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३८. [ १ ] कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे । तत्पश्चात् निर्वस्त्र | जब से वे गृहस्थ से श्रमण-धर्म में प्रव्रजित हुए, वे कायिक परिकर्म, संस्कार, श्रृंगार, सज्जा आदि रहित, दैहिक ममता से अतीत - परिषहों को उपेक्षा व तितिक्षांभावपूर्वक सहने वाले बने। देवकृत, (मनुष्यकृत, तिर्यक् - पशुपक्षिकृत) जो भी प्रतिकूल - अनुकूल उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक् - निर्भीक भाव से सहते, प्रतिकूल परिषह - जैसे कोई बेंत से, (वृक्ष की छाल से बँटी हुई रस्सी से लोहे की चिकनी साँकल से- चाबुक से, लता दंड से, चमड़े के कोड़े से उन्हें पीटता अथवा अनुकूल परिषह-जैसे कोई उन्हें वन्दन करता, (नमस्कार करता, उनका सत्कार करता, यह समझकर कि वे कल्याणमय, मंगलमय, दिव्यतामय एवं ज्ञानमय हैं) उनकी पर्युपासना करता तो वे यह सब अनासक्त भाव से सहते, 1. क्षमाशील रहते, अविचल रहते ।
भगवान ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन चलन आदि क्रिया, (भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि उठाना, इधर-उधर रखना आदि) तथा मल-मूत्र, खँखार, नाक आदि का बैल त्यागना-इन पाँच समितियों से युक्त थे। वे मनसमित, वाक्समित तथा कायसमित थे । वे मनोगुप्त, (बचोगुप्त, कायगुप्त- मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का संयम करने वाले; गुप्त-शब्द, रूप, रस, ध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध विषयों में रागरहित; गुप्तेन्द्रिय- इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित) गुप्त ब्रह्मचारी - नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का परिपालन करने वाले, क्रोधरहित मानरहित, मायारहित, लोभरहित), शान्त - प्रशान्त, परम शान्तिमय, छिन्नस्रोत- लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप - कर्मबन्धन के लेप से रहित, काँसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंखवत् निरंजन- शंख जैसे रंग से अप्रभावित, उसी प्रकार क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, राग आदि की रंजकता से शून्य, उत्तम जाति शुद्ध स्वर्ण के समान प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थित, निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, अर्पणगत प्रतिबिम्ब की ज्यों प्रकट भाव, प्रवंचना, छलना व कपटरहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींचकर निवृत्ति भाव में स्थित रखने वाले, कमल - पत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब - वायु की तरह गृहरहित, चन्द्र के सदृश सौम्यदर्शन - देखने में सौम्यतामय, सूर्य के सदृश तेजस्वी - दैहिक एवं आत्मिक तेज से युक्त, अप्रतिबद्धगामी - उन्मुक्त विहरणशील, समुद्र के समान गम्भीर, मंदराचल की ज्यों अकंप- अविचल, सुस्थिर, पृथ्वी के समान सभी शीत-उष्ण अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में समर्थ, जीव के समान अप्रतिहत-प्रतिघात या निरोधरहित गति से युक्त थे।
पक्षी की ज्यों
उन भगवान ऋषभ के किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध - रुकावट या आसक्ति का हेतु नहीं था । • प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है - (१) द्रव्य की अपेक्षा से, (२) क्षेत्र की अपेक्षा से, (३) काल की अपेक्षा से, तथा (४) भाव की अपेक्षा से ।
(१) द्रव्य की अपेक्षा से, जैसे ये मेरे माता, पिता, भाई, बहिन, (पत्नी, पुत्र, पुत्र- वधू, नाती, पोता, पुत्री, सखा, स्वजन ) सग्रन्थ - अपने पारिवारिक के सम्बन्धी, जैसे- चिर-परिचित जन हैं, ये मेरे
तीय वक्षस्कार
Second Chapter
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