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________________ ததததததததததததததததததததி***********5 दामा तवणिज्ज-लंबूसगा, सुवण्णपयरग - मण्डिआ णाणामणि - रयण - विविहहारद्धहार - उवसोभिआ, समुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाइएहिं वाएहिं मन्दं एइज्जमाणा २ निव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ (सिए) अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठेति त्ति । तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं सक्करस चउरासीए सामाणि असाहस्सीणं, चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ, पुरत्थिमेणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरत्थिमेणं अब्भिंतर - परिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीणं, पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अहिवईति । तए णं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरिआभगमेणं जाव पच्चप्पिणन्ति त्ति । १४९. देवेन्द्र देवराज शक्र का आदेश सुनकर पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात करके यान - विमान की विकुर्वणा करता है। उसमें तीन दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियों तथा आगे तोरण द्वारों की रचना करता है। उनका वर्णन पूर्वानुरूप है। उस यान - विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग पर लगे चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव, मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर, तरंग, वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित है। विशेष वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र से जानें। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृहमण्डप है, जो सैकड़ों खम्भों पर टिका है। उसका वर्णन पूर्ववत् है । उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पद्मलता आदि के चित्रों से सज्जित है, स्वर्णमय है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, यावत् मन में बस जाने वाला है। उस मण्डप के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका (मणियों से बनी चौकी) है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी तथा चार योजन मोटी है। सर्वथा मणिमय है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है। उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय - हीरकमय अंकुश है । वहाँ एक कुम्भिका - प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है। वह मुक्कामाला अपने से आधी ऊँची, अर्धकुम्भिका परिमित, चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। उन मालाओं में तपनीय - स्वर्णनिर्मित लंबूसक - गेंद के आकार के आभरण - विशेष - लूंबे लटकते हैं। वे सोने के पातों से मण्डित हैं। वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित हारों-अठारह लड़ के हारों, अर्धहारों-नौ लड़ के हारों से उपशोभित हैं, विभूषित हैं, एक-दूसरी से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अवस्थित हैं । पुरवैया आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हिलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से आस-पास स्थानों को आपूर्ण करती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं। उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर वायव्य कोण में, उत्तर में एवं उत्तर-पूर्व में - (ईशान कोण) में शक्र के ८४,००० सामानिक देवों के ८४,००० उत्तम आसन हैं, पूर्व में ८ प्रधान देवियों के ८ उत्तम आसन पंचम वक्षस्कार (419) Jain Education International 6 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 5 5 5 59595959 Fifth Chapter For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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