर राजा भरत के पास से उठा। जहाँ अपना आवास-स्थान था, जहाँ पौषधशाला थी, + वहाँ आया। वहाँ आकर डाभ का बिछौना बिछाया। कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या , अंगीकार की। पौषधशाला में पौषध लिया। ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर स्नानघर में आकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य ॥ किये। देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आँजा, ललाट पर तिलक लगाया, चन्दन, कुंकुम, दही, ॐ अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। राजसभा में, उच्च वर्ग में प्रवेशोचित श्रेष्ठ, मांगलिक वस्त्र भली ॥ EFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFF जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (176) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिस्त्र गुफा द्वारका उद्घाटन दीर्घ वैताढ्य पर्वत सिंधु नदी .00 DO सेनापति सुषेण द्वारा तमिस्त्री dod गुफा का द्वार खोलने से पूर्व उसकी पूजा-अर्चना क 0 - 0 दण्ड रत्न MPORTS इण्ड रत्न द्वारा तीन हार कर द्वार खोला Prem-09OONT TA000000HOLERY काकिणी रन । घने अंधकार बाली तमित्र गुफा को काकिणी रत्न द्वारा प्रकाशित कर भरत चक्रवती ने उसमें प्रवेश किया। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ5 555555555556 卐 卐 चित्र परिचय ९ तमिस्र गुफा द्वार का उद्घाटन एक दिन महाराज भरत ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाकर तमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार के कपाट खोलने का आदेश दिया । आज्ञा पाकर सेनापति सुषेण नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ तमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार पर आया । उसने विधि पूर्वक कपाटों को प्रणाम किया और धूप-दीप जलाकर अक्षत से कपाटों की अर्चना की। फिर चन्दन के लेप से हथेली के छापे लगाये । तत्पश्चात् उसने दण्डरल उठाया और सात-आठ कदम पीछे हटा फिर पुन: तेजगति से आकर कपाट पर तीन बार तीव्र प्रहार किये। तीसरा प्रहार होते ही तेज आवाज हुई और सरसराहट के साथ कपाट खुलने प्रारम्भ हो गये । उसी समय चक्र रत्न आयुधशाला से निकलकर तमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार की ओर चल दिया। राजा भरत भी अपनी विशाल सेना के साथ चक्र रत्न के पीछे चल दिये। तमिस्र गुफा के द्वार पर पहुँचकर भरत ने काकिणी रत्न निकाल कर हथेली पर ले लिया और सेना के साथ तमिस्र गुफा में प्रवेश कर गये। काकिणी रत्न के प्रभाव से घोर अंधकार व्याप्त तमिस्र में बारह योजन तक प्रकाश फैल गया। गुफा THE OPENING OF TAMISRA CAVE One day king Bharat called his commander-in-chief Sushen and instructed him to open the southern gate of Tamisra cave. General Sushen took along elite of the kingdom and arrived at the southern gate of Tamisra cave. Following the procedure, he formally paid homage and performed ritual worship of the doors offering paddy and burning incense. He then put palm prints with sandalwood paste on the doors. - वक्षस्कार ३, सूत्र ६९ After that he lifted the great mace and took seven-eight steps backwards. He then rushed towards the gate and hit it three times with the mace. On the third blow there was a loud sound and the doors started opening with screeching sound. At that instant Chakra-ratna moved from the armoury towards the southern gate of Tamisra cave. King Bharat followed with his great army. On reaching the gate of the cave King Bharat took out Kakini gem and placed it in his palm. The glow of the Kakini gem displaced the intense darkness of the Tamisra cave and its light spread to a distance of 12 Yojans. Vakshaskar-3, Sutra - 69 155555555555555555555555555555555555 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 5 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ பூமிமிமிததமி*************************தமி भाँति पहने । संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएँ हाथ में लीं। स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला। तब बहुत से माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे-पीछे चले, जिनमें से कतिपय अपने हाथों में कमल लिए थे। बहुत-सी दासियाँ पीछे-पीछे चलती थीं, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं, अनेक किरात आदि भिन्न-भिन्न देश की थीं। उन दासियों में से किन्हीं के हाथों में मंगल कलश थे । वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में निपुण थीं, प्रत्येक कार्य में कुशल थीं, तथा स्वभावतः विनयशील थीं। ( यावत् फूलों के गुलदस्तों से भरी टोकरियाँ, झारियाँ, फलों की डलिया, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभूषण, सिंहासन, छत्र, चँवर आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ थीं।) सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया । आकर उन्हें देखते ही प्रणाम किया । मयूरपिच्छ से बनी प्रमार्जनिक उठाई। उससे दक्षिणी द्वार के कपाटों को साफ किया। दिव्य जल से उन्हें धोया। धोकर आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से पाँच अंगुलियों सहित हथेली के थापे लगाये । थापे लगाकर अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से उनकी अर्चना की। उन पर पुष्पमालाएँ, वस्त्र चढ़ाये। ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल चंदवा ताना। चंदवा तानकर स्वच्छ बारीक चाँदी के चावलों से, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, आठ मांगलिक प्रतीक अंकित किये। कचग्रह-केशों को पकड़ने की ज्यों पाँचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े। वैदूर्य रत्नों से बना धूपपात्र उसने हाथ में लिया । धूपपात्र को पकड़ने का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैदूर्यरत्न से बना था। धूपपात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था। (उससे लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उठ रही थी । उसने धूपपात्र में धूप दिया- धूप खेया । फिर उसने अपने बायें घुटने को जमीन से ऊँचा रखा। दोनों हाथ जोड़े, अंजलि रूप से उन्हें मस्तक से लगाया। वैसा कर उसने कपाटों को प्रणाम किया। प्रणाम कर दण्डरत्न को उठाया। वह दण्डरत्नमय तिरछे अवयवयुक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु सेना का विनाश करने वाला, राजा के सैन्य- सन्निवेश के लिए गड्ढों, कन्दराओं, ऊबड़खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था । वह राजा के लिए शान्तिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके इच्छित मनोरथों को पूरा करने वाला था, दिव्य था, अप्रतिहत था । सेनापति सुषेण ने उस दण्डरत्न को उठाया । वह सात-आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाड़ों पर तीन बार प्रहार किया, जिससे भारी शब्द हुआ। इस प्रकार सेनापति सुषेण द्वारा दण्डरत्न से तीन बार आहत - ताड़ित कपाट क्रोञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर सरसराहट के साथ अपने स्थान से विचलित हुए-सरके । यो सेनापति सुषेण ने तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले । खोलकर वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। हाथ जोड़े। राजा को 'जय-विजय' शब्दों द्वारा बधाई दी और कहा - " - "देवानुप्रिय ! तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं। मैं तथा मेरे सहचर यह प्रिय संवाद आपको निवेदित करते हैं। आपके लिए यह प्रियकर हो ।" तृतीय वक्षस्कार (177) फफफफफफफफफफफ Third Chapter Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555 05555555555555555555555555555555555555555555 卐 卐 卐 卐 4 卐 4 सेनापति सुषेण से यह संवाद सुनकर राजा भरत अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कृत, सम्मानित कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों 5 को बुलाया। बुलाकर कहा - आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र तैयार करो। उन्होंने वैसा किया। तब घोड़े, 卐 हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं - पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना से संपरिवृत, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर से समुद्र के गर्जन के सदृश सिंहनाद करता हुआ अंजनगिरि के 5 शिखर के समान गजराज पर आरूढ़ हुआ । 55 47 卐 69. Once king Bharat called Sushen, the army chief and said, 'O blessed by gods! Go and soon open both the doors of the southern entrance to Tamisra cave and inform me after compliance.' 卐 Sushen, the army chief felt happy and elated to receive these orders. He folded his hands, touched his forehead, rotated his folded hands around his head and humbly accepted the orders of the king. He then 47 got up and came to his place of stay and the place for worship (Paushadhashala). He spread a bed of hay and undertook three day fast with the aim of subduing Kritmal Deva. He observed paushadh in the paushadhashala with complete chastity. After the completion of three day fast, he came out from the paushadhashala. He then took has bath 5 in the bathing campus, performed routine exercises, added collyrium to his 45 eyes as a symbol of beauty and put a mark (tilak) on his forehead. He then performed auspicious ceremonies with sandal powder, kumkum, curd, akshat and the like. He then wore the fine dress meant for high class gentry in state assembly. He wore a few very costly ornaments. He took the incense holder, flowers, fragrant substances and garlands in his hand. He then came out of bathing campus and went towards the place where the doors of southern entrance of Tamisra cave were located. 4 卐 57 Then many mandalik rulers, nobles, influential persons, persons honoured by the state, landlords and the elite followed Sushen, the army chief. Some of them were having lotus in their hand. Many maid 5 servants were following them. Some of them were with a hunched back. Many were from different countries such as Kirat and the like. Some of those maid servants were holding lotus in their hands. They were expert in understanding the desired thought of others just by their face or slight indication. They were humble by nature and expert in every activity up to that they were holding baskets full of boquets of flowers, water pots, 卐 fruit, fragrant powder, clothes, ornaments, seats, umbrella, whisks and the like. 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (178) 55555555555555555555555555 455 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 47 卐 卐 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 461451461454545454545454545454545454545454545454541414141414141414141414 With all his grandeur and wealth. Sushen, the army chief, came to the place where there were the doors of southern entrance to Tamisra cave amid sound of war music. He bowed to the doors (Kapat) of the cave immediately when he saw them. He then cleaned them with the broom of peacock feathers, washed them with divine water, put up mark of the palms of his hand and five fingers with gosheersh sandal paste. Thereafter, he worshipped them with new, fragrant substances of best quality and garlands. He placed flowers garlands and clothes on them. Thereafter, he spread a round canopy over them from top to bottom. Thereafter, he painted Swastik, Shrivats, eight auspicious marks on the doors of Tamisra cave with fine rice grains of silver. He then took flowers of five colours in his palms and five fingers in the same fashion as hair of the head are held and threw at the doors. He took up incense pot made of Vaidurya jewels in his hand. The handle of incense pot was shining like the moon. It was made of Vajra Ratna and Vaidurya Ratna. Pictures were sketched on it with gold, precious stones and jewels (the fragrance of loban and incense was coming out of it). He spread fragrance through incense pot. Then he kept his left knee above the ground, folded his hands, touched his forehead with them and bowed to the doors. He then picked up Dand Ratna (the divine stick). That Dand Ratna was studded with oblique jewels. It was made of Vajrasar. It had the capability of destroying the entire army of the enemy. It could level the deep ditches the caverns and the undulating areas, the hills, the rocky tops for the passers-by. It was capable of providing peace, auspicious results, welfare and was able to fulfil the desires of the king. It was divine and could not be adversely affected by any one. Sushen, the army chief picked it up. He moved 7-8 steps backwards. He hit the doors of the 'southern gate of Tamisra Gupha (cave) thrice. This produced a great sound. With the attack of Dand Ratna, the doors (Kapat) moved from their place with a murmuring sound like a cronch bird. Then Sushen, the army chief opened the doors (Kapats). He then came to king Bharat, greeted him with folded hands and congratulated the king with the words, “May you always be successful, and said, ‘Reverend Sir ! The doors of southern gate of Tamisra cave have been opened. I and my companions convey this honourable pleasant message to you. May it be honourable for you." King Bharat felt very happy and elated to hear this message from Sushen, the army chief. He honoured the army chief. Thereafter, he तृतीय वक्षस्कार (179) Third Chapter 445454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595959 55 595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555955502 卐 called his officials and ordered, 'O beloved of gods! Please prepare quickly the elephant used for coronation. They acted accordingly. Then the king alongwith his army of four categories, the horses, the elephants, ! 15 the chariots, the brave warriors, the officers decorated with military 4 honorus, rode on the great elephant like the top of Anjangiri and moved 卐 卐 5 卐 卐 卐 ahead making a roaring sound like the sound of the sea. फ काकणीरत्न द्वारा मण्डल - आलेखन DRAWING CIRCLES WITH KAKANI RATNA ७०. तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं चं अणग्धं तंसिअं छलंसं ५ अणोवमजुई दिव्यं मणिरयणपइसमं वेरुलिअं सव्वभूअकंतं जेण ये मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ आरोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिअ-देव- माणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि ५ असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरेंतो, ठिअजोव्वण - केस - अवट्ठिअणहो हवइ अ सव्यभयविप्पमुक्को, 5 तं मणिरयणं गाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए णिक्खिवइ । ५ तणं सं भरहाहवे रिंदे हारोत्थए सुकयरइअ-वच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहिअकित्ती मणिरयणकउज्जोए चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायसहस्साणु आयमग्गे महयाउक्किट्ठ - सीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूअं पिव करेमाणं करेमाणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ वागच्छत्ता तिमिसह दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अईइ ससिव्व मेहंधयारनिवहं । फ्र तणं से भरहे राया छत्तलं दुवालसंसिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणिसंटिअं अट्ठसोवण्णिअं कागणिरयणं 5 परामुसइत्ति । तए णं तं चउरंगुलप्पमाणमित्तं अट्ठसुवण्णं च विसहरणं अडलं चउरंससंठाणसंठिअं समतलं फ 5 माम्माणजोगा जतो लोगे चरंति सव्वजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ सूरे ण इव अग्गी ण इव फ तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोअणाई तस्स लेसाउ विवद्धंति 5 तिमिरणिगर - पडिसेहिआओ, रत्तिं च सव्वकालं खंधावारे करेइ आलोअं दिवसभूअं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं अतीति सेण्णसहिए अभिजेतुं बितिअमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपच्चत्थिमिल्लेसुं कडएसु जोअणंतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोअणुज्जोअकराई 5 चक्कणेमीसंटिआई चंदमंडलपडिणिकासाइं एगूणपण्णं मंडलाई आलिहमाणे आलिहमाणे अणुष्पविसइ । तए णं सा तिमिसगुहा भरहेण रण्णा तेहिं जोअणंतरिएहिं (पंचधणुसयविक्खं भेहिं) जोअणुज्जोअकरेंहि 5 गूणपणा मंडले आलिहिज्जमाणेहिं २ खिप्पामेव आलोगभूआ उज्जोअभूआ दिवसभूआ जाया यावि होत्था । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 5 ७०. तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरल को हाथ में लिया। वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, 卐 सुन्दरतायुक्त था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था । वह तिखूंटा था, ऊपर-नीचे षट्कोणयुक्त था, फ अनुपमद्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैडूर्यमणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था। सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था- जो सर्वकष्ट निवारक था, उसके प्रभाव से तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग कभी भी दुःख उत्पन्न फ 5 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra (180) தமிக்கதமிழ்த*தமிழ்***தமிழ**************தமி Y 4 Y 5 卐 फ 5 卐 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करने वाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था। इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को राजा भरत ने हाथ में लेकर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर बाँधा। भरत क्षेत्र के अधिपति राजा भरत का वक्षस्थल सुन्दर हारों से सुशोभित एवं प्रीतिकर लग रहा था। यावत् अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था। मणिरत्न प्रकाश फैला रहा था तथा चक्ररत्न द्वारा बताये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता जा रहा था। अपने पीछे-पीछे चलते हुए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्च स्वर से समुद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हुआ, जहाँ तमिस्रा गुफा का दक्षिणी द्वार था, वहाँ आया। चन्द्रमा जिस प्रकार बादलों के सघन अन्धकार में प्रविष्ट होता है, वैसे ही वह दक्षिणी द्वार से तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हुआ। फिर राजा भरत ने काकणीरत्न लिया। वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर-नीचे छह तलयुक्त था। ऊपर-नीचे एवं तिरछे-प्रत्येक ओर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटियुक्त था। उसकी आठ कर्णिकाएँ थीं। स्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी (एरण) पर सोने, चाँदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान आकारयुक्त था। वह अष्ट सौवर्णिक था, तत्कालीन तोल के अनुसार आठ तोले वजन का था। वह प्रमाण में चार अंगुल का था। विष का नाश करने का अनुपम, चतुरस्र-संस्थानसंस्थित, समतल तथा समुचित मानोन्मानयुक्त था, उस समय लोक प्रचलित मानोन्मान व्यवहार का प्रामाणिक रूप में आधारभूत था। जिस गुफा के भीतरी अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे मिटा सकती थीं। उस अन्धकार को वह काकणीरत्न नष्ट करता जाता था। उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक फैली थी। चक्रवर्ती की छावनी में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि-रत्न का विशेष गुण था। उत्तर भरत क्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्य सहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया। राजा भरत ने काकणीरत्न हाथ में लिए तमिस्रा गुफा की पूर्व दिशा तथा पश्चिम दिशा की भीतों पर एक-एक योजन के अन्तर से पाँच सौ धनुष चौड़े और एक योजन क्षेत्र को उद्योतित करने वाले, रथ के चक्के की भाँति गोल, चन्द्र-मण्डल की ज्यों उज्ज्वल प्रकाश करने वाले उनपचास मण्डल आलिखित किये। वह तमिस्रा गुफा राजा भरत द्वारा यों एक-एक योजन की दूरी पर आलिखित (पाँच सौ धनुष चौड़ा) एक योजन तक उद्योत करने वाले उनपचास मण्डलों से शीघ्र ही दिन के समान प्रकाशयुक्त हो गई। 70. Thereafter, king Bharat held the Mani Ratna in his hand. It was of a unique shape and was very beautiful. It was the best among all precious stone. It was of Vaidurya category. It was pleasant to every one It was loveable to all. One who keeps it on his head, he becomes free of all troubles. It could remove all miseries. The troubles created by subhumans, the celestial being and the men could not cause any pain due to its effect. It was not possible to kill with any weapon in battle the person | तृतीय वक्षस्कार (181) Third Chapter Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 416 417 414 415 416 417 454 455 456 457 454 455 456 4545454545454 455 456 457 4564564644 \ who is wearing this divine stone. The youth becomes stable as a result of it. The nails and hair do not grow due to it. The man could become free of all fears if he wears it. The king took in his hand the mani (the precious stone) which had these unique qualities and tied it on the right side of i the elephant. The chest of king Bharat, the ruler of Bharat area was decorated with beautiful garlands and as such was looking attractive up to he was looking grand and famous like Indra with his wealth. The Mani Ratna was spreading its brightness and was going forward along the path indicated by Chakra Ratna. The king alongwith thousands of rulers who were following him making a great roaring sound like that of the sea came to the gate in the south of Tamisra cave. Just as moon enters the dense darkness of clouds, he entered Tamisra cave through the southern gate. Then the king took Kakani Ratna. That ratna had six surfaces, four 1 on the four sides, one at the top and one at the bottom. On each side-at the top, at the bottom and in oblique direction it had four Kotis each. Thus it had twelve Kotis. It had eight Karnikas. In shape it was like the iron bar on which a goldsmith beats gold or silver. Its weight was eight tolas according to the then prevalent weights. It was in width equal to thickness of four fingers. It had the quality of destroying the effect of poison. It had four equal sides. It was levelled and was of proper weight. According to the then prevalent weight and measures, it was the unit of basic measurement. It was destroying the inner darkness of that cave which could not be removed by the sun, the moon, fire or precious stones. Its unique aura was spread up to a distance of twelve yojan. It was the special attribute of this ratna to keep the night in the camp of Chakravarti as bright as the day. King Bharat entered Tamisra cave alongwith his army in the light of this Ratna in order to conquer northern Bharat area. With this ratna king Bharat made 49 circles on the eastern and western walls of Tamisra cave at a distance of one yojan cach and each one of them was 500 dhanush wide. Each could brighten an area of one yojan. Each mandal (circle) was round like the wheel of a chariot and was shedding light like lunar circle. That Tamisra cave started shining soon like the day due to 49 mandals of 500 dhanush 4 width drawn by king Bharat at a distance of one yojan each. They wer capable of lighting up a distance up to one yojan. 45 46 47 46 455 454 455 456 457 451 451 451 454 455 456 454 455 456 44 4 455 456 457 LELE LE LL54545454545454545454545454 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (182) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步先先品 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5595 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 近 उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ UNMAGNAJALA AND NIMAGNAJALA RIVERS 5 ७१. तीसे णं तिमिसगुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उम्मग्ग - णिमग्ग- जलाओ णामं दुवे महाणईओ पण्णत्ताओ, जाओ णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लाओ भित्तिकडगाओ पवूढाओ समाणीओ पच्चत्थिमेणं सिंधुं महाण समप्पेंति । 4451 तए णं से वद्धइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव विणणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता खिप्पामेव उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ सुहसंकमे करेइ करेत्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव एअमाणत्तिअं पच्चष्पिणइ । [प्र. ] से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ उम्मग्ग- णिमग्गजलाओ महाणईओ ? [ उ. ] गोयमा ! जण्णं उम्मग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कटुं वा सक्करं वा आसे वा हत्थी वा फ्र रहे वा जोहे वा मणुस्से वा पक्खिप्पर तण्णं उम्मग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणिअ आहुणो एगंते थलंसि एडेइ, जण्णं णिग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कट्टं वा सक्करं वा ( आसे वा हत्थी वा रहे वा जोहे 5 वा) मस्से वा पक्खिप्पर तण्णं णिमग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणिअ २ अंतो जलंसि णिमज्जावेइ, से णणं गोयमा ! एवं वुच्चइ उम्मग्ग - णिमग्गजलाओ महाणईओ । ७१. तमिस्रा गुफा के ठीक बीच में उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो महानदियाँ हैं, जो तमिस्रा गुफा के पूर्व के भित्तिप्रदेश से निकलती हुई पश्चिमी सिन्धु महानदी में मिलती हैं। तृतीय वक्षस्कार फ 卐 तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगराय महया उक्किट्ठ सीहणाय जाव करेमाणे २ फ्र सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले णं कूडे णं जेणेव उम्मग्गजला महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता 5 वद्धइरयणं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुष्पिआ ! उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु 5 अणेगखंभसयसण्णिविट्ठे अयलमकंपे अभेज्जकवए सालंबणबाहाए सव्वरयणामए सुहसंकमे करेहि करेत्ता 5 मम एअमाणत्तिअं खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि । 卐 卐 2545555 55 57 6 4 5 6 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555955555559552 (183) 卐 卐 Third Chapter फ्र 卐 卐 卐 तए णं से भरहे राया सखंधावारबले उम्मग्गणिमग्गजलाओ महाणईओ तेहिं अणेगखंभसयस - फ्र णिविट्ठेहिं सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिसगुहाए उत्तरिल्लस्स दुबारस्स कवाडा सयमेव महया फ्र २ कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाई सगाइ ठाणाई पच्चोसक्कित्था । फ 卐 卐 卐 फ्र फ्र 卐 [प्र.] भगवन् ! इन नदियों के उन्मग्नजला तथा निमग्नजला - ये नाम किस कारण पड़े ? 卐 [ उ. ] गौतम ! उन्मग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, पाषाणखण्ड - पत्थर का टुकड़ा, घोड़ा, हाथी, रथ, सेना या मनुष्य जो भी गिरा दिये जायें तो वह नदी उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर फ किसी एकान्त, निर्जल स्थान में फेंक देती है। निमग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, पत्थर का टुकड़ा (घोड़ा, हाथी, रथ, योद्धा - पदाति) या मनुष्य जो भी गिरा दिये जायें तो वह उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर जल में निमग्न कर देती है - डुबो देती है । गौतम ! इस कारण से ये महानदियाँ क्रमशः उन्मग्नजला तथा निमग्नजला कही जाती हैं। फ फ्र 卐 卐 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 5 卐 卐 卐 5 बुलाया। उसे बुलाकर कहा - 'देवानुप्रिय ! उन्मग्नजला तथा निमग्नजला महानदियों पर उत्तम पुलों का 卐 卐 निर्माण करो, जो सैकड़ों खंभों पर भलीभाँति टिके हों, अचल हों, सुदृढ़ हों, कवच की ज्यों अभेद्य हों। 5 टूटने वाले न हों, जिनके ऊपर दोनों ओर दीवारें बनी हों, जिससे उन पर चलने वाले लोगों को चलने में आलम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय हों। मेरे आदेशानुरूप यह कार्य सम्पन्न कर मुझे शीघ्र सूचित करो।' 卐 卐 卐 5 5 यावत् सर्वथा रत्नमय थे। ऐसे पुलों की रचना कर वह शिल्पकार जहाँ राजा भरत थे, वहाँ उनके पास आया । वहाँ आकर राजा को अवगत कराया कि उनके आदेशानुरूप पुल निर्माण हो गया है। तत्पश्चात् अनेक नरेशों के साथ राजा भरत चक्ररल द्वारा दिखाये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ उच्च स्वर से (समुद्र के गर्जन की ज्यों) सिंहनाद करता हुआ सिन्धु महानदी के पूर्वी तट पर उन्मग्नजला महानदी के निकट आया । वहाँ आकर उसने अपने वर्द्धकिरन को - ( श्रेष्ठ शिल्पी को ) 卐 57 5 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 [Q] Reverend Sir! Why are these rivers called Unmagnajala and 5 Nimagnajala ? 卐 卐 卐 राजा भरत द्वारा आदेश दिये जाने पर वह शिल्पकार हर्षित, परितुष्ट एवं आनन्दित हुआ। उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया । राजाज्ञा स्वीकार कर उसने शीघ्र ही उन्मग्नजला तथा 5 निमग्नजला नामक नदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण कर दिया, जो सैकड़ों खंभों पर भलीभाँति टिके थे 71. In the very middle of Tamisra cave two great rivers Unmagnajala and Nimagnajala are flowing. They start from the eastern wall (BhittiPradesh) of Tamisra cave and later join Sindhu river in the west. 5 तत्पश्चात् राजा भरत अपनी समग्र सेना के साथ उन पुलों द्वारा, जो सैकड़ों खंभों पर भलीभाँति 55 टिके थे यावत् सर्वथा रत्नमय थे, उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक नदियों को पार किया। यों ज्यों 5 ही उसने नदियाँ पार कीं, तमिस्रा गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट क्रौञ्च पक्षी की तरह आवाज करते हुए सरसराहट के साथ अपने आप अपने स्थान से सरक गये - खुल गये । [Ans.] Gautam ! In case any leaf, wood, piece of stone, horse, elephant, chariot, army or man falls into the Unmagnajala river, it swings it three time hither and thither and then throws it out at a lonely 5 place free from water. In case any substance leaf, wood, piece of stone, horse, elephant, chariot, army men or man falls into Nimagnajaia river it swings it three times and then drowns it in the water. So Gautam ! These two rivers are called Unmagnajala and Nimagnajala respectively. Thereafter with many kings, king emperor Bharat following the path shown by Chakra Ratna, making roaring sound loudly like that of the sea came to the eastern coast of Unmagnajala river. He then called his Vardhaki Ratna and said, 'O blessed of gods! Construct good bridges on y Unmagnajala and Nimagnajala rivers which should be supported on y hundreds of bridges. They should be stable and strong. They should be (184) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 5 卐 4 ५ ५ उ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **********************மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமித**********மிதி 卐 卐 卐 卐 फ्र 5 卐 फ्र non-piearceable like the armour (Kavach) in the battle. They should be unbreakable. There should be walls on them on both the sides which should serve as a support to the pedestrians. They should be completely studded with jewels. After completion of the work as directed, inform me about its compliance. The Vardhaki felt happy and highly pleased to receive these orders. He humbly accepted it and soon constructed bridges on Unmagnajala and Nimagnajala rivers. They were properly supported on hundreds of pillars and studded with jewels. Thereafter, he came to king Bharat and informed him that the work has been done as ordered. Thereafter, king Bharat alongwith his army crossed Unmagnajala and Nimagnajala river through these bridges which were jewel studded and supported by hundreds of pillars. As soon as he crossed the two rivers, the doors of the northern gate of Tamisra cave moved from its place making the sound like that of a cronch bird and opened. तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसिअमग्गे जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे २ तिमिसगुहाओ उत्तरिल्लेणं दारेणं णीति ससिव्व मेहंधयारणिवहा । hs 卐 5 आपात किरातों से संग्राम BATTLE WITH APAT KIRATS 卐 卐 卐 ७२. तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरडभरहे वासे बहवे आवाडा णामं चिलाया परिवसंति, अड्डा फ दित्ता वित्ता विच्छिण्ण - विउल भवण - सयणासण - जाणवाहणाइन्ना बहुधण - बहुजायरूवरयया 卐 आओगपओगसंपत्ता विच्छड्डि अपउरभत्तपाणा बहुदासीदास - गो - महिस - गवेलगप्पभूआ बहुजणस्स फ्र अपरिभूआ सूरा बीरा विक्कंता विच्छिण्ण - विउलबलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था। 卐 तणं सिमावाडचिलायाणं अण्णया कयाई विसयंसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउब्भवित्था, तं जहा- 5 अकाले गज्जिअं, अकाले विज्जुआ, अकाले पायवा पुष्पंति, अभिक्खणं २ आगासे देवयाओ णच्वंति । तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउब्भूयाई पासंति पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति 5 सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अम्हं विसयंसि बहूई उप्पाइ असयाई पाउब्भूआई तं जहा 卐 फ्र 卐 卐 卐 अकाले गज्जिअं, अकाले विज्जुआ, अकाले पायवा पुष्पंति, अभिक्खणं २ आगासे देवयाओ णच्वंति, तं ण णज्जइ णं देवाणुष्पिआ ! अम्हं विसयस्स के मन्ने उवद्दवे भविस्सइत्ति कट्टु ओहयमण - संकप्पा 5 चिंतासोगसागरं पविट्ठा करयल - पल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठिआ झिआयंति । तृतीय 卐 卐 5 तणं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं एज्जमाणं पासंति पासित्ता आसुरुत्ता रुट्ठा 5 चंडिक्किआ कुविआ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति सद्दावित्ता एवं क्यासी - 'एस णं देवाणुप्पिआ ! अप्पत्थ अपत्थर दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे हिरि - सिरि- परिवज्जिए, जेणं अम्हं विसयस्स फ्र 卐 फ्र वक्षस्कार Third Chapter 5 5 फ्र 卐 5 (185) 卐 卐 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 卐 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B)) ))))) )))) )))))) )))))) )))) ))))) क भ 卐)))))))))5555555555555)))))))))))))))))))) म उवरि विरिएणं हव्वमागच्छइ तं तहा णं घत्तामो देवाणुप्पिआ ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं णो हव्वमागच्छइत्ति कटु। अण्णमण्णस्स अंतिए एअमट्ठ पडिसुणंति पडिसुणित्ता सण्णद्ध-बद्धवम्मिय-कवया उप्पीलिअसरासणपट्टिआ पिणद्धगेविज्जा बद्धआविद्ध-विमलवर-चिंधपट्टा गहिआउह-प्पहरणा जेणेव भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भरहस्स रण्णो अग्गाणीएण सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था। तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं हयमहिअ-पवरवीरघाइअ-विवडिअ-चिंधद्धय9 पड़ागं किच्छप्पाणोवगयं दिसोदिसिं पडिसेहिति। ७२. उस समय भरत क्षेत्र के उत्तरार्ध भाग में आवाड-आपात नामक किरात (भील) रहते थे। वे सम्पत्तिशाली, दीप्तिमान, प्रभावशाली, अपने जातीय जनों में विख्यात, रहने के मकान, ओढ़ने-बिछाने ऊ के वस्त्र, बैठने के उपकरण, माल-असबाब ढोने की गाड़ियाँ, वाहन-सवारियाँ आदि विपुल साधन सामग्री तथा स्वर्ण, रजत आदि प्रचुर धन के स्वामी थे। व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग है और प्रयोग में कुशलतापूर्वक द्रव्योपार्जन में संलग्न थे। उनके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी खानेॐ पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उनके घरों में बहुत से नौकर-नौकरानियाँ, गायें, भैंसें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियाँ आदि थीं। वे इतने रौबीले थे कि उनका कोई तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर ॐ पाता था। वे अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में, दान देने में शौर्यशाली थे, युद्ध में वीर थे, भूमण्डल को + आक्रान्त करने में समर्थ थे। उनके पास सेना और सवारियों की प्रचुरता एवं विपुलता थी। अनेक ऐसे युद्धों में, जिनमें मुकाबले की टक्करें थीं, उन्होंने अपना पराक्रम दिखाया और विजय प्राप्त की थी। उन किरातों के देश में अकस्मात् सैकड़ों उत्पात-अनिष्टसूचक निमित्त उत्पन्न हुए। असमय के बादल ॐ गरजने लगे, असमय में बिजली चमकने लगी, फूलों के खिलने का समय न आने पर भी पेड़ों पर फूल म आते दिखाई देने लगे। आकाश में भूत-प्रेत पुनः-पुनः नाचने लगे। आपात किरातों ने अपने देश में इन - सैकड़ों उत्पातों को उत्पन्न होते देखा। वैसा देखकर वे आपस में कहने लगे-देवानुप्रियो ! हमारे देश में ऊ असमय में बादलों का गरजना, असमय में बिजली का चमकना, असमय में वृक्षों पर फूल आना, 卐 + आकाश में बार-बार भूत-प्रेतों का नाचना आदि सैकड़ों उत्पात प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! न मालूम * हमारे देश में कैसा उपद्रव होगा। वे यों सोचकर उदास हो गये। राज्य--भ्रंश (राजा की मृत्यु) धनापहार आदि की चिन्ता से उत्पन्न शोकरूपी सागर में डूब गये। अपनी हथेली पर मुँह रखे वे आर्त्तध्यान में ग्रस्त हो भूमि की ओर दृष्टि डाले सोच-विचार में पड़ गये। ___ तब राजा भरत हजारों राजाओं को साथ लिये चक्ररल द्वारा दिखाये हुए मार्ग के सहारे तमिस्रा गुफा ॐ के उत्तरी द्वार से इस प्रकार निकला, जैसे बादलों के प्रचुर अन्धकार को चीरकर चन्द्रमा निकलता है। की आपात किरातों ने राजा भरत की सेना को जब आगे बढ़ते हुए देखा तो वे तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, ॐ रुष्ट, विकराल तथा कुपित होते हुए, मिसमिसाहट करते हुए तेज साँस छोड़ते हुए आपस में कहने ॐ लगे-देवानुप्रियो ! मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला, अशुभ दिन में जन्मा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (186) Jambudveep Prajnapti Sutra )5555555555555555555) )))) 卐) Bऊ595555555))))))))))))))))55555558 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ 卐 卐 a555 5听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFF 卐 हुआ, अभागा, लज्जा, शोभा से परिवर्जित वह कौन है, जो हमारे देश पर बलपूर्वक जल्दी-जल्दी चढ़ा आ रहा है। देवानुप्रियो ! हम उसकी सेना को तितर-बितर कर दें, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक के आक्रमण न कर सके। र इस प्रकार उन्होंने आपस में विचार कर आक्रान्ता का मुकाबला करने का निश्चय किया। वैसा 卐 निश्चय कर उन्होंने लोहे के कवच धारण किये, वे युद्ध के लिए तत्पर हुए, अपने धनुषों पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उन्हें हाथ में लिया, गले व ग्रैवेयक-ग्रीवा की रक्षा करने वाले संग्रामोचित उपकरण विशेष बाँधे, ॐ विशिष्ट वीरतासूचक चिह्न के रूप में उज्ज्वल वस्त्र मस्तक पर बाँधे। विविध प्रकार के आयुध-फेंके जाने 卐 वाले बाण आदि अस्त्र तथा प्रहरण-नहीं फैंके जाने वाले, हाथ द्वारा चलाये जाने वाले तलवार आदि शस्त्र धारण किये। वे, जहाँ राजा भरत की सेना की अगली टुकड़ी थी, वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर वे उससे भिड़ ॐ गये। उन आपात किरातों ने राजा भरत की सेना के कतिपय विशिष्ट योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला, घायल कर डाला, गिरा डाला। उनकी गरुड़ आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ, पताकाएँ नष्ट कर डालीं। राजा भरत की सेना के अग्र भाग के सैनिक बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग छूटे। 4. 72. At that time in the northern part of Bharat area Bhils (Kirat) were living who were called Aapat. They were very wealthy, influential, rich and famous among their class. They owned residential houses, clothes, furniture, means of transport for carrying goods and passengers in sufficient quantity. They were owners of a large amount of gold, silver, cash and the like. They were engaged very well in amassing and spending wealth from the commercial angle. Eatables in sufficient quantity were available with them after they had taken their meals. They had many servants-male and female, cows, buffaloes, bullocks, sheep, goats and the like. They were so robust that no one had the courage to condemn them or to insult them. They were true to their word. They were broadminded in giving charity. They were brave in the battle field. They had a large army. They had shown their valour in many wars wherein the i opposite side was equally powerful and had attained success. All of a sudden, many inauspicious signs appeared in that land of Kirats which indicated that something bad was going to happen. The 451 clouds started roaring at odd time. The lightening started at odd time. The trees started flowering at odd time. The ghosts appeared in the sky dancing again and again. Aapat Kirats saw hundreds of such odd things happening in their region. They talked among themselves. O beloved of gods ! In our country hundreds of dimeritorious occurrences have happened-namely the clouds are roaring, the lightening is shining, the trees have borne fruit-all at odd times. The ghosts are dancing in space 卐555555555555))))))))))) तृतीय वक्षस्कार (187) Third Chapter 5555555555555555555555555558 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 马步步步步步步步步步步步步步步步另%%%%%%%%%%%%%%% 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 54545454545454545 $ again and again. So we cannot say how dreadful a situation is going to happen. With these thoughts they became sad. They had a gross fear that their ruler may be dethroned or he may die. They may be deprived of their wealth and the like. They were in melancholy mood and holding their face in the palm of their hand, they looked towards the ground in a pensive mood. At that time king Bharat came out from the northern gate of Tamisra cave with thousands of kings with the help of the path shown by Chakra * Ratna in such a way as moon comes out from dark clouds. When the Aapat Kirats saw the army of king Bharat coming forward they immediately became very angry, dreadful, ferocious and rude. They fastly breathing, talked among themselves, 'O blessed of gods! Who is the 5 enemy who is quickly advancing with all force to attack our country and is desirous of death. He is going to finish in a pitiable manner. He had bad symptoms. He is unfortunate and appears to have been born on an 5 unluckly day. He is without any grandeur. We shall wither away his army so that he may not be able to attack our country with strength of armed forces. 4 After discussing in this manner, they decided among themselves to oppose the enemy with full force. They wore armours and became ready for the battle. They set arrows on their bows and took them in their hands. They tied special dress to protect their neck in the battle. The tied shining cloth on their head as a mark of their unique heroism. They i took various weapons namely arrows that could hit at a great distance, the swords and the like which could be used by the hand. They came to the place where the first batallion of the army of king Bharat was present and attacked it. Those Apaat Kirats killed some warriors, ki trampled them, injured them and, fell them down. They destroyed the flags and the buntings which had the sketches of garud bird and the like. With great difficulty the soldiers in the front row ran hither and thither to save their lives. 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 आपात किरातों का पलायन FLEEING OF AAPAT KIRAT ७३. [१] तए णं से सेणाबलस्स णेआ वेढो जाव भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाड चिलाएहिं हय-महिय-पवर-वीर जाव दिसोदिसं पडिसेहि पासइ, पसित्ता आसुरुत्ते रुठे चंडिक्किए कुविए म मिसिमिसेमाणे कमलामेलं आसरयणं दुरूहइ दुरूहित्ता। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 55555555555555555555555555555555556 0 45 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 ( 188 ) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2555955 5 55 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 595 5 5 5 5 5 5 5559555552 फफफफफफफफफफ 卐 卐 ७३. [ १ ] सेनापति सुषेण ने राजा भरत के यावत सुसज्जित सैन्य के अग्र भाग के अनेक फ फ 5 अश्वरत्न वर्णन DESCRIPTION OF HORSE 卐 卐 73. [1] Sushen, the army chief, saw many soldiers of king Bharat in 5 the front line being injured and killed by Aapat Kirats. He also saw the soldiers trying to run away in the other direction in order to save their 卐 lives with great difficultly. Immediately at this sight, Sushen army chief became extremely angry, rude and dreadful. He, breathing sharply, rode 5 Kamlamel horse. फ्र 卐 卐 योद्धाओं को आपात किरातों द्वारा आहत, मथित देखा। सैनिकों को बड़ी कठिनाई से अपने प्राण 卐 फ्र फ बचाकर एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर भागते देखा। यह देखकर सेनापति सुषेण तत्काल अत्यन्त 卐 क्रुद्ध, रुष्ट, विकराल एवं कुपित हुआ। वह मिसमिसाहट करता हुआ - तेज साँस छोड़ता हुआ कमलामेल 5 नामक अश्वरत्न पर आरूढ़ हुआ। 卐 तवणिज्जथासगाहिलाणं वर- कणग - सुफुल्ल - थासग - विचित्त - रयण-रज्जुपासं कंचण - मणि-कण - इंदनील - मरगय-मसारगल्ल- मुहमंडणरइअं आविद्धमाणिक्क - सुत्तग - विभूसियं कणगामय- पउम 5 तालुजीहासयं ७३. [२] तए णं तं असीइमंगलमूसिअं णवणउइमंगुलपरिणाहं बत्तीसमंगुलमूसि असिरं चउरंगुलकन्नागं वीसइ अंगुलबाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलस अंगुलजंघागं 5 चउरंगुलमूसि अखुरं मुत्तोलीसंवत्तवलिअमज्झं ईसिं अंगुलपणयपठ्ठे संणयपठ्ठे संगयपठ्ठे सुजायपठ्ठे पत्थप विसिट्ठपट्टे जाणवित्यथद्धपटुं 卐 वित्तलयकस - णिवाय- अंकेल्लण-पहारपरिवज्जिअंगं फ्र चोक्खचरगपरिव्वायगोविव अट्ठसयमंगुलमायतं 2544545 4 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 5 5555555 456 452 पयर - णाणाविह - घंटिआजाल - मुत्तिआजालएहिं परिमंडियेणं पट्टेण सोभमाणेण सोभमाणं कक्केयण- 5 तृतीय वक्षस्कार 卐 卐 卐 फ्र अणभवाहं 5 सुकयतिलकं देवमइविकप्पिअं सुरवरिंद - वाहणजोग्गावयं सुरूवं दूइज्जमाण - पंच- चारुचामरा - मेलगं घरेंतं 5 अभेलणयणं कोकासिअ - बहलपत्तलच्छं सयावरण - नवकणग-तविअ - तवणिज्ज - सलिलबिंदुजुअं सिरिआभिसे अघोणं पोक्खरपत्तमिव । इसिमिव खंतिखमए सुसीसमिव पच्चक्खया विणीयं उदग - हुतवह- पासाण - पंसुकद्दम ससक्करसवालुइल्ल-तडकडग-विसमपब्भार - गिरिदरीसु लंघण - पिल्लण - णित्थारणासमत्थं अचंडपाडियं दंडपातिं अणसुपातिं अकालतालुं च कालहेसिं जिअनिद्दं, गवेसगं, जिअपरिसहं, जच्चजातीअं, मल्लिहाणिं सुगपत्त - सुवण्णकोमलं मणाभिरामं । फ्र (189) अचंचलं चंचलसरीरं 卐 卐 Third Chapter 卐 हिलीयमाणं - हिलीयमाणं खुरचलण-चच्चपुडेहि धरणिअलं अभिहणमाणं २ दो वि अ चलणे जमग- 新 समगं मुहाओ विणिग्गमंतं व सिग्घयाए मुणालतंतुउदगमवि णिस्साए पक्कमंतं जाइ-कुल- रूव - फ्र पच्चयपसत्थ- वारसावत्तग - विसुद्धलक्खणं सुकुलप्पसूअं मेहावि भद्दय - विणीअं अणुअ-तणुअसुकुमाल - लोमनिद्धच्छविं सुजाय - अमर - मण - पवण - गरुल - जइण - चवलसिग्द्यगामिं । 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555 ॐ कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावईं कमेण समभिरूढे कुवलयदल-सामलं च रयणिकर-मंडलनिभं ॐ सत्तुजणविणासणं कणगरयणदंडं णवमालिअ-पुप्फसुरहिगंधिं णाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोतमिसिमिसिंत-तिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंस-रुख-सिंग-ट्ठि-दंत卐 कालायस-विपुल-लोहदंडक-वरवइर-भेदकं जाव-सव्वत्थ अप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं __पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो। अद्धंगुलसोणीको जेट्टपमाणो असी भणिओ॥ १॥ असिरयणं णरवइस्स हत्थाओ तं गहिऊण जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आवाइचिलाएहिं सद्धि संपलग्गो आवि होत्था। तए णं से सुसेणे सेणावई ते आवाडचिलाए हय-महिअ-5 ऊ पवरवीर-घाइअ जाव दिसो दिसिं पडिसेहेइ। ७३. [२] वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा था, निन्यानवे अंगुल प्रमाण उसका विस्तारण, एक सौ 卐 आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक बत्तीस अंगुल ऊँचा था। उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे। उसकी बाह्य-मस्तक के नीचे का और घुटनों के ऊपर का भाग-बीस अंगुल-प्रमाण था। उसके घुटने चार अंगल-प्रमाण थे। उसकी जंघा-घटनों से लेकर खरों तक का भाग-पिण्डली सोलह अंगल-प्रमाण थी। म उसके खुर चार अंगुल ऊँचे थे। उसकी देह का मध्य भाग मुक्तोली-ऊपर-नीचे से सँकड़ी, बीच से कुछ विशाल-कोठी के सदृश गोल तथा वलित था। उसकी पीठ की यह विशेषता थी कि जब सवार उस पर । बैठता तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी। उसकी पीठ क्रमशः देहानुरूप झुकी हुई थी, 9 जन्मजात दोषरहित थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, वह हरिणी के म घुटनों की ज्यों उन्नत थी, दोनों पार्श्व भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में सुदृढ़ थी। उसका शरीर बेंत, 卐 लता-बाँस की पतली छड़ी, कशा-चमड़े के चाबुक आदि के प्रहारों से परिवर्जित था अर्थात् घुड़सवार फ़ के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तर्जित करना आवश्यक नहीं था। ॐ उसका शरीर शृंगारित था। काठी बाँधने हेतु रस्सी, जो पेट से लेकर पीठ तक दोनों पाश्वों में बाँधी + जाती है, उत्तम स्वर्णघटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से सजी थी, विविध-रत्नमय थी। उसकी पीठ, + स्वर्णयुक्त मणि-रचित तथा केवल स्वर्ण-निर्मित आभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना ॐ प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से सुशोभित थी, जिससे वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता + था। कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ पिरोये गये फ़ सूत्रक से-घोड़े का मुख विभूषित था। स्वर्णमय कमल के तिलक से किया हुआ वह अश्व दैवी कौशल ऊ से विरचित था। वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर के था। मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में पाँचों अवयवों पर पाँच चँवरों को कलंगियों ॐ को वह धारण किये था। वह अनभ्रचारी था-(इन्द्र का घोड़ा उच्चैःश्रवा जहाँ अभ्रचारी-आकाशगामी होता है, वहाँ वह) भूतलगामी था। उसकी अन्यान्य विशेषताएँ उच्चैःश्रवा जैसी ही थीं। उसकी आँखें ॥ विकसित थीं. पलकयक्त थीं। डांस. मच्छर आदि से रक्षा हेत उस पर लगाये गये प्रच्छा स्वर्ण के तार गुंथे थे। उसका तालु तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे। उसकी नासिका परफ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (190) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐55555555555555555555555555555555555555555558 B ) )) )))))))) ) )). Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת नागागागागागागाना 555555555555555555555555555555555555 # लक्ष्मी के अभिषेक का चिह्न था। कमलपत्र पर जैसे जल बिन्दु चमकता है उसी प्रकार वह अश्व अपने के शरीर की आभा या लावण्य से बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। वह अपने स्वामी का कार्य करने में सुस्थिर 2 था। उसके शरीर में चंचलता-स्फूर्ति थी। जैसे स्नान आदि द्वारा शुद्ध हुआ संन्यासी अशुचि पदार्थ के संसर्ग की आशंका से अपने आपको कत्सित स्थानों से दूर रखता है, उसी तरह वह अश्व अपवित्र । स्थानों को-ऊबड़-खाबड़ स्थानों को छोड़ता हुआ उत्तम एवं सुगम मार्ग द्वारा चलने की वृत्ति वाला था। " वह अपने खुरों की टापों से भूमितल को रोंदता हुआ चलता था। अपने आरोहक द्वारा नचाये जाने । पर वह अपने आगे के दोनों पैर एक साथ इस प्रकार ऊपर उठाता था, जिससे ऐसा प्रतीत होता, मानो ! उसके दोनों पैर एक ही साथ उसके मुख से निकल रहे हों जैसे ठुमक ठुमक चलता है। उसकी गति । इतनी स्फूर्तियुक्त थी कि कमलनालयुक्त जल में भी कमल के तंतुओं पर भी वह चलने में सक्षम था । अर्थात् वह जल में भी स्थल की ज्यों सरपट चाल से दौड़ता था। वह उत्तम जाति, कुल, रूप आदि प्रशस्त बारह आवौं वाला था, जिनसे उसके उत्तम जाति, उत्तम कुल तथा श्रेष्ठ आकार-संस्थान का परिचय मिलता था। वह अश्वशास्त्रोक्त उत्तम कुल से उत्पन्न था। वह मेधावी-(अपने मालिक के पैरों के " संकेत, नाम आदि द्वारा आह्वान आदि का आशय समझने की विशिष्ट बुद्धियुक्त) था। वह । वह भद्र एवं विनीत था, उसके रोम अति सूक्ष्म, सुकोमल एवं चिकने थे, जिनसे वह छविमान था, वह अपनी गति से देवता, मन, वायु तथा गरुड़ की गति के वेग को जीतने वाला था। वह बहुत चपल और द्रुतगामी था। वह क्षमा में ऋषितुल्य था-वह न किसी को लात मारता था, न किसी को मुँह से काटता था तथा न किसी को अपनी पूँछ से ही चोट लगाता था। वह सुशिष्य की ज्यों विनीत था। वह पानी, अग्नि, पत्थर, मिट्टी, कीचड़, छोटे-छोटे कंकड़ों से युक्त स्थान, रेतीले स्थान, नदियों के तट, पहाड़ों की तलहटियाँ, ! ऊँचे-नीचे पठार. पर्वतीय गफाएँ-इन सबको अनायास लाँघने में, अपने सवार के संकेत के अनुरूप चलकर इन्हें पार करने में समर्थ था। वह प्रबल योद्धाओं द्वारा युद्ध में गिराये गये फैंके गये दण्ड की। ज्यों शत्रु की छावनी पर अचानक आक्रमण करने की विशेषता से युक्त था। मार्ग में चलने से होने थकावट के बावजद उसकी आँखों से कभी आँस नहीं गिरते थे। उसका ताल कालेपन से रहित था। वह मय पर ही हिनहिनाहट करता था। वह जितनिद्र-निद्रा को जीतने वाला था। मूत्र, पुरीष-, (लीद) आदि उचित स्थान पर ही करता था। वह सर्दी, गर्मी आदि के कष्टों में भी खिन्न नहीं रहता था। उसका मातृपक्ष निर्दोष था। उसका नाक मोगरे के फूल के सदृश था। उसका वर्ण तोते के पंख के समान सुन्दर था। देह कोमल थी। वह वास्तव में मनोहर था। ऐसे कमलामेल नामक अश्वरत्न पर आरूढ़ सेनापति सुषेण ने राजा भरत के हाथ से असिरत्नउत्तम तलवार ली। वह तलवार नीलकमल की तरह श्यामल थी। घुमाये जाने पर चन्द्रमण्डल के सदृश दिखाई देती थी। वह शत्रुओं का विनाश करने वाली थी। उसकी मूठ स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित थी। उसमें से नवमालिका के पुष्प जैसी सुगन्ध आती थी। उस पर विविध प्रकार की मणियों से निर्मित बेल आदि के चित्र थे। उसकी धार शाण पर चढ़ी होने के कारण बड़ी चमकीली और तीक्ष्ण थी। लोक में वह अनुपम थी। वह बाँस, वृक्ष, भैंसे आदि के सींग, हाथी आदि के दाँत, लोह, लोहमय भारी दण्ड, उत्कृष्ट वज्र-हीरक आदि का भेदन करने में समर्थ थी। अधिक क्या कहा जाए, वह सर्वत्र बिना किसी | तृतीय वक्षस्कार (191) Third Chapter 9555555555555555555;))))))))))))) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41451451 451 451 451 456 457 455451 55646456456454545454545454545454 455 456 45 44 45 46 47 46 45 45 45 41414141 9555555555555555555555555555555555555g ॐ रुकावट के दुर्भेद्य वस्तुओं के भेदन में भी समर्थ थी। फिर पशु, मनुष्य आदि जंगम प्राणियों के देह4 76 atan RIT! वह तलवार पचास अंगुल लम्बी थी, सोलह अंगुल चौड़ी थी। उसकी मोटाई अर्ध-अंगुल-प्रमाण है ENTI UE UT14 Anar a TATUT I (Trentes) राजा के हाथ से उस उत्तम तलवार को लेकर सेनापति सुषेण, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आया। वहाँ आकर वह उन पर टूट पड़ा। उसने आपात किरातों में से अनेक प्रबल योद्धाओं को मार डाला, ॐ मथ डाला तथा घायल कर डाला। वे आपात किरात एक दिशा से दूसरी दिशा में भाग छूटे। 73. [2] That horse was 80 fingers in height, 99 fingers broad and 108 41 rs long. His head was 32 fingers high. His ears were 4 fingers. The portion between his head and above his knees was 20 fingers (a unit of measurement). His knees were 4 fingers. The part of his body from the knees up to the hoofs constituting his shins was 16 fingers. His hoofs were 4 fingers high. The central part of his body was round like a bangle and it was narrow at the lower end while a bit broad in the middle. His back had such a characteristic that it used to bend less than a finger $ when one rides on it. His back was gradually bent according to its body. It was faultless since the very birth. It was good and had also all the qualities mentioned in Shalihotra treatise. It was developed like the knees of a doe broad from both the sides and strong at end portion. His ki body was without any marks of cane, thin bamboo stick or leather strap. 4 In other words the horse was moving as desired by its rider and therefore, there was no need to hit his body with cane, bamboo stick or leather strip. His body was decorated with the string, which is tied from the belly up to both sides of the back in order to tie up the bridle, which was decorated with various types of bells and hanging chains of pearls and in between them their were ornaments only of gold or of precious stones studded in gold. So that horse was looking very attractive. The mouth of the horse was decorated with precious stones namely Karketan, 45 Indraneel, Markat and others threaded in Maanik. That horse was marked on the forehead with golden lotus and was built with divine expertise. It was fast and beautiful like Uchchai-shrava horse of god Indra. It was bearing five whisks at five parts of the body namely the head, the neck, the forehead and the roots of both the ears. It could move on the land (as Uchchai-shrava the horse of Indra could move in the sky). Its other special characteristics were similar to those of Uchchaishrava. Its eyes were developed and having eye-lids. There were golden जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (192) Jambudveep Prajnapti Sutra 455 456 459 456 454 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 45 46 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 455 4 4 9454545455 456 457 455 456 45 44 4545454545454545454141414141414141414141414141414 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 卐 55 555 卐 47 555 卐 45 45 55 577 卐 45 55 445555555550 45 卐 45 threads in the cover fixed on it as a safeguard from mosquitoes and the 55 like. Its tongue and upper inner part of the mouth was as red as burnt gold. Its nose was like the symbol of worship of Laxmi (the goddess of wealth). That horse was looking very beautiful due to the aura or 卐 grandeur of its body just as a water drop shines on lotus leaves. It was expert in serving its master. Its body had the requisite briskness (smartness). That horse had the habit of avoiding unclean undulating areas and following the levelled path just as a monk who has cleaned his body by taking bath keeps himself away from undesirable places so that he may not come in contact with unclean substances. 55 That horse used to move ahead hitting the ground with the beat of his hoofs. When his rider wanted it to enact, it used to raise both of its feet in such a way that it appeared that both of its feet were coming out from its face simultaneously. It moving harmoniously. Its gait was so 55 quick that it was capable of moving on the stalks of lotus in the water which has lotus tube in it. In other words it could run fast even in water just as it used to run on land. It was of excellent breed, clan and beauty and had all the twelve meritorious signs. It had been born in excellent family according to the treatise on horse progeny. It was intelligent (and could very well understand the subtle indication and the purport of the rider in calling its name). It was good and humble. Its pores were subtle, soft and smooth. So it was very bright with its fast speed. It had the capability of surpassing the speed of a celestial being, the mind, the wind and that of garuda. It was very smart and quick. (193) 455 卐 卐 It was compassionate like a monk. It never hit any one with its leg nor any one with its mouth. It never hurt any one with its tail. It was obedient like a well-educated student. It was capable of crossing water, fire, stony areas, dust, mud, places having small brick-bats, sandy areas, banks of rivers, foot of hills undulating ridges, hilly caves, and in moving as directed by its rider. It had the expertise of suddenly attacking the enemy just as the great warriors wield weapons in a battle. Tears never trickled down from his eyes in spite of the fatigue of moving on the road. Its inner palate was without any blackish mark. It neighed only at the 455 proper time. It had controlled its sleep. It made the call of nature only at a proper place. It never felt disgusted due to the effect of heat or of cold. Its maternal side was faultless. Its nose was like mogra flower. Its colour was beautiful like feather of a parrot. Its body was soft. In reality, it was very charming. 457 卐 45 卐 455 5 तृतीय वक्षस्कार Third Chapter 55 45 4 45 55 55 卐 卐 卐 47 5455 卐 卐 2595959555 5 5 5 5 5 555555 5 5559555555552 卐 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 55558 卐)))))))))))))):5555555555555555555555555555555558 855555 55555555555555 While riding Kamalamel horse, Sushen, the army chief took the excellent sword (Asi Ratna) from king Bharat. That sword was dark like blue lotus. It looked like lunar circle when it moved. It was capable of destroying the enemy. Its handle was made of gold and precious stones. It was emitting fragrance like one from navamalika flowers. Creepers and pictures were sketched on it with various types of precious stones. Its edge was shining very much as it had been sharpened recently. It was unique in the world. It was capable of piercing bamboo, tree, horn of a he-buffalo, tusk of an elephant, iron, heavy iron rod, strong and hard diamond and the like. Not to speak more about it, it could at all places without any 45 difficulty, pierce even those substances which are ordinarily non pierceable. So it was an ordinary act for it to pierce the body of any animal, man or any suchlike mobile being. That sword was fifty fingers long, sixteen fingers wide, and half a finger thick. These are the qualities of the best sword. After taking that unique sword from the king, Sushen the army chief came to the place where Aapat Kirats were present. He attacked them in 4i a dreadful manner. He killed many of their brave soldiers, trampled them and injured them. These Aapat Kirats then ran away in the other direction. मेघमुख देवों का आह्वान CALL TO MEGHAMUKH DEVAS ७४. [१] तए णं ते आवाडचिलाया सुसेणसेणावइणा हयमहिआ जाव पडिसेहिया समाणा भीआ म तत्था वहिआ उविग्गा संजायभया अत्थामा अबला अवीरिआ अपुरिसक्कार-परक्कमा अधारणिज्जमिति है कटु अणेगाइं जोअणाई अवक्कमंति, अवक्कमित्ता एगयओ मिलायंति मिलइत्ता जेणेव सिंधू महाणई . तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वालुआसंथारए संथरेंति, संथरित्ता वालुआसंथारए दुरूहंति, दुरूहित्ता में अट्ठमभत्ताई पगिण्हंति, पगिण्हित्ता वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ जे तेसिं . ॐ कुलदेवया मेहमुहा णामं णागकुमारा देवा, ते मणसि करेमाणा २ चिट्ठति। तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं आसणाइं चलंति। ७४. [१] सेनापति सुषेण द्वारा मारे जाने पर, घायल किये जाने पर मैदान छोड़कर भागे हुए आपात किरात बड़े भयाकुल, त्रासयुक्त, व्यथायुक्त-पीडायुक्त, उद्वेगयुक्त होकर घबड़ा गये। युद्ध में टिक ॐ पाने की शक्ति उनमें नहीं रही। वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष-पराक्रमरहित अनुभव करने लगे। शत्रु-सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये। यों दूर जाकर वे एक स्थान पर आपस में मिले। जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ आये। वहाँ आकर बालू 卐 के संस्तारक-बिछौने तैयार किये। बालू के संस्तारकों पर वे स्थित हुए। उन्होंने तेले की तपस्या स्वीकार ॥ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (194) Jambudveep Prajnapti Sutra &+555555555555555:5555555555555 卐 ) ) ) ) ) ) ) )) ) )) )) ) ) )))) ) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IP IR Ir Iririr וב וב ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ובובוב וכו 15555555555555555555555555 की। वे अपने मुख ऊँचे किये, निर्वस्त्र हो घोर आतापना सहते हुए अपने कुल-देवता मेघमुख नामक । नागकुमारों का, मन में ध्यान करते हुए तेले की तपस्या में संलग्न हो गए। जब तेले की तपस्या परिपूर्ण होने को थी, तब मेघमुख नागकुमार देवों के आसन चलित हुए। 74. [1] When Sushen, the army chief, killed and injured Aapat Kirat, they ran away out of fear and disgust in a state of pain and suffering. They did not have the requisite strength to remain steadfast in the battle-field. They started to have feeling that they are weak and without any courage. Feeling that they are not capable of facing the enemy, they ran away to a distance of many yojans from there. Then they joined together at a place and came near Sindhu river. They prepared beds of sand there and stationed themselves there. They undertook three day! fast. They meditated upon their family god keeping their faces upwards, keeping their body clotheless and bearing the scorching heat of the sun. Thus they engaged themselves in three day austerities concentrating, i their thought on Meghamukh, their family god that belongs to Nagakumar class of gods. Then the seats of Meghamukh gods moved. ७४. [२ ] तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा आसणाई चलिआई पासंति पासित्ता ओहिं पजंति । । पउंजित्ता आवाडचिलाए ओहिणा आभोएंति, २ त्ता अण्णमणं सद्दावेंति २ ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिआ ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे आवाडचिलाया सिंधूए महाणईए वालुआसंथारोवगया । । उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसि करेमाणा २ चिटुंति, तं सेअं खलु देवाणुप्पिआ ! अम्हं आवाडचिलायाणं अंतिए पाउन्भवित्तएत्ति। ___ कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एअमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए जाव । वीतिवयमाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया तेणेव । उवागच्छंति उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणिआई पंचवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिआ ते । आवाडचिलाए एवं वयासी-हं भो आवाडचिलाया ! जणं तुन्भे देवाणुप्पिआ ! वालुआसंथारोवगया , उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसि करेमाणा २ चिट्ठह, तए । णं अम्हे मेहमुहा णागकुमारा देवा तुब्भं कुलदेवया तुम्हं अंतिअण्णं पाउन्भूआ, तं वदह णं देवाणुप्पिआ ! किं करेमो के व भे मणसाइए? ७४. [ २ ] मेघमुख नागकुमार देवों ने अपने आसन चलित देखे तो अपने अवधिज्ञान का प्रयोग : किया। अवधिज्ञान द्वारा आपात किरातों को देखा। उन्हें देखकर वे परस्पर यों कहने लगे-देवानुप्रियो ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत क्षेत्र में सिन्धु महानदी पर बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो आपात किरात अपने मुख ऊँचे किये हुए तथा निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए तेले की तपस्या में संलग्न हैं। वे हमारा-(मेघमुख नागकुमार देवों का) जो उनके कुल-देवता हैं, ध्यान कर रहे हैं। देवानुप्रियो ! यह उचित है कि हम उन आपात किरातों के समक्ष प्रकट हों। ב ב ב ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת תב תב תב תב תבוב ב נ ת ת ת ת ת ת ת तृतीय वक्षस्कार (195) Third Chapter ת ת ת ת 1555555555555555555555555 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 055555555555555555554545455455555555555550 के इस प्रकार परस्पर विचार कर उन्होंने वैसा करने का निश्चय किया। वे उत्कृष्ट, तीव्र गति से चलते ॥ हुए, जम्बूद्वीप के उत्तरार्ध में जहाँ सिन्धु महानदी थी, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आये। उन्होंने 5 छोटी-छोटी घण्टियों सहित पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहन रखे थे। आकाश में अधर अवस्थित होते हुए वे 卐 आपात किरातों से बोले-आपात किरातो ! देवानुप्रियो ! तुम बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो, निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए, तेले ही तपस्या में संलग्न होते हुए हमारा-(मेघमुख नागकुमार देवों ॐ का) जो तुम्हारे कुल-देवता हैं, ध्यान कर रहे हो। यह देखकर हम तुम्हारे कुलदेव मेघमुख नागकुमार तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! तुम क्या चाहते हो? हम तुम्हारे लिए क्या करें? 74. [2] When Meghamukh Nagakumar gods saw their seats trembling they applied their avadhi jnana and saw the Aapat Kirats. After seeing them they talked to each other, 'O the blessed of gods ! In the northern part of Bharat area in Jambu continent at the bank of Sindhu river, Aapat Kirats are engaged in three day fast on beds of sand keeping their faces upwards and are bearing the heat with the naked body. They are meditating on us, as we are their family gods. It is therefore, proper for us that we should appear before them.' After mutual consultation, they decided to act accordingly. Ti moving at a fast speed, came to the northern region of Bharat area in Jambu continent at Sindhu river where Aapat Kirats were stationed. $ They were bearing clothes of five colours with bells fixed thereon.si Positioning themselves in the space without any support, they addressed Aapat Kirats, 'O the blessed ones! You are stationed on beds of sand. You are bearing the heat keeping yourselves totally naked. You are on three day fast meditating on us, your family gods. So, seeing you in this state 46 we Meghamukh Nagakumars, your family gods, have appeared before you. Tell us what you really want. What should we do for you? मेघमुख देवों द्वारा उपद्रव DISTURBANCES BY MEGHMUKH DEVAS ७४. [३] तए णं ते आवाडचिलाया मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं एअमटुं सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिआ जाव हिअया उट्ठाए उद्वेति जेणेव मेहसुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति 卐 उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलि कटु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावित्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिए ! केइ अप्पत्थिअपत्थिए दुरंतपंतलक्खणे हिरि-सिरि + परिवज्जिए जे णं अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं हब्बमागच्छइ, तं तहा णं घत्तेह देवाणुप्पिआ ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरिं विरिएणं णो हव्वमागच्छइ। * तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं वयासी-एस णं भो देवाणुप्पिा ! भरहे णामं कराया चाउरंतचक्कवट्टी महिड्डीए महज्जुईए जाव महासोक्खे, णो खलु एस सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (196) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐)))))))))))))))))55555555555555555555555555453 05555555555555555555555555595555555 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת 35岁55555555555555555555555555555555 # किण्णरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्बेण वा सत्थप्पओगेण वा अग्गिपओगेण वा मंतप्पओगेण वा । उद्दवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहावि अ णं तुम्भं पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गं करेमोत्ति कटु तेसिं । आवाडचिलायाणं अंतिआओ अवक्कमन्ति अवक्कमित्ता वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहणंति २ त्ता महाणीअं । विउव्वंति २ ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयक्खंधावारणिवेसे तेणेव उवागच्छंति २ ता उप्पिं विजयक्खंधावारणिवेसस्स खिप्पामेव पततुतणायंति खिप्पामेव विज्जुयायन्ति विज्जुयाइत्ता खिप्पामेव जुगमुसल-मुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिउं पवत्ता यावि होत्था। ७४. [ ३ ] मेघमुख नागकुमार देवों का यह कथन सुनकर आपात किरात चित्त में हर्षित, परितुष्ट म तथा आनन्दित हुए, उठे। उठकर जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये। वहाँ आकर हाथ जोड़े, । अंजलि-बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। फिर मेघमुख नागकुमार देवों को जय-विजय शब्दों द्वारा उनका # जयनाद, विजयनाद किया और बोले-देवानुप्रियो ! जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, H दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला अभागा, लज्जा, शोभा से परिवर्जित कोई एक पुरुष है, जो # बलपूर्वक जल्दी-जल्दी हमारे देश पर चढ़ा आ रहा है। देवानुप्रियो ! आप उसे वहाँ से इस प्रकार फैंक । दीजिए जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण नहीं कर सके, आगे नहीं बढ़ सके। # तब मेघमुख नागकुमार देवों ने आपात किरातों से कहा-देवानुप्रियो ! तुम्हारे देश पर आक्रमण म करने वाला महाऋद्धिशाली, परम द्युतिमान्, परम सौख्ययुक्त, चातुरन चक्रवर्ती भरत नामक राजा है। । उसे न कोई देवता, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा । उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही म रोका जा सकता है। फिर भी हम तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग-विघ्न उत्पन्न करेंगे। ऐसा कहकर वे आपात किरातों के पास से चले गये। उन्होंने वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्म# प्रदेशों को देह से बाहर निकाला। आत्म-प्रदेश बाहर निकालकर उन द्वारा गृहीत पुद्गलों के सहारे बादलों की विकुर्वणा की। वैसा कर जहाँ राजा भरत की छावनी थी, वहाँ आये। बादल शीघ्र ही धीमे# धीमे गरजने लगे। बिजलियाँ चमकने लगीं। वे शीघ्र ही पानी बरसाने लगे। सात दिन-रात तक अर्गला, । मूसल जैसी मोटी धाराओं से पानी बरसता रहा। 74. [3] Aapat Kirats felt highly pleased and satisfied at these words of F Meghakumar Devas. They got up from their place and came near those celestial beings. They folded their hands and touched their faces with it. They honoured those gods with shouts of success and said, Devanupriya ! Some one with full force is coming forward towards our country. It appears he is desiring death which no one desires. He is ultimately going i to end miserably, is unfortunate and has bad signs. He is shameless and without any glory. You please throw him out from our region in such a way that he may not have the courage and strength of attacking our country again and that he may not come forward. गगगगगगगगगगगगगगगगगगगाजा1111111111111111 ת ת ת ת ת तृतीय वक्षस्कार (197) Third Chapter Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55 5 5 5 5 5 5559555952 फफफफफफफफ 卐 卐 5 Then Meghmukh Nagkumar Devas told Aapat Kirats, 'O beloved of फ्र gods! Chakravarti Bharat who is very glorious, very grand and who has pleasures of excellent order has attacked your region. No one is capable of stopping him whether he is a god, a demi-god like Kimpurush Mahorag or Gandharva. Nobody can cause any obstacle in his way. He cannot be stopped by weapons, by fire or by any spiritual mantra. Still in order to help you in achieving your object we shall create some obstacles and disturbances for him. Saying so they departed. They by fluid process, took out the space points of their soul and with the help of atoms collected by them, created clouds with the fluid process. They then came to the army camp of king Bharat. Soon those clouds started roaring slowly. There was also lightening Soon it started raining. For continuously seven days it rained in torrents. The dropping was as thick as a thick stick and thick rod for closing door. छत्ररत्न का प्रयोग USE OF UMBRELLA (CHHATRA RATNA) 5 फ ७५. तए णं से भरहे राया उप्पिं विजयक्खंधावारस्स जुग - मुसल - मुट्ठिप्यमाणमेत्ताहिं धाराहिं 5 ओघमेघं सत्तरतं वासं वासमाणं पासइ पासित्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिअब्बो दुवासलजो अणाई तिरिअं पवित्थरइ, तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया संखधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ दुरूहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णं णवणउइसहस्स– कंचन - सलाग - परिमंडिअं महरिहं अझं णिव्वणसुपसत्थविसिट्ठलट्ठकंचणसुपुट्ठदंडं मिउरायय- वट्ट - लट्ठ - अरविंद - कण्णि असमाणरूवं वत्थिपएसे अ पंजरविराइअं विविहभत्तिचित्तं मणि - मुत्त - पवाल - तत्त - तवणिज्ज -पंचवण्णिअ-धोअरयणरूवरइयं रयण-मरीई - मसोप्पणाकप्पकारमणुरंजिएल्लियं रायलच्छिचिंधं अज्जुण - सुवण्ण-पंडुर5 पच्चत्थअ - पट्टदेस भागं तहेव तवणिज्ज -पट्टधम्मंतपरिगयं अहिअ - सस्सिरीअं सारयरयणिअर-विमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवं णरिंद - वामप्पमाण - पगइवित्थडं कुमुदसंडधवलं रण्णो संचारिमं विमानं सूरायववायबुट्ठिदोसाण य खयकरं तवगुणेहिं लद्धं फ्र ( गाहा ) पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुल्लहतरं वग्घारिअ - मल्ल - दाम - कलावं सारय-धवलब्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणिअलपुण्णइंदो । तए णं से दिव्वे छत्तरयणे भरणं रण्णा परामुट्ठे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई, पवित्थरइ साहिआई तिरिअं । अहयं बहुगुणदाणं उऊण विवरी असुहकयच्छायं । छत्तरयणं पहाणं सुदुल्लहं अप्पपुण्णाणं ॥ १ ॥ ७५. राजा भरत ने अपनी सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिका जैसी मोटी धाराओं के रूप में सात दिन-रात तक बरसती हुई वर्षा को देखा। देखकर उसने चर्मरत्न को हाथ से स्पर्श किया। वह चर्मरत्न 5 श्रीवत्स - स्वस्तिकविशेष जैसा रूप लिये था। चक्रवर्ती राजा भरत द्वारा छुआ गया दिव्य चर्मरल कुछ Jambudveep Prajnapti Sutra 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 फ 5 卐 卐 (198) फफफफफफफफ फ्र Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 卐 5 अधिक बारह योजन तिरछा फैल गया। तब भरत राजा अपनी सेना सहित उस चर्मरत्न पर चढ़ गया। 卐 चढ़कर उसने छत्ररत्न को हाथ से छुआ, उठाया । वह छत्ररत्न निन्यानवे हजार स्वर्ण-निर्मित शलाकाओं से-ताड़ियों से परिमण्डित था । बहुमूल्य था । अयोध्य था उसे देख लेने पर प्रतिपक्षी योद्धाओं के शस्त्र 5 उठते तक नहीं थे। वह छिद्र, ग्रन्थि आदि के दोष से रहित था । सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोहर एवं स्वर्णमय 5 सुदृढ़ दण्ड से युक्त था । उसका आकार मुलायम चाँदी से बनी गोल कमलकर्णिका के समान था । वह 卐 5 फ्र 卐 बस्ति - प्रदेश में - जहाँ दण्ड योजित (जुड़ा ) रहता है, अनेक शलाकाओं से युक्त था। अतएव वह पिंजरे फ 5 जैसा प्रतीत होता था । उस पर विविध प्रकार की चित्रकारी की हुई थी। उस पर मणि, मोती, मूँगे, 卐 तपाये स्वर्ण तथा रत्नों द्वारा पूर्ण कलश आदि मांगलिक वस्तुओं के पंचरंगे उज्ज्वल आकार बने फ्र 5 हुए 卐 卐 फ्र 5 थे। रत्नों की किरणों के सदृश रंगरचना में निपुण पुरुषों द्वारा वह सुन्दर रूप में रंगा हुआ था। उस पर 5 5 राजलक्ष्मी का चिह्न अंकित था । अर्जुन नामक पीत वर्ण के सोने का कलापूर्ण काम था। उसके चार कोण तपे हुए स्वर्णमय पट्ट से परिवेष्टित थे। वह अत्यधिक शोभा - सुन्दरता से युक्त था । उसका रूप शरद् ऋतु 5 के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्रमण्डल के जैसा था । उसका स्वाभाविक विस्तार राजा भरत द्वारा तिरछी फैलाई गई अपनी दोनों भुजाओं के विस्तार जितना था । वह चन्द्रविकासी कमलों के वन समान उज्ज्वल था 卐 卐 । फ्र 5 वह राजा भरत का मानो संचरणशील-जंगम विमान था । वह सूर्य के आतप, वायु-आँधी, वर्षा आदि- फ विघ्नों का विनाशक था । पूर्व-जन्म आचरित तप, पुण्य - कर्म के फलस्वरूप वह प्राप्त था । 6 5 5 ( गाथार्थ) वह छत्ररत्न अहत - अपने आपको योद्धा मानने वाले किसी भी पुरुष द्वारा संग्राम में फ्र 5 खण्डित न हो सकने वाला था, ऐश्वर्य आदि अनेक गुणों का प्रदायक था। हेमन्त आदि ऋतुओं में विपरीत 'सुखप्रद छाया देता था । अर्थात् शीत ऋतु में उष्ण छाया देता था तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतल छाया 5 देता था। वह छत्रों में उत्कृष्ट एवं प्रधान था । पुण्यहीन या थोड़े पुण्य वाले पुरुषों के लिए वह दुर्लभ था । 卐 卐 75. King Bharat saw that it had rained continuously for seven days on his military camp and that thickness of rainpour was equal to that of a thick stick or a fist. He then touched the Charma Ratna. That Charma Ratna transformed into Shrivats-a special type of Swastik. The divine Charma Ratna touched by Chakravarti king Bharat spread up to a distance more than twelve yojans. Then king Bharat alongwith his entire army got on that Charma Ratna. He then touched and picked up 5 the divine Umbrella (Chhatra Ratna). That Chhatra Ratna had 99,000 wires of gold. It was very costly. It could not be surpassed. In other words on seeing it, the soldiers on the opposite side could not pick up their Third Chapter 5 तृतीय वक्षस्कार फ्र 卐 वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था । 卐 卐 卐 5 देवयोनि में भी वह अत्यन्त दुर्लभ था । उस पर फूलों की मालाएँ लटकती थीं। वह शरद् ऋतु के धवल 5 5 मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान उज्ज्वल था । वह दिव्य था- एक हजार देवों से अधिष्ठित था । राजा भरत का वह छत्ररत्न ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूतल पर परिपूर्ण चन्द्रमण्डल हो । राजा भरत 5 5 द्वारा छुए जाने पर वह छत्ररत्न कुछ अधिक बारह योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गया - फैल गया। 卐 卐 (199) 卐 फ 5 5 卐 5 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 फ्र 卐 2555 5555 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5552 फ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 45 $1 1 4 45 46 47 46 45 44 45 46 45 45 47 46 45 44 455 456 457 45 46 4 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4564565691454545454545454 weapons. It was free from any fault or knots. It had good, attractive, strong gold rod. Its shape was like circular lotus made of soft silver. At the joint with the rod, it had many thin rods. So it looked like a cage 45 Paintings of many types were sketched on it. There were sketches of precious stones, pearls, moongas, burnt gold, pots fillad with jewels and suchlike auspicious articles in five coloured bright shape. It had been dyed in beautiful colours by the expert dyers in colours like those of rays emitting from the jewels. Tnere was a sign of Rajalakshmi sketched on it. It had the gold work on it in yellow gold namely Arjun in an artistic manner. Its four corners were covered with burnt gold. It had grandeur of highest order. Its brightness was like that of full moon of bright fortnight. Its natural extension was in a straight line in opposite direction, equal in length to the lengh of two extended arms of Bharat. It was bright like the garden of lotus flower that blossoms in moonlight. It was like a moving Vimaan for king Bharat. It had the capability of making ineffective the affect of the scorching heat of the sun, the storm, the rain and other suchlike disturbances. It was the result of austerities observed and noble deeds done in earlier lives. That Chhatra Ratna could not be broken by any soldier in the battlefield, howsoever brave, he thinks himself to be. It had the capability of providing wealth and many good qualities. In winter and other seasons it provided a pleasant shade opposite to the prevailing 4 state. In other words, in winter it provided warm shade and in summer a cool shade. It was the best among umbrellas and most important. It was available with extreme difficulty to those who were without merit or who had only a little merit. That Chhatra Ratna was a part of the fruit of austerities observed by king Bharat, the ruler of six parts, in his earlier incarnations. It was extremely difficult to be found even in celestial state. Garlands of flowers were hanging on it. It was as bright as the white clouds of winter or the brightness of the moon. It was divine. A thousand celestial beings were serving it. That Chhatra Ratna of king Bharat appeared like full moon 45 disc had landed on the earth. It had spread up to more than twelve yojans when king Bharat touched it. गाथापतिरत्न द्वारा सेना की निर्वाह व्यवस्था ARRANGEMENT FOR ARMY BY GATHAPATI RATNA ७६. तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरि ठवेइ ठवित्ता मणिरयणं परामुसइ वेढो जाव छत्तरयणस्स वत्थिभागंसि उवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंतमेत्त-सालि-जव-गोहूम-5 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 200 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 45 46 45 4 45 46 456 455 456 457 455 456 457 45 4 46 45 44 45 46 47 46 4 44 445 446 44 45 46 47 444 445 446 45 46 47 46 45 4 44 46 45 455 456 457 458 454 455 456 457 455 456 457 45419951955 1954 4 55 456 4 57 45454545454545 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफ 卐 卐 5 मुग्ग - मास - तिल - कुलत्थ-सट्ठिग-निप्फाब - चणग - कोद्दव - कोत्युं भरि - कंगुबरग - रालग-अणेग-5 卐 धण्णावरण - हारि अग-अल्लग- - मूलग - हलिद्द - लाउअ - तउस - तुंब - कालिंग - कविट्ठ - अंब - अंबिलिअ - 5 सव्वणिष्फायए सुकुसले गाहावइरयणेत्ति सव्वजणवीसुअगुणे । 卐 तणं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तद्दिवसप्पइण्णणिप्फाइअ - पूइ आणं सव्वधण्णाणं अगाई 5 कुंभसहस्साइं उबट्ठवेति, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणि-रयणकउज्जोए फ समुग्गयभूणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ वि से खुहा ण विलिअं णेव भयं णेव भारहाहिवस्स रण्णो खंधावारस्सवि 5 तृतीय वक्षस्कार फ्र फफ विज्जए दुक्खं । तहेव ॥ 9 11 卐 फ्र ७६. राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया। यों छत्ररत्न को तानकर मणिरत्न का फ्र स्पर्श किया। यावत् उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में- ( शलाकाओं के बीच में) स्थापित किया। राजा भरत के साथ गाथापतिरत्न - सैन्य - परिवार हेतु खाद्य, पेय आदि की समीचीन व्यवस्था करने वाला उत्तम गृहपति था। वह अपनी अनुपम विशेषता - योग्यता लिये था । शिला की ज्यों 5 अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि - उच्चजातीय चावल, जौ, गेहूँ, मूँग, उर्द, तिल, 卐 कुलथी, षष्टिक--तण्डुलविशेष, निष्पाव, चने, कोदों, कुस्तुंभरी, कंगु, वरक, रालक-मसूर आदि दालें, 5 धनिया, वरण आदि हरे पत्तों के शाक, अदरक, मूली, हल्दी, लौकी, ककड़ी (खीरा), तुम्बक, बिजौरा, कटहल, आम, इमली आदि समग्र फल, सब्जी आदि पदार्थों को उत्पन्न करने में वह समर्थ था। सभी 45 लोग उसके इन गुणों से सुपरिचित थे। 卐 5 卐 卐 5 卐 F 5 उस श्रेष्ठ गाथापति ने उसी दिन बोये हुए, पके हुए, तुष, भूसा आदि हटाकर साफ किये हुए सब 15 प्रकार के धान्यों के सहस्रों कुंभ राजा भरत को समर्पित किये। राजा भरत उस भीषण वर्षा के समय 5 चर्मरत्न पर आरूढ़ रहा, छत्ररत्न द्वारा आच्छादित रहा, मणिरत्न द्वारा किये गये प्रकाश में सात दिन- 5 रात सुखपूर्वक सुरक्षित रहा। 5 फ्र (गाथार्थ) उस अवधि में राजा भरत को तथा उसकी सेना को न भूख ने पीड़ित किया, न उन्होंने दैन्य का अनुभव किया और न वे भयभीत और दुःखित ही हुए । 5 फ्र 5 फ 76. King Bharat spread the divine umbrella (Chhatra Ratna) on his 5 army. Thereafter, he touched the divine precious stone (Mani Ratna) and fixed it in between the wires of the Chhatra Ratna. There was gathapati (householder) Ratna with king Bharat whose duty was to make proper arrangement of foods, drinks and the like for the armed forces and others. He had his own special capabilities in this respect. He was 卐 capable of growing on rock-like stable Charma Ratna best quality of rice, फ्र barley, wheat, pulses, namely til, kulath, shashtik (special type of rice), फ्र 5 nishpav, grams, kodas, kastumbhari, kangu, karak, masur, green leaves 5 5 like dhaniya, varan and the like, ginger, radish, turmaric, gourd, फ्र 卐 5 Third Chapter (201) फ्र ***தத**************************தததத 卐 5 5 卐 卐 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF cucumber, tumbak, bijaura, katahal, mango, tamarind and suchlike all types of fruits and vegetables just by sowing. All the people were well acquainted with its these qualities. That grand gathapati offered to king Bharat thousands of pitchers full of well thrashed and well cleaned foodgrains that were soon refined and thrashed and cleaned on that very day. During that rainy period king Bharat got on Charma Ratna, remained protected from rain by Chhatra Ratna and spent the period of seven full days happily in the light produced by Mani Ratna. During this period hunger did not cause any trouble to king Bharat 4 and his armed forces. They did not experience any scarcity. They did not feel terrified or troubled. ॐ देवों द्वारा मेघमुख देवों की तर्जना WARNING BY DEVAS TO MEGHAMUKH DEMI-GODS ७७. [१] तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि इमेआरूवे अन्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था केस णं भो ! अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे जाव परिवज्जिए जेणं ममं इमाए एआणुरूवाए जाव अभिसमण्णागयाए उपिं विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि जाव वासं वासइ।। + तए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेआसवं अन्भत्थिों चिंतियं पत्थिों मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता सोलस देवसहस्सा सण्णज्झिउं पवत्ता यावि होत्था। तए णं ते देवा सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिअ-कवया 卐 जाव (सूत्र संख्या ५७ अनुसार) गहिआउह-प्पहरणा जेणेव ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव + उवागच्छंति २ ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासी-"हं भो ! मेहमुहा णागकुमारा ! देवा 9 अप्पत्थिअपत्थगा जाव परिवज्जिआ किण्णं तुब्भि ण याणह भरहं रायं चाउरंतचक्कवहि महिड्डिअं जाव म उवद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहावि णं तुम्भे भरहस्स रण्णो विजयखंधावारस्स उपिं जुगमुसल फ़ मुट्ठिप्पमाणमित्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासह, तं एवमवि गते इत्तो खिप्पामेव अवक्कमह अहव कणं अज्ज पासह चित्तं जीवलोग। ७७. [१] जब राजा भरत को इस रूप में रहते हुए सात दिन-रात व्यतीत हो गये तो उसके मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ-वह सोचने लगा-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को के चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला कौन ऐसा है, जो मेरी दिव्य ऋद्धि तथा दिव्य द्युति की विद्यमानता में भी मेरी सेना पर युग, मूसल एवं मुष्टिका जैसी जलधारा द्वारा भारी वर्षा करता जा 5555555555555555555555555555555555555555 रहा है। राजा भरत के मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ जानकर सोलह हजार देव-(चौदह ॐ रत्नों के रक्षक चौदह हजार देव तथा दो हजार राजा भरत के अंगरक्षक देव) युद्ध करने को तैयार हो 卐 गये। उन्होंने लोहे के कवच अपने शरीर पर कस लिये, शस्त्रास्त्र धारण किये, जहाँ मेघमुख नागकुमार फ़ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (202) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9555555555555555555555555555555555555 卐5555555555555555555 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 55555 ॐ देव थे, वहाँ आये। आकर उनसे बोले-मृत्यु को चाहने वाले, यावत् मेघमुख नागकुमार देवो ! क्या तुम ॥ चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत को नहीं जानते ? वह महाऋद्धिशाली यावत् महान् बली है। न उसे शस्त्रॐ प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रुत किया जा सकता है। कोई भी उसे रोक नहीं सकता है। फिर भी तुम राजा भरत की सेना पर मूसल तथा मुष्टिका जल-धाराओं द्वारा ॥ सात दिन-रात हुए भीषण वर्षा कर रहे हो। तुम्हारा यह कार्य अनुचित है। किन्तु बीती बात पर अब ऊ क्या उपालंभ दें। तुम अब शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, अन्यथा इस जीवन से अग्रिम जीवन देखने को तैयार हो जाओ-मृत्यु की तैयारी करो। 77. [1] When a period of seven days passed in this manner, king : Bharat started contemplating to find out who was the culprit desirous of death, one going to have a miserable end, having bad signs as he even in the presence of his divine splandour and divine grandeur has been ng rain continuously in torrents as thick as the thick stick or fists on the army. Knowing that king Bharat is contemplating in this manner, sixteen thousand celestial beings (14,000 celestial beings--the guarding angels of fourteen ratna and 2,000 angels serving as security guards to king $ Bharat) became ready for the battle. They covered their body with si armours made of iron, took up weapons and came to the place where Meghamukh demi-gods were present. They said, 'O Meghamukh Nagkumar demi-gods ! The desirous of death. Do not you know Chakravarti Emperor Bharat who is commander of four-tier army. He is # extremely grand and powerful and he cannot be troubled by any weapon, fire or recitation of a mantra. None can stop him. Still you have been causing torrential rain on his army for the last seven days in such a thick downpower which is as thick as a rod or a fist. Your this act is 4 undesirable. There is no point in condemning for the past. Now you go quickly from here, otherwise you get ready to see your further lifespan--in other words your end, your death. भरत की शरण में किरात KIRATS AT THE MERCY OF BHARAT ७७. [ २ ] तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा भीआ तत्था वहिआ है उबिग्गा संजायभया मेघानीकं पडिसाहरंति पडिसाहरित्ता जेणेव आवाडचिलाय तेणेव उवागच्छंति २ त्ता + आवाडचिलाए एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिआ ! भरहे राया महिड्डिए णो खलु एस सक्को केणइ देवेण ॥ वा जाव अग्गिप्पओगेण वा उवद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहावि अणं ते अम्हेहिं देवाणुप्पिआ ! तुम्भं फ़ पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गे कए, गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिआ ! व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउअ- 9 卐5555555555555555555)))))))))))555555555555550 | तृतीय वक्षस्कार (203) Third Chapter Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிகத*கழி*************************தமிழில் 卐 फ्र 5 मंगल - पायच्छित्ता उल्लपडसाडगा ओचूलगणिअच्छा अग्गाई वराई रयणाई गहाय पंजलिउडा पायवडिआ 5 மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதத தமிழதழதமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதிமிதிதத भरहं रायाणं सरणं उवेह, पणिवइअ - वच्छला खलु उत्तमपुरिसा, णत्थि भे भरहस्त रण्णो अंतिआओ 5 भयमिति कट्टु । एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। 卐 ते आवाsचिलाया मेहमुहेहिं णागकुमारेहिं देवेहिं एवं बुत्ता समाणा उडाए उट्ठेति उट्ठित्ता व्हाया 卐 5 कयबलिकम्मा कयकोउअ - मंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा ओचूलगणिअच्छा अग्गाई बराई रयणाई गहाय 5 जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति २ त्ता करयलपरिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलिं कट्टु रायं जएणं विजएणं वद्धाविंति वद्धावित्ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेंति उवणित्ता एवं वयासीवसुहर गुणहर जयहर, हिरि - सिरि-धी- कित्ति - धारकणरिंद। लक्खणसहस्सधारक, रायमिदं णे चिरं धारे॥१ ॥ हयवइ गयवइ णरवइ, णवणिहिवइ बत्तीस - जणवयसहस्सराय, सामी भरहवासपढमवई । चिरं जीव ॥२॥ ईसर, हिअईसर महिलिआसहस्साणं । चोइसरयणीसर जसंसी ॥३॥ 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र पढम - परीसर देवसयसाहसीसर, सागरगिरिमेरागं, उत्तरवाईणमभिजिअं ता अम्हे देवाणुप्पि अस्स विस अहो देवापिणं इड्डी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिडे देवाणुभावे द्धे पत्ते अभिसमण्णा । तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिआणं इड्डी एवं चेव जाव अभिसमण्णागए। तं खामेमु णं देवाप्पि ! खमंतु णं देवाणुष्पिआ ! खंतुमरहतु णं देवाणुप्पिआ ! णाइ भुज्जो भुज्जो एवं करणाएत्ति कट्टु पंजलिउडा पायवडिआ भरहं रायं सरणं उविंति । तणं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सद्दावेइ सद्दावित्ता त्ता एवं वयासी- गच्छाहि णं भो देवाणुष्पिआ ! दोच्चं पि सिंधूए महाणईए पच्चत्थिमं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओवत्ता अग्गाई बराइं रयणाई पडिच्छाहि पडिच्छित्ता मम एअमाणत्तिअं खिप्पामेव पच्चष्पिणाहि । तुमए । परिवसामो ॥४॥ जहा दाहिणिल्लस्स ओयवणं तहा सव्वं भाणिअव्वं जाव पच्चणुभवमाणा विहरंति । ७७. [ २ ] जब उन देवताओं ने मेघमुख नागकुमार देवों को इस प्रकार कहा तो वे डर गये, त्रस्त, व्यथित एवं उद्विग्न हो गये, उन्होंने बादलों की घटाएँ समेट लीं। समेटकर, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ (204) तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाई वराई रयणाइं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ते फ्र आवाडचिलाए एवं वयासी - गच्छह णं भो ! तुब्भे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णत्थि भे कत्तो वि भयमत्थित्ति कट्टु सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ । फफफफफफफफफफफ 卐 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra आये और बोले- देवानुप्रियो ! राजा भरत महाऋद्धिशाली यावत् महान् बली है। उसे कोई भी देव- 5 卐 5 卐 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 55952 卐 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 दानव नहीं रोक सकता। देवानुप्रियो ! फिर भी हमने तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए फ्र उपसर्ग किया। अब तुम जाओ, स्नान करो, नित्य नैमित्तिक कृत्य करो, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आँजो, ललाट पर तिलक लगाओ, चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान करो। यह सब कर तुम गीली धोती, गीला दुपट्टा धारण कर वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हुए पहने हुए (कछोटा लगाये हुए) श्रेष्ठ, उत्तम रत्नों को लेकर हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में पड़ो, उसकी 5 शरण लो। उत्तम पुरुष विनम्र जनों के प्रति वात्सल्य भाव रखते हैं, उनका हित करते हैं। तुम्हें राजा भरत से कोई भय नहीं होगा । यों कहकर वे देव जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले गये । फ धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र ! हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्त आप 卐 卐 मेघमुख नागकुमार देवों द्वारा यों कहे जाने पर वे आपात किरात उठे । उठकर स्नान किया, नित्य फ नैमित्तिक कृत्य किये, नेत्रों में अंजन आँजा, ललाट पर तिलक लगाया, चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। यह सब कर गीली धोती एवं गीला दुपट्टा धारण किये हुए, वस्त्रों के 5 नीचे लटकते किनारे सम्हाले हुए समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्न लेकर जहाँ राजा भरत था, वहाँ फ्र आये। आकर हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। राजा भरत को 'जय-विजय' शब्दों द्वारा 5 वर्धापित किया, श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोले (गाथार्थ) षट्खण्डवर्ती वैभव के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति के पालन करें ॥ १ ॥ 5 राजाओं के अधिनायक ! आप चिरकाल तक जीवित रहें ॥ २ ॥ 卐 फ्र अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नवनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! चौंसठ हजार नारियों के हृदयेश्वर ! रत्नाधिष्ठातृ-मागध 5 तीर्थाधिपति आदि लाखों देवों के स्वामिन् ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन् ! आपने दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम दिशा में समुद्र पर्यन्त और उत्तर दिशा में क्षुल्ल हिमवान् गिरि पर्यन्त उत्तरार्ध, 卐 5 दक्षिणार्ध - समग्र भरत क्षेत्र को जीत लिया है ( जीत रहे हैं)। हम देवानुप्रिय के देश में प्रजा के रूप में फ्र निवास कर रहे हैं - हम आपके प्रजाजन हैं ॥ ३-४ ॥ तृतीय वक्षस्कार देवानुप्रिय की - आपकी ऋद्धि-सम्पत्ति, कान्ति, यश-कीर्ति, बल - दैहिक शक्ति, वीर्य शक्ति, पौरुष फ्र तथा पराक्रम- ये सब आश्चर्यकारक हैं। आपको दिव्य देव - धुति-देवताओं के सदृश परमोत्कृष्ट कान्ति, 5 परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त हैं। हमने आपकी ऋद्धि का साक्षात् अनुभव किया है। देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं। देवानुप्रिय ! आप हमें क्षमा करें। आप क्षमा करने योग्य हैं- क्षमाशील हैं। देवानुप्रिय ! हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर वे हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में गिर पड़े, शरणागत हो गये । (205) 24545545545555 5555955555 565 55 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 555959595555952 फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में प्रस्तुत उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये । स्वीकार कर उनसे कहा- 'तुम अब अपने स्थान पर जाओ। मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है- मेरा हाथ तुम्हारे मस्तक पर है। तुम निर्भय - उद्वेगरहित, व्यथारहित होकर 5 கத்திததமிதிமிதிமிததமிதழதழபூமிமிமிமிமிமிததமி 卐 Third Chapter 卐 தமிழி 卐 卐 卐 卐 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555 卐 45 45 5 55 तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! जाओ, दूसरे निष्कुट प्रदेश हैं। 45 卐 5 जो सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में स्थित हैं और जिसके पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा 5 पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढ्य पर्वत है। उस दूसरे कोणवर्ती 5 निष्कुट प्रदेश को एवं उसके सम-विषम कोणस्थ स्थानों को विजित करो । वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो । यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ । इससे आगे का कथन दक्षिणी सिन्धु निष्कुट के विजय के वर्णन के समान यहाँ भी समझ लेना चाहिए। फ्र 77. [2] When those angels addressed Meghamukh Nagakumar demi 45 gods in this manner, they felt afraid. They became very much bewildered, non-plussed and depressed. They removed the dark clouds and then came to the place where Aapat Kirats were present and said, 'O beloved of gods! King Bharat possesses a great wealth and power. No angel or demi-god can stop him. Still in order to help you in fulfilling your desire, we caused disturbance to him. Now you go, take your bath, do your usual routine activities, add collyrium to your eyes, usual mark on your forehead and do the auspicious act with sandal paste, kumkum, curd, akshat and the like. Thereafter, you wear a wet cover on your legs and a wet cover on your upper body. Then holding the ends of your 5 hanging clothes, take best quality if jewels and then with folded hands touch the feet of king Bharat and seek his protection. The people of grand outlook always have compassion for the humble. They think of their welfare. You shall have no fear from king Bharat. Saying so they went back in the same direction from where they had come. 555555555555555555555555 卐 卐 5 सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। 卐 सुखपूर्वक रहो। अब तुम्हें किसी से भी भय नहीं है।' यों कहकर राजा भरत ने उनका सत्कार किया, At this call of Meghamukh Nagakumar demi-gods, the Aapat Kirats got up, took their bath, performed the usual activities, added collyrium to their eyes, a mark on their forehead and did the routine auspicious act with sandal paste, kumkum, curd, akshat (unbroken rice grains) and the like. Thereafter, they wore wet dhoti (the cover for lower part of the body) and wet dupatta (the cover for upper part of the body). They held the corners of their hanging clothes and, without wasting any time, they came to king Bharat with an offering of high class jewels. Then they folded their hands, touched their forehead with it and shouted in honour of king Bharat. They offered the jewels to the king and said "O the master of the grand wealth of six territories ! O the possessor of good qualities ! O the ever conqueror ! O the possessor of honour, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (206) 5555555555555555555555555555 卐 卐 45 5 卐 卐 45 卐 55 457 5 457 557 455 45 45 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 445 4444444444444444444444444441 wealth, patience and grandeur ! O the possessor of thousands of i meritorious royal signs ! O the king emperor ! You take care of our this fi regions for a very long time. “O the master of horses ! O the master of elephants ! O the master of nine treasures ! O the first master of Bharat area ! O the master of rulers of 32,000 states ! May you be blessed with a long life! "O the first king emperor! O the master of extreme grandeur ! O the ! loveable husband of 64,000 women ! O the master of lakhs of celestial beings including the guardian angel of Magadh ! O the possessor of fourteen ratnas ! O the most influential ruler ! You have conquered up to fi the sea in the south, the east and the west and the entire northern and ! southern region of Bharat area up to Chull Himavan mountain. We are ! living here in this region as your subjects. We are your subordinates. "Your wealth, splendour, grandeur, power, courage, physical strength, L fi valour are all extremely wonderful and awe-inspiring. You have got the divine splendour comparable with angels and a great influence as a ! result of your meritorious deeds of the past lives. We have experienced your grandeur directly. O the blessed ! We seek your mercy, kindly fi pardon us. You are benevolent. We shall never do any such mistake in fi future.” Saying so they, with folded hands, fell at the feet of king Bharat. F They accepted him as their master. Then king Bharat accepted the grand jewels offered by those Aapat 5 Kirats as gift. He then said, you now go to your place. I have accepted F you in my protection. My hand is on your head. You now spend your life y free from any fear, depression or trouble in a pleasant manner. Youy should not now feel afraid of any one. Saying so, king Bharat honoured 9 them and then allowed them to go. Then king Bharat called Sushen, the army chief and said ! O the blessed! You go and conquer other nishkut regions which are located in y the western corner of Sindhu river-in whose western side is Sindhu river and western sea, in whose north is Kshulla Himavaan mountain and in whose south is Vaitadhya mountain. You also conquer the levelled and unlevelled areas in these corners. You secure as offering excellent jewels from there. Thereafter, you quickly inform me about the compliance. The remaining description is similar to the description of the conquest of southern Sindhu nishkut. ir ir ir ir hhhhhhhhhhhhh ת כתב ת ת ܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡ ת ת ת ת ת तृतीय वक्षस्कार ( 207 ) Third Chapter 114444444444444444444444444444444444541413 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 955 ) फ्र) )))))555555555555 卐5555555555555555555555555555555555555555555555 ॐ चुल्लहिमवंत विजय CONQUEST OF CHULLA-HIMAVANT ७८. [१] तए णं दिव्वे चक्करयणे अण्णया कयाइ आउह-घरसालाओ पडिणिक्खमइ म पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुल्लहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयाए यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव चुल्लहिमवंतवासहरपब्वयस्स अदूरसामंते ॐ दुवालसयोजनायाम जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्स जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे २ उत्तरदिसाभिमुहे जेणेव चुल्लहिमवंतवासहरपब्बए तेणेव उवागच्छइ ॐ उवागच्छित्ता चुल्लहिमवंतवासहरपव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिण्हित्ता + तहेव जाव आयत्तकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्थ भाणीय से परवई जाव तेसिं खु ॐ णमो पणिवयामि। हंदि सुणंतु भवंतो, सव्वे मे ते विसयवासित्ति कटु उद्धं वेहासं उसं णिसिरइ परिगरणिगरिअमज्झो जाव तए णं से सरे भरहेणं रण्णा उड्ढं वेहासं णिसट्टे समाणे खिप्पामेव बावत्तरि जोअणाई गंता चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराए णिवइए। ७८. [१] आपात किरातों को विजय कर लेने के पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला, आकाश में अधर अवस्थित हुआ। फिर वह उत्तर-पूर्व दिशा-(ईशानकोण) में स्थित + लघु हिमवान् पर्वत की ओर जाने लगा। तब राजा भरत उस दिव्य चक्ररत्न के पीछे यावत् लघु हिमवान् वर्षधर पर्वत से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा (नौ योजन चौड़ा, 卐 उत्तम नगर जैसा सैन्य-शिविर स्थापित किया) फिर उसने लघु हिमवान् गिरिकुमार देव के निमित्त तेले की तपस्या ग्रहण की। [आगे का सब वर्णन मागध तीर्थ के प्रसंग जैसा है।] चक्ररत्न का अनुगमन ॐ करता हुआ समुद्र की गर्जना के समान वातावरण को नाद से गुंजाता हुआ राजा भरत उत्तर दिशा की 5 ओर आगे बढ़ा। जहाँ चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत था, वहाँ आया। रथ के अग्र भाग का चुल्ल हिमवान् - वर्षधर पर्वत से तीन बार स्पर्श किया। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित कर रथ को 卐 रोका। धनुष का स्पर्श किया। (वह धनुष शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था) शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यंचा चंचल थी। राजा ने वह धनुष म उठाया। उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वज्र की ज्यों अभेद्य था। उसका पुंख-पीछे का भाग स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकान्त आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। राजा भरत ने उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा (और यों बोला-मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि ॐ देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें।) ये सब मेरे देशवासी हैं, अर्थात् मेरी प्रजा है। ऐसा कर 卐 राजा भरत ने वह बाण ऊपर आकाश में छोड़ा। मल्ल जब अखाड़े में उतरता है तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। राजा भरत द्वारा के ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव म की सीमा में-तत्सम्बन्धित समुचित स्थान पर गिरा। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra भक555555555555555555555 (208) 545) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 455 456 457 4545454545454545454545454 455 456 457 451 455 456 457 455 45 6 457 45 78. [1] After conquering Aapat Kirat, one day that Chakra Ratna came out from the ordinance store and stationed itself in the space without any external support. Then it started moving towards the small Himavan mountain in the north-east direction. Then kịng Bharat followed that divine Chakra Ratna. He set up his military camp in an area of twelve yojan by nine yojan at a distance from Laghu-Himavan mountain which was neither very far nor very near from it. The camp looked like a great town. Thereafter, king Bharat undertook austerities for three continuous days in order to subdue Himavan Girikumar deva. (Further description is similar to that of Magadh Tirth.) King Bharat (with his armed force) went ahead towards the north amidst a roaring sound in the environment similar to that of dreadful sea, following the Chakra Ratna. He came to the place where Chull-Himavan mountain was located. He touched the front side of his chariot three times with Chull-Himavan Varshadhar mountain. Controlling the quickly running horses, he stopped the chariot. He touched the bow (that bow was shining like the moon of the second day of bright fortnight and like a rainbow). It was capable of bringing an end to his enemies. Its string was vibrant. The king picked up that bow and fixed an arrow on it. Both the sides of the arrow were made of diamonds. Its front tip was unpierceable like a Vajra. Its tail was decorated with Chandrakant and other suchlike precious stones and jewels studded in gold. The name of king Bharat was engraved on it in a beautiful manner with many precious stones and jewels. The king pulled that unique arrow up to his ear and said (O the Nagkumar, Asurakumar, Suparnkumar and other such like demi-gods who are controlling the inner and outer part of this arrow which I am using, I bow to you. Please listen. All these are the natives of my country. In other words they are my people. Saying so king Bharat released the arrow upwards in the sky. When a wrestler enters a wresting ground for about, he keeps his waist lightly bound. Similarly king Bharat also had tied his waist with the proper cloth as meant for battle field. That arrow was released by king Bharat upwards in open sky. Soon it travelled a distance of seventy two yojans and then fell in the area of Himavan Girikumar Dev at a proper place. ७८. [ २ ] तए णं से चुल्लहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सरं णिवइ पासइ २ त्ता आसुरुत्ते रुढे जाव पीइदाणं सब्बोसहिं च मालं गोसीसचंदणं कडगाणि दहोदगं च गेण्हइ २ त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव उत्तरेणं चुल्लहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी जाव अहण्णं देवाणुप्पिआणं उत्तरिल्ले अंतवाले देवं पडिविसज्जेइ। तृतीय वक्षस्कार ( 209 ) Third Chapter f1455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4545 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 फ्र फ्र 卐 சு फ्र 5 5 ७८. [ २ ] चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव ने बाण को अपने यहाँ गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया । ( यावत् शेष वर्णन सूत्र ५८ में मागधतीर्थाधिपति देव के समान) इसलिए मैं भी 5 卐 चलूँ, यह सोचकर उसने प्रीतिदान- भेंट के रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन - हिमवान् कुंज में उत्पन्न होने वाला चन्दन - विशेष, कड़े, पद्महृद - पद्म नामक (हद) का जल लिया। फिर उत्कृष्ट तीव्र गति द्वारा वह राजा भरत के पास आया। आकर बोला- 'मैं चुल्ल हिमवान् पर्वत की सीमा में आप देवानुप्रिय के देश का वासी हूँ । यावत् मैं आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल - सीमारक्षक हूँ । अतः देवानुप्रिय ! आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें, राजा भरत ने चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार 5 देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार किये और देव को विदा किया। 78. [2] When Himavan Girikumar Dev saw, the arrow fallen in his area, he immediately became extremely angry. (Further description may be understood as similar to Sutra 58 relating the Deva controlling Magadh Tirth). As such he also thought that he should go to the king with various types of gifts. So he took food grains, garlands of flowers of Kalpa tree and Gosheersh sandalwood, special sandalwood that grows in Himavan Kunj, bangles, water of Padma Lake (Hrad). He came to king Bharat at a fast speed and said, 'Reverend Sir! I am a resident of your land at the border of Himavan mountain. I am the controller or guardian of the northern direction. So you kindly accept my offering. King Bharat accepted the gifts thus offered to him and then allowed the god to go. ऋषभकूट पर नामांकन CARVING OF NAME ON RISHABHAKOOT ७९. तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ णिगित्ता रहं वेइ ठवित्ता छत्तलं दुबालसंसिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणिसंठिअं सोवण्णिअं कागणिरयणं परामुसइ परामुसित्ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरत्थिमिल्लंसि कडगंसि णामगं आउडेइ ओसप्पिणीइमीसे, तइआए समाए पच्छिमे भाए । अहमंसि चक्कवट्टी, भरहो इअ नामधिज्जेणं ॥ १ ॥ अहमंसि पढमराया, अहयं भरहाहिवो णरवरिंदो । णत्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं ॥२॥ इति कट्टु णामगं आउडेइ, णामगं आउडित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे, जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जाव दाहिणं दिसिं वेअड्डपव्ययाभिमुहे पयाए आवि होत्था । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (210) फफफफफफफफफफफफ Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 फ्र 卐 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभकूट पर्वत पर नामोल्लेरवन PDED अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के अन्तिम समय में मैं भरत नाम का चक्रवर्ती हुआ हूँ। मैं समस्त भरत क्षेत्र का अधिपति प्रथम राजा हूँ। मेरा कोई शत्रु नहीं है। मैंने समस्त भारत वर्ष को जीत लिया है। काकिणी रत्न मंजुषा - अपने काकिणी रत्न से ऋषभकूट पर्वत की विशाल शिला पर अभिलेख लिखने भरत चक्रवर्ती GRILOK 10 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ 95 96 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ5 चित्र परिचय १० ऋषभकूट पर्वत पर नामोल्लेखन महाराज भरत अपने रथ पर आरूढ़ होकर विशाल सेना के साथ ऋषभकूट पर्वत के पास आये और रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत को स्पर्श किया फिर रथ खड़ा कर उतरे । काकिणी रत्न मंजूषा में से काकिणी रत्न निकाला और ऋषभकूट पर्वत के पूर्व के विशाल गगनचुम्बी शिला पट्ट पर इस प्रकार नामांकन किया "इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक के पश्चिम भाग में-मैं भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ। मैं भरत क्षेत्र का प्रथम - प्रधान राजा हूँ, भरत क्षेत्र का अधिपति हूँ, नरवरेन्द्र हूँ। मेरा कोई प्रतिशत्रु – प्रतिपक्षी नहीं है। मैंने समस्त भारतवर्ष को जीत लिया है। " इस प्रकार अभिलेख लिखने के पश्चात् भरत वापस अपने शैन्य शिविर में लौट आये । WRITING NAME ON RISHABH-KOOT MOUNTAIN King Bharat approached Rishabh-koot mountain riding his chariot and accompanied by his large army. He touched the mountain three times with the front of his chariot. He then stopped the chariot and god down. He took out the Kakini ratna from its box and with this radiant gem inscribed the following on the eastern face of 5 the lofty rock – 卐 "In the last part of the third epoch of this regressive half-cycle of time – I, - वक्षस्कार ३, सूत्र ८१ Bharat, have become the emperor. I am the first and foremost ruler, the sovereign and the king of kings of Bharat area. I have no enemy, no adversary. I have conफ quered Bharat area. " After etching the this inscription Bharat returned to his army camp. ― Vakshaskar-3, Sutra-81 @555555556 $ 95 95 95 95 95 959595959595959595 95 95 95 95 95555555 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95950 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSSWER ७९. (चुल्ल हिमवान् पर्वत पर विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात्) राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों के को नियन्त्रित किया-रथ को वापस मोड़ा। वापस मोड़कर जहाँ ऋषभकूट पर्वत था, वहाँ आया। वहाँ आकर रथ के अग्र भाग (शिखर) से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया। तीन बार स्पर्श कर फिर उसने घोडों को खड़ा किया, रथ को ठहराया। रथ को ठहराकर काकणी रत्न का स्पर्श किया। वह ॥ (काकणी) रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था। ऊपर, नीचे एवं तिरछे प्रत्येक ओर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटियुक्त था। उसकी आठ कर्णिकाएँ थीं। स्वर्णकार के । एरण के आकार वाला था, उसका अष्ट स्वर्णमान परिमाण था। भरत राजा ने काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में-मध्य भाग में इस प्रकार नामांकन किया इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक के पश्चिम भाग में-तीसरे भाग में मैं भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ॥१॥ मैं भरत क्षेत्र का प्रथम राजा-प्रधान राजा हूँ, भरत क्षेत्र का अधिपति हूँ, नरवरेन्द्र हूँ। मेरा कोई प्रतिशत्रु-प्रतिपक्षी नहीं है। मैंने भरत क्षेत्र को जीत लिया है॥२॥ इस प्रकार राजा भरत ने अपना नाम एवं परिचय लिखा। नाम लिखकर अपने रथ को वापस मोड़ा। वापस मोड़कर, जहाँ अपना सैन्य शिविर था, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। यावत् पूर्व की है ओर मुँह कर सिंहासन पर बैठा। फिर आदेश दिया-क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के । उपलक्ष्य में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित किया जाये।चुल्ल हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से 5 बाहर निकला। बाहर निकलकर उसने दक्षिण दिशा में वैताठ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया। ____79. After conquering smaller Himavan mountain, king Bharat फ़ controlled his horse and turned back the chariot. He then came to Rishabhakoot mountain. He then touched three time Rishabhakoot mountain with the top of his chariot. Then he stopped his horse and halted his chariot. Thereafter, he touched the Kakani Ratna. That 5 Kakani Ratna had six surfaces--four sides, the top and the bottom. It had four Kotis (corners) on each side-the upper, the bottom and the oblique side. Thus it had in all twelve corners. It had eight petals (Karnikas). It had the shape of the iron bar of (ayron) the goldsmith. Its measure was eight Swarnaman (a unit of measure of gold). After touching Kakani Ratna, king Bharat inscribed his name on the eastern central part of Rishabhakoot mountain in this manner Bharat Chakravarti happened to be at the later part of the third aeon of Avasarpini period. I am the first king of Bharat area. I am the ruler of Bharat Kshetra. I am the king emperor. I have no opponent. I have conquered Bharat Kshetra. AF555555555555555555555$$$$$$55FFFFFFFFFFFFF555555a 非所所朱乐听听听听hhhhh तृतीय वक्षस्कार (211) Third Chapter Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙乐55555555555558 Thus king Bharat wrote his name and his introduction. Thereafter, he turned back his chariot and came to place where his army was * camping and where the assembly hall was located. He sat on his throne facing eastwards. He then ordered that eight day festival to be arranged to celebrate the victory over smaller Himavan Girikumar deva. After the eight day celebrations to commemorate the victory over smaller Himavan Girikumar Dev, that divine Chakra Ratna came out of ordnance store and started towards Vaitadhya mountain in th नमि-विनमि-विजय VICTORY OVER NAMI-VINAMI ८०. तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव वेअद्धस्स पव्वयस्स उत्तरिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वेअद्धस्स पव्वयस्स उत्तरिल्ले णितंबे दुवालसजोयणायामं जाव पोसहसालं अणुपविसइ जाव णमि-विणमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ पगिण्हित्ता पोसहसालाए (अट्ठमभत्तिए) णमिविणमिविज्जाहररायाणो मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि णमिविणमिविज्जाहररायाणो दिव्वाए मईए चोइअमई अण्णमण्णस्स अंतिअं पाउन्भवंति पाउन्भवित्ता एवं वयासी-उप्पण्णे खलु भो देवाणुप्पिआ ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जीअमेअं तीअ-पच्युप्पण्ण-मणागयाणं ॐ विज्जाहरराईणं चक्कवट्टीणं उवत्थाणिअं करेत्तए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिआ ! अम्हेवि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिअं करेमो इति कटु विणमी णाऊणं चक्कवट्टि दिव्वाए मईए चोइअमई माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेअस्सिं रूवलक्खणजुत्तं ठिअ-जुब्बणकेस-वडिअणहं सब्बरोगणासणिं बलकरि इच्छिअ-सीउण्हफासजुत्तं तिसु तणुअं, तिसु तंबं, तिवलीगतिउण्णयं तिगंभीरं। तिसु कालं, तिसु सेअं, तिआयतं तिसु अविच्छिण्णं ॥१॥ ___ समसरीरं भरहे वासंमि सबमहिलप्पहाणं सुंदर-थण-जघण-वर-कर-चलण-णयण-सिरसिजदसण-जण-हिअय-रमण-मणहरि सिंगारागार जाव जुत्तोवयारकुसलं अमरवहूणं सुरूवं रूवेणं अणुहरंती सुभई भईमि जोवणे वट्टमाणिं इत्थीरयणं णमी अ रयणाणि य कडगाणि य तुडिआणि अगेण्हइ गेण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए जाव उद्धूआए विज्जाहरगईए जेणेव भरहे राया तेणेव उवागछंति उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणीयाइं जाव जएणं विजएणं वद्धाति वद्धावित्ता एवं क्यासी अभिजिए णं देवाणुप्पिआ ! जाव अम्हे देवाणुप्पिआणं आणत्तिकिंकरा इति कटु तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! अम्हं इमं विणमी इत्थीरयणं; णमी रयणाणि समप्पेइ। तए णं से भरहे राया (नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ ता नमिविनमीणं है विज्जाहरराईणं सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता) पडिविसज्जेइ २ त्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता ॐ मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता भोअणमंडवे जाव नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठाहिअमहामहिमा। 55555554555555555555555555555555555555555555555558 कभ95555555555555555555555))))))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (212) Jambudveep Prajnapti Sutra 如听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因%%%% %% % %%% %% %%% %% %% %%% %% % %% %% %% %% %% क. तए णं से दिव्वे चक्करयणे आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसिं गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए आवि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्यया जाव नवरं कुंभट्ठसहस्सं रयणचित्तं जणाणामणि-कणग-रयण-भत्तिचित्ताणि अ दुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति। ८०. राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर जाते हुए देखा। वह ॐ वैताठ्य पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटी में आया। वहाँ बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा श्रेष्ठ नगर सदृश सैन्य-शिविर स्थापित किया। वहाँ वह पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। श्री ऋषभ स्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को साधने हेतु तेले की ॐ तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में नमि-विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित । रहा। राजा की तेले की तपस्या जब परिपूर्ण होने को आई, तब नमि-विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मतिज्ञान द्वारा इसका भान हुआ। वे एक-दूसरे के पास आये, परस्पर मिले और कहने लगेम जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। ॐ इसलिए हम भी राजा भरत को अपनी ओर से उपहार भेंट करें। यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने # अपनी दिव्य मति से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत.को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया। स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा का शरीर दैहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से परिपूर्ण, श्रेष्ठ फ़ तथा सर्वांग सुन्दर था। वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी। उसका यौवन अविनाशी था। उसके शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे। वह बल वृद्धिकारिणी थी-ग्रीष्म ऋतु में वह शीत-स्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्ण-स्पर्शा थी। म (गाथा) वह तीन स्थानों में-(१) कटि भाग में, (२) उदर में, तथा (३) शरीर में कृश थी। तीन स्थानों में-(१) नेत्र के प्रान्त भाग में, (२) अधरोष्ठ में, तथा (३) योनि भाग में ताम्र-लाल थी। ॐ वह त्रिवलियुक्त थी-देह के मध्य उदर स्थित तीन रेखाओं से युक्त थी। वह तीन स्थानों में-(१) स्तन, (२) जघन, तथा (३) योनि भाग में उन्नत थी। तीन स्थानों में-(१) नाभि में, (२) अन्तःशक्ति में, तथा (३) स्वर में गम्भीर थी। वह तीन स्थानों में-(१) रोमराजि में, (२) स्तनों के चूचकों में, तथा (३) नेत्रों फ की कनीनिकायों में कृष्ण वर्णयुक्त थी। तीन स्थानों में-(१) दाँतों में, (२) स्मित में-मुस्कान में, तथा + (३) नेत्रों में वह श्वेतता लिए थी। तीन स्थानों में-(१) केशों की वेणी में, (२) भुजलता में, तथा (३) लोचनों में लम्बाई लिए थी। तीन स्थानों में-(१) श्रोणिचक्र में, (२) जघन-स्थली में, तथा 9 (३) नितम्ब बिम्बों में विस्तीर्ण-चौड़ाईयुक्त थी॥१॥ वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी। भरत क्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान-श्रेष्ठ थी। उसके ॐ स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत-सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को आल्हादित करने वाले थे, आकृष्ट करने वाले थे। वह मानो शृंगार-रस का आगार-गृह थी यावत् लोक-व्यवहार में वह "कुशल-प्रवीण थी। वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी। वह कल्याणकारीॐ सुखप्रद यौवन में विद्यमान थी। विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये। उत्कृष्ट त्वरित, तीव्र विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। वहाँ | तृतीय वक्षस्कार (213) Third Chapter 55555545545545455555455555545455555555555円 %%%%% 卐55555555555555555555555555555555555555555555558 %% %%%%%% % %%%% %% %%% Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 5 आंकर वे आकाश में अवस्थित हुए। उन्होंने हाथ जोड़े, जय-विजय शब्दों द्वारा राजा भरत को 5 वर्धापित किया और कहा 卐 卐 देवानुप्रिय ! आपने सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को जीत लिया है। हम आपके देशवासी, आपके प्रजाजन हैं, हम आपके आज्ञानुवर्ती सेवक हैं। ऐसा कहकर विनमि ने स्त्रीरत्न तथा नमि ने रत्न, आभरण भेंट किये। ब राजा भरत ने ये उपहार स्वीकार किये। (नमि एवं विनमि का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर) वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर स्नानघर में गया। स्नान आदि सम्पन्न कर भोजन - मण्डप में गया, तेले का पारणा किया। फ्र 80. King Bharat saw that divine Chakra Ratna moving towards Vaitadhya mountain in the south. He came at the foot of Vaitadhya mountain in the north. There he established a city like camp for his army in an area of twelve yojan by nine yojan. He entered the Paushadhashala. 卐 He observed austerities for three days in order to overpower Nami and Vinami, the Vidyadhar rulers who were the sons of Kachchh and Mahakachchh, the chief advisors of Shri Rishabh Swami. He concentrating his thoughts on Nami and Vinami, the Vidyadhar kings, stabilised himself (in austerities). When the austerities of three days concluded, Nami and Vinami the Vidyadhar kings came to know through their divine sensual knowledge about it. They then joined together and said 卐 "Bharat, the Chakravarti king of the four directions, has taken birth in Bharat area of Jambu dveep (continent). It has been the age-old tradition, in the past, at present and also in future of Vidyadhar kings that they make an offering to such a king. So we should also offer a gift to the king. With this contemplation, inspired by their divine sensual knowledge they took with them the female (Stri) Ratna, Subhadra. Subhadra was extremely beautiful. Her physical body was complete and well proportioned in respect of size, weight and height. It was excellent and all the parts of the body were beautiful. She had a unique personality and grandeur. Her youth was permanent. The hair on her (214) Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 विद्याधरराज नमि तथा विनमि को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित किया। फ्र फ़फ़ अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने के पश्चात् दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। उसने 卐 उत्तर-पूर्व दिशा में - ईशानकोण में गंगादेवी के भवन की ओर प्रयाण किया । यहाँ पर वह सब वक्तव्यता 5 जो सिन्धुदेवी के प्रसंग में वर्णित है वही कहे। विशेषता केवल यह है कि गंगादेवी ने राजा भरत को भेंट रूप में विविध रत्नों से युक्त एक हजार आठ कलश, स्वर्ण एवं विविध प्रकार की मणियों से चित्रित - दो सोने के सिंहासन विशेष रूप से उपहार दिये। फिर राजा ने अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करवाया। @$$$55555555955555559595959595959595959555555555555@ फ्र फ्र 卐 फ्र फ्र 卐 卐 卐 फ्र फ्र 卐 फ्र Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-विनमि विद्याधर द्वारा चक्रवर्ती को स्त्री रत्न भेंट देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि an * नमि-विनमि विद्याधर सुभद्रा नामक स्त्री रत्न को लेकर आते हैं। * AF चक्रवती भरत का सुभद्रा के साथ विवाह। 11 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95959 155555555555555555555555555555555555 चित्र परिचय ११ नमि - विनमि विद्याधरों द्वारा स्त्री - रत्न भेंट ऋषभकूट पर्वत पर अपना नामांकन करने के पश्चात् राजा भरत चक्ररत्न के - रत्न चलते हुए दक्षिण वैताढ्य पर्वत की तलहटी में आये। वहाँ नमि-विनमि विद्याधरों को साधने हेतु तेले की तपस्या कर ध्यान में स्थिर हो गये । नमि - विनमि विद्याधरों ने अपने दिव्य ज्ञान से राजा भरत को देखा और परस्पर विचार कर चक्रवर्ती राजा को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्री-र लेकर (परम सुन्दरी सुभद्रा का रूप देवांगनाओं के सौन्दर्य को भी फीका करने वाला था ) आकाश मार्ग से वैताढ्य पर्वत की तलहटी में स्थित भरत चक्रवर्ती के पास पहुँचे और हवा अवस्थित हुये, 'चक्रवर्ती की जय विजय हो' उद्घोष कर कहा - "हे चक्रवर्ती ! हम आपको अपना राजा स्वीकार करते हैं। आप कृपया हमारे लाये हुए उपहार स्वीकार करें।" ऐसा विनमि ने स्त्री-रत्न और नमि ने रत्न आभरण भेंट किये। चक्रवर्ती भरत ने उपहार स्वीकार कर कहकर सुभद्रा से विवाह रचाया और नमि-विनमि का सत्कार सम्मान कर विदा किया। पीछे-पीछे GIFT OF STREE-RATNA BY VIDYADHARS NAMI-VINAMI After inscribing his name on Rishabh-koot mountain King Bharat followed the Chakra-ratna and arrived in the valley of southern Vaitadhya mountain. There he commenced a three day fast and sat still in meditation. With their divine power Vidyadhars called Nami-Vinami saw king Bharat. After mutual consultation they took along Subhadra, the Stree-ratna (a gem among women who overshined the beauty of divine damsels), a flew to Bharat Chakravarti in the valley of Vaitadhya mountain. There they hovered in the sky and after greeting the emperor with hails 5 of victory said "O Emperor! We accept you as our sovereign. Please accept the 5 gift we have brought for you." With these words Nami-Vinami offered the Streeratna and ornaments to the emperor. Bharat accepted the gifts and married Subhadra. He then bid Nami-Vinami farewell with due honor. - - वक्षस्कार ३, सूत्र ६९ $ 95 96 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95959 Vakshaskar-3, Sutra-69 555555555555556 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4545455 456 457 454 455 456 457 4554 455 456 457 455 456 457 458 454 455 456 457 41 41 41 414 415 416 41 455 456 45 455 456 457 454 151 body and her nails did not grow beyond limit. Her very touch was 5. capable of ending all diseases. She was capable of increasing the physical energy. In summer her touch was cool and in winter it was warm. She was slim at three places namely—(1) the waist, (2) the abdomen, i and (3) overall physical body. (1) The corner of her eyes, (2) lower lip, and $ (3) vagina were red. There were three lines on her abdomen in the centre of her body. She was developed at three places—(1) the breasts, (2) the thighs, and (3) the pubis. She depth at three points-(1) the navel, (2) the inner strength, and (3) the voice. She was black at three points(1) the hair on body, (2) the nipples of her breasts, and (3) the pupils of her eyes. She had whiteness at three places—(1) the teeth, (2) the smile, and (3) the eyes. She had requisite length in-(1) lock of hair, (2) the arms, and (3) the length of her eyes. She was broad at three places namely-(1) Shroni-Chakra (lower back), (2) the thigh area, and (3) the buttocks. She had equally proportioned figure. She was unique among all the women of Bharat area. Her breasts, thighs, hands, feet, eyes, hair and teeth were all very beautiful. They were attractive to any one who looked at her. It appeared that she was a treasure of beauty up to that she was expert in worldly dealings. In beauty she was comparable to divine goddesses (the fairies). She was in a state of enjoyable youth. Nami, the Vidyadhar king took jewels, Katak and trutit in order to offer them to king Bharat. Then both, Nami and Vinami came to king Bharat at an extremely quick speed—the speed of Vidyadhars—and stationed themselves in space. They folded their hands and greeted him with pleasant words praying for his success and said 4 "Blessed Sir ! You have conquered the entire Bharat area. We are your subjects. We are your obedient servants. With these words Vinami offered Stri Ratna and Nami offered jewels and ornaments. King Bharat accepted the said gift. He honoured Nami and Vinami and thereafter allowed them to go. Thereafter, king Bharat came out of Paushadhashala and entered the bathroom. After taking bath, he went to the dining hall and broke his three day fast. Celebrations for eigl s were arranged to commemorate the victory over the Vidyadhars1. Nami and Vinami. After the conclusion of eight day celebrations, the divine Chakra Ratna moved out of ordnance store and started towards the abode of Ganga Devi the north-east direction. Here all the detailed description should be 455 456 457 454545454545454545454 455 456 455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 457 454 455 454 455 456 457 4554 5 458 4 95554659 $$45 455 456 457 Hद्वतीय वक्षस्कार ( 215 ) Third Chapter 555555555545454545455155555454545145 45 45 15 15 に K CLE Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ्र understood as earlier mentioned in case of Sindhu Devi. The only difference is that Ganga Devi offered 1,008 pots full of jewels of various 卐 types, two thrones of gold studded with various types of precious stones in gold to king Bharat. Then king Bharat arranged for eight-day celebrations. खण्डप्रपात - विजय के नट्टमालक देव द्वारा प्रीतिदान OFFERING BY NATTMALAK DEV OF KHAND-PRAPAT VIJAY 卐 तए णं से भरहे राया जाव जेणेव खंडप्पवायगुहा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सव्वा 5 कयमालवत्तव्वया णेअव्वा णवरं णट्टमालगे देव पीतिदाणं से आलंकारिअभंड कडगाणि अ सेसं सव्वं तहेव जाव अट्ठाहिआ महामहिमा । 卐 ८१. [ १ ] तए णं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए फ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जाव गंगाए महाणईए पच्चत्थिमिल्लेणं कूलेणं 卐 5 दाहिणदिसिं खंडप्पवायगुहाभिमुहे पयाए यावि होत्था । 卐 卐 5 卐 卐 तणं से भर राया णट्टमालस्स देवस्स अट्ठाहिआए म णिव्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ, 5 सद्दावित्ता जाव सिंधुगमो णेअव्वो । जाव गंगाए महाणईए पुरत्थिमिल्लं णिक्खुडं सगंगासागर - गिरिमेरागं सम-विसम-णिक्खुडाणि अ आओवेइ आओवित्ता अग्गाणि वराणि रयणाणि पडिच्छइ पडिच्छित्ता जेणेव फ्र फ्र गंगामहाणई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता दोच्चंपि सक्खंधावारबले गंगामहाणई विमलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणेणं उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला 5 तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ २ त्ता अग्गाई वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयलपरिग्गहिअं जाव अंजलिं कट्टु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ २ त्ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेइ । तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छइ पडिच्छित्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ । तए णं से सुसेणं सेणावई भरहस्स रण्णो सेसंपि तहेव जाव विहरइ । 卐 ८१. [१] गंगादेवी को साध लेने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर उसने गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण किया । नृत्तमालक देव को विजय करने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया । यहाँ पर सिन्धुदेवी से सम्बद्ध प्रसंग जान लेना चाहिए। (216) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 5 卐 तब राजा भरत जहाँ खण्डप्रपात गुफा थी, वहाँ आया । यहाँ तमिस्रा गुफा के अधिपति कृतमाल देव से सम्बद्ध समग्र वर्णन के अनुसार यहाँ समझना चाहिए। केवल इतना - सा अन्तर है, खण्डप्रपात गुफा 5 के अधिपति नृत्तमालक देव ने प्रीतिदान के रूप में राजा भरत को आभूषणों से भरा हुआ पात्र, 5 कटक - हाथों के कड़े विशेष रूप में भेंट किये। फ़फ़ 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 5 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555 卐 सेनापति सुषेण ने गंगा महानदी के पूर्व भागवर्ती कोण-प्रदेश को, जो पश्चिम में महानदी से, पूर्व में समुद्र से, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत से एवं उत्तर में लघु हिमवान् पर्वत से मर्यादित था, तथा सम-विषम अवान्तर ॐ क्षेत्रीय कोणवर्ती भागों को साधा। श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट में प्राप्त किये। वैसा कर सेनापति सुषेण जहाँ गंगा ॐ महानदी थी, वहाँ आया। वहाँ आकर उसने निर्मल जल की ऊँची उछलती लहरों से युक्त गंगा महानदी को नौका के रूप में परिणत चर्मरत्न द्वारा सेना सहित पार किया। पार कर जहाँ राजा भरत की सेना का पड़ाव ॐ था, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। आकर आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। नीचे उतरकर 卐 उसने उत्तम, श्रेष्ठ रल लिये, जहाँ राजा भरत था, वह वहाँ आया। वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़े, अंजलि बाँये राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर उत्तम, श्रेष्ठ रत्न, जो भेंट में प्राप्त हुए थे, राजा को समर्पित किये। राजा भरत ने सेनापति सुषेण द्वारा समर्पित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार म किये। रत्न स्वीकार कर सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। उसे सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। आगे का प्रसंग पहले आये वर्णन की ज्यों समझना चाहिए। 81. [1] After the eight day celebrations to commemorate the victory over Ganga Devi, the divine Chakra Ratna came out of ordnance store and moved towards Khand-prapat cave in the south on the bank of Ganga river. Then king Bharat came to the place where Khand-prapat cave was located. Here the entire description may be understood as already mentioned in respect of Kritamaal Dev, the master of Tamisra cave. The only difference is that Nritamalak Dev, the master of Khand-prapat cave offered a pot full of ornaments and bangles as special gift. After the conclusion of eight day festival in celebration of the victory over Nritamalak Dev, king Bharat called Sushen, the army chief. Here the description should be understood as already mentioned in case of Sindhu Devi. Sushen, the army chief conquered the areas in the eastern 45 corner of Ganga river which was surrounded by the great river in the west, the sea in the east, by Vaitadhya mountain in the south and by small Himavan mountain in the north. He also conquered the levelled and unlevelled area falling in between and got high class jewels as gifts. Thereafter Sushen, the army chief came to river Ganga. Thereafter, he crossed the Ganga river full of jumping waves of clean water alongwith his armed forces with the help of Charma Ratna transformed into the shape of a large boat. He then came to the place where the army camp of 15 king Bharat was located. He then came to the assembly hall. He then got down from the coronated elephant. He took the high class jewels and came to king Bharat. He thereafter with folded hands greeted king Bharat saying, 'May you always he successful.' Thereafter, he offered to the king the high class jewels which he had received as gifts. King तृतीय वक्षस्कार (217) Third Chapter B55555555555555555555554155555555555555555555558 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐55555555555555555555))))))))))))))))))))))))) Bharat accepted the jewels so offered, honoured Sushen, the army chief $i and then allowed him to go. Further description is similar to the one already mentioned earlier. + भरत का प्रत्यागमन RETURN OF KING BHARAT ८१. [ २ ] तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ २ ता एवं वयासीफ़ गच्छ णं भो देवाणुप्पिआ ! खंडप्पवायगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि विहाडित्ता जहा तिमिसगुहाए तहा भाणिअव् जाव पिअं भे भवउ, सेसं तहेव जाव भरहो उत्तरिल्लेणं दुवारेणं अईइ, * ससिव्व मेहंधयारनिवहं तहेव पविसंतो मंडलाइं आलिहइ। ___ तीसे णं खंडप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए (एत्थ णं) उम्मग्ग-णिमग्ग-जलाओ णाम दुवे महाणईओ ॐ तहेव णवरं पच्चत्थिमिल्लाओ कडगाओ पवूढाओ समाणीओ पुरथिमेणं गंगं महाणइं समप्पेंति, सेसं तहेव कणवरि पच्चत्थिमिल्लेणं कूलेणं गंगाए संकमवत्तव्यया तहेवत्ति। ॐ तए णं खंडगप्पवायगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया कोंचारवं करेमाणा २ सरसरस्सागाइं ठाणाई पच्चोसक्कित्था। तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसियमग्गे जाव ॐ खंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णीणेइ ससिब मेहंधयारनिवहाओ। ८१. [२] तत्पश्चात् एक समय राजा भरत ने सेनापतिरत्न सुषेण को बुलाया। बुलाकर ॐ कहा-देवानुप्रिय ! जाओ, खण्डप्रपात गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट उद्घाटित करो। आगे का वर्णन + तमिस्रा गुफा की ज्यों समझना चाहिए। फिर राजा भरत उत्तरी द्वार से गया। सघन अन्धकार को चीरकर जैसे चन्द्रमा आगे बढ़ता है, उसी तरह खण्डप्रपात गुफा में प्रविष्ट हुआ, मण्डलों का आलेखन किया। क खण्डप्रपात गुफा के ठीक बीच के भाग से उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो बड़ी नदियाँ निकलती हैं। केवल इतना अन्तर है, ये नदियाँ खण्डप्रपात गुफा के पश्चिमी भाग से निकलकर आगे फ बढ़ती हुई पूर्वी भाग में गंगा महानदी में मिल जाती हैं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् है। केवल इतना अन्तर 5 है, पुल गंगा के पश्चिमी किनारे पर बनाया। ॐ तत्पश्चात् खण्डप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट क्रौंच पक्षी की ज्यों जोर से आवाज करते हुए म सरसराहट के साथ स्वयमेव अपने स्थान से सरक गये, खुल गये। चक्ररत्न द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करता हुआ राजा भरत निविड अन्धकार को चीरकर आगे बढ़ते हुए चन्द्रमा की ज्यों म खण्डप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार से निकला। 81. [2] Thereafter, once king Bharat called Sushen, the army chief, and ordered, 'O the blessed ! Please go and open the doors of the northern gate of Khand-prapat cave. Further description may be understood similar to that of Tamisra cave. Thus, king Bharat went in through the northern gate. He entered the Khand-prapat cave in the same manner as the moon goes ahead through dense dark clouds. He drew the Mandals. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (218) Jambudveep Prajnapti Sutra 955555步步步步步步步步步步步步步步步步步牙先生牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 出 Two great rivers Unmagnajala and Nimagnajala start from the very central area of Khand-prapat cave. The only difference is that these rivers starting from the western part of Khand-prapat cave move ahead and ultimately join the Ganga river in the eastern zone. The remaining description is the same as earlier mentioned. The only difference is that he constructed the bridge, at the western end of Ganga river. 卐 फ्र Thereafter, the doors of southern entrance to Khand-prapat cave moved from their place of their own and opened making a sound like that of a cronch bird. Following the path outlined by Chakra Ratna, king Bharat crossing the dense darkness moved ahead like the moon and came out from the southern gate of Khand-prapat cave. फ्र 卐 नवनिधि उत्पत्ति APPEARANCE OF NINE DIVINE TREASURES 卐 फ्र ८२. [१] तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पच्चत्थिमिल्ले कूले दुवालसजोअणायामं फ णवजो अणविच्छिण्णं विजयक्खंधावारणिवेसं करेइ । अवसिद्धं तं चेव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ । तए णं से भरहे राया पोसहसालाए जाव णिहिरयणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइत्ति, तस्स य अपरिमिअरत्तरयणा धुअमक्खयमव्वया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुअजसा, 5 तं जहा 卐 ८२. [ १ ] तत्पश्चात् गुफा से निकलने के बाद राजा भरत ने गंगा महानदी के पश्चिमी तट पर बारह 5 योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर -सदृश सैन्यशिविर स्थापित किया। आगे का वर्णन मागध देव को साधने के सन्दर्भ में आये वर्णन जैसा है। फिर राजा ने नौ निधिरत्नों को उत्कृष्ट निधियों को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या स्वीकार की। तेले की तपस्या में संलग्न राजा भरत नौ निधियों का मन में चिन्तन करता हुआ पौधशाला में अवस्थित रहा। नौ निधियाँ अपने अधिष्ठायक देवों के साथ वहाँ राजा भरत के समक्ष उपस्थित हुईं। वे निधियाँ अपरिमित - अनगिनत लाल, नीले, पीले, हरे, सफेद आदि अनेक वर्णों के रत्नों से युक्त थीं, ध्रुव, अक्षय तथा अव्यय - अविनाशी थीं, लोकविश्रुत थीं । वे इस प्रकार थीं 卐 फ्र तृतीय वक्षस्कार 卐 82. [1] After coming out of the cave, king Bharat, set up the army camp in an area of twelve yojan by nine yojan on the western bank of சு Ganga river. The camp looked like a large town. Further description may be understood as similar to that relating to the conquest over Magadh Dev. Then king Bharat accepted three days austerities with the specific purpose of gaining nine uinque treasures. He remained in the Paushadhashala concentrating his mind on nine treasures (nidhis). Then the nine treasures appeared before him alongwith their mastersthe controlling deities. Those treasures were full of jewels of different 5 colours namely red, blue, yellow, green, white and the like in 5 innumerable number. They were permanent, undestroyable, undiminishable. They were well known in the world. (219) 5 ****கமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிழி फ्र 5 Third Chapter 卐 फ फ्र 卐 卐 卐 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கத்தழ்***************************ழிமிழி फफफफफफफफफफफ 卐 ८२. [२] सप्पे १, पंडुअए २, पिंगलए ३, सव्वरयणे ४, महपउमे५ । काले ६, अ महाकाले ७, माणवगे महानिही ८ संखे ९ ॥१ ॥ णिवेसा, च। गामागरणगरपट्टणाणं खंधावारावणगिहाणं ॥ २ ॥ ( २ ) गणिअस्स य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धण्णस्स य बीआण, य उप्पत्ती पंडुए भणिआ ॥ ३ ॥ (३) सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं । आसाण य हत्थीण य, पिंगलणिहिंमि सा भणिआ ॥४ ॥ (४) रयणाइं सव्वरयणे, चउदस वि वराइं चक्कवट्टिस्स । उप्पज्जते एगंदिआई पंचिंदिआई च ॥५॥ सव्वभत्तीणं । (१) णेसप्पंमि दो मुहमबाण (५) वत्थाण य उप्पत्ती, णिष्फत्ती चैव रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥ ६ ॥ (६) काले कालण्णाणं, सव्वपुराणं च तिसु वि वंसेसु । सिप्पसयं कम्माणि अ तिण्णि पयाए हिअकराणि ॥७॥ (७) लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकालि आगराणं च । रुष्पस्स सुवण्णस्स य, मणिमुत्तसिलप्पवालाणं ॥८ ॥ (८) जोहाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धणीई, माणवगे दंडणीई अ॥ ९ ॥ सव्वेसिं ॥ १० ॥ ( ९ ) णट्टविही णाडगविही, कव्वस्स य चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महाणिहिंमी, तुडिअंगाणं च चक्कट्ठपट्ठाणा, अट्ठस्सेहा य णव बारसदीहा मंजू - संठिया य विक्खंभा । हवी मुहे ॥११॥ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वेरुलिअमणि -कवाडा, कणगमया विविहरयण- पडिपुण्णा । ससि - सूर - चक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्ती या ॥१२॥ पलि ओवमट्टिईआ, णिहिसरिणामा य तत्थ खलु देवा । जेसिं ते आवासा, अक्किज्जा आहिवच्चा य ॥१३॥ एए णवणिहिरयणा, पभूयधण - रयण-संचयसमिद्धा । जे वसमुपगच्छंति, भारहाविव चक्कवट्टीणं ॥ १४ ॥ (220) Jambudveep Prajnapti Sutra - 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555955 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 卐 卐 卐 ததிமிததமி****************************5* 卐 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. पाण्डुक निधि 1. नैसर्प निधि TRILOR 15. महापस निधि 7. महाकाल निधि REET चक्रवर्ती की नौ निधियाँ महानिधान मंजूषा भा 8. माणवक निधि 3. पिंगलक निधि वाड) 4):) ) GIRIS 6. काल महानिधि १. शंख निधि 4. सर्वरत्न निधि 122 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555! 5 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 95 95 956 चित्र परिचय १२ प्रत्येक चक्रवर्ती के शासन में उसके असीम पुण्योदय प्रभाव से ये नौ निधियाँ (अक्षय निधान) प्रकट होती हैं। चित्र के मध्यम में मंजूषा दिखाई है। प्रत्येक महानिधि मंजूषा आकार में होती है। यह मंजूषा आठ-आठ चक्रों वाली, आठ योजन ऊँची, नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी होती है। निधियों के नाम व गुण इस प्रकार हैं (1) नैसर्प निधि - राजमहल आदि का निर्माण । (2) पांडुक निधि - एक प्रकार का कृषि विज्ञान । (3) पिंगलक निधि - रत्न व आभूषण आदि से सम्बन्धित । (4) सर्वरत्न निधि - अश्व, गज, चक्र व दण्ड आदि चौदह रत्नों की उत्पत्ति का हेतु । (5) महापद्म निधि - परिधान आदि की निधि । (6) काल निधि बर्तन व व्यापार की वस्तुएँ देने वाली। (7) महाकाल निधि-सोना, चाँदी, मणि, रत्न- प्रदायी। (8) माणवक निधि-तलवार आदि अस्त्र-शस्त्र दायी । (9) शंख निधि-नृत्य-संगीत आदि कला ज्ञान । NINE TREASURES OF CHAKRAVARTI Nine Mahanidhis (great treasures) appear during the reign of every Chakravarti due to fruition of his unlimited meritorious karmas. (1) Naisarpa nidhi At the center of the illustration is a manjusha (box). Each of these nidhis appears in the form of a box eight Yojans high, nine Yojans wide and twelve Yojans long resting on eight wheels. The names and attributes of these nidhis are -- (2) Panduk Nidhi (3) Pingal nidhi चक्रवर्ती की नौ निधियाँ (4) Sarvaratna nidhi: (6) Kaal nidhi (5) Mahapadma nidhi : : : : (7) Mahakaal nidhi (8) Manavak nidhi : (9) Shankh nidhi : : - वक्षस्कार ३, सूत्र ८२ source of capability of construction of palaces and other struc tures. source of capability of farming or agriculture. source of ornaments. source of all types of gems including the fourteen gems of a Chakravarti, viz. horse, elephant, wheel and staff. source of all kinds of clothes and apparels. source of everything for trading including utensils. source of gold, silver, beads and gems. source of weapons including sword. source of knowledge of and proficiency in arts including dance and music. -Vakshaskar-3, Sutra-82 फ 4 95 96 95 95 95 95 95 95 9559595 5666666666666666666666666666666666666 卐 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 五听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFE 斯特劳斯牙牙牙牙牙 PAUL 555555555555555555558 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步统等等, ८२. [२] (१) नैसर्प निधि, (२) पाण्डुक निधि, (३) पिंगलक निधि, (४) सर्वरत्न निधि, (५) महापद्म निधि, (६) काल निधि, (७) महाकाल निधि, (८) माणवक निधि, तथा (९) शंख निधि। वे निधियाँ अपने-अपने नाम के देवों से अधिष्ठित थीं। (१) नैसर्प निधि-ग्राम, आकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मडम्ब, स्कन्धावार, आपण तथा भवन-इनके स्थापन-समुत्पादन में नैसर्प महानिधि का उपयोग होता है। (२) पाण्डक निधि-दीनार, नारिकेल आदि गिने जाने योग्य; धान्य आदि मापे जाने वाले; चीनी, गुड़ आदि तोले जाने वाले, कलम जाति के उत्तम चावल आदि धान्यों के बीजों को उत्पन्न करने में समर्थ होती है। (३) पिंगलक निधि-पुरुषों, नारियों, घोड़ों तथा हाथियों के आभूषणों को उत्पन्न करने की विशेषता लिए होती है। (४) सर्वरत्न निधि-चक्रवर्ती के चौदह उत्तम रत्नों को उत्पन्न करती है। उनमें-(१) चक्ररत्न, + (२) दण्डरल, (३) असिरत्न, (४) छत्ररत्न, (५) चर्मरत्न, (६) मणिरत्न, तथा (७) काकणीरत्न ये सात एकेन्द्रिय होते हैं। (१) सेनापतिरत्न, (२) गाथापतिरत्न, (३) वर्धकिरल, (४) पुरोहितरत्न, 9 (५) अश्वरत्न, (६) हस्तिरत्न, तथा (७) स्त्रीरत्न-ये सात पंचेन्द्रिय होते हैं। (५) महापद्म निधि-सभी प्रकार के वस्त्रों को उत्पन्न करती है। वस्त्रों के रँगने, धोने आदि समग्र सज्जा के निष्पादन की वह विशेषता लिए होती है। (६) काल निधि-समस्त ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान, तीर्थंकर-वंश, चक्रवर्ती-वंश तथा बलदेववासुदेव-वंश-इन तीनों में जो शुभ-अशुभ घटित हुआ, घटित होगा, घटित हो रहा है, उन सबके 5 ज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों के ज्ञान, उत्तम, मध्यम तथा अधम कर्मों के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति लिए होती है। (७) महाकाल निधि-विविध प्रकार के लोह, रजत, स्वर्ण, मणि, मोती, स्फटिक तथा प्रवाल-मूंगे __ आदि के आकरों-खानों को उत्पन्न करने की विशेषतायुक्त होती है। (८) माणवक निधि-योद्धाओं, आवरणों-शरीर को आवृत करने वाले, सुरक्षित रखने वाले कवच ॐ आदि के प्रहरणों-शस्त्रों के, सब प्रकार की युद्ध-नीति के-चक्रव्यूह, शकटव्यूह, गरुड़व्यूह आदि की 5 रचना से सम्बद्ध विधिक्रम के तथा साम, दाम, दण्ड एवं भेदमूलक राजनीति के उद्भव की विशेषता लिए होती है। (९) शंख निधि-सब प्रकार की नृत्य-विधि, नाटक-विधि-अभिनय, अंग-संचालन, मुद्रा-प्रदर्शन ॐ आदि की, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक काव्यों की अथवा संस्कृत, अपभ्रंश एवं संकीर्ण-मिली-जुली भाषाओं में निबद्ध काव्यों की अथवा गेय-गाये जा सकने योग्य, गीतिबद्ध, चौर्ण-निपात एवं अव्यय बहुल रचनायुक्त काव्यों की उत्पत्ति की विशेषता लिए होती है, सब प्रकार के वाद्यों को उत्पन्न करने की विशेषता इसमें होती है। 乐乐55555555555 55 $555 तृतीय वक्षस्कार (221) Third Chapter 35555555555555555555555555555558 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 口5555555555555555555555555555555555559 उनमें से प्रत्येक निधि आठ-आठ चक्रों-पहियों के ऊपर स्थित होती है, जहाँ-जहाँ ये ले जाई - ॐ जाती हैं, वहाँ-वहाँ ये आठ चक्रों पर प्रतिष्ठित होकर जाती हैं। उनकी ऊँचाई आठ-आठ योजन की, के चौड़ाई नौ-नौ योजन की तथा लम्बाई बारह-बारह योजन की होती है। उनका आकार मंजूषा-पेटी ॐ जैसा होता है। गंगा जहाँ समुद्र में मिलती है, वहाँ उनका निवास है। उनके कपाट वैडूर्य मणिमय होते हैं। + वे स्वर्ण-घटित होती हैं। विविध प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण होती हैं। उन पर चन्द्र, सूर्य तथा चक्र के 5 E आकार के चिह्न होते हैं। उनके द्वारों की रचना अपनी रचना के अनुरूप संगत, समचौरस होती हैं। ॐ निधियों के नामों के सदृश नामयुक्त देवों की स्थिति एक पल्योपम की होती है। उन देवों का आवास है वहीं पर होता है। वे आवास न खरीदे जा सकने योग्य होते हैं-मूल्य देकर उन्हें कोई खरीद नहीं * सकता, उन पर आधिपत्य प्राप्त नहीं कर सकता। प्रचुर धन-रत्न-संचययुक्त ये नौ निधियाँ भरत क्षेत्र के छहों खण्डों को विजय करने वाले चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती हैं। _____82. [2] (1) Naisarp Nidhi, (2) Panduk Nidhi, (3) Pingalak Nidhi, atna Nidhi, (5) Mahapadma Nidhi, (6) Kaal Nidhi, (7) Mahakaal Nidhi, (8) Maanavak Nidhi, and (9) Shankh Nidhi. Those nidhis were guarded by the celestial beings of their respective names. (1) Naisarp Nidhi-This nidhi is used in establishing a village, mansion, town, port, seaport, madamb, skandhavar, market and great abodes. (2) Panduk Nidhi-This nidhi is capable of providing countable things like dinar, naarikel; measurable things like foodgrains, weighable things like sugar and grains like the best kalam type of paddy. (3) Pingalak Nidhi-This nidhi had the special characteristic of producing ornaments for men, women, horses, elephants and the like. (4) Sarvaratna Nidhi-This nidhi produces fourteen unique ratnas 卐 (jewels) for the Chakravarti. The one-sensed ratnas are-(i) The wheel (Chakra Ratna), (ii) The divine stick, (iii) The divine sword (Asi Ratna), (iv) The divine umbrella, (v) Charma Ratna, (vi) Mani Ratna, and (vii) Kakani Ratna-All these seven are one-sensed beings. The remaining seven are five-sensed living beings. They are— (i) The army 41 chief, (ii) The divine noble man (gathapati), (iii) The divine architect cum-builder (Vardhaki Ratna), (iv) The divine advisor (Purohit Ratna), (v) The divine horse, (vi) The divine elephant, and (vii) The divine woman (Stri Ratna). (5) Mahapadma Nidhi-It produce all types of clothes. It has the speciality of dyeing, washing and the like. 5555555555555555555555555555555555555555555555555 जध卐555555555555555555555555555555555555555555555 | जम्बदीप प्रजनि सत्र (222) JambudveeDP Jambudveep Prajnapti Sutra , Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4545454 另$$$ 455 456 4 451 455 456 455 456 457 455454545454545454545454 455 456 454 455 456 457 454 455 456 457 454 455 41 42 1954 445 446 447 44444444444444444444456 457 455 456 4542 (6) Kaal Nidhi-It has the power of producing knowledge of all the treatise relating to astrology-the geneological chart of Tirthankars, Baldev, Vasudev-all the happenings good or bad that happened in their past lives, that is happening at present and that shall happen in their life in future. It is also capable of imparting knowledge of industries of hundred types, and the fruit of superb, medium and mean type actions (Karmas). (7) Mahakaal Nidhi-It has the capability of locating various types of 5 iron, silver, gold, precious stone, pearl, sphatik, pravaal mines, and the like. (8) Maanavak Nidhi–It has the expertise of all the political strategy, planning and the like relating to the protection of warriors from attack, the use of armour, all planning relating to battle such as forming Chakra-vyuh. Shakat-vyuh, garud-vyuh and the like and also the strategy of creating friction in the ranks of the enemy through military strength or through money or by awarding punishment. (9) Shankh Nidhi-It has the capability of writing dramas exhibiting the effect of religious, financial, sexual and spiritual fervour, the detailed procedure relating to dancing, acting, movement of parts of the body, 4 presenting special postures of the body; of producing poetic literature in Sanskrit, Apa-bhransh and in mixed language. It has also the capability of producing such epics which can be sung, harmoniously enacted and the like. It has in addition the capability of producing all types of music. Every above said treasure (nidhi) is on eight wheels. Wherever it is carried, it is placed on eight wheels and only then moved. Their height is 4 eight yojan, breadth is nine yojan and length is twelve yojan. Their shape is like that of a box. They are at the junction of Ganga river with the ocean. Their doors are of precious Vaidurya stones. They are of gold. They are full of many types of jewels. They bear the symbols of the moon, the sun and wheel. Their gates are properely proportioned like their own form. The guarding angles bear the same name as that of the respective nidhi and the span of life of these angels is of one palyopam. The abode of these celestial beings is there itself. These abodes cannot be purchased. No body can get them on payment. No body can attain control over them. These six treasures (nidhis) are in the family of Chakravarti kings who conquer all the six parts of Bharat area. These treasures (nidhis) have wealth, jewels and the like in plenty. 454 455 456 95 45 454 455 456 457 455 456 454 455 456 457 41 तृतीय वक्षस्कार (223) Third Chapter 44 445 446 447 444 445 446 45 44 44 445 441 41 414 415 416 454 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听F FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF ८२. [३] तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, एवं मजणघरपवेसो जाव सेणि-पसेणिसद्दावणया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ। म तए णं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-गच्छ णं भो देवाणुप्पिआ ! गंगामहाणईए पुरथिमिल्लं णिक्खुडं दुच्चंपि सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवित्ता एअमाणत्तिअंपच्चप्पिणाहित्ति। तए णं से सुसेणं तं चेव पुव्ववण्णिअं भाणिअव्वं जाव ओअवित्ता तमाणत्तिअं पच्चप्पिणइ पडिविसज्जेइ ॐ जाव भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। ८२. [३] राजा भरत तेले की तपस्या के सम्पन्न हो जाने पर पौषधशाला से बाहर निकला, ॐ स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान आदि सम्पन्न कर उसने श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों को बुलाया, नौ निधि-रत्नों के को-नौ निधियों को साध लेने के उपलक्ष्य में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित कराया। ____ अष्ट दिवसीय महोत्सव के पश्चात् राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा-भरत क्षेत्र म के कोणस्थित दूसरे प्रदेश को, जो पश्चिम दिशा में गंगा से, पूर्व एवं दक्षिण दिशा में समुद्रों से और + उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत से मर्यादित हैं तथा वहाँ के अवान्तर क्षेत्रीय सम-विषम कोणस्थ प्रदेशों को - अधिकृत करो। अधिकृत कर मुझे अवगत कराओ। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों पर अधिकार किया। यहाँ का सारा वर्णन पूर्ववत् है। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों को अधिकृत कर राजा भरत को उससे अवगत कराया। राजा भरत ने उसे सत्कृत, सम्मानित 卐 कर विदा किया। वह अपने आवास पर आया, सुखोपभोगपूर्वक रहने लगा। 82. [3] After conclusion of three day fast, king Bharat came out of the Paushadhashala and entered the bathroom. After taking bath, he called the officials and got arranged eight day celebrations to commemorate the victory over nine treasures (nidhis). Thereafter, king Bharat called Sushen, the army chief and ordered him, “You conquer the other distant region. It is in the west limited by river Ganga, in the east and the south by the seas and in the north by Vaitadhya mountain. You conquer all the areas levelled or unlevelled falling in between. Thereafter, you inform me.” Sushen, the army chief conquered those regions. The entire 4 description should be understood here as mentioned earlier. After | conquering these areas, Sushen informed king Bharat. The king honoured him and then allowed him to go. He came to his residence and started living happely. ८२. [४] तए णं से दिव्वे चक्करयणे अन्नया कयाइ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिव्वतुडिअ-(सद्दसण्णिणादेणं) आपूरेते चेव विजयक्खंधावारणिवेसं । मझमज्झेणं णिगच्छइ दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं विणीअं रायहाणिं अभिमुहे पयाए यावि होत्था। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (224) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तए णं से भरहे राया जाव पासइ २ ता हद्वतुट्ठ जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं जाव (हत्थिरयणं पडिकप्पेह) पच्चप्पिणंति। ८२. [४] तत्पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर आकाश में अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्र योद्धाओं से घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि (एवं निनाद) से आकाश को व्याप्त करता था। वह चक्ररत्न सैन्य-शिविर के बीच से चला। उसने दक्षिण-पश्चिम दिशा में (नैऋत्य कोण में) विनीता राजधानी की ओर प्रयाण किया। राजा भरत ने चक्ररत्न को देखा। उसे देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो यावत् मेरे आदेशानुरूप यह सब सम्पादित कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उससे अवगत कराया। 82. [4] Thereafter one day, the divine Chakra Ratna came out of ordnance store and stationed itself in the space without any support. It was surrounded by one thousand soldiers. It was filling the sky with the sic of divine musical instruments. That Chakra Ratna went ahead through the army camp. It started moving towards Vinita, the capital city, in the south-west direction. King Bharat saw the Chakra Ratna and felt happy and satisfied to see it. He called his officials and ordered, “O the blessed ! Prepare the coronated elephant up to that you do everything as ordered by me and then report to me about the compliance." The officials acted accordingly and after doing the needful informed the king about it. विनीता को प्रत्यागमन RETURN TOWARDS VINITA ८३. [१] तए णं से भरहे राया अज्जिअरज्जो णिज्जिअसत्तू उप्पण्ण-समत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुआयमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहि केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेइ, ओअवेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं हयगयरह. तहेव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुबीए संपद्विआ, तं जहा-सोत्थिअ-सिरिवच्छ जाव दप्पणे। तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्वा य छत्तपडागा जाव संपट्ठिआ। तयणंतरं च वेरुलिअ-भिसंतविमलदंडं जाव संपढिअं, तयणंतरं च णं सत्त एगिंदिअरयणा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्थिआ, तं जहा-चक्करयणे १, छत्तरयणे २, चम्मरयणे ३, दंडरयणे ४, असिरयणे ५, मणिरयणे ६, कागणिरयणे ७, तयणंतरं च णं णव महाणिहीओ पुरओ अहाणुपुबीए संपढिआ, तं जहा-णेसप्पे पंडुयए जाव संखे। तृतीय वक्षस्कार (225) Third Chapter 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555555555555555558 555555555555555555555E ___ तयणंतरं च णं सोलस देवसहस्सा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपद्विआ, तयणंतरं च णं बत्तीसं । रायवरसहस्सा अहाणुपुब्बीए संपद्विआ। तयणंतरं च णं सेणावइरयणे पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टिए, एवं गाहावइरयणे, वद्धइरयणे, पुरोहिअरयणे। तयणंतरं च णं इत्थिरयणे पुरओ अहाणुपुबीए। तयणंतरं च णं बत्तीसं उउकल्लाणिआ ॐ सहस्सा पुरओ अहाणुपुब्बीए। तयणंतरं च णं बत्तीस जणवयकल्लाणिआ सहस्सा पुरओ अहाणुपुब्बीए.। तयणंतरं च णं बत्तीसं बत्तीसइबद्धा णाडगसहस्सा पुरओ अहाणुपुबीए., तयणंतरं च णं तिणि सट्ठा + सूअसया पुरओ अहाणुपुबीए., तयणंतरं च णं अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ पुरओ., तयणंतरं च णं चउरासीइं आससयसहस्सा पुरओ., तयणंतरं च णं चउरासीइं हत्थिसयसहस्सा पुरओ अहाणुपुबीए., ॐ तयणंतरं च णं छण्णउई मणुस्सकोडीओ पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्ठिआ, तयणंतरं च णं बहवे राई-सर तलवर जाव सत्थवाहप्पभिइओ पुरओ अहाणुबीइ संपढिआ। ___ तयणंतरं च णं बहवे असिग्गाहा लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा फलगग्गाहा परसुग्गाहा पोत्थयग्गाहा वीणग्गाहा कूअग्गाहा हडप्फग्गाहा दीविअग्गाहा सएहिं सएहिं रूवेहि, एवं वेसेहिं चिंधेहिं निओएहिं सएहिं २ वत्थेहिं पुरओ अहाणुपुबीए संपत्थिआ, तयणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिंहडिणो जडिणो पिच्छिणो हासकारगा खेडकारगा दवकारगा चाडुकारगा कंदप्पिा कुक्कुइआ महोरिआ , गायंता य दीवंता य नच्चंता य हसंता य रमंता य कीलंता य सासेंता य सावेंता य जावेंता य रावेंता य सो ता य सोभावेंता य आलोअंता य जयजयसई च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुबीए संपढिआ, एवं ॐ उववाइअगमेणं जाव। तस्स रण्णो पुरओ महआसा आसधरा; उभओ पासिं णागा णागधरा पिट्ठओ रहा रहसंगेल्ली 9 अहाणुपुबीए संपट्ठिआ इति। ८३. [१] राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अर्जित किया-अधिकृत किया। शत्रुओं को जीता। म उसके यहाँ समग्र रत्न उत्पन्न हुए। उनमें चक्ररत्न मुख्य था। राजा भरत को नौ निधियाँ प्राप्त हुई। उसका __ कोश-(खजाना) धन-वैभवपूर्ण था। बत्तीस हजार राजा उसके अनुगामी थे। उसने साठ हजार वर्षों में के समस्त भरत क्षेत्र को साध लिया। एक समय राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। म बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो। हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना सजाओ। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा करके राजा को सूचित कराया। क राजा स्नान आदि कृत्यों से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ़ हुआ। राजा के हस्तिरत्न पर आरूढ़ हो जाने पर स्वस्तिक, श्रीवत्स (नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश) दर्पण-ये आठ मंगल-प्रतीक राजा के आगे चले। उनके बाद जल से परिपूर्ण कलश, म झारियाँ, दिव्य छत्र, पताका, चँवर तथा राजा को दिखाई देने वाली, देखने में सुन्दर प्रतीत होने वाली, हवा से फहराती, ऊँची उठी हुई, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय वैजयन्ती-विजयध्वजा लिए राजपुरुष चले। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%ELL जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (226) Jambudveep Prajnapti Sutra 因%%% % %%%%%%%%%%%% %%% %%%% % %%%% %% Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती के 14 रत्न चक्र रत्नछत्र रत्न चर्म रल असि रल मणि रत्न काकिणी रत्न गृहपति रल सेनापति रत्न वर्धकी रन पुरोहित रत्न स्त्री रत्न अश्व रत्न गज रत्न . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चित्र परिचय १३ | चक्रवर्ती के चौदह रत्न प्रत्येक चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्न एवं सात पंचेन्द्रिय रत्न-इस प्रकार 14 रत्न होते हैं। सात एकेन्द्रिय रत्न-(1) चक्र रत्न, (2) छत्र रत्न, (3) चर्म रत्न, (4) दण्ड रत्न, (5) असि रत्न, (6) मणि रत्न, (7) काकिणी रत्न। सात पंचेन्द्रिय रत्न-(1) सेनापति रत्न, (2) गृहपति रत्न, (3) वर्धकी (बढ़इ) रत्न, (4) पुरोहित रत्न, (5) स्त्री रत्न, (6) अश्व रत्न, (7) गज रत्न। ये रत्न अपने समय के श्रेष्ठतम होते हैं। -वक्षस्कार ३, सूत्र ८३ Every Chakravarti (emperor) has seven ekendriya ratna (one-sensed gems) and seven panchendriya ratna (five-sensed gems). Seven ekendriya ratna -- (1) Chakra ratna (best disc weapon), (2) Chhatra ratna (best umbrella), (3) Charmaratna (best leather), (4) Dand ratna (best staff), (5) Asi ratna (best sword), (6) Mani ratna (best bead) and (7) Kakani ratna (a unique stone). Seven panchendriya ratna - (1) Senapati ratna (best commander), (2) Grihapati ratna (best household manager) (3) Vardhaki ratna (best engineer), (4) Purohit ratna (best priest), (5) Stree ratna (best woman), (6) Ashva ratna (best horse) and (7) Hasti ratna (best elephant) The best thing in its particular class in a particular period is called a ratna (gem). - Vakshaskar-3, Sutra-83 0555555555)))))))))))))))) ) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步。 85555555555555555555555555558 ___ तदनन्तर वैडूर्य-नीलम की प्रभा से देदीप्यमान उज्ज्वल दण्ड यावत् लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय-ऊँचा फैलाया हुआ निर्मल आतपत्र-धूप से बचाने वाला छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित; जिसमें उत्तम मणियाँ तथा रत्न जड़े थे, (जिस पर राजा की पादुकाओं की जोड़ी रखी थी) वह पादपीठ-राजा के पैर रखने का पीढ़ा, चौकी। जो (उक्त सभी वस्तुएँ ) किंकरों-आज्ञापालन में तत्पर सेवकों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भृत्यों तथा पदातियों से घिरे थे, क्रमशः आगे रवाना किये गये। अनेक आज्ञापालक सेवक व सैनिक चलने लगे। तत्पश्चात्-(१) चक्ररत्न, (२) छत्ररत्न, (३) चर्मरत्न, (४) दण्डरत्न, (५) असिरल, (६) मणिरत्न, के (७) काकणीरत्न-ये सात एकेन्द्रिय रत्न यथाक्रम चले। उनके पीछे क्रमशः नैसर्प, पाण्डुक तथा शंखये नौ निधियाँ चलीं। ___ उनके बाद सोलह हजार देव चले। उनके पीछे बत्तीस हजार राजा चले। ___ उनके पीछे सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरन तथा पुरोहितरत्न ने प्रस्थान किया। तत्पश्चात् ॥ स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाएँ-जिनका स्पर्श ऋतु के प्रतिकूल रहता है-शीतकाल में उष्ण तथा ग्रीष्मकाल में शीतल रहता है, ऐसी राजकुलोत्पन्न कन्याएँ तथा बत्तीस हजार ॐ जनपदकल्याणिकाएँ-जनपद के अग्रगण्य पुरुषों की कन्याएँ यथाक्रम चलीं। उनके पीछे बत्तीस-बत्तीस का समूह बनाये, बत्तीस हजार नाटकमंडलियाँ प्रस्थित हुईं। तदनन्तर तीन सौ साठ सूत-स्वस्तिमंगलवाचक अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-(१) कुंभकार, (२) ग्रामप्रधान, (३) स्वर्णकार, (४) सूपकार, 9 (५) संगीतकार-गायक, (६) काश्यपक-नापित, (७) मालाकार-माली, (८) कक्षकर, (९) ताम्बूलिक-ताम्बूल लगाने वाले-तमोली-ये नौ नारुक तथा (१) चर्मकार-चमार-जूते बनाने वाले, (२) यन्त्रपीलक-तेली, (३) ग्रन्थिक, (४) छिपक-छींपे, (५) कांस्यक-कसेरे, (६) सीवक-दर्जी, (७) गोपाल-ग्वाले, (८) भिल्ल-भील, तथा (९) धीवर-ये नौ कारुक-इस प्रकार कुल अठारह श्रेणि प्रश्रेणि जन चले। उनके पीछे क्रमशः चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ, छियानवे फ़ करोड़ मनुष्य-पदाति जन चले। तत्पश्चात् अनेक राजा, ईश्वर, सार्थवाह आदि यथानुक्रम चले। ____ तत्पश्चात् बहुत से तलवारधारी, लट्ठीधारी, भालाधारी, धनुर्धारी, चंवर लिए हुए, उद्धत घोड़ों 5 तथा बैलों को नियन्त्रित करने हेतु चाबुक आदि लिए हुए, अथवा पासे आदि द्यूत-सामग्री लिए हुए, काष्ठपट्ट लिए हुए, कुल्हाड़े लिए हुए, पुस्तकधारी-ग्रन्थ लिए हुए, वीणा लिए हुए, कूप्यग्राह, पक्व तैलपात्र लिए हए, द्रम्म आदि सिक्कों के पात्र अथवा पानदान सुपारी आदि के पात्र लिए हुए पुरुष तथा फ दीपिका-मशालधारी अपने-अपने कार्यों के अनुसार रूप, वेश, चिह्न तथा वस्त्र आदि धारण किये हुए + यथाक्रम चले। उनके बाद बहुत से दण्डी-दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी-सिरमुण्डे, शिखण्डी शिखाधारी, जटाधारी, पिच्छी-मोरपंख आदि धारण किये हुए, हास-परिहास करने वाले-विदूषक ॐ धूतविशेष में निपुण, खेल-तमाशे करने वाले, चाटुकारक-प्रिय वचन बोलने वाले, कान्दर्पिक-कामुक 9 या शृंगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक-भांड आदि तथा मौखरिक, वाचाल मनुष्य, गाते हुए, खेल करते हुए (तालियाँ बजाते हुए), नाचते हुए, हँसते हुए, पासे आदि द्वारा द्यूत आदि खेलने का उपक्रम 5 करते हुए, क्रीड़ा करते हुए, दूसरों को गीत आदि सिखाते हुए, सुनाते हुए, कल्याणकारी वाक्य बोलते तृतीय वक्षस्कार (227) Third Chapter 55555555555555555555 5 5555555 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 41 41 41 41 41 414 455 456 457 451 454 455 45 因身历步步步功劳牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙55555555555555555 卐 हुए, तरह-तरह की आवाजें करते हुए अपने पनोज्ञ वेश आदि द्वारा शोभित होते हुए, दूसरों को शोभित करते हुए-प्रसन्न करते हुए, राजा भरत को देखते हुए, उनका जयनाद करते हुए, यथाक्रम __चलते गये। (यह प्रसंग विस्तार से औपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।) ___ राजा भरत के आगे-आगे बड़े-बड़े कद्दावर घोड़े, घुड़सवार दोनों ओर हाथी, हाथियों पर सवार पुरुष चलते थे। उसके पीछे रथ-समुदाय यथावत् रूप में चलता था। 83. [1] Thus king Bharat extended his kingdom. He conquered the enemies. The jewels appeared in his treasure. The most important of them was Chakra Ratna. The king had nine treasures (nidhis). His treasure was full of wealth. Thirty two thousands kings were his followers. He conquered the entire Bharat area in sixty thousand years. Once king Bharat called his officials and ordered, 'O the blessed ! Prepare quickly the coronated elephant. Decorate the horses, the elephants, the chariots and the four-tier army alongwith their officials.' $ The officials informed the king after compliance. The king after taking bath and performing routine activities, rode the elephant like the top of Anjangiri. When the king got on the elephant, the eight meritorious symbols namely Swastik, Shrivatsa, Nandyavart, Vardhamanak, thrones (Bhadrasan), fish (matsya), pot (Kalash) and mirror (darpan) moved 4 ahead of the king. Thereafter, came the royal officials moved ahead carrying pots full of water, small water-pots, divine umbrella, buntings, whisks and the flags of victory fluttering in the air and held high as if touching the sky and they were visible to the king. Thereafter, the servants were moved in that order. They were carrying the shining rod looking bright due to blue aura Vaidurya precious stone up to the canopy that was spread wide like lunar circle umbrella in order to safeguard from the sun which was decorated with hanging garlands of Korant flowers; very unique throne, the stool where the king kept his shoes and which was studded with precious stones and the jewels of high class quality. The servants were quick in complying the orders. They were appointed for the respective duties. A servants and soldiers moved with them. Thereafter (1) Chakra Ratna, (2) Chhatra (umbrella) Ratna, (3) Charma Ratna, (4) Danda (rod) Ratna, (5) Sword (Asi) Ratna, (6) precious stone (Mani) Ratna, and (7) Kakani Ratna--the seven one-sensed Ratna moved in that order. Behind them were Naisarp, Panduk up to Shankh—the nine treasures (nidhis) in that order. w5555555555FFFFFFFFFFFFFF 5 45454545454545454545454545455 41 454 455 456 457 45545555555555 45454 15454 455 456 457 455 456 155 456 457 455 $45155 456 457 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 228 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 因%% %%%% %%%% %% %%%% %%%%% %%% %%%%%% % Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 459 455 456 457 455 456 457 454545 ת ת ת 455 456 457 4 ת ת ת ת ת ת ת 15岁男牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 %%%%%%%%%%%%%%% Behind them were sixteen thousand celestial beings (devas). Behind them thirty two thousand kings were moving. Behind them were army chief (Senapati) Ratna, nobleman (Gathapati) Ratna, the architect builder (Vardhaki) Ratna and the advisor (Purohit) Ratna. Behind them were the chief queen (Stri) Ratna Subhadra alongwith thirty two thousand girls from royal families whose I touch was cool in summer and warm in winter and thirty two thousand girls from elite of the area. Behind them were thirty two thousand theatrical groups in a band of thirty two each. Thereafter, there were three hundred and sixty groups, uttering auspicious slogans, from f eighteen categories and sub-categories namely-1) potters, (2) village F headmen, (3) goldsmith, (4) weaver, (5) singer, (6) barbers, (7) gardener, (8) Kakshakar, (9) those who prepared betel leaves; the nine naruks and nine karuks namely—(1) cobbler, (2) oilmen, (3) granthik, (4) cotton cleaner, (5) utensil maker, (6) tailors, (7) cowherd boys, (8) bhils, † (9) fishermen. They were followed by 84 lakh horses, 84 lakh elephants, F 84 lakh chariots, 960 million pedestrians in that order. Thereafter there were many kings and nobles in that retinue. Thereafter, many persons equipped with swords, sticks, spears, bows, those having whisks, those having leather stick to control restless horses and bullocks, those carrying articles used in playing dice or in gambling were going after them. Following them were persons carrying wooden planks, axes, scriptures and violins, and also large drums, oil tins for cooking, pots E containing coins, boxes having beatle leaves, hard-nuts, flame stick, according to the duties assigned to them. They were in their proper i uniform and were having the requisite distinguishing symbols. Following them in that march were persons having wooden sticks, persons having their head shaved, persons haivng just a lock of hair, persons having long hair, persons having tusk of peacock feathers, jokers, expert gamblers, dancers, persons who converse sweetly, persons † who make sensual gestures, clowns, talkative persons, those who were F showing their feats, those who were clapping, those who were laughing, those who were gambling with dice, those who were playing, those who were teaching music to others, those who were reciting poems, those who were uttering words of welfare for others, those who were making various types of sounds, those who were looking beautiful in their dress Fi and those who were entertaining others. All of them were looking at king h Bharat and appreciating his conquest while moving in that order. (This । तृतीय वक्षस्कार (229) Third Chapter 95555 %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% ת ת ת ת ת ת ת ת ת 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 451 455 456 457 EEFFE ת ת ת 451 451 455 456 457 455 456 455 456 457 454 455 456 457 455 ת ת ת ת ת נ נ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3555555555555555555555555595555555555555555555558 85555555555555555555555555))))))))558 \ description should be understood in detail as mentioned in Aupapatik 卐 Sutra.) Ahead of king Bharat were horsemen riding on horses of great height 5 and elephants and persons riding on elephants. Behind him was the 4 string of chariots moving as usual. ८३. [२] तए णं से भरहाहिवे परिंदे हारोत्थयए सुकयरइअवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इडूढीए ॐ पहिअकित्ती चक्करयण-देसिअमग्गे, अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे २ सविद्धीए सबजुईए जाव णिग्योसणाइयरवेणं गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-जोअणंतरिआहिं वसहीहिं वसमाणे २ जेणेव विणीया रायहाणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विणीआए रायहाणीए अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम णवजोयणवित्थिण्णं जाव खंधावारणिवेसं करइ, करित्ता वद्धइरयणं सद्दावेइ, सिद्धावित्ता जाव पोसहसालं अणुपविसइ, २ ता विणीआए रायहाणीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ पगिण्हित्ता जाव अट्ठमभत्तं पडिजागरमाणे २ विहरइ। ८३. [२] तब नरेन्द्र, भरत क्षेत्र का अधिपति राजा भरत, जिसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित एवं प्रीतिकर था, देवराज इन्द्र के तुल्य जिसकी समृद्धि थी, जिससे उसकी कीर्ति फैल रही थी, समुद्र के गर्जन की ज्यों अत्यधिक उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुआ, सब प्रकार की ऋद्धि तथा घुति से समन्वित, नगाड़े, झालर, मृदंग आदि अन्य वाद्यों की ध्वनि के साथ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब से युक्त मेदिनी को जीतता हुआ, उत्तम, श्रेष्ठ रत्न भेंट के रूप में प्राप्त करता हुआ, दिव्य के चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालता हुआ, रुकता हुआ, ॐ जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आया। राजधानी से थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन + चौड़ा सैन्य-शिविर स्थापित किया। अपने उत्तम शिल्पकार को बुलाया। यहाँ की वक्तव्यता पूर्वानुसार समझ लें। विनीता राजधानी को उद्दिष्ट कर-तदधिष्ठायक देव को साधने हेतु राजा ने तेले की तपस्या ॐ स्वीकार की। डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत तेले की तपस्या में सावधानतापूर्वक संलग्न रहा। म तेले की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर # कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करने, स्नानघर में प्रविष्ट होने, स्नान 卐 करने आदि का वर्णन पूर्ववत् समझ लें। सभी नित्य-नैमित्तिक आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर राजा भरत अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजपति पर आरूढ़ हुआ। 83. [2] King Bharat, the ruler of Bharat area was moving towards capital city Vinita. His chest was shining with garlands and was loveable. His wealth was like that of Indra, the master of devas. So his reputation was spreading all around. He was making a loud sound like that of the roaring sea. He was having the wealth and grandeur of all types. There was the musical sound of big drums, jhalar and small drums. He was moving ahead conquering thousands of villages, towns, suburbs, khet, karvat, madambs and accepting jewels of high class as gifts. He was 5555555555555555555555555555555555544444 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (230) Jambudveep Prajnapti Sutra 8959555555555555555555555555 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F Б F ****************மிதிததமிதமி*****மிதமிமிமித*5 be follwoing Chakra Ratna and camping after covering a distance of one Fyojan respectively. Ultimately he reached capital city Vinita. He set up his F army in an area of twelve yojan long, nine yojan wide a little away from the capital city. He called his expert builder. Further description may considered as earlier mentioned. The king observed austerities for three days concentrating on capital city Vinita and its guarding angel. He sat on Fa bed of hay and was carefully concentrating on his object. After the fi completion of three day austerities, king Bharat came out of Paushadhashala. He then called his officials. The description of preparing coronated elephant Ratna, entering the bathroom, taking bath and the F like may be understood as mentioned earlier. After doing all the routine Fi activities, king Bharat got on the great elephant like the top of Fi Anjanagiri. फ्र F ऊऊऊ विनीता में प्रवेश ENTRY IN VINITA ८३. [ ३ ] तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता 5 कोडुंबिअ पुरिसे सहावेइ २ त्ता तहेव जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवइं णरवई दुरूढे । तं चैव सब्वं जहा हेट्ठा णवरिं णव महाणिहिओ चत्तारि सेणाओ ण पविसंति सेसो सो चेव गमो जाव फ णिग्घोसणाइएणं विणीआए रायहाणीए मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव भवणवरवर्डिसगपडिदुवारे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । 5 卐 तए णं तस्स भरहस्स रण्णो विणीअं रायहाणिं मज्झमज्झेणं अणुपविसमाणस्स अप्पेगइआ देवा 5 विणीअं रायहाणिं सब्भंतरबाहिरिअं आसिअसम्मज्जिओवलित्तं करेंति, अप्पेगइआ मंचाइमंचकलिअं 5 F करेंति, एवं सेसेसुवि पएसु, अप्पेगइआ णाणाविह - रागवसणुस्सियधयपडागा - मंडितभूमिअं, अप्पेगइआ 5 लाउल्लोइ अमहिअं करेंति, अप्पेगइआ जाव गंधवट्टिभूअं करेंति, अप्पेगइआ हिरण्णवासं वासिंति 5 सुवण्णरयणवइरआभरणवासं वासेंति । (231) फ़फ़फ़फ्र 卐 卐 तए णं तस्स भरहस्स रण्णो विणीअं रायहाणिं मज्झमज्झेणं अणुपविसमाणस्स सिंघाडग जाव 5 महापहेसु बहवे अत्थत्थिआ कामत्थिआ भोगत्थिआ लाभत्थिआ इद्धिसिआ किब्बिसिआ कारोडिआ फ्र कारवाहिआ संखिया चक्किआ णंगलिआ मुहमंगलिआ पूसमाणया बद्धमाणया लंखमंखमाइआ ताहिं ओरालाहिं इट्ठाहिं कंताहिं पिआहिं मणुनाहिं मणामाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरी आहिं हि अयगमणिज्जाहिं हिअयपह्लायणिज्जाहिं वग्गूहिं अणुवरयं अभिनंदंता य अभिधुणंता य एवं वयासीजय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते अजिअं जिणाहि जिअं पालयाहि जिअमज्झे वसाहि इंदो विव देवाणं चंदो विव ताराणं चमरो विव असुराणं धरणो विव नागाणं बहूई पुव्वसयसहस्साइं बहूईओ पुम्बकोडीओ बहूईओ पुव्वकोडाकोडीओ विणीआए रायहाणीए चुल्लहिमवंत - गिरिसागरमेरागस्स य तृतीय बक्षस्कार Third Chapter 2555955555559555555555595555555559555555559 फ्र Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ g乐5FFFFFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 555555555555555555555555555555%%%%%% के केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमसण्णिवेसेसु सम्म पयापालणोवज्जिअलद्धजसे महया जाव आहेबच्चं, पोरेवच्चं, विहराहित्ति कटु जयजयसदं पउंजंति। म ८३. [ ३ ] यहाँ से आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय हेतु अभियान करने के वर्णन जैसा है। केवल इतना अन्तर है कि विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर नौ महानिधियों ने तथा चार सेनाओं ने राजधानी में प्रवेश नहीं किया। उनके अतिरिक्त सबने उसी प्रकार विनीता में प्रवेश किया जिस प्रकार विजयाभियान के अवसर , ॐ पर विनीता से निकले थे। राजा भरत ने तुमुल वाद्य-ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचोंबीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक घर था, निवास-गृहों में सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी प्रवेश द्वार था, उधर चलने का विचार किया। जब राजा भरत इस प्रकार विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था, उस समय कतिपय जन विनीता राजधानी के बाहर-भीतर पानी का छिड़काव कर रहे थे, गोबर आदि का लेप कर रहे थे, सीढ़ियों से समायुक्त प्रेक्षागृहों की रचना कर रहे थे, तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से बनी, ऊँची, सिंह, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाओं एवं पताकाओं से नगरी के स्थानों को सजा रहे थे। अनेक व्यक्ति नगरी की दीवारों को लीप रहे थे, पोत रहे थे। यावत् व्यक्ति काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान आदि तथा धूप की गमगमाती महकी से नगरी के वातावरण को उत्कृष्ट सुरभिमय बना रहे थे, कतिपय देवता उस समय चाँदी की वर्षा कर रहे थे। कई देवता स्वर्ण, रत्न, हीरों एवं आभूषणों की वर्षा कर रहे थे। म जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था तो नगरी के तिकोने स्थानों, 5 महापथों-बड़ी-बड़ी सड़कों पर, बहुत से धन के अभिलाषी, सुख या मनोज्ञ शब्द, सुन्दर रूप के ॐ अभिलाषी, भोगार्थी-सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श के अभिलाषी, लाभार्थी-मात्र भोजन के अभिलाषी, गोधन आदि ऋद्धि के अभिलाषी, भांड आदि, खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शंख बजाने वाले, चक्रधारी, लांगलिक-हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुँह से , मंगलमय भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक-औरों के कन्धों पर स्थित पुरुष, बाँस के सिरे पर खेल दिखाने वाले-नट, चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, उत्तम, कमनीय, प्रीतिकर, मनोनुकूल, चित्त को प्रसन्न करने वाली, कल्याणमयी, प्रशंसायुक्त, मंगलयुक्त, शोभायुक्त-लालित्ययुक्त, हृदय को आल्हादित करने वाली वाणी से एवं मांगलिक शब्दों से राजा का लगातार अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए-प्रशस्ति करते हुए इस प्रकार बोले जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी विजय हो। जन-जन के लिए कल्याणस्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप फ्र विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें। देवों में इन्द्र की 5 तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोडी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों ॐ द्वारा मर्यादित सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम| जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (232) Jambudveep Prajnapti Sutra 45岁男%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%5B 听听听听听听听听听听听听听$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$5555% Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 457 45454545454545 9555555555555555555555555555555555555 ॐ तापसों के आवास, सन्निवेश-झोंपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के + स्थान-इन सबका-इन सबमें बसने वाले प्रजाजनों का भलीभाँति पालन कर यश अर्जित करते हुए, इन म सबका आधिपत्य, अग्रेसरता या आगेवानी, स्वामित्व, प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में सर्वथा निर्वाह करते हुए निर्बाध, निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तुरही एवं घन-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग आदि के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल भोग भोगते हुए सुखी $ T, TE operata fosat 83. [3] Further description is similar to that of starting from Vinita 45 capital city for conquests as mentioned earlier. The only difference is 15 that while entering capital city Vinita nine great nidhis and the four-tier 41 army did not enter. All others excepting the above-mentioned entered Vinita city in the same manner as they had started from it for conquering mission. King Bharat decided to go through capital city Vinita in an environment of music up to his ancestral house and the outer gate of the unique palace among all the palaces was located. When king Bharat was passing through Vinita city, some persons 4i were sprinkling water in and outside the city, some plastering with cow- 4 dung, some were building houses with stairs for sight-seeing and some were decorating the city with flags and buntings made of cloth of different colours raised high and bearing symbols of lion and wheel. Many people were plastering the walls of the city. Some persons were making the environment fragrant with the incense such as black agar, kundruk, lobaan and the like. Some angels were raining silve some were raining gold jewels, diamonds and ornaments. When king Bharat was passing through capital city Vinita, there were people at triangular junctions and on highways. They were keen to get money, some were desirous of hearing pleasant words, desirous of i seeing beautiful figure, desirous of enjoying fragrance, taste and touch. Some were desirous of having food, livestock. Some of them were clowns, beggars with the begging bowl, people feeling troubled by state taxes, people blowing conch-shells, people having wheels, plough men, farmers, people chanting meritorious words, people singing hymns, people being carried on shoulders by others, bamboo dancers, and people earning livelihood by showing pictures. They were uttering attractive, pleasant beautiful words in praise of the king. They were continuously greeting Hi him, appreciating him. They said| तृतीय वक्षस्कार ( 233 ) Third Chapte. 445 446 45 44 45 46 455 45 455 456 457 455 456 457 455 456 412 456 457 455 456 457 455 456 455 456 45 44 $ 654 55 54 455 456 457 451 45 5 5 456 457 46 4 457 455 听听听听听听听听听听听听 $$ 455 456 因%%%%% %% %%%%%% %%%%%% %% %%%% %% %%%%%%%%% Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95555 555555555555555)))))) ) ) ) ) 卐555555555555555555555555555555555))))))) "O king ! You provide ecstatic pleasure to all the people. May you 15 always be successful ! You are welfare personified for all. May you 41 fi always win with laurels ! May you succeed in conquering those areas which you have not conquered so far. May you look after properly those whom you have conquered. May you live long amongst them. May you live for lakhs of poorvas, crores of poorvas, crore by crore poorvas like Indra among celestial beings, moon among stars, Chamarendra among asuras and Dharanendra among Nagkumar demi-gods. May you rule in the north up to small Himavaan mountain and in the other three directions the region up to the sea-thus the entire Bharat area including its villages, towns, karbats, suburbs, madambs, ports, areas inhabited by monks, observing austerities, the mud hut colonies and the army camping grounds. May you be the ruler, the master, the controller and commander of all such areas. May you rule them without any 4 obstruction continiously and enjoy the dances, the music, the songs, the performance of musicians on musical instruments with their hands, the music produced by experts in beating drums and producing sound, like the sound of clouds. May you live in happiness enjoying all these sensual fi pleasures. They were greeting him about his success with these words. ८३. [४] तए णं से भरहे राया गयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे २ वयणमालासहस्सेहि ॐ अभिथुब्बमाणे २ हिअयमालासहस्सेहिं उण्णं दिज्जमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २ + कंतिरूवसोहग्गगुणेहिं पिच्छिज्जमाणे २ अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे २ दाहिणहत्थेणं बहूणं . + णरणारीसहस्साहिं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे २ भवणपंती-सहस्साई समइच्छमाणे २ तंती-तलम तुडिअ-गीअ-वाइअ-रवेणं मधुरेणं मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे २ जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरवडिंसयदुवारे तेणेव उवागच्छइ २ ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठपइ उवित्ता फ आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ सम्माणित्ता क बत्तीसं रायसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता, सेणावइरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता एवं गाहावइरयणं, वद्धइरयणं, पुरोहियरयणं, सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता तिण्णि सट्टे सूअसए सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता, + अट्ठारस सेणिप्पोणीओ सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता, अण्णेवि बहवे राईसर, जाव सत्थवाहप्पभिइओ सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता, पडिविसज्जेइ। ____ इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उउकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए ॐ बत्तीसइबद्धेहिं णाडयसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे भवणवरवडिंसगं अईइ जहा कुबेरो ब्व देवराया + केलाससिहरिसिंहभूअंति, तए णं से भरहे राया मित्त-णाइ-पिअग-सयण-संबंधिपरिअणं पच्चुवेक्खइ २ ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव 9 भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ पारित्ता उप्पिं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (234) Jambudveep Prajnapti Sutra )))55555555)))) 55))))) 55 5 प्र Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) ))) )) ) ) ) )) ) ) 85 5 555555555555555555 पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धेहिं णाडएहिं उवलालिजमाणे २ उवणच्चिज्जमाणे २ ॥ उवगिज्जमाणे २ महया जाव भुंजमाणे विहरइ। ८३. [ ४ ] राजा भरत का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे। सहस्रों के नर-नारी अपने वचनों द्वारा बार-बार उसका गुण-संकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ-उत्सुकतापूर्ण मनःकामनाएँ लिए हए थे। सहस्रों नर-नारी उसकी कान्ति-देहदीप्ति. उत्तम सौभाग्य आदि गणों के कारण-ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे। नर-नारियों द्वारा हजारों हाथों से की गई प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लाँघता हुआ, वीणा, ढोल, तुरही आदि वाद्यों की मधुर, मनोहर, सुन्दर ध्वनि में आनन्द लेता हुआ, राजा भरत जहाँ अपना घर था, अपने सर्वोत्तम प्रासाद का द्वार था, वहाँ आया। वहाँ आकर आभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया, उससे नीचे उतरा। नीचे उतरकर सोलह हजार + देवों का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर बत्तीस हजार राजाओं का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरन तथा पुरोहितरल का सत्कार किया, सम्मान किया। उनका सत्कार-सम्मान कर तीन सौ साठ पाचकों का सत्कार-सम्मान किया, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों का सत्कार-सम्मान किया। माण्डलिक राजाओं, ऐश्वर्यशाली, पुरुषों तथा सार्थवाहों आदि का सत्कार-सम्मान किया। उन सबको सत्कृत-सम्मानित कर सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न, बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकाओं : तथा बत्तीस हजार जनपद-कल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस के समूह में बत्तीस हजार नाटक-मण्डलियों 卐 से संपरिवृत राजा भरत कुबेर की ज्यों कैलाश पर्वत के शिखर के तुल्य अपने उत्तम प्रासाद में गया। राजा ने अपने मित्रों-सुहृज्जनों, माता, भाई, बहन आदि स्वजन-पारिवारिक जनों तथा श्वसुर, साले आदि सम्बन्धियों से कुशल समाचार पूछे। फिर जहाँ स्नानघर था, वहाँ गया। स्नान आदि सम्पन्न कर ॐ स्नानघर से बाहर निकला। जहाँ भोजन-मण्डप था, आया। भोजन-मण्डप में आकर सुखासन पर बैठा, तेले की तपस्या का पारणा किया। पारणा कर अपने महल में गया। वहाँ मृदंग बज रहे थे, बत्तीस बत्तीस नाटक चल रहे थे, नृत्य हो रहे थे। यों नाटककार, नृत्यकार, संगीतकार राजा का मनोरंजन कर 卐 रहे थे, गीतों द्वारा राजा का कीर्ति-स्तवन कर रहे थे। राजा उनका आनन्द लेता हुआ सांसारिक सुख का भोग करने लगा। 83. [4] Thousands of men and women were looking at king Bharat again and again. Thousands of people were appreciating him repeatedly. Thousands of people were greeting him. Thousands of people were having meritorious desires in their mind. Thousands of people were desiring again and again that they should always have him as their master as he had a charming body and many good qualities. King Bharat was accepting the good wishes of thousands of men and women again and again by raising his right hand upwards. He was passing through | तृतीय वक्षस्कार Third Chapter 山听听听听听听听听听听听听听听$$ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$5$$$$$$ ))) ) ))) )) )) )) ) 5 • (235) 卐 3555555555)))))))))))) )))))))) ) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 5 卐 கதித்தமிமிமிமிமி****************தமிமிமிமிமிதழிழி thousands of the rows of houses. He was enjoying the sweet pleasant sounds produced by violin, drum and the like. King Bharat then came to the gate of his excellent palace. He stopped the coronated elephant there and got down from it. He honoured sixteen thousand celestial beings. 卐 Thereafter, he honoured thirty two thousand kings. Then he honoured 卐 the army chief, the Gathapati, the architect builder (Vardhaki) and the advisor (purohit) Ratna. Thereafter, he honoured three hundred sixty 卐 cooks, the eighteen categories and sub-categories of people. He also 卐 honoured the mandalik kings, the nobles and the elite. After honouring in this manner, the king entered his grand palace with Subhadra, the chief queen (Stri Ratna) thirty two thousand mountain. He asked his friends, relatives, mother, brother, sister, 卐 5 卐 dramas were being played. The dances were going on. There the 5 dramatists, the dancers, the singers were providing enjoyment to the king. They were praising the king through their songs. The king was enjoying it and was engrossed in worldly pleasures. 5 फ राज्याभिषेक CORONATION OF THE KING damsels providing personal enjoyments, thirty two thousand girls from various regions, thirty two thousand theatrical groups of thirty two 卐 卐 participants each. He was looking like Kuber on the top of Kailash 卐 संकप्पे समुप्यज्जित्था । अभिजिए णं मए णिअग-बल-वीरिअ - पुरिसक्कार- परक्कमेण 5 फ relatives, fathers-in-law, brothers-in-law about their welfare. Then, he 卐 came to the bathroom. After taking bath and the like, he came to the dining hall. He sat in easy posture and broke his three day fast. Thereafter, he entered his palace. There drums were beating. Thirty two 5 5 पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्टाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता 5மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமித***தமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிE 卐 5 सेणावइरयणे, पुरोहियरयणे, तिण्णि सट्टे सूअसए, अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसर- तलवर 卐 जाव सत्थवाहप्पभिइओ सजावेइ २ त्ता एवं वयासी - 'अभिजिए णं देवाणुप्पिआ ! मए णिअग-बल-वीरिय 卐 जाव केवलकप्पे भरहे वासे । तं तुब्भे णं देवाणुष्पिआ ! ममं महयारायाभिसेयं विअरह । ' 卐 फ्र तए णं से सोलस देवसहस्सा पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठ- तुट्ठ - करयलमत्थए 卐 5 अंजलिं कट्टु भरहस्स रण्णो एअमहं सम्मं विणएणं पडिसुर्णेति । 卐 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 फ्र 卐 (236) 卐 卐 फ्र *கதிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதிமிதிமிததி ८४. [ १ ] तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रज्जधुरं चिंतेमाणस्स इमेआरूवे जाव 5 फ्र चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसेएणं 5 फ्र 卐 अभिसिंचावित्तपत्ति कट्टु एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभाए जाव जलते जेणेव मज्जणघरे जाव 卐 फ्र 卐 卐 फ्र 卐 सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअति, णिसीइत्ता सोलस देवसहस्से, बत्तीसं रायवरसहस्से, फ्र 卐 卐 卐 फ्र 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 95 95 95 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 555 @ 卐 ५ 5 ८४. [ १ ] अपनी राज्य-व्यवस्था सम्बन्धी चिन्तन करते हुए किसी समय राजा भरत के मन में 4 ऐसा संकल्प उत्पन्न हुआ - मैंने अपने बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत फ एवं तीन ओर समुद्रों से मर्यादित समस्त भरत क्षेत्र को जीत लिया है। इसलिए अब उचित है, मैं विराट् ५ राज्याभिषेक समारोह आयोजित करवाऊँ, जिसमें मेरा राजतिलक हो । ( रात बीत जाने पर, आगामी ५ दिन वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के सूर्य के उदित होने पर) राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया । स्नान आदि कर बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी । सिंहासन था, वहाँ आया । पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर बैठा । सिंहासन पर बैठकर उसने सोलह हजार आभियोगिक देवों, बत्तीस हजार 5 प्रमुख राजाओं, सेनापतिरत्न यावत् पुरोहितरत्न को तीन सौ साठ स्वस्ति वाचकों, अठारह श्रेणि- प्रश्रेणि जनों तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजाओं एवं प्रभावशाली पुरुषों, विशिष्ट नागरिकों और सार्थवाहों को बुलाकर कहा - 'देवानुप्रियो ! मैंने अपने बल, वीर्य, यावत् पराक्रम द्वारा समग्र भरत क्षेत्र को जीत लिया है । देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे राज्याभिषेक के विराट् समारोह की तैयारी करो।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे सोलह हजार आभियोगिक देव यावत् सार्थवाह आदि बहुत हर्षित एवं परितुष्ट हुए। उन्होंने हाथ जोड़े, मस्तक से लगाकर राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ५ ㄓ 또 फ 卐 फ्र 卐 卐 卐 தமிழிழதமிழமிழததபூமிதததததததததததததததததத5E 卐 卐 또 फ्र 84. [1] Once, while contemplating about the administration of his kingdom, king Bharat thought as under-I have conquered the entire continent surrounded by small Himavan mountain on one side and by the ocean on three sides with my power, strength, courage and zeal. So it is now proper that I should get arranged the ceremony at a grand level 4 so that I may be coronated. (After the night had passed and when the sun had risen on the following day and was shining bright with the thousands of its rays) King Bharat came to his bathing chamber. After फ्र taking bath, he came to the assembly hall and sat on the throne facing eastwards. He then called sixteen thousand subservient celestial beings, thirty two thousands prominent kings, the army chief (Senapati Ratna) up to chief advisor (purohit Ratna), three hundred and sixty hymn tellers, the heads of eighteen categories and sub-categories of the masses and many mandalik rulers. The influential persons, the elite of the town and the noblemen and said, 'O the blessed! I have conquered the entire 卐 Bharat area with my physical strength, power, courage and zeal. So now you make preparation for my coronation as king emperor at a large scale. 卐 卐 Sixteen thousand celestial beings (abhiyogik devas) up to the 卐 noblemen felt highly pleased and satisfied to receive these orders. They accepted the orders of king Bharat with folded hands and touched their forehead as a mark of respect. तृतीय वक्षस्कार फ्र (237) फ्र 卐 Third Chapter फ्र फ्र Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 देवों द्वारा अभिषेक मण्डप रचना CONSTRUCTION OF CORONATION HALL BY DEVAS ८४. [२] तए णं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव 卐 卐 5 पडिजागरमाणे विहरइ । तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि आभिओगिए देवे सहावेइ सद्दावित्ता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पि ! विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एगं महं अभिसे अमंडवं विउव्वेह विउब्वित्ता मम एअमाणत्तिअं पच्चष्पिणह, तए णं ते आभिओगा देवा भरहेणं फ्र சு रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेंति, पडिसुणित्ता विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति अवक्कमित्ता वेउब्विअसमुग्धाएणं समोहणंति २ त्ता संखिज्जाई जोअणाई दंड णिसिरंति, तं जहा - वइराणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेंति परिसाडित्ता अहासुहुमे पुग्गले परिआदिअंति परिआदित्ता दुच्छंपि वेउब्विय- समुग्धायेणं जाव समोहणंति २ त्ता बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विउब्वंति से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एवं अभिसे अमण्डवं विउव्वंति 5 க 5 5 बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं सीहासणं विउव्वंति । तस्स णं सीहासणस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते अणेगखंभ - सयसणिविट्ट जाव गंधवट्टिभूअं पेच्छाघरमंडववण्णगोत्ति । तस्स णं अभिसेअ - मंडवस्स 5 बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं अभिसेअपेढं विउव्वंति अच्छं सण्हं, तस्स णं अभिसे अपेढस्स तिदिसिं 5 तओ तिसोवाणपडिरूवए विउव्वंति, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेवरूवे वण्णावासे पण्णत्ते । तस्स णं फ अभिसे अपेढस्स बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स 卐 जाव दामवण्णगं समत्तंति । तए णं ते देवा अभिसे अमंडवं विउव्वंति विउब्वित्ता जेणेव भरहे राया पच्चप्पिणंति । 卐 卐 ८४. [२] तत्पश्चात् राजा भरत पौषधशाला में आया। तेले की तपस्या स्वीकार की। की । तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर आभियोगिक देवों का आह्वान कहा - " हा - 'देवानुप्रियो ! विनीता राजधानी के उत्तरर-पूर्व दिशा भाग में का कथन सुनकर वे आभियोगिक देव मन में हर्षित एवं परितुष्ट हुए । “स्वामी ! जो आज्ञा ।" यों कहकर उन्होंने राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया । स्वीकार कर विनीता राजधानी के सावधानीपूर्वक तेले की तपस्या 卐 फ्र किया । आह्वान कर इस प्रकार 5 ईशानकोण में विशाल अभिषेक-मण्डप की रचना करो। वैसा कर मुझे अवगत कराओ।' राजा भरत 5 卐 फ्र प्रदेशों को बाहर निकालकर संख्यात योजन लम्बा दण्डरूप में परिणत किया। उनसे गृह्यमाण हीरे, फ्र फ वैडूर्य, यावत् रिष्ट आदि रत्नों के बादर-स्थूल, असार पुद्गलों को छोड़ दिया। उन्हें छोड़कर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। उन्हें ग्रहण कर पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म- प्रदेशों को 卐 फ फ की। उसके ठीक बीच में एक विशाल अभिषेक-मण्डप की रचना की। फ्र 5 ईशानकोण में गये । वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाला। आत्म- फ्र बाहर निकाला। बाहर निकालकर मृदंग के ऊपरी भाग की ज्यों समतल, सुन्दर भूमिभाग की विकुर्वणा वह अभिषेक - मण्डप सैकड़ों खंभों पर टिका था । यावत् वह विविध चित्रों से युक्त था । काले अगर, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फफफफफफफ 卐 (238) 5 卐 5 उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण उत्कृष्ट सुरभिमय बना था । 卐 यहाँ प्रेक्षागृह का वर्णन अन्य आगमों से समझ लेना चाहिए। अभिषेक-मण्डप के ठीक बीच में एक 5 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 ததததத**************************தமிழி Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听hhhhFF 454 455 456 457 455454545454545454545454545454545454545454545454545454545453 ॐ विशाल अभिषेक-पीठ की रचना की। वह अभिषेक-पीठ अत्यन्त स्वच्छ तथा सूक्ष्म पुद्गलों से बना है म होने से मुलायम था। उस अभिषेक-पीठ की तीन दिशाओं में तीन-तीन सोपान मार्गों तीन पगथियों की सुन्दर सीढ़ी बनाई। उस अभिषेक-पीठ का भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय था। उस अत्यधिक के समतल, सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में उन्होंने एक विशाल सिंहासन का निर्माण किया। सिंहासन का। वर्णन विजयदेव के सिंहासन जैसा है। इस प्रकार देवताओं ने अभिषेक-मण्डप की रचना कर जहाँ । # राजा भरत था, वहाँ आये। उसे इससे अवगत कराया। 84. [2] Thereafter, king Bharat came to the Paushadhashala. He accepted austerities for three days. He carefully completed that period. After the completion of three day fast, he called the abhiyogik devas. When they came, he ordered them, 'o the blessed ! Kindly arrange a grand hall for coronation in the north-east region of Vinita city. After doing the needful, inform me.' After listening to these orders, the celestial beings felt happy in their mind and accepted the orders with the words, 'Everything shall be done according to your orders.' Thereafter, 4 f they went to the north-east corner of Vinita city. They spread the spaceF points of their soul with fluid process (Samudghat). Thereafter, they transformed them into a rod numerable yojan long. They discarded the useless gross material particles from the diamonds, Vaidurya precious stones up to risht gems and collected subtle necessary material particles. y They then again through fluid process took out the space-points of their y soul and created the levelled beautiful ground as plain as the upper surface of a drum. At the centre of that land, they created a grand hall for coronation ceremony. That coronation hall was standing on hundreds of pillars up to that it contained many pictures. Its environment was fragrant with the pleasent smell of agar, kundaruk, lobaan and incense. The detailed description of the hall for audience may be considered as mentioned in other Agams (scriptures). They created a gigantic seat for the coron at the centre of the coronation hall. That seat was very smooth as it was made of extremely clean and subtle particles. In the three directions of that coronation seat they constructed three paths leading to stairs y having three beautiful steps each. The ground of that coronation seat was very much levelled and beautiful. At the very centre of that levelled beautiful area, they created a large throne. The description of that throne is similar to that of Vijay Deva. After constructing the coronation y hall, the celestial beings came to king Bharat and informed him about it. ir ir i de SHE ME LE CALENC 15454545 तृतीय वक्षस्कार ( 239 ) Third Chapter 1454545454545454545454545454545454545 4 54545 454 455 456 457 455 456 457 4548 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफ फफफफफफफ 5 ५ ८४. [ ३ ] तए णं से भरहे राया आभिओगाणं देवाणं अंतिए एअमट्ठे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता कोडुंबिअपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ५ अभिसेक्कं हत्थरयणं पडिकप्पेह २ त्ता हयगय सण्णाहेत्ता एअमाणत्तिअं पच्चष्पिणह जाव पच्चपिण्णंति । ५ तणं भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई आरूढे । तए णं ५ तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगलगा जो चेव गमो विणीअं पविसमाणस्स सो चेव णिक्खममाणस्स वि जाव अपडिबुज्झमाणे विणीअं रायहाणिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अभिसेअमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ५ 卐 ५ 5 अभिसे अमंडवदुआरे आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठावेइ २ त्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ २ त्ता ५ इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए ५ बत्तीसइबद्धेहिं णाडगसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे अभिसे अमंडवं अणुपविसइ २ त्ता जेणेव अभिसेयपेढे तेणेव 卐 또 5 उवागच्छइ २ त्ता अभिसेअपेढं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे २ पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूह २ त्ता ५ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति । ५ ५ अभिषेक-मण्डप में प्रवेश ENTRY IN CORONATION HALL तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा जेणेव अभिसेअमण्डवे तेणेव उवागच्छंति २ त्ता अभिसे अमंडवं अणुपविसंति २ त्ता अभिसेअपेढं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ उत्तरिल्लं तिसोवाणपडिरूवएणं 5 जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति २ त्ता करयल जाव अंजलिं कट्टु भरहं रायाणं जएणं विजएणं वद्धावेंति २ त्ता भरहस्स रणो णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा पज्जुवासंति । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणावइरयणे जाव सत्थवाहप्पभिईओ ते ऽवि तह चेव णवरं दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएण जाव पज्जुवासंति। 5 ८४. [ ३ ] राजा भरत उन आभियोगिक देवों से यह सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, पौषधशाला फ से बाहर निकला। बाहर निकलकर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर यों कहा- ' - 'देवानुप्रियो ! 卐 शीघ्र ही हस्तिरत्न को तैयार करो । हस्तिरत्न को तैयार कर घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से- ५ पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजाओ । ऐसा कर मुझे अवगत कराओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ५ ने वैसा किया एवं राजा को उसकी सूचना दी। फिर राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नानादि से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ़ हुआ । राजा भरत के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ हो जाने पर आठ मंगल प्रतीक, जिनका वर्णन विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर आया है, राजा के आगे-आगे रवाना किये गये । राजा के विनीता राजधानी से अभिनिष्क्रमण का वर्णन उसके विनीता में प्रवेश के वर्णन के समान है। राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकला । निकलकर जहाँ विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशा भाग में - ईशानकोण में अभिषेक - मण्डप था, वहाँ आया। अभिषेक - मण्डप के द्वार पर अभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया। ठहराकर हस्तिरत्न से नीचे उतरा। नीचे उतरकर स्त्रीरत्न- परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतु - कल्याणिकाओं, बत्तीस हजार 5 जनपद - कल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस के समूह में बनी, बत्तीस हजार नाटक - मंडलियों से घिरा हुआ 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 4 ५ 2955555 y ५ (240) 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 52 ५ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 5555555555555555555555553 राजा भरत अभिषेक-मण्डप में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहाँ अभिषेक-पीठ था, वहाँ आया। वहाँ आकर अभिषेक-पीठ की प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वह पूर्व की ओर स्थित तीन सीढ़ियों से होता हुआ जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। वहाँ आकर पूर्व की ओर मुँह करके सिंहासन पर बैठा। फिर राजा भरत के पीछे चलने वाले बत्तीस हजार प्रमुख राजा, जहाँ अभिषेक-मण्डप था, वहाँ आये। वहाँ आकर उन्होंने अभिषेक-मण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर अभिषेक-पीठ की प्रदक्षिणा की, उसके उत्तरवर्ती त्रिसोपान मार्ग से, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। वहाँ आकर उन्होंने हाथ जोड़े, ' अंजलि बाँधे, राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर राजा भरत के थोड़ी ही दूरी पर राजा का वचन सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, राजा की पर्युपासना करते हुए यथास्थान बैठ गये। तदनन्तर राजा भरत का सेनापतिरत्न, सार्थवाह आदि वहाँ आये। उनके आने का वर्णन पूर्ववत् है। केवल इतना अन्तर है कि वे दक्षिण की ओर के त्रिसोपान मार्ग से अभिषेक-पीठ पर गये। यावत् राजा की सेवा में उपस्थित हुए। 84. [3] King Bharat became very happy to listen from the celestial beings about the compliance of his orders. He then came out of Paushadhashala and called his officials and said, 'O the blessed ! Prepare the elephant quickly. Thereafter suitably decorate the horses, 4 the elephants, the chariots, the four-tier army and their soldiers. Inform 45 me after compliance.' The officials did the needful and then informed the king. Then king Bharat entered his chamber meant for taking bath. He 4 took his bath and then rode on the grand elephant which was very high like the top of Anjanagiri. When king Bharat had got on the elephant, eight meritorious symbols were moving ahead of the king. The fi detailed description of the symbols has already been mentioned in the description of entry of the king in Vinita city. The description of the departure of the king of Vinita city is similar to that of the entry in Vinita city. King Bharat passed through the centre of Vinita city. He then came to the place where the coronation hall was set up in the north-east direction of that city. He stopped the elephant at the gate. He then got si down from the elephant. He then entered the coronation hall with $1 extremely beautiful Subhadra, the chief queen (Stri Ratna), thirty two thousand women providing sensual enjoyment in all seasons, thirty two thousand girls from noble families, thirty two thousand groups of dancers-each group consisting of thirty two members who were surrounding the king. He then came to the seat meant for coronation ceremony. He went round that seat and then climbing the three stairs in the east, he sat on that seat facing east. ונותנתב תב תב תנ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת 卐5555555555555555555555555555555555558 0555555555555 נ ת ת ת נ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת | तृतीय वक्षस्कार (241) Third Chapter 3 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 9 ))))))5555555555555555 Thereafter, thirty two thousand subordinate main rulers who were 卐 following the king, came to the coronation hall, entered it, went around + the coronation seat and came near the king from the stairs set up in the north. They greeted the king with folded hands and then took their seats at a distance with a desire to listen to him after saluting him with folded hands in a humble posture. Thereafter, the army chief and the chanteer came there. Their description is the same as mentioned earlier. The only 4 difference is that they went to the coronation seat from the path for stairs set up in the south up to that they came to the king. 954555555555555555555555))))))))))))))))555558 महाराज्याभिषेक CORONATION CEREMONY OF KING EMPEROR ८४. [ ४ ] तए णं से भरहे राया आभिओगे देवे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ममं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाअभिसेअं उवट्ठवेह। तएणं ते आभिओगिआ देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठचित्ता जाव उत्तरपुरथिमं दिसीभागं : अवक्कमंति. अवक्कमित्ता वेउविअसमग्याएणं समोहणंति, एवं जहा विजयस्स तहा इत्थंपि जाव। ___पंडगवणे एगओ मिलायंति एगओ मिलाइत्ता जेणेव दाहिणद्धभरहे वासे जेणेव विणीआ रायहाणी तेणेव उवागच्छंति २ ता विणीअं रायहाणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ जेणेव अभिसेअमंडवे जेणेव भरहे, राया तेणेव उवागच्छंति २ ता तं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाभिसेअं उवट्ठवेति। तए णं तं भरहं रायाणं बत्तीसं रायसहस्सा सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-णक्खत्त-मुहत्तंसि उत्तरपोट्ठवयाविजयंसि तेहिं साभाविएहि अ उत्तरवेउविएहि अ वरकमलपइट्ठाणेहिं सुरभिवर-वारिपडिपुण्णेहिं जाव महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति, अभिसेओ जहा विजयस्स। अभिसिंचित्ता पत्तेअं २ जाव अंजलिं कटु ताहिं # इट्ठाहिं जहा पविसंतस्स भणिआ विहराहित्ति कटु जयजयसदं पउंजंति। तए णं तं भरहं रायाणं सेणावइरयणे पुरोहियरयणे तिण्णि अ सट्टा सूअसया अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ __ अण्णे अ बहवे जाव सत्थवाहप्पभिइओ एवं चेव अभिसिंचंति वरकमलपइट्ठाणेहिं तहेव अभिथुणंति अ सोलस देवसहस्सा एवं चेव णवरं पम्हलसुकुमालाए जाव मउडं पिणद्वेति। तयणंतरं गंधेहिं च णं दद्दरमलयसुगंधिएहिं ॐ गंधेहिं गायाई अन्भुक्छेति दिव्वं सुमणोदामं पिणछेति, किं बहुणा ? गंथिम-वेढिम विभूसि करेंति। ८४. [ ४ ] तत्पश्चात् राजा भरत ने आभियोगिक देवों का आह्वान किया। आह्वान कर कहाॐ देवानुप्रियो ! मेरे लिए महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न आदि का उपयोग हो, महाघ-जिसमें बहुत बड़ा पूजा-सत्कार हो, महार्ह-जिसके अन्तर्गत गाजों-बाजों सहित बड़ा उत्सव मनाया जाए, ऐसे महाराज्याभिषेक का प्रबन्ध करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट हुए। वे उत्तर-पूर्व दिशा ॐ भाग में गये। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाला। जम्बूद्वीप के 卐 विजयद्वार के अधिष्ठाता विजयदेव के प्रकरण में जो वर्णन आया है, वह यहाँ भी समझ लें। भ卐55555555555555555555555555555555555555558 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (242) Jambudveep Prajnapti Sutra 55555555555555555555555555555558 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i वे देव पंडकवन में एकत्र हुए मिले। मिलकर जहाँ दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र था, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आये। आकर विनीता राजधानी की प्रदक्षिणा की, जहाँ अभिषेक-मण्डप था, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। आकर महार्थ, महार्घ तथा महार्ह महाराज्याभिषेक के लिए अपेक्षित समस्त सामग्री राजा के समक्ष उपस्थित की। बत्तीस हजार राजाओं ने उत्तम, श्रेष्ठ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र एवं मुहूर्त्त मेंउत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र तथा विजय नामक मुहूर्त्त में स्वाभाविक तथा वैक्रियलब्धि द्वारा निष्पादित, श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठापति, सुरभित, उत्तम जल से परिपूर्ण एक हजार आठ कलशों से राजा भरत का बड़े आनन्दोत्सव के साथ अभिषेक किया। अभिषेक का परिपूर्ण वर्णन जीवाभिगमसूत्रगत विजयदेव के अभिषेक के सदृश है। उन राजाओं में से प्रत्येक ने इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा राजा का अभिनन्दन, अभिस्तवन किया। वे बोले - राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो । यावत् विनीता राजधानी में प्रवेश के वर्णन अनुरूप यहाँ समझें। आप सांसारिक सुख भोगें, यों कहकर उन्होंने जयघोष किया। तत्पश्चात् सेनापतिरत्न, तीन सौ साठ स्वस्ति वाचकों, अठारह श्रेणि- प्रश्रेणि जनों तथा और बहुत से माण्डलिक राजाओं, सार्थवाहों ने राजा भरत का उत्तम कमल-पत्रों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित उत्तम जल से परिपूर्ण कलशों से अभिषेक किया । यावत् हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी द्वारा अभिनन्दन किया, अभिस्तवन किया । पश्चात् सोलह हजार देवों ने यावत् सुगन्धित पदार्थों से संस्कारित, अति सुकुमार रोओं वाले तौलिये से राजा का शरीर पोंछा । गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। ! दिव्य वस्त्र धारण कराये । दिव्य- वस्त्र पहनाकर राजा के गले में अठारह लड़ का हार पहनाया । कुण्डल पहनाये। चूड़ामणि धारण करवाया। विभिन्न रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट पहनाया। तत्पश्चात् उन देवों ने दर्दर तथा मलय चन्दन की सुगन्ध से युक्त, केसर, कपूर, कस्तूरी आदि के सारभूत, इत्र राजा पर ! छिड़के। चार प्रकार की मालाओं से विभूषित किया। फ्रा 84. [4] The king then called the abhiyogik celestial beings and said, 'O the blessed! You arrange a grand coronation ceremony for me wherein a festival at a grand scale be celebrated in which precious stones, gold, jewels and the like be used, worshipping be done and the musical instruments be played. The abhiyogik celestial beings felt pleased at these orders. They went in the north-east direction. They took out the space-points of their soul with fluid process. Here the description may be understood similar to that mentioned in case of Vijay deva, the guarding celestial being of Vijay gate. Those celestial beings collected in Panduk forest. They then came to Vinita city located in the southern half of Bharat area. They presented before the king all the material needed for coronation ceremony which included that for worship. On the auspicious day at the auspicious time when it was the period of Uttara-Bhadrapada nakshatra and Vijay muhurt, the thirty two thousand kings performed the coronation of the king with one thousand eight pitchers full of fragrant water of best तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (243) फ्रा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 2555555555 5 5 5 5 5 595555555955555 5 5 5 55555555595555555952 卐 தததததமிதிமிதிததமிமிமிமிமிமிமிதத*தமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதத 卐 power (labdhi). The entire description of the coronation ceremony be understood as similar to that of Vijay deva on Jivabhigam Sutra. Each one of those kings greeted and praised king Bharat with sweet words. They said, 'O the king ! May you always be successful. May there be always your welfare. Further description may be understood as that of entry in Vinita city. May you enjoy the worldly pleasures. Saying so they shouted in token of the success of the king. quality placed on lotus leaves created by the special fluid (Vaikriya) Thereafter the army chief, three hundred and sixty persons expert in singing hymns for the welfare (Swasti Vachaks), eighteen categories and sub-categories of the people, many mandalik kings and nobles coronated the king with pitchers full of fragrant water of best quality held on highclass lotus leaves. They then greeted the king with such words that provide extreme pleasure to the heart. They praised him. Thereafter sixteen thousand celestial beings wiped the body of king with the towels फ that had very soft yarn and which were performed with fragrant material. They applied goshirsh sandalwood paste his body. Then they फ्र फ्र 卐 clothed the king with divine dress. Thereafter they put up eighteen फ stringed garland on his neck, the Kundals in his ears and the Chudamani. Then they crowned him with a jewel-studded crown. Thereafter those celestial beings sprinkled perfumed oils with fragrances including Camphor, Kesar, Kasturi and Sandalwood of Malaya region. They decorated him with garlands of four types. द्वादशवर्षीय प्रमोद घोषणा PROCLAMATION OF TWELVE YEAR CELEBRATIONS ८४. [५] तए णं से भरहे राया महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचिए समाणे कोडुबि अपुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! हत्थिखंधवरगया विणीआए रायहाणीए सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर जाव महापहपहेतु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ उस्सुक्कं उक्करं उक्कट्ठे अदिज्जं अमिज्जं अब्भडपवेसं अदंडकुदंडिमं सुपरजणवयं दुवालससंवच्छरिअं पमोअं घोसेह घोसित्ता ममे अमाणत्तिअं पच्चष्पिणहत्ति, तए णं ते कोडुंबिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठ चित्तमाणंदिआ पीइमणा हरिसवस - विसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पडिसुर्णेति २ त्ता खिप्पामेव 5 हत्थिखंधवरगया घोसंति घोसित्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति । (244) ******* तए णं से भरहे राया महया २ रायाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ २ त्ता इत्थिरयणेणं णाडगसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे अभिसे अपेढाओ पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ २ त्ता अभिसेअमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई जाव दूरूढे । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 25 55 55 5 5 55 56 5 6 7 8 95 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5555 5552 卐 卐 卐 卐 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ahhhhh hhhh hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh 55555555 555555555555)))) ) )) # अभिसेअपेढाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणावइरयणे जाव सत्यवाहप्पभिईओ अभिसेअपेढाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, तए णं तस्स # भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अटुटुमंगलगा पुरओ जाव संपत्थिा , जोऽवि अ अइगच्छमाणस्स गमो पढमो कुबेरावसाणो सो चेव इहंपि कमो सक्कारजढो णेअब्बो जाव कुबेरोव्व देवराया केलासं सिहरिसिंगभूअंति।। तए णं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता जाव भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २ ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ ता उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं भुंजमाणे विहरइ। # तए णं से भरहे राया दुवालससंवच्छरिअंसि पमोअंसि णिवत्तंसि समाणंसि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला सीहासणवरगए # पुरत्थाभिमुहे णिसीणइ २ त्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता पडिविसज्जेइ २ ता बत्तीसं रायवरसहस्सा सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता सेणावइरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता जाव पुरोहियरयणं सक्कारेड सम्माणेड २त्ता एवं तिणि सद्रं सवआरसए अद्वारस सेणिप्पसेणीओ सक्कारेड सम्माणेड २त्ता अण्णे बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिइओ सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता पडिविसज्जेति २ ता उप्पिं # पासायवरगए जाव विहरइ। ८४. [५] इस प्रकार विशाल राज्याभिषेक में अभिषिक्त होकर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक # पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! हाथी पर सवार होकर तुम लोग विनीता राजधानी के के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों तथा विशाल राजमार्गों पर जोर-जोर से यह घोषणा करो कि इस # उपलक्ष्य में मेरे राज्य के निवासी बारह वर्ष पर्यन्त प्रमादोत्सव मनाएँ। इस बीच राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति आदि पर प्रति वर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर नहीं लिया जायेगा। किसी से यदि कुछ लेना है, पाना है, उसमें खिंचाव न किया जाए, जोर न दिया जाए, # आदान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड-जुर्माना, कुदण्ड-बड़े अपराध के लिए दण्डरूप में लिया जाने वाला अल्पद्रव्य-थोड़ा * जुर्माना ये दोनों ही न लिये जाएँ। यावत् पुर, जनपद सहित यह बारह वर्षीय प्रमोद उत्सव मनाया जाये। यह घोषणा कर मुझे अवगत कराओ। राजा भरत की यह बात सुनकर वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत हर्षित तथा आनन्दित हुए। उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। हर्ष से उनका हृदय खिल उठा। उन्होंने विनयपर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। स्वीकार कर वे शीघ्र ही हाथी पर सवार हए। यावत विनीता राजधानी में उन्होंने राजा के आदेशानुरूप घोषणा की। घोषणा कर राजा को अवगत कराया। । विराट् राज्याभिषेक-समारोह सम्पन्न होने पर राजा भरत सिंहासन से उठा। उठकर स्त्रीरत्न सुभद्रा के साथ बत्तीस हजार नाटक-मंडलियों से संपरिवृत वह राजा अभिषेक-पीठ से उसके पूर्वी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे उतरा। नीचे उतरकर अभिषेक-मण्डप से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ आभिषेक्य हस्तिरत्न था, यहाँ आकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ़ हुआ। राजा भरत के तृतीय बक्षस्कार 55555555;)))))))))))))55555555555555555555553 ת ת נ ת נ ת נ ת ת נ ת ת (245) Third Chapter फ़ फ़ फ़फ़))) ) ))) )) ))) ) )) ) ) )) ))) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))) ) ) )) 55555555555555555555555555555555555 म पीछे आते बत्तीस हजार प्रमुख राजा अभिषेक-पीठ से उसके उत्तरी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे उतरे। ॐ राजा भरत का सेनापतिरत्न, सार्थवाह आदि अभिषेक-पीठ से उसके दक्षिणी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे ॐ उतरे। आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ राजा के आगे आठ मंगल-प्रतीक रवाना किये गये। आगे का वर्णन कुबेर के वर्णन के अंतिम अंश तक का वर्णन सूत्र में कहे अनुसार समझें। यावत् कैलाश शिखर के ऊपर 3 कुबेर के समान वह भरत राजा सुख का अनुभव करता है। तत्पश्चात् राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नानादि सम्पन्न कर भोजन-मण्डप में आया, ॐ सुखासन पर बैठा, तेले का पारणा किया। पारणा कर भोजन-मण्डप से निकला। भोजन-मण्डप से ॐ निकलकर वह अपने श्रेष्ठ उत्तम प्रासाद में गया। वहाँ मृदंग आदि बज रहे थे। राजा उनका आनन्द लेता # हुआ सांसारिक सुखों का भोग करने लगा। जब प्रमादोत्सव में बारह वर्ष पूर्ण हो गये। राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। स्नान कर ॐ वहाँ से निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर पूर्व की ओर मुँह कर सिंहासन पर बैठा। 卐 सिंहासन पर बैठकर सोलह हजार देवों का सत्कार किया. सम्मान किया। उनको सत्कत. सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। बत्तीस हजार प्रमुख राजाओं का सत्कार-सम्मान किया। सत्कृत, सम्मानित कर %3 उन्हें विदा किया। सेनापतिरत्न, पुरोहितरत्न आदि का, तीन सौ साठ सूतकारों का, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों का, बहुत से माण्डलिक राजाओं, प्रभावशाली पुरुषों, राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिकों तथा सार्थवाह आदि का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा 卐 किया। विदा कर वह अपने श्रेष्ठ-उत्तम महल में गया। वहाँ विपुल सुख भोगने लगा। 5 84. [5] After having been coronated in this manner, king Bharat si called his officials and said, 'O the blessed ! Riding on elephants you proclaim with loud voice at tri-junction, four way crossings and great high ways in Vinita city that in view of the coronation, the people of the kingdom should hold celebrations for twelve years. During this period no 1 tax on sales or purchase shall be recovered. No property tax which is recovered annually shall be recovered. In case any old dues are to be recovered, no hardship shall be done against the defaulter. The practice of checking purchases, sales, weights and measures shall remain suspended. No state official or state employee shall enter the house of any one. No fine whether for serious crime or for minor crime shall be recovered up to that period. The entire population shall enjoy these celebrations for twelve years. The officials felt happy to receive there orders. Due to this ecstatic pleasure, their joy knew no bounds. They humbly and respectfully accepted the orders. They then quickly got on the elephant and made proclamation as ordered by the king. Thereafter, they informed the king about compliance. )5555555)))) )) ) )) ))) 4) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (246) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24545454545454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 4548 ת ת ת ת נ hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhFF F After the grand function relating to the coronation, the king got up 4 F from his throne. He alongwith Subhadra, the head queen, surrounded by E thirty two thousand theatrical groups got down through the three rung path and then came out of the assembly hall. He then came to the place where coronated elephant was stationed. He then got on the elephant which was high like the top of Anjanagiri. Thereafter, thirty two fi thousand important rulers of the continents came down through the stairs in the north. The army chief of king Bharat, the nobles and the like came down through the stairs in the south. Eight meritorious symbols were moved ahead of the king. Further description may be y understood as similar to the description of Kuber up to the concluding part as described in the scripture. King Bharat enjoys worldly pleasures like Kuber on the top of Kailash. F Thereafter, king Bharat entered the bathing place. After taking bath Fi he came to the dining hall and sat in a comfortable position. He broke his three day fast and then came out from the dining hall. Thereafter, he went to his grand palace. The drums were being beaten there. Enjoying 5 the beat of drums and the like, the king started enjoying pleasures rithe fi mundane world. After the conclusion of twelve years celebrations, king Bharat came to the bathing chamber. After taking bath, he came out from there. He then came to the assembly hall and sat on the throne facing east. He then fi honoured sixteen thousand celestial beings and allowed them to depart. Thereafter, he honoured the army chief, the chief advisor (purohit) and the like, three hundred sixty cooks, eighteen categories and sub5 categories of public officials, many mandalik rulers, influential persons, fi civilians honoured by the state and the nobles and then allowed them to fi go. Thereafter, he went to his grand palace and started enjoying exquisite pleasures of the mundane world. : 7a Ala Top 7 FOURTEEN JEWELS (RATNAS) : APPEARANCE OF NINE NIDHIS # ८५. भरहस्स रण्णो चक्करयणे १ दंडरयणे २ असिरयणे ३ छत्तरयणे ४ एते णं चत्तारि एगिंदियरयणे आउहघरसालाए समुप्पण्णा। चम्मरयणे १ मणिरयणे २ कागणिरयणे ३ णव य महाणिहिओ एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा। # सेणावइरयणे १ गाहावइरयणे २ वद्धइरयणे ३ पुरोहिअरणे ४ एए णं चत्तारि मणुअरयणा विणीआए रायहाणीए समुप्पण्णा। तृतीय वक्षस्कार (247) Third Chapter 5555%%%%%%%% %%% %%%%%%%%%%%%5B Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555 ***தமிழ*************************** फ्र आसरयणे १ हत्थिरयणे २ एए णं दुवे पंचिंदिअरयणा वेअद्धगिरिपायमूले समुप्पण्णा । सुभद्दा इत्थीर उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए समुप्पण्णे । ८५. राजा भरत के (१) चक्ररत्न, (२) दण्डरत्न, (३) असिरत्न, तथा (४) छत्ररत्न- ये चार एकेन्द्रिय रत्न आयुधगृहशाला में शस्त्रागार में उत्पन्न हुए । (१) चर्मरत्न, (२) मणिरत्न, (३) काकणीरत्न तथा नौ महानिधियाँ, श्रीगृह में - भाण्डागार में उत्पन्न हुए। (१) सेनापतिरत्न, (२) गाथापतिरत्न, (३) वर्धकिरन, तथा (४) पुरोहितरत्न; ये चार मनुष्यरत्न, विनीता राजधानी में उत्पन्न हुए । (१) अश्वरत्न, तथा (२) हस्तिरत्न; ये दो पञ्चेन्द्रिय रत्न वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हुए । (१) सुभद्रा नामक स्त्रीरल उत्तर विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न हुआ। 85. In the ordnance store of king Bharat four Ratnas namely — (1) the 5 divine wheel (Chakra Ratna ), ( 2 ) the divine rod (Dand Ratna ), ( 3 ) the 5 divine sword (Asi Ratna ), and (4) the divine umbrella (Chhatra Ratna) 5 which are one-sensed beings appeared. फ्र 卐 In the treasury, the three Ratnas namely – ( 1 ) Charma Ratna, 5 (2) Mani Ratna (the divine precious stone ), ( 3 ) the Kakani Ratna (the light producing divine article) and also the nine nidhis appeared. In the capital city Vinita – (1) Senapati Ratna (the army chief), 5 (2) Gathapati Ratna (the divine agriculturist ), ( 3 ) Vardhaki Ratna (the 5 divine architect-cum-builder ), and (4) Purohit Ratna (the divine advisor 5 to the king) were born. 卐 卐 卐 卐 சு At the foot of Vaitadhya mountain, the two five-sensed Ratnas- 5 (1) the divine horse, and ( 2 ) the divine elephant were born. 卐 卐 (1) Subhadra, the Stri Ratna (the head queen ) was born among Vidyadhars. 卐 5 卐 卐 भरत का राज्य-वैभव THE WEALTH OF KING BHARAT ८६. तएं णं से भरहे. राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्हं देवसाहस्सीणं बत्तीसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्साणं, बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्साणं बत्तीस 5 बत्तीसइबद्धाणं णाडगसहस्साणं, तिन्हं सट्ठीणं सूवयरसयाणं, अट्ठारसण्हं सेणिप्पसेणीणं, चउरासीइए 5 卐 फ्र 卐 फ आससयसहस्साणं, चउरासीइए दंतिसयसहस्साणं, चउरासीइए रहसयसहस्साणं, छण्णउइए 5 फ्र मस्सकोडीणं, बावत्तरीए पुरवरसहस्साणं, बत्तीसाए जणवयसहस्साणं, छण्णउइए गामकोडीणं, फ्र 5 णवणउइए दोणमुहसहस्साणं, अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं, चउव्वीसाए कब्बडसहस्साणं, चउब्बीसाए फ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (248) ******* 卐 卐 卐 फ्र 卐 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 5 मडंबसहस्साणं, वीसाए आगरसहस्साणं, सोलसण्हं खेडसहस्साणं, चउदसण्हं संवाहसहस्साणं, छप्पण्णाए ததததத*****மிதமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிததமி*** 卐 5 भरहस्स वासस्स अण्णेसिं च बहूणं राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिईणं आहेवच्चं पोरेबच्चं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगत्तं आणा - ईसर - सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे । अंतरोदगाणं एगूणपण्णाए कुरज्जाणं, विणीआए रायहाणीए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्परस ओहणिहए कंटए उद्धिअमलिएसु सव्वसत्तुसु णिज्जिएसु भरहाहिवे णरिंदे । 卐 वरचंदणचच्चिअंगे वरहाररइअवच्छे वरमउडविसिट्ठए वरवत्थभूसणधरे सव्वोउअ - सुरहि - कुसुम - 5 मल्ल - सोभिअसिरे वरणाडग - नाडइज्ज-वरइत्थिगुम्मसद्धिं संपरिवुडे सव्वोसहि - सव्वरयण 卐 फ्र 5 बत्तीस हजार ऋतु - कल्याणिकाओं, बत्तीस हजार जनपद - कल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों के समूह 卐 फ 5 सव्वसमिइ - समग्गे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुव्वकय-तवप्पभाव - निविट्ठसंचिअफले भुंजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेज्जेत्ति । फ्र 5 ८६. राजा भरत चौदह रत्नों, नौ महानिधियों, सोलह हजार देवताओं, बत्तीस हजार राजाओं, में अनुबद्ध बत्तीस हजार नाटक - मंडलियों, तीन सौ साठ सूतकारों, अठारह श्रेणि- प्रश्रेणि-जनों, चौरासी लाख घोड़ों, चौरासी लाख हाथियों, चौरासी लाख रथों, छियानवे करोड़ मनुष्यों - पदातियों, 5 बहत्तर हजार महानगरों, बत्तीस हजार जनपदों, छियानवे करोड़ गाँवों, निन्यानवे हजार द्रोणमुखों, 5 अड़तालीस हजार पत्तनों, चौबीस हजार कर्बटों, चौबीस हजार मडम्बों, बीस हजार आकरों, सोलह 5 हजार खेटों, चौदह हजार संबाधों, छप्पन अन्तरोदकों - जल के अन्तर्वर्ती सन्निवेश - विशेषों तथा उनपचास भील आदि जंगली जातियों के राज्यों का, विनीता राजधानी का, एक ओर लघु हिमवान् 5 पर्वत से तथा तीन ओर समुद्रों से मर्यादित समस्त भरत क्षेत्र का, अन्य अनेक माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, तलवर, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, प्रभुत्व, स्वामित्व, फ अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापति- जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार होता है, वैसा सेनापतित्व- इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करता हुआ, सम्यक् निर्वाह करता हुआ राज्य करता था। फ्र 卐 5 राजा भरत ने अपने कण्टकों-गोत्रज शत्रुओं की समग्र सम्पत्ति का हरण कर लिया, उन्हें विनष्ट कर दिया तथा अपने अगोत्रज समस्त शत्रुओं को मसल डाला, कुचल डाला । 卐 मुकुट से विभूषित था, वह उत्तम, बहुमूल्य आभूषण धारण किये था, सब ऋतुओं में खिलने वाले श्रेष्ठ 5 फूलों की सुहावनी माला से उसका मस्तक शोभित था, उत्कृष्ट नाटक - मंडलियों तथा सुन्दर स्त्रियों के समूह से संपरिवृत राजा भरत को सर्वविध औषधियाँ, सर्वविध रत्न तथा सर्वविध समितियाँ-अ एवं बाह्य परिषदें संप्राप्त थीं। शत्रुओं का उसने मान भंग कर दिया। उसके समस्त मनोरथ सम्यक् सम्पूर्ण 5 थे। इस प्रकार राजा भरत अपने पूर्व जन्म में आचरित तप के, संचित शुभ फलप्रद पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा। 卐 राजा भरत के अंग श्रेष्ठ चन्दन से चर्चित थे । वक्षःस्थल पर हार सुशोभित थे, प्रीतिकर था, मस्तक 5 86. King Bharat was properly looking after with all the powers and was attending to the administrative set up of his kingdom. It included Third Chapter तृतीय वक्षस्कार (249) - आभ्यन्तर கமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி*****ழ***** - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5595555955555554554 出 卐 卐 फ्र फ्र फ 5 卐 卐 फ्र 卐 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 557 575 fourteen Ratnas, nine nidhis, sixteen thousand celestial beings, thirty two thousand rulers, thirty two thousand queens providing enjoyment of 卐 all seasons, thirty two thousand women from noble families, thirty two thousand theatrical groups divided into small groups of thirty two each, three hundred and sixty cooks, eighteen categories and sub-categories of civil officials, eighty four lakh horses, eighty four lakh elephants, eighty four lakh chariots, ninety six crore men holding civic positions, seventy two thousand corporations, thirty two thousand districts, ninety six 卐 crore villages, ninety nine thousand harbours (drona-mukh), forty eight thousand ports (pattan), twenty four thousand karbats, twenty four thousand madambs, twenty thousand aakars, sixteen thousand Khetas, fourteen thousand sambadhas, fifty six colonies under water, forty nine forest kingdoms (of bhil clan) and the capital city Vinita. His kingdom was up to smail Himavan mountain in the north and up to the sea on 5 three sides. 555555555 557 5575 King Bharat had taken away all the wealth of the enemies from his own caste. He had finished them. He had trampled even those enemies who did not belong to his caste. King Bharat had all types of food grains, 45 all sorts of Ratna (jewels) and all types of councils-both inner and outer councils. He had reduced the ego of his enemies. All his desires were met properly in full. 57 卐 45 The parts of the body of king Bharat were rubbed with sandal powder. His chest was looking attractive and loveable due to the garland. There was the grand crown at his head. He was wearing very costly ornaments. His head was looking bright due to the beautiful garlands of flowers that blossom in all seasons. He was surrounded by high-class theatrical groups and beautiful women in large number. Thus king Bharat was enjoying the worldly pleasures as a result of meritorious Karma collected by him due to austerities observed in previous lives. 卐 457 फ्र आदर्श गृह 57 57 47 में केवलज्ञान ATTAINING OMNISCIENCE IN MIRROR PALACE तए तस्स भरहस्स रण्णो सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं २ फ ईहापोह - मग्गण - गवेसणं करेमाणस्स कम्माणं खएणं कम्मरय-विकिरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (250) 55555555555 ८७. [१] तए णं से भरहे राया अण्णया कयावि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव 5 ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव आदंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव 5 卐 उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ णिसीइत्ता आदंसघरंसि अत्ताणं देहमाणे २ चिट्ठा । Jambudveep Prajnapti Sutra 45 455 卐 57 45 卐 卐 45 卐 47 5 5 47 457 45 卐 卐 47 卐 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगठी विहीन ऊँगली को देखा। भरत विचारमग्न हुए। चिन्तन आत्मोन्मुख बना। अपने | आभूषण, अलंकार उतार दिये। आभषण JALAM AAAA OMANTYEm पंचमुष्टि लोच कर कि देवता द्वारा प्रदत्त मुनि वस्त्र, रजीहरण आदि धारण किया। चिन्तन में लीन भारत ने मात्र अन्र्तमुहूर्त में चार घाती कर्मी का नाश कर कैवल्य की दिव्या ज्योति आलोकित की। OP शीश गृह से निकलकर, उपवन की और चले। रानियाँ, मंत्री पुरोहित आदि केवली मुनि भरत को हाथ जोड़े वन्दना करते हुए। 14 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555555555555550 चित्र परिचय १४ आदर्श गृह (शीश महल) में केवलज्ञान एक दिन चक्रवर्ती भरत स्नान कर देव दूष्य वस्त्र-आभूषणों को धारण कर सिंहासन पर बैठे ॐ शीशे में अपना प्रतिबिम्ब निहार रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में भी अंगूठी नहीं थी। वह नीचे गिर गई थी। अंगूठी विहीन अंगुली पर ध्यान केन्द्रित हुआ, अंगूठी के बिना है ॐ अंगुली शोभाहीन लगी। भरत को एक झटका-सा लगा। चिन्तन प्रारम्भ हुआ-'क्या आभूषणों से ही 5 शरीर की शोभा है? क्या बिना आभूषणों के यह शरीर कांतीहीन लगता है? देखता हूँ।' उन्होंने अपने म सब आभूषण उतार दिये और दर्पण में निहारा-'सचमुच बाह्य आभूषणों से ही शरीर की शोभा है। ॐ मांस, रक्त, मल-मूत्र के भण्डार इस शरीर का अपना कोई सौन्दर्य नहीं है।' चिन्तन की धारा उत्तरोत्तर ॐ गहन बनती गई। भरत आत्मभाव में गहरे उतरते गये और प्रशस्त अध्यवसाय, उज्जवल, निर्मल ॐ परिणाम इतनी तीव्रता तक पहुँच गये कि कर्म बन्धन टूटने लगे। मात्र अन्तर्मुर्हत में चारों घाती कर्मों के म का नाश हुआ और भरतेश्वर के भीतर केवलज्ञान का दिव्य प्रकाश जगमगा उठा। तब भरत ने अपने है ॐ हाथों से पंच मुष्टि लोच करके देवताओं द्वारा प्रदत्त मुनि वस्त्र एवं रजोहरण धारण किया। वे अन्त:पुर म के बीच में से होते हुये राजभवन से बाहर निकले और उपवन की ओर प्रस्थान किया। उनकी : ॐ महारानियाँ, मन्त्री, सैनिक आदि ने शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। -वक्षस्कार ३, सूत्र ८७ ATTAINING OMNISCIENCE IN PALACE OF MIRRORS One day Chakravarti Bharat, after taking his bath and putting on his dress and ornaments, sat on his throne and looked at his reflection in a mirror. Suddenly he happened to look at his finger. His ring was missing. It had fallen on the ground. His attention was drawn to the finger that was deprived of its glamour in absence of the ring. Bharat got a jolt. He started thinking -- 'Is the glamour of the body only due to ornaments? Does the body appear dull without ornaments? Let me see.' He discarded all his ornaments and looked at the mirror. 'Indeed, body looks beautiful only when embellished with ornaments. This human body, the storehouse of flesh, blood and excreta, has no beauty of its own.' The train of thoughts went deeper and deeper. Bharat went deep into the thoughts of soul and the sublime mental state attained so intensity of sublime purity that bondage of karma shattered. Within a span of Antarmuhurt he was filled with the divine light of omniscience. Then Bharat performed five-fist pulling out of his hair and took the ascetic garb and ascetic broom provided by gods. He passed through the inner quarters, left his palace and proceeded towards the garden. His queens, ministers and guards bowed and paid homage. - Vakshaskar-3, Sutra-87 57 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [55955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555 5 卐 ८७. [ १ ] किसी दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ, 5 स्नान किया। चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन - देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगने वाला राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ आदर्शगृह- शीशमहल था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। आकर पूर्व फ की ओर मुँह किये सिंहासन पर बैठा। वह शीशमहल में शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार-बार देखता रहा । देखते-देखते शुभ परिणाम, प्रशस्त उत्तम अध्यवसाय - मनःसंकल्प, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के 5 फलस्वरूप आत्म-परिणामों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए विशुद्धि क्रम से ईहा - विशेष विचारणा, अपोहविचारणा द्वारा गुण-दोष - चिन्तन प्रसूत निश्चय, मार्गण तथा गवेषण- निरावरण परमात्मस्वरूप के 5 चिन्तन, अनुचिन्तन, अन्वेषण करते हुए राजा भरत को कर्मक्षय से - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय - इन चार घातिकर्मों के क्षय के परिणामस्वरूप, कर्म-र - रज के निवारक अपूर्वकरण 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 में- शुक्लध्यान में अवस्थिति द्वारा अनन्त, अनुत्तर निर्व्याघात - बाधारहित, निरावरण- आवरणरहित, 5 सम्पूर्ण, केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। 卐 Seeing so, his thought activity became of higher, higher and still higher order. His contemplation became the purest. As a result of this change in his thought process his soul became purer than before in an ascending order. After perception, he took the next step of conception and then started looking minutely at merits and demerits to arrive at the judgement, the ascertained knowledge. He then started contemplating on the real nature of soul. Becoming free from all impurities while going deeper and deeper in this contemplation about the soul, king Bharat destroyed all the four Karmas that adversely affect the soul namely knowledge obscuring Karma, conation obscuring Karma, deluding Karma and obstruction causing Karma. He then reached the stage of Shukla (pure) meditation about soul and thus attained omniscience and perfect conation which were limitless and without any obstruction or cover. They were complete in all respects. 87. [1] Once king Bharat came to the bathing house. He went in and 5 took his bath. He then came out of it. He was then looking beautiful and loveable like the moon. Thereafter, he came to the mirror palace. He then sat on his seat there facing east. He was seeing again and again his reflection in mirrors. अष्टापद गमन GOING TO ASHTAPAD ८७. [ २ ] तए णं से भरहे केवली सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठिअं लोअं करेइ २ त्ता आयंसघराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता अंतेउरमज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ २ त्ता Third Chapter तृतीय बक्षस्कार (251) फफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 ததததததததததததததததமி****************** 卐 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ திமிதிததமி***************************** दसहिं रायवरसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे विणीअं रायहाणिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ २ त्ता मज्झदेसे सुहंसुहेणं विहरइ २ त्ता जेणेव अट्ठावए पव्वए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अट्ठावयं पव्वयं सणिअं २ दुरूहइ 5 दुरूहित्ता मेघघणसण्णिकासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ पडिलेहित्ता संलेहणा - झूसणाझूसिए भत्त - पाण- पडिआइक्खए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे २ विहरइ । तए णं से भरहे केवली सत्तत्तरिं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमझे वसित्ता, एगं वाससहस्सं 5 मंडलिय - राय - मज्झे वसित्ता, छ पुव्वसयसहस्साई बाससहस्सूणगाई महारायमज्झे वसित्ता, तेसीइ 5 पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झे वसित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं देसूणगं केवलि - परियायं पाउणित्ता तमेव 5 卐 बहुपडिपुण्णं सामन्न- परियायं पाउणित्ता चउरासीइ पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउअं पाउणत्ता मासिएणं भत्ते 5 अपाणएणं सवणेणं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कंते 5 समुज्जाए छिण्णजाइ - जरा - मरण - बंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिबुडे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे । 卐 ८७. [ २ ] तब केवली सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये। स्वयं ही 卐 5 卐 पंचमुष्टिक लोच किया। वे शीशमहल से बाहर निकले। बाहर निकलकर अन्तःपुर के बीच से होते हुए 5 राजभवन से बाहर आये। अपने द्वारा प्रतिबोधित दस हजार राजाओं से संपरिवृत केवली भरत विनीता फ्र 卐 राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये । मध्यदेश में - कोशल देश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे जहाँ अष्टापद पर्वत था, वहाँ आये। वहाँ आकर धीरे-धीरे अष्टापद पर्वत पर चढ़े। पर्वत पर चढ़कर 5 सघन मेघ के समान श्याम तथा देव-सन्निपात - जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक 卐 का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन कर उन्होंने वहाँ संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया, 5 पादोपगत-कटी वृक्ष की शाखा की ज्यों जिसमें देह को सर्वथा निष्प्रकम्प रखा जाये, वैसा संथारा फ अंगीकार किया । जीवन और मरण की आकांक्षा न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे । 卐 5 卐 फ 卐 87. [2] Then omniscient Bharat removed his ornaments and symbols himself. He plucked his hair in five attempts and then came out of the glass palace. Passing through the harem, he came out of the palace. He had imparted his knowledge to ten thousand kings and then alongwith these kings he came out through Vinita city. He, moving ahead, came to जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (252) Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 卐 卐 केवली भरत सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, एक हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के 5 रूप में रहे, एक हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराज के रूप में - चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में रहे। 5 卐 वे तियासी लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे । अन्तर्मुहूर्त्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलि - पर्याय में 5 रहे। एक लाख पूर्व पर्यन्त उन्होंने श्रामण्य पर्याय- श्रमण- जीवन का, संयमी जीवन का पालन किया। 5 उन्होंने चौरासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा । उन्होंने एक महीने के चौविहार - अनशन द्वारा वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र - अघाति कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह त्याग किया। जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को उन्होंने तोड़ डाला। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत्-संसार में आवागमन के नाशक तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता गये। 5 5 फ 5 फ्र 5 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 5 5 卐 5 卐 卐 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 5 5 55 5 55 5555555 5 55 55 5 5 55 55555555 52 फ्र फ्र फ्र 5 卐 卐 5 卐 फ्र 卐 卐 卐 Omniscient Bharat remained for seventy seven lakh poorvas in princely state. He remained as Mandalik ruler for one thousand years and for one thousand years less six lakh poorvas as king emperor-the Chakravarti king emperor. Thus he remained as a householder for a total period of 83 lakh poorvas. He remained in a state of omniscience for a little less (less than 48 minutes) than one lakh poorva. He spent the life of monkhood for a period of one lakh poorvas. His total life-span was that of 84 lakh poorvas. After destroying all the remaining four Karmas through complete fast for one month when moon was in Shravan constellation, he discarded the physical body and snapped the bondage of death and re-birth. He then attained salvation, liberation and state of 卐 5 complete departure from the worldly cycles of birth, death and re-birth 5 which is the cause of all miseries. 卐 5 5 विवेचन : राजा भरत शीशमहल में सिंहासन पर बैठा शीशों में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को निहार रहा था। अपने सौन्दर्य, शोभा एवं रूप पर वह स्वयं विमुग्ध था। अपने प्रतिबिम्बों को निहारते-निहारते उसकी दृष्टि फ 5 अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में अंगूठी नहीं थी । वह नीचे गिर पड़ी थी। भरत ने अपनी अंगुली पर पुनः दृष्टि 5 卐 गड़ाई| अंगूठी के बिना उसे अपनी अंगुली सुहावनी नहीं लगी। सूर्य की ज्योत्स्ना में चन्द्रमा की धुति जिस प्रकार 5 प्रभाहीन प्रतीत होती है, उसे अपनी अंगुली वैसी ही लगी। उसके सौन्दर्याभिमानी मन पर एक चोट लगी। उसने अनुभव किया- अंगुली की कोई अपनी शोभा नहीं थी, वह तो अंगूठी की थी, जिसके बिना अंगुली का शोभारहित रूप उद्घाटित हो गया। 卐 5 5 5 5 卐 5 the Koshal region where Ashtapad mountain was located. He then 卐 slowly climbed Ashtapad mountain. Thereafter, he closely examined a stone seat where the celestial beings normally come and go. It was looking black as a cloud. He undertook Sanlekhana and restrained 卐 卐 himself from all types of food and drinks. He took the posture of a branch of a tree lying on the ground motionless after having been separated from the tree. Without any desire for further life or early death, he engaged himself in deep contemplation about the soul. 5 फ 5 5 भरत चिन्तन की गहराई में पैठने लगा। उसने अपने शरीर के अन्यान्य आभूषण भी उतार दिये । सौन्दर्य5 परीक्षण की दृष्टि से अपने आभूषणरहित अंगों को निहारा । उसे लगा - चमचमाते स्वर्णाभरणों तथा रत्नाभरणों के अभाव में वस्तुतः मेरे अंग फीके, अनाकर्षक लगते हैं। उनका अपना सौन्दर्य, अपनी शोभा कहाँ है ? भरत की चिन्तन-धारा उत्तरोत्तर गहन बनती गई। शरीर के भीतरी मलीमस रूप पर उसका ध्यान गया। उसने मन ही मन अनुभव किया - शरीर का वास्तविक स्वरूप माँस, रक्त, मज्जा, विष्ठा, मूत्र एवं मल-मय है। इनसे भरा शरीर सुन्दर, श्रेष्ठ कहाँ से होगा ? तृतीय वक्षस्कार 1555 5 卐 5 卐 卐 भरत के चिन्तन ने एक दूसरा मोड़ लिया। वह आत्मोन्मुख बना । आत्मा के परम पावन, विशुद्ध चेतनामय फ तथा शाश्वत शान्तिमय रूप की अनुभूति में भरत उत्तरोत्तर मग्न होता गया। उसके प्रशस्त अध्यवसाय, उज्ज्वल, 5 (253) Third Chapter 5 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 5 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 4554 56 457 454 455 456 2 145 41 41 414 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 455 456 457 4 5 4 455 456 457 455 456 454 ॐ निर्मल परिणाम इतनी तीव्रता तक पहुँच गये कि उसके कर्मबन्धन तडातड़ टूटने लगे। परिणामों की पावन धारा 卐 तीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम होती गई। मात्र अन्तर्मुहर्त में अपने इस पावन भावचारित्र द्वारा चक्रवर्ती भरत ने वह ॥ विराट् उपलब्धि स्वायत्त कर ली, जो जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। घातिकर्म-चतुष्टय क्षीण हो गया। राजा भरत का जीवन कैवल्य की दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा। (आधार : शान्तिचन्द्र वाचक कृत टीका) Elaboration King Bharat, sitting on his throne in the mirror palace, was seeing his reflection in the mirrors. He was engrossed in his beauty, grandeur and physical appearance. While seeing his reflections, he looked at his finger and found that it was without a ring. That ring had fallen down. Bharat again looked at his finger minutely. He found that his finger without the ring was not beautiful. Just as the brightness of the moon is without any glamour in the presence of the sun, he found his finger without glamour. It had an adverse effect on his ego. He felt that his finger has no grandeur of its own and that the grandeur was that of the ring. In the absence of the ring the faded shape of the finger came to light. Bharat started contemplating on this fact in depth. He removed his other ornaments one by one. He looked minutely at the parts of his body without the ornaments. He found that in reality, in the absence of shining gold ornaments and jewel-studded ornaments his limbs are pale and unattractive. They have no beauty or attraction of their own. The flow of his thought-activity became deeper and deeper. He closely looked at the inner state of his body. He felt in his mind that the real state of his body is that it is full of flesh, blood, marrow, stool, urine and dirty matter. How can such a body, which contains such things, be beautiful and sublime. Then the thought process in Bharat's mind took another direction. He turned his attention towards the soul. He became more and more absorbed in the extremely pure peaceful and ever-existing state of consciousness. Experiencing such a state, his good thoughts, the bright 'i pure contemplation became so pronounced that his bondage of Karmas started breaking quickly as the thought process started becoming deeper, deeper and deeper till it reached the sublime state. Then as a result of this extremely pure contemplation, Bharat Chakravarti attained that state which is the highest attainment in the worldly life in less than 48 minutes. He made the bondage of four Karmas that affect the soul, extremely weak and was destroyed. The life of king Bharat started 457 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 455 456 457 454 455 4 牙牙牙牙牙牙步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙%%%%%%%%牙牙牙牙牙牙%%%%%%%% 1454 455 454 455 456 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (254) Jambudveep Prajnapti Sutra 455454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 4541414141414141414141414141414 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555))))) ) ))))))))) )))) shining with the unique glamour of omniscience. (Commentary by Vachak Shanti Chandra) भरत क्षेत्र : नामाख्यान BHARAT KSHETRA : HOW SONAMED? ८८. भरहे अ इत्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से एएणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ भरहे वासे २ इति। अदुत्तरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ, धुवे णिअए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे। ८८. भरत क्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली, परम धुतिशाली, एक पल्योपम स्थिति वाला भरत नामक देव निवास करता । इस कारण यह क्षेत्र भरतवर्ष या भरत क्षेत्र कहा जाता है। गौतम ! एक और बात भी है। भरतवर्ष या भरत क्षेत्र-यह नाम शाश्वत है-सदा से चला आ रहा है। कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा-यह स्थिति इसके साथ नहीं है। यह था, यह है, यह होगा-यह ऐसी स्थिति लिये हुए है। यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। ॥ तृतीय वक्षस्कार समाप्त ॥ 88. A very prosperous, extremely bright celestial being with a lifespan of one palyopam was residing in Bharat area. So this region is called Bharat-varsh or Bharat Kshetra. Gautam ! There is also one more reason. The name Bharat-varsh or Bharat Kshetra is permanent. It has been in existence since beginingless time. There was never a time-period when it was not there, when it is not there or when it shall not be there. It has such a characteristic that it was in the past, it is at present and it shall be in future. It is a standard, everlasting undisturbable, undestroyable, undiminishable and stable in nature. • THIRD CHAPTER CONCLUDED • | तृतीय वक्षस्कार (255) Third Chapter 5555555555555555555555555555555 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3)) )) )) )) )) )) ) ) )) ) )))) ) ))) 1 चतुर्थ वक्षस्कार FOURTH CHAPTER उपोद्घात INTRODUCTION जम्बूद्वीपान्तर्गत भरत क्षेत्र का वर्णन प्रथम तथा द्वितीय वक्षस्कार में आ चुका है। इस चतुर्थ वक्षस्कार में शेष सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का वर्णन है। The description of Bharat area in Jambu continent has been narrated in the first and the second chapters. In ihis fourth chapter, there is the y detailed description of the remaining aspects of Jambu dveep. चुल्ल हिमवान् पर्वत CHULL HIMAVAN MOUNTAIN ८९. [प्र. ] कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहर पव्वए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! हेमवयस्स वासस्स दाहिणेणं, भरहस्स वासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते। पाईण-पडीणायण, उदीण-दाहिण-वित्थिण्णे, दुहा लवणसमुहं पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुहं पुढे। एगं जोअण-सयं उद्धं उच्चत्तेणं, पणवीसं जोअणाई उव्वेहेणं, एगं जोअणसहस्सं वावण्णं च जोषणाई दुवालस य एगूणवीसइ भाए जोअणस्स विक्खंभेणंति। तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं पंच जोअणसहस्साइं तिण्णि अ पण्णासे जोअणसए पण्णरस य । एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया : के पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, चउव्वीसं जोअण-सहस्साई णव य बत्तीसे ! जोअणसए अद्धभागं च किंचि विसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता। तीसे धणु-पट्टे दाहिणेणं पणवीसं : जोअण-सहस्साई दोण्णि अ तीसे जोअणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते, रुअगसंठाणसंठिए, सव्वकणगामए, अच्छे, सण्हे तहेव जाव पडिसवे, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं : है दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्हवि पमाणं वण्णगोत्ति। चुल्लहिमवंतस्स वासहर-पव्वयस्स उवरि । बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाणमंतरा देवा य: देवीओ अ जाव विहरंति। ८९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में चुल्न हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में चुल्ल हिमवान् नामक वर्षधर हैमवत क्षेत्र के दक्षिण में, भरत क्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा म तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह दो ओर से लवणसमुद्र को स्पर्श किये हुए है। अपने पूर्वी किनारे से ! 3111मानानानागानासानानानानाना-.. -•-• IF जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (256) Jambudveep Prajnapti Sutra E E Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEEL LE LE LE LE 4 5 पूर्वी लवणसमुद्र को तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र को छुए है। वह एक सौ योजन ऊँचा ५ है। पच्चीस योजन भूमि में गड़ा है । वह १,०५२१२३ योजन चौड़ा है। Y ५ 5 F उसकी बाहा—भुजा सदृश प्रदेश पूर्व - पश्चिम ५, ३५०१५ योजन लम्बा है। उसकी जीवा - धनुष की प्रत्यंचा सदृश प्रदेश पूर्व - पश्चिम लम्बा है। वह अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का, पश्चिमी ५ किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । वह (जीवा) २४, ९३२ योजन एवं आधे योजन से Y कुछ कम लम्बी है। दक्षिण में उसका धनुःपृष्ठ भाग परिधि की अपेक्षा से २५, २३० योजन का है । वह ५ रुचक - संस्थान - संस्थित है; रुचक नामक गले के आभूषण का आकार लिये हुए है, सर्वथा स्वर्णमय है। Y 5 वह स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो वनखंडों से घिरा हुआ है। उनका वर्णन पूर्वानुरूप है । चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर बहुत समतल और रमणीय ५ भूमिभाग है । वह आलिंगपुष्कर-मुरज या ढोलक के ऊपरी चर्मपुट के सदृश समतल है । वहाँ बहुत से वाणव्यन्तर देव तथा देवियाँ विहार करते हैं। Б F 5 F F F 5 F F Б F 89. [Q.] Reverend Sir ! Where is Chull Himavan Varshadhar mountain located in Jambu island? F F 5 5 F In the east-west direction its ridge is five thousand three hundred fifty yojan and fifteen and a half times the nineteenth part of a yojan long. Its region shaped like the string of a bow is east-west in length. That one is touching east Lavan Samudra from the eastern end and y fi western Samudra from the western end. That length is a little less than twenty four thousand nine hundred thirty two and a half yojan. In the Y south its curved part is twenty five thousand two hundred thirty and y four-nineteenth yojans. It has the shape of ruchak-an ornament worn y at the neck and is totally of gold. It is clean smooth and beautiful. It is f surrounded by two Padmavar Vedikas and two forest regions on both the sides. Their description is as already mentioned earlier. There is a highly Y levelled and beautiful area at the top of Chull Himavan Varshdhar mountain. That is as levelled as the top of muraj or a drum. Many y Vyantar class celestial beings (gods and goddesses) move there. F ५ 4 [Ans.] Gautam! Chull Himavan Varshadhar mountain is in the south of Haimavat continent. It is in the north of Bharat area and is in the west of eastern Lavan Sea and in the east of western Lavan Sea. Its Y length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. y It is touching Lavan Samudra (Salty Ocean) on two sides eastern Y Lavan Sea from its eastern end and western Salty Ocean from its western side. It is one hundred yojan high. It is twenty five yojan deep. It is 1,052 yojan and twelve-nineteenth of a yojan wide. Y चतुर्थ वक्षस्कार E (257) Y Fourth Chapter 2 55 5 5 5 5 5 55 5 5 5 595555 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5959595952 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 5 5 5 55555555 5 5 5555 5 555 55 5 5 555 55555 52 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5555 5555 5 5 9 7 5 555555552 卐 5 फ्र 卐 पद्मद्रह वर्णन DESCRIPTION OF PADMA LAKE (DRAH) ९०. [१] तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इत्थ णं इक्के महं पउमद्दहे तस्स णं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं महं एगे पउमे पण्णत्ते, जोअणं आयाम - विक्खंभेणं, अद्धजोअणं वाहल्लेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ। साइरेगाई दसजोअणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता । से णं एगाए जगईए सव्वओ समंता सपरिक्खित्तो जम्बुद्दीव - जगइप्पमाणा, 5 गवक्खकडएवि तह चेव पमाणेणंति । 卐 卐 5 णामं दहे पण्णत्ते । पाईण-पडीणायए, उदीण - दाहिण - वित्थिण्णे, इक्कं जोअण- सहस्सं आयामेणं, पंच फ्र जो अणसयाई विक्खंभेणं, दस जोअणाई उब्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, रययामयकूले जाव पासाईए जाव पडिरूपवेत्ति । से णं गाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । वेइआ - वणसंडवण्णओ भाणि अव्वोत्ति । तस्स णं पउमद्दहस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता । वण्णावासो भाणिअव्वोत्ति । सिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पण्णत्ता । ते णं तोरणा णाणामणिमया । 卐 फ्र तस्स णं पउमस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, 5 वेरुलिआमए णाले, वेरुलिआमया बाहिरपत्ता, जम्बूणयामया अब्भिंतरपत्ता, तवणिज्जमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरत्थिभाया, कणगामई कण्णिगा । सा णं अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, सव्व कणगामई, अच्छा। उस ग्रह के चारों ओर एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड है। वेदिका एवं वनखण्ड का वर्णन 5 पूर्व वर्णित के अनुसार है। उस पद्मद्रह की चारों दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। वे पूर्व वर्णनानुसार हैं। उन तीन-तीन सीढ़ियों में से प्रत्येक के आगे नाना प्रकार की मणियों से सुसज्जित 5 तोरणद्वार बने हैं। उस पद्मद्रह के बीचोंबीच एक विशाल पद्म (कमल) है। वह एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा 卐 फ तथा आधा योजन मोटा है। दस योजन जल के भीतर गहरा है। दो कोश जल से ऊँचा उठा हुआ है। इस ९०. [ १ ] उस अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में पद्मद्रह नामक एक विशाल ग्रह है । वह पूर्व-पश्चिम में एक हजार योजन लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में पाँच सौ योजन चौड़ा 5 है। उसकी गहराई दस योजन है। वह स्वच्छ, सुकोमल, रजतमय, तटयुक्त यावत् शोभायुक्त सुन्दर - मन में बस जाने वाला है। 5 प्रकार उसका कुल विस्तार दस योजन से कुछ अधिक है। वह एक जगती- प्राकार द्वारा सब ओर से 卐 घिरा है। उस प्राकार का प्रमाण जम्बूद्वीप के प्राकार के तुल्य है। उसका गवाक्ष-समूह झरोखे भी प्रमाण फ में जम्बूद्वीप के गवाक्षों के सदृश हैं। 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र उस पद्म का वर्णन इस प्रकार है-उसके मूल वज्ररत्नमय हीरकमय हैं। उसका कन्द-मूल-नाल फ की मध्यवर्ती ग्रन्थि रिष्टरत्नमय है। उसका नाल वैडूर्यरत्नमय है। उसके बाहरी पत्ते वैडूर्यरत्न घटित हैं। उसके भीतरी पत्ते कुछ-कुछ लालिमान्वित रंगयुक्त या पीतवर्णयुक्त स्वर्णमय हैं। उसके केसर- 5 卐 卐 5 卐 (258) 5 फ ********* Jambudveep Prajnapti Sutra Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555: किञ्जल्क तपनीय रक्त या लाल स्वर्णमय हैं। उसके कमलबीज विविध मणिमय हैं। उसकी कर्णिकास्वर्णमय है। वह कर्णिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ-उज्ज्वल है। 90. [1] At the very centre of that extremely levelled and beautiful region is a great lake which is called Padma Drah. It is one thousand yojan long in east-west direction and five hundred yojan wide in northsouth direction. Its depth is ten yojans. It is clean, smooth and silvery. Its banks are attractive and beautiful. There is a Padmavar Vedika and a forest region surrounding that lake. The description of Vedika and forest region is similar to the one mentioned earlier. There are stairs of three-rungs each on all the four sides of padma drah. Their description is the same as already mentioned. In front of each of the three stairs there are festoons decorated with precious stones of various types. At the centre of Padma lake there is a great lotus, one yojan long, one yojan wide and half a yojan thick. It is ten yojan deep in water and two kos (half a yojan) above the surface of water. Thus its total extension is a little more than ten yojans. It is surround by a boundary wall (Jagati) from all sides. That wall is like that of Jambu continent. Its windows are also like those of Jambu continent. ___The detailed description of Padma (lotus) is as under-Its root is of Vajra and diamonds. Its central spike starting from the very root is of Risht jewels. Its stalk is of Vaidurya jewels. Its outer leaves are of Vaidurya jewels. Its inner leaves are a bit red coloured or yellowish like gold. Its pollens are like burnt red gold. Its seeds are of various types of precious stones. Its Karnika (middle pad) is half a yojan long, half a yojan wide and completely of gold. It is clean and bright. ९०. [२] तीसे णं कण्णिआए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभ-सयसण्णिविटे, पासाईए दरिसणिज्जे। तस्स णं भवणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता। ते णं दारा पञ्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं, तावति चेव पवेसेणं। सेआवरकणगथूभिआ जाव वणमालाओ णेअब्बाओ। तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंग., तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता। सा णं मणिपेढिआ पंचधणुसयाई |चतुर्थ वक्षस्कार (259) Fourth Chapter Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555555555558 ॐ आयामविक्खंभेणं, अड्डाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमई अच्छा। तीसे णं मणिपेढिआए उप्पिं । एत्थ णं महं एगे सयणिज्जे पण्णत्ते, सयणिज्जवण्णओ भाणिअब्बो। से णं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं परमाणं तदद्भुच्चत्तप्पमाणमित्ताणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते। ते णं पउमा अद्धजोअणं आयाम-विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, दसजोअणाई उबेहेणं, कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाइं दसजोअणाई उच्चत्तेणं। तेसि णं पउमाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वइरामया मूला, जाव (पूर्ववत्) कणगामई म कण्णिआ। सा णं कण्णिआ कोसं आयामेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई, अच्छा इति। तीसे णं कण्णिआए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे जाव मणीहि उवसोभिए। ९०. [ २ ] उस कर्णिका के ऊपर अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है। वह ढोलक पर मढ़े हुए , चर्मपुट की ज्यों समतल है। उस समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन है। वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। उसमें सुन्दर एवं दर्शनीय सैकड़ों खंभे हैं। उस भवन के तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे द्वार पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं, अढ़ाई सौ धनुष चौड़े हैं तथा उनके प्रवेशमार्ग भी उतने ही चौड़े हैं। उन पर उत्तम स्वर्णमय छोटे-छोटे शिखरकंगूरे बने हैं। वे पुष्पमालाओं से सजे हैं, जो पूर्व वर्णनानुसार जानें। उस भवन का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह ढोलक पर मढ़े चमड़े की ज्यों समतल है। उसके ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी तथा अढ़ाई सौ धनुष मोटी सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल शय्या है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। वह पद्म दूसरे एक सौ आठ पद्मों से, जो ऊँचाई में, विस्तार में उससे आधे हैं, सब ओर से घिरा हुआ है। वे पद्म आधा योजन लम्बे-चौड़े, एक कोस मोटे, दस योजन पानी में गहरे तथा एक कोस जल से ऊपर ऊँचे उठे हुए हैं। यों जल के भीतर से लेकर ऊँचाई तक वे दस योजन से कुछ अधिक हैं। उन पद्मों का विशेष वर्णन इस प्रकार है-उनके मूल वज्ररत्नमय, यावत् नाना मणिमय हैं। उनकी कर्णिका कनकमय है। वह कर्णिका एक कोश लम्बी, आधा कोश मोटी, सर्वथा स्वर्णमय तथा स्वच्छ है। उस कर्णिका के ऊपर एक बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग है, जो नाना प्रकार की मणियों से सुशोभित है। 90. [2] On that Karnika, there is extremely levelled and beautiful portion-as levelled as the leather skin on a drum. At the centre of that 4 attractive area there is a huge mansion one kos long, half a kos wide and less than a kos high. There are hundreds of beautiful worth seeing pillars in it. There are three gates on the three sides of that mansion. Those gates are 500 dhanush high and 250 dhanush wide and the passage of entrance is also that much wide. There are small gold spires on these gates. They are decorated with garlands of flowers and their description may be understood similar to as mentioned earlier. 955555555555555555555555555555555555555555558 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (260) Jambudveep Prajnapti Sutra 855555555555555555555555555555558 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The inner area of that mansion is very much levelled and attractive. It is as much levelled as the leather cover of the drum. Exactly at the centre of that mansion there is a large platform studded with precious stones (manipeethika). It is 500 dhanush long, 500 dhanush wide and 250 dhanush thick. It is pure and all in gold. There is a huge bed on that seat. Its description is similar to as mentioned earlier. That lotus (padma) is surrounded by 108 padmas (lotuses) which are half of its height and also in their extension. Those lotuses are half a yojan long, half a yojan wide and one kos thick. They are ten yojan deep in water and one kos above the surface of water. Thus from their root in the water up to their height, they are more than ten yojans. The primary description of these lotuses is that their root is of Vajra jewels up to of various types of precious stones. Their Karnika is of gold. It is one kos long, half a kos thick and completely of gold. It is pure. On this Karnika, there is a very much levelled attractive piece of land which is beautiful as it is studded with many types of precious stones. ९०. [३] तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउण्हं सामाणिअ-साहस्सीणं चत्तारि पउम-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। तस्स णं पउमस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउण्हं महत्तरिआणं चत्तारि पउमा प.। तस्स णं पउमस्स दाहिण-पुरथिमेणं सिरीए देवीए अभिंतरिआए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ पउम-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। दाहिणेणं मज्झिमपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस पउम-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरिआए परिसाए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस पउम-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ता। तस्स णं पउमस्स चउद्दिसिं सबओ समंता इत्थ णं सिरीए देवीए सोलसण्हं आयरक्ख-देवसाहस्सीणं सोलस पउम-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। से णं तिहि पउम-परिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, तं जहा-अभिंतरकेणं मज्झिमएणं बाहिरएणं। अभिंतरए पउम-परिक्खेवे बत्तीसं पउम-सय-साहस्सीओ पण्णत्ताओ। मज्झिमए पउम-परिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। बाहिरिए पउम-परिक्खेवे अडयालीसं पउम-सयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। एवामेव सपुब्बावरेणं तिहिं पउम-परिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउम-सयसाहस्सीओ भवंतीति अक्खायं। [प्र. ] से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमद्दहे २? _[उ. ] गोयमा ! पउमद्दहे णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई पउमद्दहप्पभाई पउमद्दहवण्णाभाई सिरी अ इत्थ देवी महिडिआ जाव पलिओवमद्विईआ परिवसइ, से एएणडेणं (एवं बुच्चइ पउमद्दहे इति) अदुत्तरं च णं गोयमा ! पउमद्दहस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ण कयाइ णासि न.। चतुर्थ वक्षस्कार (261) Fourth Chapter 卐5555555555555555555555555555555555 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 895 ))))))))))))) ))))) ))))))ी ))) )) )) ))) ))) 卐 ९०. [३] उस मूल पद्म के उत्तर-पश्चिम में (वायव्यकोण में) उत्तर में तथा उत्तर-पूर्व में ! (ईशानकोण में) श्रीदेवी के सामानिक देवों के चार हजार पद्म हैं। उस (मूल पद्म) के पूर्व में श्रीदेवी की ! ॐ चार महत्तरिकाओं (प्रमुख देवियों) के चार पद्म हैं। उसके दक्षिण-पूर्व आग्नेयकोण में श्रीदेवी की + आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देवों के आठ हजार पद्म हैं। दक्षिण में श्रीदेवी की मध्यम परिषद् के दस हजार देवों के दस हजार पद्म हैं। दक्षिण-पश्चिम नैऋत्यकोण में श्रीदेवी की बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के बारह हजार पद्म हैं। पश्चिम में सात अनीकाधिपति-सेनापति देवों के सात पद्म हैं। उस पद्म की चारों दिशाओं में सब ओर श्रीदेवी के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार पद्म हैं। वह मूल पद्म आभ्यन्तर, मध्यम तथा बाह्य तीन पद्म परिक्षेपों-कमल रूप परिवेष्टनों द्वाराम प्राचीरों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। आभ्यन्तर पद्म परिक्षेप में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्म परिक्षेप में चालीस लाख पद्म हैं तथा बाह्य पद्म परिक्षेप में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार तीनों : ॐ पद्म परिक्षेपों में एक करोड़ बीस लाख पद्म हैं। [प्र. ] भगवन् ! यह द्रह पद्मद्रह किस कारण कहलाता है ? [ [उ.] गौतम ! पद्मद्रह में स्थान-स्थान पर बहुत से उत्पल, यावत् सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र प्रभृति अनेकविध पद्म हैं। वे पद्म (कमल) पद्मद्रह के सदृश आकारयुक्त, वर्णयुक्त एवं आभायुक्त हैं। इस के कारण वह पद्मद्रह कहा जाता है। वहाँ परम ऋद्धिशालिनी पल्योपम-स्थिति वाली श्री (लक्ष्मी) नामक देवी निवास करती है। अथवा गौतम ! पद्मद्रह नाम शाश्वत कहा गया है। वह कभी नष्ट नहीं होता। 90. [3] There are 4,000 padmas of Samanik celestial being of Shri Devi in the north-west and in north-east direction from that basic padma. There are four padmas of four head goddesses of Shri Devi. In y Hi the south-east direction there are 8,000 padmas of 8,000 celestial beings y belonging to the inner council. In the south there are 10,000 padmas of 10,000 celestial beings belonging to the central cabinet of Shri Devi. In H the south-west direction there are 12.000 padmas of 12.000 celestiali beings of Shri Devi. In the west there are seven padmas of seven commanders of seven army regions. In all the four directions of that y padma there are 16,000 padmas of 16,000 celestial beings serving as secuirty guards to Shri Devi (the godess Lakshmi). Boundary walls are surrounding the fundamental padma in three rounds inner, central and outer round which are lotus like in shape. There are 32,00,000 padmas in the inner circle, 40 lakhs in the middle circle and 48 lakhs in the outer lotus like wall. Thus the three walls contain 12 million padmas. म [Q.] Reverend Sir ! Why is this padma lake (drah) so called ? | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (262) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐)11155555555555555555555555))) .-.-गानागगगनानानानानामा गगनगागागागागागागागागा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555)))))))))))))))))))))) 855555555555555555555555555555555555555555555555 45 [Ans.] Gautam ! There are lotuses of many types at various places 41 which contain many leaves up to some are having a thousand leaves and some have hundred thousand leaves. Those lotuses have the shape, colour and aura similar to that of padma drah. So it is called padma drah. Shri Devi who is very prosperous and has the life-span of one palyopam resides there. Further, Gautam ! The name Padma Drah is permanent. It is never eliminated. ॐ गंगा, सिन्धु तथा रोहितांशा नदियाँ GANGA, SINDHU AND ROHITANSHA RIVERS ९१. [१] तस्स णं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरत्थाभिमुही ॐ पञ्च जोअणसयाई पव्वएणं गंता गंगावत्तकूडे आवत्ता समाणी पञ्च तेवीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलीहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। है गंगा महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता। सा णं जिभिआ अद्धजोअणं F आयामेणं, छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, मगरमुह-विउट्ठ-संठाणसंठिआ, म सबवइरामई, अच्छा, सहा। गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एत्थ णं महं एगे गंगप्पवाए कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सहि जोअणाई के आयामविक्खंभेणं, णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, * रययामयकूले, समतीरे, वइरामयपासाणे, वइरतले, सुवण्ण-सुब्भरययामय-वालुआए, वेरुलिअमणि卐 फालिअपडलपच्चोअडे, सुहोआरे, सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्धे, बट्टे, अणुपुब्बसुजायकेवप्पगंभीरसीअलजले, संछण्णपत्तभिसमुणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिण-सुभग-सोगंधिअॐ पोंडरीअ-महापोंडरीअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोवचिए, छप्पय-महुयरम परिभुज्जमाणकमले, अच्छ-विमल-पत्थसलिले, पुण्णे, पडिहत्थभवन-मच्छ-कच्छभ अणेगसउणगण-मिहुणपविअरियसन्नइअ-महुरसरणाइए पासाईए। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं + वणसण्डेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते। वेइआवणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणिअव्वो। ९१. [१] उस पद्मद्रह के पूर्वी तोरण-द्वार से गंगा महानदी निकलती है। वह पर्वत पर पाँच सौ ॐ योजन बहती है। गंगावर्तकूट के पास से वापस मुड़ती है, ५२३,३ योजन दक्षिण की ओर बहती है। घड़े के मुँह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के बने हार के सदृश आकार में वह प्रपात-कुण्ड में गिरती है। प्रपात-कुण्ड में गिरते समय उसका प्रवाह चुल्ल हिमवान् ॐ पर्वत के शिखर से प्रपात-कुण्ड तक कुछ अधिक सौ योजन होता है। जहाँ गंगा महनदी गिरती है, वहाँ एक जिह्निका-जिह्वा की-सी आकृतियुक्त प्रणालिका (नाली) है। ॐ वह प्रणालिका आधा योजन लम्बी तथा छह योजन एवं एक कोस चौड़ी है। वह आधा कोस मोटी है। ॐ उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुँह जैसा है। वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। चतुर्थ वक्षस्कार (263) Fourth Chapter ))))))99555555555555555 )))))) ) )) 995 355 ))))) )))))))) )) )))))) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****फ्र 卐 卐 卐 卐 5 卐 卐 गंगा महानदी जिसमें गिरती है, उस कुण्ड का नाम गंगाप्रपातकुण्ड है । वह बहुत बड़ा है। उसकी फ 卐 लम्बाई-चौड़ाई साठ योजन है। उसकी परिधि एक सौ नब्बे योजन से कुछ अधिक है। वह दस योजन 5 गहरा है, स्वच्छ एवं सुकोमल है, रजतमय कूलयुक्त है, समतल तटयुक्त है, हीरकमय पाषाणयुक्त है - वह पत्थरों के स्थान पर हीरों से बना है। उसके पैंदे में हीरे हैं । उसकी बालू स्वर्ण तथा शुभ्र रजतमय है। उसके तट के निकटवर्ती उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि तथा स्फटिक - बिल्लौर की पट्टियों से बने हैं। उसमें 5 प्रवेश करने एवं बाहर निकलने के मार्ग सुखदायी हैं। उसके घाट अनेक प्रकार की मणियों से बँधे हैं। वह गोलाकार है । उसमें विद्यमान जल उत्तरोत्तर गहरा और शीतल होता गया है। वह कमलों के पत्तों, कन्दों तथा नालों से छाई हुई है । अनेक उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, 5 महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र - इन विविध कमलों के प्रफुल्लित किञ्जल्क से सुशोभित क है। वहाँ भौंरे कमलों का रसपान करते हैं। उसका जल स्वच्छ, निर्मल और हितकर है। वह कुण्ड जल से 5 भरा हुआ है। इधर-उधर घूमती हुई मछलियों, कछुओं तथा पक्षियों के उच्च, मधुर स्वर से वह गुंजित रहता है, सुन्दर प्रतीत होता है। वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। 5 वेदिका, वनखण्ड तथा कमलों का वर्णन पूर्ववत् ज्ञातव्य है । फ्र 5 फ 卐 卐 卐 卐 5 5 91. [1] From the eastern gate of Padma lake, the Ganga river starts 5 It flows up to five hundred yojans on the mountain and then turns near 卐 Gangavart Koot and flows five hundred twenty three three-nineteenth yojans in the southern direction. It makes a sound like that of the water flowing out through the mouth of a pitcher at a fast speed. Then it falls into a pond and looks like a garland of pearls (while falling). While 5 falling into that great pond its flow from the top of Chull Himavan to that pond is a little more than hundred yojan. 卐 mountain 卐 up 卐 फ्र 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र 卐 There is a tongue-shaped drain at the place where the Ganga falls. फ्र That drain is half a yojan long, six yojan and one kos wide and half a kos 卐 卐 thick. Its shape is that of the opened mouth of a crocodile. It is totally 5 jewelled, clean and soft. फ 卐 卐 卐 卐 卐 卐 The pond wherein the Ganga river falls is called Ganga prapat kund. It is very large. Its length and breadth is sixty yojan each. Its circumference is somewhat more than 190 yojans. It is 10 yojun deep. It is clean, soft, silvery with that flow. Its banks are straight having diamonds instead of stones. There are diamonds at its bottom. Its sand is 卐 卐 golden and silvery. The raised ground of its banks is made of layers of Vaidurya precious stones and sphatik. The passage of its entrance and exit are very pleasant. Its banks are studded with various types of precious stones. The water in it is becoming deeper and colder as it flows ahead. It is covered with lotus leaves, Kandas and stalks. It contains 5 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 5 (264) 卐 5 5 卐 கதகததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதமிழ**************** 卐 5 卐 卐 5 फ्र फ्र 卐 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 fi developed lotus flowers of various types namely utpal, kumud nalin, 5 subhag, saugandhik, pundarik, mahapundarik, hundred leaved lotus, a f thousand leaved lotus, a lakh leaved lotus. Bumble bees enjoy their juice. The Ganga water is neat, clean and good for health. That pond is full of water. It is always echoing with the loud sweet sound of moving fishes, tortoise and birds. It appears to be very beautiful. It is surrounded from all sides by a forest region and padmavar Vedika. The description of Vedika, forest region and lotuses may be understood as mentioned earlier. ************************************** 55555********************* 5 ९१. [ २ ] तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तं जहा- 5 पुरत्थमेणं दाहिणं पच्चत्थिमेणं । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - वइरामया णेम्मा, रिट्ठामया पइट्ठाणा, वेरुलिआमया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहिक्खमईओ फ्र सूईओ, वयरामया संधी, णाणामणिमया आलंबणा आलंबणबाहा ओत्ति । 卐 फ तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पण्णत्ता । ते णं तोरणा णाणामणिमया 5 मणि खंभे उवणिविट्ठसंनिविट्ठा, विविहमुत्तंतरोवइआ, विविहतारारूवोवचिआ, हामिअउसह - तुरग - णर - मगर - विहग-वालग - किण्णर- रुरु - सरभ - चमर- कुंजर - वणलय - पउमलयभत्तिचित्ता, खंभुग्गयवर - वेइआपरिगयाभिरामा, विज्जाहर - जमल-‍ -जुअल - जंतजुत्तादिव, 5 अच्चीसहस्समालणीआ, रूवगसहस्सकलिआ, भिसमाणा, भिब्भिसमाणा, चक्खुल्लो अणलेसा, सुहफासा, फ्र सस्सिरी अरूवा, घंटावलिचलिअमहुरमणहरसरा, पासादीआ । तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते, अट्ठ 5 जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, 5 सव्ववइरामए, अच्छे, सण्हे । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समन्ता 5 संपरिक्खित्ते, वण्णओ भाणिअव्वो । तेसि णं तोरणाणं उवरिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं जहा- सोत्थिय सिरिवच्छे जाव पडिरूवा । तेसि फ्र णं तोरणाणं उबरिं बहवे किण्हचामरज्झया जाव सुक्किल्लचामरज्झया, अच्छा, सण्हा, रुप्पपट्टा, 5 वइरामयदण्डा, जलयामलगंधिआ, सुरम्मा, पासाईया ४ । तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे छत्ताइच्छत्ता, फ पडागाइपडागा, घंटाजुअला, चामरजुअला, उप्पलहत्थगा, पउमहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा, 5 सव्वरयणामया, अच्छा जाव पडिरूवा । गंगादीवस्स णं दीवस्स उष्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगा देवीए एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं च कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अगखंभसयसणिविट्टे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे से केणट्टेणं (धुवे णियए) सासए णामधे पण्णत्ते । चतुर्थ वक्षस्कार (265) 卐 மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி***தமிழிழி 255555555955555555555555955555555595555555595 Fourth Chapter Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25955 5 5 55955 595959595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 595959595952 ९१. [ २ ] उस गंगाप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में- पूर्व, दक्षिण तथा पश्चिम में तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। उन सीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है । उनके नेम-भूभाग से ऊपर निकले हुए प्रदेश हीरकमय हैं। उनके सीढ़ियों के मूल प्रदेश रिष्टरत्नमय हैं। उनके खंभे वैडूर्यरत्नमय हैं। उनके फलक-पट्ट-पाट 5 सोने-चाँदी से बने हैं। उनकी सूचियाँ - दो-दो पाटों को जोड़ने के कीलें लोहिताक्ष-रत्न से निर्मित हैं। उनकी सन्धियाँ - दो-दो पाटों के बीच के भाग वज्ररत्नमय हैं। उनके आलम्बन - चढ़ते-उतरते समय सहारे लिए निर्मित आश्रयभूत स्थान, आलम्बनवाह - भित्ति- प्रदेश विविध प्रकार की मणियों से बने हैं। 卐 5 वज्ररत्न - निर्मित हैं । कमल की-सी उत्तम सुगन्ध उनसे फूटती है। वे सुरम्य हैं, चित्त को प्रसन्न करने 5 卐 फ पताकाएँ, दो-दो घंटाओं की जोड़ियाँ, दो-दो चँवरों की जोड़ियाँ लगी हैं। उन पर उत्पलों, पद्मों यावत् சுமித்தமிழ*************************விழி 5 शतसहस्रपत्रों कमलों के ढेर के ढेर लगे हैं, जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ एवं सुन्दर हैं। 卐 卐 तीनों दिशाओं में विद्यमान उन तीन-तीन सीढ़ियों के आगे तोरण-द्वार बने हैं। वे अनेकविध रत्नों से सज्जित हैं, मणिमय खंभों पर टिके हैं, सीढ़ियों के सन्निकटवर्ती हैं। उनमें बीच-बीच में विविध तारों के आकार में बहुत प्रकार के मोती जड़े हैं। वे वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरुसंज्ञक 5 मृग, शरभ-अष्टापद, चमर-चँवरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकनों से सुशोभित हैं । उनके खंभों पर बनी वज्ररत्नमयी वेदिकाएँ बड़ी सुहावनी लगती हैं। उन पर चित्रित विद्याधर - युगल- 5 सहजात-युगल-एक समान, एक आकारयुक्त कठपुतलियों की ज्यों चलते हुए से प्रतीत होते हैं। अपने पर 5 जड़े हजारों रत्नों की प्रभा से वे सुशोभित हैं । सहस्रों चित्रों से वे बड़े सुहावने एवं अत्यन्त देदीप्यमान हैं, देखने मात्र से नेत्रों में समा जाते हैं। वे सुखमय स्पर्शयुक्त एवं शोभामय रूपयुक्त हैं। उन पर जो घंटियाँ लगी फ हैं, वे पवन से आन्दोलित होने पर बड़ा मधुर शब्द करती हैं, मनोरम प्रतीत होती हैं। 卐 5 उन तोरणद्वारों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ-आठ मंगल चिह्न अंकित हैं। काले चँवरों की फ ध्वजाएँ (नीले चँवरों की ध्वजाएँ) हरे चँवरों की यावत् सफेद चँवरों की ध्वजाएँ, जो उज्ज्वल एवं सुकोमल हैं, उन पर फहराती हैं। उनमें रुपहले वस्त्र लगे हैं। उनके दण्ड, जिनमें वे लगी हैं, 卐 उन गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप नामक एक विशाल द्वीप है। वह आठ योजन 5 लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है । वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा 5 5 वनखण्ड है। उनका वर्णन पूर्ववत् है। 卐 वाली हैं। उन तोरण-द्वारों पर बहुत से छत्र, अतिछत्र- छत्रों पर लगे छत्र, पताकाएँ, पताकाओं पर लगी 5 க हुआ है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। उसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका तथा एक गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में गंगा देवी का विशाल भवन है। फ वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह सैकड़ों खंभों पर टिका 卐 5 है। उसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है। उस पर शय्या है। यह परम ऋद्धिशालिनी गंगा देवी का 5 आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह उसका शाश्वत नाम है। 卐 5 91. [2] There are stairs of three steps each in three sides namely eastern, southern and western side of Ganga waterfall pond. The description of those steps is as under. The area jutting out from the earth Jambudveep Prajnapti Sutra फ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र फ़फ़फ़ (266) फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2441 44 445 446 44 455 456 457 455 456 4 57 455 456 457 458 459 460 461 41 41 41 41 456 457 45 45 446 444 445 446 447 4455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 15 is diamond-shidded. The foundation of those steps is of Rishta jewels. 4 Their pillars are of vaidurya precious stones. Their doors are of silver and gold. The pegs joining the two doors are of Lohitaksh jewels. The central parts of those doors are of Vajra jewels. The supports for going up and coming down are of various types of precious stones. There are arched gateways in front of the said three steps in all the three directions. They are decorated with various types of jewels and are on pillars studded with precious stones. They are near the stairs. Starshpaed pearls of various types are studded in the space between them. They are decorated with sketches of Vrik, bullocks, horses, men, crocodiles, birds, snakes, kinnar, rurusanjnak, deer, ashtapad, whisk cow, elephant, forest creeper, lotus creeper and the like Vajra-stoned vedikas on those pillars look very beautiful. The Vidyadhar couple, the couples of same breed, appear to be moving like dolls of same shape. They are shining due to the lustre emitting from thousands of jewels studded on them. They are having pleasant touch and bright appearance. The hells fixed on them make a sweet sound when they move with the wind. They look beautiful at that time. On those arched gates, eight auspicious symbols namely Swastik, Shrivatsa and the like have been sketched. Flags of black whisks, of green whisks up to flags of white whisks which are bright and softflutter on them. Shining cloth is fixed on them. The sticks on which they are fixed are of Vajra jewels. An excellent fragrance comparable to that of lotus emits from them. They are beautiful and pleasant to the heart. On those arched gates many umbrellas, umbrellas fixed on other umbrellas, flags, buntings fixed on flags, pairs of bells and pairs of whisks have been fixed. On them there are heaps of utpals, lotuses, up to lotuses having hundred thousand leaves. They are all studded with jewels, neat and beautiful. At the very centre of that Ganga waterfall pond is a large island which is known as Ganga island. It is eight yojan long and eight yojan wide. Its circumference is a little more than twenty five yojans. It is two 451 14 kos high above the water level. It is totally jewelled, neat and soft. A padmavar vedika and forest region is surrounding it from all sides. Its description is the same as earlier mentioned. On Ganga island there is a very levelled beautiful region. At the very fi centre of that region there is a large mansion of Ganga Devi. It is one kos 41 long, half a kos wide and a little less than one kos high and stands on | चतुर्थ वक्षस्कार ( 267 ) Fourth Chapter 454 455 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454545454545454545454545454545454545454545454545454545456$$ 44 4 听听听听听听听听听听听听听听听听 2 4 455 456 457 458 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4554 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 955555555 4 hundreds of pillars. There is a bench studded with jewels in the middle 41 of it. On that bench (mani pithika), there is a bed. That island is called Ganga island because it is the residence of very prosperous Ganga Devi. Further, that name is ever lasting. ९१. [३] तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्धभरहवासं एज्जमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आउरेमाणी २ अहे खण्डप्पवायगुहाए वेअद्धपव्वयं ॐ दालइत्ता दाहिणद्धभरहवासं एज्जमाणी २ दाहिणद्धभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ। । म गंगा णं महाणई पवहे छ सकोसाई जोअणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं। तयणंतरं च णं मायाए 5 २ परिवद्धमाणी २ मुहे बासढि जोअणाई अद्धजोअणं च विक्खंभेणं, सकोसं जोअणं उब्वेहेणं। उभओ के पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं, दोहिं वणसडेहिं संपरिक्खित्ता। वेइआ-वणसंडवण्णओ भाणिअव्यो। है एवं सिंधूए वि णेअव्वं जाव तस्स णं पउमद्दहस्स पच्चथिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधुआवत्तणकूडे 5 दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुंडं, सिंधुद्दीवो अट्ठो सो चेव जाव अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालइत्ता पच्चत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणा चोहससलिला अहे जगई पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं जाव समप्पेइ, सेसं मतं चेवत्ति। ॐ ९१. [३] उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है। वह उत्तरार्द्ध 9 भरत क्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब सात हजार नदियाँ उसमें आ मिलती हैं। वह उनके साथ मिलकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढ्य पर्वत को पार करती हुई दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की ओर जाती है। वह फ़ दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीच से बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है। फिर चौदह हजार नदियों के परिवार म से युक्त होकर वह (गंगा महानदी) जम्बूद्वीप की जगती को चीरकर पूर्वी-पूर्वदिशावर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। 卐 गंगा महानदी का प्रवह-उद्गम स्रोत-जिस स्थान से वह निकलती है, वहाँ उसका प्रवाह एक कोस से अधिक छह योजन की चौड़ाई लिए हुए है। वह आधा कोस गहरा है। तत्पश्चात् वह महानदी क्रमशः के प्रमाण में विस्तार में बढ़ती जाती है। जब समुद्र में मिलती है, उस समय उसकी चौड़ाई साढ़े बासठ +योजन होती है, गहराई एक योजन एक कोस-(सवा योजन) होती है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों द्वारा संपरिवृत है। वेदिकाओं एवं वनखण्डों का वर्णन पूर्ववत् है। ___गंगा महानदी के अनुरूप ही सिन्धु महानदी का आयाम-विस्तार है। इतना अन्तर है-सिन्धु महानदी उस पद्मद्रह के पश्चिम दिशावर्ती तोरण से निकलती है, पश्चिम दिशा की ओर बहती है, सिन्धुआवर्त ॐ कूट से मुड़कर दक्षिण दिशा की ओर बहती है। आगे सिन्धुप्रपातकुण्ड, सिन्धुद्वीप आदि का वर्णन गंगाप्रपातकुण्ड, गंगाद्वीप आदि के समान है। फिर नीचे तिमिस्र गुफा से होती हुई वह वैताढ्य पर्वत को ॐ चीरकर पश्चिम की ओर मुड़ती है। उसमें वहाँ चौदह हजार नदियाँ मिलती हैं। फिर वह जगती को + चीरकर पश्चिमी लवणसमुद्र में जाकर मिलती है। बाकी सारा वर्णन गंगा महानदी के अनुरूप है। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra ))))))))))))5555555555555555555555558 5F 5555555 555555555 卐म)))))) (268) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95558 )) )) ))) )) ))) ))) 8555555555555)))))))) 91. [3] From the southern side of that pond, the Ganga river flows out 4 and moves towards the northern half of Bharat area. Then seven 41 thousand streams join it. Thereafter, passing through Khand-prapaat $1 cave, it crosses Vaitadhya mountain and moves towards the southern 41 half of Bharat area. Flowing at the centre of southern half of Bharat region it takes a turn towards the east. Then with a family of fourteen thousand rivers, passing through the boundary wall of Jambu continent it falls in western Lavan Ocean. The width of Ganga river at its source is six yojan and one kos and it is half a kos deep. Thereafter its width gradually increases. When it joins the sea, its width is sixty two and a half yojan and depth is one yojan and one kos. It is surrounded with two padmavar vedikas and two forest regions from both sides. The description of vedikas and forest regions is the same as mentioned earlier. The length and width of Sindhu river is similar to that of Ganga river. The only difference is that Sindhu river starts from the arched gate of padma lake in the west and flows in the western direction. After taking a turn from Sindhu avart koot it flows in southern direction. Further description of Sindhu waterfall pond, Sindhu island and the like is similar to that of Ganga waterfall pond, Ganga island and the like. Then after passing through Tamisra cave, it passes through Vaitadhya mountain and then turns to the west. Fourteen thousand streams join it there. Then passing through the wall, it joins western Salty Ocean. The remaining description is the same as that of Ganga river. ९१. [ ४ ] तस्स णं पउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पर्ढा समाणी दोण्णि छावत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाइ जोअणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। रोहिअंसाणामं महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णत्ता। सा णं जिभिआ जोअणं आयामेणं, अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंटाणसंठिआ, सब्बवइरामई, अच्छा। रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ, एत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते। सवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि असीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दसजोषणाई उब्वेहेणं, अच्छे । कुंडवण्णओ जाव तोरणा। तस्स णं रोहिअंसापवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअंसा णाम दीवे पण्णत्ते। सोलस जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊ सिए जलंताओ, सव्वरयणामए, अच्छे, सण्हे। सेसं तं चेव जाव भवणं अद्रो अ भाणिअब्बोत्ति। )) )) ) FF FFFFFFFFFFFFFF F$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$ )) )) )) )) )) )) ))) )) | चतुर्थ वक्षस्कार (269) Fourth Chapter 卐 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफ 卐 तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जमाणी २ चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ सद्दावइवट्टवेअड्डपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता समाणी पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्दं समप्पेइ । रोहिअंसा णं पवहे अद्धतेरसजोअणाई 5 विक्खंभेणं, कोसं उब्वेहेणं । तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले पणवीसं जोअणसयं विक्खंभेणं, अद्वाइज्जाई जोअणाई उव्वेहेणं, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं फ संपरिक्खित्ता । ९१. [ ४ ] उस पद्मद्रह के उत्तरी तोरण से रोहितांशा नामक महानदी निकलती है। वह पर्वत पर 卐 शब्द 5 उत्तर में २७६६६ योजन बहती है, आगे बढ़ती है । घड़े के मुँह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के हार के सदृश आकार में पर्वत-शिखर से प्रपात तक कुछ अधिक 5 एक सौ योजन प्रमाण प्रवाह के रूप में प्रपात में गिरती है। रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक 5 जिह्विका - जिह्वा के समान आकृतियुक्त प्रणालिका है। उसकी लम्बाई एक योजन है, चौड़ाई साढ़े बारह योजन है। उसका मोटापन एक कोस है। उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुख के आकार जैसा है। वह 5 सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है । 卐 திமிதிமிதிமிததமிழமிழததததததததததததததமிமிமிமிமிமிமிமிழி 5 5 卐 रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वह रोहितांशाप्रपातकुण्ड नामक एक विशाल कुण्ड है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक सौ बीस योजन है। उसकी परिधि कुछ कम १८३ योजन है। उसकी गहराई दस योजन है। वह स्वच्छ है । तोरण- पर्यन्त उसका वर्णन पूर्ववत् है । उस रोहितांशाप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से रोहितांशा महानदी आगे निकलती है, हैमवत क्षेत्र की ओर बढ़ती है। चौदह हजार नदियाँ वहाँ उसमें मिलती हैं। उनके साथ मिलती हुई वह शब्दापातीवृत्त वैताढ्य पर्वत के आधा योजन दूर रहने पर पश्चिम की ओर मुड़ती है । वह हैमवत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। तत्पश्चात् अट्ठाईस हजार नदियों के परिवार सहित वह नीचे की ओर 5 जगती को दीर्ण करती हुई उसे चीरकर लाँघती हुई पश्चिम दिशावर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। रोहितांशा महानदी जहाँ से निकलती, वहाँ उसका विस्तार साढ़े बारह योजन है। उसकी गहराई एक कोस है । तत्पश्चात् वह मात्रा में - क्रमशः बढ़ती जाती है। मुख-मूल में समुद्र में मिलने के स्थान पर उसका विस्तार एक सौ पच्चीस योजन होता है, गहराई अढाई योजन होती है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से संपरिवृत है। उस रोहितांशाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में रोहितांशद्वीप नामक एक विशाल द्वीप है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई सोलह योजन है। उसकी परिधि कुछ अधिक पचास योजन है। वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। भवन - पर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्ववत् है । 91. [4] The source of Rohitansha river is the northern arched gate of फ्र padma drah (pond). It flows up to two hundred seventy six and six जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (270) Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 nineteenth yojan on the mountain. Then making loud noise like the water coming out from a pitcher, it flows quickly in the shape of garlands of pearls and flows in the shape of a waterfall up to more than a hundred yojans. There is a tongue-shape drain where Rohitansha river falls. The length of that drain is one yojan and width is twelve and a half yojans. Its thickness is one kos. Its shape is like that of a crocodile with open mouth. It is totally jewelled and clean. Where Rohitansha river falls, there is a large pond and it is called Rohitansha waterfall (prapat) pond. It is 120 yojan long, 120 yojan wide and its circumference is less than 183 yojan. It is ten yojans deep. It is clean. Its description up to the arched gate is the same as mentioned earlier. At the very centre of that Rohitansha waterfall kund (pond). There is a large island 16 yojan long, 16 yojan wide, a little less than 50 yojan in circumference. It is raised up to two kos from water level. It is clean, smooth and totally jewelled. The remaining description up to mansion is similar to what is already mentioned. Through the northern arched gate of Rohitansha waterfall pond (kund), Rohitansha river moves ahead towards Haimvat region. Fourteen thousand streams join it. Then it turns towards the west when it is at a distance of half a yojan from Shabdapaati-vritt Vaitadhya mountain. Dividing Haimavat region into two parts it moves ahead. Thereafter, with a family of 28,000 rivers, it falls downwards from the wall (of Jambu island) and joins western Lavan Ocean. Great river Rohitansha is twelve and a half yojan wide at its source and there its depth is one kos. Thereafter, it goes on increasing. At the place where it joins the ocean, it is 125 yojan wide and the depth is two and a half yojan. It is surrounded with two padmavar vedikas and two forests on both the sides. चुल्ल हिमवान् पर्वत के ग्यारह कूट ELEVEN PEAKS OF CHULL HIMAVAN MOUNTAIN ९२. [ प्र. १ ] चुल्लहिमवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा - १. सिद्धाययणकूडे, २. चुल्लहिमवन्तकूडे, ३. भरहकूडे, ४. इलादेवीकूडे, ५. गंगादेवीकूडे, ६. सिरिकूडे, ७. रोहिअंसकूडे, ८. सिन्धुदेवीकूडे, ९. सुरदेवीकूडे, १०. हेमवयकूडे, ११. वेसमणकूडे । [प्र. ] कहि णं भन्ते ! चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? चतुर्थ वक्षस्कार (271) 555555555555 Fourth Chapter Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फफफफफफ [उ. ] गोयमा ! पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं चुल्लहिमवन्तकूडस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, मूले पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, 5 मज्झे तिणि अ पण्णत्तरे जोअणसए विक्खंभेणं, उप्पिं अद्वाइज्जे जोअणसए विक्खंभेणं । मूले एगं जो अणसहस्सं पंच य एगासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मज्झे एगं जोअणसहस्सं एगं च छलसीअं जोअणसयं किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं, उप्पिं सत्त इक्काणउए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं । मूले विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं तणुए, गोपुच्छ - संठाण - संठिए, सव्वरयणामए, अच्छे । सेणं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जो अणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ भाणि अव्वो । [प्र. ] कहि णं भन्ते ! चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्यए चुल्लहिमवन्तकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! भरहकूडस्स पुरत्थिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पच्चत्थिभेणं, एत्थ णं चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्चए चुल्लहिमवन्तकूडे णामं कूडे पण्णत्ते । एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो जाव बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंस पण्णत्ते, वासट्ठि जो अणाई अद्धजोअणं च उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाई कोसं च विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसि अपहसिए विव, विविहमणि - रयण - भत्तिचित्ते, वाउद्धअ - विजय - वेजयंती - पडाग-च्छत्ताइछत्तकलिए, तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे, जालंतर - रयणपंजरुम्मीलिएव्व मणिरयणधूभिआए, विअसिअसयवत्तपुंडरी अ - तिलयरयणद्धचंदचित्ते, णाणामणिमयदामालंकिए, अंतो बहिं च सण्हे वइरतवणिज्ज - रुइलवालुगापत्थडे, सुहफासे, सस्सिरीअरूवे, पासाईए पडिरूवे । तस्स णं पासाय- वडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव सीहासणं सपरिवारं । ९२. [ प्र. १ ] भगवन् ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट- शिखर हैं ? [ उ. ] गौतम ! उसके ग्यारह कूट हैं - ( १ ) सिद्धायतनकूट, (२) चुल्लहिमवान्कूट, (३) भरतकूट, (४) इलादेवीकूट, (५) गंगादेवीकूट, (६) श्रीकूट, (७) रोहितांशाकूट, (८) सिन्धुदेवीकूट, (९) सुरादेवीकूट, (१०) हैमवतकूट, तथा (११) वैश्रवणकूट । [ प्र. ] भगवन् ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ है ? [ उ. ] गौतम ! पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, चुल्लहिमवान्कूट के पूर्व में सिद्धायतन नामक कूट है । वह ५०० योजन ऊँचा है। वह मूल में ५०० योजन, मध्य में ३७५ योजन तथा ऊपर २५० योजन विस्तीर्ण है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक १, ५८१ योजन, मध्य में कुछ कम १,१८६ योजन तथा ऊपर कुछ कम ७९१ योजन है। वह मूल में चौड़ा, मध्य में सँकड़ा एवं ऊपर पतला । उसका आकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (272) फफफफफफफफ फ 555555555555 ת ת ת ת फ 卐 또 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय की ऊपर की हुई पूँछ के आकार जैसा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। सिद्धायतनकूट के ऊपर एक बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल सिद्धायतन है। वह पचास योजन लम्बा, पच्चीस योजन चौड़ा और छत्तीस योजन ऊँचा है। उससे सम्बद्ध जिनप्रतिमा पर्यन्त का वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। [प्र. ] भगवन् ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! भरतकूट के पूर्व में, सिद्धायतनकूट के पश्चिम में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट है। सिद्धायतनकूट की ऊँचाई, विस्तार तथा घेरा जितना है, उतना ही उस (चुल्लहिमवान्कूट) का है। उस कूट पर एक बहुत ही समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में एक बहुत बड़ा उत्तम प्रासाद है। वह ६२३ योजन ऊँचा है। वह ३१ योजन और १ कोस चौड़ा है। (समचतुरस्र होने से उतना ही लम्बा है।) वह बहुत ऊँचा उठा हुआ है। अत्यन्त धवल प्रभा{ज लिये रहने से वह हँसता हुआ-सा प्रतीत होता है। उस पर अनेक प्रकार की मणियाँ तथा रत्न जड़े हुए हैं। उनसे वह बड़ा अद्भुत प्रतीत होता है। अपने पर लगी, पवन से हिलती, फहराती विजय-वैजयन्तियों, ध्वजाओं, पताकाओं, छत्रों तथा अतिछत्रों से वह बड़ा सुहावना लगता है। उसके शिखर बहुत ऊँचे हैं, मानो वे आकाश को लाँघ जाना चाहते हों। उसकी जालियों में जड़े रत्न-समूह ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो प्रासाद ने अपने नेत्र उघाड़ रखे हों। उसकी स्तूपिकाएँ-छोटे-छोटे शिखर छोटी-छोटी गुमटियाँ मणियों एवं रत्नों से निर्मित हैं। उस पर विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलक, रत्न तथा अर्ध-चन्द्र के चित्र अंकित हैं। अनेक मणि-निर्मित मालाओं से वह अलंकृत है। वह भीतर-बाहर वज्ररत्नमय, तपे हुए-स्वर्णमय, चिकनी, रुचिर बालुका से आच्छादित है। उसका स्पर्श सुखप्रद है, रूप शोभान्वित है। वह आनन्दप्रद है। उस उत्तम प्रासाद के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। सिंहासन पर्यन्त उसका विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। 92. (Q. 1] Reverend Sir ! How many are the peaks (koot) of Chull Himavan Varshadhar mountain. [Ans.) Gautam ! It has eleven tops namely-(1) Sidhayatan koot, (2) Chull Himavan koot, (3) Bharat koot, (4) Iladevi koot, (5) Gangadevi koot, (6) Shri koot, (7) Rohitansha koot, (8) Sindhudevi koot, (9) Suradevi koot, (10) Haimavat koot, and (11) Vaishravan koot. [Q] Where is Sidhayatan koot on Chull Himavan Varshadhar mountain ? (Ans.] In the east, Chulla Himavan mountain has Siddhayatan peak which is to the west of Salty Ocean (Lavan Samudra). It is 500 yojan high, 500 yojan at the base level, 375 yojan in the middle and 250 | चतुर्थ वक्षस्कार (273) Fourth Chapter Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 57 455 456 457 41 41 41 41 455 456 457 451 451 451 455 456 457 41 41 41 41 41 因牙牙牙牙步步步步步步步步步步步步步步$$$$$%%%%%%%%%%% 5 wide at the top. Its circumference is a little less than 1,581 yojan, at the 15 base a little less than 1,186 yojan in the middle and a little less than 791 4 yojan at the top. It is wide at the base, narrow in the middle and still narrower at the top. Its shape is like that of upturned tail of a cow. It is completely studded with jewels and clean. It is surrounded by a padmavar vedika and a forest from all sides. In the north of Sidhayatan peak there is a very much levelled and attractive piece of land. At the centre of that land there is a grand Siddhayatan which is 50 yojan long, 25 yojan wide and 86 yojan high. The description relating to it up to the idol of Tirthankar may be y understood as mentioned earlier. (Q.) Reverend Sir ! Where is Chull Himavan peak located on Chull Himavan mountain ? (Ans.] In the west of Sidhayatan peak and to the east of Bharat peak, there is Chull-Himavan peak on Chull Himavan mountain. The height, 4 width and the circumference of Chull Himavan peak is identical to that of Siddhayatan peak. There is a very much levelled and attractive piece of land on that top. At the very centre of it there is a grand palace which is sixty two and a half yojan high, 31 yojan 1 kos wide and the same in length (as it is equal in shape from all sides). It is raised very high. It appears to be as if it is laughing as it has extremely white aura. Many types of jewels and precious stones are studded on it. So it appears to be very wonderful. It appears to be very attractive due to Vijay-Vaijayanti flags, buntings and umbrellas fixed on it. Its tops are very high. It seems that they want to cross the sky. The jewels fixed in its mesh appear to be like open eyes of the palace. Its small tops are made of jewels and precious stones. The pictures of blossomed hundred-petaled lotus, tilak, jewels and half-moon are sketched on it. It is decorated with many garlands made of precious stones. It is covered with soft attractive sand from inside and outside. 51 That sand is like that of Vajra jewel and is of the colour of burnt gold. Its touch is pleasant and its look is attractive. It provides ecstatic pleasure. Inside that palace, there is a very much levelled and attractive area. Its detailed description up to throne may be understood as mentioned before. 82.[9.2 ] at guredui ! gai goas grandes diaris ? 457 455 456 45.5 41 41 41 414 455 456 4 455 456 457 455 456 457 451 451 451 456 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (274) Jambudveep Prajnapti Sutra 455 456 457 454 455 456 4 55 454 455 456 457 4554 444 445 44 455 456 457 455 456 457 45543 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555555559555555595959 [उ.] गोयमा ! चुल्लहिमवन्ते णामं देवे महिड्डिए जाव परिवसइ । [प्र. ] कहि णं भन्ते ! चुल्लहिमवन्तगिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवन्ता णामं रायहाणी पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चुल्लहिमवन्तकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे बीइवइत्ता अण्णं जम्बुद्दीवं २ दक्खिणेणं बारस जोअण- सहस्साइं ओगाहित्ता इत्थ णं चुल्लहिमवन्तस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवन्ता णामं रायहाणी पण्णत्ता, बारस जोअणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, एवं विजयरायहाणीसरिसा भाणिअव्वा । एवं अवसेसाणवि कूडाणं वत्तव्वया णेअव्वा, आयाम - विक्खंभपरिक्खेव - पासायदेवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठो अ देवाण य देवीण य रायहाणीओ णेअव्वाओ, चउसु देवा १. चुल्लहिमवन्त २. भरह ३. हेमवय ४. वेसमणकूडेसु, सेसेसु देवयाओ। [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्यए ? [ उ. ] गोयमा ! महाहिमवंत - वासहर - पव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेह - विक्खंभपरिक्खेवं पडुच्च ईसिं खुडतराए चेव हस्सतराए चेव णीअतराए चेव, चुल्लहिमवंते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए २, अदुत्तरं च गोमा ! चुल्लहिमवंतस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जं ण कयाइ णासि० । ९२. [ प्र. २ ] भगवन् ! वह चुल्लहिमवान्कूट क्यों कहलाता है ? [ उ. ] गौतम ! उस पर परम ऋद्धिशाली चुल्लहिमवान् नामक देव निवास करता है, इसलिए वह चुल्लहिमवानुकूट कहा जाता है। [प्र.] भगवन् ! चुल्लहिमवान् गिरिकुमार देव की चुल्लहिमवन्ता नामक राजधानी कहाँ है ? [ उ. ] गौतम ! चुल्लहिमवान्कूट के दक्षिण में तिर्यक्लोक में असंख्य द्वीपों, समुद्रों को पार कर अन्य जम्बूद्वीप में दक्षिण में बारह हजार योजन पार करने पर चुल्लहिमवान् गिरिकुमार देव की चुल्लहिमवन्ता नामक राजधानी आती है। उसका आयाम - विस्तार बारह हजार योजन है। उसका विस्तृत वर्णन विजय - राजधानी के सदृश जानना चाहिए। बाकी के कूटों का आयाम - विस्तार, परिधि, प्रासाद, देव, सिंहासन, तत्सम्बद्ध सामग्री, देवों एवं देवियों की राजधानियों आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है। इन कूटों में से- (१) चुल्लहिमवान्, (२) भरत, (३) हैमवत, तथा (४) वैश्रवण, इन चार कूटों देव निवास करते हैं और उनके अतिरिक्त शेष कूटों में देवियाँ निवास करती हैं। [प्र. ] भगवन् ! वह पर्वत चुल्लहिमवान् वर्षधर किस कारण कहा जाता है ? [ उ. ] गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत की अपेक्षा चुल्ल लघु हिमवान् वर्षधर पर्वत लम्बाई, ऊँचाई, जमीन में गहराई, चौड़ाई तथा परिधि या घेरा- इनमें छोटा, लघु तथा न्यूनतर है, कम है। इसके अतिरिक्त वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला चुल्लहिमवान् नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत कहा जाता है । है गौतम ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत - यह नाम शाश्वत कहा गया है, जो न कभी नष्ट हुआ, न कभी नष्ट होगा। चतुर्थ वक्षस्कार (275) 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55 55 5 5 55 55 5 5 5 5 555555 5 Fourth Chapter Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 卐 தததததததததததததததததததததததததமி***மிமிமிதிமிதி 92. [Q. 2] Reverend Sir ! Why is it called Chull Himavan peak ? [Ans.] Gautam! A very prosperous celestial being whose name is Chull Himavan resides on it. So it is called Chull Himavan peak. [Q] Where is the capital of Chull Himavan Girikumar Deva? [Q.] Reverend Sir ! Why is it called Chull Himavan Varshadhar ? [Ans.] Gautam ! In comparison with Maha-Himavan mountain, Chull Himavan mountain is smaller, shorter and lesser in respect of length, height, depth, width and circumference. Further a very prosperous celestial being whose life-span is one palyopam resides on it. So it is called Chull Himavan Varshadhar mountain. O Gautam ! This name— [Ans.] The capital of Chull Himavan Girikumar Deva is Chull Himavanta. It is 12,000 yojan away in the south of another Jambu continent. That Jambu continent is in the South of Chull Himavan peak y 'in the middle world' and innumerable islands and innumerable oceans y away from that peak. Its width is 12,000 yojans. Its detailed description is similar to capital city Vijay. The description of remaining peaks, their length, width, circumference, palace, deva, seat and material related thereto, the capital cities of the goddesses is similar to that mentioned earlier. Gods reside at Chull Himavan, Bharat, Haimavat and Vaishraman peaks while goddesses reside at the remaining peaks. हैमवत वर्ष HAIMAVAT VARSH ९३. [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते ? ५ ५ फ्र Chull Himavan Varshadhar mountain is permanent. It was never फ्र 卐 eliminated in the past, nor it shall be eliminated in future. y ५ (276) ת Jambudveep Prajnapti Sutra ५ ५ [उ.] गोयमा ! महाहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, चुल्लहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे हेमवर णामं वासे पण्णत्ते । पाइण-पडीणायए, उदीण - दाहिणविच्छिण्णे, पलिअंकसंठाणसंठिए, दुहा लवणसमुद्दं पुट्ठे, पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठे । दोणि जोअणसहस्साई एगं च पंचुत्तरं जोअणसयं पंच य एगूणवीसइभाए 5 जो अणस्स विक्खंभेणं । ५ फ्र फ्र तस्स बाहा पुरत्थिम- पच्चत्थिमेणं छज्जोअणसहस्साइं सत्त य पणवण्णे जोअणसए तिण्णि अ वीस भए जो अणस्स आयामेणं । तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए ( कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्द) 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 फ्र फ 2555555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1555555555555555555555555555555555555 ) )) ))) ) ) ))) )) ) )) )) ) | पुट्ठा। सत्ततीसं जोअणसहस्साई छच्च चउवत्तरे जोअणसए सोलस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं। तस्स धणुं दाहिणेणं अद्वतीसं जोअणसहस्साई सत्त य चताले जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ] हेमवयस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं तइयसमाणुभावो णेअव्वोत्ति। ९३. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में हैमवत क्षेत्र कहाँ है ? _[उ. ] गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, । पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत नामक क्षेत्र कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, पलँग के आकार में अवस्थित है। i वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी । किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह २,१०५५ योजन चौड़ा है। उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम में ६,७५५३ योजन लम्बी है। उत्तर दिशा में उसकी जीवा पूर्व तथा पश्चिम दोनों ओर लवणसमुद्र को स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से वह पूर्वी लवणसमुद्र को स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र को स्पर्श करती है। उसकी लम्बाई कुछ कम । ३७,६७४१६ योजन है। दक्षिण में उसका धनुपृष्ठ परिधि की अपेक्षा से ३८,७४०१९ योजन है।। __[प्र.] भगवन् ! हैमवत क्षेत्र का आकार-स्वरूप, भाव-तदन्तर्गत पदार्थ, प्रत्यवतार-तत्सम्बद्ध i प्राकट्य-अवस्थिति कैसी है? __[उ. ] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय है। उसका स्वरूप आदि तृतीय आरकसुषम-दुःषमा काल के सदृश है। 93. (Q.) Where is Haimavat region in Jambu continent ? i (Ans.] Gautam ! Haimavat region of Jambu continent is located in i the west of eastern salty ocean and in the east of western salty ocean. It is in the north of Chull Himavan Varshadhar mountain and in the south of Maha-Himavan Varshadhar mountain. Its length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. It is in the shape of a bed. It touches salty ocean from two sides. Its eastern end touches the eastern salty ocean and western end touches the western salty ocean. It is 2,105 yojan and five-nineteenth of a yojan wide. i Its edge in east-west direction is 6,755 yojan and three-nineteenth of a yojan long. In the north its upper edge (Jiva) touches the salty ocean from both sides--the east and the west. Its eastern end touches the eastern salty ocean and its western end touches the western salty ocean. Its length is a little less than 37,674 yojan and sixteen-nineteenth of a चतुर्थ वक्षस्कार (277) Fourth Chapter 1) )) )) ) ) ) ) )) ) ) ) )) ) ) ) ) ) ) ) ) ) 4 5 4 ))) )) )) )) )) )) )) )) ))) )) 卐) Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 4 5 yojan. In the south it is 38,740 yojan and ten-nineteenth of a yojan so far y as the length of circular arc in the south is concerned. ५ फफफफफफ 卐 卐 卐 卐 5 [उ. ] गोयमा ! रोहिआए महाणईए पच्चत्थिमेणं, रोहिअंसाए महाणईए पुरत्थिमेणं, हेमवयवासस्स बहुमज्झदेस भाए, एत्थ णं सद्दावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते । एगं जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धाइज्जाई फ जोअणसयाइं उब्वेहेणं, सव्वत्थसमे, पल्लंगसंठाणसंटिए, एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च बावट्टं जोअणसयं किंचिविसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सव्वरयणामए अच्छे से णं फ गाए पमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वेइआवणसंडवण्णओ भाणि अव्वो । सद्दावइस्स णं वट्टवेअद्धपव्वयस्स उवरिं बहुसमरनणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते। बावट्ठि जोअणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाइं कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं । [प्र.] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ सद्दावई वट्टवेयद्धपव्वए २ ? [उ.] गोयमा ! सद्दावई बट्टवेअद्धपव्वए खुद्दा खुद्दआसु वावीसु जाव सरसरपंतिआसु, 卐 5 बिलपंतिआसु बहवे उप्पलाई, पउमाई, सद्दावइप्पभाई, सद्दावइवण्णाई सद्दावइवण्णाभाई, सद्दावई अ इत्थ देवे महिड्डी जाव महाणुभावे पलिओवमट्ठिइए परिवसइत्ति । से णं तत्थ चउण्हं सामाणिआसाहस्सीणं जाव 5 रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे० । 15 5 卐 ५ [Q.] Reverend Sir ! What is the nature, the contents and the related ५ state of Haimavat region? ५ [Ans.] Gautam ! It is very much levelled and attractive. Its nature f and the like are similar to that of Sukham-Dukhama-the third aeon of this time-cycle. शब्दापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत SHABDAPATI VRITT VAITADHYA MOUNTAIN ९४. [ प्र. ] कहि णं भंते ! हेमवए वासे सद्दावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते ? फ्र ९४. [ प्र. ] भगवन् ! हैमवत क्षेत्र में शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत कहाँ है ? [ उ. ] गौतम ! रोहिता महानदी के पश्चिम में, रोहितांशा महानदी के पूर्व में, हैमवत क्षेत्र के बीचोंबीच शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत है। वह एक हजार योजन ऊँचा है, अढाई सौ योजन भूमि में गहरा है, सर्वत्र समतल है । उसकी आकृति पलँग जैसी है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक हजार योजन है। उसकी परिधि कुछ अधिक ३, १६२ योजन है। वह सर्वरत्नमय है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा है। शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के बीचोंबीच एक विशाल, उत्तम प्रासाद है। वह ६२३ योजन ऊँचा है, ३१ योजन १ कोस लम्बा-चौड़ा है। सिंहासन 5 पर्यन्त आगे का वर्णन पूर्ववत् है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (278) hhhhhh Jambudveep Prajnapti Sutra தமிழகதழதமிழதமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி*தமிழின 卐 卐 卐 फ्र Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐555555555555555555558 卐555555555555555555 5555555555555555555555555550 __ [प्र. ] भगवन् ! वह शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत क्यों कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर छोटी-छोटी चौरस बावड़ियों यावत् अनेकविध जलाशयों में बहुत से नीले कमल हैं, लाल कमल हैं, जिनकी प्रभा, जिनका वर्ण शब्दापाती के सदृश है। इसके अतिरिक्त परम ऋद्धिशाली, प्रभावशाली, पल्योपम के आयुष्य वाला शब्दातिपाती नामक देव वहाँ निवास करता है। उसके चार हजार सामानिक देव हैं। उसकी राजधानी अन्य जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में है। विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। 94. [Q.] Reverend Sir ! Where is Vritt Vaitadhya mountain termed as Shabdapati located in Haimavat region ? (Ans.) Gautam ! Shabdapati Vaitadhya mountain is located in the middle of Haimavat region and is in the west of Rohita river and in the east of Rohitansha river. It is 1,000 yojan high, 250 yojan deep and levelled throughout. Its shape is like that of a bed. Its length as well as breadth is 1,000 yojan. Its circumference is a little more than 3,162 4 yojans. It is totally studded with jewels. It is surrounded with a Padmavar Vedika and a forest from all sides. There is a very much levelled and attractive area on Shabdapati Vaitadhya mountain. There is a grand palace at the very centre of that area. That palace is sixty two and a half yojan high and 31 yojan and one 4 kos in length and breadth. Further, description up to the throne is as | mentioned earlier. [Q.] Reverend Sir ! Why is it called Shabdapati Vritt Vaitadhya mountain ? (Ans.) Gautam ! There are small quandrangular tanks up to many types of water bodies on Shabdapati Vritt Vaitadhya mountain and many lotus flowers of blue and red colour are on it whose brightness and colour is like Shabdapati. Further, a very prosperous influential celestial being (deva) whose life-span is one palyopam resides on it. His samanik devas are four thousand. His capital is in another Jambu continent in the south of the Mandar mountain. The detailed description is as mentioned earlier. 卐 हैमवतवर्ष नामकरण का कारण REASON FOR NAMING IT AS HAIMAVAT VARSH ९५. [प्र.] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे २ ? [उ. ] गोयमा ! चुल्लहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपब्बएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ, णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ, हेमवाए अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, सेज + तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे। चतुर्थ वक्षस्कार (279) Fourth Chapter 55555555555555555555555555555550 5555555555555555555555555555555555555555555555558 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 ९५. [.] भगवन् ! वह हैमवत क्षेत्र क्यों कहा जाता है ? 卐 [ उ. ] गौतम ! वह चुल्लहिमवान् तथा महाहिमवान् वर्षधर पर्वतों के बीच में है । वहाँ जो यौगलिक मनुष्य निवास करते हैं, वे बैठने आदि के निमित्त नित्य स्वर्णमय शिलापट्टक आदि का उपयोग करते हैं। उन्हें नित्य स्वर्ण देकर वह यह प्रकाशित करता है कि वह स्वर्णमय विशिष्ट वैभवयुक्त है। (यह 5 औपचारिक कथन है) वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला हैमवत नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह हैमवत क्षेत्र कहा जाता है। (यह युगलिक क्षेत्र है ।) 95. [Q.] Reverend Sir ! Why is it called Haimavat region ? [Ans.] Gautam ! It is located in between Chull Himavan and Maha Himavan Varshadhar mountains. Twin (yaugalik) human beings residing there always use golden stony seat for sitting. It brightens them by giving them gold regularly. It indicates that it has unique golden wealth. (It is a formal statement). A very prosperous celestial being whose name is Haimavat and whose life-span is one palyopam resides there. So, Gautam ! It is called Haimavat region. ( It is region of twins.) 卐 महाहिमवान् वर्षधर पर्वत MAHA HIMAVAN VARSHADHAR MOUNTAIN 卐 卐 ९६. [.] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २ महाहिमवन्ते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? 卐 卐 [उ. ] गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं, हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, 5 पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्यए पण्णत्ते । फ्र फ्र पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलियंकसंटाणसंटिए, दुहा लवणसमुद्दं पुट्ठे, पुरत्थिमिल्लाए कोडीए ( पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द) पुट्ठे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठे । दो 卐 जोअणसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं, पण्णासं जोअणाई उव्वेहेणं, चत्तारि जोअणसहस्साइं दोणि अ दसुत्तरे 5 जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं । 5 तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं णव य जोअणसहस्साइं दोण्णि अ छावत्तरे जोअणसए व य 5 एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं । 卐 फ्र तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए पुट्ठा, तेवण्णं जोअणसहस्साइं नव य एगतीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जो अणस्स किंचिविसेसाहिए आयामेणं । तस्स धणुं दाहिणं सत्तावण्णं जोअणसहस्साइं दोणि अ तेणउए जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंटाणसंटिए, सव्वरयणामए, अच्छे । उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं फ दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । 卐 महाहिमवन्तस्स णं वासहरपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव णाणाविह 5 पञ्चवण्णेहिं मणीहि अ तणेहि अ उवसोभिए जाव आसयंति सयंति य । सूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति **** (280) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 5 5 卐 卐 5 फ्र 卐 5 फ्र 卐 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555555555 म. ९६. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में महाहिमवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! हरिवर्ष क्षेत्र के दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाहिमवान् नामक वर्षधर पर्वत है। वह पर्वत पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह पलँग का-सा आकार लिए हुए है। , वह दो ओर से अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का और पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह दो सौ योजन ऊँचा है, ५० योजन जमीन में गहरा है। वह ४,२१०३९ योजन के चौड़ा है। उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम ९,२७६९५ योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह भी अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का # तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। वह कुछ अधिक ५३,९३१६ योजन म लम्बी है। # दक्षिण में उसका धनुपृष्ठ है, जिसकी परिधि ५७,२९३१९ योजन है। वह रुचक-सदृश आकार लिए हुए है, सर्वथा रत्नमय है, स्वच्छ है। अपने दोनों ओर वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से # घिरा हुआ है। के महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर अत्यन्त समतल रमणीय भूमिभाग है। वह विविध प्रकार के पंचरंगे रत्नों तथा तृण वनस्पतियों से सुशोभित है। वहाँ देव-देवियाँ निवास करते हैं। 96. [Q.] Reverend Sir ! Where is Maha-Himavan Varshadhar mountain in Jambu continent ? (Ans.) Gautam ! In Jambu continent, there is Maha-Himavan Varshadhar mountain. It is in the south of Harivarsh region, in the north of Haimavat region, in the west of eastern salty ocean and in the east of western salty ocean. That mountain is long in east-west direction and is wide in northsouth direction. It is bed-like in shape. It touches eastern salty ocean from i the eastern end and western salty ocean from the western end. It is 200 yojan high and 50 yojan deep. It is 4,210 yojan and ten-nineteenth of a yojan wide. ___Its ridge is 9,227 and nine and a half by nineteen yojan long in eastwest direction. Its edge in the north is long in east-west direction. That edge also i touches eastern salty ocean with its eastern end. It is a little more than i 53,931 yojan and six-nineteenth of a yojan long. नामनामानामा मागगगगगगगा1111111hhhh卐卐म 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 Irir Irrir IPIP | चतुर्थ वक्षस्कार (281) Fourth Chapter 195555555555555 55555555))))) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 5 卐 卐 yojan. Its shape is like that of Ruchak and is totally studded with jewels and clean. It is surrounded with two Padmavar Vedikas and two forests on two sides. In south its arc type length is 57,293 yojan and ten-nineteenth of a 5 There is an extremely levelled attractive area on Maha-Himavan Varshadhar mountain. It is bright due to many types of five coloured jewels and vegetables. The gods and goddesses reside there. 卐 महापद्मद्रह MAHAPADM DREH 5 5 ९७. [ १ ] महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते । दो 5 जोअणसहस्साइं आयामेणं, एगं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं, अच्छे रययामयकूले 卐 एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चैव पउमद्दहस्स वत्तव्यया सा चेव णेअव्या । पउमप्पमाणं दो जोअणाई अट्ठो 卐 जाव महापउमद्दहवण्णाभाई हिरी अ इत्थ देवी जाव पलिओवमट्ठिइया परिवसइ । फ्र 卐 5 फ्र फ़फ़ से एएणणं गोयमा ! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमद्दहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जंणं कयाइ णासी ३ | 卐 तस्स णं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे 卐 जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं 卐 5 मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ । रोहिआ णं महाणई जओ पवडइ एत्थ गं महंगा जिब्भिया पण्णत्ता । सा णं जिब्भिआ जोअणं आयामेणं, अद्धतेरसजोअणाई विक्खंभेणं, कोसं 5 बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंटाणसंठिआ, सव्ववइरामई, अच्छा। 卐 रोहिआ णं महाई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहिअप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते । सवीसं 卐 5 जोअणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं तिण्णि असीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस फ जोअणाई उब्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, सो चेव वण्णओ। वइरतले, वट्टे, समतीरे जाव तोरणा । तस्स णं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते । 5 सोलस जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोअणाइं परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्ववइरामए, अच्छे से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण व वणसडेणं सव्यओ समंता संपरिक्खित्ते । रोहिअदीवस्स णं दीवस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते । कोसं आयामेणं, सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठो अ भाणिअव्यो । फ्र ९७. [ १ ] महाहिमवान् पर्वत के बीचोंबीच महापद्मद्रह नामक द्रह है। वह दो हजार योजन लम्बा 5 तथा एक हजार योजन चौड़ा है। वह दस योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ- उज्ज्वल है, रजतमय 卐 तटयुक्त है। लम्बाई और चौड़ाई को छोड़कर उसका सारा वर्णन पद्मग्रह के सदृश है। उसके मध्य में जो 卐 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र (282) फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 55 5 5 5 5 55 5 55 55 5 5 5555 555 55555555552 卐 5 மிமிமிமிதSS****************************தமிமிமிமிமிமிமிதிதில் 卐 पद्म है, वह दो योजन का है। अन्य सारा वर्णन पद्मद्रह के पद्म के सदृश सूत्र अनुसार है। उसकी प्रभा आदि सब वैसा ही है। वहाँ एक पल्योपम स्थिति वाली 'ही' नामक देवी निवास करती है। 卐 卐 गौतम ! इस कारण वह इस नाम से पुकारा जाता है। अथवा गौतम ! महापद्मद्रह नाम शाश्वत फ बताया गया है, जो न कभी नष्ट हुआ, न कभी नष्ट होगा । 5 5 उस महापद्मद्रह के दक्षिणी तोरण से रोहिता नामक महानदी निकलती है। वह हिमवान् पर्वत पर दक्षिणाभिमुखी होती हुई १,६०५, ९ योजन बहती है । घड़े मुँह से निकलते हुए जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक मोतियों से निर्मित हार के - से आकार में वह प्रपात में गिरती है। तब उसका प्रवाह पर्वत-शिखर से नीचे प्रपात तक कुछ अधिक २०० योजन होता है। रोहिता महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक विशाल जिह्विका - प्रणालिका बतलाई गई है। उसका आयाम - लम्बाई एक योजन और विस्तार - चौड़ाई १२३ योजन है। उसकी मोटाई एक कोस है। उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुँह के फ्र आकार जैसा है। वह सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है । 5 5 लम्बा- -चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ कम तीन सौ अस्सी योजन है। वह दस योजन गहरा है, स्वच्छ एवं चिकना है। उसका पेंदा हीरों से बना है। वह गोलाकार है । उसका तट समतल है। उससे सम्बद्ध तोरण पर्यन्त समग्र वर्णन पूर्ववत् है । 5 रोहिता महानदी जहाँ गिरती है, उस प्रपात का नाम रोहिताप्रपात कुण्ड है। वह १२० योजन 5 卐 Gautam! So it is called by this name. Further, this name is permanent which had never been eliminated nor it shall be eliminated in future. रोहिताप्रपात कुण्ड के बीचोंबीच रोहित नामक एक विशाल द्वीप है। वह १६ योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक ५० योजन है। वह जल स्तर से दो कोस ऊपर ऊँचा उठा हुआ है। वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, चमकीला है। वह चारों ओर एक पद्मवरवेदिका द्वारा एक वनखण्ड द्वारा घिरा हुआ है। रोहित द्वीप पर बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक फ्र विशाल भवन है । वह एक कोस लम्बा है। बाकी का वर्णन, प्रमाण आदि पूर्ववत् कथनीय है। 5 卐 फ 5 卐 फ्र 5 97. [1] At the centre of Maha Himavan mountain there is Mahapadma 5 lake (drah). It is 2,000 yojan long and 1,000 yojan wide. It is 10 yojan deep 5 in the ground. It is clean and bright. It has silvery banks. Its entire 卐 description except that of length and breadth is like that of lotus of Padma lake (drah) as mentioned in scriptures. The lotus in the middle of it is of two yojans. The entire remaining description is similar to that of the lotus of Padma lake in the scriptures. Its aura is also of the same type. Goddess Hri lives their whose life-span is one palya. 5 फ्र 卐 The great river Rohita starts from the southern arched gate of padma lake. Turning towards south on Himavan mountain it flows 1,605 yojan फ्र and five-nineteenth of a yojan. It flows quickly making a loud sound like चतुर्थ वक्षस्कार (283) Fourth Chapter 卐 卐 फ्र फ 卐 卐 फ्र Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55 55 55 2 卐 5 卐 The name of the place where Rohita river falls is Rohita waterfall the water flowing out from the mouth of a pitcher and falls as a waterfall in the shape of a garland made of pearl. Then its flow from the top of the mountain up to the place wherein it falls is a little more than 200 yojans. It is stated that there is a large tongue-shaped drain where Rohita river falls. The length and breadth of that drain is twelve and a half yojan each while the thickness is one kos. Its shape is like that of a crocodile with open mouth. It is clean and totally golden. 5 (prapat) pond which is 120 yojan long, 120 yojan wide, a little less than 卐 5 卐 卐 卐 फ्र 380 yojan in circumference and ten yojan deep. Its bottom is made of diamonds and is round. Its bank is levelled. The entire description up to the arched gate may be understood as earlier mentioned. In the middle of Rohita prapat kund (pond) there is a large island. It is 16 yojan long, 16 yojan wide and its circumference is a little more than fifty yojans. It is two kos higher raised upwards from the surface of the ९७. [ २ ] तस्स णं रोहिअप्पवायुकण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी २ सद्दावई वट्टवेअद्धपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमेणं 卐 लवणसमुद्द समप्पे । रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अ मुहे अ भाणिअव्वा इति जाव संपरिक्खित्ता । 卐 卐 तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकंता महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे 5 जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं, 卐 मुत्तावलिहारसंठिएणं, साइरेगदुजोअणसइएणं पवाएणं पवड | 卐 किंता महाई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिब्भिआ पण्णत्ता। दो जोयणाई आयामेणं, पणवीसं 卐 5 जोअणाई विक्खंभेणं, अद्धं जोअणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिआ, सव्वरयणामई, अच्छा। फ्र हरिकंताणं महाई जहिं पवडइ, एत्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते । दोणि अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं, सत्तअउणट्टे जोयणसए परिखेवेणं, अच्छे एवं कुण्डवत्तब्वया सव्वा नेयव्वा जाव तोरणा । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र water. It is totally of diamonds and is bright. It is surrounded by a 卐 卐 Padmavar Vedika and a forest from all sides. There is a large levelled 卐 attractive area on Rohit island. At the very centre of that area, there is a grand mansion. The remaining description, details and the like are the same as mentioned earlier. (284) फफफफफफफफफफफ Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 卐 5 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बफफफफ फफफफफफफ 卐 बत्तीसं जोअणाई आयामविक्खंभेणं, एगुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, 卐 5 सव्वरयणामए, अच्छे से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं संपरिक्खित्ते वण्णओ भाणिअव्वोत्ति, पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठो अ भाणिअव्वो । 5 卐 5 卐 卐 तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं (हरिकंता महाणई) पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं 卐 एज्जेमाणी २ विअडावदं वट्टवेअद्धं जोअणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा 5 हरिकंता णं महाणई पवहे पणवीसं जोअणाई, विक्खंभेणं, अद्धजोअणं उव्वेहेणं । तयणंतरं च णं मायाए २ विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पे | परिवमाणी २ मुहमूले अद्वाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंभेणं, पंच जोअणाई उव्वेहेणं । उभओ पासिं दोहिं फ्र पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता । 卐 ९७. [ २ ] उस रोहिताप्रपात कुण्ड के दक्षिणी तोरण से रोहिता महानदी निकलती है। वह हैमवत क्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है। शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत जब आधा योजन दूर रह जाता है, तब वह पूर्व की ओर मुड़ती है और हैमवत क्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है । उसमें अट्ठाईस हजार (२८,०००) नदियाँ मिलती हैं। वह उन सबको साथ लिये नीचे जम्बूद्वीप की जगती को चीरती हुई पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। रोहिता महानदी के उद्गम, संगम आदि सम्बन्धी सारा वर्णन रोहितांशा महानदी जैसा है। उस महापद्मद्रह के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता नामक महानदी निकलती है। वह उत्तराभिमुख होती हुई १,६०५१ योजन पर्वत पर बहती है । फिर घड़े के मुँह से निकलते हुए जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई, वेगपूर्वक मोतियों से बने हार के आकार में प्रपात में गिरती है । उस समय ऊपर पर्वत-शिखर से नीचे प्रपात तक उसका प्रवाह कुछ अधिक दो सौ योजन का होता है। हरिकान्ता महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक विशाल जिह्विका - प्रणालिका बलताई गई है। वह दो योजन लम्बी तथा पच्चीस योजन चौड़ी है। वह आधा योजन मोटी है। उसका आकार मगरमच्छ के खुले हुए मुख के आकार जैसा है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है । हरिकान्ता महानदी जिसमें गिरती है, उसका नाम हरिकान्ताप्रपात कुण्ड है। वह विशाल है। वह २४० योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि ७५९ योजन की है। वह निर्मल है। तोरण पर्यन्त कुण्ड का फ्र समग्र वर्णन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। हरिकान्ताप्रपात कुण्ड के बीचोंबीच हरिकान्त द्वीप नामक एक विशाल द्वीप है। वह ३२ योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि १०१ योजन है, वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है । वह चारों ओर एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा घिरा हुआ है । तत्सम्बन्धी प्रमाण, शयनीय आदि का समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। हरिकान्ताप्रपात कुण्ड के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महानदी आगे निकलती है । हरिवर्ष क्षेत्र बहती है, विकटापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत के एक योजन दूर रहने पर वह पश्चिम की ओर मुड़ती है । चतुर्थ वक्षस्कार 2 95 95 96 97 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595959 55 5 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 555 5552 (285) *மிதிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமி*****மிதிமிதிதமிழி Fourth Chapter 卐 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 515 455 456 457 455 456 4 41 41 41 $$$$$$$$$$$45 454 455 456 457 455 456 45 45 46 47 44 445 446 447 44 45 46 47 46 45 45 $$$$1$$1$1$14141414141414141414141414141414141414141414141414141 ॐ हरिवर्ष क्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। उसे छप्पन हजार (५६,०००) नदियाँ मिलती 卐 हैं। वह उन सबको साथ लिए नीचे की ओर जम्बूद्वीप की जगती को चीरती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। हरिकान्ता महानदी जिस स्थान से निकलती है, वहाँ उसकी चौड़ाई पच्चीस योजन तथा : 卐 गहराई आधा योजन है। तदनन्तर क्रमशः उसका प्रमाण बढ़ता जाता है। जब वह समुद्र में मिलती है, + तब उसकी चौड़ाई २५० योजन तथा गहराई पाँच योजन होती है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं के से तथा दो वनखण्डों से घिरी हुई है। 4 97. [2] The great river Rohita starts from the southern arched gate of Rohitaprapat pond (Kund) and flows towards Haimavat region. When it is just half a yojan from Shabdapati Vritt-Vaitadhya mountain, it turns to the east and dividing Haimavat continent in two parts it goes ahead. 28,000 rivers join it and alongwith them it goes into the eastern salty ocean passing through the boundary wall. The entire description of the source, junction and the like of great river Rohita is like that of Rohitansha river. The great river Harikanta starts from the north arched gate of Mahapadma lake. Then turning towards the north, it flows 1,605 yojan 41 and five-nineteenth of a yojan on the mountain. Then making a loud sound like that of water coming out of the mouth of a pitcher, and moving fast in the shape of a garland made of pearls it falls in the ditch. 4. Its flow from the top of the mountain up to the ditch is a little more than 41 200 yojans. There is a large tongue-shaped drain where Harikanta river falls. It 5 is 200 yojan long, 25 yojan wide and half a yojan thick. Its shape is like that of a crocodile with an open mouth. It is all jewelled and clean. The pond wherein Harikanta river falls is called Harikanta prapat Kund. It is 240 yojan long, 240 yojan wide and 759 yojan in circumference. It is clean. The entire description of the ditch up to arched gate may be understood as similar to the one already mentioned. In the middle of Harikanta prapat large pond there is a large island called Harikant island which is 32 yojan in length and breadth and 101 yojan in circumference. It is 2 kos above the water level, is clean and i totally jewel studded. It is surrounded by a Padmavar Vedika and forest 4 from all sides. The entire description about size and the like may be understood similar to one mentioned earlier. 41 From the northern gate of Harikant prapat pond (Kund), Harikanta 45 river starts. It flows in Harivarsh continent and when it is one yojan 41 4415541541414141414141414141414141414141414141414 41 41 41 14454 455 41 41 41 41 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 286 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414148 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2559555555555555559555555555592 फफफफफफफफफफफफफफफफ 5 卐 卐 5 5 महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट THE PEAKS OF MAHA HIMAVAN VARSHADHAR MOUNTAIN ९८. [.] महाहिमवन्ते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? H 卐 5 5 卐 away from Vikatapati vritt Vaitadhya mountain, it turns to the west and फ्र moves ahead dividing Harivarsh continent into two parts. 56,000 small rivers join it. Then with all of them it flows down and passing over the foundation wall of Jambu continent it joins Lavan Samudra. At the source the width of Harikanta river is 25 yojan and depth is half a yojan which gradually increases. When it merges in the ocean, its width is 250 and depth is five yojan. On both sides it is surrounded by two Padmavar Vedikas and two forests. yojan [उ.] गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा - १. सिद्धाययणकूडे, २. महाहिमवंतकूडे, ३. हेमवयकूडे, ४. रोहिअकूडे, ५. हिरिकूडे, ६. हरिकंतकूडे, ७. हरिवासकूडे, ८. वेरुलिअकूडे । एवं चुल्लहिमवंत कूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव णेअब्बा | [प्र.] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ महाहिमवंते वासहरपव्वए २ ? [.] गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपव्यए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुब्बेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ । ९८. [ प्र. ] भगवन् ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कितने 'कूट हैं ? [ उ. ] गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के आठ कूट हैं, जैसे- (१) सिद्धायतनकूट, (२) महाहिमवान्कूट, (३) हैमवतकूट, (४) रोहितकूट, (५) हीकूट, (६) हरिकान्तकूट, (७) हरिवर्षकूट, तथा (८) वैडूर्यकूट । चुल्लहिमवान्कूटों की वक्तव्यता के अनुरूप ही इनका वर्णन जानना चाहिए। [ प्र. ] भगवन् ! यह पर्वत महाहिमवान् वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? [ उ. ] गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत, चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत की अपेक्षा लम्बाई, ऊँचाई, गहराई, चौड़ाई तथा परिधि में महत्तर तथा अधिक बड़ा है। परम ऋद्धिशाली, पल्योपम आयुष्ययुक्त महाहिमवान् नामक देव वहाँ निवास करता है, इसलिए वह महाहिमवान् वर्षधर पर्वत कहा जाता है। 98. [Q.] Reverend Sir ! How many are the peaks (koots) of Maha Himavan Varshadhar mountain? [Ans.] Gautam ! Maha Himavan Varshadhar mountain has eight peaks namely – ( 1 ) Sidhayatan peak, (2) Maha Himavan peak, (3) Haimavat peak, ( 4 ) Rohit peak, (5) Hri peak, (6) Harikant peak, (7) Harivarsh peak, and ( 8 ) Vaidurya peak. चतुर्थ वक्षस्कार फ्र (287) 255959595959595959595959555555955555595959595959595959592 Fourth Chapter 卐 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0555555555555555555555555555555 The description of these peaks may be understood similar to those of Chull Himavan peaks. [Q.] Reverend Sir ! Why is this mountain called Maha Himavan , Varshadhar mountain ? (Ans.) Maha Himavan Varshadhar mountain is larger than Chull Himavan Varshadhar mountain in length, height, depth, breadth and circumference. Further, a very prosperous celestial being whose name is Maha Hiamavan and whose life-span is one palyopam resides there. So y it is called Maha Himavan Varshadhar mountain. हरिवर्ष क्षेत्र HARIVARSH CONTINENT __ ९९. [प्र. ] कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, महाहिमवन्तवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते। एवं पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे। अट्ठ जोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खंभेणं। तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं तेरस जोअणसहस्साई तिणि अ एगसढे जोअणसए छच्च म एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणंति। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा। तेवत्तरि जोअणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं। तस्स धणुं दाहिणेणं ॐ चउरासीइं जोअणसहस्साई सोलस जोअणाइं चत्तारि एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ] हरिवासस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? __[उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहिं तणेहि अ उवसोभिए एवं मणीगंज तणाण य वण्णो गन्धो फासो सद्दो भाणिअब्बो। हरिवासे णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे खुड्डा खुडिआओ एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्वोत्ति। [प्र. ] कहि णं भंते ! हरिवासे वासे विअडावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं, हरिकंताए महाणईए पुरथिमेणं, हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं विअडावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते। एवं जो चेव सहावइस्स ॥ विक्खंभुच्चत्तुब्बेहपरिक्खेवसंठाणवण्णावासो अ सो चेव विअडावइस्सवि भाणिअव्वो। णवरं अरुणो देवो, पउमाई जाव विअडावइवण्णाभाई अरुणे इत्थ देवे महिडीए एवं जाव दाहिणेणं रायहाणी अव्वा। [प्र. ] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-हरिवासे हरिवासे ? | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (288) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LLELLE LE LE 5555555फ्र त 卐 F [उ. ] गोयमा ! हरिवासे णं वासे मणुआ अरुणा, अरुणाभासा, सेआ णं संखदलसण्णिकासा। 5 हरिवासे अ इत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ | ९९. [.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष नामक क्षेत्र कहाँ पर है ? 卐 [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र 15 के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष नामक क्षेत्र है। वह अपने पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों किनारों से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। उसका विस्तार ८, ४२११९ योजन है । उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम १३,३६११ योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा है, जो पूर्व-पश्चिम है। वह पूर्व तथा पश्चिम दोनों ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। वह ७३,९०११७५ योजन । उसकी धनुः पीठिका दक्षिण में ८४,०१६ योजन परिधि की है। 5 लम्बी [प्र.] भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार कैसा है ? [ उ. ] गौतम ! उसमें अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। मणियों एवं तृणों के वर्ण, गन्ध, स्पर्श और शब्द पूर्व वर्णित के अनुरूप हैं। हरिवर्ष क्षेत्र में जहाँ-तहाँ छोटी-छोटी वापिकाएँ, पुष्करिणियाँ आदि हैं। वहाँ अवसर्पिणी काल के सुषमा नामक द्वितीय 5 Б F F आरक के समान सुखमय स्थिति है। अवशेष वक्तव्यता पूर्ववत् है । F 5 [प्र. ] भगवन् ! हरिवर्ष क्षेत्र में विकटापाती नामक वृत्त वैताढ्यपर्वत कहाँ बतलाया गया है ? F [उ. ] गौतम ! हरि या हरिसलिला नामक महानदी के पश्चिम में, हरिकान्ता महानदी के पूर्व में, 5 हरिवर्ष क्षेत्र के बीचोंबीच विकटापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत बतलाया गया है। विकटापाती 5 वृत्तवैताढ्य की चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, परिधि, आकार वैसा ही है, जैसा शब्दापाती का है। इतना अन्तर है - वहाँ अरुण नामक क्षेत्र है। वहाँ विद्यमान कमल आदि के वर्ण, आभा, आकार आदि विकटापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत के समान हैं । वहाँ परम ऋद्धिशाली अरुण नामक देव निवास करता है। दक्षिण में उसकी राजधानी है। [प्र. ] भगवन् ! हरिवर्ष क्षेत्र नाम किस कारण पड़ा ? [उ. ] गौतम ! हरिवर्ष क्षेत्र में मनुष्य ( युगलिया ) उदय होते रक्तवर्णयुक्त सूर्य की किरणों के समान रक्तप्रभायुक्त हैं कतिपय चन्द्र के समान उज्ज्वल शंख- खण्ड के सदृश श्वेत आभा वाले हैं। श्वेतप्रभायुक्त हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली, पल्योपभ स्थिति वाला हरिवर्ष नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह क्षेत्र हरिवर्ष कहलाता है। 99. [Q.] Reverend Sir ! Where is Harivarsh area in Jambu continent ? 卐 [Ans.] In the south of Nishadh Varshadhar mountain, in the north of Maha Himavan Varshadhar mountain, in the west of eastern salty ocean and in the east of western salty ocean in Jambu continent Harivarsh area is located. It touches Lavan Samudra from its eastern and western ends. It is spread in 8,421 and one-nineteenth yojans. चतुर्थ वक्षस्कार (289) फ्र फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ Fourth Chapter 4 生 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4455455555555555555 455 456 457 45.5 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 45 04 455 456 457 455 456 454 4 55 456 455 456 457 455 456 454 455 456 457 458 459 455 456 457 455 456 457 451 451 454545 15. Its Baha is 13,36161 yojan long. In the north its ridge is in east-west \ direction touching the salty ocean from both the sides. It is 73,90117|| yojan long. The length of its are in the south is 84,016. yojan. (Q.) Reverend Sir ! What is the shape, nature and description of 4 Harivarsh area? (Ans.] There is extremely levelled and attractive piece of land in this area which is shining with precious stones and vegetation whose colour, smell, touch and sound is similar to that mentioned earlier. In Harivarsh continent there are small lakes and the like scattered hither and thither. The general condition is similar to that of Sukhama, the second aeon of Avasarpani time period. The remaining description is the same as mentioned earlier. (Q.) Reverend Sir ! Where is Vikatapati Vritt Vaitadhya mountain in Harivarsh continent ? [Ans.] In the west of Hari or Harisalila river, in the east of Harikanta river and in the middle of Harivarsh region. There is Vikatapati VrittVaitadhya mountain. It is similar to Shabdapati mountain in width, height, depth, cricumference and shape. The only difference is that Arun region is located there. The colour, aura, shape and the like. Arun, a very prosperous god resides there. His capital is in the south. (Q.) Reverend Sir ! Why is it called Harivarsh region ? (Ans.) Gautam ! The twin residents of Harivarsh continent are a bit reddish in colour like the rising sun with its red rays and red influence. They are shining like moon and have a white aura like a conch-shell. They have white radiance. A very prosperous celestial being whose name is Harivarsh and whose life-span is one palyopam resides there. So it is called Harivarsh continent. ॐ निषध वर्षधर पर्वत NISHADH VARSHADHAR MOUNTAIN १००. [प्र. ] कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं, हरिवासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे। दुहा लवणसमुदं पुढे, पुरथिमिल्लाए पुढे, पच्चत्थिमिल्लाए पुढे। चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाइं उव्वेहेणं, सोलस जोअणसहस्साइं अट्ठ य बायाले 9 जोअणसए दोण्णि य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं। 4 545454545454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 452 4 545 455 456 457 455 456 457 451 45 455 456 454 455 456 455 456 455 456 457 45454545 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 290 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 4 4 454545454545455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 451 4545454545454545452 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागागागागागागामा11111111 4555555555555555555555555555555555555 तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं वीसं जोअणसहस्साई एगं च पण्णटुं जोअणसयं दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं चउणवइ जोअणसहस्साई एगं च ॥ # छप्पण्णं जोअणसयं दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणंति। तस्स धणुं दाहिणेणं एगं जोअणसयसहस्सं चउवीसं च जोअणसहस्साई तिण्णि अ छायाले जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए A जोअणस्स परिक्खेवणंति। रुअगसंठाणसंठिए, सब्बतवणिज्जमए, अच्छे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते। # णिसहस्स णं वासहरपव्ययस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति, सयंति। तस्स मणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिगिंछिद्दहे णामं दहे पण्णत्ते। # पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, चत्तारि जोअणसहस्साई आयामेणं, दो जोअणसहस्साई । विक्खंभेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं, अच्छे सण्हे रययामयकूले। - तस्स णं तिगिंच्छिद्दहस्स चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता। एवं जाव आयामविक्खंभविहूणा जा चेव महापउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव तिगिंछिद्दहस्सवि वत्तव्वया, तं चेव के पउमद्दहप्पमाणं जाव तिगिंछिवण्णाई, धिई अ इत्थ देवी पलिओवमट्ठिईआ परिवसइ से तेणटेणं गोयमा ! । एवं बुच्चइ तिगिंछिद्दहे तिगिंछिद्दहे। १००. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत निषध नामक वर्षधर पर्वत कहाँ पर स्थित है ? [उ. ] गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के दक्षिण में, हरिवर्ष क्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत निषध नामक वर्षधर पर्वत है। वह । पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह पूर्व और पश्चिम दोनों किनारों से लवणसमुद्र - का स्पर्श करता है। वह ४०० योजन ऊँचा है, ४०० कोस जमीन में गहरा है। वह १६,८४२२३ योजन चौड़ा है। - उसकी बाहा-पार्श्व-भुजा पूर्व-पश्चिम में २०,१६५३५ योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा । (पूर्व-पश्चिम लम्बी) है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। ९४,१५६२ योजन लम्बाई लिए है। दक्षिण की ओर स्थित उसके धनुपृष्ठ की परिधि १,२४,३४६, योजन है। उसका रुचक-गले के आभूषण के आकार जैसा आकार है। वह सम्पूर्णतः स्वर्णमय है, स्वच्छ है। वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा सब ओर से घिरा है। निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर एक बहुत समतल तथा सुन्दर भूमिभाग है, जहाँ देव-देवियाँ निवास | करते हैं। उस बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में एक तिगिंछद्रह नामक द्रह है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह ४,००० योजन लम्बा, २,००० योजन चौड़ा तथा १० योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ, स्निग्ध-चिकना तथा रजतमय तटयुक्त है। ___ उस तिगिछद्रह के चारों ओर तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हैं। लम्बाई, चौड़ाई के अतिरिक्त उस (तिगिंछद्रह) का सारा वर्णन पद्मद्रह के समान है। परम ऋद्धिशालिनी, एक पल्योपम के आयुष्य वाली है a555 F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 चतुर्थ वक्षस्कार (291) Fourth Chapter 15555555555555555步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙乐园 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 55 5 5955555555 5 5 5 5 5 5 5959595959595959595959595955654544546442 फ्र धृति नामक देवी वहाँ निवास करती है । उसमें विद्यमान कमल आदि के वर्ण, प्रभा आदि तिगिंच्छपरिमल-पुष्परज के सदृश हैं। अतएव वह तिगिंछद्रह कहलाता है। 100. [Q.] Reverend Sir ! Where is Nishadh Varshadhar mountain located in Jambu continent? [Ans.] Gautam ! In Jambu continent, Nishadh Varshadhar mountain is located in the south of Mahavideh area and in the north of Harivarsh area. It is in the west of eastern Lavan ocean and in he east of western Lavan ocean and its eastern and western ends touch Lavan ocean. Its length is in east-west and its breadth is in north-south direction. It is y 400 yojan high and 400 kos deep. It 16,842 and two-nineteenth yojan wide. Its arm is 20,1652g yojan long. Its ridge is in east-west direction touching Lavan ocean and is 94,156 two-nineteenth yojan long. Its curved length in the south is 1,24,346 nine - nineteenth yojan. Its shape is like that of an ornament worn in neck. It is totally golden and clean. It is surrounded by two Padmavar Vedikas and two forests. 53 There is a very much levelled and attractive land on Nishadh Varshadhar mountain where gods and goddesses reside. In the very middle of that land there is Tiginchh lake whose length is in east-west direction and breadth is in north-sourth direction. It is 4,000 yojan long, 2,000 yojan wide and ten yojan deep. It has clean, soft and silvery banks. There are stairs on all the four sides of Tiginchh lake each having three steps. The entire description of Tiginchh lake except length and breadth is similar to that of Padma lake. A very prosperous goddess whose name is Dhriti and whose life-span is one palyopam resides there. The colour, aura and the like of the lotus located there and the like is like pollen or Tiginchh. So it is called Tiginchh lake. १०१. [ १ ] तस्स णं तिगिंछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त 5 जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एकवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं 卐 गंता महया घडमुहपवित्तिएणं (मुत्तावलिहारसंठिएणं) साइरेगचउजो अणसइएणं पवाएणं पवडइ । एवं जा 5 चेव हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीएवि णेअव्वा । जिब्भिआए, कुंडस्स, दीवस्स, भवणस्स तं चैव पमाणं अट्ठोऽवि भाणिअब्बो जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरत्थिमं लवणसमुद्द समप्पे । तं चैव पव अ मुहमूले अ पमाणं उव्वेहो अ जो हरिकंताए जाव वणसंडसंपरिक्खित्ता । तस्स णं तिगिंछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओओ महाणई पवूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (292) ५ 5555555555לתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתת फ्र Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת ת ת नानानानानानाना-नानानानानाना नागाना घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। सीओआ णं महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णत्ता। चत्तारि जोअणाई आयामेणं, पण्णासं जोअणाई विक्खंभेणं, जोअणं । बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिआ, सब्बवइरामई अच्छा। A सीओआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे सीओअप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते। चत्तारि । असीए जोअणसए आयामविक्खंभेणं, पण्णरसअट्ठारे जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, अच्छे एवं । कुंडवत्तव्वया णेअव्वा जाव तोरणा। तस्स णं सीओअप्पवायुकण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीओअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते। * चउसढि जोअणाई आयामविक्खंभेणं, दोण्णि विउत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्ववइरामए, अच्छे। सेसं तमेव वेइयावणसंड-भूमिभाग-भवण-सयणिज्जअट्ठो भाणिअव्वो। १०१. [१] उस तिगिंछद्रह के दक्षिणी तोरण से हरि (हरिसलिला) नामक महानदी निकलती है। वह दक्षिण में उस पर्वत पर ७,४२१, योजन बहती है। घड़े के मुँह से निकलते पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वह वेगपूर्वक (मोतियों से बने हार के आकार में) प्रपात में गिरती है। उस समय उसका 5 प्रवाह ऊपर से नीचे तक कुछ अधिक चार सौ योजन का होता है। शेष वर्णन जैसा हरिकान्ता महानदी का है, वैसा ही इसका समझना चाहिए। इसकी जिह्निका, कुण्ड, द्वीप एवं भवन का वर्णन, प्रमाण उसी जैसा है। नीचे जम्बूद्वीप की जगती को भेदती हुई वह आगे बढ़ती है। छप्पन हजार (५६,०००) नदियों के साथ वह महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। उसके प्रवह-उद्गम-स्थान, मुख-मूल-समुद्र से संगम तथा गहराई का वैसा ही प्रमाण है, जैसा हरिकान्ता महानदी का है। हरिकान्ता महानदी की ज्यों वह पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से घिरी हुई है। तिगिंछद्रह के उत्तरी तोरण से शीतोदा नामक महानदी निकलती है। वह उत्तर में उस पर्वत पर ७,४२१. योज- बहती है। घड़े के मुँह से निकलते जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक वह प्रपात में गिरती है। तब ऊपर से नीचे तक उसका प्रवाह कुछ अधिक ४०० योजन होता है। शीतोदा महानदी जहाँ से गिरती है, वहाँ एक विशाल जिह्विका है। वह चार योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी तथा एक योजन मोटी है। उसका आकार मगरमच्छ के खुले हुए मुख के आकार जैसा है। वह सम्पूर्णतः वज्ररत्नमय है, स्वच्छ है। ___शीतोदा महानदी जिस कुण्ड में गिरती है, उसका नाम शीतोदाप्रपातकुण्ड है। वह विशाल है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई ४८० योजन है। उसकी परिधि कुछ कम १,५१८ योजन है। वह निर्मल है। तोरण पर्यन्त उस कुण्ड का वर्णन पूर्ववत् है। शीतोदाप्रपातकुण्ड के बीचोंबीच शीतोदाद्वीप नाम का विशाल द्वीप है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई ६४ योजन है, परिधि २०२ योजन है। वह जल के ऊपर दो कोस ऊँचा उठा है। वह सर्ववज्ररत्नमय है, स्वच्छ है। पद्मवरवेदिका वनखण्ड, भूमिभाग, भवन, शयनीय आदि बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। 101. [1] The great river Hari (Harisalila) starts from the southern arched gate of that Tiginchh lake. It flows up to 7,421 and oneचतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter 19555) )))))) )))))))) )) )))))) नागनानागा (293) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @55555555555555555555555555555 255955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5952 卐 卐 nineteenth yojan on the mountain and then making loud sound like that of water coming out from the mouth of a pitcher, it falls (in the shape of a garland of pearls) into a pond at a very high speed. At that time its flow from top to bottom is a little more than 400 yojan. The remaining description may be understood as similar to Harikanta river. The description of its tongue, pond, the island and the mansion in it is also identical with that of Harikanta river. It moves ahead passing through the foundation wall (Jagati) of Jambu continent. The size of its source, mouth and the delta where it joins the sea is the same as that of Harikanta river. It is also surrounded by Padmavar Vedika and forest like Harikanta river. Shitoda river starts from the northern arched gate of Tiginchh lake. In the north it flows on the mountain up to 7,421 and one-nineteenth yojan. It makes a loud sound like that of the water coming out from the mouth of a pitcher and then falls at a fast speed into a ditch. At that time from top to bottom its flow is a little more than 400 yojan. There is a huge tongue where Shitoda river falls which is 400 yojan long, 50 yojan wide and one yojan thick. Its shape is like that of the open mouth of crocodile. It is completely golden and clean. The pond wherein Shitoda river falls is called Shitoda prapat Kund which is very great. Its length and breadth is 480 yojan each, and the circumference is a little less than 1,518 yojan. It is clean. The entire description of the pond up to the arched gate is the same as mentioned earlier. In the very middle of Shitoda prapat pond there is a large island, sixty four yojan long and 202 yojan in circumference. It is two kos above the water level. It is totally made of Vajra jewels and clean. The remaining description of Padmavar Vedika, forest, land area, the mansion and the like is the same as earlier mentioned. १०१. [ २ ] तस्स णं सीओअप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महाणई पवूढा समाणी देवकुरुं एज्जेमाणा २ चित्तविचित्तकूडे, पव्वए, निसढ - देवकुरु - सूर - सुलस - विज्जुप्पभदहे अ दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भद्दसालवणं एज्जेमाणी २ मंदरं पव्वयं दोहिं जोअणेहिं असंपत्ता पच्चत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी अहे विज्जुप्पभं वक्खारपव्वयं दारइत्ता मन्दरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पञ्चहिं सलिलासहस्सेहिं दुतीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा अ जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्दं समप्पेति । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 55555 (294) Jambudveep Prajnapti Sutra 446 447 46 46 555555555555555555555555 卐 5 59595955 59595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55559555595 5552 卐 45 57 卐 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B5555555555555555555)))))))))55558 )) ) )) )) ) )) )))))5555555555555558 )) ) 卐 सीओआ णं महाणई पवहे पण्णासं जोअणाई विखंभेणं, जोअणं उव्वेहेणं। तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं। उभओ पासिं दोहिं 5 पउमवरवेइआहिं दोहिं अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता। [प्र. ] णिसढे णं भंते ! वासहरपव्वए णं कति कूडा पण्णत्ता ? __ [उ. ] गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूड़े, २. णिसढकूडे, ३. हरिवासकूडे, म ४. पुव्वविदेहकूडे, ५. हरिकूडे, ६. धिईकूडे, ७. सीओआकूडे, ८. अवरविदेहकूडे, ९. रुअगकूडे। ___ जो चेव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त-विक्खंभ-परिक्खेवो पुववण्णिओ रायहाणी अ सा चेव इहं . णि अव्वा। [प्र. ] से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए २ ? [उ. ] गोयमा ! णिसहे णं वासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिआ उसभसंठाणसंठिआ, णिसहे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपब्बए २। १०१. [ २ ] उस शीतोदाप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी आगे निकलती है। देवकुरु क्षेत्र में आगे बढ़ती है। विविध प्रकार के कूटों, पर्वतों, निषध, देवकुरु, सूर, सुलस एवं विद्युत्प्रभ नामक द्रहों को विभक्त करती हुई जाती है। उस बीच उसमें चौरासी हजार (८४,०००) नदियाँ 卐 आ मिलती हैं। वह भद्रशाल वन की ओर आगे जाती है। जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रह जाता है, तब वह पश्चिम की ओर मुड़ती है। नीचे विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत को भेदकर मन्दर पर्वत के पश्चिम में पश्चिम विदेह क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई बहती है। उस बीच उसमें १६ चक्रवर्ती विजयों में से एक-एक से अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियाँ आ मिलती हैं। इस प्रकार चार लाख अड़तालीस हजार (४,४८,०००) ये तथा चौरासी हजार (८४,०००) पहले की कुल पाँच लाख बत्तीस हजार (५,३२,०००) नदियों के साथ वह शीतोदा महानदी नीचे जम्बूद्वीप के पश्चिम दिशावर्ती जयन्त द्वार की जगती को भेदकर पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। शीतोदा महानदी अपने उद्गम-स्थान में पचास योजन चौड़ी है। वहाँ वह एक योजन गहरी है। तत्पश्चात् वह प्रमाण में क्रमशः बढ़ती-बढ़ती जब समुद्र में मिलती है, तब वह ५०० योजन चौड़ी, दस योजन गहरी हो जाती है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवृत है। ___[प्र. ] भगवन् ! निषध वर्षधर पर्वत के कितने कूट हैं ? __[उ. ] गौतम ! उसके नौ कूट हैं-(१) सिद्धायतनकूट, (२) निषधकूट, (३) हरिवर्षकूट, (४) पूर्वविदेहकूट, (५) हरिकूट, (६) धृतिकूट, (७) शीतोदाकूट, (८) अपरविदेहकूट, तथा 9 (९) रुचककूट। चुल्लहिमवान् पर्वत के कूटों की ऊँचाई, चौड़ाई, परिधि, राजधानी आदि का जो वर्णन पहले आया 卐 है, वैसा ही इनका है। ))) )) ))) ) ))) )) ) )) ))) ))) )) ) ))) 卐) | चतुर्थ वक्षस्कार (295) Fourth Chapter Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 4554545454545454545454545454545454545454545452 455 456 457 451 451 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41414141414141414141414141 [ 9. ] 47197! #fre adera ya Rai HET HIT ? [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के बहुत से कूट निषध के-वृषभ के आकार के सदृश हैं। उस ॐ पर परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला निषध नामक देव निवास करता है। इसलिए वह निषध वर्षधर पर्वत कहा जाता है। 101. [2] From the northern gate of Shitoda prapat pond Shitoda river 4 starts and flows in the land of Devakuru region. It flows ahead dividing the tops, the mountains, Nishadh, Devakuru, Soor, Sulas and Vidyutprabh lakes and during this route, 84,000 rivers join it. It moves ahead towards Bhadrashal forest. When Mandar mountain is only two yojan from it, it turns towards the west downwards. After dividing \i Vidyut-prabh Vakshaskar mountain, it flows ahead dividing western Videh region situated in the west of Mandar mountain into two parts. On its route 28,000 rivers each of its sixteen Chakravarti Vijays join it. Thus with these 4,48,000 rivers and 84,000 earlier rivers totalling 5,32,000 rivers that Shitoda great river, passing over the foundation wall of Jayant gate of Jambu continent in the west, it joins the western Lavan ocean. The great river Shitoda is 500 yojan wide and one yojan deep at its source and gradually increasing it becomes 500 yojan wide and ten yojan deep when it merges in the sea. It is surrounded by two Padmavar Vedikas and two forests on both sides. 4 (Q.) Reverend Sir ! How many are the peaks of Nishadh Varshadhar mountain ? Ans.) Gautam ! It has nine peaks namely_(1) Sidhayatan peak. (2) Nishadh peak, (3) Harivarsh peak, (4) Eastern Videh peak, (5) Hari peak, (6) Dhriti peak, (7) Shitoda peak, (8) Apar Vedeh peak, and (9) Ruchak peak (Koot). The description of the height, length, circumference, capital and the like of those peaks is similar to that of the peaks of Chull Himavan mountain already mentioned earlier. $ (Q.) Reverend Sir ! Why is Nishadh mountain so called ? (Ans.) Many tops of Nishadh Varshadhar mountain are of the shape of a bull (nishadh). Further, a very prosperous god Nishadh whose lifespan is one palyopam resides there. So it is called Nishadh Varshadhar mountain. w5555555555555555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 455 456 455 456 455 456 44 145 155 456 455 456 457 454 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (296) Jambudveep Prajnapti Sutra 5455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 455 456 457 455 456 41 41 41 41 41 41 41 41 45 5554545 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ))) ) ) ) ) ) )) ) )) 855555555555555555555555555555 ॐ महाविदेह क्षेत्र का वर्णन DESCRIPTION OF MAHAVIDEH CONTINENT म १०२. [प्र. ] कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेह णामं वासे पण्णत्ते ? ॐ [उ. ] गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलिअंकसंठाणसंठिए। दुहा लवणसमुदं पुढे पुढे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं (लवणसमुदं) पुढे, तित्तीसं जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए , जोअणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं ति। ___ तस्स बाहा पुरथिम पच्चत्थिमेणं तेत्तीसं जोअणसहस्साई सत्त य सत्तसढे जोअणसए सत्त य एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणंति। तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया। दुहा लवणसमुदं म पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं (लवणसमुदं) पुट्ठा एवं पच्चथिमिल्लाए पुट्ठा, एगं जोयणसयसहस्सं आयामेणं ति। तस्स धणुं उभओ पासिं उत्तरदाहिणेणं एगं जोअणसयसहस्सं अट्ठावण्णं ॐ जोअणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोअणसयं सोलस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं ति। ___ महाविदेहे णं वासे चउविहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तं जहा-१. पुबविदेहे, २. अवरविदेहे, ३. देवकुरा, ४. उत्तरकुरा। [प्र. ] महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव। [प्र. ] महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ. ] तेसि णं मणुआणं छब्बिहे संघयणे, छबिहे संठाणे, पंचधणुसयाई उद्धं च उच्चत्तेणं, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुचकोडीआउअं पालेन्ति, पालेत्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अप्पेगइआ ॐ सिमंति, अंतं करेन्ति। [प्र. ] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-महाविदेहे वासे २ ? [उ. ] गोयमा ! महाविदेहे णं वासे भरहेरवय-हेमवय-हेरण्णवय-हरिवास-रम्यगवासेहितो आयाम-विक्खंभ-संठाण-परिणाहेणं वित्थिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव। महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति, महाविदेहे अ इत्थ देवे महिडीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-महाविदेहे वासे २। ___ अदुत्तरं च णं गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि ३। १०२. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह नामक क्षेत्र कहाँ पर है? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, पूर्वी ऊ लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह नामक क्षेत्र है। ) 55555555555 5555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 )) ) ))) )) )) ) ) 8555555555) | चतुर्थ वक्षस्कार (297) Fourth Chapter 05555555555555555555555555555555558 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 555 55555595555550 फ 5 卐 5 वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है, पलंग के आकार के समान है। वह पूर्वी तथा 5 पश्चिमी दोनों ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। उसकी चौड़ाई ३३,६८४, योजन है। 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 சுத்ததவி*********தமிழதததததி**********தமிழிழி 5 सौ धनुष ऊँचे होते हैं। उनका आयुष्य कम से कम अन्तर्मुहूर्त्त तथा अधिक से अधिक एक पूर्व कोटि का फ्र उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम ३३,७६७९ योजन लम्बी है। उसके बीचोंबीच उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। वह एक लाख योजन लम्बी 卐 है। उसकी धनुपृष्ठ उत्तर-दक्षिण दोनों ओर परिधि की दृष्टि से कुछ अधिक १, ५८, ११३१६ योजन है । महाविदेह क्षेत्र के चार भाग हैं- (१) पूर्वविदेह, (२) पश्चिमविदेह, (३) देवकुरु, तथा (४) उत्तरकुरु । [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? 卐 [ उ.] गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय है। वह नानाविध कृत्रिम बनाये हुए एवं अकृत्रिम - स्वाभाविक पंचरंगे रत्नों से, तृण वनस्पतियों से सुशोभित है। [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यों का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? 5 फ [ उ. ] गौतम ! वहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन, छह प्रकार के संस्थान वाले होते हैं। वे पाँच होता है । अपना आयुष्य पूर्ण कर उनमें से कतिपय नरकगामी होते हैं, यावत् चारों गतियों में जाते हैं। कतिपय सिद्ध होते हैं, समग्र दुःखों का अन्त करते हैं। [प्र.] भगवन् ! उसे महाविदेह क्षेत्र क्यों कहा जाता है ? [उ. ] गौतम ! (१) भरत क्षेत्र, (२) ऐरवत क्षेत्र, (३) हैमवत क्षेत्र, (४) हैरण्यवत क्षेत्र, (५) हरिवर्ष क्षेत्र, तथा (६) रम्यक् क्षेत्र की अपेक्षा महाविदेह क्षेत्र लम्बाई, चौड़ाई, आकार एवं परिधि में अति विस्तीर्ण, अति विपुल, अति विशाल तथा अति वृहत् प्रमाणयुक्त है। महाविदेह-अति विशाल 5 located ? देहयुक्त मनुष्य उसमें निवास करते हैं। परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला महाविदेह नामक 5 卐 देव उसमें निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह महाविदेह क्षेत्र कहा जाता है। इसके अतिरिक्त गौतम ! महाविदेह नाम शाश्वत है, जो न कभी नष्ट हुआ है, न कभी नष्ट होगा। 102. [Q.] Reverend Sir ! In Jambu island where is Mahavideh region [Ans.] Gautam ! In Jambu island Mahavideh region is located in the 卐 south of Neelvan Varshadhar mountain and in the north of Nishadh Varshadhar mountain. It is in the west of eastern Lavan ocean and in the east of western Lavan ocean. Its length is in east-west direction and breadth is in nort-south direction. Its shape is like that of a bed. It touches Lavan ocean from both ends. Its width is 33,684 and four5 nineteenth yojan. फ्र 卐 5 卐 Its arm is 33,767 and seven- nineteenth yojan long in east-west 5 direction. Its yoke at the centre is in east-west direction in length. It (298) Jambuuveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फफफफफफफफ फफफफफ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा विदेह क्षेत्र ८ पुष्कलावती विजय ९ वत्स विजय ARE ७ पुष्कलावत विजय १० सुवत्सविजय ६ मंगलावर्त विजय ११ महावत्स विजय साता ५ आवर्त विजय १२ वत्सकावती विजय नीलवंत पर्वत - ४ कच्छकावती विजय नदी । १३ रम्य विजय ३महाकच्छ विजय 1 १४ रम्यक विजय २ सुकच्छ विजय १५ रमणीय विजय १कच्छ विजय सन १६ मंगलावती विजय पूर्व विदेह माल्यवत उत्तर भद्रशाला वन सोमनस कंचनगिरि तिगिंछ द्रह केशरी द्रह कुरु गधमादन देव विद्युत्प्रभ विदेह Ahle ३२ गंधिलावती विजय न १७ पद्मविजय | RR ३१ गंधिल विजय १८ सुपद्म विजय ३० सुवल्गुविजय । १९ महापद्म विजय सि २९ वल्गुविजय नि २० पद्मगावती विजय नीलवंत पर्वत २८ वप्रकावती विजय सीतोदा नदी २१ शंख विजय निषध पर्वत जिला २७ महावप्र विजय का २२ नलिन विजय २६ सुवप्र विजय २३ कुमुद विजय २५ वप्र विजय २४ सोललावती विजय Vijainelibrary.org Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555555555) [ चित्र परिचय ४ । महाविदेह क्षेत्र जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में एक लाख योजन ऊँचा मेरु पर्वत (मन्दर पर्वत) है। इसके उत्तर में नीलवंत 卐 पर्वत तथा दक्षिण में निषध पर्वत है। इन दोनों पर्वतों की सीमा में बँधा पल्यंकाकार एक मनुष्य क्षेत्र है, जिसका नाम म है महाविदेह। इसके पूर्व और पश्चिम दिशा में लवण समुद्र है। यह भरत क्षेत्र से 64 गुना बड़ा है। मेरु पर्वत के कारण इस क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम दो विभाग हो गये। मेरु पर्वत से दक्षिण में देव-कुरु और उत्तर । में उत्तर-कुरु क्षेत्र है। तिगिच्छ द्रह से निकलकर देव कुरु के बीच बहती हुई सीतोदा नदी भद्रशाल वन में होकर 卐 पश्चिम महाविदेह के बीच में बहती हुई लवण समुद्र में मिलती है। इस कारण महाविदेह क्षेत्र दक्षिण-उत्तर दो भागों ! 卐 में विभक्त हो गया। केसरी द्रह से निकली सीता नदी पूर्व महाविदेह के बीच में बहकर लवण समुद्र में मिलती है। इससे इसके भी। दो भाग हो गये। इस प्रकार ८४ ४ = ३२ विजय हो जाती है। उनकी ३२ राजधानियाँ हैं। इनके बीच वैताढ्य पर्वत । 卐 आने से प्रत्येक विजय उत्तर-दक्षिण दो भागों में विभक्त हो गई है। उत्तर-कुरु-मेरु पर्वत के उत्तर में हाथी के दाँत के आकार के दो विशाल पर्वत हैं, जिन्हें 'गजदंता पर्वत' कहा जाता है। इनके बीच का क्षेत्र उत्तर-कुरु है। यहाँ पर एक जम्बू नामक महावृक्ष है जिसके कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप प्रसिद्ध हुआ। इसमें दो पर्वत हैं। पाँच द्रह हैं। देव-करु-मेरु पर्वत के दक्षिण में भी इसी प्रकार के दो गजदंता पर्वत हैं। इनके नाम विद्युतप्रभ और सोमनस हैं। जिनके बीच का क्षेत्र देव-कुरु है। यहाँ जम्बू वृक्ष जैसा ही कूट शाल्मली महावृक्ष है। इसमें दो पर्वत एवं उनके पाँच महाद्रह है। -वक्षस्कार ४, सूत्र १०२-१३१ ॥ प्रहहा One hundred thousand Yojan high Meru Mountain (Mandar mountain) is located at the fi exact center of Jambudveep. To its north is Neelavant mountain and to its south is Nishadh mountain. In the area within these two mountains lies a bed shaped area inhabited by human beings. It is called Mahavideh. To its east as well as west is Lavan Samudra. It is 64 times larger than Bharat Area. Meru mountain divides this area into two, eastern part and western part. To the south of Meru lies Devakuru and to its north Uttarakuru. Emanating from Tiginchh lake, Sitoda river flows through Devakuru, Bhadrasala forest and western Mahavideh to fall in Lavan Samudra. This divides Mahavideh area into southern and northern halves. Emanating from Kesari lake, Sita river flows through eastern Mahavideh to fall in Lavan 45 Samudra. Thus dividing it into two parts. All these divisions make 32 (8 x 4) Vijayas (re卐 gions) in Mahavideh area. These regions have 32 capital cities.As Vaitadhya mountain is in ' 4 the middle of all these sections, each Vijaya is divided into two parts. Uttarakuru – To the north of Meru there are two tusk shaped huge mountains. They i are called Gajadanta mountains. The area in between these two is Uttarakuru. There is a gigantic tree called Jambu in this area. Jambu continent derives its name from this tree. This area has two mountains called Yamak and Samak as well as five lakes (draha). Devakuru - In the same way there are two tusk shaped mountains to the south of Meru. They are called Vidyutprabh and Somanas. The area in between these is Devakuru. Like Jambu, there is a giant tree called Koot-shalmali in this area. It has two mountains called Chitrakoot and Vichitrakoot as well as five lakes. - Vakshaskar-4, Sutra-102-131 05555555555555555555555555555555550 555555555555555555555559 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555550 55 கதிததததததததததததததததததததததததி*************** touches Lavan ocean from both. Its length is one lakh yojan. Its circular length in north-south direction is a little more than 1,58,113 and sixteen-nineteenth yojans. Mahavideh region is divided in four parts namely-(1) Eastern Videh, (2) Western Videh, (3) Devakuru, and (4) Uttarkuru. [Q.] What is the shape, nature and structure of Mahavideh region? [Ans.] Gautam ! Its land portion is very much levelled and attractive. It is shining due to artificial and natural jewels of various types in all the five colours. [Q] Reverend Sir! In Mahavideh region, what is the shape, nature and structure of the human beings? [Ans.] Gautam ! The human beings of this region are of six types in physical structure and cf six types in shape. They are 500 dhanush in height. Their minimum life-span is less than 48 minutes (antar-muhurt) and the maximum life-span is of one poorva crore years. After completing their life-span some are born in hell up to in all the four states of existence. Some attain liberation by causing an end of all the worldly miseries. [Q.] Reverend Sir! Why is Mahavideh region, so called? [Ans.] Gautam ! Mahavideh region is extremely great, expanded and large than (1) Bharat region, (2) Airavat region, (3) Haimavat region, (4) Hairanyavat region, (5) Harivarsh region, and (6) Ramyak region in length, breadth and human beings with a very large physical body reside in it. A very prosperous celestial being whose name is Mahavideh Deva and whose life-span is one palyopam resides here. So, it is called Mahavideh region. Further, the name Mahavideh is everlasting. It was never eliminated and it shall never be destroyed. गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत GANDHAMAADAN VAKSHASKAR MOUNTAIN १०३ . [ प्र. ] कहि णं भन्ते महाविदेहवासे गन्धमायणे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं, गंधलावइस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं, उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गन्धमायणे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते । चतुर्थ वक्षस्कार (299) 555555555555555555 Fourth Chapter 5555555555555555 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555555555 ऊ उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे। तीसं जोअणसहस्साई दुण्णि अ णउत्तरे जोअण-सए छच्च य 5 के एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं। णीलवंतवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, ॐ चत्तारि गाउअसयाइं उव्वेहेणं, पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं। तयणंतरं च णं मायाए २ म उस्सेहुब्बेहपरिवद्धीए परिवद्धमाणे २, विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदरपव्वयंतेणं पंच जोअणसयाई ॐ उद्धं उच्चत्तेणं, पंच गाउअसयाई उव्वेहेणं, अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते। गयदन्तसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसडेहिं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते। ___ गन्धमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे। तहिं बहवे देवा य आसयंति। __ [प्र. ] गन्धमायणे णं वक्खारपव्वए कति कूडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! सत्ता कूडा, तं जहा-(१) सिद्धाययणकूडे, (२) गन्धमायणकूडे, (३) गंधिलावईकूडे, (४) उत्तरकुरुकूडे, (५) फलिहकूडे, (६) लोहियक्खकूडे, (७) आणंदकूडे। [प्र. ] कहि णं भन्ते ! गंधमायणे वक्खारपब्बए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं, गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरथिमेणं, एत्थ णं 5 गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते। जं चेव चुल्लहिमवन्ते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं म तं चेव एएसिं सव्वेसिं भाणिअव्वं। एवं चेव विदिसाहिं तिण्णि कूडा भाणिअव्वा। चउत्थे तइअस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पंचमस्स दाहिणेणं सेसा उ उत्तरदाहिणेणं। फलहिलोहिअक्खेसु भोगंकरभोगवईओ ॐ देवयाओ सेसेसु सरिसणामया देवा। छसु वि पसायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु। 3 [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २ ? [उ. ] गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स गंधे से जहाणामए कोट्ठपुडाण वा पीसिज्जमाणाण ॐ वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा ओराला मणुण्णा गंधा + अभिणिस्सवन्ति। म [प्र. ] भवे एयासवे ? ॐ [उ. ] णो इणठे समठे, गंधमायणस्स णं इतो इट्ठतराए गंधे पण्णत्ते। से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं + वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २। गंधमायणे अ इत्थ देवे महिड्डीए परिवसइ, अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति। १०३. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर स्थित है ? । _ [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में-वायव्य कोण में, गन्धिलावती विजय के पूर्व में तथा उत्तरकुरु के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत गन्धमादन म नामक वक्षस्कार पर्वत स्थित है। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (300) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))) ) ))) ) )) )) ) ) 8555555555555555555555555555555555555 वह उत्तर-दक्षिण लम्बा और पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। उसकी लम्बाई ३०,२०९,६ योजन है। वह ॐ नीलवान् वर्षधर पर्वत के पास ४०० योजन ऊँचा है, ४०० कोस जमीन में गहरा है, ५०० योजन चौड़ा है। उसके अनन्तर क्रमशः उसकी ऊँचाई तथा गहराई बढ़ती जाती है, चौड़ाई घटती जाती है। यों वह मन्दर पर्वत के पास ५०० योजन ऊँचा हो जाता है, ५०० कोस गहरा हो जाता है। उसकी चौड़ाई अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी रह जाती है। उसका आकार हाथी के दाँत जैसा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है। दोनों ओर दो पद्मवरवेदिका तथा दो वनखण्ड हैं। गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के ऊपर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसकी चोटियों पर अनेक देव-देवियाँ निवास करते हैं। [प्र. ] भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट हैं ? [उ. ] गौतम ! उसके सात कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट, (२) गन्धमादन कूट, (३) गन्धिलावती # कूट, (४) उत्तरकुरु कूट, (५) स्फटिक कूट, (६) लोहिताक्ष कूट, तथा (७) आनन्द कूट। [प्र.] भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट कहाँ पर है ? [उ. ] गौतन'! मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में, गन्धमादन कूट के दक्षिण-पूर्व में गन्धमादन ॐ वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट है। चुल्ल हिमवान् पर्वत पर सिद्धायतन कूट का जो प्रमाण है, वही 卐 इन सब कूटों का प्रमाण है। तीन कूट विदिशाओं में-(१) सिद्धायतन कूट मन्दर के वायव्य कोण में, (२) गन्धमादन कूट सिद्धायतन कूट के वायव्य कोण में, तथा (३) गन्धिलावती कूट गन्धमादन कूट के ॐ वायव्य कोण में है, (४) चौथा उत्तरकुरु कूट तीसरे गन्धिलावती कूट के वायव्य कोण में, तथा : म (५) पाँचवें स्फटिक कूट के दक्षिण में है। इनके सिवाय बाकी के तीन-(६) स्फटिक कूट, (७) लोहिताक्ष, - कूट, एवं (८) आनन्द कूट उत्तर-दक्षिण-श्रेणियों में अवस्थित हैं अर्थात् पाँचवाँ कूट चौथे कूट के उत्तर :ॐ में छठे कूट के दक्षिण में, छठा कूट पाँचवें कूट के उत्तर में सातवें कूट के दक्षिण में तथा सातवाँ कूट 卐 छठे कूट के उत्तर में है, स्वयं दक्षिण में है। स्फटिक कूट तथा लोहिताक्ष कूट पर भोगंकरा एवं भोगवती : नामक दो दिक्कुमारिकाएँ निवास करती हैं। बाकी के कूटों पर कूटों के अनुरूप नाम वाले देव निवास * करते हैं। उन कूटों पर उनके अधिष्ठायक देवों के उत्तम प्रासाद हैं, विदिशाओं में राजधानियाँ हैं। [प्र. ] भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत का यह नाम किस प्रकार पड़ा? [उ. ] गौतम ! पीसे हुए, कूटे हुए, बिखेरे हुए, कोष्ठ (एवं तगर) से निकलने वाली सुगन्ध के सदृश उत्तम, मनोज्ञ, सुगन्ध गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत से निकलती रहती है। [प्र. ] भगवन् ! क्या वह सुगन्ध ठीक वैसी है? [उ. ] गौतम ! तत्वतः वैसी नहीं है। गन्धमादन से जो सुगन्ध निकलती है, वह उससे इष्टतर-अधिक इष्ट यावत् अधिक मनोरम है। वहाँ गन्धमादन नामक परम ऋद्धिशाली देव निवास करता है। इसलिए वह गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है। अथवा उसका यह नाम शाश्वत है। 103. [Q.] Reverend Sir ! Where is Gandh-madan Vakshashkar 卐 mountain located in Mahavideh ? चतुर्थ वक्षस्कार (301) Fourth Chapter 954555555555555555555554)))))) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 46 47 46 45 44 445 446 444 445 446 442 94454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545 44 45 46 45 45 46 47 46 45 44 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 456 457 454 455 456 451 4564 (Ans.) Gautam ! In Mahavideh region, Gandh-madan Vakshaskar mountain is in the south of Neeladhar Varshadhar mountain, in the i south-western corner of Mandar mountain, in the east of Gandhilavati Vijay and in the west of Uttar (northern) Kuru. In north-east it is long and in east-west it is wide. Its length is 30,20 and six-nineteenth yojan. Near Neelavan Varshadhar mountain it is 400 yojan high, 400 kos deep and 500 yojan wide. Its height and depth gradually increases while the breadth decreases. Thus it is 500 yojan high near Mandar mountain and 500 yojan deep. Its width becomes just $i innumerabe part of the thickness of a finger. Its shape is like the tusk of an elephant. It is totally jewelled and clean. It has two Padmavar Vedikas and two forest on both the sides. The land is very much levelled on the top of Gandha-madan Vakshaskar mountain and very attractive. Many gods and goddesses reside on its tops. (Q.) Reverend Sir ! How many are the peaks of Gandha-madan mountain ? [Ans.] It has seven peaks namely-Siddhayatan peak, Gandhai madan peak, Gandhilavati peak, Uttarkuru peak, Sphatik peak, 4i Lohitaksh peak and Anand peak (koot). (Q.) Reverend Sir ! Where is Siddhayatan peak on Gandha-madan Vakshaskar mountain ? [Ans.] Gautam ! Sidhayatan peak on Gandha-madan Vakshaskar 41 mountain is in north-west of Mandar mountain and south-east of Gandha-madan peak. The size of all these peaks is the same as that of 4 Siddhayatan peak on Chull Himavan mountain. Three peaks are in sub directions. Siddhayatan peak is in north-west of Mandar mountain, Gandha-madan peak is in north-west of Siddhayatan peak and Gandhilavati peak is in north-west of Gandha-madan peak. The fourth Uttarkuru peak is in the north-west of third Gandhilavati peak, and in south of the fifth Sphatik peak. The remaining three Sphatik peak, Lohitaksh peak and Anand peak are in north-south lines. In other words the fifth peak is in the north of fourth peak and in the south of sixth peak, the sixth peak is in the north of fifth peak and in the south of seventh peak and the seventh peak is in the north of sixth peak. In itself it is in the south. Two goddesses controlling the directions namely Bhogankara and 414 414 455 456 457 45 46 47 46 45 44 95 456 457 456 457 45 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (302) Jambudweep Prajnapti Sutra 46 4 414141414141414141414141414145454545454 455 456 457 4554545454545454 455 456 457 4541 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听FFFhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh 1 Bhagavati reside on Sphatik peak and Lohitaksh peak respectively. On y - the other peaks the gods of their respective names reside. There are grand palaces of those controlling gods on those peaks. In sub-directions there are their capitals. (Q.) Reverend Sir ! Why is Gandha-madan Vakshaskar mountain, so called ? [Ans.) An excellent pleasant fragrance emits from Gandha-madan Vakshaskar mountain. That fragrance is similar to that of ground, 卐 thrashed, scattered Koshth (or tagar). (Q.) Reverend Sir! Is this fragrance exactly similar to that fragrance ? [Ans.] Basically it is not the same. The fragrance that comes out from Gandha-madan mountain is more loveable up to more attractive. A very prosperous god whose name is Gandha-madan resides there. S Gandha-madam Vakshaskar mountain is so named. उत्तरकुरु UTTAR KURU १०४.[प्र.] कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ? __ [उ. ] गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, गन्धमायणस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता। ____ पाईण-पडीणायया, उदीण-दाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंदसंठाणसंठिआ। इक्कारस जोअणसहस्साइं अट्ठ # य बायाले जोअणसए दोण्णि अ अगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणंति। की तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा वक्खारपब्वयं पुट्ठा, तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारब्वयं पुट्ठा एवं पच्चथिमिल्लाए (कोडीए) पच्चथिमिल्लं वक्खारपब्वयं पुट्ठा, तेवणं जोअणसहस्साई आयामेणंति। तीसे णं धणुं दाहिणेणं सद्धिं जोअणसहस्साइं चत्तारि अ अट्ठारसे जोअणसए # दुवालस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ] उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुववण्णिआ जा चेव सुसम# सुसमावत्तव्वयासा चेव अव्वा जाव (१) पउमगंधा, (२) मिअगंधा, (३) असमा, (४) सहा, (५) तेतली, (६) सणिंचारी। १०४. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र कहाँ पर स्थित है ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, गन्धमादन वक्षस्कार , पर्वत के पूर्व में तथा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र है। चतुर्थ वक्षस्कार (303) Fourth Chapter 1555555555555卐555555555555555558 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555 ॐ वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, अर्ध-चन्द्र के आकार में विद्यमान है। वह ॥ ११,८४२३३ योजन चौड़ा है। उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो तरफ से वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करती है। अपने 卐 पूर्वी किनारे से पूर्वी वक्षस्कार पर्वत को तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत को स्पर्श करती 5 है। वह ५३,००० योजन लम्बी है। दक्षिण में उसके धनुपृष्ठ की परिधि ६०,४१८१२ योजन है। [प्र. ] भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार कैसा है ? _ [उ. ] गौतम ! वहाँ बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। पूर्व प्रतिपादित सुषम-सुषमा सम्बन्धी वर्णन है के अनुसार है-वहाँ के मनुष्य पद्मगन्ध-कमल-सदृश सुगन्धयुक्त, मृगगन्ध-कस्तूरी मृग सदृश ॐ सुगन्धयुक्त, ममतारहित, कार्यक्षम, विशिष्ट पुण्यशाली तथा मन्द गतियुक्त-धीरे-धीरे चलने वाले होते हैं। ___104. [Q.] Reverend Sir ! Where is Uttarkuru region located in + Mahavideh area ? (Ans.] Gautam ! Uttarkuru region is in the north of Mandar mountain and in the south of Neelavan Varshadhar mountain. It is in the east of Gandha-madan mountain and in the west of Malyavan Vakshaskar mountain. Its length is in east-west direction and width is in north-south direction. Its shape is like that of half-moon. It is 11,842 and twonineteenth yojan wide. In the north its ridge is in east-west direction in length and touches Vakshaskar mountain in two sides. Its eastern end touches eastern Vakshaskar mountain and its western end touches western Vakshaskar mountain. It is 53,000 yojan long. Its curved length in the south is 60,418 and twelve-nineteenth yojans. (Q.) Reverend Sir ! What is the shape, nature and structure of Uttarkuru region ? ___[Ans.] Gautam ! It is very much levelled and attractive. Its description is as already mentioned in case of Sukhma-Sukhma earlier. The human beings of this region are charming like fragrant lotus or the deer that has Kasturi fragrance. They are devoid of any attachments. They are capable of completing their job. They are very meritorious. They walk slowly. यमक पर्वत YAMAK MOUNTAIN १०५. [प्र. १ ] कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए जमगाणामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (304) Jambudveep Prajnapti Sutra B))))))) ))) )) ))) ) )) ) )) ) ) ) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35hhhhhh听听听听听听听听听听听hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh म [उ.] गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमन्ताओ अट्ठजोअणसए चोत्तीसेज चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीआए महाणईए उभओ कूले एत्थ णं जमगाणामं दुवे पव्वया । # पण्णत्ता। जोअणसहस्सं उड्ढं . उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाइं जोअणसयाइं उबेहेणं, मूले एगं जोअणसहस्संभ आयामविक्खंभेणं, मझे अद्धट्ठमाणि जोअणसयाई आयामविक्खंभेणं, उवरिं पंच जोअणसयाई आयामविक्खंभेणं। मूले तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च बावटें जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं, मझे दो जोअणसहस्साई तिण्णि वावत्तरे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं, उवरि एगं 5 जोअणसहस्सं पंच य एकासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पिं तणुआ, जमगसंठाणसंठिआ सव्वकणगामया, अच्छा, सहा। पत्तेअं २ पउमवरवेइआपरिक्खित्ता 5 पत्तेअं २ वणसंडपरिक्खित्ता। ताओ णं पउमवरवेइआओ दो गाउआई उद्धं उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, वेइआ-वणसण्डवण्णओ भाणिअब्बो। __ तेसि णं जमगपब्बयाणं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पण्णत्ता। ते णं पासायवडेंसगा बावढि जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाई कोसं च आयाम-विक्खंभेणं पासायवण्णओक भाणिअब्बो, सीहासणा सपरिवारा (एवं पासायपंतीओ)। एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस-भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। [प्र. ] से केणटेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ जमग-पव्वया २ ? __ [उ.] गोयमा ! जमग-पव्वएसु णं तत्थ २ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव विलपंतियासु बहवे उप्पलाइं जाव जमगवण्णाभाई, जमगा य इत्थ दुवे देवा महिड्डिया, ते णं तत्थ चउण्हं , सामाणिअ-साहस्सीणं जाव पुरापोराणाणं सुपरक्कंताणं भुंजमाणा विहरंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जमगपब्बया २ अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे जाव जमगपव्वया २। १०५. [ प्र. १ ] भगवन् ! उत्तरकुरु में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर स्थित हैं ? __[उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण दिशा के अन्तिम कोने से ८३४४ योजन के अन्तराल पर शीतोदा नदी के दोनों-पूर्वी, पश्चिमी तट पर यमक नामक दो पर्वत हैं। वे १,००० योजन ऊँचे, २५० योजन जमीन में गहरे, मूल में १,००० योजन, मध्य में ७५० योजन तथा ऊपर ५०० योजन लम्बे-चौड़े हैं। उनकी परिधि मूल में कुछ अधिक ३,१६२ योजन, मध्य में कुछ अधिक २,३७२ ॥ योजन एवं ऊपर कुछ अधिक १,५८१ योजन है। वे मूल में चौड़े, मध्य में सँकड़े और ऊपर-चोटी पर पतले हैं। वे यमकसंस्थानसंस्थित हैं-एक साथ उत्पन्न हुए दो भाइयों के आकार के सदृश अथवा यमक नामक पक्षियों के आकार के समान हैं। वे सर्वथा स्वर्णमय, स्वच्छ एवं सुकोमल हैं। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक-एक वनखण्ड द्वारा घिरा हुआ है। वे पद्मवरवेदिकाएँ दो-दो कोस ऊँची हैं। पाँच-पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं। पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों का वर्णन पूर्ववत् है। 卐555555555555555555555555555555555555555555555555 | चतुर्थ वक्षस्कार (305) Fourth Chapter 195555555555555555555555558 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955 59595955555 5 5 5 5 59595955555555559552 5 5 5 फ्र उन यमक नामक पर्वतों पर बहुत समतल एवं रमणीक भूमिभाग है। उस बहुत समतल, सुन्दर फ्र 卐 चौड़े हैं। सम्बद्ध सामग्रीयुक्त सिंहासन पर्यन्त प्रासाद का वर्णन पूर्ववत् है । इन यमक देवों के १६,००० 5 आत्मरक्षक देव हैं। उनके १६,००० उत्तम सिंहासन हैं। 卐 卐 [प्र. ] भगवन् ! उन्हें यमक पर्वत क्यों कहा जाता है ? 卐 5 [ उ. ] गौतम ! उन (यमक) पर्वतों पर जहाँ-तहाँ बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियों, पुष्करिणियों 5 फ्र सामानिक देव हैं, यावत् विशाल देव परिवार के साथ कल्याणमय कर्मों का अभीष्ट सुखमय फल भोग करते रहते हैं । गौतम ! इस कारण वे यमक पर्वत कहलाते हैं । अथवा उनका यह नाम शाश्वत रूप में 5 चला आ रहा है। 卐 5 S 卐 卐 卐 भूमिभाग के बीचोंबीच दो उत्तम प्रासाद हैं। वे प्रासाद ६२३ योजन ऊँचे हैं । ३१ योजन १ कोस लम्बे- फ्र आदि में जो अनेक उत्पल, कमल आदि खिलते हैं, उनका आकार एवं आभा यमक पर्वतों के आकार फ 卐 5 फ्र 卐 卐 5 तथा आभा के सदृश हैं। वहाँ यमक नामक दो परम ऋद्धिशाली देव निवास करते हैं। उनके चार हजार 5 卐 卐 105. [Q. 1] Reverend Sir ! Where are the two Yamak mountains located in Uttarkuru region? [Q.] Reverend Sir ! Why are they called Yamak mountains ? फ्र फ्र फ्र [Ans.] Gautam ! On the two banks eastern and western of Shitoda 5 river the two Yamak mountains are located. They are at a distance of 834 and four-seventh yojan from the last corner in the south, of Neelavan 卐 5 Varshadhar mountain. They are 1,000 yojan high, 250 yojan deep in the ground, 1,000 yojan at the foundation, 750 yojan in the middle and 500 yojan long and broad at the top. Their circumference is a little more than 3,162 yojan at the foundation, a little more than 2,372 yojan in the 卐 middle and a little more than 1,581 yojan at the top. They are broad at the base, a bit narrow in the middle and narrow at the top. They are identical like two twin brothers or like yamak birds. They are completely golden, clean and soft. Every one of them is surrounded by a lotus Vedika and a forest. The Vedikas are two kos high and 500 dhanush wide. The description of Vedikas and forests may be understood to be the same as 5 already narrated. 卐 卐 卐 There is a very much levelled and attractive area on these Yamak mountains. In the middle of these areas are two grand palaces, which are sixty two and a half yojan high and thirty one and a quater yojan long as well as wide. The entire description of the palaces up to the seat alongwith relevant provisions may be understood as already mentioned. The Yamak devas have 16,000 celestial beings as their body guards and 卐 फ्र they have 16,000 seats. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 ! (306) 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 卐 卐 5 卐 5 卐 卐 卐 卐 卐 0 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5552 फ्र Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anim111111111111 ת ת ת ת ת ת ת 1555555555555) ))) ) )) ) E [Ans.] Gautam ! On these (Yamak) mountains there are many small water bodies, lakes and the like in which many types of lotus blossom. F Their shape and area is like the shape and area of Yamak mountains. 51 Two very prosperous Yamak devas reside there. They have 4,000 devas of equal status up to that they with their large family enjoy the fruit of their meritorious Karmas. So they are called Yamak mountains. Further, f this names of theirs has been everlasting name. १०५. [प्र. २ ] कहि णं भन्ते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ? [उ.] गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अण्णंमि जम्बुद्दीवे २ बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ। बारस जोअणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, सत्तत्तीसं जोअणसहस्साई णव य अडयाले जोअणसए । किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं। पत्तेअं २ पायारपरिक्खित्ता। ते णं पागारा सत्तत्तीसं जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं, मूले अद्धत्तेरसजोषणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, उवरिं तिण्णि सअद्धकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, मूले विच्छिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पिं तणुआ, बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, सव्वरयणामया, अच्छा। ते णं पागारा णाणामणिपंचवण्णेहिं कविसीसएहिं उवसोहिआ, तं # जहा-किण्हेहिं जाव सुक्किल्लेहि। ते णं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं, देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई बाहल्लेणं, सबमणिमया, अच्छा। है जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए बाहाए पणवीसं पणवीसं दारसयं पण्णत्तं। ते णं दारा बावढि भ जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोषणाई कोसं च विक्खम्भेणं, तावइ चेव पवेसेणं। 5 सेआ वरकणगथूभिआगा एवं रायप्पसेणइज्जविमाणवत्तव्बयाए दारवण्णओ जाव अट्ठट्ठमंगलगाई ति। # जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं पंच पंच जोअणसए अबाहाए चत्तारि वणसण्डा पण्णत्ता, तं जहा-(१) असोगवणे, (२) सत्तिवण्णवणे, (३) चंपगवणे, (४) चूअवणे। ते णं वणसंडा साइरेगाई # बारसजोअणसहस्साई आयामेणं, पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं। पत्तेअं २ पागारपरिक्खित्ता किण्हा, , म वणसंडवण्णओ भूमीओ पासायवडेंसगा य भाणिअव्वा। # जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णगोत्ति। तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं दुवे उवयारियालयणा पण्णत्ता। बारस जोअणसयाई में आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोअणसहस्साइं सत्त य पंचाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं, अद्धकोसं च ॥ बाहल्लेणं, सबजंबूणयामया, अच्छा। पत्तेअं पत्तेअं पउमवरवेइआपरिक्खित्ता, पत्तेअं पत्ते # वणसंडवण्णओ भाणिअब्बो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउद्दिसिं भूमिभागा य भाणिअव्वत्ति। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पासायव.सए पण्णत्ते। बावढि जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं । उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं वण्णओ उल्लोआ भूमिभागा सीहासणा चतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter 355555555555555555%%%%%%%%%%% %%%% %% a)))))))))))))))))))))))555555555555555555555 ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת (307) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ அகதிமிதிமிமிமிமிதிமிதிமிதிமிதிதமிழமிதிததமிமிமிமிதமிதிதிததததிமிதிமிமிமிமிமிமிமிமி*** फ्र अद्धसोलसजोअणाई सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ एक्कतीसं जोअणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगाई आयामविक्खंभेणं । बिइ अपासायपंती ते णं पासायवडेंसया साइरेगाई अद्धसोलसजोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगाई अद्धट्ठमाइं जोअणाई आयामविक्खंभेणं। तइअपासायपंती ते णं पासायवडेंसया साइरेगाई अद्धट्ठमाई जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगाई अद्भुजो अणाई आयामविक्खंभेणं, वण्णओ सीहासणा सपरिवारा। फ्र १०५. [ प्र. २ ] भगवन् ! यमक देवों की यमिका नामक राजधानियाँ कहाँ हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में अन्य जम्बूद्वीप में १२,००० योजन जाने पर यमक देवों की यमिका नामक राजधानियाँ आती हैं। वे १२,००० योजन लम्बी-चौड़ी हैं। उनकी परिधि कुछ अधिक ३७,९४८ योजन है। प्रत्येक राजधानी प्राकार - परकोटे से परिवेष्टित हैंवे प्राकार ३७३ योजन ऊँचे हैं। वे मूल में १२३ योजन, मध्य में ६ योजन १ कोस तथा ऊपर ३ योजन आधा को चौड़े हैं। वे मूल में चौड़े, बीच में सँकड़े तथा ऊपर पतले हैं। बाहर से कोनों के अनुपलक्षित रहने के करण - गोलाकार तथा भीतर से कोनों के उपलक्षित रहने से चौकोर प्रतीत होते हैं। वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं। वे नाना प्रकार के पंचरंगे रत्नों से निर्मित कपिशीर्षकों-बन्दर के मस्तक के आकार के कंगूरों द्वारा सुशोभित हैं। वे कंगूरे आधा कोस ऊँचे तथा पाँच सौ धनुष मोटे हैं, सर्वरत्नमय उज्ज्वल हैं। यमिका नामक राजधानियों के प्रत्येक पार्श्व में सवा सौ- सवा सौ द्वार हैं। वे द्वार ६२३ योजन ऊँचे हैं । ३१ योजन १ कोस चौड़े हैं। उनके प्रवेश मार्ग भी उतने ही प्रमाण के हैं। उज्ज्वल, उत्तम स्वर्णमय स्तूपिका, द्वार, अष्ट मंगलक आदि से सम्बद्ध समस्त वक्तव्यता राजप्रश्नीयसूत्र में विमान - वर्णन के अन्तर्गत आई वक्तव्यता के अनुरूप है। यमिका राजधानियों की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच सौ योजन के व्यवधान से - ( १ ) अशोकवन, (२) सप्तपर्णवन, (३) चम्पकवन, तथा (४) आम्रवन - ये चार वनखण्ड हैं। ये वनखण्ड कुछ अधिक १२,००० योजन लम्बे तथा ५०० योजन चौड़े हैं। प्रत्येक वनखण्ड प्राकार द्वारा परिवेष्टित है। वनखण्ड, भूमि, उत्तम प्रासाद आदि पूर्व वर्णन के अनुरूप हैं। यमिका राजधानियों में से प्रत्येक में बहुत समतल सुन्दर भूमिभाग हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है। उन बहुत समतल, रमणीय भूमिभागों के बीचोंबीच दो प्रासाद- पीठिकाएँ हैं । वे १,२०० योजन लम्बी-चौड़ी हैं। उनकी परिधि ३,७९५ योजन है। वे आधा कोस मोटी हैं। वे सम्पूर्णतः उत्तम जम्बूनद स्वर्णमय हैं, उज्ज्वल हैं। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक-एक वनखण्ड द्वारा परिवेष्टित है। 5 वनखण्ड, त्रिसोपानक, चारों दिशाओं में चार तोरण, भूमिभाग आदि से सम्बद्ध वर्णन पूर्ववत् है। 卐 5 卐 उसके बीचोंबीच एक उत्तम प्रासाद है । वह ६२ ३ योजन ऊँचा तथा ३१ योजन १ कोस लम्बा-चौड़ा है। उसके ऊपर के हिस्से, भूमिभाग - नीचे के हिस्से, सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन, प्रासादपंक्तियाँ - मुख्य प्रासाद को चारों ओर से परिवेष्टित करने वाली महलों की कतारें इत्यादि अन्यत्र वर्णनानुसार हैं । प्रासाद-पंक्तियों में से प्रथम पंक्ति के प्रासाद ३१ योजन १ कोस ऊँचे हैं। वे कुछ अधिक जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (308) Jambudveep Prajnapti Sutra 65 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 ! 卐 卐 E Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25444 445 446 44 45 46 47 450 451 45454545454545455 456 457 451 455 456 457 458 455 456 457 455 4562 456 457 456 457 455 456 457 455 456 459 hhhhhh hhhhhhhhhhhh FFFFFFFFFFFF + १५० योजन लम्बे-चौड़े हैं। द्वितीय पंक्ति के प्रासाद कुछ अधिक १५३ योजन ऊँचे हैं। वे कुछ अधिक ७, योजन लम्बे-चौड़े हैं। तृतीय पंक्ति के प्रासाद कुछ अधिक ७१ योजन ऊँचे हैं, कुछ अधिक ३३ योजन लम्बे-चौड़े हैं। सम्बद्ध सामग्रीयुक्त सिंहासन पर्यन्त समस्त वर्णन पूर्ववत् है। fi 105. (Q. 2) Reverend Sir ! Where are Yamika, the capitals of those celestial beings? (Ans.] Gautam ! When one goes from the north Mandar mountain of fi Jambu continent to another Jambu continent and further goes another 12,000 yojan, then one finds Yamikas, the capitals of Yamak Devas. They are 12,000 in length and breadth. Their circumference is a little more than 37,948 yojan. Every capital has a boundary wall, which is thirty fi seven and a half yojan high, twelve and a half yojan wide at the base, six fi and a half yojan in the middle and three yojan half kos wide at the top. They appear to be round from outside and quadrangular from within in view of the corners. They are broad at the base, a bit narrow in the fi middle and still narrower at the top. They are all shining like jewels and fi are clean. They are shining due to the projections in the shape of the head of monkey and are made of many types of jewels of five colours. They are half a kos high and 500 dhanush thick. They are all bright and f jewel-like. Fi At each side of Yamika capitals, there are 125 gates, sixty two and a half yojan high and thirty one and a quarter yojan wide. The passage of # entrance is also of that size. The entire description relating to bright, fi excellent golden pillar, gate and eight auspicious things may be fi understood similar to that mentioned in description of the Viman in Raj prashniya Sutra. # In the four sides of Yamika capitals with a gap of 500 yojan there are f four forests namely—(1) Ashok forest, (2) Saptaparn forest, (3) Champak forest, and (4) Mango forest. They are more than 1,200 yojan long and 500 yojan wide. Every forest garden has a boundary wall. The description of forest, the land, the palace and the like is similar to that mentioned earlier. In every Yamika city there is a beautiful levelled land. Their E description is the same as earlier mentioned. In the middle of these i levelled attractive areas there are two platforms. They are 1,200 yojan in length and breadth. Their circumference is 3,795 yojan. They are half a kos thick. They are completely golden like high class Jambunad and 456 455 456 457 455 456 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 456 457 455 456 457 455 455 456 457 455 456 457 455 | चतुर्थ वक्षस्कार (309) Fourth Chapter 45$ 1414141414141454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 459 451 451 459 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25555555 5 5 5 55 5555 5 5 5 5 5 555 5555 卐 bright. Every one of them is surrounded by a lotus Vedika and a forest. The description of forest, three runged stairs, four arched gates on four 卐 sides, the land area and the like is the same as earlier mentioned. 卐 卐 फ In the middle of it, there is a grand palace. It is sixty two and a half yojan high and thirty one and a quarter yojan in length and breadth. The description of its upper part, the land, the lower part, the seat and connected material, the rows of palaces that surround the main palace and the like is similar to that mentioned elsewhere. 5552 १०५. [ ३ ] तेसि णं मूलपासायवर्डिसयाणं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं जमगाणं देवाणं सहाओ सुहम्माओ पण्णत्ताओ । अद्धतेरस जोअणाई आयामेणं, छस्सकोसाई जोअणाई विक्खंभेणं, णव जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा सभावण्णओ, तासि णं सभाणं सुहम्माणं तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता । ते णं दारा दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, जोअणं विक्खंभेणं, तावइअं चेव पवेसेणं, सेआ वण्णओ जाव वणमाला। सि णं दाराणं पुरओ पत्ते २ तओ मुहमंडवा पण्णत्ता । ते णं मुहमंडवा अद्धत्तेरसजोअणाई फ आयामेणं, छस्सकोसाइं जोअणाइं विक्खंभेणं, साइरेगाइं दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं । दारा भूमिभागा य यत्ति । पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागो मणिपेढिआओत्ति, ताओ णं मणिपेढिआओ जो 5 आयामविक्खंभेणं, अद्धजोअणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईआ सीहासणा भाणिअव्वा । 卐 Out of the rows of palaces, the palaces in the first row are thirty one and a quarter yojan high and a little more than fifteen and a half yojan in length and breadth. The palaces in the second row are a little more than fifteen and a half yojan high and a little more than seven and a half yojan in length and breadth. The palaces in the third row are a little more than seven and a half yojan high and more than three and a half yojan in length 5 and breadth. The entire description of seats (thrones) and connected material may be understood the same as mentioned earlier. फ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 255555559555555559595959595959595959555555955555559555 @ 卐 तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढिआओ पण्णत्ताओ । ताओ णं मणिपेढिआओ दो जोअणाई 卐 फ आयामविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमईओ । तासि णं उप्पिं पत्तेअं २ तओ थूभा । ते णं थूभा 5 5 दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं, सेआ संखतल जाव अट्ठट्ठमंगलया । 卐 卐 सिणं थूभाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेढिआओ पण्णत्ताओ । ताओ णं मणिपेढिआओ जोअणं 5 卐 आयामविक्खंभेणं, अद्धजोअणं बाहल्लेणं, जिणपडिमाओ वत्तव्वाओ। चेइअरुक्खाणं मणिपेढिआओ दो 卐 5 जोअणाई आयामविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं, चेइअ - रुक्ख-वण्ण ओत्ति । (310) 卐 卐 卐 तेसि इअ - रुक्खाणं पुरओ तओ मणि- पेढिआओ पण्णत्ताओ । ताओ णं मणि - पेढि आओ 5 जोअणं आयामविक्खंभेणं, अद्धजोअणं बाहल्लेणं । तासि णं उप्पिं पत्तेअं २ महिंदज्झया पण्णत्ता । ते गं 5 卐 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 257775559 555555559555552 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%% )) %%%% )) %%% %%%%% %%%% )) )) ॐ अट्ठमाइं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, वइरामयवट्ट वण्णओ वेइआवणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणिअव्वा। तासि णं सभाणं सुहम्माणं छच्च मणोगुलिआसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरथिमेणं दो साहस्सीओ पण्णत्ताओ, पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ, दक्खिणेणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा जाव दामा म चिट्ठतित्ति। एवं गोमाणसिआओ, णवरं धूवघडिआओत्ति। म तासि णं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। मणिपेढिआ दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं। तासि णं मणिपेढिआणं उप्पिं माणवए चेइअखंभे महिंदज्झयप्पमाणे 卐 उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेढा छक्कोसे वज्जित्ता जिणसकहाओ पण्णत्ताओत्ति। माणवगस्स पुवेणं सीहासणा सपरिवारा, पच्चत्थिमेणं सयणिज्जवण्णओ। सयणिज्जाणं उत्तरपुरथिमे दिसिभाए म खुड्डगमहिंदज्झया, मणिपेढिआविहूणा महिंदज्झयप्पमाणा। तेसिं अवरेणं चोप्फाला पहरणकोसा। तत्थ णं , बहवे फलिहरयणपामुक्खा चिटुंति। सुहम्माणं उप्पिं अट्ठट्ठमंगलगा। तासि णं उत्तरपुरथिमेणं सिद्धाययणा, ॐ एस चेव जिणघराणवि गमोत्ति। णवरं इमं णाणत्तं-एतेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेअं २ मणिपेढिआओ। दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं। तासिं उप्पिं पत्ते २ देवच्छंदया पण्णत्ता। दो # जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, सब्बरयणामए। जिणपडिमा वण्णओ जाव धूवकडुच्छुगा, एवं अवसेसाणवि सभाणं जाव उववायसभाए, सयणिज्जं हरओ । ___अभिसेअसभाए बहु आभिसेक्के भंडे, अलंकारिअसभाए बहु अलंकारिअभडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुस्खरिणीओ, बलिपेढा, दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं जावत्ति उववाओ संकप्पो, अभिसेअबिहूसणा य ववसाओ। अच्चणिअ सुधम्मगमो, जहा य परिवारणा इद्धी॥१॥ जावइयंमि पमाणमि, हुंति जमगाओ णीलवंताओ। तावइअमंतरं खलु, जमगदहाणं दहाणं च॥२॥ १०५. [ ३ ] मूल प्रासाद के उत्तर-पूर्व दिशाभाग में-ईशान कोण में यमक देवों की सुधर्मा सभाएँ 卐 हैं। वे सभाएँ १२३ योजन लम्बी, ६ योजन १ कोस चौड़ी तथा ९ योजन ऊँची हैं। सैकड़ों खम्भों पर E अवस्थित हैं। उन सुधर्मा सभाओं की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे द्वार दो योजन ऊँचे हैं, एक म योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश-मार्गों का प्रमाण-विस्तार भी उतना ही है। वनमाला पर्यन्त आगे का सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। म उन द्वारों में से प्रत्येक के आगे मुख-मण्डप-द्वाराग्रवर्ती मण्डप बने हैं। वे साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन एक कोस चौड़े तथा कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं। द्वार तथा भूमिभाग पर्यन्त अन्य समस्त ॐ वर्णन पूर्वानुरूप है। मुख-मण्डपों के आगे अवस्थित प्रेक्षागृहों-नाट्यशालाओं का प्रमाण मुख-मण्डपों के । सदृश है। भूमिभाग, मणिपीठिका आदि पूर्व वर्णित हैं। मुख–मण्डपों में अवस्थित मणिपीठिकाएँ . चतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter %%%%%% ) %%% %% ) % )) %%%%% )) %%%%%% ) )) (311) 卐5 %% Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 )5 ) ) ) ) ) ) ) ) ) ) ) ) ) )) म १ योजन लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं। वे सर्वथा मणिमय हैं। वहाँ विद्यमान सिंहासनों का + वर्णन पूर्ववत् है। ऊ प्रेक्षागृह-मण्डपों के आगे जो मणिपीठिकाएँ हैं, वे दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं। वे सम्पूर्णतः मणिमय हैं। उनमें से प्रत्येक पर तीन-तीन स्तूप-स्मृति-स्तम्भ बने हैं। वे स्तूप दो योजन ॐ ऊँचे हैं, दो योजन लम्बे-चौड़े हैं। वे शंख की ज्यों श्वेत हैं। यहाँ आठ मांगलिक पदार्थों तक का वर्णन पूर्वानुरूप है। उन स्तूपों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन + मोटी हैं। वहाँ स्थित जिन-प्रतिमाओं का वर्णन पूर्वानुरूप है। वहाँ के चैत्यवृक्षों की मणिपीठिकाएँ दो ॐ योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं। चैत्यवृक्षों का वर्णन पूर्वानुरूप है। उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन मणिपीठिकाएँ बतलाई गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बीचौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं। उनमें से प्रत्येक पर एक-एक महेन्द्रध्वजा है। वे ध्वजाएँ साढ़े सात योजन ऊँची हैं और आधा कोस जमीन में गहरी गड़ी हैं। वे वज्ररत्नमय हैं, वर्तुलाकार हैं। उनका तथा ॐ वेदिका, वनखण्ड त्रिसोपान एवं तोरणों का वर्णन पूर्वानुरूप है। उन (पूर्वोक्त) सुधर्मा सभाओं में ६,००० पीठिकाएँ हैं। पूर्व में २,००० पीठिकाएँ, पश्चिम में २,००० पीठिकाएँ, दक्षिण में १,००० पीठिकाएँ तथा उत्तर में १,००० पीठिकाएँ हैं। यावत् उन पर + मालाओं के समूह लटक रहे हैं। वहाँ गोमानसिका-शय्या रूप स्थान-विशेष विरचित हैं। उनका वर्णन पीठिकाओं जैसा है। इतना अन्तर है-मालाओं के स्थान पर धूपदान लेने चाहिए। उन सुधर्मा सभाओं के भीतर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग हैं। मणिपीठिकाएँ हैं। वे दो योजन लम्बी-चौड़ी हैं तथा एक योजन मोटी हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर महेन्द्रध्वज के समान साढ़े सात + योजन-प्रमाण माणवक नामक चैत्य-स्तंभ हैं। उनमें ऊपर के छह कोस तथा नीचे के छह कोस वर्जित कर बीच में-साढ़े चार योजन के अन्तराल में जिनदंष्ट्राएँ रखी हैं। माणवक चैत्य स्तम्भ के पूर्व में 5 विद्यमान सम्बद्ध सामग्रीयुक्त सिंहासन, पश्चिम में विद्यमान शय्याएँ पूर्व वर्णनानुरूप हैं। शय्याओं के के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में दो छोटे महेन्द्रध्वज बतलाये गये हैं। उनका प्रमाण महेन्द्रध्वज जितना है। ॐ वे मणिपीठिकारहित हैं। यों महेन्द्रध्वज से उतने छोटे हैं। उनके पश्चिम में चोप्फाल नामक आयुध भाण्डागार है। वहाँ परिघरल-लोहमयी उत्तम गदा आदि (अनेक उत्तम शस्त्र) रखे हुए हैं। उन सुधर्मा ॐ सभाओं के ऊपर आठ-आठ मांगलिक पदार्थ प्रस्थापित हैं। उनके उत्तर-पूर्व में (ईशान कोण में) दो 9 सिद्धायतन हैं। जिन-गृह सम्बन्धी वर्णन पूर्ववत् है। केवल इतना अन्तर है-इन जिन-गृहों के बीचोंबीच प्रत्येक में मणिपीठिका है। वे मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं। उन ॐ मणिपीठिकाओं में से प्रत्येक पर जिनदेव के आसन हैं। वे आसन दो योजन लम्बे-चौड़े हैं, कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं। वे सम्पूर्णतः रत्नमय हैं। धूपदान पर्यन्त जिन-प्रतिमा वर्णन पूर्वानुरूप है। उपपात * सभा आदि शेष सभाओं का भी शयनीय एवं गृह आदि पर्यन्त पूर्वानुरूप वर्णन है। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (312) Jambudveep Prajnapti Sutra )) )) )) ) ) ))) )) )) 卐 85555555)))))))))))))) ))))) ))) )) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐)))))))))))))555555555 955555555555555555555555555555555555555555555555555550 अभिषेक सभा में बहुत से अभिषेक-पात्र हैं, आलंकारिक सभा में बहुत से अलंकार-पात्र हैं, व्यवसाय-सभा में पुस्तक-रत्न हैं। वहाँ नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, पूजा-पीठ हैं। वे (पूजा-पीठ) दो योजन ॐ लम्बे-चौड़े तथा एक योजन मोटे हैं। उपपात-उत्पत्ति, संकल्प-शुभ अध्यवसाय-चिन्तन, अभिषेक-इन्द्रकृत अभिषेक, विभूषणाॐ आलंकारिक सभा में अलंकार-परिधान, व्यवसाय-पुस्तक-रत्न का उद्घाटन, अर्चनिका-सिद्धायतन फ़ आदि की अर्चा-पूजा, सुधर्मा सभा में गमन, परिवारणा-परिवेष्टना-तत्तद् दिशाओं में देव-परिवार स्थापना, ऋद्धि-सम्पत्ति-देव-वैभव-नियोजना आदि यमक देवों का उक्त वर्णन क्रमानुसार समझें। ॐ नीलवान् पर्वत से यमक पर्वतों का जितना अन्तर है, उतना ही यमक-द्रहों का अन्य द्रहों से अन्तर है। 105. [3] Sudharma assembly halls of Yamak gods are in the northeast of the main palace. They are twelve and a half yojan long, six and a quarter yojan wide and nine yojan high. They are standing on hundreds of pillars. They have three gates in three sides which are two yojan high and one yojan wide. The size of passage of entrance is also the same. Further, description up to chain of forests is the same as earlier mentioned. ___In front of every gate, there is a covered space (mandap) which is twelve yojan long, six yojan and a quarter wide and two yojan high. The Si description about the gate and the ground is same as mentioned earlier. The size of theatres in front of the mandaps is like that of the mandaps. The land, the bench shining like precious stone and the like are also as mentioned earlier. Those benches are one yojan long, one yojan wide and half a yojan thick. They are totally of precious stones. The description of 4 the seats is the same as mentioned earlier. The stony benches in front of guest houses are two yojan in length 1 and breadth and one yojan thick. They are totally shining like precious stones. On each of them, there are three commemorative pillars. The pillars are two yojan in height, length and breadth. They are as white as conch-shell. Here the description of eight auspicious symbols may be understood as mentioned earlier. On four sides of those pillars, there are four benches one yojan in length and breadth and half a yojan thick. The description of the idols of Tirthankars installed there may be understood as mentioned earlier. The seats of the trees of worship are two yojan long, two yojan wide and one yojan thick. The description of trees of worship is the same as mentioned earlier. 4555555555555555554555555555555555555555555555555550 $$$ $$$ $$$$$$ $$$$ | चतुर्थ वक्षस्कार (313) Fourth Chapter $$ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 414141414141414141414141414 455 456 455 456 455 456 457 458 45 46 47 446 445 446 414141 456 In front of the trees of worship, there are three benches one yojan i long, one yojan wide and half a yojan thick. On each of them, there is a Mahendra flag. Those flags are seven and a half yojan high and half a kos deep in the ground. They are of Vajra stone and spherical. The description of them, the Vedika, the forest the three-runged stairs and i arched gates is the same as mentioned earlier. In those Sudharma assembly halls there are 6,000 seats. Of them 2,000 are in east, 2,000 are in west, 1,000 are in south and 1,000 are in the 5 north. Bunches of garlands are hanging on them. There is a typical bed 46 like place constructed there. Their description is like that of the seats. The only difference that instead of garlands, there are incense pots. 54 In those Sudharma assembly halls, there is a very levelled beautiful piece of land and stony benches. The stony benches are two yojan long, two yojan wide and one yojan thick. On them there is a pillar of worship called Manavak which is like Mahendra flags seven and a half yojan in size. Leaving six kos from the top and six kos from the bottom, in the middle four and a half yojan, the molars of Tirthankars have been kept. 1 4 The description of the seats and the concerned material in the east of the $ pillar of worship and of beds in west of the pillar is the same as narrated earlier. In the north-east direction from the beds there are small Mahendra flags whose size is same as that of Mahendra flag. They are without any seats. Thus they are small than Mahendra flag. There is an i ordnance store named as Chopphal in the west from there. There is a 5 great iron mace and many weapons at that place. Eight auspicious things have been fixed above those assembly halls. In the north-west from them, there are two Sidhayatan. The description of the temple of Tirthankar is the same as before. The only difference is that in the middle of those temples there is a precious stony bench. Those benches are two yojan long, two yojan wide and one yojan thick. On each of the benches there are seats of Tirthankars. These seats are two yojan long, 15 two yojan wide and a little more than two yojan high. They are totally 41 jewelled. The description of the idols of Tirthankars up to the incense pot is the same as mentioned earlier. The description of the bed where celestial beings take birth and the description of other halls up to the place of rest and the like is the same as mentioned earlier. There are many pots meant for coronation in the coronation hall. In the hall of beauty, there are many dresses (articles of embelishment). In 4 45 46 47 44 45 46 45 44 45 46 47 46 45 44 44 44 45 46 45 44 45 46 45 446 447 44 455 456 457 4554 4 54 55 456 457 454545 455 456 457 455 456 457 4 454 445 44 45 46 45 44 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (314) Jambudveep Prajnapti Sutra 414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i the business hall there is the holy book. There are Nanda lakes and the seats of worship. These seats are two yojan long, two yojan wide and one yojan thick. 5 The origin, meritorious contemplation, coronation by Indra, things of beauty in the beauty parlour, the inauguration of the text, the worship of Siddhayatan and the like, entry in Siddhayatan assembly hall establishment of angelic families in various directions. Their grandeur, 4 prosperity and the like of Yamak deva may be understood in that order. The distance between Neelavan mountain and Yamak mountains is the same as that of Yamak lakes from other lakes. जीलवान् व्रह NEELAVAN LAKE 4 १०६. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए णीलवन्तद्दहे णामं दहे पण्णत्ते ? ॐ [उ.] गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठसए चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीआए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते। दाहिणउत्तरायए, पाईण-पडीणवित्थिण्णे। जहेव पउमद्दहे तहेव वण्णओ णेअब्बो, णाणत्तं-दोहिं पउमवरवेइआर्हि दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते, णीलवन्ते णामं णागकुमारे देवे सेसं तं चेव णेअव्वं । ___णीलवन्तद्दहस्स पुव्वावरे पासे दस २ जोअणाई अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचणगपव्वया पण्णत्ता, एगं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं मूलंमि जोअणसयं, पण्णत्तरि जोअणाई मज्झमि। उवरितले कंचणगा, पण्णासं जोअणा हुंति॥१॥ मूलंमि तिण्णि सोले, सत्तत्तीसाइं दुणि ममंमि। अट्ठावण्णं च सयं, उवरितले परिरओ होइ॥२॥ पढमित्थ नीलवन्तो १, बितिओ उत्तरकुरु २, मुणेअव्वो। चंदबहोत्थ तइओ ३, एरावय ४, मालवन्तो अ ५॥३॥ एवं वण्णओ अट्ठो पमाणं पलिओवमट्टिइआ देवा। १०६. [प्र. ] भगवन् ! उत्तरकुरु में नीलवान् नामक द्रह कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिणी छोर से ८३४० योजन के अन्तराल पर सीता महानदी के म ठीक बीच में नीलवान् नामक द्रह है। वह दक्षिण-उत्तर लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। जैसा पद्मद्रह का वर्णन है, वैसा ही उसका है। केवल इतना अन्तर है-नीलवान् द्रह दो पद्मवरवेदिकाओं द्वारा तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवेष्टित है। वहाँ नीलवान् नामक नागकुमार देव निवास करता है। शेष वर्णन म पूर्वानुरूप है। | चतुर्थ वक्षस्कार (315) Fourth Chapter w5555555$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 白听听听听听听听听听听 9555555555555555555555555555555555555 ॐ नीलवान् द्रह के पूर्वी-पश्चिमी पार्श्व में दस-दस योजन के अन्तराल पर बीस कांचनक पर्वत हैं। 卐 वे सौ योजन ऊँचे हैं। ॐ कांचनक पर्वतों का विस्तार मूल में १०० योजन, मध्य में ७५ योजन तथा ऊपर ५० योजन है। उनकी परिधि मूल में ३१६ योजन, मध्य में २३७ योजन तथा ऊपर १५८ योजन है। ____ पहला नीलवान्, दूसरा उत्तरकुरु, तीसरा चन्द्र, चौथा ऐरावत तथा पाँचवाँ माल्यवान्-ये पाँच द्रह हैं। ॐ अन्य ग्रहों का प्रमाण, वर्णन नीलवान् द्रह के सदृश है। उनमें एक पल्योपम आयुष्य वाले देव निवास करते हैं। प्रथम नीलवान् द्रह में जैसा सूचित किया गया है, नागेन्द्र देव निवास करता है तथा अन्य चार में व्यन्तरेन्द्र देव निवास करते हैं। वे एक पल्योपम आयुष्य वाले हैं। 卐 106. [Q.] Reverend Sir ! Where is Neelavan lake in Uttarkuru ? [Ans.) Neelavan lake is in the very middle of Sita river at a distance of 834 and four-seventh yojan from the southern end of Yamak 卐 mountains. Its length is in north-south direction and breadth is in east west direction. Its description is like that of Padma lake. The only difference is that Neelavan lake is surrounded by two lotus Vedikas and two forest regions. Neelavan demi-god of Nagkumar class resides there. The remaining description is as mentioned earlier. There are two Kanchanak mountains at a distance of ten yojan each in the east-west side of Neelavan lake. 4 The Kanchanak mountains are hundred yojan at base, 75 yojan in the i middle and 50 yojan at the top. Their circumference is 316 yojan at the base, 236 yojan in the middle 5 and 158 yojan at the top. There are five lakes. The first is Neelavan, the second is Uttarkuru, the third is Chandra, the fourth is Airavat and the fifth is Malyavan. The size and description of other lakes is, the same as that of Neelavan lake. The celestial beings with a life-span of one palyopam reside there. 1 As has been mentioned in the first Neelavan lake, Nagendra Deva i resides while in the remaining four lakes Vyantar gods reside. Their life span is one palyopam. 5 जम्बूपीठ, जम्बूसुदर्शना (वृक्ष) JAMBU PEETH, JAMBU SUDARSHANA TREE १०७. [प्र. १ ] कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, मन्दरस्स उत्तरेणं, मालवन्तस्स ॐ वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, सीआए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे 卐 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (316) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ குHமிழகமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழமிழமிழமிழழகழ 卐 प्रणामं पेढे पण्णत्ते। पंच जोअणसयाई आयाम - विक्खम्भेणं, पण्णरस एक्कासीयाइं जोअणसयाइं फ्र किंचिविसेसाहि आई परिक्खेवेणं, बहुमज्झदेसभाए बारस जोअणाइं बाहल्लेणं । तयणन्तरं च णं मायाए २ पदेसपरिहाणीए २ सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु दो दो गाउआई बाहल्लेणं, सव्वजम्बूणयामए अच्छे से गं एगए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते, दुण्हंपि वण्णओ । तस्स णं जम्बूपेठस्स चउद्दिसिं एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ जाव तोरणाइं । तरसणं जम्बूपेटस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मणिपेटिआ पण्णत्ता । अट्ठजोअणाई आयामविक्खंभेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं । तीसे णं मणिपेटिआए उप्पिं एत्थ णं जम्बूसुदंसणा पण्णत्ता । अट्ठ जोअणाई उच्चत्तेणं, अद्धजोअणं उब्वेहेणं । तीसे णं खंधो दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धजोअगं बाहल्लेणं । फ्र उद्धं ती णं साला छ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोअणाई सव्वग्गेणं । तीसे णं अयमेरूवे वण्णावासे पण्णत्ते - वइरामया मूला, रययसुपइट्ठिअविडिमा जाव अहिअकिरी पासाईआ दरिसणिज्जा. । जंबूए सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पण्णत्ता । तेसि णं सालाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सिद्धाययणे पण्णत्ते । कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठे जाव दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव वणमालाओ। मणिपेटिआ पंचधणुसयाई आयाम - विक्खंभेणं, अद्वाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं । तीसे णं मणिपेढिआए उप्पिं देवच्छन्दए, पंचधणुसयाई आयाम - विक्खंभेणं, साइरेगाई पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, जिणपडिमावण्णओ णेअव्वोत्ति । तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले, एत्थ णं भवणे पण्णत्ते । कोसं आयामेणं, एवमेव णवरमित्थ सयणिज्जं । सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा य सपरिवारा इति । १०७. [ प्र. १ ] भगवन् ! उत्तरकुरु में जम्बूपीठ नामक पीठ कहाँ पर है ? [उ.] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मन्दर पर्वत के उत्तर में माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं सीता महानदी के पूर्वी तट पर उत्तरकुरु में जम्बूपीठ नामक पीठ है। वह ५०० योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक १,५८१ योजन है । वह पीठ बीच में बारह योजन मोटा है। फिर क्रमशः मोटाई में कम होता हुआ वह अपने आखिरी छोरों पर दो-दो कोस मोटा रह जाता है। वह सम्पूर्णतः जम्बूनदजातीय स्वर्णमय है। वह एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वनखण्ड से 5 सब ओर से घिरा है। पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड का वर्णन पूर्वानुरूप है। जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में तीन-तीन सोपान पंक्तियाँ हैं। तोरण पर्यन्त उनका वर्णन पूर्ववत् है। जम्बूपीठ के बीचोंबीच एक मणिपीठिका है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है। उस मणिपीठिका के ऊपर जम्बू सुदर्शना नामक वृक्ष बतलाया गया है। वह आठ योजन ऊँचा तथा चतुर्थ वक्षस्कार (317) Fourth Chapter 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 55 2 फ्र Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ குமிழதமிழமிழிதழவி தமிழதமிழதததததததததததததததவி*****மிமிமிமிமிமிமி*** 卐 फ आधा योजन जमीन में गहरा है। उसका स्कन्ध-कन्द से ऊपर शाखा का उद्गम-स्थान दो योजन ऊँचा கதகத்தத*தமிமிமிமிததமிதிமிமிமிததழதமிழதமிழதமிழபூமிதிமிதி 卐 उस जम्बू वृक्ष का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-उसके मूल वज्ररत्नमय हैं, विडिमा - मध्य से ऊपर को निकली हुई शाखा रजत-घटित है । यावत् विविध फूलों तथा फलों के भार से झुकी हुई है। वह वृक्ष 卐 छायायुक्त, प्रभायुक्त, शोभायुक्त एवं आनन्दप्रद तथा दर्शनीय है। 5 और आधा योजन मोटा है। उसकी शाखा ६ योजन ऊँची है। बीच में उसका आयाम - विस्तार आठ फ योजन है। यों सर्वांगतः उसका आयाम - विस्तार कुछ अधिक आठ योजन है। जम्बू सुदर्शना की चारों दिशाओं में चार शाखाएँ हैं। उन शाखाओं के बीचोंबीच एक सिद्धायतन है। 卐 है। उसके द्वार पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं। वनमालाओं तक का आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। 5 वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह सैकड़ों खम्भों पर टिका फ्र उपर्युक्त शाखाओं में जो पूर्वी शाखा है, वहाँ एक भवन है। वह एक कोस लम्बा है। यहाँ विशेषतः शयनीय और जोड़ लेना चाहिए। बाकी की दिशाओं में जो शाखाएँ हैं, वहाँ उत्तम प्रासाद हैं। सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन पर्यन्त उनका वर्णन पूर्वानुसार है। 107. [Q. 1] Reverend Sir ! Where is the Jambu Peeth in Uttarkuru ? [Ans.] In Uttarkuru Jambu Peeth is at the eastern bank of Sita river. 卐 उपर्युक्त मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी है, अढ़ाई सौ धनुष मोटी है। उस मणिपीठिका पर फ्र देवच्छन्दक- देवासन है। वह देवच्छन्दक पाँच सौ धनुष लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊँचा है। आगे जिन - प्रतिमाओं तक का वर्णन पूर्ववत् है । In the middle of the bench there is a Peeth of precious stones. It is eight yojan long, eight yojan wide and four yojan thick. On that Peeth there is Jambu Sudarshana tree (of earth) which is eight yojan high and half a yojan deep. The branch from the trunk of this tree is at a height of two yojan and is half a yojan thick. The branch is 6 yojan high. In the middle its expansion is in eight yojans. Thus its total expansion is a little more than eight yojan. फ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 फ्र It is in the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the north of फ्र Mandar mountain and in the west of Malyavan Vakshaskar mountain. It 5 is 500 yojan long and 500 yojan wide. Its perimeter is a little more than 5 th 1,581 yojan. It is 12 yojan thick in the middle and thereafter gradually decreasing in thickness it is just two kos thick at the ends. It is completely golden like Jambunad type of gold. It is surrounded by one lotus Vedika and one forest from all sides. The description of lotus Vedika फ्र and forest is the same as mentioned earlier. On the four sides of Jambu Peeth, there are three rows of stairs of three rungs each. The description up to arched gates is as mentioned earlier. 6 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 595 59595959595959 59595952 (318) फ्र Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र फ्र फ्र 卐 ****தமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதததிததின் 卐 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगना 355555555555555555555555555 The detailed description of that Jambu tree is as follows-Its root is ñ of Vajra. The branch off-shooting from the middle part of the tree is silvery and after that it is bent downwards due to the load of flowers and fruit (of earth). That tree is full of shade, aura and grandeur. It is pleasant and worth looking. Jambu Sudarshana has four branches in four sides. There is a Sidhayatan in between the branches. It is one kos long, half a kos wide and a little less than one kos high. It is standing on hundreds of pillars. f Its gates are 500 dhanush in height. Further descrption up to garlands of flowers is as mentioned earlier. The above said Peeth is 500 dhanush long, 500 dhanush wide and 250 F dhanush thick. On that Peeth there is a divine devachchhandak. It is 500 dhanush long and 500 dhanush wide and a little more than 500 dhanush high. Further, description up to idols of Tirthankars is the same as mentioned earlier. Out of the above said branches, there is a mansion on the eastern branch. It is one kos long and worthy of taking rest. On the remaining branches there are palaces. The description up to the thrones (seats) F including the concerned material is as described earlier. A १०७. [ २ ] जम्बू णं बारसहिं पउमवरवेइआहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता, वेइआणं वण्णओ। । जम्बू णं अण्णेणं अट्ठसएणं जम्बूणं तदछुच्चत्ताणं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता। तासि णं वण्णओ। ताओ के % णं जम्बू छहिं पउमवरवेइआहिं संपरिक्खित्ता। जम्बूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरथिमेणं, उत्तरेणं, उत्तरपच्चत्थिमेणं एत्थ णं अणाढिअस्स देवस्स चउण्हं 5 सामाणिअसाहस्सीणं चत्तारि जम्बूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। तीसे णं पुरथिमेणं चउण्हं अग्गमहिसीणं चत्तारि जम्बूओ पण्णत्ताओ दक्खिणपुरथिमे दक्खिणेण तह अवरदक्खिणेणं च अट्ठ दस बारसेव य भवंति जम्बूसहस्साई॥१॥ अणिआहिवाण पच्चत्थिमेण सत्तेव होति जम्बूओ। सोलस साहस्सीओ चउद्दिसिं आयरक्खाणं॥२॥ जम्बूए णं तिहिं सइएहिं वणसंडेहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता। जम्बूए णं पुरथिमेणं पण्णासं जोअणाइं पढमं वणसंडं ओगाहित्ता एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, सो चेव वण्णओ सयणिज्जं च, एवं सेसासुवि दिसासु भवणा। ܡܡܡܡܡܡܡܡ -1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-नानासानागानानानानानाना चतुर्थ वक्षस्कार (319) Fourth Chapter 195955555555555555555555558 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 55555555555555555555555555555555555558 म जम्बूए णं उत्तरपुरथिमेणं पढमं वणसण्डं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१. पउमा, २. पउमप्पभा, ३. कुमुदा, ४. कुमुदप्पभा। ताओ णं कोसं आयामेणं, ॐ अद्धकोसं विक्खंभेणं, पंचधणुसयाई उव्वेहेणं वण्णओ। तासि णं मझे पासायवडेंसगा कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, वण्णओ सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसासु गाहा १. पउमा, २. पउमप्पभा चेव, ३. कुमुदा, ४. कुमुदप्पहा। ५. उप्पलगुम्मा, ६. णलिणा, ७. उप्पला, ८. उप्पलुज्जला ॥१॥ ९. भिंगा, १०. भिंग्गप्पभा चेव, ११. अंजणा, १२. कज्जलप्पभा। १३. सिरिकता, १४. सिरिमहिआ, १५. सिरिचंदा चेव, १६. सिरिनिलया॥२॥ जम्बूए णं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं एत्थ णं कूडे पण्णत्ते। अट्ठ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोअणाई उव्वेहेणं, मूले अट्ठ जोअणाई आयामविक्खंभेणं, बहुमज्झदेसभाए छ जोअणाई आयामविक्खंभेणं, उवरिं चत्तारि जोअणाई आयामविक्खंभेणं पणवीसट्ठारस बारसेव मूले अ मज्झि उवरि च। सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो॥१॥ मूले वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उवरिं तणुए, सबकणगामए, अच्छे, वेइआ-वणसंडवण्णओ, एवं सेसावि कूडा इति। जम्बूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा १. सुदंसणा, २. अमोहा य, ३. सुप्पबुद्धा, ४. जसोहरा। ५. विदेहजम्बू, ६. सोमणसा, ७. णिअया, ८. णिच्चमंडिआ॥१॥ ९. सुभद्दा य, १०. विसाला य, ११. सुजाया, १२. सुमणा वि आ। सुदंसणाए जम्बूए, णामधेजा दुवालस॥२॥ जम्बूए णं अट्ठमंगलगा.। [प्र. ] से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-जम्बू सुदंसणा २ ? [उ. ] गोयमा ! जम्बूए णं सुदंसणाए अणाढिए णामं जम्बुद्दीवाहिवई परिवसइ महिडीए, से णं तत्थ है चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स, जम्बूए सुदंसणाए, अणाढिआए रायहाणीए, अण्णेसिं च बहुर्ण देवाण य देवीण य जाव विहरइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं णं च णं गोयमा ! जम्बूसुदंसणा जाव भुविं च ३ धुवा, णिअआ, सासया, अक्खया अवढिआ। )))55555555555555555555555555 卐5955555554 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (320) Jambudveep Prajnapti Sutra 的步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2555 55555555955555555 5 55 555 555 5552 卐 5 5 [प्र. ] कहि णं भन्ते ! अणाढिअस्स देवस्स अणाढिआ णामं रायहाणी पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! जम्बुद्दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चेव पुव्ववण्णिअं जमिगापमाणं तं चैव अव्यं, जाव उववाओ अभिसेओ अ निरवसेसोत्ति । फ़फ़ [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ उत्तरकुरा ? [उ. ] गोयमा ! उत्तरकुराए उत्तरकुरू णामं देवे परिवसइ महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ उत्तरकुरा २, अदुत्तरं च णंति (धुवे, णियए) सासए । १०७. [ २ ] वह जम्बू (सुदर्शन) बारह पद्मवरवेदिकाओं द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। वेदिकाओं का वर्णन पूर्वानुरूप है। पुनः वह अन्य १०८ जम्बू वृक्षों घिरा हुआ है, जो उससे आधे ऊँचे हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है । पुनश्च वे जम्बू वृक्ष छह पद्मवरवेदिकाओं से घिरे हुए हैं। जम्बू (सुदर्शन) के उत्तर- - पूर्व में - ईशान कोण में, उत्तर में तथा उत्तर-पश्चिम में - वायव्य कोण में अनादृत नामक देव [जो अपने को वैभव, ऐश्वर्य तथा ऋद्धि में अनुपम, अप्रतिम मानता हुआ जम्बू द्वीप के अन्य देवों को आदर नहीं देता ] के चार हजार सामानिक देवों के ४,००० जम्बू वृक्ष हैं। पूर्व चार अग्रमहिषियों-प्रधान देवियों के चार जम्बू हैं। दक्षिण - पूर्व में - आग्नेय कोण में, दक्षिण में तथा दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण क्रमशः आठ हजार, दस हजार और बाहर हजार जम्बू हैं। ये पार्षद् देवों के जम्बू हैं। पश्चिम में सात अनीकाधिपों-सात सेनापति-देवों के सात जम्बू हैं। चारों दिशाओं में सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार जम्बू हैं। 卐 जम्बू (सुदर्शन) तीन सौ वनखण्डों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। उसके पूर्व में पचास योजन पर 5 अवस्थित प्रथम वनखण्ड में जाने पर एक भवन आता है, जो एक कोस लम्बा है। उसका वर्णन पूर्वानुरूप है। बाकी की दिशाओं में भी भवन बतलाये गये हैं। जम्बू सुदर्शन के उत्तर-पूर्व- ईशान कोण में प्रथम वनखण्ड में पचास योजन की दूरी पर - (१) पद्म, (२) पद्मप्रभा, (३) कुमुदा, एवं (४) कुमुदप्रभा नामक चार पुष्करिणियाँ हैं। वे एक कोस लम्बी, आधा कोस चौड़ी तथा पाँच सौ धनुष भूमि में गहरी हैं। उनका विशेष वर्णन अन्य आगमों से समझें । उनके 5 बीच-बीच में उत्तम प्रासाद हैं। वे एक कोस लम्बे, आधा कोस चौड़े तथा कुछ कम एक कोस ऊँचे हैं। सिंहासन पर्यन्त उनका वर्णन पुर्वानुरूप है। इसी प्रकार बाकी की विदिशाओं में आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोण में भी पुष्करिणियाँ हैं। उनके नाम निम्नांकित हैं (१) पद्मा, (२) पद्मप्रभा, (३) कुमुदा, (४) कुमुदप्रभा, (५) उत्पलगुल्मा, (६) नलिना, (७) उत्पला, (८) उत्पलोज्ज्वला, (९) भृंगा, (१०) भृंगप्रभा, (११) अंजना, (१२) कज्जलप्रभा, (१३) श्रीकान्ता, (१४) श्रीमहिता, (१५) श्रीचन्द्रा, तथा (१६) श्रीनिलया। जम्बू के पूर्व दिग्वर्ती भवन के उत्तर में, ईशान कोण स्थित उत्तम प्रासाद के दक्षिण में एक पर्वतशिखर बतलाया गया है। वह आठ योजन ऊँचा एवं दो योजन जमीन में गहरा है। वह मूल में आठ चतुर्थ वक्षस्कार (321) Fourth Chapter 29555 5 55 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 55 5552 फ्र Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ योजन, बीच में छह योजन तथा ऊपर चार योजन लम्बा-चौड़ा है। उस शिखर की परिधि मूल में कुछ फ़फ़ 5 अधिक पच्चीस योजन, मध्य में कुछ अधिक अठारह योजन तथा ऊपर कुछ अधिक बारह योजन है। वह मूल में चौड़ा, बीच में सँकड़ा और ऊपर पतला है, सर्व स्वर्णमय है, उज्ज्वल है। पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड का वर्णन पूर्वानुरूप है। इसी प्रकार अन्य शिखर हैं। जम्बू सुदर्शना के बारह नाम इस प्रकार हैं (१) सुदर्शना, (२) अमोघा, (३) सुप्रबुद्धा, (४) यशोधरा, (५) विदेहजम्बू, (६) सौमनस्या, नियता, (८) नित्यमण्डिता, (९) सुभद्रा, (१०) विशाला, (११) सुजाता, तथा ( १२ ) सुमना । जम्बू सुदर्शना पर आठ-आठ मांगलिक द्रव्य प्रस्थापित हैं। [प्र. ] भगवन् ! इसका नाम जम्बू सुदर्शना किस कारण पड़ा ? [ उ. ] गौतम ! वहाँ जम्बूद्वीपाधिपति, परम ऋद्धिशाली अनादृत नामक देव अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, जम्बू द्वीप का, जम्बू सुदर्शना का, अनादृता नामक राजधानी का, अन्य अनेक देव - देवियों का आधिपत्य करता हुआ निवास करता है। गौतम ! इस कारण उसे जम्बू सुदर्शना कहा जाता है। अथवा गौतम ! जम्बू सुदर्शना नाम ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय (अव्यय) तथा अवस्थित है। 卐 [ प्र. ] भगवन् ! अनादृत नामक देव की अनादृता नामक राजधानी कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में अनादृता राजधानी है। उसके प्रमाण आदि पूर्व वर्णित यमिका राजधानी के सदृश हैं। देव का उपपात उत्पत्ति, अभिषेक आदि सारा वर्णन वैसा ही है। [ प्र. ] भगवन् ! उत्तरकुरु-यह नाम किस कारण पड़ा ? [ उ. ] गौतम ! उत्तरकुरु में परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त उत्तरकुरु नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह उत्तरकुरु कहा जाता है। अथवा उत्तरकुरु नाम (ध्रुव, नियत एवं ) शाश्वत है। 107. [2] That Jambu (Sudarshan) is surrounded by twelve lotus Vedikas from all sides. The description of Vedikas is as mentioned carlier. Again it is surrounded by other Jambu trees which are half of its height. Their description is as mentioned earlier. Again these Jambu trees are surrounded by six lotus Vedikas. In the north-east, north and in the north-west direction of Jambu tree 5 there are 4,000 Jambu trees of co-chiefs of Anadrit god (the celestial being who believes himself to be unique, uncomparable in lustre and prosperity and as such does not give any respect to other celestial beings). In the east there are four Jambu trees of four chief-goddesses. फ्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र - 5555 (322) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 59595959 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2 5555 5555655555 5 5 5 5 555552 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245454545454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 455 456 457 451 454 f In the south-east, south and the south-west direction (from Jambu fi tree) there are 8,000, 10,000 and 12,000 Jambu trees respectively. They 45 are the Jambus of counseller gods. In the west there are seven Jambus of seven army-chief celestial f beings. In the four directions, there are 16,000 Jambus of 16,000 sentinel celestial beings. Jambu (Sudarshan) is surrounded by 300 forests. There is a mansion fi in the first forest at a distance of 50 yojans in the east which is one Kos! long. Its description is the same as mentioned earlier. There are mansions in the other (three) sides also. There are four lakes namely-(1) Padma, (2) Padmaprabha, (3) Kumuda, and (4) Kumud Prabha in the north-east of Jambu Sudarshan at a distance of fifty yojan in the first forest. They are one Kos long, half a Kos wide and five hundred Dhanush deep in the land. Their detailed description can be seen in other Agams. There are grand palaces in the middle of them. They are one Kos long, half a Kos wide and less than a Kos high. There description up to the seat is as mentioned carlier. Similarly there are lakes in the other directions namely south-east, south-west and north-west also. Their names are as follows: (1) Padma, (2) Padma Prabha, (3) Kumuda, (4) Kumud Prabha, (5) Utpal-gulma, (6) Nalina, (7) Utpala, (8) Utpalojvala, (9) Bhringa, (10) Bhring Prabha, (11) Anjana, (12) Kajjal Prabha, (13) Shri Kanta, (14) Shri Mahita, (15) Shri Chandra, and (16) Shri Nilaya. There is a mountain top in the south of the grand palace and in the east of the Jambu and in the south of the mension located in the northcast. It is eight yojan high and two yojan deep. It is eight yoyan at the base, six yojan in the middle and four yojan at the top in length and breadth. The circumference of this top is a little more than 25 yojan at f the base, a little more than 18 yojan in the middle and a little more than 12 yojan at the top. It is broad at the base, narrow in the middle and still narrow at the fi top. It is all golden and bright. The description of lotus Vedika and the forest is as mentioned earlier. Similar are other tops. There are twelve names of Jambu Sudarshana. They are as follows: चतुर्थ वक्षस्कार (323) Fourth Chapter 45454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 45454545454545454545454545454545454545454545454545454545449 24514 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 451 451 451 455 456 457 451 451 451 451 451 411 411 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 田听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 9555555555555555555555555555555555555 (1) Sudarshana, (2) Amogha, (3) Suprabuddha, (4) Yashodhara, (5) Videh Jambu, (6) Saumanasya, (7) Niyata, (8) Nitya Mandita, i (9) Subhadra, (10) Vishala, (11) Sujata, and (12) Sumana. Eight sets of eight auspicious things are installed on Jambu Sudarshan. _ [Q.] Reverend Sir ! Why is it called Jambu Sudarshana? (A.) Gautam ! The controller god of Jambu island, the very 5 prosperous Anadrit celestial being with his: 4,000 co-chiefs upto 16,000 4 sentinels resides there having control over Jambu island, Jambu Sudarshana, Anadrita Rajadhani, many other gods and goddesses. So it is called Jambu Sudarshana. This name Jambu Sudarshana is permanent, fully determined, everlasting, undestroyable. and stable. [Q.] Reverend Sir ! Where is Anadrita Rajadhani of Anadrit god ? (A.) Gautam ! In Jambu island, in the north of Mandar mountain, there is Anadrita capital city. Its size and the like is like Yamika city already narrated. The entire description of origin, coronation and the like of this deva is the same as already mentioned earlier. (Q.) Reverend Sir ! Why is Uttarkuru so named ? [A] Gautam ! In Uttarkuru, a very prosperous celestial being whose name is Uttarkuru and whose life-span is one palyopam resides. So it is called Uttarkuru. Further the name Uttarkuru is permanent everlasting and the like. माल्यवान वक्षस्कार पर्वत MALYAVAN VAKSHASKAR MOUNTAIN १०८. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? _[उ.] गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं, उत्तरकुराए पुरथिमेणं, कच्छस्स चक्कवट्टिविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे मालवंते णाम वक्खारपब्बए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणविच्छिण्णे, जं चेव गंधमायणस्स पमाणं विक्खम्भो अ, णवरमिमं णाणत्तं सव्ववेरुलिआमए, अवसिटं तं चेव जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तं जहा ॐ सिद्धाययणकूडे १. सिद्धे य, २. मालवन्ते, ३. उत्तरकुरु, ४. कच्छ, ५. सागरे, ६. रयए। ७. सीओ य, ८. पुण्णभद्दे, ९. हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे॥१॥ [प्र. ] कहि णं भन्ते ! मालवन्ते वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णते ? EFFFFFFFFFFFFF $$$$$$$$$$$$$$$$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (324) Jambudveep Prajnapti Sutra 8959))))))) )))))555555555555555 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 卐 फ्र [उ. ] गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्थिमेणं, मालवन्तस्स कूडस्स दाहिण -पच्चत्थिमेणं एत्थ सिद्धाययणे कूडे पण्णत्ते । पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अवसिटं तं चैव जाव रायहाणी । एवं मालवन्तस्स कूडस्स, उत्तरकुरूकूडस्स, कच्छकूडस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहिं णेअव्वा, कूडसरिसणामया देवा । [प्र. ] कहि णं भन्ते ! मालवन्ते सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तरपुरत्थिमेणं, रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते । पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अवसिटं तं चेव, सुभोगा देवी, रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं, रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं, अवसिट्ठा कूडा उत्तरदाहिणेणं णेअव्या एक्केणं 5 पमाणेणं । F १०८. [ प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत माल्यवान् नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? [ उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के ईशान कोण में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तरकुरु पूर्व में, कच्छ नामक चक्रवर्ति - विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में माल्यवान् नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। गन्धमादन का जैसा प्रमाण, विस्तार है, वैसा ही उसका है। इतना अन्तर है - वह सर्वथा वैदूर्य - रत्नमय है। बाकी सब वैसा ही है। फ्र गौतम ! यावत् कूट- पर्वत-शिखर नौ बतलाये गये हैं- (१) सिद्धायतन कूट, (२) माल्यवान् कूट, (३) उत्तरकुरु कूट, (४) कच्छ कूट, (५) सागर कूट, (६) रजत कूट, (७) शीता कूट, (८) पूर्णभद्र कूट, एवं (९) हरिस्सह कूट । [प्र.] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट नामक कूट कहाँ पर है ? 5 [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के ईशान कोण में, माल्यवान् कूट के नैऋत्य कोण में सिद्धायतन नामक कूट बतलाया है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। राजधानी पर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। माल्यवान् कूट, उत्तरकुरु कूट तथा कच्छ कूट की दिशाएँ - सिद्धायतन कूट के सदृश हैं। अर्थात् वे चारों कूट प्रमाण, विस्तार आदि में एक समान हैं। कूटों के सदृश नामयुक्त देव उन पर निवास करते हैं। 5 [प्र.] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर सागर कूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ? [ उ. ] गौतम ! कच्छ कूट के ईशान कोण में और रजत कूट के दक्षिण में सागर कूट नामक कूट है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। वहाँ सुभोगा नामक देवी निवास करती है। ईशान कोण में उसकी राजधानी है। रजत कूट पर भोगमालिनी नामक देवी निवास करती है। उत्तर - पूर्व में उसकी राजधानी है। बाकी के कूट- पिछले कूट से अगला कूट उत्तर में, अगले कूट में पिछला कूट दक्षिण में - इस क्रम से अवस्थित हैं, सब एक समान प्रमाणयुक्त हैं। 108. [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region, where is Malyavan Vakshaskar Mountain located? चतुर्थ (325) Fourth Chapter ******************மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதததி फ़फ़ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 456 45 44 45 46 45 455 456 457 454 41 41 41 41 45 45 41 41 41 41 41 41 45 46 47 46 4545454545 $$$$$$$$$414 415 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 [A.) Gautam ! In the north-east of Mandar mountain, in the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the east of Uttarkuru and in the west of Kachh-a Chakravarti Vijay of Mahavideh region, Malyavan Vakshaskar Mountain is located. Its length is in north-south direction and breadth is in east-west direction. Its size is similar to that of Gandhamadan mountain. The only difference is that it is totally Vaidurya gem. The remaining description is the same. Gautam ! This mountain has nine peaks namely (1) Siddhayatan pcak, (2) Malyavan peak, (3) Uttarkuru peak, (4) Kachh pcak, (5) Sagar peak, (6) Rajat peak, (7) Shita peak, Purnabhadra peak, and (9) Harisseh peak. IQ.) Reverend Sir ! Where is Siddhayatan peak located on Malyavan Vakshaskar Mountain ? (A.) Gautam ! In the north-east of Mandar mountain and in southcast of Malyavan peak, Siddhayatan peak is located. It is 500 yojan high. The remaining description up to capital city is the same as mentioned 4 earlier. The locations of Malyavan peak, Uttarkuru peak and Kachcha peak are similar to that of Siddhayatan peak. This means that these four peaks are same in size, expanse and the like. Gods having same name as the respective peak reside on them. IQ.) Reverend Sir ! Where is Sagar peak located on Malyavan 5 Vakshaskar mountain ? [A] Gautam ! In the north-east of Kachcha peak and in the south of Rajat pcak, Sagar peak is located. Rest of the description is same as mentioned earlier. There goddess Subhoga resides. Her capital city is in the north-east. On Rajat top goddess Bhog-malini resides. Her capital city is in the north-east. The peaks are located in such an order that every peak is in the north of its preceding peak. All the peaks are of the same size. हरिस्सह कूट HARISSAH PEAK 908.[9. ] af ! Hitam PRIEGOS Y DE JUURET ? __[उ. ] गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं हरिस्सहकूडे णामं कूड़े में पण्णत्ते। एगं जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं, जमगपमाणेणं अव्वं। रायहाणी उत्तरेणं असंखेजे दीवे अण्णमि जम्बुद्दीवे दीवे, उत्तरेणं बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं हरिस्सहस्स देवस्स ॐ हरिस्सहाणामं रायहाणी पण्णत्ता। चउरासीइं जोअणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, बे जोअणसयसहस्साई | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (326) Jambudveep Prajnapti Sutra 451 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 455 4 57 455 456 457 4560 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听$$$$$$$$$$ 近听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听55 5 555555 पण्णटिं च सहस्साई छच्च छत्तीसे जोअणसए परिक्खेवेणं, सेसं जहा चमरचंचाए रायहाणीए तहा पमाणं भाणिअव्वं, महिडीए महज्जुईए। ॐ [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ मालवन्ते वक्खारपवए २ ? म [उ.] गोयमा ! मालवन्ते णं वक्खारपव्वए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे सरिआगुम्मा, णोमालिआगुम्मा जाव मगदन्तिआगुम्मा। ते णं गुम्मा दसद्धवणं कुसुमं कुसुमेंति, जे णं तं मालवन्तस्स ॐ वक्खारपव्वयस्स बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधु-अग्गसाल-मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिअं करेन्ति। मालवंते अ इत्थ देवे महिडीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं । ॐ चणं णिच्चे। १०९. [प्र. ] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सह कूट नामक कूट कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! पूर्णभद्र कूट के उत्तर में, नीलवान् पर्वत के दक्षिण में हरिस्सह कूट नामक कूट है। वह एक हजार योजन ऊँचा है। उसकी लम्बाई, चौड़ाई आदि सब यमक पर्वत के सदृश है। मन्दर पर्वत ॐ के उत्तर में असंख्य तिर्यक् द्वीप-समुद्रों को लाँघकर अन्य जम्बू द्वीप के अन्तर्गत उत्तर में बारह हजार योजन जाने पर हरिस्सह कूट के अधिष्ठायक हरिस्सह देव की हरिस्सहा नामक राजधानी आती है। वह ॐ ८४,००० योजन लम्बी-चौड़ी है। उसकी परिधि २,६५,६३६ योजन है। वह ऋद्धिमय तथा धुतिमय है। है उसका शेष वर्णन चमरेन्द्र की चमरचंचा नामक राजधानी के समान समझना चाहिए। ॐ [प्र. ] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत-इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? [उ. ] गौतम ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर जहाँ-तहाँ बहुत से सरिकाओं, नवमालिकाओं, 卐 मगदन्तिकाओं आदि पुष्पलताओं के गुल्म-झुरमुट हैं। उन लताओं पर पँचरंगे फूल खिलते हैं। वे लताएँ पवन द्वारा प्रकम्पित अपनी टहनियों के अग्र भाग से मुक्त हुए पुष्पों द्वारा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग को सुशोभित, सुसज्जित करती हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक म पल्योपम आयुष्य वाले माल्यवान् नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है। अथवा उसका यह नाम नित्य है। 109. (Q.] Reverend Sir ! On Malyavan Vakshaskar Mountain, where is Harissah peak located ? 1 (A.) In the north of Purnabhadra peak, and in the south of Neelwan mountain, Harissah peak is located. It is 1,000 yojan high. Its length, i breadth and the like are the same as those of Yamak mountain. In the north of Mandar mountain, after crossing innumerable number of seas and islands in another Jambu continent in its north at a distance of 12,000 yojans there is Harissah, the capital city of Harissah god, the master of Harissah peak. It is 84,000 yojans in length and breadth. Its circumference is 2,65,636 yojans. It is prosperous and bright. The | चतुर्थ वक्षस्कार (327) Fourth Chapter )))))))) ))))))))))))))))))))5558 卐5555555))))))))))))5555555555555555555558 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听FFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 )) ) ))))) )) )) 卐 ) ) 卐卐555 )) ) )) )) )) ))) )) 4 remaining description may be understood as similar to capital city Chamarchancha of Chamarendra. - [Q.] Reverend Sir ! Why is Malyavan Vakshaskar Mountain so named ? (A.) There are many thickets of Sarikas, Nav-malikas, Magadantikas and the like, flowering creepers, hither and thither. The flowers of five 4 colours blossom on these creepers. Those creepers brighten and make 5 attractive the extremely levelled and attractive land of Malyavan 9 Vakshaskar Mountain where the flowers fall from the edges of the branches of creepers due to wind. A very prosperous celestial being whose life-span is one palyopam and whose name is Malyavan resides there. So, Gautam ! It is called Malyavan Vakshaskar Mountain. Further this name is permanent and everlasting. कच्छ विजय KUTCHH VIJAY ११०. [प्र. १ ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाडीण-पडीणवित्थिण्णे पलिअंकसंठाणसंठिए, गंगासिंधूहि ॥ ॐ महाणईहिं वेयरेण य पव्वएणं छन्भागपविभत्ते, सोलस जोअणसहस्साइं पंच य बाणउए जोअणसए दोण्णि + अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, दो जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेरसुत्तरे जोअणसए किंचि विसेसूणे विक्खंभेणंति। कच्छस्स णं विजयस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअद्धे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं कच्छं विजयं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणद्धकच्छं उत्तरद्धकच्छं चेति। ___ [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? __[उ.] गोयमा ! बेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, चित्तकूडस्स ॐ वखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईण-पडीणवित्थिण्णे, अट्ठजोअणसहस्साई ॐ दोण्णि अ एगसत्तरे जोअणसए एक्कं च एगूणवीसइभागं आयामेणं, दो जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेरसुत्तरे जोअणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणं, पलिअंकसंठाणसंठिए। [प्र.] दाहिणद्धकच्छस्स णं भन्ते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णते ? ॐ [उ. ] गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तं जहा-जाव कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव।। ))) ) )) ))) ))) )) )) )) )) ) 卐 ) ) 听听听听听听听听听听听听 ज卐55) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (328) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ שתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתת फफफफफफफफ [प्र. ] दाहिणद्धकच्छे णं भन्ते ! विजए मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छव्विहे संघयणे जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । [प्र.] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे विजए वेअद्धे णामं पव्वए ? [उ.] गोयमा ! दाहिणद्धकच्छ - विजयस्स उत्तरेणं, उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणेणं, चित्तकूडस्स पच्चत्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं कच्छे विजए वे अद्धे णामं पव्यए पण्णत्ते । तं जहा - पाईण--पडीणायए, उदीण - दाहिणवित्थिण्णे, दुहा वक्खारपव्वए पुट्ठे - पुरथिमिल्लाए कोडीए (पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं पुट्ठे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्टे) दोहिवि 5 पुट्ठे । भरहवे अद्धसरिसए णवरं दो बाहाओ जीवा धणुपट्टं च ण कायव्वं । विजयविक्खम्भसरिसे आयामेणं । विक्खम्भो, उच्चत्तं, उब्वेहो तहेव च विज्जाहर आभिओगसेढीओ तहेव, णवरं पणपण्णं विज्जाहरणगरावासा पण्णत्ता । आभिओगसेढीए उत्तरिल्लाओ सेढीओ सीआए ईसाणस्स सेसाओ 5 सक्कस्सत्ति । कूडा २ १. सिद्धे, २. कच्छे, ३. खंडग, ४. माणी, ५. वेअद्ध, ६. पुण्ण ७. तिमिसगुहा, ८. कच्छे, ९. वेसमणे वा, वेअद्धे होंति कूडाई ॥ १ ॥ [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे उत्तर-कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! वेयद्धस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे जाव सिज्झन्ति, तहेव णेअव्वं सव्वं । ११०. [ प्र. १ ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ नामक विजय कहाँ पर है ? कच्छ विजय के बीचोंबीच वैताढ्य नामक पर्वत है, जो कच्छ विजय को दक्षिणार्ध कच्छ तथा उत्तरार्ध कच्छ के रूप में दो भागों में बाँटता है। [.] गौतम ! सीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ नामक विजय है । वह उत्तर - दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है, पलंग के आकार में अवस्थित है। 5 गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढ्य पर्वत द्वारा वह छह भागों में विभक्त है। वह १६,५९२१९ 5 योजन लम्बा तथा कुछ कम २,२१३ योजन चौड़ा है। 卐 [प्र.] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में दक्षिणार्ध कच्छ नामक विजय कहाँ पर है ? (329) - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 55 5 5 5 卐 Fourth Chapter 卐 卐 [ उ. ] गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में दक्षिणार्ध कच्छ फ्र ॐ चतुर्थ वक्षस्कार 卐 卐 5 திமிதிததமி***********தமிழததததததததததததத 5 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89595555555555555555555555))))))))))) 4555555555555555555555555555555555555 ॐ नामक विजय है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। ८,२७१३० योजन लम्बा है, कुछ कम २,२१३ योजन चौड़ा है, पलँग के आकार में विद्यमान है। ॐ [प्र. ] भगवन् ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? ___ [उ. ] गौतम ! वहाँ का भूमिभाग बहुत समतल एवं सुन्दर है। वह कृत्रिम, अकृत्रिम मणियों तथा ॐ तृणों आदि से सुशोभित है। __[प्र.] भगवन् ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय में मनुष्यों का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? ___ [उ. ] गौतम ! वहाँ मनुष्य छह प्रकार के संहननों से युक्त होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। [प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ विजय में वैताढ्य नामक पर्वत कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय के उत्तर में, उत्तरार्ध कच्छ विजय के दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में तथा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में कच्छ विजय के अन्तर्गत है वैताढ्य नामक पर्वत बतलाया गया है, वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह दो ओर है से वक्षस्कार पर्वतों का स्पर्श करता है। (अपने पूर्वी किनारे से वह चित्रकूट नामक पूर्वी वक्षस्कार पर्वत ॐ का स्पर्श करता है तथा पश्चिमी किनारे से माल्यवान् नामक पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करता ॥ 卐 है, वह भरत क्षेत्रवर्ती वैताढ्य पर्वत के सदृश है। अवक्र क्षेत्रवर्ती (सीधा) होने के कारण उसमें बाहाएँ, जीवा तथा धनुपृष्ठ नहीं कहना चाहिए। कच्छादि विजय जितने चौड़े हैं, वह उतना लम्बा है। वह चौड़ाई, ॐ ऊँचाई एवं गहराई में भरत क्षेत्रवर्ती वैताढ्य पर्वत के समान है। विद्याधरों तथा आभियोग्य देवों की म श्रेणियाँ भी उसी की ज्यों हैं। इतना अन्तर है-इसकी दक्षिणी श्रेणी में ५५ तथा उत्तरी श्रेणी में ५५ विद्याधर-नगरावास हैं। आभियोग्य श्रेणी के अन्तर्गत, शीता महानदी के उत्तर में जो श्रेणियाँ हैं, वे ईशानदेव की हैं, बाकी की श्रेणियाँ शक्र देव की हैं। वहाँ कूट इस प्रकार हैं (१) सिद्धायतन कूट, (२) दक्षिणकच्छार्ध कूट, (३) खण्डप्रपातागुहा कूट, (४) माणिभद्र कूट, 9 (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुहा कूट, (८) उत्तरार्धकच्छ कूट, तथा (९) वैश्रवण कूट। [प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्ध कच्छ नामक विजय कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में तथा चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्धकच्छविजय नामक विजय है। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। 110. [Q. 1] Reverend Sir ! In Mahavideh area of Jambu continent, where is Kutchh Vijay located ? (A.] In the north of river Sita, in the South of Noelavan Varshadhar mountain, in the west of Chitrakoot Vakshaskar mountain and in the | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (330) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 555555555550 卐 卐 卐 555555555555555555555555555555555555 卐 east of Malyavan Vakshaskar Mountain in Mahavideh area of Jambu continent, Kutchh Vijay is located. Its length is in north-south direction and its width is in east-west direction. It is bed-like in shape. It has been divided into six parts by the rivers Ganga and Sindhu and by Vaitadhya mountain. It 16,592 and two-nineteenth yojan long and 2,213 yojan wide. 45 Vaitadhya mountain is in the middle of Kutchh Vijay and divides it into two halves-Uttarardh (Northen) Kutchh and Southern Kutchh. [Q.] Reverend Sir! In Mahavideh region of Jambu continent, where is Southern-half Kutchh Vijay is located? [A.] In the South of Vaitadhya mountain, in the north of Sita river, in the west of Chitrakoot Vakshaskar mountain, in the east of Malyavan Vakshaskar mountain, in Mahavideh region of Jambu continent, Southen half of Kutchh Vijay is located. It is 8,271 and one-ninth yojan long in north-south direction and 2,213 yojan wide in east-west direction. It is bed-like in shape. [A.] Gautam ! Its land is extremely levelled and attractive. It is shining due to natural and artificial precious stones and particles. [Q] Reverend Sir ! What is the shape, nature and structure of human beings residing in the Southern half of Kutchh Vijay. [A.] Gautam ! The human beings have all the six types of bonestruture. The remaining description is the same as already mentioned. [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent, where is Vaitadhya mountain located in Kutchh Vijay? [Q] Reverend Sir! What is the shape, nature and structure of Southern half of Kutchh Vijay? 卐 [A.] Gautam ! In the north of the Southern half of Kutchh Vijay, in the south of the northern half of Kutchh Vijay, in the west of Chitrakoot Vakshaskar mountain and in the east of Malyavan Vakshaskar mountain, in Kutchh Vijay, Vaitadhya mountain is located. Its length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. It touches Vakshaskar mountains from two sides (Its eastern end touches Chitrakoot Vakshaskar mountain and western end touches Malyavan Vakshaskar mountain). It is like Vaitadhya mountain of Bharat area. As it is straight, it has no arms or curved length. It has as much length as is the width of Kutchh Vijay and the like. In length, breadth and depth it is identical with Vaitadhya mountain in Bharat area. The lives of चतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter (331) 5555555555555555555555555 47 45 65555555555555555555555555555 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) i )) )) )) )) ))) )) 4 Vidyadhars and Abhiyogya celestial beings are also the same as in Bharat region. The only difference is that in the Southern range there are 55 Vidyadhar abodes and in the northern region also there are 55 Vidyadhar abodes. The rows of abodes in the north of Sheeta river, which are the rows of Abhiyogya celestial beings, are of Ishan god. The remaining rows are of Shakra god. There the peaks are as under: 4 (1) Siddhayatan peak, (2) Southern half Kutchh peak, (3) KhandF prapat cave peak, (4) Manibhadra peak, (5) Vaitadhya peak, (6) Purnabhadra peak, (7) Tamisra cave peak, (8) Northern half Kutchh 4 peak, and (9) Vaishraman peak. (Q.) Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent, where is northern half Kutchh peak located ? 5 [A.] Gautam ! In the north of Vaitadhya mountain, in the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the east of Malyavan Vakshaskar 55 mountain and in the west of Chitrakoot Vakshaskar mountain in Jambu 4i continent, northern half Kutchh Vijay is located. The remaining description is the same as mentioned earlier. 9 (१) उत्तरार्ध कच्छ विजय UTTARARDH (NORTHERN HALF) KUTCHH VIAY [ [प्र. २ ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरद्धकच्छे विजए सिंधुकुंडे णामं कुंडे ॐ पण्णत्ते ? ॐ [उ. ] गोयमा ! मालवन्तस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं, उसभकूडस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरडकच्छविजए सिंधुकुंडे णामं ॐ कुंडे पण्णत्ते, सर्टि जोअणाणि आयामविक्खम्भेणं जाव भवणं अट्ठो रायहाणी अ अव्वा, भरहसिंधुकुंडसरिसं सव्वं णेअव्वं। म तस्स णं सिंधुकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्धकच्छविजयं एज्जेमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालयित्ता दाहिणकच्छविजयं ॐ एज्जेमाणी २ चोद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीयं महाणई समप्पेइ। सिंधुमहाणई पवहे अ मूले अ भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं जाव दोहिं वणसडेहिं संपरिक्खित्ता। म [प्र. ] कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धकच्छविजए उसभकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते ? म [उ. ] गोयमा ! सिंधुकुंडस्स पुरथिमेणं, गंगाकुण्डस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छविजए उसहकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते। अट्ठ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, ॐ तं चेव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणिअव्वा। )) 9595555555555555555555555555555555555)) ))) )) ))) )) )) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (332) Jambudveep Prajnapti Sutra ज 日历%%%%%%%%% %% %%%% %%%%%% % %%%%%%%%% Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 5 [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धकच्छे विजए गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! चित्तकूडस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं, उसहकूडस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं, नीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छे गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । सट्ठि जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, तहेव जहा सिंधू जाव वणसडेण य संपरिक्खित्ता। [प्र.] से केणट्ठणं भन्ते ! एवं वुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए ? [उ. ] गोयमा ! कच्छे विजए वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, गंगाए महाणईए पच्चत्थिमेणं, सिंधूए महाणईए पुरत्थिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं खेमा णामं रायहाणी पण्णत्ता, विणीआरायहाणीसरिसा भाणिअव्वा । तत्थ णं खेमाए रायहाणीए कच्छे राया समुप्पज्जइ, महया हिमवन्त जाव सव्वं भरहोवमं भाणिअव्वं निक्खमणवज्जं सेसं सव्वं भाणिअब्बं जाव भुंज माणुस्सए सुहे । कच्छणामधेज्जे अ कच्छे इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से एणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए जाव णिच्चे | णामं [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्धकच्छ विजय में सिन्धुकुण्ड नामक कुण्ड कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, ऋषभकूट के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में - मेखलारूप मध्य भाग में ढलान में, जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्धकच्छ विजय में सिन्धुकुण्ड नामक कुण्ड है। वह साठ योजन लम्बा-चौड़ा है। भवन, राजधानी आदि सारा वर्णन भरत क्षेत्रवर्ती सिन्धुकुण्ड के सदृश है। उस सिन्धुकुण्ड के दक्षिणी तोरण से सिन्धु महानदी निकलती है। उत्तरार्धकच्छ विजय में बहती है। उसमें वहाँ ७,००० नदियाँ मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर नीचे तिमिस्रगुहा से होती हुई वैताढ्य पर्वत को चीरकर दक्षिणार्धकच्छ विजय में जाती है । वहाँ १४,००० नदियों से युक्त होकर वह दक्षिण में शीता महानदी में मिल जाती है। सिन्धु महानदी अपने उद्गम तथा संगम पर विस्तार में भरत क्षेत्रवर्ती सिन्धु महानदी के सदृश है। वह दो वनखण्डों द्वारा घिरी है - यहाँ तक का सारा वर्णन पूर्ववत् है । [प्र. ] भगवन् ! उत्तरार्धकच्छ विजय में ऋषभकूट नामक पर्वत कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! सिन्धुकूट के पूर्व में, गंगाकूट के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में, उत्तरार्धकच्छ विजय में ऋषभकूट नामक पर्वत है। वह आठ योजन ऊँचा है। उसका प्रमाण, विस्तार, राजधानी पर्यन्त वर्णन पूर्ववत् है । इतना अन्तर है- उसकी राजधानी उत्तर में है । [प्र.] भगवन् ! उत्तरार्धकच्छ विजय में गंगाकुण्ड नामक कुण्ड कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, ऋषभकूट पर्वत के पूर्व में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में उत्तरार्ध कच्छ में गंगाकुण्ड नामक कुण्ड है। वह ६० योजन लम्बा-चौड़ा है। एक वनखण्ड द्वारा परिवेष्टित है - यहाँ तक का अवशेष वर्णन सिन्धुकुण्ड सदृश है। वह फ्र चतुर्थ वक्षस्कार (333) 25 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 55 5955 55955 Fourth Chapter फफफफफफफफफफफफ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐))))))))))))))))))))))55555555555555卐55555555. 卐 [प्र. ] भगवन् ! वह कच्छ विजय नाम क्यों कहा जाता है ? - [उ. ] गौतम ! कच्छ विजय में वैताठ्य पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, गंगा ॐ महानदी के पश्चिम में, सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्धकच्छ विजय के बीचोंबीच उसकी क्षेमा नामक राजधानी है। उसका वर्णन विनीता राजधानी के सदृश है। क्षेमा राजधानी में कच्छ नामक षट्खण्ड-भोक्ता ॐ चक्रवर्ती राजा समुत्पन्न होता है-वहाँ लोगों द्वारा उसके लिए कच्छ नाम व्यवहृत किया जाता है। 卐 अभिनिष्क्रमण-प्रव्रजन को छोड़कर उसका सारा वर्णन चक्रवर्ती राजा भरत जैसा समझना चाहिए। कच्छ विजय में परम समृद्धिशाली, एक पल्योपम आयु-स्थिति का कच्छ नामक देव निवास करता है। ॐ गौतम ! इस कारण वह कच्छ विजय कहा जाता है। अथवा उसका कच्छ विजय नाम नित्य है, शाश्वत है। [Q. 2] Reverend Sir ! Where is the pond called Sindhu Kund of Uttarardh (northern half) Kutchh Vijay of Mahavideh region in Jambu continent is located ? (A. 2] Gautam ! In the east of Malyavan Vakshaskar mountain, in the west of Rishabh Koot, in the southern chainlike middle part of Neelavan Vakshaskar mountain on the slope, in northern half (Uttarardh) Kutchh Vijay of Mahavideh continent of Jambu island Sindhu Kund is located. It is 60 yojan in length and breadth. The description of mansion, capital city and the like is the same as that of Sindhu Kund of Bharat continent. Sindhu river starts from the southern gate of that Sindhu pond. It flows in the northern half Kutchh Vijay. Seven thousand streams join it there. Filled with them, it passes below the Timisra cave, it flows 45 through Vaitadhya mountain and then flows in southern half Kuto Vijay. There, alongwith 14,000 rivers it goes in the south and joins 41 Sheeta river. Sindhu river at its source and at its junction with other rivers is like Sindhu river of Bharat continent in width. The description up to that it is surrounded by two forests is totally the same as earlier mentioned. [Q.] Reverend Sir ! In northern half Kutchh Vijay, where is Rishabh Koot mountain located. (A.) Gautam ! Rishabhkoot mountain of northern half Kutchh Vijay is located at the Southern slope of Neelavan Varshadhar mountain. It is in the east of Sindhu peak (Koot) and in the west of Ganga peak. It is eight yojan high. Its size, area and description up to its recreation city is the same as earlier mentioned. The only difference is that its recreation city is located in the north. 卐555555555555555555555555555))))555558 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (334) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 [Q.] Reverend Sir ! Where is the pond called Ganga Kund located in northern half Kutchh Vijay? [A.] Gautam ! Ganga Kund of northern half Kutchh Vijay is located at the southern slope of Neelavan Varshadhar mountain. It is in the west of Chitrakoot Varshadhar mountain and in the east of Rishabhkoot mountain. It is sixty yojan in length and breadth. It is surrounded by a forest. The entire description up to this is the same as mentioned earlier. [Q.] Reverend Sir ! Why is it named Kutchh Vijay? [A.) There is capital city Kshema of southern half Kutchh Vijay at its centre. It is in the south of Vaitadhya mountain of Kutchh Vijay, in the north of Sheeta river, in the west of Ganga river and in the east of Sindhu river. Its description is like that of capital city Vinita. Kutchh, the king emperor (Chakravarti) who rules over all the six divisions, is born here. So the people call him by the name Kutchh. The entire description may be understood as that of Bharat, the king emperor except renunciaton. A celestial being whose name is Kutchh, who is very prosperous and whose life-span is one palyopam resides there. So, Gautam ! This region is called Kutchh Vijay. Further this name Kutchh Vijay is permanent and everlasting. चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत CHITRAKOOT VAKSHASKAR MOUNTAIN १११. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं, कच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं, सुकच्छविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहवासे चित्तकूडे णाम वक्खारपब्बए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणवित्थिण्णे, सोलस-जोअणसहस्साइं पंच य वाणउए जोअणसए दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, पंच जोअणसयाई विक्खम्भेणं, नीलवन्तवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उव्हेणं। __ तयणंतरं च णं मायाए २ उस्सेहो बेहपरिवुडीए परिवड्डमाणे २ सीआमहाणई-अंतेणं पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, पंच गाउसयाई उव्वेहेणं, अस्सखन्धसंठाणसंठिए, सब्बरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अवणसंडेहि संपरिक्खित्ते, वण्णओ दुण्ह वि चित्तकूडस्स णं वक्खारपब्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयन्ति। [प्र. ] चित्तकूडे णं भन्ते ! वक्खारपब्बए कति कूडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, २. चित्तकूडे, ३. कच्छकूडे, ४. सुकच्छकूडे। समा उत्तरदाहिणेणं परुप्परंति, पढमं सीआए उत्तरेणं, चउत्थए नीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं। एत्थ णं चित्तकूडे णामं देवे महिड्डीए जाव रायहाणी सेत्ति। चतुर्थ वक्षस्कार (335) Fourth Chapter 卐55555555555555555))))))))))))))))) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B ) ))) )))))) ))))) )) )))) ))) ॐ १११. [प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में चित्रकूट नामक वक्षस्कार पर्वत ॥ म कहाँ पर स्थित है ? [उ. ] गौतम ! शीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, कच्छ विजय के फ़ पूर्व में तथा सुकच्छ विजय के पश्चिम में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में चित्रकूट नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। वह १६,५९२२ योजन लम्बा ॐ है, ५०० योजन चौड़ा है, नीलवान् वर्षधर पर्वत के पास ४०० योजन ऊँचा है तथा ४०० कोस जमीन म में गहरा है। तत्पश्चात् वह ऊँचाई एवं गहराई में क्रमशः बढ़ता जाता है। शीता महानदी के पास वह ५०० योजन ऊँचा तथा ५०० कोस जमीन में गहरा हो जाता है। उसका आकार घोड़े के कन्धे जैसा है। वह सर्वरत्नमय है, निर्मल, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से तथा दो वनखण्डों से घिरा है। दोनों का वर्णन पूर्वानुरूप है। चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के ऊपर बहुत समतल एवं है सुन्दर भूमिभाग है। वहाँ देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। [प्र. ] भगवन् ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट हैं ? [उ. ] गौतम ! उसके चार कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट (चित्रकूट के दक्षिण में), (२) चित्रकूट 卐 (सिद्धायतन कूट के उत्तर में), (३) कच्छ कूट (चित्रकूट के उत्तर में), तथा (४) सुकच्छ कूट (कच्छ कूट के दक्षिण में)। ये परस्पर उत्तर-दक्षिण में एक समान हैं। पहला सिद्धायतन कूट शीता महानदी के ॐ उत्तर में तथा चौथा सुकच्छ कूट नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में है। चित्रकूट नामक परम ॐ ऋद्धिशाली देव वहाँ निवास करता है। राजधानी पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् है। 5 111. (Q.) Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent where is Chitrakoot Vakshaskar mountain located ? (A.) Gautam ! In the north of Sheeta river, in the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the east of Kutchh Vijay and in the west of Sukutchh Vijay in Mahavideh region of Jambu continent, Chitrakoot Vakshaskar mountain is located. Its length is in north-south direction 4 and its breadth is in east-west direction. It is 16,592 and two-nineteenth yojan long and 500 yojan wide. It is 400 yojan high near Neelavan Varshadhar mountain and is 400 Kos deep in the earth. Thereafter, its height and depth gradually increase. Near Sheeta 4 river, its height is 500 yojans and its depth 500 Kos. Its shape like that of 4 the shoulder of a horse. It is completely jewelled. It is surrounded by two lotus Vedikas and two forests from two sides. The description of both of u them is the same as mentioned earlier. There is a levelled and attractive ground on Chitrakoot Vakshaskar mountain. Gods and goddesses retire y and take rest there. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (336) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95959595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595959 [Q] Reverend Sir! How many are the peaks of Chitrakoot Vakshaskar mountain? [A.] Gautam ! It has four peaks. Siddhayatan peak (in the south of Chitrakoot), Chitra peak (in the north of Siddhayatan peak), Kutchh peak (in the north of Chitra peak) and Sukutchh peak (in the south of Kutchh peak). They are identical among themselves in the north-south direction. The first Siddhayatan peak is in the north of Sheeta river and the fourth Sukutchh peak is in the south of Neelavan Varshadhar mountain. A prosperous celestial being whose name is Chitrakoot resides there. The entire description up to capital city (Rajadhani) should be understood as mentioned earlier. (२) सुकच्छ विजय SUKUTCHH VIJAY ११२. [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, गाहावईए महाणईए पच्चत्थिमेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए, जहेव कच्छे विजए तहेव सुकच्छे विजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी, सुकच्छे राया समुप्पज्जइ तहेव सव्वं । [प्र.] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुण्डे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं, महाकच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितम्बे एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते, जहेव रोहिअंसाकुण्डे तहेव जाव गाहावइदीवे भवणे । तस्स णं गाहावइस कुण्डस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पवूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीअं महाणां समप्पेइ । गाहावई णं महाणई पवहे अ मुहे अ सव्वत्थ समा, पणवीसं जोअणसयं विक्खम्भेणं, अद्धाइज्जाई जोअणाई उब्वेहेणं, उभओ पासिं दोहि अ पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसण्डेहिं जाव दुण्हवि aण्णओ इति । ११२. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सुकच्छ नामक विजय कहाँ पर है ? [उ.] गौतम ! सीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, ग्राहावती महानदी के पश्चिम में तथा चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सुकच्छ नामक विजय है । वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है। उसका विस्तार आदि सब वैसा ही है, जैसा कच्छ विजय चतुर्थ वक्षस्कार (337) 6 95 5 5 5 5 5555955555 5 5 5 5 5 5555 5555 5555 5 95 9 Fourth Chapter Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 5 का है। इतना अन्तर है-क्षेमपुरा, उसकी राजधानी है। वहाँ सुकच्छ नामक राजा समुत्पन्न होता है। बाकी 5 सब कच्छ विजय की ज्यों हैं । Y [प्र.] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती कुण्ड कहाँ पर है ? 卐 卐 [उ.] गौतम ! सुकच्छ विजय के पूर्व में, महाकच्छ विजय के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के फ्र दक्षिणी ढलान में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती कुण्ड नामक कुण्ड स्थित है। इसका सारा वर्णन रोहितांशा कुण्ड की ज्यों है । 卐 卐 5 महाकच्छ विजय को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। उसमें २८,००० नदियाँ मिलती हैं। 卐 वह उनसे आपूर्ण होकर दक्षिण में सीता महानदी से मिल जाती है। ग्राहावती महानदी उद्गम-स्थान पर, சு फ संगम-स्थान पर सर्वत्र एक समान है। वह १२५ योजन चौड़ी है, अढ़ाई योजन जमीन में गहरी है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं द्वारा, दो वनखण्डों द्वारा घिरी है। बाकी का सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। 112. [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent, where is Sukutchh Vijay located? फ्र 卐 फ फ फ्र फ्र 卐 தமிதிததமிமிமிமிததமி********************* 卐 卐 फ्र उस ग्राहावती कुण्ड के दक्षिणी तोरण द्वार से ग्राहावती नामक महानदी निकलती है। वह सुकच्छ [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent, where is Grahavati pond (Kund) located ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (338) :ܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܕ ५ [A] Sukutchh Vijay in Mahavideh region of Jambu continent is located in the west of Grahavati river and in the east of Chitrakoot Vakshaskar mountain. It is in the north of Sita river and in the south of y Neelavan Varshadhar mountain. Its length is in north-south direction. Its expansion and the like is the same as that of Kutchh Vijay. The only difference is that Kshempura is its capital where king emperor Sukutchh is born. The remaining description is the same as that of Kutchh Vijay. 2 55 5 5 555 5555 5 5 55 5555555 5 5 5 55 555555 4 Jambudveep Prajnapti Sutra Y Y ५ 4 4 [A] Gautam ! In Mahavideh region of Jambu continent, Grahavati pond is located on the southern slope of Neelavan Varshadhar mountain in the west of Mahakutchh Vijay. It is in the east of Sukuchh Vijay. Its entire description is similar to that of Rohitansha pond. ५ Y फ्र Grahavati river starts from the southern arched gate of Grahavati pond. It divides Sukutchha and Mahakutchha Vijay in two parts and y 5 then moves ahead. 28,000 rivers join it and filled with them, it joins Sita H ५ river in the south. It is of same size throughout at the source as well as at the junction. It is 125 yojan wide and two and a half yojan deep. It is surrounded by two lotus vedikas and two forests on both the sides. They remaining description is the same as mentioned earlier. 4 4 תתתתתתתו H Y 4 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) महाकच्छ विजय MAHAKUTCHH VIAY ११३. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजये पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, पम्हकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, गाहावईए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिड्डीए अट्ठो अ भाणिअव्वो। ११३. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामक विजय कहाँ पर है? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, ग्राहावती महानदी के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामक विजय है। बाकी का सारा वर्णन कच्छ विजय की ज्यों है। यहाँ महाकच्छ नामक परम ऋद्धिशाली देव रहता है। 113. (Q.) Reverend Sir ! Where is Mahakutchh Vijay located in Mahavideh region ? (A.) Gautam ! In Mahavideh region, Mahakutchh Vijay is located in the east of Grahavati river and in the west of Padmakoot Vakshaskar mountain. It is in the south of Neelavan Varshadhar mountain and in the east of Sita river. The remaining description is similar to that of Kutchh Vijay. Mahakutchh, a prosperous deva, resides here. पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत PADMAKOOT VAKSHASKAR MOUNTAIN ११४. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पम्हकूडे णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, महाकच्छस्स पुरथिमेणं, कच्छावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पम्हकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे। सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयन्ति। पम्हकूडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा १. सिद्धाययणकूडे, २. पम्हकूडे, ३. महाकच्छकूडे, ४. कच्छवइकूडे एवं जाव अट्ठो। पम्हकूडे इत्थ देवे महद्धिए पलिओवमठिईए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ। ११४. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पद्मकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर स्थित है ? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वक्षस्कार पर्वत के दक्षिण में सीता महानदी के उत्तर में, महाकच्छ विजय के पूर्व में, कच्छावती विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में पद्मकूट नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है, पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। बाकी का सारा वर्णन चित्रकूट की ज्यों है। पद्मकूट के चार कूट-शिखर हैं (१) सिद्धायतन कूट, (२) पद्म कूट, (३) महाकच्छ कूट, तथा ४. कच्छावती कूट। इनका वर्णन पूर्वानुरूप है। यहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला पद्मकूट नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण यह पद्मकूट कहलाता है। चतुर्थ वक्षस्कार (339) Fourth Chapter , Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) )))))))))) ) ))49555544 3 114. [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region where is Padmakoot 卐 Vakshaskar mountain located ? [A.] Gautam ! In Mahavideh region, Padmakoot Vakshaskar 45 mountain is located in the east of Mahakutchh Vijay and in the west of Kachhavati Vijay. It is in the south of Neelavan Vakshaskar mountain and in the east of Sita river. Its length is in north-south direction and its width is in east-west direction. The remaininng description is similar to that of Chitrakoot. Padmakoot has four peaks (1) Siddhayatan peak, (2) Padma peak, (3) Mahakutchh peak, and (4) Kachhavati peak. Their description is the same as already mentioned. A celestial being whose name is Padmakoot, who is very prosperous and 4 whose life-span is one palyopam resides here. So it is called Padmakoot. (४) कच्छकावती (कच्छावती) विजय KACHHAKAVATI (KACHHAVATI) VIJAY ११५. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते ? _ [उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, दहावतीए महाणईए ॐ पच्चत्थिमेणं, पम्हकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे। सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छगावई अ इत्थ देवे। [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! आवत्तस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, कच्छगावईए विजयस्स पुरत्थिमेणं, णीलवन्तस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते। सेसं जहा गाहावईकुण्डस्स 卐 जाव अट्ठो। तस्स णं दहादईकुण्डस्स दाहिणेणं तोरणेणं दहावई महाणई पवूढा समाणी कच्छावईआवत्ते विजे दुहा विभयमाणी २ दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ, सेसं जहा गाहावईए। ११५. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में कच्छकावती नामक विजय कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, दहावती महानदी के पश्चिम में, पद्मकूट के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत कच्छकावती नामक विजय है। वह उत्तरदक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। बाकी सारा वर्णन कच्छ विजय के सदृश है। यहाँ कच्छकावती नामक देव निवास करता है। [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में द्रहावती कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ पर है ? _[उ. ] गौतम ! आवर्त विजय के पश्चिम में, कच्छकावती विजय के पूर्व में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत द्रहावती कुण्ड नामक कुण्ड है। बाकी का वर्णन म ग्राहावती कुण्ड की ज्यों है। ))))))))) 卐) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (340) Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555)))))))))))555555 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0555555555 அததககதததககததகழததககககககக उस द्रहावती कुण्ड के दक्षिणी तोरण-द्वार से ब्रहावती महानदी निकलती है। वह कच्छकावती तथा 5 आवर्त विजय को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। दक्षिण में सीता महानदी में मिल जाती है। बाकी का वर्णन ग्राहावती के समान है। 115. [Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region where is Kachakavati Vijay located? ५ [A] Gautam ! In Mahavideh region, Kachhakavati Vijay is locatet in y the east of Padmakoot and in the west of Drahavati river. It is in the south of Neelavan Varshadhar mountain and in the north of Sita river. Its length is in north-south direction and its width is in east-west direction. The remaining description is similar to that of Kauchh Vijay. Here Kachhakavati celestial being resides. [Q.] Reverend Sir! In Mahavideh region where is Drahavati pond is located? Drahavati river starts from the southern gate of Drahavati pond. Dividing Kachhakavati Vijay and Aavart Vijay in two parts, it flows ahead and joins Sita river in the south. The remaining descripton is the same as that of Grahavati river. Y [A] Gautam ! In Mahavideh region, Drahavati pond is located on the 4 southern slope of Neelavan Varshadhar mountain and in the east of Kachhakavati Vijay. It is in the west of Kachhakavati Vijay. The remaining description is the same as that of Grahavati pond. (५) आवर्त विजय AAVART VIJAY ११६. [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं, णलिणकूडस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं, दहावतीए महाणईए पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते । सेसं जहा कच्छस्सविजयस्स इति । ११६. [ प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में आवर्त्त नामक विजय कहाँ पर स्थित है ? [उ.] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में तथा द्रहावती महानदी के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत आवर्त्त नामक विजय है। उसका बाकी सारा वर्णन कच्छविजय के समान है। ५ (341) בתתתתתתתתתת בו ५ 116. [Q.] Reverend Sir ! Where is Aavart Vijay of Mahavideh region ? [A] Gautam! In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the f north of Sita river, in the west of Nalinkoot Vakshaskar mountain and in चतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter फ्र 4 ५ ५ 4 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 99545555555555555555558 the cast of Drahavati river, Aavart Vijay of Mahavideh region is located. The remaining description is the same as that of Kutchh Vijay. क))))))))5555555555555555555555555))))) नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत NALINKOOT VAKSHASKAR MOUNTAIN ११७. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स दाहिणेणं, सीआए उत्तरेणं, मंगलावइस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईण-पडीणवित्थिण्णे। सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयन्ति। [प्र. ] णलिणकूडे णं भन्ते ! कति कूडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, २. णलिणकूडे, ३. आवत्तकूडे, ४. मंगलावत्तकूडे, एए कूडा पंचसइआ, रायहाणीओ उत्तरेणं। ११७. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में नलिनकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, मंगलावती विजय के पश्चिम में तथा आवर्त विजय के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत नलिनकूट नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। बाकी वर्णन चित्रकूट के सदृश है। [प्र. ] भगवन् ! नलिनकूट के कितने कूट हैं ? ___ [उ. ] गौतम ! उसके चार कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट, (२) नलिन कूट, (३) आवर्त कूट, तथा (४) मंगलावर्त कूट। ये कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। राजधानियाँ उत्तर में हैं। ___117. [Q.] Reverend Sir ! Where is Nalinkoot Vakshaskar mountain located in Mahavideh region ? [A] Gautam ! In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the 45 north of Sita river, in the west of Manglavati Vijay and in the east of 4 Aavart Vijay, Nalinkoot Vakshaskar mountain is located in Mahavideh region. [Q.] Reverend Sir ! How many are the peaks of Nalinkoot ? [A.] Gautam ! It has four peaks-(1) Siddhayatan peak, (2) Nalin peak, (3) Aavart peak, and (4) Mangalavart peak. They are 500 yojan i high. Their capitals are in the north. (६) मंगलावर्त विजय MANGALAVART VIJAY ११८. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेण, णलिणकूडस्स पुरथिमेणं, पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते। जहा कच्छस्स विजए तहा एसो भाणियब्बो जाव मंगलावत्ते अ इत्थ देवे परिवसइ, से एएणडेणं.। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (342) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 乐555FFFFFF$$$$ $$听听听听听听听听听 [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पंकावई कुंडे णामं कुण्डे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! मंगलावत्तस्स पुरथिमेणं, पुक्खलविजयस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स दाहिणे 卐 णितंबे. एत्थ णं पंकावई (कंडे णाम) कंडे पण्णत्ते। तं चेव गाहावइकुण्डप्पमाणं जाव मंगलावत्तपुक्खलावत्तविजए दुहा विभयमाणी २ अवसेसं तं चेव जं चेव गाहावईए। + ११८. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में मंगलावर्त नामक विजय कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, नलिनकूट के पूर्व म में. पंकावती के पश्चिम में मंगलावर्त नामक विजय है। इसका सारा वर्णन कच्छ विजय के सदश है। यहाँ ॥ मंगलावर्त नामक देव निवास करता है। इस कारण यह मंगलावर्त कहा जाता है। + [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पंकावती कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? [उ. ] गौतम ! मंगलावर्त विजय के पूर्व में, पुष्कल विजय के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में पंकावती कुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है। उसका प्रमाण, वर्णन ग्राहावती कुण्ड के समान है। उससे पंकावती नामक नदी निकलती है, जो मंगलावर्त विजय तथा पुष्कलावर्त विजय को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। उसका बाकी वर्णन ग्राहावती के समान है। 118. (Q.) Reverend Sir ! Where is Mangalavart Vijay of Mahavideh region located ? (A.) Gautam ! In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the fi north of Sita river, in the east of Nalinkoot and in the west of Pankavati, Mangalavati Vijay is located. Its entire description is similar to that of Kutchh Vijay. Here Mangalavart celestial being is residing. So it is called Mangalavart. (Q.) Reverend Sir ! Where is Pankavati pond located in Mahavideh region ? + 1A.1 Gautam ! In the east of Manglavart Vijay, in the west of Pushkal Vijay, in the south of Neelavan Varshadhar mountain at its slope, Pankavati canion is located. Its size is equal to that of Grahavati pond. fi Pankavati river starts from it and divides Manglavart Vijay and fi Pushkalavart Vijay in two parts and then flows ahead. Its remaining description is similar to that of Grahavati. (७) पुष्कलावर्त विजय PUSHKALAVART VIJAY ११९. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स दाहिणेणं, सीआए उत्तरेणं, पंकावईए पुरथिमेणं, एक्कसेलस्स # वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते, जहा कच्छविजए तहा भाणिअव्वं जाव पुक्खले अ इत्थ देवे महिड्डीए पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से एएणटेणं.। | चतुर्थ वक्षस्कार (343) Fourth Chapter मऊ555555545454555EFFEEEEEE Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9)卐555555555555555555555555555555555555555 555555555555555555555555555555555555 ११९. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावर्त नामक विजय कहाँ पर है? 3 [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, पंकावती के पूर्व 5 में, एकशैल वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुष्कलावर्त नामक विजय है। इसका वर्णन कच्छ विजय के समान है। यहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला पुष्कल नामक देव निवास करता है, इस कारण यह पुष्कलावर्त विजय कहलाता है। ____119. [Q.] Reverend Sir ! Where is Pushkalavart Vijay in Mahavideh region ? (A.) In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the north of Sita river, in the east of Pankavati, in the west of Ekshail Vakshaskar mountain, Pushkalavart Vijay is located in Mahavideh region. Its description is the same as that of Kutchh Vijay. Here a prosperous celestial being Pushkal whose life-span is one palyopam is residing. So it is called Pushkalavart Vijay. एकशैल वक्षस्कार पर्वत EKSHAIL VARSHASKAR MOUNTAIN १२०. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! पुक्खलावत्तचक्कवट्टिविजयस्स पुरथिमेणं, पोक्खलावतीचक्कवट्टिविजयस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, एत्थ णं एगसेले णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते, ॐ चित्तकूडगमेणं णेअब्बो जाव देवा आसयन्ति। चत्तारि कूडा, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, २. एगसेलकूडे, ३. पुक्खलावत्तकूडे, ४. पुक्खलावईकूडे, कूडाणं तं चेव पंचसइअं परिमाणं जाव एगसेले अ देवे महिड्डीए। १२०. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में एकशैल नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर है? __ [उ. ] गौतम ! पुष्कलावर्त चक्रवर्ती विजय के पूर्व में, पुष्कलावती चक्रवर्ती विजय के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत एकशैल नामक वक्षस्कार पर्वत है। देव-देवियाँ वहाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं-आदि सम्पूर्ण वर्णन चित्रकूट के सदृश है। उसके चार कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट, २. एकशैल कूट, (३) पुष्कलावर्त कूट, तथा (४) पुष्कलावती कूट। ये पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। उस (एकशैल वक्षस्कार पर्वत) पर एकशैल नामक परम ऋद्धिशाली देव निवास करता है। ___120. [Q.] Reverend Sir ! Where is Ekshail Vakshaskar mountain region? [A.] Gautam ! In the east of Pushkalavart Chakravarti Vijay, in the west of Pushkalavati Chakravarti Vijay, in the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the north of Sita river, Ekshail Vakshaskar mountain is located in Mahavideh region. Gods and goddesses take rest there. Entire description is similar to that of Chitrakoot. It has four | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 5555555555555555555555555555555555555 (344) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步因 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95555555555555555555555555555555555555))) 45 peaks—(1) Siddhayatan peak, (2) Ekshail peak, (3) Pushkalavart peak, 卐 and (4) Pushkalavati peak. They are 500 yojan high. A very prosperous celestial being Ekshail resides on Ekshail Vakshaskar mountain. (८) पुष्कलावती विजय PUSHKALAVATI VIJAY १२१. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चक्कवट्टिविजए पण्णत्ते ? _[उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, उत्तरिल्लस्स सीआमुहवणस्स पच्चत्थिमेणं, एगसेलस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए, पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई अ इत्थ देवे परिवसइ, एएणडेणं.। म १२१. [प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामक चक्रवर्ति-विजय कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, उत्तरवर्ती सीतामुख ॐ वन के पश्चिम में, एकशैल वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुष्कलावती नामक विजय है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है-इत्यादि सारा वर्णन कच्छ विजय की ज्यों है। उसमें पुष्कलावती नामक देव निवास करता है। इस कारण उसे पुष्कलावती विजय कहा जाता है। ___121. [Q.] Reverend Sir ! Where is Pushkalavati Chakravarti Vijay located in Mahavideh region ? (A.) Gautam ! In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the 41 north of Sita river, in the west of Sitamukh forest and in the east of $ Ekshail Vakshaskar mountain, Pushkalavati Vijay is located in Mahavideh region. Pushkalavati deva resides there. So it is called Pushkalavati Vijay. उत्तरी शीतामुख वन NORTH SITAMUKH FOREST १२२. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे सीआए महाणईए उत्तरिल्ले सीआमुहवणे णामं वणे पण्णते? [उ.] गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, ॐ पुक्खलावइचक्कवट्टिविजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं सीआमुहवणे णामं वणे पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणवित्थिण्णे, सोलसजोअणसहस्साइं पंच य बाणउए जोअणसए दोण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, सीआए महाणईए अन्तेणं दो जोअणसहस्साई नव य वावीसे जोअणसए विक्खम्भेणं। तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिहायमाणे परिहायमाण णीलवन्तवासहरपब्वयंतेणं एगं एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खम्भेणंति। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसण्डेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीआमुहवणस्स जाव देवा आसयन्ति, एवं उत्तरिल्लं पासं समत्तं। विजया भणिआ। रायहाणीओ 听听听听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFF म इमाओ चतुर्थ वक्षस्कार (345) Fourth Chapter 8555555555555555555555555555555558 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ குழிபிழபூமிமிமிமிமிமிமிததமிழதமிமிமிமிததமிததததவிமிதிததததததததமிமிமிமிததழதழதி 卐 卐 5 卐 फ्र सोलस विज्जाहरसेटीओ, तावइआओ अभिओगसेढीओ सव्वाओ इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तब्वया जाव अट्ठो, रायाणो सरिसणामगा, विजएसु सोलसन्हं वक्खारपव्वयाणं चित्तकूडवत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि २, बारसहं णईणं गाहावइवत्तव्वया जाव उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं 5 वसण्डेहि अ वण्णओ । 卐 १. खेमा, २. खेमपुरा चेव, ३. रिट्ठा, ४. रिपुरा तहा । ५. खग्गी, ६. मंजूसा, अवि अ ७. ओसही, ८. पुंडरीगिणी ॥१॥ १२२. [ प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में सीता महानदी के उत्तर में शीतामुख नामक वन कहाँ पर है ? 卐 [ उ. ] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पुष्कलावती चक्रवर्ती विजय के पूर्व में शीतामुख नामक वन है। वह उत्तर-दक्षिण में १६,५९२,९ योजन लम्बा है तथा पूर्व-पश्चिम में शीता महानदी के पास २९२२ योजन चौड़ा है। तत्पश्चात् इसका मात्रा - विस्तार क्रमशः घटता जाता है। नीलवान् वर्षधर पर्वत के पास यह केवल 25 योजन चौड़ा रह जाता है। यह वन एक पद्मवरवेदिका तथा एक वन-खण्ड द्वारा घिरा है। इस पर देव देवियाँ आश्रय लेते हैं, यावत् विश्राम लेते हैं। विजयों के वर्णन के साथ उत्तरदिग्वर्ती पार्श्व का वर्णन 5 १९ फ समाप्त होता है। विभिन्न विजयों की राजधानियाँ इस प्रकार हैं १. क्षेमा, २. क्षेमपुरा, ३. अरिष्टा, ४. अरिष्टपुरा, ५. खड्गी, ६. मंजूषा, ७. औषधि तथा ८. पुण्डरीकणी । कच्छ आदि पूर्वोक्त विजयों में सोलह विद्याधर - श्रेणियाँ तथा ( विद्याधरों के नगर ) सोलह ही आभियोग्य श्रेणियाँ अभियोगिक देवों के विमान हैं। ये आभियोग्य श्रेणियाँ ईशानेन्द्र की हैं। सब विजयों की वक्तव्यता - कच्छविजय के जैसी है। उन विजयों के जो-जो नाम हैं, उन्हीं नामों के चक्रवर्ती राजा वहाँ होते हैं। विजयों में जो सोलह वक्षस्कार पर्वत हैं, उनका वर्णन चित्रकूट के वर्णन के सदृश है। प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत के चार-चार कूट हैं । उनमें जो बारह नदियाँ हैं, उनका वर्णन 5 ग्राहावती नदी जैसा है। वे दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वन खण्डों द्वारा परिवेष्टित हैं, जिनका वर्णन पूर्वानुरूप है। 122. [Q.] Reverend Sir ! In the north of Sita river in Mahavideh region where is Sitamukh forest located? [A.] Gautam ! In the south of Neelavan Varshadhar mountain, in the north of Sita river, in the west of eastern Lavan ocean, in the east of Pushkalavati Chakravarti Vijay, Sitamukh forest is located. It is 16,592 and two-nineteenth yojan long in north south direction and 2,922 yojan wide near Sita river in east-west direction. Thereafter its size gradually decreases. Near Neelavan Varshadhar mountain it is just one-nineteenth Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फफफफफ 卐 (346) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கமித்ததமிமிமிமிமிமி*********************தமிழ************* 卐 फ्र of a yojan wide. This forest is surrounded by a lotus Vedika and a forest where gods and goddesses take rest and enjoy themselves. With this the description of Vijays and of the northern side concludes. The capitals of these Vijays are as under: (1) Kshema, (2) Kshemapura, ( 3 ) Arishta, ( 4 ) Arishtapura, ( 5 ) Khadgi, (6) Manjusha, (7) Aushadhi and (8) Pundarikini. In the above said sixteen Vijay, there are sixteen rows of towns of Vidyadhars and sixteen Vimans of Abhiyogik celestial beings. These Abhiyogik towns are of Ishanendra. The description of all the Vijays is like that of Kutch Vijay. The king emperors (Chakravartis) of the Vijays are of the same name as that of Vijay concerned. There are sixteen Vakshashkar mountains in the Vijays. Their description is similar to that of Chitrakoot. Every Vakshashkar mountain has four peaks and there are twelve rivers in them. There description is similar to that of Grahavati river. It is surrounded by two lotus Vedikas and two forests from the two sides. There description is the same as already mentioned earlier. दक्षिणी शीतामुख वन SOUTHERN SITAMUKH FOREST १२३. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामहवणे णामं वणे पण्णत्ते ? [उ. ] एवं जह चेव उत्तरिल्लं सीआमुहवणं तह चेव दाहिणं पि भाणिअव्वं, णवरं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीआए महाणईए दाहिणेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, वच्छस्स विजयस्स पुरत्थमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीआमुहवणे णामं वणे पण्णत्ते । उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिसहवासहरपव्वयंतेणं एगमेगूणवीसइभागं जो अणस्स विक्खम्भेणं, किण्हे किण्णोभासे जाव महया गन्धद्धाणिं मुअंते जाव आसयंति, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं वणवण्णओ । १२३. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सीता महानदी के दक्षिण में सीतामुख वन नामक वन कहाँ पर अवस्थित है ? (347) फफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 फ्र 卐 卐 5 [उ.] गौतम ! जैसा सीता महानदी के उत्तर दिग्वर्ती शीतामुख वन का वर्णन है, वैसा ही दक्षिण दिग्वर्ती शीताख वन का वर्णन समझना चाहिए। इतना अन्तर है- दक्षिण दिग्वर्ती शीतामुख वन निषध फ वर्षधर पर्वत के उत्तर में, सीता महानदी के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, वत्स विजय के 5 पूर्व में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है और सब उत्तरदिग्वर्ती शीताख वन की ज्यों है । इतना अन्तर और है- वह घटते घटते निषध वर्षधर पर्वत के 5 चतुर्थ वक्षस्कार 卐 卐 Fourth Chapter 卐 卐 卐 卐 卐 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पास योजन चौड़ा रह जाता है। वह काले, नीले आदि पत्तों से युक्त होने से वैसी आभा लिए है। उससे + बड़ी सुगन्ध फूटती है, देव-देवियाँ उस पर आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। वह दोनों ओर दो 5 पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों से परिवेष्टित है-इत्यादि समस्त वर्णन पूर्वानुरूप है। 123. (Q.) Reverend Sir ! In the south of Sheeta river in Mahavideh region of Jambu island where is Sitamukh forest located ? [A.J Gautam ! The description of Sitamukh forest in the south may be understood as similar to that of Sitamukh forest located in the north of Sita river. The only difference is that the southern Sitamukh forest is in the north of Nishadh Varshadhar mountain, in the south of Sita river, in the west of eastern Lavan ocean and in the east of Vats Vijay in Mahavideh region of Jambu continent. Its length is in north-south direction and it is identical to the Sitamukh forest in the north. Another difference is that gradually decreasing it is just one-nineteenth yojan wide near Nishadh Varshadhar mountain. It has leaves whose colour is 卐 black, blue and the like; it has the same aura. It emits great fragrance The gods and goddesses retire there and take rest. It is surrounded by two lotus Vedikas and two forests. The entire description is the same as already mentioned. 卐5555555555555555555555))))))))))))) वत्स आदि विजय VATSA VIJAY AND THE LIKE १२४. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णते ? ॐ [उ. ] गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं, सीआए महाणईए दाहिणेणं, दाहिणिल्लस्स सीआमुहवणस्स पच्चत्थिमेणं, तिउडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे + वच्छे णामं विजए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं, सुसीमा रायहाणी १, तिउडे वक्खारपव्वए सुवच्छे विजए, कुण्डला रायहाणी २, तत्तजला णई, महावच्छे विजए अपराजिआ रायहाणी ३, वेसमणकूडे वक्खारपव्यए, ॐ वच्छावई विजए, पभंकरा रायहाणी ४, मत्तजला णई, रम्मे विजए, अंकावई रायहाणी ५, अंजणे वक्खारपव्वए, रम्मगे विजए, पम्हावई रायहाणी ६, उम्मत्तजला महाणई, रमणिज्जे विजए, सुभा म रायहाणी ७, मायंजणे वक्खारपब्वए, मंगलावई विजए, रयणसंचया रायहाणीति ८। एवं जह चेव सीआए महाणईए उत्तरं पासं तह चेव दक्खिणिल्लं भाणिअव्वं दाहिणिल्लसीआमुह वणाइ। इमे वक्खार-कूडा, तं जहा-तिउडे १, वेसमण कूडे २, अंजणे ३, मायंजणे ४, [णईउ तत्तजला ॐ १, मत्तजला २, उम्मत्तजला ३] विजया, तं जहा- १. वच्छे, २. सुवच्छे, ३. महावच्छे, चउत्थे ४. वच्छगावई। ५. रम्मे, ६. रम्मए चेव, ७. रमणिज्जे, ८. मंगलावई ॥१॥ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (348) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 5555555555555555555558 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 四F5555555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$$$$$$$$$$55 रायहाणीओ, तं जहा- १. सुसीमा, २. कुण्डला चेव, ३. अवराइअ, ४. पहंकारा। ५. अंकावई, ६. पम्हावई, ७. सुभा, ८. रयणसंचया॥ ___वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणेणं, सीआ उत्तरेणं, दाहिणिल्ल-सीदामुहवणे पुरथिमेणं, तिउडे पच्चत्थिमेणं, सुसीमा रायहाणी पमाणं तं चेवेति। ___ वच्छाणंतरं तिउडे, तओ सुवच्छे विजए, एएणं कमेणं तत्तजला णई, महावच्छे विजए वेसमणकूड़े वक्खारपव्वए, वच्छावई विजए, मत्तजला गई, रम्मे विजए, अंजणे वक्खारपव्वए, रम्मए विजए, उम्मत्तजला णई रमणिज्जे विजए, मायंजणे वक्खारपब्बए मंगलावई विजए। १२४. [प्र. ] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में वत्स नामक विजय कहाँ है? __ [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, सीता महानदी के दक्षिण में, दक्षिणी शीतामुख वन ॐ के पश्चिम में, त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में वत्स नामक विजय है। उसका प्रमाण पूर्ववत् है। उसकी सुसीमा नामक राजधानी है। त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत पर सुवत्स नामक विजय है। उसकी कुण्डला नामक राजधानी है। वहाँ तप्तजला नामक नदी है। महावत्स विजय की अपराजिता नामक राजधानी है। वैश्रवणकूट वक्षस्कार पर्वत पर वत्सावती विजय है। उसकी प्रभंकरा नामक राजधानी है। वहाँ मत्तजला नामक नदी है। रम्य विजय की अंकावती नामक राजधानी है। अंजन वक्षस्कार पर्वत पर रम्यक विजय है। उसकी पद्मावती नामक राजधानी है। वहाँ उन्मत्तजला क नामक महानदी है। रमणीय विजय की शुभा नामक राजधानी है। मातंजन वक्षस्कार पर्वत पर मंगलावती विजय है। उसकी रत्नसंचया नामक राजधानी है। ___ सीता महानदी का जैसा उत्तरी पार्श्व है, वैसा ही दक्षिणी पार्श्व है। उत्तरी शीतामुख वन की ज्यों दक्षिणी शीतामुख वन है। वक्षस्कार कूट इस प्रकार हैं-(१) त्रिकूट, (२) वैश्रवण कूट, (३) अंजन कूट, (४) मातंजन कट। [नदियाँ-(१) तप्तजला, (२) मत्तजला. तथा (३) उन्मत्तजला।] ____ विजय इस प्रकार हैं-(१) वत्स विजय, (२) सुवत्स विजय, (३) महावत्स विजय, (४) वत्सकावती विजय, (५) रम्य विजय, (६) रम्यक विजय, (७) रमणीय विजय, तथा (८) मंगलावती विजय। राजधानियाँ इस प्रकार हैं-(१) सुसीमा, (२) कुण्डला, (३) अपराजिता, (४) प्रभंकरा, 9 (५) अंकावती, (६) पद्मावती, (७) शुभा, तथा (८) रत्नसंचया। मी वत्स विजय के दक्षिण में निषध पर्वत है, उत्तर में सीता महानदी है, पूर्व में दक्षिणी शीतामुख वन है ॐ तथा पश्चिम में त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत है। उसकी सुसीमा राजधानी है, जिसका प्रमाण, वर्णन विनीता 卐के सदृश है। ॐ वत्स विजय के अनन्तर त्रिकूट पर्वत, तदनन्तर सुवत्स विजय, इसी क्रम से तप्तजला नदी, महावत्स विजय, वैश्रवण कूट वक्षस्कार पर्वत, वत्सावती विजय, मत्तजला नदी, रम्य विजय, अंजन वक्षस्कार पर्वत, रम्यक विजय, उन्मत्तजला नदी, रमणीय विजय, मातंजन वक्षस्कार पर्वत तथा मंगलावती विजय 卐 हैं। (महाविदेह का समग्र स्वरूप संलग्न चित्र में देखें।) चतुर्थ वक्षस्कार (349) Fourth Chapter 89999))))))) ))))_555558 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41465645454545454545454545454545454545 41465641 414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141 5 124. (Q.) Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent where is Vats Vijay located ? (A.) Gautam ! In the north of Nishadh Varshadhar mountain, in the south of Sita river, in the west of southern Sitamukh forest, in the east of Trikoot Vakshaskar mountain, Vatsa Vijay is located in Mahavideh region of Jambu continent. Its size is as mentioned earlier. Suseema is its capital. Suvatsa Vijay is on Trikoot Vakshaskar mountain Kundala is its capital. Taptajala river flows there. Aparajita is the capital of 4 Mahavats Vijay. Vatsavati Vijay is on Vaishravankoot Vakshaskar mountain. Prabhankara is its capital. Mattajala river flows there. Ankavati is the capital of Ramya Vijay. Ramyak Vijay is on Anjan Vakshaskar mountain. Padmavati is its capital. Unmattajala river flows here. Shubha is the capital of Ramaniya Vijay. Mangalavati Vijay is on $ Matanjan Vakshaskar mountain. Ratnasanchaya is its capital. The southern side of Sita river is similar to the northern side of it. Sitamukh forest in the south is similar to Sitamukh forest in the north 4 The Vakshaskar peaks (Koots) are as follows: (1) Trikoot, (2) Vaishravan peak, (3) Anjan peak, (4) Matanjan Koot, 4 [The rivers are :(1) Taptajala, (2) Mattajala, and (3) Unmattajala.) The Vijays are as under : (1) Vatsa Vijay, (2) Suvatsa Vijay, (3) Mahavatsa Vijay, (4) Vatsakavati Vijay, (5) Ramya Vijay, (6) Ramyak Vijay, (7) Ramaniya Vijay, and (8) Manglavati Vijay. The capitals are as under: (1) Suseema, (2) Kundala, (3) Aparajita, (4) Prabhankara, (5) Ankavati, (6) Padmavati, (7) Shubha, and (8) Ratna Sanchaya. Nishadh mountain is in the south of Vatsya Vijay, in the north is Sita river, in the east is southern Sitamukh forest and in the west is Trikoot Vakshaskar mountain. Suseema is its capital. Its size and description is similar to Vinita. Vats Vijay, Trikoot mountain and Suvatsa Vijay are in this sequence. In the same way Taptajala river, Mahavatsa Vijay, Vaishravan top, 4i Vakshaskar mountain, Vatsavati Vijay, Mattajala river, Ramya Vijay, Anjan Vakshaskar mountain, Ramyak Vijay, Unmattajala river, Ramanuja Vijay, Matanjan Vakshaskar mountain and Manglavati are in | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (350) Jambudveep Prajnapti Sutra 455 456 451544545454 41 41 41 44 45 46 $$1$951 44 455 456 457 45 454 41 45 456 457 454 455 41 41 41 44 445 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 44 45 46 47 46 45 44 445 446 447 44 45 46 47 46454 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听FF555555FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF $$$$$$$$$$$$$$$5555555555555555岁步步步步步步步步 45 a sequence, one after the other in that order. (The entire Mahavideh may 4 be seen in the attached illustration.) ॐ सौमनस वक्षस्कार पर्वत SAUMANAS VAKSHASKAR MOUNTAIN १२५. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, मन्दरस्स पब्वयस्स दाहिणपुरथिमेणं मंगलावई ॐ विजयस्स पच्चत्थिमेणं, देवकुराए पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बूद्दीवे २ महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपब्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणवित्थिण्णे, जहा मालवन्ते वक्खारपबए तहा णवरं सब्बरययामये अच्छे जाव पडिरूवे। णिसहवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि ॐ गाऊसयाइं उब्वेहेणं, सेसं तहेव सव्वं णवरं अट्ठो से, गोयमा ! सोमणसे णं वक्खारपव्वए। बहवे देवा य देवीओ अ, सोमा, सुमणा, सोमणसे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव परिवसइ, से एएणट्टेणं गोयमा ! जाव णिच्चे। * [प्र. ] सोमणसे अ वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णता ? [उ.] गोयमा ! सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धे १ सोमणसे २ वि अ, बोद्धब्बे मंगलावई कूडे ३। देवकुरु ४ विमल ५ कंचण ६, वसिडकूडे ७ अ बोद्धव्वे ॥१॥ एवं सब्बे पंचसइया कूडा, एएसिं पुच्छा दिसिविदिसाए भाणिअव्वा जहा गन्धमायणस्स, विमलकंचणकूडेसु णवरि देवयाओ सुवच्छा वच्छमित्ता य अवसिठेसु कूडेसु सरिस-णामया देवा रायहाणीओ दक्खिणेणंति। . १२५. [प्र.] भगवन् ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सौमनस नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर है ? _ [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में, ॐ मंगलावती विजय के पश्चिम में, देवकुरु के पूर्व में जम्बू द्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सौमनस म नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। जैसा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत है, वैसा ही वह है। इतनी विशेषता है-वह सर्वथा रजतमय है, उज्ज्वल है, सुन्दर है। वह निषध ॐ वर्षधर पर्वत के पास ४०० योजन ऊँचा तथा ४०० कोस जमीन में गहरा है। बाकी सारा वर्णन माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के सदृश है। . ____ गौतम ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर बहुत से सौम्य-सरल-मधुर स्वभावयुक्त, काय-कुचेष्टारहित, सुमनस्क-उत्तम भावनायुक्त, मनःकालुष्यरहित देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। उसका अधिष्ठायक परम ऋद्धिशाली सौमनस नामक देव वहाँ निवास करता है। इस कारण वह सौमनस वक्षस्कार पर्वत कहलाता है। अथवा गौतम ! उसका यह नाम नित्य है-सदा से चला आ रहा है। a5听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$$ $$ $$$ $ चतुर्थ वक्षस्कार (351) Fourth Chapter 855555555555555555 5 8 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 41 41 41 41 41 41 44 455 456 45 446 445454545454545454541414141414141445445454545454545454545454545454545 5 [. ] 1797 ! ATE ATT gefa & fanart gaz ? [3.] ich ! 3HC HIG B2 - (9) February 02, (2) FATA 5C, (3) mart 2, (8) dagar qoz, () faluant gaz, $ (&) chelat az, Fe (6) af te 21 ये सब कूट ५०० योजन ऊँचे हैं। इनका वर्णन गन्धमादन के कूटों के सदृश है। इतना अन्तर है-विमल कूट तथा कंचन कूट पर सुवत्सा एवं वत्समित्रा नामक देवियाँ रहती हैं। बाकी के कूटों पर, कूटों के जो-जो नाम हैं, उन-उन नामों के देव निवास करते हैं। मेरु के दक्षिण में उनकी राजधानियाँ हैं। 125. (Q.) Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent where is Saumanas Vakshaskar mountain located ? [A.] Gautam ! Saumanas Vakshaskar mountain of Mahavideh region in Jambu continent is located in the east of Devakuru and in the west of \ Manglavati Vijay. It is in the north of Nishadh Varshadhar mountain and in the south-east of Mandar mountain. Its length is in north-east direction and its breadth is in east-west direction. It is just like Malyavan Vakshaskar mountain. Its special characteristic is that it is i totally silvery and bright. It is 400 yojan in height near Nishadh Varshadhar mountains and 400 Kos deep. The remaining description is the same as that of Malyavan Vakshaskar mountain. Gautam ! Many gods and goddesses who are solemn, simple, goodnatured, devoid of undesirable movements, of noble mind and sublime contemplation and who have no ill thoughts, take rest and retire on Saumanas Vakshaskar mountain. A very prosperous celestial being whose name is Saumanas and who is its controller, resides there. So it is called Saumanas Vakshaskar mountain. Further his name is permanent has been in existance since beginningless time. (Q.) Reverend Sir ! How many peaks are on Saumanas Vakshaskar mountain ? (A.) Gautam ! It has seven peaks. There are : (1) Siddhayatan peak, (2) Saumanas peak, (3) Manglavati peak, (4) Devakuru peak, (5) Vimal peak, (6) Kanchan peak, and (7) Vashishth 455 456 455 456 457 45414414514614545454545454545 44 45 46 47 46 45 44 45 46 47 456 457 455 456 454545454545455 456 457 455 41 41 41 41 41 41 41 41 41 4 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 41 45 455 456 457 44 45 46 45545454 peak. All these peaks are 500 yojan high. Their description is like that of peaks of Gandhamadan. The only difference is that Suvatsa and जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 352 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 044545454545454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 45 44 445 446 4 47 444 445 446 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vatsamitra goddesses reside there. On the remaining tops the celestial beings of respective names reside. There capitals are in the south of Meru. देवकुरु DEVAKURU १२६. [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, णिसहस्स वासहर - पव्वयस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पहस्स वक्खार-पव्वयस्स पुरत्थिमेणं, सोमणस - वक्खार - पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता । पाईण-पडीणायया, उदीण - दाहिण - वित्थिण्णा । इक्कारस जोअणसहस्साइं अट्ठ य बयाले जोअण-सए दुणि अ एगूणवीसइ-भाए जोअणस्स विक्खम्भेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव अणुसज्जमाणा पहगन्धा, मिअगन्धा, अममा, सहा, तेतली, सणिचारीति ६ । १२६. [ प्र. ] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में देवकुरु नामक कुरु कहाँ पर स्थित है ? [उ.] गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, सौमनस वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत देवकुरु नामक कुरु है । वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह ११,८४२९ योजन विस्तीर्ण है। उसका और वर्णन उत्तरकुरु के समान है। वहाँ पद्मगन्ध, मृगगन्ध ममतारहित, कार्यक्षम, विशिष्ट पुण्यशाली तथा मन्द गतियुक्त - धीरे-धीरे चलने वाले छह प्रकार के मनुष्य होते हैं, जिनकी वंश-परम्परा उत्तरोत्तर चलती है। 126. [Q] Reverend Sir ! Where is Devakuru region located in Mahavideh area ? फ्र [A.] In Mahavideh area, Devakuru region is in the west of Saumanas Vakshaskar mountain and in the east of Vidyutprabh Vakshaskar mountain, it is in the north of Nishadh Varshadhar mountain and in the south of Mandar mountain. Its length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. It is 11,842 and two-nineteenth yojan in expanse. Its further description is similar to Uttarkuru. Six types of human being whose lineage is continuous reside there. They have fragrance like lotus and musk. They are devoid of attachment. They are deligent, highly meritorious and move with slow speed. चित्र-विचित्र कूट पर्वत CHITRA- VICHITRA KOOT MOUNTAIN १२७. [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! देवकुराए चित्तविचित्त - कूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठचोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं उभओ कूले एत्थ णं चित्त चतुर्थ वक्षस्कार (353) 6955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 559 55 59595 Fourth Chapter Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555 विचित्त-कूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता। एवं जच्चेव जमगपव्वयाणं सच्चेव, एएसिं रायहाणीओ दक्खिणेणंति। १२७. [प्र. ] भगवन् ! देवकुरु में चित्र-विचित्र कूट नामक दो पर्वत कहाँ पर हैं ? [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से-अन्तिम छोर से ८३४० योजन की दूरी पर शीतोदा महानदी के पूर्व-पश्चिम के अन्तराल में उसके दोनों तटों पर चित्र-विचित्र कूट नामक दो पर्वत हैं। यमक पर्वतों का जैसा वर्णन है, वैसा ही उनका है। उनके अधिष्ठायक देवों की राजधानियाँ मेरु के दक्षिण में हैं। ___ 127. [Q.] Reverend Sir ! Where are the two mountains Chitra-Vichitra Koot located in Devakuru ? __ [A.] Gautam ! 834 and four-seventh yojan from the northernmost end of Nishadh Varshadhar mountain in the east-west gap of Shitoda river, Chitra-Vichitra Koot, the two mountains, are located on its two banks. Their description is similar to that of Yamak mountains. The capitals of their controller gods are in the south of Meru. निषध द्रह NISHADH DREH १२८. [प्र.] कहि णं भन्ते ! देवकुराए २ णिसढरहे णामं दहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं पब्बयाणं उत्तरिल्लाओ चरिमन्ताओ अट्ठचोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णिसहहहे णामं दहे पण्णत्ते ? एवं जच्चेव नीलवंत-उत्तरकुरु-चन्देरावयमालवंताणं वत्तब्धया, सच्चेव णिसह-देवकुरु-सूरसुलसविज्जुप्पभाणं णेअव्वा, रायहाणीओ दक्खिणेणंति। १२८. [प्र. ] भगवन् ! देवकुरु में निषध द्रह नामक द्रह कहाँ पर है ? _[उ. ] गौतम ! चित्र-विचित्र कूट नामक पर्वतों के उत्तरी चरमान्त से ८३४० योजन की दूरी पर सीतोदा महानदी के ठीक मध्य भाग में निषध द्रह नामक द्रह है। नीलवान्, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत तथा माल्यवान्-इन द्रहों की जो वक्तव्यता है, वही निषध, देवकुरु, सूर, सुलस तथा विद्युत्प्रभ नामक द्रहों की समझनी चाहिए। उनके अधिष्ठायक देवों की राजधानियाँ मेरु के दक्षिण में हैं। 128. [Q.] Reverend Sir ! Where is Nishadh lake located in Devkuru? [Ans.] Gautam ! In the very middle of Sitoda river, at a distance of 834 and four-seventh yojan from northern end of Chitra Vichitra Koot mountain, there is Nishadh lake. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (354) Jambudveep Prajnapti Sutra 9555555555555555ऊऊऊ55555555555555555 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐55 ))))))))))))))))))) The description of Nishadh, Devkuru, Soor, Sulas and Vidyutprabh lakes may be understood as similar to that of Neelavan, Uttarkuru, Chandra, Airavat and Malyavan lakes. The capital cities of the ruling gods of these lakes are in the south of Meru. कूटशाल्मलीपीठ KOOT SHALMALI PEETH १२९. [प्र.] कहि णं भन्ते ! देवकुराए देवकुरोए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं, णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पभस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, सीओआए महाणईए पच्चत्थिमेणं देवकुरुपच्चत्थिमद्धस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं देवकुराए कुराए कूडसामलीपेढे णामं पेढे पण्णत्ते। एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्बया सच्चेव सामलीए वि भाणिअव्वा णामविहूणा, गरुलदेवे, रायहाणी दक्खिणेणं, अवसिटं तं चेव जाव देवकुरु । इत्थ देवे पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ देवकुरा २, अदुत्तरं च णं देवकुराए.। १२९. [प्र. ] भगवन् ! देवकुरु में कूटशाल्मलीपीठ-शाल्मली या सेमल वृक्ष के आकार में शिखर रूप पीठ कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, सीतोदा महानदी के पश्चिम में देवकुरु के पश्चिमार्ध के ठीक बीच में कूटशाल्मलीपीठ नामक पीठ है। ___ जम्बू सुदर्शना की जैसी वक्तव्यता है, वैसी ही कूटशाल्मलीपीठ की समझनी चाहिए। जम्बू सुदर्शना के नाम यहाँ नहीं लेने होंगे। गरुड़ इसका अधिष्ठायक देव है। राजधानी मेरु के दक्षिण में है। बाकी का वर्णन जम्बू सुदर्शना जैसा है। यहाँ एक पल्योपम स्थिति वाला देव निवास करता है। अतः गौतम ! यह देवकुरु कहा जाता है। अथवा देवकुरु नाम शाश्वत है। ___129. [Q.] Reverend Sir ! In Devkuru where is the platform (peeth) named Koot Shalmali or the peak which is of the shape of Shalmali or Semal tree ? (Ans.] Gautam ! Koot Shalmali Peeth is exactly in the middle of the western half of Devkuru. It is in the east of Vidyutaprabh Vakshaskar mountain and in the west of Sitoda river. Further it is in the south-west of Mandar mountain and in the north of Nishadh Varshadhar mountain. The description of Koot Shalmali Peeth may be understood similar to that Jambu Sudarshna. Its master god is Garud. Its capital is in the south of Meru. The remaining description is the same as that of Jambu Sudarshana. Here a god whose life-span is one palyopam resides. That is why, Gautam ! It is called Devkuru. This name Devkuru is permanent. चतुर्थ वक्षस्कार (356) Fourth Chapter - Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियुत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत VIDYUTPRABH VAKSHASKAR MOUNTAIN १३०. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते? [उ. ] गोयमा ! णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिण-पच्चत्थिमेणं, देवकुराए पच्चत्थिमेणं, पम्हस्स विजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विजुप्पभे वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवन्ते णवरि सवतवणिज्जमए अच्छे जाव देवा आसयन्ति। [प्र. ] विज्जुप्पभे णं भन्ते ! वक्खारपब्बए कइ कूडा पण्णत्ता ? __ [उ. ] गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १, विज्जुप्पभकूडे २, देवकुरुकूडे ३, पम्हकूडे ४, कणगकूडे ५, सोवत्थिअकूडे ६, सीओआकूडे ७, सयज्जलकूडे ८, हरिकूडे ९। सिद्धे अ विज्जुणामे, देवकुरु पम्हकणगसोवत्थी। सीओया य सयज्जलहरिकूडे चेव बोद्धब्बे ॥१॥ एए हरिकूडवज्जा पंचसइआ णेअव्वा। एएसिं कूडाणं पुच्छा दिसिविदिसाओ अब्बाओ जहा मालवन्तस्स। हरिस्सहकूडे तह चेव हरिकूडे रायहाणी जह चेव दाहिणेणं चमरचंचा रायहाणी तह अब्बा, कणगसोवत्थिअकूडेसु वारिसेण-बलाहयाओ दो देवयाओ, अवसिठेसु कूडेसु कूडसरिसणामया देवा रायहाणीओ दाहिणेणं। [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-विज्जुप्पभे वक्खारपब्बए २ ? [उ. ] गोयमा ! विज्जुप्पभे णं वक्खारपब्बए विज्जुमिव सब्बओ समन्ता ओभासेइ, उज्जोवेइ, पभासइ, विजुप्पभे य इत्थ देवे पलिओवमट्टिइए जाव परिवसइ, से एएणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ विज्जुप्पभे २, अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे। १३०. [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ है? [उ. ] गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में, देवकुरु के पश्चिम में तथा पद्म विजय के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत है। वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है। उसका शेष वर्णन माल्यवान् पर्वत जैसा है। इतनी विशेषता है-वह सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है। वह स्वच्छ है-देदीप्यमान है, सुन्दर है। देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। [प्र. ] भगवन् ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट हैं ? [उ. ] गौतम ! उसके नौ कूट हैं-१. सिद्धायतनकूट, २. विद्युत्प्रभकूट, ३. देवकुरुकूट, ४. पक्ष्मकूट, ५. कनककूट, ६. सौवत्सिककूट, ७. सीतोदाकूट, ८. शतज्वलकूट तथा ९. हरिकूट। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (356) Jambudveep Prajnapti Sutra कम 55555555 9555555555555555 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1555555555559555555 5 55555555 5 5 5 5 5953 Le Le Le Le LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LIE LIE LIE LIE F हरिकूट के अतिरिक्त सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इनकी दिशा - विदिशाओं में 5 अवस्थिति इत्यादि सारा वर्णन माल्यवान् पर्वत जैसा है। हरिकूट हरिस्सहकूट सदृश है। जैसे दक्षिण में चमरचंचा राजधानी है, वैसे ही दक्षिण में इसकी राजधानी है। कनककूट तथा सौवत्सिककूट में वारिषेणा एवं बलाहका नामक दो देवियाँ - दिक्कुमारिकाएँ निवास करती हैं। बाकी के कूटों में कूटसदृश नामयुक्त देव निवास करते हैं। उनकी राजधानियाँ मेरु के दक्षिण में हैं। [प्र.] भगवन् ! वह विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत क्यों कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत विद्युत की ज्यों - बिजली की तरह सब ओर से अवभासित ५ होता है, उद्योतित होता है, प्रभासित होता है। वहाँ पल्योपम की स्थिति वाला विद्युत्प्रभ नामक देव निवास करता है, अतः वह पर्वत विद्युत्प्रभ कहलाता है । अथवा गौतम ! उसका यह नाम नित्य- शाश्वत है। 130.[Q.] Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu island, where is Vidyutprabh Vakshaskar mountain located? [Q] Reverend Sir! Why is it called Vidyutprabh Vakshaskar mountain ? y [Ans.] Gautam ! Vidyutprabh Vakshaskar mountain of Mahavideh region in Jambu continent is located in the east of Padma Vijay and in the west of Devkuru. Further it is in the north of Nishadh Varshadhar mountain and in the south-west of Mandar mountain. Its length is in north-south. The remaining description is similar to that of Malyavan y mountain. Its speciality is that it is completely golden, clean and beautiful. The gods and goddesses retire here and take rest. Y Y चतुर्थ वक्षस्कार 130. [Q.] Reverend Sir ! How many are the peaks of Vidyutprabh Vakshaskar mountain. [Ans.] Gautam ! It has nine peaks (Koots). They are-(1) Siddhayatan peak, (2) Vidyutprabh peak, (3) Devkuru peak, ( 4 ) Pakshma peak, ( 5 ) Kanak peak, (6) Sauvatsik peak, (7) Sitoda peak, (8) Shatjval peak, and 5 (9) Hari peak. ५ All the peaks except Hari peak are each 500 yojan high. The entire 또 description of their locations in the directions and sub-directions and the like is same as Malyavan mountain. It is like Hari and Harissah peaks. Just as Chamarchancha its capital is in the south. At Kanak Koot and Sauvatsik Root, Varishena and Balahaka, two Dik Kumaris reside. On other tops, the celestial beings whose names are the same as those of respective Koots (peaks) reside. There capital cities are in the south of F Meru. (357) Y *********மிமிமிமிமிததமிழ***************** Fourth Chapter בתבבבבבבבבבבבה y 4 ५ ५ ५ ५ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת 85555555555555555555555555555555555 15 [Ans.) Vidyutprabh Vakshaskar mountain shines like electricity from all sides and appears like it. A celestial being whose name is y Vidyutprabh and whose life-span is one palyopam resides there. So it is y called Vidyutprabh mountain. Further this name is permanent and everlasting. पक्ष्मादि १६ विजय SIXTEEN VIAYS-PAKSHIM AND OTHERS १३१. एवं पम्हे विजए, अस्सपुरा रायहाणी, अंकावई वक्खारपव्वए १, सुपम्हे विजए, सीहपुरा ऊ रायहाणी, खीरोदा महाणई २, महापम्हे विजए, महापुरा रायहाणी, पम्हावई वक्खारपब्बए ३, पम्हगावई । विजए, विजयपुरा रायहाणी, सीअसोआ महाणई ४, संखे विजए, अवराइआ रायहाणी, आसीविसे । वक्खारपव्वए ५, कुमुदे विजए अरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई ६, णलिणे विजए, असोगा। रायहाणी, सुहावहे वक्खारपब्बए ७, णलिणावई विजए, वीयसोगा रायहाणी ८, दाहिणिल्ले । सीओआमुहवणसंडे, उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणिअब्वे जहा सीआए। . ___ वप्पे विजए, विजया रायहाणी, चन्दे वक्खारपब्वे १, सुवप्पे विजए, वेजयन्ती रायहाणी ओम्मिमालिणी णई २, महावप्पे विजए, जयन्ती रायहाणी, सूरे वक्खारपब्बए ३, वप्पावई विजए, , अपराइआ रायहाणी, फेणमालिणी गई ४, वग्गू विजए चक्कपुरा रायहाणी, णागे वक्खारपब्बए ५, सुवग्गू विजए, खग्गपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई ६, गन्धिले विजए अवज्झा रायहाणी, देवे ! वक्खारपब्बए ७, गन्धिलावई विजए अओज्झा रायहाणी ८। ____ एवं मन्दरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमिल्लं पासं भाणिअव्वं, तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिणिल्ले णं । कूले इमे विजया, तंजहा १. पम्हे, २. सुपम्हे, ३. महापम्हे, चउत्थे, ४. पम्हगावई। ५. संखे, ६. कुमुए, ७. णलिणे, अट्ठमे, ८. णलिणावई ॥१॥ इमाओ रायहाणीओ, तं जहा १. आसपुरा, २. सीहपुरा, ३. महापुरा चेव हवइ, ४. विजयपुरा। ५. अवराइआ य, ६. अरया, ७. असोग तह, ८. वीअसोगा य॥२॥ इमे वक्खारा, तं जहा-१. अंके, २. पम्हे, ३. आसीविसे, ४. सुहावहे, एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कूडसरिस-णामया भाणिअव्वा, दिसा विदिसाओ अ भाणिअव्वाओ, सीओआ-मुहवणं च भाणिअब. सीओआए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च। सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया, तं जहा १. वप्पे, २. सुवप्पे, ३. महावप्पे, चउत्थे, ४. वप्पयावई। ५. वग्गू अ, ६. सुवग्गू अ, ७. गन्धिले, ८. गन्धिलावई ॥१॥ נ ת ת ת ת 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F 5 ה ה ת ת ת ת ת ת ת ת ת ה ת ת ת ת ת ת ת ת जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (358) Jambudveep Prajnapti Sutra ה ה ה ה 9545555555555555555555555555558 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफ 5 फ्र 卐 रायहाणीओ इमाओ, तं जहा १. विजया, २. वेजयन्ती, ३. जयन्ती, ४. अपराजिआ । ५. चक्कपुरा, ६. खग्गपुरा हवइ, ७. अवज्झा, ८. अउज्झा य ॥ २ ॥ इमे वक्खारा, तं जहा - चन्दपव्यए १, सूरपव्वए २, नागपव्वए ३, देवपव्वए ४ । इमाओ ईओ आए महाणईए दाहिणिल्ले कूले- खीरोआ सीहसोआ अंतरवाहिणीओ गईओ ३, उम्मिमालिणी १, फेणमालिणी २, गम्भीरमालिणी ३, उत्तरिल्लविजयाणन्तराउत्ति । इत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामया भाणिअव्वा, इमे दो दो कूडा अवद्विआ, तं जहा- सिद्धाययणकूडे पव्वयसरिसणामकूडे । उत्तरी सीतोदामुख वनखण्ड में (१) वप्र विजय है, विजया राजधानी है, चन्द्र वक्षस्कार पर्वत है। (२) सुवप्र विजय है, वैजयन्ती राजधानी है, ऊर्मिमालिनी नदी है । (३) महावप्र विजय है, जयन्ती राजधानी है, सूर वक्षस्कार पर्वत है । (४) वप्रावती विजय है, अपराजिता राजधानी है, फेनमालिनी नदी है । (५) वल्गु विजय है, चक्रपुरी राजधानी है, नाग वक्षस्कार पर्वत है। (६) सुवल्गु विजय है, खड्गपुरी राजधानी है, गम्भीरमालिनी अन्तरनदी है । (७) गन्धिल विजय है, अवध्या राजधानी है, देव वक्षस्कार पर्वत है । (८) गन्धिलावती विजय है, अयोध्या राजधानी है। 553 १३१. (१) पक्ष्म विजय है, अश्वपुरी राजधानी है, अंकावती वक्षस्कार पर्वत है । (२) सुपक्ष्म विजय है, सिंहपुरी राजधानी है, क्षीरोदा महानदी है । (३) महापक्ष्म विजय है, महापुरी राजधानी है, पक्ष्मावती वक्षस्कार पर्वत है । (४) पक्ष्मकावती विजय है, विजयपुरी राजधानी है, शीतस्रोता महानदी है। (५) शंख विजय है, अपराजिता राजधानी है, आशीविष वक्षस्कार पर्वत है। (६) कुमुद विजय है, ५ अरजा राजधानी है, अन्तर्वाहिनी महानदी है । (७) नलिन विजय है, अशोका राजधानी है, सुखावह वक्षस्कार पर्वत है । (८) नलिनावती ( सलिलावती) विजय है, वीताशोका राजधानी है। दाक्षिणात्य शीतोदामुख वनखण्ड है। इसी की ज्यों उत्तरी सीतोदामुख वनखण्ड है। f वक्षस्कार पर्वत इस प्रकार हैं- ( १ ) अंक, (२) पक्ष्म, (३) आशीविष, तथा ( ४ ) सुखावह। इस # क्रमानुरूप कूट सदृश नामयुक्त दो-दो विजय, दिशा - विदिशाएँ, सीतोदा का दक्षिणवर्ती मुखवन तथा 5 उत्तरवर्ती मुखवन - ये सब समझ लेने चाहिए। (१) पक्ष्म, (२) सुपक्ष्म, (३) महापक्ष्म, (४) पक्ष्मकावती, (५) शंख, (६) कुमुद, (७) नलिन, तथा (८) नलिनावती । राजधानियाँ इस प्रकार हैं- ( १ ) अश्वपुरी, (२) सिंहपुरी, (३) महापुरी, (४) विजयपुरी, (५) अपराजिता, (६) अरजा, (७) अशोका, तथा (८) वीतशोका । 4 उक्त प्रकार मन्दर पर्वत के दक्षिणी पार्श्व का भाग का कथन कर लेना चाहिए। वह वैसा ही है। वहाँ सीतोदा नदी के दक्षिणी तट पर ये विजय हैं फ्र सीतोदा के उत्तरी पार्श्व में ये विजय हैं- ( १ ) वप्र, (२) सुवप्र, (३) महावप्र, (४) वप्रकावती (वप्रावती), (५) वल्गु, (६) सुवल्गु, (७) गन्धिल, तथा (८) गन्धिलावती । चतुर्थ वक्षस्कार (359) 5 5 5 5 תתתתתתתתתתתתם 또 ५ Fourth Chapter ५ फ्र फ्र फ्र Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ))) )) )) ) ))))))))))))5555555555555558 ) ) 555555555555555555555555555555555555 卐 राजधानियाँ इस प्रकार हैं-(१) विजया, (२) वैजयन्ती, (३) जयन्ती, (४) अपराजिता, (५) चक्रपुरी, (६) खड्गपुरी, (७) अवध्या, तथा (८) अयोध्या। ॐ वक्षस्कार पर्वत इस प्रकार हैं-(१) चन्द्र पर्वत, (२) सूर पर्वत, (३) नाग पर्वत, तथा (४) देव पर्वत। क्षीरोदा तथा शीतस्रोता नामक नदियाँ सीतोदा महानदी के दक्षिणी तट पर अन्तरवाहिनी नदियाँ हैं। ऊर्मिमालिनी, फेनमालिनी तथा गम्भीरमालिनी सीतोदा महानदी के उत्तर दिग्वर्ती विजयों की ॐ अन्तरवाहिनी नदियाँ हैं। इस क्रम में दो-दो कूट-पर्वत-शिखर अपने-अपने विजय के अनुरूप कथनीय हैं। वे स्थिर हैं, जैसे-सिद्धायतन कूट तथा वक्षस्कार पर्वत-सदृश नामयुक्त कूट। 131. (1) Pakshma is a Vijay. Its capital is Ashvapuri. Ankavati is Vakshaskar mountian. (2) Supakshma is a Vijay, Simhapuri is its capital, Ksheeroda is the river. (3) Mahapakshma is Vijay, Mahapuri is capital, Pakshmavati is Vakshaskar mountain. (4) Pakshmakavati is a Vijay, Vijaypuri is capital, Sheetasrota is the great river. (5) Shankh is a Vijay, Aparajita is its capital, Aashivish is Vakshaskar mountain. (6) Kumud is a Vijay, Araja is capital, Antaravahini is the river. ___(7) Nalin is a Vijay, Ashoka is capital, Sukhavah is Vakshaskar mountain. (8) Nalinavati (Salilavati) is a Vijay, Veetashoka is capital, Dakshinatya Seetodamukh is the forest. Similar is northern Seetodamukh forest. In northern Seetodamukh forest region(1) Vapra is a Vijay, Vijaya is capital, Chandra is Vakshaskar mountain. ____ (2) Suvapra is a Vijay, Vaijayanti is capital, Urmi-malini is a river. (3) Mahavapra is a Vijay, Jayanti is capital, Soor is Vakshaskar mountain. (4) Vapravati is a Vijay, Aparajita is capital, Phenamalini is a river. (5) Valgu is a Vijay, Chakrapuri is capital, Nag is Vakshaskar mountain. $i (6) Suvalgu is a Vijay, Khadgapuri is capital, Gambhirmalini is the inner river. ) )) )) )) )) )))))) ))) )) )) )) 5555555554) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (360) ज) Jambudveep Prajnapti Sutra 8959555555555)))))))))))))))) Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2441456441451461454545454545454545454545454 455 456 457 451414141414141414 4 (7) Gandhil is a Vijay, Avadhya is capital, Devis Vakshaskar $ mountain. (8) Gandhilavati is a Vijay, Ayodhya is capital, Similar description may be understood of Southern side of Mandar mountain. There the following Vijays are on the southern bank of Sitoda river. (1) Pakshma, (2) Supakshma, (3) Mahapakshma, (4) Pakshmakavati, i (5) Shankh, (6) Kumud, (7) Nalin, and (8) Nalinavati. There capitals are (1) Ashvapuri, (2) Simhapuri, (3) Mahapuri, (4) Vijaypuri, (5) Aparajita, (6) Araja, (7) Ashoka, and (8) Veetashoka. Vakshaskar mountains are—(1) Anka, (2) Pakshma, (3) Ashivish and (4) Sukhavati. In this order there are two Vijayas each bearing the 4 names of peaks. Other details like directions, sub-directions, forest at the southern edge and northern edge of Sitoda river should be understood as before. The vijayas in the north of Sitoda river are—(1) Vapra, (2) Suvapra, (3) Mahavapra, (4) Vaprakavati, (5) Valgu, (6) Suvalgu, (7) Gandhil and (8) Gandhilavats. The capital cities are—(1) Vijaya, (2) Vaijayanti, (3) Jayanti, (4) Aparajita, (5) Chakrapuri, (6) Khadgapuri, (7) Avadhya and (8) Ayodhya. Vakshaskar mountains are--(1) Chandra mountain, (2) Surya mountain, (3) Naag mountain and (4) Deva mountain. Kshiroda and Sheetasrota rivers are inner-following rivers on the southern side of Sitoda great river. Urmi malini, Fena malini and Gambhirmalini are the inner-following rivers of the Vijayas to the north of Sitoda great river. In this sequence two peaks each according to their respective Vijayas are to be stated. They are permanent just like Siddhayatan Koot peaks bearing names of Vakshaskar mountains. 41 41 41 41 41 41 41 44 45 46 45 46 47 46 45 46 47 46 45 44 45 46 47 456 457 454 455 456 457 455 45 456 457 456 457 451 455 456 457 454 455 456 457 45 44 445 446 44 45 46 47 46 45 44 45 मन्दर पर्वत MANDAR MOUNTAIN 937.[ 9. 9 ] are of spat! Joggia da Enfac3 are propri na9 younet ? [उ.] गोयमा ! उत्तरकुराए दक्खिणेणं, देवकुराए उत्तरेणं, पुबविदेहस्स वासस्स पच्चत्थिमेणं, म अवरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं, जम्बुद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरे णामं पव्वए पण्णत्ते। णवणउतिजोअणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं एगं जोअणसहस्सं उबेहेणं, मूले दसजोअणसहस्साइं चतुर्थ वक्षस्कार ( 381 ) Fourth Chapter Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब卐555555555555555555555555555555555555555555555555 5555555555555555555555555555555555555 णवई च जोअणाई दस य एगारसभाए जोयणस्सु विक्खम्भेणं, धरणिअले दस जोअणसहस्साई विक्खम्भेणं, तयणन्तरं च णं मायाए २ परिहायमाणे परिहायमाणे उवरितले एगं जोअणसहस्सं . विक्खंभेणं। मूले इक्कत्तीसं जोअणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोअणसए तिण्णि अ एगारसभाए जोअणस्स म परिक्खेवेणं, धरणिअले एकत्तीसं जोअणसहस्साई छच्च तेवीसे जोअणसए परिक्खेवेणं उवरितले तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च नावढं जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं। मूले वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, म उवरिं तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सबरयणामए, अच्छे, सण्हेत्ति। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेण सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते वण्णओत्ति। म १३२. [प्र. १ ] जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में मन्दर नामक पर्वत कहाँ पर स्थित है? [उ. ] गौतम ! उत्तरकुरु के दक्षिण में, देवकुरु के उत्तर में, पूर्व विदेह के पश्चिम में और पश्चिम , 卐 विदेह के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उसके बीचोंबीच मन्दर नामक पर्वत है। वह ९९,००० योजन 5 ऊँचा है, १,००० योजन जमीन में गहरा (सर्व एक लाख योजन का) है। वह मूल में १०,०९०१० - * योजन तथा भूमितल पर १०,००० योजन चौड़ा है। उसके बाद वह चौड़ाई की मात्रा में क्रमशः ॐ ॐ घटता-घटता ऊपर के तल पर १,००० योजन चौड़ा रह जाता है। उसकी परिधि मूल में ३१,९१०३ योजन, भूमितल पर ३१,६२३ योजन तथा ऊपरी तल पर कुछ अधिक ३,१६२ योजन है। वह मूल में ॐ चौड़ा, मध्य में सँकड़ा तथा ऊपर पतला है। उसका आकार गाय की पूँछ के आकार जैसा है। वह म सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, सुकोमल है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक बनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। उसका विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है। 4i 132. (Q. 1] Reverend Sir ! In Mahavideh region of Jambu continent 5 where is Mandar mountain ? (Ans.) In the south of Devkuru, in the north of Uttarkuru, in the west 4 of eastern Videh and in the east of western Videh at the very middle there is Mandar mountain in Jambu continent. It is 99,000 yojan high, 卐 1,000 yojan deep in the earth (In all it in 1,00,000 yojan). At they foundation, it is 1,00,090 yojan wide, at the surface of the earth it is 10,000 yojan wide and at the top it is only 1,000 yojan wide as its width gradually decreases from bottom to the top. Its circumference is $ 31,910, yojan at the foundation, 31,623 yojan at the surface of the earth 45 and a little more than 3,162 yojan at the top. It is wide at the 4 foundation, a little narrow in the middle and very narrow at the top. Its shape is like the tail of a cow. It is all jewelled, clean and smooth. It is surrounded by a lotus vedika and a forest from all sides. The detailed description is as mentioned earlier. B5555555555555555555555555555555555555555555555555 भद्रसाल आदि वन BHADRASAL FOREST AND OTHERS १३२. [प्र. २ ] मन्दरे णं भंते ! पव्वए कइ वणा पण्णत्ता ? | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (362) Jambudveep Prajnapti Sutra ज म ))) ))))))))) ) )))5558 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555 ॐ [उ. ] गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा-भद्दसालवणे १, णन्दणवणे २, सोमणसवणे ३, पंडगवणे ४। म [प्र. ] कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मन्दरे पब्बए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते। पाईणपडीणायए, ॐ उदणदाहिणवित्थिण्णे, सोमणसविज्जुप्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्खारपब्बएहिं सीआसोओआहि अज महाणईहिं अट्ठभागपविभत्ते। मन्दरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं बावीसं बावीसं जोअणसहस्साई आयामेणं, उत्तरदाहिणेणं अद्धाइज्जाई अद्धाइज्जाइं जोअणसयाई विक्खम्भेणंति। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते। दुण्हवि वण्णओ भाणिअब्बो, किण्हे , किण्होभासे जाव देवा आसयन्ति सयन्ति। मन्दरस्स णं पब्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे ॐ सिद्धाययणे पण्णत्ते। पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खम्भेणं, छत्तीसं जोअणाई उद्धं ॐ उच्चत्तेणं, अणेगखम्भसयसण्णिविढे वण्णओ। तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता। ते णं दारा अट्ठ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोषणाई विक्खम्भेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेआ + वरकणगथूभिआगा जाव वणमालाओ भूमिभागो अ भाणिअब्बो। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता। अट्ठजोअणाई आयामविक्खम्भेणं, + चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सव्वरयणामई, अच्छा। तीसे णं मणिपेढिआए उवरिं देवच्छन्दए, अट्ठजोअणाई आयामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं अट्ठजोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ देवच्छन्दगस्स जाव म धूवकडुच्छुआणं इति। ___मन्दरस्स णं पव्वयस्स दाहिणेणं भद्दसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसिंपि मन्दरस्स, भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणिअव्वा। मन्दरस्स णं पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोअणाइं ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि णन्दापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पउमा १, पउमप्पभा २, चेव कुमुदा ३, कुमुदप्पभा ४, ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खम्भेणं, मदंसजोषणाई उव्वेहेणं, वण्णओ वेइआवणसंडाणं भाणिअब्बो, चउद्दिसिं तोरणा जाव तासिं णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो पासायडिंसए पण्णत्ते। पंचजोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धाइज्जाइं जोअणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासायवडिंसओ भाणिअब्बो। ___ मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरथिमेणं पुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा, णलिणा, उप्पला, उप्पलुज्जला तं चेव पमाणं, मझे पासायवडिसओ सक्कस्स सपरिवारो। तेणं चेव पमाणेणं दाहिणपच्चत्थिमेणवि पुक्खरिणीओ म भिंगा भिंगनिभा चेव, अंजणा अंजणप्पभा। पासायवडिंसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवारं। उत्तरपुरथिमेणं + पुखरिणीओ-सिरिकंता १, सिरिचन्दा २, सिरिमहिआ ३, चेव सिरिणिलया ४। पासायवडिंसओ म ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारंति। | चतुर्थ वक्षस्कार (363) Fourth Chapter 8955555555555555555555555 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐555555555555555)))))))))))))))))55555555555 १३२. [प्र. २ ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर कितने वन हैं ? [उ. ] गौतम ! वहाँ चार वन हैं-(१) भद्रशाल वन, (२) नन्दन वन, (३) सौमनस वन, तथा ॥ (४) पंडक वन। [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन नामक वन कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत पर उसके भूमिभाग पर भद्रशाल नामक वन है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा 3 एवं उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन तथा माल्यवान् नामक वक्षस्कार पर्वतों के के द्वारा सीता तथा सीतोदा नामक महानदियों द्वारा आठ भागों में विभक्त है। वह मन्दर पर्वत के 5 पूर्व-पश्चिम बाईस-बाईस हजार योजन लम्बा है, उत्तर-दक्षिण अढ़ाई सौ-अढ़ाई सौ योजन चौड़ा है। ॐ वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है, दोनों का वर्णन 卐 पूर्ववत् है। वह काले, नीले पत्तों से आच्छन्न है, वैसी आभा से युक्त है। देव-देवियाँ वहाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम लेते हैं-इत्यादि वर्णन पूर्ववत् है। म मन्दर पर्वत के पूर्व में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर एक विशाल सिद्धायतन आता है। वह पचास योजन लम्बा है, पच्चीस योजन चौड़ा है तथा छत्तीस योजन ऊँचा है। वह सैकड़ों खम्भों पर ॐ टिका है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार बतलाये गये हैं। वे द्वार + आठ योजन ऊँचे तथा चार योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश मार्ग भी उतने ही हैं। उनके शिखर श्वेत हैं, उत्तम स्वर्ण निर्मित हैं। यहाँ से सम्बद्ध वनमाला, भूमिभाग आदि का सारा वर्णन पूर्वानुसार है। म उसके बीचोंबीच एक विशाल मणिपीठिका है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, उज्ज्वल है। उस मणिपीठिका के ऊपर देवच्छन्दक-देवासन है। वह आठ ॐ योजन लम्बा-चौड़ा है। वह कुछ अधिक आठ योजन ऊँचा है। जिनप्रतिमा, देवच्छन्दक, धूपदान आदि का वर्णन पूर्ववत् है। ॐ मन्दर पर्वत के दक्षिण में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर वहाँ उस (मन्दर) की चारों म दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं। मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा तथा कुमुदप्रभा नामक चार पुष्करिणियाँ आती हैं। वे पचास ॐ योजन लम्बी, पच्चीस योजन चौड़ी तथा दस योजन जमीन में गहरी हैं। वहाँ पद्मवरवेदिका, वनखण्ड म तथा तोरण द्वार आदि का वर्णन पूर्वानुसार है। ॐ उन पुष्करिणियों के बीच में देवराज ईशानेन्द्र का उत्तम प्रासाद है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा और + अढ़ाई सौ योजन चौड़ा है। सम्बद्ध सामग्री सहित उस प्रासाद का विस्तृत वर्णन पूर्वानुसार है। .... मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला तथा उत्पलोज्ज्वला नामक पुष्करिणियाँ हैं, उनका प्रमाण पूर्वानुसार है। उनके बीच में उत्तम प्रासाद हैं। देवराज शक्रेन्द्र वहाँ सपरिवार रहता है। मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में भुंगा, भृगनिभा, अंजना एवं ऊ अंजनप्रभा नामक पुष्करिणियाँ हैं, जिनका प्रमाण, विस्तार पूर्वानुसार है। शक्रेन्द्र वहाँ का अधिष्ठायक ॥ म देव है। सिंहासन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् है। मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में श्रीकान्ता, | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (364) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 41 455 456 457 458 45 46 47 47 46 454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545 45 455 456 457 454 455 41 41 41 41 41 414 415 414141414141414141414141414545454545 ॐ श्रीचन्द्रा, श्रीमहिता तथा श्रीनिलया नामक पुष्करिणियाँ हैं। बीच में उत्तम प्रासाद हैं। वहाँ ईशानेन्द्र देव ॐ निवास करता है। सिंहासन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्वानुसार है। 132. IQ. 2] Reverend Sir ! How many are the forests on Mandar Mountain ? (Ans.] Gautam ! There are four forests namely—(1) Bhadrashal forest, (2) Nandan forest, (3) Saumanas forest, and (4) Pandak forest. 4 (Q.) Reverend Sir ! Where is Bhadrashal forest on Mandar mounntain ? (Ans.) Gautam ! On Mandar mountain, Bhadrashal forest is in its valley. It is long in east-west and wide in north-south direction. It is 4 divided in eight parts by Saumanas, Vidyutprabh, Gandhamadan and 41 Malyavan Vakshaskar mountain and Sita and Sitoda rivers. It is 22,000 41 yojan long east and west of Mandar mountain and 250 yojan in north as well as south. It is surrounded by a lotus Vedika and forest from all sides. The description of both is as mentioned earlier. It looks as if covered with black and blue leaves in respect of its aura. Gods and goddesses its retire and take rest here as described earlier. In the east of Mandar mountain when one goes 50 yojan in Bhadrashal forest, there is a temple (Siddhayatan). It is 50 yojan long and 25 yojan wide and 36 yojan high. It stands on hundreds of pillars. Its 4. description is as mentioned earlier. There are three gates of the Siddhayatan in three sides. They are 8 yojan high and 4 yojan wide. The passage of entrance is also the same. Their top is white and made of best gold. The description of the rows of trees and the land is the same as mentioned earlier. In its middle, there is a large platform. It is 8 yojan long and wide, 4 yojan deep and totally jewelled, clean and bright. On that platform there is a seat 8 yojan long and 8 yojan wide and a little more than 8 yojan high for the idol. The description of the idol of Tirthankar, the seat for the idol and of incense pot is as mentioned earlier. In the south of Mandar mountain 50 yojan inside Bhadrashal forest there are four temples on four sides. In north-east of Mandar mountain 50 yojan inside Bhadrashal forest, there are four lakes namely Padma, Padmaprabha, Kumud and Kumudprabha. They are 50 yojan long, 25 4 yojan wide and 10 yojan deep in the ground. There the description of 4 lotus Vedika, forest and the arched gate and the like is as mentioned earlier. चतुर्थ वक्षस्कार ( 365 ) Fourth Chapter 45454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 45455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 456 457 455 456 457 458 45 45 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45455555550 )) 555555555$$$$$$$ $$$$$步步步步步步步步步步日 4 In the middle of those lakes there is a grand palace of Ishanendra. It $1 is 500 yojan high and 250 yojan wide. The detailed description of that 4 palace and the connected material is as mentioned earlier. In the south-east of Mandar mountain are Utpalgulma, Nalina, Utpala and Utpalojvala lakes, their, size is as mentioned earlier. There are grand palaces in them. Shakrendra, the god of first heaven, resides there with his family. In the south-west of Mandar mountain there are 46 four lakes namely Bhringa, Bhringanibha, Anjana and Anjanprabha. Their size and extent is as mentioned earlier. Shakrendra is the ruling god of that area. The entire description upto the seat is as mentioned 41 earlier. In the north-east of Mandar mountain there are four lakes namely Shrikanta, Shrichandra, Shrimahita and Shrinilaya lakes. In them there are grand palaces. Ishanendra resides there. The entire description upto the seat is as mentioned earlier. दिशाहस्तिकूट पर्वत DISHAHASTIKOOT MOUNTAIN १३२. [प्र. ३ ] मन्दरे णं भन्ते ! पव्वए भद्दसालवणे कइ दिसाहथिकूडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठ दिसाहथिकूडा पण्णत्ता, तं जहा पउमुत्तरे १, णीलवन्ते २, सुहत्थी ३, अंजणागिरी ४। कुमुदे अ ५, पलासे अ६, वडिंसे ७, रोअणागिरी ८॥१॥ [प्र.] कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए भद्दसालवणे पउमुत्तरे णामं दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! मन्दरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं, पुरथिमिल्लाए सीआए उत्तरेणं एत्थ णं 5 पउमुत्तरे णाम दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते। पंचजोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, पंचगाउसयाइं उब्वेहेणं एवं म विक्खम्भपरिक्खेवो भाणिअब्बो चुल्लहिमवन्तसरिसो, पासायाण य तं चेव पउमुत्तरो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं १। म एवं णीलवन्तदिसाहथिकूडे मन्दरस्स दाहिणपुरथिमेणं पुरथिमिल्लाए सीआए दक्खिणेणं। एअस्सवि नीलवन्तो देवो, रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं २। ___एवं सुहत्थिदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरथिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरत्थिमेणं। एअस्सवि ॐ सुहत्थी देवो, रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं ३। ___एवं चेव अंजणागिरिदिसाहत्थिकूडे मन्दरस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं, दक्खिणिल्लाए सीओआए ॐ पच्चत्थिमेणं, एअस्सवि अंजणगिरी देवो, रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं ४। एवं कुमुदे विदिसाहत्थिकूडे मन्दरस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं. पच्चत्थिमिल्लाए सीओआए दक्खिणेणं, + एअस्सवि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं ५। ))) $$ $$ $$$$听听听听听听听听听听听听听听听听听$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 555555卐55555555))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (366) Jambudveep Prajnapti Sutra B))))))))))))555555555555555555 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफ 卐 फ्र एवं पलासे विदिसाहत्थिकूडे मन्दरस्त उत्तरपच्चत्थिमिल्लाए सीओआए उत्तरेणं, एअस्सविला देवो, रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं ६ । एवं वडेंसे विदिसाहत्थिकूडे मन्दरस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए महाणईए पच्चत्थिमेणं । एअस्सवि वडेंसो देवो, रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं । एवं रोअणागिरी दिसाहत्थिकडे मंदरस्स उत्तरपुरत्थिमेणं, उत्तरिल्लाए सीआए पुरत्थिमेणं । एयस्सवि अणागिरी देवो, रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं । १३२. [ प्र. ३ ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन में दिशाहस्तिकूट - हाथी के आकार के शिखर कितने हैं ? [ उ. ] गौतम ! वहाँ आठ दिग्हस्तिकूट हैं (१) पद्मोत्तर, (२) नीलवान्, (३) सुहस्ती, (४) अंजनगिरि, (५) कुमुद, (६) पलाश, (७) अवतंस, तथा (८) रोचनागिरि । [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन में पद्मोत्तर नामक दिग्हस्तिकूट कहाँ पर है ? ! [ उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में - ईशान कोण में तथा पूर्व सीता महानदी के उत्तर में पद्मोत्तर नामक दिग्हस्तिकूट है। वह ५०० योजन ऊँचा तथा ५०० कोस जमीन में गहरा है। चौड़ाई तथा परिधि चुल्लहिमवान् पर्वत के समान है । प्रासाद आदि पूर्ववत् हैं । वहाँ पद्मोत्तर नामक देव निवास करता है । उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में - ईशान कोण में है । नीलवान् नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में- आग्नेय कोण में तथा पूर्व दिशागत सीता महानदी के दक्षिण में है । वहाँ नीलवान् नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी आग्नेय कोण में है । सुहस्ती नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में आग्नेय कोण में तथा दक्षिण - दिशागत सीतोदा महानदी के पूर्व में है । वहाँ सुहस्ती नामक देव निवास करता है । उसकी राजधानी आग्नेय कोण में है । अंजनगिरि नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण में तथा दक्षिणदिशागत सीतोदा महानदी के पश्चिम में है। अंजनगिरि नामक उसका अधिष्ठायक देव है। उसकी राजधानी दक्षिण-पश्चिम में है । उसकी कुमुद नामक विदिशागत हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में - नैऋत्य कोण में तथा पश्चिम - दिग्वर्ती सीतोदा महानदी के दक्षिण में है । वहाँ कुमुद नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण में है । पलाश नामक विदिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में - वायव्य कोण में एवं पश्चिम दिग्वर्ती सीतोदा महानदी के उत्तर में है । वहाँ पलाश नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में है । चतुर्थ वक्षस्कार (367) Fourth Chapter - 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 卐 2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 - 卐 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555558 5555555555555555555555 卐 卐 अवतंस नामक विदिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में तथा उत्तर दिग्गत सीता महानदी के पश्चिम में है । वहाँ अवतंस नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में है । रोचनागिरि नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में और उत्तर दिग्गत सीता महानदी के पूर्व में है। रोचनागिरि नामक देव उस पर निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तरपूर्व में है। 132. [Q. 3] Reverend Sir! How many are the peaks of the shape of an elephant (Dishahastikoot) on Mandar mountain in Bhadrashal forest? [Ans.] Gautam ! There are eight Dishahastikoot (1) Padmottar, (2) Neelavan, (3) Suhasti, (4) Anjangiri, (5) Kumud, (6) Palash, (7) Avatans, and (8) Rochangiri. [Q] Reverend Sir ! In Bhadrashal forest on Mandar mountain where is Padmottar Dighastikoot. [Ans.] Gautam ! Padmottar Dighastikoot is in the north-east of Mandar mountain and in the north of Sita river. It is 500 yojan high and 500 Kos deep in the ground. Its width and circumference is equal to Chull-Himavan mountain. The palace is as mentioned earlier. There Padmottar celestial being resides. His capital is in the north-east. Neelavan Dighastikoot is in south-east of Mandar mountain and in the south of Sita rivers flowing in the east. There Neelavan celestial being resides. His capital is in the south-east direction. Suhasti Dighastikoot is in south-east of Mandar mountain and in the east of Sitoda river flowing in the south. Suhasti celestial being reside there. His capital is in the south-east direction. Anjangiri Dighastikoot is in the south-west of Mandar mountain and in the west of southern Sitoda river. Its master celestial being is Anjangiri and his capital is in south-west. Kumud Hastikoot in oblique direction is in the south-west of Mandar mountain and is in the south of western Sitoda river. Celestial being Kumud resides there. The capital is in north-east direction. Palash Hastikoot in oblique direction is in the north-west of Mandar mountain and in the north of western Sitoda river. Celestial being Palash resides there. His capital in the north-west. Avatans Hastikoot (elephantine top) is in the north-west of Mandar mountain and in the west of northern Sita river. Celestial being Avatans resides there. His capital is in the north-west. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 255555 (368) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 6 5 5 55 5 5 5 5 52 95 95 95 95 5 5 5 5 5 5 5 ନ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 96 97 95 96 9 9 9 99 95 5 5 5 5 5955 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F LELE LE फफफफफफफफफफफफफफ Б FLELLE LE LE LE Rochanagiri Hastikoot is in the north-east of Mandar mountain and in the east of northern Sita river. Celestial being Rochanagiri resides there. His capital is in the north-east. (२) नन्दन वन NANDAN FOREST १३३ . [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते ? Б [ उ. ] गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पंचजोअणसयाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मन्दर पव्वए णन्दणवणे णामं वणे पण्णत्ते । पंचजोअणसयाई चक्कवालविक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मन्दरं पव्वयं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइति। वो अणसहस्सा व य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भो, गत्तीसं जो अणसहस्साइं चत्तारि अ अउणासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए बाहिं गिरिपरिरएणं, अट्ठ जोअणसहस्साइं णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भो, अट्ठावीसं जो अणसहस्साइं तिणि य सोलसुत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणं । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते वण्णओ जाव आसयन्ति । मन्दरस्स णं पव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं चत्तारि 5 सिद्धाययणा, विदिसासु पुक्खरिणीओ, तं चैव पमाणं सिद्धाययणाणं पुक्खरिणीणं च पासायवर्डिसगा तह 5 चेव सक्केसाणाणं तेणं चैव पमाणेणं । [प्र. ] णंदणवणे णं भन्ते ! कइ कूडा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा - णन्दणवणकूडे १, मन्दरकूडे २, णिसहकूडे ३, 5 हेमवएकूडे ४, रययकूडे ५, रुअगकूडे ६, सागरचित्तकूडे ७, वइरकूडे ८, बलकूडे ९ । Б [प्र. ] कहि णं भन्ते ! णन्दणवणे णंदणवणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमिल्लसिद्धाययणस्स उत्तरेणं, उत्तरपुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसयस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं णन्दणवणे णंदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते । पंचसइआ कूडा ५ पुव्ववणिआ भाणिअब्बा | देवी मेहंकरा, रायहाणी विदिसाएत्ति १ । एआहिं चेव पुब्बाभिलावेणं णेअब्बा कूडा । माहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं, दाहिणपुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं, मन्दरे कूडे मेहवई रायहाणी पुवेणं २ | दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं, दाहिणपुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी, रायहाणी दक्खिणेणं ३ । फ्र दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं, दक्खिणपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरत्थिमेणं हेमवए ५ कूडे हेममालिनी देवी, रायहाणी दक्खिणं ४ | 4 चतुर्थ वक्षस्कार फफफफफफफफफhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh (369) Fourth Chapter y Y Y Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 9 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55 55 2 पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स दक्खिणेणं दाहिण -पच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं रययकूडे सुवच्छा देवी, रायहाणी पच्चत्थिमेणं ५ । पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं, उत्तर-पच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं रुअगे कूडे वच्छमित्ता देवी, रायहाणी पच्चत्थिमेणं ६ | उत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं, उत्तर-पच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरत्थिमेणं सागरचित्ते कूडे वइरसेणा देवी, रायहाणी उत्तरेणं ७ । उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं, उत्तर-पुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं वइरकूडे बलाया देवी, रायहाणी उत्तरेणंति ८ । [प्र. ] कणि णं भन्ते ! णन्दणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं णन्दणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते । एवं जं चैव हरिस्तहकूडस्स पमाणं रायहाणी अ तं चैव बलकूडस्सवि, णवरं बलो देवो, रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेति । १३३ . [ प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर नन्दन वन नामक वन कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! भद्रशाल वन के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से पाँच सौ योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत पर नन्दन वन नामक वन आता है। चक्रवालविष्कम्भ परिधि के सब ओर से समान विस्तार की अपेक्षा से वह (गोलाई में ) ५०० योजन है। उसका आकार वलय-कंकण के सदृश है, सघन नहीं है, मध्य में वलय की ज्यों रिक्त (खाली) है। वह (नन्दन वन) मन्दर पर्वतों को चारों ओर से घेरे हुए है। नन्दन वन के बाहर मेरु पर्वत का विस्तार ९, ९५४६, योजन है। नन्दन वन से बाहर उसकी परिधि कुछ अधिक ३१,४७९ योजन है। नन्दन वन के भीतर उसका विस्तार ८,९४४, योजन है। उसकी परिधि २८,३१६, योजन है । वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर परिवेष्टित है। वहाँ देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं - इत्यादि सारा वर्णन पूर्वानुसार है। मन्दर पर्वत के पूर्व में एक विशाल सिद्धायतन है। ऐसे चारों दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं। विदिशाओं में-ईशान, आग्नेय आदि कोणों में पुष्करिणियाँ हैं, सिद्धायतन, पुष्करिणियाँ तथा उत्तम प्रासाद तथा शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र-सम्बन्धी वर्णन पूर्ववत् है । [प्र. ] भगवन् ! नन्दन वन में कितने कूट हैं ? [उ.] गौतम ! वहाँ नौ कूट हैं - ( १ ) नन्दनवनकूट, (२) मन्दरकूट, (३) निषधकूट, (४) हैमवतकूट, (५) रजतकूट, (६) रुचककूट, (७) सागरचित्रकूट, (८) वज्रकूट, तथा (९) बलकूट । [ प्र. ] भगवन् ! नन्दन वन में नन्दनवनकूट नामक कूट कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत पर पूर्व दिशावर्ती सिद्धायतन के उत्तर में, ईशान कोणवर्ती उत्तम के दक्षिण में नन्दन वन में नन्दनवनकूट नामक कूट है। ये सभी कूट ५०० योजन ऊँचे हैं। प्रासाद जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (370) Jambudveep Prajnapti Sutra 2755595959 55 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 2 55 5 5 555 5 55 5555555 5 555 5555 5555 5 5 555 552 卐 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAFFE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LEC LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LE LLE LE 5 5 विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है । नन्दनवनकूट पर मेघंकरा नामक देवी निवास करती है। उसकी राजधानी 5 ईशान कोण में है। इसका वर्णन पूर्वानुसार है। F 5 F इन दिशाओं के अन्तर्गत पूर्व दिशावर्ती भवन के दक्षिण में, दक्षिण-पूर्व आग्नेय कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के उत्तर में मन्दरकूट पर पूर्व में मेघवती नामक राजधानी है। F दक्षिण दिशावर्ती भवन के पश्चिम में, नैऋत्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पूर्व में हैमवतकूट पर फ्र 5 हेममालिनी नामक देवी है। उसकी राजधानी दक्षिण में है । 卐 फ्र F दक्षिण दिशावर्ती भवन के पूर्व में, आग्नेय कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पश्चिम में निषधकूट पर 5 सुमेधा नामक देवी है। उसकी राजधानी दक्षिण में है । 卐 रजतकूट पर सुवत्सा नामक देवी रहती हैं। पश्चिम में उसकी राजधानी है। 卐 पश्चिम दिशावर्ती भवन के दक्षिण में, दक्षिण-पश्चिम - नैऋत्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के उत्तर में 5 पश्चिम दिशावर्ती भवन के उत्तर में, उत्तर-पश्चिम - कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के दक्षिण में रुचक नामक कूट पर वत्समित्र नामक देवी निवास करती है। पश्चिम में उसकी राजधानी है। उत्तर दिशावर्ती भवन के पश्चिम में, उत्तर-पश्चिम वायव्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पूर्व में सागरचित्र नामक कूट पर वज्रसेना नामक देवी निवास करती है। उत्तर में उसकी राजधानी है । उत्तर दिशावर्ती भवन के पूर्व में, उत्तर-पूर्व- ईशान कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पश्चिम में वज्रकूट पर बलाहका नामक देवी निवास करती है। उसकी राजधानी उत्तर में है । [प्र.] भगवन् ! नन्दन वन में बलकूट नामक कूट कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में - ईशान कोण में नन्दन वन के अन्तर्गत बलकूट नामक फ्र कूट है। उसका, उसकी राजधानी का प्रमाण, विस्तार हरिस्सहकूट एवं उसकी राजधानी के सदृश है। 5 इतना अन्तर है - उसका अधिष्ठायक बल नामक देव है। उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में - ईशान कोण 6 में है। फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 133. [Q.] Reverend Sir ! Where is Nandan forest on Mandar 卐 5 mountain ? 卐 卐 [Ans.] Gautam ! At a height of 500 yojan from the extremely levelled and beautiful ground of Bhadrashal forest, Nandan forest is located on Mandar mountain. It is circular with a 500 yojan diameter. Its shape is 卐 like a bangle. It is not dense. Its middle part is empty like a bangle. It F (Nandan forest) surrounds Mandar mountains from all the four directions. F फ्र 5 5 Outside Nandan forest, width of Meru mountain is 9,954 yojan and 5 its circumference is 31, 479 yojan. Within Nandan forest its width is 89445 and six-eleventh yojan. Its circumference there is 28,316 and eight चतुर्थ वक्षस्कार (371) Fourth Chapter 卐 卐 卐 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25955 55 5 5 5 5 5 ନ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 2 5555555555555555555555555555 卐 eleventh yojan. It is surrounded by a lotus Vedika and forest from all sides. The gods and goddesses enjoy themselves and take rest there. Entire description is the same as before. There is a large Siddhayatan in the east of Meru mountain. Suchlike temples are on all the four sides. There are lotus lakes in all the four sub-directions namely north-east, south-east and the like. The description of temple (Siddhayatan) lakes and grand palaces and of Shakrendra, Ishanendra is the same as mentioned earlier. [Q.] Reverend Sir ! How many are the peaks in Nandan forest? [Ans.] Gautam ! There are nine peaks (1) Nandan forest koot (peak), (2) Mandarkoot, (3) Nishadhkoot, (4) Haimavatkoot, (5) Rajatkoot, (6) Ruchakkoot, (7) Sagarchitrakoot, (8) Vajrakoot, and (9) Balkoot. 卐 [Q.] Reverend Sir! Where is Nandan forest peak in Nandan forest? 卐 [Ans.] Gautam ! In Nandan forest, Nandan forest koot, is located on Mandar mountain in the north of the temple in the east and in the north-east of the grand palace in the south. All these peaks, are 500 yojan high. Their detailed description is as mentioned earlier. Goddess Meghankara resides on Nandan forest peak. Its capital is in the north-east. Its detailed description is as mentioned earlier. On Mandar mountain in the east there is Meghavati capital. It is in the north of the mansion located in the south-east and south of the mansion located in the east. In the east of the mansion located in the south and in the west of grand palace located in the south-east on Nishadhkoot, goddess Sumedha resides. Her capital is in the south. In the west of mansion located in the south, in the east of grand palace located in the south-west on Haimavatkoot, goddess Hemamalini resides. Her capital is in the south. In the south of the mansion located in the west, in the north of grand palace located in the south-west on Rajatkoot, goddess Suvrata resides. Her capital is in the west. In the north of the mansion located in the west, in the south of grand palace located in the north-west on Ruchakkoot, goddess Vatsamitra resides. Her capital is in the west. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (372) *55555555555555555555555555555555555555555! Jambudveep Prajnapti Sutra 2 5955 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5555 55595 4 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת תב תב ת In the west of the mansion located in the north, in the east of grand palace located in the north-west, on Sagarchitrakoot, goddess Vajrasena F resides. Her capital is in the north. In the east of the mansion located in the north, in the west of grand palace located in the north-east in Vajrakoot, Balahaka goddess resides. F Her capital is in the north. [Ans.] Gautam ! Balkoot is located in the north-east of Mandar (Ans.] Gautam ! Balakoot is located in the north-east of Mandar mountain in Nandan forest. Its size, the size of its capital and its extent is similar to Harissahkoot and its capital. The only difference is that its master is god Bal. His capital is in north-east. (३) सौमनस बन SAUMANAS FOREST १३४. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! मन्दरए पब्बए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णन्दणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अद्धतेवढि जोअणसहस्साई उद्धं । उप्पइत्ता एत्थ णं मन्दरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते। पंचजोयणसयाई चक्कवालविक्खम्भेणं,' वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मन्दरं पव्वयं समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। चत्तारि जोअणसहस्साई, । दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भेणं, तेरस जोअणसहस्साइं पंच य एक्कारे जोअणसए छच्च इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं, तिण्णि है जोअणसहस्साइं दुण्णि अ बावत्तरे जोअण-सए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भेणं, दस जोअणसहस्साई तिण्णि अ अउणापण्णे जोअणसए तिण्णि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणंति। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते वण्णओ, । किण्हे किण्होभासे जाव आसयन्ति। एवं कूडवज्जा सच्चेव णन्दणवणवत्तवया भाणियव्वा, तं चेव ओगाहिऊण जाव पासायवडेंसगा सक्कीसाणाणंति। १३४. [प्र.] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर सौमनस वन नामक वन कहाँ है ? [उ. ] गौतम ! नन्दन वन के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से ६२,५०० योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत पर सौमनस नामक वन आता है। वह चक्रवाल-विष्कम्भ (गोलाई में) की दृष्टि से ५००) योजन विस्तीर्ण है, गोल है, वलय के आकार का है। वह मन्दर पर्वत को चारों ओर से परिवेष्टित किये हुए है। वह पर्वत से बाहर ४,२७२६० योजन विस्तीर्ण है। पर्वत से बाहर उसकी परिधि १३,५११६ योजन है। वह पर्वत के भीतरी भाग में ३,२७२०, योजन विस्तीर्ण है। पर्वत के भीतरी भाग से संलग्न है उसकी परिधि १०,३४९,३, योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। वह वन काले, नीले आदि पत्तों से-वैसे ही वृक्षों से, लताओं से आपूर्ण है। वहाँ देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं। कूटों के अतिरिक्त और सारा वर्णन नन्दन वन के सदृश है। ॥ उसमें आगे शक्रेन्द्र तथा ईशानेन्द्र के उत्तम प्रासाद हैं। 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步%%%% नागागाग चतुर्थ वक्षस्कार (373) Fourth Chapter Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555555555 卐 134.[Q.] Where is Saumanas forest on Mandar mountain? (Ans.] Saumanas forest is on Mandar mountain at a distance of 62,500 yojan from levelled and attractive land of Nandan forest. It is 500 4 yojan wide in respect of distance between two circular sides. It is round and bangle shaped. It surrounds Mandar mountains from all sides. It is extended upto 4,272 and eight-eleventh yojan outside the Mandar mountain and there its circumference is 13,511 and six-eleventh yojan. 41 Inside the Mandar mountain it is extent upto 3,272 and eight-eleventh yojan and its circumference touching the mountain is 10,349 and three eleventh yojan. It is surrounded by a lotus Vedika and a forest. The i detailed description is as mentioned before. That forest is ful blue and suchlike leaves, trees and creepers. The gods and goddess take rest there. In addition to the tops the detailed description is the same as that of Nandan forest. Ahead of it there is a grand palace of Shakraendra and Ishanendra. 幻听听听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 (४) पण्डक वन PANDAK FOREST १३५. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! मन्दरपव्वए पंडगवणे णामं वणे पण्णते ? __ [उ. ] गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोअणसहस्साई उद्धं +उप्पइत्ता एत्थ णं मन्दरे पव्वए सिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते। चत्तारि चउणउए जोअणसए चक्कवालविक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मंदरचूलिअं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च बावटें जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं जाव किण्हे देवा आसयन्ति। ___पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मंदरचूलिआ णामं चूलिआ पण्णत्ता। चत्तालीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, मूले बार, जोअणाई विक्खम्भेणं, मझे अट्ठ जोअणाई विक्खम्भेणं, उप्पिं चत्तारि जोअणाई विक्खम्भेणं। मूले साइरेगाइं सत्तत्तीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मझे साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवणं, उप्पिं साइरेगाइं बारस जोअणाई परिक्खेवणं। मूले वित्थिण्णा, माझे संखित्ता, उप्पिं तणुआ, ॐ गोपुच्छसंठाणसंठिआ, सव्ववेरुलिआमई, अच्छा। सा णं एगाए पउमवरवेइआए संपरिक्खित्ता इति। उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव सिद्धाययणं बहुमज्झदेसभाए कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खम्भेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसय (-सण्णिविट्ठे), तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता। तेणं दारा अट्ठ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोषणाई विक्खम्भेणं, 5 तावइयं चेव पवेसेणं। सेआ वरकणग-थूभिआगा जाव वणमालाओ भूमिभागो अ भाणिअबो। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता। अट्ठजोअणाई आयामविक्खम्भेणं, ॐ चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सव्वरयणामई अच्छा। तीसे णं मणिपेढिआए उवरि देवच्छन्दए, अट्ठजोअणाई जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (374) $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ $ 55 5 5 55 55 5555555555FFF。 Jambudveep Prajnapti Sutra 85555555555555555555555555555555555558 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 855555555555555555555555555555555558 # आयामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं अट्ठजोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ देवच्छन्दगस्स जाव : धूवकडुच्छुगा। मन्दरचूलिआए णं पुरथिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते। एवं जच्चेव सोमणसे पुष्ववण्णिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडेंसगाण य सो चेव णेअव्यो जाव के सक्कीसाणवडेंसगा तेणं चेव परिमाणेणं। म १३५. [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर पण्डक वन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? 5 [उ. ] गौतम ! सौमनस वन के बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग से ३६,००० योजन ऊपर के + जाने पर मन्दर पर्वत के शिखर पर पण्डक वन नामक वन बतलाया गया है। चक्रवाल विष्कम्भ दृष्टि से ॐ वह ४९४ योजन विस्तीर्ण है, गोल है, वलय के आकार जैसा उसका आकार है। वह मन्दर पर्वत की ज के चूलिका को चारों ओर से परिवेष्टित कर स्थित है। उसकी परिधि कुछ अधिक ३,१६२ योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा घिरा है। काले, नीले आदि पत्तों से युक्त है। देव+ देवियाँ वहाँ आश्रय लेते हैं। # पण्डक वन के बीचोंबीच मन्दर चूलिका (चोटी) नामक चूलिका बतलाई गई है। वह चालीस योजन ॥ है ऊँची है। वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन तथा ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक ३७ योजन, बीच में कुछ अधिक २५ योजन तथा ऊपर कुछ अधिक १२ योजन है। वह मूल में चौड़ी, मध्य में सैकड़ी तथा ऊपर पतली है। उसका आकार गाय के पूँछ के आकार-सदृश + है। वह सर्वथा वैडूर्य (नीलम) रत्नमय है, उज्ज्वल है। वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक वनखण्ड) द्वारा के चारों ओर से संपरिवृत है। # ऊपर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है। उसके बीच में सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, + आधा कोश चौड़ा, कुछ कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों खम्भों पर टिका है। उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन दरवाजे बतलाये गये हैं। वे दरवाजे आठ योजन ऊँचे तथा चार योजन चौड़े हैं। उनके के प्रवेश-मार्ग भी उतने ही हैं। उस (सिद्धायतन) के सफेद, उत्तम स्वर्णमय शिखर हैं। आगे वनमालाएँ, भूमिभाग आदि से सम्बद्ध वर्णन पूर्ववत् है। भी उसके बीचोंबीच एक विशाल मणिपीठिका बतलाई गई है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर देवासन है। वह आठ योजन लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक आठ योजन ऊँचा है। जिन-प्रतिमा, देवच्छन्दक, धूपदान आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है। की मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डक वन में पचास योजन जाने पर एक विशाल भवन आता में है। सौमनस वन के भवन, पुष्करिणियाँ, प्रासाद आदि के प्रमाण, विस्तार आदि का जैसा वर्णन है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए। शक्रेन्द्र एवं ईशानेन्द्र वहाँ के अधिष्ठायक देव हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है। चतुर्थ वक्षस्कार (375) Fourth Chapter 555555555555555555555555555558 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 4541 41 41 41 41 41 41 41 41 45454545454941 41 41 42 $$ $141 听听听听听听听听听 5555555555555555555 135. [Q] Reverend Sir! Where is Pandak forest on Mandar mountain ? (Ans.] Gautam ! On a very levelled and beautiful land in Saumanas 4 forest when one goes 36,000 yojan' at the top of Mandar mountain there $ is Pandak forest. It is 494 yojan so far as its width between two circular $ boundries is concerned. It is round and bangle-like in shape. The peak (Chulika) of Mandar mountain is surround by it from all the four sides. Its circumference is a little more than 3,162 yojan. It is surrounded by a lotus Vedika and a forest. It is having black, blue and such like leaves. Gods and goddess take rest here. At the centre of Pandak forest there is the peak called Mandar peak. It is 40 yojan high. It is 12 yojan wide at the root, 8 yojan wide at the 4 middle and 4 yojan wide at the top. Its circumference is 37 yojan at the 41 top, a little more than 25 yojan in the middle and is little more than 12 yojan at the top. It is broad at the root, narrow at the middle and still narrower at the top. Its shape is like that of a cow-tail. It is totally Vaidurya jewelled. It is surrounded by a lotus Vedika (and a forest) from all sides. At the top it has a very much levelled and beautiful ground. In the middle of it, there is a temple one Kos long, half a Kos wide and a little less than one Kos high standing on hundreds of pillars. The temple has three doors in three sides. They are eight yojan high and four yojan wide Their passages of entrance are also of the same size. The tops of that temple are white and golden. Further description relating to chain of forests, land and the like is the same as mentioned earlier. In the centre of its there is a large platform. It is 8 yojan long, 4 yojan thick and 8 yojan wide. It is clean and totally jewelled. On that platform there is a seat for deities. 8 yojan long, 8 yojan wide and a little more than 8 yojan high. The description of idols of Tirthankar, the seat for celestial beings, incense pot and the like is similar to that mentioned earlier. In the east of the peak of Mandar mountain, after going fifty yojans there is a large mansion. Other details about mansion, lakes buildings and their dimensions are as those mentioned about Saumanas forest. Shakrendra and Ishanendra are the ruling deities. Their description is as already mentioned. 458 456 457 454 455 456 454545454545454545454 455 456 457 45 46 47 454 455 456 454 455 4541 455 456 457 听听听听听听听听听听 415555141414 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 376 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 4445464595455 45 455 456 457 454 455 456 457 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 412 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ) ))))) ))))))) )) )) 5F 55 55 5 $ $$ $ 55 55 55 55 5 55 5 5555555555 $ $$ $$ 55 55 5555 अभिषेक शिलाएँ ANOINTING SLABS १३६. [प्र. ] पण्डगवणे णं भन्ते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पंडुसिला १, पण्डुकंबलसिला २, : रत्तसिला ३, रत्तकम्बलसिलेति ४। [प्र. ] कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे पण्डुसिला णामं सिला पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! मन्दर-चूलिआए पुरथिमेणं, पंडगवणपुरथिमपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे पण्डुसिला णामं सिला पण्णत्ता। उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीणवित्थिण्णा, अद्धचंदसंठाणसंठिआ, पंच जोअणसयाई आयामेणं, अद्धाइज्जाई जोअणसयाई विक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाइ बाहल्लेणं, सव्वकणगामई, अच्छा, वेइआवणसंडेणं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ता वण्णओ। तीसे णं पण्डुसिलाए चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाण-पडिरूवगा पण्णत्ता जाव तोरणा वण्णओ। तीसे णं + पण्डुसिलाए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, (तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे) देवा आसयन्ति। + तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, ॐ पंच धणुसयाई आयामविक्खम्भेणं, अद्धाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेणं, सीहासणवण्णओ भाणिअब्बो + विजयदूसवज्जोत्ति। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे, तत्थ णं बहूहिं भवणवइ-वाणमन्तर-जोइसिअ-वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ कच्छाइआ तित्थयरा अभिसिच्चन्ति। म तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवण-(वइवाणमन्तर-जोइसिअ-) वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ वच्छाइआ तित्थयरा अभिसिच्चन्ति। ___ [प्र. ] कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे पण्डुकंबलासिला णामं सिला पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! मन्दरचूलिआए दक्खिणेणं, पण्डगवणदाहिणपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे पंडुकंबलासिला णामं सिला पण्णत्ता। पाईणपडीणायया, उत्तरदाहिण-वित्थिण्णा एवं तं चेव पमाणं वत्तव्बया य भाणिअव्वा जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते, तं चेव सीहासणप्पमाणं तत्थ णं बहूहिं भवणवइ जाव भारहगा तित्थयरा अहिसिच्चन्ति। [प्र.] कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता ? __[उ. ] गोयमा ! मन्दरचूलिआए पच्चत्थिमेणं, पण्डगवणपच्चत्थिमपेरते, एत्थ णं पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता। उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीणवित्थिण्णा जाव तं चेव पमाणं सवतवणिज्जमई अच्छा। उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता। तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणवइ जाव पम्हाइआ तित्थयरा अहिसिच्चन्ति। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणवइ जाव वप्पाइणा तित्थयरा अहिसिच्चंति। 卐955555555555555555555554))))))))))) | चतुर्थ वक्षस्कार (377) Fourth Chapter Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 [प्र.] कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता ? [ [उ. ] गोयमा ! मन्दरचूलिआए उत्तरेणं, पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला णाम सिला पण्णत्ता। पाईण-पडीणायया, उदीण-दाहिणवित्थिया, सव्वतवणिज्जमई अच्छा जाव मझदेसभाए 5 सीहासणं, तत्थ णं बहूहिं भवणवइ. जाव देवहिं देवीहि अ एरावयगा तित्थयरा अहिसिच्चन्ति। १३६. [प्र. ] भगवन् ! पण्डक वन में कितनी अभिषेक शिलाएँ हैं ? [उ.] गौतम ! वहाँ चार अभिषेक शिलाएँ बतलाई गई हैं-(१) पाण्डुशिला, (२) पाण्डुकम्बलशिला, (३) रक्तशिला, तथा (४) रक्तकम्बलशिला। [प्र. ] भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुशिला नामक शिला कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डक वन के पूर्वी किनारे पर पाण्डुशिला नामक शिला है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका आकार अर्ध-चन्द्र जैसा है। वह ५०० योजन लम्बी, २५० योजन चौड़ी तथा ४ योजन मोटी है। वह सर्वथा स्वर्णमय है। में पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड द्वारा चारों ओर से संपरिवृत है। विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है। उस पाण्डुशिला के चारों ओर चारों दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हैं। तोरण पर्यन्त उनका + वर्णन पूर्ववत् है। उस पाण्डुशिला पर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है। उस पर देव आश्रय लेते हैं, ऊ यावत् क्रीड़ा करते हैं। उस बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग के बीच में उत्तर तथा दक्षिण में दो + सिंहासन हैं। वे ५०० धनुष लम्बे-चौड़े और २५० धनुष ऊँचे हैं। विजय नामक वस्त्र के अतिरिक्त * सिंहासन पर्यन्त उसका वर्णन पूर्ववत् है। ___वहाँ जो उत्तर दिशावर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव-देवियाँ कच्छ आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। वहाँ जो दक्षिण दिशावर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क) एवं वैमानिक देव-देवियाँ वत्स आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। [प्र. ] भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला कहाँ है? [उ.] गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के दक्षिण में, पण्डक वन के दक्षिणी किनारे पर पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है। उसके बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक विशाल सिंहासन है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। वहाँ भवनपति आदि चारों जाति के देव-देवियाँ भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। [प्र. ] भगवन् ! पण्डक वन में रक्तशिला नामक शिला कहाँ पर है? __[उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के पश्चिम में, पण्डक वन के पश्चिमी छोर पर रक्तशिला ॐ नामक शिला है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी है, पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है। के वह सर्वथा तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है। उसके उत्तर-दक्षिण दो सिंहासन हैं। उनमें जो दक्षिणी 5 F5 5 55 5F 555555555 FFFF 5 55 5555 55听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 a55555555555 5 55 5 $ $$$$$$$$$ 5555555 55555555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (378) Jambudveep Prajnapti Sutra 日历步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6555555555555$$$$$$ $$$$$$ $$ $$ $$ म सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देव-देवियों द्वारा पक्ष्मादि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का ॥ अभिषेक किया जाता है। वहाँ जो उत्तरी सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देवों द्वारा वप्र आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। [प्र.] भगवन् ! पण्डक वन में रक्तकम्बलशिला नामक शिला कहाँ पर है ? [उ.] गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के उत्तर में, पण्डक वन के उत्तरी छोर पर है रक्तकम्बलशिला नामक शिला है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी है, सम्पूर्णतः तपनीय स्वर्णमय तथा उज्ज्वल है। उसके बीचोंबीच एक सिंहासन है। वहाँ भवनपति आदि बहुत से देव-देवियाँ ॐ ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। ___136.[Q.] Reverend Sir ! How many are the slabs for anointing ? (Ans.) Gautam ! There are four anointing slabs namely—(1) Pandu slab, (2) Pandukambal slab, (3) Rakt slab and (4) Raktkambal slab. (Q.) Reverend Sir! Where is Pandushila in Pandak forest? [Ans.] Gautam ! In the east of the top of Mandar mountain, at the eastern edge of Pandak forest, there is Pandushila. Its length is in northsouth direction and width is in east-west direction. Its shape is like that y of half moon. It is 500 yojan long, 250 yojan wide and 4 yojan thick. It is si totally golden. It is surrounded by a louts Vedika and a forest from all sides. The detailed description is same as mentioned earlier. In the four sides of that Pandu slab, there are stairs having three rungs each. The description upto the gate is the same as mentioned earlier. There is a beautiful and levelled ground on that Pandu slab. Gods take rest there and enjoy themselves. In the middle of that levelled beautiful portion there are two platforms—one in the north and the other in the south. They are 500 dhanush long, 500 dhanush wide and 250 dhanush high. Except Vijay-cloth entire description up to the platforms is the same as mentioned earlier. Many gods living in abodes (Bhavanpati gods), interstitial (Vyantar) gods, stellar (Jyotishk) gods and Vaimanik gods and goddesses perform the anointing ceremony of Tirthankars born in Vijays namely Kutchh and others at the seats lying in the north. Many Bhavanpati, Vaan-vyantar, Jyotishk and Vaimanik gods and goddesses perform the anointing ceremony of Tirthankars born in Vatsa ki Vijay and the like on the seats in the south. [Q.] Reverend Sir ! Where is Pandukambal slab in Pandak forest ? चतुर्थ वक्षस्कार (379) Fourth Chapter 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 听听听听听听听听听听听听听听听听听$555555 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 5 555 5 5 555555555 5 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 - 5555555555555555555555555555 [Ans.] Gautam ! Pandukambal slab is at the Southern edge of Pandak y forest in the south of the top of Mandar mountain. Its length is in northsouth direction and width is in east-west direction. Its size and extent is as mentioned earlier There is a large seat at the centre of the levelled beautiful area. Its description is the same as mentioned earlier. On the two platforms the anointment of Tirthankars born in Bharat region is performed by Bhavanpati gods and others of all the four types. [Q.] Reverend Sir! Where is Rakt-slab in Pandak forest? [Ans.] Gautam ! Raktshila slab is at the western edge of Pandak forest in the west of the top of Mandar mountain. Its length is in northsouth direction and breadth is in east-west direction. Its size and extent is as mentioned before. It is totally golden and clean. There are two slabs in the north and the south. On the southern slab, Bhavanpati and other gods and goddesses perform anointing ceremony of Tirthankars born in Pakshma and other such like Vijays. On the slab in the north, they peform the anointing ceremony of Tirthankars born in Vapra Vijay and the like. [Q.] Reverend Sir! Where is Raktkambal slab in Pandak forest? 卐 [Ans.] Gautam ! Raktkambal slab is at the northern edge of Pandak forest and on the north of the top of Mandar mountain. Its length is in east-west direction and width is in north-south direction. It is totally golden and clean. At its centre there is a seat where many Bhavanpati and other gods and goddesses perform anointing ceremony of Tirthankars born in Airavat region. मन्दर पर्वत के काण्ड PARTS OF MANDAR MOUNTAIN १३७. [ प्र. ] मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स कइ कंडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! तओ कंडा पण्णत्ता, तं जहा - हिट्ठिल्ले कंडे १, मज्झिमिल्ले कंडे २, caf.com कंडे ३ | [प्र. ] मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स हिट्ठिल्ले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा- पुढवी १, उवले २, वइरे ३, सक्करे ४ । [प्र.] मज्झिमिल्ले णं भन्ते ! कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा- अंके १, फलिहे २, जायरूवे ३, रयए ४ । [प्र. ] उवरिल्ले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (380) Jambudveep Prajnapti Sutra 555555555 கககுக குமிழ*********************************மித்ததி 卐 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m5FFFFFFF55555555555555555555FFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听。 55555555555555554))))))))))))))) [उ. ] गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते, सव्वजम्बूणयामए। __ [प्र.] मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स हेछिल्ले कंडे केवइअं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? __[उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते। [प्र. ] मन्झिमिल्ले कंडे पुच्छा, गोयमा ! तेवढि जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। [उ. ] उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा ! छत्तीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवामेव सपुवावरेणं मन्दरे पब्बए एगं जोअणसयसहस्सं सब्बग्गेणं पण्णत्ते। १३७. [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत के कितने काण्ड-पर्वत-क्षेत्र के विभाग हैं ? [उ. ] गौतम ! उसके तीन विभाग हैं-(१) अधस्तन विभाग-नीचे का विभाग, (२) मध्यम विभाग-बीच का विभाग, तथा (३) उपरितन विभाग-ऊपर का विभाग। [प्र.] भगवन् ! मन्दर पर्वत का अधस्तन विभाग कितने प्रकार का है ? [उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का है-(१) पृथ्वी-मृत्तिकारूप, (२) उपल-पाषाणरूप, (३) वज्र-हीरकमय, तथा (४) शर्करा-कंकरमय। [प्र. ] भगवन् ! उसका मध्यम विभाग कितने प्रकार का है ? [उ. ] गौतम ! वह चार प्रकार का है-(१) अंकरत्नमय, (२) स्फटिकमय, (३) स्वर्णमय, तथा (४) रजतमय। [प्र. ] भगवन् ! उसका उपरितन विभाग कितने प्रकार का है? [उ. ] गौतम ! वह एकाकार-एक प्रकार का है। वह सर्वथा जम्बूनद-स्वर्णमय है। [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत का अधस्तन विभाग कितना ऊँचा है ? [उ. ] गौतम ! वह १,००० योजन ऊँचा है। [प्र. ] मध्यम विभाग के सम्बन्ध में भी ऐसा ही प्रश्न है ? (मन्दर पर्वत का मध्यम विभाग कितना ऊँचा है ?) [उ. ] गौतम ! वह ६३,००० योजन ऊँचा है। [प्र. ] भगवन् ! मन्दर पर्वत का उपरितन विभाग कितना ऊँचा है ? [उ. ] गौतम ! वह ३६,००० योजन ऊँचा है। यों उसकी ऊँचाई का कुल परिमाण १,००० + ६३,००० + ३६,००० = १,००,००० (एक लाख) योजन है। ____137. [Q.] Reverend Sir ! How many are the visions of Mandar mountain ? ___[Ans.] Gautam ! It has three divisions (parts) (1) The lower part, (2) The middle part, and (3) The upper part. | चतुर्थ वक्षस्कार Fourth Chapter (381) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफ *********************************மிதி [Q] Reverend Sir ! Of how many types is lower part of Mandar mountain ? 卐 [Ans.] Gautam ! It is of four types – ( 1 ) The Earthen one, ( 2 ) The 5 Stony part, (3) The Diamond part, (4) The Sugar part. [Q.] Reverend Sir ! Of how many types is its middle part ? [Ans.] Gautam! It is of four types (1) Ank-jewel like, (2) The sphatik type, (3) The golden type, (4) The silvery type. [Ans.] Gautam ! It is 1,000 yojan in height. [Q.] Reverend Sir ! How much high is the middle part if Mandar mountain ? [Ans.] Gautam ! It is 63,000 yojan in height. [Q] Reverend Sir! How much high is the upper part of Mandar mountain ? [Ans.] Gautam ! It is 36,000 yojan in height. Thus the Mandar mountain is in all one lakh yojan in height. [QJ Reverend Sir ! Of how many types is its upper part ? [Ans.] Gautam ! It is only of one type. It is totally Jambunad golden 5 type. [Q] Reverend Sir! How much high is the lower part of Mandar mountain ? मन्दर के १६ नाम SIXTEEN NAMES OF MANDAR १३८. [ प्र. ] मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स कति णामधेज्जा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! सोलस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा मन्दर १, मेरु २, मणोरम ३, सुदंसण ४, सयंपभे अ ५, गिरिराया ६ । रयणोच्चय ७, सिलोच्चय ८, मज्झे लोगस्स ९, णाभी य १० ॥१॥ अच्छे अ ११, सूरिआवत्ते १२, सूरिआवरणे १३, ति आ । उत्तमे अ १४, दिसादी अ १५, वडेंसेति अ १६, सोलसे ॥ २ ॥ [प्र. ] से केणट्ठणं भन्ते ! एवं बुच्चइ मन्दरे पव्वए २ ? [ उ. ] गोयमा ! मन्दरे पव्वए मन्दरे णामं देवे परिवसइ महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ मन्दरे पव्वए २ अदुत्तरं तं चैवत्ति । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (382) 卐 5 Jambudveep Prajnapti Sutra 5 5 5 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 5955 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595959595952 卐 卐 卐 卐 卐 卐 5 फ्र 25595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5552 卐 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ) ))) ) )) ) )) ))) ))) ) )) ) ) पभभभभभभभ) 55555555555555555555555558 म १३८.[प्र.] भगवन् ! मन्दर पर्वत के कितने नाम हैं ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत के १६ नाम हैं-(१) मन्दर, (२) मेरु, (३) मनोरम, (४) सुदर्शन, 卐 (५) स्वयंप्रभ, (६) गिरिराज, (७) रत्नोच्चय, (८) शिलोच्चय, (९) लोकमध्य, (१०) लोकनाभि, म (११) अच्छ, (१२) सूयावर्त, (१३) सूर्यावरण, (१४) उत्तम या उत्तर, (१५) दिगादि, तथा (१६) अवतंस। [प्र.] भगवन् ! वह मन्दर पर्वत मन्दर पर्वत क्यों कहलाता है ? [उ. ] गौतम ! मन्दर पर्वत पर मन्दर नामक परम ऋद्धिशाली, पल्योपम के आयुष्य वाला देव ॐ निवास करता है, इसलिए वह मन्दर पर्वत कहलाता है। अथवा उसका यह नाम शाश्वत है। 138. (Q.) Reverend Sir ! How many are the names of Mandar mountain ? (Ans.] Gautam ! Mandar mountain has sixteen names—(1) Mandar, (2) Meru, (3) Manoram,. (4) Sudarshan, (5) Svayamprabh, (6) Giriraj, (7) Ratnochchaya, (8) Shilochchaya, (9) Lokmadhya, (10) Loknabhi, † (11) Achchh, (12) Suyavart, (13) Suryavaran, (14) Uttam or Uttar, (15) Digadi, and (16) Avatansa. 5 [Q.] Reverend Sir ! Why is Mandar mountain called Mandar - mountain? fi (Ans.] Gautam ! A very prosperous god whose name is Mandar resides on Mandar mountain. His life-span is one palyopam. His name is everlasting. नीलवान् वर्षधर पर्व NEELAVAN VARSHADHAR MOUNTAIN १३९. [प्र.] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे णीलवन्ते णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते ? _[उ. ] गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं, रम्मगवासस्स दक्खिणेणं, पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चत्थिमिल्लेणं, पच्चत्थिमिल्ललवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बूद्दीवे दीवे णीलवन्ते णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिण्णे, णिसहवत्तव्वया णीलवन्तस्स है भाणिअव्वा, णवरं जीवा दाहिणेणं, धणुं उत्तरेणं। ___एत्थ णं केसरिहहो, दाहिणेणं सीआ महाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरुं एज्जमाणी २ जमगपब्बए णीलवन्त-उत्तरकुरु-चन्देरावत-मालवन्तहहे अ दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहि आपूरेमाणी २ भहसालवणं एज्जमाणी २ मन्दर पव्वयं दोहिं जोअणेहिं असंपत्ता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी अहे मालवन्तवक्खारपब्वयं दालयित्ता मन्दरस्स पब्वयस्स पुरथिमेणं पुबविदेहवासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहिं # सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई दालइत्ता । पुरथिमेणं लवणसमुहं समप्पेइ, अवसिटं तं चेवत्ति। ) ) ת ה ת )) ת ת )) ) נ נ ת ת ת ת ) ת ת ת ת ת ))) ) ת ת ))) )) ת ת ת ת ת ת ת ) |चतुर्थ वक्षस्कार (383) Fourth Chapter 卐) 15555555555555555555555555555555555 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B555555555555555555555555555555555555 ॐ एवं णारिकंतावि उत्तराभिमुही अव्वा, णवरमिमं णाणत्तं गन्धावइ-वट्टवेअद्ध-पव्वयं जोअणणं म असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिठं तं चेव पवहे अ मुहे अजहा हरिकन्तसलिला इति। [प्र. ] णीलवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे.। सिद्धे १, णीले २, पुवविदेहे ३, सीआ य ४, कित्ति ५, णारी अ६। अवरविदेहे ७, रम्मग-कूडे ८, उवदंसणे चेव ९॥१॥ ___ सव्वे एए कूडा पंचसइआ रायहाणी उ उत्तरेणं। [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-णीलवन्ते वासहरपब्बए २ ? [उ. ] गोयमा ! णीले णीलोभासे णीलवन्ते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलिआमए मणीलवन्ते जाव णिच्चेति। ॐ १३९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ पर है ? के [उ. ] गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के उत्तर में, रम्यक् क्षेत्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम 4 में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत है। वह पूर्व5 पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। जैसा निषध पर्वत का वर्णन है, वैसा ही नीलवान् वर्षधर पर्वत का वर्णन है। इतना अन्तर है-दक्षिण में इसकी जीवा है, उत्तर में धनुपृष्ठभाग है। 卐 उसमें केसरी नामक द्रह है। दक्षिण में उससे सीता महानदी निकलती है, जो उत्तरकुरु में बहती है। आगे यमक पर्वत तथा नीलवान् उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत एवं माल्यवान द्रह को दो भागों में बाँटती हुई ॐ आगे बढ़ती है। उसमें ८४,००० नदियाँ मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वह भद्रशाल वन में बहती है। ॐ जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रहता है, तब वह पूर्व की ओर मुड़ती है, नीचे माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत को विभाजित कर मन्दर पर्वत के पूर्व में पूर्व विदेह क्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे जाती है। एक-एक चक्रवर्तिविजय में उसमें अट्ठाईस अट्ठाईस हजार नदियाँ मिलती हैं। यों कुल २८,००० x १६ + + ८४,००० = ५,३२,००० नदियों से आपूर्ण वह नीचे विजयद्वार की जगती को चीरकर पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। ॐ नारीकान्ता नदी उत्तराभिमुख होती हुई बहती है। उसका वर्णन इसी के समान है। इतना अन्तर है-जब गन्धापाति वृत्तवैताढ्य पर्वत एक योजन दूर रह जाता है, तब वह वहाँ से पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। उद्गम तथा संगम के समय उसके प्रवाह का विस्तार हरिकान्ता नदी के सदृश होता है। __ [प्र. ] भगवन् ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट हैं ? [उ. ] गौतम ! उसके नौ कूट हैं (१) सिद्धायतनकूट, (२) नीलवत्कूट, (३) पूर्वविदेहकूट, (४) सीताकूट, (५) कीर्तिकूट, (६) नारीकान्ताकूट, (७) अपरविदेहकूट, (८) रम्यककूट, तथा (९) उपदर्शनकूट। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra a555555555 $ 55555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 (384) , Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414541414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141 ये सब कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इनके अधिष्ठायक देवों की राजधानियाँ मेरु के उत्तर में हैं। [प्र. ] भगवन् ! नीलवान् वर्षधर पर्वत इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? [उ. ] गौतम ! वहाँ नीलवर्णयुक्त, नील आभा वाला परम ऋद्धिशाली नीलवान् नामक देव निवास करता है। नीलवान् वर्षधर पर्वत सर्वथा वैडूर्यरत्नमय-नीलम रत्नों से बना है। इसलिए वह नीलवान् कहा जाता है। अथवा उसका यह नाम सदा से चला आता है। 139. (Q.) Reverend Sir ! In Jambu island, where is Neelavan Varshadhar mountain ? [Ans.] Gautam ! In Jambu island, Neelavan Varshadhar mountain is in the north of Mahavideh region, in the south of Ramyak region, in the west of eastern Lavan Ocean and in the east of western Lavan Ocean. Its length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. Its description is similar to that of Nishadh mountain. The only difference is that its ridge is in the south and the curved line is in the north. It has Kesari lake. From the south of it, Sita river starts, which flows in Uttarkuru and then moves ahead dividing Yamak mountain, Neelavan, Uttarkuru, Chandra, Airavat, Malyavan lake in two parts. 84,000 rivers join it. Full of their water it flows in Bhadrashal forest. When Mandar mountain is only two yojan away from it, it turns to the east downwards dividing Malyavan Vakshaskar mountain in two parts, it divides the eastern Videh region located in the east of Mandar mountain into two parts, it flows ahead. 28,000 rivers join it in every Chakravarti Vijay. Thus sixteen multiplied by 28,000 and the 84,000 rivers joined earlier, totally 5,32,000 rivers join it and filled with their water, it passes below Vijay gate through the boundary wall and joins Lavan Ocean. The remaining description is similar to the one already mentioned. Narikanta river flows in the north. Its description is as aforesaid. The only difference is that it turns to the west when Gandhapati VrittVaitadhya mountain is just one yojan away. The remaining description is exactly as mentioned earlier. Its width at the turn of start and when it joins is similar to that of Harikanta river. (Q.) Reverend Sir ! How many are the peaks of Neelaván Varshadhar mountain ? (Ans.] Gautam ! It has nine Koots चतुर्थ वक्षस्कार (385) Fourth Chapter 1$$ 4545454545454545454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 454 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 845555555555555555555555555559) (1) (Koots) Siddhayatankoot, (2) Neelavatkoot, (3) Easternvideh Koot, (4) Sitakoot, (5) Kirtikoot, (6) Narikantakoot, (7) Uppervidehkoot, # (8) Ramyakoots, and (9) Upadarshankoot. All these peaks are 500 yojan high. The capitals of their commanding gods are in the north of Meru. [Q.] Reverend Sir ! Why is Neelavan Varshadhar mountan so named ? (Ans.) Gautam ! A prosperous celestial being who is blue and has blue aura and whose name is Neelavan resides there. Neelavan Varshadhar mountain is totally made of Neelam jewels. So it is called Neelavan. Further this name has been in existance since beginingless time. )))))))5555555555555555555555558 रम्यक् वर्ष RAMYAK VARSH १४०. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णीलवन्तस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, पुरथिम-लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, ॐ पच्चत्थिम-लवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणिअव्वं, णवरं 9 दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणुं अवसेसं तं चेव। 5 [प्र.] कहि णं भन्ते ! रम्मए वासे गन्धावाईणामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णरकन्ताए पच्चत्थिमेणं, णारीकन्ताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमज्झदेसभाए 卐 एत्थ णं गन्धावाईणामं वट्टवेअद्धे पव्वए पण्णत्ते, जं चेव विअडावइस्स तं चेव गन्धावइस्सवि वत्तव्वं, अट्ठो बहवे उप्पलाइं जाव गंधावईवण्णाई गन्धावईप्पभाई पउमे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्टिईए + परिवसइ, रायहाणी उत्तरेणन्ति। [प्र. ] से केणटेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ रम्मए वासे २ ? __ [उ. ] गोयमा ! रम्मगवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, रम्मए अ इत्थ देवे जाव परिवसइ, से तेणठेणं.। १४०. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत रम्यक् नामक क्षेत्र कहाँ पर है ? __ [उ.] गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, रुक्मी पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के 5 पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में रम्यक् नामक क्षेत्र आता है। उसका वर्णन हरिवर्ष क्षेत्र जैसा है। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है, धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का वर्णन उसी (हरिवर्ष) 5 के सदृश है। ॐ [प्र. ] भगवन् ! रम्यक् क्षेत्र में गन्धापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत कहाँ पर है ? * [उ. ] गौतम ! नरकान्ता नदी के पश्चिम में, नारीकान्ता नदी के पूर्व में रम्यक् क्षेत्र के बीचोंबीच गन्धापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत है। विकटापाती वृत्तवैताढ्य का जैसा वर्णन है, वैसा ही इसका है। ज)))))))))) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (386) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर उसी के सदृश वर्णयुक्त, आभायुक्त अनेक उत्पल, पद्म आदि हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली पल्योपम की आयुष्य वाला पद्म नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर में है । [प्र. ] भगवन् ! वह क्षेत्र रम्यक् वर्ष नाम से क्यों पुकारा जाता है ? [ उ. ] गौतम ! रम्यक् वर्ष सुन्दर, रमणीय है एवं उसमें रम्यक् नामक देव निवास करता है, अतः वह रम्यक् वर्ष कहा जाता है। 140. [Q.] Reverend Sir ! In Jambu island, where is Ramyak region ? [Ans.] Gautam ! Ramyak region is located in the north of Neelavan Varshadhar mountain, in the south of Rukmi mountain, in the west of eastern Lavan and in the east of western Lavan Ocean. Its description is similar to that or Harivarsh region. The only difference is that its ridge is in the south and the circular base position is in the north. The remaining description is similar to that of Harivarsh. [Q.] Reverend Sir ! In Ramyak region, where is Gandhapati VrittVaitadhya mountain? [Ans.] Gautam ! In the west of Narkanta river and in the east of Narikanta river, Gandhapati Vritt-Vaitadhya mountain is located in the middle of Ramyak region. Its description is similar to that of Vikatapati Vritt-Vaitadhya mountain. On Gandhapati Vritt-Vaitadhya mountain, there are many types of lotus and the like which have similar colour and aura. A very prosperous celestial being Padma whose life-span is once palyopam resides there. His capital is in the north. [Q.] Reverend Sir ! Why is this region called Ramyak Varsh ? [Ans.] Gautam ! Ramyak Varsh is beautiful and worthy of enjoyment. Further a god whose name is Ramyak resides there. So it is called Ramyak Varsh. रुक्मी वर्षधर पर्वत RUKMI VARSHADHAR MOUNTAIN १४१.[प्र.] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासाहरपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्तरेणं, हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिम- लवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते । पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, एवं जाव चेव महाहिमवन्तवत्तव्यया सा चेव रुप्पिस्सवि, वरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणुं अवसेसं तं चैव । चतुर्थ वक्षस्कार (387) 5555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 595959 Fourth Chapter Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2955 55 5 5 5 5 5 5 5 555 55 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 நிமிமிமித************************மிகமிககE महापुण्डरीए दहे, णरकन्ता नदी दक्खिणेणं णेअव्वा जहा रोहिआ पुरत्थिमेणं गच्छइ । रुप्पकूला उत्तरेणं अव्वा जहा हरिकन्ता पच्चत्थिमेणं गच्छइ, अवसेसं तं चेवत्ति । [प्र. ] रुप्पिंमि णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धे १, रुप्पी २, रम्मग ३, णरकन्ता ४, बुद्धि ५. रुप्पकूला य ६ । हेरण्णवय ७, मणिकंचण ८, अट्ठ य रुप्पिंमि कूडाई ॥ १ ॥ सव्वेवि एए पंचसइआ रायहाणीओ उत्तरेणं । [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरपव्वए २ ? [उ. ] गोयमा ! रुप्पीणामवासहरपव्वए रुप्पी रुप्पपट्टे, रुप्पोभासे सव्वरुप्पामए, रुप्पी अ इत्थ देवे पलि ओवमट्ठिईए परिवसइ, से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइति । १४१. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत कहाँ पर है ? [ उ. ] गौतम ! रम्यक् वर्ष के उत्तर में, हैरण्यवत् वर्ष के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत है। वह पूर्व - पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के सदृश है। इतना अन्तर है - उसकी जीवा दक्षिण में है । उसका धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का सारा वर्णन महाहिमवान् जैसा है। वहाँ महापुण्डरीक नामक द्रह है। उसके दक्षिणी तोरण से नरकान्ता नामक नदी निकलती है। वह रोहिता नदी की ज्यों पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। नरकान्ता नदी का शेष वर्णन रोहिता नदी के सदृश है। रूप्यकूला नामक नदी महापुण्डरीक द्रह के उत्तरी तोरण से निकलती है । वह हरिकान्ता नदी की ज्यों पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। बाकी का वर्णन तदनुरूप है। [ प्र. ] भगवन् ! रुक्मी वर्षधर पर्वत के कितने कूट हैं ? [ उ. ] गौतम ! उसके आठ कूट हैं (१) सिद्धायतनकूट, (२) रुक्मीकूट, (३) रम्यक्कूट, (४) नरकान्ताकूट, (५) बुद्धिकूट, (६) रूप्यकूलाकूट, (७) हैरण्यवत्कूट, तथा (८) मणिकांचनकूट । ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। उत्तर में इनकी राजधानियाँ हैं । [प्र. ] भगवन् ! वह रुक्मी वर्षधर पर्वत रुक्मी वर्षधर क्यों कहा जाता है ? [उ. ] गौतम ! रुक्मी वर्षधर पर्वत रजत - निष्पन्न रजत की ज्यों आभामय एवं सर्वथा रजतमय है। वहाँ पल्योपम स्थिति वाला रुक्मी नामक देव निवास करता है, इसलिए वह रुक्मी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। 141. [Q.] Reverend Sir ! Where is Rukmi Varshadhar mountain in Jambu continent? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र (388) Jambudveep Prajnapti Sutra 4 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 ₤1 5 f F F F F F F F 55555555555555555 F F [Ans.] Gautam ! In the north of Ramyak Varsha, in the south of Hairanyavat Varsh, in the west of eastern Lavan Ocean and in the east of western Lavan Ocean, Rukmi Varshadhar mountain is located in Jambu continent. Its length is in east-west direction and breadth is in north-south direction. It is like Maha-Himavan Varshadhar mountain. The only difference is that its ridge is in the south and its circular back region is in the north. The remaining description is similar to that of Maha-Himavan. 卐 Maha-Pundarik lake is located there. Narkanta river starts from its southern gate. It joins eastern Lavan Ocean like Rohita river. The remaining description of Narkanta river is like that of Rohita river. Rupyakula river starts from the northern gate of Maha-pundarik lake. It joins western Lavan Ocean like Harikanta river. The remaining description is the same. [Q] Reverend Sir! How many are the peaks (Koots) of Rumki Varshadhar mountain ? [Ans.] Gautam ! It has eight peaks namely (1) Siddhayatan koot, (2) Rukmi top, (3) Ramyak top, (4) Narkanta top, (5) Buddhi top, (6) Rupyakula top, (7) Hairanyavat top, and F (8) Manikanchan top. F F All these peaks (Koot) are 500 yojan high. Their capitals are in the north. [Q.] Reverend Sir! Why is Rukmi Varshadhar mountain so named ? [Ans.] Gautam ! Rukmi Varshadhar mountain is silvery throughout and emits silvery aura. Rukmi celestial being with a life-span of one palyopam resides there. So it is called Rukmi Varshadhar mountain. 5 हैरण्यवत् वर्ष HAIRANYAVAT VARSH F १४२. [प्र.] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हेरण्णवए णामं वासे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! रुप्पिस्स उत्तरेणं, सिहरिस्स दक्खिणेणं, पुरत्थिम- लवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिम- लवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते एवं जह चेव हेमवयं तह चैव हेरण्णवयंपि भाणिअव्वं, णवरं जीवा दाहिणेणं, उत्तरेणं धणुं अवसिटं तं चेवत्ति । [प्र. ] कहि णं भन्ते ! हेरण्णवए वासे मालवन्तपरिआए णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते ? चतुर्थ वक्षस्कार 155555555555555555 卐 卐 卐 457 卐 卐 4575 [ उ. ] गोयमा ! सुवण्णकूलाए पच्चत्थिमेणं, रुप्पकूलाए पुरत्थिमेणं एत्थ णं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवन्तपरिआए णामं वट्टवेअड्डे पण्णत्ते । जह चेव सद्दावई तह चेव मालवन्तपरिआएवि, 5 (389) Fourth Chapter 47 சு 555555555555555555555555555558 卐 卐 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 5 9999999 9999999 99552 उप्पलाई पउमाई मालवन्तप्पभाई मालवन्तवण्णाई मालवन्तवण्णाभाई पभासे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पओिवमट्ठिईए परिवसइ, से एएणट्टेणं., रायहाणी उत्तरेति । [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ - हेरण्णवए वासे २ ? [उ. ] गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रुप्पीसिहरीहिं वासहरपव्यएहिं दुहओ समवगूढे, णिच्चं हिरण्णं दलइ, णिच्चं हिरण्णं मुंचइ, णिच्चं हिरण्णं पगासइ, हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एएणट्टेणंति । १४२. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत् क्षेत्र कहाँ पर स्थित है ? फ्र [उ.] गौतम ! रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत के उत्तर में, शिखरी नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत् क्षेत्र ५ है । जैसा हैमवत् का वर्णन है, वैसा ही हैरण्यवत् क्षेत्र का समझना चाहिए। इतना अन्तर है उसकी जीवा दक्षिण में है, धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का सारा वर्णन हैमवत्-सदृश है। ५ y [प्र. ] भगवन् ! हैरण्यवत् क्षेत्र में माल्यवंतपर्याय नामक वृत्त वैताढ्य पर्वत कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! सुवर्णकूला महानदी के पश्चिम में, रूप्यकूला महानदी के पूर्व में हैरण्यवत् क्षेत्र के ५ बीचोंबीच माल्यवंतपर्याय नामक वृत्त वैताढ्य पर्वत है। जैसा शब्दापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत का वर्णन है, वैसा ही माल्यवंतपर्याय वृत्तवैताढ्य पर्वत का है। उस पर उस जैसे प्रभायुक्त, वर्णयुक्त, आभायुक्त उत्पल ५ तथा पद्म आदि हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम की आयुष्य वाला प्रभास नामक देव निवास 5 करता है। इन कारणों से वह माल्यवंतपर्याय वृत्तवैताढ्य कहा जाता है। राजधानी उत्तर में है। [ प्र. ] भगवन् ! हैरण्यवत् क्षेत्र इस नाम से किस कारण कहा जाता है ? [ उ. ] गौतम ! हैरण्यवत् क्षेत्र रुक्मी तथा शिखरी नामक वर्षधर पर्वतों से दो ओर से घिरा हुआ है । वह नित्य हिरण्य - स्वर्ण देता है, नित्य स्वर्ण छोड़ता है, नित्य स्वर्ण प्रकाशित करता है, जो स्वर्णमय शिलापट्टक आदि के रूप में वहाँ यौगलिक मनुष्यों के शय्या, आसन आदि उपकरणों के रूप में उपयोग आता है, वहाँ हैरण्यवत् नामक देव निवास करता है, इसलिए वह हैरण्यवत् क्षेत्र कहा जाता है। 142 [Q.] Reverend Sir ! In Jambu continent, where is Hairanyavat region located? [Q] Reverend Sir ! In Hairanyavat region where is Malyavant - paryaya Vritt Vaitadhya mountain? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (390) 55 फ्र फ [Ans.] Gautam ! In the north of Rukmi Varshadhar mountain, in the 5 south of Shikhari Varshadhar mountain, in the west of eastern Lavan Ocean, in the east of western Lavan Ocean, Hairanyavat region is located in Jambu continent. Its description is the same as that of Haimavat region. The only difference is that its ridge is in the south and the circular back portion is in the north. The remaining description is like Haimavat. 4 Y Y Jambudveep Prajnapti Sutra Y Y 159 फ्र 卐 卐 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2 К 5 5 F [Ans.] Gautam ! In the west of Suvarnakula river, in the east of Rupyakula river, Malyavant-paryaya Vritt Vaitadhya mountain is located in the middle of Hairanyavat region. Its description is similar to that of Shabdapati Vritt Vaitadhya mountian. The lotus flowers Utpal Padma and the like of simialr brightnees, colour and aura are on it. A y very prosperous celestial being with life-span of one palyopam whose y name is Prabhas resides on it. So Malyavant-Paryaya Vritt Vaitadhya mountain is so named. Its capital is in the north. y [Q.] Reverend Sir ! Why is Hairanyavat region so named ? [Ans.] Gautam ! Hairanyavat region is surrounded by Rukmi and Shikhari Varshadhar mountains from two sides. It produces gold throughout and shines like gold. That gold is used like golden slab and the like for the bed, seats and suchlike articles by Yugalik (twin) human f beings. 近 LE 45 45 45 फफफफफफफफफफफक क शिखरी वर्षधर पर्वत SHIKHARI VARSHADHAR MOUNTAIN १४३ . [ प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, ५ पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिमवन्तो तह चेक सिहरीवि, णवरं जीवा दाहिणेणं, धणुं उत्तरेणं, अवसट्ठि तं चैव । पुण्डरीए दहे, सुवण्णकूला महाणई दाहिणेणं णेअब्बा जहा रोहिअंसा पुरत्थिमेणं गच्छइ, एवं जह चेव गंगासिन्धुओ तह चैव रत्तारत्तवईओ णेअव्वाओ पुरत्थिमेणं रत्ता पच्चत्थिमेण रत्तवई, अवसिद्धं तं चैव । [प्र. ] सिहरिम्मि णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा -1 - सिद्धाययणकूडे १, सिहरिकूडे २, हेरण्णवयकूडे ३, सुवण्णकूलाकूडे ४, सुरादेवीकूडे ५, रत्ताकूडे ६, लच्छीकूडे ७, रत्तवईकूडे ८, इलादेवीकूडे ९, एरवयकूडे १०, तिगिच्छकूडे ११ | Y एवं सव्वेवि कूडा पंचसइआ, रायहाणीओ उत्तरेणं । [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवमुच्चइ सिहरिवासहरपव्वए २ ? [उ.] गोयमा ! सिहरिंमि वासहरपव्वए बहवे कूडा सिहरिसंटाणसंटिआ सव्वरयणामया सिहरी अ इत्थ देवे जाव परिवसइ, से तेणट्ठे० । १४३. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत शिखरी नामक वर्षधर पर्वत कहाँ है ? [ उ. ] गौतम ! हैरण्यवत् के उत्तर में, ऐरावत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में शिखरी नामक वर्षधर पर्वत है। वह चुल्ल हिमवान् के सदृश है। इतना Fourth Chapter चतुर्थ वक्षस्कार फ्र 4 4 (391) y hhhh 4 ५ ५ ५ ५ ५ 45 ५ ५ ५ ५ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज)))))))))))5555555555555555555555555555555555558 ॐ अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है। उसका धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का वर्णन पूर्व वर्णित चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के अनुरूप है। 卐 उस पर पुण्डरीक नामक द्रह है। उसके दक्षिणी तोरण से सुवर्णकूला नामक महानदी निकलती है। + वह रोहितांशा की ज्यों पूर्वी लवणसमुद्र में मिलती है। यहाँ रक्ता तथा रक्तवती का वर्णन भी वैसा ही है समझना चाहिए जैसा गंगा तथा सिन्धु का है। रक्ता महानदी पूर्व में तथा रक्तवती पश्चिमी में बहती है। 5 [शेष वर्णन गंगा-सिन्धु के समान है।] [प्र. ] भगवन् ! शिखरी वर्षधर पर्वत के कितने कूट हैं ? म [उ. ] गौतम ! उसके ग्यारह कूट हैं-(१) सिद्धायतनकूट, (२) शिखरीकूट, (३) हैरण्यवत्कूट, (४) सुवर्णकूलकूट, (५) सुरादेवीकूट, (६) रक्ताकूट, (७) लक्ष्मीकूट, (८) रक्तावतीकूट, 5 (९) इलादेवीकूट, (१०) ऐरावतकूट, (११) तिगिच्छकूट। । ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इनके अधिष्ठायक देवों की राजधानियाँ उत्तर में हैं। [प्र. ] भगवन् ! यह पर्वत शिखरी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? [उ. ] गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत पर बहुत से कूट उसी के-से आकार में अवस्थित हैं, ॐ सर्वरत्नमय हैं। वहाँ शिखरी नामक देव निवास करता है, इस कारण वह शिखरी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। 143. [Q.) Reverend Sir ! In Jambu continent, where is Shikhari Varshadhar mountain located ? [Ans.] Gautam ! In the north of Hairanyavat, in the south of Airavat, in the west of eastern Lavan Ocean and in the east of western Lavan Ocean, Shikhari Varshadhar mountain is located. It is like Chull Himavan. The only difference is that its ridge is in the south and the circular back area is in the north. The remaining description is like the already described Chull Himavan Varshadhar mountain. Pundarik lake is located on it. From its southern gate, Suvarnakula river starts. It joins eastern Lavan Ocean like Rohitansha river. The description of Rakta and Raktavati rivers may be understood as similar to that of Ganga and Sindhu rivers. Rakta river flows in the east while Raktavati river flows in the west. (The remaining description is similar to that of Ganga and Sindhu) (Q.) Reverend Sir ! How many are the peaks of Shikhari Varhshadhar mountain ? [Ans.] Gautam ! It has eleven peaks namely (1) Siddhayatan koot, (2) Shikhari peak, (3) Hairanyavat peak, (4) Suvarnkool peak, (5) Suradevi peak, (6) Rakta peak, (7) Lakshmi | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (392) Jambudveep Prajnapti Sutra R5555555555555555555555555155953 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))) )) ) )) )) ))) )) $ peak, (8) Raktavati peak, (9) Iladevi peak, (10) Airavat peak, and 4 (11) Tiginchchh peak. ऐरावत वर्ष AIRAVAT VARSH १४४. [प्र. ] कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं, उत्तरलवणसमुदस्स दक्खिणेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते। खाणुबहुले, कंटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्स वत्तव्वया सच्चेव सव्वा निरवसेसा अव्वा। सओअवणा, म सणिक्खिमणा, सपरिनिव्याणा। णवरं एरावओ चक्कवट्टी, एरावओ देवो, से तेणट्टेणं एरावए वासे २।। १४४. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत नामक क्षेत्र कहाँ पर है ? [उ. ] गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत के उत्तर में, उत्तरी लवणसमुद्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत नामक क्षेत्र है। वह स्थाणु-बहुल है-शुष्क काठ की बहुलता से युक्त है, कंटकबहुल है, इत्यादि उसका सारा वर्णन भरतक्षेत्र के समान है। वहाँ षट्खण्ड साधन, प्रव्रज्या या दीक्षा तथा परिनिर्वाण-मोक्ष सहित है-ये सब कार्य साध्य हैं। इतना अन्तर है-वहाँ ऐरावत नामक चक्रवर्ती होता है, ऐरावत नामक अधिष्ठायक-देव है, इस कारण वह ऐरावत क्षेत्र कहा जाता है। कार समाप्त ॥ 144. (Q.) Reverend Sir ! In Jambu continent, where is Airavat region ? [Ans.] Gautam ! In the north of Shikhari Varshadhar mountain, in the south of northern Lavan Ocean, in the west of eastern Lavan Ocean and in the east of western Lavan Ocean Airavat region is located in Jambu island. It has very much dry wood thorns and the like. Its entire description is like that of Bharat region. This region is capable of s providing all the six means namely renunciation or Diskha and Salvation or liberation (from worldly state) and suchlike. The only difference is that king emperor (Chakravarti) named Airavat is here. So it is called Airavat region. • FOURTH CHAPTER CONCLUDED • )) )) 卐555555555555555555555555555555555555))))))) ))) )) )) )) )) ) ) ) ))) )) | चतुर्थ वक्षस्कार (393) Fourth Chapter 卐)) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295959595959595959595959 55 5 5 5 555595555555592 குழழக்கமிமிமிமிழதழததNதமிமிமிமிததமி***தமி*******து! 卐 अधोलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव FUNCTION OF DIK-KUMARIS OF LOWER WORLD १४५. जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टिविजए भगवन्तो तित्थयरा समुप्पज्जन्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्याओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं, सएहिं २ भवणेहिं, 5 सएहिं २ पासायवडेंसएहिं, पत्तेअं २ चउहिं सामाणिअ-साहस्सीहिं, चउहिं महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तेहिं अणिआहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अण्णेहि अ बहूहिं भवणवइ - वाणमन्तरेहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडाओ महया हयणट्टगीयवाइअ जाव भोग भोगाई भुंजाणीओ विहरंति, तं जहा पंचम वक्षस्कार FIFTH CHAPTER फ्र तए णं ते आभिओग देवा अणेगखम्भसय जाव पच्चप्पिणंति, तए णं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारी - महत्तरिआओ हट्ठतुट्ठ पत्तेय - पत्तेयं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरिआहिं ( सपरिवाराहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तर्हि अणिआहिवईहिं सोलसएहिं आयरक्ख - देवसाहस्सीहिं) अण्णेहिं बहूहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिवुडाओ ते दिव्वे जाणविमाणे दुरुहंति, दुरूहित्ता सब्बिड्डीए सव्वजुईए घणमुइंग - पणवपवाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहिं दिव्वेहिं 5 जाणविमाणेहिं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करिता उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणिअले ते दिव्वे जाणविमाणे टविंति टवित्ता पत्तेअं २ चउहिं सामाणिअसहस्सीहिं जाव सद्धिं भोगंकरा १ भोगवई २, सुभोग ३ भोगमालिनी ४ । तोयधारा ५ विचित्ताय ६, पुप्फमाला ७ अणिंदिआ ८ ॥ १ ॥ तए णं तासिं अहेलोगवत्थव्याणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेअं पत्तेअं आसणाई चलति । तणं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्तेअं २ आसणाई चलिआई पासन्ति २त्ता ओहिं पउंजंति, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति २ त्ता अण्णमण्णं सद्दाविंति २ त्ता एवं वयासी - उप्पण्णे खलु भो ! जम्बुद्दीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जीयमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्थव्वाणं अहं दिसाकुमारीमहत्तरिआणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मण-महिमं करेत्तए, तं गच्छामो णं अम्हेवि भगवओ जम्मण - महिमं करेमोत्ति कट्टु एवं वयंति २ त्ता पत्तेअं- पत्तेअं आभिओगिए 5 देवे सद्दावेंत २त्ता एवं वयासी- 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अणेग-खम्भ-सय-सण्णिविट्ठे लीलट्ठिअ. एवं विमाण - वण्णओ भाणिअव्यो जाव जोअण-वित्थिथण्णे दिव्वे जाणविमाणे विउव्वित्ता एअमाणत्तियं पच्चपिणहत्ति । 5 संपरिवुडाओ दिव्वेहिंतो जाणविमाणेहिंतो पच्चोरुहंति पच्चोरुहित्ता सब्बिडीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र (394) ததததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததத்தது Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति २ त्ता पत्तेअं २ करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासीमोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदाईए ! सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो अ मुत्तस्स, सव्वजगजीववच्छलस्स, हिअकारग - मग्गदेसिय- वागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सव्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुब्भवस्स जाईए खत्तिअस्स जमसि लोगुत्तमस्स जणी धासि तं पुण्णासि कयत्थासि । अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तण्णं तुब्भेहिं णं भाइव्वं । सिवेणं, इति कट्टु उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति अवक्कमित्ता वेउव्विअसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाइं दंडं निस्सरंति, तं जहा - रययाणं जाव संवट्टगवाए विउव्वंति २ त्ता ते णं मउएणं, मारुणं अणं, भूमितल - विमलकरणेणं, मणहरेणं सव्वोउअसुरहिकुसुमगन्धाणुवासिएणं, पिण्डिमणिहारिमेणं गन्धुडुएणं तिरिअं पवाइएणं भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समन्ता जोअणपरिमण्डलं से जहाणामए कम्मगदारए सिआ जाव तहेव तत्तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइमचोक्खं पूइअं दुब्भिगन्धं तं सव्वं आहुणिअ २ एगन्ते एडेंति २ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवओ तित्थयरस्स अ अदूरसामन्ते आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठति । तित्थरमायाए १४५. जब किसी भी एक चक्रवर्ती - विजय में तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस काल-तृतीय चतुर्थ आरक में उस समय अर्ध रात्रि की वेला में (१) भोगंकरा, (२) भोगवती, (३) सुभोगा, (४) भोगमालिनी, (५) तोयधारा, (६) विचित्रा, (७) पुष्पमाला, तथा (८) अनिन्दिता नामक अधोलोक में निवास करने वाली, महत्तरिका - गौरवशालिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में, अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् विशाल देव परिवार के साथ दिव्य विपुल सुखोपभोग में लीन रहती हैं, तब उनके आसन चलित होते हैं- प्रकम्पित होते हैं। जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं । अवधिज्ञान का प्रयोग कर भगवान तीर्थंकर को देखती हैं। देखकर परस्पर एक-दूसरे को सम्बोधित कर कहती हैं- 'जम्बूद्वीप में भगवान तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। अतीत में हुई, वर्तमान समय में विद्यमान तथा भविष्य में होने वाली, अधोलोकवासिनी हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परम्परागत आचार है कि हम भगवान तीर्थंकर का जन्म - महोत्सव मनाएँ, अतः चलें, भगवान का जन्मोत्सव आयोजित करें।' यों कहकर उनमें से प्रत्येक अपने आभियोगिक देवों बुलाकर, उनसे कहती हैं- 'देवानुप्रियो ! सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित सुन्दर यान - विमान की विमान - - रचना करो | दिव्य विमान तैयार कर हमें सूचित करो।' विमान का वर्णन पूर्वानुरूप है। हम को वे आभियोगिक देव सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित यान - विमानों की रचना करते हैं और सूचित उनके आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न हो गया है। यह जानकर वे अधोलोकवासिनी गौरवशीला करते हैं पंचम वक्षस्कार (395) Fifth Chapter ब 卐 25595555 5 5 5 55 559 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 a 卐 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ) )) ) ) )) ))) ) मध卐ऊ5555555555555555555555555555555555555 55555555555555555555555 $ $$$$$$$$$$$$ दिक्कुमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने चार हजार सामानिक देवों, + यावत् सपरिवार दिव्य यान-विमानों पर आरूढ़ होती हैं। आरूढ़ होकर सब प्रकार की ऋद्धि एवं धुति 5 से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते-गूंजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति :ॐ द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्म-भवन होता है, वहाँ आती हैं। वहाँ आकर दिव्य विमानों में अवस्थित वे 9 भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं। वैसा कर ईशान कोण में अपने फ़ विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊँचे रह जाते हैं, ठहराती हैं। ठहराकर अपने चार हजार + 4 सामानिक देवों, यावत् बहुत से देव-देवियों से संपरिवृत्त दिव्य विमानों से नीचे उतरती हैं। नीचे उतरकर सब प्रकार की समृद्धि लिए, जहाँ तीर्थंकर तथा उनकी माता होती है, वहाँ आती हैं। वहाँ ॥ आकर भगवान तीर्थंकर की तथा उनकी माता की तीन प्रदक्षिणाएँ करती हैं, हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमाकर तीर्थंकर की माता से कहती हैं -हे रत्नकुक्षिधारिके ! अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने. वाली ! जगत्प्रदीपदायिके-जगद्वर्ति-जनों के सर्व-भाव-प्रकाशक तीर्थंकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम म आपको नमस्कार करती हैं। समस्त जगत् के लिए मंगलमय, (सकल जगद्-भाव-दर्शक) समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, # सर्वव्यापक-श्रोत्रवृन्द के हृदयों में अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि से युक्त, 卐 जिन, ज्ञानी, नायक-धर्मवर चक्रवर्ती। उत्तम धर्म-चक्र का प्रवर्तन करने वाले, बुद्ध-ज्ञात तत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्व-बोध देने वाले, समस्त लोक के नाथ-समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का ॐ आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, ममतारहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय-जाति में उद्भूत, लोक ॥ में में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान की आप जननी हैं। आप धन्य, पुण्य एवं कृतकृत्य हैं। ॐ देवानुप्रिये ! अधोलोकनिवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर का + जन्म-महोत्सव मनायेंगी अतः आप भयभीत मत होना। म यों कहकर वे ईशानकोण में जाती हैं। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को + शरीर से बाहर निकालती हैं। आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर उन्हें संख्यात योजन तक दण्डाकार ॐ परिणत करती हैं, यावत् हीरे, नीलम आदि रत्नों के सूक्ष्म पुद्गल ग्रहण करती हैं। फिर दूसरी बार है म वैक्रिय समुद्घात करती हैं, संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं। संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर उस कल्याणकर, भूमि पर धीरे-धीरे बहते, भूमितल को निर्मल, स्वच्छ करने वाले, मनोहर, सब ऋतुओं में ॐ विकासमान पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित, सुगन्ध को पुंजीभूत रूप में दूर तक फैलाने वाले, तिरछे बहते ॥ हुए वायु द्वारा भगवान तीर्थंकर के योजन परिमित परिमण्डल को (घेरे को) चारों ओर से सम्मार्जित करती हैं। जैसे कर्मकर लड़का खजूर के पत्तों से बनी बड़ी झाडू को, हत्थेयुक्त झाडू को या बाँस की सीकों से बनी झाडू को लेकर राजमहल के आँगन, रनवास, देव-मन्दिर, सभा प्याऊ-जलस्थान, नगर के समीपवर्ती बगीचे को, उद्यान, मनोरंजन के निमित्त निर्मित बाग को जल्दी न करते हुए, चपलता न करते हुए, उतावल न करते हुए लगन के साथ, चतुरतापूर्वक सब ओर से झाड़-बुहारकर साफ कर फ़ देता है, उसी प्रकार वे दिक्कुमारियाँ संवर्तक वायु द्वारा तिनके, पत्ते, लकड़ियाँ, कचरा, अशुचि, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra )) )) ) 8555555554 卐4) (396) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Devee प्रभु ऋषभ जन्म महोत्सव छप्पन दिशा कुमारियो भीरकर की माता का सूतिका कर्म करते हुये एवं जन्मोत्सव मनाते हुए। दिशा कैमारियों चतुःशाल भवन में तीर्थकर प्रभु को संगन्धित तेल, उबटन लगाकर स्नान की तैयारियों करती है। 15 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @फ़फ़फ़फ़फ़फफफफफफफफफफफफफ 55555555555555555555 फ्र चित्र परिचय १५ ऋषभ जन्म महोत्सव प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का पृथ्वी पर अवतरण होते ही सम्पूर्ण लोक में अलौकिक प्रकाश छ गया। क्षण भर के लिये तीनों लोकों के जीवों ने अपार हर्ष और आनन्द का अनुभव किया। उसी समय ५६ दिक्कुमारियों का आसन कम्पायमान होने लगा। उन्होंने अपने ज्ञान के उपयोग से देखा - "अहो ! जम्बूद्वीप में प्रथम तीर्थंकर भगवन् उत्पन्न हुए हैं।" उन्होंने प्रभु को वन्दन नमस्कार किया और तत्क्षण प्रभु का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी की ओर चल दीं। 卐 सर्वप्रथम अधोलोकवासिनी भोगंकरा आदि आठ दिशाकुमारियाँ जन्मगृह में पहुँची और माता-पुत्र को वन्दन कर वातावरण की अशुचि को दूर किया। उसके पश्चात् ऊर्ध्वलोक में रहने वाली मेंघकरा आदि आठ दिशाकुमारियाँ आईं और वातावरण में दिव्य धूप आदि लगाकर उसे पवित्र देवागमन योग्य बना दिया। तदुपरान्त 5 क्रमश: पूर्व के रूचक कूट से आठ, दक्षिण के रूचक कूट से आठ, पश्चिम रूचक कूट से आठ, उत्तर रूचक कूट से आठ दिक्ककुमारियाँ आईं और हाथ में चामर आदि ले मंगलगीत गातीं माता के चारों ओर खड़ी हो गईं। फिर विदिशा से चार और मध्य रूचक से चार दिशाकुमारियाँ आईं और माता का सुतिका कर्म किया। फिर मध्य रूचक पर्वत पर रहने वाली चार दिशाकुमारियाँ माता मरुदेवी को चतुशाल भवन में ले आई और पर बैठा दिया। माता-पुत्र दोनों के शरीर पर सुगंधित तेल, उबटन, पीठी आदि का विलेपन किया। तदुपरान्त गन्धोदक, पुष्पोदक आदि से स्नान कराकर माता को गर्भ गृह में लाकर शय्या पर बैठा दिया और मंगल गीत गाती हुई हर्षित हो शय्या के चारों ओर नृत्य आदि करने लगीं। 1 BIRTH CELEBRATIONS OF RISHABH With the birth of the first Tirthankar, Bhagavan Risabhadeva the whole universe was filled with divine light. For a moment all beings of the three worlds experienced unending joy and happiness. At that moment the thrones of 56 goddesses of directions started trembling. Using their divine knowledge they saw "Oh! The first Tirthankar has taken birth in Jambudveep." They paid homage and obeisance to Prabhu and at once left for earth to celebrate the birth of Prabhu. around सिंहासन First of all eight directional goddesses (Dishakumaris) including Bhogankara from the lower world came to the delivery room. They paid homage to the mother and child and purified the atmosphere. Then came eight directional goddesses (Dishakumaris) including Meghankara from the upper world came and burnt incenses and other fragrant things to make the atmosphere suitable for divine beings. Thereafter one after another came eight from the Ruchak peak in the east, eight from the Ruchak peak in the south, eight from the Ruchak peak in the west, and eight Dishakumaris from the Ruchak peak in the south. They took whisks and other things in their hands and stood around the mother singing auspicious songs. Then came four Dishakumaris from intermediate directions and four from the central Ruchak peak and performed the post birth cleansing of the mother. At last the four Dishakumaris from central Ruchak peak brought mother Marudevi in the Chatushal building and seated her on a throne. They applied perfumed oils, creams and pastes on the bodies of the mother and the baby. After this the helped them take bath with perfumed water, and water with floral and herbal essences. After all this they brought her to the central hall and seated her on the bed. Singing auspicious songs they all danced with joy the bed. - वक्षस्कार ५, सूत्र १४५ -Vakshaskar-5, Sutra-145 $ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9559 卐 655555555555555555555556 卐 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555 卐 5 मलिन, सड़े हुए, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को उठाकर, परिमण्डल से बाहर एकान्त में अन्यत्र डाल देती हैं- परिमण्डल को संप्रमार्जित कर स्वच्छ बना देती हैं। फिर वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। उनसे न अधिक समीप तथा न अधिक दूर अवस्थित हो मन्द स्वर से गान करती हैं, फिर क्रमशः उच्च स्वर गान करती हैं। 卐 卐 145. When in any Chakravarti Vijay a Tirthankar is born in third or fourth aeon of the time-period, the influential eight Dik-Kumaris, 45 residing in (1) Bhogankara, (2) Bhogavati, (3) Subhoga, (4) Bhog-malini, (5) Toyadhara, (6) Vichitra, (7) Pushpamala, and (8) Anindita regions of the lower world, enjoying themselves in their mansions, forts, peaks alongwith 4,000 co-chiefs and a large family of celestial beings, find their seats trembling. 556 46 46 46 467 468 460 When the said eight Dik-Kumaris of lower world find their seats trembling, they make use of their visual knowledge. In their visual knowledge, they see the Tirthankar and addressing among themselves they say, 'When any Tirthankar is born in Jambu island, it has been a tradition with the Dik-Kumaris in the past, of the present and those who shall be in future, that the eight Dik-Kumaris of the lower world, celebrate the birth of the Tirthankar. So, we should go and arrange the function in honour of the birth of the Tirthankar. Saying so, every one of them called their abhiyogik (serving) gods and ordered them, 'O beloved of gods! Prepare a beautiful Viman supported on hundreds of pillars and inform us after doing the needful.' The description of the Viman is the same as mentioned earlier. 5 पंचम वक्षस्कार (397) 555555555555 卐 45 45 45 457 卐 Those abhiyogik gods, prepare a Viman supported on hundreds of pillars and then inform them that the needful has been done. At this those influential Dik-Kumaris of the lower world feel happy and satisfied. Then each of them along with their co-chiefs board the respective Vimans. Thereafter with the wealth and brightness of all types and in the music of drums and other musical instruments ringing like clouds, they, at a very fast speed, come to the place where Tirthankar has taken birth. They then in their divine Vimans go around that place three times. Thereafter, they stop their divine vehicles four 卐 fingers above the ground. Then, they get down from their divine vehicles 卐 alongwith four thousand co-chiefs and many gods and goddesses. Then come to the mother of the Tirthankar with all types of symbolic material and go around the mother of the Tirthankar three times. Then, they fold their hands move the folded hands around the forehead and tell the Fifth Chapter 55 卐 卐 卐 475 47 457 5 5 455 475 47 卐 卐 45 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 57 555555555555555555555555555555555 mother of the Tirthankar-"O the grand lady, having a grand personality in the womb ! O the lady having Tirthankar in the womb ! O the lady providing the lamp in the form of omniscient Tirthankar to the world. F We bow to you. You are the mother of the unique Tirthankar, who is going to be compassionate to all living beings of the world, who is going to propagate the path of right faith, right knowledge and right conduct and who is having capability of delivering his message in such a language that is going to have an all round effect in the hearts of the people. He is going to be the one perfect in control of senses, possessor of perfect knowledge and excellent propounder of Dharma. He is going to start the wheel of excellent Dharma. He is going to have perfect knowledge. He is knower of all the essence of Dharma. He is going to provide knowledge of basic elements. He is the master of the entire world. He is going to provide the seed of true knowledge in all the living beings and after doing so, he is going to provide welfare to all, having no attachment at all. He is born in the best clan, in kshatriya caste and is the best of all in the world. You are really very lucky, meritorious and praise-worthy." "O blessed of gods! We, the eight head Dik-kumaris of the lower world shall celebrate the birth of the Tirthankar. So, please do not feel afraid." 455 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 Saying so, they go to the north-east corner. There with fluid process they spread the space-points of their soul outside their physical body and then convert them in the shape of a rod numerable yojan long. Then, they assimilate subtle particles of diamonds, neelam and precious stones. Then again they do the fluid process. Thereafter, they create flowing wind and blowing slowly they make the earth clean and fragrant with beautiful flowers blossoming in all seasons. Then, they clean and make fragrant the space upto one yojan from all sides with the wind blowing in oblique direction that spreads that fragrance in all directions in plenty. Just as a labourer with a broom made of palm-leaves or with a broom of bamboo threads cleans the courtyard of heaven, palace, temple, assembly hall, water closet, an orchard near a town, a garden, a park made for worldly recreation, cleans patiently, in a discreet manner with full zeal, clearing all the protruding unnecessary branches. Similarly the Dik-kumaris with winds moving in a circle clear the earth of all the leaves, wooden pieces, impure material, refuse, dirty matter and collect it outside that area in a lonely place. Then, those Dik-kumaris come to 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra (398) 555555555555555555555 47 65555555555555555555555555555555555555555555555550 卐 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the Tirthankar and his mother. They stay neither very near nor very far from them and sing in a low voice. Thereafter, they sing in a loud voice. ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव CELEBRATION BY DIK-KUMARIS OF UPPER WORLD १४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोग-वत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी-महत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं, सरहिं २ भवणेहिं, सएहिं २ पासाय-वडेंसएहिं पत्तेअं २ चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुबवण्णिअंजाव विहरंति, तं जहा मेहकंरा १ मेहवई २, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४। सुवच्छा ५, वच्छमित्ता य ६, वारिसेणा, ७ बलाहगा ८॥१॥ तए णं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरिआणं पत्तेअं २ आसणाई चलन्ति, एवं तं चेव पुब्ववण्णिसं भाणिअव्वं। ज जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुब्भेहिं ण भाइअव्वं ति कट्ठ उत्तर-पुरस्थिमं दिसीभागं + अवक्कमन्ति अवक्कमित्ता जाव अभवद्दलए विउव्वन्ति विउवित्ता तं निहयरयं, गट्ठरयं, भट्ठरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति करित्ता खिप्पामेव पच्चुवसमन्ति, एवं पुप्फवद्दलंसि पुष्फवासं वासंति, वासित्ता म कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति २ ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छन्ति जाव आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठति। १४६. उस काल उस समय (१) मेघंकरा, (२) मेघवती, (३) सुमेघा, (४) मेघमालिनी, (५) सुवत्सा, (६) वत्समित्रा, (७) वारिषेणा, तथा (८) बलाहका नामक, ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाली, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर. अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में है + अपने चार हजार सामानिक देवों, यावत् देव परिवार के साथ विपुल सुखोपभोग में अभिरत थीं, उनके 5 आसन चलित होते हैं। शेष वर्णन पूर्ववत्। ___ वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर की माता से कहती हैं-देवानुप्रिये ! हम ऊर्ध्वलोकवासिनी : विशिष्ट दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनायेंगी। अतः आप भयभीत मत होना। , यों कहकर वे ईशान कोण में चली जाती हैं। आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, यावत् भगवान के जन्म-भवन के चारों ओर दिव्य सुगन्धयुक्त झिरमिर-झिरमिर जल बरसाती हैं। उससे धूल-जम 5 जाती है, नष्ट हो जाती है, वर्षा के साथ चलती हवा से उड़कर दूर चली जाती है, प्रशान्त हो जाती भी है-उपशान्त हो जाती है। फिर वे बादल शीघ्र ही प्रत्युपशान्त हो जाते हैं। म तत्पश्चात् वे ऊर्ध्वलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ पुष्पों के बादलों की विकुर्वणा करती हैं। म यावत् राजमहल के आँगन आदि परिसर में पंचरंगे, वृत्त सहित फूलों की इतनी विपुल वृष्टि करते हैं कि उनका घुटने-घुटने तक ऊँचा ढेर हो जाता है। फिर वे काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप म की गमगमाती महक से वहाँ के वातावरण को देवराज इन्द्र के अभिगमन योग्य बना देती हैं। ऐसा कर के 5555555555)))))))))))))))))))))))))))))) पंचम वक्षस्कार (399) Fifth Chapter 555555555555555555555;))))))))))) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 055555555555555555555555555555555555 卐)))))))))))))))))) 卐5555555555555 ॐ वे भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माँ के पास आती हैं। वहाँ आकर आगान, परिगान-एक बार गाना, बार-बार गाना करती हैं। 146. At that time during that period. eight chief Dik-kumaris namely—(1) Meghankara, (2) Meghawati, (3) Sumegha, (4) Meghmalini, (5) Suvatsa, (6) Vatsamitra, (7) Varishena, and (8) Balahaka were living in upper universe. They were enjoying themselves with their 4,000 cochiefs and there families of celestial beings in their koots, palaces and mansions. They were fully absorbed in worldly pleasures when their 4 seats started moving. The remaining is similar to the one mentioned 卐 earlier. Those Dik-kumaris address the mother of Tirthankar, "O beloved of gods ! We, the principal Dik-kumaris of upper universe shall celebrate the birth of the Tirthankar in a big way. So, you should not feel afraid. Thereafter, they go in the north-east. They start fluid process like clouds upto that they cause a light drizzle of divine fragrant water drops in all the sides of the mansion where Tirthankar was born. Thus, the dust settles. It dies out. It moves away with the moving wind. It subsides. It 45 cools down. Thereafter, the clouds also subside quickly. Thereafter, the eight Dik-kumaris of upper universe create flowers with fluid process upto that they fill the courtyard and the like of the palace with flowers of five colours to such an extent that the land of the courtyard becomes higher upto knee-height due to flowers. Then, they make the environment suitable for the arrival of god Indra with the fragrance of agar, best type kundaruk, lobaan and incense. Then, they come to the mother of the Tirthankar. Then, they sing once and again they sing repeatedly. ॐ रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव CELEBRATION BY DIK-KUMARIS OF RUCHAK AREA १४७. [१] तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरथिम रुअगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ * सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति, तं जहा णंदुत्तरा य १, णन्दा २, आणन्दा ३, गंदिवद्धणा ४। विजया य ५, वेजयन्ती ६, जयन्ती ७, अपराजिआ ८॥१॥ ___ सेसं तं चेव तुब्भाहिं णं भाइअवंति कटु भगवओ तित्थगरस्स तित्थयरमायाए अ पुरथिमेणं 卐 आयंसहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुअगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ तहेव जाव विहरंति, 卐 तं जहा | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (400) Jambudveep Prajnapti Sutra B5555555555555555555555545555555555 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहारा १, सुप्पइण्णा २, सुप्पबुद्धा ३, जसोहरा ४। लच्छिमई ५, सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७, वसुंधरा ८॥१॥ तहेव जाव तुम्भाहिं न भाइअव्वंति कटु भगवओ तित्थयरप्स तित्थयरमाऊए अ दाहिणेणं भिंगारहत्थगयाओ आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं पच्चत्थिमरुअगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं जाव विहरंति, तं जहा इलादेवी १, सुरादेवी २, पुहवी ३, पउमावई ४। एगणासा ५, णवमिआ ६, भद्दा ७, सीआ य अट्ठमा ८॥१॥ तहेव जाव तुब्भाहिं ण भाइअव्वंत्ति कटु जाव भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ पच्चत्थिमेणं तालिअंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्ल रुअगवत्थव्वाओ जाव विहरंति, तं जहा अलंबुसा १, मिस्सकेसी २, पुण्डरीआ य ३, वारुणी ४। हासा ५, सव्वप्पभा ६, चेव, सिरि ७, हिरि ८, चेव उत्तरओ॥१॥ तहेव जाव वन्दित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं विदिस-रुअगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जाव विहरंति, तं जहा-चित्ता य १, चित्तकणगा २, सतेरा य ३, सोदामिणी ४।। तहेव जाव ण भाइअव्बंति कटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ चउसु विदिसासु दीविआहत्थगयाओ आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति त्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिम-रुअगवत्थबाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति, तं जहा-(१) रूआ, (२) रुआसिआ, (३) सुरूआ, (४) रुअगावई। तहेव जाव तुभाहिं ण भाइयव्वंति कटु भगवओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्जं णाभिणालं कप्पन्ति, कप्पेत्ता विअरगं खणन्ति, खणित्ता विअरगे णाभिं णिहणंति, णिहणित्ता रयणाण य वइराण य पूरेंति पूरित्ता हरिआलिआए पेढं बन्धंति बंधित्ता तिदिसिं तओ कयलीहरए विउव्वंति। तए णं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तओ चाउस्सालाए विउव्वन्ति, तए णं तेसिं चाउसालगाणं बहुमज्झदेसभाए तओ सीहासणे विउव्वन्ति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, सव्वो वण्णगो भाणिअब्बो। १४७. [१] उस काल, उस समय पूर्वदिग्वर्ती रुचककूट-निवासिनी आठ महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ अपने-अपने कूटों पर सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं पंचम वक्षस्कार (401) Fifth Chapter Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFhhhhhhhh 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步555555555555 5 (१) नन्दोत्तरा, (२) नन्दा, (३) आनन्दा, (४) नन्दिवर्धना, (५) विजया, (६) वैजयन्ती, (७) ! क जयन्ती, तथा (८) अपराजिता। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। तीर्थंकर तथा उनकी माता के श्रृंगार आदि में उपयोगी, दर्पण हाथ में के लिए वे भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता के पूर्व में आगान-परिगान करने लगती हैं। उस काल, उस समय दक्षिण रुचककूट-निवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने-अपने कूटों में + सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) समाहारा, (२) सुप्रदत्ता, (३) सुप्रबुद्धा, (४) यशोधरा, (५) लक्ष्मीवती, (६) शेषवती, (७) के चित्रगुप्ता, तथा (८) वसुन्धरा। आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे भगवान तीर्थंकर की माता से कहती हैं-'आप भयभीत न हों। (सूत्र १४५ वत्) यों कहकर वे भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता के लिए सजल कलश हाथ में लिए दक्षिण में आगान-परिगान करने लगती हैं। है उस काल, उस समय पश्चिम रुचककूट-निवासिनी आठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग ऊ करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं* (१) इलादेवी, (२) सुरादेवी, (३) पृथ्वी, (४) पद्मावती, (५) एकनासा, (६) नवमिका, (७) भद्र, क तथा (८) सीता। आगे का वर्णन सूत्र १४५ वत् है। + वे भगवान तीर्थंकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं-'आप भयभीत न हो।' यों कहकर वे के हाथों में पंखे लिए हुए आगान-परिगान करती हैं। उस काल, उस समय उत्तर रुचककूट-निवासिनी आठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती 9 हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) अलंबुसा, (२) मिश्रकेशी, (३) पुण्डरीका, (४) वारुणी, (५) हासा, (६) सर्वप्रभा, (७) श्री, तथा (८) ह्री। शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् है। वे भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता को प्रणाम कर उनके उत्तर में चँवर हाथ में लिए आगानपरिगान करती हैं। उस काल, उस समय रुचककूट के शिखर पर चारों विदिशाओं में निवास करने वाली चार महत्तरिक । दिक्कुमारिकाएं सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) चित्रा, (२) चित्रकनका, (३) शतेरा, तथा (४) सौदामिनी। आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे आकर भगवान तीर्थंकर की माता से कहती हैं- 'आप डरें नहीं।' यों कहकर भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता के चारों विदिशाओं में अपने हाथों में दीपक लिए के आगान-परिगान करती हैं। उस काल, उस समय मध्य रुचककूट पर निवास करने वाली चार महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ 5 सुखोपभोग करती हुई अपने-अपने कूटों पर विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) रूपा, । (२) रूपासिका, (३) सुरूपा, तथा (४) रूपकावती। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (402) Jambudveep Prajnapti Sutra 35555555 )))))))5555555 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFF LE LE LE LEC LE LE LE LE F LE LE LE LE LE LE LE LE LLLL תתתתתתתתתתת 55555 ***த*****தததததததததததததி*****553 45 आगे का वर्णन पूर्ववत् है । वे उपस्थित होकर भगवान तीर्थंकर की माता को सम्बोधित कर कहती 5 हैं- 'आप डरें नहीं।' इस प्रकार कहकर वे भगवान तीर्थंकर के नाभि - नाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं । नाभि-नाल को काटकर जमीन में खड्डा खोदती हैं। नाभि-नाल को उसमें गाड़ देती हैं और उस खड्डा को वे रत्नों से, हीरों से भर देती हैं । गड्डा भरकर मिट्टी जमा देती हैं, उस पर हरी-हरी दूब उगा देती हैं। ऐसा करके उसकी तीन दिशाओं में तीन कदलीगृह - केले के वृक्षों से निष्पन्न घरों की रचना करती हैं। उन कदली- गृहों के बीच में तीन चतुःशालओं - जिनमें चारों ओर मकान हों, ऐसे भवनों की विकुर्वणा करती हैं। उन भवनों के बीचोंबीच तीन सिंहासनों की विकुर्वणा करती हैं। सिंहासनों का वर्णन पूर्ववत् है । 147. [1] At that time, during that period, eight influential Dikkumaris residing on Ruchak koot in the east, were enjoying themselves in their respective peaks. Their names are (1) Nandotra, (2) Nanda, (3) Ananda, (4) Nandivardhana, (5) Vijaya, (6) Vaijyanti, (7) Jayanti, and (8) Aparajita. The remaining description is similar to the one mentioned earlier. Then holding a mirror used by the mother for make-up in their hands. They sing repeatedly in the east of Tirthankar and his mother. At that time, during that period chief eight Dik-kumaris residing in the western Ruchak koot were enjoying divine pleasures. Their names are (1) Samahara, (2) Supradatta, (3) Suprabuddha, (4) Yashodhara, (5) Laxmivati, (6) Sheshavati, (7) Chitragupta and (8) Vasundhara. Further description is as aforesaid. The say to the mother of Tirthankar-"Please do not be afraid (as in Sutra 145)." Saying thus then stand in south with urns full of water for Tirthankar and his mother and starts singing. During that period of time eight great Dik-kumaris of the western Ruchak-koot spend their time enjoying. Their names are (1) Iladevi, (2) Suradevi, (3) Prithvi, (4) Padmavati, (5) Eknasa, (6) Navamika, (7) Bhadra, and (8) Sita. Their description is the same as mentioned earlier. They adress the mother of the Tirthankar, 'Please do not feel afraid.' Saying so, they sing holding fans in their hand. At that time, during that period eight chief Dik-kumaris of northern Ruchak koot were enjoying themselves. Their names are पंचम वक्षस्कार ( 403 ) 555555555555555555555 Fifth Chapter 6555555555555555555555555555555555555555555558 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफ 卐 (1) Alambusa, (2) Mishrakeshi, (3) Pundarika, (4) Varuni, ( 5 ) Hasa, (6) Sarvaprabha, (7) Shri, and (8) Hri. The entire description is as f mentioned earlier. 卐 They bow to the Tirthankar and his mother and then holding whisks in their hands, they sing. Further description is the same as mentioned earlier. They come to the mother of the Tirthankar and say, 'You do not feel afraid.' Thereafter, holding lamps in their hand, they sing. 卐 फ्र At that time, four chief Dik-kumaris residing in the four sub- 卐 directions at the top of Ruchak koot were enjoying themselves. Their फ्र names are—(1) Chitra, (2) Chitrakanaka, (3) Shatera, and (4) फ्र Saudamini. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ At that time, four chief Dik-kumaris residing on central Ruchak koot were enjoying themselves at their respective koots. Their names are – (1) फ Rupa,(2) Rupasika, (3) Surupa, and (4) Rupakavati. 卐 Further, description is the same as mentioned earlier. Presenting 卐 themselves, they address the mother of the Tirthankar, 'You do not feel afraid.' Saying so, they cut the umbilical cord at a distance of four fingers from its end. Then, they dig a ditch in the ground and put it in the ditch. They fill the ditch with diamonds and precious stones. Thereafter, they put earth on it and grow green grass on it. Thereafter, they build three houses with banana plantations in three directions. In the area surrounded by banana plantations, they, with fluid process, create three mansions which have houses on all the four sides. In those houses they create three thrones by fluid process. The description of the thrones is the same as mentioned earlier. (404) 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95555555 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 955555 १४७. [ २ ] तए णं ताओ रुअगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हन्ति तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति गिण्हित्ता जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयावेंति २ त्ता सयपाग - सहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अब्भंर्गेति २ त्ता सुरभिणा गन्धवट्टएणं उब्वट्टेति २ त्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हन्ति २ त्ता जेणेव पुरत्थिमिल्ले कयलीहरए, जेणेव चउसालए जेणेव 5 सीहासणे, तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसी आवेंति २ त्ता तिहिं उदएहिं मज्जावेंति । ததததமிமிதிமிதிமிதிமிதிமிதததமிதமிமிமிமிமிமிமிமிததமிழமிழமிழ Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת ת ת ת ת ת ת ת जागा । तं जहा-गन्धोदएणं १, पुष्फोदएणं २ सुद्धोदएणं ३, मज्जावित्ता सव्वालंकारविभूसिअं करेंति २ त्ता, । भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति २ ता जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव । चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे ; णिसीआविंति २ ता आभिओगे देवे सद्दाविन्ति २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! । चुल्लहिमवन्ताओ वासहरपव्वयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह।। ___ तए णं ते आभिओगा देवा ताहिं रुअगमज्झवत्थव्वाहिं चउहिं दिसाकुमारी-महत्तरिआहिं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव विणएणं वयणं पडिच्छन्ति २ त्ता खिप्पामेव चुल्लहिमवन्ताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइं गोसीसचन्दणकट्ठाई साहरन्ति । ___तए णं ताओ मज्झिमरुअगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरगं करेन्ति २ त्ता अरणिं # घडेति, अरणिं घडित्ता सरएणं अरणिं महिंति २ ता अग्गिं पाति २ त्ता अग्गिं संधुक्खंति २ ता म गोसीसचन्दणकट्टे पक्खिवन्ति २ त्ता अग्गिं उज्जालंति २ त्ता समिहाकट्ठाइं पक्खिविन्ति २ ता अग्गिहोमं # करेंति २ त्ता भूतिकम्मं करेंति २ त्ता रक्खापोट्टलिअं बंधन्ति, बन्धेत्ता णाणामणिरयण-भत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिटिआविन्ति भवउ भयवं पव्वयाउए २। ____ तए णं ताओ रुअगमज्झवत्थव्याओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति, गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता तित्थयरमायरं सयणिज्जंसि णिसीआविंति, णिसीआवित्ता भयवं तित्थयरं माउए पासे ठवेंति, ठवित्ता के आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्तीति। १४७. [ २ ] फिर वे मध्यरुचकवासिनी महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा उठाती हैं और तीर्थंकर की माता 2 को भुजाओं द्वारा उठाती हैं। ऐसा कर दक्षिणदिग्वर्ती कदलीगृह में, जहाँ चतुःशाल भवन एवं सिंहासन बनाए गये थे, वहाँ आती हैं। भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। सिंहासन पर बिठाकर उनके शरीर पर शतपाक (सौ प्रकार की जड़ी-बूटियों से पकाया गया हो) एवं सहस्रपाक (हजार प्रकार की जड़ी-बूटियों से पकाया गया) तैल द्वारा अभ्यंगन-मालिश करती हैं। फिर सुगन्धित गन्धाटक से-गेहूँ आदि के आटे के साथ कतिपय पदार्थ मिलाकर तैयार किये गये उबटन या पीठी मलकर तैल की चिकनाई दूर करती हैं। वैसा कर वे भगवान तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा तथा है उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं, जहाँ पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन तथा सिंहासन थे, वहाँ लाती हैं, वहाँ लाकर भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। म सिंहासन पर बिठाकर (१) गन्धोदक-केसर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले जल, (२) पुष्पोदक-पुष्प मिले जल तथा (३) शुद्ध जल केवल जल-यों तीन प्रकार के जल द्वारा उनको स्नान कराती हैं। स्नान 5 कराकर उन्हें सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं। तत्पश्चात् भगवान तीर्थंकर को हथेलियों । के संपुट द्वारा और उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं। उठाकर, जहाँ उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह, । ת ת ת ת ॐॐॐ5555555555555555555555555555555555555555555555 ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת hhhhhhhhhhh पंचम वक्षस्कार (405) Fifth Chapter )) ) )) क)) )))) ))) )) ) ))) ) ) )) )) ) Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 952 卐 5 चतुःशाल भवन एवं सिंहासन था, वहाँ लाती हैं। वहाँ लाकर भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने आभियोगिक देवों को बुलाती हैं । बुलाकर 5 उन्हें कहती हैं- 'देवानुप्रियो ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष चन्दन काष्ठ लाओ।' 卐 卐 卐 फिर मध्य रुचकनिवासिनी वे चार महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के 5 संपुट द्वारा तथा भगवान की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं। उठाकर उन्हें भगवान तीर्थंकर के 5 जन्म - भवन में ले आती हैं। भगवान की माता को वे शय्या पर सुला देती हैं। शय्या पर सुलाकर 卐 5 भगवान तीर्थंकर को माता की बगल में सुला देती हैं। फिर वे मंगल गीतों का आगान - परिगान 5 करती हैं। 卐 *5******************************தமிழி 卐 5 मध्य रुचक पर निवास करने वाली उन महत्तरा दिक्कुमारिकाओं द्वारा यह आदेश दिये जाने पर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, विनयपूर्वक उनका आदेश स्वीकार करते हैं । वे शीघ्र चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं । 卐 5 147. [2] Then the chief Dik-kumaris of central Ruchak area came to the Tirthankar and his mother. They pick up the Tirthankar with their palms and his mother in their arms. Then, they come to the banana plantations in the south, the mansion and the place where the seat was 5 built. They seat the Tirthankar and his mother on the throne. Then, they massage the body of the Tirthankar with the oil prepared by boiling hundreds of herbs and the oil prepared with a thousand herbs. Then, they, after mixing fragrant material in wheat flour, prepare a paste and remove the slipperiness of the oil on the body with this paste. Thereafer, 卐 they pick up the Tirthankar with their palms and his mother in their arms, and bring them to the house built by banana plantation in the east and after bringing them in the mansion seat the Tirthankar and his f mother on the throne. 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएँ शर या बाण जैसा तीक्ष्ण अग्नि- उत्पादक काष्ट-विशेष तैयार करती हैं। उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं। दोनों को परस्पर रगड़ती हैं, अग्नि उत्पन्न करती हैं। अग्नि को उद्दीप्त करती हैं। उद्दीप्त कर उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े डालती हैं। उससे अग्नि प्रज्वलित करती हैं । अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें समिधा - काष्ठ - हवनोपयोगी ईंधन डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं- जिस प्रयोग द्वारा ईंधन भस्मरूप में परिणत हो जाये, वैसा करती हैं। फ्र वैसा कर वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष से - नजर आदि से रक्षा हेतु भगवान तीर्थंकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियाँ बाँधती हैं। फिर नानाविध मणि-रत्नांकित दो पाषाण - गोलक लेकर 卐 वे भगवान तीर्थंकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताड़ित कर 'टिट्टी' जैसी ध्वनि उत्पन्न करती हुई बजाती 5 हैं, जिससे बाललीलावश अन्यत्र आसक्त भगवान तीर्थंकर उन द्वारा बोले गये आशीर्वचन सुनने में दत्तावधान हो सकें। वे मंगल वचन बोलती हैं- 'भगवन् ! आप पर्वत के सदृश दीर्घायु हों ।' 卐 5 फ्र फ्र (406) फ्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 5 5 卐 5 卐 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ urrur ܡܡܡܡܡ 1456441414141414141414141414 46 47 46 456 457 451 451 451 455 456 457 456 457 455 456 457 455 456 457 41 451 41 After seating them there they bath them with water mixed with i fragrant materials, water mixed with flowers and plain water. After the i bath, they decorate them with all types of beautifying articles. i Thereafter, they pick up the Tirthankar with their palms and the mother in their arms. Then, they bring them to the plantation house in the north, the mansion and the throne therein. Thereafter, they call the i abhiyogic gods. They then tell them, 'O believed of gods ! Please bring i gosheersh sandalwood from Chull Himavan mountain.' Abhiyogik gods feel happy and contented on hearing the order of the chief Dik-kumaris of central Ruchak area. They accept the order humbly and quickly bring fresh sandalwood from Chull Himavan Varshadhar F mountain Then the Dik-kumaris of the central Ruchak area, create special E pointed wood as sharp as an arrow that can produce fire. They rub it F with arani wood and produce fire. They brighten the fire and put pieces F of sandalwood in it. Then after enlighting the fire, they put wood and the f relevant material in it used for yajna. Then, they do such an act which may turn the fuel into ash. Then, they tie the packets of that ash to the Tirthankar and his mother seas to safeguard him from evil spirits. Then, they take two stones studded with many jewels and precious stones and striking them near the ears of the Tirthankar produce such a sound which may attract the attention of the Tirthankar for listening to their blessings avoiding attention towards other things. Then, they say, 'Reverend Sir! May you live long ! T Than the said four chief Dik-kumaris residing in central Ruchak area pick up the Tirthankar with their palms and his mother in their arms and bring them to the place where Tirthankar had taken birth. They make the mother of the Tirthankar to sleep on his bed. Thereafter, they & make the Tirthankar sleep by the side of his mother. Then they sing songs related to the occasion. PTE ETT 3REN- FI APPRECIATION OF TIRTHANKAR BY SHAKRENDRA fi 982.[ 9 ] Qui fitoi doi Hugo He i afara, farn, quyrunt, hist, Houth, * सहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणद्ध-लोगाहिवई, बत्तीसविमाणावास-सयसहस्साहिवई, i Trauereu fa, strierererert, 31181844141459, 7984-arefarriere कुण्डलविलिहिज्जमाणगंडे, भासुरबोंदी, पलम्ब-वणमाले, भहिटिए, महज्जुईए, महाबले, महायसे क महाणुभागे, महासोक्खे, सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडिसए विमाणे, सभाए सुहम्माए, सक्कंसि सीहासणंसि, hhhhhhhhhhhhhh55555 乐乐乐 | पंचम वक्षस्कार ( 407 ) Fifth Chapter 95555555555555555555555555555555555556 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555555555))))))) 555555555555555555555555555555555555E से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं, तायत्तीसाए । तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं है अणिआणं, सत्तण्हं अणिआहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं ॐ सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहय-पट्ट-गीय-वाइय-तंतीतल-तालतुडिअ-घणमुइंग卐 पडुपडहवाइअ-रवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ। तए णं से सक्के (दविंदे, देवराया) आसणं म चलिअं पासइ पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ आभोइत्ता हद्वतुट्ठचित्ते, आनंदिए पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहिअए, धाराहय-कयंबकुसुम-चंचुमालइअॐ ऊसविअ-रोमकूवे, विअसिअ-वरकमलनयणवयणे, पचलिअ-वरकडगतुडिअ-केऊ रमउडे, कुण्डलहारविरायंतवच्छे, पालम्बपलम्बमाण-घोलंतभूसणधरे। ज ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ, २ ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ २ त्ता वेरुलिअ-वरिद्वरिट्ठअंजण-निउणोविअमिसिमिसिंत-मणिरयणमंडिआओ पाउआओ ओमुअइ २ ता एगसाडिअं उत्तरासंगं करेइ २ ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणुं धरणीअलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि ॐ निवेसेइ २ त्ता ईसिं पच्चुण्णमइ २ त्ता कडगतुडिअथंभिआओ भुआओ साहरइ २ ता करयलपरिग्गहिअं म सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी+ णमोऽत्थु णं अरहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुण्डरीआणं, पुरिसवरगन्धहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगणाहाणं, लोगहियाणं, के लोगपईवाणं, लोगपज्जोअगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं, दीवो, ताणं, सरण-गई-पइट्ठा-अप्पडिहयवर-नाण-दंसण-धराणं, विअट्टछउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, जतिनाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं, सम्वन्नूणं, सबदरिसीणं, सिव-मयल-मरुअ मणन्त-मक्खय-मब्बावाह-मपुणरावित्ति-सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं, जिअभयाणं। म णमोऽत्थु णं भगवओ तित्थगरस्स आइगरस्स (सिद्धिगइणामधेयं ठाणं) संपाविउकामस्स वदामि णं ॐ भगवन्तं तत्थगयं, इहगए, पासउ मे भयवं ! तत्थगए इहगयंति कटु वन्दइ णमंसइ णमंसित्ता मसीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। ऊ १४८. [ १ ] उस काल, उस समय शक्र नामक देवेन्द्र, देवराज, वज्रपाणि- (हाथ में वज्र धारण + किये), पुरन्दर-पुर-असुरों के नगर-विशेष के दारक-विध्वंसक, शतक्रतु-पूर्व जन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार श्रावक की पंचमी प्रतिमा के परिपालक, सहस्राक्ष-हजार आँखों वाले-अपने पाँच सौ ऊ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आँखों वाले, मघवा-मेघों के-बादलों के नियन्तः, पाकशासन-पाक नामक | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (408) Jambudveep Prajnapti Sutra 听听听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF。 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 5 शत्रु के नाशक, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों के स्वामी, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी 5 करने वाले, सुरेन्द्र, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किये हुए, 卐 फ उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित चंचल - कुण्डलों से जिसके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए, परम ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, महान् बली, महान् यशस्वी, परम प्रभावक, अत्यन्त सुखी, सौधर्मकल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में इन्द्रासन पर होते हुए बत्तीस लाख विमानों, चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, स्थित 5 चार लोकपालों, परिवार सहित आठ अग्रमहिषियों-प्रमुख इन्द्राणियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात फ्र सेनापति देवों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों तथा सौधर्मकल्पवासी अन्य बहुत से देवों तथा देवियों का आधिपत्य, स्वामित्व, प्रभुत्व, अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व - जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार 5 हो, ऐसा सेनापतित्व करते हुए, इन सबका पालन करते हुए, नृत्य, गीत, कला-कौशल के साथ बजाये 卐 जाते वीणा, झांझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गम्भीर तथा मधुर ध्वनि के बीच दिव्य भोगों का आनन्द ले रहा था । 5 卐 फ्र सहसा देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित होता है, काँपता है । शक्र (देवेन्द्र, देवराज) जब फ अपने आसन को चलित देखता है तो वह अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। अवधिज्ञान द्वारा भगवान 5 तीर्थंकर को देखता है। वह हृष्ट तथा परितुष्ट होता है। अपने मन में आनन्द एवं प्रीति - प्रसन्नता का 5 卐 अनुभव करता है। सौम्य मनोभाव और हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठता है । मेघ द्वारा बरसाई 5 जाती जलधारा से आहत कदम्ब के पुष्पों की ज्यों उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं - वह रोमांचित हो उठता 卐 5 है। उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र विकसित हो उठते हैं। हर्षातिरेकजनित आवेगवश फ्र उसके हाथों के कड़े, बाहुरक्षिका - भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखने हेतु धारण की गई आभरणात्मक पट्टिका, केयूर - भुजबन्ध एवं मुकुट सहसा कम्पित हो उठते हैं - हिलने लगते हैं। उसके कानों में कुण्डल शोभा पाते हैं। उसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होता है। उसके गले में लम्बी माला लटकती है, आभूषण झूलते हैं। (इस प्रकार सुसज्जित) देवराज शक्र आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठता है । पादपीठ - (पैर रखने के पीढ़े) पर अपने पैर रखकर नीचे उतरता है। नीचे उतरकर वैडूर्य, श्रेष्ठ रिष्ठ तथा अंजन नामक रत्नों सेनिपुणतापूर्वक कलात्मक रूप में निर्मित, देदीप्यमान, मणि - मण्डित पादुकाएँ पैरों से उतारता है। फ्र पादुकाएँ उतारकर अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग करता है। हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधता है, जिस ओर तीर्थंकर थे उस दिशा की ओर सात-आठ कदम आगे जाता है। फिर अपने बायें घुटने को सिकोड़ता है, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाता है, तीन बार अपना मस्तक भूमि से लगाता है। फिर कुछ ऊँचा उठता है, कड़े तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजाओं को उठाता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे (जुड़े हुए) को मस्तक के चारों ओर घुमाता है और कहता है हाथों अर्हत्-इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्म-शत्रुओं के नाशक, भगवान - आध्यात्मिक ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न, आदिकर - अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्त्तक, तीर्थंकर - साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविका रूप 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 992 चतुर्विध धर्मतीर्थ प्रवर्त्तक, स्वयंसंबुद्ध - स्वयं बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह- आत्म- 5 卐 पंचम वक्षस्कार Fifth Chapter (409) फफफफ 卐 卐 卐 5 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ சுமித்சுமி****த************************** फ्र 卐 5 शौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक - सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों 5 फ में श्रेष्ठ, श्वेत कमल की तरह निर्मल अथवा संसार में रहते हुए भी कमल की तरह निर्लेप, 5 पुरुषवरगन्धहस्ती - - उत्तम गन्धहस्ती के सदृश - जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग फ्र 5 जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते हैं अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, लोकोत्तम - लोक के सभी प्राणियों में उत्तम, फ 卐 5 योग-क्षेम साधने वाले, लोकहितकर-लोक का कल्याण करने वाले, लोकप्रदीप - ज्ञानीरूपी दीपक द्वारा फ्र लोकनाथ - लोक के सभी भव्य प्राणियों के स्वामी- उन्हें सम्यग्दर्शन तथा सन्मार्ग प्राप्त कराकर उनका 5 लोक का अज्ञान दूर करने वाले अथवा लोकप्रतीप - लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी - अध्यात्म-पथ पर फ गतिशील, लोकप्रद्योतकर-लोक-अलोक, जीव-अजीव आदि का स्वरूप प्रकाशित करने वाले अथवा 卐 5 लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, अभयदायक - सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद, चक्षुदायक - सद्ज्ञान 5 5 देने वाले, मार्गदायक - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप साधनापथ के उद्बोधक, फ्र 5 शरणदायक-1 - जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनदायक - आध्यात्मिक जीवन के संबल, 5 बोधिदायक - सम्यक् बोध देने वाले, धर्मदायक - सम्यक् चारित्ररूप धर्म के दाता, धर्मदेशक - धर्मदेशना 5 देने वाले, धर्मनायक, धर्मसारथि - धर्मरूपी रथ के चालक, धर्मवर चातुरन्त - चक्रवर्ती - चार गति का अन्त भव्य प्राणियों के रक्षक, शरण-आश्रय, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरणरहित उत्तम 5 फ करने वाले धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, दीप-दीपक-सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा फ 5 द्वीप - संसार - समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान बचाव के आधार, त्राण - कर्म-कदर्थित 5 5 卐 5 ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्मा - अज्ञान आदि आवरण रूप छद्म से अतीत, जिन- राग, द्वेष आदि के 5 विजेता, ज्ञायक- राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक- राग आदि को जीतने का पथ 5 बताने वाले, तीर्ण - संसार सागर को पार कर जाने वाले, तारक - दूसरों को संसार सागर से पार 5 मोचक - कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग बताने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-कल्याणमय, अचल - स्थिर, 卐 卐 फ्र उतारने वाले, बुद्ध- ज्ञान प्राप्त किये हुए, बोधक - औरों के लिए बोधप्रद, मुक्त- कर्मबन्धन से छूटे हुए, फ्र 卐 अरुक - निरुपद्रव, अनन्त - अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अबाध - बाधारहित, अपुनरावृत्ति - जहाँ से फिर आदिकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक भगवान तीर्थंकर को नमस्कार हो । यहाँ स्थित मैं वहाँ - अपने जन्म-मरण रूप संसार में आगम नहीं होता, ऐसी सिद्धगति - सिद्धावस्था को प्राप्त, भयातीत जिनेश्वरों फ्र 5 को नमस्कार हो । 卐 जन्म-स्थान में स्थित भगवान तीर्थंकर को वन्दन करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान यहाँ स्थित मुझको देखें । 卐 ऐसा कहकर वह भगवान को वन्दन करता है, नमन करता है । वन्दन - नमन कर वह पूर्व की ओर मुँह 5 करके उत्तम सिंहासन पर बैठ जाता है। 卐 卐 148. [1] At that time, during that period, Shakra, the master of celestial beings was enjoying the divine heavenly pleasures. He was holding Vajra in his hands. He was the destroyer of the city of demons. In his earlier life-span, when he was Kartik the nobleman, he had ததததத*******************************தமி***ததிழிதி hundred times observed the fifth restraint of householder. He was Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 (410) फ्र 卐 5 卐 . Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555558 תתתתתתתתתתתתתתתתתתתתם 457 卐 சு 45 卐 557 47 45 57 卐 45 457 45 557 All of a sudden, the seat of Shakra, the master of the heaven 475 trembled when Shakra found his seat trembling he, applying his visual knowledge, saw the Tirthankar. He felt happy and cheerful. He experienced ecstatic pleasure in his heart. His joy knew no bounds. Just as the petals of kadamb flower blossom when they experience rainfall pouring from the clouds, he also felt happy. His face and eyes became cheerful like the excellent lotus. As a result of ecstatic pleasure, the bangles on his wrist, the ornamental belt on his arms worn to keep them stable, the ornament on his arms and his crown started moving. The garlands on his breast, the long garland on his neck and other suchlike ornaments also started moving. 57 557 45 45 45 having a thousand eyes as he was accompanied by 500 ministers. He was 45 controller of clouds. He had overpowered, Pak his enemy. He was the rular of southern half. He was the master of 32 lakh heavenly abodes (Vimans). He was riding his elephant Airavat and was the ruler of celestial beings. He was wearing dress as clean as the sky. He was wearing the crown from which several garlands were hanging. His ears were shining as a result of ear-rings of pure gold which were moving. His body was bright. He was wearing a long garland of flowers. He was highly prosperous, extremely prominent, very strong, very influential and extremely happy while sitting in Saudharma assembly on his seat in Saudharmavatamsak heavenly abode of Saudhama heaven he was the master of 32 lakh Vimans, 84,000 co-chiefs, thirty three advisors, four governors, a family of eight chief-queens, three assemblies, seven armies, seven army chiefs, 3,36,000 celestial beings serving as his bodyguards and many gods and goddesses residing in Saudharma heaven. He was the master, the controller, the leader and director, the head of all of them, while commanding them, he was enjoying dance, music, pleasant sound of violins, drum flute and the like which was sweet and sober like the sound emitting by the clouds. 555 55 45 47 47 Decorated in this fashion, Shakra the master of celestial beings quickly gets up from his seat as a token of respect. He, after putting his feet on the foot-pad, comes down. Then, he removes his shoes. His shoes were made in an excellent artistic manner with Vaidurya, risht and anjan jewels. They were studded with precious stones and shining. After removing his shoes, he wears a piece of cloth, folds his hand and moves seven-eight paces in the direction in which there was the Tirthankar. Thereafter, he folds his left knee and touches the ground with his right पंचम वक्षस्कार (411) 45 557 45 55 Fifth Chapter 45 55 575 55 55 455 45 55 45 卐 45 557 4575 - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 卐 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 451 451 451 451 451 455 456 457 454 4545454545454545 456 457 4554 5555555555555555555555555555555558 155 4 knee. He touches his forehead three times with the ground and then he 4 lifts it a little. Then, he raises his arms stabilised with bangles and H armlets, folds his hands and moves his folded hands around his forehead and says "O the lord, worshipped by god Indra and the like, the destroyer of $. demeritorious Karmas, possessor of the spiritual wealth, the first propagator of Dharma in his time-period, one who has established the four Tirths-namely monks, nuns, male household religious folk, female religious folk in his order, who has got the spiritual excellent knowledge himself, you are most remarkable among man. In self-dependence you i are like a lion. As you are free from all infirmities, you are the best i among human beings. Your conduct is as pure as white lotus. Although you are living among men, you are not attached like lotus. As ordinary elephants run away when the grand elephant (gandh-hasti) arrives, similarly famines, plague and the like are no longer in the area the moment you enter there. In other words your presence has a great influence. You are unique among all the living beings in the world. You are the master of all the meritorious people as you help them in following the right faith, the proper path for spiritual elevation. You are 45 prominent in bringing welfare of the people. You remove ignorance of the universe with the lamp of true knowledge. You move opposite to the ordinary trend of the mundane world and thus move ahead on the spiritual path. You propagate the true nature of the world and other than the world, the living beings and the non-living beings and the like. You teach the people the nature of Dharma. You remove all the fear of 41 the living beings and provide them real knowledge. You are the \ enunciator of the spiritual path of right faith, right knowledge and right conduct. You are the guide for those desiring true knowledge leading to salvation. You are the true support for leading spiritual life. You provide true knowledge. You provide Dharma based an right conduct. You deliver 41 spiritual sermons. You are the driver of the chariot of Dharma. Just as king emperor rules the entire world upto its geographical limits, you are the ruler of the spiritual world. You present true nature of all the things like a lamp. You are like an island for the living beings drowning in the mundane world of birth, death and re-birth. You are the protector of i persons capable of spiritual elevation. You are the support in leading a spiritual life and moving ahead. You possess knowledge and faith which is invincible and free from all obstructions, which is far away from the 1515441415 416 414 415 416 417 41 41 41 455 456 457 454 44 45 46 45 456 457 455 456 45 156 457 455 456 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 454 455 456 457 155 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 154 (412) Jambudweep Prajnapti Sutra 414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555))))))))))) ))))))))))))))555555555555555555555555 15 curtain of ignorance. You have completely overcome the instructs of 4 attachment and hatred. You have all the knowledge of sentiments of attachment and the like. As such you show the path of conquering such feelings of attachment and hatred. You have conquered the ocean of life and death of the mundane world and help others in doing so. You have attained true spiritual knowledge and provide the same to others. You have removed all the bondage of karma and tell others the method of clearing such a bondage. You are omniscient and have perfect condition. You have reached that liberated state which is totally meritorious, stable, free from disturbance, endless, free from destruction, free from obstacles and from where one does not have to re-incarnate in the mundane world. To such perfect souls I bow. My obeisance to the founder of the spiritual path, to the lord desirous of attaining the state of liberation. I bow from here to the Tirthankar ___who is at his birth place. May the lord look at me from there. Saying so, he bows to the lord. Later facing east, he sits on his throne. ॐ जन्मोत्सव की तैयारी PREPARATION FOR BIRTH CELEBRATIONS १४८. [२] तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अयमेवारूवे जाव संकप्पे , समुप्पज्जित्था-उप्पण्णे खलु भो जम्बुद्दीवे दीवे भगवं तित्थररे, तं जीअमेयं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं, देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि णं अहं पि भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेमि त्ति। कटु एवं संपेहेइ २ ता हरिणेगमेसिं पायत्ताणीयाहिवइं देवं सद्दावेति २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! सभाए सुधम्माए मेघोघरसिअं गम्भीरमहुरयरसदं जोयणपरिमण्डलं सुघोस सूसरं घंटे 5 तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे २ महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयाहि-आणवेइ णं भो सक्के देविंदे : देवराया, गच्छइ णं भो सक्के देविंदे देवराया जम्बुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करत्तिए, तं ॥ तुब्भे विणं देवाणुप्पिआ ! सब्बिद्धीए, सव्वजुईए, सबबलेणं, सबसमुदएणं, सव्वायरेणं, सव्वविभूईए, ॐ सबविभूसाए, सबसंभमेणं, सव्वणाडएहिं, सब्बोवरोहेहिं, सव्वपुष्फ-गन्धमल्लालंकारविभूसाए, सव्वदिव्वतुडिअ-सद्दसण्णिणाएणं, महया इद्धीए, जाव रवेणं णिअयपरिआल-संपरिवुडा सयाइं २ . जाणविमाण-वाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स (दविंदस्स देवरण्णो) अंति पाउब्भवह। तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ जाव एवं देवोत्ति के आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता सक्कस्स ३ अंतिआओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव सभाए क सुहम्माए, मेघोघरसिअ-गंभीरमहुरयरसद्दा, जोअणपरिमंडला, सुघोसा घंटा, तेणेव उवागच्छइ २ ता ॥ | पंचम वक्षस्कार (413) Fifth Chapter ज )) )))))))))))))))))))) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र 卐 मेघोघरसिअ - गंभीरमहुरयरसद्दं, जोअण - परिमंडलं, सुघोसं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेइ । तए णं तीसे 卐 मेघोघरसिअ—गंभीरमहुरयर - सद्दाए, जोअण - परिमंडलाए, सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए 卐 5 समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बत्तीसविमाणावास - सयसहस्सेहिं, अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घंटासय सहस्साइं जमग- समगं कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति । तए णं सोहम्मे कप्पे 5 पासायविमाण - निक्खुडावडिअ - सद्दसमुट्ठिअ - घण्टापडेंसुआसयसहस्ससंकुले जाए आवि हत्था इति । 卐 5 तए णं तेसिं सोहम्मकप्पावासीणं, बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीए य एगन्तरइपसत्त - णिच्चपमत्त5 विसयसुहमुच्छिआणं, सूरघण्टारसिअ - विउलबोलपूरिअ - चवल - पडिबोहणे कए 卐 घोसणकोऊ हलदिण्ण - कण्णएगग्गचित्त-उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीआहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि 5 निसंतपडिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं २ देसे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासीति 'हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणिअदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवइणो इणमो वयणं 5 हिअसुहत्थं - अणणवेवइ णं भो (सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो ) अंतिअं पाउन्भवहत्ति । तए णं ते देवा देवीओ अ एयमट्ठे सोच्चा हट्टतुट्ठहिअया अप्पेगइआ वन्दणवत्तिअं एवं पूअणवत्तिअं, सक्कारवत्तिअं समा 卐 5 सम्माणवत्तिअं दंसणवत्तिअं, जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइआ तं जीअमेअं एवमादि ति कट्टु जाव 5 पाउब्भवंति त्ति । उसभ - तुरग - णर- मगर - विहग - वालग - किण्णर - रुरु - सरभ - चमर - कुंजर - वणलय - पउमलय सहस्समालिणीअं, रूवगसहस्सकलिअं, भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लो अणलेसं, सुहफासं, तणं से सक्के देविंदे, देवराया ते वेमाणिए देव देवीओ अ अकाल-परिहीणं चेव अंतिअं फ पाब्भवमाणे पास २ त्ता हट्टे पालयं णामं आभिओगिअं देवं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी फ्र 卐 5 सस्सिरी अरूवं, घंटावलिअ - महुरमणहरसरं, सुहं, कन्तं, दरिसणिज्जं, णिउणोविअ - मिसिमिसिंत खामेव भो देवापिआ ! अणेगखम्भसयसण्णिविट्टं, लीलट्ठिय- सालभंजिआकलिअं, ईहामिअ- 5 मणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं, जोयणसहस्स– वित्थिण्णं, पंचजो अणसयमुब्बिद्धं, सिग्धं, तुरिअं 卐 फ जइणणिव्याहिं, दिव्वं जाणविमाणं विउव्वाहि विउव्वित्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि । 5 भत्तिचित्तं खंभुग्गयवइर - वेइआ - परिगयाभिरामं विज्जाहर-जमलजुअलजंतजुत्तं पिव, अच्ची- 5 卐 १४८. [ २ ] तब देवेन्द्र, देवराज शक्र मन में ऐसा संकल्प उत्पन्न होता है - जम्बूद्वीप में भगवान 1959595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55955555555952 उससे कहता है- 'देवानुप्रिय ! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में मेघसमूह के गर्जन के समान गम्भीर तथा अति 卐 मधुर शब्दयुक्त, एक योजन गोलाई वाली सुन्दर स्वरयुक्त सुघोषा नामक घण्टा को तीन बार बजाते हुए, (414) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ 卐 卐 卐 5 तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। भूतकाल में हुए, वर्तमानकाल में विद्यमान, भविष्य में होने वाले देवेन्द्रों, देवराजों शक्रों का यह परम्परागत आचार है कि वे तीर्थंकरों का जन्म - महोत्सव मनाएँ । इसलिए मैं भी जाऊँ, क भगवान तीर्थंकर का जन्मोत्सव समायोजित करूँ । 卐 देवराज शक्र ऐसा विचार करता है, निश्चय करता है। ऐसा निश्चय कर वह अपनी पदातिसेना के 5 अधिपति हरिणेगमेषी (हरि - इन्द्र के निगम - आदेश को चाहने वाले) नामक देव को बुलाता है। बुलाकर 卐 फ्र . Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज ) )) ))) ) ) )) )) 85555555555555555555555555555555555555 ॐ जोर-जोर से उद्घोषणा करते हुए कहो-देवेन्द्र, देवराज शक्र का आदेश है-वे जम्बूद्वीप में भगवान म तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाने जा रहे हैं। देवानुप्रियो ! आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूति, विभूषा, नाटक-नृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा की परवाह न 卐 करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालाओं तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, + तुनुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि यावत् उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर शीघ्र शक्र (देवेन्द्र, देवराज) के समक्ष उपस्थित हों। देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिणेगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, देवराज शक्र का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार करता है। आदेश स्वीकार कर शक्र के पास से ॐ निकलता है। निकलकर, जहाँ सुधर्मा सभा है एवं जहाँ मेघसमूह के गर्जन के सदृश गम्भीर तथा अति मधुर शब्दयुक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा नामक घण्टा है, वहाँ जाता है। वहाँ जाकर बादलों के 5 गर्जन के तुल्य एवं गम्भीर एवं मधुरतम शब्दयुक्त, एक योजन गोलाकार सुघोषा घण्टा को तीन बार ॐ बजाता है। मेघसमूह के गर्जन की तरह गम्भीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तुलाकार ॥ सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सौधर्मकल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में, एक कम 5 बत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं, बजने लगती हैं। सौधर्मकल्प के प्रासादों एवं विमानों के गम्भीर प्रदेशों, कोनों में पहुंचे तथा उनसे टकराये हुए शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टा-ॐ के प्रतिध्वनियों के रूप में प्रकट होने लगते हैं। सौधर्मकल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टाओं की विपुल ध्वनि से गूंज उठता है। वहाँ निवास करने वाले बहुत से वैमानिक देव, देवियाँ जो रतिसुख में आसक्त तथा नित्य प्रमत्त रहते हैं, वैषयिक सुख में मूर्छित रहते हैं, शीघ्र प्रतिबुद्ध होते हैं-जागरित होते हैं-भोगमयी मोह-निद्रा से जागते हैं। घोषणा के सुनने हेतु उत्सुक होते हैं। उसे सुनने में कान लगा देते हैं, दत्तचित्त हो जाते हैं। जब घण्टा-ध्वनि अत्यन्त मन्द, सर्वथा शान्त हो जाती है, तब शक्र की पदातिसेना का अधिपति हरिणेगमेषी देव स्थान# स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता हुआ इस प्रकार कहता है 'सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवों ! देवियों ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन # सुनें ! उनकी आज्ञा है, आप उन (देवेन्द्र, देवराज शक्र) के समक्ष उपस्थित हों।' यह सुनकर देवों, म देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। उनमें से कतिपय भगवान तीर्थंकर के वन्दन-अभिवादन हेतु, कतिपय पूजन-अर्चन हेतु, कतिपय सत्कार-स्तवनादि द्वारा गुणकीर्तन हेतु, कतिपय में सम्मान-समादर-प्रदर्शन द्वारा मनःप्रसाद निवेदित करने हेतु, कतिपय दर्शन की उत्सुकता से, अनेक जिनेन्द्र भगवान के प्रति भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय इसे अपना परम्परानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अपने समक्ष उपस्थित देखता है। देखकर प्रसन्न होता है। वह अपने पालक नामक आभियोगिक देव को बुलाता है। बुलाकर कहता है__देवानुप्रिय ! सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित, क्रीडोद्यत पुत्तलियों से शोभित, ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरु संज्ञक मृग, अष्टापद, चमर-चँवरी गाय, हाथी, वनलता, ))))))))5555555555555555555 ) )) ))) ) नानासा 卐5555555555555555555) पंचम वक्षस्कार (415) Fifth Chapter Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555555555 ॐ पद्मलता आदि के चित्रांकन से युक्त, खम्भों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर संचरणशील है 卐 चित्रांकित विद्याधरों से युक्त, अपने पर जड़ी सहस्रों मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सुशोभित, हजारों के चित्रों से सुहावने, अतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जाने वाले, सुखमय स्पर्शयुक्त, शोभामय रूपयुक्त, ॐ पवन से आन्दोलित घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, कलात्मक के रूप में सज्जित, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, एक हजार योजन विस्तीर्ण, पाँच सौ योजन ऊँचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य सम्पन्न करने में सक्षम ॐ दिव्य यान-विमान की विकुर्वणा करो। आज्ञा का परिपालन कर सूचित करो। 148. [2] At that time, Shakra the ruling god of first heaven thought as under 'In Jambu island, Tirthankar has taken birth. It is an age-long tradition of Shakra, the master of heaven in the past, at present and in future that they celebrate the birth of the Tirthankar. So, I should also go and make arrangements for celebration of this occasion of the birth of the Tirthankar. Shakra, the ruler of heaven thought in this manner and decided to si act accordingly. Thereafter, he called god Harinegameshi, the army chief of celestial beings and ordered—'O beloved of gods ! You immediately make a proclamation by ringing the Sughosha bell three times whose sound is sweet and reaches upto one yojan like the roaring sound of clouds and make an announcement in loud voice in the Sudharma assembly that these are the orders of Shakra, the ruler of heaven that he is going to Jambu island to celebrate the birth of the Tirthankar. As such you all should present yourself soon before Shakrendra along with all types of your wealth, splendour, strength, grandeur, dramatic parties, caring little for any obstacles that you come across. You should decorate yourself with all types of flowers, fragrant substances, garlands, i ornaments and attend making divine sound and divine music in your \ Vimans (divine vehicles) along with your families. The god Harinegameshi felt happy to receive these orders. He humbly accepted the command and came out from there. He then came to the Sudharma assembly hall and reached near Sughosha bell whose solemn sweet sound reaches a distances of one yojan like the roaring sound of clouds. He then rang the bell three times. At the sound of the bell, 31,99,999 bells in 31,99,999 celestial vehicles of Saudharma region started ringing. Their sound reached the places and remote regions of the divine vehicles and then entire area was filled with the sound of the bells. 456 457 4554545454545454545454545454545455 456 457 454 455 456 457 456 457 5454545454545454545454545454545454 455 456 45 4444444444444444444444444 455 95%$55 454 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 416 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 44141414141454545454545454545454545454545454545454545454545454541414 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555546466 467 46 4 4 4 4 4 4 466 467 46 467 468 46 E LE LE LE LIE LIE LE LE LE 555555555555555555 Saudharma region started echoing with the beautiful sound of the bells. Many celestial beings who reside in divine vehicles and enjoy mundane pleasures of the mundane world, who were engrossed in sensual pleasures, become attentive soon. They get up from the worldly slumber and attentively listen to the proclamation. When the sound of the bell becomes extremely mild and totally subsides, god Harinegameshi the army chief of celestial beings makes the 47 announcement in a loud voice at various places as under 455 47 卐 'O the gods and goddesses of Saudharma region! You listen this loveable message of the ruler of Saudharma region. These are his orders that you should present yourself before him.' The gods and goddesses felt happy to receive these orders. Some of them came to express their obeisance to the Tirthankar. Some came to worship him, some came to honour him, to praise him by singing hymns. Some came to express then inward pleasure by paying their respects. Some came to see him out of curiously. Some came to express their devotion and some came there believing it as their traditional conduct. Shakrendra, the ruler of heaven felt happy to see the celestial beings present before him. He then called, Palak, the abhiyogik god and ordered विवेचन प्रस्तुत सूत्र में वर्णित शक्रेन्द्र के देव-परिवार तथा विशेषणों आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र के तीन परिषद् होती हैं - ( १ ) शमिता - आभ्यन्तर, (२) चण्डा - मध्यम, तथा (३) जाता - बाह्य आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियाँ, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियाँ एवं बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पाँच सौ देवियाँ होती हैं। पंचम वक्षस्कार 卐 'O beloved of gods! Prepare the divine vehicle with fluid process. It should stand on hundreds of pillars. It should be decorated with dancing dolls. It should be beautified with pictures of deer, bullock, horses, men, crocodile, birds, snakes, kinnar, ruru, deer, ashtapad, chamari, cow, elephant, forest creeper, lotus creeper and the like. It should have moving pictures of Vidyadhars and studded Vedika. It should be studded with thousands of precious stones and jewels increasing its beauty. It should be beautified with thousand of sketches. It should be attractive to the eyes. It should have soothing touch. It should be decorated in an artistic manner. It should have shining jewelled bells. The divine vehicle Fi should be 1,000 yojan wide and 500 yojan high and capable of moving quickly at a high speed and doing the needful. After, compliance of these orders, inform me.' 47 卐 (417) 1555555555555555555555555555555 卐 45 57 47 457 55 55 57 45 45 557 फ 45 7 Fifth Chapter 47 57 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிதிமிதிததமி**************************தமிதிதி 2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 559555555559555555952 卐 फ्र फ्र अग्रमहिषी परिवार - प्रत्येक अग्रमहिषी - प्रमुख इन्द्राणी के परिवार में पाँच हजार देवियाँ होती हैं। यों इन्द्र के अन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार होता है । सेनाएँ हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पाँच सेनाएँ होती हैं तथा दो सेनाएँ - गन्धर्वानीक - गाने-बजाने वालों का दल और नाट्यानीक - नाटक करने वालों का दल आमोद-प्रमोदपूर्वक रणोत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। फ्र Elaboration-The details regarding the family of Shakrendra and the adjectives mentioned in this Sutra is as under Shakrendra, the ruling god of Saudharma heaven has three assemblies--(1) the inner assembly (Shamita ), ( 2 ) the central assembly (Chanda), and ( 3 ) the outer assembly (Jaata). The inner assembly consists of 12,000 gods and 700 goddesses the central assembly is of 14,000 gods and 600 goddesses, while the outer assembly has 16,000 gods and 500 goddesses. Family of chief goddesses (Agra-mahishi), every chief-goddess has 5,000 goddesses in her family. Thus in the harem of Indra there are 40,000 goddesses. The armies are five namely of elephants, horses, bullocks, chariots and pedestrians. Two army units are of musicians and dancers, whose duty is to inspire the warriors for fighting courageously. पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वणा PREPARATION OF DIVINE VEHICLE BY PALAK तस्स णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवि अचम्मेइ वा अणेगसंकु - कीलक- सहस्सवितते आवड - पच्चावड - सेढि - पसेढि - सुत्थि अ - सोवत्थिअ वद्धमाणपूसमाणव-मच्छंडग - मगरंडग - जार-मार - फुल्लावली - पउमपत्त - सागर - तरंग - वसंतलयपउमलय-भत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं उसोभए २, तेसि णं मणीणं वण्णे गन्धे फासे अ भाणिअव्वे जहा रायप्पसेणइज्जे । तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमण्डवे अणेगखम्भसय-सण्णिविट्टे, वण्णओ जाव पडरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव सव्वतवणिज्जमए जाव पडिरूवे । तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमंणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागंसि महं एग मणिपेढिआ, अट्ठ फ जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमयी वण्णओ । तीए उवरिं महं एगे सीहासणे वण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे, एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुत्तादामे, सेणं १४९. तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ट जाव वेउव्विअ- 5 समुग्धाणं समोहणित्ता तहेव करेइ इति, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा, वणओ, तेसि णं पडिवगाणं पुरओ पत्तेअं २ तोरणा, वण्णओ जाव पडिरूवा । अन्नेहिं तदधुच्चत्तप्पमाणमित्तेहिं चउहिं अद्धकुम्भिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्यओ समन्ता संपरिक्खित्ते, ते णं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र (418) फफफफफफ 卐 卐 फ्र 455595 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59 卐 卐 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र 卐 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ததததததததததததததததததததி***********5 दामा तवणिज्ज-लंबूसगा, सुवण्णपयरग - मण्डिआ णाणामणि - रयण - विविहहारद्धहार - उवसोभिआ, समुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाइएहिं वाएहिं मन्दं एइज्जमाणा २ निव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ (सिए) अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठेति त्ति । तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं सक्करस चउरासीए सामाणि असाहस्सीणं, चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ, पुरत्थिमेणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरत्थिमेणं अब्भिंतर - परिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीणं, पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अहिवईति । तए णं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरिआभगमेणं जाव पच्चप्पिणन्ति त्ति । १४९. देवेन्द्र देवराज शक्र का आदेश सुनकर पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात करके यान - विमान की विकुर्वणा करता है। उसमें तीन दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियों तथा आगे तोरण द्वारों की रचना करता है। उनका वर्णन पूर्वानुरूप है। उस यान - विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग पर लगे चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव, मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर, तरंग, वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित है। विशेष वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र से जानें। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृहमण्डप है, जो सैकड़ों खम्भों पर टिका है। उसका वर्णन पूर्ववत् है । उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पद्मलता आदि के चित्रों से सज्जित है, स्वर्णमय है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, यावत् मन में बस जाने वाला है। उस मण्डप के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका (मणियों से बनी चौकी) है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी तथा चार योजन मोटी है। सर्वथा मणिमय है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है। उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय - हीरकमय अंकुश है । वहाँ एक कुम्भिका - प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है। वह मुक्कामाला अपने से आधी ऊँची, अर्धकुम्भिका परिमित, चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। उन मालाओं में तपनीय - स्वर्णनिर्मित लंबूसक - गेंद के आकार के आभरण - विशेष - लूंबे लटकते हैं। वे सोने के पातों से मण्डित हैं। वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित हारों-अठारह लड़ के हारों, अर्धहारों-नौ लड़ के हारों से उपशोभित हैं, विभूषित हैं, एक-दूसरी से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अवस्थित हैं । पुरवैया आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हिलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से आस-पास स्थानों को आपूर्ण करती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं। उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर वायव्य कोण में, उत्तर में एवं उत्तर-पूर्व में - (ईशान कोण) में शक्र के ८४,००० सामानिक देवों के ८४,००० उत्तम आसन हैं, पूर्व में ८ प्रधान देवियों के ८ उत्तम आसन पंचम वक्षस्कार (419) 6 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 5 5 5 59595959 Fifth Chapter Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 555 5555 5555555595555555555955555552 - 5 5 5 5 5 6 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555555 5 5 9 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 « 卐 卐 卐 57 卐 47 5 हैं, दक्षिण-पूर्व में - (आग्नेय कोण में) आभ्यन्तर परिषद् के १२,००० देवों के १२,०००, दक्षिण में 5 मध्यम परिषद् के १४,००० देवों के १४,००० तथा दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण में बाह्य परिषद् के १६,००० देवों के १६,००० उत्तम आसन हैं। पश्चिम में ७ अनीकाधिपतियों-सेनापति - देवों के ७ उत्तम आसन हैं। उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी- चौरासी हजार आत्मरक्षक- अंगरक्षक देवों के कुल ८४००० x ४ = ३,३६,००० (तीन लाख छत्तीस हजार ) उत्तम आसन हैं। उक्त सारा वर्णन (राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित ) सूर्याभदेव के विमान के सदृश है। इन सबकी विकुर्वणा कर पालक देव शक्रेन्द्र को विमान निर्मित होने की सूचना देता है। 149. God Palak felt happy to hear the order of Shakrendra. He, with fluid process, created a divine vehicle. He built stairs of three rungs each in all the three direction and the gates in front. There description is the same as mentioned earlier. 卐 There is a very levelled attractive ground in the divine vehicle. It is as much levelled as the upper surface of the leather covering a drum. That space has sketches of aavart, pratyavart, shreni, prashreni, swastik, vardhaman, man of flowers, egg of fish, egg of crocodile, jar, mar, flower bunch, lotus leaf, sea, waves, spring creeper and lotus 47 creeper. It has their aura, their brightness, their ray, their grandeur and is studded with precious stones of five colours. The detailed description can be seen in Raj-prashniya Sutra. 45 In the very middle of that area, there is an observatory, standing on hundreds of pillars. Its description is as mentioned earlier, the upper portion of that observatory is decorated with pictures of lotus creepers and the like. It is golden, pleasant to the heart up to very attractive. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 45 There is a stool made of precious stone at the very centre of that observatory. It is eight yojan high, eight yojan wide and four yojan thick and totally of precious stones. Its description is the same as mentioned earlier. On it there is a large seat. In it there is an ankush totally made 卐 of jewels and diamonds. A large garland of pearls is there and the pearls are in such a number that they can fill a pitcher. That garland is surrounded with four garlands of pearls on all the four sides which are half of the sizes of it in height and the pearls can fill half the pitcher. Ball-shaped ornaments of gold are hanging in those garlands. They are decorated with gold leaves. The eighteen-lined garlands, the nine lined garlands made of precious stones and jewels of various types at small distance are adding to its beauty. It moves slowly with the castern wind. The sound of the striking of garlands among themselves is very pleasant Jambudveep Prajnapti Sutra (420) 55555555555555555555555555555 卐 45 45 475 卐 卐 45 47 卐 557 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ת ת ת ת ת ת תבש hhhhhh נ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ו נ נ נ ת # to the ears, provides peace to the mind and fills the environment with y fi loveable sound. It is extremely charming. In the north-west of that seat, in the north and in the north-east, there are 84,000 seats meant for 84,000 co-chiefs of Indra. In the east there are eight seats for eight chief goddesses. In the south-east there fi are 14,000 seats of 12,000 member gods of the inner assembly in the 9 south there are 12,000 seats of member gods of central assembly and in the south-west there are 16,000 seats of gods of outer assembly. In the west there are seats of seven army chiefs. In each of the four directions, fi there are 84,000 seats of 84,000 body guards totaling 3,36,000 seats. The fi entire description is like that of divine vehicle of Suryabh deva. After 1 building all this with fluid process, god Palak informs Shakrendra that the needful has been done. शक्रेन्द्र का उत्सवार्थ प्रयाण DEPARTURE OF SHAKRENDRA FOR CELEBRATION ॥ १५०. [१] तए णं से सक्के (दविंदे, देवराया) हट्ठहिअए दिव्वं जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिअं उत्तरवेउव्विअं रूवं विउव्वइ विउव्वित्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, # णट्टाणीएणं गन्धव्वाणीएण य सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुबिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहइ २ । त्तिा सीहासणंसि पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति, एवं चेव सामाणिआवि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता पत्तेअं । # २ पुषण्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीअंति। अवसेसा य देवा देवीओ अ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता । म तहेव णिसीअंति। तए णं तस्स सक्कस्स तंसि दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपढिआ, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य दंसणरइअ-आलोअ-दरिसणिज्जा बाउ अविजयवेजयन्ती अ समूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्थिआ। तयणन्तरं छत्तभिंगारं, तयणंतर च णं वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिअ-सुसिलिट्ठ-परिघट्ठ-मट्ठसुपइट्ठिए विसिट्टे, अणेगवरपंचवण्णकुडभी-सहस्सपरिमण्डिआभिरामे, वाउडुअ-विजयवेजयन्तीपडागा-छत्ताइच्छत्तकलिए, तुंगे, गयणतलमणुलिहंतसिहरे, जोअणसहस्समूसिए, महइमहालए महिंदज्झए म पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्थिएत्ति, तयणन्तरं च णं सरूवनेवत्थ-परिअच्छिअसुसज्जा, । सव्वालंकारविभूसिआ पंच अणिआ पंच अणिआहिवइणो (अण्णे देवा य) संपट्ठिआ। म तयणन्तरं च णं बहवे आभिओगिआ देवा य देवीओ अ सएहिं सएहिं रूवेहिं (सयेहिं सयेहिं विहवेहिं) #णिओगेहिं सक्कं देविंदं देवरायं पुरओ अ मग्गओ अ अहापुबीए। तयणन्तरं च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवा य देवीओ अ सब्बिड्डीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओ अ सपंडिआ। - तए णं से सक्के तेणं पंचाणिअपरिक्खित्तेणं जाव महिंदज्झएणं पुरओ पकडिजमाणेणं, चउरासीए נ ת נ ת ת נ ת נ ת נ ת ת ת ת ת ת ת ת ת נ ת ת נ נ ת נ ת נ ת ת ת ת पंचम वक्षस्कार (421) Fifth Chapter ת 155) ))))555555555555555555555555555 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *5**********************************& 卐 फ्र 5 सामाणि जाव परिवुडे सब्बिड्डीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झमज्झेणं तं दिव्वं देविंडि (दिवजुई 5 (देवाणुभावं ) उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जोअणसयसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे २ ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणे २ तिरियमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमज्झेणं जेणेव णंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरत्थिमिल्ले रइकरगपव्वए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता एवं जा चैव सूरिआभस्स वत्तव्वया णवरं सक्काहिगारो वत्तव्यो इति जावतं दिव्यं देवर्ष्टि जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणनगरे 5 जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छति । 卐 उवागच्छत्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरत्थिमे दिसीभागे चतुरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ २ त्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीएहिं गन्धव्वाणीण य णट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, तए णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीइ सामाणिअसाहस्सीओ दिव्याओ जाणविमाणाओ 5 उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिव्याओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति । १५०. [ १ ] पालक देव से दिव्य यान - विमान की रचना सम्पन्न होने की सूचना पाकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तर वैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है । फिर सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्य-सेना, गन्धर्व - सेना के साथ उस यानविमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से तीन सीढ़ियों द्वारा विमान पर आरूढ़ होता है । विमानारूढ़ होकर वह पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है । उसी प्रकार सामानिक देव उत्तरी त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ़ होकर पहले से रखे हुए उत्तम आसनों पर बैठ जाते हैं। बाकी के देव - देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ़ होकर (अपने लिए उत्तम आसनों पर ) बैठ जाते हैं । शक्र के यों विमानारूढ़ होने पर आगे अष्ट मंगलक प्रस्थित होते हैं। तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में ५ प्रयाण - प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चँवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय - वैजयन्ती ये क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र תתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתת तत्पश्चात् छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल झारी, फिर वज्ररलमय, वर्तुलाकार, मनोज्ञ संस्थानयुक्त, चिकनी, कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण - प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, सुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाण - प्रतिमा की तरह चिकनाई लिए हुए मृदुल, सुप्रतिष्ठित 5 संस्थित, अतिशययुक्त, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों छोटी पताकाओं से अलंकृत, वायु द्वारा हिलती विजय- वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, आकाश को छूते हुए से शिखरयुक्त, एक हजार ऊँचा, विशाल महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है। उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेश 5 फ्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र (422) फ फ्र फफफफफफ 卐 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 89555555555))))))) ))))) )))))) भ धारण किये। सुसज्जित, सर्वविधि अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएँ, पाँच सेनापति-देव प्रस्थान करते हैं। ॐ फिर बहुत से आभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, (अपने-अपने वैभव, अपने-अपने) म उपकरण सहित देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे-पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ सब प्रकार की समृद्धि के साथ विमानारूढ़ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज ऊ शक के आगे-पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते हैं। के इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवृत्त (पूर्व वर्णित वैभव के साथ) चौरासी हजार सामानिक देवों तथा अन्य बहत से देवों और देवियों से संपरिदत्त. सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ, वाद्य -निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुआ, दिव्य देव-ऋद्धि उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण-मार्ग-बाहर निकलने का रास्ता है, वहाँ आता है। वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों द्वारा चलता हआ. उत्कष्ट, तीव्र देव-गति द्वारा आगे जबढ़ता तिरछे असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, दक्षिण-पूर्व आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है। जैसा सूर्याभदेव का वर्णन है, आगे वैसा ही शक्रेन्द्र का समझना चाहिए। फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव ऋद्धि का दिव्य यान-विमान का प्रतिसंहरण करता है-विस्तार को समेटता है। वैसा कर, जहाँ (जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र में) भगवान तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन होता है, ॐ वहाँ आता है। आकर वह दिव्य यान-विमान द्वारा भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊँचा ठहराता है। विमान को ठहराकर अपनी आठ ॐ अग्रमहिषियों, गन्धर्वानीक तथा नाट्यानीक नामक दो अनीक-सेनाओं के साथ उस दिव्य-यान-विमान +से पूर्वदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा नीचे उतरता है। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र के चौरासी हजार सामानिक देव उत्तरदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा उस दिव्य यान-विमान से नीचे उतरते हैं। बाकी के ॐ देव-देवियाँ दक्षिण-दिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा यान-विमान से नीचे उतरते हैं। 150. [1] Shakrendra was very much pleased to hear from god Palak that the divine vehicle had been built. He then creates a shape fit for 45 going to the Bhagavan with fluid process and beautiful with all divine 457 decorations. Thereafter he moves around that divine vehicle with his y family, the eight chief-goddesses, the dramatic party, the musicians and then rides on it through the three-ring stairs in the east. He then sits on the scat facing east. Similarly the co-chiefs get into the vehicle through the three-ring stairs in the north and take their seats already 4 earmarked. The remaining gods and goddesses get into it through the 'i three-ring stairs in the south and then take their seats. After the boarding of Shakrendra in this manner, eight ominous symbols more ahead. Thereafter as a mark of good omen, at the time of 卐5555555555555)55555555555555555555555555555555558 जक जापंचम वक्षस्कार (423) Fifth Chapter Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 46 44 445 44 45 46 45 44 445 446 447 4414141414 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 45454545454545454545454545 456 457 454 44 45 46 47 46 455 456 457 454 455 456 456 45454545454545 44 445 44 45 46 47 46 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 455 456 457 departure, a worth seeing pitcher full of water, a pot full of water, divine umbrella with whisks, divine bunting, a very high flag almost touching the sky fluttering due to wind indicating success move in their respective order. Thereafter, the umbrella, an empty pot decorated with pictures in exquisite colours. The great Mahendra flag which is 1,000 yojan high moves ahead in that order. It is studded with Vajra jewels. It is round like a pole. It has attractive shape. It is as clean as an idol of stone which is smooth well-cut on hard surface and well rubbed. It has softness like well-rubbed idol. It has thousands of buntings of five colours which are soft, well arranged, excellent and fluttering with the wind. It is decorated with umbrella and another great umbrella and appears as if it is touching the sky. Thereafter five well decorated armies alongs with their five chiefs having decoration of all the requisite types move along. Thereafter many abhiyogik gods and goddesses alongwith their grandeur and decorations move ahead and behind Shakrendra in their earmarked order. Thereafter many gods and goddesses who are residents of Saudharma heaven, get into that divine vehicle with their wealth. 45 They seat themselves in front of and behind Shakrendra as earmarked. Thereafter Shakrendra sitting in that vehicle and surrounded by five armies, 84,000 co-chiefs, and many other gods and goddesses and with the wealth of all types and the music being played, passing through Saudharma heaven and exhibiting his divine grandeur comes to the exit of Saudharma heaven in the north. Thereafter moving at a fast divine speed covering distances of one lakh yojan each and crossing innumerable islands and oceans he reaches Ratikar mountain in the south-east of Nandishvar island. Further description may be understood similar to that of Suryabh Deva. Thereafter Shakrendra contracts the divine vehicle and the divine wealth and comes to the place in Bharat continent of Jambu island where the city and the mansion of birth-place of the Tirthankar is located. He then with his vehicles takes three rounds of that building. He then shops his vehicle four fingers above the ground in the north-east corner. Then he gets down from the vehicle with his eight chief goddesses and the two armies of musicians and dancers, through the stairs in the east. Thereafter 84,000 co-chiefs of Shakrendra get down through the stairs in the north. The remaining gods and goddesses get down through the stairs in the south. 4 54545454 455 456 457 455 456 457 455 4545454545454545 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (424) Jambudveep Prajnapti Sutra 414141414141414141414141414144454647444444444444444 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐卐5555555 55555555555555555555555555555555555 + १५०. [२] तए णं से सक्के देविन्दे देवराया चउरासीए सामाणिअसाहस्सीएहिं जाव सद्धिं ॥ संपरिखुडे सब्बिड्डीए जाव दुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमायाय तेणेव उवागच्छइ + म २ त्ता आलोए चेव पणामं करेइ २ त्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ ता करयल जाव एवं वयासी+ णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि, पुण्णासि, तं कयत्थाऽसि, अहणं देवाणुप्पिए ! सक्के णामं देविन्दे, देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामि, तं णं ॐ तुन्भाहिं णं भाइव्वंति कटु ओसोवणिं दलयइ दलइत्ता तित्थयरपडिरूवगं विउब्वइ, तित्थयरमाउआए पासे ठबइ ठवित्ता पंच सक्के विउब्वइ विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्टओ आयवत्तं धरेड, दवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे सक्के परओ वज्जपाणी पकड्डइ त्ति। तए णं से सक्के देविन्दे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमन्तर-जोइस-वेमाणिएहि देवेहि म देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सविडीए जाव णाइएणं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पब्बए, ॐ जेणेव पंडगवणे, जेणेव अभिसेअसिला, जेणेव अभिसेअसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे त्ति। १५०. [ २ ] तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक आदि अपने सहवर्ती देव+ समुदाय के साथ सर्व ऋद्धि-वैभव से युक्त, नगाड़ों के गूंजते हुए निर्घोष के साथ, जहाँ भगवान तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम करता है। भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। हाथ जोड़, अंजलि बाँधे भगवान तीर्थंकर की माता को कहता है "रत्नकुक्षिधारिके ! यावत् आपको नमस्कार हो। धन्य, पुण्य एवं कृतकृत्य हैं। देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाऊँगा, अतः आप भयभीत मत होना।" यों कहकर वह तीर्थंकर की माता को अवस्वापिनी निद्रा में सुला देता है। फिर वह तीर्थंकर-सदृश म प्रतिरूपक-शिशु की विकुर्वणा करता है। उसे तीर्थंकर की माता की बगल में रख देता है। शक्र फिर वैक्रियलब्धि द्वारा स्वयं पाँच शक्रों के रूप की विकुर्वणा करता है। एक शक्र भगवान तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक शक्र पीछे छत्र धारण करता है, दो शक्र दोनों ओर चँवर डुलाते - ज हैं, एक शक्र हाथ में वज्र लिए आगे चलता है। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवॐ देवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देवगति से चलता हुआ, जहाँ मन्दर पर्वत पर पण्डक वन, अभिषेक-शिला एवं अभिषेक-सिंहासन है, वहाँ आता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है। 150. [2] Thereafter Shakra the ruler of first heaven comes near the Tirthankar and his mother. His 84,000 co-chiefs and other gods and |पंचम वक्षस्कार (425) Fifth Chapter Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र 卐 @55555555559555555955555559555555595552 goddesses are also with him with the sound of the beat of drums. He 卐 bows to them immediately when he sees them. He then goes round three times and with folded hands addresses the mother of the Tirthankar. 'O the blessed ! The bearer of the unique child ! I bow to you. You are worthy of appreciation. You are very lucky. I 'Shakrendra shall celebrate the birth of the Tirthankar. So you should not feel afraid.' Saying so he puts the mother of the Tirthankar to deep sleep. Then with fluid process he prepares a child exactly like the shape of that new-born Tirthankar and places it close to the mother of the Tirthankar. Then with his divine power he creates five Shakras resembling him. One of them picks up the Tirthankar child with his palms, another holds the umbrella behind Shakrendra. The other two move the whisks on the two sides and the fifth one moves ahead holding Vajra in his hand. Thereafter Shakrendra alongwith many gods namely Bhavanpati, interstitial gods, stellar gods and Vaimanik gods with their grandeur of all types comes at a fast speed to Pandak forest on Mandar mountain and sits on the seat for anointing on the anointing slab facing east. फफफफफफफफफफफफ 5 फ ईशान प्रभृति इन्द्रों का आगमन ARRIVAL OF ISHAN INDRAS १५१. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविन्दे, देवराया, सूलपाणी, वसभवाहणे, सुरिन्दे, उत्तरलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे एवं जहा सक्के इमं णाणत्तं - महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दक्खिणे निज्जाणमग्गे, उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ मन्दरे समोसरिओ (बंदइ, णमंसइ) पज्जुवासइत्ति । एवं अवसिट्ठावि इन्दा भाणिअव्वा जाव अच्चुओत्ति, इमं णाणत्तं चउरासीइ असीइ, बावत्तरि सत्तरी अ सट्ठी अ पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा दस सहस्सा ॥ एए सामाणिआणं, बत्तीसट्ठावीसा बारसट्ठ चउरो चत्तालीसा सयसहस्सा । पण्णा छच्च सहस्सारे ॥ तिण्णि । आणय - पाणय- कप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए विमाणाणं इमे जाणविमाणकारी देवा, तं जहा पालय १ पुप्फे य २ सोमणसे ३ सिरिवच्छे अ ४ नंदिआवत्ते ५ । कामगमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८ विमल ९ सव्वओ भद्दे १०॥ सोहम्मगाणं, सणकुमारगाणं, बंभलोअगाणं, महासुक्कयाणं, पाणयगाणं, इंदाणं सुघोसा घण्टा, हरिणेगमेसी पायत्ताणी आहिवई, उत्तरिल्ला णिज्जाणभूमि दाहिणपुरत्थिमिल्ले रइकरगपव्वए । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (426) फ्र 5 5 卐 फ्र 卐 卐 फ फ्र फ्र 5 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 5 卐 5 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65555555$$$$$$$$$$$$$ 55FFFF55555555555 फ़ ईसाणगाणं, माहिंदलंतगसहस्सारअच्चुअगया य इंदाण महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्तीणाआहिवई, दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे, उत्तरपुरथिमिल्ले रइकरगपब्बए, परिसा णं जहा ॐ जीवाभिगमे। ॐ आयरक्खा सामाणिअचउग्गणा सव्वेसिं, जाणविमाणा सव्वेसिं जोअणसयसहस्सवित्थिण्णा, उच्चत्तेणं म सविमाणप्पमाणा, महिंदज्झया सव्वेसिं जोअणसहस्सिआ, सक्कवज्जा मन्दरे समोसरंति (वंदंति, हणमंसंति,) पज्जुवासंति त्ति। १५१. उस समय हाथ में त्रिशूल लिए वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्ध-लोकाधिपति, अट्ठाईसके 5 लाख विमानों का स्वामी, आकाश की ज्यों निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत ॐ पर आता है। उसका अन्य सारा वर्णन सौधर्मेन्द्र शक्र के सदृश है। अन्तर इतना है-उनकी घण्टा का है नाम महाघोषा है। उसके पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी देव का नाम पुष्पक है। ॐ उसका निर्याण-निर्गमन मार्ग दक्षिणवर्ती है, उत्तरपूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है। वह भगवान तीर्थंकर को वन्दन करता है, नमस्कार करता है, उनकी पर्युपासना करता है। अच्युतेन्द्र पर्यन्त बाकी के इन्द्र भी इसी पर प्रकार आते हैं, उन सबका वर्णन पूर्वानुरूप है। इतना अन्तर है सौधर्मेन्द्र शक्र के चौरासी हजार, ईशानेन्द्र के अस्सी हजार, सनत्कुमारेन्द्र के बहत्तर हजार, माहेन्द्र के सत्तर हजार, ब्रह्मेन्द्र के साठ हजार, लान्तकेन्द्र के पचास हजार, शुक्रेन्द्र के चालीस हजार, ॐ सहस्रारेन्द्र के तीस हजार, आनत-प्राणत इन दो कल्पों के इन्द्र के बीस हजार तथा आरण-अच्युत इन दो कल्पों के इन्द्र के दस हजार सामानिक देव हैं। 卐 सौधर्मेन्द्र के बत्तीस लाख, ईशानेन्द्र के अट्ठाईस लाख, सनत्कुमारेन्द्र के बारह लाख, ब्रह्मलोकेन्द्र के चार लाख, लान्तकेन्द्र के पचास हजार, शुक्रेन्द्र के चालीस हजार, सहस्रारेन्द्र के छह हजार। म आनत-प्राणत-इन दो कल्पों के चार सौ तथा आरण-अच्युत-इन दो कल्पों के इन्द्र के तीन सौ विमान होते हैं। (१) पालक, (२) पुष्पक, (३) सौमनस, (४) श्रीवत्स, (५) नन्दावर्त, (६) कामगम, (७) प्रीतिगम, (८) मनोरम, (९) विमल, तथा (१०) सर्वतोभद्र ये यान-विमानों की विकुर्वणा करने वाले देवों के ऊ अनुक्रम से नाम हैं। सौधर्मेन्द्र, सनत्कुमारेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र तथा प्राणतेन्द्र की सुघोषा घण्टा, हरिणेगमेषी ऊ पदाति-सेनाधिपति, उत्तरवर्ती निर्याण-मार्ग, दक्षिण-पूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है। इन चार बातों में इनकी पारस्परिक समानता है। के ईशानेन्द्र, माहेन्द्र, लान्तकेन्द्र, सहस्रारेन्द्र तथा अच्युतेन्द्र की महाघोषा घण्टा, लघुपराक्रम पदातिसेनाधिपति, दक्षिणवर्ती निर्याण-मार्ग तथा उत्तर-पूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है। इन चार बातों में इनकी पारस्परिक समानता है। इन इन्द्रों की परिषदों के सम्बन्ध में जैसा जीवाभिगमसूत्र में बतलाया ॐ गया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए। 卐 | पंचम वक्षस्कार Fifth Chapter )))))))) 四听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 卐)))))))))))))))) (427) Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 55 555 55 卐 47 इन्द्रों के जितने जितने सामानिक देव होते हैं, अंगरक्षक देव उनसे चार गुने होते हैं। सबके यानविमान एक-एक लाख योजन विस्तीर्ण होते हैं तथा उनकी ऊँचाई स्व-स्व-विमान- प्रमाण होती है। सबके महेन्द्रध्वज एक-एक हजार योजन विस्तीर्ण होते हैं। शक्र के अतिरिक्त सब मन्दर पर्वत पर आते 5 हैं, भगवान तीर्थंकर को वन्दन- नमन करते हैं, पर्युपासना करते हैं। 455 卐 457 455 5 151. At that time, Ishanendra, the master of Ishan-the second heaven came on Mandar mountain. He was riding a divine bull and was holding a trishul in his hand. He is the master of celestial beings, the northern half of the Lok and of 28 lakh Vimans (divine abodes). He was wearing as clean clothes as the sky. The entire remaining description is the same as that of Shakra, the master of Saudharma region. The only 47 difference is that the name of his bell is Mahaghosha, the name of his army chief is Laghu-parakram, the name of the celestial being controlling his Viman is Pushpak, the path of his departure is in the south and his place of enjoyment is northern Ratikar mountain. He bows to the Tirthankar and praises him. All the other Indras upto Achyutendra, the master of twelfth heaven also came up in the same manner. Their description is also similar to the one mentioned earlier. The points of difference are as under 547 45 55 5 557 57 57 45 45 45 Shakra, the Indra of Saudharma heaven has 84,000 co-chiefs, Ishanendra has 80,000, Sanatkumarendra has 72,000, Mahendra has 70,000, Brahmendra has 6,000, Lantakendra has 50,000, Shukrendra has 40,000, Sahasrarendra has 30,000, Indra of Anat-Pranat has in all 20,000 while of Aran-Achyut has in all 10,000 co-chiefs. Saudharmendra is master of 32 lakhs Vimans, Ishanendra is of 28 lakhs, Sanatkumarendra is of 12 lakhs, Brahmlokendra is of 4 lakhs, Lantakendra is of 50,000, Shukrendra is of 40,000, Sahasrarendra is of 6,000. 457 457 Anat-Pranat has just 400 in all while Aran-Achyut has a total of three hundred Vimans. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 卐 455 The celestial beings who by fluid process convert themselves into 5 such Vimans are (1) Palak, (2) Pushpak, (3) Saumanas, (4) Shrivats, (5) Nandavart, (6) Kamagam, (7) Pritigam, (8) Manoram, (9) Vimal, and (10) Sarvatobhadra respectively. 55 5 5 (428) 4 45 卐 卐 卐 卐 457 卐 5 5 457 卐 Saudharmendra, Sanatkumarendra, Brahmalokendra, Mahashukrendra and Pranatendra have Sughosha as the divine bell, Harinegameshi as the chief of the pedestrian army, the path in north as 卐 45 Jambudveep Prajnapti Sutra 4 45 卐 47 卐 卐 55555555555555555550 5 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))))))5555 ))))))))))5555555555555555555卐18 ) 555555555555555555555555555555555558 the passage for departure and the south-eastern mountain as place for 41 their sensual enjoyment. ____Ishanendra, Mahendra, Lantakendra, Sahasrarendra and Achyutendra have Mahaghosha as their divine bell, Laghu-parakram, as their army chief, the passage in the south as their path for departure and north-eastern Ratikar mountain as the place for their sensual enjoyment. The cabinets of these Indras should be understood as mentioned in Jivabhigam Sutra. The body-guards of each Indra are four times of the number of their co-chiefs. The divine vehicles of each of them are one lakh yojan wide and their height is equal to their divine vehicle. The flag-staff of each of them is of 1,000 yojan. All of them except Shakra come to Mandar mountain, bow to the Tirthankar and worship him. चमरेन्द्र आदि का आगमन ARRIVAL OF CHAMARENDRA १५२. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिन्दे, असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि, चउसट्ठीए सामाणिअसाहस्सीहिं, तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं, चउहिं . लोगपालेहिं, पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं चाहिं चउसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं अण्णेहि अ जहा सक्के, णवरं इमं णाणत्तं-दुमो 卐 पायत्ताणीआहिवई, ओघस्सरा घण्टा, विमाणं पण्णासं जोअणसहस्साइं, महिन्दज्झओ पंचजोअणसयाई, विमाणकारी आभिओगिओ देवो अवसिटुं तं चेव जाव मन्दरे समोसरइ पज्जुवासइत्ति। है तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिन्दे, असुरराया एवमेव णवरं सट्ठी सामाणिअसाहस्सीओ, चउग्गुणा आयरक्खा, महादुमो पायत्ताणीआहिवई, महाओहस्सरा घण्टा सेसं तं चेव परिसाओ जहा म जीवाभिगमे इति। ॐ तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव, णाणत्तं छ सामाणिअसाहस्सीओ छ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा आयरक्खा मेघस्सरा घण्टा भद्दसेणो पायत्ताणीयाहिवई, विमाणं पणवीसं जोअणसहस्साई, महिन्दज्झओ # अद्धाइज्जाइं जोअणसयाइं, एवमसुरिन्दवज्जिआणं भवणवासिइंदाणं, णवरं असुराणं ओघस्सरा घण्टा, णागाणं मेघस्सरा, सुवण्णाणं हंसस्सरा, विज्जूणं कोंचस्सरा, अग्गीणं मंजुस्सरा, दिसाणं मंजुघोसा, उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं णंदिस्सरा, थणिआणं णंदिघोसा। चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च, सहस्सा उ असुर-वज्जाम। सामाणिआ उ एए, चउग्गुणा आयरक्खा उ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्ताणीआहिवई भइसेणो, उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति। वाणमन्तरजोइसिआ णेअब्बा एवं म चेव, णवरं चत्तारि सामाणिअसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ, सोलस आयरक्खसहस्सा, विमाणा ) )))))))))))))))))) )))))) )) पंचम वक्षस्कार 卐) (429) Fifth Chapter 卐)) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐555555555555555555555555555555555555555555555558 555555555555555555555555555555555555 ॐ सहस्सं, महिन्दज्झया पणवीसं जोअण-सयं, घण्टा दाहिणाणं मंजुस्सरा, उत्तराणं मंजुघोसा, के पायत्ताणीआहिवई विमाणकारी अ आभिओगा देवा। जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सर-णिग्योसाओ घण्टाओ मन्दर समोसरणं जाव पज्जुवासंतित्ति। १५२. उस समय चमरचंचा राजधानी में, सुधर्मा सभा में, चमर नामक सिंहासन पर स्थित असुरेन्द्र, असुरराज चमर अपने चौंसठ हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, सपरिवार पाँच अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, चारों ओर चौंसठचौंसठ हजार अंगरक्षक देवों तथा अन्य देवों के साथ सौधर्मेन्द्र शक्र की तरह आता है। इतना अन्तर है-उसके पदातिसेनाधिपति का नाम द्रुम है, उसके घण्टा का नाम ओघस्वरा है, विमान का विस्तार पचास हजार योजन है, महेन्द्रध्वज पाँच सौ योजन विस्तीर्ण है, विमानकारी आभियोगिक देव है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। वह मन्दर पर्वत पर आता है यावत् पर्युपासना करता है। ___ उस समय असुरेन्द्र, असुरराज बलि उसी तरह मन्दर पर्वत पर आता है। इतना अन्तर है-उसके ॐ सामानिक देव साठ हजार हैं, उनसे चार गुने आत्मरक्षक-अंगरक्षक देव हैं, महाद्रुम नामक पदाति सेनाधिपति है, महौघस्वरा घण्टा है। शेष परिषद् आदि का वर्णन जीवाभिगमसूत्र के अनुसार समझ लेना फ़ चाहिए। इसी प्रकार धरणेन्द्र के आने का प्रसंग है। इतना अन्तर है-उसके सामानिक देव छह हजार हैं, अग्रमहिषियाँ छह हैं, सामानिक देवों से चार गुने अंगरक्षक देव हैं, मेघस्वरा घण्टा है, भद्रसेन पदातिसेनाधिपति है। उसके विमान का विस्तार पच्चीस हजार योजन प्रमाण है। उसके महेन्द्रध्वज का विस्तार अढाई सौ योजन है। असुरेन्द्र वर्जित सभी भवनवासी इन्द्रों का ऐसा ही वर्णन है। इतना अन्तर है-असुरकुमारों के ओघस्वरा, नागकुमारों के मेघस्वरा, सुपर्णकुमारों-गरुड़कुमारों के हंसस्वरा, विद्युत्कुमारों के क्रौंचस्वरा, अग्निकुमारों के मंजुस्वरा, दिक्कुमारों के मंजुघोषा, उदधिकुमारों के सुस्वरा, द्वीपकुमारों के मधुरस्वरा, वायुकुमारों के नन्दिस्वरा तथा स्तनितकुमारों के नन्दिघोषा नामक घण्टाएँ हैं। ___चमरेन्द्र के चौंसठ एवं बलीन्द्र के साठ हजार सामानिक देव हैं। असुरेन्द्रों को छोड़कर धरणेन्द्र आदि अठारह भवनवासी इन्द्रों के छह-छह हजार सामानिक देव हैं। सामानिक देवों से चार-चार गुने अंगरक्षक देव हैं। ___ चमरेन्द्र को छोड़कर दाक्षिणात्य भवनपति इन्द्रों के भद्रसेन नामक पदाति-सेनाधिपति है। बलीन्द्र को छोड़कर उत्तरीय भवनपति इन्द्रों के दक्ष नामक पदाति-सेनाधिपति है। इसी प्रकार व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिष्केन्द्रों का वर्णन है। इतना अन्तर है-उनके चार हजार सामानिक देव, चार अग्रमहिषियाँ तथा सोलह हजार अंगरक्षक देव हैं, विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण तथा महेन्द्रध्वज एक सौ पच्चीस 卐 योजन विस्तीर्ण है। दाक्षिणात्यों की मंजुस्वरा तथा उत्तरीओं की मंजुघोषा घण्टा है। उनके पदाति सेनाधिपति तथा विमानकारी-विमानों की विकुर्वणा करने वाले आभियोगिक देव हैं। ज्योतिष्केन्द्रों की ॐ सुस्वरा तथा सुस्वरनिर्घोषा-चन्द्रों की सुस्वरा एवं सूर्यों की सुस्वरनिर्घोषा नामक घण्टाएँ हैं। वे मन्दर पर्वत पर आते हैं, यावत् पर्युपासना करते हैं। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听8 (430) 8 555555555555555555555555555 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $4545454545454541 41 415 444 4 45 446 447 44444444 152. At that time in capital Chamarchancha Chamar, the master of demon-gods (Asurraj), who was sitting in Saudharma assembly on his seat called Chamar throne comes there with his 64,000 co-chiefs, 33 advisors, four governors, five chief goddesses with their families, three cabinets, seven armies, seven army chiefs, 64,000 celestial beings in each direction servings as his body-guards and many other celestial beings in the same manner as Shakrendra had come. The points of difference are that his chief of infantry is Drum, his divine bell is Oaghswara, his 1 is in 50,000 yojans, his flag-staff is of 500 yojans and Abhiyogik celestial beings do the fluid process for creating his Viman. The remaining description is the same is mentioned earlier. He comes to Mandar mountain and serves the Tirthankar. At that time, Bali the master of Asurraj comes to Mandar mountain in the same manner. The points of difference are that his co-chiefs are 60,000, his body-guards are four times of co-chiefs, his army chief of infantry is Mahadrum and his divine bell is Mahaughaswara. The remaining description is the same as mentioned in Jivabhigam Sutra. Similar is the version relating to the arrival of Dharanendra. The points of difference are that his co-chiefs are 6,000, chief goddesses are six, body-guards are four times the number of co-chiefs, the divine bell is Meghaswara, the army chief of the pedestrian army is Bhadrasen and his Viman is 25,000 yojans. The height of his flag-staff is 250 yojans. The description of all the Indras of Bhavanvasi celestial beings besides Asurendra is the same as earlier mentioned. The only difference is that the divine bell of Asurkuamrs is Oaghaswara, of Nagakumars is Meghaswara, of Suparnakumars is Hansaswara, of Vidyutkumars is Kraunchaswara, of Agnikumars is Manjuswara, of Dik-kumars is Manjughosha, of Udadhikumars is Suswara, of Dveepkumars is Madhuraswara, of Vayukumars is Nandiswara and of Stanitkumars is Nandighosha. Chamarendra has 64,000 co-chiefs while Balindra has 60,000. Besides Asurendras the remaining eighteen Bhavanvasi Indras have 6,000 co-chiefs each. Their body-guards are four times of co-chiefs. The Bhavanpati Indras of the southen region except Chamrendra have Bhadrasen as their army chief and those of the northen region except Balindra have Daksh as their army chief. Similar is the description of Indras of Vyantar celestial beings and of stellar (Jyotish) पंचम वक्षस्कार ( 431 ) Fifth Chapter 155555555555555555555555555555555555 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ததததததததததததி*******ழ*தமிழ்***தமிதமி**தமிழி फफफफफफफफफ gods. The only difference is that they have 4,000 co-chiefs, four chief 5 goddesses, 16,000 body-guards celestial beings, the Viman is 1,000 yojans and flag-staff of 25 yojans. The divine bell of the south is ५ Manjuswara and of the north is Manju-ghosha, Abhiyogik celestial beings build their Vimans with fluid process. The divine bells of master Y stellar gods moons is Suswara and of suns is Suswar Nirghosha. They y came to Mandar mountain up to that they worship the Tirthankar. अभिषेक- द्रव्य : उपस्थापन MATERIAL FOR CORONATION Y 4 5 y Y १५३. तए णं से अच्चुए देविन्दे देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सद्दावेइ २ त्ता एवं ५ वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! महत्थं, महग्घं, महारिहं, विउलं तित्थयराभिसेअं उवट्ठवेह | Y तणं आभिओगा देवा हट्ठतुट्ठ जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति २ ता वेव्वसमुग्धाणं ( समोहणंति) समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं, ५ मणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमयाणं, सुवण्णमणिमयाणं, रुप्पमणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमणियाणं, अट्ठसहस्सं y भोमिज्जाणं, अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसाणं, थालाणं, पाईणं, सुपइट्ठगाणं, ५ चित्ताणं रयणकरंडगाणं, वायकरंडगाणं, पुष्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सव्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई 5 विसेसिअतराई भाणिअव्वाई, सीहासणछत्रचामरतेल्लसमुग्ग सरिसवसमुग्गा, तालिअंटा अट्ठसहस्सं १५३. देवेन्द्र, देवराज, महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, उनसे कहता है - देवानुप्रियो ! शीघ्र ही महार्थ - जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न आदि का उपयोग हो, महार्घ - जिसमें भक्ति - स्तवनादि का एवं बहुमूल्य सामग्री का प्रयोग हो, महार्ह - विराट् उत्सवमय विपुल - विशाल तीर्थंकराभिषेक के अनुकूल सामग्री आदि की व्यवस्था करो । Y छुगाणं विव्वंति, विउब्बित्ता साहाविए विउब्बिए अ कलसे जाव कडुच्छुए अ गिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हन्ति २ गिण्हि जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताई ताई हिन्ति, एवं पुक्खरोदाओ, (समय - खित्ते) भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टिअं च गिण्हन्ति २-५ त्ता एवं गंगाईणं महाणईणं (उदगं मट्टिअं च गिण्हन्ति), चुल्लहिमवन्ताओ सव्वतुअरे, सब्बपुष्फे, y सव्वगन्धे, सव्वमल्ले, सव्वोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति २ त्ता पउमद्दहाओ दहोअंग उप्पलादीणि अ । एवं ५ सव्वकुलपव्वएसु, वट्टवेअद्धेसु सव्यमहद्दहेसु, सव्ववासेसु, सव्वचक्कवट्टिविजएसु, वक्खारपव्वसु, ५ अंतरणईसु विभासिज्जा । (देवकुरुसु) उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभद्दसालवणे सव्वतुअरे सिद्धत्थए य गिण्हन्ति, एवं णन्दणवणाओ सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं हन्ति, एवं सोमणस - पंडगवणाओ अ सव्वतुअरे सुमणदामं दद्दरमलयसुगन्धे य गिण्हन्ति २ त्ता एगओ ५ मिति २त्ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता महत्थं तित्थयराभिसेअं उवद्ववेंतित्ति । यह सुनकर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में ईशान कोण में जाते हैं। वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने शरीर से आत्म- प्रदेश बाहर निकालते हैं। आत्म- प्रदेश बाहर Jambudveep Prajnapti Sutra Y Y जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (432) Y y 卐 फ्र நித**ததததததததி**********************தமிழில் 卐 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ה ת ת נ נ ת נ ת ת ת ת ת %%%步步步步步%%%%%%%%%%%% LC LC LC निकालकर एक हजार आठ स्वर्ण कलश, एक हजार आठ रजत कलश, एक हजार आठ मणिमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-मणिमय कलश-सोने और - मणियों से बने कलश, एक हजार आठ रजत-मणिमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजत-मणिमय - । कलश, एक हजार आठ मृत्तिकामय कलश, एक हजार आठ चन्दन कलश-चन्दनचर्चित मंगल कलश, एक हजार आठ झारियाँ, एक हजार आठ दर्पण, एक हजार आठ थाल, एक हजार आठ पात्रियाँ-रकाबी जैसे छोटे पात्र, एक हजार आठ सुप्रतिष्ठक-प्रसाधनमंजूषा, एक हजार आठ विविध म रत्नकण्डक-रत्न-मंजूषा, एक हजार आठ वातकरंडक-बाहर से चित्रित करके, एक हजार आठ पुष्पचंगेरी-फूलों की टोकरियाँ, राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के अभिषेक-प्रसंग में विकुर्वित सर्वविध चंगेरियों, पुष्प-पटलों-फूलों के गुलदस्तों के सदृश चंगेरियाँ, पुष्प-पटल-संख्या में तत्समान, गुण में अतिविशिष्ट, एक हजार आठ सिंहासन, एक हजार आठ छत्र, एक हजार आठ चॅवर, एक हजार आठ - तैल के भाजन-विशेष-डिब्बे आदि, एक हजार आठ सरसों के समुद्गक, एक हजार आठ पंखे तथा । एक हजार आठ धूपदान-इनकी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएँ लेकर, जहाँ क्षीरोद समुद्र है, वहाँ आकर क्षीररूप उदक-जल ग्रहण करते हैं। क्षीरोदक गृहीत कर उत्पल, पद्म, सहस्रपत्र आदि लेते हैं। पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं। मनुष्यक्षेत्रवर्ती पुष्करवर द्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मृत्तिका लेते हैं। वैसा कर गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृत्तिका ग्रहण करते हैं। फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत से , । आमलक आदि सब कषायद्रव्य-कसैले पदार्थ, सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब , प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं। उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका । जल एवं कमल आदि ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों-सर्वक्षेत्रों को विभाजित करने वाले + हिमवान् आदि पर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, पद्म आदि सब महाद्रहों, भरत आदि समस्त क्षेत्रों, कच्छ A आदि सर्व चक्रवर्तिविजयों, माल्यवान्, चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वतों, ग्राहावती आदि अन्तर-नदियों में के से जल एवं मृत्तिका लेते हैं। (देवकुरु से) उत्तरकुरु से पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध । , आदि स्थानों से सुदर्शन-पूर्वार्ध मेरु के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य एवं सफेद । सरसों लेते हैं। इसी प्रकार नन्दन वन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन , तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं। इसी भाँति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषायद्रव्य (सर्व पुष्प, सर्व : गन्ध, सर्व माल्य, सर्वोषधि, सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य) पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर । उद्भूत चन्दन की सुगन्ध से आपूर्ण सुरभिमय पदार्थ लेते हैं। ये सब वस्तुएँ लेकर एक स्थान पर मिलते है में हैं। मिलकर, जहाँ भगवान तीर्थंकर होते हैं, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर तीर्थंकराभिषेक में उपयोगी में क्षीरोदक आदि वस्तुएँ अच्युतेन्द्र के सम्मुख रखते हैं। 153. Achyutendra, the ruling god of twelfth heaven calls his Abhiyogik gods and orders them, 'O beloved of gods ! You prepare quickly the material suitable for anointing of Tirthankar. Precious stones, gold, Fi jewels and the like should be used in it. Hymns, panegyrics and other पंचम वक्षस्कार (433) Fifth Chapter $$$$$$$$$$$$%%% ב ו ת ב ת ת ת ת ת ת 卐 ) )))))) ) ))))))55558 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 5 5 5 95 95 95 95 95 95 95959559595959555555 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95959595595959555555 0 5555555555555555558 卐 4 valuable things should be arranged for. It should be be-fitting for the Y grand celebration. y y 4 Abhiyogik gods felt happy at these orders. They went in the northeast and spread out the space-points of their souls by fluid process. Then they prepared 1,008 gold pots, 1,008 silver pots, 1,008 pitchers studded with precious stones, 1,008 pitchers of gold and silver combined, 1,008 pitchers of gold studded with precious stones, 1,008 pitchers made of y silver and precious stones, 1,008 pitchers made of silver, gold and precious stones combined, 1,008 earthen pots, 1,008 auspicious pots of sandalwood, 1,008 smell pots, 1,008 mirrors, 1,008 large plates, 1,008 small plates, 1,008 boxes for keeping material, 1,008 boxes studded with jewels, 1,008 pots bearing pictures on their outer surface, 1,008 baskets of flowers and 1,008 flower baskets of the type mentioned in anointing of Suryabh Dev in Rajprashniya Sutra. They also prepared flower baskets which looked like boquets of flowers and petals of flowers. The flowers were same in number but were of extremely good quality. They further y prepared 1,008 seats, 1,008 umbrellas, 1,008 whisks, 1,008 oil containers and the like, 1,008 mustard seed boxes, 1,008 fans and 1,008 incense pots with fluid process. After doing so, they took the natural pitchers and pitchers created by fluid process up to incense containers and came to the milky sea (Ksheer Samudra) and took milky water. Then they took lotus, lotus of 1,000 leaves and the like. Thereafter they took water from Pushkarod sea. Later they took the water from Magadh and the like, the places of worship located in Bharat and Airavat continent of half Pushkarwar continent in the region inhabited by human beings 卐 (Maanush-Kshetra). Thereafter they took water and the earth from Ganga and other rivers. Later they took sour and bitter substances, various types of flowers, fragrant substances, garlands, grains and white Sarson seeds from small Himavan mountain. Thereafter they took water and lotus flowers and the like from Padma lake. 5 卐 (434) 8555555555555555555 y 4 F 555 卐 Similarly they took water and earth from Himavan mountain and the like which divide various regions, Vritt Vaitadhya mountains and all the great lakes such as Padma and the like; from all the continents such as Bharat and the like, from all Chakravarti Vijays such as Kachh and the 575 like, from Vakshaskaar mountains such as Malyavaan, Chitrakoot and 45 the like and from Grahavati and other such rivers in the inner region. They took all the bitter substances and Sarson seeds from (Dev Kuru) Uttar Kuru regions, from eastern half and western half of Bharat जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra y 4 卐 卐 47 4 卐 卐 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐5555555555555555555555555555 continent and from all places up to Bhadrashaal forest on eastern half of Meru mountain. Similarly they took all types of bitter substances white Sarson seeds, fresh Go-sheersh sandalwood, and garlands of divine flowers from Nandan forest, from Saumanas forest, and from Pandak forest. They also took fragrant substances from Dardar and Malay mountain. After collecting all these substances, they met at one place and then came to the place where Tirthankar was present and placed before Achyutendra all the substances such as milky water and the like which were useful for the anointing ceremony of the Tirthankar. अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक ANOINTING BY ACHYUTENDRA १५४. तए णं से अच्चुए देविन्दे दसहिं सामाणिअसाहस्सीहिं, तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं, चउहिं लोगपालेहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणिआहिवईहिं, चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे तेहिं साभाविएहिं विउविएहि अ वरकमलपइट्ठाणेहिं, सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं, चन्दणकयचच्चाएहिं, आविद्धकण्ठेगुणेहिं, पउमुप्पलपिहाणेहिं, करयलसुकुमारपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवण्णिआणं कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेज्जाणं सब्बोदएहिं, सबमट्टिआहिं, सव्वतुअरेहिं, सब्बोसहिसिद्धत्थएहिं, सव्विड्डीए जाव रवेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचंति। - तए णं सामिस्स अभिसेअंसि वट्टमाणंसि इंदारइआ देवा छत्त-चामर-धूवकडुच्छअ-पुष्फगन्ध हत्थगया हद्वतुट्ठ जाव वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति, एवं विजयाणुसारेण अप्पेगइआ देवा आसिअ-संमज्जिओवलित्त-सित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावण-वीहि करेंति, जाव गन्धवट्टिभूअंति। ___ अप्पेगइआ हिरण्णवासं वासिंति एवं सुवण्ण-रयण-वइर-आभरण-पत्त-पुप्फ-फल-बीअमल्ल-गन्ध-वण्ण-(वत्थ)-चुण्णवासं वासंति, अप्पेगइआ हिरण्णविहिं भाइंति एवं जाव चुण्णविहिं भाइंति। अप्पेगइआ चउव्विहं वज्जं वाएन्ति, तं जहा-ततं १, विततं २, घणं ३, झुसिरं ४, अप्पेगइआ चउब्विहं गेअं गायन्ति, तं जहा-उक्खित्तं १, पायत्तं २, मन्दायईयं ३, रोइआवसाणं ४, अप्पेगइआ चउव्यिहं णमु णच्चन्ति, तं जहा-अंचिअं १, दुअं २, आरभडं ३, भसोलं, अप्पेगइआ चउविहं अभिणयं अभिणेति, तं जहा-दिटंतिअं १, पाडिस्सुइअं २, सामण्णोवणिवाइअं ३, लोगमज्झावसाणिअं ४, अप्पेगइया बत्तीसइविहं दिव्यं णट्टविहिं उवदंसेन्ति, अप्पेगइआ उप्पयनिवयं, निवयउप्पयं, संकुचिअपसारिअं, भन्तसंभन्तणामं दिवं नट्टविहिं उवदंसन्तीति, अप्पेगइआ तंडवेंति, अप्पेगइआ लासेन्ति। पंचम वक्षस्कार (435) Fifth Chapter 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555555595555555 5 5555555951 *************hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhha अप्पे आ पीन्ति, एवं बुक्कारेन्ति, अप्फोडेन्ति वग्गन्ति, सीहणायं णदन्ति, अप्पेगइया सव्वाइं कन्ति अप्पेगइआ हयहेसिअं एवं हत्थिगुलुगुलाइअं, रहघणघणाइअं, अप्पेगइआ तिण्णिवि, अप्पेगइआ उच्छलन्त, अप्पेगइआ पच्छोलन्ति, अप्पेगइआ तिवई छिंदन्ति, पायदद्दरयं करेन्ति, भूमिचवेडे दलयन्ति, अप्पेगइआ महया सद्देणं रावेंति एवं संजोगा विभासिअव्वा, अप्पेगइआ हक्कारेन्ति, एवं पुक्कारेन्ति, थक्कारेन्ति, ओवयंति, उप्पयंति, परिवयंति, जलन्ति, तवंति, पयवंति, गज्जंति, विज्जुआयंति, वासिंति, अप्पेगइआ देवुक्कलिअं करेंति एवं देवकहकहगं करेंति, अप्पेगइआ दुहुदुहुगं करेंति, अप्पेगइआ विकिअभूयाई रुवाई विउव्बित्ता पणच्वंति एवमाइ विभासेज्जा जहा विजयस्स जाव सव्वओ समन्ता आहावेंति परिधावेंतित्ति । १५४. अभिषेक योग्य सब सामग्री तैयार हो जाने पर देवेन्द्र अच्युत अपने दस हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति - देवों तथा चालीस हजार अंगरक्षक देवों के साथ स्वाभाविक एवं विकुर्वित उत्तम कमलों पर रखे हुए, सुगन्धित, उत्तम जल से परिपूर्ण, चन्दन से चर्चित, गले में मोती बाँधे हुए, कमलों एवं उत्पलों से ढँके हुए, सुकोमल हथेलियों पर उठाये हुए एक हजार आठ सोने के कलशों यावत् चाँदी के कलशों, मणियों के कलशों, सोने एवं चाँदी के मिश्रित कलशों, एक हजार आठ मिट्टी के कलशों के सब प्रकार के जलों, सब प्रकार की मृत्तिकाओं, सब प्रकार के कषाय- कसैले पदार्थों, (सब प्रकार के पुष्पों, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थों, सब प्रकार की मालाओं) सब प्रकार की औषधियों एवं सफेद सरसों द्वारा सब प्रकार : की ऋद्धि-वैभव के साथ तुमुल वाद्यध्वनिपूर्वक भगवान तीर्थंकर का अभिषेक करता है। अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक किये जाते समय अत्यन्त हर्षित एवं परितुष्ट अन्य इन्द्र आदि देव छत्र, ! चँवर, धूपपान, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, (मालाएँ, चूर्ण- सुगन्धित द्रव्यों का बुरादा ) वज्र, त्रिशूल हाथ में लिए, अंजलि बाँधे खड़े रहते हैं । एतत्सम्बद्ध वर्णन जीवाभिगमसूत्र में आये विजयदेव के अभिषेक के प्रकरण के सदृश है । कतिपय देव पण्डक वन के मार्गों में, जो स्थान-स्थान से लाये हुए चन्दन आदि वस्तुओं के अपने बीच यत्र-तत्र ढेर लगे होने से बाजार की ज्यों प्रतीत होते हैं, जल का छिड़काव करते हैं, उनकी सफाई करते हैं, उन्हें लीपते हैं, ठीक करते हैं। यों उसे पवित्र - उत्तम एवं स्वच्छ बनाते हैं, सुगन्धित धूममय बनाते हैं । कई एक वहाँ चाँदी बरसाते हैं। कई स्वर्ण, रत्न, हीरे, गहने, पत्ते, फूल, फल, बीज, मालाएँ, गन्ध-सुगन्धित द्रव्य, हिंगुल आदि रंग (वस्त्र) तथा चूर्ण - सौरभमय पदार्थों का बुरादा बरसाते हैं। कई एक मांगलिक प्रतीक के रूप में अन्य देवों को रजत भेंट करते हैं। (कई एक स्वर्ण, कई एक रत्न, कई एक हीरे, कई एक आभूषण, कई एक पत्र, कई एक पुष्प, कई एक फल, कई एक बीज, कई एक मालाएँ, कई एक गन्ध, कई एक वर्ण तथा ) कई एक चूर्ण भेंट करते हैं । कई एक (१) तत - वीणा आदि कई एक (२) वितत - ढोल आदि कई एक (३) घन- ताल आदि, 5 तथा कई एक (४) शुषिर - बाँसुरी आदि चार प्रकार के वाद्य बजाते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (436) சுமித்தமிமிமிமிததமிழ*******************தமிதிதி Jambudveep Prajnapti Sutra 4 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई एक (१) उत्क्षिप्त - प्रथमतः समारभ्यमाण- पहले शुरू किये गये, (२) पादात्त - पादबद्ध - छन्द के चार भाग रूप पादों में बँधे हुए, (३) मंदाय - बीच-बीच में मूर्च्छना आदि के प्रयोग द्वारा धीरे-धीरे गाये जाते, तथा (४) रोचितावसान - यथोचित लक्षणयुक्त होने से अवसान पर्यन्त समुचित निर्वाहयुक्त - ये चार प्रकार के गेय-संगीतमय रचनाएँ गाते हैं । कई एक ( १ ) अंचित, (२) द्रुत, (३) आरभट, तथा (४) भसोल नामक चार प्रकार का नृत्य करते हैं । फ्र कई (१) दार्शन्तिक, (२) प्रातिश्रुतिक, (३) सामान्यतोविनिपातिक एवं (४) लोकमध्यमावसानिक चार प्रकार का अभिनय करते हैं। कई बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि दिखाते हैं। कई उत्पानत - निपात- आकाश में ऊँचा उछलना-नीचे गिरना आदि विविध नृत्यक्रिया में पहले अपने आपको संकुचित करना - सिकोड़ना, फिर प्रसृत करना - फैलाना, तथा भ्रान्त - संभ्रान्त - जिसमें प्रदर्शित अद्भुत चरित्र देखकर प्रेक्षकवृन्द भ्रमयुक्त हो जायें, आश्चर्ययुक्त हो जायें, वैसी अभिनयशून्य, गात्रविक्षेपमात्र नाट्यविधि दिखाते हैं । कई ताण्डव - प्रोद्धत-प्रबल नृत्य करते हैं, कई लास्य- सुकोमल नृत्य करते हैं । कई एक अपने को स्थूल प्रदर्शित करते हैं, कई एक बूत्कार ( बैठते हुए पुतों द्वारा भूमि आदि को पीटना ), कई एक वल्गन करते हैं- पहलवानों की ज्यों परस्पर बाहुओं द्वारा भिड़ जाते हैं, कई सिंहनाद करते हैं, कई क्रमशः तीनों करते हैं। कई घोड़ों की ज्यों हिनहिनाते हैं, कई हाथियों की ज्यों गुलगुलाते हैं - मन्द - मन्द चिंघाड़ते हैं, कई रथों की ज्यों घनघनाते हैं, कई घोड़ों की ज्यों हिनहिनाहट, हाथियों की ज्यों गुलगुलाहट तथा रथों की ज्यों घनघनाहट - क्रमशः तीनों करते हैं । कई एक आगे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक पीछे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक अखाड़े में पहलवान की ज्यों पैंतरे बदलते हैं। कई एक पैर से जमीन पर पैर पटकते हैं, कई हाथ से जमीन पर थाप मारते हैं, कई जोर-जोर से आवाज लगाते हैं। कई इन करतबों को दो-दो के रूप में, तीन-तीन के रूप में मिलाकर प्रदर्शित करते हैं। कई हुंकार करते हैं, कई पूत्कार करते हैं, कई थक्कार करते हैं - 'थक् - थक्' शब्द उच्चारित करते हैं। कई नीचे गिरते हैं, कई ऊँचे उछलते हैं, कई तिरछे गिरते हैं। कई अपने को ज्वालारूप में प्रदर्शित करते हैं, कई मन्द अंगारों का रूप धारण करते हैं, कई दीप्त अंगारों का रूप धारण करते हैं। कई गर्जन करते हैं, कई बिजली की ज्यों चमकते हैं, कई वर्षा के रूप में परिणत होते हैं । कई वातूल की ज्यों चक्कर लगाते हैं, कई अत्यन्त प्रमोदपूर्वक कहकहाहट करते हैं, कई 'दुहु-दुहु' की ध्वनि करते हैं। कई लटकते होठ, मुँह बाये, आँखें फाड़े-ऐसे विकृत - भयानक भूत-प्रेतादि जैसे रूप विकुर्वित कर बेतहाशा नाचते हैं। कई चारों ओर कभी धीरे-धीरे, कभी जोर-जोर से दौड़ लगाते हैं। जैसा विजयदेव का वर्णन है, वैसा ही यहाँ कथन करना चाहिए । 154. After preparing the relevant material for the anointing ceremony Achyutendra (master of twelfth heaven ) comes with his 10,000 co-chiefs, 33 advisors, four governors, three cabinets, seven armies, seven army chiefs and 40,000 body-guards. They were carrying 1,008 golden pots, | पंचम वक्षस्कार (437) *******************************மிது Fifth Chapter Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2454141414 141414141414141414141414141414141414141414141 444 445 446 44 445 446 447 46 45 444 445 446 44 445 446 44 445 446 445 446 45155 4 silvery pots, pots studded with precious stones, pots made of gold and y $1 silver and 1,008 earthen pots on their soft palms. The pots were on y natural lotus flowers and also those created by fluid process. They were full of fragrant water of best quality. They were painted with Sandal paste. The pearls were tied on the neck of the pots. The pots were covered with lotus and Utpal flowers. They were having water of all y types. The gods were also carrying earth of all types, bitter substances of y all sorts (flowers, fragrant substances and garlands of all types), all 9 types of food grains and white Sarson seeds. They then came with their wealth in an environment filled with music and in this atmosphere 55 Achyutendra performed the anointing of the Tirthankar. When Achyutendra was performing the anointing, the other Indras like were extremely happy. They were holding umbrellas, 9 whisks, incense pots, flowers, fragrant substances (garlands, powder of fragrant substances) Vajra and trishul in thier hands folded as a mark of respect. The entire description is similar to that of anointing of Vijay Devy in Jivabhigam Sutra. Some celestial beings were on the roads leading to y Pandak forest. Since heaps of Sandalwood brought from various places y were lying there on the roads at various places. They were looking like 9 bazaars. The celestial beings were sprinkling water on the roads, cleaning them and applying paste on them to set them right. They were i thus making the roads fragrant and the best. ome gods were raining silver there. Some were raining gold, jewels, 4 diamonds, leaves, flowers, fruit, seeds, garlands, fragrant substances, coloured substance, powder of fragrant substances. Some were offering silver to other gods as auspicious gift (Some were offering gold, jewels, diamonds, ornaments, leaves, flowers, fruit, seeds, garlands, fragrant substances, colour and some were offering powder. Some were playing on (1) violin, (2) drums, (3) flutes and (4) fun types of musical instruments. Some were singing four types of songs which were in four parts and 4 were sing in a low voice in between by making a posture of semi-consc iousness. They were singing in relevent desired manner as prescribed. Some were performing four types of dances namely—(1) Anchit, Drut, (3) Aarbhat, and (4) Bhasol. Some were acting in four different types namely—(1) Daarshtantik, 4 (2) Pratishrutik, (3) Samanyatovinipatik, and (4) Lok Si Madhyamaavasanik. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (438) Jambudveep Prajnapti Sutra 41 41 41 41 41 41 41 414 415 41 419 454 455 456 41545454545454545454545412 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0955 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 955 457 卐 Some were exhibiting thirty two types of dramatic poses. Some were 45 卐 47 457 47 卐 卐 卐 performing acrobats such as jumping high in space, falling down and the like, squeezing oneself in the beginning and then spreading oneself. 5 Some were acting in such a manner that the audiences may become filled with joy. They were showing such dramatic practices without theatrical acting. Some were performing war dance while some were 卐 acting in a cool manner. 卐 卐 were making hooting sound, some were making pussing sound, while some were making thumping sound. Some were falling down, some were jumping upwards, some were falling in slanting manner. Some were showing themselves as a flame, some were looking like light embers, Some celestial beings were presenting themselves as gross ones, some were appearing as if beating the earth while sitting, some were looking like engaged in wrestling bout, some were making loud voice while some 卐 were doing all the said three activities. Some were neighing like horses, some were trumpeting like elephants, some were emitting sound of while some were looking like bright embers. Some were roaring, some were shining like thunder, some were in the form of rain. Some were moving chariots. some were slapping from the front, some were slapping 卐 from behind, some were playing the tricks like wrestlers in the arena. 卐 卐 Some were striking the ground hard with their feet, some were beating the earth with their hand, some were calling loudly. Some were showing these tricks in a group of two, while some were in a group of three. Some moving around like a wheel, some were laughing in a fit of extreme pleasure, some were making 'duhu-duhu' sound. Some were dancing endlessly making a dreadful face like that of a ghost with hanging lips, wide open mouth and staring wide eyes with fluid process. Some were running around sometimes slowly and sometimes very fast. The description here should be considered same as that of Vijay deva. 5 फ अभिषेक उपक्रम PROCEDURE OF ANOINTING 5 १५५. तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामिं तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचइ अभिसिंचित्ता फ करयलपरिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्भावेइ वद्धावित्ता ताहिं इट्ठाहिं जाव जयजयसद्दं पउंजति, पउंजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए, गन्धकासाईए गायाइं लूहेइ लूहित्ता कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसिअं करेइ २ त्ता णट्टविहिं उवदंसेइ २ त्ता अच्छेहिं, सण्हेहिं, रययामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ सामिस्स पुरओ अट्ठट्ठमंगलगे आलिहइ, तं जहा - पंचम वक्षस्कार 47 457 (439) 655555555555555555555555555555555559 卐 卐 Fifth Chapter 555555555555555555555558 45 45 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 ************************************* 5 5 दप्पण १, भद्दासणं २, वद्धमाण ३, वरकलस ४, मच्छ ५, सिरिवच्छा ६ । सोत्थिय ७, णन्दावत्ता ८, लिहिआ अट्ठट्ठमंगलगा ॥१॥ 卐 卐 卐 लिहिऊण करेइ उवयारं, किं ते ? पाडल - मल्लिअ - चंपगड - सोग - पुन्नाग - चूअमंजरिनवमालिअ - बउल-तिलय - कणवीर - कुंद - कुज्जग - कोरंट-पत्त - दमणग- वरसुरभि - गन्धगन्धिअस्स, कयग्गह- गहि अकरयल - पन्भट्टविप्पमुक्कस्स, दसद्धवण्णस्स, कुमणि अर तत्थ चित्तं 5 सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिकरं करेत्ता चन्दप्पभ - रयण - वइरवेरुलिअ - विमलदण्डं, 卐 कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं, कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क धूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवट्टि विणिम्मुअंतं, 5 वेरुलिअमयं, कडुच्छुअं पग्गहित्तु पयएणं धूवं दाऊण जिणवरिंदस्स सत्तट्ट पयाई ओसरित्ता दसंगुलिअं 5 अंजलिं करिअ मत्थयंमि पयओ अट्ठसय - विसुद्धगन्धजुत्तेर्हि, महावित्तेर्हि अपुणरुतेहिं, अत्थजुत्तेर्हि संधुणइ 5 संणित्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता करयलपरिग्गहिअं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी 5 卐 卐 फ मोत्थु सिद्ध - बुद्ध - णीरय- समण - सामाहिअ - समत्त - समजोगि - सल्लगत्तण- णिब्भय - 5 णीरागदोस - णिम्मम - णिस्संग - णीसल-माणमूरण- गुणरयण - सीलसागर - मणंत - मप्पमेय - भविअ - फ्र धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी, णमोऽत्थु ते अरहओत्ति कट्टु एवं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे 5 णारे सुस्सूसमाणे जाव पज्जुवासइ । 卐 5 5 5 5 एवं जहा अच्चुअस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणिअव्वं, एवं भवणवइ - वाणमन्तर - जोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेअं २ अभिसिंचंति । तए णं से ईसाणे देविन्दे देवराया पंच ईसाणे विउब्बर विउव्वित्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिues गिण्हित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, एगे ईसाणे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिट्ठा । तणं से सक्के देविन्दे, देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ २ त्ता एसोवि तह चेव अभिसेआणत्तिं देइ 55 तेऽवि तह चेव उवणेन्ति । तए णं से सक्के देविन्दे, देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउद्दिसिं चत्तारि धवलवसभे विउब्वे । सेए संखदलविमल - निम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । 卐 फ तए णं तेसिं चउन्हं धवलवसभाणं अट्ठहिं सिंगेहिंतो अट्ठ तोअधाराओ णिग्गच्छन्ति, तए णं ताओ अट्ठ 5 तोअधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयन्ति उप्पइत्ता एगओ मिलायन्ति २ त्ता भगवओ तित्थयरस्त मुद्राणंसि 5 निवयंति । तए णं सक्के देविन्दे, देवराया चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं एअस्सवि तहेव अभिसेओ 卐 भाणि जाव मोत्थु ते अरहओत्ति कट्टु वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ। 卐 卐 卐 १५५. तब वह अच्युतेन्द्र सपरिवार विपुल, बृहत् अभिषेक - सामग्री द्वारा स्वामी का भगवान 卐 तीर्थंकर का अभिषेक करता है। अभिषेक कर वह हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे मस्तक से लगाता है, 5 'जय-विजय' शब्दों द्वारा भगवान की वर्धापना करता है, इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा 'जय जय' शब्द 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (440) फ्र फ्र फ्र Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) ) 95555555555555555555555555555555555558 उच्चारित करता है। वैसा कर वह रोएँदार, सुकोमल, सुरभित, काषायित-हरीतकी, विभीतक, ऊ आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हए अथवा कषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र-तौलिये द्वारा भगवान का शरीर पोंछता है। शरीर पोंछकर वह (उनके अंगों पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का लेप करता 卐 है। वैसा कर नाक से निकलने वाली हवा से भी जो उड़ने लगें, इतने बारीक और हल्के, नेत्रों को आकृष्ट करने वाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े के मुख की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, ॐ श्वेत, स्वर्णमय तारों से अन्तःखचित दो दिव्य वस्त्र-परिधान एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है।) वैसा मकर वह उन्हें कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है। (पुष्पमाला पहनाता है), नाट्य-विधि प्रदर्शित करता है है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान के आगे आठ-आठ मंगल-प्रतीक 卐 आलिखित करता है, जैसे १. दर्पण, २. भद्रासन, ३. वर्धमान, ४. कलश, ५. मत्स्य, ६. श्रीवत्स, ७. स्वस्तिक, तथा ८ नन्द्यावर्त। उनका आलेखन कर वह पूजोपचार करता है। गुलाब, मल्लिका, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, आम्रम मंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुब्जक, कोरण्ट, मरुक्क तथा दमनक के उत्तम सुगन्धयुक्त फूलों को कोमलता से हाथ में लेता है। वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, छूटते हैं, इतने गिरते हैं कि उन पँचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है। चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दण्डयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धुएँ की लहर छोड़ते हुए नीलम-निर्मित धूपदान को पकड़कर प्रयत्न सावधानी से, अभिरुचि से धूप देता है। धूप 卐 देकर जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-आठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाकर उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरोच्चारण में जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, अपुनरुक्त अर्थयुक्त एक सौ ॐ आठ महावृत्तों-महिमामय काव्यों द्वारा उनकी स्तुति करता है। वैसा कर वह अपना बायाँ घुटना ऊँचा म उठाता है, दाहिना घुटना भूमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाता है, कहता है हे सिद्ध ! बुद्ध ! नीरज-कर्मरजोरहित ! श्रमण समाहित-अनाकुल-चित्त ! कृत-कृत्य ! ॥ समयोगिन्-कुशल-मनोवाक्काययुक्त ! शल्य-कर्तन-कर्मशल्य को विध्वस्त करने वाले ! निर्भय रागद्वेषरहित ! निर्मम-निःसंग, निर्लेप ! निःशल्य-शल्यरहित ! मान-मूरण-अहंकार का नाश करने वाले ! गुण-रत्न-शील-सागर अनन्त अप्रमेय-अपरिमित ज्ञान तथा गुणयुक्त, धर्म-साम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्त चक्रवर्ती धर्मचक्र के प्रवर्तक ! अर्हत्-जगत्पूज्य अथवा कर्म-रिपुओं का नाश करने वाले ! आपको नमस्कार हो। इन शब्दों में वह भगवान को वन्दन करता है, नमन करता है। उनके न अधिक दूर, न अधिक समीप खड़ा रहकर शुश्रूषा करता है, पर्युपासना करता है। ____ अच्युतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्रों द्वारा सम्पादित अभिषेक-कृत्य का भी वर्णन करना म चाहिए। भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र, सूर्य-सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक करते हैं। 555 55听听听听听听听听听 $ $$ $$ $$$$$$$$$$ 卐55555555555555555)))))))))))))))))) पंचम वक्षस्कार (441) Fifth Chapter Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ தததததத தததததததததததததத*தமிமிமிமிமிமிமிமி*****பூதததததத 卐 卐 फ्र तपश्चात् देवेन्द्र, देवराज ईशान पाँच ईशानेन्द्रों के रूप की विकुर्वणा करता है - एक ईशानेन्द्र 55 卐 भगवान तीर्थंकर को अपनी हथेलियों में संपुट द्वारा उठाता है। उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर 5 फ बैठता है। एक ईशानेन्द्र पीछे छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र दोनों ओर चँवर डुलाते हैं। एक ईशानेन्द्र फफफफफफफ 5 चूर्ण की ज्यों विमल - निर्मल गहरे जमे हुए, बँधे हुए दधि-पिण्ड, गो-दुग्ध के झाग एवं चन्द्र - ज्योत्स्ना 卐 卐 5 की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय मनोज्ञ - मन में बस जाने वाले चार धवल 卐 卐 हाथ में त्रिशूल लिए आगे खड़ा रहता है। 5 तब देवेन्द्र देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें अच्युतेन्द्र की ज्यों अभिषेक - सामग्री लाते हैं। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के 5 पर निपतित होती हैं। अपने चौरासी हजार सामानिक आदि देव - परिवार से परिवृत्त देवेन्द्र, देवराज 卐 卐 5 को वन्दन, नमन करता है, उनकी पर्युपासना करता है। यहाँ तक अभिषेक का सारा वर्णन अच्युतेन्द्र फ्र वृषभ - बैलों की विकुर्वणा करता है। उन चारों बैलों के आठ सींगों में से आठ जलधाराएँ निकलती हैं, वे जलधाराएँ ऊपर आकाश में जाती हैं। ऊपर जाकर आपस में मिलकर वे एक हो जाती हैं। एक होकर भगवान तीर्थंकर के मस्तक शक्र भगवान तीर्थंकर का अभिषेक करता है । अर्हत् ! आपको नमस्कार हो, यों कहकर वह भगवान द्वारा सम्पादित अभिषेक के सदृश है। 155. Thereafter Achyutendra with his family performed the anointing of Tirthankar with a lot of material relating to anointing ceremony. Later he folded his hand and touched his head uttering the words-May 卐 Thereafter he wipes the body of Tirthankar with a soft, fragrant red the lord be always conqueror. He utters these words in a loveable tone. towel that was dyed with bitter forest products like Haritki, Vibhitak, Aamlak. After wiping the body dry, he applies freshly prepared paste of go-sheersh sandalwood. Thereafter he dresses the Tirthankar with two 卐 process of cloth, They were so light that they could fly away with the air coming out from the nose like breath. They were fine and light. divine They were pleasant to the eyes having pleasant touch and colour. They were woven with soft, extremely clean, golden wires, like the light lining coming out from the mouth of a horse. Thereafter he (Achyutendra) beautifies him like a wish fulfilling tree (places garland on his neck). Then he presents the dramatic acts. He then prepares auspicious eight symbols with soft, silvery rice of best quality in front of the Tirthankar. The said eight symbols are (1) mirror, (2) rectangular seat, (3) Vardhaman, (4) pot, (5) fish, (6) Shrivats, (7) Svastik, and (8) Nandyavart. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (442) **********************************தி Jambudveep Prajnapti Sutra फफफफफफफफफफफफफफफफफ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 457 45 41 41 41 41 414 415 4 454545454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 451 455 456 457 45 5 After scribing these symbols, he worships them. He picks up cooly 9 fragrant flowers of Rose, Mallika, Champa, Ashok, Punnaag, Mango plant, Navmallika, Bakul, Tilak, Kaner, Kund, Kubjak, Korant, Marukk 4 and Damanak. They fall from his hands in a natural manner. They fall down to such an extent that there happens to be a knee high wonderful heap of flowers of five colours. He then holds the incense pot made of neelam precious stone carefully and keenly spreads its fragrance. The said pot had a shining handle made of Chandrakant jewels, diamonds 4 and neelam precious stones. It was sketched with gold, precious stones $1 and jewels. It contained black agar, best Kundrukk, Lobaan and the fragrant incense covering out of it was spreading all around. It was 4 cmitting waves of their smoke. After spreading incense in this manner, he moves seven-eight steps towards the Tirthankar, folds his hands, 45 touches the forehead with folded hands praises his slow, loud and very mild voice with noble words and meaningful 108 poems in his honour. Thereafter he raises his left knee, touches the ground with his right knee and touches his forehead with folded hands. He then says "O the liberated ! The Omniscient ! The devoid of Karma dust ! O monk with equanimous mind ! O the fully blessed ! O one with perfect si mind word and perfect activity ! O the destroyers of the thorn of Karma! O the fearless completely devoid of attachment and hatred ! O without an iota of worldly attitude ! O favoid of worldly disturbances ! O the destroyer of worldly ego ! The possessor of sublime qualities, possessor of they Ocean of Chastity, possessor of infinite knowledge and attributes ! The would be emperor of the realm of Dharma ! One worshipped by the entire world or destroyer of all Karmas—The enemies of the mundane soul ! I bow to you. With these words, he bows to Bhagavan praises his Fi and senses him standing neither very near nor very far from him. The description of anointing by Pranatendra upto Ishanendra may be understood as similar to that by Achyudendra. Bhavanpati Indra, 5 Paripatetic Indras, stellar Indra namely sun and the moon perform the F coronation (of Tirthankar) in the same manner with their family (gods F and goddesses). Thereafter, Ishanendra creates five Ishan gods with fluid process i one of them picks up the Bhagavan with palms of his hands and then sits on his throne facing east, the second one holds the umbrella at the F back and the Ishanendra move the whisks. One Ishanendra stands in front holding Trishul in his hands. FFFFFhhhhhhhhhhhhhhhF FF FFFF 2545454545454545454545454 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4545454545454 455 456 457 458 45 46 47 46 45 44 445 446 46 |पंचम वक्षस्कार (443) Fifth Chapter 1454141414141414141414141414.45454545 45454 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 41 42 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; 5 15 Later Shakrendra calls his Abhiyogik gods. They bring the material 4 4 for anointing as the serving gods of Achyutendra had brought. Thereafter with fluid process Shakrendra creates four white bullocks in the four direction (sides) of Tirthankar. They are clean like conch powder. They are as white as frogen curd, foam of milk or brightness of the moon. They are loveable to the mind, attractive and worth seeing. Eight fountains flow out from eight horns of those bullocks. Those fountain flow upwards, join each other and their current becomes one that current and then it falls as the head of the Tirthankar. In the company of his 84,000 co-chiefs and the entire family of celestial beings 卐 Shakrendra performs the coronation of Tirthankar. He then says-0 Arhat ! I bow to you. Thereafter he bows to the Lord, appreciates him and serves him. The entire description upto this point is similar the one done by Achyutendra. 卐55555555555555555555555555555)))))))))))) )))))))))))))5555 अभिषेक-समापन COPLETION OF ANOINTING १५६. तए णं से सक्के देविंदे, देवराया पंच सक्के विउब्वइ विउवित्ता एगे सक्के भयवं तित्थयरं मकरयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्ठओ आयवत्तं धेरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे ॐ सक्के वज्जपाणी पुरओ पगड्डइ। तए णं से सक्के चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं जाव अण्णेहि अ भवणवइ-वाणमंतरॐ जोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सविडीए जाव णाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जेणेव + भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ २ ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवइ २ ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ २ त्ता ओसोवणिं पडिसाहरइ त्ता एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमूले ठवेइ २ ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलंबूसगं, सुवण्णपयरगमंडिअं, णाणामणिरयण-विविह-हारद्धहारउवसोहिअ समुदयं भगवओ ॥ तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवइ तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे २ सुहंसुहेणं , अभिरममाणे चिट्ठइ। म तए णं से सक्के देविंदे, देवराया वेसमणं देवं सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ, बत्तीसं सुवण्णकोडीओ, बत्तीस गंदाई, बत्तीसं भहाई, सुभगे, + सुभगरूवजुब्बणलावण्णे अ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि २ ता एअमाणत्ति पच्चप्पिणाहि। तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता भए देवे सहावेइ २ ता एवं ॐ वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि 9 साहरइ साहरित्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणह। ))))))) 卐55555) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (444) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9555555555555555555555555555555555555555555558 9555555555555555555555555555555555555 तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाव खिप्पामेव बत्तीसं ॐ हिरण्णकोडीओ जाव च भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति २ त्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव ॥ पच्चप्पिणंति। तए णं से वेसमणे देव जेणेव सक्के देविंदे, देवराया पच्चप्पिणइ।। तए णं से सक्के देविंदे देवराया सक्के आभिओगे देवे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ॐ देवाणुप्पिआ ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्योसेमाणा २ एवं वदह- 'हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा य देवीओ अ जे णं देवाणुप्पिआ ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स गं अज्जगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्ति' कटु घोसेणं घोसेह २ ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणहत्ति।। तए णं ते आभिओगा देवा एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति २ ता सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमंति २ ता खिप्पामेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरंसि सिंघाडग जाव एवं ॐ वयासी-हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ जे णं देवाणुप्पिआ ! तित्थयरस्स फुट्टिहीतित्ति कटु घोसणगं घोसंति २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति। म तए णं ते बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिआ देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं : करेंति २ त्ता जेणेव गंदीसरदीवे, तेणेव उवागच्छंति २ ता अट्ठाहियाओ महामहिमाओ करेंति २ ता 卐 जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। १५६. तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पाँच शक्र रूपों की विकुर्वणा करता है। एक शक्र भगवान म तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा ग्रहण करता है। एक शक्र भगवान के पीछे उन पर छत्र ताने ॥ रहता है। दो शक्र दोनों ओर चँवर ढुलाते हैं। एक शक्र वज्र हाथ में लिए आगे खड़ा होता है। फिर शक्र अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, अन्य-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों, देवियों के साथ सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य ज गति द्वारा, जहाँ भगवान तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन तथा उनकी माता थी वहाँ आता है। भगवान तीर्थंकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है। वैसा कर माता की बगल में रखे हुए फ़ तीर्थंकर के प्रतिरूपक को समेट लेता है। भगवान तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें 卐 वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। वैसा कर वह भगवान तीर्थंकर के सिरहाने दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है। फिर वह तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुनझुने से युक्त, सोने के पातों से सुशोभित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों-अठारह लड़े हारों, अर्ध-हारों-नौ लड़े हारों म से उपशोभित सुन्दर मालाओं को परस्पर ग्रथित कर बनाया हुआ बड़ा गोलक भगवान के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान तीर्थंकर निर्निमेष दृष्टि से-बिना पलकें झपकाए उसे देखते हुए ॐ सुखपूर्वक क्रीड़ा करते हैं। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाता है। बुलाकर कहता है-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ, बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दर्ययुक्त बत्तीस 5555555555555555555555555555 पंचम वक्षस्कार (445) Fifth Chapter 卐 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ahhhhh फफफफफफफफफफफफ 卐 卐 5 वर्तुलाकार लोहासन बत्तीस भद्रासन भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ। लाकर मुझे सूचित करो। वैश्रमण देव (देवेन्द्र देवराज) शक्र के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार करता है। स्वीकार कर वह फ जृम्भक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें कहता है- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य - मुद्राएँ आदि वस्तुएँ भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ। लाकर मुझे अवगत कराओ। वैश्रमण देव द्वारा यों कहे गये जृम्भक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य - मुद्राएँ आदि भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन में ले आते हैं। लाकर वैश्रमण देव को सूचित करते हैं कि उनके आदेश के अनुसार वे कर चुके हैं। तब वैश्रमण देव जहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र होता है, वहाँ 5 आता है, कृत कार्य से उन्हें अवगत कराता 1 तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शुक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता 5 है - देवानुप्रियो ! शीघ्र ही भगवान तीर्थंकर के जन्म-नगर के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों एवं विशाल मार्गों में जोर-जोर से उद्घोषित करते हुए कहो - 'बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क 5 तथा वैमानिक देव - देवियों ! आप सुनें-आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन अशुभ भाव लायेगा - दुष्ट संकल्प करेगा, 'आजओ' नामक वनस्पति की मंजरी की ज्यों उसके मस्तक सौ टुकड़े हो जायेंगे।' यह घोषित कर अवगत कराओ कि वैसा कर चुके हैं। तब वे आभियोगिक देव जो आज्ञा' यों कहकर देवेन्द्र देवराज शक्र का आदेश स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर वहाँ से चले जाते हैं। वे शीघ्र ही भगवान तीर्थंकर के जन्म-नगर में आते हैं। वहाँ तिकोने 5 स्थानों, तिराहों, चौराहों और विशाल मार्गों में यों घोषित करते हैं - बहुत से भवनपति यावत् वाणव्यन्तर, देवों ! देवियों ! आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने में मन में अशुभ भाव लायेगा - उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे । ऐसी घोषणा कर वे आभियोगिक देव देवराज शक्र को अवगत कराते हैं । 5 तदनन्तर बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव भगवान तीर्थंकर का जन्मोत्सव मनाते हैं। तत्पश्चात् जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर अष्टदिवसीय विराट् फ जन्म - महोत्सव आयोजित करते हैं। वैसा करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले जाते हैं। 卐 फ्र फ्र ॥ पंचम वक्षस्कार समाप्त ॥ फ्र 156. Thereafter Shakrendra creates five Shakra by fluid process. One 5 Shakra picks up the Tirthankar with the palms of his hands. The second one holds the umbrella spreaded behind the Lord. Two Shakra move the wheats on the two sides. One Shakra stands in front holding Vajra in his 5 hand. 5 फ Thereafter Shakra with his 84,000 co-chiefs, other Bhavanpati, 5 paripatetic, stellar and Vaimanik gods and goddesses and the heavenly जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (446) ************************************ 5 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 5 5 56 55 54 55 n nah $$$454545 46 47 46 456 457 454545454545454541 41 41 41 41 41 41 455 456 457 455 456 457 458 wealth of all types passing through the environment filled with music y comes at a fast speed to the birth place of the Tirthankar, his city, his 4 mansion and comes close to his mother. He then places the Tirthankar in the armpit of his mother. Later Shakra removes the model of Tirthankar, he had created earlier. He then removes the hypnotised sleep of the mother. Thereafter he places two large clothes and two ear-ornaments y near the head of the Tirthankar. Thereafter he hangs a large base in the canopy spread out on the Lord. That box was made by joining beautiful garlands having eighteen lined rosaries, nine lined rosaries containing golden bells, gold leaves and made of various types of precious stones fi and jewels. The Tirthankar then plays in a joyful mood looking at it y stairingly. # Thereafter Shakrendra calls Vaishraman Deva, the god of wealth and fi orders, 'O the blessed of gods ! Please bring quickly 320 million ruppees, 320 million gold coins, 32 round iron seats which should be beautiful and 4 in good shape and thirty two meritorious seats in the mansion wherein Tirthankar has taken birth. After doing the needful you inform me? Vaishraman god accepted the orders of Shakrendra respectfully. He then calls Jrimbhak gods and orders, 'o blessed 'of gods ! You quickly! bring 320 million rupees and the like (as mentioned above) in the mansion where Tirthankar has taken birth.' Jrimbhak gods felt happy to receive these orders. They quickly! brought 320 million rupees and the like in the birth place of the 5 Tirthankar and then inform Vaishraman gods about the compliance of his orders. Then the Vaishraman god comes to Shakrendra and informs him that the needful has been done as per his orders. Thereafter Shakrendra calls his serving (abhiyogik) gods and tells y them-'O the blessed of gods ! Please go quickly to tri-junctions, fourway crossing, the highways of the city of Tirthankars birth and loudly 4 make the proclamation, 'O Bhavanpati, paripaletic steller and Vaimanik gods and goddesses ! Kindly listen carefully whosoever out of you shall have any ill thought in respect of the Tirthankar or his mother, his head shall break into hundred pieces like the branch of'aajoo' vegetable. After making this announcement inform me.' The Abhiyogik gods accept the orders of Shakrendra respectfully and y come out from there. Thereafter, they come quickly to the birth place of nnn J11 पंचम वक्षस्कार ( 447 ) Fifth Chapter $$$ 15岁岁步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步hh8 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 451 455 456 457 41 41 41 414 415 41 45 456 457 451 45454545455 456 457 455 456 455 456 457 458 459 the Tirthankar and in that city make the announcements at triangular places, tri-junction, four-way junctions and great highways. 'Othe Bhavanpati upto Vaimanik gods and goddesses ! Whosoever out of you shall have in his mind any ill thought about the Tirthankar of his mother, his head shall break into hundred pieces. After making this announcement, they inform Shakrendra. Then many Bhavanpati, paripatetitik, stellar and Vaimanik gods celebrate the birth of Tirthankar. They then come to Nandishwar island and arrange eight day celebration there, at large scale and then go. • FIFTH CHAPTER CONCLUDED जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 448 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 1545454545454541 41 41 41 41 41 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 46 45 46 47 46 45 444 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 षष्ठ वक्षस्कार SIXTH CHAPTER उपोद्घात INTRODUCTION इस वक्षस्कार में जम्बूद्वीपवर्ती खण्ड, क्षेत्र, वर्षधर पर्वत, कूट, नदियाँ आदि का संक्षिप्त कथन है। In this Chapter there is a brief description of regions, areas, mountains peaks, rivers and the like that exist in Jambu island. स्पर्श एवं जीवोत्पाद TOUCH AND LIVE-PRODUCT १५७. [प्र. ] जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा लवणसमुदं पुट्ठा ? [उ. ] हंता पुट्ठा। [प्र. ] ते णं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे, लवणसमुद्दे ? [उ. ] गोयमा ! जंबुदीवे णं दीवे, णो खलु लवणसमुद्दे। एवं लवणसमुदस्स वि पएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणिअव्वा इति। [प्र. ] जंबुद्दीवे णं भंते ! जीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता लवणसमुदं पच्चायंति ? [उ. ] अत्थेगइआ पच्चायंति, अत्थेगइआ नो पच्चायंति। एवं लवणस्स वि जंबुद्दीवे दीवे णेअव्वमिति। १५७. [प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के चरम (अंतिम किनारे के) प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं ? [उ. ] हाँ, गौतम ! वे लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं। [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के जो प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं, क्या वे जम्बूद्वीप के ही प्रदेश कहलाते हैं या लवणसमुद्र के प्रदेश कहलाते हैं ? [उ.] गौतम ! वे जम्बूद्वीप के ही प्रदेश कहलाते हैं, लवणसमुद्र के नहीं कहलाते। इसी प्रकार लवणसमुद्र के प्रदेशों की बात है, जो जम्बूद्वीप का स्पर्श करते हैं। [प्र.] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के जीव मरकर लवणसमुद्र में उत्पन्न होते हैं? [उ. ] गौतम ! कतिपय उत्पन्न होते हैं, कतिपय उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार लवणसमुद्र के जीवों के जम्बूद्वीप में उत्पन्न होने के विषय में जानना चाहिए। 157. (Q.) Reverend Sir ! Do the space-points of the ultimate edge of Jambu island touch Lavan Ocean ? [A.J Yes Gautam ! They touch the Lavan Ocean. षष्ठ वक्षस्कार (449) Sixth Chapter 55555555555)))))))))))))555555555 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 9 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 - 卐 फ्र [Q.] Reverend Sir ! Are those space-points which touch Lavan Ocean called. Space-points of Jambu island or of Lavan Ocean ? [A] Gautam ! Those space-points are called space-points of Jambu island. They are not called space-points of Lavan Ocean. Same applies to the space-points of Lavan Ocean that touch Jambu island. [Q] Reverend Sir ! Do the living beings of Jambu island after there death are re-born in Lavan Ocean ? [A.] Gautam ! Some of then take birth in Lavan Ocean and some do not take birth there. Same should be understood in respect of living beings of Lavan Ocean. जम्बूद्वीप के खण्ड, योजन, नदियाँ आदि REGIONS, YOJANS AND RIVERS OF JAMBU ISLAND १५८. खंडा १, जोअण २, वासा ३, पव्वय ४, कूडा ५, य तित्थ ६, सेढीओ ७ । विजय ८, द्दह ९, सलिलाओ १०, पिंडए होइ संगहणी ॥ १ ॥ [प्र. १ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहिं खंडेहिं केवइअं खंडगणिएणं पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! णउअं खंडसयं खंडगणिएणं पण्णत्ते । [प्र. २] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे केवइअं जोअणगणिएणं पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! सत्तेव य कोडिसया, णउआ छप्पण्ण सय-सहस्साइं । चउणवई च सहस्सा, सयं दिबद्धं च गणिअ-पयं ॥ २ ॥ [प्र. ३ ] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कति वासा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! सत्त वासा, तं जहा - भरहे १, एरवए २, हेमवए ३, हिरण्णव ४, रम्मगवासे ६, महाविदेहे ६ | फ्र [उ.] गोयमा ! जंबुद्दीवे छ वासहर पव्वया, एगे मंदरे पव्वए, एगे चित्तकूडे, एगे विचित्तकूडे, दो जमग पव्वया, दो कंचणग पव्वयसया, वीसं वक्खार पव्वया, चोत्तीसं दीहवेअद्धा, चत्तारि वट्टवेअद्धा, एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे दुण्णि अउणत्तरा पव्वय सया भवतीतिमक्खायंति । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र [प्र.५] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ वासहर कूडा, केवइआ वक्खार कूडा, केवइआ वे अद्धकूडा, केवइआ मंदर कूडा पण्णत्ता ? हरिवासे ५, (450) கதிதிததமிமிமிமிததமி****************திமிதிமிதிதி Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 [प्र.४] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता, केवइआ मंदरा पव्वया पण्णत्ता, 5 केवइआ चित्तकूडा, केवइआ विचित्तकूडा, केवइआ जमग पव्वया, केवइआ कंचण पव्वया, केवइआ वक्खारा, केवइआ दीहवेअद्धा, केवइआ वट्टवेअद्धा पण्णत्ता ? 5 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 5 卐 फ्र 出 卐 फ्र फ्र फ्र फ्र 生 卐 生 ५ 卐 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听hhhhhhhhhhhhhhhhhhhh FFFFFFFFFFF [उ. ] गोयमा ! छप्पण्णं वासहर कूडा, छण्णउई वक्खार कूडा, तिण्णि छलुत्तरा वेअद्ध कूड-सया, नव मंदर कूडा पण्णत्ता, एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे चत्तारि सत्तट्ठा कूड सया भवन्तीतिमक्खायं।। [प्र. ६ ] जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे कति तित्था पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-मागहे, वरदामे, पभासे। [प्र.] जंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे कति तित्था पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-मागहे १, वरदामे २, पभासे ३ । __ [प्र. ] एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्कवट्टिविजए कति तित्था पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-मागहे १, वरदामे २, पभासे ३। एवामेव सपुबावरेणं जंबुद्दीवे दीवे एगे विउत्तरे तित्थ सए भवतीतिमक्खायंति। [प्र. ७ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ विजाहर सेढीओ, केवइआ आभिओग सेढीओ पण्णत्ताओ? [उ. ] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसट्ठी विज्जाहर सेढीओ, अट्ठसट्ठी आभिओग सेढीओ पण्णत्ताओ, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसे सेढि सए भवतीतिमक्खायं। [प्र. ८] जंबुद्दीवे दीवे केवइआ चक्कवदिविजया, केवइआओ रायहाणीओ, केवइआओ . तिमिसगुहाओ, केवइआओ खंडप्पवायगुहाओ, केवइआ कयमालया देवा, केवइआ णट्टमालया देवा, 5 केवइआ उसभकूडा पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टिविजया, चोत्तीसं रायहाणीओ, चोत्तीसं तिमिस गुहाओ, चोत्तीसं खंडप्पवाय गुहाओ, चोत्तीसं कयमालया देवा, चोत्तीसं गट्टमालया देवा, चोत्तीसं उसभकूडा पव्वया पण्णत्ता। [प्र. ९ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ महदहा पण्णता ? [ उ. ] गोयमा ! सोलस महदहा पण्णत्ता। [प्र. १० ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयाओ महाणईओ वासहरप्पवहाओ, केवइयाओ महाणईओ कुंडप्पवाहाओ पण्णत्ताओ? [उ. ] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोइस महाणईओ वासहरप्पवहाओ, छावत्तरि महाणईओ कुंडप्पवहाओ, एवामेव सपुबावरेणं जंबुद्दीवे दीवे णउतिं महाणईओ भवंतीतिमक्खायं। 3 [प्र. ११ ] जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु कइ महाणईओ पण्णत्ताओ ? 5555555555SFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF555555555555555555 षष्ठ वक्षस्कार (451) Sixth Chapter 155步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步实$$$$$$$ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555555555558 + [उ. ] गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गंगा १, सिंधू २, रत्ता ३, रत्तवई ४। तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिला सहस्सेहिं समग्गा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेइ, 5 एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे भरह-एरवएसु वासेसु छप्पण्णं सलिला-सहस्सा भवंतीतिमक्खायंति। * [प्र. १२ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! हेमवय-हेरण्णवएसु वासेसु कति महाणईओ पण्णत्ताओ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रोहिता १, रोहिअंसा २, सुवण्णकूला ३, ॐ रुप्पकूला ४। तत्थ णं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिला-सहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिपच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय-हेरण्णवएसु वासेसु बारसुत्तरे सलिला सय सहस्से भवंतीतिमक्खायं इति। [प्र. १३ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे हरिवास-रम्मगवासेसु कइ महाणईओ पण्णत्ताओ? [उ.] गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हरी १, हरिकंता २, परकंता ३, णारिकंता ४। तत्थ णं एगमेगा महाणई छप्पणाए छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिम पच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेइ। एवामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हरिवास-रम्भगवासेसु दो चउवीसा # सलिला सय सहस्सा भवंतीतिमक्खायं। ___ . [प्र. १४ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! महाविदेहे वासे कइ महाणईओ पण्णत्ताओ ? म [उ. ] गोयमा ! दो महाणईओ पण्णताओ, तं जहा-सीआ १ य सीओआ २ य। तत्थ णं एगमेगा महाणई पंचहिं पंचहिं सलिला सय सहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिला सहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ। एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दस सलिला सय सहस्सा चउसद्धिं च सलिसा सहस्सा भवन्तीतिमक्खायं। [प्र. १५] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं केवइया सलिला सय सहस्सा पुरथिम-पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समति ? [उ.] गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला सय सहस्से पुरथिम-पच्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुई समप्पेंतित्ति। __ [प्र. १६] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिला सय सहस्सा पुरथिम-पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समति ? [उ. ] गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला सय सहस्से पुरत्थिम-पच्चत्थिमाभिमुहे (लवणसमुई) समप्पेइ। ॐ [प्र. १७ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिला सय सहस्सा पुरत्थाभिमुहा लवणसमुहं समप्पेंति ? [उ. ] गोयमा ! सत्त सलिला सय सहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा (लवणसमुदं) समप्यति। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 555555555555555555 卐55555555555555:555555555555555555555555955555448 (452) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழக [प्र. १८ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिला सय सहस्सा पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुद्दे समप्पेंति ? [उ.] गोयमा ! सत्त सलिला सय सहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा ( लवणसमुद्द) समप्पेंति । एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिला सय सहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवतीतिमक्खायं इति । १५८. (१) खण्ड, (२) योजन, (३) वर्ष, (४) पर्वत, (५) कूट, (६) तीर्थ, (७) श्रेणियाँ, (८) विजय, (९) द्रह, तथा (१०) नदियाँ - इनका प्रस्तुत सूत्र में वर्णन है, जिनकी यह संग्राहिका गाथा है। [प्र. १ ] भगवन् ! (एक लाख योजन विस्तार वाले) जम्बूद्वीप के (५२६१९ योजन विस्तृत) भरत क्षेत्र के प्रमाण जितने - भरत क्षेत्र के बराबर खण्ड किये जाएँ तो कितने खण्ड होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! खण्डगणित के अनुसार वे एक सौ नब्बे होते हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! योजनगणित के अनुसार जम्बूद्वीप का कितना प्रमाण है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल - प्रमाण (७,९०,५६,९४, १५०) सात अरब नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है। [प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्ष - क्षेत्र हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में सात वर्ष क्षेत्र हैं- (१) भरत, ( २ ) ऐरावत, (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष, तथा (७) महाविदेह । [प्र. ४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने वर्षधर पर्वत, कितने मन्दर पर्वत, कितने चित्र कूट पर्वत, कितने विचित्र कूट पर्वत, कितने यमक पर्वत, कितने काञ्चनक पर्वत, कितने वक्षस्कार पर्वत, कितने दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा कितने वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत छह वर्षधर पर्वत, एक मन्दर पर्वत, एक चित्र कूट पर्वत, एक विचित्र कूट पर्वत, दो यमक पर्वत, दो सौ काञ्चनक पर्वत, बीस वक्षस्कार पर्वत, चौंतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा चार वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं। यों जम्बूद्वीप में पर्वतों की कुल संख्या ६+१+१ + १ + २ + २०० + २० + ३४ + ४ = २६९ ( दो सौ उनहत्तर) हैं । [प्र. ५ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्षधरकूट, कितने वक्षस्कारकूट, कितने वैताढ्यकूट तथा कितने मन्दरकूट हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में छप्पन वर्षधर कूट, छियानवे वक्षस्कार कूट, तीन सौ छह वैताढ्य कूट तथा नौ मन्दर कूट बतलाये हैं। इस प्रकार ये सब मिलाकर कुल ५६ + ९६ + ३०६ + ९ = ४६७ कूट हैं । [प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं - (१) मागध तीर्थ, (२) वरदाम तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ । षष्ठ वक्षस्कार (453) *********************************Y Sixth Chapter Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555559 [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ? __ [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं--(१) मागध तीर्थ, (२) वरदाम तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ। __ [प्र..] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक-एक चक्रवर्तिविजय में कितने-कितने तीर्थ हैं? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक-एक चक्रवर्तिविजय में तीन-तीन तीर्थ हैं-(१) मागध तीर्थ, (२) वरदाम तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ। __ यों जम्बूद्वीप के चौंतीस क्षेत्रों में कुल मिलाकर ३४ ४ ३ = १०२ (एक सौ दो) तीर्थ हैं। [प्र. ७] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत विद्याधर श्रेणियाँ तथा आभियोगिक श्रेणियाँ कितनी-कितनी हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में अड़सठ विद्याधर श्रेणियाँ तथा अड़सठ आभियोगिक श्रेणियाँ हैं (प्रत्येक दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर दो-दो)। इस प्रकार कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में ६८ + ६८ = १३६ (एक सौ छत्तीस) श्रेणियाँ हैं। [प्र. ८ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चक्रवर्तिविजय, राजधानियाँ, तिमिस्र गुफाएँ, खण्डप्रपात गुफाएँ, कृत्तमालक देव, नृत्तमालक देव तथा ऋषभकूट कितने-कितने हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौंतीस चक्रवर्तिविजय (१ भरत, १ ऐरावत, ३२ महाविदेह विजय), चौंतीस राजधानियाँ, चौंतीस तिमिस्र गुफाएँ, चौंतीस खण्डप्रपात गुफाएँ, चौंतीस कृत्तमालक देव, चौंतीस नृत्तमालक देव तथा चौंतीस ऋषभकूट हैं। [प्र. ९ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाद्रह कितने हैं ? ... [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सोलह महाद्रह हैं। [प्र. १०] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वर्षधर पर्वतों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं और कुण्डों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौदह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से निकलती हैं तथा छिहत्तर महानदियाँ कुण्डों से निकलती हैं। कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में १४ + ७६ = ९० (नब्बे) महानदियाँ हैं। __ [प्र. ११ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र तथा ऐरवत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ हैं ? [उ. ] गौतम ! चार महानदियाँ हैं-(१) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रक्ता, तथा (४) रक्तवती। एक-एक महानदी में चौदह-चौदह हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वे पूर्वी एवं पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती हैं। भरतक्षेत्र में गंगा महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा सिन्धु महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। ऐरवत क्षेत्र में रक्ता महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा रक्तवती महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। यों जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में कुल १४,००० x ४ = ५६,००० (छप्पन हजार) नदियाँ होती हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (454) 5步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) ) 8555555555555555555555555555555555555 [प्र. १२ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत एवं हैरण्यवत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ हैं ? _ [उ. ] गौतम ! चार महानदियाँ हैं-(१) रोहिता, (२) रोहितांशा, (३) सुवर्णकूला, तथा (४) । रूप्यकूला। वहाँ इनमें से प्रत्येक महानदी में अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियाँ मिलती हैं। वे उनसे आपूर्ण होकर पूर्वी एवं पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती हैं। हैमवत में रोहिता पूर्वी लवणसमुद्र में तथा रोहितांशा पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। हैरण्यवत में सुवर्णकूला पूर्वी लवणसमुद्र में तथा रूप्यकूला पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत तथा हैरण्यवत क्षेत्र में कुल २८,००० x ४ = १,१२,००० (एक लाख बारह हजार) नदियाँ हैं, ऐसा बतलाया गया है। 4 [प्र. १३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष में कितनी महानदियाँ हैं ? + [उ.] गौतम ! चार महानदियाँ हैं-(१) हरिसलिला, (२) हरिकान्ता, (३) नरकान्ता, तथा (४) नारीकान्ता। वहाँ इनमें से प्रत्येक महानदी में छप्पन छप्पन हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर ॐ वे पूर्वी तथा पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती हैं। हरिवर्ष में हरिसलिला पूर्वी लवणसमुद्र में तथा ॥ + हरिकान्ता पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती हैं। रम्यकवर्ष में नरकान्ता पूर्वी लवणसमुद्र में तथा नारीकान्ता : * पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती हैं। यों जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष में कुल ५६,००० ४ ४ = २,२४,००० (दो लाख चौबीस हजार) नदियाँ हैं।। [प्र. १४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कितनी महानदियाँ हैं ? __ [उ. ] गौतम ! दो महानदियाँ हैं-(१) शीता, एवं (२) शीतोदा। वहाँ उनमें से प्रत्येक महानदी में पाँच लाख बत्तीस हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वे पूर्वी तथा पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती हैं। शीता पूर्वी लवणसमुद्र में तथा शीतोदा पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। इस प्रकार के जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कुल ५,३२,००० x २ = १०,६४,००० (दस लाख चौंसठ हजार) नदियाँ हैं। 卐 [प्र. १५ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर (मेरु) पर्वत के दक्षिण में कितने लाख नदियाँ * पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं ? [उ. ] गौतम ! १,९६,००० (एक लाख छियानवे हजार) नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं। म [प्र. १६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में कितने लाख नदियाँ पूर्वाभिमुख म एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं ? ॐ [उ. ] गौतम ! १,९६,००० (एक लाख छियानवे हजार) नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख म होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं। [ [प्र. १७ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने लाख नदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं ? + [उ. ] गौतम ! ७,२८,००० (सात लाख अट्ठाईस हजार) नदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं। (455) Sixth Chapter 卐卐555555555555555555555555555555555595 听听听听听听$$$$$ $$$$ 5555555555555555555555555555555555 षष्ठ वक्षस्कार (455) Sixth Chapter Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4554454545454545454545454545454545 24541414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141414141 2 [प्र. १८ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने लाख नदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में farcit ? $ [3.] nitas ! 0,76,000 (aura ma gisa Fore) feat afgerantie state लवणसमुद्र में मिलती हैं। $1 FH SORT PELETI Do Brita got 49,,000 +19,76,000 = 98,48,000 (alca ACT छप्पन हजार) नदियाँ हैं। 158. (1) Khand, (2) Yojan, (3) Varsh, (4) Parvat, (5) Koot, (6) Teerth, 7) Shrenis, (8) Vijaya, (9) Draha, and (10) Rivers. This is the collative verse of the topics discussed in this Sutra. [Q. 1] Reverend Sir ! In case Jambu island (of one lakh yojans) is divided into regions equal in size of Bharat continent (526 yojan and sixnineteenth of yojan) of Jambu island, how many regions can carried out in ? Gautam ! According to arithmatic relation, it can be divided into 190 regions. [Q. 2] Reverend Sir ! What is the area of Jambu island mathematically in yojans ? [A.) Gautam! The area of Jambu island is seven billion nine hundred and five million six hundred ninety four thousand one hundred i and fifty yojans. [Q. 3] Reverend Sir ! How many are the continents (Varsh Kshetras) " in Jambu island ? (A.) There are seven continents in Jambu island. They are (1) Bharat, (2) Airavat, (3) Haimavat, (4) Hairanyavat, (5) Harivarsh, (6) i Ramyakavarsh, and (7) Mahavideh. 1 (Q. 4] Reverend Sir ! How many are broad (Varshadhar) mountains, high (Mandar) mountains, Chitrakoot mountains, Vichitrakoot mountains, Yamak mountains, Kanchanak mountains, long (Vakshaskar) mountains, long Vaitadhya mountains and round (Vritt) Vaitadhya mountains in Jambu island ? (A.) Gautam ! In Jambu island, there are six Varshadhar mountains, one Mandar mountain, one Chitrakoot mountain, one Vichitrakoot mountain, two Yamak mountains, two hundred Kanchanak mountains, twenty Vakshaskar mountains, 34 long Vaitadhya mountains and four | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 456 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 555555 456 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4 15455 456 457 45454545454545455 4455 456 45 46 47 46 45 46 47 46 45 46 47 46 45 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 441 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 454 455 456 454 9555555555555555555555555555555555555 LE Vritt Vaitadhya mountains. Thus the total number of mountains is two 4 hundred and sixty nine. (Q. 5] Reverend Sir ! In Jambu island, how many are Vakshaskar tops, Vaitadhya tops and Mandar tops ? 4 Al Gautam ! In Jambu island, there are 56 Varshadhar tops. 96 Vakshaskar tops 306 Vaitadhya top and nine Mandar tops. Thus the total number of tops is four hundred sixty seven. (Q. 6) Reverend Sir ! How many are the Tirth in Bharat continent of Jambu island ? [A.] Gautam ! There are three Tirth in Bharat continent of Jambu island. They are (1) Maagadh. (2) Vardaam, and (3) Prabhaas. (Q. ) Reverend Sir ! How many are the Tirth in Airavat continent of Jambu island ? A] Gautam ! There are three Tirth in Airavat continent of Jambu island. They are—(1) Maagadh, (2) Vardam, and (3) Prabhaas. (Q.) Reverend Sir ! How many Tirth are there in each Chakravarti Vijay of Mahavideh continent of Jambu island ? (A.] Gautam ! In each Chakravarti Vijay of Mahavideh region in Jambu island, there are three Tirth. They are—(1) Magaadh, (2) Vardaam, and (3) Prabhaas. Thus in thirty four continents of Jambu island there are 102 Tirths. [Q. 7] Reverend Sir ! How many are Vidyadhar lines and Abhiyogik lines in Jambu island ? (A.) Gautam ! There are sixty eight Vidyadhar lines and sixty eight Abhiyogik lines in Jambu island. (Each long Vaitadya mountain has two Vidyadhar lines and two Abhiyogik lines. Thus the total number of lines is one hundred thirty six. [Q. 8] Reverend Sir ! In Jambu island, how many are Chakravarti Vijays, Capitals, dark (Timisra) caves, Khandprapat caves, Krittamalak 41 gods, Nrittamalak gods and Rishabhkoots ? (A.) Gautam ! In Jambu island there are thirty four Chakravarti Vijays (one Bharat, one Airavat and thirty two Mahavideh Vijays), thirty four capitals, thirty four Timisra caves, thirty four Khandprapat caves, thirty four Krittamalak gods, thirty four dancing (Nrittamalak) gods and thirty four Rishabhkoots. 456 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 4545454545452 5 7 455 58 455 456 457 455 456 4 41 45 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4 षष्ठ वक्षस्कार (457) Sixth Chapter 456 56 955 456 457 45545555555555554 455 456 457 4 58 459 455 456 457 455 456 457 455454545454545454 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 &55454545455 456 455 456 457 455 456 455 456 457 4 5 4 455 456 457 455 456 4545454545454141414 $ (Q. 9] Reverend Sir ! In Jambu island how many are great lakes 5 (Maha drah) ? (A.] Gautam ! There are sixteen great lakes in Jambu island. 4 (Q. 10] Reverend Sir ! In Jambu island, how many rivers start from i Varshadhar mountains and how many rivers starts from the large tanks (Kunds)? (A.) Gautam ! In Jambu island the rivers starts from Varshadhar mountains and 76 rivers start from large tanks. Thus in all there are ninety rivers in Jambu island. 5 [Q. 11] Reverend Sir ! In Bharat continent and Airavat continent of Jambu island, how many are the great rivers ? (A.] Gautam ! There are four great rivers namely—(1) Ganga, (2) Sindhu, (3) Rakta, and (4) Raktavati. 14,000 rivers join each of the four great rivers. Filled with them, the great rivers flow into the east Lavan Ocean and the west Lavan Ocean. In Bharat continent, Ganga rivers flows into eastern Lavan Ocean and Sindhu river flows into western Lavan Ocean. In Airavat region, Rakta river flows into eastern Lavan Ocean and Raktavati river flows into western Lavan Ocean. Thus in Bharat and Airavat regions there are 56,000 rivers in all. [Q. 12] Reverend Sir ! In Jambu island how many are the great rivers 4 in Haimavat and Hairanyavat regions ? [A.) Gautam ! There are four great rivers namely—(1) Rohita, (2) Rohitansha, (3) Suvarnakula, and (4) Rupyakula. In each of them 28,000 rivers join. Filled with them they join eastern Lavan Ocean and western Lavan Ocean. In Haimavat region, Rohita joins the eastern Lavan Ocean and Rohitansha joins the western Lavan Ocean. In Hairanyavat region Suparvkula joins the eastern Lavan Ocean and 4 Rupyakula joins the western Lavan Ocean. Thus in all these are 1,12,000 rivers in Haimavat and Hairanyavat region of Jambu island. [Q. 13] Reverend Sir ! In Jambu island, how many are the great rivers in Harivarsh and Ramyakavarsh regions ? [A.] Gautam ! There are four great rivers namely—(1) Harisalila, (2) Harikanta, (3) Narkanta, and (4) Narikanta. In each of them 56,000 rivers join. Filled with them they flow into eastern Lavan and western \ Lavan Ocean. In Harivarsh region Harisalila flows into eastern Lavan 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 414 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 $45 46 47 46 45 446 4 4 4 4 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (458) Jambudveep Prajnapti Sutra 44 445 454 455 456 457 45541414141414141414141414141414141 414 415 45 44 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2 55555555555555555 卐 卐 卐 45 45 while Harikanta river flows into western Lavan Ocean. In Ramyakavarsh Region Narkanta flows into eastern Lavan Ocean while Narikanta flows into western Lavan Ocean. Thus there are 2,24,000 rivers in all in Harivarsh and Ramyakavarsh regions of Jambu island. [Q. 14] Reverend Sir! In Jambu island, how many are the great rivers in Mahavideh region? Ocean [A] Gautam! There are two great rivers namely-(1) Sita, and (2) Sitoda. In each of them 5,32,000 rivers join. Filled with they merge in Lavan Ocean. Sita river merges in eastern Lavan Ocean while Sitoda merges in western Lavan Ocean. Thus in all there are 10,64,000 rivers in Mahavideh region of Jambu island. [Q. 15] Reverend Sir! In the south of Mandar mountain of Jambu island, how many rivers flow into Lavan Ocean from the east and from the west? [A.] Gautam ! 1,96,000 rivers merge in Lavan Ocean flowing eastwards and westwards. [Q. 16] Reverend Sir ! In the north of Mandar mountain of Jambu island how many rivers flow into Lavan Ocean from the east and from the west? [A] Gautam ! 1,96,000 rivers merge in Lavan Ocean from the east and from the west. [Q. 17] Reverend Sir ! In Jambu island, how many rivers join Lavan Ocean from the east? [A.] Gautam ! 7,28,000 rivers merge in Lavan Ocean from the east. [Q. 18] Reverend Sir! In Jambu island, how many rivers join Lavan Ocean in the west ? [A.] Gautam ! 7,28,000 rivers join Lavan Ocean in the west. Thus in Jambu island there are 14,56,000 rivers in all. विवेचन : प्रस्तुत वक्षस्कार में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र, वर्षधर पर्वत, कूट, है । इसकी संक्षेप में तालिका निम्नानुसार है Elaboration-In the present chapter there is a detailed description of regions, Varshadhar mountains, tops (Koots), rivers and the like of Jambu island. Its table in brief is as under षष्ठ वक्षस्कार ( 459 ) नदी आदि का वर्णन 55555555555555555555555 Sixth Chapter 卐 卐 卐 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 2 卐 卐 卐 57 卐 卐 卐 卐 45 57 47 卐 555 47 14575 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) )) )))) ) 555555555555555555555555555 जम्बूद्वीपवर्ती वर्ष (क्षेत्र) संख्या योजनाकला तथा छह वर्षधर पर्वत जम्बूद्वीप के खण भरत क्षेत्र ५२६/६ चुल्लहिमवंत पर्वत १,०५२/१२ हैमवत क्षेत्र २,१०५/५ महाहिमवंत पर्वत ४,२१०/१० हरिवर्ष क्षेत्र ८,४२१/१ निषध पर्वत १६,८४२/२ महाविदेह क्षेत्र ३३,६८४/४ ६४ नीलवन्त पर्वत १६,८४२/२ ३२ रम्यकवर्ष क्षेत्र ८,४२१/१ रुक्मी पर्वत ४,२१०/१० हैरण्यवत क्षेत्र शिखरी पर्वत १,०५२/१२ ऐरवत क्षेत्र ५२६/६ जम्बूद्वीप का आयाम विष्कम्भ । १,००,००० योजन/७६ कला १९०खण्ड ३२ ) ७/am ११. १२. Yojan/Kala Portions of Jambu island No. 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 1. 2. 3. 3555555))))))))))))))))))))))) Regions and Six Varshadhar Mountains in Jambu island Bharat region Chull Himavant mountain Haimavat region Maha Himavant mountain Harivarsh region Nishadh mountain Mahavideh region Neelavant mountain Ramyakavarsh region Rukmi mountain Hairanyavat region Shikhari mountain Airavat region 5. 16 32 64 32 526/6 1,052/12 2,105/5 4,210/10 8,421/1 16,842/2 33,684/4 16,842/2 8,421/1 4,210/10 2,105/5 1,052/12 526/6 99,996 yojan/76 Kalas = 1,00,000 yojan 19 Kalas = 1 yojan 11. -IN-1010 13. | Diameter of Jambu island 190 Portions | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (460) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555558 शाश्वत पर्वत की तालिका संख्या पर्वत नाम संख्या १. लघुहिमवंतादि वर्षधर पर्वत (मेरु सहित) दीर्घ वैताढ्य पर्वत (३२ विजयों में ३२, १ भरत, १ ऐरवत) वृत्त वैताढ्य पर्वत यमक समक पर्वत चित्रकूट पर्वत विचित्रकूट पर्वत गजदन्त पर्वत (देवकुरु) गजदन्त पर्वत (उत्तरकुरु) कंचनगिरि पर्वत २०० १०. | वक्षस्कार पर्वत योग २६९ पर्वत 因听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 Table of Permanent Mountains Sr. No. Name of Mountains Laghu Himavant mountains (Including Meru) 2. | Long Vaitadhya mountains 3. I Vritt (round) Vaidadhya mountains Yamak Samak mountains Chitrakoot mountain 6. Vichitrakoot mountain Gajadant mountains (Devkuru) 8. IGajadant mountains (Uttarkuru) 9. । Kanchangiri mountains 10. Vakshaskar mountains No. 16 Total 269 mountains षष्ठ वक्षस्कार (461) Sixth Chapter Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या द्रहनाम पद्मद्रह सोलह महाद्रह की तालिका पर्वत नाम लघुहिमवंत पर्वत महाहिमवंत पर्वत निषध पर्वत नीलवन्त पर्वत रुक्मी पर्वत शिखरी पर्वत चित्र-विचित्रकूट पर्वत दिवकुरु में) - महापाद्रह तिगिंछद्रह केसरीद्रह महापण्डरीकद्रह पुण्डरीकद्रह निषधद्रह देवकुरुद्रह सूरद्रह सुलसद्रह विद्युत्प्रभद्रह नीलवन्तद्रह : : १०. |: यमक समक पर्वत (उत्तरकुरु में) ११. १२. १३. १४. उत्तरकुरुद्रह 白F FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF चन्द्रद्रह ऐरवतद्रह माल्यवन्तद्रह 白听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听55555555555555555555 6. TABLE OF SIXTEEN GREAT LAKES Sr. No. Name of Mountains Name of Lakes Laghu Himavant mountain Padma Drah (Lake) Maha Himavant mountain Maha Padma Lake 3. Nishadh mountain Tiginchh Lake 4. Neelavant mountain Kesari Lake Rukmi mountain Maha Pundarik Lake Shikhari mountain Pundarik Lake Chitra Vichitrakoot mountain (in Devkuru) Nishadh Lake Chitra Vichitrakoot mountain (in Devkuru) | Devkuru Lake Chitra Vichitrakoot mountain (in Devkuru) Soor Lake Chitra Vichitrakoot mountain (in Devkuru) Sulas Lake Chitra Vichitrakoot mountain (in Devkuru) Vidyut Prabh Lake Yamak Samak mountain (in Uttarkuru) Neelavant Lake Yamak Samak mountain (in Uttarkuru) Uttarkuru Lake 14. I Yamak Samak mountain (in Uttarkuru) Chandra Lake 15. Yamak Samak mountain (in Uttarkuru) Airavat Lake ___ 16. I Yamak Samak mountain (in Uttarkuru) Malyavant Lake | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (462) Jambudveep Prajnapti Sutra 10. 11. 0555555万55万55555555545555545455555455454545450 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ))))))) ))))) ))))) ))) ))) ) जम्बूद्वीपवर्ती ६१ पर्वतों पर ४६७ कूट (शिखर) क्रम पर्वतों संख्या की संख्या कूट संख्या ३०६ पर्वतों के नाम दीर्घ वैताम्य पर्वत [प्रत्येक वैताम्य पर्वत पर नौ-नौ कूट हैं] चुल्लहिमवंत पर्वत (वर्षधर) महाहिमवंत पर्वत (वर्षधर) निषध पर्वत (वर्षधर) शिखरी पर्वत (वर्षधर) रुक्मी पर्वत (वर्षधर) नीलवन्त पर्वत (वर्षधर) गजदन्त पर्वत [प्रत्येक गजदन्त पर्वत पर नौ-नौ कूट] गजदन्त पर्वत [प्रत्येक गजदन्त पर्वत पर सात-सात कूट] वक्षस्कार पर्वत [प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत पर चार-चार कूट] मेरु (मन्दर) पर्वत योग = १४ ९६ 在8555555555 $$$$$$$$$$$ $$$$$$$$听听听听听听听听听听听听听听听听听听55 ६१ ४६७ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 TABLE OF 467 TOPS ON 61 MOUNTAINS IN JAMBU ISLAND S. No. Name of Mountains Number of Mountains Number of Koots (Tops) 306 6 56 6 6 6 Long Vaitadhya mountain (Each Vaitadhya mountain has nine tops) Chull Himavant mountain (Varshadhar) Maha Himavant mountain (Varshadhar) Nishadh mountain (Varshadhar) Shikhari mountain (Varshadhar) Rukmi mountain (Varshadhar) Neelavant (Varshadhar) Gajadant mountain (Varshadhar) (Each has nine tops) Gajadant mountain (Varshadhar) (Each has seven tops) Vakshaskar mountain (Varshadhar) (Each has 4 tops) Meru (Mandar) mountain 6 Total 61 467 षष्ठ वक्षस्कार (463) Sixth Chapter 89595555555555555555555555558 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) ) सं.] ) ) له ) سه छह वर्षधर पर्वतों के ग्रहों से निकलने वाली चौदह महानदियाँ पर्वत नाम द्रह नाम द्वार दिशा महानदियाँ सम्मिलित नदी संख्या चुल्लहिमवन्त पर्वत । पद्मद्रह पूर्व द्वार १. गंगा नदी चौदह हजार पश्चिम द्वार २. सिन्धु नदी चौदह हजार उत्तर द्वार ३. रोहितांशा नदी अट्ठाईस हजार महाहिमवन्त पर्वत महापद्मद्रह दक्षिण द्वार ४. रोहिता नदी अट्ठाईस हजार उत्तर द्वार ५. हरिकांता नदी छप्पन हजार निषध पर्वत तिगिच्छद्रह दक्षिण द्वार ६. हरिसलिला नदी छप्पन हजार उत्तर द्वार ७. शीतोदा नदी पाँच लाख बत्तीस हजार नीलवन्त पर्वत केशरीद्रह उत्तर द्वार ८. नारीकान्ता नदी छप्पन हजार दक्षिण द्वार ९. शीता नदी पाँच लाख बत्तीस हजार रुक्मी पर्वत महापुण्डरीकद्रह उत्तर द्वार १०. रुप्यकूला नदी अट्ठाईस हजार दक्षिण द्वार ११. नरकान्ता नदी छप्पन हजार शिखरी पर्वत पुण्डरीकद्रह | पूर्व द्वार १२. रक्ता नदी चौदह हजार पश्चिम द्वार १३. रक्तवती नदी चौदह हजार दक्षिण द्वार १४. सुवर्णकूला नदी अट्ठाईस हजार जम्बूद्वीप में बहने वाली महानदियों तथा उनकी अन्तरवर्ती नदियों की कुल संख्या =१४,५६,००० )) )))))555555555)) FOURTEEN GREAT RIVERS STARTING FROM SLX VARSHADHAR MOUNTAINS Name of Name of Direction Name of No. of Rivers Mountain Lake of Passage Rivers that join Chull Himavant Padma Eastern 1. Ganga 14,000 mountain Western 2. Sindhu 14,000 3. Rohitansha 28,000 | 2. | Maha Himavant | Maha Padma Southern 4. Rohita 28,000 Northern 5. Harikanta 56,000 Nishadh Tiginchh Southern 6. Harisalila 56,000 Northern 7. Sitoda 5,32,000 4. Neelavant Kesari Northern 8. Narikanta 56,000 Southern 9. Sita 5,32,000 5. Rukmi Maha Pundarik Northern 10. Rupyakula 28,000 Southern 11. Narkanta 56,000 Shikhari Pundarik Eastern 12. Rakta 14,000 Western 13. Raktavati 14,000 Southern | 14. Suvarnkula 28,000 Total No. of great rivers and the rivers that join them = 14,86,000 ))))))) )))))) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (464) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐) 85555555555555555555555555555558 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वविदेह और अपरविदेह में बहने वाली छिहत्तर नदियाँ कुण्ड नाम गंगा क्रम १-१६. १७-३२. ३३-४८. ४९-६४. सिन्धु क्रम कुण्ड नाम ६९. मत्तजला . ७०. उन्मत्तजला क्षीरोदा शीतश्रोताकुण्ड अंतोवाहिनी उर्मिमालिनी ७५. फेनमालिनी ७६. गम्भीरमालिनी रक्ता रक्तावती ग्राहावती द्रहावती पंकावती ७१. ७२. ६७. ६८. तप्तजला 76 RIVERS FLOWING IN EAST VIDEH AND WEST VIDEH 65. 855555555555555555555555555555555555555555)))) S.No. Name of S. No. Name of (No. of Rivers) reservior (Kund) (No. of Rivers) reservior (Kund) 1-16. Ganga Mattajala 17-32. Sindhu Unmattajala 33-48. Rakta Ksheeroda 49-64. Raktavati Sheeta Shrota Reservoir Grahavati Antovahini Drahavati Urmimalini Pankavati Phenamalini Taptajala Gambhirmalini गंगाकुण्ड, सिन्धुकुण्ड, रक्ताकुण्ड और रक्तावतीकुण्ड ये चारों १६-१६ हैं, और बारह अन्तर्नदियों के बारह कुण्ड हैं-ये सब मिलकर छिहत्तर कुण्ड हैं। इनसे छिहत्तर महानदियाँ निकलती हैं। (क) नीलवन्त वर्षधर पर्वत के समीप दक्षिण में आठ गंगाकुण्ड और आठ सिन्धुकुण्ड हैं-इनसे निकलने ॐ वाली आठ गंगा नदियाँ और आठ सिन्धु नदियाँ कच्छादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीता नदी में 66. 68. ___76. 卐 मिलती हैं। फ (ख) निषधवर्षधर पर्वत के समीप उत्तर में आठ गंगाकुण्ड और आठ सिन्धुकुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली + आठ गंगा नदियाँ और आठ सिन्धु नदियाँ पद्मादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीता नदी में 5 मिलती हैं। (ग) निषधवर्षधर पर्वत के समीप उत्तर में आठ रक्ताकुण्ड और आठ रक्तावतीकुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली आठ रक्ता नदियाँ और आठ रक्तावती नदियाँ वत्सादि आठ विजयों का विभाजन करती हई शीतोदा नदी में मिलती हैं। षष्ठ वक्षस्कार (465) Sixth Chapter Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 454 455 454 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 411 %%% %%%%% %%%% %%%%%% %%%%%% %%%% %%%% 9 (घ) नीलवन्त वर्षधर पर्वत के समीप दक्षिण में आठ रक्ताकुण्ड हैं और आठ रक्तावतीकुण्ड हैं-इनसे ॥ फ़ निकलने वाली आठ रक्ता नदियाँ, आठ रक्तावती नदियाँ वप्रादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीतोदा ॥ 7 #factched ये गंगा-सिन्धु नदियाँ तथा रक्ता-रक्तावती नदियाँ महाविदेह की हैं। भरत क्षेत्र की गंगा-सिन्धु नदियों से ऊ है और ऐरवत क्षेत्र की रक्ता-रक्तवती नदियों से भिन्न हैं। 9 (ङ) ग्राहावतीकुण्ड आदि बारह कुण्डों से ग्राहावती आदि बारह अन्तर नदियाँ निकलती हैं। इनमें से 5 卐 ग्राहावती आदि छह नदियाँ शीता नदी में मिलती हैं। क्षीरोदा आदि छह नदियाँ शीतोदा नदी में मिलती हैं। Il ne ait MTA ! Ganga reservoir, Sindhu reservoir, Rakta reservoir and Raktavati reservoir-These four are sixteen each. Twelve inner rivers have twelve 5 reservoirs. Thus the total number of reservoirs is 76. From these 76 reservoirs, 76 rivers flow. (a) Eight Ganga reservoirs and eight Sindhu reservoirs are in the $ south near Neelavant Varshadhar mountain. From them eight Ganga rivers and eight Sindhu rivers originate and after dividing eight Vijays namely Kachh and others they join Sita river. (b) Eight Ganga reservoirs and eight Sindhu reservoirs are in the 45 north near Nishadh Varshadha mountain. From them eight Ganga 41 $ rivers and eight Sindhu rivers originate and after dividing eight Vijays 4 namely Padma and others. They join Sita river. (c) Eight Rakta reservoirs and eight Raktavati reservoirs are in the north near Nishadh Varshadhar mountain. Eight Rakta rivers and eight Raktavati rivers originate from them and after dividing eight Viyays namely Vatsa and others they merge in Sitoda river. (d) Eight Rakta reservoirs and eight Raktavati reservoirs are in the south near Neelavant Varshadhar mountain. Eight Rakta rivers and eight Raktavati rivers originate from them and after dividing eight Vijays namely Vapra and others they merge in Sitoda river. These Ganga and Sindhu rivers and Rakta and Raktavati rivers are of Mahavideh region. They are different from Ganga and Sindhu rivers 4 of Bharat continent and Rakta and Raktavati rivers of Airavat continent. (e) From twelve reservoirs namely Grahavati reservoir and others, twelve rivers namely Grahavati and others originate. Out of them six rivers namely and Grahavati and others merge in Sita river while six rivers namely Ksheeroda and others merge in Sitoda river. •SIXTH CHAPTER CONCLUDED . 45454554555555555555555555550 54 455 456 457 451 456 457 455 456 455 456 55 55 456 455 456 455 456 457 454 455 456 4 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 466 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 55 牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%%%%%%%% %%% %%%% %%% Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555 सप्तम वक्षस्कार SEVENTH CHAPTER 555555555555 $ $$ $$$$$$听听听听听听听听听$ $$$$ $$$$$$$$$$$$$$$ उपोद्घात INTRODUCTION [इस वक्षस्कार में चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, तारा, दिन-रात, संवत्सर आदि अन्तरिक्ष सम्बन्धी विषयों का कथन है।] (In this Chapter there is discussion about the moon, the sun, the planets, the constellations, the stars, day and night, the year and the like concerning the universe.) चन्द्र-सूर्यादि संख्या NUMBER OF MOONS, SUNS AND OTHERS ॐ १५९. [प्र.] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कइ चंदा पभासिंसु, पभासंति पभासिस्संति ? कइ सूरिआ तवइंसु, तवेंति, तविस्संति ? केवइआ णक्खत्ता जोगं जोइंसु, जोअंति, जोइस्संति ? केवइआ महग्गहा # चारं चारिंसु, चरंति, चरिस्संति ? केवइआओ तारागण-कोडाकोडीओ सोभिंसु, सोभंति, सोभिस्संति ? ' [उ. ] गोयमा ! दो चंदा पभासिंसु ३, दो सूरिआ तवइंसु ३, छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोइंसु ३, छावत्तरं महग्गहसयं चारं चरिंसु ३। एगं च सय-सहस्सं, तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइं णव य सया पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं॥१॥ १५९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने चन्द्रमा उद्योत करते रहे हैं, उद्योत करते हैं एवं उद्योत 5 करते रहेंगे? कितने सूर्य तपते रहे हैं, तपते हैं और तपते रहेंगे? कितने नक्षत्र अन्य नक्षत्रों से योग करते रहे हैं, योग करते हैं तथा योग करते रहेंगे? कितने महाग्रह चाल चलते रहे हैं-मण्डल क्षेत्र पर परिभ्रमण करते रहे हैं, परिभ्रमण करते हैं एवं परिभ्रमण करते रहेंगे? कितने कोड़ाकोड़ तारे शोभित के होते रहे हैं, शोभित होते हैं और शोभित होते रहेंगे? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में दो चन्द्र उद्योत करते रहे हैं (उद्योत करते हैं तथा उद्योत करते रहेंगे)। ॐ दो सूर्य तपते रहे हैं (तपते हैं और तपते रहेंगे)। ५६ नक्षत्र अन्य नक्षत्रों के साथ योग करते रहे हैं (योग करते हैं एवं योग करते रहेंगे)। १७६ महाग्रह मण्डल क्षेत्र पर परिभ्रमण करते रहे हैं (परिभ्रमण करते हैं तथा परिभ्रमण करते रहेंगे)। गाथार्थ-१,३३,९५० कोडाकोड़ तारे शोभित होते रहे हैं, शोभित होते हैं और शोभित होते रहेंगे। 159. [Q.) Reverend Sir ! In Jambu island how many moons have been 4 providing light, how many are doing so and how many shall do in future? How many suns have been providing their heat, how many are providing now and how many shall provide in future ? How many constellations have been joining other constellations, has many join now 卐45555555555555555555555555555555555555555555555 - सप्तम वक्षस्कार (467) Seventh Chapter Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255555 5 55 55 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555 4 4 and how many shall be joining in future? How many great planets have been moving in their orbits, how many move at present and how many y shall be moving in future? How many hundred trillion stars have been y twinkling, how many twinkle now and how many shall be twinkling in y 5 future ? 卐 卐 卐 卐 卐 ததததகக****************************மிதி க [Ans.] Gautam ! In Jambu island, two moons have been providing light (provide now and shall be providing light in future). Two suns have y been providing heat (provide now and shall be providing in future). 56 Y constellations have been joining other constellations (join now and shall ५ be joining in future). One hundred seventy six great planets have been moving in their orbits (move at present and shall be moving in future). 13,395 thousand trillion stars have been shining, shine now and shall be shining in future. सूर्य - मण्डल - संख्या आदि NUMBER OF SOLAR ORBITS AND OTHERS १६०. [ प्र. १ ] कइ णं भंते ! सूर-मंडला पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! एगे चउरासीए मंडलसए पण्णत्ते इति । [प्र. २] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइअं ओगाहित्ता केवइआ सूर - मंडला पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीअं जोअण-सयं ओगाहित्ता एत्थ णं पण्णट्ठी सूर- मंडला पण्णत्ता । [प्र. ३ ] लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइअं ओगाहित्ता केवइआ सूर - मंडला पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! लवणे समुद्दे तिण्णि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं एगूणवीसे सूर - मंडलसए 5 पण्णत्ते । ५ एवामेव सपुब्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे लवणे अ समुद्दे एगे चुलसीए सूर - मंडलसए भवंतीतिमक्खायं । १६०. [ प्र. १ ] भगवन् ! सूर्य-मण्डल कितने हैं ? [उ.] गौतम ! १८४ सूर्य - मण्डल हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र के भीतर कितने सूर्य- -मण्डल हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में १८० योजन क्षेत्र में ६५ सूर्य - मण्डल हैं । - मण्डल हैं। [प्र. ३ ] भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र के भीतर कितने सूर्य मण्डल हैं ? [उ. ] गौतम ! लवणसमुद्र में ३३० योजन (३३०) क्षेत्र के भीतर ११९ सूर्यइस प्रकार जम्बूद्वीप तथा लवणसमुद्र दोनों के मिलाने से १८४ सूर्य - मण्डल होते हैं । 160.[Q.1] Reverend Sir ! How many solar orbits are there ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (468) 55555 Jambudveep Prajnapti Sutra ם בתתתתתתתתתתתתתתתתת फ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%%%%%%%%%%%%%%%%%%$$$$$$ $ $$$$$$$$ जमकककककककककककककककककककककक)5555555555555558 4 (Ans.] Gautam ! There are 184 solar orbits ? $ (Q. 2] Reverend Sir ! In Jambu island, in how much area are how many Solar orbits ? [Ans. Gautam ! In Jambu island there are 65 Solar orbits in an area of 180 yojans. $ (Q. 3] Reverend Sir ! In how much area of Lavan Ocean, there are Solar orbits and what is their number? (Ans.] Gautam ! In 330 yojans (330 H yojan) of Lavan Ocean there are Solar orbits and their number is 119. $ Thus Jambu island and Lavan Ocean has 184 Solar orbits in all. म १६१. [प्र. ] सबभंतराओ णं भंते ! सूर-मंडलाओ केवइआए अबाहाए सव्वबाहिरए सूर-मंडले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पंच दसुत्तरे जोअण-सए अबाहाए सब-बाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते २। १६१. [प्र. ] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल कितने अन्तर पर है ? [उ.] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल ५१० योजन के अन्तर पर है। fi 161. (Q.) Reverend Sir ! What is the distance between innermost Solar orbit and outermost Solar orbit ? (Ans.] Gautam ! The distance between innermost Solar orbit and fi outermost Solar orbit is 510 yojans. - १६२. [प्र. ] सूर-मंडलस्स णं भंते ! सूर-मंडलस्स य केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! दो जोअणाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ३। क १६२. [प्र.] भगवन् ! एक सूर्य-मण्डल से दूसरे सूर्य-मण्डल का व्यवधानरहित कितना अन्तर है? म [उ.] गौतम ! एक सूर्य-मण्डल से दूसरे सूर्य-मण्डल का दो योजन का अव्यवहित अन्तर 55555555555555555555555555555555555555;) म रहता है। fi 162. IQ.) Reverend Sir ! What is the gap between one orbit of the sun and the other orbit of the sun. fi (Ans.] Gautam ! The gap between one Solar orbit of the sun and that fi of the other is two yojans. १६३. [प्र. ] सूर-मंडले णं भंते ! केवइअं आयाम-विक्खंभेणं केवइअं परिक्खेवेणं केवइअं कबाहल्लेणं पण्णत्ते ? | सप्तम वक्षस्कार (469) Seventh Chapter 35555555555555555555555555555555558 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐5555 85555555555555555555555555555555555558 [उ. ] गोयमा ! अडयालीसं एगसद्विभाए जोअणस्स आयाम-विक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं + परिक्खेवेणं चउवीसं एगसटिभाए जोअणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते इति। १६३. [प्र. ] भगवन् ! सूर्य-मण्डल का आयाम-लम्बाई, विस्तार-चौड़ाई, परिक्षेप-परिधि तथा म बाहल्य-मोटाई कितनी है? [उ. ] गौतम ! सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई योजन, परिधि उससे कुछ अधिक तीन गुणीम २२० योजन तथा मोटाई ४ योजन है। 163. (Q.) Reverend Sir ! What is the length, width, perimeter and thickness of a Solar orbit ? (Ans.] Gautam ! The length and width of a Solar orbit is sixty-first part of forty eight yojans while its perimeter is a little more than three times the length in 2 yojans and thickness is a yojans. म मेरु से सूर्य-मण्डल का अन्तर DISTANCE OF SOLAR ORBIT FROM MERU १६४. [प्र. १] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सबभंतरे ॐ सूर-मंडले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य वीसे जोअण-सए अबाहाए सबभंतरे सूर-मंडले पण्णत्ते। [प्र. २ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सब्बभंतराणंतरे सूर-मंडले म पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य बावीसे जोअण-सए अडयालीसं च एगसटिभागे जोअणस्स अबाहाए अभंतराणंतरे सूर-मंडले पण्णते।। । [प्र. ३ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए अभंतरतच्चे सूर-मंडले पण्णत्ते ? ॐ [उ.] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य पणवीसे जोअण-सए पणतीसं च एकसट्ठि-भागे जोअणस्स अबाहाए अभंतरतच्चे सूर-मंडले पण्णत्ते इति। म एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो दो जोअणाई अडयालीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले अबाहावुड्ढि अभिवद्धेमाणे २ ॐ सव्व-बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। [प्र. ४ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सब-बाहिरे सूर-मंडले + पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअण-सहस्साइं तिण्णि अ तीसे जोअण-सए अबाहाए सव्व-बाहिरे ॐ सूर-मंडले पण्णत्ते। 听听听听听听听听听听听听听听听 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (470) Jambudveep Prajnapti Sutra फ़ 95555555555555555ऊ95558 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25955 5 5955555555955 *******************தமிழத****************மிததமிழகமிழக 卐 [प्र.५] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्व - मंडले पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअण- सहस्साइं तिण्णि अ सत्तावीसे जोअण-सए तेरस य एगसट्ठि - भाए जो अणस्स अबाहाए बाहिराणंतरे सूर - मंडले पण्णत्ते । 5 5 5 5 55 5 [प्र. ६ ] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिरतच्चे सूर - मंडले पण्णत्ते ? णिबुड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । [उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअण- सहस्साइं तिण्णि अ चउवीसे जोअण-सए छब्बीसं च एसट्ठि - भाए जो अणस्स अबाहाए बाहिरतच्चे सूर - मंडले पण्णत्ते । 5955555555952 [ उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य - - बाहिराणंतरे सूर १६४. [ प्र. १ ] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य- - मण्डल जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत से कितनी दूरी पर है ? 卐 5 एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडल संकममाणे फ्र 5 संकममाणे दो दो जोअणाई अडयालीसं च एगसट्ठि - भाए जोअणस्स एगमेगे मंडले अबाहाबुडि णिवुड्डेमाणे [उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य - मण्डल से दूसरा सूर्य मण्डल ४४,८२२ योजन की दूरी पर है। [प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत के सर्वाभ्यन्तर सूर्य- - मण्डल से तीसरा कितनी दूरी पर है ? पर है। - मण्डल मन्दर पर्वत से ४४,८२० योजन की दूरी पर है। सप्तम वक्षस्कार [ उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य मण्डल से तीसरा सूर्य-‍ - मण्डल ४४,८२५६१ योजन की दूरी पर है। 卐 [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत के सर्वाभ्यन्तर सूर्य-‍ - मण्डल से दूसरा सूर्य मण्डल 5 कितनी दूरी पर है ? 5 卐 卐 यों प्रतिदिन - रात एक - एक मण्डल क्रम से निष्क्रमण करता हुआ - लवणसमुद्र की ओर जाता हुआ 5 सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर संक्रमण करता हुआ एक-एक मण्डल पर २६६ योजन (२ योजन क्षेत्र तथा लम्बाई-चौड़ाई) दूरी की अभिवृद्धि करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल पर गति विमान पहुँचकर गति करता है । सूर्य - म‍ [ ४ ] भगवन् ! सर्वबाह्य सूर्य - मण्डल जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत से कितनी दूरी पर है ? [उ.] गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य - - मण्डल जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत से ४५, ३३० योजन की दूरी - मण्डल 9. इस समय भारत सूर्य मेरु पर्वत से ४५, ३३० योजन दूर अग्निकोण में समुद्र में रहा होता है। 1. Currently the sun of Bharat area is 45,330 yojan away from Meru mountain in Agnikone. (471) Seventh Chapter फ्र 卐 卐 फ्र फ्र 卐 5 卐 5 5 फ 卐 卐 5 卐 फ्र 5 卐 卐 फ्र 卐 5 5 卐 फ 5 卐 卐 卐 卐 5 फ्र 5 5 फ्र 卐 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 [प्र.५] भगवन् ! जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत के सर्वबाह्य सूर्य-‍ -मण्डल कितनी दूरी पर है ? [ उ. ] गौतम पर है। पर है। सर्वबाह्य सूर्य - मण्डल से दूसरा बाह्य सूर्य-म [ उ. ] गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य - - मण्डल से तीसरा बाह्य सूर्य - मण्डल ४५, ३२४६ योजन की दूरी 卐 [प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप - स्थित मन्दर पर्वत के सर्वबाह्य सूर्य - मण्डल से तीसरा बाह्य फ सूर्य-मण्डल कितनी दूरी पर है ? - मण्डल से दूसरा बाह्य फ्र - मण्डल ४५, ३२७ योजन की दूरी [Ans.] Gautam ! The distance between innermost Solar orbit and the next solar orbit is 44,822 18 yojans from Mandar mountain. इस प्रकार अहोरात्र - मण्डल को छोड़ता हुआ क्रम से जम्बूद्वीप में प्रविष्ट होता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल 5 से उत्तर मण्डल पर जाता हुआ, एक-एक मण्डल पर २ योजन की अन्तर वृद्धि कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर- मण्डल पर पहुँचकर गति करता है-आगे बढ़ता है। 164.[Q.1] Reverend Sir ! What is the distance between Meru of Jambu island and innermost Solar orbit? [Q.3] Reverend Sir ! What is the distance between the innermost Solar orbit and the third Solar orbit from Mandar mountain of Jambu island ? [A] Gautam ! The distance between innermost Solar orbit and the third Solar orbits is 44,82535 yojans. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ्र [Ans.] Gautam ! The innermost Solar orbit is at a distance of 44,820 5 yojans from Meru mountain of Jambu island. 卐 Thus in every day and night, while systematically moving from one orbit to the other towards Lavan Ocean, the sun moves from eastern orbit to the northern orbit and its distance increases by 21 yojans (two yojan in area of movement and yojan because of length and breadth of the Viman) with every succeeding orbit. In this way the sun ultimately arrives at the outermost orbit. **** [Q. 2] Reverend Sir ! What is the distance between the innermost 5 Solar orbit and the next following Solar orbit from Mandar mountain of Jambu island? 1 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 559552 (472) 卐 卐 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 5 [Q 4] Reverend Sir ! How far is the outermost orbit of the sun from 5 Mandar mountain of Jambu island? 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 457 455 456 457 455 454 455 456 457 454 455 454 455 456 454 455 456 455 456 45454545454545454 2 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 456 457 455 456 457 451 45 456 45 [Ans.) Gautam ! The outermost orbit of the sun is 45,330 yojan from Mandar mountain in Jambu island. 1 [Q. 5] Reverend Sir ! How far is the second outer orbit of the sun from 45 the outermost orbit of the sun Mandar mountain of Jambu island ? [Ans.] Gautan. ! The second outer orbit of the sun from Mandar mountain of Jambu island is 45,327 yojan away from the outermost orbit of the sun. IQ. 6] Reverend Sir ! How far is the outermost orbit of the sun from third outer orbit of the sun in respect of Mandar mountain of Jambu island ? (Ans.] Gautam ! The third outer orbit of the sun from Mandari mountain of Jambu island is 45,324 yojan away from the outermost orbit of the sun. Thus the sun systematically during day and night orbit and entering in Jambu island moving from eastern orbit to northern orbit reduces the distance by 24: yojan in covering each orbit round and when it reaches 4 the innermost round, it moves and goes ahead. विवेचन : १६४ सूत्रों के वर्णन से मेरु पर्वत से सूर्य-मण्डल की दूरी तथा उसका गति क्षेत्र इस प्रकार 4 HAB १ लाख योजन पूर्व-पश्चिम विस्तृत जम्बूद्वीप। १०,००० (दस हजार) योजन मेरु पर्वत का व्यास। ४४,८२० योजन दूरी पर सर्वाभ्यन्तर प्रथम सूर्य-मण्डल स्थित है। एक मण्डल से दूसरे मण्डल की दूरी २६६ म योजन है। इस अनुसार १८० योजन में सूर्य के ६५ मण्डल हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर १,००,००० (एक लाख) योजन का वर्णन आता है। जम्बूद्वीप में दो सूर्य होते हैं। 9 भरत क्षेत्र का सूर्य निषध पर्वत पर उदय होता है तथा ऐरावत क्षेत्र का सूर्य नीलवान पर्वत पर। Elaboration—The distance of Meru mountain from rounds of the orbit of the sun and the area of its movement as mentioned in Sutra 164 is 4 briefly as under Jambu island is one lakh yojan wide from east to west. The diameter 45 of Meru is 10,000 yojan. The innermost first round of sun's orbit is at a distance of 44,820 yojans. The distance between any two rounds is 248 fi yojan. Thus in 180 yojan, there are 65 rounds. In Jambu island there are two suns. The sun of Bharat continent rises on Nishadh mountain and that of Airavat continent rises on Noclavan mountains. 45454545454545455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 | सप्तम वक्षस्कार (473) Seventh Chapter $$$$$$$41414141451554. 55641414141414141414141414141414141454545454 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सूर्य-मण्डल का आयाम-विस्तार आदि EXTENT OF SUN'S ORBIT १६५. [प्र. १ ] जंबुद्दीवे दीवे सबभंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइअं म परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णवणउइं जोअणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि य जोअणसयसहस्साइं पण्णरस य जोअणसहस्साइं एगूणणउइं च जोअणाई किंचिविसेसाहिआइं परिक्खेवेणं। [प्र. २] अभंतराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? 55555555555555555555555))))))))))))))))) [उ. ] गोयमा ! णवणउइं जोअणसहस्साई छच्च पणयाले जोअणसए पणतीसं च एगसट्ठिभाए ॐ जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसयसहस्साइं पण्णरस य जोअणसहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ___[प्र. ३ ] अब्भंतरतच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइअं आयामविखंभेणं केवइअंपरिक्खेवेणं पण्णत्ते ? ज [उ. ] गोयमा ! णवणउइं जोअणसहस्साई छच्च एकावण्णे जोअणसए णव य एगसद्विभाए जोअणस्स + आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसयं + परिक्खेवेणं। एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे +२ पंच २ जोअणाइं पणतीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिवर्तमाणे २ अट्ठारस २ जोअणाई परिरयबुद्धिं अभिवढेमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ४ ] सव्वबाहिरए णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सटे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस य सहस्साई तिण्णि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं। ___ [प्र. ५ ] बाहिराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णते ? के [उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च चउपण्णे जोअणसए छब्बीसं च एगसट्ठिभागे जोअणस्स ॐ आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस य सहस्साइं दोण्णि य सत्ताणउए जोअणसए परिक्खेवेणंति। [प्र. ६ ] बाहिरतच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? । म [उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोअणसए बावणं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स + आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस य सहस्साई दोणि अ अउणासीए जोअणसए ॐ परिक्खेवेणं। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (474) Jambudveep Prajnapti Sutra 因步步步步步岁岁男男男男男男男明步步步步步步步步步步步步步步步步步步 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ தமிழிதழ**************************மிழVE 卐 एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २ पंच फ्र 5 पंच जोअणाई पणतीसं च एगसट्टिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभबुद्धिं णिवुड्डेमाणे २ अट्ठारस २ फ्र जोअणाई परिरयबुद्धिं णिव्युड्डेमाणे २ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ६ । फ्र 卐 பித்த*****************த*5**பூ*மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி 卐 卐 १६५. [ प्र. १ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सर्वाभ्यन्तर सूर्य-‍ - मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि 5 कितनी है ? 卐 出 [उ.] गौतम ! उसकी लम्बाई-चौड़ाई ९९,६४० योजन तथा परिधि कुछ अधिक ३,१५,०८९ योजन है। [प्र. २ ] भगवन् ! द्वितीय आभ्यन्तर सूर्य- मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [ उ. ] गौतम ! द्वितीय आभ्यन्तर सूर्य - मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९, ६४५ योजन तथा परिधि ३,१५,१०७ योजन है। [प्र. ३ ] भगवन् ! तृतीय आभ्यन्तर सूर्य -: - मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [ उ. ] गौतम ! तृतीय आभ्यन्तर सूर्य - मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९,६५१ योजन तथा परिधि फ्र ३,१५,१२५ योजन बतलाई गई है। यों उक्त क्रम से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर पहुँचता हुआ एक-एक मण्डल पर ५६ योजन की विस्तार वृद्धि करता हुआ तथा अठारह योजन की परिक्षेप-वृद्धि करता हुआ परिधि बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मण्डल पर पहुँचकर आगे गति करता है। [प्र. ४ ] भगवन् ! सर्वबाह्य [.] गौतम ! सर्वबाह्य ३,१८,३१५ योजन है। सूर्य - मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? १. जब जम्बूद्वीप के दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर ( प्रथम ) मंडल में हों, अर्थात् मेरु से पूर्व और पश्चिम में प्रत्येक सूर्य विरुद्ध दिशा में प्रथम मंडल में गति करते हों, तब (समश्रेणी-सीधी रेखा में ) उनका परस्पर अन्तर ९९,६४० योजन प्रमाण होता है। यह प्रमाण जम्बूद्वीप के एक लाख योजन प्रमाण विस्तार में से दोनों बाजू के जम्बूद्वीप विषयक मंडल क्षेत्र के १८० + १८० = ३६० योजन कम करने पर यथार्थ आ जाता है। सप्तम वक्षस्कार - बृहत्संग्रहणी, पृ. २२५-२२६ 1. When both the suns of Jambu island are in innermost (first ) round. In other words when each of the two sun are moving in east and west of Meru in opposite direction, then the direct distance between the two is 99640 yojan. This distance can be arrived at if we subtract 180 yojans of the total orbit of each sun from one lakh yojan. 5 5 5 सूर्य - 2 - मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,६६० योजन तथा परिधि 5 5 卐 5 卐 [प्र. ५ ] भगवन् ! द्वितीय बाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ.] गौतम ! द्वितीय बाह्य सूर्य-‍ - मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,६५४६६ योजन एवं परिधि 5 ३,१८,२९७ योजन है। 卐 (475) ब திமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழ (Brihat Sangrahani pp 225-226) Seventh Chapter 卐 卐 फ्र 卐 卐 5 卐 卐 卐 5 卐 5 5 卐 फ्र 5 卐 卐 5 卐 卐 卐 5 5 卐 卐 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555 55555555555555555555555 [प्र. ६ ] भगवन् ! तृतीय बाह्य सूर्य मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई और परिधि कितनी है ? [उ. ] गौतम ! तृतीय बाह्य सूर्य - मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,६४८५६, योजन तथा परिधि ३,१८,२७९ योजन है। - यों पूर्वोक्त क्रम के अनुसार प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर जाता हुआ फ्र एक-एक मण्डल पर ५६१ योजन की विस्तार वृद्धि कम करता हुआ, अठारह - अठारह योजन की 5 परिधि - वृद्धि कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर-मण्डल पर पहुँचकर आगे गति करता है। 165. [Q. 1] Reverend Sir! In Jambu island, what is the length, breadth and perimeter (circumference) of the innermost round of the orbit of the sun? [Ans.] Gautam ! Its length and breadth is 99,640 yojan and its perimeter is a little more than 3,15,089 yojan.1 [Q. 2] Reverend Sir ! What is the length, breadth and perimeter of the second round in case of orbit of the sun? [Ans] Gautam ! The length and breadth of the second inner round of sun's orbit is 99,645 yojan and its perimeter is 3,15,107 yojan. [Q. 3] Reverend Sir ! What is the length, breadth and perimeter of the third inner round of the orbit of the sun? [Ans.] Gautam ! The length and breadth of the third inner round of the orbit of the sun is 99,651, yojan and its perimeter is 3,15,125 yojan. Thus moving out in this manner from its earlier round to the next round the distance increases by 535 yojans in width and eighteen yojan in perimeter of the round it reaches the outermost round of the orbit and then moves ahead. [Q. 4] Reverend Sir ! What is the length, breadth and perimeter of the outermost round of the orbit of the sun. [Ans.] Gautam ! Its length and breadth is 1,00,660 yojan and perimeter is 3,18,315 yojan. [Q. ] Reverend Sir! What is the length, breadth and perimeter of second outermost round of the orbit of the sun? [Q. 6] Reverend Sir! What is the length, breadth and perimeter of the third round of the orbit of the sun. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 476 ) 555555555555555555555555555555555555558 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 [Ans. ] Gautam ! The length and breadth of the second forthest round 卐 of the orbit of the sun is 1,00,6542 yojan and its perimeter is 3,18,297 yojan. 卐 卐 卐 卐 卐 卐 5555555555555556666666666 46 46 46 46 46 10 卐 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ))) ) ))) )) )) ))))) )) 85555555555555555555555555555555 (Ans.] Gautam ! The length and breadth of the third from the Si outermost round is 1,00,648 yojan and its perimeter is 3,18,279 yojans. 41 Thus moving in this order the sun entering in its orbit from one round to the other reduces the width by 535 yojans, and the perimeter of the round by 18 yojans. After reaching the innermost round it moves ahead (outwards). विवेचन : सूत्र १६५ में सूर्य-मण्डल का कथन है। मण्डल क्या है? उसका प्रमाण क्या है ? इत्यादि विषयों पर विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण बृहत्संग्रहणी लोक प्रकाश आदि ग्रन्थों में मिलता है। ____ सम्पूर्ण ज्योतिष मण्डल मेरु पर्वत के चारों ओर परिभ्रमण करता है, जिसे प्रदक्षिणा कहा जाता है। चन्द्र एवं सूर्य का मेरु के प्रदक्षिणा करने का जो चक्राकार (वर्तुलाकार) नियत मार्ग है, उसे 'मण्डल' कहा जाता है। सूर्य-चन्द्र मेरु पर्वत से कम से कम ४४,८२० योजन की अबाधा (दरी) पर रहकर प्रदक्षिणा करते हैं। 4 एक प्रदक्षिणा पूर्ण होने का एक मण्डल माना गया है। एक मण्डल से दूसरे मण्डल का आंतरा-दूरी दो योजन की रहती है। सूर्य के १८४ मण्डल तथा चन्द्र के १५ मण्डल हैं। चन्द्रविमान की गति बहुत धीमी है, जबकि सूर्यविमान की गति शीघ्र होती है। इस कारण ॐ चन्द्र-मण्डल से सूर्य-मण्डल बहुत अधिक बताये हैं। चन्द्र और सूर्य का कुल मण्डल क्षेत्र (चार क्षेत्र) ५१०६६ ॥ म योजन प्रमाण है। उसमें १८० योजन प्रमाण चार क्षेत्र जम्बूद्वीप में तथा ३३०० योजन क्षेत्र लवणसमुद्र में है। चन्द्र-मण्डल के एक अन्तर का प्रमाण ३५ योजन से कुछ अधिक है, जबकि सूर्य-मण्डल के एक अन्तर ॐ का प्रमाण दो योजन है। चन्द्र के १५ मण्डलों में से ५ मण्डल जम्बूद्वीप में और १० मण्डल लवणसमुद्र में पड़ते हैं, जबकि सूर्य के ६५ मण्डल जम्बूद्वीप में और ११९ मण्डल लवणसमुद्र में पड़ते हैं। सूर्य के १८४ मण्डल के आन्तरे १८३ होते हैं। प्रत्येक सूर्य-मण्डल का अन्तर क्षेत्र दो योजन होने से फ़ (१८३ x २) = ३६६ योजन आया। प्रत्येक मण्डल का विस्तार एक योजन का भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार ३६६ योजन में १४४-१४८ भाग जोड़ने से चार क्षेत्र (प्रदक्षिणा मार्ग) ५१० योजन ४८ भाग आता है। मेरु पर्वत के सबसे निकटवर्ती भीतरी मण्डल को सर्वाभ्यन्तर मण्डल तथा सबसे दूर बाहरी मण्डल को सर्वबाह्य , मण्डल कहा जाता है। सूर्य,निरन्तर सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्य मण्डल की ओर तथा पुनः सर्वबाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल की ओर गति करता रहता है। (सम्बन्धित विषय को विस्तारपूर्वक समझने के लिए देखेंबृहत्संग्रहणी रल, आचार्य यशोदेव सूरि कृत हिन्दी व्याख्या, पृ. २२५ से २४० तक तथा संलग्न चित्र) Elaboration : In Sutra 165, the orbit of the sun has been described. What is round of the orbit ? What is its size ? The detailed classification of such subjects is available in Brihat Sangrahani Lok Prakash and such like Volumes. The entire Stellar (Jyotish) system moves around Meru mountain and it is called taking rounds in circular manner (pradakshina). The circular path of the moon and the sun while moving around Meru mountain which is in a fixed orders is called Mandal. 卐5555)555555555555555555555555555 55555555555555555 ) )) ))) )) ))) )) )) ))) ) 5 सप्तम वक्षस्कार (477) Seventh Chapter 55 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8455555555555555555555555555555555555555555555555) 4 The sun and the moon take rounds of the Meru mountain at 卐 minimum distance of 44820 yojans. The completion of one such round iss called mandal. The distance of a round (mandal) from the immediate suceeding ___round is two yojan. Sun completes the orbit in 184 rounds while moon completes it in 15 rounds. The speed of heavenly abode (Viman) of moon is very slow while that of the heavenly abode of moon is fast. So the 41 rounds of the sun are pretty more than those of the moon. The entire area of orbits of moon and the sun (area of movement) is 51048 yojan. Out of it 180 yojan is in Jambu island and 33048 yojans is in Lavan Ocean. The distance between two consecutive rounds of moon is a little more 4 than 35 yojans while that of two such rounds of sun is two yojans. Out of 15 rounds of moon, 5 are in Jambu island and 10 in Lavan Ocean while out of 65 rounds of sun and 119 are in Lavan Ocean. The intermediacy distances of 184 rounds of sun are 183. Since every such distance is of 2 yojans the total of 183 intermediacy distances is 366 yojans. Every round iss yojan thick. Thus the thickness in 184 rounds comes to 14448 yojans. Adding it in 366yojan, the total area of movement comes to 51048 yojan. The round of the orbit which is nearest to Meru mountain is called innermost round and the round farthest from Meru mountain is called the outermost round. The sun moves continuously from the innermost round till it reaches the outermost round and then again from the outermost round to the innermost round and so on. (See to detailed description in Brihat Sangrahni Ratna by Acharya Yashodev Suri, Hindi Commentary, pp. 225 to 240.) मुहूर्त-गति MUHURAT-MOVEMENT १६६. [प्र. १] जया णं भंते ! सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोण्णि अ एगावण्णे जोअणसए एगुणतीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ म तेवढेहिं जोअणसएहिं एगवीसाए अ जोअणस्स सट्ठिभाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ति। से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि सव्वन्भंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति। [प्र. २ ] जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरित तया णं एगमेगेणं 5 मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (478) Jambudweep Prajnapti Sutra क555555555555555555555555558 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य-आभ्यन्तर मण्डलों में सूर्य-चन्द्र का गति चक्र पूर्व दिशा के एक ही सूर्य का सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्यमण्डल में गमन तथा सर्वबाह्यमण्डल से पुनः सर्वाभ्यन्तर मण्डल में आगमन सर्वाभ्यन्त मंडल सर्व बाह्य मंडल ४४,८२० योजन पश्चिम उत्तर के पूर्व दक्षिण लवण समुद्र जम्बू द्वीप जम्बूद्वीप और लवण समुद्रवर्ती चन्द्र के मण्डल उत्तर पश्चिम -- पूर्व दक्षिण सर्व बाह्य मंडल मडल सवोभ्यन्तर सर्व बाह्य मंडल लवण समुद्र 16 जम्बू द्वीप aaentiathaDarsanmans wwwwwanmanterwas Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 95 9595959595959595959595955 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ चित्र परिचय १६ बाह्य आभ्यन्तर मण्डलों में सूर्य-चन्द्र का गति चक्र सूर्य-चन्द्र के वृत्ताकार भ्रमण क्षेत्र को मण्डल कहा जाता है। मेरु पर्वत के सबसे निकटवर्ती मण्डल को सर्वाभ्यन्तर मण्डल तथा लवण समुद्र में पहुँच सबसे दूर अन्तिम मण्डल को सर्व बाह्य मण्डल कहा जाता है। मण्डल मण्डल सर्वाभ्यन्तर सूर्य मण्डल जम्बूद्वीप स्थित मेरु पर्वत से 44,820 योजन की दूरी पर है तथा सर्व बाह्य सूर्य 45,330 योजन दूरी पर है। सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल का अन्तर दो योजन है तथा सूर्य (विमान) की लम्बाई-चौड़ाई 5 योजन है। सूर्य 30 मुहूर्त (एक अहोरात्र) में आधे मण्डल का अर्थात् दो अहोरात्र में एक मण्डल में भ्रमण पूरा करता है । 61 प्रस्तुत आकृति नं. 1 में बताया है - पूर्व दिशावर्ती सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से गति करता हुआ क्रमशः सर्व बाह्य मण्डल में जाता है तथा पुनः सर्व बाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल में आता है। प्रस्तुत आकृति नं. 2. में बताया है - जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्रवर्ती चन्द्र मण्डलों का पूर्व दिशा के सर्व बाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल के पश्चिम में प्रवेश तथा पश्चिम दिशावर्ती सर्व बाह्य मण्डल पूर्व दिशा के सर्वाभ्यन्तर मण्डल में आगमन । जम्बूद्वीप के 180 योजन क्षेत्र में चन्द्र के 5 मण्डल तथा लवण समुद्र में 330 योजन क्षेत्र में 10 मण्डल हैं। सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मण्डल मेरु पर्वत से 44,820 योजन तथा सर्व बाह्य चन्द्र मण्डल 45,330 योजन दूर है। MOVEMENT OF SUN-MOON IN OUTER AND INNER ORBITS The circular orbit of the sun and the moon is called Mandal. The orbit nearest to Meru mountain is called innermost Mandal and that farthest and over Lavan Samudra is called outermost Mandal. - वक्षस्कार 7, सूत्र १६०-१६५, १७५-१८० The nearest solar Mandal is 44,820 yojan away from the Meru mountain in Jambudveep. The farthest one is 45,330 yojans away. The distance of one solar Mandal from the next is two yojan. The length-width of the Surya Vimaan is yojan. The sun travels half an orbit in 30 muhurts (one day and night). In other words it takes two days and nights to complete one orbit. Illustration No. 1 The eastern sun shifts gradually from innermost orbit to outermost orbit and then back. Illustration No. 2 The eastern moon shifts from outermost orbit of east to that of the west and then back. - In the 180 yojan area of Jambudveep, there are 5 lunar orbits and in the 330 yojan area over Lavan Samudra there are 10 orbits. The innermost lunar orbit is 5 44,820 yojans away from Meru mountain and the outermost is 45,330 yojan away. 5 फ्र -Vakshaskar-7, Sutra 160-165, 175-180 फ्र फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 6555555555555555555555556 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555555555555555555555555555555555 [ [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोण्णि अ एगावण्णे जोअणसए सेआलीसं च सहिभागेश जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं 5 # एगूणासीए जोअणसए सत्तावण्णाए अ सट्ठिभाएहिं जोअणस्स सद्विभागं च एगसद्विधा छेत्ता एगूणवीसाए म चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्षुप्फासं हव्वमागच्छइ। से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि * अभंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ३ ] जया णं भंते ! सूरिए अभंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं । मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साइं दोण्णि अ बावण्णे जोअणसए पंच य सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं छण्णउइए जोअणेहिं तेत्तीसाए सट्ठिभागेहिं जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहिं चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फास है । हबमागच्छति। एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे + संकमाणे अट्ठारस २ सट्ठिभागे जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवुड्डेमाणे अभिवुढेमाणे चुलसीइं २ सीआई जोअणाई पुरिसच्छायं णिबुडेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ४ ] जया णं भंते ! सूरिए सम्बबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं. ॐ केवइअं खेत्तं गच्छइ ? __ [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई तिण्णि अ पंचुत्तरे जोअणसए पण्णरस य सविभाए 3 जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगतीसाए जोअणसहस्सेहिं अट्ठहि अॐ एगत्तीसेहिं जोअणसएहि तीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सूरिए चक्षुप्फासं हव्वमागच्छइ त्ति एस णं, * पढमे छम्मासे। एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। से सूरिए दोच्चे छम्मासे अयमाणे पढमंसि __ अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ॐ [प्र. ५ ] जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? 卐 [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउरुत्तरे जोअणसए सत्तावण्णं च सद्विभाए 5 है जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं णवहि अ ॐ सोलसुत्तरेहिं जोअणसएहिं इगुणालीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सद्विभागं च एगसद्विधा छेत्ता सहिए चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छइ ति। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच्वं ॐ मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ६ ] जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? u555555555555555 $ $$$$$$$$$$$$$$$$$ 555 FFFFFFFFFF5FFs 55 55 55 55 5 55 555555555555555555 $ $$$$ $$$$$$$$$$ 5558 सप्तम वक्षस्कार (479) Seventh Chapter 35555555555555555555555555555))))) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र தததததததத***********************ததததில் [उ. ] गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साइं तिण्णि अ चउरुत्तरे जोअणसए इगुणालीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ । तया णं इहगयस्स मणुयस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं गूणपणा अ सभाएहिं जोअणस्स सद्विभागं च एगसट्ठिधा छेत्ता तेवीसाए चुण्णि आभाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छइ त्ति । फ्र 또 또 4 एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २५ अट्ठारस २ सट्टिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगइं निवेड्डेमाणे २ सातिरेगाई पंचासीतिं २ जोअणाई पुरिसच्छायं अभिवर्द्धमाणे २ सव्वन्धंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस जं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते । १६६. [ प्र. १ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर - सबसे भीतर के मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तो वह एक-एक मुहूर्त्त में कितने क्षेत्र को पार करता है ? [ उ. ] गौतम ! वह एक - एक मुहूर्त्त में ५,२५१ योजन को पार करता है, उस समय सूर्य यहाँ भरत क्षेत्र स्थित मनुष्यों को ४७,२६३ योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है । वहाँ से निकलता हुआ सूर्य नवसंवत्सर का प्रथम अयन बनाता हुआ प्रथम अहोरात्र में सर्वाभ्यन्तर मण्डल से दूसरे मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। [प्र. २ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से दूसरे मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है, तब वह एक-एक मुहूर्त्त में कितने क्षेत्र को पार करता है ? [उ.] गौतम ! तब वह प्रत्येक मुहूर्त्त में ५, २५१ योजन क्षेत्र को पार करता है, तब यहाँ स्थित 5 मनुष्यों को ४७, १७९ योजन तथा ६० भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ६१ भागों में से १९ भाग योजनांश की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे आभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। ५ Y [प्र. ३ ] भगवन् ! जब सूर्य तीसरे आभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तो वह ५ प्रत्येक मुहूर्त्त में कितना क्षेत्र पार करता है ? ५ इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल को संक्रान्त करता हुआ योजन मुहूर्त्त - गति बढ़ाता हुआ, ८४ योजन न्यून पुरुषछायापरिमित कम करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है । 4 [ उ. ] गौतम ! वह ५,२५२ योजन प्रति मुहूर्त्त गमन करता है, तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह ५ (सूर्य) ४७,०९६ योजन तथा ६० भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ६१ भागों में २ भाग योजनांश की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। [प्र. ४ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब वह प्रति मुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (480) y y Y Y Y Jambudveep Prajnapti Sutra फफफफफफफफफा Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555555555555555555555555555555558 [उ. ] गौतम ! वह प्रति मुहूर्त्त ५,३०५१५ योजन गमन करता, तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह म (सूर्य) ३१,८३१३० योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। ये प्रथम छह मास हैं। यों प्रथम छह मास का पर्यवसान करता हुआ वह सूर्य दूसरे छह मास के प्रथम अहोरात्र में सर्वबाह्य मण्डल से दूसरे बाह्य 卐 मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। [प्र. ५ ] भगवन् ! जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है तो वह प्रति मुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? [उ. ] गौतम ! वह ५,३०४६४ योजन प्रति मुहूर्त गमन करता है, तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह (सूर्य) ३१,९१६३० योजन तथा ६० भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ६१ भागों में से ६० भाग योजनांश की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ-जम्बूद्वीप के सम्मुख अग्रसर फ़ होता हुआ दूसरे अहोरात्र में तृतीय बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। 3 [प्र. ६ ] भगवन् ! जब सूर्य तृतीय बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है, तब वह प्रति फ़ मुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? [उ. ] गौतम ! वह ५,३०४३९. योजन प्रति मुहूर्त गमन करता है, तब यहाँ स्थित मनुष्यों को म ३२,००१९ योजन तथा ६० भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ६१ भागों में से २३ भाग । योजनांश की दूरी से वह (सूर्य) दृष्टिगोचर होता है। यों पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर संक्रमण करता हुआ, प्रति मण्डल पर मुहूर्त-गति को योजन कम करता हुआ, कुछ अधिक ८५ योजन पुरुषछायापरिमित अभिवृद्धि करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। यह दूसरा छह मास है। इस प्रकार दूसरे छह मास का पर्यवसान होता है। यह आदित्य-संवत्सर है। यों आदित्य-संवत्सर का पर्यवसान बतलाया है। ___166. [Q. 1] Reverend Sir ! When the sun moves in the innermost round, how much distance does it cover in one muhurat? ___ [Ans.] Gautam ! In every muhurat (48 minutes) the sun covers a distance of 5,251 ojans. At that time the human beings of Bharat 4 region see it from a distance of 47,2632 yojans. Moving from there the sun in the first Ayan, in the first day and night cover out from first round to the second round. [Q.2] Reverend Sir ! When the sun covers up from the innermost 4 round in the second round, how much distance does it cover in one muhurat ? ___[Ans] Gautam ! It covers a distance of 5,2514 yojan in each muhurat. Then, it is visible to human beings of this region from a distance of 卐555555555555555555555555555555555555555559 सप्तम वक्षस्कार (481) Seventh Chapter 855555555555))) ) ) ))))))))))) ) , Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545 47,17957 yojan and someti yojan. Rising from there the sun in the second day and night moves to the third inner round. [Q. 3] Reverend Sir ! When the sun moves in the third inner round how much distance does it cover in each muhurat? (Ans.] Gautam ! It covers 5,252 yojan in each muhurat. Then it is visible to the human beings of this region from a distance of 47,096 yojan plus 502 61 yojan. Coming out in this manner, the sun moving from the precious round to the immediately following round increases its speed by mi yojan a muhurat with every round it reduces the distance from human beings by 84 yojans and this arrives at the outermost round. [Q. 4] Reverend Sir ! When the sun moves in the outermost round, then how much distance does it cover in one muhurat ? [Ans.) Gautam ! It travels 5,305 yojan in every muhurat (48 minutes). At that time human beings of this region see the sun from a distance of 31,8313, yojan. This is the first half year. Thus after travelling in the first six months that sun in the first day night of the second half year, moves from the outermost round to immediately earlier round. [Q. 5] Reverend Sir ! When the sun moves in the second outermost round, how much area does it cover in one muhurat ? [Ans.) Gautam ! It moves at a speed of 5,304 yojan per muhurat. At that true human being living here see it from a distance of 31,916% + yojans. Entering from here, aheading towards Jambu island in the second day-night it goes on to the third outer round while moving. [Q. 6] Reverend Sir ! When the sun moves on the third outermost round, how much area does it cover in one muhurt? . [Ans.] Gautam ! It moves 5,30439 yojan per muhurat. Then the human being living here see it from a distance of 32,001. yojan plus 60 61 yojan. Thus moving in the abovesaid order, the sun moves from a round to the next round reducing the speed per muhurat by : yojan in every round and increasing the distance from human beings by 85 yojan in every round. This is the second half year. Thus the second half year is concluded. This is the Solar year. Thus the course of Solar year has been narrated. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 482 ) Jambudweep Prajnapti Sutra 454545454545454545454545454545454 455 456 455 456 457 455 456 457 454 455 456 454941414141 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 5 5 5 5 5 5 555 5 555595555555 5 555 55 5 595952 फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 दिन-रात्रि- मान MEASUREMENT OF DAY AND NIGHT १६७. [ प्र. १ ] जया णं भंते ! सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? 卐 卐 卐 [उ.] गोयमा ! तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिआ 卐 दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्भंतरानंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । [प्र. २ ] जया णं भंते ! सूरिए अब्भंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया दिवसे केमहालिया राई भवइ ? [उ.] गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि अ एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति । [प्र. ३ ] से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? [ उ. ] गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति । महालए 卐 卐 एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एसट्टिभागमुत्तेहिं मंडले दिवसखित्तस्स निब्बुद्धेमाणे २ रयणिखित्तस्स अभिवर्द्धमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति । [प्र. ४] जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे महालिया राई भवइ ? फ 卐 जया णं सूरिए सव्वब्भंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं फ्र सव्वब्भंतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राईदिअसएणं तिण्णि छावट्ठे एगसट्टिभागमुहुत्तस दिवसखेत्तस्स 5 निबुद्धेत्तारयणिखेत्तस्स अभिवुद्धेत्ता चारं चरइत्ति । [उ.] गोयमा ! तया उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिआ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइति । एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे से पविसमाणे सूरिए दोच्चं 5 छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । 卐 [उ.] गोयमा ! अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए। से पबिसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । सप्तम वक्षस्कार 卐 [प्र. ५ ] जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया केमहालए फ्र दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ? फ्र 卐 5 (483) फ्र 卐 फ Seventh Chapter फफफफफफफफफफफ 卐 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 图555555555555555555555555555555555 [प्र. ६ ] जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया केमहालए दिवसे + भवइ केमहालिया राई भवइ ? । [उ. ] गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए इति। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए ॐ तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निवुद्धमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवुद्धेमाणे २ सब्बभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति। [७] जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ॥ णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिअसएणं तिण्णि छावढे एगसविभागमुहुत्तसए ॐ रयणिखेत्तस्स णिबुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिववेत्ता चारं चरइ। एस णं दोच्चे छम्मासे। एस णं दुच्चस्स छम्मास्स पज्जवसाणे। एस णं आइच्चे संवच्छरे। एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते ८।। १६७. [प्र. १ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को पार करता हुआ गति करता है, तब ऊ उस समय दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? [उ.] गौतम ! उत्तमावस्था प्राप्त, उत्कृष्ट अधिक से अधिक १८ मुहूर्त का दिन होता है, जघन्यकम से कम १२ मुहूर्त की रात होती है। वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नये संवत्सर में प्रथम अहोरात्र में दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। [प्र. २ ] भगवन् ! जब सूर्य दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? [उ. ] गौतम ! तब मुहूर्तांश कम १८ मुहूर्त का दिन होता है, ३, मुहूर्तांश अधिक १२ मुहूर्त की रात होती है। [प्र. ३] वहाँ से निष्क्रमण करता हआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में (दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर) गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? [उ. ] गौतम ! तब , मुहूर्तांश कम १८ मुहूर्त का दिन होता है, । मुहूर्तांश अधिक १२ मुहूर्त की होती है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ, पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ सूर्य प्रत्येक के मण्डल में दिवस क्षेत्र-दिवस-परिमाण को २ महशि कम करता हआ तथा रात्रि-परिमाण को २ के मुहूर्तांश बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब सर्वाभ्यन्तर म मण्डल का परित्याग कर १८३ अहोरात्र में दिवस-क्षेत्र में ३६६ संख्या-परिमित है, मुहूर्तांश कम कर म तथा रात्रि-क्षेत्र में इतने ही मुहूर्तांश बढ़ाकर गति करता है। 3 [प्र. ४ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना + बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? 卐5555555555555555555555555555555555555555555555 ))))555555555555555)))))))) 卐)))))))))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (484) Jambudveep Prajnapti Sutra 95555555555555555555555555555 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555555 म [उ. ] गौतम ! तब रात उत्तमावस्था प्राप्त, उत्कृष्ट अधिक से अधिक १८ मुहूर्त की होती है, दिन के 卐 जघन्य-कम से कम १२ महर्त्त का होता है। ये प्रथम छह मास हैं। यह प्रथम छह मास का पर्यवसान है- ' समापन है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे छह मास के प्रथम अहोरात्र में दूसरे बाह्य मण्डल को ऊ उपसंक्रान्त कर गति करता है। [प्र. ५ ] भगवन् ! जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? म [उ. ] गौतम ! तब मुहूर्तांश कम १८ मुहूर्त की रात होती है, ३, मुहूर्तांश अधिक १२ मुहूर्त का ॐ दिन होता है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर 卐 गति करता है। 3 [प्र. ६ ] भगवन् ! जब सूर्य तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन फ़ कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? [उ. ] गौतम ! तब , मुहूर्तांश कम १८ मुहूर्त की रात होती है, 1 मुहूर्तांश अधिक १२ मुहूर्त का म दिन होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण + करता हुआ रात्रि-क्षेत्र में एक-एक मण्डल में मुहूर्तांश कम करता हुआ तथा दिवस-क्षेत्र में मुहूर्तांश बढ़ाता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। + [७] भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह सर्वबाह्य मण्डल का परित्याग कर १८३ अहोरात्र में रात्रि-क्षेत्र में ३६६ संख्या-परिमित । 卐 मुहूर्तांश कम कर तथा दिवस-क्षेत्र में उतने ही मुहूर्तांश अधिक कर गति करता है। ये द्वितीय छह मास हैं। यह द्वितीय छह मास का पर्यवसान है। यह आदित्य-संवत्सर है। यह आदित्य-संवत्सर का पर्यवसान बतलाया है। 卐 167. [Q. 1] Reverend Sir ! When the sun moves completing the innermost round, how long is the day and how long is the night? (Ans.) Gautam ! The longest day is of 18 muhurat and the smallest 卐 night is of 12 muhurat moving out from there, the sun in the new Solar year on first day-night moves along second innermost round. [Q.2] Reverend Sir ! When the sun moves completing the second 45 innermost round, how long is the day and how long is the night? 55555555555555555555555555555555555555555558 ॥ १. जब सर्वबाह्य मण्डल में सूर्य हो तब छोटे से छोटा १२ मुहूर्त प्रमाण दिन और १८ मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है। शास्त्रीय गणित से यह माघ मास का छठा दिवस होता है। -बृहत्संग्रहणी, पृ. २३६ When the sun is in the outermost round, the day is of smallest duration namely 12 muhurat and the night is of 18 muhurat. According to the arithmatic of scriptures, it is then the sixth day of the month of Magh. -Brihat Sangrahni, p. 236 सप्तम वक्षस्कार (485) Seventh Chapter 卐 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24545455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 45454545454545454545454 455 456 457 4554454 455 456 45 0 455 456 455 456 457 45548 455 456 457 455 456 457 4 [Ans.] Gautam ! The day is of 18 muhurat reduced by two-sixty first 4 of a muhurat. The night is of 12 muhurat increased by two-sixty one muhurat. (Q. 3] Reverend Sir ! Covering out from there in the second day-night when the sun (after completing the second inner round) moves, how long Si is the day and how long is the night? (Ans.] Gautam ! Then the day is of 18 muhurat reduced by muhurat ki and the night is of 12&i muhurat. Moving in this manner, the sun going ahead from one round to the next round reduces the day by muhurat with every round and 5 increases the night by muhurat tell it reaches the outermost round and after completing it moves inwards. When the sun moves from the innermost round upto the outermost round, it departing from innermost round in 183 days and nights reduces the period of the day 366 times of a muhurat and increase the night 41 the same extent. [Q. 4] Reverend Sir! When the sun moves after completing 5 outermost round, how long is the day and how long is the night ? 4 (Ans.) Gautam ! The longest night is of 18 muhurat and the shortest of 12 muhurat. This is the first half-year. This is the end of the first half-year. Entering from here, the sun in the second half year on first day-night moves ahead completing the second outer round. [Q. 5) Reverend Sir ! When the sun after completing the second outermost circle of its orbit moves further, for how long is the day and for how long is the night? (Ans.) Gautam ! Then the night is of 18 muhurat reduced by muhurat and the day is of 12 muhurat. From there moving further the sun on the second day-night, completing the third round goes ahead. [Q. 6) Reverend Sir ! When the sun after completing the third outermost circle of its orbit moves further, for how long is the day and for 4 how long is the night? (Ans.) Gautam ! Then the night is of 18 muhurat reduced by 5 muhurat and the day of 12 muhurat. Thus moving in this manner from 15 one circle to the other, the duration of night is reduced by 2 muhurat with each round and the day is increased by 2 muhurat with each round tell it moves on the innermost round. 155 914 455 54 5454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545545555 456 455 456 4545454545454545 $ $ 5 $$$$$$$$$$$$$听听听听听听听听听听听四 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 486 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 455 456 457 455 456 457 4545454545454545454545454545454545454545454545$ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफ [7] Reverend Sir! When the sun from the outermost circle to the innermost circle completes all the rounds of inward movement and moves ahead outwards then it crossing all the outer courts in 183 days and night reduces the duration of night by 366 times muhurat and increases the duration of the day by the same period. This is the second half-year. This is the completion of second half-year. This is Solar year. This is stated to be completion of a Solar year. ताप - क्षेत्र AREA OF HEAT १६८. [ प्र. १ ] जया णं भंते ! सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंटिआ तावखित्तसंठिई पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! उद्धीमुहकलंबु आपुप्फसंटाणसंटिआ तावखेत्तसंटिई पण्णत्ता । अंतो संकुइआ बाहि वित्थडा, अंतो वट्टा बाहिं बिहुला, अंतो अंकमुहसंटिआ बाहिं सगडुद्धीमुहसंठिआ, उभओपासे णं तीसे दो बाहाओ अवट्ठिआओ हवंति पणयालीसं २ जोअणसहस्साइं आयामेणं । दुवे अ णं तीसे बाहाओ अणवद्विआओ हवंति, तं जहा - सब्वब्भंतरिआ चेव बाहा सव्वबाहिरिआ चेव बाहा। तीसे णं सव्वन्तरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं णवजोअणसहस्साइं चत्तारि छलसीए जोअणसए णव य दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं । [प्र. २ ] एस णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा ? [ उ. ] गोयमा ! जे णं मंदरस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वदेज्जा । तीसे णं सव्वबाहिरिआ बाहा लवणसमुद्दतेणं चउणवई जोअणसहस्साइं अट्ठ य अट्ठसट्टे जोअणसए चत्तारि अ दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं । [प्र. ३ ] से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा ? [ उ. ] गोयमा ! जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसभागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा इति । [प्र. ४ ] तया णं भंते ! तावखित्ते केवइअं आयामेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठहत्तरं जोअणसहस्साइं तिण्णि अ तेत्तीसे जोअणसए जोअणस्स तिभागं च आयामेणं पण्णत्ते । [प्र. ५ ] तया णं भंते ! किसंटिआ अंधकारसंटिई पण्णत्ता ? सप्तम वक्षस्कार फ्र मेरुस्स मज्झयारे जाव य लवणस्य रुंदछन् भागो । तावायाम एसो सगडुद्धीसंटिओ नियमा ॥ १ ॥ (487) Seventh Chapter Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जभ क ) ))1955555555555555555 [उ. ] गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठासंठिआ अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुआ, बाहिं वित्थडा तं चेव (अंतो वट्टा, बाहिं विउला, अंतो अंकमुहसंठिआ, बाहिं सगडुद्धीमुहसंठिआ)। तीसे णं सव्वभंतरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउवीसे जोअणसए छच्च दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणंति। [प्र. ६ ] से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्तिवएज्जा ? [उ. ] गोयमा ! जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं, दोहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा। तीसे णं सव्वबाहिरिआ बाहा लवणसमुहतेणं तेसट्ठी जोअणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोअणसए छच्च दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ७ ] से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा ? [उ. ] गोयमा ! जे णं जम्बुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता (दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा) तं चेव। [प्र. ८ ] तया णं भंते ! अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठहत्तर जोअणसहस्साइं तिण्णि अ तेत्तीसे जोअणसए तिभागं च आयामेणं पण्णत्ते। [प्र. ९ ] जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिआ तावक्खित्तसंठिई पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठाणसंठिआ पण्णत्ता। तं चेव सवं अव्वं णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुव्ववण्णि पमाणं तं तावखित्तसंठिईए अव्वं, तं ताव खित्तसंठिईए पुव्ववण्णि पमाणं तं अंधयारसंठिईए णेअवंति। १६८. [प्र. १] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तो उसके ताप-क्षेत्र की स्थिति-सूर्य के आतप से परिव्याप्त आकाश-खण्ड की स्थिति-उसका संस्थान किस प्रकार का होता है? [उ. ] गौतम ! तब ताप-क्षेत्र की स्थिति ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प के संस्थान जैसी होती है-उसकी ज्यों संस्थित होती है। वह भीतर-मेरु पर्वत की दिशा में संकीर्ण-सँकड़ी तथा बाहर-लवणसमुद्र की दिशा में विस्तीर्ण-चौड़ी, भीतर से वृत्त-अर्द्ध-वलयाकार तथा बाहर से पृथुल-पृथुलतापूर्ण विस्तृत, भीतर अंकमुख-पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोद रूप आसनबन्ध में मुख-अग्र भाग जैसी तथा बाहर गाड़ी की धुरी के अग्र भाग जैसी होती है। मेरु के दोनों ओर उसकी दो बाहाएँ-भुजाएँपार्श्व में अवस्थित हैं-नियत परिमाण हैं-उनमें वृद्धि-हानि नहीं होती। उनकी-उनमें से प्रत्येक की जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (488) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழமிழழமிழமிழமிழபூபூபூபூபூபூமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி फफफफफफ 5 लम्बाई ४५,००० योजन है। उसकी दो बाहाएँ अनवस्थित-अनियत परिमाणयुक्त हैं। वे सर्वाभ्यन्तर तथा सर्वबाह्य के रूप में अभिहित हैं। उनमें सर्वाभ्यन्तर बाह्य की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में 5 ९, ४८६० योजन है। 卐 5 [प्र. २ ] भगवन् ! यह परिक्षेपविशेष परिधि का परिमाण किस आधार पर कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे ३ गुणित किया जाए। गुणनफल को १० का 5 卐 - भाग दिया जाए। उसका भागफल (मेरु पर्वत की परिधि ३१,६२३ योजन x ३ ९,४८६६०) इस परिधि का परिमाण है। उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवणसमुद्र के अन्त में ९४,८६८, योजन- परिमित है । [ प्र. ३ ] भगवन् ! इस परिधि का यह परिमाण कैसे बतलाया गया है ? [उ. ] गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे ३ से गुणित किया जाए, गुणनफल को १० से 5 = विभक्त किया जाए। वह भागफल ( जम्बूद्वीप की परिधि ३, १६, २२८ × ३ ९४,८६८) इस परिधि का परिमाण है। [प्र. ५ ] भगवन् ! तब अन्धकार- स्थिति कैसा संस्थान - आकार लिए होती है ? [उ. ] गौतम ! अन्धकार -स्थिति तब ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प का संस्थान लिए होती है, वैसे आकार सप्तम वक्षस्कार ९४,८६९ : १० = ९,४८,६८४ : १० = (489) फफफफफफफफफफफ 卐 [प्र.४ ] भगवन् ! उस समय ताप - क्षेत्र की लम्बाई कितनी होती है ? [ उ. ] गौतम ! उस समय ताप - क्षेत्र की लम्बाई ७८,३३३ योजन होती है। मेरु से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त ४५,००० योजन तथा लवणसमुद्र के विस्तार २,००,००० योजन के 5 भाग ३३,३३३ योजन का जोड़ ताप-क्षेत्र की लम्बाई है। उसका संस्थान गाड़ी की धुरी के अग्र भाग जैसा होता है। 卐 Seventh Chapter 卐 卐 की होती है। वह भीतर संकीर्ण-सँकड़ी, बाहर विस्तीर्ण - चौड़ी ( भीतर से वृत्त - अर्द्ध-वलयाकार, बाहर से पृथुलता लिए विस्तृत, भीतर से अंकमुख - पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोदरूप 5 आसन-बन्ध के मुख-अग्र भाग की ज्यों तथा बाहर से गाड़ी की धुरी के 卐 अग्र भाग की ज्यों होती है। 卐 योजन - प्रमाण है। 卐 उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में ६, ३२४ [प्र. ६ ] भगवन् ! यह परिधि का परिमाण कैसे है ? [उ. ] गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को १० से 5 विभक्त किया जाए, उसका भागफल ( मेरु- परिधि ३१, ६२३ योजन x २ = ६, ३२४) इस परिधि का परिमाण है। उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवणसमुद्र के अन्त में ६३, २४५० योजन- परिमित है । [प्र. ७ ] भगवन् ! यह परिधि - परिमाण किस प्रकार है ? 卐 卐 卐 卐 卐 卐 5 ६३, २४६ ÷ १० = 卐 卐 卐 2555 5555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 952 卐 फ्र 卐 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555555 5 5 55 5 5 5 5 5 5 @ फफफफफफफ 卐 [उ.] गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को १० से 5 विभक्त किया जाए, उसका भागफल (जम्बूद्वीप की परिधि ३, १६, २२८ योजन x २ ६,३२,४५६ ÷ १० = ६३,२४५६ योजन) इस परिधि का परिमाण है। 卐 = [प्र. ८ ] भगवन् ! तब अन्धकार क्षेत्र का आयाम - लम्बाई कितनी होती है ? [ उ. ] गौतम ! उसकी लम्बाई ७८, ३३३ योजन होती है। 卐 卐 卐 [ प्र. ९ ] भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है तो ताप - क्षेत्र का फ संस्थान कैसा बतलाया है ? फ फ्र [ उ. ] गौतम ! ऊर्ध्वमुखी कदम्ब - पुष्प संस्थान जैसा उसका संस्थान बतलाया है। अन्य वर्णन 卐 पूर्वानुरूप है। इतना अन्तर है - पूर्वानुपूर्वी के अनुसार जो अन्धकार - संस्थिति का प्रमाण है, वह इस 5 पश्चानुपूर्वी के अनुसार ताप - संस्थिति का जानना चाहिए। सर्वाभ्यन्तर मण्डल के सन्दर्भ में जो ताप - क्षेत्र - संस्थिति का प्रमाण है, वह अन्धकार - संस्थिति में समझ लेना चाहिए। 5 卐 卐 फ्र 5 卐 फ 168. [Q. 1] Reverend Sir ! When the sun moves further after covering all the inner circles of its orbit, what is the shape and extent of the area of its heat ? [Ans.] Gautam ! At that time the area of its heat is like that of Kadamb flower facing upwards from inside, towards Meru mountain it is narrow and from outside, towards Lavan Ocean it is wide. From inside it is like half a circle and from outside it is widely spread out. From inside it is like face of a person sitting in padma posture and from outside it is like the front part of central rod of the chariot. Towards Meru its two arms are on the sides. They are of fixed size. No increases or reduction takes place in them. Each of them is 45,000 yojan long. The other two फ्र arm are of varying size. They are at the innermost and the outermost edges. The circumference of the innermost one at the end of Meru is 9,4862 yojan. 卐 卐 卐 [Q. 2] Reverend Sir ! On what basis this circumference (perimeter) has been calulated? [Q. 3] Reverend Sir ! How has this perimeter has been calulated ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 卐 卐 卐 卐 [Ans.] Gautam ! Multiply the circumference of Meru by 3. Divide the resultant by 10. This final result is this circumference. 卐 5 卐 (Meru's circumference = 31,623 yojans; 31,623 x 3 = 94,869 + 10 = 9,486 yojan.) 卐 卐 The perimeter of the outermost (round) arm at the end of Lavan 5 Ocean is 94,868 18 yojan. (490) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 5 卐 卐 卐 卐 5 255 55 5 55 5 5 5 555 5555 5 5 55 55 5 5 5 5555 5552 卐 卐 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84445455 456 455 456 457 4554 455 456 457 455 456 457 451 451 4545454545454545454545454 455 456 45 $$45 46 45 46 47 46 45 46 45 44 445 446 447 46 45155 456 451554444445454545454 (A.) Gautam ! Multiply the circumference of Jambu island by 3. 4 Divide the resultant by 10. The result arrived at is the perimeter. 5. (The perimeter of Jambu island = 3,16,228; 3,16,228 x 3 = 9,48,684; 9,48,684 + 10 = 94,8684) [Q. 4) Reverend Sir! What is the length of area of heat at that time ? 4i (Ans. ] Gautam ! It is 78,333 yojan at that time. The distance between Meru and outer edge of Jambu island is 45,000 yojan. Lavan Ocean is of 2,00,000 yojan and if one-sixth of this distance namely 33,3334 yojan is added to the said distance of 4,500 the heat region arrived is 78,3331 yojan. Its shape is like that of the front part of the central rod of a cart. IQ. 5] Reverend Sir! What is the shape and the length of its zone of 4 darkness ? 4. (Ans. ] Gautam ! The shape of the zone of darkness is like Kadamb flower facing upwards. It is narrow from inside and wide from outside (It is like semi-circle from inside and wide-spread creeper from outside, it is like the face of a person in cross-legged sitting posture from inside and from outside it is like the central rod of a cart. The length of its innermost arm close to Meru mountain is 6. 4 454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 yojan. (Q. 6] Reverend Sir ! How has this length been calculated ? (Ans. ] Gautam ! Multiply the circumference of Meru by 2. Divide the resultant by 10. This is the desired perimeter (Circumference of Meru = 31,623; 31,623 x 2 = 63,246; 63,246 + 10 = 6,324o yojan.) The perimeter of its outermost arm close to Lavan Ocean is 63,2456 yojan. [Q. 7) Reverend Sir ! How has this perimeter been calculated ? [A. ] Gautam ! Multiply the perimeter of Jambu island by 2. Divide the result by 10. The resultant is the desired perimeter. (The perimeter of Jambu island = 3,16,228; 3,16,228 x 2 = 6,32,456; 6,32,456 + 10 = 63,245 yojan.) 10. 8] Reverend Sir ! What is the length of the area of darkness at that time ? 144454641 46 $$1$ | सप्तम वक्षस्कार ( 491 ) Seventh Chapter 24545455 456 457 455 456 455 456 457 4554545454545454545454545454545454545454545454545 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐55555555555555555555555554555555555555555545553 [Ans. ] Gautam ! Its length is 78,3334yojan. [Q. 9] Reverend Sir ! When the sun after covering all the outer rounds, moves further what is the shape of the zone of its heat ? (Ans.] Gautam ! Its shape is like that of a Kadamb flower facing upwards. The remaining description is the same as earlier mentioned. The only difference is that the length of area of darkness mentioned in the earlier case is the length of the area of heat in the present case. 5. Similarly whatever is mentioned in respect of innermost circle about the $i zone of heat may be understood here in the present case in respect of darkness. सूर्य-परिदर्शन DESCRIPTION ABOUT SUN १६९. [प्र. १] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति, ॐ मझंतिअमुहुत्तंसि मूले अ दूरे अ दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति ? + [उ. ] हंता गोयमा ! तं चेव (मूले अ दूरे अ दीसंति)। म [प्र. २ ] जम्बूद्दीवे णं भंते ! सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसि अ ममंतिअ-मुहुत्तंसि अ अत्थमणमुहत्तंसि ऊ अ सब्वत्थ समा उच्चतेणं? [उ.] हंता तं चेव (सव्वत्थ समा) उच्चतेणं। म [प्र. ३ ] जइ णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिआ उग्गमणमुहत्तंसि अ मझंतिअ-मुहत्तंसि अ , अत्थमणमुहुत्तंसि अ सव्वत्थ समा उच्चतेणं, कम्हा णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे अ म मूले अ दीसंति, मज्झंतिअ-मुहुत्तंसि मूले अदूरे अ दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति ? । ॐ [उ. ] गोयमा ! लेसा-पडिधाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे अ मूले अदीसंति इति। लेसाहितावेणं ममंतिअ-मुहत्तंसि मूले अ दूरे अ दीसंति। लेसा-पडिघाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति। एवं खलु गोयमा ! तं चेव (दूरे अमूले ॐ अ) दीसंति। की १६९. [प्र. १ ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य (दो) उद्गमन मुहूर्त में-उदयकाल में स्थानापेक्षया ॐ दूर होते हुए भी द्रष्टा की प्रतीति की अपेक्षा से मूल-आसन्न या समीप दिखाई देते हैं ? मध्याह्नकाल में फ़ स्थानापेक्षया समीप होते हुए भी क्या वे दूर दिखाई देते हैं ? अत्तमनवेला में-अस्त होने के समय क्या वे दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? [उ. ] हाँ, गौतम ! वे वैसे ही (निकट एवं दूर) दिखाई देते हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य उदयकाल, मध्याह्नकाल तथा अस्तमनकाल में क्या सर्वत्र एक ऊ सरीखी ऊँचाई लिए होते हैं ? | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (492) Jambudveep Prajnapti Sutra 8555 555 )))) ))))))))) )) ) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))))))))553 5555555555555555555555555555555555555555555555555 555555555555555555555555555555555555 __ [उ. ] हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। वे सर्वत्र एक सरीखी ऊँचाई लिए होते हैं। [प्र. ३ ] भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप में सूर्य उदयकाल, मध्याह्नकाल तथा अस्तमनकाल में सर्वत्र एक ॐ सरीखी ऊँचाई लिए होते हैं तो उदयकाल में वे दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं, मध्याह्नकाल में निकट होते हुए भी दूर क्यों दिखाई देते हैं तथा अस्तमनकाल में दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं? [उ. ] गौतम ! लेश्या के प्रतिघात से-सूर्यमण्डलगत तेज के प्रतिघात से अत्यधिक दूर होने के कारण उदय स्थान से आगे प्रसृत न हो पाने से, यों तेज या ताप के प्रतिहत होने के कारण सुखपूर्वक के देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर होते हुए भी सूर्य उदयकाल में निकट दिखाई देते हैं। मध्याह्नकाल में लेश्या के अभिताप से-सूर्यमण्डलगत तेज के अभिताप से-विशिष्ट ताप से निकट के होते हुए भी सूर्य के तीव्र तेज की दुर्दृश्यता के कारण-कष्टपूर्वक देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर दिखाई देते हैं। अस्तमनकाल में लेश्या के प्रतिघात के कारण उदयकाल की ज्यों दूर होते हुए भी सूर्य निकट दिखाई पड़ते हैं। गौतम ! दूर तथा निकट दिखाई पड़ने के यही कारण हैं। म 169. [Q. 1] Reverend Sir ! In Jambu island, do the two suns, although at the time of sunrise, are at a distance, appear to the viewer as close by, at noon appear to be far away although they are close by and at sunset they appear to be close by although they are at a distance ? [Ans. ) Yes Gautam ! They appear to be so. [Q. 2) Reverend Sir ! In Jambu island, is the sun at the same height 4 at all places at sunrise, at noon and at sunset ? (Ans. ] Yes Gautam ! It is at the same height at all the places. [Q. 3) Reverend Sir ! In case the sun is at the same height at sunrise, at noon and at sunset in Jambu island, why does it appear to be close by at sunrise although it is at distance, and appears to be far away at noon 4i although it is close by and again looks to be close by at sunset although it is far away? __[Ans. ] Gautam ! The heat of the sun circle is at an extremely great distance at the time of sunrise and it cannot go beyond the place of sunrise. So it is capable of being seen comfortably. As such at the time of sunrise it appears to be close by although it is in reality far away. At noon, the heat of the sun circle is extremely great. So it cannot be seen with naked eye. It can be seen only with great difficulty. So it appears to be far away although it is close by. 955555555555555555))))))))))))))) सप्तम वक्षस्कार (493) Seventh Chapter 35555555555555555555555555555555555558 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555558 At the time of sunset also like that of sunrise, due to less heat, the sun appears to be close by although it is at a distance. Gautam ! There are the course of the sun appearing to be close by or at a distance. 9F5FFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 क्षेत्रगमन AREA OF MOVEMENT १७०. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ किं तीअं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, अणागयं खेत्तं गच्छन्ति ? __ [उ. ] गोयमा ! णो तीअं खेत्तं गच्छन्ति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, णो अणागयं खेत्तं गच्छन्ति त्ति। [प्र.] तं भंते ! किं पुढे गच्छन्ति जाव नियमा छदिसिंति, एवं ओभासेंति, तं भंते ! किं पुढे ओभासेंति ? ___ [उ.] एवं आहारपयाई अव्वाइं पुट्ठोगाढमणंतरअणुमहआदिविसयाणुपुबी अ जाव णिमा छदिसिं, एवं उज्जोवेंति, तवेंति, पभाति ११। १७०. [प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य अतीत-गतिविषयीकृत-पहले चले हुए क्षेत्र काअपने तेज से व्याप्त क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं अथवा प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या अनागत-भविष्यवर्ती जिसमें गति की जायेगी उस क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? [उ. ] गौतम ! वे अतीत क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते, वे वर्तमान क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं। वे अनागत क्षेत्र का भी अतिक्रमण नहीं करते। [प्र. ] भगवन् ! क्या वे गम्यमान क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अतिक्रमण करते हैं या अस्पर्शपूर्वक स्पर्श नहीं करते हुए अतिक्रमण करते हैं ? [उ. ] उक्त सम्पूर्ण प्रसंग चौथे उपांग प्रज्ञापनासूत्र के २८३ आहारपद से स्पृष्टसूत्र, अवगाढ़सूत्र, अनन्तरसूत्र, अणु-बादरसूत्र, ऊर्ध्व-अधःप्रभृतिसूत्र, आदि-मध्यावसानसूत्र, विषयसूत्र, आनुपूर्वीसूत्र, षड्दिशसूत्र आदि के रूप में विस्तार से जानना चाहिए। इस प्रकार दोनों सूर्य छहों दिशाओं में उद्योत करते हैं, तपते हैं, प्रभासित होते हैं-प्रकाश करते हैं। 170. (Q.) Reverend Sir ! In Jambu island does the sun overflow its area covered in the past, the area covered by its heat and light at present or the area which it shall cover in future. (Ans. ] Gautam ! It does not overflow the area covered in the past, area lighted at present and the area that it shall cover in future. Q.] Reverend Sir ! Does the sun moves in that region of movement, touching that region or without touching it? [Ans. ] The entire description in detail may be understood as mentioned in 28th chapter of Prajnapana Sutra, the fourth Upaang, namely Sutra relating to Ahaar-touched by it and the like. Thus both | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (494) Jambudveep Prajnapti Sutra 内牙牙牙牙牙牙步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步$%%%%%的 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85555555541555555555555) ) )) )))) the suns light all the six direction, heat them, brighten them and provide 4 sunshine to them. १७१. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआणं किं तीते खित्ते किरिआ कज्जइ, पडुप्पण्णे किरिआ कज्जइ, अणागए किरिआ कज्जइ ? [उ. ] गोयमा ! णो तीए खित्ते किरिआ कज्जइ, पडुप्पण्णे कज्जइ, णो अणागए। [प्र.] सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ. ? _[उ. ] गोयमा ! पुट्ठा, णो अणापुट्ठा कज्जइ। णिअया छदिसिं। १७१. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्यों द्वारा अवभासन आदि क्रिया क्या अतीत क्षेत्र में की जाती है या प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र में की जाती है अथवा अनागत क्षेत्र में की जाती है? __ [उ. ] गौतम ! अवभासन आदि क्रिया अतीत क्षेत्र में नहीं की जाती, प्रत्युत्पन्न वर्तमान क्षेत्र में की जाती है। अनागत क्षेत्र में भी क्रिया नहीं की जाती। [प्र.] भगवन् ! क्या सूर्य अपने तेज द्वारा क्षेत्र-स्पर्शनपूर्वक-क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अवभासन __ आदि क्रिया करते हैं या स्पर्श नहीं करते हुए अवभासन आदि क्रिया करते हैं ? __ [उ. ] गौतम ! वह आदि में भी की जाती है। यावत् नियमतः छहों दिशाओं में की जाती है। 171.[Q.] Reverend Sir ! In Jambu island is the activity of brightening the area done in respect of the area covered in the past, the area being covered at present or the area that shall be covered in future by the two suns? (Ans. ] Gautam ! It is not done in respect of area covered in the past or that shall be covered in future. It is in respect of area of present movement. (Q. ] Do the suns brighten the area by touching it with its light or without touching it ? ___[Ans. ] Gautam ! They do so by touching the area in all the six directions by its light. ___ ऊर्ध्वादि ताप HEAT IN UPPER ZONE १७२. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ केवइअं खेत्तं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिअंच ? [उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसयं उद्धं तवयन्ति, अट्ठारससयजोअणाई अहे तवयन्ति, सीआलीसं जोअणसहस्साइं दोण्णि अ तेवढे जोअणसए एगवीसं च सद्विभाए जोअणस्स तिरिअं तवयन्तित्ति १३।। १७२. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य कितने क्षेत्र को ऊर्ध्व भाग में अपने तेज से तपाते हैंॐ व्याप्त करते हैं ? अधो भाग में नीचे के भाग में तथा तिर्यक् भाग में तपाते हैं ? सप्तम वक्षस्कार (495) Seventh Chapter 因牙牙牙牙牙牙牙牙步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙国 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 [उ. ] गौतम ! ऊर्ध्व भाग में १०० योजन क्षेत्र को, अधो भाग में १,८०० योजन क्षेत्र को तथा म तिर्यक् भाग में ४७,२६३२० योजन क्षेत्र को अपने तेज से तपाते हैं-व्याप्त करते हैं। 172. [Q. ] Reverend Sir ! In Jambu island, how much area in the upper region does the sun heat with its warmth. How much are is heated in the lower region and how much area is heated in the middle zone ? ___ [Ans. ] Gautam ! It spreads its heat upto 100 yojan upwards, upto 4 1,800 yojan downwards and upto 47,263 yojan in the levelled area with its solar power. उत्पत्ति स्थान PLACE OF BIRTH (ORIGIN) १७३. [प्र. ] अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरिअ-गहगण-णक्खत्त-तारारूवा णं भंते ! देवा किं उद्घोववण्णगा कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारदिईआ, गइरइआ, ॥ गइसमावण्णगा ? [उ. ] गोयमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चन्दिमसूरिअ-(गहगणणक्खत्त)-तारासवे ते णं देवा णो उद्घोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णो चारट्टिईआ, गइरइआ है, गइसमावण्णगा। ___ उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिएहिं, जोअणसाहस्सिएहिं तावखेत्तेहिं साहस्सिआहिं वेउबिआहिं वाहिरहिं परिसाहि महयाहय-पट्ट-गीयवाइअ-तंतीतलताल-तुडिअघण-मुइंगपडुप्पवाइअरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा महया उक्किट्ठसीहणायबोल-कलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलचारं मेरे अणुपरिअझैति १४। १७३. [प्र. ] भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती (अढ़ाई द्वीप अन्तवर्ती) चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र एवं तारे-ॐ ये ज्योतिष्क देव क्या ऊोपपन्न हैं-सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर ग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानों के में उत्पन्न हैं-क्या कल्पातीत हैं ? क्या वे कल्पातीत हैं ? क्या वे कल्पोपपन्न हैं-ज्योतिष्क देव-सम्बद्ध विमानों में उत्पन्न हैं ? क्या वे चारोपपन्न हैं-मण्डल गतिपूर्वक परिभ्रमण से युक्त हैं ? क्या वे चारस्थितिक गति के अभावयुक्त हैं-परिभ्रमणरहित हैं ? क्या वे गतिरतिक हैं-गति में रति-आसक्ति या प्रीति लिए के हैं ? क्या गति समापन्न हैं-गतियुक्त हैं? [उ. ] गौतम ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य (ग्रह, नक्षत्र), तारे-ज्योतिष्क देव ऊोपपन्न । म नहीं हैं, कल्पोपपन्न नहीं हैं। वे विमानोत्पन्न हैं, चारोपपन्न हैं, चारस्थितिक नहीं हैं, गतिरतिक हैं, + गतिसमापन्न हैं। ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प के आकार में संस्थित सहस्रों योजनपर्यन्त चन्द्रसूर्यापेक्षया तापक्षेत्रयुक्त, 5 वैक्रियलब्धियुक्त-नाना प्रकार के विकुर्वित रूप धारण करने में सक्षम, नाट्य, गीत, वादन आदि में ॐ निपुणता के कारण आभियोगिक कर्म करने में तत्पर, सहस्रों बाह्य परिषदों से संपरिवृत्त वे ज्योतिष्क : जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (496) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) ))) )) ) ) 卐) 8)))))))))))5555555)5555555555555 ॐ देव नाट्य-गीत-वादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर-जोर से बजाये जाते तन्त्री-तल-ताल-त्रुटित-घन-मृदंग-इन वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोग भोगते हुए, ॐ उच्च स्वर से सिंहनाद करते हुए, मुँह पर हाथ लगाकर जोर से पूत्कार करते हुए सीटी की ज्यों ध्वनि म करते हुए, कलकल शब्द करते हुए अच्छ-जाम्बूनद जातीय स्वर्णयुक्त तथा रत्नबहुल होने से अतीव निर्मल, उज्ज्वल मेरु पर्वत की प्रदक्षिणावर्त मण्डल गति द्वारा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। 173. [Q.] Reverend Sir ! Are the stellar gods within the limits of ___Manushottar mountain (in two and half islands) namely moon, sun, constellation and stars originating in upper world namely Saudharma heaven and other Kalpa heavens, the anuttar heavens and the nine graiveyiks, the Kalpateet heavens. Are they Kalpateet. Are they born ir 卐 Kalpa (heaven with grades) ? Are the stellar gods born in resperline heavenly abodes ? Are they movning namely going along in a circle ? Are they stationary ? Do they have interest in their movement ? Are they molute? (Ans.) Gautam ! The stellar gods within the area surrounded by Manushottar mountain namely moon, sun, planets, (constellations) and stars do not take birth in upper heaven. They are not gods of graded heavens. They originate in Vimans. They are moving source in their very origin. They are not immobile. They are mobile. They take interest in movement. They move in the four directions of the Kadamb flower facing upwards in area running upto thousands of yojans. Their area is heated due to moon and the sun. They are capable of converting themselves into many different shapes due to fluid process expertise. They are expert in dramatic activities, singing and in playing musical instrument. So they are always ready in doing such services. They are surrounded by thousands of outer councils. These stellar gods enjoying the sexual pleasures in an environment full of sweet sounds of dramatic performances. Songs, music, the stringed musical instruments, drums, trutit, taal, ghans, being played loudly. They speak in loud voice. They make out whistling sounds evening their mouth with their hand. They 41 also make murmuring sound, Meru mountains is very clean and bright $ due to Jambunad gold and large number of jewels. They (the stellar gods) go on moving around Meru mountain in circle and Meru is in the south. ॐ विवेचन : मानुषोत्तर पर्वत-मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति तथा मरण आदि मानुषोत्तर पर्वत से पहले-पहले होते ॥ म हैं, आगे नहीं होते, इसलिए उसे मानुषोत्तर कहा जाता है। विद्या आदि विशिष्ट शक्ति के अभाव में मनुष्य उसे : लाँघ नहीं सकते, इसलिए भी वह मानुषोत्तर कहा जाता है। 8听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 55555555 सप्तम वक्षस्कार .. (497) Seventh Chapter 845555555555555555555555555558 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) ) नागा )) प्रदक्षिणावर्त मण्डल-सब दिशाओं तथा विदिशाओं में परिभ्रमण करते हुए चन्द्र आदि के जिस मण्डलपरिभ्रमण रूप आवर्तन में मेरु दक्षिण में रहता है, वह प्रदक्षिणावर्त मण्डल कहा जाता है। Elaboration—Manushottar mountain-The human beings can take birth, stay and later die only upto Manushottar mountain. They cannot y do so beyond this mountain. So this mountain is called Manushottar mountain. Without special expertise and special powers human beings y cannot cross it. Due to this fact also, it is called Manushottar mountain. 9 Pradakshinavart round (Mandal)-During the movement of moon and others in circles in various directions and sub-directions, the round in which Meru is in the south, is called pradakshinavart round. תו ) ))) )) ) ))) )) 卐55555555555555))))))) ॥ इन्द्रच्यवन : अन्तरिम व्यवस्था DEATH OF INDRA-INTERIM STATE १७४. [प्र. ] तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ, से कहमियाणिं पकरेंति ? [उ. ] गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ। [प्र. ] इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? __[उ. ] गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए। [प्र. ] बहिआ णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-(सूरिअ-गहगण-णक्खत्त-) तारारूवा तं चेव अव्वं णाणत्तं विमाणोववण्णगा णो चारोववण्णगा, चारठिईआ णो गइरइआ णा गइसमावण्णगा। 3 [उ.] पक्किट्ठग-संटाण-संठिएहिं जोअण-सय-साहस्सिएहिं तावखित्तेहिं सय-साहस्सिआहिं वेउविआहिं बाहिराहिं परिसाहिं महया हयणट्ट भुंजमाणा सुहलेसा मंदलेसा मंदातवलेसा चित्तंतरलेसा ॐ अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडाविव ठाणठिआ सवओ समन्ता ते पएसे ओभासंति उज्जोवेति के पभासेंतित्ति। [प्र. ] तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए से कहमियाणिं पकरेन्ति ? [उ. ] गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ ऊ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ। [प्र. ] इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? [उ. ] गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा इति। १७४. [प्र. ] भगवन् ! उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र जब च्युत (मृत) हो जाता है, तब फ़ इन्द्रविरहकाल में देव किस प्रकार काम चलाते हैं ? [उ. ] गौतम ! जब तक दूसरा इन्द्र उत्पन्न नहीं होता, तब तक चार या पाँच सामानिक देव + मिलकर इन्द्र के स्थानापन्न के रूप में कार्य-संचालन करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (498) Jambudveep Prajnapti Sutra 355555555555555;)))))) ))))58 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ) ))) ) ))) ))) )) 听$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$ $$$$$$$$ $$$ $ ))) [प्र.] भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक नये इन्द्र की उत्पत्ति से विरहित रहता है ? [उ. ] गौतम ! वह कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छह मास तक इन्द्रोत्पत्ति से ॐ विरहित रहता है। [प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती चन्द्र (सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं) तारे रूप ज्योतिष्क देवों * का वर्णन पूर्वानुरूप जानना चाहिए। इतना अन्तर है-वे विमानोत्पन्न हैं, किन्तु चारोपपन्न नहीं हैं। वे चारस्थितिक हैं, गतिरतिक नहीं हैं, गति-समापन्न नहीं हैं। [ [उ.] पकी ईंट के आकार में संस्थित, चन्द्रसूर्यापेक्षया लाखों योजन विस्तीर्ण तापक्षेत्रयुक्त, ॐ नानाविध विकुर्वित रूप धारण करने में सक्षम, लाखों बाह्य परिषदों से संपरिवृत ज्योतिष्क देव विविध वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के आनन्द के साथ दिव्य भोग भोगने में अनुरत, सुखलेश्यायुक्त (चन्द्रों के लिए) शीतकाल की-सी कड़ी शीतलता से रहित, प्रियकर, सुहावनी शीतलता से युक्त, मन्दलेश्यायुक्त ॐ (सूर्यों के लिए) ग्रीष्मकाल की तीव्र उष्णता से रहित, मन्द आतप रूप लेश्या से युक्त, विचित्र-विविध 2 लेश्यायुक्त, परस्पर अपनी-अपनी लेश्याओं द्वारा अवगाढ़, पर्वत की चोटियों की ज्यों अपने-अपने स्थान में स्थित, सब ओर के अपने समीपवर्ती प्रदेशों को अवभासित करते हैं-आलोकित करते हैं, म उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। * [प्र.] भगवन् ! जब मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती इन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्युत होता है तो वे 卐 अपने यहाँ कैसी व्यवस्था करते हैं ? [उ.] गौतम ! जब तक नया इन्द्र उत्पन्न नहीं होता तब तक चार या पाँच सामानिक देव परस्पर 卐 एकमत होकर, मिलकर स्थानापन्न के रूप में कार्य-संचालन करते हैं। * [प्र. ] भगवन् ! इन्द्र-स्थान कितने समय तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है ? + [उ. ] गौतम ! वह कम से कम एक समय पर्यन्त तथा अधिक से अधिक छह मास पर्यन्त इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है। 41 174. (Q.) Reverend Sir ! When Indra of stellar gods dies, how do the stellar gods run the administration during the interim period ? (Ans.] Gautam ! Four or five co-chief gods, (who were powerful but not authoritative like Indra) jointly run the administration till a new i Indra appears. * [Q.] Reverend Sir ! For how long the post of Indra can remain 15 vacant ? (Ans.) Gautam ! It can remain vacant for a minimum period of one samaya (infinitesimal unit of time) and for a maximum period of six months. [Q.] The description of stellar gods-moon (sun, planets, constellation and), stars should be understood similar to as mentioned before. The )) )))) )) ))) )) )) ))) )) ) ) 55 5 सप्तम वक्षस्कार (499) Seventh Chapter 卐55 895955555555555555555555555555558 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555 0 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595959595955 55 5 5 9 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 45 卐 only points of difference are that they are born in heavenly abode but they do not move. They are immobile. They are not mobile. They do not have interest in movement. [Ans.] The stellar gods, stay in the shape of a burnt brick. Their heat zone is in lakhs of yojan in respect of moon and the sun. They are Y capable of forming different shapes with fluid process. They are y surround by lakhs of councils. They enjoy divine pleasure in any environment full of sweet music emithing from various musical instruments. They are in pleasant mood. They are without extreme cold of winter so far as moon are concerned. The cool atmosphere is pleasant and enjoyable. The suns are with mild thought waves. They are without y scorching heat of summer. They are with mild heat. They have different waves. They with their waves brighten the nearby places staying at their place like tops of mountains. They fill those places with their aura. [Q] Reverend Sir ! When the Indra of stellar gods who are outside Manushottar mountain dies, how do they run the administration? [Ans.] Gautam ! Up to the time a new Indra does not appear four or five co-chiefs-the stellar gods, who were powerful but not authoritative like Indra jointly run the administration. [Q] Reverend Sir! For how long can the post of Indra remain vacant? [Ans.] Gautam ! It can remain vacant for a minimum period of one samaya (an infinitesimal unit of time) and for a maximum period of six months. चन्द्र- मण्डल : संख्या : अबाधा आदि LUNAR ROUNDS: THEIR NUMBER १७५. [ प्र. १ ] कइ णं भंते ! चंद-मण्डला पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! पण्णरस चंद- मण्डला पण्णत्ता । [प्र. २ ] जम्बुद्दीवे णं भंदे ! दीवे केवअई ओगाहित्ता केवइआ चन्द - मण्डला पण्णत्ता ? गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे असीयं जोअण- सयं ओगाहित्ता पंच चन्द - मण्डला पण्णत्ता । [उ.] [प्र. ३ ] लवणे णं भंते पुच्छा ? [उ. ] गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिण्णि तीसे जोअण-सए ओगाहित्ता एत्थ णं दस चन्द - मण्डला पण्णत्ता । एवमेव सपुव्वावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे लवणे य समुद्दे पण्णरस चन्द - मण्डला भवन्तीतिमक्खायं । १७५. [ प्र. १ ] भगवन् ! चन्द्र-मण्डल कितने बतलाये गये हैं ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (500) 0555555555555 Jambudveep Prajnapti Sutra 4 4 卐 卐 579993 卐 4 卐 55555558 卐 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************************************மிமிமிமிமிமிமிககழ 卐 卐 5 फ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ [ उ. ] गौतम ! चन्द्र - मण्डल १५ बतलाये गये हैं । [Ans.] Gautam ! In Jambu island, there are five lunar rounds in an area of 180 yojans. [Q. 3] Reverend Sir ! In Lavan Ocean how many are the lunar rounds and how much region thereof do they cover? [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने चन्द्र - मण्डल हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में १८० योजन क्षेत्र का अवगाहन कर पाँच चन्द्र-मण्डल हैं। [प्र. ३ ] भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने चन्द्र मण्डल हैं ? फ [उ. ] गौतम ! लवणसमुद्र में ३३० योजन क्षेत्र का अवगाहन कर दस चन्द्र मण्डल हैं। यों फ जम्बूद्वीप तथा लवणसमुद्र के चन्द्र मण्डलों को मिलाने से कुल १५ चन्द्र - मण्डल होते हैं । 175. [Q.1] Reverend Sir ! How many are the rounds in Lunar orbit ? [Ans.] Gautam ! They are fifteen. [Q. 2] Reverend Sir ! How many are the lunar rounds in Jambu island and how much are they cover therein ? १७६. [प्र. ] सव्वभंतराओ णं भंते ! चंद- मण्डलाओ णं केवइआए अबाहाए सव्व - बाहिरए चंद - मंडले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोअण- सए अबाहाए सव्व - बाहिरए चंद-मंडले पण्णत्ते । १७६. [ प्र. ] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र - मण्डल से सर्वबाह्य चन्द्र - मण्डल अबाधित रूप में कितनी दूरी पर है ? [उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मण्डल से सर्वबाह्य चन्द्र - मण्डल अबाधित रूप में ५१० योजन की दूरी पर है। 176. [Q.] Reverend Sir ! What is the direct distance between the innermost lunar round and outermost lunar round (of the lunar orbit)? [Ans.] Gautam ! It is 510 yojans. १७७. [ प्र. ] चंद-मंडलस्स णं भंते ! चंद-मंडलस्स केवइआए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पणतीसं २ जोअणाई तीसं च एगसट्टिभाए जोअणस्स एगसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिआभाए चंद-मंडलस्स चंद- मंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । सप्तम वक्षस्कार फ्र (501) 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 555555 5 5 5 5 5 5 55595 95 ! 卐 Seventh Chapter फ्र 卐 卐 卐 卐 [Ans.] There are ten lunar rounds covering an area of 330 yojan in 5 Lavan Ocean. Thus in Jambu island and Lavan Ocean combined there are fifteen lunar rounds. 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ 卐 卐 卐 卐 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))))555555555555558 )))))))))) १७७. [प्र. ] भगवन् ! एक चन्द्र-मण्डल का दूसरे चन्द्र-मण्डल से कितना अन्तर है-कितनी दूरी है? [उ. ] गौतम ! एक चन्द्र-मण्डल का दूसरे चन्द्र-मण्डल से ३५३० योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के सात भागों में चार भाग योजनांश परिमित अन्तर है। 177. (Q.) Reverend Sir! What is the distance between one lunar round and the very next lunar round ? ___ [Ans.] Guatam ! It is 3581 vojans plus site yojans. १७८. [प्र. ] चंद-मंडले णं भंते ! केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! छप्पण्णं एगसट्ठिभाए जोअणस्स आयाम-विक्खम्भेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, अट्ठावीसं च एगसहिभाए जोअणस्स बाहल्लेणं। १७८. [प्र. ] भगवन् ! चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई, परिधि तथा ऊँचाई कितनी है ? [उ. ] गौतम ! चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १६ योजन, परिधि उससे कुछ अधिक तीन गुनी तथा ऊँचाई १० योजन है। ____178. [Q.] Reverend Sir ! What is the length, breadth, perimeter and height of one lunar round ? (Ans.) Gautam ! The length and breadth is a yojans, perimeter is little more than three times of it while the height is a yojans. १७९. [प्र. १ ] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सबभंतरए चन्द-मण्डले पण्णत्ते ? __[उ. ] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य वीसे जोअण-सए अबाहाए सबभंतरे चन्द-मण्डले पण्णत्ते। [प्र. २ ] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए अब्भंतराणन्तरे चन्द-मण्डले पण्णत्ते ? __ [उ.] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य छप्पणे वीसे जोअण-सए पणवीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिआभाए अबाहाए अभंतराणन्तरे चन्द-मण्डले पण्णत्ते। [प्र. ३ ] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए अभंतरतच्चे मण्डले पण्णते ? [उ. ] गोयमा ! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य वाणउए जोअण-सए एगावण्णं च * एगसद्विभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुण्णिआभागं अबाहाए अभंतरतच्चे मण्डले पण्णत्ते। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (502) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफ 卐 தமிழகத********தமிழ*****************8 4 फ एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डलं संकममाणे २ ५ छत्तीसं छत्तीसं जोअणाई पणवीसं च एगसट्टिभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि आभा गमे मण्डले अबाहाए वुद्धिं अभिवद्धेमाणे २ सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चर । [प्र. ४] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वबाहिरे चंद- मण्डले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअण- सहस्साइं तिण्णि अ तीसे जोअण-सए अबाहाए सव्वबाहिरए 5 चंद - मण्डले पण्णत्ते । [प्र.५] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिराणन्तरे चंद- मण्डले पण्णत्ते ? 5 [उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअण- सहस्साइं दोण्णि अ तेणउए जोअण-सए पणतीसं च एगसट्टिभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता तिण्णि चुण्णिआभाए अबाहाए बाहिराणन्तरे 5 चंदमण्डले पण्णत्ते । 卐 [प्र. ६ ] जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमण्डले पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! पणयालीसं जोअण- सहस्साइं दोण्णि अ सत्तावण्णे जोअण-सए णव य एगसट्टिसाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिआभाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमण्डले 1 5 पण्णत्ते । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डलं संकममाणे २ छत्तीसं २ जोअणाई पणवीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिआभाए 5 er मण्डले अबाहा वुद्धिं णिव्बुद्धेमाणे २ सव्वब्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । १७९. [ प्र. १ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर चन्द्र - मण्डल कितनी दूरी पर स्थित है ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मण्डल ४४,८२० योजन की दूरी पर स्थित है। [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा आभ्यन्तर चन्द्र मण्डल ४४,८५६६ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ४ भाग योजनांश की दूरी पर है। [प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा आभ्यन्तर चन्द्र - मण्डल कितनी दूरी पर है ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा आभ्यन्तर चन्द्र - मण्डल ४४,८९२६१ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से १ भाग योजनांश की दूरी पर है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ एक - एक मण्डल पर ३६६ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के ७ भागों में से ४ भाग योजनांश की अभिवृद्धि करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है । Seventh Chapter सप्तम वक्षस्कार फ्र (503) फ्र 卐 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) 5555步步步555555555555555555555555555558 ॐ [प्र. ४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल ४५,३३० योजन की दूरी पर है। [प्र. ५ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर है? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल ४५,२९३३५ योजन तथा ६१ + भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ३ भाग योजनांश की दूरी पर है। [प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल ४५,२५७६० योजन तथा ६१ भागों में से विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ६ भाग योजनांश की दूरी पर है। एक क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ एक-एक मण्डल पर ३६१५ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ४ भाग योजनांश की वृद्धि में कमी करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। 179. (Q. 1] Reverend Sir ! In Jambu island, how far is the innermost lunar circle from Meru mountain ? ____IAns.] Gautam ! It is at a distance of 44,820 yojan from Meru mountain. __[Q. 2] Reverend Sir ! In Jambu island, how far is the second $ innermost lunar round from Meru mountain ? [Ans.) Gautam ! In Jambu island, the second innermost lunar round is at a distance of 44,856 a yojan plus 61x7 yojan from Meru mountain. [Q. 3] Reverend Sir ! In Jambu island, how far is third inner lunar 卐 circle from Meru mountain ? Ans.] Gautam ! It is at a distance of 44,892bl yojan plus site yojan from Meru mountain. In this order, the moon while completing one round and entering the immediately next round increases its distance from Meru mountain by 1 363 yojan plus si yojan in each round till it covers the outermost round. [Q. 4] Reverend Sir ! How far is the outermost lunar round from Meru mountain in Jambu island ? [Ans.) Gautam ! It is at a distance of 45,330 yojans. Q.5] Reverend Sir ! In Jambu island, how far is second outer lunar y circle from Meru mountain ? B5555)))))))))))))))))))))))))))))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (504) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555*********************************மித்தத*திதி 卐 卐 卐 卐 [Ans.] Gautam ! It is at a distance of 45,293 plus sixa yojan from mountain. Meru [Q. 6] Reverend Sir ! In Jambu island how far is the third outer lunar 5 circle from Meru ? [Ans.] Gautam ! In Jambu island the third outer lunar circle is at a distance of 45,257 plus six 7 yojan from Meru mountain. Moving in this manner from one round to the immediatily next round the distance is reduced by 3625 plus 17 yojan with each round of lunar movement from Meru mountain till the moon covers the innermost lunar round. विवेचन : चन्द्र का चार क्षेत्र (परिभ्रमण क्षेत्र) सूर्य के जितना अर्थात् ५१० योजन भाग प्रमाण ही है। किन्तु चन्द्र के एक मण्डल से दूसरे मण्डल की दूरी ३५ योजन - जितनी है । १५ मण्डलों के बीच के आंतरे १४ होते हैं। उनका कुल क्षेत्र लगभग ४९७ योजन का तथा चन्द्र मण्डल का विस्तार एक योजन भाग लगभग होने से १५ बार बीच का भाग स्पर्श होने पर १३ योजन कुछ अधिक आता है। इस प्रकार ४९७ + १३ = ५१० योजन चार क्षेत्र में १५ मण्डल आते हैं । सूर्य की गति से चन्द्र की गति बहुत मंद होने से इसके मण्डल कम होते हैं । चन्द्र- मण्डलों का विस्तार EXTENT OF LUNAR ROUNDS फ्र पण्णत्ते । फ्र 56 Elaboration-The area of movement of the moon is the same as that of the sun, nearly 510 yojan. But the distance of one lunar round from the 5 very preceding round is 353 yojan reduced by one-seventh yojan. There फ्र are 14 gaps in 15 rounds. So their total distance ( length of gaps ) works out to nearly 497 yojan. The width of one lunar round is 5 yojan approximately. As the inner part is touched fifteen times it works out to a bit more than 13 yojans. Thus 497 + 13 = 510 yojan is the region of movement of all the 15 lunar rounds. The movement of moon is very slow as compared to the sun. So the rounds of moon are less than those of the sun. १८०. [ प्र. १ ] सव्वब्भंतरे णं भंते ! चंदमंडले केवइअं आयामविक्खंभेणं, केवइअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? सप्तम वक्षस्कार (505) - बृहत्संग्रहणी, पृ. २५८ 5555555 - (Brihatsangrahani, p. 258) [उ. ] गोयमा ! णवणउई जोअणसहस्साइं छच्चचत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अफ्र जो अणसयसहस्साइं पण्णरस जोअणसहस्साइं अउणाणउतिं च जोअणाइं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं 2 45 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 6 7 8 9 9 99 555 5 5 5 5 5 5 55 55555 5 5 5 95 96 95 2 卐 Seventh Chapter 卐 फ्र Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B)) )))))) )))) )))))) )))) ))))) म [प्र. २ ] अन्भन्तराणंतरे सा चेव पुच्छा ? [उ. ] गोयमा ! णवणउई जोअणसहस्साई सत्त य बारसुत्तरे जोअणसए एगावणं च एगसट्ठिभागे 卐 जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुण्णिआभागं आयामविक्खंभेणं, तिणि अ जोअणसयसहस्साइं पन्नरसहस्साइं तिण्णि अ एगूणवीसे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं। [प्र. ३ ] अन्भन्तरतच्चे णं (चन्दमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइअं परिक्खेवणं) पण्णत्ते। [उ. ] गोयमा ! णवणउइं जोअणसहस्साई सत्त य पञ्चासीए जोअणसए इगतालीसं च एगसविभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता दोण्णि अ चुण्णिआभाए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साइं पंच य इगुणापण्णे जोअणसए किंचिविसेसाहिए, परिक्खेवेणंति। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे (तयाणन्तराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं) संकममाणे २ बावत्तरि २ जोअणाई एगावणं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुण्णिआभागं एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिवढेमाणे २ दो दो तीसाइं जोअणसयाई परिरयवुद्धिं अभिवढेमाणे २ सब्बबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ४ ] सव्वबाहिरए णं भंते ! चन्दमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं, केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते? [उ.] गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च सटे जोअणसए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अ जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस सहस्साइं तिण्णि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं। [प्र. ५ ] बाहिराणन्तरे णं पुच्छा ? [उ. ] गोयमा ! एग जोअणसयसहस्सं पञ्च सत्तासीए जोअणसए णव य एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिआभाए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अ जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस सहस्साई पंचासीइं च जोअणाइं परिक्खेवेणं। [प्र. ६] बाहिरतच्चे णं भंते ! चन्दमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं, केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं पंच य चउदसुत्तरे जोअणसए एगूणवीसं च एगसद्विभाए # जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णिाभाए आयामविक्खंभेणं, तिणि अ जोअणसयसहस्साई सत्तरस सहस्साई अट्ट य पणपण्णे जोअणसए परिक्खेवेणं। ___ एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चन्दे जाव संकममाणे २ बावत्तरि २ जोअणाई एगावण्णं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुण्णिआभागं एगमेगे मण्डले विक्खंभवुद्धिं ॐ णिबुद्धेमाणे २ दो दो तीसाइं जोअणसयाई परिरयवुद्धिं णिवुद्धेमाणे २ सबभंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता 卐 चारं चरइ। 555 55 555 55 5 5555 $ $$ $$ $$$$$$$$$听听听听听听听听听听听听听听听听听听 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (506) Jambudveep Prajnapti Sutra B)))))) )))))55555555555555558 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19595555555555555555555555558 牙牙牙牙牙牙牙牙55555555555555555555555555555555555555559 १८०. [प्र. १] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है? [उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९,६४० योजन तथा उसकी परिधि ___ कुछ अधिक ३,१५,०८९ योजन है। [प्र. २ ] भगवन् ! द्वितीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? । [उ.] गौतम ! द्वितीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९,७१२५१ योजन तथा ६१ ॐ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से १ भाग योजनांश तथा उसकी परिधि कुछ अधिक ३,१५,३१९ योजन है। [प्र. ३ ] भगवन् ! तृतीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी है? [उ. ] गौतम ! तृतीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९,७८५६० योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से २ भाग योजनांश एवं उसकी परिधि कुछ 卐 अधिक ३,१५,५४९ योजन है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र (एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता हुआ) के प्रत्येक मण्डल पर ७२५१ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से १ भाग योजनांश विस्तारवृद्धि करता हुआ तथा २३० योजन परिधिवृद्धि करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। ___ [प्र. ४ ] भगवन् ! सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ.] गौतम ! सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई १,००,६६० योजन तथा उसकी परिधि ३,१८,३१५ योजन है। [प्र. ५ ] भगवन् ! द्वितीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ. ] गौतम ! द्वितीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,५८७१, योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ६ भाग योजनांश तथा उसकी परािधे ३,१८,०८५ योजन है। [प्र. ६ ] भगवन् ! तृतीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ. ] गौतम ! तृतीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,५१४११ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से ५ भाग योजनांश तथा उसकी परिधि ३,१७,८५५ योजन बतलाई गई है। इस क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ प्रत्येक मण्डल पर ७२५१ योजन तथा ६१ भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के ७ भागों में से १ भाग योजनांश विस्तारवृद्धि कम करता हुआ तथा २३० योजन परिधिवृद्धि कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। 85955555555555555555555555))))))))))))))))58 | सप्तम वक्षस्कार (507) Seventh Chapter Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 55 55 55 55 41 41 41 41 41 $14641 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 444 445 446 454141414141414141414 245454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 455454545454545414 180. [Q. 1] Reverend Sir ! What is the length, width and the 4 55 circumference of the innermost lunar round? (Ans. ] Gautam ! The length and width of the innermost lunar round is 99,640 yojans and the circumference of that round is a little more than 3,15,089 yojans. i IQ. 2] Reverend Sir ! What is the length, width and perimeter of second inner lunar round? (Ans.] Gautam ! The length and width of the second inner lunar \i round is 99,712 plus sixt yojan each which its perimeter is a little more than 3,15,319 yojans. [Q. 3] Reverend Sir ! What is the length, width and perimeter of third 41 inner lunar round? [Ans. ] Gautam ! The length and width of the third inner lunar round 5 is 99,785 plus si yojan each while its perimeter is a little more than $ 3,15,549 yojans. Moving in this manner the moon (moving from one round to the very next round and so on), increases the width in each round by plus a yojan while the perimeter of the round increase by 230 yojan till 45it covers the outermost round of its movement. IQ. 4) Reverend Sir! What is the length, width and perimeter of the outermost lunar round? [Ans.] Gautam ! The length and width of outermost lunar round is 4 1,00,660 yojans and perimeter is 3,18,315 yojans. [Q. 5) Reverend Sir ! What is the length, width and perimeter of the second outermost lunar round? (Ans.] Gautam ! The length and width of second outermost lunar round is 1,00,587 plus . q yojan while the perimeter of the round is 318085 yojan. [Q. 6] Reverend Sir! What is the length, width and perimeter of the third outer round of the moon ? (Ans.] Gautam ! The length and width of the third lunar round is $ 1,00,514. plus siz yojan while the perimeter is 317855 yojans. Moving in this manner, the moon in its movement from one round to 5 the very next round reduces its width by 725 plus obz yojan with every i round while the perimeter is reduced by 230 yojans with each round. 555555555步步步步步步步步步步步步步步步5555555555555555555555555 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 508 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 24445454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ चन्द्रमुहूर्तगति MOVEMENT OF MOON IN AMUHURAT १८१. [प्र. १ ] जया णं भंते ! चन्दे सम्बन्भन्तरमण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं + मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? ॐ [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई तेवत्तरि च जोअणाई सत्तत्तरि च चोआले भागसए गच्छइ, म मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहिं सएहिं छेत्ता इति। तया णं इहगयस्स मणूसस्स ॐ सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहिं जोअणएहिं एगवीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स चन्दे चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। [प्र. २ ] जया णं भंते ! चन्दे अन्भन्तराणन्तरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ (तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं) केवइअं खेत्तं गच्छइ ? । [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साइं सत्तत्तरि च जोअणाई छत्तीसं च चोअत्तरे भागसए गच्छइ ॐ मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहिं (सत्तहि अ पणवीसेहिं सएहि) छेत्ता। [प्र. ३] जया णं भंते ! चन्दे अभंतरतच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं म मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? 5 [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई असीइं च जोअणाई तेरस य भागसहस्साई तिण्णि अ एगूणवीसे भागसए गच्छइ, मण्डलं तेरसहिं (सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहिं सएहिं) छेत्ता इति। ___एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चन्दे तयाणन्तराओ (मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डलं) संकममाणे २ तिण्णि २ जोअणाई छण्णउई च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुत्तगई अभिवढेमाणे २ # सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। [प्र. ४ ] जया णं भंते ! चन्दे सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साइं एगं च पणवीसं जोअणसयं अउणत्तरं च णउए भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहिं भागसहस्सेहिं सत्तहि अ (पणवीसेहिं सएहिं) छेत्ता इति। ____ तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोअणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एगत्तीसेहिं जोअणसएहिं चन्दे चक्खुप्फासं हव्यमागच्छइ। [प्र. ५ ] जया णं भंते ! बाहिराणन्तरं पुच्छा ? [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई एक्कं च एक्कवीसं जोअणसयं एक्कारस य सटे भागसहस्से गच्छइ मण्डलं तेरसहिं जाव छेत्ता। __[प्र. ६ ] जया णं भंते ! बाहिरतच्चं पुच्छा ? सप्तम वक्षस्कार (509) Seventh Chapter B959555555555)) ))))) ))55559B Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))) ) )) ))))) 05555555555555454545555555555555555545454555550 ॐ [उ.] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साइं एगं च अट्ठारसुत्तरं जोअणसयं चोद्दस य पंचत्तुरे भागसए म गच्छइ मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिं पणवीसेहिं सएहि छेत्ता। म एवं खलु एएणं उवाएणं (णिक्खममाणे चन्दे तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डलं) संकममाणे २ तिण्णि २ जोअणाई छण्णउतिं च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहत्तगई णिवुद्धमाणे २ सवभंतरं ॐ मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। १८१. [प्र. १ ] भगवन् ! जब चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब 卐 वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? [उ. ] गौतम ! वह प्रतिमुहूर्त्त ५,०७३७१७३८ योजन क्षेत्र पार करता है, तब वह (चन्द्र) यहाँ9 भरतार्थ क्षेत्र में स्थित मनुष्यों को ४७,२६३६६ योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। [प्र. २ ] भगवन् ! जब चन्द्र दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब 卐 (प्रतिमुहूर्त) कितना क्षेत्र पार करता है? ____ [उ. ] गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त्त ५,०७७,३६७६ योजन क्षेत्र पार करता है। म [प्र. ३ ] भगवन् ! जब चन्द्र तीसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है? [उ. ] गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त ५,०८०१३३१६ योजन क्षेत्र पार करता है। ॐ इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र (पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ) प्रत्येक मण्डल पर ३,९६५५६ मुहूर्त-गति बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। 卐 [प्र. ४ ] भगवन् ! जब चन्द्र सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है? + [उ. ] गौतम ! वह ५,१२५,६१९२० योजन क्षेत्र पार करता है, तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह (चन्द्र) ३१,८३१ योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। म [प्र. ५ ] भगवन् ! जब चन्द्र दूसरे बाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? 5 [उ. ] गौतम ! वह प्रतिमुहूर्त ५,१२१११६८ योजन क्षेत्र पार करता है। [प्र. ६ ] भगवन् ! जब चन्द्र तीसरे बाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब प्रतिमुहूर्त 卐 कितना क्षेत्र पार करता है? _ [उ. ] गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त ५,११८१३७२६ योजन क्षेत्र पार करता है। इस क्रम से (निष्क्रमण करता हुआ, पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर) संक्रमण करता हुआ चन्द्र एक-एक मण्डल पर ३७३५६ योजन मुहूर्त-गति कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण 卐 कर गति करता है। )))))) B9555555555555555555555555555555555555555555555558 )) )) ) B55555555)))))))))) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (510) Jambudveep Prajnapti Sutra 卧听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24545454545454 455 456 457 45454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 45 8 181. [Q. 1] Reverend Sir ! When the moon moves ahead after Fi completing the innermost circle of its orbit, how much distance does its fi travel in one muhurat ? (Ans.] Gautam ! It covers 5,073,7744 yojan in every muhurat. It is then visible to the human beings of half Bharat region from a distance of F 47,263 yojan. [Q. 2] Reverend Sir ! When the moon moves ahead after covering the second inner circle, how much distance does it travel in one muhurat? Fi (Ans.] Gautam ! It travels 5,077367, yojan in a muhurat. (Q. 3] Reverend Sir ! When the moon moves ahead after covering Fi third inner circle, how much does it travel in each muhurat ? [Ans.] Gautam ! It travels 5,08013319 yojan in each muhurat. Moving in this order, the moon (moving from one circle to the very fi next circle increases its covered distance by 39655 yojan a muhurat till its covers the outermost round of its total orbit. (Q. 4] Reverend Sir ! When the moon moves after completing f outermost circle, has much distance does it travel in a muhurat? (Ans.] Gautam ! It travels 5,125.6990yojan. It is then visible to the f people here from a distance of 31,831 yojan. (Q.5) Reverend Sir! When the moon moves ahead after covering th second outer circle, how much does it travel in a muhurat? [Ans.] Gautam ! It travels 5,121,1960 yojan in each muhurat. (Q. 6] Reverend Sir! When the moon moves ahead after covering the third outer circle, how much does it travel in every muhurat ? [Ans.] Gautam ! It travels 5,118 1505 yojan in a muhurat. Moving in this order, the moon (moving from immediately proceding round to the present round) moving ahead decreases its speed by 3959yojan per muhurat till it covers the innermost circle. विवेचन : चन्द्र विमान की मंद गति होने के कारण एक चन्द्रमा एक अहोरात्र १ मुहूर्त अधिक समय में अर्थात् ३१ मुहूर्त में एक अर्द्ध-मण्डल को पार करता है। एक मण्डल को पार करने में साधिक २ अहोरात्र अर्थात् ६२ मुहूत्ते से कुछ अधिक समय लगता है। Elaboration-As the speed of moon is slow, one moon covers half the circle in one muhurat more than 24 hours-in other word in 31 muhurats. In other words it covers full circle in 62 muhurats. 1 1 1 1 1 1 1 1 1 I II IPII सप्तम वक्षस्कार ( 511 ) Seventh Chapter 14 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 45454545455 456 457 455 456 457 454 455 456 454545454545454548 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ தமிமிமிதத*********************தமி*த*தமிதி नक्षत्र - मण्डलादि CONSTELLATIONS-THEIR MOVEMENT १८२. [ प्र. १ ] कइ णं भंते ! णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! अटु णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता । [प्र. २] जम्बुद्दीवे दीवे केवइअं ओगाहित्ता केवइआ णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे असीअं जोअणसयं ओगाहेत्ता एत्थ णं दो णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता । [प्र. ३ ] लवणे णं समुद्दे केवइअं ओगाहेत्ता केवइआ णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिण्णि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं छ णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता । एवमेव सपुव्यावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे अट्ठ णक्खत्तमण्डला भवंतीतिमक्खायमिति । [प्र. ४] सव्वब्भंतराओ णं भंते ! णक्खत्तमण्डलाओ केतइआए अबाहाए सव्वबाहिरए क्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते इति । [प्र.५] णक्खत्तमण्डलस्स णं भंते ! णक्खत्तमण्डलस्स य एस केवइआए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! दो जोअणाई णक्खत्तमण्डलस्स य णक्खत्तमण्डलस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । प्र. ६ ] णक्खत्तमण्डले णं भंते ! केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइअं परिक्खेवेणं केवइअं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! गाउअं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, अद्धगाउअं बाहल्लेणं पण्णत्ते । [प्र. ७ ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वब्भंतरे णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? [उ.] गोयमा ! चोयालीसं जोअणसहस्साइं अट्ठ य वीसे जोअणसए अबाहाए सव्वब्भंतरे क्खत्तमण्डले पण्णत्ते इति । [प्र. ८ ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे मन्दरस्त पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पणयालीसं जोअणसहस्साइं तिण्णि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए क्खत्तमण्डले पण्णत्ते इति । [प्र. ९ ] सव्वब्भंतरे णक्खत्तमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं, केवइअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! णवणउतिं जोअणसहस्साइं छच्चचत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अ जो अणसयसहस्साई पण्णरस सहस्साइं एगूणणवतिं च जोअणाई किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (512) தமிமிமிதத****************************ழிY Jambudveep Prajnapti Sutra Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))5555555555555555555555))))) 5 5 5555555) ))))) )))))) ) )) 4 [प्र. १० ] सव्वबाहिरए णं भंते ! णक्खत्तमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं ॐ पण्णत्ते ? म [उ. ] गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च सटे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस य सहस्साई तिण्णि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं। ॐ [प्र. ११] जया णं भंते ! णक्खत्ते सव्वन्भंतरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साइं दोण्णि य पण्णटे जोअणसए अट्ठारस य भागसहस्से दोण्णि अ ॐ तेवढे भागसए गच्छइ मण्डलं एक्कवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सटेहिं सएहिं छेत्ता। [प्र. १२ ] जया णं भंते ! णक्खत्ते सब्बबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं + मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? ___ [उ. ] गोयमा ! पंच जोअणसहस्साइं तिण्णि अ एगूणवीसे जोअणसए सोलस य भागसहस्सेहि तिण्णि अपण्णद्वे भागसए गच्छइ, मण्डलं एगवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सट्टेहिं सएहिं छेत्ता। ॐ [प्र. १३ ] एते णं भंते ! अट्ठ णक्खत्तमण्डला कतिहिं चंदमण्डलेहिं समोअरंति ? _ [उ. ] गोयमा ! अहिं चंदमण्डलेहिं समोअरंति, तं जहा-पढमे चंदमण्डले, ततिए, छटे, सत्तमे, अट्ठमे, दसमे, इक्कारसमे, पण्णरसमे चंदमण्डले। म [प्र. १४ ] एगमेगेणं भंते ! मुहुत्तेणं केवइआइं भागसयाइं गच्छइ ? [उ.] गोयमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मण्डलपरिक्खेवस्स सत्तरस अट्ठसटे भागसए गच्छइ, मण्डलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउइए अ सएहि छेत्ता इति। [प्र. १५ ] एगमेगेणं भंते ! मुहुत्तेणं सूरिए केवइआई भागसयाइं गच्छइ ? [उ.] गोयमा ! जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मण्डलपरिक्खेवस्स अट्ठारसतीसे म भागसए गच्छइ, मण्डलं सयसहस्सेहिं अट्ठाणउतीए अ सएहिं छेत्ता। [प्र. १६. ] एगमेगेणं भंते ! मुहुत्तेणं णक्खत्ते केवइआई भागसयाइं गच्छइ ? [उ.] गोयमा ! जं जं मण्डलं उवमंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मण्डलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ मण्डलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए अ सएहिं छेत्ता। १८२. [प्र. १ ] भगवन् ! नक्षत्रमण्डल कितने हैं ? [उ.] गौतम ! नक्षत्रमण्डल आठ हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने नक्षत्रमण्डल हैं ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में १८० योजन क्षेत्र का अवगाहन कर दो नक्षत्रमण्डल हैं। 35555555555555555555555555555555555555555555555558 भक))))) सप्तम वक्षस्कार (513) Seventh Chapter 卐)))))))))555555)))))))))55555558 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फफफफ 5 [ उ. ] गौतम ! लवणसमुद्र में ३३० योजन क्षेत्र का अवगाहन कर छह नक्षत्रमण्डल हैं। यों 15 जम्बूद्वीप तथा लवणसमुद्र के नक्षत्रमण्डलों को मिलाने से आठ नक्षत्रमण्डल होते हैं। फ्र [प्र. ४] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल कितनी अव्यवहित दूरी 5 पर है ? फ्र [प्र. ३ ] भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने नक्षत्रमण्डल हैं ? पर 卐 [ उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल ५१० योजन की अव्यवहित दूरी है। [प्र. ५ ] भगवन् ! एक नक्षत्रमण्डल से दूसरे नक्षत्रमण्डल का अन्तर - दूरी में कितना है ? [ उ. ] गौतम ! एक नक्षत्रमण्डल से दूसरे नक्षत्रमण्डल की दूरी दो योजन है । [प्र. ६ ] भगवन् ! नक्षत्रमण्डल की लम्बाई, चौड़ाई, परिधि तथा ऊँचाई कितनी है ? [ उ. ] गौतम ! नक्षत्रमण्डल की लम्बाई-चौड़ाई दो कोस, उसकी परिधि लम्बाई-चौड़ाई से कुछ अधिक तीन गुनी तथा ऊँचाई एक कोस है। [प्र. ७ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल कितनी दूरी पर है ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल ४४, ८२० योजन की दूरी पर है। [प्र. ८ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल अव्यवहित रूप में कितनी दूरी पर है ? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल ४५, ३३० योजन की दूरी पर है। [प्र. ९ ] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ. ] गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल की लम्बाई-चौड़ाई ९९,६४० योजन तथा परिधि कुछ अधिक ३,१५,०८९ योजन है। [प्र. १० ] भगवन् ! सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल की लम्बाई, चौड़ाई तथा परिधि कितनी है ? [उ. ] गौतम ! सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल की लम्बाई-चौड़ाई १,००,६६० योजन तथा परिधि कुछ अधिक ३,१८,३१५ योजन है। [प्र. ११ ] भगवन् ! जब नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं तो एक मुहूर्त्त 5 में कितना क्षेत्र पार करते हैं ? 卐 [उ. ] गौतम ! वे ५, २६५११२६ योजन क्षेत्र पार करते हैं। [प्र. १२ ] भगवन् ! जब नक्षत्र सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं तो वे प्रतिमुहूर्त्त कितना क्षेत्र पार करते हैं ? फ़ [उ.] गौतम ! वे प्रतिमुहूर्त्त ५,३१९३ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ९१६३६५ योजन क्षेत्र पार करते हैं। २१९६० (514) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 फ्र 卐 卐 फ्र Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2559555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 ନ 5 95 5 5 55 5959595955 55 5 5 O 卐 ****தமிததமிகமி****************த*****மிதிதி [प्र. १३. ] भगवन् ! वे आठ नक्षत्रमण्डल कितने चन्द्र- मण्डलों के अन्तर्भूत होते हैं ? [उ. ] गौतम ! वे पहले तीसरे, छठे, सातवें, आठवें, दसवें, ग्यारहवें तथा पन्द्रहवें चन्द्र - मण्डल में-यों आठ चन्द्र-मण्डलों में समवसृत होते हैं। [प्र. १४ ] भगवन् ! चन्द्रमा एक मुहूर्त्त में मण्डल - परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करता है ? 卐 卐 卐 [उ. ] गौतम ! चन्द्रमा जिस-जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, उस उस मण्डल की 5 भाग अतिक्रान्त करता है। 卐 १७६८ १०९८०० [प्र.१५ ] भगवन् ! सूर्य प्रतिमुहूर्त्त मण्डल - परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करता है ? [उ.] गौतम ! सूर्य जिस-जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, उस उस मण्डल की भाग अतिक्रान्त करता है। परिधि के १८३० १०९८०० [प्र. १६ ] भगवन् ! नक्षत्र प्रतिमुहूर्त्त मण्डल - परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करते हैं ? [उ.] गौतम ! नक्षत्र जिस-जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं, उस-उस मण्डल की 5 भाग अतिक्रान्त करते हैं। परिधि का 卐 १८३५ १०९८०० परिधि का [Ans.] Gautam ! The constellation rounds are eight. [Q. 2] Reverend Sir ! How much area of Jambu island do the constellations cover and how many of them cover it? 卐 182.[Q.1] Reverend Sir ! How many are the orbits of constellations in फ Jambu island ? फ 卐 卐 [Ans.] Gautam ! In Lavan Ocean 330 yojans are covered by six constellations. Thus the total number of constellations of Jambu island and Lavan Ocean are eight. [Q 4] Reverend Sir ! How far is the outermost round of constellation from the innermost round? [Ans.] Gautam ! Two constellations in then rounds cover Jambu island and the distance covered in it is 180 yojans. 卐 卐 [Q. 3] Reverend Sir ! How much of Lavan Ocean is covered by the 卐 constellations and by how many? 卐 卐 [Ans.] Gautam ! From the innermost round, the outermost round of constellations is at a distance of 510 yojans. [Q. 5] Reverend Sir ! What is the distance between a constellation round and the very next round? [Ans.] Gautam ! It is two yojans. [Q. 6] Reverend Sir ! What is the length, breadth, perimeter and height of a constellation round? सप्तम वक्षस्कार फ्र 卐 (515) 255595555559555595555555559555555555555959595955! Seventh Chapter 卐 卐 फ्र फ्र 卐 卐 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2444 4454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 $ $$ $$$ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $ $1 41 41 41 41 41 $ $ $ fi (Ans.] Gautam ! The length and breadth of a constellation round is $1 half a yojan (two kos) each. The perimeter is little more than three time fi the length or breadth, the height is quarter of a yojan (1 kos) (Q. 7] Reverend Sir ! How far is the innermost constellation cir from Meru mountain ? [Ans.) Gautam ! The innermost constellation circle is 44,820 yojan from Meru mountain. [Q. 8) Reverend Sir ! How far is the outermost constellation circle 5 from Meru mountain ? [Ans.] Gautam ! The outermost constellation circle is 45,330 yojan from Meru mountain ? [Q. 9] Reverend Sir! What is the length, breadth and perimeter of the innermost constellation from Meru mountain. [Ans.] Gautam ! The innermost constellation round is 99,640 yojan in fi length and breadth. Its circumference is a little more than 3,15,089 fi yojan. [Q. 10] Reverend Sir! What is the length, breadth and the perimeter 15 of the outermost constellation round? (Ans.] Gautam ! The length and breadth of constellation round is 1,00,660 yojan each and its perimeter is a little more than 3,18,315 f yojan. [Q. 11] Reverend Sir ! When the constellation moves after covering the innermost round, what is its speed per muhurat ? [Ans.] Gautam ! It is 5,26579263 yojan. [Q. 12] Reverend Sir ! When the constellation moves ahead after covering the outermost round, what is its speed per muhurat? fi (Ans.] Gautam ! It is 5,319,6365 yojan per muhurat. $ (Q. 13] Reverend Sir ! Within how many lunar rounds are the eight constellation orbits ? (Ans.] Gautam ! They are within eigth lunar rounds, namely the first, third, sixth, seventh, eighth, tenth, eleventh and fifteenth lunar round. [Q. 14) Reverend Sir ! How much portion of the perimeter of a round f does the moon cover in one muhurat ? fi [Ans.] Gautam ! It covers 1968. th part of the perimeter of the round in which it travels. ! जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (516) Jambudveep Prajnapti Sutra 3%步步步步步步步$$$$ $$$$$步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙 n Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))))))))))))55555555555555555555555555 [Q. 15] Reverend Sir ! How much part of the perimeter of a solar 4 round does the sun cover in one muhurat ? [Ans.] Gautam ! It covers 1830, th part of the perimeter of the round in which it travels. [Q. 16] Reverend Sir ! How much part of their rounds do the constellations cover in one muhurat in their movement ? [Ans.] They cover 1835. th part of the constellation round in which the respective constellation is moving. विवेचन : नक्षत्र २८ हैं। प्रत्येक का एक-एक मण्डल होने से नक्षत्रमण्डल भी २८ कहे जाने चाहिए, किन्तु यहाँ आठ नक्षत्रमण्डल के रूप में कथन उनके संचरण के आधार पर हैं। १, ३, ६, ७, ८, १०, ११, १५-इन आठ मण्डलों में चन्द्रमा को कभी भी नक्षत्र का विरह नहीं होता। क्योंकि वहाँ नक्षत्रों का भ्रमण हर समय रहता है। २, ४, ५, ९, १२, १३, १४-इन सात मण्डलों में सदा नक्षत्र का विरह रहता है। १, ३, ११, १७-ये चार मण्डल राजमार्ग की तरह सामान्य हैं। इनमें चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्र सभी का गमन होता है। -बृहत्संग्रहणी, पृ. २६६ Elaboration-Constellations are 28. Each constellation moves only in one round. So the total number of constellation rounds should be 28. 4 Here eight constellation rounds have been mentioned on the basis of 4 their movement. The moon is never devoid of constellation in the eight rounds namely round number 1, 3, 6, 7, 8, 10, 11 and 15 because the ___constellations are always moving here. In seven rounds namely 2, 4, 5, 9, 卐 12, 13 and 14 there is always absence of constellation four rounds namely 1, 3, 11 and 17 are common like a highway. The moon, the sun and the constellation move in this area. -Brihat Sangrahani, P. 2 सूर्य-चन्द्र उद्गम RISING OF SUN-MOON १८३. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति १, पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीणमागच्छंति २, दाहिणपडीणमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छंति ३, पडीणउदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छंति ४ ? - [उ. ] हंता गोयमा ! जहा पंचमसए पढमे उद्देसे णेवऽत्थि ओसप्पिणी अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो! ___इच्चेसा जम्बुदीवपण्णत्ती सूरपण्णत्ती वत्थुसमासेणं सम्मत्ता भवई। [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे चंदिमा उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति जहा + सूरवत्तव्बया जहा पंचमसयस्स दसमे उद्देसे जाव 'अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो !' 5555555555555555555555555555555555555555555555558 | सप्तम बक्षरकार (517) Seventh Chapter 卐 955555555555555555555555555555步步步步步步步日 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2595959555555559595959 55 59595955559595959595959595959595952 மிதததமிமிமிமிமிமிமிதத*தமிழதமிமிததமி*********** 卐 卐 [उ. ] इच्चेसा जम्बुद्दीवपण्णत्ती वत्थुसमासेण समत्ता भवइ । 卐 卐 १८३. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य उदीचीन- प्राचीन उत्तर-पूर्व- ईशान कोण में उदित होकर क्या प्राचीन - दक्षिण-पूर्व-दक्षिण-आग्नेय कोण में आते हैं, अस्त होते हैं ? क्या 卐 卐 फ्र 5 उदित होकर पश्चिमोत्तर वायव्य कोण में अस्त होते हैं, क्या वायव्य कोण में उदित होकर उत्तर- फ्र पूर्व- ईशान कोण में अस्त होते हैं ? [ उ. ] हाँ, गौतम ! ऐसा ही होता है। भगवतीसूत्र के 'णेव अत्थि ओसप्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते' पर्यन्त जो समझ लेना चाहिए। आग्नेय कोण में उदित होकर दक्षिण-पश्चिम- नैऋत्य कोण में अस्त होते हैं, क्या नैऋत्य कोण में 5 आयुष्मन् श्रमण गौतम ! जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग के अन्तर्गत प्रस्तुत सूर्य सम्बन्धी वर्णन यहाँ संक्षेप में समाप्त होता है । पंचम शतक के प्रथम उद्देशक में [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा उत्तर-पूर्व- ईशान कोण में उदित होकर पूर्वदक्षिण - आग्नेय कोण में अस्त होते हैं- इत्यादि वर्णन भगवतीसूत्र के पंचम शतक के दशम उद्देशक से जान लेना चाहिए । वर्णन आया है, उसे इस सन्दर्भ में [उ. ] आयुष्मन् गौतम ! जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग के अन्तर्गत प्रस्तुत चन्द्र सम्बन्धी वर्णन यहाँ संक्षेप में समाप्त होता है। [Ans.] Yes, Gautam ! It is correct. The description as mentoned upto 'Nev atthi osappini avatthiye num tatth kaley pannattey' in the first Uddeshak of Fifth Shatak of Bhagavati Sutra should be understood in this context. Here the description relating to the sun as mentioned in Jambudveep Prajnapti is concluded in brief. ************************************************** (518) फ्र 183. [Q.] Reverend Sir ! Do the two suns in Jambu island rise in the 5 north-east travel to the south and set in south-east? Do they rise in south-east and then move to the west and set in south-west? Do they rise in south-west and then set in north-west ? Do they rise in north- 5 west and set in north-east ? 卐 [Ans.] Long lived Gautam ! This concludes the brief description of moon in Jambudveep Prajnapti. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 5 [Q.] Reverend Sir ! In Jambudveep two moons rise from north-east 5 and set in south-east all these details should be read from the tenth Uddeshak of the fifth Shatak of Bhagavati Sutra. 卐 卐 卐 5 5 5 卐 5 5 ब Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐))))))55555555555555555555555;)))))))))))))) संवत्सर-भेद YEAR-THEIR TYPES १८४. [प्र. १ ] कति णं भन्ते ! संवच्छरा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा-णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिच्छरसंवच्छरे। [प्र. २ ] णक्खत्तसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा-सावणे, भद्दवए, आसोए (कत्तिए, मियसिरे, पोसे, माहे, फग्गुणे, चइत्ते, वेसाहे, जेट्टे) आसाढे। जं वा विहप्फई महग्गहे दुवालसेहिं संवच्छरेहिं सव्वणक्खत्तमंडलं समाणेइ, सेत्तं णक्खत्तसंवच्छरे। [प्र. ३ ] जुगसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे, चंदे, अभिवद्धिए, चंदे, अभिवद्धिए चेवेति। [प्र. ४ ] पढमस्स णं भन्ते चन्द-संवच्छरस्स कइ पब्बा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चोव्वीसं पव्वा पण्णत्ता। [प्र. ५ ] बितिअस्स णं भन्ते ! चंद-संवच्छरस्स कइ पव्वा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! चउव्वीसं पव्वा पण्णत्ता। एवं पुच्छा ततिअस्स ? गोयमा ! छब्बीसं पव्वा पण्णत्ता। चउत्थस्स चन्द-संवच्छरस्स चोव्वीसं पव्वा, पंचमस्स णं अहिवद्धिअस्स छब्बीसं पव्वा य पण्णत्ता। एवामेव सपुवावरेणं पंचम-संवच्छरिए जुए एगे चउव्वीसे पव्वसए पण्णत्ते। सेत्तं जुगसंवच्छरे। [प्र. ६ ] पमाणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-णक्खत्ते, चन्दे, उऊ, आइच्चे, अभिवद्धिए, सेत्तं पमाणसंवच्छरे इति। [प्र. ७ ] लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा समयं नक्खत्ता जोगं, जोअंति १ समयं उउं परिणामंति। णच्चुण्ह णाइसीओ, बहूदओ होइ णक्खत्ते॥१॥ ससि समग-पुण्णमासिं, जोएंति विसमचारि-णक्खत्ता। कडुओ बहूदओ आ, तमाहु संवच्छरं २ चन्दं ॥२॥ 84555555555555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (519) Seventh Chapter Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555555555555555555553 555 विसमं पवालिणो, परिणमन्ति अणुऊसु दिंति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं ३ कम्मं ॥ ३ ॥ पुढवि - दगाणं च रसं, पुष्फ-फलाणं च देइ ४ आइच्चो । अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निष्फज्जए सस्सं ॥४॥ आइच - तेअ-तविआ, खणलवदिवसा उऊ परिणमन्ति । पूरेइ अ णिण्णथले, तमाहु ५ अभिवद्धिअं जाण ॥५ ॥ [प्र. ८ ] सणिच्छर-संवच्छरे णं भन्ते कतिविहे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! अट्ठाविसइविहे पण्णत्ते, तं जहा अभिई सवणे घणिट्ठा, सयभिसया दो अ होंति भद्दवया । रेवइ अस्सिणि भरणी, कत्तिअ तह रोहिणी चेव ॥ १ ॥ (मिगसिरं, अद्दा, पुण्णवसू, पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वाआसाढा) उत्तराओ आसाढाओ। जं वा सणिच्चरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाणेइ सेत्तं सणिच्छर संवच्छरे ॥ १८४. [ प्र. १ ] भगवन् ! संवत्सर कितने होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! संवत्सर पाँच बतलाये हैं, जैसे- ( 9 ) नक्षत्र - संवत्सर, (२) युग - संवत्सर, (३) प्रमाण - संवत्सर, (४) लक्षण - संवत्सर, तथा ( ५ ) शनैश्चर - संवत्सर । [प्र. २ ] भगवन् ! नक्षत्र - संवत्सर कितने प्रकार का होता है ? [.] गौतम ! नक्षत्र - संवत्सर बारह प्रकार का है, जैसे- (१) श्रावण, (२) भाद्रपद, (३) आसोज, (४) कार्तिक, (५) मिगसर, (६) पौष, (७) माघ, (८) फाल्गुन, (९) चैत्र, (१०) वैशाख, (११) ज्येष्ठ, तथा (१२) आषाढ़ । अथवा बृहस्पति महाग्रह बारह वर्षों की अवधि में जो ५ सर्व-डल का परिसमापन करता है उन्हें पार कर जाता है, वह कालविशेष भी नक्षत्रसंवत्सर कहा जाता है। [प्र. ३ ] भगवन् ! युग-संवत्सर कितने प्रकार का होता है ? [ उ. ] गौतम ! युग-संवत्सर पाँच प्रकार का होता है जैसे - (१) चन्द्र-संवत्सर, (२) चन्द्रसंवत्सर, (३) अभिवर्द्धित - संवत्सर, (४) चन्द्र - संवत्सर, तथा (५) अभिवर्द्धित-संवत्सर । [प्र. ४ ] भगवन् ! प्रथम चन्द्र-संवत्सर के कितने पर्व-पक्ष होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! प्रथम चन्द्र-संवत्सर के चौबीस पर्व होते हैं । [प्र.५] भगवन् ! द्वितीय चन्द्र-संवत्सर के कितने पर्व होते हैं ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (520) ahhhhhhhhhhhhhhhhhhh Jambudveep Prajnapti Sutra *********************************E 4 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) )) 卐555555555555555555555555555;))))))))) B5555555555555555555 ) [उ. ] गौतम ! द्वितीय चन्द्र-संवत्सर के चौबीस पर्व होते हैं। भगवन् ! तृतीय अभिवर्द्धितसंवत्सर के कितने पर्व होते हैं ? गौतम ! तृतीय अभिवर्द्धित-संवत्सर के छब्बीस पर्व होते हैं। चौथे चन्द्र-संवत्सर के चौबीस तथा पाँचवें अभिवर्द्धित-संवत्सर के छब्बीस पर्व होते हैं। पाँच भेदों में विभक्त युग-संवत्सर के, सारे पर्व जोड़ने पर १२४ होते हैं। [प्र. ६ ] भगवन् ! प्रमाण-संवत्सर कितने प्रकार का होता है ? [उ. ] गौतम ! प्रमाण-संवत्सर पाँच प्रकार का बतलाया गया है, जैसे-(१) नक्षत्र-सवंत्सर, ६ (२) चन्द्र-संवत्सर, (३) ऋतु-संवत्सर, (४) आदित्य-संवत्सर, तथा (५) अभिवर्द्धित-संवत्सर। [प्र. ७ ] भगवन् ! लक्षण-संवत्सर कितने प्रकार का होता है ? [उ. ] गौतम ! लक्षण-संवत्सर पाँच प्रकार का है, जैसे १. समक-संवत्सर-जिसमें कृत्तिका आदि नक्षत्र समरूप में-जो नक्षत्र जिन तिथियों में ॐ स्वभावतः होते हैं, तदनुरूप कार्तिकी पूर्णिमा आदि तिथियों से-मासान्तिक तिथियों से योग-सम्बन्ध करते हैं, जिसमें ऋतुएँ समरूप में न अधिक उष्ण, न अधिक शीतल रूप में परिणत होती हैं, जो के प्रचुर वर्षायुक्त होता है, वह समक-संवत्सर कहा जाता है। २. चन्द्र-संवत्सर-जब चन्द्र के साथ पूर्णमासी में विषम-विसदृश-मासविसदृशनामोपेत नक्षत्र ॐ का योग होता है, गर्मी, सर्दी, बीमारी आदि की बहुलता के कारण कटुक-कष्टकर होता है, विपुल वर्षायुक्त होता है, वह चन्द्र-संवत्सर कहा जाता है। ३. कर्म-संवत्सर-जिसमें विषम काल में-जो वनस्पति अंकुरण का समय नहीं है, वैसे काल में वनस्पति अंकुरित होती है, अन्-ऋतु में-जिस ऋतु में पुष्प एवं फल नहीं फूलते, नहीं फलते, उसमें पुष्प एवं फल आते हैं, जिसमें यथोचित, वर्षा नहीं होती, उसे कर्म-संवत्सर कहा जाता है। ४. आदित्य-संवत्सर-जिसमें सूर्य, पृथ्वी, जल, पुष्प एवं फल-इन सबको रस प्रदान करता है, जिसमें थोड़ी वर्षा से ही धान्य पर्याप्त मात्रा में निपजता है-अच्छी फसल होती है, वह आदित्यसंवत्सर कहा जाता है। ५. अभिवर्द्धित-संवत्सर-जिसमें क्षण, लव, दिन, ऋतु, सूर्य के तेज से तपे रहते हैं, जिसमें नीचे के स्थान जल-पूरित रहते हैं, उसे अभिवर्द्धित-संवत्सर समझें। __[प्र. ८] भगवन् ! शनैश्चर-संवत्सर कितने प्रकार का कहा जाता है? [उ. ] गौतम ! शनैश्चर-संवत्सर अट्ठाईस प्रकार का कहा जाता है, जैसे (१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक्, (५) पूर्वा भाद्रपद, (६) उत्तर भाद्रपद, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी, (१०) कृत्तिका, (११) रोहिणी। 454555555555555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (521) Seventh Chapter 555555555555555553 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 454 455 456 4 45 46 45 44 $ 555 456 457 457 451 41 41 41 41 41 $ $ 9555555555555555555555555555555555555 (98) fr<, (93) 3f, (98) gadg, (94) gou, (9€) 379an, (99) HET, (9C) $ gaf hingeft, (98) 3TNT ngah, (20) FT, (39) farli, (??) Faifa, (73) fagna, (28) 319TENT, (24) w8T, (?) TM, (20) gafaict, atent (PC) UTX<1916TI ___ अथवा शनैश्चर महाग्रह तीस संवत्सरों में समस्त नक्षत्र-मण्डल को पार कर जाता है, वह काल शनैश्चर-संवत्सर कहा जाता है। 184. (Q. 1) Reverend Sir ! Of how many differents types are the years (Samvatsar)? (Ans.) Gautam ! The years are of five types namely-(1) constellation year, (2) Yug year, (3) Praman year, (4) Lakshan year, and (5) Saturn (Shanaishchar) year. [Q. 2] Reverend Sir ! Of how many kinds is the constellation year? [Ans.] Gautam ! The constellation year is of twelve types namely(1) Shravan, (2) Bhadrapad, (3) Asoj, (4) Kartik, (5) Migasar, (6) Paush, (7) Maagh, (8) Phalgun. (9) Chaitra, (10) Vaishakh, (11) Jy (12) Asadh. It is also interpreted in another way. The great planet 41 Brihaspati travels around the entire constellation circles in a period of twelve years. This time-period is also called constellation year. (Q.3] Reverend Sir! Of how many kinds in Yug year ? (Ans.] Gautam ! Yug year is of five kinds—(1) Chandra year, (2) Chandra year, (3) Abhivarddhit year, (4) Chandra year, (5) Abhivarddhit year. Q. 4) Reverend Sir ! How many are fortnights (paksh) in the first lunar (Chandra) year? (Ans.] Gautam ! There are 24 fortnights in the first lunar year. 4 IQ. 5] Reverend Sir ! How many are the fortnights in the second lunar year. [Ans.] Gautam ! There are 24 fortnights in the second lunar year? Reverend Sir! How many are the fortnights in the third abhivarddhit year? Gautam ! There are 26 fortnights in the third abhivarddhit (longer) year. The fourth lunar year has 24 fortnights and fifth abhivarddhit year has 26 fortnights. Thus a yug which is divided in five parts has in all 124 fortnights. 454 455 456 457 458 454 455 454 455 456 45 4 456 455 454 455 456 457 454 455 456 457 1545 451 451 454 455 456 454 455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 457 454 455 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 522 ) Jambudveep Prajnapti Sutra $$$ 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 454 455 456 457 455 456 457 458 454 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 5 5 5 555 5555$2 555555555555555555555 卐 卐 卐 45 [Q. 6] Reverend Sir! How many are the kinds of Pramaan year? [Ans.] Gautam ! Pramaan year is of five kinds-(1) Constellation year, (2) Lunar year, (3) Season year, (4) Sun year, (5) Longer (Abhivarddhit) year. [Q. 7] Reverend Sir ! How many are the kinds of Lakshan (Symbolic) year? [Ans.] Lakshan year is of five kinds namely (1) Samak Year-It is that year in which the dates in which normally the constellations such as Kritika and the like appear, do occur accordingly upto the end of the respective month of same name namely bright fortnight of kartik. So the seasons are normal. They are neither very hot nor very cold. The rain fall is in good quantity. Such year is called Samak year. (2) Lunar Year-It is that year in which the constellation of different name occurs in the bright fortnight with the moon. Such a year is very troublesome due to excessive heat, cold, diseases and the like. The rainfall is also excessive such as year is called Lunar year. (4) Solar (Aditya) Year-It is that year in which the sun provides required productive power to the earth, water, flowers and fruit. Even scanty rainfall provides a good crop such a year is called Aditya year. (5) Abhivarddhit Year-It is that year in which the lunar regions remain full of water and with the heat of the sun the units of time like moments, love, day and season remain warm. (3) Karm Year-It is that year in which the vegetation occurs when it is not the normal period of vegetation. The flower and fruit go when it is not their season. The rainfall is also not at proper time and as required. 卐 Such a year is called Karm year. 45 [Q. 8] Reverend Sir ! Of how many kinds is the Saturn (Shanaishchar) year? [Ans.] Gautam ! Saturn year is of 28 kinds namely-(1) Abhijit, (2) Shravan, (3) Dhanishtha, (4) Shatabhishak, (5) First (Poorva) Bhadrapad, (6) Second (Uttar) Bhadrapad, (7) Rewati, (8) Ashvani, (9) Bharini, (10) Kritika, (11) Rohini, [(12) Mrigashir, (13) Ardra, (14) Punarvasu, (15) Pushya, (16) Ashlesha, (17) Magha, (18) First (Poorva) Phalguni, (19) Second (Uttar Phalguni), (20) Hast, (21) Chitra, Seventh Chapter सप्तम वक्षस्कार (523) 855555555555555555555555 45 卐 555555555555555555! 卐 卐 卐 சு சு 57 457 45 5575 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555550 ॐ (22) Svati, (23) Vishakha, (24) Anuradha, (25) Jyeshtha, (26) Mool, (27) First (Poorva) Ashadha, and (28) Uttar (Second) Ashadha. It is also interpreted in another manner. The great planet Saturn covers the entire constellations rounds in a period of thirty years. This period is called Saturn year. ॐ मास, पक्ष आदि MONTH, PAKSH ETC. १८५. [प्र. १ ] एगमेगस्स णं भन्ते संवच्छरस्स कइ मासा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! दुवालस मासा पण्णत्ता। तेसिं णं दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-लोइआ लोउत्तरिआ या तत्थ लोइआ णामा इमे, तं जहा-सावणे, भद्दवए जाव आसाढे। लोउत्तरिआ णामा इमे, तं जहा अभिणंदिए पइडे अ, विजए पीइवद्धणे। सेअंसे य सिवे चेव, सिसिरे असहेमवं॥१॥ णवमे वसंतमासे, दससे कुसुमसंभवे। एक्कारसे निदाहे अ, वणविरोहे अ बारसमे॥२॥ [प्र. २ ] एगमेगस्स णं भन्ते ! मासस्स कति पक्खा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता, तं जहा-बहुलपक्खे अ सुक्कपक्खे । [प्र. ३ ] एगमेगस्स णं भन्ते ! पक्खस्स कइ दिवसा पण्णता ? [उ.] गोयमा ! पण्णरस दिवसा पण्णत्ता, तं जहा-पडिवादिवसे वितिआदिवसे जाव पण्णरसीदिवसे। [प्र. ४ ] एतेसि णं भन्ते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कइ णामधेज्जा पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा पुवंगे सिद्धमणोरमे अ तत्तो मणोरहे चेव। जसभहे अ जसधरे छट्टे सबकामसमिद्धे अ॥१॥ इंदमुद्धाभिसित्ते अ सोमणस-धणंजए अ बोद्धव्ये। अत्थसिद्धे अभिजाए अच्चसणे सयंजए चेव॥२॥ अग्गिवेसे उवसमे दिवसाणं होंति णामधेज्जा। [प्र. ५] एतेसिं णं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कति तिही पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! पण्णरस तिही पण्णत्ता, तं जहा फ़फ़559555555555555555555555555555 जय 555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (524) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 55 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55 55 595– 卐 卐 दे भ ज तुच्छे पुणे पक्खस्स पंचमी । पुणरवि-गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी। पुणरवि-गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी, एवं ते तिगुणा तिहीओ सव्वेसिं दिवसाणंति । [प्र. ६ ] एगमेगस्स णं भंते! पक्खस्स कइ राईओ पण्णत्ताणो ? [ उ. ] गोयमा ! पण्णरस राईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- पडिवाराई, जाव पण्णरसी - राई । [प्र. ७ ] एआसि णं भंते पण्णरसण्हं राईणं कइ णामधेज्जा पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा [प्र. ८ ] एयासि णं भंते! पण्णरसण्हं राईणं कइ तिही पण्णत्ता ? उत्तमा य सुणक्खत्ता, एलावच्चा जसोहरा । सोमणसा चेव तहा, सिरिसंभूआ य बोद्धव्वा ॥ १ ॥ विजया य वेजयन्ति, जयन्ति अपराजिआ य इच्छा य । समाहारा चेव तहा, तेआ य तहा अईतेआ ॥ २ ॥ देवानंदा णिरई, रयणी णामधिज्जाई । [उ. ] गोयमा ! पण्णरस तिही पण्णत्ता, तं जहा - उग्गवई, भोगवई, जसवई, सव्वसिद्धा, सुहणामा, पुणरवि- उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा; पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा । एवं तिगुणा एते तिहीओ सव्वेसिं राईणं । [प्र. ९ ] एगमेगस्स णं भंते ! अहोरत्तस्स कइ मुहुत्ता पण्णत्ता ? तं जहा [ उ. ] गोयमा ! तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, (१२) 555 सप्तम वक्षस्कार रुहे सेअ मित्ते, वाउ सुवीए तहेव अभिचंदे । माहिंद - बलव- बंभे, बहुसच्चे चेव ईसाणे ॥१ ॥ तट्ठे अ भाविअप्पा, वेसमणे वारुणे अ आणंदे । विजए अ वीससेणे, पायावच्चे उवसमे अ॥ २ ॥ गंधव्व-अग्गिवेसे, सयवसहे आयवे य अममे अ अणवं भोमे वसहे, सव्बट्ठे रक्खसे चेव ॥३ ॥ १८५. [ प्र. १ ] भगवन् ! प्रत्येक संवत्सर के कितने महीने होते हैं ? फ्र [ उ. ] गौतम ! प्रत्येक संवत्सर के बारह महीने होते हैं। उनके दो प्रकार के नाम हैं, जैसे - लौकिक एवं लोकोत्तर लौकिक नाम इस प्रकार हैं, जैसे- (१) श्रावण, (२) भाद्रपद, यावत् आषाढ़ । लोकोत्तर नाम इस प्रकार हैं जैसे (525) நிதிமிதிததமிமிமிமிமிமிமிதிமிதிததமிமிமிமிததமிதிமிதிததமி*தமிழமிழி Seventh Chapter ***************** फ्र फ्र फ्र फ्र फ्र फ्र फ्र फ्र फ्र 4 फ्र फ्र पु फ्र फ्र Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) )) ))) ) )) )) B5FFFFFFF4555555555555555555FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF B5555555555)))))))555555555555555558 (१) अभिनन्दित, (२) प्रतिष्ठित, (३) विजय, (४) प्रीतिवर्द्धन, (५) श्रेयान्, (६) शिव, (७) शिशिर, (८) हिमवान्, (९) वसन्तमास, (१०) कुसुमसम्भव, (११) निदाघ, तथा (१२) वनविरोह। [प्र. २ ] भगवन् ! प्रत्येक महीने के कितने पक्ष होते हैं ? [उ. ] गौतम ! प्रत्येक महीने के दो पक्ष होते हैं, जैसे-(१) कृष्ण, तथा (२) शुक्ल। ___[प्र. ३ ] भगवन् ! प्रत्येक पक्ष के कितने दिन होते हैं ? [उ.] गौतम ! प्रत्येक पक्ष के पन्द्रह दिन होते हैं, जैसे-(१) प्रतिपदा-दिवस, यावत् (२) द्वितीया, (३) तृतीया, (४) चतुर्थी, (५) पंचमी, (६) षष्ठी, (७) सप्तमी, (८) अष्टमी, (९) नवमी, (१०) दशमी, (११) एकादशी, (१२) द्वादशी, (१३) त्रयोदशी, (१४) चतुर्दशी, * यावत् (१५) पंचदशी (अमावस्या या पूर्णमासी का दिन)। [प्र. ४ ] भगवन् ! इन पन्द्रह दिनों के कितने नाम हैं ? [उ. ] गौतम ! पन्द्रह दिनों के पन्द्रह नाम हैं, जैसे (१) पूर्वांग, (२) सिद्धमनोरम, (३) मनोहर, (४) यशोभद्र, (५) यशोधर, (६) सर्वकामसमृद्ध, (७) इन्द्रमूर्धाभिषिक्त, (८) सोभनस, (९) धनंजय, (१०) अर्थसिद्ध, (११) अभिजात, (१२) अत्यशन, (१३) शतंजय, (१४) अग्निवेश्म, तथा (१५) उपशम। [प्र. ५ ] भगवन् ! इन पन्द्रह दिनों की कितनी तिथियाँ हैं ? [उ. ] गौतम ! इनकी पन्द्रह तिथियाँ हैं, जैसे (१) नन्दा, (२) भद्रा, (३) जया, (४) तुच्छा-रिक्ता, (५) पूर्णा-पंचमी। फिर (६) नन्दा, म (७) भद्रा, (८) जया, (९) तुच्छा, (१०) पूर्णा-दशमी। फिर (११) नन्दा, (१२) भद्रा, 4 (१३) जया, (१४) तुच्छा, (१५) पूर्णा-पंचदशी। यों तीन आवृत्तियों में ये पन्द्रह तिथियाँ होती हैं। __ [प्र. ६. ] भगवन् ! प्रत्येक पक्ष में कितनी रातें होती हैं ? [उ.] गौतम ! प्रत्येक पक्ष में पन्द्रह रातें होती हैं, जैसे-(१) प्रतिपदारात्रि-एकम की रात, यावत् (१५)-अमावस या पूनम की रात। ॐ [प्र. ७ ] भगवन् ! इन पन्द्रह रातों के कितने नाम हैं ? [उ. ] गौतम ! इनके पन्द्रह नाम हैं, जैसे (१) उत्तमा, (२) सुनक्षत्रा, (३) एलापत्या, (४) यशोधरा, (५) सौमनसा, (६) श्रीसम्भूता, ॐ (७) विजया, (८) वैजयन्ती, (९) जयन्ती, (१०) अपराजिता, (११) इच्छा, (१२) समाहारा, 9 (१३) तेजा, (१४) अतितेजा, तथा (१५) देवानन्दा या निरति। + [प्र. ८ ] भगवन् ! इन पन्द्रह रातों की कितनी तिथियाँ हैं ? 555555555))) 5 B555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (526) Jambudveep Pranapti Sutra 845555555555555555555555553 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9555555555555555555555555555555555555 ॐ [उ. ] गौतम ! इनकी पन्द्रह तिथियाँ हैं, जैसे-(१) उग्रवती, (२) भोगवती, (३) यशोमती, (४) सर्वसिद्धा, (५) शुभनामा, फिर (६) उग्रवती, (७) भोगवती, (८) यशोमती, (९) सर्वसिद्धा, (१०) शुभनामा, फिर (११) उग्रवती, (१२) भोगवती, (१३) यशोमती, (१४) सर्वसिद्धा, 9 (१५) शुभनामा। इस प्रकार तीन आवृत्तियों में सब रातों की तिथियाँ आती हैं। [प्र. ९ ] भगवन् ! प्रत्येक अहोरात्र के कितने मुहूर्त होते हैं ? [उ. ] गौतम ! तीस मुहूर्त होते हैं, जैसे卐 (१) रुद्र, (२) श्रेयान्, (३) मित्र, (४) वायु, (५) सुपीत, (६) अभिचन्द्र, (७) माहेन्द्र, (८) बलवान्, (९) ब्रह्मा, (१०) बहुसत्य, (११) ऐशान, (१२) त्वष्टा, (१३) भावितात्मा, ॐ (१४) वैश्रमण, (१५) वारुण, (१६) आनन्द, (१७) विजय, (१८) विश्वसेन, (१९) प्राजापत्य, + (२०) उपशम, (२१) गन्धर्व, (२२) अग्निवेश्म, (२३) शतवृषभ, (२४) आतपवान्, (२५) अमम, ॐ (२६) ऋणवान्, (२७) भौम, (२८) वृषभ, (२९) सर्वार्थ, तथा (३०) राक्षस। . 185. [Q. 1] Reverend Sir ! How many are the months in each and every year ? ___[Ans.] Every year has twelve months. Their names are of two types namely common names and special names. The common names are (1) Shravan, (2) Bhadrapad, upto (12) Asadh. The special names are (1) Abhinandit, (2) Pratishthit, (3) Vijay, (4) Pritivardhan, (5) Shreyan, (6) Shiva, (7) Shishir, (8) Himavaan, (9) Vasantamas, (10) Kusumasabhav, (11) Nidagh, and (12) Vanaviroh. [Q. 2) Reverend Sir ! How many are the fortnights in each month ? [Ans.] Gautam ! These are two fortnights in each month(1) Krishna, and (2) Shukla. [Q. 3] Reverend Sir ! How many are the days in each fortnight? [Ans.] Gautam ! There are fifteen days in each fortnight namely(1) Pratipada day, (2) Second, [(3) Third, (4) Fourth day, (5) Fifth day, (6) Sixth day, (7) Seventh day, (8) Eighth day, (9) Ninth day, (10) Tenth 9 day, (11) Eleventh day, (12) Twelfth day, (13) Thirteenth day, (14) Fourteenth day), and (15) Fifteenth day, dark fortnight (Amavasya) 5 day or bright fortnight (Poornamasi) day. (Q. 4] Reverend Sir ! How many are the names for there fifteen days? ___ [Ans.] Gautam ! The names of there fifteen days are (1) Poorvang, (2) Siddhamanoram, (3) Manohar, (4) Yashobhadra, (5) Yashodhar, (6) Sarvakaam-Samriddh, (7) Indramoorddhabhishikt. सप्तम वक्षस्कार (527) Seventh Chapter 5955555555555555555555555555 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 1 non in n 1 en ennen ahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh 2454641 41 41 45 46 47 46 45155454545454545454545454545454545454545454545454545454 (8) Somanas, (9) Dhananjay, (10) Arthasiddh, (11) Abhijaat, † (12) Atyashan, (13) Shatanjay, (14) Agniveshm, and (15) Upasham. Fi [Q. 5] Reverend Sir ! How many Tithis are in these fifteen days? H (Ans.] Gautam ! There are fifteen Tithis in these fifteen days. They fi are (1) Nanda, (2) Bhadra, (3) Jaya, (4) Tuchchha-Rikta, (5) PoornaPanchami, again (6) Nanda, (7) Bhadra, (8) Jaya, (9) Tuchchha, (10) Poorna-Dashmi, again (11) Nanda, (12) Bhadra, (13) Jaya, 5 (14) Tuchchha, (15) Poorna-Fifteenth. Thus these fifteen tithis are in Fi three groups. [Q. 6] Reverend Sir ! How many are the nights in each fortnight? fi (Ans.] There are fifteen nights in each fortnight. They are (1) Pratipada night-night of first day, upto (15) fifteenth night-night of Amavas (dark fortnight) or night of Poornima (light fortnight). (Q. 7] Reverend Sir! What are the names of fifteen nights ? (Ans.) Gautam ! Their fifteen names are (1) Uttama, (2) Sunakshatra, (3) Elapatya, (4) Yashodhara, Fi (5) Saumanasa, (6) Shrisambuta, (7) Vijaya, (8) Vaijayanti, (9) Jayanti, fi (10) Aparajita, (11) Ichchha, (12) Samahara, (13) Teja, (14) Atiteja, and fi (15) Devananda or Nirati. [Q. 8] Reverend Sir ! How many are the Tithis of these fifiteen nights ? fi (Ans.] Gautam ! The fifteen Tithis are-(1) Ugravati, (2) Bhogavati, (3) Yashomati, (4) Sarvasiddha, (5) Shubhanama; again (6) Ugravati, (7) Bhogavati, (8) Yashomati. (9) Sarvasiddha. (10) Shubhana (11) Ugravati, (12) Bhogavati, (13) Yashomati, (14) Sarvasiddha, (15) Shubhanama. These three rounds cover all the fifteen nights. [Q. 9] Reverend Sir ! How many are the muhurats in each day-night (24 hours)? fi [Ans.] Gautam ! There are thirty muhurats in each day-night fi combined. They are (1) Rudra, (2) Shreyaan, (3) Mitra, (4) Vayu, (5) Supeet, (6) Abhichandra, (7) Mahendra, (8) Balavaan, (9) Brahma, (10) Bahusatya, 5 (11) Aishaan, (12) Tvashta, (13) Bhavitatma, (14) Vaishraman, fi (15) Vaarun, (16) Anand, (17) Vijay, (18) Vishvasen, (19) Prajapatya, (20) Upasham, (21) Gandharv, (22) Agniveshm, (23) Shatavrishabh, hohhhhhhhhhhh999999 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (528) Jambudveep Prajnapti Sutra 2446 4 47 46 455 456 457 455 456 4 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 458 455 456 457 455 456 45€ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555 )))))))))55555555555 9 (24) Atapavaan, (25) Amam, (26) Rinavaan, (27) Bhaum, (28) Vrishabh, 11 (29) Sarvarth, and (30) Rakshas. क करणाधिकार KARNA १८६. [प्र. १ ] कति णं भंते ! करणा पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! एक्कारस करणा पण्णत्ता, तं जहा-बवं, बालवं, कोलवं, थीविलोअणं, गराइ, वणिज्जं, विट्ठी, सउणी, चउप्पयं, नागं, किंत्थुग्घं। [प्र. २.] एतेसि णं भंते ! एक्कारसण्हं करणाणं कति करणा चरा, कति करणा थिरा पण्णत्ता ? _[उ. ] गोयमा ! सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता। तं जहा-बवं, बालवं, कोलवं, थीविलोअणं, गरादि, वणिजं, विट्ठी, एते णं सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता, तं जहा-सउणी, चउप्पयं, णागं, किंत्थुग्धं। [प्र. ३ ] एते णं भंते ! चरा थिरा वा कया भवन्ति ? [उ. ] गोयमा ! सुक्कपक्खस्स पडिवाए राओ बवे करणे भवइ, बितियाए दिवा बालवे करणे भवइ, ॐ राओ कोलवे करणे भवइ, ततिआए दिवा थीविलोअं करणं भवइ, राओ गराइ करणं भवइ, चउत्थीए दिवा वणिज राओ विट्ठी, पंचमीए दिवा बवं राओ बालवं, छट्ठीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, सत्तमीए दिवा गराइ राओ वणिज्जं, अट्ठमीए दिवा विट्ठी राओ बवं, नवमीए दिवा बालवं राओ कोलवं, म दसमीए दिवा थीविलोअणं राओ गराइं, एक्कारसीए दिवा वणिज्जं राओ विट्ठी, बारसीए दिवा बंब राओ बालवं, तेरसीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, चउद्दसीए दिवा गरादि करणं राओ वणिज्जं, पुण्णिमाए दिवा विट्ठीकरणं राओ बवं करणं भवइ। बहुलपक्खस्स पडिवाए दिवा बालवं राओ कोलवं, बितिआए दिवा थीविलोअणं राओ गरादि, म ततिआए दिवा वणिज्जं राओ विट्ठी, चउत्थीए दिवा बवं राओ बालवं, पंचमीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, छट्ठीए दिवा गराइं राओ वणिज्जं, सत्तमीए दिवा विट्ठी राओ बवं, अट्ठमीए दिवा बालवं 卐 राओ कोलवं, णवमीए दिवा थीविलोअणं राओ गराइं, दसमीए दिवा वणिज्जं राओ विट्ठी, एक्कारसीए दिवा बवं राओ बालवं, बारसीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, तेरसीए दिवा गराई राओ वणिज्जं, + चउहसीए दिवा विट्ठी राओ सउणई, अमावासाए दिवा चउप्पयं राओ णागं। सुक्कपक्खस्स पाडिवए दिवा किंत्थुग्धं करणं भवइ। १८६.[प्र.१] भगवन् ! करण कितने होते हैं? __ [उ.] गौतम ! ग्यारह करण होते हैं, जैसे-(१) बव, (२) बालव, (३) कौलव, (४) स्त्रीविलोचनतैतिल, (५) गरादि-गर, (६) वणिज, (७) विष्टि, (८) शकुनि, (९) चतुष्पद, (१०) नाग, तथा (११) किंस्तुघ्न। म [प्र. २.] भगवन् ! इन ग्यारह करणों में कितने करण चर तथा कितने स्थिर हैं ? ज))))55555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (629) Seventh Chapter 5555555555555)))))))))))))))55555555 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிமிமிமிதத***************************மிதி [उ.] गौतम ! इनमें सात करण चर तथा चार करण स्थिर हैं, जैसे- (9) बव, (२) बालव, (३) तथा कौलव, (४) स्त्रीविलोचन, (५) गरादि, (६) वणिज, तथा (७) विष्टि- ये सात करण चर हैं। एवं ये चार करण स्थिर हैं, जैसे- (१) शकुनि, (२) चतुष्पद, (३) नाग तथा ( ४ ) किंस्तुघ्न । [प्र. ३ ] भगवन् ! ये चर तथा स्थिर करण कब होते हैं ? [उ. ] गौतम ! शुक्ल पक्ष की एकम की रात में, बव करण होता है। दूज को दिन में बालव करण, रात में कौलव करण होता है। तीज को दिन में स्त्रीविलोचन करण होता है, रात में गरादि करण होता है । चौथ को दिन में वणिज करण, रात में विष्टि करण होता है। पाँचम को दिन में बव करण, रात में बालव करण होता है। छठ को दिन में कौलव करण, रात में स्त्रीविलोचन करण होता है । सातम को दिन में गरादि करण, रात में वणिज करण होता है। आठम को दिन में विष्टि करण, रात में बव करण होता है। नवम को दिन में बालव करण, रात में कौलव करण होता है। दसम को दिन में स्त्रीविलोचन करण, रात में गरादि करण होता है। ग्यारस को दिन में वणिज करण, रात में विष्टि करण होता है। बारस को दिन में बव करण, रात में बालव करण होता है। तेरस को दिन में कौलव करण, रात में स्त्रीविलोचन करण होता है। चौदस को दिन में गरादि करण, रात में वणिज करण होता है। पूनम को दिन में विष्टि करण, रात में बव करण होता है। कृष्ण पक्ष की एकम को दिन में बालव करण और रात में कौलव करण होता है। दूज को दिन में स्त्रीविलोचन करण, रात में गरादि करण होता है। तीज को दिन में वणिज करण, रात में विष्टि करण होता है । चौथ को दिन में बव करण, रात में बालव करण होता है । पाँचम को दिन में कौलव करण, रात में स्त्रीविलोचन करण होता है। छठ को दिन में गरादि करण, रात में वणिज करण होता है। सातम को दिन में विष्टि करण, रात को बव करण होता है । आठम को दिन में बालव करण, रात में कौलव करण होता है। नवम को दिन में स्त्रीविलोचन करण, रात में गरादि करण होता है। दसम को दिन में वणिज करण, रात में विष्टि करण होता है। ग्यारस को दिन में बव करण, रात में बालव करण होता है। बारस को दिन में कौलव करण, रात में स्त्रीविलोचन करण होता है। तेरस को दिन में गरादि करण, रात में वणिज करण होता है। चौदस को दिन में विष्टि करण, रात में शकुनि करण होता है। अमावस को दिन में चतुष्पद करण, रात में नाग करण होता है। शुक्ल पक्ष की एकम को दिन में किंस्तुघ्न करण होता है। 186. [Q. 1] Reverend Sir ! What is the number of Karanas ? [Ans.] Gautam ! Names are eleven. They are – ( 1 ) Bava, (2) Baalav, (3) Kaulav, (4) Strivilochan-Taitil, (5) Garadi-Gar, (6) Vanij, (7) Vishti, (8) Shakuni, (9) Chatushapad, (10) Naag, and (11) Kinstughna. [Q. 2] Reverend Sir ! Out of these eleven Karanas, how many are mobile and how many are inmobile ? [Ans.] Gautam ! Seven Karanas are mobile, four are immobile these are – (1) Bava, (2) Baalav, (3) Kaulav, ( 4 ) Strivilochan, (5) Garaadi, (6) Vanij and (7) Vishti — These seven Karanas are mobile; and जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र (530) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 45 456 8555555555555555555555555555555555555 (1) Shakuni, (2) Chatushpad, (3) Naag and (4) Kinstughna—these four i Karanas are immobile. IQ. 3) Reverend Sir ! When do these mobile and immobile Karanas occur ? [Ans.] Gautam ! On the night of the first day of bright fortnight there is Bava Karan. On the second day is Baalav Karan, and in the night is Kaulav Karan. On the third day is Strivilochan Karan while in the night is Garadi Karan. On the fourth day is Vanij Karan, while in the night is Vishti Karan. On the fifth day is Bava Karan, in the night is Baalav Karan. On the sixth day is Kaulav Karan, in its night in Strivilochan Karan. On the seventh day is Garaadi Karan, in its night is Vanij Karan. On the eighth day is Visthi Karan, in the night is Bava Karan. On the ninth day is Baalav Karan while in the night is Kaulav Karan. On the tenth day is Strivilochan Karan while in the night is Garaadi Karan. On the eleventh day is Vanij Karan while in the night is Vishti Karan. On the twelfth day is Bava Karan while in the night is Baalav Karan. On the thirteenth day is Kaulav Karan while in the night is Strivilochan Karan. On the fourteenth day is Garaadi Karan while in the night is 4 Vanij Karan. On the fifteenth day of bright fortnight (poonam) is Vishti Karan while in the night is Bava Karan. In the dark fortnight, on the first day is Baalav Karan while in the 45 night is Kaulav Karan. On the second day is Strivilochan Karan while in the night is Garaadi Karan. On the third day is Vanij Karan while in the night is Visthi Karan. On the fourth day is Bava Karan while in the night is Baalav Karan. On the fifth day is Kaulav Karan while in the night is Strivilochan Karan. On the sixth day is Garaadi Karan while in the night is Vanij Karan. On the seventh day is Vishti Karan while in the night is Bava Karan. On the eighth day is Baalav Karan while in the night is Kaulav Karan. On the ninth day is Strivilochan Karan while in the night is Garaadi Karan. On the tenth day is Vanij Karan while in the night is Vishti Karan. On the eleventh day is Bava Karan while in the 45 night is Baalav Karan. On the twelfth day is Kaulav Karan while in the night is Strivilochan Karan. On the thirteenth day is Garaadi Karan while in the night is Vanij Karan. On the fourteenth day is Vishti Karan while in the night is Shakuni Karan. On the fifteenth day (Amavas) is Chatushpad Karan while in the night is Naag Karan. On the first day of bright fortnight is Kinstughn Karan. 步步步步步步岁男岁岁男男男男男步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步分 455 456 457 4541 544 445 455 456 45 44 445 446 45 44 45 46 45155594555 454 455 456 457 सप्तम वक्षस्कार (531) Seventh Chapter 54954545454545451 451 451 456 457 455 456 457 455 455 456 457 45454545454545455 456 457 41 41 41 41 41 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************************ததE ग्यारह करण का चक्र 2555555 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 9 5 5 5 5 5 5 5 55 555 55 फ तिथि १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. Tithi 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र दिन किंस्तुघ्न बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव कौलव गरादि विष्टि बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव कौलव गरादि विष्टि Vanij Bava Kaulay Garaadi Day Kinstughna Baalav Strivilochan शुक्ल पक्ष Vanij Bava Vishti Baalava Strivilochan Kaulay Garaadi Vishti रात बव कौलव गरादि विष्टि बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव कौलव गरादि विटि Bright बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव Night Bava Kaulav Garaadi Vishti Table of 11 Karanas Baalav Strivilochan Vanij Bava Kaulay Garaadi Vishti Baalav Strivilochan Vanij Bava (532) बालव स्त्रीविलोचन वणिज दिन बव कौलव गरादि विष्टि बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव कौलव गरादि विष्टि चतुष्पद Day Baalav Strivilochan Vanij Bava Kaulav Garaadi Vishti Baalav Strivilochan Vanij Bava Kaulay Garaadi Vishti Chatushpad कृष्ण पक्ष रात कौलव गरादि विष्टि Fortnight बालव स्त्रीविलोचन वणिज बव कौलव गरादि विष्टि बालव स्त्रीविलोचन वणिज शकुनि नाग Night Kaulav Garaadi Vishti Baalav Strivilochan Vanij Bava Kaulay Garaadi Vishti Baalay Strivilochan குககததககதததபூமி*ததபூ**************தமி Vanij Shakuni Naag Jambudveep Prajnapti Sutra hhhhhh 卐 生 生 生 5 5 5 卐 5 5 5 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8555555$$$$$$$$$$$$$$$ $$$ $ $$$$$ 55 5 5555FFFFF 55555555555555 55555555 5 乐 क संवत्सर, अयन, ऋतु आदि YEAR, HALF YEAR, SEASON ETC. १८७. [प्र.] किमाइआ णं भंते ! संवच्छरा, किमाइआ अयणा, किमाइआ उऊ, किमाइआ मासा, किमाइआ पक्खा, किमाइआ अहोरत्ता, किमाइआ मुहुत्ता, किमाइआ करणा, किमाइआ णक्खत्ता पण्णत्ता? [उ. ] गोयमा ! चंदाइआ संवच्छरा, दक्खिणाइया अयणा, पाउसाइआ उऊ, सावणाइआ मासा, म बहुलाइआ पक्खा, दिवसाइआ अहोरत्ता, रोहाइआ मुहुत्ता, बालवाइआ करणा, अभिजिआइआ णक्खत्ता पण्णत्ता समणाउसो ! इति। ___ [प्र.] पंचसंवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अयणा, केवइआ उऊ, एवं मासा, पक्खा, अहोरत्ता, केवइआ मुहुत्ता पण्णता ? [उ. ] गोयमा ! पंचसंवच्छरिए णं जुगे जस अयणा, तीसं उऊ, सट्ठी मासा, एगे वीसुत्तरे पक्खसए, अट्ठारसतीसा अहोरत्तसया, चउप्पण्णं महत्तसहस्सा णव सया पण्णत्ता। १८७. [प्र. ] भगवन् ! संवत्सरों में आदि-प्रथम संवत्सर कौन-सा (यह प्रश्नोत्तरक्रम चन्द्रादि म संवत्सरापेक्षा से है) है ? अयनों में प्रथम अयन कौन-सा है ? ऋतुओं में प्रथम ऋतु कौन-सी है ? महीनों में प्रथम महीना कौन-सा है ? पक्षों में प्रथम पक्ष कौन-सा है ? अहोरात्र-दिवस रात में आदि-प्रथम ॐ कौन है ? मुहूर्तों में प्रथम मुहूर्त कौन-सा है ? करणों में प्रथम करण कौन सा है ? नक्षत्रों में प्रथम नक्षत्र कौन-सा है? म [उ.] आयुष्मान् श्रमण गौतम ! संवत्सरों में आदि-प्रथम चन्द्र-संवत्सर है। अयनों में प्रथम दक्षिणायन है। ऋतुओं में प्रथम प्रावृट् आषाढ़-श्रावणरूप पावस ऋतु है। महीनों में प्रथम श्रावण है। पक्षों 9 में प्रथम कृष्ण पक्ष है। अहोरात्र में-दिवस-रात में प्रथम दिवस है। मुहूत्र्तों में प्रथम रुद्र मुहूर्त है। करणों में प्रथम बालव करण है। नक्षत्रों में प्रथम अभिजित् नक्षत्र है। [प्र. ] भगवन् ! पंच संवत्सरिक युग में अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र तथा मुहूर्त कितनेम कितने होते हैं ? [उ. ] गौतम ! पंच संवत्सरिक युग में अयन १०, ऋतुएँ ३०, मास ६०, पक्ष १२०, अहोरात्र + १,८३० तथा मुहूर्त ५४,९०० होते हैं। 187. (Q.) Reverend Sir ! Which is the first year out of the various years (This question is in the context of lunar years and the like) ? Which is the first half year (ayan) among the half year ? Which is the first season among the seasons ? Which is the first month among the months ? Which is the first muhurat among the muhurats ? Which is the 55555555555555555555555555555555555555555555555558 卐))))5555555 सप्तम वक्षस्कार (533) Seventh Chapter Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F FF听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFF 855555555555555555555555555555555 first Karan among the Karans ? Which is the first constellation among the constellations? (Ans.) Gautam ! Lunar year is the first year among the years. Southern ayan (half years) is the first ayan among ayans. Ashadh 41 Shravan season among seasons. Shravan is the first month among the months. Dark (Krishna) fortnight is the first fortnight among fortnights. 41 ri (day-night) is the first among days. Rudra muhurat is the first 卐 among muhurats. Baalav Karan is the first among Karanas. Abhijit constellations is the first among constellations, [Q.] Reverend Sir ! How many ayans, seasons, months, fortnights, ahoratris and muhurats are in a yug consisting of five years. (Ans.] Gautam ! There are 10 ayans, 30 seasons, 60 months, 120 fortnights, 1,830 ahoratris and 54,900 muhurats in a yug of five years. नक्षत्र CONSTELLATIONS १८८. जोगो १ देव य २ तारग्ग ३ गोत्त ४ संठाण ५ चंद-रवि-जोगा ६ । कुल ७ पुण्णिम अवमंसा य ८ सण्णिवाए ९ अणेता य १०॥१॥ [प्र. ] कति णं भंते ! णक्खत्ता पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठावीसं णक्खत्ता पण्णत्ता, तं जहा-अभिई १ सवणो २ धणिट्ठा ३ सयभिसया ४ पुव्वभद्दवया ५ उत्तरभद्दवया ६ रेवई ७ अस्सिणी ८ भरणी ९ कत्तिआ १० रोहिणी ११ मिअसिर १२ अद्दा १३ पुणव्वसू १४ पूसो १५ अस्सेसा १६ मघा १७ पुवफग्गुणी १८ उत्तरफग्गुणी १९ हत्थो २० चित्ता २१ साई २२ विसाहा २३ अणुराहा २४ जिट्ठा २५ मूलं २६ पुबासाढा २७ उत्तरासाढा है २८ इति। १८८. (१) योग-अट्ठाईस नक्षत्रों में कौन-सा नक्षत्र चन्द्रमा के साथ दक्षिणयोगी है, कौन-सा ॥ नक्षत्र उत्तरयोगी है इत्यादि दिशायोग, (२) देवता-नक्षत्रदेवता, (३) ताराग्र-नक्षत्रों का तारा-परिमाण, ऊ (४) गोत्र-नक्षत्रों के गोत्र, (५) संस्थान-नक्षत्रों के आकार, (६) चन्द्र-रवि-योग-नक्षत्रों का चन्द्रमा ॐ 5 और सूर्य के साथ योग, (७) कुल-कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपलक्षण से उपकुलसंज्ञक तथा कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र, (८) पूर्णिमा-अमावस्या-कितनी पूर्णिमाएँ-कितनी अमावस्याएँ, (९) सत्रिपात-पूर्णिमाओं तथा ॐ अमावस्याओं की अपेक्षा से नक्षत्रों का सम्बन्ध, तथा (१०) नेता-मास का परिसमापक नक्षत्रगण-ये यहाँ विवक्षित हैं। __ [प्र. ] भगवन् ! नक्षत्र कितने हैं ? [उ. ] गौतम ! नक्षत्र अट्ठाईस हैं, जैसे-(१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक्, (५) पूर्वभाद्रपदा, (६) उत्तरभाद्रपदा, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी, (१०) कृत्तिका, 55555555555555555555555)))))))))))))))5555 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (594) Jambudveep Prajnapti Sutra 8555 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$5听听听听听听听听听听听听。 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4555555555555555555555555555555555555 4 (99) This un, (92) trurit, (93) 3781, (98) gacy, (94) yer, (9€) Bratar, (94) 21, $ (9c) gain recht, (98) 377141 , (20) eta, (79) fan, (72) Faifa, (73) fantren, 9 (28) PIETEIT, (24) &T, (RE) 49, (PU) yatang, (PC) 19GTI 188. (1) Yog-Out of 28 constellations, which constellation is connect with the moon in the south and which is connected in the north and the like. (2) God—God of constellations. (3) Taragra—The stars of a constellation, (4) Gotra-The gotra of constellations. (5) Shape Shape of constellations. (6) Moon-Sun connection-Connection of constellations with moon and the sun. (7) Family (Kula)-Constellation of a family. In the context of sub-classification constellations of a sub-class family and $i constellation of the family of a family. (8) Bright fortnights (Poornimas)—Dark fortnighs. (9) Sannipaat-Connection of constellations in the context of bright fortnights and dark fortnights. (10) Neta-The month of concluding constellation. There topics have 4 been depressed here. (Q.) Reverend Sir! How many are the constellations ? (Ans.] Gautam ! Constellations are twenty eight namely—(1) Abhijit, - (2) Shravan, (3) Dhanishtha, (4) Shatabhishak, (5) Poorva-bhadrapad, y (6) Uttara-bhadrapad, (7) Revati, (8) Ashvini, (9) Bharani, (10) Kritika, 4i (11) Rohini, (12) Mrigashir, (13) Aardra, (14) Punarvasu, (15) Pushya, (16) Ashlesha, (17) Magha, (18) Poorva-phalguni, (19) Uttara-phalguni, (20) Hast, (21) Chitra, (22) Svati, (23) Vishakha, (24) Anuradha, 4 (25) Jyeshtha, (26) Mool, (27) Poorvashadha, and (28) Uttarashadha. विवेचन : स्थानांग तथा अनुयोगद्वार, सूत्र २८५ में नक्षत्रों की गणना कृत्तिका से भरिणी नक्षत्र पर्यन्त की ॐ गई है। वहाँ पर अभिजित् नक्षत्र २०वाँ है। वर्तमान भारतीय ज्योतिष शास्त्र में २७ नक्षत्र माने जाते हैं तथा अश्विनी से गणना प्रारम्भ होकर रेवती नक्षत्र पर समाप्त होती है। अभिजित् को स्वतंत्र नक्षत्र नहीं माना गया है। Elaboration In Sthananga Sutra and in Sutra 285 of Anuyog Dvar Sutra the constellations have been counted from Kritika to Bharni. There Abhijit constellations as twentieth. In the present Indian astrological treatise constellations are said to be twenty seven. The counting is started from Ashvani and stopped at Revati constellation. Abhijit is not considered as an independent constellation. 455 456 455 456 457 454 455 454 455 456 455 456 457 455 456 457 451 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 455 456 457 451 455 456 457 458 454 455 456 457 455 456 457 455462 सप्तम वक्षस्कार (535) Seventh Chapter $$$451 455 456 457 454 455 456 457 454 455 454 455 456 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफ नक्षत्रयोग CONSTELLATIONS CONNECTION WITH MOON १८९. [ प्र. ] (क) एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स 5 दाहिणं जोअं जोएंति ? (ख) कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोअं जोएंति ? (ग) कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमद्दपि जोगं जोएंति ? (घ) कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणंपि उत्तरेणवि पमद्दपि जोअं जोएंति ? (च) कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमदं जोअं जोएंति ? [उ. ] (क) गोयमा ! एतेसिं णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणं जोअं जोएंति ते णं छ, तं जहा मियसिरं १ अद्द २ पुसो ३ ऽसिलेस ४ हत्थो ५ तहेव मूलो अ६ । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पेते णक्खत्ता ॥१ ॥ (ख) तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ते णं बारस, तं जहा-सवणो, धणिट्ठा, सयभिसया, पुव्वभद्दवया, उत्तरभद्दवया, रेवई, अस्सिणी, भरणी, पुव्बाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी साई । (ग) तत्थ णं जे ते णक्खत्ता णं सया चंदस्स दाहिणओवि उत्तरओवि पमपि जोगं जोएंति ते णं सत्त, तं जहा - कत्तिआ, रोहिणी, पुणव्वसू, मघा, चित्ता, बिसाहा, अणुराहा । (घ) तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओवि पमद्दपि जोगं जोएंति, ताओ णं दुबे आसाढाओ। सव्वबाहिरए मंडले जोगं जोअंसु वा ३ । (च) तत्थ णं जे से णक्खत्ते जे णं सया चंदस्स पमद्दं जोएइ, सा णं एगा जेट्ठा इति । १८९. [ प्र. ] (क) भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा चन्द्र के दक्षिण में- दक्षिण दिशा में अवस्थित होते हुए योग करते हैं - चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध करते हैं ? (ख) कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा चन्द्रमा के उत्तर में अवस्थित होते हुए योग करते हैं ? (ग) कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो चन्द्रमा के दक्षिण में भी, उत्तर में भी, नक्षत्र - विमानों को चीरकर भी योग करते हैं ? [घ] कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो चन्द्रमा के दक्षिण में भी नक्षत्र - विमानों को चीरकर भी योग करते हैं ? (च) कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा नक्षत्र - विमानों को चीरकर चन्द्रमा से योग करते हैं ? हुए [ उ. ] (क) गौतम ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्र के दक्षिण में अवस्थित होते योग करते हैं, वे छह हैं, जैसे जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (536) ahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh a Jambudveep Prajnapti Sutra 4 4 கழகமிகமி*தமிழ**********************தE ५ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))) )) )) ) hhhhhhhhhh55555555555555555555555555 4 (१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३) पुष्य, (४) अश्लेषा, (५) हस्त, तथा (६) मूल। ये छहों नक्षत्र चन्द्र 卐 सम्बन्धी पन्द्रह मण्डलों के बाहर से ही योग करते हैं। (ख) अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के उत्तर में अवस्थित होते हुए योग करते हैं, वे 卐 बारह हैं, जैसे-(१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक्, (५) पूर्वभाद्रपदा, (६) उत्तरभाद्रपदा, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी, (१०) पूर्वाफाल्गुनी, (११) उत्तराफाल्गुनी, ॐ तथा (१२) स्वाति। (ग) अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के दक्षिण में भी, उत्तर में भी, नक्षत्र-विमानों को ॐ चीरकर भी योग करते हैं, वे सात हैं, जैसे-(१) कृत्तिका, (२) रोहिणी, (३) पुनर्वसु, (४) मघा, (५) चित्रा, (६) विशाखा, तथा (७) अनुराधा। (घ) अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के दक्षिण में भी, नक्षत्र-विमानों को चीरकर भी योग 5 करते हैं, वे दो हैं-(१) पूर्वाषाढा, तथा (२) उत्तराषाढा। ये दोनों नक्षत्र सदा सर्वबाह्य मण्डल में 5 अवस्थित होते हुए चन्द्रमा के साथ योग करते हैं। (च) अट्ठाईस नक्षत्रों में जो सदा नक्षत्र-विमानों को चीरकर चन्द्रमा के साथ योग करता है, ऐसा एक ज्येष्ठा नक्षत्र है। 189. (Q.) (a) Reverend Sir ! Out of the twenty eight constellation, how many are such who always have connection with the moon while staying 5 in the south ? (b) How many are such which always staying in the north have connection with the moon ? 4. (c) How many are such which have connection with the moon in the south as well as in the north and after crossing through the heavenly abodes (Vimans) of the constellations ? 4 (d) How many are such that have connection with the moon even in 4the south of the moon and there also after crossing the heavenly abode of Si constellations ? (e) How many are such constellation which have connection with moon always after crossing the heavenly abode of constellations. [Ans.) (a) Gautam ! There are only six constellations out of the said twenty eight constellations which always remaining in the south of moon have connection with moon. They are (1) Mrigashir, (2) Ardra, (3) Pushya, (4) Ashlesha, (5) Hast, and (6) Mool. These six constellations have connection with moon from the outside of its fifteen rounds. )) )) ))) )))) )) )) )) 55555 सप्तम वक्षस्कार (537) Seventh Chapter 35555555555555555555555555555558 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255555 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5555 5555 5 55 55 2 卐 फ H 卐 फ्र கமி*தமிமிமிமி*தமிழ***********************52 5 (b) Out of twenty eight constellations only twelve have connection फ्र with the moon staying always in the north of the moon. They are (1) Abhijit, (2) Shravan, (3) Dhanishtha, (4) Shatabhishak, 5 (5) Poorvabhadra, (6) Uttarabhadra, (7) Revati, (8) Ashvini. ( 9 ) Bharni, 5 (10) Poorva-phalguni, (11) Uttara - Phalguni and (12) Swati. फ्र फ्र (c) Out of twenty eight constellations, seven are such that have always connection with the moon while staying in its south, in its north and even after crossing the heavenly abodes (Vimans) of constellations. They are—(1) Kritika, (2) Rohini, (3) Punarvasu, (4) Magha, (5) Chitra, (6) Vishakha, and ( 7 ) Anuradha. 卐 (d) Out of twenty eight constellations which have connection with the moon always in the south of moon and also crossing the divine vehicles (Vimans) of constellations. They are-(1) Poorvashadha, (2) Uttarashadha. These two constellations are always in the outermost round of the moon having connection with the moon. and 5 (e) Only one constellation Jyeshtha out of the twenty eight 5 constellations has connection with the moon always crossing heavenly abodes of constellations. नक्षत्र देवता GODS OF CONSTELLATIONS १९०. [ प्र. ] एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! बम्हदेवया पण्णत्ते, सवणे णक्खत्ते विण्हुदेवयाए पण्णत्ते, धणिट्ठा वसुदेवया पण्णत्ता, 5 एए णं कमेणं अव्वा अणुपरिवाडी इमाओ देवयाओ- बम्हा, विण्हु, वसू, वरुणे, अय, अभिवद्धी, पूसे, आसे, जमे, अग्गी, पयावई, सोमे, रुद्दे, अदिती, वहस्सई, सप्पे, पिउ, भगे, अज्जम, सविआ, तट्ठा, वाउ, इंदग्गी, मित्तो, इंदे, निरई, आउ, विस्सा य, एवं णक्खत्ताणं एआ परिवाडी णेअव्वा जाव 5 उत्तरासाठा किंदेवया पण्णत्ता ? गोयमा ! विस्सदेवया पण्णत्ता । 卐 फ्र १९०. [ प्र. ] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् आदि नक्षत्रों के कौन-कौन देवता हैं ? 5 卐 [ उ. ] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का देवता ब्रह्मा है। श्रवण नक्षत्र का देवता विष्णु है । धनिष्ठा नक्षत्र फ 5 का देवता वसु है। पहले नक्षत्र से अट्ठावीसवें नक्षत्र तक के देवता यथाक्रम इस प्रकार हैं- (9) ब्रह्मा, (२) विष्णु, (३) वसु. (४) वरुण, (५) अज, (६) अभिवृद्धि, (७) पूषा, (८) अश्व, (९) यम, (१०) अग्नि, (११) प्रजापति, (१२) सोम, (१३) रुद्र, (१४) अदिति, (१५) बृहस्पति, (१६) सर्प, (१७) पितृ, (१८) भग, (१९) अर्यमा, (२०) सविता, (२१) त्वष्टा, (२२) वायु, (२३) इन्द्राग्नी, (२४) मित्र (२५) इन्द्र, (२६) नैर्ऋत, (२७) आप, तथा (२८) विश्वेदेव । उत्तराषाढा - अन्तिम नक्षत्र 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 5 तक यह क्रम है । अन्त में जब प्रश्न होगा - उत्तराषाढा के कौन देवता हैं तो उसका उत्तर है-गौतम ! 5 विश्वेदेवा उसके देवता हैं। 卐 卐 卐 卐 5 卐 (538) फफफफफफफ 5 5 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 5 卐 190. [Q.] Reverend Sir ! Who are the gods of the twenty constellations namely Abhijit and others? फ़ ( 12 ) Som, (13) Rudra, (14) Aditi, (15) Brihaspati, ( 16 ) Sarpa, ( 17 ) Pitri. 5 (18) Bhag, ( 19 ) Aryama, (20) Savita, ( 21 ) Tvashtha, (22) Vayu, 卐 (23) Indragni, ( 24 ) Mitra, (25) Indra, ( 26 ) Nairrit, ( 27 ) Aap, and (28) Vishvedev. [Ans.] Gautam ! The god of Abhijit constellation is Brahma Vishnu is 卐 the gods of Shravan constellation. Vasu is the god of Dhanishtha 卐 constellation. The twenty eight gods of twenty eight constellations in their order are – ( 1 ) Bhahma, (2) Vishnu, (3) Vasu, (4) Varun (5) Aja, 5 (6) Abhivriddhi, (7) Poosha, (8) Ashv, (9) Yam, (10) Agni, (11) Prajapati, This order is upto the last constellation namely Uttarashadha. In the फ्र end when the question arises as to who is the god of Uttarashadha. Then the reply to this question O Gautam ! Is that its gods is Vishvedeva. 卐 नक्षत्र-तारे CONSTELLATION STARS १९१.[प्र. ] एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! तितारे पण्णत्ते । एवं णेअव्वा जस्स जइआओ ताराओ, इमं च तं तारग्गंतिगतिगपंचगसयदुग- दुगबत्तीसगतिगं तह तिगं च । छप्पंचगतिगएक्कगपंचगतिग-छक्कगं चेव ॥१ ॥ सत्तगदुगदुग-पंचग-एक्केक्कग - पंच- चउतिगं चेव । एक्कारसग - चउक्कं चउक्कगं चैव तारग्गं ॥२॥ फ्र १९१ . [ प्र. ] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र के कितने तारे हैं ? (१) अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे, (२) श्रवण नक्षत्र के तीन, (३) धनिष्ठा नक्षत्र के पाँच, (४) 5 शतभिषक् नक्षत्र के सौ, (५) पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र के दो, (६) उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र के दो, (७) रेवती 5 नक्षत्र के बत्तीस, (८) अश्विनी नक्षत्र तीन, (९) भरणी नक्षत्र के तीन, (१०) कृत्तिका नक्षत्र के सप्तम वक्षस्कार [ उ. ] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे हैं। जिन नक्षत्रों के जितने जितने तारे हैं, वे 5 प्रथम से अन्तिम तक इस प्रकार हैं फफफफफफफफफफ (539) 卐 छ:, (११) रोहिणी नक्षत्र के पाँच, (१२) मृगशिर नक्षत्र के तीन, (१३) आर्द्रा नक्षत्र का एक, (१४) पुनर्वसु नक्षत्र के पाँच, (१५) पुष्य नक्षत्र के तीन, (१६) अश्लेषा नक्षत्र के छः, (१७) मघा फ्र नक्षत्र के सात, (१८) पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के दो, (१९) उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र के दो, (२०) हस्त 5 नक्षत्र के पाँच, (२१) चित्रा नक्षत्र का एक, (२२) स्वाति नक्षत्र का एक, (२३) विशाखा नक्षत्र के 卐 卐 卐 卐 மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமி5E Seventh Chapter 卐 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफ फफफफफफ 卐 5 फ्र पाँच, (२४) अनुराधा नक्षत्र के चार, (२५) ज्येष्ठा नक्षत्र के तीन, (२६) मूल नक्षत्र के ग्यारह, 5 (२७) पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार, तथा (२८) उत्तराषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं। 卐 卐 5 191. [Q.] Reverend Sir ! Out of twenty eight constellations how many stars are of Abhijit constellation? 5 卐 [Ans.] Gautam ! Abhijit constellation has three stars. The respective stars of each constellation are as follows 卐 (1) Abhijit has three stars, (2), Shravan constellation has three stars, (3) Dhanishta constellation has five stars, (4) Shatabhishak constellation has hundred stars, (5) Purvabhadra constellation has two stars, (6) Uttar-bhadrapad constellation has two stars, (7) Revati constellation has thirty two stars, (8) Ashvini constellation has three stars, ( 9 ) Bharani 5 constellation has three stars, ( 10 ) Kritika constellation has six stars, (11) Rohini constellation has five stars, (12) Mrigashir constellation has three stars, (13) Ardra constellation has only one stars, ( 14 ) Punarvasu constellation has five stars, (15) Pushya constellation has three star, (16) Ashlesha constellation has six stars, (17) Magha constellation has seven 5 stars, ( 18 ) Poorva - phalguni constellation has two stars, (19) Uttarphalguni constellation has two stars, (20) Hasta constellation has five stars, (21) Chitra constellation has one star, ( 22 ) Svati constellation has 5 one star, ( 23 ) Vishakha constellation has five stars, ( 24 ) Anuradha constellation has four stars, (25) Jyeshtha constellation has three stars, (26) Mool constellation has eleven stars, (27) Poorvashadha constellation has four stars, (28) Uttarashadha constellation has four stars. 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 नक्षत्रों के गोत्र एवं संस्थान SHAPE AND NATURE OF CONSTELLATIONS १९२. [ प्र. ] एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! मोग्गलायणसगोत्ते । गाहा - मोग्गल्लायण १ संखायणे २ अ तह अग्गभाव ३ कण्णिल्ले ४ | तत्तो अ जाउक ५ धणंजए ६ चेव बोद्धव्वे ॥१॥ पुस्सायणे ७ अ अस्सायणे ८ अ भग्गवेसे ९ अ आग्गवेसे १० अ गोअम ११ भारद्दाए १२ लोहिच्चे १३ चेव वासिट्टे १४॥२॥ ओमज्जायण १५ मंडव्वायणे १६ अ पिंगायणे १७ अ गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दब्भा २१ य चामरच्छाया २२ सुंगा २३ य ॥ ३ ॥ प्रज्ञप्ति सूत्र ( 540 ) जम्बूद्वीप Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 5 卐 卐 卐 卐 卐 卐 5 फ्र 卐 5 卐 卐 फ फ्र 卐 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555 गोवल्लायण २४ तेगिच्छायणे २५ अ कच्चायणे २६ हवइ मूले। ततो अ बझिआयण २७ वग्धावच्चे अ गोत्ताई २८॥४॥ [प्र.] एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पण्णत्ते। गाहा-गोसीसावलि १ काहार २ सउणि ३ पुष्फोवयार ४ वावी य ५-६ । णावा ७ आसक्खंधग ८ भग ९ छुरघरए १० अ सगडुद्धी ११॥१॥ मिगसीसावलि १२ रुहिरबिंदु १३ तुल्ल १४ वद्धमाणग १५ पडागा १६। पागारे १७ पलिअंके १८-१९ हत्थे २० मुहफुल्लए २१ चेव॥२॥ खीलग २२ दामणि २३ एगावली २४ अगयदंत २५ बिच्छुअअले य २६। गयविक्कमे २७ अ तत्तो सीहनिसीही अ २८ संठाणा॥३॥ १९२. [प्र. ] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का क्या गोत्र है ? [उ. ] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का मौद्गलायन गोत्र है। गाथार्थ-प्रथम से अन्तिम नक्षत्र तक सब नक्षत्रों के गोत्र इस प्रकार हैं-(१) अभिजित् नक्षत्र का मौद्गलायन, (२) श्रवण नक्षत्र का सांख्यायन, (३) धनिष्ठा नक्षत्र का अग्र भाव, (४) शतभिषक् नक्षत्र का कण्णिलायन. (५) पर्वभाद्रपदा नक्षत्र का जातकर्ण, (६) उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र का धनंजय,' (७) रेवती नक्षत्र का पुष्यायन, (८) अश्विनी नक्षत्र का अश्वायन, (९) भरणी नक्षत्र का भार्गवेश, ॐ (१०) कृत्तिका नक्षत्र का अग्निवेश्य, (११) रोहिणी नक्षत्र का गौतम, (१२) मृगशिर नक्षत्र का __ भारद्वाज, (१३) आर्द्रा नक्षत्र का लोहित्यायन, (१४) पुनर्वसु नक्षत्र का वासिष्ठ, (१५) पुष्य नक्षत्र का अवमज्जायन, (१६) अश्लेषा नक्षत्र का माण्डव्यायन, (१७) मघा नक्षत्र का पिंगाय, (१८) पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र का गोवल्लायन, (१९) उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र का काश्यप, (२०) हस्त नक्षत्र का कौशिक, (२१) चित्रा नक्षत्र का दार्भायन, (२२) स्वाति नक्षत्र का चामरच्छायन, (२३) विशाखा नक्षत्र का शुंगायन, (२४) अनुराधा नक्षत्र का गोलव्यायन, (२५) ज्येष्ठा नक्षत्र का चिकित्सायन, (२६) मूल नक्षत्र का है कात्यायन, (२७) पूर्वाषाढा नक्षत्र का बाभ्रव्यायन, तथा (२८) उत्तराषाढा नक्षत्र का व्याघ्रापत्य गोत्र है। [प्र. ] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का कैसा संस्थान-आकार है? [उ.] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का संस्थान गोशीर्षावलि-गाय के मस्तक के पुद्गलों की दीर्घरूप-लम्बी श्रेणी जैसा है। गाथार्थ-प्रथम से अन्तिम तक सब नक्षत्रों के संस्थान इस प्रकार हैं (१) अभिजित् नक्षत्र का गोशीर्षावलि के सदृश, (२) श्रवण नक्षत्र का कासार-तालाब के समान, 9 (३) धनिष्ठा नक्षत्र का पक्षी का कलेवर के सदृश, (४) शतभिषक् नक्षत्र का पुष्प-राशि के समान, 55555555555555555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (641) Seventh Chapter 555 55555555 $ $$$ $5555555FFFFFF5555555 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95555555555555555555555555555555555559 ॐ (५) पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र का अर्धवापी-आधी बावड़ी के तुल्य, (६) उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र का भी अर्धवापी के सदृश, (७) रेवती नक्षत्र का नौका के सदृश, (८) अश्विनी नक्षत्र का अश्व स्कन्ध के समान, ॐ (९) भरणी नक्षत्र का भग के समान, (१०) कृत्तिका नक्षत्र का क्षुरगृह-नाई की पेटी के समान, (११) रोहिणी नक्षत्र का गाड़ी की धुरी के समान, (१२) मृगशिर नक्षत्र का मृग के मस्तक के समान, (१३) आर्द्रा नक्षत्र का रुधिर की बूँद के समान, (१४) पुनर्वसु नक्षत्र का तराजू के सदृश, (१५) पुष्य नक्षत्र का सुप्रतिष्ठित वर्द्धमानक-एक विशेष आकार-प्रकार की सुनिर्मित (तश्तरी) के समान, : (१६) अश्लेषा नक्षत्र का ध्वजा के सदृश, (१७) मघा नक्षत्र का प्राकार-प्राचीर या परकोटे के सदृश, (१८) पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र का आधे पलँग के समान, (१९) उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र का भी आधे पलँग के सदृश, (२०) हस्त नक्षत्र का हाथ के समान, (२१) चित्रा नक्षत्र का मुख पर सुशोभित पीली जूही के पुष्प के सदृश, (२२) स्वाति नक्षत्र का कीलक के तुल्य, (२३) विशाखा नक्षत्र का दामनि-पशुओं को 3 बाँधने की रस्सी के सदृश, (२४) अनुराधा नक्षत्र का एकावली-इकलड़े हार के समान, (२५) ज्येष्ठा नक्षत्र का हाथी-दाँत के समान, (२६) मूल नक्षत्र का बिच्छू की पूँछ के सदृश, (२७) पूर्वाषाढा नक्षत्र का हाथी के पैर के सदृश, तथा (२८) उत्तराषाढा नक्षत्र का बैठे हुए सिंह के सदृश संस्थान-आकार बतलाया गया है। 192. (Q.1 Out of twenty eight constellations what is the family status (gotra) of Abhijit constellation ? [Ans.] The gotra of the constellation from first to last one are as under (1) Maudgalayan is of Abhijit constellation, (2) Shravan constellation is Sankhyayan, (3) Agrabhav is Dhanishtha constellation, (4) Kannilayan is of Shatabhishak constellation, (5) Jatukarnn is of Poorvabhadra constellation, (6) Dhananjay is of Uttarabhadra constellation, (7) Pushyayan is of Revati constellation, (8) Ashvayan is of ॐ Ashvini constellation, (9) Bhargavesh is of Bharani constellation, (10) Agnivesh is of Kritika constellation, (11) Gautam is of Rohini constellation, (12) Bhardvaj is of Mrigashir constellation, (13) Lohityayan is of Ardra constellation, (14) Punarvasu constellation is Vaasishth, (15) Avamajjayan is of Ashlesha constellation, (16) Maandavyayan is of Ashlesha constellation, (17) Pingaya is of Magha constellation, (18) Govallayan is of Poorva-phalguni constellation, shyap is of Uttara-phalguni constellation, (20) Kaushik is of Hasta constellation, (21) Darbhayan is of Chitra constellation, (22) Chamarachchhayan is of Svati constellation, (23) Shungayan is of | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (542) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐卐5555555555555555555555555555555)))))))))) 四听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555555 卐 卐 卐 卐 5555555555555 卐 卐 卐 卐 卐 Vishakha constellation, (24) Golavyayan is of Anuradha constellation, (25) Chikitsayan is of Jyeshtha constellation, (26) Katyayan is of Mool constellation, (27) Babhravyayan is of Poorvashadha constellation, and (28) Vyaghrapatya is of Uttarashadha constellations. 卐 45 (14) Like Scales is of Punrvasu constellation, (15) Like Supratishthit Vardhamanak (special plate) is of Pushya constellation, (16) Like the shape of a flag is Ashlesha constellation, (17) Like the shape of a wall is of Magha constellation, (18) Like the shape of half a bed is of Poorvphalguni constellation, (19) Like the shape of half a bed is of Uttarphalguni constellation, (20) Like the shape of a hand is of Hasta constellation, (21) Like the shape of a yellow Juhi flower decorating the face is of Chitra constellation, (22) Like the shape of a nail is of Svati constellation, (23) Like the shape of a string use tie animals is of 卐 [Q] Reverend Sir! What is the shape of Abhijit constellation out of these twenty eight constellation? [Ans.] Gautam ! The shape of Abhijit constellation is like line of particles of cows head. The shapes of all the constellations right from the first to the last one are as under-(1) Like line of material particles of cow's head is the shape of Abhijit constellation. (2) Like a tank is of Shravan constellation, (3) Like corpse of a bird is of Dhanishtha constellation, (4) Like heap of flowers is of Shatabhishak constellation, (5) Like half lake is of Poorvabhadra constellation, (6) Like half lake is of Uttarabhadra constellation, (7) Like a boat is of Revati constellation, (8) Like shoulder of horse is of Ashvini constellation, (9) Like Bhog is of Bharani constellation, (10) Like barber's box is of Kritika constellation, (11) Like central rod of a cart is of Rohini constellation, (12) Like head of a deer is of Mrigashir constellation, (13) Like blood drop is of Ardra constellation, Vishakha constellation, (24) Like the shape of one stringed garland is of Anuradha constellation, (25) Like the shape of tusk of an elephant is of Jyeshtha constellation, (26) Like the shape of the tail of a scorpion is of Mool constellation, (27) Like the shape of a food of elephant is of Poorvashadha constellation, (28) Like the shape of seated lion is ofUttarashadha constellation. सप्तम वक्षस्कार (543) 555555555555555555 Seventh Chapter 55555555555555555550 卐 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम विष्णु वसु 9555555555555555555555555555))))))))))))) B5555555555555555555555555555 अट्ठाईस नक्षत्रों की तालिका नक्षत्र देवता | तारे । | गोत्र संस्थान अभिजित् ब्रह्मा मौद्गलायन गोशीर्ष के सदृश श्रवण सांख्यायन तालाब के समान धनिष्ठा अग्रभाव पक्षी कलेवर सदृश शतभिषक् वरुण १०० कण्णिलायन पुष्प-राशिवत् पूर्वभाद्रपदा अज जातुकर्ण अर्धवापी उत्तरभाद्रपदा अभिवृद्धि धनंजय अर्धवापी रेवती पूषा पुष्यायन नौका अश्विनी अश्व अश्वायन अश्वस्कन्ध भरणी यम भार्गवेश भग के समान कृत्तिका अग्नि अग्निवेश्य क्षुरगृह रोहिणी प्रजापति गौतम गाड़ी की धुरी मृगशिर सोम भारद्वाज मृग के मस्तक आर्द्रा रुद्र लोहित्यायन रुधिर बिन्दु पुनर्वसु अदिति वासिष्ठ तराजू पुष्य अवमज्जायन वर्द्धमानक अश्लेषा माण्डव्यायन ध्वजा पितृ पिंगायन प्राचीर पूर्वाफाल्गुनी भग गोवल्लायन आधे पलँगवत् उत्तराफाल्गुनी अर्यमा काश्यप आधे पलँगवत् हस्त सविता कौशिक हाथ के समान चित्रा त्वष्टा दार्भायन पीली जूही के पुष्प स्वाति वायु चामरच्छायन कीलक विशाखा इन्द्राग्नि शुंगायन पशु बाँधने की रस्सी अनुराधा मित्र गोलव्यायन एकावली हार इन्द्र चिकित्सायन हाथी-दाँत मूल नैर्ऋत कात्यायन बिच्छू की पूँछ पूर्वाषाढा आप वाभ्रव्यायन हाथी के पैर तुल्य उत्तराषाढा विश्वेदेव व्याघ्रापत्य बैठे हुए सिंह तुल्य सूत्र-१९० सूत्र-१९१ सूत्र-१९२ सूत्र-१९२ GmWS OF MMMAN बृहस्पति सर्प मघा 0.5 ज्येष्ठा सूत्र-१८८ - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (644) Jambudveep Praynapti Sutra 白牙牙牙牙牙乐步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙E Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *5555555555555555555555555555555555555555555555555 卐 *****பூபூபூபூபூதபூ*****************பூபூபூகககVE Table of Constellation S. No. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. Constellation Abhijit Shravan Dhanishtha Shatabhishak 3 3 5 100 Poorvabhadrapada Aja 2 Uttarabhadrapad Abhivriddhi 2 Poosha 32 Horse 3 Revati Ashvini Bharani Kritika Rohini Mrigashir Ardra Punarvasu Pushya Ashlesha Magha Poorvaphalguni Uttaraphalguni Hasta Chitra Svati Vishakha Anuradha Jyeshtha Mool Poorvashadha Uttarashadha Sutra-188 सप्तम वक्षस्कार Its God Brahma Vishnu Vasu Varuan Yam Fire Prajapati Som Rudra Aditi Brihspati Snake Pitri Bhaga Aryama Savita Tvashta Vaayu Indragni Mitra Indra Nairrit Aaap Stars Vishvedev Sutra-190 5 3 1 3 Bhargavech 6 Agniveshya 6 7 2 2 5 1 1 5 Family Status Maudgalayan Sankhyayan Agrabhava 4 Kannilayan Jatukarnn Dhananjaya Pushyayan Ashvayan 5 Vaasishtha 3 Avamajjayan Gautam Bhardvaj Lohityayan Maandavyayan Pingayan Govallayan Kashyap Kaushik Daarbhayan Chamarachchhayan Shungayan Golavyayan 3 Chikitsayan 11 Katyayan Vabhravyayan 4 4 Vyaghrapatya Sutra-191 Sutra-192 (545) Shape Like cow's head Like a tank Like corpse of a bird Like heap of flowers Like half a lake Like shape of half a lake Like that of a boat Like that of shoulder of a horse Like that of a Bhag Like that of box of a barber Like that of central rod of a cart Like that of head of a deer Like that of drop of blood Like that of scales Like that of Vardhamanak Like that of a flag Like that of a wall Like that of half a bed Like that of half a bed Like that of a hand Like that of yellow Juhi flower Like that of a nail Like string to tie animals Like single-stringed garland Like tusk of elephant Like tail of scorpion Like foot of elephant Like a sitting lion Sutra-192 Seventh Chapter 5555555555555555555555555555550 卐 卐 卐 1555555555555555555555555555555555555 45 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-बानागाजागाजावाजागाजाIEm19 卐)))))5:5555555555555555555555555555555558 55555555555555555555555555555555555) नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य योग काल Y CONSTELLATIONS—MOON-SUN THEIR PERIOD OF CONNECTION (YOGA) १९३. [प्र. ] एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतिमुहुत्ते चन्देण सद्धिं ऊ जोगं जोएइ ? __ [उ. ] गोयमा ! णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए मुहुत्तस्स चन्देण सद्धिं जोगं जोएइ। एवं इमाहिं गाहार्हि अणुगन्तव्वं अभिइस्स चन्द-जोगो, सत्तहिं खंडिओ अहोरत्तो। ते हुंति णवमुहुत्ता, सत्तावीसं फलाओ ॥१॥ सयभिसया भगणीओ, अद्धा अस्सेस साइ जेट्ठा य। एते छण्णक्खत्ता, पण्णरस-मुहत्त-संजोगा॥२॥ तिण्णेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य। एए छण्णक्खत्ता, पणयाल-मुहुत्त-संजोगा॥३॥ अवसेसा णक्खत्ता, पण्णरस वि हुंति तीसइमुहुत्ता। चन्दंमि एस जोगो, णक्खत्ताणं मुणेअव्वो॥४॥ [प्र. ] एतेसिं णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतिअहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं 5 जोएइ। [उ. ] गोयमा ! चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ, एवं इमाहिं गाहाहिं अव् अभिई छच्च मुहुत्ते, चत्तारि अ केवले अहोरते। सूरेण समं गच्छइ, एत्तो सेसाण वोच्छामि॥१॥ सयभिसया भरणीओ, अद्दा, अस्सेस साइ जेट्ठा य। वच्चंति मुहुत्ते, इक्कवीस छच्चेवऽहोरत्ते॥२॥ तिण्णेव उत्तराई, पुणवसू रोहिणी विसाहाय। वच्चंति मुहुत्ते, तिण्णि चेव वीसं अहोरत्ते॥३॥ अवसेसा णक्खत्ता, पण्णरस वि सूरसहगया जंति। बारस चेव मुहुत्ते, तेरस य समे अहोरत्ते॥४॥ १९३. [प्र. ] भगवन् ! अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र कितने मुहूर्त पर्यन्त चन्द्रमा के साथ योगयुक्त रहता है ? __ [उ. ] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र चन्द्रमा के साथ ९२७ मुहूर्त पर्यन्त योगयुक्त रहता है। इन 卐 निम्नांकित गाथाओं द्वारा नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग ज्ञातव्य है | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 4544))))))))))))) (546) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) )) ) ))) 听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFFFF )) ))) 255555555555555555555555558 गाथार्थ-अभिजित् नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ एक अहोरात्र में-३० मुहूर्त में उनके १७ भाग परिमित योग रहता है। इससे अभिजित् चन्द्रयोग काल x =३७ =९६७ मुहूर्त फलित होता है। ज शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति एवं ज्येष्ठा-इन छह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ १५ मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। __ तीनों उत्तरा-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा तथा उत्तरभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी तथा विशाखा-इन छह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ ४५ मुहूर्त योग रहता है। ___बाकी पन्द्रह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ ३० मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। यह नक्षत्र-चन्द्र-योगके क्रम है। [प्र.] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र सूर्य के साथ कितने अहोरात्र पर्यन्त योगयुक्त रहता है ? [उ.] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र सूर्य के साथ ४ अहोरात्र एवं ६ मुहूर्त पर्यन्त योगयुक्त रहता है। इन निम्नांकित गाथाओं द्वारा नक्षत्र-सर्य योग ज्ञातव्य है। गाथार्थ-अभिजित् नक्षत्र का सूर्य के साथ ४ अहोरात्र तथा ६ मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति तथा ज्येष्ठा-इन नक्षत्रों का सूर्य के साथ ६ अहोरात्र तथा २१ मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। के तीनों उत्तरा-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा तथा उत्तरभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी एवं विशाखा-इन नक्षत्रों का सूर्य के साथ २० अहोरात्र और ३ मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। बाकी के पन्द्रह नक्षत्रों का सूर्य के साथ १३ अहोरात्र तथा १२ मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। ___193. [Q.J Reverend Sir ! For how many muhurat Abhijit constellation among 28 constellations remains connected with the moon ? [Ans.] Gautam ! Abhijit constellation remains connected with the moon for a period is 9 Muhurat. The period of connection with moon has been mentioned in the verses. 4i Meaning of the Verses-Abhijit constellation remains connected with the moon far period of 21 of a ahoratri which works out to 30 muhurat x 1 = 60 = 9 muhurat. The connection of six constellation namely Shatabhishak. Bharni, Aardra, Ashlesha, Svati and Jyeshtha with the moon is for 15 muhurats. The connection of six constellation namely Uttarphalguni, Uttarashadha, Uttarbhadrapada Punarvasu, Rohini and Vishakha with the moon is for a period of 45 muhurats. )))) ))) ))) ))) 55555555555555555555555555 )) ))) ) | सप्तम वक्षस्कार (647) 卐) Seventh Chapter Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25595555 5 5 5 5 5 55 55 5 559 555 5 55 55 5 5 9 5 5 555 5555955555 卐 卐 卐 फ्र 卐 卐 卐 卐 卐 卐 The connection of ( six constellations namely ) Shatabhishak, Bharni, Aardra, Ashlesha, Svati and Jyeshtha with the sun is for six ahoratri 卐 and 21 muhurats. 卐 தமி*தத****************************தி*5* 卐 [Q] Reverend Sir ! For how many ahoratri does abhijit constellation remains connected with the sun? फ्र The connection of remaining fifteen constellation with the moon is for फ्र a period of 30 muhurat. This is the order of connection of constellations with the moon. [Ans.] Gautam ! Abhijit constellation remains connected with the sun for four ahoratri and six muhurats. The period of connection of constellation with sun has been mentioned in the following verses: Meaning of the Verses-The connection of Abhijit constellation with the sun is for a period of four ahoratri and six muhurats. The connection of six constellations namely Uttarphalguni, Uttarashadha, Uttarbhadrapada, Punarvasu, Rohini and Vishakha with the sun is for twenty ahoratri and three muhurats. 5 कुल - उपकुल-कुलोपकुल: पूर्णिमा, अमावस्या The connection of remaining fifteen constellations with the sun is for 13 ahoratri and twelve muhurats. FAMILY -- SUB- FAMILY (UPAKUL), FAMILY IN FAMILY : FULL BRIGHT NIGHT, FULL DARK NIGHT (AMAVASYA) १९४. [ प्र. १ ] कति णं भंते ! कुला, कति उवकुला, कति कुलोवकुला पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता । (क) बारस कुला, तं जहा - - धणिट्ठाकुलं १, उत्तरभद्दवयाकुलं २, अस्सिणीकुलं ३, कत्तिआकुलं ४, मिगसिरकुलं ५, पुस्सोकुलं ६, मघाकुलं ७, उत्तरफग्गुणीकुलं ८, चित्ताकुलं ९, विसाहाकुलं १०, मूलोकुलं ११, उत्तरासाढाकुलं १२ । मासाणं परिणामा होंति कुला उवकुला उ हेट्ठिमगा । अणुराहा कुलोवकुला | 卐 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (548) 255555 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 5 55 5 5 5 5 5 55595959595955 **த்தத****************************திதி5 卐 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 卐 卐 卐 फ्र होंत पुण कुलोवकुला अभीभिसय अद्द अणुराहा ॥१ ॥ (ख) बारस उवकुला, तं जहा - सवणो-उवकुलं, पुव्वभद्दवया - उवकुलं, रेवई - उबकुलं, भरणी- 5 उवकुलं, रोहिणी - उबकुलं, पुणव्वसू -उवकुलं, अस्सेसा - उवकुलं, पुव्वफग्गुणी - उबकुलं, हत्थो - उबकुलं, फ साई - उवकुलं, जेट्ठा - उबकुलं, पुव्वासाढा - उवकुलं । 卐 (ग) चत्तारि कुलोवकुला, तं जहा- -अभिई कुलोवकुला, सयभिसया कुलोवकुला, अद्दा कुलोवकुला, 5 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बब ***தமிமிமிமிமிதத*********************தமிதிதி [प्र. १ ] कति णं भन्ते ! पुण्णिमाओ, कति अमावासाओ पण्णत्ताओ ? [उ.] गोयमा ! बारस पुण्णिमाओ, बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - साविट्ठी, पोट्ठवई, आसोई, कत्तिगी, मग्गसिरी, पोसी, माही, फग्गुणी, चेत्ती, वइसाही, जेट्ठामूली, आसाढी । [प्र. २] साविट्ठिण्णिं भन्ते ! पुण्णिमासिं कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ? [ उ. ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता जोगं जोएंति, तं जहा- अभिई, सवणो, धणिट्ठा ३ । [प्र. ३ ] पोट्ठवईणिं भन्ते ! पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोति ? [उ. ] गोयमा ! तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा - सयभिसया पुव्वभद्दवया उत्तरभद्दवया । [ प्र. ] अस्सोइण्णिं भन्ते ! पुण्णिमं कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ? 卐 [उ. ] गोयमा ! दो जोएंति, तं जहा - रेवई अस्सिणी अ, कत्तिइण्णं दो-भरणी कत्तिआ य, 5 मग्गसिरिण्णं दो- रोहिणी मग्गसिरं च, पोसिं तिण्णि- अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो, माघिण्णं दो- अस्सेसा मघा य, मग्गसिरिणं दो- रोहिणी मग्गसिरं च, पोसिं तिण्णि- अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो, माघिण्णं दो-अस्सेसा मघा य, फग्गुणिं णं दो- पुव्याफग्गुणी य, उत्तराफग्गुणी य, चेत्तिण्णं दो - हत्थो चित्ता य, विसाहिणं 5 दो - साई विसाहा य, जेट्ठामूलिण्णं तिण्णि- अनुराहा, जेट्ठा, मूलो, आसाढिण्णं दो-पुव्वासाढा, उत्तरासाढा । धणिट्ठा [प्र.५] साविट्ठिण्णं भन्ते ! पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? जो माणे [उ.] गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ । कुलं णक्खत्ते जोएइ, उबकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते फ जोए । साविट्ठीण्णं पुण्णिमासिं णं कुलं वा जोएइ (उबकुलं वा जोएइ) कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिआ । [प्र. ६ ] पोट्ठवदिण्णं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं जोएइ ३ पुच्छा ? 卐 फ्र [उ. ] गोयमा ! कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरभद्दवया णक्खत्ते 5 जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुव्यभद्दवया णक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे सयभिसया णक्खत्ते जोएइ । पोवइण्ण पुण्णिमं कुलं वा जोएइ ( उवकुलं वा जोएइ), कुलोवकुलं वा जोएइ । कुलेण वा जुत्ता (उवकुलेण वा जुत्ता), कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोट्ठवई पुण्णमासी जुत्तत्ति वत्तव्वयं सिया । [प्र. ७ ] अस्तोइण्णं भंते ! पुच्छा ? 卐 [उ.] गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ । णो लब्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे रेवइणक्खत्ते जोएइ, अस्सोइण्णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिआ । [प्र. ८ ] कत्तिइण्णं भन्ते ! पुण्णिमं किं कुलं ३ पुच्छा ? सप्तम वक्षस्कार (549) फफफफफफफ 卐 卐 Seventh Chapter 卐 फ्र Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFhhhhhhhhhhhhhhh 05555555555555555555555555555555555550 म [उ. ] गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो कुलोवकुलं जोएइ, कुलं जोएमाणे कत्तिआणखत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे भरणीणक्खत्ते जोएइ। कत्तिइण्णं (पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, . उवकुलं वा जोएइ। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिगी पुण्णिमा जुत्तत्ति) वत्तव्वं सिआ। [प्र. ९] मग्गसिरिणं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं तं चैव दो जोएइ, णो भवइ कुलोवकुलं? [उ. ] कुलं जोएमाणे मग्गसिर-णक्खत्ते जोएइ उवकुलं जोएमाणे रोहिणी णक्खत्ते जोएइ। ॐ मग्गसिरणं पुण्णिमं जाव वत्तव्वं सिया इति। एवं सेसिआओऽवि जाव आसादि। पोसिं, जेट्ठामूलिं च कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं वा, सेसिआणं कुलं वा उवकुलं वा, कुलोवकुलं ण भण्णइ। [प्र. १०] साविट्ठिण्णं भंते ! अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? [उ. ] गोयमा ! दो णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-अस्सेसा य महा य। [प्र. ११ ] पोट्ठवइण्णं भंते ! अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? [उ. ] गोयमा ! दो-पुव्व फगुणी उत्तरा फग्गुणी, अस्सोइण्णं भन्ते ! दो-हत्थे चित्ता य, कत्तिइण्णं दो-साई विसाहाय, मग्गसिरिणं तिण्णि-अणुराहा, जेट्ठा, मूलो अ, पोसिण्णिं दो-पुब्बासाढा, उत्तरासाढा, चेत्तिण्णं दो-रेवई अस्सिणी अ, वइसाहिण्णं दो-भरणी, कत्तिआ य, जेवामूलिणं दो-रोहिणी-मग्गसिरं च, आसाढिण्णं तिण्णि-अद्दा, पुणब्बसू, पुस्सो इति। [प्र. १२ ] साविट्ठिण्णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ, उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? [उ. ] गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो लब्भइ कुलोवकुलं। कुलं जोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे अस्सेसाणक्खत्ते जोएइ। ___साविट्टिणं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिआ। ___[प्र. १३ ] पोट्ठवईण्णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? ___ [उ. ] गोयमा ! अमावासं तं चेव दो जोएइ कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलं जएमाणे में उत्तरा-फग्गुणी–णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुवा-फग्गुणी, पोट्ठवईण्णं अमादासं (कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता पोट्ठवई अमावासा) वत्तव्वं सिआ। [१४] मग्गसिरिण्णं तं चेव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ उवकुले जेट्टा, कुलोवकुले अणुराहा जाव # जुत्तत्तिवत्तव् सिया। एवं माहीए फग्गुणीए आसाढीए कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुंल वा, अवसेसिआणं कुलं वा उवकुलं वा जोएइ।। [१५] जया णं भंते ! साविट्ठी पुण्णिमा भवइ तया णं माही अमावासा भवइ ? जया णं भंते ! माही पुण्णिमा भवइ तया णं साविट्ठीअमावासा भवइ ? [उ. ] हंता गोयमा ! जया णं साविट्ठी तं चेव वत्तव्वं । 85555FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति स्त्र (550) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफ फफफफफफफफ फ्र [प्र.१६] जया भन्ते ! पोट्ठवई पुण्णिमा भवइ तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ, जया णं फग्गुणी पुण्णिमा भवइ तया णं पोट्ठवई अमावासा भवइ ? [उ. ] हंता गोयमा ! तं चेवे, एवं एतेणं अभिलावेणं इमाओ पुण्णिमाओ अमावासाओ णेअव्वाओअस्सिणी पुण्णिमा चेत्ती अमावास, कत्तिगी पुण्णिमा वइसाही अमावासा, मग्गसिरी पुण्णिमा जेट्ठामूली अमावासा, पोसी पुण्णिमा आसाढी अमावासा । १९४. [ प्र. ] भगवन् ! कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल कितने बतलाये हैं ? [.] गौतम ! कुल बारह, उपकुल बारह तथा कुलोपकुल चार बतलाये हैं। (क) बारह कुल, जैसे- (१) धनिष्ठा कुल, (२) उत्तरभाद्रपदा कुल, (३) अश्विनी कुल, (४) कृत्तिका कुल, (५) मृगशिर कुल, (६) पुण्य कुल, (७) मघा कुल, (८) उत्तरफाल्गुनी कुल, (९) चित्रा कुल, (१०) विशाखा कुल, (११) मूल कुल, तथा (१२) उत्तराषाढा कुल । जिन नक्षत्रों द्वारा महीनों की परिसमाप्ति होती है, वे माससदृश नाम वाले नक्षत्र कुल कहे जाते हैं। 5 जो कुलों के अधस्तन होते हैं, कुलों के समीप होते हैं, वे उपकुल कहे जाते हैं। वे भी मास-समापक होते 5 हैं। जो कुलों तथा उपकुलों के अधस्तर होते हैं, वे कुलोपकुल कहे जाते हैं। (ख) बारह उपकुल, जैसे- (१) श्रवण उपकुल, (२) पूर्वभाद्रपदा उपकुल, (३) रेवती उपकुल, 5 (४) भरणी उपकुल, (५) रोहिणी उपकुल, (६) पुनर्वसु उपकुल, (७) अश्लेषा उपकुल, 卐 (८) पूर्वफाल्गुनी उपकुल, (९) हस्त उपकुल, (१०) स्वाति उपकुल, (११) ज्येष्ठा उपकुल, तथा फ (१२) पूर्वाषाढा उपकुल । (ग) चार कुलोपकुल, जैसे- (9) अभिजित् कुलोपकुल, (२) शतभिषक् कुलोपकुल, (३) आर्द्रा कुलोपकुल, तथा (४) अनुराधा कुलोपकुल । [प्र. १ ] भगवन् ! पूर्णिमाएँ तथा अमावस्याएँ कितनी बतलाई हैं ? [ उ. ] गौतम ! बारह पूर्णिमाएँ तथा बारह अमावस्याएँ बतलाई हैं, जैसे- (१) श्राविष्ठी - श्रावणी, (२) प्रौष्ठपदी - भाद्रपदी, (३) आश्वयुजी - आसोजी, (४) कार्तिकी, (५) मार्गशीर्षी, (६) पौषी, फ (७) माघी, (८) फाल्गुनी, (९) चैत्री, (१०) वैशाखी, (११) ज्येष्ठामूली, तथा (१२) आषाढी । [प्र. २. ] भगवन् ! श्रावणी पूर्णमासी के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? [उ.] गौतम ! श्रावणी पूर्णमासी के साथ अभिजित्, श्रवण तथा धनिष्ठा - इन तीन नक्षत्रों का योग होता है। [प्र. ३ ] भगवन् ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? [.] गौतम ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ शतभिषक् पूर्वभाद्रपदा तथा उत्तरभाद्रपदा - इन तीन नक्षत्रों का योग होता है । [प्र. ४ ] भगवन् ! आश्विन पूर्णिमा के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? सप्तम वक्षस्कार फफफफफफफफ (551) Seventh Chapter ***************தவி***************தமி558 . Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 855555555555555555555555555555555 [उ. ] गौतम ! आश्विन पूर्णिमा के साथ रेवती तथा अश्विनी-इन दो नक्षत्रों का योग होता है। के कार्तिक पूर्णिमा के साथ भरणी तथा कृत्तिका-इन दो नक्षत्रों का, मार्गशीर्षी पूर्णिमा के साथ रोहिणी ! तथा मृगशिर-दो नक्षत्रों का, पौषी पूर्णिमा के साथ आर्द्रा, पुनर्वसु तथा पुष्य-इन तीन नक्षत्रों का, माघी , ॐ पूर्णिमा के साथ अश्लेषा और मघा-दो नक्षत्रों का, फाल्गुनी पूर्णिमा के साथ पूर्वाफाल्गुनी तथा । + उत्तराफाल्गुनी-दो नक्षत्रों का, चैत्री पूर्णिमा के साथ हस्त एवं चित्र-दो नक्षत्रों का, वैशाखी पूर्णिमा के साथ स्वाति और विशाखा-दो नक्षत्रों का, ज्येष्ठामूली पूर्णिमा के साथ अनुराधा, ज्येष्ठा एवं मूल-इन 卐 तीन नक्षत्रों का तथा आषाढी पूर्णिमा के साथ पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा-दो नक्षत्रों का योग होता है। [प्र. ५ ] भगवन् ! श्रावणी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का-कुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता है ? क्या म उपकुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता है ? क्या कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता है ? 4 [उ. ] गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है और कुलोपकुल का योग होता है। ॐ कुल योग के अन्तर्गत धनिष्ठा नक्षत्र का योग होता है, उपकुल योग के अन्तर्गत श्रवण नक्षत्र का योग होता है तथा कुलोपकुल योग के अन्तर्गत अभिजित् नक्षत्र का योग होता है। उपसंहार-रूप में विवक्षित है-श्रावणी पूर्णमासी के साथ कुल, (उपकुल) तथा कुलोपकुल का योग होता है यों श्रावणी पूर्णमासी + कुल योगयुक्त, उपकुल योगयुक्त तथा कुलोपकुल योगयुक्त होती है। 3 [प्र. ६ ] भगवन् ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है? क्या उपकुल का योग + होता है? क्या कुलोपकुल का योग होता है? [उ. ] गौतम ! कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल-तीनों का योग होता है। उपसंहार रूप में विवक्षित है-भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ कुल का योग होता है। (उपकुल का योग, । होता है), कुलोपकुल का योग होता है। यों भाद्रपदी पूर्णिमा कुल योगयुक्त, उपकुल योगयुक्त तथा कुलोपकुल योगयुक्त होती है। __ [प्र. ७ ] भगवन् ! आश्विन पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है ? उपकुल का योग होता है ? कुलोपकुल का योग होता है ? . [उ. ] गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुल योग के अन्तर्गत अश्विनी नक्षत्र का योग होता है, उपकुल योग के अन्तर्गत रेवती नक्षत्र का योग 卐 होता है। उपसंहार रूप में विवक्षित है-आश्विन पूर्णिमा के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग ॐ होता है। यों आसोजी पूर्णिमा कुल योगयुक्त, उपकुल योगयुक्त होती है। [ [प्र. ८ ] भगवन् ! कार्तिकी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है ? उपकुल का योग होता ॐ है ? कुलोपकुल का योग होता है? म [उ. ] गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। ॐ कुल योग के अन्तर्गत कृत्तिका नक्षत्र का योग होता है, उपकुल योग के अन्तर्गत भरणी नक्षत्र का योग 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听的 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (552) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) 8555555555555555555555555555555555555555555555555 0555555555555 55 5 15 15 155 55 5 555.5 55 5 15 15 15 5.5 55 55 55555550 * होता है। उपसंहार-कार्तिक पूर्णिमा के साथ कुल का एवं उपकुल का योग होता है। यों वह कुल + योगयुक्त तथा उपकुल योगयुक्त होती है। [प्र. ९ ] भगवन् ! मार्गशीर्षी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है ? उपकुल का योग होता फ़ है? कुलोपकुल का योग होता है ? _ [उ. ] गौतम ! दो का-कुल का एवं उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुल ऊ योग के अन्तर्गत मृगशिर नक्षत्र का योग होता है, उपकुल योग के अन्तर्गत रोहिणी नक्षत्र का योग होता है। मार्गशीर्षी पूर्णिमा के सम्बन्ध में आगे वक्तव्यता पूर्वानुरूप है। आषाढी पूर्णिमा तक का वर्णन वैसा ही है। इतना अन्तर है-पौषी तथा ज्येष्ठामूली पूर्णिमा के साथ कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल का योग होता है। बाकी की पूर्णिमाओं के साथ कुल एवं उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। [प्र. १० ] भगवन् ! श्रावणी अमावस्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है? [उ. ] गौतम ! श्रावणी अमावस्या के साथ अश्लेषा तथा मघा-इन दो नक्षत्रों का योग होता है। [प्र. ११ ] भगवन् ! भाद्रपदी अमावस्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? [उ. ] गौतम ! भाद्रपदी अमावस्या के साथ पूर्वाफाल्गुनी तथा उत्तराफाल्गुनी-इन दो नक्षत्रों का योग होता है। भगवन् ! आसोजी अमावस्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है? गौतम ! आसोजी अमावस्या के साथ हस्त एवं चित्रा-इन दो नक्षत्रों का, कार्तिकी अमावस्या के साथ स्वाति एवं विशाखा-दो नक्षत्रों का, मार्गशीर्षी अमावस्या के साथ अनुराधा, ज्येष्ठा तथा मूल-इन तीन नक्षत्रों का, पौषी अमावस्या के साथ पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढा-इन दो नक्षत्रों का, माघी अमावस्या के साथ अभिजित्, श्रवण और धनिष्ठा-इन तीन नक्षत्रों का, फाल्गुनी अमावस्या के साथ शतभिषक्, पूर्वभाद्रपदा फ़ एवं उत्तरभाद्रपदा-इन तीन नक्षत्रों का, चैत्री अमावस्या के साथ रेवती और अश्विनी-इन दो नक्षत्रों का, वैशाखी अमावस्या के साथ भरणी और कृत्तिका-इन दो नक्षत्रों का, ज्येष्ठामूला अमावस्या के साथ रोहिणी एवं मृगशिर-इन दो नक्षत्रों का और आषाढी अमावस्या के साथ आर्द्रा, पुनर्वसु तथा पुष्य-इन 5 तीन नक्षत्रों का योग होता है। [प्र. १२ ] भगवन् ! श्रावणी अमावस्या के साथ क्या कुल का योग होता है? क्या उपकुल का योग + होता है ? क्या कुलोपकुल का योग होता है ? [उ. ] गौतम ! श्रावणी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुल योग के अन्तर्गत मघा नक्षत्र का योग होता है, उपकुल योग के __ अन्तर्गत अश्लेषा नक्षत्र का योग होता है। ___उपसंहार रूप में विवक्षित है-श्रावणी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है। यों वह कुल योगयुक्त एवं उपकुल योगयुक्त होती है। ____ [प्र. १३ ] भगवन् ! क्या भाद्रपदी अमावस्या के साथ कुल, उपकुल और कुलोपकुल का योग भ होता है? 55555;))))))))))))))))))))))))))))))))) 5 5 सप्तम वक्षस्कार (553) Seventh Chapter w555555555555555 听听听听听听F$听听听听听听听听听听听听听 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555555555 ) ) ) )) )) ) 855555555555555555555555)))) [उ. ] गौतम ! भाद्रपदी अमावस्या के साथ कुल एवं उपकुल-इन दो का योग होता है। कुल योग के के अन्तर्गत उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग होता है। उपकुल योग के अन्तर्गत पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का योग होता है। (उपसंहार-रूप में विवक्षित है-भाद्रपदी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है। यों वह कुल योगयुक्त होती है, उपकुल योगयुक्त होती है।) [१४] मार्गशीर्षी अमावस्या के साथ कुल योग के अन्तर्गत मूल नक्षत्र का योग होता है, उपकुल ॐ योग के अन्तर्गत ज्येष्ठ नक्षत्र का योग होता है तथा कुलोपकुल योग के अन्तर्गत अनुराधा नक्षत्र का योग 卐 होता है। आगे की वक्तव्यता पूर्वानुरूप है। माघी, फाल्गुनी तथा आषाढी अमावस्या के साथ कुल, 5 उपकुल एवं कुलोपकुल का योग होता है, बाकी की अमावस्याओं के साथ कुल एवं उपकुल का योग 卐 होता है। [प्र. १५] भगवन् ! क्या जब श्रवण नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है, तब क्या तत्पूर्ववर्तिनी ॐ अमावस्या मघा नक्षत्रयुक्त होती है? भगवन् ! जब पूर्णिमा मघा नक्षत्रयुक्त होती है तब क्या तत्पश्चाद्भाविनी अमावस्या श्रवण नक्षत्रयुक्त होती है ? [उ. ] गौतम ! ऐसा ही होता है। जब पूर्णिमा श्रवण नक्षत्रयुक्त होती है तो उससे पूर्व अमावस्या म मघा नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा मघा नक्षत्रयुक्त होती है तो उसके पश्चात् आने वाली अमावस्या श्रवण नक्षत्रयुक्त होती है। [प्र. १६] भगवन् ! जब पूर्णिमा उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रयुक्त होती है, तब क्या तत्पश्चाद्भाविनी अमावस्या उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त होती है ? जब पूर्णिमा उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त होती है, तब क्या ॐ अमावस्या उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रयुक्त होती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा ही होता है। इस अभिलाप-कथन-पद्धति के अनुरूप पूर्णिमाओं तथा * अमावस्याओं की संगति निम्नांकित रूप में जाननी चाहिए ___ जब पूर्णिमा अश्विनी नक्षत्रयुक्त होती है, तब पश्चाद्वर्तिनी अमावस्या चित्रा नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा चित्रा नक्षत्रयुक्त होती है, तो अमावस्या अश्विनी नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा कृत्तिका नक्षत्रयक्त होती है. तब अमावस्या विशाखा नक्षत्रयक्त होती है। जब पर्णिमा विशाखा नक्षत्रयक्त होती है. तब अमावस्या कृत्तिका नक्षत्रयुक्त होती है। जब पर्णिमा मगशिर नक्षत्रयक्त होती है, तब अमावस्या ज्येष्ठामूल नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा ज्येष्ठामूल नक्षत्रयुक्त होती है, तो अमावस्या मृगशिर नक्षत्रयुक्त 卐 होती है। जब पूर्णिमा पुष्य नक्षत्रयुक्त होती है, तब अमावस्या पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्त होती है, तो अमावस्या पुष्य नक्षत्रयुक्त होती है। 194. (Q.) Reverend Sir ! How many are families (Kuls), sub-families (Upakuls) and families in family (Kulopakul)? ___[Ans.] Gautam ! There are twelve Kuls, twelves Upakuls and four Kulopakuls. (a) The Twelve Kuls (Families) are-(1) Dhanishtha Kul, (2) Uttarbhadrapada Kul, (3) Ashwini Kul, (4) Kritika Kul, (5) Mrigashir 9 555555555554))))))))) ध म जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (554) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步 ज Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555 2954955955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5955 5 5 5 5 59555552 க 47 卐 卐 557 557 卐 4 卐 47 卐 45 45 Kul, (6) Punya Kul, (7) Magha Kul, (8) Uttarphalguni Kul, (9) Chitra Kul, (10) Vishakha Kul, (11) Mool Kul, and (12) Uttarashadha Kul. When the constellation in which a month concludes has the name similar to the name of that month, the those constellations are called of that Kul (family). The constellation which are near those constellation they are called Upakul (sub-family). They are also at the terminating end of the month concerned. Those constellation which are below both Kuls and Upakuls, they are called Kulopakul. (c) Four Kulopakuls are-(1) Abhijit Kulopakul, (2) Shatabhishak Kulopakul, (3) Aardra Kulopakul, and (4) Anuradha Kulopakul. [Q. 1] Reverend Sir! How many are Poornimas (full moon day) and how many are Amavasyas? [Ans.] Gautam ! There are twelve Poornimas and twelve Amavasyas. They are(1) (Shravishthi-Shravani, (2) Praushthpadi-Bhadrapadi, 45 45 (b) Twelve Upakuls are (1) Shravan Upakul, (2) Poorvabhadra 5 Upakul, (3) Revati Upakul, (4) Bharni Upakul, (5) Rohini Upakul, (6) Punarvasu Upakul (7) Ashlesha Upakul, (8) Poorvaphalguni Upakul, 卐 (9) Hasta Upakul, (10) Svati Upakul, (11) Jyeshtha Upakul, and 45 (12) Poorvashada Upakul. 557 55 [Ans.] Gautam ! Three constellations namely. Abhijit, Shravan and Dhanishtha are connected with Shravani Poornamasi. [Q. 3] Reverend Sir! How many constellations are connected with Bhadrapadi Poornima ? [Ans.] Gautam ! Three constellations namely Shatabhishak, Poorvabhadrapada and Uttar bhadrapada are connected with Bhadrapadi Poornima. [Q. 4] Reverend Sir ! How many constellations are connected with Ashvin Poornima ? [Ans.] Two constellations namely Revati and Ashvini are connected with Ashvin Poornima. Two constellations namely Bharni and Kritika सप्तम वक्षस्कार (3) Ashvayuji-Aasoji, (4) Kartiki, (5) Margasheershi, (6) Paushi, (7) Maghi, (8) Phalguni, (9) Chaitri, (10) Vaishakhi, (11) Jyeshthaamooli, சு and (12) Ashadhi. 卐 卐 [Q. 2] Reverend Sir! How many constellations are connected with 5 Shravani Poornamasi (full moon)? 45 55 (555) 卐 457 47 Seventh Chapter 5 457 卐 45 5 55 57 55 47 5 卐 47 47 47 - 5 5 5 5 5555 5555 59 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 50 557 47 57 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 46 41 41 54 445 446 447 44 45 46 47 46 455 456 457 455456456 41 55 45 44 45 46 45 44 456 457 455 456 457 455 456 45 24444545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 are connected with Kartik Poornima, two constellations namely Rohini 15 and Mrigashir are connected with Margsheershi Poornima, three constellations namely Aardra, Punarvasu and Pushya are connected with Paushi Poornima, two constellations namely Ashlesha and Magha are connected with Maaghi Poornima, two constellations namely Poorvaphalguni and Uttaraphalguni are connected with Phalguni Poornima, two constellations namley Hasta and Chitra are connected with Chaitri Poornima, two constellations namely Svati and Vishakha are connected with Vaishakhi Poornima, three constellations namely Anuradha, Jyeshtha and Mool are connected with Jyeshthamooli Poornima, and two constellations namely Poorvashadha and 4 Uttarashadha are connected with Ashadhi Poornima. (Q. 5] Reverend Sir ! The constellations which belong to Kul or Kul type such as Upakul and Kulopakul have connection with Shravan Poornima ? [Ans.] Gautam ! It is connected with the Kul (family) Upakul and Kulopakul. The connection of Dhanishtha constellation is a connection of Kul. The connection of Shravan connection is connection of Upakul and the connection of Abhijit connection is the connection of Kulopakul. In a 45 nutshell Shravan Poornamasi has connection of Kula (Upakul) and Kulopakul. Thus Shravan Poornamasi has Kul connection, Upakul connection and Kulopakul connection. [Q. 6] Reverend Sir ! Does the Bhadrapadi Poornima have Kul y connection, Upakul connection or Kulopakul connection ? [Ans.] Gautam ! It has all the three connections Kul, Upakul and Kulopakul. Kul connection is of Uttarabhadra constellation, Upakul connection is \ of Poorvabhadra constellation, Kulopakul connection is of Shatabhishak constellation. Thus Bhadrapadi Poornima is connection with Kul, Upakul and Kulopakul. In other words Kul connection, Upakul connection and Kulopakul connection are with Bhadrapadi Poornima. (Q. 7] Reverend Sir ! Does Ashvini Poornima have Kul connection, Upakul connection or Kulopakul connection ? (Ans.] Gautam ! It has Kul connection, Upakul connection but not Kulopakul connection. The connection of Ashvini constellation with it falls in Kul connection while the connection of Revati constellation is $ Upakul connection. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (556) Jambudweep Prajnapti Sutra 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 455 456 457 454 455 456 457 41 415 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 451 455 456 455 11 41 41 41 41 54 455 4141414141414141414141414141414141414 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 2 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 445 455 456 457 454 455 456 457 4 54 455 456 457 454 455 4 4 4 4 4 4 4 4 4 455 456 457 454 41 41 41 41 41 45 455 456 457 455 456 457 454 41 41 41 41 41 41 41 45 454 455 454 455 456 457 46 45 44 41 41 41 41 41 41 41 455 456 457 455 456 457 454 Thus Aasoji Poornima is Kul connected and Upakul connected. IQ. 8] Reverend Sir ! Does Kartiki Poornima have Kul connection, $ Upakul connection and Kulopakul connection? (Ans.] Gautam ! It has Kul connection, Upakul connection but not Kulopakul connection. The connection of Kritika constellation with it is a Kul connection, the connection of Bharni constellation is an Upakul connection. Thus Kartiki Poornima has Kul connection and Upakul connection. [Q. 9] Reverend Sir ! Does Margsheershi Poornima have K connection, Upakul connection or Kulopakul connection ? (Ans.] Gautam ! It has two connections-Kul connection and Upakul connection. It does not have Kulopakul connection. The connection of Mrigashir constellation with this Poornima is a Kul connection. The connection of Rohini constellation with it is an Upakul connection. Further description regarding Margsheershi Poornima is as mentioned earlier. The description upto Ashadhi Poornima is similar to it. The only difference is that there are Kul connection, Upakul connection and Kulopakul connection with Paushi and Jyeshthamooli Poornima. Regarding the remaining Poornima. There are only Kul connection and Upakul connections. Kulopakul connection is not with them. (Q. 10) Reverend Sir ! How many constellations have connection with Shravan Amavasya ? (Ans.) Gautam ! Two constellations namely Ashlesha and Magha have connection with Shravani Amavasya. [Q. 11] Reverend Sir ! How many constellations have connection with Bhadrapadi Amavasya ? Yi (Ans.) Gautam ! Thus constellations namely Poorvaphalguni and Uttaraphalguni have connection with Bhadrapadi Amavasya. (Q.) Reverend Sir ! How many constellations have connection with Hi Aasoji Amavasya ? [Ans.] Two constellations Hasta and Chitra have connections with Aasoji Amavasya, Two constellations Svati and Vishakha have connection with Kartiki Amavasya, three constellations Anuradha, Jyeshtha and Mool have connection with Margashirshi Amavasya, two constellations Poorvashadha and Uttarashadha have connection with 455 456 457 451 455 456 457 41 41 41 455 456 457 454 455 456 457 451 455 456 457 455 456 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 45 46 454 455 456 457 सप्तम बक्षस्कार (557) Seventh Chapter 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 45454545454545454545454545454545454545 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 457 458 455 456 452 455 456 451555 146 145 46 44 45 46 47 $ 455 456 457 455 456 457 455 4 85555555555555555555555555555555555558 45 Paushi Amavasya, Three constellations Abhijit, Shravan and Dhanishtha have connections with Maaghi Amavasya, three constellations namely Shatabhishak, Poorvabhadrapada and Uttarbhadrapada have connection with Phalguni Amavasya, two constellations namely Revati and Ashvini have connection with Chaitri Amavasya, two constellations—Bharni and Kritika have connection with Vaishakhi Amavasya, two constellations-Rohini and Mrigashir have connection with Jyeshthamoola Amavasya, and three constellations namely Aardra, Punarvasu and Pushya have connection with Ashadhi Amavasya. [Q. 12] Reverend Sir ! Does Shravani Amavasya have Kul connection, Upakul connection or Kulopakul connection ? (Ans.] Gautam ! Shravani Amavasya has Kul connection, Upakul connection but not Kulopakul connection. Magha constellation has Kul connection with it Ashlesha constellation has Upakul connection with it. Thus Shravani Amavasya is Kul connected and Upakul connected. [Q. 13] Reverend Sir! Is there any Kul connection, Upakul connection and Kulopakul connection with Bhadrapadi Amavasya ? (Ans.] Gautam ! Bhadrapadi Amavasya has two connections-Kul connection and Upakul connection. The connection of Uttaraphalguni 151 constellation is Kul connection and that of Poorvaphalguni with this Amavasya is Upakul connection. Thus it is Kul connected and Upakul connected. [14] The connection of Mool constellation with Margasheershi Amavasya is a Kul connection, the connection of Jyeshtha constellation is an Upakul connection and the connection of Anuradha constellation in Kulopakul connection. Further description is similar to the one mentioned earlier. Maghi, Phalguni and Ashadhi Amavasyas have Kul, Upakul and Kulopakul connections. The remaining Amavasyas have only Kul and Upakul connections. (Q. 15) Reverend Sir ! When Poornima is connected with Shravan Si constellation, is it a fact that the preceding Poornima is connected with Magha constellation ? Further when a Poornima is connected with Magha constellation, is it necessary that the Amavasya just following it is connected with Shravan constellation ? [Ans.] Gautam ! Yes. It happens as you say when Poornima is connected with Shravan constellation, its preceding Amavasya is 155 454 455 41 41 451 454 455 454 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 456 457 455 456 457 45 46 47 455 456 457 455 155 56 55 5455 456 45 44 45 46 455 456 45 455 456 455 456 457 455 456 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (558) Jambudveep Prajnapti Sutra 441 41 41 41 4 1 41 454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 4554545454545454545454 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45542 55 45 45 55 55 55 57 455 456 457 455 456 457 455 456 4 457 455 456 457 454 44 45 46 45 44 44 445 446 447 448 449 450 451 454545454545454545454545% connected with Magha constellation. When Poornima is connected with Magha constellation, the very Amavasya after it is connected with 4 Shravan constellation. (Q. 16) Reverend Sir! When Poornima is connected with Uttarbhadrapada constellation, is the very Amavasya after it connected with Uttarphalguni constellation ? When Poornima is connected with Uttarphalguni constellation, is the Amavasya just after it connected with Uttarbhadrapada constellation ? [Ans.) Yes, Gautam ! It happens as you say. According to this procedure, the occurence of Poornimas and Amavasyas should be known as follows When Poornima is connected with Ashvini constellation, the Amavasya after it is connected with Chitra constellation. When Poornima is connected with Chitra constellation, the Amavasya is connected with Ashvini constellation. When Poornima is connected with Kritika constellation, the Amavasya is connected with Vishakha constellation. When Poornima is connected with Vishaka constellation, the Amavasya is connected with Kritika constellation. When Poornima is connected with Mrigashir constellation, the Amavasya is connected with Jyeshthamool constellation. When Poornima is connected with Jyeshthamool constellation, the Amavasya is connected with Mrigashir constellation. When Poornima is connected with Pushya constellation, the Amavasya is connected with Poorvashadha constellation. When Poornima is connected with Poorvashadha constellation, the Amavasya is connected with Pushya constellation. 1955 456 457 455 41 41 41 455 456 457 454 455 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 454 455 456 451 451 451 451 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 4554545454545454 455 456 457 46 456 457 455 456 457 4554 455 456! मास-समापक नक्षत्र CONSTELLATIONAT END OF MONTH 984.[9.9 ] athri G a afa ya ofa ? [3.] 44! ah terem difa, di uten- JARTATGT, srfars, Hart, sporti उत्तरासाढा चउद्दस अहोरत्ते णेइ, अभिई सत्त अहोरते णेइ, सवणो अट्ठऽहोरत्ते णेइ, धणिवा एगं अहोरत्तं णेइ। तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। ___ तस्स मासस्स चरिमदिवसे दो पदा चत्तारि अ अंगुला पोरिसी भवइ। [9.7 ] arari atat! Traj ATT F75 UTREFI olifa? [3. ] citern! T -sforgi, Heftaran, gawadu, JARIYE| | सप्तम वक्षस्कार (559) Seventh Chapter $414545454545$$ $$1$ 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 $146 $$1464546464 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धणिट्ठा णं चउद्दस अहोरत्ते णेइ, सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेइ, पुब्बाभदवया अट्ठ अहोरत्ते णेइ, उत्तराभहवया एगे। तंसि च णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अट्ठ य अंगुला पोरिसी भवइ। [३] वासाणं भन्ते ! तइअं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तराभहवया, रेवई, अस्सिणी। उत्तरभद्दवया चउद्दस राइदिए णेइ, रेवई पण्णरस, अस्सिणी एगं। तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहवाइं तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ। [प्र. ४ ] वासाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि-अस्सिणी, भरणी, कत्तिआ। अस्सिणी चउद्दस, भरणी पन्नरस, कत्तिआ एगें। तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स चरमे दिवसे तिण्णि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ। [प्र. ५ ] हेमन्ताणं भन्ते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि-कत्तिआ, रोहिणी, मिगसिरं। कत्तिआ चउद्दस, रोहिणी पण्णरस, मिगसिरं एगं अहोरत्तं णेइ। तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाइं अट्ठ य अंगुलाई पोरिसी भवइ। [प्र. ६ ] हेमन्ताणं भन्ते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? [उ. ] गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-मिअसिरं, अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो। मिअसिरं चउद्दस राइंदिआई णेइ, अद्दा अट्ठ णेइ, पुणबसू सत्त राइंदिआई, पुस्सो एग राइंदिअंणेइ। तया णं चउब्बीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहवाइं चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ। [प्र. ७ ] हेमन्ताणं भन्ते ! तच्चं मासं कति णक्खत्ता णेति ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि-पुस्सो, असिलेसा, महा। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (560) Jambudveep Praynapti Sutra B555555555555555555555555555555553 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 फ्र पुस्सो चोइस राइदिआई णेइ, असिलेसा पण्णरस, महा एक्कं । तया वीसंगुलपोरिसी छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाइं अट्ठगुलाई पोरिसी भवइ । [प्र. ८ ] हेमन्ताणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णेइ । [ उ. ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता, तं जहा- महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी । महा चउद्दस राईदिआई णेइ, पुव्वाफग्गुणी पण्णरस राइंदिआई णेइ, उत्तराफग्गुणी एगं राईदिअं णे । तया णं सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरि अट्टइ । 卐 तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी 5 भवइ । [प्र. ९ ] गिम्हाणं भन्ते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? [ उ. ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता णेंति- उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता । उत्तराफग्गुणी चउद्दस राइंदिआई णेइ, हत्थो पण्णरस राईदिआई णेइ, चित्ता एवं राइंदिअं णेइ । तया णं दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरि अट्टइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ । [प्र. १० ] गिम्हाणं भन्ते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता णेंति, तं जहा - चित्ता, साई, विसाहा । चित्ता चउद्दस राइदिआई णेइ, साई पण्णरस राइंदिआई णेइ, विसाहा एगं राइंदिअं णेइ । तया णं अट्ठगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाइं अट्टंगुलाई पोरिसी भवइ । [प्र. ११ ] गिम्हाणं भन्ते ! तच्चं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? [ उ. ] गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता णेंति, तं जहा- त्रिसाहाऽणुराहा, जेट्ठा, मूलो। विसाहा चउद्दस राईदिआई णेइ, अणुराहा अट्ठ राईदिआई णेइ, जेट्ठा सत्त राइंदिआई णेइ, मूलो एक्क राइदिअं । तया णं चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरि अट्टइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाइं चत्तारि अ अगुंलाई पोरिसी भवइ । [प्र. १२ ] गिम्हाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? [उ, ] गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता णेंति, तं जहा 5 सप्तम वक्षस्कार 卐 फ्र -मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा । फ्र (561) Seventh Chapter 25555555 5 555 55555555955555555 5 555 55555555559595955 5| Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -1-1-1-1-1- 5555555555)555555555555555555555555555555555555558 555555555555555555555555555555555555 ॐ मूलो चउद्दस राइंदिआई णेइ, पुवासाढा पण्णरस राइंदिआई णेइ, उत्तरासाढा एगं राइंदिअंणेइ। तया णं वट्टाए समचउरंससंठाणसंठिआए णग्गोहपरिमण्डलाए सकायमणुरंगिआए छायाए सूरिए + अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं दो पयाई पोरिसी भवइ। ___ एतेसि णं पुव्ववण्णिआणं पयाणं इमा संगहणी, तं जहा जोगो देवयतारग्गगोत्तसंठाण-चन्दरविजोगो। कुलपुण्णिमअवमंसा णेआ छाया य बोद्धव्वा ॥१॥ १९५. [प्र. १ ] भगवन् ! चातुर्मासिक वर्षाकाल के प्रथम श्रावण मास कितने नक्षत्र परिसमाप्त । करते हैं ? अर्थात् श्रावण में कितने नक्षत्र आते हैं ? [उ. ] गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं, जैसे-(१) उत्तराषाढा, (२) अभिजित्, (३) श्रवण, तथा (४) धनिष्ठा। उत्तराषाढा नक्षत्र श्रावण मास के १४ अहोरात्र-दिन-रात, अभिजित् नक्षत्र ७ अहोरात्र, श्रवण : नक्षत्र ८ अहोरात्र तथा धनिष्ठा नक्षत्र १ अहोरात्र परिसमाप्त करता है। (१४ + ७ + ८ + १ = ३० दिन-रात = १ मास) ___उस मास में सूर्य चार अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण परिभ्रमण करता है। ____ उस मास के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पौरुषी होती है, अर्थात् सूरज । के ताप में इतनी छाया पड़ती है-पौरुषी या प्रहर-प्रमाण दिन चढ़ता है। [प्र. २ ] भगवन् ! वर्षाकाल के दूसरे-भाद्रपद मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? [उ.] गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) धनिष्ठा. (२) शतभिषक्, म (३) पूर्वभाद्रपदा, तथा (४) उत्तरभाद्रपदा। धनिष्ठा नक्षत्र १४ अहोरात्र, शतभिषक् नक्षत्र ७ अहोरात्र, पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र ८ अहोरात्र तथा उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र १ अहोरात्र परिसमाप्त करता है। (१४ + ७ + ८ + १ = ३० दिन-रात = १ मास) ___ उस महीने में सूर्य आठ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन आठ अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पौरुषी होती है। [प्र. ३ ] भगवन् ! वर्षाकाल के तीसरे आश्विन-आसोज मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त फ़ करते हैं ? [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) उत्तरभाद्रपदा, (२) रेवती, तथा म (३) अश्विनी। नानानानागाना111 ))))))) )))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (562) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )) ) ) B55555555555555555555555555555555555))) 05555555555555555555555555555555 उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र १४ रात-दिन, रेवती नक्षत्र १५ रात-दिन तथा अश्विनी नक्षत्र एक रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) उस मास में सूर्य १२ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस मास के अन्तिम दिन परिपूर्ण तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. ४. ] भगवन् ! वर्षाकाल के चौथे-कार्तिक मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) अश्विनी, (२) भरणी, तथा (३) कृत्तिका। अश्विनी नक्षत्र १४ रात-दिन, भरणी नक्षत्र १५ रात-दिन तथा कृत्तिका नक्षत्र १ रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) ___ उस महीने में सूर्य १६ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। " उस महीने के अन्तिम दिन ४ अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. ५ ] चातुर्मासिक हेमन्तकाल के प्रथम-मार्गशीर्ष मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं? [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) कृत्तिका, (२) रोहिणी, तथा (३) मृगशिर। कृत्तिका नक्षत्र १४ अहोरात्र, रोहिणी नक्षत्र १५ अहोरात्र तथा मृगशिर नक्षत्र १ अहोरात्र परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० दिन-रात = १ मास) ___उस महीने में सूर्य २० अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन ८ अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। __ [प्र. ६ ] भगवन् ! हेमन्तकाल के दूसरे-पौष मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त हैं ? [उ. ] गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३) पुनर्वसु, तथा : (४) पुष्य। मृगशिर नक्षत्र १४ रात-दिन, आर्द्रा नक्षत्र ८ रात-दिन, पुनर्वसु नक्षत्र ७ रात-दिन तथा पुष्य नक्षत्र १ रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + ८ + ७ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य २४ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। है उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण चार पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. ७ ] भगवन् ! हेमन्तकाल के तीसरे-माघ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं? [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) पुष्य, (२) अश्लेषा, तथा (३) मघा। पुष्य नक्षत्र १४ रात-दिन, अश्लेषा नक्षत्र १५ रात-दिन तथा मघा नक्षत्र १ रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य २० अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन आठ अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। 49555555555555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (563) Seventh Chapter Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85))))))))))))))))))))))1555555555 FEEEEEEEEEEEEE 日FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF फ़ [प्र. ८ ] भगवन् ! हेमन्तकाल के चौथे-फाल्गुन मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? __[उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) मघा, (२) पूर्वाफाल्गुनी, तथा म (३) उत्तराफाल्गुनी। __मघा नक्षत्र १४ रात-दिन, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र १५ रात-दिन तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र १ रात卐 दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य सोलह अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। ___ उस महीने के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. ९] भगवन् ! चातुर्मासिक ग्रीष्मकाल के प्रथम-चैत्र मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं? [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) उत्तराफाल्गुनी, (२) हस्त, तथा (३) चित्रा। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र १४ रात-दिन, हस्त नक्षत्र १५ रात-दिन तथा चित्रा नक्षत्र १ रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य १२ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. १० ] भगवन् ! ग्रीष्मकाल के दूसरे-वैशाख मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? । [उ. ] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) चित्रा, (२) स्वाति, तथा (३) विशाखा। चित्रा नक्षत्र १४ रात-दिन, स्वाति नक्षत्र १५ रात-दिन तथा विशाखा नक्षत्र १ रात-दिन 卐 परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य आठ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। ___ उस महीने के अन्तिम दिन आठ अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. ११] भगवन् ! ग्रीष्मकाल के तीसरे-ज्येष्ठ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? 3 [उ. ] गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) विशाखा, (२) अनुराधा, (३) ज्येष्ठा, तथा (४) मूल। विशाखा नक्षत्र १४ रात-दिन, अनुराधा नक्षत्र ८ रात-दिन, ज्येष्ठा नक्षत्र ७ रात-दिन तथा मूल नक्षत्र १ रात-दिन परिसमाप्त करता है। (१४ + ८ + ७ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) तब सूर्य चार अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। [प्र. १२ ] भगवन् ! ग्रीष्मकाल के चौथे-आषाढ़ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? 卐5555555))))) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (564) Jambudveep Prajnapti Sutra 855555555555555 5 5555555 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555)))))55555555555555555555555555555555 98 __ [उ.] गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-(१) मूल, (२) पूर्वाषाढा, तथा ॥ + (३) उत्तराषाढा। । मूल नक्षत्र १४ रात-दिन, पूर्वाषाढा नक्षत्र १५ रात-दिन तथा उत्तराषाढा नक्षत्र १ रात-दिन + परिसमाप्त करता है। (१४ + १५ + १ = ३० रात-दिन = १ मास) सूर्य तब वृत्त-वर्तुल-गोलाकार, समचौरस संस्थानयुक्त, न्यग्रोधपरिमण्डल बरगद के वृक्ष की ज्यों ऊपर से सम्पूर्णतः विस्तीर्ण, नीचे से संकीर्ण, प्रकाश्य वस्तु के कलेवर के सदृश आकृतिमय छाया से ॐ युक्त अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण दो पद पुरुषछायायुक्त पोरसी होती है। इन पूर्व वर्णित पदों की संग्राहिका गाथा इस प्रकार है योग, देवता, तारे, गोत्र, संस्थान, चन्द्र-सूर्य-योग, कुल, पूर्णिमा, अमावस्या, छाया-इनका वर्णन, म जो उपर्युक्त है, समझ लेना चाहिए। ___195. [Q. 1] Reverend Sir ! In the first Shravan of the four-month rainy season, how many constellations appear in Shravan ? ___ [Ans.] Four constellations appear in that period. They are-(1) Uttarashadha, (2) Abhijit, (3) Shravan, and (4) Dhanishtha. Uttarashadha constellation remains for 14 days (ahoratri), Abhijit constellation for 7 days, Shravan constellation for 4 days and Dhanishtha constellation for 1 day. (14 + 7 + 8 + 1 = 30 days-nights = 1 months) In that month, the movement of the sun causes four anguls more the shadow of a man. At the end of that month, the quarter of a day (paurushi) is four $ fingers and two pads (units of measurement). So far as measurement of shadow of man is concerned. In other words due to the heats if the sun, when the shadow of a person is that much, it is first quarter of the day. IQ. 2] Reverend Sir ! In the second month of raining period namely in Bhadrapad month, how many constellations appear ? (Ans.] Gautam ! Four constellations appear in that month. They are (1) Dhanishtha, (2) Shatabhishak, (3) Poorvabhadrapada, and (4) Uttarabhadra. Dhanishtha constellation remains for 14 days (ahoratris), Shatabhishak for 7 days, Poorvabhadrapada for 8 days and Uttarbhadrapada for 1 day (14 + 8 + 7 +1 = 30 days-nights = 1 month). 855555555555555555555555555555555555555555555555558 सप्तम वक्षस्कार (565) Seventh Chapter 5555555555555555555555555555555555558 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 4 45 46 45 46 47 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 454 455 457 45454545455 456 457 455 456 457 455 456 457 In that month the movement of sun causes shadow of man eight fingers more. At the end of the month the quarter of the days is when the shadow of man is eight fingers and two pads. [Q. 3) Reverend Sir ! How many constellations occur in the third month namely Ashvin month of rainy period ? [Ans.] Gautam ! Three constellations appear then. They are (1) Uttarbhadrapada, (2) Revati, and (3) Ashvini. Uttarbhadrapada constellation occurs for 14 days, Revati constellation occurs for 15 days and Ashvini constellation occurs for 1 day. (14 + 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) In that month, the movement of the sun causes shadow upto twelve fingers more than the shadow of the man. On the last day of the month the quarter of the day is when the Viman shadow is three pads. IQ. 4] Reverend Sir ! How many constellations occur in Kartik, the fourth month of the rainy period ? [Ans.] Gautam ! Three constellations namely—(1) Ashvini, (2) Bharni, and (3) Kritika occur in rainy season. Ashvini constellation occurs for 14 days, Bharni constellation occurs for 15 days and Kritika occurs for 1 day. (14 + 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) In that month, the movement of the sun causes shadow upto sixteen fingers more than the shadow of the man. At the end of the month the quarter of the days is when the shadow of man is four fingers and three pads. (Q. 5) Reverend Sir ! How many constellations occur in Margasheersh the first month of the four month winter period ? [Ans.] Gautam ! Three constellations namely—(1) Kritika, (2) Rohini, and (3) Mrigashir occur in it. Kritika constellation remains for 14 days, Rohini occurs for 15 days and Mrigashir, occurs for 1 day (14 + 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) In that month the movement of sun causes shadow 20 anguls more than the shadow of the man. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (566) Jambudveep Prajnapti Sutra %%%%%% %% % % % %%%%% %% % %%%%% %%%%% Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 5 5 5 5 55 55 5 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552 55555555555555555555555555555555555555 卐 卐 卐 卐 卐 At the quarter of the day in that month the shadow is eight anguls than three pads of mans shadow. [Q. 6] Reverend Sir! How many constellations occur in Paush the second month of the winter (Hemant) period? [Ans.] Gautam ! Four constellations namely-(1) Mrigashir, (2) Aardra, (3) Punarvasu and (4) Pushya occur in this month. Mrigashir constellation occurs for 14 days, Aardra for 8 days, Punarvasu constellation occurs for 7 days while Pushya constellation occurs for 1 day. (14+8+ 7 + 1 = 30 days-nights = 1 month) Then the movement of sun causes shadow of 24 fingers more then the size of shadow of man. On the last day of the month, at the time of first quarter of the day the shadow of man exactly four pads. [Q. 7] Reverend Sir! How many constellations occur in Magh-the third month of winter season? [Ans.] Gautam ! Three constellations namely-(1) Pushya, (2) Ashlesha, and (3) Magha occur. Pushya constellation appears for 14 days, Ashlesha is for 15 days while Magha is for 1 day. (14+ 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) Then the movement from causes shadow 20 fingers more than shadow of the man. On the last day of that month, at the time of quarter of the day the shadow is eight anguls more than three pads (unit of measurement) [Q. 8] Reverend Sir! How many constellations appear in Phalgun, the fourth month of winter? [Ans.] Gautam ! Three constellations namely (1) Magha, (2) Poorvaphalguni, and (3) Uttaraphalguni appear in that month. Magha occurs. for 14 days, Poorvaphalguni for 15 days and Uttaraphalguni for 1 day. (14+ 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) Then the sun causes shadow upto 16 anguls more than the man's shadow. [Q. 9] Reverend Sir! In Chaitra, the first month of summer period, how many constellations appear? सप्तम वक्षस्कार ( 567 ) 55555555555555555555555555555555 4 69555555555555555555555 卐 On the last day of the month, at the time of quarter of the day, the 卐 shadow is four anguls more than three pads. 卐 卐 45 卐 卐 卐 卐 卐 Seventh Chapter 卐 卐 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245454545454545454545454545454545455 456 457 455 456 454545454545454545454545451 IIIJIJIJIJIJI בוב בוב תב תבום FFFFF听听听听听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF [Ans.] Gautam ! Three constellations namely—(1) Uttaraphalguni, Hasta, and (3) Chitra appear in the month. Uttaraphalguni appears for 14 days, Hasta is for 15 days while Chitra is for 1 day. (14 + 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) Then the movement of sun causes shadow 12 anguls more than man's shadow. On the last day of that month, at the time of first quarter of the day, i the shadow of man is eight anguls more than three pads. IQ. 10] Reverend Sir ! In Vaishakha, the second month of summer period, how many constellations occur ? (Ans. ] Gautam ! Three constellations occur during that period namely—(1) Chitra, (2) Svati, and (3) Vishakha. Chitra constellation occur for 14 days, Svati occurs for 15 days, whil Vishakha occurs for 1 day. (14 + 15 +1 = 30 days-nights = 1 month) Then the moment of sun causes shadow 8 anguls more than the shadow of man. On the last day of that month, at the time of the end of the first y quarter of the day the shadow of sun is eight anguls more than two pads. [Q. 11] Reverend Sir ! In Jyeshtha, the third month of summer, how many constellations occur ? [Ans.] Gautam ! Four constellations namely—(1) Vishakha, (2) Anuradha, (3) Jyeshtha, and (4) Mool occur in that month. Vishaka constellation occurs for 14 days, Anuradha constellation is y for 8 days, Jyeshtha constellation is for 7 days while Mool constellation is for 1 day (14 + 8 + 7 + 1 = 30 days-nights = 1 month) Then the sun causes shadow four anguls more than the size of the man. On the last days of that month at the end of the first quarter of the days, the shadow is four anguls more than two pads. IQ. 12] Reverend Sir ! In Ashadha, the fourth month of summer, how many constellations appear? (Ans.) Gautam ! Three constellations namely-(1) Mool Poorvashadha, and (3) Uttarashadha occur in the month. Mool constellation is for 14 days, Poorvashada is for 15 days while Uttarashadha is for 1 day. (14 + 15 + 1 = 30 days-nights = 1 month) | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (568) Jambudweep Prajnapti Sutra נ ת ת ת ת ת ת ת ת נ ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת ת נ נ ת נ נ ת 451 455 45 457 454 455 456 454 455 456 455 4555454545454545454545454545454545458 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रकाब 255555559555555595555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55556592 2955 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5555 5 5 5 5 55555555595 卐 फ्र फ्र The sun is thin round like a ball. It is then like a banyan tree round and expended for above and have bright attractive shape (Samachaturas shape) while narrow from below. Its shadow at this time of its movement is like the skeleton of the things on which it sheds light. On the last of that month, at the end of the quarter of this days, the shadow is two pads. : दो अर्थ होते हैं - पुरुषशरीर और शंकु - ( खूँटी, जिससे सूर्य या दीपक की छाया मापी जाती है) । फलितार्थ यह कि पुरुषशरीर या शंकु से जिस काल का माप होता हो, वह पौरुषी है। हुआ विवेचन पौरुषी शब्द का विश्लेषण और कालमान 'पौरुषी' शब्द पुरुष शब्द से निष्पन्न है। पुरुष शब्द के भी The meaning of the final verse is as under The description of yog, master gods, stars, family status (gotra), 5 shape, connection of moon and sun, Kul (family), full moon Amavasya and the shadow may be understood as mentioned. days, वर्ष में दो अयन होते हैं- दक्षिणायन और उत्तरायण। दक्षिणायन श्रावण मास से प्रारम्भ होता है और उत्तरायण माघ मास से । दक्षिणायन में छाया बढ़ती है और उत्तरायण में कम होती है । यन्त्र इस प्रकार है पौरुषी- छाया का प्रमाण अंगुल १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. 5 वर्ष पुरुषशरीर में पैर से जानु (घुटने) तक का और शंकु का प्रमाण २४-२४ अंगुल होता है जिस दिन किसी वस्तु की छाया वस्तु के प्रमाण के अनुसार होती है, वह दिन दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है। युग के प्रथम फ्र (सूर्य - वर्ष) में श्रावण कृष्णा १ को शंकु और जानु की छाया अपने ही प्रमाण के अनुसार २४ अंगुल पड़ती है । १२ अंगुल की छाया को एक पाद (पैर) माना गया है। अतः शंकु और जानु की २४ अंगुल की छाया को दो पाद माना गया है। फलितार्थ यह हुआ कि पुरुष अपने दाहिने कान के सम्मुख सूर्यमण्डल को रखकर खड़ा रहे, फिर आषाढ़ी पूर्णिमा को अपने घुटने तक की छाया दो पाद प्रमाण हो, तब एक प्रहर होता है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिए। १०. ११. १२. सप्तम वक्षस्कार फ्र मास आषाढ़ पूर्णिमा श्रावण पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा आश्विन पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा मृगसिर पूर्णिमा पौष पूर्णिमा माघ पूर्णिमा फाल्गुन पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा वैशाख पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा पाद २ २ २ ३- ३ ३ ४- ३ ३ ३ २ २ (569) ८ ४ ४ ८ ८ ४ ० ८ ४ कुल २-० २-४ २-८ ३-४ ३-४ ३-८ ४-० ३-८ ३-४ ३-० 卐 २-८ २-४ फ्र Seventh Chapter 6 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 ! 卐 फ्र फ्र फ फ्र 卐 5 5959595555 5 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 952 卐 卐 卐 फ्र 卐 फ्र Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45454545454545454545454545454545454545454545454141414141414144145144 44 44 45 446 44 2 455 456 457 4 455 456 457 455 456 457 Elaboration Meaning of the word, Paurushi and its period—The words Paurushi is derived from the word. Purush (man). Purush has two meaning—the body of the man and Shanku the peg with which the shadow of the sun or of the lamp is measured. Thus time-period measured with human body or the peg is paurushi. In human body, the length from foot to the knee which is 24 anguls is called Shanku. The day when the shadow of a thing is equal to the days of that things, that days is called Dakshinayan. In the first year (solar year) of a yug, on the first day of dark fortnight of Shravan, the Shanku and the shadow of the foot is 24 anguls. The shadow of 12 anguls is called a pad. Thus if a person stands with his right ear facing the solar circle, and on day of full moon of Ashadha, the shadow of his knee is two pads, then it is quarter of the day. That should be understood in this manner throughout. There are two Ayans in a year-Dakshinayan and Uttarayan. Dakshinayan (Southern half year) starts from Shravan and Northern half year (Uttarayan) starts from the month of Maagh. In Southern half year the shadow increases while in th Northern half year the shadow decreases. Size of shadow at the time of quarter of the day. Month Paad Angul Total 1. Ashadh Poornima 2-0 Shravan Poornima 2-4 Bhadrapad Poornima 2-8 Ashvin Poornima 3-4 Kartik Poornima 3-4 Mrigasar Poornima Paush Poornima 4-0 Magh Poornima 3-8 Phalgun Poornima Chaitra Poornima Vaishakh Poornima 2-8 Jyeshtha Poornima उक्त वर्णन के अनुसार सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और मास में चार अंगुल छाया की घटती है। श्रावण से पौष तक (दक्षिणायन) वृद्धि तथा माघ से आषाढ़ तक (उत्तरायण) क्रमशः घटती होती है। (UTC782747 2701) 455 454 455 456 454 445 44 45 46 44 41 41 41 41 41 41 455 456 457 454 455 456 457 46 455 456 4545454545454545454 455 456 457 455 456 457 455 456 4 4 4 4 4 3-8 4 4 4 4 4 4 4 4 9. Phol 3-0 4 4 4 4 4 2-4 4 4 4 4 4 4 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (570) Jambudveep Prajnapti Sutra 41414141414141414141414141414141414141414141414141414141414144 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ55555555555555555558 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步另% According to the above description, the shadow increases by one angul (finger) in a week, two anguls in a fortnight and four anguls in a month. From Shravan to Paush (Southern half year) it gradually increases while from Magha of Ashadh (Uttarayan-Northern half year) it gradually decreases. (Uttaradhyayan Tika) अणुत्वादि-परिवार ATOM AND THE LIKE-FAMILY १९६. हिटि ससि-परिवारो, मन्दरऽबाधा तहेव लोगंते। धरणितलाओ अबाधा, अंतो बाहिं च उद्धमुहे॥१॥ संठाणं च पमाणं, वहंति सीहगई इद्धिमन्ता य। तारंतरऽग्गमहिसी, तुडिअ पहु ठिई अ अप्पबहू ॥२॥ [प्र. ] अस्थि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिआणं हिट्टि पि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, समेवि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि ? [उ. ] हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेअव्वं । [प्र. ] से केणठेणं भन्ते ! म [उ. ] एवं बुच्चइ-अत्थि णं. जहा-जहा णं तेसिं देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि ऊसिआई भवंति ॐ तहा-तहा णं तेसि णं देवाणं एवं पण्णायए, तं जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा, जहा-जहा णं तेसिं देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि णो ऊसिआई भवंति तहा-तहा णं तेसिं देवाणं एवं (णो) पण्णायए, तं ॐ जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा। १९६. सोलह द्वार : पहला द्वार-इसमें चन्द्र तथा सूर्य के (१) अधस्तनप्रदेशवर्ती, ॐ (२) समपंक्तिवर्ती, तथा (३) उपरितनप्रदेशवर्ती तारकमण्डल के-तारा विमानों के अधिष्ठातृ देवों का + वर्णन है। दूसरा बार-इसमें चन्द्र-परिवार का वर्णन है। तीसरा द्वार-इसमें मेरु से ज्योतिश्चक्र के अन्तर-दूरी का वर्णन है। चौथा बार-इसमें लोकान्त से ज्योतिश्चक्र के अन्तर का वर्णन है। पाँचवाँ द्वार-इसमें भूतल से ज्योतिश्चक्र के अन्तर का वर्णन है। छठा द्वार-क्या नक्षत्र अपने चार क्षेत्र के भीतर चलते हैं, बाहर चलते हैं या ऊपर चलते हैं ? इस ॐ सम्बन्ध में इस द्वार में वर्णन है। सातवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों के विमानों के संस्थान-आकार का वर्णन है। आठवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों की संख्या का वर्णन है। 555555555555555555555555))))))))))))) सप्तम वक्षस्कार (571) Seventh Chapter Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555555555555555559 नौवाँ द्वार-इसमें चन्द्र आदि देवों के विमानों को कितने देव वहन करते हैं, इस सम्बन्ध में वर्णन है। दसवाँ द्वार-कौन-कौन देव शीघ्र गतियुक्त हैं, कौन मन्द गतियुक्त हैं, इससे सम्बद्ध वर्णन इसमें है। ग्यारहवाँ द्वार-कौन देव अल्प ऋद्धि वैभवयुक्त हैं, कौन विपुल वैभवयुक्त हैं, इससे सम्बद्ध वर्णन इसमें है। बारहवाँ द्वार-इसमें ताराओं के पारस्परिक अन्तर-दूरी का वर्णन है। तेरहवाँ द्वार-इसमें चन्द्र आदि देवों की अग्रमहिषियों-प्रधान देवियों का वर्णन है। चौदहवाँ द्वार-इसमें आभ्यन्तर परिषद् एवं देवियों के साथ भोग-सामर्थ्य आदि का वर्णन है। पन्द्रहवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों के आयुष्य का वर्णन है। सोलहवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों के अल्पबहुत्व का वर्णन है। [प्र. ] भगवन् ! क्षेत्र की अपेक्षा से चन्द्र तथा सूर्य के अधस्तन प्रदेशवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठात देवों में से कतिपय क्या द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र एवं सूर्य से अणु-हीन हैं ? क्या कतिपय के उनके समान हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा से चन्द्र आदि के विमानों के समश्रेणीवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में से कतिपय क्या द्युति, वैभव आदि में उनसे न्यून हैं ? क्या कतिपय उनके समान हैं ? क्षेत्र की ॐ अपेक्षा से चन्द्र आदि के विमानों के उपरितनप्रदेशवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में से कतिपय म क्या द्युति, वैभव आदि में उनसे अणु-न्यून हैं ? क्या कतिपय उनके समान हैं ? [उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। चन्द्र आदि के अधस्तन प्रदेशवर्ती, समश्रेणीवर्ती तथा उपरितन ऊ प्रदेशवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में कतिपय ऐसे हैं जो चन्द्र आदि से धुति, वैभव आदि में हीन या न्यून हैं, कतिपय ऐसे हैं जो उनके समान हैं। [प्र. ] भगवन् ! ऐसा किस कारण से है ? [उ. ] गौतम ! पूर्वभव में उन ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों का अनशन आदि तप, आचरण, ॐ शौच आदि नियमानुपालन तथा ब्रह्मचर्य-सेवन जैसा-जैसा उच्च या अनुच्च होता है, तदनुरूप-उस तारतम्य के अनुसार उनमें द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से हीनता, अधिकता या तुल्यता होती है। पर्वभव में उन देवों का तप. आचरण नियमानपालन, ब्रह्मचर्य-सेवन जैसे-जैसे उच्च या म अनुच्च नहीं होता, तदनुसार उनमें धुति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से न हीनता होती है, न 卐 तुल्यता होती है। 196. Sixteen Lectures (Dvaar) : First lecture-In it, there is the description of master gods of story abodes (Vimans) of the stars at the lowest space part, of space pants at same level and space pants at higher level on the context of sun and the moon. Second Lecture-There is the description of moon and its family. Third Lecture-In it, there is the detailed description of the distance s between Meru mountain and the orbit of stellar gods. | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (672) Jambudveep Prajnapti Sutra 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听555555555555$$$$$$听听听听听听听听四 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 57 454 455 456 457 4554 456 457 455 456 457 455 457 455 456 457 455 456 457 455 456 4 554 45454545454545454545 545454545455 456 457 455 4545454545454545 15. Fourth Lecture-In it, there is the description of the distance 4 between the orbit of stellar gods and end of the Universe (Loka). Fifth Lecture-In it, there is the description of the distance between surface of the earth and the orbit of stellar gods. Six Lecture-In it, there is the description explaining whether the constellations move within their area of their movement, outside it or above it. 4i Seventh Lecture-In it, the shape of the abodes (Vimans) of stellar gods has been described. 15 Eighth Lecture-In it, the number of stellar gods has been described. Ninth Lecutre-In it, the number of gods that carry the divine vehicles (Vimans) of moon and the like has been discussed. Tenth Lecutre-In it, the description relating to the speed of gods has been discussed as to who move fast and who move slow. Eleventh Lecture-Which of the gods, possess a littile wealth and 41 which of them have great wealth-this matter has been discussed in it. Twelfth Lecture-In it, the mutual distance between stars has been discussed. Thirteenth Lecture-In it the head-goddesses of moon and other gods has been discussed. Fourteenth Lecture-In it, the internal assembly and the capability 4fi of the gods to have enjoyment with goddesses has been discussed. Fifteenth Lecutre-In it, the life-span of stellar gods has been discussed. Sixteenth Lecture-In it, the gradation of stellar gods according to thier number has been discussed. (Q.) Reverend Sir ! In the context of area are the master gods of the 4 vimans of such stars which are at the lunar level then sun and the moon less in brightness, wealth and the like ? Are they somewhat similar to # them? In the context of space (area), out of the master gods of vimans of stars at the same level as moon and the like are same of them in brightness, grandeur and the like ? Or are they equal to them ? In the context of space, is at a fact that same of the master gods of Viman of the stars at higher level than the Viman of moon and the like are somewhat less in brightness and grandeur.' 455 456 4 5 56 4 15545555 456 457 45454545454545454545454545454545 455 456 457 455 456 457 451 455 456 457 455 4 4 95 456 457 455 456 457 45 46 47 4 सप्तम वक्षस्कार (573) Seventh Chapter 2441 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 414 415 4 4 4 4 $$$$ $ $ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 理 卐)))))))))))))))))))))))55555555555555555 (Ans.) Yes, Gautam ! It is so some of the Viman of the stars at lunar 44 level, at the same level and at brightness level then the moon are less in brightness and grandeur what some are at some level. [Q.] Reverend Sir ! Why is it so? (Ans.) In their earlier births the ruling gods of those Tara Vimans performed fasting, austerties and other codes of conduct. Their opulence and grandeur is less or more as compared to the moon depends on the interests of performance of these practices. If it is more or less t he consequence is more or less. If it is not more or less the consequence is also not more or less. १९७. [प्र. ] एगमेगस्स णं भन्ते ! चन्दस्स केवइआ महग्गहा परिवारो, केवइआ णक्खत्ता परिवारो, केवइआ तारागणकोडाकोडीओ पण्णत्ताओ ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठासीह महग्गहा परिवारो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो, छावद्वि-सहस्साई णव । सया पण्णत्तरा तारगणकोडाकोडीओ पण्णत्ताओ। १९७. [प्र. ] भगवन् ! एक-एक चन्द्र का महाग्रह-परिवार कितना है, नक्षत्र-परिवार कितना है तथा तारागण-परिवार कितना कोड़ाकोड़ी है ? ॐ [उ. ] गौतम ! प्रत्येक चन्द्र का परिवार ८८ महाग्रह हैं, २८ नक्षत्र हैं तथा ६६,९७५ कोड़ाकोड़ी तारागण हैं। 197. (Q.) Reverend Sir ! How large are the Mahagraha family, Nakshatra family and Tara family of each moon. (Ans.) Gautam ! Each moon has a family of 88 Mahagraha, 28 Nakshatra and 66,975 Kodakodi Taras. गति-क्रम SEQUENCE OF MOVEMENT १९८. [प्र. १] मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स केवइआए अबाहाए जोइसं चारं चरइ। [ उ. ] गोयमा ! इक्कारसहिं इक्कवीसेहिं जोअण-सएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ। [प्र. २ ] लोगंताओ णं भन्ते ! केवइआए अबाहाए जोइसे पण्णते ? [उ. ] गोयमा ! एक्कारस एक्कारसेहिं जोअण-सएहिं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते। __ [प्र. ३ ] धरणितलाओ णं भन्ते ! ___ [उ. ] सत्तहिं णउएहिं जोअण-सएहिं जोइसे चारं चरइत्ति, एवं सूरविमाणे अट्ठहिं सएहि, चंद विमाणे अट्ठर्हि असीएहिं, उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोअण-सएहिं चारं चरइ। ॐ [प्र. ४ ] जोइसस्स णं भन्ते ! हेट्ठिल्लाओ तलाओ केवइआए अबाहाए सूर-विमाणे चारं चरइ ? 事里弗弗靠$$$$$$$$$555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (574) Jambudveep Prajnapti Sutra B))))))))))))))))) )))))) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा करता ज्योतिष मण्डल पंडक वन में चार अभिषेक शिला चूलिका उत्तर अतिरक्त कंबला ईशानेन्द्र प्रासाद अभिषेक शिला ईशानेन्द्र प्रासाद GO पश्चिम रक्त कंबला -शनि ग्रह ९०० योजन - मंगल ग्रह ८९७ योजन गुरु ग्रह ८९४ योजन शुक्र ग्रह ८९१ योजन बुध ग्रह ८८८ योजन नक्षत्र ८८४ योजन चंद्र ८८० योजन सूर्य ८०० योजन तारा ७९० योजन पांडु कंबला चैत्य पंडक वन प्रासाद कार प्रासाद तीसरी -१००० योजन मेखला अति पांडु कंबला दक्षिण ३६००० योजन → तीसरा कांड सोमनस दूसरी मेखला वन ६२५०० योजन शनि स्वाति मंगल चंद्र ११० योजन ज्योतिष चक्र गुरू अभिजीत चंद्र शुक्र AYEOTKE JAB मूल भरणी नंदनवन पहली Nifal मेखला भद्रशालवन -५०० योजन→ भूमि स्थान पर १०००० योजन विस्तार समभूतल 17 १००० योजन ऊँचाई पहला काड भूमि के अंदर गहराई १००० योजन चौड़ाई १००९०१० योजन कंद विभाग अष्ट रूचक प्रदेश Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05555555555555955555555555555550 |चित्र परिचय १७ ] मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा करता ज्योतिष मण्डल जम्बूद्वीप के मध्य केन्द्र में स्थित एक लाख योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। इस पर्वत की तलहटी ऊ (समभूतला) से ७९० योजन ऊपर जाने पर ज्योतिष मण्डल प्रारम्भ होकर ९०० योजन पर समाप्त होता है। ऊ + अर्थात् ११० योजन ऊँचाई तक ज्योतिष देव विमान, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। सर्वप्रथम ७९० योजन पर तारामण्डल हैं। तारामण्डल से १० योजन ऊपर सूर्य मण्डल है। सूर्य मण्डल 5 से ८० योजन ऊपर चन्द्र मण्डल है। इससे ४ योजन ऊपर २८ नक्षत्र हैं। नक्षत्रों से ऊपर ग्रह मण्डल है।' शनि ग्रह सबसे ऊपर है। सूत्र १५९ के अनुसार जम्बूद्वीप में दो सूर्य, दो चन्द्र, ५६ नक्षत्र, १७६ महाग्रह तथा कोड़ाकोड़ तारे हैं। ये ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत से ११२१ योजन की दूरी पर गति करते हैं। सोमनस वन से ३६ हजार योजन की ऊँचाई पर मेरु के शिखर पर पंडक वन नामक एक अति रमणीय वन है। इस चूलिका के मध्य भाग में तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के चार अभिषेक शिलाएँ हैं। पूर्व-पश्चिम की अभिषेक शिला पर दो-दो सिंहासन हैं, उत्तर-दक्षिण में एक-एक सिंहासन है। पूर्व-पश्चिम की है म शिलाओं पर पूर्व विदेह-पश्चिम विदेह में उत्पन्न तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। दक्षिण दिशा की पांडु कंबल शिला पर भरत क्षेत्र में जन्मे तथा उत्तर दिशा की रक्त कंबल शिला पर ऐरवत क्षेत्र में जन्मे तीर्थंकरों का जन्माभिषेक ६४ इन्द्र व अगणित देवी देवता करते हैं। -वक्षस्कार ७,सूत्र १९८ STELLAR BODIES ORBITING AROUND MERU MOUNTAIN At the center of Jambudveep there is one hundred thousand Yojans high Meru mountain. Beginning at an altitude of 790 Yojans and ending at that of 900 Yojans is the area of the orbit of stellar bodies. In other words the celestial vehicles of stellar gods move in orbits 45 around Meru mountain with in a vertical sector of 110 Yojans. First of all is the groups of stars at the altitude of 790 Yojans. Ten Yojans above this is 45 the solar orbit and 80 Yojans above this is the lunar orbit. Four Yojans above this is the orbit of 28 constellations, Above the constellations are the orbits of planets, that of Saturn being the highest. According to Sutra 159 there are two suns, two moons, 56 constellations, 176 great planets and millions and millions of stars. These stellar gods move around at a distance of 1121 Yojans from Meru mountain. At a height of 36 thousand Yojans from Somanas forest on a peak on Meru mountain is 4 a beautiful garden called Pandak Van. At the center of this peak there are four rocks for 45 45 post-birth anointing of Tirthankars. On the eastern and western rocks there are two thrones 4 451 each and on the northern and southern rocks there is one throne each. Tirthankars born in East-Videh and West-Videh are anointed on the east-west thrones. Tirthankars born in ॥ Bharat area are anointed on the southern rock called Pandu Kambal Shila. Tirthankars 4 born in Airavat area are anointed on the northern rock called Rakt Kambal Shila. This birth anointing is performed by 64 kings of gods (Indra) and numerous gods and goddesses. - Vakshaskar-7, Sutra-198 05555555555555555555555555555555 卐 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************மிதததததததததததி55 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 - 卐 卐 5 卐 [उ. ] गोयमा ! दसहिं जोअणेहिं अबाहाए चारं चरइ, एवं चन्द - विमाणे णउईए जोअणेहिं चारं 5 उवरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोअण-सए चारं चरइ, सूर - विमाणाओ चन्द - विमाणे असीईए 5 जोअणेहिं चारं चरइ, सूर-विमाणाओ जोअण-सए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ, चन्द - विमाणाओ वीसाए जो अहिं उवरिल्ले णं तारारूवे चारं चरइ । १९८. [ प्र. १ ] भगवन् ! ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत से कितने अन्तर पर गति करते हैं ? [ उ. ] गौतम ! ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत से १,१२१ योजन की दूरी पर गति करते हैंहैं- गतिशील फ्र रहते हैं। 卐 चरई, [ प्र. २ ] भगवन् ! ज्योतिश्चक्र - तारापटल लोकान्त से - लोक के अन्त से, अलोक से पूर्व कितने अन्तर पर स्थिर स्थित है ? [ उ.] गौतम ! वहाँ से ज्योतिश्चक्र १,१११ योजन के अन्तर पर स्थित है। [प्र. ३ ] भगवन् ! अधस्तन - नीचे का ज्योतिश्चक्र धरणितल से समतल भूमि से कितनी ऊँचाई पर गति करता है ? [उ.] गौतम ! अधस्तन ज्योतिश्चक्र धरणितल से ७९० योजन की ऊँचाई पर गति करता है। इसी प्रकार सूर्यविमान धरणितल से ८०० योजन की ऊँचाई पर, चन्द्रविमान ८८० योजन की ऊँचाई पर तथा उपरितन- ऊपर के तारारूप-नक्षत्र - ग्रह - प्रकीर्ण तारे ९०० योजन की ऊँचाई पर गति करते हैं। [प्र. ४ ] भगवन् ! ज्योतिश्चक्र के अधस्तनतल से सूर्यविमान कितने अन्तर पर, कितनी ऊँचाई पर गमन करता है ? फ्र सप्तम वक्षस्कार [उ.] गौतम ! वह १० योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है । चन्द्र - विमान ९० योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है । उपरितन ऊपर के तारारूप प्रकीर्ण तारे ११० योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करते हैं। सूर्य के विमान से चन्द्रमा का विमान ८० योजन के अन्तर पर, 5 ऊँचाई पर गति करते हैं। उपरितन तारारूप ज्योतिश्चक्र सूर्यविमान से १०० योजन के अन्तर पर, 卐 ऊँचाई पर गति करता है। वह चन्द्रविमान से २० योजन दूरी पर ऊँचाई पर गति करता है। 卐 卐 198. [Q. 1] At what distance from Meru mountain do the stellar gods 5 move ? 卐 फफफफफ 卐 [Ans.] Gautam ! The stellar gods move at a distance of 1,121 yojans फ्र from Meru mountain. (575) 卐 卐 [Q. 2] Reverend Sir ! Upto how much distance from the outer edge of 卐 Seventh Chapter 卐 the occupied space (lok) is the stellar system and how much it is to the 卐 east of unoccupied space (alok). [Ans.] Gautam ! The stellar system is at a distance of 1111 yojans. [Q.3] Reverend Sir ! At much height is the lowest voing of the stellar फ्र system from the surface of the earth? 5 卐 卐 卐 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) ))))))))))))55555555 (Ans.) Gautam ! It is moving of a height of 790 yojan from the surface of the earth. The sun in its divine vehicle is moving at a height of 800 yojans, the moon in its divine vehicle is at 880 yojans and the constellation in the form of star at the highest level is at 900 yojans ? [Q. 4] Reverend Sir ! At much height from the lowest rained of the stellar system. The divine vehicle of sun moves? [Ans.] Gautam ! It is at as height of 10 yojans. The divine vehicle of moon is at height of 90 yojans. The height stars are at a highest of 110 yojans from the lowest stars. The divine vehicle of moon is moving at the of 80 yojans from that of the sun. The divine vehicle of the highest star is moving at a height of 100 yojans from the divine vehicle of the sun while it is at a height of twenty yojans from that of the moon. १९९. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं दीवे अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते सबभरिल्लं चार चरइ ? कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरं चारं चरइ ? कयरे सबहिदिल्लं चार चरण, कयरे सब्बउवरिल्लं चारं चरइ ? .. [उ. ] गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सव्वन्भंतरं चारं चरइ, मूलो सबबाहिरं चारं चरइ, भरणी सव्वहिडिल्लगं, साई सव्वुवरिल्लगं चारं चरइ। [प्र. ] चन्दविमाणे णं भन्ते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? [ उ. ] गोयमा ! अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए, सव्वफालिआमए अन्भुग्गयमूसिए, एवं सव्वाइं णेअब्वाइं। [प्र. ] चन्दविमाणे णं भन्ते ! केवइयं आयाम-विक्खंभेणं, केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! छप्पण्णं खलु भाए विच्छिण्णं चन्दमंडलं होइ। अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं ॥१॥ अडयालीसं भाए विच्छिण्णं सूरमंडलं होइ। चउवीसं खलु भाए बाहल्लं तस्स बोद्धब्बं ॥२॥ दो कोसे अ गहाणं णक्खत्ताणं तु हवइ तस्सद्धं । तस्सद्धं ताराणं तस्सद्धं चेव बाहल्लं ॥३॥ १९९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत अट्ठाईस नक्षत्रों में कौन-सा नक्षत्र सर्व मण्डलों के भीतर-भीतर के मण्डल से होता हुआ गति करता है? कौन-सा नक्षत्र समस्त मण्डलों के बाहर होता हुआ गति करता है? कौन-सा नक्षत्र सब मण्डलों के नीचे होता हुआ गति करता है ? कौन-सा नक्षत्र सब मण्डलों के ऊपर होता हुआ गति करता है? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (576) Jambudveep Prajnapti Sutra 五步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙$$ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) )) ) 55555555555555555555)))))))))))) 855555555555555555555555555555555558 5 [उ. ] गौतम ! अभिजित् नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल में से होता हुआ गति करता है। मूल नक्षत्र सबके + मण्डलों के बाहर होता हुआ गति करता है। भरणी नक्षत्र सब मण्डलों के नीचे होता हुआ गति करता ॐ है। स्वाति नक्षत्र सब मण्डलों के ऊपर होता हुआ गति करता है। [प्र.] भगवन् चन्द्रविमान का संस्थान-आकार कैसा है ? __ [उ. ] गौतम ! चन्द्रविमान ऊपर की ओर मुँह कर रखे हुए आधे कपित्थ के फल के आकार का 5 है। वह सम्पूर्णतः स्फटिकमय है। अति उन्नत है, इत्यादि। सूर्य आदि सर्व ज्योतिष्क देवों के विमान इसी के प्रकार के समझने चाहिए। [प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान कितना लम्बा, चौड़ा तथा ऊँचा है ? __[उ. ] गौतम ! चन्द्रविमान ६ योजन चौड़ा, वृत्ताकार होने से उतना ही लम्बा तथा २८ योजन ॐ ऊँचा है। सूर्यविमान , योजन चौड़ा, उतना ही लम्बा तथा ४ योजन ऊँचा है। ___ ग्रहों, नक्षत्रों तथा ताराओं के विमान क्रमशः २ कोश, १ कोश तथा कोश विस्तीर्ण हैं। ग्रह आदि के विमानों की ऊँचाई उनके विस्तार से आधी होती है, तदनुसार ग्रहविमानों की ऊँचाई २ कोश से + आधी १ कोश, नक्षत्रविमानों की ऊँचाई १ कोश से आधी १ कोश तथा ताराविमानों की ऊँचाई 1 कोश से आधी कोश है। 199. (Q.) Reverend Sir ! Out of 28 constellations in Jambu island, which one is moving in the innermost of all the rounds, which one is moving in the outermost of all the rounds, which one is moving at the lowest level of all the round and which is moving at the uppermost level 卐 of all the rounds? (Ans.] Gautam ! Abhijit constellation is moving in the innermost of all the rounds. Mool constellation is moving at the outermost of all the rounds. Bharni constellation is moving at the lowest level of all the rounds, Svati constellation is moving at the uppermost of all the rounds. (Q.) Reverend Sir ! What is the shape of the divine vehicle of the __moon ? (Ans.] Gautam ! The shape of the flying vehicle of the moon is like that of half of Kapitth fruit placed facing upwards. It is completely bright. It is very much developed and the like. The divine white of sun and other stellar gods are also of the same type. (Q.) Reverend Sir ! How much long and how much wide is the flying vehicle of the moon ? 155555555555555555555555555555555555555555555555553 | सप्तम वक्षस्कार (577) Seventh Chapter Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிதிமிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிதிமிதிததமிதிமிதிததமிமிமிமிமிழ [Ans.] Gautam ! The divine vehicle of the moon is 5 yojan wide, 5 yojan long and 28 yojan high. The flying vehicle of the sun is yojan in length as well as breadth. It is 24 yojan in height. The flying vehicles of planets, constellations and stars are 2 kosh, 1 kosh and half a kosh respectively in length and breadth. The height of flying vehicles of planets and others is half of their respective height. So the height of flying vehicle of planets is half of 2 kosh which comes of one kosh, the height of flying vehicles of constellations in half of one kosh, and the height of flying vehicles of stars is half of half a kosh which comes to quarter of a kosh. विमान वाहक देव CELESTIAL GODS DRIVING THE DIVINE VEHICLES २००. [प्र. ] चन्द्रविमाणे णं भन्ते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहंति ? [उ. ] (क) गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंतित्ति । चन्दविमाणस्स णं पुरत्थिमे णं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल - विमल - निम्मल - दधिघण - गोखीर - फेण - रयणिगरप्पगासाणं थिर-लट्ठपउट्ठ - वट्ट - पीवर - सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ - तिक्खदाढाविडंबिअमुहाणं अपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं रत्तुप्पलपत्तमउय - सूमालतालुजीहाणं मिउ-विसयसुहुम- लक्खणपसत्थवर वण्णकेसरसडोवसोहि आणं ऊ सिअ - सुनमिय- सुजाय - अप्फोडिअ - लंगूलाणं रामयणखाणं वइरामयदाढाणं वइरामयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुआणं तवणिज्जजोत्तगसुजाइआणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिअगईणं अमिअबल-वीरिअ - पुरिसक्कार - परक्कमाणं महया अप्फोडिअ - सीहणायबोलकलकलरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेंता अंबरं, दिसाओ अ सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारी पुरत्थिमिल्लं बाहं वर्हति । (ख) चंदविमाणस्स णं दाहिणेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल - विमलनिम्मलदधिघणगोखीर- फेणरययणिगरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुअल - सुट्ठिअ - पीवरवर - वइरसोंढवट्टिअ दित्तसुरत्तपमप्पगासाणं अभुण्यमुहाणं तवणिज्जविसालकणगचंचलचलंत विमलुज्जला महुवणभिसंतणिद्धपत्तलनिम्मल-तिवण्णमणिरयणलोअणाणं अब्भुग्गयमउल-मल्लि आधवलसरिससंठि कंचणकोसीपविट्ठदन्तग्गविमल अणिव्वणदढ - कसिणफालिआ - मयसुजायदन्तमुसलोवसोभिआणं मणिरयणरुइलपेरंतचित्तरूवगविराइआणं तवणिज्जविसालतिलगप्पमुहपरिमण्डिआणं नानामणिरयणमुद्धगेविज्जबद्धगलयवर भूसणाणं वेरुलिअ - विचित्तदण्डनिम्मलवइरामयतिक्खलट्ठ अंकुसकुंभजुअलयंतरोडिआणं तवणिज्जसुबद्धकच्छदप्पि अबलुद्धराणं विमलघणमण्डलवइरामयलालाललियतालणाणं णाणामणिरयणघण्टपासग - रजतामय - बद्धलज्जु-लंबि अघंटाजु अलमहुरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवट्टि असुजायलक्खणपसत्थरमणिज्जवालगत्तपरिपुंछणाण उवचि अपडिपुण्णकुम्मचलणलहुविक्कमाणं अंकमणक्खाणं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (578) 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55555 5 5 59 Jambudveep Prajnapti Sutra Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 ))))))) 999))))))))))) 5555555555555555555555555555555555555 ॐ तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुआणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिअगईणं अमिअबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयागंभीरगुलुगुलाइतरवेणं महुरेणं 5 ॐ मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं बाहं के परिवहंतित्ति। (ग) चन्दविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं चलचवल-ककुहसालीणं घणनिचिअ-सुबद्धलक्खणुण्णयईसिआणयवसयोट्ठाणं चंकमिअ-ललिअ-पुलिअ-चलचवलगब्बिअगईणं सत्रतपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं पीवरवट्टिअसुसंठिअकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तरमणिज्ज-वालगण्डाणं समखुरवालिधाणाणं समलिहिअसिंगतिक्खग्गसंगयाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं उवचिअमंसलविसालपडिपुण्ण-खंधपएससुंदराणं वेरुलिअभिसंत+ कडक्खसुनिरिक्खणाणं जुत्तपमाणपहाणलक्खणपसत्थरमणिज्जगग्गरगल्लसोभिआणं घरघरगसुसद्दॐ बद्धकंठपरिमण्डिआणं णाणामणिकणगरयणघण्टिआवेगच्छिगसुकयमालिआणं वरघण्टागलय मालुज्जलसिरिधराणं पउमुप्पलसगलसुरभिमालाविभूसिआणं वइरखुराणं विविहविक्खुराणं ॐ फालिआमयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुआणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइआणं कापगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिअगईणं अभिअबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयागज्जिअगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसहरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्लं बाहं परिवहंतित्ति। 5 (घ) चन्दविमाणस्स णं उत्तरेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलमउलमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअललिअपुलिअचलचवलचंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवइजइणसिक्खिअगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं सन्नयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं पीवरवट्टिअसुसंठिअकडीणं ओलम्बपलंबलक्खणपमाणजुत्तरमणिज्जवालपुच्छाणं तणुसुहुमसुजायॐ गिद्धलोमच्छविहराणं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्थविच्छिण्णकेसरवालिहराणं ललंतथासगललाउवरभूसणाणं मुहमण्डगओचूलगचामरथासगपरिमण्डिअकडीणं तवणिज्जखुराणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुआणं ॐ तवणिज्जजोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं (पीइगमाणं मणोगमाणं) मणोरमाणं अमिअगईणं अमिअबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयाहयहेसिअकिलकिलाइअरवेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयस्वधारीणं देवाणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहंतित्ति। गाहा सोलसदेवसहस्सा, हवंति चंदेसु चेव सूरेसु। अट्टेव सहस्साइं, एक्केक्कंमि गहविमाणे॥१॥ चत्तारि सहस्साइं, णक्खत्तंमि अ हवंति इक्किक्के। दो चेव सहस्साइं, तारारूवेक्कमेक्कंमि॥२॥ एवं सूरविमाणाणं (गहविमाणा णक्खत्तविमाणाणं) तारारूवविमाणाणं णवरं एस देवसंघाएत्ति। 卐155555555555555555555555555555555555559999955558 999999999999999 सप्तम वक्षस्कार (579) Seventh Chapter B卐555555555555555)))))))))))))) Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B55555555555555555555555555555555555555555555555558 २००.[प्र. ] भगवन् ! चन्द्र-विमान को कितने हजार देव परिवहन करते हैं ? [उ. ] (क) गौतम ! सोलह हजार देव परिवहन करते हैं। चन्द्र-विमान के पूर्व में श्वेत-वर्णयुक्त, सौभाग्ययक्त. जन-जन को प्रिय लगने वाले. सष्ठ प्रभायक्त, शंख के मध्य भाग, जमे हए ठोस अत्यन्त 卐 निर्मल दही, गाय के दूध के झाग तथा रजत-राशि या चाँदी के ढेर के सदृश विमल, उज्ज्वल दीप्तियुक्त, सुदृढ़-कान्त, कलाइयों से युक्त, गोल, पुष्ट, परस्पर मिले हुए, विशिष्ट, तीखी डाढ़ों से प्रकटित मुखयुक्त, लाल कमल के सदृश मृदु, अत्यन्त कोमल तालु-जिह्वायुक्त, अत्यन्त गाढ़े या जमे हुए शहद की गोली 5 सदृश पिंगल वर्ण के लालिमा-मिश्रित भूरे रंग के नेत्रयुक्त, माँसल, उत्तम जंघायुक्त, परिपूर्ण, चौड़े कन्धों से युक्त, मुलायम, उज्ज्वल, सूक्ष्म, प्रशस्त लक्षणयुक्त, उत्तम वर्णमय, कन्धों पर उगे अयालों से शोभित ऊपर किये हुए, ऊपर से सुन्दर रूप में झुके हुए, सहज रूप में सुन्दर, कभी-कभी भूमि पर फटकारी गई पूँछ से युक्त, वज्रमय नखयुक्त, वज्रमय दंष्ट्रायुक्त, वज्रमय दाँतों वाले, अग्नि में तपाये हुए स्वर्णमय जिह्वा तथा तालु से युक्त, तपनीय स्वर्ण-निर्मित रज्जू द्वारा विमान के साथ भलीभाँति जुड़े हुए,' स्वेच्छापूर्वक गमन करने वाले, उल्लास के साथ चलने वाले, मन की गति की ज्यों सत्वर गमनशील, मन को प्रिय लगने वाले, अत्यधिक तेज गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ तथा पराक्रम से युक्त, ॐ उच्च गम्भीर स्वर से सिंहनाद करते हुए, अपनी मधुर, मनोहर ध्वनि द्वारा गगन-मण्डल को आपूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार सिंहरूपधारी देव-विमान के पूर्वी पार्श्व को परिवहन किये चलते हैं। (ख) चन्द्र-विमान के दक्षिण में सफेद वर्णयुक्त, सौभाग्ययुक्त, सुष्ठ प्रभायुक्त, शंख के मध्य भाग, ॐ जमे हुए ठोस अत्यन्त निर्मल दही, गोदुग्ध के झाग तथा रजत-राशि की ज्यों विमल, उज्ज्वल दीप्तियुक्त, वज्रमय कुंभस्थल से युक्त, सुन्दर संस्थानयुक्त, परिपुष्ट, उत्तम, हीरों की ज्यों देदीप्यमान, गोल सैंड, उस पर उभरे हुए दीप्त, रक्त-कमल से प्रतीत होते बिन्दुओं से सुशोभित, उन्नत मुखयुक्त, तपनीय-स्वर्ण सदृश, विशाल, सहज चपलतामय, इधर-उधर डोलते, निर्मल, उज्ज्वल कानों से युक्त, मधुवर्ण-शहद सदृश वर्णमय, देदीप्यमान, चिकने, सुकोमल पलकयुक्त, निर्मल, लाल, पीले तथा सफेद रत्नों जैसे , लोचनयुक्त, अति उन्नत, चमेली के पुष्प की कली के समान धवल, सम संस्थानमय, घाव से रहित, दृढ़, संपूर्णतः स्फटिकमय, जन्मजात दोषरहित, मूसलवत्, पर्यन्त भागों पर उज्ज्वल मणिरत्न-निष्पन्न रुचिर चित्रांकनमय स्वर्ण-निर्मित कोशिकाओं में सन्निवेशित अग्र भागयुक्त दाँतों से सुशोभित, तपनीय स्वर्णसदृश, बड़े-बड़े तिलक आदि पुष्पों से परिमण्डित, विविध मणिरत्न-सज्जित मूर्धायुक्त, गले में प्रस्थापित श्रेष्ठ भूषणों से विभूषित, कुंभस्थल द्विभाग-स्थित नीलम-निर्मित विचित्र दण्डान्वित, निर्मल वज्रमय, तीक्ष्ण कान्त अंकुशयुक्त, तपनीय-स्वर्ण-निर्मित, सुन्दर रूप में बँधी छाती पर, पेट पर बाँधी , जाने वाली रस्सी से युक्त, गर्व से उद्धत, उत्कट बलयुक्त, निर्मल, सघन मण्डलयुक्त, हीरकमय अंकुश द्वारा दी जाती ताड़ना से उत्पन्न श्रुतिसुखद शब्दयुक्त, विविध मणियों एवं रत्नों से सज्जित, दोनों ओर विद्यमान छोटी-छोटी घण्टियों से युक्त, रजत-निर्मित, तिरछी बँधी रस्सी से लटकते दो घण्टाओं के मधुर स्वर से मनोहर प्रतीत होते, सुन्दर, समुचित प्रमाणोपेत, वर्तुलाकार, सुनिष्पन्न, उत्तम लक्षणमय + प्रशस्त, रमणीय बालों से शोभित पूँछ वाले, माँसल, पूर्ण अवयव वाले, कछुए की ज्यों उन्नत चरणों के 听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF (580) Jambudveep Prajnapti Sutra | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ) )))) ))))))))) ))))))))5558 , Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफ 255555 5 55 55 59555555555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5552 சு तपनीय 5 स्वर्ण-निर्मित रस्सी द्वारा विमान के साथ सुन्दर रूप में जुड़े हुए, यथेच्छ गमन करने वाले उल्लास के 5 साथ चलने वाले, मन की गति की ज्यों सत्वर गमनशील, मन को रमणीय लगने वाले, अत्यधिक तेज 卐 卐 5 द्वारा द्रुतगति से कदम रखते, अंकरत्नमय नखों वाले, तपनीय-स्वर्णमय जिह्वा तथा तालुयुक्त, 5 गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रमयुक्त, उच्च, गम्भीर स्वर से गर्जना करते हुए, अपनी मधुर, मनोहर ध्वनि द्वारा आकाश को आपूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार गजरूपधारी देव, विमान के दक्षिणी पार्श्व को परिवहन करते हैं। फ्र (घ) चन्द्र - विमान के उत्तर में श्वेतवर्णयुक्त, जन-जन को प्रिय लगने वाले, सुन्दर प्रभायुक्त, वेग एवं बल से आपूर्ण युवावस्था से युक्त, हरिमेलक तथा मल्लिका- चमेली की कलियों जैसी आँखों से युक्त, तिरक्षी चाल या तोते की चोंच की ज्यों वक्रता के साथ अपने पैर का ऊर्ध्वकरण, विलासपूर्ण गति, एक विशिष्ट गति, वायु के तुल्य अतीव चपल गतियुक्त, गर्त्त आदि का अतिक्रमण - खड्डे आदि फाँद जाना, वल्गन- - उत्कूर्दन - ऊँचा कूदना, उछलना, धावन-: - शीघ्रतापूर्वक सीधा दौड़ना, धोरण-गति सप्तम वक्षस्कार फ्र (ग) चन्द्र-विमान के पश्चिम में सफेद वर्णयुक्त, सौभाग्ययुक्त सुन्दर प्रभायुक्त, चलचपल - इधरउधर हिलते रहने के कारण अति चपल थूही से शोभित, लोहमयी गदा की ज्यों ठोस, सुगठित 5 शिथिलतारहित, प्रशस्तलक्षणयुक्त, किंचित् झुके हुए होठों वाले, टेढ़ी चाल, सविलास गति - सुन्दर, 卐 शानदार चाल, आकाश को लाँघ जाने जैसी उछाल पूर्ण चाल इत्यादि अत्यन्त चपलत्वरापूर्ण, गर्वपूर्ण 卐 फ गति से शोभित, नीचे की ओर सम्यक् रूप में झुके हुए देह के पार्श्व भागों से युक्त, देह-प्रमाण के अनुरूप पार्श्व भागयुक्त, सहजतया सुगठित पार्श्वयुक्त, परिपुष्ट, गोल, सुन्दर आकारमय कमर वाले, लटकते हुए लम्बे, उत्तम लक्षणमय, प्रमाणयुक्त रमणीय, पूँछ के सघन, धवल केशों से शोभित, परस्पर समान खुरों से युक्त, सुन्दर पूँछयुक्त, समान रूप में उत्कीर्ण किये गये से कोरे गये से, तीक्ष्ण अग्र भागमय, यथोचित मानोपेत सींगों से युक्त, अत्यन्त सूक्ष्म, सुनिष्पन्न, चिकने, मुलायम, देह के बालों की 5 शोभा से युक्त, पुष्ट, माँसल, विशाल, परिपूर्ण कन्धों से सुन्दर प्रतीयमान, नीलम की ज्यों भासमान आधी निगाह या तिरछी निगाहयुक्त नेत्रों से शोभित, यथोचित प्रमाणोपेत, विशिष्ट, प्रशस्त, रमणीय, गग्गरक नामक विशिष्ट वस्त्र से विभूषित, हिलने-डुलने से बजने जैसी ध्वनि से समवेत (गले में धारण किये ) घरघरक संज्ञक आभरण - विशेष से सुशोभित गले से युक्त, वक्षःस्थल पर तिर्यक् या तिरछे रूप में प्रस्थापित, विविध प्रकार की मणियों, रत्नों तथा स्वर्ण द्वारा निर्मित घण्टियों की कतारों से सुशोभित, उपर्युक्त घण्टियों से विशिष्टतर घण्टाओं की माला से उज्ज्वल शोभा धारण किये हुए सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कमल तथा अखण्डित, सुरक्षित पुष्पों की मालाओं से विभूषित, वज्रमय खुरयुक्त, मणिस्वर्ण आदि द्वारा विविध प्रकार से सुसज्ज, उक्त खुरों से ऊर्ध्ववर्ती विखुरयुक्त, स्फटिकमय दाँतयुक्त, तपनीय स्वर्णमय जिह्वायुक्त, तालुयुक्त, तपनीय स्वर्ण-निर्मित रस्सी द्वारा विमान में सुयोजित, यथेच्छ फ गमनशील, प्रीति या उल्लास के साथ चलने वाले, मन की गति की ज्यों सत्वर गमन करने वाले, मन को प्रिय लगने वाले, अत्यधिक तेज गतियुक्त, उच्च, गम्भीर स्वर से गर्जना करते हुए, अपनी मधुर मनोहर ध्वनि द्वारा आकाश को आपूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार 5 वृषभरूपधारी देव, विमान के पश्चिमी पार्श्व का परिवहन करते हैं। (581) 75595959555555595959555595959555595959595555 Seventh Chapter 卐 फ्र 卐 卐 फ 5 卐 卐 卐 फ्र Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )))) ))) )))) ))))) ))))) ))))))) 85555555555555555555555555555555555555555555555558 चातुर्य-चतुराई से दौड़ना, त्रिपदी-भूमि पर तीन पैर रखना, जयिनी-गमनानन्तर विजयशील, 5 जविनी-वेगवती-इन गतिक्रमों में शिक्षित, अभ्यस्त, गले में प्रस्थापित हिलते हुए रम्य, उत्तम आभूषणों 5 से युक्त, नीचे की ओर सम्यक्तया झुके हुए देह के पार्श्व भागों से युक्त, देह के अनुरूप प्रमाणोपेत. पार्श्व भागयुक्त, सहजतया सुगठित पार्श्व भागयुक्त, परिपुष्ट, गोल तथा सुन्दर संस्थानमय कमरयुक्त, के लटकते हुए, लम्बे, उत्तम लक्षणमय, समुचित प्रमाणोपेत, रमणीय-पूँछ के बालों से युक्त, अत्यन्त सूक्ष्म, , सुनिष्पन्न, चिकने, मुलायम देह के रोमों की छवि से युक्त, कोमल, विशद उज्ज्वल अथवा प्रत्येक रोमकूप में एक-एक होने से परस्पर नहीं मिले हुए, पृथक्-पृथक् परिदृश्यमान, सूक्ष्म, उत्तम लक्षणयुक्त, विस्तीर्ण, स्कन्धकेशश्रेणी-कन्धों पर उगे बालों की पंक्तियों से सुशोभित, ललाट पर धारण कराये हुए + दर्पणाकार आभूषणों से युक्त, मुखमण्डक-मुखाभरण, अवचूल-लटकते लूँबे, चँवर एवं दर्पण के आकार के विशिष्ट आभूषणों से शोभित, सुसज्जित कमरयुक्त, तपनीय-स्वर्णमय खुर, जिह्वा तथा तालुयुक्त, 5 तपनीय-स्वर्ण-निर्मित रस्सी द्वारा विमान से सुयोजित-सुन्दर रूप में जुड़े हुए, इच्छानुरूप गतियुक्त (प्रीति तथा उल्लासपूर्वक चलने वाले, मन के वेग की ज्यों चलने वाले), मन को रमणीय प्रतीत होने के वाले, अत्यधिक तेज गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ तथा पराक्रमयुक्त, उच्च स्वर से हिनहिनाहट करते हुए, अपनी मनोहर ध्वनि द्वारा गगन-मण्डल को आपूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार अश्वरूपधारी देव, विमान के उत्तरी पार्श्व को परिवहन करते हैं। म ___ चार-चार हजार सिंहरूपधारी देव, चार-चार हजार गजरूपधारी देव, चार-चार हजार वृषभरूपधारी देव तथा चार-चार हजार अश्वरूपधारी देव-कुल सोलह-सोलह हजार देव चन्द्र और ॥ सर्य-विमानों का परिवहन करते हैं। ग्रहों के विमानों का दो-दो हजार सिंहरूपधारी देव, दो-दो हजार गजरूपधारी देव, दो-दो हजार के वृषभरूपधारी देव और दो-दो हजार अश्वरूधारी देव-कुल आठ-आठ हजार देव परिवहन करते हैं। नक्षत्रों के विमानों का एक-एक हजार सिंहरूपधारी देव, एक-एक हजार गजरूपधारी देव, एक-फ़ एक हजार वृषभरूपधारी देव एवं एक-एक हजार अश्वरूपधारी देव-कुल चार-चार हजार देव, परिवहन करते हैं। तारों के विमानों का पाँच-पाँच सौ सिंहरूपधारी देव, पाँच-पाँच सौ गजरूपधारी देव, पाँच-पाँच सौ वृषभरूपधारी देव तथा पाँच-पाँच सौ अश्वरूपधारी देव-कुल दो-दो हजार देव परिवहन करते हैं। उपर्युक्त चन्द्र-विमानों के वर्णन के अनुरूप सूर्य-विमान (ग्रह-विमानों, नक्षत्र-विमानों) और 5 तारा-विमानों का वर्णन है। केवल देव-समूह में परिवाहक देवों की संख्या में अन्तर है। ___200. [Q.] Reverend Sir ! How many gods drive the flying vehicle of the moon ? [Ans. ] (a) Gautam ! Sixteen thousand gods drive the flying vehicle of the moon. Four thousand gods in the shape of lions drive the eastern side of the vehicle. They are white in colour. They are fortunate. They; are lovable to all. They have a good aura. They are as white and clean as | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (582) Jambudveep Prajnapti Sutra 卐55555555555555555555555555555555555555555555555558 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 6 460 461 455 456 457 455 456 457 455 456 457 458 45 45 4 55 56 55 54 455 456 457 455 456 457 454545454545454555 455 456 457 458 459 日牙牙牙牙牙牙牙$$$$$$%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% the central part of a caunch-shell, the solid and extremely clean frozen 45 curd, the foam of cows milk, the heap of silver. They have a bright glare. 15 * They have well-built wrists. They have round, strong well joined, 41 outstanding, sharp molars in their mouth. They are as soft as red lotus. Their tongue and inner upper part of the mouth is extremely soft. Their eyes are like small balls of extremely thick or frozen honey and of grey colour mixed with a little redness. Their thighs are well built. Their shoulders are wide and perfect. Their symbols are bright, sabtle and 41 ominous. Their colour is excellent. They are looking beautiful with the grown more on their shoulders. They are bent from above in a beautiful manner. They are all attractive. They were having a tail, occasionally beating the ground. They had strong Vajra like nails, strong fangs, strong teeth and their tongue was shining like burnt gold. They were attached to the vehicle properly with a rope of gold. They were accustioned to moving of their free will and in a gay manner. They were as fast as the mind. They were pleasant to the heart. They had extremely fast speed. Their strength was unlimited. They had a grand power and courage. They were roaring in a loud, sobre manner. They were filling the environment with their sweet pleasant voice. They were beautifying all the directions, complexioned fortunate and have a good 4 i infulence. They are clean like the central part of a counch shell, extemely dirtless solid frozen curd, foam of cow's milk and heap of silver. They have bright glare. The waist is strong. The have beautiful figure. They are fully developed, excellent and shining like diamonds. They have round trunk and on it the shining drops look like red lotus. Their mouth is developed. They have large, hanging, clean bright ears shining like burnt gold. Their eyes are honey-like, shining, smooth, dirtless, like red, yellow and white jewels. Their eyelids are soft. Their tusks are very much raised, white like petal of Chameli flower, perfectly shaped. Their body is strong, shining and without any wound. They are faultless since their very birth like a thick rod. The parts of their body are shining like jewels, shining sketches in gold. They are decorated with large mark on their forehead shining like burnt gold and with flowers. They have been beautiful with many jewels and precious stones. There are beautiful ornaments on their neck. On their head there is wonderful rod made of neelam stone, clean and strong and sharp beautiful driving stick (ankush). Their breast is tied beautifully with a rope generally tied on the belly. They are proud of their great strength. They have beautiful aura. The shining of diamond-studded rod (ankush) is preducing a worth 4 456 457 455 456 455 456 457 45454545454545454545 451 455 456 457 458 455 456 457 455 456 457 455 456 457 458 45 455 456 457 456 457 455 456 45 455 456 457 455 456 457 455 सप्तम वक्षस्कार ( 583 ) Seventh Chapter 555步步步步$5555555555555555555555 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555555555 卐 卐 55555555555555555555559 listening sound. They have been decorated with jewels and precious stones of different types. Small bells are on both of their sides. Two large bells are hanging with silvery rope tied oblequely and they are looking pleasant due to the sweet sound. they produce. Their tail is wellproportioned like a rod, perfect having meritorious marks and beautiful hair. All the parts of their body are perfect and in order. Their feet are raised like a tortoise. They move at fast speed. Their nails are like ank jewels. Their tongue is like burnt gold and so in inner upper part of their mouth. They are attached to the flying vehicle beautifully with a strong made of burnt gold. They more independently, the way they like and in an ecstatic manner. Their speed is like that of the mind. They are attractive to the mind. They have outstanding lustre. They have unlimited strength, power, courage. They trumpet loudly in a solemn voice. They are filling the environment with their sweet pleasant voice. They are beautifying all the directions. (c) Four thousand gods in the form of bullocks drive the flying vehicle of the moon on the western side. They are white in colour having beautiful glamour. As they move about, they are restless like naughty thoohi. They are strong, well-built and free from any weakness like iron rod. They have meritorious signs. Their lips are slightly bent. Their gait is not straight. It is beautiful, grand and they can jury in such a manner that they can cross the sky. Their movement is extremely part and graceful. Their body is properly bent a little downwards. The parts of their body are properly proportioned. Their sides are perfect and well built strong, round. Their waist is beautiful in shape. They have white thick hair on there tails which is long. Their hoops are of equal size. Their tails are beautiful. Their horns are of proper size and are sharply pointed in the front and equally proportioned. The hair on their body are extremely subtle, well-formed, soft and slipping. Their shoulders are broad, well-developed and fleshy and there fire attractive. Their eyes are shining like ruby and are half-opened or obliquely opened. They are covered with extremely fine, good-looking, beautiful cloth of proper dimension. A special bell is hanging at their neck which makes the ringing sound when they move. Their chest is decorated with garlands studded with rows of bells made of precious stones, jewels and gold. They are looking very beautiful with these small bells and also with chains of big bells of extremely good quality. They are also having garlands of lotus that blossom with the sun, the lotus flowers that blossom with the जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra (584) 555555555555555555 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2955 55 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 卐 455 557 557 卐 45 卐 5 57 mess and unbroken, well-preserved flowers. They have extremely strong hoops studded with previous stones, gold and the like in different ways pointed upwards. Their teeth shining white like mobile. Their tongues is shining like burnt gold. They are attached to the flying vehicle with a string made of gold. They move as desired. They move in an ecstatic manner. They are as fast as the movement of the mind. They are pleasant to the mind. Their speed is extremely fast. They emit load, solemn sound. They fill the environment with their sweet beautiful voice. They are making all the directions enjoyable. 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 卐 5575 (d) Four thousand gods in the form of horses are driving the flying vehicle from the northern side. They are white in colour and attractive to look at. They have beautiful appearance. They are young and perfect in speed and strength. Their eyes are like buds of mallika flowers. They move their feet in a starting manner like the beak of a parrot. Their gait is pleasant and fast like the wind. They are expert in crossing the dilch, in jumping high, in moving straight at a fast speed, in running cleverly in placing their three feet on the ground, in bringing success in races well-trained in various types of movement. They are having moving beautiful ornaments, on their neck. They are a bit bent downwards in a proper manner from the sides of their body. They have their sides in proper proportion according to their body and well-built. They have round, perfect beautifully shaped waist. They have hanging long, properly proportioned, beautiful how on their tail. They have meritorious signs on their body. The pores of their body are extremely fine, properly developed, slippery soft and as such beautiful. They have single hair in each pore which are soft, extremely bright, not joined together, separately visible subtle. The hair on there shoulders are broad, attractive and in rows, They are hairing mirror-shaped ornaments at their forehead. They have ornaments at their face. The hanging whisks and mirror-shaped ornaments are decorating their waste. Their hoops are of burnt gold and so is their tongue and palate. They are attached to the flying vehicle with a string of gold in a beautiful manner. They have a ground, attractive, pleasant gait. They move as the speed of the mind. They are pleasant to the heart. They have extremely fast speed. They have unlimited strength, power and courage. They neigh loudly. They are filling the environment with their beautiful voice. Thus they were moving gracing all the directions. 55 卐 सप्तम वक्षस्कार (585) 5555555555555 Seventh Chapter 卐 卐 4575 47 卐 卐 45 卐 45 5 5 57 457 557 4757 5 சு 45 45 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 455 456 45 4 $$$$$$$$$4545454545454545455 456 455 456 45 46 45 41 41 41 $5454545 455 456 457 455 456 45 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 451 4 4 5 5555555555555555555555555555555555555 Four thousand lion-shaped gods, four thousand elephant-shaped gods, four thousand bullock-shaped gods and four thousand horseshaped gods--thus in all sixteen thousand gods, drive the flying vehicles of the sun and the moon. Two thousand lion-shaped gods, two thousand elephant-shaped gods, two thousand bullock-shaped gods and two thousand horse-shaped gods-thus on all eight thousand gods drive the flying vehicles of planets. One thousand lion-shaped gods, one thousand elephant-shaped gods, one thousand bullock-shaped gods and one thousand horse-shaped 5 gods—thus in all four thousand gods drive the flying vehicles of each constellation, Two thousand gods, namely five hundred lion-shaped gods, five hundred elephant shaped gods, five hundred bullock-shaped gods and five hundred horse-shaped gods drive the flying vehicle of every star. The description of flying vehicles of the sun (flying vehicles of planets, flying vehicles of constellation) and flying vehicle of stars is similar to the above-mentioned description of flying vehicles of the moon. The # difference is only in the number of gods that drive the vehicle. विवेचन : चन्द्र आदि देवों के विमान किसी अवलम्बन के बिना स्वयं गतिशील होते हैं। किसी द्वारा परिवहन कर उन्हें चलाया जाना अपेक्षित नहीं है। देवों द्वारा सिंहरूप, गजरूप, वृषभरूप तथा अश्वरूप में उसका परिवहन किये जाने का जो यहाँ उल्लेख है, वह किस कारण है, यह स्पष्ट नहीं है। टीकाकारों के मतानुसार आभियोगिक देव तथाविध आभियोग्य नामकर्म के उदय से अपने समजातीय या हीनजातीय देवों के समक्ष अपना वैशिष्ट्य, सामर्थ्य, अतिशय प्रकट करने हेतु सिंहरूप में, गजरूप में, वृषभरूप में तथा अश्वरूप में विमानों का परिवहन करते हैं। Elaboration—The flying vehicles of moon and other suchlike gods move of their own without any support. They are not driven by any one. It is not clear why this description of their being driven by lion-shaped gods, elephant-shaped gods, bullock-shaped gods and horse-shaped gods has been mentioned here. According to the commentators, the servant (abhiyogik) gods as a result of their accumulated such name-determining karmas, in order to exhibit their special traits, capability and extraordinary attributes before the gods of their equal class or of lesser category drive the flying vehicle as lion-shaped gods, elephants-shaped gods, bullock-shaped gods and horse-shaped gods. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 586 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 4 455 456 57 454 455 456 455 456 457 455 456 457 454 455 456 4 55 456 455 456 457 455 455 454 455 456 457 4 454 %%% %%%% %%%% %%%%% %%%% %%%%% %%%%% %% Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ))))))))) ॐ ज्योतिष्क देवों की गति : ऋद्रि SPEED OF STELLAR GODS-THEIR WEAEON २०१. [प्र. ] एतेसि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिअ-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं कयरे सबसिग्धगई कयरे सबसिग्यतराए चेव ? [उ. ] गोयमा ! चंदेहितो सूरा सव्वसिग्धगई, सूरेहिंतो गहा सिग्घगई, गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्धगई, णक्खत्तेहितो तारारूवा सिग्घगई, सव्वप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारारूवा इति। २०१. [प्र. ] भगवन् ! इन चन्द्रों, सूर्यों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्व शीघ्र गति हैं-चन्द्र आदि सर्व ज्योतिष्क देवों की अपेक्षा शीघ्र गतियुक्त हैं ? कौन सर्व शीघ्रतर गतियुक्त हैं ? __[उ. ] भगवन् ! चन्द्रों की अपेक्षा सूर्य शीघ्र गतियुक्त हैं, सूर्यों की अपेक्षा ग्रह शीघ्र गतियुक्त हैं, , __ ग्रहों की अपेक्षा नक्षत्र शीघ्र गतियुक्त हैं तथा नक्षत्रों की अपेक्षा तारे शीघ्र गतियुक्त हैं। इनमें चन्द्र सबसे फ़ अल्प या मन्द गतियुक्त हैं तथा तारे सबसे अधिक शीघ्र गतियुक्त हैं। 201. IQ. ) Reverend Sir ! Out of the moons, the suns, the planets, the constellations and the stars who is the fastest ? Out of the stellar gods, who is the fastest-whose speed is the fasted ? (Ans.) Gautam ! Suns are faster than the moons. Planets are faster than the suns. Constellations are faster than planets. Out of all these (stellar gods), the moon moves at the extremely low speed while the stars are the fastest in their movement. २०२. [प्र. ] एतेसि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिअ-गह-णक्खत्त–तारारूवाणं कयरे सबमहिडिआ है कयरे सवप्पिडिआ ? [उ. ] गोयमा ! तारारूवेहिंतो णक्खत्ता महिडिआ, णक्खत्तेहिंतो गहा महिड्डिआ, गहेहितो सूरिआ महिडिआ, सूरेहिंतो चंदा महिडिआ। सवपिडिआ तारारूवा सबमहिडिआ चंदा। २०२. [प्र. ] गौतम ! इन चन्द्रों, सूर्यों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्व महर्द्धिक हैं-सबसे अधिक ऋद्धिशाली हैं ? कौन सबसे अल्प ऋद्धिशाली हैं ? [उ. ] गौतम ! तारों से नक्षत्र अधिक ऋद्धिशाली हैं, नक्षत्रों से ग्रह अधिक ऋद्धिशाली हैं, ग्रहों से सूर्य अधिक ऋद्धिशाली हैं तथा सूर्यों से चन्द्र अधिक ऋद्धिशाली हैं। तारे सबसे कम ऋद्धिशाली तथा : चन्द्र सबसे अधिक ऋद्धिशाली हैं। 202. [Q.] Reverend Sir ! Out of moons, suns, planets, constellations and stars who is the most prosperous-who is the wealthiest ? Who, out of them has the least prosperity ? (Ans.] Gautam ! Constellations are more prosperous than the stars. Planets are more prosperous than constellations. Suns are more 卐555555555555555555555555555))))))) | सप्तम वक्षस्कार (587) Seventh Chapter Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐555555555555555555555555555555555555555555555555 4 prosperous than suns. Stars are least prosperous and moons are most i prospersous. ॐ एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर DISTANCE OF ONE STAR FROMANOTHER २०३. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे ताराए अ ताराए अ केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! दुविहे-वाघाइए अ निव्वाधाइए अ। निव्याघाइए जहण्णेणं पंचधणुसयाई उक्कोसेणं दो गाऊआई। वाघाइए जहण्णेणं दोण्णि छावडे +जोअणलए, उक्कोसेणं बारस जोअणसहस्साई दोण्णि अ बायाले जोअणसए तारारूवस्स २ अबाहाए ॐ अंतरे पण्णत्ते। २०३. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत एक तारे से दूसरे तारे का कितना अन्तर-फासला ॐ बतलाया गया है ? + [उ. ] गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है-(१) व्याघातिक-जहाँ बीच में पर्वत आदि के रूप में ॐ व्याघात हो। (२) निर्व्याघातिक-जहाँ बीच में कोई व्याघात न हो। - एक तारे से दूसरे तारे का निर्व्याघातिक अन्तर जघन्य ५०० धनुष तथा उत्कृष्ट २ गव्यूत है। एक ॐ तारे से दूसरे तारे का व्याघातिक अन्तर जघन्य २६६ योजन तथा उत्कृष्ट १२,२४२ योजन है। 203. [Q.] Reverend Sir ! In Jambu island, what is the distance 5 between a star and the very next star ? [Ans.] Gautam ! The intermediary distance is of two types namely(1) When there is any obstacle such as mountain and the like in between, (2) When there is no obstruction in between. The minimum distance between two stars when there is no obstruction in between is 500 Dhanush and the maximum distance is two gavyut (kosh-unit of measurement). The minimum distance between two stars when there is obstruction is 266 yojans and the maximum distance is 12,242 yojans. ज्योतिष्क देवों की अग्रमहिषियाँ HEAD GODDESSES OF STELLAR GODS म २०४. [प्र. ] चन्दस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? ॐ [उ. ] गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-चन्दप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, ईपभंकरा। तओ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि २ देवीसहस्साइं परिवारो पण्णत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी * अन्नं देवीसहस्सं विउवित्तए, एवामेव सपुबवरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए। [प्र. ] पहू णं भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणी सभाए सुहम्माए ऊ तुडियणं सद्धिं महयाहयणट्टगीअवाइअ जाव दिब्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? 卐5555555555555555555555555555555555555555555a | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (588) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रध95555555555555555558 55555555555555555555555558 __ [उ. ] गोयमा ! णो इणठे समठे। [प्र. ] से केणट्टेणं जाव विहरित्तए ? [उ. ] गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूईओ जिणसकहाओ सनिखित्ताओ चिट्ठति ताओ णं चंदस्स अण्णेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ पज्जुवासणिज्जाओ, से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभुत्ति, पभू णं चंदे सभाए सुहम्माए चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परिआरिद्धीए, णो चेव णं मेहुणवत्ति। विजय १, वेजयंती २, जयन्ती ३, अपराजिआ ४-सव्वेहिं गहाईणं एआओ अग्गमहिसीओ, छावत्तरस्सवि गहसयस्स एआओ अग्गमहिसीओ वत्तबओ, इमाहिं गाहाहिति इंगालए विआलए लोहिअंके सणिच्छरे चेव। आहुणिए पाहुणिए कणगसणामा य पंचेव॥१॥ सोमे सहिए आसणे य कज्जोवए अ कब्बुरए। अयकरए दुंदुभए संखसनामेवि तिण्णेव ॥२॥ एवं भाणियव्वं जाव भावकेउस्स अग्गमहिसीओ त्ति। २०४. [प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के इन्द्र, ज्योतिष्क देवों के राजा चन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ-प्रधान देवियाँ हैं ? [उ. ] गौतम ! चार अग्रमहिषियाँ हैं, जैसे-(१) चन्द्रप्रभा, (२) ज्योत्स्नाभा, (३) अर्चिमाली, तथा 5 (४) प्रभंकरा। उनमें से एक-एक अग्रमहिषी का चार-चार हजार देवी-परिवार बतलाया गया है। ॐ एक-एक अग्रमहिषी अन्य सहस्र देवियों की विकुर्वणा करने में समर्थ होती है। यों विकुर्वणा द्वारा सोलह हजार देवियाँ निष्पन्न होती हैं। वह ज्योतिष्कराज चन्द्र का अन्तःपुर है। [प्र. ] भगवन् ! क्या ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ-देवियों के साथ नाट्य, गीत, वाद्य आदि का आनन्द लेता हुआ दिव्य भोग भोगने में समर्थ होता है? ___ [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता-ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोग नहीं भोगता। [प्र. ] भगवन् ! वह दिव्य भोग क्यों-किस कारण नहीं भोगता? [उ. ] गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है। उस पर वज्रमय हीरक-निर्मित गोलाकार सम्पुटरूप पात्रों में बहुत-सी जिन-सक्थियाँ-जिनेन्द्रों की अस्थियाँ स्थापित हैं। वे चन्द्र तथा अन्य बहुत से देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय-पूजनीय तथा पर्युपासनीय हैं। इसलिए उनके प्रति बहुमान के कारण 卐))))))))))55555555555) 855555555555555555555555555555555555555555 सप्तम वक्षस्कार (689) Seventh Chapter 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步$$$$$$ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$$$454545454545454545454545454545454545454545454545455 456 457 454 455 456 455 456 457 45556544 24455 456 457 455 456 455 41 41 41 45 46 47 46 41 41 41 41 451 45454545455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 45 ॐ आशातना के भय से अपने चार हजार सामानिक देवों से संपरिवृत चन्द्र सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर + के साथ दिव्य भोग नहीं भोगता। वह वहाँ केवल अपनी परिवार-ऋद्धि-यह मेरा अन्तःपुर है, परिचर ॐ है, मैं इनका स्वामी हूँ-यों अपने वैभव तथा प्रभुत्व की सुखानुभूति कर सकता है, मैथुन-सेवन 卐 नहीं करता। % e Tet shfa (UEŤ FAIT ga art at H TEU ) 71-(9) footer, (2) totutti, म (३) जयन्ती, तथा (४) अपराजिता नामक चार-चार अग्रमहिषियाँ हैं। यों १७६ ग्रहों की इन्हीं नामों की अग्रमहिषियाँ हैं। $ 204. (Q.) Reverend Sir ! How many head-goddesses (agramahishis) are of moon the ruler of stellar gods—the Indra of stellar gods? (Ans.) Gautam ! There are four head-goddesses of moon, the ruler of stellar gods. They are—(1) Chandraprabha, (2) Jyotsanabha, (3) Archimali, and (4) Prabhankara. Every head goddesses has a family of four thousand goddesses. Every head goddesses is capable of creating thousands of other goddesses by fluid process. Thus by fluid processes $i fourteen thousand goddesses are created. That is the harem of moon, the ruler of stellar gods. (Q.) Reverend Sir ! Is moon, the ruler of stellar gods in his divine vehicle Chandravatansak, in Sudharma assembly hall of his Chandra Capital capable of enjoying dances songs, music and the like divine sexual enjoyments in his harem with his goddesses ? (Ans.) Gautam ! It does not happen in this manner moon. The Indra 455 of stellar gods does not have divine enjoyment in his harem in Sudharma 4 hall ? 5 (Q.) Reverend Sir ! Why does he not enjoy the divine pleasures there? (Ans.] Gautam ! There is Manavak, the pillar of worship in Sudharma assembly hall of Chandra Capital in Chandravatansak flying vehicle of moon the ruler of stellar gods. Many remains (bones) of Tirthankars have been kept there in round pots made of diamonds. They are worthy of worship for moon and many other gods and goddesses. They honour them and pay their respects of them. In view of their great respect for them they out of fear that there may not be any disrespect to them, moon the master god with his four thousands co-chiefs does not have divine sexual enjoyments with his goddesses in the Sudharma assembly hall. He can only have a feeling there that the wealth and prosperity there belongs to him, that it is his family, his harem his 5555%%%%%%%%%步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙%%%%%%%%%%%%%出 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( 590 ) Jambudveep Prajnapti Sutra 04454545454545454 455 456 457 455 456 455 456 457 45454545454545454545454545454545454545 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 因555555555555555555555555555555555555g population and that he is their master. He can be proud of his wealth and prosperity but he does not have sexual pleasure there. All the planets and the like (here constellations and stars should also be considered) have four head-goddesses each namely Vijaya, Vaijayanti, 卐 Jayanti and Aparjita. Thus all the 176 planets have chief-goddesses of these names. गाथाएँ-ग्रह VERSES NAMING PLANETS (१) अंगारक, (२) विकालक, (३) लोहितांक, (४) शनैश्चर, (५) आधुनिक, (६) प्राधुनिक, क (७) कण, (८) कणक, (९) कणकणक, (१०) कणवितानक, (११) कणसन्तानक, (१२) सोम, (१३) सहित, (१४) आश्वासन, (१५) कार्योपग, (१६) कुर्बुरक, (१७) अजकरक, (१८) दुन्दुभक, 卐 (१९) शंख, (२०) शंखनाभ, (२१) शंखवर्णाभ। यों भावकेतु पर्यन्त ग्रहों का उच्चारण करना चाहिए। उन सबकी अग्रमहिषियाँ उपर्युक्त नामों की हैं। (1) Angarak, (2) Vikalak, (3) Lohitank, (4) Shanaishchar, (5) Aadhunik, (6) Pradhunik, (7) Kana, (8) Kanak, (9) Kanakanak, (10) Kanavitaanak, (11) Kanasantanak, (12) Soam, (13) Sahit, (1 Aashvasan, (15) Karyopag, (16) Kurburak, (17) Ajakarak, (1 ___Dundubhak, (19) Shankh, (20) Shankhanabh, (21) Shankhavarnabh. The planets should be considered upto Bhavaketu. All of them have head-goddesses of above-said names. विशेष-ग्रहों के २१ नाम मूल आगम में बताये हैं। शेष नाम टीका आदि में वर्णित हैं। भावकेतु ॐ ८८वाँ ग्रह है। जम्बूद्वीप में दो-दो होने से इन्हें दुगुना करने पर ग्रहों की संख्या १७६ होती है। प्रत्येक ग्रह की ४-४ अग्रमहिषियाँ हैं। Special Mention-In the Agams there are only 21 names of planets. 4. The other names have been mentioned in the commentary. Bhavaketu is the eighty eight planet. In Jambu island each of these planets are double in number. As such the total number of planets is 176. Every planet has four head goddesses each. देवों की काल-स्थिति LIFE-SPAN OF GODS २०५. [प्र. १] चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता ? [उ.] गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहि। चंदविमाणे णं देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेण अद्धपलिओवमं पण्णासाए ॐ वाससहस्सेहिमभहि। B995555555555555555555555555555555555555555555553 सप्तम वक्षस्कार (591) Seventh Chapter B9555555555555555555555555555 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफECE [ २ ] सूरविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समब्भहियं । सूरविमाणे देवीणं जहणेणं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलि ओवमं पंचहिं वाससवएहिं अब्भहियं । [ ३ ] गहविमाणे देवाणं जहणणेणं चउब्भागपलि ओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं । गहविमाणे देवीणं !! जहणणं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं । Y [४] णक्खत्तविमाणे देवाणं जहणेणं चउब्भागपलि ओवमं उक्कोसेणं अद्धपलि ओवमं । णक्खत्तविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणं साहिअं चउब्भागपलि ओवमं । [५] ताराविमाणे देवाणं जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं उक्कोसेणं चउब्भागपलि ओवमं । ताराविमाणे देवीणं जहणेणं अट्ठभागपलिओवमं उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलि ओवमं । २०५. [ प्र. १ ] भगवन् ! चन्द्र - विमान में देवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [ उ. ] गौतम ! चन्द्र– विमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है । चन्द्र - विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट - पचास हजार वर्ष अधिक अर्ध - पल्योपम होती है। [२] सूर्य-विमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम होती है। सूर्य-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य अर्ध - पल्योपम होती है । फ्रा [३] ग्रह - विमान में देवों की स्थिति जघन्य विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध - पल्योपम होती है। पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम तथा उत्कृष्ट पाँच सौ वर्ष अधिक [४] नक्षत्र -विमान में देवों की स्थिति जघन्य नक्षत्र - विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक [५] तारा-विमान में देवों की स्थिति जघन्य 1⁄2 पल्योपम तथा उत्कृष्ट विमान में देवियों की स्थिति जघन्य 1⁄2 पल्योपम तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक 1⁄2 पल्योपम होती है। पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम होती है । ग्रह पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध - पल्योपम होती है। पल्योपम होती है। (592) पल्योपम होती है । तारा ५ 205. [Q.] Reverend Sir ! What is the life-span of gods in the flying g vehicle of the moon? H ५ ५ [Ans.] Gautam ! Minimum life-span of gods in the flying vehicle of the Y moon is a quarter palyopam and the maximum life-span is one lakh ५ years more than one palyopam. The minimum life-span of goddesses of y this vehicle is quarter palyopam while the maximum is fifty thousand years more than half palyopam. ५ (2) The minimum life-span of gods in the flying vehicle of the sun is ५ quarter palyopam while the maximum life-span is one thousand years more than one palyopam. The minimum life-span of goddesses in the sun जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ५ Jambudveep Prajnapti Sutra தமிழதமி***தமிமிதத*தமிழ**************தமிழி ५ y ५ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 2955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 95 96 97 95 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 - फ्र vehicle is quarter palyopam while the maximum life-span is one thousand years more than one palyopam. The life-span of goddesses in the divine vehicle of the sun is quarter palyopam while the maximum life-span is five hundred years more than half a palyopam. 卐 (3) The minimum life-span of gods in the flying vehicles of planets is quarter palyopam while the maximum is one palyopam. The minimum life-span of goddesses in flying vehicle of planets is quarter palyopam while the maximum life-span is half palyopam. (4) The minimum life-span of gods in flying vehicles of constellations is quarter palyopam while the maximum life-span is half palyopam. The minimum life-span of goddesses in flying vehicle of constellations is quarter palyopam and the maximum is somewhat more than quarter palyopam. नक्षत्रों के अधिष्ठातृ-देवता MASTER GODS OF CONSTELLATIONS २०६. बह्मा विन्हू अ वसू, वरुणे अय वुड्डी पूस आस जमे । अग्ग पयावइ सोमे, सद्दे अदिती वहस्सई सप्पे ॥ १ ॥ पिउ भगअज्जमसविआ, तट्ठा वाऊ तहेव इंदग्गी । मित्ते इंदे निरुई, आऊ विस्सा य बोद्धव्वे ॥ २ ॥ २०६. नक्षत्रों के अधिदेवता - अधिष्ठातृ-देवता इस प्रकार हैं नक्षत्र अधिदेवत १. m 5 ५. ७. ९. 99. (5) The minimum life-span of gods in flying vehicles of stars is one - 5 eight of a palyopam while the maximum life-span is a quarter palyopam. The minimum life-span of goddesses in those vehicles is one-eight of a 卐 palyopam and the maximum life-span is a little more than one eighth 5 palyopam. 卐 १३. १५. अभिजित् धनिष्ठा फ्र पूर्व रेवती भरणी रोहिणी आर्द्रा पुष्य सप्तम वक्षस्कार ब्रह्मा वसु अज पूषा यम प्रजापति रुद्र बृहस्पति (593) २. ४. ६. ८. श्रवण शतभिषक् उत्तरभाद्रपदा अश्विनी १०. कृत्तिका १२. मृगशिर १४. पुनर्वसु १६. अश्लेषा नक्षत्र अधिदेवता विष्णु वरुण वृद्धि (अभिवृद्धि ) अश्व अग्नि सोम अदिति सर्प 255 5555 5 5 5 5 5 55559555 555 55555555 2 Seventh Chapter फ्र फ्र 卐 फ 卐 5 卐 फ्र 卐 卐 卐 फ्र Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र अधिदेवता अधिदेवता १७. मघा पिता १८. नक्षत्र पूर्वफाल्गुनी हस्त स्वाति भग सविता अर्यमा २०. उत्तरफाल्गुनी चित्रा विशाखा त्वष्टा २२. वायु इन्द्राग्नी २४. अनुराधा ज्येष्ठा २६. मित्र निर्ऋति विश्वे (विश्वेदेव) पूर्वाषाढा आप २८. उत्तराषाढा 206. Master gods of constellations are as under Constellation Master God Constellation Master God Abhijit Brahma. Shravan Vishnu Dhanishtha Vasu Shatabhishak Varun Purvabhadrapada Aja Uttarbhadrapada Vriddhi (Abhivriddhi) Revati Poosha Ashvini Ashva Bharani Yama Kritika Agni Rohini Prajapati Mrigashir Soam Ardra Rudra 14. Punarvasu Aditi Pushya Brihaspati Ashlesha Magha Pita Poorvaphalguni Bhag Uttaraphalguni Aryama Hasta Savita Chitra Tvashta Svati Vayu Vishakha Indragni Anuradha Mitra Jyeshtha Indra Mool Nirriti Poorvashadha Aap Uttarashadha | Vishnu (Vishvedev) Sarpa 21. . अल्प, बहु, तुल्य LESS, MORE, EQUAL २०७. [प्र. ] एतेसि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिअ-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा बुहआ वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा ? [उ. ] गोयमा ! चंदिमसूरिआ दुवे तुल्ला सव्वत्थोवा, णक्खत्ता संखेज्जगुणा, गहा संखेज्जगुणा, तारारूवा संखेजगुणा इति। २०७.[प्र. ] भगवन् ! चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारों में कौन किनसे अल्प-कम, कौन किनसे बहुत, कौन किनके तुल्य-समान तथा कौन किनसे विशेषाधिक हैं ? जम्बूदीप प्रज्ञप्ति सूत्र (594) Jambudweep Prajnapti Sutra 5555步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙%%%% Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B55555555555555555555555555555 3 [उ. ] गौतम ! चन्द्र और सूर्य दोनों तुल्य-समान हैं। वे सबसे स्तोक-कम हैं। उनकी अपेक्षा नक्षत्र 5 संख्येय गुणे-२८ गुणे अधिक हैं। नक्षत्रों की अपेक्षा ग्रह संख्येय गुने कुछ अधिक तीन गुने-८८ गुने 5 अधिक हैं। ग्रहों की अपेक्षा तारे संख्येय गुने-६६,९७५ कोडाकोड गुने अधिक हैं। [विशेष स्पष्टीकरण हेतु देखें-श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, शान्तिवन्द्रीया वृत्ति, पत्रांक ५३६। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र हिन्दी अनुवाद, श्री अमोलक ऋषि, पृष्ठ ६१७] 207.[Q.] Reverend Sir! Out of moon, sun, planets, constellations and stars which are less than whom, who more than whom, who are equal and who are less than double the others ? (Ans.) Gautam ! Moons and suns are equal in number and their number is the least of all. Constellation are numerable times—28 times more than moons and suns. Planets are numerable times the constellations of more than three times namely eighty eight times more. Stars are numerable times more-6,69,750 million crore times more. (For detailed account see commentary by Shanti Chandra as Jambudveep Prajnapti, page 536. Hindi Translation of Jambudveep Prajnapti by Shri Amolak Rishi, page 617) तीर्थंकरादि-संख्या NUMBER OF TIRTHANKARS AND OTHERS २०८. [प्र. १] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे जहण्णपए वा उक्कोसपए वा केवइआ तित्थयरा सबग्गेणं पण्णत्ता ? [ उ. ] गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थयरा सव्वग्गेणं पण्णत्ता। है [प्र. २ ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइआ जहण्णपए वा उक्कोसपए वा चक्कवट्टी सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? __ [उ. ] गोयमा ! जहण्णपदे चत्तारि उक्कोसपदे तीसं चक्कवट्टी सव्वग्गेणं पण्णत्ता इति, बलदेवा म तत्तिआ चेव जत्तिआ चक्कवट्टी, वासुदेवावि तत्तिया चेवत्ति। [प्र. ३ ] जम्बुद्दीवे दीवे केवइआ निहिरयणा सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! तिण्णि छलुत्तरा णिहिरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता। __ [प्र. ४ ] जम्बुद्दीवे दीवे केवइआ णिहिरयणसया परिभोगताए हव्वमागच्छंति ? [उ. ] गोयमा ! जहण्णपए छत्तीसं उक्कोसपए दोण्णि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए ॐ हव्वमागच्छंति। [प्र. ५ ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइआ पंचिंदिअरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? है [उ. ] गोयमा ! दो दसुत्तरा पंचिंदिअरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता। 55555555558 3555555555555555555555555555555555555555 सप्तम वक्षस्कार (595) Seventh Chapter 55555555555555555555555555555 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************************த****தமிழிழி अफ्र 卐 [प्र. ६ ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे जहण्णपदे वा उक्कोसपदे वा केवइआ पंचिंदिअरयणसया 5 परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? फ्र [ उ. ] गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा पंचिंदिअरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति । [प्र.७ ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइआ एगिंदिअरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! दो दसुत्तरा एगिंदिअरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता । [प्र. ८ ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइआ एगिंदिअरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छन्ति ? [उ. ] गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा एगिंदिअरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छन्ति । २०८. [ प्र. १ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में जघन्य-कम से कम तथा उत्कृष्ट समग्रतया कितने तीर्थंकर होते हैं ? [उ.] गौतम ! कम से कम चार तथा अधिक से अधिक चौंतीस तीर्थंकर होते हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कम से कम तथा अधिक से अधिक कितने चक्रवर्ती होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! कम से कम चार तथा अधिक से अधिक तीस चक्रवर्ती होते हैं। जितने चक्रवर्ती होते हैं, उतने ही बलदेव होते हैं, वासुदेव भी उतने ही होते हैं। [प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में निधि - रत्न - उत्कृष्ट निधान कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में निधि-रत्न ३०६ होते हैं। [प्र. ४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ निधि-रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं ? [उ. ] गौतम ! कम से कम ३६ तथा अधिक से अधिक २७० निधि - रत्न यथाशीघ्र परिभोगउपयोग में आते हैं। [प्र. ५ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ पंचेन्द्रिय-रत्न होते हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में पंचेन्द्रिय- रत्न २१० होते हैं । [प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कम से कम और अधिक से अधिक कितने पंचेन्द्रिय-रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में कम से कम २८ और अधिक से अधिक २१० पंचेन्द्रिय - रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं। [प्र. ७ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ एकेन्द्रिय-रत्न होते हैं ? [उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में २१० एकेन्द्रिय-रत्न होते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (596) 255595555 5 5955 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595555952 Jambudveep Prajnapti Sutra 卐 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 2 45 卐 卐 卐 55555555555555555 45 55 卐 55 475 557 卐 [प्र. ८ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ एकेन्द्रिय-रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं ? [उ. ] गौतम ! कम से कम २८ तथा अधिक से अधिक २१० एकेन्द्रिय- रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं। 208. [Q. 1] Reverend Sir! What is the minimum number of Tirthankars in Jambu island at a time and what can be their maximum number? [Ans.] Gautam ! The minimum number is four and the maximum number is thirty four. [Q. 2] Reverend Sir ! What is the minimum number of king emperors (Chakravarti) in Jambu island at a time and what can be their maximum number? [Ans.] Gautam ! The minimum number of Chakravarti at a time in Jambu island is four and the maximum number is thirty. Baldeva and Vasudevas are also in same number at a time as has been in case of Chakravarti. [Q. 3] Reverend Sir ! How many is the maximum number of jewels, the treasures, the nidhis in Jambu islands? [Ans.] Gautam ! Nidhi jewels are 306. [Q. 4] Reverend Sir! In Jambu island, how many hundreds nidhijewels come into use. [Q. 5] Reverend Sir! How many hundreds five-sensed jewels are in Jambu island? [Ans.] Guatam! There are 210 five-sensed jewels (ratnas) in Jambu island. [Q. 6] Reverend Sir ! At least how many five-sensed jewels come into us immediately and at the most how many jewels are used? [Ans.] Gautam ! The Jambu island, at least 28 and at the most 210 five-sensed jewels are used soon. [Q. 7] Reverend Sir! How many hundreds of one-sensed jewels are used immediates in Jambu island? [Ans.] Gautam ! In Jambu island there those are 210 one-sensed jewels. सप्तम वक्षस्कार [Ans.] Gautam ! At least thirty six and at the most two hundred 卐 seventy nidhi-jewels come into use. (597) 55555555555 45 Seventh Chapter 6555555555555555555555558 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 45 卐 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफ - 5 5 5 5 5 55 5 5 5555 5 5 5 5 5 5 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555955 « 卐 [Q. 8] Reverend Sir! How many hundreds of one-sensed jewels are 5 used immediates in Jambu island? 卐 [Ans.] Gautam ! At least twenty eight and at the most two hundred ten one-sensed jewels are used immediately. 卐 5 विवेचन : यहाँ निधि - रत्नों, पंचेन्द्रिय-रत्नों तथा एकेन्द्रिय-रत्नों का वर्णन चक्रवर्तियों की अपेक्षा से किया 5 गया है। 卐 卐 जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र की ८, ९, २४, २५, इन चार विजयों में प्रत्येक समय तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं । अतः जघन्य चार तथा बत्तीस विजयों में बत्तीस तथा भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में एक-एक तीर्थंकर जब 5 होते हैं तब तीर्थंकरों की उत्कृष्ट संख्या ३४ होती है। 卐 卐 फ्र जब जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में शीता महानदी के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक और शीतोदा महानदी के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक चक्रवर्ती होता है, तब जघन्य चार चक्रवर्ती होते हैं। जब महाविदेह के ३२ विजयों में से अट्ठाईस विजयों में २८ चक्रवर्ती और भरत में एक एवं ऐरवत में एक फ्र चक्रवर्ती होता है तब समग्र जम्बूद्वीप में उनकी उत्कृष्ट संख्या तीस होती है । 卐 卐 जिस समय २८ चक्रवर्ती २८ विजयों में होते हैं उस समय शेष चार विजयों में चार वासुदेव होते हैं और जहाँ वासुदेव होते हैं वहाँ चक्रवर्ती नहीं होते। अतएव चक्रवर्तियों की उत्कृष्ट संख्या जम्बूद्वीप में तीस ही बतलाई फ्र गई है। चक्रवर्तियों की जघन्य संख्या की संगति तीर्थंकरों की संख्या के समान जान लेना चाहिए। जब चक्रवर्तियों की उत्कृष्ट संख्या तीस होती है तब वासुदेवों की जघन्य संख्या चार होती है और जब वासुदेवों की उत्कृष्ट संख्या ३० होती है तब चक्रवर्ती की संख्या ४ होती है। बलदेवों की संख्या की संगति वासुदेवों के समान जान लेना चाहिए क्योंकि ये दोनों सहचर होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ-नौ निधान होते हैं। उनके उपयोग में आने की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या चक्रवर्तियों 5 की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या पर आधृत है। निधानों और रत्नों की संख्या के सम्बन्ध में भी यही जानना चाहिए। प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ निधान होते हैं। नौ को चौंतीस से गुणित करने पर ३०६ संख्या आती है। किन्तु उनमें से चक्रवर्तियों के उपयोग में आने वाले निधान जघन्य छत्तीस और अधिक से अधिक २७० फ्र In Jambu island in the eighth, ninth, twenty fourth and twenty fifth regions (vijays) of Mahavideh area Tirthankars always exist. So at least Jambudveep Prajnapti Sutra जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फफफफफ 5 卐 चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रिय-रत्न इस प्रकार हैं- (१) सेनापति, (२) गाथापति, (३) वर्द्धकी, (४) पुरोहित, फ्र (५) गज, (६) अश्व, (७) स्त्रीरत्न । 卐 卐 एकेन्द्रिय रत्न - - (१) चक्ररत्न, (२) छत्ररत्न, (३) चर्मरत्न, (४) दण्डरत्न, (५) असिरत्न, (६) मणिरत्न, 卐 (७) काकणीरत्न । 卐 Elaboration-Here there is the description of Nidhi-jewels, five-sensed फ jewels and one-sensed jewels in the context of Chakravartis. 卐 卐 (598) 卐 卐 5 5 5 5 फ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 455 456 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 45 456 457 450 45 46 45 44 45 46 47 46 45 44 455 456 4542 457 455 456 457 45 four Tirthankars are always there in Jambu island. When in each of the thirty two regions (vijays) and in Bharat continent and in Airavat continent, there is a Tirthankar, the maximum number of Tirthankars in Jambu island is thirty four. In the south and north of Sita river of Eastern Videh region and in $ south and north of Sitoda river when there is one Chakravarti each in Jambu island, the minimum number of Chakravartis is found. When out of thirty two Vijays of Mahavideh, in 28 Vijays there is a 4 Chakravarti in each Vijay and a Chakravartis is also in Bharat and Airavat continents. The maximum number of Chakravarti is thirty. When there are 28 Chakravarti in 28 Vijays of Mahavideh region. There are Vasudevas in each of the remaining four Vijays where there in 4 Vasudev, there a Chakravarti does not appear at that time. So the En maximum number of Chakravarti in Jambu island is thirty. The minimum number of Chakravarti may be understood equal to minimum number of Tirthankar. When the number of Chakravartis is thirty—the maximum number, the number of Vasudevas shall be four, the minimum number. When the number of Vasudevas is thirty, the maximum number at a time, the 4 number of Chakravartis is four, the minimum at a time. The number of Baldev is always equal to the number of Vasudevas * because they are companions. Each and every Chakravarti has nine nidhans. The minimum or maximum number of them that can be made use of depends on the minimum and maximum number of Chakravarti. The number of nidhans and jewels (ratnas) may also be understood in this context. Every Chakravarti has nine nidhans. So the total number of nidhans works out to 34 multiplied by nine which works out to 306. But the number of Nidhans that can be used by Chakravarti is minimum thirty six and maximum two hundred and seventy. Chakravarti has seven five-sensed ratnas (Unique living beings in service). They are(1) Unique Commander of the Army (Senapati Ratna), (2) Unique Financier (Gathapati Ratna), (3) Unique Builder 451 (Vardhaki Ratna), (4) Unique Advisor (Purohit Ratna), (5) Unique i elephant (Gaj Ratna), (6) Unique Horse (Ashva Ratna), and (7) Unique wife (Stri Ratna). 456 457 455 456 455 456 457 455 456 454545454545454545454545454545455 455 456 457 454 455 455 456 457 455 456 456 457 454 5 5 455 456 457 4 4 455 456 455 4 4 4 4 451 451 451 455 456 457 454 4 4 4 सप्तम वक्षस्कार (599) Seventh Chapter 4 8454554545454554544554545545454545454444444444444にににににににににに Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - नानानानानानानानानानानानानानानानानागावागागागागागागागागागागागागा - Seven one-sensed ratnas (unique is service) are seven. They are-(1) F Unique wheel (Chakra Ratna), (2) Unique umbrella (Chhatra Ratna), (3) Fi Unique skin (Charma Ratna), (4) Unique rod (Danda Ratna), (5) Unique ! sword (Asi Ratna), (6) Unique stone (Mani Ratna), and (7) Kakani Ratna. जम्बूद्वीप का विस्तार EXTENT OF JAMBU ISLAND २०९. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइ आयाम-विक्खंभेणं, केवइ परिक्खेवेणं, केवइअं! उव्वेहेणं, केवइअं उद्धं उच्चत्तेणं, केवइअं सब्बग्गेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे एगं जोअण-सयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयमसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोण्णि अ सत्तावीसे जोअणसए तिण्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं । तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते। एगं जोअण-सहस्सं उबेहेणं, णवणउत्तिं जोअण-सहस्साइं साइरेगाइं उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगणं जोअण-सय-सहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। २०९. [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप की लम्बाई, चौड़ाई, परिधि, भूमिगत गहराई, ऊँचाई तथा भूमिगत गहराई और ऊँचाई-दोनों समग्रतया कितनी है? [उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई १,००,००० योजन तथा परिधि (प्रदक्षिणावर्ती घेरा) : ३,१६,२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष कुछ अधिक १३ अंगुल है। इसकी भूमिगत गहराई १.०००। योजन. ऊँचाई कछ अधिक ९९.००० योजन तथा भमिगत गहराई और ऊँचाई दोनों मिलाकर कछ । अधिक १,००,००० योजन है। 209. [Q.] Reverend Sir! What is the length, breadth, perimeter, depth in the ground, height and the sun total of depth and height of Jambu 4 island ? (Ans.] Gautam ! The length and breadth of Jambu island is one lakh yojan each. Its perimeter is three lakh sixteen thousand two hundred twenty seven yojan three kosh one hundred twenty eight dhanush and a 9 little more than thirteen and a half anguls (units of measurement). Its ! depth in the ground is one thousand yojan while its height is a little more than ninety nine thousand yojans. So the same total of its depth and its height is a little more than one lakh yojans. जम्बूद्वीप : शाश्वत : अशाश्वत JAMBU ISLAND PERMANENT : NON-PERMANENT २१०. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे किं सासए असासए ? [उ. ] गोयमा ! सिअ सासए, सिअ असासए। [प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-सिअ सासए, सिअ असासए ? नागा नागमनाग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (600) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ நிமிமிமிதமிமிமிமிதிதமிழ********************ழிமிழி - 55 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 555 « 卐 卐 [ उ. ] गोयमा ! दव्बट्टयाए सासए, वण्ण- पज्जवेहिं, गंध- पज्जवेहिं, रस - पज्जवेहिं फास - पज्जवेहिं फ असासए । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सिअ सासए, सिअ असासए । [प्र.] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे कालओ केवचिरं होइ ? [ उ. ] गौतम ! स्यात् कथंचित् शाश्वत है, स्यात् - कथंचित् अशाश्वत है। - [प्र. ] भगवन् ! वह स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है-ऐसा क्यों कहा जाता है ? [उ. ] गोयमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णत्थि, ण कयावि ण भविस्सइ । भुविं च भवइ अ, फ्र भविस्स अ । धुवे, णिअए, सासए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे जम्बुद्दीवे दीवे पण्णत्ते । २१०. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप शाश्वत है या अशाश्वत है ? [ उ. ] गौतम ! द्रव्य रूप से द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वह शाश्वत है, वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय एवं स्पर्शपर्याय की दृष्टि से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है। गौतम ! इसी कारण कहा जाता है - वह स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है। [प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप काल की दृष्टि से कब तक रहता है ? जम्बूद्वीप ध्रुव, नियत, शाश्वत, अव्यय, अवस्थित तथा नित्य कहा गया है। 210. [Q.] Reverend Sir ! Is Jambu island permanent or not ? [Ans.] Gautam ! In same respect it is permanent and in same other context it is non-permanent. [Q.] Reverend Sir! Why is it said that it is permanent is same context and non-permanent in another context? [Ans.] Gautam ! In the context of its fundamentals it is permanent. But in the context of it modes namely colour, smell, taste and touch it is non-permanent, So Gautam, it is said that in one context it is and in another context it is non-permanent. permanent 卐 [ उ. ] गौतम ! यह कभी - भूतकाल में नहीं था, कभी - वर्तमानकाल में नहीं है, कभी - भविष्यकाल पु [Q.] Reverend Sir ! From the points of view of time, for how long it shall remain in existence? में नहीं होगा- ऐसी बात नहीं है। यह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में रहेगा । 卐 सप्तम वक्षस्कार 25955555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 559 555 5 5 5 5 95 ! (601) फफफफफफफफ 卐 卐 Seventh Chapter 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र फ 5 卐 5 [Ans.] Gautam ! It is not time that it was not in the part, that it is not in existence now and that it shall not be in existence at any time in 卐 future. Jambu island is permanent, ever existing fixed, undiminishable, 5 stable and everlasting. फ्र 卐 फ 卐 फ 卐 卐 卐 5 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85))))))))55555555555555555555)))))))))))))))))) म जम्बूद्वीप का स्वरूप NATURE OF JAMBU ISLAND * २११. [प्र. ] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे किं पुढवि-परिणामे, आउ-परिणामे, जीव-परिणामे, पोग्गल-परिणामे ? [उ. ] गोयमा ! पुढवि–परिणामेवि, आउ-परिणामेवि, जीव-परिणामेवि, पोग्गल-परिणामेवि। [प्र.] जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सब्ब-पाणा, सव्व-जीवा, सव्व-भूआ, सव्व-सत्ता, पुढविकाइअत्ताए, आउकाइअत्ताए, तेउकाइअत्ताए, वाउकाइअत्ताए, वणस्सइकाइअत्ताए उववण्णपुवा ? ॐ [उ. ] हंता गोयमा ! असई अहवा अणंतखुत्तो। २११. [प.] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप पृथ्वी-परिणाम-पृथ्वीपिण्डमय है, क्या अप्म परिणाम-जलपिण्डमय है, क्या जीव–परिणाम-जीवमय है, क्या पुद्गल-परिणाम-पुद्गलस्कन्धमय है? [उ. ] गौतम ! पर्वतादि युक्त होने से पृथ्वीपिण्डमय भी है, नदी, झील आदि युक्त होने से ॥ जलपिण्डमय भी है, वनस्पति आदि युक्त होने से जीवमय भी है, मूर्त होने से पुद्गलपिण्डमय भी है। __[प्र.] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सर्वप्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीव, सर्वजीव-पंचेन्द्रिय जीव, सर्वभूत-वृक्ष (वनस्पति जीव), सर्वसत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु के जीव-ये सब पृथ्वीकायिक के रूप में, अप्कायिक के रूप में, तेजस्कायिक के रूप में, वायुकायिक के रूप + में तथा वनस्पतिकायिक के रूप में पूर्वकाल में उत्पन्न हुए हैं ? [उ. ] हाँ, गौतम ! वे अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। 211. [Q.] Reverend Sir ! Is Jambu island in the nature of earth ? Is it in the shape of water? Is it in the form of living beings? Is it in the from ॐ of matter (Pudgal Skandh)? (Ans.] Gautam ! Since there are mountains and the like in Jambu island, it is in the form of earth also. Further there are rivers, lakes and the line in it. So it is in the shape of water also. It has vegetation and the like. So it is in the form of living beings also. It has definite visible shape. So it is in the nature of matter-a chester of pudgal also. [Q.] Reverend Sir ! Have the living beings namely two-sensed, threesensed for-sensed living being, all the living beings namely five-sensed living being, trees and plants (the plant bodied living beings) the earthbodied living beings, the fire-bodied living beings and the air-bodied living beings now in Jambu island taken birth in earlier period as earthki bodied, water-bodied, fire-bodied, air-bodied and plant-bodied living beings? 卐45555555555555555555555555555555555555555555 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (602) Jambudveep Prajnapti Sutra 35555555555 55 ; ) ) ) ) ))))) Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 5 5 555555 卐 फ्र फ y [Ans.] Yes, Gautam ! They have many times in other words, an y infinite number of times been born earlier (in various forms). 卐 जम्बूद्वीप : नाम का कारण JAMBU ISLAND WHY SO NAMED २१२. [ प्र. ] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ जम्बुद्दीवे दीवे ? [ उ. ] गोयमा ! जम्बुद्दीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तर्हि तर्हि बहवे जम्बू-रुक्खा, जम्बू–वणा, जम्बूवणसंडा, णिच्चं कुसुमिआ जाव पिंडिम - मंजरि-वडेंसगधरा सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति । जम्बू सुदंसणा अणाढिए णामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं gas जम्बूद्दीवे दीवे इति । जम्बू सुदर्शना पर परम ऋद्धिशाली, पल्योपम-आयुष्ययुक्त अनाहत नामक देव निवास करता है। 5 गौतम ! इसी कारण वह (द्वीप) जम्बूद्वीप कहा जाता है। 5 212. [Q.] Reverend Sir ! Why is Jambu island so named ? சு [Ans.] Gautam ! There are many Jambu trees at very places in 5 Jambu island. It is full of forest of Jambu trees. There are large forest area where there are Jambu trees. There are same other trees also side 卐 by site. The tree, in those forest and forest areas are in all seasons full of flowers in plenty upto that it appear as if they are having branches in the form of branches. They appear to be very beautiful with their aura. 卐 卐 卐 २१२. [ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप 'जम्बूद्वीप' क्यों कहलाता है ? [.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से जम्बू वृक्ष हैं, जम्बू वृक्षों से आपूर्ण वन हैं, वन- खण्ड हैं- जहाँ प्रमुखतया जम्बू वृक्ष हैं, कुछ और भी तरु मिले-जुले हैं। वहाँ वनों तथा वन-खण्डों में वृक्ष सदा -सब ऋतुओं में फूलों से लदे रहते हैं । यावत् वे अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो कलंगियाँ धारण किये रहते हैं । वे अपनी कान्ति द्वारा अत्यन्त शोभित होते हैं। 卐 उपसंहार समापन CONCLUSION 卐 卐 卐 २१३. तए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं, लहूणं 卐 5 समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं, बहूणं देवाणं, बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं 5 भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ जम्बूदीवपण्णत्ती णामत्ति अज्जो ! अज्झयणे अहं च हेउं च पसिणं च 卐 कारणं च वागरणं च भुज्जो २ उवदंसेइ त्ति बेमि । 卐 फ्र ॥ जंबुद्दीवपण्णत्ती समत्ता ॥ २१३. सुधर्मा स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्बू को सम्बोधित कर कहा- आर्य जम्बू ! मिथिला नगरी के अन्तर्गत मणिभद्र चैत्य में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों, बहुत-सी श्राविकाओं, बहुत-से देवों, बहुत-सी देवियों की परिषद् के बीच श्रमण भगवान महावीर ने सप्तम वक्षस्कार (603) 25 55 55 5 5 5 5 5 555 559757555 5 5 5 5 555 5 5 5 5595 ५ ५ Seventh Chapter ॐ फ्र फ 57 卐 फ्र 卐 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555555555555555555555 शस्त्रपरिज्ञादि को ज्यों श्रुतस्कन्धादि के अन्तर्गत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामक स्वतन्त्र अध्ययन का आख्यान किया-वर्णन किया, भाषण किया-विशेष-वचन-कथनपूर्वक प्रतिपादन किया, निरूपण किया, प्ररूपण किया-युक्तिपूर्वक व्याख्यात किया। विस्मरणीय श्रोतृवृन्द पर अनुग्रह कर अर्थ-अभिप्राय, तात्पर्य, हेतु-निमित्त, प्रश्न-शिष्य द्वारा जिज्ञासित, पृष्ट-अर्थ के प्रतिपादन, कारण तथा व्याकरण-अपृष्टोत्तरनहीं पूछे गये विषय में उत्तर, स्पष्टीकरण द्वारा प्रस्तुत शास्त्र का बार-बार उपदेश कियाविवेचन किया। ।। सप्तम वक्षस्कार समाप्त ॥ ॥जम्बूद्दीपप्रज्ञप्ति समाप्त । 213. Addressing his disciple Jambu, Sudharma Swami said, 'o blessed Jambu ! In Mithila city at Manibhadra temple, in the presence of many monks, many nuns, many householder male disciples, householder female disciples, many celestial beings--gods and goddesses. Bhagavan Mahavir has delivered his sermon captioned as Jambu-Dveep Prajnapti in different chapters as mentioned. He delivered detailed lecture. He laid special emphasis on it. He logically explained all the details. He having compassion on his disciples elaborated on the meanings, the central idea, the gist, the cause of each detail and also replied to the stressed the authenticity cf his view point in a detailed manner. The grammatical meaning was also explained. He also mentioned in detail even those relevant matters about which no questions were asked. He clearly brought have the subject and repeatedly narrated the scriptures in detail. .SEVENTH CHAPTER (VARSHASKAR) CONCLUDED. • JAMBUDVEEP PRAJNAPTI CONCLUDED जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (604) Jambudveep Prajnapti Sutra Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ fi தமிமிமிமிமிமிமிமிமிதமிழ்***தமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமித परिशिष्ट (जैन आगम, हिन्दी एवं अंग्रेजी भावार्थ और विवेचन के साथ। शास्त्र उद्घाटित करने वाले बहुरंगे चित्रों सहित) विश्व में पहली बार जैन साहित्य के इतिहास में एक नये ज्ञान युग का शुभारम्भ फ्र भावों को १. सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र फ्र भगवान महावीर की अन्तिम वाणी । आदर्श जीवन विज्ञान तथा तत्त्वज्ञान से युक्त मोक्षमार्ग के सम्पूर्ण फ अंगों का सारपूर्ण वर्णन । एक ही सूत्र में सम्पूर्ण जैन आचार, दर्शन और सिद्धान्तों का समग्र सद्बोध । २. सचित्र दशवैकालिक सूत्र ३. सचित्र नन्दी सूत्र मतिज्ञान - श्रुतज्ञान आदि पाँचों ज्ञानों का विविध उदाहरणों सहित विस्तृत वर्णन । ४. सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र (भाग १, २) मूल्य ५००/ मूल्य ५००/ जैन श्रमण की अहिंसा व यतनायुक्त आचार संहिता। जीवन में पद-पद पर काम आने वाले विवेकयुक्त, 5 संयत व्यवहार, भोजन, भाषा, विनय आदि की मार्गदर्शक सूचनाएँ । आचार विधि को रंगीन चित्रों के फ माध्यम से आकर्षक और सुबोध बनाया गया है। यह शास्त्र जैनदर्शन और तत्वज्ञान को समझने की कुंजी है। नय, निक्षेप, प्रमाण, जैसे दार्शनिक विषयों के साथ ही गणित, ज्योतिष, संगीतशास्त्र, काव्यशास्त्र, प्राचीन लिपि, नाप-तौल आदि सैकड़ों विषयों का वर्णन है। यह सूत्र गम्भीर भी है और बड़ा भी है। अतः दो भागों में प्रकाशित किया है। मूल्य ५००/ (605) मूल्य १,०००/ 25955 55955 5955 55 5 5 5 5 5 5 595555555595959595959595959 मूल्य १,०००/ फ्र मूल्य १,०००/ अफ्र 卐 Appendix फ ५. सचित्र आचारांग सूत्र (भाग १, २) यह ग्यारह अंगों में प्रथम अंग है। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सम्यक्त्व, संयम, तितिक्षा आदि आधारभूत तत्त्वों का बहुत ही सुन्दर वर्णन है। भगवान महावीर का जीवन-चरित्र, उनकी छद्मस्थ 卐 चर्या का आँखों देखा वर्णन तथा जैन श्रमण का आचार-विचार दूसरे भाग में है। दोनों भाग विविध ऐतिहासिक व सांस्कृतिक चित्रों से युक्त । 卐 卐 卐 卐 फ ६. सचित्र स्थानांग सूत्र (भाग १, २) मूल्य १,२००/ यह चौथा अंग सूत्र है । अपनी खास संख्या प्रधान शैली में संकलित यह शास्त्र ज्ञान, विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल, गणित, इतिहास, नीति, आचार, मनोविज्ञान, पुरुष-परीक्षा आदि सैकड़ों प्रकार के विषयों का फ ज्ञान देने वाला बहुत ही विशालकाय शास्त्र है। भावार्थ और विवेचन के कारण प्रत्येक पाठक के लिए समझने में सरल और ज्ञानवर्धक है। 卐 卐 फ्र ७. सचित्र ज्ञाताधर्मकथा सूत्र (भाग १, २) भगवान महावीर द्वारा प्रवचनों में प्रयुक्त धर्मकथाएँ, उद्बोधक, रूपक, दृष्टान्त आदि जिनके माध्यम से फ तत्त्वज्ञान सहज ही ग्राह्य हो गया है। विविध रोचक रंगीन चित्रों से युक्त । दो भागों में सम्पूर्ण आगम । परिशिष्ट 卐 卐 卐 फ्र फ्र 卐 फ्र फ्र Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ ८. सचित्र उपासकदशा एवं अनुत्तरौपपातिकदशा सूत्र मूल्य ५००/सप्तम अंग उपासकदशा में भगवान महावीर के प्रमुख १० श्रावकों का जीवन-चरित्र तथा उनके श्रावक धर्म का रोचक वर्णन है। नवम अंग अनुत्तरौपपातिकदशा में उत्कृष्ट तपःसाधना करने वाले ३३ श्रमणों की तप ध्यान-साधना का रोमांचक वर्णन है। भावों को स्पष्ट करने वाले कलात्मक रंगीन चित्रों सहित। सचित्र निरयावलिका एवं विपाक सूत्र मूल्य ६००/निरयावलिका में पाँच उपांग हैं। भगवान महावीर के परम भक्त राजा कुणिक के जन्म आदि का वर्णन तथा वैशाली गणतंत्राध्यक्ष चेटक के साथ हुए महाशिलाकंटक युद्ध का रोमांचक सचित्र चित्रण तथा भगवान अरिष्टनेमि एवं भगवान पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षित अनेक श्रमण-श्रमणियों का चरित्र इनमें है। विपाक सूत्र में अशुभ कर्मों के अत्यन्त कटु फल का वर्णन है, जिसे सुनते ही हृदय द्रवित हो जाता है, तथा सुखविपाक में दान, तप आदि शुभ कर्मों के महान् सुखदायी पुण्य फलों का मुँह बोलता वर्णन है। भावपूर्ण रोचक कलापूर्ण चित्रों के साथ। १०. सचित्र अन्तकृद्दशा सूत्र मूल्य ५००/आठवें अंग अन्तकृद्दशा सूत्र में मोक्षगामी ९० महान् आत्म-साधक श्रमण-श्रमणियों के तपोमय साधना जीवन का प्रेरक वर्णन है। यह सूत्र पर्युषण में विशेष रूप में पठनीय है। विविध चित्र व तपों के चित्रों से समझने में सरल सुबोध है। ११. सचित्र औपपातिक सूत्र मूल्य ६००/यह प्रथम उपांग है। इसमें राजा कूणिक का भगवान महावीर की वन्दनार्थ प्रस्थान, दर्शन-यात्रा तथा भगवान की धर्मदेशना, धर्म प्ररूपणा आदि विषयों का बहुत ही विस्तृत लालित्ययुक्त वर्णन है। इसी में अम्बड़ परिव्राजक आदि अनेक परिव्राजकों की तपःसाधना का वर्णन भी है। १२. सचित्र रायपसेणिय सूत्र मूल्य ५००/यह द्वितीय उपांग है। धर्मद्वेषी प्रदेशी राजा को धर्मबोध देकर परम धार्मिक बनाने वाले महान् ज्ञानी आचार्य केशीकुमार श्रमण के साथ आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म आदि विषयों पर हुई तर्कयुक्त अध्यात्मचर्चा प्रत्येक जिज्ञासु के लिए पठनीय ज्ञानवर्द्धक है। आत्मा और शरीर की भिन्नता समझाने वाले उदाहरणों के चित्र भी बोधप्रद हैं। १३. सचित्र कल्प सूत्र मूल्य ५००/कल्प सूत्र का पठन, पर्युषण में विशेष रूप में होता है। इसमें २४ तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र है। साथ ही भगवान महावीर का विस्तृत जीवन-चरित्र, श्रमण समाचारी तथा स्थविरावली का वर्णन है। २४ तीर्थंकरों के जीवन से सम्बन्धित सुरम्य चित्रों के कारण सभी के लिए आकर्षक उपयोगी है। १४. सचित्र छेद सूत्र (दशा-कल्प-व्यवहार) मूल्य ६००/आचार-शुद्धि के लिए जिन आगमों में विशेष विधान है, उन्हें 'छेद सूत्र' कहा गया है। छेद सूत्रों में आचार-शुद्धि के सूक्ष्म से सूक्ष्म नियमों का वर्णन है। चार छेद सूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प तथा परिशिष्ट (606) Appendix 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 , Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555555 व्यवहार-ये तीन छेद सूत्र सभी श्रमण-श्रमणियों के लिए विशेष पठनीय हैं। प्रस्तुत भाग में तीनों छेद सूत्रों का भाष्य आदि के आधार पर विवेचन है। अंग्रेजी अनुवाद के साथ १५ रंगीन चित्रों सहित प्रकाशित है। १५. सचित्र भगवती सूत्र (भाग १, २) मूल्य १२००/- 9 पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र ‘भगवती' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसमें जीव, द्रव्य, पुद्गल, परमाण, लोक आदि चारों अनुयोगों से सम्बन्धित हजारों प्रश्नोत्तर हैं। यह विशाल आगम जैन तत्त्व विद्या का महासागर है। संक्षिप्त और सुबोध अनुवाद व विवेचन के साथ यह आगम लगभग ६ भाग में है पूर्ण होने की सम्भावना है। प्रथम भाग १ से ४ शतक तक तथा १५ रंगीन चित्रों सहित प्रकाशित है। द्वितीय भाग में ५ से ७ शतक सम्पूर्ण तथा ८वें शतक का प्रथम उद्देशक लिया गया है। साथ ही सदा की भाँति भाव पूर्ण १५ रंगीन चित्रों से युक्त है। १६. सचित्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र मूल्य ६००/यह छठा उपांग है। इस सूत्र का मुख्य विषय जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन हैं। जम्बूद्वीप में आये मानव क्षेत्र, पर्वत, नदियाँ, महाविदेह क्षेत्र, मेरु पर्वत तथा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते सूर्य-चन्द्र आदि ग्रह नक्षत्र, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि के विस्तृत वर्णन के साथ ही चौदह कुलकर, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का चरित्र, सम्राट भरत चक्रवर्ती की षटखण्ड विजय आदि अनेक विषयों का वर्णन भी इस सूत्र में आता है। इसमें दिये रंगीन चित्र जम्बूद्वीप की भौगोलिक स्थिति, सूर्य-चन्द्र आदि ग्रहों की गति समझने में काफी उपयोगी सिद्ध होंगे। भगवान ऋषभदेव के जीवन से जुड़े सुन्दर भावपूर्ण रोचक चित्र पाठकों को मुँह बोलते प्रतीत होंगे। यह सूत्र जैन, भूगोल, खगोल और इतिहास का ज्ञानकोष है। इस प्रकार २१ जिल्दों में २३ आगम तथा कल्प सूत्र प्रकाशित हो चुके हैं। प्राकृत अथवा हिन्दी का साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्ति भी अंग्रेजी माध्यम से जैनशास्त्रों का भाव, उस समय की आचार-विचार प्रणाली आदि को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं। अंग्रेजी शब्द कोष भी दिया गया है। पुस्तकालयों, ज्ञान-भण्डारों तथा संत-सतियों, स्वाध्यायियों के लिए विशेष रूप से संग्रह करने योग्य आगमों का यह प्रकाशन कुछ समय पश्चात् दुर्लभ हो सकता है। इस आगममाला के प्रकाशन में परम श्रद्धेय उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. की अत्यन्त बलवती प्रेरणा रही है। उनके शिष्यरत्न जैन शासन दिवाकर आगमज्ञाता उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. द्वारा सम्पादित है, इनके सह-सम्पादक हैं प्रसिद्ध विद्वान् श्रीचन्द सुराना। अंग्रेजी अनुवादकर्ता हैं श्री सुरेन्द्र बोथरा तथा सुश्रावक श्री राजकुमार जी जैन। 卐55555555555555555555555555555555555555555555558 परिशिष्ट (607) Appendir 同步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙乐55555 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 458 459 46! Appendix IN THE HISTORY OF JAIN LITERATURE BEGINNING OF A NEW ERA OF KNOWLEDGE FOR THE FIRST TIME IN THE WORLD (Jain Agams published with free flowing translation in Hind and English. Also included are multicoloured illustrations vividly exemplifying various themes contained in scriptures) 1. Illustrated Uttaradhyayan Sutra Price Rs. 500/The last sermon of Bhagavan Mahavir. Essence of the ideal way of life and path of liberation based on philosophical knowledge contained in all Angas. The pious discourse encapsulating complete Jain conduct, philosophy and principles. 2. Illustrated Dashavaikalik Sutra Price Rs. 500/The simple rule book of ahimsa and caution based Shraman conduct rendered vividly with the help of multicoloured illustrations. Useful at every step in life, even of common man, as a guide book of good behaviour, balanced conduct and norms of etiquette, food and speech. 3. Illustrated Nandi Sutra Price Rs. 500/All enveloping discussion of the five facets of knowledge including Mati jnana and Shrut-jnana. 4. Illustrated Anuyogadvar Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1,000/ This scripture is the key to understanding Jain philosophy and metaphysics. Besides philosophical topics like Naya, Nikshep and Praman it contains discussion about hundreds of other subjects including mathematics, astrology, music, poetics, ancient scripts and weights and measures. The complexity and volume of this could be covered only in two volumes. 5. Illustrated Acharanga Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1,000/ This is the first among the eleven Angas. It contains lucid description of ahimsa, samyaktva, samyam, titiksha and other fundamentals propagated by Bhagavan Mahavir. Eye-witness-like description of the life of Bhagavan Mahavir and his pre-omniscience praxis as well as details about ascetic conduct and praxis form the second part. Both parts contain multi-coloured illustrations on a variety of historical and cultural themes. परिशिष्ट (608) Appendix Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 4 1 41 4 455 456 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 442 41 4 4414514614545 46 47 46 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 414 6. Illustrated Sthananga Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1,200/ This is the fourth Anga Sutra. Compiled in its unique numerical placement style, this scripture is a voluminous work containing information about si scriptural knowledge, science, astrology, geography, mathematics, history, ethics, conduct, psychology, judging man and hundreds of other topics. The free flowing translation and elaboration make the contents easy to understand and edifying even for common readers. 7. Illustrated Jnata Dharma Katha Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1,000/ Famous inspiring and enlightening religious tales, allegories and incidents told by Bhagavan Mahavir presented with attractive colourful illustrations. This works makes the abstract philosophical principles easy to understand. This is the sixth Anga complete in two volumes. 8. Illustrated Upasak Dasha and Anuttaraupapatik Dasha Sutra Price Rs. 500/ This book contains the seventh and the ninth Angas. The seventh Anga, Upasak Dasha, contains the stories of life of ten prominent Shravak disciples of Bhagavan Mahavir with a special emphasis on their religious 4 conduct. The ninth Anga Anuttaraupapatik Dasha contains thrilling description of the lofty austerities and meditation done by thirty three specific ascetics. With colourful illustrations. 41 41 457 458 459 460 45 45 46 47 46 45 455 456 457 454 455 2445454545454 455 456 457 455 456 457 455 456 9. Illustrated Niryavalika and Vipaak Sutra Price Rs. 600/Niryavalika has five Upangas that contain the story of the birth of king Kunik, a devout disciple of Bhagavan Mahavir. This also contains the thrilling and illustrated description of the famous Mahashilakantak war between Kunik and Chetak, the president of the republic of Vaishali. Besides these it also has life-stories of many Shramans and Shramanis of the lineage of Bhagavan Parshva Naath. Vipaak Sutra contains the description of the extremely bitter fruits of ignoble deeds. This touching description inspires one towards noble deeds like charity and austerities the fruits of which have been lucidly described in its second section Sitled Sukha-vipaak. The colourful artistic illustrations add to the attraction. Illustrated Antakriddasha Sutra Price Rs. 500/This eighth Anga contains the inspiring stories of the spiritual pursuits of ninety great men destined to be liberated. This Sutra is specially read during the Paryushan period. The illustrations related to austerities are specially informative. 455 456 455 456 457 455 456 457 454 455 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 परिशिष्ट ( 609 ) Appendix 555555555555555555555555555555555559 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45454545454545454 455 456 457 4554545454545454545455 456 457 455 456 457 45545 11. Illustrated Aupapatik Sutra Price Rs. 600/This the first Upanga. This contains lucid and poetic description of numerous topics including King Kunik's preparations to go to pay homage to Bhagavan Mahavir, Bhagavan's sermon and establishment of the religious order. This also contains the description of austerities observed by Ambad and many other Parivrajaks. 9555555 57 455 456 457 455 $455 456 457 41 41 41 41 41 455 454 455 456 457 458 455 455 456 457 451 451 455 456 457 458 459 12. Illustrated Raipaseniya Sutra Price Rs. 500/This is the third Upanga. It provides an interesting and edifying reading of the discussions between Acharya Keshi Kumar Shraman and the antireligious king Pradeshi on topics like soul, next life, and rebirth. This dialogue turned him into a great religionist. The illustrations of the examples showing the difference between soul and body are also instructive. 13. Illustrated Kalpa Sutra Price Rs. 500/Kalpa Sutra is widely read and recited during the Paryushan festival. It contains stories of life of 24 Tirthankars with more details about Bhagavan Mahavir's life. It also contains the disciple lineage of Bhagavan Mahavir and detailed ascetic praxis. The illustrations connected with the 24 Tirthankars add to its attraction as well as utility. 14. Hlustrated Chheda Sutra Price Rs. 600/The Agams that contain special procedures for purity of conduct are called Chheda Sutra. These Sutras enumerate subtle rules for purity of conduct. Of the four Chheda Sutras three should be specially read by all ascetics - Dashashrut-skandh, Brihatkalpa and Vyavahar. This edition contains these three Chhed Sutras with elaboration based on commentaries (Bhashya) and other works. It also includes English translation and 15 multicolour illustrations. Illustrated Bhagavati Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1200/Vyakhyaprajnapti, the fifth Anga, is popularly known as Bhagavati. It contains thousands of questions and answers on various topics from four Anuyogas, such as soul, entities, matter, ultimate particle and universe. This voluminous Agam is an ocean of Jain metaphysics. With simple translation and brief elaboration it is expected to be completed in six volumes. The first volume contains one to four Shataks and 15 illustrations. The second volume contains five to seven Shataks complete 1545454545454545455 456 454 455 456 4 परिशिष्ट ( 610 ) Appendix 4454545454545454545454545454545454545454545454545454545454545446440 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2595959555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 9999999 9 96 97 95 5 2 卐 *********தததததத****தமி***கதி*****பூகததது L 16. Illustrated Jambudveep Prajnapti Sutra ᄆ and first Uddeshak of the eighth Shatak. As usual 15 colourful illustrations have also been included. These will make the complex topics simple and easy to understand. This is probably for the first time that an English translation of this Agam is being published. J Price 600/ This is the sixth Upanga. The central theme of this Sutra is detailed description of Jambudveep. The list of topics discussed in this include inhabited areas of Jambudveep continent, mountains, rivers, Mahavideh area, Meru mountain, the sun, the moon, planets, and constellations moving around the Meru; regressive and progressive cycles of time; people like the fourteen Kulakars, the first Tirthankar Bhagavan Risabhadeva; and incidents like the conquest of the six divisions of the Bharat area. The colourful illustrations included in this volume will be helpful in understanding the geographical conditions of Jambudveep as well as the movement of the sun, the moon and planets. The readers will find the beautiful multicoloured illustrations of incidents from Bhagavan Risabhadeva's life very lively. This Sutra is a compendium of Jain geography, cosmology and history. Till date 23 Agams (including two parts of Bhagavati) and Kalpa Sutra have been published in 21 books. The English translation makes it possible for those with passing knowledge of Prakrit and Hind to understand the content of Jain Agams including the religious practices as prevalent in ancient times. Also included in some of these editions are glossaries of Jain terms with their meaning in English. Due to its demand by libraries, Jnana Bhandars, ascetics and lay readers this unique series may soon go out of print. The publication of this Agam series has been inspired by Uttar Bharatiya Pravartak Gurudev Bhandari Shri Padmachandra ji M. S. Its editor is his able disciple Uttar Bharatiya Pravartak Shri Amar Muni ji Maharaj. His team includes renowned scholar Shri Shrichand Surana as associate editor, Shri Surendra Bothara and Sushravak Shri Raj Kumar Jain, as English translators. परिशिष्ट 3 လ (611) 5555555555 Appendix 555555555555555555555555555 卐 卐 卐 卐 卐 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555555555555555555555555555555555 OwO CA泡 0000 FFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听』 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलनकोब्यतिबबूजा अ नट्रान FANDLA जिला समि-वियि विद्याधासुध्या नामक जमीनकोलेकरआmti गुमनावर 2. पापडूक निधि चक्रवती कीची निधियों गुलरातिपि जनममुहा EleGNO 7. महाकाल निति भएप हिप काण्या मानका गावात शंग्य निधि 738 muो धायिक वनशान मकान में नारीका का सानिया नलIIIVAVITADनगाकारलाम को नायिकाला ME Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न और गतिशील ज्योतिष चक्र शनि ग्रह ९०० योजन • मंगल ग्रह ८९७ योजन गुरु ग्रह ८९४ योजन शुक्र ग्रह ८९१ योजन •बुध ग्रह ८८८ योजन शिला यम शनि गुरु तीसरी मेखला वैनालय पर्वत संपण द्वारा मित्र पता अपना (भूतिका lond werd दण्ड ल भरणी अभिषेक शिला Satopparerengana कपाल Jak Education यद भूमि स्थान पर १०००० योजन विस्तार दूसरी भरणी स्वाति मंगल सूर्य अभिजीत नक्षत्र ८८४ योजन चंद्र ८८० योजन सूर्य ८०० योजन तारा ७९० योजन मूल पहली मेखला जुन कृषि चाल का कमीशन सचित्र श्री LITERDEEN ज म्बू द्वी प प्र ज प्ति सू त्र प्रवर्तक श्री सम प्रवर्त्तक श्री अमर मुनि प्रस्तुत सूत्र के सम्पादक श्री अमर मुनि जी, श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के एक तेजस्वी संत हैं। जिनवाणी के परम उपासक गुरुभक्त श्री अमर मुनि जी का जन्म वि. सं. १९९३ भादवा सुदि ५ (सन् १९३६), क्वेटा (बलूचिस्तान के मल्होत्रा परिवार में हुआ। ११ वर्ष की लघुवय में आप जैनागम रत्नाकर आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज की चरण-शरण में "आये और आचार्यदेव ने अपने प्रिय शिष्यानुशिष्य भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज को इस रत्न को तराशने/ सँवारने का दायित्व सौंपा। गुरुदेव श्री भण्डारी जी महाराज ने अमर को सचमुच अमरता के पथ पर बढ़ा दिया। आपने संस्कृत-प्राकृत-आगम-व्याकरण-साहित्य आदि का अध्ययन करके एक ओजस्वी प्रवचनकार, तेजस्वी धर्म-प्रचारक तथा जैन आगम साहित्य के अध्येता और व्याख्याता के रूप में जैन समाज में प्रसिद्धि प्राप्त की। आपश्री ने भगवती सूत्र (४ भाग), प्रश्नव्याकरण सूत्र (२ भाग), सूत्रकृतांग सूत्र (२ भाग) आदि आगमों की सुन्दर विस्तृत व्याख्याएँ की है। Pravartak Shri Amar Muni The editor-in-chief of this Sutra, is a brilliant ascetic affliated with Shri Vardhaman Sthanakvasi Jain Shraman Sangh. A great worshiper of the tenets of Jina and a devotee of his Guru, Shri Amar Muni Ji was born in a Malhotra family of Queta (Baluchistan) on Bhadva Sudi 5th in the year 1993V. He took refuge with Jainagam Ratnakar Acharya Samrat Shri Atmaram Ji M. at an immature age of eleven years. Acharya Samrat entrusted his dear grand-disciple, Bhandari Shri Padmachandra Ji M. with the responsibility of cutting and polishing this raw gem. Gurudev Shri Bhandari Ji M. indeed, put Amar (immortal) on the path of immortality. He studied Sanskrit, Prakrit, Agams, Grammar and Literature to gain fame in the Jain society as an eloquent orator, an effective religions preacher and a scholar and interpreter of Jain Agam literature. He has written nice and detailed commentaries of Bhagavati Sutra (in four parts), Prahsnavyakaran Sutra (in two parts), Sutrakritanga Sutra (in two parts) and some other Agams. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित्र सावंत दशवैकालिक सूत्र -RDAR श्री नन्दीसा सा अनुयोगद्वारसूत्र सर्वित्र राध्ययन _Siuna ार शाति 2 ILLUSTRATED DASAVAIKO UKA SUTRA antes अनुयोगद्वार सूत्र अपामुक Anuyog-dvar Sutra Illustrated Anuyog-dvar Sutra SRI NANDI SUIRA आचारांगसूत्र ACHARANGA SUTRA स्थालगा श्री उपासकैदशा एवं अनुतरोधपातिकक्ता सूत्र प्रवाकाबामुनि सचित्र स्थानांगसूत्रा hathiated STALELNGA SUTRA Upasak Dasha and Anuttaraupapatik Dasha Setra rustrated आचारांग सत्र Acharnga Sutra STHANANGA SUTRA T e lecomestha KALPASUTRA औपपातिक सत्र BATEO AUPAPATIK SUPER सचित्र ज्ञाताधर्मकथाजा सूत्र ज्ञाताधर्मकथाज सूत्र Illustrated श्री कल्पसूत्र श्री अमन मुनि AUSTRATHI Unata Dharma Kathanga Sutra Unata Dharma Kathanga Sutra STUND सविनाran निरयावलिका विपाक सूत्र रायपसेणिय सूत्र श्रीछद आशिष श्री भगवती सूत्र सवित्र श्रीभगवती सूत्रा mistur SHRI BHAGWATI SUTRA RAI-PASENIYA SUTRA सरy. SHRI BHAGWATI SUTRA COME NIRAYAVALIKA VIPAAK SUTRA Shri Chhed Sutra Published by: Padma Prakashan Padma Dham, Narela Mandi, Delhi - 110 040 website : http/jainvision.com email : padamparkashan@gmail.com Distributors Shree Diwakar Prakashan A-7, Awagarh House, M.G. Road, Agra - 282 002 Phone : 0562-2851165, 9319203291 For Private & Personal use only