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________________ फफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 दानव नहीं रोक सकता। देवानुप्रियो ! फिर भी हमने तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए फ्र उपसर्ग किया। अब तुम जाओ, स्नान करो, नित्य नैमित्तिक कृत्य करो, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आँजो, ललाट पर तिलक लगाओ, चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान करो। यह सब कर तुम गीली धोती, गीला दुपट्टा धारण कर वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हुए पहने हुए (कछोटा लगाये हुए) श्रेष्ठ, उत्तम रत्नों को लेकर हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में पड़ो, उसकी 5 शरण लो। उत्तम पुरुष विनम्र जनों के प्रति वात्सल्य भाव रखते हैं, उनका हित करते हैं। तुम्हें राजा भरत से कोई भय नहीं होगा । यों कहकर वे देव जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले गये । फ धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र ! हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्त आप 卐 卐 मेघमुख नागकुमार देवों द्वारा यों कहे जाने पर वे आपात किरात उठे । उठकर स्नान किया, नित्य फ नैमित्तिक कृत्य किये, नेत्रों में अंजन आँजा, ललाट पर तिलक लगाया, चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। यह सब कर गीली धोती एवं गीला दुपट्टा धारण किये हुए, वस्त्रों के 5 नीचे लटकते किनारे सम्हाले हुए समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्न लेकर जहाँ राजा भरत था, वहाँ फ्र आये। आकर हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। राजा भरत को 'जय-विजय' शब्दों द्वारा 5 वर्धापित किया, श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोले (गाथार्थ) षट्खण्डवर्ती वैभव के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति के पालन करें ॥ १ ॥ 5 राजाओं के अधिनायक ! आप चिरकाल तक जीवित रहें ॥ २ ॥ 卐 फ्र अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नवनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! चौंसठ हजार नारियों के हृदयेश्वर ! रत्नाधिष्ठातृ-मागध 5 तीर्थाधिपति आदि लाखों देवों के स्वामिन् ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन् ! आपने दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम दिशा में समुद्र पर्यन्त और उत्तर दिशा में क्षुल्ल हिमवान् गिरि पर्यन्त उत्तरार्ध, 卐 5 दक्षिणार्ध - समग्र भरत क्षेत्र को जीत लिया है ( जीत रहे हैं)। हम देवानुप्रिय के देश में प्रजा के रूप में फ्र निवास कर रहे हैं - हम आपके प्रजाजन हैं ॥ ३-४ ॥ तृतीय वक्षस्कार देवानुप्रिय की - आपकी ऋद्धि-सम्पत्ति, कान्ति, यश-कीर्ति, बल - दैहिक शक्ति, वीर्य शक्ति, पौरुष फ्र तथा पराक्रम- ये सब आश्चर्यकारक हैं। आपको दिव्य देव - धुति-देवताओं के सदृश परमोत्कृष्ट कान्ति, 5 परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त हैं। हमने आपकी ऋद्धि का साक्षात् अनुभव किया है। देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं। देवानुप्रिय ! आप हमें क्षमा करें। आप क्षमा करने योग्य हैं- क्षमाशील हैं। देवानुप्रिय ! हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर वे हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में गिर पड़े, शरणागत हो गये । (205) Jain Education International 24545545545555 5555955555 565 55 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 555959595555952 फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में प्रस्तुत उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये । स्वीकार कर उनसे कहा- 'तुम अब अपने स्थान पर जाओ। मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है- मेरा हाथ तुम्हारे मस्तक पर है। तुम निर्भय - उद्वेगरहित, व्यथारहित होकर 5 கத்திததமிதிமிதிமிததமிதழதழபூமிமிமிமிமிமிததமி For Private & Personal Use Only 卐 Third Chapter 卐 தமிழி 卐 卐 卐 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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