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55555555555555555555555558 __ [उ. ] गोयमा ! णो इणठे समठे।
[प्र. ] से केणट्टेणं जाव विहरित्तए ?
[उ. ] गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूईओ जिणसकहाओ सनिखित्ताओ चिट्ठति ताओ णं चंदस्स अण्णेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ पज्जुवासणिज्जाओ, से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभुत्ति, पभू णं चंदे सभाए सुहम्माए चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परिआरिद्धीए, णो चेव णं मेहुणवत्ति।
विजय १, वेजयंती २, जयन्ती ३, अपराजिआ ४-सव्वेहिं गहाईणं एआओ अग्गमहिसीओ, छावत्तरस्सवि गहसयस्स एआओ अग्गमहिसीओ वत्तबओ, इमाहिं गाहाहिति
इंगालए विआलए लोहिअंके सणिच्छरे चेव। आहुणिए पाहुणिए कणगसणामा य पंचेव॥१॥ सोमे सहिए आसणे य कज्जोवए अ कब्बुरए।
अयकरए दुंदुभए संखसनामेवि तिण्णेव ॥२॥ एवं भाणियव्वं जाव भावकेउस्स अग्गमहिसीओ त्ति।
२०४. [प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के इन्द्र, ज्योतिष्क देवों के राजा चन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ-प्रधान देवियाँ हैं ?
[उ. ] गौतम ! चार अग्रमहिषियाँ हैं, जैसे-(१) चन्द्रप्रभा, (२) ज्योत्स्नाभा, (३) अर्चिमाली, तथा 5 (४) प्रभंकरा। उनमें से एक-एक अग्रमहिषी का चार-चार हजार देवी-परिवार बतलाया गया है। ॐ एक-एक अग्रमहिषी अन्य सहस्र देवियों की विकुर्वणा करने में समर्थ होती है। यों विकुर्वणा द्वारा सोलह हजार देवियाँ निष्पन्न होती हैं। वह ज्योतिष्कराज चन्द्र का अन्तःपुर है।
[प्र. ] भगवन् ! क्या ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ-देवियों के साथ नाट्य, गीत, वाद्य आदि का आनन्द लेता हुआ दिव्य भोग भोगने में समर्थ होता है? ___ [उ. ] गौतम ! ऐसा नहीं होता-ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोग नहीं भोगता।
[प्र. ] भगवन् ! वह दिव्य भोग क्यों-किस कारण नहीं भोगता?
[उ. ] गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है। उस पर वज्रमय हीरक-निर्मित गोलाकार सम्पुटरूप पात्रों में बहुत-सी जिन-सक्थियाँ-जिनेन्द्रों की अस्थियाँ स्थापित हैं। वे चन्द्र तथा अन्य बहुत से देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय-पूजनीय तथा पर्युपासनीय हैं। इसलिए उनके प्रति बहुमान के कारण
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सप्तम वक्षस्कार
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Seventh Chapter
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