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________________ 5555555555555555555555555555555555558 ॐ परामुसित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्थेणं पमज्जइ पमज्जित्ता दिव्याए उदगधाराए + अब्भुक्खेइ अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चच्चए दलइ २ त्ता अग्गेहिं वरेंहि गंधेहि अ . ॐ मल्लेहि अ अच्चिणेइ अच्चिणित्ता पुप्फारुहणं जाव वत्थारुहणं करेइ २ ता आसत्तोसत्तविपुलवट्ट जाव म करेइ करित्ता अच्छेहिं सण्णेहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहिं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स ॐ कवाडाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ। तं जहा-सोत्थियसिरिवच्छ जाव कयग्गह-गहिअ-करयलम पन्भट्ट-चंदप्पभ-वइर-वेरुलिअ-विमलदंडं जाव धूवं दलयइ दलइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता करयल के E जाव मत्थए अंजलिं कटु कवाडाणं पणामं करेइ २ ता दंडरयणं परामुसइ। तए णं तं दंडरयणं पंचलइअं 卐 वइरसारमइअं विणासणं सबसत्तुसेण्णाणं खंधावारे णरवइस्स गड्ढ-दरि-विसम-पन्भार गिरिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकरं हितकरं रण्णो हिअ-इच्छिअ-मणोरहपूरगं दिव्बमपडिहयं ॐ दंडरयणं गहाय सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया २ सद्देणं तिक्खुत्तो आउडेइ। तए णं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्त कवाडा सुसेणसेणावइणा दंडरयणेणं महया २ सद्देणं तिक्खुत्तो आउडिया समाणा महया २ सद्देणं कोंचारवं म करेमाणा सरसरस्स सगाई २ ठाणाई पच्चोसक्कित्था। ॐ तए णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेइ विहाडित्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव करयलपरिग्गहिअं जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावेत्ता एवं ॐ वयासी-विहाडिआ णं देवाणुप्पिया ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा एअण्णं देवाणुप्पिआणं, पिअं णिवेएमो पिअं भे भवउ।। तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव # हिआए सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं ॐ वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह हय-गय-रहपवर तहेव जाव ॐ __ अंजणगिरि-कूडसण्णिभं गयवरं णरवई दुरूढे। ६९. एक समय राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया। बुलाकर कहा- 'देवानुप्रिय ! जाओ, क में शीघ्र ही तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के दोनों कपाट उद्घाटित करो। वैसा कर मुझे सूचित करो।' राजा भरत का आदेश सुनकर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। उसने 5 दोनों हाथ जोड़े। मस्तक से लगाया, मस्तक पर से घुमाया और अंजलि बाँधे विनयपूर्वक राजा का वचन 卐 स्वीकार किया। फिर राजा भरत के पास से उठा। जहाँ अपना आवास-स्थान था, जहाँ पौषधशाला थी, + वहाँ आया। वहाँ आकर डाभ का बिछौना बिछाया। कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या , अंगीकार की। पौषधशाला में पौषध लिया। ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर स्नानघर में आकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य ॥ किये। देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आँजा, ललाट पर तिलक लगाया, चन्दन, कुंकुम, दही, ॐ अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। राजसभा में, उच्च वर्ग में प्रवेशोचित श्रेष्ठ, मांगलिक वस्त्र भली ॥ EFFFFFFFFFFFFFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFFFFFFFF जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (176) Jambudveep Prajnapti Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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