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5 परियादियाइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णीसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ ता ५ जाव अट्ठाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पच्चपिणंति ।
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६३. प्रभास तीर्थकुमार देव के सम्मान में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह ५ दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। दिव्य वाद्यों की ध्वनि से गगन-मण्डल को आपूरित करते 4 हुए 4 उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया ।
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राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को जब सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह मन में बहुत हर्षित हुआ, आनन्दित हुआ। जहाँ ५ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया । आकर, सिन्धु देवी के भवन के न अधिक दूर और न अधिक Y समीप - थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य शिविर Y स्थापित किया। निर्माण कार्य सुसम्पन्न कर मुझे सूचित करो। राजा भरत ने जब उस शिल्पकार को ऐसा ५ कहा तो उसने राजा द्वारा आज्ञापित कार्य सम्पन्न कर सूचित किया । यावत् राजा भरत ने पौषधशाला में आकर सिन्धु देवी को उद्दिष्ट कर तीन दिनों का उपवास स्वीकार किया। तपस्या का संकल्प कर उसने ५ पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य धारण किया । दर्भ (सूखे घास) के आसन पर बैठकर तेले की तपस्या में संलग्न भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ ।
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भरत द्वारा तप किये जाने पर सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ। सिन्धु देवी ने जब अपना सिंहासन डोलता हुआ देखा, तो उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उसने भरत को देखा, ५ तपस्यारत, ध्यानरत जाना। देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ
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जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। भूत, वर्तमान तथा भविष्यवर्ती सिन्धु देवियों के लिए यह समुचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूँ । यों सोचकर देवी रत्नमय ५ एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, त्रुटित तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और राजा से बोली
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आप देवानुप्रिय ने भरत क्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके राज्य में निवास करने वाली आपकी आज्ञाकारिणी सेविका हूँ। देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत रत्नमय एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, आभूषण आदि (सूत्र ५८ के अनुसार) ग्रहण करें। आगे का वर्णन सूत्र ५८ के अनुसार है। (तब राजा भरत ने सिन्धु देवी द्वारा प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार कर सिन्धु देवी का सत्कार किया, सम्मान किया और उसे विदा किया ।)
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तदन्तर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। जहाँ स्नानघर था, वहाँ आकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य किये। जहाँ भोजन- मण्डप था, वहाँ आकर भोजन - मण्डप में सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया । यावत् उपस्थानशाला में आकर पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा। अपने अठारह श्रेणी - प्रश्रेणी के अधिकृत पुरुषों को बुलाया और कहा कि अष्टदिवसीय महोत्सव का आयोजन !
Jambudveep Prajnapti Sutra
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
(164)
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